विचार / लेख
-अजीत सिंह
अगर आप चाहते हैं कि वो जिसे इस्लामिक आतंकवाद कहा जाता है समाप्त हो जाए तो आपको कामना करनी चाहिए कि तमाम मुस्लिम मुल्कों में बादशाहत और तानाशाही ख़त्म हो और जम्हूरियत यानी चुनावी लोकतंत्र क़ायम हो.
दरअसल सऊदी अरब, जॉर्डन, मोरक्को, ईजिप्ट (मिस्र), सीरिया, यूएई, क़तर, बहरीन, ओमान जैसे तमाम मुस्लिम देशों में अमेरिका, यूरोप या अन्य देशों के पिट्ठू तानाशाह बैठे हैं जो दशकों से वहाँ के आवाम को दबा कर रखे हुए हैं.
इन क्रूर शासकों ने पचासों साल से लाखों आंदोलनकारियों की हत्याएँ करवाई हैं और दर्जनों आंदोलनों को बर्बरता के साथ कुचला है सिर्फ़ इसलिए कि उनका राज बना रहे.
आज इन देशों में मुँह खोल कर बोलने की आज़ादी तक नहीं है.
और पश्चिम के देश ऐसे तानाशाहों को न केवल सहयोग देते हैं बल्कि उनको असले और मोटी रक़म के साथ साथ अत्याचार करने के लिए गुप्त सूचना और तकनीक भी देते हैं.
अब आप पूछेंगे कि पश्चिम के देश ऐसा क्यों करते हैं? तो इसका जवाब है कि पश्चिम के देश इन इलाक़ों में तेल जैसे सभी संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बना कर रखना चाहते हैं.
दरअसल आदमज़ात की शुरूआत से जंग की सारी वजह ही यही रही हैं: संसाधन पर क़ब्ज़ा. बग़ैर ज़मीन पर क़ब्ज़ा किए संसाधन पर क़ब्ज़ा नहीं मिलता है. ज़मीन पर क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए पिट्ठू तानाशाह की ज़रूरत होती है.
यहाँ ये कहना ज़रूरी है कि सिर्फ़ पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि पूर्व सोवियत संघ, और उसका उत्तराधिकारी रूस, भी यही करता है. चीन भी तानाशाहों को पसंद करता है, हालाँकि अब तक चीन सीधे तौर पर जंगी राजनीति में नहीं उतरा है.
जिन मुस्लिम देशों में चुनाव होते हैं, जैसे तुर्की, ईरान और इंडोनेशिया, वहाँ आवामी राजनीति ने पिछले दशकों में जड़ें गहरी की हैं. सोचने वाली बात ये है कि अमेरिका को तुर्की और ईरान दोनों ही नहीं पसंद आते हैं जबकि वो कभी भी सऊदी अरब या जॉर्डन को बुरा नहीं कहता है.
वजह ये है कि लोकतांत्रिक विधा वाला समाज किसी विदेशी शक्ति के दबाव में इतनी आसानी से नहीं आता है जितना कि एक तानाशाह आता है.
लेकिन जो देश धार्मिक कट्टरपन की ओर बढ़ रहे हैं, जैसे भारत और तुर्की, वहाँ लोकतंत्र कमज़ोर होने का ख़तरा बढ़ता जाता है. इसीलिए ऐसे देशों के सत्ताधारी नेताओं का व्यवहार तानाशाह जैसा होने लगता है.
मूल बात ये कि तानाशाही और बादशाहत की जगह चुनावी लोकतंत्र हो. और चुनावी लोकतंत्र में जनता के मुद्दे क़ाबिज़ हों न कि धार्मिक मुद्दे.