विचार/लेख
-सुरेश भाई
नदियों में लगातार बढ़ती गाद नदियों के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है। पिछले 60 वर्षों में नदियों में निरन्तर घट रही जल राशि के कारण कई नदियां सूख रही है। गंगा नदी की अविरलता में अब तक केवल बांध और बैराजों को सबसे अधिक बाधक माना जाता रहा है। लेकिन गाद का जमना एक ओर आयाम जुड़ गया है। अंधाधुंध वन कटान सड़कों का चैड़ीकरण और बदलते मौसम के कारण लाखों टन मलबा हर रोज नदियों में गिर रहा है।
मई के तीसरे सप्ताह में बिहार सरकार ने इण्डिया इन्टरनेशनल सेंटर, नईदिल्ली में गंगा की अविरलता में बाधक गाद के विषय पर आयोजित सेमिनार में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दे दिया है। अब तक केवल गंगा की अविरलता में बांध और बैराजों को सबसे अधिक बाधक माना जाता रहा है। किसी सरकारी विभाग के स्तर पर बिहार सरकार की यह पहल इसलिये नई है कि उन्होंने अपने हर बैनर में लिखा है कि ’गंगा की अविरलता के बिना निर्मलता नहीं हो सकती है।’ विभिन्न प्रस्तुतिकरण के आधार पर बांधों और बैराजों की उपयोगिता पर प्रश्न खड़ा कर दिया गया है। यह प्रयास उद्गम में भी गंगा की अविरलता पर खतरे के बादल से बचाया जा सकता है। यह स्वीकार किया गया है कि लगातार बढ़ रही गाद के कारण नदियों की गहराई अब आधी से भी कम हो गई है। वैसे पिछले 60 वर्षों में नदियों में निरन्तर घट रही जल राशि के कारण भी कई नदियां सूख रही है या नाले के रूप में परिवर्तित हो गई है।
बक्सर से लेकर फरक्का बैराज तक गंगा में गाद के पहाड़ उगने लग गये हैं, जिस पर मुख्यमंत्री नितीश कुमार का कहना है कि बिहार में तटों पर निवास करने वाले लोग प्रतिवर्ष अपना नया घर तलाशने लग जाते हैं। वैसे नदियों में गाद भरना कोई नई बात नहीं है। बिहार में मिलने वाली गंडक, सोन, घाघरा, कोसी आदि नदियों के उद्गम भी हिमालय से है, जहां सभी नदियों के सिरहाने बाढ़ और भूकम्प के लिहाज से भूगर्भवेत्ताओं ने जोन 4 और 5 में रखे हैं, जो कई वर्षों से आपदाओं का घर बन चुकी है। इसको ध्यान में रखकर के पुराने तकनीकी के आधार पर बनाया गया फरक्का बैराज अब पुनर्विचार का मुद्दा बनता जा रहा है।
40-50 वर्षं पहले हिमालय से बाढ़ के साथ बहने वाली मिट्टी बिहार और उत्तरप्रदेश के किसानों की खेती को उपजाऊ बना देती थी। जिस वर्ष खेतों तक बाढ़ का पानी पहुंचता था उससे अच्छी पैदावार की आस बन जाती थी। अब अकेले बिहार में सन् 2012-16 तक 1053 करोड़ रूपये नदियों के किनारों से गाद हटाने पर ही खर्च हो रहा है। उत्तराखण्ड में भी नदियों पर एकत्रित गाद ने ही सन् 2013 में केदारनाथ आपदा को जन्म दिया है, जिस पर केन्द्र सरकार को 14 हजार करोड़ रूपये खर्च करने पड़ रहे हैं। इस तरह बाढ़ को लेकर बड़ा बजट हर वर्ष खर्च हो रहा है किन्तु गाद को कभी बाढ़ के समाधान से जोड़कर नहीं सोचा जाता है। फरक्का बैराज के डिजाइन में भी गाद के समाधान की अनदेखी हुई है। जिसके फलस्वरूप दिनों-दिन स्थिति इतनी बुरी हो रही है कि गंगा अपने वास्तविक घाटों से 2 किमी दूर चली गई है।
सन् 1975 में कोलकाता बंदरगाह को बचाने के लिये फरक्का बैराज बनाया गया था। अब इसमें फरक्का से पटना के बीच लगभग 400 किमी में इतना गाद भर गया है कि बैराज के फाटक तो बंद हो ही गये, साथ ही इसमें आबादी वाले इलाके तबाह हो रहे हैं। इसका कारण है कि बैराज के निर्माण के दौरान हिमालयी नदियों से आ रहे गाद का मूल्यांकन नहीं हुआ। बैराज के निचले हिस्से में भी पश्चिम बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद के इलाकों में बाढ़ का कहर इतना बढ़ गया है कि प्रतिवर्ष कई लोग अपने घर और खेती-किसानी को गंवा कर सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। फरक्का बैराज बनाने से पहले कोलकाता बंदरगाह पर 6 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद थी, जो अब 21 मिलियन क्यूबिक मीटर हो गई है। सन् 1960 तक 2 मिलियन टन गाद प्रतिवर्ष बंगलादेश जाती थी, अब यह इसके आधे के बराबर भी नहीं पहुंच पा रही है। अत; इस खुली बहस के साथ हिमालय की नदियों में रुक रही गाद के दुष्परिणामों को भी उजागर करना चाहिये। इसके बावजूद भी सच्चाई यह है कि इलाहाबाद से हल्दिया तक प्रस्तावित जल मार्ग के लिये 16 बैराज बनाने की महत्वाकांक्षी योजना है। यदि यह जमीन पर उतरी तो गंगा की अविरलता कहीं भी शेष नहीं बचेगी।
गंगा के उद्गम स्थल उत्तराखण्ड की ओर देखें तो यहां की सभी नदियों में हर वर्ष बाढ़ के कारण अपार जन धन की हानि हो रही है। यहां अंधाधुंध वन कटान सड़कों का चैड़ीकरण और बदलते मौसम के कारण लाखों टन मलबा हर रोज नदियों में गिर रहा है, जो सीधे मैदानी क्षेत्रों में बहकर जा रहा है। भागीरथी पर टिहरी, मनेरी और अलकनंदा पर श्रीनगर, विष्णुप्रयाग जैसे बड़े बांधों के अलावा यमुना पर बने बैराजों और झीलों में असीमित गाद जमा हो रही है। जिससे निपटने के लिये कोई योजना नहीं है। सन् 2008 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ गांगोत्री और उत्तरकाशी के बीच गंगा के अविरल बहाव के नाम पर ही 800 करोड़ खर्च होने के बावजूद भी लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना (600 मेवा) को बंद दिया गया था, और इसके 100 कि.मी. क्षेत्र को इको सेंसेटिव झोन बनाकर यहां के प्रभावित गांव के साथ इको फ्रेंडली विकास का मॉडल प्रस्तुत किया गया है।
विशेषज्ञों की राय है कि उत्तरप्रदेश में कन्नौज व वाराणसी के बीच गंगा में गंदगी के ढेरों से निपटने के लिये घाटों का निर्माण जरूरी है। लेकिन इससे भी कहीं अधिक आवश्यकता है कि गंगा की धारा को अविरल बहाव का मार्ग मिलना चाहिये। अतः ऐसी सभी बाधाओं से मुक्त किया जाए जहां अविरल धारा को रोका गया है। हिमालय से लेकर केरल तक नदियों में बांध और बैराजों की संख्या लगभग 130 है।
नदियों का मूल धर्म मीठे जल के साथ गाद को समुद्र तक पहुंचाना है। इसके कारण समुद्री जल का खारापन नियंत्रित होता है। समुद्र के किनारों पर उपजाऊ डेल्टाओं को बनाती है और भूजल और मिट्टी के निर्माण में योगदान देती है। इसलिये संवेदनशील नये हिमालय की स्थिरता और यहां से आ रही नदियों की अविरलता सुनिश्चित करना राज्यों का काम है। गंगा जल को विशिष्ट गुण देने वाला वैक्टीरियोफॉज भी कमजोर पड़ गया है। बताया जा रहा है टिहरी में जल जमाव के कारण केवल 10 प्रतिशत वैक्टीरियोफॉज ही समुद्र तक पहुंच रहा है। अविरलता में आई इन बाधाओं को दूर करने के लिये राज्यों को बिहार की तरह अपने हकों की आवाज उठानी पड़ेगी। (sapress)
- बाबा मायाराम
आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत खेती किसानी और जंगल का खानपान का अत्यधिक महत्व है। जंगलों का लगातार कटते जाने का सीधा असर लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है। आदिवासियों ने अब जंगल और खेती बचाने के लिए शुरूआत की है। यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परंपरा बची रहे, पोषण संबंधी ज्ञान बचा रहे, परंपरागत चिकित्सा पद्धति बची रहे इन्हीं पहलुओं पर केंद्रित आलेख।
ओडिशा का छोटा कस्बा था-मुनिगुड़ा। स्कूली बच्चों की एक टोली की भीड़ जमा है। यहां एक खाद्य प्रदर्शनी लगी है। कोई बैल की आकृति का भूरा कांदा, गुलाबी और लाल बेर, गहनों की तरह चमकते मक्के के भुट्टे, काली और सुनहरी धान की बालियां,फल्लियां और छोटे दाने का सांवा, कुटकी और मोतियों की तरह की ज्वार।
इस खाद्य प्रदर्शनी में खेतों में होने वाली फसलें, जंगल से सीधे प्राप्त होने वाली गैर खेती सामग्री, फल, फूल, पत्तियां, मशरूम और कई तरह के कंद-मूल शामिल थे। यह एक माध्यम है जिससे नई पीढ़ी में यह परंपरागत ज्ञान हस्तांतरित होता है।
नियमगिरी की यह खूबसूरत पर्वत श्रृंखला बहुत मशहूर है। पिछले कुछ समय पहले खनन के खिलाफ इसी इलाके में आदिवासियों ने जोरदार लड़ाई लड़ी और जीती थी। उस समय यहां के आदिवासियों की काफी चर्चा हुई थी।
यहां का घना जंगल आदमी समेत कई जीव-जंतुओं को पालता पोसता है। ताजी हवा, कंद-मूल, फल, घनी छाया, ईंधन, चारा, और इमारती लकड़ी और जड़ी-बूटियों का खजाना है।
रायगड़ा जिले में लिविंग फार्म एक गैर सरकारी संस्था है जो बरसों से आदिवासियों के खाद्य और पोषण पर लम्बे समय से काम कर रही है। यह संस्था में हर छह माह में उनके भोजन की विविधता का आंकलन करती है।
लिविंग फार्म के विचित्र विश्वाल कहते हैं कि सरकारी योजनाएं बच्चों को पोषण सुरक्षा नहीं दे पाती हैं, वह पूरक हो सकती हैं। हमारे यहां कई प्रकार की दालें, मडिया, ज्वार, बाजरा, सांवा, फल, सब्जियां और मषरूम की कई प्रजातियां हैं। हमें इन्हें बचाना चाहिए।
विषमकटक के सहाड़ा गांव का कृष्णा कहता है कि जंगल हमारा माई-बाप है। वह हमें जीवन देता है। उससे हमारे पर्व-परभणी जुड़े हुए हैं। धरती माता को हम पूजते हैं। कंद, मूल, फल, मशरूम, बांस करील और कई प्रकार की हरी भाजी हमें जंगल से मिलती है।
आदिवासियों की जीवनशैली अमौद्रिक (कैशलेस) होती है। वे प्रकृति के ज्यादा करीब है। प्रकृति से उनका रिष्ता मां-बेटे का है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें जरूरत है। वे पेड़ पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। उनकी जिंदगी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। ये फलदार पेड़ व कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं।
लिविंग फार्म के एक अध्ययन के अनुसार भूख के दिनों में आदिवासियों के लिए यह भोजन महत्वपूर्ण हो जाता है। उन्हें 121 प्रकार की चीजें जंगल से मिलती हैं, जिनमें कंद-मूल, मशरूम, हरी भाजियां, फल, फूल और शहद आदि शामिल हैं। इनमें से कुछ खाद्य सामग्री साल भर मिलती है और कुछ मौसमी होती है।
लिविंग फार्म के संस्थापक देवजीत सारंगी बताते हैं कि हम परंपरागत खानपान को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। यहां 60 प्रकार के फल (आम, कटहल, तेंदू, जंगली काजू, खजूर, जामुन), 40 प्रकार की सब्जियां (जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी), 10 प्रकार के तेल बीज, 30 प्रकार के जंगली मशरूम और 20 प्रकार की मछलियां मिलती हैं। कई तरह के मशरूम मिलते हैं। पीता, काठा. भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली. साठ, सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं।
यह भोजन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है। खासतौस से जब लोगों के पास रोजगार नहीं होता। हाथ में पैसा नहीं होता। खाद्य पदार्थों तक उनकी पहुंच नहीं होती। यह प्रकृति प्रदत्त भोजन सबको मुफ्त में और सहज ही उपलब्ध हो जाता है। लेकिन पिछले कुछ समय से इस इलाके में कृत्रिम वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है।
आदि कहता है कि मुझे किसी के सामने हाथ न पसारना पड़े, यह मेरे मां-बाप सिखा गए हैं। इसलिए मैंने 70 प्रकार की फसलें अपने खेत में लगाई हैं। मेरी 10 महीने की जरूरतें खेत से पूरी हो जाती हैं, दो माह का गुजारा जंगल से हो जाता है। यानी एक कटोरा खेत से, एक कटोरा जंगल से हमारा काम चल जाता है। सुबह हमारी भोजन की थाली खेत से आती है, शाम को जंगल से आती है।
लेकिन यहां आदिवासियों ने जंगल और खेती बचाने के लिए एक अनौपचारिक शुरूआत कर दी है। सुखोमती षिकोका कहती हैं कि हमने इस साल मुनिगुड़ा विकासखंड के 35 गांवों में जंगल बचाने और उसे फिर से जिंदा करने का काम किया है। इसमें विषमकटक और मुनिगुड़ा विकासखंड के कई गांवों के लोग जुड़ रहे हैं।
लिविंग फार्म संस्था के कार्यकर्ता प्रदीप पात्रा कहते हैं कि जंगल कम होने का सीधा असर लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष असर फल, फूल और पत्तों के अभाव में रूप में दिखाई देता है।
अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु बदलाव से फसलों पर और मवेशियों के लिए चारे-पानी के अभाव के रूप में दिखाई देता है। पर्यावरणीय असर दिखाई देते हैं। मिट्टी का कटाव होता है। खाद्य संप्रभुता तभी हो सकती है जब लोगों का अपने भोजन पर नियंत्रण हो।
आदिवासियों की भोजन सुरक्षा में जंगल और खेत-खलिहान से प्राप्त खाद्य पदार्थों को ही गैर खेती भोजन कहा जा सकता है। इनमें भी कई तरह के पौष्टिक तत्व हैं। यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह के खानपान के बारे में स्कूली पाठ्यक्रम में भी जगह होनी चाहिए। यह मांग उठाई जा रही है।
समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परंपरा बची रहे, पोषण संबंधी ज्ञान बचा रहे, परंपरागत चिकित्सा पद्धति बची रहे। पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण हो, यह आज की जरूरत है। इस दृष्टि से जंगल, आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत खेती किसानी और जंगल का खानपान बहुत महत्व है। (sapress)
घर से मांगकर 100 रुपये लाया है, 70 का पेट्रोल डलवाया। कुल 30 रुपये जेब में पड़े हैं। सुबह निकलते वक्त मां से मांगे थे। बाप ने सुनकर ताना भी दिया, इस उमर में भी तू इस लायक नहीं हुआ कि गाड़ी में पेट्रोल भरा सके। फिर हमेशा की तरह मां ने पिता से नजर बचाकर, बेटे को 100 रुपए दिए।
(मां साथ में पूछती भी जा रही है, देख तू झूठ तो नहीं बोल रहा न कि तेरी 3 महीने से सैलरी नहीं हुई है। इतना बड़ा पेपर है, सैलरी तो देते ही होंगे। आखिर में भरोसा करते हुए कहती है। देख जब सैलरी हो तो याद से दे देना। मेरे पास रखा हुआ अब सिर्फ 400 रुपए बचा है।)
शर्मिंदगी के हालत में बाहर वाले रूम में बैठे पिता से नजरें चुराते हुये, पत्रकार साहब ने बाईक उठाई। 10 मिनट किक मारने के बाद गाड़ी चालू हुई। शायद कई महीने से सर्विसिंग नहीं हुई थी।
आज उसे संपादक जी ने असाइनमेंट दिया है।
जबलपुर में कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित कन्टेनमेंट जोन में जाना है। वहां के गरीबों और मजदूरों की दयनीय स्थिति पर ग्राउंड रिपोर्ट बनानी है।
वो गया। कोरोना का खतरा मोला लेते हुए गया। बहुत मार्मिक रिपोर्ट बनाई। उसका असर भी व्यापक हुआ।
अगले दिन कलेक्टर साहब खुद पहुंचे। रेडक्रेॉस सोसायटी के माध्यम से वहां के गरीब परिवारों को राशन पहुंचाया। नगर निगम आयुक्त ने क्षेत्र के अति गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था दुरुस्त करने के आदेश दिए।
और हां,
विधायक जी भी पहुंचे और सबको एक हफ्ते की सब्जी वगैरह मुहैया कराई। साथ ही उन्होंने अपने सहयोगी का नम्बर वहां दिवार पर लिखवाया, की किसी को कोई भी परेशानी हो तो, उन्हें कॉल करें।
गर्व महसूस करते हुए, वो पत्रकार घर लौटा। खुश था। गर्व होना भी चाहिये, सब कुछ उसकी रिपोर्ट के बाद हुआ। यह अलग बात थी कि उसका नाम कहीं नहीं था।
लेकिन वो खुश था। इस खुशी की उसे आदत हो गई थी।
बस इस खुशी के बीच एक चिंता उसे सता रही थी। कल की स्टोरी कैसे होगी।
जेब में 15 रुपये बचे हैं। गाड़ी में पेट्रोल लगभग खत्म है। मां से किस मुंह से पैसा मांगे। संपादक ने सैलरी के लिए साफ मना कर दिया है। किसी से मांग नहीं सकता, सब क्या सोचेंगे।
इतना बड़ा पत्रकार है, कलेक्टर एसपी विधायक से बात करता है। और पास में 100 रुपये नहीं, बड़ा पत्रकार बना फिरता..छी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गलवान घाटी को लेकर चल रहे भारत-चीन तनाव पर दो संवाद अभी-अभी ऐसे हुए हैं, जिन पर विदेश नीति विशेषज्ञों का ध्यान जाना जरुरी है। एक तो अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियों और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के बीच और दूसरा चीनी विदेश मंत्री वांग यी और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बीच! कुरैशी मेरे पुराने परिचित हैं। कई सेमिनारों में हमारे भाषण साथ-साथ हुए हैं।
सबसे पहले उनके स्वास्थ्य-सुधार के लिए उन्हें शुभकामना देता हूं, क्योंकि जिस दिन उन्होंने चीनी नेता से बात की, उन्हें कोरोना हो गया। यह कितना मजेदार तथ्य है कि अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों का रवैया एक-जैसा है। दोनों के विदेश मंत्रियों के बयान एक-जैसे हैं। भारत-चीन संबंधों पर दुनिया के लगभग 200 देश अपने मुंह पर पट्टी बांधे हुए हैं या शांति की फुसफुसाहट कर रहे हैं, सिर्फ अमेरिका और पाकिस्तान ही ऐसे दो देश हैं, जो दुश्मनी के डमरु बजा रहे हैं। अमेरिका भारत से कह रहा है कि चीन विस्तारवादी है। झगड़ेबाज है। कब्जाबाज है। हिंसक है। उसके सामने डटे रहो। हम अपनी फौजें यूरोप से हटा रहे हैं। (जरुरत पड़ी तो उन्हें आपकी सेवा में भी पठा देंगे।) उधर पाकिस्तान तालियां बजा रहा है और थालियां पीट रहा है। वह चीन को बधाई दे रहा है कि उसने फौजी विस्तारवाद को पीछे धकेल दिया। चीन हर हाल में पाकिस्तान का दोस्त रहा है और पाकिस्तान अब भी हर मुद्दे पर चीन के साथ है। वह ‘एक चीन नीति’ को मानता है। वह हांगकांग, ताइवान, तिब्बत और सिंक्यांग के सवाल पर भी चीन के साथ है।
क्या कश्मीर पर चीन पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है ? पाकिस्तान को चीन के आगे इतना ज्यादा पसरने की जरुरत क्या है ? पाकिस्तान के समर्थन से चीन को क्या फायदा है ? क्या चीन की खातिर पाकिस्तान, भारत के खिलाफ युद्ध का दूसरा मोर्चा खोलना चाहेगा ? वह क्यों घर बैठे मुसीबत मोल लेना चाहेगा ? कुरैशी को क्या पता नहीं कि सिंक्यांग में मुसलमानों की कितनी दुर्दशा है ? 10 लाख उइगर चीनी-शिविरों में कैद हैं। पाकिस्तान यह अच्छी तरह समझ ले कि उसे अपनी लड़ाई खुद लडऩी पड़ेगी।
चीन सिर्फ जाबानी जमा-खर्च करता रहेगा। इसी तरह भारत को भी समझ लेना चाहिए कि अमेरिका इसलिए भारत की पीठ ठोक रहा है कि आजकल चीन से उसकी ठनी हुई है। भारत और पाकिस्तान-जैसे देशों के नीति-निर्माताओं को यह बताने की जरुरत नहीं है कि ये महाशक्तियां अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए ही आपकी पीठ ठोकती हैं। इनके दम पर हद से ज्यादा उचकना ठीक नहीं है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से हर 4 या 5 साल में तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के सहारे है। यह संस्था हर 4-5 बरस में राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर बड़ी रिपोर्ट जारी करती आई है।
जनवरी, 2019 में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर सरकार की अपनी सांख्यिकीय संस्था ने राज्यवार रोजगार पर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए जो भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी की चिंताजनक तस्वीर दिखा रहे थे। सरकार ने इस रिपोर्ट को नकार दिया। शीर्ष नीति-निर्माता संस्था नीति आयोग ने घोषणा की कि सर्वेक्षण से मिले आंकड़े शायद सही तरह जमा नहीं किए गए इसलिए सरकार को वे विश्वसनीय नहीं लगते। उनको खारिज किया जाता है। आज की तारीख में जब कोविड दावानल की तरह बढ़ रहा है, हमारी सरकार के पास कारगर नीति बनाने के वास्ते रोजगार, जन स्वास्थ्य, शहरी पलायन या गांव-शहर में अलग-अलग रहने वाले परिवारों की आर्थिक स्थिति की बाबत ताजा, व्यवस्थित, राज्यवार डेटा उपलब्ध नहीं है। 2019 में संभवत: सर पर खड़े चुनावों के मद्देनजर भारत में पहली बार हुए डेटा के राजनीतिकरण ने जो गलतियां कीं, उनकी शक्ल अब धीरे-धीरे उभर रही है।
पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से हर 4 या 5 साल में तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) के आंकड़ों के सहारे है। यह संस्था हर 4-5 बरस में राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर बड़ी रिपोर्ट जारी करती आई है। अब तक ऐसे चार बड़े राज्यवार सर्वेक्षण आ चुके हैं। इनसे उजागर जन स्वास्थ्य, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रजनन और मृत्यु से जुड़ा वैज्ञानिक रूप से जमा डेटा तमाम शोधकर्ता देश और संयुक्त राष्ट्र संघ में बेहतरी की नीति गढऩे के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। चौथे सर्वेक्षण के बाद इसको भी रोक दिया गया। तेजी से बदलते हालात में अंतिम उपलब्ध डेटा (2015-2016) बासी पड़ चुका है। जून की शुरुआत में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया था कि भारत में प्रति दस लाख कोविड मरीजों में मरने वालों की औसत दर समुन्नत देशों- यूरोप, रूस या अमेरिका के बरक्स काफी कम (11 फीसदी) है। अब विश्व संगठन के ताजा डेटा से पता चला है कि जून के अंतिम हफ्ते में दक्षिण एशियाई देशों- नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका में भारत में कोविड से मरने वालों की दर सबसे अधिक हो चुकी है। भारत में इस रोग की बढ़त एक ही पखवाड़े में नेपाल को छोडक़र अन्य सभी देशों से आगे निकल गई है। जब राजधानी दिल्ली और मुंबई भी इस रफ्तार पर अंकुश नहीं लगा पा रहे, तब स्वास्थ्य मंत्रालय ने टेस्टिंग बढ़ाए जाने के बाद मिले आंकड़ों को आधार बना कर मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने (शीर्ष संस्था आईसीएमआर के हवाले से) 23 जून की मीटिंग में जो तस्वीर पेश की, वह बहुत चिंताजनक है।
जब सरकार ने अपने शीर्ष डेटा संकलनकर्ताओं पर सवालिया निशान लगा कर डेटा को सार्वजनिक करने से रोका था, तभी विशेषज्ञों ने आगाह किया था। उनकी राय में सारे का सारा डेटा रद्द करने का मतलब होगा कि आगे से सरकार के नीति-निर्माता महज अपने अनुमान के आधार पर अंधेरे में जुमले फेंकेंगे। जून के आखिरी पखवाड़े में राजधानी के बड़े कोविड अस्पतालों में तिल रखने की जगह नहीं। कोविड के रोगी और परिवार से हर कोई बिदकता है। इसलिए जब घर पर या एम्बुलेंस में अस्पताल से अस्पताल जाते हुए कई संक्रमित मरीज दम तोड़ देते हैं तो परिजनों द्वारा उनकी मौत की वजह कोविड नहीं दर्ज कराई जाए, यह भी नितांत संभव है। उत्तर प्रदेश को केंद्र से अपने यहां मृत्युदर कम रखने तथा ‘आगरा मॉडल’ बनाने का श्रेय दिया जा रहा है। पर ‘द हिंदू’ की शोध टीम के अनुसार, उसने अन्य राज्यों की तुलना में आपराधिक या सांप्रदायिक मामले हों या कोविड संबंधी सूचनाएं, सभी में उत्तर प्रदेश सरकार की जारी की गई रिपोर्टों में कम पारदर्शिता पाई है। मीडिया की किसी भी नकारात्मक रिपोर्ट पर गौर करने के बजाय हर जगह सरकारी प्रतिक्रिया होती है कि वे राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित हैं।
राष्ट्रीय आपदा और भ्रम की इन घडिय़ों में राष्ट्रीय स्वायत्त प्रसारक संस्था प्रसार भारती के बोर्ड ने भी देश की सबसे प्रमुख संवाददाता एजेंसियों में से एक- प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई), से जाने क्यों अचानक रार मोल ले ली है। पीटीआई एक न्यास द्वारा संचालित, सम्मानित और प्रोफेशनल तौर से काम करती रही संस्था है। और ऐसी हर स्वायत्त संस्थाका मूल काम होता है, जनहित में हर क्षेत्र से हर तरह की जानकारी और विजुअल जमा करना और उनको अपने नियमित गाहकों को लगातार 24&7 देना। प्रसार भारती बोर्ड को आपत्ति है कि इस एजेंसी ने जिससे वह नियमित रूप से खबरें खरीदती रही है, भारत में चीनी राजदूत और चीन में भारत के राजदूत के दो विवादास्पद साक्षात्कार एक साथ काहे जारी किए? खासकर जब भारत तथा चीन दोनों देशों के बड़े नेताओं के बयानात के बाद सीमा पर तनाव दिनों-दिन गहरा रहा है? उसका यह भी आक्षेप है कि पीटीआई के बोर्ड में अधिकतर मीडिया के लोग भरे पड़े हैं। सच यह है कि आज की तारीख में पीटीआई के बोर्ड में न्यायमूर्ति लाहोटी, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और विदेश सचिव रह चुके कई वरिष्ठ जानकार लोग भी हैं।
मीडिया अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग कैसे न करे जबकि चीन का रुख लगातार अडिय़ल दिखता है, द्विपक्षीय बातचीत का कोई ठोस नतीजा जनता के आगे नहीं लाया जा रहा और नेतृत्व की तरफ से बिना चीन का नाम लिए हम-हमलावर- की-आंख में-आंख-डाल-कर-वाजिब-जवाब-देना-जानते हैं, किस्म, की घोषणाएं भी कोविड के कारण घर में सिमटी जनता का मनोबल बहुत नहीं बढ़ापा रहीं। संसद का मानसून सत्र भी नहीं हो पा रहा, जिससे सरकार की तरफ से द्विपक्षीय जानकारी सदन के पटल पर आती। ऐसी हालत में यह दु:खद है कि एक स्वायत्त संस्था का बोर्ड खत लिखकर अन्य स्वायत्त संस्था से कहे कि उसे चीन मसले पर उसकी रिपोर्टिंग राष्ट्रीय हित के खिलाफ (डेट्रिमेंटल टु द नेशनल इंटरेस्ट) लगी है? और यह भी कि बोर्ड पीटीआई से खबरें लेना बंद करने जैसा कदम भी उठा सकता है, जिसकी औपचारिक घोषणा जारी होगी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रसार भारती इस रुख पर दोबारा विचार करेगा। मीडिया के साथ किसी पार्टी के रिश्ते भी हमेशा बहुत सुखद नहीं होते, और राज्य से केंद्र तक समाचार पत्रों, चैनलों से सरकारों की ठंडी या गर्म लड़ाइयां भी चलती रहती हैं। लेकिन क्या आपको याद आता है कि कोई बड़ी स्वायत्त मीडिया संस्थाया प्रेस काउंसिल पत्रकारों और पत्रकारीय संगठनों की अभिव्यक्ति की आजादी पर देश द्रोह के हवाले से ऐसे सवाल उठाए? फ्री मीडिया में चाहे जितनी भी खामियां हों लेकिन आज देशवासियों ही नहीं, सरकार को भी विश्वस्त प्रोफेशनल लोगों द्वारा तटस्थ नजरिये से लगातार जमा की जा रही सूचनाओं की उतनी ही जरूरत है जितनी भरोसेमंद डेटा की। विश्वस्त जानकारियों के बल पर ही विपक्ष और देश की उस अंतरात्मा को कोंच कर जगाया जा सकता है जिसे गांधी और फिर जेपी के बाद, कोई जागृत, एकजुट नहीं कर पाया।
पीटीआई और प्रसार भारती दरअसल लोकतंत्र के पेड़ पर बैठे एक शरीर और दो सिर वाले पक्षी की तरह हैं। उनके बीच गलतफहमी हद से बढ़ जाए और एक सर दूसरे सर को ही काटने की सोचने लगे तो उसे यह भी समझ लेना चाहिए कि कहीं यह हत्या आत्महत्या तो नहीं बनजाएगी? बाकी हालात क्या हैं बताने की जरूरत नहीं। (navjivanindia.com)
-मृणाल पाण्डे
आधुनिक भारत में ज्ञान के क्षेत्र में एक बद्धमूल पूर्वाग्रह रहा है कि साहित्य और कलाएं ज्ञान का अंग नहीं हैं
-अशोक वाजपेयी
मुंबई से किसी शोधकर्ता व्यक्ति ने फ़ोन कर बताया कि वे और उनकी एक अन्य साथी मिलकर एक पुस्तक लिखने की तैयारी कर रहे हैं कि भारत में स्वतंत्रता के बाद लेखकों-कलाकारों को किस तरह की रेसीडेन्सी की सुविधाएं उपलब्ध रही हैं. इस सिलसिले में उन्हें हमारे किसी हितैषी ने बताया है कि इस मामले में मध्य प्रदेश और भारत भवन अग्रणी रहे हैं और वे उस बारे में विस्तृत जानकारी चाहती हैं. वह तो मैंने उन्हें दे दी. याद आया कि सबसे पहले 1980 में मध्यप्रदेश शासन में जब स्वतंत्र संस्कृति विभाग बना तो उसने जो नया कार्यक्रम बनाया उसमें अतिथि लेखकों के लिए तीन सृजनपीठ बनाये: प्रेमचन्द सृजनपीठ (विक्रम विश्वविद्यालय), निराला सृजनपीठ (भारत भवन भोपाल) और मुक्तिबोध सृजनपीठ (सागर विश्वविद्यालय). इन पीठों पर एक दशक में शमशेर बहादुर सिंह, निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई, त्रिलोचन, नरेश मेहता, रामकुमार, कृष्ण बलदेव वेद, दिलीप चित्रे, कृष्णा सोबती, केदारनाथ सिंह, कमलेश आदि विभिन्न अवधियों के लिए, सुविधानुसार आये.
1982 में भारत भवन की स्थापना और सक्रियता के दौरान वहां फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के एक शर्त-मुक्त अनुदान के अन्तर्गत मल्लिकार्जुन मंसूर, भवेश सान्याल, उस्ताद ज़िया मोइउद्दीन डागर, शम्भु मित्र, नामवर सिंह, अम्बा दास, शानी, निर्मल वर्मा आदि आये. यह मूर्धन्य-श्रृंखला 1990 तक तो चली उसके बाद क्या हुआ इसका पता नहीं. इरादा इन मूर्धन्यों के भारत भवन में अतिथि के रूप में रहने के दौरान इनका विस्तृत अभिलेखन करने का था और वह काफ़ी हद तक सफल प्रयोग रहा. पण्डित मंसूर की अनौपचारिक बातचीत, शम्भु मित्र का बव कारन्त द्वारा लिया गया लम्बा इण्टरव्यू, उनका अपने नाटक का पाठ और बांग्ला कवियों की रचनाओं की नाटकीय आवृत्ति आदि की याद है. यह सामग्री, उम्मीद है, कि भारत भवन के अभिलेखागार में अब भी सुरक्षित होगी.
विश्वविद्यालयों ने सृजनपीठ पर आये अतिथि लेखकों का कोई सार्थक उपयोग नहीं किया. युवा छात्रों या कैम्पस में उभर रहे छात्र-लेखकों से उनके लगातार संवाद का कोई सुघर नियोजन नहीं हुआ. शमशेर जी का तो बेहतर इस्तेमाल कालिदास अकादेमी ने किया था. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों में अतिथि लेखकों-कलाकारों-विद्वानों के लिए एक योजना बरसों से चला रखी थी, पर अधिकांश विश्वविद्यालयों ने उसका कोई उपयोग नहीं किया. कुछ ने किया और मैं जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापक रहा हूं. एक बद्धमूल पूर्वाग्रह ज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक भारत में रहा है कि साहित्य और कलाएं ज्ञान का अंग नहीं हैं. उनमें जो ज्ञान प्रगट या विन्यस्त होता है उसे ज्ञान मानने में हमारे आधुनिक ज्ञानियों को बड़ी हिचक है. जबकि दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भी इन्हें बाकायदा ज्ञान का हिस्सा माना जाता है. यह विडम्बना है कि कैसे भी पी-एचडी प्राप्त अध्यापक साहित्य और कलाएं पढ़ा सकते हैं, पर उपन्यासकार, कवि, कलाकार आदि ऐसा नहीं कर सकते?
समकालीन चीनी कविता
इस समय भारत का चीन से संबंध इस कदर बिगड़ा हुआ है कि चीनी पद्धति में बनाये भारतीय भोजन तक का बहिष्कार करने का आह्वान एक केन्द्रीय मंत्री कर चुके हैं. ऐसे समय समकालीन चीनी कविता का ज़िक्र भी आपकी देशभक्ति को संदिग्ध ठहरा सकता है. लेकिन इसकी परवाह किये बिना, हमें हर तरह से समकालीन चीनी मानस को समझने की ज़रूरत है. और निश्चय ही कविता चीनी सर्जनात्मकता का एक विश्वसनीय साक्ष्य है. मेरे सामने है टुपेला प्रेस द्वारा प्रकाशित और मिंग दी द्वारा संपादित समकालीन चीनी कविता के अंग्रेजी अनुवाद का एक संचयन - ‘न्यू कैथे. इसमें 1951 में जन्मे युवा दुवा से लेकर 1986 में जन्मे ली सुमिन तक की कविताएं दी गयी हैं. कविताओं की कुछ बानगियां हिन्दी में आगे कभी, अभी तो संपादक द्वारा कुछ कवियों से की गयी बातचीत से जो जानकारी मिलती है उसका एक विवरण:
पूछे जाने पर कि किन पश्चिमी कवियों का समकालीन चीनी कविता पर प्रभाव पड़ा है, जिन पश्चिमी कवियों का चीनी कवियों ने नामोल्लेख किया है उसमें यूरोप, अमरीका और लातीनी अमेरिका के लगभग सभी उल्लेखनीय महत्वपूर्ण कवि शामिल हैं. ईलियट, यीट्स, रिल्के, पाउण्ड, वैलेस स्टीवेंस, गिसबर्ग, जान एशवरी, शीमस हीनी, ऑडेन, बोदेलेयर, मलार्मे, रिम्बो, ट्राक्ल, सेलान, पास्तरनाक, मण्डलश्टाम, आख़्मातोवा, ब्रॉडस्की, मीवोष, हेवेर्ते, विटमेन, पाल वैलरी, बोर्खेस, क्वाफ़ी, मोन्ताले, रित्सोज़, सैं जान पर्स, ट्राम्सट्रोमर, नेरूदा, लोर्का, अदम जागेयावस्की, राबर्ट लोवेल, यहूदा अमीखाई, राबर्ट फ्रास्ट आदि आदि. ज़ाहिर है कि जो चीन इस समय सक्रिय है उस पर पश्चिमी साहित्य का जितना प्रभाव है उतना शायद इससे पहले कभी नहीं रहा है. यह भी मानना चाहिये कि इस प्रभावों से प्रतिकृत होते हुए चीनी कविता विश्व कविता में अपनी जगह बना रही है.
इन कवियों से संपादक ने जब यह प्रश्न पूछा कि आज की चीनी कविता पर एशियाई किन कवियों का प्रभाव है तो उसमें से अधिकांश ने यह स्वीकार किया कि ऐसा प्रभाव बहुत कम और क्षीण है. भारत से सिर्फ़ रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम दो-तीन कवियों ने लिया और एक ने प्राचीन भारतीय कविता का. बाक़ी जिन कवियों का ज़िक्र हुआ वे हैं ख़लील ज़िब्रान, उमर ख़य्याम, आदोनिस और तानीकावा मुन्तारो
भारतीय कविता बहुत हद तक चीनी कविता की तरह ही रही है. जिन कवियों का ज़िक्र चीनी कवियों ने किया है वे सब भारतीय कवियों के भी सुपरिचित हैं. दूसरी ओर, भारतीय कविता भी चीनी कविता की ही तरह अपनी एशियाई जड़ों से अपरिचित सी है और उसे किसी बड़े कवि की तो दूर महत्वपूर्ण एशियाई कवियों तक की ख़बर कम ही है. क्या इससे यह नतीजा निकालना एक अधीर सरलीकरण होगा कि दोनों ही देशों की कविता पश्चिम से आक्रान्त है और एशिया से बेख़बर?
‘लोरी की तरह सच’
जान बर्जर कला-जगत् में एक विश्व-प्रसिद्ध कलालोचक रहे हैं जिन्होंने कला को देखने की विधियों और पिकासो की कला को समझने के लिए रेडिकल दृष्टि दी. उन्होंने उपन्यास भी लिखे जिनमें से एक को बुकर पुरस्कार मिला. बर्जर कवि भी थे और भारत के एक प्रकाशन-गृह कॉपर क्वाइन ने उनकी सारी कविताएं ‘कलेक्ट्रेड पोएम्स’ के नाम से प्रकाशित की हैं. बहुत सुगठित कविताएं हैं जिनमें अंग्रेज़ी भाषा के अन्तःसंगीत का बड़ा सुघर और कल्पनाशील उपयोग है, उनमें से दो कविताएं अनुवाद में देखें:
प्रवासी शब्द
धरती के एक विवर में
मैं रख दूंगा सारे उच्चारण
अपनी मातृभाषा के
वहां वे पड़े रहेंगे
चींटियों द्वारा जमा की गयी
पाइन की सुइयों की तरह
एक दिन लड़खड़ाती चीख़
एक और यायावर की
उन्हें प्रज्वलित कर सकती है
तब गर्माहट-भरा और आश्वस्त
वह सुनेगा रात भर
लोरी की तरह सच
नेप्लाम
माँ, मुझे रोने दो
लैटरप्रेस नहीं
न टैलेक्स
न बेदाग़ भाषण
बुलेटिन
तबाही की, ढिठाई से
घोषणा करते हुए
लेकिन घाव के पृष्ठ
मां, मुझे बोलने दो
विशेषण नहीं
उनकी बदहाली के नक़्शे रंगने के लिए
न ही संज्ञाएं
कोटियां बनाती
यातना के परिवारों की
लेकिन क्रिया तकलीफ़ की
मेरी मातृभाषा खटखटाती है
वाक्य
जेल की दीवार पर
मां, मुझे लिखने दो
आवाज़ें
चीखतीं पराजय में
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिस उद्देश्य के लिए अचानक लद्दाख-दौरा हुआ, वह अपने आप में पूरा हो गया है, फौज की दृष्टि से और भारतीय जनता के हिसाब से भी। दोनों को बड़ी प्रेरणा मिली है लेकिन चीन की तरफ से जो जवाब आया है और विदेशी सरकारों की जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उन पर हमारे नीति-निर्माता गंभीरतापूर्वक ध्यान दें, यह जरुरी है। चीनी दूतावास और चीनी सरकार ने बहुत ही सधे हुए शब्दों का इस्तेमाल किया है। उनमें बौखलाहट और उत्तेजना बिल्कुल भी नहीं दिखाई पड़ती है। उन्होंने कहा है कि यह वक्त तनाव पैदा करने का नहीं है। दोनों देश सीमा के बारे में बात कर रहे हैं। चीन पर विस्तारवादी होने का आरोप लगभग निराधार है। उसने 14 में से 12 पड़ौसी देशों के साथ अपने सीमा-विवाद बातचीत के द्वारा हल किए हैं। मैं सोचता हूं कि भारत सरकार भी चीन के साथ युद्ध छेडऩे के पक्ष में नहीं है। वह भी बातचीत के रास्ते को ही बेहतर समझती है। इसीलिए किसी भी भारतीय नेता ने चीन पर सीधे वाग्बाण नहीं छोड़े हैं।
मोदी-जैसे दो-टूक बातें करनेवाले नेता को भी घुमा-फिराकर नाम लिये बिना अपनी बात कहनी पड़ रही है। उसका लक्ष्य चीन को न उत्तेजित करना है, न अपमानित करना है और न ही युद्ध के लिए खम ठोकना है। उसका लक्ष्य बहुत सीमित है। एक तो अपने जवानों के घावों पर मरहम लगाना है और दूसरा, अपनी जनता के मनोबल को गिरने नहीं देना है। मोदी के लिए चीन की चुनौती से भी बड़ी तो अंदरुनी चुनौती है। जो विरोधी दल मोदी पर फब्तियां कस रहे हैं, यदि मोदी उनके कहे पर आचरण करने लगे तो भारत-चीन युद्ध अवश्यंभावी हो सकता है। मोदी को यह पता है और हमारे कांग्रेसी मित्रों को यह बात और भी अच्छी तरह पता होनी चाहिए कि युद्ध की स्थिति में भारत का साथ देने के लिए एक देश भी आगे आनेवाला नहीं है। अमेरिका इसलिए खुलकर भारत के पक्ष में बोल रहा है क्योंकि चीन की अमेरिका के साथ ठनी हुई है। लेकिन युद्ध की स्थिति में अमेरिका भी आंय-बांय-शांय करने लगेगा। जहां तक अन्य देशों का सवाल है, हमारे सारे पड़ौसी देश मुखपट्टी (मास्क) लगाए बैठे हैं। सिर्फ पाकिस्तान चीन के खातिर अपना फर्ज निभा रहा है। दुनिया के बाकी देशों- जापान, रुस, फ्रांस, एसियान और प्रशांत-क्षेत्र के देशों के बयान देखें तो उन्हें पढक़र आपको हंसी आएगी। न वे इधर के हैं, न उधर के हैं। क्या इन देशों के दम पर चीन से हमें पंगा लेना चाहिए ? रुस और फ्रांस- जैसे देश इसीलिए चिकनी-चुपड़ी बातें कर रहे हैं कि हम उनसे अरबों रु. के हथियार खरीद रहे हैं। भारत को जो कुछ भी करना है, अपने दम पर करना है। वह गलतफहमी में न रहे। (नया इंडिया की अनुमति से)
महात्मा गांधी ने स्वामी विवेकानंद के हवाले से ही दलित शब्द का प्रयोग करना शुरू किया था
आमतौर पर माना जाता है कि गांधीजी ने सामाजिक रूप से वंचितों और उपेक्षित तबकों के लिए ‘हरिजन’ शब्द को ही लोकप्रिय बनाया था। कई बार इस कारण आज के दलित युवा गांधीजी की आलोचना भी करते पाए जाते हैं। लेकिन हाल के एक अध्ययन से पता चलता है कि गांधीजी को ‘दलित’ शब्द से परहेज नहीं था। बल्कि एक समय तो वे ‘दलित’ शब्द के ही पक्षधर थे। और यह शब्द या भाव उन्हें स्वामी विवेकानंद को पढ़ते हुए मिला था। विवेकानंद चूंकि ज्यादातर अंग्रेजी में संवाद करते थे, इसलिए उन्होंने पहली बार इन समुदायों के लिए ‘सप्रेस्ड’ शब्द का इस्तेमाल किया था। ‘सप्रेस्ड’ शब्द ‘दलित’ शब्द के लिए निकटतम अंग्रेजी शब्द है।
1927 में गांधी पूरे देश में दलितों के कल्याण के लिए चंदा इक_ा कर एक कोष बना रहे थे। इस काम के लिए सरदार पटेल ने गुजरात राज्य से एक लाख रुपये जुटाने की घोषणा की थी। इस बारे में गुजराती ‘नवजीवन’ में 27 मार्च, 1927 को महात्मा गांधी लिखते हैं-
‘हमें यह पैसा केवल दलित वर्गों की सेवा के लिए चाहिए। दलित वर्गों में ‘अन्त्यज’ और रानीपरज जातियां आती हैं। अब तो जहां तक संभव होगा वहां तक हम ‘अन्त्यजों’ के लिए ‘दलित’ शब्द का ही इस्तेमाल करेंगे। ‘दलित’ शब्द स्वामी श्रद्धानंद ने चलाया था। उसी भाव को व्यक्त करनेवाला एक अंग्रेजी शब्द स्वामी विवेकानंद ने चलाया था। स्वामी विवेकानंद ने कथित अस्पृश्यों को ‘डिप्रेस्ड’ या दबे हुए नहीं, बल्कि ‘सप्रेस्ड’ या दबाए गए कहा। और यह ठीक भी है। तथाकथित उच्च वर्णों ने उन्हें दबाया, इसलिए वे दब गए और दबे हुए रहते हैं। इसके लिए हिंदी शब्द ‘दलित’ है। सारे दलित वर्गों में अस्पृश्य सबसे अधिक दलित कहे जा सकते हैं। ‘रानीपरज’ (काली) और चौधरा आदि ऐसी अन्य जातियां भी दलित ही हैं।’
महात्मा गांधी ने विवेकानंद के हवाले से ऐसा कोई पहली बार नहीं कहा था। इससे पहले 27 अक्टूबर, 1920 को भी ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा था, ‘स्वामी विवेकानंद ‘पंचमों’ को ‘दलित जातियां’ कहा करते थे। स्वामी विवेकानंद द्वारा दिया गया यह विशेषण अन्य विशेषणों की अपेक्षा निस्संदेह अधिक सटीक है। हमने उनका दलन किया है और परिणामत: स्वयं ही पतन के गर्त में जा गिरे। गोखले ने जब यह कहा था कि ‘आज ब्रिटिश साम्राज्य में हमारी स्थिति अछूतों-जैसी हो गई है’ तो गोखले के इन शब्दों का अर्थ यही था कि यह ‘दलितों’ का हमारे द्वारा किए गए ‘दलन’ के बदले में हमारे प्रति न्यायी ईश्वर द्वारा किया गया न्याय ही है।’
इसके बाद 12 मार्च, 1925 को त्रावणकोर की नगरपालिका को संबोधित करते हुए भी गांधी ने विवेकानंद के हवाले से ही फिर से ऐसा कहा था, ‘मैं जानता हूं कि इस राज्य ने उनलोगों के लिए बहुत कुछ किया है जिन्हें भ्रमवश नीची जाति का कहा जाता है। मैं उन्हें नीची जाति का कहना गलत मानता हूं। उनके लिए सही शब्द होगा ‘दलित जाति’। स्वामी विवेकानंद ने हमें याद दिलाया था कि कथित ऊंची जातिवालों ने ही अपने में से कुछ लोगों को दलित किया था और ऐसा करके वे ऊंची जाति स्वयं अपने आप में नीच हो गए थे। आप अपने ही वर्ग के मनुष्यों को नीचा करके खुद ऊंचे नहीं बने रह सकते।’
दिलचस्प है कि आज भले ही ‘हरिजन’ शब्द को अपमानजनक मानकर कुछे दलित राजनेता महात्मा गांधी की आलोचना करते हों, लेकिन महात्मा गांधी ने हरिजन शब्द को चुनते हुए भी ‘सप्रेस्ड’ या ‘दलित’ शब्द को छोड़ा नहीं था। गांधी को ‘दलित’ शब्द से परहेज नहीं था। लेकिन ‘हरिजन’ शब्द को वे थोड़ा अधिक सकारात्मक और सुंदर मानते थे। 27 मार्च, 1936 को कुछ आर्य-समाजी हरिजन-सेवकों ने गांधी से पूछा- ‘पर लोग हमें हरिजन क्यों कहें, हिंदू क्यों नहीं?’
इसके जवाब में गांधी ने कहा, ‘मैं जानता हूं कि आपमें से कुछ थोड़े से लोगों को हरिजन नाम बुरा लगता है। पर इस नाम की उत्पत्ति आपको जान लेनी चाहिए। आपलोगों को पहले ‘दलितवर्ग’ या ‘अस्पृश्य’ या ‘अछूत’ कहा जाता था। ये सब नाम स्वभावत: आपमें से अधिकांश लोगों को बुरे लगते थे, अपमानजनक से मालूम होते थे। आपमें से कुछ लोगों ने इस पर अपना विरोध भी प्रकट किया और मुझे एक अच्छा सा नाम ढूंढऩे के लिए लिखा।
अंग्रेजी में ‘डिप्रेस्ड’ से बेहतर शब्द ‘सप्रेस्ड’ मैंने ले लिया था, पर जबकि मैं अच्छा हिंदुस्तानी नाम सोच रहा था, एक मित्र ने मुझे ‘हरिजन’ शब्द बतलाया।।।यह शब्द उन्होंने एक महान संत (नरसिंह मेहता) के भजन से लिया था। यह शब्द मुझे जंच गया। क्योंकि यह आपकी दीन-दशा को बड़ी अच्छी तरह व्यक्त करता था, और साथ ही, इसमें कोई अपमान जैसी बात भी नहीं थी।’
इस रिपोर्ट में आठ देशों- कोलंबिया, भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और श्रीलंका में मानवाधिकार की आवाज उठाने और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ बोलने वालों की प्रताडऩा और उसमें सरकार के सहयोग और समर्थन का जिक्र किया गया है।
-महेन्द्र पांडे
ह्युमनिस्ट्स इंटरनेशनल की तरफ से हाल में ही एक रिपोर्ट ‘ह्युमनिस्ट्स ऐट रिस्क- एक्शन रिपोर्ट 2020’ प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार दुनियाभर में नास्तिकों और मानवतावादी लोगों पर उनकी स्वतंत्र सोच और विचारों के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है। यह खतरा बहुसंख्यकों की हिमायती सरकारों से भी है और सरकारों द्वारा प्रायोजित भीड़ तंत्र द्वारा हिंसा से भी है।
इस रिपोर्ट में आठ देशों- कोलंबिया, भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और श्रीलंका की स्थिति का विस्तार से वर्णन है। इसमें बताया गया है कि नास्तिकों और मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण इन लोगों का बहिष्कार किया जाता है और तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी इसे बढ़ावा देती हैं। केवल बहुसंख्यकों के धर्म की उपेक्षा, मानवाधिकार की आवाज बुलंद करने, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ बोलने के कारण नास्तिकों और मानवतावादियों को निशाना बनाया जाता है, उन पर हमले कराये जाते हैं और फिर तरह-तरह के कानूनों की दुहाई देकर इन्हें सजा दी जाती है।
भारत के बारे में इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘भारत सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र है, यहां धर्म की विविधता है और हाल के वर्षों तक संविधान द्वारा प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता पर सबको गर्व था। भारत में संविधान, कानून और राजनैतिक माहौल, विचारों की स्वतंत्रता, धर्म और विवेक का अधिकार देते हैं, और अभिव्यक्ति और समूह निर्माण की स्वतंत्रता भी। पर, कुछ कानून और वर्तमान का राजनैतिक माहौल इस आजादी पर अंकुश लगा रहे हैं। यहां धार्मिक समूहों के बीच आपसी झड़प और धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा सामान्य हो चला है। नागरिकता (संशोधन) कानून लागू होने के बाद से ऐसी हिंसक झड़पें सामान्य हो चलीं हैं और इसमें प्रताडि़त होने वाले या फिर सजा पाने वाले केवल अल्पसंख्यक ही होते हैं। इस कानून के तहत मुस्लिमों, नास्तिकों और मानवतावादी प्रवासियों को छोडक़र अन्य सभी शरणार्थी जो पाकिस्तान, अफग़़ानिस्तान और बांग्लादेश से आए हैं उनको नागरिकता देने का प्रावधान है।’
‘इस कानून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की तरफ एक बड़े कदम के तौर पर देखा जा रहा है। भारत में तर्कवाद का इतिहास बहुत पुराना है। पर, आज के दौर में तर्कवाद मिट गया है और इसकी जगह आंख बंद कर सरकारी समर्थन हावी हो चला है। वर्ष 2012 के ग्लोबल इंडेक्स ऑफ रिलिजन एंड एथिस्म के अनुसार भारत में 81 प्रतिशत आबादी कट्टर धार्मिक है, 13 प्रतिशत नाममात्र के धार्मिक हैं, 3 प्रतिशत घोषित नास्तिक हैं और शेष 3 प्रतिशत आबादी धर्म के प्रति उदासीन है।अब तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की धर्म-निरपेक्षता का सम्मान पूरी दुनिया करती थी, पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से सरकार, कार्यपालिका और कुछ हद तक न्यायपालिका तक हिन्दू राष्ट्र की राजनीति करने लगे हैं। सरकारों द्वारा कथित हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों को बढ़ावा देने के कारण अल्प्संख्यक खतरे में हैं और इसके साथ ही बगैर धर्म की विचारधारा और मानवतावादी दृष्टिकोण खतरे में है।’
‘इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295 की धारा जो ईशनिंदा से सम्बंधित है, का उपयोग व्यापक तरीके से किया जाने लगा है। वैसे तो यह कानून किसी भी धर्म के तिरस्कार से सम्बंधित है, पर अब इसे केवल एक धर्म से ही जोड़ा जाने लगा है। गाय सुरक्षा कानून भी एक तरह से ईशनिंदा से सम्बंधित है क्योंकि गाय को पवित्र बताया जाता है। अब इस सुरक्षा कानून का मनमाना दुरुपयोग किया जाने लगा है।’
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि ‘वर्ष 2013 से 2015 के बीच तीन प्रमुख बुद्धिजीवियों की हत्या सरेआम इसलिए कर दी गई क्योंकि वे अंधविश्वास और हिन्दू राष्ट्र की अवधारण के खिलाफ थे। हरेक मामले में सम्बंधित सरकारों ने तुरंत न्याय दिलाने की बात की, पर हत्या में हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों की भागीदारी सामने आने पर, हरेक मामले में भरपूर लीपापोती की गई।’
‘वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा था, विद्यार्थियों को यह पढ़ाया जाए कि हरेक धर्म की मूलभूत बातें एक ही हैं और जो अंतर दिखता है वह केवल तरीकों में है। यदि कुछ क्षेत्रों में मतभेद हैं भी तब भी भाईचारा बनाए रखने की जरूरत है और किसी भी धर्म के प्रति दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। पर, सरकारें इसका ठीक उल्टा कर रही हैं। अल्पसंख्यकों का दर्जा प्राप्त क्रिश्चियन और मुस्लिम स्कूलों के समक्ष हिन्दू स्कूल खड़ा कर रही हैं। पाठ्यपुस्तकों में धर्मनिरपेक्षता की पारंपरिक अवधारणा को बदलकर अब हिन्दू धर्म का प्रचार किया जाने लगा है। यही नहीं, अब तो अनेक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाया जाने लगा है।’
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान देता है और पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है। पर, अब निष्पक्ष पत्रकारों को नए खतरे झेलने पड़ रहे हैं। निष्पक्ष पत्रकारों के विरुद्ध सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, अपराध और हेट स्पीच से सम्बंधित कानूनों का सहारा ले रहीं हैं, और यहां तक कि न्यायालयों की अवहेलना का भी अभियोग लगा रहीं हैं। सितम्बर 2017 में बेंगलुरु में हिन्दू आतंकवाद और राष्ट्रवाद पर मुखर पत्रकार गौरी लंकेश की ह्त्या कर दी गई। स्पेशल इन्वेस्टिगेटिंग टीम ने 9235 पृष्ठों की रिपोर्ट तैयार तो की, जिसमें हिन्दू अतिवादी और सरकार के करीबी संगठनों से जुड़े अनेक बयान दर्ज हैं, जिन्होंने आगे के लिए अनेक बुद्धिजीवियों की ह्त्या तय की थी, पर सभी आज तक कानून के दायरे से बाहर हैं।’
आगे कहा गया है कि ‘सरकारों ने इन्टरनेट की सुविधा बंद कर आन्दोलनों को दबाने का एक नया तरीका इजाद कर लिया है। संविधान के विरुद्ध जाकर और धर्म-निरपेक्ष मूल्यों को ताक पर रखकर सरकार ने नागरिकता (सन्शोधन) कानून को लागू कर दिया। इसके बाद बड़े पैमाने पर विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों और अल्पसंख्यकों ने आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने बार-बार इन्टरनेट बंदी का सहारा लिया, जबकि इन्टरनेट सुविधा को सर्वोच्च न्यायालय ने जनता का मौलिक अधिकार घोषित किया है।’
‘वर्ष 2014 से सत्ता पर काबिज बीजेपी स्वतंत्र भारत के पूरे इतिहास में सर्वाधिक बुद्धिजीवी विरोधी सरकार है। यह हरेक उस व्यक्ति या संस्था को निशाना बना रही है, जो एक्टिविस्ट है, सिविल सोसाइटी से जुड़ा है, मानवाधिकार की बात करता है, स्वतंत्र और निष्पक्ष विचारधारा का है, या फिर हिन्दुवों के विरुद्ध बात करता है। अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ता, आदिवासी और धर्म के आडम्बर के विरुद्ध व्यक्तियों पर केवल सरकार प्रहार ही नहीं करती, बल्कि उनकी ह्त्या करने वालों का समर्थन भी करती है, और उन्हें कानून के शिकंजे से बचाती भी है। इस सन्दर्भ में आज के भारत की स्थिति पाकिस्तान जैसी ही है। यदि आप स्वतंत्र विचारधारा के हैं, धर्मों के बंधन से नहीं बंधते तब सरकारी कानूनों, पुलिसिया जुर्म के साथ-साथ हिन्दू गुंडों से भी आपको जूझना पड़ेगा।’
इस रिपोर्ट में भारत के कुछ बुद्धिजीवियों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पनसरे, एम एम कलबुर्गी और एच फारुख के नाम शामिल हैं। इस रिपोर्ट में भारत के लिए कुछ सुझाव भी दिए गए हैं।
इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295 समेत वे सभी कानून जो ईशनिंदा को अपराध करार देते हैं, को हटा देना चाहिए।
नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 में बदलाव कर गैर-धार्मिक, मानवतावादी और नास्तिकों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
भारत सरकार को अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास और समूहों के गठन पर आजादी का सम्मान करना चाहिए।
विद्यालयों में धर्म-निरपेक्षता पर विस्तृत पाठ शामिल किया जाना चाहिए।
सरकार द्वारा सिविल सोसाइटीज और मानवाधिकार संगठनों के विरुद्ध फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट 2010 का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल बंद करना चाहिए।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की हत्या या उनसे मारपीट से सम्बंधित मामलों का शीघ्र निपटारा किया जाना चाहिए, और यह सुनिश्चित किया जाना चाहए कि सभी दोषियों को सजा मिले, उन्हें भी जो हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े हैं।
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकार या इसे जुड़े संगठनों या व्यक्तियों द्वारा लगातार दिए जाने वाले हेट स्पीच की कड़े शब्दों में भर्त्सना की जाए और ऐसा करने वालों पर उचित कार्यवाही हो।
जाहिर है, धर्म-निरपेक्षता को हमारी सरकारें पूरी तरह भूल चुकी हैं। अब हम जिस न्यू इंडिया में रहते हैं वह पूरी तरह से बदल चुका है। यहांं मानवाधिकार की बात करने पर आप देशद्रोही बन जाते हैं, अर्बन नक्सल करार दिए जाते हैं या फिर टूकड़े-टूकड़े गैंग के सदस्य बना दिए जाते हैं और ह्त्या करने वाले या फिर इसकी धमकी देने वाले विधायक और सांसद बन जाते हैं। (navjivanindia.com)
-विष्णु नागर
एक देश है। उसने हमारी 40 से 60 वर्गकिलोमीटर जमीन हथिया ली है और हमारे बीस सैनिकों की जान ले ली है, फिर भी टस से मस होने को तैयार नहीं है। इसके बावजूद हमारे प्रधानमंत्री ने उसका नाम लेना उचित नहीं समझा है तो मैं ही क्यों उसका नाम लेने का गुनहगार बनूँ? अगर मोदीजी देशभक्त हैं तो क्या मैं उनसे कम देशभक्त हूँ? इसके बावजूद कि मुझमें एक जबर्दस्त कमी है कि मैं उनका भक्त बनने की योग्यता से वंचित हूँ, तो भी संकट की इस घड़ी में उनके साथ खड़ा होना पड़ेगा न, इसलिए मैं भी उस देश का नाम नहीं लूँगा। यही असली देशभक्ति है। जो मोदीभक्त होकर भी देशभक्ति के इस धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं, मैं उनकी घनघोर भत्र्सना करता हूँ। मैं तो इस समय मोदीजी के साथ इस हद तक खड़ा हूँ कि यह भी नहीं बताऊँगा कि वह हमारा पड़ोसी देश है या नहीं है। बस इतना बता सकता हूँ कि उसका नाम पाकिस्तान नहीं है। हाँ पाकिस्तान होता तो बात कुछ और होती,माहौल कुछ और होता! तब तो हमारे प्राइममिनिस्टर साहब ही उसका नाम सौ बार दाँत पीस -पीस कर, गला फाडक़र-फाडक़र, उछल-उछल कर लेते।जहाँ तक मेेरा सवाल है, देशभक्त होने के बावजू मैं दाँत पीसना, गला फाडऩा और उछलना तो नहीं जानता मगर नाम जरूर लेता मगर इस मामले में तो नाम कतई नहीं लूँगा।
जरूर इसके पीछे प्रधानमंत्री की देशभक्तिपूर्ण कूटनीति होगी। शायद यह सोचकर नाम नहीं लिया होगा कि ऐसा करने से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और बढ़ जाएगा। संभव है नाम लेने भर से देश की एकता और अखंडता खंडित हो जाती, जिसे बनाए रखने का जितना शौक मोदी जी को है, आज तक किसी प्रधानमंत्री को नहीं रहा। संभव है इससे हिंदू राष्ट्रवाद खतरे में पड़ जाता, जिसके वह सतर्क चौकीदार हैं। इससे उस देश को मदद पहुँचती, जो पहले ही इस बात पर लट्टू हुआ पड़ा है कि हमारे प्रधानमंत्री ने स्वयं कह दिया है कि न कोई हमारी सीमा में घुसा है, न कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट उसके कब्जे में है। इसका उस देश की भाषा में जम कर अनुवाद हुआ और आज भी वहाँ की सरकार अपनी जनता को सुनाने की दुष्ट हरकत कर रही है। इस स्थिति मैं ची तो छोड़ो च भी नहीं बोलूँगा और तो और मैं सी तक नहीं बोलूँगा वरना क्या पता, देश के दुुुश्मन इसका फायदा उठा लें और कहें कि निश्चित रूप से सीएच आई एन ए की तरफ मेरा इशारा है। मैं राष्ट्रहित को आगे रखूँगा और ऐसी कोई गलती नहीं करूँगा, जो प्रधानमंत्री खुद नहीं करते हैंं। हाँँ जब प्राइमिनिस्टर साहब क्लीयरेंस देे देंगे, कहेंगे कि हाँ अब मैैं उस देश का नाम ले रहा हूँ, तो तुम भी ले लो, तो उसके भी 24 घंटे बाद नाम लूँगा क्योंकि क्या पता इस बीच पी एम ओ स्पष्टीकरण जारी करके कहे कि प्रधानमंत्री की बात को षडय़ंत्रपूर्वक तोड़मरोडक़र प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रधानमंत्री का आशय न च से था, न ची से बल्कि छ, छा, छि, छी तक से नहीं था। उनका इशारा उस देश की ओर था ही नहीं, जिसका नाम अंग्रेजी के सी शब्द से शुरू होता है। मैं पीएम ओ के क्लीअरंस का 24 घंटे क्या 48 घंटे तक इंतजार करूँगा, यही देशहित में होगा।
जब देश संकट में हो तो प्रधानमंत्री की सीख है कि भले वह देश हमारी सीमा में अंदर घुस आए, उसका नाम नहीं लेना चाहिए, तो मैं भी नहींं लूँगा, अपनी राष्ट्रभक्ति को कलंकित नहीं होने दूँगा। मैं भारत माता की कसम खाकर, वंदेमातरम बोलते हुए च, ची, सी कुछ भी नहीं कहूँगा। यहाँ तक कि न का प्रयोग भी नहीं करूँगा क्योंकि चतुर लोग इसके आगे ची लगा देंगे और दुष्टतापूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करेंगे। मैं सी क्या एच आई एन ए का इस्तेमाल करना भी तब तक के लिए स्थगित रखूँगा, जब तक हमारी सीमाएँ सुरक्षित नहीं हो जातीं।
आप अगर फिर भी यह जानना चाहते हों कि नाम लिए बगैर संकेत किस देश की ओर है तो यह वही देश है, जिसका प्रधानमंत्री आज तक कुल नौ बार दौरा कर चुके हैं। चार बार मुख्यमंत्री के रूप में और पाँच बार प्रधानमंत्री के रूप में।उन्होंने उस देश का दौरा करने के सभी मुख्यमंत्रियों और सभी प्रधानमंत्रियों के रिकॉर्ड तोड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिए हैं। जिसके राष्ट्रपति को हमारे प्रधानमंत्री ने अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे झूला झुलाया था और महाबलिपुरम में अंगवस्त्रम धारण कर जिनके गाइड का काम किया था। इसी देश के बारे में यह कहने के बाद कि किसी न हमारी सीमा में कब्जा नहीं किया है, बाद में पापुलर डिमांड पर यह भी कह दिया कि लद्दाख की भूमि पर आँखें उठाकर देखनेवालों को करारा जवाब मिला है।भारत मित्रता निभाना जानता है तो आँख में डाल कर देखना और उचित जवाब देना भी जानता है।आप फिर भी न समझ हों, तो सोनिया गांधी, राहुल गांधी के पिछले वक्तव्य पढ़ लें। तब भी नहीं समझे हों तो विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर देख लें और इतना भी कष्ट न उठा सकें तो यह समझ लें कि जिसके 59 एप्स हमने रोक दिए हैं, जिसमें टिकटाक जैसा एप भी है क्योंकि हमें अब पता चल गया है कि अरे, ये एप्स तो हमारी सुरक्षा के लिए खतरा बने हुए थे! फिर भी समझ नहीं सके हों तो इंतजार करें शायद किसी दिन हमारे प्रधानमंत्री स्वयं हमें इस योग्य समझने की गलती कर बैठें और हमारे सामने इसका नाम ले लें और हम खुशी से पागल हो जाएँ और कहें कि देखा उनका सीना 56 इंच का है, जबकि सच यह होगा कि उस दिन से वह 58 इंच का हो चुका होगा!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक लद्दाख का दौरा कर डाला। अचानक इसलिए कि यह दौरा रक्षामंत्री राजनाथसिंह को करना था। इस दौरे को रद्द करके मोदी स्वयं लद्दाख पहुंच गए। विपक्षी दल इस दौरे पर विचित्र सवाल खड़े कर रहे हैं। कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि 1971 में इंदिरा गांधी ने भी लद्दाख का दौरा किया था लेकिन उसके बाद उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए। अब मोदी क्या करेंगे ? कांग्रेसी नेता आखिर चाहते क्या हैं ? क्या भारत चीन पर हमला कर दे ? तिब्बत को आजाद कर दे ? अक्साई चिन को चीन से छीन ले ? सिंक्यांग के मुसलमानों को चीन के चंगुल से बाहर निकाल ले ? सबसे दुखद बात यह है कि भारत और चीन के बीच तो समझौता-वार्ता चल रही है लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बीच वाग्युद्ध चल रहा है।
कांग्रेस के नेता यह क्यों नहीं मानते कि मोदी के इस लद्दाख-दौरे से हमारे सैनिकों का मनोबल बढ़ेगा ? मुझे नहीं लगता कि मोदी लद्दाख इसलिए गए है कि वे चीन को युद्ध का संदेश देना चाहते हैं। उनका उद्देश्य हमारी सेना और देश को यह बताना है कि हमारे सैनिकों की जो कुर्बानियां हुई हैं, उस पर उन्हें गहरा दुख है। उन्होंने अपने भाषण में चाहे चीन का नाम नहीं लिया लेकिन अपने फौजियों को इतना प्रेरणादायक और मार्मिक भाषण दिया कि वैसा भाषण आज तक शायद किसी भी अन्य प्रधानमंत्री ने नहीं दिया।
मोदी पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे अत्यंत प्रचारप्रिय प्रधानमंत्री हैं। इस लद्दाख दौरे को वे अपनी छवि बनाने के लिए भुना रहे हैं लेकिन भारत में कौन प्रधानमंत्री ऐसा रहा है (एक-दो अपवादों को छोडक़र), जो अपने मंत्रियों और पार्टी-नेताओं को अपने से ज्यादा चमकने देता है ? यह दौरा रक्षामंत्री राजनाथसिंह और गृहमंत्री अमित शाह भी कर सकते थे लेकिन मोदी के करने से चीन को भी एक नरम-सा संदेश जा सकता है। वह यह कि रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को बधाई देने और अरबों रु. के रुसी हथियारों के सौदे के बाद मोदी का लद्दाख पहुंचना चीनी नेतृत्व को यह संदेश देता है कि सीमा-विवाद को तूल देना ठीक नहीं होगा। मोदी के इस लद्दाख-दौरे को भारत-चीन युद्ध का पूर्वाभ्यास कहना अनुचित होगा। अगर आज युद्ध की जऱा-भी संभावना होती तो क्या चीन चुप बैठता ? चीन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने मुंह पर मास्क क्यों लगा रखा है ? वे भारत के विरुद्ध एक शब्द भी क्यों नहीं बोल रहे हैं ? क्योंकि भारत और चीन, दोनों परमाणुशक्ति राष्ट्र आज इस स्थिति में नहीं हैं कि कामचलाऊ सीमा-रेखा के आर-पार की थोड़ी-सी जमीन के लिए लड़ मरें। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
बीते हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की 41 कोयला खदानों के व्यावसायिक खनन के लिए डिजिटल नीलामी प्रक्रिया शुरू की। इस कवायद को उन्होंने ऊर्जा क्षेत्र में भारत के आत्मनिर्भर होने की दिशा में बड़ा क़दम बताया। प्रधानमंत्री ने कहा कि पुरानी सरकारों में पारदर्शिता की बड़ी समस्या थी जिसकी वजह से कोल सेक्टर में बड़े-बड़े घोटाले देखने को मिले, लेकिन अब यह स्थिति बदल गई है।
पारदर्शिता उन कई शब्दों में से एक है जिन पर नरेंद्र मोदी सरकार सबसे ज्यादा जोर देती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार इसे अपनी उपलब्धियों में गिनाते हैं। कुछ समय पहले विपक्ष पर निशाना साधते हुए उनका कहना था कि देश में पारदर्शिता लाने के लिये यदि कोई चीज होती है तो कुछ लोगों को समस्या होती है।
लेकिन प्रधानमंत्री के ही नाम पर हुई एक ताजा और बड़ी कवायद इस पारदर्शिता से कोसों दूर दिखती है। यह कवायद है प्रधानमंत्री नागरिक सहायता एवं आपात स्थिति राहत कोष। संक्षेप में कहें तो पीएम केयर्स फंड।
पीएम केयर्स फंड को लेकर पारदर्शिता से जुड़े सवाल इसके ऐलान के साथ ही खड़े होने लगे थे। यह ऐलान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 मार्च को किया था। उन्होंने कहा था कि सभी क्षेत्रों के लोगों ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में दान देने की इच्छा जताई है जिसका सम्मान करते हुए इस फंड का गठन किया गया है। उन्होंने सभी देशवासियों से इसमें योगदान देने की अपील की थी।
प्रधानमंत्री के इस ऐलान से चार दिन पहले ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू हो चुका था। यानी कोरोना वायरस से निपटने के मामले में अब सारे राज्यों को केंद्र के निर्देशों के हिसाब से काम करना था। साधारण परिस्थितियों में कानून-व्यवस्था की तरह स्वास्थ्य भी राज्यों का विषय होता है, लेकिन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम लगने के बाद यह स्थिति बदल जाती है। इस कानून के लागू होने के साथ ही कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई की कमान नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के हाथ में आ गई थी जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं।
पीएम केयर्स फंड पर उठने वाले पहले सवाल का सिरा इसी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम से जुड़ता है। 2005 में बने इस कानून के तहत एक राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (एनडीआरएफ) का भी प्रावधान किया गया था। इसमें कहा गया था कि बड़ी आपदाओं के समय मिलने वाले योगदानों को अनिवार्य रूप से इस कोष में डाला जाएगा। यही वजह है कि जब पीएम केयर्स फंड का गठन हुआ तो पूछा गया कि जब आपदाओं में आम नागरिकों या कंपनियों से मिलने वाले योगदान के लिए एक फंड का प्रावधान पहले से है तो यह नया फंड क्यों? क्या यह संसद से पारित कानून की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है?
सवाल यह भी था कि आपदा जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए जब प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (पीएमएनआरएफ) पहले से ही है तो फिर उसे काम में क्यों नहीं लिया गया। कांग्रेस नेता सलमान अनीस सोज का कहना था, ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष में 16 दिसंबर, 2019 तक 3,800 करोड़ रुपये पड़े हुए थे। कोविड-19 से संबंधित दान इस कोष में क्यों नहीं डाला जा सकता था? क्यों पीएम केयर फंड बनाया गया?’
पीएम केयर्स फंड के प्रशासनिक ढांचे को लेकर भी पारदर्शिता का सवाल उठ रहा है। प्रधानमंत्री इस कोष को चलाने वाले ट्रस्ट के पदेन अध्यक्ष हैं। केंद्रीय रक्षा मंत्री, गृह मंत्री और वित्त मंत्री इसके पदेन ट्रस्टी। अध्यक्ष के पास तीन ट्रस्टीज को बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज में नामित करने की शक्ति है। पीएम केयर्स फंड की वेबसाइट में कहा गया है कि ये लोग अनुसंधान, स्वास्थ्य, विज्ञान, सामाजिक कार्य, कानून, लोक प्रशासन और परोपकार के क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे। हालांकि अभी ऐसे किसी व्यक्ति को नामित किये जाने के बारे में कोई जानकारी नहीं है। पूछा जा सकता है कि आपदा के दौरान जनता की सेवा के लिए बनाए गए इस ट्रस्ट में विपक्ष का कोई प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? क्या सरकार लिहाज के लिए भी लोकतांत्रिक औपचारिकताओं का पालन नहीं करना चाहती?
पीएम केयर्स फंड की वेबसाइट बताती है कि इसका गठन एक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में किया गया है। भारत में प्राइवेट ट्रस्ट 1882 में बने इंडियन ट्रस्ट्स एक्ट के प्रावधानों से संचालित होते हैं, लेकिन पब्लिक ट्रस्ट के मामले में ऐसा नहीं है। इन पर कोई केंद्रीय कानून लागू नहीं होता बल्कि ये राज्यों के अपने-अपने कानूनों के हिसाब से संचालित होते हैं।
ऐसे में सिर्फ पीएम केयर्स फंड की डीड से ही पता चल सकता है कि इसे रजिस्टर करने वाली अथॉरिटी कौन और कहां है। लेकिन इसकी डीड से लेकर इसमें आए पैसे से जुड़े तमाम सवालों से जुड़ी प्रामाणिक जानकारियां सामने लाने की कोशिशों को खुद केंद्र सरकार रोकने की कोशिशें कर रही है। जैसे मई के आखिर में ही खबर आई कि पीएम केयर्स फंड के बारे में कुछ अहम सूचनाएं हासिल करने के मकसद से सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत दायर आवेदनों को प्रधानमंत्री कार्यालय ने खारिज कर दिया है। उसका कहना है कि पीएम केयर्स फंड आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी नहीं है, इसलिए इससे जुड़ी सूचनाएं नहीं दी जा सकती हैं। खबरों के मुताबिक विभाग के केंद्रीय जन सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) परवीन कुमार का इस तरह के आवेदनों पर एक ही जवाब रहा है, ‘पीएम केयर्स आरटीआई एक्ट, 2005 की धारा 2(एच) के तहत पब्लिक अथॉरिटी नहीं है। पीएम केयर्स से जुड़ी संबंधित जानकारी श्चद्वष्ड्डह्म्द्गह्य.द्दश1.द्बठ्ठ वेबसाइट पर देखी जा सकती है।’
तो क्या पीएम केयर्स फंड वास्तव में पब्लिक अथॉरिटी नहीं है? कई जानकार इस सवाल का जवाब न में देते हैं। अपने एक ट्वीट में सामाजिक कार्यकर्ता साकेत गोखले कहते हैं, ‘आरटीआई एक्ट के सेक्शन 2(एच)(डी) में साफ लिखा गया है कि अगर किसी संस्था का गठन सरकार की अधिसूचना या आदेश से हुआ है तो वह पब्लिक अथॉरिटी है।’ अपने एक अन्य ट्वीट में उन्होंने एक दस्तावेज भी साझा किया है। यह कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय की एक अधिसूचना है, 28 मार्च को जारी की गई इस अधिसूचना की शुरुआत में ही साफ कहा गया है कि पीएम केयर्स फंड का गठन सरकार ने ही किया है।
सवाल है कि जो संस्था सरकार ने बनाई हो, जिसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रेस सूचना ब्यूरो का इस्तेमाल हो रहा हो, जिसका वेब पता 222.श्चद्वष्ड्डह्म्द्गह्य.द्दश1.द्बठ्ठ हो, जिसके ट्रस्टी राज्य व्यवस्था के शीर्ष पदाधिकारी हों और जिसमें आसानी से पैसा जमा करने की सहूलियत देश का हर निजी और सरकारी वित्तीय संस्थान दे रहा हो (बाकी पेज 7 पर)
उसे पब्लिक अथॉरिटी क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? इन्हीं दलीलों के साथ दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है। इसमें पीएम केयर्स फंड को आरटीआई अधिनियम के तहत पब्लिक अथॉरिटी घोषित करने की मांग की गई है। यहां भी सरकार ने इस याचिका का विरोध करते हुए कहा है कि वह इस मुद्दे पर एक हलफनामा दाखिल करेगी। फिलहाल उसे इसके लिए 28 अगस्त तक का वक्त मिल गया है।
पीएम केयर्स फंड में अब तक कितना पैसा आया है, इसे लेकर भी अपारदर्शिता है। फंड की वेबसाइट इसे लेकर कोई जानकारी नहीं देती। वहां बस इतना जिक्र है कि ‘मेड इन इंडिया’ वेंटिलेटरों की खरीद और प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए अब तक फंड से 3100 करोड़ रु जारी किए जा चुके हैं। उधर, भाजपा प्रवक्ता गौरव भाटिया ने 21 मई को एक समाचार चैनल पर परिचर्चा के दौरान कहा था कि पीएम केयर्स फंड में करीब सात हजार करोड़ रु की राशि आ चुकी है। इससे एक दिन पहले इंडियास्पेंड ने अपने एक आकलन में दावा किया था कि फंड में अब तक साढ़े नौ हजार करोड़ रु की रकम आई है। यानी अलग-अलग स्रोतों से अलग-अलग आंकड़ों की अटकलबाज़ी देखने को मिल रही है जिसे रोकने के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है।
यह मामला भी अदालत पहुंच चुका है। पीएम केयर्स फंड में आई कुल रकम को सार्वजनिक करने की मांग के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। इस पर उच्च न्यायालय ने केंद्र से जवाब मांगा है। पीएम केयर्स से जुड़े दूसरे मामले की तरह यहां भी सरकार ने इस मांग का विरोध किया था। उसका कहना था कि यह याचिका खारिज कर दी जानी चाहिए क्योंकि ऐसी ही एक याचिका को अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है। हालांकि हाई कोर्ट ने इससे इनकार कर दिया। उसका कहना था कि इस याचिका में अलग मुद्दा उठाया गया है।
बॉम्बे हाई कोर्ट में दायर याचिका में यह मांग भी की गई है कि इस पीएम केयर्स फंड के लिए बने ट्रस्ट में विपक्षी दलों के कम से कम दो लोगों की नियुक्ति की जाए ताकि पारदर्शिता बनी रहे। इसके अलावा याचिका में यह भी मांग की गई है कि सरकार के अनुसार किसी स्वतंत्र ऑडिटर के बजाय पीएम केयर्स फंड की ऑडिटिंग सीएजी यानी कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया करे। लेकिन यहां सरकार के जवाब के बारे में सोच पाना ज्यादा मुश्किल नहीं है - अगर पीएम केयर्स पब्लिक अथॉरिटी नहीं है तो इसकी ऑडिटिंग कोई सरकारी संस्था क्यों करेगी?
यहां पर एक महत्वपूर्ण और बेहद सादा सवाल यह उठता है कि पीएम केयर्स फंड को पब्लिक अथॉरिटी क्यों नहीं बनाया गया है और ऐसा क्यों बनाया गया है कि इसके बारे में आरटीआई के जरिये कोई जानकारी नहीं मिल सकती और इसे सीएजी द्वारा ऑडिट नहीं कराया जा सकता? पीएम केयर्स फंड में जो पैसा आ रहा है, वह जनता का ही है। भले ही वह सरकारी आवंटन हो या फिर आम नागरिकों या कंपनियों द्वारा किया जाने वाला योगदान। तो पूछा जा सकता है कि इससे जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक क्यों नहीं होनी चाहिए? पारदर्शिता को अपनी विशेषता बताने वाली सरकार सार्वजनिक हित के मामले में जब इस कदर गोपनीयता पर अड़ जाए तो गड़बड़झालों के आरोप में वजन दिखने लगता है। मोदी सरकार चाहे तो अपने बचाव में यह कह सकती है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (पीएमएनआरएफ) भी तो एक ट्रस्ट ही था। लेकिन अगर वह यह तर्क देगी तो खुद को पहले की सरकारों से अलग कैसे बता सकती है?
यह मामला देश की शीर्ष अदालत में फिर से पहुंच चुका है। पीएम केयर्स फंड का सारा पैसा एनडीआरएफ में ट्रांसफर करने की मांग करने वाली एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बीते हफ्ते केंद्र की मोदी सरकार को नोटिस जारी किया है। उसे इसका जवाब देने के लिए चार हफ्ते का वक्त दिया गया है। यह याचिका सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) नाम के एक गैर सरकारी संगठन ने दायर की है। इसमें कहा गया है कि पीएम केयर्स फंड की कार्यप्रणाली अपारदर्शी है और इसे आरटीआई एक्ट के दायरे से भी बाहर रखा गया है। याचिका के मुताबिक इसलिए इसकी रकम को एनडीआरएफ में ट्रांसफर किया जाए जिस पर आरटीआई एक्ट भी लागू है और जिसका ऑडिट सीएजी करता है।
पारदर्शिता से जुड़ा एक अहम सवाल ऑडिट का भी है। 10 जून को खबर आई कि दिल्ली स्थित चार्टर्ड अकाउंटेंसी फर्म सार्क एंड एसोसिएट्स को तीन साल के लिए पीएम केयर्स फंड का स्वतंत्र ऑडिटर नियुक्त किया गया है। प्रधानमंत्री राष्ट्रीय आपदा कोष का ऑडिट भी इसके जिम्मे है। लेकिन इस फर्म को ऑडिटर बनाने का फैसला कैसे हुआ? क्या इसके लिए निविदाएं बुलाई गईं? उनके लिए कुछ नियम-शर्तें तय की गईं? ऐसे कई सवाल अनुत्तरित हैं। इसके अलावा इस ऑडिटिंग फर्म के संस्थापक से जुड़े कुछ गंभीर सवाल भी हैं जो अलग से एक रिपोर्ट की मांग करते हैं सो उनकी बात अलग से।
फिलहाल सबसे नई जानकारी यह है कि आरटीआई और अदालती मामलों का एक सिलसिला शुरू होने के बाद केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने एनडीआरएफ में व्यक्तियों या संस्थानों द्वारा अनुदान दिए जाने की प्रक्रिया को मंजूरी दे दी है। अभी तक इसमें सिर्फ सरकार आवंटन कर सकती थी। वित्त मंत्रालय ने केंद्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला को पत्र लिखकर एनडीआरएफ के लिए एक ऐसा बैंक खाता खोलने को कहा है जिसमें आपात परिस्थितियों के दौरान जनता आर्थिक मदद दे सके।
लेकिन यहां भी सवाल है कि जब प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सरकार के प्रचार तंत्र का जोर सिर्फ पीएम केयर्स फंड पर हो तो भला एनडीआरएफ की कितनी पूछ होगी। (satyagrah.scroll.in)
यह दुनिया कुछ ऐसे चलती है कि नन्हें-नन्हें निर्दोष या असहाय से नजर आने वाले बच्चों की सजीव आँखों या फिर उनके निर्जीव शरीरों से व्यक्त होने वाली व्यथाओं में मानवता के लिए बेहतर भविष्य की उम्मीदें तलाश की जाती हैं। मसलन, भूमध्य-सागर के तट पर खारे पानी के बीच चिरनिद्रा में सोए पड़े सीरियाई शरणार्थी बालक एलन का विचलित करने वाला चित्र हो या फिर मुजफ्फरपुर रेल्वे प्लेटफॉर्म पर अपनी मृतक प्रवासी मज़दूर माँ के ऊपर पड़ी चादर हटाकर उसे जगाने की कोशिश करता हुआ बच्चा या फिर उस सूट्केस पर थका-मांदा बेसुध सोया हुआ वह बच्चा जिसे विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र की निर्मम सडक़ों पर उसकी प्रवासी मज़दूर माँ घसीटते हुए पैदल ही कहीं दूर अपने गाँव की तरफ लौट रही है।
उक्त सारे चित्र और इनके अलावा और भी हजारों-लाखों चित्र दुनिया के किसी न किसी कोने से लगातार वायरल हो रहे हैं। ये चित्र सत्ताओं में बैठे हुए लोगों को शर्मिंदा तो नहीं ही कर रहे हैं पर उनकी प्रजाओं को अपने होने के बावजूद कुछ भी न कर पाने को लेकर आत्म ग्लानि और क्षोभ में जरूर डूबा रहे हैं। इतना ही नहीं,हमारे बीच से ही कुछ लोग ऐसी ताकतों के रूप में भी उभर रहे हैं जो बच्चों के आसपास मंडराती हुई त्रासदियों को अपने ही द्वारा बुने गए राजनीतिक संदेश प्रसारित करने के लिए संवेदनशून्य होकर इस्तेमाल करना चाह रहे हैं और हम लोग इस सब पर कोई मौन शोक भी व्यक्त करने से कन्नी काट रहे हैं।
हम जिस पीड़ा का जिक्र करना चाहते हैं वह यह नहीं है कि कश्मीर घाटी में तीन साल पहले सेना के एक अफसर ने एक स्थानीय युवक को अपनी जीप के बोनट पर बांध कर सडक़ों पर घुमाया था। अप्रैल 2017 की उस घटना के लिए न सिर्फ अफसर को बाद में क्लीन चिट दे दी गई थी, उसकी इस बात के लिए कथित तौर पर तारीफ भी की गई कि सेना की गाड़ी को पत्थरबाजों से बचाने के लिए उसने इस तरह के आयडिए का प्रयोग किया। हम इस समय जो कहना चाहते हैं उसकी करुणा के केंद्र में कश्मीर घाटी के सोपोर का तीन साल का बच्चा है और उसे लेकर चल रहे विवाद का संबंध टीवी की बहसों में लगातार दिखाई पडऩे वाले परिचित चेहरे संबित पात्रा से है। जिस तरह से पात्रा घटना के संबंध में दी गई अपनी प्रतिक्रिया का बचाव कर रहे हैं और किसी भी तरह का खेद व्यक्त करने को कतई तैयार नहीं हैं, मानकर चला जा सकता है कि उन्हें भी उनकी पार्टी की ओर से क्लीन चिट प्राप्त है।
इसके पहले कि पात्रा के उस विवादास्पद ट्वीट और उस पर चल रही बहस की बात की जाए उस अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार के बारे में थोड़ी सी जानकारी जिसकी कि विश्वसनीयता पर प्रहार के लिए कथित तौर पर बच्चे और उसके मृत नाना को माध्यम बनाया गया। कोई सौ साल पहले (1917) में स्थापित ‘पुलित्जऱ’ पुरस्कार को साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में दुनिया भर में वही सम्मान प्राप्त है जो नोबेल पुरस्कार को है। भारतीय मूल के पाँच नागरिक 2020 के पहले तक इसे हासिल कर चुके हैं। इस वर्ष यह पुरस्कार जम्मू-कश्मीर के तीन फोटोग्राफरों को घाटी में व्याप्त तनाव से उपजी मानवीय व्यथाओं को दर्शाने वाले उनके छायाचित्रों के लिए मई माह में घोषित किया गया था। घाटी के छायाचित्रों को लेकर दिए गए इस पुरस्कार की सत्तारूढ़ दल के एक वर्ग ने सार्वजनिक रूप से कड़ी आलोचना की थी। अब उस अबोध बच्चे से जुड़ी घटना जिसके मन में ‘ठक-ठक’ की आवाज ने घर बना लिया है।
घाटी के सोपोर में सी आर पी एफ के जवानों और आतंकवादियों के बीच हाल में हुए एक एनकाउंटर में एक सामान्य नागरिक की मौत हो गई थी। एक जवान भी घायल हुआ था जो कि बाद में शहीद हो गया। एनकाउंटर में हुई नागरिक की मौत को लेकर कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। पर यहाँ चर्चा पुलित्जर पुरस्कार के संदर्भ में उन छायाचित्रों की जो इस एनकाउंटर के एकदम बाद दुनिया भर में जारी हो गए थे और कि जिनके कि बारे में अभी तक पता नहीं चला है कि वे किसके द्वारा कब लिए और जारी किए गए। इन चित्रों में दो में बच्चा अपने मृत नाना के शरीर पर दो अलग-अलग मुद्राओं में बैठा दर्शाया गया है, एक अन्य में उसे एनकाउंटर की मुद्रा में तैनात एक सेना के जवान की ओर बढ़ते हुए दिखाया गया है और एक अन्य में उसे एक सैन्य अफसर अपनी गोद में उठाए हुए सुरक्षित स्थान की ओर जाते दिख रहे हैं।
विवाद का विषय इस समय यह है कि उस एक चित्र को जिसमें बच्चा अपने नाना के शरीर पर बैठा हुआ है, एक पंक्ति के शीर्षक ‘पुलिटर्स लवर्स?’ के साथ पात्रा के सोशल मीडिया अकाउंट से जारी किया गया। भाजपा नेता आरोप लगा रहे हैं कि बच्चे के नाना की मौत के लिए पाकिस्तान-समर्थित आतंकवाद जिम्मेदार है। सवाल यह है कि अपने नाना की मौत से हतप्रभ तीन साल के बच्चे की संवेदनाओं का उपयोग कथित रूप से पुलित्जर पुरस्कार अथवा उसे पाने वाले घाटी के फोटोग्राफरों का व्यंग्यात्मक तरीके से मजाक उड़ाने के लिए किया जाना कितना जायज माना जाना चाहिए ? यह बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होगा, क्या उसके कानों में गूंजने वाली ‘ठक, ठक’ की आवाज बंद हो जाएगी और उसकी संवेदना पात्रा द्वारा जारी किए गए चित्र और उसके शीर्षक को बर्दाश्त कर पाएगी? दीया मिर्जा ने तो पात्रा से पूछ लिया है कि- ‘क्या आपमें तिलमात्र भी संवेदना नहीं बची है?’ एक पाठक के तौर पर आप क्या सोचते हैं?
-श्रवण गर्ग
लगभग 3 माह की उहापोह के पश्चात अंतत: मध्यप्रदेश में सिंधिया-शिव का 33 सदस्यीय मंत्रिमंडल का गठन हो गया।
मंत्रिमंडल के गठन में जनादेश की सरकार को अपदस्थ करने के लिए और हॉर्स ट्रेडिंग की योजना को सफल बनाने हेतु तैयार रणनीति के अनुरूप संविधान के अनुच्छेद 75(5),164(4)की मूल भावना के विपरीत गैरविधायकों को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है।
स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है, जब संसद सहित किसी राज्य मंत्रिमंडल में अपवाद के रूप में प्रयोग हेतु, सम्मिलित संविधान के प्रावधान की आड़ लेकर, मंत्रिमंडल के सदस्यों की कुल संख्या 33 मैं से 12 मंत्री विधानसभा के निर्वाचित सदस्य नहीं है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या ऐसा मंत्रिमंडल जिसके एक तिहाई सदस्य से अधिक सदस्यों को जनादेश प्राप्त नहीं है, क्या ऐसे मंत्रिमंडल को जनमत / जनादेश का मंत्रिमंडल कहा जा सकता है?
इसका उत्तर संविधान सभा की कार्यवाही में संविधान सभा के विद्वान सदस्यों द्वारा प्रस्तुत विचारों से सुस्पष्ट रूप से प्राप्त हो सकता है।
संविधान सभा में मंत्रिमंडल के सदस्यों की नियुक्ति के संबंध में, संविधान के अनुच्छेद 75 पर चर्चा के निम्नांकित अंश ध्यान देने योग्य हैं।
संविधान सभा वाद-विवाद दिनांक 31 दिसंबर 1948 को मोहम्मद ताहिर ने संशोधन क्रमांक 1323 और 1324 अनुच्छेद 62( 5) को संशोधित करने हेतु सभा की अनुमति से प्रस्तुत किया।
"A minister shall at the time of appointment as such,be a member of the parliament."
उन्होंने वर्तमान अनुच्छेद 75(5)
"A minister who for any period of six consecutive months is not a member of of either House of parliament shall at the the expiration of that period cease to be a minister"
के संबंध में कहा कि यह तो पूर्ण रूप से प्रजातंत्र की भावना के विपरीत है कि जो व्यक्ति देश की जनता के द्वारा चुना हुआ नहीं है उसे मंत्री नियुक्त किया जाए।
उन्होंने कहा कि यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि गठित होने वाली संसद जिसकी सदस्य संख्या लगभग 400 होगी किसी राजनीतिक दल का नेता, इनमें से किसी योग्य व्यक्ति को नहीं चुन सके, और इस बात के लिए मजबूर हो कि ऐसे व्यक्ति को चुने जो निर्वाचित जन प्रतिनिधि नहीं है।
उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो संसद का सदस्य नहीं है यदि मंत्री नियुक्त किया जाता है तो यह प्रजातंत्र की भावना के विपरीत है, प्रजातंत्र की जड़ों को कमजोर करने वाला प्रावधान है।
संविधान सभा में अनुच्छेद 75 पर चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने यह भी व्यक्त किया, कि वाक्य ‘संसद के किसी सदन’ के स्थान पर ‘चुना हुआ सदस्य’ वाक्य रखा जाना चाहिए अन्यथा उच्च सदन जहां 12 सदस्य नामाँकित करने का प्रावधान है यदि प्रधानमंत्री चाहेंगे,तो इन12 सदस्यों को भी मंत्री पद पर नियुक्त कर सकेंगे,और ऐसे सदस्य जो राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी ‘नामाँकित’ होने के कारण हिस्सा नहीं ले सकते वह मंत्रिमंडल में बहुत अधिक जिम्मेदारी के पद ‘मंत्री’ पद पर नियुक्त किए जा सकते हैं। यह भी राय व्यक्त की गई कि यद्यपि ऐसी स्थिति निर्मित नहीं होगी, किंतु कोई प्रधानमंत्री ऐसा करने के लिए समर्थ नहीं हो, यह हमें सुनिश्चित करना होगा।
अनुच्छेद 75(5) के संबंध में संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत होने के पश्चात सामान्य चर्चा आरंभ होने पर
सेंट्रल प्रोविंसेस एंड बरार से संविधान सभा के लिए विद्वान सदस्य आर के सिधवा ने अपने संबोधन में कहा कि धारा एक दो और पांच पर चर्चा हुई।
धारा 1 प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में है उन्होंने कहा कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के अंतर्गत कुछ प्रोविंसेस के गवर्नर ने जानबूझकर अपनी सुविधा के लिए ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जिसके साथ सभा का विश्वास नहीं था उदाहरण के लिए बंगाल, आसाम, उड़ीसा, सिंध और पंजाब, और फिर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत जो मंत्री मंडल गठित हुआ पूरे 1 साल तक कार्य करता रहा और फिर जब आगामी बजट सत्र हुआ उस बजट सत्र में उसने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए सदस्यों को कई प्रकार के प्रलोभन, का प्रस्ताव किया कामकाज के प्रस्ताव किए और यह दर्शाया की उसके पास सदन का विश्वास है।
उन्होंने आगे कहा कि यह सब बातें भूतकाल की है, मैं इस विश्वास के साथ कि राज्यपाल और राष्ट्रपति इतने गैरजिम्मेदार व्यक्ति नहीं होंगे इस धारा का समर्थन करता हूं। क्योंकि यदि राष्ट्रपति अथवा ऐसा व्यक्ति जिसके पास सदन का विश्वास नहीं है ऐसा कृत्य करेगा तो महाभियोग और बर्खास्तगी का प्रावधान भी है।
‘उन्होंने कहा कि जो आशंकाएं अन्य सदस्यों के दिमाग में है वह मेरे भी दिमाग में है किंतु भूतकाल में जो उदाहरण रहे उस पर विचार नहीं करते हुए मैं धारा1का समर्थन करता हूं।’
धारा 5 पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि
"a minister who for any period of six consecutive months is not a member of either House of parliament shall at the the expiration of that period cease to to be a minister”
ऐसी धारा गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में है, और हमने इसे वहीं से लिया है। मैं चाहता हूं कि यह धारा हमारे संविधान में नहीं रहे क्योंकि हमारे विधान मंडल में 500 सदस्य रहेंगे और इन 500 में से भी यदि हम कोई तकनीकी अथवा विषय विशेषज्ञ को लेना सुनिश्चित नहीं कर सके जो आवश्यक है, तो यह विधान मंडल के लिए अप्रतिष्ठा पूर्ण होगा।
‘हमारा संविधान ग्रेट ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली पर आधारित है, जो दलीय व्यवस्था से संचालित होता है, वहां राजनीतिक दल यह सुनिश्चित करते हैं कि जिन व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में लेना संभावित है, उनमें कुछ विशेष ज्ञान अथवा विशेषज्ञता वाले व्यक्ति को टिकट दिया जाए और यह भी कि ऐसे व्यक्ति चुनकरआएऔर इसलिए हमें भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को राजनीतिक दल टिकट दे, और वह चुनकर भी आए।
केवल विधि और वित्त विषय ही संभवत ऐसे हैं, जहां विषयों का विशेष ज्ञान आवश्यक है। उन्होंने कहा कि यह विधान मंडलों के लिए प्रतिष्ठा पूर्ण होगा कि हम गैर सदस्यों को मंत्री पद पर नियुक्त नहीं करें, ऐसे उदाहरण पूर्व में अवश्य हुए हैं किंतु हमें ब्रिटिश कैबिनेट के सदृश्य ही सोचना होगा जहां कभी भी गैर सदस्य को कैबिनेट में सम्मिलित नहीं किया गया’।
यह तर्क अवश्य दिया जा रहा है कि गैर सदस्य केवल 6 माह के लिए रहेगा किंतु फिर भी किसी बाहरी व्यक्ति को कैबिनेट का सदस्य बनाए जाने के लिए मैं सहमत नहीं हूं जब हमें दूसरे योग्य व्यक्ति उपलब्ध हैं और इसलिए यह धारा विलोपित की जानी चाहिए।
अपनी बात को समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन उपस्थित नहीं है जब मैं बहुत मजबूत तर्क रख रहा हूं यदि वह उपस्थित होते तो निश्चित तौर पर इस पर विचार करते लेकिन मुझे उम्मीद है वह मेरे तर्कों को स्वतंत्र भारत के संविधान में ऐसी धारा नहीं रहे इस पर विचार करेंगे।
संविधान सभा के विद्वान सदस्य श्री कीर्ति शाह ने गैर सदस्य को मंत्री नियुक्त करने के संबंध में अपने संबोधन में कहा कि ऐसी संभावना रहती है कि कोई बहुत योग्य व्यक्ति जो मंत्री पद पर नियुक्ति के लिए सर्वथा योग्य है यदि चुनाव में विजय हासिल नहीं कर पाता है तो यह अच्छी व्यवस्था रहेगी कि ऐसे व्यक्ति को कैबिनेट का सदस्य नियुक्त किया जाए इस विश्वास के साथ कि वह उसी क्षेत्रसेअथवा किसी दूसरे क्षेत्र से निर्वाचित होगा, और यह विशेषाधिकार केवल 6 माह के लिए ही है। बिना चुने हुए उसका यह अधिकार नहीं रहेगा। नामाँकित मंत्री भी मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व से पृथक नहीं होगा और उसे मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में ही कार्य करना होगा और यह ‘संसदीय सरकार’ के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता।
डॉक्टर बीआर अंबेडकर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमारे पास पवित्र प्रशासन उसके प्रवर्तन और जनमत को मोबिलाइज करने का अवसर रहेगा और यदि जनमत मंत्रिमंडल के पक्ष में नहीं है तो प्रशासन के किसी भी अवसर पर मंत्रिमंडल को हटाया जा सकेगा।
संविधान सभा में हुए उपरोक्त वाद विवाद से यह संदेह रहित है कि मंत्रिमंडल में गैर सदस्यों को मंत्री नियुक्त करने का प्रावधान अपवाद स्वरूप स्थिति में किसी विशेष योग्यता के व्यक्ति को सम्मिलित किए जाने के आशय से रखा गया था और डॉक्टर अंबेडकर ने भी यह विश्वास व्यक्त किया था कि स्वतंत्र भारत में हमारे पास पवित्र प्रशासन, उसके प्रवर्तन जनता को मोबिलाइज करने का अवसर उपलब्ध रहेगा और यदि जनमत ऐसे मंत्रिमंडल के पक्ष में नहीं है तो उसे किसी भी समय हटाया जा सकेगा।
संविधान सभा में हमारे संविधान के ऐसे एकाधिक प्रावधानों पर, प्रस्तुत संशोधनों पर बहुत तार्किक और प्रभावी चर्चा हुई, किंतु डॉक्टर अंबेडकर ने स्वतंत्र भारत के जन प्रतिनिधियों एवं राजनीतिक दलों पर विश्वास की भावना को प्रकट करते हुए, और विश्वास में निहित यह है कि राजनीतिक दल एवं जन प्रतिनिधि प्रजातंत्र एवं संसदीय प्रणाली की मूल भावना के अनुरूप अपने आचरण एवं व्यवहार को अंजाम देंगे। अपवाद स्वरूप विशेष परिस्थितियों के लिए ऐसे प्रावधानों को यथावत रखने का तर्क देते हुए भारत के संविधान में सम्मिलित करने का रास्ता सुगम किया था।
यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लगभग 68 वर्षों में ऐसे इक्के दुक्के अवसर ही ऐसे आए हैं, जब किसी विशेष उद्देश्य से अथवा किसी विशेष योग्यता का लाभ हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था एवं संसदीय प्रणाली को प्राप्त हो सके, मंत्रिमंडल में गैरसदस्यों को मंत्री नियुक्त करने के उदाहरण उपलब्ध है।
जनमत/जनादेश के द्वारा किसी राजनीतिक दल द्वारा गठित सरकार, के 22 सदस्य दल के किसी व्यक्ति विशेष के प्रति निष्ठा अथवा तथाकथित रूप से दल में अपमान जनक व्यवहार के नाम पर अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर, प्रचलित दल बदल कानून को धता बताते हुए, दूसरे राजनीतिक दल द्वारा आयोजित समारोह, में दल की सदस्यता ग्रहण करते हैं।
विधानसभा से त्यागपत्र देने के पश्चात विधानसभा की ततसमय प्रभावी संख्या के आधार पर बिना जनमत / जनादेश के अल्पमत वाला दल छद्म बहुमत से सरकार गठित करता है, फिर त्यागपत्र देने वाले गैर सदस्यों को निर्वाचित सदस्यों की उपेक्षा करते हुए मंत्रिमंडल का सदस्य नियुक्त किया जाता है,और जनता को प्रलोभन देते हुए (निर्वाचन वाले क्षेत्रों में लंबित कार्यों को पूर्ण करने के समाचार प्रकाशित हो रहे हैं और 20 जुलाई से अर्थात निर्वाचन के पूर्व बजट सत्र भी प्रस्तावित है) पुन: निर्वाचन के लिए प्रक्रिया आरंभ होती है, यह सब तो संविधान सभा में संविधान की धारा 75 (5)पर हुई चर्चा,इस धारा को संविधान में सम्मिलित करने की मूल भावना,उद्देश्य और प्रजातंत्र तथा संसदीय प्रणाली को गहरा आघात ही है।
जिस दल का नेतृत्व अपने संपूर्ण जीवन काल मैं श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेई ने किया,जो दल हमेशा ही विचारधारा के आधार पर संचालित होता रहा, जिस दल ने “Party with a difference” न केवल अपने कार्यों से अपितु व्यवहार से भी देश में लोकप्रियता के उच्चतम शिखर को प्राप्त करते हुए केंद्र एवं अनेक राज्यों में अपने दल की सरकार का गठन किया, मध्यप्रदेश में सरकार गठित करने का प्रयास दल की मूल विचारधारा, संविधान तथा संसदीय प्रणाली के विपरीत है।
यहां में अटलजी के द्वारा 13 दिन की सरकार के अंतिम दिन लोकसभा में व्यक्त किए गए उदगार के अंश को उद्धृत करना समीचीन समझता हूं ‘लेकिन पार्टी तोडक़र सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करुंगा’.....‘हम संख्या बल के सामने सर झुकाते हैं और जो काम हमने हाथ में लिया है पूरा नहीं कर लेंगे तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे।’
यह अटलजी की दल के सिद्धांतों के प्रति तथा संविधान एवं प्रजातांत्रिक प्रणाली के प्रति गहरी निष्ठा का प्रति फल ही है, कि उनका राजनीतिक दल लोकप्रियता के उच्चतम शिखर पर है, और वर्तमान नेतृत्व का यह दायित्व है कि इस स्थान को अपने कृत्यों एवं व्यवहार से शिखर पर बनाए रखें।
यह उपयुक्त समय है, हम उच्च प्रजातांत्रिक एवं संसदीय मर्यादाओं को स्थापित करने का प्रयास करें और राजनीतिक दलों एवं इसके नेताओं को ऐसे आचरण एवं व्यवहार के लिए हतोत्साहित करने के लिए प्रभावी कदम उठाएं।
-देवेंद्र वर्मा
(पूर्व प्रमुख सचिव छत्तीसगढ़ विधानसभा)
संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ
-गिरीश मालवीय
कल कानपुर देहात में हुए पुलिस टीम पर हमले की बदमाशों की योजना इतनी सुनियोजित थी कि पुलिस के गांव में पहुंचने से पहले ही पूरे गांव की स्ट्रीट लाइटें बंद कर दी गई। जिसके चलते अंधेरे में पुलिसकर्मियों पर हमला किया गया। पुलिसकर्मी अंधेरे के चलते भाग नहीं पाए और बदमाशों ने उन्हें घेरकर बर्बरता से मार डाला। कल एसआईटी ने विकास दुबे के कॉल डिटेल्स रिकॉर्ड निकलवाए जिसमें कई पुलिसवालों के नंबर निकले हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इन पुलिसवालों में एक नाम चौबेपुर थाने के दरोगा का भी है, जिसने विकास को रेड की सूचना पहले ही दे दी थी। और उसके बाद ही घात लगाकर हमला किया गया।
साफ है कि योजनाबद्ध तरीके से 9 पुलिसकर्मियों की हत्या की गयी है यह घटना दिखा रही है कि तथाकथित रामराज्य में अपराधियों के हौसले बुलंद है।
घटनास्थल पर हालात की भयावहता को इसी बात से समझा जा सकता है कि बिकरु गांव में इस मुठभेड़ के मास्टरमाइंड विकास दुबे के घर के आसपास सडक़ों पर खून बिखरा हुआ था। आसपास के घर विकास दुबे के रिश्तेदारों के घर हैं, जहां से फायरिंग हुई।जांच में पता चला है कि जब बदमाशों ने अंधेरे का फायदा उठाकर पुलिस टीम पर चारों तरफ से हमला कर दिया तो पुलिसकर्मी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागे। पुलिस टीम का नेतृत्व कर रहे सीओ देवेंद्र मिश्र इस दौरान दीवार फांदकर बगल के घर में जा छिपे। दुर्भाग्य से यह घर विकास के मामा प्रेमप्रकाश पांडेय का था। कुछ बदमाश सीओ के पीछे पीछे उस घर में घुसे और सीओ को पकडक़र उनका सिर दीवार से सटाकर गोली मार दी। इतना ही नहीं इसके बाद उनके शव को घसीटकर घर के बाहर लाया गया और उनके पैर को कुल्हाड़ी से काट दिया गया। वहीं सीओ के साथ घर में घुसे चार सिपाहियों को भी बदमाशों ने सीओ के सामने ही गोली मार दी थी।
एनबीटी की रिपोर्ट के अनुसार, बदमाश पुलिसकर्मियों को मारकर उनके शव जलाने के प्रयास में थे। यही वजह थी कि बदमाशों ने पुलिसकर्मियों के शव एक जगह एक के ऊपर एक रखे हुए थे। पुलिस की गाडिय़ों को भी फूंकने की तैयारी थी लेकिन तभी वहां मौके पर भारी पुलिस बल पहुंच गया और बदमाशों को वहां से भागना पड़ा।
मौके पर जब भारी पुलिस बल पहुंचा तो पुलिसकर्मियों की खोजबीन शुरू हुई। सभी घायलों और शवों को अस्पताल भेजा गया लेकिन तब तक सीओ और एसओ के बारे में कुछ पता नहीं चल सका था। इसके बाद जब खोजबीन की गई तो सीओ का शव विकास के मामा के घर में मिला। वहीं एसओ का शव सडक़ किनारे बने एक बाथरूम में पाया गया।
(जनसत्ता की विभिन्न रिपोर्ट पर आधारित पोस्ट)
जिन्हें कानून का पालन करने की जि़म्मेदारी सौंपी गई है, वो भी तो इसी समाज हैं। वो आज भी अपनी जड़ों और बुनियादी संरचना में निहायत सामंती और मर्दवादी हैं। इसीलिए वो बलात्कार की शिकार लडक़ी से सवाल पूछता है कि वो रेप के बाद सो कैसे सकती है। इसलिए वो फ़ैसला सुनाता है कि औरत की कमजोर ना का मतलब हां होता है।
क़ानून की किताब से इतर पितृसत्ता के तमाम विशेषाधिकार अब भी न्यायालय की चारदीवारी के भीतर सुरक्षित हैं। वो बदलेगा, जब समाज बदलेगा। वरना यही होगा, जो हुआ।
कुछ और कहूं, इससे पहले ये दो किस्से सुन लीजिए।
यूपी बोर्ड की आठवीं की केमिस्ट्री की किताब में एक चैप्टर था, लेड टेट्राऑक्साइड पर। केमिकल नाम था-पीबी304। हिंदी में सीसा कहते हैं। किताब में लिखा था ज़हर होता है। इंसान खा ले तो मर जाए। फिर लिखा था, सिंदूर में यही लेड टेट्राऑक्साइड मिलाया जाता है यानी ज़हर। उस दिन मैंने घर लौटकर मां को बताया कि ये जो आप लगाती हैं रोज, ये जहर है। घर के कुछ मर्दों ने मजाक में कहा, अरे बेटा फिक्र मत करो। ज़हर को जहर ही काटता है। इसका मतलब मुझे तब समझ नहीं आया था।
बचपन में गांव में हमारे यहां नई बहू गौना करके आई थीं। रिश्ते में मेरी चाची लगती थीं। शादी के 10 दिन बाद ही उनका माथा और सिर बुरी तरह सूज गया। वो दिन-रात मेरी मां से चार गुना ज्यादा नारंगी रंग का सिंदूर लगाए रहती थीं। उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि इलाज के लिए इलाहाबाद ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने कहा कि उसे सिंदूर से इंफेक्शन हो गया था। सिंदूर मतलब लेड टेट्राऑक्साइड। मतलब ज़हर।
अब मुद्दे की बात पर आते हैं। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तीन दिन पहले तलाक़ के एक मामले कि सुनवाई के दौरान एक टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि अगर कोई औरत मांग में सिंदूर न लगाए और सुहाग की निशानी शाका-पोला (चूडिय़ां) पहनने से इंकार करे तो इसका मतलब है कि वो अपनी शादी की इज्जत नहीं करती और उस शादी में रहना नहीं चाहती। ऐसी औरत से पति तलाक लेना चाहे तो कोर्ट इस तलाक को मंजूर करती है।
कुल मिलाकर बात ये है कि अगर आपकी पत्नी सुहाग की निशानियां सिंदूर, चूड़ी आदि पहनने से इनकार करे तो इस आधार पर न सिर्फ तलाक मांगा जा सकता है, बल्कि वो आपको थाली में सजाकर मिल भी जाएगा। इतना ही नहीं, कोर्ट अपने बयान में ये भी कहेगा, सिंदूर न लगाने का अर्थ है कि औरत खुद को कुंवारी दिखाना चाहती है।
चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने तलाक के इस मामले में फैसला सुनाते हुए साफ शब्दों में कहा, पत्नी का शाका-पोला और सिंदूर पहनने से इंकार करना उसे कुंवारी दिखाता है। इसका साफ मतलब है कि वह अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।
मर्द सुहाग की निशानी क्यों नहीं पहनते?
हालांकि हाईकोर्ट से पहले फैमिली कोर्ट ने उसे पति को तलाक देने के बजाय लताड़ लगाई थी और यह कहते हुए तलाक देने से इंकार कर दिया था कि पत्नी ने पति के साथ कोई क्रूरता नहीं की है। लेकिन उससे ऊंची अदालत में बैठे दो पुरुष जजों को ऐसा नहीं लगा।
पूछ तो दीपिका पादुकोण रमेश बाबू से रही थीं एक चुटकी सिंदूर की कीमत, लेकिन लगता है कि जज साहब को बेहतर पता है।
ख़ैर, कुछ तीन दशक पीछे चलते हैं। जब टेलीविजन और सिनेमा नया-नया रंगीन हुआ तो अचानक शादी के पहले और शादी के बाद की हिरोइन का फर्क साफ नजर आने लगा।
ब्लैक एंड वाइट सिनेमा में भी मीना कुमारी के माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर होता था, लेकिन वो पर्दे पर ऐसे शोर मचाकर अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज कराता था। मगर सिनेमा रंगीन होते ही माथे के बीचोंबीच की वो लाल लकीर साफ नजर आने लगी।
राजेश खन्ना का बेलबॉटम पैंट तो फेरों के बाद भी वही रहता, मुमताज जरूर लाल परी में तब्दील हो जाती। विनोद मेहरा के शर्ट के दो बटन शादी के बाद भी खुले रहते उसकी छाती के घने बालों का नजारा दिखाते, लेकिन रेखा की लाल लिप्सटिक, लाल बिंदी में एक और लाल रंग जुड़ जाता- मांग में भरा लाल सिंदूर।
इशारा साफ था। ये प्रॉपर्टी अब ऑक्यूपाई हो चुकी है। कृपया इधर नजर न डालें।
चूंकि हीरो तो किसी की प्रॉपर्टी था नहीं। चूंकि उसे देखकर कोई नहीं बता सकता था कि वो कुंवारा है या शादीशुदा तो वो ऑफिस में सेक्रेटरी से लेकर बस स्टॉप पर खड़ी लडक़ी तक सबको लाइन देता चलता था। माथे पर लाल सिग्नल वाली औरतों को छोडक़र।
अदालत ऐसा कैसे सोच सकती है?
हालांकि पश्चिम के सिनेमा का रंग थोड़ा दूसरा है। द अफेयर की शुरुआत ही ऐसे होती है कि लडक़ी एक स्विमिंग पूल में लडक़े से टकराती है। आंखों से इशारा करती है। लेकिन इससे पहले कि वो आगे कुछ कहे, उसकी नजर लडक़े के अंगूठी पर पड़ जाती है और मुंह से निकलता है, ओह... बैड लक।
विदेशी लडक़ा सुहाग की निशानी उंगली में पहनकर घूम रहा है। बेवकूफ बनाने का कोई चांस नहीं। यही तो फर्क़ है। वहां दोनों जेंडर में शादीशुदा होने के लक्षण एकसमान हैं।
यही तो कह रहे हैं न हम। नई बात, नई सोच, नई मांग, नई लड़ाई और क्या है? यही तो कि औरत और मर्द एक बराबर हैं। दोनों के अधिकार बराबर हैं। मर्द का कोई विशेष अधिकार नहीं, औरत का कोई अधिकार मर्द से कम नहीं। एकदम सीधी, सरल बात है।
ये जेंडर बराबरी की किताब का पहला चैप्टर है। एकदम बुनियादी सबक, लेकिन ये पहला सबक भी हमारे मर्दों को अब तक ढंग से याद नहीं हुआ है। लड़कियां तो इस चैप्टर को कब का पार करके आगे पहुंच चुकीं। अब उनके सवाल दूसरे हैं। वो बराबर काम का मर्दों के बराबर पैसा मांग रही हैं। संपत्ति में बराबर का हक मांग रही हैं। उन्होंने चूड़े उतार दिए, सिंदूर पोंछ दिया। वो काम पर जा रही हैं। वो और भी बहुत कुछ मांग रही हैं, जबकि खुद नख-शिख कंवारे नजर आते मर्द अभी भी सिंदूर, बिंदी और चूड़ी में उलझे हुए हैं।
सडक़ चलते मर्द तो उलझे हैं, समझ आता है, लेकिन क्या इस देश के जिम्मेदार फैसलाकुन पदों पर बैठे मर्द भी वहीं उलझे हैं? क्या उन्हें भी लगता है कि एक औरत का सिंदूर न लगाना इतना बड़ा अपराध है कि उसकी सजा तलाक भी हो सकती है?
ये भारत का संविधान नहीं है, ये पितृसत्ता का क़ानून है। ये हमारी सैकड़ों साल पुरानी सड़ी-गली मान्यताओं और परंपराओं का कानून है।
पितृसत्ता से घिरा कानून
ये कानून कागज पर कानून बनाने से नहीं बदलता। ये सोच बदलने से बदलता है, समाज बदलने से बदलता है। ये उनके बदलने से बदलता है, जिन्हें इस कानून ने हमेशा हर हक, हर सुख से वंचित रखा है। ये कानून औरतों के बदलने से बदलता है। जब वो सिंदूर लगाने से इनकार कर देती हैं, बात मानने से इंकार कर देती हैं, आदेश लेने से इनकार कर देती हैं, सिर झुकाने और लात खाने से इंकार कर देती हैं।
बात सिर्फ कागज पर कानून बदलने की होती तो मान ही लेते कि सब बदल गया है। कागज पर अब समलैंगिकता अपराध नहीं है। कागज पर लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिल गई है। कागज पर एडल्टरी भी अपराध नहीं रही।
कागज पर बाप की 500 बीघा ज़मीन में से 250 अब लडक़ी की है। कागज पर लिखा है बराबर की मजदूरी, बराबर का पैसा, बराबर का सब अधिकार। लेकिन कागज़ पर लिख देने और जिंदगी में हो जाने में उतना ही फासला है, जितना चाहने और पा लेने में।
जिन्हें कानून का पालन करने की जि़म्मेदारी सौंपी गई है, वो भी तो इसी समाज हैं। वो आज भी अपनी जड़ों और बुनियादी संरचना में निहायत सामंती और मर्दवादी हैं। इसीलिए वो बलात्कार की शिकार लडक़ी से सवाल पूछता है कि वो रेप के बाद सो कैसे सकती है। इसलिए वो फ़ैसला सुनाता है कि औरत की कमजोर ना का मतलब हां होता है।
क़ानून की किताब से इतर पितृसत्ता के तमाम विशेषाधिकार अब भी न्यायालय की चारदीवारी के भीतर सुरक्षित हैं। वो बदलेगा, जब समाज बदलेगा। वरना यही होगा, जो हुआ।
पति ने तलाक मांगा, जजों ने तलाक दे दिया। हालांकि मंगलवार की सुबह गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक ऊची मेहराब वाले कमरे में एक औरत के लिए सिंदूर न लगाने की ये सजा मुकर्रर करने वाले किसी भी मर्द को देखकर ये कोई नहीं बता सकता था कि वो शादीशुदा हैं या नहीं। (बीबीसी)
माफ कीजिए! ये राम राज्य नहीं है यह जंगलराज है और यही असली जंगलराज है। हम यूपी की ही बात कर रहे हैं जहाँ कानपुर के बिठूर थाना क्षेत्र में कल रात एक 25 हजार के इनामी बदमाश को पकडऩे गए पुलिस दल पर हमला होता है और एक डीएसपी, तीन सब इंस्पेक्टर, और चार सिपाहियों को अपराधियों की गैंग गोलियों से भून देती है। यानी इस खौफनाक घटना में 8 पुलिस कर्मियों की मौत हुई है। इसके अलावा स्थानीय थाना प्रभारी समेत 6 पुलिसकर्मी गोली लगने से घायल है और जिस तरीके से हमला हुआ, उससे आशंका है कि बदमाशों को पुलिस की दबिश की भनक मिल गई थी। जिस कारण उन्होंने तैयारी करके पुलिस पर हमला किया। पुलिस को रोकने के लिए बदमाशों ने पहले से ही जेसीबी वगैरह से रास्ता रोक रखा था। अचानक छत से फायरिंग शुरू कर दी गई। अब तक जो फिल्मों और वेबसीरिज आदि में देखा था अब वह प्रत्यक्ष घटित हो रहा है।
जिस विकास दुबे को ये गिरफ्तार करने गए थे वह कोई छोटा-मोटा अपराधी नहीं था। विकास दुबे उत्तरप्रदेश का कुख्यात बदमाश है। उसने 2001 में थाने में घुसकर भाजपा नेता और राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की हत्या की थी। वह पहले भी थाने में घुसकर पुलिसकर्मी समेत कई लोगों की हत्या कर चुका है। विकास पर 60 से ज्यादा मामले दर्ज हैं। वह प्रधान और जिला पंचायत सदस्य भी रह चुका है। इसके खिलाफ 52 से ज्यादा मामले यूपी के कई जिलों के थानों में चल रहे हैं।
विकास दुबे की यूपी के सभी राजनीतिक दलों में अच्छी पकड़ बताई जाती है, संतोष शुक्ला के मर्डर के बाद पुलिस इसके पीछे पड़ गई। कई माह तक ये फरार रहा और तब सरकार ने इसके सिर पर पचास हजार का ईनाम घोषित कर दिया। पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने के डर के चलते ये अपने खास भाजपा नेताओं की शरण में गया। जहां उन्होंने अपनी कार में बैठाकर इसे लखनऊ कोर्ट में सरेंडर करवाया। कुछ माह जेल में रहने के बाद इसकी जमानत हो गई विकास दुबे वर्तमान में भाजपा के साथ ही जुड़ा था, लेकिन इसी दल के एक विधायक से इसकी नहीं पट रही थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि 2017 में लखनऊ में एसटीएफ ने गिरफ्तार कर लिया था लेकिन यूपी सरकार की लापरवाही की वजह से इसे फिर से जमानत मिल गई और जेल से निकलने के बाद वह फिर से बड़े-बड़े अपराध करने लगा, विकास दुबे के खिलाफ कानपुर के राहुल तिवारी ने हत्या के प्रयास का केस दर्ज कराया था। इसके बाद पुलिस उसे पकडऩे के लिए बिकरू गांव गई थी जहाँ कल रात को यह लोहमर्षक घटना हुई है
साफ दिख रहा है कि योगी आदित्यनाथ के राज्य में अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वह खुलेआम 8 पुलिस कर्मियों की हत्या कर देते हैं। यह घटना राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देती है
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन को लेकर भारत में अत्यंत विचित्र स्थिति है। आज के दिन यह पता लगाना मुश्किल है कि भारत चाहता क्या है ? क्या वह चीन के साथ फौजी संघर्ष चाहता है या बातचीत से सीमाई तनातनी खत्म करना चाहता है या कोई उसकी भावी लंबी-चौड़ी रणनीति है ?
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक चीन का नाम लेकर उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला है। उन्होंने जो बोला है, उसे दोहराने की हिम्मत भारत का कोई नेता नहीं कर सकता है। वे शायद भारतीय जवानों के पराक्रम और बलिदान की प्रशंसा करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने कह दिया कि भारत की सीमा में कोई नहीं घुसा और हमारी जमीन पर कोई कब्जा नहीं हुआ। सरकार, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चीनी माल के बहिष्कार की कोई अपील भी जारी नहीं की है। इससे भी बड़ी बात यह कि भारत और चीन के कोर कमांडर गालवान घाटी में 10-10-12-12 घंटे बैठकर तीन बार बात कर चुके हैं और दोनों पक्ष कह रहे हैं कि वे पीछे हटने के तौर-तरीकों पर बात कर रहे हैं। बात सफल भी हो रही है लेकिन अभी वह लंबी चलेगी। इस प्रगति का समर्थन चीन के बड़बोले और मुंहफट अखबार ‘ग्लोबल टाईम्स’ ने भी किया है।
इन बातों से आप किस नतीजे पर पहुंचते हैं ? इन बातों में आप यह भी जोड़ लें कि अभी तक चीन के राष्ट्रपति और मोदी के मित्र शी चिन फिंग ने भारत के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला है। याने सारा मामला धीरे-धीरे ठंडा हो रहा है लेकिन इसका उल्टा भी हो रहा है। चीन ने कल ही सुरक्षा परिषद में भारत पर कूटनीतिक हमला करने की कोशिश की है।
कराची में हुए बलूच हमले पर पाकिस्तान जो प्रस्ताव लाया, उसके समर्थन में भारत का नाम लिये बिना चीन ने भारत पर उंगली उठा दी है। गालवान घाटी के पास उसने हजारों सैनिक जमा कर लिये है। पाकिस्तान ने भी उसके आस-पास के क्षेत्र में 20 हजार सैनिक डटा दिए हैं। इधर भारत अपनी सभी सरकारी कंपनियों से हो रहे चीनी सौदों को रद्द करता जा रहा है। हमारी गैर-सरकारी कंपनियां भी चीनी पूंजी के बहिष्कार की बात सोच रही हैं। इससे भी बड़ी बात यह हुई कि भारत में लोकप्रिय 59 चीनी ‘एप्स’ पर भारत ने प्रतिबंध लगा दिया है। चीन इस पर बौखला गया है। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो इस मामले में भारत की पीठ ठोक रहे हैं।
फ्रांस-जैसे कुछ राष्ट्रों ने, चाहे दबी जुबान से ही सही, भारत का समर्थन किया है। भारत की जनता इन परस्पर-विरोधी धाराओं का कुछ अर्थ नहीं निकाल पा रही है। हो सकता है कि दोनों देश एक-दूसरे पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबाव बना रहे हैं। आज दोनों इस स्थिति में नहीं हैं कि युद्ध करें।
चीन तो कोरोना की बदनामी और हांगकांग की उथल-पुथल में पहले से ही फंसा हुआ है। भारत यदि चीन को सबक सिखाना चाहता है तो ये तात्कालिक टोटकेबाजी काफी नहीं है। उसके लिए सुदीर्घ, गोपनीय और सुचिंतित रणनीति की जरुरत है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीनी ‘एप्स’ पर लगे प्रतिबंध का लगभग सभी ने स्वागत किया लेकिन हमारी सरकार एक ही दिन में पल्टा खा गई। उसने इन चीनी कंपनियों को 48 घंटे की मोहलत दी है कि वे बताएं कि उन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाए ? इन एप्स पर सरकार के आरोप ये थे कि भारतीय नागरिकों की सब गोपनीय जानकारियां भी इनके द्वारा चीनी सरकार को जाती हैं। इससे भारतीय सुरक्षा को खतरा पैदा होता है और भारत की संप्रभुता नष्ट होती है।
यदि भारत के पास इनके ठोस प्रमाण हैं तो इन चीनी कंपनियों को मोहलत देने की कोई जरुरत ही नहीं थी। यदि बिना ठोस प्रमाणों के भारत सरकार ने यह कार्रवाई कर दी है तो निश्चय ही उसे अपना यह कदम वापस लेना पड़ेगा और इसके कारण उसकी बड़ी बदनामी होगी। विपक्षी दल उसकी खाल नोंच डालेंगे। वे कहेंगे कि चीनी एप्स पर प्रतिबंध की घोषणा वैसी ही है, जैसे लाकडाउन (तालाबंदी) की घोषणा थी या नोटबंदी की घोषणा की गई थी।
यह सरकार बिना सोचे-समझे काम करनेवाली सरकार की तरह कुख्यात हो जाएगी। टिक टॉक के भारतीय संचालक निखिल गांधी ने दावा किया है कि उनकी संस्था सूचना सुरक्षा संबंधी भारतीय कानून का पूरी निष्ठा से पालन करती है और उसने चीनी सरकार को कोई भी जानकारी नहीं लेने दी है। चीनी ‘एप्स’ पर प्रतिबंध लगाने से सरकार को सीधा नुकसान कोई खास नहीं होनेवाला है, लेकिन इनमें काम करनेवाले हजारों भारतीय नागरिक बेरोजगार हो जाएंगे।
उन्होंने शोर मचाना शुरु कर दिया है। उनका कहना है कि आप सिर्फ चीनी ‘एप्स’ पर जासूसी का आरोप लगाते हैं लेकिन क्या अन्य देशों के ‘एप्स’ के जरिए यही काम नहीं होता होगा ? वे तो इस तरह की तकनीक में चीन से कहीं आगे हैं। आपने उन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया ? इन प्रश्नों का सीधा-सा जवाब यह है कि इन प्रतिबंधों को थोपने का जो मकसद था, वह पूरा हो रहा है। गालवान घाटी में चीन को नरम करना जरुरी था। इस प्रतिबंध पर चीनी सरकार बौखला गई है।
भारत सरकार यही चाहती थी। यही दबाव न तो फौजी कार्रवाई करके, न ही राजनयिक दबाव बनाकर और न ही व्यापारिक बहिष्कार करके बनाया जा सकता था। इसमें भारत का कुछ नहीं बिगड़ा और चीन पर दबाव भी पड़ गया। चीन की इन कंपनियों को लगभग 7500 करोड़ का नुकसान भुगतना पड़ सकता है।
मोदी सरकार चीन के आमने-सामने खम फटकारने की बजाय उसे टंगड़ी मारने की कोशिश कर रही है। अब देखें, चीन कौनसी टंगड़ी मारता है ? कौनसा दांव खेलता है ? इस मामले में मैं 16 जून से ही कह रहा हूं कि मोदी को चाहिए कि वह चीनी राष्ट्रपति शी चिन फि़ंग से सीधे बात करें। स्थानीय और अचानक मुठभेड़ के मामला को लंबा और गहरा न करें। जहां तक इन विदेशी ‘एप्स’ (इंटरनेट मंच) का मामला है, चीन समेत सभी देशों के ‘एप्स’ पर भारत-सरकार कड़ी निगरानी रखे। इन पर भारत-विरोधी और अश्लील सामग्री बिल्कुल न जाने दे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुनीता नारायण
यह हमारे जीवनकाल का सबसे अजीब एवं संकटग्रस्त समय है। लेकिन साथ ही साथ यह सर्वाधिक भ्रमित करने वाला भी है। ऐसा लगता है, जैसे कोरोना वायरस की वजह से हमें इंसानियत के सबसे अच्छे और बुरे, दोनों पहलू देखने को मिल रहे हैं। सबसे पहले तो न केवल दिल्ली में बल्कि विश्वभर से हवा के साफ होने की खबरें आ रही हैं।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट के भी संकेत प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा मानवीय दृढ़ता, समानुभूति एवं इन सबसे बढक़र स्वास्थ्य एवं आवश्यक सेवाओं के लिए काम करने वाले लाखों लोगों के निस्वार्थ कार्य का प्रमाण प्राप्त हुआ है। इस वायरस के खिलाफ चल रहे युद्ध को किसी भी सूरत में जीतने एवं लोगों की जानें बचाने का जज्बा ही कोविड -19 की लड़ाई का हॉलमार्क बनेगा।
दूसरी ओर, इस वायरस से लडऩे के क्रम में हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे प्लास्टिक की मात्रा में आशातीत वृद्धि हुई है। देश में कई शहर ऐसे हैं, जो अब कचरा अलग करने की प्रक्रिया बंद कर रहे हैं, क्योंकि लगातार बढ़ते मेडिकल कचरे और प्लास्टिक के व्यक्तिगत सुरक्षा किट (पीपीई) की संख्या के सामने सफाई कर्मचारी बेबस हैं। तो कह सकते हैं कि हम इस लड़ाई में पीछे जा रहे हैं। इसके अलावा, लोग सार्वजनिक परिवहन के साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं। उन्हें डर है कि भीड़भाड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा। इसलिए, जैसे-जैसे लॉकडाउन खुलेगा, शहरों की सडक़ों पर निजी वाहनों की संख्या में निश्चय ही बढ़ोतरी होगी। इससे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार जीवाश्म इंधनों से होने वाला उत्सर्जन भी बढ़ेगा।
यह वह समय भी है जब हम मानवता को उसके सबसे बुरे रूप में देख रहे हैं। चाहे गरीबों को पैसे एवं भोजन उपलब्ध कराने में हुई देरी हो, जिनमें वो प्रवासी मजदूर शामिल हैं, जो नौकरियां छूट जाने की वजह से घर जाने को परेशान थे या जनता को जाति, धर्म एवं नस्ल के नाम पर बांटने की कोशिशें हों या फिर वैसे लोग हों, जिन्होंने अपने सगे संबंधी खो दिए, क्योंकि उन्हें समय पर चिकित्सकीय मदद नहीं मिल पाई। इन दिनों यह सब देखने को मिल रहा है। लेकिन हमें भविष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए क्योंकि कोरोना की इस रात का सवेरा भी अवश्य होगा और हम जिस दुनिया का निर्माण अभी करते हैं वही हमारा भविष्य होगा। साथ ही साथ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह कोरी बयानबाजी नहीं है और न ही सत्य की कोई लंबी खोज है। असंभव को संभव करना समय की मांग है और आज जब हम इस स्वास्थ्य संकट के चरम पर पहुंच चुके हैं, हमें काम करने के नए तरीके ढूंढने होंगे।
हम हालात के सामान्य होने का इंतजार नहीं कर सकते, क्योंकि तब यह न तो नया होगा और न ही अलग। और यह संभव है, हमें आवश्यकता है तो बस ऐसे रचनात्मक उत्तर ढूंढने की जो कई चुनौतियों से एकसाथ निपट सकें। उदाहरण के लिए शहरों में होने वाले वायु प्रदूषण को लें। हम जानते हैं कि हवा में विषाक्त पदार्थों के उत्सर्जन के लिए वाहन सबसे अधिक जिम्मेवार हैं। सबसे अधिक प्रदूषण माल लेकर शहरों में आवाजाही करने वाले हेवी ड्टी ट्रकों से फैल यू ता है।
जनवरी (प्री-लॉकडाउन) में, हर महीने तकरीबन 90,000 ट्रकों ने दिल्ली में प्रवेश किया, वहीं अप्ल में रै (लॉकडाउन के दौरान) शहर में प्रवेश करने वाले ट्रकों की संख्या घटकर 8,000 रह गई। अब जैसे-जैसे लॉकडाउन खुलता है, आखिर हम ऐसा क्या कर सकते हैं, जिससे प्रदूषण लॉकडाउन के पहले वाले स्तर पर ही रहे ? दरअसल लॉकडाउन के दौरान भारत ने स्वच्छ ईंधन एवं वाहन तकनीक की तरफ एक कदम बढ़ाया है। हेवी ड्टी ट्रकों की बा यू त की जाए तो अप्ल के पहले रै के बीएस-4 मॉडलों एवं वर्तमान के बीएस-6 मॉडलों के प्रदूषण की मात्रा में नब्बे प्रतिशत का अंतर आता है।
यह भी सच है कि ऑटोमोबाइल उद्योग बड़े पैमाने पर वित्तीय संकट झेल रहा है। यह हमारे लिए एक अवसर बन सकता है। अगर सरकार अपने पुराने वाहनों को नए से बदलने के लिए ट्रक मालिकों को सब्सिडी देने की एक स्मार्ट योजना तैयार कर ले तो यह गेम चेंजर साबित हो सकता है। लेकिन साथ ही साथ यह सुनिश्चित भी करना होगा कि पुराने ट्रकों को कबाड़ में बदलकर उन्हें रिसाइकिल किया जाए, ताकि उनसे और प्रदूषण न फैले।
सार्वजनिक परिवहन के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात हैं, सुरक्षा का दबाव लगातार बना हुआ है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि सार्वजनिक परिवहन के बिना हमारे शहर ठप हो जाएंगे। हमें अब जाकर इसके महत्व का एहसास हुआ है। इसलिए, भविष्य के ऐसे शहरों का पुनर्निर्माण करने के लिए, जो गाडिय़ों नहीं, बल्कि इंसानों के आवागमन को ध्यान में रखकर बनाए गए हों, का समय आ चुका है और सरकार से वित्तीय प्रोत्साहन अपेक्षित है।
हमें सभी सावधानियों के साथ सार्वजनिक परिवहन को फिर से शुरू करने की आवश्यकता है। हमें इसे तेजी से इस तरह बढ़ाना है, जिससे साइकिल चालकों एवं पैदल चलने वालों को भी साथ लेकर चला जा सका। आंकड़ों से पता चलता है कि हमारी रोजमर्रा की यात्राओं का एक बड़ा हिस्सा 5 किमी से कम का है। इसलिए ऐसा किया जाना संभव है। लेकिन आज हमने विघटन के जिस पैमाने को देखा है, वह इसी तरह के पैमाने पर प्रतिक्रिया की मांग करता है। यह किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए कल्पनाशीलता के साथ-साथ ठोस, जुनूनी कारवाई की जरूरत है। जहां तक उद्योगों एवं उनसे होने वाले प्रदूषण की बात है तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि ये उद्योग किस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए, अगर हम ईंधन के तौर पर कोयले की जगह प्राकृतिक गैस के प्रयोग की ओर कदम बढ़ा सकें तो इससे प्रदूषण में भारी कमी आएगी। उसके बाद अगर हम ईंधन के तौर पर विद्युत का इस्तेमाल करें और वह विद्युत प्राकृतिक गैस एवं हाइडेल, बायोमास इत्यादि जैसे स्वच्छ साधनों से मिले तो प्रदूषण के स्तरों में स्थानीय स्तर पर कमी तो आएगी ही, साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर भी लगाम लगेगी।
एक बार फिर मैं कहना चाहूंगी कि यह सब संभव है। लेकिन यह सब इस विश्वास पर आधारित है कि हम एक बेहतर कल चाहते हैं। कोविड-19 केवल एक भूल या दुर्घटना नहीं है, बल्कि यह उन कार्यों का एक परिणाम है जो हमने एक ऐसी दुनिया के निर्माण के लिए उठाए हैं, जो असमान और विभाजनकारी है और प्रकृति व हमारे स्वास्थ्य को नजरंदाज करती हैं। तो इस मुगालते में न रहें कि कल बेहतर होगा, यह बेहतर होगा और बेहतर हो सकता है, लेकिन तभी अगर हम स्वयं इस दिशा में कदम उठाएं।
(डाउन टू अर्थ)
कुछ लेखकों-बुद्धिजीवियों का एक वर्ग गांधी को नस्लवादी और जातिवादी साबित करना चाहता है। आरोप है कि उन्होंने भारत के दलित हितों को क्षति पहुंचाई। ये लोग उनकी पूरी जीवन यात्रा की बात नहीं कर रहे, बल्कि उनके शुरूआती लेखन के चुनिंदा अंशों का हवाला दे रहे हैं।
- राम पुनियानी
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दुनिया के सबसे बड़े जनांदोलन का नेतृत्व किया था। यह जनांदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध था। गांधीजी के जनांदोलन ने हमें अन्यायी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए दो महत्वपूर्ण औजार दिए- अहिंसा और सत्याग्रह। उन्होंने हमें यह सिखाया कि नीतियां बनाते समय हमें समाज की आखिरी पंक्ति के अंतिम व्यक्ति का ख्याल रखना चाहिए।
जिन विचारों के आधार पर उन्होंने अपने आंदोलनों को आकार दिया, वे विचार गांधीजी अपनी मां के गर्भ से साथ लेकर नहीं आए थे। वे विचार समय के साथ विकसित हुए और उन्हीं विचारों ने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन की नींव रखी। वे कहा करते थे कि उनका जीवन ही उनका संदेश है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, दुनिया भर के औपनिवेशिकता और नस्लवाद विरोधी आंदोलनों की प्रेरणा बना। वे भारत में सामाजिक समानता की स्थापना के पैरोकार थे और जाति प्रथा का उन्मूलन उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य था।
ये बातें याद दिलाना आज इसलिए जरूरी हो गया है, क्योंकि लेखकों और बुद्धिजीवियों का एक तबका उन्हें नस्लवादी और जातिवादी साबित करने पर तुला हुआ है। यह कहा जा रहा है कि उन्होंने भारत के दलितों के हितों को क्षति पहुंचाई। ये तत्व महात्मा गांधी की पूरी जीवन यात्रा को समग्र रूप में नहीं देख रहे हैं और उनके शुरूआती लेखन के चुनिंदा अंशो का हवाला दे रहे हैं। वे उनके जीवन के केवल उस दौर की बात कर रहे हैं, जब वे नस्ल और जाति के नाम पर समाज में व्याप्त अन्यायों के विरुद्ध लड़ रहे थे।
हाल में जॉर्ज फ्लॉयड की क्रूर हत्या के बाद शुरू हुए ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आन्दोलन के दौरान, अमरीका में कुछ प्रदर्शनकारियों ने गांधीजी की मूर्ति को नुकसान पहुंचाय। इसके पहले, घाना में उन्हें नस्लवादी करार देते हुए उनकी एक मूर्ति को उखाड़ फेंका गया था और ‘रोड्स मस्ट फाल’ की तर्ज पर ‘गांधी मस्ट फाल’ आन्दोलन चलाया गया था। जबकि गांधी को किसी भी स्थिति में रोड्स जैसे अश्वेतों को गुलाम बनाने में मुख्य भूमिका अदा करने वालों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।
गांधीजी के बारे में गलत धारणाओं के मूल में है केवल उनके शुरूआती लेखन पर जोर। दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों को उनका हक दिलाने के लिए शुरू किये गए अपने आन्दोलन के दौरान गांधी ने कुछ मौकों पर अश्वेतों के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। ये शब्द वे थे जिन्हें औपिनिवेशिक आकाओं ने गढ़ा था, जैसे ‘अफ्रीकन सेवेजिस’ (अफ्रीकी जंगली)। दक्षिण अफ्रीका के भारतीय श्रमजीवियों के पक्ष में आवाज उठाते हुए उन्होंने कहा था कि औपनिवेशिक शासक, भारतीयों के साथ ‘अफ्रीकन सेवेजिस’ जैसा व्यवहार कर रहे हैं।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हकों की लडाई के समांतर उन्होंने वहां के अश्वेतों की दयनीय स्थिति को भी समझा और उनके दर्द का अहसास करने के लिए उन्होंने यह तय किया कि वे केवल थर्ड क्लास में यात्रा करेंगे। इसके काफी समय बाद उन्होंने कहा था कि अश्वेतों के साथ भी न्यायपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। नस्लवाद के संबंध में उनकी सोच का निचोड़ उनके इस वाक्य में है, “अगर हम भविष्य की बात करें तो क्या हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए विरासत में एक ऐसी सभ्यता नहीं छोड़नी चाहिए जिसमें सभी नस्लों का समिश्रण हो- एक ऐसी सभ्यता जिसे शायद विश्व ने अब तक नहीं देखा है।”
यह बात उन्होंने 1908 में कही थी। समय के साथ उनके विचार विकसित और परिपक्व होते गए और 1942 में उन्होंने रूजवेल्ट को एक पत्र में लिखा, “मेरा विचार है कि मित्र देशों का यह दावा कि वे दुनिया में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए लड़ रहे हैं तब तक खोखला जान पड़ेगा जब तक कि ग्रेट ब्रिटेन भारत और अफ्रीका का शोषण करता रहेगा और अमरीका में नीग्रो समस्या बनी रहेगी।”
गांधी के नस्लवादी होने के आरोपों का सबसे अच्छा जवाब नेल्सन मंडेला ने दिया था। उन्होंने लिखा था, 'गाँधी को इन पूर्वाग्रहों के लिए क्षमा किया जाना चाहिए और हमें उनका मूल्यांकन उनके समय और परिस्थितियों को ध्यान में रख कर करना चाहिए। हम यहां एक युवा गांधी की बात कर रहे हैं जो तब तक महात्मा नहीं बने थे।'
जाति का मसला भी उतना ही टेढ़ा है। अपने जीवन के शुरूआती दौर में गांधीजी ने काम पर आधारित वर्णाश्रम धर्म की वकालत की। उन्होंने मैला साफ करने के काम का महिमामंडन किया और दलितों को हरिजन का नाम दिया। कई दलित बुद्धिजीवी और नेता मानते हैं कि गांधीजी ने मैकडोनाल्ड अवार्ड के अंतर्गत दलितों को दिए गए पृथक मताधिकार का विरोध कर दलितों का अहित किया।
जबकि गांधीजी साफतौर पर इस निर्णय को भारतीय समाज को विभाजित करने की चाल मानते थे। उनका ख्याल था कि इससे भारतीय राष्ट्रवाद कमजोर पड़ेगा। इसलिए उन्होंने इसके खिलाफ आमरण अनशन किया जो तभी समाप्त हुआ जब आंबेडकर ने आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
जहां कई नेता और बुद्धिजीवी इसे महात्मा गांधी द्वारा दलितों के साथ विश्वासघात मानते हैं, वहीं आंबेडकर ने गांधीजी को इस बात के लिए धन्यवाद दिया था कि उन्होंने आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के जरिये दलितों को और अधिक आरक्षण देकर समस्या का संतोषजनक हल निकाला। उन्होंने लिखा, 'मैं महात्मा गांधी का आभारी हूं। उन्होंने मेरी रक्षा की।'
आंबेडकर के निकट सहयोगी भगवान दास ने आंबेडकर के भाषण को उद्धृत करते हुए लिखा कि 'बातचीत की सफलता का श्रेय महात्मा गांधी को दिया जाना चाहिए। मुझे यह स्वीकार करना ही होगा कि जब मैं महात्मा से मिला तब मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ, घोर आश्चर्य हुआ, कि मुझमें और उनमें कितनी समानताएं हैं।'
संयुक्त राष्ट्रसंघ में 2009 में हुई एक बहस में नस्ल और जाति को एक समान माना गया था। दोनों मामलों में गांधीजी, जो मानवीयता के जीते-जागते प्रतीक थे, ने शुरुआत उन शब्दावलियों के प्रयोग से की जो तत्समय प्रचलित थीं। जैसे-जैसे सामाजिक मुद्दों से उनका सरोकार बढ़ता गया उन्होंने नस्लवाद और जातिवाद के सन्दर्भ में नए शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। जाति के प्रश्न पर वे आंबेडकर के विचारों से बहुत प्रभावित थे और उनके प्रति गहरा जुड़ाव रखते थे। यहां तक कि उन्होंने सिफारिश की थी कि आंबेडकर की किताब ‘जाति का उन्मूलन’ सभी को पढ़नी चाहिए।
नस्लवाद के मुद्दे पर उन्होंने उतनी गहराई से विचार नहीं किया, जितना कि जातिवाद पर। अस्पृश्यता के विरुद्ध उनके अभियान ने आंबेडकर के प्रयासों को बढ़ावा दिया। नेहरु ने आंबेडकर को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर उन्हें नीति निर्माण करने का अवसर प्रदान किया। नेहरु ने समान नागरिक संहिता का मसविदा तैयार करने की जिम्मेदारी भी आंबेडकर को सौंपी और महात्मा गांधी की अनुशंसा और सलाह पर ही आंबेडकर को संविधान की मसविदा समिति का मुखिया नियुक्त किया गया।
केवल वे लोग ही गांधी पर नस्लवादी या जातिवादी होने का आरोप लगा सकते हैं जो उनके जीवन के केवल उस दौर पर फोकस करते हैं जब महात्मा अपने मूल्यों और विचारों को आकार दे रहे थे। आगे चल कर गांधीजी ने संकीर्ण सामाजिक प्रतिमानों को त्याग दिया और एक ऐसे राष्ट्रीय और वैश्विक बंधुत्व की स्थापना का स्वप्न देखा जिसमें नस्ल और जाति के लिए कोई जगह नहीं होगी।
(लेख का हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)
-श्रवण गर्ग
एक सौ तीस करोड़ की देश की कुल आबादी में अगर अस्सी करोड़ लोगों को सरकार द्वारा दिए जाने वाले मुफ़्त के अनाज की ज़रूरत है वरना उन्हें या तो भूखे पेट रहना पड़ेगा या फिर आधे पेट सोना पड़ेगा तो क्या यह स्थिति अत्यंत भयावह नहीं है? क्या मुल्क के बाक़ी बचे कोई पचास करोड़ नागरिकों को देश की इस हकीकत का पहले से पता था या फिर उन्हें भी पहली बार ही आधिकारिक रूप से जानकारी हुई है और वह भी प्रधानमंत्री के द्वारा।इस का खुलासा प्रधानमंत्री ने मंगलवार को अपने सोलह मिनट और नौ सौ साठ शब्दों के सम्बोधन में किया। कोरोना काल के अपने छठे सम्बोधन में नरेंद्र मोदी की राष्ट्र के नाम सबसे महत्वपूर्ण घोषणा यही मानी जा सकती है कि ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ जो पूर्व में कोरोना संकट के पहले तीन महीनों के लिए ही प्रारम्भ की गयी थी उसे अब छठ पूजा के पर्व यानी नवम्बर अंत तक के लिए बढ़ाया जा रहा है। नवम्बर तक बिहार में चुनाव भी सम्पन्न होने हैं। इसी राज्य में लॉक डाउन के बाद कोई अठारह लाख प्रवासी मज़दूर बुरी हालत में अपने परिवार जनों के पास वापस भी लौटे हैं जो चुनावों को प्रभावित कर सकते हैं। नवम्बर के बाद इन अस्सी करोड़ लोगों का क्या होनेवाला है अभी खुलासा होना बाकी है। पेट की भूख तो नवम्बर के बाद भी इसी तरह से जारी रहने वाली है।
देश में अगर अस्सी करोड़ लोगों के परिवार मुफ़्त के सरकारी अनाज(प्रति व्यक्ति पाँच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल प्रति माह) पर ही जीवन जीने को निर्भर हैं तो भारत में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारों की कुल संख्या का अनुमान भी लगाया जा सकता है। साथ ही यह भी कि आज़ादी के बाद के तिहत्तर वर्षों, जिनमें कि वर्तमान सरकार के पिछले छह वर्ष भी शामिल हैं, हमने कितनी तरक्की की है! इस नयी जानकारी के बाद विदेशों में बसने वाले लाखों-करोड़ों भारतीय हमारी उपलब्धियों पर अपना सिर कितना ऊँचा कर पाएँगे ? प्रधानमंत्री ने गर्व के साथ बताया कि मुफ़्त अनाज सहायता प्राप्त करने वालों की संख्या अमेरिका की कुल आबादी से ढाई गुना, ब्रिटेन से बारह गुना और युरोपियन यूनियन की जनसंख्या से दुगनी है।प्रधानमंत्री की घोषणा का जवाब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने इस ऐलान से किया कि वे अगले साल जून तक मुफ़्त चावल-दाल बाटेंगी यानी कि विधानसभा चुनावों तक।उन्होंने यह भी दावा किया है कि उनका चावल दिल्ली से ज़्यादा साफ़ है।अन्य राज्य सरकारों की घोषणाएँ बाक़ी हैं।
कृषि विशेषज्ञ और आमतौर पर सरकार की कथित किसान-विरोधी नीतियों के कठोर आलोचक देविंदर शर्मा ने भी प्रधानमंत्री की घोषणा का यह कहते हुए स्वागत किया है कि ‘एक तरफ़ अनाज का भरपूर भंडार है और दूसरी तरफ़ करोड़ों लोग भूखे हैं अत: यह कदम सराहनीय है।’ कोई भी इससे ज़्यादा कुछ कहने या पूछने की कोशिश नहीं करना चाहता।देश में जब दो तिहाई लोग अपना पेट भरने के लिए सरकार का मुँह ताक रहे हों और आधे या ख़ाली पेट रहकर ही कोरोना से लडऩे के लिए अपनी इम्यूनिटी बढ़ाने में भी जुटे हों तो वे क्यों और कैसे जान पाएँगे कि लद्दाख़ कहाँ है और चीन के साथ वहाँ क्या झगड़ा चल रहा है।अत: उचित रहा होगा कि प्रधानमंत्री ने भी अपने संदेश में चीन के साथ चल रहे तनाव का कोई जि़क्र ही नहीं किया।राहुल गांधी बेवजह ही हाय-तौबा मचा रहे हैं कि प्रधानमंत्री इधर-उधर की बातें करके देश का ध्यान भटका रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने अपने संदेश में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि लॉक डाउन के दौरान नागरिकों ने जिस सतर्कता का पालन किया था वह अब लापरवाही में परिवर्तित होता दिख रहा है जबकि उसकी इस समय और भी ज़्यादा ज़रूरत है।पूछा जा सकता है कि क्या पेट की भूख का थोड़ा बहुत सम्बंध इस बात से नहीं होता होगा कि लोग उसी अनुशासन की अब सविनय अवज्ञा कर रहे हैं जो उनपर बिना पर्याप्त सरकारी तैयारी किए और उन्हें भी करने का मौक़ा दिए बग़ैर अचानक से आरोपित कर दिया गया था ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जनता अपने प्रधानमंत्री के कहे के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होती जा रही है, उनके कहे का ठीक से पालन नहीं कर रही है और इनमें वे बाक़ी पचास करोड़ भी शामिल हैं जिन्हें मुफ़्त का अनाज नहीं चाहिए ? प्रधानमंत्री के दूसरे कार्यकाल का अभी पहला ही साल ख़त्म हुआ है।चार साल अभी और बाक़ी हैं।
दवाईयां इकट्ठा कर चैरिटेबल डॉक्टर्स तक पहुँचाना
“हमारे आस-पास बहुत से लोग हैं जो मदद करना चाहते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि कैसे करें। वहीं दूसरी तरफ, बहुत से लोगों को मदद की ज़रूरत है। हम इन दोनों तबकों के बीच का सेतु बनाना चाहते हैं ताकि सही मदद सही लोगों तक पहुँच सके।”
- निशा डागर
अक्सर लोगों के बीमारी से ठीक होने के बाद, उनकी बहुत-सी दवाईयां बच जाती हैं। ज़्यादातर घरों में आपको ऐसी बहुत-सी ऐसी दवाईयां मिल जाती हैं। कुछ समय बाद, हम इन दवाईयों को डस्टबिन का रास्ता दिखा देते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि जिस तरह इंजेक्शन की सूई का सही तरह से डिस्पोजल ज़रूरी है, वैसे ही दवाईयों का डिस्पोजल भी ज़रूरी होता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, भारत के रजिस्टर्ड हेल्थकेयर सेक्टर से प्रति दिन लगभग 4,057 टन मेडिकल वेस्ट उत्पन्न होता है। साथ ही, भारत पूरे विश्व के लिए दवाओं के उत्पादन का केंद्र रहा है, लेकिन दवाइयों का सही निपटान न होना एक गंभीर समस्या है। दक्षिण भारत के एक इंडस्ट्रियल इलाके से मिले वेस्टवाटर के टेस्ट में एंटीबायोटिक की मात्रा काफी अधिक थी। सिप्रोफ्लोक्सासिन जैसे लगभग 21 दवाईयां इतनी ज्यादा मात्रा में इस पानी में छोड़ी गईं कि इन दवाईयों से लगभग 90,000 लोगों का इलाज किया जा सकता था।
हमारे देश की विडंबना यही है कि एक तबके के पास इतना ज्यादा है कि उनके यहाँ महंगी से महंगी दवाईयां भी कचरे में जाती है। तो वहीं, एक तबका इतना गरीब है कि वे दवाईयों पर शायद दस रुपये भी खर्च नहीं कर सकते। लेकिन अच्छी बात यह है कि इन दोनों तबकों के बीच इस खाई को पाटने का काम मुंबई के तीन युवा कर रहे हैं।
युग सांघवी, कृष्य मनियार और अयान शाह, तीनों दोस्त धीरुभाई अम्बानी इंटरनेशनल स्कूल में 12वीं कक्षा के छात्र हैं। ये तीनों मिलकर, ‘शेयर मेड्स’ नाम से एक अभियान चला रहे हैं, जिसके अंतर्गत ये समृद्ध तबके के घरों से बची हुई, लेकिन बिल्कुल सही दवाईयां लेकर चैरिटेबल क्लीनिक्स को देते हैं ताकि वहां से ये ज़रूरतमंद लोगों तक पहुँच सकें। इससे ज़रूरतमंदों की मदद भी हो रही है और साथ ही, मेडिकल वेस्ट भी कहीं न कहीं कम हो रहा है।
Ayaan Shah, Krishay Maniar, and Youg Sanghavi, Founders of ShareMeds
युग बताते हैं कि शेयरमेड्स की कहानी उनके दादाजी से शुरू होती है। उनके दादाजी को कैंसर डिटेक्ट हुआ और उनके परिवार ने हर संभव इलाज़ कराया। इस बीच उन्होंने कई उतार-चढाव देखे। “उनकी दवाईयां बहुत महंगी थीं। मैं एक समृद्ध परिवार से हूँ तो हम सारा खर्च मैनेज कर पाए। लेकिन उस समय मेरे दिमाग में आया कि गरीब लोग कैसे इतना कुछ मैनेज करते होंगे। इस एक विचार से मुझे लगा कि क्या हम कुछ कर सकते हैं और वहां से मैंने एक कजिन के साथ मिलकर ‘शेयरमेड्स’ का सफ़र शुरू किया,” उन्होंने आगे बताया।
साल 2017 से युग और उनके कजिन ने अपने स्तर पर लोगों से उनके घरों में बची हुई दवाईयां इकट्ठा करना शुरू किया। उनका उद्देश्य इन दवाईयों को इकट्ठा करके इन्हें चैरिटेबल डॉक्टर्स तक पहुँचाना था। युग अपने लेवल पर काम कर रहे थे और लोगों को इस बारे में जागरूक भी कर रहे थे कि कैसे उनकी ये मदद ज़रूरतमंद लोगों के काम आ सकती है।
साल 2019 में युग के इस सफर में उनके दोस्त, कृष्य और अयान भी जुड़ गए और तब से ये तीनों मिलकर इस अभियान को हर दिन बड़ा बनाने में जुटे हुए हैं। कृष्य बताते हैं कि फ़िलहाल वे बांद्रा, घाटकोपर, सांताक्रुज़ के इलाकों में काम कर रहे हैं।
समृद्ध और ज़रूरतमंदों के बीच बने सेतु:
Collecting Medicines
अअयान बताते हैं कि उनके इस अभियान के मुख्य दो काम है- पहला, दवाईयां इकट्ठा करना और दूसरा, इन दवाईयों को चैरिटेबल क्लिनिक्स और ट्रस्ट आदि तक पहुँचाना। लेकिन इसके पूरी प्रक्रिया में और भी बहुत-से ज़रूरी स्टेप्स हैं जिन्हें वे फॉलो करते हैं।
“सबसे पहला काम होता है लोगों को जागरूक करना। शुरुआत में, हम घर-घर जाकर दवाईयां इकट्ठा करते थे, पहले लोगों को बताते कि हम क्या कर रहे हैं और फिर उनके यहाँ से दवाईयां लेते। लेकिन अभी हम अलग-अलग जगह ड्राइव्स करते हैं,” युग ने बताया।
शेयर मेड्स मुंबई के अलग-अलग इलाकों में अब तक 14 ड्राइव्स कर चूका है, जिनमें मलाड, वोर्ली जैसे इलाके भी शामिल हैं। अपनी प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए अयान आगे बताते हैं, “हम जिस सेक्टर में काम कर रहे हैं, वहां हमें हर चीज़ का बहुत ध्यान रखना होता है। सबसे पहले तो हम उन दवाईयों को लेते हैं, जिनका बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं हुआ है और जिनकी एक्सपायरी तारीख बहुत बाद की है। इसके अलावा, दवाईयां अच्छे से पैक है इस बात को भी ध्यान में रखा जाता है। ख़ासतौर पर, सिरप आदि के मामले में, बिना सील पैक्ड सिरप हम नहीं लेते।”
कृष्य की माँ डॉक्टर हैं और उनके मार्गदर्शन में ही दवाईयों को इकठ्ठा करने के बाद अलग-अलग करके उनका कैटेलॉग तैयार किया जाता है। ताकि उनके पास एक रिकॉर्ड रहे। सभी दवाईयों को अच्छे से चेक किया जाता है और उसके बाद ही चैरिटेबल ट्रस्ट और क्लीनिक्स को दिया जाता है। यहाँ पर भी दवाईयां फिर से चेक होती हैं और उसके बाद ही मरीज़ों को दी जाती हैं।
युग कहते हैं कि कृष्य की माँ के डॉक्टर होने से उन लोगों को इस अभियान में काफी मदद मिल रही है। साथ ही, उनके फैमिली डॉक्टर्स भी उनके इस काम की सराहना करते हुए, उन्हें ऐसे डॉक्टरों से जोड़ रहे हैं, जो गरीब तबके के लिए काम करते हैं। बहुत-से डॉक्टर मुंबई के आस-पास के गांवों और कच्ची बस्तियों में लोगों के लिए मुफ्त मेडिकल कैंप लगाते हैं।
कृष्य कहते हैं कि पिछले एक साल में उन्होंने लगभग 15 हज़ार टेबलेट स्ट्रिप्स जमा करके दान की हैं। इनमें बुखार से लेकर सभी तरह की विटामिन आदि तक की दवाईयां थीं।
सफ़र की चुनौतियाँ:
कृष्य आगे बताते हैं कि उनके इस अभियान में कोई बहुत बड़ी इन्वेस्टमेंट नहीं है औरे जो थोड़ी-बहुत है, उसे वे तीनों आसानी से मैनेज कर लेते हैं। लेकिन इसके अलावा, उन्हें कई बार परेशानियों का सामना करना पड़ा। उन्होंने बताया कि कई बार लीगल परेशानियां हुईं। जैसे उन्होंने दवाईयां तो इकट्ठा कर लीं लेकिन जब बारी इन दवाईयों को क्लीनिक्स में देने की आई तो बहुत-सी जगह उन्हें मना कर दिया गया। हर कोई उनसे यही कहता कि अगर कुछ गलत हो गया तो।
“हमने क्लीनिक्स के डॉक्टरों से बात की, उन्हें हमारा उद्देश्य समझाया और उनसे कहा कि वे खुद दवाईयां चेक कर सकते हैं। काफी मुश्किलों के बाद, हर एक चीज़ जांचकर क्लीनिक्स ने हमारी दवाईयां लीं। लेकिन अब स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है क्योंकि अब हम नियमित रूप से लगभग 5 चैरिटेबल क्लीनिक्स को ये दवाईयां पहुँचा रहे हैं,” उन्होंने आगे कहा।
उनके इस अभियान पर लोगों की प्रतिक्रिया के बारे में बात करते हुए युग ने हमारे साथ एक किस्सा साझा किया। वह कहते हैं, “एक ड्राइव के दौरान हमें एक महिला ने कहा कि कुछ दिन पहले उनके पिता का देहांत हुआ है और उनके काफी इंजेक्शन घर पर बिना इस्तेमाल के बची हुई हैं। जब हम उनके घर पहुंचे तो उन्होंने सभी दवाईयां काफी अच्छे से छांटकर हमें दीं और साथ ही, वह बता रहीं थीं कि किस दवाई को किस लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। उस दिन हमें लगा कि बहुत से लोग हैं जो अपना दुःख भुलाकर लोगों की मदद करना चाहते हैं, उन्हें बस एक ज़रिया चाहिए।”
वहीं दूसरी तरफ, अयान ने बताया कि कैसे एक बार, एक रिक्शावाला उनके और उनकी मां के पास आया था क्योंकि उसे अपनी पत्नी के लिए आँखों की दवाई आवश्यकता थी। लेकिन वह उसे खरीद पाने में असमर्थ था और अयान ने उनकी मदद की। वह कहते हैं कि उनका उद्देश्य इसी गैप को भरना है। जो लोग मदद करना चाहते हैं और जिन्हें मदद की ज़रूरत है, उनके बीच एक सेतु का काम कर रहे हैं।
आगे की योजना:
फ़िलहाल, कोरोना वायरस के चलते उनका यह काम बंद हैं। लेकिन इस लॉकडाउन में भी ये तीनों अपनी तरफ से ज़रूरतमंदों की हर संभव मदद कर रहे हैं। उन्होंने दवाईयों का कलेक्शन अभी रोका हुआ है। लेकिन इसके बदले उन्होंने गरीब लोगों को मास्क, सैनीटाइज़र आदि बांटना शुरू किया।
“सोसाइटी के गार्ड से लेकर सब्ज़ी बेचने वालों तक, हमने बहुत से लोगों को मास्क आदि बांटे हैं। इसके अलावा, हमने डॉक्टरों के साथ वीडियो इंटरव्यू भी करना शुरू किया है ताकि कोविड-19 से संबंधित मिथकों के बारे में लोगों को जागरूक करें,” उन्होंने आगे बताया।
जैसे ही परिस्थितियाँ ठीक होंगी, शेयरमेड्स की टीम एक बार फिर अपने अभियान में जुट जाएगी। आगे उनका उद्देश्य इस अभियान को और बड़े स्तर पर लेकर जाना है, जहां वे ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद कर सकें। अगर आप इनके अभियान के बारे में अधिक जानना चाहते हैं और कोई मदद करना चाहते हैं तो उनके फेसबुक पेज पर संपर्क कर सकते हैं! (hindi.thebetterindia.com)
शेख और परिवार 3 दशक से मंदिर की देख-रेख कर रहे हैं.
-सुहैल ए शाह
ग़ुलाम नबी शेख़ की वजह से यह विश्वास कर पाना मुश्किल है कि कश्मीर के अनंतनाग जिले में स्थित इस मंदिर में सालों से किसी ने पूजा-अर्चना नहीं की है
पिछले करीब 30 सालों से ग़ुलाम नबी शेख रोज़ फ़जर की नमाज़ मस्जिद में पढ़ने के बाद उनके घर के पास ही स्थित ज़यादेवी (जयदेवी) मंदिर का रुख करते हैं. पूरे मंदिर का जायजा लेकर जब उन्हें संतुष्टि हो जाती है कि हर चीज़ अपनी जगह पर ही है और सही है, तभी वे अपने घर लौट कर नाश्ता करते हैं.
65 साल के शेख और उनका परिवार दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में स्थित बिजबेहरा कस्बे में रहता है. वे पिछले करीब तीन दशक से इस मंदिर की देख-रेख करते आ रहे हैं. न केवल वे बल्कि उनका परिवार भी. इस मंदिर की चाबी भी उन्ही के पास है. वे हर महीने दो-तीन बार अपने बेटे के साथ मिलकर इस मंदिर की सफाई भी करते हैं.
इस मंदिर को देखकर ऐसा बिलकुल अनुभव नहीं होता है कि इसमें सालों से किसी ने पूजा-पाठ नहीं किया है. पूजा-पाठ तो दूर शायद सालों से इस मंदिर में कोई हिंदू श्रद्धालु आया भी नहीं है. तो क्यों एक मुसलमान परिवार, कुछ लोगों से दुश्मनी मोलकर लेकर भी इस मंदिर की देख-रेख बिलकुल वैसे ही करता है जैसे कि वह किसी मस्जिद की करेगा.
कहानी कश्मीर में, कुछ दशक पहले तक, सदियों से साथ-साथ रह रहे मुसलमानों और पंडितों की है.
यह कहानी शेख के बचपन से ही शुरू हो गयी थी. ‘यह तब की बात है जब कश्मीर में मुसलमान और पंडित मिल-जुल कर एक परिवार की तरह रहा करते थे” शेख मंदिर के पास ही हुई सत्याग्रह से मुलाकात में बताते हैं.
शेख और बिजबेहारा के दूसरे लोग भी बताते हैं कि उन दिनों इस मंदिर के अहाते में हर त्योहार पर मेला लगा करता था.
“चाहे वो ईद हो, दिवाली हो, होली हो या और कोई त्योहार. यहां हमेशा मेला लगता था और पूरे शहर से बच्चे, जवान, बूढ़े और औरतें यहां आते थे. बच्चे खेलते-कूदते थे और बड़े आपस में गप्पें लड़ाते थे. दुकानें लगती थीं यहां और खूब जश्न होता था. तब मजहब से परे यहां सब इंसान थे” बिजबेहरा में ही रहने वाले 70 साल के ग़ुलाम हसन हजाम सत्याग्रह को बताते हैं.
मंदिर के करीब ही रहने वाले शेख हर ऐसे मेले में हमेशा हिस्सा लेते थे, फिर चाहे वह त्योहार मुसलमानों का हो या पंडितों का. “यूं कह लें कि इस मंदिर से मेरा बचपन जुड़ा हुआ है” गुलाम नबी शेख कहते हैं.
जवानी आई और शेख रोजगार की तलाश में निकल पड़े. यहां-वहां किस्मत आजमाने के बाद उनकी मुलाक़ात वैशव नाथ जुत्शी, से हो गयी. जुत्शी का मंदिर के बगल में ही सेब का बाग था जिसकी देख-रेख करने के लिए उन्हें एक आदमी की ज़रूरत थी. तो शेख जुत्शी के बाग की देख-रेख करने लग गए. कुछ सालों बाद जुत्शी के ही प्रयत्नों से गुलाम नबी शेख को स्वास्थ विभाग में नौकरी मिल गयी.
“लेकिन नौकरी मिलने के बावजूद मैंने उनके बाग में काम करना नहीं छोड़ा” शेख बताते हैं. एक दिन बाग में काम करते-करते ही उनकी नज़र मंदिर के अहाते पर पड़ी जहां काफी बड़ी घास उग आई थी.
शेख ने मंदिर के आस-पास उगी घास काटने के बाद वहां फूलों की क्यारियां लगा दीं. लेकिन जहां एक तरफ मंदिर के सहन में फूलों की क्यारियां लग रही थीं, वहीं कश्मीर घाटी में एक नए दौर की शुरुआत भी हो रही थी. यह दौर अभी तक चल रहा है और हज़ारों लोगों की जान भी ले चुका है.
1988 के अंत में जम्मू कश्मीर लिबेरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ़्फ़) नाम का एक मिलिटेंट गुट कश्मीर में सक्रिय हुआ और जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के प्रयास में जुट गया.
यह चीज़ कश्मीर के मुसलमानों के लिए भी उतनी ही नयी थी जितनी कि पंडितों के लिए. लेकिन पंडितों में भय ने तब सिर उठाया जब 14 सितंबर,1989 में टीका लाल टपलू नाम के वकील (और भारतीय जनता पार्टी के नेता) की उनके श्रीनगर में स्थित घर में घुस कर हत्या कर दी गयी.
4 नवम्बर 1989 को एक और हत्या हुई, इस बार हाइ कोर्ट के जज नीलकंठ गंजू मारे गए. गंजू ने जेकेएलएफ़ के संस्थापक, मक़बूल भट, को 1968 में एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या के आरोप में फांसी की सज़ा सुनाई थी. उस समय वे एक निचली अदालत में जज हुआ करते थे. 1982 में भारत के सूप्रीम कोर्ट ने यह सज़ा सही ठहराई थी और 1984 में भट को फांसी दे दी गयी थी. इस हत्या का बदला लेने के उद्देश्य से जस्टिस गंजू की जम्मू-कश्मीर के हाई कोर्ट के पास ही हत्या कर दी गई.
इन दो हत्याओं को फिर भी राजनीतिक दृष्टि से देखा जा रहा था. लेकिन आने वाले सालों में हालात बिगड़ते ही रहे.
“न सिर्फ पंडित, बल्कि काफी ऐसे मुसलमान भी मारे गए जो सरकार में थे या फिर सरकार के लिए काम किया करते थे, या किसी भी प्रकार सरकार के करीब थे” श्रीनगर के एक वरिष्ठ पत्रकार सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
हत्याओं का सिलसिला चलता रहा और पंडितों में भय का माहौल गहराता गया. जहां सरकारी आंकड़े यह कहते हैं कि 219 पंडित 1989 और 2004 के बीच में मारे गए हैं वहीं अलग-अलग पंडित संस्थाएं अलग-अलग आंकड़ों के दावे करती आई हैं.
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति इस दौरान मारे गए पंडितों की संख्या 650 बताती है और वहीं पनुन कश्मीर नाम की एक और संस्था यह संख्या 1000 से ऊपर बताती है. इस बात पर लेकिन सभी को इत्तेफाक है कि ज़्यादातर (75 प्रतिशत से ज़्यादा) ऐसी हत्याएं 1989 और 1991 के बीच ही हुई थीं.
कुछ पंडित संस्थाएं यह भी कहती हैं कि 1990 में कई स्थानीय अखबारों में पंडितों को कश्मीर छोड़ कर चले जाने की धमकियां दी गयी थीं. इनके मुताबिक घाटी में रहने वाले पंडितों के घरों के बाहर पोस्टर भी लगाए गए थे जिनमें उन्हें धमकाया गया था और मस्जिदों से ऐसे ऐलान भी किए गए थे जिनमें लोगों को पंडितों के घर लूटने के लिए उकसाया गया था.
“ये ऐसी चीज़ें हैं जो शायद हुई हों या नहीं भी हुई हों या उतनी नहीं हुई हों. इनको कौन सिद्ध या रद्द कर सकता है. लेकिन वो ऐसा वक़्त था जब कश्मीर में मुसलमान भी मारे जा रहे थे और भय चारों तरफ था. ऐसे माहौल में जहां हर किसी को अपनी जान के लाले पड़े हों इन सब चीजों का हिसाब कौन रखता है” एक और पत्रकार, जिन्होंने 90 के दशक में ही पत्रकारिता करना शुरू कर दिया था, सत्याग्रह को बताते हैं.
लेकिन वे यह भी कहते हैं कि उन दिनों कश्मीर में अखबार वाले मिलिटेंट गुटों की प्रेस रिलीज ज़रूर छापा करते थे. “अब उनमें पंडितों को धमकियां मिली या नहीं मैंने अपनी आंखों से नहीं देखा है.”
1991 आते-आते कश्मीर के हालात काफी बिगड़ चूके थे और फिर उसी साल जनवरी में 18 और 19 तारीख के बीच की रात ज़्यादातर कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ कर जम्मू चले गए. कश्मीर छोड़ के जाने वाले पंडितों की संख्या भी विवादित है.
जहां कुछ संस्थाएं मानती हैं कि उस रात करीब एक से डेढ़ लाख पंडितों ने कश्मीर को छोड़ दिया था, वहीं कुछ संस्थाएं इस संख्या को छह से सात लाख तक बताती हैं.
“यह जो सात लाख की संख्या बताई जाती है यह पिछली कई शताब्दियों में कश्मीर छोड़ कर जाने वाले हिंदुओं की है,” ट्रिनिटी कॉलेज डब्लिन में पढ़ाने वाली, मृदु राय अपनी एक किताब “अनटिल माइ फ्रीडम हैस कम’ में लिखती हैं.
अब चाहे मारे कितने भी लोग गए हों और कश्मीर छोड़ कर कितने लोग गए हों, हक़ीक़त यह है कि पंडित कश्मीर से चले गए और उनके घर और मंदिर पीछे छूट गये. उसके बाद से ज़्यादातर पंडित जम्मू में ही रह रहे हैं.
“उस वक्त ज़्यादातर पंडितों को लगा था कि वे तान-चार महीनों में ही वापस आ जाएंगे. किसी को यह नहीं पता था कि उन्हें सालों बाहर रहना पड़ेगा” पंडित हिन्दू वेलफ़ेयर सोसाइटी के अध्यक्ष, मोतीलाल भट, एक इंटरव्यू में कहते हैं. भट उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो कश्मीर छोड़ कर नहीं गए.
कश्मीर में रहने वाले काफी मुसलमान यह भी कहते हैं कि पंडितों को भारत सरकार ने इसलिए यहां से निकाल दिया था ताकि मुसलमानों को मार सकें. “ऐसा सोचने वाले लोगों के लिए, पंडितों के यहां से जाने के बाद, हुई चीज़ें उनके यकीन को और पक्का करती हैं” कश्मीर में सिविल सेवाओं की तैयारी कराने वाली एक कोचिंग में इतिहास पढ़ाने वाले इम्तियाज़ शेख सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
इम्तियाज़ का इशारा 21 जनवरी 1990 को हुए गौकदल नरसंहार की ओर है जिसमें 150 से अधिक मुसलमान सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए थे. “या फिर जकूरा और टेंगपोरा नरसंहार, जिनमें 33 लोग मारे गए थे; या कुनन पोशपोरा समूहिक बलात्कार. ऐसी कई चीज़ें हुई जिससे लोगों को लगा कि पंडितों का कश्मीर से जाना एक सोची समझी साजिश थी” इम्तियाज़ कहते हैं.
आने वाले सालों में हजारों कश्मीरी मुसलमानों की जानें गयीं और कश्मीरी पंडित अपने घरों में लौटने को तरसते रहे.
पंडित अब चले गए थे. वहीं शेख की ज़िंदगी भी कोई मजे से नहीं कट रही थी. हर जगह फ़ाइरिंग, धमाके और फिर सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले लगभग रोज़ के “क्रैकडाउन” जिनमें लोगों को अपने घरों से निकाल कर एक जगह जमा कर लिया जाता था और मिलिटेंट्स को ढूंढ़ने के लिए उनके घरों की तलाशी ली जाती थी. बाहर निकाले गए लोगों की भी शिनाख्ती परेड होती थी और कइयों को शक की बिना पर भी गिरफ्तार कर लिया जाता था.
“और अगर सुरक्षा बालों पर कभी फ़ाइरिंग होती थी तो वे घरों में घुस कर भी मार-पीट करते थे” बिजहेबरा के कुछ लोग सत्याग्रह को बताते हैं.
ग़ुलाम नबी शेख भी इस सब से परेशान होकर अपना घर छोड़ कर पास के एक मोहल्ले में अपने रिश्तेदारों के पास रहने चले गए थे. “ऐसा नहीं था कि वहां ये सब नहीं था, लेकिन साथ रह के एक दूसरे को हिम्मत और दिलासा देके दिन कट रहे थे,”
शेख ने अपना घर इसलिए भी छोड़ दिया क्योंकि वह हाइवे के काफी नजदीक था और वहां आए दिन कुछ न कुछ होता ही रहता था, “मैं चाहता था कि मैं अपने बच्चों को सुरक्षित रखूं. मुझे डर था किसी दिन कुछ ऐसा न हो जाये जिसके बाद मुझे पछताना पड़े,”
हुआ भी बिलकुल वही जो शेख सोच रहे थे. 22 अक्टूबर, 1993 को सीमा सुरक्षा बल की फ़ाइरिंग में 33 लोग, शेख के घर के पास ही मारे गए थे. फ़ाइरिंग वहां प्रदर्शन कर रहे कश्मीरियों पर हुई थी. इसमें 200 से ज़्यादा लोग घायल हो गए थे.
“मैं दो तीन साल अपने रिश्तेदारों के घर पर ही रहा, लेकिन उस बीच भी में जुत्शी के बाग को देखने ज़रूर आता था. साथ ही साथ, धीरे-धीरे, में मंदिर की भी देखभाल करने लगा” शेख बताते हैं.
जब शेख 1994 में अपने घर वापिस लौटे तो उन्होने पूरी तरीके से मंदिर की देखभाल अपने ज़िम्मे ले ली. जहां कश्मीर में कई मंदिर देख-रेख न होने के चलते असामाजिक तत्वों के हत्थे चढ़ गए थे वहीं ज़यादेवी (जयदेवी) मंदिर, शेख के रख-रखाव की वजह से बिलकुल बिलकुल सही हालत में है.
“भले ही जुत्शी जी ने अपना बाग बेच दिया लेकिन मैंने मंदिर की देख-रेख करना नहीं छोड़ा. मैंने मंदिर के दरवाजे और इसके अहाते पर लगे दरवाजे पर ताला लगा दिया. इनकी चाबी मेरे पास ही रहती है, सालों से. हर महीने में और मेरा बेटा पूरे मंदिर को धोते हैं और वहां उग आई घास वगैरह साफ करके इसको वैसे ही रखते हैं जैसे हमारे पंडित भाई रखते थे, जो अब यहां नहीं हैं” शेख थोड़ा दुखी होकर कहते हैं.
कुछ स्थानीय पंडित परिवार, जो अब जम्मू में रहते हैं, पहले कभी-कभार आया यहां करते थे और शेख का शुक्रिया अदा करते थे, लेकिन अब सालों हो गए यहां कोई नहीं आया है. लेकिन शेख और उनका परिवार इस मंदिर की पूरी ज़िम्मेदारी उठाने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं. लेकिन ऐसा करना सिर्फ इसलिए विशेष नहीं है क्योंकि वे हिंदू नहीं हैं.
लेकिन सुनने में यह जितना आसान है उतना करने में है नहीं. शेख को बीते सालों में इस मंदिर की देखभाल करने की वजह से बहुत सी मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा है.
90 के दशक के आखिरी सालों में पास में तैनात सुरक्षा बल इस मंदिर के बारे में सुन कर यहां आने लगे थे और कभी-कभार उसमें पूजा भी किया करते थे.
“एक दिन वो लोग आए और देखा कि किसी ने मंदिर कि छत्त पे भेड़ का फेफड़ा फेंका हुआ था. इससे वो बहुत उत्तेजित हो गए थे और में उन्हें समझा-समझा के थक गया था कि कश्मीरी पंडित इस चीज़ को बुरा नहीं समझते थे. वे लोग भी कभी-कभी ऐसी चीज़ें परिंदों के खाने के लिए डाल दिया करते थे. लेकिन वे सुरक्षा कर्मी बाहर के थे और कश्मीरी पंडितों की संस्कृति से बेखबर. तो जब मुझे लगा कि अब वे लोग मेरी पिटाई करने वाले हैं तो मैंने छत्त पे चढ़ के खुद वो फेफड़ा उतारा” शेख ने बताया.
अब सुरक्षाकर्मी नहीं आते. लेकिन परेशानियां जब-तब दूसरे रूपों में उनके सामने आती ही रहती हैं. शेख को परेशान करने वालों में सबसे आगे इलाक़े के नशेड़ी हैं, जिन्हें यह लगता है कि मंदिर वाली जगह उनके बैठने के लिए एक सुरक्षित स्थान हो सकता था, जहां वे आराम से बैठकर नशा कर सकते थे.
“दूसरी तरफ उनको लगता है कि मंदिर में शायद बेचने लायक कोई चीज़ हो जिसको चुरा कर वो अपने नशे का इंतजाम कर सकते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने देता और इसके चलते इस इलाक़े के सारे नशेड़ियों से मैंने दुश्मनी मोल ले रखी है” शेख बताते हैं.
उधर मंदिर के पास खूबनी के कुछ पेड़ भी हैं और काफी छोटे छोटे लड़के हर वक़्त उसका फल चुराने की ताक़ में रहते हैं. “और फिर वो पड़ोसी जिनको लगता है कि मैंने शायद मंदिर की ज़मीन पे कब्जा कर लिया है” शेख कहते हैं, “वो लोग भी मुझे शक की निगाह से देखते हैं और फिर सबका एक ही सवाल कि मैंने किस हक़ से मंदिर पे ताला लगा के चाबी अपने पास रखी है.”
शेख इन सब चीजों को नज़रअंदाज़ करते हुए मंदिर की देखभाल कर रहे हैं, लेकिन अब उनको कुछ और भी चीजों से डर लगने लगा है.
“मैंने काफी लोगों से इस मंदिर के चलते दुश्मनी मोल ले रखी है और हर इंसान एक ही सोच का नहीं होता. मान लो कल को किसी ने इस मंदिर को कोई नुकसान पहुंचाया तो शायद सबसे पहले पुलिस मुझे ही पकड़ कर ले जाएगी. फिर मेरी कौन सुनेगा” शेख पूछते हैं.
वहीं अब उनकी उम्र भी ढल रही है, और वो चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी मंदिर के असली हकदार आकर इसको अपने हाथों में लें और उनको इस ज़िम्मेदारी से मुक्त करें.
“अब जो मैंने कर लिया शायद मेरे बच्चे न कर पाएं. मैंने कई फोन किए, जितने भी पंडितों को मैं जानता हूं और उनसे विनती की इस मंदिर को अपने हाथों में लेने की. लेकिन अभी तक कोई सामने नहीं आया है” शेख बताते हैं.
अब पता नहीं पंडित कश्मीर कब लौटेंगे और कब शेख अपनी इस पवित्र जिम्मेदारी से मुक्त होंगे, लेकिन इतने साल इस मंदिर की देखभाल करके शेख ने सांप्रदायिक सौहार्द्र की एक ऐसी मिसाल कायम की है, जो आज-कल विलुप्त होने के कगार पर खड़ी दिख रही है.
लेकिन शेख कहते हैं उन्होने वही किया जो सही था. “वही जो एक पंडित करता अगर मुसलमान कश्मीर से चले गए होते.” (satyagrah.scroll.in)
आज भारतीय सेना के गौरव शहीद अब्दुल हमीद का यौमे विलादत है। जब भी यह दिन आता है, मेरे मन में बीस साल पहले की एक भयानक रात की स्मृतियां कौंध जाती हैं। तब मैं मुंगेर जिले का एस.पी हुआ करता था। आज ही के दिन आधी रात को शहर के नीलम सिनेमा चौक पर सांप्रदायिक दंगे की भयावह स्थितियां बन गई थीं। संवेदनशील माने जाने वाले उस चौक पर एक तरफ मुसलमानों के मुहल्ले थे और दूसरी ओर हिंदुओं की आबादी। मैं चौक पर पहुंचा तो देखा कि एक तरफ सैकड़ों मुसलमान जमा थे और दूसरी तरफ सैकड़ों हिन्दू। दोनों तरफ से उत्तेजक नारे लग रहे थे। बीच-बीच में पटाखों भी छूट रहे थे। मेरे साथ सुविधा यह थी कि इस शहर और जिले के लोग मेरा सम्मान बहुत करते थे। मैं साथी पुलिसकर्मियों के मना करने के बावज़ूद मुसलमानों के मुहल्ले में घुस गया।
मुझे अपने बीच पाकर वे लोग शांत होने लगे। कुछ युवा मेरे पास आए तो मैंने बवाल की वजह पूछी। उन्होंने बताया कि वे चौक पर शहीद अब्दुल हमीद के स्मारक की बुनियाद रख रहे थे कि कुछ ही देर में सैकड़ों हिन्दू जमा होकर उसे तोडऩे की कोशिश करने लगे। मैंने पूछा- ‘क्या आप लोगों ने स्मारक बनाने के लिए प्रशासन से अनुमति ली थी ? क्या लोगों को पता था कि यहां किसके स्मारक की बुनियाद रखी जा रही थी ?’ मेरे सवालों पर वे बगले झांकने लगे। मैं समझ गया। मैंने उन्हें आश्वस्त किया- ‘चौक पर शहीद का स्मारक बनेगा और सबके सहयोग से बनेगा। आप लोग घर जाओ, मैं ख़ुद रात भर यहां रहकर बुनियाद की हिफाजत करूंगा।’ कुछ ही देर में सभी मुस्लिम घर लौटने लगे। पटाखों की आवाज़ें इधर बंद हुई, मगर दूसरी तरफ अब भी आतिशबाज़ी हो रही थी।
मैं हिंदुओं की तरफ गया तो उत्तेजित लोगों ने बताया कि उन्हें पता चला था कि मुसलमान शहर के व्यस्त चौराहे पर चोरी-चोरी किसी मुस्लिम की मज़ार बना रहे हैं। वे विरोध करने पहुंचे हैं। मैंने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो पल भर में उनका गुस्सा काफूर हो गया। मैंने उन्हें बताया कि सिर्फ संवादहीनता और गलतफहमी की वजह से ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी है। अब्दुल हमीद का नाम सुनकर इधर से भी आतिशबाजी बंद हो गई और लोग लौटने लगे। मैं अखबार बिछाकर प्रस्तावित स्मारक पर बैठ गया और शहीद को याद कर कहा-माफ़ करना हमारे आज़ाद भारत के अभिमन्यु, वे लोग नहीं जानते कि वे तुम्हारे नाम पर क्या करने जा रहे थे!
आज मुंगेर के नीलम सिनेमा चौक पर आम लोगों के सहयोग से बना शहीद अब्दुल हमीद का स्मारक शान से खड़ा है जिस पर न केवल सभी संप्रदायों के लोग पुष्पांजलि अर्पित करते हैं, बल्कि राष्ट्रीय पर्वों के दिन वहां झंडोत्तोलन भी होता है।