विचार/लेख
-महेश झा
जर्मन इस्लाम कॉन्फ्रेंस की स्थापना 2006 में इस उद्देश्य से की गई थी कि देश के मुस्लिम समुदायों के साथ नियमित संवाद हो सके. जर्मनी में करीब 40 लाख मुसलमान रहते हैं, जो विभिन्न देशों से आते हैं. अलग अलग आबादी का होने के कारण सबकी अपनी मस्जिदें भी नहीं हैं और जो मस्जिदें हैं भी उनमें काम करने वाले इमामों की ट्रेनिंग पहले दूसरे देशों में होती रही है.
मुस्लिम परिवारों के बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने का मसला भी लंबे समय से बहस में था, और कोई केंद्रीय संगठन नहीं होने के कारण सरकार के साथ बात करने वाली कोई प्रतिनिधि संस्था नहीं थी. जर्मनी के प्राथमिक स्कूलों में ईसाई धार्मिक शिक्षा दी जाती है, लेकिन इसका आधार कैथोलिक और इवांजेलिक संगठनों के साथ सरकार का समझौता है.
जर्मन इस्लाम कॉन्फ्रेंस की स्थापना के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधियों के साथ सरकारी प्रतिनिधियों की बैठक के अलावा जरूरी मुद्दों पर चर्चा भी होती रही है. इनमें स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के अलावा इस्लामी धर्मशास्त्र की पढ़ाई और इमामों की ट्रेनिंग भी शामिल है. इस्लाम कॉन्फ्रेंस ने मुस्लिम समुदाय को धार्मिक मामलों में सलाह देने वाले मौलवियों के प्रशिक्षण का बीड़ा उठाया है.
भारत के जफर खान जर्मन इस्लाम कॉन्फ्रेंस के इस कदम को बहुत महत्वपूर्ण कदम मानते हैं. जर्मनी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद एक बिजली कंपनी में काम करने वाले जफर खान का कहना है कि बच्चों के लिए उनके पुरखों के धर्म के बारे जानना जरूरी है. यह उन्हें नैतिक संबल भी देता है. भारतीय मुसलमानों की पर्याप्त संख्या नहीं होने के कारण मुस्लिम परिवारों को अपने बच्चों को अब तक तुर्क मौलवियों के पास भेजना होता था. लेकिन पढ़ाई की भाषा तुर्की होने के कारण बच्चों को काफी दिक्कत होती है. जफर खान कहते हैं, "चूंकि जर्मनी में पैदा होने वाले बच्चों की भाषा जर्मन है, इसलिए जर्मन में प्रशिक्षित इमाम उन्हें बेहतर शिक्षा दे पाएंगे."
जफर खान इसके एक और फायदे की ओर भी इशारा करते हैं. वे कहते हैं कि जर्मनी में प्रशिक्षित इमाम बच्चों को मॉडरेट इस्लाम की शिक्षा देंगे. मुस्लिम देशों से आने वाले मौलवी इस्लाम की अपने अपने देशों में चलने वाली परिभाषा सिखाते हैं, जिसकी वजह से बच्चों में उलझन पैदा होती है. ये समस्या यूरोपीय समाज भी झेल रहा है. अपने यहां पैदा हुए बच्चों में बढ़ते कट्टरपंथ से वह परेशान है. देश के अंदर मौलवियों की शिक्षा से भविष्य में धार्मिक शिक्षा की जिम्मेदारी ऐसे लोगों के कंधों पर होगी जो खुद भी पश्चिमी समाजों में पले बढ़े हैं और यहां के बच्चों और किशोरों की जरूरतों से वाकिफ हैं.
जर्मन गृह मंत्रालय में राज्य सचिव मार्कुस कैर्बर का कहना है कि विदेशों से स्वतंत्र इमाम ट्रेनिंग का कट्टरपंथ पर काबू पाने की कोशिशों में अहम स्थान होगा. उन्होंने कहा है, "जर्मनी में रहने वाले मुस्लिम समुदाय द्वारा जर्मन भाषा में इमाम प्रशिक्षण विदेशों से गलत असर डालने की कोशिशों के खिलाफ हमारी रणनीति है." कैर्बर का कहना है कि कट्टरपंथ का आकर्षण बहुत मुश्किल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है और अक्सर इंटरनेट पर हो रहा है.
ओसनाब्रुक शहर में इमामों के प्रशिक्षण के लिए इस्लाम कॉलेज की शुरुआत की गई है. वहां मुस्लिम संगठनों से स्वतंत्र इमाम प्रशिक्षण का एक प्रोजेक्ट शुरू किया गया है. राज्य सचिव कैर्बर का कहना है कि जर्मनी में रहने वाले मुस्लिम नागरिकों में धार्मिक मामले अपने हाथों में लेने की ललक है. ओसनाब्रुक के इस्लाम कॉलेज के जरिए सकारात्मक पहचान वाले एक संस्थान की स्थापना हुई है. अप्रैल 2021 से इस कॉलेज में इमाम, मौलवियों और समुदायिक सलाहकारों को प्रशिक्षण दिया जाएगा. इमाम का प्रशिक्षण पाने के लिए न्यूनतम योग्यता इस्लामिक धर्मशास्र में बैचलर की डिग्री है. (DW.COM)
-समीरात्मज मिश्र
शनिवार को बलिया जिले में एक युवती को उसके पड़ोसी युवक ने ही इसलिए आग के हवाले कर दिया क्योंकि लड़की ने उस युवक के साथ कथित तौर पर संबंध बनाने से इनकार कर दिया. लड़की गंभीर हालत में वाराणसी के बीएचयू हॉस्पिटल में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रही है.
दो दिन पहले देवरिया जिले के एकौना थाना क्षेत्र में कथित तौर पर बेटी के साथ छेड़छाड़ का विरोध करने पर 50 वर्षीय एक व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. पुलिस ने इस मामले में 8 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है, जिनमें से सात अभियुक्तों को गिरफ्तार किया जा चुका है.
नवंबर महीने के पहले दिन ही फिरोजाबाद में छेड़छाड़ का विरोध करने पर कुछ लोगों ने एक महिला के ऊपर तेजाब फेंक दिया. पीड़ित महिला का इलाज सरकारी अस्पताल में चल रहा है.
इस घटना के कुछ दिन बाद ही फिरोजाबाद में एक युवक ने घर में घुसकर युवती से छेड़छाड़ करने की कोशिश की. युवती के विरोध करने पर उसने ब्लेड से युवती के हाथ की नस काट दी. युवती का इलाज चल रहा है.
झांसी में छेड़छाड़ से परेशान एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली, तो सोनभद्र में एक बच्ची की रेप के बाद बेरहमी से हत्या कर दी गई. इसके अलावा पीलीभीत, लखीमपुर, बस्ती में ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं.
ये कुछ घटनाएं पिछले एक हफ्ते के दौरान हुई हैं, जबकि इससे पहले भी हाथरस, बलरामपुर, आजमगढ़ में इसी निर्दयता के साथ रेप के बाद हुई हत्या को लेकर न सिर्फ यूपी में, बल्कि देश भर में लोग गुस्से में सड़कों पर उतर आए थे.
एंटी रोमियो अभियान का क्या हुआ?
ये सब घटनाएं तब हो रही हैं जब महज एक महीने पहले राज्य सरकार ने महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए जोर-शोर से एक नए कार्यक्रम "मिशन शक्ति अभियान" की शुरुआत की थी. अभियान की शुरुआत से पहले बलरामपुर में युवती के साथ कथित तौर पर गैंगरेप और फिर हत्या के बाद यूपी सरकार कानून व्यवस्था को लेकर लोगों के निशाने पर थी लेकिन अभियान के एक महीने बाद भी जमीन पर उसका असर शायद ही दिख रहा हो.
हालांकि अभियान की शुरुआत में महिलाओं और बच्चियों के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामले में सरकार ने अपराधियों पर ताबड़तोड़ कार्रवाई शुरू कर दी और एक आंकड़ा भी जारी किया कि नवरात्र से शुरू किए गए इस अभियान के तहत सरकार ने बेहतर तरीके से अदालत में पैरवी करके 14 दोषियों को फांसी की सजा सुनवाई. लेकिन जहां तक अपराधों की बात है, तो न तो उनकी संख्या में कमी दिख रही है और न ही अपराधों की जघन्यता में.
साल 2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी सरकार बनने के बाद ही सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा और उनके सशक्तिकरण के अपने चुनावी वादों के मुताबिक जोर-शोर से एंटी रोमियो अभियान शुरू किया था. लेकिन एंटी रोमियो स्क्वैड कार्यक्रम महिला सुरक्षा में भूमिका निभाने की बजाय विवादों में ज्यादा आ गया और अब उसका शोर बिल्कुल थम गया है.
इस दौरान सरकार ने एंटी रोमियो अभियान को भी कई बार नए सिरे से शुरू करने और इस अभियान में लगे पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षित करने की घोषणा की. कुछ कार्रवाई भी हुई लेकिन आज तक इस अभियान का कोई एक केंद्रीय तंत्र विकसित नहीं हो पाया. अब हाल ही में हाथरस, बलरामपुर और अन्य जगहों पर बलात्कार और हत्या की घटनाओं के बाद राज्य सरकार ने मिशन शक्ति अभियान की शुरुआत की है.
हालांकि राज्य सरकार के अपर मुख्य सचिव अवनीश कुमार अवस्थी कहते हैं कि अभियान के तहत ही कई मामलों में तेजी के साथ पैरवी करते हुए कई अभियुक्तों को जेल पहुंचाया गया और कई मामलों में फांसी की सजा भी सुनाई गई है. उनके मुताबिक, इस अभियान के तहत महिलाओं को अपने अधिकारों और सुरक्षा को लेकर खुद भी सतर्क रहने के लिए जागरूक किया जा रहा है और कई जगहों पर डीएम और एसपी के नेतृत्व में इसके लिए विशेष कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं.
सिर्फ नाम बदलने से क्या होगा?
मिशन शक्ति अभियान के तहत 1,535 पुलिस थानों में एक अलग कमरे का प्रावधान किया गया है जिसमें पीड़ित महिला किसी महिला पुलिसकर्मी के समक्ष शिकायत दर्ज करा सकती है. अभियान के तहत पुलिस विभाग में बीस प्रतिशत अतिरिक्त महिला पुलिसकर्मियों की तैनाती की भी घोषणा की गई है. मिशन शक्ति अभियान अगले छह महीने तक जारी रहेगा.
लेकिन सवाल उठता है कि इन सब योजनाओं और कार्यक्रमों के बावजूद आखिर अपराध रुक क्यों नहीं रहे हैं और क्या कई नामों से योजनाएं चलाने का कोई असर भी होता है या नहीं?
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं, ''यूपी के थानों में अभी भी पर्याप्त संख्या में न तो महिला पुलिसकर्मी हैं और न ही इसके लिए वे बहुत ज्यादा प्रशिक्षित हैं. बदल-बदल कर योजनाएं चलाने की बजाय एक ही योजना के सार्थक तरीके से क्रियान्वयन की जरूरत है. एंटी रोमियो को ही देखिए, शुरू में लगा कि पुलिस वाले बहुत सक्रिय हैं लेकिन उन्हें जो काम करना था, वो नहीं कर सके और मॉरल पुलिसिंग के जरिए लोगों को परेशान करने लगे.”
सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर कहती हैं कि पुलिस वाले जानबूझकर ऐसे मामले दर्ज नहीं करते हैं. वे बताती हैं, "अपराध के मामले दर्ज करने से पुलिस वाले बचते हैं क्योंकि मामले बढ़ने पर उनके खिलाफ कार्रवाई का डर रहता है. सरकार जब तक मामलों को दर्ज कराने में सख्त नहीं होगी, तब तक इसका कोई असर नहीं होगा. अभी भी थानों में इतना भय पैदा किया जाता है कि लोग एफआईआर दर्ज कराने में डरते हैं. ऐसे में आप चाहे जितनी योजनाएं ले आइए, कुछ फायदा नहीं होने वाला है. हाथरस में ही देख लीजिए, पीड़ित लड़की और उसके परिजनों को रेप की रिपोर्ट दर्ज कराने में दो हफ्ते से ज्यादा लग गए.”(DW.COM)
-नीलांजन बनिक
सुनने में आ रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि देश में सभी लोगों को कोविड-19 की वैक्सीन मुफ्त में दी जाए, लेकिन इसी बीच बिहार, मध्यप्रदेश और तमिलनाडु जैसे तमाम राज्यों ने लोगों को वादा कर दिया कि वे लोगों को मुफ्त में वैक्सीन उपलब्ध कराएंगे।
कोविड-19 के लिए वैक्सीन तैयार करने के लिए जरूरी परीक्षण तीसरे चरण में पहुंच चुका है। तीसरा चरण मतलब इंसानों पर इसका परीक्षण। हालांकि वैक्सीन विकसित करने वाली निजी कंपनियों को सरकार की ओर से अनुदान मिल रहा है, लेकिन अलग-अलग दवा निर्माताओं की वैक्सीन की कीमत 3 से 30 डॉलर प्रति डोज रहने की संभावना है। यानी रुपये में प्रति खुराक मूल्य दो सौ से दो हजार के बीच बैठेगा।
उदाहरण के लिए एस्ट्राजेनेका ने यूरोपीय आयोग के साथ समझौता किया है जिसके मुताबिक वैक्सीन को 3-4 डॉलर प्रति खुराक के दाम पर बेचा जाएगा। मॉडर्ना 37 डॉलर प्रति डोज के मूल्य पर वैक्सीन उपलब्ध कराने का वादा कर रही है। चीनी वैक्सीन निर्माता सिनोवैक चीन के चुनिंदा शहरों में अपने आपातकालीन कार्यक्रम के तहत वैक्सीन की दो खुराक 60 डॉलर (5,400 रुपये) में बेच रही है।
भारतीयों के लिए सबसे अच्छा विकल्प पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा विकसित वैक्सीन है, जिसकी कीमत 3 डॉलर प्रति खुराक है। लेकिन अगर वैक्सीन आयात की जाती है तो जाहिर है कि इसकी कीमत अधिक हो जाएगी।
भारत की आबादी 1.3 अरब डॉलर मानते हुए बात की जाए तो सरकार को केवल वैक्सीन की कीमत वहन करने के लिए 3.9 अरब डॉलर या लगभग 30,000 करोड़ रुपये खर्चने होंगे। इसके अलावा, वैक्सीन को वितरित करने, लाने-ले जाने और लोगों को टीका लगाने में जो पैसे खर्च होंगे, वो अलग। दवाओं के लिहाज से यह लागत 10-14% है। हालांकि टीकों के संदर्भ में यह लागत बढ़ जाती है क्योंकि इन्हें रेफ्रिजरेटेड कंटेनरों में रखकर लाना-ले जाना पड़ता है। इसी वजह से सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया सरकार से 80,000 करोड़ रुपये मांग रहा है।
पिछले कुछ वर्षों के बजट दस्तावेजों पर सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि 2019-2020 के वित्तीय वर्षके लिए केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य के मद में 61398 करोड़ रु. आवंटित किए। पिछले वित्त वर्ष के दौरान स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी का 1.29% था। इससे पहले के चार साल के दौरान यह खर्च औसतन जीडीपी का 1.15% रहा था और इस लिहाज से पिछले साल आवंटन बढ़ा ही था।
बहरहाल, ऐसे कई तरह के सुधार हैं जो इस संदर्भ में समस्याओं को काफी हद तक दूर कर सकते हैं। इनका दीर्घकालिक असर होगा और महामारी के बाद भी दवाओं तक आम लोगों की पहुंच को बढ़ाएगा और इसके दायरे में कोविड-19 के लिए तैयार की जा रही वैक्सीन भी आ जाएगी। भारत समेत तमाम देश दवाओं और वैक्सीन पर आयात शुल्क, बिक्री कर और कई दूसरे तरह के शुल्क लगाते हैं जिससे दवाओं और टीकोंकी कीमत बढ़ जाती है और इनकी उपलब्धता भी घट जाती है। एक हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत में दवाओं पर लगने वाला शुल्कऔसतन 10% है जो दुनिया में सबसे ज्यादा शुल्क लगाने वाले देशों में आता है। भारत से ज्यादा शुल्क केवल पाकिस्तान (14.7%) और नेपाल (11.3%) में है।
कुल मिलाकर दवाओं पर तरह-तरह के इन शुल्कों के कारण भारत में रोगियोंपर हर साल 73.7 करोड़ डॉलर का बोझ पड़ता है और लोगों के हाथ तक पहुंचते-पहुंचते दवा की कीमत लागत से औसतन 80% अधिक हो जाती है। भारत को स्थायी रूप से और कानूनी रूप से बाध्यकारी शुल्क- मुक्त दवाओं के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। बेहतर तो यह हो कि भारत डब्ल्यूटीओ के फार्मास्युटिकल जीरो टैरिफ समझौते पर दस्तखत कर ले। इसमें 34 देश हैं जिनके बीच दवाओं के आयात-निर्यात पर शुल्क नहीं लगता। इसके अलावा मरीजों को अन्य घरेलू कर भी चुकाना पड़ता है, जैसे- जीएसटी। भारत में ज्यादातर दवाओं पर 12% जीएसटी लगाया जाता है। अगर राजस्व की दृष्टि से बात करें तो दवाओं पर लगे जीएसटी से सरकार को बहुत ही कम आय होती है लेकिन इससे रोगियों पर काफी असर पड़ता है क्योंकि ज्यादातर लोगों को अपनी जेब से इनका खर्च उठाना पड़ता है।
भारत में सीमा शुल्क से जुड़ी लालफीताशा ही दवाओं तक पहुंच और इनके भंडारण के मामले में सबसे बड़ी बाधा है। इसके कारण दवाओं की लागत भी बढ़ जाती है। सीमा शुल्क और आयात-निर्यात की जटिल प्रक्रियाओं, लालफीताशाही, छिपे हुए कर, कंजेशन टैक्स वगैरह के उदाहरण से मुश्किलों को समझा जा सकता है। कोविड-19 के इलाज से जुड़े साजो-सामान और वैक्सीन में से कई का उत्पादन बाहर होगा और इनकी जरूरत तेजी से बढ़ने जा रही है। इसलिए राज्य सरकारों को उन मौजूदा नियमों को खत्म करना चाहिए जो दवाओं के आसान आयात को बाधित करते हैं।
एक अन्य कारक जो भारत में रोगियों तक नई दवाओं के पहुंचने में ज्यादा समय लगाता है, वह है नियम-कानून। खास तौर पर यह तथ्य कि सेंट्रल ड्रग्सस्टैंडर्डकंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (सीडीएससीओ) चरण-1 के अध्ययन के डाटा को साक्ष्य के रूप में स्वीकार ही नहीं करता। इसका नतीजा यह होता है कि जो दवा दूसरे देशों में पहले से ही स्वीकृत है, उसे भी भारत के मरीजों तक पहुंचने में औसतन 500 दिन का समय लग जाता है। सरकार बड़ी आसानी से इस प्रक्रिया को आसान कर सकती है अगर वह विदेशों में क्लीनिकल ट्रायल के आंकड़ों को स्वीकार करने की व्यवस्था कर दे।
भारत में खराब गुणवत्ता वाले उत्पाद भी एक बड़ी समस्या हैं। उदाहरण के लिए, भारत में निर्मित वेंटिलेटर। चूंकि इसके लिए ड्रग कंट्रोलर्ससे अनुमति लेने या फिर तमाम तरह के अन्य गुणवत्ता प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है, बाजार में नकली और घटिया वेंटिलेटर धड़ल्ले से बिक रहे हैं। यहां तक कि पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) के मामले में भी स्थिति ऐसी ही है। ये घरेलू कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे हैं और इनकी गुणवत्ता के लिए किसी भी तरह के प्रमाणन की जरूरत नहीं पड़ती। अब जब कोविड-19 के लिए उपचार और वैक्सीन तैयार करने का काम अंतिम चरणों में है, जरूरी है किये जल्दी से जल्दी दुनिया भर में उपलब्ध हों।
भारत में अभी व्यवस्था यह है कि विदेशी उत्पादक अपनी दवाओं का उत्पादन भारत में ही करेंगे, इसका नतीजा यह होगा कि भारत में वही दवा लोगों को मिलने में काफी देर लगेगी। भारत सहित ऐसे तमाम देश हैं जहां व्यापार और नियामक संबंधी बाधाएं हैं। अच्छीबात यह है कि इन बाधाओं को दूर करना कोई बहुत बड़ा काम नहीं, बस इच्छा शक्ति होनी चाहिए।(https://www.navjivanindia.com/)
रेखा सिंह
बिहार-खरखण्ड के चुनावी कार्यक्रम के दौरान मुझे बिहार, अपने राज्य को देखने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ!
बिहार वह नहीं है जो प्रतिदिन अखबारों के पन्नों में छपा होता है या टेलीविजनों के चैनलों के माध्यम से दिखाया जाता है। बिहार वह भी नहीं है जो राजनेताओं के जुमले या राजनैतिक दांव-पेंचों का केंद्र बना हुआ है! असल में बिहार वह है जो प्राकृतिक आपदा से तो तबाह है ही और राजनेताओं से लेकर छोटभैयन एवं सरकारी नौकरों के बुने हुए मकडज़ाल में फंसा हुआ तड़पता हुआ बिहार है। जहाँ भूखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, पलायन, अशिक्षा, लाचारी, बदहाली है, जिसे यहां की जनता अपनी किस्मत मान बैठी है!
जब शहर से दूर सुदूर गांव में जाएंगे तो असली बिहार नजऱ आता है। आज 2020 विधानसभा चुनाव का अंतिम चरण है, फिर से जनता एक बार अपने सपने को पूरा करने के लिए किसी योग्य उम्मीदवार को अपना मतदान करेगी लेकिन क्या सच में इस राजनीतिक तंत्र में कोई योग्य या जनता के लिए जीने-मरने वाला कोई नेता है?
सच तो यह है कि एक बार जीत हासिल कर लेने के बाद कभी कोई प्रतितिनिधि सुधि लेने नहीं आते हैं। आते हैं तब जब दूसरे चुनाव का बिगुल बज उठता है!
कमाल है, आज़ादी के 70 साल बाद भी यहां की जनता पेट के लिए ही लड़ाई लड़ रही है। पेट के लिए मजबूरन अपना राज्य छोडऩे को मजबूर है! यहां देखने वाली बात यह है कि जब हम पेट से उबर नहीं पाएं हैं तो आगे क्या सोंच पाएंगे?
शो के दौरान हम अपनी टीम के साथ सुपौल और पूर्णिया विधानसभा गए थे। पूर्णिया शहर से जैसे ही निकल कर पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्रीजी के गांव पहुंची, वहां की स्थिति देखने लायक थी!
मुझे तो ऐसा महसूस हो रहा था जैसे फणीश्वरनाथ रेणु जी की कालजयी रचना ‘मैला आँचल’ का सारा दृश्य मेरे आखों के सामने जीवंत हो रहें हों! वही गरीबी, वही अशिक्षा.. वहाँ स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चला कि अभी भी यहां के लोग भूख से मरते हैं! अस्पताल और स्कूल दोनों मात्र कहने के लिए हैं। वहां कई ऐसे घर हैं जहां अभी भी कई-कई दिनों तक चूल्हे नहीं जलते! कारण गरीबी! कोई रोजगार नहीं, खेती भी वैसी नहीं कि उसके भरोसे जीवन जिया जाय। महंगाई ऐसी की प्रतिदिन 300 रुपये मात्र कमाने वाला श्रमिक कैसे अपना परिवार चला पाएगा?
कोरोना काल में भूख से मरने वाले मजदूरों की संख्या बहुत थी लेकिन इसकी चर्चा कहीं नहीं की गई और न ही ये किसी नेता को ये खास मुद्दा ही लगा। जो मजदूर, दूर देश से अपना रोजी-रोटी छोडक़र,जान बचाने अपने गांव पहुंचे थे कि गांव में महामारी से वे बच जाएंगे लेकिन उनके साथ एकदम उल्टा हुआ, महामारी तो उन्हें छूने से रही लेकिन भूख और गरीबी ने उन्हें लील लिया।
पता नहीं सरकारी सहयोग अगर मिला तो इन गरीबों तक क्यों नहीं पहुँच पाया?
हालांकि इस मुद्दे पर किसी नेता ने अपना शांति भंग नहीं किया, उन सब के लिए तो वही बात थी ‘सब धन बाइसे पसेरी’ और तो और स्वर्गीय मुख्यमंत्री भोला पासवान जी के परिजनों की भी स्थिति उस दृश्य से अलग न थी।
जहाँ, भोला पासवान जी का जन्म हुआ था वहां भी घास और बांस से बनी एक मात्र झोपड़ी थी और वर्षों पहले मिला एक इंदिरा आवास भी था जिसमें न दरवाजा दिखा न खिड़कियां ही थी।
कितनी दु:ख की बात है, जो आदमी अपनी पूरी जि़ंदगी देश सेवा में झोंक दिया हो, अखण्ड बिहार का तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रह चुका हो, आज उसके घर पर एक छप्पड़ तक नहीं। गांव में एक ढंग का स्कूल नहीं, जहां जाकर बच्चे शिक्षा ग्रहण कर सके!
आज नेताओं के पास एक-दूसरे को नीचा दिखाकर वोट बटोरने के अलावे कोई मुद्दा नहीं है। राम-रहीम के नारा लगाकर, भाई-भाई को आपस में लड़वाकर कैसे भी कुर्सी पर डटे रहने या छिनने के प्रयास में लगे रहतें हैं। वादे तो ऐसे किए जा रहें हैं, जैसे इस विधानसभा चुनाव से पहले न कोई चुनाव हुआ था ना ही होगा!
आज के समय में नेता शब्द का मतलब ही बदल गया है! आज नेता का मतलब बड़बोला, दागी, धन्नासेठ,और हर हाल में कुर्सी को हथियाने वाला एक दोहरे चरित्र का व्यक्ति! समाजसेवा जैसा शब्द अब इनके शब्दावली में नहीं होता।
(न्यूज़ 18 में ‘भाभी जी मैदान में हैं’ कार्यक्रम की वजह से पूरा बिहार घूमने वाली अभिनेत्री रेखा की टिप्पणी)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार में हुआ चुनाव सिर्फ एक प्रांत का चुनाव बनकर नहीं रहने वाला है। यह अगले संसदीय चुनाव (2024) का आईना बनने वाला है। कोरोना की महामारी के दौरान होनेवा ला यह पहला चुनाव है। बिहार में इस बार पिछले चुनाव से ज्यादा मतदान हुआ है याने कोरोना के बावजूद अब अगले कुछ माह में कई प्रांतीय चुनाव बेहिचक करवाए जा सकते हैं।
प. बंगाल, असम, तमिलनाडु, पांडिचेरी और केरल के चुनावों की झांकी, हम चाहें तो बिहार के चुनाव में अभी से देख सकते हैं। यदि बिहार में भाजपा गठबंधन स्पष्ट बहुमत से जीतता है तो माना जा सकता है कि उक्त राज्यों (केरल के सिवाय) में भी भाजपा का दिखावा ठीक-ठाक ही होगा लेकिन जैसा कि सभी एक्जिट पोल दिखा रहे हैं, बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन का जीतना काफी मुश्किल है।
भाजपा के मुकाबले राजद की बढ़ोतरी जबर्दस्त बताई जा रही है लेकिन भाजपा के शीर्ष नेताओं का मानना है कि इस बार टक्कर कांटे की है। इसी डर के मारे कांग्रेस अपने संभावित विधायकों को पटना से कहीं दूर ले जाकर टिका रही है ताकि भाजपा वाले उन्हें पैसे देकर खरीद न लें। इस बार बिहार के चुनाव में जातिवाद का बोलबाला वैसा नहीं रहा, जैसा प्राय: रहता है।
राजद के नेता तेजस्वी यादव की सभाओं ने नीतीश और मोदी की सभाओं को भी मात कर दिया। तेजस्वी ने बेरोजगारी के मुद्दे को हर सभा में तूल दे दिया। 10 लाख नौकरियों की चूसनी नौजवानों के आगे लटका दी, जैसे कि मोदी ने 15 लाख रु. प्रति व्यक्ति की चूसनी 2014 में लटकाई थी। तालाबंदी से उजड़े हुए सभी जातियों के मजदूरों पर तेजस्वी ने ठंडा मरहम लगा दिया।
नीतीश के कई लोक-कल्याणकारी काम दरी के नीचे सरक गए। लोगों को हुए सीधे फायदों का श्रेय मोदी को मिल रहा है लेकिन बिहार के इस चुनाव ने मोदी को भी इशारा कर दिया है कि लोग नीतीश से ही नहीं थक गए हैं, उन्हें मोदी की बातें भी चिकनी-चुपड़ी भर लगने लगी हैं। यह असंभव नहीं कि जदयू के मुकाबले भाजपा को ज्यादा सीटें मिलें लेकिन राजद को बहुमत मिलने की संभावना ज्यादा लग रही है।
तेजस्वी ने अपने ‘पूज्य पिताजी और माताजी’ को पूरे अभियान में ताक पर बिठाए रखा और एक स्वच्छ नौजवान और प्रभावशाली वक्ता के तौर पर खुद को पेश किया। यदि बिहार में किसी भी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो भी कोई बात नहीं। बिहार के नेता छुआछूत से घृणा करते हैं। कोई भी पार्टी किसी से भी मिलकर सरकार बना सकती है। भाजपा के लिए यह चुनाव अगले प्रांतीय चुनावों के लिए महत्वपूर्ण संदेश छोड़ेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
जर्मनी 82 साल पहले 1938 में नाजी जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ हिंसा की रात की वर्षगांठ मना रहा है. इस मौके पर दुनिया भर में कई समारोहों का आयोजन किया गया है.
डॉयचे वैले पर महेश झा की रिपोर्ट-
जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक वाल्टर श्टाइनमायर ने यहूदियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हुई हिंसा पोग्रोम की वर्षगांठ के मौके पर जर्मनी में यहूदी विद्वेष के खिलाफ दृढ़ता से कार्रवाई करने की अपील की है. उन्होंने कहा कि उनके लिए शर्म की बात है कि देश में किप्पा यानी छोटी गोल टोपी पहने यहूदी सड़कों पर सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं और यहूदी प्रार्थनागृहों को सुरक्षा देने की जरूरत है. उन्होंने इस्राएल के राष्ट्रपति रोएवेन रिवलिन को लिए एक पत्र में कहा है, "मेरे लिए शर्मनाक है कि एक साल पहले जोम किप्पुर के मौके पर हाले के सिनागोग पर हुआ घातक हमला सिर्फ लकड़ी के दरवाजे के कारण रोका जा सका." उनका वीडियो संदेश इस्राएल में इस मौके पर होने वाले एक समारोह में दिखाया गया.
1938 में पोग्रोमनाख्त के रूप में कुख्यात 9 नवंबर की रात नाजी समर्थकों ने पूरी जर्मनी में यहूदी सिनागोगों, यहूदी नागरिकों की दुकानों और घरों में आग लगा दी और यहूदियों से मारपीट की, उन्हें उठा ले गए और बहुतों की जान ले ली. जर्मन राष्ट्रपति ने अपने संदेश में कहा कि नवंबर की वो रात सालों के भेदभाव, डराने धमकाने और दुश्मनी के बाद हिंसा का घृणित कांड था. वह नाजी जनसंहार की पूर्व घोषणा थी, जो मेरे देश के लोगों ने कुछ साल बाद किया. राष्ट्रपति ने कहा कि ये आज हमारे लिए बार बार आने वाली चेतावनी है.
दो साल पहले एक स्मृति समारोह में चांसलर
चांसलर अंगेला मैर्केल ने 9 नवंबर को हुई यहूदी विरोधी हिंसा को शर्मनाक की संज्ञा देते हुए कहा, "हम जर्मनी में शुरू हुए मानवता के खिलाफ अपराधों के शिकारों की याद शर्म के साथ कर रहे हैं." इस मौके पर देश के राजनीतिज्ञों ने इस घटना को नैतिक विफलता बताया है. एसपीडी नेता और जर्मन विदेश मंत्री हाइको मास ने भी चेतावनी देते हुए कहा कि किसी को कंधे नहीं उचकाने चाहिए, यदि आज भी इंटरनेट में या सड़क पर यहूदी विरोधी नफरत और हिंसा की घटना होती है. संयुक्त राष्ट्र के एक समारोह के लिए भेजे गए संदेश में जर्मनी विदेश मंत्री ने कहा, "याद करने का मतलब होता है आज और कल के लिए, कल से सही सबक सीखना." उन्होंने कहा कि कोरोना से जुड़ी बहुत सारी साजिशी कहानियां दिखाती हैं कि यहूदीविरोध आज भी सिर्फ उग्रदक्षिणपंथ का मामला नहीं है, वह हमारे समाज के मध्य तक पहुंच चुका है.
जर्मनी में इवांजेलिक गिरजे के प्रमुख हाइनरिष बेडफोर्ड स्ट्रोम ने कहा, "ये साफ होना चाहिए कि यहूदीविरोध पाप है, और उस सब के खिलाफ है जो ईसाईयत का आधार है." अंतरराष्ट्रीय आउशवित्स समिति ने एक बयान में कहा है कि आज तक यहूदी जनसंहार में बचे लोगों के लिए इस भयावह रात में अपने पड़ोसियों की उदासीनता की यादें इतनी डरावनी हैं कि वे भुला नहीं पाए हैं. आउशवित्स में नाजियों ने यहूदियों के लिए यातना शिविर बना रखा था.
जर्मन सरकार में यहूदी विरोधी मामलों के आयुक्त फेलिक्स क्लाइन ने कहा कि उस समय की नाकामी, आम उदासीनता और चापलूसी से आज के लिए सबक सीखी जानी चाहिए. क्लाइन ने इस पर जोर दिया कि 82 साल पहले की उस रात की याद बहुत जरूरी है. वो तारीख स्पष्ट करती है कि देश उस समय नैतिक रूप से विफल हो गया था. उस अनुभव की वजह से ये जरूरी है कि आद भेदभाव और बहिष्कार से अलग तरह से पेश आया जाए.
शुरैह नियाज़ी
घटना शुक्रवार रात को गुना ज़िले के बमोरी तहसील के छोटी उखावाद खुर्द में हुई.
बंधुआ मुक्ति मोर्चा, गुना के ज़िला संयोजक नरेंद्र भदौरिया ने बताया कि 26 साल के विजय सहारिया पिछले तीन साल से राधेश्याम लोधा के खेत में बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम कर रहे थे, दोनों एक ही गांव में रहते थे.
नरेंद्र भदौरिया ने कहा, "विजय से लगातार काम करवाया जाता था. उसने उस रात राधेश्याम से कहा कि वो कहीं और मज़दूरी करके उसके पैसे चुका देगा. उसके बाद विजय ने उससे मज़दूरी मांगी. लेकिन इस बात से राधेश्याम उस पर बहुत गुस्सा हो गया और उसने उस पर केरोसिन डाल कर आग लगा दी."
विजय सहारिया ने अगले दिन 7 नवंबर को अस्पताल में दम तोड़ दिया. राधेश्याम को दूसरे दिन पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया.
लेकिन आग लगाने के बाद झुलसे हुए विजय का एक वीडियो भी वायरल हुआ जिसमें वो बता रहा है कि उनके साथ क्या हुआ और कैसे उन पर राधेश्याम ने मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी.
विजय अपने माता-पिता, छोटे भाई, पत्नी रामसुखी और दो बच्चों के साथ गांव में रहते थे. विजय के पिता कल्लूराम ने बताया कि उनके बेटे विजय ने पांच हज़ार रुपये की उधारी ली थी.
कल्लूराम ने कहा, "तीन साल तक काम करने के बाद भी न तो उसका कर्ज़ चुका और न ही उसे कोई पैसे मिले. इसलिए कुछ दिन से उसने काम पर जाना बंद कर दिया था.
"उस दिन राधेश्याम ने उसे बुलाया और उसके बाद उस पर केरोसिन डालकर उस पर आग लगा दी."
पुलिस अधीक्षक राजेश कुमार सिंह ने बताया, "इस मामले में फ़ौरन कारवाई करते हुए अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया है. मृतक के परिवार को भी आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा चुकी है."
वहीं, गुना के ज़िलाधिकारी कुमार पुरुषोत्तम का कहना है, "इस मामले में मृतक ने अभियुक्त से उधार लिया था और उसी वजह से यह घटना घटी है."
हालांकि प्रशासन ने अब फ़ैसला लिया है कि वो सहरिया समुदाय से जुड़े लोगों की आर्थिक स्थिति का डेटा तैयार कराएँगे ताकि उन्हें मदद उपलब्ध कराई जा सके.
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विजय की मौत से नाराज़ ग्रामीण
सबसे पिछड़ी जनजातियों में से एक सहरिया
सहरिया जनजाति राज्य की सबसे पिछड़ी जनजातियों में आती है. हर चुनाव से पहले सरकार और राजनीतिक दल इस समुदाय के लिए तरह-तरह के वादे करते हैं लेकिन इनकी स्थिति में बहुत अंतर नहीं आया है.
मध्यप्रदेश का गुना ज़िला बंधुआ मज़दूरी के लिए जाना जाता है. पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब कई जगहों से मज़दूरों को छुड़वाया गया है.
नरेंद्र भदौरिया ने आरोप लगाया, "इस क्षेत्र में दबंगों का दबदबा है और वो आदिवासियों और सहरिया समुदाय के लोगों पर दबंगई करते हैं. राजनीतिकरण के कारण उन पर कारवाई नहीं हो पाती है. "
बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने मांग की है कि सरकार और प्रशासन जल्द से जल्द तत्काल मुक्ति प्रमाण पत्र जारी करे ताकि विजय के परिवार को वो सभी सुविधाएँ और मुआवज़ा मिल सके जो एक बंधुआ मज़दूर को मिलती हैं.
1976 में इंदिरा गांधी ने बंधुआ मज़दूर प्रथा ख़त्म करने के लिए एक क़ानून बनाया था जिसके तहत बंधुआ मज़दूरी से मुक्त कराए गए लोगों को आवास और पुनर्वास की बात कही गई थी. इसके लिये यह ज़रूरी है कि मुक्ति प्रमाण पत्र जारी किया जाए.
लेकिन अब इस मामले को लेकर राजनीति भी तेज़ हो गई है.
कांग्रेस ने लगाया आरोपी को बचाने का आरोप
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने परिवार से मुलाक़ात करने के बाद कहा, "सरकार ने यह फ़ैसला किया है कि पीड़ित परिवार विजय की पत्नी को पूरा संरक्षण दिया जाएगा. पत्नी को शासकीय सेवा में अगर परिवार चाहेगा तो स्थान देंगे, नए मकान का निर्माण होगा."
मुख्यमंत्री ने बताया कि अभी 8.25 लाख रुपये की राशि जो अधिनियम के तहत मिलेगी उसमें से आधी दे दी गई है और आधी और दी जाएगी.
शिवराज सिंह चौहान ने कहा, "संबल योजना के तहत चार लाख रुपये और विजय की पत्नी को दिए जाएंगे साथ ही दोनों बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम किया भी जाएगा."
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विजय के परिवार से मुलाक़ात करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
सरकार ने परिवार के लिए छह महीने तक गुज़ारे भत्ते की व्यवस्था भी की है. वहीं, विपक्षी कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि शिवराज सरकार दबंग अभियुक्त को बचाने में लग गई है.
कांग्रेस मीडिया समन्वयक नरेंद्र सलूजा ने कहा, "भाजपा सरकार के पिछले 15 साल की बात करें या वर्तमान 7 माह की ग़रीब, दलित, आदिवासियों पर अत्याचार और उत्पीड़न की घटनाओं में कई गुना बढ़ोतरी हुई है. उन्हें किस प्रकार से कर्ज़ के दलदल में फंसाकर उनका शोषण किया जाता है यह घटना भी उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है."
बंधुआ मुक्ति मोर्चा के नरेंद्र भदौरिया का आरोप है कि गुना जिले में बड़ी तादाद में बंधुआ मज़दूर काम कर रहे हैं लेकिन प्रशासन यहां पर एक भी बंधुआ मज़दूर नहीं होने की बात करता रहा है. इसलिए इस प्रथा से मुक्त होने के बाद भी इन लोगों को मदद नही मिल पाती है.
-कमलेश मठेनी
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे मंगलवार को आ रहे हैं. नतीज़े आने के बाद ही पता चलेगा कि बिहार में सत्ता की बागडोर किसके हाथ में जाएगी. इन नतीज़ों से पहले चलिए हम जानते हैं कि बिहार में पिछले चुनावों का इतिहास क्या रहा है. बिहार की जनता ने कब, कौन-सी पार्टी को राज्य की ज़िम्मेदारी सौंपी है.
1951 से बिहार में विधानसभा चुनाव की शुरुआत हुई थी. इसके बाद से 2020 तक बिहार में 17 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. साल 2005 की फ़रवरी में हुए चुनाव में सरकार नहीं बन पाने के कारण अक्टूबर में फिर से चुनाव आयोजित करने पड़े थे.
2015 विधानसभा चुनाव
पहले बात करते हैं अक्टूबर-नवंबर 2015 में हुए पिछले विधानसभा चुनावों की. ये चुनाव पांच चरणों में पूरा हुआ था.
इन चुनावों में सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड (जदयू), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस, जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, इंडियन नेशनल लोक दल और समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) ने महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था.
वहीं, भारतीय जनता पार्टी ने लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हिंदुस्तानी आवामी मोर्चा के साथ चुनावी मैदान में क़दम रखा था.
2015 का चुनाव कुल 243 सीटों पर हुआ था जिसमें जीतने के लिए 122 सीटों की ज़रूरत थी.
इन चुनावों में लालू यादव की राजद और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडी(यू) ने 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ा था. कांग्रेस ने 41 और भाजपा ने 157 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे.
चुनाव के नतीजे आने पर राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. इसके बाद जदयू को 71 सीटें और भाजपा को 53 सीटें मिली थीं. इन चुनावों में कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं.
इन चुनाव में महागठबंधन की सरकार बनी और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया. हालांकि, 2017 में जेडी(यू) महागठबंधन से अलग हो गई और नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई.
2010 विधानसभा चुनाव
साल 2010 में हुआ विधानसभा चुनाव को छह चरणों में बांटा गया था. 243 सीटों पर हुए इन चुनावों में नीतीश कुमार की जदयू सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
इन चुनावों में एनडीए गठबंधन में जदयू और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था और उनके सामने राजद और लोक जनशक्ति पार्टी का गठबंधन था.
इन चुनावों में जनता दल यूनाइटेड ने 141 में से 115 सीटें और बीजेपी ने 102 में से 91 सीटें जीती थीं.
वहीं, राजद ने 168 सीटों पर चुनाव लड़कर 22 सीटें जीती थीं. लोजपा 75 सीटों में से तीन सीटें लेकर आई थीं. कांग्रेस ने पूरी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उसे सिर्फ़ चार सीटें ही मिली थीं. इसके बाद से कांग्रेस ने महागठबंधन में ही चुनाव लड़ा है.
इन चुनाव में बिहार की बड़ी पार्टी माने जाने वाली राजद का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था जो फरवरी 2005 के चुनावों की 75 सीटों के मुक़ाबले सिमटकर 22 सीटों पर आ गई थी. 2010 में एनडीए की सरकार बनी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनाए गए.
2005 में हुए दो बार चुनाव
साल 2005 में ऐसा पहली बार हुआ था जब बिहार में एक ही साल के अंदर दो बार विधानसभा चुनाव कराने पड़े.
साल 2003 में जनता दल के शरद यादव गुट, लोक शक्ति पार्टी और जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार की समता पार्टी ने मिलकर जनता दल (यूनाइटेड) का गठन किया था.
तब लालू यादव के करीबी रहे नीतीश कुमार ने उन्हें विधानसभा चुनावों में बड़ी चुनौती दी.
फरवरी 2005 में हुए इन चुनावों में राबड़ी देवी के नेतृत्व में राजद ने 215 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से उसे 75 सीटें मिल पाईं.
वहीं, जदयू ने 138 सीटों पर चुनाव लड़ 55 सीटें जीतीं और भाजपा 103 में से 37 सीटें लेकर आई. कभी बिहार में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस इन चुनावों में 84 में से 10 सीटें ही जीत पाई थी.
इन चुनावों में 122 सीटों का स्पष्ट बहुमत ना मिल पाने के कारण कोई भी सरकार नहीं बन पाई और कुछ महीनों के राष्ट्रपति शासन के बाद अक्टूबर-नवंबर में फिर से विधानसभा चुनाव हुए.
दूसरे विधानसभा चुनावों में जदयू 88 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. जदयू ने 139 सीटों पर चुनाव लड़ा था. भाजपा ने 102 में से 55 सीटें हासिल की थीं.
वहीं, राजद ने 175 सीटों पर चुनाव लड़कर 54 सीटें जीतीं, लोजपा को 203 में से 10 सीटें मिलीं और कांग्रेस 51 में से नौ सीटें ही जीत पाई. साल 2000 में ही लोजपा का गठन हुआ था.
इन चुनावों में नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी.
साल 2000 में एकीकृत बिहार में चुनाव
इन चुनावों से पहले बिहार में काफ़ी उथल-पुथल हुई थी. लालू यादव ने राबड़ी देवी को अपनी जगह बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था और 1997 में लगभग तीन हफ़्तों का राष्ट्रपति शासन भी लगा था.
इसके बाद मार्च 2000 में विधानसभा चुनाव हुए.
ये वो समय जब बिहार से अलग करके झारखंड राज्य नहीं बनाया गया था. साल 2000 के नवंबर में झारखंड का गठन हुआ था.
तब बिहार में 324 सीटें हुआ करती थीं और जीतने के लिए 162 सीटों की ज़रूरत होती थी.
इन चुनावों में राजद ने 293 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 124 सीटें मिली थीं.
वहीं, भाजपा को 168 में से 67 सीटें हासिल हुई थीं. इसके अलावा समता पार्टी को 120 में से 34 और कांग्रेस को 324 में से 23 सीटें हासिल हुई थीं.
2000 के चुनाव में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनी थीं.
1995 का विधानसभा चुनाव
ये वो चुनाव थे जब ना तो बिहार में आरजेडी थी और ना जेडीयू. हालांकि, 1994 में नीतीश कुमार ज़रूर समता पार्टी बनाकर लालू यादव से अलग हो गए थे.
तब लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल ने 264 सीटों पर बिहार चुनाव लड़ा और वो 167 सीटें जीतने में सफल हुई.
भाजपा ने 315 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए लेकिन सिर्फ़ 41 सीटें ही जीत पाई. कांग्रेस 320 सीटों पर चुनाव लड़कर 29 सीटें ही जीत पाई.
उस समय भी बिहार में 324 सीटों के लिए चुनाव लड़ा गया था. तब झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) भी बिहार से ही चुनाव लड़ती थी.
जेएमएम ने चुनावों में 63 में से 10 सीटें जीती थीं और समता पार्टी को 310 में से सात सीटें मिली थीं.
इन चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के साथ लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने.
लेकिन, साल 1997 में चारा घोटाले में फंसने के कारण लालू यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा और उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया.
उनके इस फैसले की काफ़ी आलोचना हुई और पार्टी में फूट भी पड़ गई. 1997 में ही राष्ट्रीय जनता दल का भी गठन हुआ.
1990 विधानसभा चुनाव
इन चुनावों में 1988 में बनी कई दलों के विलय से बने जनता दल ने पहली बार बिहार चुनाव लड़ा था.
जनता पार्टी 276 सीटों पर चुनाव लड़कर 122 सीटें जीतें और सबसे बड़ी पार्टी बनकर खड़ी हुई. हालांकि, बहुमत का आँकड़ा 162 सीटें था.
वही, कांग्रेस को 323 सीटों में से 71 सीटें और भाजपा को 237 सीटों में से 39 सीटों हासिल हुईं.
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने 109 सीटों पर चुनाव लड़कर 23 सीटें जीती थीं. जेएमएम 82 में से 19 सीटें जीत पाई थी.
तब बिहार में लालू यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी थी. इन चुनावों के बाद ही बिहार में एक ही कार्यकाल में कई मुख्यमंत्री बनने का दौर ख़त्म हुआ.
1985 विधानसभा चुनाव
इन चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसे 323 में से 196 सीटें मिली थीं जो बहुमत से कहीं ज़्यादा थीं.
इन्हीं चुनावों के बाद बिहार में एक ही कार्यकाल में चार मुख्यमंत्री बने थे.
इन चुनावों में लोक दल को 261 में से 46 और भाजपा को 234 में से 16 सीटें मिली थीं.
उस समय जनता पार्टी भी चुनावी मैदान में थी जो बाद में जनता दल में शामिल हो गई. जनता पार्टी को 229 में से 13 सीटें मिली थीं.
इन चुनावों में 1985 से 1988 तक बिंदेश्वरी दुबे बिहार के मुख्यमंत्री रहे. उनके बाद लगभग एक साल भागवत झा आज़ाद, फिर कुछ महीनों के लिए सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बने थे.
1980 का विधानसभा चुनाव
इन चुनावों में कांग्रेस (इंदिरा) को 311 में से 169 सीटें मिली थीं और कांग्रेस (यू) को 185 में से 14 सीटें मिली थीं.
तब भाजपा ने 246 में से 21 सीटें जीती थीं और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने 135 में से 23 सीटें हासिल की थीं.
जनता पार्टी (एससी) को तब 254 में से 42 सीटें मिली थीं.
इस कार्यकाल में भी लगभग चार महीने राष्ट्रपति शासन लागू रहा है. उसके बाद करीब तीन साल के लिए जगन्नाथ मिश्र और एक साल के लिए चंद्रशेखर सिंह बिहार के मुख्यमंत्री बने थे.
1977 विधानसभा चुनाव
इन चुनावों में जनता पार्टी ने बिहार की 311 सीटों पर चुनाव लड़ा और 214 सीटों पर जीत हासिल की.
कांग्रेस को इन चुनावों में 286 में से 57 सीटें ही मिली थीं. वहीं, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने 73 में से 21 सीटें हासिल की थीं.
बिहार में जनता पार्टी की सरकार बनी. पहले लगभग दो महीने राष्ट्रपति शासन लागू रहा.
उसके बाद लगभग एक साल के लिए 1979 तक कर्पूरी ठाकुर और फिर 1980 तक रामसुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बने.
जगन्नाथ मिश्रा तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे. तीनों बार जब भी वे मुख्यमंत्री बने, उस समय कांग्रेस पार्टी कड़ी चुनौतियों का सामना कर रही थी
1972 विधानसभा चुनाव
इन चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई थी और उसे 259 में से 167 सीटें मिली थीं. वहीं, कांग्रेस (ओ) 272 में से 30 सीटें ही मिल पाई थीं.
इसके अलावा भारतीय जन संघ को 270 में से 25 सीटें हासिल हुई थीं. तब समयुक्ता सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) को 256 सीटों पर चुनाव लड़कर 33 सीटें मिली थीं.
इस कार्यकाल में भी लगभग दो महीने राष्ट्रपति शासन लगा रहा और उसके बाद एक या दो साल के लिए केदार पांडे, अब्दुल गफ़ूर और जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री रहे.
भोला पासवान शास्त्री को आग देने वाले उनके भतीजे विरंची पासवान अब बूढ़े हो चुके हैं
1969 विधानसभा चुनाव
इस चुनाव में भी इंडियन नेशनल कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. हालांकि, उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिला था.
उस समय बिहार में 318 सीटों के लिए विधानसभा चुनाव हुआ था और जीत के लिए 160 सीटों की ज़रूरत थी.
कांग्रेस को 318 में से 118 सीटें मिलीं और भारतीय जनसंघ को 303 में से 34 सीटें हासिल हुईं.
इस चुनाव में एसएसपी को 191 में से 52 और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया को 162 में से 25 सीटें मिली हैं.
इस कार्यकाल में भी राष्ट्रपति शासन के बाद दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री कुछ-कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री बने.
1967 विधानसभा चुनाव
कांग्रेस को 318 में से 128, एसएसपी को 199 में से 68 और जन क्रांति दल को 60 में से 13 सीटें मिली थीं.
इन तीनों से थोड़े-थोड़े समय तक कुल चार मुख्यमंत्री रहे थे.
इन चुनावों में भारतीय जनसंघ ने 271 में से 26 सीटें हासिल की थीं.
2008 की इस तस्वीर में भारतीय जनसंघ से जुड़ी पुस्तक का विमोचन करते बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह और वैंकैया नायडु
1951, 1957 और 1962 के चुनाव
आज़ादी के बाद पहली बार हुए 1951 के चुनाव में कई पार्टियों ने भाग लिया लेकिन कांग्रेस ही उस समय सबसे बड़ी पार्टी थी.
इन चुनाव में कांग्रेस को 322 में से 239 सीटें मिली थीं.
1957 के चुनाव में भी कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसे 312 में से 210 सीटें मिली थीं.
1962 के चुनाव में कांग्रेस को 318 में से 185 सीटों के साथ बहुमत हासिल हुआ था. उसके बाद स्वतंत्र पार्टी को सबसे ज़्यादा 259 में से 50 सीटें मिली थीं.
श्री कृष्ण सिन्हा बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने थे.
साल 2016 में भारत सरकार ने बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिन्हा की याद में एक डाक टिकट रिलीज़ किया था. (bbc.com/hindi)
अर्नब गोस्वामी क्या हिरासत से आज़ाद होने के बाद किसी भी तरह से बदल जाएंगे ? क्या वे अपने सभी तरह के विरोधियों के प्रति ,जिनमें कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी अब शामिल हो गया है ,पहले की अपेक्षा कुछ उदार और विनम्र हो जाएँगे ? जिस तरह की बुलंद और आक्रामक आवाज़ को वे अपनी पहचान बना चुके हैं क्या उसकी धार हिरासत की अवधि के दौरान किसी भी कोने से थोड़ी बोथरी हुई होगी ? कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है ?आशंकाएँ इसी बात की ज़्यादा हैं कि हिरासत के (पहले ?)एपिसोड के ख़त्म होते ही अर्नब अपने विरोधियों के प्रति और ज़्यादा असहिष्णु और आक्रामक हो जाएँगे।जो लोग उन्हें नज़दीक से जानते-समझते हैं उनके पास ऐसा मानने के पुख़्ता कारण भी हैं।
आमतौर पर हिरासतों के कटु और पीड़ादायक अनुभव किसी भी सामान्य नागरिक को एक लम्बे समय के लिए भीतर से तोड़ कर रख देते हैं।उन परिस्थितियों में और भी ज़्यादा जब व्यक्ति तो अपने आपको निर्दोष मानता ही हो ,बाद में अदालतें अथवा जांच एजेंसियाँ भी दोषी न मानते हुए हिरासत से आज़ाद कर देती है ।पर इतना सब कुछ होने के बीच हिरासत उस नागरिक को गहरे अवसाद में धकेलने अथवा व्यवस्था के प्रति विद्रोही बना देने की काफ़ी गुंजाइश पैदा कर देती है।अगर अर्नब हिरासत में अपनी जान को ख़तरा बताते हैं तो हिरासत के अनुभव से गुजरने के बाद रिया चक्रवर्ती के पूरी तरह या आंशिक रूप से अवसादग्रस्त हो जाने की चिकित्सकीय आशंकाओं को भी निरस्त नहीं किया जा सकता ।
कहा जाता है कि सिने तारिका दीपिका पादुकोण को जब सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह में पूछताछ के लिए बुलाया गया था तब वे काफ़ी घबराई हुईं थीं। वे पूछताछ के दौरान अपने अभिनेता पति को भी मौजूद देखना चाहती थीं पर कथित तौर पर उसकी इजाज़त नहीं मिली।उन्होंने अकेले ही सारे सवालों का सामना किया।दीपिका जानती थीं कि अवसाद क्या होता है ।वे उसके अनुभव से पहले गुज़र चुकी थीं ।रिया और उनका परिवार भी अब जान गया है।ये लोग सब समाज के सामान्य नागरिक हैं ,अपनी सिनेमाई सम्पन्नता के बावजूद। पर समान परिस्थितियों में एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता (और अब पत्रकार भी !) की प्रतिक्रिया अलग हो सकती है।वे ऐसी पीड़ाओं को भी एक बड़े अवसर और चुनौती में परिवर्तित करने की क्षमता रखते हैं।अतः एक फ़ौजी परिवार से सम्बंध रखने वाले अर्नब की अपने ‘विरोधियों’ का प्रतिकार करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।ख़ासकर ऐसी परिस्थिति में जब कि केंद्र का सत्ता प्रतिष्ठान समस्त स्वस्थ परम्पराओं और मर्यादाओं को धता बताते हुए अपने पूरे समर्थन के साथ अर्नब के पीछे नहीं बल्कि साथ में खड़ा हो गया हो !
वे तमाम लोग जो अर्नब को एक आपराधिक पर ग़ैर-पत्रकारिक प्रकरण में हिरासत में भेजे जाने पर संतोष ज़ाहिर कर रहे हैं उन्हें शायद दूर का दृश्य अभी दिखाई नहीं पड़ रहा है ।उन्हें उस दृश्य को लेकर भय और चिंता व्यक्त करना चाहिए।वह इसलिए कि अर्नब की हिरासत का अध्याय प्रारम्भ होने के पहले तक देश के मीडिया और राजनीतिक संसार को पता नहीं था कि उनके(अर्नब के) समर्थकों की संख्या उनके अनुमानों से इतनी अधिक भी हो सकती है और कोई भी सरकार इतने सारे लोगों के लिए तो हिरासत का इंतज़ाम कभी नहीं कर पाएगी (क्या किसी को कल्पना भी रही होगी कि अमेरिका में इतना सब हो जाने के बाद भी ट्रम्प को इतने वोट और समर्थक मिल जाएँगे ?)।
दूसरे यह कि इस सवाल के जवाब की तलाश अर्नब के हिरासत से बाहर आने के बाद ही प्रारम्भ हो सकेगी कि समूचे घटनाक्रम को लेकर महाराष्ट्र सरकार और वहाँ की पुलिस को राज्य की जनता का पूर्ण समर्थन प्राप्त है या नहीं ! अर्नब के पक्ष में पत्रकारों के जो छोटे-बड़े समूह सड़कों पर उतर कर मुंबई पुलिस की कार्रवाई को प्रेस की आज़ादी पर हमला बता रहे हैं वे अगर उस समय चुप थे जब रिपब्लिक और अन्य तमाम चैनल रिया की गिरफ़्तारी की चिल्ला-चिल्लाकर मांग कर रहे थे तो उसके पीछे के कारण को भी अब समझा जा सकता है।क्या ऐसा मानने के पर्याप्त कारण नहीं बन गए हैं कि आने वाले समय में सरकारें अपने आनुशांगिक संगठनों में एक समानांतर मीडिया के गठन को सार्वजनिक रूप से भी खड़ा करने पर विचार प्रारम्भ कर दे ? छद्म रूप में सक्रिय ऐसी प्रतिबद्धताओं का उल्लेख अर्नब कांड के बाद ज़रूरी नहीं रह गया है।
केवल एक व्यक्ति और उसके मीडिया प्रतिष्ठान के पक्ष में एक सौ पैंतीस करोड़ के देश के गृह मंत्री और प्रसारण मंत्री द्वारा सार्वजनिक तौर पर सहानुभूति व्यक्त करना क्या उस मीडिया की आज़ादी के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा नहीं माना जाना चाहिए जो अर्नब के साथ नहीं खड़ा है ? अर्नब एपिसोड के बाद मीडिया के निष्पक्ष वर्ग का ख़ौफ़ खाना इसलिए ज़रूरी है कि सरकारों द्वारा उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में अपराधी बनाने के दौरान कोई राजनीतिक दल उनके पक्ष में उस तरह खड़ा नहीं होगा जैसा अपने किसी साधारण कार्यकर्ता (या पत्रकार ) द्वारा संज्ञेय अपराध करने के बाद भी उसे बचाने में जुट जाता है।
मीडिया की आज़ादी को केवल सरकारों से ही ख़तरा रहता है यह अवधारणा आपातकाल के दौरान उस समय ध्वस्त हो गई थी जब दिल्ली में कुलदीप नय्यर सहित कई पत्रकारों को जेलों में भरा जा रहा था, कुछ अन्य सम्पादकों और साहित्यकारों के समूह इंदिरा गांधी के बीस-सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने जुलूस बनाकर एक सफ़दरजंग रोड पहुँच रहे थे।वक्त के साथ केवल उन जत्थों के चेहरे और समर्थन व्यक्त करने के ठिकाने ही बदले हैं।अतः मीडिया को ख़तरा ,सरकारों और उनकी पुलिस से तो है ही अपने भीतर से भी है।अर्नब प्रकरण ने उस ख़तरे की चमड़ी को केवल फिर से उघाड़कर नंगा और सार्वजनिक कर दिया है।अब हमें अर्नब के रिहा होकर उनकी पहली आवाज़ सुनने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।क्या पता हम उसके बाद उनसे और ज़्यादा डरने लगें ! ट्रम्प और अर्नब दोनों ही कभी अपनी गलती और हार मानने वाले लोगों में नहीं हैं और सत्ताओं में दोनों के ही समर्थकों की भी सबको जानकारी है। वाक़ई में आज़ाद मीडिया और उसके पत्रकार कैसे होते हैं जानने के लिए अमेरिकी चुनावों का अध्ययन करना पड़ेगा।
- -श्रवण गर्ग
-पुष्य मित्र
हम जिस विचारधारा के विरोध में हैं, उनसे संबंधित कुछ मित्र आजकल परेशान हैं। उनका दुख है कि भाजपा अपने समर्थकों की कद्र नहीं करती। जो विचारक या पत्रकार उनके पक्ष में लगातार काम करते हैं, उन पर संकट आने पर वह उन्हें मंझधार में छोड़ देती है।
ऐसे मित्र लगातार लिख रहे हैं कि वामपंथ और कांग्रेस अपने समर्थक का ठीक से ख्याल रखती है। उन्हें हर मौके पर सपोर्ट करती है। एक पत्रकार जिन्हें इसी सरकार के कार्यकाल में फिल्म समीक्षा के लिए देश का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुका है वे भी दुखी हैं। उन्होने एक सरकार समर्थक अखबार में लंबा आलेख भी लिखा है।
तात्कालिक वजह यह है कि भाजपा समर्थकों को लगता है अर्नब गोस्वामी के मामले में केन्द्र सरकार को बड़ा स्टैंड लेकर महाराष्ट्र में मार्शल लॉ लागू कर देना चाहिये। महाराष्ट्र सरकार को उठाकर अरब सागर में फेंक देना चाहिये। अर्नब ने चूंकि भाजपा सरकार के लिए खूब बैटिंग की है, ऐसे में भाजपा केवल ट्वीट कर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यह आक्रोश भाजपा, मोदी और हिन्दू ब्रिगेड में टॉप से बॉटम तक नजर आ रहा है।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। मुझे लगता है इसकी वजह यह है कि भाजपा, मोदी और हिन्दुत्ववादियों ने विचारधारा के बारे में एक गलतफहमी पाल ली है। वे सोचते हैं कि विचारधारा का अर्थ सरकार को उसके हर सही गलत काम में सपोर्ट करना और बदले में सरकार से हर तरह की जायज नाजायज मदद हासिल करना है। उनकी एक गलतफहमी यह भी है कि कांग्रेस अपने समर्थकों, खासकर वामपंथियों को इस तरह की मदद करती रहती है। यही मूल वजह उनके दुख की है। सच में ऐसा कुछ नहीं है। जहां तक वामपंथियों का सवाल है, वे कांग्रेस के राज में भी जेल भोगते थे, अभी भी जेल में हैं। अभी इस वक़्त कम से कम आधा दर्जन ऐसे लिबरल विचारक और कार्यकर्ता जेल में हैं, जिनका पूरा जीवन मानवता की सेवा में गुजरा है। वे अर्नब की तरह नफरत और हिंसा को खुलेआम टीवी पर बढ़ावा नहीं देते। वे चुपचाप आदिवासी इलाकों में गांधीवादी तरीके से लोगों की मदद करते हैं। मगर उनकी लम्बी गिरफ्तारी के बावजूद कोई शोर नहीं है। कांग्रेस की तरफ से एक बार भी उनके पक्ष में ढंग की आवाज नहीं उठी।
जिसे आजकल लिबरल विचार कहा जाता है उसका मकसद कहीं से भी सत्ता की मलाई खाना नहीं है। उसका मकसद सिर्फ देश में फैले नफरत और हिंसा के माहौल को खत्म करना है। वे मोदी के खिलाफ इसलिये हैं क्योंकि उनकी राजनीति के मूल में लोगों को धर्म के आधार पर बांटना, उनके बीच नफरत फैला कर सत्ता हासिल करना है और उस सत्ता का इस्तेमाल पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने में करना है। भले गरीबों का नामो-निशान मिट जाये। यह कहीं से मोदी को हटा कर राहुल को लाने की कोशिश नहीं है। अब चुकी विकल्प के तौर पर राहुल हैं तो लोग उन्हें सपोर्ट करने लगते हैं। मूल बात इस हिंसक और जनविरोधी विचार को खत्म करना है।
यहां सत्ता के पीछे विचार नहीं भाग रहा। यहां विचार आगे है, राजनीति उसके पीछे। यही वजह है कि आज राजनीतिक रूप में मजबूत मोदी के सामने सबसे बड़ा विपक्ष यही लिबरल विचार है, जो किसी भी राजनीतिक दल से मजबूत है। इसी ने राजनीतिक रूप से बेलगाम मोदी को नियन्त्रित किया हुआ है, उसकी मनमानी पर ब्रेक लगाया है। उसे हर गलत कदम का जवाब देने पर मजबूर यही विचार कर रहा है। उसे खुलेआम कट्टरपंथी होने से यही रोकता है और उसके जनविरोधी फैसलों पर यही लगाम लगाता है। आज अगर मोदी सरकार अर्नब का बदला महाराष्ट्र सरकार से नहीं ले पा रही तो उसके पीछे भी इसी विचार का डर है। यह विचार किसी राहुल गान्धी या किसी तेजस्वी के पीछे नहीं खड़ा है। बल्कि राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जैसे नेता खुद को मजबूत करने के लिए इस विचार की छत्रछाया में आते हैं।
यह मूल फर्क है। एक तरफ अन्धभक्ति पर आधारित सोच है जो लोगों को बांटने और उनसे नफरत करने में जुटी है। तो दूसरी तरफ देश को जोडऩे और गरीबों को बेहतर जीवन जीने का अधिकार देने वाली सोच है, वहां भक्ति नहीं, व्यक्ति नहीं, विचार प्रमुख है।
जब लोभ-लालच के फेर में या नफरत के वशीभूत होकर आप किसी सत्ता का समर्थन करेंगे तो आपको पछ्ताना ही पड़ेगा। वैसे भी जो लोग गलत राह पर चलते हैं वे अपने साथियों का खुलकर समर्थन नहीं कर पाते। जिस विचार ने आडवाणी को जीते जी हाशिये पर डाल दिया, उससे अर्नब के समर्थन की उम्मीद ही गलत है। वहां यूज ऐण्ड थ्रो की परम्परा है। यह विचार नाथूराम से हत्या करवाती है, मगर इस विचार के शीर्ष पुरुष उसका नाम भी लेने में हिचकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे पाकिस्तान कसाब को अपना मानने में हिचकता है। दूसरे पक्ष में आपको यह गड़बडिय़ां नहीं मिलेगी।
इसलिए अगर आपको सत्ता सुख या कोई सम्मान चाहिये तो जरूर मोदीवादी विचार का समर्थन कीजिये, वरना अगर आपको कुछ और उम्मीदें हैं तो निराशा ही मिलेगी।
-प्रकाश दुबे
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के समर्थक बेबाक सच कहने वाला कह कर वाहवाही करते हैं। अक्ल का इस्तेमाल करने से बचने वाले पप्पू की उनकी छवि विरोधियों ने बहुत पहले से बना रखी है। भले बुरे की परवाह किए बगैर राहुल मन की बात कहने से नहीं रुकते। बिहार में मंदिर निर्माण और घुसैठियों का मुद्दा गरमाने की कोशिश के बीच राहुल सभाओं में कहते फिरे-महागठबंधन की सत्ता आई तो सबसे पहले किशनगंज में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखा खोली जाएगी। कांग्रेस राज में इसके लिए धनराशि का प्रावधान किया गया था। केन्द्र से कांग्रेस सरकार हटी। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोडक़र भाजपा के साथ चले गए। इसलिए वादा सरकारी फाइलों में धरा रह गया। कुछ कांग्रेसी खुश हुए। कुछ घबराए। अलीगढ़ मुस्लिम विवि छात्रसंघ के नेता को टिकट देकर कांग्रेस वैसे भी विवाद में फंसी है। विरोधियों ने जमकर प्रचार किया कि उम्मीदवार तो टुकड़े टुकड़े गिरोह का सरगना है। राहुल ने इन बातों पर माथापच्ची नहीं की। प्रधानमंत्री सहित कई नेताओं को राहुल की घोषणा पर फब्ती कसने का अवसर मिला।
ज्योतिषीजी का नया घर
बिहार के चुनाव में राजनीतिकों से दस कदम अधिक उत्सुकता पत्रकार बिरादरी की है। सबके अपने अपने कारण हैं। अपनी अपनी पसंद नापसंद है। देश के दो चैनलों ने चुनाव दिखाने का प्रचार करते हुए अपने दावे का प्रचार किया। विज्ञापन किया। होर्डिंग लगाए। इस होड़ में इंडिया टीवी के सर्वेसर्वा और चैनलों के एक संगठन के मुखिया पिछड़ गए। उन्हें पीछे छोडऩे वाले चैनल का नाम बिना बताए आप जान गए होंगे। रिपब्लिक टीवी ने अनेक शहरों के अनेक स्थानों पर हार्डिंग लगाए। अर्णब गोस्वामी की बडी सी तस्वीर के साथ भोजपुरी में लिखा था-केकर होईल बिहार (बिहार किसका होगा?) भारत में गणतंत्र की शुरुआत बिहार से हुई थी। बिहार में ही पता लगा कि दुनिया के एक गणतांत्रिक को अमेरिका में सरकारी मकान से बेदखल कर दिया। गणतंत्र के भारतीय टीवी प्रवक्ता की महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी आवास में रहने की व्यवस्था कर दी। बिहार का भविष्य कौन बाँचे?
लक्ष्मी का आवागमन
संसद की बहस से लेकर चुनाव प्रचार तक नकारात्मक बातें उछलती हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक इसके शिकार होते हैं। यह नहीं सोचते कि दोनों ने सांसारिक जीवन का सुख त्याग कर जनता का संसार सुधारने में जीवन लगा दिया। लोक जन शक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने कई जगह सीता मैया का मंदिर बनाने की घोषणा दोहराई। अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर का उल्लेख प्रधानमंत्री, योगी आदि नेता करते रहे। उ प्र के मुख्यमंत्री ने राम जन्मभूमि को सीता मैया की जन्मभूमि से जोडऩे के काम की प्रगति की जानकारी दी। योगी ने बताया कि काम पूरा होने पर अयोध्या से सीतामढ़ी, जनकपुर छह घंटे के अंदर पहुंचना संभव होगा। भविष्यवाणी से आये दिन सडक़ मार्ग से यात्रा करने वालों के चेहरे खिले। द्वापर युग में जानकी मायके से गाजे-बाजे के साथ अयोध्या पहुंचीं। दशहरे पर रावण को मार कर लक्ष्मी पूजन के दिन राजधानी में दीपोत्सव समारोह मनाया। लंका से वापसी के बाद राजाज्ञा के कारण लक्ष्मण जी रथ से ले जाकर भाभी को वन में छोड़ आये थे। वह वाल्मीकि आश्रम बिहार में है। वाल्मीकि नगर में लोकसभा का उपचुनाव है। सकारात्मक सोच के अवसर सर पर हैं-महामारी से मुक्ति, माँ जानकी का मंदिर, लक्ष्मी पूजन आदि आदि।
पटाखेबाज नेता
कोरोना के बहाने पटाखे फोडऩे से मनाही पर कई लोगों के चेहरे उतर गए। बनाने और बेचने वलों के तो बिना प्रदूषण आंखों से आंसू बहने लगे। महामारी से लेकर चुनाव हलचल के बीच किसी ने ध्यान नहीं दिया। एक ही बड़े दिल वाला है। दिल्ली में रहने वाले इस दिलवाले का नाम है-विजय गोयल। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार मे राज्य मंत्री रह चुके गोयल इन दिनो उपेक्षित हैं। गोयल ने दिल्ली सरकार से पटाखे वालों की नुक़सान भरपाई करने की माँग की पुराने लोकसभा क्षेत्र चाँदनी चौक के पटाखे वालों से मिलने के बाद गोयल ने चेतावनी दी-केजरीवाल सरकार मांग पूरी करे अन्यथा धरना दूंगा। पटाखे की पहली लड़ी की आवाज हुई। भाजपा शासित राज्यों में उल्टी प्रतिक्रिया है। पटाखा धमाके बाज है या फुस्स होकर रह जायेगा?
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-विनोद वर्मा
अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति और दूसरी बार चुने जाने के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की हार एक राहत भरी ख़बर है। अमरीकी राष्ट्रपति को दुनिया का सबसे ताक़तवर व्यक्ति माना जाता है। लेकिन कितना दुर्भाग्यपूर्ण और डरावना था कि वही राष्ट्रपति दुनिया की सबसे बड़ी विभाजनकारी ताकत में तब्दील हो गया था। ट्रंप ने न केवल अमरीका में विभाजन की उध्र्वाधर रेखा खींची बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में ऐसी ही विभाजनकारी ताकतें उन्हें आदर्श के रूप में देखने लगीं। एकाएक दुनिया उन्मादी दिखने लगी।
ट्रंप दुनिया के सबसे अधिक झूठ बोलने वाले राजनेता के रूप में देखे गए। हालांकि झूठ बोलने के मामले में उनको चुनौती देने के लिए कई राजनेता कतार में हैं। भारतीय इस तथ्य को ठीक तरह से समझ सकते हैं।
ट्रंप की विदाई के बाद दुनिया के अलग अलग हिस्सों में बहुत कुछ बदलेगा। इसकी शुरुआत इजऱाइल से होने के संकेत मिल रहे हैं। कहा जा रहा है कि ट्रंप के गहरे दोस्त नेतन्याहू पर पद छोडऩे के लिए दबाव बनना शुरु हो गया है। रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के अगले साल रिटायर होने की ख़बरें पिछले दो दिनों में ही आई हैं। हालांकि इसका खंडन भी आ गया है। और इसे अमरीकी घटनाक्रम से जोडक़र न देखे जाने की? सलाह भी है।
कहा जा रहा है कि अगली ख़बर ब्राज़ील के जैर बॉल्सोनारो, फिलीपीन्स के ड्यूतेर्ते और तुर्की के आर्दोगान के बारे में आनी चाहिए।
आश्चर्यजनक नहीं था? कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी डोनाल्ड ट्रंप से? अभिभूत दिखे। इतने प्रभावित कि कभी गुटनिरपेक्ष देशों की? अगुवाई करते? रहे भारत के प्रधानमंत्री उनका चुनाव प्रचार कर आए। वे वहां भी ‘अबकी बार? ट्रंप सरकार’ का नारा लगा आए। हालांकि यह प्रेम एकतरफा ही अधिक था। जब ज़रूरत पड़ी तो ट्रंप हाइड्रोक्लोरोक्विन दवा के लिए मोदी सरकार को धमकाने से नहीं चूके और न भारत को ‘फि़ल्दी’ कहने में उन्हें कोई झिझक हुई। आने वाले दिनों में अमरीका का नया प्रशासन भारत और भारत के ट्रंप समर्थक प्रधानमंत्री का नए सिरे से आंकलन करेगा। हो सकता है कि भारतीय कूटनयिकों को खासी मशक्कत करनी पड़े और कश्मीर से लेकर चीन तक बहुत से विषयों पर सफाई देनी पड़े।
चाहे जो हो, दुनिया का एक बड़ा हिस्सा ट्रंप की हार को अराजकता, झूठ, दंभ और विभाजन की राजनीति पर लगे विराम की तरह देखेगा। उन्हें यह स्वाभाविक डर था कि ट्रंप की जीत शेष दुनिया के समान विचारधारा वाले राजनीतिकों को एक तरह की वैधता दे देता और वे अपने अपने देशों में और अधिक निरंकुश हो जाते।
ट्रंप की हार निरंकुशता और अराजकता के हिमायती ताकतों को हतोत्साहित करेगी, यह तो तय है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल मैंने लिखा था कि डोनाल्ड ट्रंप- जैसे आदमी को साढ़े चौदह करोड़ वोटों में से लगभग सात करोड़ वोट कैसे मिल गए। अब पता चल रहा है कि जोसेफ बाइडन को ट्रंप के मुकाबले अभी तक सिर्फ पचास-साठ लाख वोट ही ज्यादा मिले हैं। बाइडन की जीत पर अमेरिका और भारत की जनता तो खुश है ही, दुनिया के ज्यादातर देश भी खुश होंगे।
सबसे ज्यादा खुश चीन होगा, क्योंकि पहले तो ट्रंप ने अमेरिका के व्यापारिक शोषण के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया और फिर उसे सारी दुनिया में कोविड-19 या कोरोना फैलाने के लिए बदनाम कर दिया। कोरोना के प्रति लापरवाही दिखाने वाले ट्रंप खुद कोरोना की चपेट में आ गये। दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थ-व्यवस्था लंगड़ाने लगी। लगभग 2 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए।
बेरोजगारों को पटाने के लिए ट्रंप ने बहुत-सा द्राविड़-प्राणायाम किया लेकिन वह भी उनको जिता नहीं पाया। अब बाइडन के कंधों पर यह बोझ आन पड़ा है कि वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जान फूंकें। उन्होंने अभी से इस दिशा में काम शुरु कर दिया है। उनकी सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि चुनाव-नतीजों के आने पर न तो उन्होंने ट्रंप के खिलाफ एक भी शब्द बोला और न ही चुनाव-प्रक्रिया के खिलाफ। उन्होंने अपनी गरिमा बनाए रखी लेकिन ट्रंप का घमंडीपन देखिए कि उन्होंने अपने बयानों से संपूर्ण अमरीकी लोकतंत्र को ही कलंकित कर दिया।
उनकी अनर्गल प्रलाप करने की आदत को किस-किसने नहीं भुगता है ? उन्होंने उत्तर कोरिया के किम, चीन के शिन ची फिंग, भारत के नरेंद्र मोदी, नाटो देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों— किसी को भी नहीं बख्शा। अमेरिकी राजनीति के इतिहास में उनका नाम सबसे घटिया राष्ट्रपतियों में लिखा जाएगा। जब वे नए-नए राष्ट्रपति बने तो उन पर बलात्कार और व्यभिचार के कितने आरोप लगे।
उनके मंत्रियों, साथियों और अधिकारियों ने उनसे तंग आकर जितने इस्तीफे दिए, शायद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के काल में इतने इस्तीफे नहीं हुए। लेकिन अमेरिका भी अजीब देश है, जिसने ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बना दिया और चार साल तक उसे अपनी छाती पर सवार रखा। अमेरिकी जनता हिलैरी क्लिंटन की हार की भरपाई तभी करेगी, जब वह 2024 में कमला हैरिस को राष्ट्रपति बनाएगी। मुझे विश्वास है कि बाइडन और कमला मिलकर अगले चार वर्षों में अमेरिकी लोकतंत्र की खोई प्रतिष्ठा का पुनरोद्धार करेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रदीप कुमार
बिहार चुनाव का नतीजा चाहे जो भी निकले, चाहे एनडीए की सरकार बने या महागठबंधन की, दोनों ही सूरत में उसे हरियाणा कनेक्शन प्रभावित कर रहा है. चौंकिए नहीं, ये बिहार चुनाव का वो सच है जिसका असर चुनाव के दौरान पार्टियों की रणनीति पर देखा गया.
पहले बात करते हैं महागठबंधन की. अगर बिहार में महागठबंधन की सरकार बनती है तो इसमें जिन दो लोगों की अहम भूमिका होगी वो दोनों हरियाणा के हैं. इनमें एक ने पर्दे के पीछे अहम भूमिका अदा की तो दूसरे ने पर्दे के सामने आकर ज़िम्मेदारियों को बख़ूबी सँभाला है.
बिहार में महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तेजस्वी यादव. उनके राजनीतिक सलाहकार और निजी सचिव संजय यादव हरियाणा के हैं. 37 साल के संजय बीते एक दशक से तेजस्वी यादव से जुड़े हुए हैं. दोनों की मुलाक़ात दिल्ली में कॉमन दोस्तों के ज़रिए 2010 में हुई थी और तब तेजस्वी यादव आईपीएल में अपना करियर तलाश रहे थे.
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तेजस्वी के सलाहकार संजय
उस वक़्त भोपाल यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में एमएससी और इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, दिल्ली से एमबीए करने के बाद तीन मल्टीनेशनल आईटी कंपनियों में नौकरियाँ बदल चुके थे.
अगले दो साल तक दोनों एक दूसरे से समय-समय पर मिलते रहे और सामाजिक न्याय की राजनीति को लेकर संजय की समझ ने उन्हें तेजस्वी के क़रीब कर दिया. फिर 2012 में तेजस्वी यादव ने क्रिकेट छोड़कर पूरी तरह से राजनीति पर फ़ोकस करने का निश्चय किया तो उन्होंने संजय यादव को नौकरी छोड़कर साथ काम करने को कहा.
हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िले के नांगल सिरोही गाँव के संजय यादव इसके बाद अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर 10 सर्कुलर रोड, पहुँच गए. बीते आठ साल से उन्होंने न केवल तेजस्वी यादव के हर क़दम की रूपरेखा तैयार की बल्कि सीमित संसाधनों के बाद भी राष्ट्रीय जनता दल को लेकर ऑनलाइन और ऑफ़ लाइन प्रचार व्यवस्था का ज़िम्मा भी सँभाला है.
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2012 के बाद संजय ने बिहार की हर विधानसभा सीट का डेमोग्राफिक अध्ययन किया और किस विधानसभा में कौन सा फैक्टर अहम होगा, इसको समझा. 2015 में पार्टी विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी. नीतीश कुमार की सरकार में तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री बने.
हालाँकि तब प्रशांत किशोर के योगदान की चर्चा ज़्यादा हुई थी लेकिन तब भी प्रशांत किशोर ने ज़्यादा काम नीतीश कुमार को लेकर किया था और संजय ने आरजेडी के लिए किया था. लेकिन संजय यादव की सारी समझ 2019 के आम चुनाव में नाकाम हो गई. पार्टी का खाता नहीं खुल पाया.
और तो और इस बार के चुनाव अभियान में आरजेडी के पास लालू प्रसाद यादव नहीं थे लेकिन रणनीति के स्तर पर पार्टी को उनकी कोई कमी नहीं खली. संजय यादव उस टीम में सबसे मुखर थे जो तेजस्वी के पोस्टर के साथ चुनाव में उतरने की वकालत कर रहा था. ये भरोसा सही साबित होता लग रहा है.
इस दौरान वे न केवल तेजस्वी यादव की चुनावी सभाओं को मैनेज कर रहे थे बल्कि अलग अलग सभाओं में तेजस्वी को क्या बोलना चाहिए, इसकी रूपरेखा भी बना रहे थे.
तेजस्वी यादव हर दिन 17-18 सभाओं को संबोधित कर रहे थे और उसका कंटेंट मुहैया कराने के साथ-साथ तेजस्वी की बात पूरे बिहार तक पहुँचे, इसकी कोशिश भी लगातार हुई.
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इन सबके बीच अगले दिन की सभाओं की तैयारी और क्षेत्र से आ रही सभाओं की माँग पर ध्यान देने के अलावा हेलीकॉप्टर लैंड करने का अनुमति पत्र मिले, विपक्षी नेताओं ने क्या निशाना साधा है, पार्टी के कौन-से वरिष्ठ नेता किस बात पर नाराज़ हो गए हैं, किस उम्मीदवार के प्रति स्थानीय लोगों में रोष है, संजय सबको सुनते समझते रहे. इसी बीच दिल्ली से आए पत्रकारों के अनुरोध को भी सँभालते रहे.
इन सबके बीच संजय से नाराज़गी ज़ाहिर करने वाले पार्टी के नेता, पदाधिकारी भी हैं. कई इलाक़े के हेवीवेट नेताओं को लगता है कि उनकी बात अनसुनी की जा रही है लेकिन संजय इन सब स्थानीय फ़ैक्टरों से बचे रहते हैं क्योंकि वे ख़ुद बिहार नहीं हैं, लिहाजा कोई उनके लिए अपने इलाक़े का या अपने क्षेत्र का नहीं है.
ऐसे में, अगर तेजस्वी मुख्यमंत्री बनते हैं तो संजय यादव की भूमिका को नज़रअंदाज नहीं किया जाएगा और सरकार में उनकी भूमिका, पद के साथ या बिना किसी पद के, किस रूप में होगी ये देखने वाली बात होगी.
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सुरजेवाला की भूमिका अहम
महागठबंधन में शामिल कांग्रेस इस बार बिहार में 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव मैदान में उतरी है. तमाम एक्ज़िट पोल में कांग्रेस को क़रीब 30 सीटें मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है.
बिहार चुनाव में कांग्रेस की कमान 53 साल के हरियाणा के नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला के हाथों में थी. ख़ुद सुरजेवाला ने कांग्रेस की ओर से सबसे ज़्यादा 27 चुनावी सभाओं को संबोधित किया और राहुल गांधी सहित तमाम दूसरे कांग्रेसी नेताओं के चुनाव प्रचार के साथ-साथ मीडिया का प्रबंधन भी सँभाला.
यही वजह है कि नतीजा आने से ठीक पहले कांग्रेस की ओर से एक बार फिर रणदीप सिंह सुरेजवाला को पटना में तैनात किया गया है. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिलने की सूरत में कांग्रेस को अपने विधायकों को एकजुट रखना होगा, और इसकी ज़िम्मेदारी सुरेजवाला को सौंपी गई है.
कांग्रेस महासचिव सुरेजवाला हरियाणा के कैथल से कई बार विधायक रहे और हरियाणा सरकार के सबसे कम उम्र में मंत्री तक बने. मृदुभाषी सुरजेवाला को राहुल गाँधी का बेहद ख़ास माना जाता है और वे पार्टी के कम्युनिकेशन विंग के प्रभारी भी रह चुके हैं.
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बिहार बीजेपी के चाणक्य
आरजेडी और कांग्रेस की ओर से बिहार के सभी समीकरणों को बनाने में हरियाणा कनेक्शन की भूमिका तो आपको समझ में आ गई होगी. लेकिन अगर बिहार चुनाव में एनडीए गठबंधन को बहुमत मिला तो क्या उसका भी कोई हरियाणा कनेक्शन है. तो जबाव है हां. चौंकिए नहीं.
दरअसल बिहार के बीजेपी प्रभारी भूपेंद्र सिंह यादव मूलरूप से हरियाणा के ही हैं, लेकिन यह बात सार्वजनिक तौर पर कम लोगों को ही पता है.
उनका परिवार हरियाणा के गुरुग्राम ज़िले से जुड़ा है जो बाद में राजस्थान शिफ़्ट हो गया और वे राज्यसभा में लगातार दो बार राजस्थान से चुने गए हैं.
भूपेंद्र यादव को चुनावी रणनीति में माहिर मानने वालों की कमी नहीं है. 2013 में राजस्थान, 2017 में गुजरात, 2014 में झारखंड और 2017 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत में उनकी अहम भूमिका रही.
2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने 40 की 40 सीटों पर जीत का दावा किया था, उनके गठबंधन को 39 सीटों पर जीत मिली. लेकिन इस बार वे सीटों को लेकर कोई दावा नहीं करते बल्कि कहते हैं, '15 साल के एंटी इनकम्बेंसी के बाद भी हमारी सरकार की वापसी होगी, बहुमत हमें ही मिलेगा.'
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बिहार की प्रत्येक विधानसभा सीट पर न केवल अपने बल्कि विपक्षी उम्मीदवार और बाग़ी उम्मीदवारों के नाम तक भूपेंद्र यादव के टिप्स पर मौजूद हैं.
इस बार के चुनाव परिणाम को लेकर एक्ज़िट पोल में एनडीए गठबंधन भले ही पिछड़ रहा हो लेकिन भारतीय जनता पार्टी की ताक़त बढ़ती हुई दिख रही है.
बिहार बीजेपी की पहचान पहले स्वर्णों की पार्टी के तौर पर होती रही थी लेकिन भूपेंद्र यादव ने पार्टी में बड़े स्तर पर पिछड़े, अति पिछड़ों को जोड़ा है.
जिसके चलते पार्टी के अंदर एक तबके में नाराज़गी भी है और बहुमत नहीं मिलने पर भूपेंद्र यादव की आलोचना करने वालों की संख्या भी बढ़ सकती है लेकिन वे कहते हैं, 'राजनीति में वोटबैंक की भूमिका ही अहम होती है, हमारी पार्टी सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी है और मुझे इसका जनाधार बढ़ाने की भूमिका मिली है.'
एनडीए के गठबंधन और बीजेपी के सीटों पर टिकट वितरण करने वाली टीम में उनकी भूमिका अहम रही है.
हालाँकि एनडीए से अलग होकर चिराग पासवान के अकेले चुनाव मैदान में उतरने का नुक़सान इस गठबंधन को उठाना पड़ सकता है. लेकिन भूपेंद्र यादव कहते हैं कि नतीजों का इंतज़ार कीजिए. (bbc.com/hindi)
-माजिद जहांगीर
श्रीनगर के नामछाबल इलाक़े में मिर्ज़ा निसार हुसैन (40) के तिमंज़िले घर में घुसते ही सबसे पहले आपकी नज़र दीवारों पर पड़ी दरारों पर जाती है. मानो ये दरारें मिर्ज़ा परिवार की त्रासदी की कहानी बयां कर रही हों.
23 साल पहले चरमपंथियों से जुड़े दो बम विस्फोटों के मामले में निसार समेत इस परिवार के दो बेटों को गिरफ़्तार कर लिया गया था. इसके बाद इस परिवार पर जो गुज़री, वो मानो इन दरार भरी दीवारों पर लिखी दिख रही है.
निसार 16 साल के थे. 1996 का साल था, जब पुलिस ने उन्हें नेपाल से उठा लिया था. उन पर कई भारतीय शहरों में हुए बम विस्फोटों में शामिल होने का आरोप लगाया गया.
इस आरोप में 23 साल जेल में बिताने के बाद आख़िरकार निसार को 22 जुलाई 2019 को राजस्थान हाई कोर्ट ने रिहा कर दिया. उन पर लगाए गए सारे आरोप ख़ारिज कर दिए गए.
श्रीनगर में अपने घर पर बैठे बात करते हुए निसार मानो अचानक 23 साल पुरानी अपनी जिंदगी में चले गए. खोए-खोए से निसार बोले, "यह बड़ी लंबी और त्रासद कहानी है. भाई और मेरी गिरफ़्तारी ने मेरे परिवार का बहुत कुछ छीन लिया."
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मिर्ज़ा निसार हुसैन की गिरफ़्तारी से पहले की फोटो
वो दिन जब सबकुछ बदल गया
निसार बताते हैं, " वो 23 मई, 1996 का दिन था. उस दिन हमारे लिए सबकुछ बदल गया. मैं अपनी कालीनों के ग्राहक से पैसे लेने नेपाल गया हुआ था. हमारे ग्राहक ने पैसे के लिए दो दिन रुकने के लिए कहा था. हम रुक गए.
"अगले दिन मैं अपने साथ काम करने वाले दो लोगों के साथ टेलीफोन बूथ की ओर जा रहा था. महाराजगंज चौराहे पर उस टेलीफोन बूथ तक पहुंचने से पहले ही पुलिस आई और हम लोगों को पकड़ कर ले गई."
निसार आगे बताते हैं, "पुलिस ने एक शख़्स का फोटो दिखाया और पूछा- इसे पहचानते हो? मैंने कहा- हां. अपने पैसे के लिए मैं इस शख्स के पास एक दिन पहले गया था. पुलिस हमें लेकर सीधे दिल्ली की लोधी कॉलोनी पहुंच गई."
उसी दिन निसार और उनके बड़े भाई मिर्ज़ा इफ्तिखार हुसैन को दिल्ली में ही गिरफ्तार कर लिया गया. निसार उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, "जब दिल्ली की पुलिस की पूछताछ वाली अंधेरी कोठरी में मेरा अपने बड़े भाई से आमना-सामना हुआ तो मैंने उन्हें गले लगा लिया. मैंने उनसे पूछा - क्या आपको भी गिरफ़्तार किया गया है?"
निसार के बड़े भाई मिर्ज़ा इफ्तिखार हुसैन को दिल्ली के लाजपत नगर में एक बम विस्फोट कराने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.
श्रीनगर में अपने घर में बैठे इफ्तिखार कहते हैं, "आप सोच भी नहीं सकते कि हम पर क्या गुजरी. दो-दो केस लड़ना आसान नहीं था. हमारा सब कुछ ख़त्म हो गया."
सेना के अफ़सर समेत 4 जवानों की मौत, 3 चरमपंथी मारे गए
'हमें अपने बेटों के शव चाहिए ताकि उन्हें ठीक से दफ़ना तो सकें'
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एक की रिहाई, एक को सज़ा-ए-मौत
साल 1996 में दिल्ली के लाजपत नगर मार्केट के भीड़-भाड़ भरे इलाक़े में एक भीषण बम विस्फोट हुआ. इसमें 13 लोग मारे गए थे और 38 घायल हो गए थे.
निसार और इफ्तिखार पर बम धमाके के लिए विस्फोटक का बंदोबस्त करने का आरोप लगाया गया था.
निसार ने कहा कि पुलिस ने दोनों भाइयों पर चार्जशीट दायर करने में पाँच साल लगा दिए. जेल में 14 साल गुजारने के बाद 2010 में दिल्ली की एक अदालत ने निसार और दो अन्य कश्मीरियों को मौत की सज़ा सुनाई. मिर्ज़ा इफ्तिखार और चार अन्य लोगों को छोड़ दिया गया.
इफ्तिखार कहते हैं, "2010 में हमने मौत की सज़ा के ख़िलाफ़ अपील की. 2012 में दिल्ली हाई कोर्ट ने निसार और मोहम्मद अली (अन्य अभियुक्त) को छोड़ दिया."
निसार बताते हैं कि अदालत में सभी 16 गवाह मुकर गए और कहा कि वे अभियुक्त और इस केस के बारे में कुछ नहीं जानते.
मिर्ज़ा भाइयों का केस लड़ चुकीं नामी वकील कामिनी जायसवाल ने बीबीसी हिंदी को बताया कि उन्हें सबूत के अभाव में छोड़ा गया.
कामिनी जायसवाल ने कहा, "नासिर और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं था. यह बग़ैर किसी सबूत वाला केस था."
इफ्तिखार ने बताया कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एसएआर जिलानी ने उन्हें जायसवाल से मिलवाया था. जिलानी को 2005 में संसद पर हुए चरमपंथी हमले के मामले में सबूत के अभाव में छोड़ दिया गया था.
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एक केस में रिहाई, दूसरी में गिरफ़्तारी
लेकिन, उनकी मुश्किलें ख़त्म नहीं हुई थीं. लाजपत नगर केस में रिहा होने के बाद निसार और अन्य पांच को राजस्थान के समलेटी में 23 मई 1996 को हुए विस्फोट के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया. इस धमाके में 14 लोग मारे गए थे और 37 लोग घायल हो गए थे.
इफ्तिखार कहते हैं, "इस मामले में भी राजस्थान की महुआ सेशन कोर्ट में 14 साल बाद चार्जशीट दाखिल की गई. मुकदमा 2014 तक चला और उस साल अक्टूबर में कोर्ट ने सबको उम्र कैद की सजा सुनाई. सिर्फ़ एक नौजवान फ़ारूक ख़ान को रिहा किया गया."
साल 2014 में राजस्थान हाई कोर्ट में इसके ख़िलाफ़ अपील की गई. यह मुक़दमा वहां जुलाई 2019 तक चला. 23 जुलाई को कोर्ट ने निसार को सारे आरोपों से बरी कर दिया. उन्हें रिहा करते हुए अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष साज़िश का कोई सबूत नहीं दे पाया.
निसार को अखबार से पता चला कि कोर्ट ने राजस्थान धमाके के मामले में उन्हें बरी कर दिया है. निसार ने कहा, "इतने साल जेल में बंद रहने के दौरान हमें सिर्फ एक चीज़ खुशी देती थी और वह थी- हर दिन के अख़बार में छपने वाले चुटकुले."
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नामछाबल में वो मोहल्ला जहां मिर्ज़ा निसार हुसैन रहते हैं.
मिर्ज़ा परिवार के लिए झटके दर झटके
निसार कहते हैं, "हालांकि, इफ्तिखार को 2010 में सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था लेकिन उन पर हमें छुड़ाने की बड़ी ज़िम्मेदारी थी. उन्हें कश्मीर में नौकरी मिली लेकिन केस के सिलसिले में दिल्ली आना पड़ता था इसलिए वो नौकरी भी छूट गई."
आखिरकार, 24 जुलाई 2019 को वह घर पहुंचे. एक सप्ताह बाद, अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया गया और कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया. महीनों तक यहां कर्फ्यू और प्रतिबंध लगा रहा.
इसके बाद मार्च में कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से लॉकडाउन लगा दिया गया. एक ही साल में दो-दो लॉकडाउन की वजह से निसार अपनी ज़िंदगी के बिखरे टुकड़े भी समेट नहीं पाए हैं.
निसार अब आज़ाद हैं लेकिन रिहा होने के बाद अपने आस-पास का जो माहौल देख रहे हैं, उससे वह और ज़्यादा निराश हो गए हैं.
निसार कहते हैं, "शुरू में तो मैं सड़कों पर चल भी नहीं पाता था क्योंकि इतने लंबे वक़्त तक जेल में रहते हुए मैं सड़क पर चलना ही भूल गया था. जब भी कोई मोटर साइकिल सामने आती तो मैं भाग कर दूर खड़ा हो जाता था. मुझे लगता था कि मोटरसाइकिल मुझे रौंद देगी.
"जब भी मैं यह सोचता हूं कि मेरी मां और परिवार के दूसरे लोगों ने मेरी ग़ैर मौजूदगी में कैसे 23 साल काटे होंगे तो मैं सिहर उठता हूं. मैं सो नहीं पाता."
अब निसार की मां चाहती हैं कि बेटा शादी कर ले. लेकिन, बिना नौकरी के गृहस्थी शुरू करना आसान नहीं. निसार सिर्फ आठवीं तक पढ़े हैं. जब उन्हें गिरफ़्तार किया गया था तो उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ कर दिल्ली में अपने भाई के कालीन के व्यापार में हाथ बंटाना शुरू किया था.
निसार श्रीनगर में नामछाबल इलाक़े के जाने-माने कारोबारी परिवार में पैदा हुए थे. उनके पिता कालीन का कारोबार करते थे. उनके भाई का दिल्ली का कालीन कारोबार काफी जमा हुआ था.
मगर अब उन्हें कोई पक्की नौकरी नहीं मिल रही है .
वह कहते हैं, "जेल से रिहा होने के बाद शुरू में सबने खूब सहानुभूति दिखाई. लेकिन, बाद में जो भी मिलता यही पूछता- क्या प्लान है? ये सवाल मुझे परेशान कर देता. ऐसा लगता था कि मैं एक जेल से दूसरी जेल में आ गया हूं. (bbc.com/hindi)
- मृणाल पाण्डे
दीपावली पर हम वैभव की देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं। लक्ष्मी से जुड़ी कथा मुख्यतः तीन मान्यताओं पर आधारित है- पहली, पृथ्वी और इसके समस्त जीवों की उत्पत्ति एक के बाद एक जल से हुई; दूसरी, पृथ्वी का भार तो वराह ने उठाया लेकिन इसे उर्वर बनाया एक देवी ने; और तीसरी, उसके बाद से हर प्रकार के जीवन का अंकुर गर्भ से ही प्रस्फुटित हुआ- धरती मां की बात हो या फिर इंसानी मां की। इन माताओं की उपेक्षा या उन्हें अप्रसन्न करना हमारे स्वयं के अस्तित्व के लिए विनाशकारी है।
शुभ-सौभाग्य की देवी की प्राचीनतम स्तुति है श्रीसूक्त, यानी श्री अथवा लक्ष्मी की आराधना और इसके अनुसार, सृष्टि के आरंभ में क्षीर सागर में जीवन का आरंभिक स्रोत हिरण्यगर्भ तैर रहा था। इसी से जगत की उत्पत्ति हुई जिसमें जीवन भरा श्री ने। पृथ्वी तब कीचड़ से भरी हुई थी और इसे जीवंत, सुंदर और हरा-भरा बनाया इसी श्री ने।
मातृशक्ति की प्राकृतिक प्रधानता ने गर्भ धारण करने में असमर्थ पुरुषों में ईर्ष्या की भावना को जन्म दिया और इसी के परिणामस्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पुरुष वर्चस्ववाद की संस्थापना हुई। तदुपरांत अत्रि, भृगु और मरीच-जैसे ऋषियों ने गोत्रों के नाम से पुरुष प्रधान सामुदायिक पहचान की स्थापना की और इस प्रकार उन्होंने धर्म को एक पुरुष वर्चस्ववादी झुकाव दिया जबकि इन ऋषियों के स्वयं के नाम उनकी माताओं के नाम पर थे जो तब तक मातृसत्तात्मक व्यवस्था का नेतृत्व किया करती थीं। नई संकल्पना में लक्ष्मी को एक सुंदर महिला के रूप में चित्रित किया जाने लगा जिसे देवता मंत्रों से प्रसन्न किया करते थे और यहां तक कि सिद्धियां प्राप्त करने के लिए उनसे शक्ति की प्रार्थना करते थे: (महा प्रपन्न्युयम इति श्रीयै स्वाहा…)। ‘अथर्ववेद’ (9/5) में न केवल स्वयं के लिए धन-धान्य की वृद्धि, वरन दुश्मन की धन-हानि के लिए बकरी की बलि देने का विधान है।
जल्द ही पुरुष प्रधान व्यवस्था ने यह स्थापित कर दिया कि चंचला धन-देवी का आशीर्वाद अनिवार्य रूप से गुप्त क्रियाओं और निर्मम प्रथाओं से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों और बाद में पुराणों में तो लक्ष्मी के दो रूपों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है- लक्ष्मी और अलक्ष्मीया पापलक्ष्मी। लक्ष्मी का घर में प्रवेश वांछनीय था जबकि अलक्ष्मी को बाहर ही रोक देने की हिदायत थी। इसी कारण उत्तर भारत के गांवों में सास और बहु के घर के बाहर सूप पीटने का रिवाज है। यह इसलिए कि घर में लक्ष्मी और उनके पति विष्णु का वास हो और पापलक्ष्मी घर से बाहर निकल जाए।
कृषि समाज ने लक्ष्मी की मलिन उत्पत्ति और घर को धन-धान्य तथा भंडार गृह को उपज से परिपूर्ण रखने की उनकी विशेषता को ध्यान में रखते हुए रीति-रिवाजों का निर्धारण किया। गोबर से लेकर गो-उत्पादों और ताजे मौसमी उपज तक, चंचला लक्ष्मी को उनकी प्रिय सामग्री पारंपरिक रूप से अर्पित की जाती है। लक्ष्मी को प्रसन्न करने के सभी जतन किए जाते हैं क्योंकि मान्यता है कि वह जल्दी ही रुष्ट होकर घर से पलायन कर जाती हैं। यहां तक कि मुस्लिम शासकों ने भी इस बात का ध्यान रखा कि सोने-चांदी के सिक्कों पर लक्ष्मी के चित्र हों। आखिर चंचला को क्रोधित करके साम्राज्य को बंजर अंधकारमय भविष्य की ओर धकेलने का जोखिम उठाने का क्या फायदा?
गौर करने वाली बात है कि प्रतिद्वंद्वी सरस्वती या दुर्गा की तरह लक्ष्मी की सवारी हंस या बाघ नहीं है। उनकी सवारी उल्लू है जो अंधेरे में देखता है और जरूरत पड़ी तो अपने नुकीले घुमावदार चोंच से वार भी कर सकता है। वाहन के रूप में उल्लू लक्ष्मी की गुप्त ज्ञान संबंधी मान्यताओं को ही स्थापित करता दिखता है। स्मशान में तांत्रिक क्रिया के दौरान उल्लू की तीखी कर्कश आवाज (उलूक ध्वनि) निकाली जाती है। हालांकि महिलाएं पारंपरिक रूप से उल्लू को मित्र मानती हैं और विवाह जैसे शुभ समारोह या फिर किसी सम्मानित अतिथि के आगमन के मौके पर उल्लू की आवाज निकालती हैं।
इस शक्तिशाली देवी के पति के तौर पर ख्याति पाने वाले विष्णु ने किसी आम शक्तिशाली पुरुष के किसी शक्तिशाली महिला से विवाह के उपरांत के आम चलन को चरितार्थ करते हुए लक्ष्मी को पृथ्वी से अलग करते हुए क्षीर सागर में अपने चरणों तक सीमित कर दिया। यह सब करने के लिए विष्णु को पुरुषोत्तम कहा जाने लगा, अर्थात पुरुषों में सर्वोत्तम! लेकिन गलती तो पुरुषोत्तम भी कर सकते हैं।
पुरी के भगवान जगन्नाथ के बारे में एक दिलचस्प कथा है। एक बार उनकी पत्नी महालक्ष्मी की नजर अपनी एक बड़ी भक्त श्रीया चंदलुनी पर पड़ी। वह अछूत थी। पुरुष-निर्मित मनुवादी जाति व्यवस्था से कभी सहमत न होने वाली देवी न केवल उसके घर गईं बल्कि समस्त वर्जनाओं को तोड़ते हुए उन्होंने चंदलुनि के यहां अर्पित प्रसाद को भी ग्रहण किया। यह सुनकर बलभद्र ने अपने छोटे भाई भगवान जगन्नाथ को महालक्ष्मी के गर्भ गृह में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य कर दिया।
तब क्रोधित लक्ष्मी ने सारी धन-संपत्ति और पुजारियों के साथ उस जगह का त्याग कर दिया और अपने लिए एक अलग मंदिर बनवा लिया। लक्ष्मी द्वारा त्याग दिए गए मंदिर में श्रीहीन जगन्नाथ और बलभद्र ने भूख लगने पर स्वयं भोजन पकाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे। फिर वे ब्राह्मण का वेश धरकर भीख मांगने निकले लेकिन किसी ने उन्हें भोजन नहीं दिया। फिर वे भूखे-प्यासे लक्ष्मी के दरवाजे पर पहुंचे जहां उन्हें कहा गया कि यह एक चांडाल का निवास है जहां केवल उन्हें ही भोजन परोसा जा सकता है जो अस्पृश्यता को व्यवहार में न लाने का प्रण करें। भूख-प्यास से त्रस्त बलभद्र और जगन्नाथ ने तत्काल यह प्रतिज्ञा कर ली। आज भी रथ यात्रा के शुरू होने से पहले किसी अछूत से भगवान जगन्नाथ को नारियल अर्पण कराने की परंपरा चली आ रही है। दूसरी ओर इस मौके पर क्षेत्र का राजा एक सफाई कर्मचारी की भूमिका में होता है जो सबसे पहले रथ यात्रा के रास्ते को झाड़ू से साफ करता है और फिर आकर रथ को खींचने में हाथ बंटाता है। इस तरह लक्ष्मी ने अपने ‘पुरुषोत्तम’ और उनके बड़े भाई के आंडबर युक्त पुरुष अहम को तोड़कर परस्पर संबंधों के प्राकृतिक संतुलन को बहाल किया।(navjivan)
-कीर्ति दुबे
"हम लोगों का फ़ैक्ट्री कबाड़े-कबाड़ रह गया, बाल-बच्चा सब भटक रहा है, दिल्ली, पंजाब यूपी-हरियाणा. होटल में काम करता है, प्लेट धोता है, कोई 3 हज़ार देता है, कोई 5 हज़ार देता है. ये फ़ैक्ट्री खुल जाए तो हमारा बच्चा सब नेता लोगों को इतना गेंदा का माला पहना देगा कि उनसे संभलेगा नहीं."
दरभंगा ज़िले के हायाघाट में एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे उपेंद्र यादव अशोक पेपर मिल के सामने अपनी भैंसों को चराते हुए ये बात कहते हैं.
उनके पीछे सफ़ेद गेट पर ताला लगा है जिस पर हरे पेंट से अंग्रेजी में अशोक पेपर मिल लिखा है.
उपेंद्र इस पेपर मिल की कहानियां बताते हुए कहते हैं, "हमारा भी 18 बिगहा ज़मीन दरभंगा महाराज को दे दिया गया ताकि ये फ़ैक्ट्री बैठेगी तो रोज़गार आएगा. आज वो ज़मीन होती तो हमारे पास पैसा होता."
अपनी बेहतरीन पेपर क्वॉलिटी के लिए पहचाने जाने वाली अशोक पेपर मिल नवंबर 2003 से बंद पड़ी है.
पेपर मिल की तरह ही बिहार के चीनी मिल, जूट मिल सहित राज्य की पूरी इंडस्ट्री जिसका एक सुनहरा अतीत था, उसका वर्तमान आज अंधेरे में डूबा हुआ है.
बिहार चुनाव में रोज़गार सबसे बड़ा मुद्दा था, सभी पार्टियों के घोषणापत्रों में एक वादा जो कॉमन था, वह है रोज़गार देने का वादा. लेकिन बिहार में इन पार्टियों की ही सरकारों में राज्य के उद्योग-धंधे तिल-तिल कर ख़त्म हुए.
कहानी अशोक पेपर मिल की
अशोक पेपर मिल की शुरुआत 1958 में दरभंगा महाराज ने की थी, इसके लिए किसानों से ज़मीन मांगी गई और बदले में उन्हें फ़ैक्ट्री लगाने के फ़ायदे बताए गए.
साल 1989 में इस मिल का मालिकाना हक़ बिहार सरकार को मिला लेकिन 1990 तक बिहार सरकार ने चीज़ें अपने हाथ में नहीं लीं.
इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और कोर्ट ने इंडस्ट्रियल पॉलिसी और प्रमोशन विभाग के सचिव से अशोक पेपर मिल का रिवाइवल प्लान कोर्ट में पेश करने को कहा. साल 1996 में कोर्ट में एक ड्राफ्ट पेश किया गया और मिल के निजीकरण की सिफ़ारिश हुई, जिसे कोर्ट ने सहमति दे दी.
साल 1997 में आईडीबीआई बैंक मर्चेंट बैंकर बना और अशोक पेपर मिल का सौदा मुंबई की कंपनी नुवो कैपिटल एंड फ़ाइनैंस लिमिटेड के मालिक धरम गोधा को मिल गया.
इसके बाद भी मिल लगभग 6 महीने ही चल सकी और नवंबर 2003 में इसका ऑपरेशन पूरी तरह से बंद हो गया. लगभग 400 एकड़ में फैली इस फ़ैक्ट्री में आज जंगल जैसी घास फैली हुई है और ये ज़हरीले सापों का डेरा बनकर रह गया है.
पास के गांव में रहने वाले महावीर यादव कहते हैं, "इतने नेता आए, देखे और चले गए लेकिन कुछ ना हुआ. अब ये मिल बंद ही है. यही हमारा दुर्भाग्य है, कोई नेता ऐसा हो जो कुछ कर सके."
"बिहार का आदमी तो भूखों मर रहा है, दूर देश जा रहा है. नीतीश कुमार ने तो जो किया, हम क्या बताएं. नल-जल में जितना पैसा ख़र्च किया है अगर उतना कारखाने में खर्च होता 50 गो कारखाना खुल जाता."
न्यूज़क्लिक की एक रिपोर्ट कहती है कि जो समझौता गोधा और सरकार के बीच हुआ उसके तहत 504 करोड़ रुपये का निवेश अशोक पेपर मिल में करना था. लेकिन ये हुआ ही नहीं.
38 बिंदुओं वाले इस समझौते के हिसाब से 18 महीने के भीतर मिल को चालू करना था. कर्मचारियों के बकाया वेतन देने थे. इसके अनुसार मिल की संपत्ति को बाहर ले जाना मना था. सिर्फ़ वही मशीनें बाहर लाई जा सकती थीं जिन्हें रिपेयरिंग की ज़रूरत थी.
लेकिन उपेंद्र यादव बताते हैं, "यहां से ट्रक में सारा फ़ैक्ट्री का सामान भर-भर कर जाता रहा. साल 2012 की बात है जब ट्रक में मशीन भर कर ले जाया जा रहा था तो सब कर्मचारी प्रदर्शन करने लगे."
"इतने में मिल के एक गार्ड ने गोली चलाई और गांव का लड़का सुशील शाह जो मिल में मज़दूर था मारा गया. आज तक उसके मां-बाप उसके बकाया पैसे का इंतज़ार कर रहे हैं, कोई आसरा तो नहीं है. इस मिल से हमको अब."
हालांकि बीबीसी इन आरोपों की पुष्टि नहीं करता है.
मीठी चीनी मिलों की कड़वी दास्तां
बिहार चीनी के उत्पादन के लिए जाना जाता था. देश के कुल चीनी उत्पादन का 40 फ़ीसदी हिस्सा बिहार में होता था.
देश की आज़ादी से पहले बिहार में 33 चीनी मिलें हुआ करती थीं लेकिन आज 28 चीनी मिलें हैं इनमें से भी सिर्फ़ 11 मिलें ऐसी हैं जो इस वक्त चालू हालत में हैं. और इनमें से भी 10 मिलों का मालिकाना हक़ प्राइवेट कंपनियों के पास है.
साल 1933 से लेकर 1940 तक बिहार में चीनी मिलों की संख्या बढ़ती गई और उत्पादन भी ख़ूब बढ़ा लेकिन इसके बाद चीनी मिलों की हालत बिगड़ने लगी.
इसके बाद साल 1977 से लेकर 1985 तक बिहार सरकार ने इन चीनी मिलों का अधिग्रहण शुरू किया.
इस दौरान दरभंगा की सकरी चीनी मिल, रयाम मिल, लोहट मिल, पुर्णिया की बनमनखी चीनी मिल, पूर्वी चंपारण और समस्तीपुर की मिलें सरकार के पास आ गईं.
साल 1997-98 के दौर में ये मिलें संभाली नहीं जा सकीं और एक के बाद एक मिलें बंद होने लगीं.
दरभंगा की सकरी मिल बिहार में बंद होने वाली सबसे पहली चीनी मिल मानी जाती है. साल 1977 में जब राज्य की कर्पूरी ठाकुर सरकार ने इस मिल का अधिग्रहण किया था तो लोगों में उम्मीद जगी कि सबकुछ ठीक हो जाएगा.
इस मिल में काम करने वाले अघनू यादव कहते हैं, "1945-1947 में बिहार में 33 मिल थीं आज 10 मिल चल रही हैं वो भी प्राइवेट में चलती हैं. हमारी ज़मीन गन्ना के लिए सबसे उपयुक्त है लेकिन हम गन्ना नहीं उगा सकते. इतनी लड़ाई लड़ी अब तो लगता है, बस पैसा मिल जाए हमारा."
सकरी मिल नौजवानों के लिए बस एक खंडहर भर है, उन्होंने बस इसके क़िस्से अपने बड़े-बुज़ुर्गों से सुने हैं.
विश्वजीत झा को नौकरी नहीं मिली तो वो पिता के साथ किसानी का काम करने लगे.
सकरी को लेकर अपनी याद साझा करते हुए वह कहते हैं, "हमारे बाबा कहते थे कि हमारा गुजर बसर इस मिल से चलता था. नीतीश जी के शासन में जो हमको याद है, वो ये कि इस मिल का शाम में गेट खुलता था और यहां की सारी मशीनें-पुर्जे ट्रकों में लाद कर ले जाई जाती थी."
"आज इस मिल का ताला खुलेगा तो इसमें कुछ भी नहीं मिलेगा. इस मिल का निजीकरण कर दिया गया. सरकार कहती है कि मिल चलाने में घाटा होता है. तो सरकार को ही घाटा है तो आम लोग क्या कर सकेंगे. अगर सरकार सारे संसाधन लेकर चीनी नहीं बनवा सकती तो किसान क्या करेगा."
"लालू जी ने क्या किया? नीतीश जी ने क्या किया? नीतीश जी ने रोड बनवा दिया लेकिन क्या हम रोड पर बैठ कर खाना खाएं? हम तो इस लायक भी नहीं हैं कि अपने बच्चे को ठीक से पढ़ा सकें कि वो कहीं नौकरी पा जाए. लेकिन जब पढ़ेगा नहीं तो यहां तो कोई काम है नहीं तो, बाहर जा कर मज़दूरी ही करेगा."
'सभी कलपुर्ज़े निकाले और बेच दिए'
बात करते हैं साल 2005 की. बिहार स्टेट शुगर डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन के तहत तमाम चीनी मिलों को रिवाइव करने का काम सौंपा गया.
इसके बाद राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी गई जिसमें दरभंगा की रयाम मिल, लोहट मिल और मोतीपुर मिल को छोड़ कर अन्य सभी मिल को कृषि पर आधारित अन्य फ़ैक्ट्री में तब्दील करने का प्रस्ताव पेश किया गया. इस रिपोर्ट में सकरी मिल को डिस्टलरी (शराब कारखाना) बनाने का भी प्रस्ताव दिया गया.
साल 2008 में मिल की नीलामी हुई और इनमें से ज़्यादातर मिलों को प्राइवेट कंपनियों ने ख़रीदा. रयाम और सकरी मिल को श्री तिरहुत इंडस्ट्री ने ख़रीदा है.
लेकिन ये मिल कभी नहीं खुल पाईं. जिन कंपनियों को इन प्लांट में निवेश करके इन्हें चलाना था उन्होंने कभी इसमें निवेश ही नहीं किया.
रामेश्वर झा इस मिल के कर्मचारी रहे हैं. वह कहते हैं, "इन प्राइवेट कंपनियों को ये मिल चलानी ही नहीं थी, उन्होंने इसके सभी कलपुर्ज़े निकाले और बेच दिए."
वो ये भी मानते हैं कि "बिहार में इन प्राइवेट कंपनियों को चीनी मिल नहीं चलानी थी बल्कि इथनॉल का उत्पादन करना था."
मौजूदा वक़्त में लोहट चीनी मिल, जिसके मुनाफ़े से 1933 में सकरी मिल खोली गई थी, वहां अब जंग लगी और खोखली हो चुकी लोहे की मशीनें निवेश के इंतज़ार में बर्बाद हो चुकी हैं.
रयाम मिल का हाल तो और भी बुरा है. वहां अब सिर्फ़ ज़मीन का टुकड़ा बचा हुआ है.
यहां काम करने वाले अपने बक़ाया वेतन का इंतज़ार करते हैं. सकरी मिल बंद हुई 1997 में लेकिन राज्य की नीतीश कुमार सरकार ने यहां के मज़दूरों को 2015 तक का वेतन देने की बात की है. और मुख्यमंत्री के इस आश्वासन में कई लोगों ने उन पैसों का हिसाब अभी ही लगा लिया है जो उन्हें मिलेंगे. लेकिन ये पैसे उन्हें कब मिलेंगे इसका जवाब उनके पास नहीं है.
मधुबनी की लोहट मिल में बतौर गार्ड काम करने वाले मति-उर-रहमान रोज़ चार किलोमीटर साइकिल चलाकर लोहट मिल आते हैं और इस जंगलनुमां कारख़ाने की देख-रेख करते हैं.
वह कहते हैं, "नीतीश कुमार ने कोशिश की थी कि कोई इसको लीज़ पर ले ले लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. अब तो सरकार भी छोड़ दी है और कोई पार्टी भी नहीं आ रही है."
"ये मिल चलता तो गन्ना किसान को फ़ायदा होता और लोगों को काम मिलता लेकिन मिल बंद हो गया तो किसान बिलकुल ख़त्म हो गया. इतने लोग हैं जिनका पैसा बिहार सरकार ने नहीं दिया, कई लोग को वेतन के इंतज़ार में ही रह गए. बीवी बच्चा पैसे के लिए रो रहा है. सरकार पैसा दे नहीं रही है."
बंद जूट मिल खुलवाना क्या चुनावी पैंतरा?
समस्तीपुर के मुक्तापुर में रामेश्वर जूट मिल 6 जून 2017 से बंद थी, लेकिन 13 सितंबर 2020 को राज्य के उद्योग मंत्री महेश्वर हज़ारी जो समस्तीपुर के ही कल्याणपुर से विधायक हैं, उनकी मौजूदगी में मिल दोबारा खुली.
जब हम मिल पर पहुंचे तो ऐसा लगा ही नहीं कि मिल में काम चल रहा है. वहां मौजूद लोगों से बात करने पर हमें पता चला कि मिल तो खुल गई लेकिन मिल खुलने की जो सबसे बड़ी निशानी होती है- हूटर बजना, वो अब तक मिल में नहीं बज रहा है.
फ़ैक्ट्री में बेहद कम संख्या में मज़दूर आ रहे हैं और लगभग 80 फ़ीसदी तक मिल बंद ही पड़ी हुई है. यहां काम करने वाले लोगों का मानना है कि इस मिल को चुनाव में लोगों की नाराज़गी कम करने के इरादे से खोला गया.
यहां सब-स्टाफ़ गार्ड के तौर पर तैनात संजय कुमार सिंह कहते हैं, "उद्योग मंत्री ने हमारे फ़ैक्ट्री मालिक से बात किया, बोला कि फ़ैक्ट्री का सारा बक़ाया दिया जाएगा. फ़ैक्ट्री का हूटर भी बजा. हम लोगों को लगा कि अब तो सब ठीक हो जाएगा, लेकिन आज इतने दिन हो गए. 11 करोड़ 65 लाख का बक़ाया जो बिहार सरकार के पास है वो नहीं मिला."
"मिल खुल गया है लेकिन हूटर नहीं बजता. उद्योग मंत्री ने मालिक से कहा था कि तीन दिन में ही पैसा मिल जाएगा, अब कहते हैं कि चुनाव संहिता लग गया, अभी नहीं मिलेगा."
राजू इस मिल में काम करने वाले मज़दूरों में से एक हैं. वह बताते हैं, "तीन साल का पैसा मिला नहीं है लेकिन मालिक क्या करेगा जो सरकार उसको पैसा नहीं देगी तो. वो तो अपने दम पर चला ही रहा है."
2017 में बंद होने से पहले इस मिल में 5000 लोग काम किया करते थे.
80 एकड़ में फैले इस मिल की शुरुआत 1926 में दरभंगा महाराज ने की थी, 1986 में इसे विन्सम इंडस्ट्रीज़ को बेच दिया गया लेकिन बाद में विन्सम ने इस कंपनी को पश्चिम बंगाल के एक व्यापारी बिनोद झा को बेच दिया.
इस मिल के बंद होने का कारण इसका लगातार आर्थिक संकट में फंसते जाना है.
मिल में साल 2012, 2014 और 2019 में आग लगी जिससे प्लांट का बड़ा नुक़सान हुआ. जूट मिल का बिजली बिल बकाया था और बिहार सरकार पर जूट मिल का 18 करोड़ रुपये बक़ाया था. पैसों के लेन-देन का मामला गहराता गया और ये मामला पटना हाईकोर्ट जा पहुंचा.
आख़िरकार मिल को बिजली बिल का भुगतान करने को कहा गया और सरकार को कंपनी के 18 करोड़ रुपये देने को कहा गया.
अभी भी जूट मिल का 11 करोड़ 65 लाख रुपये बिहार सरकार पर बक़ाया है. जूट मिल के मालिक ने उद्योग मंत्री के वादे पर मिल तो खोल दी लेकिन अब मिल के पास नया कच्चा माल लाने के पैसे नहीं हैं. लिहाज़ा मिल का हूटर बजाकर मिल नहीं खोली जा रही है.
मिल के कर्मचारी हरिया बताते हैं, "ये सब नेता लोग आता है और पागल बना कर जाता है. प्रिंस राज (समस्तीपुर से सांसद) भी आए थे चुनाव से पहले तो मिल का हूटर बजा था, बोले कि जब संसद में जाएंगे तो मिल का मुद्दा रखेंगे. बस उस दिन हूटर बज गया लेकिन एक दिन भी फ़ैक्ट्री नहीं खुला. ये भी (उद्योग मंत्री) यही करने आए हैं."
बिहार के सीमांचल का (कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया और अररिया) इलाक़ा जूट के उत्पादन के लिए जाना जाता है. लेकिन सरकार की ओर से बढ़ावा ना मिलने और किसी भी तरह का निवेश ना होने के कारण यहां का जूट उत्पादन 10 क्विंटल सालाना पर आ चुका है.
कटिहार को 'जूट कैपिटल' तक कहा जाता है. यहां दो मिलें थीं, एक नेशनल जूट मैन्युफ़ैक्चरिंग कॉर्पोरेशन मिल (एनजेएमसी) और दूसरी सनबायो मैन्युफ़ैक्चरिंग लिमिटेड जिसे पुराना मिल भी कहते हैं.
50 एकड़ से ज़्यादा के क्षेत्रफल में फैले एनजेएमसी को साल 2008 में ही बंद कर दिया गया. अब ज़िले में सनबायो मिल ही है. ये मिल काम तो कर रही है लेकिन इसकी हालत भी बुरी है.
जानकार मानते हैं कि बिहार का सीमांचल इलाक़ा देश भर में जूट के उत्पादन का केंद्र हो सकता था लेकिन सरकार ने कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया, अररिया में एक भी नई मिल नहीं लगवाई. जो थीं वो भी इन डेढ़ से दो दशकों में बर्बादी की ओर ही बढ़ीं.
एक वक़्त था जब इन मिलों में 4000 से 5000 लोग काम किया करते थे. आज बस दो सौ से ढाई सौ लोग मिल में काम करते हैं.
सिल्क सिटी भागलपुर को सरकार कितना बचा पाई?
भागलपुर में एक चुनावी रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंच से कहा, "त्योहारों का समय है, इसलिए पर्व पर जो भी ख़रीदारी करें, वह स्थानीय हो, भागलपुरी सिल्क के कपड़े ख़रीदें, साड़ियां ख़रीदें. मंजूषा पेंटिंग को बढ़ावा दें."
भागलपुर ज़िला प्रशासन की वेबसाइट खोलें तो मोटे अक्षरों में 'सिल्क सिटी' चमकता दिख जाएगा लेकिन इस सिल्क को बनाने वालों की क्या हालत है, इसकी चर्चा कहीं नहीं मिलती.
यहां की स्पन सिल्क फ़ैक्ट्री 1993-94 के दौर में ही बंद हो गई और इसके बंद होने का कोई औपचारिक ऐलान नहीं हुआ बल्कि इसमें काम करने वाले कामगारों के वेतन का भुगतान कंपनी नहीं कर सकी और इसका संचालन रोक दिया गया.
17 सालों से ये फ़ैक्ट्री ऐसे ही बंद पड़ी है. इस मिल का मैदान जंगली घासों से भरा पड़ा है और लोग इसे डंपिंग यार्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं.
भागलपुर के पुरैनी गांव में 95 फ़ीसदी लोग बुनकर हैं. अंसारी बाहुल्य इस गांव में लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सिल्क की बुनाई का ही काम करते आए हैं.
यहां रहने वाले 55 साल के सफ़ी अंसारी ख़ुद बुनकर हैं और उनका जवान बेटा भी बुनाई का ही काम करता है.
वह कहते हैं, "हमारा पूरा घर सिल्क का कपड़ा बनाता है और साड़ी बुनता है. मेरे बेटे को मैंने काम सिखाया है लेकिन काम आने से क्या होगा? स्किल इंडिया से नहीं होता, आपने (सरकार) हमको क्या दिया."
सफ़ी पास में पड़े हैंडलूम की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "देखिए वो साड़ी आधे पर बुनकर छोड़ दी गई है क्योंकि तागा (धागा) ख़त्म है और तागा बनाने का पैसा नहीं है."
"हम अपना बुनकर का कार्ड लेकर जाएंगे तो भी हमको साहेब यहां-वहां दौड़ाएंगे. कौन बेटा हमको देखने के बाद बुनकर बनना चाहेगा. बाल सफ़ेद हो गया लेकिन घिसते ही रहे, खाने और बच्चों को पढ़ाने के लिए ही पैसे पूरे नहीं हुए. किससे कहें कि हमसे काम सीख के बुनकर बनो. आप तो पहली बार आईं हैं वरना हमसे बात करने भी कौन आता है."
इस गांव के पिछड़ेपन का आलम ये है कि सरकार की नल-जल योजना तो दूर यहां पूरे गांव में दो से तीन घरों में ही नल है, बाकी सभी घरों में आज भी कुएं का पानी ही पिया जाता है.
आख़िर बीते डेढ़ दशकों में क्यों बिहार के उद्योग धंधों की तस्वीर नहीं बदल सकी. ये समझने के लिए हमने सत्तारुढ़ जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से संपर्क किया लेकिन नेताओं की चुनावी व्यस्तता के कारण हमें वक़्त नहीं मिल सका.
नेताओं के गोल-मोल जवाब
12 अक्टूबर को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक चुनावी रैली में कहा था, "ज़्यादा बड़ा उद्योग कहां लगता है, समुद्र के किनारे जो राज्य पड़ता है वहां लगता है. हम लोगों ने तो बहुत कोशिश की."
हालांकि लोगों ने सीएम के इस बयान की ख़ूब आलोचना की. दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, यूपी जैसे कई राज्य जो लैंडलॉक्ड हैं वहां फैंक्ट्रियों की संख्या बिहार के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा हैं.
हालांकि छह ज़िलों में फैले बिहार के खस्ता औद्योगिक मिलों का हाल जानने के बाद हमने राजनीतिक पार्टियों से ये जानना चाहा कि आख़िरकार डेढ़-दो दशकों में राज्य के तमामा उद्योगों की हालत क्यों सुधारी नहीं जा सकी?
इस सवाल के जवाब में जनता दल यूनाइटेड के नेता संजय सिंह कहते हैं, "हमें 2005 में 1947 की हालत वाला बिहार मिला था. सड़कें, बिजली लोगों के पास नहीं थी हमने 15 साल में बिहार की सूरत बदली है. हमने साढ़े छह लाख लोगों को रोज़गार दिया है."
लेकिन 15 साल में उद्योग को लेकर क्या किया गया मेरे इस सवाल को दोहराने पर वह कहते हैं 'इसका जवाब तो आप उद्योग मंत्री जी से लीजिए.'
सत्ता में जेडीयू की सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के नेता भी इस सवाल का सीधा जवाब नहीं देते.
बिहार बीजेपी के अध्यक्ष संजय जायसवाल भी इस सवाल का सीधा जवाब देने की बजाय कहते हैं कि "उद्योग की हालत 90 के दशक के आख़िर से ही बिगड़नी शुरू हुई. फ़ैक्ट्री के मालिकों से वसूली की जाती थी, उस जंगल राज से लोग इतना डरे की अपने ही फ़ैक्ट्री छोड़ कर भाग गए. नए व्यापारियों ने इस डर से ही प्लांट नहीं लगाया. अगर ये लोग सत्ता में आए तो फिर वही होगा."
इस पूरी बातचीत में उनकी सरकार के प्रयासों का ज़िक्र नहीं मिला लेकिन हमारे बार-बार सवाल दोहराने पर वह कहते हैं, "हमने ख़ूब काम किया है हमारे इलाक़े (बेतिया) में सुगौली और लौरिया चीनी मिल आज काम कर रही हैं."
दरअसल, मोतिहारी की सुगौली और लौरिया चीनी मिल का 2012 में दोबारा संचालन शुरू किया गया.
एचपीसीएल ने इस मिल को चालू किया. लेकिन अप्रैल 2020 को ख़बरें सामने आईं कि लौरिया मिल पर किसानों का 80.36 करोड़ और सुगौली पर किसानों का 58 करोड़ रुपये बक़ाया है. उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मिल मालिक से ये भुगतान करने को कहा था.
इन दो मिलों के सामने बिहार में औद्योगिकरण का स्याह चेहरा चमकता हुआ मानना थोड़ा बेमानी-सा लगता है.
इसके बाद जब हम राज्य के उद्योग मंत्री महेश्वर हज़ारी से मिले तो उन्होंने हमें सबसे पहले ये बताया कि आज वो बाइक पर सवार होकर अपने इलाक़े में निकले थे.
बिहार के उद्योग मंत्री होने के नाते उन्होंने क्या क़दम उठाए? इस सवाल पर वह कहते हैं, "हमको मंत्री पद ही दो महीने पहले मिला है."
लेकिन जूट मिल को लेकर वह अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं, "देखिए बक़ाया तो मिल के मालिक का बिजली बिल है. हां, बिहार सरकार पर देनदारी है लेकिन पहले उन्हें सूद के साथ चाहिए था, फिर बोले मूलधन ही दे दीजिए. हमने मिल खुलवा दी है लेकिन अब आचार संहिता लग गई तो क्या करें. लेकिन चुनाव नतीजे आते ही पैसा दे दिया जाएगा."
बिहार में बंद पड़ी मिलों पर वह कहते हैं अगर वो जीत कर सत्ता में आए तो इस बार उद्योगों का विकास होगा.
हालांकि नेता जी का ये बयान बिहार की जनता दशकों से सुन रही है, क्योंकि बिहार की इंडस्ट्री की ये बदहाली किसी एक पार्टी की सरकार की देन नहीं है, ऐसा लगता है कि इसे तमाम सरकारों ने कभी मुद्दा माना ही नहीं. लेकिन अब इन पार्टियों के लिए रोजग़ार मुद्दा है लेकिन जिन फ़ैक्ट्रियों से रोज़गार मिल रहा था वो किसी की ज़ुबां पर नहीं हैं.(https://www.bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव-परिणाम की घोषणा में चाहे देरी हो रही है लेकिन यह सवाल सबके दिमाग पर भारी पड़ रहा है कि आखिर डोनाल्ड ट्रंप को इतने ज्यादा वोट क्यों मिले हैं ? लगभग सारे चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण गलत साबित क्यों हो रहे हैं? अमेरिका और उसके बाहर भी यह माना जा रहा था कि बड़बोले ट्रंप इस बार जबर्दस्त पटकनी खाएंगे। उन्हें आम मतदाताओं के वोट पिछले चुनाव की भांति (30 लाख) इस बार भी कम मिलेंगे बल्कि बहुत कम मिलेंगे लेकिन अभी तक जो भी आंकड़े सामने आए हैं, उनसे पता चल रहा है कि 2016 के मुकाबले उनके वोटों की संख्या बढ़ी है और सीनेट (राज्यसभा) के चुनाव में भी उनके उम्मीदवार जीत गए हैं। कांग्रेस (लोकसभा) में हालांकि डेमोक्रेट की संख्या बढ़ी है लेकिन कुल मिलाकर यदि ट्रंप हार भी गए तो भी अमेरिकी राजनीति में उनका दबदबा बना रह सकता है। रिपब्लिकन पार्टी में वे शायद किसी अन्य नेता को आगे आने नहीं देंगे। यहां सवाल सिर्फ रिपब्लिकन पार्टी का नहीं है बल्कि उन करोड़ों अमेरिकी नागरिकों का है, जिन्होंने ट्रंप-जैसे आदमी को अपना अमूल्य वोट दिया है। जिन्होंने ट्रंप को वोट दिया है, वे लोग कौन हैं ? जाहिर है कि वे रिपब्लिकन पार्टी के लोग तो हैं ही, उनके अलावा वे लोग भी हैं, जो रंगभेद में विश्वास करते हैं, जो गौरांग लोग अपने आप को असली अमेरिकी समझते हैं, जो अमेरिका को संसार के सबसे बड़े दादा के रुप में देखना चाहते हैं याने जो उग्र राष्ट्रवादी हैं, जो लोग तू-तड़ाक शैली में बोलनेवाले नेता को पसंद करते हैं, जो अमेरिका के नवांगतुकों को अपनी बेरोजगारी का कारण समझते हैं, जो चीन-जैसे देशों पर मुक्का तानने को राष्ट्रीय गौरव का विषय मानते हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन, नाटो और यूएन जैसी संस्थाओं को अमेरिका का शोषण करनेवाली संस्थाएं समझते हैं और जो बेलगाम और अक्खड़ आदमी को ही नेता मानते हैं। ऐसे ही लोगों ने ट्रंप को इतने ज्यादा वोट दिलवा दिए हैं। इसका अर्थ क्या निकला? इसका सबसे पहला अर्थ यही है कि आज की अमेरिका की जनता में उचित-अनुचित का विवेक करने की बौद्धिक क्षमता बहुत कम है। दूसरा, यदि जो बाइडन जीत गए तो भी ट्रंप उन्हें तंग करने में कोई कसर उठा न रखेंगे। तीसरा, चुनाव के बाद जिस तरह की तोड़-फोड़ और हिंसा की खबरें आ रही हैं, वे बताती हैं कि इस वक्त अमेरिका दो खेमों में बंट गया है। चौथा, ट्रंप की धमकियों और आरोपों ने अमेरिकी लोकतंत्र पर धब्बे मढ़ दिए हैं। पांचवां, यदि हारने के बावजूद ट्रंप कुर्सी नहीं छोड़ते हैं और अदालतों के दरवाजे खटखटाते हैं तो अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास में वे एक काला पन्ना जोड़ देंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रदीप कुमार
बिहार की राजनीति में एक कहावत की चर्चा लोग अक्सर किया करते हैं- 'एक कटोरी, तीन गिलास, शरद, लालू, रामविलास.'
1974 के जेपी आंदोलन के बाद से बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई में वैसे तो कई नेताओं का योगदान रहा, पर इन तीनों के योगदान की अक्सर चर्चा होती है.
लेकिन इस बार के बिहार चुनाव में ये तीनों नेता मौजूद नहीं थे. 1990 के बाद बिहार की राजनीति में यह पहला मौक़ा था, जब लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और शरद यादव के बिना ना केवल चुनावी सभाएँ हुईं, बल्कि चुनाव भी हुए.
दिलचस्प यह भी रहा कि इन तीनों नेताओं की ज़िम्मेदारियों को काफ़ी हद तक इनके बच्चों ने सँभाल लिया.
सबसे पहले बात लालू प्रसाद यादव की. लालू प्रसाद यादव इन दिनों झारखंड के राँची में चारा घोटाले के मामलों में जेल में हैं.
साल 2015 के चुनाव के दौरान भी उन्हें सज़ा मिल चुकी थी, लेकिन तब वो ज़मानत पर थे और उन्होंने महागठबंधन को बनाने में अहम भूमिका अदा की थी, लेकिन इस बार उन्हें ज़मानत नहीं मिली और पूरे चुनाव के दौरान उनकी भूमिका जेल में रहकर चुनाव देखने वाले दर्शक की ज़्यादा रही.
तेजस्वी यादव का कितना तेज फैला?
वहीं दूसरी ओर उनके बेटे तेजस्वी यादव ने पिता की ग़ैर-मौजूदगी में पूरा चुनाव प्रचार अभियान ख़ुद पर फ़ोकस किया.
उन्होंने रणनीतिक तौर पर राष्ट्रीय जनता दल के पोस्टरों से लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी की तस्वीरों की जगह नहीं दी और केवल ख़ुद को रखा.
इस बारे में राज्य के वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर बताते हैं, "देखिए बिहार में काफ़ी ऐसे लोग हैं जो लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के प्रति बैर भाव रखते हैं. तेजस्वी ने एक झटके में यह मुद्दा ही ख़त्म कर दिया. इसका उन्हें काफ़ी लाभ मिला."
हालाँकि, दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी लगातार अपने चुनावी अभियान के दौरान लालू-राबड़ी के 15 साल के दौर की याद दिलाते रहे.
नरेंद्र मोदी ने तेजस्वी यादव को 'जंगलराज का युवराज' कहा, तो नीतीश कुमार ने कहीं ज़्यादा व्यक्तिगत हमले करते हुए कह दिया, "अपने बाप से पूछो और जो लोग आठ-आठ, नौ-नौ बच्चे पैदा करते रहे, वे विकास की बात कर रहे हैं." सुशील मोदी ने भी लालू प्रसाद यादव के दौर को भ्रष्टाचार से जोड़ते हुए हर दिन मुद्दा बनाया.
जदयू ने पहले चरण के मतदान के बाद फुलवरिया टू होटवार, करके एक वेबसाइट ही बना दी. इस वेबसाइट पर लालू-राबड़ी शासन के दौरान हुए अपराध और भ्रष्टाचारों की जानकारी के साथ-साथ उस दौर के अख़बारों की क्लिपिंग भी लगाई गई.
लेकिन तेजस्वी यादव ने बिहार के आम चुनावों में इसे बड़ा मुद्दा नहीं बनने दिया. महज़ 31 साल की उम्र में वे राजनीतिक तौर पर इतने सध चुके हैं कि जंगलराज की याद दिलाने पर वे डिफ़ेंसिव हुए बिना कहते हैं, "इस सरकार ने अपने 15 साल में क्या-क्या किया है, जनता ये पूछना चाहती है."
इसके बाद वे इस मुद्दे को उपमुख्यमंत्री के तौर पर अपने 18 महीने के कार्यकाल की याद दिलाते हुए कहते हैं, "नए वाले महात्मा गांधी सेतु से लेकर छह-छह पीपा पुल बनाने का काम मैंने किया, उसमें क्या भ्रष्टाचार किया, ये बताइए."
इसके बाद तेजस्वी यादव, एनसीआरबी के आँकड़ों के हवाले से बताते हैं कि 'नीतीश कुमार के 15 साल के शासन में अपराध का ग्राफ़ बढ़ा है, लेकिन इस पर चर्चा नहीं होती है.'
राष्ट्रीय जनता दल की ओर से राज्य सभा सांसद मनोज झा कहते हैं, "मुज़फ़्फ़रपुर में बालिका गृह काण्ड में जो हुआ उसकी कल्पना क्या उस दौर में की जा सकती थी जिसे कथित तौर पर जंगलराज कहा जाता था, आप लालू जी के दौर को जंगलराज कहते हैं तो नीतीश कुमार के 15 साल को महा-जंगलराज कहना होगा."
तेजस्वी यादव ने अपने चुनावी अभियान में भले ही लालू प्रसाद यादव को लेकर इस बार कोई इमोशनल अपील नहीं की, लेकिन उनकी सभाओं में मौजूद भीड़ में लालू प्रसाद यादव को लेकर एक भावनात्मक जुड़ाव नज़र आ रहा था.
लालू प्रसाद यादव के समर्थकों का मानना है कि उन्हें चारा घोटाले में फँसाया गया है, तेजस्वी की सोनपुर में हुई सभा में एक युवा ने कहा, "बताइए चारा घोटाला क्या लालू के राज में शुरू हुआ था, लालू जी ने उस घोटाले को पकड़ा था, लेकिन जगन्नाथ मिश्र को बरी कर दिया गया और लालू को जेल क्यों भेजा गया."
लालू प्रसाद यादव की कमी कितनी खली?
मिथलांचल के सुपौल ज़िले में एक शख़्स ने कहा कि "लालू जी ने हमको वह दिया जिसके चलते हम आपसे बात कर रहे हैं, हमारी मछली की दुकान है और सरकार किसी की भी हो हमें तो कुछ मिलना नहीं है. लेकिन लालू जी ने जो दिया वो आपको बता रहे हैं, वरना 30-35 साल पहले हम लोग बात तक नहीं कर पाते थे."
बिहार चुनाव से पहले लालू प्रसाद यादव पर एक क़िताब भी आयी- 'द किंग मेकर, लालू प्रसाद यादव की अनकही दास्तान'.
इस किताब के लेखक और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ में पीएचडी कर रहे जयंत जिज्ञासु खगड़िया के अलौली विधानसभा के हैं.
जयंत अपने पिता हलधर प्रसाद के हवाले से बताते हैं, "इस बार तेजस्वी यादव की सभा जो मेरे इलाक़े में हुई तो उसमें जुटी भीड़ को मेरे पिता ने 1995 के चुनाव में ऐसी भीड़ लालू जी के लिए जुटी भीड़ से भी ज़्यादा पाया. जबकि लालू प्रसाद एक तरह से क्राउड पुलर नेता के तौर पर जाने जाते थे. जबकि तेजस्वी जी की वैसी पहचान नहीं थी. इस बार उन्होंने यह साबित किया है कि वे भी भीड़ जुटाने वाले नेता हैं."
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि लोगों को लालू जी की कमी नहीं खली हो. लालू यादव के पैतृक गाँव फुलवरिया में एक युवा ने कहा, "लालू जी की बराबरी कोई नहीं कर सकता, उन्हें इस इलाक़े के हर घर की ख़बर रहती थी, तेजस्वी अगर वैसा कनेक्ट रखेंगे, इसकी उम्मीद है क्योंकि वे हमारे लालू जी के बेटे हैं, हमारे भाई हैं."
हाजीपुर के एक कारोबारी युवा ने कहा, "देखिए हम लोग नीतीश जी को वोट देते आये हैं, लेकिन इनके राज में ब्यूरोक्रेसी इतना निरंकुश हो चुका है कि किसी की सुनवाई नहीं है. लालू जी होते तो यह सब लगाम में होता, इसलिए भी इस बार बदलाव की उम्मीद है."
वहीं दरभंगा में एक युवा मतदाता ने कहा कि "लालू जी के चुनावी भाषण का कोई मुक़ाबला नहीं. वे होते तो मोदी और नीतीश कुमार को अपने राजनीतिक तंज़ में पहले हराते, फिर चुनाव में हराते."
जनता दल (यूनाइटेड) के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह लालू प्रसाद यादव के ज़माने में हुए भ्रष्टाचार की चर्चा करते हुए यह कहते हैं कि "इस चुनाव में भले लालू जी नहीं हैं, लेकिन तेजस्वी उनके बनाये नियमों और उनकी बातों के तहत ही पार्टी चला रहे हैं."
वैसे तेजस्वी यादव ने एक तरह से लालू प्रसाद की ग़ैर-मौजूदगी में अकेले दम पर महागठबंधन का नेतृत्व शानदार ढंग से सँभाला है और अपने पिता की उम्र वाले नेताओं के साथ युवाओं को भी साथ लेकर चले. लालू प्रसाद यादव के जेल में होने के चलते भी तेजस्वी को भावनात्मक स्तर पर लोगों का सपोर्ट मिला.
लालू प्रसाद यादव की तरह ही बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय के स्तंभ नेता रहे राम विलास पासवान इस बार बिहार चुनाव से नदारद रहे.
राम विलास पासवान के चिराग
दरअसल लंबी बीमारी के बाद आठ अक्टूबर को रामविलास पासवान का निधन हो गया था, ऐसे में बीते 50 साल से बिहार की राजनीति की पहचान रहे राम विलास की विरासत को उनके बेटे चिराग पासवान ने बख़ूबी सँभाला.
राम विलास पासवान खगड़िया के अलौली विधानसभा से बाहर निकले, बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षा से बिहार पुलिस सेवा में पहुँचे और राजनीति में ऐसे रमे कि भारतीय दलित राजनीति में उनका नाम हमेशा के लिए दर्ज हो गया.
लेकिन इस बार उनके बेटे चिराग पासवान ने उनके उस सपने को पूरा करने का बेड़ा उठाया, जो राम विलास पासवान जीते जी कभी पूरा नहीं कर सके.
मण्डल कमीशन को लागू कराने वाले नेताओं में शामिल रहे राम विलास पासवान केंद्र की राजनीति में हमेशा प्रासंगिक रहे, लेकिन कभी बिहार की राजनीति में वे ताक़त के तौर पर स्थापित नहीं हुए.
उनकी पार्टी को हमेशा पाँच छह प्रतिशत वोट बैंक वाली पार्टी के तौर पर देखा गया.
लेकिन चिराग पासवान इस बार बिहार की राजनीति में एक फ़ैक्टर के तौर पर उभरे.
उन्होंने 'बिहार फ़र्स्ट, बिहारी फ़र्स्ट' की नींव के ज़रिए बिहार की राजनीति में एक हलचल पैदा की.
वे तेजस्वी यादव की तुलना में कहीं ज़्यादा मुखरता से नीतीश कुमार की आलोचना करते रहे और नीतीश कुमार को हराने के इरादे से अपने उम्मीदवारों का चयन किया.
इस कोशिश में चिराग पासवान ने अपने पार्टी के उम्मीदवारों को 143 सीटों से खड़ा कर दिया.
'वोट कटवा पार्टी' का तमगा
एक झटके में उन्होंने इन सीटों पर अपनी पार्टी के आधारभूत ढाँचे और संगठन को खड़ा कर लिया. चिराग पासवान के मुताबिक़, उनके उम्मीदवार कम से कम 50 सीटों पर ऐसी स्थिति में हैं जहाँ से जनता दल यूनाइटेड को हराएँगे.
चिराग पासवान अपनी रणनीति को साफ़ करते हुए कहते हैं कि 'बिहार विधानसभा में महज़ दो विधायक हैं हमारे, अब हमारे विधायकों की संख्या कहीं ज़्यादा होगी, लेकिन उससे भी अहम बात यह होगी कि बिहार की राजनीति में लोक जनशक्ति पार्टी एक विकल्प के तौर पर उभरी है और हमारा वोट प्रतिशत दोगुने से भी ज़्यादा होने जा रहा है.'
चिराग पासवान इस पूरे चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के साथ होने का दावा करते रहे, हालाँकि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने उन्हें 'वोट कटवा पार्टी' तक कहा.
इस चुनाव के दौरान एक सभा में उनके सामने कैसे-कैसे अनुभव हुए, उसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एक सभा में एक युवक ने आकर उनसे कहा कि "भइया अब तो बीजेपी ने वोट कटवा पार्टी कह दिया है, ऐसे में कैसे चलेगा, तो चिराग ने उस युवक को समझाया कि अभी नीतीश कुमार पर ही फ़ोकस करो."
चिराग समर्थकों के मुताबिक़, अगर बीजेपी ने लोजपा के साथ चुनाव लड़ा होता तो बीजेपी और एलजेपी की सरकार बनती.
दिलचस्प यह है कि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान ना तो तेजस्वी यादव ने और ना ही चिराग पासवान ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ आरोप-प्रत्यारोप लगाए.
इससे दोनों के बीच आपसी सहमति को लेकर भी लोगों में कयास दिखा. बरबीघा से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले गजानंद शाही कहते हैं कि 'चिराग पासवान ने इस पूरे चुनाव अभियान में जो स्टैंड लिया है, वह उनकी अपनी राजनीति के लिए अच्छा होगा, उन्होंने अपना स्पेस मज़बूत किया है.'
हालाँकि, राम विलास पासवान के पुराने समर्थकों में एक बुर्ज़ुग ने कहा कि 'चिराग पासवान का भविष्य बहुत अच्छा है, लेकिन इस बार वे बीजेपी का साथ दे रहे हैं, वे पूँजीपतियों का साथ दे रहे हैं, जबकि उनके पिता ने हमेशा दलितों का साथ दिया.'
इस चुनाव में चिराग पासवान आक्रामकता के साथ अगर अपनी राह नहीं चुनते तो पासवान वोटों के भी छिटक कर बीजेपी में जाने का ख़तरा उत्पन्न हो सकता था.
लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान के अलावा इस चुनाव में शरद यादव भी शामिल नहीं थे.
राजनीति के मैदान में नई एंट्री
सामाजिक न्याय की राजनीति का अहम चेहरा रहे शरद यादव वैसे तो जबलपुर के हैं, लेकिन वे बिहार के मधेपुरा से चार बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.
मगर इस बार बीमार होने के चलते शरद यादव बिहार चुनाव के सीन से ग़ायब रहे. पर उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी उनकी बेटी सुभाषिनी ने बख़ूबी सँभाली.
मधेपुरा के बिहारीगंज से सुभाषिनी इस बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरीं.
राजद के बदले कांग्रेस को चुनने के अपने फ़ैसले पर सुभाषिनी ने बताया कि कांग्रेस से जो ऑफ़र था, वह उससे इनकार नहीं कर सकीं और महागठबंधन के साथ ही वह एनडीए सरकार के ख़िलाफ़ चुनाव मैदान में हैं.
सुभाषिनी यह भी बताती हैं कि उनके पिता ने मधेपुरा के लिए जितना कुछ किया है, वो शायद ही यहाँ किसी और नेता ने किया होगा, लेकिन अब वह बिहारीगंज में लोगों के विकास के लिए काम करेंगी.
हालाँकि अपने पिता की राह पर अभी सुभाषिनी को लंबा संघर्ष करना है, पर वह इसके लिए पूरी तरह तैयार दिखती हैं.
उनकी शादी हरियाणा में हुई है, पर सुभाषिनी यह बताती हैं कि मधेपुरा ही उनका घर है और वह वहाँ की मतदाता भी हैं, बचपन से लोगों को देखती आयी हैं, लिहाज़ा उन्हें लोगों की मुश्किलों का अंदाज़ा है.(https://www.bbc.com/hindi)
वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में पिछले दो वर्षों में करीब 200 से अधिक जंगली जानवर की मौत करंट लगने के कारण हुई
- Avdhesh Mallick
Wild lifeछत्तीसगढ़ के जसपुर इलाके में बिजली के करंट की वजह से मारा गया तेंदुआ। फोटो: अवधेश मलिक छत्तीसगढ़ के जसपुर इलाके में बिजली के करंट की वजह से मारा गया तेंदुआ। फोटो: अवधेश मलिक
बिजली की तारें छत्तीसगढ़ में वन्य प्राणियों के लिए अभिशाप बन गई हैं। इसके चपेट में आने के कारण से पिछले 2 वर्षों में 200 वन्य प्राणी मारे जा चुके हैं। इसके चपेट में आने से जवान भी खुद को नहीं बचा पा रहे हैं।
5 नवंबर 2020 को बीजापुर के चिन्नाकोड़ेपाल के जंगल में एंटी-नक्सल आपरेशन अभियान में गए जवान श्रीधर की मृत्यु विधुत तार के चपेट में आने से हो गई।
वहीं पर वन विभाग ने इसी वर्ष 28 अक्टूबर को एक तेंदुआ की मौत के सिलिसिले में जशपुर के पत्थलगांव से चार लोगों को पकड़ा । इन पर जंगल में एक तेंदुआ को करेंट लगाकर मारने के आरोप है। पिछले वर्ष कवर्धा के जंगलों में बैल के साथ का शिकार करने पहुंचा तेंदुआ का शव मिला। जांच के बाद पता चला अज्ञात शिकारी ने तार में करेंट प्रवाहित कर उसे जमीन पर छोड़ दिया था। जिसमें तीनों मारे गए। इसी प्रकार मुंगेंली जिले के खुड़िया जंगल में एक और तेंदुआ की मौत करेंट लगने के हो गई। इसी अगस्त महीने में महासमुदं में दो भालुओं की मौत करंट लगने के कारण हो गई। प्रदेश में भालू ही नहीं, चीतल, सांभर, जंगली सूअर, गौर आदि वन्य प्राणियों की बड़े पैमाने पर शिकार बिजली के तारों में फंसने के कारण हो चुकी है।
वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में पिछले दो वर्षों में करीब 200 से अधिक जंगली जानवर की मौत करंट लगने के कारण हुई।
करंट से बड़ी संख्या में हाथियों की मौतें-
हाथियों के संदर्भ में यह आंकड़ा और भी भयावह है। छत्तीसगढ़ वन विभाग के एपीसीसीएफ अरूण पांडे बताते हैं पिछले 10 वर्षों में पूरे प्रदेश भर में 47 हाथियों की मौत करंट के चपेट में आने के कारण से हुआ। उनमें से सर्वाधिक 21 हाथी यानि कि करीब 45 प्रतिशत करंट लगने से हाथियों मौत धरमजयगढ़ फारेस्ट डिवीजन में हुआ।
धरमजयगढ़ में हाथियों के अधिक मौत के पीछे की वजह इस क्षेत्र का हाथी विचरण क्षेत्र होना तथा बड़ी संख्या में अवैध नल कनेक्शन होना है। यह वही क्षेत्र है जो महत्वाकांक्षी लेमरू एलिफेंट रिजर्व के लिए प्रस्तावित है।
अवैध नल कनेक्शन और जंगली सूअर का मांस-
वन विभाग की एक रिपोर्ट कहती है कि इस क्षेत्र में करीब 3500 से अधिक अवैध नल कनेक्शन है।
आरोप है कि किसानों ने खेतों में बोर करा लिए हैं और खुले तारों से बिजली का अवैध कनेक्शन ले लिया है। हाथी दल रात में विचरण करते हुए जब खेत पहुंचते हैं, तो खुले तारों की चपेट में आने से मर जाते हैं।
वाईल्ड लाईफ एक्टिविस्ट नितिन सिंघवी इसके लिए वन और बिजली विभाग के कर्मचारियों की मिली भगत, लापरवाही को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि ये सरकारी अधिकारी और कर्मचारी विधुत के अवैध कनेक्शनों को चेक नहीं करते। दूसरी बात बिजली विभाग के नए तार जो गुजरें हैं वह मानकों के हिसाब से नहीं लगाएं गए हैं। नितिन सिंघवी वन्य जीवों को बचाने के लिए हाई कोर्ट में पीआईएल भी लगा चुके हैं।
वन्य जीव बचाने लगेंगे 1,674 करोड़ रुपये
सुनवाई के दौरान विद्युत वितरण कंपनी ने वन क्षेत्रों में नीचे जा रही बिजली के नंगे तारों को कवर्ड कंडक्टर यानि इन्सुलेटेड वायर में बदलने के लिए वन विभाग 1,674 करोड़ रुपये की मागं की थी। जो अब तक कंपनी को नहीं मिलें हैं।
इस पर एपीसीसीएफ अरूण पांडेय कहते हैं इस संदर्भ में प्रक्रिया चल रही है। पर बात यहां पर मेंटलिटी की भी है। वन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों वन सूअर के मांस को काफी उच्च क्वालिटि का मानते हैं और अक्सर इसका शिकार हेतु खेतों और वनों में विधुत प्रवाह कर देते हैं। जिससे लगातार मौतें हो रही है। इस पर अंकुश लगाने विभाग जागरूकता अभियान चला रहा है।(downtoearth)
यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ ने चेताया है कि कोविड-19 महामारी के कारण कुछ देशों में टीकाकरण की दर में 50 प्रतिशत तक की गिरावट आई है
- DTE Staff
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने कहा है कि दुनिया भर में कोविड-19 महामारी के कारण स्वास्थ्य सेवाओं और टीकाकरण में आई बाधा के कारण लाखों बच्चों के पोलियो और खसरा का जोखिम बहुत बढ़ गया है।
संयुक्त राष्ट्र के इन दोनों संगठनों ने चेताया है कि कोविड-19 महामारी के कारण कुछ देशों में टीकाकरण की दर में 50 प्रतिशत तक की गिरावट आई है।
इन संगठनों द्वारा जारी संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोनावायरस से बचने के लिए लगी पाबन्दियों के कारण स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता बहुत कम हो गई है। या बहुत से लोग कोरोनावायरस के संक्रमण के डर से खुद ही स्वास्थ्य सेवाओं तक जाने से बचने रहे। इसके चलते पोलियो और खसरे से रोकथाम के लिए चलाए जा रहे अभियान रोकने पड़े।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टैड्रॉस एडहेनॉम घेबरेयेसस ने कहा कि दुनिया भर में कोविड-19 का स्वास्थ्य सेवाओं खासतौर से टीकाकरण सेवाएं व्यापक रूप में प्रभावित हुई हैं। हालांकि कोविड-19 के मुकाबले पोलियो और खसरे से निपटने के लिए हमारे पास न केवल विशेषज्ञता है, बल्कि इंतजाम भी हैं। बस जरूरत है कि हम इनका इस्तेमाल जमीनी तौर पर कर सकें। अगर हम ऐसा कर पाते हैं, तो बच्चों की जिंदगियां बचाई जा सकते हैं।
इस रिपोर्ट में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया है कि मध्यम आय वाले देशों में टीकाकरण अभियानों के लिये मौजूद खाई को भरने के लिए लगभग 65 करोड़ 50 लाख डॉलर राशि की जरूरत है।
इस राशि में से लगभग 40 करोड़ डॉलर की राशि वर्ष 2020-2021 के दौरान पोलियो का मुकाबला करने के लिए चाहिए। जबकि अगले तीन वर्षों के दौरान खसरा के प्रसार को रोकने के लिए लगभग 25 करोड़ 50 लाख डॉलर राशि की जरूरत है।
संयुक्त राष्ट्र की दोनों एजेंसियों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर स्थिति को इसी तरह से छोड़ दिया गया तो इन दोनों बीमारियों का विस्फोटक प्रसार होने का डर है और पोलियो व खसरा का यह प्रसार अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं को भी पार कर सकता है।
यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक हेनरिएटा फोर ने कहा कि इस बात की इजाजत नहीं दी जा सकती कि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई के कारण अन्य बीमारियों के खिलाफ अभियान पर प्रभाव पड़े।
उन्होंने कहा, “कोविड-19 महामारी का मुकाबला करना बहुत जरूरी है, लेकिन ये भी सच है कि दुनिया के कुछ गरीब देशों में अन्य घातक बीमारियां भी लाखों- करोड़ों बच्चों की जान पर भारी पड़ सकती हैं। इसलिए हम आज देशों के नेताओं, दानदाताओं और साझीदारों से तत्काल वैश्विक कार्रवाई करने की मांग कर रहे हैं।"
यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सभी देशों का आहवान किया कि वे बीमारियों का प्रसार रोकने के लिए तुरन्त कार्रवाई करें। अपने बजटों में टीकाकरण को प्रथामिकता पर रखें।(downtoearth)
जब 1982 ख़त्म होते-होते पंजाब के हालात बेक़ाबू होने लगे तो रॉ के पूर्व प्रमुख रामनाथ काव ने भिंडरावाले को हेलीकॉप्टर ऑपरेशन के ज़रिए पहले चौक मेहता गुरुद्वारे और फिर बाद में स्वर्ण मंदिर से उठवा लेने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था.
इस बीच काव ने ब्रिटिश उच्चायोग में काम कर रहे ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंसी एमआई-6 के दो जासूसों से अकेले में मुलाक़ात की थी. रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमण 'काव ब्वाएज़ ऑफ़ रॉ' में लिखते हैं, "दिसंबर, 1983 में एमआई-6 के दो जासूसों ने स्वर्ण मंदिर का मुआयना किया था. इनमें से कम से कम एक वही शख़्स था जिससे काव ने मुलाक़ात की थी."
इस मुआयने की असली वजह तब स्पष्ट हुई जब एक ब्रिटिश शोधकर्ता और पत्रकार फ़िल मिलर ने क्यू में ब्रिटिश आर्काइव्स से ब्रिटेन की कमाँडो फ़ोर्स एसएएस की श्रीलंका में भूमिका के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की. तभी उन्हें वहाँ कुछ पत्र मिले जिससे ये पता चलता था कि भारत के कमाँडो ऑपरेशन की योजना में ब्रिटेन की सहायता ली गई थी.
30 वर्षों के बाद इन पत्रों के डिक्लासिफ़ाई होने के बाद पता चला कि प्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर एमआई-6 के प्रमुख के ज़रिए काव के भेजे गए अनुरोध को मान गई थीं जिसके तहत ब्रिटेन की एलीट कमाँडो फ़ोर्स के एक अफ़सर को दिल्ली भेजा गया था.
लेबर पार्टी के सांसद टॉम वाटसन का दावा है कि उन्होंने इन दस्तावेज़ों को देखा है.
फ़िल मिलर ने 13 जनवरी, 2014 को प्रकाशित ब्लॉग 'रिवील्ड एसएएस एडवाइज़्ड अमृतसर रेड' में इसकी जानकारी देते हुए इंदिरा गांधी की आलोचना की थी कि एक तरफ़ तो वो श्रीलंका में ब्रिटिश खुफ़िया एजेंसी के हस्तक्षेप के सख़्त ख़िलाफ़ थीं. वहीं, दूसरी ओर स्वर्ण मंदिर के ऑपरेशन में उन्हें उनकी मदद लेने से कोई गुरेज़ नहीं था.
ब्रिटिश संसद में बवाल होने पर जनवरी 2014 में प्रधानमंत्री कैमरन ने इसकी जाँच के आदेश दिए थे. जाँच के बाद ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलियम हेग ने स्वीकार किया था के एक एसएएस अधिकारी ने 8 फ़रवरी से 14 फ़रवरी 1984 के बीच भारत की यात्रा की थी और भारत की स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स के कुछ अधिकारियों के साथ स्वर्ण मंदिर का दौरा भी किया था.
तब बीबीसी ने ही ये समाचार देते हुए कहा था कि 'ब्रिटिश ख़ुफ़िया अधिकारी की सलाह थी कि सैनिक ऑपरेशन को आख़िरी विकल्प के तौर पर ही रखा जाए. उसकी ये भी सलाह थी कि चरमपंथियों को बाहर लाने के लिए हेलीकॉप्टर से बलों को मंदिर परिसर में भेजा जाए ताकि कम से कम लोग हताहत हों.'
अग़वा करने में होना था हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल
ब्रिटिश संसद में इस विषय पर हुई चर्चा का संज्ञान लेते हुए इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार संदीप उन्नीथन ने पत्रिका के 31 जनवरी, 2014 के अंक में 'स्नैच एंड ग्रैब' शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने बताया था कि इस ख़ुफ़िया ऑपरेशन को 'ऑपरेशन सनडाउन' का नाम दिया गया था.
इस लेख में लिखा था, "योजना थी कि भिंडरावाले को उनके गुरु नानक निवास ठिकाने से पकड़ कर हेलीकॉप्टर के ज़रिए बाहर ले जाया जाता. इस योजना को इंदिरा गाँधी के वरिष्ठ सलाहकार रामनाथ काव की उपस्थिति में उनके 1 अकबर रोड निवास पर उनके सामने रखा गया था. लेकिन, इंदिरा गाँधी ने इस प्लान को ये कहकर अस्वीकार कर दिया था कि इसमें कई लोग मारे जा सकते हैं."
जी.बी.एस सिद्धू
ये पहला मौक़ा नहीं था जब भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने भिंडरावाले को उनके ठिकाने से पकड़ने की योजना बनाई थी. काव उस समय से भिंडरावाले को पकड़वाने की योजना बना रहे थे जब वो चौक मेहता में रहा करते थे और बाद में 19 जुलाई, 1982 को गुरु नानक निवास में शिफ़्ट हो गए थे.
काव ने नागरानी को भिंडरावाले को पकड़वाने की ज़िम्मेदारी सौंपी
रॉ में विशेष सचिव के पद पर काम कर चुके और पूर्व विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह के दामाद जी.बी.एस सिद्धू की एक किताब 'द ख़ालिस्तान कॉन्सपिरेसी' हाल ही में प्रकाशित हुई है जिसमें उन्होंने भिंडरावाले को पकड़वाने की उस योजना पर और रोशनी डाली है.
उस ज़माने में 1951 बैच के आँध्र प्रदेश काडर के राम टेकचंद नागरानी डीजीएस यानि डायरेक्टर जनरल सिक्योरिटी हुआ करते थे. रॉ की एक कमाँडो यूनिट होती थी एसएफ़एफ़ जिसमें सेना, सीमा सुरक्षा बल और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल से लिए गए 150 चुनिंदा जवान हुआ करते थे. इस यूनिट के पास अपने दो एमआई हैलिकॉप्टर थे. इसके अलावा वो ज़रूरत पड़ने पर एविएशन रिसर्च सेंटर के विमानों का भी इस्तेमाल कर सकते थे.
1928 में जन्में राम नागरानी अभी भी दिल्ली में रहते हैं. ख़राब स्वास्थ्य के कारण अब वो बात करने की स्थिति में नहीं हैं. सिद्धू ने दो वर्ष पूर्व अपनी किताब के सिलसिले में उनसे कई बार बात की थी.
जीबीएस सिद्धू बताते हैं, ''नागरानी ने मुझे बताया था कि दिसंबर, 1983 के अंत में काव ने मुझे अपने दफ़्तर में बुला कर भिंडरावाले का अपहरण करने के लिए एसएफ़एफ़ के हेलीकॉप्टर ऑपरेशन की ज़िम्मेदारी सौंपी थी. भिंडरावाले का ये अपहरण स्वर्ण मंदिर की लंगर की छत से किया जाना था जहाँ वो रोज़ शाम को अपना संदेश दिया करते थे. इसके लिए दो एमआई हेलीकॉप्टरों और कुछ बुलेटप्रूफ़ वाहनों की व्यवस्था की जानी थी ताकि भिंडरावाले को वहाँ से निकाल कर बगल की सड़क तक पहुंचाया जा सके. इसके लिए नागरानी ने सीआरपीएफ़ जवानों द्वारा क्षेत्र में तीन पर्तों का घेरा बनाने की योजना बनाई थी.''
सिद्धू आगे बताते हैं, ''ऑपरेशन की योजना बनाने से पहले नागरानी ने एसएफ़एफ़ के एक कर्मचारी को स्वर्ण मंदिर के अंदर भेजा था. उसने वहाँ कुछ दिन रह कर उस इलाक़े का विस्तृत नक्शा बनाया था. इस नक्शे में मंदिर परिसर में अंदर घुसने और बाहर निकलने की सबसे अच्छी जगहें चिन्हित की गईं थीं. उसे भिंडरावाले और उनके साथियों की अकाल तख़्त पर उनके निवास से लेकर लंगर की छत तक सभी गतिविधियों पर भी नज़र रखने के लिए कहा गया था.''
''इस शख़्स से ये भी कहा गया था कि वो हेलीकॉप्टर कमांडोज़ द्वारा भिंडरावाले का अपहरण करने के सही समय के बारे में भी सलाह दे. तीन या चार दिन में ये सभी सूचनाएं जमा कर ली गई थीं. इसके बाद स्वर्ण मंदिर परिसर के लंगर इलाक़े और बच निकलने के रास्तों का एक मॉडल सहारनपुर के निकट सरसवा में तैयार किया गया था.''
रस्सों के ज़रिए उतारे जाने थे कमाँडो
नागरानी ने सिद्धू को बताया था कि हेलीकॉप्टर ऑपरेशन से तुरंत पहले सशस्त्र सीआरपीएफ़ के जवानों द्वारा मंदिर परिसर के बाहर एक घेरा बनाया जाना था ताकि ऑपरेशन की समाप्ति तक आम लोग परिसर के अंदर या बाहर न जा सकें.
एसएफ़एफ़ कमाँडोज़ के दो दलों को बहुत नीचे उड़ते हुए हेलीकॉप्टरों से रस्सों के ज़रिए उस स्थान पर उतारा जाना था जहाँ भिंडरावाले अपना भाषण दिया करते थे. इसके लिए वो समय चुना गया था जब भिंडरावाले अपने भाषण का अंत कर रहे हों क्योंकि उस समय भिंडरावाले के आसपास सुरक्षा व्यवस्था थोड़ी ढीली पड़ जाती थी.
भिंडरावाले पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ
योजना थी कि कुछ कमाँडो भिंडरावाले को पकड़ने के लिए दौड़ेंगे और कुछ उनके सुरक्षा गार्डों को काबू में करेंगे. ऐसा अनुमान लगाया गया था कि भिंडरावाले के गार्ड कमाँडोज़ को देखते ही गोलियाँ चलाने लगेंगे. ये भी अनुमान लगा लिया गया था कि संभवत: कमाँडोज़ के नीचे उतरने से पहले ही गोलियाँ चलनी शुरू हो जाएं.
इस संभावना से निपटने के लिए एसएफ़एफ़ कमाँडोज़ को दो दलों में बाँटा जाना था. एक दल स्वर्ण मंदिर परिसर में ऐसी जगह रहता जहाँ से वो भिंडरावाले के गर्भ गृह में भाग जाने के रास्ते को बंद कर देता और दूसरा दल लंगर परिसर और गुरु नानक निवास के बीच की सड़क पर बुलेटप्रूफ़ वाहनों के साथ तैयार रहता ताकि कमाँडोज़ द्वारा पकड़े गए भिंडरावाले को अपने क़ब्ज़े में लेकर पूर्व निर्धारित जगह पर पहुंचाया जा सके.
हेलीकॉप्टर के अंदर और ज़मीन पर मौजूद सभी कमाँडोज़ को ख़ास निर्देश थे कि भिंडरावाले को किसी भी हालत में हरमंदिर साहब के गर्भ गृह में शरण लेने न दी जाए क्योंकि अगर वो वहाँ पहुंच गए तो भवन को नुक़सान पहुंचाए बिना भिंडरावाले को क़ब्ज़े में लेना असंभव होगा.
नागरानी के अनुसार स्वर्ण मंदिर के मॉडल को मार्च 1984 में एसएफ़एफ़ कमांडोज़ के साथ दिल्ली शिफ़्ट कर दिया गया था ताकि सीआरपीएफ़ के साथ उनका बेहतर सामंजस्य बैठाया जा सके. तब तक ये तय था कि इस ऑपरेशन में सिर्फ़ एसएफ़एफ़ के जवान ही भाग लेंगे. सेना द्वारा बाद में किए गए ऑपरेशन ब्लूस्टार की तो योजना तक नहीं बनी थी.
काव और नागरानी ने इंदिरा गांधी को योजना समझाई
अप्रैल, 1984 में काव ने नागरानी से कहा कि इंदिरा गाँधी इस हेलीकॉप्टर ऑपरेशन के बारे में पूरी ब्रीफ़िंग चाहती हैं. नागरानी शुरू में इंदिरा गाँधी को ब्रीफ़ करने में हिचक रहे थे. उन्होंने काव से ही ये काम करने के लिए कहा क्योंकि काव को इस योजना के एक-एक पक्ष की जानकारी थी. बाद में काव के ज़ोर देने पर नागरानी काव की उपस्थिति में इंदिरा गाँधी को ब्रीफ़ करने के लिए तैयार हो गए.
इंदिरा गांधी रॉ के पूर्व प्रमुख रामनाथ काव, गैरी सक्सेना और जीबीएस सिद्धू के साथ
उस ब्रीफ़िंग का ब्योरा देते हुए नागरानी ने जीबीएस सिद्धू को बताया था, "सब कुछ सुन लेने के बाद इंदिरा गाँधी ने पहला सवाल पूछा कि इस ऑपरेशन में कितने लोगों के हताहत होने की संभावना है? मेरा जवाब था कि हो सकता है कि हम अपने दोनों हेलीकॉप्टर खो दें. कुल भेजे गए कमाँडोज़ में से 20 फ़ीसदी के मारे जाने की संभावना है."
इंदिरा ने ऑपरेशन को मंज़ूरी नहीं दी
नागरानी ने सिद्धू को बताया कि इंदिरा गाँधी का अगला सवाल था कि इस अभियान में कितने आम लोगों की जान जा सकती है. मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था. ये ऑपरेशन बैसाखी के आसपास 13 अप्रैल को किया जाना था. मेरे लिए ये अनुमान लगाना मुश्किल था कि उस दिन स्वर्ण मंदिर में कितने लोग मौजूद रहेंगे. आख़िर में मुझे ये कहना पड़ा कि इस ऑपरेशन के दौरान हमारे सामने आए आम लोगों में 20 फ़ीसदी हताहत हो सकते हैं.
स्वर्ण मंदिर, अमृतसर
इंदिरा गाँधी ने कुछ सेकेंड सोच कर कहा कि वो इतनी अधिक तादाद में आम लोगों के मारे जाने का जोख़िम नहीं ले सकतीं. 'ऑपरेशन सनडाउन' को उसी समय तिलाँजलि दे दी गई.
'ऑपरेशन सनडाउन' को इस आधार पर अस्वीकार करने के बाद कि इसमें बहुत से लोग मारे जाएंगे, सरकार ने सिर्फ़ तीन महीने बाद ही ऑपरेशन ब्लूस्टार को अंजाम दिया जिसमें कहीं ज़्यादा सैनिकों और आमलोगों की जान गई और इंदिरा गाँधी को इसकी बहुत बड़ी राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ी. (bbc)
ज़िंदा क़ौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं.
उत्तर पूर्वी दिल्ली के सोनिया विहार में दो दिन बिताने के बाद समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की कही ये बात बार-बार ज़हन में घूमती हैं.
लोहिया का कहना था कि बुनियादी अधिकारों के लिए पाँच बरस तक इंतज़ार नहीं किया जा सकता लेकिन बिहार के लाखों प्रवासी न जाने कितने दशकों से इंतज़ार ही कर रहे हैं.
वैसे तो बिहार के लोग पूरे देश और पूरी दिल्ली में हैं लेकिन यमुना तट के क़रीब बसा सोनिया विहार, दिल्ली में बिहारी प्रवासियों के घर जैसा है.
सात लाख से ज़्यादा आबादी वाले इस इलाक़े में बड़ी संख्या बिहारियों की है.
ये वो आबादी है जो ज़िंदा रहने के लिए 1,500 किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबा सफ़र तय कर दिल्ली चली आती है.
यहाँ किराए के एक कमरे में रहने वाले बिहार के लोग भी हैं और वो लोग भी जो कई वर्षों के संघर्ष के बाद किसी तरह 33 गज का घर ख़रीदने में कामयाब रहे.
बिहार में होने वाले चुनाव की धमक दिल्ली तक सुनाई देती है मगर सवाल ये है कि क्या कमाई, दवाई और पढ़ाई की तलाश में दिल्ली आए इन लोगों की पुकार उनके अपने ही गृहराज्य तक पहुँच पाती है?
बिहार के उन लोगों का क्या जो विधानसभा चुनाव में वोट देने घर नहीं जा पाए? सरकार चुनने के अधिकार का इस्तेमाल ये क्यों नहीं करना चाहते?
इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमने सोनिया विहार में रहने वाले कई प्रवासी बिहारियों से बात की. इनमें से कुछ लोगों के मन की बात हम यहाँ साझा कर रहे हैं.
दीपक कुमार भोलानाथ, दिहाड़ी मज़दूर (पटना)
26 साल के दीपक को महज़ सात बरस की उम्र में दिल्ली आना पड़ा था. वजह-पेट पालने की मजबूरी. आठवीं तक पढ़े दीपक के लिए बिहार में न अपनी ज़मीन थी और न कमाई का कोई ज़रिया. अब वो दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं.
दीपक अपनी गर्भवती पत्नी के साथ एक 2,500 रुपये प्रतिमाह किराए वाले एक छोटे से कमरे में रहते हैं. कमरे में लगे बिस्तर पर दीपक की पत्नी सजावट का कुछ सामान बनाती नज़र आती हैं.
कोने में खाना बनाने का इंतज़ाम किया गया है और खिड़की पर बनी सँकरी सी जगह में बर्तन सँभालकर रखे हुए हैं. कमरे की दीवार पर नवजात शिशुओं की चार-पाँच तस्वीरें लगी हुई हैं, जिनकी ओर देखकर दीपक की पत्नी मुस्कुरा देती हैं.
दीपक बताते हैं कि दिल्ली में रहते हुए सबसे ज़्यादा मुश्किल उन्हें लॉकडाउन के दौरान हुई जब काम पूरी तरह ठप हो गया. अपने कई साथियों के उलट दीपक ने लॉकडाउन में बिहार वापस न जाकर दिल्ली ही रुकने का फ़ैसला किया.
वजह पूछने पर वो कहते हैं, “जाते भी तो फिर लौटकर यहीं आना पड़ता. जाने की कोशिश भी करते तो कोई साधन नहीं था. घरवाली पेट से थी. उसे साथ लेकर कैसे जाता?”
लॉकडाउन के समय घर में न पैसे थे और न राशन. पास के एक स्कूल में कभी दिल्ली सरकार तो कभी कुछ एनजीओ चावल-गेहूँ पहुंचाते थे, जिनके सहारे गुज़ारा हुआ.
दीपक बताते हैं, “जो राशन मिलता था वो खाने लायक नहीं था. चावल में कीड़े निकलते थे. कई बार बना हुआ खाना मिलता था. वो भी आधा कच्चा रहता था. लेकिन भूखे तो नहीं मर सकते थे इसलिए वही खा लेते थे.”
लॉकडाउन की पाबंदियों में ढील के बाद दीपक को अब थोड़ा-बहुत काम मिलने लगा है लेकिन अब भी ऐसा होता है जब तीन-चार दिन लगातार उन्हें घर बैठना पड़ता है.
दीपक एक कर्मठ नौजवान हैं लेकिन ग़रीबी और तकलीफ़ों ने उनका लोकतंत्र, सरकार, राजनीति और चुनाव जैसी चीज़ों से भरोसा उठा दिया है.
वोट के सवाल पर वो कहते हैं, “क्या करेंगे वोट देकर? कोई हमारे लिए काम नहीं करता. सरकार ही हमारे पेट पर लात मारती है. हम ठेला लगाते हैं तो पुलिस वाला आ जाता है.''
दीपक अर्थशास्त्र की ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ और उसकी आलोचनाओं से भले वाकिफ़ न हों लेकिन वो ज़ोर देकर कहते हैं, “सरकार ऐसे काम करती है कि अमीर और अमीर हो जाता है, ग़रीब और ग़रीब हो जाता है.”
दीपक के पास कोई बीमा भी नहीं हैं. वो बताते हैं, “मैं एलआईसी का एक बीमा लेना चाहता था लेकिन उसका फ़ॉर्म ही मुझसे भरा नहीं गया. इस चक्कर में मेरे कुछ पैसे भी डूब गए.”
क्या उन्हें बिहार की याद आती है? क्या चीज़ें ठीक होने पर वो बिहार वापस जाना चाहेंगे?
इन सवालों पर दीपक नाराज़गी और दुख भरे स्वर में कहते हैं, “हमें बिहार की कोई याद नहीं आती. क्यों जाएंगे वहाँ? कोई बीमार पड़े तो अस्पताल पहुँचते-पहुँचते मर जाता है. क्या फ़ायदा बिहार में रहने से?”
सरिता और बबीता देवी
सरिता और बबीता, गृहिणी (खगड़िया)
बिहार के खगड़िया ज़िले की सरिता और बबीता देवी हमें परचून की एक दुकान पर ख़रीदारी करती हुई मिलीं. दोनों हाथों में मेहँदी की लाली थी.
वैसे तो बिहार में करवा चौथ के व्रत का प्रचलन नहीं है लेकिन इसे दिल्ली का माहौल कहें या बॉलीवुड का असर, अब बिहार की कई महिलाएँ भी करवा चौथ का व्रत रखने लगी हैं. सरिता और बबीता देवी ने भी व्रत किया था.
दोनों के ही पति तकरीबन 20 साल पहले काम की तलाश में दिल्ली आए थे और फिर वो दिल्ली के ही होकर रह गए. वो तो दिल्ली के हो गए लेकिन शायद दिल्ली उनकी नहीं हुई.
सरिता और बबीता दोनों को इस बात का दुख है कि दिल्लीवाले उनकी गिनती ‘अपने जैसों’ में नहीं करते.
बबीता देवी कहती हैं, “उन्हें लगता है कि ये बिहार से आए हैं. भूखे हैं, ग़रीब हैं.”
सरिता कहती हैं, “वो हमें अपने से नीचा समझते हैं.”
हालाँकि दोनों का ये सुकून भी है कि दिल्ली में कम से कम उन्हें भरपेट खाना तो मिल रहा है.
चार बच्चों की माँ सरिता देवी कहती हैं, “हमारे आदमी मज़दूरी करते हैं लेकिन दोनों वक़्त का खाना मिलता है. यही बहुत है. बिहार में मेरे ससुर हैं, देवर हैं. दोनों घर बैठे हैं. कोई काम नहीं है. यहाँ कम से कम कुछ काम तो है.”
बबीता को वोट देने न जा पाने का दुख है लेकिन वो इसके लिए कुछ कर नहीं सकतीं. वो कहती हैं, “बिहार जाने के लिए किराया-भाड़ा चाहिए. पूरा एक दिन लगता है ट्रेन से जाने में. जाएंगे तो इधर मज़दूरी का भी नुक़सान होगा. हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते.”
दोनों कहती हैं, “दस आदमी वोट देता है तो हमारा भी मन होता है. हम सरकार से बस यही चाहते हैं कि हम गरीबों को साधन-सुविधा धे. हमारे-खाने कमाने का इंतज़ाम करे.”
सरिता को बिहार में छूट गए घर-परिवार की याद तो आती है लेकिन बच्चों की भलाई के लिए वो अभी दिल्ली में ही रहना चाहती हैं.
वो कहती हैं, “अभी दिवाली आ रहा है, छठ आ रहा है, पैसे वाले घर जाएंगे. हमारा आत्मा रोएगा...’’
सरिता देवी छठ गीत की कुछ लाइनें गुनगुनाती हैं- बहँगी लचकत जाय...
धर्मेंद चौधरी
धर्मेंद चौधरी, दिहाड़ी मज़दूर (सहरसा)
धर्मेंद चौधरी को दिल्ली आए अभी कुछ ही महीने हुए हैं. उनके 20 साल का बेटा पिछले चार-पाँच साल से दिल्ली में रहकर पेंट का काम करता था लेकिन लॉकडाउन के दौरान वो बीमार पड़ा और उसकी मौत हो गई.
धर्मेंद बताते हैं, “बेटा डेड कर गया तो घर में कमाने वाला कोई नहीं बचा. फिर हम यहाँ आ गए और ठेला चलाने लगे.”
धर्मेंद कहते हैं कि बिहार में रोज़गार की कमी तो है ही साथ ही भ्रष्टाचार की समस्या भी काफ़ी बड़े पैमाने पर है.
वो कहते हैं, “हम तो बस कमाने-खाने इधर हैं. बिहार में काम मिलेगा तो वहां चले जाएंगे. सरकार वहाँ कोई कारखाना खोल दे. नौकरी दे दे. हमें कमाने-खाने का साधन दे दे. हम वहीं चले जाएंगे.”
धर्मेंद कहते हैं कि बीते कुछ समय में बिहार में बिजली, पानी, सड़क और स्कूलों की स्थिति में तो थोड़ा सुधार आया है लेकिन बात जब इलाज की आती है तो हालात जस के तस हैं.
वो कहते हैं, “गाँव के अस्पताल कैसे होते हैं, सब जानते ही हैं. जब किसी को बड़ी बीमारी होती है, कोई मरने लगता है तो हमें ट्रेन बुक कराके दिल्ली ही आना पड़ता है. एक बार हमारी माँ की तबीयत ख़राब हुई. वहां खेत गिरवी रखकर 40 हज़ार खर्चा किया तब भी ठीक नहीं हुईं. यहाँ जीबी पंत में उनका जान बचा. ”
हालाँकि इन सभी तकलीफ़ों और दुश्वारियों के बावजूद धर्मेंद्र आशावादी बने हुए हैं. वो कहते हैं, “इस बार बोला तो है इतना नौकरी-नौकरी. देखिए, शायद कुछ हो जाए.”
न यहाँ के न वहाँ के
पिछली जनगणना (2011) में दिल्ली में बिहारी प्रवासियों की संख्या 2,172,760 बताई गई थी.
महानगरों और विकसित राज्यों में प्रवासी कामगरों, ख़ासकर प्रवासी मज़ूदरों को लेकर अक्सर राजनीति होती रहती है.
लॉकडाउन के दौरान मज़दूरों को घर पहुँचाने को लेकर दिल्ली में केजरीवाल और बिहार में नीतीश सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप लगे थे.
दिल्ली की सीमाएँ बंद करते समय भी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह तर्क दिया था कि अगर यूपी-बिहार के लोग इलाज के दिल्ली आ जाएंगे तो यहाँ के बेड भर जाएंगे.
लॉकडाउन में पैदल, साइकिल और ठेले पर हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय कर अपने गृहराज्य पहुँचते मज़दूरों को देखकर भी बार-बार यही बात सामने आई कि जो मज़दूर शहरों को चलाते हैं, मुसीबत में उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है.
दुलारी देवी
पलायन और प्रवास का चक्र
इसी तरह दिल्ली स्थित एम्स में बिहार से बड़ी संख्या में लोगों के आने को लेकर भी विवाद होता रहता है.
कांग्रेस नेता और दिल्ली की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने साल 2007 में कहा था कि दिल्ली में सुविधाओं में लगातार इज़ाफ़ा किया जाता है लेकिन हर साल यूपी-बिहार के लाखों लोग आ जाते हैं और उन्हें रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं है.
बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी ने हाल में दिए एक इंटरव्यू में बिहार के लोगों के पलायन से जुड़े एक सवाल में कहा था कि बिहारियों को दूसरी जगह जाकर काम करने में मज़ा आता है.
उन्होंने कहा, ''बिहार के लोगों का यह स्वभाव है. उन्हें बाहर जाकर काम करने में आनंद आता है. हाँ, अगर कोई सिर्फ़ रोज़ी-रोटी कमाने बाहर जाता है, तो ये ग़लत है.''
इस बार के चुनाव में उम्मीदवारों रोज़गार और नौकरियों का मुद्दा बार-बार उठाया. आरजेडी की ओर से तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियों का वाद किया तो नीतीश कुमार ने इसे ‘बोगस वादा’ बताया.
अब सवाल ये है कि क्या इन वादों के भरोसे बिहार लौटेने की हिम्मत जुटा पाएंगे? क्या उन्हें कभी पलायन और प्रवास के चक्र से मुक्ति मिल सकेगी? (bbc)
बच्चियों में शिक्षा के प्रसार के कारण युवकों और युवतियों के बीच सामाजिक संबंध का बढ़ना स्वाभाविक है और इसके चलते अंतरधार्मिक विवाहों को रोका नहीं जा सकता। महिलाओं को पुरूषों के नियंत्रण में रखना साम्प्रदायिक राजनीति का अभिन्न अंग है।
-राम पुनियानी
इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक हालिया निर्णय में कहा है कि दो विभिन्न धर्मो के व्यक्तियों के परस्पर विवाह के लिए धर्मपरिवर्तन करना अनुचित है क्योंकि विशेष विवाह अधिनियम में अलग-अलग धर्मों के व्यक्तियों के बीच विवाह का प्रावधान है। मामला एक मुस्लिम महिला के हिन्दू पुरूष से विवाह करने के लिए धर्मपरिवर्तन करने का था।
इस निर्णय के उपरांत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुस्लिम पुरूषों के विरूद्ध एक अभियान छेड़ दिया है। उनके अनुसार, मुस्लिम युवक अपनी धार्मिक पहचान छिपाकर हिन्दू लड़कियों को अपने जाल में फंसाते हैं और फिर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर करते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों के विरूद्ध सख्त कार्यवाही की जाएगी और उनकी अर्थी निकाली जाएगी (राम नाम सत्य है)। सख्त चेतावनी देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि इस तरह की घटनाएं नहीं होने दी जाएंगी और इसके लिए शीघ्र ही एक कानून बनाया जाएगा।
उन्होंने यह घोषणा भी की कि जो लोग इस तरह की गतिविधियों में संलग्न होंगे उनके पोस्टर सार्वजनिक स्थानों पर लगाए जाएंगे। उनसे प्रेरित होकर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने भी घोषणा की कि उनकी सरकार इस तरह के अंतर्धार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध लगाने के लिए शीघ्र ही एक कानून बनाएगी। मुस्लिम युवकों और हिन्दू युवतियों के विवाह को लांछित करने के लिए इन्हें ‘लव जिहाद’ कहा जाता है। इस तरह की शब्दावली के प्रयोग के चलते ऐसे विवाहों के बाद हिंसक घटनाएं आम हैं। ऐसा ही कुछ सन् 2013 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुआ था।
बीजेपी नेता चाहे जो कहें, हकीकत यह है कि अंतरधार्मिक विवाहों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। सच पूछा जाए तो ऐसी शादियां दोनों प्रकार की हुई हैं। अभी हाल में तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां ने एक हिन्दू से शादी की। इसका विरोध करते हुए उन्हें ट्रोल किया गया। इसी तरह का एक मामला निकिता तोमर का है, जिनकी एक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी। इस सिलसिले में तौसीफ और रेहान नामक दो व्यक्तियों की गिरफ्तारी हुई है। ‘क्षत्रिय लाईव्स मैटर’ हैशटैग के साथ इस घटना को लव जिहाद बताते हुए प्रचारित किया जा रहा है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि संसद में आधिकारिक वक्तव्य देते हुए केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने कहा था कि लव जिहाद जैसी कोई चीज नहीं है। उन्होंने यह बात केरल के एक सांसद द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में कही थी। सांसद ने यह जानना चाहा था कि क्या केरल में लव जिहाद की घटनाएं हुई हैं। रेड्डी ने यह भी सूचित किया था कि लव जिहाद के आरोप की वास्तविकता जानने के लिए जांच-पड़ताल की गई और यह आरोप बेबुनियाद पाया गया।
लव जिहाद शब्द अकीला नामक महिला के अंतरधार्मिक विवाह के बाद चलन में आया। इस हिन्दू लड़की ने एक मुस्लिम युवक से शादी की और अपना नाम बदलकर हादिया रख लिया। इस मुद्दे को लेकर एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में केरल उच्च न्यायालय के आदेश को पलटते हुए हदिया को अपने पति के साथ रहने की इजाजत दे दी।
इसी तरह का विवाद तनिष्क के विज्ञापन के बाद उभरा। इस विज्ञापन में एक हिन्दू वधू यह देखकर आश्चर्यचकित और प्रसन्न नजर आ रही है कि एक मुस्लिम परिवार में गोद भराई की हिन्दू रस्म अदा करने की तैयारी हो रही है। साम्प्रदायिक तत्वों ने न केवल इस विज्ञापन की निंदा की वरन् तनिष्क के उत्पादों के बहिष्कार की घोषणा भी कर डाली। इस धमकी के चलते कंपनी ने घुटने टेक दिए और विज्ञापन वापस ले लिया। यह आरोप लगाया गया कि इस तरह के विज्ञापन लव जिहाद को प्रोत्साहित करते हैं।
‘लव जिहाद’ को रोकने के लिए उत्तरप्रदेश और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने अनेक कदम उठाने की घोषणा करने के साथ-साथ लगे हाथों हिन्दू अभिवावकों को यह सलाह भी दी कि वे यह नजर रखें कि उनकी बेटियां किस से मिल रही हैं और मोबाइल पर किन लोगों से बात कर रहीं हैं। वे यह भी देखें कि उनकी लड़कियां कहाँ आती-जाती हैं।
कुल मिलाकर, हिन्दू युवतियों और महिलाओं पर नियंत्रण रखने की रणनीति तैयार की जा रही है। स्पष्ट है कि साम्प्रदायिक राजनीति का प्रमुख एजेंडा है हिन्दू महिलाओं और लड़कियों पर पूर्ण नियंत्रण. अल्पसंख्यकों - मुस्लिम और कुछ हद तक ईसाईयों - से घृणा इस तरह की साम्प्रदायिक राजनीति का मुख्य आधार है। इस तरह की राजनीति का मुख्य लक्ष्य लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू होने के पूर्व के जातिवादी समीकरणों और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना है। यदि ऐसा होता है तो इससे सामाजिक स्वतंत्रता कमजोर होगी।
बच्चियों में शिक्षा के प्रसार के कारण युवकों और युवतियों के बीच सामाजिक संबंध का बढ़ना स्वाभाविक है और इसके चलते अंतरधार्मिक विवाहों को रोका नहीं जा सकता। महिलाओं को पुरूषों के नियंत्रण में रखना साम्प्रदायिक राजनीति का अभिन्न अंग है। चाहे साम्प्रदायिकता मुस्लिम हो या ईसाई, पुरूषों का महिलाओं पर नियंत्रण सभी का अभिन्न अंग है।
जहां तक हिन्दू साम्प्रदायिकता का प्रश्न है, उसके द्वारा बार-बार यह प्रचारित किया जाता है कि हिन्दू महिलाओं को इस्लाम कुबूल करने के लिए बाध्य किया जाता है। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि हिन्दुत्व के मुख्य चिंतक सावरकर ने छत्रपति शिवाजी, जो हिन्दू सम्प्रदायवादियों के आराध्य हैं, की इसलिए निंदा की थी कि उन्होंने बसेन के मुस्लिम सूबेदार की बहू को आजाद कर दिया था जिसे उनके सिपाही उपहार के रूप में उन्हें भेंट करने के लिए लाए थे। इसी कारण सावरकर, जो वैसे शिवाजी के प्रशंसक थे, ने शिवाजी के शासनकाल को अपनी पुस्तक ‘सिक्स ग्लोरियस ऐपक्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री’ में शामिल नहीं किया था।
आज से बहुत पहले, सन 1920 के दशक के आसपास, जब मुस्लिम सम्प्रदायवाद के समानांतर हिन्दू सम्प्रदायवाद विकसित हो रहा था, तब भी मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या को हिन्दुओं के लिए खतरा बताया जाता था। चारू गुप्ता अपनी पुस्तक ‘मिथ ऑफ़ लव जिहाद’ में एक दिलचस्प टिप्पणी करते हुए कहती हैं कि ‘हिन्दू औरतों की लूट’ जैसे भड़काऊ शीर्षक वाले पम्फलेट, जिनमें मुसलमानों द्वारा हिन्दू महिलाओं का धर्मपरिवर्तन करवाने की निंदा की गयी थी, उस समय प्रकाशित किये गए थे। उसी दौरान एक आर्य समाजी द्वारा तैयार किये गए एक प्रकाशन में हिन्दू स्त्रियों की लूट के कारण गिनाये गए थे और उन्हें मुसलमान बनने से रोकने के उपाय भी. आज का लव जिहाद अभियान भी इसी तरह के तर्कों और भाषा का उपयोग कर रहा हैय़
इसी बीच आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि महिलाओं को घर- गृहस्थी के कामों तक स्वयं को सीमित रखना चाहिए और पुरूषों को कमाई करनी चाहिए।
हमारे वृहद समाज में अलग-अलग तरह की जीवन पद्धतियाँ हैं। विभिन्न जातियों और धर्मों के बीच मेलमिलाप एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस तरह के मेलमिलाप से लोग एक दूसरे के नजदीक आते हैं और कभी-कभी इनका अंत शादी-विवाह में होता है। डॉ अम्बेडकर ने अंतरजातीय विवाहों को जातिप्रथा के उन्मूलन का सबसे प्रभावशाली उपाय बताया था। भारत में अंतरजातीय विवाह कम ही होते हैं। अंतरधार्मिक विवाहों के मामले में तो स्थिति और भी खराब है। हिन्दू धर्म के तथाकथित रक्षक और मुस्लिम कट्टरवादी उन लोगों के खून के प्यासे हो जाते हैं जो धर्म की सीमाओं को लांघकर प्रेम और विवाह करते हैं।
-राकेश दीवान
आखिर लोकतंत्र का जरूरी कर्मकांड चुनाव हो ही गया। भारत के एक बडे और महत्वपूर्ण राज्य बिहार की विधानसभा, सरकार बनाने-बचाने की कशमकश वाले मध्यप्रदेश विधानसभा के 28 चुनाव-क्षेत्र और सुदूर अमरीका में वहां के राष्ट्रपति के चुनावों में किस्मत आजमाने वाले अपनी-अपनी वैतरणी पार कर चुके हैं। अब इस महीने के दूसरे सप्ताह में सभी जगह के परिणामों के उजागर होने का इंतजार है। कहा जाता है कि आज के लोकतंत्र में रोटी और सर्कस, दो ही महत्वपूर्ण धतकरम होते हैं और इस लिहाज से भी ये तीनों चुनाव अपनी-अपनी अहमियत बताते रहे हैं।
शब्दकोष के मुताबिक ‘घोडों का चलता-फिरता घेरा’ माना जाने वाला सर्कस व्यवहार में ऐसे करतबों के प्रदर्शन का स्थान होता है जहां इंसान और जानवर मिलजुलकर या अकेले हैरतअंगेज कारनामों से दर्शकों का मन लुभाते हैं। इस लिहाज से बिहार की बानगी लें तो तेजस्वीे यादव द्वारा उछाले गए दस लाख रोजगार के झुनझुने के अलावा कुल मिलाकर समूचे चुनाव बेहतरीन सर्कस-तमाशे से अधिक कुछ नहीं रहे। साढे चार में साढे पांच जोडकर दस लाख रोजगार का जादू बताने वाले तेजस्वी के इस झुनझुने ने भाजपा सरीखी राष्ट्रीय पार्टी को भी जबावी सर्कस करने पर मजबूर कर दिया। जिस भाजपा के आला नेताओं ने तेजस्वीे की रोजगार की घोषणा की एक दिन पहले खिल्ली उडाई थी, उसी भाजपा की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने, ठीक अगले दिन 19 लाख रोजगारों के सृजन की खुद बढकर घोषणा कर दी। अलबत्ता, पक्ष-विपक्ष की इन दोनों घोषणाओं में सरकारी नौकरियों के अलावा राज्य के भावी औद्यौगिकीकरण से आस बंधाई गई थी। अब इस पर किसी ने, हमेशा की तरह कोई ध्यान नहीं दिया कि औद्यौगिकीकरण रोजगार-सृजन में सर्वाधिक फिसड्डी साबित होता है, खासकर आज के मशीनीकरण यानि ‘मैकेनाइजेशन’ और स्वचालितीकरण यानि ‘ऑटोमेशन’ के दौर में उद्योगों से रोजगार पैदा करना टेढी खीर माना जाता है और यह बाकायदा आंकडों ने बार-बार साबित भी किया है।
डाक्टर-दवा-उपकरण विेहीन चिकित्सा व्यवस्था, शिक्षक-स्कूल-परीक्षा-नौकरी विहीन शिक्षा व्यवस्था और खाद-दवा-बाजार-भूमि विहीन कृषि सरीखी पारंंपरिक व्याधियों के अलावा अस्पताल-जांच-दवा विहीन कोविड-19 का आसन्न संकट और इसी संकट की चपेट में फंसे देशभर के परिवहन-भोजन-इलाज विहीन प्रवासी मजदूर जैसी अनेक समस्याएं बिहार के सामने मुंह बाए खडी रही हैं, लेकिन चुनाव को इन सबसे कोई मतलब है, ऐसा कतई महसूस नहीं होता। औपचारिक रूप से संसद में सरकार ने बता दिया था कि उसके पास देशभर के शहरों से वापस लौटे मजदूरों की कोई गिनती नहीं है, लेकिन अनौपचारिक रूप से माना जा रहा था कि मार्च के बाद से कुल एक करोड चार लाख मजदूरों ने अपने-अपने गांवों-देहातों की ओर ‘रिवर्स-माइग्रेशन’ किया था। कई शोधार्थियों ने आधे से अधिक प्रवासी बिहारी मानकर यह आंकडा करीब 14 करोड तक का बताया था। कमाल यह है कि राज्य की विधानसभा के चुनाव में अभी सात-आठ महीने पहले की इस बदहाली को किसी ने कोई मुद्दा ही नहीं माना। शहरों, उद्योगों से वापस लौटी विशाल श्रम-शक्ति के साथ क्या और कैसे करना है, इस पर कोई बहस नहीं चलाई गई। चुनाव लडने वाले सभी ‘पहलवान’ उद्योगों से रोजगार पैदा करने की माला जपते रहे, बिना यह जाने कि उद्योगों से आजकल बेरोजगारी ही पैदा होती है।
मध्यप्रदेश की 28 सीटों पर इससे भी बदहाल चुनाव हुए। सभी जानते हैं कि भाजपा के नाम से ‘पंजीकृत’ सरकार गिराने की पद्धति का उपयोग करते हुए बहुमत वाली 13 महीनों की कमलनाथ सरकार गिराई गई थी और ये चुनाव इसी उठा-पटक के नतीजे में हुए थे। यहां गद्दार बनाम वफादार के मुद्दे पर चुनाव लडा गया था। लगभग सभी सीटों पर पाला बदलने वाले पूर्व कांग्रेसी भाजपा की ओर से लड रहे थे और उनके पास अपनी हवस को सही साबित करने के अलावा कहने को कुछ भी नहीं था। दूसरी तरफ कांग्रेस में भी कुछ जगहों पर पूर्व-भाजपाई और कुछ ठेठ कांग्रेसी उम्मीदवार थे जिन्हें अपनी राजनीति को वैध ठहराना था। नतीजे में चुनाव के नाम पर जो हुआ वह सर्कस से बेहतर तो नहीं ही था। चाहते तो डेढ साल बनाम 15 साल के विकास के कामकाज पर वोट गिरवाई जा सकती थी, भाजपा ने 15 साल के अपने राज में ऐसे अनेकानेक मुद्दे उपलब्ध भी करवाए थे, लेकिन इसकी बजाए तरह-तरह के बेशर्म जुमलों, फूहड चुटकुलों और निजी आरोप-प्रत्यारोपों के सर्कस से काम चलाया गया।
दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र भारत की टक्कर में सबसे पुराने लोकतंत्र अमरीका की हालत इससे तो बेहतर ही थी, लेकिन प्रमुख रूप से उठने वाले पांच सवालों पर घिरे मौजूदा राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प की प्रतिक्रिया सर्कस से बेहतर नहीं कही जा सकती। कोविड-19 से निपटने में नाकामी, इसकी वजह से बढी आर्थिक बदहाली, नस्लीय-रंगभेदी तनाव, जलवायु परिवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों-नातों पर पूछे गए सवालों पर ट्रम्प का जबाव आमतौर पर बचकाना और मजाकिया ही रहा। अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव की समूची प्रक्रिया में ट्रम्प आमतौर पर अपने विरोधी जो बाइडेन पर हलके फिकरे कसते और छिछोरा सर्कस करते ही दिखाई देते रहे हैं। अब तक दो लाख 16 हजार अमरीकियों की जान लेने वाली कोविड-19 बीमारी पर काबू करने की बजाए राष्ट्रपति ट्रम्प उसकी खिल्ली उडाते रहे और अपनी शुरुआत की चुनावी रैलियों में मॉस्क-विहीन दिखाई देते रहे। सत्तावादी चीन का नाम न लेते हुए ट्रम्प ने जिस ‘अदृष्य दुश्मन के खिलाफ’ अमरीका को ‘युद्ध-मोर्चे’ पर दिखाया था, उससे निपटने में कोविड-19 पैदा करने वाले उसी चीन ने कमाल की रणनीति बनाई और कुल 4750 लोगों की बलि देकर हालातों पर काबू पा लिया।
शब्दकोष में सर्कस के लिए ‘घोडों के’ जिस ‘चलते-फिरते घेरे’ की बात की गई है उसमें मनोरंजन होना एक जरूरी शर्त है। ध्यान से देखें तो सबसे बडे और पुराने, दोनों तरह के छोरों पर लोकतंत्र यही करता दिखाई देता है। चुनावों को अपनी सम-सामयिक, बुनियादी और अत्यावश्यक समस्याओं को सत्ता और समाज के सामने रखने का अवसर मानने वालों को भारत के बिहार, मध्यप्रदेश और अमरीका के हाल के चुनावों को देख लेना चाहिए। उन्हें सर्कस के साथ कभी-कभार रोटी भी दिखाई दे तो लोकतंत्र सफल माना जाना चाहिए। पत्रकार शेखर गुप्ता ने गठबंधन सरकारों की तुलना ‘अश्वमेध यज्ञ’ के घोडे से की है, यानि अहमियत खत्म हो जाने के बाद, ‘अश्वमेध’ के घोडे की तरह गठबंधनों की बलि चढा दी जाती है। क्या हमारे चुनावों में सम-सामयिक मुद्दे भी यही हैसियत नहीं रखते? यानि जरूरत हो तो चुनाव-प्रक्रिया में कुछ मुद्दों को उछालकर चुनाव निपटते ही उनकी बलि चढा दी जाए? हालांकि ताजा चुनावों में तो यह भी होता नहीं दिखता।