विचार / लेख
-नीलांजन बनिक
सुनने में आ रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि देश में सभी लोगों को कोविड-19 की वैक्सीन मुफ्त में दी जाए, लेकिन इसी बीच बिहार, मध्यप्रदेश और तमिलनाडु जैसे तमाम राज्यों ने लोगों को वादा कर दिया कि वे लोगों को मुफ्त में वैक्सीन उपलब्ध कराएंगे।
कोविड-19 के लिए वैक्सीन तैयार करने के लिए जरूरी परीक्षण तीसरे चरण में पहुंच चुका है। तीसरा चरण मतलब इंसानों पर इसका परीक्षण। हालांकि वैक्सीन विकसित करने वाली निजी कंपनियों को सरकार की ओर से अनुदान मिल रहा है, लेकिन अलग-अलग दवा निर्माताओं की वैक्सीन की कीमत 3 से 30 डॉलर प्रति डोज रहने की संभावना है। यानी रुपये में प्रति खुराक मूल्य दो सौ से दो हजार के बीच बैठेगा।
उदाहरण के लिए एस्ट्राजेनेका ने यूरोपीय आयोग के साथ समझौता किया है जिसके मुताबिक वैक्सीन को 3-4 डॉलर प्रति खुराक के दाम पर बेचा जाएगा। मॉडर्ना 37 डॉलर प्रति डोज के मूल्य पर वैक्सीन उपलब्ध कराने का वादा कर रही है। चीनी वैक्सीन निर्माता सिनोवैक चीन के चुनिंदा शहरों में अपने आपातकालीन कार्यक्रम के तहत वैक्सीन की दो खुराक 60 डॉलर (5,400 रुपये) में बेच रही है।
भारतीयों के लिए सबसे अच्छा विकल्प पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा विकसित वैक्सीन है, जिसकी कीमत 3 डॉलर प्रति खुराक है। लेकिन अगर वैक्सीन आयात की जाती है तो जाहिर है कि इसकी कीमत अधिक हो जाएगी।
भारत की आबादी 1.3 अरब डॉलर मानते हुए बात की जाए तो सरकार को केवल वैक्सीन की कीमत वहन करने के लिए 3.9 अरब डॉलर या लगभग 30,000 करोड़ रुपये खर्चने होंगे। इसके अलावा, वैक्सीन को वितरित करने, लाने-ले जाने और लोगों को टीका लगाने में जो पैसे खर्च होंगे, वो अलग। दवाओं के लिहाज से यह लागत 10-14% है। हालांकि टीकों के संदर्भ में यह लागत बढ़ जाती है क्योंकि इन्हें रेफ्रिजरेटेड कंटेनरों में रखकर लाना-ले जाना पड़ता है। इसी वजह से सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया सरकार से 80,000 करोड़ रुपये मांग रहा है।
पिछले कुछ वर्षों के बजट दस्तावेजों पर सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि 2019-2020 के वित्तीय वर्षके लिए केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य के मद में 61398 करोड़ रु. आवंटित किए। पिछले वित्त वर्ष के दौरान स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी का 1.29% था। इससे पहले के चार साल के दौरान यह खर्च औसतन जीडीपी का 1.15% रहा था और इस लिहाज से पिछले साल आवंटन बढ़ा ही था।
बहरहाल, ऐसे कई तरह के सुधार हैं जो इस संदर्भ में समस्याओं को काफी हद तक दूर कर सकते हैं। इनका दीर्घकालिक असर होगा और महामारी के बाद भी दवाओं तक आम लोगों की पहुंच को बढ़ाएगा और इसके दायरे में कोविड-19 के लिए तैयार की जा रही वैक्सीन भी आ जाएगी। भारत समेत तमाम देश दवाओं और वैक्सीन पर आयात शुल्क, बिक्री कर और कई दूसरे तरह के शुल्क लगाते हैं जिससे दवाओं और टीकोंकी कीमत बढ़ जाती है और इनकी उपलब्धता भी घट जाती है। एक हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत में दवाओं पर लगने वाला शुल्कऔसतन 10% है जो दुनिया में सबसे ज्यादा शुल्क लगाने वाले देशों में आता है। भारत से ज्यादा शुल्क केवल पाकिस्तान (14.7%) और नेपाल (11.3%) में है।
कुल मिलाकर दवाओं पर तरह-तरह के इन शुल्कों के कारण भारत में रोगियोंपर हर साल 73.7 करोड़ डॉलर का बोझ पड़ता है और लोगों के हाथ तक पहुंचते-पहुंचते दवा की कीमत लागत से औसतन 80% अधिक हो जाती है। भारत को स्थायी रूप से और कानूनी रूप से बाध्यकारी शुल्क- मुक्त दवाओं के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। बेहतर तो यह हो कि भारत डब्ल्यूटीओ के फार्मास्युटिकल जीरो टैरिफ समझौते पर दस्तखत कर ले। इसमें 34 देश हैं जिनके बीच दवाओं के आयात-निर्यात पर शुल्क नहीं लगता। इसके अलावा मरीजों को अन्य घरेलू कर भी चुकाना पड़ता है, जैसे- जीएसटी। भारत में ज्यादातर दवाओं पर 12% जीएसटी लगाया जाता है। अगर राजस्व की दृष्टि से बात करें तो दवाओं पर लगे जीएसटी से सरकार को बहुत ही कम आय होती है लेकिन इससे रोगियों पर काफी असर पड़ता है क्योंकि ज्यादातर लोगों को अपनी जेब से इनका खर्च उठाना पड़ता है।
भारत में सीमा शुल्क से जुड़ी लालफीताशा ही दवाओं तक पहुंच और इनके भंडारण के मामले में सबसे बड़ी बाधा है। इसके कारण दवाओं की लागत भी बढ़ जाती है। सीमा शुल्क और आयात-निर्यात की जटिल प्रक्रियाओं, लालफीताशाही, छिपे हुए कर, कंजेशन टैक्स वगैरह के उदाहरण से मुश्किलों को समझा जा सकता है। कोविड-19 के इलाज से जुड़े साजो-सामान और वैक्सीन में से कई का उत्पादन बाहर होगा और इनकी जरूरत तेजी से बढ़ने जा रही है। इसलिए राज्य सरकारों को उन मौजूदा नियमों को खत्म करना चाहिए जो दवाओं के आसान आयात को बाधित करते हैं।
एक अन्य कारक जो भारत में रोगियों तक नई दवाओं के पहुंचने में ज्यादा समय लगाता है, वह है नियम-कानून। खास तौर पर यह तथ्य कि सेंट्रल ड्रग्सस्टैंडर्डकंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (सीडीएससीओ) चरण-1 के अध्ययन के डाटा को साक्ष्य के रूप में स्वीकार ही नहीं करता। इसका नतीजा यह होता है कि जो दवा दूसरे देशों में पहले से ही स्वीकृत है, उसे भी भारत के मरीजों तक पहुंचने में औसतन 500 दिन का समय लग जाता है। सरकार बड़ी आसानी से इस प्रक्रिया को आसान कर सकती है अगर वह विदेशों में क्लीनिकल ट्रायल के आंकड़ों को स्वीकार करने की व्यवस्था कर दे।
भारत में खराब गुणवत्ता वाले उत्पाद भी एक बड़ी समस्या हैं। उदाहरण के लिए, भारत में निर्मित वेंटिलेटर। चूंकि इसके लिए ड्रग कंट्रोलर्ससे अनुमति लेने या फिर तमाम तरह के अन्य गुणवत्ता प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है, बाजार में नकली और घटिया वेंटिलेटर धड़ल्ले से बिक रहे हैं। यहां तक कि पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) के मामले में भी स्थिति ऐसी ही है। ये घरेलू कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे हैं और इनकी गुणवत्ता के लिए किसी भी तरह के प्रमाणन की जरूरत नहीं पड़ती। अब जब कोविड-19 के लिए उपचार और वैक्सीन तैयार करने का काम अंतिम चरणों में है, जरूरी है किये जल्दी से जल्दी दुनिया भर में उपलब्ध हों।
भारत में अभी व्यवस्था यह है कि विदेशी उत्पादक अपनी दवाओं का उत्पादन भारत में ही करेंगे, इसका नतीजा यह होगा कि भारत में वही दवा लोगों को मिलने में काफी देर लगेगी। भारत सहित ऐसे तमाम देश हैं जहां व्यापार और नियामक संबंधी बाधाएं हैं। अच्छीबात यह है कि इन बाधाओं को दूर करना कोई बहुत बड़ा काम नहीं, बस इच्छा शक्ति होनी चाहिए।(https://www.navjivanindia.com/)