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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सीजेआई और पीएम के मंच से सुधार नहीं होते
01-Sep-2024 3:49 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सीजेआई और पीएम के मंच से सुधार नहीं होते

कल जिस वक्त इस अखबार के संपादक यूट्यूब चैनल पर इस बात की रिकॉर्डिंग खत्म कर चुके थे कि 1984 के सिख विरोधी दंगों में हत्या के लिए उकसाने का एक मामला उस वक्त के कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर पर अब दिल्ली की सीबीआई अदालत में चलना शुरू हो रहा है, और एक पखवाड़े बाद अदालत उन पर आरोप तय करेगी, उसी वक्त दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट की पौन सदी पूरी होने के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री यह बोल रहे थे कि न्याय जितनी जल्दी मिलेगा, उतना ही उस पर जनता का भरोसा बढ़ेगा। उन्होंने यह बात खासकर महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों का जिक्र करते हुए कही है, लेकिन यह बात तमाम किस्म के मामलों की सुनवाई पर लागू होती हैं। हमारे जिन पाठकों को कल का यूट्यूब वीडियो देखा होगा, उन्होंने न्याय प्रक्रिया की ऐसी देर को लेकर हमारी फिक्र महसूस की होगी। 40 बरस बाद सबसे निचली अदालत में सुनवाई शुरू हो रही है, तो फिर इसके फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट, और फिर सुप्रीम कोर्ट तक जाने के रास्ते तो बाकी रहेंगे ही। क्या सिख विरोधी दंगों की आधी सदी पूरी होने तक इस मामले पर देश की आखिरी अदालत सुनवाई पूरी कर सकेगी? यह कार्यक्रम जिला अदालतों के दो दिनों के राष्ट्रीय सम्मेलन का था, और यह मौका सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के 75 बरस पूरे होने का भी था। इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष, और राज्यसभा सदस्य, देश के एक नामी-गिरामी वकील, और भूतपूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि ट्रायल कोर्ट (जिला अदालतें, जहां कि सुनवाई शुरू होती है) को आदेश और फैसले देने के लिए आत्मविश्वास देना होगा ताकि वे बिना डर या उत्साह के अपनी राय दे सकें। उन्होंने कहा कि अभी ट्रायल कोर्ट चर्चित मामलों में जमानत देने से कतराते हैं। इस मौके पर यह भी बताया गया कि देश की जिला अदालतों में करीब साढ़े चार करोड़ मामले चल रहे हैं।

भारत के अदालती इंतजाम को देखें, तो उसे किसी टापू की तरह नहीं देखा जा सकता। जो नया कानून बना है, उसमें कुछ किस्म के मामलों की सुनवाई और फैसले के लिए वक्त तय किया गया है, लेकिन अदालत में सुनवाई तेज करने के लिए जांच एजेंसियों में जो तेजी रहनी चाहिए, वह अभी गायब है। हम पुलिस के परंपरागत अमले को देखें तो वह नए कानून के हिसाब से जांच करने के लायक तो है नहीं, और अभी देश की अदालतों ने जांच एजेंसियों को जिस तरह की वैज्ञानिक जांच करने कहा है, उस लायक तो बिल्कुल भी नहीं है। जांच और उसकी कानूनी औपचारिकताओं में ही अधिकतर मामले इतने कमजोर रह जाते हैं कि अभियुक्त अदालतों से छूट जाते हैं। अभी-अभी देश की सबसे ताकतवर एजेंसी, ईडी को सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में बुरी तरह घेरा है, और कहा है कि सिर्फ बयानों के आधार पर केस न बनाए, और वैज्ञानिक सुबूत जुटाए। सुप्रीम कोर्ट ने एजेंसी को यह भी याद दिलाया कि उसके गिरफ्तार किए गए लोगों में से कुल 4-5 फीसदी लोगों को ही सजा हो पाती है। जब देश की सबसे ताकतवर, और प्रमुख एजेंसियों में से एक की जांच को लेकर अदालत का यह नजरिया है, तो फिर राज्यों की पुलिस तो बहुत तरह के स्थानीय प्रभावों के दबाव में भी काम करती है, और जांच के नतीजे प्रदूषित होते रहते हैं।

आज जब देश में महिलाओं पर अंधाधुंध हमले हो रहे हैं, अनगिनत बलात्कार हो रहे हैं, तरह-तरह के यौन-शोषण के मामले सामने आ रहे हैं, तो सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक हर किसी की हड़बड़ाहट दिखाई पड़ती है। यह हड़बड़ाहट किसी समस्या का समाधान नहीं है। देश में अगर महिलाओं को हिकारत से देखना जारी रहेगा, उनके शोषण को मर्दानगी का हक मान लिया जाएगा, तो फिर देश की तमाम पुलिस मिलकर भी महिलाओं के खिलाफ जुर्म को अदालत में साबित नहीं कर पाएगी। न्यायपालिका का काम देश की जनता की सोच में न्याय के सम्मान से शुरू हो सकता है, अदालत तक जाना तो एक आखिरी रास्ता रहता है। हम बहुत कागज और सैद्धांतिक बात नहीं कर रहे, महिलाओं के खिलाफ सामाजिक नजरिया बदलने के पहले तक अदालतों पर ऐसे जुर्म का बोझ नहीं घट सकता। एक बंगाल के बलात्कार को लेकर, या मणिपुर के बलात्कार को लेकर कैंडल मार्च निकालना कोई समाधान नहीं है, लोगों को अपने खुद के इलाकों में महिलाओं पर हो रहे जुल्म के खिलाफ उठकर खड़ा होना होगा। बंगाल या मणिपुर, या महाराष्ट्र के निशानों पर दूर अपने घरों में हिफाजत से बैठे हुए तीर चलाना एक महफूज काम रहता है। असली सुधार तो जुल्म की जड़ पर खड़े रहकर उसे उखाडऩे से ही हो सकता है। इसलिए देश में महिलाओं के साथ अदालती इंसाफ तभी हो सकेगा, जब महिलाओं के साथ सामाजिक इंसाफ होना शुरू होगा। आज महिलाओं के प्रति पुरूषप्रधान समाज का जो रूख है, वह न सिर्फ सरकारी वकील, पुलिस, गवाह, और जज तक में झलकता है, बल्कि वह कई अदालती फैसलों में साफ-साफ दिखता है, और कई मामलों में तो हमने हाईकोर्ट के फैसलों की धज्जियां उड़ाई थी, और बाद में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने भी उन फैसलों को खारिज किया था। इसलिए जब तक समाज का नजरिया महिलाओं के प्रति सम्मान का नहीं होगा, हाईकोर्ट तक के बहुत से जजों के फैसलों से जुल्म और जुर्म की शिकार महिलाओं के साथ एक बार और जुल्म होते रहेगा।

हम अदालती कार्रवाई के तौर-तरीकों, और उसकी तकनीक को कम नहीं आंक रहे हैं, केन्द्र और राज्य सरकारों को, सुप्रीम कोर्ट और देश की बाकी अदालतों को अलग-अलग अपने स्तर पर भी, और मिलकर भी अदालती प्रक्रिया को मानवीय बनाना होगा। आज न्याय प्रक्रिया का हाल यह रह गया है कि देश में बहुत सारे मामलों में किसी को विचाराधीन कैदी की तरह जेल में बरसों तक बिना जमानत कैद रखने को ही सरकार सजा मान ले रही है। जहां अदालत से फैसले के पहले तक लोगों को राहत मिलनी चाहिए, वहां आज हाल यह है कि अगर किसी के पास सुप्रीम कोर्ट के महंगे वकीलों को फीस देने की ताकत नहीं है, तो वे बिना मुजरिम साबित हुए भी बरसों की कैद काट लेते हैं। इस सिलसिले को खत्म करना चाहिए, और जिन जिला अदालतों, ट्रायल कोर्ट को निचली अदालत कहा जाता है, उनमें यह आत्मविश्वास लाना चाहिए कि वे जमानत पर हौसले से फैसला दे सकें। अदालतों का ढेर सारा वक्त ऐसे मामलों में जमानत की सुनवाई में जाता है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर जमानत मिल जाती है। मतलब यह कि कानून के तहत यह जमानत जिला अदालत से भी मिल सकती थी, लेकिन जिला अदालत के जज यह हौसला नहीं करते हैं। ऐसा शायद इसलिए भी है कि देश की अदालतों में भ्रष्टाचार की बड़ी चर्चा रहती है, और जिला अदालतों के जज पैसेवालों को, ताकतवर लोगों को जमानत देते हुए हिचकते हैं कि उनकी बदनामी न हो।

किसी जलसे में बड़ी-बड़ी बातें कहना हिन्दुस्तान का मिजाज हो गया है, लेकिन जनता के मन से अदालतों के लिए हिकारत और नफरत को अगर खत्म करना है, तो अदालत के कामकाज को विज्ञान और तकनीक की मदद से, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और कम्प्यूटरों, वीडियो कांफ्रेंस जैसे आम हो चुके औजारों की मदद से बेहतर बनाना होगा। यह देश एक बढ़ई और लुहार के काम में तो स्किल डेवलपमेंट की बात करता है, लेकिन अदालतों के कामकाज में बेहतर हुनर की बात नहीं करता। इसके बिना सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के सौ बरस के जलसे में भी उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री इसी किस्म की कागजी बातें करते रहेंगे। जिन्हें सुधार करना है, वे कमर कसकर, कोट और टाई उतारकर, कमीज की बांहें चढ़ाकर मेहनत करने में जुटते हैं, जलसों के मंच पर कोई सुधार नहीं होते। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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