ताजा खबर

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतंत्र में इंसाफ इस बुलडोजरी रफ्तार और ताकत से मुमकिन नहीं
29-Jun-2024 4:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : लोकतंत्र में इंसाफ इस बुलडोजरी रफ्तार और ताकत से मुमकिन नहीं

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ की इस्पात नगरी भिलाई में अभी कुछ गुंडों ने गोलियां चलाईं, तो पुलिस का ध्यान एकाएक उनकी तरफ गया। मामले पहले से भी बहुत से दर्ज थे, लेकिन कानून की नरमी से, या पुलिस की अनदेखी से ऐसे गुंडे गिरोह तक बना लेते हैं, और तरह-तरह के संगठित अपराध करते हैं। औद्योगिक नगर होने से भिलाई में ऐसे बड़े-बड़े मुजरिम पनपे हैं जो कि जेल में रहकर भी अपना गिरोह चलाते थे। ऐसे भिलाई में अभी जिसने गोलियां चलाईं, उसने भिलाई इस्पात संयंत्र की कॉलोनी में मकानों पर अवैध कब्जा कर रखा था, और उन्हें किराए पर भी चला रहा था। बीएसपी के ऐसे मकानों में उसके करवाए हुए अवैध निर्माण पर अभी बीएसपी अफसरों ने बुलडोजर चलवाया, और मकान खाली कराकर अपने ताले डाल दिए। पुलिस की नजरों से स्थानीय गुंडे के फरार होने के बाद ही भारत सरकार का यह सबसे बड़ा कारखाना अपने खुद के मकानों को खाली करा पाया। दूसरी तरफ यूपी से शुरू हुई बुलडोजरी कार्रवाई मध्यप्रदेश होते हुए छत्तीसगढ़ भी पहुंची हुई है, और कहीं बलात्कार तो कहीं हत्या के आरोपियों के अवैध कब्जों, और अवैध निर्माणों को आनन-फानन गिराया जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि अगर पहले से ऐसे अवैध कब्जे और निर्माण को नोटिस दिए गए थे, तो उन पर अब तक अमल क्यों नहीं हुआ था? और किसी जुर्म में नाम आने के बाद अचानक रातोंरात म्युनिसिपल या प्रशासन किस तरह बुलडोजर से उस नोटिस पर अमल करने लगते हैं? 

इस पूरे सिलसिले में एक बात तो यह नाजायज लगती है कि अगर लंबे समय से नोटिस दिए जा चुके थे, तो अब तक रियायत क्यों दी जा रही थी? ऐसा शायद इसलिए भी है कि हर छोटे-बड़े शहर में दसियों हजार लोगों को नोटिस दिए गए रहते हैं, और वक्त-जरूरत पर मकान-दुकान गिराने के पहले उस पुराने नोटिस पर से धूल झड़ा ली जाती है। यह बात तो सही रहती है कि गिराए जा रहे ढांचों को नोटिस पहले दी गई रहती है, लेकिन वैसी नोटिस के बाद हर शहर में दसियों हजार अवैध निर्माण कायम भी रहते हैं। इस तरह कुछ चुनिंदा लोगों को सत्ता की नापसंदगी से निशाना बनाना इंसाफ की सोच के खिलाफ है, यह एक अलग बात है कि सरकार दिखावे के लिए तो महज अपने पुराने नोटिस पर अमल ही करती दिखती है, और जगह-जगह ऐसी बुलडोजरी कार्रवाई के बाद सरकार ने अदालतों में यह भी साबित कर दिया है कि इसके लिए नोटिस बहुत पहले दिया जा चुका था। 

अभी भिलाई की इस कार्रवाई को लेकर हम नहीं कह रहे हैं, लेकिन यूपी-एमपी में हजारों ऐसे मकान-दुकान गिराए गए हैं जिनमें तकरीबन तमाम मुसलमानों के थे। यह तबका वैसे भी गरीब है, आज हिन्दी प्रदेशों में पुलिस की आम सोच बुरी तरह मुस्लिम-विरोधी भी है, और सत्ता किसी मुसलमान के किसी जुर्म के आरोप में घिरते ही उसके मकान-दुकान की फाईल खोल लेती है कि उसे प्रशासन या म्युनिसिपल की तरफ से पहले कौन-कौन से नोटिस दिए गए थे। पता नहीं क्यों हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सरकारों की ऐसी नीयत को देख नहीं पाए हैं, और बुलडोजरों की कार्रवाई पर रोक नहीं लगी है। यह बात अफसोस के लायक है कि कोई जनसंगठन देश की सबसे बड़ी अदालत में सरकारों की ऐसी बदनीयत की कार्रवाई को उजागर नहीं कर पाया है, या जज खुद होकर इसे अपनी दखल के लायक मजबूत बदनीयत नहीं पा सके हैं। कुल मिलाकर अब तक तो एक-एक कर कई प्रदेशों में सरकारों की ऐसी मनमानी कार्रवाई को अदालती अनापत्ति प्रमाणपत्र मिला हुआ ही दिखता है। 

लेकिन लोकतंत्र में बहुत सारी चीजें पारदर्शी रहनी चाहिए। अगर किसी नोटिस पर कोई कार्रवाई की जा रही है, तो प्रशासन या म्युनिसिपल-पंचायत को इस बात के लिए भी जवाबदेह रहना चाहिए कि उसके कितने नोटिस कितने बरस से पड़े हुए हैं, और चुनिंदा निशानों से परे बाकी पर क्या कार्रवाई हो रही है? ऐसा नहीं होने पर सरकार पर पहली तोहमत तो यह लगती है, और लगनी चाहिए कि वह साम्प्रदायिक आधार पर बुलडोजर चलाती है। दूसरी तोहमत यह बनती है कि एक घर या दुकान पर अगर किसी आरोपी के अलावा दूसरे लोग भी आश्रित हैं, तो क्या ऐसे तमाम लोगों का आसरा और रोजगार पल भर में बुलडोजर से खत्म कर देना जायज है? अभी-अभी मध्यप्रदेश में कई ऐसे मुस्लिमों के मकान गिराए गए हैं, जिनमें कुछ भी अवैध नहीं था। एमपी के मंडला में सरकारी जमीन पर लंबे समय से बसी हुई मुस्लिम बस्ती के 11 घरों को गौतस्करी या गौवध के आरोप में गिरा दिया गया। अब अगर खुद प्रशासन कह रहा है कि पूरी बस्ती ही सरकारी जमीन पर है, तो उनमें से 11 लोगों को छांटकर उनके मकान गिराना इसलिए नाजायज है कि यह अदालत के हिस्से के काम को प्रशासन द्वारा करने के बराबर है। कुछ लोगों को तो बिना कोई नोटिस दिए उनके घर गिरा दिए गए, इनमें से दो मकान तो इंदिरा आवास योजना के बताए जा रहे हैं जिन्हें सरकार ने ही आबंटित किया था। इस तरह सरकार या सत्ता को नापसंद कुछ खास किस्म के जुर्म के आरोप लगने पर अगर इस तरह बुलडोजरी कार्रवाई होती है, तो वह जाहिर तौर पर नाजायज और बेइंसाफ है। 

फिल्मी अंदाज में की गई ऐसी कार्रवाई आसपास जुटी भीड़ की तालियां तो बटोर सकती है, लेकिन इससे न्याय की संभावना खत्म हो जाती है। यह बात समझ लेना जरूरी है कि न्याय की प्रक्रिया का कोई बहुत शार्टकट नहीं हो सकता, लोकतंत्र एक बड़ा लचीला, खर्चीला, और वक्त लेने वाला सिलसिला है। इसे बुलडोजर की रफ्तार और ताकत से नहीं हांका जा सकता। पता नहीं देश की अदालतों को कब यह बेइंसाफी दिखेगी, फिलहाल तो इस पर कोई रोक लगती दिखती नहीं है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 
   

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news