विचार / लेख

कल के चाचा आज मुस्लिम चूड़ीवाले हो गए!
24-Aug-2021 3:09 PM
कल के चाचा आज मुस्लिम चूड़ीवाले हो गए!

-गिरीश मालवीय

देश के ओर इलाकों के बारे में तो नही पता लेकिन मध्यप्रदेश के इस मालवा के इलाके के बारे में तो कह सकता हूँ कि यहां घर घर चूड़ी बेचने का काम अधिकतर काम मुस्लिम भाई ही करते है, दरसअल उत्तर भारत मे कांच की चूडिय़ां मुख्य रूप से यूपी के फिरोजाबाद में बनती है वहाँ भी बड़े पैमाने पर मुस्लिम इस कारोबार में लगे हुए है इस शहर को सुहाग नगरी का नाम से भी जाना जाता है। यही से तमाम उत्तर भारत के बड़े शहरों गाँव कस्बो में बनी हुई रंगबिरंगी चूडिय़ों की सप्लाई होती है मुस्लिम आबादी का एक तबका सैकड़ों सालों से यह काम कर रहा है यह उनका खानदानी पेशा है।

इंदौर के एक पुराने मोहल्ले में जहाँ मेरा बचपन बीता है वहाँ भी मुस्लिम चूड़ीवाले की एक दुकान थी उनके बच्चे भी हमारे साथ खेलने आते थे, एक- डेढ़ साल पहले एक दिन मेरी पत्नी ने आकर मुझसे आकर कहा आज मुहल्ले में चूड़ी पहनाने वाला एक ठेला लेकर आया था और वह कह रहा था कि वह आपको अच्छी तरह से जानता है, एक पल मैं भी चौक गया, फिर पत्नी ने मुझे उसका नाम बताया तो मुझे उसकी याद आ गई। मैंने कहा हॉं मैं भी उसे जानता हूँ, शायद हमीद उसका नाम था।

कुछ साल पहले जब टाटा के तनिष्क ब्रांड के एक विज्ञापन, जिसमें उन्होंने एक मुस्लिम सास को अपनी हिंदू बहू की गोद भराई की रस्म करते दिखाया था, पर बड़ा बवाल हुआ। उसे लेकर द वायर में अनुराग मोदी ने एक लेख लिखा था। अनुराग जी भी हमारे इसी मालवा के इलाके से ताल्लुक रखते हैं उन्होंने अपने इस लेख बशीर चूड़ी वाले को याद किया है वे लिखते हैं।

‘मेरे बचपन (आज से 45 साल पहले) में बशीर चूड़ीवाला हमारे मोहल्ले में चूडिय़ां बेचने आता था। सब उन्हें मुसलमान चूड़ीवाले के रूप में नहीं बल्कि बशीर चाचा के नाम से जानते थे। जब मैं थोड़ा बड़ा हो गया तो कई अवसरों पर हमारे घर में बड़े गर्व से यह बात होती थी कि बशीर चाचा सावन पर हमारी बुआ को अपनी बेटी मानकर मुफ्त में चूडिय़ां पहनाते थे। और जब शादी के दो साल बाद ही वो विधवा हो गईं, तो उन्होंने हमारे मोहल्ले में आकर चूडिय़ां बेचना ही बंद कर दिया।

बशीर चूड़ीवाले को चूड़ी बेचना बंद किए और इस दुनिया से गए जमाना हो गया। मगर एक हिंदू बेटी के प्रति उनके इस स्नेह की कहानी आज भी न सिर्फ भी मेरे जेहन में बल्कि मेरी मां के ज़हन में ताजा है।

82 साल की मेरी बूढ़ी मां को तनिष्क नहीं मालूम, न ही यह सब विज्ञापन का बवाल, लेकिन इस लेख को लिखने के पहले जब मैंने उन्हें फोन किया और पूछा कि वो कौन-सा चूड़ीवाला था, जो बुआ को मुफ्त चूड़ी पहनाता था, तो उन्होंने बड़े मीठे से कहा कि बशीर चूड़ीवाला!

और साथ ही स्नेह के भाव से से यह भी बताया कि वो सिर्फ बुआ को ही नहीं बल्कि हर साल दिवाली में उन्हें भी चूड़ी पहनाकर जाते थे, जो मुझे नहीं मालूम था।

अनुराग मोदी लिखते हैं कि सिवनी मालवा जैसे कस्बे, जहां पिछले 30 साल से मंदिर की राजनीति के चलते धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण चरम पर है, हमारे घर में सब उस राजनीति से प्रभावित हैं, तब भी बशीर चूड़ीवाले का नाम मेरी मां की स्मृति में आज भी उसी स्नेह के रूप में दर्ज है, कि कैसे एक मुसलमान चूड़ीवाला उन्हें अपनी बहू मानकर दिवाली पर याद से चूड़ी पहनाकर जाता था।

वे आगे लिखते हैं कि ‘असल में जिस पीढ़ी ने बंटवारे और हिंदू-मुस्लिम दंगे देखे, उसने हिंदू-मुस्लिम का इंसानी प्रेम भी देखा है इसलिए यह पीढ़ी तमाम ध्रुवीकरण और राजनीतिक झुकाव के बाद आज भी अपने ज़हन में कहीं न कहीं उन यादों को भी जगह दिए हुए है।

लेकिन नई पीढ़ी, जो अपनी अधिकतर सूचनाएं ऑनलाइन लेती है, जो रात दिन टीवी डिबेट और देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेताओं के भाषण में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को दो अलग-अलग ध्रुव पर देखती है, जिसके पास मेरी मां या मेरी तरह ऐसे कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, वो हिंदू-मुस्लिम स्नेह के इंसानियत के रिश्ते को कैसे समझेगी?

अनुराग मोदी ने अंत मे जो लिखा है वह हम सबको समझने की जरूरत है, दरअसल नयी पीढ़ी जिसके दिमाग में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी दिन रात जहर उंडेलती रहती है वह बशीर चूड़ी वाले को न जानना चाहती है न समझना चाहती है।

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