विचार/लेख
-डॉ. परिवेश मिश्रा
8 दिसम्बर 2020 के दिन आंदोलनकारी किसानों के समर्थन में भारत बंद आयोजित था। दोपहर होते तक भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने किसानों को बातचीत का निमंत्रण भेज दिया।
लेकिन यह निमंत्रण किसी हल की तलाश की अपेक्षा ‘संदेश’ देने की नीयत से भेजा गया था यह दो बातों से स्पष्ट हुआ। एक तो पूरे किसान प्रतिनिधिमंडल को न बुलाकर चुने हुए लोगों को निमंत्रण दिया गया। संदेश था-फूट डालने के प्रयास का विकल्प हमारे पास है। लेकिन दूसरा संदेश, बहुत गूढ़ और महत्वपूर्ण, मीटिंग स्थल के नयन के साथ नत्थी होकर आया।
शुरुआत में बताया गया था बैठक शाम सात बजे गृहमंत्री के निवास में होगी। अंत समय में पता चला स्थान परिवर्तन हो गया है, किन्तु नया स्थान कौन सा है इसको लेकर स्पष्टता नहीं थी। कुछ किसान समूह विज्ञान भवन गए जहां इससे पहले तक मंत्रियों के साथ बैठकें हो रही थीं। कुछ नॉर्थ ब्लॉक स्थित गृह मंत्रालय की ओर गए तो कुछ एक और संभावित स्थल हैदराबाद हाउस की ओर। अंतत: बैठक विलंब से प्रारंभ हो सकी।
जब सारे लोगों को अमित शाह की पसंद की ‘वेन्यू’ में पहुंचाया गया। इस वेन्यू का इतिहास और जड़ कार्पोरेट (ईस्ट इंडिया कम्पनी) के हाथों भारत के किसानों के हुए शोषण और तबाही की याद दिलाता है। हमारे लिए यह इतिहास जानना ज़रूरी है। भारतीय किसान का शोषण करने की दिशा में शासन और कार्पोरेट के बीच के गठजोड़ और दोनों के बीच की जुगलबंदी का इससे बड़ा उदाहरण नहीं है।
मीटिंग जहां की गई उस स्थल का लंबा औपचारिक नाम था (है)-इंडियन काऊंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च। लेकिन आम आदमी इसे ‘पूसा इंस्टीट्यूट’ या बस ‘पूसा’ के प्रचलित नाम से जानता है। भारत में कृषि से जुड़ा आमतौर पर हर व्यक्ति पूसा से परिचित है।
मजे की बात यह है कि पूसा नाम का न तो यहां कोई गांव था न यह किसी व्यक्ति का नाम था। पूसा शब्द दरअसल एक बड़े नाम का संक्षिप्त रूप है। जैसे न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी के अंग्रेज़ी के पहले अक्षरों को मिलाकर बना शब्द ‘नॉएडा’; या नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेन्सी इलाके के लिए उपयोग किया जाने वाला शब्द ‘नेफा’। (1972 में इसका नाम अरुणाचल राज्य रखा गया और नेफा इतिहास का भाग बना)
पूसा की अंग्रेजी स्पेलिंग के चार अक्षरों को पूरा लिखा जाये तो बनेगा- फिप्स (ऑफ) यूनाइटेड स्टेट (ऑफ) अमेरिका।
आइये जानें कौन थे फिप्स और क्या थी कहानी जो पूसा को भारतीय कृषि इतिहास का अभिन्न हिस्सा बना गई।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने किसानों को जमीन का मालिकाना हक अवश्य दिया पर टैक्स में बेइंतिहा बढ़ोत्तरी कर दी। अधिक आमदनी के लालच (या दबाव) ने किसानों को नील, अफीम, कपास, चाय और कॉफी जैसी नगद फसल उगाने के लिए मजबूर किया। उत्पादन वृद्धि में मदद के नाम पर नहरों का जाल बिछाया गया। पर टैक्स में वृद्धि और अधिक हो गई। खेतों में उत्पादन कम हुआ और बाद में खेत की मिट्टी अनाज उत्पादन के लायक नहीं बची। उधर अनाज उत्पादन के लिए पर्याप्त खेत भी नहीं बचे थे।
अकाल पडऩा शुरू हो गए, भुखमरी के कारण बड़ी संख्या में किसान और ग्रामीण मरने लगे। किन्तु कम्पनी (और 1860 के बाद ब्रिटिश सरकार) का सारा ध्यान उत्पादन बढ़ाने की ओर था।
बिहार के दरभंगा जि़ले में एक बहुत बड़ा इलाका कम्पनी के कब्ज़े में था। शुरू में कई वर्षों तक इस स्थान का उपयोग कम्पनी की फौज के लिए उन्नत नस्ल के घोड़ों के स्टड फार्म के रूप में किया गया। स्टड फार्म चला और बंद हो गया। खाली पड़ी जमीन को 1878 में इंग्लैंड की एक कम्पनी ने तम्बाखू उत्पादन के लिए लीज़ पर लिया तब पहली बार इस एस्टेट का साईज़ रिकॉर्ड में दर्ज हुआ-1350 एकड़। तम्बाखू कारोबार जम नहीं पाया तो कम्पनी ने 1897 में यह स्थान खाली कर दिया।
दो वर्षों के बाद वर्ष वायसराय के रूप में लॉर्ड कजऱ्न ने कार्यभार संभाला। कजऱ्न ने भारतीय पुरातत्व के संरक्षण के लिए बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए। लावारिस पड़े ताजमहल को सरकारी संरक्षण देना उनमें शामिल है। सांची, सारनाथ, तक्षशिला आदि में उत्खनन जैसे और भी काम किए। लेकिन इतिहास बहुत क्रूर होता है। शासक लाख अच्छे काम करे इतिहास उसे उसी काम के लिए याद रखता है जिसके विरोध में जनता सडक़ पर उतर आती है।
अपने शासन के छह साल पूरे होने पर आत्मविश्वास से भरे कजऱ्न ने बंगाल का विभाजन कर पूर्वी बंगाल और असम के नए प्रांत बना दिए। जनता विरोध में सडक़ों पर उतर आई। सरकार संशोधन का विकल्प सुझाती रही। जनता नहीं मानी। विरोध जारी रहा। अंतत: सरकार को झुकना पड़ा और कानून वापस हुआ। लेकिन वापस चलते हैं और कजऱ्न के काल की उस घटना की ओर जिसका संबंध इस कहानी से है।
कजऱ्न का काल वह दौर था जब अंग्रेज़ प्रशासकों पर भारत की कृषि व्यवस्था को लेकर दोतरफा दबाव था। लंदन से दबाव था कि कृषि व्यापार से प्राप्त होने वाले राजस्व में बढ़ोत्तरी की जाए। साथ ही योरप में हो रहे औद्योगिक विकास के कारण कपास जैसे ‘रॉ-मटीरियल’ की सप्लाय बढ़ाने का दबाव था। दूसरी तरफ योरप के उन व्यवसायियों (आज की भाषा में कार्पोरेट घरानों) का दबाव था जो ब्रिटिश सरकार के दिखाए सपनों पर विश्वास कर भारत के कृषि क्षेत्र में अपना निवेश बहुत बढ़ा चुके थे किन्तु अब उम्मीद के अनुपात में कम होते लाभ को लेकर आक्रोशित थे।
कृषि क्षेत्र में उत्पादन और अधिक चाहिए था, लाभ और अधिक चाहिए था और कजऱ्न के सामने यह लक्ष्य हासिल करना सबसे बड़ी चुनौती थी।
लॉर्ड कजऱ्न का विवाह जर्मन मूल की अमरीकी महिला मेरी विक्टोरिया लीटर के साथ हुआ था। मेरी विक्टोरिया, जो विवाह के बाद बैरोनेस कजऱ्न के रूप में जानी गईं, के पिता की गिनती अमेरिका के सबसे धनाढ्य व्यक्तियों में होती थी। इनके घनिष्ठ मित्र थे शिकागो के रहने वाले हेनरी फिप्स। ये दोनों अपने तीसरे मित्र ऐन्ड्रयू कार्नेगी के स्टील उद्योग में बड़े निवेशक थे ।
अमरीकी पूंजीवादी व्यवस्था में प्रचलित कानून के अनुसार यदि उद्योगपति अपने मुनाफे की राशि को घर में या बैंक में रखने की बजाए ऐसे उद्यमों या प्रयोजनों के लिये दान करता है जो आगे चलकर उद्योग को और अधिक मुनाफा दिलाने का माद्दा रखते हो तो ऐसे दान पर उसे टैक्स आदि में भारी छूट दी जाती है। इस नीति ने अमेरिका में रॉकफैलर से लेकर बिल गेट्स तक अनेक दानदाता पैदा किए हैं।
हेनरी फिप्स के मित्र की बेटी का विवाह भारत के सबसे शक्तिशाली अधिकारी के साथ हुआ तो फिप्स भी अपने लिए संभावनाओं की तलाश में भारत पहुंचे और लॉर्ड कजऱ्न के मेहमान के रूप में रुके। यहां की व्यावसायिक संभावनाओं ने फिप्स को आकर्षित किया और उन्होंने तीस हज़ार डॉलर का दान दिया। घोषणा हुई कि इसका उपयोग ब्रिटिश भारत में फसलों का उत्पादन और कृषि क्षेत्र से मुनाफा बढ़ाने के तरीके ढूंढऩे (रिसर्च) के लिए किया जाएगा। जो इसे विकास की ओर कदम न मानें उनके शब्दों में ‘निचोड़ ली गई किसानी से और अधिक रस प्राप्त करने के तरीके ढूँढे जाएंगे’।
स्थान के रूप में चयन किया गया वही दरभंगा का 1350 एकड़ का एस्टेट जो टोबैको कम्पनी के जाने के बाद से वीरान पड़ा था। इस स्थान पर 1 अप्रेल 1905 के दिन लॉर्ड कजऱ्न ने कृषि रिसर्च के लिए एक संस्थान के भवन का शिलान्यास किया। भवन के डिज़ाइन को लेकर कजऱ्न मुतमईन नहीं थे। वे चाहते थे विशेषज्ञों से सलाह मशविरा कर लिया जाए। किन्तु जल्द-से-जल्द लाभ-प्राप्ति के लिए आतुर बैठे ब्रिटिश उद्योगपतियों के दबाव में सब काम रिकॉर्ड गति से हुआ। दान की राशि का मूल्य 45 लाख रुपयों के बराबर था। शिलान्यास भी हुआ और देखते-देखते इमारत के साथ कैम्पस भी खड़ा हो गया।
अब तक चले आ रहे बेनाम एस्टेट का पहली बार नामकरण हुआ- फिप्स (क्कद्धद्बश्चश्चह्य) ऑफ यू.एस.ए. के नाम पर-पूसा। संस्था का नाम हुआ इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इन्स्टीट्यूट।
15 जनवरी 1934 के दिन भूकंप आया और समूची विशाल इमारत भर-भराकर ध्वस्त हो गई। अब तलाश शुरु हुई नए स्थान की। तीन साल पहले ही भारत की राजधानी के रूप में नई दिल्ली का उद्घाटन हुआ था।
भारत की बड़ी समाचार एजेंसी ए एनआई के संस्थापक प्रेम प्रकाश की लिखी पुस्तक ‘रिपोर्टिंग इंडिया’ इसी माह प्रकाशित हुई है। सन् चालीस के दशक की दिल्ली का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि करोल बाग के आसपास का इलाका वीरान था, रहने योग्य नहीं था।
अपेक्षाकृत छोटे वृक्षों वाले घने जंगल थे जिन्हे आज भी ‘रिज’ के नाम से जाना जाता है।
1935 में इसी रिज का विशाल इलाका चुना गया और दरभंगा के मलबे से उठकर पूसा इंस्टीट्यूट दिल्ली पहुंचा दिया गया। आठ दिसम्बर 2020 को कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट घरानों की घुसपैठ कराने में सरकार की भूमिका पर संदेह करते हुए जब किसानों ने ‘भारत बंद’ का आह्वान किया तो दिल्ली में उपलब्ध सारे विकल्पों को छोडक़र गृह मंत्री ने उनसे बातचीत के लिए यही स्थान चुना।
अमित शाह का निर्णय महज़ संयोग था या प्रयोग यह बाकी लोगों के लिए अनुमान का विषय है।
-गिरीश मालवीय
ये सच है बिल गेट्स ने कोरोना वायरस नहीं फैलाया लेकिन कोरोना वायरस का भय फैलाने में बिल गेट्स की महती भूमिका है और समस्या कोरोना वायरस नहीं है उसका भय ही है। मैं अप्रैल 2020 से ही कोरोना वायरस के संदर्भ बिल गेट्स की भूमिका पर उंगली उठा रहा हूँ लेकिन जैसे इस देश में मोदी भक्त पैदा हुए हैं वैसे ही बिल गेट्स के भक्त पैदा हो गए हैं। इनमें बुद्धिजीवियों की संख्या बहुतायत में है कोरोना के संदर्भ में आप बिल गेट्स का जैसे ही नाम लो वो आप पर कॉन्सपिरेसी थ्योरिस्ट का ठप्पा ठोक देंगे, वे बिल गेट्स के खिलाफ कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं है उन्हें लगता है कि बिल गेट्स महान परोपकारी ओर विश्व का सबसे बड़ा दूरदृष्टा है
टाइम मैगजीन की इस खबर में बिल गेट्स स्वीकार कर रहे हैं कि जो तकनीक फाइजर ओर मोडर्ना अपनी वैक्सीन में इस्तेमाल कर रही हैं यानी मेसेंजर आरएनए तकनीक उसके विकास में उनके फाउंडेशन की महत्वपूर्ण भूमिका है, साथ ही वह सीरम इंस्टीट्यूट की एस्ट्राजेन्का कम्पनी द्वारा बनाई गई वैक्सीन में भी बड़े पैमाने पर धन लगा चुके हैं।
अगर आप ध्यान से देखें तो पूरे विश्व में इन्हीं तीन वैक्सीन को इमरजेंसी अप्रूवल मिला है, और इन तीनों वैक्सीन का बिल गेट्स से सीधा संबंध है। यही बात मैं शुरू से लिख रहा था कि बिल गेट्स वैक्सीन इंडस्ट्री के कोलम्बस है।
अब वह चाहते हैं कि दुनिया की 70 फीसदी आबादी को उनकी बनाई वैक्सीन ठुकवा दी जाए और जैसे नरेंद्र मोदी भारत जैसे बड़े देश में उनके परम सहयोगी बने हुए वैसे ही अन्य देशों की सरकारें में उनके पिठ्ठू बड़े पैमाने पर मौजूद हैं। जिनकी मदद से वह अपनी इस योजना को कामयाब बनाने के लिए तत्पर है
और सच तो यह है कि डब्ल्यूएचओ उनकी जेब में बैठा हुआ है क्योंकि अमेरिका यूरोप कुल मिलाकर डब्ल्यूएचओ को जितना सालाना फंड देते हैं उससे कहीं ज्यादा बिल गेट्स और उससे जुड़े हुए संगठन डब्ल्यूएचओ को फंडिंग कर रहे हैं, इसके चीफ दरअसल बिल गेट्स के पपेट की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
बहुत से लोग पूछेंगे कि आखिर बिल गेट्स को इससे फायदा क्या हो रहा है पिछले एक साल में अगर आप ध्यान से दुनिया के 10 सबसे बड़े पूंजीपतियों की लिस्ट देखेंगे तो आप। जान जाएंगे कि आपकी ओर हमारी जेब मे आने वाला पैसा किन लोगों के पास जाकर जमा हो रहा है। ये वो लोग हैं जिन्होंने इस कोरोना काल में इंटरनेट और नई तकनीक का सबसे बेहतर ढंग से इस्तेमाल किया है। ये है अमेजन के जेफ बेजोस, फेसबुक के जुकरबर्ग गूगल के लैरी पेज जैसे लोग इन पूंजीपतियों में बिल गेट्स भी शामिल हैं। यह सब अपनी कंपनियों के माध्यम से और मीडिया में अपनी फंडिंग ओर होल्डिंग के सहारे से साल भर कोरोना के भय को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने में कामयाब रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल भारत का परम पड़ोसी है। वहां जबर्दस्त उठापटक चल रही है। प्रतिनिधि सभा (लोकसभा) भंग कर दी गई है। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचंड-खेमे और ओली खेमे में सत्ता की होड़ लगी हुई है लेकिन भारत ने चुप की दहाड़ लगा रखी है और चीन अपनी बीन बजाए चला जा रहा है। ऐसा नहीं है कि भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है। उसके सेनापति और विदेश सचिव अभी कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री के.पी. ओली से मिल आए थे।
काठमांडो में उनका स्वागत गर्मजोशी से हुआ था और ओली के भारत-विरोधी रुख में कुछ नरमी भी दिखाई पड़ी थी। हमारे राजदूत ने भी ओली से भेंट के बाद भारत आकर सरकार को सारी स्थिति से अवगत कराया था लेकिन हम जऱा देखें कि चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी काठमांडो में कितनी अधिक सक्रिय हैं। वे प्रचंड और ओली से दर्जनों बार मिल चुकी हैं। दोनों पार्टियों के छोटे-मोटे नेता तो यांकी से मिलने के लिए चीनी दूतावास में लाइन लगाए रखते हैं।
यांकी की हजारों कोशिशों के बावजूद अब जबकि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में दरार पड़ गई है, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के उप-मंत्री गुओ येचाऊ अब चार दिन के लिए काठमांडो पहुंच गए हैं। उनकी कोशिश होगी कि वे दोनों खेमों में सुलह करवा दें लेकिन भंग हुई संसद को अब वे कैसे लौटा पाएंगे ? क्या नेपाल का सर्वोच्च न्यायालय उसे पुनर्जीवित कर सकेगा?
यदि संसद फिर से जीवित हो गई, तब भी दोनों खेमों के बीच झगड़ा कैसे खत्म होगा? जो भी हो, हमारी चिंता का विषय यह है कि इस मामले में भारत की भूमिका नगण्य क्यों हो गई है? यह ठीक है कि चीन नेपाल को तिब्बत से जोडऩे के लिए रेल लाइन बिछा रहा है। रेशम महापथ के लिए वह 2.5 बिलियन डालर भी दे रहा है और आठ करोड़ डालर की फौजी सहायता भी नेपाल को दी जाएगी। चीनी और नेपाली सेनाएँ पिछले दो-तीन साल से संयुक्त सैन्य-अभ्यास भी कर रही हैं।
चीन नेपाल को अपने तीन बंदरगाहों के इस्तेमाल की सुविधा भी दे रहा है ताकि भारत पर उसकी निर्भरता कम हो जाए। भारत की भाजपा सरकार बेबस मालूम पड़ रही है। उसके पास ऐसे अनुभवी लोग नहीं है, जो बिना प्रचार के नेपाली कम्युनिस्ट नेताओं से मिल सकें और भारत की भूमिका को मजबूत कर सकें। हमारी भाजपा सरकार अपने नौकरशाहों पर निर्भर है। नौकरशाहों और राजनयिकों की अपनी सीमाएँ हैं।
वे ज्यादा सक्रिय दिखेंगे तो उसे आंतरिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप माना जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
प्रधानमंत्रीजी ने स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की जयंती पर कुछ चुनिंदा राज्यों के किसानों को संबोधित किया। इस बार भी वे आंदोलनरत किसानों से प्रत्यक्ष संवाद करने का साहस नहीं जुटा पाए। जो भी हो यह संबोधन बहुप्रतीक्षित था। किसानों के राष्ट्रव्यापी जन प्रतिरोध के मद्देनजर सबको यह आशा थी कि प्रधानमंत्री किसी सकारात्मक पहल के साथ सामने आएंगे। आदरणीय मोदी जी देश के 135 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री हैं। देश की आबादी के 60-70 प्रतिशत हिस्से की आजीविका कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और यह स्वाभाविक था कि कृषि सुधारों से उपजी आशंकाओं के मध्य प्रधानमंत्री जी का भाषण बहुत ध्यान से सुना गया।
आदरणीय मोदीजी बोले तो अवश्य किंतु उनके लंबे भाषण में प्रधानमंत्री को तलाश पाना कठिन था। कभी वे किसी कॉरपोरेट घराने के कठोर मालिक की तरह नजर आते जो अपने श्रमिकों की हड़ताल से नाराज है ; हड़तालों से निपटने का उसका अपना अंदाज है जिसमें लोकतंत्र का पुट बहुत कम है। वह हड़तालियों की मांगों को सिरे से खारिज कर देता है, उन पर प्रत्याक्रमण करता है और फिर बड़े गर्वीले स्वर में कहता है कि तुम मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हो क्या यह तुम्हारी कम बड़ी उपलब्धि है। तुम कितने किस्मत वाले हो कि मैंने अभी तक तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाया है, तुम पर कोई कार्रवाई नहीं की है।
कभी वे सत्ता को साधने में लगे किसी ऐसे राजनेता की भांति दिखाई देते जो हर अवसर का उपयोग चुनावी राजनीति के लिए करता है। उनके भाषण का एक बड़ा भाग बंगाल की राजनीति पर केंद्रित था और उन्होंने बंगाल के किसानों की बदहाली के जिक्र के बहाने अपने चुनावी हित साधने की पुरजोर कोशिश की। वे बंगाल के चुनावों के प्रति इतने गंभीर थे कि उन्होंने इस संबोधन की गरिमा और गंभीरता की परवाह न करते हुए चुनावी आरोप प्रत्यारोप पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया।
कभी वे उग्र दक्षिण पंथ में विश्वास करने वाले आरएसएस के प्रशिक्षित और समर्पित कार्यकर्त्ता के रूप में दिखते- वामपंथ से जिसका स्वाभाविक बैर भाव है और वामपंथ को जड़मूल से मिटा देना जिसका पुराना संकल्प।
आदरणीय मोदीजी ने बंगाल और केरल में भूतकाल और वर्तमान में शासनरत वामपंथी सरकारों पर किसानों की उपेक्षा का आरोप लगाया। उन्होंने किसान आंदोलन के लिए भी अप्रत्यक्ष रूप से वामपंथियों को ही जिम्मेदार ठहराया और उन्होंने वामपंथियों पर किसान आंदोलन को हाईजैक करने तथा किसानों को गुमराह कर उनके बहाने अपना एजेंडा चलाने के आरोप भी लगाए। पिछले कुछ दिनों से प्रधानमंत्री जी वामपंथ पर कुछ अधिक ही हमलावर हो रहे हैं। शायद वे किसानों और मजदूरों में बढ़ती जागृति से परेशान हैं और उन्हें लगता है कि आने वाले समय में कांग्रेस नहीं बल्कि वामपंथियों से उन्हें कड़ी चुनौती मिलने वाली है। शायद बिहार चुनावों में विपक्ष को एकजुट करने में वामदलों की केंद्रीय भूमिका से वे चिंतित भी हों। यह भी संभव है कि राजनीतिक शत्रु कांग्रेस को पराभूत करने के बाद अब वे अपने वैचारिक शत्रु वामदलों पर निर्णायक वार करना चाहते हों। बहरहाल प्रधानमंत्री जी ने वामपंथ को चर्चा में तो ला ही दिया है।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी आंदोलनकारियों के प्रति आश्चर्यजनक रूप से संवेदनहीन नजर आए। उन्होंने इस आंदोलन को जनता द्वारा नकार दिए गए विरोधी दलों का पब्लिसिटी स्टंट बताया। किंतु अंतर केवल यह था कि विरोधी दलों से उनका संकेत इस बार कांग्रेस की ओर कम और वाम दलों की ओर अधिक था। अराजनीतिक होना इस किसान आंदोलन की सर्वप्रमुख विशेषता रही है। किसानों ने राजनीतिक दलों से स्पष्ट और पर्याप्त दूरी बनाई हुई है। ठंड का समय है, शीतलहर जारी है। अब तक आंदोलन के दौरान लगभग 40 किसान अपनी शहादत दे चुके हैं। लाखों किसान इस भीषण ठंड में अपने अस्तित्व की शांतिपूर्ण और अहिंसक लड़ाई लड़ रहे हैं। यदि आदरणीय प्रधानमंत्री जी इस दुःखद घटनाक्रम को एक पब्लिसिटी स्टंट के रूप में देख रहे हैं तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। जब सर्वोच्च पद पर आसीन कोई जन प्रतिनिधि जनता के असंतोष को एक षड्यंत्र की भांति देखने लगे तो चिंता उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
प्रधानमंत्री जी ने फरवरी 2019 से प्रारंभ हुई पीएम किसान सम्मान निधि योजना की सातवीं क़िस्त जारी करने की एक सामान्य सी औपचारिक प्रक्रिया को एक मेगा इवेंट में बदल दिया। यदि इस मेगा इवेंट की तुलना भीषण ठंड में जारी किसानों के साहसिक और शांतिपूर्ण प्रदर्शन से की जाए तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि पब्लिसिटी स्टंट की परिभाषा किस दृश्य से अधिक संगत लगती है।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी ने यह भी कहा कि किसानों के विषय पर हम हमारे विरोधियों से चर्चा करने को तैयार हैं बशर्ते यह चर्चा मुद्दों, तथ्यों और तर्क पर आधारित हो। किंतु दुर्भाग्य यह है कि आदरणीय प्रधानमंत्री जी का स्वयं का पूरा भाषण मुद्दों, तथ्यों और तर्क पर आधारित नहीं था। यह कोई चुनावी सभा नहीं थी बल्कि देश के आंदोलित अन्नदाताओं के लिए संबोधन था इसलिए यह अपेक्षा भी थी कि प्रधानमंत्री अधिक उत्तरदायित्व और गंभीरता का प्रदर्शन करेंगे।
आदरणीय मोदी जी को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की नितांत अपर्याप्त और असम्मानजनक राशि के लिए खेद व्यक्त करना चाहिए था और किसानों से यह निवेदन करना चाहिए था कि आप पूरे देश के अन्नदाता हैं, हम सब आपके ऋणी हैं। इसके बावजूद मैं आपके साथ न्याय नहीं कर पा रहा हूँ और बहुत संकोचपूर्वक यह छोटी सी राशि आपको भेंट कर रहा हूँ। किंतु उन्होंने अपनी इस चुनावी योजना का जमकर गुणगान किया। वे पहले भी इस योजना को किसानों के प्रति अपनी संवेदनशीलता और उदारता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं। जबकि सच यह है कि यह देश के किसानों के हक का पैसा है जो बड़ी कृपणता से उन्हें दिया गया है। इतनी छोटी और असम्मानजनक राशि को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का नाम देना ही किसानों के साथ क्रूर मजाक जैसा था किंतु जिस प्रकार इस योजना को किसानों के लिए अनुपम सौगात के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है वह और दुःखद है। यह किसान हमारे अन्नदाता हैं कोई भिक्षुक नहीं हैं। यदि भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन बिना आंकड़ों का स्रोत बताए यह दावा करते हैं कि 6000 रुपए वार्षिक सहायता छोटे और मध्यम किसान परिवारों की वार्षिक आय के छठवें हिस्से के बराबर है तब भी उससे इस बात की ही पुष्टि होती है कि हमने किसानों को कितनी दीन दशा में पहुँचा दिया है। एनएसएसओ के आंकड़ों के आधार पर अनेक विश्लेषक यह दावा करते हैं कि 6000 रुपए की मदद किसानों की वार्षिक आय के 5 प्रतिशत से भी कम है।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी ने अपने भाषण में पुनः यह दावा किया कि उन्होंने स्वामीनाथन आयोग की उन सिफारिशों को लागू किया जिन्हें पूर्ववर्ती सरकारों ने फ़ाइलों के ढेर में दबा दिया था। किंतु न सरकारी आंकड़े और न जमीनी हकीकत इस दावे की पुष्टि करते हैं। 4 अक्टूबर 2006 को स्वामीनाथन आयोग की पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट आने के बाद 201 एक्शन पाइंट्स तय किए गए थे जिनके क्रियान्वयन के लिए एक अंतर मंत्रालयी समिति का गठन किया गया जिसकी अब तक आठ बैठकें हुई हैं जिनमें से केवल तीन मोदी सरकार के कार्यकाल में हुई हैं। भारत सरकार का यह दावा है कि इन 201 में से 200 सिफारिशें लागू हो चुकी हैं। सरकारी आंकड़े यह बताते हैं कि इनमें से 175 सिफारिशें यूपीए सरकार के कार्यकाल में लागू हुईं और केवल 25 सिफारिशें मोदी सरकार द्वारा लागू की गई हैं। यूपीए और एनडीए सरकारों के स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के इन दावों के विपरीत विगत 15 वर्षों में किसानों की हालत बिगड़ी है और आज वे अपने अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं।
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट की मूल भावना यह थी कि किसानों को सी2 लागत पर डेढ़ गुना मूल्य प्राप्त होना चाहिए; जिसमें कृषि के सभी आयामों यथा उर्वरक, जल एवं बीज के मूल्य के अतिरिक्त परिवार के श्रम, स्वामित्व वाली जमीन का किराया मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज मूल्य को भी सम्मिलित किया जाए।
मोदी सरकार ने जो डेढ़ गुना एमएसपी घोषित की है वह ए2 एफएल लागत के आधार पर परिगणित है, जिसमें पट्टे पर ली गई भूमि का किराया मूल्य, सभी नकद लेन-देन और किसान द्वारा किए गए भुगतान समेत परिवार का श्रम मूल्य तो सम्मिलित किया जाता है, किंतु इसमें स्वामित्व वाली भूमि का किराया मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज मूल्य शामिल नहीं होता है।
स्वाभाविक है कि इस प्रकार एमएसपी की गणना करने से जो मूल्य प्राप्त होता है वह बहुत कम होता है और अनेक बार यह किसानों की उत्पादन लागत से भी कम अथवा जरा सा ही अधिक होता है। यदि हम केवल गेहूँ का उदाहरण लें तो सरकार के दावों की हकीकत सामने आ जाती है। सरकार ने वर्ष 2020 के लिए गेहूँ की एमएसपी पिछले वर्ष के न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपए में मात्र 2.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करते हुए 1975 रुपए निर्धारित की। यह वृद्धि विगत दस वर्षों में की गई न्यूनतम वृद्धि थी। उत्तरप्रदेश द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को प्रेषित गेहूँ की उत्पादन लागत 1559 रुपए प्रति क्विंटल, जबकि पंजाब और हरियाणा द्वारा परिगणित उत्पादन लागत क्रमशः 1864 रुपए और 1705 रुपए है। इस प्रकार केंद्र द्वारा घोषित 1975 रुपए का समर्थन मूल्य उत्तरप्रदेश, पंजाब और हरियाणा द्वारा प्रेषित उत्पादन लागत से क्रमशः 27, 6 एवं 16 प्रतिशत ही ज्यादा है। यही स्थिति चना, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का,धान तथा तुअर, मूँग और उड़द की फसलों की है। इनमें से किसी भी फसल के लिए केंद्र सरकार द्वारा घोषित एमएसपी राज्य द्वारा गणना की गई उत्पादन लागत का डेढ़ गुना नहीं है। अनेक उदाहरण ऐसे भी हैं जब केंद्र द्वारा घोषित एमएसपी राज्य सरकार द्वारा बताई गई उत्पादन लागत से कम है। सच्चाई यह है कि केंद्र द्वारा सभी राज्यों का औसत निकालकर एक समर्थन मूल्य घोषित करना किसानों के लिए नुकसानदेह है और विभिन्न प्रदेश राज्य आधारित एमएसपी की मांग करते रहे हैं। आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक अध्ययन के अनुसार 2000 से 2017 के मध्य कृषकों को अपने उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण उन्हें 45 लाख करोड़ रुपए की क्षति हुई। वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन हेतु परामर्श देने के लिए गठित शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही प्राप्त हो पाता है।
प्रधानमंत्रीजी ने वाम दलों पर किसान विरोधी होने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में ममता सरकार किसानों को पीएम किसान सम्मान निधि का लाभ नहीं लेने दे रही है किंतु वहाँ वाम दल इस संबंध में कोई आंदोलन नहीं करते। पुनः यहाँ आदरणीय प्रधानमंत्री जी विमर्श को बुनियादी मुद्दों से भटकाने की कोशिश करते नजर आते हैं। अपने भाषण में बार बार राजनीतिक दलों का जिक्र कर प्रधानमंत्री इस किसान आंदोलन की सच्चाई और पवित्रता पर अपने अविश्वास की अभिव्यक्ति करते हैं। वे बार बार राजनीतिक दलों पर किसानों को भ्रमित करने का आरोप लगाते हैं। अनेक बार ऐसा संदेह होता है कि वे आंदोलनरत किसानों को किसान मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी दृष्टि में ये राजनीतिक पार्टियों और विशेषकर वाम दलों के एजेंट हैं जो दिल्ली वासियों को परेशानी में डालने और देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी पीएम किसान सम्मान निधि की तुच्छ और नाम मात्र की राशि को बार बार बहस और चर्चा का केंद्र बिंदु बनाना चाहते हैं। जबकि देश का किसान बार बार यह कह रहा है कि सरकार अपने कृषि कानून और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि जैसी बिन मांगी सौगातें बेशक वापस ले ले किंतु वह एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दे।
आदरणीय प्रधानमंत्री जी पश्चिम बंगाल में वाम दलों के अभ्युदय के मूल कारण- स्वर्गीय ज्योति बसु द्वारा किए गए भूमि सुधारों- को अनदेखा करते नजर आते हैं। यह ज्योति बसु ही थे जिन्होंने जमींदारों के अधिकार की और सरकारी कब्ज़े वाली भूमि का मालिक़ाना हक़ लगभग 10 लाख भूमिहीन किसानों प्रदान किया और अपनी इस क्रांतिकारी पहल से ग्रामीण इलाकों में निर्धनता उन्मूलन में सफलता हासिल की। जमीन के जो पट्टे दिए गए वह महिलाओं और पुरुषों के संयुक्त नाम से दिए गए और अकेली महिलाओं के नाम पर भी पट्टे जारी किए गए। इन भूमि सुधारों से सर्वाधिक लाभ दलितों, आदिवासियों और किसानों को मिला। यह ज्योति बाबू ही थे जिन्होंने कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित की और त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था को रूपाकार दिया।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी ने यह भी कहा कि केरल में एपीएमसी और मंडियां नहीं हैं वहाँ वामदल इनके लिए आंदोलन क्यों नहीं करते। पुनः वे यहाँ भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक सत्यों की अनदेखी करते नजर आए। केरल अपने मसालों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। केरल नेचुरल रबर के उत्पादन हेतु भी जाना जाता है। केरल की फसलों की प्रकृति देश के अन्य प्रांतों से एकदम अलग है। यही कारण है कि यहाँ अलग अलग कृषि उत्पादों हेतु अलग अलग बोर्ड बनाए गए जिनमें नीलामी की प्रक्रिया अपनाकर किसानों की फसलें बेची जाती हैं। केंद्र सरकार लगातार इन बोर्ड्स को कमजोर करने में लगी है। इन्हें पर्याप्त फण्ड नहीं दिया जाता, इनमें ढेर सारे पद रिक्त हैं जिनमें से कुछ तो शीर्ष अधिकारियों के हैं। केरल की 82 फीसदी फसलें स्पाइस और प्लांटेशन क्रॉप्स हैं। इनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार के उतार चढ़ाव पर निर्भर करती हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार के परिवर्तन किसानों के लिए फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के कारण और घातक रूप ले लेते हैं। ऐसी दशा में यह एलडीएफ की सरकार ही है जिसने किसानों को संरक्षण दिया। प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा दिया गया, यथा परिस्थिति सहकारी समितियों के माध्यम से खरीद भी की गई। एलडीएफ सरकार ने केरल में सब्जियों हेतु भी बेस प्राइस तय की है। केरल की वाम सरकार किसानों को भारी सब्सिडी भी देती है और आसान शर्तों पर ऋण की सुविधा भी।
यदि आदरणीय प्रधानमंत्री जी तथ्यों, तर्कों और मुद्दों पर आधारित विमर्श करना चाहते हैं तो उन्हें यह बताना चाहिए था कि 28 फरवरी 2016 को वर्ष 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने के उनके वादे का क्या हुआ? देवेंद्र शर्मा जैसे जाने माने कृषि विशेषज्ञ यह मानते हैं कि किसानों की आय इतनी कम है कि इसे दुगना करने पर भी किसानों के जीवन स्तर में बहुत सुधार नहीं होने वाला। 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 17 राज्यों में किसानों की औसत वार्षिक आय 20000 रुपए है। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मात्र 1700-1800 रुपए मासिक आय में किसान अपना घर किस तरह चलाता होगा।
देवेंद्र शर्मा ने एक अध्ययन द्वारा यह बताया था कि 1970-2015 की अवधि में गेहूं के समर्थन मूल्य में 20 गुना वृद्धि हुई। इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों की आय 120-150 गुना बढ़ गई जबकि कंपनियों में कार्यरत सामान्य स्तर के कर्मचारियों की आय 3000 गुना तक बढ़ती देखी गई। बहरहाल किसानों की आय वर्ष 2022 तक दुगुनी करने हेतु 10 प्रतिशत सालाना की कृषि विकास दर चाहिए थी किंतु कृषि विकास दर 2016-17, 2017-18 और 2018-19 में 6.3%, 5.0% और 2.9% रही है जबकि 2019-20 के लिए यह 2.8 प्रतिशत है। ऐसी दशा में किसानों की आय दुगुनी करने का वादा भी एक जुमला सिद्ध होने वाला है।
आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने संबोधन में इस ऐतिहासिक अराजनीतिक अहिंसक किसान आंदोलन को विरोधी दलों का षड्यंत्र सिद्ध करने की पुरजोर कोशिश की। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि किसान विरोधी कृषि कानूनों को वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। सोशल मीडिया में मोदी जी के अंध समर्थक पहले ही आंदोलनरत किसानों को किसान मानने से इनकार करते रहे हैं और इनके लिए देशविरोधी, आतंकी एवं विभाजनकारी जैसे अनुचित संबोधनों का उपयोग भी करते रहे हैं। यह आशा थी कि प्रधानमंत्री जी अपने बेलगाम समर्थकों पर नकेल कसेंगे। इनकी निंदा करेंगे और किसानों से क्षमा याचना भी करेंगे। किंतु उन्होंने अपने भाषण में इस जहरीले दुष्प्रचार का प्रच्छन्न समर्थन ही किया। उनके भाषण के बाद सोशल मीडिया में उनके अंध समर्थकों के यह मैसेज तैरने लगे हैं कि मोदी सरकार में रिवर्स गियर के लिए कोई स्थान नहीं है, आंदोलनकारियों को भले ही अपने प्राण गंवाने पड़ें सरकार पीछे हटने वाली नहीं है। कुछ पोस्टों में यह भी लिखा गया है कि अब समान नागरिक संहिता तथा काशी-मथुरा का नंबर है। लोकतांत्रिक सरकार की गाड़ी रिवर्स गियर के बिना नहीं चल सकती और अगर कोई ऐसी कोशिश होती है तो यह देश के लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
Ishan Kukreti-
25 दिसंबर को किसानों के साथ अपनी बातचीत और संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि खेतों को नुकसान पहुंचाने वाले जानवर हमारे लिए एक बड़ी चिंता है। लेकिन, पर्यावरणविद या पर्यावरण की वकालत करने वाले लोग ऐसे जानवरों की हत्या का विरोध करते हैं।
इस बातचीत के दौरान मध्य प्रदेश के एक किसान ने प्रधानमंत्री के समक्ष यह चिंता जताई कि ये जानवर फसलों को भारी मात्रा में नुकसान पहुंचा रहे हैं। वह चाहते थे कि मोदी इस समस्या का समाधान निकालें।
अपने जवाब में, मोदी ने कहा कि वह इस समस्या से तब से अवगत है, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
प्रधानमंत्री ने कहा,“लेकिन जो लोग आज किसानों के विरोध-प्रदर्शन का समर्थन कर रहे हैं, उन्होंने खेत को नुकसान पहुंचाने वाले जानवरों को मारने वाले किसानों का विरोध किया और उन किसानों को जेल भिजवाया।“
जंगली जानवरों से होने वाली फसल क्षति का आकलन राज्य स्तरों पर किया जाता है। कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग इस नुकसान का आकलन नहीं करता है।
इस वजह से फसल नुकसान का सटीक आकलन मुश्किल है और इसे ले कर आने वाले आंकड़े सन्दिग्ध हैं। हालांकि, 15 सितंबर, 2020 को लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 10 राज्यों में इस कारण से हुई फसल हानि के मामलों और नुकसान के आंकड़े साझा किए थे।
आंध्र प्रदेश ने सबसे अधिक ऐसे मामलों की संख्या और फसल नुकसान दर्ज किया था। यहां 2017-18 में ऐसे मामलों की संख्या 1,051 थी, जो 2019-20 में बढ़कर 3,744 हो गए। इसी अवधि में फसल का नुकसान 582 एकड़ से बढ़कर 3,106 एकड़ हो गया। 2017-18 में मुआवजा 34,96,000 रुपये से बढ़ कर 2019-20 में 1,17,20,000 हो गया।
इसी साल 6 मार्च को राज्यसभा में उठाए गए एक अन्य सवाल के जवाब में, तोमर ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के तहत, जंगली जानवरों द्वारा किसानों को फसल नुकसान के लिए राज्यों द्वारा दिए गए मुआवजे के आंकड़ों को सामने रखा था। 2018-19 में, यह मुआवजा 3490 लाख रुपये था। महाराष्ट्र और कर्नाटक ने सबसे अधिक राशि, क्रमश: 1410 लाख और 1028 लाख रुपये जारी किए थे।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के अलावा, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भी देश में वन्यजीवों और उनके निवास स्थल के प्रबन्धन के लिए केंद्र प्रायोजित योजनाओं, जैसे "इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ वाइल्ड लाइफ हैबिटाट, “प्रोजेक्ट टाइगर” और “प्रोजेक्ट एलीफैंट” के तहत राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
राज्य सरकारें समय-समय पर केंद्र से वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कुछ जंगली प्रजाति को “वर्मिन” (पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले छोटे जंगली जीव) घोषित करने का भी अनुरोध करते हैं। अधिनियम की धारा 62 केंद्र सरकार को अधिनियम की अनुसूची I और II में उल्लिखित प्रजातियों के अलावा भी अन्य किसी प्रजाति को जंगली जानवर घोषित करने की शक्ति प्रदान करता है। जिस प्रजाति को “वर्मिन” घोषित कर दिया जाता है, उन्हें वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची V में डाल दिया जाता है।
किसी प्रजाति को वर्मिन घोषित करने का मतलब है कि इन्हें सामूहिक रूप से मारा जा सकता है और इसके लिए कानून के दंडात्मक प्रावधान भी लागू नहीं होंगे। अनुसूची V में स्थायी रूप से कुछ प्रजातियां शामिल हैं। ये प्रजातियां हैं, कौवा, फ्रूट बैट (चमगादड़) और चूहे।
इन प्रजातियों के अलावा, राज्यों ने केंद्र से कहा है कि जंगली सूअरों, नीलगाय और बंदरों को भी वर्मिन घोषित किया जाए।
4 फरवरी, 2019 को राज्यसभा में दिए जवाब में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के राज्य मंत्री, महेश शर्मा ने संसद को बताया कि बिहार में नीलगाय और जंगली सुअर को 2015 में एक वर्ष की अवधि के लिए, राज्य के दस जिलों में वर्मिन घोषित किया गया था। जंगली सुअर को पूरे उत्तराखंड में 2016 में पहली बार एक वर्ष के लिए और फिर 2018 में एक और वर्ष के लिए “वर्मिन” घोषित किया गया था। 2016 में हिमाचल के एक जिले में छह महीने के लिए बंदरों को वर्मिन घोषित किया गया था। इस घोषणा के बाद, राज्य के 12 जिलों में से 10 में एक साल के लिए बंदरों को “वर्मिन” घोषित किया गया था।
क्रम संख्या राज्य वर्ष 2017-18 2018-19 (नुकसान लाख रुपए में)
1 आन्ध्र प्रदेश 34.96 111.34
2 अरूणाचल प्रदेश 10.17 10.14
3 असम 87.49 0.00
4 बिहार 4.07 2.37
5 झारखंड 412.01 470.77
6 केरल 29.01 69.95
7 कर्नाटक 1369.16 1028.13
8 महाराष्ट्र 1306.74 1410.17
9 मेघालय 51.85 79.95
10 मिजोरम 2.33 11
11 तमिलनाडु 186.41 215.51
12 उत्तराखंड 78.75 94.34
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब मध्यप्रदेश ने भी उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की तरह ‘लव जिहाद’ के खिलाफ जिहाद बोल दिया है। मप्र सरकार का यह कानून पिछले कानूनों के मुकाबले अधिक कठोर जरुर है लेकिन यह कानून उनसे बेहतर है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान का यह कथन भी गौर करने लायक है कि यदि कोई स्वेच्छा से अपना धर्म-परिवर्तन करना चाहे तो करे लेकिन वह लालच, डर और धोखेबाजी के कारण वैसा करता है तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। उस पर 10 साल की सजा और एक लाख रु. तक जुर्माना ठोका जा सकता है। यह तो ठीक है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि लोग किसी धर्म को क्यों मानने लगते हैं या वे एक धर्म को छोडक़र दूसरे धर्म में क्यों चले जाते हैं ? मुझे पिछले 70-75 साल में सारी दुनिया में ऐसे लोग शायद दर्जन भर भी नहीं मिले, जो वेद-उपनिषद् पढक़र हिंदू बने हों, बाइबिल पढक़र यहूदी और ईसाई बने हों या कुरान-शरीफ़ पढक़र मुसलमान बने हों।
लगभग हर मनुष्य इसीलिए किसी धर्म (याने संस्कृत का ‘धर्म’ नहीं) बल्कि रिलीजन या मजहब या पंथ या संप्रदाय का अनुयायी होता है कि उसके माँ-बाप उसे मानते रहे हैं। लेकिन जो लोग अपना ‘धर्म-परिवर्तन’ करते हैं, वे क्यों करते हैं ? वे क्या उस ‘धर्म’ की सभी बारीकियों को समझकर वैसा करते हैं ? हाँ, करते हैं लेकिन उनकी संख्या लाखों में एक-दो होती है। ज्यादातर ‘धर्म-परिवर्तन’ थोक में होते हैं, जैसे कि ईसाइयत और इस्लाम में हुए हैं। ये काम तलवार, पैसे, ओहदे, वासना और डर के कारण होते हैं। यूरोप और एशिया का इतिहास आप ध्यान से पढ़ें तो आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी। जब ये मजहब शुरु हुए तो इनकी भूमिका क्रांतिकारी रही और हजारों-लाखों लोगों ने स्वेच्छा से इन्हें स्वीकार किया। लेकिन बाद में ये सत्ता और वासना की सीढिय़ां बन गए। मजहब तो राजनीति से भी ज्यादा खतरनाक और खूनी बन गया। मजहब के नाम पर एक मुल्क ही खड़ा कर दिया गया।
मजहब ने राजनीति को अपना हथियार बना लिया और राजनीति ने मजहब को! अब हमारे देश में ‘लव जिहाद’ की राजनीति चल पड़ी है। असली प्रश्न यह है कि आप लव के लिए जिहाद कर रहे हैं या जिहाद के लिए लव कर रहे हैं ? यदि किन्हीं दो विधर्मी औरत-मर्द में ‘लव’ हो जाता है और वे अपने मजहब को नीचे और प्यार को ऊपर करके शादी कर लेते हैं तो उसका तो स्वागत होना चाहिए। उनसे बड़ा मानव-धर्म को मानने वाला कौन होगा ? लेकिन जो लोग जिहाद के खातिर लव करते हैं याने किसी लडक़े या लडक़ी को प्यार का झांसा देकर मुसलमान, ईसाई या हिंदू बनने के लिए मजबूर करते हैं, उनको जितनी भी सजा दी जाए, कम है। हालांकि इस मजबूरी को अदालत में सिद्ध करना बड़ा मुश्किल है। (नया इंडिया की अनुमति से)
किसानों की ऐतिहासिक लड़ाई अब जमीन से उड़कर अक्कास यानी साइबर स्पेस में जा पहुंची है। फौरी वजह यह कि किसान संगठनों ने ‘किसान एकता मोर्चा’ नामक अपना एक नया पन्ना फेसबुक पर खोल कर गोदी मीडिया के निरंतर दुष्प्रचार की काट करना चालू कर दिया है।
साल 2020 अपनी स्याह परछाइयां लिए-दिए हमसे विदा हो रहा है। इस साल जितना कुछ, जिस तरह घटा, वह हमारे जीवन में कई युगांतरकारी बदलावों का आगाज कर रहा है। पर ऐसी घटनाएं शून्य से नहीं प्रकटतीं। उनके बीज काफी पहले ही बोये जा चुके होते हैं। युगों पहले महिषासुर नाम का एक किरदार प्रकटा था। उसके सामने कहते हैं बड़े-बड़े देवताओं ने अपने हथियार डाल दिए। फिर हारे-थके देवता एकजुट हुए। अपनी संगठित ताकतों से दुर्गा को गढ़ कर उन्होंने उनसे विनती की, मां अब तुम ही रक्षा करो। अजेय होने के घमंड में चूर महिषासुर ने देवी को अपमानजनक तरीके से चुनौती दी- चल सुंदरी, मुझसे जल, थल और आकाश में युद्ध कर दिखा, कौन कितने पानी में है। युद्ध लड़ा गया साहब और उसका खूनी अंत हम सब जानते हैं।
आज वही युगों पुरानी कथा, बाहरी मेगा कंपनियों की हमारे देश की किसानी में घुसपैठ के खिलाफ लामबंद किसानों की लड़ाई देखकर फिर याद आ गई। लड़ाई जो अब तक लोकतंत्र के तीन अखाड़ों- संसद, सड़क और साइबर स्पेस में एक साथ चुनौती दे रहे तत्वों से एक साथ लड़ी जा रही है।
एक महीने से लाखों किसान भारत सरकार के मुखर मुखिया और महामहिम भाग्य विधाता से इन कॉरपोरेट ताकतों की घुसपैठ की राह प्रशस्त कर रहे तीन नए किसानी कानूनों की बाबत उनसे सीधे बात करने और जनहित में उनको वापिस लेकर संसद से संशोधित कराने को आतुर सड़कों पर हैं। लेकिन आकाशवाणी पर हर सप्ताह मन की बात प्रसारित करने वाले, देश के तमाम मठों, मंदिरों, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय समारोहों, गुरुद्वारों और विश्वविद्यालयीन गोष्ठियों में अपनी मुखर उपस्थिति दर्ज कराते रहे माननीय प्रधानमंत्री ने जनता के 60 प्रतिशत भाग- इन किसानों से एक बार भी आमने-सामने बैठकर दुतरफा बातचीत नहीं की है।
यह ऐतिहासिक लड़ाई अब जमीन से उड़कर अक्कास यानी साइबर स्पेस में जा पहुंची है। फौरी वजह यह कि किसान संगठनों ने ‘किसान एकता मोर्चा’ नामक अपना एक नया पन्ना फेसबुक पर खोल कर गोदी मीडिया के निरंतर दुष्प्रचार की काट करना चालू किया। साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की कि उनकी राय में रिलायंस की ‘जियो’ कंपनी चूंकि छोटे-मंझोले किसानों और मंडियों को घातक धक्का देने वाली परदेसी मेगा कंपनियों को नई खरीद- फरोख्त और कॉरपोरेट खेती को जमवाने के लिए साइबर दुनिया में एक ठोस मंच प्रदान कर रही है, किसान उसका भी हुक्का- पानी बंद करें। इसी के साथ फेसबुक पर अचानक नए दांव-पेच दिखे। किसानी पन्ना बंद कर दिया गया। किसानों ने उस पन्ने को ‘यू ट्यूब’ चैनल पर खोल लिया, पर फेसबुक की काफी आलोचना हुई। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक फेसबुक ने बंद किसानी पन्ने को बहाल तो कर दिया है लेकिन नए मीडिया और नए बाजार की ताकतों के गठजोड़ पर बात निकली है तो दूर यानी जल, थल और नभ तलक जाएगी।
हिंदी के नामचीन समालोचक नामवर सिंह ने अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले हमको इस चरण के प्रति आगाह किया था जो सांस्कृतिक मुहावरों की ओट लेकर छल से बाजारू कॉरपोरेट हितों को बढ़ाता है: “आज का हिंदू फासीवाद एक प्रकार का सांस्कृतिक छल है। बाजार के कारोबार में भूमंडलीकरण, लेकिन संस्कृति के मामले में स्वदेशी... आज विश्व बाजार का है, हिंदू संस्कृति सिर्फ वाणी का विलास है... अगर इंटरनेट वेबसाइट अपनी तिजोरी भरती जाती है तो हिंदू संस्कृति का गुन गाते रहने में उसकी अपनी गांठ का क्या जाता है?... निराला ने (राम की शक्ति पूजा में) कहा भी है, ‘अन्याय जिधर है, उधर शक्ति,’ यानी न्यायकारी ताकतें बिखरी हुई हैं...।’’ यह बात आज जितनी सच है, पहले नहीं थी।
साल के अंत में इकत्तीस किसान संगठनों के मोर्चे ने दिल्ली की सीमा पर अपना जो दुर्गावतारी (दुर्गेण जायते इतिदुर्गा- जिसे बमुश्किल जीता जा सके) मोर्चा खोल दिया है। मीडिया इसको भरपूर कवर नहीं दे रहा पर फिर भी साफ दिखता है कि विभिन्न मीडिया कंपनियों की समवेत मालिकी पर रोक लगाने का कानून नहीं होने से अधिकतर बड़ी मीडिया कंपनियां अब मेगा औद्योगिक घरानों के पास हैं। और उनके अपने रिटेल हित सीधे ग्लोबल कंपनियों से जुड़ते हैं। लिहाजा किसानों पर कम, कंगना रनौत पर अधिक बात करो! इस बीच मीडिया गली की मार्फत कई बड़े देसी-परदेसी उपक्रमी सीधे हर किसम की जिनिस बेचने वाले विशाल भारतीय बाजार में घुसते जा रहे हैं। मीडिया में उनका भरपूर प्रचार खुदरा व्यापारियों और किसानों के लिए खतरे की घंटी है।
यह कोई संयोग नहीं कि फेसबुक से लेकर ट्विटर तक सबने जियो का मेगा प्लेटफॉर्म शुरू होते ही उसमें भारी निवेश किया। इनमें सबसे पहले निवेशक ट्विटर और फेसबुक थे जिनको एलेक्सा ने अपनी सर्वमान्य रेटिंग की फेहरिस्त में दुनिया की 10 शीर्ष कंपनियों और तीन शीर्ष मीडिया वेबसाइट्स में गिना है। 2020 की शुरुआत में कोविड की आमद ने लोगों को घरों में रोक कर बाजारों, छापाखानों को बंद करवा दिया। अगले दसेक माह आम जनता तथा किसानों का बाजार से सीधा पुराना रिश्ता खत्म होता गया। अखबारों से लेकर किराना या कपड़ों तक की खरीद-बिक्री और वितरण के पुराने तरीके बदले। और मीडिया बड़े रिटेलरों के लिए रचे नए तरीकों से घरेलू बाजार को बहुत तेजी से बड़े डिजिटल माध्यमों की तरफ ले जाने लगा।
प्रमाण यह कि अमेजन-जैसी कंपनियों के रजिस्टर्ड गाहकों की तादाद 60 फीसदी बढ़ी है जबकि पुराने खुदरा बाजार में माल तथा गाहक- दोनों की आवक तेजी से गिरी है। इसी नाजुक समय में संसद के सीमित सत्र में अपने बाहुबल से तीन विवादास्पद कानून बिना किसानों को भरोसे में लिए पारित करवा कर सरकार ने भिड़ का दूसरा छत्ता छेड़ दिया। सरकार की मदद को जतन से पालित गोदी मीडिया सामने आया। उसने सीधे-सीधे धरनाकारियों को आतंकी गुट समर्थित, पाकिस्तान समर्थक और विपक्ष द्वारा बरगलाया गया कहना शुरू कर दिया। धरने पर बैठे किसानों ने अब हुड़क कर मीडिया के प्रतिनिधियों को गोदी मीडिया और सरकारी भौंपू कहते हुए दूर भगाकर खुद अपनी उपस्थिति बरास्ते फेसबुक दर्ज कराई और देखते-देखते सात लाख फॉलोअर्स जुटा लिए।
अब बाजार की ताकतों का सकपकाना सहज बनता था। नामचीन अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ से कांग्रेस के सांसद ने कहा कि उनकी राय में फेसबुक की बहुप्रचारित नैतिकता की पॉलिसियों की तहत फेसबुक द्वारा बजरंग दल जैसी संस्था से जुड़े फेसबुक पन्नों पर किसी तरह का प्रहार न करना कतई गलत था। इस पर भारतीय चीफ साहिब का संसदीय समिति को भेजा बयान आया कि कंपनी बजरंग दल समर्थक पन्नों को देश की सुरक्षा या अपने नैतिक मानदंडों की तहत आपत्तिजनक नहीं मानती। लिहाजा उनकी निरंतर उपस्थिति फेसबुक पर बनी रहेगी। जबकि कुछ ही समय पहले फेसबुक की एक और भारतीय शीर्ष अधिकारी ने खुद को भाजपा समर्थक स्वीकार करते हुए कुछ कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने के आरोपों के मद्देनजर पद से इस्तीफा दिया था।
यह ठीक है कि दुनिया के कई और विकासशील देशों की तरह भारत भी अपना पिछड़ापन दूर करने को विदेशी पूंजी निवेश को न्योते और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारतीय सरजमीं पर उत्पाद बनाने के लिए तवज्जो देते हुए नए रोजगार पैदा करे। फिर भी हमसे लगातार लोकल पर वोकल होने को कहने वाले प्रधानमंत्री भी इतना तो मानेंगे ही कि उनके अबाध प्रवेश पर अंकुश लगाकर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि हमारे घरेलू हित महफूज रहें।
सोशल मीडिया पर नए सरकारी कानून लागू कराके उसकी मुश्कें कसने की खबरों के बीच किसानों के सोशल मीडिया प्रयासों की रोकथामक से एक धारणा सही हो कि गलत, बलवती ही होती रहेगी कि सोशल मीडिया पर जनसाधारण को सरकार समर्थक मीडिया की तुलना में हासिल अभिव्यक्ति की लोकतांत्रिक आजादी सीमित है। और जो है, वह भी जल्द ही सरकार की कॉरपोरेट तबके के प्रति सदयता और तमाम तरह की छूटों से लाभान्वित न्यस्त स्वार्थी ग्लोबल कंपनियों की चली तो वह और भी सिमटती चली जाएगी।
अगर पांच लाख गांवों के इस देश में लोकतंत्र रखना है तो सरकार को इकतरफा बातचीत और प्रश्नाकुल जनता का दमन नहीं, प्यार से समय रहते उसकी भी सुनना उससे सीखना होगा। हमारा समाज संस्कृति, पर्यावरण, विकास, शिक्षा इन पर टुकड़ा-टुकड़ा सोचने या उबाऊ लेक्चरों का आदी नहीं है। किसानी मुहावरे में सोचें तो दिसंबर, 2020 तक पुरानी फसल कट चुकी है। अब नई खेती का समय आ रहा है जिसका अपना अलिखित और कालातीत कुदरती संविधान है। नई प्रौद्योगिकी, नए ऑनलाइन विपणन के तरीके जरूर अपनाओ, लेकिन धरती के सनातन नियमों- कायदों और किसानी की चुनाव क्षमता को भी निरंतर बनाए रखो। वरना जैसे नलकूपों ने भूजल को खत्म कर दिया, और रासायनिक उर्वरकों ने नदियों को मार डाला, यह नया साइबर बाजार भी पुराने को मटियामेट करने के बाद हाथ झाड़ कहीं और चल देगा। (navjivanindia.com)
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लाल राम कुमार सिंह जी चले गए! आकाशवाणी के लोकप्रिय उद्घोषक लाल राम कुमार सिंह जी 84 वर्ष के थे, अस्वस्थ भी थे। वे खैरागढ़ राजपरिवार से ताल्लुक रखते थे।
उनके निधन की खबर से मन विचलित है।
आकाशवाणी रायपुर में वो उस दौर में थे जब उद्घोषकों की आवाज़,अंदाज़ उन्हें लोकप्रिय बनाती थी। मिर्ज़ा मसूद साहब उस खनक के साथ आज भी हम सब के बीच हैं। हसन खान सर उस आकाशवाणी के प्रतिनिधि के तौर पर हैं ।
लाल राम कुमार सिंह जी अनाऊंसर्स की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे जो अपने अपने इलाकों में या यूं कहें कि अपने रेडियो स्टेशन की पहुंच के दायरे में हीरो की तरह होते थे। छत्तीसगढ़ में उस ज़माने के लोग बरसाती भईया को कैसे भूल सकते हैं !
आकाशवाणी पर लिखना या उस आकाशवाणी की बात करना बेशकीमती यादों के पिटारे को खोलने जैसा है। तब का कोई पत्रकार, कोई लेखक, कोई कवि, कोई भी संस्कृति कर्मी शायद ही ऐसा होगा जिसका आकाशवाणी से रिश्ता ना हो, यादें ना जुड़ी हों।
यह फिर कभी...।
लालराम कुमार सिंहजी का जाना व्यक्तिगत क्षति है और यह क्षति ना जाने कितने लोगों के लिए इतनी ही व्यक्तिगत होगी!
इसकी वजह है कि लालराम कुमार सिंह जी जैसे उद्घोषकों की तब आकाशवाणी को लोक से जोड़े रखने में बड़ी भूमिका होती थी। माइक पर भी और माइक के बाहर भी ।
लाल राम कुमार सिंह जी अंतिम दिनों में भी उसी शहर से उसी पुराने रिश्ते को जीते रहे।
वो पीढ़ियों के बीच मौजूद अंतर को जोड़ने वाली कड़ी थे।
सार्वजनिक कार्यक्रमों से ले कर आइसक्रीम की दुकान तक एक चिरपरिचित मुस्कुराता चेहरा ऐसा था कि लगता था समाज ऐसा ही क्यों नहीं होता - लाल राम कुमार सिंहजी जैसा दोस्त, सड़क पर मिलें तो उन सा अभिभावक, मिल जाएं तो तनाव मुक्त और बहुत स्नेह से भरे थोड़े से पल भी हमेशा याद रहें - तेजिंदर गगनजी जैसे !
मुझे अपने समय के, अपने आसपास के जो नायक हमेशा याद रहेंगे उनमें लाल राम कुमार सिंह जी भी होंगे - सबको याद रखने वाले,मित्रता पसंद, एक बेहतरीन इंसान की तरह ।
वो किसी सड़क पर, किसी समारोह में, कभी कॉफी हाउस या किसी ऐसी जगह पर मिल जाएं तो डर लगता था। डर इस बात का कि जितना स्नेह वो देंगे उतना सम्मान मैं उन्हें लौटा पाऊंगा कि नहीं !
सादर श्रद्धांजलि !
चार्ली ने अपनी नृत्यांगना बेटी को एक मशहूर खत लिखा। कहा- मैं सत्ता के खिलाफ विदूषक रहा, तुम भी गरीबी जानो, मुफलिसी का कारण ढूंढो, इंसान बनो, इंसानों को समझो, जीवन में इंसानियत के लिए कुछ कर जाओ, खिलौने बनना मुझे पसंद नहीं बेटी। मैं सबको हंसा कर रोया हूं, तुम बस हंसते रहना। बूढ़े पिता ने प्रिय बेटी को और भी बहुत कुछ ऐसा लिखा। (फेसबुक से)
मेरी प्यारी बेटी,
रात का समय है। क्रिसमस की रात। मेरे इस छोटे से घर की सभी निहत्थी लड़ाईयां सो चुकी हैं। तुम्हारे भाई-बहन भी नींद की गोद में हैं। तुम्हारी मां भी सो चुकी है। मैं अधजगा हूं, कमरे में धीमी सी रौशनी है। तुम मुझसे कितनी दूर हो पर यकीन मानो तुम्हारा चेहरा यदि किसी दिन मेरी आंखों के सामने न रहे, उस दिन मैं चाहूंगा कि मैं अंधा हो जाऊं। तुम्हारी फोटो वहां उस मेज पर है और यहां मेरे दिल में भी, पर तुम कहां हो? वहां सपने जैसे भव्य शहर पेरिस में! चैम्प्स एलिसस के शानदार मंच पर नृत्य कर रही हो। इस रात के सन्नाटे में मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुन सकता हूं। शरद ऋतु के आकाश में टिमटिमाते तारों की चमक मैं तुम्हारी आंखों में देख सकता हूं। ऐसा लावण्य और इतना सुन्दर नृत्य। सितारा बनो और चमकती रहो। परन्तु यदि दर्शकों का उत्साह और उनकी प्रशंसा तुम्हें मदहोश करती है या उनसे उपहार में मिले फूलों की सुगंध तुम्हारे सिर चढ़ती है तो चुपके से एक कोने में बैठकर मेरा खत पढ़ते हुए अपने दिल की आवाज सुनना।
...मैं तुम्हारा पिता, जिरलडाइन! मैं चार्ली, चार्ली चेपलिन! क्या तुम जानती हो जब तुम नन्हीं बच्ची थी तो रात-रात भर मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हें स्लीपिंग ब्यूटी की कहानी सुनाया करता था। मैं तुम्हारे सपनों का साक्षी हूं। मैंने तुम्हारा भविष्य देखा है, मंच पर नाचती एक लडक़ी मानो आसमान में उड़ती परी। लोगों की करतल ध्वनि के बीच उनकी प्रशंसा के ये शब्द सुने हैं, इस लडक़ी को देखो! वह एक बूढ़े विदूषक की बेटी है, याद है उसका नाम चार्ली था।
...हां! मैं चार्ली हूं! बूढ़ा विदूषक! अब तुम्हारी बारी है! मैं फटी पेंट में नाचा करता था और मेरी राजकुमारी! तुम रेशम की खूबसूरत ड्रेस में नाचती हो। ये नृत्य और ये शाबाशी तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाने के लिए सक्षम है। उड़ो और उड़ो, पर ध्यान रखना कि तुम्हारे पांव सदा धरती पर टिके रहें। तुम्हें लोगों की जिंदगी को करीब से देखना चाहिए। गलियों-बाजारों में नाच दिखाते नर्तकों को देखो जो कडक़ड़ाती सर्दी और भूख से तड़प रहे हैं। मैं भी उन जैसा था, जिरल्डाइन! उन जादुई रातों में जब मैं तुम्हें लोरी गा-गाकर सुलाया करता था और तुम नीद में डूब जाती थी, उस वक्त मैं जागता रहता था। मैं तुम्हारे चेहरे को निहारता, तुम्हारे हृदय की धडक़नों को सुनता और सोचता, चार्ली! क्या यह बच्ची तुम्हें कभी जान सकेगी? तुम मुझे नहीं जानती, जिरल्डाइन! मैंने तुम्हें अनगिनत कहानियां सुनाई हैं पर, उसकी कहानी कभी नहीं सुनाई। वह कहानी भी रोचक है। यह उस भूखे विदूषक की कहानी है, जो लंदन की गंदी बस्तियों में नाच-गाकर अपनी रोजी कमाता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं पेट की भूख किसे कहते हैं! मैं जानता हूं कि सिर पर छत न होने का क्या दंश होता है। मैंने देखा है, मदद के लिए उछाले गये सिक्कों से उसके आत्म सम्मान को छलनी होते हुए पर फिर भी मैं जिंदा हूं, इसीलिए फिलहाल इस बात को यही छोड़ते हैं।
...तुम्हारे बारे में ही बात करना उचित होगा जिरल्डाइन! तुम्हारे नाम के बाद मेरा नाम आता है चेपलिन! इस नाम के साथ मैने 40 वर्षों से भी अधिक समय तक लोगों का मनोरंजन किया पर हंसने से अधिक मैं रोया हूं। जिस दुनिया में तुम रहती हो वहां नाच-गाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधी रात के बाद जब तुम थियेटर से बाहर आओगी तो तुम अपने समृद्ध और सम्पन्न चाहने वालों को तो भूल सकती हो, पर जिस टैक्सी में बैठकर तुम अपने घर तक आओ, उस टैक्सी ड्राइवर से यह पूछना मत भूलना कि उसकी पत्नी कैसी है? यदि वह उम्मीद से है तो क्या अजन्मे बच्चे के नन्हे कपड़ों के लिए उसके पास पैसे हैं? उसकी जेब में कुछ पैसे डालना न भूलना। मैंने तुम्हारे खर्च के लिए पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं, सोच समझकर खर्च करना।
...कभी-कभार बसों में जाना, सब-वे से गुजरना, कभी पैदल चलकर शहर में घूमना। लोगों को ध्यान से देखना, विधवाओं और अनाथों को दया-दृष्टि से देखना। कम से कम दिन में एक बार खुद से यह अवश्य कहना कि, मैं भी उन जैसी हूं। हां! तुम उनमें से ही एक हो बेटी!
...कला किसी कलाकार को पंख देने से पहले उसके पांवों को लहूलुहान जरूर करती है। यदि किसी दिन तुम्हें लगने लगे कि तुम अपने दर्शकों से बड़ी हो तो उसी दिन मंच छोडक़र भाग जाना, टैक्सी पकडऩा और पेरिस के किसी भी कोने में चली जाना। मैं जानता हूं कि वहां तुम्हें अपने जैसी कितनी नृत्यागनाएं मिलेंगी। तुमसे भी अधिक सुन्दर और प्रतिभावान फर्क सिर्फ इतना है कि उनके पास थियेटर की चकाचौंध और चमकीली रोशनी नहीं। उनकी सर्चलाईट चन्द्रमा है! अगर तुम्हें लगे कि इनमें से कोई तुमसे अच्छा नृत्य करती है तो तुम नृत्य छोड़ देना। हमेशा कोई न कोई बेहतर होता है, इसे स्वीकार करना। आगे बढ़ते रहना और निरंतर सीखते रहना ही तो कला है।
...मैं मर जाऊंगा, तुम जीवित रहोगी। मैं चाहता हूं तुम्हें कभी गरीबी का एहसास न हो। इस खत के साथ मैं तुम्हें चेकबुक भी भेज रहा हूं ताकि तुम अपनी मर्जी से खर्च कर सको। पर दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना कि तुम्हारे हाथ में पकड़ा तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है, यह उस अज्ञात व्यक्ति का है जिसे इसकी बेहद जरूरत है। ऐसे इंसान को तुम आसानी से ढूंढ सकती हो, बस पहचानने के लिए एक नजर की जरूरत है। मैं पैसे की इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि मैं इस राक्षस की ताकत को जानता हूं।
...हो सकता है किसी रोज कोई राजकुमार तुम्हारा दीवाना हो जाए। अपने खूबसूरत दिल का सौदा सिर्फ बाहरी चमक-दमक पर न कर बैठना। याद रखना कि सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है जो सबके लिए चमकता है। हां! जब ऐसा समय आये कि तुम किसी से प्यार करने लगो तो उसे अपने पूरे दिल से प्यार करना। मैंने तुम्हारी मां को इस विषय में तुम्हें लिखने को कहा था। वह प्यार के सम्बन्ध में मुझसे अधिक जानती है।
...मैं जानता हूं कि तुम्हारा काम कठिन है। तुम्हारा बदन रेशमी कपड़ों से ढका है पर कला खुलने के बाद ही सामने आती है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। हो सकता है मेरे शब्द तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ें पर मेरे विचार में तुम्हारे अनावृत शरीर का अधिकारी वही हो सकता है जो तुम्हारी अनावृत आत्मा की सच्चाई का सम्मान करने का सामथ्र्य रखता हो।
...मैं ये भी जानता हूं कि एक पिता और उसकी सन्तान के बीच सदैव अंतहीन तनाव बना रहता है पर विश्वास करना मुझे अत्यधिक आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं। मैं सचमुच चाहता हूं कि इस क्रिसमस की रात कोई करिश्मा हो ताकि जो मैं कहना चाहता हूं वह सब तुम अच्छी तरह समझ जाओ।
...चार्ली अब बूढ़ा हो चुका है, जिरल्डाइन! देर सबेर मातम के काले कपड़ों में तुम्हें मेरी कब्र पर आना ही पड़ेगा। मैं तुम्हें विचलित नहीं करना चाहता पर समय-समय पर खुद को आईने में देखना उसमें तुम्हें मेरा ही अक्स नजर आयेगा। तुम्हारी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित है। जब मेरी धमनियों में बहने वाला रक्त जम जाएगा तब तुम्हारी धमनियों में बहने वाला रक्त तुम्हें मेरी याद कराएगा। याद रखना, तुम्हारा पिता कोई फरिश्ता नहीं, कोई जीनियस नहीं, वह तो जिंदगी भर एक इंसान बनने की ही कोशिश करता रहा। तुम भी यही कोशिश करना।
ढेर सारे प्यार के साथ
चार्ली क्रिसमस 1965
आज 27 दिसंबर को मिर्जा गालिब की जयंती पर
-ध्रुव गुप्त
भारतीय साहित्य के हजारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिजऱ्ा ग़ालिब उनमें से एक हैं। मनुष्यता की तलाश, शाश्वत तृष्णा, मासूम गुस्ताखियों और विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के अनुभव और सौंदर्यबोध से गुजरना एक दुर्लभ अनुभव है। लफ्जों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, उनके नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं।
वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का गालिब का अंदाज भी अलग था और तेवर भी जुदा। यहां कोई रूढ़ जीवन-मूल्य अथवा जीवन-दर्शन नहीं है। रूढिय़ों का अतिक्रमण ही यहां जीवन-मूल्य है,आवारगी जीवन-शैली और अंतर्विरोध जीवन-दर्शन। मनुष्य के मन की जटिलताओं, अपने वक्त के साथ अंतर्संघर्ष और स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जैसा विद्रोह गालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं
विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है।
गालिब को महसूस करना हो तो कभी पुरानी दिल्ली के गली कासिम जान में उनकी हवेली हो आईए! यह छोटी सी हवेली भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है जहां उस दौर की तहजीब सांस लेती है। इसकी चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौजूद रहा था जिसने जिंदगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। हवेली के दरोदीवार तो अब खंडहर हो चुके हैं, लेकिन उनमें देखे गए ख्वाबों की सीली-सीली खुशबू यहां महसूस होगी। यहां अकेले बैठिए तो उन हजारों ख्वाहिशों की दबी-दबी चीखें महसूस होती हैं जिनके पीछे गालिब उम्र भर भागते रहे। यहां के किसी कोने में बैठकर ‘दीवान-ए-गालिब’ को पढऩा एक अलग अहसास है। ऐसा लगेगा कि आप ग़ालिब के लफ्जों को नहीं, उनके अंतर्संघर्षों, उनके फक्कड़पन और उनकी पीड़ा को भी शिद्दत से महसूस कर पा रहे हैं।
गालिब को महसूस करने की दूसरी जगह है दिल्ली के निजामुद्दीन में मौजूद उनकी मजार। यह मजार संगमरमर के पत्थरों का बना एक छोटा-सा घेरा नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है। एक ऐसा स्मारक जिसकी चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौजूद है जिसने जिंदगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। गालिब की मज़ार को निजामुद्दीन के बेहद भीड़भाड़ वाले इलाके का एक एकांत कोना कहा जा सकता है। निजामुद्दीन के चौसठ खंभा के उत्तरी हिस्से में लगभग साढ़े तीन हजार वर्गफीट का यह परिसर लाल पत्थरों की दीवारों से घिरा हुआ क्षेत्र है जिसमें सफेद संगमरमर से बनी गालिब की एक छोटी-सी मजार है। पहले यहां सिर्फ उनकी कब्र हुआ करती थी। मजार और उसके आसपास की संरचना बाद में की गई थी। उनकी मजार के पीछे उनकी बेगम उमराव बेगम की कब्र है जिनकी मृत्यु गालिब की मृत्यु के एक साल बाद हुई थी। गालिब की मज़ार में उनका यह शेर दजऱ् है- ‘न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता/डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता!’ मिर्जा गालिब से अकेले में मिलना हो तो दिल्ली में इससे बेहतर जगह और कोई नहीं।
गालिब की मजार दिल्ली में मेरी सबसे पसंदीदा जगह रही है और ‘दीवान-ए-गालिब’ मेरी सबसे पसंदीदा किताब। गालिब की मजार पर, उनकी सोहबत में उनका दीवान पढऩा मेरे लिए एक अतीन्द्रिय अनुभव है। वहां देर तक बैठने के बाद गालिब से जो कुछ भी हासिल होता है उसे एक शब्द में कहा जाय तो वह है एक अजीब तरह की बेचैनी। रवायतों को तोडक़र आगे निकलने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। अपनी तनहाई को लफ्जों से भर देने की बेचैनी। इश्क़ के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे सिरों को फिर से उलझाने की बेचैनी। उन तमाम बेचैनियों को निकट से महसूस करने का ही असर होता है कि सामने बैठे-बैठे कब्र के नीचे उनका कफन भी मुझे कभी-कभी हिलता हुआ महसूस होता है। भ्र्म ही सही, लेकिन बहुत खूबसूरत भ्रम- ‘अल्लाह रे जौक-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग /हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफन के पांव !
गालिब अपने मजार में बिल्कुल अकेले नजऱ आते हैं। अपनी जिंदगी में भी ग़ालिब को अकेलापन ही पसंद रहा था। जीते जी उनकी ख्वाहिश यही तो थी- ‘पडि़ए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार और अगर मर जाईए तो नौहा-खवाँ कोई न हो! उनके इस अकेलेपन में गालिब से मेरा घंटों-घंटों संवाद चलता रहता है। अकेलेपन की अकेलेपन से बातचीत ! उनसे कुछ सवाल करता हूं तो जवाब भी मिल जाता है। शायद वर्षों तक साथ रहते-रहते कोई टेलीपैथी काम करने लगी है हमारे बीच। पिछली सर्दियों में एक दिन देर तक उनके मज़ार पर उन्हें पढऩे-समझने के बाद मैं मजार के सामने की एक बेंच पर लेट गया था। मुझे लगा कि अपनी कब्र से गालिब मुझे एकटक देखे जा रहे हैं। उनसे कुछ कहने की तलब हुई तो बेसाख़्ता मुंह से यह शेर निकल गया- ‘कुछ तो पढि़ए कि लोग कहते हैं/कब से ‘गालिब’ गजल-सरा न हुआ’! पता नहीं क्या था कि हवा के एक तेज झोंके ने मेरे बगल में पड़े दीवान-ए-गालिब के पन्ने पलट दिए। सामने जो गजल थी, उसके जिस शेर पर पहली निगाह पड़ी, वह यह था- ‘क्यूं न फिरदौस में दोजख को मिला लें यारब/सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही।
(साभार ‘सुबह सवेरे’, भोपाल)
-राजीव गुप्ता
बात सन् 1924 की केरल में हुए वैकोम सत्याग्रह की। स्वर्ण हिंदुओं ने वैकोम मंदिर के आसपास की सडक़ दलित हिंदुओं के लिए बंद कर रखी थी (यह सडक़ क्रिश्चियन एवं मुस्लिम लोगों के लिए खुली थी) इसके विरोध में केरल में सत्याग्रह हुआ और सफल हुआ। यह सत्याग्रह वैकोम सत्याग्रह के नाम से जाना गया। यह कई मायनों में इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़े हुए हैं। इस सत्याग्रह पर गांधीजी का बहुत प्रभाव था।
यह सत्याग्रह धार्मिक सौहार्द और स्वर्णो की बदलती मानसिकता के लिए भी जाना जाता है। यह देश का पहला जातिवाद विरोधी सत्याग्रह भी है। इसमें एक खास बात यह भी थी सिखों ने वहाँ भी सत्याग्रहियों के लिए लंगर लगाने की पेशकश की थी जिसे गांधीजी ने इंकार कर दिया था। गांधीजी का मानना था कि जिसकी यह लड़ाई है वह लड़ाई उसे खुद लडऩी होगी। यह बहुत हद तक एक सफल सत्याग्रह था जिसने आगे आने वाली आजादी की लड़ाई और छुआछूत मिटाने को लेकर देश को एक दिशा दी थी।
अब बात दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन की, देश ने इन सौ सालों में कई गांधीवादी आन्दोलन देखे हैं लेकिन ऐसी दृढ़ता और मजबूत इच्छाशक्ति वाला देशव्यापी आन्दोलन जिसमें सामने अपनी ही चुनी हुई सरकार हो ऐसे कम उदाहरण है। इस आंदोलन में जो बहुत कुछ बाहर नहीं आ रहा यह कि पूरे देश का आंदोलन है जिसे दिखाया नहीं जा रहा या हम तक नहीं पहुंच रहा है। पंजाब के किसान इस आंदोलन का चेहरा जरूर है लेकिन बाकी राज्यों के किसान भी बराबर इसमें कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहें है। देश के अलग-अलग हिस्सों से किसानों के आन्दोलन में पहुंचने की खबरें हैं।
सरकार और उसके तमाम प्रचार तंत्र किसान आंदोलन में या उसके तरीके में कोई कमी नहीं निकाल पा रहें है। किसान जिन बिलों को लेकर आंदोलनरत है उस पर बहस हो सकती है लेकिन एक बात तो मानने लायक है कि इस आंदोलन के तरीके ने पुराने हिंदुस्तान को जीवित कर दिया है। महिलाओं की मौजूदगी और इसका अहिंसक होना यह दो मुख्य बातें हैं इस आंदोलन को बाकी आंदोलन से अलग करती है।
धार्मिक सौहार्द्र का ऐसा माहौल आप बताइए इससे पहले आपने कब देखा था ।देश की आत्मा को जिंदा रखने के लिए ऐसे ही आंदोलन की जरूरत है। जरूरत है जो देश को सही और गलत में फर्क करना सिखा सके।
नफरती लोग एक दिन मर खप जाएंगे लेकिन आपको, आपके परिवार को आपके बच्चों को इसी देश में रहना है। आपके पास तो यह विकल्प भी नहीं है कि आप भगोड़े धार्मिक गुरु के समान एक कैलाशा जैसा नया देश बसायें और रहने चले जाएं। हमारा अमन और भाईचारा बहुत जरूरी है देश के लिए, दुनिया के लिए।
वर्तमान किसान आंदोलन आने वाले समय में नजीर की तरह पेश किया जायेगा कि कैसे अहिंसात्मक तरीके से सत्ता द्वारा थोपे गए गलत कानून को बदला जा सकता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के किसानों ने विपक्षी दलों पर जबर्दस्त मेहरबानी कर दी है। छह साल हो गए और वे हवा में मुक्के चलाते रहे। अब किसानों की कृपा से उनके हाथ में एक बोथरा चाकू आ गया है, उसे वे जितना मोदी सरकार के खिलाफ चलाते हैं, वह उतना ही उनके खिलाफ चलता जाता है। अब विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी किसानों की बजाय भारत के राष्ट्रपति के पास पहुंच गए।
कहते हैं कि किसान-आंदोलन के पक्ष में उन्होंने दो करोड़ हस्ताक्षर वाला ज्ञापन राष्ट्रपति को दिया है। दो करोड़ तो बहुत कम हैं। उसे 100 करोड़ भी कहा जा सकता था। यदि दो करोड़ लोगों ने उस पर सचमुच दस्तखत किए हैं तो राहुलजी उनमें से कम से कम दो लाख लोगों को तो दिल्ली ले आते। उनकी बहन प्रियंका को पुलिस ने पकड़ लिया। उस पर उनकी आपत्ति ठीक हो सकती है लेकिन इसीलिए आप यह कह दें कि भारत का लोकतंत्र फर्जी है, बनावटी है, काल्पनिक है, बिल्कुल बेजा बात है।
भारत का लोकतंत्र, अपनी सब कमियों के बावजूद, आज भी दुनिया का सबसे बड़ा और बहुत हद तक अच्छा लोकतंत्र है। राहुल का यह कहना हास्यास्पद है कि मोदी का जो भी विरोध करे, उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है। वैसे सिर्फ कहलवाना ही है तो विदूषक कहलवाने से बेहतर है आतंकवादी कहलवाना लेकिन भारत में आज किसकी आजादी में क्या कमी है? जो भी जो चाहता है, वह बोलता और लिखता है। उसे रोकने वाला कौन है ?
जो अखबार, पत्रकार और टीवी चैनल खुशामदी हैं, डरपोक हैं, कायर हैं, लालची हैं— वे अपना ईमान बेच रहे हैं। वे खुद दब रहे हैं। उन्हें दबाए जाने की जरुरत नहीं है। उन्हें दबाया गया था, आपातकाल में, राहुल की दादी के द्वारा। पांच-सात साल के राहुल को क्या पता चला होगा कि काल्पनिक लोकतंत्र कैसा होता है ? जहां तक पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का सवाल है, युवराज की हिम्मत नहीं कि इस सवाल को वह कभी छू भी ले।
नरसिंहराव-काल को छोड़ दें तो पिछले 50 साल में कांग्रेस तो एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गई है। उसमें अब भी बड़े योग्य और प्रतिभाशाली नेता हैं लेकिन उनकी हैसियत क्या है ? यही कांग्रेसी-कोरोना देश के सभी दलों में फैल गया है। पार्टियों के आतंरिक लोकतंत्र का खात्मा ही बाह्य लोकतंत्र के खात्मे का कारण बनता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
शेष नारायण सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपराधियों, करीबी लोगों और रिश्तेदारों को माफी देकर व्हाइट हाउस को अलविदा कहने की तैयारी कर रहे हैं। ट्रंप ने अपने समधी चाल्र्स कुशनर को बुधवार को माफ कर दिया है। चाल्र्स कुशनर, ट्रंप के दामाद जेड कुशनर के पिता हैं। इस बार माफी देने की अपनी नई खेप में उन्होंने 26 लोगों को शामिल किया है।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने माफी देने का सिलसिला शुरू कर दिया है। उन्होंने अपने समधी चाल्र्स कुशनर को बुधवार को माफ कर दिया है। इस बार माफी देने की अपनी नई खेप में उन्होंने 26 लोगों को शामिल किया है। चाल्र्स कुशनर, ट्रंप के दामाद जेड कुशनर के पिता हैं। उनपर बहुत ही गंभीर आरोप थे। उन्होंने 2004 के चुनाव में साठ लाख डालर का चुनावी चंदा डेमोक्रेटिक पार्टी को दिया था। यहांं तक तो ठीक था क्योंकि अमरीका में किसी राजनीतिक पार्टी को चंदा देने की रक़म की कोई सीमा नहीं है।
हालांकि किसी व्यक्ति को दो हजार डालर से ज़्यादा चुनावी चंदा नहीं दिया जा सकता। चंदा देने के बाद समधी साहब ने जो आपराधिक कृत्य किया वह यह था कि उन्होंने इस साठ लाख डालर को अपने खाते में व्यापार पर किया गया खर्च दिखा दिया। यह गलत है और आपराधिक कृत्य है। उनके ऊपर मुकदमा चला और उनको दो साल की सजा हो गई। इसके अलावा उन्होंने किसी वेश्या को व्यापारिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया था।
इस तरह की हरकत भी कानूनन जुर्म
व्यापारिक लाभ के लिए इस तरह की हरकत भी कानूनन जुर्म है। इस मामले में भी कानूनी कारवाई हुई। इन दो मामलों में बीस जनवरी 2021 तक विराजने वाले चाल्र्स कुशनर के समधी डोनाल्ड ट्रंप ने उनको माफी दे दी। इस माफी के पहले उन्होंने उन लोगों माफी दी जो उनके उलटे सीधे काम में उनके साथी रहे हैं। नई माफी की लिस्ट में रोजर स्टोन और पॉल मनाफोर्ट भी शामिल हैं। यह दोनों कई अपराधों में दोषी पाए जा चुके हैं। मनाफोर्ट तो नजरबंदी की सजा भी भोग रहे हैं।
इन माफीनामों का मुख्य संदेश यह है कि ट्रंप अब चुनाव में हार को स्वीकार करने मन बना चुके हैं। अभी उनको उम्मीद थी कि न्यायपालिका की मदद से वे हारा हुआ चुनाव पलट देंगे लेकिन अब ऐसा होता नहीं दिख रहा है। उन्होंने अमरीका के पांच बैटिलग्राउंड राज्यों पेंसिलवानिया, एरिजोना, विस्कासिन, जार्जिया और मिशिगन में चुनावी धांधली के मुकदमे दायर करवाए थे। हर जगह से उनके खिलाफ फैसले आते रहे। एक विस्कासिन बचा था। विस्कसिन राज्य का फैसला आज ही आया है। न्यायपालिका से बहुत उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने फेडरल सुप्रीम कोर्ट में एक जज हड़बड़ी में इसी योजना के तहत भर्ती किया था कि जरूरत पडऩे पर उनके पक्ष में फैसला आ जाएगा लेकिन उन्हें वहां भी हार ही मिली। अमरीका में सभी राज्यों के अलग अलग चुनावी कानून होते हैं और अलग तरह की न्याय प्रणाली होती है।
37 राज्यों में जज भी चुनाव लडक़र होते हैं पदासीन
मसलन अमरीका के पचास राज्यों में से 37 राज्यों में जज भी चुनाव लडक़र पदासीन होते हैं। वे बाकायदा पार्टी के टिकट पर चुनकर आते हैं। ट्रंप की नवीनतम कानूनी हार विस्कासिन राज्य में हुई है। वहां के जिस जज ने उनके खिलाफ फैसला दिया है वह ट्रंप की पार्टी, िरपब्लिकन पार्टी के टिकट पर चुनकर आया था। जब उसने कानून के हिसाब से सही फैसला दे दिया तो ट्रम्प महोदय उसको भी गाली देने लगे। उसके खिलाफ ट्वीट किया और उनके समर्थकों ने उसके खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान शुरू कर दिया। अब लगता है कि वे अपनी हार को न्यायपालिका की मदद से जीत में बदलवाने की उम्मीद छोड़ चुके हैं। जब ज़्यादातर अमरीकियों ने यह मान लिया है कि डोनाल्ड ट्रंप चुनाव हार चुके हैं। न्यायपालिका ने उनको साफ बता दिया है कि उनकी सनक के आधार पर फैसला नहीं दिया जा सकता, कानून ही किसी भी फैसले की बुनियाद होता है।
डोनाल्ड ट्रंप जिस तरह से लोगों को माफी दे रहे हैं उससे संकेत आने लगे हैं अब हठधर्मी का उनका हौसला पस्त हो चुका है।और अब वे राष्ट्रपति पद छोडऩे के बारे में विचार कर रहे हैं। अमरीकी संविधान के संस्थापकों, खासकर अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने यह नियम बनाया था कि अगर राष्ट्रपति को लगता है कि न्यायपालिका में किसी के साथ अन्याय हो गया है या किसी को उसके अपराध के अनुपात से ज्यादा सजा हो गई है तो अमरीकी राष्ट्रपति उसको माफी दे सकता है।
अपने संस्थापकों के इसी प्रावधान को इस्तेमाल करके डोनाल्ड ट्रंप लगातार अपने करीबी लोगों को माफी दे रहे हैं। राष्ट्रपति हैमिल्टन के समय से ही यह रिवाज है कि राष्ट्रपति अपराधियों को माफी दे देता है। जिसको माफी मिल जाती है उसके ऊपर उसी केस में दोबारा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। लेकिन बाद के कुछ राष्ट्रपतियों ने जघन्य अपराधियों को भी माफी दी। इस सिलसिले में रिचर्ड निक्सन का नाम लिया जाता है। वे सत्तर के दशक में अमरीका के राष्ट्रपति थे। उन्होंने तरह तरह के अपराध किये थे। उनके ऊपर वाटरगेट स्कैंडल के कारण महाभियोग की तैयारी हो चुकी थी। लेकिन उन्होंने अपने
उपराष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड से सौदा किया
उपराष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड से सौदा किया कि वे इस्तीफ़ा दे देंगें और अमरीका के संविधान के अनुसार फोर्ड बिना कोई चुनाव लडे राष्ट्रपति बन जायेगें। उसके बदले में उनको राष्ट्रपति के रूप में रिचर्ड निक्सन के अपराधों के लिए माफी देनी पड़ेगी। ऐसा ही हुआ और फोर्ड अगस्त 1974 से जनवरी 1977 तक राष्ट्रपति रहे।
निक्सन की तरह ही ट्रंप भी अपराधी प्रवृत्ति के राष्ट्रपति हैं लेकिन जसी तरह से उन्होंने अपने खास लोगों को माफी देने का सिलसिला शुरू कर दिया है, उससे लगता है कि वे निक्सन का भी रिकार्ड तोड़ेंगे। अंधाधुंध माफी देने के चक्कर में वे ऐसे अपराधियों को भी माफी दे रहे हैं जिनके अपराध जघन्य हैं और कुछ मामलों में तो अपराधी ने अपने जुर्म को कोर्ट के सामने कबूल भी कर लिया है।
क्या राष्ट्रपति अपने आपको माफ कर सकते हैं?
इन माफियों के सिलसिले में सबसे जरूरी बिंदु है कि क्या राष्ट्रपति ऐसे अपराधों के लिए भी माफी दे सकते हैं जो अपराध हुए ही न हों। जानकर बताते हैं कि ट्रंप और उनके कऱीबी लोगों ने इतने अपराध किए हैं कि उनके ऊपर मुक़दमा चलना तो तय है। इमकान है कि कानून अपना काम करेगा और अगर कानून इमानदारी से काम करता है तो ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप, दामाद और उनके सबसे करीबी वकील रूडी जुलियानी पर मुकदमा जरूर चलेगा। अभी इन लोगों पर मुकदमा दायर नहीं हुआ है। बहस इसी विषय पर हो रही है कि क्या राष्ट्रपति एडवांस में किसी को माफी दे सकते हैं। एक कानूनी चर्चा और भी हो रही है कि क्या राष्ट्रपति अपने आपको माफ कर सकते हैं। उनके ऊपर तो कई केस दर्ज भी हैं।
रिचर्ड निक्सन ने तो अपने आप को माफ नहीं किया था क्योंकि माफी लेने के लिए उन्होंने अपने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाकर माफी हासिल की थी। बहरहाल राष्ट्रपति ट्रंप की माफी देने की कारस्तानी के बाद लोगों को लग रहा है कि लगता है कि ट्रंप को भी इस बात का एहसास हो चुका है कि उनको अब तो जाना ही पडेगा और पद से हटने के बाद उनको मुकदमों का सामना भी करना पड़ेगा। अगर उनकी खुद को दी गई माफी को जायज भी मान लिया जाएगा तो भी राष्ट्रपति की माफी केवल उन्हीं मामलों के लिए होती है जो फेडरल न्याय क्षेत्र में होते हों। राज्यों के मामलों के लिए राष्ट्रपति किसी को माफी नहीं दे सकते। डोनाल्ड ट्रंप के ऊपर न्यूयॉर्क राज्य में टैक्स चोरी के कुछ मामले दर्ज हैं। उनमें किसी माफी का प्रावधान नहीं है। (न्यूज 1)
(डिसक्लेमर- यह लेखक के निजी विचार हैं।)
डॉ. वेंकटेश दत्ता-
जलीय पारिस्थितिक तंत्र और मानव आजीविका को बनाए रखने के लिए प्रकृति और समाज भूजल पर निर्भर करता है। लेकिन जहां जल निष्कर्षण, जलीय पुनर्भरण से अधिक है, वहां स्थानीय और क्षेत्रीय भूजल आपूर्ति घट रही है। दुनिया भर में, 90% पानी का उपयोग सिंचाई में होता है और वैश्विक भूजल स्रोतों से 545 किमी3 वार्षिक पानी की पंपिंग होती है। दुनिया के कुछ महत्वपूर्ण जलक्षेत्रों में भूजल पम्पिंग वांछनीय स्तर से अधिक है।इसका एक सीधा प्रभाव नदी के प्रवाह में तेजी से गिरावट है।
पानी की बढ़ती मांग के कारण उत्तरी भारत में भूजल निष्कर्षण हाल ही में पुन: प्रयोज्य भूजल (फिर से भरने योग्य भूजल) से अधिक हो गया है, जिससे जल स्तर में लगातार कमी आ रही है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) और अन्य देशों के भूजल विभाग 1990 के दशक के दौरान गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु बेसिन के अंदर भारत, नेपाल और बांग्लादेश में भूजल निष्कर्षण की कुल दर का अनुमान ∼172 किमी 3 लगाते हैं। इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों में निष्कर्षण दरों में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है और यह संभावना है कि हाल की दरें बहुत अधिक हैं। सीजीडब्ल्यूबी का अनुमान है कि गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु बेसिन के जलग्रहण क्षेत्र में अधिकतम संभावित भूजल पुनर्भरण 246 किमी3/वर्ष है; मानसून के मौसम में इससे नीचे की निकासी दर को रिचार्ज द्वारा ऑफसेट किया जाता है। ग्रेस (GRACE) ‐ माइनस मॉडल इंगित करता है कि भूजल निकासी की वर्तमान दर अधिकतम संभावित भूजल पुनर्भरण से अधिक है। कृषि विकास और औद्योगिकीकरण बढ़ने के साथ आने वाले वर्षों में भूजल की मांग कई गुना बढ़ जाएगी।
यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि सभी नदियों के आधार प्रवाह को बनाए रखने में भूजल का महत्वपूर्ण योगदान है। भूजल की क्रमिक कमी निश्चित रूप से गंगा में पानी की मात्रा और प्रवाह कम करने में योगदान दे रही है। गंगा में बेस फ्लो की मात्रा 1970 के दशक की सिंचाई पंपिंग की शुरुआत से लगभग 60 प्रतिशत कम हो गई है। गंगा के जलभृत से सटे भूजल भंडारण में भी प्रति वर्ष लगभग 30 से 40 सेमी की कमी आई है। नदी के प्रवाह पर भूजल स्तर में गिरावट का प्रभाव गंगा की कई अन्य सहायक नदियों पर देखा जा सकता है, जिन्हें बर्फ के पिघलने से कोई पानी नहीं मिल रहा है। यह नदी के पानी पर भूजल की कमी के प्रभाव को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है।
गंगा, दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक है, जिसके विस्तृत मैदानों ने पिछले तीन हजार वर्षों से अधिक समय तक भारतीय सभ्यता और संस्कृति को बनाए रखा है। भारत में गंगा बेसिन का क्षेत्र ~ 8.6 × 105 किमी2 है और वर्तमान में सबसे बड़ी और घनी वैश्विक आबादी (वैश्विक जनसंख्या का 10%) को समायोजित किया है। भूजल की अवैज्ञानिक निकासी से वैश्विक खाद्य उत्पादन को खतरा हो सकता है। जल-स्तर की गिरावट के प्रभावों को व्यापक रूप से सूचित किया गया है। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि भूजल में गिरावट सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय परिणामों की एक विस्तृत श्रृंखला को जन्म दे सकता है, जिसमें शामिल हैं: निकटवर्ती एक्वीफर सिस्टम से भूजल प्रवाह के पैटर्न में महत्वपूर्ण परिवर्तन; पारिस्थितिक तंत्रों और डाउनस्ट्रीम उपयोगकर्ताओं को परिणामी क्षति के साथ स्ट्रीम बेस फ्लो, वेटलैंड्स आदि में गिरावट; पम्पिंग लागत और ऊर्जा उपयोग में वृद्धि; भूमि अवसंरचना और सतह के बुनियादी ढांचे को नुकसान; पीने, सिंचाई और अन्य उपयोगों के लिए विशेष रूप से गरीबों के लिए पानी की कमी।
गंगा नदी को विशेष रूप से गैर-मानसून, शुष्क अवधि के दौरान भूजल निर्वहन (बेसफ्लो के रूप में) निरंतर बहने वाली बारहमासी नदी के रूप में वर्णित किया गया है। मॉनसून सीज़न के 4 महीनों (जून-सितंबर) में ओवरलैंड फ्लो अधिकतम प्रवाह के साथ >70% वर्षा से होता है। गंगा नदी का बहाव भूजल आधार से संबंधित है, जो आस-पास के गंगा जलभृतों में चल रहे भूजल संग्रहण के कारण होता है। हिमालय में देवप्रयाग के आसपास गंगा में भूजल के आधार पर औसत वार्षिक प्रवाह 48-56% होने का अनुमान लगाया गया है।
हाल के वर्षों की गर्मियों (प्री-मानसून) में, पिछले कुछ दशकों के दौरान गंगा (या गंगा की सहायक नदियाँ) में निम्न जल स्तर, भूजल स्तर में कमी दर के साथ देखा जा रहा है। 1970 के दशक की सिंचाई-पंपिंग क्रांति की शुरुआत से, बेसफ्लो मध्य और निचले गंगा बेसिन में लगभग 60% कम हो गया है। यह एक अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि बारहमासी नदियों में प्रवाह भूजल प्रणालियों पर बहुत अधिक निर्भर करता है। भूजल से जुड़े नदी के पानी की कमी, यह सरल तथ्य हमारे इंजीनियरों द्वारा नहीं समझा गया है, जो नदी से पानी लेने के विज्ञान को जानते हैं, लेकिन नदी में वापस पानी लाने का कोई ज्ञान नहीं है। हम वास्तव में शोषक विज्ञान में अच्छे हैं, लेकिन पारिस्थितिक संरक्षण में हमारा ज्ञान बहुत निराशाजनक है।
गंगा नदी के पानी में कमी से घरेलू और सिंचाई पानी की आपूर्ति, नदी परिवहन, आदि को उत्तरी भारतीय मैदानों में घनी आबादी वाले को खतरे में डाल सकती है। गंगा नदी की घटती सतह जल सिंचाई के लिए उपलब्ध भूजल को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी, जिससे खाद्य उत्पादन में संभावित गिरावट होगी। नदी के पानी की कमी का सीधा असर क्षेत्रीय जल सुरक्षा और खाद्य उत्पादन पर पड़ता है, जो इस क्षेत्र में रहने वाली 100 मिलियन से अधिक आबादी को संकट में डाल सकता है। गंगा बेसिन में नदी जल की मात्रा में कमी से भविष्य की खाद्य सुरक्षा पर भी गहरा असर पड़ेगा, जिसे आमतौर पर "दक्षिण एशिया की ब्रेड-बास्केट" के रूप में जाना जाता है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में नदी के पानी की उपलब्धता को निर्धारित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
विश्व की शहरी जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, 1950 में दुनिया की आबादी का 30% शहरों में रहा करते थे जो 2018 में बढ़कर 55% हो गए हैं। शहरी जनसंख्या में लगातार वृद्धि से कई पर्यावरणीय समस्याओं का जन्म हुआ है, जिनमें से सबसे आम है भूजल स्तर में गिरावट और पानी की गुणवत्ता में कमी। भारत में 1950 से शहरी आबादी में तीन गुना वृद्धि हुई है और बीसवीं सदी की शुरुआत से आठ गुना वृद्धि हुई है। भारत के शहरी क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या 1951 में 17.3% से बढ़कर 1991 में 25.7% हो गई है। इसके अलावा, शहरी जनसंख्या में वृद्धि की दर (3.1% प्रति वर्ष) भी समग्र जनसंख्या वृद्धि दर (2%) से अधिक है। जलवायु परिवर्तन और भू-उपयोग परिवर्तन जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप स्थिति को और अधिक बढ़ा देते हैं। देश में कई शहर हैं जहां पीने के पानी की जरूरत का 80-100% हिस्सा खोदे गए कुओं, स्प्रिंग्स, नलकूपों और हैंड पंपों से मिलता है। भूजल स्तर कई राज्यों में तेजी से घट रहा है। हाल के भूजल कमी क्षेत्रों का विकास पूर्वोत्तर राज्यों, और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटियों में गैर-समेकित तलछटों (अनकंसॉलिडेटेड सेडीमेंट्स) में केंद्रित है। भूजल की कमी की दर असम में सबसे अधिक पाई गई, उसके बाद पश्चिम बंगाल और बिहार में कमी की दर सबसे अधिक है।
सामान्य तौर पर, नदी भूजल से बेसफ्लो के साथ-साथ बेसिन हिंटरलैंड में वर्षा, हिमालयन हिमनद पिघल (~1500 मिमी / वर्ष) से प्रवाहित होती है।नदी के पानी और भूजल के बीच का संबंध भूजल स्तर और नदी के स्तर के सापेक्ष अंतर से निर्धारित होता है। एक नदी को " गेनिंग" के रूप में परिभाषित किया जाता है जब इसे भूजल सीपेज (बेसफ्लो) द्वारा बनाए रखा जाता है। इसे " लूज़िंग" प्रकार के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है यदि नदी का पानी आसन्न जलभृत में बह जाता है, या दो तरफा विनिमय नदियों को मौसमी जल स्तरों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
यह एक विडंबना है कि उच्चतम भूजल की कमी वाले भारतीय राज्य जल-गहन फसल (वाटर इंटेंसिव क्रॉपिंग) प्रथाओं के अधीन हैं। आस-पास के एक्वीफरों में वितरित और अंधाधुंध पम्पिंग द्वारा भूजल निकासी बेसफ्लो में कमी या स्ट्रीमफ्लो कैप्चर में वृद्धि से नदी के प्रवाह को बाधित कर सकती है। पंपिंग की शुरुआत में, मुख्य रूप से भूजल भंडारण से अमूर्त पानी को बहाया जाता है, जो जलभृत की भौतिक विशेषताओं के आधार पर, धारा और जलभृत के बीच हाइड्रोलिक संबंध, नलकूपों के स्थान और दशकों तक पंपिंग के साथ, आसन्न जल को बदल सकता है। गंगा बेसिन में प्री-मॉनसून सीजन के दौरान कम प्रवाह वाले मौसमों के दौरान तीव्र भूजल पंपिंग के कारण इस तरह के प्रवाह में कमी बेहद चिंताजनक है।
औसतन, गंगा बेसिन के प्रत्येक वर्ग किमी में वर्षा से एक मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) पानी प्राप्त होता है। इसका 30 प्रतिशत वाष्पीकरण के रूप में खो जाता है, 20 प्रतिशत एक्वीफर में रिसता है और शेष 50 प्रतिशत सतह अपवाह (सरफेस रनॉफ़) के रूप में उपलब्ध होता है। उच्च बैंकों द्वारा बंधी गंगा नदी का गहरा चैनल बेस फ्लो के रूप में आस-पास के जलभृतों में चल रहे भूजल संग्रहण प्रदान करता है। वार्षिक बाढ़ गंगा बेसिन की सभी नदियों की विशेषता है।
मानसून के दौरान गंगा उठती है लेकिन उच्च बैंक बाढ़ के पानी को फैलने से रोकते हैं। बाढ़ का मैदान आमतौर पर 0.5 से 2 किमी चौड़ा होता है। इस सक्रिय बाढ़ के मैदान में हर साल बाढ़ आती है। इसके अतिरिक्त गंगा बेसिन पर विद्यमान संरचनाएं भी इसके निर्वहन को प्रभावित करती हैं। प्रवाह की निरंतरता बनाए रखने के लिए गंगा नदी में पानी के मुख्य स्रोत हैं की वर्षा, उपसतह का प्रवाह और हिमनद । गंगा के सतही जल संसाधनों का आकलन 525 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) किया गया है। इसकी 17 मुख्य सहायक नदियों में से यमुना, सोन, घाघरा और कोसी गंगा की वार्षिक जल के आधे हिस्से में योगदान करती हैं। यमुना इलाहाबाद में गंगा से मिलती हैं और आगे की ओर बहती हैं। हरिद्वार- इलाहाबाद खंड के बीच नदी में प्रवाह की समस्या है। दिसंबर से मई तक गंगा के प्रवाह में कमी देखा जा सकता है।
भूजल की कमी से, पर्यावरणीय प्रवाह और मछलियों जैसे जलीय प्रजातियों के पारिस्थितिक परिणामों की शायद ही कभी जांच की जाती है। हमने देखा है कि भूजल हमारी नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह का एक प्रमुख स्रोत है। जल स्तर में गिरावट के साथ, बारहमासी नदियाँ मौसमी होती जा रही हैं। गंगा की कई सहायक नदियाँ हैं जिनमें पिछले पचास वर्षों में प्रवाह में 30 से 60 प्रतिशत की गिरावट आई है। प्रमुख कारणों में से एक भूजल स्तर में गिरावट और आधार प्रवाह में वियोग है। कृषि के लिए भूजल पंपिंग एक प्रमुख कारक है, जो वैश्विक मीठे पानी के पारिस्थितिक तंत्र की गिरावट का कारण बनता है। पानी की स्थायी उपलब्धता और पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण के लिए सतही जल के उपयुक्त प्रबंधन के साथ साथ एक्वीफर्स को रिचार्ज करना बहुत आवश्यक है। (downtoearth)
"क्या आप कुछ मिनटों तक इंतज़ार कर सकते हैं जब तक मैं मीना को फ़ोन देती हूँ? मुझे उसे आपके बारे में बताना होगा ताकि वो आपसे बात करने में हिचके नहीं."
मैंने जवाब दिया, "ठीक है, कोई समस्या नहीं है."
अरुणा तिर्की ने यह कहते हुए दो मिनट के बाद किसी को फ़ोन दिया. फ़ोन पर उधर से एक महिला की आवाज़ आई, "हैलो! नमस्ते! हम मीना लिंडा बोल रहे हैं."
मीना लिंडा अपने परिवार की अकेली कमाने वाली शख़्स हैं. उनके परिवार में बीमार पति (50 साल) के अलावा एक बेटा (18 साल) और तीन बेटियाँ (एक 19 और दो 18 साल की) हैं. दोनों छोटी बेटियाँ जुड़वा हैं.
2016 तक उनकी ज़िंदगी मुश्किलों भरी थीं. उनके दिन की शुरुआत छह बजे सुबह से हो जाती थी. वो छह बजे सुबह उठ कर रांची में पहाड़ी मंदिर जाने वाले श्रद्धालुओं को चढ़ावा बेचने का काम करती थीं.
इसके बाद वो दिहाड़ी पर जो काम मिल जाए वो करती थीं. लेकिन काम मिलने में कठिनाई होती थी और आमदनी भी अनियमित होती थी. रोज़गार का स्थायी बंदोबस्त नहीं होने और पारिवारिक ज़िम्मेदारी बढ़ने की वजह से लिंडा के हालात दिन प्रतिदिन ख़राब होते जा रहे थे.
रेस्टोरेंट खोलने का विचार
साल 2016 में मीना की मुलाक़ात 46 साल की अरुणा तिर्की से हुई. वो एक ग्रामीण विकास पर काम करने वाली पेशेवर हैं जो अब अपना व्यवसाय करती हैं. उस वक्त संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और पुअरेस्ट एरियाज सिविल सोसायटी (पीएसीएस) में काम करने के बीच उनके पास एक साल का ख़ाली अंतराल था जिसमें वो एक महिला उद्यमी के तौर पर रांची में मोमो और हैदराबादी बिरयानी बेचने का अनुभव ले रही थीं. अरुणा ने मीना लिंडा को तभी अपनी मदद के लिए अस्थायी तौर पर नौकरी पर रखा.
बाद में अरुणा ने यूएनडीपी में काम करते हुए दुनिया के मूल निवासियों के अंतरराष्ट्रीय दिवस पर खाने पकाने की प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. हर साल 9 अगस्त को इसका आयोजना होता है. इस प्रतियोगिता में उन्हें पहला स्थान प्राप्त हुआ. ये उनके लिए ज़िंदगी बदलने वाला लम्हा साबित हुआ. उन्होंने तभी आदिवासी खाने की महत्ता को समझा और तेज़ी से ग़ायब होते आदिवासी खानों को बचाने की मुहिम में लग गईं.
2018 में तिर्की ने अजम एम्बा नाम से एक रेस्टोरेंट खोला. अजम एम्बा का कुदुख भाषा में मतलब होता है 'शानदार स्वाद'. कुदुख उरांव आदिवासियों की भाषा है. यह रेस्टोरेंट रांची के कांके रोड पर स्थित है.
देशी महिलाएँ इस रेस्टोरेंट को चलाती हैं. इस रेस्टोरेंट का मक़सद भारतीय पारंपरिक खानों को बचाना है.
आदिवासी संस्कृति और पहचान बचाने की कोशिश
यहाँ काम करने वाली महिलाएँ खाना बनाने के साथ यह भी सीखती हैं कि कैसे वो खाने बनाने के अपने हुनर को एक कामयाब व्यवसाय में तब्दील करें. बहुत जल्दी ही मीना लिंडा इस रेस्टोरेंट की एक अहम सदस्य बन गईं.
दूसरे रेस्टोरेंट से अलग यह रेस्टोरेंट खाने के माध्यम से आदिवासी संस्कृति और पहचान को बचाने की कोशिश में लगा हुआ है. यहाँ सालों भर आदिवासी खाना मिलता है. रांची के दूसरे महंगे होटल और रेस्टोरेंट झारखंड दिवस वाले हफ्ते में ही केवल पारंपरिक खाना परोसते हैं. हर साल 15 नवंबर को झारखंड दिवस मनाया जाता है.
इस रेस्टोरेंट के मेनू में कई तरह के विकल्प मौजूद होते हैं. इसमें गेटु फिश करी, देसी मागुर करी, घोंघी तियान वेज, सानेई फूल भर्ता, कोईनार फूल भर्ता, जूट फ्लावर करी और मार झोर जैसे डिश मौजूद हैं.
रेस्टोरेंट इस बात का ख्याल रखता है कि ग्राहकों के पसंद के हिसाब से कुछ भी छूट ना जाए. आदिवासी तरीक़े से खाने से लेकर आवभगत तक सब का ख्याल रखा जाता है. किचन में काम करने वाले स्टाफ़ मिट्टी के बर्तन का इस्तेमाल करते हैं. वो खाना परोसने के लिए पत्ते या फिर तांबे के बर्तन का इस्तेमाल करते हैं.
रेस्टोरेंट में आने वाले ग्राहकों का स्वागत आकर्षक सोहराई पेंटिंग्स और पारंपरिक संगीत के साथ किया जाता है. रेस्टोरेंट की दीवारों पर मिट्टी का लेप लगा हुआ है तो वहीं बांस और गन्ने की मदद से इसे सजाया गया है. इसके अलावा अजम एम्बा रागी मोमो, वाइल्ड राइस डम्पलिंग और रागी क्रेप्स को आदिवासी तरीक़े में ढाल कर पेश किया जाता है.
आदिवासी खाना जब बना स्टेटस सिम्बल
गेटु मछली के साथ जिरहुल फूल
इन डिश को मेनू में शामिल करने के दो मक़सद हैं. पहला मक़सद युवाओं को आकर्षित करना है तो दूसरा मक़सद मेनू को ऐसा बनाना है जिससे लोग ज्यादा जुड़ाव महसूस करें.
अरुणा तिर्की को ग्राहकों से जो फ़ीडबैक मिलता है उसके हिसाब से इन डिशेज़ को लाल चावल के सूप के साथ ज़रूर हर किसी को एक बार खाना चाहिए. लाल चावल के सूप को पारंपरिक तौर पर 'चाकोर झोल' कहते हैं.
ये पूछने पर कि क्या झारखंड में ये पारंपरिक खाने आसानी से उपलब्ध है? इस पर तिर्की कहती हैं कि इन्हें बनाने वाली चीज़ें तो मिल जाती हैं लेकिन वे इसका इस्तेमाल या तो चिकित्सीय उद्देश्य से करते हैं या फिर अल्कोहल (चावल से बनने वाला मद्य पेय पदार्थ) बनाने के लिए करते हैं.
अपने पारंपरिक खानों को लेकर जानकारी नहीं होने की वजह से ऐसे हालात बने हुए हैं. तिर्की इसकी एक और वजह बताती हैं कि आम तौर पर मड़ुआ और गोंदली आदिवासियों में खाया जाता है लेकिन वो इसे आजकल एक ख़ास तरह की वर्ग चेतना विकसित होने की वजह से मानने में शर्म महसूस करते हैं.
अरुणा तिर्की और मीना लिंडा दोनों ही उरांव जनजाति से आती हैं. उरांव जनजाति मुख्य तौर पर झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में रहने वाली जनजाति है. अरुणा और मीना दोनों ने ही बचपन से ऐसे खाने खाए हैं जो स्थानीय तौर पर आसानी से उपलब्ध रहे हैं. अरुणा बचपन से किचन में अपनी मां की खाना बनाने में मदद करती रही हैं. इससे उनके अंदर खाना बनाने को लेकर एक रूचि पैदा हुई.
गोरगोरा रोटी मटन हांडी के साथ
अरुणा तिर्की कहती हैं कि आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं और उनके खाने मुख्य तौर पर जंगल में मिलने वाली चीज़ों पर आधारित है. वो बताती हैं कि उनके पूर्वज गोंदली चावल (जंगली चावल), मड़ुआ (रागी), बाजरा और महुआ खाते थे. हालांकि हरित क्रांति (60 और 70 के दशक) के दौरान गेहूँ और सफ़ेद चावलों का उत्पादन बड़े पैमाने पर शुरू हुआ और इसने पारंपरिक खाने की जगह ले ली.
जब अरुणा ने शहरी दुकानों में बाजरे का विज्ञापन ऊंची क़ीमतों पर होते देखा तो उन्हें लगा कि इतनी क़ीमत पर तो उनके समुदाय के कई लोग इसे ख़रीद ही नहीं पाएंगे. अरुणा ने तब इसे लेकर कुछ करने की सोची. बाद में अजम एम्बा के रूप में उनकी इस दिशा में कुछ करने की सोच साकार हुई.
वो कहती हैं कि, "आज गोंदली और मड़ुआ अमीरों के लिए स्टेटस सिम्बल बना हुआ है लेकिन एक ऐसा वक़्त था जब इसे पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था. इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाले मेरे चाचों के लिए यह मानना असहज करने वाला था कि वे इन्हें खाते हैं. क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता था कि इस आधार पर उनसे भेदभाव किया जाएगा. हालांकि जब ये ऊंचे वर्ग के लोगों के खाने के प्लेट का जब हिस्सा बन गया तो स्टेटस सिम्बल बन गया."
अरुणा बताती हैं कि इस बात को लेकर उन्हें कोई समस्या नहीं झेलनी पड़ी कि उनका रेस्टोरेंट जातीय व्यवस्था में पिछड़े माने जाने वाले लोगों की मदद से चलाया जा रहा है. उनके यहाँ आने वाले ग्राहकों में आदिवासियों से कहीं ज्यादा ग़ैर-आदिवासी लोग हैं. वे पर्यटक जो आदिवासी खाना खाना चाहते हैं उनके लिए उनका रेस्टोरेंट एक ज़रूर पहुँचने वाली जगह बन गई है.
शर्मिंदगी की जगह गर्व की अनुभूति
मड़ुआ का लड्डू
आदिवासियों ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी में अब अपने खाने पर शर्मिंदगी की जगह गर्व की अनुभूति पैदा हो रही है. वो अपने खाने को अब पिछड़ेपन के तौर पर नहीं देख रहे हैं.
अरुणा के सामने असल चुनौती पैसे को लेकर है. उन्हें बैंक या सरकार से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. वो कहती हैं, "बैंक अजम एम्बा जैसे छोटे स्तर के व्यवसाय को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए तैयार नहीं हैं. जबकि इस व्यवसाय का भविष्य उज्ज्वल दिखाई पड़ रहा है. सरकार के स्तर पर योजनाएँ जरूर काग़ज़ पर मौजूद हैं लेकिन वास्तव में इसे कभी लागू नहीं किया गया है."
कोरोना वायरस की वजह से लगे लॉकडाउन में अजम एम्बा को भी मजबूरन छह महीने तक बंद रखना पड़ा. चूंकि इस रेस्टोरेंट के ज्यादातर स्टाफ़ हाशिए के समाज या ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं इसलिए वो पूरी तरह से रेस्टोरेंट से मिलने वाली सैलरी पर निर्भर हैं. अरुणा के दिमाग में कभी भी सैलरी काटने या उन्हें काम से निकालने का विचार नहीं आया. उन्होंने हर किसी को सैलरी देना जारी रखा.
हालांकि सितंबर से फिर से रेस्टोरेंट खुलना शुरू हुआ लेकिन इसकी कमाई आम तौर पर होने वाली कमाई की तुलना में 25-30 फ़ीसद कम हो गई है.
मीना लिंडा ने बातचीत ख़त्म करते वक़्त कहा कि वो अब बहुत संतुष्ट और ख़ुश हैं.
अरुणा तिर्की के साथ काम करने से पहले वो कोई भी काम जो उन्हें मिलता था वो कर लिया करती थीं इस बात की परवाह किए कि उन्हें उसके बदले कितने पैसे मिलेंगे.
अब उनके पास एक स्थायी आमदनी है. वो अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं. उन्हें अपने गांव का वार्ड सदस्य भी मनोनित किया गया है. जब उनसे पूछा गया कि उनकी ज़िंदगी में सबसे बड़ा बदलाव क्या आया है तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा, "अब बच्चे कुछ खाने के लिए मांगते हैं तो हम दे पाते हैं. हमारे लिए सबसे ख़ुशी की बात यही है." (bbc)
-गिरीश मालवीय
ब्रिटेन वालों को वायरस का एक और नया स्ट्रेन मिला है। यह कुछ दिनों पहले मिले दूसरे स्ट्रेन से भी ज्यादा संक्रामक है, भारत समेत सारी दुनिया ब्रिटेन आने-जाने को प्रतिबंधित कर रही है और ब्रिटेन वाले कह रहे हैं कि ये नया स्ट्रेन दक्षिण अफ्रीका से आया है। वे दक्षिण अफ्रीका की फ्लाइट पर बैन लगा रहे हैं !
मतलब यह चल क्या रहा है ?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या वायरस में यह म्यूटेशन होना दिसंबर में ही शुरू होगा? ‘अरे भाई ये म्यूटेशन तो वायरस में शुरू से ही हो रहा है आप क्या सोचते है कि वायरस इस बात का इंतजार कर रहा होगा कि कब डब्ल्यूएचओ घोषणा करे और मंै म्यूटेशन की प्रक्रिया स्टार्ट कर लूं।’
आपको याद नहीं होगा इसलिए मैं याद दिला देता हूँ जब अप्रैल 2020 में इंदौर-गुजरात में मौत के आंकड़े अचानक तेजी से बढ़े तो कहा गया था कि इसकी वजह कोरोना का एल-स्ट्रेन वायरस हो सकता है।
विशेषज्ञों के हवाले से उस वक्त यह कहा जा रहा था कि देश में कोरोनावायरस के तीन स्ट्रेन पता चले हैं। इनमें दो सबसे घातक स्ट्रेन हैं, एल-स्ट्रेन और एस-स्ट्रेन। वुहान से आया वायरस एल-स्ट्रेन है। यही ज्यादा घातक है। इससे संक्रमित होने वाले मरीज की मौत जल्दी हो जाती है। एस-स्ट्रेन का वायरस एल-स्ट्रेन के म्युटेशन से ही बना है। यह कम घातक है। केरल में अधिकांश मरीज दुबई से आए थे। वहां एस-स्ट्रेन है। संभवत: इसीलिए केरल में कम जानें गईं।
लेकिन जब उस वक्त आईसीएमआर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने साफ मना कर दिया कि वायरस में कोई म्यूटेशन हो रहा है। तब यह भी कहा जा रहा था कि यदि बार बार वायरस में म्यूटेशन हो यानी वायरस के जेनेटिक स्ट्रक्चर में बदलाव होता रहे तो टीका काम नहीं करेगा।
अब कमाल यह हुआ है कि नए नए स्ट्रेन तो मिल रहे है लेकिन सारे टीके अब काम बराबर करेंगे चाहे वह एमआरएनए तकनीक से बनाए गए हो चाहे एडिनो वायरस से चाहे मृत वायरस की पुरानी टेक्नीक से?
सच तो यह है कि शुरू से ही यह वायरस म्यूटेंट हो रहा है। अप्रैल 2020 में ही चीन के होनजोऊ स्थित झेजियांग यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लांजुआन और उनकी टीम ने पता लगाया इस वायरस के 30 अलग म्यूटेशन पाए जिसमें से अब तक 19 के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। प्रोफेसर ली ने अपने शोधपत्र में कहा था बकि सार्स कोव-2 ने खुद में ऐसे म्यूटेशन किए हैं जिससे वह अपनी घातकता बदल पा रहा है।
साफ है कि वायरस में म्यूटेशन होना कोई नही बात नहीं है लेकिन आपको इस वक्त इसलिए डराया जा रहा है ताकि आप अपनी नोकरी से, अपने व्यापार से, अपनी रोजी-रोटी से जो हाथ धो रहे हैं उसका आपको अफसोस न हो तो मितरो रोज रोज डरिये ओर मोदीजी की जय-जयकार कीजिए उन्होंने आपकी जान बचा ली अगर मोदीजी नही होते तो आप अब तक मर जाते!....
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के जिला विकास परिषद के चुनाव-परिणामों का क्या अर्थ निकाला जाए ? उसकी 280 सीटों में से गुपकार गठबंधन को 144 सीटें, भाजपा को 72, कांग्रेस को 26 और निर्दलीयों को बाकी सीटें मिली हैं। असली टक्कर गुपकार मोर्चे और भाजपा में है। दोनों दावा कर रहे हैं कि उनकी विजय हुई है। कांग्रेस ने अपने चिन्ह पर चुनाव लड़ा है लेकिन वह गुपकार के साथ है और निर्दलीयों का पता नहीं कि कौन किसके खेमे में जाएगा। गुपकार मोर्चे के नेता डॉ. फारुक अब्दुल्ला का कहना है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने धारा 370 और 35 ए को खत्म करने के केंद्र सरकार के कदम को रद्द कर दिया है। इसका प्रमाण यह भी है कि इस बार हुए इन जिला चुनावों में 51 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने मतदान किया। 57 लाख मतदाताओं में से 30 लाख से ज्यादा लोग कड़ाके की ठंड में भी वोट डालने के लिए सडक़ों पर उतर आए। वे क्यों उतर आए ? क्योंकि वे केंद्र सरकार को अपना विरोध जताना चाहते हैं। अंदाज लगाया जा रहा है कि अब 20 जिला परिषदों में से 13 गुपकार के कब्जे में होंगी। गुपकार-पार्टियों ने गत वर्ष हुए दो स्थानीय चुनावों का बहिष्कार किया था लेकिन इन जिला-चुनावों में उसने भाग लेकर दर्शाया है कि वह लोकतांत्रिक पद्धति में विश्वास करती है। इसके बावजूद उसे जो प्रचंड बहुमत मिलने की आशा थी, वह इसलिए भी नहीं मिला हो सकता है कि एक तो उसके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के तीखे आरोप लगे, उनमें से कुछ ने पाकिस्तान और कुछ ने चीन के पक्ष में अटपटे बयान दे दिए। इन पार्टियों के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं ने अपने पद भी त्याग दिए। इतना ही नहीं, पहली बार ऐसा हुआ है कि कश्मीर की घाटी में भाजपा के तीन उम्मीदवार जीते हैं। पार्टी के तौर पर इस चुनाव में भाजपा ने अकेले ही सबसे ज्यादा सीटें जीती हैं लेकिन जम्मू-क्षेत्र में 70 से ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद उसकी सीटें कम हुई हैं। उसका कारण शायद यह रहा हो कि इस बार कश्मीरी पंडितों ने ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया और भाजपा ने इस बार विकास आधारित रचनात्मक अभियान पर कम और गुपकार को सिर्फ बदनाम करने में ज्यादा ताकत लगाई। अब यदि ये जिला-परिषदें ठीक से काम करेंगी और उप-राज्यपाल मनोज सिंह उनसे संतुष्ट होंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि नए साल में जम्मू-कश्मीर फिर से पूर्ण राज्य बन जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
20 दिसंबर को कांग्रेस के नेता श्री मोतीलाल वोरा का 93 वाँ जन्म दिन था और 21 दिसंबर को उनका निधन हो गया। वे न तो कभी राष्ट्रपति बने और न ही प्रधानमंत्री लेकिन क्या बात है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों ने उनके महाप्रयाण पर शोक व्यक्त किया ? यह ठीक है कि वे देश या कांग्रेस के किसी बड़े (सर्वोच्च) पद पर कभी नहीं रहे लेकिन वे आदमी सचमुच बड़े थे। उनके- जैसे बड़े लोग आज की राजनीति में बहुत कम हैं।
वोराजी जैसे लोग दुनिया के किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में आदर्श नेता की तरह होते हैं। वे अपनी पार्टी और विरोधी पार्टियों में भी समान रुप से सम्मानित और प्रिय थे। वे नगर निगम के पार्षद रहे, म.प्र. के राज्यमंत्री रहे, दो बार वहीं मुख्यमंत्री बने, उ.प्र. के राज्यपाल बने और चार बार राज्यसभा के सांसद रहे। कांग्रेस पार्टी के वे 18 वर्ष तक कोषाध्यक्ष भी रहे। असलियत तो यह कि ज्यादातर नेताओं की तरह उनमें न तो अहंकार था और न ही पदलिप्सा। उन्हें जो मिल जाए, उसी में वे खुश रहते थे। उनकी दीर्घायु और सर्वप्रियता का यही रहस्य है। उनका-मेरा संबंध पिछले लगभग 60 वर्षों से चला आ रहा था। वे रायपुर में सक्रिय थे और मैं इंदौर में। मैं कभी किसी दल में नहीं रहा लेकिन वोराजी डॉ. राममनोहर लोहिया की संयुक्त समाजवादी पाटी के कार्यकर्ता थे। मुझे जब अखिल भारतीय अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन का मंत्री बनाया गया तो मैंने वोराजी को म.प्र. का प्रभारी बना दिया। जब मैंने नवभारत टाइम्स में काम शुरु किया तो उन्हें अपना रायपुर संवाददाता बना दिया। वे इतने विनम्र और सहजसाधु थे कि जब भी मुझसे मिलने आते तो मेरे कमरे के बाहर चपरासी के स्टूल पर ही बैठ जाते थे। मुख्यमंत्री के तौर पर वे बिना सूचना दिए ही मेरे घर आ जाते थे। 1976 में मैंने जब हिंदी पत्रकारिता का महाग्रंथ प्रकाशित किया तो उन्होंने आगे होकर सक्रिय सहायता की। स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर उन्होंने पत्रकारों के इलाज में सदा फुर्ती दिखाई। वे उम्र में मुझसे काफी बड़े थे लेकिन राज्यपाल बन जाने पर भी मुझे भरी सभा में ‘बॉस’ कहकर संबोधित करते थे। वे मेरे संवाददाता थे और मैं उनका सम्पादक लेकिन मैं हमेशा उनके गुण एक शिष्य या छोटे भाई की तरह ग्रहण करने की कोशिश करता था। वोराजी को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि!
(नया इंडिया की अनुमति से)
2020 खत्म होने को है। बीते महीने न जाने कहां निकल गए। रह-रह कर कई बार मार्च का वह महीना, जब पहली बार जनता कर्फ्यू लगा था, याद आता है। बिलकुल अनजाना, अज्ञात समय। मालूम नहीं पड़ता था कि आगे क्या होने वाला है। न जाने कितने तरह के भय एवं अनिश्चितताएं थीं, वातावरण में। कुछ रोज बाद जब लॉकडाउन लग गया था, तब लगता था कि कुछ हफ्ते, अथवा महीनों की ही तो बात है। फिर धीरे-धीरे सच्चाई से वास्ता होने लगा था कि यह कुछ महीनों की बात कहां है?
पहले कुछ दिन अपने पक्षियों को मैं उनका पसंदीदा दाना नहीं डाल पाई थी। वो इसलिए कि उनका मनपसंद बाजरा जो खत्म हो चला था। याद करें तो पहले कुछ रोज, माहौल में इतनी अनिश्चितिता थी कि यही मालूम नहीं पड़ता था कि कब, कहां, और कैसे दोबारा वो जाना-पहचाना समय वापिस आएगा? कि किसी चीज का यदि अभाव था, तो भी बेफिक्र रहे। उन दिनों तो 'एसेंशियल सर्विसेज' क्या हैं, बस यही ध्यान रहता था। खैर, बाजरा के अभाव में मैं चावल अपने चहेते तोतों, मैना, कबूतरों, और गौरैयाओं को मुंडेर पर परोस आती थी।
याद करें तो एक अजब सा सन्नाटा होता था, शुरुआत के कुछ दिन। एक बहुत भयभीत करने वाली शान्ति हवा में, जो चित्त को विचलित कर देती! बाहर पुलिस की गाड़ियों की आवाज के अलावा चारों तरफ सन्नाटा ही तो छाया रहता था। ऐसे लगता, मानो सभी एक लम्बे मौन-व्रत में जा चुके हों। घाटियों एवं पहाड़ों वाली शान्ति तो सबको पसंद है, लेकिन ऐसी शान्ति किस काम की, जो डरा जाए? पक्षिओं की बेफिक्र चहचहाहट भी मुश्किल से ही सुनने को मिलती। एकदम से ऐसा लगता मानों यहां होते हुए भी सब से बिछड़ गए हों!
टी.वी .पर एंकर खुले आकाश और साफ हवा की तस्वीरें दिखाने में व्यस्त होते। यह बिलकुल शुरुआत के दिनों की ही बात है। शायद मार्च के महीने की। घर में मम्मी-पापा की, हर वक्त चिंता सताती रहती। उस समय सिर्फ इटली की ही खबरें आती थीं। भैया, स्विट्जरलैंड से आश्वासन दिया करते कि घबराने की कोई जरुरत नहीं, लेकिन कभी-कभी मैं बहुत डर जाती। दिल्ली में और कोई रहता भी तो नहीं। फिर व्याकुलता में मन का आप पर कहां नियंत्रण रहता है।
पहले का एक हफ्ता इन्ही संवादों के बीच आप से चला। अजीब सी उलझने रहतीं। मतलब यह कहां लाकर पटक दिया सृष्टि ने? अभी कल ही तो एक प्रोजेक्ट के लिए बाहर निकल महिलाओं से बातचीत कर रही थी। बसंत के मौसम की बारिश में आजाद घूम रही थी। सेमल के गाढ़े, लाल फूलों को निहार रही थी। फिर अप्रैल में वर्धा और यवतमाल भी जाना था, किसानों से मिलने और जुलाई में छोटे अंतरिक्ष से भी तो मिलना है। शुरू के 2-3 हफ्ते बेवजह के भय और तमाम तरह के विचार आते रहते। मैं पापा से कहती, जहां मीटिंग्स के लिए जाती हूं, वहां तो तथाकथित 'सोशल डिस्टन्सिंग' और बार-बार हाथ धोना असंभव सा ही लगता है?
इन सबका क्या सत्य है? क्या पता क्योंकि हम तो वैसे भी पोस्ट-ट्रूथ वर्ल्ड आर्डर में ही जी रहे हैं। सबके लिए हर चीज के आशय एवं परिभाषाएं अलग-अलग हैं। इसीलिए 'कम्युनिकेशन' भी सब के लिए अलग-अलग है। जैसे हमारे संवाद, व्यवहार, हर समय खबरें देखने की आदतें, सबके लिए अलग-अलग हैं। फिर सबके लिए इस 'वर्क फ्रॉम होम' के अलग मायने हैं। आखिर घर पर भी तो वही बैठ सकते हैं, जो भरे-पेट होते हैं, अपने ही एक 'कैपिटलिज्म' अथवा 'पूंजीवाद' में जो शामिल होते हैं। फिर अधिकतर मिडिल क्लास की अपनी ही एक अजब व्यवहार-कुशलता दिखाई पड़ती है, जो मानवता पर सवाल तो खड़े करती ही है, लेकिन कई बार अनकहे जवाब भी दे जाया करती है।
अब इसी वाक्ये को लीजिये।
अपने इन्हीं ख्यालों और काम के बीच खोयी, मैं अपनी एक मोगरा की लहराती हुई बेल के बारे में तो भूल ही गई थी। मोगरा की वह बेल घर से थोड़ी दूर सड़क के एक कोने पर है। अब क्योंकि लॉकडाउन में हर जगह जाना मना था, तो मैंने एक अंकल, जो सड़क के उस किनारे रहते हैं, उनको फोन करके उनसे अपनी परेशानी व्यक्त की। मैंने कहा कि मेरी वह बेल मर जाएगी, तो प्लीज वे मुझे बता दें, कि उसकी सेवा कैसे हो? साल दर साल उसमें पानी देती आई हूं। उन्होंने मुझे कहा कि वे उसमे पानी दे देंगे और मैं बिलकुल भी घबराऊँ नहीं।
अब पहले ही इतना परेशान करने वाला सन्नाटा ! टी.वी. पर हर एक मिनट पर कोरोना के आंकड़े! एक अलग तरह का अकेलापन हवा में। इन सबके बीच मन कैसे व्याकुल न हो? वैसे भी विश्वास का अभाव तो समाज में पनपता ही जा रहा था। कि ऊपर से कोरोना के भय की मेहरबानी और हो गयी। जिस इंसान को हर समय सड़क पर होने वाले शोर-शराबे, कहीं भी खड़े होकर चाय पीने, और प्रकृति की शान्ति में ही अपना अस्तित्व आसानी से मिल जाता हो, उसके लिए इस घुटन में कुछ भी समझ पाना बहुत असंभव सा था।
और वैसे भी गर्मी के मौसम में चंद दिन के लिए ही तो तारों जैसा मोगरा हमसे मिलने आया करता है। जैसे मानो खुले आकाश में कई रोज कुछ तारे समय-समय पर दिखते हैं, और बाकी साल ओझल रहते हैं। जब बहुत छोटी थी, 1997 में, तो एक बार फ्रिसबी खेलते-खेलते एक धूमकेतु दिखाई पड़ा था। पूरे आकाश को उसकी श्वेत आभा ने प्रकाशित कर दिया था। ठीक उसी तरह जैसे अंधेरे में हम उम्मीद की एक लौ ढूंढ़ते रहते हैं। बिलकुल वैसे ही तो मोगरा गर्मियों की सुबह-सवेरे हमसे मिलने आया करता है।
सफ़ेद फूलों की गहराई को शब्दों में व्यक्त करना तो व्याख्यायों एवं श्वेत रंग की तौहीन करने के बराबर है। वो इसलिए कि बेरंग फूल हमें देखते हुए, हमसे हर पल मुस्काने के लिए ही तो कहते आए हैं। फिर मोगरा को तो वैसे भी किसी से कुछ कहने की जरुरत नहीं, उसकी तो सुगंध ही अपने-आप में हमें एक गहरे ध्यान में ले जाने के लिए काफी है।
उन दिनों मैं हर रोज रात को पूजा करने से पहले एक बार उससे माफी मांग सो जाती, कि दोस्त माफ करना मैं तुम्हें पानी नहीं दे पा रही हूं, आजकल। काश तुम्हे न्यूज समझ आती। काश हम और तुम बात कर सकते और कोरोना को ले दुःख सुख बांट सकते।
जब भी कभी कोई नुकसान कर देता है तो पापा हमेशा समझाया करते हैं कि दुनिया में अच्छे लोग भी तो हैं, हमेशा अच्छा-अच्छा सोचो, और बुराई को मत याद रखो। यह सत्य ही तो है कि इन वाक्यों के आशय हमें बड़े होने पर ही समझ आते हैं। समझदारी, रिएक्शंस, 'सरकासम' एवं आलोचना की दुनिया से कोसों दूर! हालांकि इनके महत्व को ट्विटर के लड़ाई-झगड़े की दुनिया में टटोलना मुश्किल है। परन्तु कोरोना ने बखूबी इन मूल्यों को हमारे सामने ला खड़ा कर दिया है।
दिन बीतते गए। कुछ रोज बाद अंकल ने दरवाजे की घंटी बजायी। यकीन मानिये अपने ऊपर शर्म भी आयी, जब उन्होंने मोबाइल फोन में फोटो दिखाई और कहा 'यह लो बिटिया, तुम्हारा मोगरा। सब ठीक है न?' कह वे मुस्कराते हुए चल दिए।
उनके इस खुशनुमा व्यवहार और सहजता से मैं भी प्रज्ज्वलित हो उठी, लेकिन एक स्तब्धता में भी डूब गयी।सोचने लगी चाहे कितनी ही परेशानियां क्यों न आयी हों, आखिर विश्वास ही तो है जो अंत में काम आता है। फिर चाहे हम और आप अपने शीशे के महलों में बैठ कितने ही 'आर्टिफिशल इंटेलिजेंस' और 'फोर्थ इंडस्ट्रियल रेव्लुशन' मतलब चौथी औद्योगिक क्रांति के ढोल पीटते रह जाएं। कितने ही अलेक्सा और सीरी आएंगे और जाएंगे। लेकिन रह जाएंगी तो इंसान की मानवीय संवेदनाएं।
नया साल आने वाला है। वैक्सीन का ज्यादा कुछ मुझे समझ नहीं आता, लेकिन यह पता है कि इस बार फिर से उस बेल पर फूलों की बहार आएगी। (downtoearth)
-विवेक मिश्रा
बीते दो दशकों में बाहरी वातावरण के वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु दर में 115 फीसदी तक बढ़ोत्तरी हुई है।
एक तरफ सरकारें लगातार वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों को नकार रही हैं तो दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संबंधी रिपोर्ट में वायु प्रदूषण को मृत्यु का एक बड़ा कारक बताया जा रहा है।
लैंसेट प्लेटनरी हेल्थ रिपोर्ट ने दावा किया है कि वर्ष 2019 में वायु प्रदूषण के कारण 17 लाख लोगों की मृत्यु हुई है। "द इंडिया स्टेट लेवल डिजीज बर्डन इनिशिएटिव" नाम की ताजी लैंसेट रिपोर्ट में भीतरी (इनडोर) और बाहरी (आउटडोर) स्रोतों से होने वाले वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य और आर्थिक प्रभावों का आकलन किया गया है।
21 दिसंबर, 2020 को जारी नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है, "वर्ष 2019 में भारत में 17 लाख मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं, जो देश में होने वाली कुल मौतों का 18 फीसदी थी।"
इस रिपोर्ट में भारत के लिए अच्छी और बुरी दोनों खबरें हैं। अच्छी खबर यह है कि घर से होने वाला या भीतरी वायु प्रदूषण कम लोगों को मार रहा है। यदि पिछले दो दशकों (1990-2019) की रिपोर्ट से मिलान करें तो घरों में वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु दर में 64 प्रतिशत की कमी आई है।
बुरी खबर यह है कि बाहरी वायु प्रदूषण या परिवेशीय वायु प्रदूषण न केवल बढ़ रहा है, बल्कि अधिक भारतीयों को भी मार रहा है। अध्ययन के अनुसार, "बाहरी परिवेश में वायु प्रदूषण से मृत्यु दर इस अवधि में 115 फीसदी बढ़ गई है।"
वाशिंगटन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ मेडिसिन में स्वास्थ्य मेट्रिक्स और मूल्यांकन संस्थान के निदेशक और रिपोर्ट के सह-लेखक क्रिस्टोफर मरे ने कहा, "यह आवश्यक है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए नीति निर्माता स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर इस गंभीर खतरे को दूर करने के लिए निर्णायक कदम उठाएं।"
वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों और रुग्णता के कारण भारत ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.4 प्रतिशत खो दिया है। यह रुपये के बराबर है। मौद्रिक अवधि में 260,000 करोड़, या 2020-21 के लिए केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य सेवा के लिए आवंटन का चार गुना से अधिक। वायु प्रदूषण के कारण होने वाली फेफड़ों की बीमारियों में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी - 36.6 फीसदी - कुल आर्थिक नुकसान में हुई।
मौद्रिक रूप में यह 260,000 करोड़ रुपए के बराबर है या यूं कहें कि 2020-21 के लिए केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य सेवा के लिए आवंटन के चार गुना से अधिक है।
कुल आर्थिक नुकसान में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली फेफड़ों की बीमारियों में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी 36.6 फीसदी रही।
अध्ययन के मुताबिक, "वायु प्रदूषण के कारण उत्तरी और मध्य भारत के राज्यों में सर्वाधिक आर्थिक नुकसान हुआ। यदि जीडीपी के फीसदी के रूप में देखें तो इनमें उत्तर प्रदेश में उच्चतम (जीडीपी का 2.2%) और बिहार (जीडीपी का 2%) आर्थिक नुकसान रहा।"
अध्ययन में कहा गया है, "वायु प्रदूषण के कारण प्रति व्यक्ति आर्थिक नुकसान के आधार पर 2019 में दिल्ली में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आर्थिक नुकसान हुआ है।"
परिवेशी पार्टिकुलेट मैटर प्रदूषण के कारण होने वाली रुग्णता और समय पूर्व होने वाली मौतों के कारण आउटपुट की क्षति से आर्थिक नुकसान की रेंज जहां सबसे छोटा राज्य पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश (9.5 मिलियन डॉलर आर्थिक क्षति) है वहीं उत्तरभारत में सर्वाधिक उत्तर प्रदेश (3188.4 डॉलर) है।
इनडोर वायु प्रदूषण के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान की अवधि में, गोवा में 7 · 6 मिलियन डॉलर का कम से कम नुकसान हुआ था। उत्तर प्रदेश में 1829 · 6 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ, जो देश में सबसे अधिक है।
अध्ययन में कहा गया है, "ओजोन प्रदूषण के कारण समय से पहले होने वाली मौतों के कारण वजह से जो आर्थिक नुकसान हुआ है उसकी रेंज उत्तर-पूर्व के छोटे से पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड में 4 मिलियन से डॉलर लेकर सर्वाधिक 286·2 मिलियन डॉलर तक है।"
भारत सरकार के सचिव, स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) के महानिदेशक बलराम भार्गव कहते हैं, “विभिन्न सरकारी योजनाएँ जैसे प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना और उन्नत चूल्हा अभियान ने भारत में घरेलू वायु प्रदूषण को कम करने में सहायता की है, जिसके लाभ इस मृत्यु दर को कम करने का सुझाव में है जैसा कि इस पत्र में है। ”(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
-राजू साजवान
ग्रामीण मीडिया प्लेटफॉर्म गांव कनेक्शन ने ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक सर्वेक्षण किया है
कोविड-19 वैक्सीन को लेकर ग्रामीण इलाकों में खासा उत्साह है। ग्रामीण इसके लिए भुगतान करने को भी तैयार हैं, लेकिन वैक्सीन के दो शॉट के लिए 1,000 रुपए से अधिक पैसा देने वालों की संख्या काफी कम है। ग्रामीण मीडिया प्लेटफार्म गांव कनेक्शन द्वारा किए गए सर्वे के मुताबिक, सर्वे में शामिल ग्रामीणों में से लगभग आठ फीसदी लोग ऐसे हैं, जो वैक्सीन के लिए 1,000 से 2,000 रुपए का भुगतान करने को तैयार हैं, जबकि दो तिहाई ग्रामीणों ने कहा कि वे 500 रुपए से अधिक नहीं दे सकते।
गांव कनेक्शन की सर्वे रिपोर्ट "कोविड-19 वैक्सीन एंड रूरल इंडिया" आज जारी की गई। गांव कनेक्शन ने 16 राज्यों और एक केंद्र शासित क्षेत्र के 6040 परिवारों से बातचीत की। इनमें से 36 फीसदी परिवारों ने कहा कि वे वैक्सीन के लिए भुगतान नहीं कर पाएंगे, जबकि 20 फीसदी परिवारों ने इस पर कोई राय नहं दी। हालांकि 44 फीसदी परिवारों ने कहा कि वे भुगतान करने के लिए तैयार हैं। लेकिन इनमें से दो तिहाई परिवारों ने 500 रुपए से अधिक भुगतान करने में असमर्थता जताई। इनमें से एक चौथाई ग्रामीणों ने कहा कि वे दो बार वैक्सीन लेने के लिए 500 से 1,000 रुपए का भुगतान कर सकते हैं। सर्वेक्षण में शामिल ग्रामीणों में से 50 फीसदी ने कहा कि वे किसी विदेशी कंपनी की बजाय भारतीय कंपनी द्वारा तैयार वैक्सीन को अपनाएंगे।
सर्वेक्षण में शामिल परिवारों में से 15 फीसदी ने माना कि उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य या नजदीकी व्यक्ति कोविड-19 से पीड़ित हो चुका है। दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाकों में कोविड-19 के केस अधिक पाए गए। इन परिवारों में से लगभग 25 फीसदी का कोविड-19 टेस्ट हो चुका है।
सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि लगभग 51 फीसदी ग्रामीणों का मानना है कि कोरोना वायरस संकट के पीछे चीन का षड्यंत्र है। जबकि 22 प्रतिशत लोगों ने इस संकट के लिए आम नागरिकों की लापरवाही और असावधानी को जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन 18 फीसदी ग्रामीणों ने कोरोना के प्रसार के लिए सरकार की विफलता को जिम्मेवार माना है।
सर्वे में शामिल ग्रामीणों में से ज्यादातर ने सरकारी अस्पतालों में भरोसा जताया। लगभग दो तिहाई ग्रामीणों ने कहा कि वे अपने इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों में जाना पसंद किया, जबकि केवल 11 फीसदी लोगों ने कहा कि वे अपने इलाज के लिए प्राइवेट अस्पतालों मे जाते हैं।
कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से ग्रामीणों के खानपान की आदतों मे बदलाव आया है। सर्वे में लगभग 70 फीसदी ग्रामी परिवारों ने कहा कि उन्होंने अब बाहर का खाना बंद कर दिया है। जबकि 33 फीसदी ग्रामीणों ने माना कि उन्होंने अब सब्जियां अधिक खाना शुरू कर दिया है, जबकि 30 फीसदी ने कहा कि वे अब फल खाना पसंद करते हैं। वहीं लगभग 40 फीसदी ग्रामीणों ने कहा कि कुछ समय पहले तक उन्होंने मीट, मछली, अंडा खाना बंद कर दिया था, जबकि नौ फीसदी ने कहा कि उन्होंने मांसाहार खाना पूरी तरह बंद कर दिया है, क्योंकि इससे कोरोनावायरस संक्रमण का खतरा रहता है।
बेशक लॉकडाउन खत्म हो चुका है, लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में कई लोगों को पूरा भोजन नहीं मिल पा रहा है। गांव कनेक्शन के इस सर्वे में शामिल गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रह रहे परिवारों में एक चौथाई ने बताया कि उनके परिवारों को खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है। इस सर्वे में 48 फीसदी बीपीएल, 45 फीसदी एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) और पांच फीसदी अंत्योदन योजना वाले परिवारों को शामिल किया गया था।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल की संसद को प्रधानमंत्री खड्गप्रसाद ओली ने भंग करवा दिया है। अब वहां अप्रैल और मई में चुनाव होंगे। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर हो गई हैं। उनमें कहा गया है कि नेपाल के संविधान में संसद को बीच में ही भंग करने का कोई प्रावधान नहीं है लेकिन मुझे नहीं लगता कि अदालत इस फैसले को उलटने का साहस करेगी। यह निर्णय ओली ने क्यों लिया? इसीलिए कि सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों खेमों में लगातार मुठभेड़ चल रही थी। एक खेमे के नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड हैं और दूसरे खेमे के ओली। ओली को इसी समझ के आधार पर प्रधानमंत्री बनाया गया था कि आधी अवधि में वे राज करेंगे और आधी में प्रचंड बिल्कुल वैसे ही जैसे उप्र में मायावती और मुलायमसिंह के बीच समझौता हुआ था।
अब ओली अपनी गद्दी से हिलने को तैयार नहीं हुए तो प्रचंड खेमे ने उस गद्दी को ही हिलाना शुरु कर दिया। पहले उन्होंने ओली पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। खुलेआम चि_ियां लिखी गईं, जिनमें सडक़-निर्माण की 50 करोड़ रु. की अमेरिकी योजना में पैसे खाने की बात कही गई। लिपूलेख-विवाद के बारे में भारत के विरुद्ध चुप्पी साधने का आरोप लगाया गया। इसके अलावा सरकारी निर्णयों में मनमानी करने और पार्टी संगठनों की उपेक्षा करने की शिकायतें भी होती रहीं। ओली ने भी कम दांव नहीं चले। उन्होंने लिपुलेख-विवाद के मामले में भारत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सुगौली की संधि का उल्लंघन करके भारतीय क्षेत्रों को नेपाली सीमा में दिखा दिया। ओली के इस ‘राष्ट्रवादी पैंतरे’ को संसद में सर्वदलीय समर्थन मिला। चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी दोनों धड़ों के बीच सरपंच की भूमिका निभाती रही।
अपनी भारत-विरोधी छवि चमकाने के लिए ओली ने नेपाली संसद में हिंदी में बोलने और धोती-कुर्ता पहनने पर रोक लगाने के पहल भी कर दी। इसकी अनुमति अब से लगभग 30 साल पहले मैंने संसद अध्यक्ष दमनाथ ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर दिलवाई थी। नेपालियों से शादी करने वाले भारतीयों को नेपाली नागरिकता लेने में अब सात साल लगेंगे, ऐसे कानून बनाकर ओली ने अपनी राष्ट्रवादी छवि जरुर चमकाई है लेकिन कुछ दिन पहले उन्होंने भारत के भी नजदीक आने के संकेत दिए। किंतु सत्तारुढ़ संसदीय दल में उनकी दाल पतली देखकर उन्होंने संसद भंग कर दी। यह संसद प्रधानमंत्री गिरिजाप्रसद कोइराला ने भी भंग की थी लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि वे जीत पाएंगे या नहीं?
(नया इंडिया की अनुमति से)
अभी कुछ महीने पहले अगस्त के पहले हफ्ते में ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार ने छत्तीसगढ़ के कुछ नेताओं के बारे में अखबार के इंटरनेट संस्करण पर अपने संस्मरण लिखे थे। इनमें उन नेताओं के समग्र जीवन की अधिक बातें नहीं थीं, महज खुद के संपर्क की बातें थीं। इनमें दो किस्तों में मोतीलाल वोरा के बारे में भी लिखा गया था। उसे हम आज यहां प्रकाशित कर रहे हैं-संपादक
कांग्रेस पार्टी के छत्तीसगढ़ के सबसे बुजुर्ग नेता मोतीलाल वोरा एक बरगद की तरह बूढ़े हैं, और बरगद की तरह ही उनका तजुर्बा फैला हुआ है। भला और कौन ऐसे हो सकते हैं, जो राजस्थान से आकर छत्तीसगढ़ में बसे हों, और यहां के कांग्रेस के इतने बड़े नेता बन जाएं कि उन्हें अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाए, केन्द्रीय मंत्री बनाया जाए, और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य का राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल बनाया जाए। वोराजी एक अद्भुत व्यक्तित्व हैं, और छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है जो उनके बारे में कई लोग कहते हैं, ऐड़ा बनकर पेड़ा खाना।
मोतीलाल वोरा ने अपनी कामकाजी जिंदगी की शुरूआत रायपुर की एक बस कंपनी में काम करते हुए की थी। जैसा कि पहले किसी भी परंपरागत कारोबार में होता था, हर कर्मचारी को हर किस्म के काम करने पड़ते थे, न तो उस वक्त अधिक किस्म के ओहदे होते थे, और न ही लोगों को किसी काम को करने में झिझक होती थी। मुसाफिर बस चलाने वाली इस कंपनी में वोराजी कई किस्म के काम करते थे। लेकिन उनकी सरलता की एक घटना खुद उन्हें याद नहीं होगी।
यह बात मेरे बचपन की है, जिस वक्त हमारे पड़ोस में, बसों को नियंत्रित करने वाले आरटीओ के एक अफसर रहते थे। उनके घर पर मेरा डेरा ही रहता था, लेकिन 5-7 बरस की उस उम्र की अधिक यादें नहीं है, लेकिन बाद में पड़ोस के चाचाजी की बताई हुई बात जरूर याद है। उनके घर एक सोफा की जरूरत थी, और सरकारी विभागों के प्रचलन के मुताबिक आरटीओ अधिकारी के घर सोफा पहुंचाने का जिम्मा इस बस कंपनी पर आया था। ठेले पर सोफा लदवाकर किसी के साथ स्कूटर पर बैठकर बस कंपनी के कर्मचारी मोतीलाल वोरा पहुंचे और सोफा उतरवाकर, घर के भीतर रखवाकर लौटे। यह बात आई-गई हो गई, वक्त के साथ-साथ वोराजी राजनीति में आए, कांग्रेस में आए, विधायक बने, और अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए। इस बीच हमारे पड़ोस के चाचाजी बढ़ते-बढ़ते प्रदेश के एक सबसे बड़े संभाग के आरटीओ बने। लेकिन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा जब उनके शहर के दौरे पर पहुंचते थे, तो वे या तो छुट्टी ले लेते थे, या सामने पडऩे से बचने का कोई और जरिया निकाल लेते थे। ऐसा नहीं कि वोराजी को आरटीओ का कामकाज समझता नहीं था, लेकिन रायपुर के उस वक्त का सोफा इस वक्त झिझक पैदा कर रहा था, और चाचाजी उनके सामने नहीं पड़े, तो नहीं पड़े।
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मोतीलाल वोरा कुछ असंभव किस्म के व्यक्ति हैं। वे बहुत सीधे-सरल भी हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के दाएं हाथ की तरह इतने बरसों से बने रहने के लिए सिधाई, और सरलता से परे भी कई हुनर लगते हैं, जिनमें से कुछ तो वोराजी के पास होंगे ही। प्रदेशों के कांग्रेस संगठनों की बात करना ठीक नहीं होगा, लेकिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बारे में यह कहा जाता है कि इसका यह अनोखा सौभाग्य रहा कि इसके कोषाध्यक्ष ईमानदार रहे। मोतीलाल वोरा ने कांग्रेस कोषाध्यक्ष रहते हुए हजारों करोड़ रूपए देखे होंगे, लेकिन उन पर किसी बेईमानी का कोई लांछन कभी नहीं लगा। और तो और अभी दो चुनाव पहले जब उनका बेटा अरूण दुर्ग से चुनाव लड़ रहा था, और इस सदी में चुनाव के जिन खर्चों की परंपरा मजबूत हो चुकी है, उन खर्चों के लिए आखिरी के दो-तीन दिनों में उम्मीदवारों को पार्टी से पैसा मिलता है। मोतीलाल वोरा ने प्रदेश के सभी कांग्रेस उम्मीदवारों को जो पैसा भेजा था, वही पैसा अरूण वोरा को भी मिला था। पता नहीं क्यों उस चुनाव में मोतीलाल वोरा ने हाथ खींच लिया था, और मतदान के दो दिन पहले का पैसा नहीं पहुंचा, और वह भी एक वजह थी जो अरूण वोरा चुनाव हार गए थे।
पिछले 25-30 बरसों में दो-चार बार मेरा वोराजी के दुर्ग घर पर जाकर मिलना हुआ है। लकड़ी का वही पुराना सोफा, और कमरे में प्लास्टिक की 10-20 कुर्सियों की थप्पी लगी हुई थी। कोई शान-शौकत नहीं बढ़ी, कोई खर्च भी नहीं बढ़े। ताकत की जितनी कुर्सियों पर वोराजी रहे, और कांग्रेस पार्टी के हजारों करोड़ को उन्होंने यूपीए के 10 बरसों में देखा, कई आम चुनाव निपटाए, पूरे देश की विधानसभाओं के चुनाव निपटाए, लेकिन उनके परिवार का रहन-सहन ज्यों का त्यों बना रहा। आज के जमाने में यह सादगी छोटी बात नहीं है, और शायद इसी के चलते कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के करीब और कोई विकल्प नहीं बन पाया।
15-16 बरस पहले जब मैंने अखबार की नौकरी छोड़ी, और इस अखबार, ‘छत्तीसगढ़’, को शुरू करना तय किया, तो कुछ विज्ञापनों की कोशिश करने के लिए दिल्ली गया। उस वक्त दिल्ली के मेरे एक दोस्त, संदीप दीक्षित, पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस के सांसद बने थे, और अपनी मां शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री निवास से अलग रहने लगे थे। उनकी जिद पर मैं उनके घर पर ही ठहरा, और दिल्ली आने की वजह बताई, यह भी बताया कि कांग्रेस मुख्यालय में आज वोराजी से मुलाकात तय है। संदीप ने कहा कि वहां तो मजमा लगा होगा क्योंकि पंजाब विधानसभा चुनाव की टिकटें तय होना है, और चुनाव समिति में वोराजी भी हैं। इसके साथ ही संदीप ने आधे मजाक और आधी गंभीरता से कहा- आप भी कहां विज्ञापनों के चक्कर में पड़े हैं, पंजाब में एक-एक टिकट के लिए लोग पांच-पांच करोड़ रूपए देने को तैयार खड़े हैं, आप वोराजी से किसी एक को टिकट ही दिला दीजिए, आपका प्रेस खड़ा हो जाएगा।
जब मैं वोराजी से मिलने एआईसीसी पहुंचा, तो सचमुच ही सारे बरामदों में पंजाब ही पंजाब था। लेकिन बाहर सहायक के पास मेरे नाम की खबर थी, मुझे तुरंत भीतर पहुंचाया गया, और वैसी मारामारी के बीच भी वोराजी ने चाय पिलाई, पान निकालकर अपने हाथ से दिया, और कांग्रेस प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के नाम विज्ञापनों के लिए चिट्ठियां टाईप करवाईं, उनकी एक-एक कॉपी मुझे भी दी कि मैं जाकर उनसे संपर्क कर लूं।
चिट्ठी आसान होती है, लेकिन उस वक्त के उतने कांग्रेस प्रदेशों में जाना अकेले इंसान के लिए मुमकिन नहीं होता, इसलिए वे सारी चिट्ठियां मेरे पास रखी रह गईं, और भला किस प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक चिट्ठी के आधार पर शुरू होने वाले अखबार के लिए विज्ञापन मंजूर करने का समय हो सकता है? बात आई-गई हो गई, लेकिन वोराजी ने पूरा वक्त दिया, और उन्हें जब मैंने संदीप दीक्षित की कही बात बताई तो वे हॅंस भी पड़े। टिकट दिलवाकर पैसे लेने या दिलवाने का काम वे करते होते, तो इतने बरसों में न बात छुपती, न पैसा छुपता।
वोराजी से मेरा अच्छा और बुरा, सभी किस्म का खूब तजुर्बा रहा। अच्छा ही अधिक रहा, और बुरा तो नाममात्र का था।
जब मोतीलाल वोरा अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब मैं पिछले अखबार में रिपोर्टिंग करता था। वोराजी तकरीबन हर शनिवार-इतवार रायपुर-दुर्ग आ जाते थे, और मैं दोनों जगहों पर उनके कई कार्यक्रमों में चले जाता था, और रायपुर की सभी प्रेस कांफ्रेंस में भी। ऐसी ही एक प्रेस कांफ्रेंस में मैंने उनसे पूछा- क्या रायपुर में आपके किसी रिश्तेदार को अफसर परेशान कर रहे हैं?
वे कुछ हक्का-बक्का रह गए, सवाल अटपटा था, और मुख्यमंत्री अपने रिश्तेदारों के बारे में ऐसी अवांछित बात सुनने की उम्मीद भी नहीं कर सकता था। उन्होंने इंकार किया।
लेकिन मेरे पास उससे अधिक अवांछित अगला सवाल था, मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें उनके अफसरों से ऐसी शिकायत मिली है कि उनके (वोराजी के) रिश्तेदार उन्हें परेशान करते हैं?
इस पर वे कुछ खफा होने लगे लेकिन उनकी सज्जनता ने उनकी आवाज को फिर भी काबू में रखा, और उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली।
मैं उन दिनों रिपोर्ट लिखते हुए पत्रकारवार्ता के सवाल-जवाब भी बारीकी से सवाल-जवाब की शक्ल में लिखता था, और अपने पूछे सवालों के साथ यह भी खुलासा कर देता था कि ये सवाल इस संवाददाता ने पूछे थे, और उनका यह जवाब मिला था।
सवाल-जवाब की शक्ल में छपी प्रेस कांफ्रेंस की बात आई-गई हो गई। इसके कुछ या कई हफ्ते बाद उस अखबार के प्रधान संपादक मायारामजी सुरजन रायपुर लौटे। मुझे भनक लग गई थी कि वे किसी बात पर मुझसे खफा हैं, और मेरी पेशी हो सकती है। दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने मुझे बुलाया, और कहा कि भोपाल में वोराजी ने उन्हें मेरी शिकायत की है। और यह कहकर शिकायत की है कि सुनील कुमार मुझसे (वोराजी से) इस टोन में बात करते हैं कि मानो वे मेरे मालिक हों। बाबूजी (मायारामजी) ने बताया कि वोराजी ने चाय पर बुलाकर अखबार की कतरन उनके सामने रख दी थी कि मैंने प्रेस कांफ्रेंस में ऐसे-ऐसे सवाल किए थे। बाबूजी ने उनसे यह साफ किया कि हमारे अखबार के रिपोर्टरों को यह हिदायत दी जाती है कि वे सवाल तैयार करके ही किसी प्रेस कांफ्रेंस में जाएं, और सवाल जरूर पूछें, महज डिक्टेशन लेकर न लौटें। इसलिए सुनील ने सवाल जरूर किए होंगे, लेकिन इन सवालों में कुछ गलत तो लग नहीं रहा।
अब यहां पर एक संदर्भ को साफ करना जरूरी है, वोराजी के एक रिश्तेदार और नगर निगम के एक कर्मचारी, वल्लभ थानवी बड़े सक्रिय कर्मचारी नेता थे। वहां के बड़े अफसरों से उनकी तनातनी चलती ही रहती थी। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि म्युनिसिपल के बड़े अफसर उन्हें इसलिए परेशान करते हैं कि वे मुख्यमंत्री के रिश्तेदार हैं। इसके जवाब में निगम-प्रशासक या आयुक्त ने कहा था कि मुख्यमंत्री के रिश्तेदार होने की वजह से वल्लभ थानवी उन्हें परेशान करते हैं। इसी संदर्भ में मैंने प्रेस कांफ्रेंस में वोराजी से सवाल किया था।
लेकिन मुख्यमंत्री तो मुख्यमंत्री होते हैं, उन्हें अगर कोई बात बुरी लगी तो अखबार के मुखिया से शिकायत का उनका एक जायज हक बनता था। और बहुत लंबे परिचय की वजह से उन्होंने बाबूजी को बुलाकर ऐसी कुछ और कतरनों की भी फाईल सामने धर दी थी।
मुझे बाबूजी के शब्द अच्छी तरह याद हैं कि उन्होंने इन्हें पढकऱ वोराजी से कहा था कि उन्हें तो इसमें कोई बात आपत्तिजनक नहीं लग रही है, जहां तक मेरे बोलने के तरीके का सवाल है, तो मुख्यमंत्री का भला कौन मालिक हो सकता है। उन्होंने कहा कि सुनील के बात करने का तरीका कुछ अक्खड़ है, और वे मुझे उनसे (वोराजी से) बात करने भेजेंगे। वे तो चाय पीकर लौट आए थे, लेकिन मुझे रायपुर में यह जानकारी देते हुए बाबूजी ने कहा कि जब वोराजी अगली बार रायपुर आएं तो उनसे जाकर मैं मिल लूं, और पूछ लूं कि वे किसी बात पर नाराज हैं क्या। न मुझे खेद व्यक्त करने का निर्देश मिला, और न ही माफी मांगने की कोई सलाह दी गई, कोई हुक्म दिया गया।
वोराजी का कोई रायपुर प्रवास हफ्ते भर से अधिक दूर तो होता नहीं था, वे यहां आए, और मैं सर्किट हाऊस में जाकर उनसे मिला। भीतर खबर जाते ही उन्होंने तुरंत बुला लिया, मैंने कहा- बाबूजी कह रहे थे कि आप मेरी किसी बात से नाराज हैं?
वोराजी ने हॅंसते हुए पास आकर पीठ थपथपाई, और कहा- अरे नहीं, कोई नाराजगी नहीं है। और क्या हाल है? कैसा चल रहा है?
मुख्यमंत्री की नाराजगी महज एक वाक्य कहने से इस तरह धुल जाए, ऐसा आमतौर पर होता नहीं है, लेकिन वोराजी की सज्जनता कुछ इसी तरह की थी। उन्हें मैंने मन में गांठ बांधकर रखते नहीं देखा है, और राजनीति के प्रचलित पैमानों पर उनकी सज्जनता अनदेखी नहीं रहती।
सोनिया-राहुल के साथ एक नाव में सवार छत्तीसगढ़ से अकेले वोरा
मोतीलाल वोरा के बारे में कल बात शुरू हुई, तो किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। दरअसल उनके साथ मेरी व्यक्तिगत यादें भी जुड़ी हुई हैं, और उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ भी है। फिर उनका इतना लंबा सक्रिय राजनीतिक जीवन है कि उनसे जुड़ी कहानियां खत्म होती ही नहीं।
जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस के भीतर के लोग लगातार लगे रहते थे। वैसे में माधवराव सिंधिया उनके संरक्षक बनकर दिल्ली दरबार में उन्हें बचाए रखते थे। इस बात में कुछ भी गोपनीय नहीं था, और हर हफ्ते यह हल्ला उड़ता था कि वोराजी को हटाया जाने वाला है। नतीजा यह था कि उस वक्त एक लतीफा चल निकला था कि वोराजी जब भी शासकीय विमान में सफर करते थे, तो विमान के उड़ते ही उसका वायरलैस बंद करवा देते थे। उसकी वजह यह थी कि उन्हें लगता था कि उड़ान के बीच अगर उन्हें हटाने की घोषणा हो जाएगी, तो पायलट उन्हें बीच रास्ते उतार न दे।
वोराजी का पांच साल का पूरा कार्यकाल ऐसी चर्चाओं से भरे रहा, और वे इसके बीच भी सहजभाव से काम करते रहे। सिंधिया को छत्तीसगढ़ के अनगिनत कार्यक्रमों में उन्होंने बुलाया, और उस वक्त के रेलमंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने छत्तीसगढ़ के लिए भरपूर मंजूरियां दीं। उस वक्त अखबारनवीसी कर रहे लोगों को याद होगा कि इनकी जोड़ी को उस समय मोती-माधव या माधव-मोती एक्सप्रेस कहा जाता था। माधवराव सिंधिया परंपरागत रूप से अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंदी थे, और छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं से भी उनका कोई प्रेमसंबंध नहीं था। ऐसे में केन्द्र में ताकतवर सिंधिया को राज्य में मोतीलाल वोरा जैसे निरापद मुख्यमंत्री माकूल बैठते थे, और ताकत में वोराजी की सिंधिया से कोई बराबरी नहीं थी। नतीजा यह था कि ताकत के फासले वाले इन दो लोगों के बीच जोड़ीदारी खूब निभी।
मुख्यमंत्री रहने के अलावा जब वोराजी को राजनांदगांव संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया गया, तब उन्होंने चुनाव प्रचार में उसी अंदाज में मेहनत की, जिस अंदाज में वे मुख्यमंत्री रहते हुए रोजाना ही देर रात तक काम करने के आदी थे। इस संसदीय चुनाव प्रचार के बीच मैंने उनको इंटरव्यू करने के लिए समय मांगा तो उनका कहना था कि वे सात बजे चुनाव प्रचार के लिए राजनांदगांव से रवाना हो जाते हैं, और देर रात ही लौटते हैं। ऐसे में अगर मैं मिलना चाहता था, तो मुझे सात बजे के पहले वहां पहुंचना था। मैं स्कूटर से रायपुर से रवाना होकर दो घंटे में 7 बजे के पहले ही राजनांदगांव पहुंच गया, वहां वे एक तेंदूपत्ता व्यापारी के पत्ता गोदाम में बने हुए एक गेस्टरूम में सपत्नीक ठहरे थे, और करीब-करीब तैयार हो चुके थे।
वे मेरे तेवर भी जानते थे, और यह भी जानते थे कि उनके प्रति मेरे मन में न कोई निंदाभाव था, और न ही प्रशंसाभाव, फिर भी उन्होंने समय दिया, सवालों के जवाब दिए, और शायद इस बात पर राहत भी महसूस की कि मैंने अखबार के लिए चुनावी विज्ञापनों की कोई बात नहीं की थी। चुनाव आयोग के प्रतिबंधों के बाद चुनावी-विज्ञापन शब्द महज एक झांसा है, हकीकत तो यह है कि अखबार उम्मीदवारों और पार्टियों से सीधे-सीधे पैकेज की बात करते हैं। वह दौर ऐसे पैकेज शुरू होने के पहले का था, लेकिन यह आम बात है कि अखबारों के रिपोर्टर ही उम्मीदवारों से विज्ञापनों की बात कर लेते थे, कर लेते हैं, लेकिन वोराजी से न उस वक्त, और न ही बाद में कभी मुझे ऐसे पैकेज की कोई बात करनी पड़ी, और नजरों की ओट बनी रही।
वोराजी खुद भी एक वक्त कम से कम एक अखबार के लिए तो काम कर ही चुके थे, और उनके छोटे भाई गोविंदलाल वोरा छत्तीसगढ़ के एक सबसे बुजुर्ग और पुराने अखबारनवीस-अखबारमालिक थे, इसलिए वोराजी को हर वक्त ही छत्तीसगढ़ के मीडिया की ताजा खबर रहती थी, भोपाल में मुख्यमंत्री रहते हुए भी, और केन्द्र में मंत्री या राष्ट्रपति शासन में उत्तरप्रदेश को चलाते हुए। जितनी मेरी याददाश्त साथ दे रही है, उन्होंने कभी अखबारों को भ्रष्ट करने, या उनको धमकाने का काम नहीं किया। वह एक अलग ही दौर था।
मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री रहे, अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन छत्तीसगढ़ में वे अपने कोई सहयोगी नहीं बना पाए। दुर्ग में दो-चार लोग, और रायपुर में पांच लोग उनके नाम के साथ गिने जाते थे। रायपुर में तो उनके करीबी पांच लोगों की शिनाख्त इतनी जाहिर थी कि उन्हें पंच-प्यारे कहा जाता था। इन लोगों के लिए भी वोराजी कुछ जगहों पर मनोनयन से बहुत अधिक कुछ कर पाए हों, ऐसा भी याद नहीं पड़ता। लेकिन उनकी एक खूबी जरूर थी कि वे छत्तीसगढ़ के हजारों लोगों के लिए बिना देर किए सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो जाते थे।
यूपीए सरकार के दस बरसों में देश में उनका नाम बड़ा वजनदार था। मेरे एक दोस्त की बेटी मुम्बई के एचआर कॉलेज में ही दाखिला चाहती थी। उस कॉलेज में दाखिला बड़ा मुश्किल भी था। उनके साथ मैं वोराजी के पास दिल्ली गया, दिक्कत बताई, तो वे सहजभाव से सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो गए। हम लोगों को कमरे में बिठा रखा, चाय और पान से स्वागत किया, पीछे के कमरे में जाकर अपने टाईपिस्ट के पास खड़े रहकर चिट्ठी लिखवाई उसे मुम्बई कॉलेज में फैक्स करवाया, और फैक्स की रसीद के साथ चिट्ठी की एक कॉपी मुझे दी, और कॉलेज के संस्थापक मुंबई के एक बड़े बिल्डर हीरानंदानी से फोन पर बात करने की कोशिश भी की, लेकिन बात हो नहीं पाई।
चिट्ठी के साथ जब मैं अपने दोस्त और उनकी बेटी के साथ मुंबई गया, तो एचआर कॉलेज के बाहर मेला लगा हुआ था। उस भीड़ के बीच भी हमारे लिए खबर थी, और कुछ मिनटों में हम प्रिंसिपल के सामने थे। इन्दू शाहणी, मुंबई की शेरिफ भी रह चुकी थीं। उनकी पहली उत्सुकता यह थी कि मैं वोराजी को कैसे जानता हूं, उन्होंने सैकड़ों पालकों की बाहर इंतजार कर रही कतार के बाद भी 20-25 मिनट मुझसे बात की, जिसमें से आधा वक्त वे वोराजी और छत्तीसगढ़ के बारे में पूछती रहीं। सबसे बड़ी बात यह रही कि जिस दाखिले के लिए 10-20 लाख रूपए खर्च करने वाले लोग घूम रहे थे, वह वोराजी की एक चिट्ठी से हो गया। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि बाद में उन्होंने कभी चुनाव के वक्त या किसी और राजनीतिक काम से कोई खर्च बताया हो। वे उसे सज्जनता के साथ भूल गए, और दीवाली पर मेरे दोस्त मेरे साथ सिर्फ मिठाई का एक साधारण डिब्बा लेकर उनके घर दुर्ग गए, तो भी उनका कहना था कि अरे इसकी क्या जरूरत थी।
मोतीलाल वोरा राजनीति में लगातार बढ़ती चली जा रही कुटिलता के बीच सहज व्यक्ति थे। वे बहुत अधिक साजिश करने के लिए कुख्यात नेताओं से अलग दिखते थे, और अभी भी अलग दिखते हैं। उनकी पसंद अलग हो सकती है, लेकिन अपनी पसंद को बढ़ावा देने के लिए, या नापसंद को कुचलने के लिए वे अधिक कुछ करते हों, ऐसा कभी सुनाई नहीं पड़ा।
छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की सरकार बनी, तो दिल्ली से ऐसी चर्चा आई कि वोराजी की पहल पर, और उनकी पसंद पर ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री बनाना तय किया गया था, और इस बात की लगभग घोषणा भी हो गई थी, लेकिन इसके बाद भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव ने एक होकर, एक साथ लौटकर जब यह कह दिया कि वे ताम्रध्वज के साथ किसी ओहदे पर कोई काम नहीं करेंगे, तो ताम्रध्वज का नाम बदला गया, और भूपेश बघेल का नाम तय हुआ। ये तमाम बातें वैसे तो बंद कमरों की हैं, लेकिन ये छनकर बाहर आ गईं, और इनसे मोतीलाल वोरा और भूपेश बघेल के बीच एक दरार सी पड़ गई।
अभी जब छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के कांग्रेस उम्मीदवार तय होने थे, तब मोतीलाल वोरा से जिन्होंने जाकर कहा कि उन्हें राज्यसभा में रहना जारी रखना चाहिए, तो आपसी बातचीत में उन्होंने यह जरूर कहा था कि भूपेश बघेल उनका नाम होने देंगे? और हुआ वही, हालांकि यह नौबत शायद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के दरवाजे तक नहीं आई, और कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में ही यह तय कर लिया कि वोराजी का उपयोग अब राज्यसभा से अधिक संगठन के भीतर है, और केटीएस तुलसी जैसे एक सीनियर वकील की पार्टी को इस मौके पर अधिक जरूरत है।
वोराजी का बहुत बड़ा कोई जनाधार कभी नहीं रहा, वे पार्टी के बनाए हुए रहे, और जनता के बीच अपने सीमित असर वाले नेता रहे। लेकिन उनके बेटों की वजह से कभी उनकी कोई बदनामी हुई हो, ऐसा नहीं हुआ, और राजनीति में यह भी कोई छोटी बात तो है नहीं। छत्तीसगढ़ की एक मामूली नौकरी से लेकर वे कांग्रेस पार्टी में उसके हाल के सबसे सुनहरे दस बरसों में सबसे ताकतवर कोषाध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सबसे करीबी व्यक्ति रहे, आज भी हैं। आज दिन सुनहरे नहीं हैं, कांग्रेस पार्टी, सोनिया परिवार, और इन दोनों से जुड़ी हुई कुछ कंपनियां लगातार जांच और अदालती मुकदमों का सामना कर रही हैं, और उनमें मोतीलाल वोरा ठीक उतने ही शामिल हैं, ठीक उतनी ही दिक्कत में हैं, जितने कि सोनिया और राहुल हैं। किसी एक नाव पर इन दोनों के साथ ऐसे सवार होना भी कोई छोटी बात नहीं है, और रायपुर की एक बस कंपनी के एक मुलाजिम से लेकर यहां तक का लंबा सफर खुद मेरे देखे हुए बहुत सी और यादों से भरा हुआ है, लेकिन उनके बारे में बाकी बातें बाद में फिर कभी।
मृणाल पाण्डे-
हिंदी की पत्रकारिता स्वायत्त पैदा हुई और स्वायत्त रह कर ही वह लोकतांत्रिक राजनीति की सच्ची सहभागी बनी है | मोतीलाल वोरा जी उस परंपरा की एक दुर्लभ कड़ी थे। उनकी निकटता और मार्गदर्शन पाना मेरे लिए व्यक्तिश: और पत्रकारीय दोनों के नज़रिये से एक उपलब्धि रही | बढ़ती उम्र और क्षीण पड़ते शरीर के बावजूद आदरणीय वोरा जी हम सब एसोशियेटेड जर्नल्स के कर्मियों के लिए अंत तक एक बड़े और छांहदार वट वृक्ष बने रहे।
एक ऐसी सहज, मिलनसार और गर्माहट भरी आत्मीयता से भरपूर शख्सियत का चला जाना, जिसके दरवाजे अपने स्नेही जनों, मित्रों के लिए जब भी जरूरत हो, हमेशा खुले रहे, हम सब को एक ऐसे अकेलेपन के गहरे अहसास से भर गया है जो घर के सम्मानित बुजुर्ग का साया उठ जाने से होता है। अभी कुछ ही दिन पहले अपने करीबी दोस्त और सहकर्मी अहमद पटेल जी के निधन पर लिखी उनकी मार्मिक उदास सतरें लगता है एक तरह से हमारे बीच से उनकी अपनी खामोश विदाई की पीठिका बना रही थीं।
आज की मौकापरस्त राजनीति में जिसका जनता या साहित्य और विचारों की दुनिया से कोई नाता नहीं दिखता, एक पत्रकारीय जीवन से शुरुआत करने वाले साहित्य और साहित्यकारों के लिए गहरा सम्मान भाव रखने वाले वोरा जी एक दुर्लभ ऑर्किड की तरह थे। वर्ष 1993-96 तक जब वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे मेरी माता शिवानी जी से लखनऊ में उनका बहुत सहृदय संपर्क रहा। 1996 में जब आंतरिक रक्तस्राव से शिवानी जी अचानक बेहद नाजुक दौर से गुजर रही थीं, उन्होंने जिस आत्मीय सहजता से अपना राजकीय हवाई जहाज उनको दिल्ली लाने के लिए उपलब्ध करा दिया, वह आज के माहौल में अकल्पनीय है।
बाद को उनकी स्थिति संभलने पर जब मैं वोरा जी को परिवार की ओर से धन्यवाद देने को मिली, उन्होने बहुत स्नेह से कहा, ‘देखो शिवानी जी सिर्फ तुम्हारी मां ही नहीं, हमारे हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी विभूति भी हैं। यह तो मेरा कर्तव्य था।’ सच्चा साहित्यिक अनुराग किस तरह राजनीति का मानवीयकरण कर सकता है और राजनीति एक अच्छे मनुष्य से जुड़ कर किस हद तक मानवीय सरोकार बना सकती है, इसका प्रत्यक्ष रूप मैंने उसी दिन जाना।
हमारे प्रकाशन समूह और उसकी जननी, अपनी पार्टी के प्रति तो वोरा जी का अनुराग अनुपम था। उनके दिलो दिमाग के रास्ते कई दिशाओं, कई खिड़कियों में खुलते थे, इसलिए राजनीतिक विचारधारा की ज्यादतियों या संकीर्णता के वे कभी शिकार नहीं बने। जब कभी मिलते अपने से कहीं कम अनुभव और आयु वालों से भी वे हमेशा एक बालकोचित उत्सुकता से जानना चाहते थे कि हिंदी में इन दिनों क्या कुछ लिखा जा रहा है। पत्रकारिता की दिशा दशा पर हमारी क्या राय है?
आज जबकि रोज बरोज राजनीति में राज्य और शक्ति के उद्दंड बर्बर रूपों ने राजनीति के क्षेत्र में कला साहित्य पर किसी भी तरह की संवेदनशील बातचीत की संभावना को मिटा डाला है, वोरा जी का जाना एक अपूरणीय क्षति है। वे उस उदार राजनैतिक संस्कृति के चंद बच रहे झंडाबरदारों में से थे जिनका आदर्श गांधी, नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव और कृपलानी जैसे बुद्धि की गरिमा वाले राजनेता रहे। वे मानते थे कि धर्म या पारंपरिक शिक्षा दीक्षा नहीं, राजनीति से ही आम आदमी की जिंदगी में सही तब्दीली लाई जा सकती है। और इसके लिए जरूरी है कि राज्य में कलाएं राजनीति की समांतर अनुपूरक धाराएं बनी रहें। उनको राजनीति की दब्बू मातहत या राजनेताओं की कृपा पर निर्भर नहीं समझा जाए।
राजनीति की सारी हड़बड़ी और आपाधापी के बीच भी अपनी टीम को निरंतर विवेक, दिमागी ताज़गी और खुलेपन का सुखद अहसास देने वाले अपनी संस्था के इस पितृपुरुष को हमारी विनम्र ॠद्धांजलि। (navjivan)
जब अमांडा क्लेमैन न्यूयॉर्क में थीं तो क्रेडिट कार्ड के कर्ज़ में इस तरह फंस चुकी थीं कि उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.
अमेरिका में फाइनेंशियल थेरेपिस्ट अमांडा बीबीसी मुंडो को बताती हैं, "उस हालत ने मुझे इतना शर्मिंदा किया कि मुझे लगा कि मेरी पेशेवर और निजी उपलब्धियां सब एक झूठ हैं."
एक दिन अमांडा ने अपनी मां से अपने बाल काटने के लिए कहा. लेकिन, मां ने जिस तरह बाल काटे वो बहुत ख़राब दिख रहे थे. तब मां ने बोला कि इसे ठीक कराने के लिए तुरंत अपने हेयरड्रेसर के पास जाओ.
लेकिन, अमांडा ने कहा, "मैं नहीं जा सकती. मैं वहां वापस नहीं जा सकती क्योंकि मैंने उसे बाउंस चैक दिया है."
तब अमांडा को अपनी मां को पूरी सच्चाई बतानी पड़ी. अमांडा ने बताया कि उन पर 19 हज़ार डॉलर (करीब 14 लाख रुपये) का कर्ज़ है.
फाइनेंशियल प्लान
सबसे ख़राब बात ये थी कि अमांडा को नहीं पता था कि इतने बड़े कर्ज़ से वो कैसे निकल पाएंगी.
हालांकि, तब मां की मदद से अमांडा ने अपने बिल चुकाए. इसके बाद उन्होंने महीने का एक बजट और फाइनेंशियल प्लान बनाया. अमांडा ने पहले कभी ऐसा नहीं किया था.
अमांडा क्लेमैन कहती हैं, "मैं हमेशा बजट बनाने से बचती थी क्योंकि मुझे लगता था कि इससे मेरी आज़ादी छिन जाएगी."
लेकिन, बजट बनाने से उन्हें पता चला कि इससे उनकी आज़ादी बढ़ गई है और धीरे-धीरे खर्चे भी कम हुए हैं. उनकी बचत हो रही है जिससे उन्होंने अपने कर्ज़ चुका दिए हैं.
अमांडा कहती हैं कि उस हेयरकट के कर्ज़ के कारण मुझे मेरा सही रास्ता मिल गया जहां मैं पैसों को लेकर ज़्यादा समझदार, सशक्त हो गई और मुझे मेरी ज़िंदगी का जुनून मिल गया.
कई सालों तक सोशल वर्क का काम करने के बाद अपने इस जुनून के कारण अमांडा क्लेमैन एक फाइनेंशियल थेरेपिस्ट बन गईं.
फाइनेंशियल एंग्ज़ाइटी (वित्तीय घबराहट) क्या है
अब क्लेमैन ऐसे लोगों की मदद करती हैं जिन्हें वित्तीय तनाव की समस्या है. वो कंपनियों के साथ जुड़ी हैं, कोर्सेज कराती हैं और इन विषयों पर लिखती हैं.
अमांडा बताती हैं कि घबराहट तब होती है जब हमारा शरीर और दिमाग हमें सिग्नल देता है कि कुछ ऐसा है जो सही नहीं है, उस पर ध्यान दें.
ये हमारे लिए ख़तरे की निशानी है कि अब उस मुश्किल स्थिति से निपटने का वक़्त आ गया है. हालांकि, अक्सर होता ये है कि जब लोग घबराहट महसूस करते हैं तो मुश्किलों पर ध्यान देना ही बंद कर दते हैं.
अमांडा कहती हैं कि इसलिए हम पैसों को लेकर घबराहट महसूस करते हैं. हम अमूमन इस बारे में नहीं सोचते हैं और हालत इतनी ख़राब हो जाती है कि हम आवेश में फैसले कर लेते हैं.
वह बताती हैं कि इन फैसलों के कारण स्थितियां और ख़राब हो जाती है जिससे घबराहट और बढ़ जाती है. इस तरह हम एक दुष्चक्र में फंसते चले जाते हैं. इसलिए सबसे पहले अपनी घबराहट पर ध्यान दें और गहराई से सोचें की आपके साथ क्या हो रहा है.
अमांडा फाइनेंशियल एंग्ज़ाइटी से निकलने के ये पांच तरीके बताती हैं:
1. अपनी उत्सुकता बढ़ाएं
पहला कदम ये है कि अपने पैसे को लेकर उत्सुक होना सीखें.
आपकी वित्तीय ज़िंदगी में क्या हो रहा है, ये उसमें असल दिलचस्पी लेने जैसा है बजाए कि आप सिर्फ़ मौजूदा कर्ज़ चुकाने के बारे में सोचें.
उसके लिए, एक सही तरीका ये है कि हम खुद से पूछें कि हमारे पैसों से हमारे बारे में क्या पता चलता है कि हम अपने समय का इस्तेमाल कैसे करते हैं और हमारे लिए क्या चीजें असल में महत्वपूर्ण हैं.
2. अपने पैसों पर लगातार ध्यान दें
महीने में कम से कम एक बार ये तीन चीजें करें:
- ये देखें कि आपके बैंक अकाउंट में कितना पैसा आता है और कितना बचता है.
- इस पर विचार करें कि आगे कैसी वित्तीय स्थिति आने वाली है.
- एक योजना बनाएं.
उदाहरण के लिए, अगर आपका किराया बढ़ रहा है तो आपको अपने बजट में कुछ चीजें बदलनी होंगी ताकि किराया देने का समय आने से पहले आप कुछ इंतज़ाम कर सकें.
ये समय से पहले की तैयारी करना है ना कि समय आने का इंतज़ार करना है.
3. आपने जो हासिल किया है, उसके लिए अपनी खूबियों को पहचानें
ये महत्वपूर्ण है कि आप पहचानें की आपने अपने लक्ष्य की तरफ़ कितनी प्रगति की है.
इस बात को लेकर परेशान ना रहें कि आप लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुंचे.
भले ही आप छोटे-छोटे कदम उठा रहे हैं लेकिन ये भी महत्वपूर्ण बदलाव है जो दिखाता है कि आपमें इसकी क्षमता है.
फाइनेंशियल एंग्ज़ाइटी को ख़त्म करना एक ऐसी प्रक्रिया है जो रातों रात पूरी नहीं हो सकती.
4. प्रयोग करने की मौका
हम अक्सर चीजों को उनके ‘सही तरीक़े’ से ही करना चाहते हैं क्योंकि कुछ अलग करने पर हमें असफल होने का डर लगता है.
लेकिन, कई बार किसी चीज़ को करने का एक ही सही तरीक़ा नहीं होता.
अगर हम थोड़ा और सोचें तो कई और रास्ते खुले हो सकते हैं.
हमें अपने आप को और रचानात्मक होने का मौका देना चाहिए.
5. पैसे ना होना ‘अच्छी ख़बर’ है
भले ही ये सुनने में अजीब लगता है कि पैसा ना होना ‘अच्छी ख़बर’ है लेकिन, ये स्थितियों से निपटने के लिए सोचने के तरीक़े में बदलाव करने जैसा है.
यह कदम हमारे दृष्टिकोण को बदलने के महत्व को दिखाता है कि हम अपने जीवन में चुनौतियों का जवाब कैसे देते हैं और उनसे निपटने के लिए लचीलापन कैसे अपनाते हैं.
"हम वित्तीय परेशानियों से नहीं निपट सकते" ये सोचने की बजाए सोचें कि "इन परेशानियों से कैसे निकलें."
इस प्रक्रिया में हमें अपने बारे में कई दिलचस्प बातें पता चलेंगी और हम जानेंगे कि व्यक्तिगत मामले कैसे पैसों को संभालने के हमारे तरीके को प्रभावित करते हैं.
ये कोई जादू नहीं
अमांडा कहती हैं, "फाइनेंशियल थेरेपी और पैसों को लेकर जो व्यवहार हम विकसित करना चाहते हैं, ये सब किसी जादू की छड़ी जैसा नहीं है."
ये एक प्रक्रिया है जो ये स्वीकार करने से शुरू होती है कि हमारे सामने एक चुनौती है. खुद को जानने का ये सफर चलता रहता है ताकि ये पता चल सके कि वो सिग्नल हमसे क्या कहना चाहते हैं और हम कुछ आदतों में बदलाव के लिए योजना बना सकें.
इस प्रक्रिया में अपने आप से कई सवाल पूछना फायदेमंद होता है. जैसे कि आपके काम का मतलब क्या है, आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं, आपके लक्ष्य को क्या प्रभावित करता है, कौन-से रिश्ते आपकी वित्तीय सेहत को प्रभावित करते हैं, आप किन चीजों को बदल सकते हैं और किन्हें नहीं.
अगर आपकी नौकरी चली जाए
ऐसी स्थिति में फाइनेंशियल थेरेपिस्ट सलाह देते हैं कि आपको पहले शांति से बैठकर मौजूदा हालात का विश्लेषण करना चाहिए,
एक अच्छा तरीक़ा ये है कि आप उन लोगों के साथ बात करें जिनके साथ आपकी वित्तीय प्रतिबद्धताएं हैं जैसे मकान मालिक से बात करें और उसे किराये को लेकर थोड़ा समय देने के लिए कहें.
अगर नौकरी जाने से पहले आपकी कुछ बचत है तो योजना बनाएं कि आप उनसे ज़्यादा से ज़्यादा कितने दिनों तक अपना खर्च चला सकते हैं.
यह इस बारे में सोचने में भी मदद करता है कि आपको वैकल्पिक तरीकों से कैसे पैसे मिल सकते हैं.
भले ही उन पैसों से आपके सभी खर्चे पूरे ना हों लेकिन, कर्ज़ और उसके ब्याज़ से बचने के लिए ये तरीक़ा काफ़ी हद तक आपकी मदद कर सकता है. साथ ही अपने खर्चे कम करना ना भूलें
इस सबके ज़रिए ये जानने की कोशिश है कि किन चीज़ों पर आपका नियंत्रण है और कौन-सी चीजें आपके काबू से बाहर हैं. इससे हमें अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ने में मदद मिलती है. (bbc)