विचार / लेख

समाजसेवा जैसा शब्द अब नेताओं के शब्दावली में नहीं
10-Nov-2020 2:59 PM
समाजसेवा जैसा शब्द अब नेताओं के शब्दावली में नहीं

रेखा सिंह

बिहार-खरखण्ड के चुनावी कार्यक्रम के दौरान मुझे बिहार, अपने राज्य को देखने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ!

बिहार वह नहीं है जो प्रतिदिन अखबारों के पन्नों में छपा होता है या टेलीविजनों के चैनलों के माध्यम से दिखाया जाता है। बिहार वह भी नहीं है जो राजनेताओं के जुमले या राजनैतिक दांव-पेंचों का केंद्र बना हुआ है! असल में बिहार वह है जो प्राकृतिक आपदा से तो तबाह है ही और राजनेताओं से लेकर छोटभैयन एवं सरकारी नौकरों के बुने हुए मकडज़ाल में फंसा हुआ तड़पता हुआ बिहार है। जहाँ भूखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, पलायन, अशिक्षा, लाचारी, बदहाली है, जिसे यहां की जनता अपनी किस्मत मान बैठी है!

जब शहर से दूर सुदूर गांव में जाएंगे तो असली बिहार नजऱ आता है। आज 2020 विधानसभा चुनाव का अंतिम चरण है, फिर से जनता एक बार अपने सपने को पूरा करने के लिए किसी योग्य उम्मीदवार को अपना मतदान करेगी लेकिन क्या सच में इस राजनीतिक तंत्र में कोई योग्य या जनता के लिए जीने-मरने वाला कोई नेता है?

सच तो यह है कि एक बार जीत हासिल कर लेने के बाद कभी कोई प्रतितिनिधि सुधि लेने नहीं आते हैं। आते हैं तब जब दूसरे चुनाव का बिगुल बज उठता है!

कमाल है, आज़ादी के 70 साल बाद भी यहां की जनता पेट के लिए ही लड़ाई लड़ रही है। पेट के लिए मजबूरन अपना राज्य  छोडऩे को मजबूर है! यहां देखने वाली बात यह है कि जब हम पेट से उबर नहीं पाएं हैं तो आगे क्या सोंच पाएंगे?

शो के दौरान हम अपनी टीम के साथ सुपौल और पूर्णिया विधानसभा गए थे। पूर्णिया शहर से जैसे ही निकल कर पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्रीजी के गांव पहुंची, वहां की स्थिति देखने लायक थी!

मुझे तो ऐसा महसूस हो रहा था जैसे फणीश्वरनाथ रेणु जी की कालजयी रचना ‘मैला आँचल’ का सारा दृश्य मेरे आखों के सामने जीवंत हो रहें हों! वही गरीबी, वही अशिक्षा.. वहाँ स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चला कि अभी भी यहां के लोग भूख से मरते हैं! अस्पताल और स्कूल दोनों मात्र कहने के लिए हैं। वहां कई ऐसे घर हैं जहां अभी भी कई-कई दिनों तक चूल्हे नहीं जलते! कारण गरीबी! कोई रोजगार नहीं, खेती भी वैसी नहीं कि उसके भरोसे जीवन जिया जाय। महंगाई ऐसी की प्रतिदिन 300 रुपये मात्र कमाने वाला श्रमिक कैसे अपना परिवार चला पाएगा?

कोरोना काल में भूख से मरने वाले मजदूरों की संख्या बहुत थी लेकिन इसकी चर्चा कहीं नहीं की गई और न ही ये किसी नेता को ये खास मुद्दा ही लगा। जो मजदूर, दूर देश से अपना रोजी-रोटी छोडक़र,जान बचाने अपने गांव पहुंचे थे कि गांव में महामारी से वे बच जाएंगे लेकिन उनके साथ एकदम उल्टा हुआ, महामारी तो उन्हें छूने से रही लेकिन भूख और गरीबी ने उन्हें लील लिया।

पता नहीं सरकारी सहयोग अगर मिला तो इन गरीबों तक क्यों नहीं पहुँच पाया?

हालांकि इस मुद्दे पर किसी नेता ने अपना शांति भंग नहीं किया, उन सब के लिए तो वही बात थी ‘सब धन बाइसे पसेरी’ और तो और स्वर्गीय मुख्यमंत्री भोला पासवान जी के परिजनों की भी स्थिति उस दृश्य से अलग न थी।

जहाँ, भोला पासवान जी का जन्म हुआ था वहां भी घास  और बांस से बनी एक मात्र झोपड़ी थी और वर्षों पहले मिला एक इंदिरा आवास भी था जिसमें न दरवाजा दिखा न खिड़कियां ही थी।

कितनी दु:ख की बात है, जो आदमी अपनी पूरी जि़ंदगी देश सेवा में झोंक दिया हो, अखण्ड बिहार का तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रह चुका हो, आज उसके घर पर एक छप्पड़ तक नहीं। गांव में एक ढंग का स्कूल नहीं, जहां जाकर बच्चे शिक्षा ग्रहण कर सके!

आज नेताओं के पास एक-दूसरे को नीचा दिखाकर वोट बटोरने के अलावे कोई मुद्दा नहीं है। राम-रहीम के नारा लगाकर, भाई-भाई को आपस में लड़वाकर कैसे भी कुर्सी पर डटे रहने या छिनने के प्रयास में लगे रहतें हैं। वादे तो ऐसे किए जा रहें हैं, जैसे इस विधानसभा चुनाव से पहले न कोई चुनाव हुआ था ना ही होगा!

आज के समय में नेता शब्द का मतलब ही बदल गया है! आज नेता का मतलब बड़बोला, दागी, धन्नासेठ,और हर हाल में कुर्सी को हथियाने वाला एक दोहरे चरित्र का व्यक्ति! समाजसेवा जैसा शब्द अब इनके शब्दावली में नहीं होता।

(न्यूज़ 18 में ‘भाभी जी मैदान में हैं’  कार्यक्रम की वजह से पूरा बिहार घूमने वाली अभिनेत्री रेखा की टिप्पणी)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news