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इमरान ख़ान ने कश्मीर और फ़लस्तीनियों के मुद्दे को एक जैसा क्यों कहा
20-Aug-2020 8:58 AM
इमरान ख़ान ने कश्मीर और फ़लस्तीनियों के मुद्दे को एक जैसा क्यों कहा

photo credit : AAMIR QURESHI

-अपूर्व कृष्ण

पाकिस्तान में इसराइल को लेकर क्या सोच है, इसका अंदाज़ा 15 साल पहले की एक घटना से मिलता है, जिसका ज़िक्र बीबीसी की उर्दू सेवा के पूर्व संपादक आमिर अहमद ख़ान ने अपने एक लेख में किया था.

जनवरी 2005 में पाकिस्तान के एक बड़े अख़बार द न्यूज़ ने इसराइल के उप प्रधानमंत्री शिमोन पेरेज़ का इंटरव्यू किया, जिन्होंने कहा कि इसराइल और पाकिस्तान को बिना शरमाए एक-दूसरे से खुलकर संपर्क करना चाहिए.

वो छपा, और अगले ही दिन आग-बबूला एक भीड़ ने कराची में अख़बार के दफ़्तर पर धावा बोल दिया, जमकर उत्पात किया.

उनकी नाराज़गी केवल इस बात से नहीं थी कि शिमोन पेरेज़ ने ऐसा क्यों कहा, उन्हें ज़्यादा एतराज़ इस बात पर था कि अख़बार ने किसी इसराइली राजनेता को अख़बार में बोलने कैसे दिया.

कुछ ऐसे ही हालात अब भी हैं, इसराइल की छवि पाकिस्तान में कोई बहुत नहीं बदली है, और यही वजह है कि इमरान ख़ान को इसराइल के बारे में ठीक वही कहना पड़ा है जो पाकिस्तान बरसों से कहता आया है.

इमरान ख़ान ने एक टीवी चैनल पर 13 अगस्त को संयुक्त अरब अमीरात और इसराइल के बीच संबंध बहाल होने को लेकर हुई ऐतिहासिक संधि पर अपनी बात बिल्कुल साफ़ शब्दों में रखी.

उन्होंने कहा," क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में साफ़ कर दिया था कि हम इसराइल को तब तक मान्यता नहीं दे सकते जब तक कि फ़लस्तीनियों को उनका हक़ नहीं मिलता."

उन्होंने आगे कहा, "जो फ़लस्तीनियों की टू नेशन थ्योरी थी कि उन्हें उनका अलग देश मिले. जब तक वो नहीं होता, और हम इसराइल को मान्यता दे देते हैं तो फिर कश्मीर में भी ऐसी ही स्थिति है, तो हमें वो मुद्दा भी छोड़ देना चाहिए. इसलिए पाकिस्तान कभी इसराइल को स्वीकार कर नहीं कर सकता."

कुछ अलग कहा इमरान ख़ान ने?

पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रह चुके टीसीए राघवन कहते हैं कि 'इमरान ख़ान ने जो कहा, ये तो वो बार-बार कहते रहे हैं, इसमें नया कुछ भी नहीं है'.

इस्लामाबाद में मौजूद बीबीसी के पूर्व पत्रकार और अख़बार इंडिपेंडेंट उर्दू के संपादक हारून रशीद बताते हैं कि इमरान ख़ान ने लगभग वही बातें दोहराई हैं, जो पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने 14 अगस्त को अपनी प्रतिक्रिया में कही थी.

उन्होंने कहा, "विदेश मंत्रालय ने क़ायदे आज़म का नाम नहीं लिया था, लेकिन उन्होंने कहा था कि इस फ़ैसले के दूरगामी परिणाम होंगे पाकिस्तान का रुख़ इस बात पर निर्भर करेगा कि फ़लस्तीनियों के अधिकारों का इस इलाक़े में कितना ख़याल रखा जाता है."

कश्मीर और फ़लस्तीनियों का मुद्दा एक कैसे?

इमरान ख़ान ने अपने इंटरव्यू में ये भी कहा कि इसराइल को मान्यता देने का मतलब होगा कश्मीर मुद्दे को छोड़ देना क्योंकि दोनों मुद्दे एक हैं.

उन्होंने अपने इंटरव्यू में इसपर विस्तार से कुछ नहीं बताया, लेकिन हारून रशीद का कहना है कि उनका इशारा इस बात से था कि दोनों ही मुद्दे संयुक्त राष्ट्र के मंच पर ले जाए गए थे, और एक से पीछे हटने का मतलब होगा दूसरे मुद्दे से भी पीछे हट जाना.

कश्मीर का मुद्दा 1948 में भारत की ही पहल पर संयुक्त राष्ट्र में गया, जब आज़ादी के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर लड़ाई छिड़ गई.

PHOTO CREDIT: TAUSEEF MUSTAFA

तब सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव संख्या 47 पास कर, वहाँ जनमत संग्रह करवाने के लिए कहा. लेकिन दोनों देशों की सेनाओं के पीछे हटने को लेकर मतभेद की वजह से ये नहीं हो सका.

फिर संयुक्त राष्ट्र के ही हस्तक्षेप से नियंत्रण रेखा या एलओसी तय हुई और इसके दोनों तरफ़ के इलाक़े भारत और पाकिस्तान के नियंत्रण में चले गए.

लेकिन पाकिस्तान कश्मीर की स्थिति को एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बताकर इसे लगातार विवादित मुद्दा बताता रहा है.

कुछ ऐसी ही स्थिति फ़लस्तीनियों और इसराइल के बीच बरसों से चल रहे विवाद की रही है. इस इलाक़े पर 1920 से शासन करने वाले ब्रिटेन ने 1947 में यहूदियों और अरबों का विवाद सुलझाने की ज़िम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र को सौंप दी थी और तबसे लेकर संयुक्त राष्ट्र दसियों प्रस्ताव पास कर चुकी है, लेकिन मामला अभी भी नहीं सुलझ सका है.

वैसे पूर्व उच्चायुक्त टीसीए राघवन का मानना है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की चिंता अभी इसराइल या कश्मीर से ज़्यादा कुछ और है इस बयान को उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

टीसीए राघवन ने कहा,"पाकिस्तान या इमरान ख़ान की सबसे बड़ी मुश्किल अभी ये है कि यूएई और सऊदी अरब के साथ जो उनके रिश्ते हैं वो एक नाज़ुक मोड़ पर खड़े हैं. इन देशों में जो बदलाव हो रहा है उसमें पाकिस्तान कुछ भी खुलकर ना कर पा रहा है, ना बोल पा रहा है."

मुशर्रफ़ के ज़माने में दोस्ती की कोशिश

पाकिस्तान इसराइल को कितना नापसंद करता है, उसकी एक मिसाल ये भी है कि पाकिस्तान के लोग अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर इसराइल की यात्रा नहीं कर सकते.

लेकिन ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान और इसराइल ने दूरी को कम करने की कोशिश नहीं की.

जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के शासनकाल में पाकिस्तान ने इसराइल के क़रीब जाने के लिए क़दम बढ़ाया था.

1 सितंबर 2005 को पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी ने इसराइल के विदेश मंत्री सिल्वन शेलोम से मुलाक़ात की थी.

PHOTO CREDIT: MUSTAFA OZER

मुलाक़ात तुर्की के इस्तांबुल शहर में हुई. ये पहला मौक़ा था जब पाकिस्तान और इसराइल के नेताओं ने कोई मुलाक़ात की थी.

ये इतना संवेदनशील मुद्दा था कि ख़ुद राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने आकर कहा कि इसका ये मतलब नहीं है कि पाकिस्तान ने इसराइल को स्वीकृति दे दी है.

पाकिस्तान सरकार ने तब स्पष्ट किया कि 'संपर्क' हुआ है ना कि 'संबंध' बने हैं.

टीसीए राघवन याद करते हैं, "जनरल मुशर्रफ़ काफ़ी आगे निकल गए थे, वो शायद इसराइल के साथ कूटनीतिक संबंधों को बहाल भी कर देते, लेकिन तब उनके देश की अंदरूनी परिस्थितियाँ बदलने लगी थीं, तो वो जोखिम नहीं उठाना चाहते थे."

2005 की उस कोशिश के बाद पाकिस्तान और इसराइल के बीच नज़दीकी को लेकर कोई ख़बर नहीं आई.

हालाँकि, दो साल पहले एक कथित इसराइली विमान के इस्लामाबाद उतरने की ख़बर आई, जिसकी काफ़ी चर्चा हुई थी.

बीबीसी उर्दू ने इसकी छानबीन की तो पता चला कि लाइव एयर ट्रैफ़िक पर नज़र रखने वाली वेबसाइट फ़्लाइट रडार पर एक विमान के इस्लामाबाद आने और 10 घंटे बाद जाने के सबूत मौजूद हैं.

हालाँकि, पाकिस्तान सरकार ने इस बात से सीधे इनकार किया था कि इसराइल का कोई विमान उनकी सीमा में आया.

हारून रशीद बताते हैं, "आज तक स्पष्ट नहीं हो सका कि वो इसराइली विमान पाकिस्तानी एयरस्पेस में कैसे आया था और किस मक़सद से आया था."

यूएई संधि के बाद अटकलें

वैसे इसराइल-यूएई संधि के बाद अटकलें लग रही हैं कि ये एक शुरुआत है और अब इसराइल से दूर रहने वाले दूसरे देश भी यही रास्ता अख़्तियार करेंगे, जिनमें बहरीन और ओमान का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है.

तो क्या इसराइल से संबंध सामान्य करने का ये सिलसिला कभी पाकिस्तान तक भी जा सकता है?

टीसीए राघवन का कहना है, "ये परिस्थितियों पर निर्भर करता है, मुशर्रफ़ काफ़ी आगे चले गए थे, तो परिस्थितियाँ बदलती हैं. हालाँकि अभी एक-दो साल में ऐसा कुछ होनेवाला है, ऐसा मुझे नहीं लगता."

हारून रशीद कहते हैं, "बुनियादी मुद्दा फ़लस्तीनियों का है, अगर उसको दरकिनार कर सरकार कोई भी फ़ैसला लेती है तो आवाम भी ख़ुश नहीं होगी और ऐसे लोग तो विरोध पर उतर ही आएँगे जिनकी रोज़ी रोटी ही आज़ादी के नारों से चल रही है."(bbc)

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