विचार/लेख
सीएसई की पड़ताल केवल शहद या इसमें हो रही मिलावट को लेकर नहीं है; ये पड़ताल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की ‘प्रकृति’ को लेकर है
क्योंकि प्रकृति में मौजूद जीव हमारी खाद्य व्यवस्था की उत्पादकता के लिए बहुत जरूरी है और जो शहद ये जीव बनाते हैं, वे हमारी सेहत को सुधारते हैं। ये बातें हम जानते हैं। लेकिन, हम इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि प्राकृति का दिया हुआ ये उपहार हम कितनी जल्दी खो सकते हैं।
जब से हमने शहद में मिलावट को लेकर अपनी पड़ताल की रिपोर्ट सार्वजनिक की है, तब से हमें किताबी प्रतिक्रिया मिल रही है। संभवत वैसी प्रतिक्रिया जैसी दुनियाभर के बिजनेस स्कूलों में चर्चा होती है और सिखाई जाती है।
प्रतिक्रिया का पहला चरण है, इनकार करना। इस मामले में शहद का प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां शिकायत कर रही हैं कि हम गलत हैं।
दूसरा चरण है, झूठे आरोप लगा कर हमारी साख को बदनाम करना। इसके बाद वैज्ञानिक तिकड़मों का इस्तेमाल कर उपभोक्ताओं को भ्रमित करना। इस मामले में कंपनियां गलत जांच रिपोर्ट जारी कर रही हैं और हमारी जांच रिपोर्ट को गलत बताकर कटाक्ष कर रही है।
तीसरा चरण है अपने उत्पाद को साफ और सुरक्षित बताने के लिए वैकल्पिक नैरेटिव तैयार करने में खूब वक्त बिताना और इसे जटिल बनाने के लिए ‘अच्छे विज्ञान’ का इस्तेमाल।
याद रखिये, जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने कोला सॉफ्ट ड्रिंक्स में कीटनाशक के मिलावट की पड़ताल की थी, तो दो बड़ी कंपनियों ने लेबोरेटरी कोट पहनाने के लिए बॉलीवुड के शीर्ष अभिनेताओं को भाड़े पर लिया था, ताकि हमें विश्वास दिला सकें कि सब कुछ ठीक है।
इस बार हम जानते हैं कि उनका विज्ञापन पर खर्च बढ़ गया है और उन्हें लगता है कि हमारी आवाज दब जायेगी।
चौथे चरण का हमला ज्यादा तीखा और सुक्ष्म होता है। ये कोला के साथ लड़ाई के दौरान विकसित हुआ है। अब कंपनियां हमारे खिलाफ सीधा केस नहीं करती हैं। हमें धमकाते हैं, लेकिन हमें कोर्ट नहीं ले जाते हैं। इसकी जगह हमले की जमीन तैयार करने के लिए वे उन कॉरिडोर में बाहुबल का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे फर्क पड़ता है।
लेकिन, पूर्व में ये तरकीब काम नहीं आई है और हमें लगता है कि इस बार भी ये काम नहीं करेगी। कोला के मामले में कंपनी नहीं, बल्कि हमारी (सचेतक) जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन हुआ था और समिति की जांच रिपोर्ट हमारे पक्ष में आई थी।
हमें लगता है कि इस बार सरकार व फुड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) हमारी जांच रिपोर्ट के आधार पर और इस पौष्टिक खाद्य में मिलावट रोकने के लिए कार्रवाई सुनिश्चित करेगी। यहां बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और हम सब ये जानते हैं।
आप उपभोक्ता इस पर बोल चुके हैं। शहद किसी अन्य आहार की तरह नहीं है। इसका इस्तेमाल हेल्थ सप्लिमेंट (स्वास्थ्य पूरक) के तौर पर किया जाता है। ये औषधीय है और इसलिए इसमें चीनी मिलाने का मतलब है कि ये हमारे स्वास्थ्य के लिए सचमुच हानिकारक है। इसको लेकर कोई सवाल नहीं है। इसलिए हमें दबाव बनाये रखना चाहिए, ताकि प्रकृति के इस उपहार में मिलावट न हो।
लेकिन, चिंता का एक अलग कारण भी है और वो मधुमक्खी से जुड़ा हुआ है। मधुमक्खी हरबिंगर प्रजाति का कीट है। वे हमारी खाद्य व्यवस्था के स्वास्थ्य की तरफ संकेत देते हैं। हम जानते हैं कि बिना मधुमक्खी के किसी भी खाद्य का उत्पादन नहीं होगा।
उत्पादकता के लिए मधुमक्खियों का होना बहुत जरूरी है क्योंकि ये पौधों का परागन कराते हैं। समझा जाता है कि फूल देने वाले 90 प्रतिशत पौधों को परागन के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है। तिलहन सरसों से लेकर सेव और चकोतरा तथा अन्य फलियों तक ज्यादातर अन्न जो हम खाते हैं, उन्हें उपजने के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है।
मधुमक्खियां हमें जहरीले तत्व और कीटनाशक के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर भी अगाह करते रहे हैं। अब ये समझा जाता है कि मधुमक्खी कॉलोनियों के खत्म होने के पीछे नियोनिक कीटनाशक जिम्मेवार है। नियोनिक एक ऐसा जहर है, जिसे इस तरह तैयार किया गया है कि ये कीटाणुओं के तंत्रिका कोष पर हमला करता है।
यूएस कांग्रेस में मधुमक्खियों के संरक्षण के लिए सेविंग अमेरिकाज पॉलिनेटर्स नाम से कानून पेश हो चुका है। इस साल मई में अमेरिका के एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी ने 12 तरह के नियोनिक्स उत्पाद को प्रतिबंधित कर दिया है।
लेकिन, दूसरे तरह के जहरीले तत्वों का इस्तेमाल अब भी जारी है और मधुमक्खियां इसकी संकेतक प्रजाति हैं। वे हमें बताती हैं कि हम अपने खाद्यान और पर्यावरण को किस तरह जहरीला बना रहे हैं।
फिर, खाद्यान्न उत्पादन व्यवस्था को लेकर सवाल है। हमने पड़ताल इसलिए शुरू की क्योंकि कच्चे शहद का दाम गिर गया और ऐसा तब हुआ, जब शहद की खपत में कई गुना की बढ़ोतरी हुई है।
मधुमक्खी पालक को व्यवसाय में घाटा हो रहा है और वे अपनी दुकान बंद कर रहे हैं। इसके लिए हमें चिंतित होना चाहिए क्योंकि उनकी आजीविका हमारे भोजन से जुड़ी हुई है।
लेकिन, बात इतनी ही नहीं है। सच ये है कि आधुनिक मधुमक्खी पालन एक औद्योगिक स्तर की गतिविधि है और इस पर भी विमर्श करने की जरूरत है।
पहली बात तो मधुमक्खियों में जैवविविधता भी एक मुद्दा है। दुनियाभर में जैविविधता संरक्षण का सिरमौर यूरोपीय संघ अपने यहां के शहद को एपिस मेलिफेरा उत्पादित शहद के रूप में परिभाषित करता है।
दूसरे शब्दों में यूरोपीय संघ में जो शहद बिकता है, उस शहद का उत्पादन दूसरी कोई भी मधुमक्खी नहीं कर सकती है। फिर ये मधुमक्खियों की जैवविविधता के लिए क्या करता है? भारत में अपिस सेराना (भारतीय मधुमक्खी) या अपिस डोरसाता (पहाड़ी मधुमक्खी) है।
अगर इन मधुमक्खियों के शहद को अलग नहीं किया जा सकता है, अगर मधुमक्खियों की इन प्रजातियों को बढ़ावा नहीं दिया जाता है और इनकी संख्या नहीं बढ़ती है, तो क्या होगा?
एक बड़ा सवाल ये भी है कि उत्पादन और प्रसंस्करण से हम क्या समझते हैं? ज्यादातर मामलों में शहद ‘प्रसंस्कृत’ होते हैं। इन्हें गर्म किया जाता है और इसकी नमी को निकाला जाता है। ये प्रक्रिया पैथोजेन हटाने और लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए अपनाई जाती है।
इस तरह के प्रसंस्कृत शहद के लिए सुरक्षा और शुद्धता के मानदंड तैयार किये जाते हैं। लेकिन क्या असल में जो शहद है, उसके लिए ये मानदंड काम करते हैं? क्या प्रकृति से शहद लाकर इसे पूरी तरह शुद्ध रूप में हम खाते हैं?
लेकिन, फिर बात आती है कि ऐसे में बड़ा उद्योग कैसे जीवित रहेगा? क्या दुनियाभर में लाखों लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये अपना उत्पादन बढ़ा सकते हैं? बुनियादी सवाल केवल शहद में मिलावट का नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा है। सवाल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की प्रकृति का है। (downtoearth)
Lalit Maurya-
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार हृदय रोग दुनिया भर में सबसे ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। 2019 में इसके चलते करीब 90 लाख लोगों की मौत हुई थी, जबकि 20 साल पहले यह 68 लाख मौतों के लिए जिम्मेवार था। यदि सभी कारणों से होने वाली मौतों को देखें तो उनमें से 16 फीसदी मौतों के लिए हृदय रोग जिम्मेवार हैं। यदि 2019 में हुई मौतों के 10 प्रमुख कारणों पर गौर करें तो उनमें से 7 कैंसर और मधुमेह जैसे गैर संक्रामक रोग हैं।
2019 में स्ट्रोक को दूसरा स्थान दिया है जिसके चलते करीब 62 लाख लोगों की जान गई थी। जबकि इसके बाद फेफड़े से जुड़ी बीमारी 'सीओपीडी' का नंबर आता है जिसके चलते करीब 32 लाख लोगों की मौत हुई थी। फेफड़ों के कैंसर के चलते 18 लाख लोगों की जान गई थी।
रिपोर्ट के अनुसार पहली बार अल्जाइमर और डिमेंशिया को 10 प्रमुख कारकों में शामिल किया गया है, जिनके चलते 2019 में 16 लाख लोगों की मौत हुई थी। जिसमें से 65 फीसदी महिलाएं थी। वहीं मधुमेह को 9वें स्थान पर रखा गया है जिसके चलते करीब 15 लाख और किडनी से जुडी बीमारियों (10वें स्थान) के चलते करीब 13 लाख लोगों की मौत हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार मधुमेह से होने वाली मौतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, पिछले 20 वर्षों में इनसे होने वाली मौतों में करीब 70 फीसदी का इजाफा हुआ है।
यदि संक्रामक रोगों की बात करें तो पिछले 20 वर्षों में उनमें काफी कमी आई है। 20 वर्षों में एड्स से होने वाली मौतों में करीब 51 फीसदी की कमी आई है। जहां 2000 में 14 लाख मौतों के साथ इसे 8वें स्थान पर रखा था, वो अब 6.79 लाख मौतों के साथ 19वें स्थान पर है। इसी तरह टीबी से होने वाली मौतों में भी कमी आई है, जिसके चलते 2019 में करीब 12 लाख लोगों की जान गई थी।
संक्रामक रोगों में सांस से जुड़ा संक्रमण सबसे बड़ा हत्यारा है जिसे 2019 में चौथे स्थान पर रखा गया है। इसके चलते 2019 में 26 लाख लोगों की जान गई थी। वहीं 2000 में इसके कारण 31 लाख लोगों की मौत हुई थी। नवजातों की मौत से जुड़े कारकों को 2019 में पांचवें स्थान पर रखा गया है जिसके चलते करीब 20 लाख बच्चों की जान गई थी।
पिछले 20 वर्षों में औसत आयु में हुआ 6 वर्ष का इजाफा
पिछले 20 वर्षों में लोगों की औसत उम्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। जहां 2000 में औसत आयु 67 वर्ष थी वो 2019 में 6 वर्ष बढ़कर 73 पर पहुंच गई है। जोकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में हो रहे विकास और संक्रामक रोगों से होने वाली मौतों में कमी के कारण संभव हो पाया है। हालांकि उम्र बढ़ने का यह मतलब नहीं है कि इससे लोगों के स्वस्थ जीवन में भी इजाफा हुआ है। गैर संक्रामक रोगों के बढ़ने के कारण लोगों के स्वास्थ्य के स्तर में भी गिरावट आई है।
गौरतलब है कि हृदय रोग, मधुमेह, स्ट्रोक, फेफड़ों के कैंसर और फेफड़े से जुड़ी बीमारियों के चलते 2000 की तुलना में 2019 में लगभग स्वस्थ जीवन के 10 करोड़ अतिरिक्त वर्षों का नुकसान हुआ है। इसके लिए लोगों की जीवनशैली में आ रहे बदलाव, प्रदूषण और पर्यावरण में हो रही गिरावट मुख्य रूप से जिम्मेवार है, जिस पर ध्यान देना जरुरी है। (downtoearth)
Shagun Kapil-
11 राज्यों के गरीब व कमजोर तबके के करीब 4000 लोगों पर किए गए सर्वे में दो तिहाई आबादी ने बताया कि वे जो भोजन कर रहे हैं, वो लॉकडाउन से पहले के मुकाबले ‘कुछ हद तक कम’ या ‘काफी कम’ है।
इनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि उनके भोजन की खुराक में ‘काफी हद तक कमी’ आई गई है।
सर्वे में शामिल आबादी के एक बड़े हिस्से को भूखा भी रहना पड़ा। सितंबर और अक्टूबर में जब हंगर वाच को लेकर सर्वे किया गया था, तो पता चला कि हर 20 में से एक परिवार को अक्सर रात का खाना खाए बगैर सोना पड़ा।
वहीं, 56 प्रतिशत ने कहा कि लॉकडाउन से पहले उन्हें कभी भी खाली पेट नहीं रहना पड़ा था। लेकिन, लॉकडाउन की अवधि में हर सात में से एक को या तो अक्सर या कभी-कभी भोजन किए बिना रहना पड़ा।
राइट टू फूड कैम्पेन और कुछ अन्य संगठनों ने कोविड-19 महामारी के दौरान भारत के अलग-अलग हिस्सों में असुरक्षित व हाशिये पर खड़े समुदायों में भुखमरी की स्थिति को समझने के लिए सितंबर 2020 में हंगर वाच लांच किया था।
सर्वे के आधार पर 9 दिसंबर 2020 को एक रिपोर्ट जारी की गई।
ग्रामीण व शहरी इलाकों के असुरक्षित समुदायों की पहचान स्थानीय कार्यकर्ताओं/शोधकर्ताओं ने की। सर्वे छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में किया गया।
सर्वे में शामिल आबादी में से 53 प्रतिशत ने कहा कि चावल/गेहूं (केंद्र सरकार की जनवितरण प्रणाली का मुख्य खाद्यान्न) की उनकी खुराक सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई। इनमें से हर चार में से एक ने कहा कि उनकी खुराक में ‘काफी कमी’ आई है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एएसएफए) के तहत जनवितरण प्रणाली के जरिये 67 प्रतिशत आबादी को हर महीने सब्सिडी पर प्रति व्यक्ति के हिसाब से 5 किलोग्राम खाद्यान्न की गारंटी देता है।
कम खुराक
रिपोर्ट के मुताबिक, 64 प्रतिशत आबादी ने बताया कि उनकी दाल की खुराक सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई है। इनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि उनकी खुरात में ‘काफी कमी’ आई है। वहीं, 73 प्रतिशत आबादी ने बताया कि उनकी हरी सब्जियों की खुराक में गिरावट आई है जबकि 38 प्रतिशत ने हरी सब्जियों की खुराक में ‘काफी कमी’ की बात कही है।
भारत में कुपोषण चरम पर है और लॉकडाउन के दौरान सरकारी योजनाएं बहुत अहम थीं, लेकिन हंगर वाच के सर्वे में भुखमरी के चिंताजनक स्थिति में पहुंचना बताता है कि केंद्र सरकार की तरफ से शुरू की गई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना नाकाफी थी।
रिपोर्ट में कहा गया है, “बहुत सारे लोगों को योजना का लाभ नहीं मिला और जिन्हें मिला भी उनकी खुराक लॉकडाउन से पहले के मुकाबले कम ही रही। इससे पता चलता है कि इन स्कीमों को मजबूत और विस्तृत किये जाने की जरूरत है।”
सर्वे करने वाले कार्यकर्ताओं व शोधकर्ताओं ने एक वेबिनार में कहा कि जिनके पास राशन कार्ड नहीं था, उन पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है। जनवितरण प्रणाली उन चंद सुरक्षात्मक स्कीमों में एक है, जो इसके अंतर्गत आने वाले लाभुकों के लिए काम करती है। शोधकर्ताओं ने जनवितरण प्रणाली को यूनिवर्सल कर हर व्यक्ति को कम से कम 6 महीने तक (जून 2021) तक 10 किलोग्राम अनाज, डेढ़ किलो दाल और 800 ग्राम तेल देने की मांग की।
रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में शामिल आबादी में से बहुत लोगों ने ये भी कहा कि लॉकडाउन में उनकी दिक्कतें और बढ़ गईं क्योंकि लॉकडाउन के कारण स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों को मिलने वाला पौष्टिक आहार बंद हो गया।
करीब 71 प्रतिशत लोगों ने कहा कि लॉकडाउन से पहले के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में उनके भोजन की पौष्टिक गुणवत्ता भी खराब हो गई। इनमें से 40 प्रतिशत ने कहा कि भोजन की पौष्टिक गुणवत्ता ‘बेहद खराब’ हो गई।
कमाई में गिरावट
सर्वे में हिस्सा लेने वाले लोगों ने ये भी कहा कि लॉकडाउन के बाद उनकी कमाई रुक गई या फिर बिल्कुल कम हो गई। इनमें से 56 प्रतिशत आबादी को अप्रैल-मई में किसी तरह की कमाई नहीं हुई थी और सितंबर-अक्टूबर में भी यही क्रम जारी रहा।
करीब 62 प्रतिशत आबादी ने बताया कि अप्रैल-मई (लॉकडाउन से पहले) के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में उनकी कमाई में गिरावट आई। केवल तीन प्रतिशत ने कहा कि उन्हें सितंबर-अक्टूबर में भी अप्रैल-मई जितनी कमाई हुई।
सर्वे रिपोर्ट में हाशिये पर जीने वाले समुदाय की स्थिति पर भी चर्चा की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में शामिल असुरक्षित जनजातीय परिवारों में से 77 प्रतिशत ने कहा कि उनके भोजन की खुराक लॉकडाउन से पहले के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई। दलितों की 74 प्रतिशत आबादी में खुराक होने की बात कही, वहीं इनमें से 36 प्रतिशत ने बताया कि उनकी खुराक ‘काफी कम’ हो गई।
करीब 54 प्रतिशत आदिवासियों ने भोजन की खुराक कम मिलने की बात कही।
रिपोर्ट में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि पिछले कुछ महीनों में लाये गये लेबर कोड व कृषि कानून जैसे नीति व विधेयकों के चलते इन तबकों की हालत और नाजुक हो सकती है।
रिपोर्ट कहती है, “चार लेबर कोड असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अशक्त करते हैं और काम के बदले मजदूरी के भुगतान को लेकर अनिश्चितता बढ़ाते हैं, जो अंततः भोजन खरीदने की उनकी क्षमता को प्रभावित करेगा। तीन कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं और तर्क दिया जा रहा है कि ये कानून खाद्यान्न अधिप्राप्ति तंत्र के लिए खतरनाक है, जो आखिरकार जनवितरण प्रणाली के लिए भी खतरा हो सकता है।”
रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि कोविड-19 राहत के तहत अतिरिक्त खाद्यान्न दिया जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद पूरक बजट में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के लिए केवल 10,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजट प्रावधान किया गया।
रिपोर्ट में कहा गया है, “एफसीआई की अंडरफंडिंग का मतलब किसानों को मिलने वाले समर्थन मूल्य को कमजोर करना व उन्हें और कर्ज में धकेलना है। केंद्र सरकार को एफसीआई को मजूत करने के लिए अतिरिक्त फंड देना चाहिए।” (downtoearth)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश के डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी है। किसान आंदोलन के बाद अब यह डॉक्टर आंदोलन शुरु हो गया है। इन दोनों आंदोलनों का आधार गलत-फहमी है। इस गलतफहमी का कारण किसान और डॉक्टर नहीं है। उसका कारण हमारी सरकार है। उसका अहंकार है। वह जो कुछ कर रही है, वह देश के भले के लिए कर रही है। लेकिन इसके पहले कि वह कोई क्रांतिकारी कदम उठाए, वह उससे प्रभावित होनेवाले लोगों से बात करना जरुरी नहीं समझती। जो उसे ठीक लगता है या अफसर जो चाबी घुमाते हैं, सरकार आनन-फानन उसकी घोषणा कर देती है। अब उसने घोषणा कर दी है कि आयुर्वेदिक अस्पतालों में भी शल्य-चिकित्सा होगी।
यह ठीक है कि ऐसी दर्जनों छोटी-मोटी शल्य-क्रियाएं हमारे वैद्यगण सदियों से करते चले आए हैं। उन्हें अभी सिर्फ नाक, कान, आंख, गले आदि की ही सर्जरी की अनुमति दी गई है। मष्तिष्क और दिल आदि की नहीं लेकिन हमारे डॉक्टर इस पर बहुत खफा हो गए हैं।
उनकी हड़ताल का कारण मुझे समझ में नहीं आ रहा है। वे कह रहे हैं कि इस अनुमति से मरीज़ों की जान को खतरा हो जाएगा। उन्हें मरीजों की जान का खतरा है या उनका धंधा चौपट होने का खतरा है ? एलोपेथी की सर्जरी काफी सुरक्षित होती है लेकिन वह इतनी खर्चीली है कि देश का आम आदमी उसकी राशि सुनकर ही कांप उठता है। अब डॉक्टर इसलिए कांप रहे हैं कि यदि वही काम वैद्य करने लगेंगे तो उनका पाखंड खत्म हो जाएगा। देश के गरीब, ग्रामीण और पिछड़े लोगों को भी शल्य-चिकित्सा का लाभ मिलने लगेगा। आयुर्वेद में शल्य-चिकित्सा सदियों से चली आ रही है जबकि एलोपेथी को तो सवा सौ साल पहले तक मरीज को बेहोश करना भी नहीं आता था। डॉक्टरों को सबसे बड़ा धक्का इस बात से लगा है कि अब ये वैद्य उनके बराबर हो जाएंगे। पश्चिमी एलोपेथी और अंग्रेजी माध्यम की श्रेष्ठता ग्रंथि ने उन्हें जकड़ रखा है। इस दिमागी गुलामी से उबरने की बजाय वे इस नई पद्धति को ‘मिलावटीपैथी’ कह रहे हैं। मैं तो चाहता हूं कि भारत में इलाज की सभी पैथियों को मिलाकर, सबका लाभ उठाकर, डॉक्टरी का एक नया पाठ्यक्रम बनाया जाए, जिसका अनुकरण सारी दुनिया करेगी। लेकिन वैद्यों और हकीमों को शल्य-चिकित्सा का अधिकार देने के पहले सरकार को चाहिए कि वह उन्हें मेडिकल सर्जनों से भी अधिक कठोर प्रशिक्षण दे। हड़बड़ी में कोई फैसला न करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
भारत से अधिक संवेदनशील पत्रकारिता पड़ोसी देश अफगानिस्तान में की जा रही है, जहां पिछले 10 वर्षों के दौरान 100 से अधिक पत्रकार मारे जा चुके हैं। पर, हर ऐसी हत्या के बाद निष्पक्ष पत्रकार झुकते नहीं, बल्कि उनकी एक नई पौध सामने आ जाती है।
-महेन्द्र पांडे
इस वर्ष भारत में अपने काम के दौरान तीन पत्रकारों की हत्या कर दी गई, जबकि आतंक के साए से जूझ रहे अफगानिस्तान, इराक और नाइजीरिया में भी इतने ही पत्रकार मारे गए। पूरी दुनिया में इस वर्ष अपने काम के दौरान कुल 42 पत्रकार मारे गए, जिसमें सर्वाधिक संख्या मेक्सिको के पत्रकारों की है, जहां अब तक 13 पत्रकार मारे जा चुके हैं। इसके बाद पाकिस्तान का स्थान है, जहां 5 पत्रकार मारे गए। इसके बाद भारत का स्थान है। इन आंकड़ों को इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस यानि 10 अक्टूबर को जारी किया है। इसी दिन डच सरकार और यूनेस्को ने संयुक्त तौर पर पत्रकारों पर बढ़ते खतरे के संबंध में एक ऑनलाइन वैश्विक कांफ्रेंस भी आयोजित किया।
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स पिछले तीस वर्षों से पत्रकारों की स्थिति पर वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित करता रहा है। इस फेडरेशन के 6 लाख सदस्य हैं, जो लगभग 150 देशों में फैले हैं। पिछले तीस वर्षों के दौरान कुल 2658 पत्रकारों की ह्त्या उनके काम के दौरान की जा चुकी है। पिछले 5 वर्षों के दौरान 4 वर्षों में मेक्सिको पहले स्थान पर रहा है। मेक्सिको की सरकारें बदलती हैं, पर पत्रकारों की हालत नहीं बदलती। इस फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी ऐन्थोनी बेल्लान्गेर के अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान पत्रकारों की ह्त्या के आंकड़े कम होते जा रहे हैं, पर इसका कारण इनकी स्थिति में सुधार नहीं बल्कि सरकारों द्वारा ऐसी खबरों को दबाना है।
फेडरेशन के प्रेसिडेंट यूनेस जाहेद के अनुसार अधिकतर देशों ने पत्रकारों की हत्या के बदले बिना किसी आरोप के ही उन्हें जेलों में बंद करना शुरू कर दिया है। इस वर्ष दुनिया में लगभग 235 पत्रकारों को बिना किसी आरोप के ही जेल में डाला गया है। जेल में बंद करने पर ज्यादा हंगामा भी नहीं होता और पत्रकार को शांत कराने का काम भी हो जाता है।
10 दिसंबर को ही सर्वोच्च न्यायालय की तमाम तल्ख़ टिप्पणियों के बाद भी नए संसद भवन का भूमि पूजन आयोजित किया गया। दरअसल मोदी सरकार की अनेक कामों में जल्दबाजी ही संशय को जन्म देती है और नए संसद भवन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। इतनी जल्दबाजी और तमाम कटु टिप्पणियों के बाद भी नए संसद भवन के काम को आगे बढाते रहने का संबंध कम से कम लोकतंत्र से तो कतई नहीं हो सकता।
दरअसल यह कवायद उन सम्राटों के समकक्ष खड़ा होने की है, जिन्होंने आलीशान किले, दुर्ग या दूसरी इमारतें बनवाईं। प्रधानमंत्री मोदी भी विराट संसद भवन और ऊंची मूर्तियों के बल पर उनके बराबर पहुंचना चाहते हैं, भले ही इसके लिए लोकतंत्र का गला घोटना पड़े। मोदी सरकार में मीडिया ही सबसे अधिक गिरा हुआ स्तंभ है। जाहिर है चाटुकारों से भरी मीडिया से इस तानाशाही को लोकतंत्र की खाल में लपेटना सरकार के लिए आसान है। निष्पक्ष मीडिया के नाम पर थोड़ी सी जान सोशल मीडिया या फिर स्थानीय समाचार पत्रों या वेब न्यूज पोर्टल के कारण है और इसी से जुड़े पत्रकार मारे जाते हैं या फिर जेल में डाले जाते हैं।
एक तरफ जहां सरकार दुनिया भर में कोविड 19 पर नियंत्रण और इससे संबंधित इंतजामों का दुनिया भर में डंका पीट रही है, वहीं स्वतंत्र पत्रकार इन दावों की पोल खोलते रहे। जाहिर है हमारी सरकार अपना विरोध किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकती और यही हुआ भी। देश के अलग-अलग हिस्सों से 50 से अधिक स्वतंत्र पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है या उन पर डंडे बरसाए गए या फिर पुलिस ने शिकायत दर्ज की है। इनमें से किसी ने क्वारेंटाइन सेंटर की बदहाली बताई, तो किसी ने प्रवासी मजदूरों की व्यथा का बयान किया या किसी ने अस्पतालों की बदहाली की तस्वीर उजागर की या किसी ने राज्यों की सीमा पर अघोषित बंदिशों को उजागर किया।
ऐसे कई पत्रकारों पर गलत सूचना देने, सरकारी आदेशों की अवहेलना और कोविड 19 से सम्बंधित गलत खबरें फैलाने के आरोप लगाए गए हैं। इनमें से कुछ मामलों में कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट ने दखल दिया है, पर अधिकतर मामलों में सुनने वाला कोई नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कुल 180 देशों में हमारा देश प्रेस की आजादी के सन्दर्भ में 142वें स्थान पर है।
कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स नामक संस्था 2008 से लगातार हरेक वर्ष ग्लोबल इम्प्युनिटी इंडेक्स प्रकाशित करती है। इसमें पत्रकारों की हत्या या फिर हिंसा से जुड़े मामलों पर कार्यवाही के अनुसार देशों को क्रमवार रखती है। इस इंडेक्स में जो देश पहले स्थान पर रहता है, वह अपने यहां पत्रकारों की ह्त्या के बाद हत्यारों पर कोई कार्यवाही नहीं करता। ग्लोबल इम्प्युनिटी इंडेक्स में भारत का स्थान 12वां था, जबकि 2019 में 13वां और 2018 में 14वां था। इसका सीधा सा मतलब है कि हमारे देश में पत्रकारों की हत्या या उन पर हिंसा के बाद हत्यारों पर सरकार या पुलिस की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं की जाती।
इन आंकड़ों से यह समझना आसान है कि देश में सरकार और पुलिस की मिलीभगत से पत्रकारों की ह्त्या की जाती है। इस इंडेक्स में सोमालिया, सीरिया और इराक सबसे अग्रणी देश हैं। पाकिस्तान 9वें स्थान पर और बांग्लादेश 10वें स्थान पर है। दुनिया के केवल 7 देश ऐसे हैं जो वर्ष 2008 से लगातार इस इंडेक्स में शामिल किये जा रहे हैं और हमारा देश इसमें एक है। जाहिर है, वर्ष 2008 के बाद से देश में पत्रकारों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है।
भारत से अधिक संवेदनशील पत्रकारिता पड़ोसी देश अफगानिस्तान में की जा रही है, जहां पिछले 10 वर्षों के दौरान 100 से अधिक पत्रकार मारे जा चुके हैं। पर, हर ऐसी ह्त्या के बाद निष्पक्ष पत्रकार झुकते नहीं, बल्कि उनकी एक नई पौध सामने आ जाती है। तालिबान की तमाम धमकियों के बाद भी बड़ी संख्या में महिलाएं भी निष्पक्ष पत्रकारिता कर रही हैं। अनेक महिला पत्रकारों की हत्या भी की गई है। 9 दिसंबर को ही जलालाबाद में मलालाई मैवंद नामक एक महिला टीवी रिपोर्टर और महिला अधिकार कार्यकर्ता की गोली मार कर हत्या की गई है। (navjivanindia.com)
शिव विश्वनाथन
समाजशास्त्री
समाज का ग़ैर-सरकारी और अराजनीतिक नेतृत्व जिसे लोग सिविल सोसाइटी भी कहते हैं, उसका बीच में ग़ायब हो जाना और दोबारा उभरकर सामने आना एक दिलचस्प बात है.
इस समय देश में जो कुछ चल रहा है उसमें सिविल सोसाइटी का उभार ऐसी बात है जो मोदी सरकार को ज़रूर चिंता में डाल रहा होगा. जब पहली बार दिल्ली की सत्ता पर मोदी सरकार बैठी थी तो इसका राजनीतिक संदेश साफ़ था. सरकार का लक्ष्य स्पष्ट था कि क्या करना है और क्या नहीं. इस शासन का दावा था कि जो देश की बड़ी आबादी के हित की बात होगी, वो उसी को आगे बढ़ाएँगे. इस तरह सरकार ने ऐसा नागरिक समाज गढ़ लिया, जो सत्ता का ही एक्सटेंशन काउंटर था. यह एक ऐसी मशीन थी, जो 'देशभक्ति' जैसी आम सहमति वाली अवधारणाओं को मज़बूत करने में लगी थी.
'एंटी नेशनल' शब्द का लगातार इस्तेमाल इतना बढ़ा कि लोगों के विचारों की निगरानी जैसा माहौल बन गया, एक ऐसा माहौल जो सत्ता से मिलती-जुलती सोच कायम करने का दबाव बनाने लगा. इस शासन के पहले कुछ सालों में सिविल सोसाइटी की पारंपरिक विविधता तो मानो ग़ायब होती दिख रही थी. वर्चस्ववाद की यह कोशिश दो क़दमों से मज़बूत हुई. पहला, सभी ग़ैर-सरकारी संगठनों यानी एनजीओ को नौकरशाही की सख़्त निगरानी के दायरे में ले आया गया.
दूसरा क़दम यह था कि अगर कोई शासन से असहमत है तो वह देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिहाज से एक अवांछित तत्व है. वरवर राव, सुधा भारद्वाज और स्टेन स्वामी जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन नक्सल के जिन आरोपों के तहत गिरफ़्तार किया गया है और जिस तरह से इन मामलों की सुनवाई चल रही है, उस पर भी सवाल उठे हैं. हुकूमत की यह जकड़बंदी बहुसंख्यकवाद के तौर पर सामने आई. यह बहुसंख्यक वर्चस्ववाद और उसके शीर्ष नेता के मज़बूत होने का संकेत था. इसने यह भी संकेत दिया कि सरकार पर किसी तरह की प्रतिकूल टिप्पणी कर सकने वाले संस्थान मोटे तौर पर या तो सत्ता के सामने झुक जाएंगे या फिर महत्वहीन बना दिए जाएंगे. ऐसा माहौल तैयार हुआ कि देश की सुरक्षा को भारी ख़तरा है और देश को बचाना सबसे पहली प्राथमिकता है. कोरोना वायरस संक्रमण ने इस तरह की हुकूमत को और हवा दी. दरअसल, सिविल सोसाइटी के दोबारा उठ खड़े होने को पिछले कुछ समय में उभरे नीतिगत मुद्दों से जुड़ी घटनाओं की कड़ी के ज़रिये आंका जा सकता है. इनमें से हरेक घटना ने सिविल सोसाइटी के भविष्य और भाग्य पर अहम सवाल उठाए.
पहली घटना थी असम में नेशनल रजिस्टर पॉलिसी लागू करने की कोशिश. भारतीय समाज की बाड़ाबंदी की गई और नागरिकता हासिल करना एक ऐसा संदिग्ध काम बन गया जो फ़र्ज़ी सर्टिफिकेट के सहारे पूरा हो सकता था. यह काम होना या न होना किसी क्लर्क की सनक पर टिका था. एनआरसी के ख़िलाफ़ जो विरोध उठ खड़ा हुआ वो निश्चित तौर पर बीजेपी के बहुसंख्यकवाद के विस्तार का विरोध था. हालांकि सिविल सोसाइटी ने वह रास्ता खोज लिया था, जिसके सहारे वह असहमति ज़ाहिर करने में सक्षम होने लगा था.
शाहीन बाग़ और सिविल सोसाइटी का उभार
दिल्ली के जामिया मिलिया इलाक़े में मुस्लिम गृहिणियों के एक छोटा-सा विरोध प्रदर्शन एक बड़ी घटना बन गया. इस प्रदर्शन में युगांतकारी घटनाओं के तत्व थे. सत्ता की ताक़त के ख़िलाफ़ किए गए नानियों-दादियों के इस प्रदर्शन ने दुनिया भर का ध्यान खींचा. इस विरोध में एक सौम्यता थी और सादगी भी. उन गृहिणियों ने दिखाया कि वे संविधान की भावना को समझती हैं. उनमें एक समुदाय के तौर पर नागरिकता की समझ साफ़ दिख रही थी. उन महिलाओं ने जो संदेश दिया और गांधी से लेकर भगत सिंह और आंबेडकर तक जिन विभूतियों की तस्वीरें उन्होंने उठा रखी थी, उसने देश के सामने लोकतंत्र का एक उत्सव ला दिया.
इससे भी ज़्यादा इसने यह दिखाया कि कैसे नागरिक समाज बगैर किसी राजनीतिक पार्टी और ट्रेड यूनियन के उभर आया है. एक कम्युनिटी नेटवर्क, एक राजनीतिक कल्पना- सिविल सोसाइटी की कल्पना को खिलने के लिए इसी बीज की तो ज़रूरत थी. शाहीन बाग़ अपने मूल में एक सत्याग्रही आंदोलन था. एक राजनैतिक इनोवेशन था. दरअसल, लोकतंत्र पर न तो राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पेटेंट है और न कॉपीराइट. सड़कें ही डेमोक्रेसी का असल रंगमंच हैं और मानव शरीर ही विरोध का औजार.
वास्तव में उन महिलाओं ने ही अपने जवाब में यह ज़ाहिर कर दिया कि सिविल सोसाइटी को संविधान के आदर्शों पर सत्ता से अधिक भरोसा है. इसने यह भी बताया कि लोकतंत्र कोई चुनावी परिघटना नहीं है. अगर इसे जीवंत बनाए रखना है तो प्रयोगों और सिविल सोसाइटी के रस्मों-रिवाज को बरकरार रखना होगा. सिविल सोसाइटी एक थियेटर की तरह लोकतंत्र की कल्पना को ज़िंदा रखती है. हालांकि यहां कुछ एहतियात की ज़रूरत है. कोविड की वजह से एक विरोध स्थल के तौर पर शाहीन बाग़ का डेरा अब उठाया जा चुका है. यह पहले से ही एक तरह का मिथक बन चुका था.
कंपनियों के लिए निगरानी बड़ी सम्मोहक चीज़ होती है. सीएए ने जो डिज़िटल स्ट्रैटिजी पेश की थी वह कोविड संकट से और मज़बूत ही हुई है. सुरक्षा को सर्वोच्च रणनीति के तौर पर इस तरह पेश किया गया ताकि निगरानी लोगों को प्यार की तरह लगे. सिविल सोसाइटी को ऐसी निगरानियों के प्रति सचेत रहना होगा. जीवन में लगातार बढ़ रही निगरानी टेक्नोलॉजी का प्रतिकार करने का ढंग खोजना होगा. असहमत पेशेवरों की भूमिका अब काफ़ी अहम हो गई है. भारत के पास विरोध करने वालों का शाहीन बाग़ है लेकिन इसे असहमति की आवाज़ वाले पेशेवरों की भी ज़रूरत है. हमें एडवर्ड स्नोडन और जूलियन असांज जैसे लोगों की ज़रूरत है. वरना डिज़िटल महत्वाकांक्षाओं से भरे मध्यवर्ग को शायद यह अहसास ही न हो कि हमारे इर्द-गिर्द एक पूरा निगरानी तंत्र खड़ा हो गया है.
अगर सीएए से यह ज़ाहिर हुआ कि नागरिकता की परिभाषा का विचार संदिग्ध था तो कोविड और किसानों के विरोध प्रदर्शनों से यह साफ़ हुआ कि सुरक्षा और विकास के नाम पर उठाए गए क़दमों ने लोगों की आजीविका को ख़तरे में डाल दिया है. किसानों के संघर्ष पर शुरुआती प्रतिक्रियाएं घिसीपिटी थीं. इन प्रदर्शनों को राष्ट्र विरोधी और नक्सलियों का आंदोलन कहा गया. एक बार फिर सिविल सोसाइटी ने किसानों के संघर्ष पर ध्यान दिया और इसे अपने फोकस में रखा. लोगों ने महसूस किया कि मीडिया, ख़ास कर टीवी मीडिया किसानों के आंदोलन को नज़रअंदाज़ करने और उसकी छवि ख़राब करने मे लगा है. कई टीवी चैनलों ने इसे मोदी के ख़िलाफ़ बग़ावत के तौर पर देखा है. इस सचाई को समझने की कोशिश नहीं की जा रही थी कि सरकार के सामने लोग अपनी रोज़ी रोटी के सवाल उठा रहे हैं.
असहमत नागरिक समाज ने इन ख़तरों से टकराना शुरू कर दिया है. हैदराबाद के नज़दीक चिराला बुनकरों का आंदोलन विकेंद्रित नेटवर्कों की मांग कर रहा है. लेकिन सिविल सोसाइटी को सिर्फ़ अधिकारों के प्रति ही नहीं, समाज के प्रति भी संवेदनशील होना होगा. किसानों का आंदोलन सिर्फ़ बड़े किसानों की आवाज़ बन कर सीमित नहीं रह सकता. इसे सीमांत किसानों और भूमिहीन मज़दूरों की आवाज़ भी बनना होगा. सिविल सोसाइटी को इनके बीच बोलना होता है और अलग-अलग आवाज़ों को सुन कर निर्णय भी करना होता है. इसे यह भी दिखाना है कि सत्ता के बड़े फ़ैसलों पर कैसे बहस चलानी है. इस अर्थ में सिविल सोसाइटी को नई नॉलेज सोसाइटी बनना होगा और इसे भारतीय विविधता का ट्रस्टी भी होना होगा.
इन रुझानों को देखते हुए अब यह साफ़ हो गया है कि लोकतंत्र अब सिर्फ़ चुनावी परिघटना नहीं रह गया है और न ही अब यह पार्टियों तक सीमित है.
विपक्षी पार्टियां अब गूंगी या असरहीन दिखने लगी हैं, ऐसे में सिविल सोसाइटी को लोकतंत्र में नए प्रयोग करने होंगे. इसे अपना यह प्रयोग जड़ नहीं बल्कि अपने चेतन बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर करना चाहिए.
सिविल सोसाइटी की गतिशीलता के विपरीत ज़्यादातर विपक्षी पार्टियां अब लड़खड़ाती दिखती हैं. कांग्रेस लगातार घिसती हुई दिख रही है और वामपंथी एक क्लब या किसी एलीट सोसाइटी की तरह लगते हैं. सिविल सोसाइटी को पार्टियों की स्थानीयता के अलावा देशीय और वैश्विक मुद्दों के इर्द-गिर्द नए सिरे से एकजुट होना होगा.
सुरक्षा के ढाल से लैस सत्ता, उसके निगरानी तंत्र और कॉर्पोरेट बाज़ारवाद से लड़ना अब आसान काम नहीं रह गया है.
(लेखक जाने माने समाजशास्त्री हैं और इन दिनों ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत के सेंटर फॉर नॉलेज सिस्टम के डायरेक्टर हैं. आलेख में उनके निजी विचार हैं) ) (bbc.com/hindi)
Lalit Maurya-
हाल ही में काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीइइडब्लू) द्वारा किए शोध से पता चला है कि देश में 75 फीसदी से ज्यादा जिलों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। इन जिलों में देश के करीब 63.8 करोड़ लोग बसते हैं। यह अध्ययन पिछले 50 सालों (1970-2019) के दौरान भारत में आई बाढ़, सूखा, तूफान जैसी मौसम सम्बन्धी आपदाओं के विश्लेषण पर आधारित है। इसमें आपदाओं के आने के पैटर्न के साथ-साथ कितनी बार यह आपदाएं आई है और उनके प्रभावों का भी अध्ययन किया गया है। साथ ही इन घटनाओं में किस तरह बदलाव आ रहा है उसको भी समझने का प्रयास किया गया है। विश्लेषण से पता चला है कि इन जिलों पर बाढ़, सूखा, चक्रवात, ग्रीष्म एवं शीत लहर जैसी चरम मौसमी घटनाओं का खतरा अन्य जिलों की तुलना में कहीं ज्यादा है।
रिपोर्ट के अनुसार 1970 से 2005 के बीच जहां 250 चरम मौसमी घटनाएं रिकॉर्ड की गई थी, वहीं 2005 से 19 के बीच उनमें बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है। इस अवधि में 310 चरम मौसमी घटनाएं रिकॉर्ड की गई हैं। 2005 के बाद से 55 से भी ज्यादा जिलों में बाढ़ की विभीषिका देखी गई है, जिसका असर आज हर साल करीब 9.75 करोड़ लोगों के जीवन पर पड़ रहा है। यदि 2010 से 19 के दौरान भारत के आठ सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त जिलों को देखें तो उनमें से 6 (बारपेटा, दर्रांग, धेमजी, गोलपारा, गोलाघाट और शिवसागर) असम में हैं। जहां 2005 में 69 जिलों में बाढ़ का कहर देखा गया था वो 2019 में बढ़कर 151 जिलों में फ़ैल चुका है। इसके साथ ही भूस्खलन, भारी बारिश, ओला वृष्टि और बादल फटने जैसी घटनाओं में भी 1970 के बाद से करीब 12 गुनी वृद्धि हुई है।
सूखे की जद में है देश का 68 फीसदी हिस्सा
इसी तरह पिछले 15 सालों में चरम सूखे की स्थिति में भी वृद्धि हुई है। इससे अब तक करीब 79 जिले प्रभावित हो चुके हैं। इसके चलते हर साल करीब 14 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं। इस अवधि में सूखा प्रभावित जिलों का वार्षिक औसत 13 गुना बढ़ गया है। एनडीएमए के अनुसार देश का करीब 12 फीसदी हिस्सा बाढ़ और 68 फीसदी हिस्सा सूखे की जद में है। इसी तरह देश की करीब 80 फीसदी तटरेखा पर चक्रवात और सुनामी का खतरा है।
इसी तरह 2005 के बाद से हर साल 24 जिलों पर चक्रवातों की मार पड़ रही है। इन वर्षों में करीब 4.25 करोड़ लोग तूफान और चक्रवातों से प्रभावित हुए हैं। यदि पिछले एक दशक को देखें तो इनका असर अब तक करीब 258 जिलों पर पड़ चुका है। देश में पूरी तटरेखा के आसपास पुरी, चेन्नई, नेल्लोर, उत्तर 24 परगना, गंजम, कटक, पूर्वी गोदावरी और श्रीकाकुलम पर इन चक्रवातों का सबसे ज्यादा असर पड़ा है। जिसके लिए जलवायु परिवर्तन, भूमि उपयोग में आ रहा बदलाव और वनों का विनाश मुख्य रूप से जिम्मेवार है। यदि 1970 से 2019 के बीच चक्रवात की घटनाओं पर गौर करें तो इन वर्षों में यह घटनाएं 12 गुना बढ़ गई हैं।
इस रिपोर्ट में एक हैरान कर देने वाली बात यह सामने आई है कि पहली जिन जिलों में बाढ़ आती थी अब वहां सूखा पड़ रहा है। इसी तरह जो जिले पहले सूखा ग्रस्त थे अब वो बाढ़ की समस्या से त्रस्त हैं। आपदाओं की प्रवृति में हो रहा यह बदलाव 40 फीसदी जिलों में अनुभव किया गया है। यदि इसकी प्रवृति की बात करें तो जो जिले बाढ़ से सूखाग्रस्त बन रहे हैं उनकी संख्या सूखे से बाढ़ग्रस्त बनने वाले जिलों से कहीं ज्यादा है जो दिखाता है कि देश में सूखे का कहर बढ़ रहा है। रिपोर्ट में इसके लिए देश में क्षेत्रीय स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ भूमि उपयोग में किए जा रहे बदलावों, वनों के विनाश, मैन्ग्रोव और वेटलैंड पर हो रहे अतिक्रमण को जिम्मेवार माना है। (downtoearth)
Lalit Maurya-
जलवायु परिवर्तन एक ऐसी सच्चाई है जिसे चाह कर भी झुठलाया नहीं जा सकता। यह किसी न किसी रूप में दुनिया के हर हिस्से को प्रभावित कर रही है। कहीं बाढ़, तो कहीं सूखा, कहीं तूफान और कहीं नष्ट होती फसलें। यह एक ऐसी त्रासदी है जिसकी कीमत हर किसी को किसी न किसी रूप में भरनी पड़ रही है। यदि हम पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल कर लेते तो काफी हद तक इन आपदाओं को टाला जा सकता था। लेकिन इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि दुनिया पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल कर पायेगी। ऐसे में हमें इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है, इसका आंकलन वैज्ञानिकों ने किया है।
इससे जुड़ा एक अध्ययन हाल ही में जर्नल नेचर कम्युनिकेशन में छपा है। जिसके अनुसार यदि हम पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाए तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 6,00,000 अरब डॉलर (4,59,30,300 अरब रुपए) का नुकसान उठाना पड़ेगा। जोकि विश्व के वर्त्तमान जीडीपी से करीब 7।5 गुना ज्यादा है। यह शोध जलवायु विशेषज्ञों की अंतरराष्ट्रीय टीम द्वारा किया गया है। जिसमें उन्होंने अनेकों परिदृश्यों के आधार पर आर्थिक हानि का अनुमान लगाया है। जिसके सदी के अंत तक 150 से 790 ट्रिलियन डॉलर के बीच रहने की आशंका है।
आईपीसीसी ने सम्भावना व्यक्त की है कि 2030 से 2050 के बीच वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी। ऐसे में उसके विनाशकारी परिणाम सामने आएंगे। जबकि शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस सदी के अंत तक तापमान में 3 से 4 डिग्री की वृद्धि हो जाएगी।
हर साल उत्सर्जन में जरुरी है 7 फीसदी की कटौती
गौरतलब है कि 2015 पेरिस समझौते का लक्ष्य वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रखना है। इस समझौते के तहत दुनिया भर के देशों ने अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने की बात स्वीकार की थी। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि अब से लेकर 2030 तक यदि हम हर साल वैश्विक उत्सर्जन में 7 फीसदी की कटौती करेंगे। तब जाकर कहीं 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे।
क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2020 के अनुसार पर्यावरण में आ रहे बदलाव का बुरा असर भारत पर भी पड़ रहा है। इस इंडेक्स के अनुसार भारत पांचवे स्थान पर था। जबकि यदि जान माल के नुकसान की बात करें तो भारत दूसरे स्थान पर रहा था। जो स्पष्ट तौर पर देश में जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे की ओर इशारा है|
शोधकर्ताओं का मानना है कि यदि दुनिया उत्सर्जन को रोकने के लिए अभी से ठोस कदम उठाएगी तो आने वाले वक्त में वो इस भारी आर्थिक हानि से बच जाएगी। बीजिंग इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर और इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता बायिंग यू ने बताया कि “यदि उत्सर्जन रोकने पर अभी से निवेश नहीं किया गया तो इस रोकना मुश्किल हो जायेगा। जिससे हमें जलवायु परिवर्तन के और भयंकर परिणाम झेलने होंगे। जिसके चलते जन-धन की अपार क्षति होगी।“
शोधकर्ताओं के अनुसार दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन को ख़त्म करने के लिए करीब 18,00,000 से 1,13,00,000 करोड़ डॉलर (13,77,01,800 से 86,44,61,300 करोड़ रूपए) की जरुरत पड़ेगी। जिसमें से 90 फीसदी धनराशि जी-20 देशों द्वारा खर्च की जानी चाहिए। उनका मानना है कि विशेष रूप से रिन्यूएबल एनर्जी, इलेक्ट्रिक वाहनों और अन्य पर्यावरण अनुकूल तकनीकों के लिए भारी भरकम धनराशि खर्च करनी होगी।
हमें समझना होगा कि पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में अब धरती का तापमान करीब 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। जिसके कारण बाढ़, सूखा, तूफान, हीटवेव जैसी आपदाओं की संख्या और तीव्रता में वृद्धि हो गयी है। ऐसे में जब सदी के अंत तक तापमान 3 से 4 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा तो सोंचिये उसके कितने विनाशकारी परिणाम होंगे। सिर्फ प्राकृतिक आपदाएं ही नहीं, महामारी, फसलों को नष्ट होना, कीटों का हमला जैसी न जाने कितनी समस्याएं क्लाइमेट चेंज की वजह से सामने आ रही हैं। यदि हमने समय रहते जरुरी कदम न उठाये तो न जाने कितनी नयी समस्याएं और आएंगी जिनका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते। अब हम इसे और नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि हम आज नहीं संभले तो इसकी कीमत न केवल हमें बल्कि हमारे आने वाली पीढ़ियों को भी चुकानी होगी। यह हमारी धरती है, हमारा अपना घर, इसे बचाने के लिए हमें खुद ही आगे आना होगा। (downtoearth)
Anil Ashwani Sharma-
अमेरिका ने चार साल पहले पेरिस जलवायु समझौते को छोड़ दिया था लेकिन इसके बाद से उसके मित्र राष्ट्र और प्रतिद्वंद्वी इस मामले में अब काफी आगे बढ़ चुके हैं। अमेरिकी चुनाव ने एक बार फिर से पेरिस समझौते से बाहर हुए अमेरिका की चर्चा को एक गति प्रदान की है औ इस समय पूरी दुनिया में इसकी चर्चा हो रही है। इस बात के कायास लगाए जा रहे हैं कि क्या बाइडन के जीतते ही अमेरिका इस समझौते में अपनी वापसी करेगा या कुछ नहीं करेगा। हालांकि बाइडन की चुनावी रैलियों में दिए गए बयानों और भाषणों पर गौर करें तो इस बात के पुख्ता संकेत मिलते हैं कि अमेरिका इस समझौते से पुन: जुड़ेगा। हां यहां एक सबसे बड़ा सवाल ये है कि बाइडन के जीतने के बाद भी अमेरिकी कांग्रेस में बाइडन की पार्टी के कमजोर होने से उनका इस समझौते में वापसी आसान नहीं होगी।
अमेरिका ने चार साल पहले अपने को परिस समझौते से अलग कर लिया था। उसके बाद से जलवायु आपदाओं की लागत में वृद्धि हुई है। बैंकों और निवेशकों ने जीवाश्म ईंधन से अपने को दूर कर लिया है क्योंकि अक्षय ऊर्जा की कीमत में तेजी से गिरावट आई है। यही नहीं अमेरिका के सहयोगी अपने जलवायु कार्रवाई के लक्ष्यों को पूरा करने से दूर हो गए। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, जापान और दक्षिण कोरिया सभी ने कहा है कि वे 2050 तक अपने उत्सर्जन को बेअसर करने का लक्ष्य रखेंगे। हालांकि इसके उलट दुनिया के बाकी देशों ने इस बात की पुष्टि की है कि यह जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई को नहीं रोकेंगे।
बाइडन के जीतने पर इस समय दुनिया के कई देशों ने यह उम्मीद जताई है कि अमेरिका हर हाल में पेरिस समझौते में वापसी करेगा। इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र में बेलीज की राजदूत लोइस एम यंग ने कहा कि दुनिया के बाकी लोगों ने पुष्टि की है कि यह जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई को नहीं रोकेगा। यंग ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि अमेरिका उनके जैसे सबसे खराब जलवायु जोखिम वाले देशों की स्थिति को देखते हुए पेरिस समझौते को फिर से स्वीकार करेगा। क्योंकि उस देश ने जलवायु परिवर्तन में सबसे अधिक योगदान दिया है जो अब औपचारिक रूप से पेरिस समझौते से बाहर है और कम से कम अगले चार वर्षों तक ऐसा रह सकता है। वह कहती हैं कि वास्तव में यह एक भयावह विचार है।
सवाल किया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका की भूमिका क्या होगी? इसका भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि यदि राष्ट्रपति ट्रप जीत जाते हैं तो अमेरिका निश्चित रूप से कम से कम अगले चार वर्षों के लिए समझौते से बाहर रहेगा। वहीं दूसरी ओर यदि अगर पूर्व उप राष्ट्रपति जोसेफ आर बाइडन जूनियर जीत जाते हैं तो वे फरवरी 2021 की शुरुआत में अमेरिका को वापसी संभव होगी। जैसा कि बाइडन ने एक ट्विटर संदेश में कहा, है कि ठीक 77 दिनों में हम इस समझौते में वापसी करेंगे। यह सही है कि पेरिस समझौते से जुड़ना अमेरिका के लिए आसान होगा। अमेरिका यह जानता है कि उत्सर्जन को कम करने और अपने अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों के साथ अपनी विश्वसनीयता को पुन:बहाल करने लिए इसमें वापसी जरूरी है। स्पेन के पर्यावरण मंत्री टेरेसा रिबेरा ने कहा कि चुनाव परिणाम यह प्रदर्शित करेंगे कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन पर एक टकराव की शक्ति पैदा करेगा या रचनात्मक शक्ति बनेगा। रिबेरा ने कहा कि कई देश पेरिस समझौते में अमेरिका को फिर से शामिल करने के लिए उत्सुक हैं। लेकिन वे वाशिंगटन के वादों के बारे में भी सावधान हैं। यह ध्यान देने वाली बात है कि साख अर्जित करना बहुत मुश्किल है और हारना बहुत आसान। अमेरिका को पुन: विश्व की विश्वसनीयता को कायम करने में कुछ समय लग सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के नेतृत्व में जलवायु परिवर्तन दूत के रूप में कार्य कर चुके टॉड स्टर्न ने कहा कि चार साल बाद एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने पेरिस समझौते की निंदा की और जलवायु विज्ञान का मजाक उड़ाया, उन्होंने कह कि मुझे लगता है कि अमेरिका के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात घरेलू पक्ष पर बहुत मजबूती और निर्णायक रूप से सामने आना है। स्टर्न ने कहा कि हमें यह दिखाना होगा कि वास्तव में एक बहुत ही उच्च प्राथमिकता वाला विषय है और नए राष्ट्रपति पूरी गति से से इसे आगे बढ़ाएंगे। स्टर्न ने कहा कि वापसी के समय अमेरिका को आक्रामक जलवायु कार्रवाई की आवश्यकता होगी। ऐसा करने की अमेरिकी क्षमता न केवल इस बात पर निर्भर करती है कि अगला राष्ट्रपति कौन है, बल्कि सीनेट की संरचना पर भी निर्भर करता है, जहां संतुलन की स्थिति अभी नहीं है।
बाइडन ने कहा है कि वह कोयला, तेल और गैस से दूर जाने के लिए चार वर्षों में 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च करेंगे और 2035 तक बिजली उत्पादन से जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को खत्म करने का लक्ष्य रखा गया है। बाइडन ने कसम खाई है कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था कार्बन तटस्थ होगी। बाइडन ने पेरिस समझौते के बारे में कोई विशेष वादे नहीं किए हैं। उन्होंने कहा है कि वह हर प्रमुख देश को अपने घरेलू जलवायु लक्ष्य की महत्वाकांक्षा को पूरा करने का प्रयास करेंगे।
भारत अपने हिस्से के लिए कोयले के उपयोग को कम करने की संभावना नहीं है, हालांकि बाइडन प्रशासन अक्षय ऊर्जा के अपने विस्तार में तेजी लाने के लिए भारत पर दबाव बना सकता है। एक दशक तक अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता में भाग लेने वाले बांग्लादेश में संसद के सदस्य कृपाण चौधरी ने कहा कि उन्होंने अमेरिका की जलवायु कार्रवाई के लिए नए सिरे से प्रतिबद्धता व्यक्त की है, जो गरीब देशों के लिए अधिक वित्तपोषण है। ओबामा ने गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने के लिए डिजाइन किए गए ग्रीन क्लाइमेट फंड में 3 डॉलर बिलियन का वादा किया था। राष्ट्रपति ट्रप द्वारा भुगतान रोकने से पहले वादा किए गए धन का 1 बिलियन डॉलर दिया गया था। (downtoearth)
Sunita Narain-
पांच साल पहले जब भौतिक रूप से मुलाकात संभव थी, तब सर्दी से ठिठुरते पेरिस में जलवायु परिवर्तन के समझौते पर हस्ताक्षर के लिए दुनिया भर के लोग जुटे थे। आज, जब दुनिया एक उग्र वायरस महामारी के कारण बंद है, तो इस बात का जायजा लेने का समय है कि उस समय किन बातों पर सहमति बनी थी और अब क्या किया जाना चाहिए।
पिछले पांच वर्षों में एक बात तो स्पष्ट है कि दुनिया के हर हिस्से में प्रलयंकारी मौसम की घटनाएं बढ़ी हैं। इसलिए, भले ही कोविड-19 से हम उभर जाएं, लेकिन भविष्य की अनिश्चितता हमारे दिमाग पर हावी रहनी चाहिए। चाहे, वो युवा हो या बूढ़ा, या अमीर-गरीब। जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है और हमें अब इसका विनाशकारी प्रभाव दिखने लगा है। वैश्विक तापमान में वृद्धि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। 1880 में जब से मौसम का रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था हुई, तब से अब तक औसत वैश्विक तापमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि हो चुकी है। और अब पेरिस समझौता हो या ना हो, अनुमान है कि सदी के अंत तक औसत तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।
आइए, समीक्षा करें कि हम कहां हैं? पेरिस 2015 समझौते ने बुनियादी तौर पर जलवायु कार्रवाई पर समझौते की शर्तों को बदल दिया। इससे पहले दुनिया ने वातावरण में उत्सर्जन के स्टॉक के लिए देशों की जिम्मेदारी के आधार पर ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) की कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए थे। इस समझौते में कार्रवाई के लिए एक रूपरेखा तैयार की गई और सहकारी समझौते की नींव रखी गई। लेकिन अमेरिका जैसे देश, जो उत्सर्जन में सबसे अधिक योगदान देते रहे हैं, वे इस समझौते को नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने इसे (समझौते को) कमतर करने की कोशिश की। वे अतीत की पुरानी बातों को नकारते हुए वही करना चाहते थे, जो वे कर सकते थे। पेरिस समझौते ने इस विचार के आगे घुटने टेक दिए।
इस तरह सभी देशों ने अपने लक्ष्य तय किये और प्रतिस्पर्धा में कूद गये, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) कहा जाता है। इसके बाद पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश हुई, लेकिन अगर इन एनडीसी के कुल योग को भी मान लिया जाए, तब भी इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होना लगभग तय है।
हालांकि उम्मीदें अधिक थीं। एक बार के लिए इस समझौते से अमेरिका को हटा भी दिया जाए, तब भी पेरिस समझौते में कहा गया कि इस समझौते से 1880 के पूर्व-औद्योगिक युग से दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक नीचे चला जाएगा, बल्कि तापमान के 2 डिग्री सेल्सियस तक नीचे पहुंचने का अनुमान लगाया गया था।
ऐसा करने के लिए तीन चीजें सामने रखी गई थीं। पहला था-एनडीसी का कड़ाई से पालन। ऐसा इसलिए किया गया कि देश कठोर कार्रवाई की जरूरत समझेंगे क्योंकि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव उन पर पड़ता है। दूसरा था साल 2023 में कार्बन के वैश्विक स्टाॅक की जांच और इसमें कमी लाने के लक्ष्य तक पहुंचने में उठाये गये कदमों के प्रभाव की जांच के वास्ते हर पांच साल के अंतराल पर इसका दोहराव। और तीसरा था बाजार आधारित उपकरणों को विकसित करना, ताकि भविष्य में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विभिन्न देश इनकी खरीद कर सकें।
अब, पांच साल बाद जलवायु परिवर्तन के नीति निर्धारक अंग (काॅन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) के बीच भौतिक मुलाकात नहीं होगी और ये अच्छी खबर नहीं है। इस मुद्दे को हमें भटकने नहीं देना चाहिए। कोविड-19 के चलते पिछले वर्ष वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन में कुछ हद तक गिरावट आई है, लेकिन ये तात्कालिक है। यूएनईपी की एमिशन गैप रिपोर्ट 2020 में बताया गया है कि पिछले तीन वर्षों में वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस ऊत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई है। साल 2019 में इसमें रिकार्ड स्तर पर इजाफा हुआ था। ये भी जगजाहिर है कि अमेरिका जैसे देश पेरिस समझौते के तहत तय किये अपने स्वैच्छिक लक्ष्य के एक बहुत छोटे हिस्से तक भी नहीं पहुंच पायेंगे। अमेरिका में साल 2019 में 2016 के मुकाबले ज्यादा कार्बन उत्सर्जन हुआ था और ऐसा तब हुआ जब इसने पिछले दशक में अमेरिका ने ऊर्जा संबंधित उत्सर्जन 30 प्रतिशत कम किया था।
ये भी साफ हो गया है कि मौजूदा कार्बन उत्सर्जन के स्तर को देखते हुए 1.5 डिग्री के लक्ष्य को पूरा करने में साल 2030 तक दुनियाभर का कार्बन बजट खत्म हो जायेगा। ये तब होगा जब भारत समेत दुनिया के बड़े हिस्सों को सबसे सस्ता ईंधन कोल और प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल के अधिकार की जरूरत होगी। इसका मतलब है कि इससे कार्बन उत्सर्जन और बढ़ेगा। ये स्पष्ट है कि अक्षय ऊर्जा आधारित ऊर्जा की नई व्यवस्था में प्रवेश करने में अभी वक्त है।
यद्यपि यूरोपीय यूनियन जैसे कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले अधिकांश क्षेत्रों में ऊर्जा व्यवस्था में कोयले की बड़ी हिस्सेदारी है। ठीक वैसे ही जैसे नई अक्षय ऊर्जा तकनीक में हवा या सौर की हिस्सेदारी है। इसलिए ये बहुत जरूरी है कि उभरती दुनिया में हम इस बदलाव की तरफ आगे बढ़ें, लेकिन स्थिति बहुत अनुकूल नहीं है कि ये हो जाये। बात करना आसान है, लेकिन तब्दीली आसान नहीं।
लेकिन, लक्ष्य को स्थानांतरित किया जा रहा है। नया चर्चित शब्द है ‘नेट-जीरो’। विश्व के कई देशों ने साल 2050 के लिए नेट-जीरो लक्ष्य की घोषणा कर दी है। चीन ने कहा है कि वह 2060 तक नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेगा। अब दबाव भारत समेत अन्य देशों की सरकारों पर है कि वे नेट-जीरो का लक्ष्य तय करें।
समस्या नेट-जीरो करने की महात्वाकांक्षा या इरादे को लेकर नहीं है। समस्या ये है कि ज्यादातर मामलों में इन बड़ी घोषणाओं का कोई भौतिक आधार नहीं है। तय लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कोई योजना नहीं है या ऐसा रास्ता नहीं है जिससे ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम हो जाए। बहुत कम देश इस दशक के लिए 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कठिन लक्ष्य लेकर आए हैं। ज्यादातर मामलों में उत्सर्जन में तत्काल बड़ी गिरावट कैसे आएगी, इसको लेकर कुछ स्पष्ट नहीं है, लेकिन एक लक्ष्य तय कर दिया गया है।
इसलिए हमें जलवायु परिवर्तन के नैरेटिव में वास्तविकता की ज्यादा जांच की जरूरत है। प्रभाव पड़ना निश्चित है, लेकिन अभी तक कार्रवाई को लेकर संकल्प की कमी है। हम बेहतर परिणाम के अधिकारी हैं। अतः पेरिस समझौते की पांचवीं वर्षगांठ पर, आइए, हम तय करते हैं कि केवल अच्छी-अच्छी बातें नहीं होने दें, बल्कि कार्रवाई की मांग करें। कठोर, असरदार व असली कार्रवाई होनी चाहिए और अभी होनी चाहिए। (downtoearth)
-नवयुग गिल
भारत में हज़ारों किसान 26 नवम्बर को पैदल और ट्रैक्टर-ट्राली पर पंजाब और हरियाणा से नई दिल्ली की ओर रवाना हो गए और सारी रुकावटों से गुज़रते हुए नई दिल्ली पहुंच गए और राजधानी का घेराव कर लिया। अब इस प्रदर्शन में बहुत सारे सेक्टर शामिल हो गए हैं। 31 से अधिक ट्रेड यूनियनों ने प्रदर्शनों का समर्थन किया है।
यह प्रदर्शन महीनों पहले शुरू हुए मगर सरकार की ओर से लगातार नज़रअंदाज़ किए जाने के बाद अधिक व्यापक होते गए और फिर किसान राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर जा धमके। इसके बाद सरकार हरकत में आई तो मीडिया भी पूरी तरह सक्रिय हो गया। सरकार ने किसानों से कई दौर की बेनतीजा वार्ता की तो भारत में गोदी मीडिया कहे जाने वाले चैनलों ने प्रदर्शनों को दाग़दार बनाने की कोशिश की।
भाजपा समर्थकों का तर्क यह है कि तीनों किसान क़ानून बहुमत से चुनी हुई सरकार ने बनाए हैं और इसके लिए सारी औपचारिकताएं पूरी की गई हैं इसलिए विरोध का कोई तुक नहीं बनता। भाजपा को चूंकि लोक सभा चुनावों में 543 में से 303 सीटें मिली थीं इसलिए उसकी सोच है कि उसके द्वारा बनाए जा रहे क़ानून सबको मानने चाहिए। भाजपा की इसी सोच के नतीजे में नोटबंदी की गई, जम्मू व कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किया गया, इसी तरह विवादित नागरिकता क़ानून सीएए पास किया गया। स्पष्ट बहुमत की मज़बूत सरकारों के यहां एक समस्या यह हमेशा रहती है।
पंजाब और हरियाणा में संसद की 13 और 10 सीटें हैं इसलिए चुनावी गणित के हिसाब से शायद इन राज्यों का इतना ज़्यादा महत्व नहीं है। दोनों राज्यों की आबादी कुल मिलाकर पांच करोड़ तीस लाख से कुछ ज़्यादा है। भारत की आबादी के हिसाब से तो यह ज़्यादा नहीं है लेकिन दूसरी ओर अगर स्पेन, कोलम्बिया या दक्षिणी कोरिया से तुलना की जाए तो यह आबादी उनसे ज़्यादा है।
फ़ूड सेक्युरिटी के लेहाज़ से इन दोनों राज्यों का महत्व बहुत है। पिछले पांच दशकों तक लगातार अकेले पंजाब ने देश की ज़रूरत का दो तिहाई गेहूं और चावल पैदा किया और भारत चावल और गेहूं की पैदावार में आत्म निर्भर हो गया। तो क्या अन्य राज्यों द्वारा जिनकी आबादी ज़्यादा है चुने गए सांसद इस राज्य की भी क़िस्मत का फ़ैसला करेंगे? क्या लोकतंत्र का मतलब गिनती की तुलना भर है?
भाजपा और उसके समर्थक जो चीज़ समझ नहीं पा रहे हैं वह यह है कि उनकी उपेक्षा का बहुत बुरा असर पड़ेगा। इस समय स्थिति यह है कि भारतीय किसानों का प्रदर्शन अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। दुनिया के कई देशों में भारतीय किसानों के समर्थन में प्रदर्शन हुए हैं। अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया और यूएन में किसानों के लिए प्रदर्शन हुए हैं।
बहुमत मिल जाने का यह मतलब नहीं है कि सरकार को बहुलतावादी समाज पर अपनी मर्ज़ी थोपने का सर्टीफ़िकेट मिल गया है। यह दुनिया के उन नेताओं के लिए भी सबक़ है जो मेजारिटैरियन वर्चस्व की नीति पर चलते हैं।
(लेखक अमरीका की विलियम पैटरसन युनिवर्सिटी में हिस्ट्री डिपार्टमेंट के एसिस्टैंट प्रोफ़ेसर)
-प्रमोद जोशी
सन 2020 में जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो पता चला कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त-व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया। यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है।
कोविड-19 ने इनसान के सामने मुश्किल चुनौती खड़ी की है, जिसका जवाब खोजने में समय लगेगा। कोई नहीं कह सकता कि इस वायरस का जीवन-चक्र अब किस जगह पर और किस तरह से खत्म होगा। बेशक कई तरह की वैक्सीन सामने आ रहीं हैं, पर वैक्सीन इसका निर्णायक इलाज नहीं हैं। इस बात की गारंटी भी नहीं कि वैक्सीन के बाद संक्रमण नहीं होगा। यह भी पता नहीं कि उसका असर कितने समय तक रहेगा।
महामारी से सबसे बड़ा धक्का करोड़ों गरीबों को लगा है, जो प्रकोपों का पहला निशाना बनते हैं। अफसोस कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर देख रही दुनिया अपने भीतर की गैर-बराबरी और अन्याय को नहीं देख पा रही है। इस महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति दुनिया के पाखंड का पर्दाफाश किया है।
नए दौर की नई कहानी
सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में शुरू हुआ था। फिर नब्बे के दशक में दुनिया ने पूंजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया। इस प्रक्रिया के केंद्र में पूंजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई। हालांकि उस दौर में वैश्विक गरीबी समाप्त करने और उनकी खाद्य समस्या का समाधान करने के वायदे भी हुए थे, पर पिछले चार दशकों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
पिछले चार दशकों में गरीब से गरीब देशों की सरकारों ने स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपने के चक्कर में अपने बजट कम कर दिए हैं। ऐसा अनायास नहीं हुआ, यह विश्व बैंक के निर्देशों के तहत हुआ है। सन 1978 में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा की थी- सन् 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! यह वह दौर था, जब दुनिया नई वैश्विक अर्थव्यवस्था पर विचार कर रही थी।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया। उत्तर के विकसित देशों ने इस बात को महसूस किया कि विकासशील देशों की उचित मांगों की अनदेखी करना गलत है। इसलिए उन्होंने आपसी विचार विमर्श की प्रक्रिया आरम्भ की जिसे उत्तर-दक्षिण संवाद कहा जाता है। अल्मा-अता घोषणा भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा थी।
उस घोषणा में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें लेंगी। पर अगले दो वर्षों में वैश्विक विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली और सन 1980 में विश्व बैंक ने स्वास्थ्य से जुड़े अपने पहले नीतिगत दस्तावेज में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की परिभाषा सीमित कर दी और वह चिकित्सा के स्थान पर निवारक (प्रिवेंटिव) गतिविधि भर रह गई। उस मोड़ से दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के जबरदस्त निजीकरण की रेस शुरू हो गई।
अस्त-व्यस्त सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं
सन 2020 में जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो हम पाते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त- व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया। यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। फ्रांस, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है। अमेरिका के बारे में तो कहा जाता है कि लोग बीमारी से नहीं इलाज की कीमत से मरते हैं। इंश्योरेंस नहीं हो तो वहां इलाज कराना आसान नहीं है।
अब दो तरह की हैल्थ केयर कंपनियों का विस्तार हो रहा है। एक, जो हैल्थ सॉल्यूशंस बेचती हैं। जैसे कार्डिनल हैल्थ, जो अमेरिका में राजस्व के लिहाज से 14वें नंबर की कंपनी है। सन् 1971 में यह कंपनी खाद्य सामग्री के थोक विक्रेता के रूप में बनी थी। सन् 1979 में इसमें दवाओं का वितरण शुरू दिया। उसी दौरान स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति बदली और इस कंपनी ने औषधियों का डिस्ट्रीब्यूशन शुरू कर दिया। आज हैल्थ केयर इंडस्ट्री दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते कारोबारों में एक है। इसमें दवाओं और उपकरणों से लेकर अस्पताल और सहायक सामग्री का प्रबंधन सब शामिल है। दूसरी हैं बीमा कंपनियां। दोनों तरह की ग्लोबल कंपनियों के साथ अलग-अलग देशों की सहायक कंपनियों की चेन बन गई है।
नारा 'सबके लिए स्वास्थ्य' का, लेकिन हकीकत कुछ और
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 23 सितम्बर, 2019 को ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय बैठक में कहा कि स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ बीमारियों से मुक्त रहना नहीं है। स्वस्थ जीवन प्रत्येक नागरिक का अधिकार है। इसे सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने भारत सरकार के उपायों का जिक्र किया। उस सभा में दुनिया के 160 देशों के नेताओं ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
उस वक्त कोई नहीं जानता था कि अगले कुछ महीनों में दुनिया की इस मामले में परीक्षा होने वाली है। उस उच्च स्तरीय बैठक का विषय था-‘सबके लिए स्वास्थ्य कवरेज: स्वस्थ विश्व के निर्माण के लिए सबके साथ आगे बढ़ना।’ लक्ष्य था सरकारों और राष्ट्र प्रमुखों से 2030 तक सबके लिए स्वास्थ्य कवरेज के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता सुनिश्चित कराना।
तेज आर्थिक विकास के बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च दुनिया के तमाम विकासशील देशों के मुकाबले कम है। इस खर्च में सरकार की हिस्सेदारी और भी कम है। चीन में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय भारत के मुकाबले 5.6 गुना है तो अमेरिका में 125 गुना। औसत भारतीय अपने स्वास्थ्य पर जो खर्च करता है, उसका 62 फीसदी उसे अपनी जेब से देना पड़ता है। एक औसत अमेरिकी को 13.4 फीसदी, ब्रिटिश नागरिक को 10 फीसदी और चीनी नागरिक को 54 फीसदी अपनी जेब से देना होता है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य कवरेज पर योजना आयोग द्वारा गठित उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों के अनुसार स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को बारहवीं योजना के अंत तक जीडीपी के 2.5 प्रतिशत और 2022 तक कम से कम 3 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के अनुसार सन 2025 तक भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का 2.5 फीसदी हो जाएगा। पर सन 2019-20 के राष्ट्रीय और राज्यों के बजटों पर नजर डालें, तो यह व्यय जीडीपी के 1.6 फीसदी के आसपास था।
पिछले साल के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य के लिए धनराशि का आबंटन कुल बजट का 2.4 फीसदी था, जो चालू वित्त वर्ष के बजट में घटकर 2.3 फीसदी हो गया। यह रकम जीडीपी की 0.3 फीसदी है। इन आँकड़ों की भाषा के बजाय सीधे-सीधे समझना है, तो यह समझिए की अब सरकार स्वास्थ्य सेवा प्रदाता नहीं, सेवा की ग्राहक है। स्वास्थ्य सेवाओं का जिम्मा निजी क्षेत्र के पास है। सरकार नागरिकों के लिए ‘स्ट्रैटेजिक पर्चेजिंग’ करती है। ऐसा संरचनात्मक बदलाव ज्यादातर देशों में हो रहा है।
औषधियों के शोध और विकास का काम अब निजी क्षेत्र के जिम्मे है। सिद्धांततः इस बात में कोई खामी नहीं है, पर निजी कंपनियाँ सामाजिक कल्याण के उदात्त इरादों से नहीं चलतीं। वे अपने मुनाफे और कमाई के लिए काम करती हैं। यह जिम्मेदारी नियामक संस्थाओं की है कि वे सामाजिक कल्याण को सुनिश्चित करें। पर राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली और ताकतवर नियामक संस्थाएं नजर नहीं आती हैं। ऐसी संस्थाएं, जो पूँजी के दबाव या लोभ का सामना कर सकें।
वैश्विक स्वास्थ्य से जुड़ा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) अपेक्षाकृत कमजोर संस्था है। यहाँ ताकत के जोर पर नीतिगत बदलाव कराना आसान है। इस महामारी के दौरान हमने देखा कि इस संगठन के इस्तेमाल को लेकर चीन और अमेरिका के बीच रस्साकशी हुई और अमेरिका ने इसके साथ अपना नाता तोड़ लिया। संयुक्त राष्ट्र से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक सबको अपने खर्च को चलाने के लिए पैसा चाहिए।
अंततः सारी बातें दुनिया पर छाई जबरदस्त असमानता से जुड़ी हैं। संयुक्त राष्ट्र सन 2015 के लिए गरीबी और कई तरह की असमानताओं को दूर करने से जुड़े अपने लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहा। अब सन 2030 तक के संधारणीय विकास के नए लक्ष्य तय किए गए हैं। इन लक्ष्यों को लेकर अब आने वाले समय की बहसों में कोविड-19 जैसी महामारी का जिक्र भी जरूर होगा। इस महामारी ने दुनिया को अपने गरीबों की अनदेखी न करने और पूँजी की स्वार्थी दौड़ को रोकने की सलाह दी है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 से बचाव का सबसे बड़ा तरीका है हाथों को धोना। उधर यूनिसेफ का कहना है कि दुनिया की 40 फीसदी आबादी के पास पानी और साबुन से हाथ धोने की व्यवस्था भी नहीं है। हम उनसे मास्क पहनने को कह रहे हैं, जिनके पास रोटी खरीदने के लिए पैसा नहीं है। पिछले नौ महीनों के हमारे अनुभव अच्छे हैं और खराब भी। निजी स्तर पर तमाम प्रेरक प्रसंग हैं, पर गरीबों की मदद करने के लिए सामने आए लोगों या स्वास्थ्य कर्मियों को मेडल देने या उनकी शहादत का यशोगान करने से समस्या का समाधान नहीं होगा। जब तक दुनिया में निःशुल्क बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं अपनी पूरी गुणवत्ता के साथ हरेक व्यक्ति को उपलब्ध नहीं हैं, तब तक सब बेकार है। आप ताली बजाएं या थाली।(https://www.navjivanindia.com/)
-रोहिणी नीलेकणी
इस साल मैंने बेंगलुरु से काबिनी (कर्नाटक का एक वन्यजीव अभयारण्य) तक कई यात्राएं की हैं. हर बार जब मैं जंगल और देहात से लौटती हूं तो मेरी आंखें और दूसरी इंद्रियां ताज़गी से भर जाती हैं और मैं अपने गृहनगर को एक नई नजर से देखती हूं. फिलहाल बेंगलुरू एक पीड़ादायक बदलाव से भरा शहर दिखता है. ऊपर देखें तो हर तरफ डरावना कंक्रीट नजर आता है और नीचे मलबे के ढेर. इस धूसर कैनवास में ट्रैफिक से ठसाठस भरी सड़कों, मनमर्जी से काम करते सिग्नलों और पेंचीदा गोल चक्करों से जूझते हुए अपनी मंजिल पर पहुंचने की कोशिश करते असहाय लोग रंग-बिरंगे बिंदुओं जैसे दिखते हैं.
ऐसा लगता है जैसे भारत के कई दूसरे शहरों की तरह बेंगलुरू भी अपने बाशिंदों का इम्तहान ले रहा है. बुनियादी सुविधाओं के मोर्चे पर यहां हो रहे काम किसी ऐसे पोस्टर सरीखे दिखते हैं जिस पर बेहतर भविष्य का वादा लिखा होता है. शहर आपसे सब्र, भरोसा और उम्मीद रखने को कहता है. लेकिन लोग अब थक चुके हैं और उन्हें कुछ भी महसूस होना बंद होता जा रहा है.
अपने घर पहुंचने पर मैं उस जंगल के शहरी संस्करण में दाखिल हो जाती हूं जो मैं पीछे छोड़कर आई थी. मेरे आस-पड़ोस में पेड़ों की घनी हरियाली है. लेकिन पूरे बेंगलुरु में ऐसा नहीं है. बल्कि कभी गार्डन सिटी कहे जाने वाले इस शहर में मेरा इलाका अब अपवाद सरीखा है. बेंगलुरु विविध और विरोधाभासी पहचानों और स्वरूपों का मेल है जिसमें शीर्ष स्तर पर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग हैं और नीचे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित लोग. लेकिन शहर की बदहाली इस भेद को खत्म कर देती है. ट्रैफिक और प्रदूषण जैसी समस्याओं के सामने हमारा सुरक्षित खोल टूट जाता है और एक विकृत समानता पैदा हो जाती है.
लेकिन अब शहर के भविष्य के साथ जुड़ने के नए अवसर भी बन रहे हैं. बल्कि देखा जाए तो देश में हर जगह इस तरह के प्रयास हो रहे हैं जिनमें शहरों की फिर से कल्पना की जा रही है और नागरिकों को इसमें अपना योगदान देने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है. इसका मकसद यह है कि शहर लोगों को अपने से लगें. अब बहस का विषय ठोस तरीके से इस तरफ मुड़ चुका है कि क्या शहरों को मौजूदा स्वरूप में ही विकसित होना चाहिये या फिर इनमें कोई बदलाव होना चाहिए, और इस बदलाव में किसकी भागीदारी होनी चाहिए.
आज प्रौद्योगिकी ने शहरों का स्वरूप तय करने के काम में सामूहिक भागीदारी को संभव बना दिया है. महानगरों और दूसरे इलाकों में भी डिजिटल दौर के नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) संगठन तकनीक की मदद से शहरों का भविष्य तय करने में राज्य व्यवस्था के एकाधिकार को चुनौती दे रहे हैं. इन संगठनों की कमान अक्सर सृजनशील युवाओं के हाथ में होती है. अब लगभग हर जगह मौजूद रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशंस भी अपने शहरों की कमान अपने हाथ में लेने के लिए दृढसंकल्प लगती हैं.
उदाहरण के लिए लॉकडाउन के दौरान युगांतर नाम के एक संगठन ने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन दाखिल करके यह जानकारी मांगी कि ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में कुल कितनी झुग्गियां और उनमें कितने लोग रहते हैं. फिर यह जानकारी स्थानीय गैर सरकारी संगठनों के साथ साझा की गई जिससे राहत कार्य और भी सटीक तरीके से संभव हुआ. इसी तरह हैय्या नाम के एक दूसरे संगठन ने ‘हेल्थ ओवर स्टिग्मा’ नाम से एक अभियान चलाया जिसके जरिये खास कर महिलाओं की सुरक्षित यौन और प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच सुनिश्चित करने की कोशिश की गई.
उधर, बेंगलुरु में रीप बेनिफिट नाम की एक संस्था ने शहर की समस्याओं के समाधान में भागीदारी का एक मंच विकसित किया है. सबके लिए खुला यह मंच एक वाट्सएप चैटबोट, वेब एप और सिविक फोरम का मेल है. चैटबोट लोगों को सरल और दिलचस्प तरीके से बताता है कि शहर के प्रशासन से जुड़ी चुनौतियों में अपनी भागीदारी वे कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं. मसलन अगर किसी सड़क पर कोई गड्ढा है तो सिर्फ उसकी फोटो खींचने के बजाय संबंधित विभागों को इसकी रिपोर्ट कैसे की जा सकती है. इस तरह देखें तो तकनीक लोगों के गुस्से और ऊर्जा को सही दिशा में मोड़ने में मदद कर रही है.
सिविस समझता है कि पर्यावरण संबंधी तकनीकी कानून बनाने की प्रक्रिया में कभी-कभी नागरिक समाज को दरकिनार किया जा सकता है जबकि पर्यावरण को हो रहे नुकसान का हम सभी पर गहरा असर पड़ता है. मार्च 2020 में पर्यावरण मंत्रालय ने कई नए नियमों के साथ एक मसौदा अधिसूचना जारी की थी और इस पर लोगों से सुझाव मांगे थे. सिविस ने इन नियमों को सरल भाषा में लोगों के सामने रखा और इसका नतीजा यह हुआ कि कहीं ज्यादा लोग इस प्रक्रिया में सीधे शामिल हो सके.
हमें समाज आधारित ऐसी और कई दूसरी कोशिशों को बढ़ावा देना होगा. इससे भी ज्यादा अहम यह है कि हममें से हर एक को इन कवायदों में हिस्सा लेने का अपना तरीका खोजना पड़ेगा. लोकतंत्र में हमारी भागीदारी सिर्फ एक खेल के दर्शक जितनी नहीं हो सकती. सुशासन सिर्फ भोग की वस्तु नहीं बल्कि सह-निर्माण का उद्यम भी है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं, आप किसी सरकारी विभाग के मुखिया हों या फिर कोई सफल कारोबार संभाल रहे हों - आप सबसे पहले एक नागरिक हैं, अपने समुदाय का एक हिस्सा. और मैं मानती हूं कि सिर्फ समाज और उसकी संस्थाएं ही शहरों को सबके रहने लायक बनाने जैसे व्यापक जनहित के कार्यों के प्रति राज्य व्यवस्था को जवाबदेह बना सकती हैं.
सौभाग्य से आज नई तकनीकों की मदद से हम इस काम में पहले के मुकाबले ज्यादा आसानी से, ज्यादा असरकारी भूमिका निभा सकते हैं. मैं ‘क्लिक्टीविज्म’ यानी सोशल मीडिया के जरिये समाज सेवा करने की बात नहीं कर रही हूं, बल्कि कैसे तकनीक से लैस एक सामाजिक तंत्र समस्याओं के हल ढूंढ़ने के काम में लोगों को शामिल कर सकता है. कैसे यह तंत्र नागरिकों की भागीदारी को लोकतांत्रिक बना सकता है और अपने शहर का भविष्य तय करने में उनकी मदद कर सकता है.
यहां पर एक अहम बात का ध्यान रखना जरूरी है. इस डिजिटल दौर में नागरिक समाज को और भी ज्यादा डिजिटल होना होगा. एक सक्रिय डिजिटल समाज ही तकनीक से जुड़े कारोबारी दिग्गजों को ज्यादा जवाबदेह बना सकता है और उन्हें ऐसे साधनों को अपनाने से रोक सकता है जो राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का स्वरूप बिगाड़ते हैं या व्यक्ति और समुदाय की चेतना का नुकसान करते हैं. शहरी समाज के आंदोलन इस दिशा में बेहद अहम हैं.
मौजूदा महामारी ने हमें इस दिशा में और भी तेजी से सोचने को मजबूर किया है कि शहरों का भविष्य कैसा होना चाहिए. उनमें किसी विपदा से संभलने की सामर्थ्य पैदा करने के लिए नागरिकों के पास सक्रिय भागीदारी के अवसर अब पहले से ज्यादा हैं. युवा नेतृत्वकर्ता सजग नागरिकों को सशक्त बनाने के लिए के लिए नये-नये विकल्प तैयार कर रहे हैं. मकसद यह है कि जब हम जंगल से शहर की तरफ लौटें तो हमें जीवंतता से भरी हलचल महसूस होनी चाहिए, आंखों में जलन और सांस लेने में परेशानी नहीं. (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस के 56 लाख मुसलमानों में आजकल कंपकंपी दौड़ी हुई है, क्योंकि ‘इस्लामी अतिवाद’ के खिलाफ फ्रांस की सरकार ने एक कानून तैयार कर लिया है। राष्ट्रपति इमेन्यूएल मेक्रो ने कहा है कि यह कानून किसी मजहब के विरुद्ध नहीं है और इस्लाम के विरुद्ध भी नहीं है लेकिन फिर भी फ्रांस के मुसलमान काफी डर गए हैं। फ्रांस में तुर्की, अल्जीरिया और अन्य कई यूरोपीय व पश्चिमी एशियाई देशों के मुसलमान आकर बस गए हैं।
ऐसा माना जाता है कि उनमें से ज्यादातर मुसलमान फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता (लायसीती) को मानते हैं लेकिन अक्तूबर में हुई एक फ्रांसीसी अध्यापक सेमुअल पेटी की हत्या तथा बाद की कुछ घटनाओं ने फ्रांसीसी सरकार को ऐसा कानून लाने के लिए मजबूर कर दिया है, जो मुसलमानों को दूसर दर्जे का नागरिक बनाकर ही छोड़ेगा। इस कानून के विरुद्ध तुर्की समेत कई इस्लामी देश बराबर बयान भी जारी कर रहे हैं। इस कानून के लागू होते ही मस्जिदों और मदरसों पर सरकार कड़ी निगरानी रखेगी। उनके पैसों के स्त्रोतों को भी खंगालेगी। वह मुस्लिम बच्चों की शिक्षा पर भी विशेष ध्यान देगी। उन्हें कट्टरवादी प्रशिक्षण देने पर रोक लगाएगी। यदि मस्जिद और मदरसे फ्रांस के ‘गणतांत्रिक सिद्धांतों’ के विरुद्ध कुछ भी कहते या करते हुए पाए जाएंगे तो उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। लगभग 75 प्रतिबंध पिछले दो माह में लग चुके हैं और 76 मस्जिदों के विरुद्ध अलगाववाद भडक़ाने की जांच चल रही है।
इमामों को भी अब सरकारी देखरेख में प्रशिक्षण दिया जाएगा। सरकार ने इस्लामद्रोह-विरोधी संगठन को भी भंग कर दिया है। अब तक अरबी टोपी, हिजाब, ईसाई क्रॉस आदि पहनने पर रोक सिर्फ सरकारी कर्मचारियों तक थी। उसे अब आम जनता पर भी लागू किया जाएगा। तीन साल से बड़े बच्चों को घरों में तालीम देना भी बंद होगा।
डॉक्टरों द्वारा मुसलमान लड़कियों के अक्षतयोनि (वरजिनिटी) प्रमाण पत्रों पर भी रोक लगेगी। बहुपत्नी विवाह और लव-जिहाद को भी काबू किया जाएगा। तुर्की और मिस्र जैसे देशों में इन प्रावधानों के विरुद्ध कटु प्रतिक्रियाएं हो रही हैं लेकिन फ्रांस के 80 प्रतिशत लोग और मुस्लिमों की फ्रांसीसी परिषद भी इन सुधारों का स्वागत कर रही है।
ये सुधार राष्ट्रपति मेक्रो की डगमगाती नैया को भी पार लगाने में काफी मदद करेंगे। उन्हें 2022 में चुनाव लडऩा है और इधर कई स्थानीय चुनावों में उनकी पार्टी हारी है और उनके कई वामपंथी नेताओं ने दल-बदल भी कर लिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
मेरे नाना जी रांची के स्टेशन मास्टर थे। लिहाजा अपने मायके में डिलीवरी के लिए गई मेरी मां के पहुंचने पर वहां मेरा उनके बंगले में जन्म हुआ। जब 70 साल का हुआ। मन में वर्षों की कुलबुलाहट के कारण पहली बार और अब तक आखिरी बार रांची गया था। दो-तीन दिन वहां रुका अपने परिवार के साथ। बहुत परेशान था कि जिस बंगले में मेरा जन्म हुआ है। वह बचा या नहीं बचा।
कुछ माह पहले रांची के रेलवे डिपार्टमेंट के एक इंजीनियर से ट्रेन में मुलाकात रायपुर बिलासपुर के बीच हुई थी। उन्होंने बताया था कि वह बंगला सुरक्षित है। रांची के प्रसिद्ध लेखक रविभूषण के साथ स्टेशन मास्टर के पास पहुंचा। स्टेशन मास्टर 70 साल पहले पैदा हुए एक बच्चे के जन्म स्थान का कैसे पता बताएं। लिहाजा एक बहुत बूढ़ा कर्मी जो रिटायर हो चुका था। अपने घर से बुलाया गया और उसने याद करके कहा कि हां गंगा प्रसाद बाजपेयी नाम के स्टेशन मास्टर थे। उनका घर फलां फलां है।
अब वहां एक कर्मचारी रहते हैं। और बंगले का स्वरूप बाहर से इसलिए समाप्त हो गया है कि कई क्वार्टर बन गए हैं। स्टेशन मास्टर का नया बंगला बन गया है। रविभूषणजी के साथ गया और बंगाली परिवार जो वहां रहता था। उनके साले साहब मिले। उनकी मदद से हमने घर देखा।
मुझे बचपन में मामा मौसी ने जो बताया था, एक एक कमरे की याद आई। मां तो मुझे साढ़े तीन साल का होने पर छोड़ कर चली गई थीं। इसलिए उनसे तो कुछ पता नहीं चल सकता था।
देखने लगा यहां पर मैं पैदा हुआ था। यहां पर गाय का कोठा अलग से बनाया गया था। यहां पर एक फायरप्लेस था अंग्रेजों के समय के हिसाब से बना हुआ। यहां पर आउटहाउस में धोबी और घर के अन्य कर्मचारी रहते थे।
सब कुछ ऐसे जीवंत हो गया जैसे मैं पिछले जन्म में चला गया हूं। मैं अभिभूत हो गया। होटल पहुंच कर मैंने अपनी पत्नी और बच्चों से कहा बहू से कहा। हम सब दूसरे दिन वहां औपचारिक तरीके से फिर पहुंचे। तब तक वे बंगीय सज्जन छुट्टी पर होने के कारण घर पर थे।
क्या स्वागत हुआ हमारा ! हमें तिलक लगाया गया ! फूल मालाएं पहनाई गईं ! हमें मिठाई खिलाई गई ! हमारे पैर छुए गए ! हमारा सम्मान किया गया। मैं यथासंभव ठीक उसी जगह पर बैठा जहां शायद मेरी मां ने मुझे जन्म दिया होगा। मैं अंदर ही अंदर महासागर अपने में समेटे हुए था। वह मुझे यादों के इतने थपेड़े मार रहा था कि मुझे लगा मेला अस्तित्व एक तिनके की तरह इस पूरे वातावरण में उड़ जाएगा। बाहर से सूखा मरुस्थल बना रहा।
मेजबान परिवार ने कहा कि हमने जीवन में ऐसा भी कोई व्यक्ति देखा सुना नहीं है कि कोई अपने जन्म के बाद 70 साल बाद अपना जन्म स्थान, मां की कोख का स्थान इस तरह देखने आए। आप लोगों ने तो चमत्कार कर दिया। मित्रों ! अगर जीवित रहा तो एक बार और जाना चाहता हूं रांची। तब बहुत मित्र नहीं थे। अब तो कुछ हो गए हैं। एक बार अपने जन्म स्थान की मिट्टी को चंदन समझकर अपने माथे पर तिलक करना चाहता हूं। तब तक मुझे चैन नहीं है।
-कनक तिवारी
दिलीप साहब ने ‘आत्मकथा‘ में लिखा है कि उन्हें राजनीति में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। वे बाद में राज्यसभा के सदस्य बनाए गए। उनकी जुबानी और जीवन कथाओं में भी उनकी ऐसी इच्छा का उल्लेख नहीं मिलता कि वे राज्यसभा में जाना चाहते थे। विस्मृत हो रही घटनाओं, संस्मरणों और यादों के साथ यह निहत्थापन होता है कि चश्मदीद गवाह या दस्तावेज़ नहीं होने से उन पर कोई भरोसा क्यों करे। ऐसी सच्ची यादों को झूठा होने का खिताब मिल जाना भी बहुत सरल होता है। किस्सा 1972 का है। विद्याचरण शुक्ल रक्षा उत्पादन मंत्री थे। प्राध्यापकी की नौकरी छोड़कर वकालत शुरू करने के पहले मैं सहसा प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स और नवभारत वगैरह का संवाददाता हो गया था। तब युवा और अभिजात्य आदतों में रचे बसे शुक्ल को छोटे भाई की उम्र के मुझ युवा पत्रकार को दिल्ली दरबार की ठसक दिखाने का अवसर आया। मैं रेसकोर्स की उनकी कोठी में रुका था। उसे बाद में प्रधानमंत्री का आवासीय दफ्तर बना दिया गया है। इतवार की दोपहर लंच के तीन निमंत्रण मंत्री जी के पास थे। एक महाराष्ट्र के राज्यपाल नवाब अली यावर जंग का, दूसरा केन्द्रीय मंत्री इंद्रकुमार गुजराल का और तीसरा पत्रकार सुदर्शन भाटिया का। उनकी पत्नी मक्के की रोटी और सरसों का साग अपने हाथों से बनाकर खिलाने वाली थीं। शुक्ल ने मुझसे मेजबान चुनने को कहा। अपने बेतुके कपड़ों, हीन भावना और पत्रकारिक मित्र से परिचय पाने की ललक में मैंने मक्के की रोटी और सरसों के साग को चुना।
शुक्ल अपनी स्पोर्ट्स् कार चलाते, जीन्स और टी शर्ट पहने फिल्मी हीरो लगते सामने की सीट पर कुर्ता पाजामा पहने बैठे मुझे ले गए। जैसे साहब और ड्राइवर साथ साथ जाते हैं। गुजराल की कोठी में हमारी कार घुस रही थी। सामने से एक खूबसूरत कार आ रही थी। मंत्री बुदबुदाए, ‘ये हज़रत उतरेंगे। तुम इन्हें संभालना। मैं गुजराल से माफी मांगकर आता हूं।‘ उस कार की पिछली सीट पर बैठा व्यक्ति ‘शुक्ला साहब, शुक्ला साहब‘ कहता अपनी कार को पलटकर हमारी कार के पीछे दौड़ा आया। उतरते उतरते उसने विद्याचरण शुक्ल को घेरा। मुझे संदर्भ मालूम नहीं था। शुक्ल ने मुझसे तआरुफ कराया ‘ये मेरे राजनीतिक सचिव हैं। छोटे भाई और बड़े पत्रकार भी। मैं इनकी सलाह से राजनीतिक फैसले करता हूं।‘ हर नेता की तरह शुक्ल ने अपने जीवन में ऐसे हजारों कामचलाऊ झूठ बोले ही होंगे। इस झूठ से लेकिन मेरे लिए सच सपना बनकर झरने लगा।
शुक्ल ने उनका तआरुफ जाहिराना कारणों से मुझसे नहीं कराया। उस आकर्षक पुरुष ने मेरा दायां हाथ गर्मजोशी से पकड़ा और कई मिनटों तक नहीं छोड़ा। इतनी देर तक तो उसे अपनी फिल्मों में किसी नायिका का हाथ पकड़े मैंने नहीं देखा था। उसके हाथों में ही उसकी भाषा थी। वह उसके मन को हिन्दुस्तानी में बयान कर रही थी। उसकी आंखों में जुंबिश थी। उसकी आंखें हर फिल्म में इस कदर साफ साफ बोलती रही हैं कि अंधे को भी दिखाई पड़ जाता है। आज ज़रूरी नहीं होने पर भी वह जुबान से भी बोल रहा था कि मैं शुक्ल के मन की थाह लूं। ऐसा आग्रह तो उसने कभी भी किसी फिल्म निर्माता से भी फिल्में पाने के लिए नहीं किया होगा। यह खुद्दार अतिमानव अपने से बीस वर्ष छोटे युवक का हाथ पकड़े खड़ा था। मुझे उनकी राजनीतिक आकांक्षा में रुचि नहीं पैदा हो रही थी।
मेरे लिए वे दिलीप कुमार नहीं, देवदास थे। कितने सौभाग्यशाली वे क्षण थे। मेरा नायक देवदास पारो की ड्योढ़ी पर मर जाने के बाद भी केवल मेरा हाथ पकड़ने के लिए दिल्ली के इस सरकारी बंगले की चौहद्दी के अंदर खड़ा था। मैं देवदास से मुखातिब होता हूं। दिलीप कुमार को अभिनय कला की उनकी चापलूसी में कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं ‘देवदास‘ के कारुणिक संवादों का रटा हुआ कोलाज़ बिखेरता हूं। यही डायलाॅग फिल्म में उनके द्वारा बोले जाने पर चंद्रमुखी, धरमदास, पारो, उनकी मां और चुन्नी बाबू तक की आंखों में आंसू छलछलाए थे। मैं अंदर ही अंदर झुंझलाता हूं। कैसा देवदास है जो दिलीप कुमार बने रहने का अभिनय कर रहा है। ज़मींदार का बेटा होकर ऊंची जाति की गरीब लड़की पारो से प्रेम के कारण इसी ने ऐसी त्रासद मौत पाई। हम जैसे लोग भी जीवन में कुछ पाने के बदले इसके जैसी ही त्रासद मौत पाना चाहते रहे। भले ही हमें कोई पी.सी. बरुआ या बिमल राॅय नहीं मिले। यह चाहे तो हम कम से कम शरत बाबू की कलम की स्याही की एक बूंद तो हमें बना सकता है। कितना निष्ठुर है यह कलाकार! जो पारो की ड्योढी़ पर मरकर दुनिया के नौजवानों को देवदास बनाने के महान कलात्मक अभियान को इन राजनीतिज्ञों के कारण टांय टांय फिस्स कर रहा है।
मैं ‘देवदास‘ के मुकाबले उसकी एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध फिल्म की गोद से पनाह मांगता हूं। मैं पूछता हूं, ‘आपको ‘शिकस्त‘ फिल्म में अपना अभिनय कैसा लगा?‘ ‘शिकस्त‘ का नायक भी तो बांग्ला कहानी का ही नायक है। बांग्ला कुमारिकाओं ने काॅलेज के हम दोस्तों को जब जब घास नहीं डाली। तब तब हम दिलीप कुमार में ही अपना नायक ढूंढ़ते रहे। ‘शिकस्त‘ में दिलीप का अभिनय अंगरेज़ी के महान रूमानी कवि कीट्स के मृत्यु-लेख की तरह अमर है। कीट्स ने लिखा है, ‘यहां वह लेटा है, जिसका नाम पानी पर खुदा है।‘ मैं ही शिकस्त हो रहा हूं। मेरे अभिनय का दिलीप कुमार पर कोई असर नहीं हो रहा है। उन्हें आज तो नेताओं के कीड़े ने काट खाया है। नेता अभिनेता को तबाह क्यों कर देते हैं?
पठान के हाथ ने मेरी हथेली को दबोचा। इस स्पर्श ने मनुष्य होने की समझ मुझमें विकसित और विस्तारित कर दी। पठान का कड़ा हाथ ब्राह्मण पुत्र के अपेक्षाकृत मुलायम हाथ को शिकंजे में कस चुका था। इस पठान ने अपनी नायिकाओं के हाथों को भी तो इतनी सख्ती से नहीं पकड़ा होगा। मेरे मुकाबले तो वे बेचारियां कोमलांगी ही रही होंगी। इस कलाकार को भ्रम है कि उसके हाथों में सिफारिश करने का दम है। अरे दम तो उसके पैदा होने में ही है। कभी उसके ये हाथ पांव, यह देह और हमारी यह उपस्थिति भी नहीं रहेगी। तब उसकी गैरहाज़िरी इतिहास और हमारी गुमनामी का पर्याय बनेगी। अकेले में शुक्ल ने मुझे बताया था कि दिलीप साहब के राज्यसभा में जाने की बात चल रही है। मैंने उस दोपहर दायां हाथ नहीं धोया। सुदर्शन भाटिया के घर बाएं हाथ से खाया। शुक्ल की कोठी पहुंचकर मैंने आदत के खिलाफ पत्नी से हाथ मिलाया था। वह चौंकी। मैंने कहा मेरे इस हाथ में दिलीप कुमार का स्पर्श है।
-कनक तिवारी
1. दिलीप कुमार धर्म, जाति, संस्कार, भूगोल या मौसम के तकाज़ों का फकत उत्पाद नहीं हैं। यही आदमी है जिसके पास निजी पुस्तकालय के अतिरिक्त किताबों का गोदाम घर भी है। अचानक फरमाइश कर वह किसी भी किताब को मंगवा लेता है। अपनी आराम कुर्सी में अधलेटा टेबिल लैम्प की रोशनी में इसे किताबें पढ़ते देखना अमूमन इसकी पत्नी सायरा बानो को ही ज्यादा नसीब है। फिल्मकथा में मौत से आंखमिचौनी करते उसे अपनी श्रेष्ठता का अहसास करा देना त्रासद चरित्रों के निरूपण का परिपाक होता है। दिलीप कुमार इस प्रयोजनीयता में भी निष्णात होते गए हैं।
2. नेहरू युग से प्रेरित फिल्मों में दिलीप कुमार केवल रोमांटिक नायक नहीं रहे, उन्होंने पिता, शिक्षक और प्रेरक भूमिकाओं को भी स्वीकार किया। वक्त आया जब राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और सलमान खान वगैरह ने भी राष्ट्रीय दमक की फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वाह किया ।अमिताभ बच्चन, सुनील दत्त और राजेश खन्ना वगैरह ने कांग्रेस उम्मीदवारों के रूप में लोकसभा के चुनाव भी लड़े । दिलीप कुमार बहुत बाद में राज्यसभा में मनोनीत किए गए। नेहरू के कार्यकाल में वे अकेले प्रमुख अभिनेता थे जो नेता के आह्वान के कारण कांग्रेस समर्थन की सड़क की राजनीति में कूदे। 1964 में बनी फिल्म ‘लीडर‘ की कहानी खुद दिलीप कुमार ने लिखी थी। उसमें नेहरू के समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष आदर्शों की साफ साफ अनुगूंज सुनाई पड़ती है। दिलीप कुमार की एक भूमिका फिल्म कलाकार के अतिरिक्त एक प्रबुद्ध मुसलमान नागरिक की भी रही है। जाहिरा तौर पर दिलीप कुमार मोहम्मद अली ज़िन्ना की दो राष्ट्र की थ्योरी से सहमत भी नहीं थे। उनके परिवार ने इसीलिए विभाजन के बाद भारत के साथ रहना चुना। नेहरू युग में मुसलमान भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में रहे। उनके साथ पाकिस्तान निर्माण की दुर्घटना के बावजूद तथाकथित सौतेला व्यवहार नहीं हुआ था।
3. ‘गंगा जमुना‘ फिल्म को तबके सूचना प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर के आदेश पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई। कथित तौर पर उसमें कुछ आपत्तिजनक दृष्य थे। सेंसर बोर्ड की समझ के अनुसार उससे डकैती को भी प्रोत्साहन मिलता। दिलीप कुमार ने पूरी तैयारी के साथ इन्दिरा गांधी की मदद से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से वक्त मांगा। पंद्रह मिनटों का दिया गया वक्त डेढ़ घंटे तक फैल गया। दिलीप कुमार ने अपने व्यवस्थित नोट तथा अस्तव्यस्त होने का भ्रम देती बेहद तार्किक विचारशीलता के जरिए नेहरू को आश्वस्त किया। ‘गंगा जमुना‘ जैसी की तैसी रिलीज़ हुई। कई अन्य फिल्मों को भी सेंसर बोर्ड के जेलखाने से छूट का फरमान मिला। दिलीप कुमार इन फिल्मों के जमानतदार नहीं अधिवक्ता बनकर गए थे। पता नहीं क्यों बाद में केसकर मंत्रालय से हटा दिए गए।
4. यह दिलचस्प विरोधाभास है कि मुस्लिम हितों के समय समय पर अवनत होने की स्थिति में दिलीप कुमार ने उनका भी प्रतिनिधित्व करने में गुरेज़ नहीं किया। साथ साथ यह देखना दिलचस्प है कि अपनी 57 फिल्मों में ‘मुगले आज़म‘ को छोड़कर दिलीप कुमार ने लगातार और सघन रूप से हिन्दू चरित्रों का ही अभिनय किया। यह भी जनता के बहुमत में उनकी स्वीकार्यता का एक बड़ा कारण बनता है। हिमान्शु राॅय द्वारा स्थापित बाम्बे टाॅकीज़ से दिलीप कुमार लगातार संबद्ध रहे। उस संस्था ने अपनी स्थापना से ही धर्मनिरपेक्ष और समाजोन्मुख मूल्यों और अवधारणाओं का रचनात्मक समर्थन किया।
5. आवाज़ का अर्थ केवल कंठ से निकलती हुई कुदरती ध्वनि नहीं है। मौसिकी में कुंदनलाल सहगल की आवाज़ में अद्भुत खनखनाहट सुनाई पड़ती है। वह बेजोड़ है। कई खलनायकों की आवाज़ में मर्दाना दम है। मसलन प्राण, अमरीश पुरी और रज़ा मुराद वगैरह को आवाज़ का कुदरती तोहफा मिला है। दिलीप कुमार ने लेकिन आवाज़ को अपने हुक्मनामे के ज़रिए सर्कस का रिंगमास्टर बनकर वर्जिश कराई है। दर्शक हतप्रभ हो जाने के लिए उनकी फिल्में देखने जाते रहते। आंखें सबसे अधिक तेज़ अंग हैं। वे प्रकाश की गति से देख सकती हैं। चेहरे के बदलते भावों के लिए बाकी अंग निर्भर होकर आंखों के हुक्मनामे की तामील करते हैं। कई समर्थ कलाकार बाद में बाॅलीवुड में अवतार बनकर छाए। उन्होंने भी त्रासदी नायकों के रूप में कथा के करुणा विमर्ष को खुर्दबीन से देखकर अपने अभिनय से विस्तारित किया। उसमें पीड़ा में टीसती सिम्फनी बहती है। सर्वख्यात हो चुके वे चरित्र त्रिआयामी होकर समाज में लेकिन दिलीप कुमार को आज भी ढूंढ़ते रहतें हैं। वे हर त्रासद फिल्म के निभाये किरदार को उत्तरोत्तर चरित्रों के मुकाबिल बहुत महीन अंतर के ज़रिए समझ जाते हैं। इन चरित्रों की तरल संवेदनाएं वैसे तो एक ही त्रासद कोख से उपजी हैं। इसलिए सहोदर हैं। लेकिन वे किसी एक का ही प्रतिरूप नहीं हैं।
6. शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे महान लेखक ने अपने त्रासद नायक देवदास में कई गुणों, अवगुणों को तराशा था। उनसे भी ज़्यादा कुछ और संकेत उन्हें जमींदारसुत देवदास की अभिनय बानगी के कारण ज़रूर दिलीप कुमार और बिमल राॅय के कारण मिल गए होते। यह फंतासी भले हो, लेकिन कला का वह कितना सार्थक क्षण होता! वैसे भी ‘देवदास‘ उपन्यास की मूल कथा इतनी विस्तृत नहीं है कि केवल उस पर निर्भर रहकर ही नाट्य रूपांतरण हो सके। चमत्कार यही हुआ कि जितनी संभावनाओं का नया आकाश फिल्म में बुन दिया गया, उसमें कहीं भी रचनात्मकता के लिहाज़ से प्रदूषण या अतिरेक नहीं था। ओहदे, परिस्थिति और ज़रूरत के मुताबिक पहने कपड़ों तक को अभिनय कराने के लिए इस कलाकार द्वारा प्रवृत्त किया जाता रहा।
7. वर्षों की मेहनत और लगन के कारण शाहरुख को बादशाह खान होने का लोकप्रिय मर्तबा मिला। अभिनय शिखर पर पहुंचे अमिताभ बच्चन को शहंशाह का विशेषण मिला।यदि कला की सीढ़ियां चढ़ना हो, तो वहां एक जहांपनाह रहता है। उसका नाम है दिलीप कुमार।
8. युसुफ खान मनुष्य का नाम है। यूसुफ खान का दिलीप कुमार होना मनुष्य की देह में आत्मा का छिप जाना है। वह हर उस मनुष्य की देह में पैठ जाने को तत्पर है जो जीवन को निजी जागीर नहीं समझते। मेरा यह तर्कमहल रेत की बुनियाद पर नहीं है। ‘अभिनेता होना दिलीप कुमार होना नहीं है लेकिन दिलीप कुमार होना अभिनेता होना है। किसी को मालूम था क्या कि बाॅलीवुड में कभी कोई दिलीप कुमार अभिनय का बहुब्रीहि समास बनकर आएगा?
-चैतन्य नागर
भारत की आध्यात्मिक परंपरा में अक्सर दाढ़ी की लंबाई और लंबे चोंगे के साथ ज्ञान की गहराई का संबंध जोडक़र देखा जाता है। लंबे बेतरतीब बाल भी किसी आध्यात्मिक बाबा के ‘पहुंचे’ हुए होने लक्षणों में शामिल होते हैं।
आम तौर पर यह मत बहुत गहरा है कि दाढ़ी एक घोंसला है जिसमे विशेष तरह के ज्ञान की चिडिय़ा फुदकती रहती है. वैसे कुछ सम्प्रदायों और धर्मों ने चेहरे पर और सर पर उगे केश से पूर्ण मुक्ति को भी ज्ञान का सर्वोच्च प्रतीक मान रखा है।
या तो बाल-बाल ही बचे रहें, या बाल की खाल भी न रहे। ये दोनों बातें अलग-अलग मतों और सम्प्रदायों में प्रचलित हैं।
कुल मिला कर बाकी लोगों से अलग दिखना, ‘सांसारिक मोह-माया’, सजने-सँवरने जैसी तुच्छ चीजों से दूर रहने पर जोर देना ही इसका उद्देश्य होगा. नहीं क्या?
जिद्दू कृष्णमूर्ति को दुर्भाग्य से कुछ लोग आध्यात्मिक बाबा भी मान लेते हैं. भारत में तो ऐसा होगा ही, इस बात से पहले से ही सजग थे। ऐसे में उन्हीने क्लीन शेवन रहना ही पसन्द किया, नार्मल जीन्स, टी-शर्ट, जैकेट, या फिर भारत में पायजामे कुर्ते में दिखाई देते थे। अपने कपड़ों और रंग रूप के मामले में भी उन्होंने किसी परंपरा को नहीं माना। संगठित धर्मों को लेकर जो आंतरिक विद्रोह था वह वेश भूषा और चेहरे पर भी व्यक्त हुआ।
वैसे वह न्यू एज गुरु कहलाना भी पसन्द नहीं करते थे।
गुरु शब्द कृष्णमूर्ति के लिए वैसा ही था जैसा सांड के लिए लाल कपड़ा!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रुस के विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव ने बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है। उन्होंने रुस की अंतरराष्ट्रीय राजनीति परिषद को संबोधित करते हुए ऐसा कुछ कह दिया, जो रुस के किसी नेता या राजनयिक या विद्वान ने अब तक नहीं कहा था। उन्होंने कहा कि अमेरिका चीन और रुस को अपने मातहत करना चाहता है। वह सारे संसार पर अपनी दादागीरी जमाना चाहता है।
विश्व-राजनीति को वह एकध्रुवीय बनाना चाहता है। इसीलिए वह भारत की पीठ ठोक रहा है और उसने भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका का चौगुटा खड़ा कर दिया है। उसने प्रशांत महासागर क्षेत्र को ‘भारत-प्रशांत’ का नाम देकर कोशिश की है कि भारत-चीन मुठभेड़ होती रहे। उसकी कोशिश है कि रुस के साथ भारत के जो परंपरागत मैत्री-संबंध हैं, वे भी शिथिल हो जाएं।
हो सकता है कि ट्रंप-प्रशासन की इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए बाइडेन-प्रशासन रुस के एस-400 मिसाइल प्रक्षेपास्त्रों की भारतीय खरीद का भी विरोध करे। ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में जाते-जाते भारत के साथ ‘बेका’ नामक सामरिक समझौता भी कर डाला है, जिसके अंतर्गत दोनों देश गुप्तचर सूचनाओं का भी आदान-प्रदान करेंगे।
रुसी विदेश मंत्री के उक्त संदेह निराधार नहीं हैं। उनको इस तथ्य ने भी मजबूती प्रदान की है कि इस्राइल, सउदी अरब और यूएई, जो कि अमेरिका के पक्के समर्थक हैं, आजकल भारत उनके भी काफी करीब होता जा रहा है। भारत के सेनापति आजकल खाड़ी देशों की यात्रा पर गए हुए हैं। लेकिन रुसी विदेश मंत्री क्या यह भूल गए कि रुस से अपने संबंधों को महत्व देने में भारत ने कभी कोताही नहीं की।
पिछले दिनों भारत के रक्षामंत्री और विदेश मंत्री मास्को गए थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पूतिन के बीच सीधा संवाद जारी है। यह ठीक है कि इस वक्त भारत और चीन के बीच तनाव कायम है। उसका फायदा कुछ हद तक अमेरिका जरुर उठा रहा है लेकिन भारत का चरित्र ही ऐसा है कि वह किसी का पिछलग्गू नहीं बन सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अनंत प्रकाश
“खेती करते-करते सत्रह बरस बीत गए हैं. अब तक सरकार से कोई ख़ास मदद नहीं मिली है. आगे का पता नहीं. हम अपने खेत में सब्ज़ी उगा लेते हैं और उसे बेच लेते हैं जिससे कुछ कमाई हो जाती है. लेकिन अब सुन रहे हैं कि बड़ी कंपनियां गाँव आकर खेती करेंगी. अभी तो हमें तीन हज़ार रुपये साल पर दो बीघा ज़मीन बटाई पर मिल जाती है. कल को कोई कंपनी इसी दो बीघा के लिए ज़मीन वाले को 5000 रुपये दे देगी तो हमारे पास मज़दूरी करने के अलावा क्या विकल्प बचेगा?”
ये शब्द उत्तर प्रदेश की एक भूमिहीन महिला किसान शीला के हैं. शीला किराए पर लिए दो बीघे के खेत में सब्ज़ियां उगाती हैं और सब्ज़ियों को बेचकर ही अपना गुज़ारा करती हैं.
शीला बताती हैं कि बटाई पर लिए खेत पर काम करते हुए वे हर साल ख़र्चा निकालकर दस हज़ार रुपये तक बचा लेती थीं.
लेकिन जब वह खेती नहीं कर रही होती हैं तो उन्हें सिर्फ़ मज़दूरी पर निर्भर रहना पड़ता है जो कि प्रतिदिन 200 रुपये से 250 रुपये के बीच मिलती है.
किसान आंदोलन में कहाँ हैं भूमिहीन किसान महिलाएँ
भारत में जहां एक ओर व्यापक स्तर पर किसान आंदोलन चल रहा है. देश भर में किसान केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करके इन तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने के लिए दबाव बना रहे हैं.
लेकिन कृषि अर्थव्यवस्था में आख़िरी पंक्ति में खड़ीं भूमिहीन महिला किसानों की इस आंदोलन में उपस्थिति बेहद कम है.
आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण साल 2018-19 के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फ़ीसद महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं. वहीं, पुरुषों का प्रतिशत मात्र 53.2 फ़ीसद है.
इसके साथ ही आँकड़े ये भी बताते हैं कि खेतिहर मज़दूर वर्ग में भी महिलाओं की भागीदारी काफ़ी ज़्यादा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि भारत में महिला किसानों का इन कृषि क़ानूनों को लेकर क्या रुख़ है.
भूमिहीनता एक बड़ी वजह
भारत में क़ानूनी रूप से सिर्फ़ उन्हीं महिला किसानों को किसान का दर्जा दिया जाता है जिनके नाम पर भूमि का पट्टा होता है.
उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र से आने वालीं भूमिहीन महिला किसान रामबेटी मानती हैं कि आंदोलन में महिला किसानों की कम संख्या की वजह जानकारी का अभाव है.
रामबेटी बीते कुछ समय से गाँव-गाँव घूमकर महिला किसानों को इन कृषि क़ानूनों से अवगत कराने की कोशिश कर रही हैं.
भूमिहीन महिला किसानों के साथ लंबी बातचीतों के अपने अनुभव साझा करते हुए रामबेटी कहती हैं, “असल बात ये है कि महिलाओं को पता ही नहीं है कि ये कृषि क़ानून उनके लिए कितने ख़तरनाक साबित हो सकते हैं. गाँव तक जानकारी ही नहीं पहुँची है. लेकिन धीरे धीरे ये जानकारी पहुंच रही है.”
हालांकि, पंजाब से आने वाली किरनजीत कौर मानती हैं कि “महिला किसान अपने स्तर से इन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रही हैं. पंजाब में जगह जगह पर विरोध प्रदर्शन जारी हैं. ऐसे में महिलाएं अपने खेत और बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने के बाद विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रही हैं. लेकिन ये वक़्त ऐसा है जब पंजाब की महिलाएं और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर अपने गाँवों को बचाने के लिए लड़ रहे हैं. पहला क़दम ये है कि इन क़ानूनों को वापस कराना. और हम ये हासिल करके रहेंगे.”
क्या नुक़सान पहुंचा सकते हैं कृषि क़ानून?
किसान संगठनों का मानना है कि इन कृषि क़ानूनों की वजह से उनका भविष्य ख़तरे में पड़ सकता है.
लेकिन रामबेटी जैसे किसानों समेत कृषि क्षेत्र के कई विशेषज्ञ मानते हैं इन क़ानूनों से कृषि कार्यों में लगी महिलाओं को भारी नुक़सान हो सकता है.
राम बेटी बताती हैं, “महिलाओं को इन तीन क़ानूनों से जो सबसे बड़ा नुक़सान हो सकता है, वो ये है कि सरकार आवश्यक वस्तुओं जो कि खाने वाली चीज़ें हैं, उन्हें अपने हाथ से बाहर कर रही है. कंपनियों के हाथ में अधिकार जाने से ये होगा कि जो हम अपनी चीज़ देंगे, उसे वे सस्ते में लेंगी. लेकिन अगर हम उनका सामान ख़रीदेंगे तो वह महंगा मिलेगा.”
रामबेटी कोरोना दौर का उदाहरण देते हुए अपनी चिंताएं समझाती हैं.
वे कहती हैं, “अभी कोरोना दौर में सरकार के पास राशन था तो सरकार ने राशन की पूर्ति की है. लेकिन जब ये राशन कंपनियों के पास पहुँच जाएगा तो ये फ्री नहीं मिलेगा. ऐसे में हम कंपनियों के भरोसे हो जाएंगे, कंपनियों की मर्ज़ी होगी तो वो हमें देंगे. मर्ज़ी नहीं होगी तो हमें राशन नहीं मिलेगा.”
“दूसरी दिक़्क़त ये है कि हम भूमिहीन किसान हैं और हम ठेके पर लेकर किसानी करते हैं. अब हम दो हज़ार रुपया बीघा ले रहे हैं. और जब कंपनी आ जाएगी और वह पाँच हज़ार रुपये बीघे का प्रस्ताव रखेंगे तो ज़मीन मालिक/किसान हमें थोड़े ही अपने खेत देंगे. इस वजह से हम जैसे भूमिहीन महिला किसानों को दिक़्क़त हो जाएगी. और कंपनियां पहले तो उन्हें लालच देंगी लेकिन फिर उन्हें फंसा लेंगी. उन्हें अपना बीज, अपनी खाद देगी और अपने हिसाब से खेती कराएंगी.”
“अभी हम अपने खेत पर अपने खाने के लिए गन्ना, मूंगफली, शकरकंद जैसी चीजें उगा लेते हैं. लेकिन जब कंपनी ठेका लेगी तो कंपनी अपने हिसाब से खेती कराएगी. वो कहेंगे तो कपास उगेगा, वो कहेंगे तो नील की खेती करना है तो हमें नील की खेती करनी पड़ेगी. फिर हम खाने-पीने की चीज़ें अपने खेत में नहीं बो पाएंगे.”
भारत में भूमिहीन महिला किसानों का एक बड़ा तबक़ा छोटे से खेत को किराए पर लेकर अपने स्तर पर खेती करता है. इस खेती में वह अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए ज़रूरी अनाज को पैदा करने की कोशिश करती हैं.
खेत नहीं मिलने की स्थिति में यही महिलाएं क़स्बों में जाकर मज़दूरी आदि करती हैं. और मनरेगा जैसी योजनाओं की मदद से मज़दूरी हासिल करती हैं.
लेकिन किराए पर खेती इन्हें इनके ही गाँव में सम्मानित ढंग से जीने का अवसर देती है.
हालांकि, भूमिहीन महिला किसानों को भूमिमालिक नहीं होने की वजह से सरकार की ओर से चलाई जा रहीं डायरेक्ट बैंक ट्रांसफ़र, फ़सल बीमा योजना और किसान क्रेडिट कार्ड जैसी योजनाओं का लाभ पूरी तरह नहीं मिल पाता है.
ऐसे में गाँवों में कॉरपोरेट घरानों की ओर से बड़े स्तर पर अनुबंधीय खेती किए जाने की ख़बरें महिला किसानों के लिए चिंता का विषय बन रही हैं.
बढ़ेगा संकट
उत्तर प्रदेश में भूमिहीन महिला किसानों के सशक्तिकरण में लगी संस्था पानी संस्थान के सचिव भारत भूषण मानते हैं कि अनुबंधीय खेती होने की स्थिति में भूमिहीन महिला किसानों की समस्याओं में इजाफा होगा.
वे कहते हैं, “इस क़ानून में अनुबंधीय खेती को लेकर जो प्रावधान है, वो कहीं न कहीं भूमिहीन महिला किसानों की संख्या में बढ़ोतरी करेगा. और ये स्पष्ट है कि सरकार ने इन तीन क़ानूनों में इस तबक़े को नज़रअंदाज़ किया गया है.”
वहीं महिला किसानों के उत्थान के लिए कार्यरत एक अन्य विशेषज्ञ सुधा मानती हैं कि “भूमिहीन किसानों को ये डर सता रहा है कि अगर कंपनियां आ जाती है तो क्या होगा. लोग अपने गाँव में ही किसी परिचित व्यक्ति की जमीन को किराए पर लेकर खेती करते हैं. अब कंपनियां अगर आने लगती हैं तो इन किसानों को खेती करने के लिए किराए पर ज़मीन नहीं मिलेगी. ये किसानों का एक बड़ा डर है.''
''न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर भी एक बात ये है कि भले ही किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से दो-तीन रुपये कम मिलते हों लेकिन एक मंडी है. अब अगर कोई रेट न हो तो किसान पूरी तरह बाज़ार के भरोसे हो जाएंगे. टमाटर या जल्दी ख़राब होने वाली पैदावार के मामले में अक्सर देखा जाता है कि किसान पूरी तरह से बाज़ार के ग़ुलाम हो जाते हैं. चूंकि इस किसान वर्ग के पास अपनी फसल को रोकने का समय नहीं होता है तो उन्हें औने-पौने दामों में अपनी फ़सल बेचनी पड़ती है.''
“मंडी सिस्टम में कई ख़ामियां हैं. और उन ख़ामियों को दूर किए जाने की ज़रूरत है. कई विशेषज्ञों ने इस पर अपने सुझाव भी दिए हैं. लेकिन इस पूरे सिस्टम को हटा देना कितना जायज़ है. मान लीजिए कि कुछ कंपनियां ऐसी होंगी जो किसान के सूचना देते ही अपने एजेंट भेज देंगी. लेकिन ये तो किसान के लिए मजबूरी का सौदा हुआ. और कौन सी कंपनी है जो कि बेचने वाले की मजबूरी में उससे अच्छे दाम पर फ़सल ख़रीदती है.”
आशा की किरण
लेकिन भूमिहीन महिला किसानों के साथ बातचीत में एक बात निकलकर आ रही है कि वे चाहती हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम ख़रीद को अवैध क़रार दे.
कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा मानते हैं कि अगर ये हो जाता है तो इससे भूमिहीन किसानों को भी फ़ायदा होगा.
वे कहते हैं, “अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपनी पैदावार बेचना किसान का एक क़ानूनी अधिकार बन जाए तो इससे हमारी बहुत सारी समस्याओं का समाधान मिल जाएगा.”(https://www.bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसान नेताओं को सरकार ने जो सुझाव भेजे हैं, वे काफी तर्कसंगत और व्यवहारिक हैं। किसानों के इस डर को बिल्कुल दूर कर दिया गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होने वाला है। वह खत्म नहीं होगा। सरकार इस संबंध में लिखित आश्वासन देगी।
कुछ किसान नेता चाहते हैं कि इस मुद्दे पर कानून बने। याने जो सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य से कम पर खरीदी करे, उसे जेल जाना पड़े। ऐसा कानून यदि बनेगा तो वे किसान भी जेल जाएंगे जो अपना माल निर्धारित मूल्य से कम पर बेचेंगे। क्या इसके लिए नेता तैयार हैं ? इसके अलावा सरकार सख्त कानून तो जरुर बना दे लेकिन वह निर्धारित मूल्य पर गेहूं और धान खरीदना बंद कर दे या बहुत कम कर दे तो ये किसान नेता क्या करेंगे? ये अपने किसानों का हित कैसे साधेंगे ?
सरकार ने किसानों की यह बात भी मान ली है कि अपने विवाद सुलझाने के लिए वे अदालत में जा सकेंगे याने वह सरकारी अफसरों की दया पर निर्भर नहीं रहेंगे। यह प्रावधान तो पहले से ही है कि जो भी निजी कंपनी किसानों से अपने समझौते को तोड़ेगी, वह मूल समझौते की रकम से डेढ़ गुना राशि का भुगतान करेगी।
इसके अलावा मंडी-व्यवस्था को भंग नहीं किया जा रहा है। जो बड़ी कंपनियां या उद्योगपति या निर्यातक लोग किसानों से समझौते करेंगे, वे सिर्फ फसलों के बारे में होंगे। उन्हें किसानों की जमीन पर कब्जा नहीं करने दिया जाएगा। इसके अलावा भी यदि किसान नेता कोई व्यावहारिक सुझाव देते हैं तो सरकार उन्हें मानने को तैयार है। अब तक कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और गृहमंत्री अमित शाह का रवैया काफी लचीला और समझदारी का रहा है लेकिन कुछ किसान नेताओं के बयान काफी उग्र हैं।
क्या उन्हें पता नहीं है कि उनका भारत बंद सिर्फ पंजाब और हरियाणा और दिल्ली के सीमांतों में सिमट कर रह गया है? देश के 94 प्रतिशत किसानों का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं है। बेचारे किसान यदि विपक्षी नेताओं के भरोसे रहेंगे तो उन्हें बाद में पछताना ही पड़ेगा। राष्ट्रपति से मिलने वाले प्रमुख नेता वही हैं, जिन्होंने मंडी-व्यवस्था को खत्म करने का नारा दिया था। किसान अपना हित जरूर साधे लेकिन अपने आप को इन नेताओं से बचाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
कॉलेज से निकलकर पत्रकारिता शुरू करते ही वीरेन डंगवाल मिले- कभी कवि, कभी संपादक और कभी एक सह्रदय इंसान के रूप में। मगर इससे भी अभूतपूर्व थी उनकी दुनिया। वीरेन जी के साथ-साथ एक पूरा संसार चलता था। जाने कितने लोग, कितनी बातें, किस्से, किताबें उनके साथ चलते थे। मंगलेश डबराल उनके किस्सों से निकलकर सामने आए। हर फुरसत वाली मुलाकात में उनके पास इलाहाबाद, लखनऊ के किस्से होते थे और उन किस्सों में मंगलेश डबराल।
इससे पहले मैं मंगलेशजी को 'पहाड़ पर लालटेन' की अविस्मरणीय कविताओं के जरिए जानता था। मुझे याद है जब वीरेन जी के बड़े बेटे की शादी हुई थी तो वीरेन जी ने मेरा परिचय मंगलेश जी और पंकज बिष्ट से कराया था। समय बीतता गया, जब मैं दिल्ली एनसीआर पहुँचा तो मंगलेश जी मेरे पड़ोसी बन गए। उन्हीं दिनों कैंसर से लड़ रहे वीरेन जी भी इंदिरापुरम रहने लगे थे। वीरेन जी की जिंदादिली मेरे लिए आजीवन प्रेरणा रहेगी। कैंसर के दौरान भी वे उसी बेफिक्री और मस्ती में रहते थे।
मैंने हमेशा मंगलेशजी को वीरेन दा की निगाहों से देखा। वीरेन जी वाचाल, हंसोड़ और मुंहफट थे। मंगलेश जी इसके विपरीत अंतर्मुखी लगे। पड़ोसी होने के नाते हमारी मुलाकात कभी सीढ़ियों पर होती थी, कभी आती-जाती मेट्रो या फिर दिल्ली में आयोजित किसी प्रोग्राम में। अपने जीवन के इस उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी कविताओं को वैश्विक विस्तार दिया था। विश्व कविता के बेहतरीन अनुवाद मंगलेशजी की वजह से ही संभव हो सके।
मुझे निजी तौर पर उनकी दो कविताएं अपने शांत में लहजे में बहुत सशक्त लगती है। पहली 'तानाशाह' और दूसरी 'गुजरात के एक मृतक का बयान'। दोनों का निःसंग बयान देश में तेजी से बदलती राजनीति का मजबूत प्रतिरोध बनकर सामने आया। 'एक मृतक का बयान' को निसंदेह हिंदी की कुछ सबसे बेहतरीन कविताओं में रखा जा सकता है। इस कविता की बहुत सी पंक्तियों को पढ़कर भाषा में निहित संभावनाओं को समझा जा सकता है -
"जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता नहीं था"
या फिर -
"और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ कह नहीं पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रंगरेज़ एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार"
इसी तरह से 'तानाशाह' सपाट गद्य की शैली में लिखी गई कविता है, मगर भाषा का यही प्रयोग अपने समय की राजनीतिक हिंसा को पहचानने का टूल बन जाता है -
"तानाशाह मुस्कुराता है भाषण देता है और भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि वह एक मनुष्य है लेकिन इस कोशिश में उसकी मुद्राएं और भंगिमाएं उन दानवों-दैत्यों-राक्षसों की मुद्राओं का रूप लेती रहती हैं जिनका जिक्र प्राचीन ग्रंथों-गाथाओं-धारणाओं- विश्वासों में मिलता है।"
विष्णु खरे, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल का अचानक जाना इसलिए भी दुःखद है क्योंकि यह वो समय है जब भाषा की ताकत की सबसे अधिक जरूरत थी। भाषा का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है। टीवी चैनलों, अखबारों, वेबसाइट और हर कहीं... चारो तरफ। कविताएं तो लिखी जाती रहेंगी मगर ये दोनों कवि हमेशा हमेशा याद रहेंगे, एक कवि को भाषा में जरूरी तोड़फोड़ करते हुए उसे मृत होने बचाने के लिए, तो दूसरे कवि को उसी भाषा के संतुलित इस्तेमाल के लिए।
मेरे लिए वीरेन दा और मंगलेश डबराल को अलग अलग करके देखना संभव नहीं है। मालूम नहीं मगर वे इसी रूप में मेरी स्मृति में पैठे हैं। दो चेहरे, दो दोस्त, दो कवि। कुदरत की गोद से उतर कर अपनी दुनिया को परखते-सहेजते हुए। वीरेन दा के जाने का आधा अंधेरा जैसे काफी नहीं था, मंगलेश जी के जाने से यह एक मुकम्मल अंधेरे में बदल गया।
वीरेन दा की कविता 'रात-गाड़ी (मंगलेश को एक चिट्ठी)' याद आ रही है। जो इन पंक्तियों पर खत्म होती है -
"फिलहाल तो यही हाल है मंगलेश
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश।
संशय खुसरो की बातों में
ख़ुसरो की आँखों में डर है
इसी रात में अपना घर है।"
(फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के सिर पर एक चपत लगा दी है। उसने नए संसद भवन के निर्माण पर फिलहाल रोक लगा दी है। 10 दिसंबर को उसके लिए आयोजित भूमि-पूजन को उसने नहीं रोका है लेकिन नए संसद के निर्माण के लिए कई भवनों को गिराने, पेड़ों को हटाने और सारे क्षेत्रीय नक्शे को बदलने पर रोक लगा दी है।
10 दिसंबर को इस महत्वाकांक्षी योजना को अमल में लाने के लिए प्रधानमंत्री भूमि-पूजन कर रहे हैं। इस पूरे निर्माण-कार्य पर लगभग 20 हजार करोड़ रु. खर्च होंगे और इसे अगले दो साल में पूरा करने का विचार है। नए संसद भवन के दोनों सदनों में लगभग 1500 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था होगी। अभी इस क्षेत्र में 39 मंत्रालय सिर्फ 17 भवनों में चल रहे हैं।
नए निर्माण-कार्य में ऐसे दस विशाल भवन बनाए जाएंगे, जिनमें 51 मंत्रालय एक साथ चल सकेंगे। अभी सरकार को किराए के कुछ भवन लेने पड़ते हैं। उन पर एक हजार करोड़ रु. सालाना खर्च होता है। अंग्रेज के बनाए ये सभी भवन अब 100 बरस पुराने पड़ गए हैं। नए भव्य भवनों को बनाने का संकल्प मोदी सरकार ने अभी जरुरतों को ध्यान में रखते हुए लिया है लेकिन इस संकल्प के खिलाफ लगभग 1200 आपत्तियां उठाई गई हैं। सर्वोच्च न्यायालय सहित कई अदालतों में विभिन्न लोगों ने याचिकाएं दायर की हैं।उनमें कई आरोप है, जैसे पेड़ गिराने की अनुमति पर्यावरण-नियमों के विरुद्ध दी गई है और जमीन के इस्तेमाल की इज़ाजत गलत तरीके से ली गई है। सरकार ने यह इजाजत देने में अपने ही कई नियमों का उल्लंघन किया है। सर्वोच्च न्यायालय इस बात पर नाराज हुआ कि उसने सरकार से इन सब आपत्तियों पर सफाई मांगी लेकिन वह दिए बिना उसने 10 दिसंबर को भूमि-पूजन की घोषणा कर दी।
इस भूमि-पूजन पर भी हमारे कई सेक्युलरिस्ट नेताओं ने आपत्ति की है। उनका कहना है कि क्या यह हिंदू मंदिर है ? यह भारत-भवन है। इसमें सभी धर्मों से शुभारंभ होना चाहिए। अदालत के वर्तमान रवैए से यह शंका पैदा होती है कि शायद इसकी अनुमति न मिले। अभी तो उसका तेवर यही है लेकिन सामान्य-बोध कहता है कि सरकार के इस संकल्प पर अदालत का फैसला आखिरकार भारी नहीं पड़ेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
गिरीश मालवीय
भारत के सबसे पुराने बैंकों में से एक लक्ष्मी विलास बैंक (LVB) को एक विदेशी बैंक ष्ठक्चस् (‘डेवलपमेंट बैंक ऑफ सिंगापुर’) में विलय कर दिए जाने का मामला बेहद संगीन है !
अगर आपने स्कैम 1992 हर्षद मेहता देखी हो जो कि अब तक की सबसे बेहतरीन वेबसीरीज में से एक है। तो आपने उसमें हर्षद मेहता के अलावा एक विदेशी बैंक ‘सिटी बैंक’ के द्वारा किए जा रहे घोटालों को भी देखा होगा। कहते हैं जो पकड़ा गया वो चोर और जो बच गया वो सयाना होता है, तो हर्षद मेहता तो पकड़ा गए लेकिन जो सिटी बैंक जैसी विदेशी संस्थाएं जो उस वक्त देश के स्टॉक मार्केट को लगातार अस्थिर कर रही थी वह सिर्फ चेतावनी देकर और कुछ प्रतिबंधात्मक आदेश लगाकर छोड़ दी गई।
क्या आप जानते है कि पीयूष गुप्ता जो इस वक्त DBS बैंक के CEO हैं उन्होंने अपने करियर की शुरूआत वर्ष 1982 में सिटीबैंक के साथ ही की थी। 2009 में DBS के साथ जुडऩे से पहले पीयूष गुप्ता सिटी बैंक के दक्षिण पूर्व एशिया पैसेफिक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे।
लक्ष्मी विलास बैंक का मर्जर DBS में करने को लेकर स्वदेशी जागरण मंच के अश्विनी महाजन ने भी बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। अफसोस की बात यह है कि इस खबर को हिंदी मीडिया ने बिल्कुल तरजीह नहीं दी है। अपने 60 पन्नों के लेटर में अश्विनी महाजन ने RBI से पूछा है कि RBI की पॉलिसी में पारदर्शिता कहां है ? लक्ष्मी विलास जैसे बैंक को विदेशी बैंक में क्यों मिलाया जा रहा है?
क्या यह RBI और भारत सरकार की नई नीति है? यदि ऐसा है, तो इस पर बहस की जानी चाहिए और इसके निहितार्थ की राष्ट्रीय हित में पूरी तरह से जांच की जानी चाहिए!
डीबीएस द्वारा जो 2,500 करोड़ रुपये लक्ष्मी विलास में लगाने की बात की जा रही है वो पैसा डीबीएस इंडिया में आ रहा है, न कि परेशान लक्ष्मी विलास बैंक में।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि DBS को एक तरह से मुफ्त में लक्ष्मी विलास बैंक सौप दिया गया है दरअसल डीबीएस अधिग्रहण के लिए कोई कीमत नहीं चुका रहा है और इसके साथ ही इस विदेशी बैंक की पहुंच लक्ष्मी विलास में जमा भारतीय जमाकर्ताओं के 20,000 करोड़ रुपये पर भी हो गई है।
आपने इसे एक तरह से फ्री में सौंप दिया है। क्या होगा अगर यह विदेशी बैंक डीबीएस लक्ष्मी विलास बैंक को भविष्य में किसी अन्य विदेशी संस्था या अन्य किसी वित्तीय संस्था को बेच दे?
आखिरकार LVB के मामले में RBI का आंकलन का आधार क्या है?
-ध्रुव गुप्त
भारत सरकार द्वारा पूंजीपतियों के हित में लाए गए काले कृषि कानूनों के विरुद्ध ज़ारी किसान आंदोलन का आज तेरहवां दिन है। इस सर्द मौसम में दिल्ली पहुंचने वाले हर मार्ग पर खुले आकाश के नीचे पड़े हजारों किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में आज भारत बंद का आह्वान किया है। आईए, हम अपने अन्नदाताओं का साथ दें! आज के दिन राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की एक हृदयभेदी कविता ‘किसान’ की याद दिलाना चाहता हूं। कविता बहुत पुरानी है, लेकिन किसानों की स्थिति आज भी बहुत अलग नहीं है।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है