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बिहार के प्रवासी: दो वक़्त की रोटी के लिए दिल्ली में फँसी 'ज़िंदा क़ौमें'
07-Nov-2020 5:33 PM
बिहार के प्रवासी: दो वक़्त की रोटी के लिए दिल्ली में फँसी 'ज़िंदा क़ौमें'

ज़िंदा क़ौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं.

उत्तर पूर्वी दिल्ली के सोनिया विहार में दो दिन बिताने के बाद समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की कही ये बात बार-बार ज़हन में घूमती हैं.

लोहिया का कहना था कि बुनियादी अधिकारों के लिए पाँच बरस तक इंतज़ार नहीं किया जा सकता लेकिन बिहार के लाखों प्रवासी न जाने कितने दशकों से इंतज़ार ही कर रहे हैं.

वैसे तो बिहार के लोग पूरे देश और पूरी दिल्ली में हैं लेकिन यमुना तट के क़रीब बसा सोनिया विहार, दिल्ली में बिहारी प्रवासियों के घर जैसा है.

सात लाख से ज़्यादा आबादी वाले इस इलाक़े में बड़ी संख्या बिहारियों की है.

ये वो आबादी है जो ज़िंदा रहने के लिए 1,500 किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबा सफ़र तय कर दिल्ली चली आती है.

यहाँ किराए के एक कमरे में रहने वाले बिहार के लोग भी हैं और वो लोग भी जो कई वर्षों के संघर्ष के बाद किसी तरह 33 गज का घर ख़रीदने में कामयाब रहे.

बिहार में होने वाले चुनाव की धमक दिल्ली तक सुनाई देती है मगर सवाल ये है कि क्या कमाई, दवाई और पढ़ाई की तलाश में दिल्ली आए इन लोगों की पुकार उनके अपने ही गृहराज्य तक पहुँच पाती है?

बिहार के उन लोगों का क्या जो विधानसभा चुनाव में वोट देने घर नहीं जा पाए? सरकार चुनने के अधिकार का इस्तेमाल ये क्यों नहीं करना चाहते?

इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमने सोनिया विहार में रहने वाले कई प्रवासी बिहारियों से बात की. इनमें से कुछ लोगों के मन की बात हम यहाँ साझा कर रहे हैं.

दीपक कुमार भोलानाथ, दिहाड़ी मज़दूर (पटना)

26 साल के दीपक को महज़ सात बरस की उम्र में दिल्ली आना पड़ा था. वजह-पेट पालने की मजबूरी. आठवीं तक पढ़े दीपक के लिए बिहार में न अपनी ज़मीन थी और न कमाई का कोई ज़रिया. अब वो दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं.

दीपक अपनी गर्भवती पत्नी के साथ एक 2,500 रुपये प्रतिमाह किराए वाले एक छोटे से कमरे में रहते हैं. कमरे में लगे बिस्तर पर दीपक की पत्नी सजावट का कुछ सामान बनाती नज़र आती हैं.

कोने में खाना बनाने का इंतज़ाम किया गया है और खिड़की पर बनी सँकरी सी जगह में बर्तन सँभालकर रखे हुए हैं. कमरे की दीवार पर नवजात शिशुओं की चार-पाँच तस्वीरें लगी हुई हैं, जिनकी ओर देखकर दीपक की पत्नी मुस्कुरा देती हैं.

दीपक बताते हैं कि दिल्ली में रहते हुए सबसे ज़्यादा मुश्किल उन्हें लॉकडाउन के दौरान हुई जब काम पूरी तरह ठप हो गया. अपने कई साथियों के उलट दीपक ने लॉकडाउन में बिहार वापस न जाकर दिल्ली ही रुकने का फ़ैसला किया.

वजह पूछने पर वो कहते हैं, “जाते भी तो फिर लौटकर यहीं आना पड़ता. जाने की कोशिश भी करते तो कोई साधन नहीं था. घरवाली पेट से थी. उसे साथ लेकर कैसे जाता?”

लॉकडाउन के समय घर में न पैसे थे और न राशन. पास के एक स्कूल में कभी दिल्ली सरकार तो कभी कुछ एनजीओ चावल-गेहूँ पहुंचाते थे, जिनके सहारे गुज़ारा हुआ.

दीपक बताते हैं, “जो राशन मिलता था वो खाने लायक नहीं था. चावल में कीड़े निकलते थे. कई बार बना हुआ खाना मिलता था. वो भी आधा कच्चा रहता था. लेकिन भूखे तो नहीं मर सकते थे इसलिए वही खा लेते थे.”

लॉकडाउन की पाबंदियों में ढील के बाद दीपक को अब थोड़ा-बहुत काम मिलने लगा है लेकिन अब भी ऐसा होता है जब तीन-चार दिन लगातार उन्हें घर बैठना पड़ता है.

दीपक एक कर्मठ नौजवान हैं लेकिन ग़रीबी और तकलीफ़ों ने उनका लोकतंत्र, सरकार, राजनीति और चुनाव जैसी चीज़ों से भरोसा उठा दिया है.

वोट के सवाल पर वो कहते हैं, “क्या करेंगे वोट देकर? कोई हमारे लिए काम नहीं करता. सरकार ही हमारे पेट पर लात मारती है. हम ठेला लगाते हैं तो पुलिस वाला आ जाता है.''

दीपक अर्थशास्त्र की ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ और उसकी आलोचनाओं से भले वाकिफ़ न हों लेकिन वो ज़ोर देकर कहते हैं, “सरकार ऐसे काम करती है कि अमीर और अमीर हो जाता है, ग़रीब और ग़रीब हो जाता है.”

दीपक के पास कोई बीमा भी नहीं हैं. वो बताते हैं, “मैं एलआईसी का एक बीमा लेना चाहता था लेकिन उसका फ़ॉर्म ही मुझसे भरा नहीं गया. इस चक्कर में मेरे कुछ पैसे भी डूब गए.”

क्या उन्हें बिहार की याद आती है? क्या चीज़ें ठीक होने पर वो बिहार वापस जाना चाहेंगे?

इन सवालों पर दीपक नाराज़गी और दुख भरे स्वर में कहते हैं, “हमें बिहार की कोई याद नहीं आती. क्यों जाएंगे वहाँ? कोई बीमार पड़े तो अस्पताल पहुँचते-पहुँचते मर जाता है. क्या फ़ायदा बिहार में रहने से?”

सरिता और बबीता देवी

सरिता और बबीता, गृहिणी (खगड़िया)

बिहार के खगड़िया ज़िले की सरिता और बबीता देवी हमें परचून की एक दुकान पर ख़रीदारी करती हुई मिलीं. दोनों हाथों में मेहँदी की लाली थी.

वैसे तो बिहार में करवा चौथ के व्रत का प्रचलन नहीं है लेकिन इसे दिल्ली का माहौल कहें या बॉलीवुड का असर, अब बिहार की कई महिलाएँ भी करवा चौथ का व्रत रखने लगी हैं. सरिता और बबीता देवी ने भी व्रत किया था.

दोनों के ही पति तकरीबन 20 साल पहले काम की तलाश में दिल्ली आए थे और फिर वो दिल्ली के ही होकर रह गए. वो तो दिल्ली के हो गए लेकिन शायद दिल्ली उनकी नहीं हुई.

सरिता और बबीता दोनों को इस बात का दुख है कि दिल्लीवाले उनकी गिनती ‘अपने जैसों’ में नहीं करते.

बबीता देवी कहती हैं, “उन्हें लगता है कि ये बिहार से आए हैं. भूखे हैं, ग़रीब हैं.”

सरिता कहती हैं, “वो हमें अपने से नीचा समझते हैं.”

हालाँकि दोनों का ये सुकून भी है कि दिल्ली में कम से कम उन्हें भरपेट खाना तो मिल रहा है.

चार बच्चों की माँ सरिता देवी कहती हैं, “हमारे आदमी मज़दूरी करते हैं लेकिन दोनों वक़्त का खाना मिलता है. यही बहुत है. बिहार में मेरे ससुर हैं, देवर हैं. दोनों घर बैठे हैं. कोई काम नहीं है. यहाँ कम से कम कुछ काम तो है.”

बबीता को वोट देने न जा पाने का दुख है लेकिन वो इसके लिए कुछ कर नहीं सकतीं. वो कहती हैं, “बिहार जाने के लिए किराया-भाड़ा चाहिए. पूरा एक दिन लगता है ट्रेन से जाने में. जाएंगे तो इधर मज़दूरी का भी नुक़सान होगा. हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते.”

दोनों कहती हैं, “दस आदमी वोट देता है तो हमारा भी मन होता है. हम सरकार से बस यही चाहते हैं कि हम गरीबों को साधन-सुविधा धे. हमारे-खाने कमाने का इंतज़ाम करे.”

सरिता को बिहार में छूट गए घर-परिवार की याद तो आती है लेकिन बच्चों की भलाई के लिए वो अभी दिल्ली में ही रहना चाहती हैं.

वो कहती हैं, “अभी दिवाली आ रहा है, छठ आ रहा है, पैसे वाले घर जाएंगे. हमारा आत्मा रोएगा...’’

सरिता देवी छठ गीत की कुछ लाइनें गुनगुनाती हैं- बहँगी लचकत जाय...

धर्मेंद चौधरी

धर्मेंद चौधरी, दिहाड़ी मज़दूर (सहरसा)

धर्मेंद चौधरी को दिल्ली आए अभी कुछ ही महीने हुए हैं. उनके 20 साल का बेटा पिछले चार-पाँच साल से दिल्ली में रहकर पेंट का काम करता था लेकिन लॉकडाउन के दौरान वो बीमार पड़ा और उसकी मौत हो गई.

धर्मेंद बताते हैं, “बेटा डेड कर गया तो घर में कमाने वाला कोई नहीं बचा. फिर हम यहाँ आ गए और ठेला चलाने लगे.”

धर्मेंद कहते हैं कि बिहार में रोज़गार की कमी तो है ही साथ ही भ्रष्टाचार की समस्या भी काफ़ी बड़े पैमाने पर है.

वो कहते हैं, “हम तो बस कमाने-खाने इधर हैं. बिहार में काम मिलेगा तो वहां चले जाएंगे. सरकार वहाँ कोई कारखाना खोल दे. नौकरी दे दे. हमें कमाने-खाने का साधन दे दे. हम वहीं चले जाएंगे.”

धर्मेंद कहते हैं कि बीते कुछ समय में बिहार में बिजली, पानी, सड़क और स्कूलों की स्थिति में तो थोड़ा सुधार आया है लेकिन बात जब इलाज की आती है तो हालात जस के तस हैं.

वो कहते हैं, “गाँव के अस्पताल कैसे होते हैं, सब जानते ही हैं. जब किसी को बड़ी बीमारी होती है, कोई मरने लगता है तो हमें ट्रेन बुक कराके दिल्ली ही आना पड़ता है. एक बार हमारी माँ की तबीयत ख़राब हुई. वहां खेत गिरवी रखकर 40 हज़ार खर्चा किया तब भी ठीक नहीं हुईं. यहाँ जीबी पंत में उनका जान बचा. ”

हालाँकि इन सभी तकलीफ़ों और दुश्वारियों के बावजूद धर्मेंद्र आशावादी बने हुए हैं. वो कहते हैं, “इस बार बोला तो है इतना नौकरी-नौकरी. देखिए, शायद कुछ हो जाए.”

न यहाँ के न वहाँ के

पिछली जनगणना (2011) में दिल्ली में बिहारी प्रवासियों की संख्या 2,172,760 बताई गई थी.

महानगरों और विकसित राज्यों में प्रवासी कामगरों, ख़ासकर प्रवासी मज़ूदरों को लेकर अक्सर राजनीति होती रहती है.

लॉकडाउन के दौरान मज़दूरों को घर पहुँचाने को लेकर दिल्ली में केजरीवाल और बिहार में नीतीश सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप लगे थे.

दिल्ली की सीमाएँ बंद करते समय भी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह तर्क दिया था कि अगर यूपी-बिहार के लोग इलाज के दिल्ली आ जाएंगे तो यहाँ के बेड भर जाएंगे.

लॉकडाउन में पैदल, साइकिल और ठेले पर हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय कर अपने गृहराज्य पहुँचते मज़दूरों को देखकर भी बार-बार यही बात सामने आई कि जो मज़दूर शहरों को चलाते हैं, मुसीबत में उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है.

दुलारी देवी

पलायन और प्रवास का चक्र

इसी तरह दिल्ली स्थित एम्स में बिहार से बड़ी संख्या में लोगों के आने को लेकर भी विवाद होता रहता है.

कांग्रेस नेता और दिल्ली की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने साल 2007 में कहा था कि दिल्ली में सुविधाओं में लगातार इज़ाफ़ा किया जाता है लेकिन हर साल यूपी-बिहार के लाखों लोग आ जाते हैं और उन्हें रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं है.

बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी ने हाल में दिए एक इंटरव्यू में बिहार के लोगों के पलायन से जुड़े एक सवाल में कहा था कि बिहारियों को दूसरी जगह जाकर काम करने में मज़ा आता है.

उन्होंने कहा, ''बिहार के लोगों का यह स्वभाव है. उन्हें बाहर जाकर काम करने में आनंद आता है. हाँ, अगर कोई सिर्फ़ रोज़ी-रोटी कमाने बाहर जाता है, तो ये ग़लत है.''

इस बार के चुनाव में उम्मीदवारों रोज़गार और नौकरियों का मुद्दा बार-बार उठाया. आरजेडी की ओर से तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियों का वाद किया तो नीतीश कुमार ने इसे ‘बोगस वादा’ बताया.

अब सवाल ये है कि क्या इन वादों के भरोसे बिहार लौटेने की हिम्मत जुटा पाएंगे? क्या उन्हें कभी पलायन और प्रवास के चक्र से मुक्ति मिल सकेगी? (bbc)

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