विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने देश की तकनीकी शिक्षा अब भारतीय भाषाओं के माध्यम से देने का फैसला किया है। तकनीकी शिक्षा तो क्या, अभी देश में कानून और चिकित्साशास्त्र की शिक्षा भी हिंदी और भारतीय भाषाओं में नहीं है। उच्चशोध भारतीय भाषाओं में हो, यह तो अभी एक दिवा-स्वप्न भर ही है।
1965 में जब मैंने अपने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की मांग की थी तो देश में तहलका मच गया था। इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज से मुझे निकाल बाहर कर दिया गया था। संसद में जबर्दस्त हंगामा होता रहा था। मैंने अपनी मातृभाषा में लिखने की मांग इसलिए नहीं की थी कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती थी। मैं अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत, रुसी, फारसी और जर्मन भाषाएं भी जानता था लेकिन मैं इस वैज्ञानिक सत्य को भी जानता था कि स्वभाषा में जैसा मौलिक कार्य हो सकता है, वह विदेशी भाषा में नहीं हो सकता।
दुनिया के सभी सबल और समृद्ध राष्ट्रों में सभी महत्वपूर्ण कार्य स्वभाषा के जरिए होते हैं लेकिन भारत-जैसे शानदार देश भी ज्ञान-विज्ञान में आज भी इसीलिए पिछड़े हुए हैं कि उनके सारे महत्वपूर्ण काम उसके पुराने मालिकों की भाषा में होते हैं। भाषाई गुलामी का यह दौर पता नहीं कब खत्म होगा ? यदि हमारा शिक्षा मंत्रालय उच्च शिक्षा के सभी क्षेत्रों में स्वभाषा अनिवार्य कर दे तो कुछ ही वर्षों में हमारे प्रतिभाशाली छात्र पश्चिमी देशों को मात दे सकते हैं।
समस्त विषयों की विदेशी पुस्तकों का भी साल-दो साल में ही अनुवाद हो सकता है। जब तक यह न हो, मिली-जुली भाषा में छात्रों को पढ़ाया जा सकता है। ये छात्र अपने विषयों को जल्दी और बेहतर सीखेंगे। अंग्रेजी के अलावा अन्य विदेशी भाषाओं के ग्रंथों का भी वे लाभ उठाएंगे। वे सारी दुनिया के ज्ञान-विज्ञान से जुड़ेंगे। अंग्रेजी की पटरी पर चली रेल हमारे छात्रों में ब्रिटेन और अमेरिका जाने की हवस पैदा करती है। यह घटेगी। वे देश में ही रहेंगे। अपने लोगों की सेवा करेंगे। शिक्षा की भाषा-क्रांति देश का नक्शा बदल देगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
सरकार किसान आंदोलन से जितनी भयभीत नहीं है उससे ज्यादा आतंकित इस बात से है कि कहीं इस आंदोलन से किसानों में वर्ग चेतना का उदय न हो जाए। सरकार को भय इस बात का है कि अलग अलग और अलग थलग चल रहे जन आंदोलनों में कहीं पारस्परिक सामंजस्य न स्थापित हो जाए। कहीं देश के आदिवासी यह न समझ जाएं कि उनके जल-जंगल-जमीन पर कब्जा कर उन्हें विस्थापन तथा विनाश के अंतहीन दुष्चक्र में फंसाने वाली शक्तियाँ और किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग की ओर जबरन धकेलने वाली शक्तियाँ एक ही हैं। सरकार इस बात से परेशान है कि कहीं देश के मजदूर यह न जान जाएं कि नई श्रम संहिताओं के जरिए मजदूरों द्वारा वर्षों के संघर्ष से अर्जित अधिकारों को समाप्त करने वाली ताकतें वही हैं जो खेती को निजी हाथों में सौंपने के लिए लालायित हैं। सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें इस लिए भी हैं कि कहीं पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स में कार्य करने वाले भुक्तभोगी कर्मचारी किसानों को यह न बता दें कि निजीकरण के पहले मौजूदा सिस्टम को किस प्रकार कमजोर किया जाता है ताकि निजीकरण की वकालत की जा सके। सरकार की घबराहट इस बात को लेकर भी है कि कहीं किसान आंदोलन के बारे में पढ़ते गुनते देश के प्रवासी मजदूर यह न समझ जाएं कि उन्हें गांव से बेदखल कर शहरों में खदेड़ने वाले लोग वही हैं जो आज खुल्लमखुल्ला खेती पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार डर रही है कि कहीं इन प्रवासी श्रमिकों को यह भी ज्ञात न हो जाए कि एनआरसी के विरोध में आंदोलनरत जनसमुदाय केवल अल्पसंख्यक वर्ग की लड़ाई नहीं लड़ रहा है बल्कि यह उन करोड़ों प्रवासी मजदूरों के हित की बात कर रहा है जो नागरिकता साबित करने के लिए आवश्यक दस्तावेजों के अभाव के कारण ऐसे किसी सरकारी निर्णय से सर्वाधिक प्रभावित होंगे। सरकार इसलिए भी चिंतित है कि कहीं किसानों के इस आंदोलन से प्रेरित होकर दलित,अल्पसंख्यक और महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष न प्रारंभ कर दें। कहीं वे स्वतंत्रता, समानता,धर्म पालन की आज़ादी, शोषण के विरुद्ध संघर्ष और संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकारों की मांग न करने लगें।
सरकार यह जानती है कि ये सारे जन संघर्ष यदि एकीकृत हो जाएं तो फिर कोई बड़ा परिवर्तन होकर रहेगा। इसलिए वह इस किसान आंदोलन को कमजोर करना चाहती है। वह उन सारी रणनीतियों का सहारा ले रही है जो अभी तक उसके वर्चस्व को बनाए रखने और बढ़ाने में सहायक रही हैं। सरकार समर्थक मीडिया इन आंदोलनरत अन्न दाताओं में खालिस्तानी, पाकिस्तानी और कथित टुकड़े टुकड़े गैंग के एजेंटों की भूमिका की कपोल कल्पित कहानियां दिखाता है और फिर सरकार के मंत्री इसकी पुष्टि करते नजर आते हैं। सरकार की नीतियों का विरोध करना अब राष्ट्रद्रोही घोषित किए जाने का आधार बन गया है। सरकार हर जन उभार को कमजोर करने के लिए इन अफवाहों का उपयोग करती रही है और वह अब भी ऐसा ही करना चाह रही है। सरकार के मंत्री और सरकार समर्थक मीडिया हाउस देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे ज्यादा कुर्बानी देने वाले, स्वतंत्र भारत द्वारा लड़े गए युद्धों में बढ़ चढ़ कर शहादत देने वाले और अपने परिश्रम तथा पुरुषार्थ से पूरे देश को अन्न के संकट से मुक्ति दिलाने वाले पंजाब के वीरों और मेहनतकश किसानों पर ऐसे मिथ्या लांछन लगा सकते हैं यह देखना एक भयावह और दुःखद अनुभव है।
एक प्रयास यह भी हो रहा है कि इस आंदोलन को पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों के संपन्न किसानों के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाए। प्रधानमंत्री स्वयं यह आभास देते लग रहे हैं कि देश के छोटे और सीमांत किसान उनके साथ खड़े हैं। जबकि सच्चाई यह है कि पंजाब और हरियाणा के जाग्रत, जुझारू एवं जागरूक कृषक उन आसन्न खतरों के प्रति देश के अन्य किसानों को सतर्क कर रहे हैं जो इन कृषि कानूनों के क्रियान्वयन के बाद आने वाले हैं। सरकार यह चाहती है कि देश के पिछड़े प्रदेशों के किसानों की कम जानकारी और असतर्कता का लाभ उठाकर वह उन्हें भ्रमित कर ले। प्रधानमंत्री द्वारा अपनी कथित उपलब्धियां गिनाने के लिए मध्यप्रदेश के रायसेन का चयन एक राजनेता के तौर पर उनके अतिआत्मविश्वास और दुस्साहस को तो दर्शाता ही है किंतु बतौर मनुष्य यह उन्हें संवेदनहीन भी सिद्ध करता है क्योंकि मध्यप्रदेश के इस इलाके में किसान सर्वाधिक बदहाल और आंदोलित रहे हैं। यह क्षेत्र 6 जून 2018 के मंदसौर गोलीकांड के लिए चर्चित रहा है। कमलनाथ की कांग्रेस सरकार के अल्प कार्यकाल को छोड़ कर विगत डेढ़ दशक से भाजपा मप्र में शासन में रही है। 2014 से पांच वर्ष तक तो यहाँ डबल इंजन की सरकार भी थी और आज भी है। ऐसी दशा में इस क्षेत्र के किसानों की बदहाली के लिए क्षमा याचना करने के स्थान पर प्रधानमंत्री जी अपनी उपलब्धियां गिनाकर उनके साथ क्रूर मजाक करते नजर आते हैं। बहरहाल उनकी रणनीति यह है कि आंदोलन को पंजाब-हरियाणा के किसान विरुद्ध सारे देश के किसान या अमीर किसान विरुद्ध गरीब किसान के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
एक कोशिश यह भी हो रही है कि इस आंदोलन को किसान विरुद्ध आम आदमी का रूप दे दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका का स्वरूप ऐसा ही है। अति सामान्य ढंग से लगाई गई इस याचिका पर त्वरित सुनवाई भी हुई और आवश्यकता पड़ने पर छुट्टियों के दौरान कार्य करने वाली बेंच के पास जाने का अधिकार भी दिया गया। आश्चर्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार की तरह सोचता नजर आ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- पहले हम किसानों के आंदोलन के ज़रिए रोकी गई सड़क और इससे नागरिकों के अधिकारों पर होने वाले प्रभाव पर सुनवाई करेंगे। वैधता के मामले को इंतजार करना होगा। सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता के इस क्रम से भावी घटनाक्रम का अनुमान लगाया जा सकता है जो निश्चित ही किसानों के लिए आश्वासनदायी और सुखकर नहीं होगा।
इससे भी ज्यादा चिंताजनक है सोशल मीडिया पर किसानों के विरुद्ध किया जा रहा दुष्प्रचार। किसानों को आम जनता को परेशानी में डालने वाले राष्ट्र द्रोहियों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास हो रहा है। आंदोलनरत किसानों के खान पान पर सवाल उठाए जा रहे हैं। किसानों को भोजन कराने वाले गुरुद्वारों और अन्य संगठनों के विरुद्ध घटिया और अनर्गल आरोप लगाए जा रहे हैं। आंदोलन की फंडिंग पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। यह दुष्प्रचार उस खाते पीते प्रायः शहरी मध्यम वर्ग को लक्ष्य कर किया जा रहा है जिसे सरकारी राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए मर मिटने को तैयार आत्मघाती दस्ते के रूप में प्रशिक्षित किया गया है। धार्मिक और जातीय सर्वोच्चता के अहंकार में डूबा, घोर अवसरवादी, अपनी सुविधानुसार नैतिकता की परिभाषाएं गढ़ने वाला यह वर्ग समाज में सरकारी अनुशासन को बनाए रखने का स्वघोषित उत्तरदायित्व संभाल रहा है। यह जमीन से इस कदर कट चुका है कि उत्पादन प्रक्रिया और उसमें श्रम के महत्व से यह बिल्कुल अपरिचित है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद की उपभोक्ता संस्कृति ने जिन नए व्यवसायों और रोजगारों को जन्म दिया है उनमें अमानवीयता, अवसरवाद एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा के तत्व इस तरह घुले मिले हैं कि यह नई पीढ़ी को संवेदनशून्य बना रहे हैं। बहरहाल जो नया नैरेटिव सोशल मीडिया पर गढ़ा जा रहा है वह टैक्स पटाने वाली, ईमानदार, सभ्य, अनुशासित सिविल सोसाइटी विरुद्ध अराजक, अनपढ़, असभ्य किसान का नैरेटिव है। सोशल मीडिया पर ऐसी ही भावना तब देखी गई थी जब प्रवासी मजदूरों की घर वापसी की कोशिशों को कोविड-19 के प्रसार के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था।
किसानों के विरुद्ध जहर उगलने वाले यह लोग कृषि कानूनों के बाद आने वाले संभावित बदलावों से अछूते नहीं रहेंगे। प्रभात पटनायक आदि विशेषज्ञों के अनुसार इन कृषि कानूनों के बाद खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। देश में कृषि भूमि सीमित है, फसलों की उत्पादन वृद्धि में सहायक सिंचाई आदि सुविधाओं तथा कृषि तकनीकों में सुधार की भी एक सीमा है। इस अल्प और सीमित भूमि में ग्लोबल नार्थ(विकसित देशों की अर्थव्यवस्था एवं बाजार, ग्लोबल नार्थ एक भौगोलिक इकाई नहीं है) के उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए खाद्यान्नों के स्थान पर उन फसलों का उत्पादन किया जाएगा जो इन देशों में पैदा नहीं होतीं। जब तक पीडीएस सिस्टम जारी है तब तक सरकार के लिए आवश्यक खाद्यान्न का स्टॉक बनाए रखने के लिए अनाजों की खरीद जरूरी होगी। किंतु बदलाव यह होगा कि वर्तमान में जो भी अनाज बिकने के लिए आता है उसे खरीदने की अब जो बाध्यता है, वह तब नहीं रहेगी। सरकार पीडीएस को जारी रखने के लिए आवश्यक अनाज के अलावा अधिक अनाज खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगी। इसका परिणाम यह होगा कि कृषि भूमि का प्रयोग अब विकसित देशों की जरूरतों के अनुसार फसलें पैदा करने हेतु होने लगेगा। विश्व व्यापार संगठन की दोहा में हुई बैठक से ही भारत पर यह दबाव बना हुआ है कि सरकार खाद्यान्न की सरकारी खरीद में कमी लाए किंतु किसानों और उपभोक्ताओं पर इसके विनाशक प्रभावों का अनुमान लगाकर हमारी सरकारें इसे अस्वीकार करती रही हैं। विकसित देश अपने यहाँ प्रचुरता में उत्पन्न होने वाले अनाजों के आयात के लिए भारत पर वर्षों से दबाव डालते रहे हैं। 1960 के दशक के मध्य में बिहार के दुर्भिक्ष के समय हमने अमेरिका के दबाव का अनुभव किया है और खाद्य उपनिवेशवाद के खतरों से हम वाकिफ हैं। यह तर्क कि नया भारत अब किसी देश से नहीं डरता, केवल सुनने में अच्छा लगता है। वास्तविकता यह है कि अनाज के बदले में जो फसलें लगाई जाएंगी उनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव दर्शाती हैं, इसी प्रकार के बदलाव विदेशी मुद्रा में भी देखे जाते हैं और इस बात की आशंका बनी रहेगी कि किसी आपात परिस्थिति में हमारे पास विदेशों से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं रहेगी। आज हमारे पास विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार हैं किंतु आवश्यक नहीं कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी। विदेशों से अनाज खरीदने की रणनीति विदेशी मुद्रा भंडार के अभाव में कारगर नहीं होगी और विषम परिस्थितियों में करोड़ों देशवासियों पर भुखमरी का संकट आ सकता है। भारत जैसा विशाल देश जब अंतरराष्ट्रीय बाजार से बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने लगेगा तो स्वाभाविक रूप से कीमतों में उछाल आएगा। जब कमजोर मानसून जैसे कारकों के प्रभाव से देश में खाद्यान्न उत्पादन कम होगा तब हमें ज्यादा कीमत चुका कर विदेशों से अनाज लेना होगा। इसी प्रकार जब भारत में अनाज के बदले लगाई गई वैकल्पिक फसलों की कीमत विश्व बाजार में गिर जाएगी तब लोगों की आमदनी इतनी कम हो सकती है कि उनके पास अनाज खरीदने के लिए धन न हो। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खाद्यान्न के बदले में लगाई जाने वाली निर्यात की फसलें कम लोगों को रोजगार देती हैं। जब लोगों का रोजगार छिनेगा तो उनकी आमदनी कम होगी और क्रय शक्ति के अभाव में वे भुखमरी की ओर अग्रसर होंगे। भारत जैसे देश में भूमि के उपयोग पर सामाजिक नियंत्रण होना ही चाहिए। भूमि को बाजार की जरूरतों के हवाले करना विनाशकारी सिद्ध होगा। कोविड-19 के समय देश की जनता को भुखमरी से बचाने में हमारे विपुल खाद्यान्न भंडार ही सहायक रहे।
प्रधानमंत्री जी उस विपक्ष को इस आंदोलन के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं जो खुद इस स्वतः स्फूर्त जन उभार को देखकर चकित है और स्वयं असमंजस में है कि क्या स्टैंड ले? प्रधानमंत्री अपनी सारी शक्ति यह सिद्ध करने में लगा रहे हैं कि किसानों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी कांग्रेस इन कृषि सुधारों की हमेशा वकालत करती थी। किंतु इन्हें अमलीजामा पहनाने का उसमें हौसला न था। आज हमारी निर्णय लेने वाली सरकार द्वारा इन सुधारों को क्रियान्वित किए जाने के बाद ईर्ष्याग्रस्त होकर कांग्रेस किसानों को आंदोलन के लिए भड़का रही है।
1991 के बाद हमारा देश एलपीजी (लिबरलाइजेशन,प्राइवेटाइजेशन,ग्लोबलाइजेशन) की राह पर तेजी से चल निकला। नई वैश्विक व्यापार व्यवस्था के सबक बहुत साफ हैं- कृषि में सब्सिडी समाप्त की जाए, पीडीएस खत्म हो, कृषि भूमि का उपयोग बाजार की जरूरतों के अनुसार हो, कृषि क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा मैन पॉवर लगा है अतः कृषि का यंत्रीकरण किया जाए जिससे मैन पॉवर की आवश्यकता कम होगी, उत्पादन लागत में कमी आएगी,(बहुराष्ट्रीय कंपनियों का) मुनाफा बढ़ेगा, गांवों से लोग शहरों में जाएंगे जहाँ शहरी कारखानों को सस्ते मजदूर मिलेंगे। कांग्रेस भी वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबावों के कारण किसानों को एलपीजी की ओर धकेल रही थी, उसी नीति को मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया है। अंतर केवल इतना है कि कांग्रेस स्वाधीनता आंदोलन की अपनी विरासत के कारण(जिसमें किसानों की अग्रणी भूमिका थी) और अपने पूर्ववर्ती नेतृत्व के वेलफेयर स्टेट की अवधारणा में गहन विश्वास के कारण भी वैसी निर्लज्ज निर्ममता से इन कृषि सुधारों को लागू नहीं कर पा रही थी जैसी वर्तमान मोदी सरकार ने दिखाई है। पुनः जो नैरेटिव गढ़ा जा रहा है वह है कांग्रेस और विरोधी दलों द्वारा भड़काए गए किसान विरुद्ध सकारात्मक सोच वाले समझदार राष्ट्रभक्त और तरक्की पसंद सरकार समर्थक किसान।
कुल मिलाकर सरकार यह चाहती है कि इस आंदोलन की कोई ऐसी व्याख्या जनता के लिए स्वीकार्य बनाई जाए जो नफरत, संदेह और बंटवारे के नैरेटिव को सपोर्ट करे। यह सरकार का होम ग्राउंड है और यहाँ वह अपराजेय है। किसानों ने अपने आंदोलन का स्वरूप अराजनीतिक बनाए रखा है। यह एक दृष्टि से उचित भी है। किसान आंदोलन के वास्तविक लक्ष्य देश के प्रमुख राष्ट्रीय दलों के आर्थिक दर्शन से संगति नहीं रखते। किसान और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विमर्श के केंद्र में लाना तो दूर इन्हें गौण और महत्वहीन बनाना इन राजनीतिक दलों की प्राथमिकता है। किंतु फिर प्रश्न यह उठता है कि इस आंदोलन का हासिल क्या होगा? क्या लिबरलाइजेशन-प्राइवेटाइजेशन-ग्लोबलाइजेशन का समर्थन करने वाले राजनीतिक दल किसानों के साथ न्याय कर पाएंगे? शायद यह आंदोलन सरकार को इन कृषि सुधारों के क्रियान्वयन को कुछ समय तक स्थगित रखने हेतु विवश कर दे। और कुछ समय बाद इन्हें कुछ कॉस्मेटिक चेंज के साथ फिर पेश किया जाए।
केंद्र सरकार को यदि लगातार चुनावी सफलताएं नहीं मिलतीं तो उसका अहंकार शायद कुछ कम होता। किसानों और मजदूरों का जन असंतोष यदि वोटों में तबदील हो जाता तो शायद बिहार के चुनावों का परिणाम कुछ और होता। जब तक किसानों और मजदूरों में वर्ग चेतना का विकास नहीं होगा तथा वे वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध मतदाता समूह की भांति मतदान नहीं करेंगे तब तक चुनावी राजनीति से अपनी प्राथमिकताएं तय करने वाली पार्टियां उनकी समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं होंगी।
क्या कोई यह विश्वास भी कर सकता है कि किसान, ग्रामीण अर्थव्यस्था और सहकारिता की जीवन भर पैरवी करने वाले महात्मा गाँधी के देश में किसानों की यह स्थिति हो जाएगी कि उन्हें न केवल आत्मरक्षार्थ आंदोलनरत होना पड़ेगा अपितु राष्ट्र विरोधी, खालिस्तानी और पाकिस्तानी जैसे अपमानजनक संबोधनों का सामना भी करना पड़ेगा। गाँधी के देश के किसान इस धरा को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। आशा करनी चाहिए कि सरकार के तमाम हथकंडों के बावजूद न तो किसान भ्रमित होंगे न ही देश की जनता। इस आंदोलन का शांतिपूर्ण स्वरूप तथा इसकी पारदर्शिता एवं पवित्रता का बने रहना इसके परिणाम से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आने वाले संघर्षों बुनियाद इन्हीं विशेषताओं पर रखी जायेगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
पेरिस समझौते को सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि देशों और दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की सटीक जानकारी हो, पर समस्या यह है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के बारे में वैज्ञानिकों को जितनी ठोस जानकारी है, उतनी इसके उत्सर्जन के बारे में नहीं हैI
महेन्द्र पांडे
पिछले महीने आयोजित जी-20 समूह की बैठक को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित करते हुए कहा था कि जलवायु परिवर्तन रोकने के मुद्दे पर हम अपने निर्धारित लक्ष्य से भी अधिक काम कर रहे हैंI इस सन्दर्भ में उदाहरण के तौर पर लगातार नवीनीकृत ऊर्जा क्षेत्र के आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं, पर उसमें भी पिछले दो वर्षों से मंदी छा गई हैI सौर और पवन ऊर्जा की अनेक कम्पनियां बंद हो चुकी हैं, अनेक परियोजनाएं रोक दी गई हैंI
दूसरी तरफ बड़े देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जहां कोयले की मांग और खपत लगातार बढ़ती जा रही है और कोयला आधारित नए बिजलीघर आज भी स्थापित किये जा रहे हैंI भारत के कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन के उत्सर्जन के आंकड़ों पर लगातार देशी-विदेशी वैज्ञानिक प्रश्न चिह्न लगाते रहे हैंI संयुक्त राष्ट्र ने भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत वनों के आंकड़ों पर भी सवाल खड़ा किया था और इन्हें फिर से पेश करने को कहा थाI इन सबके बीच, सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या भारत जैसा देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन या फिर पर्यावरण विनाश के सही आंकड़े प्रस्तुत कर सकता है?
पिछले वर्ष जब भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को हटा दिया और उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून लागू किया तब देश-विदेश में तीखी प्रतिक्रया व्यक्त की गई थीI इसके विरोध में मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद ने भी तीखे बयान दिए थे। जाहिर है ये बात पीएम मोदी और उनकी सरकार को नागवार गुजरीI सरकारी तौर पर तो इस पर विरोध दर्ज कराया ही गया, पर पर्दे के पीछे से मलेशिया को व्यापारिक तौर पर कमजोर भी किया गयाI
दरअसल भारत पाम आयल का दुनिया में सबसे बड़े उपभोक्ता और आयातक देशों में सम्मिलित हैI परंपरागत तौर पर मलेशिया से भारत में सबसे अधिक पाम आयल का आयात किया जाता हैI जब सरकार ने मलेशिया के प्रधानमंत्री के वक्तव्यों पर विरोध दर्ज किया, तब सरकार को खुश करने के लिए देश के पाम आयल व्यापारी संघ ने अचानक मलेशिया से पाम आयल के आयात को बंद करने का ऐलान कर दिया और महंगे दामों पर इंडोनेशिया से इसका आयात करना शुरू कर दियाI
इंडोनेशिया को जब भारत से बड़े आर्डर मिलने लगे तब वहां इसके उत्पादन को बढाने के तरीके आजमाए जाने लगेI इन तरीकों में एक था, पाम आयल के पौधों को नए क्षेत्र में लगाना और इनका दायरा बढ़ानाI इसके लिए नए क्षेत्र तलाशे गए, जिनमें अधिकतर क्षेत्र वहां के वर्षा वनों को काट कर निकाले गएI इंडोनेशिया के वर्षा वन विशेष हैं और ऐसे जंगल पूरे एशिया में दूसरे नहीं हैंI विशेष वनस्पतियों और वन्यजीवों से भरे ये वन सामान्य वनों की अपेक्षा वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का अधिक अवशोषण करते हैंI
ऐसे में जब पाम आयल प्लान्टेशन के लिए जंगलों का बड़ा हिस्सा साफ किया गया, तब जाहिर है वनस्पतियों में अवशोषित कार्बन वायुमंडल में मिल गयाI भारत को पाम आयल का निर्यात करने के लिए इंडोनेशिया में जंगल काटे गए और इससे कार्बन डाइऑक्साइड भारी मात्रा में वायुमंडल तक पहुंची, पर इसका उल्लेख हमारे देश के उत्सर्जन में कहीं नहीं होगाI
इन दिनों देश में अधिकतर बड़े ताप बिजली घर गौतम अडानी की कंपनियों के नाम हैं और अनेक नए बड़े बिजलीघर उनकी कंपनी स्थापित भी कर रही हैI समस्या यह है कि अपने देश में कोयला के भंडार तो बहुत हैं पर उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं हैI ऑस्ट्रेलिया के कोयले की गुणवत्ता बहुत अच्छी मानी जाती हैI अडानी की कंपनी ने ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़े कोयला खदानों में से एक को खरीदा और अब उस पर काम अंतिम चरण में है और जल्द ही उत्पादन शुरू होगाI इसके लिए बड़े पैमाने पर वनस्पतियों का सफाया किया गया, रेल लाइन बिछाने के लिए जंगल काटे गए और पोर्ट बनाने के लिए कोरल रीफ को बर्बाद किया गयाI जाहिर है, देश के ताप बिजली घरों को चलाने के लिए ऑस्ट्रेलिया में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ गयाI
कुछ दिनों पहले की खबर के अनुसार दुनिया भर में बड़ी खान-पान से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां जो चिकेन परोसती हैं, उन मुर्गों/मुर्गियों का मुख्य भोजन सोयाबीन है, जो पहले चीन से मंगाया जाता था, पर अब चीन का बहिष्कार करने के चक्कर में ब्राजाल से मंगाया जाता हैI ब्राजील में सोयाबीन की खेती का क्षेत्र बढाने के नाम पर अमेजन के वर्षा वन काटे जा रहे हैं, जिनसे एक तरफ तो पर्यावरण का विनाश हो रहा है तो दूसरी तरफ ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में मिल रही हैंI ब्राजील के अमेजन के वर्षा वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है, क्योंकि हवा को साफ करने में इनका बड़ा योगदान हैI
जाहिर है कि किसी देश द्वारा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बता पाना कठिन काम है, क्योंकि मुक्त व्यापार के इस दौर में हरेक देश के कारण उत्सर्जन दूसरे देशों में भी हो रहा हैI अब, अमेरिका में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन के निर्वाचन की इलेक्टोरल कॉलेज से स्वीकृति मिलने के बाद से फिर से जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण से संबंधित पेरिस समझौते, जिसके हाल में ही पांच वर्ष पूरे हुए हैं, की चर्चा जोर-शोर से की जा रही हैI जो बाइडेन ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दुहराया हैI उनके अनुसार राष्ट्रपति पद का जिम्मा संभालते ही पहले दिन वे पेरिस समझौते में वापस शामिल होने की कार्यवाही शुरू कर देंगे और अपने कार्यकाल के 100 दिनों के भीतर ग्रीनहाउस गैसों के प्रमुख उत्सर्जक देशों का सम्मलेन अमेरिका में आयोजित करेंगेI
पेरिस समझौते को सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि देशों और दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की सटीक जानकारी हो, पर समस्या यह है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के बारे में वैज्ञानिकों को जितनी ठोस जानकारी है, उतनी इसके उत्सर्जन के बारे में नहीं हैI नीतियों में भले ही विभिन्न देशों में भिन्नता हो, पर व्यापार के मामले में सभी देश एक दूसरे से मिले हुए हैंI एक देश की मांग दूसरे देश से पूरी हो रही है, ऐसे में दूसरे देश के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का जिम्मेदार किसे माना जाएगा, यह भी स्पष्ट नहीं हैI (navjivanindia.com)
-राजेश प्रियदर्शी
वास्को डी गामा 1498 में भारत आए और इसके 12 वर्षों के भीतर पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्ज़ा जमा लिया।
1510 से शुरू हुआ पुर्तगाली शासन गोवा के लोगों को 451 सालों तक झेलना पड़ा। 1961 में 19 दिसंबर को उन्हें आज़ादी मिली यानी भारत के आजाद होने के करीब साढ़े 14 साल बाद।
आजादी के लिए गोवा के संघर्ष को मानो भुला दिया गया है। गोवा, दमन और दीव के भारत में शामिल होने के पीछे अनेक लोगों की भूमिका थी जिनके बारे में लोगों को शायद ही पता हो।
भारतीय सेना के ऑपरेशन विजय के 36 घंटों के भीतर पुर्तगाली जनरल मैनुएल एंटोनियो वसालो ए सिल्वा ने ‘आत्मसमर्पण’ के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए, लेकिन ऑपरेशन विजय इस लड़ाई का अंतिम पड़ाव था। आजादी की अलख गोवा में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने 1946 की गर्मियों में जलाई थी।
डॉक्टर लोहिया अपने मित्र डॉक्टर जूलियाओ मेनेज़ेस के निमंत्रण पर गोवा गए थे। लोहिया गोवा के असोलना में डॉ। मेनेजेस के घर पर रुके, जहां उन्हें पता चला कि पुर्तगालियों ने किसी भी तरह की सार्वजनिक सभा पर रोक लगा रखी है।
ओमप्रकाश दीपक और अरविंद मोहन की किताब ‘लोहिया एक जीवनी’ में गोवा में लोहिया के संघर्ष के बारे में इस तरह लिखा गया है, ‘उनका इरादा तो बीमार शरीर को आराम देने का था, लेकिन गोवा जाकर उन्होंने देखा कि पुर्तगाली शासन, ब्रितानियों से भी अधिक वहशी है। लोगों के किसी भी तरह के नागरिक अधिकार नहीं थे। डॉक्टर लोहिया ने 200 लोगों को जमा करके एक बैठक की, जिसमें तय किया गया कि नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ा जाए।’
गोवा में लोहिया की पहली चुनौती
18 जून 1946 को बीमार राम मनोहर लोहिया ने पुर्तगाली प्रतिबंध को पहली बार चुनौती दी। तेज़ बारिश के बावजूद उन्होंने पहली बार एक जनसभा को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज उठाई। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मडग़ांव की जेल में रखा गया।
महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लेख लिखकर पुर्तगाली सरकार के दमन की कड़ी आलोचना की और लोहिया की गिरफ़्तारी पर उन्होंने सख़्त बयान दिया, जिसके बाद पुर्तगालियों ने माहौल गर्माता देखकर लोहिया को गोवा की सीमा से बाहर ले जाकर छोड़ दिया।
रिहाई के बाद लोहिया के गोवा में प्रवेश पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन वे अपना काम कर चुके थे, पुर्तगाली दमन से परेशान गोवा के हिंदुओं और कैथोलिक ईसाइयों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ली और ख़ुद को संगठित करना शुरू किया।
गोवा से पुर्तगालियों को हटाने के काम में एक क्रांतिकारी दल सक्रिय था, उसका नाम था-आजाद गोमांतक दल। विश्वनाथ लवांडे, नारायण हरि नाईक, दत्तात्रेय देशपांडे और प्रभाकर सिनारी ने इसकी स्थापना की थी।
इनमें से कई लोगों को पुर्तगालियों ने गिरफ़्तार करके लंबी सज़ा सुनाई और इनमें से कुछ लोगों को तो अफ्ऱीकी देश अंगोला की जेल में रखा गया। विश्वनाथ लवांडे और प्रभाकर सिनारी जेल से भागने में कामयाब रहे और लंबे समय तक क्रांतिकारी आंदोलन चलाते रहे।
लोहिया को गांधी का समर्थन
1954 में लोहिया की प्रेरणा से गोवा विमोचन सहायक समिति बनी, जिसने सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के आधार पर आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र और गुजरात में आचार्य नरेंद्र देव की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने भी उनका भरपूर साथ दिया।
‘लोहिया एक जीवनी’ बताती है कि गोवा छोडऩे से पहले डॉक्टर साहब ने आह्वान किया कि गोवा के लोग अपना संघर्ष जारी रखें।
लोहिया ने तीन महीने बाद गोवा लौटने का वादा किया लेकिन दिसंबर 1946 आते-आते भारत के दूसरे हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा की आग भडक़ उठी और लोहिया गोवा नहीं जा सके क्योंकि वे गांधी के साथ हिंसा की आग बुझाने में लगे थे।
किताब के मुताबिक, ‘लोहिया अपने वादे को नहीं भूले, वे दोबारा गोवा गए लेकिन उन्हें रेलवे स्टेशन पर ही गिरफ़्तार कर लिया गया। इस बार भी गांधी लोहिया की गिरफ़्तारी पर लगातार बोलते रहे। दस दिन तक जेल में रखे जाने के बाद लोहिया को दोबारा गोवा की सीमा से बाहर ले जाकर छोड़ दिया गया।’
गौर करने की बात ये भी है कि गोवा की आजादी की लड़ाई में लोहिया की भूमिका को सिर्फ गांधी का समर्थन मिला, कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं नेहरू और पटेल का ध्यान गोवा की तरफ नहीं था, वे समझते थे कि इससे अंग्रेजों के खिलाफ चल रही मुख्य लड़ाई से ध्यान भटकेगा।
इस बीच, लोहिया ने गोवा से लगे कई जि़लों का दौरा किया। उन्होंने गोवा की आज़ादी की भावना रखने वाले लोगों को संगठित करने का काम शुरू किया।
उन्होंने मुंबई में बसे गोवा के लोगों को जुटाया और आंदोलन की तैयारी में जुट गए। ‘लोहिया एक जीवनी’ बताती है कि ‘गोवा वाले चाहते थे कि लोहिया ही उनका नेतृत्व करें, लेकिन गांधी जी की राय थी कि गोमान्तक लोगों को अपनी लड़ाई ख़ुद लडऩी चाहिए। इसके बाद गांधी ने लोहिया को अपने पास बुला लिया।’
‘गोवा की पराधीनता भारत के गाल पर फुंसी’
‘लोहिया एक जीवनी’ में लिखा है, ‘फऱवरी 1947 में नेहरू ने यहां तक कह दिया कि गोवा का प्रश्न महत्वहीन है। उन्होंने इस पर भी संदेह जताया कि गोवा के लोग भारत के साथ आना चाहते हैं। इसके बाद गोवा की स्वतंत्रता का आंदोलन मुरझाने लगा। लेकिन गोवा के लोगों का मन बदल चुका था, उनकी स्वतंत्र आत्मा के प्रतीक बन चुके थे डॉक्टर राममनोहर लोहिया।’
मुख्तार अनीस ने अपनी किताब ‘समाजवाद के शिल्पी’ (पेज-142) पर लिखा है कि ‘तब भारत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की अस्थायी सरकार थी, उस सरकार के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक बयान में कहा कि गोवा की पराधीनता भारत के गाल पर एक छोटी-सी फुंसी है, जिसे अंग्रेज़ों के जाते ही आसानी से मसलकर हटाया जा सकता है।’
मुख्तार अनीस लिखते हैं कि ‘सरदार पटेल ने भी साफ़ कह दिया कि गोवा से (अस्थायी) सरकार का कोई वास्ता नहीं है लेकिन लोहिया को गांधी जी का आशीर्वाद प्राप्त था।’
भारत के साथ आजाद नहीं हुआ गोवा
बँटवारे और भयावह सांप्रदायिक हिंसा के बाद भारत को आजादी मिल गई लेकिन गोवा पुर्तगाल के ही कब्जे में रहा। यहां तक कि 1954 में फ्रांसीसी पांडिचेरी छोडक़र चले गए मगर गोवा आजाद नहीं हो पाया।
भारत सरकार ने 1955 में गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। इन प्रतिबंधों के जवाब में पुर्तगाल ने क्या किया, इसकी जानकारी गोवा में रहने वाले एक बुज़ुर्ग होटल व्यवसायी ने बीबीसी को दी थी। तब हिगिनो रोबेलो की उम्र 15 साल थी।
उन्होंने बताया, ‘हम वास्को में रहते थे जो मुख्य पोर्ट था। भारतीय प्रतिबंध के बाद नीदरलैंड्स से आलू, पुर्तगाल से वाइन, पाकिस्तान से चावल और सब्जिय़ां और श्रीलंका (तब सीलोन) से चाय भेजी जाने लगी।’
भारत और पुर्तगाल के बीच तनाव गहरा रहा था। डॉक्टर लोहिया के कई युवा समाजवादी शिष्य गोवा की आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े। इन लोगों में सबसे अहम नाम मधु लिमये का है जिन्होंने गोवा की आज़ादी के लिए 1955 से 1957 के बीच दो साल गोवा की पुर्तगाली जेल में बिताए, जहां उन्हें कई तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा। उन दिनों गोवा की जेलें सत्याग्रहियों से भर गई थी और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन आंदोलनकारियों की रिहाई के लिए पोप से हस्तक्षेप करने की अपील की थी।
आखिरकार आज़ादी कैसे मिली?
गोवा को 19 दिसंबर 1961 को कैसे आजादी मिली, इसकी कहानी बहुत दिलचस्प है। जिस फुंसी की बात नेहरू कर रहे थे, उसे मसलना उतना आसान नहीं था जितना उन्होंने सोचा था।
पुर्तगाल आसानी से गोवा को छोडऩे के मूड में नहीं था, वह नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो) का सदस्य था और नेहरू किसी सैनिक टकराव से हिचक रहे थे।
1961 के नवंबर महीने में पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चलाईं जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई, इसके बाद माहौल बदल गया। (बाकी पेज 8 पर)
भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री केवी कृष्णा मेनन और नेहरू ने आपातकालीन बैठक की।
इस बैठक के बाद 17 दिसंबर को भारत ने 30 हज़ार सैनिकों को ऑपरेशन विजय के तहत गोवा भेजने का फैसला किया, इस ऑपरेशन में नौसेना और वायुसेना भी शामिल थी।
भारतीय सेना की बढ़त को रोकने के लिए पुर्तगालियों ने वास्को के पास का पुल उड़ा दिया। लेकिन 36 घंटे के भीतर पुर्तगाल ने कब्जा छोडऩे का फैसला कर लिया।
इस तरह डॉक्टर लोहिया का आजाद गोवा को देखने का सपना पूरा हुआ, लेकिन वैसे नहीं जैसे वे चाहते थे। गांधी की तरह लोहिया भी चाहते थे कि गोवा सत्याग्रह से आजाद हो, न कि बंदूक की ताकत से। (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बांग्लादेश की जयंति के 49 वें और शेख मुजीबुर्रहमान के शताब्दि समारोह के उपलक्ष्य में भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्रियों के बीच जो संवाद हुआ, वह दोनों देशों के बीच संबंधों की घनिष्टता का द्योतक तो है ही, इस अवसर पर दोनों देशों के बीच जो 7 समझौते हुए हैं, वे आपसी व्यापार, लेन-देन और आवागमन में काफी बढ़ोतरी करेंगे। 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान बंद हुआ हल्दीबाड़ी-चिलहटी रेल-मार्ग भी अब खुल जाएगा। पहले चार रेल मार्ग तो खुल ही चुके हैं। इस रेल-मार्ग के खुल जाने से बंगाल और असम के बीच आवागमन बहुत सुगम हो जाएगा।
दोनों नेताओं के सहज संवाद से यह आशा भी बंधती है कि जल-बंटवारा, रोहिंग्या संकट, सीमाई हिंसा और कोरोना-संकट जैसे मामलों में भी भारत बांग्लादेश की मदद करेगा। वास्तव में बांग्लादेश के साथ भारत का पिता-पुत्र का संबंध है। यदि भारत नहीं चाहता तो बांग्लादेश बन ही नहीं सकता था। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने विलक्षण साहस का परिचय दिया और पाकिस्तानी फौज के चंगुल से बांग्लादेश को मुक्त कर दिया।
उन दिनों दिल्ली के स्रपू हाउस में जब हम बांग्ला-आंदोलन के समर्थन में सभाएं करते थे तो हम कहा करते थे कि शेख मुजीब ने उस आधार को ही उलट दिया है, जिसके दम पर मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनाया है। पाकिस्तान का आधार मजहब था लेकिन मुजीब ने प्रश्न किया कि मजहब बड़ा कि भाषा? मुजीब ने सिद्ध किया कि मजहब से भी बड़ी है, भाषा और संस्कृति ! इसी आधार पर इस्लामी होते हुए भी मजहब के आधार पर बने पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हो गया। इस देश का नाम ही इसकी भाषा पर रखा गया है। मुझे खुशी है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हमारी इसी बात को फिर दोहराया है। इस अवसर पर उन्होंने कहा बांग्लादेश में हम सांप्रदायिक अराजकता को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। ‘हिफाजते-इस्लाम’ के कट्टरपंथी लोग शेख मुजीब की मूर्ति लगाने का भी विरोध कर रहे हैं। हसीना ने इस्लामी कट्टरवादियों को फटकारते हुए कहा है कि यह बांग्लादेश जितना काजी नजरुल इस्लाम, लालन शाह, शाह जलाल और खान जहानअली का है, उतना ही रवींद्रनाथ ठाकुर, जीवानंद और शाह पूरन का है। इस देश की आजादी के लिए मुसलमानों, हिंदुओं, बौद्धों और ईसाइयों-सबने अपना खून बहाया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
पुष्य मित्र
बंगाल में इन दिनों कुछ बड़े तृणमूल नेताओं के द्वारा पार्टी छोडक़र भाजपा में शामिल होने की खबरें हैं। इनमें सुभेंदु अधिकारी का जैसा बड़ा नाम है, जो हाल तक बंगाल की सरकार में मंत्री रहे हैं। इस घटना को बंगाल में बीजेपी की बढ़त के रूप में देखा जा रहा है। इससे पहले भी बंगाल में मुकुल राय जैसे बड़े तृणमूल कांग्रेस के नेता भाजपा जा चुके हैं और वे अभी बंगाल बीजेपी के बैकबोन हैं। मगर सबसे दिलचस्प बात है कि इन दोनों बड़े नेताओं का नाम शारदा चिटफंड घोटाले से जुड़ा है और भाजपा को इस बात से कोई दिक्कत नहीं है।
हाल ही में इस मामले से जुड़ी एक विचित्र घटना बंगाल में हुई। 5 दिसंबर को मीडिया में शारदा चिटफंड घोटाले के प्रमुख अभियुक्त सुदीप्त सेन की जेल से लिखी एक चि_ी वहां की मीडिया में वायरल हुई। वह चि_ी उन्होंने पीएम मोदी और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के नाम लिखी थी।
उस चि_ी में उन्होंने खास तौर पर इस बात पर निराशा जताई थी कि जिन बड़े तृणमूल नेताओं ने उनकी करोड़ों की राशि हड़प ली थी, वे अब भाजपा में शामिल हो रहे हैं। इसमें उन्होंने पांच बड़े नेताओं का नाम लिया, जिसमें दो नेता ऐसे थे, जो अब भाजपा की तरफ हैं।
इनमें पहला नाम मुकुल राय का है, जिसका नाम शारदा घोटाले में आने के बाद 2015 में उन्हें तृणमूल कांग्रेस से छह साल के लिए निकाल दिया गया था। मगर भाजपा ने मुकुल राय को हाथोंहाथ लपक लिया, क्योंकि वे बंगाल के कद्दावर नेता थे। कभी ममता दीदी के बहुत करीबी रहे मुकुल राय अब बंगाल में भाजपा की बैकबोन हैं।
दूसरा नाम उस सुभेंदु अधिकारी का है, जो तृणमूल कांग्रेस से अभी हाल में अलग हुए हैं और कल उनके भाजपा ज्वाइन करने की खबरें हैं। मतलब साफ है कि भाजपा हर हाल में बंगाल में मजबूत होने की कोशिश कर रही है, उसे इसके लिए भ्रष्टाचारी नेताओं से भी परहेज नहीं है, अगर वे कुछ वोट उसे दिला सकें।
सुदीप्त सेन की चि_ी में कुछ कांग्रेस औऱ वाम नेताओं के भी नाम हैं। मगर उन नेताओं ने इन आरोपों का खंडन किया है। सुदीप्त की जेल से लिखी चि_ी इन पोस्ट के साथ लगी है।
बंगाल में वैसे भी माइक्रोफाइनेंस औऱ चिटफंड कंपनियों का ग्रामीण इलाकों में बड़ा असर है। वे अक्सर वहां की राजनीति को भी प्रभावित करते हैं, क्योंकि गांव के इलाकों में बड़ी संख्या में इनके सदस्य होते हैं। अब तक इनके बीच तृणमूल कांग्रेस का बड़ा असर रहा है, अब भाजपा इनके बीच पैठ बनाने की कोशिश कर रही है।
बंगाल में अब तक जो राजनीति हो रही है, उससे समझ आ रहा है कि आने वाला चुनाव वहां किसी युद्ध की तरह लड़ा जायेगा, जिसमें अभी से सच्चाई और इमानदारी जैसी चीजें और सिद्धांत की बातों का लोप हो गया है। वहां चुनाव का अर्थ सिर्फ यह होने वाला है कि भाजपा कैसे जीतती है और ममता कैसे अपनी कुर्सी बचा लेती है। इस बीच सवाल वाम दल और कांग्रेस का भी है, जो बीजेपी और टीएमसी की आमने-सामने की फाइट में लगातार अप्रासंगिक हो रहे हैं। मीडिया में कहीं भी इनकी बातें नजर नहीं आ रही।
-कनक तिवारी
दिसम्बर के एक पखवाड़े भर कब तक लोग गुरु घासीदास पर केवल मंत्रियों के भाषण झेलने के लिए जीते रहेंगे? हमारे नेता, उद्योगपति, नौकरशाह और राजनीति के दलाल जनता के जीवन, आदर्शों, हालत और भविष्य को लेकर झूठ बोलते रहते हैं।
18 दिसम्बर को जन्मे गुरु घासीदास की सत्यनिष्ठा छत्तीसगढ़ के विचार संसार की आत्मा है। जातिवाद के खिलाफ किया गया उनका सैद्धांतिक संघर्ष झूठ के चरित्र का चेहरा नोचता रहता है। इस इलाके की सहज, निष्कपट बयानी में उनकी याद गाहे-बगाहे कौंधती रहती है। ऐसे ऋषि चिन्तक यदि सर्वजन सुलभ नहीं हों तो एक क्षेत्रीय संस्कृति के सामने कई नये खतरे मंडराने लगेंगे। उन्होंने शराबखोरी जैसी सामाजिक लत को लेकर भी वैचारिक जेहाद किया। मनुष्य को आदर्श जीवन जीने के लिए बहुत अधिक आडम्बर की जरूरत नहीं होती। यह भी गुरु घासीदास के जीवन का एक महत्वपूर्ण सन्देश है। छत्तीसगढ़ के जनजीवन की सादगी, सहजता और मिलनसारिता के तत्वों को यदि सबसे ज्यादा पोषक खाद मिलती रहती है, तो वह संत घासीदास के ही विचारों से।
ईसा मसीह, मोरध्वज, हरिश्चंद्र और गांधी जैसे सत्यशोधकों ने चाहे अनचाहे पंथ नहीं चलाया। घासीदास के नाम के पीछे वीरपूजा की भावना के साथ सत्य का अनुयायी पंथ स्वयमेव चला। सतनामी शब्द का असली अर्थ आध्यात्मिक है। उस पर जातीय चश्मा भले चढ़ गया है। सत्य के नाम के अनुयायी पंथ को अनुसूचित जाति क्यों कहा जाता है? घासीदास के अनुयायी समाज की तलहटी में क्यों रहें? सतनामी शब्द धार्मिक सामाजिकता का श्रेष्ठतम संस्कार है। एक माह या पखवाड़ा घासीदास की याद में सभा सम्मेलनों के लिए सुरक्षित हो गया है। लोग उनके नाम का राजनीतिक शोषण करते चलते हैं। छत्तीसगढ़ के इस अद्वितीय महापुरुष को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित करना चाहिए। सत्य पर लिखे ग्रंथ, इतिहास के शोध और आचरण की व्यवस्थाएं दैनिक व्यवहार से लेकर अनन्त आकाश तक की वृत्तियों का आत्माघर छत्तीसगढ़ क्यों नहीं बन सकता।
अन्य पंथों तथा धर्मों ने जातियों और तरह तरह के समूहों को प्रश्रय दिया है। गुरु घासीदास हैं जो कहते हैं आओ सत्य के रास्ते पर चलकर एक नया संसार बनाएं। वही धर्म है, वही अर्थ है, वही काम और वही मोक्ष है। दु:खद है कि उनके रास्ते चलने वाले समाज को दलित, पिछड़ा और अछूत तक समझा जाता है। वह नौकरी में तरक्की का आरक्षण लेकर सडक़ से संसद तक लड़ रहा है। उसे समाज के उच्च वर्गों तथा उच्च पदों पर बिठाने से अब तक सवर्णों को कोफ्त है। बिहार की महावीर, गुरु गोविन्द सिंह और बुद्ध के कारण प्रतिष्ठा है। अपनी तमाम प्रशासनिक उपलब्ध्यिों का प्रचार करने वाले छत्तीसगढ़ को देश में यह आध्यात्मिक गौरव अब तक क्यों नहीं मिलता कि वह गुरु घासीदास की जन्मस्थली है। गांधी ने यही कहा था आवश्यक होने पर अहिंसा छोड़ी जा सकती है लेकिन सत्य कभी नहीं। यह गांधी ने गुरु घासीदास के बहुत बाद में कहा था। गिरोदपुरी छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश का तीर्थ केन्द्र कब बनेगा?
गुरु घासीदास ने सतनाम क्या कहा, छत्तीसगढ़ की आत्मा शुद्ध कर दी। सत्य का आचरण करते रहने की उनकी सीख विसंगतियों के बावजूद कुछ लोगों की सामाजिक आदत बनी। यह भी है कि सच के रास्ते चलने का उपक्रम करते लोग अनुसूचित जाति के कहलाने लगे। समाज में जातीय विग्रहों के कारण वे तलहटी में पहुंचा दिए गए। वे फिर भी ‘सतनामी‘ तो हैं। झूठ का तिलिस्म आततायी होता है। उसमें सत्तालोलुपता के कारण वंचितों का शोषण करने की हिंसा है। उसे सम्पत्ति के साथ सम्पृक्त होकर लहलहाते देखना भी छत्तीसगढ़ के नसीब में रहा है। कम प्रदेश होंगे जहां गुरु घासीदास की सत्यपरक अभिव्यक्ति की कद काठी के समाज सुधारक हुए होंगे। वर्ण, वर्ग और जातिवाद से संघर्ष करना भारत में दुस्साहस और जोखिम का काम है। ताजा इतिहास इस तरह की हजारों दुर्घटनाओं से पटा पड़ा है।
छत्तीसगढ़ भी सामूहिक हिंसा के षडय़ंत्रों से फारिग नहीं है। इसके बावजूद दिसम्बर का महीना गुरु के जन्मदिन के आसपास उष्ण सामाजिकता का पर्याय हो जाता है। गिरौदपुरी को वैचारिक अनुष्ठान का विश्वविद्यालय क्यों नहीं बनाया जा सकता? आत्मा के लोहारखाने में बैठकर गुरु घासीदास ने सादगी की शैली में मनुष्य की महानता के अप्रतिम गीत गाए। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वे कब और किन परिस्थितियों में पैदा हुए और रहे। यह भी कि उनकी याद में उनकी जन्मतिथि के आसपास गांव गांव में यादध्यानी जश्न किए जाते हैं। राजनीतिक और सामाजिक जमावड़े उनके उत्तराधिकारी होने का दावा और ढोंग करते हैं।
गुरु के तात्विक यश की सामाजिक उपयोगिता को लेकर कोई सार्थक प्रयोजन होता दीखता नहीं। राजनीतिक कारणों की वजह से छत्तीसगढ़ में गुरु घासीदास और कोमाखान जमींदारी के विद्रोही नारायणसिंह की स्मृति में विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा हुई। घासीदास के नाम का प्रादेशिक विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय हो गया है। सरकारी फाइलों में उनके नाम का गलत उल्लेख भी किया जाना पाया गया।
छत्तीसगढ़ का कोई विश्वविद्यालय, कॉलेज या स्कूल देश के चुनिंदा शिक्षा संस्थानों में नहीं है। घासीदास विश्वविद्यालय से शीर्ष लेखक मुक्तिबोध को दुरूह होने का आरोप लगाकर पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया। गुरु घासीदास विश्वविद्यालय नाम रख देने भर से छत्तीसगढ़ के इस महान संत के प्रति हमारा दाय पूरा नहीं होता। विश्वविद्यालय प्रशासन में आए दिन भ्रष्टाचार, घूसखोरी और हिंसा तक की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं।
क्यों नहीं इस संस्थान को घासीदास की स्मृति में दर्शन और विचारों के एक विश्वस्तरीय बौद्धिक संस्थान की तरह तब्दील किया जा सकता जहां अन्य विषयों की पढ़ाई के साथ-साथ दर्शन और नीतिशास्त्र के एक दुर्लभ अध्ययन-केन्द्र की स्थापना की जाए। उसमें सच का विभाग अपनी अतिविशिष्टता के लिए ख्यातनाम हो। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चमत्कार पुरुषों ओशो, महेश योगी आदि से कहीं बड़ा योगदान है गुरु घासीदास का। अन्य आग्रही व्यक्तियों को लेकर सरकारें कुछ करती रहती हैं। दिसम्बर के एक पखवाड़े भर कब तक लोग गुरु घासीदास पर केवल मंत्रियों के भाषण झेलने के लिए जीते रहेंगे? हमारे नेता, उद्योगपति, नौकरशाह और राजनीति के दलाल जनता के जीवन, आदर्शों, हालत और भविष्य को लेकर झूठ बोलते रहते हैं। फिर भी सत्ता की कुर्सी पर ये लोग क्यों बैठे रहते हैं बाबा घासीदास? कब तुम्हारे बेटे समाज में अपना हक इस तरह पाएंगे कि हरिश्चंद्र, मोरध्वज, ईसा मसीह, सुकरात, युधिष्ठिर, गांधी और तुम्हारे जैसे सप्तर्षि सत्य को धुवतारा बनाकर एक नया इतिहास लिखा जाए?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद का शीतकालीन सत्र स्थगित हो गया। अब बजट सत्र ही होगा। वैसे सरकार ने यह फैसला लगभग सभी विरोधी दलों के नेताओं की सहमति के बाद किया है। संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद पटेल का यह तर्क कुछ वजनदार जरुर है कि संसद के पिछले सत्र में सांसदों की उपस्थिति काफी कम रही और कुछ सांसद और मंत्री कोरोना के कारण स्वर्गवासी भी हो गए।
अब अगला सत्र, बजट सत्र होगा, जो जनवरी 2021 याने कुछ ही दिन में शुरु होनेवाला है। पटेल ने कुछ कांग्रेसी और तृणमूल सांसदों की आपत्ति पर यह भी कहा है कि भाजपा पर लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना का आरोप लगानेवाले नेता जरा अपनी पार्टियों में से पारिवारिक तानाशाही को तो कम करके दिखाएं। इन तर्कों के बावजूद यदि सरकार चाहती तो वह सभी दलीय नेताओं को शीतकालीन सत्र के लिए राजी कर सकती थी। यदि वे उस सत्र का बहिष्कार करते तो उनकी ही नाक कट जाती।
यदि संसद का यह सत्र आहूत होता तो सरकार और सारे देश को झंकृत करनेवाले कुछ मुद्दों पर जमकर बहस होती। यह ठीक है कि उस बहस में विपक्षी सांसद, सही या गलत, सरकार की टांग खींचे बिना नहीं रहते लेकिन उस बहस में से कुछ रचनात्मक सुझाव, प्रामाणिक शिकायतें और उपयोगी रास्ते भी निकलते। इस समय कोरोना के टीके का देशव्यापी वितरण, आर्थिक शैथिल्य, बेरोजगारी, किसान आंदोलन, भारत-चीन विवाद आदि ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं, जिन पर खुलकर संवाद होता।
यह संवाद इसलिए भी जरुरी है कि भाजपा के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री तथा अन्य नेतागण पत्रकार-परिषद करने से घबराते हैं। आम जनता-दरबार लगाने की तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते। संवाद की यह कमी किसी भी सरकार के लिए बहुत भारी पड़ सकती है। संवाद की इसी कमी के कारण हिटलर, मुसोलिनी और स्तालिन जैसे बड़े नेता मिट्टी के पुतलों की तरह धराशायी हो गए। इसमें तो विपक्षियों को जितना लाभ है, उतना किसी को नहीं है।
जिन लोगों को भारत राष्ट्र और इसके लोकतंत्र की चिंता है, वे चाहेंगे कि अगले माह होनेवाला बजट सत्र थोड़ा लंबा चले और उसमें स्वस्थ बहस खुलकर हो ताकि देश की समस्याओं का समयोचित समाधान हो सके।
(नया इंडिया की अनुमति से)
जरूरत है कि परंपरा का ढोल पीटती शब्द बहादुर राजनीति पहले सही मायनों में लोकमुखी बनकर इसके पीछे के लोक विज्ञान को समझे। तभी वह अन्न के बाजार और खेतों का धंधा चलाने वाले उस अमूर्त ग्लोबल बाजार की ताकतों का फर्क समझ सकेगी जो मीडिया और अपने एजेंटों की मार्फत अन्न के विश्व उत्पादन पर कब्जा करना चाहती हैं
पिछले लंबे दौर से हम देख रहे हैं कि साक्षरता से लेकर पर्यावरण या कृषि में सही सुधार लाने और जनचेतना जगाने की बातें हम आम जनता को लेकर अक्सर एक नकारात्मक टोन में शुरू करते हैं- कि हमारा किसानी प्रधान देश कॉरपोरेट किसानी से अज्ञानवश बिदकता है; कि हमारा ग्रामीण पर्यावरण जंगलों को चरागाह बनाने, पराली जलाने और भूमि के भीतर छुपे पानी के दोहन से बिगड़ रहा है। इसी तरह हमारे शहरी पर्यावरण की तबाही के लिए झुग्गी-झोपडिय़ों के अनगिनत निवासियों की बढ़ती अवैध बस्तियां और उनका अवैध जल-मल व्ययन जिम्मेदार है। हमारे किसान जिद में सिर्फ गेहूं या धान ही उगाना चाहते हैं ताकि उनको न्यूनतम समर्थन मोल मिलता जाए। अपने बच्चों की पढ़ाई भी वे अक्सर अधबीच छुड़ाकर उनको कमाने पर लगा देते हैं... आदि।
सोच-विचार का यह तरीका हालात को बेहतर बनाने में अब तक अक्षम रहा है। अलबत्ता राजनीतिक पार्टियों को इससे यह फायदा हुआ है कि चुनावी जनसभाओं में किसी भी संज्ञा के आगे ‘जन’ या ‘लोक’ जैसे शब्द जोडक़र खुद को असली आदर्श जनसेवक, जनांदोलनकारी, लोक हितैषी, लोक चेतना का वाहक वगैरह बना कर प्रोजेक्ट करना और विपक्ष को वातानुकूलित कमरों के शहरी बहसबाज बताना उनके लिए आसान बन गया है। इतने लोक हितैषी दलों की जनसेवकाई और भारी आत्मप्रचार के बावजूद अगर किसानों का ताजा आंदोलन बिना राजनीतिक अगुआई और मीडिया से कवरेज मांगे सारे देश के किसानों को आंदोलित कर सका है, तो मतलब साफ है- अब समय आ गया है कि देश राजनीति और लोक या जन के नाम पर खेले गए ओछे भाषाई खेलों के परे जाकर खेती के भविष्य पर सोचे।
मौजूदा संकट बता रहा है कि भारत में खेती महज बाजार और उत्पादक के बीच तक सीमित मामला नहीं है। उसको खाद-पानी देने वाली जड़ें भारत के समग्रराज, हमारे बहुरंगी समाज और पर्यावरण से भी कैसी गहराई से जुड़ी हुई हैं। इसलिए सोचने की बात यह नहीं कि खेती का स्वरूप सहकारी बना कर उसे बेहतर अन्न भंडारण और बिक्री की राह देने वाले निजी कॉरपोरेट क्षेत्र का सहयात्री किस तरह बनाया जाए। बल्कि यह कि कॉरपोरेट क्षेत्र के बीज उपलब्धि, फसलों की खरीद-बिक्री, भंडारण और वाजिब दाम चुकाई के स्थापित तौर-तरीकों को हमारे देश की अपनी क्षेत्रीय जरूरतों के अनुरूप किस तरह तराशा जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का मसला इतने दशकों तक चुनाव-दर-चुनाव राजनीति की जरूरतों से ही तय होता रहा है। लोकशक्ति, यानी किसानी वोट बैंकों को अंतिम बूंद तक दुहने वाले हमारे सभी राजनीतिक दल किसानी की सहज लोकबुद्धि की उपेक्षा के दोषी हैं। कभी जल विरल राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा या पंजाब के जो किसान जल की हर बूंद को रजत कण मानते हुए लोकबुद्धि से संजोते हुए कम पानी में उग सकने वाले मोटे अनाज पैदा करते थे, वे अब एमएसपी की तहत अधिकतम कमाई की गारंटी बन चुकी गेहूं, धान और गन्ना-जैसी फसलें उगाने में अधिक रुचि लेते हैं।
चूंकि भारत की दलगत राजनीति हाईकमान की रुचि-अरुचि से हांकी जाती है, हमारे कृषि मंत्रालय के मंत्री और उनके विशेषज्ञ संसद से यूएन की बैठकों तक में विज्ञान और नई तकनीक के नाम पर ट्यूबवेल की पैरोकारी करते हुए गेहूं-धान की भारी उपज को हरित क्रांति की संज्ञा देते रहे।
दरअसल समाज का अधिकांश हिस्सा अभी भी अपना जीवन उस ढंग से चलाना चाहता है जहां उसके हाथ में पहल, शक्ति और साधन बने रहें। पहले आनन-फानन लाई गई नोटबंदी, फिर कोविड के आगमन बाद की तालाबंदी और अंतत: कृषि के रूप को सिरे से बदलने वाले तीन नए कानून जिन पर विपक्ष या लाभार्थियों से मशवरा नहीं किया गया, सारे समाज को आशंका से भर गए हैं। ये सारे कदम अचानक नागरिकों से उनके निजी साधन, पहल और ताकत लेकर एक बेचेहरा सरकारी मशीन को थमाने वाले साबित हुए हैं। और वह मशीनरी भी अचानक आए बदलाव से कदम मिला कर चलने में बहुत काबिल नहीं साबित हुई है। हरेक पुराने समाज का अपना एक पारंपरिक गणित और गणितज्ञ होता है। खेतिहर समाज के लिए जो देश का तीन चौथाई रोजगार सृजक है, वह गणितज्ञ लोक कवि घाघ थे। घाघ का दिया मोटा मंत्र है, ‘जो हल चाले खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी।’ यानी जो खेती करता है, खेत उसी का होता है। स्थानीय मालिक के हाथ न रही, तो खेती न इधर की रहती है, न उधर की।
दिल्ली की सीमा पर बैठे बुजुर्ग किसानों से पूछिए, उनकी मुख्य चिंता यही है कि कहीं राजनेताओं और उनके मित्र कॉरपोरेट क्षेत्र की जरूरतों से संचालित सहकारी खेती भी तमाम राष्ट्रीयकृत बैंकों और सहकारी गन्ना मिलों की तरह देर-सबेर गरीब की वह जोरू न बन जाए जिसे हर कोई भाभी कह कर छेड़ जाता है। ऐसे में नई किसम की कृषि तकनीकी सीखने, सहकारी प्रयोग करने, नेट बैंकिंग अपनाने या कॉरपोरेट ताकतों से भाव-ताव न कर पाने की क्षमता की वजह से वे नए कानूनों को लेकर बहुत आशंकित हैं।
दिक्कत यहीं से शुरू होती है। हर कॉरपोरेटीकरण को फायदेमंद और वैज्ञानिकता आधारित कहने के चक्कर में नेतृत्व की लच्छेदार घोषणाओं ने और उनके पीछे इक्के के घोड़े की तरह सर झुकाए चलने वाली सरकार ने कई अच्छे उपजाऊ उपक्रमों की जड़ में घुन लगा दिया है। फिर भी अब तक कृषि सुधारों की बाबत हो रही सरकारी संस्थानों की बातचीत आधुनिक शाब्दिक खिलवाड़ से ऊपर नहीं उठ रही है।
नई तरह की खेती, मने नई तरह के बीजों और रासायनिक खाद से पंप लगाकर हर तरह की जमीन से अधिकतम पैसा देने में सक्षम और ग्लोबल बाजारों में बिक सकने वाली पैदावार किस तरह हासिल की जाए। इसे साकार करने की प्रक्रिया में पिछले चार दशकों में उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक, हर राज्य में कुदरत के बुनियादी नियमों को तोड़ा गया और पैदावारों के पुराने रूप और क्रम को बदल दिया गया। नदियों का बहाव बदला, जंगलों को काटकर खेत-कारखाने लगे, रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन और छिडक़ाव को भरपूर सरकारी तवज्जो दी गई। नतीजा हुआ, बंजर बनती जमीन, पानी की बढ़ती किल्लत, प्रदूषित नदियां और झीलें तथा जंगली जानवरों से मानव बस्तियों तक कभी सार्स, कभी स्वाइन फ्लू, तो कभी कोविड-जैसे नए संक्रामक रोगों का आगमन। यह भारत ही नहीं, सारी दुनिया में हुआ है। हरी क्रांति के लाभ-हानि पर बहस अभी हमारे यहां ठीक से परवान भी नहीं चढ़ी कि उस क्रांति के जनक हम पर एक और क्रांति लाद रहे हैं। बीज क्रांति। इसके लिए उनको बड़े सहकारी फार्म चाहिए। भारत जैसे बीज विविधता भरे देशों के पारंपरिक बीजों का खात्मा चाहिए ताकि उनकी जगह नए सहकारी फार्मों में वे अपने प्रामाणिक उत्तम बीज बुआ सकें। उन बीजों का दबदबा बनाए रखने के लिए विदेशों में प्रशिक्षित हुए सरकारी कृषि वैज्ञानिकों ने कृषि विज्ञान का काग भगोड़ा हर राज्य के कृषि मंत्रालय के सामने खड़ा कर रखा है। ‘लोकल’, ‘ग्लोबल’, ‘वोकल’ की तुकबंदियां हो रही हैं जिनका जुमलेबाजी से आगे कोई मतलब नहीं।
जरूरत यह है कि परंपरा का दिन-रात ढोल पीटती शब्द बहादुर राजनीति पहले सही मायनों में लोकमुखी बनकर परंपरा के पीछे के लोक विज्ञान को समझे। तभी वह अन्न के बाजार और खेतों का धंधा चलाने वाले उस अमूर्त ग्लोबल बाजार की ताकतों का फर्क समझ सकेगी जो मीडिया और अपने एजेंटों की मार्फत अन्न के विश्व उत्पादन पर कब्जा करना चाहती हैं। घाघ पहले ही कह गए : ‘उत्तम खेती, मध्यम बान।’ पहले खेती, फिर वणिज।
अगर सरकार सचमुच चाहती है कि हमारे किसानों की आजीविका सुरक्षित रहे, उनका पैदा किया अन्न प्रदूषण रहित बने और वाजिब कीमत पर भारतीय उपभोक्ताओं को हासिल होता रहे, तो उसे दिन- रात राजनीतिक नफा-नुकसान या बजटीय आना-पाई का हिसाब बिठाने का मोह छोडऩा पड़ेगा। अपनी बात कहने को आतुर किसानों पर लाठी या पानी की तोप चलाने की बजाय अपने नीति निर्माता बाबुओं और कृषि पंडितों की फौज सहित आमने-सामने बैठकर किसानों से खेतिहर समाज की स्थानीय परंपराओं और शहरी विकास से उनके रिश्तों की बारीकियों को समग्रता से समझना होगा। कृषि और पर्यावरण के एक गहन अध्येता और जानकार अनुपम मिश्र के शब्दों में : ‘खेती का पवित्र रहस्य और उसकी सृजनशीलता वहीं है जहां वह हमेशा रही है, किसानी परिवारों में। ये ही किसान धरती के बीजों को सुरक्षित रखते आ रहे हैं, भविष्य में भी ये ही उन्हें सुरक्षित रख पाएंगे, बीजों के सौदागर नहीं।’ (navjivanindia.com)
-समीरात्मज मिश्र
किसान आंदोलन में शामिल होने से रोकने की शिकायतों के बीच उत्तर प्रदेश के संभल ज़िले में कुछ किसान नेताओं को 'शांति भंग' की आशंका के कारण 50 रुपये के बॉन्ड भरने संबंधी नोटिस जारी किया गया है.
हालाँकि प्रशासन का कहना है कि बॉन्ड की राशि को कम करके 50 हज़ार कर दिया गया है लेकिन जिन नेताओं को ये नोटिस दिए गए हैं, उन्होंने इस बात से इनकार किया है.
संभल के उप जिलाधिकारी दीपेंद्र यादव कहते हैं कि ये नोटिस सीआरपीसी की धारा 107 और 116 को तामील करने के संबंध में भेजे गए हैं जिसमें शांति भंग की आशंका होती है.
एसडीएम दीपेंद्र यादव ने बीबीसी को बताया, "यह एक निरोधात्मक कार्रवाई है जो कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर शांतिभंग की आशंका के चलते की जाती है. सीआरपीसी की धारा 111 के तहत ये नोटिस जारी किए गए हैं. यह एक औपचारिक कार्रवाई है ताकि किसी आंदोलन या प्रदर्शन के दौरान कोई आक्रामक कार्रवाई न हो."
संभल ज़िले में भारतीय किसान यूनियन (असली) के ज़िलाध्यक्ष राजपाल सिंह के साथ ही किसान नेता जयवीर सिंह, सतेंद्र उर्फ़ गंगाफल, ब्रह्मचारी, वीर सिंह और रोहतास को 50-50 लाख रुपये के निजी मुचलके से पाबंद करने के लिए नोटिस जारी किए गए हैं.
एसडीएम दीपेंद्र यादव ने बताया कि हयातनगर थाने की पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर ये नोटिस जारी किए गए हैं. रिपोर्ट में बताया गया था कि ये लोग गाँव-गाँव जाकर दिल्ली और अन्य स्थानों पर चल रहे किसान आंदोलन का प्रचार कर रहे हैं जिससे शांति भंग होने का ख़तरा है.
YAWAR NAZIR
'ना नोटिस का जवाब देंगे, न बॉन्ड भरेंगे'
किसान आंदोलन में शामिल होने से शांति भंग का ख़तरा कैसे हो सकता है?
इसके जवाब में एसडीएम दीपेंद्र यादव कहते हैं, "दरअसल, यह प्राथमिक और औपचारिक कार्रवाई होती है. नोटिस जारी करने का मतलब ही यही है कि लोग जो भी आंदोलन या प्रदर्शन करें, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से करें. यदि आक्रामक होंगे, तो ये लोग ज़िम्मेदार होंगे. हालांकि बाद में जब रिपोर्ट मिली कि मुचलके की राशि ज़्यादा है तो इसे कम करके अब 50 हज़ार रुपया कर दिया गया है."
इन सभी छह नेताओं को 50-50 लाख रुपये के व्यक्तिगत मुचलके भरने और इतनी ही राशि की दो-दो ज़मानतें दाखिल कराने के लिए नोटिस दिया गया है. एसडीएम दीपेंद्र यादव कह रहे हैं कि बॉन्ड की राशि कम करके पचास हज़ार कर दी गई है लेकिन जिन नेताओं को नोटिस मिले हैं, वो इस बात से इनकार कर रहे हैं.
इसके अलावा कुछ अन्य किसान नेताओं को भी कम राशि के बॉन्ड भरने संबंधी नोटिस जारी किए गए हैं. हालांकि किसान नेताओं का कहना है कि वो नोटिस का जवाब नहीं देंगे और न ही बॉन्ड भरेंगे.
संभल ज़िले में भारतीय किसान यूनियन (असली) के ज़िलाध्यक्ष राजपाल सिंह को भी 50 लाख रुपये के बॉन्ड भरने का नोटिस मिला है.
हालाँकि राजपाल सिंह इस समय दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन में भाग लेने आए हुए हैं, लेकिन उनका कहना है कि वो लोग गांव में किसानों को इस क़ानून के बारे में बता रहे हैं और इसके विरोध में लगातार प्रदर्शन भी कर रहे हैं.
राजपाल सिंह
बीबीसी से बातचीत में राजपाल सिंह कहते हैं, "सीधी सी बात है सरकार हमें डराने-धमकाने के लिए ये सब कर रही है. किसान अपनी बात भी नहीं रख सकता. 50 लाख रुपये की ज़मानत हम ग़रीब किसानों से ली जा रही है. किसान क़ानून के विरोध को किसानों को भड़काना बता रहे हैं."
वो कहते हैं "अरे, किसान तो ख़ुद ही भड़का हुआ है. कितनों को आप 50 लाख रुपये का नोटिस देंगे और कितनों को जेल में बंद करेंगे? किसानों को दिल्ली तक आने नहीं दिया जा रहा है और अब डराने के लिए यह नया काम शुरू कर दिया है प्रशासन ने. पर हम डरने वाले नहीं हैं. एसडीएम ग़लत कह रहे हैं कि बॉन्ड की राशि 50 लाख से कम करके 50 हज़ार कर दी गई है. ऐसा नहीं हुआ है."
उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों से किसान दिल्ली के पास चिल्ला और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसान क़ानूनों के ख़िलाफ़ धरना दे रहे हैं. धरने पर मौजूद कई किसानों का आरोप है कि उन्हें जगह-जगह रोकने की कोशिश की गई जिसकी वजह से उन लोगों को छिपकर यहाँ तक आना पड़ा.
लखनऊ से आए एक युवा किसान शैलेंद्र मिश्र का कहना था, "एक्सप्रेस वे पर पहले तो पुलिस वालों ने हमें रोककर चाय पिलाई, फिर हमसे कहा कि आप लोग गाड़ी से झंडे उतार लीजिए और वापस चले जाइए. हम लोगों ने झंडे लगी गाड़ी को वापस भेज दिया और फिर किसी तरह से बसों में बैठकर यहाँ तक आए."
इसके अलावा रामपुर, संभल, फ़िरोज़ाबाद, आगरा और अन्य ज़िलों के किसानों ने भी यही शिकायत की.
हालांकि पुलिस का कहना है कि किसी भी किसान को रोका नहीं जा रहा है लेकिन जगह-जगह धरने पर बैठे किसानों की यही शिकायत है कि उन्हें आगे नहीं जाने दिया जा रहा है, तभी वो लोग वहाँ बैठे हैं.
SAJJAD HUSSAIN
राजनीतिक दलों के नेताओं को भी नोटिस
लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार के वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं कि किसानों से बॉन्ड भराने जैसी कार्रवाई कुछ उसी तरह की है जैसे कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों के बाद तमाम लोगों से ज़बरन वसूली जैसे नोटिस भेजे गए और प्रदर्शन से पहले भी कुछ लोगों को नोटिस भेजे गए थे.
उनके मुताबिक़, "किसान आंदोलन जहाँ भी हो रहा है, अब तक तो किसी तरह की कोई शांति भंग जैसी स्थिति नहीं आई. ऐसे में किसान नेताओं को नोटिस जारी करना समझ से परे है. प्रशासन का नोटिस जारी करने का सीधा मतलब है कि लोग डरें, जैसा कि पहले भी हो चुका है. 50 लाख रुपये के बॉन्ड का नोटिस जारी करने से पहले देखा तो होता कि यह नोटिस किसे जारी किया जा रहा है."
संभल में न सिर्फ़ किसानों को बल्कि कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं को भी इस तरह के नोटिस जारी किए गए हैं लेकिन और लोगों को दी गई नोटिस में मुचलके की राशि कम है. 50 रुपये के बॉन्ड संबंधी नोटिस छह किसान नेताओं को ही दिए गए हैं. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
धोखेबाजी, जोर-जबर्दस्ती, लालच या भय के द्वारा धर्म-परिवर्तन करने को मैं पाप-कर्म मानता हूं लेकिन लव-जिहाद के कानून के बारे में जो शंका मैंने शुरु में ही व्यक्त की थी, वह अब सही निकली। संस्कृत में इसे कहते हैं- प्रथमग्रासे मक्षिकापात:। याने पहले कौर में ही मक्खी पड़ गई। मुरादाबाद के कांठ नामक गांव के एक मुस्लिम लडक़े मोहम्मद राशिद से पिंकी नामक एक हिंदू दलित लडक़ी ने 22 जुलाई को शादी कर ली थी। दोनों देहरादून में काम करते थे। दोनों में ‘लव’ हो गया था। पिंकी मुस्कानजहान बन गई। अब इन दोनों के खिलाफ बजरंग दल के कुछ अतिउत्साही नौजवानों ने ‘जिहाद’ छेड़ दिया।
पिंकी की मां को भडक़ाया गया। उसने थाने में रपट लिखवा दी कि मेरी बेटी को धोखा देकर शादी की गई है। एक मुसलमान ने हिंदू नाम रख कर उसे प्रेमजाल में फंसाया, मुसलमान होने के लिए मजबूर किया और फिर शादी कर ली। पुलिस ने राशिद और पिंकी दोनों को पकड़ लिया।राशिद और उसके भाई को जेल में डाल दिया गया और पिंकी को सरकारी शेल्टर होम में। यह लव-जिहाद कानून 2020 के तहत किया गया। यह कानून लागू हुआ 28 नवंबर 2020 से और यह शादी हुई थी, 24 जुलाई को। याने यह गिरफ्तारी गैर-कानूनी थी। इसके लिए किस-किस को सजा मिलनी चाहिए और किस-किस को उन पति-पत्नी से माफी मांगनी चाहिए, यह आप स्वयं तय करें।
पिंकी का पति और जेठ अभी भी जेल में हैं। पिंकी ने अपने बयान में साफ-साफ कहा है कि राशिद मुसलमान है, यह उसे शादी के पहले से पता था। उसने स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन किया, शादी की और गर्भवती हुई। उस मुस्कानजहान का गर्भ, जो दो-तीन महिने का था, इस पकड़ा-धकड़ी और चिंता में गिर गया। यह मानना जरा कठिन है कि सरकारी अस्पताल के डाक्टरों ने उसे जान-बूझकर गिराया होगा। हमारे डाक्टर ऐसी नीचता नहीं कर सकते लेकिन क्या इसका जवाब ‘‘हमारे लवजिहादियों’’ के पास है ? यदि जोर-जबर्दस्ती, लालच या डर के मारे पिंकी ने मुस्कानजहान बनना मंजूर किया होता तो शेल्टर होम से छूटने के बाद वह अपने हिंदू मायके में क्यों नहीं गई ? कांठ के मुस्लिम सुसराल में वह स्वेच्छा से क्यों चली गई ? इस घटना-चक्र ने लव-जिहाद के कानून के मुंह पर कालिख पोत दी है। उसे शीर्षासन करा दिया है।
Richard Mahapatra-
दिल्ली के खान मार्केट में ग्राहक का इंतजार एक दुकानदार। फोटो: विकास चौधरीदिल्ली के खान मार्केट में ग्राहक का इंतजार एक दुकानदार। फोटो: विकास चौधरी दिल्ली के खान मार्केट में ग्राहक का इंतजार एक दुकानदार। फोटो: विकास चौधरी
साल 2020 एक बुरे सपने की तरह बीत रहा है और दुनिया इस भ्रम में है कि नए साल में महामारी का सूरज भी डूब जाएगा। लेकिन सच यह है कि वायरस किसी कैंलेडर को सम्मान की नजर से नहीं देखता। उसे तो बस मेजबान यानी होस्ट चाहिए। दुनिया के 7 बिलियन से अधिक लोग उसकी विकास यात्रा को अनवरत जारी रखने के लिए पर्याप्त हैं।
नोवेल कोरोनावायरस को चीन के एक बाजार में मानव मेजबान को खोजे करीब एक साल हो गया है। तब से लेकर अब तक यह करीब 200 देशों में फैलकर 16 लाख से अधिक लोगों की जान ले चुका है। बहुत से देश महामारी के प्रारंभिक चरण के मुकाबले उच्च संक्रमण दर से जूझ रहे हैं। बहुत से देशों का दावा है कि उन्होंने वक्र को समतल कर दिया है और अब दूसरी लहर का सामना कर रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दुनिया महामारी के प्रभाव से दरक सी गई है।
एक साल बाद महामारी को बारीकी से देखने की जरूरत है जो सौ साल में एक बार स्वास्थ्य पर गंभीर संकट खड़ा करती है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि वायरस आगे भी अपना काम करता रहेगा यानी मेजबान खोजता रहेगा। बहरहाल महामारी के एक साल होने के क्या मायने हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले यह जानना जरूरी है कि वायरस दुनिया में स्थायी कैसे बन रहा है। अलग-अलग समूह के लिए इसके अलग-अलग मतलब हैं। यह स्वास्थ्य पर संकट तो बना रहेगा लेकिन इसका सबसे गंभीर प्रभाव सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय हैं।
महामारी हमें इस तथ्य की रह रहकर याद दिलाती रहेगी कि हम राजनीतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य से दरकिनार कर किए जाने को अभिशप्त हैं। हम भले ही एक ग्रह पर रह रहे हों लेकिन “एक दुनिया” में नहीं हैं। हमारी शासन व्यवस्था और विकास को परिभाषित करने वाली असमानता तब खुलकर सामने आ जाती है जब हम इस महामारी से लड़ते हैं। देशों के बीच ही नहीं बल्कि देश और समाज के भीतर की असमानता भी महामारी सामने ले आई है। आंकड़े बताते हैं कि गरीब आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित है, चाहे वह गरीब देश की हो या अमीर। देश के भीतर विकास में क्षेत्रीय असमानता ने जनसंख्या के कुछ समूहों को अधिक प्रभावित किया है।
महामारी के दौर में असमानता गरीबों और वंचितों को आर्थिक रूप से तोड़ देती है। उदाहरण के लिए भारत में असंगठित क्षेत्र को सबसे अधिक आर्थिक क्षति पहुंची और इसी वर्ग की नौकरियां सबसे ज्यादा गईं। देशों की बात करें तो सबसे कम विकसित देशों को भीषण आर्थिक संकट से जूझना पड़ रहा है, इसलिए ये देश कल्याण कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च में कटौती कर रहे हैं। विकसित देशों में भी सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर समझा जाने वाला तबका ही सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। यानी इसी तबके को जानमाल की सबसे अधिक क्षति पहुंची है। ऐसी स्थिति में दुनिया सतत विकास लक्ष्यों से बुरी तरह पिछड़ जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि गरीब और गरीब हो रहा है। हालांकि अमीर व्यक्ति अपनी दौलत के बूते महामारी के प्रभावों से बचकर इस संकट की घड़ी को आसानी से पार कर लेगा।
पर्यावरण की नजर से देखें तो जब देशों ने सख्त लॉकडाउन लागू किया तो हमने “नीले आसमान और साफ हवा” का जश्न मनाया। इसने एक बार फिर याद दिलाया कि हमने अपने पर्यावरण के साथ कितना बुरा सलूक किया है। अब एक साल बाद पता चल रहा है कि यह हमारी समृद्धि और उपभोग की अस्थायी झलक भर थी जिसने पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी से हमें विमुख कर दिया है। ऐसा तब है जब हमारी अर्थव्यवस्था प्रकृति पर आधारित है। कार्बन का उत्सर्जन कम जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि वैश्विक तापमान कम किया जा सके। यह साल तीन सबसे गर्म सालों में शामिल हो गया है। इससे स्पष्ट है कि दुनिया उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के ठीक रास्ते पर नहीं है।
संक्षेप में कहें तो महामारी में गुजरे साल ने हमें बता दिया है कि हमने धरती और इसमें रहने वाले जीवों को कितना नुकसान पहुंचाया है। इसके गुनहगार हम ही हैं। इसीलिए कहा भी जा रहा है कि महामारी ने धरती से हमारे संबंधों को पुन: परिभाषित किया है। भले ही इस सीख की बड़ी आर्थिक और मानवीय कीमत है। बहरहाल, नया साल के आगमन की तैयारियों में जुट जाइए। (downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
असम सरकार ने मदरसों के बारे में जो नीति बनाई है, उसे लेकर अभी तक हमारे सेक्यूलरिस्ट क्यों नहीं बौखलाए, इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है। असम के शिक्षा मंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने जो कदम उठाया है, वह तुर्की के विश्व विख्यात नेता कमाल पाशा अतातुर्क की तरह है। उन्होंने अपनी मंत्रिमंडल से यह घोषणा करवाई है कि अब नए सत्र से असम के सारे सरकारी मदरसे सरकारी स्कूलों में बदल दिए जाएंगे। राज्य का मदरसा शिक्षा बोर्ड अगले साल से भंग कर दिया जाएगा। इन मदरसों में अब कुरान शरीफ, हदीस, उसूल-अल-फिका, तफसीर हदीस, फरियाद आदि विषय नहीं पढ़ाए जाएंगे, हालांकि भाषा के तौर पर अरबी जरुर पढ़ाई जाएगी। जिन छोटे-बड़े मदरसों को स्कूल नाम दिया जाएगा, उनकी संख्या 189 और 542 है। इन पर सरकार हर साल खर्च होनेवाले करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल अब आधुनिक शिक्षा देने में करेगी।
इस कदम से ऐसा लगता है कि यह इस्लाम-विरोधी घनघोर सांप्रदायिक षडय़ंत्र है लेकिन वास्तव में यह सोच ठीक नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहला, मदरसों के साथ-साथ यह सरकार 97 पोंगापंथी संस्कृत केंद्रों को भी बंद कर रही है। उनमें अब सांस्कृतिक और भाषिक शिक्षा ही दी जाएगी। धार्मिक शिक्षा नहीं। अब से लगभग 70 साल पहले जब मैं संस्कृत-कक्षा में जाता था तो वहां मुझे वेद, उपनिषद् और गीता नहीं, बल्कि कालिदास, भास और बाणभट्ट को पढ़ाया जाता था। दूसरा, जो गैर-सरकारी मदरसे हैं, उन्हें वे जो चाहें सो पढ़ाने की छूट रहेगी। तीसरा, इन मदरसों और संस्कृत केंद्रों में पढऩेवाले छात्रों की बेरोजगारी अब समस्या नहीं बनी रहेगी। वे आधुनिक शिक्षा के जरिए रोजगार और सम्मान दोनों अर्जित करेंगे। चौथा, असम सरकार के इस कदम से प्रेरणा लेकर जिन 18 राज्यों के मदरसों को केंद्र सरकार करोड़ों रु. की मदद देती है, उनका स्वरुप भी बदलेगा। सिर्फ 4 राज्यों में 10 हजार मदरसे और 20 लाख छात्र हैं। धर्म-निरपेक्ष सरकार इन धार्मिक मदरसों, पाठशालाओं या गुरुकुलों पर जनता का पैसा खर्च क्यों करे? हां, इन पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाना भी सर्वथा अनुचित है। असम सरकार ने जिस बात का बहुत ध्यान रखा है, उसका ध्यान सभी प्रांतीय सरकारें और केंद्रीय सरकार भी रखे, यह बहुत जरुरी है। असम के मदरसों और संस्कृत केंद्रों के एक भी अध्यापक को बर्खास्त नहीं किया जाएगा। उनकी नौकरी कायम रहेगी। वे अब नए और आधुनिक विषयों को पढ़ाएंगे। असम सरकार का यह प्रगतिशील और क्रांतिकारी कदम देश के गरीब, अशिक्षित और अल्पसंख्यक वर्गों के नौजवानों के लिए नया विहान लेकर उपस्थित हो रहा है।
-प्रमोद भार्गव
पश्चिम बंगाल में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमला राजनीतिक हिंसा की पराकाष्ठा है। हालांकि बंगाल में चुनावों के पहले ऐसी घटनाएं पहले भी देखने में आती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ माहों से ये घटनाएं निरंतर घट रही हैं। बावजूद राज्य सरकार इन घटनाओं पर नियंत्रण के कोई ठोस उपाय करने की बजाय आग में घी डालने का काम कर रही है। केंद्र सरकार ने कानून व्यवस्था को लेकर राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को दिल्ली तलब करने की तारीख 14 दिसंबर तय की तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कह दिया कि ‘इन अधिकारियों को भेजना या नहीं भेजना राज्य सरकार के विवके पर निर्भर है। सरकार के फैसले के बिना वे प्रदेश के बाहर कदम नहीं रख सकते हैं।’ इस असंवैधानिक स्थिति पर राज्यपाल जगदीप धनखड़ का कहना है कि ‘भारत के संविधान की रक्षा करना मेरी जिम्मेदारी है। यदि मुख्यमंत्री अपने रास्ते से भटकेंगी तो मेरी भूमिका शुरू हो जाएगी। मुख्यमंत्री को आग से नहीं खेलना चाहिए।’ दरअसल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत ही दोनों अधिकारियों को तलब किया है, लेकिन ममता ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर केंद्र से बेवजह टकराव मोल ले लिया है।
पश्चिम बंगाल में यह असहिष्णुता पंचायत, निकाय, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में एक स्थाई चरित्र के रूप में मौजूद रहती है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब हिंसा और अराजकता के लिए बदनाम राज्य बिहार और उप्र इस हिंसा से मुक्त हो रहे हैं, तब बंगाल और केरल में यह हिंसा बेलगाम होकर सांप्रदायिक रूप में दिखाई दे रही है। चूंकि नए साल की शुरूआत में बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं, इस नजरिए से मुख्य राजनीतिक दलों में जनता के बीच समर्थन जुटाने की होड़ लग गई है। भाजपा के काफिले पर हुआ हमला इसी होड़ का परिचायक है। यह हिंसा तब हुई, जब जेपी नड्डा को जेड स्तर की सुरक्षा मिली हुई है। इसे उच्चतम सुरक्षा-कवच के रूप में देखा जाता है। फिर भी इसे भेदने की निंदनीय कोशिशें हुईं तो यह चिंतनीय पहलू है। पूर्व घोषित कार्यक्रम के बावजूद सुरक्षा व्यवस्था और राज्य स्तरीय गुप्तचर एजेंसियां हमले को नहीं रोक पाई तो यह एक बड़ी चूक है। कुछ समय पहले ही भाजपा विधायक देवेंद्रनाथ की हत्या कर लाश सार्वजनिक स्थल पर टांग दी गई थी। देवेंद्रनाथ पिछले साल ही माकपा से भाजपा में शामिल हुए थे। बंगाल में वामदल अर्से से खूनी हिंसा के पर्याय बने हुए हैं। इन हिंसक वारदातों से पता चलता है कि बंगाल पुलिस अन्य राज्यों की पुलिस की तरह तृणमूल कांग्रेस की कठपुतली बनी हुई है।
बंगाल की राजनीति में विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएं होती रही हैं। वामदलों के साढ़े तीन दशक चले शासन में राजनीतिक हिंसा की खूनी इबारतें निरंतर लिखी जाती रही थीं। दरअसल वामपंथी विचारधारा विरोधी विचार को तरजीह देने की बजाय उसे जड़-मूल खत्म करने में विश्वास रखती हैं। ममता बनर्जी जब सत्ता पर काबिज हुई थीं, तब यह उम्मीद जगी थी कि बंगाल में लाल रंग का दिखना अब समाप्त हो जाएगा। लेकिन धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस वामदलों के नए संस्करण में बदलती चली गई। यही कारण रहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व भी बंगाल को खूब रक्त से सींचने की कवायदें पेश आती रही थीं। भाजपा में वामदलों से लेकर कांग्रेस और तृणमूल के नेताओं के जाने का जो सिलसिला चल पड़ा है, वह थम जाए, इसीलिए प्रत्येक चार-छह दिन में एक बड़ी राजनैतिक हत्या बंगाल में देखने का सिलसिला बना हुआ है।
हिंसा की इस राजनीतिक संस्कृति की पड़ताल करें तो पता चलता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था, जो मंगल पाण्डे की शहादात के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, तब सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। लंबे समय तक चले इस आंदोलन को कू्ररता के साथ कुचला गया। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी मारे गए। इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया और आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34 साल तक बंगाल में माक्र्सवादियों का शासन रहा। इस दौरान सियासी हिंसा का दौर नियमित चलता रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28 हजार राजनेताओं की हत्याएं हुईं।
सर्वहारा और किसान की पैरवी करने वाले वाममोर्चा ने जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों की खेती की जमीनें टाटा को दीं तो इस जमीन पर अपने हक के लिए उठ खड़े हुए किसानों के साथ ममता बनर्जी आ खड़ी हुईं। मामता कांग्रेस की पाठशाला में ही पढ़ी थीं। जब कांग्रेस उनके कड़े तेवर झेलने और संघर्ष में साथ देने से बचती दिखी तो उन्होंने कांग्रेस से पल्ला झाड़ा और तृणमूल कांग्रेस को अस्तित्व में लाकर वामदलों से भिड़ गईं। इस दौरान उन पर कई जानलेवा हमले हुए, लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। जबकि 2001 से लेकर 2010 तक 256 लोग सियासी हिंसा में मारे गए। यह काल ममता के रचनात्मक संघर्ष का चरम था। इसके बाद 2011 में बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए और ममता ने वाममोर्चा का लाल झंडा उतारकर तृणमूल की विजय पताका फहरा दी। इस साल भी 38 लोग मारे गए। ममता बनर्जी के कार्यकाल में भी राजनीतिक लोगों की हत्याओं का दौर बरकरार रहा। इस दौर में 58 लोग मौत के घाट उतारे गए।
बंगाल की माटी पर एकाएक उदय हुई भाजपा ने ममता के वजूद को संकट में डाल दिया है। बांगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 90 फीसदी तृणमूल के खाते में जाते हैं। इसे तृणमूल का पुख्ता वोट-बैंक मानते हुए ममता ने अपनी ताकत मोदी व भाजपा विरोधी छवि स्थापित करने में खर्च दी है। इसमें मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाने का संदेश भी छिपा था। किंतु इस क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया हिंदुओं में स्व-स्फूर्त धु्रवीकरण के रूप में दिखाई देने लगी। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए एनआरसी के लागू होने के बाद भाजपा को वजूद के लिए खतरा मानकर चल रहे हैं, नतीजतन बंगाल के चुनाव में हिंसा का उबाल आया हुआ है। इस कारण बंगाल में जो हिंदी भाषी समाज है वह भी भाजपा की तरफ झुका दिखाई दे रहा है। हैरानी इस बात पर भी है कि जिस ममता ने ‘मां, माटी और मानुष एवं परिवर्तन’ का नारा देकर वामपंथियों के कुशासन और अराजकता को चुनौती दी थी वही ममता इसी ढंग की भाजपा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बौखला गई हैं। उनके बौखलाने का एक कारण यह भी है कि 2011-2016 में उनके सत्ता परिवर्तन के नारे के साथ जो वामपंथी और कांग्रेसी कार्यकर्ता आ खड़े हुए थे वे भवष्यि की राजनीतिक दिशा भांपकर भाजपा का रुख कर रहे हैं।
2011 के विधानसभा चुनाव में जब बंगाल में हिंसा नंगा नाच, नाच रही थी, तब ममता ने अपने कार्यकताओं को विवेक न खोने की सलाह देते हुए नारा दिया था, ‘बदला नहीं, बदलाव चाहिए।’ लेकिन बदलाव के ऐसे ही कथन अब ममता को असामाजिक व अराजक लग रहे हैं। ममता को हिंसा के परिप्रेक्ष्य में आत्ममंथन करने की जरूरत है कि बंगाल में ही हिंसा परवान क्यों चढ़ी है ? जबकि ऐसी हिंसा देश के अन्य किसी भी राज्य में दिखाई नहीं दे रही है। अतएवं ममता को लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को ठेंगा दिखाने से बचना चाहिए, लेकिन बंगाल में इस खूनी सिलसिले का थमना आसान नहीं लग रहा है। क्योंकि राजनीति, पुलिस और प्रशासन के स्तर पर दूर-दूर तक सुधार की कोई पहल नहीं की जा रही है। यदि राजनीतिक वातावरण में लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होगी तो संविधान के मूल्यों को आघात लगेगा।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
साल 2020 के हंगर इंडेक्स सर्वे में भारत की स्थिति पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों से भी पतली होने की रिपोर्ट के दो महीने बाद जारी हंगर वॉच और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के नतीजे भी भारत में भूख और कुपोषण की समस्या विकराल होने का दावा करते हैं। भारत की यह हालत क्यों है? क्या पूर्व की सरकारों में भी यही स्थिति थी? जाने-माने अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज से बीबीसी हिंदी के लिए रवि प्रकाश ने ये समझने के लिए बात की। पढि़ए ज्यां द्रेज ने क्या कहा -
भूख और कुपोषण इस देश में सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए लेकिन यह है या नहीं यह बिल्कुल दूसरी बात है। यह ज़रूर होना चाहिए था। केंद्र सरकार ने नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के छठे राउंड के आंकड़े जारी किए हैं। इससे पता चला कि पिछले चार-पांच साल में बच्चों के पोषण में कोई प्रोग्रेस नहीं हुआ है। मेन स्ट्रीम मीडिया में इसकी कोई चर्चा भी नहीं है। इस मुद्दे को बड़ा मुद्दा बनाया जाना ज़रूरी है।
याद रखिए कि 2016 में भी हर तीन में से एक बच्चा अंडरवेट था। लगभग इतने ही बच्चों की लंबाई कम थी। दुनिया में देखें तो भारत में सबसे अधिक कुपोषण है। लेकिन, इस समस्या को दूर करने के लिए कितना काम और कितना ख़र्च हो रहा है, यह समझा जा सकता है। मुझे लगता है यह मुद्दा उठाया जाना चाहिए, तभी भारत की स्थिति ठीक हो सकेगी।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2020 के बीच बच्चों के कुपोषण के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई। लॉकडाउन में यह हालत और खऱाब हुई होगी। मिड डे मील और स्वास्थ्य सुविधाएं कई जगहों पर बंद हुई हैं।
हंगर वाच के सर्वे से पता चला है कि 76 फ़ीसदी लोग लॉकडाउन के कारण कम खा रहे हैं। इसका मतलब है कि हालत खऱाब हुई है। मोदी सरकार जब 2014 में आई, तो उन्होंने साल 2015 में अपने पहले ही बजट में मिड डे मील और आइसीडीएस का बजट कम कर दिया।
आज भी केंद्र सरकार का बजट इन योजनाओं के लिए 2014 से कम है। सबसे बड़ी समस्या है कि इस सरकार की विकास की समझ उल्टी है। विकास का मतलब केवल यह नहीं है कि जीडीपी बढ़ रहा है या लोगों की आय बढ़ रही है। यह आर्थिक वृद्धि है। लेकिन, आर्थिक वृद्धि और विकास में काफ़ी फर्क है।
विकास का मतलब यह भी है कि न केवल प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, लोकतंत्र, सामाजिक सुरक्षा की हालत में भी सुधार हो रहा है। अगर उद्देश्य केवल यह है कि भारत दुनिया में सुपर पावर बन जाए, हमारी इकोनॉमी पांच ट्रिलियन की हो जाए तो आप बच्चों पर ध्यान तो नहीं देंगे न। ऐसे में संपूर्ण विकास की बात कहां हो पाएगी। असली विकास यह है कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो। लेकिन, मोदी सरकार का यह उद्देश्य नहीं है।
भारत में कुपोषण इतना अधिक है। इसमें प्रगति नहीं दिख रही है। नेपाल और दूसरे देशों से भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी इन देशों से ज़्यादा है। तब क्यों इतनी कम प्रगति है। मुझे लगता है कि यहां असमानता और भेदभाव के कारण नुकसान हो रहा है।
मुझे लगता है कि अगर गांव में आंगनबाड़ी चलाना है और वहां ऊंची जाति के बच्चे छोटी जातियों के बच्चों के साथ नहीं खाएंगे, तो आंगनबाड़ी कैसे चलेगा। यही हालत स्वास्थ्य सुविधाओं में भी है। इन सभी जगहों पर जातीय और लैंगिक भेदभाव है। मुझे लगता है कि सामाजिक क्षेत्र में भारत के पिछड़ेपन की मुख्य वजह इसी से संबंधित है।
हंगर वाच के ताजा सर्वे के मायने
हंगर वाच के सर्वे का सबसे बड़ा नतीजा यह है कि लॉकडाउन का प्रभाव अभी भी कई परिवारों पर है। लोग कम खा रहे हैं। बच्चों और मां-बाप की हालत और खराब हो रही है।
हंगर वाच और एनएफएचएस के सर्वे दरअसल एक वेक-अप कॉल हैं। लेकिन, दुख की बात यह है कि न सरकार और न मेन स्ट्रीम मीडिया इस पर ध्यान दे रहा है।
सामाजिक सुरक्षा और भोजन का सवाल
पिछले पांच-छह साल से आर्थिक नीति और सामाजिक नीति में बड़ा गैप बन गया है। सामाजिक नीतियों को किनारे कर दिया गया है। केंद्र सरकार ने सामाजिक नीति को पूरी तरह राज्य सरकारों के भरोसे छोड़ दिया है।
2006 और 2016 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े देखेंगे, तो पता चलेगा कि उस दौरान काफी प्रगति हुई। चाहे स्वास्थ्य की बात करें या फिर शिक्षा की, उस दौर में पहली बार भारत में इतनी तेजी से प्रगति हुई।
इसका कारण यह था कि उस पीरियड में भारत में एक्टिव सोशल पॉलिटिक्स की शुरुआत दिख रही थी। उसी दौरान नरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून, मिड डे मील जैसी योजनाएं लाई गईं। इसके साथ ही आइसीडीएस का विस्तार हुआ।
मतलब तब सामाजिक और आर्थिक नीति का संतुलन दिख रहा था। लेकिन, मौजूदा सरकार में सामाजिक नीतियों को किनारे कर दिया गया है। उसका बजट भी कम किया गया है। तो, इससे बड़ी असमानता पैदा हुई है। नोटबंदी के बाद आर्थिक वृद्धि पर भी असर पड़ा है। इस असमानता का नतीजा अब हमारे सामने है। (bbc.com)
-प्रकाश दुबे
महबूबा मुफ्ती अफसोस कर रही हैं। किस बुरी साइत में जम्मू-कश्मीर राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं? अब जम्मू-कश्मीर नीचे फिसल कर केन्द्रशासित इकाई रह गया। कश्मीर घाटी में जिला विकास परिषद के चुनाव के प्रचार के दौरान मुफ्ती घर कैद हैं। उनकी शिकायत है कि मुझे तीसरी बार गैरकानूनी तरीके से पकड़ कर आवाजाही रोकी। पहलगाम जाकर मुफ्ती ने घुमंतू समुदायों को घर से बेदखल करने का विरोध किया था। गुलमर्ग के रास्ते में आने वाले बडग़ाम जाकर बंजारों को बेदखल करने का विरोध करने वाली थीं। विशेष सुरक्षा समूह के निदेशक ने चिट्ठी थमा कर चुनाव संपन्न होने तक दौरे रूकवा दिए। हाथ जोडक़र प्रचार के लिए निकलने की अनुमति मांगती महबूबा को सुरक्षाकर्मी घर के अंदर ठेलकर राज्य के चुनाव आयुक्त का फरमान याद दिलाते हैं। पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुरक्षा के खास इंतजाम करने का आदेश चुनाव आयुक्त शर्मा ने जारी किया था। भाजपा के कंधे पर बैठकर मुख्यमंत्री बनी महबूबा रुआंसी होकर शिकायत करती हैं-केन्द्रीय मंत्री प्रचार करते घूम रहे हैं। मुझ (पूर्व मुख्यमंत्री) को रोकते हो।
आमदनी अठन्नी
लोग आत्मनिर्भर बनने की होड़ में शामिल हैं। खाली खजाने को भरने की जिम्मेदारी एजेंसियां भी अपने तरीके से सहयोग कर रही हैं। कोरोना महामारी के सहित रोग राई का ऐसा बुरा हमला हुआ कि झाड़- फूंक बेअसर है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन पूरी ताकत से मंत्र फूंक रही हैं। आयकर विभाग की उगाही के आंकड़े देखने के बावजूद वे अब तक होशोहवास में हैं, यही बड़ी बात है। कल कारखानों और कारोबार के ठिकानों को मानो पाला मार गया है। देश की व्यापारधानी मुंबई नगरी में फिल्म क्षेत्र है। बैंकों, अंबानी, टाटा सहित कई नामी समूहों का मुख्यालय है। इसके बावजूद पिछली वसूली की तुलना में एक रुपया अधिक नहीं मिला। आयकर वसूली में सौ फीसद घाटा है। ऐसा नहीं कि मंत्री या वित्त मंत्रालय को इसका अंदेशा नहीं था। ऊपर से चेतावनी मिली इसलिए गुजरात सहित कुछ राज्यों के कुशल आयकर अधिकारियों को मुंबई समेत महानगरों में भेजा गया। दिल्ली देश की राजधानी है। वसूली की बदहाली में मुंबई से पीछे नहीं रही।
विजया कर्तव्य
दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने की चाहत में किरण बेदी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुईं। विधानसभा का चुनाव हारीं। पुदुचेरी की उपराज्यपाल बनकर मुख्यमंत्री पर पुलिसिया रोब चला रही हैं। किरण के पुलिस कारनामों पर बनी फिल्म कर्तव्यम में भूमिका निभाकर विजयाशांति तमिल, तेलुगु और हिंदी फिल्मों में सफल रहीं। कमाई की। पुरस्कार मिले। 23 बरस पहले विजयाशांति भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर महिला मोर्चा की सचिव बनीं। कुर्सी की चाहत में छलांग मारकर चंद्रशेखर राव की सहयोगी बनीं। तंलंगाना राज्य बनने के बाद चंद्रशेखर राव मुख्यमंत्री बने। विजया को पार्टी से निकाल दिया। हैदराबाद नगर निगम चुनाव के नतीजों से भाजपा और विजया दोनों उत्साहित हैं। विजया ने भाजपा में घर वापसी की। चंद्रशेखर राव की कुर्सी छीनने की कसम खाकर। किरण बेदी वाला हश्र होने का खतरा उठाते हुए। इसके बावजूद भाजपा ने राव की शांति तो फिल्हाल छीन ली।
जय गुरुदेव
अनुशासित स्वयंसेवक की तरह विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय का जिम्मा संभालने वाले डॉ. हर्ष वर्धन ने उत्तर को दक्षिण से जोडऩे राजीव गांधी जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र का केरल में नया परिसर शुरु कराया। दो विचारों के बीच सेतु बनाने की कल्पना सूझी। राजीव गांधी का नाम हटाने से बेवजह होहल्ला मचने का अंदेशा था। इसलिए माक्र्सवादी सरकार वाले केरल राज्य में नए परिसर का नामकरण श्री गुरुजी माधव सदाशिव गोलवलकर राष्ट्रीय केन्द्र कर दिया। कुछ लोग गोलवलकर जी की विचारधारा नहीं मानते और कुछ नहीं जानते कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक ने प्राणीविज्ञान की पढ़ाई की थी। दक्षिणा में एकलव्य की तरह अंगूठा कटने का डर बना रहता है। केरल में नामकरण पर बखेड़ा खड़ा हो गया। किसी ने हिटलर की याद दिलाई। किसी ने गांधी को। मुख्यमंत्री ने वैज्ञानिक के नाम पर केन्द्र का नामकरण करने की मांग करते हुए डॉ.हर्षवर्धन को चिट्ठी लिखी है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-डॉ राजू पाण्डेय
छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्न द्रष्टाओं और राज्य निर्माण हेतु निरंतर संघर्ष करने वाले मनीषियों ने छत्तीसगढ़ के मुखिया की जैसी छवि अपने हृदय में गढ़ी होगी वह छवि श्री भूपेश बघेल की तरह ही रही होगी- छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान के लिए मर मिटने को तैयार एक ठेठ छत्तीसगढ़िया व्यक्तित्व जिसके पास प्रदेश के विकास के ढेरों सपने हैं और इन सपनों को पूरा करने का संकल्प भी। भूपेश 'छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया प्रथम' के नारे को चरितार्थ करने में लगे हैं। भूपेश का छत्तीसगढ़वाद इतर-प्रांतवासियों और अन्य भाषा भाषियों को बहिष्कृत करने वाली संकीर्ण अवधारणा नहीं है बल्कि यह उन्हें छत्तीसगढ़ में समाविष्ट करने वाला- उन्हें छत्तीसगढ़ के रंग में रंग देने वाला एक उदार विचार है।
भूपेश को पता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जनकल्याण करना और जनकल्याण करते दिखना दोनों ही आवश्यक हैं। यही कारण है कि उन्होंने शासकीय योजनाओं और शासन की उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। गाँव, किसान और गरीब उनकी योजनाओं के केंद्र में हैं- भूपेश जानते हैं कि छत्तीसगढ़ महतारी का असली निवास कहाँ है।
भूपेश ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पारी की शुरुआत अपने चुनावी वादों को पूरा करने से की। किसानों की कर्ज माफी, 2500 रुपए प्रति क्विंटल पर धान खरीदी, सभी परिवारों को 35 किलो चावल, 400 यूनिट तक बिजली बिल हाफ, जैसे निर्णय लोकप्रिय बनाने वाले तो थे किंतु इनके दूरगामी वित्तीय प्रभावों के दबाव का सामना भूपेश को निरंतर करते रहना पड़ेगा। लोहंडीगुड़ा के किसानों को उनकी भूमि लौटाने का ऐतिहासिक फैसला लिया गया और उस पर अमल कर भूपेश ने अपनी किसान हितैषी छवि को और पुख्ता किया।
भूपेश सरकार द्वारा नगरीय क्षेत्रों में छोटे भूखंडों की रजिस्ट्री प्रारंभ हुई। कलेक्टर दर में 30 प्रतिशत की कमी की गई, भूखंडों को फ्री होल्ड करने का निर्णय लिया गया। गुमाश्ता एक्ट में संशोधन किया गया। स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच लोगों तक बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लीनिक योजना, शहरी क्षेत्रों में मुख्यमंत्री शहरी स्लम स्वास्थ्य योजना, कुपोषण मुक्ति के लिए सुपोषण अभियान प्रारंभ किए गए। वन अधिकार पट्टा देने का कार्य छत्तीसगढ़ में पुनः प्रारंभ किया गया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी योजना प्रारम्भ की गई।
वर्ष 2020 में भूपेश अनेक ऐसी योजनाएं लाए हैं जो आदिवासियों के कल्याण को समर्पित हैं- समर्थन मूल्य पर 7 के स्थान पर 25 वनोपजों की खरीद की व्यवस्था, महुआ का समर्थन मूल्य 17 रुपए से बढ़ाकर 30 रुपए करना, 856 हाट बाजारों में लघु वनोपजों की खरीद की व्यवस्था, 139 वन धन विकास केंद्रों में लघु वनोपजों के प्रसंस्करण का प्रबंध, तेंदूपत्ता संग्रहण में पारिश्रमिक दर 2500 रुपए से बढ़ाकर 4000 रूपए करना आदि। छत्तीसगढ़ सरकार का कहना है कि यह योजनाएं 13 लाख आदिवासी परिवारों की आय में वृद्धि करेंगी। सरकार का दावा है कि उसने लॉक डाउन की अवधि में वनवासी हितग्राहियों को 30 करोड़ रुपए का भुगतान किया है और लॉक डाउन में हुई वनोपजों की कुल खरीद का 98 प्रतिशत छत्तीसगढ़ द्वारा किया गया है।
भूपेश सरकार ने किसानों को लेकर राजीव गांधी किसान न्याय योजना प्रारंभ की जिसके तहत धान, मक्का और गन्ना के 19 लाख किसानों के खाते में 5700 करोड़ रुपए का भुगतान 4 किश्तों में किया जाना है। सरकार इस योजना को किसानों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करती रही है। किसानों और उनके पशुधन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार अन्य अनेक योजनाएं लेकर आई है। खुले में घूमते पशुओं द्वारा खेतों की चराई की समस्या से छुटकारा दिलाने के लिए राज्य सरकार गौठान बना रही है। छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क विभाग के अनुसार 2200 गौठान बन चुके हैं और इस वर्ष के अंत तक 5000 गौठान बनकर तैयार हो जाएंगे। गौठान समितियों को 10000 रुपए प्रतिमाह सहायता का प्रावधान किया गया है और हर गौठान में गोवंश के लिए चारे-पानी की व्यवस्था होगी। गोठानों से गोबर गैस और अन्य उत्पाद निर्मित किए जाएंगे, गोठानों के निकट कुक्कुट पालन का प्रबंध भी होगा।
ऐसा नहीं है कि भूपेश के यह दो वर्ष निर्विवाद रहे हैं। भ्रष्टाचार इन दो वर्षों में निरंतर चर्चा में रहा है। तबादलों में भ्रष्टाचार ने सुर्खियां बटोरी हैं। मुख्यमंत्री की प्रिय नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी योजना में गौठान निर्माण और इनकी देखरेख में जमकर भ्रष्टाचार की शिकायतें मिल रही हैं। यह शिकायतें लगभग हर जिले से आ रही हैं। प्रशासनिक अमला निरंकुश होकर कार्य कर रहा है। मुख्यमंत्री को उनके प्रिय अधिकारी वही तस्वीर दिखा रहे हैं जो कि वह देखना चाहते हैं न कि वह तस्वीर जो वास्तविक है। स्वाभाविक है जो योजनाएं मुख्यमंत्री के हृदय के निकट हैं उनके लिए फण्ड उदारता से दिया जाता है। इस फण्ड का दुरुपयोग करने के अवसर भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र निकाल ही लेता है।
मुख्यमंत्री की विकास की अवधारणा मानव केंद्रित है। भूपेश कहते हैं- “सेवा ही हमारा सनातन धर्म है। इसी रास्ते पर चलते हुए हमें आर्थिक मंदी और कोरोना संकट काल में अर्थव्यवस्था को बचाये रखने में सफलता मिली है।
छत्तीसगढ़ में हमने अपनी संस्कृति, अपने खेतों, गांवों, जंगलों, वनोपजों, प्राकृतिक संसाधनों, लोककलाओं, परंपराओं और इन सबके बीच समन्वय से अपना रास्ता बना लिया। हमें गर्व है कि अर्थव्यवस्था का हमारा छत्तीसगढ़ी मॉडल संकट मोचक साबित हुआ। हमने बड़े और महंगे निर्माण से अर्थव्यस्था के संचालन का मिथक तोड़ दिया है। स्थानीय जनता की सोच से विकास का रास्ता अपनाया है जिसके कारण निवेश और विकास हमराही बन गए हैं। विकास की हमारी सोच, नीति और क्रियान्वयन के बीच इतना गहरा नाता है कि दो वार्षिक बजट काल पूरा होने के पहले ही हम इस दौरान देश के सबसे बड़े रोजगार सृजक राज्य बन गए हैं।' (स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन,2020)।
निश्चित ही भूपेश का ध्यान किसी स्थान पर भौतिक संरचनाओं का ढेर लगाने से अधिक उस स्थान पर निवासरत लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने पर है। किंतु मानव विकास के सूचकांकों पर विकास की सुनिश्चित और सकारात्मक दिशा हासिल करना एक समय साध्य कार्य है। इसके लिए योजनाओं में वैज्ञानिक दृष्टि का समावेश, वस्तुनिष्ठता और पारदर्शिता आवश्यक है। इससे भी बड़ी आवश्यकता योजनाओं को क्रियान्वित करने वाले प्रशासनिक अमले और योजना से लाभान्वित होने वाले आम जनों को जागरूक, संवेदनशील और उत्तरदायी बनाने की है। नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी जैसी योजनाएं निश्चित ही गांव-गरीब, खेती-किसानी और पशुपालन को विमर्श के केंद्र में लाने में सहायक रही हैं। लेकिन समाज की अंतिम पंक्ति के आखिरी आदमी को राहत पहुंचाने के लिए इनमें अभी बहुत संशोधन, परिष्कार और सुधार की आवश्यकता है। जिस प्रकार भ्रष्ट तंत्र इन योजनाओं हेतु आबंटित राशि की बंदरबांट में लगा है और शीर्ष अधिकारी आंकड़ों की बाजीगरी दिखा रहे हैं इन योजनाओं के शैशवावस्था में दम तोड़ने की आशंका अधिक लगती है।
लोगों में एक आम धारणा यह भी बनती दिखती है कि प्रदेश में राज्य शासन के उत्तरदायित्व वाली सड़कों की स्थिति बदतर हुई है। राज्य सरकार द्वारा अधोसंरचना निर्माण के कार्यों में शिथिलता आई है। कुल मिलाकर एक ठहराव और बिखराव की अनुभूति अनेक प्रेक्षकों को हो रही है। यद्यपि राज्य सरकार के दावे कुछ अलग हैं। राज्य सरकार के अनुसार उसने पिछले 2 वर्ष में सड़क और पुलों के निर्माण तथा उनकी मरम्मत के 4 हजार 50 कामों के लिए 13 हजार 230 करोड़ रूपए की स्वीकृति प्रदान की है। इसके साथ ही प्रदेश के पहुंच विहीन सभी महत्वपूर्ण स्थानों तक सड़क निर्माण के लिए जून 2020 में प्रारंभ की गई सुगम सड़क योजना के तहत 2 हजार 169 कार्यों के लिए 252 करोड़ रूपए आबंटित किए गए हैं। छत्तीसगढ़ सड़क विकास निगम के अधीन 768 कार्यों के लिए 8 हजार 400 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। सरकारी दावों और जमीनी अनुभव के मध्य के गहरे अंतर को मिटाने में भूपेश कितनी जल्दी कामयाब होते हैं इसकी सभी को प्रतीक्षा रहेगी।
अपने मूल्यांकन के दौरान हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भूपेश सरकार के दूसरे वर्ष पर कोरोना महामारी की छाया रही है और यह भी कि कई अन्य प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ ने कोविड काल में आर्थिक गतिविधियों का बेहतर संचालन किया है। लेकिन यह भी सत्य है कि छत्तीसगढ़ की आर्थिक संरचना ने इस कोविड काल में भूपेश की बड़ी सहायता की है। छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में कृषि और वानिकी की केंद्रीय भूमिका है। देश के कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन इस वैश्विक महामारी के दौरान कहीं बेहतर रहा है। प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र के विषय में भूपेश ने अपने स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन 2020 में कहा- 'कोरोना काल में भी छत्तीसगढ़ में 26 लाख मीट्रिक टन लौह इस्पात सामग्रियों के उत्पादन और आपूर्ति से सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे देश को सहारा मिला है।' छत्तीसगढ़ का औद्योगिक ढांचा ऊर्जा उत्पादक इकाइयों और स्टील उत्पादक कारखानों पर आधारित है। इन्हीं से जुड़ी माइनिंग की गतिविधियां हैं। जैसे ही अनलॉक की प्रक्रिया प्रारंभ हुई पॉवर और स्टील उद्योग तथा माइनिंग पटरी पर वापस लौटने वाली पहली गतिविधियां थीं। जबकि ऐसे प्रदेश जो सेवा या पर्यटन क्षेत्रों पर निर्भर थे अभी भी कोविड-19 की मार झेल रहे हैं। बहरहाल भूपेश की इस बात के लिए तो प्रशंसा होनी ही चाहिए कि उन्होंने कोविड-19 के प्रबंधन में केंद्र से बेहतर तालमेल बनाए रखा और कुछ अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तरह हठधर्मी रुख अपनाते हुए केंद्र से टकराव और आरोप-प्रत्यारोप का रास्ता नहीं चुना।
प्रदेश की वित्तीय स्थिति और कर्ज के बढ़ते बोझ को लेकर विपक्ष लगातार हमलावर रहा है और विकास कार्यों की धीमी गति के लिए प्रदेश की दयनीय वित्तीय हालत को उत्तरदायी ठहराता रहा है। भूपेश सरकार द्वारा रिज़र्व बैंक से कर्ज लेने की खबरें तब चर्चा का विषय बनी थीं जब सरकार ने वर्ष 2019 के प्रारंभ में जनवरी माह में कर्ज माफी, धान खरीदी और उस पर दिए जाने वाले बोनस के भुगतान के लिए आरबीआई से 2000 करोड़ रुपए का कर्ज लिया था। इसके बाद अगस्त 2020 में राजीव गाँधी किसान न्याय योजना की दूसरी क़िस्त के भुगतान के लिए प्रदेश सरकार ने 4 साल की प्रतिभूतियों की नीलामी का निर्णय लिया जिससे 1300 करोड़ रुपए प्राप्त हुए इसमें 200 करोड़ की अतिरिक्त राशि मिलाकर कुल 1500 करोड़ रुपए का कर्ज हासिल किया गया। फरवरी 2020 में विधानसभा में सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री ने बताया था कि दिसंबर 2018 से 31 जनवरी 2020 तक राज्य सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक से 16400 करोड़ रुपए, राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक से 934.38 करोड़ रुपए तथा केंद्र सरकार के माध्यम से एशियन डेवलपमेंट बैंक व विश्व बैंक से 394.74 करोड़ रुपए, कुल 17729 करोड़ रुपए का ऋण लिया है। उक्त कर्ज पर 31 जनवरी 2020 तक 582.25 करोड़ ब्याज चुकाया जा गया है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बताया कि राज्य सरकार पर कुल 57,848 करोड़ रुपये का कर्ज है। इस प्रकार कर्ज की यह राशि बजट के आधे से भी अधिक हो गई है।
अर्थशास्त्रियों का एक समूह यह विश्वास करता है कि छत्तीसगढ़ सरकार के वित्तीय घाटे के बढ़ने का सीधा अर्थ है कि सरकार की उधारी बढ़ेगी। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार सरकार के बांड बेचने और बार- बार ऋण लेने से विकास कार्यों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। सरकार बांड बेचकर जो ऋण ले रही है वह उसे मय ब्याज चुकाना पड़ेगा। इसके लिए सरकार को स्वयं पूंजी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। हाल ही में नवंबर 2020 में राजीव गाँधी किसान न्याय योजना की तीसरी क़िस्त के भुगतान के लिए सरकार ने पुनः 1000 करोड़ रुपए का कर्ज लिया जिसके लिए भी आरबीआई ने राज्य सरकार के फिक्स्ड डिपॉजिट्स की नीलामी की। कहा यह जा रहा है कि राज्य सरकार को जीएसटी क्षतिपूर्ति के रूप में जो चार हजार करोड़ की तीन किस्तें मिलनी थीं, वह अब तक नहीं मिली हैं। यही कारण है कि सरकार को कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ रही है।
कर्ज के यह आंकड़े चिंता तो उत्पन्न करते हैं लेकिन यदि ब्लूमबर्ग क्विंट की मानें तो भूपेश सरकार कर्ज लेने के बावजूद फिस्कल रैंकिंग में बेहतरीन प्रदर्शन करने में कामयाब रही है और वह महाराष्ट्र के बाद दूसरे स्थान पर है। छत्तीसगढ़ के बाद ओडिशा, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश का स्थान है। फिस्कल रैंकिंग की गणना फिस्कल डेफिसिट, स्वयं की टैक्स रेवेन्यू तथा स्टेट डेट की ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट में प्रतिशत हिस्सेदारी के आधार पर की जाती है। वित्तीय वर्ष 2019 के आंकड़ों पर आधारित फिस्कल रैंकिंग में शानदार प्रदर्शन करने वाले भूपेश अपने साथी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से बिल्कुल अलग नजर आते हैं क्योंकि पंजाब और राजस्थान 16 वें और 17 वें स्थान पर हैं। जीएसटी कलेक्शन में छत्तीसगढ़ 24 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी के साथ देश में दूसरे पायदान पर है। इज ऑफ डूइंग बिज़नेस की नवीनतम रैंकिंग में छत्तीसगढ़ का स्थान छठवां है।
भूपेश के अब तक के कार्यकाल में कुछ घटनाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने नकारात्मक सुर्खियां बटोरी हैं। भूपेश सरकार पर प्रेस की स्वतंत्रता के हनन के आरोप लगते रहे हैं। अंबिकापुर नगर निगम द्वारा किसानों की पकने को तैयार धान की खड़ी फसल पर जेसीबी चलवाना और इसके बाद इस घटना की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराना सरकार की गरीबों के प्रति संवेदनशीलता की गर्वोक्तियों एवं प्रेस की आजादी के पैरोकार होने के उसके दावों पर गंभीर प्रश्न उठाने वाला मामला है। कांकेर के एक पत्रकार को सत्ताधारी दल के नेताओं द्वारा पीटने और धमकी देने का मामला अब तक शांत नहीं हुआ है। यह तो हालिया घटनाएं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण पिछले 2 वर्ष में देखने को मिले हैं जब छत्तीसगढ़ सरकार ने पत्रकारों के प्रति दमनकारी रवैया अपनाया है।
पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने का वादा करके सत्ता में आए भूपेश अब इसी माँग के लिए पत्रकारों के आंदोलन का सामना कर रहे हैं। दुर्भाग्य यह है पत्रकारों के दमन की सर्वाधिक घटनाएं बस्तर में हुई हैं जहाँ पत्रकार अपनी जान जोखिम में डाल कर सच उजागर करने का कार्य कर रहे हैं। नक्सलियों द्वारा कभी उन्हें मुखबिर और प्रशासन का दलाल मान लिया जाता है और कभी पुलिस उन्हें नक्सल समर्थक होने के शक में प्रताड़ित करती है।
मोटे तौर पर पत्रकारों का यह मानना रहा है कि नक्सल प्रभावित बस्तर में कांग्रेस की सरकार आने के बाद कुछ बदला नहीं है। सरकार ने निर्दोष ग्रामीणों पर लगे झूठे मामले हटाने का अपना वादा पूरा नहीं किया है। बस्तर में ग्रामीणों के असंतोष के बावजूद पुलिस कैम्पों की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है। चाहे वे सोनी सोरी हों या आदिवासियों के हितों के लिए कार्य करने वाले अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ता, प्रशासन का रुख इनके प्रति संवेदनहीन ही रहा है और इन्हें संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। भूपेश के कार्यकाल में सरकार की नक्सल नीति में बड़े बदलाव की उम्मीद थी क्योंकि बतौर विपक्षी नेता भूपेश ने नक्सल समस्या के समाधान में निर्दोष आदिवासियों के हितों को सर्वोपरि प्राथमिकता देने और उनके जल-जंगल-जमीन को सुरक्षित रखने की बात बारंबार कही थी। किंतु ऐसा होता नहीं दिखता। प्रदेश के अन्य जिलों में भी जहाँ माइनिंग की गतिविधियां होनी हैं, यह जानते हुए भी कि इनका परिणाम आदिवासियों और वन वासियों के विस्थापन और विनाश के रूप में होगा अडानी समेत अन्य औद्योगिक घरानों के प्रति छत्तीसगढ़ सरकार का रुख अतिशय उदार रहा है और इन्हें मनचाहे ढंग से नियमों को तोड़ने मरोड़ने की छूट मिली हुई है।
ऐसा बिल्कुल नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सल मोर्चे पर एकदम नाकाम रही है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हालात सुधरे हैं,आदिवासियों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए उनकी वनोपजों तथा कलाकृतियों की ब्रांडिंग और मार्केटिंग की अनेक नई योजनाएं भी प्रारंभ हुई हैं किंतु इन योजनाओं के जोर शोर से किए जा रहे प्रचार से हटकर जमीनी स्तर पर आकलन करने पर इनका प्रभाव बहुत अधिक नहीं दिखता और इनका स्वरूप प्रतीकात्मक अधिक लगता है। छत्तीसगढ़ सरकार का दावा रहा है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जनकल्याणकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन, पुलिस एवं जिला प्रशासन के मध्य बेहतर समन्वय तथा प्रशासनिक चुस्ती के कारण नक्सल घटनाओं में वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 में 40 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। पुलिस मुख्यालय द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इस अवधि में नक्सल घटनाओं में कमी के साथ ही सुरक्षाबलों की शहादत में 62 प्रतिशत और आम नागरिकों की हत्याओं में 48 प्रतिशत की कमी आयी है। सरकार यह भी कहती रही है कि 2020 में नक्सल घटनाओं में कमी का यह ट्रेंड जारी है। किंतु नक्सली हिंसा की घटनाएं हुई हैं और बड़ी संख्या में लोग मारे भी गए हैं। वर्ष 2020 में 22 मार्च को नक्सलियों से मुठभेड़ में 17 जवान शहीद हुए थे। इधर एक नई चिंताजनक प्रवृत्ति भी देखी जा रही है। बस्तर के पुलिस अधिकारियों के अनुसार नक्सलियों में पनप रहा विवाद गैंगवार का रूप धारण कर रहा है। इसका मुख्य कारण नक्सलियों द्वारा मुखबिरी के शक में की जा रहीं ग्रामीणों की हत्याओं और कैडर सदस्यों के लगातार आत्मसमर्पण को माना जा रहा है। अधिकारियों द्वारा साझा की गई सूचनाएं यह बताती हैं कि नक्सलियों ने 2020 में करीब 60 ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बताकर मौत के घाट उतार दिया। कारण जो भी हो मारे तो आदिवासी ही जा रहे हैं।
इन दो वर्षों में प्रदेश में अनेक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुई हैं जिन पर जम कर राजनीति हुई है और विपक्ष ने सरकारी तंत्र पर असंवेदनशीलता तथा सम्पूर्ण विफलता के आरोप लगाए हैं। इसी माह केन्द्री में एक युवक ने अपने परिवार के चार सदस्यों की हत्या के बाद स्वयं आत्महत्या कर ली। लॉक डाउन के कारण बेरोजगारी से परेशान युवक का परिवार अनेक बीमारियों से भी ग्रस्त था जिनका इलाज नहीं हो पा रहा था। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देकर भूपेश सरकार पर आक्रमण करते रहे हैं। वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ में आत्महत्या के मामलों में 8.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह वृद्धि 3.4 प्रतिशत थी। वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ 7629 आत्महत्याओं के साथ देश में नवें क्रम पर रहा। भाजपा वर्ष 2019 में 233 किसानों और 1679 मजदूरों की आत्महत्या को कांग्रेस सरकार की विफलता के रूप में प्रस्तुत करती रही है। अभी हाल ही में किसान आत्महत्या के ऐसे मामले सामने आए जिनमें किसानों की फसल नकली कीटनाशकों के प्रयोग से बर्बाद हो गई और हताश किसानों ने आत्महत्या कर ली। सौभाग्य से इन सभी मामलों में सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने प्रभावित परिवार की पीड़ा कम करने की कोशिश की है और समस्या को नकारने के बजाए उसकी तह तक जाने का प्रयास किया है।
भूपेश ने उम्मीदें खूब जगाई हैं। भाजपा की छत्तीसगढ़ के गठन में केंद्रीय भूमिका रही। जबसे राज्य बना है तब से अधिकांश समय भाजपा सत्ता पर काबिज रही है और जो छत्तीसगढ़ आज हम देख रहे हैं उसे गढ़ने में निश्चित ही राज्य की भाजपा सरकारों की भूमिका भी रही है। किंतु आम छत्तीसगढ़िया को यह अनुभूति पहली बार हो रही है कि वह खुद सत्ता में है। वह भूपेश के साथ तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहा है। भूपेश भी अंधविश्वासी करार दिए जाने के खतरों के बावजूद ठेठ छत्तीसगढ़िया नायक की छवि को पुख़्ता करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं- वे प्रदेश की सुख समृद्धि के लिए गोवर्धन पूजा के दौरान कोड़े खाने वालों की कतार में भी खड़े होने को भी तैयार हैं।
किंतु भूपेश यह भी जानते हैं कि केवल करिश्मा ही काफी नहीं है, विकास भी आवश्यक है। उनके दिमाग में जो योजनाएं हैं उनमें छत्तीसगढ़ की भौगोलिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना की गहरी समझ स्पष्ट दिखती है। प्रचार पर उनका खूब विश्वास है। चतुर से चतुर राजनेता भी यह भांप नहीं पाता कि उसके अच्छे कार्यों की पब्लिसिटी ने कब प्रोपेगंडा का रूप ले लिया है। उस बहुचर्चित उक्ति को झुठला पाना सफलतम राजनेताओं के लिए भी आसान नहीं रहा है जिसके अनुसार प्रोपेगंडा का सबसे बड़ा शिकार उसे रचने वाला ही होता है। यह आशा की जानी चाहिए कि भूपेश इस मामले में अपवाद सिद्ध होंगे।
जैसे जैसे प्रदेश की कांग्रेस सरकार पुरानी होती जाएगी, वांछित पद और लाभ पाने से वंचित, हाशिए पर धकेल दिए गए पार्टी कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ती जाएगी और जैसे जैसे अगले चुनाव निकट आएंगे उनका असंतोष भी मुखर होकर सामने आने लगेगा। भाजपा के साथ भी यह होता है किंतु भाजपा का संगठन मजबूत है और सत्ता की मुख्यधारा में जिन कार्यकर्ताओं को जगह नहीं मिल पाती उन्हें संगठन में महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व दे दिए जाते हैं। भूपेश को भी संगठन को मजबूत बनाना ही होगा।
आज जब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व साम्प्रदायिकता और उग्र हिंदुत्व के उभार से हतप्रभ और दिग्भ्रमित दिखता है तब भूपेश के सामने यह अवसर रहेगा कि साम्प्रदायिक सौहार्द के छत्तीसगढ़ मॉडल को देश के लिए उदाहरण के तौर पर गढ़ें। लेकिन यदि वह मानते हैं कि उग्र हिंदुत्व की काट छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों से गुजरने वाले राम वन गमन पथ में 51 स्थानों पर मंदिर बनाने जैसे कदमों द्वारा संभव है तो वे गलती पर हैं। यह आशा करनी चाहिए कि वे अपने भाषणों में जितने प्रखर सांप्रदायिकता विरोधी हैं उसी प्रकार अपनी नीतियों और निर्णयों में भी वे निर्णायक और स्पष्ट रूप से सेक्युलरिज्म के पोषक सिद्ध होंगे।
भूपेश का सफल होना आवश्यक है क्योंकि उनकी विफलता आम छत्तीसगढ़िया की योग्यता और प्रशासनिक कौशल पर प्रश्न चिह्न खड़ा करने हेतु प्रयुक्त की जा सकती है जो कदापि छत्तीसगढ़ के हित में न होगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वैदिक
पिछले साल भाजपा सांसद राकेश सिंहा ने संसद में एक विधेयक पेश किया और मांग की कि दो बच्चों का कानून बनाया जाए याने दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने को हतोत्साहित किया जाए। इस मुद्दे पर अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी लगा दी। उस पर सरकार ने साफ़-साफ कह दिया है कि वह परिवारों पर दो बच्चों का प्रतिबंध नहीं लगाना चाहती है, क्योंकि ऐसा करना लोगों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना होगा और यों भी लोग स्वेच्छा से जनसंख्या-नियंत्रण कर ही रहे हैं।
अब से 20 साल पहले देश में जनसंख्या की बढ़त प्रति परिवार 3.2 थी जबकि अब वह घटकर 2.2 रह गई है। अब पति-पत्नी स्वयं सजग हो गए हैं। अब 36 में से 25 राज्यों में जनसंख्या-वृद्धि की दर 2.1 हो गई है। सरकार का यह तर्क तो ठीक है लेकिन भारत की जनसंख्या लगभग 150 करोड़ को छू रही है। शायद हम चीन को भी पीछे छोडऩे वाले हैं। हम दुनिया के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश बनने वाले हैं। सरकार का लक्ष्य है- प्रति परिवार 1.8 बच्चों का! यदि डेढ़ अरब लोगों के इस देश में सब लोगों को भरपेट खाना मिले, उनके कपड़े-लत्ते और रहने का इंतजाम हो तो कोई बात नहीं। उन्हें शिक्षा और चिकित्सा भी थोड़ी-बहुत मिलती रहे तो भी कोई बात नहीं लेकिन असलियत क्या है?
देश में गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी और भुखमरी भी बढ़ती ही जा रही है। उससे निपटने की भरपूर कोशिश हमारी सरकारें कर रही हैं लेकिन यदि आबादी की बढ़त रुक जाए तो ये कोशिशें जरुर सफल हो सकती हैं। यह ठीक है कि रुस, जापान, रोमानिया जैसे कुछ देश आबादी की बढ़त पर रोक लगाकर अब परेशान हैं। उनकी आबादी काफी तेजी से घट रही है।यदि भारत में भी 10-15 साल बाद ऐसा ही होगा तो उस कानून को हम वापस क्यों नहीं ले लेंगे ? यह ठीक है कि इस वक्त देश के ज्यादातर पढ़े-लिखे, शहरी और ऊंची जातियों के लोग स्वेच्छया ‘हम दो और हमारे दो’ की नीति पर चल रहे हैं लेकिन गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, मजदूर आदि वर्गों के लोगों में अभी भी ये आत्म-चेतना जागृत नहीं हुई है। यह चेतना जागृत करने के लिए उन्हें दंडित करना जरुरी नहीं है लेकिन उन्हें प्रोत्साहित करना बेहद जरुरी है। क्या सरकार ऐसा करने में संकोच करती है ? उसे ऐसे कौनसे डर हैं, वह जरा बताए।
-डाॅ शिवकुमार डहरिया
दो साल पहले तक शहरों की तस्वीर कुछ और ही थी। न तो नागरिकों के लिए बेहतर सुविधाएं थीं और न ही विकास का ऐसा रोडमेप, जो जनता की सुविधाओं से जुड़ा हो। वक्त के साथ समय का पहिया आगे बढता़ गया। यह जनता की एक ऐसी सरकार है, जिसे भरोसा और विश्वास के साथ जनता ने बहुत मजबूती के साथ सत्ता में बिठाया। जनता की इन्हीं आकांक्षाओं, उम्मीदों पर खरा उतरने नई सरकार ने विकास का ऐसा रोडमेप तैयार किया कि आम नागरिकों को नई तस्वीर दिखाई देने के साथ उनसे जुड़ी सुविधाएं भी उनके द्वार तक पहुंचने लगी हंै। विगत दो साल में किए गए कार्यों का ही परिणाम है कि मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में नगरीय प्रशासन विभाग अंतर्गत योजनाओं और नागरिकों से जुड़ी सेवाओं में उल्लेखनीय कार्य करने पर पूरे देश में शहरी गवर्नेंस इंडेक्स-2020 रैंकिंग में छत्तीसगढ़ को तीसरा स्थान हासिल किया है। छत्तीसगढ़ ने देश भर में ओपन डाटा पोर्टल तक नागरिकों की पहुंच के मामले में पहला स्थान, नागरिक समस्याओं के समाधान के मामले में दूसरी रैंक और करों के राजकोषीय प्रबंधन में पहली रैंक नगरीय निकायों के चुने हुए जनप्रतिनिधियों और विधायी परिषदों के सशक्तीकरण के मामले में दूसरी रैंक, नागरिक सशक्तीकरण में तीसरी रैंक हासिल की है।
विकास के नये आयाम को देखे तो शहर अब सिर्फ शहर ही नहीं है, शहर अब स्मार्ट शहर के रूप में पहचान बनाने जा रही है। स्वाभाविक है कि नई कालोनियां छोटे-छोटे शहरों की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के मुताबिक अनेक सुविधाओं का स्वप्न लेकर बस रही हैं। इन काॅलोनियों में नई पीढ़ी है। नई सोच है और नई जरूरतें हैं। यूं कहें कि शहरों की परिभाषा अब सिर्फ व्यावसायिक दुकानें और बड़े-बड़े दफ्तर, शैक्षणिक संस्थान ही नहीं रहे। शहर अब चैड़ी सड़कों में सरपट भागती मोटर-कारों, दिन के उजालों में सड़क के आजू-बाजू हरियाली,रंगबिरंगी फूलों और रात के अंधेरों में जगमगाती स्ट्रीट लाइट, रेडियम से चमकते हुई रोड डिवाइडर और रोड स्टड से ब्लींक करते चैराहे, बहुमंजिला पार्किंग के साथ व्यवस्थित दुकानें, सुंदरता पर चार चांद लगाती चैराहे सहित अनगिनत नए दृश्य वर्तमान में एक नए शहर का स्वरूप है। शहरों के इस बदलते स्वरूप के बीच नई पीढ़ी के नागरिकों की अनेक आवश्यकताएं हैं। इन आवश्कताओं की पूर्ति के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार भी पुरानी पीढ़ी की सुविधाओं का ख्याल रखते हुए नई पीढ़ी के लोगों के साथ नई सोच के साथ कदम बढ़ा रही है।
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग छत्तीसगढ़ के शहरों का कायाकल्प करने में जुटा है। शहर स्वच्छ हो सुंदर हो और स्मार्ट हो इस दिशा में निरन्तर कार्य किये जा रहे हंै। शहर और गली मुहल्लों में स्ट्रीट लाइट के माध्यम से अंधेरा दूर कर हर जगह नई रोशनी बिखेरी जा रही है। आम नागरिकों की जरूरतों के अनुरूप सड़कों को चैड़ी ही नहीं अपितु अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जा रही हंै। व्यवस्थित बाजार, व्यवस्थित पार्किंग, पानी निकासी, ड्रेनेज निर्माण, अपशिष्ट का प्रबंधन, स्वच्छ पेयजल व्यवस्था, बच्चों-बुजुर्गों, आकर्षक उद्यान से लेकर नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं का विकास किया जा रहा है।
नगरीय क्षेत्रों में लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य, गरीबों के उन्नयन, स्वच्छता से संबंधित कार्य, शहरी गरीबों के लिए आवास, घर-घर पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में पहले से बेहतर कदम उठाया जा रहा है।
इस कड़ी में मुख्यमंत्री वार्ड कार्यालय नागरिक सुविधाओं के लिए वरदान बनता जा रहा है। प्रदेश भर में 14 नगर निगम के 101 वार्डों में यह वार्ड कार्यालय संचालित हो रहे हंै। 18285 प्राप्त आवेदनों में से 16305 को निराकृत भी कर दिया गया है। मुख्यमंत्री वार्ड कार्यालय एक ऐसा माध्यम बन गया है जहां आसानी से किसी भी समस्या का निदान संभव हो पाया है। यह सरकार की दूरदर्शी सोच और जनता के प्रति जवाबेदही का ही परिणाम है कि वार्डों में समस्याओं को सुनने कार्यालय की स्थापना की गई है। आम नागरिकों के लिए टोल फ्री नंबर निदान-1100 की व्यवस्था भी है, यहां फोन कर नगरीय निकायों से संबंधित किसी भी समस्या की शिकायत आसानी से दर्ज कराई जा सकती है। निदान से एक लाख से अधिक लोगों की शिकायतों को निराकृत किया जा चुका है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें शिकायतकर्ता की संतुष्टि के बाद ही शिकायतों को निराकृत माना जाता है। इसमें लापरवाही करने पर अधिकारियों पर जुर्माना भी लगाया जाता है। हमारी कोशिश है कि भविष्य में शिकायत निवारण प्रणाली को और भी आसान व सहज बनाया जाए ताकि आमनागरिकों को सरकार की सेवाओं का लाभ सुनिश्चित हो सके।
किसी भी व्यक्ति का बेहतर स्वास्थ्य उसके बेहतर जीवन का आधार होता है। कभी कभी छोटी-छोटी बीमारी, पीडित ही नहीं उसके परिवार को भी बर्बाद कर देता है। गरीबी या अपनी व्यस्तता की वजह से अस्पताल नहीं जा सकने वालों के उपचार के लिए मुख्यमंत्री शहरी स्लम स्वास्थ्य योजना और दाई-दीदी क्लीनिक योजना किसी की बीमारी को ठीक करना ही नहीं, उनकी जिंदगी को बेहतर बनाना भी है। मुख्यमंत्री स्लम स्वास्थ्य योजना से राज्य के 14 नगर निगमों में 60 मोबाइल मेडिकल यूनिट एंबुलेस के जरिए डाक्टरों की टीम सेवाएं प्रदान कर रही हैं। स्लम क्षेत्रों में स्वास्थ्य शिविर लगाकर मुफ्त में परामर्श, उपचार, दवाइयां तथा शुगर, खून, पेशाब, बीपी विभिन्न प्रकार की निःशुल्क जांच भी की जाती है। मुख्यमंत्री दाई-दीदी क्लीनिक योजना से महिलाओं को नई सुविधा प्रदान की जा रही है। देश में ऐसा पहली बार हुआ है कि दाई-दीदी क्लीनिक योजना जिसमें महिलाओं की जांच उनके ही घर के आसपास महिला चिकित्सकों द्वारा की जा रही है।
नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के माध्यम से गरीबों को अपनी बीमारी की जांच के लिए अनावश्यक खर्च करना न पडे़, इसका भी ख्याल रखा जा रहा है। पैथोलाॅजी एवं डायग्नोस्टिक्स सुविधा देने डाॅ.राधाबाई डायग्नोस्टिक्स सेंटर सभी जरूरतमंद परिवारों के लिए वरदान बनेगा और जांच के नाम पर अधिक पैसा लेने वालों की गतिविधियों पर इससे लगाम भी लगेगी।
हमारी सोच है कि शासन की योजनाओं का लाभ नागरिकों को घर बैठे मिल सके, मुख्यमंत्री मितान योजना भी ऐसी सुविधा है जिसके माध्यम से लगभग सौ से अधिक शासकीय सेवाओं जैसे ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, बिजली बिल,पेंशन, राजस्व, जन्म प्रमाण पत्र,राजस्व अभिलेख आदि उपलब्ध कराई जाएगी। नगरीय प्रशासन विभाग गर्मी के दिनों में व्याप्त होने वाली पेयजल संकट को दूर करने की दिशा में कार्य कर रहा है। टैंकरों से होने वाली पानी आपूर्ति और आम नागरिकों को होने वाली दुविधा को ध्यान रखकर शासन द्वारा इन बस्तियों में पेयजल की स्थायी व्यवस्था और टैंकर मुक्त करने की पहल की जा रही है। 62 शहरी स्थानीय निकायों को टैंकर मुक्त बनाया गया है। 4 नगर निगमों,43 नगर परिषदों एवं 109 नगर पंचायतों में जलप्रदाय योजना शुरू की गई है। वर्ष 2023 तक अनेक परियोजनाओं को पूरा करने का लक्ष्य भी रखा गया है। गर्मी के दिनों में उत्पन्न होने वाली पेयजल संकट को दूर करने 20 करोड़ की राशि जारी की गई है।
सरकार की लगभग सभी योजनाओं में गरीबों को प्राथमिकता दी गई है। भूमिहीन व्यक्तियों को भूमि धारण का अधिकार प्रदान करने हेतु अधिनियम लाया गया है। 19 नवंबर 2018 के पूर्व काबिज कब्जा धारकों को भू-स्वामित्व अधिकार प्रदान किया जाएगा। इसमें ऐसे व्यक्ति भी लाभान्वित होंगे जिन्हें पूर्व में पट्टा प्रदान किया गया था परंतु नवीनीकरण प्रावधानों के अभाव में वह भूमि का उपभोग नहीं कर पा रहे थे। इस निर्णय में राज्य के लगभग दो लाख से अधिक शहरी गरीब परिवार सीधे लाभान्वित होंगे तथा उन्हें ‘मोर जमीन मोर मकान‘ योजना में 2.5 लाख तक वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकेगी। अवैध/अनियमित हस्तांतरण/ भूमि प्रयोजन में परिवर्तन प्रकरण में नियमानुसार भूमि स्वामी अधिकार दिया गया। अतिरिक्त कब्जे की स्थिति में निकाय श्रेणी अनुसार 900 से 1500 वर्गफीट तक नियमतीकरण की सुविधा दी गई है। कालातीत पट्टों का 30 वर्षों हेतु नवीनीकरण की मान्यता दी गई है।
मोर जमीन मोर मकान योजना से गरीबों को जोड़कर हितग्राहियों को लाभान्वित किया जा रहा है। अभी तक 74365 हितग्राहियों का आवास पूर्ण हो गया है। किफायती आवास योजना-मोर मकान मोर चिन्हारी अंतर्गत 1782.83 करोड़ की लागत से 48326 नवीन आवासों को स्वीकृति देकर कार्य प्रारंभ किया गया है।
नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा तय की गई प्राथमिकताओं को ध्यान रखकर शहरी क्षेत्र के गरीबों के उन्नयन, गरीबों को सुविधाएं देने और आम नागरिकों को सेवाएं प्रदान करने के साथ उन्हें बेहतर सुविधा प्रदान करने की दिशा में कार्य कर रही है।
(नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री, छग शासन)
छत्तीसगढ़ राज्य में कांग्रेस सरकार के दो वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में इन दो वर्षों में बस्तर के लोहांडीगुड़ा के आदिवासियों की टाटा द्वारा अधिग्रहित कृषि भूमि को वापस दिलवाने तथा किसानों को उनके धान का वाजिब दाम दिलवाने जैसे जनहितकारी काम किए गए हैं। जिसके लिए यह सरकार बधाई की हकदार है। किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए यह शानदार उपलब्धि है।
कांग्रेस सरकार के इन दो वर्षों में देश एवं प्रदेश के साहित्यकारों तथा संस्कृति कर्मियों को यह उम्मीद थी कि छत्तीसगढ़ राज्य में भी साहित्य एवं संस्कृति को फलने फूलने की दिशा में कुछ बेहतर कार्य किए जाएंगे।
पूरे देश और प्रदेश के साहित्यकारों एवं संस्कृति कर्मियों के लिए यह खुशी की बात थी कि छत्तीसगढ़ सरकार ने 14 जुलाई 2020 को मंत्रिमंडल की बैठक में यह निर्णय लिया था कि छत्तीसगढ़ में संस्कृति परिषद की स्थापना होगी जिसके फलस्वरूप राज्य में साहित्य अकादमी, कला अकादमी , लोक कला अकादमी जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आ सकेंगी। छत्तीसगढ़ राज्य का यह दुर्भाग्य रहा है कि छत्तीसगढ़ बनने के 20 वर्षों के बाद भी ना तो यहां साहित्य अकादमी ही बन पाया और न ही कला अकादमी और न लोक कला अकादमी ही ।
14 अप्रैल 2020 को कैबिनेट द्वारा पारित इस निर्णय के बाद उम्मीद थी कि देखते ही देखते छत्तीसगढ़ की बंजर भूमि पर भी साहित्य एवं संस्कृति के फूल खिलने और महकने लगेंगे।
साहित्य अकादमी के बनने के पश्चात ठाकुर जगमोहन सिंह, मुकुटधर पांडे, शानी, श्रीकांत वर्मा, मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल जैसे रचनाकारों पर केंद्रित समारोह होंगे। नए रचनाकारों की पांडुलिपि का प्रकाशन होगा, राज्य के जिलों और तहसीलों में पाठक मंच की स्थापना होगी । अकादमी द्वारा एक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन होगा, राष्ट्रीय और प्रादेशिक अलंकरण प्रारंभ होंगे और कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ में साहित्य का एक ऐसा माहौल बनेगा जिसे पूरा देश सराहेगा।
लोक कला अकादमी के गठन से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। पंडवानी, भरथरी नाचा ,चंदैनी पर कार्यशाला होंगी। नाचा की अग्रणी संस्थाओं को अनुदान मिलेगा और कलाकारों को राजकीय संरक्षण। मृतप्राय रतन पुरिया गम्मत तथा चंदैनी को हर संभव बचाने की कोशिश की जाएगी।
ठीक ऐसे ही कला अकादमी के माध्यम से प्रदेश की चित्रकला और नाटकों को प्रश्रय दिया जाएगा।
हबीब तनवीर, पंडित सत्यदेव दुबे तथा शंकर शेष जैसे शीर्षस्थ रंग कर्मियों पर केंद्रित कार्यक्रम होंगे।
राज्य के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल 17 दिसंबर 2020 को अपने कार्यकाल का 2 वर्ष पूर्ण करने जा रहे हैं उन्हें हम बधाई देते हैं और यह उम्मीद भी करते हैं कि 14 जुलाई 2020 को मंत्रिमंडल द्वारा संस्कृति परिषद की स्थापना के संबंध में लिए गए निर्णय को शीघ्र ही क्रियान्वित करने की दिशा में वे आवश्यक पहल करेंगे।
जिससे साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी यह राज्य पूरे देश में एक अग्रणी राज्य का दर्जा पा सकेगा। इन्हीं उम्मीदों के साथ प्रदेश के सारे साहित्यकारों एवं संस्कृति कर्मियों की ओर से पुनः बधाई एवं शुभकामनाएं।
-कनक तिवारी
आज सरदार वल्लभभाई पटेल का निधन दिवस है। सरदार को मुख्यतः देसी रियासतों के विलीनीकरण का श्रेय देते जनमानस ने लौह पुरुष का खिताब सौंप दिया। दूसरे सबसे बड़े सरकारी पद पर बैठकर निर्णयों को लागू कराना छोटा काम नहीं था। वह वल्लभभाई पटेल होने का यही समूचा अर्थ नहीं है। उन्होंने अंगरेजों की खिलाफत में बारदोली किसान सत्याग्रह के जरिए अनोखी अलख जगाई थी। किसान को राजनीति के केन्द्र में रखने के गुर गांधी के अतिरिक्त सरदार में थे। वल्लभभाई ने वक्तन बावक्तन जवाहरलाल नेहरू की कई नीतियों और फैसलों को प्रभावित और नियंत्रित किया। नेहरू की भावुकता और पटेल का विवेक मिलकर भारतीय राजनीति के सर्वोच्च नेतृत्व की गरिमा थे।
कम लोग जानते होंगे कि भारत विभाजन के अंतिम निर्णय में सरदार पटेल ने निर्णायक भूमिका निभाई। विभाजन को लेकर लिखी किताबों में डाॅ. राममोहर लोहिया द्वारा लिखा गया वृत्तांत प्रामाणिक होने के कारण प्रश्नांकित नहीं हो सका। बकौल लोहिया सरदार ने बंद कमरे में बैठकर लगभग दो घंटे तक गांधी पर विभाजन को मान लेने का निर्णायक दबाव डाला। मनोवैज्ञानिक युद्ध में पराजित गांधी विषण्ण चेहरा लिए बंगाल की ओर मुखातिब हुए। देश नेहरू-पटेल युति के फैसले के कारण विभाजित हो गया। गांधी की हत्या के बाद नेहरू ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कड़े प्रतिबंध लगाने चाहे। पटेल ने भी हिंसा और सांप्रदायिकता का समर्थन नहीं किया। संघ से माफीनामे लिखवाए गए। फिर भी सरदार ने कूटनीतिक बुद्धि का परिचय देते हुए संघ नेतृत्व और स्वयंसेवकों को दिशाहारा देशभक्त करार दिया। इसी निर्णय के कारण संघ को अपने काम और विचार का विस्तार करने का सुयश मिला।
कांग्रेस कार्यसमिति के कई प्रस्तावों में पटेल के दृढ़निश्चय की झलक है। अंगरेजों द्वारा स्थापित वरिष्ठ भारतीय नौकरशाही के ढांचे और विश्वसनीयता को बनाए रखने में सरदार का योगदान सबसे असरदार है। वे मौलिक चिंतक नहीं थे लेकिन अपनी समझ के प्रति ईमानदार थे। संविधान सभा ने सरदार पटेल को नागरिकों के लिए मूल अधिकारों का ब्यौरा तय करने का काम सौंपा था। साथ साथ आदिवासियों के अधिकारों को लेकर भी कई प्रारूप पाठ तैयार करने थे। संविधान में मूल अधिकार नकारात्मक भाषा में लिखे गए हैं। अर्थात यदि वे अधिकार सरकार या अन्य प्रतिष्ठान द्वारा छीने जाएं तो न्यायपालिका हस्तक्षेप करेगी। सरदार को आदिवासी अधिकारों के लिए संवैधानिक ढ़ांचा रचने का समय ही नहीं मिला। संविधान सभा ने प्रारूप में पाचवां और छठवां अनुच्छेद जोड़कर उनमें आदिवासी अधिकारों को रेखांकित करने की कोशिश की। निपट ग्रामीण सादगी के सरदार पटेल की 184 फीट ऊंची मूर्ति देश से लोहा एकत्र कर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चीन से बनवाई गई है। सरदार भारतीय उद्योगों के समर्थक थे। सरदार की भारतीयता के आर्थिक सोच में उत्तराधिकारियों ने विदेशी दीमकें क्यों उगा दीं।
-कनक तिवारी
मेडिकल शिक्षा के जितने भी सरगना है। उन्होंने ट एम ए पाई फाउंडेशन के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक मुकदमा पेश किया ।बात कुछ और थी लेकिन 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट में ध्यान रहे 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट में फैसला किया कि यदि आपको मेडिकल शिक्षा लेनी है तो फिर तो फीस भुगतनी होगी निजी सेक्टर में ।
यह कोई मासूम खबर नहीं है। यह गरीब और मध्य वर्ग के बच्चों को मेडिकल शिक्षा से हटाने की गहरी साजिश है। अच्छी तरह समझ लीजिए। इस देश में मेडिकल शिक्षा प्राइवेट सेक्टर में ही ज्यादा है। सरकारी कॉलेज तो बहुत कम हैं। वहां पर भी अपने पूरे जीवन की पूंजी लुटा कर कुछ मां-बाप बच्चों को पढ़ाते हैं। और सरकारी कॉलेजों में पढ़ कर उसके बाद यदि वे 10 साल तक सरकार की नौकरी नहीं करें। जो बहुत बदहाली में होती है। तो 10000000 रुपए जुर्माना देना पड़ेगा। इसे क्षतिपूर्ति नहीं जुर्माना कहा गया है।
यह भोलापन मुबारक हो योगीजी ! इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि संविधान के तहत गरीब और मध्यम वर्ग के काबिल बच्चों को मेडिकल इंजीनियरिंग और सभी शिक्षा देने का उत्तरदायित्व सरकार का है। दूसरी बात इस देश में अब तक एक बहुत महत्वपूर्ण फैसले से लोग परिचित नहीं हैं। मेडिकल शिक्षा के जितने भी सरगना है उन्होंने ट एम ए पाई फाउंडेशन के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक मुकदमा पेश किया ।बात कुछ और थी लेकिन 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट में ध्यान रहे 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट में फैसला किया कि यदि आपको मेडिकल शिक्षा लेनी है तो फिर तो फीस भुगतनी होगी निजी सेक्टर में ।
दूसरी बात यह है कि इस देश में उच्च शिक्षा पाने का किसी का मूल अधिकार नहीं है ।लेकिन उच्च शिक्षा का उसकी दुकानदारी और प्रबंधन का मूल अधिकार है अनुच्छेद 19 में। ये बातें तय हुईं। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के एक प्रसिद्ध मुकदमे उन्नीकृष्णन के फैसले को पलटते हुए हुआ जो 5 जजों की बेंच ने बहुत सही लिखा था। उन्नीकृष्णन का फैसला उच्च शिक्षा को पब्लिक सेक्टर में सरकारी सेक्टर में ले जाने का कहा जा सकता है। और देखिए इस फैसले में टीएमएपाई के फैसले में ऐसा कुछ लिखा गया जो सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को समझ में नहीं आया। उसके बाद एक और मुकदमा पांच जजों की बेंच का सुप्रीम कोर्ट में इस्लामिक एजुकेशन सोसाइटी का आया। उसमें कहा गया कि 11 जजों ने जो कहा है उसको देश के कई हाईकोर्ट के जज भी नहीं समझ पाए। और आपस में विरोधी फैसले हो रहे हैं। समझा दिया 5 जजों की बेंच ने। तय कर दिया कि हाईकोर्ट जज रिटायर होंगे उनकी अध्यक्षता में बच्चों से फीस वसूलने वाली कमेटी बनेगी। यहां पर भी हाईकोर्ट जजों की रिटायरमेंट के बाद अपनी हैसियत स्थापित कर ली गई। सुप्रीम कोर्ट को तसल्ली नहीं हुई फिर एक और फैसला आया 7 जजों का पी ए इनामदार के मामले में। और उसमें कहा गया कि 5 जजों की बेंच ने 11 जजों के फैसले को ठीक नहीं समझा और 11 जजों ने जो लिखा है उससे भी भ्रांति हो गई। हम समझाते हैं। यह फैसला भी मेडिकल कॉलेज के संचालकों के पक्ष में झुका हुआ आया। और इस तरह सब कुछ चल रहा है ।अब यदि अमीर आदमी का बेटा प्राइवेट कॉलेज में पढ़ कर डॉक्टर बनेगा और कहेगा मैं सरकार की नौकरी नहीं करता 10000000 रूपए रखो अपनी जेब में। योगी जी हालांकि आपके पास जेब नहीं है। जो 10 करोड़ 20 20 करोड़ ?500000000 खर्च करके बच्चों को पढ़ाते हैं विदेश में देश में और बाद में 100 200 करोड़ 500 करोड़ खर्च करके निजी अस्पताल बनाते हैं डॉक्टर बच्चों के लिए और वह दुकानदारी करते हैं। उनके लिए एक करोड़ तो कुछ भी नहीं है। लेकिन कोई गरीब का बच्चा एक करोड़ नहीं दे पाएगा योगीजी! और एक करोड रुपए क्यों लेंगे ब्लैकमेल करते हुए ?
आप बच्चों की शिक्षा पर क्या एक करोड़ खर्च करते हैं?और अगर करते हैं तो क्यों करते हैं? आप बच्चों को शिक्षा क्यों नहीं दे सकते? सरकारी कॉलेज इतनी संख्या में खोलिए कि निजी शिक्षा अपने आप गायब हो जाए। तो यह बहुत बड़ा फ्रॉड है गरीब बच्चे मध्य वर्ग के बच्चों के खिलाफ। इसे आप समझें। एक चमत्कार और है। बड़े अफसरों के और बड़े आदमियों के बच्चों की नियुक्ति सरकारी मेडिकल कॉलेजों में कर दी जाती है। अच्छे दफ्तरों में कर दी जाती है। और गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को जंगलों देहातों में नक्सली क्षेत्रों में पदस्थापित किया जाता है। और वहां दवाओं तक की कोई सुविधाएं नहीं होतीं। तो वह अपना जीवन वैसे ही वहां काटना मुश्किल समझते हैं। दोनों तरफ से मारे जाते हैं। डॉक्टर की नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं होती। तुलनात्मक योग्यता के आधार पर नहीं होती। वहां पर तो अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह कर देय। यह दुर्भाग्य है कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में अब जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के मामलों में एक धूमिल चादर है जबकि उसे सूरज की रोशनी से न्याय की जगमगाना चाहिए।
राजीव गुप्ता
पाकिस्तान से 1947 के विभाजन के समय आए लोगों को भारत सरकार ने उत्तर भारत के अलग-अलग शहरों में रिफ्यूज कैम्पों में रहने और खाने की व्यवस्था की थी। बड़ी आबादी में लोग आकर वहाँ रुके भी थे। अपनी जान किसी तरह बचाकर आए इन लोगों के पास कुछ भी नहीं था, यहां तक की खाने के लिए भी की कुछ नहीं था। बहुतों ने अपने परिवार के सदस्यों को अपनी आँखों के सामने मरते देखा था। लाखों लोग बगैर हिंसा के भी मारे गए थे ।
बात सन 1951 की पहली जनगणना की है । भारत सरकार द्वारा बनाए गए सभी रिफ्यूजी कैम्पों में जनगणना की टीम पहुंची तो सारे रिफ्यूजी कैंप खाली मिले। मुख्यत: पाकिस्तान से विस्थापित अधिकतर पंजाबी समुदाय के लोग अपनी-अपनी क्षमता अनुसार काम पर लग गए थे। उन्होंने सरकार के भरोसे रहना स्वीकार नहीं किया था। इन लोगों ने दिल्ली के ऑफिसों के बाहर सामान बेचने, खाना बनाकर बेचने का काम शुरू कर दिया था। इसके गवाही उस दौर के लोग आपको देंगे। लेखक यशपाल की किताब में इसका विस्तार से जिक्र है। सिर्फ संदर्भ के लिए 1971 के पाकिस्तान युद्ध के बाद विस्थापितों के कैंप आज 50 साल तक आबाद हैं ।
विभाजन के समय पाकिस्तान से अधिकतर पंजाबी लोग भारत आए थे क्योंकि बहुत छोटा सा हिस्सा पंजाब का अभी हमारे पास है। बड़ा हिस्सा पाकिस्तान विभाजन में पाकिस्तान चला गया था। विभाजन की त्रासदी झेल चुके लोगों को सरकार की उपेक्षा डिगा पाएगी इसकी संभावना बहुत कम है । ऐसी कौम जिसने अपने खून से इस माटी को सींचा है उसके साथ सरकार का ऐसा व्यवहार अत्यंत दुखदायी है। अगर किसानों में असंतोष है तो उनकी बात जरूर सुनी जानी चाहिए। सत्रह दिनों से दिल्ली की कपकपाती ठंड में खुले आसमान में किसान सडक़ों में बैठे हंै और सरकार बातें सुनने का ढोंग कर रही है। लगभग रोज हो रही मौतों और कोरोना महामारी के बीच आंदोलनकारी विचलित नहीं हो रहे ये बड़ी बात है।
हिंदुस्तान और विश्व इतिहास में इस आंदोलन को हमेशा एक असरदार आंदोलन के रूप में याद रखा जाएगा और ये बेनतीजा भी खत्म नहीं होगा इसका मौजूदा स्वरूप ये बता रहा है।
इस आंदोलन के तरीके को देखकर अगर किसी को संतोष हो रहा होगा तो वो निसंदेह महात्मा गाँधी को हो रहा होगा।
डॉ. पुनीत बिसारिया
शंकरदास केसरलाल शैलेन्द्र, जिन्हें दुनिया फिल्मों के गीतकार शैलेन्द्र के नाम से जानती है, की आज 53वीं पुण्यतिथि है। 30 अगस्त, सन 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शैलेन्द्र के फिल्मी गीतों में रोमानियत, आक्रोश, भक्ति, दर्शन, दर्द सब कुछ देखने को मिलता है। उनके लोकप्रिय फिल्मी गीतों में बरसात में तुमसे मिले हम (बरसात), आवारा हूँ (श्री 420), रमैया वस्तावैया (श्री 420), मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के (श्री 420), मेरा जूता है जापानी (श्री 420), आज फिर जीने की (गाइड), गाता रहे मेरा दिल (गाइड), अजीब दास्तां है ये (दिल अपना और प्रीत पराई), ये रात भीगी भीगी(चोरी चोरी), पिया तोसे नैना लागे रे (गाइड), क्या से क्या हो गया (गाइड), हर दिल जो प्यार करेगा (संगम), दोस्त दोस्त न रहा (संगम), सब कुछ सीखा हमने (अनाड़ी), किसी की मुस्कराहटों पे (अनाड़ी), सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है (तीसरी कसम), दुनिया बनाने वाले (तीसरी कसम), तेरा मेरा प्यार अमर (असली नकली), पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई (मेरी सूरत तेरी आँखें), तू प्यार का सागर है (सीमा), खोया खोया चाँद (काला बाजार), रुक जा रात ठहर जा रे चन्दा (दिल एक मन्दिर), सुहाना सफर और ये मौसम हसीं (मधुमती), धरती कहे पुकार के बीज बिछा ले प्यार के (दो बीघा जमीन), जि़ंदगी ख्वाब है (जागते रहो), ओ सजना बरखा बहार आई (परख), छोटा सा घर होगा बादलों की छांव में (नौकरी), आ जा आई बहार (राजकुमार), ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (बन्दिनी), चाहे कोई मुझे जंगली कहे (जंगली), सुर न सजे क्या गाऊँ मैं (बसन्त बहार), ये शाम की तन्हाइयां ऐसे में तेरा ग़म (आह), ये रातें ये मौसम नदी का किनारा (दिल्ली का ठग), अहा रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिए (उसने कहा था) प्रमुख हैं। राज कपूर ने उन्हें ‘कविराज’ की संज्ञा दी थी।
हिन्दी की सर्वकालिक श्रेष्ठ फि़ल्म ‘तीसरी कसम’ जो फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ पर आधारित थी, का निर्माण उन्होंने किया था और इसकी व्यावसायिक असफलता से वे अन्दर तक टूट गए थे। मात्र 43 वर्ष की अवस्था में आज ही के दिन सन 1966 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ले ली थी। उनके गीत फि़ल्म जगत की ऐसी अमूल्य धरोहर हैं, जिन्हें आज भी बेसाख़्ता हम गुनगुनाने लगते हैं। इस महान गीतकार के साहित्य जगत के योगदान का अभी मूल्यांकन नहीं किया जा सका है। शीघ्र ही राजकपूर के प्रिय ‘कविराज’ पर मेरा एक सुविस्तीर्ण आलेख अग्रज इन्द्रजीत सिंह की शैलेन्द्र पर आधारित पुस्तक के सौजन्य से आप सबके बीच आ रहा है।
इस अनूठे गीतकार को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ प्रस्तुत है उनका एक ग़ैर फि़ल्मी गीत ‘उस दिन’
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी !
जिस दिन तुमने सरल स्नेह भर
मेरी ओर निहारा;
विहंस बहा दी तपते मरुथल में
चंचल रस धारा!
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी!
जिस दिन अरुण अधरों से
तुमने हरी व्यथाएं;
कर दीं प्रीत-गीत में परिणित
मेरी करुण कथाएं!
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी!
जिस दिन तुमने बाहों में भर
तन का ताप मिटाया;
प्राण कर दिए पुण्य--
सफल कर दी मिट्टी की काया!
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी!
संयोजन-अनिल करमेले
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पश्चिम बंगाल के डायमंड हार्बर इलाके में भाजपा अध्यक्ष जगत नड्डा और भाजपा प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय के काफिले पर जो हमला हुआ, उसमें ऐसा कुछ भी हो सकता था, जिसके कारण ममता बनर्जी की सरकार को भंग करने की नौबत भी आ सकती थी। यदि नड्डा की कार सुरक्षित नहीं होती तो यह हमला जानलेवा ही सिद्ध होता। कैलाश विजयवर्गीय की कार विशेष सुरक्षित नहीं थी तो उनको काफी चोटें लगीं। क्या इस तरह की घटनाओं से ममता सरकार की इज्जत या लोकप्रियता बढ़ती है ? यह ठीक है कि भाजपा के काफिले पर यह हमला ममता ने नहीं करवाया होगा। शायद इसका उन्हें पहले से पता भी न हो लेकिन उनके कार्यकर्ताओं द्वारा यह हमला किए जाने के बाद उन्होंने न तो उसकी कड़ी भर्त्सना की और न ही अपने कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई की। बंगाल की पुलिस ने जो प्रतिक्रिया ट्वीट की, वह यह थी कि घटना-स्थल पर ‘‘खास कुछ हुआ ही नहीं’’। पुलिस ने यह भी कहा कि ‘‘कुछ लोगों ने पत्थर जरुर फेंके लेकिन सभी लोग सुरक्षित हैं। सारी स्थिति शांतिपूर्ण है।’’ जरा सोचिए कि पुलिसवाले इस तरह का रवैया आखिर क्यों रख रहे हैं ? क्योंकि वे आंख मींचकर ममता सरकार के इशारों पर थिरक रहे हैं। सरकार ने उन्हें यदि यह कहने के लिए प्रेरित नहीं किया हो तो भी उनका यह रवैया सरकार की मंशा के प्रति शक पैदा करता है। यह शक इसलिए भी पैदा होता है कि ममता-राज में दर्जनों भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है और उक्त घटना के बाद कल भी एक और हत्याकांड हुआ है। प. बंगाल के चुनाव सिर पर हैं। यदि हत्या और हिंसा का यह सिलसिला नहीं रुका तो चुनाव तक अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है। केंद्र और राज्य में इतनी ज्यादा ठन सकती है कि ममता सरकार को भंग करने की नौबत भी आ सकती है। उसका एक संकेत तो अभी-अभी आ चुका है। पुलिस के तीन बड़े केंद्रीय अफसर, जो बंगाल में नियुक्त थे और जो नड्डा-काफिले की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थे, उन्हें गृहमंत्री अमित शाह ने वापस दिल्ली बुला लिया है। ममता इससे सहमत नहीं है। लेकिन इस तरह के कई मामलों में अदालत ने केंद्र को सही ठहराया है। ममता को आखिरकार झुकना ही पड़ेगा। राज्यपाल जगदीप धनखड़ और ममता के बीच रस्साकशी की खबरें प्रायः आती ही रहती हैं। भाजपा की केंद्र सरकार और ममता सरकार को जरा संयम से काम लेना होगा, वरना बंगाल की राजनीति को रक्तरंजित होने से कोई रोक नहीं पाएगा।