विचार/लेख
चाइनीज एप्स तो डिलीट हो जाएंगे लेकिन एक बार भारत की सबसे बड़ी चीनी कम्पनी के बारे में तो जान लीजिए! और वह है आपके फोन में मौजूद, आपकी दुकान में मौजूद पेटीएम।
चीनी कम्पनी अलीबाबा की होल्डिंग वाली पेटीएम देश की सबसे बड़ी ई पेमेंट कंपनी है, कुछ भोले-भाले लोग पेटीएम का मालिक विजय शेखर शर्मा को समझते है क्योंकि वही इस कंपनी के मुख्य प्रबंधक निदेशक भी हैं। लेकिन क्या आप जानते है कि उनके पास कंपनी की कितनी हिस्सेदारी है? उनके पास कम्पनी की मात्र 15.7 फीसदी हिस्सेदारी ही है। (बकौल इकनॉमिक टाईम्स 2019)
पेटीएम की मुख्य कंपनी का नाम है वन 97 कम्युनिकेशन लिमिटेड. यह सिंगापुर की कम्पनी है अब यही से सारा कन्फ्यूजन शुरू होता है क्योंकि अलीबाबा ने भी अपना निवेश चीन की अपनी मूल कंपनी के जरिए नहीं किया है। बल्कि उसने पेटीएम में निवेश अपनी एक सहयोगी कंपनी, जो सिंगापुर में रजिस्टर्ड है, उसके जरिए किया है. पेटीएम में निवेश करने वाली कंपनी का नाम है ‘अलीबाबा सिंगापुर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड’
अलीबाबा ने 2015 में पेटीएम में 41 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की थी। दरअसल तभी अलीबाबा के जैक मा भारत मे आये थे और मोदी जी से भी मिले थे पेटीएम का असली उभार नोटबंदी के बाद से ही शुरू हुआ था, पेटीएम जो चीन के अलीबाबा की फंडिंग हासिल कर चुकी थी मोदी जी नोटबंदी के दूसरे दिन उसके पोस्टरबॉय बने हुए थे।
दरअसल पेटीएम के मॉडल को अलीबाबा कम्पनी के पेमेन्ट गेटवे अलीपे की ही तरह ही डेवलप किया गया था, 2018 में पेटीएम ई-कॉमर्स में अलीबाबा सिंगापुर की हिस्सेदारी कम होकर 36.31 फीसदी हो गई मायासोशि सोन की सॉफ्टबैंक ने भी अपनी हिस्सेदारी प्रत्यक्ष तौर पर कंपनी में 20 प्रतिशत कर ली थी लेकिन चीन में भी दोनों कंपनियों की एक दूसरे में हिस्सेदारी है इसलिए यह मामला उलझा हुआ है, पेटीएम के बाकी के शेयर एसएपी वेंचर्स, सिलिकॉन वैली बैंक, पेटीएम की मैनेजमेंट टीम और अन्य इनवेस्टर्स के पास हैं।
एसएआईएफ पार्टनर्स इंडिया की हिस्सेदारी 4.66 फीसदी है 2017 में अनिल अंबानी के पास जो एक प्रतिशत शेयर पेटीएम का था उसे भी अलीबाबा ने खरीद लिया था, एक बड़ा हिस्सा अलीबाबा की ऐंट फाइनेंशियल के पास भी है यानी अगर स्पष्ट रूप से देखा जाए तो 2020 में भी चीनी अलीबाबा ग्रुप और उसकी सहयोगी ऐंट फाइनेंशियल के पास वन 97 कम्युनिकेशंस के सबसे ज्यादा शेयर है। केवल दिखावे के लिए एक भारतीय को कम्पनी का मुख्य चेहरा बना रखा है।
अलीबाबा की टीम ही पेटीएम के ऑपरेशन के रिस्क कंट्रोल कैपेसिटी को डेवलप करती है। और जानकार लोग बताते हैं कि रिस्क कंट्रोल कैपेसिटी ही किसी भी ऑनलाइन कंपनी की बैक बोन यानी रीढ़ की हड्डी होती है।
पेटीएम कोई छोटी-मोटी कम्पनी नहीं है पिछले दिनों विजय शेखर शर्मा का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने दावा किया कि देश के ऑनलाइन भुगतान में अब भी पेटीएम की हिस्सेदारी 70 से 80 फीसदी हो गयी है, रेलवे की टिकट बेचने की जिम्मेदारी के लिए सिर्फ पेटीएम के पेमेंट गेटवे को ही अधिकृत किया है रेलवे के टिकट बिक्री में रोज करोड़ों नहीं अरबो का ट्रासिक्शन होता है इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी चीनी होल्डिंग वाली पेटीएम को क्यों दी गई सवाल तो खड़ा होता ही है?
कैसे चीनी कंपनियों से जुड़ी पेटीएम देश की सबसे बड़ी फिनटेक कम्पनी बन गयी सवाल तो खड़ा होता है और सवाल तो ये भी खड़ा होता है कि यह सब जानते बुझते हुए आज सरकार पेटीएम पर कैसे और किस प्रकार की कार्यवाही करेगी?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकार ने घोषणा की है कि उसने चीन के 59 मोबाइल एप्लीकेशंस (मंचों) पर प्रतिबंध लगा दिया है। उसका कहना है कि इन चीनी मोबाइल मंचों का इस्तेमाल चीनी सरकार और चीनी कंपनियां जासूसी के लिए करती होंगी। इनका इस्तेमाल करनेवाले लोगों की समस्त गोपनीय जानकारियां चीनी सरकार के पास चली जाती होंगी। इतना ही नहीं, इन मंचों से चीनी कंपनियां हर साल अरबों रु. भी कमाकर चीन ले जाती हैं। सरकार ने इन पर प्रतिबंध लगा दिया, यह अच्छा किया।
टिक टोक जैसे मंचों से अश्लील और अभद्र सामग्री इतनी बेशर्मी से प्रसारित की जा रही थी कि सरकार को इस पर पहले ही प्रतिबंध लगा देना चाहिए था। मुझे आश्चर्य है कि भारतीय संस्कृति की पुरोधा यह भाजपा सरकार इन चीनी प्रचार-मंचों को अब तक सहन क्यों करती रही ? जो लोग इस चीनी ‘एप्स’ को देखते हैं, उन्होंने मुझे बताया कि हमारे नौजवानों को गुमराह करने में इनकी पूरी कोशिश होती है। बांग्लादेश और इंडोनेशिया- जैसे कई देशों ने इन चीनी मोबाइल मंचों पर काफी पहले से प्रतिबंध लगा रखा है।
असली बात तो यह है कि चीन की तथाकथित साम्यवादी सरकारों के पास आज न तो कोई विचारधारा बची है और न ही उन्हें अपनी प्राचीन संस्कृति पर गर्व है। चीन अब अमेरिका की नकल पर शुद्ध उपभोक्तावादी राष्ट्र बन गया है। पैसा ही उसका भगवान हैं। डालरानंद ही ब्रह्मानंद है। बाकी विचारधारा, सिद्धांत, आदर्श, परंपरा और नैतिकता- जैसी चीजें चीन के लिए सब मिथ्या है।
चीनी चीज़ों से भारत में भी चीन की इन्ही प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिल रहा है। जरुरी यह है कि इन पर तो रोक लगे ही, चीन की ऐसी चीज़ों पर भी एकदम या धीरे-धीरे प्रतिबंध लगना चाहिए, जो गैर-जरुरी हैं, जैसे खिलौने, कपड़े, जूते, सजावट का सामान और रोजमर्रा के इस्तेमाल की कई छोटी-मोटी चीजें। इससे भारत में आत्म-निर्भरता बढ़ेगी और विदेशी मुद्रा भी बचेगी। लेकिन जैसा कि केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी ने कहा है, आंख मींचकर सभी चीनी चीज़ों का हम बहिष्कार करेंगे तो हमारे सैकड़ों कल-कारखाने ठप्प हो जाएंगे और लाखों लोगों को बेरोजगार होना पड़ेगा। इन मोबाइल एप्लीकेशंस के बंद होने का बड़ा राजनयिक फायदा भारत सरकार को इस वक्त यह भी हो सकता है कि चीन पर जबर्दस्त दबाव पड़ जाए। चीनी सरकार को यह संदेश पहुंच सकता है कि यदि उसने गलवान घाटी के बारे में भारत के साथ विवाद बढ़ाया तो फिर यह तो अभी शुरुआत है। बाद में 5 लाख करोड़ रु. का भारत-चीनी व्यापार भी खतरे में पड़ सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
नई दिल्ली, 1 जुलाई ।लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन की सेना के बीच हिंसक झड़प में 20 भारतीय सैनिकों की मौत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के कूटनीतिक कामकाज को लेकर लगातार चर्चा हो रही है.
बीते कुछ दिनों के दरम्यान पड़ोसी मुल्कों के साथ भारत के रिश्तों में थोड़ी कड़वाहट देखने को मिली है. बात चाहे बांग्लादेश की हो या नेपाल की. भारत के संदर्भ में इन पड़ोसी देशों की जो प्रतिक्रियाएँ बीते दिनों आई हैं उससे कूटनीतिक रिश्ते असहज हुए हैं.
अब इन देशों में नया नाम भूटान का जुड़ा है. बीते कुछ दिनों से भूटान का नाम काफी चर्चा में है.
क्या है मामला?
हाल ही में भूटान की सीमा से सटे असम के बाक्सा ज़िले में सैकड़ों किसानों ने अपनी नाराज़गी जताते हुए भूटान के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया था. इन नाराज़ किसानों का आरोप था कि भूटान ने सीमा पार काला नदी से सिंचाई के लिए मिलने वाले पानी के प्रवाह को रोक दिया था.
जब भारतीय मीडिया में यह ख़बर सुर्खियों में बनी तो भूटान के विदेश मंत्रालय को सामने आकर मामले में अपना पक्ष रखना पड़ा.
भूटान के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में स्थित समड्रोप जोंगखार शहर भारत के असम की सीमा से सटा है. भूटान की इस सीमा के पास असम की तरफ दरंगा, बोगाजुली, ब्रहमपाड़ा जैसे कुल 26 गांव हैं जहां की लगभग पूरी आबादी कृषि पर निर्भर है.
डाउनस्ट्रीम की तरफ़ बसे ये गांव दरअसल काफी पिछड़े हुए हैं. यहां के लोग सालों से भूटान की तरफ़ से आने वाली काला नदी के पानी से खेती करते आ रहे हैं. लेकिन इस साल जब खेती करने के लिए पानी समय पर नहीं मिला तो किसानों ने भूटान पर काला नदी के पानी के बहाव को सिंचाई चैनलों (बड़े नाले) तक रोकने का आरोप लगाया.
गांव के लोगों का दावा है कि वे 1951 से ही काला नदी के पानी से खेती करते आ रहे हैं और इतने सालों में उन्हें कभी कोई असुविधा नहीं हुई.
अब जब उन्हें अपनी खेतों में पानी नहीं मिलने की असुविधा का सामना करना पड़ा तो किसानों की सालों पहले बनाई गई कालीपुर बोगाजुली काला नदी आंचलिक बांध कमेटी ने अपनी मांग को लेकर 22 जून को धरना दिया.
सीमावर्ती किसानों की क्या है समस्या?
पिछले आठ सालों से काला नदी आंचलिक बांध कमेटी का अध्यक्ष पद संभाल रहे महेश्वर नार्जरी ने बीबीसी से कहा, "भूटान से हमारे संबंध काफी पुराने है और इतने सालों में उनकी तरफ़ से हमें कभी कोई तकलीफ़ नहीं हुई. लेकिन हम किसान है और खेती करके अपना पेट भरते है. अगर हमें खेती करने के लिए पानी नहीं मिलेगा तो हमारी आजीविका कैसे चलेगी. हमने धरना प्रदर्शन करने से पहले इस समस्या के समाधान के लिए स्थानीय प्रशासन से आग्रह किया था. लेकिन जब किसी ने हमारी परेशानी की तरफ़ ध्यान नहीं दिया तब जाकर हम धरने पर बैठे. हमारे लोगों ने भूटान के ख़िलाफ़ कोई नारेबाज़ी नहीं की और न ही किसी अपशब्द का प्रयोग किया. असल में हमारी समस्या का हल तो भारत सरकार और असम सरकार को निकालना होगा."
क्या धरना देने के बाद अभी यहां के किसानों को भूटान से पानी मिल रहा है?
इस पर नार्जरी कहते हैं, "भूटान ने इस साल खुद अपने लोगों से सिंचाई के लिए पानी के चैनल बनाकर दिए हैं लेकिन हमें अब भी पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है. इतने सालों तक हमारे किसान खुद भूटान की सीमा में जाकर अपने हिसाब से बांध बनाकर चैनलों के ज़रिए पानी खेतों तक ला रहे थे लेकिन कोविड-19 के लिए भूटान ने अपनी सीमा में प्रवेश पर रोक लगा रखी है. दरअसल खेती के सीजन के दौरान हमें नदी से पानी लाने के लिए कई बार उस पार जाकर नाले बनाने पड़ते हैं. क्योंकि इन अस्थाई कच्चे नालों में पत्थर और मिट्टी भर जाने से पानी की धार कम हो जाती है. अब भूटान के लोग बार-बार हमारे लिए नाले की खुदाई थोड़े ही कराते रहेंगे. अगर इस समस्या का स्थाई हल नहीं निकाला गया तो यहां पांच सौ परिवार बर्बाद हो जाएंगे."
इंडिया भूटान फ्रेंडशिप एसोसिएशन के समड्रोप जोंगखार शाखा के सलाहकार सदस्य त्शेरिंग नामग्येल भी पानी रोकने को लेकर भूटान पर लगे आरोपों को ग़लत बताते हैं.
वे कहते हैं, "भारत-भूटान के संबंधों का लंबा इतिहास रहा है. आज भी सीमा के दोनों तरफ लोगों में बहुत अच्छे संपर्क हैं. सीमावर्ती गांवों में बसे असम के किसान सालों से काला नदी का पानी अपने खेतों में ले रहे है लेकिन कभी कोई विवाद नहीं हुआ. जबकि हमने खुद मज़दूरों को पैसा देकर नालों की खुदाई करवाई है. भूटान को लेकर भारत के मीडिया में जिस तरह की ख़बरें प्रकाशित हुई है, दरअसल ये पूरी तरह ग़लत सूचना है."
पानी रोकने के विवाद पर क्या बोला भूटान?
ऐसे में सीमावर्ती भारतीय किसानों के विरोध और पानी रोकने के आरोपों का जवाब देते हुए भूटान की शाही सरकार के विदेश मंत्रालय ने 26 जून को एक बयान जारी कर कहा, "24 जून 2020 से भारत में प्रकाशित कई लेखों में आरोप लगाया गया है कि भूटान ने उन जल आपूर्ति माध्यमों को अवरुद्ध कर दिया है जो असम के बाक्सा तथा उदालगुड़ी ज़िलों में भारतीय किसानों तक सिंचाई का जल पहुँचाते हैं. लेकिन ये तमाम आरोप आधारहीन और तकलीफदेह है. क्योंकि इस समय जल प्रवाह को रोकने का कोई कारण ही नहीं है."
भूटान के विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट करते हुए कहा, "असम के किसान कई दशकों से भूटान के जल स्रोतों से लाभान्वित होते आ रहे हैं और कोविड-19 महामारी जैसे वर्तमान कठिन समय में भी उन्हें इसका लाभ मिल रहा हैं. कोविड-19 की महामारी के चलते भारत में लॉकडाउन और भूटान की सीमाओं को बंद करने के कारण असम के किसान सिंचाई चैनलों को बनाए रखने के लिए भूटान में प्रवेश नहीं कर पा रहे थे, जैसा कि अतीत में वे करते आ रहे थे. लिहाज़ा असम के किसानों की परेशानी का ध्यान रखते हुए जब भी असम में पानी के सुचारू प्रवाह को लेकर समस्याएँ होती हैं, तो हमारे समड्रोप जोंगखार ज़िला प्रशासन के अधिकारी और स्थानीय लोग सिंचाई चैनलों को दुरुस्त करने का काम करते रहे हैं.
भूटान ने पानी रोकने की इन ख़बरों को 'भ्रामक जानकारी' फ़ैलाने और भूटान तथा असम के मित्रवत लोगों के बीच ग़लतफ़हमी पैदा करने के लिए यह निहित स्वार्थों से किया गया सोचा-समझा प्रयास बताया है.
भारत-चीन तनाव के बीच भूटान के नाम पर क्या हो रही है राजनीति?
ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या भारत-चीन के बीच मौजूदा तनाव के माहौल में भूटान का नाम उछाल कर सत्ताधारी बीजेपी पर राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है?
असल में भूटान से सटा यह पूरा इलाक़ा अर्थात ये तमाम गांव बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) के अंतर्गत आते हैं. एक समय यह पूरा इलाक़ा बोडो चरमपंथी संगठनों की सक्रियता के कारण काफी अशांत रहा है. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 10 फ़रवरी, 2003 को हाग्रामा मोहिलारी की अध्यक्षता वाले विद्रोही संगठन बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के साथ एक समझौता किया. जिसके आधार पर बीटीसी का गठन हुआ.
इस समझौते के बाद से हाग्रामा मोहिलारी की पार्टी बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ) लगातार काउंसिल की सत्ता संभाल रही है. बीपीएफ ने अपने 12 विधायकों के साथ असम की सत्ता संभाल रही बीजेपी को समर्थन दे रखा है. लेकिन इस साल होने वाले बीटीसी चुनाव को लेकर बोडोलैंड इलाके में बीजेपी-बीपीएफ आमने सामने हैं.
इलाक़े के दौरे पर जा रहे बीजेपी के नेता बीपीएफ के कामकाज पर सवाल उठा रहे हैं. वहीं बीपीएफ पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार करने के आरोप लग रहे है. फिलहाल बीटीसी के कार्यकाल का पांच साल पूरा हो जाने से अगले चुनाव तक यहां का प्रशासन अब राज्यपाल के अधीन है.भारत-चीन तनाव के बीच भूटान के नाम पर क्या हो रही है राजनीति?
ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या भारत-चीन के बीच मौजूदा तनाव के माहौल में भूटान का नाम उछाल कर सत्ताधारी बीजेपी पर राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है?
असल में भूटान से सटा यह पूरा इलाक़ा अर्थात ये तमाम गांव बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) के अंतर्गत आते हैं. एक समय यह पूरा इलाक़ा बोडो चरमपंथी संगठनों की सक्रियता के कारण काफी अशांत रहा है. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 10 फ़रवरी, 2003 को हाग्रामा मोहिलारी की अध्यक्षता वाले विद्रोही संगठन बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के साथ एक समझौता किया. जिसके आधार पर बीटीसी का गठन हुआ.
इस समझौते के बाद से हाग्रामा मोहिलारी की पार्टी बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ) लगातार काउंसिल की सत्ता संभाल रही है. बीपीएफ ने अपने 12 विधायकों के साथ असम की सत्ता संभाल रही बीजेपी को समर्थन दे रखा है. लेकिन इस साल होने वाले बीटीसी चुनाव को लेकर बोडोलैंड इलाके में बीजेपी-बीपीएफ आमने सामने हैं.
इलाक़े के दौरे पर जा रहे बीजेपी के नेता बीपीएफ के कामकाज पर सवाल उठा रहे हैं. वहीं बीपीएफ पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार करने के आरोप लग रहे है. फिलहाल बीटीसी के कार्यकाल का पांच साल पूरा हो जाने से अगले चुनाव तक यहां का प्रशासन अब राज्यपाल के अधीन है.
भारत-भूटान के सीमावर्ती लोगों के बीच लंबे समय से समन्वय बनाए रखने का काम करते आ रहे भूटान के गेलेफु टाउन के रहने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता ने नाम प्रकाशित नहीं करने की शर्त पर बताया, "इस पूरी घटना के पीछे एक राजनीतिक कहानी छिपी हुई है. इस इलाके में बीपीएफ के कई बड़े नेता इस बार बीजेपी के साथ जाने वाले हैं और वे बीपीएफ के मौजूदा उम्मीदवार के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं. ऐसी जानकारी मिली थी कि ये नेता पानी के प्रभाव को रोकने के लिए समड्रोप जोंगखार के कुछ अधिकारियों को प्रभावित करने की कोशिश में लगे थे और उन्हीं लोगों ने असम के किसानों को विरोध करने के लिए उकसाया. लेकिन भूटान के अधिकारी इस बात को समझ गए और किसानों की समस्या का समाधान कर दिया. भूटान हमेशा से भारत का सबसे अच्छे दोस्त रहा है. इस तरह की राजनीति से दोनों देशों के लोगों के बीच न केवल मतभेद पैदा होंगे बल्कि विश्व के समक्ष भारत-भूटान की दोस्ती पर असर पड़ेगा."
बोडोलैंड इलाक़े की एक मात्र लोकसभा सीट कोकराझाड़ से निर्दलीय सांसद नव कुमार सरनिया सीमावर्ती गांवों में सिंचाई के लिए केंद्र सरकार से आवंटित फंड में भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाते हैं.
वे कहते हैं, "भूटान के साथ भारत का मसला चीन और नेपाल जैसा नहीं है. सीमावर्ती किसानों को पानी नहीं मिलने के इस मसले पर अगर ज़िला प्रशासन के लोग भूटान से बात कर लेते तो समस्या हल हो जाती. इन सीमावर्ती गांवों में सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है. लोग भूटान के अंदर जाकर मिट्टी-पत्थर के अस्थाई नाले बनाकर खेतों में पानी लाते हैं. मैंने सीमावर्ती गांवों के सिंचाई, भू-कटाव, पानी का जलाशय बनाने जैसे मुद्दे कई बार संसद में उठाए हैं. बीटीसी में सिंचाई के काम के लिए जो करोड़ों रुपये आए हैं उसमें व्यापक भ्रष्टाचार हुआ है. काला नदी (भारत की तरफ) पर चार करोड़ रुपये खर्च कर बांध बनाया गया था, वह बांध भी बर्बाद हो गया. उस इलाक़े में राजनीति करने वाले कुछ लोगों ने किसानों को धरने पर उतार दिया. जबकि यह इतना बड़ा मुद्दा ही नहीं था."
भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेता मानते है कि पानी रोकने के नाम पर भूटान के साथ भारत के संबंधों को मीडिया में उछालने के पीछे राजनीति हो सकती है.
असम प्रदेश बीजेपी उपाध्यक्ष विजय कुमार गुप्ता कहते हैं, "भूटान हमेशा से हमारा एक अच्छा मित्र रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले भूटान का दौरा किया था और आज उसी की बदौलत वहां कई पनबिजली प्रोजेक्ट चल रहे हैं. सीमावर्ती किसानों को पानी नहीं मिला या फिर असल समस्या क्या थी उसे समझना ज़रूरी है. कुछ लोग प्रोपगैंडा में ग़लत तरीक़ों का प्रयोग करके इस तरह की छोटी सी बात को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश करते हैं. भूटान ने इस मामले में अपनी बात कही है और वहां का शासन हमारे लोगों की मदद कर रहा है. इसके बावजूद कोई राजनीति कर रहा है तो वह अपने देश को ही नुक़सान पहुंचा रहा है. क्योंकि इससे भारत-भूटान के मज़बूत रिश्तों पर असर पड़ता है."
क्या बोली असम सरकार?
असम सरकार के मुख्य सचिव कुमार संजय कृष्णा ने भूटान के पानी रोकने की बात मीडिया में आने के बाद एक ट्वीट कर कहा, "हाल में आई मीडिया रिपोर्ट्स में ग़लत बताया गया है कि भूटान ने भारत को हो रही पानी की आपूर्ति को रोका है. भारतीय क्षेत्रों में अनौपचारिक सिंचाई चैनलों में प्राकृतिक अवरोध इसका वास्तविक कारण है. भूटान वास्तव में इस रुकावट को दूर करने में लोगों की मदद कर रहा है."
भारत-भूटान सीमावर्ती गांव में बीते 20 सालों से काम कर रहे राजू नार्जरी कहते हैं, "किसानों को पानी नहीं मिलने वाली बात स्थानीय समस्या है, इस लेकर दोनों देशों के बीच कोई विवाद नहीं है. पहले इस इलाक़े में बार्डर ही नहीं था. दोनों तरफ़ के लोग बिना रोक-टोक के आना जाना करते थे. अगर कोई परेशानी होती तो आपस में बात करके समाधान कर लेते थे. लेकिन 2003 में रॉयल भूटान आर्मी के साथ सेना ने असम के अलगाववादी विद्रोही समूहों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन ऑल क्लियर नाम से सैन्य अभियान चलाया और उसके बाद से भूटान के प्रवेश गेट तथा इसके आसपास सीमा पर फेंसिंग लगाई गई. दोनों तरफ़ सुरक्षा बलों को तैनात किया गया. अब लोगों को अंदर जाने के लिए आई-कार्ड और पास बनाने पड़ते हैं. लिहाज़ा जो लोग खेती करते हैं उनका अब भूटान के अंदर जाना पहले की तरह आसान नहीं रहा."
भूटान में पनबिजली बांध निर्माण में भारत के निवेश से जुड़े एक सवाल का जवाब देते हुए राजू कहते हैं, "भूटान से 56 नदियां निकली हैं और वे सारी बोडोलैंड में गिरती हैं. भूटान के लोग सही कह रहे हैं कि उन्होंने पानी को नहीं रोका. लेकिन यहां के किसानों को पहले के मुक़ाबले खेती के लिए पानी कम मिल रहा है. भारत हज़ारों मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए भूटान की नदियों पर बांध निर्माण करवा रहा है. इन बांधों में प्रवाह के लिए पानी की धार कई बार कम हो जाती है. असल में भारत सरकार को इन बांधों से नीचे की तरफ बसे किसानों को क्या नुक़सान हो सकता है उस बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. क्योंकि यह सैकड़ों किसानों की आजीविका से जुड़ा मुद्दा है."
भारत-भूटान संबंध
भूटान के साथ लंबे समय से भारत के काफी अनोखे और विशिष्ट संबंध रहे हैं. 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने पहले विदेश दौरे के रूप में भूटान को ही चुना था. प्रधानमंत्री मोदी शुरू से कहते रहे हैं कि पड़ोसी मुल्कों से मजबूत संबंध बनाए रखना उनकी प्राथमिकता होगी.
भूटान के संबंध देश की आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ज़माने से ही काफी अच्छे रहे हैं. 1958 में नेहरू ने भूटान का दौरा किया और भूटान की स्वतंत्रता के लिए भारत के समर्थन को दोहराया. फिर उन्होंने भारतीय संसद में घोषणा की कि भूटान के ख़िलाफ़ किसी भी आक्रमण को भारत के ख़िलाफ़ आक्रमण के रूप में देखा जाएगा.
लिहाज़ा भूटान उस ज़माने से भारत के साथ अपने मज़बूत रिश्तों को कायम रखे हुए है. फिर चाहे भारत में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो.
इन दोनों देशों के बीच संबंध कितने प्रगाढ़ हैं इसका ताज़ातरीन उदाहरण 600 मेगावाट के खलोंगछु जेवी-हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को लेकर किया गया समझौता है. सोमवार को हस्ताक्षर किए गए इस परियोजना के तहत भारतीय कंपनी भूटान में बिजली उत्पादन करेगी.(bbc)
-गिरीश मालवीय
बैन लगाना ही है तो चीन के दूसरे सबसे बैंक ‘बैंक ऑफ चाइना’ पर लगाइए !.......कुछ फालतू एप्प पर बैन लगाने से क्या हासिल होगा ?....... बैंक ऑफ चाइना को लाइसेंस नेहरू जी या मनमोहन सिंह ने नहीं दिया है यह 2018 में मोदीजी ने ही दिया है वह भी तब, जब 2018 में एससीओ समिट के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से इसका वादा करके आए थे।
बैंक ऑफ चाइना ने जुलाई 2016 में सिक्योरिटी क्लीयरेंस के लिए आवेदन किया था। इस बैंक पर आतंकवादी संगठनों की फंडिंग के आरोप थे लेकिन उसके बावजूद भी इसे भारत में व्यापार करने का लाइसेंस दे दिया गया
यही नहीं 2019 अगस्त में इसे भारतीय रिजर्व बैंक कानून, 1934 की दूसरी अनुसूची में शामिल कर लिया गया और देश में नियमित बैंक सेवायें देने की अनुमति दे दी गयी.... इससे पहले मोदी राज में ही जनवरी 2018 से इंडस्ट्रियल एंड कॉमर्शियल बैंक ऑफ चाइना को भी भारत में बिजनेस करने की अनुमति दे दी गई थी।
हमारे देश के बहुत से अर्थशास्त्री इन बैंको को लाइसेंस देने के खिलाफ थे, आरबीआई के पूर्व डेप्युटी गवर्नर पी. के. चक्रवर्ती ने उस वक्त कहा भी था कि चीन अपनी आक्रामक कारोबारी नीति के लिए जाना जाता है। चीन के पास जो भी रिसोर्स हैं, उसको वह बड़े अग्रेसिव तरीके से इस्तेमाल करता है। रिसोर्स, टेक्नॉलजी और अग्रेसिव रणनीति के मामले में हमारे सरकारी बैंक अभी पीछे हैं। अगर उनका मार्केट शेयर गिरा तो यह देश की इकॉनमी के लिए ठीक नहीं होगा।
मार्केट एक्सपर्ट और पूर्व बैंकर एस. के. लोढ़ा ने अमेरिका का उदाहरण देकर के समझाया था कि इस बैंक को लाइसेंस देना कितना गलत निर्णय है नवभारत टाईम्स में उन्होंने कहा
'अमेरिका ने पहले चीनी कंपनियों और बैंकों को अमेरिका में खुलकर काम करने दिया। इसका परिणाम यह रहा कि अमेरिका में चीन के कारोबारी और प्रॉडक्ट छा गए। इससे अमेरिका की इकॉनमी गड़बड़ा गई। चीन के कारोबारियों के साथ एक खास बात यह है कि वे विदेश में कारोबार करते हैं, पैसा कमाते हैं और इनवेस्टमेंट अपने देश में ज्यादा करते हैं'
वैसे आपको बता दूं कि बैंक ऑफ चाइना साधारण बैंक नही है। बैंक ऑफ चाइना यानी एसबीपी चीन सरकर द्वारा चलाई जा रही इनवेस्टमेंट कंपनी चाइना सेंट्रल हुईजिन के अधीन काम करता है। यह बैंक 50 देशों में फैला हुआ है, जिनमें से 19 चीन के ‘वन बेल्ट, वन रोड’ योजना के तहत आते हैं ओबीओआर यानी वन बेल्ट वन रोड परियोजना विश्व व्यापार को अपने कब्जे में कर लेने की चीन द्वारा चलाईं जा रही सबसे महत्वाकांक्षी योजना है। यह योजना चीन की विस्तारवादी नीति का ही प्रतिरूप है इसलिए इस बैंक का लाइसेंस कैंसल करना ही वह कार्य होगा जिससे चीन वास्तविक रूप में प्रभावित होगा क्योंकि उसका व्यापार सीधा प्रभावित होगा यह टिकटोक बैन करने से, या चीनी झालरों के बहिष्कार से कुछ हासिल नही होगा।
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस रफ्तार से कोरोना वायरस का संक्रमण बढ़ रहा है उसे देखते हुए दुनिया की एक बड़ी आबादी का इसकी चपेट में आना तय दिखता है
चीन से शुरू हुआ कोरोना वायरस का प्रकोप छह महीने बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा. आंकड़ों में देखें तो अब तक यह पूरी दुनिया में पांच लाख से ज्यादा लोगों की जान ले चुका है. कुल मामलों की संख्या एक करोड़ के पार चली गई है. चिंता की बात यह भी है कि जिन देशों के बारे में यह लग रहा था कि वहां अब इस महामारी की रफ्तार कम हो रही है, उनमें भी संक्रमण और मौतों के नए मामले दर्ज होने लगे हैं. चीन, ईरान और इटली और हाल में खुद को कोरोना वायरस मुक्त घोषित कर चुका न्यूजीलैंड इनमें शामिल हैं. इसे देखते हुए यह आशंका जोर पकड़ने लगी है कि कहीं अब इस महामारी की दूसरी लहर शुरू न हो जाए.
मास्क, सफाई और सोशल डिस्टेसिंग जैसी जरूरी सावधानियां रखकर कोरोना वायरस के संक्रमण से काफी हद तक बचा जा सकता है. लेकिन फिर भी कई जानकार मानते हैं कि जिस तरह से कोरोना वायरस फैल रहा है उसके चलते यह कहा जा सकता है कि दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से को इसकी चपेट में आना ही है. कुछ समय पहले लंदन के चर्चित इंपीरियल कॉलेज ने अपने एक अध्ययन में अनुमान लगाया था कि ब्रिटेन और अमेरिका में 80 फीसदी से ज्यादा लोगों को यह बीमारी अपनी चपेट में ले सकती है. यानी हो सकता है कि दुनिया में अधिकतर लोगों की कश्ती को इस तूफान से गुजरना ही पड़े. इसलिए कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अब डरने से ज्यादा समझदारी इस तूफान के लिए तैयारी करने में है.
कोरोना वायरस का अब तक कोई इलाज या वैक्सीन नहीं है इसलिए फिलहाल इसके लक्षणों को काबू में रखकर इसका इलाज करने की कोशिश की जाती है. अगर किसी व्यक्ति में इसके लक्षण विकट नहीं होते हैं तो वह कुछ दिनों में इससे अपने आप ही ठीक हो जाता है. ऐसे मामलों की संख्या लगभग 80 फीसदी होती है. बाकी लोगों को (लक्षणों के) इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कर लिया जाता है. ऐसे में कोरोना वायरस से मुकाबले की तैयारी दो स्तरों पर की जा सकती है. इनमें से पहला अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्यूनिटी को बढ़ाना है ताकि आपका शरीर इससे लड़ाई करने के लिए तैयार हो. और दूसरा इस बात का इंतजाम करना है कि कोरोना वायरस का संक्रमण होते ही इसके लक्षणों को काबू में रखने के हमारे प्रयास भी चालू हो जाएं ताकि ये लक्षण इतने न बिगड़ें कि हमें अस्पताल या आईसीयू में दाखिल होना पड़े. इस समय अस्पताल में भर्ती होना बहुत मुश्किल है और महंगा भी.
लेकिन कोरोना वायरस से संक्रमित ज्यादातर लोगों को इसका पता कई दिन बाद ही चल सकता है और तब तक उनमें से कुछ के लक्षण बिगड़ चुके होते हैं. तो फिर क्या किया जाए? किया यह जाए कि अपनी इम्यूनिटी बढ़ाने के साथ-साथ कोरोना संक्रमित न होने पर भी उसके लक्षणों को काबू में रखने के कुछ साधारण व नुकसानरहित प्रयास करते रहा जाए. यानी कि अपने खान-पान और आदतों में कुछ ऐसी चीजें भी शामिल की जाएं जो कोरोना वायरस के लक्षणों को कम करती हैं और कुछ ऐसी चीजों को इनसे बाहर करें जो इन लक्षणों को विकट बना सकती हैं. ऐसा करने से कोरोना संक्रमित होने पर हमारा एक दिन भी खराब नहीं होगा और शुरू से ही हमारे लक्षणों का उपचार चलता रहेगा.
इसके उदाहरण के तौर पर जब तक कोरोना का प्रकोप है हम ठंडी चीजें खाना और पीना बंद कर सकते हैं. क्योंकि संक्रमण होने पर इसके बारे में पता न चलने तक अगर हम कुछ दिन भी ठंडा खाते-पीते रहे तो यह हमारे लक्षणों को विकट कर सकता है. और अगर हम कुछ दिनों के अंतराल पर हम बिना जरूरत के भी भाप लेते रहें तो यह हमारे श्वसन तंत्र को हमेशा साफ-सुथरा रखेगा. ऐसे में संक्रमण होने पर हमें श्वसन तंत्र से जुड़ी परेशानियों से कम जूझना पड़ेगा क्योंकि इसकी शुरुआत से ही हम इसका एक किस्म का उपचार भी कर रहे होंगे.
भोजन
स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता का एक अहम आधार है खान-पान. विशेषज्ञों के मुताबिक वैसे तो खान-पान संबंधी अच्छी आदतें आपको हमेशा ही अपनानी चाहिए, फिर भी कोरोना वायरस संक्रमण के इस दौर में इनकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती है. और इन आदतों के लिए आपको अलग से जाकर कोई विशेष उपाय भी करने की जरूरत नहीं है. अपनी रोजमर्रा के खाने को समय पर खाना और इसमें तरह-तरह की चीजें शामिल करना कोरोना वायरस के खिलाफ आपके मोर्चे को मजबूत कर सकता है.
सुबह की चाय हममें से ज्यादातर की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है. जानकारों के मुताबिक अगर आप चाय में दूध की जगह नींबू शामिल कर लें तो इसका आपको काफी फायदा होगा. तब यह एंटीऑक्सीडेंट्स और विटामिन सी के मेल वाली लेमन टी हो जाएगी जो न सिर्फ कोरोना वायरस जैसे संक्रमण के खिलाफ आपकी प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्यूनिटी बढ़ाएगी बल्कि हल्के संक्रमण, जिससे ज्यादातर लोगों का सामना तय दिख ही रहा है, के दौरान आपको आराम पहुंचाने और जल्दी उबारने में भी मददगार साबित होगी. चाय न पीने के शौकीन सुबह नींबू और शहद वाला गुनगुना या गरम पानी पी सकते हैं. नींबू के बारे में तो हमें पता ही है और शहद खांसी-जुकाम के लक्षणों से भी गले को राहत देता है. एक साक्षात्कार में दिल्ली स्थित मैक्स अस्पताल में इंटरनल मेडिसिन विभाग के डॉक्टर रोमेल टिकू कहते हैं, ‘ये घरेलू नुस्खे आपकी इम्यूनिटी से जुड़े होते हैं. अगर आपकी इम्यूनिटी थोड़ी बेहतर हो जाएगी तो आपको इंफेक्शन नहीं होंगे.’
अगर आप चाय पीने के शौकीन हैं तो आप अपनी शाम की चाय में दालचीनी, अदरक, लौंग और काली मिर्च डालकर पी सकते हैं. नहीं शौकीन हैं तो भी फिलहाल इस तरह की एक चाय रोज़ पीने में कोई बुराई नहीं है. आप चाहें तो इसमें शक्कर की जगह गुड़ या शहद का इस्तेमाल कर सकते हैं. और अगर आप रोज दूध पीने वालों में से हैं तो दूध के गिलास में थोड़ी हल्दी डाल सकते हैं. इसे गोल्डन मिल्क भी कहा जाता है और इसका सुझाव आयुष मंत्रालय ने भी दिया है. हर घर की रसोई में पाई जाने वाले इन आम सी चीजों में एंटीवायरल होने से लेकर खांसी में आराम पहुंचाने तक तमाम गुण छिपे हैं. यानी ये कोरोना वायरस से बचाने और संक्रमण होने पर उससे उबरने की संभावना में मददगार हो सकती हैं.
इसके अलावा खाने में कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिनसे आपको बचने की जरूरत है. मसलन अगर आप मीठे के काफी शौकीन हैं तो अपनी इस आदत को कम से कम करने की कोशिश करें. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक आपको ऐसी चीजों का इस्तेमाल कम करना चाहिए जिनमें वसा (फैट), चीनी और नमक का स्तर ज्यादा हो क्योंकि इनका आपकी इम्यूनिटी पर बुरा असर पड़ता है. और जैसा कि हम ऊपर पढ़ ही चुके हैं कि फिलहाल आपको फ्रिज के ठंडे पानी और कोल्ड ड्रिंक्स-आइसक्रीम से भी परहेज करना चाहिए. कोरोना वायरस के इस दौर में आप निश्चित तौर पर नहीं चाहेंगे कि ये चीजें गलत वक्त पर आपका गला पकड़ लें और आपके लिए हालात मुश्किल कर दें.
नींद
शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को रीचार्ज होने के लिए अच्छी नींद यानी पर्याप्त आराम की जरूरत होती है. अगर नींद पर्याप्त नहीं होगी तो तनाव बढ़ेगा और इसका सीधा असर आपकी इम्यूनिटी पर पड़ेगा. इसलिए विशेषज्ञों के मुताबिक रोज सात-आठ घंटे की नींद जरूर सुनिश्चित करें. नींद आपके स्वास्थ्य का दूसरा प्रमुख आधार है. अगर आप स्वस्थ रहेंगे तो कोरोना वायरस के आपको संक्रमित करने की संभावना घट जाएगी और अगर आपको संक्रमण हो भी गया तो एक स्वस्थ शरीर में इससे लड़ने की ताकत बनिबस्त ज्यादा होगी. एक साक्षात्कार में अटलांटा स्थित मनोविज्ञानी डॉ. लोरी व्हाटले का कहना है कि स्वस्थ रहने के लिए नींद और पर्याप्त मात्रा में पानी पीना जरूरी है. वे कहती हैं, ‘ये वे चीजें हैं जिन पर हम नियंत्रण कर सकते हैं.’
फेफड़ों पर खास ध्यान
कोरोना वायरस का सबसे घातक हमला श्वसन तंत्र पर होता है जिसमें फेफड़े भी शामिल हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे में जरूरी है कि आप फेफड़ों की सेहत पर विशेष ध्यान दें. प्राणायाम को इनके लिए सबसे अच्छा व्यायाम कहा जाता रहा है. कोरोना वायरस के संदर्भ में कपालभाति प्राणायाम को बेहतर बताया गया है. भस्त्रिका प्राणायाम से भी आपको मदद मिलेगी और इसके लिए अनुलोम-विलोम को भी किया जा सकता है. दिल्ली में कोरोना वायरस से संक्रमित होकर उबर आने वाले पहले मरीज रोहित दत्ता ने कहा था कि प्राणायाम से उन्हें तेज रिकवरी में मदद मिली. 45 साल के रोहित दत्ता कारोबारी हैं. उत्तर भारत में कोरोना वायरस के इस पहले मरीज ने ठीक होने के बाद कहा, ‘मैं कोविड-19 के मरीजों के लिए प्राणायाम का सुझाव दूंगा. यह रिकवरी में बेहद काम आता है. इससे एंग्जाइटी लेवल्स कम रखने में मदद मिलती है.’
इसके अलावा श्वसन तंत्र की सेहत बनाए रखने के लिए आप भाप भी ले सकते हैं. इससे न सिर्फ आपके फेफड़ों की शक्ति बढ़ेगी बल्कि संक्रमण की सूरत में आपको खांसी में आराम भी मिलेगा. जानकारों के मुताबिक जिस पानी की भाप लेनी है उसमें पुदीने की कुछ पत्तियां या पेपरमिंट या यूकेलिप्टिस ऑयल की कुछ बूंद डालने से इसका असर बढ़ जाता है. आयुष मंत्रालय की एडवाइजरी के मुताबिक दिन में एक बार पुदीने के पत्ते या अजवाइन डाल कर पानी की भाप लेनी चाहिए.
जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ बुखार और सूखी खांसी इस संक्रमण के आम लक्षण हैं. इसके अलावा मरीजों में थकान, सांस लेने में तकलीफ, गला खराब होना और बदन दर्द जैसे लक्षण भी देखे गए हैं. तो अगर आप भी इनमें से कुछ या सभी लक्षण महसूस कर रहे हों तो आपको क्या करना चाहिए? विशेषज्ञों के मुताबिक इसके बाद आपको अपने आपको परिवार के बाकी लोगों से अलग-थलग करना होगा और डॉक्टरी परामर्श लेना होगा. अगर लक्षण हल्के हैं तो पैरासिटामोल और आईबूप्रोफेन जैसी आम दवाएं ली जा सकती हैं. लेकिन जैसे ही संभव हो डॉक्टरी मदद लेना जरूरी है. अस्पताल जाने से पहले ऐसा ऑनलाइन भी किया जा सकता है.
आखिर में एक बात और. ये सारे उपाय कोरोना वायरस से बचने या संक्रमण होने पर उससे उबर आने की गारंटी नहीं हैं. लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक इतना निश्चित है कि इनसे इस महामारी से अपेक्षाकृत आसानी से उबरने की संभावनाएं खासी बढ़ जाती हैं. (satyagrah.scroll.in)
दलित परिवारों के पास जो छोटे काम थे वे ख़त्म हो गये
-सुमन देवठिया
आज कोरोना महामारी पूरे देश में तेज़ी से फ़ैल रही है जिसकी चपेट में भारत भी है। कोरोना ने ना केवल इंसान के स्वास्थ्य को प्रभावित किया है बल्कि इंसान के रोजगार, आजादी और पसंद को भी छीन लिया है और इसका प्रभाव महिलाओं पर शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत नकारात्मक पड़ा है। कोरोना के बचाव के रूप में हुए लॉकडाउन के दौरान घरों में होने वाली हिंसा के आँकड़े भी बढ़ें हैं, जिसकी पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ़ से जारी किये गये आँकड़ों में भी साफ़ है।
इन महिलाओं में भी अगर दलित महिलाओं की बात करें तो ये दलित महिलाएँ शारीरिक हिंसा की शिकार तो हुई ही है, लेकिन अन्य महिलाओं की तुलना में मानसिक पीड़ा की शिकार ज्यादा हुई है, क्योंकि हमारे देश के श्रमिक व पलायन करने वाले परिवारों को देखा जाये तो हम पाएंगे कि इनमें सबसे ज्यादा दलित परिवार ही होते है। ग़ौरतलब है कि अधिकतर दलित महिलाएँ ही पुरुषों के साथ मजदूरी का काम करती है। पलायन करने वाले परिवारों की मजदूरी असंगठित क्षेत्रों पर निर्भर रहती है, जैसे ईंट-भट्टा, फ़ेक्ट्री, ठेकेदारी, रोजाना मजदूरी आदि रोजगार के साधन रहे है। पर कोरोना की वजह से इन्हें वापिस अपने घरों में आना पड़ा है, जहां उनके लिए ना कोई रोजगार है और ना ही रहने, खाने व पीने की व्यवस्था है।
राजस्थान की पूनम वर्मा (सामाजिक कार्यकर्ता, दलित वीमेन फ़ाइट) से बात करने पर पता चला कि ‘कोविड-19 की वजह से बेरोजगारी ज्यादा बढ़ गई है। लोग आर्थिक तंगी का सामना कर रहे है। महिलाओं के साथ शारिरिक व मानसिक प्रताड़ना भी बढ़ गयी है और इससे शिक्षा भी प्रभावित हुई है, जो पहले से ही दलित बच्चों में बेहद सीमित थी। साथ ही, पलायन किये हुए कुछ दलित परिवारों के पास अपने दस्तावेज पूरे नहीं है, जिसकी वजह से भी उनको सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
वहीं राजस्थान की रहने वाली (एक सामूहिक दुष्कर्म से पीड़ित) नाबालिग बालिका की माँ का कहना है कि ‘पहले ही लोग हमारे साथ बहुत जातिगत भेदभाव करते थे और हमें मजदूरी देने से भी कतराते थे। अब इस कोरोना ने हमें और ज्यादा अछूत बना दिया है।’ दलित महिलाओं के साथ काम करने पर हमारा यह भी अनुभव रहा है कि यह कोरोना दलित मजदूर महिलाओं को जातिगत व्यवसाय करने पर मजबूर कर रहा है। साथ ही, कुछ दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं के न्याय को दूर होते और गाँव के दबंग लोगों के हाथों अपने घर के पुरुषों को रोटी के लिए बिकने को मजबूर कर रहा है।
दलित महिलाओं के साथ काम करने पर हमारा यह भी अनुभव रहा है कि यह कोरोना दलित मजदूर महिलाओं को जातिगत व्यवसाय करने पर मजबूर कर रहा है।
हमारे समाज में आमतौर पर दलित महिलाएँ ज्यादातर रोजाना की मजदूरी पर निर्भर रहती है और एक जिला व राज्य से दूसरे जिला व राज्यो में मजदूरी की वजह से पलायन भी करती है। लेकिन लॉकडाउन की वजह से मजदूरी बन्द होने के कारण उन्हें वापिस अपने मूल निवास पर आना पड़ा है, जहां पर उनके जीवनयापन के लिए कुछ भी रोजगार नहीं है। राजस्थान में दलित परिवारों के पास जो छोटे काम थे वह भी कोविड 19 की वजह से ख़त्म हो गये है। इसी संदर्भ में दलित महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहिनी बाई बताती है कि ‘लॉकडाउन की वजह से मेरे टिफ़िन सेन्टर व केटरीन का काम ठप हो गया है।’
इसलिए हम दलित महिलाएँ इस परंपरागत आचरण और रीतियों को तोड़कर एक स्थायी निवास, आजादी व स्वाभिमान के साथ जीना चाहते है। हम इस देश के श्रमिक है लेकिन अपनी रोजी-रोटी को स्वाभिमान से पाना चाहते हैं। हमें लगता है कि इस सच्चाई को बाहर लाने के लिए सरकार या संस्थाओ को एक अध्ययन करना चाहिए ताकि इस अत्याचार, रोजगार व स्वास्थ्य की हक़ीक़त उजागर हो सके…..!!!
(यह लेख पूर्व में 'फेमिनिज्म इन इंडिया' में प्रकाशित किया जा चूका है ) (hindi.feminisminindia.com)
वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है
पिछले करीब डेढ़ साल से हांगकांग आंतरिक हलचलों और तनाव से जूझ रहा है. हांगकांग के लोकतांत्रिक ढांचे पर आघात और वहां के नागरिकों के मानवाधिकारों के हनन की खबरों ने दुनिया को चिंता में डाल दिया है.
"वन कंट्री टू सिस्टम" के वादे के साथ 1997 में ब्रिटेन से चीन के अधिकार में आए हांगकांग के नागरिकों ने कभी सोचा नहीं था कि जिन लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों को वे अपनी सामाजिक और राजनीतिकि व्यवस्था का अभिन्न अंग मान रहे थे, उन्हीं को बचाने के लिए उन्हें सड़कों पर आना पड़ जाएगा और इसके लिए इतने लंबे संघर्ष की जरूरत पड़ेगी.
चीन और ब्रिटेन के बीच समझौते और चीन की "वन कंट्री टू सिस्टम" की नीति के तहत हांगकांग को अपना अलग राजनीतिक और न्यायिक तंत्र रखने की छूट मिली थी, साथ ही अपनी मुद्रा, झंडा, और व्यक्तिगत आर्थिक और सामाजिक आजादी भी, लेकिन आज सब कुछ हाथ से फिसलता लग रहा है.
हांगकांग में उथल पुथल क्यों
बद से बदतर होते हालात के बीच चीन की सरकार ने पिछले महीने हांगकांग में एक नया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने की घोषणा कर दी. 22 मई को चीन की नेशनल पीपल्स कांग्रेस की बैठक में हांगकांग संबंधी बिल पास कर दिया गया जिससे अब कानूनी तौर पर शी जिनपिंग की चीनी सरकार के हाथ में हांगकांग में इच्छानुसार कानूनी बदलाव लाने की क्षमता आ गई है.
समझा जाता है कि यह कानून जुलाई से लागू हो जाएगा. इस कानून के कई पहलू हैं जो डराने वाले हैं. इनमें सबसे प्रधान तो यही है कि कुछ मुद्दों पर इस कानून को हांगकांग के अपने कानून और नियमों पर वरीयता मिलेगी. इसके साफ मायने हैं लोगों की राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रताओं का सीधा हनन होगा.
सरकार के खिलाफ प्रदर्शनों को कानूनी अपराध से लेकर आतंकवाद और देशद्रोह तक कुछ भी माना जा सकता है. क्या जुर्म तय होगा, यह भी पुलिस और सरकार ही तय करेगी. इस कानून के तहत चीन हांगकांग में एक राष्ट्रीय सुरक्षा आफिस भी बनाएगा. और तो और, इस कानून के तहत हांगकांग के राज्याधिकारी अब यह तय करेंगे कि राष्ट्रीय सुरक्षा के किस केस को कौन सा जज सुने जो कि हांगकांग की स्वतंत्र न्यायपालिका पर एक तुषारापात है.
साफ है, हांगकांग के प्रशासकों ने अपने विवेक का उपयोग करने के बजाय चीन की सरकार के निर्देशों का आंख मूंद कर पालन किया और नतीजतन छोटी-छोटी घटनाओं ने धीरे धीरे जमा होते-होते एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया. हांगकांग एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका हल अब अकेले हांगकांग के लोग शायद ही कर पाएं. जाशुआ वांग जैसे हांगकांग के युवा नेताओं ने दुनिया भर के देशों, खास तौर पर लोकतांत्रिक देशों से, गुहार लगाई है कि इस संकट की घड़ी में ये देश हांगकांग के नागरिकों की सहायता करें.
ब्रिटेन की बोरिस जॉनसन सरकार ने आश्वासन तो दिया है कि वो हांगकांग से आए लोगों को अपने देश में पनाह देंगे लेकिन इस सुविधा में 1997 के बाद पैदा हुए लोग भी जोड़े जाएंगे या नहीं, यह कहना मुश्किल है.
क्या चाहते हैं हांगकांग के लोग
हांगकांग में उपजे इस संघर्ष की जड़ में है वहां की सरकार का प्रस्तावित प्रत्यर्पण बिल. अक्टूबर 2019 में पेश किए गए इस बिल के कई प्रावधान ऐसे थे जिन्हें लोगों ने नकार दिया और इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच बढ़ते तनाव ने हिंसात्मक रूप ले लिया जिससे प्रदर्शनकारी भी जिद पर अड़ गए.
जाशुआ वांग और अन्य प्रदर्शनकारियों की कई मांगें हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:
1. प्रत्यर्पण बिल को वापस ले लिया जाए.
2. पुलिस के हिंसक और बर्बरतापूर्ण व्यवहार की निष्पक्ष जांच हो दोषियों को दंड दिया जाए.
3. प्रदर्शनकारियों को दंगाई की संज्ञा न दी जाए और उन पर लगे सारे आरोपों को वापस लिया जाए.
4. विधायी परिषद और मुख्य कार्यकारी के चुनाओं में सर्वव्यापक मताधिकार की व्यवस्था की जाए.
बहरहाल, प्रदर्शनकारियों की तमाम मांगों और विरोध प्रदर्शनों को धता बताते हुए हांगकांग की सरकार ने चीन की सरकार के इशारे पर नया कानून लागू करने का निर्णय लिया है जिसके तहत इन तमाम मांगों का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.
लोकतांत्रिक देशों ने चीन के इस कदम पर खासा विरोध दर्ज कराया है और कहा है कि यह कानून चीन की "वन कंट्री टू सिस्टम" की नीति के विरुद्ध है और इनसे हांगकांग की स्वायत्तता का हनन होगा.
भारत क्या कर सकता है
भारत ने इस मुद्दे पर फिलहाल चुप्पी साध रखी है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत को हांगकांग का साथ देना चाहिए. हालांकि भारत ने कभी आधिकारिक तौर पर, अमेरिका और पश्चिमी देशों के रास्ते पर चलते हुए दूसरे देशों में लोकतंत्र को बढ़ावा देने की नीति को समर्थन नहीं किया है, और पंचशील नीति के तहत वह दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता, लेकिन लोकतंत्र को बढ़ावा देना इसकी विदेशनीति का हिस्सा रहा है.
अगर भारतीय विदेश नीति के इतिहास को कायदे से देखा जाए तो साफ दिखता है कि पिछले 70 सालों में कई बार ऐसे अवसर आए हैं जब भारत के नीति नियामकों ने दूसरे देशों में लोकतंत्र के समर्थन में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. मिसाल के तौर पर 90 के दशक में म्यांमार के साथ भारत के संबंधों में खासी कड़वाहट इस बात को लेकर बन गई थी कि वहां चुनावों में जीत कर आईं आंग सान सू ची को सेना ने सत्ता देने से इनकार कर दिया था. नेपाल और पाकिस्तान के साथ भी भारत के संबंधों में लोकतंत्र एक बहुत बड़ा कारक रहा है.
हांगकांग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और इस लड़ाई में भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों का साथ उसके लिए बहुत जरूरी है. (www.dw.com)
इस लॉकडाउन में जब शेल्टर की जिम्मेदारी जिला प्रशासन से मिली तो सबसे पहले बातचीत शुरू हुई उन सभी श्रमिकों से जिनके घर छत्तीसगढ़ में ही थे, लेकिन वो घर नहीं लौटना चाहते थे। थोड़ा अजीब लगा, फिर बातचीत से समझ आया चावड़ी में काम करने वालों का जीवन का नया पक्ष।
कोई भी युवा अपने गांव में काम और खेती की कमी के साथ-साथ कुछ अधिक पैसा कमाने के सपनों के साथ शहर आता है। शुरुआत में किसी की मदद से पहुँचता है फिर धीरे-धीरे अपना काम का नेटवर्क बनाता जाता है। इनमें से कुछ लोग पहुँचते हैं श्रम के बाजार में। जहाँ सुबह बोली लगती है काम और विशेष कौशल की भी। अधिकांश सामान उतारने-चढ़ाने, निर्माण कार्य, कैटरिंग आदि रहते हैं। इसमें 400 से लेकर 1500 रुपए तक की कमाई होती है और काम करने वाले धीरे-धीरे कौशलयुक्त हो जाते हैं तो उनकी मांग और आय दोनों बढ़ती जाती है।
कैटरिंग में सब्जी काटने वाले सब्जी बनाने लगते हैं तो आगे जाकर चायनीज खाने के विशेषज्ञ भी। लेकिन इनके पास पैसे का आना इन्हें कुछ आदतों में शामिल करता जाता है, उनमें विशेष शराब की लत लगना होता है। इनमें से 50 प्रतिशत ही होंगे जिनका कोई स्थाई ठिकाना शहर में होता है। ये किसी स्टेशन के बेंच में, पार्क में, रैनबसेरा में या किसी रिश्तेदार के घर में रहते हैं जिसका कोई स्थाई किराया नहीं देना होता, कोई गृहस्थी नहीं चलानी होती। अपने घरों में मात्र दो-तीन महीनों में जेब में अच्छा पैसा लेकर जाते हैं। इनका परिवार में सम्मान इनके नगद की वृद्धि के साथ बढ़ता जाता है। जिस गांव के निवासी होते हैं, उसके समाज से धीरे-धीरे कटते जाते हैं और शहर में उनका कोई समाज या संगठन खड़ा ही नहीं होता। इसलिए वो असंगठित के दायरे में आ जाते हैं। इन्हें भोजन की कोई समस्या नहीं होती क्योंकि चावड़ी या स्टेशन में 40 रुपये थाली में पर्याप्त भोजन मिलता है। ऐसे ही कई वर्षों से सबका जीवन चल ही रहा है।
ऐसे में अचानक लॉकडाउन से सब कुछ बंद हो जाता है। काम, भोजन, परिवहन तो सब पहुंचे शेल्टर। शेल्टर से जब लौटने का समय आने लगा तो सबने कहा कि हम घर नहीं जाएंगे..कारण? जेब में पैसे नहीं, पैसे नहीं तो घर में इज्जत नहीं, भोजन नहीं, पहले तो विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब पूरी कहानी समझा गया तो समझ आया इनका रिश्ते-नातों का सूत्र मात्र नगद है। बच्चे से लेकर पत्नी और माता-पिता भी अधिकांश के मूल्यों के साथ नहीं जुड़े हैं, रिश्तों की गर्माहट तो कब की समाप्त हो चुकी है। परिवार के लिए वो एकमात्र पैसा कमाने की मशीन हैं। तब हमने दूसरा विकल्प दिया कि किसी ठेकेदार के साथ काम करने जाइये, क्योंकि चावड़ी की शुरुआत नहीं हुई है तो जो कारण उन्होंने बताये।
1 . चावड़ी में रोज नहीं जाना पड़ता, ठेके में जाना होता है।
2. चावड़ी से मिले काम में पैसा बहुत है, ठेके में कम।
3. चावड़ी के पैसे उसी दिन मिलते हैं, वो भी नगद, ठेके में कई बार हफ्ते तो कभी महीने में, हो सकता है कि बैंक में डालते हों।
4. चावड़ी के माध्यम से मिले काम में कोई बेइज्जती नहीं करते, सब कौशल का सम्मान करते हैं इसलिए ही चुने जाते हैं। ठेके में गालियां सुनने मिलती हैं।
5. इसमें छुट्टी का झंझट नहीं, ठेके में है।
6. इसमें गृहस्थी नहीं चाहिए, उसमें काम के आसपास ही रसोई जमानी पड़ेगी।
हमारे लिए सब नई बात थी, नए तर्क थे। इनमें से कुछ आखिरकार मजबूरी में काम की तलाश में ठेकेदार के साथ चले गए। कुछ चावड़ी वापस लौटे उम्मीद में कि कभी तो सब खुलेगा।
अब सब खुल गया है , लेकिन समस्याएं वहीं हैं।
1. किसी के पास श्रम कार्ड नहीं है।
2. किसी का बैंक खाता नहीं है।
3. किसी के कौशल की कोई सूची कहीं नहीं है।
अब सरकार को चाहिए कि
1. चावड़ी को व्यवस्थित करें।
2. सभी आने वाले मजदूरों को कौशल के साथ पंजीकृत करें।
3. सबका बैंक खाता अनिवार्य हो
4. काम के मांग का डिस्प्ले बोर्ड बने।
5. अभी महिलाओं के लिए यह बहुत सहज वातावरण के साथ नहीं है, जिसे योग्य बनाया जा सकता है।
6. टोकन सिस्टम हो। काम का अवसर देने वाला एक दिन पूर्व सुचना दे।
कुछ बहुत आसान सा है। करने योग्य भी। लगता है बाकी सबका सुझाव आमंत्रित है।
दुनिया भर में हिंदू बहुल आबादी वाले दो ही देश हैं, एक भारत और दूसरा नेपाल। भारत की कुल जनसंख्या में हिंदू आबादी करीब 80 फीसदी है, जबकि नेपाल में यह आंकड़ा 85 फीसदी है। वर्षों से इसे दोनों देशों के जुड़ाव की एक बड़ी वजह माना जाता है। लेकिन पिछले कुछ समय से भारत और नेपाल के रिश्ते तनावपूर्ण बने हुए हैं।
फिलहाल दोनों देशों के बीच तनाव की वजह नेपाल का नया नक्शा बना है जिसे भारत के कड़े विरोध के बाद भी जारी कर दिया गया। इस नक्शे में लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाली क्षेत्र में दर्शाया गया है, जबकि भारत इन्हें अपना इलाका मानता है। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली इस समय भारत के लिए बेहद कठोर शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। बीते हफ्ते उन्होंने भारत पर नेपाल की जमीन पर कब्जा करने का आरोप लगाया।
ओली ने कहा, ‘लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी विवादित भूमि हैं। कालापानी में भारतीय सेना रखकर हमसे हमारी जमीन छीनी गई है। जब तक वहां भारतीय सेना की मौजूदगी नहीं थी, तब तक वह जमीन हमारे पास ही थी। सेना रखने के कारण हम उधर नहीं जा सकते हैं। एक प्रकार से कहा जाए तो यह कब्जा है।।। हम कूटनीतिक संवाद के जरिए समाधान चाहते हैं और समाधान तब होगा जब हमें हमारी जमीन वापस मिलेगी।’ ओली ने भारत पर फर्जी सीमा बनाने का आरोप भी लगाया है।
भारत और नेपाल के बीच बीते महीने यह विवाद तब शुरू हुआ जब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में लिपुलेख दर्रे को धारचुला से जोडऩे वाली 80 किलोमीटर लंबी सडक़ का उद्घाटन किया। नेपाल ने इस सडक़ के उद्घाटन पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए दावा किया कि यह सडक़ नेपाली क्षेत्र से होकर गुजरती है। भारत ने नेपाल के दावों को खारिज करते हुए दोहराया कि यह सडक़ पूरी तरह से उसके भूभाग में स्थित है। इस घटनाक्रम से कुछ महीने पहले ही भारत ने अपना एक नया नक्शा जारी किया था जिसमें उसने कालापानी क्षेत्र को अपना हिस्सा बताया था। नेपाल सरकार भारत के इस फैसले का भी विरोध कर रही है।
दोनों देशों के बीच तनाव का परिणाम सीमा पर भी दिखा। एक महीने के अंदर भारत और नेपाल की सीमा पर दो बार गोली चली। बिहार से मिलती नेपाल की सीमा पर नेपाल पुलिस की फायरिंग में एक भारतीय नागरिक की मौत हो गयी और दो अन्य घायल हुए। स्थानीय लोगों के मुताबिक नेपाल पुलिस ने यह फायरिंग तब की जब ये लोग सीमा पर स्थित अपने खेतों में काम करने जा रहे थे। हालांकि, नेपाल पुलिस ने मारे गए व्यक्ति और घायलों को तस्कर बताया। इससे पहले बीते महीने भी बिहार-नेपाल सीमा पर इस तरह की घटना हुई थी। तब भी भारतीय किसानों को रोकने के लिए नेपाली पुलिस ने हवाई फायरिंग की थी। आज स्थिति यह है कि सीमा के नजदीक रहने वाले भारतीयों का नेपाल में अपने रिश्तेदारों से मिलना मुश्किल हो गया है क्योंकि नेपाल पुलिस अब उन्हें सीमा पार नहीं करने देती है।
नेपाल की सरकार इस समय भारत से इस कदर नाराज है कि वह अपने नागरिकता कानून में भी एक बड़ा बदलाव करने जा रही है। 21 जीन को नेपाल की संसद में नागरिकता संशोधन बिल पेश किया गया। इस कानून के पास होने के बाद नेपाल में विवाह करने वाली दूसरे देश की महिलाओं को नागरिकता के लिए सात साल तक इंतजार करना पड़ेगा। वैसे तो यह कानून सभी देशों पर लागू होगा, लेकिन जानकारों का मानना है कि इसे भारत की वजह से ही लाया गया है क्योंकि नेपाल के मधेसी समुदाय और भारत में सीमा के नजदीक रहने वाले लोगों में एक-दूसरे के यहां शादी करना आम बात है। भारत और नेपाल के बीच का रिश्ता भी बेटी और रोटी का माना जाता है।
साल 2015 में रिश्तों में कड़वाहट शुरू हुई
भले ही भारत-नेपाल के बीच इस समय तनाव अपने चरम पर हो, लेकिन दोनों देशों के बीच रिश्तों में कड़वाहट करीब पांच साल पहले आना शुरू हुई थी। तब नेपाल में तराई के इलाकों में रहने वाले मधेसी और थारू समुदायों ने नए संविधान में बेहतर प्रतिनिधित्व न मिलने पर अपनी सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ दिया था। उस समय मोदी सरकार ने नेपाली संविधान में (भारत के करीबी माने जाने वाले) मधेसियों को उचित स्थान दिए जाने की वकालत की थी और इस मामले को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भी उठाया था। तब मधेसियों ने भारत की सीमा से नेपाल में सामान की आवाजाही पूरी तरह बंद कर दी थी। हर जरूरी सामान के लिए केवल भारत पर निर्भर नेपाल में इस आर्थिक नाकेबंदी के चलते डीजल, पेट्रोल, गैस और खाने-पीने के सामान की काफी किल्ल्त हो गई थी।
नेपाल सरकार का कहना था कि जिन सीमाई इलाकों में मधेसियों ने नाकाबंदी नहीं की है, वहां से भी भारत सरकार सामान नहीं भेज रही है। ऐसे में नेपाल सरकार और वहां के अधिकांश लोग यह मानने लगे थे कि मधेसियों की नाकाबंदी के पीछे भारत की नरेंद्र मोदी सरकार का ही हाथ है। उस समय नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने देश के बिगड़े हालात के लिए कई बार सीधे तौर पर भारत को जिम्मेदार भी ठहराया था। उन्होंने एक बयान में कहा था कि नेपाल को एक विकसित और खुशहाल हिमालयी राष्ट्र बनाने को लेकर उन्होंने काफी सपने देखे थे, लेकिन भारत की नाकाबंदी ने इन सपनों को तबाह कर दिया। उन्होंने भारत द्वारा इस मसले को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उठाने पर भी नाराजगी जताई थी।
चीन ने तुरंत मौके का फायदा उठाया
2015 में बनी इन परिस्थितियों से उबरने के लिए नेपाल को चीन के पास जाना पड़ा। चीन ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया और नेपाल की खुलकर मदद की। उसने अपनी सीमा को नेपाल में सामान की आवाजाही के लिए पूरी तरह खोल दिया। उसने नेपाल को कई महीनों तक तेल, गैस और खाने-पीने की चीजें मुफ्त में या बेहद रियायती दामों पर दीं। इसके चलते देखते ही देखते चीन और नेपाल के संबंध काफी ज्यादा मजबूत हो गए। लेकिन, उस समय चीन की तरफ झुकते जा रहे केपी शर्मा ओली को उनके गठबंधन में शामिल पुष्प कमल दहल (प्रचंड) ने तगड़ा झटका दिया
और सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। जुलाई 2016 में ओली की सरकार गिर गयी और इसके बाद प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) ने नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार का गठन किया। इस सरकार में एक समझौते के तहत पहले प्रचंड प्रधानमंत्री बने और फिर नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ने यह पद संभाला।
इसके करीब साल भर बाद नवंबर-दिसंबर 2017 में नेपाल में राष्ट्रीय चुनाव हुआ। कुछ महीने पहले ही अलग हो चुके केपी शर्मा ओली और प्रचंड इस चुनाव में फिर एक साथ आ गए और अपनी पार्टियों का विलय कर एक मोर्चे (नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी) का गठन किया। नेपाली मीडिया के मुताबिक चीन ने केपी ओली और पुष्प कमल दहल (प्रचंड) की वामपंथी पार्टियों के बीच गठबंधन करवाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
नेपाल के इस चुनाव में जहां वामपंथी केपी ओली को चीन का उम्मीदवार माना जा रहा था, वहीं नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा को भारत का। चुनाव में ओली और प्रचंड के मोर्चे की बड़ी जीत हुई और केपी शर्मा ओली देश के प्रधानमंत्री बने। यह भारत के लिए बड़े झटके जैसा था क्योंकि ओली चीन के बड़े समर्थक थे और उनकी जीत एक तरह से नेपाल के मामले में भारत के ऊपर चीन की जीत थी।
जैसी आशंका जताई जा रही थी केपी शर्मा ओली ने दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने रास्ते चीन की ओर मोड़ दिए और उससे कई बड़े-बड़े समझौते किये। प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने बाद उन्होंने चीन की पांच दिवसीय यात्रा की। इस दौरान चीन के साथ 14 समझौते किये गये। 15 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के इन समझौतों में ऊर्जा, पर्यटन, जल विद्युत, सीमेंट फैक्ट्री, व्यापार और कृषि जैसे कई क्षेत्र शामिल हैं। इसके अलावा इस दौरान दोनों देश उस रेलवे लाइन को बिछाने पर भी सहमत हो गए, जो तिब्बत के ग्योरोंग पोर्ट को नेपाल के काठमांडू से जोड़ेगी।
ओली की इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच नेपाल में विमानन, बंदरगाहों तक राजमार्ग, दूरसंचार क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव, नेपाल में तीन बड़े आर्थिक गलियारों के विकास में तेजी लाने, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासतों और स्कूलों के पुनर्निर्माण में सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति बनी। दोनों के बीच एक समझौता सुरक्षा और कानून व्यवस्था को लेकर भी हुआ जिसके तहत दोनों देशों की खुफिया और पुलिस सेवाएं मिलकर काम करेंगी। नेपाल के पोखरा क्षेत्र में चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना के तहत एयरपोर्ट का निर्माण करने को लेकर भी एक समझौता हुआ जिस पर इस वक्त काफी तेजी से काम चल रहा है। चीन ने बीते साल तिब्बत से नेपाल को जोडऩे वाले हाइवे को यातायात और व्यापार के लिए खोल दिया।
इसके अलावा चीन ने नेपाल में भारी भरकम निवेश भी किया है। वह पिछले चार सालों से लगातार नेपाल में सबसे ज्यादा निवेश करने वाला देश बना हुआ है। हाल में नेपाल के उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़े के मुताबिक वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में (नेपाल में वित्तीय वर्ष जुलाई से शुरु होता है) नेपाल में चीन का प्रत्यक्ष निवेश करीब नौ करोड़ डॉलर था जबकि, इसी समय में भारत का करीब दो करोड़ डॉलर। इस वित्त वर्ष में नेपाल में हुए कुल विदेशी निवेश का 93 फीसदी हिस्सा चीन से आया है। पिछले कुछ सालों से चीन दो से चार अरब डॉलर की सालाना वित्तीय मदद भी नेपाल को देता आ रहा है। बीते साल अक्टूबर में 23 साल बाद चीन का कोई राष्ट्रपति नेपाल पहुंचा था। इस यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिंनपिंग ने नेपाल को 56 अरब नेपाली रुपए की मदद देने की घोषणा की थी।
केपी शर्मा ओली के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत के प्रयास
नेपाल में नवंबर-दिसंबर 2017 में हुए चुनाव के बाद फरवरी 2018 जब केपी शर्मा ओली दोबारा प्रधानमंत्री बने तो भारत ने भी उन्हें साधने की कोशिशें तेज कर दीं। इसके तुरंत बाद तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज खुद नेपाल गयीं और नेपाली पीएम को पहली विदेश यात्रा के लिए भारत आने का न्योता दिया। इसके बाद केपी ओली भारत यात्रा पर आए और फिर इसके कुछ महीनों बाद ही नरेंद्र मोदी भी नेपाल यात्रा पर गये। इन दोनों मौकों पर भारत ने नेपाल के साथ कई नए समझौते किये। बीते साल सितम्बर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के मोतिहारी से नेपाल के अमलेखगंज तक तेल पाइपलाइन का भी उद्घाटन कर दिया, जिसे नेपाल के लिए एक बड़ी सहूलियत माना जाता है। बीते समय में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की यात्राओं के दौरान चीन से संबंधों को लेकर नेपाली प्रधानमंत्री ने भारत को आश्वस्त भी किया। उन्होंने कहा कि वे इनके चलते भारत के हितों पर कोई आंच नहीं आने देंगे।
भारत की नेपाल को साधने की कोशिश कुछ हद तक सफल भी हुई। साल 2016 में केपी शर्मा ओली ने खुद चीन द्वारा बिछाई जाने वाली रेल लाइन को तिब्बत से नेपाल के लुंबिनी यानी भारत की सीमा तक लाने की बात की थी। लेकिन, 2018 में चीन यात्रा के दौरान उन्होंने इसे काठमांडू तक सीमित कर दिया। माना गया कि नेपाल ने यह फैसला भारत की वजह से लिया। नेपाल ने चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव योजना के तहत भी कोई ऐसा समझौता अभी तक नहीं किया है जिससे भारत को कोई नुकसान हो।
संबंध पटरी पर आने लगे थे, तभी भारत का नया नक्शा जारी हो गया
भारत और नेपाल के बीच 2015 के मधेसी आंदोलन के समय जो रिश्ते खराब हो गए थे, वे बीते एक-डेढ़ साल में धीरे-धीरे पटरी पर आना शुरू हो गए थे। लेकिन बीते नवंबर में एक बार फिर दोनों के बीच तब अनबन शुरू हो गयी जब भारत की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश का नया राजनीतिक नक्शा जारी किया। सरकार ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद दो नवंबर को यह नक्शा जारी किया था। नेपाल ने भारत के नए नक्शे पर सवाल उठाए। नेपाल को इस मानचित्र के उस हिस्से से आपत्ति थी, जहां विवादित कालापानी क्षेत्र को भारतीय सीमा के अंदर दिखाया गया है। नेपाल का दावा है कि कालापानी क्षेत्र नेपाल के दार्चुला जि़ले का हिस्सा है। उधर, भारत का कहना है कि ‘कालापानी’ उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जि़ले का भाग है।
कालापानी एक तरह से डोकलाम की तरह ही है, जहां तीन देशों की सीमाएं हैं। डोकलाम में भारत, भूटान और चीन हैं। वहीं कालापानी में भारत, नेपाल और चीन हैं। ऐसे में सैन्य नजरिये से यह ट्राइजंक्शन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। यह उस क्षेत्र में सबसे ऊंची जगह भी है। 1962 युद्ध के दौरान भारतीय सेना यहां पर थी। सामरिक मामलों के जानकार बताते हैं कि इस क्षेत्र में चीन ने भी बहुत हमले नहीं किए थे क्योंकि भारतीय सेना यहां मजबूत स्थिति में थी। इस युद्ध के बाद जब भारत ने वहां अपनी पोस्ट बनाई, तब नेपाल ने इसका कोई विरोध नहीं किया था। जानकारों की मानें तो भारत का यह डर है कि अगर वह इस पोस्ट को छोड़ता है, तो हो सकता है चीन यहां धमक जाए और इस स्थिति में भारत को सिर्फ नुकसान ही होगा। इन्हीं बातों के मद्देनजऱ भारत इस इलाके से सेना को नहीं हटाना चाहता है। बहरहाल, बीते नवंबर में जब भारत के नए नक़्शे का नेपाल में भारी विरोध हुआ तो वहां की सरकार और भारत सरकार दोनों ने ही कहा कि वे इस मामले को बैठकर सुलझा लेंगे और इसके बाद इस पर बवाल थम गया।
लेकिन, बीते मई में दोनों देशों के बीच तब एक बार फिर तकरार शुरू हो गयी, जब भारतीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में लिपुलेख दर्रे को पिथौरागढ़ जिले के धारचुला से जोडऩे वाली 80 किलोमीटर लंबी सडक़ का उद्घाटन किया। यह सडक़, पिथौरागढ़-तवाघाट-घाटियाबागढ़ रूट का विस्?तार है। यह सडक़ अब घाटियाबागढ़ से शुरू होकर लिपुलेख दर्रे पर ख़त्म होती है, जो कैलाश मानसरोवर का प्रवेश द्वार है। भारत के नजरिये से देखें तो कैलाश मानसरोवर तीर्थयात्रियों को यह सडक़ बनने के बाद लंबे रास्?ते की कठिनाई से राहत मिलेगी और गाडिय़ां चीन की सीमा तक जा सकेंगी। इस सडक़ के उद्घाटन के तुरंत बाद नेपाल ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए दावा किया कि यह सडक़ नेपाली क्षेत्र से होकर गुजरती है। जबकि भारत ने इसे अपने क्षेत्र में स्थित होने की बात कही।
महाकाली नदी का उदगम विवाद की वजह
इतिहासकारों की मानें तो 1816 में नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच सुगौली संधि हुई थी जिसके तहत महाकाली नदी को ही भारत और नेपाल दोनों की सीमा मान लिया गया था। अब भारत-नेपाल के बीच का झगड़ा महाकाली नदी के उद्गम को लेकर है। नेपाल का कहना है कि नदी का उद्गम लिम्पियाधुरा से है और यह नदी लिम्पियाधुरा से निकलकर दक्षिण-पश्चिम की तरफ बहती है। वहीं भारत दावा करता रहा है कि यह नदी कालापानी से निकलती है और दक्षिण-पूर्व दिशा की तरफ बहती है। जानकार कहते हैं कि अगर भारत का दावा सही है तो लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा तीनों ही उसके क्षेत्र हो जाते हैं। लेकिन अगर नदी का उदगम लिम्पियाधुरा है तो फिर इन तीनों क्षेत्रों पर नेपाल का अधिकार है।
भारत और नेपाल के बीच विवादित क्षेत्र 7 फोटो : आईएस पार्लियामेंट
हालिया झगडे पर कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि भले यह क्षेत्र भविष्य में बातचीत के बाद भारत के कब्जे में आ जाएं, लेकिन वर्तमान हालात को देखते हुए भारत को कालापानी को अपने नए नक़्शे में दिखाने और लिपुलेख तक सडक़ बनाने से पहले नेपाल को विश्वास में लेना जरूरी था। क्योंकि दोनों के बीच इन क्षेत्रों को लेकर चीजें साफ़ नहीं हैं। यही वजह थी कि जब नेपाल से विवादित हिस्सों पर बातचीत किये बिना फैसले ले लिए गये तो वह नाराज हो गया। और फिर उसने भी वही काम किया जो भारत ने किया था, यानी लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा तीनों को ही अपने नक़्शे में दिखा दिया।
वैसे हालिया मामले को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने जनता का ध्यान बांटने और अपनी कुर्सी बचाने के लिए नए नक़्शे को हवा दी है। कहा जाता है कि कोरोना वायरस सहित तमाम मामलों पर सरकार के ढीले रुख की वजह से जनता उनसे नाराज है। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का मोर्चा भी अब टूट के कगार पर पहुंच गया है। कुछ ही दिन पहले सत्ताधारी मोर्चे के कार्यकारी चेयरमैन पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ पीएम ओली को असफल बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग कर चुके हैं। प्रचंड ने ओली को चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि अगर प्रधानमंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया तो वे मोर्चे को तोड़ देंगे। इस घटनाक्रम के लिए भी केपी शर्मा ओली ने भारत को जिम्मेदार ठहराया है। उनका आरोप है कि नेपाल का नया नक्शा जारी करने से नाराज भारत उन्हें उनकी कुर्सी से हटाना चाहता है। (सत्याग्रह)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) देश की सबसे पुरानी और सबसे प्रामाणिक समाचार समिति है। मैं दस वर्ष तक इसकी हिंदी शाखा ‘पीटीआई—भाषा’ का संस्थापक संपादक रहा हूं। उस दौरान चार प्रधानमंत्री रहे लेकिन किसी नेता या अफसर की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह फोन करके हमें किसी खबर को जबर्दस्ती देने के लिए या रोकने के लिए आदेश या निर्देश दे लेकिन अब तो प्रसार भारती ने लिखकर पीटीआई को धमकाया है कि उसे सरकार जो 9.15 करोड़ रु. की वार्षिक फीस देती है, उसे वह बंद कर सकती है।
यह राशि पीटीआई को विभिन्न सरकारी संस्थान जैसे आकाशवाणी, दूरदर्शन, विभिन्न मंत्रालय, हमारे दूतावास आदि, जो उसकी समाचार-सेवाएं लेते हैं, वे देते हैं। यह धमकी वैसी ही है, जैसी कि आपात्काल के दौरान इंदिरा सरकार ने हिंदी की समाचार समितियों- ‘हिंदुस्थान समाचार’ और ‘समाचार भारती’ को दी थी। मैंने ‘हिंदुस्थान समाचार’ के निदेशक के रुप में इस धमकी को रद्द कर दिया था। मैं अकेला पड़ गया। मेरे अलावा सबने घुटने टेक दिए और इन दोनों एजेंसियों को उस समय पीटीआई में मिला दिया गया। क्या पीटीआई को दी गई यह धमकी कुछ वैसी ही नहीं है ?
मैं पीटीआई के पत्रकारों से कहूंगा कि वे डरें नहीं। डटे रहें। 1986 में बोफोर्स कांड पर जब जिनीवा से चित्रा सुब्रह्मण्यम ने घोटाले की खबर भेजी तो ‘भाषा’ ने उसे सबसे पहले जारी कर दिया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके अफसरों की हिम्मत नहीं हुई कि वे मुझे फोन करके उसे रुकवा दें। अब पीटीआई ने क्या गलती की है ? सरकारी चि_ी में उस पर आरोप लगाया गया है कि उसने नई दिल्ली स्थित चीनी राजदूत सुन वीदोंग और पेइचिंग स्थित भारतीय राजदूत विक्रम मिसरी से जो भेंट-वार्ताएं प्रसारित की हैं, वे राष्ट्रविरोधी हैं और वे चीनी रवैए का प्रचार करती हैं। उनसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्य का खंडन होता है।
हमारे राजदूत ने कह दिया कि चीन गलवान घाटी में हमारी जमीन खाली करे जबकि मोदी ने कहा था कि चीन हमारी जमीन पर घुसा ही नहीं है। इसी तरह चीनी राजदूत ने भारत को चीनी-जमीन पर से अपना कब्जा हटाने की बात कही है। यही बात चीनी विदेश मंत्री ने हमारे विदेश मंत्री से कही थी। मेरी समझ में नहीं आता कि इसमें पत्रकारिता की दृष्टि से राष्ट्रविरोधी काम क्या हुआ है ?
यह पत्रकारिता का कमाल है कि वह दुश्मन से भी उसके दिल की बात उगलवा लेती है। जो काम नेता और राजदूत के भी बस का नहीं होता, उसे पत्रकार पलक झपकते ही कर डालते हैं। उन पर राष्ट्रविरोधी होने की तोहमत लगाकर प्रसार भारती अपनी प्रतिष्ठा को ही ठेस लगा रही है। मैं समझता हूं कि सरकार को चाहिए कि प्रसार भारती के मुखिया अफसर को वह फटकार लगाए और उसे खेद प्रकट करने के लिए कहे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
हम इंसानों द्वारा पर्यावरण का जिस तरह से विनाश किया जा रहा है, वो महामारियों के खतरे को और बढ़ा रहा है| साथ ही इकोसिस्टम में आ रही गिरावट इन बीमारियों से निपटना मुश्किल बना रही हैं|
-ललित मौर्य
हम इंसानों द्वारा पर्यावरण का जिस तरह से विनाश किया जा रहा है, वो महामारियों के खतरे को और बढ़ा रहा है| साथ ही इकोसिस्टम में आ रही गिरावट इन बीमारियों से निपटना मुश्किल बना रही हैं| यह जानकारी हाल ही में किये गए एक शोध से सामने आई है| जोकि यूनिवर्सिटी ऑफ इंग्लैंड और एक्सेटर विश्वविद्यालय की ग्रीनपीस रिसर्च लेबोरेटरीज द्वारा किया गया है| इस शोध के अनुसार बीमारियों का खतरा जैवविविधता और प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे जल चक्र आदि से जुड़ा होता है|
जिस तरह से जूनोटिक डिजीज बढ़ती जा रही है दुनिया के लिए वो एक बड़ी चिंता का विषय है| हाल ही में फैली महामारी कोविड-19 उसका एक प्रमुख उदाहरण है| इससे पहले भी सार्स, इबोला, हन्तावायरस पल्मोनरी सिंड्रोम, रेबीज, बैक्टीरिया कैम्पिलोबैक्टर जेजुनी, एवियन फ्लू, स्वाइन फ्लू जैसी न जाने कितनी बीमारियां जानवरों से इंसानों में फैली हैं| जो स्पष्ट तौर पर इंसानों के प्रकृति के साथ बिगड़ते रिश्तों का परिणाम हैं|
वैज्ञानिकों ने समाज और पर्यावरण के बीच के जटिल संबंधों और वो आपस में किस तरह एक दूसरे को प्रभावित करते है, इसे समझने के लिए एक फ्रेमवर्क का निर्माण किया है| जिसके द्वारा किये विश्लेषण के अनुसार एक पूरी तरह से विकसित इकोसिस्टम को बनाये रखना जरुरी है| साथ ही इससे जुड़े पर्यावरण और स्वास्थ्य सम्बन्धो को भी बरक़रार रखना जरुरी है, क्योंकि यह महामारियों को रोकने के लिए अहम् होते हैं|
महामारियों के प्रसार के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है इंसान
लेकिन यदि पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) में किसी तरह की गिरावट आती है| तो वो इन संक्रामक बीमारियों के इंसानों तक पहुंचने के खतरे को बढ़ा सकती हैं| इकोसिस्टम में आ रही यह गिरावट कई तरह से हो सकती है- जैसे वनों की अंधाधुन्द कटाई, भूमि उपयोग में बदलाव करना, कृषि सघनता में वृद्धि और बदलाव करना, साथ ही पानी और अन्य संसाधनों की उपलब्धता को कम करना आदि, इन सभी के चलते बीमारियों का प्रसार आसान हो जाता है|
यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंग्लैंड में शोधकर्ता और इस अध्ययन के प्रमुख मार्क एवरर्ड ने बताया कि, "स्वाभाविक रूप से इकोसिस्टम इस तरह से काम करते हैं कि बीमारियां जानवरों से इंसानों में नहीं फैल सकती| पर जैसे-जैसे इकोसिस्टम में गिरावट आती जाती है, बीमारियों का इंसानों में फैलना आसान हो जाता है|" उनका मानना है कि इसके साथ ही इकोसिस्टम में गिरावट के कारण जल संसाधनों जैसे जरुरी तत्वों की उपलब्धता घट जाती है| जो इन बीमारियों को फैलने में मददगार होती है| यदि हाथ धोने और साफ सफाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं उपलब्ध होगा तो इन रोगों का फैलना आसान हो जाता है| उनके अनुसार बीमारियों के बढ़ते खतरे और प्राकृतिक संसाधनों और इकोसिस्टम में आ रही गिरावट को अलग नहीं किया जा सकता| यह सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं|
एक्सेटर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता और इस अध्ययन से जुड़े डेविड सेंटिलो ने बताया कि, "दुनिया भर में जिस तरह कोविड-19 से जुड़े स्वास्थ्य और आर्थिक खतरों से निपटने के लिए दुनिया के अनेक देशों ने प्रभावी कदम उठाये हैं| उससे एक बात तो साफ हो जाती है कि यदि राजनैतिक इच्छाशक्ति हो तो जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को हो रहे नुकसान जैसे खतरों से भी निपटा जा सकता है|
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह महामारी हम सभी के लिए एक सबक है| हमें आज पारिस्थितिक तंत्रों को जो नुकसान हुआ है उसे ठीक करने की जरुरत है| साथ ही वैश्विक समाज को बेहतर बनाना होगा| आज पर्यावरण और आर्थिक नीतियों के निर्माण में प्रकृति और मानव अधिकारों को वरीयता देना जरुरी है| संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 2021 से 2030 की अवधि को पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली और जैव विविधता की सुरक्षा का दशक माना है| जिससे हमारे और प्रकृति के बीच के बिगड़ते रिश्तों को सुधारा जा सके|(downtoearth)
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाशेलेट ने इसराइल द्वारा काबिज फलस्तीनी इलाकों को गैरकानूनी ढंग से छीनने की योजना से पीछे हटने को कहा है। यूएन मानवाधिकार प्रमुख ने इसराइल की इस कार्रवाई का फलस्तीनियों और पूरे क्षेत्र के लिए चेतावनी भरे शब्दों में विनाशकारी असर होने की आशंका जताई है। इससे पहले यूएन महासचिव ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ऐसी कोई भी एकतरफा कार्रवाई अन्तरराष्ट्रीय कानून का गम्भीर उल्लंघन होगी।
मानवाधिकार उच्चायुक्त बाशेलेट ने कहा कि ऐसी कोई भी कार्रवाई गैरकानूनी है जिस पर और बात हो ही नहीं सकती।
ज़मीन छीना जाना ग़ैरक़ानूनी है। बस। हड़पने की कोई भी कार्रवाई, फिर चाहे वो पश्चिमी तट का 30 फ़ीसदी हो या फिर पाँच फ़ीसदी।
उन्होंने कड़े शब्दों में कहा कि ऐसी कार्रवाई के झटके कई दशकों तक महसूस किए जाते रहेंगे और यह इसराइल और फ़लस्तीनी, दोनों के लिए बेहद नुक़सानदेह होगा। साथ ही उन्होंने समय रहते इस फ़ैसले को पलटने का आहवान किया है।
ग़ौरतलब है कि इसराइली प्रधानमन्त्री बिन्यामिन नेतान्याहू ने मार्च 2020 में राष्ट्रीय चुनावों के आखिरी दौर में प्रचार के दौरान फ़लस्तीनी इलाक़े छीनने की योजना को अपने चुनावी प्रमुख वादों में शामिल किया था।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ऐसी काफ़ी सम्भावना है कि इसराइली प्रधानमन्त्री क़ाबिज़ फ़लस्तीनी पश्चिमी तट के इलाक़ों को एकतरफ़ा रूप से हड़पने के वादे पर एक जुलाई तक अमल कर सकते हैं।
इस योजना से पश्चिमी तट पर इसराइल की सम्प्रभुता लगभग 30 फ़ीसदी तक बढ़ जाएगी – इसमें जॉर्डन घाटी से सैकड़ों ग़ैरक़ानूनी इसराइली बस्तियों तक का क्षेत्र शामिल है। लेकिन फ़लस्तीनियों ने इस कार्रवाई का प्रतिरोध करने, यहाँ तक कि हिंसा की भी चेतावनी दी है।
हाल ही में यूएन प्रमुख एंतोनियो गुटेरेश ने भी सुरक्षा परिषद की वर्चुअल बैठक को सम्बोधित करते हुए कहा था कि अगर इलाक़े हड़पने की इस योजना पर अमल हुआ तो यह अन्तरराष्ट्रीय कानून का एक गम्भीर उल्लंघन होगा जिससे दो-राष्ट्र के समाधान की आशाओं और वार्ता शुरू होने की सम्भावनाओं को नुक़सान होगा।
मानवाधिकार प्रमुख मिशेल बाशेलेट ने महासचिव गुटेरेश की इस अपील का पुरज़ोर समर्थन किया है।
यूएन महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इसराइली सरकार से इलाक़े छीनने की अपनी योजना को छोडऩे की पुकार लगाई थी और हम उस अपील का 100 फ़ीसदी समर्थन करते हैं।
उन्होंने इसराइली लोगों से अपने पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों, जनरलों और दुनिया भर से उठी आवाज़ों को सुनने का आग्रह किया है जो इस ख़तरनाक रास्ते पर आगे ना बढऩे के लिए आगाह कर रही हैं।
शान्ति प्रयासों को झटका
मानवाधिकार प्रमुख ने स्पष्ट किया कि ज़मीन हड़पे जाने की इस कार्रवाई के असल नतीजों का अनुमान फि़लहाल नहीं लगाया जा सकता। लेकिन ये नतीजे फ़लस्तीनियों, इसराइल, और व्यापक क्षेत्र के लिए विनाशकारी होने की आशंका है।
उन्होंने कहा कि क़ाबिज़ फ़लस्तीनी इलाक़ों को छीने जाने का कोई भी प्रयास ना सिफऱ् क्षेत्र में स्थाई शान्ति की सम्भावनाओं को क्षति पहुँचाएगा बल्कि इससे मानवाधिकार हनन के मामले बढऩे की भी आशंका है।
आवाजाही की आज़ादी के अधिकार पर पाबन्दी होने से फ़लस्तीनी समुदाय के लिए मुश्किलें बढ़ जाने की आशंका है : उनके लिए अपने ही खेतों में काम करना, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ हासिल करना और मानवीय राहत हासिल करना और भी ज़्यादा मुश्किल हो सकता है।
साथ ही उन पर छीने गए इलाक़ों से बाहर जाने का दबाव होगा और उन्हें जबरन अन्य इलाक़ों में भी भेजा जा सकता है।
छीने गए इलाक़ों से बाहर रहने वाले फ़लस्तीनियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँचना बाधित हो सकता है और अपने ही देश को छोडऩे या लौटने की सम्भावनाओं पर भी असर पड़ेगा।
पहले से क़ायम इसराइली बस्तियाँ अन्तरराष्ट्रीय क़ानून का स्पष्ट उल्लंघन बताई गई हैं और अब उनका दायरा बढऩे से दोनों समुदायों के बीच पहले से पसरा तनाव और ज़्यादा गहरा सकता है।
मानवाधिकार उच्चायुक्त ने चिन्ता जताई कि छोटे स्तर पर भी ज़मीन छीने जाने से हिंसा और लोगों की जि़न्दगियाँ जाने का ख़तरा है क्योंकि दीवारें खड़ी की जाएँगी, सुरक्षाकर्मी तैनात किये जाएँगे और दोनों जनसमूह एक दूसरे के आस-पास रहेंगे।
एक ही क्षेत्र में दो स्तर वाले क़ानून की मौजूदा व्यवस्था और गहराई से समाहित होगी जिसका फ़लस्तीनियों के जीवन पर तबाहीपूर्ण असर होगा जिनके पास फि़लहाल क़ानूनी उपाय कम या ना के बराबर है। (news.un.org)
बुजुर्गों को भी खाली बैठने की बजाय पेड़-पौधों से जुड़ना चहिये
भारत के गाँव खुद अपना खाना उगाएं, इसके लिए उन्होंने अपने बेटे के साथ मिलकर एक एक्शन प्लान भी बनाया है, जिसके हिसाब से हर एक गाँव में पांच तरह के किचन गार्डन लगाए जा सकते हैं!
-निशा डागर
जिस उम्र में लोग रिटायरमेंट लेकर आराम करते हुए अपनी ज़िंदगी गुज़ारने की ख्वाहिश करते हैं, उस उम्र में तमिलनाडु की एक बुजुर्ग महिला लोगों को आत्मनिर्भरता के गुर सिखा रही हैं। 83 वर्षीय नंजाम्मल न सिर्फ अपने गाँव के लिए बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा हैं।
कोयम्बटूर के थोप्पमपट्टी पूंगा नगर में रहने वाली नंजाम्मल, ‘कैकरी पाटी’ यानी कि ‘सब्ज़ीवाली दादी’ (Vegetable Grandma) के नाम से मशहूर हैं। उनका घर तरह-तरह के पेड़-पौधों, बेलों और साग-सब्जियों से भरा हुआ है। हर दिन अपने घर के बगीचे से ही ताजा सब्ज़ियाँ तोड़कर वह खाना बनातीं हैं। उनके यहाँ लगभग 17 किस्म के पेड़-पौधे हैं जिनमें मिर्च, टमाटर, बैंगन, लौकी, तोरी, करी पत्ता, सहजन फल्ली और कुछ पत्तेदार साग-सब्ज़ियाँ शामिल हैं। उनके घर में अमरुद और पपीता जैसे फलों के पेड़ भी हैं।
अपने बगीचे की पूरी देखभाल वह खुद ही करती हैं। जैविक खाद से लेकर जैविक कीट-प्रतिरोधक तक, सभी कुछ वह खुद तैयार करतीं हैं। लेकिन उनके खुद के बागीचे के साथ-साथ एक और बात है जो उन्हें खास बनाती है और वह है कि उन्होंने न सिर्फ अपने घर को बल्कि अपने पूरे गाँव को सब्जियों के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया है।
उनके मार्गदर्शन में गाँव के हर परिवार ने अपने यहाँ किचन गार्डन लगाया। सभी को खुद नंजाम्मल ने अपने यहाँ से बीज और पौधे दिए। इतना ही नहीं लोगों को पेड़-पौधों की देखभाल करना भी सिखाया और देखते ही देखते पूरा गाँव साग-सब्ज़ी के मामले में आत्मनिर्भर हो गया।
कैसे हुई शुरुआत:
भारती चिन्नासमी गाँधी जी के विचारों में आस्था रखते हैं और उनका मानना है कि सभी गांवों को आत्मनिर्भर और स्वाबलंबी होना चहिये। इसके लिए वह पिछले दस सालों से अलग-अलग गांवों के स्वयं-सहायता समूहों के साथ काम कर रहे हैं। अपने बेटे के मिशन में उनका साथ देने के लिए नंजाम्मल भी 3 साल पहले उनके साथ जुड़ गईं। नंजाम्मल ने सोचा कि अगर गाँव के हर एक घर में पर्याप्त साग-सब्ज़ी होंगी, तो यह भी आत्मनिर्भरता की तरफ ही एक कदम होगा।
वह बतातीं हैं कि तीन-चार साल पहले उनके बेटे भारती ने गाँव के लोगों को सब्जियों के बीज लाकर बांटे थे, वह भी मुफ्त में। किसी ने लगाए तो किसी ने यूँ ही फेंक दिए। इस असफलता के बाद भारती फिर से बैंगन के बीज लेकर आए और उसे गाँववालों में बांटना चाहते थे। लेकिन नंजाम्मल ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
उन्होंने इन सभी बीजों को अपने घर में लगाकर पौधे तैयार किए और फिर इन पौधों को गाँव के 37 परिवारों को दिया। इसके बाद, हर चार दिन बाद वह खुद सभी के घर जाकर पौधों की देखभाल करतीं। अगर किसी पौधे में कोई पेस्ट लग गया तो नीम और कटहल से बना बायोपेस्टीसाइड छिड़कती। किसी के यहाँ खाद देतीं तो किसी को सही ढंग से पानी देने के गुर सिखातीं। पहले-पहले किसी ने भी उनके काम पर गौर नहीं किया, सभी परिवारों को लगता कि वह यह सब क्यूँ ही कर रही हैं?
लेकिन जब मौसम आने पर उन्हीं पेड़-पौधों से उन्हें सब्जियां मिलने लगीं तो उन्हें नंजाम्मल के काम का महत्व समझ में आया। इसके बाद गाँव के और भी लोग उनके पास बीजों और पौधों के लिए आने लगे। आज उनके गाँव में हर एक घर में पांच तरह की सब्जियों का गार्डन आपको मिल जाएगा- बैंगन, करी पत्ता, करेला, तोरी और ड्रमस्टिक। थोप्पमपट्टी के बाद नंजाम्मल ने इरोड जिले में स्थित अपने पुश्तैनी गाँव, अन्यापलायाम में भी यह पहल शुरू की।
S. Nanjammal, Vegetable Grandma
वहां वह हफ्ते में दो बार जाकर सभी घरों के किचन गार्डन का जायजा लेतीं। अगर किसी को कोई परेशानी होती तो वह उनकी समस्याओं का निदान करतीं। देखते ही देखते यह गाँव में साग-सब्जियों का अच्छा उत्पादन करने लगा।
“घरों में किचन गार्डन के बाद, हमने गाँव की सार्वजनिक जगहों को सब्जियों और फलों के पेड़-पौधे लगाने के इस्तेमाल करना शुरू किया। हमें बहुत से परिवारों को समझाया कि वह अपने घरों के आस-पास खाली पड़ी सार्वजानिक जगहों पर मिलकर खेती कर सकते हैं और जो भी उपज होगी वह सबमें बंट जाएगी। बहुत से परिवारों ने यह पहल भी शुरू की है,” उन्होंने आगे कहा।
नंजाम्मल एक किसान परिवार में पली-बढ़ी हैं और 7 साल की उम्र से कृषि कर रही हैं। उनके लिए साग-सब्ज़ियाँ उगाना बहुत बड़ी बात नहीं है। वह बतातीं हैं कि उनके ससुराल में मुश्किल से एक एकड़ ज़मीन थी, जिसके सहारे उन्होंने अपने तीनों बच्चों का पालन-पोषण किया है।
“हमने अपने पिता को बहुत कम उम्र में खो दिया था। उसके बाद माँ ने ही हमें पाला-पोसा। मैंने कभी भी माँ को खाली बैठे नहीं देखा। उन्हें हमेशा कुछ न कुछ करते रहना अच्छा लगता है और साग-सब्ज़ियाँ तो उनके सबसे अच्छे साथी हैं,” चिन्नासमी में बताया।
देश के हर गाँव तक पहुँचाना है इस पहल को:
नंजाम्मल के प्रयासों के कारण ही सभी लोग आज उन्हें ‘वेजिटेबल ग्रैंडमाँ’ के नाम से पुकारते हैं। उनका उद्देश्य अब इस पहल को पूरे देश, ख़ासतौर पर ग्रामीण इलाकों तक पहुँचाना है। इसके लिए उन्होंने सरकार से गुज़ारिश भी की है कि वे मनरेगा योजना के तहत हर एक गाँव में निजी और सामुदायिक सब्ज़ियों के बगीचे लगवा सकते हैं। इससे मजदूरों को रोज़गार भी मिलेगा और लोग बाज़ार की रसायनयुक्त सब्जियों से मुक्त हो जाएंगे।
इसके लिए उन्होंने एक एक्शन प्लान भी बनाया है:
सबसे पहले हर एक घर में किचन गार्डन होने की योजना पर काम करना चाहिए। सभी को कम से कम 5 तरह की सब्ज़ियाँ अपने घर में उगानी चहिये और लोगों को मुफ्त में बीज व अन्य ज़रूरी चीजें जैसे खाद आदि, प्रशासन द्वारा दिए जाने चाहिए। जिन घरों में ज्यादा जगह नहीं है, वे अपनी छतों पर ग्रो बैग या फिर गमले आदि उपयोग कर सकते हैं। समय-समय पर लोगों को खेती के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए।
महिला स्वयं-सहायता समूह बगीचा:
एक बार घरों में बगीचा योजना सफल होने के बाद महिला समूहों को गाँव में उपलब्ध छोटी-छोटी खाली जगहों में गार्डनिंग शुरू करनी चाहिए। यहाँ पर वे मिलकर उन सब्जियों को उगा सकती हैं, जिनके पौधे उनके घरों में नहीं लगे हैं और जिन सब्ज़ियों की घरों में ज्यादा खपत होती है।
वे अपने घरों के बाहर खाली पड़ी जगहों से शुरुआत कर सकती हैं या फिर गाँव के रास्तों के दोनों तरफ भी पौधारोपण किया जा सकता है। इससे गाँव में हरियाली बढ़ेगी। पेड़-पौधों की देखभाल का जिम्मा समूह की महिलाएं आपस में बाँट सकती हैं जैसे हर हफ्ते दो महिलाएं बारी-बारी से पानी देंगी या फिर खाद डालेंगी।
सामुदायिक सब्ज़ी बगान:
इसे गाँव के युवा मिलकर सार्वजनिक स्थानों पर लगा सकते हैं। जैसे पंचायत भवन, गाँव की चौपाल आदि। इन स्थानों पर अधिक जगह मिलने की संभावना रहती है तो यहाँ पर फलों के वृक्ष लगाये जा सकते हैं जैसे कि अमरुद। अगर हर घर से एक युवा भी इस काम में सहयोग करे तो चंद सालों में गाँव का अपना फलों का बगीचा तैयार हो सकता है। एक तरह के पेड़ों में सफलता के बाद, युवा और भी दूसरे फलों के पेड़ लगा सकते हैं।
छात्र-छात्राओं का सामुदायिक बागान:
स्कूलों में पढने वाले बच्चों को इस पहल से जोड़ा जाना चाहिए। उनकी शुरुआत पहले कम देखभाल वाले पौधों से की जाए। इसके बाद, वह सब्जियों और फलों के पेड़ उगा सकते हैं। छात्र न सिर्फ अपने घर और गाँव में बल्कि अपने स्कूल और कॉलेज तक भी इस पहल को ले जा सकते हैं। इससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलेगी।
बुजुर्गों का बगीचा:
अंत में, नंजाम्मल का कहना है कि बुजुर्गों को भी खाली बैठने की बजाय पेड़-पौधों से जुड़ना चहिये। इससे उनका समय अच्छी जगह लगेगा और वे अकेला भी महसूस नहीं करेंगे। वह तरह-तरह के औषधीय पेड़-पौधे लगा सकते हैं।
सरकार इस प्रोजेक्ट के लिए खाद तैयार करने, पेड़-पौधों के लिए गड्ढा करने और अन्य ज़रूरी कामों के लिए मनरेगा मजदूरों को लगा सकती है। इससे उन्हें भी अच्छा रोज़गार मिल जाएगा।
नंजाम्मल और उनके बेटे का यह उद्देश्य वाकई काबिल-ए-तारीफ है। रसायनयुक्त सब्ज़ियाँ खाने से जिस तरह लोगों में बीमारियाँ बढ़ रही हैं, उसे देखते हुए अच्छा यही है कि हर परिवार खुद अपना खाना उगाए। अंत में, नंजाम्मल यही कहतीं हैं कि हर किसी को अपने घर में गार्डनिंग शुरू करनी चाहिए क्योंकि यही वक़्त है अपने गांवों और अपने देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने का।
अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप भारती चिन्नासमी से 8056604811 पर संपर्क कर सकते हैं! (hindi.thebetterindia.com)
मारे गए पत्रकार खशोगी का दोस्त
ओमर अब्दुलअजीज सऊदी सरकार के आलोचक हैं और पत्रकार जमाल खशोगी के मित्र हैं जिनकी इस्तांबुल में सऊदी कंसुलेट में हत्या कर दी गई थी. लेकिन अब ओमर अब्दुलअजीज क्यों सऊदी अरब को चुभ रहे हैं, जानिए.
अब्दुल अजीज को अच्छी तरह पता है कि सऊदी अरब के आलोचकों को क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलाम बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते. 29 साल के अब्दुलअजीज कई साल से कनाडा में रह रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें रॉयल कैनेडियन माउंटेड पुलिस की तरफ से बार बार कॉल आ रही हैं कि उन्हें सऊदी अरब से खतरा हो सकता है.
उन्होंने ब्रिटेन के अखबार गार्डियन को बताया, "कनाडा के अधिकारियों को जानकारी मिली है कि मुझे निशाना बनाया जा सकता है." उन्होंने इस बारे में ट्विटर पर भी वीडियो पोस्ट किया. इस वीडियो को एक 1.70 लाख बार देखा जा चुका है.
इस वीडियो में अब्दुलअजीज ने कहा, "मोहम्मद बिन सलमान और उनके लोग मुझे नुकसान पहुंचाना चाहते हैं. वे मेरे खिलाफ कुछ करना चाहते हैं लेकिन पता नहीं कि वे हत्या करना चाहते हैं या अपहरण. लेकिन वे निश्चित तौर पर ऐसा कुछ करना चाहते हैं जो ठीक नहीं है."
विद्रोही आवाजें
ओमर अब्दुलअजीज को कई साल पहले कनाडा में राजनीतिक शरण दी गई. बर्लिन के जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड सिक्योरिटी अफेयर्स के गीडो श्टाइनबर्ग इसे अच्छी बात बताते हैं. वह कहते हैं, "वह इतने अहम हैं कि सऊदी में सभी विद्रोही आवाजें, चाहे वे उदारवादी हों या फिर उदार इस्लामी, वे सब खामोश हो गई हैं. या तो उन्हें जेल में डाल दिया गया है या फिर अन्य तरीकों से उन्हें अपनी गतिविधियां रोक देने के लिए मजबूर कर दिया गया है." श्टाइनबर्ग कहते हैं कि अब्दुलअजीज एक विपक्षी और उदार आवाज समझे जाते हैं जिसका "कोई स्पष्ट राजनीति उद्देश्य" नहीं है.
अब्दुलअजीज कहते हैं कि पहली बार कनाडा की पुलिस ने उनसे संपर्क किया है. उनकी वकील आला महाजना ने गार्डियन अखबार को बताया कि पुलिस की चेतावनी "विश्वसनीय और ठोस" है.
खशोगी: एक 'खतरनाक' दोस्त
कवाकीबी फाउंडेशन के प्रमुख और लोकतंत्र कार्यकर्ता अयाद एल-बगदादी को उम्मीद थी कि अब्दुलअजीज को इस तरह के खतरे झेलने पड़ेंगे. वह कहते हैं, "हम जानते हैं कि मोहम्मद बिन सलमान कुछ समय से उन्हें निशाना बना रहे हैं."
एल-बगदादी क्राउन प्रिंस की सऊदी नीति के आलोचक हैं और फिलहाल नॉर्वे में रहते हैं. उन्हें भी 2019 में सऊदी अरब की तरफ से खतरे के बारे में आगाह किया गया था. हालांकि ओमर अब्दुल और एल-बगदादी कभी एक दूसरे से नहीं मिले हैं, लेकिन दोनों ही सऊदी क्राउन प्रिंस की नीतियों के आलोचक रहे हैं. ये दोनों ही सऊदी पत्रकार जमाल खशोगी के दोस्त हैं जिनकी 2018 में इंस्ताबुल के सऊदी कंसुलेट में हत्या कर दी गई थी.
अब्दुलअजीज 2017/2018 में खशोगी के संपर्क में थे. उस वक्त खशोगी अमेरिकी अखबार वॉशिंगटन पोस्ट में कॉलम लिखते थे. श्टाइबर्ग मानते हैं कि अब्दुलअजीज को निशाना बनाने की एक यह भी वजह हो सकती है.
वह कहते हैं, "जब खशोगी वॉशिंगटन में थे, तब उन्होंने अब्दुलअजीज से संपर्क करने की कोशिश की थी. उन्होंने मिलकर काम करने की योजना बनाई थी. तभी से खशोगी सऊदी अरब को चुभने लगे. इसके बाद अब्दुलअजीज को भी खतरे के तौर पर देखा जाने लगा."
2018 में अब्दुल अजीज को पता चला कि उनका फोन हैक कर लिया गया है और उनकी जासूसी की जा रही है. संदिग्ध हैकिंग के बाद उनके कई रिश्तेदारों को गिरफ्तार किया गया. ट्विटर पर अपने हालिया वीडियो में अब्दुलअजीज ने कहा, "एक आलोचक के तौर पर वे मुझे नुकसान पहुंचाना चाहते हैं. ओके. लेकिन इससे मेरे परिवार का क्या लेना देना है. मेरे माता पिता और भाई बहन को यात्रा करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है, उन्हें मुझसे संपर्क क्यों नहीं करने दिया जा रहा है?"
अब्दुलअजीज को लगता है कि उन्हें और खशोगी को उनकी साझा गतिविधियों के लिए निशाना बनाया गया. नवंबर 2019 में उन्होंने वॉशिंगटन पोस्ट में लिखे संपादकीय में यह बात कही.
ट्विटर बदल गया
अब्दुलअजीज के ट्विटर पर पांच लाख फोलोवर हैं. अपने लेख में उन्होंने लिखा कि सऊदी अरब संभवतः उन्हें तीन सबसे बड़े सऊदी ट्विटर इंफ्लुएंसरों में गिनता है. इनमें से अब्दुल अजीज कनाडा में हैं जबकि एक को जेल में डाल दिया गया है जबकि एक अन्य लापता है. अब्दुलअजीज कहते हैं कि 2017 में मोहम्मद बिन सलमान के क्राउन प्रिंस बनने के बाद से सऊदी अरब में ट्विटर बिल्कुल बदल गया.
इससे पहले लोगों को अपनी राय जाहिर करने के लिए ट्विटर का इस्तेमाल करने की काफी हद तक आजादी थी. सऊदी मामलों के विशेषज्ञ श्टाइनबर्ग कहते हैं कि क्राउन प्रिंस जानते हैं कि जनमत तैयार करने में सोशल मीडिया की कितनी अहमियत है. पूर्व कानूनी और मीडिया सहालकार सऊद बिन अल कहतानी को सरकारी ट्रोल फौज तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. अल कहतानी को ही खशोगी की हत्या का मुख्य कर्ताधर्ता समझा जाता है. लेकिन हत्या को अंजाम देने वालों में उनका नाम शामिल नहीं है. भारी दबाव में क्राउन प्रिंस ने माना कि खशोगी इंस्ताबुल के सऊदी दूतावास में मारे गए और इस सिलसिले में 11 लोगों पर मुकदमा भी चलाया गया.
क्राउन प्रिंस के करीबी अल कहतानी पर "पर्याप्त सबूतों के आभाव" में मुकदमा नहीं चलाया गया. मोहम्मद बिन सलमान अब भी इस बात से इनकार करते हैं कि यह हत्या उनके आदेश पर हुई, लेकिन अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र इस बारे में बहुत से ठोस सुरागों की तरफ इशारा करते हैं.
निडर अब्दुल अजीज
ओमर अब्दुलअजीज के मामले पर अभी तक सऊदी अरब की तरफ से कुछ नहीं कहा गया है. गार्डियन के अनुसार कनाडा की सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा कि वे सऊदी अरब में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर चिंतित हैं और कनाडा हमेशा मानवाधिकारों के संरक्षण लिए प्रतिबद्ध है.
अब्दुलअजीज कहते हैं कि उन्हें कोई डर नहीं है और वह खुद को कनाडा में सुरक्षित महसूस करते हैं. एक वीडियो बयान में उन्होंने कहा, "मैं ठीक हूं."
रॉयल कैनेडियन माउंडेट पुलिस ने उनसे पूछा है कि वह इस खतरे के बारे में क्या सोचते हैं. उनका जवाब था, "मैं खुश हूं. मैं महसूस करता हूं कि मैं कुछ कर रहा हूं. अगर आप ऐसा कुछ नहीं करते हैं जिससे मोहम्मद बिन सलमान को परेशानी हो, तो आप अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं."
रिपोर्ट: डाया होडाली/एके
(जन प्रतिनिधियों, राजनीतिक दलों के संदर्भ में)
संसदीय प्रणाली,एवं विधान मंडल सुरक्षित एवं सुदृढ़ रहें, इसके लिए यह आवश्यक है कि इसके सदस्य और राजनीतिक दल सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठतम आचरण एवं व्यवहार का आदर्श स्थापित करें। उनके कार्यकलाप व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं अपितु जनहित व जन सेवा के उद्देश्य से होना चाहिए|संसदीय प्रजातंत्र को सुदृढ़ करना है तो राजनीतिक दलों एवं जन प्रतिनिधियों को अपने आचरण एवं व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन करना होगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 26 नवंबर1949 से देश में संविधान लागू हुआ, संविधान सभा ने अंतरिम संसद के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया,पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 15 सदस्यीय मंत्रिमंडल का गठन हुआ, इस प्रथम मंत्रिमंडल में विभिन्न विचारधारा के राजनेताओं को सम्मिलित किया गया।पश्चात मंत्रिमंडल से सदस्यों ने त्यागपत्र देकर विचारधारा के आधार पर राजनीतिक दल गठित किए।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ, डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, को पुनर्गठित किया जो रिपब्लिकन पार्टी के नाम से स्थापित हुई, आचार्य कृपलानी ने मजदूर प्रजा परिषद, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी, और सी राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी का गठन किया।
विचारधारा के आधार पर गठित राजनीतिक दल शनै:शनै: विघटित होते रहे, अथवा कुछ दलों का प्रभाव केवल कुछ क्षेत्र विशेष, जाति विशेष, अथवा संप्रदाय विशेष तक सीमित रह गया| राजनीतिक दलों की परिवार केंद्रित अथवा व्यक्ति केंद्रित रूप में पहचान स्थापित हुई,व्यक्ति केंद्रित क्षेत्रीय दलों का अभ्युदय हुआ,साथ ही दल की विचारधारा,अथवा दल के प्रति निष्ठा नहीं अपितु व्यक्ति विशेष के प्रति निष्ठा की प्रमुख भूमिका होने लगी।
वर्तमान परिदृश्य मे नैतिकता का पाठ भूलकर राजनीतिक दलों का लक्ष्य केवल और केवल सत्ता प्राप्ति का ही रह गया है, और सत्ता प्राप्ति के लिए उन्हें अपनी विचारधारा से समझौता करने, गठबंधन को तोड़कर नया गठबंधन बनाने, और हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देने में भी कोई परहेज नहीं रह गया।
निर्वाचन संसदीय प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग है, निर्वाचन की प्रक्रिया में जनता के हर वर्ग का योगदान होना आवश्यक है,आम निर्वाचन वर्ष1952,वर्ष1957,वर्ष1962 तक नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति जनता निरंतर अपना विश्वास प्रकट करती रही, किंतु 1967 के चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं लाल बहादुर शास्त्री के निधन के उपरांत अनेक राज्यों मैं कांग्रेस पार्टी केवल सरकार चलाने योग्य बहुमत पा सकी।
भारत की राजनीति में जन प्रतिनिधियों द्वारा अपने दल के प्रति निष्ठा परिवर्तित करते हुए दूसरे राजनीतिक दल में लाभ के लिए दल बदल करने की शुरुआत वर्ष1968-69 से प्रारंभ हुई,दल बदल करने का प्रमुख कारण प्रलोभन ही रहा है,और अभी भी है, प्रलोभन चाहे पद का हो या 'सामान' का।
दल बदलने वाली घटनाओं के लिए भारत की राजनीति में 'हॉर्स ट्रेडिंग' शब्द प्रचलन में आया और अब तो सामान्य रूप से एवं शब्द कोश में 'हॉर्स ट्रेडिंग' शब्द का प्रचलन दल बदल करने की घटनाओं से ही होता है|
घोड़ों को खरीदने बेचने के लिए वैसे तो हॉर्स डीलिंग शब्द का उपयोग होता रहा,किंतु घोड़ों के मूल्य को आकने और घोड़ों को बेचने में बेईमानी के अवसर अधिक रहने के कारण घोड़ों की खरीद-फरोख्त को 'हॉर्स ट्रेडिंग' कहते हैं,क्योंकि इसमें चालाकी पूर्ण,गुप्त,छल पूर्वक,लाभ उठाने के अवसर रहते हैं।
यद्यपि हॉर्स ट्रेडिंग का शाब्दिक अर्थ घोड़ों की खरीद-फरोख्त है जो बहुत सम्मान जनक तो कदापि नहीं है किंतु दल बदल करने वाले जन प्रतिनिधियों के लिए' हॉर्स ट्रेडिंग' शब्द का प्रयोग उपयुक्त ही प्रतीत होता है।
दल बदल करके व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने,बिना जनादेश के दल बदल कर के बहुमत प्राप्त सरकार को अल्पमत में परिवर्तित कर सत्ता प्राप्त करने की 1967-68 मैं हुई शुरुआत को कुछ राजनीतिज्ञ जन भावना के अनुरूप इस विकृति को दूर करने का प्रयास करते रहे, फलस्वरूप विलंब से ही सही वर्ष 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व में प्रतिपक्षी दलों की सहमति से संविधान में दसवीं अनु सूची जोड़कर दल बदल की विकृति को रोकने का प्रथम बार प्रभावी प्रयास हुआ।
संविधान की दसवीं अनु सूची और इसके अंतर्गत बनाए गए नियमों से“घोड़ों की खरीद-फरोख्त”में कुछ कमी अवश्य आई लेकिन फिर भी कानून मैं ख़ामियों को ढूंढ कर खरीद-फरोख्त का सिलसिला जारी रहा,सरकारें बनती बिगड़ती रही और स्थिति यह हुई कि विधानसभा की सदस्य संख्या के 30 से 40% सदस्य मंत्री पदों की शोभा बढ़ाने लगे छोटी विधान सभाओं में तो सत्ताधारी दल के कुछ अभागे ही विधायक,मंत्री पद प्राप्त नहीं कर पाते थे।
दल बदल कानून की ख़ामियों को दूर करने और इसे और अधिक सख्त बनाने हेतु अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में संविधान एवं संविधान की दसवीं अनु सूची को वर्ष 2003 में संशोधित किया गया, संविधान की धारा 75(1)लोकसभा के लिए तथा164(1) एक राज्य विधान सभाओं के लिए को संशोधित कर मंत्रिमंडल का आकार लोकसभा/विधानसभा की सदस्य संख्या का अधिकतम 15% तक सीमित किया गया, वही दसवीं अनु सूची को संशोधित कर विभाजन के लिए1/3सदस्य संख्या के स्थान पर 2/3सदस्य संख्या निर्धारित की गई वर्ष 2003 के इस संशोधन से दल बदल की घटनाओं में कुछ विराम तो लगा, लेकिन,येन केन प्रकारेण सत्ता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दलों ने समय-समय पर दल बदल कानून का निर्वचन,कानून की मूल भावना एवं उद्देश्य को विस्मृत करते हुए करना प्रारंभ किया ।
संविधान की दसवीं अनु सूची और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के प्रावधानों के अंतर्गत दल बदल कानून आकृष्ट होने संबंधी अर्जियाँ अध्यक्ष विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत होने पर :-
1. राजनीतिक दल में विभाजन कब अर्थात किस तिथि को हुआ माना जाए ?
2.विभाजन एक बार की घटित घटना है? या कुछ समय तक चलने वाली प्रक्रिया है?जब प्रक्रिया रुकेगी,तब दल बदल के प्राप्त आवेदन पर अध्यक्ष निर्णय देंगे?
3.आवेदन के निपटारे की समय सीमा निर्धारित नहीं है।
फलत: दल बदल होने पर दल बदल कानून के अंतर्गत अध्यक्ष को प्राप्त अर्जियाँ सालों साल तक सत्ताधारी दल को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से अनिर्णय की स्थिति में लंबित रखी जाने लगी।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर के एक मामले में दल बदल कानून और अध्यक्षों के अधिकार पर पुनर्विचार करने, दल बदल कानून को संशोधित करने संबंधी टिप्पणी की है, जो आज की राजनीति और राजनीतिज्ञों के लिए विचारणीय है।.
विगत कुछ माह में कुछ राज्यों में तो निर्वाचित जन प्रतिनिधियों ने “जनमत/जनादेश का संहार” करने में भी परहेज नहीं किय| दल बदल कानून की गिरफ़्त में आने से बचते हुए,सत्ता प्राप्ति के लिए, सभा में बहुमत प्राप्त दल को अल्पमत मैं लाने का और अल्पमत को बहुमत में बदलने का एक नायाब तरीका “विधायक पद से इस्तीफ़ा” जिसका प्रयोग सत्ता प्राप्ति के लिए विगत कुछ माह में कर्नाटक,मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में किया गया।
मध्य प्रदेश मैं आम निर्वाचन दिसंबर 2018 में जनमत के फैसले के अनुरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सबसे बड़े दल (114स्थान)और बसपा, सपा तथा निर्दलीय कुल 7 विधायकों का समर्थन प्राप्त होने के कारण माननीय राज्यपाल ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विधायक दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और सात अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त होने पर फ्लोर टेस्ट में बहुमत सिद्ध करते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार गठित हुई।
आश्चर्यजनक घटनाक्रम में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार के पांच मंत्रियों सहित कुल 22 विधायक ने “जनमत/जनादेश का संहार” करते हुए विधायक पद से इस्तीफ़े दिए, फल स्वरूप पूर्व में रिक्त 2 स्थान सहित 230 सदस्यों वाली विधानसभा में 24 स्थान रिक्त हो गए और जब तक रिक्त स्थानों के लिए निर्वाचन नहीं हो जाता, ततसमय की विधानसभा की प्रभावी संख्या(206 सदस्य) के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अल्पमत में (92सदस्य)और भारतीय जनता पार्टी (107सदस्य) का प्रभावी संख्या के आधार पर बहुमत हो गया,इस छद्म बहुमत से भारतीय जनता पार्टी की सरकार गठित हुई।
निश्चित तौर पर यह दल बदल कानून की परिधि के बाहर का मामला है जिसमें दल बदल कानून के प्रावधान आकृष्ट नहीं होते।
प्रश्न यह है कि यह दल बदल नहीं है तो फिर क्या है?क्या भाजपा का सदन में फ्लोर टेस्ट के पश्चात प्राप्त बहुमत,जनता द्वारा दिए गए “जनमत/जनादेश” की भावना के अनुरूप है? क्या यह 'जनमत/जनादेश' की अवज्ञा नहीं है?
निर्वाचित जन प्रतिनिधि,संसदीय प्रणाली की रीढ़ हैं, निर्वाचन के पश्चात उनका आचरण एवं व्यवहार “जनमत/जनादेश” की भावना के अनुरूप होना चाहिए,तभी यह संसदीय प्रणाली पुष्पित पल्लवित और सुदृढ़ हो सकती है,सत्ता प्राप्त करने के प्रलोभन से दल बदल करने जैसी बुराई को विगत 50 वर्षों में हम पूरी तरह समाप्त भी नहीं कर पाए थे कि 'जनमत/ जनादेश' का संहार करते हुए सत्ता प्राप्ति की इस नई विधा ने दल बदल कानून को निष्प्रभावी कर दिया |
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को अपनाएं हुए,अभी लगभग 68 वर्ष हुए हैं,ऐसा प्रतीत होता है, कि इस प्रणाली के एक महत्वपूर्ण तत्व,जन प्रतिनिधि एवं राजनीतिक दलो की आस्था एवं विश्वास अभी भी संसदीय प्रणाली पर पूर्णत: स्थापित होना शेष है।
यही कारण है कि जनता द्वारा जिस राजनैतिक दल एवं उसके कार्यक्रम के प्रति विश्वास व्यक्त किया जाता है, जन प्रतिनिधि यदि उसका त्याग करता है, तो वह जनमत/जनादेश के साथ विश्वासघात ही कहलायेगा, चाहे वह वैयक्तिक हो या सामूहिक।
जन प्रतिनिधि को यह समझना होगा कि वह, जनमत/जनादेश का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रतिनिधि मात्र है, और उसका यह दायित्व है कि जनता ने जो जनमत/जनादेश दिया है, वह संविधान एवं इसके अंतर्गत निर्मित विधियों के अनुरूप अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।
जनमत/जनादेश की अवज्ञा सत्ता प्राप्ति अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, के लिए किया जाना संसदीय प्रणाली के लिए घातक है।
यहां इस देश के सबसे लोकप्रिय और संसदीय प्रणाली एवं परंपराओं के प्रति गहरी आस्था रखने वाले पंडित अटल बिहारी बाजपेई के वर्ष 1995 में 13 दिन की सरकार के अंतिम दिन लोकसभा में दिए गए भाषण के कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं :-
“मुझ पर आरोप लगाया गया है और यह आरोप मेरे हृदय में घाव कर गया है,आरोप यह है कि मुझे सत्ता का लोभ हो गया है ……...जनता दल के मित्रों के साथ, मैं सत्ता में भी रहा हूं कभी हम सत्ता के लोभ से गलत काम करने के लिए तैयार नहीं हुए………... लेकिन पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा”
विगत कुछ वर्षों से देश में दल बदल कानून में संशोधन/ बदलाव पर भी निरंतर विचार विमर्श चल रहा है, विधायकों द्वारा इस्तीफ़े दिए जाने के परिपेक्ष में अब केवल दल बदल कानून नहीं अपितु निर्वाचन विधि में भी संशोधन की आवश्यकता प्रतीत होती है|
दल बदल कानून/ निर्वाचन विधि मैं संशोधन के कुछ प्रारंभिक सुझाव :-
1 दल बदल कानून में यह स्पष्ट परिभाषित हो कि जो सदस्य किसी दल के चुनाव चिन्ह पर जीत कर यदि सदस्यता से त्यागपत्र देकर किसी दूसरे दल में सम्मिलित होता है,तो वह विधानसभा की उस अवधि में जिसके लिए वह निर्वाचित हुआ है किसी अन्य दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा।किंतु वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ सकेगा।
2 ऐसा सदस्य विधानसभा की उस अवधि में जिसके लिए वह निर्वाचित हुआ है, सरकार में किसी भी प्रकार के पद को ग्रहण करने के लिए अयोग्य होगा।
3 कोई भी राजनीतिक दल, दल छोड़ने वाले सदस्य को विधानसभा की उस कार्यकाल की अवधि में अपने दल की सदस्यता नहीं देंगे ,तथा आगामी एक कार्य कल तक अपने दल का प्रत्याशी नहीं बनाएँगे। इस हेतु दल द्वारा यह घोषणा पत्र भी प्रत्याशी के नामांकन के साथ संलग्न करना होगा।
4 सदस्यता से इस्तीफ़ा देने वाले सदस्य से, उसके निर्वाचन में चुनाव आयोग द्वारा होने वाले व्यय की वसूली की जाएगी, साथ ही साथ ही प्रत्याशी द्वारा जितना व्यय किया गया है उसके समतुल्य राशि भी अर्थ दंड के रूप में वसूली जावेगी ।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में संसदीय प्रणाली की सफलता के लिए राजनीति में नैतिकता तथा राजनीतिक दलों एवं जन प्रतिनिधियों के द्वारा जनमत /जनादेश का सम्मान मूल तत्व है।
(देवेंद्र वर्मा, पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा)
शब्दों की खिलवाड़ दिलचस्प होती है। प्रथम और प्रधान सेवक के भारत घर की देखभाल शाह के सुपुर्द है। शाह के ब्रह़मास्त्र हैं-नौकरशाह। आम फहम बोली में-बाबू। अमित अधिकार प्राप्त भारतीय प्रशासनिक सेवा और पुलिस सेवा वाले अपने इलाके के शाह नहीं, शहंशाह होते हैं। देश भर में इन दिनों वर्ष 1984 के आईएएस अफसरों की बादशाहत चल रही है। केन्द्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला और वित्त सचिव अजय भूषण पांडे हैं। महाराष्ट्र संवर्ग के नौकरशाहों की बादशाहत राष्ट्र से महाराष्ट्र तक पसरी है। वित्त सचिव पांडे महाराष्ट्र केडर से हैं। एक जुलाई को महाराष्ट्र के मुख्य सचिव का दायित्व संजय कुमार और मुख्यमंत्री के प्रधान सलाहकार का पद निवर्तमान मुख्य सचिव अजोय मेहता संभालेंगे। कुछ और अजय देश मेंं महत्त्वपूर्ण पदों पर हैं। 1984 बैच में संजय नाम के अफसरों की भरमार थी। मीरा कुमार के सचिव रहे संजय कुमार को अपने गृह राज्य में महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे गए। मसूरी में प्रशिक्षण के दौरान संजय की पुकार पर कितना घोटाला होता होगा? अंदाज लगा सकते हैं।
हे ईश्वर,माफ करना
बहुत समय नहीं हुआ, जब ईमानदारी के फरिश्तों की बदौलत कोयले के दलाल अदालतों और जेल की परिक्रमा कर रहे थे। आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते देश के लिए कोयला उत्खनन निजी क्षेत्र में कराना जरूरी हो गया है। स्वयं प्रधानमंत्री ने दिल्ली से तकनीक के सहारे निजी क्षेत्र को कोयला खानें देने देने का शुभारंभ किया। कोल इंडिया लिमिटेड के अध्यक्ष ने निजीकरण के पक्ष में आंकड़ा बताकर दावा ठोंका कि निजी क्षेत्र की घुसपैठ से कोल इंडिया अप्रभावित रहेगा। कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी इतना बड़ा दावा करने की हिम्मत जुटाने के बजाय चुप्पी साधे रहे। कोयला कंपनी के धनबाद कार्यालय के समक्ष मज़दूरों ने निजीकरण के विरोध में प्रदर्शन किया। मजदूर नेता तथा राज्य के पूर्व मंत्री सहित 50 लोगों को पुलिस ने धर लिया। आंखों की लिहाज का जलवा देखिए।रिपार्ट कोयला कंपनी ने दर्ज कराई। पुलिस ने सफाई दी- कोरोना काल में तन दूरी, अजी वही-सुरक्षित दूरी का ध्यान नहीं रखने के कारण हिरासत में लिया गया। ये ही धारएं लगाईं। घोषित रूप से ईश्वर भक्त कोयला मंत्री और कोलकाता में विराजमान कोयले वाले अफसर पाप के भागी बनने से बचते रहे। ईसा मसीह महान थे। संवेदनशील थे। दयालु थे। उनके बयान में थोड़ा सा बदलाव कर मन ही मन कहते होंगे-हे ईश्वर, हमें माफ करना।
मारुति की रफ्तार को मात
कोरोना-काल में मास्क, सेनेटाइजऱ बनाने वालों के साथ ही सेक्युरिटी गार्ड उपलब्ध कराने वाले कमा रहे हैं। इसकी पुष्टि करने के लिए मुंबई के उत्तर भारतीय संघ के नेताओं से पूछने की जरूरत नहीं है। उन्हें बड़े ओहदे मिलना अपने आप में प्रमाण है। हरयाणवी मिज़ाज़ अलग है। गुडग़ांव का नाम बदल कर गुरुग्राम किया। पास ही मानेसर के मारुति कारखाने के करीब डेढ़ दर्जन सुरक्षा गार्ड संक्रमित पाए गए। गुड़ गोबर कर दिया। बाकी लोगों से अलग रखने यानी संगरोध की तैयारी की जा रही थी। नहीं समझे। क्वारेंटाइन में भेजना था। संक्रमण के मारे सुरक्षा रक्षक उडऩछू हो गए। पुलिस में रपट लिखवाई गई। पता लगा कि लापता हैं। अमित भाई के प्रादेशिक अवतार यानी हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने दूरदर्शिता दिखाई। गुरुग्राम का नाम बदले बगैर मुंबई बनाने में जुटे हैं। कैसे? मुंबई के कोरोना संबंधित हर कानून-कायदा, हर सख्ती को गुरुग्राम में लागू करेंगे। इन दिनों गुरुग्राम जाना लद्दाख में चीन से सटी नियंत्रण रेखा पार करने से अधिक कठिन है।
केसर क्यारी के लाल
आरोप लगाने वाले, लगता है, हड़बड़ी में रहते हैं। मणिपुर में पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेता प्रतिपक्ष इबोबी सिंह ने बहुमत जुटाया। सीबीआई सक्रिय हुई। अमित भाई पर आरोप लगाने वाले यह जानकर चकित होंगे कि दल एवं विचार निरपेक्ष सीबीआई ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मंत्री लाल सिंह के विरुद्ध जांच शुरु कर दी है। कठुआ में आठ बरस की मासूम बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। अभियुक्तों की हिमायत कर लाल सिंह सुर्खियों में थे। पार्टी के कुछ बलवान और नामवान नेता लाल सिंह के कवच बने थे। लाल सिंह की चौधराहट का जयकारा होता था। उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े जाते थे। अब जोश ठंडा पड़ चुका है। कठुआ जिले में लाल सिंह की शिक्षण संस्था वन-भूमि पर कब्जा करने के आरोप में घिरी है। वर्ष 2015 में संस्था के पदाधिकारी ने उच्च न्यायालय में फर्जी दस्तावेज़ जमा किए थे। इस में पता नहीं क्या जटिलता है जो जांच सीबीआई के सुपुर्द की गई? उस वक्त लाल सिंह जम्मू-कश्मीर की मुफ्ती सरकार में भाजपा खाते से मंत्री थे या नहीं? यह तो गोपनीय जानकारी होगी जिसकी जानकारी सीबीआई पता लगाए। लाल सिंह इन दिनों पार्टी छोड़ चुके हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री डा जितेन्द्र सिंह और लाल सिंह के रिश्ते जांच के दायरे में नहीं आते।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
1757 में प्लासी की लड़ाई के 50 साल बाद तक अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को छुआ नहीं। पर जब यकीन होने लगा कि यहां उनको लंबा टिकना है तब अपने सेवक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई।
1813 में कम्पनी के बजट में एक लाख रुपए शिक्षा के लिए रखे गए। कम्पनी सरकार को स्किल डेवलपमेंट करना था ताकि सस्ते पीए, मुंशी, स्टोरकीपर, अर्दली, मुंसिफ और डिप्टी कलेक्टर मिल सकें।
कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूनिवर्सिटी खुली। कलकत्ता यूनिवर्सिटी की जो पहली बैच के ग्रेजुएट निकले, उनमे बंकिमचन्द्र चटर्जी थे। वहीं सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम वाले .. । अंग्रेजी पढ़े छात्र आनन्दमठ लिखने लगे, तो खेल कम्पनी सरकार के हाथ से फिसलने लगा।
दरअसल इंडियंस ने अंग्रेजी पढ़ी, तो वैश्विक ज्ञान के दरवाजे खुले। नए-नवेले पढ़े-लिखे ने योरोपियन सोसायटी को देखा, उनके विचारकों की किताबें पढ़ीं। लिबर्टी, सिविल राइट, डेमोक्रेसी, होमरूल..जाने क्या-क्या।
कुछ तो लंदन तक गए, बैरिस्टरी छान डाली और अंग्रेजों को कानून सिखाने लगे। कुछ सिविल सर्विस में आ गए, कुछ ने अखबार खोल लिया। दादा भाई नोरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंच गए। अधिकार मांगने लगे। सरकारों को जब जनता की समझ और ज्ञान से डर लगे तो लोगों को लड़वाना शुरू करती हैं। समुदायों को फेवर और डिसफेवर इसके औजार होते हैं।
1857 की क्रांति के लिए अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों को दोषी माना, और लगभग इग्नोर किया। हिन्दू राजे और बौद्धिकों पर सरकार के फेवर रहे। जनता के असंतोष के सेफ पैसेज के लिए एक सभा बनवा दी, जिसमें देश भर के सभी ज्ञानी-ध्यानी आते, अपनी मांग रखते, सरकार दो-चार बातें मान लेती।
सभा को इंग्लिश में कांग्रेस कहते हैं। सालाना बैठक को कांग्रेस का अधिवेशन कहा जाता। इस कॉंग्रेस में हिन्दू ज्यादा संख्या में थे। आबादी के हिसाब से स्वाभाविक था, पर जो अब तक राज में थे, उनमें कुंठा बढ़ी।
सैयद अहमद खान ने कौम को समझाया- अंग्रेजी पढ़ो, ब्यूरोक्रेसी में घुसो। वरना जो अपर हैंड पांच-सात सौ सालों से है, खत्म हो जाएगा। आज के लीडरान की तरह बात सिर्फ ज़ुबानी नहीं थी। एक कॉलेज खोला, शानदार जो अपने वक्त से काफी आगे का था। मुस्लिम जनता ने मदद की, मगर ज्यादा मदद नवाबों से आई। उच्चवर्गीय मुस्लिम और नवाब एक साथ आए।
नवाबों को इसका एक नया फायदा मिला। ताकतवर होती कांग्रेस में रियाया के लोग थे, कई मांगे ऐसी रखते थे जिनमें उनकी जेब कटती थी। सैय्यद साहब और उनके सम्भ्रांत साथी, नवाबों के हित-अहित से जुड़ी मांगों पर दबाव बनाते थे। 1906 आते आते उन्ही के बीच से मुस्लिम लीग बनी। ढाका नवाब चेयरमैन हुए, भोपाल नवाब सचिव। बंगाल विभाजन हुआ था। कांग्रेस बंग-भंग के विरोध में थी, लीग ने समर्थन किया। मुस्लिम अब अंग्रेजो के प्यारे हो चले थे।
रह गए हिन्दू राजे-रजवाड़े। कांग्रेस का फेवर पाते नहीं थे, अंग्रेज सुनते नहीं थे। अपना कोई जनसंगठन न था। कुछ करने की उनकी बारी थी। तो देश भर में कई छोटे-छोटे संगठन थे, जो हिन्दू पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार कर रहे थे। बहुतेरी हिन्दू सभाएं-संस्थाएं थीं। जोडऩे वाला कोई चाहिए था। मिला-पण्डित मदन मोहन मालवीय।
पंडितजी ने अलीगढ़ से बड़ा, बेहतर, हिन्दू विश्वविद्यालय का बीड़ा उठाया था। जनता के बीच जा रहे थे। राजाओं ने खुलकर दान दिया, सभाएं करवाईं। मालवीय साहब पूरे देश में घूमे, हिन्दू संगठनों को एक छतरी तले लेकर आए। काशी हिन्दू विश्विद्यालय बना, और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी बन गई। यह 1915 का वर्ष था। अब तीन संगठन अस्तित्व में आ चुके थे।
पहला, कामन पीपुल के लिए बात करने वाली कांग्रेस, जो सिविल लिबर्टी, इक्वलिटी, सेकुलरिज्म की बात करती थी। इसको ताकत जनता से मिलती थी, धन मध्यवर्ग के साथ नए जमाने के उद्योगपति व्यापारी पूंजीपतियों से मिलता था। इसके नेता भारत के भविष्य को ब्रिटेन के बर-अक्स देखते थे।
दूसरी ताकत, मुस्लिम समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार मुस्लिम लीग, जिसकी ताकत मुस्लिम कौम थी, और फंडिग नवाबों, निजामों की थी। ये भारत का सपना उस मुगलकाल के बर-अक्स देखते थे, जिसमे सारी ताकत उनके हाथ मे थी।
तीसरी ताकत, हिन्दू समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार और हिन्दू रजवाड़ों के हितों को ध्यान रखने करने वाली महासभा थी। जिसके लिए भारत का भविष्य मौर्य काल से लेकर शिवाजी की हिन्दू पादशाही के बीच झूलता था। फंडिंग तमाम किंग्स और संरक्षण सिंधिया जैसे राजाओं की थी। यही कारण है कि स्वतंत्र राजपूताना और स्वत्रंत ट्रावणकोर के पक्ष में लिखी चि_ियां आज भी दिख जाती हैं।
आगे चलकर अंग्रेज चुनावी सुधार करते हैं, सत्ता में भागीदारी खुलनी शुरू हो जाती है। मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेस एक्ट के आने के साथ, तीनो प्रेशर ग्रुप चुनावी दलों के रूप में तब्दील हो जाते हैं।
समय के साथ नए नेता इन संगठनो की लीडरशीप लेते हैं। ये गांधी, जिन्ना और सावरकर की धाराएं हो जाती हैं। दो धाराएं देश की घड़ी को, अपने अपने तरीके से पीछे ले जाना चाहती थी, एक आगे की ओर...। पीछे ले जाने वाली धाराएं मिलकर विधानसभाओं में मिलकर सरकारें बनाती हैं, और सडक़ों पर अपने समर्थकों से दंगे भी करवाती हैं। सत्ता की गंध से संघर्ष में खून का रंग मिल जाता है।
1947 में इस रंग ने भारत का इतिहास ,भूगोल, नागरिकशास्त्र, सब बदल दिया। एक धारा पाकिस्तान चली गयी, मगर अवशेष बाकी है। दूसरी सत्ता में बैठे बैठे सड़ गई, उसके भी अवशेष ही बाकी हैं। तीसरी पर गांधी के लहू के छींटे थे। बैन लगा, तो चोला बदल लिया, नाम बदल लिया। अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है। अजी हां, स्किल डेवलमेंट पर भी फोकस है। उन्हें भी सोचने वाले दिमाग नहीं, आदेश सफाई से पूरा करने वाले हाथ चाहिए।
उधर कलकत्ता, अलीगढ़ और बनारस की यूनिवर्सिटीज आज भी खड़ी हैं। लेकिन हिंदुस्तान का मुस्तकबिल बनाने वाले छात्र नदारद हैं। वे व्हस्ट्सप यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज नरसिंहरावजी का 99 वां जन्मदिन है। मैं यह मानता हूं कि अब तक भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें चार बेजोड़ प्रधानमंत्रियों का नाम भारत के इतिहास में काफी लंबे समय तक याद रखा जाएगा। इन चारों प्रधानमंत्रियों को अपना पूरा कार्यकाल और उससे भी ज्यादा मिला। ये हैं, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलबिहारी वाजपेयी। भारत के पहले और वर्तमान प्रधानमंत्री के अलावा सभी प्रधानमंत्रियों से मेरा कमोबेश घनिष्ट परिचय रहा और वैचारिक मतभेदों के बावजूद सबके साथ काम करने का अनुभव भी मिला। अटलजी तो पारिवारिक मित्र थे लेकिन नरसिंहरावजी से मेरा परिचय 1966 में दिल्ली की एक सभा में भाषण देते हुआ था। उस सभा में राष्ट्रभाषा उत्सव मनाया जा रहा था। मैंने और उन्होंने कहा कि हिंदी के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं का उचित सम्मान होना चाहिए। यह बात सिर्फ हम दोनों ने कही थी। दोनों का परस्पर परिचय हुआ और जब राव साहब दिल्ली आकर शाहजहां रोड के सांसद-फ्लेट में रहने लगे तो अक्सर हमारी मुलाकातें होने लगीं।
हैदराबाद के कुछ पुराने आर्यसमाजी और कांग्रेसी नेता उनके और मेरे साझे दोस्त निकल आए। जब इंदिराजी ने उनको विदेश मंत्रालय सौंपा तो हमारा संपर्क लगभग रोजमर्रा का हो गया। मैंने जवाहरलाल नेहरु युनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ही पीएच.डी. किया था। पड़ौसी देशों के कई शीर्ष नेताओं से मेरा संपर्क मेरे छात्र-काल में ही हो गया था।
अंतरराष्ट्रीय मसलों पर इंदिराजी, राजा दिनेशसिंह और सरदार स्वर्णसिंह (विदेश मंत्री) से मेरा पहले से नियमित संपर्क बना हुआ था। उनकी पहल पर मैं कई बार पड़ौसी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मिलने जाया करता था। नरसिंहरावजी के जमाने में यही काम मुझे बड़े पैमाने पर करना पड़ता था। जिस रात राजीव गांधी की हत्या हुई, पीटीआई (भाषा) से वह खबर सबसे पहले हमने जारी की और सोनियाजी और प्रियंका को मैंने खुद 10-जनपथ जाकर यह खबर घुमा-फिराकर बताई। मैं उन दिनों ‘पीटीआई-भाषा’ का संपादक था। उस रात राव साहब नागपुर में थे। उनको भी मैंने खबर दी। दूसरे दिन सुबह हम दोनों दिल्ली में उनके घर पर मिले और मैंने उनसे कहा कि अब चुनाव में कांग्रेस की विजय होगी और आप प्रधानमंत्री बनेंगे। राव साहब को रामटेक से सांसद का टिकिट नहीं मिला था। वे राजनीति छोडक़र अब आंध्र लौटनेवाले थे लेकिन भाग्य ने पलटा खाया और वे प्रधानमंत्री बन गए। हर साल 28 जून की रात (उनका जन्मदिन) को अक्सर हम लोग भोजन साथ-साथ करते थे। 1991 की 28 जून को मैं सुबह-सुबह उनके यहां पहुंच गया, क्योंकि रामानंदजी सागर का बड़ा आग्रह था। राव साहब सीधे हम लोगों के पास आए और बोले ‘‘अरे, आप इस वक्त यहां ? इस वक्त तो ये बेंड-बाजे और हार-फूलवाले प्रधानमंत्री के लिए आए हुए हैं।’’ राव साहब पर प्रधानमंत्री पद कभी सवार नहीं हुआ। उन्होंने भारत की राजनीति विदेश नीति और अर्थनीति को नयी दिशा दी। पता नहीं, उनकी जन्म-शताब्दि कौन मनाएगा और वह कैसे मनेगी?
(नया इंडिया की अनुमति से)
पहले ही स्वीकार करूँ, मैं कृष्णा सोबती के नजदीकियों में कतई नहीं था मगर उनके साथ कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों का साझीदार रहा हूँ। खट्टे इतने खट्टे भी नहीं थे कि उनमें आम जैसी मिठास न घुली हो और रिश्तों में हमेशा के लिए कड़ुवाहट पैदा हो जाए।
यूँ तो मेरी पीढ़ी का साहित्य का कौन सा गंभीर पाठक उन्हें बहुत शुरू से न जानता रहा हो, उसने उन्हें पढ़ा न हो। मैंने भी छात्र जीवन से ही उन्हें पढऩा शुरू किया था।दिल्ली आया तो जब नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था तो कुछ तो उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए और कुछ नौकरी में सहायक बन सकने की व्यर्थ आशा इधर- उधर भटकाती रहती थी, उस आशा में भी उनसे मिला था, हालांकि याद आता है, मैंने इसका जिक्र उनसे नहीं किया था। तब वह दिल्ली के पुराने सचिवालय के परिसर में बैठती थीं। फिर यदाकदा उनसे नमस्कार, कैसी हैं, कैसे हैं, होता रहा।फिर संयोग कि वह हमारे पड़ोस में ही रहने आ गईं। पहले हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट में और बाद में पूर्वाशा अपार्टमेंट में। वह शाम के समय बाजार में कुछ सौदासुलूफ लेती दिख जाती थीं। कभी हम पति-पत्नी होते और कभी पत्नी अकेली जातीं तो उनसे भी बहुत मजे- मजे से बात करतीं। हमें घर भी बुलातींं। हम दोनों दो-तीन बार उनके यहाँ गए भी। उन्होंने खूब बातें कीं। मैं भी अलग से गया हूँ। हर बार खानेपीने की बढिय़ा चीजें पेश की जातीं। अकेले गया तो रसरंजन भी करवाया।उनके यहाँ खानेपीने की उम्दा चीजें ही होती थीं। धीमे सुर में बातें करने का उनका अंदाज़ था। संस्मरणों का उनके पास खजाना था। हाँ कभी इतने धीमे बोलती थीं कि बीच में कुछ ऐसा भी रह जाता था,जो पूरी तरह समझ में नहीं आता था। वह बीच- बीच में खुलकर ठहाका भी लगातीं मगर ऐसा नहीं कि पूरा घर ठहाकों से गूँज जाए। घंटे -दो घंटे मजे से बीतते। ऐसा शायद कभी नहीं हुआ कि उन्होंने खुद अपनी रचनाओं की बात की हो। अंत के कुछ महीनों में उनसे मुलाकातें नहीं हुईं। कभी पता चलता, वह अस्पताल में हैं, कभी उनका स्वास्थ्य साथ नहीं देता था कि मुलाकात हो सके।
उन्होंने आज की स्थिति पर दो लंबे आलेख लिखे थे,जो ओम थानवी के संपादन में, जनसत्ता, में बहुत सम्मान के साथ खबर की तरह महत्व देते हुए पहले पृष्ठ पर छपे थे। ये आलेख उन्होंने पूरे साहस के साथ लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मूल्योंं की हिफाजत में लिखे थे। अशोक वाजपेयी-थानवी के संयुक्त आयोजन में मावलंकर हाल में जो दो विशाल सभाएँ हुईं, उसमें से एक में उन्हें तिपहिया साइकिल से मंच पर ले जाया जाते देखा था। वहाँ से उन्होंने अपना लिखित वक्तव्य पढ़ा। इसके समाप्त होने के बाद खचाखच भरे हाल में लोगों ने खड़े होकर करतलध्वनि से बड़ी देर तक उनका जो स्वागत और सम्मान किया, वह अप्रतिम था। मैंने कभी किसी भी लेखक का इस तरह का सम्मान नहीं देखा।वे कुछ मिनट हमेशा यादगार रहेंगे।
अब कुछ खट्टे अनुभव, उनकी मिठास के साथ।तब मैं हुआ करता था, कादम्बिनी, का कार्यकारी संपादक मगर मेरी संपादक मृणाल पांडेय ने पहले ही दिन से यह स्पष्ट कर दिया था कि आप समझिए कि आप ही इसके संपादक हैं। खैर मैंने सोबतीजी से एक बार कहा कि आप हमारे लिए कोई संस्मरण लिखिए। वह राजी हो गईं।उसे अगले ही अंक में जाना है, इस आग्रह के साथ उनसे लिखने के लिए कहा था और वह तारीख भी बताई थी, जब तक वह लिख सकें तो आगामी अंक में हम छाप सकेंगे। जहाँ तक याद आता है 17 तारीख तक अगला अंक तैयार होकर संपादकीय विभाग की ओर से प्रेस में चला जाता था और उसी महीने की 25-26 तारीख तक छपकर बाजार में आ जाता था। मैंने अंदाजन कुछ पेज सोबती जी के संस्मरण के लिए छोड़ रखे थे मगर उनका संस्मरण मिला-अंक छूट जाने के बाद।
व्यावसायिक पत्रिकाओं की अपनी मजबूरियाँँ होती हैं, वह संस्मरण उस अंक में न जा सका और मुझसे यह चूक हुई कि मैं सोबती जी को यह बता न सका। बता देता तो शायद मामला सुलझ जाता या संभव है, तब भी न सुलझता।जब अंक उनके पास गया तो उन्होंने देखा, वह संस्मरण नदारद है। शाम को उनका फोन आया कि वह छपा नहीं। मैंने कारण समझाया और कहा कि विलंब से मिला, इसलिए अगले अंक में छपेगा। काफी समझाने पर वह मान गईं, हालांकि अमृता प्रीतम से उपन्यास के नाम में, जिंदगीनामा, शब्द के इस्तेमाल पर लंबी कानूनी लड़ाई में उलझीं सोबतीजी को आशंका यहाँ तक थी कि इसे अमृताजी ने रुकवाया होगा।मेरी अमृता जी से न जीवन में कभी मुलाकात हुई, न उन्हें देखा कभी। इच्छा ही पैदा नहीं हुई। न अमृता जी के पास ऐसा जासूसी तंत्र रहा होगा कि वह जान सकें कि कादम्बिनी में क्या छपने जा रहा है। यह बात सोबती जी को बताई भी। यह लंबा-खर्चीला मुकद्दमा लडऩे से पैदा हुई थकावट और खीज रही होगी कि सोबती जी ने इस तरह भी सोचा।
खैर उस समय तो मान गईं, मैं उस रात चैन की नींद सोया। सुबह फिर उनका फोन आया,नहीं वह नहीं छपेगा। उन्हें फिर से समझाना व्यर्थ साबित हुआ। दुख तो बहुत हुआ मगर मैं बेबस था।वह छपा नहीं।
दूसरा वाकया तब हुआ, जब मैं, शुक्रवार, में था।मेरे पास एक फ्रीलांसर यह सुझाव लेकर आए कि वह लेखकों से बात कर एक सीरीज लिखना चाहेंगे कि इन दिनों वे क्या लिख -पढ़ रहे हैं। मैंने कहा, बढिय़ा है, लिखिए लेकिन हमारे एक पेज से अधिक नहीं, चूँकि यह बुनियादी रूप से राजनीतिक -सामाजिक पत्रिका है। शीर्षक और फोटो के बाद करीब आठ सौ शब्दों की गुंजाइश बचती है। वे लाए भी एक- दो लिखकर दूसरे कुछ लेखकों के बारे में मगर मैंने कहा कि पहले दो- तीन वरिष्ठ लेखकों से बात करके लिखकर लाइए, फिर हम इन्हें भी छाप देंगे।
उन्होंने सोबतीजी से संपर्क किया,वह राजी हो गईं। बहुत से लोग जानते हैं कि सोबती जी मुँहजबानी कुछ कह कर साक्षात्कारकर्ता पर सबकुछ नहीं छोड़ती थीं। फुलस्केप कागज पर बड़े-बड़े अक्षरों में खुद लिख कर देती थीं।उन्होंने लिखा, जो शुक्रवार, के तीन पेज का था। यह मेरी गलती ही थी मगर मैंने कहा इतना लंबा छापना तो मुश्किल है। शायद सोबती जी इसे छोटा कर दें। वैसे भी मुझे वह कुछ उलझा हुआ सा लगा था।वे हाँ करके गए मगर कुछ ऐसा हुआ कि सहयोगी, बिंदिया, पत्रिका की संपादक के पास गए तो उन्होंने वह आलेख पूरा छापना स्वीकार कर लिया और छाप दिया।वह अंक जब सोबती जी के पास पहुँचा तो वह मुझ पर आगबबूला हुईं कि मैंने तुम्हारी पत्रिका के लिए दिया था, तुमने, बिंदिया, पत्रिका को कैसे सौंप दिया? यह तुमसे किसने कहा था फिर सफाई दी कि इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है, मुझे स्वयं छपने पर पता चला है लेकिन वह विश्वास करें, तब तो!
उनके साथ हुई खटास कभी लंबी नहीं चली। पता नहीं कैसे और कब मिठास फिर लौट आई। उनसे मिलना होता रहा।उन्होंने राजकमल प्रकाशन से, जनसत्ता, में प्रकाशित आलेखों की दो पुस्तिकाएँ छपवाने से पहले उनके संपादन का दायित्व एक-एक कर मुझे सौंपा। मैंने यह काम स्वीकार तो कर लिया मगर बेहद डरते- डरते, बहुत जरूरी होने पर ही कलम चलाई, ताकि फिर कोई समस्या पैदा न हो मगर यह सच उन्हें बताया नहीं। बाद में एक बार मिलने पर उन्होंने किसी संदर्भ में कहा कि मैं जिसे संपादन का दायित्व देती हूँ, उसे पूरी स्वतंत्रता देती हूँ। मन ही मन मैं पछताया मगर मैंने उन्हें नहीं बताया कि मैं कितना डरा हुआ था।
एक बार, हंस, में विश्वनाथन त्रिपाठी और मेरी बातचीत छपी। उसके बाद उन्होंने मेरे घर दो टेबललैंप भिजवाए। एक मेरे लिए, एक त्रिपाठी जी के लिए।बिस्तर पर अधलेटा होकर देर रात को उसी की रोशनी में कई बार कुछ लिखता - पढ़ता रहता हूँ।
पश्चिम बंगाल में मई में आए अम्फान तूफान के बाद बाल विवाह के मामले तेजी से बढ़े हैं. बीते एक महीने के दौरान सरकार को ऐसी दो सौ शिकायतें मिली हैं.
-प्रभाकर
बंगाल पहले भी बाल विवाह के लिए सुर्खियों में रहा है. बीच में यह सिलसिला कुछ थम-सा गया था. लेकिन अब लॉकडाउन और खास कर अम्फान के बाद इसमें काफी तेजी आई है. कई मामले ऐसे हैं जिनकी शिकायत ही पुलिस प्रशासन तक नहीं पहुंची है.
कलकत्ता हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग की एक रिपोर्ट के आधार पर बढ़ते बाल विवाह पर गहरी चिंता जताते हुए राज्य सरकार को इस बारे में हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया है. आयोग ने बाल विवाह रोकने के लिए तीन हेल्पलाइन नंबर भी जारी किए हैं. जहां लड़कियां हाल विवाह के खिलाफ शिकायत कर सकती हैं.
बाल विवाहों के लिए बदनाम रहा है बंगाल
पश्चिम बंगाल खासकर लड़कियों के बाल विवाह के लिए पहले भी बदनाम रहा है. सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इस पर ठोस तरीके से अंकुश नहीं लगाया जा सका है. नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की ताजा रिपोर्ट में इस मामले में बंगाल को अव्वल बताया गया था.
यह स्थिति तब है जब ममता बनर्जी सरकार ने बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए कन्याश्री समेत कई योजनाएं शुरू की हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट ने आयोग की ओर से दायर रिपोर्ट पर सुनवाई के दौरान कहा कि बचपन बचाओ आंदोलन ने भी हाल में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक रिपोर्ट में अम्फान तूफान के बाद बंगाल में 136 बाल विवाह होने का दावा किया है. हाईकोर्ट की खंडपीठ ने सरकार से ऐसे मामले रोकने के लिए ठोस कदम उठाने का भी निर्देश दिया है.
राज्य सरकार क्या कर रही है
अदालत के निर्देश के बाद राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने हेल्पलाइन नंबर जारी करने के साथ ही राज्य में बढ़ते बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए संबंधित पक्षों के साथ मिल कर एक ठोस रणनीति बनाने का फैसला किया है. आयोग में बाल विवाह और बाल तस्करी के मामले देखने वाले आयोग की विशेष सलाहकार सुदेष्णा राय बताती हैं, "हमें अब तक 198 शिकायतें मिली हैं. जांच के बाद इनमें से 134 शिकायतें सही पाई गईं. हमने शिकायत के आधार पर कार्रवाई करते हुए उत्तर 24-परगना जिले में 54 और दक्षिण 24-परगना जिले में बाल विवाह के 60 मामलों को रोकने में कामयाबी हासिल की है. हेल्पलाइन नंबर जारी करने के बाद आयोग को रोजोना औसतन चार शिकायतें मिल रही हैं.'
आयोग की अध्यक्ष अनन्या चटर्जी चक्रवर्ती कहती हैं, "हमने दो जून को हेलपलाइन शुरू की थी. उसके बाद अब तक बाल विवाह और बाल तस्करी की सैकड़ों शिकायतें मिल चुकी हैं. कोरोना की वजह से जारी लॉकडाउन औऱ अम्फान तूफान ने ज्यादातर लोगों का रोजगार छीन लिया है. ऐसे में बाल विवाह और तस्करी बढ़ना तय है.'
आयोग का कहना है कि बाल विवाह के ज्यादातर मामलों में लड़कियों को दूसरे शहरों में ले जाकर कोठों पर बेच दिया जाता है. लड़की के गरीब मां-बाप के पास इसकी जानकारी हासिल करने का कोई उपाय नहीं होता और डर के मारे वह लोग पुलिस के पास भी नहीं जाते.
अचानक क्यों आया उछाल
लेकिन आखिर अचानक बाल विवाह के मामले क्यों बढ़ रहे हैं? सुदेष्णा बताती हैं, "हमें अपनी तहकीकात के दौरान इसकी दो प्रमुख वजहों की जानकारी मिली है. लड़की के माता-पिता अपनी गरीबी के चलते बाल विवाह कर जिम्मेदारी-मुक्त होना चाहते है.
इसके अलावा कुछ मामलों में गरीबी से आजिज आकर उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद में लड़की ही किसी के साथ भाग जाती है.” बाल अधिकार औऱ बाल तस्करी के मुद्दे पर काम करने वाले संगठनों का कहना है कि राज्य के ग्रामीण इलाकों में तो कम उम्र में विवाह की परंपरा बरसों से जारी है. लेकिन अब लाकडाउन ने लोगों का रोजगार छीन लिया है. ऊपर से रही-सही कसर अम्फान तूफान ने पूरी कर दी है. ऐसे में लोग लड़कियों का कम उम्र में ही विवाह कर रहे हैं.
ज्यादातर मामलों में लड़कियों या उसकी सहेलियां ही पुलिस-प्रशासन को बाल विवाह की सूचना देती रही है. लेकिन सामाजिक संगठन शक्तिवाहिनी के ऋषिकांत कहते हैं, "ज्यादातर मामले प्रशासन तक नहीं पहुंच पाते. यही वजह है कि बाल विवाह के मामले में पुलिस और दूसरे संगठनों के आंकड़ों में जमीन-आसमान का फर्क होता है.' आयोग की एक सदस्य बताती हैं, "बाल विवाह की ज्यादातर शिकायतें राज्य के उत्तर व दक्षिण 24-परगना, पूर्व व पश्चिम मेदिनीपुर, नदिया, मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों से आ रही हैं. इस मामले में यह जिले पहले से ही बदनाम रहे हैं. अब कोविड-19 औऱ अम्फान की दोहरी मार से परिस्थिति और गंभीर हो गई है.'
राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सचिव संघमित्रा घोष कहती हैं, "यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है. हम कोरोना महामारी और अम्फान तूफान जैसे दो विपदाओं के बीच में फंसे हैं. ऐसे में बाल विवाह और मानव तस्करी के मामले बढ़ जाते हैं. हम स्थानीय लोगों में इसके खिलाफ जागरुकता फैलाने का प्रयास कर रहे हैं.'
अम्फान तूफान की सीधी मार
राज्य सरकार को भी इस समस्या की गंभीरता का अहसास है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अम्फान के बाद राहत कार्यो का जायजा लेने के लिए दक्षिण 24-परगना जिले के काद्वीप में बीती 23 मई को आयोजित बैठक में पुलिस से बाल विवाह औऱ मानव तस्करी के मामलों पर कड़ी निगरानी रखने का निर्देश दिया था. बावजूद इसके ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं.
गैर-सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रेन के उपनिदेशक (पूर्व) चित्तप्रिय साधु कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में पहले से ही दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा बाल विवाह होते रहे हैं. नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की चौथी रिपोर्ट में कहा गया था कि 20 से 24 साल की 41 फीसदी महिलाओं का विवाह 18 साल से कम उम्र में ही हो गया था.' दक्षिण 24-परगना जिले में बाल विवाह और मानव तस्करी के मामले देखने वाली पुलिस अधिकारी काकोली घोष कुंडू बताती हैं, "हमें बाल विवाह की कई शिकायतें मिल रही हैं. कई मामलों में तो हमें कामयाबी मिल रही है. लेकिम लॉकडाउन खत्म होने के बाद ऐसी लड़कियों की तस्करी के प्रयास तेज होने का अंदेशा है.'
कोलकाता के प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान पढ़ाने वाली सुकन्या सर्वाधिकारी कहती हैं, "इतिहास गवाह है कि किसी बड़ी प्राकृतिक विपदा के बाद राज्य में बाल विवाह और बच्चों की तस्करी के मामले अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाते हैं. वर्ष 1943 में बंगाल के भयावह अकाल के दौर में भी ऐसा ही हुआ था.'
भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), कोलकाता में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे अनूप सिन्हा कहते हैं, "अम्फान के बाद ऐसे मामलों का तेजी से बढ़ना कोई आश्चर्यजनक नहीं है. गरीबी ही इस समस्या की मूल वजह है. ऐसे में सरकार की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. ऐसे परिवारों की शिनाख्त कर पंचायतों के जरिए उनको आर्थिक सहायता पहुंचा कर समस्या की गंभीरत को काफी हद तक कम किया जा सकता है. कोई विकल्प नहीं होने की वजह से ही गरीब परिवार बाल विवाह का विकल्प चुन रहे हैं.” सिन्हा कहते हैं कि सरकार इस समस्या पर काबू पाने के लिए पंचायतों के साथ इलाके में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों की भी सहायता ले सकती है. हाईकोर्ट ने भी इस मामले में पंचायतों की भागीदारी की बात कही है. (dw.com)
-श्रवण गर्ग
सरकार के बदलते ही ‘आपातकाल’ की पीठ को नंगा करके जिस बहादुरी के साथ उसपर हर साल कोड़े बरसाए जाते हैं ,मुमकिन है आगे चलकर 25 जून को ‘मातम दिवस’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने और उस दिन सार्वजनिक अवकाश रखे जाने की माँग भी उठने लगे।ऐसा करके किसी सम्भावित,अघोषित या छद्म आपातकाल को भी चतुराई के साथ छुपाया जा सकेगा। नागरिकों का ध्यान बीते हुए इतिहास की कुछ और निर्मम तारीख़ों जैसे कि 13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड या फिर छः दिसम्बर 1992 की ओर आकर्षित नहीं होने दिया जाता है जब बाबरी मस्जिद के ढाँचे को ढहा दिया गया था और उसके बाद से देश में प्रारम्भ हुए साम्प्रदायिक विभाजन का अंतिम बड़ा अध्याय गोधरा कांड के बाद लिखा गया था।आश्चर्य नहीं होगा अगर सत्ता में सरकारों की उपस्थिति के हिसाब से ही सभी तरह के पर्वों और शोक दिवसों का भी विभाजन होने लगे।चारण तो ज़रूरत के मुताबिक़ अपनी धुनें तैयार रखते ही हैं।
आज जब आपातकाल को लेकर एक लम्बी अवधि की बरसी मनाई जा रही है और केवल इक्कीस महीनों के काले दिनों को ही बार-बार सस्वर दोहराया जा रहा है, कुछेक बातें उन इंदिरा गांधी के बारे में भी की जा सकती हैं जो आज की दुनिया के कई छुपे हुए तानाशाहों के मुक़ाबले ज़्यादा प्रजातांत्रिक थीं।हमें यह नहीं बताया जाता है कि अगर उनका मूल संस्कार ही तानाशाही का था तो फिर वे आपातकाल के हटने के केवल तीन साल बाद ही हुए चुनावों में इतने प्रचंड बहुमत के साथ वापस कैसे आ गईं !
क्या नागरिकों ने इस सम्बंध में अपना सोच और शोध सम्पन्न कर लिया है कि आपातकाल आख़िर ख़त्म कैसे हुआ होगा? सारे नेता तो जेलों में बंद थे ! तब क्या जनता अपने सरों पर कफ़न बांधकर सड़कों पर उतर आई थी ? क्या कोई अमेरिकी दबाव रहा होगा जिसके सामने वह इंदिरा गांधी जो बांग्लादेश की लड़ाई के वक्त नहीं झुकी थीं, जनवरी 1977 में झुक गई होंगी ? आपातकाल ख़त्म करने की घोषणा के पहले क्या वे तमाम कारण पूरी तरह से मिट गए थे जिनकी कि आड़ लेकर देश को त्रासदी में धकेला गया था ? अगर यह सब नहीं था तो फिर क्या कारण रहे होंगे ? हमें बताया क्यों नहीं जाता ?
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तब संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक आपातकाल लगाने की इंदिरा सरकार की सिफ़ारिश पर हस्ताक्षर किए थे। देश में कथित तौर पर व्याप्त आंतरिक व्यवधान को आपातकाल लगाने का कारण बनाया गया था।याद पड़ता है तब इंडियन एक्सप्रेस में प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट अबु अब्राहम का एक कार्टून छपा था जिसमें दर्शाया गया था कि राष्ट्रपति की छवि का एक व्यक्ति नहाने के बड़े टब में खुले बदन बैठा हुआ है और बाथरूम का आधा दरवाज़ा खोलकर उससे किसी काग़ज़ पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं ।आपातकाल की घोषणा के बाद देश में जो कुछ भी हुआ वह उस समय के इतिहास में सिलसिलेवार दर्ज़ है ।पर जिन सवालों की ज़्यादा चर्चा नहीं की जाती या फिर होने नहीं दी जाती उनमें एक यह भी है कि अचानक से ऐसा क्या हुआ होगा कि 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने एक रेडियो प्रसारण के ज़रिए तत्कालीन संसद को भंग कर नए चुनाव कराए जाने की घोषणा कर दी।उसके बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त भी हो गया।
आपातकाल की इस तरह से अचानक समाप्ति और चुनावों की घोषणा किसी भूकम्प से कम नहीं थी। जेलों में बंद या भूमिगत हो चुके विभिन्न दलों के नेता, अन्य निर्दलीय कार्यकर्ता और जनता इस राहत भरे समाचार के लिए बिलकुल ही तैयार ही नहीं थी। मानकर यही चला जा रहा था कि आपातकाल लम्बा चलने वाला है। जेलों में बंद कई नेता माफ़ी माँगकर और इंदिरा गांधी के बीस-सूत्रीय कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करके बाहर आने लगे थे। कई ने पैरोल की अर्ज़ियाँ लगा रखीं थी। जनता भी ख़ुश थी कि ट्रेनें समय पर चल रही हैं और सीधे हाथ वाला भ्रष्टाचार कम हो गया है।पत्रकारों की टोलियाँ भी इंदिरा गांधी के निवास पर सेन्सरशिप का समर्थन करने पहुँचने लगीं थी। सर्वत्र शांति थी।इंदिरा गांधी चाहतीं तो आपातकाल को बढ़ाती रहतीं। न्यायपालिका सहित सब कुछ पक्ष में था।फिर क्या कारण रहा होगा?
इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल को ख़त्म करने के तब कई कारण गिनाए गए थे और उन पर यदा-कदा बहस भी होती रहती है।किताबें भी लिखी जा चुकी हैं।जिस एक बड़े कारण की यहाँ चर्चा करना उचित होगा वह यह है कि इंदिरा गांधी का मूल व्यक्तित्व प्रजातांत्रिक था।वे आपातकाल के कारण मिल रहे अपयश और अपकीर्ति से उसके लागू होने के कुछ ही महीनों में भयभीत हो गईं थीं। वे जनता से दूर नहीं होना चाहती थीं। उन्हें पक्की आशंका थी कि जिन चुनावों की वे घोषणा कर रही हैं उनमें वे हारने वाली हैं पर वे हार का सुख भी भोगने की इच्छा रखती थीं।उन्हें इस बात का भी कोई अनुमान नहीं था कि चुनावों में उनके हारने के बाद बनने वाली विपक्षी दलों की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के कारण इतने कम समय में गिर जाएगी और जब फिर से चुनाव होंगे (1980) वे ज़बरदस्त बहुमत के साथ फिर से सत्ता में आ जाएँगी। और क्या इस खुलासे पर भी आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि आपातकाल को समाप्त करने के फ़ैसले का संजय गांधी को भी पता इंदिरा गांधी के रेडियो प्रसारण से ही चला था।
आपातकाल लागू करना अगर देश में तानाशाही हुकूमत की शुरुआत थी तो क्या उसकी समाप्ति की घोषणा इंदिरा गांधी की उन प्रजातांत्रिक मूल्यों और परम्पराओं में वापसी नहीं थी जिनकी बुनियाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी ? अब हमें अपने भविष्य के नेताओं से किस तरह के साहस की उम्मीदें रखनी चाहिए ? क्या वे कभी विपरीत परिस्थितियों में इंदिरा गांधी की तरह ही अपयश और अपकीर्ति से भयभीत होने का प्रजातांत्रिक साहस दिखा पाएँगे ?और अंत में यह भी कि अगर आपातकाल की दोषी दिवंगत प्रधानमंत्री मूलतः प्रजातांत्रिक नहीं होतीं तो क्या प्रियंका गांधी में अपने विरोधियों को इतनी ऊँची आवाज़ में चुनौती देने का नैतिक साहस होता कि :’मैं इंदिरा गांधी की पोती हूँ ?’ शायद बिलकुल नहीं।
ममता के मिजाज में सबको साथ लेकर चलने की चिंताजनक कमी
शीर्ष नेतृत्व का मूल्यांकन और सुधार करने की कोई स्वस्थ प्रथा तो अपने यहां है नहीं। होती तो यह साफ दिखाई देता कि ममता के मिजाज में जंग जीतने के बाद अक्सर सबको साथ लेकर राजकाज चलाने की क्षमता में चिंताजनक कमी दिखती है।
-मृणाल पाण्डे
बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी की राजनीति एक गर्म राजनीति है जिसका झुकाव चुनाव सामने आते ही एक अचरज भरे तरीके से अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी की ही तरह का हो जाता है। वही उग्र सड़क छाप नारेबाजी, वही दो-दो हाथ करने को अकुलाते कार्यकर्ता। बंगाल की जनता को वाम दलों के खिलाफ एक लंबा और खतरों भरा संघर्ष छेड़कर उनको सत्ता से दरबदर कराने वाली ‘दीदी’ से देश और बंगवासियों ने ढीली प्रशासनिक चूड़ियां कसने और आर्थिक निवेश की भागीरथी वापस लाने की बड़ी आस लगाई थी। इसीलिए बरसों तक एक आसान किंतु बांझ, आशावाद बेचते रहे वामदलों को 2011 में नकार दिया।
पर कोविड और हालिया साइक्लोन की मार से आज बंगाल बेहाल है। दीदी हमेशा की तरह आपदा देखकर तुरंत खुद सड़कों पर उतर आई हैं, लेकिन जनता, खासकर तटीय क्षेत्र के सुंदरबन इलाके और 24 परगना जिले के हालात बहुत बुरे हैं। इस सबके मद्देनजर बीजेपी को पक्की उम्मीद बंध रही है कि वह जिस तरह 2011 में वाम दलों के शासन के अंतिम 5 सालों में ‘पोरीबौर्तोन’ की खोज में बंगाल के सनातन विद्रोही मस्तिष्क को ममता ने तृणमूल की तरह मोड़ लिया था, उसी तरह रथी शाह और धनुर्धारी मोदी के जगन्नाथी रथ से रिझा कर बीजेपी बंगाल में भगवा नवोन्मेष, ‘हिंदू रेनेसां’ ले आएगी।
2014 तक बंगाल और असम- ये दो बड़े पूर्वी राज्य बीजेपी की जद से बाहर थे। जोड़तोड़ में माहिर बीजेपी के मुख्य रणनीतिकारों ने असम में कांग्रेस से खिन्न हेमंत बिस्व सरमा और तृणमूल से उखड़े मुकुल रॉय को पूर्वी भारत में अपनी सीटें बढ़ाने के लिए अपना खासउल खास क्षेत्रीय कमांडर बनाया। प्रयोग लह गया और बंगाल में 42 में से 18 लोकसभा सीटें बीजेपी ले उड़ी। तब से दीदी और केंद्र के बीच सौमनस्य घटता चला गया, पर निडर और करिश्माती जन नेता होते हुए भी ममता की शैली गर्जन-तर्जन भरी ही बनी रही और केंद्र से उनकी झड़पें संवाद का स्थायी हिस्सा बनी रही हैं।
ममता का अवतरण 2011 में जब वामपंथियों के सपनों का साम्यवादी राज्य उजड्ड कार्यकर्ताओं के कारनामों से विकृत फासिज्म का रूप लेने लगा तो हुआ। तब उनकी इसी शैली और निडर साफगोई ने भावुक बंगालियों को एक करंट की तरह छुआ और जन नेत्री के रूप में एक गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई क्षेत्रीय दुर्गा का मिथक उनके गिर्द रंग पकड़ने लगा। लेकिन लोकप्रियता की ऐसी अद्वितीय परिस्थितियां ही जाने क्यों जीत के बाद अक्सर हमारे जन नेताओं के मनोविश्व को असामान्य बना देती हैं। अजीब बात है कि जो लोकप्रिय नेता हर विशाल जनसमूह से इतनी आत्मीयता से बतियाते हैं, उनको निजी जीवन में किसी पर इतना भरोसा नहीं होता कि वे जनता से बेझिझक बात या अपने आलोचकों से खुली बहस कर उनके प्रतिवाद सहन करते हुए ठंडे तर्क संगत जवाब दें। ऐसे लोग तमाम दलगत या प्रशासकीय फैसले निजी अंत: प्रवृत्तियों के आधार पर ही लेते और उनको दबंगई से लागू कराते हैं। दुर्लभ बहुमत से दलों को सत्ता में लाने वाले नेतृत्व की पकड़ इधर कोविड की महामारी, पर्यावरण के घातक असामान्य बदलावों के बाद भी बदलती नहीं दिखती। उल्टे सारी ताकत अपने ही हाथों में थामने वाला नेतृत्व नीतिगत विचार-विमर्श ही नहीं, कानून और व्यवस्था से जुड़े नाजुक सरकारी फैसले भी दल तथा प्रशासनिक टीम के साथ बैठकर तय करने की बजाय मौखिक आदेशों से ही निबटा रहा है। जब भारी आपात्काल सामने खड़ा हो, सीमाएं सुलग उठी हों और पड़ोसी देशों की सेनाएं चीलों की तरह मंडरा रही हों, तो उस समय खलीफा हारून-अल-रशीद की तरह टीवी कैमरों के सामने भोंगा लगा जनता को संबोधित कर ऐसे नेता एक खतरनाक सतही तेजी से हर शत्रु को, वह विदेशी हो या दलगत, डपटते दिखते हैं। इससे नाटकीय खबरें भले बनती हों लेकिन न लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षय रुकता है, नहीं स्वास्थ्य कल्याण ढांचे या स्कूली शिक्षा बेहतर होती है।
विडंबना देखिए, जिस शैली ने कभी ममता के विश्वस्त रहे मुकुल रॉय को बीजेपी के खेमे में भेजा, बीजेपी की वही शैली उनको इतना खिन्न बना चुकी है कि (अगर कुछ विदेशी अखबारों की खबरें सही हैं तो) वह पुन: ममता दीदी के खेमे में जाने का मन बना रहे हैं। उनकी खिन्नता की मूल वजह यह है कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी की सीटों में उम्मीद से अधिक बढ़ती करवाने के बाद भी सारा श्रेय पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष की झोली में गया। उनको कुछ छींटे भी नहीं मिले, तृणमूल के पुराने साथियों के बीच पार्टी विभीषण होने का अपयश कमाया सो कमाया। चलिए, यह भी समय के साथ समझदार लोग झेल लेते हैं। लेकिन जब राज्य बीजेपी की अध्यक्षता का ताज देने की बारी आई, वह उनके पुराने आलोचक दिलीप घोष को पहनाया गया। खुद रॉय बाबू को राज्यसभा सीट तक न मिली। खबर आई है कि पुराने क्रिकेट कप्तान को बीजेपी ज्वॉइन करने और राज्यसभा में आने का खुला ऑफर मिला है। यही नहीं, मध्य प्रदेश से लेकर बंगाल तक के कई और पुराने दल भक्त भाजपाई भी जानकारों की राय में इस बात से खिन्न हैं कि विपक्ष से तोड़कर लाए गए विगत चुनावों में उनके मुखर शत्रु रहे लोगों को उनसे अधिक भाव दिया जा रहा है। भिड़ंत राज्यस्तर पर किसी भारतीय प्रतिपक्षी से हो, या सीमा पर उमड़ती विदेशी सेना से; अथवा किसी अनदेखी लाइलाज महामारी से- नाजुक मौके पर कुंजड़ों की तरह घर के भीतर आपसी चख-चख, दांव पेच और खून खच्चर जारी रखने में कोई सयानापन नहीं। यह याद रखने की बात है कि पहले पाकिस्तान और फिर नेपाल को अपने पक्ष में करने के बाद अब चीन की नजर बांग्लादेश पर है। वह बांग्लादेश को व्यापार में अभूतपूर्व छूटें ऑफर कर रहा है।
इस समय पश्चिम बंगाल के वातावरण में सांप्रदायिक मुद्दों को धुकाकर अपनी नाव के पाल में गर्म हवा भरने की रणनीति नैतिक रूप से ही नहीं, राजनय के नजरिये से भी गलत होगी। भगवान न करे कि जब बंगाल इतनी दैवी और राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा हो, केंद्र खाते खोलकर विचार करने लगे कि क्या उसके द्वारा नियुक्त राज्यपाल, बढ़ती अराजकता का इल्जाम लगा कर मौजूदा राज्य सरकार को बरखास्त कर सकता है?
जिस समय जनता और संविधान दोनों पुकार-पुकार कर अखिल भारतीय पार्टियों की मांग कर रहे हैं, उस समय हमारी पार्टियां प्रांतीय बनती जा रही हैं। इस हांव-हांव के बीच भारत के नक्शे में चीन और नेपाल मनमाने तरीके से जोड़-तोड़ करने लगे हैं। क्या यही हमको बताने को काफी नहीं कि देश का तयशुदा नक्शा बुनियादी तौर से तभी सुरक्षित रह सकेगा, जब हमारा प्रजातंत्र और अखिल भारतीय पार्टियां मजबूत और केंद्र सरकार की नजरों को अपनी घरेलू प्रतिस्पर्धी नजर आएंगी, दुश्मन नहीं।
ममता एक कुशल जन नेत्री हैं। यह भी निर्विवाद है कि यह मकाम उन्होंने अपने संघर्ष से पाया है। लेकिन अब जब कि वह शीर्ष पर हैं, और अपने दल की सर्वमान्य नेता भी, उनको भी अपने हर आलोचक के साथ स्थायी दुश्मनी साधने से बचना चाहिए। संप्रग के जमाने में कांग्रेस की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी तृणमूल थी। इसके बावजूद तीस्ता जल बंटवारे पर ऐन मौके में अड़कर दीदी ने बांग्लादेश के सामने केंद्र सरकार की किरकिरी करा दी थी। फिर लोकायुक्त मसले पर राइट अबाउट टर्न कर संसद में उसे शर्मिंदा किया। इंदिरा गांधी भवन का नाम (बांग्लादेशी कवि) काजी नजरुल इस्लाम के नाम पर करते हुए कहा कि कांग्रेस चाहे तो उनसे नाता तोड़ ले। गठजोड़ सरकारों के युग में ऐसी एकला चलो रे की मानसिकता का प्रदर्शन कैसा?
ममता की इसलिए हमेशा तारीफ की जाती है, कि बंगाल में वामदलों के अधिनायकवादी नेतृत्व को चुनौती देने में उन्होंने लंबे समय तक आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखाई। लेकिन समय- समय पर नेता द्वारा खुद की या पार्टी द्वारा शीर्ष नेतृत्व का मूल्यांकन और सुधार करने की कोई स्वस्थ प्रथा तो अपने यहां है नहीं। होती तो यह साफ दिखाई देता कि ममता के मिजाज में जंग जीतने के बाद अक्सर सबको साथ लेकर राजकाज चलाने की क्षमता में चिंताजनक कमी दिखती है।
विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर जिस विशाल प्रशासनिक मशीनरी से उनको जमीनी तौर पर काम लेना है, उसके कल पुर्जों की दुरुस्ती और उनकी ग्रीज से हाथ या कपड़े मैले करने में उनको वैसी ही रुचि दिखानी चाहिए जैसी बीजेपी के शीर्षरण नीतिकार में है। वह निजी रूप से एक बेदाग छवि रखती हैं। वह निश्चय ही नहीं चाहेंगी कि उनके बंगाल में प्रजातंत्र की लोकप्रिय जात्रा पर हमेशा के लिए पर्दा पड़ जाए ताकि आसपास मंडरा रहे सांप्रदायिक भेड़िये नकली आवाजें निकाल कर राज्य की जनता को गुमराह कर सकें? (www.navjivanindia.com)
यदि कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर हो गया है, तो इसका पहला कारण तो एनजीओ संस्कृति है। इससे दो नुकसान हुए दरअसल।
पहला, कुछ ऐसे लोग जो अच्छे कम्युनिस्ट हो सकते थे, वे या तो एनजीओ चला रहे हैं या एनजीओ में नौकरी कर रहे हैं। हालांकि कुछ लोगों को एनजीओ में नौकरी पाने के लिए नकली कम्युनिस्ट बनना पड़ता है।
दूसरा नुकसान यह हुआ कि इन लोगों ने नागरिक आंदोलनों की संभावना को लगभग खत्म कर दिया है। अब ज्यादातर आंदोलन एनजीओ चलाते हैं।
एनजीओ फंड से चलता है, जो या तो सरकार से मिलता है या उद्योगपति से। आंदोलन भी सरकार के खिलाफ होता है। आप जिस से फंड ले रहे हों, उसके विरोध में एक हद से ज्यादा उतर ही नहीं सकते।
दरअसल एनजीओ संस्कृति पूंजीवाद और पूंजीवादी सरकारों के संरक्षण के लिए ही विकसित की गई है।
इसे इस तरह समझिए कि किसी जमीन को सरकार ने किसी उद्योगपति को किसी काम के लिए आबंटित कर दिया, जिससे लोगों में गुस्सा है।
लोगों का गुस्सा सतह पर आए, इससे पहले ही वहां कोई एनजीओ प्रकट हो जायेगा। वह लोगों के उस गुस्से को आंदोलन की शक्ल दे देगा, फिर धीरे धीरे उस गुस्से को शांत कर देगा, और न सरकार का कुछ बिगड़ेगा, न उद्योगपति का।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सरकार ने एक उद्योगपति को जमीन दे दी, तो दूसरे ने किसी एनजीओ को लगाकर आंदोलन करा दिया। बाद में जिसे जमीन मिली थी, उसने भी आंदोलनकारी एनजीओ को फंडिंग कर दी। और आंदोलन खत्म।
जमीन का उदाहरण देकर जो बात कही गई है, उसे आप सभी मामलों में फिट कर लीजिये। किसानों, महिलाओं, पिछड़ों, अल्पसंख्यक, दलितों, बच्चों के नाम पर जो हो रहा है, उसका झोल आपकी समझ में आ जाएगा।
फैक्ट्री मालिक से फंड लेकर आप बाल मजदूर को किस तरह हक दिला पाएंगे, सोचकर देखिए। सच तो यह है कि फैक्ट्री मालिक से फंड लेकर आप बाल मजदूर के हक की बात इसलिए कर रहे हैं, ताकि कोई बच्चों को हक दिलाने सचमुच मैदान में न आ जाए।
यहां बच्चों का उदाहरण दिया गया है। आप बच्चों की जगह महिलाओं को रख लीजिए, जिसे रखना चाहें रख लीजिये।
आप सोच रहे होंगे कि इस पूरे धतकरम का कम्युनिज्म के नुकसान से क्या मतलब। है, सर इसका कम्युनिज्म से मतलब है। हम लोगों का काम कठिन हुआ है। लोग बहुत आसानी से भरोसा नहीं कर पाते।
तो पूंजीवाद का जो लंकेश है, एनजीओ संस्कृति उसी लंकेश का एक सिर है। जिसे पूंजीवादियों ने ही अपनी रक्षा के लिए बहुत करीने से खड़ा किया है।
हाँ, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे एनजीओ इस नियम का अपवाद हो सकते हैं।
कम्युनिस्ट आंदोलन का दूसरा नुकसान समाजवादियों ने किया। जाति भारतीय समाज व्यवस्था का अनिवार्य तत्व है। जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करना भी बहुत आसान है।
जिस देश में गरीब बनाम अमीर की राजनीति होनी चाहिए थी, उसमें इन्होंने जाति बनाम जाति की राजनीति की। इसलिए गरीब बनाम अमीर की राजनीति का आधार कमजोर पड़ा। गरीब बनाम अमीर की राजनीति केवल कम्युनिस्ट करते हैं। (बाकी पेज 8 पर)
इसीलिए कम्युनिस्ट आंदोलन भी कमजोर पड़ा। क्या आपको पता है, कम्युनिस्ट पार्टियां उद्योगपतियों से चंदा नहीं लेतीं।
समाजवादियों ने एक तरफ गरीब अमीर की राजनीति नहीं होने दी, उसकी जमीन को कमजोर किया। दूसरी तरफ ज्यों ही मौका आया, फासीवादियों की पालकी लादकर खड़े हो गए।
जार्ज फर्नांडीज जैसे खांटी समाजवादी ने कंधे दर्द करने के बावजूद भाजपा की पालकी ढोई। यूपी वाले नेताजी ने यही काम चुपके-चुपके किया। सुशासन कुमार भी तो एक हद तक समाजवादी ही हैं, लेकिन देखो, कितनी मजबूती से पालकी ढो रहे हैं।
कम्युनिज्म की कमजोरी का तीसरा कारण खुद कम्युनिस्ट हैं। वह समय बहुत पहले आ चुका है, जब सभी वामपंथी पार्टियों को एकजुट हो जाना चाहिए था, लेकिन नहीं हुईं। अब भी इस दिशा में कुछ खास हो नहीं रहा है।
यह सही है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में साफ सुथरे लोग आने चाहिए, लेकिन इतना शुद्धतावाद भी ठीक नहीं कि 10-15 साल तक तो लोगों को कार्यकर्ता ही न बनाया जाए। अन्य पार्टियों में कार्यकर्ता बनने में दो मिनट नहीं लगते, यहां 10-12 साल भी कम पड़ जाते हैं। यह ठीक नहीं।
यह पोस्ट एक मित्र के सवाल के जवाब में लिखी गई है। यह विषय ऐसा है, जिस पर किताब लिखी जा सकती है, इसलिए कम शब्दों में बात कहने की कोशिश के बावजूद पोस्ट लम्बी हो गई है। अगर पूरी पढ़ी है तो धन्यवाद। नहीं पढ़ी तो भी।
एनजीओ वाले और समाजवादी मित्र क्षमा करें, जो सच है, सो है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल के प्रधानमंत्री खडग़प्रसाद ओली अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं लेकिन अपनी खाल बचाने के लिए उन्होंने अब उग्र राष्ट्रवादी का चोला ओढ़ लिया है। अब वे नेपाली संसद में हिंदी बोलने और धोती-कुर्ता पहनने पर प्रतिबंध लगाएंगे। उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए उन्हीं की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ और माधव नेपाल ने शंखनाद कर दिया है।
इन दोनों पूर्व प्रधानमंत्रियों ने ओली पर आरोप लगाया है कि वे अमेरिका और भारत, दोनों के साथ सांठ-गांठ किए हुए हैं और वे भारत-नेपाल सीमा के बारे में भी अपनी दुम दुबाए रखते हैं। वे राष्ट्राभिमानी नेपाली प्रधानमंत्री की तरह दहाड़ते क्यों नहीं हैं ? उन्होंने अमेरिका के 50 करोड़ डालर के महापथ-निर्माण के प्रोजेक्ट को क्यों स्वीकार किया है और भारत के साथ लिपुलेख क्षेत्र के बारे में दब्बूपने का रुख वे क्यों अपनाए हुए हैं। जो ओली सीमा-विवाद को लेकर भारत से बातचीत के पक्षधर थे, अब उन्होंने इतने उग्र तेवर अपना लिये हैं कि उन्होंने भारत पर कुछ व्यंग्य ही नहीं कसे बल्कि अपने संविधान में संशोधन करके कुछ भारतीय क्षेत्रों को नेपाल का हिस्सा भी बता दिया।
इतना ही नहीं, वे अब कानून यह बना रहे हैं कि जो भी नेपाली किसी भारतीय से विवाह करेगा, उस भारतीय वर या वधु को नेपाल की नागरिकता 7 साल बाद मिलेगी। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने भारत-नेपाल संबंध को रोटी-बेटी का रिश्ता कहा था, उसे ओली अब खटाई में डाल रहे हैं। ‘प्रचंड’ के लोग मौन रहकर और नेपाली कांग्रेस संसद में प्रस्ताव लाकर यह सिद्ध कर रही है कि ओली सरकार ने कई नेपाली गांव चीन को सौंप दिए हैं।
ऐसे लचर-पचर प्रधानमंत्री को नेपाल क्यों बर्दाश्त कर रहा है। इसके अलावा सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेताओं के उकसावे के कारण ओली सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरेाप भी लग रहे हैं। ऐसे में ओली अपने आप को अत्यंत उग्र राष्ट्रवादी सिद्ध करने में लगे हुए हैं। मुझे नेपाल केे कुछ सांसदों और मेरे मित्र मंत्रियों ने यह भी बताया कि अब ओला का ताजातरीन पैंतरा यह है कि नेपाली संसद में हिंदी बोलने और धोती कुर्ता पहनने पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। सांसदों को नेपाली भाषा बोलना और नेपाली वेषभूषा (टोपी, दाउरा और सुरवल) पहनना अनिवार्य होगा।
अब से लगभग 28-30 साल पहले मैंने मधेशियों के नेता गजेंद्रनारायण सिंह और संसद के अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना से नेपाल की संसद में हिंदी और धोती-कुर्ता की छूट के लिए पहल करवाई थी। वे दोनों मेरे अच्छे मित्र थे। यदि ओली उसे खत्म करेंगे तो न सिर्फ नेपाल के लाखों मधेसी लोग उनके खिलाफ हो जाएंगे बल्कि ‘जनता समाजवादी पार्टी’, जिसमें पूर्व कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई और हिसिला यमी जैसे नेता भी हैं, उनका डटकर विरोध करेंगे। ओलीजी, यह अच्छी तरह समझ लें कि उनका यह कदम 2015 की नाकाबंदी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। चीन उन्हें बचा नहीं पाएगा।(नया इंडिया की अनुमति से)
कट्टर पूंजीवाद के खतरे की मिसाल, सबसे अमीर देश
अमेरिका में 20 लाख लोगों के घर पानी नहीं आता। करीब 3 करोड़ लोगों के घरों में जो पानी आता है, वह सुरक्षित नहीं। लगभग 11 करोड़ आबादी को मिलने वाले पानी में विषैले रसायनों की भरमार है। पानी का बिल नहीं भरने के कारण करीब 1.5 करोड़ आबादी की जल आपूर्ति बंद कर दी गई है।
-महेन्द्र पांडे
हमारे प्रधानमंत्री रसातल में जा चुकी अर्थव्यवस्था के बाद भी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की बातें करते हैं और जाहिर करते हैं कि मानो उसके बाद जनता की सारी समस्याएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएंगी। ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल किसी के भी मस्तिष्क में उठ सकता है कि क्या अर्थव्यवस्था का विस्तार और जनता की सुविधाओं में कोई संंबंध होता है?
आज की पूंजीवादी और बाजार पर टिकी अर्थव्यवस्था के दौर में इसका सीधा सा उत्तर है, नहीं। अर्थव्यवस्था के बढ़ने से देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती है और साधारण जनता और गरीब सुविधाओं से और वंचित हो जाते हैं। पिछले वर्ष के अंत तक हमारे देश की अर्थव्यवस्था 2.9 ट्रिलियन डॉलर की थी और इस समय देश में 102 अरबपति हैं, पर कोविड-19 के दौर में हम जनता की परेशानियां देख चुके हैं।
इस समय दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका है और भारत छठे स्थान पर है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था 21.5 ट्रिलियन डॉलर की है और वहां 614 अरबपति हैं और आबादी भारत से कम है। जाहिर है, वहां के नागरिकों को सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, पर ऐसा नहीं है। दुनिया का सबसे शक्तिशाली और अमीर देश, अमेरिका, अपने सभी नागरिकों को तो पानी की आपूर्ति भी नहीं कर पाता है।
अमेरिका में लगभग 20 लाख लोगों के घर पानी नहीं आता और इनके घरों में मौलिक प्लम्बिंग की सुविधा नहीं है। इसके अलावा 3 करोड़ से अधिक आबादी के घरों में जो पानी आता है, वह सुरक्षित नहीं है। लगभग 11 करोड़ आबादी तक पहुंचने वाला पानी प्रदूषित है और इसमें विषैले रसायनों की भरमार है। लगभग 1.5 करोड़ आबादी को पानी का बिल नहीं भरने के कारण जल आपूर्ति की सुविधा से बेदखल कर दिया गया है। इन सबके बाद भी, अमेरिका में अरबों डॉलर की कमाई वाली बोतल-बंद पानी का बाजार साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है।
इन सभी चौकाने वाले आंकड़ों का खुलासा द गार्डियन ने अपनी एक रिपोर्ट में किया है, जिसे अनेक अमेरिकी संस्थानों के साथ मिलकर प्रकाशित करने की योजना है। लगभग 10 वर्ष पहले, संयुक्त राष्ट्र ने 28 जुलाई 2010 को, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत पानी को हरेक व्यक्ति का मौलिक अधिकार करार दिया था। इसके अनुसार पानी का मतलब कैसा भी पानी नहीं, बल्कि साफ, सुरक्षित और पर्याप्त मात्रा में पानी था।
लेकिन, इन दस वर्षों के भीतर ही अमेरिका में पानी की समस्या और विकराल हो गई। अब पानी असमानता, गरीबी, प्रदूषण और व्यापार का पर्यायवाची बन गया है। पानी की कमी से सबसे अधिक प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब आबादी, अफ्रीकन-अमेरिकन समुदाय, जनजातियां और प्रवासी आबादी है। यहां लोगों को पानी के अधिकार से वंचित कर खनन, कृषि और उद्योगों को प्राथमिकता दी जा रही है।
प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और पुराने जल-आपूर्ति तंत्र के बाद भी साल 2010 से 2018 के बीच पानी के वार्षिक बिल में औसतन 80 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है, जिससे गरीब और माध्यम वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत आबादी के पास इस बिल को भरने के पैसे नहीं हैं। कहीं-कहीं तो गरीबों की औसतन वार्षिक आय का 12 प्रतिशत से अधिक खर्च केवल पानी के बिल को भरने में चला जाता है।
इसी अवधि के दौरान जल आपूर्ति और सफाई के लिए मिलने वाली सरकारी मदद में लगभग 80 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है। फूड एंड वाटर वाच की वाटर जस्टिस एक्सपर्ट मैरी ग्रांट के अनुसार अमेरिका का हरेक क्षेत्र पानी के आपातकाल से जूझ रहा है। यहां पानी के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन की आवश्यकता है। पानी को किसी उत्पाद या फिर अमीरों की सुविधा के तौर पर नहीं देखना चाहिए।
अमेरिका में नस्लवाद और रंगभेद विरोधी आंदोलनों का एक बड़ा मुद्दा यह भी है, क्योंकि पानी की कमी से अफ्रीकन-अमेरिकन, एशियाई और अल्पसंख्यक आबादी सबसे अधिक प्रभावित है। डेट्रॉइट की लगभग 80 प्रतिशत आबादी अफ्रीकन-अमेरिकन और एशिया के लोगों की है। जाहिर है यहां पानी की किल्लत होगी और पानी का बिल नहीं भर सकने वाली आबादी भी अधिक होगी। यहां पिछले 2 वर्षों के भीतर लगभग डेढ़ लाख घरों से जल आपूर्ति के कनेक्शन काटे जा चुके हैं। इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में चर्चा भी की जा चुकी है। दूसरी तरफ, पुराने और जर्जर जल आपूर्ती ढांचे के कारण अमेरिका में लगभग 6 अरब डॉलर मूल्य का पानी बर्बाद हो जाता है।
दूसरी तरफ, पिछले वर्ष अमेरिका के जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज में जोआन रोज की अगुवाई में प्रस्तुत एक शोध पत्र ने सेप्टिक टैंक पर ही गंभीर सवाल उठाए थे। जिन घरों में प्लम्बिंग की सुविधा नहीं है, वहां शौचालय सोक पिट और सेप्टिक टैंक से ही जुड़े हैं। इस अध्ययन को नदियों से संबंधित सबसे बड़ा अध्ययन कहा जा रहा है। इसके अनुसार सेप्टिक टैंक से फीकल कोलीफार्म को आप भूमि या नदियों में जाने से नहीं रोक पाते हैं।
वैज्ञानिक जगत में यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है कि भूमि मानव और मवेशियों के मल के लिए प्राकृतिक उपचारण का काम करती है। प्रचलित धारणा के अनुसार नदी के उन क्षेत्रों में जहां सेप्टिक टैंक की संख्या सबसे अधिक है, वहां नदी में फीकल कोलिफौर्म की संख्या कम होनी चाहिए थी, पर इस दल ने अपने अध्ययन में ठीक इसका उल्टा पाया।
पिछले वर्ष अमेरिका के शहरों में पीने के पानी की जांच की गई थी। राजधानी वाशिंगटन डीसी में जिस पानी की घरों में आपूर्ति की जाती है, उस पानी में 10 से अधिक ऐसे प्रदूषक तत्व मौजूद थे, जिनकी सांद्रता तय मानक से अधिक थी और इनमें ऐसे रसायन मौजूद थे जिनसे कैंसर हो सकता है। सितंबर 2019 में जर्नल हेलियो में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार अमेरिका में पीने के पानी में प्रदूषण और विषैले पदार्थों की उपस्थिति के कारण लगभग एक लाख लोगों को कैंसर होता है। इसका मुख्य कारण पानी में आर्सेनिक की मौजूदगी है, जो प्राकृतिक तौर पर पानी में मौजूद रहता है।
एनवायर्नमेंटल वर्किंग ग्रुप की वरिष्ठ वैज्ञानिक ओल्गा नैदेंको के अनुसार यह प्रदूषण बड़ी संख्या में लोगों में कैंसर उत्पन्न करने में सक्षम है। हाल में ही अमेरिका के बाजार में मिलने वाले बोतल-बंद पानी की जांच की गई और इसमें भी आर्सेनिक मौजूद था। कंज्यूमर रिसर्च के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ जेम्स दिकर्सन के अनुसार यह आश्चर्य का विषय है कि मंहगा बोतल-बंद पानी भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है। उनके अनुसार आर्सेनिक के प्रभाव से कार्डियोवैस्कुलर रोग, कैंसर, बच्चों में बौद्धिक क्षमता का अपूर्ण विकास और भी अनेक रोग हो सकते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के समय ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया था और अब दुनिया उस महानता को प्यासे, भूखे, बेरोजगार, नस्लभेदी और सत्तालोभी राष्ट्रपति के तौर पर देख रही है। कट्टर पूंजीवाद में पानी और खाने की नहीं बल्कि जीडीपी की बात की जाती है, अरबपतियों की बातें की जाती हैं। जाहिर है, जिस दिन अमेरिका ग्रेट हो जाएगा उस दिन कम से कम डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति के तौर पर नहीं चुनेगा। (www.navjivanindia.com)