विचार/लेख
एनआरसी के मुद्दे पर असम में भारी हिंसा हो चुकी है और कई लोग आत्महत्या भी कर चुके हैं. बावजूद इसके एनआरसी पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है.
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असम में अवैध बांग्लादेशी नागरिकों की शिनाख्त कर उनको निकालने के लिए शुरू हुई नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानी एनआरसी पर शुरू से ही विवाद रहा है. एनआरसी की अंतिम सूची से 19 लाख लोगों के नाम बाहर रखे गए थे. पहले इसके सटीक होने का दावा किया गया. लेकिन उसके बाद राज्य में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने ही इसे कठघरे में खड़ा कर दिया. इससे एनआरसी की पहेली सुलझने की बजाय लगातार उलझती जा रही है.
इससे पहले गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी एनआरसी की कवायद पर सवाल उठाते हुए तीन सप्ताह के भीतर इस पर हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया था. सरकार ने अब सुप्रीम कोर्ट से एनआरसी की अंतिम सूची में 15 फीसदी नामों के दोबोरा सत्यापन की अनुमति देने की मांगी है.
उसका कहना है कि सूची में अवैध बांग्लादेशी नागरिकों के नाम भी शामिल हैं. इससे एनआरसी की पूरी कवायद कठघरे में है. पहले भी तमाम पार्टियां और संगठन ऐसे आरोप लगाते रहे हैं. वरिष्ठ मंत्री और बीजेपी नेता हिमंत बिस्वा सरमा ने माना है कि अंतिम सूची में कई अवैध बांग्लादेशियों के नाम शामिल हैं.
उलझी समस्या
तमाम विवादों और आरोपों के बीच तैयार एनआरसी की अंतिम सूची भी असम में बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या का समाधान नहीं कर सकी है. उलटे इस सूची ने घुसपैठ के मुद्दे को और उलझा दिया है. अब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि अंतिम सूची में शामिल कम से कम 15 फीसदी नामों का दोबारा सत्यापन जरूरी है.
इस बीच, असम के वरिष्ठ बीजेपी नेता और राज्य के वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एनआरसी को मौलिक रूप से गलत बताते हुए कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने अनुमति दी तो विधानसभा चुनावों के बाद दोबारा नए सिरे से एनआरसी की कवायद शुरू की जाएगी.
सरमा ने अवैध बांग्लादेशियों को आधुनिक मुगल करार दिया है. वह कहते हैं, "ऐसे मुगल असमिया जनजीवन के हर पहलू में प्रवेश कर चुके थे और उनको रोकने के लिए एक लंबी राजनीतिक लड़ाई जरूरी थी. अगले पांच साल तक इसे जारी रखने की स्थिति में उनको हराया जा सकेगा. इस लड़ाई में एनआरसी और परिसीमन सबसे मजबूत हथियार हैं.”
दरअसल, एनआरसी की अंतिम सूची में बड़ी संख्या में अवैध बांग्लादेशियों के नाम निकलकर सामने आए हैं. इसी के बाद असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अंतिम सूची में शामिल नामों का दोबारा सत्यापन करने और 10 प्रतिशत नामों को हटाने की अनुमति मांगी है. हिमंत का आरोप है कि एनआरसी के तत्कालीन प्रदेश संयोजक प्रतीक हजेला ने पूरी प्रक्रिया को गलत तरीके से संचालित किया था. यही तमाम विवादों की जड़ है.
असम सरकार पहले से ही कहती रही है कि वह एनआरसी की अंतिम सूची को दोबारा सत्यापन के लिए कृतसंकल्प है. खासकर सीमावर्ती इलाकों में शामिल लोगों में से 20 फीसदी नामों का दोबारा सत्यापन जरूरी है. मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने डिब्रूगढ़ में एक रैली में कहा था, "हम सही एनआरसी चाहते हैं. अभी तैयार एनआरसी की सूची में कई गलतियां हैं. राज्य के लोग इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे. इसमें कई अवैध विदेशियों के नाम भी शामिल हैं.”
गुवाहाटी हाईकोर्ट की लताड़
इससे पहले बीते महीने के आखिर में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान एनआरसी के प्रदेश संयोजक को जमकर लताड़ते हुए सवाल उठाया था कि आखिर इतनी कड़ी प्रक्रिया के बावजूद एनआरसी में विदेशियों के नाम कैसे शामिल हो गए? अदालत ने हलफनामे के जरिए तीन सप्ताह के भीतर इस सवाल का जवाब मांगा है.
न्यायमूर्ति मनोजित भुइयां और न्यायमूर्ति सौमित्र सैकिया की खंडपीठ ने एनआरसी के प्रदेश संयोजक को उन वजहों को बताने का निर्देश दिया है जिनके चलते अयोग्य लोगों के नाम भी सूची में शामिल हो गए. यह याचिका नलबाड़ी जिले की रहीमा बेगम ने दायर की थी. विदेशी न्यायाधिकरण ने उनको विदेशी घोषित कर दिया था. लेकिन उसके बाद घोषित एनआरसी की अंतिम सूची में उनका नाम शामिल था.
दूसरी ओर, बीते साल 31 अगस्त को जारी एनआरसी की अंतिम सूची से जिन 19 लाख लोगों के नाम बाहर रखे गए थे उन्हें अब तक इससे संबंधित कागजात यानी रिजेक्शन स्लिप नहीं दिए गए हैं. नतीजतन उनका भविष्य भी अनिश्चित है. इस कागजात के मिलने के बाद ही ऐसे लोग विदेशी न्यायाधिकरणों में अपील कर सकते हैं. एनआरसी अधिकारियों की दलील है कि कोरोना की वजह से अब तक यह स्लिप जारी नहीं की जा सकी है. इसके साथ ही राज्य सरकार ने भी फिलहाल इस मामले की जांच पूरी नहीं होने तक स्लिप जारी करने पर रोक लगा दी है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि असम में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के दौरान यह सबसे प्रमुख मुद्दे के तौर पर उभरेगा. एक पर्यवेक्षक जितेन हजारिका कहते हैं, "बीजेपी इस मुद्दे को चुनावों तक खींचना चाहती है. इसके जरिए वह खुद को राज्य के लोगों की सबसे बड़ी हितैषी साबित कर इसका सियासी फायदा उठाना चाहती है. साथ ही इसके गलत होने का दावा कर वह विपक्ष के हाथों से उसके मजबूत हथियार की धार को कुंद करने का भी प्रयास करेगी.”
गिरीश मालवीय
अमेरिका के 48 प्रतिशत वोटर्स ने ट्रम्प को वोट किया है और ट्रम्प की कोरोना के संबंध में क्या सोच है यह हम सब अच्छी तरह से जानते हैं। इसका मतलब साफ है कि अमेरिका जिसे बेहद समझदार मुल्क माना जाता है जो तकनीक और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया को लीड करता है वहाँ की 48 फीसदी आबादी कोरोना को फर्जी महामारी मानती है, उसे हॉक्स मानती है! वो भी तब जब दुनिया में सबसे अधिक कोरोना केस अमेरिका में ही पाए गए हैं और मौतें भी सबसे अधिक वहीं हुई है। 48 फीसदी अमेरिकी जनता का ट्रम्प का साथ देना एक बहुत बड़ी घटना है क्योंकि पश्चिमी मीडिया यहाँ हमें अब तक यही बात बता रहा था कि ट्रम्प तो बुरी तरह से हारने वाले हैं जबकि सच्चाई अब हमारे सामने है और वो यह है कि वोट काउंटिंग को तीन दिन हो चुके हैं और आज भी वह मुकाबले में बने हुए हैं ओर डर है कि वह कही वापसी नही कर जाए
यहाँ भारत में यह पोस्ट पढक़र बहुत से लोग हंसेंगे लेकिन उससे सच्चाई नहीं बदल जाएगी। आप 48 फीसदी आबादी के समर्थन को खारिज नहीं कर सकते। ऐसा नहीं है कि भारत का आम आदमी इस बात को नहीं समझता, लेकिन वह इस बारे में खुलकर अपने विचार व्यक्त नहीं करता। उसे लगता है कि उसने खुलकर अपनी बात रखी जोर-शोर से कोरोना को हॉक्स कहा, लॉकडाउन जैसे मूर्खतापूर्ण उपायों का विरोध किया तो उसे पुलिस पकड़ कर ले जाएगी जबकि पूरे यूरोप में लॉक डाउन का प्रयोग करने के विरोध में जनता स्वस्फूर्त प्रदर्शन कर रही है।
ऐसा क्यों है? क्या आपने कभी जानने की कोशिश की?
दरअसल आधुनिक युग में भारत में कोई महामारी की बात पहली बार ही सामने आई है लेकिन यूरोप में महामारियों के नाम पर डराने का सिलसिला बहुत पुराना है। सबसे पहले पाश्चात्य जगत में एड्स का भय फैलाया गया, ( एड्स पर अलग से पोस्ट लिखूंगा कभी) फिर 2002 में सार्स आया जो तेजी से 29 देशों में फैल गया। कमाल की बात यह है कि ये भी कोरोना वायरस परिवार से ही संबंधित बीमारी थी लेकिन यह वायरस आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया शायद तब विश्व की आर्थिक परिस्थितियां इस बीमारी का बोझ उठाने के काबिल नही थी
2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद आई स्वाइन फ्लू चर्चा में आया 2009 में इस पैनडेमिक को बहुत बड़ी आपदा के रूप में देखा जा रहा था इस बीमारी का भी यूरोप अमेरिका में बहुत हल्ला मचा यूरोप की सरकारों ने हजारों करोड़ की डील दवा निर्माताओं कम्पनियों से वैक्सीन ओर दवाओं के लिए की बाद में पता चला कि यह बीमारी उतनी बड़ी बिल्कुल भी नही थी जितना कि उसे बताया गया। बड़े पैमाने पर सरकारी भ्रष्टाचार के प्रकरण सामने आए। वहाँ का आम आदमी समझ चुका था कि यह सिर्फ डराने की ही बात थी।
2012 में एक और जानलेवा कोरोना वायरस मर्स-कोव (मिडल ईस्ट रेसिपेरिटरी सिंड्रोम) का प्रकोप सामने आया अब लोग वहाँ ऐसे वायरस की सच्चाई के बारे में अवेयर हो चुके थे।
फिर आया इबोला वायरस जिसके बारे में भी अनेक दुष्प्रचार किए गए लेकिन इतने सारे महामारियों के अनुमान से यूरोप अमेरिका की जनता में एक समझ विकसित हो गई थी ।
और जब 2020 में जब कोविड 19 का खौफ फैलाया गया और और कुछ बिके हुए पब्लिक हैल्थ एक्सपर्ट लॉकडाउन जैसे बेवकूफाना उपायों की अनुशंसा की तो शुरुआत में तो कोई कुछ नहीं बोला लेकिन बाद में बड़ी संख्या में जनता ऐसे उपायों के खिलाफ हो गई और अपने अनुभवों के आधार पर कोरोना को हॉक्स बताने लगी। लेकिन भारत की जनता तो छोडि़ए यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग भी इसके बारे कोई स्पष्ट सोच विकसित नहीं कर पाया इसलिए यहाँ शुरुआत में हम सभी बिलकुल हक्के-बक्के रह गए, और अभी बहुत से लोग सारी सिचुएशन को जानते-बुझते भी चुप्पी साधे हुए हैं।
लेकिन यूरोप-अमेरिका में लोग अवेयर है और ट्रम्प ऐसी ही जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उन्हें इतना बड़ा जन समर्थन मिलना यह दिखाता है उनकी बात में भी दम हैं और भारत के बुद्धिजीवियों को कोरोना के बारे में दुबारा सोचना होगा।
ओम थानवी
अर्णब गोस्वामी को ज़मानत नहीं मिली। अफ़सोस होता है कि एक पत्रकार- भले इस बीच पथभ्रष्ट पत्रकारिता करने लगा हो-जेल में है। इस बीच बहुत से संजीदा पत्रकार भी (जैसे हाल में हाथरस में) पुलिस ने पकड़े। तब पकडऩे वालों के विवेक पर तरस आया था। पर अर्णब पर किसी का देय धन डकार जाने और लेनदार माँ-बेटे को आत्महत्या के लिए मजबूर करने जैसे संगीन आरोप हैं। ऐसे ही सुधीर चौधरी, तरुण तेजपाल आदि जेल गए थे। हालाँकि उन पर लगे आरोप अलग तरह के थे। पर थे बुरे और निपट आपराधिक।
बहरहाल, अर्णब की गिरफ्तारी पर पत्रकारों में दो मत हैं- अपराध किया है तो उनका बचाव कैसा। दूसरा तबका कहता है कि यह तो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है।
अभिव्यक्ति वाली दलील देने वालों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, देश के गृहमंत्री, रक्षामंत्री, सूचना-प्रसारण मंत्री, कपड़ा मंत्री आदि से लेकर भाजपा-शासित विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री शामिल हैं। पार्टी की ट्रोल टुकड़ी भी। एबीवीपी वाले विभिन्न शहरों में गिरफ़्तारी के विरोध में सडक़ों पर उतरे हैं। किसी ने लिखा है कि ऐसा लगता है गोया भाजपा का अपना कोई कार्यकर्ता गिरफ़्तार कर लिया गया हो। और तो और, योगी आदित्यनाथ भी सहसा ‘अभिव्यक्ति’ के हिमायती हो गए हैं, जिनके प्रदेश में पत्रकारों पर अत्याचार का कीर्तिमान बन चुका है।
कुछ भाजपा-समर्थक पत्रकार भी-स्वाभाविक ही-अर्णब की गिरफ्तारी से आहत हैं। कुछ पहले से गंडा-बंध थे; कुछ अपनी बौखलाहट में पहचान लिए गए हैं। उनकी प्रतिक्रिया ऐसे भडक़ी है मानो उनका सगा धर लिया गया हो। कुछ (संघ-मोह के चलते) अपने फासिस्ट-समर्थक तेवर के बावजूद वॉल्तेयर की दुहाई दे रहे हैं। इतना ही नहीं, वे अर्णब की गिरफ़्तारी को वाजिब बताने वालों के खिलाफ मोर्चा ले उन्हें कांग्रेस के (शिवसेना के नहीं) प्रवक्ता ठहराने में भी लगे हैं।
लेकिन अगर आप फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि टटोलें तो अधिकांश पत्रकार मुखर और न्यायप्रिय मिलेंगे। वे इस गिरफ्तारी से विचलित नहीं, बल्कि मामले की समुचित जाँच के हक में हैं। वे पत्रकारिता (जैसी भी हो) और अपराध को अलग करके देखते हैं, अभिव्यक्ति के नाम पर संगीन अपराध के आरोपी का बचाव नहीं करना चाहते।
बहुत-से पत्रकारों ने लिखा है कि अपराध अपराध है; मुलजिम भले पत्रकार हो, पर उसकी हिमायत में पत्रकारिता को आड़ की तरह नहीं ताना जा सकता। मैं भी अपने आप को इसी मत का पाता हूँ।
इसका मतलब यह नहीं कि सरकार को बदले की भावना से काम करना चाहिए या पुलिस को ससम्मान पेश नहीं आना चाहिए। मगर मुल्क की हकीकत क्या हमें नहीं मालूम? इज्जतदार पत्रकारों पर देश में राजद्रोह तक के मुकदमे दर्ज हुए हैं। पुलिस ने ‘जी-जी’ वाला नहीं, शातिर अपराधियों जैसा बरताव पत्रकारों के साथ किया है।
लेकिन एक जगह का गलत आचरण दूसरी जगह औचित्य नहीं बन सकता। अगर शासन या पुलिस ज़्यादती करें तो इसकी आलोचना होनी चाहिए। आत्महत्याओं का मामला दुबारा खोलने में सरकार ने दुराग्रह रखा हो या पुलिस ने पत्रकार या उसके परिजनों से दुव्र्यवहार किया हो तो मुझे भी इसकी आलोचना में शरीक समझें। पर हम आत्महत्याओं और पत्रकार के यहाँ डूबे भुगतान से आहत माँ-बेटियों के प्रति भी मानवीय रवैया जाहिर करें।
पत्रकारिता स्वयं न्याय, संवेदनशीलता, ईमानदारी और मानवीय अधिकारों जैसे मूल्यों की वाहक होती है। किसी ‘अपने’ पर आ पड़ी तो सभी मूल्यों को तिलांजलि दे बैठना हद दरजे की नादानी होगी।
अर्णब की हाल की पत्रकारिता सांप्रदायिकता (याद करें पालघर) और चरित्रहत्या (उदाहरण रिया चक्रवर्ती) की तरफ़ जाने लगी थी। शायद चैनल चलाने (दूसरे शब्दों में विज्ञापन बटोरने) के लिए ऐसे हथकंडे काम आते हैं। टीआरपी के आपराधिक जुगाड़ पर उन पर अलग से मुक़दमा दायर है। लेकिन उस पर अभी बात नहीं; अभी बात अलग मसले की है।
बताया यह जा रहा है कि भाजपा काल में मुख्यमंत्री फडनवीस ने अर्णब की मदद की, जबकि मामला व्यवसाय में लेन-देन का था और कर्ज में डूबी कम्पनी के निदेशक माँ-बेटे ने तीन नाम जि़म्मेदार बताकर आत्महत्या कर ली थी।
जैसा कि मृतक की विधवा (कितनी जुझारू महिला है) ने कहा है, सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या में कहीं रिया का नाम नहीं लिया गया था, पर अर्णब अपने चैनल पर रिया को गुनहगार मानकर उसकी गिरफ्तारी का अभियान चला रहे थे। अब जब अदालत के आदेश से वह मामला फिर से खुल गया जिसमें अर्णब का नाम मृतक के हस्तलेख में दर्ज था, तो उस मामले में सहयोग न कर उसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोडऩा कहाँ की समझदारी है?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार दिवाली कैसे मनाई जाए, यह बहस सारे देश में चल पड़ी है। पश्चिम एशिया के देशों ने ईद मनाने में सावधानियां बरतीं और गोरों के देश क्रिसमिस पर उहापोह में हैं। दिवाली बस एक सप्ताह में ही आ रही है लेकिन उसके पहले ही देश में धुआंधार हो गया है।
दिल्ली शहर का हाल यह है कि लोग कोरोना से भी ज्यादा प्रदूषण से डर रहे हैं। मुखपट्टी लगाकर भी लोग घर से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं, क्योंकि हवा कितनी ही छनकर नाक के अंदर आएगी, वह होगी तो गंदी ही। अब कोरोना का कोप भी दुबारा फैल रहा है। इसके अलावा इस दिवाली पर लक्ष्मीजी की कृपा भी कम ही है तो क्या किया जाए? दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने 7 नवंबर से 30 नवंबर तक पटाखेबाजी पर रोक लगा दी है। ऐसी रोक प. बंगाल में पहले से लगी हुई है। देश के लगभग 100 शहरों में ऐसी रोक की भी तैयारी है।
मैं कहता हूं कि देश के सभी शहरों और गांवों में ऐसी रोक क्यों नहीं लगा दी जाए ? यदि एक साल पटाखे नहीं छुड़ाएंगे तो क्या बिगड़ जाएगा? दिवाली तो हर साल आएगी। जो संकट इस साल आया है, बस वह इसी साल का सिरदर्द है। अंधाधुंध बिजली जलाने के बजाय यदि आप घर पर एक—दो दिये या बल्ब जला लें तो क्या वह काफी नहीं होगा? यदि आप ऐसा करेंं तो क्या होगा?
हमारी जनता सरकारों से भी आगे निकल जाएगी। अपनी मन:स्थिति में हम उल्लास रखें लेकिन परिस्थिति उदास रहती है तो वैसी रहने दें। यदि मन:स्थिति उल्लासपूर्ण रखने की आपकी आदत पड़ जाए तो रोज ही आपकी दिवाली है। दिवाली के मौके पर लोग दूसरे के घर मिठाइयां और तले हुए नमकीन भेजते हैं। इनकी बजाय आप अपने मित्रों और रिश्तेदारों के यहां फल, मेवे, काढ़े के मसाले और भुने हुए नमकीन भेजें तो सबको स्वास्थ्य लाभ भी होगा। इस बार आप कुछ भी नहीं भेजें तो भी कोई बुरा नहीं मानेगा, क्योंकि सभी कडक़ी में हैं और एक-दूसरे के घर आने-जाने में भी खतरा है। जहां तक लक्ष्मीजी की पूजा का सवाल है, वह भी बिना किसी पंडित-पुरोहित और बिना धूमधाम घर में ही संपन्न हो सकती है।
मंदिरों और एक-दूसरे के घरों में भीड़ लगाए बिना सारा क्रियाकर्म पूर्ण किया जा सकता है। दिवाली के दूसरे दिन अन्नकूट और भाई दूज के सिलसिलों में भी इस बार भीड़ सेे बचने का प्रयास किया जाए तो बेहतर रहेगा। हम भारतीय लोग दिवाली के मौके पर ऐसा आचरण कर सकते हैं, जो क्रिसमस पर दुनिया के ईसाई राष्ट्रों के लिए भी अनुकरणीय बन सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बिहार में शनिवार को विधान सभा का अंतिम चरण का चुनाव हो रहा है. 78 सीटों पर सात नवंबर को होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के तीसरे व आखिरी चरण में जिस पार्टी की रणनीति कामयाब होगी, सत्ता उसी के हाथ आएगी.
डायचे वैले मनीष कुमार की रिपोर्ट
विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण में बिहार के पंद्रह जिलों में होने वाले 78 सीटों पर लड़ रहे 1204 प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला सात नवंबर को हो जाएगा. उम्मीदवारों में 1094 पुरुष तो 110 महिलाएं हैं. इससे पहले दो चरणों में हुए मतदान में वोटरों ने 165 सीटों पर अपना फैसला ईवीएम में दर्ज कर दिया है. नए गठजोड़ों के कारण इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सामने अपनी 43 सीटिंग सीटें बचाने की तो महागठबंधन के सामने अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने की चुनौती है. जिन पंद्रह जिलों में चुनाव होना है, उनमें सीतामढ़ी, समस्तीपुर, पूर्वी व पश्चिमी चंपारण, मुजफ्फरपुर, वैशाली, कटिहार, किशनगंज, सहरसा, दरभंगा, अररिया, मधेपुरा, पूर्णिया, मधेपुरा व सुपौल शामिल हैं. इन जिलों में कुल 2,35,54,071 मतदाता है जिनमें 1,23,46,799 पुरुष व 1,12,06,378 महिलाएं तथा 894 ट्रांसजेंडर हैं. ये सभी 33,782 मतदान केंद्रों पर अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे. उम्मीदवारों की सबसे अधिक संख्या मुजफ्फरपुर के गायघाट में हैं जहां से 31 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं.
मतदाताओं की संख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा विधानसभा क्षेत्र सहरसा तो सबसे छोटा हायाघाट (दरभंगा) है. जिन इलाकों में चुनाव होना है उनमें अल्पसंख्यकों, महिलाओं व प्रवासियों की संख्या अधिक है. किशनगंज में सर्वाधिक 68, कटिहार में 45, अररिया में 43 तो पूर्णिया में 38 फीसद मुस्लिम आबादी है. सीमांचल की 24 सीटों पर मुस्लिम वोटरों की संख्या 40 प्रतिशत से अधिक है. इस चरण में महागठबंधन की तरफ से राजद ने 46, कांग्रेस ने 25, सीपीआई (एमएल) ने पांच तथा सीपीआई ने दो उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे हैं जबकि एनडीए की ओर से जदयू से सर्वाधिक 37, भाजपा से 35, विकासशील इंसान पार्टी से पांच व जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा से एक प्रत्याशी ताल ठोक रहे हैं. इसके अलावा एनसीपी ने 31, लोजपा ने 42, असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम ने 21, मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने 19 तथा उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा ने 25 उम्मीदवार खड़े किए हैं. वहीं निबंधित 131 दलों के 561 एवं 382 निर्दलीय प्रत्याशी भी चुनाव मैदान में हैं. 2015 में इन 78 सीटों पर जदयू को 23, भाजपा 20, राजद को 20, कांग्रेस को 11, भाकपा (माले) को एक सीट पर विजय हासिल हुई थी. इस बार 23 सीटों पर राजद का जदयू से तथा 20 सीटों पर भाजपा से कड़ा मुकाबला है.
12 मंत्रियों के भाग्य का होगा फैसला
विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण में सीमांचल, मिथिलांचल, तिरहुत व कोसी की 78 सीटों पर नीतीश सरकार के बारह मंत्रियों के भाग्य का फैसला होगा. उनमें विजेंद्र प्रसाद यादव (सुपौल), रमेश ऋषिदेव (सिंहेश्वर), नरेंद्र नारायण यादव (आलमनगर), मदन सहनी (बहादुरपुर), विनोद नारायण झा (बेनीपट्टी), महेश्वर हजारी (कल्याणपुर), खुर्शीद आलम (सिकटा), प्रमोद कुमार (मोतिहारी), सुरेश शर्मा (मुजफ्फरपुर), लक्ष्मेश्वर राय (लौकाहा), कृष्ण कुमार ऋषि (बनमनखी) व बीमा भारती (रूपौली) शामिल हैं. दिवगंत मंत्री कपिलदेव कामत की बहू मीना कामत (बाबूबरही) व विनोद सिंह की पत्नी निशा सिंह (प्राणपुर) अपनी विरासत बचाने को जूझ रही हैं.
इनके अलावा विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी समस्तीपुर जिले के सरायरंजन से चुनाव मैदान में हैं. पूर्व मंत्री अब्दुलबारी सिद्दीकी (केवटी), विनय बिहारी (लौरिया), लेसी सिंह (धमदाहा) और रंजूगीता मिश्रा (बाजपट्टी) की किस्मत का फैसला भी इसी चरण में होना है. इनके अलावा अन्य प्रमुख लोग जो मैदान में हैं उनमें सीपीआई के राज्य सचिव रामनरेश पांडेय (हरलाखी), रमई राम (बोचहां), लवली आनंद (सहरसा), जदयू के प्रदेश प्रवक्ता निखिल मंडल (मधेपुरा), सिंहवाहिनी पंचायत की चर्चित मुखिया रीतू जायसवाल (परिहार), पूर्व मंत्री इलियास हुसैन की पुत्री आसमां परवीन (महुआ) व शरद यादव की बेटी सुभाषिणी शामिल हैं. ब्लॉक डेवलपमेंट आफिसर (बीडीओ) की नौकरी छोड़ गौतम कृष्णा महिषि से, नियोजित शिक्षक रहे अविनाश रानीगंज (सुरक्षित) से तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष रहे मंसूर अहमद दरभंगा के जाले विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं.
31 फीसद प्रत्याशियों का क्रिमिनल रिकॉर्ड
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) व बिहार इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के अनुसार तीसरे चरण में माननीय बनने की लालसा रख चुनाव लड़ने वाले कुल 1204 प्रत्याशियों में 31 प्रतिशत यानी 371 उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. दागी उम्मीदवारों की सर्वाधिक संख्या राजद में हैं. इसके 32 प्रत्याशी आपराधिक चरित्र के हैं जिनमें 22 के खिलाफ हत्या व बलात्कार जैसे गंभीर आरोप हैं. वहीं भाजपा के 26 प्रत्याशियों ने दायर हलफनामे में क्रिमिनल रिकॉर्ड की सूचना दी है जिनमें 22 पर गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं. जबकि जदयू के 21, जाप के 22, लोजपा के 18, कांग्रेस के 19 तथा रालोसपा के 16 उम्मीदवारों के खिलाफ किसी न किसी तरह अपराध में लिप्त रहने का आरोप है. इसके अतिरिक्त क्रिमिनल रिकॉर्ड वाले 233 प्रत्याशी ऐसे हैं जो अन्य निबंधित छोटे दल से या बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं.
कुर्सी बचाने की कोशिश
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 371 उम्मीदवारों में से 282 पर गंभीर अपराध के आरोप हैं. इनमें 37 के खिलाफ महिला अपराध में संलिप्त रहने का मामला दर्ज है जबकि इनमें से पांच पर बलात्कार का मुकदमा है. वहीं करीब 20 प्रत्याशियों पर हत्या तथा 73 पर हत्या की कोशिश का मामला चल रहा है. इनमें सर्वाधिक 14 मामले सीपीआई (एमएल) प्रत्याशी महबूब आलम के खिलाफ दर्ज हैं. स्थिति ऐसी है कि इस चरण की 78 सीटों में से 72 रेड अलर्ट क्षेत्र है, तात्पर्य यह कि इन सीटों पर आपराधिक चरित्र वाले तीन या उससे अधिक प्रत्याशी मैदान में हैं.
30 प्रतिशत प्रत्याशी करोड़पति
तीसरे चरण में चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों में 30 प्रतिशत यानी 361 उम्मीदवार करोड़पति हैं. इनमें सर्वाधिक अमीर वारिसनगर से रालोसपा प्रत्याशी बिनोद कुमार सिंह हैं जिनके पास 85.89 करोड़ की संपत्ति है. वहीं दूसरे नंबर पर मोतिहारी से चुनाव लड़ रहे राजद उम्मीदवार ओम प्रकाश सिंह हैं, जो 45.37 करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं. भाजपा के 31, बसपा के 10, कांग्रेस के 17, राजद के 35, लोजपा के 31, जदयू के 30 प्रत्याशी करोड़पति हैं. इन प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 1.46 करोड़ है. वहीं दरभंगा से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे शंकर कुमार झा ने अपने पास 32.19 करोड़ की संपत्ति होने की घोषणा की है.
नीतीश का मास्टर स्ट्रोक
चुनाव प्रचार के अंतिम दिन पूर्णिया जिले के धमदाहा में आयोजित अपनी आखिरी जनसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बार के चुनाव को अपना अंतिम चुनाव बताया. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अंत भला तो सब भला. जानकार बताते हैं कि "यह नीतीश का मास्टर स्ट्रोक है जो एंटी इंकमबैंसी फैक्टर को ध्यान में रखकर चलाया गया है." दरअसल इस इमोशनल कार्ड के पीछे उनकी नजर आखिरी चरण की 35 सीटों पर है जहां पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियां खासी असरदार हैं. कोसी व सीमांचल की जिन 20 सीटों पर जदयू चुनाव लड़ रहा, उनमें 12 उनकी सीटिंग सीट है और इनमें नौ सीटों पर पार्टी लगातार दो बार से चुनाव जीत रही है. जैसा कि अपेक्षित था,
नीतीश के ऐसा कहते ही सियासत गर्म हो गई. तेजस्वी यादव ने कहा, "मेरी बात सच साबित हुई. नीतीश जी थक चुके हैं. बिहार उनसे संभल नहीं रहा." वहीं लोजपा प्रमुख चिराग पासवान का कहना था, "जेल जाने के डर से वे ऐसा कह रहे. पांच साल का हिसाब दिया नहीं और यह भी बता दिया कि आगे का हिसाब भी नहीं देंगे." कांग्रेस महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला ने भी तंज कसते हुए कहा, "अब उन्हें हार दिख रही है इसलिए मैदान छोड़ रहे हैं." हालांकि जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा, "नीतीश कुमार ने प्रचार का संदर्भ लेते हुए कहा कि यह उनकी आखिरी सभा है. आज तीसरे चरण के चुनाव प्रचार का अंतिम दिन था इसलिए उन्होंने यह बात कही. राजनेता कभी रिटायर नहीं होता."
खेल बिगाड़ने की जुगत में छोटे दल
तीसरे चरण में बड़े राजनीतिक दल आपस में दो-दो हाथ तो कर ही रहे हैं, छोटे दल भी गठबंधन की छांव में उन्हें चुनौती दे रहे हैं. सीमांचल व कोसी प्रक्षेत्र में उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम तथा मायावती की बहुजन समाज पार्टी बड़े दलों का खेल बिगाड़ने की भरपूर कोशिश कर रही है. जानकार बताते हैं कि इन दोनों इलाकों में मिली जीत ही एनडीए का मार्ग प्रशस्त करेगी. वैसे भी सीमांचल की 24 सीटों पर 40 फीसद से ज्यादा मुसलमान एनडीए के लिए परेशानी का सबब बने हैं.
यही वजह है कि प्रचार के अंतिम चरण में भाजपा ने अपने फायरब्रांड नेता योगी आदित्यनाथ तथा गिरिराज सिंह जैसे नेताओं को उतारा. एनआरसी व सीएए के मुद्दे उछाले गए तथा घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात कही गई. ओवैसी पहले से ही इन मुद्दों को उठाते रहे हैं. दोनों का मकसद मतों का ध्रुवीकरण करना ही है. अल्पसंख्यक वोट बैंक में ओवैसी की सेंध ही महागठबंधन खासकर राजद के लिए चिंता का कारण है. वैसे अपने मकसद में कौन कितना कामयाब हो सका, यह तो दस नवंबर को ही पता चलेगा, जब मतपेटियां खुलेंगी.(dw.com)
- मौलाना अरशद मदनी
नई दिल्ली, 7 नवंबर । फ्रांस एक ऐसा देश है, जिसने वर्षों तक मोरक्को, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया जैसे मुस्लिम देशों पर शासन किया। कई मुसलमान अपनी आजीविका कमाने के लिए फ्रांस भी गए हैं और देश के वैध नागरिक बनने के लिए वहां बस गए हैं।
इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के मद्देनजर भी कई मुस्लिम और अन्य धर्मों के लोग फ्रांस गए और वहां बस गए, क्योंकि बहुत से लोग अपने देशों में आने वाली कठिनाइयों के कारण यूरोप और अमेरिका चले गए।
इन लोगों के पास विशेष रूप से यूरोप में कमोबेश यूरोपीय लोगों से अधिक या कम अधिकार हैं और अगर उनके पास अभी समान अधिकार नहीं है, तो वे कुछ समय बाद इन्हें प्राप्त कर लेंगे।
वहां की सरकारों ने उन्हें स्वीकार कर लिया और उन्हें वैसी ही सुविधाएं मुहैया कराईं जैसी यूरोपवासियों के पास हैं। प्रवासियों में से कई ने अपने शिल्प (क्राफ्ट) में कड़ी मेहनत की और धीरे-धीरे बड़ी सफलता हासिल की, जिससे लोगों के एक वर्ग में ईष्र्या पैदा हुई, जिससे उनके बीच एक सांप्रदायिक मानसिकता पैदा हुई।
यह घटना कमोबेश हर जगह देखी जाती है। कुछ लोग ईष्र्या करते हैं, जब वे देखते हैं कि कल के अजनबी या अश्वेत लोग आगे बढ़ रहे हैं और प्रगति कर रहे हैं। यह चंद ईष्यार्लु लोगों का तबका है, जो मस्जिदों को ध्वस्त कर रहा है, उन्हें आग लगा रहा है और निर्दोष उपासकों को मार रहा है।
यह ध्यान देने योग्य है कि इस समय फ्रांस में जो कुछ हो रहा है, उसके दो पहलू हैं : एक सरकार का पक्ष है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब भाषा और कलम की असीमित स्वतंत्रता है, जो पुरुष, महिलाओं, बुजुर्गों और पूर्वजों के सम्मान और गरिमा को नष्ट करने की अनुमति देती है। यह स्वतंत्रता किसी को भी दुनिया के किसी भी विशुद्ध (पवित्र) व्यक्ति के कार्टून बनाने की अनुमति देती है।
इसके अलावा, यह अधिक आश्चर्य की बात है कि भारत जैसा देश अभिव्यक्ति की समान स्वतंत्रता का समर्थन करता है, बिना यह समझे कि अगर यह भारत जैसे विभिन्न धर्मों वाले देश में प्रबल होता है, तो यह शांति और सद्भाव को प्रभावित कर सकता है। सरकार इसके बुरे परिणामों पर विचार किए बिना भाषण की असीमित स्वतंत्रता का समर्थन करती है, भले ही देश की कुछ अदालतों ने कुछ पक्षपाती मीडिया घरानों को किसी विशेष धर्म को लक्षित करने की असीमित स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए फटकार लगाई हो।
जमीयत उलमा-ए-हिंद की ओर से इस संबंध में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई है। यह उम्मीद की जाती है कि अदालत का आदेश बोलने की असीमित स्वतंत्रता के खिलाफ होगा, जिसके बाद किसी धर्म के अनुयायियों को चोट पहुंचाने की प्रक्रिया को कानूनी रूप से रोक दिया जाएगा।
सिक्के का दूसरा पहलू चाकू के हमले हैं, जो फ्रांस और दुनिया के अन्य देशों में एक के बाद एक हो रहे हैं, जिनमें अपराधी कम और निर्दोष पुरुष एवं महिलाएं अधिक मर रहे हैं।
क्या किसी को देश के कानून को अपने हाथों में लेने की अनुमति दी जा सकती है? और क्या कुछ लापरवाह मुसलमानों द्वारा कानून को अपने हाथों में लेना दुनिया के ईसाई देशों में रहने वाले लाखों मुसलमानों के लिए अच्छा हो सकता है?
अगर इस तरह की घटनाओं के बाद, इन देशों में बढ़ रहे सांप्रदायिक संगठन मुस्लिम अल्पसंख्यक के खिलाफ सक्रिय हो जाते हैं, तो इन देशों में रहने वाले लाखों मुसलमानों और उनके बच्चों का क्या होगा?
फ्रांस में मुस्लिम आबादी लगभग 57 लाख (करीब नौ प्रतिशत) है, जबकि जर्मनी में 50 (लगभग छह प्रतिशत), ब्रिटेन में 41 लाख (लगभग 6.3 प्रतिशत), स्वीडन में 80 लाख (करीब 8.1 प्रतिशत), ऑस्ट्रिया में 70 लाख (लगभग आठ प्रतिशत), इटली में 29 लाख (लगभग पांच प्रतिशत), नीदरलैंड में 80 लाख (लगभग 5.1 प्रतिशत) है। (स्रोत: विकिपीडिया)
अब फिर से सोचें, अगर कुछ नाराज मुसलमान कानून तोड़ते हैं और वहां की सांप्रदायिक ताकतें ताकत हासिल करती हैं और पर्दे के पीछे से सरकारों का संरक्षण पाती हैं, तो पूरे यूरोप में फैले मुसलमानों की आबादी का भविष्य क्या होगा?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आपको किसी शिक्षक या कंपनी की घृणित विचारधारा के खिलाफ विरोध नहीं करना चाहिए, लेकिन कानून को तोड़ना, अशांति फैलाना या लोगों को मारना इन देशों में इस्लाम की सच्ची तस्वीर का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और न ही इससे वहां रहने वाले लाखों मुसलमानों का भविष्य शांति से सुरक्षित है।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि हम 50 साल से अपने देश में इसी तरह की राजनीति झेल रहे हैं। भारत में हिंदू गायों की पूजा करते हैं। मगर गाय की हत्या के आरोप में यहां लोग कानून अपने हाथों में लेते हैं और मुस्लिमों को मार दिया जाता है।
अगर हम यहां कानून को अपने हाथ में लेने का विरोध करते हैं, तो हम फ्रांस में इसका विरोध क्यों नहीं करेंगे? मुझे लगता है कि जिस तरह से आज दुनिया भर के मुसलमान फ्रांस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, यह बहुत अच्छा होता कि वे पहले भी वहां बोलने की असीमित स्वतंत्रता के खिलाफ खड़े होते।
(लेखक जमीयत उलेमा-ए-हिंद, नई दिल्ली के अध्यक्ष हैं)(आईएएनएस)
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
पांच अक्टूबर को उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार किए गए पत्रकार सिद्दीक कप्पन को अभी तक किसी वकील से बात नहीं करने दिया गया है. उनकी जमानत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट पहली सुनवाई गिरफ्तारी के लगभग डेढ़ महीने बाद 16 नवंबर को करेगा.
कप्पन को पांच अक्टूबर को मथुरा में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था जब वो हाथरस में सामूहिक बलात्कार की पीड़िता के परिवार के सदस्यों से मिलने उनके गांव जा रहे थे. उनके साथ अतीक-उर-रहमान, मसूद अहमद और आलम नामक तीन एक्टिविस्टों को भी गिरफ्तार किया गया था और चारों के मोबाइल, लैपटॉप और कुछ साहित्य को जब्त कर लिया गया. पुलिस ने दावा किया था कि चारों पॉप्युलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) नामक संस्था के सदस्य हैं.
केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (केयूडब्लयूजे) ने उसी समय कहा था कि सिद्दीक कप्पन पत्रकार हैं और संगठन की दिल्ली इकाई के सचिव भी हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहले से पीएफआई के खिलाफ रहे हैं. उन्होंने संस्था को राज्य में नागरिकता कानून के खिलाफ पिछले साल शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों का जिम्मेदार ठहराया था और उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी.
लेकिन कप्पन के पीएफआई के सदस्य होने का सार्वजनिक रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. इसके बावजूद उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह), 153ए (दो समूहों के बीच शत्रुता फैलाना), 295ए (धार्मिक भावनाओं को आहत करना), यूएपीए और आईटी अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए हैं. बाद में उनके खिलाफ जाति के आधार पर दंगे भड़काने की साजिश और राज्य सरकार को बदनाम करने की साजिश के आरोप भी लगा दिए गए.
नहीं मिलने दिया जा रहा परिवार और वकील से
कप्पन तब से मथुरा जेल में बंद हैं और इस बीच उन्हें उनके परिवार के सदस्यों और उनके वकीलों से भी मिलने या बात नहीं करने दिया जा रहा है. केयूडब्लयूजे के वकील विल्स मैथ्यूज ने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्हें उत्तर प्रदेश प्रशासन ने कप्पन से मिलने और फोन पर बात करने की अनुमति नहीं दी. मैथ्यूज का कहना है कि यह पूरी तरह से गैर कानूनी है क्योंकि हर आरोपी को अपने वकील से मिलने का पूरा अधिकार होता है
हाथरस गैंगरेप के विरोध में प्रदर्शन.
कई दिनों तक कप्पन को उनकी 90 वर्षीया मां, उनकी पत्नी और उनके बच्चों से भी बात करने की अनुमति नहीं दी गई थी और उनकी कोई भी जानकारी उनके परिवार तक पहुंचाई भी नहीं गई थी. अभी तक उन्हें सिर्फ अपनी मां से बात करने दिया गया है और वो भी सिर्फ एक बार.
पिछले सप्ताह केयूडब्लयूजे ने कप्पन को न्याय दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सर्वोच्च अदालत से भी उन्हें तुरंत राहत नहीं मिली. छह नवंबर को अदालत ने उनकी याचिका पर सुनवाई की पहली तारीख तय की. सुनवाई 16 नवंबर को होगी. हैबियस कोर्पस के तहत दायर किए गए आवेदन में यूनियन ने कप्पन की जमानत की याचिका पर तुरंत सुनवाई करने की अपील की है और साथ ही उन्हें नियमित रूप से अपने परिवार और अपने वकीलों से वीडियो कॉल करने की अनुमति देने की भी अपील की है.
क्या होता है छोटी जगहों के पत्रकारों के साथ
कप्पन के साथ जो हो रहा है वो यह दर्शाता है कि देश में छोटे शहरों, कस्बों और ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले पत्रकारों के साथ क्या क्या होता है. वरिष्ठ पत्रकार महताब आलम ने डीडब्ल्यू से कहा कि रिपब्लिक टीवी के एंकर अर्नब गोस्वामी को मुंबई पुलिस ने जब गिरफ्तार किया तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उसकी निंदा करते हुए दो ट्वीट किए, लेकिन कैसी विडम्बना है कि उन्हीं के प्रदेश में दर्जनों पत्रकार या तो कप्पन की तरह जेल में हैं या उन पर हमले हो रहे हैं या उनके खिलाफ फर्जी मुकदमे दायर किए गए हैं.
वैसे गिरफ्तारी के दो दिन बाद गोस्वामी भी अभी तक जेल में हैं, लेकिन उनके और कप्पन के मामलों में कई बड़े अंतर हैं. एक तो कप्पन के खिलाफ लगाए गए आरोपों का कोई स्पष्ट आधार नहीं है जबकि गोस्वामी का नाम उस व्यक्ति की आखिरी चिट्ठी में है जिसकी आत्महत्या के मामले में उन्हें गिरफ्तार किया गया है. दूसरा अंतर यह कि गोस्वामी भले ही अभी तक जेल में हों, लेकिन उन्हें एक दिन के अंदर ही अदालत तक पहुंचने का मौका और फिर सुनवाई की तारीख भी मिल गई.(dw.com)
- प्रभाकर मणि तिवारी
बिहार विधानसभा चुनावों के पूरा होने से पहले ही पड़ोसी पश्चिम बंगाल में चुनावी राजनीति गरमाने लगी है. पश्चिम बंगाल के दौरे पर आए केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा नेता अमित शाह ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में राज्य के 294 में से दो सौ सीटें जीतने का दावा कर राजनीति के ठहरे पानी में हलचल मचा दी है.
हालांकि अब यह भी सवाल उठने लगा है कि शाह का दावा हकीकत के कितने क़रीब है और क्या भाजपा अपनी मौजूदा सांगठनिक ताक़त के बूते इस लक्ष्य तक पहुंच सकेगी? शाह के दौरे और उनके दावों से यह भी साफ़ है कि पार्टी के लिए बिहार से ज़्यादा अहमियत पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की है.अमित शाह बिहार में तो एक बार भी नहीं गए. लेकिन अचानक तीन दिनों के दौरे पर बंगाल पहुंच गए.
भाजपा नेता ने अपने दौरे की शुरुआत भी उस आदिवासी-बहुल बांकुड़ा ज़िले से की जहां बीते पंचायत और लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा था.
बुधवार की रात को कोलकाता पहुंचने के बाद शाह अगले दिन सुबह ही बांकुड़ा पहुंचे. झारखंड से सटे इस आदिवासी-बहुल इलाके में उन्होंने बिरसा मुंडा की मूर्ति पर फूल-माला चढ़ाई. वहां उन्होंने स्थानीय नेताओं के साथ बातचीत की, दोपहर में एक आदिवासी के घर ज़मीन पर बैठकर भोजन किया और उसके बाद पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक को संबोधित किया.
बाद में उन्होंने एक रैली में भी भाषण दिया. शाह के साथ राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, उपाध्यक्ष मुकुल राय और प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष भी थे. पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बैठक और उसके बाद रैली में उन्होंने लोगों से अगले विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने की अपील की.
शाह ने कार्यकर्ताओं से कहा, "जोश से नहीं होश से काम करो. वर्ष 2018 में जब मैंने लोकसभा की 22 सीटें जीतने का दावा किया तो विपक्ष ने खिल्ली उड़ाई थी. लेकिन हमने 18 सीटें जीत लीं और 4-5 सीटें बहुत कम अंतर से हमारे हाथों से निकल गईं."
उन्होंने दावा किया कि बिरसा मुंडा के आशीर्वाद से अगले चुनाव में पार्टी कम से कम दो सौ सीटें जीतेंगी.
"इस दावे पर जिनको जितना हंसना है, हंस सकते हैं. लेकिन अगर हमने सुनियोजित तरीके से काम किया तो दौ सौ से ज़्यादा सीटें भी जीत सकते हैं. राज्य के लोग बदलाव के लिए बेचैन हैं."
शाह ने शुक्रवार को कोलकाता में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठक में सांगठनिक तैयारियों का जायजा लिया और चुनावी रणनीति पर भी विस्तार से बातचीत की.
उधर, शाह के बयान पर राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है. तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद सौगत राय कहते हैं, "भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद का कोई उम्मीदवार नहीं है. पार्टी के पास न तो काडर हैं और न ही ज़मीनी समर्थन. राय ने दावा किया कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से साबित हो जाएगा कि नरेंद्र मोदी का करिश्मा भी अब फीका पड़ गया है. बंगाल में दो सौ सीटें जीतने का अमित शाह का दावा महज दिवास्वप्न है."
दूसरी ओर, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी शाह को बाहरी करार देते हुए कहा है कि अगले चुनाव में लोग बंगाल से तृणमूल कांग्रेस नहीं बल्कि भाजपा को उखाड़ फेंकेंगे. ममता ने गुरुवार को शाह का नाम लिए बिना कहा, "वह हमें उखाड़ फेंकने का दावा कर रहे हैं. लेकिन होगा ठीक इसका उल्टा. शिष्टाचार मत भूलें वरना बंगाल के लोग बाहरियों को बर्दाश्त नहीं करेंगे."
अगले चुनावों के लिए हाथ मिलाने वाली कांग्रेस और वाममोर्चा ने भी शाह के दावे को हक़ीक़त से परे बताया है. माकपा नेता सुजन चक्रवर्ती कहते हैं, "भाजपा का यह सपना कभी पूरा नहीं होगा. जाति और धर्म के आधार पर राजनीति की परंपरा बंगाल में कभी नहीं रही है. लोग चुनावों में भगवा पार्टी को माकूल जवाब देंगे."
कांग्रेस नेता अब्दुल मन्नान ने भी यही बात कही है. मन्नान कहते हैं, "भाजपा के पांव पसारने के लिए तृणमूल कांग्रेस ही ज़िम्मेदार है. लेकिन अबकी लोग इन दोनों दलों को आइना दिखा देंगे. यहां सांप्रदायिक राजनीति के सहारे सत्ता हासिल नहीं की जा सकती. लोग बदलाव भले चाहते हों, यहां कांग्रेस-वाममोर्चा गठबंधन ही तृणमूल कांग्रेस का विकल्प है, भाजपा नहीं."
अमित शाह के दौरे और दावों के बाद राज्य में चुनावों से पहले राष्ट्रपति शासन की अटकलें भी तेज़ होने लगी हैं. लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता मुकुल राय कहते हैं, "बंगाल में आखिरी बार 40 साल पहले राष्ट्रपति शासन लगा था. इसलिए फिलहाल इस बारे में कोई टिप्पणी करना संभव नहीं है. लेकिन यह सही है कि लोग अब मौजूदा सरकार के भ्रष्टाचार और आतंक से तंग आ चुके हैं और इसे बदलने का मन बना चुके हैं."
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि शाह का दो सौ सीटें जीतने का दावा फिलहाल ज़मीनी हक़ीक़त से दूर लगता है. इससे पहले लोकसभा चुनावों में भी पार्टी के 22 सीटें जीतने के दावे को हल्के में लिया गया था. राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "लोकसभा चुनावों के नतीजों के आधार पर भाजपा को 120 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी. शायद शाह का दावा उस पर ही आधारित है. ऐसे दावों पर भरोसा कर कशमकश में रहे कुछ वोटर भाजपा के पाले में जा सकते हैं."
राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर मनोरंजन माइती कहते हैं, "भाजपा फिलहाल अंदरूनी गुटबाजी से जूझ रही है. यह सही है कि सीमावर्ती इलाकों और उत्तर बंगाल के चाय बागान के इलाकों में उसका प्रदर्शन बेहतर रहा था. लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग होते हैं. एक के नतीजे के आधार पर दूसरे के बारे में पूर्वानुमान अक्सर ग़लत साबित होता है. इसके अलावा लोकसभा में लगे झटकों के बाद तृणमूल कांग्रेस ने भी उन इलाकों में वोटरों को लुभाने की कवायद तेज़ कर दी है. ऐसे में भाजपा का दौ सौ सीटें जीतने का दावा मौजूदा परिस्थिति में संभव नहीं लगता."
तमाम राजनीतिक दलों और पर्यवेक्षकों की नज़र भले ही अमित शाह के दावे को लेकर अलग अलग हों लेकिन बिहार चुनावों के बाद पश्चिम बंगाल में भी चुनावी राजनीति के जोर पकड़ने की संभावना है. शाह के दौरे ने इसकी शुरुआत तो कर ही दी है.(bbc)
-हॉली यंग
इस हिमखंड का नाम ए68ए है और यह दक्षिण अटलांटिक में ब्रिटेन के नियंत्रण वाले दक्षिणी जॉर्जिया द्वीप से टकरा सकता है. ए68ए दक्षिणी महासागर में इस समय सबसे बड़ा हिमखंड है. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह हिमखंड टूट सकता है या संभव है कि अपना रुख बदल ले. लेकिन इस बात की बहुत संभावना है कि हिमखंड द्वीप से टकराएगा और वह वहां की जैव विविधता को अस्त व्यस्त कर सकता है.
ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे से जुड़े प्रोफेसर गेरैंट टार्लिंग ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह ऐसा इलाका है, जहां भरपूर वन्यजीवन पनप रहा है. वहां पेंगुइन और सीलों की बड़ी आबादी है. वहां ये जीव इतनी संख्या में रहते हैं, कि अगर ये ना हों तो इन प्रजातियों की संख्या में बहुत बड़ी गिरावट आ सकती है." इस द्वीप पर हंपबैक और ब्लू व्हेल की संख्या भी बढ़ रही है. इसके अलावा समुद्री पक्षियों अल्बाट्रोस की सबसे ज्यादा संख्या भी इसी द्वीप पर पाई जाती है.
हिमखंडों का कब्रिस्तान
वैज्ञानिकों ने उम्मीद की थी कि 2017 की गर्मियों में अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्वी तट पर पानी में तैरने वाले हिम पर्वत लार्सन सी से टूटने के बाद ए68ए बिखर जाएगा. यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) का कहना है कि इस हिमखंड से दो हिस्से अलग भी हो चुके हैं, लेकिन अब भी यह आकार में यूरोपीय देश लग्जमबर्ग के दोगुने के बराबर है. हालांकि ए68ए द्वीप से टकराने वाला सबसे बड़ा हिमखंड होगा, लेकिन इस इलाके में यह ऐसी पहली घटना नहीं है. पहले भी ऐसा यहां कई बार हो चुका है और इसीलिए इस इलाके को "हिमखंडों का कब्रिस्तान" कहा जाता है.
2004 में ए68ए से छोटा एक हिमखंड द्वीप से कुछ किलोमीटर दूर तक आ गया था. टार्लिंग कहते हैं कि मौजूदा हिमखंड को लेकर चिंता उसके आकार की वजह से नहीं है, बल्कि इसका आकार छिछला है. ईएसए के अनुसार यह सिर्फ कुछ सौ मीटर मोटा है.
टार्लिंग कहते हैं, "हो सकता है कि यह हिमखंड तट के पास जाकर ठहर जाए. इसकी वजह से वहां रहने वाले जीवों के लिए अपने खाने तक पहुंचना मुश्किल हो सकता है. या फिर खाना लेकर लौटते वक्त वे अपने बच्चों तक ना पहुंच पाएं." टार्लिंग कहते हैं कि इसकी वजह से समुद्री शैवाल भी प्रभावित हो सकते है जो वहां की खाद्य श्रृंखला में सबसे नीचे हैं.
देखो और इंतजार करो
उत्तरी इंग्लैंड की शेफील्ड यूनिवर्सिटी में भूतंत्र विज्ञान के प्रोफेसर ग्रांट बिग इस हिमखंड के सकारात्मक प्रभावों का भी जिक्र करते हैं. वह कहते हैं कि चूंकि यह हिमखंड अब भी पानी में तैर रहा है, इसलिए इसके साथ बहुत सारा आयरन भी होगा. इससे महासागर की उपजाऊ क्षमता बढ़ेगी और कई सूक्ष्म जीवों को पनपने का मौका मिलेगा.
यह हिमखंड अब तक 1,600 किलोमीटर का सफर तय कर चुका है. अगर यह एक घंटे में एक किलोमीटर आगे बढ़ने की मौजूदा रफ्तार से चलता रहा तो अब से 10 से 20 दिन के भीतर द्वीप तक पहुंच सकता है. प्रोफेसर बिग कहते हैं, "यह इतना बड़ा है कि हम इसे लेकर कुछ नहीं कर सकते. बस हमें इंतजार ही करना पड़ेगा. उम्मीद करते हैं कि धारा उसका रुख द्वीप के दक्षिण की तरफ कर दे या फिर वह विखंडित हो जाए."(DW.COM)
-शिवप्रसाद जोशी
कोरोना महामारी की वजह से किए गए लॉकडाउन के दौरान केंद्र और पंजाब सरकार के निर्देशों की आलोचना के लिए राजद्रोह के आरोप में बंद एक व्यक्ति को रिहाई का आदेश देते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि राजद्रोह और धार्मिक मनमुटाव से जुड़े कानूनों का इस्तेमाल करते हुए राज्य को ज्यादा सहिष्णु और सजग रहने की जरूरत है. खबरों के मुताबिक छह महीने से जेल में बंद एक अभियुक्त की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले दिनों कोर्ट ने ये कहा. जसबीर नाम के उस व्यक्ति पर राष्ट्र की एकता और अखंडता के विरुद्ध और धार्मिक वैमनस्य पैदा करने वाले बयान देने के आरोप लगे थे. जमानत देते हुए जस्टिस सुधीर मित्तल ने कहा कि अभियुक्त लॉकडाउन से नाराज था और भारत सरकार और पंजाब सरकार ने जिस तरह महामारी पर काबू पाने के लिए कदम उठाए उन्हें लेकर भी नाखुश था और उसने उक्त सरकारों की कार्यप्रणाली की आलोचना की थी.
जस्टिस मित्तल के कोर्ट ने माना कि सरकारों के उच्च अधिकारियों और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के प्रति अनर्गल और निंदात्मक भाषा जरूर इस्तेमाल की गयी लेकिन उसमें सरकार के प्रति नफरत या वैमनस्य भड़काने जैसी कोई बात नहीं है. इससे सामुदायिक सद्भाव बाधित नहीं हुआ और न ही धार्मिक मनमुटाव पैदा हुआ. जज के मुताबिक ये सरकार के कामकाज के तरीकों पर असंतोष और उसकी नीतियों की आलोचना की अभिव्यक्ति है. कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में सरकार की कार्यप्रणाली की आलोचना करना या अपना मत प्रकट करना हर नागरिक का अधिकार है, हालांकि ये आलोचना सभ्य तरीके से की जानी चाहिए और असंसदीय भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
राजद्रोह के आरोप पर संयम का मशविरा
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की तरह पहले भी अदालतें कई मौकों पर और खुद सुप्रीम कोर्ट भी अपनी हिदायतों, मशविरों और आदेशों के जरिए सरकारों और पुलिस प्रशासन को राजद्रोह के कानून के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर आगाह कर चुका है लेकिन देखने में आता है कि सरकारें अपनी आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाती और मौका मिलने पर राजद्रोह कानून का धड़ल्ले से इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. तमिलनाडु के कुडनकुलम एटमी संयत्र का विरोध कर रहे किसान प्रदर्शनकारियों के खिलाफ 2011 में राजद्रोह के 8856 मामले ठोक दिए गए थे. इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार अरुण जनार्दन की सितंबर 2016 में प्रकाशित एक विस्तृत रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु का इदिनिथाकराई गांव तो राजद्रोह कानून का ग्राउंड जीरो है जहां के किसान आंदोलनकारियों पर सबसे ज्यादा राजद्रोह मामले दर्ज बताए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक जेल भले ही न हो लेकिन बड़ी तादाद में मामले किसानों को डराए रखने के लिए भी लादे रखे जाते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 2014 से 2018 के बीच 233 लोगों पर इस कानून का इस्तेमाल किया जा चुका है. सबसे ज्यादा 37 लोग असम और 37 झारखंड में गिरफ्तार किए गए हैं. 2018 में 70, 2017 में 51, 2016 में 35, 2015 में 30 और 2014 में 47 लोग इस भीषण कानून की चपेट में आ चुके है. एनसीआरबी ने 2014 से राजद्रोह के मामलों पर आंकड़े जुटाना शुरू किया है. लेकिन इनसे ये भी पता चलता है कि राजद्रोह के आरोपों में सिर्फ गिनती के मामलों में ही अदालतों में दोष सिद्ध हो पाया है. 2016 में सिर्फ चार मामले ही अदालतों में ठहर पाए. भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत ब्रिटिश दौर में बनाया राजद्रोह कानून अभी तक चला आ रहा है. जबकि खुद ब्रिटेन अपने विधि आयोग की सिफारिश के बाद 2010 में इस कानून से मुक्ति पा चुका है.
राजद्रोह के आरोप का अत्यधिक इस्तेमाल
आंदोलनकारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, किसानों, मजदूरों, लेखकों, पत्रकारों, कवियों, कार्टूनिस्टों, राजनीतिज्ञों और एक्टिविस्टों पर तो इसकी गाज गिरायी ही जाती रही है और उन्हें गाहेबगाहे विरोध न करने और चुप रहने के लिए इस तरह धमकाया जाता है. दिल्ली में जेएनयू और जामिया विश्वविद्यालयों के छात्रों पर भी इस कानून की तलवार लटक रही है. कर्नाटक में तो एक स्कूल पर ही ये मामला सिर्फ इसलिए दर्ज हो गया क्योंकि वहां बच्चे सीएए से जुड़ा एक नाटक खेल रहे थे. राजद्रोह एक गैरजमानती अपराध है और इसकी सजा भारीभरकम मुआवजा राशि के साथ न्यूनतम तीन साल और अधिकतम उम्रकैद रखी गयी है. सरकारें भले ही इस कानून को खत्म करने के बजाय उसे बनाए रखने की वकालत करती हैं लेकिन न्यायपालिका इस कानून की संवैधानिक वैधता को विभिन्न मौलिक अधिकारों और उन पर लगे निर्बंधों की रोशनी में विश्लेषित करती आयी है.
1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के विख्यात मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार के बारे में, या उसके कदमों के बारे में नागरिक को टिप्पणी या आलोचना के जरिए कुछ भी करने या लिखने का अधिकार है, जब तक कि वो विधि द्वारा स्थापित सरकारों के खिलाफ लोगों को हिंसा के लिए न उकसाता हो या पब्लिक ऑर्डर को बिगाड़ने का इरादा न रखता हो. कोर्ट का कहना था कि राजद्रोह की दंडात्मक कार्रवाई, अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर संवैधानिक रूप से वैध निर्बंध के रूप में तभी मान्य होगी जबकि जो शब्द कहे गए हैं वो हिंसा के जरिए सार्वजनिक शांति को भंग करने के मकसद से कहे गए हों. मुश्किल ये है कि पब्लिक ऑर्डर के दायरे में कौन सी अभिव्यक्ति या ऐक्शन होगा या नहीं होगा, ये भी बहुत स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है. शब्दों की अर्थवत्ता की जांच कैसे होगी. इस तरह सरकारें अपनी सुविधा से इस कानून का इस्तेमाल कर लेती हैं. और मामला अंततः कोर्ट में आकर ही सुलझ पाता है.
आजादी से पहले से ही विवादों में है ये कानून
वैसे आजादी से पहले से ही इस कानून को रद्द करने की मांग की जाती रही है और सबसे प्रमुखता से इस मांग को महात्मा गांधी ने उठाया. 1922 में राजद्रोह का मामला अपने ऊपर थोपे जाने के बाद उन्होंने कहा था कि राजद्रोह, नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए बनाया गया कानून है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि जितना जल्दी इस कानून से मुक्ति पा ली जाए उतना अच्छा. लेकिन भारत में आजादी के सात दशक पूरे हो जाने के बाद भी ये नहीं हो पाया है.
कांग्रेस की सरकारें हों या बीजेपी की सरकारें इस कानून के प्रति सरकारों का मोह लगता है नहीं जाता. अब सवाल यही है कि आखिर प्रतिरोध के प्रति लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकारें इतनी असंवेदनशील और भयभीत सी क्यों दिखती हैं और क्यों उन्हें इस कानून की जरूरत है. राजद्रोह की गतिविधियों और सार्वजनिक-व्यवस्था भंग होने का खतरा इतना तीव्र और वास्तविक होता तो फिर न्यायपालिका क्यों समय समय पर इसके इस्तेमाल को गैरवाजिब ठहराती और इसकी कमियों को रेखांकित करती रहती.(DW.COM)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी तक घोषणा नहीं हुई है कि अमेरिका का अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा ? लेकिन मान लें कि कुछ अजूबा हो गया और 2016 की तरह इस बार भी डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बन गए तो भारत को कोई खास चिंता करने की जरुरत नहीं है। ट्रंप और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई के बीच ऐसी व्यक्तिगत जुगलबंदी बैठ गई है कि ट्रंप के उखाड़-पछाड़ स्वभाव के बावजूद भारत को कोई खास हानि होनेवाली नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति का संचालन नेताओं के व्यक्तिगत समीकरण पर होता है। उसका कुछ योगदान जरुर रहता है लेकिन राष्ट्रहित ही संबंधों पर मूलाधार होता है। आज अमेरिका और भारत के आपसी संबंधों को कोई खास तनाव नहीं हैं। व्यापार और वीज़ा के सवाल तात्कालिक हैं। वे बातचीत से हल हो सकते हें। लेकिन चीन, अफगानिस्तान, सामरिक सहकार, शस्त्र-खरीद आदि मामलों में दोनों देश लगभग एक ही पटरी पर चल रहे हैं।
लेकिन जोसेफ बाइडन के जीतने की संभावनाएं ज्यादा हैं। वे जीते तो भारत को ज्यादा खुशी होगी, क्योंकि एक तो कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बन जाएंगी और लगभग 75-80 प्रतिशत प्रवासी भारतीयों ने उनको अपना समर्थन दिया है। भारत के 40 लाख लोग अमेरिका के सबसे अधिक समृद्ध, सुशिक्षित और सुसभ्य लोग हैं। क्या डेमोक्रेटिक सरकार उनका सम्मान नहीं करेगी ? मैं तो सोचता हूं कि पहली बार ऐसा होगा कि अमेरिकी सरकार में कुछ मंत्री और बड़े अफसर बनने का मौका भारतीय मूल के लेागों को मिलेगा। बाइडन-प्रशासन अपने ओबामा-प्रशासन की भारतीय नीति को तो लागू करेगा ही, वह पेरिस के जलवायु-समझौते और ईरान के परमाणु समझौते को भी पुनर्जीवित कर सकता है। इनका लाभ भारत को मिलेगा ही। इसके अलावा ध्यान देने लायक बात यह है कि ओबामा-प्रशासन में बाइडन उप-राष्ट्रपति की हैसियत में भारत के प्रति सदैव जागरुक रहे हैं। वे कई दशकों से अमेरिकी राजनीति में सक्रिय रहे हैं जबकि ट्रंप तो राजनीति के हिसाब से नौसिखिए राष्ट्रपति बने हैं। बाइडन के रवैए को हम भारत ही नहीं, यूरोपीय राष्ट्रों, चीन, रुस, ईरान और मेक्सिको जैसे राष्ट्रों के प्रति भी काफी संयत पाएंगे। इसका अंदाज हमें ट्रंप और बाइडन के चुनावी भाषणों की भाषा से ही लग जाता है। यह ठीक है कि बाइडन और कमला ने मानव अधिकारों, कश्मीर और नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दों पर भारत का विरोध किया था लेकिन उसका मूल कारण यह रहा हो सकता है कि ट्रंप ने इन्हीं मुद्दों पर हमारा समर्थन किया था। सत्ता में आने पर डेमोक्रेट लोगों की राय पहले के मुकाबले अब काफी संतुलित हो जाएगी। दूसरे शब्दों में इनके जीतने से हमें ज्यादा फायदे की उम्मीद है लेकिन इनमें से कोई भी जीते हमें कोई हानि नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
मायावती कांशीराम की उत्तराधिकारी थीं और उनके प्रयोग पर सवार हो सत्ता के शिखर पर तो पंहुचीं, पर वह उसे आगे नहीं ले जा सकीं। मायावती में उस दृष्टि का साफ अभाव दिखा। कांशीराम के लिए सत्ता में भागीदारी भी आंदोलन था। मायावती के लिए आंदोलन पीछे रह गया।
आशुतोष
तो मायावती की राजनीति है क्या? यह सवाल अगर आज पूछा जा रहा है तो हैरान नहीं होना चाहिए! मायावती ने तीन दिन में दो बार पलटी मारी है। पहले उन्होंने कहा कि वह समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भारतीय जनता पार्टी को भी सपोर्ट कर सकती हैं। उनका यह बयान आया तो लोग भौंचक्के रह गए। आखिर, मायावती ने ऐसा क्यों कहा? अमूमन इस तरह की बात नेता विधानसभा या लोकसभा चुनावों के दौरान चुनावी गठबंधन के समय करते हैं। यहां तो सिर्फ राज्यसभा की कुछ सीटों के लिए ही वोट पड़ने थे। वह कोई बयान नहीं भी देतीं तो भी चलता।
उम्मीद के अनुसार बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता हतप्रभ रह गए। मायावती को फौरन अपनी गलती का एहसास हुआ होगा, लिहाजा उन्होंने बयान दिया कि बीजेपी के साथ वह कभी भी गठबंधन नहीं करेंगी। लोग कह सकते हैं कि मायावती ने भूल सुधार कर लिया है। हकीकत में जब कोई नेता इस तरह की बयानबाजी करता या करती है तो उसे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होता है। नेता की छवि बनती है कि वह कनफ्यूज्ड है, समझ साफ नहीं है और दूरदृष्टि का अभाव है।
ऐसा नहीं है कि मायावती पहले कभी बीजेपी के साथ नहीं गईं। वह तीन बार बीजेपी की मदद से सरकार चला चुकी हैं और एक समय वह भी था जब मुरली मनोहर जोशी को वह राखी बांधा करती थीं। यूपी में बीजेपी उनके लिए कभी अछूत नहीं थी। लेकिन 2014 के बाद से बीजेपी को लेकर उनके सुर बदले हुए थे। वह बीजेपी के साथ आरएसएस की भी तीखी आलोचना करती थीं। यहां तक कि 2019 में बीजेपी और नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए उन्होंने अपनी जानी दुश्मन समाजवादी पार्टी से भी गठजोड़ कर लिया था।
यह वही समाजवादी पार्टी थी जिसने 1994 में गेस्ट हाउस कांड किया था और मायावती के साथ समाजवादी पार्टी के गुंडों ने बदसलूकी की थी। तब मुलायम सिंह यादव नेता थे। समाजवादी पार्टी के प्रति तल्ख़ी बीएसपी और मायावती के मन में हमेशा बनी रही। अपमान की आग हमेशा धधकती रही। ऐसे में समाजवादी पार्टी के साथ आना बड़ी राजनीतिक घटना थी। वह उस वक्त वह बीजेपी और मोदी को देश के लिए सबसे खतरनाक मानती थीं। जब वही मायावती अचानक बीजेपी को समर्थन देने की बात करने लगें, और वह भी ऐसे समय में जबकि कोई बडा कारण सामने न हो तो सवाल खड़ा होता है कि मायावती का फ़ैसला राजनीतिक है या परदे के पीछे कुछ अलग तरह का खेल खेला जा रहा है?
मायावती एक आंदोलन से निकली हैं। कांशीराम इस आंदोलन के जनक हैं। यूपी के सामंती माहौल में दलित तबके के स्वाभिमान को जगाना, सदियों से दबी जातियों को जाति प्रथा की जकड़न से निकालना और दबंग जातियों के सामने खड़े होने की हिम्मत देना- किसी चमत्कार से कम नहीं है। आजादी के पहले बाबा साहेब आंबेडकर ने दलित चेतना को नई ऊर्जा दी थी। उसे देश की राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में स्थापित करने का काम किया था। बाबा साहेब ने 1927 में महादआंदोलन छेड़ अगड़ी जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की मुहिम छेड़ी थी और यह सवाल आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के सामने रख दिया था कि बिना दलितों को सम्मान दिए सामाजिक न्याय की बात न केवल अधूरी है बल्कि देश की आजादी का भी कोई मतलब नहीं।
बाबा साहेब का साफ मानना था कि आजादी सही मायनों मे तभी आजादी होगी जब स्वतंत्रता, समानता के साथ बंधुत्व का भी पालन हो। अन्यथा देश तो आजाद हो जाएगा, कानून के मुताबिक सब को समान अधिकार मिल जाएगा और वह अपनी बात को रखने के लिए स्वतंत्र भी होगा, पर सचाई में वह अगड़ी जातियों का ग़ुलाम ही रहेगा। अंग्रेज तो चले जाएंगे, पर दलित आजाद नहीं होगा, वह पहले की ही तरह आजादी में सांस नहीं ले पाएगा। इसलिए बाबा साहेब ने आरक्षण की बात की और यह कहा कि सत्ता में दलितों की भागीदारी हो। आंबेडकर ने जिस चेतना को जगाने का काम किया, इसने दलित चेतना को ऊर्जा तो दी, पर राजनीति की बिसात पर ये लोग कामयाब नहीं हो पाए। यहां तक कि आंबेडकर खुद अपना लोकसभा का चुनाव हार गए और उनकी पार्टी रिपब्लिक पार्टी हमेशा ही हाशिये पर रही। बाबा साहेब जहां कामयाब नहीं हुए, वहां कांशीराम ने कमाल कर दिखाया।
कांशीराम ने बाबा साहेब की दलित चेतना को चुनावी राजनीति से मिला दिया और कामयाबी से यूपी में दलितों को एक बेहद मज़बूत ताक़त के तौर पर स्थापित किया। यूपी में बीएसपी इतनी बड़ी ताकत बन गई कि यूपी की राजनीति बिना बीएसपी के सोची भी नहीं जा सकती थी। मायावती पांच बार मुख्यमंत्री बनीं एक बार समाजवादी पार्टी और तीन बार बीजेपी के साथ तो एक बार अपने बल पर सरकार बनाई। 2007 में मायावती ने सवर्णों को अपने साथ मिलाने का अनोखा प्रयोग किया। इस प्रयोग की वजह से मायावती पहली बार अपने बल पर बहुमत का आंकड़ा जुटा सकीं। यूपी जैसे सामंती समाज में दलितों की सत्ता को अगड़ी दबंग जातियों का समर्थन देना एक अजूबा था क्योंकि सदियों से अगड़ी जातियों की ग़ुलामी करने के लिए दलित अभिशप्त रहे थे। यह करिश्मा था कांशीराम का।
मायावती उनकी उत्तराधिकारी थीं। वह कांशीराम के प्रयोग पर सवार हो सत्ता के शिखर पर तो पंहुचीं, पर वह उसे आगे नहीं ले जा सकीं। मायावती में उस दृष्टि का साफ अभाव दिखा। कांशीराम के लिए बीएसपी, दलित चेतना और आंदोलन को आगे ले जाने का औजार थी। उनके लिए सत्ता में भागीदारी भी आंदोलन था। मायावती के लिए आंदोलन पीछे रह गया। सत्ता में हिस्सेदारी ही मायावती के लिए सब कुछ हो गया। और जब सत्ता, सरकार सर्वोपरि हो जाए तो आंदोलन की धार को तो कुंद होना ही थी।
यूपी में बीजेपी को 300 से अधिक सीटें मिलना और दलितों के एक बड़े तबके का बीजेपी को वोट देना इस बात का प्रमाण है कि दलितों को अब मायावती की राजनीति में ईमानदारी नहीं दिखती, उन्हें लगता है कि मायावती भी दूसरे नेताओं की तरह हो गई हैं। और दलित उनके लिए महज एक वोटर बन कर रह गया है। ऐसा लगता है कि दलितों को सामाजिक सम्मान दिलाना मायावती के एजेंडे से गायब हो गया है।
हाथरस में जब एक दलित लड़की से बलात्कार हुआ, उसकी मौत हुई और यूपी की सरकार उसे बलात्कार मानने से इंकार करती रही, परिवार को ही इलाके के दबंग, लड़की की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे, तब भी मायावती ने हाथरस जाकर लड़की के परिवार से मिलना गंवारा नहीं किया। राहुल गांधी, प्रियंका और दूसरे नेता गए, देश में इस खबर पर काफी हंगामा हुआ, पर मायावती अपने घर से बाहर नहीं निकलीं। जब वह दलित के साथ हो रहे अत्याचार में पीड़ित के साथ खड़ी नहीं होंगी तो दलित उनके साथ क्यों खड़ा होगा? यही कारण है कि भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण एक नई ताकत के तौर पर यूपी में उभर रहे हैं। वह दलितों के हक की लड़ाई में उनके साथ खड़े दिखाई देते हैं। इस कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। जो काम मायावती को करना चाहिए, वह चंद्रशेखर कर रहे हैं तो जाहिर है, दलितों में उनका आकर्षण बढ़ेगा और इस वजह से मायावती को तकलीफ होगी।
मायावती के लिए यह सबसे चुनौतीपूर्ण समय है। 2012 से हर चुनाव वह हारती आई हैं। 2014, 2017 और 2019 में उन्हें बुरी हार मिली है। उनका समाजिक आधार सिकुड़ता जा रहा है। बीजेपी की कामयाबी से यह साबित हो गया है कि मायावती दलितों में भी सिर्फ जाटव बिरादरी की ही नेता हैं। बीजेपी बाकी दलित तबके को अपने साथ लाने की कोशिश में लगी है। मायावती को इस बात का अंदाजा है। वह समझ रही हैं कि अब वह पहले की तरह महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं। पर उनके पास कोई नया फार्मूला नहीं है। कोई नई युक्ति नहीं है। इसलिए कभी वह अखिलेश से गठबंधन करती हैं और फिर तोड़ देती हैं, तो कभी बीजेपी के पास जाने की योजना बनाती हैं।
यह वह मायावती नहीं है जिन्हें मैं जानता हूं। यह वह मायावती हैं जो विवश हैं। पर यह विवशता उनकी अपनी बनाई हुई है, उनका अपना किया-धरा है। इससे उन्हें निकलना होगा। सड़क पर दलितों के लिए लाठी-डंडा खाना पड़ेगा। जेल जाना पड़ेगा और अगर वह ऐसा करती नहीं दिखेंगी तो हो सकता है, अगले चुनाव में वह अतीत हो जाएं। (navjivanindia.com)
-आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय'
अमेरिका (U.S.A.) में राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के लिए प्रत्येक राज्य में जनसंख्या के आधार पर "Electoral college votes" निर्धारित किये गए हैं. जिसमें बहुमत vote 270 होते हैं - 50 राज्यों के मिलाकर. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार व्यक्ति को किसी राज्य की जनता ने यदि अपना बहुमत देकर उसे जिता दिया तो उस राज्य का "इलेक्टोरल कालेज वोट " भी उसे मिल जाता है. पूरे अमेरिका के 50 राज्यों में कुल मिलाकर 538 इलेक्टोरल वोट हैं जिसमें से बहुमत प्राप्त करने के लिए उम्मीदवार को 270 इलेक्टोरल वोट प्राप्त करने होते हैं. यही कारण है कि कई बार राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार व्यक्ति Popular votes अर्थात देश की जनसंख्या का बहुमत तो पा जाता है लेकिन फिर भी चुनाव हार जाता है क्योंकि उसका प्रतिद्वन्द्वी अन्य राज्यों के इलेक्टोरल वोट में उससे आगे निकल कर 270 इलेक्टोरल वोट प्राप्त कर लेता है और राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत जाता है. इसके दो उदाहरण हैं. 2000 में एल गोर, जौर्ज बुश से वास्तविक जनता के द्वारा दिए वोटों में आगे थे किंतु जौर्ज बुश इलेक्टोरल वोटों में उनसे आगे निकल गए और राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए थे. ठीक ऐसे ही 2016 में हिलैरी क्लिंटन पापुलर वोटों में याने जनता के द्वारा दिए गए वोटों में जीत गई थीं किंतु ट्रंप ने इलेक्टोरल वोट उनसे ज्यादा प्राप्त करके बहुमत प्राप्त कर लिया और वे राष्ट्रपति का चुनाव जीत गये थे. इस तरह से जनता अमेरिका में अपना राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष रूप से चुनती है.
अमेरिका के 50 राज्यों में जनसंख्या के आधार पर इलेक्टोरल वोटों की संख्या निम्नलिखित है -
(राज्यों के नाम alphabetical order में नहीं हैं )
Total Electoral Votes: 538; Majority Needed to Elect U.S.A. President 270
Alabama - 9 votes, Kentucky - 8 votes, North Dakota - 3 votes, Alaska - 3 votes, Louisiana - 8 votes, Ohio - 18 votes, Arizona - 11 votes, Maine - 4 votes, Oklahoma - 7 votes, Arkansas - 6 votes, Maryland - 10 votes, Oregon - 7 votes, California - 55 votes, Massachusetts - 11 votes, Pennsylvania - 20 votes, Colorado - 9 votes, Michigan - 16 votes, Rhode Island - 4 votes, Connecticut - 7 votes, Minnesota - 10 votes, South Carolina - 9 votes, Delaware - 3 votes, Mississippi - 6 votes, South Dakota - 3 votes, District of Columbia - 3 votes, Missouri - 10 votes, Tennessee - 11 votes, Florida - 29 votes, Montana - 3 votes, Texas - 38 votes, Georgia - 16 votes, Nebraska - 5 votes, Utah - 6 votes, Hawaii - 4 votes, Nevada - 6 votes, Vermont - 3 votes, Idaho - 4 votes, New Hampshire - 4 votes, Virginia - 13 votes, Illinois - 20 votes, New Jersey - 14 votes, Washington - 12 votes, Indiana - 11 votes, New Mexico - 5 votes, West Virginia - 5 votes, Iowa - 6 votes, New York - 29 votes, Wisconsin - 10 votes, Kansas - 6 votes, North Carolina - 15 votes, Wyoming - 3 votes
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Total 538 Electroral College Votes.
270 needs to win the U.S.A. President election.
(लेखक सेवानिवृत 'कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी' अधिकारी)
असल में ट्रंप ने जब से व्हाईट हाऊस में कदम रखा है, अमरीकियों को एक अनिश्चितता के माहौल में धकेल दिया है। वे एक ऐसे राष्ट्रपति साबित हुए जो सफेद झूठ बोलता है, फेक न्यूज से फलता-फूलता है, मीडिया का खुलकर मजाक उड़ाता है, और जिसने न्यायपालिका को अगवा कर रखा है।
-ज़फ़र आग़ा
जैसा कि टाइम पत्रिका ने अपने ताजा अंक में लिखा है, अमेरिका का सच से सामना होने वाला है। दुनिया के सबसे पुरानी और सबसे मजबूत लोकतंत्र के लिए राष्ट्रपति का चुनाव आज पूरा हो जाएगा। लेकिन अभी तक जो संकेत मिल रहे हैं या अनुमान लगाए जा रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की हार निश्चित है।
अभी तक हुए सभी चुनाव पूर्व सर्वे में डेमोक्रेट राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बिडेन की जीत के कयास लगाए गए हैं। लेकिन ट्रंप ने ऐलान कर दिया है कि जैसे ही चुनाव खत्म होगा वह वकीलों के पास पहुंच जाएंगे। पेन्सिल्वेनिया में यह ऐलान करते हुए राष्ट्रपति ट्रंप खुद ही एक तरह से मान बैठे कि चुनाव में उनकी हार तय है। मतों से जीत की उम्मीद छोड़ चुके ट्रंप अब कानूनी विकल्पों पर माथापच्ची कर रहे हैं ताकि वे व्हाईट हाऊस में बने रह सकें। इसके लिए वे सुप्रीम कोर्ट में पहले ही कई सारे कंजरवेटिव जजों की नियुक्ति कर चुके हैं, उस आस में कि अगर चुनाव को चुनौती दी गई तो फैसला उनके हक में आए।
यही वह लम्हा है जब अमेरिका का सच से सामना होगा। ट्रंप किसी हाल हार मानने को तैयार नहीं दिखते। यह वह बात जो आजतक किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने करने के बारे में सोचा तक नहीं। अगर ऐसा होता है तो अमेरिकी लोकतंत्र एक गहरे संकट में होगा और पूरी अमेरिकी व्यवस्था ठप हो जाएगी। आशंका में जी रहे अमरीकियों ने पहले ही अपने राशन पानी के साथ ही हथियारों तक का इंतज़ाम कर लिया है। ऐसे में अमेरिका का चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका पूरी दुनिया सांस रोक कर इंतजार कर रही है।
इस बार के राष्ट्रपति चुनाव को जो बिडेन ने पहले दिन से ही अमेरिका की आत्मा का युद्ध घोषित कर दिया था। ऐसे में कोई अमेरिकी राष्ट्रपति खुद ही जनादेश को मानने से इनकार कर दे, तो पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खोखली साबित हो जाएगी। अगर अमेरिका लोकतंत्र को ही मानने से इनकार कर देगा तो फिर उस फ्री वर्ल्ड यानी आजाद दुनिया का क्या होगा जो लोकतंत्र के इस प्रतीक को बड़ी उम्मीद और भरोसे से देखती है। फिलहाल किसी को नहीं पता है कि अगर ट्रंप ने जनादेश मानने से इनकार कर दिया और कानूनी रास्ता अपनाया तो क्या होगा।
ऐसे तमाम सवाल हैं जो अमेरिका को चुनाव के दिन परेशान कर रहे हैं जिनका कोई भी सीधा या सधा जवाब नहीं है। असल में ट्रंप ने जुलाई 2016 में जब से व्हाईट हाऊस में कदम रखा है, अमरीकियों को एक अनिश्चितता के माहौल में धकेल दिया है। वे एक ऐसे राष्ट्रपति साबित हुए जो सफेद झूठ बोलता है, फेक न्यूज से फलता-फूलता है, मीडिया का खुलकर मजाक उड़ाता है, न्यायपालिका को अगवा कर रखा है, कांग्रेस (संसद) पर अपने फैसले थोपता है, राजनीतिक विरोधियों के लिए अनाप-शनाप शब्दों का इस्तेमाल करता है, श्वेत रंगभेद को खुलकर बढ़ावा दा है और अश्वेतों की नस्लीय हत्या को जायज ठहराता है, जिसके नतीजे में ब्लैक लाइव्स मैटर जैसे आंदोलन खड़े होते हैं। वह एक ऐसे राष्ट्रपति साबित हुए जिसने बीते 4 साल में हर लोकतांत्रिक नियम की धज्जियां उड़ा दीं। कसम से बहुत बड़ी तादाद में अमेरिकी ट्रंप से बेहद नाराज हैं और चुनावी ट्रेंड की शुरुआत ही ट्रंप को व्हाईट हाउस से उठाकर बाहर फेंकना चाहते हैं।
टाइम पत्रिका ने अमेरिका की भावनाओं और माहौल को कुछ इस तरह सामने रखा है, “यह चुनाव ट्रंप पर केंद्रित है, कायदे कानून को ठेंगे पर रखने वाले उनके शासन पर केंद्रित है, और हमारे देश को नर्वस ब्रेकडाउन की दहलीज पर ले जाने शख्स पर केंद्रित है।” और अगर फिर से बिडेन के शब्दों को दोहराएं तो यह अमेरिका की आत्मा का युद्ध है। लेकिन दुर्भाग्य से संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि ट्रंप अमेरिका की आत्मा को भी घायल करने पर आमादा हैं।
स्थिति यह है कि ट्रंप अमेरिका को एक अभूतपूर्व संकट में डालने वाले हैं जिससे हिंसा का माहौल बन सकता है। लोगों ने पहले ही हथियारों का जखीरा जमा कर लिया है, दुकानों ने अपनी सुरक्षा में घेराबंदी कर ली है ताकि उन्मादी भीड़ से इन्हें बचाया जा सके। ऐसे में अगर अमेरिका एक लंबे संकट में घिरता है तो फिर उसका विश्व के लिए क्या अर्थ होगा? इसे समझा जा सकता है।
लेकिन अगर एकमात्र सुपरपॉवर अपने ही संकट में घिरकर एक शून्य पैदा करेगी तो फिर चीन और रूस जैसे जरूर उस जगह पर कब्जा करने की कोशिश करेंगे। स्थापित विश्व व्यवस्था में भूचाल आ जाएगा जो एक अनजाने-अनदेखे संकट को बुलावा देगा। ऐसे में सांस रोक कर इंतजार कीजिए और दुआ कीजिए कि ट्रंप शांति से निपट जाएं। (navjivanindia.com)
विधानसभा चुनाव में पार्टियों ने स्वर्णिम बिहार के निर्माण का सब्जबाग तो दिखाया ही, कोरोना वैक्सीन और रोजगार पर भी दांव लगाया. यह तो दस नवंबर को मतगणना के बाद ही पता चल पाएगा कि इन मुद्दों का क्या असर रहा.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
दो दिन बाद बिहार में विधान सभा चुनाव का तीसरा चरण होगा. सभी पार्टियों ने पिछले आम चुनावों की तरह ही कोरोना काल में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भी अपनी योजनाओं के जरिए बेहतर बिहार के निर्माण का रोडमैप मतदाताओं के समक्ष पेश किया. किसी ने इसे ‘बदलाव पत्र' तो किसी ने ‘प्रण हमारा, संकल्प बदलाव का' तो किसी ने ‘आत्मनिर्भर बिहार के सूत्र व संकल्प' की संज्ञा दी. चूंकि पार्टियों ने वोटरों को रिझाने के लिए अपने-अपने मुद्दे गढ़े थे इसलिए जाहिर है उनकी प्राथमिकताएं अलग-अलग रहीं. विपक्षी दलों ने जनता की दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश की तो सत्तारूढ़ पार्टी ने अपने पांच साल के जनोपयोगी कार्यों को प्रचारित-प्रसारित करने की रणनीति बनाई.
कोरोना वैक्सीन पर रार
केंद्र और राज्य में एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस) की सरकार और फिर कोविड -19 का संकट तो भला इनके घोषणा पत्र से कोरोना गायब कैसे रहता. भाजपा ने एलान कर दिया कि बिहार में सरकार बनने के बाद सभी प्रदेशवासियों को कोरोना की वैक्सीन मुफ्त दी जाएगी. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा जारी "1 लक्ष्य, 5 सूत्र व 11 संकल्प" का पहला संकल्प यही था. इस घोषणा की धमक दूर तक सुनाई दी. कुछ घंटे बाद मध्यप्रदेश व तामिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने भी मुफ्त वैक्सीन देने का वादा कर दिया. विपक्षी पार्टियां इसे लेकर हमलावर हो गईं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो ट्वीट करके कहा, "भारत सरकार ने कोविड वैक्सीन वितरण की घोषणा कर दी है. यह जानने के लिए वैक्सीन और झूठे वादे आपको कहां मिलेंगे, कृपया अपने राज्य की चुनाव तिथि देखें." समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कहा, "ऐसी ही घोषणा उत्तरप्रदेश और अन्य भाजपा शासित प्रदेशों के लिए क्यों नहीं की जाती." आखिरकार बात चुनाव आयोग तक पहुंची. आयोग ने कहा, मुफ्त वैक्सीन के वादे को आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता.
मुफ्त टीके की घोषणा
‘भाजपा है तो भरोसा है' के सूत्र वाक्य के साथ आत्मनिर्भर बिहार का रोडमैप पेश करते हुए निर्मला सीतारमण ने कहा कि हमने जो कहा उसे पूरा किया. एनडीए सरकार जनता के लिए काम कर रही है और लोगों का भरोसा ही हमारे संकल्प का आधार है. पार्टी ने शिक्षित बिहार-आत्मनिर्भर बिहार, गांव-शहर सबका विकास, स्वस्थ समाज, उद्योग आधार-सबल समाज और सशक्त कृषि, समृद्ध किसान का सूत्र दिया. इसके साथ ही भाजपा ने राज्य में 19 लाख लोगों को रोजगार देने की भी बात कही जिसके तहत चार लाख लोगों को सरकारी नौकरी और 15 लाख लोगों को विभिन्न माध्यमों से रोजी-रोटी के अवसर मुहैया कराए जाएंगे.
नीतीश कुमार के वादे
बिहार में भाजपा के बड़े भाई जदयू ने ‘पूरे होते वादे, अब हैं नए इरादे' के टैगलाइन से अपना निश्चय पत्र जारी किया. इसमें युवा शक्ति-बिहार की प्रगति, सशक्त महिला-सक्षम महिला, हर खेत को पानी, सुलभ संपर्कता, स्वच्छ गांव-समृद्ध गांव, सबके लिए अतिरिक्त सुविधा और स्वच्छ शहर, विकसित शहर की बात कही गई है. जानकार इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सात निश्चय-पार्ट 2 बताते हैं. राजनीतिक विश्लेषक सीके चटर्जी कहते हैं, "दरअसल यह नीतीश कुमार के उसी विजन का एक्सटेंशन है जिसे उन्होंने सात निश्चय के साथ 2015 में शुरू किया था. इनके लिए महिलाएं गेम चेंजर रहीं हैं, इसलिए महिला उद्यमिता व युवाओं को रोजगार पर इनका विशेष जोर है."
जदयू ने सक्षम और स्वावलंबी बिहार बनाने के लिए युवाओं को तीन लाख और महिलाओं को पांच लाख रुपये तक का अनुदान देने की बात कही है. पिछली बार स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड व स्वयं सहायता भत्ता की बात कही गई थी. इस बार मेगा स्किल डेवलपमेंट सेंटर को विकसित करने की योजना है ताकि उन्हें इस तरह का प्रशिक्षण उपलब्ध करा दिया जाए जिससे रोजगार मिलने में उन्हें कोई दिक्कत न हो. इसके अलावा पार्टी गांवों में हर घर नल का जल, हरेक घर में बिजली, पक्की गली-नाली व हर गली में सोलर लाइट व कचरा प्रबंधन तथा बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करा गांवों को भी शहरी रंग में रंगना चाह रही है.
राजद ने बेरोजगारी को बनाया मुद्दा
राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की एक विशेष रणनीति रही है कि जनभावना से जुड़े किसी एक मुद्दे को वे सुनियोजित ढंग से इतनी हवा देते हैं कि चुनाव के चरम पर आते ही वह मुद्दा बन जाता है. 2015 के विधानसभा चुनाव का स्मरण करें तो साफ हो जाएगा उस समय महागठबंधन की ओर आरक्षण एक ऐसा मुद्दा बन गया था जिसने भाजपा की नाक में दम कर दिया. ठीक उसी तर्ज पर अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए इस बार तेजस्वी यादव भी अपनी पार्टी की ओर से बेरोजगारी को मुद्दा बनाने में कामयाब रहे. महागठबंधन के अन्य घटक दलों की मौजदूगी में ‘प्रण हमारा, संकल्प बदलाव का' नाम से उन्होंने 25 सूत्री घोषणा पत्र जारी किया. इसमें तेजस्वी ने कहा कि महागठबंधन की सरकार बनते ही कैबिनेट की पहली बैठक में पहली कलम से दस लाख लोगों को सरकारी नौकरी दी जाएगी.
राहुल की महागठबंधन को समर्थन की अपील
इसके साथ ही इस घोषणा पत्र में किसानों का ऋण माफ करने, किसान विरोधी तीन कानूनों को समाप्त करने, कांट्रैक्ट पर नौकरी की व्यवस्था खत्म करने, नियोजित शिक्षकों को समान काम, समान वेतन व बिहार के छात्रों को सरकारी नौकरियों के परीक्षा फॉर्म में आवेदन शुल्क नहीं देने तथा परीक्षा केंद्र तक की मुफ्त यात्रा की बात कही गई है. पार्टी ने रोजगार एवं स्वरोजगार, कृषि, उद्योग,शिक्षा, उच्च शिक्षा व रोजगार, महिला सशक्तिकरण और परिवार कल्याण, स्मार्ट गांव, पंचायती राज, गरीबी उन्मूलन, आधारभूत संरचनात्मक विकास व स्वयं सहायता समूह समेत अन्य कई बिंदुओं के तहत विस्तार से बिहार को उन्नति के रास्ते पर ले जाने का रोडमैप बताया है. राजद के इस घोषणा पत्र पर भाजपा ने व्यंग्य कसते हुए कहा कि यह बदलाव का नहीं ‘प्रण हमारा फिर लूटेंगे' का संकल्प है. जदयू ने कहा, नौकरी का वादा भी एक घोटाला ही है.
कांग्रेस का चुनावी बदलाव पत्र
राजद की सहयोगी कांग्रेस ने अपने "बदलाव पत्र 2020" में कई लोकलुभावन वादे किए हैं. नीतीश सरकार की पूर्ण शराबबंदी पर प्रहार करते हुए पार्टी ने बिहार में मद्य निषेध कानून की समीक्षा करने की बात कही है. इसके अलावा अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने बेरोजगारों को नौकरी मिलने तक हरेक माह 1500 रुपये बेरोजगारी भत्ता देने, साढ़े चार लाख रिक्त पद भरने व रोजगार आयोग का गठन करने, छत्तीसगढ़ की तरह किसानों का कर्ज माफ करने, केजी से पीजी तक बच्चियों को मुफ्त शिक्षा व होनहार बेटियों को मुफ्त में स्कूटी देने का वादा किया है.
इसके अलावा सहयोगी वामपंथी दलों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने "बदलो सरकार, बदलो बिहार" के तहत अपने इरादे जाहिर किए जिनमें भूमिहीन परिवार को दस डिसमिल जमीन देने, समान शिक्षा प्रणाली, भूदान व हदबंदी में चिन्हित 21 लाख एकड़ जमीन के वितरण तथा समान काम, समान वेतन की बात कहते हुए "नई सदी, नई पीढ़ी, नई सोच और नया बिहार" का नारा दिया है. जबकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने बेरोजगारों को प्रतिमाह पांच हजार रुपये देने व किसानों की कर्ज माफी की बात कही है.
सात निश्चय में भ्रष्टाचार बना मुद्दा
बिहार विधानसभा के इस चुनाव में केंद्र में एनडीए सरकार की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने भी "बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट'' के तहत अपना विजन डाक्यूमेंट-2020 जारी किया. ये वही विजन डाक्यूमेंट है, जिसके मुद्दों को लेकर लोजपा प्रमुख व स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान चुनाव में एकला चलो का निर्णय लेने के पहले भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भिड़ते रहे हैं. कोरोना से निपटने की राज्य सरकार की व्यवस्था हो या फिर लॉकडाउन में प्रवासियों के लौटने का मुद्दा रहा हो, चिराग अपनी नाराजगी सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर नीतीश सरकार की आलोचना कर चुके हैं.
अपने घोषणा पत्र में तो उन्होंने सीधे-सीधे नीतीश कुमार के सात निश्चय को घेरे में लेते हुए उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार की जांच कराने तथा दोषियों को जेल भेजने की बात कही है. वे तो यहां तक कहते रहे हैं कि इसमें इतना भ्रष्टाचार है कि इसकी आंच नीतीश कुमार तक आएगी और उन्हें भी जेल भेजा जाएगा. जाहिर है, इतना आक्रामक व व्यक्तिगत हमला तो तेजस्वी यादव ने भी नीतीश कुमार पर नहीं किया है. इसके अलावा लोजपा ने राज्य में अफसरशाही खत्म करने, सीता रसोई के जरिए हर प्रखंड में दस रुपये में भोजन मिलने, छात्रों के लिए कोचिंग सिटी, फिल्मसिटी, स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाने, रोजगार पोर्टल बनाने, नहरों से नदियों को जोड़ने, किन्नरों व गरीबों को आवास देने तथा तय सीमा में प्रोजेक्ट पास नहीं करने पर अफसरों पर मुकदमा दर्ज करने की बात कही है.
रोजगार पर तकरार
विधानसभा चुनाव में रोजगार जैसे ही मुद्दा बनने लगा, एनडीए तथा महागठबंधन के घटक दलों के बीच वाणों के तीर चलने लगे. तंज कसने व आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. यहां तक कि इस जंग में पीएम नरेंद्र मोदी भी कूद पड़े. जमुई से एनडीए प्रत्याशी श्रेयसी सिंह के समर्थन में आयोजित जनसभा में पीएम ने कहा, "बिहार में नए उद्योग लगाए जाएंगे जिससे युवाओं को रोजगार मिल सकेगा और उन्हें काम के लिए दूसरे राज्यों का रूख नहीं करना होगा." महागठबंधन के नेता जहां इन पंद्रह सालों में रोजगार का हिसाब मांग रहे थे वहीं एनडीए व उसके सहयोगी दल नियोजित शिक्षक, जीविका दीदी, विकास मित्र, न्याय मित्र, टोला सेवक व कृषि सलाहकार जैसे पदों पर की गई नियुक्ति का हवाला दे विपक्षियों से उनके द्वारा पंद्रह साल में दिए गए रोजगार का ब्योरा मांग रहे हैं. राजद द्वारा दस लाख लोगों को पहली कलम से नौकरी देने के वादे पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं, "पंद्रह साल में नब्बे हजार को नौकरी देने वाले दस लाख नौकरी देने की बात कह रहे हैं."
तेजस्वी ने बनाया रोजगार को मुद्दा
वहीं राजद नेता तेजस्वी यादव कहते हैं, "नीतीश सरकार ने पंद्रह साल में किसी को रोजगार नहीं दिया. लोग रोजी-रोटी, स्वास्थ्य व बेहतर शिक्षा के लिए राज्य से बाहर जा रहे हैं. अरबों रुपया यहां से बाहर जा रहा है. हम मेधा पलायन रोकने की योजना बनाएंगे. बिहार सरकार हर वर्ष बजट का 40 प्रतिशत यानी अस्सी हजार करोड़ रुपया सरेंडर करती है. हम इस राशि का इस्तेमाल विकास के कार्यों व वेतन देने में करेंगे. नहीं होगा तो हम विधायकों के वेतन में कटौती करके वेतन का खर्च जुटाएंगे." इधर, राजद ने भी भाजपा से पूछा है कि चार लाख लोगों को नौकरी और पंद्रह लाख लोगों के रोजगार के लिए वे पैसा कहां से लाएंगे. कांग्रेस महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला कहते हैं, "भाजपा का घोषणा पत्र भी जुमला ही है. जब हमने दस लाख लोगों को नौकरी की बात कही तब तंज कस रहे थे, अब खुद 19 लाख को रोजगार देने की बात कह रहे."
जानकार बताते हैं कि सभी पार्टियां हवा-हवाई दावे कर रही है. दस लाख लोगों को नौकरी तथा अन्य लाखों सेवकों का मानदेय बढ़ाने की बात का हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है. इतने लोगों को नौकरी देने के लिए एक लाख 34 हजार करोड़ रुपये की जरूरत होगी. इसके अतिरिक्त मनरेगा का कार्य दिवस बढ़ाकर दो सौ करने पर 5300 करोड़ तथा आशा कार्यकर्ता समेत अन्य का मानदेय बढ़ाने पर 4150 करोड़ रुपये और जीविका दीदियों के प्रत्येक समूह को दो लाख रुपये का टॉप अप लोन देने पर 77 हजार करोड़ की जरूरत होगी. पहले से ही वित्तीय संकट से जूझ रही बिहार सरकार के लिए आखिरकार इतना पैसा जुटाना महती चुनौती होगी.(dw.com)
आईआईटी, खड़गपुर के शोधकर्ताओं ने डिस्पोजेबल पेपर कप में गर्म पेय पदार्थ के इस्तेमाल पर स्टडी के बाद चौंकाने वाली रिपोर्ट जारी की है
- DTE Staff
ज्यादातर पेय पदार्थ डिस्पोजेबल पेपर कप में पीये जाते हैं, लेकिन क्या ऐसा करना सही है? आईआईटी, खड़गपुर की एक रिसर्च में पाया गया है कि इन डिस्पोजेबल पेपर कप में गर्म पेय पदार्थ पीना सही नहीं है, क्योंकि इन पेपर कप से माइक्रोप्लास्टिक सहित कई हानिकारक तत्व निकलते हैं। दरअसल यह पेपर कप एक महीन हाइड्रोफोबिक फिल्म से तैयार किए जाते हैं, जो अममून प्लास्टिक (पॉलीथिलेन) से बनते हैं। कई दफा पेपर कप में तरल पदार्थ को रोकने के लिए को-पॉलीमर्स का इस्तेमाल किया जाता है।
आईआईटी, खड़गपुर के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर सुधा गोयल, रिसर्च स्कॉलर वेद प्रकाश रंजन और अनुजा जोसफ ने यह अध्ययन किया और पाया कि पेपर कप में 15 मिनट तक गर्म पानी रखने से माइक्रोप्लास्टिक की पतली परत क्षीण हो जाती है।
सुधा गोयल ने कहा, हमारा अध्ययन बताता है कि एक पेपर कप में 85 से 90 डिग्री सेल्सियस तापमान वाला 100 मिलीलीटर गर्म तरल पदार्थ अगर 15 मिनट तक रहता है तो उसमें 25 हजार माइक्रोन आकार के माइक्रोप्लास्टिक के कण निकले। इसका मतलब है कि एक औसत व्यक्ति अगर दिन में तीन बार पेपर कप में चाय या कॉफी पीता है तो वह अपने शरीर के भीतर लगभग 75 हजार सूक्ष्म माइक्रोप्लास्टिक के कण पहुंचा रहा है, जो एक व्यक्ति के आंखों को दृष्टिहीन तक कर सकता है।
इन शोधकर्ताओं ने इस स्टडी के लिए दो तरीके आजमाए। एक- 85 से 90 सेल्सियस तापमान वाला गर्म पानी एक डिस्पोजेबल पेपर कप में डाला गया और 15 मिनट तक इंतजार किया गया। इसके बाद पानी की जांच की गई, जिसमें माइक्रोप्लास्टिक्स के कण मिले। दूसरा- 30 से 40 डिग्री सेल्सियस के गर्म पानी में एक पेपर कप डुबोया। इसके बाद पेपर लेयर से सावधानी से हाइड्रोफोबिक फिल्म को अलग किया गया और गर्म पानी को 15 मिनट तक रखा गया। साथ ही, प्लास्टिक फिल्म के फिजीकल, केमिकल और मैकेनिकल बदलावों की जांच की गई।
शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि ये माइक्रोप्लास्टिक के कण विषाक्त पदार्थों के वाहक के रूप में कार्य कर सकते हैं। इनमें पैलेडियम, क्रोमियम, कैडमियम जैसे जहरीले भारी धातु और कार्बनिक यौगिक शामिल हैं। जब इन विषाक्त पदार्थों को निगला जाता है, तो स्वास्थ्य के लिए काफी गंभीर हो सकते हैं।
आईआईटी, खड़गपुर के निदेशक प्रो. वीरेंद्र के. तिवारी ने कहा, "यह अध्ययन बताता है कि ऐसे उत्पादों के इस्तेमाल से पहले सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। हमें पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों को खोजना होगा, लेकिन साथ ही हमें हमारे पारंपरिक व स्थायी जीवन शैली को बढ़ावा देना होगा।”(downtoearth)
मनोरमा सिंह
अर्णब गोस्वामी और उनकी कंपनी से पैसे का भुगतान नहीं होने के कारण अपनी माँ के साथ दो साल पहले आत्महत्या कर चुके अन्वय नायक की पत्नी और बेटी की..
अर्णब की गिरफ्तारी पर जो लोग कह रहे हैं इसको क्यों नहीं पकड़ा, उसको क्यों नहीं, तो उन लोगों को सोचना चाहिए कि इस निजाम में बगैर पुख्ता आधार के भी लोग जेल में हैं, सुधा भारद्वाज से लेकर बरबर राव, फादर स्टेन स्वामी जैसे जाने कितने नाम हैं, सरकार जिसको चाहे जेल में बंद कर दे, फिर भी आपके सुझाए नाम वाले पत्रकारों को जेल में नहीं बंद कर रही तो कुछ सोच समझ कर ही ऐसा कर रही होगी या फिर चाहकर भी उनके खिलाफ ऐसा कुछ मामला नहीं बना पा रही होगी
खैर, केवल पत्रकारों की ही बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में कोविड-19 पर रिपोर्टिंग के लिए ही 55 भारतीय पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, उनके खिलाफ केस किया गया, उनको धमकी दी गई, कश्मीर के लगभग दो दर्जन पत्रकार आर्टिकल 370 हटाने के बाद से सरकार द्वारा प्रताडि़त किए गए हैं और दो जेल में हैं, और अभी हफ्ते दो हफ्ते पहले ही जम्मू-कश्मीर के एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक कश्मीर टाईम्स के श्रीनगर कार्यालय को सील कर अनुराधा भसीन को पत्रकारिता करने की सजा दी गई है, उत्तरप्रदेश के प्रशांत कनोजिया का मामला भी कुछ महीने पहले का है , जिन्हें उनके ट्वीट के कारण अगस्त से अब तक जेल में रखा गया था, मिड डे मील के नाम पर यू पी की योगी सरकार द्वारा मिर्जापुर के स्कूल में बच्चों को रोटी-नमक खिलाये जाने की बात उजागर करने वाले पत्रकार पवन बंसल के ही खिलाफ वाला मामला भी ज्यादा पुराना नहीं है! और एक शर्मशार करने वाली कहानी शामली के पत्रकार अमित शर्मा की है जिन्हें स्टोरी कवर करने जाने पर गिरफ्तार कर पुलिस ने टॉर्चर किया और पेशाब पिलाया और गौरी लंकेश तो मार ही डाली गईं।
हाल ही में एक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि 50 से अधिक पत्रकारों को उनके काम के लिए आपराधिक आरोपों, हिंसा और धमकी के के मामले में सूचीबद्ध किया गया है और यूपी का रिकॉर्ड सबसे खराब है ! लिस्ट बहुत लंबी है सच में इन सबकी बात होनी चाहिए, फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के लिए आपातकाल या इमरजेंसी के इस दौर की बात होनी चाहिए, ना कि पत्रकारिता के नाम पर धमकी देने वाले और किसी के काम के बदले उसके पैसे का भुगतान नहीं करने वाले और आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले किसी आरोपी अपराधी शख्स की !
बेबाक विचार डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह कॉलम लिखे जाने तक पता नहीं चला है कि अमेरिका में कौन जीता है ? डोनाल्ड ट्रंप या जो बाइडन। वैसे अभी तक जो बाइडन ट्रंप से थोड़ा आगे हैं। उन्हें ‘इलेक्ट्रोरल कालेज’ के अभी तक 238 वोट मिले हैं और ट्रंप को 213 वोट। जीत के लिए 270 वोट जरुरी हैं। लेकिन चुनाव परिणाम घोषित होने के पहले ही ट्रंप ने पत्रकार परिषद करके अपनी जीत की घोषणा कर दी है।
उन्होंने यह भी कह दिया है कि वहां विभिन्न राज्यों में जो वोटों की गिनती हो रही है, वह अपने आप में बड़ी धांधली है। उन्होंने राज्यों से कहा है कि वे उस गिनती को रुकवा दें। जो हालत इस चुनाव में अमेरिकी लोकतंत्र की हुई है, वैसी दुनिया के किसी लोकतंत्र की नहीं हुई। अमेरिका अपने आप को दुनिया का सबसे महान लोकतंत्र कहता है लेकिन उसकी चुनाव पद्धति इतनी विचित्र है कि किसी उम्मीदवार को जनता के सबसे ज्यादा वोट मिलें, वह भी उस उम्मीदवार से हार जाता है, जिसे ‘इलेक्टोरल वोट’ ज्यादा मिलते हैं।
इसके अलावा इस बार कोरोना की महामारी के कारण लोगों ने घर बैठे ही करोड़ों वोट इंटरनेट के जरिए डाले हैं। इन वोटों में भी धांधली की शंका की जा रही है। इसके अलावा इस चुनाव में गोरे और काले, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग तथा यूरोपीय और लातीनी मूल का भेद इतना ज्यादा हुआ है कि चुनाव परिणाम के बाद भयंकर हिंसा और तोडफ़ोड़ का डर बढ़ गया है।
इसीलिए लगभग सभी बैंकों, बड़े बाजारों और घनी बस्तियों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है। राष्ट्रपति भवन पर सुरक्षाकर्मियों को बड़ी संख्या में तैनात कर दिया गया। अगर ट्रंप की जीत की घोषणा हो गई तो उनके जीवन को भी खतरा हो सकता है और यदि बाइडन जीत गए तो ट्रंप के उग्र समर्थक कितना ही भयंकर उत्पात मचा सकते हैं।
चुनाव-परिणाम की घोषणा में देरी भी दो कारणों से हो सकती है। एक तो डाक से आए वोटों की गिनती में देर लग सकती है और दूसरा, दोनों पार्टियां अदालत की शरण में भी जा सकती हैं। टेक्सास प्रांत में एक लाख 27 हजार वोटों को अवैध घोषित करवाने के लिए ट्रंप के रिपब्लिकनों ने अदालत के दरवाजे खटखटाए थे। इस वक्त ट्रंप और बाइडन के सैकड़ों वकीलों ने अदालतों में जाने की पूरी तैयारी कर रखी है। हो सकता है, इस अमेरिकी चुनाव के फैसले में काफी देर लग जाए और अंतिम निर्णय अदालत का ही हो।
यह असंभव नहीं कि इस चुनाव के बाद अमेरिका में यह मांग जोर पकड़ ले कि उसकी चुनाव-पद्धति में आमूल-चूल सुधार हो और भारत की तरह वहां कोई चुनाव आयोग पूरे देश में एकरुप चुनाव करवाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
तीन साल हो गए, सदफ की अपने पिता के साथ ठीक से बात नहीं हुई है. सदफ के पिता उनसे बात नहीं करना चाहते. वह एक गैर मुस्लिम लड़के से शादी करने की कीमत चुका रही हैं. दिल्ली में रहने वाली सदफ पेशे से वकील हैं. वह लखनऊ में अपने मायके जाती हैं. उन्हें अब भी उम्मीद है कि उनके पिता एक ना एक दिन उनके हिंदू पति को स्वीकार कर लेंगे.
डॉयचे वैले पर आदित्य शर्मा का का लिखा-
भारतीय समाज में अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर हमेशा विवाद रहा है, खास तौर से जब वो हिंदू और मुसलमान के बीच हो. पिछले दिनों तनिष्क के विज्ञापन पर बहुत विवाद हुआ. इसमें दिखाया गया कि मुसलमान परिवार में शादी करने वाली एक हिंदू लड़की की धार्मिक रस्मों को कैसे उसका ससुराल मान सम्मान देता है. लेकिन विज्ञापन का इतना विरोध हुआ है कि तनिष्क को इसे वापस लेना पड़ा.
कंपनी ने कहा कि वह "लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने और अपने कर्मचारियों, साझीदारों और स्टोर्स की सुरक्षा" को ध्यान में रखते हुए विज्ञापन वापस ले रही है. यह इस तरह का पहला विवाद नहीं है. लेकिन इसने अंतरधार्मिक विवाहों की स्वीकार्यता के सवाल को फिर खड़ा किया है, खास कर ऐसे देश में जहां हाल के सालों में धार्मिक तनाव लगातार बढ़ा है.
महिलाओं की मुश्किल
सदफ ने अपने साथी वकील यतिन के साथ फरवरी 2018 में शादी की. लेकिन शादी से पहले कई महीने दोनों में से किसी के लिए भी आसान नहीं थे. सदफ कहती हैं, "मेरी तरफ तो ज्यादा ही मुश्किलें थीं. ऐसे मामलों में लड़की के परिवार को मनाना हमेशा ही मुश्किल होता है." वह बताती हैं कि भारत में बहुत से परिवार अपनी बेटी दूसरे धर्म के लोगों में नहीं देना चाहते.
वहीं यतिन का कहना है कि जब उन्होंने अपने परिवार को सदफ के बारे में बताया तो उन्हें एकदम से धक्का लगा. वह कहते हैं, "मेरी मां तो बातों ही बातों में अक्सर मुझसे कहा करती थी, जिससे चाहे शादी कर लेना, बस लड़की मुसलमान ना हो." लेकिन कई महीनों तक मनाने के बाद यतिन का परिवार मान गया.
यतिन भी इस बात को स्वीकारते हैं कि सदफ के लिए हालात उनसे कहीं ज्यादा मुश्किल थे. वह कहते हैं, "अगर मेरी बहन कहती कि उसे किसी मुसलमान लड़के से शादी करनी है तो मुझे नहीं लगता कि मेरे माता-पिता इस बात के लिए राजी होते. लड़की वाले ऐसी बातों पर आक्रामक हो जाते हैं."
सदफ के पिता ने तो उनकी शादी में आने से भी मना कर दिया. उनकी तरफ से सिर्फ उनकी मां और भाई शादी में शामिल हुए.
तनिष्क के विज्ञापन ने दिखाई समाज की हकीकत
"लव जिहाद"
भारत में अंतरधार्मिक शादी करने वाले बहुत से जोड़ों की तरह सदफ और यतिन को भी काफी कुछ झेलना पड़ा. दोनों ही शिक्षित परिवारों से आते हैं , दोनों के परिवार बड़े शहरों में रहते हैं. साथ ही दोनों वित्तीय रूप से किसी पर निर्भर नहीं हैं.
सदफ कहती हैं, "अगर यतिन मुसलमान होता और मैं हिंदू, तो हमारी शादी लव जिहाद कहलाती." कई हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों का आरोप है कि मुसलमान पुरूष हिंदू महिलाओं का धर्मांतरण कराने के लिए उनसे शादी करते हैं और यह उनकी नजर में "लव जिहाद" है.
सदफ कहती हैं कि मौजूदा राजनीतिक माहौल ने "लव जिहाद" की अवधारणा को मजबूत किया है. आलोचकों का कहना है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अंतरधार्मिक शादियों करने वाले लोगों को डराने-धमकाने वाले धुर दक्षिणपंथी गुटों को सहारा देती है.
सदफ कहती हैं कि ऐसे गुटों के डर के कारण उन्होंने अपनी शादी बहुत ही सादे तरीके से की थी. वह बताती हैं, "हम बहुत डरे हुए थे. पता नहीं था कि कौन चला आए और शादी में बाधा डाले. कोई भी आ सकता था जो इस पर राजनीति करना चाहे." वह कहती हैं कि समय के साथ हालात खराब ही हुए हैं. "अगर हम लोग अब शादी कर रहे होते, तो और भी ज्यादा मुश्किलें आतीं."
भारत में हिंदू-मुसलमान शादियों को सामाजिक तौर पर कभी नहीं स्वीकारा गया. लेकिन हाल के समय में यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया है. सामाजिक कार्यकर्ता आसिफ इकबाल कहते हैं कि अंतरधार्मिक जोड़े अब ज्यादा सावधान हो गए हैं, ताकि धर्मांतरण के आरोपों से बचा जा सके.
डीडब्ल्यू के साथ बातचीत में इकबाल ने कहा, "पहले जब दो अलग-अलग धर्मों के लोग शादी करते थे तो इसे उनका निजी मामला समझा जाता था. इस मामले में ज्यादा राजनीतिक दखल नहीं दिया जाता था. लेकिन अब सब कुछ बदल गया है."
इकबाल दिल्ली में काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन धनक के सह-संस्थापक हैं. यह एनजीओ अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह करने वाले लोगों को काउंसलिंग के साथ साथ कानूनी और वित्तीय मदद भी देता है. 2010 में स्थापित यह संगठन हर साल लगभग एक हजार जोड़ों की मदद करता है. इनमें से आधे मामले अंतरधार्मिक शादियों के होते हैं.
इकबाल कहते हैं, "हमारे पास आने वाले ज्यादातर लोगों को डर होता है कि उनकी शादी के दौरान हिंसा हो सकती है. हिंसा कई तरह की होती है. कुछ मामलों में जोड़े को पीटा जाता है तो कभी उन्हें घर में बंद कर दिया जाता है. कई बार उन्हें किसी से बात नहीं करने दी जाती."
इकबाल की संस्था ऐसे लोगों को बताती है कि उनके अधिकार क्या हैं. उनके मुताबिक, "हम उन्हें बताते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमें नैतिक और कानूनी रूप से कुछ गलत नहीं है. एक बार उनमें आत्मविश्वास आ जाता है तो फिर स्थिति को संभालना उनके लिए आसान हो जाता है."
सामाजिक कलंक
तमाम मुश्किलों और परेशानियों के बावजूद कई जोड़े साथ रहते हैं. लेकिन उन्हें एक तरह से सामाजिक भेदभाव झेलना पड़ता है. इसकी मुख्य वजह हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव है. इकबाल कहते हैं, "वैसे तो लोग शांति से रहते हैं, लेकिन जब एक ही परिवार में दो धर्मों के लोग हों तो मामला विवादित हो जाता है."
इकबाल कहते हैं कि समस्या सिर्फ धुर दक्षिणपंथी हिंदू धार्मिक संगठन नहीं हैं. "हिंदू संगठनों की गतिविधियों पर हमारा ध्यान इसलिए जाता है क्योंकि उनके पास अभी ऐसा करने के लिए एक राजनीतिक जमीन है. लेकिन मुझे लगता है कि अगर मुसलमान समूहों को इस तरह की राजनीतिक जमीन दे दी जाए तो उनकी प्रतिक्रिया भी इसी तरह की होगी."
कोविड मरीजों के घर के बाहर पोस्टर लगाया जाना और आरडब्ल्यूए के जरिए व्हाट्स एप पर मरीज के नाम का प्रसार स्पष्ट तौर पर राइट टू प्राइवेसी का उल्लंघन है।
- Vivek Mishra
दिल्ली में कोविड मरीज के घर के बाहर पोस्टर चिपकाया जाएगा या नहीं। यह पहलू अब बिल्कुल शीशे की तरह साफ हो गया है। कोविड मरीजों को किसी भी तरह का सामाजिक दंश न झेलने पड़े इसलिए उनकी राइट टू प्राइवेसी बनाए रखनी पड़ेगी। दिल्ली सरकार ने हाल ही में एक आदेश जारी कर कहा है कि घर में आइसोलेट होने वाले किसी भी कोविड मरीज के घर के बाहर कोई पोस्टर नहीं चिपकाया जाएगा। वहीं, ऐसा कोई भी पोस्टर जो घर के बाहर चिपकाया गया है उसे तत्काल प्रभाव से हटा दिया जाए।
दिल्ली हाईकोर्ट में एडवोकेट कुश कालरा की ओर से उठाए गए कोविड मरीजों की राइट टू प्राइवेसी मामले (डब्यूपी (सी) नंबर 7250/2020) में 2 नवंबर, 2020 को दिल्ली सरकार की ओर से दिए गए लीगल रिप्लाई में यह बात कही गई है।
लीगल रिप्लाई में कहा गया है कि स्वास्थ्य सेवा निदेशालय की ओर से 7 अक्तूबर, 2020 को सभी सीडीएमओ और होम आइसोलेशन से संबंधित नोडल अधिकारियों को कोविड मरीजों की जानकारी साझा या उजागर न करने के लिए आदेश दे दिए गए हैं। साथ ही दिल्ली के अधिकारियों को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया गया है कि वह कोविड मरीजों की जानकारी आरडब्ल्यूए या किसी अन्य व्यक्तियों को साझा करें।
दिल्ली में आरडब्ल्यूए वाली या अन्य कई आवासीय कॉलोनियों में कोविड मरीजों के होम आइसोलेशन के दौरान सामाजिक बहिष्कार जैसी बातें सामने आती रही हैं।
एडवोकेट कुश कालरा ने डाउन टू अर्थ से बताया कि कोविड मरीजों की राइट टू प्राइवेसी का मामला उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में उठाया था। यह देखने में आ रहा था कि स्वास्थ्य विभाग के द्वारा कई आवासीय कॉलोनियों में आरडब्ल्यूए को जानकारी साझा की जा रही थी, जिससे बाद में आरडब्ल्यूए व्हाट्स एप ग्रुप के जरिए समाज में कोविड मरीजों की जानकारी का व्यापक प्रचार कर दिया जाता था।
इसके चलते संबंधित मरीज और उसके परिवार को सामाजिक दंश झेलना पड़ता था।साथ ही साथ यह बात भी स्पष्ट नहीं थी कि आरडब्ल्यूए या किसी अन्य व्यक्ति को होम आइसोलेशन की जानकारी साझा की जाए या नहीं।
एडवोकेट कालरा ने कहा कि यह रिप्लाई बताता है कि दिल्ली और सभी प्राधिकरणों को होम आइसोलेशन वाले मरीजों की जानकारी को गुप्त ही बनाए रखना होगा, जो कि अंततः किसी भी व्यक्ति के बुनियादी अधिकार राइट टू प्राइवेसी की रक्षा ही है।
एक अक्तूबर, 2020 को यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचा था। वहीं, दिल्ली हाईकोर्ट में जस्टिस हीमा कोहली और सुब्रमोनियम प्रसाद की पीठ ने पीआईएल पर संज्ञान लेते हुए दिल्ली और केंद्र सरकार को नोटिस दिया था।(downtoearth)
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर का लिखा-
यह अभी तक साफ नहीं हुआ है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव किसने जीता और शायद कुछ और समय तक साफ नहीं होगा. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि लोकतंत्र खतरे में है, भले ही बहुत से अमेरिकियों को ट्रंप के कदम स्वीकार्य हैं.
अमेरिका में चुनावी रात बिल्कुल वैसी ही रही, जैसा बहुत से विश्लेषकों और चुनावी पंडितों ने सोचा था. कम से कम एक मायने में तो जरूर, बुधवार की सुबह तक कोई भी उम्मीदवार स्पष्ट विजेता बनकर नहीं उभरा. बैटलग्राउंड कहे जाने वाले मिशिगन, विस्कोन्सिन और पेन्सिलवेनिया जैसे राज्य परिणाम में अब भी बहुत अहम भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन अंतिम नतीजे आने में समय लगेगा.
कोई हैरानी नहीं हुई जब दोनों ही उम्मीदवारों ने मौजूदा स्थिति को पूरी तरह अनदेखा करते हुए अपने समर्थकों के सामने अपनी जीत का भरोसा जताया. डेमोक्रैटिक पार्टी की तरफ से उम्मीदवार जो बाइडेन स्थानीय समय के अनुसार बुधवार तड़के अपने गृह राज्य डेलावेयर में अपने समर्थकों से मुखातिब हुए.
बाइडेन ने कहा, "हमें पता था कि इसमें समय लगने वाला है." इसके साथ ही उन्होंने जीत के लिए इलेक्टोरल कॉलेज के 270 वोट पाने के लिए वह अभी जहां तक पहुंचे हैं, उस पर उन्होंने संतोष जताया. उन्होंने जोर देकर कहा, "जब तक एक-एक वोट, एक-एक मतपत्र नहीं गिन लिया जाएगा, तब तक काम खत्म नहीं होगा,"
इस बार अमेरिकी चुनाव में तीन तरह के वोट हैं. पहले वोट हैं चुनाव के दिन मतदान केंद्र पर पड़ने वाले वोट. दूसरे, मतदान केंद्र पर पहले जाकर दिए जाने वाले वोट और तीसरे वोट हैं डाक मत पत्र वाले. इसीलिए सभी वोटों को गिनने में कई दिन लग सकते हैं.
यह पूरी तरह से वैध लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. हालांकि राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की नजर में यह "चुनाव में धांधली" के लिए डेमोक्रैट्स की कोशिश है. बुधवार को बिना सबूत उन्होंने ट्वीट कर यह आरोप लगाया. ट्रंप की इस बात पर किसी को हैरानी तो नहीं होनी चाहिए, फिर भी उनका रवैया परेशान तो करता ही है.
बुधवार की सुबह दिए अपने भाषण में ट्रंप ने कई राज्यों में स्पष्ट जीत का दावा किया जबकि वहां अभी इतने वोटों की गितनी नहीं हो पाई थी कि किसी को विजेता घोषित किया जा सके. खास तौर से उन्होंने पेन्सिलवेनिया में अपनी बढ़त का जिक्र किया, इस बात का कोई जिक्र किए बिना कि वहां किस प्रकार के मत पत्रों की गिनती होनी बाकी है.
डाक के जरिए मिले बहुत सारे मत पत्रों को अभी खोला जाना है. विशेषज्ञों का मानना है कि रिपब्लिकन समर्थकों की तुलना में डेमोक्रैटिक समर्थकों ने ज्यादा डाक मतपत्रों का इस्तेमाल किया है. इसीलिए ट्रंप नहीं चाहेंगे कि उन्हें गिना जाए. लेकिन डेमोक्रैट्स को भी अभी मैदान नहीं छोड़ना चाहिए. जिन राज्यों में नतीजे आने बाकी हैं, उनमें से कई में ट्रंप आगे हो सकते हैं, लेकिन बहुत सारे वोटों की गिनती होनी अभी बाकी है जो बाइडेन को मिल सकते हैं.
स्थिति कुछ कुछ 2016 जैसी दिख रही है, लेकिन अभी तक सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. ट्रंप अपनी जीत की भी घोषणा कर रहे हैं और वोटों की गिनती को "बड़ी धांधली" भी बता रहे हैं और यह भी कह रहे हैं कि वे सुप्रीम कोर्ट जाएंगे. इन सब बातों से वह लोकतंत्र में वोट पड़ने और उन्हें गिने जाने की प्रक्रिया के प्रति असम्मान प्रकट कर रहे हैं, वह भी महामारी के इस साल 2020 में.
ट्रंप के कदमों की स्वीकार्यता
बहुत से उदारवादी अमेरिकियों ने सोचा था कि बाइडेन स्पष्ट विजेता के तौर पर उभरेंगे और टक्कर इतनी कांटे की नहीं होगी. आखिरकार उनके उम्मीदवार ने एक ऐसे राष्ट्रपति के खिलाफ चुनाव लड़ा है जो अमेरिका में मुसलमानों के आने पर रोक लगाना चाहता है, जिसने महिला अमेरिकी सांसदों पर नस्लीय हमले किए हैं, जिसने अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने के लिए यूक्रेन के साथ अमेरिकी सैन्य सहायता की सौदेबाजी करने के लिए महाभियोग का सामना किया और जिसके नेतृत्व में अब तक ढाई लाख लोग कोरोना महामारी से मारे गए हों.. यह फेहरिस्त बहुत लंबी है.
इन सब बातों के बावजूद बड़ी संख्या में अमेरिकी लोगों ने ट्रंप को वोट दिया है. बीते चार साल में ट्रंप के कदमों से साफ है कि अमेरिका में क्या क्या स्वीकार्य है. और यह दुख की बात है भले ही राष्ट्रपति चुनाव का विजेता कोई भी बने.(dw.com)
-चैतन्य नागर
आपसी मतभेद भले ही कितने गहरे क्यों न हों, इसका समाधान एक-दूसरे का गला काटने में नहीं। भले ही कुछ नेकदिल लोग बार-बार दोहराते रहें कि इस्लाम शांति का मजहब है, पर रैडिकल इस्लाम की ताकत और असर को देख कर नहीं लगता कि उनकी बात को कोई महत्व देता भी है। महातीर मोहम्मद, इमरान खान और तुर्की के एर्दोआन समेत कई लोग फ्रांस में हुई घिनौनी आतंकी घटना के समर्थन में फ्रांस के खिलाफ एकजुट हो गये हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनकी बातें हीं इस्लामिक दुनिया में ज़्यादा सुनी जाती हैं। यह पूरी दुनिया के लिए शर्मनाक है। फ्रांस के लिए लैसिते या धर्मनिरपेक्षता उसकी पहचान का अभिन्न हिस्सा है, और 1905 से उसे इसने अपनाया हुआ है। लैसिते की हार आतंकवादियों के साथ ही उन दक्षिणपंथियों की भी जीत है जो इस्लामोफोबिया के नाम पर समाज को कलह की आग में झोंक देना चाहते हैं।
फ्रांस में बाकी यूरोप के तुलना में सबसे अधिक मुस्लिम रहते हैं। उन्हें अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष सब कुछ तो चाहिए ही, साथ ही लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों पर हमला करने और लोगों की गर्दन काटने की आजादी भी चाहिए। उन देशों से भी ये खुश नहीं जहां इन्हें झोला भर-भर आजादी और अलग पहचान मिली हुई है, क्योंकि वहां इनकी बाकी रुग्ण आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पातीं।
मध्ययुगीन सोच, विकृत धार्मिक व्याख्या और पैने हथियारों से लैस इन आतंकियों को मिटाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन्ही के मजहब के समझदार लोगों की है जो अपनी बातों को सामने रखकर लोगों को पूरे विश्वास के साथ बता सकें कि उनकी विचारधारा की हकीकत है क्या। लैसिते जैसे सिद्धांत सैकड़ों वर्षों की सोच का, जद्दोजहद का नतीजा हैं। हम एक ही दुनिया में रहें और एक दूसरे को बर्दाश्त न कर सकें, अपने मतों को लेकर खून बहाएं, तो हमारी प्रगति का अर्थ फिर है क्या!
फ्रांस संस्कृति और कला का केंद्र रहा है। नीस का अर्थ ही है खूबसूरत। वहां लोग अपने पेंट और ब्रश लेकर आते हैं, और ठहर जाते हैं अपनी कला को अभिव्यक्ति देने के लिए।
सीपिया फ्रांस पर खून के छींटे आखिरकार वहां के लोगों को उन ताकतों के हाथों में धकेल देंगे जो उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का सत्यानाश कर डालेंगे। चाहे वे इस्लामी कट्टरपंथी हों, या खून के बदले खून की मांग करने वाले दूसरे धर्म के दक्षिणपंथी।
-सरोज सिंह
भारत में सोशल मीडिया पर सुबह से दो ही ख़बरें छाई रहीं. पहला अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव और दूसरा अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी.
रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी को बुधवार सुबह महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया.
चैनल के मुताबिक़ मुंबई पुलिस की एक टीम सुबह अर्नब गोस्वामी के घर पहुँची और उन्हें पुलिस वैन में बैठाकर अपने साथ ले गई.
पुलिस का कहना है कि अर्नब गोस्वामी को 53 साल के एक इंटीरियर डिज़ाइनर को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है.
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक़ अर्नब गोस्वामी ने आरोप लगाया है कि मुंबई पुलिस ने उनके, उनकी पत्नी, बेटे और सास-ससुर के साथ हाथापाई की. रिपब्लिक टीवी चैनल ने इस पूरे मामले पर बयान जारी कर अपना पक्ष भी रखा है.
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
इस पूरे मामले पर भारत के सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की तरफ़ से सबसे पहली प्रतिक्रिया सामने आई.
ट्विटर पर उन्होंने लिखा, "हम महाराष्ट्र में प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले की निंदा करते हैं. प्रेस के साथ इस तरह का बर्ताव ठीक नहीं है. ये इमरजेंसी के दिनों की याद दिलाता है, जब प्रेस के साथ ऐसा बर्ताव किया जाता था."
We condemn the attack on press freedom in #Maharashtra. This is not the way to treat the Press. This reminds us of the emergency days when the press was treated like this.@PIB_India @DDNewslive @republic
— Prakash Javadekar (@PrakashJavdekar) November 4, 2020
फिर गृह मंत्री अमित शाह ने भी कांग्रेस और महाराष्ट्र की सत्ता में साझीदारों पर निशाना साधा और उसी अंदाज़ में इमरजेंसी को याद किया.
Congress and its allies have shamed democracy once again.
— Amit Shah (@AmitShah) November 4, 2020
Blatant misuse of state power against Republic TV & Arnab Goswami is an attack on individual freedom and the 4th pillar of democracy.
It reminds us of the Emergency. This attack on free press must be and WILL BE OPPOSED.
बस फिर क्या था मंत्रियों की तरफ़ से अर्नब के समर्थन में ट्वीट्स की झड़ी लग गई.
गृह मंत्री के अलावा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस जयशंकर और महिला विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने भी ट्वीट कर अर्नब की गिरफ़्तारी की निंदा की और इमरजेंसी की याद दिलाई.
महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने पूरे मामले पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने कहा, "इस पूरे मामले में सरकार का कोई लेना-देना नहीं है. पुलिस अपना काम कर रही है. क़ानून से ऊपर कोई नहीं है. मुंबई पुलिस क़ानून के मुताबिक़ ही काम करेगी."
ग़ौरतलब है कि ख़बर लिखे जाने तक इस पूरे मामले पर ना तो एनसीपी नेता शरद पवार की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया आई और ना ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ओर से.
महाराष्ट्र में इस समय सत्ता में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी तीनों ही पार्टियाँ शामिल हैं. केंद्र सरकार की तरफ़ से हुए हमले में निशाना कांग्रेस पर अधिक है.
दिल्ली के पत्रकारों और प्रेस एसोसिएशन की प्रतिक्रिया
पूरे मामले पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने अपना बयान जारी कर कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि महाराष्ट्र सरकार अपनी सत्ता का ग़लत इस्तेमाल नहीं करेगी और पूरे मामले में निष्पक्ष सुनवाई होगी.
लेकिन उनके इस बयान से देश के कई पत्रकार इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते. राम बहादुर राय भी उन्हीं में से एक हैं.
क्या आज महाराष्ट्र में पत्रकारों पर इमरजेंसी है?
बीबीसी के इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, "अर्नब गोस्वामी के बहाने ही सही, सबसे अच्छी बात है कि हमारे मंत्रियों को इमरजेंसी की बात याद आने लगी है. इससे पहले छत्तीसगढ़ के एक पत्रकार थे विनोद वर्मा. उनको छत्तीसगढ़ की पुलिस रात के अंधेरे में इंदिरापुरम के घर से गिरफ़्तार कर रोड के रास्ते छत्तीसगढ़ ले गई थी. उसके बाद प्रशांत कनौजिया एक पत्रकार हैं, जिनको दिल्ली से गिरफ़्तार कर यूपी पुलिस ले गई थी. कुछ दिन पहले हाथरस की घटना की रिपोर्टिंग के लिए जा रहे केरल के पत्रकार को मथुरा के पास गिरफ़्तार किया गया और उन पर देशद्रोह का चार्ज लगाया गया. इन सभी घटनाओं में किसी मंत्री को इमरजेंसी की याद नहीं आई. भीमा कोरेगाँव के नाम पर सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा जैसे तमाम बुद्धिजीवी को इन्होंने गिरफ़्तार किया. ये सभी घटनाएँ जिनका मैंने ज़िक्र किया ये इमरजेंसी से ज़्यादा ख़तरनाक दौर था. इमरजेंसी का दौर तो घोषित रूप से था. लेकिन ऊपर मैंने जो घटनाएँ गिनाईं हैं, उस समय देश में इमरजेंसी घोषित नहीं थी."
राम बहादुर राय मानते हैं कि अर्नब गोस्वामी का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या फिर प्रेस की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ नहीं है. ये आत्महत्या के लिए मजबूर करने का मामला है. अगर उनकी किसी लिखी बात को लेकर या किसी रिपोर्ट को लेकर कोई एक्शन होता, तो पत्रकार के तौर पर हम विरोध कर सकते हैं.
उनका मानना है कि अगर मुंबई पुलिस ने कोई ज़्यादती की है, जैसे आधी रात को घर में घुस जाना या फिर मार-पीट करना तो ये अर्नब के लिए भी ग़लत है और ये बात विनोद वर्मा के लिए भी लागू होनी चाहिए, प्रशांत कनौजिया के लिए भी, केरल के पत्रकार के लिए भी और भीमा कोरेगाँव के अभियुक्तों के लिए भी.
"पुलिस की ज़्यादती किसी पत्रकार के साथ हो या नागरिक के साथ हो या फिर किसी बुद्धिजीवी के साथ, किसी भी सूरत में इसका समर्थन नहीं किया जा सकता. सिर्फ़ आप प्रेस से हैं, इसलिए आपको कोई अधिकार नहीं मिल जाता."
राम बहादुर इमरजेंसी के दौरान छात्रसंगठन एबीवीपी से जुड़े थे और बाद में पत्रकारिता से जुड़े. वो इमरजेंसी के दौरान जेल भी गए थे.
इस पूरे मामले में महाराष्ट्र सरकार पर ये भी आरोप लग रहे हैं कि राज्य सरकार ने बदले की कार्रवाई की है.
दरअसल, अप्रैल के महीने में महाराष्ट्र के पालघर से सूरत जा रहे दो साधुओं और उनके ड्राइवर की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी थी. इसी मुद्दे पर अर्नब गोस्वामी ने सोनिया गांधी को लेकर टिप्पणी की थी.
अर्नब ने अपने शो कहा था, "अगर किसी मौलवी या पादरी की इस तरह से हत्या हुई होती तो क्या मीडिया, सेक्युलर गैंग और राजनीतिक दल आज शांत होते? अगर पादरियों की हत्या होती तो क्या 'इटली वाली सोनिया गांधी' आज चुप रहतीं?"
उसके बाद मुंबई समेत पूरे देश में कई जगह उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज हुई.
महाराष्ट्र सरकार और अर्नब गोस्वामी के बीच इस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा विवाद हुआ था.
दूसरा विवाद सुशांत सिंह राजपूत मामले को लेकर भी हुआ, जब रिपब्लिक टीवी ने मुंबई पुलिस पर पूरे मामले की ठीक से जाँच ना करने के आरोप लगाए. मुंबई पुलिस ने इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज़ किया था.
सुशांत मामले में महाराष्ट्र सरकार पर भी आरोप लगाए गए और विवाद बढ़ता गया. आज की घटना को कई पत्रकार बदले की कार्रवाई और राजनीति से प्रेरित क़दम भी बता रहे हैं.
कई राष्ट्रीय टीवी चैनल के एडिटरों ने ट्विटर पर अपनी प्रतिक्रिया दी है.
इंडिया टीवी के प्रमुख रजत शर्मा, एनडीटीवी की सोनिया सिंह और टाइम्स नाऊ से जुड़े राहुल शिवशंकर भी इनमें शामिल हैं.
रजत शर्मा न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोशिएसन (एनबीए) के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने ट्विटर पर लिखा है, "मैं आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में अर्नब गोस्वामी की अचानक हुई गिरफ़्तारी की निंदा करता हूँ. मैं उनके स्टूडियो ट्रायल वाली पत्रकारिता स्टाइल से सहमत नहीं हूँ, लेकिन एक पत्रकार को सत्ता में बैठे लोग इस तरह से परेशान करें, ये भी उचित नहीं है. एक मीडिया के एडिटर के साथ ऐसा बर्ताव सही नहीं है."
I condemn the sudden arrest of Arnab Goswami in an abetment to suicide case. While I don’t agree with his style of studio trial, I also don’t approve of misuse of state power to harass a journalist. A media Editor cannot be treated in this manner @PrakashJavdekar
— Rajat Sharma (@RajatSharmaLive) November 4, 2020
मुंबई के पत्रकारों और एसोसिएशन की राय अलग
तो क्या वाक़ई में महाराष्ट्र में सरकार के ख़िलाफ़ बोलने और लिखने की आज़ादी नहीं बची है?
ये जानने के लिए हमने मराठी पत्रकारों से भी बात की.
लोकमत अख़बार में काम करने वाले यदु जोशी महाराष्ट्र में 30 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "महाराष्ट्र में इमरजेंसी जैसे हालात है, ऐसा मुझे नहीं लगता. आज भी महाराष्ट्र में पत्रकार सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ लिख रहे हैं, मैं भी लिख रहा हूँ, लेकिन ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि पत्रकारों का दमन चल रहा है. अर्नब का मामला अलग है. उसका सभी पार्टियाँ राजनीतिक मुद्दा बना रही है."
"जिस ढंग से अर्नब ने कुछ महीनों से स्टैंड लिया है, उसको आज की घटना के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है. जबकि अर्नब को गिरफ़्तार 2018 के एक इंटीरियर डिज़ाइनर की आत्महत्या के मामले में किया गया है. इस मामले में उनकी पत्नी ने शिकायत की थी, ये भी एक पहलू है."
"मुबंई पुलिस को अपनी साफ़ छवि बरक़रार रखने के लिए सुबह का घटनाक्रम टालना चाहिए था. अगर मुंबई पुलिस जिस ढंग से पेश आई, वो नहीं आती, तो ये ज़रूर कहा जाता कि अर्नब को अन्वय नाइक की आत्महत्या मामले में गिरफ़्तार किया गया है. उसमें बदले की भावना नहीं है."
इस मुद्दे पर दिल्ली के पत्रकारों और एडिटरों की राय मुंबई और महाराष्ट्र के जर्नलिस्टों की राय से अलग दिख रही है.
निखिल वागले, स्वतंत्र पत्रकार हैं. इसके पहले उन्होंने टीवी और अख़बार दोनों में काम किया है.
ट्विटर पर एडिटर्स गिल्ड का बयान ट्वीट करते हुए उन्होंने कहा कि अर्नब की गिरफ़्तारी का पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं है. ये एक पुराना मामला है जिसमें देवेंद्र फडणवीस सरकार ने जाँच करने से इनकार कर दिया था. पीड़ित परिवार ने पूरे मामले में जाँच की माँग की है.
Arnab Goswami’s arrest has nothing to do with journalism.This is an old case which Devendra Fadnavis government refused to investigate. Victim’s family had demanded this investigation. https://t.co/XAEc6enJeU
— nikhil wagle (@waglenikhil) November 4, 2020
यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि महाराष्ट्र देश का सबसे अकेला राज्य है, जहाँ पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क़ानून है. 2017 में बने इस क़ानून को 2019 में राष्ट्रपति से मंज़ूरी मिली है.
इस क़ानून के मुताबिक़ ड्यूटी पर तैनात किसी पत्रकार या उससे जुड़ी संस्था पर हमला किया जाता है, तो उसे जेल और जुर्माना भरना होगा.
महाराष्ट्र में टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन नाम की एक संस्था भी है. महाराष्ट्र में काम करने वाले पत्रकार इसके सदस्य होते हैं. वर्तमान में इनके 475 सदस्य हैं, जिसमें रिपब्लिक टीवी के कुछ पत्रकार भी शामिल हैं.
अर्नब की गिरफ़्तारी के बाद इन्होंने अपना बयान जारी कर कहा है, "रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी एक व्यक्तिगत मामले को लेकर हुई है. पत्रकारिता से इसका कोई संबंध नहीं है. क़ानून के सामने सभी समान होते हैं. इसलिए क़ानून को अपना काम करने दीजिए. न्याय व्यवस्था से सत्य जनता के सामने आएगा और हम पत्रकार के नाते सच के साथ हैं."यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि महाराष्ट्र देश का सबसे अकेला राज्य है, जहाँ पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क़ानून है. 2017 में बने इस क़ानून को 2019 में राष्ट्रपति से मंज़ूरी मिली है.
इस क़ानून के मुताबिक़ ड्यूटी पर तैनात किसी पत्रकार या उससे जुड़ी संस्था पर हमला किया जाता है, तो उसे जेल और जुर्माना भरना होगा.
महाराष्ट्र में टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन नाम की एक संस्था भी है. महाराष्ट्र में काम करने वाले पत्रकार इसके सदस्य होते हैं. वर्तमान में इनके 475 सदस्य हैं, जिसमें रिपब्लिक टीवी के कुछ पत्रकार भी शामिल हैं.
अर्नब की गिरफ़्तारी के बाद इन्होंने अपना बयान जारी कर कहा है, "रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी एक व्यक्तिगत मामले को लेकर हुई है. पत्रकारिता से इसका कोई संबंध नहीं है. क़ानून के सामने सभी समान होते हैं. इसलिए क़ानून को अपना काम करने दीजिए. न्याय व्यवस्था से सत्य जनता के सामने आएगा और हम पत्रकार के नाते सच के साथ हैं."
महाराष्ट्र सरकार, मुंबई पुलिस और रिपब्लिक टीवी के बीच विवाद की वजहें?
दरअसल महाराष्ट्र सरकार, मुंबई पुलिस और रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी के बीच तनाव बीते कई महीनों से चल रहा था.
पालघर में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की हत्या के बाद रिपब्लिक टीवी पर एक चर्चा आयोजित की गई थी.
इस चर्चा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया. कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने अर्नब गोस्वामी की भाषा को लेकर सवाल उठाए थे.
अर्नब के बयान पर उनके ख़िलाफ़ मुंबई के अलावा भी कई जगह एफ़आईआर दर्ज कराई गई थी. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, जहाँ से अर्नब गोस्वामी को अंतरिम राहत मिल गई थी.
इसके बाद 22-23 अप्रैल की मध्य रात्रि में उन पर कुछ लोगों ने कथित तौर पर हमला किया.
इस हमले से जुड़ा एक वीडियो पोस्ट करते हुए अर्नब ने कहा था, ''मैं ऑफ़िस से घर लौट रहा था, तभी रास्ते में बाइक सवार दो गुंडों ने हमला किया. मैं अपनी कार में पत्नी के साथ था. हमलावरों ने खिड़की तोड़ने की कोशिश की. ये कांग्रेस के गुंडे थे.''
इसके बाद मुंबई पुलिस ने दो लोगों को गिरफ़्तार भी कर लिया था.
लेकिन पहले मामले में 28 अप्रैल को मुंबई पुलिस ने अर्नब गोस्वामी से क़रीब 10 घंटे तक पूछताछ की.
इसके बाद फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में भी रिपब्लिक टीवी पर कई खब़रें दिखाई गईं, जिनमें मुबंई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार पर मामले को ठीक से हैंडल ना करने का आरोप लगाया गया.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और मुंबई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह पर भी अर्नब ने कई गंभीर आरोप लगाए.
इसके बाद 8 सितंबर को रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र विधानसभा में विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया गया. उस वक़्त भी इंटीरियर डिज़ाइनर को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले का ज़िक्र विधानसभा में हुआ था.
उसके बाद 8 अक्तूबर को मुंबई पुलिस ने टीआरपी स्कैम का पर्दाफ़ाश करने का दावा किया. दूसरे चैनलों के साथ रिपब्लिक टीवी पर भी पैसे देकर अपने चैनल की टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट्स) को बढ़ाने के आरोप लगे.
हालाँकि रिपब्लिक टीवी ने इन तमाम आरोपों को ख़ारिज किया.
इसके बाद 23 अक्तूबर को मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के चार पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की. मुंबई पुलिस को कथित तौर पर बदनाम करने के मामले में चैनल के चार पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई गई.
अपने विरोधियों की आवाज़ दबाने का मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार पर ये इकलौता आरोप नहीं है.
कंगना रनौत ने भी सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में शिवसेना, महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस पर आरोप लगाए थे.
इसके बाद उनके ऑफ़िस में हुई तोड़फोड़ पर भी सवाल उठे. मामला कोर्ट भी पहुँचा. वहीं सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में कंगना और उनकी बहन को भी नोटिस भेजा गया है.
दूसरी ओर शिवसेना के नेता संजय राउत रिपब्लिक टीवी पर मुंबई पुलिस की कार्रवाई को जायज़ ठहरा रहे हैं.
उन्होंने कहा, "सर्वोच्च न्यायालय ने इस चैनल के बारे में कहा था कि आप न्यायालय नहीं हो, जाँच एजेंसी नहीं हो, इसलिए आप किसी के ख़िलाफ़ कुछ भी ग़लत-सलत बोलकर लोगों को बहकावे में नहीं ला सकते."
संजय राउत ने उल्टा सवाल किया कि ये हमारा कहना नहीं है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय का है, तो क्या आप सर्वोच्च न्यायालय से भी कहेंगे कि ये काला दिन है?(https://www.bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मथुरा के एक मंदिर में नमाज़ पढऩे के अपराध में पुलिस चार नौजवानों को गिरफ्तार करने में जुटी हुई है। उन चार में से दो मुसलमान हैं और दो हिंदू हैं। ये चारों नौजवान दिल्ली की खुदाई-खिदमतगार संस्था के सदस्य हैं। इस नाम की संस्था आजादी के पहले सीमांत गांधी बादशाह खान ने स्वराज्य लाने के लिए स्थापित की थी। अब इस संस्था को दिल्ली का गांधी शांति प्रतिष्ठान और नेशनल एलायंस फॉर पीपल्स मूवमेंट चलाते हैं।
इस संस्था के प्रमुख फैजल खान को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है और उसके तीन अन्य साथी अभी फरार हैं। इन चारों नौजवानों के खिलाफ मंदिर के पुजारियों ने पुलिस में यह रपट लिखवाई है कि इन लोगों ने उनसे पूछे बिना मंदिर के प्रांगण में नमाज़ पढ़ी और उसके फोटो इंटरनेट पर प्रसारित कर दिए। इसका उद्देश्य हिंदुओं की भावना को ठेस पहुंचाना और देश में साप्रदायिक तनाव पैदा करना रहा है।
इन चारों नवयुवकों का कहना है कि दोपहर को वे जब मंदिर में थे, नमाज़ का वक्त होने लगा तो उन्होंने पुजारियों से अनुमति लेकर नमाज़ पढ़ ली थी। उस समय वहां कोई भीड़-भाड़ भी नहीं थी। मेरी समझ में नहीं आता कि इन लडक़ें को पुलिस ने गिरफ्तार क्यों किया ? उन्होंने मूर्तियों के सामने जाकर तो नमाज़ नहीं पढ़ी? उन्होंने हिंदू देवताओं के लिए कोई अपमानजनक शब्द नहीं कहे। यदि उन्हें अनुमति नहीं मिली तो उन्होंने नमाज़ कैसे पढ़ ली ? क्या पुजारी लोग उस वक्त खर्राटे खींच रहे थे ?
सबसे बड़ी बात तो यह कि जिस फैसल खान को गिरफ्तार किया गया है, वह रामचरित मानस की चौपाइयां धाराप्रवाह गा कर सुना रहा था। चारों नौजवान मथुरा-वृदांवन किसलिए गए थे ? चौरासी कोस की ब्रज-परिक्रमा करने गए थे। ऐसे मुसलमान युवकों पर आप हिंदूद्रोह का आरोप लगाएंगे तो अमीर खुसरो, रसखान, ताजबीबी, आलम और नज़ीर जैसे कृष्णभक्तों को आप क्या फांसी पर लटकाना चाहेंगे? कृष्ण के घुंघराले बालों के बारे में देखिए ताजबीबी ने क्या कहा है-
लाम के मानिंद हैं, गेसू मेरे घनश्याम के।
काफिऱ है, वे जो बंदे नहीं इस लाम के।।
यदि आप सच्चे हिंदू हैं, सच्चे मुसलमान हैं और सच्चे ईसाई हैं तो आप सबका भगवान क्या एक नहीं है ? भगवान ने आपको बनाया है या आपने कई भगवानों को बनाया है ? मंदिर में बैठकर कोई मुसलमान अरबी भाषा में वही प्रार्थना कर रहा है, जो हम संस्कृत में करते हैं तो इसमें कौनसा अपराध हो गया है ? मैंने लंदन के एक गिरजे में अब से 51 साल पहले आरएसएस की शाखा लगते हुए देखी है।
एक बार न्यूयार्क में कई पठान उद्योगपतियों ने मेरे साथ मिलकर हवन में आहुतियां दी थीं। बगदाद के पीर गैलानी की दरगाह में बैठकर मैंने वेदमंत्रों का पाठ किया है और 1983 में पेशावर की बड़ी मस्जिद में नमाज़े-तरावी पढ़ते हुए बुरहानुद्दीन रब्बानी (जो बाद में अफगान राष्ट्रपति बने) ने मुझे अपने साथ बिठाकर ‘संध्या’ करने दी थी। लंदन के ‘साइनेगॉग’ (यहूदी मंदिर) में भी सभी यहूदियों ने मेरा स्वागत किया था। किसी ने जाकर थाने में मेरे खिलाफ रपट नहीं लिखवाई थी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
एक तरफ जलवायु परिवर्तन को खारिज करने वाले ट्रंप हैं तो दूसरी तरफ बिडेन जिन्होंने जलवायु वैज्ञानिकों को सुनने का वादा किया है।
-विवेक मिश्रा
जैसा कि अमेरिका में चुनाव की रात होता आया है, राष्ट्रपति पद के लिए दो उम्मीदवारों के घोषित रुख पर एक नजर डाला जाता है, जिससे यह भी पता चलता है कि चुनाव बाद वैश्विक जलवायु आंदोलन की क्या स्थिति होगी। वैश्विक जलवायु से संबंधित चुनिंदा मुद्दों पर रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड जॉन ट्रम्प और डेमोक्रेटिक पार्टी के जोसेफ बिडेन में काफी अंतर है। जहां बिडेन एक संतुलित स्वरूप के साथ नजर आते हैं वहीं ट्रंप का दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि वे वैश्विक जलवायु आंदोलन के साथ समझौता नहीं कर रहे हैं।
आइए इन बातों पर एक नजर डालते हैं।
सबसे पहले, जलवायु योजना पर विचार करते हैं। एक तरफ बिडेन ने 2 खरब डॉलर की जलवायु योजना की घोषणा की है, जिसके तहत 2035 तक 100 प्रतिशत स्वच्छ बिजली प्रदान करने का वादा है तो 2050 तक "नेट जीरो" उत्सर्जन परिदृश्य को प्राप्त करने के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। नेट जीरो एक ऐसी स्थिति है जहां कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को संतुलित तरीके से धीरे-धीरे हटाकर या पूरी तरह से खत्म करके शून्य तक पहुंचा दिया जाता है। वहीं, हैरानी है कि ट्रम्प अब तक एक जलवायु योजना के साथ नहीं आए हैं।
अब जीवाश्म ईंधन पर आते हैं। बिडेन चट्टानी गैस निकालने की प्रक्रिया 'फ्रैकिंग' पर प्रतिबंध का समर्थन नहीं करते हैं, जो एक अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली प्रक्रिया है। जमीन में गहरी ड्रिलिंग की जाती है, जिसके बाद जमीन में उच्च दबाव में पानी के मिश्रण को इंजेक्ट किया जाता है। यह चट्टान में फंसी गैस निकालने के लिए किया जाता है। वहीं, ट्रम्प भी सक्रिय रूप से फ्रैकिंग का समर्थन करते हैं।
बिडेन जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी समाप्त करना भी चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि वह सार्वजनिक भूमि पर नए अपतटीय ड्रिलिंग और नए परमिट पर प्रतिबंध लगाएंगे। ये भूमि अमेरिकी संघीय सरकार द्वारा अमेरिकी लोगों के लिए भरोसे पर रखी जाती है और कई संघीय एजेंसियों द्वारा प्रबंधित की जाती है। दूसरी ओर ट्रम्प, अमेरिकी तेल और गैस उत्पादन को बढ़ावा देना चाहते हैं। उन्होंने अपने आसन्न पतन के बावजूद अपने कार्यकाल के दौरान कोयला उद्योग को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को आगे बढ़ाया है।
दोनों उम्मीदवार अक्षय ऊर्जा पर पर्याप्त रूप से भिन्न हैं। बिडेन ने अमेरिका के लिए 2035 तक स्वच्छ बिजली का वादा किया है। साथ ही घोषणा की है कि वह नवीनीकरण के साथ-साथ नौकरियों पर शोध करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। नवीनीकरण पर ट्रम्प का रुख हालांकि विचित्र है। पवन ऊर्जा उसके अनुसार पक्षियों को मारती है। उन्होंने यह भी कहा है कि सौर ऊर्जा अभी तक काफी नहीं है और कारखानों को बिजली नहीं दे सकते।
फ्रांस की राजधानी में पांच साल पहले हस्ताक्षर किए गए पेरिस समझौते का उद्देश्य विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकना था। बिडेन, जो उस समय बराक ओबामा राष्ट्रपति पद के उपाध्यक्ष थे, ने 2015 में समझौते में शामिल होने में उसका समर्थन किया था। वहीं, ट्रम्प ने अपनी अध्यक्षता के दौरान अमेरिका को पेरिस समझौते से वापस ले लिया। चुनाव के अगले दिन 4 नवंबर, 2020 अमेरिका के लिए आधिकारिक तौर पर पेरिस समझौते से हटने की निर्धारित तिथि है।
वहीं, ट्रंप से उलट बिडेन ने प्रतिज्ञा की है कि यदि वह चुने जाते हैं तो अमेरिका समझौते को फिर से जारी करेगा।
पर्यावरण नियमों के लिए ट्रम्प का कोई सम्मान नहीं है। ट्रंप ने ऐसे 150 नियमों को वापस लिया। वहीं, बिडेन ईंधन दक्षता मानकों को बहाल करना चाहता है, प्रदूषण कानूनों को मजबूत करना चाहता है और कई क्षेत्रों में सुरक्षा को मजबूत करना चाहता है।
जलवायु न्याय पर, बिडेन ने वंचित समुदायों को 40 प्रतिशत जलवायु निवेश देने के लिए प्रतिबद्ध किया था। दूसरी ओर ट्रम्प ने अब तक जलवायु न्याय की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने जंगल की आग और अन्य जलवायु आपदाओं से पीड़ित राज्यों को राहत निधि से सक्रिय रूप से वंचित कर दिया है।
ट्रम्प जलवायु विज्ञान में भी विश्वास नहीं करते हैं। उन्होंने सरकारी वेबसाइटों से 'जलवायु परिवर्तन' शब्द हटा दिया और कहा गया कि जलवायु परिवर्तन पर कोई सहमति नहीं थी। बिडेन ने हालांकि जलवायु वैज्ञानिकों को सुनने का वादा किया है।
ट्रम्प यूएस ग्रीन न्यू डील में विश्वास नहीं करते हैं और कहते हैं कि यह लाखों अमेरिकी नौकरियों को मार देगा। जबकि बिडेन ने भी पूरी तरह से इसका समर्थन नहीं किया है, फिर भी, उन्होंने इसके कुछ हिस्सों को निकाला है और उन्हें अपनी जलवायु कार्य योजना में इस्तेमाल किया है।
जलवायु मुद्दे बिडेन ट्रंप
जलवायु योजना (क्लाइमेट प्लान)- 2 ट्रिलियन डॉलर जलवायु योजना की घोषणा की, 2035 तक 100% स्वच्छ बिजली का लक्ष्य और 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन कोई क्लाइमेट प्लान नहीं
जीवाश्म ईंधन- फ्रैकिंग प्रतिबंध का समर्थन नहीं है, जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करने की चाहत, नए अपतटीय ड्रिलिंग और सार्वजनिक भूमि पर नए परमिट पर प्रतिबंध लगाने का वादा अमेरिकी तेल और गैस उत्पादन को बढ़ावा देने की बात, अपनी आसन्न गिरावट के बावजूद कोयला उद्योग को वापस करने के लिए नीतियों को आगे बढ़ाया.
नवीकरणीय ऊर्जा- अक्षय ऊर्जा अनुसंधान और नौकरियों में निवेश करने के लिए प्रतिबद्ध, 2035 तक 100% स्वच्छ बिजली का वादा दावा है कि पवन ऊर्जा पक्षियों को मारती है वहीं सौर ऊर्जा नाकाफी है साथ ही कारखानों को बिजली नहीं दे सकती है.
पेरिस समझौता- 2015 में ओबामा का समझौते से जुड़ने का समर्थन, फिर से जुड़ने का वादा समझौते से अमेरिका को वापस ले लिया, वापसी 4 नवंबर को प्रभावी हो सकती है
पर्यावरण विनिमय (रेग्यूलेशन्स)- ईंधन दक्षता मानकों को बहाल करना, प्रदूषण कानूनों को मजबूत करना, कई क्षेत्रों की सुरक्षा बहाल करना चाहता है, 150 से अधिक जलवायु-अनुकूल नियमों को वापस लिया.
जलवायु न्याय- वंचित समुदायों को 40% जलवायु निवेश देने के लिए प्रतिबद्ध कोई मान्यता नहीं, सक्रिय रूप से जंगल और अन्य जलवायु आपदाओं से पीड़ित राज्यों को राहत राशि से वंचित किया है.
जलवायु परिवर्तन- जलवायु वैज्ञानिकों को सुनने का वादा, जलवायु परिवर्तन को कोई मान्यता नहीं, सरकारी वेबसाइट से हटवाया जलवायु परिवर्तन.
ग्रीन न्यू डील- ग्रीन न्यू डील का समर्थन नहीं किया है, लेकिन अपनी जलवायु योजना में इसके तत्वों को शामिल किया है, ग्रीन न्यू डील का समर्थन नहीं किया है, सोचना है कि यह लाखों नौकरियों को मार देगा.
फ्रैकिंग-
(चट्टान से गैस निकालने की प्रक्रिया)
राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध का समर्थन नहीं करता है, नवीकरण के लिए संक्रमण के लिए इसे महत्वपूर्ण मानता है सक्रिय रूप से फ्रैकिंग का समर्थन. (downtoearth.org.in)