विचार/लेख
-कृष्ण कांत
रिया और दीपिका की चैटिंग लीक कराने वाले पत्रकार अब खुद इसका शिकार हो रहे हैं।
अर्नब गोस्वामी की 500 पेज की कथित वॉट्सएप चैट्स लीक हो गई है। दूसरों की वॉट्सएप चैट चोरी करके चटखारेदार खबरें चलाने वाले पत्रकार अब ट्विटर पर चटखारे का विषय बने हुए हैं।
कहा जा रहा है कि ये चैट्स अर्नब गोस्वामी और क्च्रक्रष्ट के पूर्व प्रमुख पार्थो दासगुप्ता के बीच की है। ये साबित करती हैं कि वे अर्नब टीआरपी स्कैंडल में शामिल थे।
टीआरपी फिक्सिंग केस में मुंबई पुलिस ने चार्जशीट फाइल की है जिसमें अर्नब की चैट्स भी शामिल है। इन चैट्स से पता चलता है कि अर्नब ने पीएमओ, सूचना प्रसारण मंत्रालय और किसी ‘्रस्’ तक अपनी पहुंच का दुरुपयोग किया और व्यावसायिक फायदा उठाया।
चैट्स में अर्नब कई जगह पीएमओ, एनएसए और आई&बी मंत्रालय में अपना पौवा होने का दावा करते दिख रहे हैं। चैट्स ये भी साबित करती हैं कि अर्नब टीआरपी लेने के लिए पार्थो के साथ फिक्सिंग कर रहे थे। पार्थो ने वॉट्सएप और ईमेल के जरिये गोपनीय डेटा अर्नब को मुहैया कराया और बदले में मांग की कि उन्हें पीएमओ में काम दिला दें।
चैट्स में सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को बेकार बताया गया है। इसमें अर्नब दूसरे पत्रकारों का मजाक भी उड़ा रहे हैं।
इन चैट्स को शेयर करते हुए वकील प्रशांत भूषण ने लिखा, ‘ये बार्क के सीईओ और अर्नब गोस्वामी के बीच हुए चैट्स के स्नैपशॉट्स हैं। इनसे गोस्वामी की राजनीतिक गलियारों में पहुंच और तमाम साजिशों का पता चलता है। ये भी पता चलता है कि किस तरह मीडिया और अपनी पोजीशन का बतौर ब्रोकर दुरुपयोग किया गया। कानून के रास्ते पर चलने वाले किसी भी देश में ये लंबे समय तक जेल में रहने के लिए काफी है।’
असली सवाल यही है कि क्या कानून का शासन रह गया है। इस बारे में दो तीन मीडिया संस्थानों ने खबरें छापी हैं, वह भी प्रशांत भूषण के ट्वीट के आधार पर। डिटेल कोई छापने को तैयार नहीं है। कोई भी प्रशासन इस पर अब तक कुछ नहीं बोला है, जबकि ट्विटर पर सुबह से ही तूफान आया है।
किसी घोटाले का महत्व तब रह जाता है जब कानून का शासन हो और मामला सामने आते ही उस पर कार्रवाई शुरू हो। भारत में अब ऐसा संभव नहीं है। अर्नब गोस्वामी का चैट्स लीक कांड भी एक तमाशा से ज्यादा कुछ नहीं है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रपट में कहा गया है कि दुनिया के विभिन्न देशों में 1 करोड़ 80 लाख भारतीय प्रवास कर रहे हैं। मैं यदि इनकी संख्या दो करोड़ कहूं तो ज्यादा सही होगा, क्योंकि फिजी से सूरिनाम तक फैले 200 देशों में भारतीय मूल के लाखों लोग पिछले सौ-डेढ़ सौ साल से वहीं के होकर रह गए हैं। जब से यातायात की सुविधाएं बढ़ी हैं और तकनीक के विकास ने दुनिया को छोटा कर दिया है, लगभग सभी देशों में प्रवासियों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हो गई है।
इस समय दुनिया के सब देशों में कुल मिलाकर 27 करोड़ विदेशी नागरिक रह रहे हैं। भारत के प्रवासियों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। अब से 50 साल पहले जब मैं न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब न्यूयार्क जैसे बड़े शहर में मुझे कोई भारतीय कहीं दिख जाता था तो मेरी बाछें खिल जाती थीं। हिंदी में किसी से बात करने के लिए मैं तरस जाता था लेकिन अब अमेरिका के छोटे-मोटे गांवों में भी आप भारतीयों से टकरा सकते हैं। अबू धाबी और दुबई तो अब ऐसे लगते हैं, जैसे वे कोई भारतीय शहर ही हों।
संयुक्त अरब अमारात में इस समय 35 लाख भारतीय हैं, अमेरिका में 27 लाख और सउदी अरब में 25 लाख! आप दुनिया के किसी भी महाद्वीप में चले जाइए-आस्ट्रेलिया से अर्जेंटिना तक आपको भारतीय लोग कहीं भी दिख जाएंगे। पिछले 20 साल में एक करोड़ भारतीय विदेशों में जाकर बस गए हैं। अमेरिका, यूरोप और सुदूर पूर्वी देशों में तो प्राय: पढ़े-लिखे लोग जाते हैं और अरब देशों में मेहनतकश लोग ! सब मिलाकर ये भारतीय सालाना 5 लाख करोड़ रु. भारत भेजते हैं। हमारे केरल-जैसे प्रांतों की समृद्धि का श्रेय इसी को है। जो भारतीय विदेशों में रहते हैं, वे वहां की संस्कृति से पूरा ताल-मेल बिठाने की कोशिश करते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति उनकी नस-नस में बसी होती है। वे भारत में नहीं रहते लेकिन भारत उनमें रहता है। वे उन देशों के लोगों के लिए बेहतर जीवन-पद्धति का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करते हैं। अमेरिका में तो यह माना जाता है कि वहां रहने वाले भारतीय लोग समूह के रूप में सबसे अधिक सुशिक्षित, सुसंस्कृत और सम्पन्न वर्ग के लोग हैं। यदि ये भारतीय आज एकाएक भारत लौटने का फैसला कर लें तो अमेरिका को हृदयाघात (हार्ट अटेक) हो सकता है। अब से 20 साल पहले मैंने लिखा था कि वह दिन दूर नहीं जबकि अमेरिका का राष्ट्रपति कोई भारतीय मूल का व्यक्ति होगा। कमला हैरिस इस लक्ष्य के पास पहुंच चुकी हैं। दुनिया के लगभग एक दर्जन देशों में भारतमाता के बेटे-बेटियां सर्वोच्च पदों पर या उन तक पहुंच चुके हैं। हमें उन पर गर्व है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तरप्रदेश सरकार के धर्मातरणरोधी कानूम और इसी तरह के अन्य कानूनों में यह निहित है कि हिन्दू संस्कृति खतरे में है, मानो हिन्दू महिलाएं इतनी मूर्ख हैं कि वे अपना हित-अहित नहीं समझ सकतीं और इसलिए उन्हें हिन्दू पुरूषों के संरक्षण की आवश्यकता है।
पिछले दिनों (27 नवंबर 2020) उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘उत्तरप्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020’ लागू किया। उसके बाद मध्य प्रदेश और हरियाणा सहित कई अन्य बीजेपी-शासित प्रदेशों ने भी इसी तर्ज पर कानून बनाए। इस बीच अंतर्धार्मिक विवाह करने वाले दम्पतियों की प्रताडऩा का सिलसिला भी शुरू हो गया और कुछ मुस्लिम पुरूषों को जेलों में डाल दिया गया। इस नए कानून के पीछे साम्प्रदायिक सोच है, यह इस बात से साफ है कि अवैधानिक धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने वाले कानून पहले से ही हमारे देश में हैं। नए कानूनों का उद्देश्य संदिग्ध है और इनका दुरूपयोग होने की गंभीर आशंका है।
उत्तरप्रदेश के अध्यादेश में ‘लव जिहाद’ शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है, परंतु हिन्दू राष्ट्रवादी समूहों के कार्यकर्ता इस कानून के नाम पर ऐसे अंतर्धार्मिक दम्पत्तियों को परेशान कर रहे हैं जिनमें पति मुसलमान और पत्नि हिन्दू है। विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों में इस तरह के दम्पत्तियों को प्रताडि़त करने और उनके खिलाफ हिंसा की घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। सबसे दु:खद यह है कि कानून तोडऩे वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है और वे समाज की फिजा में सांप्रदायिक रंग घोलने के अपने कुत्सित लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब होते नजर आ रहे हैं। उनकी हिम्मत बढ़ती जा रही है। वे समाज को बांट रहे हैं और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को पीछे धकेलकर उसका हाशियाकरण करने का प्रयास कर रहे हैं।
इसके साथ ही वे हिन्दू महिलाओं की स्वतंत्रता को भी गंभीर रूप से बाधित कर रहे हैं। हिन्दू धर्म छोडक़र अन्य धर्म अपनाने के लिए हिन्दू महिलाओं के मुस्लिम पुरूषों से संबंधों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। किसी भी ऐसे बहुधार्मिक समाज में जिसमें लोग एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, अलग-अलग धर्मों के लोगों का दूसरे से प्रेम हो जाना और विवाह कर लेना अत्यंत स्वाभाविक और सामान्य है।
लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सार्वजनिक रूप से स्पष्ट कर चुके हैं कि वे अंतर्धार्मिक विवाहों के खिलाफ हैं। इलाहबाद उच्च न्यायालय के एक हालिया निर्णय, जिसमें यह कहा गया था कि केवल विवाह करने के लिए धर्म परिवर्तन करना उचित नहीं है, का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘लव जिहाद करने वालों को सुधर जाना चाहिए, अन्यथा उनका राम नाम सत्य हो जाएगा‘‘। उत्तरप्रदेश सरकार की माता-पिता से भी यह अपेक्षा है कि वे अपनी लड़कियों पर ‘नजर’ रखें।
उत्तरप्रदेश सरकार के अध्यादेश को अदालत में चुनौती दिए जाने की जरूरत है क्योंकि वह संविधान में हम सबको अपने धर्म में आस्था रखने, उसका आचरण करने और उसका प्रचार करने के मूल अधिकार का उल्लंघन है। देश में हर व्यक्ति को अपनी पसंद से अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार भी है। उत्तर प्रदेश सरकार का अध्यादेश और इसी तरह के अन्य कानूनों में यह निहित है कि हिन्दू संस्कृति खतरे में है, मानो हिन्दू महिलाएं इतनी मूर्ख हैं कि वे अपना हित-अहित नहीं समझ सकतीं और इसलिए उन्हें हिन्दू पुरूषों के संरक्षण की आवश्यकता है।
स्पष्टत: इन कानूनों के निशाने पर अंतर्धार्मिक विवाह हैं। विशेषकर ऐसे विवाह जिनमें पति मुसलमान और पत्नि हिन्दू हो। आरोप यह है कि मुसलमान पुरूषों से विवाह करने वाली हिन्दू महिलाओं को अपने धर्म का पालन नहीं करने दिया जाता और उन्हें इस्लाम कुबूल करने पर मजबूर किया जाता है।
हमारे देश में वैसे भी अंतर्धार्मिक विवाह बहुत कम संख्या में होते हैं। अन्य प्रजातांत्रिक और स्वतंत्र देशों में ऐसे विवाहों की संख्या कहीं अधिक होती है। इनमें भी मुस्लिम महिलाओं और हिन्दू पुरूषों के बीच और कम विवाह होते हैं। कई मामलों में ऐसे संबंध रखने वाले या विवाह करने वाले हिन्दू पुरूषों को भी परेशानियां भुगतनी पड़ती हैं (अंकित सक्सेना)। तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां को एक हिन्दू से विवाह करने पर जमकर ट्रोल किया गया था। परंतु कुल मिलाकर अधिकांश मामलों में मुस्लिम पुरूष ही निशाने पर रहते हैं।
महाराष्ट्र में हिन्दू रक्षक समिति नामक एक संस्था को ऐसे विवाह तोडऩे में खासी विशेषज्ञता हासिल है, जिनमें पति मुसलमान और पत्नि हिन्दू हो। लव जिहाद पर मराठी में प्रकाशित एक पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर जो चित्र प्रकाशित किया गया है, उसमें एक मुस्लिम लडक़े को एक हिन्दू महिला को पीछे बैठाकर बाईक चलाते हुए दिखाया गया है। अगर कोई मुस्लिम महिला, हिन्दू पुरूष से शादी करती है तो उससे हिन्दू धर्म के स्वनियुक्त रक्षकों को कोई आपत्ति नहीं होती। वे इसे घरवापसी मानते हैं। पुलिस की कई जांचों से यह जाहिर हुआ है कि लव-जिहाद जैसी कोई चीज नहीं है। परंतु इस मुद्दे पर इतना शोर मचाया गया है कि लोग यह मानने लगे हैं कि देश में सचमुच लव-जिहाद हो रहा है।
आखिर अंतर्धार्मिक विवाहों का इतना विरोध क्यों होता है? क्या यह सही है कि मुस्लिम युवक योजनाबद्ध तरीके से हिन्दू महिलाओं को अपने प्रेमजाल में फंसाकर मात्र इसलिए उनसे विवाह करते हैं ताकि उन्हें मुसलमान बनाया जा सके? दरअसल यह सफेद झूठ है। लोग यह भूल जाते हैं कि जब वे यह कहते हैं कि मुसलमान युवक हिन्दू युवतियों को बहला-फुसलाकर उनसे विवाह कर लेते हैं तो वे न केवल हिन्दू महिलाओं की अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता समाप्त कर रहे होते हैं, वरन् वे यह भी कह रहे होते हैं कि हिन्दू महिलाएं इतनी मूर्ख हैं कि वे किसी के भी जाल में फंस जाती हैं। (बाकी पेज 8 पर)
मुस्लिम पुरूषों को हिन्दू धर्म के लिए खतरा बताया जाता है और हिन्दू युवतियों को बेअक्ल सिद्ध कर दिया जाता है। इसी सिलसिले में हिन्दू अभिभावकों को यह सलाह दी जाती है कि वे इस पर कड़ी नजर रखें कि उनकी लड़कियां कहां आ-जा रही हैं, किससे मिल रही हैं और किससे फोन पर बात कर रही हैं। कुल मिलाकर वे यह चाहते हैं कि हिन्दू महिलाओं का जीवन पूरी तरह से उनके अभिभावकों के नियंत्रण में हो।
सभी साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी विचारधाराएं पितृसत्तात्मक होती हैं। उनकी यह मान्यता होती है कि महिलाएं पुरूषों की संपत्ति हैं और उन्हें पुरूषों के अधीन रहना चाहिए। वे सभी पितृसत्तात्मकता को राष्ट्रवाद के रैपर मेें लपेटकर प्रस्तुत करती हैं। भारत के स्वतंत्र होने और हमारे देश में संविधान लागू होने के बाद से महिलाओं को कई बंधनों से मुक्ति मिली है और वे देश के सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक जीवन में महती भूमिका निभाने की ओर बढ़ रही हैं।
लेकिन यह उन लोगों को रास नहीं आ रहा है जो बात तो समानता की करते हैं परंतु दरअसल उन प्राचीन धर्मग्रंथों में श्रद्धा रखते हैं जो महिलाओं को पुरूषों के अधीन मानते हैं। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि न्यायपालिका इन कानूनों को अमल में नहीं आने देगी। धार्मिक सद्भावना को हर हाल में बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है और अंतर्धार्मिक विवाह, साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने का औजार हैं।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
-कृष्ण कांत
‘अगर बीजेपी सत्ता में आ गई तो TRAI की पॉवर खत्म हो जाएगी क्योंकि इसने 'AS' को नाराज कर दिया है।’
लोकसभा चुनाव 2019 से पहले अर्नब गोस्वामी ने पार्थो दासगुप्ता को ये मैसेज भेजा था। इससे आप समझ सकते हैं कि पूरा कुनबा मिलकर हर एक संस्थान को कैसे खत्म करने पर तुला हुआ है। अर्नब गोस्वामी अपने चैट में सूचना प्रसारण मंत्री को हटवाने की बात करते हैं। चैट में कहते हैं, ‘उन्हें सूचना प्रसारण मंत्रालय छोड़ देना चाहिए, वे छोड़ रहे हैं, मैंने पीएमओ से मुलाकात की है।’
आप सोचिए मजबूत सरकार के बारे में, जो ईमानदार भी है, कि एक पत्रकार अपने निजी फायदे के लिए मंत्री बदलवा रहा है।
गोस्वामी और पार्थो दासगुप्ता आपस में बात करते हैं कि जनता के पैसे से चलने वाले दूरदर्शन से रिपब्लिक टीवी को फायदा पहुंचाया जाए। अपनी चैट में अर्नब ने कहा, ‘पीएमओ के माध्यम से ऐसा करवा लेंगे।’
टीआरपी घोटाले के मामले में सामने आई अर्नब गोस्वामी और क्च्रक्रष्ट के पूर्व सीईओ पार्थो की चैट्स से नित नए कारनामे सामने आ रहे हैं।
अर्नबगेट, नीरा राडिया टेप कांड से बहुत बड़ा है लेकिन राष्ट्रवादी लोग कान में रुई डालकर मस्त हैं। विपक्ष की मूर्छा भी टूटने से रही।
चैट से पता चलता है कि अर्नब बार्क की गतिविधियों के बारे में पीएमओ को खबर पहुंचाते रहते हैं। सवाल है कि टीवी चैनलों की रेटिंग के बारे में पीएमओ क्यों रुचि ले रहा है और गोस्वामी को उसने अपना खबरची क्यों बनाया है? ये सब सिर्फ रिपब्लिक को स्थापित करने के लिए था?
अगर यूपीए सरकार होती तो विपक्षी बीजेपी ने अब तक गदर मचा दिया होता। लेकिन यहां विपक्ष में ले-देकर एक ट्विटरिया चेहरा है जो अभी नानी के यहां के से लौटा है। अब बेचारे से क्या उम्मीद करें?
जो करेगी वो जनता करेगी। जनता का ही ये जानना जरूरी है कि अर्नब गोस्वामी कथित मजबूत सरकार में सबसे मजबूत पावर ब्रोकर हैं। पावर ब्रोकर समझते हैं न? सत्ता का दलाल। जिसे आप राष्ट्रवादी समझते हैं लेकिन वह 40 जवानों की शहादत पर खुश होकर कहता है, 'This Attack We Won Like Crazy.'
वैज्ञानिकों ने पाया है कि भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में बड़ी संख्या में मिसकैरेज यानी स्वत: गर्भपात और स्टिल-बर्थ यानी मृत-जन्म के लिए जिम्मेदार कारणों में से वायु प्रदूषण भी शामिल हो सकता है।
द लैंसेट मेडिकल जर्नल में छपे एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि दक्षिण एशिया में हर साल करीब 3,50,000 गर्भ नष्ट होने के मामलों का प्रदूषण के बढ़े हुए स्तर से संबंध पाया गया है। इसे 2000 से 2016 के बीच गर्भ नष्ट होने के कुल मामलों में से सात प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार पाया गया है। दक्षिण एशिया में वैश्विक स्तर पर गर्भ नष्ट होने के मामलों की सबसे ऊंची दर है और यह इलाका सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण के इलाकों में भी शामिल है।
अध्ययन के मुख्य लेखक पेकिंग विश्वविद्यालय के ताओ श्यू ने एक बयान में कहा, ‘हमारे निष्कर्ष इस बात को और साबित करते हैं कि प्रदूषण के खतरनाक स्तर का मुकाबला करने के लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है।’ इस अध्ययन के पहले लैंसेट में ही पिछले महीने एक रिपोर्ट छपी थी जिसमें भारत में खराब वायु गुणवत्ता का 2019 में हुई 16.7 लाख मौतों से संबंध बताया था। ये संख्या उस वर्ष हुई कुल मौतों के 18 प्रतिशत के बराबर थी। 2017 में ये संख्या 12।4 लाख थी।
उस विश्लेषण में पाया गया था कि प्रदूषण की वजह से फेफड़ों की दीर्घकालिक बीमारी, सांस लेने के संक्रमण, फेफड़ों का कैंसर, दिल की बीमारी, दिल का दौरा, मधुमेह, नवजात शिशु संबंधी बीमारी और मोतिया-बिंद जैसी बीमारियां होती हैं। ताजा अध्ययन में चीनी शोध टीम ने दक्षिण एशिया में ऐसी 34,197 माताओं के डाटा का अध्ययन किया जिन्हें कम से कम एक बार स्वत: गर्भपात या मृत-जन्म हुआ हो और उन्होंने एक या एक से ज्यादा जीवित बच्चे को भी जन्म दिया हो। इनमें से तीन-चौथाई से भी ज्यादा महिलाएं भारत से थीं और बाकी पाकिस्तान और बांग्लादेश से। वैज्ञानिकों ने इन माताओं का गर्भावस्था के दौरान पीएम 2.5 के जमाव से संपर्क में आने का अनुमान लगाया। पीएम 2.5 धूल, कालिख और धुएं में पाए जाने वाले बहुत छोटे कण होते हैं जो फेफड़ों में फंस सकते हैं और रक्तप्रवाह में घुस सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया कि सालाना गर्भ नष्ट होने के मामलों में 7.1 प्रतिशत मामले भारत के वायु गुणवत्ता के मानक 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ऊपर के प्रदूषण और विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ऊपर के प्रदूषण की वजह से हुईं।
अध्ययन के सह-लेखक चिकित्सा विज्ञान की चाइनीज अकादमी में कार्यरत तिआनजिया गुआन ने कहा कि गर्भ नष्ट होने की वजह से महिलाओं पर मानसिक, शारीरिक और आर्थिक असर होते हैं और इन्हें कम करने से लिंग-आधारित बराबरी में प्रारंभिक सुधार हो सकते हैं।
भारत के शहर प्रदूषण के स्तर की वैश्विक सूचियों में सबसे ऊपर रहते हैं। नई दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी माना जाता है। देश में हवा दूषित करने के लिए उद्योग, गाडिय़ों से निकलने वाला धुआं, कोयले से चलने वाले ऊर्जा के संयंत्र, निर्माण स्थलों पर उडऩे वाली धूल और फसलों की पराली के जलाने जैसे कारणों को जिम्मेदार माना जाता है।
सीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली की यह दिल्ली-यात्रा हुई तो इसलिए है कि दोनों राष्ट्रों के संयुक्त आयोग की सालाना बैठक होनी थी लेकिन यह यात्रा बहुत सामयिक और सार्थक रही है। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने परस्पर सडक़ें बनाने, रेल लाइन डालने, व्यापार बढ़ाने, कुछ नए निर्माण-कार्य करने आदि मसलों पर सहमति दी लेकिन इन निरापद मामलों के अलावा जो सबसे पेंचदार मामला दोनों देशों के बीच आजकल चल रहा है, उस पर भी दोनों विदेश मंत्रियों ने बात की है।
नवंबर 2020 में शुरु हुए सीमांत-क्षेत्र के लिपुलेख-कालापानी-लिंपियाधुरा के सीमा-विवाद के कारण दोनों देशों के बीच काफी कहा-सुनी हो गई थी। भारतीय विदेश मंत्रालय इस मामले को इस वार्ता के दौरान शायद ज्यादा तूल देना नहीं चाहता था। इसीलिए उसने अपनी विज्ञप्ति में इस पर हुई चर्चा का कोई संकेत नहीं दिया लेकिन नेपाली विदेश मंत्रालय ने उस चर्चा का साफ़-साफ़ जिक्र किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि नेपाल की आंतरिक राजनीति का यह बड़ा मुद्दा बन गया है। नेपाल की ओली-सरकार द्वारा संसद में रखे गए नेपाल के नए नक्शे पर सर्वसम्मति से मुहर लगाई गई है।
भारत के पड़ौसी देशों की राजनीति की यह मजबूरी है कि उनके नेता अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए प्राय: भारत-विरोधी तेवर अख्तियार कर लेते हैं। अब क्योंकि सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दो टुकड़े हो गए है, संसद भंग कर दी गई है और ओली सरकार इस समय संकटग्रस्त है, इसलिए भारत से भी सहज संबंध दिखाई पड़ें, यह जरुरी है। इस काम को नेपाली विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली ने काफी दक्षतापूर्ण ढंग से संपन्न किया है। इस बीच यों भी भारत के सेनापति और विदेश सचिव की काठमांडो-यात्रा ने आपसी तनाव को थोड़ा कम किया है। इंडियन कौंसिल ऑफ वर्ल्ड एफेयर्स में ग्यावली ने कई पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए इतनी सावधानी बरती कि भारत-विरोधी एक शब्द भी उनके मुंह से नहीं निकला। कुछ टेढ़े सवालों का जवाब देते समय यदि वे चूक जाते तो उन्हें नेपाल में चीनी दखलंदाजी को स्वीकार करना पड़ता लेकिन उन्होंने कूटनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए विशेषज्ञों और पत्रकारों पर यही प्रभाव छोड़ा कि भारत-नेपाल सीमा-विवाद शांतिपूर्वक हल कर लिया जाएगा। उन्होंने 1950 की भारत-नेपाल संधि के नवीकरण की भी चर्चा की। उन्होंने भारत-नेपाल संबंध बराबरी के आधार पर संचालित करने पर जोर दिया और कोरोना-टीके देने के लिए भारत का आभार माना। भारत-नेपाल संबंधों की भावी दिशा क्या होगी, यह जानने के पहले नेपाली राजनीति की आंतरिक पहेली के हल होने का इंतजार हमें करना होगा। तात्कालिक भारत-नेपाल संवाद तो सार्थक ही रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
पं जवाहर लाल नेहरु की लाजवाब किताब 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (भारत एक खोज) मेरे लिए कई अर्थों में एक बेमिसाल किताब है।
पंडित नेहरू की यह किताब भारत को एक नए रूप में देखने की कोशिशों का एक सुंदर कोलाज है। मैं उनकी इस दृष्टि और विवेक का हमेशा से कायल रहा हूं।
पं नेहरू ने जिस तरह से भारत को एक नए रूप में विश्लेषित करने का दुस्साहस किया, ठीक वैसा न सही, अपनी अल्प मति से क्या छत्तीसगढ़ को भी फिर से आविष्कृत किए जाने की, नए सिरे से परिभाषित किए जाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए?
मैं पिछले तीस-चालीस वर्षों से छत्तीसगढ़ को जानने और पहचानने की सफल - असफल कोशिशें में लगा रहा हूं। कुछ पागलपन और कुछ जुनून के चलते यह सफर आज भी बदस्तूर जारी है।
इस तरह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पेंड्रा रोड प्रवास तथा विवेकानंद (नरेंद्रनाथ दत्त) के पिता विश्वनाथ दत्त और छोटे भाई महेंद्रनाथ दत्त के साथ रायपुर में बिताए हुए दो वर्ष की कथा की तलाश मेरे लिए बेहद दिलचस्प और रोमांचक यात्रा रही है।
स्वामी विवेकानन्द की तलाश करते - करते मैं डे भवन में एक महान जीनियस हरिनाथ डे से भी टकरा गया। यह महान जीनियस जिन दिनों डे भवन में शैशव अवस्था में अपनी मां श्रीमती एलोकेशी डे की गोद में थे उन्हीं दिनों नरेंद्रनाथ दत्त अपने अनुज महेंद्रनाथ दत्त के साथ धमाचौकड़ी मचाते हुए वहां घूम रहे थे। मेरे लिए यह सब अद्भुत था।
उसी तरह पेंड्रा रोड में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और उनकी धर्मपत्नी मृणालिनी देवी की तलाश करते - करते मुझे उस बंगले का भी ठिकाना मिल गया था जहां माधवराव सप्रे राजकुमार को ट्यूशन पढ़ाने जाया करते थे।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और स्वामी विवेकानंद की तलाश में अनेक बार कोलकाता तथा शांतिनिकेतन में भटकना पड़ा। ठीक वैसा ही अनुभव दुर्ग में जन्मे हुए सुप्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता, निदेशक किशोर साहू की आत्मकथा की तलाश में मुझे हुआ। तीन से चार बार मुझे मुंबई की यात्रा करनी पड़ी।
अंततः इस आत्मकथा को ढूंढकर ही मैंने दम लिया। यह आत्मकथा किशोर साहू के जन्मशताब्दी वर्ष सन 2016 के अवसर पर राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित भी हुई।
मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य था कि राज्य शासन ने मेरे इस काम के महत्व को समझा तथा किशोर साहू के नाम पर किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण (दस लाख रूपए की राशि के साथ) की घोषणा की। ये कुछ ऐसे कार्य थे जिसे करने का अपना कुछ अलग मजा और सजा था।
यह कुछ - कुछ घर फूकने जैसा भी था। किशोर साहू की सन 1974 में लिखित आत्मकथा को पाने के लिए मुझे ढाई लाख रुपए भी देने पड़े थे। उस समय मेरे पास इतनी राशि नहीं थी। इसलिए ये सारी राशि मैंने डिग्री गर्ल्स कॉलेज के अपने मित्र प्राध्यापक दिनेश कुमार राठौर से उधार लिए और इस तरह ढाई लाख रूपए देकर मैंने मुंबई से किशोर साहू की आत्मकथा प्राप्त की।
बहुत सारे मित्रों को यह मेरा पागलपन लगा। संजीव बख्शी जैसे मित्र पहले से ही मेरे इस पागलपन से परेशान थे।
सो इस तरह छत्तीसगढ़ को खोजने , उसे नए सिरे से अन्वेषित करने का कार्य चलता रहा। इसी क्रम में भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनन्यतम सखा तथा उन्नीसवीं शताब्दी के महानतम साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह की तलाश में मुझे बनारस की यात्रा करनी पड़ी।
महात्मा गांधी के रायपुर कंडेल तथा धमतरी प्रवास को लेकर मुझे कंडेल और धमतरी की यात्राएं करनी पड़ी तब जाकर सन 1920 तथा 1932 की महात्मा गांधी की छत्तीसगढ की यात्राओं के बारे में मैं जान पाया।
बस्तर को जानने और समझने के लिए मुझे कई - कई बार बस्तर जाना पड़ा। इंद्रावती, शंकिनी, डंकिनी, बैलाडीला की पहाड़ियां, अबूझमाड़ तथा वहां के भोले - भाले निश्चल आदिवासियों से साक्षात्कार करना पड़ा। पता नहीं क्यों मुझे आज भी लगता है सन 1910 में केदार नाथ ठाकुर द्वारा लिखी गई 'बस्तर भूषण' से बेहतर और कोई किताब बस्तर पर आज भी नहीं है। बस्तर की इस तलाश में गुण्डाधुर की तलाश भी शामिल है।
अब मेरे सारे मित्रों का यह आग्रह है कि मैं इन सारे प्रसंगों को एक जगह समेटने - सहेजने के कार्य को व्यवस्थित रूप से अंजाम दूं। इधर-उधर बिखरे हुए लेखों को किसी एक जगह सूत्रबद्ध करूं। इसलिए मैं 'छत्तीसगढ़ एक खोज' के नाम से इन सारे प्रसंगों को सूत्रबद्ध करने का प्रयास करूंगा। मैंने तय किया है कि प्रति रविवार को एक - एक प्रसंग को लिखूंगा तथा फेसबुक पर आप सब मित्रों से शेयर भी करूंगा।
प्रथम कड़ी के रूप में मैं स्वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास पर लिखना चाहूंगा।
-राकेश दीवान
बेरोजगारी और उत्पादन बढ़ाने की हुलस में जहर-बुझे खाद्यों की पैदावार की तरफ पीठ करके सुझाई जा रही यह तजबीज विश्वबेंक, ‘अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष’ आदि को भी रास आ रही है। वे बार-बार गुहार लगा रहे हैं कि खेती में श्रम यानि किसान को कम किए बिना खेती और उद्योगों का विकास नहीं किया जा सकेगा। जाहिर है, यह तजबीज बकासुर की कथा की तरह ही है। यानि हम संकट पैदा करने वालों से ही उसका हल निकलवाना चाहते हैं।
किसान आंदोलन पर सुप्रीमकोर्ट की ‘तजबीज’ ने एक बार फिर महाभारत के उस राक्षस बकासुर की कहानी ताजा कर दी है जिसमें संकट पैदा करने वाले से ही संकट के निदान की आशा की जाती है। कहानी में बकासुर अपने भोजन के निमित्त रोज एक मनुष्य का वध किया करता था। हर दिन सुबह गांव के लोग इस आशंका में डरे-सहमे रहते थे कि पता नहीं कब उनका नंबर आ जाए। ऐसे में कुछ समझदार लोगों ने एक तरकीब निकाली। उन्होंने बकासुर से निवेदन किया कि ‘महाराज, आप रोज गांव तक आने का कष्ट करते हैं इसलिए अब से हम आपकी सेवा में व्यवस्थित रूप से एक मनुष्य और पानी खुद ही भेज दिया करेंगे। आपको घर बैठे भोजन-पानी मिल जाने के अलावा इस तरकीब से सबका रोज-रोज का वह डर भी खत्म हो जाएगा जिसके चलते हम सुबह से अपना नंबर आने के डर से कांपते रहते हैं।
बकासुर से निपटने की इसी तर्ज पर सुप्रीमकोर्ट ने मौजूदा किसान आंदोलन से निपटने का खाका खींचा है। दो नए कानूनों और एक पुराने कानून में संशोधन को खारिज करवाने की खातिर पिछले 54-55 दिनों से दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे किसानों के आंदोलन के लिए बडी अदालत ने देश के चार नामी-गिरामी लोगों की समिति गठित करके मामले को सुलझाने का प्रस्ताव रखा है। कृषि-अर्थशास्त्री डॉ. प्रमोद कुमार जोशी और डॉ. अशोक गुलाटी, महाराष्ट्र के ‘शेतकारी संगठन’ के अनिल घनावट और पंजाब के किसान नेता भूपिन्दर सिंह मान घोषित रूप से विवादित ?कानूनों के समर्थक रहे हैं। इनमें से कईयों ने कानून की जरूरत पर अखबारों में लिखा है और कई सीधे सरकार के पास जाकर अपनी सहमति दर्ज करवा आए हैं। इनमें से मान साहब ने, अपने संगठन से गरियाए और निकाले जाने के बाद समिति? से त्यागपत्र भी दे दिया है।
वैसे देखा जाए तो बकासुर की यह कथा विज्ञान और तकनीक पर न्यौछावर ?विद्वानों से लेकर अहर्निश भक्तिभाव में डूबे धर्म-प्राणों तक सभी में कमोबेश मौजूद रहती है। सभी को लगता है कि संकट या समस्या का एकमात्र समाधान केवल उनके पास ही मौजूद है। मौजूदा किसान आंदोलन को ही देखें तो जहां सरकार को लगता है कि दो नए कानूनों को रचकर और तीसरे का संशोधन करके उसने सात दशकों की किसानों की समस्याओं को निपटा दिया है, वहीं आंदोलनरत किसान भी इन तीनों सरकारी प्रयासों को खारिज करने से किसानी की व्याधियों से पार पाने का अनुमान लगा रहे हैं। जबकि सचाई यह है कि इन कानूनों को लागू या खारिज करने से किसानी को मुक्ति नहीं मिलने वाली। सरकार ने तीनों कानूनों की मार्फत किसानी को व्यापार में तब्दील करने की जुगत बिठाई है और किसान इन्हीं बातों का जबाव देने में लग गए हैं। सरकार और उसे जबाव देने वाले किसानों की ध्यान से सुनें तो लगता है कि किसानी की एकमात्र समस्या बाजार और उससे जुडे भंडारण, परिवहन आदि की ही हैं। जबकि खेती से थोडा-बहुत संबंध रखने वाले भी जानते हैं कि बाजार की पहुंच किसानी के अनेक संकटों में से केवल एक है।
बेहद सरसरी तौर पर देखें तो रोजगार के किसी भी प्रयास से अपेक्षा रहती है कि उसकी मार्फत दो वक्त का भोजन मिल पाएगा, जिस साधन से भोजन जुटाया जा रहा है वह दुरुस्त और उत्पादक बना रहेगा और भोजन पैदा करने के श्रम की एवज में उचित मुआवजा या मजदूरी मिल सकेगी। अब इस अपेक्षा को खेती-किसानी से जोडकर देखें तो पता चलता है कि तीनों मामलों में हमारी हालत बदहाल है। दो वक्त के भोजन की सहज प्राप्ति की बजाए दुनिया-जहान के शोध-संस्थान एक देश की तरह हमारी भुखमरी की गुहार लगा रहे हैं और बता रहे हैं कि हम चाड, नाइजीरिया सरीखे दक्षिण अफ्रीकी देशों की कतार में बैठे हैं। यही हाल हमारी उपजाऊ मिट्टी और उसकी घटती उत्पादकता का भी है जो खुद सरकारी हिसाब से ही आधी यानि 50 फीसदी बची है। ‘हरित क्रांति’ के पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना जैसे इलाकों में तो मिट्टी की उत्पादकता इतनी कम हो गई है कि यदि रासायनिक खाद का भरपूर ‘डोज’ न दिया जाए तो एक दाना पैदा करना कठिन होगा।
इसी तरह की बदहाली उस मुआवजे या मजदूरी की भी है जो किसानों और खेतिहर मजदूरों को उनकी मेहनत के बदले में मिलती है। कडी मेहनत लगाकर पैदा किए गए टमाटर, दूध, सब्जियों सरीखे कृषि उत्पादनों को सडक पर फेंकते किसानों के दृष्य अब हमारे लिए अजूबा नहीं हैं। जाहिर है, यह इसीलिए होता है क्योंकि अपने श्रम और बडी कठिनाई तथा कर्जों के बल पर जुटाई गई दूसरी लागतों के बदले किसानों को न्यायपूर्ण, उचित कीमत और मुआवजा नहीं मिलता।
किसानी संकट के इन बेहद बुनियादी सवालों को हल करने के लिए क्या बकासुर की पद्धति कारगर हो सकेगी? यानि सत्तर साल पहले किन्हीं जरूरतों, वजहों से अंगीकार की गई कृषि पद्धति आज की किसानी की आपदाओं को बरका सकेगी? यानि लगातार ‘भजा’ जाता ‘उत्पादन और उत्पादकता बढाने’ और ‘बाजार की पहुंच बढाने, आसान करने’ का ‘भजन’ हमारे किसानों को कोई राहत दे सकेगा? यानि ‘बकासुर कथा’ की तरह संकट पैदा करने वालों और उनकी तरकीबों से संकट का निदान पाना कितना कारगर हो सकेगा? यानि कानूनों के अमल या खारिज होने से किसानी की उम्रदराज व्याधियां हल की जा सकेंगी?
दिल्ली की चौहद्दी पर डटे किसानों के आंदोलन ने हमारे इतिहास में एक बेहद कारगर और जरूरी जगह प्राप्त कर ली है। हमारे समाज की गहराई तक व्याप्त जाति, वर्ग, लिंग, रंग आदि के विभाजन इस आंदोलन में पानी भरते दिखाई देते हैं। इस तरह की परिपक्वता, समझ और अहिंसक जज्बे का देशव्यापी अनुभव अभी पिछले साल ‘एनआरसी’ जैसे कानूनों के विरोध में उठे ‘शाहीन बाग’ में दिखाई दिया था। यह जन-सैलाब कभी-कभार ही उठता है। ऐसे में जरूरी है कि एक तरफ, सरकार के बनाए कानूनों को खारिज करवाने में अपनी पूरी ताकत लगाई जाए तो दूसरी तरफ, खेती-किसानी की बुनियादी समस्याओं का निदान भी खोजा जाए।
सरकार मानती है कि किसानी का संकट उत्पादकता और बाजार तक पहुंच बढाने का संकट है। इसी वजह से सरकार नए कानून भी लाई है। उसके मुताबिक उत्पादकता बढ जाएगी तो कम किसान भी जरूरत भर अनाज का उत्पादन कर सकेंगे। नतीजे में अतिरिक्त श्रम उद्योगों में लगाया जा सकेगा। बेरोजगारी और उत्पादन बढ़ाने की हुलस में जहर-बुझे खाद्यों की पैदावार की तरफ पीठ करके सुझाई जा रही यह तजबीज विश्वबेंक, ‘अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष’ आदि को भी रास आ रही है। वे बार-बार गुहार लगा रहे हैं कि खेती में श्रम यानि किसान को कम किए बिना खेती और उद्योगों का विकास नहीं किया जा सकेगा। जाहिर है, यह तजबीज बकासुर की कथा की तरह ही है। यानि हम संकट पैदा करने वालों से ही उसका हल निकलवाना चाहते हैं। इससे बचना है तो हमें अपनी खेती को लेकर गंभीरता से विचार करना शुरु करना होगा। बकासुर के भरोसे रहे तो सब जानते हैं कि अंत अच्छा नहीं होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज विवेक चौधरी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अपने फैसले से उस कानूनी बाधा को दूर कर दिया है, जो अंतर्धार्मिक या अन्तरजातीय विवाहों के आड़े आती है। 1954 के विवाह के विशेष कानून की उस धारा को अदालत ने रद्द कर दिया है, जिसमें उक्त प्रकार की शादी करनेवालों को 30 दिन पहले अपनी शादी की सूचना को सार्वजनिक करना जरुरी था।
यदि किसी हिंदू और मुसलमान या सवर्ण-दलित के बीच शादी हो तो उसकी सूचना अब तक अखबारों में छपाना या सरकार को सूचित करना जरुरी होता था। लेकिन यह अब जरुरी नहीं होगा। यह मामला अदालत में इसलिए आया था कि एक मुस्लिम लडक़ी ने एक हिंदू युवक से शादी कर ली थी। मुस्लिम लडक़ी के पिता ने अदालत में याचिका लगाई कि इस शादी की खबर किसी को कानोंकान भी नहीं लगी और दोनों ने गुपचुप शादी कर ली। इसे अवैध घोषित किया जाए।
अदालत ने 30 दिन की पूर्व-सूचना के इस प्रावधान को रद्द कर दिया और कहा कि शादी निजी मामला है। इसका ढिंढोरा पहले से पीटना क्यों जरुरी है ? उसे अनिवार्य बनाना मूलभूत मानव अधिकारों का उल्लंघन है। यही बात लव-जिहाद के उन कानूनों पर भी क्यों लागू नहीं की जाती, जो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि की सरकारें बना रही हैं ? सर्वोच्च न्यायालय स्वयं क्यों नहीं इस समस्या का संज्ञान लेता है ? 1954 के कानून में 30 दिन का नोटिस है और लव जिहाद कानून में 60 दिन का है। इसी परेशानी की वजह से लोग पहले अपना धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं और फिर शादी कर लेते हैं ताकि उन्हें किसी अदालत-वदालत में जाना न पड़े। दूसरे शब्दों में लव-जिहाद कानून की वजह से अब धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा याने यह कानून ऐसा बना है, जो शादी के पहले धर्म-परिवर्तन के लिए वर या वधू को मजबूर करेगा। ऐसी शादियाँ वास्तव में प्रेम-विवाह होते हैं।
प्रेम के आगे मजहब, जाति, रंग, पैसा, सामाजिक हैसियत- सब कुछ छोटे पड़ जाते हैं। शादी के बाद भी जो जिस मजहब या जात में पैदा हुआ है, उसे न बदले तो भी क्या फर्क पड़ता है ? हमें ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जिसमें लोग मजहब और जात के तंग दायरों से निकलकर इंसानियत और मोहब्बत के चौड़े दायरे में खुली सांस ले सकें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
अशोक के पास तो लेखकों, विचारकों, आयोजनकर्ताओं, निन्दकों, तटस्थों और आत्मीयों की एक बड़ी टीम भी है। वह भीड़ में तब्दील भी हो सकती है। भूगोल और इतिहास के संधि बिन्दु पर खड़े अशोक के लिए मेरा शहर दुर्ग कह सकता है कि हिन्दी साहित्य में एक दमदार उपस्थिति के लिए मेरे शहर का योगदान शीर्ष पर रेखांकित होगा। अशोक को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और उनके लगातार आगे भी इतनी ही गति से सक्रिय रहने की उम्मीदें मुझमें हैं।
आज 16 जनवरी 2021 को 80 साल के हो गए अशोक वाजपेयी हिन्दी साहित्य जगत में एक कद्दावर व्यक्ति संस्था की तरह स्थापित हैं। हमउम्र अशोक के साथ मैंने भी अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि ली है। लेकिन हमारे लिए इन उपाधियों का स्थानांतरण और रूपांतरण इस तरह हो गया कि अशोक मुख्यत: भाषायी अवरोधों की दीवार लांघकर अंग्रेजी के प्रबुद्ध पाठक और अध्येता होने के बावजूद हिन्दी के शीर्ष नामों में अपने स्वकर्म और उद्यम से स्थापित हो गए।
दिलचस्प यह भी है कि अशोक की ख्याति-देह केवल मांसल नहीं है। उसमें हड्डियां हैं लेकिन वे अनावश्यक रूप से कई लोगों को गड़ती हैं। अंग्रेजी के महान गद्यकार और शीर्ष विधिवेत्ता फ्रांसिस बेकन ने कुछ महत्वपूर्ण व्यावहारिक समझाइशों की सलाह देते अद्भुत निबंध लिखे हैं। उनमें एक यह भी है कि आप कुछ ऐसा करें कि आप समाज में अप्रासंगिक या लोकप्रिय वगैरह होने की कोशिशों से बचें क्योंकि उनसे कुछ हासिल नहीं होता है। ऐेसा कुछ करें जिससे लोगों को आपकी उपस्थिति का भान हो। यही बात ख्यातनाम जार्ज बर्नड शॉ ने भी कही कि आपके अस्तित्व की चिंता अगर दूसरे अपनी असमर्थता और असहमति का ऐलान करते हुए करें तो समझिए कि आप कुछ सार्थक कर रहे हैं। ‘बारे तुम गमजदा या शाद रहो, काम कुछ ऐसा करो यां कि बहुत याद रहो।‘
आईएएस में पास होने के बाद अशोक की दो-तीन बार पोस्टिंग छत्तीसगढ़ में हुई। अशोक को मेरा अस्तित्व याद रहता था। उन्होंने मुझे बुलाया जब मैं अंग्रेजी विभाग में महाविद्यालय में पढ़ाने के काम में लग गया था। अशोक चाहते थे मैं कुछ लिखना शुरू करूं लेकिन वह मेरी फितरत में नहीं था। मुझमें एक गहरी कुंठा भी थी और मैं साहबी किस्म के व्यक्तियों से एक मुदर्रिसत होने से मिलने से कतराता था। जो अंतरंगता कायम हो सकती थी वह अस्तित्व में तो रही लेकिन बहुत सूखती भी चली गई। धीरे-धीरे मैं प्राध्यापिकी छोडक़र वकालत के जरिए राजनीति में भी कुछ छोटा-मोटा हासिल करने की भवितव्यता में लगा रहा। मुझे जानकर हर वक्त अच्छा लगता कि अशोक का जन्म जिस दुर्ग में हुआ है वह वर्षों से मेरा कार्यक्षेत्र है।
अपने पिता के गुरु तथा जिनका मैं सहकर्मी रहा उन शीर्ष साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के शताब्दी समारोह को लेकर मैंने अविभाजित मध्यप्रदेश में भिलाई में एक बहुत बड़ा कार्यकम आयोजित किया और मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से अचानक मांग की कि राज्य में एक सृजनपीठ और एक शोधपीठ बख्शी जी की स्मृति में स्थापित करने की घोषणा करें। अनपेक्षित अनुमान के अनुसार दिग्विजय सिंह ने मंच पर उपस्थित अशोक वाजपेयी को पास बुलाया और अशोक के चक्षु-समर्थन के बाद ही मुख्यमंत्री ने अनुकूल ऐलान किया। मैंने बीसियों कार्यक्रमों में उसके बाद अलग-अलग शहरों में अशोक को लगातार आामंत्रित किया। अन्य महत्वपूर्ण लेखकों के साथ। अशोक के छत्तीसगढ़ की धरती में आते रहने से साहित्य की एक एकात्मक सत्ता उद्योग राजनीति और जीवन के अन्य क्रियाकलापों के इलाके में रचनात्मकता को स्पंदित करती रहती। वे क्षण यादों में ठहर गए हैं। भोपाल में साहित्य सत्ता के शीर्ष बने अशोक के कारण जब चुनिन्दा कार्यक्रमों में मंत्रियों को पहली बार दर्शक या श्रोता दीर्घा में बैठना होता तो एक नया नवाचार विकसित होता जैसा लगता। शब्द कृपण, व्यवहारिक, कृत्रिम नमनीयता और एडजस्टमेंट जैसे उपदानों से अलग हटकर अशोक की वाक्पटुता, स्पष्टता और मुंहफटता के यमक और श्लेष अलंकारों में पेंगे भरती रहती है।
अशोक मेरे पीछे पड़े रहे लेकिन जीवन की आपाधापी और तात्कालिक लाभ मिलते कई सियासी और बौद्धिक उपक्रमों में लिप्त होने के बावजूद साहित्य मेरी जिजीविषा का साधन नहीं बन पाया। तब भी मैंने अपने अन्य मित्र और सहपाठी प्रभात त्रिपाठी के कारण कुछ न कुछ छिटपुट लिखना कायम रखा। प्रभात का लिखा मुझे बहुत सुहाता है और उससे बेतकल्लुफ होकर बात करना जीवन के बहुत बहुमूल्य अनुभवों में से है।
बहरहाल यहां-वहां खुदरा कुछ लिखा हुआ इक_ा किया और सोचा कि अब इसे छपा ही लिया जाए। मैं अशोक से छह महीना पहले उम्र की दौड़ में 80 पार कर चुका हूं। कोरोना ने अभी तक मुझे नहीं पकड़ा तो सोचा कि अब आगे सीधी सडक़ है या घुमावदार मोड़ कुछ दिखाई क्यों नहीं देता। कविता मैं सुनता तो हूं और नहीं लिख पाने की अपनी असमर्थता के कारण अपना सिर धुनता हूं। लिहाजा गद्य ने साथ दिया। छोटी-मोटी आलोचनाएं लिखीं। कभी संस्मरण, कभी अंतर्कथांए और यूं ही कुछ। अशोक की कविताओं से ज्यादा मुझे उनके गद्य को पढऩे में इसीलिए बहुत सुकून मिलता है। भाषायी छटा, मुहावरेदार व्यवहार्यता और शब्दों पर अपनी अर्थमयता की मजबूत पकड़ वगैरह के चलते अशोक सटीक शब्दों को उनका संदर्भ बुनकर प्रहारक बना देते हैं। उनके और मेरे प्रिय निर्मल वर्मा की भी कहानियों को पढने के बावजूद उनका वैचारिक गद्य मुझे बहुत उत्तेजित करता है। लिहाजा मैंने भानुमति का पिटारा लेकर एक किताब छपा ही ली और उसे इस तरह प्रकाशित किया कि आज 16 जनवरी 2021 को अशोक के जन्मदिन पर उनके हाथों में हो उनकी बर्थडे गिफ्ट की तरह। इससे ज्यादा मेरे पास और कुछ नहीं है देने के लिए।
अशोक के पास तो लेखकों, विचारकों, आयोजनकर्ताओं, निन्दकों, तटस्थों और आत्मीयों की एक बड़ी टीम भी है। वह भीड़ में तब्दील भी हो सकती है। भूगोल और इतिहास के संधि बिन्दु पर खड़े अशोक के लिए मेरा शहर दुर्ग कह सकता है कि हिन्दी साहित्य में एक दमदार उपस्थिति के लिए मेरे शहर का योगदान शीर्ष पर रेखांकित होगा। अशोक को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और उनके लगातार आगे भी इतनी ही गति से सक्रिय रहने की उम्मीदें मुझमें हैं। अशोक को यह श्रेय है कि उन्होंने साहित्यिक गतिविधियों को हाशिए से उठाकर केन्द्रीय घटनाओं का संज्ञान बना दिया है। वामपंथ, दक्षिणपंथ और मध्यपथ के पचड़ों में लिप्त रहकर रचनाधर्मिता ने अशोक में अपना आश्वस्त आशियाना ढूंढा तो है।
(नसीरुद्दीन शाह। भारत के जीवित कलाकारों में सबसे बड़ा नाम। इनकी समझदारी भरी संवेदनशीलता हमें अक्सर रास्ता दिखाती आई है। पिछले कई दिनों से नसीर साहब अपने बयानों को लेकर काफी चर्चा में रहे हैं। उनसे बात की जमील गुलरेज ने। प्रस्तुत है पूरी बातचीत : संपादक)
प्रश्न: लॉकडाउन कैसा गुजरा?
नसीरुद्दीन शाह: सच्ची मुझे बहुत ज्यादा परेशानी इसलिए नहीं हुई क्योंकि मुझे घर पर रहने की आदत है। मैं फिल्में करता हूं, जो ज्यादातर एक ही दौर में खत्म हो जाती हैं। उसके बाद मैं एकाध महीने की छुट्टी जरूर लेता हूं। अपने घर पर पड़ा रहता हूं, बच्चों के साथ वक्त गुजारता हूं, पढ़ता हूं, लिखता हूं, फिल्में देखता हूं, टेनिस खेलता हूं, अपने फार्म हाउस पर चला जाता हूं। जैसे ही लॉकडाउन हुआ तो सबसे पहले तो मुझे ये ख्याल आया कि थिएटर तो बंद हो गया। थिएटर मेरी नसों में खून की तरह बह रहा है। सबसे ज्यादा मुझे कमी उसकी महसूस हुई। हॉर्न की आवाजें नहीं सुनाई दे रही थीं, ट्रैफिक जाम नहीं लग रहे थे, लोग एक-दूसरे का लिहाज रख रहे थे। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि जब टहलते हुए जेब्रा कॉसिंग पर एक गाड़ी मेरे लिए रुकी, जो कि कभी नहीं होता है। लोग नहीं रुकते यहां पर क्योंकि ईगो प्रॉब्लम हो जाती है। और आसमान साफ था, समुद्र नीला नजर आने लगा, मछलियां, जानवर, पक्षी, वह तो सब हुआ ही। लेकिन घर में बंद रहने से मुझे इतनी तकलीफ नहीं हुई, जितनी थिएटर में काम न करने की वजह से।
हमेशा इससे ही अपना दिमागी तवाजुन थिएटर के सहारे ही संभाला है। एक ऐसा दौर था, जब मैं कई सारी फिल्में कर रहा था। खुदा का शुक्र है कि सब उसे भूल गए हैं अब, सब एक से एक बेहूदा फिल्में थीं। पैसा बहुत कमा रहा था और परेशानी हो रही थी कि क्या मुझे जिंदगी भर इसी तरह की फिल्में करनी पड़ेंगी? मैं तो इससे बावला हो जाऊंगा। थिएटर ही था जिसने मुझे बचाया। उस दौरान में मैं दिन में शूटिंग करता था और शाम को पृथ्वी थिएटर में आकर शो करता था। नौजवान था उस वक्त, 30-32 साल की उम्र थी, स्टेमिना बहुत था, मगर अब मुझसे वो नहीं हो पाएगा। लेकिन थिएटर का मुझ पर बहुत बड़ा कर्ज है, जो मैं चुका नहीं पाऊंगा। जो कुछ भी मैंने सीखा है और पाया है, वह थिएटर से ही पाया है और इससे मेरा जुड़ाव कभी खत्म नहीं हो सकता, भले ही फिल्मों से मेरा जुड़ाव खत्म हो जाए। तो इस दौरान एक तो मैंने घर में झाड़ू और पोंछा लगाना सीखा, जो कि कभी नहीं किया था। किचन में जाकर मदद किया करता था। रत्ना हालांकि मुझे भगा देती थीं। फिर भी प्याज, आलू, टमाटर वगैरह काटा करता था।
एकाध बार दाल भी बनाई तो मुझे बड़े अचीवमेंट का अहसास हुआ। और ये आदत मैंने अब बना ली है कि मुझे घर में कुछ न कुछ मदद करनी है और ये मुझे बहुत पहले ही शुरू कर देनी चाहिए थी। घर में हमारे कोई भी टेंशन नहीं। न डोमेस्टिकली, न बच्चों के साथ। रमजान का महीना भी चल रहा था तो एक महीना तो यूं ही निकल गया, इफ्तारी के इंतजार में। सुनने में आया कि जेहनी बीमारियां बहुत फैल रही थीं लॉकडाउन के दौरान, डोमेस्टिक वॉयलेंस बहुत हो रही थी, मिसअंडरस्टैंडिंग बहुत हो रही थी, सेपरेशन बहुत हो रहे थे। जितना मैं सोच रहा था कि इतनी फिल्में देखूंगा, मगर पहले हफ्ते तो टीवी खुली ही नहीं। क्योंकि रत्ना, मैं और मेरे बेटे ने सोचा कि हम शेक्सपियर पढ़ते हैं। जब तक मेरा बेटा झेल पाया, हमने बैठकर पढ़े। फिर वो अपने काम में लग गया। लेकिन मैंने शेक्सपियर साहब के सारे नाटक पढ़ डाले। क्योंकि मुझे ख्याल आया कि जूलियस सीजर, मर्चेंट ऑफ वेनिस ये तो हर कोई जानता है। लोगों को ये भी मालूम है कि मैक्बेथ और हेमलेट क्या है, हालांकि लोग उनकी कहानियों में कन्फ्यूज होते हैं।
मैंने सात या आठ नाटक उनके पढ़े थे, तीन चार में काम किया था। और दो तीन ऐसे थे, जिनके बारे में सरसरी तौर पर मालूम था। मैंने सोचा कि पैंतीस नाटक लिखे हैं इस शख्स ने। और मैंने कुल बारह से वाकफियत है मेरी। मैंने बैठकर पूरे पढ़ डाले। सब बहुत अच्छे हैं, ये मैं नहीं कह सकता। कुछ उसमें बहुत ही बेहूदा हैं। हैरत होती है कि ये कैसे लिख दिया शेक्सपियर साहब ने। लेकिन उनको पढ़कर मेरा ये बीलीफ और भी पुख्ता हो गया कि हिंदी सिनेमा का कोई भी फार्मूला ना होता, अगर शेक्सपियर ना होता। सारे के सारे हिंदी सिनेमा के क्लीशेज शेक्सपियर से उधार लिए हुए हैं। फैज साहब के बारे में एक नाटक की तैयारी शुरू की ऑनलाइन। जूम में हम लोग रिहर्सल किया करते थे। फैज साहब की कैद का जो दौर था, जिसमें उन्हें रावलपिंडी कॉन्सिपिरेसी में बंद कर दिया था। इस बहाने उनकी कुछ और शायरी भी पढ़ ली। ये नाटक धीरे धीरे तैयार हो रहा है, देखिए कब पेश कर पाएंगे। लॉकडाउन खुल जाने के बाद सबसे ज्यादा खुशी यह थी कि पृथ्वी थिएटर खुला। हालांकि दो सौ कि जगह सौ लोग बैठते हैं। मगर उस रंगमंच पर वापस जाकर जो खुशी मिली, वह मैं बयान नहीं कर सकता।
प्रश्न: कोरोना से पहले और बाद की दुनिया में क्या फर्क दिख रहा है?
नसीरुद्दीन शाह: पहले तो ये कि मुझे उम्मीदें क्या थीं, वो मैं बता दूं। एक तो अगर आप आज के दौर में ये भी कह दें कि हम हिंदुस्तानी ट्रैफिक लाइट का पालन नहीं करते तो आपको एंटीनेशनल बना दिया जाएगा। अगर ये कह दें कि हम हिंदुस्तानी एक दूसरे का लिहाज नहीं करते या फिर हिंदी फिल्में मुझे पसंद नहीं है तो आप गद्दार करार दिए जाएंगे, आपको पाकिस्तान चले जाना चाहिए। मुझे उम्मीद थी कि शायद कहीं पर एक भाईचारे जैसी फीलिंग आए, जो कि 26-11 के बाद आपको याद हो, जब उन कमबख्तों ने हमला किया, बहुत से लोगों को मारा, खुद भी मरे, उस पर तो अफसोस तो है ही, लेकिन उस वक्त किसी को मजहबी फर्क का ख्याल भी नहीं आया। कितने मुसलमान भी मरे, उन मुसलमान कमबख्तों ने मारा।
हिंदुओं को, ईसाइयों को, सिखों को भी, सबको मारा, बेरहमी से मारा, बिना भेद किए मारा। मुझे लगा कि इन लोगों ने हम पर एक फेवर कर दिया है कि हम सब मिलकर इस खबीस बिहेवियर का सामना कर पाएंगे, अफसोस कि ऐसा अगले सालों में हुआ नहीं, बल्कि डिविजंस और भी बढ़ गए। कोविड के दौरान चार घंटे का नोटिस देकर जो लॉकडाउन अनाउंस किया गया, नहीं मालूम कि वो जायज था या नहीं, उस पर मुख्तलिफ रायें हैं, लेकिन शाहीन बाग के प्रदर्शन को तितर-बितर करने के लिए वो जरूर एक बहुत बढ़िया चाल थी, और जो कि हो गया। अब ये बर्ड फ्लू फैला है, तो किसानों के आंदोलन को तितर बितर करने के लिए मेरे ख्याल से ये सरकार के बहुत काम आएगा। उम्मीद थी कि लिहाज बढ़ जाएगा एक दूसरे के लिए।
जब फ्लाइटें उड़ना शुरू हुईं तो लोग दूर खड़े रहते थे, कहना मानते थे। वो तो सब वैसे ही गायब हो गया। लोग हॉर्न मारते रहते हैं, हवाई जहाज से उतरते हैं तो ऐसे भागते हैं कि दूसरी फ्लाइट पकड़नी होगी। ये तो अब सिर्फ दुआ ही कर सकते हैं। दुनिया कितनी बदली है, वो तो ऑनलाइन हो गई है सारी दुनिया, और मेरे ख्याल से अब ये रवैया बन जाएगा। शायद दफ्तर जाना इतना लाजिम ना हो, जितना पहले था। ड्रामे भी ऑनलाइन होने लगे हैं, फिल्में तो ऑनलाइन देखते ही रहे हैं। तो कहीं पर ये एक चैप्टर ऐसा है जिसमें मेरे ख्याल से काफी कुछ बदलेगा। बेहतरी के लिए या बदतरी के लिए, ये मैं नहीं कह सकता, लेकिन बदलेगा बहुत।
प्रश्न: दुनिया के अलावा खुद में क्या फर्क पा रहे हैं?
नसीरुद्दीन शाह: मैं खुद में शायद ये फर्क पा रहा हूं कि जब्त थोड़ा ज्यादा आ गया है। गुस्से का तो मेरे बहुत लोगों ने जिक्र किया है। वो एक आदत सी थी, जिसमें मैं बचपन से पड़ गया था। उस आदत को इस दौरान मैं तोड़ पाया हूं। खानदानी रिश्ते और गहरे हो गए हैं। एक साल से मेरी मेरे भाइयों-भाभियों से मुलाकत नहीं हो पाई, विदेशों में दोस्तों रिश्तेदारों से मुलाकात नहीं हो पाई, सिर्फ बात हो पाई। कहीं पर वो एब्सेंस मेक्स द हार्ट क्रो फाउंडर वाली जो बात है, वो हो गई है कि हम शायद ज्यादा एप्रीशिएट कर सकेंगे कि हम एक दूसरे की दोस्ती, मोहब्बत को, ख्यालों को, लिहाज को।
प्रश्न: हमने आपकी जवानी देखी, अब बुढ़ापा देख रहे हैं। आप बहुत कुछ कह चुके हैं। अब भी कुछ बचा है कहने को?
नसीरुद्दीन शाह: कहने के लिए तब तक कुछ न कुछ बाकी रहेगा, जब तक दिल में कोई न कोई टीस उठती है। लॉकडाउन के दौरान माइग्रेंट्स की तस्वीरें देखकर मेरा दिल टूटता था। इनके ऊपर जो पुलिस की ज्यादितयां हो रही थीं, बहुत हैरत और अफसोस होता था यह देखकर कि ये पुलिसवाले जो उन लोगों को डंडे मार मार कर भगा रहे हैं, ये भी तो उसी तबके के हैं। जरा सा हालात में बदलाव से हो सकता है कि ये भी हो सकता है कि ये भी होते सड़क पर और कोई इन्हें डंडे मार रहा होता, मेरा दिल बहुत दुखता था। फिल्म इंडस्ट्री का जहां तक ताल्लुक है कि 65 साल की उम्र हो तो आप काम नहीं कर सकते। ये क्या अहमकाना रूल है कि आप 64 के हों तो ठीक है, मगर 65 के हों तो नहीं चलेगा। जबकि कितने जवान एक्टरों को कोविड हुआ है। और फिर एक्टिंग में तो बूढ़ों की जरूरत तो पड़ेगी ही। चाहे आप नौजवान लड़के-लड़की की स्टोरी बना रहे हो, तो आपको उनके मां बाप तो चाहिए ही, या प्रिंसिपल तो चाहिए ही।
तो बुजुर्ग एक्टरों को एकॉमडेट करना था उन्हें, सो उन्होंने कर दिया। लेकिन फर्क उन्हें पड़ेगा, जो 65 साल का लाइट बॉय है, कैमरा अटेंडेंट, या जो यूनिट को चाय पिलाता है, जो मेकअप करते हैं, एक्स्ट्रा हैं, स्टंटमैन हैं, डांसर हैं, इनमें से कोई 65 साल से ऊपर हुआ तो? मेरी, परेश रावल या बच्चन साहब की बात और है, उन्हें तो कोई भी ले लेगा, इन लोगों को तो फौरन हटा दिया जाएगा। ये मुझे बहुत चुभती है ये बात और नाइंसाफी लगती है। नहीं पता कि रसोई में जो काम करते थे, उनका क्या हुआ होगा। दुआ करता हूं कि इस तबके की मेहनत को, योगदान को शायद अब पहचाना जाए।
प्रश्न: एक तबका है, जो समझता सब कुछ है, मगर बोलता कुछ नहीं। फिर एक तबका है जो बोलता बहुत है, पर समझता नहीं। ऐसे में जो चुप हैं, वे क्या करें?
नसीरुद्दीन शाह: ये आपके जमीर की बात है। आप किसी को उकसा तो नहीं सकते कि इसमें यकीन करो। अगर आपका जमीर चुभता है तो आपको, तो उन्हें कहना चाहिए। और ये बहुत ही मशहूर बात है कि जब सब कुछ तबाह हुआ तो आपको अपने दुश्मनों का शोर उतना परेशान नहीं करेगा, जितनी आपको आपने दोस्तों की खामोशी चुभेगी। मुझ पर कोई असर नहीं पड़ रहा, ये कहने से काम नहीं चलेगा। अगर किसान वहां जमीन पर कड़कती सर्दी में बैठे हैं, तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा- ये हम नहीं कह सकते अब। मुझे उम्मीद है कि किसानों का प्रदर्शन फैलेगा और आम जनता इसमें शामिल होगी। खामोश रहना जुल्म करने वाले की तरफदारी करना है, ऐसा मानता हूं। और हमारे बड़े बड़े धुरंधर लोग फिल्म इंडस्ट्री के लोग चुप बैठे हैं। इसलिए कि उनको लगता है कि बहुत कुछ खो सकते हैं वो। अरे भई, जब आपने इतना कमा लिया कि आपकी सात पुश्तें बैठ कर खा सकती हैं तो कितना खो लोगे आप?
प्रश्न: क्या दुनिया का और अपना भी वही मुस्तकबिल दिखता है, जो सोचा था? या अभी यह सोच से भी बुरा दिखता है या उम्मीद से अच्छा?
नसीरुद्दीन शाह: जो हो रहा है, अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि, और मुश्किल यह है कि किसी भी तरह के ख्यालों के एक्सचेंज की गुंजाइश ही नहीं रही। अगर आप कुछ भी कहें तो फौरन आप पर कुछ न कुछ इल्जाम लगाया जाएगा। एक कार्यक्रम में मैंने कहा था कि एक इंसान (पुलिसवाले) की मौत एक गाय की मौत से कम अहमियत लगती है। जो उधम मचा, मुझे नहीं पता क्यों मचा था। मैं किसी की धार्मिक भावनाओं की बात नहीं की, मैंने सिर्फ ये कहा कि एक इंसान की मौत कम अहमियत रखती है, तो इसका इंटरप्रिटेशन किया गया कि मुझे डर लग रहा है।
मैंने बार बार दोहराया कि मुझे डर नहीं लग रहा, मुझे गुस्सा आ रहा है। मैं अपने मुल्क में हूं, तीन सौ साल से मेरी पुश्तें यहां पर हैं, अगर ये भी चीजें मुझे हिंदुस्तानी नहीं बनातीं तो कौन सी चीजें किसी को हिंदुस्तानी बनाती हैं? अब लव जिहाद लेकर आए हैं कि हिंदू मुसलमान में रिश्ते का तो सोचें ही ना, आपस में मिलना जुलना भी छोड़ दें। जब हमारी शादी होने वाली थी, तब मेरी वालिदा ने मुझसे पूछा, कि क्या तुम रत्ना का ईमान लाओगे तो मैंने मना कर दिया। मेरी अम्मी बोलीं, हां, सही है। मजहब कैसे बदल सकते हो। जो बातें बचपन में सिखाई गई हैं, उन्हें आप कैसे बदल सकते हैं। ये मेरी अम्मी का कहना था, जबकि वे बेहद ऑर्थोडॉक्स फैमिली की थी।
प्रश्न: लोकतंत्र पर कुछ कहेंगे, अगर बुरा न लगे?
नसीरुद्दीन शाह: एक अंग्रेजी की कहावत है कि डेमोक्रेसी इज द वर्स्ट फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट, एक्सेप्ट फॉर ऑल द अदर्स। और दुनिया की जो सबसे पुरानी डेमोक्रेसी है, यानी अमेरिका, वहां डेमोक्रेसी का क्या हश्र हो रहा है, वो तो आप देख ही रहे हैं। मेरे लिए डेमोक्रेसी का डेफिनेशन यह है कि सबके बराबर हक तो हों, पर सबकी बराबर जिम्मेदारी भी होनी चाहिए। एक सेंस ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी जब तक हममें पैदा नहीं होगी कि मैं दूसरे का थोड़ा ख्याल रखूं।
अगर कोई गाड़ी आगे ले कर जा रहा है तो उसे अहम का सवाल न बनाएं। जब तक डंडा लेकर कोई बैठा ना हो, तब तक हम अपना फर्ज पूरा नहीं करेंगे। ये डेमोक्रेसी का आइडियल नहीं है। हमें बराबरी का व्यवहार करना चाहिए। जो कहीं नहीं हुआ, बल्कि कम्युनिज्म में भी नहीं हुआ। वहां भी बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमते थे। तो बराबरी की जिम्मेदारी हर एक को लेनी होगी। (janchowk.com)
-एंथनी जर्चर
पहले सौ दिन किसी भी नये राष्ट्रपति के लिए बेहद अहम होते हैं, ये वो समय होता है जब किसी भी नेता और उनके प्रशासन का राजनीतिक प्रभाव सबसे ज़्यादा होता है। ऐसे में महाभियोग का ये मुकदमा बाइडन की ऊर्जा और समय जरूर नष्ट करेगा।
अमेरिकी संसद में सुरक्षाकर्मियों को बंदूकें निकालकर सदन की सुरक्षा करनी पड़ी थी। ठीक एक सप्ताह बाद अब संसद के उसी सदन में हिंसक भीड़ का समर्थन करने वाले राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ महाभियोग शुरू हुआ है।
अमेरिका के 231 साल के इतिहास में यह पहली बार है, जब किसी राष्ट्रपति पर उनके कार्यकाल में दोबारा महाभियोग शुरू हुआ हो।
एक राष्ट्रपति जो अपने कार्यकाल के ऐतिहासिक होने की शेखी बघारते रहे थे, उनके लिए कार्यकाल का यह शर्मनाक अंत है।
महाभियोग के मुकदमें में एक ही आरोप है। राष्ट्रपति ट्रंप पर राजधानी पर हमला करने वाली भीड़ को उकसाने का आरोप लगाया गया है।
बीते बुधवार को ट्रंप समर्थकों की भीड़ ने अमेरिकी संसद भवन पर हमला कर दिया था।
हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में लाया गया महाभियोग प्रस्ताव अब सीनेट में भेजा जाएगा। यहाँ सौ सदस्यों की सीनेट जूरी की तरह बैठेगी, जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश करेंगे। राष्ट्रपति पर महाभियोग के इस मुक़दमे का फैसला जो बाइडन के पद संभालने से पहले आ जाएगा, इसे लेकर शक है।
इस समय संसद की इस कार्रवाई के राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन किया जा सकता है। एक साल से कुछ अधिक समय पहले जब हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में ट्रंप पर महाभियोग चला था, तब रिपब्लिकन पार्टी के किसी सदस्य ने इसके समर्थन में वोट नहीं किया था। इस बार ट्रंप की अपनी पार्टी के दस सदस्य उनके खिलाफ हो गये हैं और महाभियोग का समर्थन कर रहे हैं।
बुधवार को जब राजधानी में हिंसा हुई थी तो बहुत से रिपब्लिकन नेताओं ने ट्रंप का विरोध किया था।
पूर्व उप-राष्ट्रपति डिक चेनी की बेटी और सदन में तीसरे नंबर की रिपब्लिकन नेता लिज़ चेनी ने तो खुलकर राष्ट्रपति का विरोध किया।
एक बयान में चेनी ने कहा, ‘अमेरिका में कभी भी किसी भी राष्ट्रपति ने इस तरह संविधान और अपनी शपथ का उल्लंघन नहीं किया है।’
चेनी के इस बयान का डेमोक्रेट नेताओं ने बार-बार उल्लेख किया है। ऐसी चर्चाएं भी हैं कि सीनेट में भी कई रिपब्लिक नेता राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ वोट कर सकते हैं।
न्यूयॉर्क टाईम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि रिपब्लिकन नेता मिच मैककोनेल राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाए जाने से खुश हैं।
उन्होंने उम्मीद की है कि अब रिपब्लिकन पार्टी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से अपना पिंड छुड़ा सकेगी। इसके बाद मैककोनेल ने कहा है कि वो महाभियोग का मुकदमा खत्म होने तक अपना फ़ैसला गुप्त रखेंगे। लेकिन सीनेट के ख़ामोश दफ़्तरों से ऐसी बातें हवा में ही बाहर नहीं निकलती हैं। उनमें कुछ ना कुछ तो होता ही है।
ट्रंप को लेकर रिपब्लिकन
पार्टी में विरोध
अब रिपब्लिकन पार्टी में भी तलवारें खिंच गई हैं और लोग खेमों में बंट रहे हैं।
अगले कुछ दिनों में रिपब्लिकन नेता अपना फैसला लेंगे। एक तरफ राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की राजनीति का समर्थन है जिसने साल 2016 में पार्टी को व्हाइट हाऊस और संसद दोनों का नियंत्रण दिया था। हालांकि पार्टी 2020 में दोनों को ही गंवा बैठी।
दूसरी तरफ एक अनिश्चित भविष्य है लेकिन वो कम से कम ट्रंप की भडक़ाऊ राजनीति से मुक्त है। डेमोक्रेट नेताओं ने ट्रंप और उनकी राजनीति पर हमला किया। बुधवार को हुए हमले के बाद से ही डेमोक्रेट नेता ट्रंप पर पलटवार करने की रणनीति बना रहे थे।
उनका मानना है कि संसद पर हमला सिर्फ अमेरिकी लोकतंत्र के लिए ही खतरनाक नहीं था, बल्कि उनकी अपनी जानें भी खतरें में थीं। और अंत में उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप पर दोबारा महाभियोग चलाने का फैसला लिया। ये अलग बात है कि ये राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल का आखिरी सप्ताह है।
ट्रंप को दो बार महाभियोग का सामना करने वाला राष्ट्रपति बनाना उनका अधिक कारगर कदम हैं। बुधवार को उन्होंने सिर्फ राष्ट्रपति ट्रंप पर ही महाभियोग नहीं चलाया है, बल्कि ट्रंप की राजनीति को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है।
महाभियोग के मुकदमे में उन महीनों का खासतौर पर जिक्र है, जब ट्रंप नवंबर में होने वाले आम चुनावों पर हमलावर हो रहे थे।
हाउस ऑफ रिप्रेजेंटिटिव में बहस के दौरान डेमोक्रेट नेताओं ने ट्रंप के व्यवहार पर सवाल उठाए। रिपब्लिकन पार्टी में ऐसे नेता भी हो सकते हैं जो ट्रंप और उनकी राजनीति से आगे बढऩा चाहते हों लेकिन ये भी साफ हो गया है कि कांग्रेस में ऐसे डेमोक्रेट नेता भी हैं जो ट्रंप और पिछले सप्ताह हुई हिंसा को रिपब्लिकन पार्टी के गले में बांधना चाहते हैं।
ट्रंप के लिए राहें मुश्किल
बीते कुछ महीनों में हुए घटनाक्रम के अलग दिशा लेने की कल्पना कीजिए।
मान लीजिए कि डोनाल्ड ट्रंप ने नवंबर के चुनावों में मिली हार को चुनौती देने के बजाए शांति से स्वीकार कर लिया। तो जॉर्जिया में हुए उपचुनाव में कम से कम रिपब्लिकन पार्टी एक सीट जीतकर सीनेट पर अपना नियंत्रण तो बरकरार रखती ही।
तब ट्रंप रिपब्लिकन नेताओं की तरफ से अपने आप को दफन कर दिए जाने की जल्दबाजी का सामना करने के बजाए पार्टी के किंगमेकर बन गए होते। तब साल 2024 में उनकी फिर से उम्मीदवारी पेश करने की एक वास्तविक संभावना होती। लेकिन अब ट्रंप के लिए राहें मुश्किल हो गई हैं। उनके सोशल मीडिया अकाउंट बंद हैं। उनका पसंदीदा ट्विटर खाता भी बंद है। भले ही सीनेट में अपराधी घोषित किए जाने के बाद भी उन्हें फिर से चुनाव लडऩे से नहीं रोका जा सकेगा, लेकिन रिपब्लिकन पार्टी के भीतर उनका प्रभाव तो कम हो ही गया है। (बाकी पेज 5 पर)
राष्ट्रपति ट्रंप के समर्थकों का कहना है कि पार्टी में अब भी उनका गहरा प्रभाव है। लेकिन पिछले कुछ हफ्तों के घटनाक्रम ने पार्टी में उनके विरोधियों को मजबूत किया है, जो उन्हें चित करने का कोई मौका अब नहीं छोड़ेंगे।
ट्रंप अब अपने सबसे मुश्किल दौर में हैं। बीते पाँच सालों से ट्रंप अपने आलोचकों और अपना राजनीतिक मर्सिया लिखने वालों को गलत साबित करते रहे थे। वो ऐसे स्केंडलों और विवादों से बाहर निकल आये जो अधिकतर राजनेताओं का करियर खत्म कर देते। लेकिन अब, आखिरकार, ये वक्त उनके लिए पहले से अलग हो सकता है।
सीनेट का मुकदमा बाइडन को भी असहज करेगा। राष्ट्रपति पद संभालते ही बाइडन के सामने कोरोना महामारी की चुनौती होगी जिसमें अमेरिका में अब रोज़ाना औसतन चार हजार लोग मर रहे हैं और अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट पड़ रही है।
उन्हें इन मुश्किल हालात का सामना ऐसे समय करना है जब सीनेट उनके पूर्ववर्ति राष्ट्रपति पर मुकदमा चला रही होगी।
बाइडन के सामने चुनौती
रिपब्लिकन नेताओं ने बुधवार को चेताया है कि महाभियोगा का ये मुकदमा अमेरिकी लोगों के बीच और अधिक मतभेद पैदा करेगा। ये ऐसे समय में हो रहा है जब अमेरिकी लोगों को राहत की जरूरत है।
उनका कहना है कि इससे बाइडन के लिए देश को एकजुट करने का वादा पूरा करना भी मुश्किल होगा। महाभियोग का ये मुक़दमा बाइडन के सामने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के शुरुआती दिनों में वास्तविक चुनौतियां पेश करेगा।
एक सीनेट जो राष्ट्रपति ट्रंप पर महाभियोग का मुकदमा चलाने और अपना फैसला देने में व्यस्त होगी, वो राष्ट्रपति बाइडन के पहले सौ दिन के एजेंडे को कितना पूरा कर पाएगी?
बाइडन अपने प्रशासन के लिए जो टीम चुनेंगे उसे भी सीनेट में अनुमोदित कराने में दिक्कतें आएंगी इसकी वजह से बाइडेन को संघीय सरकार का विशाल कार्यभार संभालने में भी दिक्कतें आ सकती हैं।
बाइडन ने पूछा है कि क्या सीनेट ट्रंप पर महाभियोग चलाने के साथ-साथ उनके प्रशासन के लिए चुने गए लोगों को पुष्ट करने की कार्रवाई भी कर सकती है?
इसकी कोई गारंटी नहीं है कि निष्पक्ष सीनेट में रपब्लिकन नेता बाइडेन के इस प्लान के अनुसार चलें हीं।
हालांकि, पहले सौ दिन किसी भी नये राष्ट्रपति के लिए बेहद अहम होते हैं, ये वो समय होता है जब किसी भी नेता और उनके प्रशासन का राजनीतिक प्रभाव सबसे ज़्यादा होता है। ऐसे में महाभियोग का ये मुकदमा बाइडन की ऊर्जा और समय जरूर नष्ट करेगा। (bbc.com)
-महेंद्र सिंह
किसानों का भविष्य देश में नाजुक मोड़ पर है। किसानी और किसान के हालात में आजादी के बाद बहुत से परिवर्तन हुए, मगर इतना बड़ा मोड़ कभी नहीं आया। किसानों को पहले ही अपने फसलों के कम दाम मिलते थे। मगर जो कुछ भी मिल रहा था, उसे भी छीनने की ऐसा प्रयास कभी नहीं हुआ। सरकार किसान की आमदनी न बढ़ा पाए यह तो हम देखते आ रहे थे, नीतियों के मायाजाल के चलते किसान को न्याय न मिल पाए, यह भी देखते थे। मगर अन्याय की नीतियों की घोषणा खुलेआमकी जाए, यह अब देख रहे हैं। अब अगर किसान चेतना और संगठन मजबूत नहीं हुए तो किसान को न्याय न संसद में मिलेगा और न किसी अदालत में।
कभी किसानों के आंदोलन को इतना बदनाम करने की कोशिश नहीं की गई थी। कभी यह बताने की कोशिश नहीं की गई थी कि किसान का हित सरकार या पूँजीपति किसान से कहीं ज्यादा जानते हैं। इस अभूतपूर्व स्थिति में देश में किसानों को अपना अस्तित्व बचाने के बारे में सोचना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सरकार और कोरपोरेट वाले सारे खेतों को खा जाएंगे, उनमें उद्योग लगा देंगे। खेत रहेंगे, किसानी कम भले हो जाए, वह भी रहेगी। मगर किसान अपने ही खेत में कोरपोरेट का गुलाम होता चला जाएगा।
जबरन थोपे गए तीन कृषि कानूनों और बिजली संशोधन बिल ने किसानों, मजदूरों को जबरदस्त पीड़ा पहुँचाई है कि मानो उन पर आकाशीय बिजली उन्हें भस्म करने के लिए बार-बार कौंध रही है। परंतु यह अच्छा है कि देश के किसानों का एक बड़ा हिस्सा अपनी जीविका एवं अस्तित्व के लिए एक ऐतिहासिक संघर्ष के लिए खड़ा हो गया है।
शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारी किसानों ने पुलिस के लाठी चार्ज, कडक़ड़ाती ठंड में पानी की बौछारों, आँसू गैस के गोलों का साहसपूर्वक सामना किया है। सरकार ने सडक़ों पर खाई खुदवा दी, जिस से शांतिप्रिय किसान न गुजर सकें। दूसरी तरफ देखें तो बंगाल के राज्यपाल टीएमसी सरकार को संविधान विरोधी बता रहे हैं। पुलिस की ओर से बार-बार उकसाए जाने के बावजूद किसानों ने धीरज रखा और हिंसा के लिए उत्तेजित नहीं हुए। अफसोस है कि सरकार इस किसान संघर्ष को विफल करने के लिए घटिया असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक हथकंडे अपना रही है।
सरकार हीले बहाने छोड़ यह क्यों नहीं मान रही है कि प्रत्येक वर्ष खरीफ और रबी फसलों का एमएसपी घोषित किया जाएगा। किसान हितैषी बनने के स्वांग से पीछे नहीं हटने वाली सरकार खेती के कोरपोरेटीकरण के मौजूद कानूनों को छोडक़र नए किसान समर्थक कानून क्यों नहीं बनाना चाहती। क्यों नहीं सरकार ऐलान कर देती कि मंडियों और उनके बाहर किसानों के अनाज उत्पाद एमएसपी से कम कीमत पर खरीदने वालों को दो वर्ष की सज़ा और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। किसान देश में अथवा देश के बाहर कहीं भी एमएसपी से अधिक कीमत मिलने पर ही अपने अनाज उत्पाद बेच सकेंगे।
इस अभूतपूर्व घड़ी में किसानों को देश में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए मिलकर अपना मजबूत संगठन बनाना चाहिए। जिसमें सभी जातियों, भाषाओं व धर्मों के किसान हों। अगर एक संगठन संभव नहीं हो तो संगठनों का एक मंडल बनाना चाहिए। किसान को याद रखना होगा कि उसे हर हालत में राजनीति को अपने पक्ष में करना है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाया तो उसे बहुत पीछे धकेल दिया जाएगा।
किसान संगठनों को मिल जुलकर प्रत्येक प्रदेश, जिले, ब्लाक गाँव और राष्ट्र स्तर पर समिति औरक़ार्यकारिणी का निर्माण करना चाहिए। भ्रामक जुमलों फरेबी वादों, हिंदुत्व के भ्रमजाल, भ्रामक प्रपंचों से भी उसे सावधान रहना होगा। किसान राजनीतिक लड़ाई तब तक नहीं जीत पाएगा, जब तक कि वह अपने सदियों पुराने अपने सीधे- सादे धर्म को नहीं अपनाएगा।
किसानों ने हिंदुत्व के माया जाल को परख लिया है। सभी जातियों के किसान हिंदुत्व की बजाय किसान धर्म को मानें और आपस में भाईचारा और मेलमिलाप को मजबूत करें। किसान ही राष्ट्र है, किसानों के कारण ही गाय गऊमाता कहलाती है। किसानों की अवहेलना कर भारत माता का ढोंग बेमानी है। किसानों और उनसे सहानुभूति रखने वाली जनता को हर स्तर पर फूट डालने वाली ताकतों का गाँव से बहिष्कार करना चाहिए।
मध्यप्रदेश में भाजपा के कृषि मंत्री ने सार्वजनिक बयान में किसान संगठनों को कुकुरमुत्ता बताया है, अर्थात देश के किसान ग्रामीण भाजपा के लिए घास, फूस और कीड़े मकोड़े हैं। किसान संघर्ष को खालिस्तान की साजिश तक बता दिया गया। इशारा पाकर कई मीडिया चैनलों ने भी किसानों को खालिस्तानी और देशद्रोही बता कर आंदोलन को अवैध ठहराने की पहल की। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसे अपनी विश्वसनीयता धूमिल करने से बचना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि किसानों के बेटे ही छावनियों में हैं और सरहद पर तैनात हैं।
मीडिया से ही एक और आवाज आई है, जो चैनलों के शोर में दब गई है। हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार और कृषि मामलों के जानकार पी. साईनाथ ने मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीनों कृषि विधेयकों की कड़े शब्दों में आलोचना की है। उन्होंने माना कि इन कानूनों के चलते देश में चारों और चौतरफा अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। पूर्व में किसानों के लिए थोड़ी बहुत व्यवस्था बनी हुई थी, सरकार उसे भी उजाड़ रही है। उन्होंने फसल बीमा योजना को राफेल से भी बड़ा घोटाला बताया है। (लेखक सेवानिवृत प्राचार्य हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जैसी दुर्दशा आज हो रही है, किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति की कभी नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि ढाई सौ साल के इतिहास में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति पर कभी महाभियोग चला ही नहीं। ट्रंप के पहले तीन राष्ट्रपतियों पर महाभियोग चले हैं। 1865 में एंड्रू जॉनसन पर, 1974 में रिचर्ड निक्सन पर और 1998 में बिल क्लिंटन पर! इन तीनों राष्ट्रपतियों पर जो आरोप लगे थे, उनके मुकाबले ट्रंप पर जो आरोप लगा है, वह अत्यधिक गंभीर है।
ट्रंप पर राष्ट्रद्रोह या तख्ता-पलट या बगावत का आरोप लगा है। अमेरिकी संसद (कांग्रेस) के निम्न सदन-प्रतिनिधि सदन-ने ट्रंप के विरोध में 205 के मुकाबले 223 वोटों से जो महाभियोग का प्रस्ताव पारित किया है, वह अमेरिकी संविधान, लोकतंत्र की भावना और शांति-भंग के सुनियोजित षडय़ंत्र का आरोप ट्रंप पर लगा रहा है। ट्रंप अब अमेरिका के संवैधानिक इतिहास में ऐसे पहले खलनायक के तौर पर जाने जाएंगे, जिन पर चार साल में दो बार महाभियोग का मुकदमा चला है। अब यह प्रस्ताव उच्च सदन (सीनेट) में जाएगा। 100 सदस्यीय सीनेट के अध्यक्ष हैं, रिपब्लिकन पार्टी के नेता और उप-राष्ट्रपति माइक पेंस! पेंस की सहमति होती तो ट्रंप को बिना महाभियोग चलाए ही चलता किया जा सकता था। अमेरिकी संविधान के 25 वें संशोधन के मुताबिक उप-राष्ट्रपति और आधा मंत्रिमंडल, दोनों सहमत होते तो ट्रंप को पिछले सप्ताह ही हटाया जा सकता था लेकिन पेंस ने यह गंभीर कदम उठाने से मना कर दिया है।
अब सीनेट भी उन्हें तभी हटा सकेगी, जबकि उसके 2/3 सदस्य महाभियोग का समर्थन करें। इसमें दो अड़चने हैं। एक तो सीनेट का सत्र 19 जनवरी को आहूत होना है। उस दिन याने एक दिन पहले ट्रंप को हटाना मुश्किल है, क्योंकि इस मुद्दे पर बहस भी होगी। 20 जनवरी को वे अपने आप हटेंगे ही। दूसरी अड़चन यह है कि सीनेट में अब भी ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के 52 सदस्य हैं और डेमोक्रेटिक पार्टी के 48. जो दो नए डेमोक्रेट जीते हैं, उन्होंने अभी शपथ नहीं ली है और 67 सदस्यों से ही 2/3 बहुमत बनता है। इसके अलावा माइक पेंस एक भावी राष्ट्रपति के उम्मीदवार के नाते अपने रिपब्लिकन पार्टी के सीनेटरों को नाराज़ नहीं करना चाहेंगे। वे बाइडन की शपथ के बाद भी महाभियोग जरुर चलाना चाहेंगे ताकि ट्रंप दुबारा चुनाव नहीं लड़ सकें और रिपब्लिकन पार्टी उनसे अपना पिंड छुड़ा सके। कई रिपब्लिकन सीनेटर और कांग्रेसमेन ट्रंप के विरुद्ध खुले-आम बयान दे रहे हैं। अमेरिकी सेनापतियों ने भी संविधान की रक्षा का संकल्प दोहराकर अपनी मन्शा प्रकट कर दी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी द्वारा जदयू में टूट को अंजाम देने के बाद बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चला रहे एनडीए के इन दोनों घटक दलों के बीच रिश्तों में आई तल्खी से अफवाहों का बाजार गर्म है.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा -
2020 के विधानसभा चुनाव के समय से ही भाजपा का लोजपा प्रेम जदयू को सताता रहा है. राजनीतिव नौकरशाही के गलियारे में यह चर्चा आम है कि आखिरकार भाजपा-जदयू का साथ कब तक चल सकेगा, हालांकि दोनों ही पार्टियों के नेता इस तरह की स्थिति आने से साफ तौर पर इनकार कर रहे हैं, किंतु इतना तो जाहिर है कि जदयू कहीं न कहीं बड़े से छोटे भाई की भूमिका में आने से आहत जरूर है.
बीते दिनों जदयू की प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में पराजित उम्मीदवारों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पार्टी अध्यक्ष आरसीपी सिंह की मौजूदगी में हार का ठीकरा भाजपा के माथे फोडने से परहेज नहीं किया. कई प्रत्याशियों ने साफ कहा कि भाजपा ने साजिशन उन्हें हरवाया है. नई सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर भी बात आगे नहीं बढ़ सकी है.
मुख्यमंत्री पहले ही इसके लिए भाजपा की ओर से देरी की बात कह चुके हैं. नीतीश कुमार को जानने वालों का कहना है कि वे अपने स्वभाव के विपरीत नजर आ रहे हैं. लगता है कहीं न कहीं कशमकश की स्थिति है. यह स्थिति गठबंधन धर्म के अनुकूल कतई नहीं कही जा सकती. विश्वास का संकट दोनों ही दलों के लिए किसी भी सूरत में मुफीद तो नहीं ही है. ऐसी स्थिति में राजनीतिक परिदृश्य पर सवाल उठना लाजिमी है.
खूबचल र हेहैं बयानों के तीर
हाल के दिनों में बिहार में राजनीतिक बयानबाजी चरम पर रही. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने पहले ही जदयू से कहा था कि बिहार में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाएं, वे नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाएंगे. हालांकि नए साल में राजद ने साफ कहा कि जदयू से गठजोड़ का सवाल ही नहीं है. जिस दल का कोई सिद्धांत नहीं, उसके साथ राजद नहीं जाएगा.
बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने तंज कसते हुए कहा, "भाजपा को कई फैसले नीतीश कुमार से कराने हैं, जिसकी चिंता साफ दिख रही है. रस्साकशी के साथ यह सरकार ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है. हम मध्याविधि चुनाव के मद्देनजर तैयारी कर रहे हैं."
बनी रहेगी एनडीए की सरकार
243 सदस्यों की विधान सभा में 125 सीटें जीत कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में बनी रहेगी. लेकिन राज्य में पहली बार बीजेपी जेडीयू को पीछे कर एनडीए का बड़ा दल बन गई है. बीजेपी का संख्या-बल 2015 की 53 सीटों से बढ़ कर 74 पर पहुंच गया है और जेडीयू का 71 से गिर कर 43 पर आ गया है.
इस बीच कांग्रेस के एक नेता भरत सिंह का बयान आया, "कांग्रेस के आधे से अधिक विधायक दल बदलने को तैयार हैं." पार्टी के विधायक दल के नेता अजीत शर्मा ने इसका कड़ा प्रतिकार किया और बयान देने वाले नेता के वजूद पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया.
राजद के तंज का अंतत: प्रतिकार करते हुए भाजपा ने भी पलटवार किया और इशारों-इशारों में ही लोजपा को भी घेरा. भाजपा के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने दावा किया, "खरमास (मकर संक्रांति) के बाद तेजस्वी अपनी पार्टी बचा लें. राजद में परिवारवाद के प्रति बौखलाहट है." वहीं लोजपा को घेरते हुए कहा कि जो हमारा साथ छोड़ गए, उन्हें जनता ने सचाई से अवगत करा दिया.
भूपेंद्र यादव के इस बयान का समर्थन जदयू नेता केसी त्यागी ने भी किया. उन्होंने कहा, "मैं भूपेंद्र यादव के आकलन से सहमत हूं. बिना सत्ता के कांग्रेस और आरजेडी के लोग ज्यादा दिन रह ही नहीं सकते. जैसे जल के बगैर मछली नहीं रह सकती है."
बिहार सरकार के मंत्री ललन सिंह ने तो और एक कदम आगे जाकर कहा, "भूपेंद्र यादव जिस दिन चाहेंगे पूरी आरजेडी का भाजपा में विलय हो जाएगा." राजद भी कहां तक चुप रहती. पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने पलटवार करते हुए कहा, "राजद पर कृपा न करें, तोड़ सकें तो तोड़ कर दिखाएं."
पार्टियों की हालिया बयानबाजी तो यही बता रही कि खरमास के खत्म होने यानी 14 जनवरी के बाद प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलट-फेर होने वाला है. पत्रकार अमित भूषण कहते हैं, "इतना तो तय है कि जो भी होना है, वह कांग्रेस में ही होना है. भाजपा-जदयू का यही सॉफ्ट टारगेट भी है. अगर जदयू इसे तोड़ने में कामयाब होती है तो निश्चय ही एनडीए में उसकी बारगेनिंग पोजीशन बढ़ जाएगी."
हारे हुए जदयू नेता बोले, सारा खेल भाजपा का
2020 के विधानसभा चुनाव में 115 सीटों पर चुनाव लड़कर जदयू महज 43 सीट जीत सकी. यह संख्या 2015 के चुनाव की तुलना में 28 कम रही. ऐसी स्थिति क्यों और कैसे आई, इस पर पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में विमर्श किया गया. बैठक में विधानसभा चुनाव में पराजित प्रत्याशियों ने साफ कहा कि हमारी हार भाजपा की वजह से हुई और उनकी पीठ में छुरा घोंपा गया.
इन नेताओं ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की उपस्थिति में अपनी भड़ास निकालते हुए यहां तक कह दिया कि राजधानी में भाजपा के बड़े नेता जो कहें, क्षेत्र में बीजेपी-एलजेपी भाई-भाई का नारा लगाया जा रहा था. भाजपा का वोट जदयू को ट्रांसफर कराने की बजाय लोजपा को दिलवाया गया. पार्टी के निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने भी पीठ में छुरा भोंकने की बात इशारों में ही की, "हमें दूसरों के द्वारा धोखा दिया जा सकता है, हम किसी को धोखा नहीं देते. यह हमारा चरित्र है."
नाम की कहानी
बिहार प्राचीन काल में मगध कहलाता था और इसकी राजधानी पटना का नाम पाटलिपुत्र था. मान्यता है कि बिहार शब्द की उत्पत्ति बौद्ध विहारों के विहार शब्द से हुई जो बाद में बिहार हो गया. आधुनिक समय में 22 मार्च को बिहार दिवस के रूप में मनाया जाता है.
सबकी बातों को सुनने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चुनाव के नतीजों को भूलकर काम में जुटने की सलाह दी, "पराजित हुए नेता भी अपने क्षेत्र में विधायक की तरह ही काम करें. उनकी सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी." भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं, "नीतीश कुमार कैसे कह सकते हैं कि उन्हें भाजपा ने धोखा दिया है. अगर आप चुनाव के आंकड़ों को देखें तो साफ है कि करीब पचास से ज्यादा सीटों पर जदयू की हार बीस हजार से ज्यादा वोटों से हुई है. ऐसी स्थिति किसी पार्टी की वजह से नहीं आई. उन्हें भली-भांति पता है कि उनके खिलाफ एंटी इन्कमबैंसी थी और इसी वजह से कई जगहों पर जदयू को पराजित होना पड़ा."
साथ चलना दोनों की मजबूरी
जानकार बताते हैं कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर नीतीश कुमार ने फिर से मुख्यमंत्री का पद स्वीकार किया. नीतीश यह भी जानते हैं कि पिछले चुनाव में भाजपा ने परोक्ष नुकसान नहीं किया, किंतु स्वभाव के अनुरूप वे कितने दिनों तक सहयोगी दलों का दबाव झेल पाएंगे यह कहना मुश्किल है. यह देखने की बात होगी कि मंत्रिमंडल विस्तार का काम वे कितनी आसानी से कर पाएंगे.
हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के प्रमुख जीतनराम मांझी ने अपने स्वभाव के अनुरूप एक और मंत्री पद तथा एमएलसी सीट की मांग कर दी है. ऐसे दबाव तो बढ़ेंगे ही. अगर जदयू के लिए विकल्पों को देखा जाए तो राजद के साथ जाना उनके लिए थोड़ा मुश्किल है. इसे लेकर पार्टी की पहले ही काफी किरकिरी हो चुकी है कि जिस लालू प्रसाद का विरोध ही उनकी राजनीतिक धुरी थी, उसे त्याग कर वे उनके साथ चले गए. इसलिए जदयू पर सिंद्धांतविहीन राजनीति करने का भी आरोप लगा और फिर बहुत दिनों तक राजद-जदयू एकसाथ चल भी नहीं सके. अंतत: फिर भाजपा के साथ आना पड़ा.
इसी तरह भाजपा के लिए भी नीतीश कुमार अपरिहार्य हैं. उन्हें पता है कि अगर लालू प्रसाद को रोकना है तो नीतीश कुमार का साथ जरूरी है. शायद इसी वजह से भाजपा ने यह तय कर लिया था कि सीट चाहे जिस दल को जितनी भी आए, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे. पत्रकार एसके पांडेय कहते हैं, "राजनीति में ट्यूनिंग शब्द का बड़ा महत्व है और सुशील मोदी का साथ छूटने के बाद नीतीश कुमार इसे भली-भांति समझ भी रहे हैं. सुशील मोदी पार्टी व मुख्यमंत्री के बीच बेहतर कोर्डिनेशन का काम कर रहे थे. लिहाजा अब बहुत प्रश्नों का जवाब तो आने वाला समय ही देगा."
वैसे गठबंधन के दोनों प्रमुख दल अपनी-अपनी तैयारी में जुटे हैं. एक ओर भाजपा प्रशिक्षण शिविर के नाम पर कार्यकर्ताओं को अपनी रीति-नीति बता रही है, तो वहीं दूसरी ओर जदयू अपने परंपरागत वोट समेटने की कोशिश कर रही है. यही कारण है कि लव-कुश समीकरण को फिर से मजबूत करने के लिए पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह को बनाने के बाद जदयू ने उमेश कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है.
वाकई, यह कहना मुश्किल है कि एनडीए की सरकार का हश्र क्या होगा. नीतीश कुमार व भूपेंद्र यादव के दावे के अनुरूप सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी या फिर दोनों के रास्ते जुदा हो जाएंगे. लेकिन इतना तो तय है कि स्वार्थ व जाति का समीकरण जब तक खांचे में फिट बैठेगा तब तक गठबंधन धर्म का निर्वहन होता रहेगा. वैसे, राजनीति वर्जनाओं के टूटने व जुड़ने का एक ऐसा खेल है जिसमें कुछ भी संभव है.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय की यह कोशिश तो नाकाम हो गई कि वह कोई बीच का रास्ता निकाले। सरकार और किसानों की मुठभेड़ टालने के लिए अदालत ने यह काम किया, जो अदालतें प्राय: नहीं करतीं। सर्वोच्च न्यायालय का काम यह देखना है कि सरकार या संसद ने जो कानून बनाया है, वह संविधान की धाराओं का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है? इस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायाधीशों ने एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने जो किया, वह काम सरकार या संसद का है या जयप्रकाश नारायण जैसे उच्च कोटि के मध्यस्थों का है। उसका एक संकेत अदालत ने जरुर दिया। उसने तीनों कृषि-कानूनों को फिलहाल लागू होने से रोक दिया। उसने सरकार का काम कर दिया। सरकार भी यही करना चाहती थी लेकिन वह खुद करती तो उसकी नाक कट जाती। लेकिन अदालत ने जो दूसरा काम किया, वह ऐसा है, जिसने उसके पहले काम पर पानी फेर दिया।
उसने किसानों से बातचीत के लिए चार विशेषज्ञों की कमेटी बना दी। यह कमेटी तो ऐसे विशेषज्ञों की है, जो इन तीनों कानूनों का खुले-आम समर्थन करते रहे हैं। इनके नाम तय करने के पहले क्या हमारे विद्वान जजों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल जऱा भी नहीं किया? क्या ये विशेषज्ञ ही इन तीनों अटपटे कानूनों के अज्ञात या अल्पज्ञात पिता नहीं हैं? हमारे न्यायाधीशों के भोलेपन और सज्जनता पर कुर्बान जाने को मन करता है। मंत्रियों से संवाद करने वाले किसान नेताओं को नीचे उतार कर अपने सलाहकारों से भिड़वा देना कौनसी बुद्धिमानी है, कौनसा न्याय है, कौनसी शिष्टता है ? इस कदम का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हमारी सरकार के नेताओं के पास अपनी सोच का बड़ा टोटा है। इसीलिए उसने अपने मार्गदर्शकों के कंधे पर बंदूक धरवा दी।
किसान नेताओं से संवाद करने के लिए सरकार को किसानों की सहमति से ऐसा मध्यस्थ-मंडल तुरंत बनाना चाहिए, जिसकी निष्पक्षता और ईमानदारी पर किसी को शक न हो। यदि इस काम में देरी हुई तो उसके परिणाम अत्यंत भयंकर भी हो सकते हैं। हमारा गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र-दिवस में भी बदल सकता है। वह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जून 1984 में हुए हादसे को दोहरा सकता है। उससे बचना बहुत जरुरी है। किसानों ने अभी तक गांधीवादी सत्याग्रह की अद्भुत मिसाल पेश की है और अब भी वे अपनी नाराजी को काबू में रखेंगे लेकिन सरकार से भी अविलंब पहल की अपेक्षा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-संजीव खुदशाह
किसान आंदोलन को शुरू हुए दो महीने हो रहे हैं। दिल्ली को घेरकर डटे हुए किसान अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं। वहीं सरकार भी अपने किसान विधेयक को लेकर अडिग है। इस समय किसान आंदोलन काफी जोर पकड़ रहा है। ठीक वहीं पर यदि आप गौर करें तो पाएंगे कि बहुत बड़ी संख्या में छोटे एवं भूमिहीन किसान इस आंदोलन से गायब है।
भारत में बहुत बड़ी आबादी छोटे बटाईदार 2 से 0.5 एकड़ वाले भूमि स्वामी और भूमिहीन किसानों की है। किसान विधेयक से लेकर सरकार की विभिन्न योजनाओं में इन्हें कोई लाभ नहीं मिल पाता है। यह वह किसान है जो वास्तव में खेतों में काम करता है। क्योंकि यह भूमिहीन है, इसलिए सरकार के पास इसका कोई आंकड़ा नहीं है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का लाभ उन्हें ही मिल रहा है। जिनके नाम पर भूमि है या पट्टा है। भले ही वह किसान न हो। इसी प्रकार एमएसपी याने न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ भी भूमि वाले किसानों को ही मिलता है। भले वे खेती करें या न करें। उनके खेत की बुवाई करने वाला कोई दूसरा वास्तविक किसान है। जिसे किसान सम्मान निधि का लाभ नहीं मिल पाता है।
सरकार के विधेयक एवं किसान आंदोलन में छोटे और भूमिहीन कृषक गायब क्यों हैं?
यह बड़ी विडंबना है कि सरकार ने 3-3 कानून किसानों पर बनाया है। लेकिन इस कानून में भूमिहीन किसानों के लिए कुछ नहीं है। इस कानून को यह मानकर बनाया गया है कि सभी किसानों के पास भूमि हैं। चाहे आप एमएसपी की बात करें या उर्वरक में छूट देने की। सभी सुविधा भूमि स्वामी पर आधारित है । यहां तक कि छोटे कृषि समान उपकरण उड़ावनी पंखों से लेकर ट्रैक्टर तक की सुविधाएं उन्हें ही मिलती है जिनके पास जमीने हैं। यही कारण है भूमिहीन किसान जिसकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है अपने आप को अपेक्षित समझता रहा है। किसान आंदोलन में यह भूमिहीन कृषक नदारद है।
क्यों किसान आंदोलन भूमिहीन कृषकों तक नहीं पहुंच सका?
किसान आंदोलन भूमिहीन कृषकों तक नहीं पहुंच पाया क्योंकि अभिजात्य? आंदोलनकारी इसे किसान मानने को तैयार नहीं है। ज्यादातर जमींदार लोग जिनकी खेती ज्यादा है। वह खुद खेती नहीं कर पाते, वह अपने खेत को अधिया, रेगहा, बटाईदार के रूप में गरीब भूमिहीन कृषकों को दे देते हैं। सारी मेहनत, बीज, दवा से लेकर उर्वरक तक वहीं खेतों में लगाते हैं। लेकिन जब एमएसपी या अन्य सुविधा जैसे बीमा, क्षतिपूर्ति, आर्थिक सहायता की बात होती है। तो उसे ही लाभ मिलता है जिनके नाम पर जमीन है य जमीन का पट्टा है। लाभ यदि सरकार देना चाहे तो भी नहीं दे सकती क्योंकि खेत मालिक द्वारा अधिया, रेगहा, बटाई पर मौखिक या गुपचुप तरीके से दिया जाता है।
अधिया, रेगहा, बटाईदार की लिखा-पढ़ी याने समझौता पत्र क्यों नहीं बनाया जाता है?
इसकी लिखा पढ़ी या दस्तावेजीकरण नहीं होने के कारण सरकार के पास इसका कोई डाटा नहीं है, कि कितने लोग, कितनी भूमि पर अधिया, बटाई पर लेते हैं? इसका भी एक खास कारण है सभी जमीन मालिक अपनी भूमि को गुपचुप तरीके से बटाई पर देते हैं। इसकी किसी प्रकार से कोई लिखा पढ़ी करने से डरते हैं। इसका कारण यह है कि लोगों में यह भ्रम फैला हुआ है कि यदि वे एग्रीमेंट या समझौता करने के बाद में जमीन को बटाई पर देंगे तो सिद्ध हो जाएगा कि उसकी जमीन कोई और बो रहा है। 3 साल तक जमीन बोना सिद्ध करके वे अपने नाम पर जमीन करा लेंगे।
इससे पहले जमीदारी उन्मूलन अधिनियम लागू होने पर ऐसा किया जा चुका है कि मौरूसी काश्तकार को भूमि उनके नाम पर कर दी गई। इस कारण लोग रेगहा अधिया या बटाईदार का एग्रीमेंट बनाने से डरते हैं।
क्या बटाईदार एग्रीमेंट बनाने से भूमि किसान के नाम पर चली जाएगी?
जमीदारी उन्मूलन अधिनियम के तहत एक बार ऐसा किया गया है। लेकिन भविष्य में ऐसा हो इस पर कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। याने अब अगर इस प्रकार से एग्रीमेंट बनाकर यह सिद्ध करता है कि भूमि कोई और बो रहा है तो भूमि बोने वाले के नाम पर नहीं जाएगी।
भूमिहीन कृषक महिलाएं और उनकी आवाज भी गुम है।
इस किसान आंदोलन में बीबीसी में छपी रिपोर्ट के अनुसार सर्वाधिक श्रमबल सर्वेक्षण साल 2018-19 के आंकड़ों के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फीसदी महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। वहीं पुरुषों की संख्या मात्र 53.2 फीसदी है।
महिलाओं से संबंधित बहुत सी सुविधाओं की आवश्यकता है। उनके कार्यस्थल में सुविधा, पुरुष के मुकाबले कम दिहाड़ी की समस्या, किसी दुर्घटना होने पर जैसे सांप बिच्छू, किसान औजार से क्षति होना। इसकी क्षतिपूर्ति का कोई प्रावधान नहीं है।
क्या किसान आंदोलन में भूमिहीन कृषकों की मांग उठाई गई है?
यदि भूमिहीन किसानों के नजरिए से देखें तो यह किसान आंदोलन अभिजात वर्ग का आंदोलन है। यह बड़े भूमिदार का आंदोलन है। अगर इनकी मांगों पर गौर करें तो पाते हैं कि खेतों में काम करने वाले वास्तविक किसान मजदूर के लिए यहां कुछ भी नहीं है। इस कारण खेतिहर मजदूर गरीब किसान के लिए इस आंदोलन का कोई औचित्य नहीं है।
सरकार के तरफ से ना सही लेकिन किसान आंदोलन में इनके लिए कुछ तो होता। किसानों का आंदोलन उच्च वर्ग जमींदारों का आंदोलन बनकर रह गया है। इस आंदोलन में भूमिहीन छोटे किसान, बटाईदार आधिहा रेगहा लेने वाले कृषक को शामिल कर आंदोलन का विस्तार किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
भूमिहीन छोटे किसान बटाईदार, अधिया कृषक कौन है?
यह वही कृषक हैं जिनका जाति के नाम पर सदियों से शोषण होता आया है। जिनकी जमीनें लूट ली गई। जिन्हें जमीन रखने का अधिकार नहीं था। इन्हें गरीबी और लाचारी के कारण जमीन बेचनी पड़ी या शुरुआत से इनके पास जमीन नहीं थी। भारत में ऐसे किसानों की संख्या पूरे किसानों का 70 फीसदी है यह किसान दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग से आते हैं। व्यवस्था के द्वारा शोषित यह लोग, अभिजात्य किसानो से भी शोषण का शिकार होते हैं।
क्या भूमिहीन कृषक मजदूर का कोई संगठन है?
यह एक तथ्य है कि अखिल भारतीय स्तर पर भूमिहीन कृषक मजदूर का कोई संगठन नहीं है। गांव या तहसील स्तर पर भी ऐसा कोई संगठन नहीं दिखाई पड़ता है जो इनकी बात को आवाज दे सके।
केंद्र सरकार इस बात को जानती है कि यह अभिजात्य वर्ग का आंदोलन है। इसमें बहुत बड़ी संख्या में बहुजन किसान शामिल नहीं है। इसलिए वह निश्चिंत हैं क्योंकि इन कृषको का इस आंदोलन में कोई समर्थन नहीं मिला है ना ही मिल सकता है।
टीप-
अधिया- इस प्रक्रिया में खेती किराये पर देने वाला एवं देने वाले का खर्च और लाभ का बंटवारा आधा-आधा होता है।
रेगहा- इस प्रक्रिया में एक निश्चित फसल की देनदारी पर खेत किराये पर लिया जाता है।
बटाईदार- एक निश्चित फसल या राशि की देनदारी पर खेती किराये पर लेने वाला कृषक।
मौरूषी कास्तकार- किराये पर खेती करने वाला कृषक।
भाजपा के तेजी से उभरते सांसद तेजस्वी सूर्या ने जब कैपिटल हिल कांड के बाद डॉनल्ड ट्रम्प का ट्विटर अकाउंट बंद किए जाने पर रोष जाहिर करते हुए कहा कि टेक कम्पनी का फैसला लोकतंत्रों के लिए सजग होने का संकेत है तो उनकी प्रतिक्रिया को इस डर के साथ जोडक़र देखा गया कि भारत के संबंध में भी ऐसा हो गया तो उसकी सबसे ज़्यादा मार सत्तारूढ़ दल के कट्टरपंथी समर्थकों पर ही पड़ेगी। ट्विटर द्वारा ट्रम्प के अकाउंट को बंद करने का आधार यही बनाया गया है कि पदासीन राष्ट्रपति के उत्तेजक विचारों से हिंसा और ज़्यादा भडक़ सकती है।
तेजस्वी सूर्या के साथ ही भाजपा के आई टी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने भी ट्विटर कम्पनी के कदम को खतरनाक बताया था। तेजस्वी अपने कट्टर हिंदुत्व और अल्पसंख्यक-विरोधी विचारों के लिए जाने जाते हैं। पिछले दिनों ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कार्पोरेशन के प्रतिष्ठापूर्ण चुनावों के प्रचार में वे मुस्लिम नेता ओवैसी के खिलाफ भी काफी उत्तेजना भरे बयान दे चुके हैं। मालवीय का जिक्र ट्विटर पर विवादास्पद टिप्पणियों के सिलसिले में आए दिन होता रहता है। ट्रम्प को लेकर भाजपा की संवेदनशीलता किसी से छिपी नहीं है। कैपिटल हिल की हिंसा की तो प्रधानमंत्री ने आलोचना की थी पर उसकी जिम्मेदारी को लेकर किसी पर कोई दोषारोपण नहीं किया था।
तेजस्वी सूर्या की प्रतिक्रिया के राजनीतिक-राष्ट्रीय निहितार्थ चाहे जो रहे हों, अंतरराष्ट्रीय खरबपति कम्पनियों—ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि—की एक निर्वाचित राष्ट्रपति के खिलाफ प्रतिबंधों की कार्रवाई से उत्पन्न होनेवाले उन अन्य खतरों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक रूप से चिंता प्रारंभ हो गई है जिनका उल्लेख भाजपा नेता ने नहीं किया। मसलन, भय जताया जा रहा है कि ट्विटर जैसी कम्पनियों द्वारा ट्रम्प के खिलाफ की गई कार्रवाई का दुरुपयोग वे सब हुकूमतें करने लगेंगी जो प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर एकतंत्रीय शासन व्यवस्था कायम करने के बहाने तलाश रही हैं। ये व्यवस्थाएँ ट्विटर-फेसबुक आदि के हिंसा भडक़ाने वाले सोशल मीडिया पोस्ट्स संबंधी तर्कों को आधार बनाकर अब अपने देशों के मीडिया और नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित अथवा स्थगित कर सकती हैं।
कहा जा सकता है कि अगर ट्विटर और फेसबुक हिंसा को भडक़ने से रोकने के लिए एक राष्ट्रपति के विचारों को भी अपने प्लेटफाम्र्स पर प्रतिबंधित कर सकते हैं तो फिर सरकारें स्वयं भी ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं! वैसी स्थिति में एक प्रजातांत्रिक तानाशाह को हिंसा फैलाने से रोकने के इस गैर-प्रजातांत्रिक तरीके और हकीकत में भी अधिनायकवादी तंत्रों में प्रतिबंधित आजादी के बीच कितना फर्क बचेगा? पर अंत यहीं नहीं होता! टेक कम्पनियों की ट्रम्प के विरुद्ध ‘निर्विरोध’ कार्रवाई से उपज सकने वाले कुछ और भी खतरे हैं जो कहीं ज़्यादा गम्भीर हैं।
कोई पूछना नहीं चाहेगा कि एक राष्ट्राध्यक्ष जब सत्ता से हटाए जाने की निराशा के क्षणों में समर्थकों को कैपिटल हिल पर शक्ति-प्रदर्शन के लिए कूच करने के लिए भडक़ा रहा था तो क्या उसे ऐसा करने से रोकने के उपाय अमेरिका जैसी बड़ी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भी वे ही बचे थे जो एकदलीय शासन प्रणालियों में उपस्थित हैं ? मतलब कि ट्रम्प के कथित हिंसक इरादों पर क़ाबू पाने में एकाधिकारवादी सोशल मीडिया कम्पनियों की क्षमता ज़्यादा प्रभावी साबित हुई! अमेरिका के बाक़ी प्रजातांत्रिक संस्थानों, नागरिक प्रतिष्ठानों, आदि के साथ ही विजयी होकर सत्ता में काबिज होने तैयार बैठी डेमोक्रेटिक पार्टी के करोड़ों मतदाताओं की ताकत भी ट्विटर, फेसबुक के सामने आश्चर्यजनक ढंग से बौनी पड़ गई!
अमेरिका में जब एक दिन सब कुछ शांत हो जाएगा तब यह सवाल नहीं पूछा जाएगा कि ट्रम्प प्रशासन के अंतिम दिनों में हिंसा की आग को फैलने से रोकने का पूरा श्रेय क्या ट्विटर के जैक डोर्सी और फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग को दे दिया जाए? अगले चुनावों में अगर ट्रम्प अथवा उनका कोई मुखौटा रिपब्लिकन पार्टी की सत्ता में वापसी करा देता है तो सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स के विस्तारित एकाधिकारवाद को लेकर किसी तरह की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की जाएगी या नहीं? और यह भी कि ट्रम्प अगर देश में घृणा और हिंसा के बल पर चुनाव जीत जाने में सफल हो जाते तब क्या ये कंपनियां उनके खिलाफ ऐसी कोई कार्रवाई करने की हिम्मत दिखातीं?
टेक कम्पनियों को लेकर तेजस्वी सूर्या जैसे नेताओं की चिंताओं का दायरा सीमित है जबकि वास्तविक ख़तरों का अंधकार कहीं ज़्यादा व्यापक और डरावना है। वह इसलिए कि अमेरिका के अपने सफल प्रयोग के बाद ये कम्पनियाँ अन्य प्रजातांत्रिक राष्ट्रों की संप्रभुताओं का अतिक्रमण करते हुए उनकी नियतियों को भी नियंत्रित करने से बाज नहीं आएंगी। तब फिर नागरिकों की व्यक्तिगत जानकारी के साथ-साथ राष्ट्रों की संप्रभुता और सार्वभौमिकता के सौदे भी किए जाने लगेंगे, वैश्विक सेंसरशिप के हथियार का इस्तेमाल कर उन्हें ब्लैकमेल किया जा सकेगा।
सवाल यह भी है कि जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल नागरिक अभी अपनी आज़ादी की लड़ाई के लिए कर रहे हैं उनकी ही विश्वसनीयता अगर चुनौती बन जाएगी तो तय करना मुश्किल हो जाएगा कि ज़्यादा बड़ा ख़तरा किससे था—राजनीतिक ट्रम्प या इन व्यावसायिक कम्पनियों से! अंत में यह कि अपने समर्थकों को शक्ति-प्रदर्शन के लिए कैपिटल हिल पर कूच करने के आह्वान को ट्रम्प ने पूरी तरह से उचित ठहरा दिया है और बायडन-हैरिस के शपथ-ग्रहण के अवसर पर कैपिटल हिल के दिन से भी बड़ी हिंसा की आशंकाएँ अमेरिका में व्यक्त की जा रही हैं। ट्विटर अब क्या करेगा?
देश में अडल्टरी को जुर्म की श्रेणी से हटाए जाने के तीन साल बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि सेना में अडल्टरी को जुर्म ही रहने दिया जाए. सरकार का कहना है कि इससे सेना में अनुशासन के पालन पर असर पड़ता है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा -
सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अडल्टरी को डीक्रिमिनलाइज कर दिया था यानी यह कह दिया था कि अब से उसे जुर्म नहीं माना जाएगा. 2018 के फैसले के पहले यह भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत एक जुर्म था और इसके लिए पांच साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान था. तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस कानून को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा था कि "अडल्टरी एक जुर्म नहीं हो सकता और इसे जुर्म होना भी नहीं चाहिए."
लेकिन तीनों सेनाओं की तरफ से सरकार का कहना है कि सेनाओं को 2018 के आदेश से बाहर रखा जाना चाहिए क्योंकि उनके अपने नियमों में अडल्टरी को एक संगीन जुर्म के रूप में देखा जाता है और दोषी पाए जाने वाले को नौकरी से बर्खास्त किया जा सकता है. केंद्र की इस अपील पर अदालत ने अभी फैसला नहीं दिया है और चीफ जस्टिस से कहा है कि वो इस मामले को सुनने के लिए पांच जजों की एक संवैधानिक पीठ का गठन करें.
सरकार का कहना है कि सेना के कर्मी जब सीमा पर या दूर-दराज इलाकों में लंबे समय तक चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में तैनात रहते हैं तो ऐसे में वे अपने परिवार के प्रति निश्चिन्त रहें, इसलिए सेना उनके परिवार का ध्यान रखती है. सरकार का कहना है कि ऐसे में सेना के दूसरे कर्मी या अधिकारी जब उनके परिवार वालों से मिलने जाएंगे तब अपने परिवार से दूर तैनात कर्मियों को यह चिंता सताएगी की उनका "परिवार" कोई "प्रतिकूल गतिविधि" तो नहीं कर रहा. सरकार का कहना है कि ऐसे में अडल्टरी को एक जुर्म बनाए रखना बेहद अनिवार्य है.
सरकार ने यह भी कहा है कि अनुशासन सेनाओं में काम करने की संस्कृति की रीढ़ है और इस अनुशासन के पालन के लिए संविधान संसद को सेनाओं के अंदर कुछ मौलिक अधिकारों को दिए जाने से भी रोका जा सकता है. जानकारों का कहना है कि हालांकि आर्मी एक्ट में अडल्टरी का कहीं भी जिक्र नहीं है, फिर भी सेना में "अपने सहयोगी अधिकारी की पत्नी के स्नेह को चुरा लेना" एक संगीन जुर्म माना जाता है और ये सेना के नियमों के तहत "अनुचित व्यवहार" की परिभाषा में आता है.
भारतीय सेना के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारी भी अडल्टरी को जुर्म बनाए रखनी की जरूरत में विश्वास रखते हैं. सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हूडा ने डीडब्ल्यू को बताया कि अडल्टरी को सेना में सख्त नापसंद किया जाता है और सेना में अनुशासन बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि उसे एक जुर्म ही समझा जाए. उनका कहना है कि सेना के कर्मी काफी करीब और बंद समुदायों में रहते हैं और सबके एक दूसरे से निजी ताल्लुकात होते हैं.
ऐसे में जूनियर और सीनियर अफसर या उनकी पत्नियों को लेकर ऐसा कुछ हुआ तो पूरा माहौल बिगड़ जाता है. लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हूडा का यह भी कहना है कि भारत में ही नहीं बल्कि सभी देशों में सेना का अपना संगठनात्मक सदाचार होता और एक विशिष्ट सैन्य न्याय प्रणाली होती है जो आम न्याय प्रणाली से अलग होती है.
सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल उत्पल भट्टाचार्य ने डीडब्ल्यू को बताया कि सेना में एक कमांड प्रणाली होती है और इस वजह से किसी भी विषय को 'ग्रे एरिया' या अस्पष्ट स्थिति में नहीं छोड़ा जा सकता. उनका कहना है कि सेना में इस तरह की "लेजे फेयर" छूट देना अनुशासनहीनता की तरफ बढ़ने की शुरुआत है. लेफ्टिनेंट जनरल उत्पल भट्टाचार्य ने यह भी बताया कि वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना में ऐसी चीजें देखी गई थीं और वहीं से अमेरिकी सेना की हार की शुरुआत हो गई थी. (dw.com)
फेसबुक और ट्विटर ने डॉनल्ड ट्रंप के अकाउंट बंद कर दिए हैं. डॉयचे वेले की मुख्य संपादक मानुएला कास्पर क्लैरिज का कहना है कि सिर्फ इतना कर देने से ये कंपनियां अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकतीं.
डॉयचे वैले पर मानुएला कास्पर क्लैरिज का लिखा
सोशल मीडिया के विशाल स्तंभ - अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप - को गिरा दिया गया है. ऐसा किसी छोटी मोटी ताकत ने नहीं बल्कि बड़े दिग्गजों ने किया है - ट्विटर, फेसबुक, गूगल, एप्पल और एमेजॉन ने. अपने सबसे लोकप्रिय यूजर को हटा कर उन्होंने साफ कर दिया है कि उनके प्लेटफॉर्म पर कौन अपने विचार व्यक्त करेगा और कैसे.
ट्विटर के 8.8 करोड़ फॉलोअर और फेसबुक उन्हें लाइक करने वाले 3.5 करोड़ लोगों को अब उनकी नस्लवादी और खतरनाक टिप्पणियां पढ़ने को नहीं मिलेंगी. सोशल मीडिया पर अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है.
डॉनल्ड ट्रंप अपने अकाउंट का इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ हथियार के तौर पर कर रहे थे. "हेट स्पीच" और "फेक न्यूज" उनके ट्रेडमार्क थे. उनके ट्वीट का क्या असर हो सकता था यह वॉशिंगटन में संसद पर हमले से साफ हो गया.
खैर, लोग कह रहे हैं कि अब वहां शांति है और इसे देख मैंने भी राहत की सांस ली. लेकिन कुछ ही देर के लिए. क्योंकि अगर हमें अभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो हमें दूसरों को भी अभिव्यक्ति की आजादी देनी होगी. मैं यह जान कर थोड़ी बेचैन हो रही हूं कि मुट्ठी भर लोग मिल कर किसी के लिए दुनिया के सबसे प्रभावशाली प्लेटफॉर्मों के दरवाजे बंद कर सकते हैं.
हमें एक बात समझनी होगी - हम यहां हेट स्पीच या फेक न्यूज का साथ नहीं दे रहे हैं. इनकी पहचान करना, इन्हें सामने लाना और फिर डिलीट करना ही होगा. यह काम इन प्लेटफॉर्म को चलाने वालों का है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने यह काम करना शुरू भी किया है लेकिन हिचकिचाहट के साथ.
मई की बात है जब ट्विटर ने पहली बार राष्ट्रपति ट्रंप के दो ट्वीट पर चेतावनी जारी कर दी थी. उसके बाद से ट्वीट पर वॉर्निंग देने का और उन्हें डिलीट करने का सिलसिला लगातार जारी रहा. हर कोई देख सकता था कि ट्रंप के कुछ बयान कितने बेबुनियाद और खतरनाक थे. यह एक अच्छा कदम था.
हालांकि अकाउंट को ही बंद कर देना - यह तो बहुत आसान था. प्लेटफॉर्म चलाने वाले अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं. डॉनल्ड ट्रंप के बिना भी इन प्लेटफॉर्म पर लाखों करोड़ों चीजें ऐसी हैं जिनसे हेट स्पीच, फेक न्यूज और प्रोपगैंडा फैलाया जा रहा है. इसे देखते हुए ट्विटर, फेसबुक और दूसरी कंपनियों को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी. उन्हें लगातार पोस्ट डिलीट करनी होंगी और जहां जरूरी हो, वहां उन पर फेक न्यूज का ठप्पा लगाना होगा.
ट्रंप समर्थकों का बवाल
हाल के कई सालों में अमेरिका से इस तरह की तस्वीरें सामने नहीं आई हैं. सत्ता हस्तांतरण से पहले हिंसा और बवाल ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को हिला कर रख दिया. आरोप ट्रंप समर्थकों पर लगा कि उन्होंने कैपिटल हिल में घुसकर तोड़फोड़ की और उस पर कब्जे की कोशिश की.
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये सोशल नेटवर्क विचार व्यक्त करने के लिए अहम माध्यम हैं, खास कर उन देशों में जहां मीडिया पूरी तरह आजाद नहीं है. लेकिन जब कुछ कंपनियों के बॉस बाजार पर हावी हो जाते हैं और अपनी ताकत का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की आजादी के नियमों को तय करने के लिए करते हैं, तो यह किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं कहे जा सकता.
वक्त आ गया है कि हम फेसबुक, ट्विटर और गूगल जैसी कंपनियों की ताकत को संजीदगी से समझें और लोकतांत्रिक तथा सही रूप से इन्हें नियंत्रित करें.
जर्मनी इस दिशा में पहला कदम उठा चुका है. 1 जनवरी 2018 को देश में नेटवर्क एन्फोर्स्मेंट एक्ट (नेट्स डीजी) प्रभाव में आया. इसके तहत सोशल नेटवर्क कंपनियां फेक न्यूज और हेट स्पीच को रोकने के लिए बाध्य हैं.
यूरोपीय आयोग ने इस कानून का स्वागत किया था. तब से अन्य सोशल मीडिया कंपनियों को जर्मनी में सैकड़ों "कॉन्टेंट मॉडरेटरों" को नियुक्त करना पड़ा है जो पोस्ट की निगरानी करते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें डिलीट करते हैं.
सोशल मीडिया पर मौजूद आपत्तिजनक पोस्टों की विशाल संख्या को देखते हुए इसे महज एक शुरुआत ही कहा जा सकता है. लेकिन कम से कम शुरुआत हुई तो सही.
सीधे अकाउंट की बंद कर देना - जैसा कि डॉनल्ड ट्रंप के मामले में किया गया - यह यकीनन सही तरीका नहीं है. यह सिर्फ बड़ी टेक कंपनियों का अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक आसान रास्ता है.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना का टीका देश के लोगों को कैसे सुलभ करवाया जाएगा, इसके लिए केंद्र का स्वास्थ्य मंत्रालय पूरा इंतजाम कर रहा है लेकिन टीके के बारे में तरह-तरह के विचार भी सामने आ रहे हैं। कई वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत में बने इस टीके का वैसा ही कठिन परीक्षण नहीं हुआ है, जैसा कि कुछ पश्चिमी देशों के टीकों का हुआ है। इसीलिए करोड़ों लोगों को यह टीका आनन-फानन क्यों लगवाया जा रहा है ? भोपाल में एक ऐसे व्यक्ति की मौत को भी इस तर्क का आधार बनाया जा रहा है, जिसे परीक्षण-टीका दिया गया था। संबंधित अस्पताल ने स्पष्टीकरण दिया है कि उस रोगी की मौत का कारण यह टीका नहीं, कुछ अन्य रोग हैं। कुछ असहमत वैज्ञानिकों का यह मानना भी है कि अभी तक यह ही प्रमाणित नहीं हुआ है कि किसी को कोरोना रोग हुआ है या नहीं ? उसकी जांच पर भी भ्रम बना हुआ है। किस रोगी को कितनी दवा दी जाए आदि सवालों का भी ठोस जवाब उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में 30 करोड़ लोगों को टीका देने की बात खतरे से खाली नहीं है। इसके अलावा पिछले कुछ हफ्तों से कोरोना का प्रकोप काफी कम हो गया है।
ऐसे में सरकार को इतनी जल्दी क्या पड़ी थी कि उसने इस टीके के लिए युद्ध-जैसा अभियान चलाने की घोषणा कर दी है ? कुछ विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया है कि सरकार यह टीका-अभियान इसलिए चला रही है कि देश की गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था और किसान-आंदोलन से देशवासियों का ध्यान हटाना चाहती है। विपक्षी नेता ऐसा आरोप न लगाएं तो फिर वे विपक्षी कैसे कहलाएंगे लेकिन टीके की प्रामाणिकता के बारे में हमारे वैज्ञानिकों पर हमें भरोसा जरुर करना चाहिए। रुस और चीन जैसे देशों में हमसे पहले ही टीकाकरण शुरु हो गया है। यह ठीक है कि अमेरिका और ब्रिटेन में टीके को स्वीकृति तभी मिली है जबकि उसके पूरे परीक्षण हो गए हैं लेकिन हम यह न भूलें कि इन देशों में भारत के मुकाबले कोरोना कई गुना ज्यादा फैला है जबकि उनकी स्वास्थ्य-सेवाएं हमसे कहीं बेहतर हैं। हमारे यहां कोरोना उतार पर तो है ही, इसके अलावा हमारे आयुर्वेदिक और हकीमी काढ़े भी बड़े चमत्कारी हैं। इसीलिए डरने की जरुरत नहीं है। यदि टीके के कुछ गलत परिणाम दिखेंगे तो उसे तुरंत रोक दिया जाएगा लेकिन लोगों का डर दूर हो, उसके लिए क्या यह उचित नहीं होगा कि 16 जनवरी को सबसे पहला टीका हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री आगे होकर लगवाएं। जब अमेरिका के बाइडन, ब्रिटेन की महारानी और पोप भी तैयार हैं तो हमारे नेता भी पीछे क्यों रहें ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
2020 की चार सौ बीसी खत्म हुई। अच्छे दिन की खुशी में मन भर लड्?डू खाओ। छोटे मुंह इतनी बड़ी बात अदना इंसान नहीं करता। यह तो निर्मला सीतारामन के वश की बात है। कठिन समय में सरकारी तिजोरी भरने की कश्मकश के साथ बजट तैयार करने के साथ दोहरी जिम्मेदारी जबर्दस्त तरीके से निभाई। बानगी देखिए-ट्रेक्टरों की बिक्री बढऩे से साबित हुआ कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के कारण ग्रामीण क्षेत्र में परेशानी दूर हुई। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के कारण रोजगार बढ़ोत्तरी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की बदौलत रिकार्ड खरीदी से देहात खुशहाल हैं। दोपहिए, तिपहिए वाहनों और ट्रेक्टरों की बिक्री ऐसी बढ़ी कि मार्च 2020 के वाहन पंजीयन का मार्च 2020 का आंकड़ा मात खाएगा। इतनी सुहानी रपट वित्त मंत्रालय जारी कर चुका है। इस रपट के आधार पर बजट की चमक का अंदाज़ लगाकर खुश हो सकते हैं। बढ़ती आमदनी से खरीदे गए ट्रेक्टर दिल्ली परिक्रमा करने पर आमादा क्यों हैं? यह सोचकर परेशान होना आपका काम नहीं है। मुंह में लड्?डू रखकर मीठा बोलो।
कटी पतंग की डोर
पेशे से कूटनय भले हों, लेकिन हरदीप सिंह पुरी राजनीति में नए खिलाड़ी हैं। नागरिक विमान मंत्रालय ने 6 जनवरी से मुंबई और दिल्ली से विलायत जाने वालों के लिए उड़ानें शुरु कराईं। प्रवासी दिवस पर आने वाले भारतीयों तथा गणतंत्र दिवस पर ब्रितानी प्रधानमंत्री की मौजूदगी ने उम्मीद को पंख लगाए। इसलिए लगे हाथों सवारियों की भरमार का दावा कर डाला। बिकाऊ कतार में शामिल एयर इंडिया को रौनक लौटने की आस बंधी। महामारी के नए वायरस को साथ लाए कुछ यात्री ब्रिटेन से उडक़र आए थे। हवाई अड्?डे से कुछ सैलानियों के लापता होने से पूरी सरकार हैरान थी। इन दिनों चीन और पाकिस्तान सीमा से अधिक निगरानी दिल्ली के सिंघु बार्डर पर है। इसके बावजूद भगोड़े यात्रियों को दबोचने के लिए विमानतल पर पुलिस गश्त तेज कर दी गई है। बोरिस ने भारत यात्रा रद्द कर एयर इंडिया की उम्मीदों की पतंग सद्दी से काट दी। पेशे से पत्रकार। फिर राजनीति में घुस गया। तिस पर गोरा। यात्रा रद्द करने पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन के प्रति तीन तीन अपशब्द काफी हैं।
मनसुख का तन सुख
भारतीय जनता पार्टी का बुरा चाहने वालों के लिए बुरी खबर। भरूच के लोकसभा सदस्य मनसुख वसावा कमर और गले का दर्द से मुक्ति पा सकेंगे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखिया डाक्टश्र हैं और वैद्य भी बउ ओहदे पर हैं। संघ के किसी डाक्टर या वैद्य ने यह जानकारी नहीं दी। बहरहाल खबर पक्की है कि मनसुख भाई दिल्ली के नार्थ एवेन्यू-डुप्लेक्स में बने रहने के लिए राजी हो चुके हैं। गुजरात के आकाश पर पतंगें लहरा रहीं हैं। स्थानीय निकाय के चुनाव का मौसम है। आदिवासी समुदाय को बताया जा रहा है कि मनसुख भाई सचमुच खुश हैं। न संसद सदस्यता छोड़ी और न पार्टी। प्रधानमंत्री की पुकार पर मनसुख भाई वर्ष 2019 में तीन लाख के अंतर से जीते थे। अब फिर प्रधानमंत्री के आदेश पर मनसुख भाई ने नाराजगी को नर्मदा में ड़ुबकी लगवा दी। प्रधानमंत्री के चहेते नौकरशाह पर नकेल तो नहीं कस सके। भाजपा के किसी राजनीतिक आपरेशन करने वाले डाक्टर ने कहा-सांसद रहोगे तो कमर और गले का मुफ्त उपचार होगा। तनसुख की खातिर, भोला भाला मनसुख मान गया।
पंचमेल खिचड़ी
कुछ धुरंधरों का वश चले तो अपने जैसे भारतीय नागरिक बंधुओं को चलता-फिरता पाकिस्तान साबित करने की कोशिश करने से न चूकें। प्रेम, पसंद और परिणय से पहले धर्म-परिवर्तन की पड़ताल के कानून बन रहे हैं। अध्यापक देवेन्द्र यादव का गांववालों से गहरा भाईचारा था। धार्मिक एकता का देवेन्द्र ने नया नुस्खा निकाला। बेटी का नाम नज्मा और और बेटे का सलीम रखा। नाम और धर्म में अंतर जानने वालों को हैरानी होती। पाठशाला सहित सरकारी कामकाज में आए दिन झंझट के बाद नज्मा नीलम हुई और शहजादे सलीम योगेन्द्र बने। किसानों की लड़ाई से जुड़े योगेन्द्र दो दिन मोर्चा छोडक़र गायब रहे। पिता देवेन्द्र यादव का अंतिम संस्कार करने के बाद वापस मोर्चे पर आ डटे। जाति और धर्म की संकीर्ण सरहद लांघकर किसानों के साथ जाड़े के थपेड़े सह रहे हैं। योगेन्द्र की मान्यता है कि खिचड़ी सेहत के लिए और मिली जुली संस्कृति देश की सेहत के लिए मुफीद हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
केंद्र सरकार ने कृषि क़ानूनों को जिस तरह से पारित किया और उसके बाद शुरू हुए किसानों के विरोध प्रदर्शन को जैसे हैंडल किया गया है, उसे लेकर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने गहरी नाराज़गी जताई है.
सुप्रीम कोर्ट कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुचित्र मोहंती ने बीबीसी हिंदी को बताया कि केंद्र सरकार ने किसानों के मुद्दे को जिस तरह से हैंडल किया है, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को नाराज़गी जताते हुए पूछा कि क्या हो रहा है?
कोर्ट ने सरकार से कहा, "आपने बिना पर्याप्त राय-मशविरा किए हुए एक ऐसा क़ानून बनाया है जिसका नतीजा इस विरोध प्रदर्शन के रूप में निकला है. आप लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, भारत सरकार को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी. अगर सरकार में ज़िम्मेदारी की कोई भावना होती तो आपको इन्हें थोड़े समय के लिए रोक लेना चाहिए था. आप क़ानून ला रहे हैं तो आप इसे बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं."
चीफ़ जस्टिस अरविंद बोबडे की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने कृषि क़ानूनों और किसानों के विरोध प्रदर्शन के मुद्दे पर दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई की. इनमें द्रमुक के सांसद तिरुचि शिवा और राजद के सांसद मनोज झा की याचिकाएं भी थीं. इन लोगों ने कृषि क़ानूनों की संवैधानिक वैधता को लेकर सवाल खड़े किए हैं.
कोर्ट ने कहा, "हमें नहीं लगता कि केंद्र सरकार इस मामले को अच्छी तरह से हैंडल कर रही है. हमें आज ही कोई क़दम उठाना होगा. ये एक गंभीर मामला है. हम इस पर एक कमेटी गठित करने का प्रस्ताव रख रहे हैं. हम ये भी विचार कर रहे हैं कि अगले आदेश तक इन क़ानूनों के अमल पर रोक लगा दी जाए."
कमेटी के गठन का प्रस्ताव
इस मामले पर केंद्र सरकार के रवैये को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा, "हमारा सुझाव है कि कमेटी के सामने बातचीत का रास्ता खोलने के लिए इन क़ानूनों के अमल पर रोक लगाई जाए. हम और कुछ नहीं कहना चाहते. विरोध प्रदर्शन जारी रखे जा सकते हैं. लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा?"
"भले ही आपको भरोसा हो या न हो पर सुप्रीम कोर्ट अपना काम करेगा. भले ही आप प्रदर्शन स्थल पर अपना धरना जारी रखें या प्रदर्शन थोड़ा आगे बढ़े या किसी अन्य क्षेत्र में इसका दायरा बढ़े. हमें आशंका है कि इससे शांति भंग हो सकती है. अगर कुछ हुआ तो हममें से हर कोई इसके लिए ज़िम्मेदार होगा. हम नहीं चाहते कि हमारे हाथों पर किसी के ख़ून के छींटे पड़े. हम सुप्रीम कोर्ट हैं. हम वो करेंगे जो हमें करना है. इसे समझने की कोशिश कीजिए."
सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा, "अगर केंद्र सरकार कृषि क़ानूनों के अमल को रोकना नहीं चाहती तो हम इस पर स्थगन आदेश देंगे. भारत सरकार को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी. आप (केंद्र) ये क़ानून ला रहे हैं तो आप ये बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं."
शांति भंग की आशंका
कोर्ट ने ये भी कहा कि एक भी ऐसी याचिका नहीं दायर की गई है जिसमें इन क़ानूनों को अच्छा बताया गया हो. "अदालत ने पूछा, हम नहीं जानते हैं कि क्या बातचीत चल रही है? लेकिन क्या इन क़ानूनों को थोड़े समय के लिए रोका नहीं जा सकता है?"
"अगर हम लोग कृषि क़ानूनों के लागू किए जाने पर रोक लगा देते हैं तो आप अपना विरोध जारी रख सकते हैं. हम इस तरह की आलोचनाएं नहीं चाहते हैं कि कोर्ट प्रोटेस्ट दबा रहा है. इस पर ग़ौर किए जाने की ज़रूरत है कि क्या प्रदर्शनकारियों को वहां से थोड़ी दूर हटाया जा सकता है. सच कहें तो हमें ये आशंका है कि वहां कुछ ऐसा हो सकता है जिससे शांति भंग हो सकती है. भले ही ये इरादतन हो या फिर ग़ैर-इरादतन. हम ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि सड़कों पर कोई हिंसा न हो."
"हम कृषि क़ानूनों के अमल पर रोक लगाएंगे. हम ये स्पष्ट करना चाहते हैं कि हम प्रदर्शन को दबा नहीं रहे हैं. आप विरोध-प्रदर्शन जारी रख सकते हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या विरोध प्रदर्शन उसी जगह पर जारी रहना चाहिए? अगर केंद्र सरकार क़ानून पर रोक नहीं लगाना चाहती, तो हम इन क़ानूनों के अमल पर रोक लगाएंगे."
क़ानूनों पर स्थगन आदेश
सुप्रीम कोर्ट में एक किसान संगठन की तरफ़ से पैरवी कर रहे सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने कहा, "इतना महत्वपूर्ण क़ानून संसद में ध्वनि मत से कैसे पारित किया जा सकता है? अगर सरकार गंभीर होती तो वो संसद का संयुक्त सत्र बुला सकती थी और सरकार ऐसा करने से संकोच क्यों कर रही है. किसानों को रामलीला मैदान में जाने की इजाज़त दी जानी चाहिए. हमें किसी क़िस्म की हिंसा में दिलचस्पी नहीं है."
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पुराने फ़ैसलों में ये कहा गया है कि कोर्ट क़ानूनों पर स्थगन आदेश नहीं दे सकती है. वेणुगोपाल ने उन फ़ैसलों की नज़ीर सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी जिनमें कोर्ट ने ये कहा था कि क़ानूनों पर स्टे नहीं दिए जा सकते हैं.
उन्होंने कहा, "कोर्ट किसी क़ानून पर तब तक स्टे ऑर्डर नहीं दे सकता है जब तक कि कोर्ट ये मान ले कि वो क़ानून बिना किसी क़ानूनी अधिकार के पारित किया गया हो और उससे बुनियादी अधिकारों का हनन होता हो."
शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध प्रदर्शन
इस दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमें ये कहते हुए अफ़सोस हो रहा है कि केंद्र सरकार की हैसियत से आप इस समस्या का हल नहीं निकाल पाए हैं. हालांकि अटॉर्नी जनरल ने ये कहा कि किसान शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
वेणुगोपाल ने कहा, "हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की रैली में जो कुछ हुआ, वो नहीं हो सकता है. 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय महत्व के दिन को बर्बाद करने के लिए किसान अपने ट्रैक्टर्स से राजपथ पर मार्च करने की योजना बना रहे हैं."
याचिकाकर्ताओं में से एक पक्ष की पैरवी कर रहे सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने कहा कि कुछ ऐसे तत्व हैं जिन्हें प्रदर्शन स्थल से हटाये जाने की ज़रूरत है. साल्वे ने कनाडा के एक संगठन का ज़िक्र किया जो 'जस्टिस फ़ॉर सिख' के बैनर तले पैसा जुटा रहा है.
याचिकाकर्ता एमएल शर्मा ने कहा कि संसद को कृषि क़ानून बनाने का कोई अधिकार नहीं था. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम आपकी दलीलें समझ नहीं पा रहे हैं. हम इस पर बाद में सुनवाई करेंगे.(bbc.com/hindi)
-शायन सरदारिज़ादेह और जेसिका लुसेनहोप
वाशिंगटन में जिस तरह की घटनाएं पिछले दिनों देखने को मिली हैं उससे काफी लोग सकते में हैं. लेकिन अति दक्षिणपंथी समूह और षड्यंत्रकारियों की ऑनलाइन गतिविधियों पर नज़र रखने वाले लोगों को ऐसे संकट का अंदाज़ा पहले से था.
अमरीकी राष्ट्रपति पद के लिए जिस दिन वोट डाले गए, उसी रात डोनाल्ड ट्रंप ने व्हाइट हाउस के ईस्ट रूम के स्टेज पर आकर जीत की घोषणा की थी. उन्होंने कहा था, "हम लोग ये चुनाव जीतने की तैयारी कर रहे हैं. साफ़ साफ़ कहूं तो हम यह चुनाव जीत चुके हैं."
उनका यह संबोधन उनके अपने ही ट्वीट के एक घंटे बाद हुआ था. उन्होंने एक घंटे पहले ही ट्वीट किया था, "वे लोग चुनाव नतीजे चुराने की कोशिश कर रहे हैं."
हालांकि उन्होंने चुनाव जीता नहीं था. कोई जीत नहीं हुई थी जिसे कोई चुराने की कोशिश करता. लेकिन उनके अति उत्साही समर्थकों के लिए तथ्य कोई अहमियत नहीं रखते थे और आज भी नहीं रखते हैं.
65 दिनों के बाद दंगाइयों के समूह ने अमरीका की कैपिटल बिल्डिंग को तहस नहस कर दिया. इन दंगाइयों में तरह तरह के लोग शामिल थे, अतिवादी दक्षिण पंथी, ऑनलाइन ट्रोल्स करने वाले और डोनाल्ड ट्रंप समर्थक क्यूएनॉन लोगों का समूह जो मानता है कि दुनिया को पीडोफाइल लोगों का समूह चला रहा है और ट्रंप सबको सबक सिखाएंगे. इन लोगों में चुनाव में धांधली का आरोप लगाने वाले ट्रंप समर्थकों का समूह 'स्टॉप द स्टील' के सदस्य भी शामिल थे.
वाशिंगटन के कैपिटल हाउस में हुए दंगे के करीब 48 घंटों के बाद आठ जनवरी को ट्विटर ने ट्रंप समर्थ कुछ प्रभावशाली एकाउंट को बंद करना शुरू किया, ये वैसे एकाउंट थे जो लगातार षड्यंत्रों को बढ़ावा दे रहे थे और चुनावी नतीजों को पलटने के लिए सीधी कार्रवाई करने के लिए लोगों को उकसा रहे थे. इतना ही नहीं ट्विटर ने इसके बाद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एकाउंट पर भी पाबंदी लगा दी. 88 मिलियन से ज़्यादा फॉलोअर वाले ट्रंप के एकाउंट पर पाबंदी लगाने के पीछे की वजह यह बताई गई है कि उनके ट्वीट से और ज़्यादा हिंसा भड़कने का ख़तरा है.
वाशिंगटन में हुई हिंसा से दुनिया सदमे है और लग रहा था अमेरिका में पुलिस और अधिकारी कहीं मौजूद नहीं हैं. लेकिन जो लोग इस घटना की कड़ियों को ऑनलाइन और अमरीकी शहरों की गलियों में जुड़ते हुए देख रहे थे उनके लिए यह अचरज की बात नहीं है.
चुनावी नतीजों को प्रभावित किया जा सकता है, ये बात वोट डाले जाने के महीनों पहले से डोनाल्ड ट्रंप अपने भाषणों और ट्वीट के ज़रिए कह रहे थे. चुनाव के दिन भी जब अमेरिकों ने मतदान करना शुरू किया था, तभी से अफ़वाहों का दौर शुरू हो गया था.
रिपब्लिकन पार्टी के पोलिंग एजेंट को फिलाडेल्फिया पोलिंग स्टेशन में प्रवेश की इजाज़त नहीं मिली. इस पोलिंग एजेंट के प्रवेश पर रोक वाला वीडियो वायरल हो गया. ऐसा नियमों को समझने में हुई ग़लती की वजह से हुआ था. बाद में इस शख़्स को पोलिंग स्टेशन में प्रवेश की इजाज़त मिल गई थी.
लेकिन यह उन शुरुआती वीडियो में शामिल था जो कई दिनों तक वायरल होते रहे. इसके साथ दूसरे वीडियो, तस्वीरों, ग्राफिक्स के ज़रिए एक नए हैशटैग '#स्टॉप द स्टील' के साथ आवाज़ बुलंद की जाने लगी कि मतदान में धांधली को रोकना है. इस हैशटैग का संदेश स्पष्ट था कि ट्रंप भारी मतों से जीत हासिल कर चुके हैं लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान में बैठी ताक़तें उनसे जीत को चुरा रही हैं.
चार नवंबर, 2020 बुधवार को दिन के शुरुआती घंटों में जब मतों की गिनती का काम जारी था और टीवी नेटवर्कों पर जो बाइडन की जीत की घोषणा होने में तीन दिन बाक़ी थे, तब राष्ट्रपति ट्रंप ने जीत का दावा करते हुए आरोप लगाया था कि अमरीकी जनता के साथ धोखा किया जा रहा है. हालांकि अपने दावे के पक्ष में उन्होंने कोई सबूत नहीं था. हालांकि अमेरिका में पहले हुए चुनावों के अध्ययन यह स्पष्ट है कि वहां मतगणना में किसी तरह की गड़बड़ी एकदम असंभव बात है.
दोपहर आते आते 'स्टॉप द स्टील' नाम से एक फेसबुक समूह बन चुका था जो फ़ेसबुक के इतिहास में सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाला समूह साबित हुआ. गुरूवार की सुबह तक इस समूह से तीन लाख से ज़्यादा लोग जुड़ चुके थे.
अधिकांश पोस्ट में बिना किसी सबूत के आरोप लगाए गए थे कि बड़े पैमाने पर मतगणना में धांधली की जा रही है, यह भी कहा कि हज़ारों ऐसे लोगों के मत डाले गए हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है. यह आरोप भी लगाया गया कि वोट गिनने वाली मशीन को इस तरह से तैयार किया गया है कि वह ट्रंप के मतों को बाइडन के मतों में गिन रही है.
लेकिन कुछ पोस्ट वास्तव में कहीं ज़्यादा चिंतित करने वाले थे, इन पोस्टों में सिविल वॉर और क्रांति की ज़रूरी बताया जा रहा था. गुरुवार की दोपहर तक फ़ेसबक ने स्टॉप द स्टील पेज को हटाया लेकिन तब तक इस पेज पर पांच लाख से ज़्यादा कमेंट, लाइक्स और रिएक्शन आ चुके थे. इस पेज को हटाए जाने तक दर्जनों ऐसे समूह तैयार हो चुके थे.
ट्रंप के मतों को चुराए जाने की बात ऑनलाइन फर फैलती जा रही थी. जल्दी ही, मतों की सुरक्षा के नाम पर स्टॉप द स्टील के नाम से समर्पित वेबसाइट लाँच की गई. शनिवार यानी सात नवंबर को, प्रमुख समाचार नेटवर्कों ने जो बाइडन को चुनाव का विजेता घोषित कर दिया. डेमोक्रेट्स के गढ़ में लोग जश्न मनाने के लिए सड़कों पर निकले. लेकिन ट्रंप के अति उत्साही समर्थकों की आनलाइन प्रतिक्रियाएं नाराजगी भरी और नतीजे को चुनौती देने वाली थी.
इन लोगों ने शनिवार को वाशिंगटन डीसी में मिलियन मेक अमेरिका ग्रेट अगेन मार्च के नाम से रैली प्रस्तावित की. ट्रंप ने इसको लेकर भी ट्वीट किया कि वे प्रदर्शन के ज़रिए रोकने की कोशिश कर सकते हैं. इससे पहले वाशिंगटन में ट्रंप समर्थक रैलियों में बहुत ज़्यादा लोग नहीं जुटे थे लेकिन शनिवार की सुबह फ्रीडम प्लाज़ा में हज़ारों लोग एकत्रित हुए थे.
एक अतिवादी शोधकर्ता ने इस रैली की भीड़ को ट्रंप समर्थकों के विद्रोह की शुरुआत कहा. जब ट्रंप की गाड़ियों का काफिला शहर से गुजरा तो समर्थकों में उनकी एक झलक पाने के लिए होड़ मच गई. समर्थकों के सामने 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' की टोपी पहने ट्रंप नज़र आए.
इस रैली में अति दक्षिणपंथी समूह, प्रवासियों का विरोध करने वाले और पुरुषों के समूह प्राउड ब्यॉज़ के सदस्य शामिल थे जो गलियों में हिंसा कर रहे थे और बाद में अमरीकी कैपटिल बिल्डिंग में घुसकर हिंसा की. इसमें सेना, दक्षिणपंथी मीडिया और षड्यंत्र के सिद्धांतों की वकालत करने वाले तमाम लोग शामिल हुए थे.
रात आते आते ट्रंप समर्थकों और उनके विरोधियों में हिंसक झड़प की ख़बरें आनी लगी थीं, इसमें एक घटना तो व्हाइट हाउस से पांच ब्लॉक की दूरी पर घटित हुआ. हालांकि इन हिंसाओं में पुलिस भी लिप्त थी, लेकिन इससे आने वाले दिनों का अंदाज़ा लगाया जा सकता था.
अब तक राष्ट्रपति ट्रंप और उनकी कानूनी टीम ने अपनी उम्मीदें दर्जनों कानूनी मामलों पर टिका चुकी थीं हालांकि कई अदालतों ने चुनाव में धांधली के आरोपों को खारिज कर दिया था लेकिन ट्रंप समर्थकों की ऑनलाइन दुनिया ट्रंप के नजदीकी दो वकीलों सिडनी पॉवेल और एल लिन वुड की उम्मीदों से जुड़ीं थीं.
सिडनी पॉवेल और लिन वुड ने भरोसा दिलाया था कि वे चुनाव में धांधली के मामले को इतने विस्तृत ढंग से तैयार करेंगे कि मामला सामने आते ही बाइडन के चुनावी जीत की घोषणाओं की हवा निकल जाएगी.
65 साल की पॉवेल एक कंजरवेटिव एक्टिविस्ट हैं और पूर्व सरकारी वकील रह चुकी हैं. उन्होंने फॉक्स न्यूज़ से कहा कि क्रैकन को रिलीज करने की कोशिश हो रही है. क्रैकन का जिक्र स्कैंडेवियन लोककथाओं में आता है जो विशालकाय समुद्री राक्षस है जो अपने दुश्मनों को खाने के लिए बाहर निकलता है.
उनके इस बयान के बाद क्रैकन को लेकर इंटरनेट पर तमाम तरह के मीम्स नजर आने लगे, इन सबके जरिए चुनावी में धांधली की बातों को बिना किसी सबूत के दोहराया जा रहा था. ट्रंप समर्थकों और क्यूएनऑन कांस्पिरेसी थ्योरी के समर्थकों के बीच पॉवेल और वुड किसी हीरो की तरह उभर कर सामने आए. एक्यूएनऑन कांस्पिरेसी थ्योरी में यक़ीन करने वाले का मानना है कि ट्रंप और उनकी गुप्त सेना डेमोक्रेटिक पार्टी, मीडिया, बिजेनस हाउसेज और हॉलीवुड में मौजूद फीडोफाइल लोगों के ख़िलाफ़ लड़ रही है. दोनों वकील राष्ट्रपति और उनके षडयंत्रकारी समर्थकों के बीच एक तरह से सेतु बन गए थे. इनमें से अधिकांश समर्थक छह जनवरी को कैपिटल बिल्डिंग में हुई हिंसा में शामिल थे.
अमेरिकी संसद में हिंसा
पॉवेल और वुड समर्थकों के आक्रोश को ऑनलाइन भुनाने में कामयाब रहे लेकिन क़ानूनी तौर पर दोनों कुछ ख़ास नहीं कर पाए. इन दोनों ने नवंबर के आख़िर तक 200 पन्नों का आरोप पत्र जरूर तैयार किया लेकिन उनमें अधिकांश बातें कांस्पीरेसी थ्योरी पर आधारित थे और इससे वे आरोप अपने आप खारिज हो गए थे जिन्हें दर्जनों बार अदालत में खारिज किया जा चुका था. इतना ही नहीं इस दस्तावेज़ में कानून की ग़लतियों के साथ साथ स्पेलिंग की ग़लतियां और टाइपिंग की ग़लतियां भी देखने को मिलीं.
लेकिन ऑनलाइन की दुनिया में इसकी चर्चा जारी रही. कैपिटल बिल्डिंग में हुई हिंसा से पहले 'क्रैकन' और 'रिलीज द क्रैकन' का इस्तेमाल केवल ट्विटर पर ही दस लाख से ज़्यादा बार किया जा चुका था.
जब अदालत ने ट्रंप के कानूनी अपील को खारिज कर दिया तब अतिवादी दक्षिणपंथियों ने चुनाव कर्मियों और अधिकारियों को निशाना बनाना शुरू किया. जॉर्जिया के एक चुनावकर्मी को जान से मारने की धमकी दी जाने लगे. इस प्रांत के रिपब्लिकन अधिकारी, जिसमें गवर्नर ब्रायन कैंप, प्रांत-मंत्री (सीक्रेटरी ऑफ़ स्टेट) ब्रैड राफेनस्पर्जर और प्रांत के चुनावी व्यवस्था के प्रभारी गैबरियल स्टर्लिंग को ऑनलाइन गद्दार कहा जाने लगा.
स्टर्लिंग ने एक दिसंबर को भावनात्मक और भविष्य की आशंका को लेकर एक चेतावनी जारी की. उन्होंने कहा, "किसी को चोट लगने वाली है, किसी को गोली लगने वाली है, किसी की मौत होने वाली है और यह सही नहीं है."
दिसंबर के शुरुआती दिनों में मिशिगन के प्रांत-मंत्री (सीक्रेटरी ऑफ़ स्टेट) जैकलीन बेंसन डेट्रायट स्थित अपने घर में चार साल के बेटे के साथ क्रिसमस ट्री को संवार रही थीं तभी उन्हें बाहर हंगामा सुनाई दिया. करीब 30 प्रदर्शनकारी उनके घर के बाहर बैनर पोस्टर के साथ मेगाफोन पर स्टॉप द स्टील चिल्ला रहे थे. एक प्रदर्शनकारी ने चिल्ला कर कहा, "बेंसन तुम खलनायिका हो." एक दूसरे ने कहा, "तुम लोकतंत्र के लिए ख़तरा हो." एक प्रदर्शनकारी इस मौके पर फेसबुक लाइव कर रहा था और कह रहा था कि उसका समूह यहां से नहीं हटने वाला है.
यह उदाहरण बताता है कि प्रदर्शनकारी वोटिंग की प्रक्रिया से जुड़े लोगों के साथ किस तरह से पेश आ रहे थे. जॉर्जिया में ट्रंप समर्थक लगातार राफेनस्पर्जर के घर बाहर हॉर्न के साथ गाड़ियां चलाते रहे. उनकी पत्नी को यौन हिंसा की धमकियां मिलीं.
आरिज़ोना में प्रदर्शनकारी डेमोक्रेट प्रांत मंत्री (सीक्रेटरी ऑफ़ स्टेट) कैटी होब्स के घर के बाहर जमा हो गए. ये प्रदर्शनकारी लगातार यही कह रहे थे, "हमलोग तुम पर नजर रख रहे हैं."
11 दिसंबर को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने टैक्सास प्रांत के चुनाव नतीजों को खारिज करने की कोशिश को निरस्त कर दिया.
जैसे जैसे ट्रंप के सामने कानूनी और राजनीतिक दरवाजे बंद हो रहे थे वैसे वैसे ट्रंप समर्थक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर हिंसक हो रहे थे. 12 दिसंबर को वाशिंगटन डीसी में स्टॉप द स्टील की दूसरी रैली का आयोजन किया गया. एक बार फिर इस रैली में हज़ारों समर्थक जुटे. इसमें अतिवादी दक्षिणपंथी लोगों से मेक अमेरिका ग्रेट एगेन से लेकर सैन्य आंदोलनों में शामिल रहे लोग शामिल हुए.
ट्रंप के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार माइकल फ्लिन ने इन प्रदर्शनकारियों की तुलना बाइबिल के सैनिकों और पुजारियों से की जिन्होंने जेरिको की दीवार को गिराया था. इस रैली में चुनावी नतीजे को बदलवाने के लिए 'जेरिको मार्च' के आयोजन का आह्वान किया गया. रिपब्लिकन पार्टी को मॉडरेट बताने वाली अतिवादी दक्षिणपंथी आंदोलन ग्रोयपर्स के नेता निक फ्यूनेट्स ने इन प्रदर्शनकारियों से कहा, "हमलोग रिपब्लिकन पार्टी को नष्ट करने जा रहे हैं."
इसके दो दिन बाद इलेक्ट्रोल कॉलेज ने बाइडन की जीत पर मुहर लगा दी. अमरीकी राष्ट्रपति के लिए कार्यभार संभालने के लिए जरूरी अहम पड़ावों में यह भी शामिल है.
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर ट्रंप समर्थकों को यह नजर आने लगा था कि सभी वैधानिक रास्ते बंद हो चुके हैं, ऐसे में उन लोगों को लगने लगा था कि ट्रंप को बचाने के लिए सीधी कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प है. चुनाव के बाद फ्लिन, पॉवेल और वुड के अलावा ट्रंप समर्थकों के बीच ऑनलाइन एक और शख्स तेजी से जगह बनाने में कामयाब हुआ.
अमरीकी कारोबारी और इमेजबोर्ड 8 चैन और 8कुन के प्रमोटर जिम वाटकिंस के बेटे रॉन वाटकिंस ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर ट्रंप के समर्थक के तौर पर सामने आए. 17 दिसंबर को वायरल हुए ट्वीट्स में रॉन वाटकिंस ने डोनाल्ड ट्रंप को सलाह देते हुए कहा कि उन्हें रोमन साम्राट जूलियस सीजर का रास्ता अपनाना चाहिए और लोकतंत्र की बहाली के लिए सेना की वफादारी का इस्तेमाल करना चाहिए.
रॉन वाटिकंस ने अपने पांच लाख से ज़्यादा फॉलोअर्स को क्रास द रोबिकन को ट्वीटर ट्रेंड बनाने के लिए प्रोत्साहित किया. जूलियस सीजर ने 49 ईसापूर्व रोबीकन नदी को पार करके ही युद्ध की शुरुआत की थी. इस हैशटैग का मुख्यधार के लोगों ने भी इस्तेमाल किया. इसमें अरिज़ोना में रिपब्लिकन पार्टी की नेता कैली वार्ड भी शामिल थीं. एक अन्य ट्वीट में रॉन वाटकिंस ने ट्रंप को सुझाव दिया कि वे उन्हें राजद्रोह के क़ानून का इस्तेमाल करना चाहिए जिसके तहत राष्ट्रपति के बाद सेना और दूसरे पुलिस बलों पर अधिकार हो जाता है.
18 दिसंबर को ट्रंप ने पॉवेल, फ्लिन और दूसरे लोगों के साथ व्हाइट हाउस में रणनीतिक बैठक की. न्यूयार्क टाइम्स के मुताबिक इस बैठक के दौरान फ्लिन ने ट्रंप को मार्शल लॉ लागू करके सेना के अधीन फिर से चुनाव कराने का सुझाव दिया था. इस बैठक के बाद ऑनलाइन दुनिया में दक्षिणपंथी समूहों के बीच एक बार फिर से युद्ध और क्रांति को लेकर बातचीत शुरू हो गई. कई लोग छह जनवरी को अमेरिकी कांग्रेस के ज्वाइंट सेशन को देखने आए थे, जो एक तरह से औपचारिकता पर होती है. लेकिन ट्रंप समर्थकों को उपराष्ट्रपति माइक पेंस से भी उम्मीद थी.
वे छह जनवरी के आयोजन की अध्यक्षता करने वाले थे, ट्रंप समर्थकों को उम्मीद थी कि माइक पेंस इलेक्ट्रोल कॉलेज वोट्स की उपेक्षा करेंगे. इन लोगों की आपसी चर्चा में कहा जा रहा था कि उसके बाद किसी तरह के विद्रोह से निपटने के लिए राष्ट्रपति सेना की तैनाती करेंगे और चुनावी धांधली करने वालों के बड़े पैमानी पर गिरफ्तारी का आदेश देंगे और उन सबको सेना की ग्वांतेनामो बे की जेल में भेजा जाएगा. लेकिन यह सब ऑनलाइन की दुनिया में ट्रंप समर्थकों के बीच हो रहा था, ज़मीन की सच्चाई पर इन सबका होना असंभव दिख रहा था. लेकिन ट्रंप समर्थकों ने इसे आंदोलन का रूप दे दिया और देश भर से आपसी सहयोग और एक साथ सफर करके हज़ारों लोग छह जनवरी को वाशिंगटन पहुंच गए.
ट्रंप के झंडे लगाए गाड़ियों का लंबा काफिला शहर में पहुंचने लगा था. लुइसविले, केंटुकी, अटलांटा, जॉर्जिया और सक्रेंटन जैसे शहरों से गाड़ियों का काफिला निकलने की तस्वीरें भी सोशल प्लेटफॉर्म्स पर दिखने लगी थीं. एक शख़्स ने करीब दो दर्जन समर्थकों के साथ तस्वीर पोस्ट करते हुए ट्वीट किया, "हमलोग रास्ते में हैं." नार्थ कैरोलिना के आइकिया पार्किंग में एक शख्स ने अपने ट्रक की तस्वीर के साथ लिखा, "झंडा थोड़ा जीर्णशीर्ण है लेकिन हम इसे लड़ाई का झंड़ा कह रहे हैं."
लेकिन यह स्पष्ट था कि पेंस और रिपब्लिकन पार्टी के दूसरे अहम नेता क़ानून के मुताबिक ही काम करेंगे और बाइडन की जीत को कांग्रेस से अनुमोदित होने देंगे. ऐसे में इन लोगों के ख़िलाफ़ भी जहर उगला जाने लगा. वुड ने उनके लिए ट्वीट किया, "पेंस राष्ट्रद्रोह के मुक़दमे का सामना करेंगे और जेल में होंगे. उन्हें फायरिंग दस्ते द्वारा फांसी दी जाएगी." ट्रंप समर्थकों के बीच ऑनलाइन चर्चाओं में आक्रोश बढ़ने लगा था. लोग बंदूकें, युद्ध और हिंसा की बात करने लगे थे.
ट्रंप समर्थकों के बीच लोकप्रिय गैब औऱ पार्लर जैसी सोशल प्लेटफॉर्म्स के अलावा दूसरों जगह पर भी ऐसी बातें मौजूद थीं. प्राउड ब्यॉज के समूह में पहले सदस्य पुलिस बल के साथ बाद में वे अधिकारियों के ख़िलाफ़ लिखने लगे थे क्योंकि उन्हें एहसास हो गया था कि अधिकारियों का साथ अब नहीं मिल रहा है.
ट्रंप समर्थकों में लोकप्रिय वेबसाइट द डोनाल्ड पर पुलिस बैरिकैड तोड़ने, बंदूकें और दूसरे हथियार रखने, बंदूक को लेकर वाशिंगटन के सख्त कानून के उल्लंघन को लेकर खुले तौर पर चर्चा हो रही थी. कैपिटल बिल्डिंग में हंगामा करने और कांग्रेस के 'देशद्रोही' सदस्यों को गिरफ्तार किए जाने तक की बकवास बातें हो रही थीं.
छह जनवरी, यानी बुधवार को ट्रंप ने व्हाइट हाउस के दक्षिण में स्थित इलिप्स पार्क में हज़ारों की भीड़ को एक घंटे से ज़्यादा समय तक संबोधित किया था. उन्होंने अपने संबोधन की शुरुआत में कहा कि शांतिपूर्ण और देशभक्ति से आप बात कहेंगे तो वह सुनी जाएगी. लेकिन अंत आते आते उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा, "हमें पूरे दमखम से लड़ना होगा, अगर हम पूरे दमखम से नहीं लड़े तो आप अपना देश खो देंगे. इसलिए हमलोग जा रहे हैं. हमलोग पेन्सेल्विनया एवेन्यू जा रहे हैं और हमलोग कैपिटल बिल्डिंग जा रहे हैं."
कुछ विश्लेषकों के मुताबिक उन दिन हिंसा की आशंका एकदम स्पष्ट थी. अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में आंतरिक सुरक्षा मंत्री रहे माइकल चेरटॉफ़ उस हुई हिंसा के लिए कैपिटल पुलिस को जिम्मेदार ठहराते हैं. कथित तौर पर कैपिटल पुलिस ने नेशनल गार्ड की मदद की पेशकश को भी ठुकरा दिया था.
माइकल इसे कैपिटल पुलिस की सबसे बड़ी नाकामी बताते हुए कहत हैं, "मैं जहां तक सोच पा रहा हूं, इससे बड़ी नाकामी और क्या होगी. इस दौरान हिंसा होने की आशंका का पता पहले से लग रहा था. स्पष्टता से कहूं तो यह स्वभाविक भी था. अगर आप समाचार पत्र पढ़ते हैं, जागरूक हैं तो आपको अंदाजा होगा कि इस रैली में चुनावी में धांधली की बात पर भरोसा करने वाले लोग थे, कुछ इसमें चरमपंथी थे, कुछ हिंसा थे. लोगों ने खुले तौर पर बंदूकें लाने की अपील की हुई थीं."
इन सबके बाद भी, वर्जीनिया के 68 साल के रिपब्लिकन समर्थक जेम्स क्लार्क जैसे अमेरिकी बुधवार की घटना पर चकित हैं. उन्होंने बीबीसी को बताया, "यह काफी दुखद था. ऐसा कुछ होगा मैंने नहीं सोचा था."
लेकिन ऐसी हिंसा की आशंका कई सप्ताह से बनी हुई थी. चरमपंथी और षड्यंत्रकारी समूहों को भरोसा था कि चुनावी नतीजे की चोरी हुई है. ऑनलाइन दुनिया में ये लोग लगातार साथ में हथियार रखने और हिंसा की बात कर रहे थे. हो सकता है कि पुलिस अधिकारियों ने इन लोगों की पोस्ट को गंभीरता से नहीं लिया हो या फिर उन्हें जांच के लिए उपयुक्त नहीं पाया हो. लेकिन अब जवाबदेय अधिकारियों को चुभते हुए सवालों का सामना करना होगा.
जो बाइडन 20 जनवरी को अमरीकी राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेंगे. माइक चेरटॉफ़ उम्मीद कर रहे हैं कि सुरक्षा बल बुधवार की तुलना में कहीं ज़्यादा मुस्तैदी से तैनात होगा. हालांकि अभी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हिंसा और बाधा पहुंचाने की बात कही जा रही है. इन सबके बीच सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर भी सवाल उठ रहे हैं कि इन लोगों ने कांस्पीरेसी थ्योरी को लाखों लोगों तक क्यों पहुंचने दिया?
बुधवार की हिंसा के बाद शुक्रवार को ट्विटर ने ट्रंप के पूर्व सलाहकार फ्लिन, क्रैकन थ्योरी देने वाले वकील पॉवेल एवं वुड और वाटकिंस के खाते डिलिट किए हैं. इसके बाद ट्रंप का एकाउंट भी बंद किया गया है.
कैपिटल बिल्डिंग में हिंसा करने वाले लोगों की गिरफ़्तारी जारी है. हालांकि अभी भी ज़्यादातर दंगाई अपनी सामानान्तर दुनिया में मौजूद हैं जहां वे अपनी सुविधा के मुताबिक तथ्य गढ़ रहे हैं. बुधवार को हुई हिंसा के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने वीडियो बयान जारी किया जिसमें उन्होंने पहली बार यह स्वीकार किया है कि नया प्रशासन 20 जनवरी को अपना कार्यभार संभालेगा.
ट्रंप समर्थक इस वीडियो को देखने के बाद भी नए तरह के स्पष्टीकरण दे रहे हैं. वे खुद को दिलासा दे रहे हैं कि ट्रंप को आसानी से हार नहीं माननी चाहिए, उन्हें संघर्ष करना चाहिए. इतना ही नहीं ट्रंप समर्थकों की एक थ्योरी यह भी चल रही है कि यह वीडियो ट्रंप का है ही नहीं, यह कंप्यूटर जेनरेटेड फेक वीडियो है. ट्रंप समर्थक ये आशंका भी जता रहे हैं कि ट्रंप को बंधक तो नहीं बना लिया गया है. हालांकि ट्रंप के ढेरों प्रशंसकों को अभी भी भरोसा है कि ट्रंप राष्ट्रपति बने रहेंगे.
इनमें से किसी भी बात के सबूत मौजूद नहीं हैं लेकिन इससे एक बात ज़रूर साबित होती है. डोनाल्ड ट्रंप का चाहे जो हो, अमेरिकी कैपिटल बिल्डिंग में हिंसा करने वाले लोग आने वाले दिनों में जल्दी शांत नहीं होने वाले हैं, यह तय है. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसे कि कल मैंने अपने लेख में आशंका व्यक्त की थी, सरकार और किसानों के बीच सीधी मुठभेड़ का दौर शुरु हो गया है। आठवें दौर की बातचीत में जो कटुता बढ़ी है, वह दोनों पक्षों के आचरण में भी उतर आई है। करनाल और जालंधर जैसे शहरों से अब किसानों और पुलिस की मुठभेड़ की खबरें आने लगी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली पर डटे हुए किसान संगठनों का भी धैर्य अब टूट जाए और वे भी तोड़-फोड़ पर उतारु हो जाएं।
यह अच्छा ही हुआ कि हरयाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने करनाल के एक गांव में आयोजित किसानों की महापंचायत के जलसे को स्थगित कर दिया। यदि वे जलसा करने पर अड़े रहते तो निश्चय ही पुलिस को गोलियां चलानी पड़तीं, किसान संगठन भी परस्पर विरोधियों पर हमला करते और भयंकर रक्तपात होता। लेकिन किसान संगठनों ने भी कोई कमी नहीं रखी। उन्होंने सभा-स्थल पर लगाए गए बेरिकेड तोड़ दिए, मंच को तहस-नहस कर दिया और जिस हेलीपेड पर मुख्यमंत्री का हेलिकॉप्टर उतरना था, उसे ध्वस्त कर दिया।
किसान नेता इस बात पर अपना सीना जरुर फुला सकते हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री को मार भगाया लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि सरकार के पास उनसे कहीं ज्यादा ताकत है। यदि खट्टर की जगह कोई और मुख्यमंत्री होता तो पता नहीं आज हरयाणा का क्या हाल होता ? करनाल में किसानों के नाम पर किन्हीं भी तत्वों ने जो कुछ किया, क्या उसे किसानों के हित में माना जाएगा ? मुश्किल ही है। क्योंकि अभी तक किसानों का आंदोलन गांधीवादी शैली में अहिंसक और अनुशासित रहा है और उसने नेताओं को भी आदर्श व्यवहार सिखाया है लेकिन अब यदि ऐसी मुठभेड़ें बढ़ती गईं तो किसानों की छवि बिगड़ती चली जाएगी।
यदि किसान नेता अपने धरनों और वार्ता के जरिए अपना पक्ष पेश कर रहे हैं तो उन्हें चाहिए कि वे सरकार को भी अपना पक्ष पेश करने दें। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष को अपनी बात कहने की समान छूट होनी चाहिए। यह स्वाभाविक है कि कड़ाके की ठंड, आए दिन होनेवाली मौतों और आत्महत्याओं के कारण किसानों की बेचैनी बढ़ रही है लेकिन बातचीत के जरिए ही रास्ता निकालना ठीक है। यह समझ में नहीं आता कि सरकार भी क्यों अड़ी हुई है ? या तो रास्ता निकलने तक वह कानून को स्थगित क्यों नहीं कर देती या राज्यों को उसे लागू करने की छूट वह क्यों नहीं दे देती? (नया इंडिया की अनुमति से)