विचार/लेख
दिक्कत सिर्फ बिजली, नेट या स्मार्टफोन न होने की नहीं
-आलोक रंजन
भारत में शिक्षा, खास कर विद्यालयी शिक्षा कभी भी दोषमुक्त नहीं रही इसलिए इसकी ओर उंगली उठा देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगती. लेकिन कोरोना संकट के इस दौर में इसके कुछ और आयाम दिखाई देने लगे हैं. वर्तमान दौर में विद्यालय आधारित शिक्षा ‘ऑनलाइन’ हो गयी है. आधारभूत ढांचे और शिक्षकों की कमी से जूझ रहे विद्यालयों तक में अब इसकी पहुंच है. ऑनलाइन कक्षा को इस समय की सबसे बड़ी जरूरत के रूप में पेश किया जा रहा है. लेकिन इसके साथ ही विशेषज्ञ इसके विभिन्न दोषों पर भी ध्यान दिलाने लगे हैं. चुपके से अध्यापकों के मद में किए जा रहे खर्च में कटौती की भविष्यवाणी पर किसी का ध्यान है, तो कहीं यह बताया जा रहा है कि इस तरह की शिक्षा में बहुत सक्षम इन्टरनेट और उपकरणों की जरूरत पड़ती है इसलिए यह एक प्रकार की विभाजक रेखा बन रही है. सरकार से लेकर इन्टरनेट प्रदाता कंपनियों तक के तमाम दावों के बीच बिजली, इंटरनेट और कम से कम एक मोबाइल तक हर विद्यार्थी की पहुंच नहीं है (इस संबंध में युनेस्को की रिपोर्ट न भी देखें तो काम चल जाएगा). पठन-पाठन का यह वैकल्पिक रूप विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव डाल रहा है, उनमें चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है.
इसके साथ-साथ ऑनलाइन कक्षाओं के समर्थक उन पुरानी काट के अध्यापकों को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं जो नया सीखने में हिचकते हैं. इस माध्यम ने एक झटके में उनकी तमाम सेवाओं को किनारे कर दिया है. अब वे भी सीखने वालों में शामिल हैं. लेकिन वर्तमान हालात ऐसे हैं कि इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है और हर किसी को ऑनलाइन शिक्षा में ही भविष्य दिख रहा है. कोरोना का प्रसार बड़ी तेज़ी से हो रहा है और कोविड-19 अभी अपनी जड़ें जमाये रहने वाली है. इसके चलते स्कूली शिक्षा से जुड़े सभी बोर्ड अपनी परीक्षाएं स्थगित कर रहे हैं और विद्यार्थियों को उत्तीर्ण करने के अलग-अलग विकल्प सामने लेकर आ रहे हैं. ऐसे में निकट भविष्य में विद्यालय खुलते नज़र नहीं आ रहे हैं. यानी कि अपनी तमाम कमियों के बावजूद पढ़ने-पढ़ाने का ऑनलाइन तरीका ही आने वाले लंबे समय तक मुख्य विकल्प रहने वाला है.
इस पृष्ठभूमि के बाद आइये उस समस्या की ओर रुख करते हैं जिस ओर अध्यापकों का तो ध्यान जा रहा है लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञों से वह बात छूट रही है. ऑनलाइन अध्यापन में मुख्य बात है ऐसी कक्षा के लिए जरूरी अध्ययन सामग्री यानी ‘कंटेंट’. निजी पूंजी से चलने वाले कुछ चुनिंदा संस्थानों को छोड़ दिया जाये तो ज़्यादातर सरकारी और गैर-सरकारी विद्यालय इस वक्त ऐसे प्लेटफॉर्म पर ऑनलाइन कक्षाएं ले रहे हैं जहां रिकॉर्डिंग या स्टोरेज की सुविधा नहीं है. कारण बड़ा साफ है, इसके लिए अतिरिक्त क्लाउड स्पेस की जरूरत पड़ेगी जो मुफ़्त नहीं है. विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के लिए यह स्थिति चुनौतीपूर्ण हो जाती है. लगभग हर विद्यार्थी की मांग होती है कि कक्षा में जो विषय पढ़ाया गया उसकी लिखित या वीडियो सामग्री मिल जाये ताकि वे बाद में उसका उपयोग कर सकें. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि, आम तौर पर वे कोई भी संकल्पना एक बार में ही नहीं सीख जाते. सामान्य कक्षाओं में सहपाठियों के बीच शंका-समाधान का, संबंधित अध्यापक से बातचीत का विकल्प खुला रहता है लेकिन ऑनलाइन कक्षाओं में ये अवसर न्यून रहते हैं.
ऐसे बच्चों का ऑनलाइन पढ़ाई से क्या रिश्ता हो सकता है फाइल फोटो क्रेडिट द इंडियन एक्सप्रेस
यहां छात्रों की मदद के लिए इंटरनेट ही आगे आता है जहां ऑनलाइन कक्षाओं के आम होने से काफी पहले से ही ज्यादातर विषयों में मदद के लिए पाठ्य-सामग्री उपलब्ध है. ऐसे में यह बात थोड़ी विरोधाभासी लग सकती है कि यह लेख कंटेंट की समस्या से जुड़ा है. यह सच है कि इन्टरनेट पर किसी भी कक्षा और विषय से संबंधित सामग्री के कई विकल्प पहले से ही मौजूद हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि वे सही मायनों में कितने उपयोगी हैं.
भारत की स्कूली शिक्षा में एनसीईआरटी को अच्छी ख़ासी प्रामाणिकता हासिल है. राज्यों के बोर्ड पर भी उसकी किताबों व विषय चयन की प्रक्रिया की छाप रहती है. उसकी हरेक किताब का आमुख इन वाक्यों से शुरू होता है – “राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा - 2005 (नैशनल करीकुलम फ्रेमवर्क या एनसीएफ - 2005 ) सुझाती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए. यह सिद्धान्त किताबी ज्ञान की उस विरासत के विपरीत है जिसके प्रभाववश हमारी व्यवस्था आज तक स्कूल और घर के बीच अंतराल बनाए हुए है.” इन वाक्यों को पढ़ने के बाद यदि इन्टरनेट पर उपलब्ध अध्ययन सामग्रियों की विवेचना करें तो यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि वे विद्यालयी शिक्षा के इन जरूरी तरीकों से कितने दूर हैं.
एक हिन्दी के अध्यापक के रूप में मुझे अपने विद्यार्थियों की जरूरत के मुताबिक इन्टरनेट पर उपलब्ध ढेर सारी सामग्रियों को देखने-समझने का अवसर मिला. लेकिन यहां पर मौजूद हिन्दी विषय का कंटेंट यह सोचने पर मजबूर करता है कि यदि विद्यार्थी उसका उपयोग कर रहे हैं तो वे जो सीखेंगे वह शिक्षा के वृहत उद्देश्यों के साथ-साथ भाषा शिक्षण के लक्ष्यों को भी भटकाव के दलदल में धकेल देगा. वहां पर मौजूद लगभग सारी सामग्री ‘सरलार्थ’ और ‘सारांश’ बता देने तक सीमित हैं और ज्यादा हुआ तो महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देने तक. इन सबके बीच बाकी महत्वपूर्ण चीजों के साथ-साथ शिक्षा के माध्यम से मिलने वाला सामाजीकरण भी पीछे रह जाता है.
इस तरह की ज्यादातर कंटेंट में किसी भी संकल्पना तक विद्यार्थी को पहुंचाने के लिए आवश्यक स्केफ़ोल्डिंग - जिसकी चर्चा प्रसिद्ध शिक्षा मनोवैज्ञानिक जेरोम ब्रूनर करते हैं - पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. इस कारण नैशनल करीकुलम फ्रेमवर्क - 2005 में वर्णित घर और स्कूल के बीच के अंतराल वाली बात बनी रह जाती है. इन सामग्रियों का गहन अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि इन्हें तैयार करने वाले मानो विद्यार्थियों के बारे में यह धारणा बनाकर चलते हैं कि वे पहले से सब जानते ही होंगे. यह उपरोक्त पंक्तियों में आयी हुई ‘किताबी ज्ञान की विरासत’ वाली स्थिति ही है. इसके पीछे के कारण को जानना भी दिलचस्प होगा. वर्तमान विद्यालयी शिक्षा का उद्देश्य किसी भी तरह से परीक्षा में अंक अर्जित करना रह गया है और यह कोई बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन भी नहीं है. इसलिए हिन्दी व अन्य विषयों में समझ विकसित करने के बदले परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने को ही जरूरी और महत्वपूर्ण माना जाता है. इस प्रवृत्ति के पीछे विद्यार्थी, माता-पिता और अध्यापक की तिकड़ी काम करती है और यही ऑनलाइन उपलब्ध सामग्रियों में भी झलकता है.
हिन्दी (या कोई दूसरी भाषा) विषय से जुड़ी इन सामग्रियों का अध्ययन करें तो एक बड़ा प्रश्न समावेशन का भी खड़ा हो जाता है. सबको साथ लेकर चलने का यह मुद्दा बहुस्तरीय है जिसमें भौगोलिक, धार्मिक और लैंगिक विविधताओं को ध्यान में रखने की जरूरत दिखाई देती है.
एक ओर तो बार-बार यह कहा जाता है कि हिन्दी देश की राजभाषा [संविधान के अनुच्छेद 343(1) से] है वहीं यह स्वीकार करते हुए हिचक दिखती है कि इसे पढ़ने वाले देश के अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों में रह रहे हैं. हिन्दी में उपलब्ध सामग्रियों का रंग-रूप हिन्दी पट्टी तक ही सीमित हैं. उनमें कठिन शब्दों और जटिल वाक्य रचनाओं का उपयोग जिस खुलेपन के साथ होता है वह भाषा के प्रति आकर्षण के बजाय विकर्षण ही पैदा करता है. 1961 ई में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में त्रिभाषा सूत्र विकसित हुआ और कोठारी कमीशन ने आवश्यक जांच–परख व तैयारी के बाद इसे शिक्षा में प्रयोग होने लायक मानकर अपनी रिपोर्ट में इसकी संस्तुति भी कर दी. इस सूत्र के अनुसार देश के स्कूलों में तीन भाषाओं को पढ़ाया जाना था. यह बाद में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 का प्रमुख हिस्सा बना. तमिलनाडु और पुडुचेरी को छोडकर देश भर में यह लागू भी हो गया. इसके तहत अनचाहे रूप से ही सही लेकिन बड़ी संख्या में विद्यार्थी हिन्दी एक विषय के रूप में पढ़ रहे हैं. उन विद्यार्थियों की ओर से देखें तो ऑनलाइन उपलब्ध सामग्रियां शून्य हैं क्योंकि वे उनके स्तर पर आकर संकल्पनाओं को नहीं सिखाती हैं. यही बात और ऐसी ही कमियां दूसरी भाषाओं और विषयों पर भी लागू हो सकती हैं.
हिंदी की पाठ्य पुस्तकों तक में धार्मिक और लैंगिक विविधता को उचित तरीके से बरतने का अभाव दिखता है. भारत एक बहु-सांस्कृतिक देश है जहां कई धर्मावलम्बी एक साथ रह रहे हैं. लेकिन हिन्दी विषय की बात आते ही यह एक खास धर्म तक सीमित होकर रह जाता है. इसकी पाठ्यपुस्तकों में ही काव्य के नाम पर धार्मिक भजनों की भरमार है, और उनके सरलार्थ करते हुए ऑनलाइन कंटेंट निर्माताओं की धार्मिक चेतना भी जब तक प्रकट हो ही जाती है. यहां तक कि कबीर के पदों और साखियों का विवेचन भी एकपक्षीय होने से बच नहीं पाता.
त्रिभाषा सूत्र के इतर भी देखें तो केंद्र सरकार द्वारा संचालित नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों के विद्यार्थी हिन्दी को एक विषय के रूप में पढ़ते हैं. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन विद्यालयों की पहुंच देश के उन इलाकों में भी है जहां अलग-अलग धर्मों के विद्यार्थी हिन्दी भाषा साहित्य का अध्ययन करते हैं. जैसे दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्य. यहां प्रश्न यह नहीं है कि उनके धार्मिक विश्वासों को पाठ्यपुस्तक में क्यों अवकाश नहीं दिया गया? पाठ्य सामग्री के जो ऑनलाइन विश्लेषण प्रस्तुत किए जाते हैं उनमें यह कहीं नहीं दिखता कि उसे वे विद्यार्थी भी एक सपोर्ट मेटीरियल की तरह देख रहा है जिनका धर्म हिन्दी की धार्मिक कविताओं से अलग है. इन धार्मिक रचनाओं को समझने के लिए जिन किस्सों और तौर-तरीके की जरूरत है उनकी सामान्य जानकारी भी अन्य धर्मावलम्बी विद्यार्थियों को नहीं है. इस मामले में ये सामग्रियां निराश ही करती हैं.
ऑनलाइन कंटेंट में एक और बड़ी कमी लैंगिक भिन्नता को सही तरीके से न बरतने की है. एक तो पाठ्य-पुस्तकों में ही इस तरह की सामग्री की भारी कमी है. ऊपर से इनकी जो व्याख्याएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं उनमें वही पितृसत्तावादी पूर्वाग्रह दिखाई देते हैं जो इस मामले में कोई नयी दृष्टि देने के बजाय पुरानी मान्यतों को ही पुनरुत्पादित करते हैं. ग्यारहवीं–बारहवीं के मीरा, तुलसीदास व एन फ्रेंक के अध्यायों से जुड़ी सामग्रियों में यह स्थिति आसानी देखी जा सकती है.
आगे की राह
जैसा कि हम चर्चा कर चुके हैं कोरोना जैसी महामारी के बीच अध्ययन–अध्यापन का ऑनलाइन रूप अभी रहने वाला है. इसलिए इसकी सहायक सामग्री की अनिवार्यता भी रहेगी ही. ऐसे में इस बात से निरपेक्ष होना कोई विकल्प नहीं है कि विद्यार्थियों को इंटरनेट पर किस तरह की सामग्री परोसी जा रही है. शिक्षाविदों और विचारकों न अभी तक इस ओर अपना उतना ध्यान नहीं दिया है लेकिन जरूरत तेजी से ऑनलाइन सामग्रियों की छंटनी करने की है और इसके पीछे का सूत्र साफ है – लोकतांत्रिक मूल्य और सबका समावेशन.
जो अध्यापक और विद्यालय ऐसा करने में सक्षम हैं वे अपने विद्यार्थियों के लिए ऑनलाइन कक्षा के बाद की सहायक सामग्री का निर्माण स्वयं करते हैं. इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि वे अपने विद्यार्थियों के अनुरूप सामग्री तैयार करते हैं. भारत जैसे बहुस्तरीय पहचान वाले देश की विद्यालयी शिक्षा में यह एक आवश्यक तत्व है. लेकिन बाकियों के संदर्भ में वीडियो और लिखित सामग्री प्रदाताओं को यह समझना-समझाना पड़ेगा कि कोई भी विषय या भाषा सिर्फ एक इलाके, धर्म या लिंग के छात्रों द्वारा ही नहीं पढ़े जाते हैं. और यह भी कि वे अब सिर्फ दूर के कभी-कभार वाले सहयोगी की भूमिका में नहीं है बल्कि कई छात्रों के लिए शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं. इसलिए उन्हें किसी विषय के सवाल-जवाबों वाली कुंजी से आगे जाकर सोचना और बताना होगा. (satyagrah.scroll.in)
टी एन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त थे तब एक बार वे उत्तर प्रदेश की यात्रा पर गए। उनके साथ उनकी पत्नी भी थीं। रास्ते में एक बाग के पास वे लोग रूके। बाग के पेड़ पर बया पक्षियों के घोसले थे। उनकी पत्नी ने कहा दो घोसले मंगवा दीजिए मैं इन्हें घर की सज्जा के लिए ले चलूंगी। उन्होंने साथ चल रहे पुलिस वालों से घोसला लाने के लिए कहा।
पुलिस वाले वहीं पास में गाय चरा रहे एक बालक से पेड़ पर चढक़र घोसला लाने के बदले दस रूपये देने की बात कहे, लेकिन वह लडक़ा घोसला तोडक़र लाने के लिए तैयार नहीं हुआ। टी एन शेषन उसे दस की जगह पचास रुपए देने की बात कही फिर भी वह लडक़ा तैयार नहीं हुआ। उसने शेषन से कहा साहब जी! घोसले में चिडिय़ा के बच्चे हैं शाम को जब वह भोजन लेकर आएगी तब अपने बच्चों को न देखकर बहुत दुखी होगी, इसलिए आप चाहे जितना पैसा दें मैं घोसला नहीं तोड़ सकता।
इस घटना के बाद टी.एन. शेषन को आजीवन यह ग्लानि रही कि जो एक चरवाहा बालक सोच सका और उसके अंदर जैसी संवेदनशीलता थी, इतने पढ़े-लिखे और आईएएस होने के बाद भी वे वह बात क्यों नहीं सोच सके, उनके अंदर वह संवेदना क्यों नहीं उत्पन्न हुई? शिक्षित कौन हुआ? मैं या वो बालक?
उन्होंने कहा उस छोटे बालक के सामने मेरा पद और मेरा आईएएस होना गायब हो गया। मैं उसके सामने एक सरसों के बीज के समान हो गया। शिक्षा, पद और सामाजिक स्थिति मानवता के मापदण्ड नहीं हैं। प्रकृति को जानना ही ज्ञान है। बहुत सी सूचनाओं के संग्रह को ज्ञान नहीं कहा जा सकता है। जीवन तभी आनंददायक होता है जब आपकी शिक्षा से ज्ञान, संवेदना और बुद्धिमत्ता प्रकट हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आपातकाल के 45 साल के बाद यह सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि क्या देश में आज भी आपातकाल लगा हुआ है या आपातकाल-जैसी ही स्थिति बनी हुई है ? भाजपा के नेता कांग्रेस के नेताओं पर राजवंश होने का आरोप लगा रहे हैं तो कांग्रेस के नेता भाजपा को भाई-भाई पार्टी कह रहे हैं। भाई-भाई याने नरेंद्र भाई और अमित भाई। कांग्रेस को मां-बेटा पार्टी और भाजपा को भाई-भाई पार्टी- ये नाम मेरे दिए हुए हैं। ये नाम तो मैंने दिए है। लेकिन इसका श्रेय इंदिरा गांधी को है। इसलिए है कि इंदिरा गांधी के जमाने से ही भारत की पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनना शुरू हो गईं।
इंदिरा गांधी के पहले भारत की अखिल भारतीय पार्टियों में बड़े-बड़े दिग्गज नेता होते थे लेकिन उन पार्टियों में खुली बहस होती थी। इन पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र का वातावरण था। हर पार्टी में नेताओं के बीच मतभेद होते थे, जिन्हें वे पार्टी-मंचों के अलावा सार्वजनिक तौर पर भी व्यक्त कर देते थे। नेहरू और पटेल, डांगे और नंबूतिरिपाद, बलराज मधोक और अटलबिहारी वाजपेयी, लोहिया, जयप्रकाश, आचार्य कृपालानी और अशोक मेहता तथा इंदिरा गांधी और निजलिंगप्पा के बीच चलीं बहसें क्या हम भूल सकते हैं ? लेकिन इंदिराजी ने 1969 में ज्यों ही कांग्रेस तोड़ी, कांग्रेस का स्वरुप प्राइवेट लिमिटेड पार्टी में बदल गया।
देवकांत बरुआ का मशहूर वाक्य, ‘‘इंदिरा इज इंडिया’’ आपको याद है या नहीं ? भारत के प्रधानमंत्रियों में इंदिरा गांधी मेरी राय में भारत की सबसे प्रभावशाली और महिमामयी प्रधानमंत्री थीं लेकिन उनके शासन-शैली ने भारतीय पार्टी-व्यवस्था को सर्वथा आलोकतांत्रिक बना दिया। यह ठीक है कि उनके बाद उनके बेटे राजीव को प्रधानमंत्री उन्होंने नहीं, राष्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह ने बनाया था लेकिन उन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी नेता को उभरने नहीं दिया। पार्टी में नेता पद के लिए कभी मुक्त आतंरिक चुनाव नहीं हुए। यही हाल सभी पार्टियों का हो गया। हमारे देश की प्रांतीय पार्टियां तो राजवंशीय ढांचों पर ही चल रही है।
ये सब पार्टियां बाप-बेटा पार्टी, पति-पत्नी पार्टी, ससुरदामाद पार्टी, चाचा-भतीजा पार्टी और भाई-बहन पार्टी ढांचों पर खड़ी हैं। उनमें सिद्धांत, विचारधारा, नीति और कार्यक्रम का आधार शुद्ध सत्ता-प्रेम है और अवसरवादिता है। इन पार्टियों में न आतंरिक अंकुश है और न ही बाह्य ! इसीलिए भारतीय राजनीति अहंकार और भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। वह काजल की कोठरी बन गई है। पार्टियों के नेता निरंकुश हो जाते हैं। कांग्रेस-जैसी महान पार्टी आज जिस दुर्दशा में है, क्या उस पर कोई पार्टी-कार्यकर्ता मुंह खोल सकता है ? यह स्थिति आज सभी पार्टियों की हो गई है। कोई भी अपवाद नहीं है लेकिन इसे क्या हम आपातकाल कह सकते हैं ? नहीं, बिल्कुल नहीं।
आजकल विपक्ष रोज़ एक से एक फूहड़ आरोप प्रधानमंत्री और सरकार पर लगाता है लेकिन उसका बाल भी कोई बांका नहीं कर रहा है। जो टीवी चैनल और अखबार अपने आप पसर गए हैं, उनकी बात और है लेकिन अगर मोदी के राज में आपात्काल होता तो मेरे-जैसे स्वायत्त लेखक अभी तक या तो परलोक पहुंच जाते या जेल की हवा खाते। (https://newstrack.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
मेरे राजनीतिक रुझान को देखते हुए मैं नवभारत टाईम्स में रहा या हिंदुस्तान में, मुझे अनिवार्य रूप से वामपंथी दल कवर करने को दिए गए। 1986 से जनवरी, 2003 तक- जब तक मैं समाचार ब्यूरो में रहा-मन से यह काम करता रहा। मुझे वामपंथी दल देने से किसी को ऐतराज भी नहीं था क्योंकि कौन ऐसी बीट करना चाहता था? सब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, राजद आदि करने को उत्सुक थे, जहाँ सत्ता के साथ होने अहसास भी है और अखबार में कवरेज भी अच्छी मिलती है। मुझे किसी की एवजी में कांग्रेस या भाजपा दो चार दिन के लिए कवरेज करने को भले ही दी गई, स्थायी रूप से कभी नहीं दी गई, जबकि मेरा मानना रहा है कि संवाददाता की अपनी विचारधारा जो भी हो, मगर जब वह किसी पार्टी को कवर करे तो ईमानदारी से रिपोर्ट में उसका पक्ष रखे और जहाँ जितनी खबर हो, उतना महत्व दे। इसलिए जब एक वाम दल की ओर से उसके एक कामरेड की ओर से प्रस्ताव आया कि मैं पार्टी की सदस्यता ले लूँ तो मैंने कहा कि मैं संवाददाता और टिप्पणीकार हूँ, मैं वाम दलों की भी आलोचना का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखना चाहता हूँ, यह मौका नहीं देना चाहता कि कल आप कहें कि सदस्य होते हुए भी मैं पार्टी की आलोचना किया करता हूँँ। उसके बाद कभी ऐसा प्रस्ताव नहीं आया और आज तक मेरी यह स्वतंत्रता सुरक्षित है और अंत तक रहेगी। हाँ मेरे लेख, टिप्पणी या कविता का उपयोग करने के लिए औरों के साथ ये भी स्वतंत्र हैं। कभी अपने हिसाब से लिखा भी है उनके लिए।
यह तो एक बात हुई। इस कारण वामपंथी पार्टियों के कुछ नेताओं के संपर्क में आया, हालांकि नजदीकी किसी से खास नहीं रही। हाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बरसों सचिव रहे मुकीम फारुकी साहब के बारे मेंं यह दावा जरूर कर सकता हूँ। वह छोटे कद के मोटी खादी का कुर्ता-पायजामा पहननेवाले सीधेसादे बुजुर्ग थे। व्यवहार में पूरे गाँधीवादी। कभी उनके मुँह से ऊँची आवाज में, आक्रोश में कोई बात नहीं सुनी। दिलचस्प और दोस्ताना अंदाज होता था, उनका, जिसे सादगी की प्रतिमूर्ति कहते हैं,वे थे।जब भी जाओ, बात कर लेते थे और हमेशा खबर मिलना जरूरी भी नहीं। उनसे मिलकर अच्छा लगता था।गर्मजोशी से स्वागत करते थे।
सी.राजेश्वर राव से निकटता नहीं रही, उनका एक या दो बार साक्षात्कार अखबार के लिए जरूर लिया। मजबूत शरीर के करीब छह फुट लंबे राव साहब में भी यह सादगी थी और यही ए बी वद्ध्र्रन में भी। बेहद मामूली पैंट शर्ट में वद्र्धन अजय भवन के एक छोटे से कमरे में रहते थे। व्यक्तिगत व्यवहार में बहुत विनम्र और खरे मगर राजनीतिक लाइन में आक्रामक। इन नेताओं से मिल कर लगता ही नहीं था कि आजादी के और कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास के करीबी गवाहों से मिल रहे हैं, जिनका अपना भी संघर्षों का इतिहास है।
यही सादगी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बीटी रणदिवे, बसवपुनैया और ईएमएस नंबूदरीपाद में भी देखी। वही सहजता भी। सहज तो हरकिशन सिंह सुरजीत भी थे मगर पंजाब में आतंकवाद के दौर में चूँकि वे आतंकवादियों के निशाने पर थे तो उन्हें एक बंगला मिला हुआ था। वह शिखर की संसदीय राजनीति के अपने समय में बड़े खिलाड़ी थे। उनकी पार्टी छोटी थी मगर विश्वनाथ प्रताप सिंह, इंदर कुमार गुजराल, एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी एकमात्र तो नहीं मगर केंद्रीय भूमिका थी। बातचीत को किसी नतीजे तक पहुँचाने की कला उन्हें आती थी।उनका बस चलता तो ज्योति बसु, विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद देश के प्रधानमंत्री हुए होते, जिनके नाम पर राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन के सारे दल एकमत थे। बसु भी राजी थे मगर जो वामपंथी दलों में लोकतंत्र न होने की बात करते हैं, उन्हें याद होना चाहिए कि माकपा की केंद्रीय समिति को सैद्धांतिक कारणों से यह स्वीकार नहीं हुआ, इसलिए पार्टी महासचिव और एक बड़े वामपंथी नेता और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की भी नहीं चल सकी।ज्योति बसु हों या उनके समर्थक न कोई पार्टी से गया, न इस कारण पार्टी नेतृत्व बदला।
मैंने जितने साल वामपंथी दलों की कवरेज की, प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद कोरे चाय-बिस्कुट मिलते थे। सीपीएम की प्रेस कांफ्रेंस में एक बार बुद्धदेब भट्टाचार्य की भारी जीत पर जरूर एक-एक लड्डू मिला था,जबकि कांग्रेसी-भाजपाई चाय या ठंडा के साथ मीठा नमकीन भी प्रेसवार्ता में बँटवाते थे, कभी कभी लंच पर भी प्रेस कांफ्रेंस होती थी।इधर वामपंथी दल, तीन साला राष्ट्रीय सम्मेलन में भी कभी किसी संवाददाता को न अपने खर्च से ले जाते थे,न ठहरने का प्रबंध करते थे, जबकि कांग्रेस -भाजपा जैसी बड़ी पार्टियाँ सभी व्यवस्थाएँ करती थीं। वाम दल कवर करना है तो अखबार सारा खर्च उठाए और अधिकांंश समय अखबार इसके लिए राजी नहीं होते थे। अखबार में भी ऊपर से नीचे तक लोग कवरेज ठीक से देने के लिए राजी नहीं होते थे, चाहे खबर महत्वपूर्ण हो।हाँ बड़ी राजनीतिक उथलपुथल हो और उसमें इन पार्टियों की भूमिका हो तो अलग बात है।आज भी शायद यह है कि जो चाय,जिस कप में बाकी कार्यकर्ता पीएँगे, उसमें बड़े नेता भी पिएंगे। खाना भी वही सादा मिलेगा, जो नीचे से नीचे के कार्यकर्ता को मिलेगा। जब मैंं कवर करता था, तब तक प्रकाश कारत (सीताराम येचुरी भी) केंद्रीय समिति और बाद मेंं पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य थे।कारत तब पार्टी के केंद्रीय कार्यालय के अन्य सदस्यों के साथ एक ही वाहन में आते-जाते थे। येचुरी के पास कोई पुरानी सी कार थी। सीपीआई में शायद किसी के पास अपना वाहन रहा हो।
ये मेरे कुछ अनुभव हैं, इन पार्टियों की सफलता-विफलता या माक्र्सवादी विचारधारा का मूल्यांकन नहीं। उस पर लिखना होगा तो कभी और लिखूंगा।
-विष्णु नागर
-श्रवण गर्ग
कुछ पर्यटक स्थलों पर 'ईको पाइंट्स' होते हैं जैसी कि मध्य प्रदेश में प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान माण्डू और सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध पचमढ़ी के बारे में लोगों को जानकारी है। पर्यटक इन स्थानों पर जाते हैं और ईको पाइंट पर गाइड द्वारा उन्हें कुछ ज़ोर से बोलने को कहा जाता है। कई बार लोग झिझक जाते हैं कि वे क्या बोलें! कई बार जोर से बोल नहीं पाते या फिर जो कुछ भी बोलना चाहते हैं, नहीं बोलते। आसपास खड़े लोग क्या सोचेंगे, ऐसा विचार मन में आता है। जो हिम्मत कर लेते हैं उन्हें बोले जाने वाला शब्द दूर कहीं चट्टान से टकराकर वापस सुनाई देता है। पर जो सुनाई देता है वह बोले जाने वाले शब्द का अंतिम सिरा ही होता है। शब्द अपने आने-जाने की यात्रा में खंडित हो जाता है। ईको पाइंट पर बोले जाने वाले शब्द के साथ भी वैसा ही होता है जैसा कि जनता द्वारा सरकारों को दिए जाने वाले टैक्स या समर्थन को लेकर होता है। जनता टैक्स तो पूरा देती है पर उसका दिया हुआ रुपया जब ऊपर टकराकर मदद के रूप में उसी के पास वापस लौटता है तो बारह पैसे रह जाता है। ऐसा तब राजीव गांधी ने कहा था।
बहरहाल, ईको पाइंट पर पहुँचकर कुछ लोग अपने मन में दबा हुआ कोई शब्द बोल ही देते हैं और बाकी सब उसके टकराकर लौटने पर कान लगाए रहते हैं। जैसा कि आमतौर पर सड़कों-बाजारों में भी होता है। बोलनेवाला यही समझता है कि बोला हुआ शब्द केवल सामने कहीं बहुत दूर स्थित चट्टान या बिंदु को ही सुनाई पडऩे वाला है और वहीं से टकराकर वापस भी लौट रहा है। यह पूरा सत्य नहीं है।ईको पाइंट के सामने खड़े होकर साहस के साथ बोला गया शब्द उस कथित चट्टान या बिंदु तक सीधे ही नहीं पहुँच जाता। वह अपनी यात्रा के दौरान एक बड़ी अंधेरी खाई, छोटी-बड़ी चट्टानों, अनेक ज्ञात-अज्ञात जल स्रोतों, झाडिय़ों और वृक्षों, पशु-पक्षियों यानी कि ब्रह्मांड के हर तरह से परिपूर्ण एक छोटे से अंश को गुंजायमान करता है। ऐसा ही वापस लौटने वाले शब्द के साथ भी होता है।
आज तमाम नागरिक अपने-अपने शासकों, प्रशासकों और सत्ताओं के ईको पाइंट्स के सामने खड़े हुए हैं। गाइड्स उन्हें बता रहे हैं कि जोर से आवाज लगाइए, आपकी बात मानवीय चट्टानों तक पहुँचेगी भी और लौटकर आएगी भी, यह बताने के लिए कि बोला हुआ ठीक जगह पहुँच गया है। पर बहुत कम लोग इस तरह के ईको पाइंट्स के सामने खड़े होकर अपने 'मन की बात' बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं। अधिकांश तो तमाशबीनों की तरह चुपचाप खड़े रहकर सबकुछ देखते और सुनते ही रहते हैं।वे न तो बोले जाने वाले या फिर टकराकर लौटने वाले शब्द के प्रति अपनी कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त करते हैं। वे मानकर ही चलते हैं कि बोला हुआ शब्द गूँगी और निर्मम चट्टानों तक कभी पहुँचेगा ही नहीं। पहुँच भी गया तो क्षत-विक्षत हालत में ही वापस लौटेगा। यह अर्ध सत्य है।
सच तो यह है कि साहस करके कुछ भी बोलते रहना अब बहुत ही जरूरी हो गया है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम भी चट्टानों की तरह ही कू्रर, निर्मम और बहरे हो जाएँगे। तब हमें भी किसी दूसरे या अपने का ही बोला हुआ कभी सुनाई नहीं पड़ेगा। बोला जाना इसलिए जरूरी है कि ईको पाइंट्स और हमारी प्रार्थनाओं के शब्दों को अपनी प्रतिक्रिया के साथ वापस लौटाने वाली चट्टानों के बीच एक बहुत बड़ा सजीव संसार भी उपस्थित है।
यह संसार हर दम प्रतीक्षा में रहता है कि कोई कुछ तो बोले। इस संसार में एक बहुत बड़ी आबादी बसती है जिसमें कई वे असहाय लोग भी होते हैं जिन्हें कि पता ही नहीं है कि कभी कुछ बोला भी जा सकता है, चट्टानों को भी सुनाया जा सकता है, बोले गए शब्दों की प्रतिध्वनि से संगीत का रोमांच भी उत्पन्न हो सकता है।वापस लौटने वाला शब्द चाहे जितना भी खंडित हो जाए, यह भी कम नहीं कि वह कहीं जाकर टकरा तो रहा है, वहाँ कोई कम्पन तो पैदा कर रहा है। अगर हम स्वयं ही एक चट्टान बन गए हैं तो फिर शुरुआत कभी-कभी खुद के सामने ही बोलकर भी कर सकते हैं। हमें इस बात की तैयारी भी रखनी होगी कि जब हम बोलने की कोशिश करेंगे, हमें बीच में रोका भी जाएगा।याद किया जा सकता है कि गुजरे दौर के मशहूर अभिनेता अमोल पालेकर जब पिछले साल फरवरी में मुंबई में एक कार्यक्रम में अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की कोशिशों की आलोचना कर रहे थे तो किस तरह से उन्हें बीच में ही रोक दिया गया था और उन्हें अपना बोलना बंद करना पड़ा था।आपातकाल की शुरुआत ऐसे ही होती है। उसे रोकने के लिए बोलते रहना जरूरी है।
अंत में नाराज तथा गुमसुम जनता ने अपना बदला ले ही लिया
(नई दुनिया और नवभारत टाइम्स के संपादक रहे राजेंद्र माथुर ने यह आलेख 23 मार्च, 1977 को जनता पार्टी की जीत की घोषणा के बाद लिखा था.)
रविवार रात दो-ढाई बजे खबर आई कि रायबरेली में दोबारा मतदान और मतगणना की अर्जियां मतदान अधिकारी ने नामंजूर कर दी हैं. रात साढ़े तीन बजे के करीब कार्यवाहक राष्ट्रपति वासप्पा दानप्पा जत्ती ने आपातकाल हटा लेने की घोषणा कर दी.
आपातकाल की समाप्ति का एक नतीजा यह हुआ है कि संविधान की धारा 19 में वर्णित जो बुनियादी आजादियां खत्म कर दी गई थीं, वे दोबारा कायम हो गई हैं. मीसा की वे धाराएं भी अपने-आप गायब हो गई हैं, जो सरकार को बिना कारण गिरफ्तारी के अपार अधिकार देती थीं. अत: मीसा बंदियों को गिरफ्तार रखना अब संभव नहीं होगा.
आपातकाल 26 जून, 1975 को लगाया गया था. उसका कारण यह बताया गया कि प्रतिपक्ष ने अंदरूनी उपद्रव द्वारा सरकार का कामकाज असंभव बना दिया है. लेकिन 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला देकर रायबरेली से श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था. उम्मीद थी कि इस फैसले के तुरंत बाद श्रीमती गांधी इस्तीफा दे देंगी. लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी, संसदीय दल, वरिष्ठ नेता, और चौराहे की आयोजित भीड़ें- सब एक स्वर से यह कहते पाए गए कि श्रीमती गांधी में उन्हें विश्वास है.
श्रीमती गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की. न्यायालय ने उन्हें अंतिम फैसला होने तक वोट के अधिकार से वंचित व्यक्ति की तरह लोकसभा की कार्रवाई में भाग लेने की इजाजत दी. उधर प्रतिपक्ष ने उनके इस्तीफे के लिए बुलंद आवाज उठाई, और 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में एक लड़ाकू भाषण दिया.
25-26 जून की दरम्यानी रात को जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई तथा हजारों प्रतिपक्षी नेता तथा कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए. सुबह रेडियो पर एक भाषण देते हुए श्रीमती गांधी ने आपातकाल का ऐलान कर दिया, और कहा कि वह बहुत कम अरसे के लिए होगा.
आपातकाल के एक हफ्ते के अंदर एक जुलाई को प्रधानमंत्री ने एक 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम का ऐलान किया. विनोबा ने तब आपातस्थिति को अनुशासन-पर्व बताया. लेकिन जब श्रीमती गांधी ने फरवरी, 1976 में चुनाव कराने से इनकार कर दिया तो विनोबा भी श्रीमती गांधी से खिन्न हो गए.
आपातकाल के कदमों को भारतीय राजनीति का स्थायी अंग बनाने के लिए श्रीमती गांधी की सरकार ने नवंबर, 1976 में संविधान का 42वां संशोधन मंजूर किया, जिसने इस किताब की शक्ल बदल दी. एक प्रेस कानून भी पास हुआ जो अखबारों को दंडित करने का स्थायी अधिकार सरकार को देता है. लेकिन इस दौरान इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन जैसे पत्रों ने जोखिम उठाकर सरकार की ज्यादती के खिलाफ लगातार संघर्ष किया.
आपातकाल के दौरान स्वाधीन भारत के इतिहास में पहली बार सेंसरशिप लागू हुई. संसद की कार्रवाई को रिपोर्ट करने पर भी पाबंदी लगाई. कई मुख्यमंत्रियों के बयान भी नहीं छपने दिए गए; मसलन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का यह वक्तव्य कि खेती को संविधान की समवर्ती सूची में रखने का वे विरोध करते हैं.
आपातकाल संजय गांधी की सलाह से लगाया गया था. संकट के समय संजय की सलाह से प्रभावित होकर श्रीमती गांधी अपने पुत्र के प्रति ममता और कृतज्ञता से भर गईं. दबाव डालकर उनके नाम अखबारों के पहले पन्ने पर छपवाए जाने लगे, और मुख्यमंत्री उनकी राजकुमार की तरह अगवानी करने लगे. सारे देश को लगा कि श्रीमती गांधी अपने पुत्र को भावी प्रधानमंत्रित्व के लिए तैयार कर रही हैं.
संजय गांधी को युवक कांग्रेस का काम सौंपा गया. उन्होंने अपने वफादारों की एक नई सेना संगठित की; जिसका बड़ा जलसा गुवाहाटी में अभी नवंबर में हुआ. उसी समय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन भी वहीं हो रहा था. प्रधानमंत्री ने तब हर्ष के साथ कहा कि कांग्रेस की काफी गरज युवक कांग्रेस ने छीन ली है. गुवाहाटी के बाद इरादा यह था कि पुरानी कांग्रेस का कायाकल्प करके उसे संजय गांधी का राजतिलक करने वाली कांग्रेस बना दिया जाए.
संजय गांधी की नाराजगी के कारण श्रीमती गांधी के कई पुराने साथी अलग छिटक गए और उनका महत्व कम हो गया. नंदिनी सत्पथी और हेमवती नंदन बहुगुणा को जाना पड़ा. सिद्धार्थ शंकर राय को हटाने की कोशिश शुरू हुई. रजनी पटेल अलग कर दिए गए. गुवाहाटी में कांग्रेस अध्यक्ष बरुआ को एक युवक नेता ने खुलेआम भला-बुरा कहा.
सूचना और रेडियो मंत्री मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने आजादी के दीये बुझाने में उल्लेखनीय रोल अदा किया. फिल्मी गीतकारों और अभिनेताओं के उन्होंने सरकार की प्रशंसा में गीत गाने के लिए मजबूर किया और किशोर कुमार जैसे कलाकार ने जब इनकार कर दिया तो रेडियो से उनके गाने न बजाने के आदेश दे दिए गए. कई ख्यातिप्राप्त अखबार बंद हो गए, जैसे रमेश थापर का सेमिनार, साने गुरूजी का साधना, राजमोहन गांधी का हिम्मत, अंग्रेजी त्रैमासिक क्वेस्ट, एडी गोरवाला का ओपीनियन.
सरकार के खिलाफ फैसला देने वाले जजों के तबादले आपातकाल में शुरू हुए. दिल्ली में कुलदीप नैयर ने, गुजरात में भूमिपुत्र ने और मीनू मसानी के फ्रीडम फर्स्ट ने न्यायालयों में ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ीं. लेकिन सरकार ने अदालतों के फैसलों को छापने पर भी पाबंदी लगा दी. जनसंघ का अखबार मदरलैंड बंद हो गया और कम्यूनिस्टों के दैनिक पैट्रियट ने जब संजय गांधी की तसवीरें छापने से इनकार कर दिया तो सरकार ने उसके विज्ञापन बंद कर दिए. विद्याचरण शुक्ल ने बार-बार कहा कि पुरानी आजादी फिर कभी लौटने नहीं दी जाएगी.
आपातकाल के दौरान रेलें समय से चलीं, बोनस की मांगें या हड़तालें नहीं हुईं, पहली बार हुकूमत ने सख्ती से राज करने का आभास दिया. आर्थिक उत्पादन बढ़ा, अन्न का भंडार एक करोड़ 80 लाख टन हो गया और विदेशी मुद्रा से खजाना भरपूर हो गया. लेकिन सरकार यह कभी समझा नहीं सकी कि इन उपलब्धियों के लिए डेढ़ लाख लोगों को जेल में रखना क्यों जरूरी है, और इन लोगों ने क्या गद्दारी की है.
संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम के अंतर्गत नसबंदी का कोटा हर पटवारी, डॉक्टर, शिक्षक आदि को दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि खेतों, खलिहानों और शिविरों में जबरन पकड़-पकड़कर लोगों की नसबंदी की गई. कांग्रेस की हार का यह एक प्रमुख कारण रहा है.
आपातकाल के 19 महीनों तक देश में अजीब-सी खामोशी रही, जिससे श्रीमती गांधी को लगा कि प्रतिपक्ष एक फिजूल का गुब्बारा था, जिसे अखबारों और आंदोलनकारियों ने हवा भर-भरकर फुला दिया है. वे लगातार कहती रहीं कि हमने प्रजातंत्र के रास्ते को छोड़ा नहीं है, और चुनाव होंगे.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद श्रीमती गांधी ने चुनाव कानूनों में परिवर्तन कर लिया, और राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री आम उम्मीदवार से अलग श्रेणी में रख दिए गए. इस नए कानून के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद के फैसले को रद्द कर दिया. सिर्फ मोहम्मद हमीदुल्ला बेग ने यह अनावश्यक टिप्पणी की कि नए कानून के बजाय हम पुराने कानूनों के आधार पर ही विचार करें तो भी श्रीमती गांधी मुकदमा जीतती हैं. श्री बेग आज भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं और श्री खन्ना की वरीयता की उपेक्षा कर उन्हें यह पद दिया गया है.
हेबियस कॉर्पस (गिरफ्तारी के बाद अदालत में सुनवाई) का अधिकार आपातकाल के दौरान सारी आजादियां स्थगित होने के बाद भी नागरिक को है या नहीं, इस विषय में एक ऐतिहासिक फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया. उसने कहा कि जो अधिकार संविधान में ही नहीं है, वह मौजूद ही नहीं हो सकता. इसके विपरीत न्यायमूर्ति एचआर खन्ना ने कहा कि हेबियस कॉर्पस का अधिकार कानून के राज की बुनियाद है, और वह संविधान के बाहर स्थित एक अलिखित अधिकार है, जिस पर अदालतें अमल करवा सकती हैं.
18 जनवरी, 1977 को प्रधानमंत्री ने चुनाव की घोषणा की. इससे पहले कई लोग कह चुके थे कि चुनाव नहीं होंगे. नवंबर, 1976 में लोकसभा कार्यकाल एक साल और बढ़वा लिया गया था. संजय गांधी चाहते थे कि जब तक उनका संगठन भारत-भर में न फैल जाए तब तक चुनाव रुके रहें.
लेकिन जनवरी 1977 के बाद घटनाचक्र तेजी से घूमा. (23 जनवरी, 1977 को) चार दलों के विलय के बाद एक जनता पार्टी बनी. रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण को सुनने के लिए अभूतपूर्व सभा हुई. दो फरवरी को जगजीवन राम ने इस्तीफा दे दिया. जनता पार्टी का असर एक आंधी की तरह प्रबल होता गया. और अंत में नाराज तथा गुमसुम जनता ने अपना बदला ले ही लिया. (satyagrah.scroll.in)
आपातकाल में जो और जैसे हुआ उसको बड़ी सरलता से समझ सकते हैं
लक्ष्य की रक्षा
एक था कछुआ, एक था खरगोश जैसा कि सब जानते हैं. खरगोश ने कछुए को संसद, राजनीतिक मंच और प्रेस के बयानों में चुनौती दी- अगर आगे बढ़ने का इतना ही दम है, तो हमसे पहले मंजिल पर पहुंचकर दिखाओ. रेस आरंभ हुई. खरगोश दौड़ा, कछुआ चला धीरे-धीरे अपनी चाल.
जैसा कि सब जानते हैं आगे जाकर खरगोश एक वृक्ष के नीचे आराम करने लगा. उसने संवाददाताओं को बताया कि वह राष्ट्र की समस्याओं पर गम्भीर चिंतन कर रहा है, क्योंकि उसे जल्दी ही लक्ष्य तक पहुंचना है. यह कहकर वह सो गया. कछुआ लक्ष्य तक धीरे-धीरे पहुंचने लगा.
जब खरगोश सो कर उठा, उसने देखा कि कछुआ आगे बढ़ गया है, उसके हारने और बदनामी के स्पष्ट आसार हैं. खरगोश ने तुरंत आपातकाल घोषित कर दिया
शरद जोशी
जब खरगोश सो कर उठा, उसने देखा कि कछुआ आगे बढ़ गया है, मेरे हारने और बदनामी के स्पष्ट आसार हैं. खरगोश ने तुरंत आपातकाल घोषित कर दिया. उसने अपने बयान में कहा कि प्रतिगामी पिछड़ी और कंजरवेटिव (रूढ़िवादी) ताकतें आगे बढ़ रही हैं, जिनसे देश को बचाना बहुत ज़रूरी है. और लक्ष्य छूने के पूर्व कछुआ गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
शेर की गुफा में न्याय
जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे. जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं. शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था. इससे परेशान हो जंगल के सारे पशु इकट्ठा हो वनराज शेर से मिलने गए. शेर अपनी गुफा से बाहर निकला – कहिए क्या बात है?
उन सबने अपनी परेशानी बताई और शेर के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई. शेर ने अपने भाषण में कहा –
‘प्रशासन की नजर में जो कदम उठाने हमें जरूरी हैं, वे हम उठाएंगे. आप इन लोगों के बहकावे में न आवें जो हमारे खिलाफ हैं. अफवाहों से सावधान रहें, क्योंकि जानवरों की मौत के सही आंकड़े हमारी गुफा में हैं जिन्हें कोई भी जानवर अंदर आकर देख सकता है. फिर भी अगर कोई ऐसा मामला हो तो आप मुझे बता सकते हैं या अदालत में जा सकते हैं.’
चूंकि सारे मामले शेर के खिलाफ थे और शेर से ही उसकी शिकायत करना बेमानी था इसलिए पशुओं ने निश्चय किया कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.
जानवरों के इस निर्णय की खबर गीदड़ों द्वारा शेर तक पहुंच गई थी. उस रात शेर ने अदालत का शिकार किया. न्याय के आसन को पंजों से घसीट अपनी गुफा में ले आया.
शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है
जंगल में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई. शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है, ताकि न्याय की गति बढ़े और व्यर्थ की ढिलाई समाप्त हो. आज से सारे मुकदमों की सुनवाई और फैसले हमारे गुफा में होंगे.
इमर्जेंसी के दौर में जो पशु न्याय की तलाश में शेर की गुफा में घुसा उसका अंतिम फैसला कितनी शीघ्रता से हुआ इसे सब जानते हैं.
क्रमश: प्रगति
खरगोश का एक जोड़ा था, जिनके पांच बच्चे थे.
एक दिन भेड़िया जीप में बैठकर आया और बोला - असामाजिक तत्वों तुम्हें पता नहीं सरकार ने तीन बच्चों का लक्ष्य रखा है. और दो बच्चे कम करके चला गया.
कुछ दिनों बाद भेड़िया फिर आया और बोला कि सरकार ने लक्ष्य बदल दिया और एक बच्चे को और कम कर चला गया. खरगोश के जोड़े ने सोचा, जो हुआ सो हुआ, अब हम शांति से रहेंगे. मगर तभी जंगल में इमर्जेंसी लग गई.
कुछ दिन बाद भेड़िये ने खरगोश के जोड़े को थाने पर बुलाया और कहा कि सुना है, तुम लोग असंतुष्ट हो सरकारी निर्णयों से और गुप्त रूप से कोई षड्यंत्र कर रहे हो? खरगोश से साफ इनकार करते हुए सफाई देनी चाही, पर तभी भेड़िये ने बताया कि इमर्जेंसी के नियमों के तहत सफाई सुनी नहीं जाएगी.
उस रोज थाने में जोड़ा कम हो गया.
दो बच्चे बचे. मूर्ख थे. मां-बाप को तलाशने खुद थाने पहुंच गए. भेड़िया उनका इंतजार कर रहा था. यदि थाने नहीं जाते तो वे इमर्जेंसी के बावजूद कुछ दिन और जीवित रह सकते थे.
कला और प्रतिबद्धता
कोयल का कंठ अच्छा था, स्वरों का ज्ञान था और राग-रागनियों की थोड़ी बहुत समझ थी. उसने निश्चय किया कि वह संगीत में अपना कैरियर बनाएगी. जाहिर है उसने शुरुआत आकाशवाणी से करनी चाही.
कोयल ने एप्लाय (आवेदन) किया. दूसरे ही दिन उसे ऑडीशन के लिए बुलावा आ गया. वे इमर्जेंसी के दिन थे और सरकारी कामकाज की गति तेज हो गई थी.
कोयल आकाशवाणी पहुंची. स्वर परीक्षा के लिए वहां तीन गिद्ध बैठे हुए थे. ‘क्या गाऊं?’ कोयल ने पूछा.
गिद्ध हंसे और बोले, ‘यह भी कोई पूछने की बात है. बीस सूत्री कार्यक्रम पर लोकगीत सुनाओ. हमें सिर्फ यही सुनने-सुनाने का आदेश है.’
गिद्ध हंसे और बोले, ‘यह भी कोई पूछने की बात है. बीस सूत्री कार्यक्रम पर लोकगीत सुनाओ. हमें सिर्फ यही सुनने-सुनाने का आदेश है.’
‘बीस सूत्री कार्यक्रम पर लोकगीत? वह तो मुझे नहीं आता. आप कोई भजन या गजल सुन सकते हैं.’ कोयल ने कहा.
गिद्ध फिर हंसे. ‘गजल या भजन? बीस सूत्री कार्यक्रम पर हो तो अवश्य सुनाइए?’
‘बीस सूत्री कार्यक्रम पर तो नहीं है.’ कोयल ने कहा. ‘तब क्षमा कीजिए, कोकिला जी. हमारे पास आपके लिए कोई स्थान नहीं है.’ गिद्धों ने कहा.
कोयल चली आई. आते हुए उसने देखा कि म्यूजिक रूम (संगीत कक्ष) में कौओं का दल बीस सूत्री कार्यक्रम पर कोरस रिकॉर्ड करवा रहा है.
कोयल ने उसके बाद संगीत में अपनी करियर बनाने का आइडिया त्याग दिया और शादी करके ससुराल चली गई.
बुद्धिजीवियों का दायित्व
लोमड़ी पेड़ के नीचे पहुंची. उसने देखा ऊपर की डाल पर एक कौवा बैठा है, जिसने मुंह में रोटी दाब रखी है. लोमड़ी ने सोचा कि अगर कौवा गलती से मुंह खोल दे तो रोटी नीचे गिर जाएगी. नीचे गिर जाए तो मैं खा लूं.
‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुंह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें. मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूं आजकल’
लोमड़ी ने कौवे से कहा, ‘ भैया कौवे! तुम तो मुक्त प्राणी हो, तुम्हारी बुद्धि, वाणी और तर्क का लोहा सभी मानते हैं. मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है. वर्तमान परिस्थितियों में एक बुद्धिजीवी के दायित्व पर तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होगी. यों भी तुम ऊंचाई पर बैठे हो, भाषण देकर हमें मार्गदर्शन देना तुम्हें शोभा देगा. बोलो मुंह खोले कौवे!’
इमर्जेंसी का काल था. कौवे बहुत होशियार हो गए थे. चोंच से रोटी निकाल अपने हाथ में ले धीरे से कौवे ने कहा - ‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुंह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें. मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूं आजकल, क्षमा करें. यों मैं स्वतंत्र हूं, यह सही है और आश्चर्य नहीं समय आने पर मैं बोलूं भी.’
इतना कहकर कौवे ने फिर रोटी चोंच में दबा ली. (satyagrah.scroll.in)
चीन के साथ तनातनी के बीच केंद्र सरकार ने बीएसएनएल और एमटीएनएल में किसी भी चीनी उपकरण के प्रयोग पर तत्काल रोक लगा दी लेकिन यही मोदी सरकार हवाई कंपनी को कुछ महीने पहले ही भारत में 5 प्रतिशत ट्रायल शुरू करने की अनुमति दे चुकी है, है न आश्चर्य की बात?
चीन के सामान के बहिष्कार की खबरें आती रही और कल ही चीन की ग्रेट वॉल मोटर (जीडब्ल्यूएम) ने महाराष्ट्र सरकार के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) साइन कर भारत के ऑटोमोबाइल में एक बड़ी डील की घोषणा की है और महाराष्ट्र को क्या रोना? चीन की एसएआईसी मोटर कॉर्प गुजरात के पंचमहल जिले के हलोल में प्लांट लगा रही है एफआईसीसीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 6 सालों में देश के ऑटोमोबाइल सेक्टर में 40 प्रतिशत, हिस्सा चीन के कब्जे में जा चुका है ओर जल्द ही पूरा चला जाएगा!, फिर कहा जाएगा आपका तथाकथित आत्मनिर्भर?
देश के बड़े-बड़े टेंडर जैसे मेट्रो रेल, सुरँग निर्माण जैसे ठेके भी चाइना की कम्पनियों को बेहिसाब ढंग से बाँटे गए हैं जो हम रोज अखबारों में देख रहे हैं हा अखबारों से याद आया। आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले ही मोदीजी के प्रिय मित्र अडानी को दुनिया का सबसे बड़ा सोलर संयंत्र देश में स्थापित करने का ठेका दिया गया है।
साल 2011-12 तक भारत जर्मनी, फ्रांस, इटली को सोलर पैनल एक्सपोर्ट करता था। यानी भारत माल भेजता था लेकिन 2014 के बाद से चीन की सोलर पैनल की डंपिंग के चलते भारत से सोलर पैनल का एक्सपोर्ट रुक गया है सिर्फ चाइनीज सोलर पैनल की डंपिंग की वजह से देश में दो लाख नौकरियां खत्म हुई हैं। और यह सब किया गया इज ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर आज हमने अपने सोलर पैनल उत्पादन को लगभग खत्म कर दिया है और सारा माल चीन से मंगाना शुरू कर दिया है चीन से इंपोर्ट होने वाले सोलर पैनल में एंटीमनी जैसे खतरनाक रसायन होते हैं, जिनके आयात की अनुमति नहीं होनी चाहिए। लेकिन उसके बावजूद यह अनुमति दी गई। नतीजा यह हुआ कि हमने अपनी सोलर पैनल इंडस्ट्री को पिछले 6 सालों में तबाह कर लिया।
और यह मैं नहीं कह रहा हूँ यह कह रही है अकाली दल के नरेश गुजराल की अध्यक्षता वाली संसद की वाणिज्य संबंधी स्थाई समिति। यह समिति अपनी रिपोर्ट में कहती है कि यह समिति चीन से सस्ते सामान के आयात की भत्र्सना करती है। बहुत ही दुखद बात है कि ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के नाम पर हम चीनी सामान को अपने बाजार में जगह देने के लिए बहुत उत्सुक हैं जबकि चीन सरकार अपने उद्योग को भारतीय प्रतिस्पर्धियों से बहुत चालाकी से बचा रही है। समिति ने पाया कि ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) जैसी संस्थाएं घटिया चीनी सामान को भी आसानी से सर्टिफिकेट दे रही हैं जबकि हमारे निर्यात को चीन सरकार बहुत देरी से और काफी ज्यादा फीस वसूलने के बाद ही चीनी बाजार में प्रवेश करने देती है।
चाइना के टीवी फोडऩे से, चीनी एप्प अन इंस्टाल करने से, या आ चुके चीनी सामान का बहिष्कार करने से कुछ भी नहीं होगा! हमें चीन की लकीर को छोटा करना है तो हमे बड़ी लकीर खींचनी होगी जिस तरह से भारत निजीकरण की तरफ बढ़ रहा है जिस तरह से बड़े-बड़े ठेके चीनियों को दिए जा रहे है ऐसे तो आप कितना भी हंगामा मचा लो चीन का हम कुछ भी नही बिगाड़ पाएँगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब 45 साल बाद वह दिन फिर याद आया है। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स का सह-संपादक था। गर्मियों की छुट्टियों में अपने शहर इंदौर में था। 26 जून की सुबह-सुबह मैं अपने मित्र कुप्प सी. सुदर्शन से मिलने गया, सियागंज के पास एक अस्पताल में। वे बाद में आरएसएस के सरसंघचालक बने। सुदर्शनजी का पांव टूट गया था। मेरे जाते ही सुदर्शनजी ने अपना ट्रांजिस्टर चलाया। पहली खबर सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। 25 जून की रात को ही आपात्काल की घोषणा हो गई थी और सूर्योदय के पहले जयप्रकाशजी समेत कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
सुदर्शनजी से मिलने के बाद मैं सीधे ‘नई दुनिया’ के कार्यालय पहुंचा। उसके मालिक लाभचंदजी छजलानी, तिवारीजी, प्रधान संपादक राहुलजी बारपुते, अभयजी छजलानी आदि हम सब लोग एक साथ बैठे और यह तय हुआ कि इस मप्र के सबसे लोकप्रिय अखबार के संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी जाए। अखबारों पर पाबंदियों के निर्देश तब तक सबके पास पहुंच गए थे। दोपहर की रेल पकडक़र मैं दिल्ली आ गया। नवभारत टाइम्स के सारे पत्रकारों की बैठक 27 जून को हुई, जिसमें सभी पाबंदियों को पढ़ा गया। हमारे संपादक श्री अक्षयकुमार जैन के कमरे में जाकर मैंने कहा कि मैं अपना इस्तीफा अभी ही देना चाहता हूं।
उन्होंने कहा कि मैं आपसे राष्ट्रीय राजनीति पर संपादकीय लिखने के लिए कहूंगा ही नहीं। आप अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ हैं। आप बस, उसी पर लिखते रहिए। आपात्काल के सभी उल्टे-सीधे कामों पर मुझसे वरिष्ठ जो दो सह-संपादक थे, वे ही बराबर तालियां बजाते रहे। तीसरे दिन कुलदीप नय्यरजी ने दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों की एक सभा बुलाई। कुलदीपजी और मैंने आपात्काल की भर्त्सना की। उसके बाद मैंने कहा कि यहां रखे रजिस्टर पर सभी पत्रकार दस्तखत करें। देखते ही देखते हॉल खाली हो गया। मेरे सहपाठी और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी का शायद उस रजिस्टर में पहला दस्तखत था। अगले दो-चार दिनों में भारतीय पत्रकारिता की दुनिया ही बदल गई। शास्त्री भवन में बैठे एक मलयाली अफसर को दिखाए बिना किसी अखबार का संपादकीय छप ही नहीं सकता था। बड़े-बड़े तीसरमारखां संपादक नवनीत-लेपन विशारद सिद्ध हो रहे थे।
जेल में फंसे और छिपे हुए कई नेताओं से मेरा संपर्क बना हुआ था। अटलजी,चंद्रशेखरजी राजनारायणजी, मधु लिमये, जार्ज फर्नांडिस, बलराज मधोक आदि के संदेश मुझे नियमित मिला करते थे। उस समय के कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों जगजीवन राम, कमलापति त्रिपाठी, प्रकाशचंद मेठी, विद्याचरण शुक्ल आदि से मेरा निजी संपर्क था। सबकी बोलती बंद थी। उन दिनों विद्या भय्या (सूचना मंत्री) और मेरा भाषण जबलपुर विश्वविद्यालय में हुआ था। मैंने आपात्काल की खुलकर आलोचना की। विद्या भय्या मुझसे बात किए बिना चल पड़े। रात को शहर में कई पत्रकार मुझसे गुपचुप मिलने आ गए। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक जॉर्ज वर्गीज का एक दिन फोन आया कि उन्हें और मुझे कल सुबह गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इंदौर में मेरे पिताजी पहले से ही जेल में थे और अपने छात्र-काल में मैं कई बार जेल काट चुका था। मैंने पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन कोई पकडऩे आया नहीं। कई और संस्मरण फिर कभी। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-हिना फ़ातिमा
24 जून को यूजीसी ने घोषणा की है कि देश भर के उच्च शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए कोई परीक्षा नहीं होगी। यूजीसी ने फैसला किया है कि जुलाई में होने वाली वार्षिक परीक्षा के बजाय अब छात्रों को उनके इंटरनल और पूर्व सेमेस्टर प्रदर्शन के आधार पर परिणाम जारी किए जाएंगे। दरअसल पिछले कई महीनों से देशभर में लोग सरकार के ऑनलाइन क्लासिस और एग्जाम कराने के आदेश का विरोध कर रहे हैं। वो सरकार पर शिक्षा का निजीकरण, भेदभाव और सामाजिक बेदखल करने का आरोप लगा रहे हैं।
देशभर में कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए केंद्र सरकार ने प्राइमरी और उच्च शिक्षा के संस्थानों को ऑनलाइन कक्षाएं लगाने का आदेश दिया था। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री आरपी निशंक ने यह भी कहा था कि 'जो छात्र ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और जिनके लिए ऑनलाइन कक्षाएं लेना मुश्किल है उन्हें टीवी के ज़रिए 32 चैनलों के माध्यम से पाठ मुहैया कराए जाऐंगे। लेकिन सरकार की यह मुहिम फेल होते नजर आ रही है।
इसी साल 22 जून को असम के चिरांग जिले के रहने वाले 16 साल के एक छात्र ने इसलिए खुदकुशी करली क्योंकि उसके पास ऑनलाइन क्लास और एग्जाम में हिस्सा लेने के लिए स्मार्ट फोन नहीं था। इससे पहले 18 जून को केरल के मलप्पुरम जिले में 10वीं क्लास की छात्रा ने इसलिए आत्महत्या करली क्योंकि ऑनलाइन क्लासेस की वजह से उसे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। उसे जो पढ़ाया जाता था वो उसे समझ नहीं आता था। लड़की के परिजनों का कहना है कि वो टीवी के माध्यम से ऑनलाइन क्लासिस किया करती थी और उस दौरान बिजली कट जाने से वो परेशान रहती थी। वो अपने पिता से स्मार्टफोन दिलाने की मांग भी कर रही थी लेकिन लॉकडाउन में काम छिन जाने की वजह से उसके पिता उसे फोन नहीं दिला सके। वहीं, 2 जून को भी केरल में ही ऑनलाइन क्लासिस में भाग ना ले पाने की वजह से एक और 10वी कक्षा की छात्रा ने खुदकुशी करली थी। इन घटनाओं के बाद देश में ऑनलाइन एजूकेशन के स्वरूप और बुनियादी ढांचे को लेकर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। सवाल यह भी है कि क्या सरकार के लिए देश में ई शिक्षा को लागू करना आसान है?
बिजली और संसाधन की अव्यवस्था में ई शिक्षा की कोरी कल्पना
घरों में बिजली प्रदान करने वाली सरकारी योजना सौभाग्य से पता चलता है कि भारत के लगभग 99.9 फ़ीसद घरों में बिजली कनेक्शन है लेकिन हम बिजली की गुणवत्ता और हर घंटे बिजली उपलब्ध होने वाले घंटों को देखें तो हालात बहुत ही खराब नजर आते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की तरफ से साल 2017-2018 में मिशन अंत्योदय के तहत देशभर के गांवों में की गई रिसर्च से पता चलता है कि भारत के 16 फीसद घरों में रोजाना एक से आठ घंटे बिजली मिलती है, 33 फीसद को 9-12 घंटे बिजली मिलती है और सिर्फ 47 फीसद को ही दिन में 12 घंटे से अधिक बिजली मिलती है। उधर, इसी साल मई में भारत ने केंद्र शासित प्रदेशों में सभी बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) का निजीकरण करने का ऐलान किया था, जिसकी जानकारी उद्योग के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के साथ डिजिटल बातचीत में बिजली मंत्री राज कुमार सिंह ने दी थी।
17 अप्रैल को बिजली वितरण प्रणाली को निजी हाथों में सौंपने के लिए बिजली संशोधन बिल- 2020 का ड्राफ्ट जारी कर दिया। इस निजीकरण के खिलाफ इलेक्ट्रिक वर्कर यूनियन ने 1 जून को देशव्यापी प्रदर्शन किया। उनका कहना था कि इससे सब्सिडी और क्रॉस सब्सिडी खत्म हो जाएगी। बिजली के दाम और बढ़ेंगे और गरीब उपभोक्ता और किसानों की पहुंच से बिजली बाहर हो जाएगी। वहीं, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मुश्किल हालातों से गुजर रहीं राज्यों की पावर जनरेटिंग कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए 90,000 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया।
बिजली कंपनियां पहले से बहुत ज्यादा गहरे संकट में हैं। बिजली कंपनियों का डिस्कॉम पर 94,000 करोड़ रुपए का बकाया है। यानी इस पैकेज के बावजूद डिस्कॉम करीब चार हजार करोड़ रुपए के घाटे में रहेंगी। लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों मानना है कि सरकार ने जिस 90 हजार करोड़ रूपए के पैकेज की घोषणा की है वो थोड़ा ज्यादा है। उनका कहना है कि निजी और सरकारी कंपनियां विभिन्न कारणों से नुकसान कर रही हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर सरकारी कंपनियां हैं और निजी कंपनियां भी बड़ी हैं इसलिए वो थोड़े समय के लिए ये बोझ सह सकती हैं।
भारत में कहा जा रहा है कि यहां के एजूकेशन का मौजूदा ढांचा बदल कर उसकी जगह ऑनलाइन सिस्टम को लाया जा रहा है।
झारखंड के पलामू जिले की दिव्या बताती हैं कि यहां शहरी इलाको के मुकाबले ग्रामीण इलाको में बिजली की दिक्कत आसानी से देखने को मिल जाती है। शहरों में 18 से 20 घंटे बिजली आती है वहीं ग्रामीण इलाकों में 10 से 15 घंटे बिजली आती है। वो कहती हैं कि 'लोग ग्रामीण इलाकों में अभी भी सोलर एनर्जी का इस्तेमाल करते हैं यहां तक कि अपना फोन चार्ज करने के लिए वो इस पर ही निर्भर हैं।Ó दिल्ली यूनिवर्सिटी में एसिसटेंट प्रोफेसर जितेंद्र मीणा कहते हैं कि ग्रामीण इलाको में ऑनलाइन शिक्षा मुमकिन ही नहीं है क्योंकि वहां बिजली आने का समय निर्धारित नहीं है। वहां कभी सुबह, शाम या रात में बिजली आती है ऐसे में जिस हफ्ते बिजली रात में आएगी तब वहां बच्चों के लिए डिजिटल शिक्षा हासिल करने कैसे आसान होगा? भले ही सरकार इस बात के दावे करे की हर घर में बिजली पहुंच गई है लेकिन यह हकीकत नहीं है।
नेशनल सेंपल सर्वे की साल 2017-18 में शिक्षा पर की गई रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 24 फीसद घरों में इंटरनेट की सहूलियत है। जबकि भारत की 66 फीसद आबादी गांव में रहती है, केवल 15 फीसद से ज़्यादा ग्रामीण घरों में इंटरनेट सेवा पहुंच रही है। उधर शहरी परिवारों में यह आंकड़ा 42 फीसद है। राज्यों के स्तर पर देखें तो मालूम होता है कि जिन घरों में सिर्फ एक कंप्यूटर है उनका आंकड़ा बिहार में 4.6 फीसद, केरल में 23.5 फीसद और दिल्ली में 35 फीसद है। इंटरनेट के उपयोग के मामले में फर्क साफ देखने को मिलता है। दिल्ली, केरल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में 40 फीसद से अधिक घरों में इंटरनेट का इस्तेमाल होता है। ओडिशा, आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा 20 फीसद से भी कम है।
इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि 67 फीसद पुरुष और महज 33 फीसद महिलाएं ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर पाते हैं। यह असमानता ग्रामीण इलाकों में ज़्यादा देखने को मिलती है, जहां यह आंकड़ा पुरुषों में 72 फीसद और महिलाओं में 28 फीसद है। जेंडर इंडेक्स रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत में लिंग समानता दुनिया में सबसे खराब है। महिलाओं की आर्थिक भागीदारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक सशक्तीकरण के उपायों के साथ भारत 153 देशों में से 112 वें स्थान पर है। उधर, लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के खिलाफ होने वाले साइबर अपराधों में इजाफा देखने को मिला। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों के मुताबिक़ अप्रैल में महिलाओं के खिलाफ हुए साइबर क्राइम की 54 शिकायतें मिली थी। वहीं, मार्च में यह आंकड़ा 37 और फरवरी में 21 का था। इस तरह की रिपोर्ट के बाद छात्राओं का कहना है कि ऑनलाइन शिक्षा आने के बाद साइबर अपराधों में बढ़ोतरी होगी।
वहीं, दिव्या कहती हैं कि ऐसे समाज में जहां लड़कियों को फोन नहीं दिया जाता वहां ऑनलाइन शिक्षा लागू कर देना महिला विरोधी है। ऑनलाइन एजुकेश्न को बढ़ावा देकर उसमें महिलाओं को शिक्षा से बाहर किया जा रहा है। वो बताती हैं कि अगर परिवार में लड़के या लड़की में से किसी एक को फोन या साधन देने की बात आएगी तो वो सबसे पहले लड़के को दिया जाएगा। मीणा कहते हैं कि हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली मौका देती है कि हम दूसरे तबकों से संबंध बना सकें और उनकी संस्कृति को जानने का मौका देती है। इसका काफी फायदा लड़कियां को मिल रहा था। वो मौजूदा शिक्षा प्रणाली के जरिए घरों से बाहर निकल रही थी और आसपास की चीजों के बारे में मालूमात हासिल कर रही थी लेकिन ऑनलाइन एजूकेशन आने के बाद यह सब बदल जाएगा। इसके बाद लड़कियां फिर से अपने घरों में कैद हो जाएंगी और मिलने जुलने और जानने की जिज्ञासा खत्म हो जाएगी। इसके माध्यम से महिलाओं की आजादी पर भी हमला किया जा रहा है।
साथ ही, पढ़ाई करने के लिए एक अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है। लेकिन सभी छात्रों के पास घर पर पढऩे-लिखने के लिए एक शांत स्थान नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 37 फीसद घरों में एक ही कमरा है। इससे साबित होता है कि यह कई लोगों के लिए इस अव्यवस्था में ऑनलाइन एजुकेश्न लेना लक्जरी होगा। इस वक्त जहां लाखों मजदूर अपनों बच्चों के साथ सड़कों पर निकल कर अपने घर पहुँचे हैं या पहुँचने वाले हैं उनके लिए कामकाज छिन जाने के बाद ऑनलाइन शिक्षा को अपनाना बहुत मुश्किल होगा।
मीणा बताते हैं कि दिक्कत यह है कि सरकार परीक्षा के नाम पर ऑनलाइन एजूकेशन सिस्टम ला रही है। परीक्षा कराने के लिए हमारे पास विकल्प है। जैसे महाराष्ट्र और हैदराबाद की यूनिवर्सिटीज परीक्षा को लेकर जो कदम उठा रही है वो सरकार भी कर सकती है। इन यूनिवर्सिटीज ने छात्रों को उनके इंटर्नल नम्बर के आधार पर प्रमोट करने की बात की है। दूसरा विकल्प है कि पिछले जो सेमेस्टर हुए हैं उनके मार्कस के आधार पर एवरेज निकाला जाए और छात्रों को प्रमोट किया जाए । तीसरा विकल्प है कि इंटर्नल और सेमेस्टर को मिलाकार छात्रों के एवरेज मार्कस के आधार पर उन्हें अगली क्लास के लिए भेजा जाए। लेकिन यह एक समय-सीमा के तहत करना होगा, जो कि मुमकिन है। भारत में कहा जा रहा है कि यहां के एजूकेशन का मौजूदा ढांचा बदल कर उसकी जगह ऑनलाइन सिस्टम को लाया जा रहा है। इसके तहत यहां सिर्फ बच्चों को भर्ती करना ही टारगेट रह जाएगा। लेकिन उसका नतीजा क्या होगा सरकार को इस बारे में सुध ही नहीं है।
यह लेख दिल्ली की युवा महिला पत्रकार हिना फ़ातिमा ने लिखा है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
हज यात्रा पर पहली बार नहीं पड़ा असर, पहले भी हुई है कई बार रद्द
आरिफ़ शमीम
बीबीसी उर्दू, लंदन
सऊदी अरब की सरकार ने इस साल कोरोना वायरस को मद्देनज़र रखते हुए हज करने वालों की संख्या सीमित रखने का फ़ैसला किया है और सिर्फ़ सऊदी अरब में रहने वाले लोगों को हज करने की अनुमति दी है.
सऊदी न्यूज़ एजेंसी एसपीए के अनुसार 22 जून की रात सऊदी 'हज और उमरा मंत्रालय' की तरफ़ से जारी किये गए बयान में कहा गया है कि 'दुनिया के 180 से अधिक देशों में कोरोना वायरस जैसी महामारी फैली हुई है इस बात को ध्यान में रखते हुए सीमित संख्या में सिर्फ़ सऊदी में रहने वाले विभिन्न देशों के नागरिकों को हज करने का मौक़ा दिया जायेगा.'
जबकि सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय की तरफ से ट्विटर पर भी सऊदी हज व उमरा मंत्रालय के इस फ़ैसले की जानकारी दी गई.
सऊदी हज व उमरा मंत्रालय ने अपने बयान में आगे कहा है कि 'कोरोना वायरस की महामारी से दुनियाभर में लगभग पांच लाख मौतें हो चुकी हैं और 70 लाख से अधिक लोग इस वायरस से संक्रमित हैं. कोरोना महामारी और रोज़ाना वैश्विक स्तर पर इस वायरस के संक्रमितों के बढ़ने की वजह से ये फ़ैसला किया गया है 'कि इस साल 1441 हिजरी (2020 ईस्वी) में हज के लिए सिर्फ़ सऊदी में रहने वाले विभिन्न देशों के नागरिकों को सीमित संख्या में अनुमति दी जाएगी.'
सऊदी हज व उमरा मंत्रालय के बयान में ये भी कहा गया है कि 'ये फ़ैसला इस बुनियाद पर लिया गया है कि हज सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण में हो. कोरोना की रोकथाम का पूरा प्रबंध किया जा सके, हज यात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल किया जा सके और मानव जीवन की सुरक्षा के बारे में इस्लामी शरीयत (क़ानून) के मक़सद को पूरा किया जा सके.'
याद रहे कि कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए सऊदी सरकार ने इससे पहले अपने पवित्र स्थानों पर उमरा करने पर भी पाबन्दी लगा दी थी.
ध्यान रहे कि सऊदी अरब में कोरोना की वजह से 1300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है जबकि संक्रमितों की संख्या एक लाख 61 हज़ार से अधिक है. सऊदी सरकार ने कोरोना की वजह से लॉकडाउन भी 22 जून से हटा दिया है जिसके बाद नियमित जनजीवन शुरू हो गया है.
अब जबकि सऊदी अरब ने कोरोना वायरस को मद्देनज़र रखते हुए इस साल हज को सीमित करते हुए सिर्फ़ सऊदी अरब में रहने वाले विदेशी नागरिकों को हज करने की इजाज़त दी है वहीं क्या आप जानते हैं कि इससे पहले हज कब-कब और कितनी बार रद्द किया गया है.
हज कब-कब रद्द हुआ?
इतिहास में पहली बार हज 629 ई. (छह हिजरी, इस्लामिक कैलेंडर) को मोहम्मद साहब के नेतृत्व में अदा किया गया था. इसके बाद हर साल हज अदा होता रहा.
हालांकि, मुसलमान सोच भी नहीं सकते कि किसी साल हज नहीं हो सकेगा. लेकिन इसके बावजूद इतिहास में लगभग 40 बार ऐसा हुआ है जब हज अदा ना हो सका और कई बार 'ख़ाना ए काबा' हाजियों के लिए बंद रहा.
इसके कई कारण थे जिनमें बैतुल्लाह (पवित्र स्थल) पर हमले से लेकर राजनैतिक झगड़े, महामारी, बाढ़, चोर और डाकुओं द्वारा हाजियों के क़ाफ़िले लूटना और ख़राब मौसम भी शामिल है.
सन 865: अल-सफ़ाक का हमला
सन 865 में स्माइल बिन यूसुफ़ ने, जिन्हें अल-सफ़ाक के नाम से जाना जाता है, उन्होंने बग़दाद में स्थापित अब्बासी सल्तनत के ख़िलाफ़ जंग का एलान किया और मक्का(पवित्र स्थल) में अरफ़ात के पहाड़ पर हमला किया.
उनकी फ़ौज के इस हमले में वहां मौजूद हज के लिए आने वाले हज़ारों श्रद्धालुओं की मौत हो गई.
इस हमले की वजह से उस साल हज न हो सका.
सन 930: क़रामिता का हमला
इस हमले को सऊदी शहर मक्का पर सबसे घातक हमलों में से एक माना जाता है.
सन 930 में क़रामिता समुदाय के मुखिया अबु-ताहिर-अलजनाबी ने मक्का पर एक हमला किया इस दौरान इतने क़त्ल और लूटमार हुई कि कई साल तक हज ना हो सका.
सऊदी अरब में स्थापित शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन फ़ॉर रिसर्च एंड आर्काइव्स में छपने वाली एक रिपोर्ट में इस्लामी इतिहासकार और हदीसों के विशेषज्ञ अज़्ज़हबी की किताब 'इस्लाम की तारीख़' के सन्दर्भ से बताया गया है कि '316 हिजरी(इस्लामिक कैलेंडर) की घटनाओं की वजह से किसी ने करामिता के डर की वजह से उस साल हज अदा नहीं किया.'
क़रामिता उस समय की इस्लामी रियासत को नहीं मानते थे और इसी तरह वो रियासत के तहत माने जाने वाले इस्लाम से भी इंकार करते थे. वो समझते थे कि हज में किए जाने वाले कार्य इस्लाम से पहले के हैं, इस प्रकार वे मूर्ति पूजा की श्रेणी में आते हैं.
शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अबु ताहिर ख़ाना-ए-काबा के दरवाज़े पर ज़िल्हिज्जा (इस्लामिक कैलेंडर का अंतिम महीना) की 8 तारीख़ को तलवार लेकर खड़े हो गए और अपने सामने अपने सिपाहियों के हाथों श्रद्धालुओं का क़त्लेआम करवाते और देखते रहे.
रिपोर्ट के अनुसार वो कहते रहे कि इबादत करने वालों को ख़त्म कर दो, काबा का गिलाफ़ (काबे के चारों ओर लगा कपड़ा) फाड़ दो और 'हजरे असवद'(पवित्र पत्थर) को उखाड़ दो.
इस दौरान काबे में 30 हज़ार हाजियों का क़त्ल हुआ और उन्हें बिना किसी जनाज़े, स्नान और कफ़न के दफ़ना दिया गया.
इतिहासकारों के अनुसार हमलावरों ने लोगों को क़त्ल करने के बाद कइयों की लाश ज़म-ज़म (पवित्र पानी) के कुएं में भी फेंकीं ताकि इसके पानी को गन्दा किया जा सके.
इसके बाद हजरे असवद को उखाड़कर अपने साथ उस समय के सऊदी अरब के पूर्वी प्रांत अलबहरीन ले गए जहां ये अबु ताहिर के पास उसके शहर अलअहसा में कई साल रहा. अंत में फ़िरौती की एक भारी रक़म के बाद इसे वापिस ख़ाना-ए-काबा में लाया गया.
सन 983: अब्बासी और फ़ातिमी ख़िलाफ़तों में झगड़े
हज सिर्फ़ लड़ाइयों और जंगों की वजह से रद्द नहीं हुआ बल्कि यह कई साल राजनीति की भेंट भी चढ़ा.
सन 983 ई. में इराक़ की अब्बासी और मिस्र की फ़ातिमी ख़िलाफ़तों के मुखियाओं के बीच राजनीतिक कशमकश रही और मुसलमानों को इस दौरान हज के लिए यात्रा नहीं करने दी गई. इसके बाद हज 991 में अदा किया गया.
बीमारियों और महामारियों की वजह से हज रद्द
शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार, 357 हिजरी में एक बड़ी घटना की वजह से लोग हज ना कर सके और यह घटना असल में एक बीमारी थी.
रिपोर्ट में इब्ने ख़तीर की किताब 'आग़ाज़ और इख़्तिताम' का हवाला देकर लिखा गया है कि अलमाशरी नामक बीमारी की वजह से मक्का में बड़ी संख्या में मौतें हुई.
बहुत से श्रद्धालु रास्ते में ही मर गए और जो लोग मक्का पहुंचे भी तो वो हज की तारीख़ के बाद ही वहां पहुंच सके.
सन 1831 में भारत से शुरू होने वाली एक महामारी की वजह से मक्का में लगभग तीन-चौथाई श्रद्धालुओं की मौत हुई. यह लोग कई महीने की कठिन यात्रा करके हज के लिए मक्का आए थे.
इसी तरह 1837 से लेकर 1858 में 2 दशकों में 3 बार हज को रद्द किया गया जिसकी वजह से श्रद्धालु मक्का की यात्रा नहीं कर सके.
1846 में मक्का में हैज़े की बीमारी से लगभग 15 हज़ार लोगों की मौत हुई. यह महामारी मक्का में सन 1850 तक फैलती रही लेकिन इसके बाद भी कभी-कभार इससे मौतें होती रहीं.
अधिकतर शोधकर्ताओं के अनुसार यह महामारी भारत से श्रद्धालुओं के ज़रिये आई थी जिसने ना सिर्फ़ उनको बल्कि मक्का में दूसरे देशों से आने वाले बहुत से दूसरे श्रद्धालुओं को भी संक्रमित किया था.
मिस्री श्रद्धालू जल्दी से जल्दी लाल सागर के तट की तरफ़ भागे जहां उन्हें क्वारंटीन में रखा गया. यह महामारी बाद में न्यूयॉर्क तक फैली. यहां एक अहम बात ये भी है कि उस्मानिया सल्तनत के दौर में हैज़े की महामारी के ख़ात्मे के लिए क्वारंटीन पर ज़ोर दिया गया था.
रास्ते में डाकुओं का डर और हज के बढ़ते हुए ख़र्चे
सन 390 हिजरी (1000 ई. के आसपास)में बढ़ती हुई महंगाई और हज की यात्रा के ख़र्चों में बहुत ज़्यादा वृद्धि की वजह से लोग हज पर न जा सके और इसी तरह 430 हिजरी में इराक़ और खुरासान से लेकर शाम और मिस्र के लोग हज पर नहीं जा सके.
शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार 492 हिजरी में मुस्लिम दुनिया में आपस में जंगों की वजह से मुसलमानों को बहुत नुक़सान हुआ जिससे हज की पवित्र यात्रा भी प्रभावित हुई.
654 हिजरी से लेकर 658 हिजरी तक हेजाज़ के अलावा किसी और देश से हाजी मक्का नहीं पहुंचे. 1213 हिजरी में फ़्रांसिसी क्रांति के दौरान हज के क़ाफ़िलों को सुरक्षा और सलामती की वजह से रोक दिया गया.
जब कड़ाके की सर्दी ने हज रोक दिया
सन 417 हिजरी को इराक़ में बहुत अधिक सर्दी और बाढ़ की वजह से श्रद्धालु मक्का की यात्रा न कर सके.
इस तरह बहुत ठन्डे मौसम की वजह से हज को रद्द करना पड़ा था.
किस्वा पर हमला
सन 1344 हिजरी में ख़ाना-ए क-बा के गिलाफ़, किसवा को मिस्र से सऊदी अरब लेकर जाने वाले क़ाफ़िले पर हमला हुआ जिसकी वजह से मिस्र का कोई हाजी भी ख़ाना-ए-काबा न जा सका.
ये ईसवी के हिसाब से 1925 का साल बनता है.
लेकिन ये बात भी महत्वपूर्ण है कि जब से सऊदी अरब अस्तित्व में आया है, यानी 1932 से लेकर अब तक, ख़ाना-ए-काबा में हज कभी नहीं रुका. (www.bbc.com)
जाने-माने समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन का
यह लेख 1985 में ‘रविवार’ में प्रकाशित हुआ था
इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा के बाद 1975 में बहुत चालाकी और भोंडेपन के साथ चुनाव संबंधी नियम-कानूनों को संशोधित किया गया. इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को उलट दिया जाए. साफ है कि आपातकाल की घोषणा केवल निजी फायदों और सत्ता बचाने के लिए की गई थी. इसीलिए श्रीमती गांधी ने जब राष्ट्रपति से आपातकाल की घोषणा करने का अनुरोध किया तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल तक की सलाह नहीं ली. आपातकाल लगाने के जिन कारणों को इंदिरा गांधी सरकार ने अपने ‘श्वेतपत्र’ में बताया, वे नितांत अप्रासंगिक हैं.
सबसे ज्यादा शिकार राजनेता हुए
आपातकाल की घोषणा के पहले ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए थे. बंदियोंं में लगभग सभी प्रमुख सांसद थे. उनकी गिरफ्तारी का उद्देश्य संसद को ऐसा बना देना था कि इंदिरा गांधी जो चाहें करा लें. उन दिनों कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था. इसीलिए जब जयप्रकाश नारायण सहित दूसरे विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया.
साधारण कार्यकर्ताओं की बात जाने दीजिए बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना भी उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी गई. उन्हें कहां रखा गया है इसकी भी कोई खबर नहीं दी गई. दो महीने तक मिलने-जुलने की कोई सूरत न थी. बंदियों को तंग करने, उनको अकेले में रखने, इलाज न कराने और शाम छह बजे से ही उन्हें कोठरी में बंद कर देने के सैकड़ों उदाहरण हैं. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही करीब 15 हजार लोगों को बंदी बनाया गया. उनकी डाक सेंसर होती थी और जब मुलाकात की अनुमति भी मिली तो उस दौरान खुफिया अधिकारी वहां तैनात रहते थे. कहना न होगा कि ऐसे हालात में जेल के अफसरों का व्यवहार कैसा रहा होगा. वास्तव में ये अफसर स्वयं डरे हुए थे.
हवालातों में पुलिस दमन के शिकार अक्सर वे कार्यकर्ता हुए जो सत्याग्रह का संचालन करते हुए प्रचार सामग्री तैयार करते और बांटते थे. पुलिस अत्याचारों की बहुत-सी मिसालें हैं. सत्याग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं को उनके सहयोगियों के नाम जानने, उनके ठिकानों का पता लगाने, उनके कामकाज की जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से बहुत तंग किया गया. रात को भी सोने न देना, खाना न देना, प्यासा रखना या बहुत भूखा रखने के बाद बहुत खाना खिलाकर किसी प्रकार आराम न करने देना, घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों-हफ्तों तक सवालों की बौछार करते रहना जैसी चीजें बहुत आम थीं.
केरल के राजन को तो मशीन के पाटों के बीच दबाया तक गया. उसकी हड्डियों तक को तोड़ डाला गया. दिल्ली के जसवीर सिंह को उल्टा लटकाकर उसके बाल नोंचे गए. ऐसे लोगों को क्रूरता से ऐसी गुप्त चोटें दी गईं, जिसका कोई प्रमाण ही न रहे. बेंगलुरू में लारेंस फर्नांडिस (जॉर्ज फर्नांडिस के भाई) की इतनी पिटाई की गई कि वह सालों तक सीधे खड़े नहीं हो पाए. एक नवंबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सम्मेलन में जिन छात्रों ने परचे बांटे, उन्हें भी बुरी तरह से पीटा गया. इस दौरान दो क्रातिकारियों किश्तैया गौड़ और भूमैया को फांसी दे दी गई.
महिला बंदियों के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया गया. जयपुर (गायत्री देवी) और ग्वालियर (विजयाराजे सिंधिया) की राजमाताओं को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा गया. श्रीलता स्वामीनाथन (राजस्थान की कम्युनिस्ट नेता) को खूब अपमानित किया गया. मृणाल गोरे (महाराष्ट्र की समाजवादी नेता) और दुर्गा भागवत (समाजवादी विचारक) को पागलों के बीच रखा गया. महिला बंदियों के साथ गंदे मजाक की शिकायतें भी मिलीं.
संविधान और कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा गया
इंदिरा गांधी को सबसे पहले राजनारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का निबटारा करना था. इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया. साथ ही इसका अमल पूर्व काल से लागू कर दिया. संविधान को संशोधित करके कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया. सबसे कठोर संविधान का 42वां संशोधन था. इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास किया गया.
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इमरजेंसी के दौरान श्रीमती गांधी ने संविधान को तोड़ने-मरोड़ने का बहुत प्रयास किया और इसमें उन्हें तात्कालिक सफलता भी मिली. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया. ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया. जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया. इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था. इसमें भी कई बार बदलाव किए गए.
रासुका में 29 जून, 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बाद बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार भी खत्म कर दिया गया. साथ ही नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढ़ाने का प्रावधान कर दिया गया. तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया.
मीडिया का उत्पीड़न
आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसर बैठा दिया गया था. सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया. इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई. इस कानून का समर्थन करते हुए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कहा कि इसके जरिए संपादकों की स्वतंत्रता की ‘समस्या’ का हल हो जाएगा. सरकार ने चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म करके उन्हें ‘समाचार’ नामक एजेंसी में विलीन कर दिया. इसके अलावा सूचना और प्रसारण मंत्री ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए ‘आचारसंहिता’ की घोषणा कर दी.
अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए. इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे. जहां कहीं पत्रकारों ने इस पहल का विरोध किया उन्हें भी बंदी बनाया गया. पुणे के साप्ताहिक ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए. बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया. लेकिन सबसे ज्यादा तंग ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को किया गया. अखबार की संपत्ति पर दिल्ली नगर निगम द्वारा कब्जा कराके उसे बेचने का भी प्रयास किया गया. सरकार की कार्रवाइयों से परेशान होकर इसके मालिकों ने सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और पांच निदेशकोंं को अंतत: स्वीकार कर लिया. इसके बाद अखबार के तत्कालीन संपादक एस मुलगांवकर को सेवा से मुक्त कर दिया गया.
‘स्टेट्समैन’ को तो जुलाई 1975 में ही बाध्य किया गया कि वह सरकार द्वारा मनोनीत निदेशकों की नियुक्ति करे. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. उसके बाद प्रबंध निदेशक ईरानी पर मुकदमा चलाने के लिए उस मामले को उठाया गया जो दो साल पहले ही सुलझ गया था. सरकार के इसमें असफल रहने पर ईरानी के पासपोर्ट को जब्त करने का आदेश दिया गया.
आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई. किशोर कुमार जैसे गायक को काली सूची में रखा गया. ‘आंधी’ फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई.
महज आर्थिक आपातकाल कहकर भ्रम फैलाया गया
पक्ष और विपक्ष को दबाने के बाद सरकार ने दो और काम किए. पहला, आर्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और दूसरा, श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को कम करना. इसलिए आपातकाल का सबसे ज्यादा समर्थन पूंजीपतियों की संस्था ‘फिक्की’ (भारतीय वाणिज्य और उद्योग परिसंघ) ने किया. संशोधन के बाद न्यूनतम बोनस को 8.33 प्रतिशत से घटाकर केवल चार प्रतिशत कर दिया गया. एलआईसी और उसके कर्मचारियों के बीच औद्योगिक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से बदल दिया गया. निजी क्षेत्रों की तरक्की के लिए सामान के आयात की छूट दी गई और कंपनियों पर कर भार को घटा दिया गया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अनुरोध किया गया कि वे भारत में निवेश करें क्योंकि यहां सस्ती मजदूरी और अनुशासित मजदूर हैं. इस दौरान जहां कहीं मजदूर हड़ताल हुई, वहां दमनचक्र चला. जनवरी 1976 में सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही बोनस कानून में संशोधन का विरोध करने पर 16 हजार मजदूर गिरफ्तार किए गए.
सरकार का दमनचक्र केवल मजदूरों को अनुशासित करने के लिए ही नहीं बल्कि जनता की आवाज दबाने के लिए भी चला. सरकार ने सभी तौर-तरीके अपना कर नागरिक अधिकारों का हनन किया. आरंभ मेंं उसे आर्थिक आपातस्थिति तक ही सीमित रखने की बात कही गई. लेकिन यह केवल भ्रम पैदा करने के लिए किया गया था.
वकीलों और जजों को भी नहीं बख्शा गया
इंदिरा गांधी के शासन ने नागरिकों के साथ जो दुर्व्यवहार, अन्याय और अत्याचार किया उसमें नागिरक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों को भी नहीं बख्शा गया. वकीलों को खासकर बार काउंसिल के अध्यक्ष राम जेठमलानी को सबक सिखाने के लिए संसद के कानून द्वारा अटॉर्नी जनरल को इसका अध्यक्ष बना दिया गया. जिन 42 जजों ने नजरबंदियों के मुकदमों में न्यायसंगत फैसले दिए या देने की कोशिश् की, उन सबका तबादला कर दिया गया. इससे जहां यह बात सामने आती है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की नीति कितनी अधिक सख्त थी. वहीं यह भी साबित होता है कि उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना कर दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने बिना दंड के जेल में न रखे जाने के अधिकार को छीनने की सरकार की कोशिश को असफल कर दिया.
अल्पसंख्यकों की जबरन नसबंदी
परिवार नियोजन के लिए अध्यापकों और छोटे कर्मचारियों पर सख्ती की गई. लोगों का जबरदस्ती परिवार नियोजन भी किया गया. परिवार नियोजन और दिल्ली के सुंदरीकरण के नाम पर अल्पसंख्यकों का काफी उत्पीड़न किया गया. दिल्ली में सैकड़ों घरों को बुलडोजरों की मदद से जबरन तोड़कर वहां रह रहे लोगों को शहर से 15-20 किलोमीटर दूर पटक दिया. उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर, सुल्तानपुर और सहारनपुर, हरियाणा में पीपली के अलावा दूसरे स्थानों पर इसके लिए लाठियां और गोलियां भी चलाई गई. जिस किसी ने भी विरोध किया उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
भ्रष्टाचार कम होने की बात गलत
आपातकाल में अफसरशाही और पुलिस को जो अनियंत्रित अधिकार प्राप्त हुए उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया. हालांकि प्रचार था कि इमरजेंसी के दौरान भ्रष्टाचार कम हुआ, लेकिन दो-तीन महीने के बाद हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो गए. सत्ता के शीर्ष पर बैठे संजय गांधी के साथी भ्रष्टाचार में लिप्त थे. जिस किसी ने संजय गांधी की बात नहीं मानी उसे शिकंजे में फंसा लिया गया. इसी असाधारण स्थिति में इंदिरा गांधी ने हेमवतीनंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और सिदार्थ शंकर रे को उनके पद से हटा दिया. संजय ने मारुति के नाम पर काफी रुपया जमा किया और काफी अनियमितताएं बरतीं. पूंजीपतियों और कारोबारियों को मजबूर करके पैसे बटोरे गए. उन पर गलत आरोप लगाकर मुकदमे चलाए गए और पुलिस कार्रवाई भी की गई.
आखिरकार जनता ने सबक सिखाया
इस तरह इमरजेंसी के दौरान सरकार ने जीवन के हर क्षेत्र में आतंक का माहौल पैदा कर दिया था. इन सभी काले कारनामों के कारण जनता ने 1977 में एकजुट होकर न केवल कांग्रेस बल्कि इंदिरा गांधी को भी धूल चटा दी. इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया. आज इमरजेंसी को भुलाने की कोशिश की जाती है लेकिन हमें उन काले दिनों के अनुभवों को नहीं भूलना नहीं चाहिए. उन अनुभवों से ही हम वे सबक सीखते हैं जिनसे हमारा लोकतंत्र और मजबूत बनेगा.
-सुरेंद्र मोहन
का हो मोदीजी महाराज, आपको सिक्किम, लद्दाख सब याद रहता है, हमारे बिहारे को भुला जाते हैं ?
क्या हुआ, सुशासन बाबू ? माथा इतना गर्म क्यों है ? आप तो हमारे एन.डी.ए के सबसे मजबूत सहयोगी हैं।
तो ओली जी का कुछ करते क्यों नहीं ? पहले उन्होंने बिहारियों पर गोली चलवाई। हमने बर्दाश्त कर लिया। अब वो बिहार को डुबा मारने पर तुल गए हैं। आपको पता हईए है कि हर बरसात में नेपाल से आने वाले पानी से हमारा आधा बिहार डूबता है। इस साल तो ओली जी नदी के आसपास की ज़मीन अपनी बताकर बांध की मरम्मत भी नहीं करने दे रहे। हमारे इंजीनियर और ठीकेदार सब को कूट-कूट के खदेड़ दे रहे हैं। बताईये, अब प्रलये नू आएगा बिहार में ?
तो इसमें समस्या क्या है ? वो नेपाल का पानी बिहार में घुसाते हैं। आप बिहार का पानी नेपाल में घुसा दीजिए। हिसाब बराबर।
ऐ महाराज, ई तक्षशिला वाला भूगोल मत पढाईए न हमको। बिहार में कोई पानी-वानी नहीं पैदा होता। इधर का पानी नेपाल के पहाड़ से उतरता है। दुनिया भर में आपकी डिप्लोमेसी का डंका बज रहा है। दो बित्ते के नेपाल के सामने आप हरदी-गुरदी काहे बोल गए हैं ?
अब क्या कहें नीतीश जी, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह जिनपिंग के प्रभाव में है। हमारी कुछ सुन ही नहीं रहे हैं ओली जी।
तो सीधे जिनपिंगवा को ही काहे नहीं धरते हैं ? ससुरा को अहमदाबाद में झूला कवनो मंगनी में झुलाए थे का ? उसको फोन करके ओली जी के दिमाग का स्क्रू कसवाईए। और ऊ नार्थ कोरिया वाला किमवा जिंदा है कि मर गया ? उससे भी एक धमकी दिलवा सकते हैं। साफ कहे देते हैं कि अबकी बिहार को डुबाए तो बिहार में एन.डी.ए को भी डूबल ही समझिए!
जिनपिंग और किम ट्रंप की नहीं सुनते तो हमारी क्या सुनेंगे ? ऐसा कीजिए कि इस बार बिहार को डुब जाने दीजिए। अगले साल पूरे बिहार-नेपाल बॉर्डर पर हम पत्थरों की दस फीट ऊंची दीवार खड़ी कर देंगे। हमेशा के लिए बाढ़ का झंझट ही ख़त्म।
धन्य हैं प्रभु, लेकिन इतना सारा पत्थर कहां से उठावा कर लाईयेगा ? गलवान से कि नाथूला से?
अरे नीतीश जी, बाढ़ और बर्बादी के बाद अक्टूबर के बिहार चुनाव में प्रदेश भर के लोग जो ढेला-पत्थर फेकेंगे आपकी चुनाव सभाओं में, वो किस दिन काम आएगा ? कम से कम आपदा में अवसर खोजना तो सीख लीजिए हमसे!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह हमारे लोकतंत्र की मेहरबानी है कि इस संकट की घड़ी में चीन का मुकाबला करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल एक-दूसरे के साथ दंगल में उलझे हुए हैं। टीवी चैनलों पर जैसी अखाड़ेबाजी हमारे राजनीतिक दलों के प्रवक्ता करते रहते हैं, वह उन टीवी चैनलों का स्तर तो गिराती ही है, हमारी जनता को भी गुमराह करती रहती है। जरा हम चीन की तरफ देखें। क्या गलवान घाटी की खूनी मुठभेड़ पर वहां नेताओं, टीवी चैनलों या अखबारों के बीच वैसा ही दंगल चलता है, जैसा हमारे यहां चल रहा है ?
इसका मतलब यह नहीं कि सरकार के हर कदम का आंख मींचकर समर्थन किया जाए या उसकी भयंकर भूलों की अनदेखी कर दी जाए लेकिन आजकल कांग्रेस के नेता भाजपा के नेताओं, खासकर प्रधानमंत्री के लिए जिस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं, वैसा करके वे अपना ही अपमान करवाते हैं। (nayaindia.com)
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने मोदी को पत्र लिखकर उसमें सावधानी रखने का जो सुझाव दिया, वह ठीक ही था लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी जिस तरह से चीन को जमीन सौंपने के आरोप मोदी पर लगा रहे हैं, वे सर्वथा अनुचित हैं।
कोई कमजोर से कमजोर भारतीय प्रधानमंत्री जो हिमाकत नहीं कर सकता, उसे मोदी पर थोप कर कांग्रेसी नेता किसे खुश करना चाहते हैं ? गलवान की स्थानीय और तात्कालिक फौजी मुठभेड़ को भस्मासुरी रंग में रगना और जनता को उकसाना आखिर हमें कहां ले जाएगा ? क्या कांग्रेसी नेता यह चाहते हैं कि भारत और चीन के बीच युद्ध हो जाए ? क्या ऐसा होना भारत के हित में होगा ? यदि ऐसा न भी हो तो क्या जनता को भडक़ाना ठीक होगा ? देश कोरोना से लड़ेगा या चीन से ? भारत और चीन का मामला अभी बातचीत से सुलझ रहा है तो उसे क्यों नहीं सुलझने दिया जाए ? यदि कांग्रेस भाजपा पर प्रहार करेगी तो भाजपाई भी गड़े मुर्दे उखाडऩे में संकोच क्यों करेंगे ? वे नेहरु सरकार को डॉ. लोहिया की भाषा में राष्ट्रीय शर्म की सरकार कहेंगे और इंदिरा गांधी की सारी उपलब्धियों को ताक पर रखकर उन्हें आपात्काल की ‘काली’ कहेंगे और गरीबी हटाओ वाली ‘झांसे की रानी’ कहेंगे।
तात्कालिक मुद्दों पर घटिया बहस छेडक़र हम भारत की नई पीढिय़ों को गलत मार्ग पर ठेलने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा, दोनों के नेता आपस में मिलकर सार्थक संवाद क्यों नहीं करते? दोनों यदि इसी तरह सार्वजनिक दंगल करते रहे तो माना जाएगा कि वे कुल मिलाकर चीन के हाथ मजबूत कर रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
राजेन्द्र माथुर को तो नहीं मगर उनके लेखन को 'नई दुनिया ' के माध्यम से तब से जानना शुरू किया,जब हायरसेकंडरी का छात्र था और अखबार और उसमें छपे संपादकीय को पढ़ने में रुचि जाग चुकी थी। तब इन्दौर से अखबार तो तीन या चार छपते थे- ' इन्दौर समाचार, '(कांग्रेसी), 'जागरण 'दैनिक वाला नहीं) तथा ' स्वदेश' (संघी) का स्पष्ट स्मरण है मगर पूरे प्रदेश में तूती केवल 'नई दुनिया' की बोलती थी। गुणवत्ता और छपाई- सफाई में हिंदी के दूसरे अखबारों से वह मीलों आगे था।भोपाल तक उसका राजनीतिक रसूख कायम था। उसमें राजनीतिक दृष्टि से क्या छपा, क्या नहीं छपा,यह ध्यान से देखा जाता था। यह और बात है कि दूसरे अखबारों की तरह यह भी सत्ता से पंगा नहीं लेता था।स्थानीय प्रशासन से भी यह बना कर रखता था।हाँँ परसाई जी और शरद जोशी अपने स्तंभों में जो चाहें,जिस प्रकार लिखें।
तब मेरे लिए ही क्या हम सबके लिए राजेन्द्र माथुर और 'नई दुनिया'' एकदूसरे के पर्याय थे।राहुल बारपुते संपादक थे और बाद में जाना कि बड़े दिलदिमाग के, संगीत-कला रसिक मनमौजी इनसान थे मगर नाम से लिखने में शायद उन्हें रुचि नहीं थी। वैसे उन्होंन' नई दुनिया ' से माथुर साहब को जोड़कर उनकी प्रतिभा को चमकने का मौका दिया था और अंततः माथुर साहब 'नई दुनिया' के प्रधान संपादक बनाने में सहायक बने। पाठक तो लेकिन उसीको पहचानता है,जो लिखता,छपता है और पढ़ा जाता है।तो छवि थी, माथुर साहब की थी।काफी अरसे तक वह इन्दौर के गुजराती कालेज में वह अंग्रेजी पढ़ाते रहे और पार्ट टाइम ' नई दुनिया' में काम भी करते रहे मगर ऐसा लगता है, शायद तब भी संपादकीय वही लिखा करते थे।।कभी दो या तीन संपादकीय होते थे,कभी एक ही सुदीर्घ संपादकीय।सप्ताह में एक दिन संभवतः रविवार को वह अपने नाम से आलेख लिखते थे।पहले सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय घटनाचक्र पर ,बाद में सभी विषयों पर।उनके संपादकीय और उनके आलेख पढ़े बिना मैं नहीं रह सकता था।वह तब विशुद्ध नेहरूवादी थे। । यह दुनिया, मध्य प्रदेश और भारत से आगे भी है,इसका आरंभिक समझ मुझे माथुर साहब से मिली। इस दुनिया में केवल अमेरिका और यूरोप नहीं है, अफ्रीका और लातीनी अमेरिकी देश भी हैं, उत्तर भारत ही नहीं, दक्षिण भारत भी है और दक्षिण भारतीय होना यानी मद्रासी होना नहीं है,यह समझ मिली।उन्होंने तब कहीं लिखा था कि जब भी अमेरिका में रिपब्लिकन राष्ट्रपति आता है, वह भारत के लिए अधिक सकारात्मक होता है।इस प्रस्थापना ने शायद चौंकाया था,इस कारण यह आज भी याद है।तब तो उनसे असहमत होने लायक समझ नहीं थी मगर जब असहमत होने लायक बुद्धि विकसित हुई, तब भी उन्हें पढ़ना जरूरी लगता रहा।उनकी बातों से सहमत हों या नहीं,उनके पास भाषा की जो रवानगी थी,बाद में किसी के पास नहीं दिखी।खासकर नवभारत टाइम्स के उनके वर्षों को याद करूँ तो उनकी अपनी जो सोच रही हो,उन्होंने संपादकीय पृष्ठ को लगभग हर विचारधारा के लोगों के लिए खुला रखा था- संघियों के लिए भी।
एक बार पता चला कि वह महाराष्ट्र मंडल के गणेशोत्सव कार्यक्रम में एक व्याख्यान देने वह शाजापुर आने वाले हैं तो मैं बहुत खुश हुआ मगर न जाने क्या हुआ कि वह नहीं आए।लिखने के अलावा वह तब अपने व्याख्यानों के लिए भी प्रसिद्ध थे।एक बार पता नहीं किस सिलसिले में उन्होंने गर्व से कहा था कि उनकी हैसियत मध्य प्रदेश में डे'मी गाड' की थी।
उनसे मेरी पहली मुलाकात 1970 में हुई,जब पत्रकारिता का भूत मेरे सिर पर सवार हो चुका था।योजना यह थी कि इन्दौर के किसी कालेज में पढ़ूँगा और 'नई दुनिया ' में काम करके खर्च निकालूँगा।नौकरी के लिए शाजापुर के वकील और कवि रामनारायण माथुर का पत्र माथुर साहब के पास ले गया था।शायद इन दोनों की शायद कोई दूर की रिश्तेदारी थी।माथुर साहब ने पत्र देखा।फिर अमेरिका की एक खबर का अनुवाद करने को दिया।माथुर साहब को अनुवाद में एक गलती नजर आई कि मैंने 'सेक्रेटरी आफ स्टेट' का अनुवाद' राज्य विभाग के सचिव' किया था।इसके बावजूद माथुर साहब मुझे रखने के पक्ष में थे।उन्होंने अखबार के मालिक अभय छजलानी से कहा कि इस लड़के के अनुवाद में बस एक गलती है मगर तब संसद या विधानसभा का सत्र चल रहा था और अभय जी ने कहा कि इस समय इनका अनुवाद देखने की फुरसत किसे होगी? मुझे एक महीने तक घर पर रह कर अनुवाद करने का अभ्यास करके आने के लिए कहा गया पर,इरादा बदल चुका था। वैसे भी ' नई दुनिया'' वाले मेरे लिए बेताब नहीं बैठे थे कि एक महीने बाद पूछते कि विष्णु नागर जी,तैयारी कर ली हो तो कृपया ज्वाइन कर लीजिए।आपके बगैर अखबार नहीं निकल पाएगा।
नवभारत टाइम्स में काम करने के दौरान इन्दौर में उनसे दो मुलाकातों की याद है।एक मुलाकात कवि सोमदत्त के निवास पर हुई थी और दूसरी 'नई दुनिया' कार्यालय में।सोम जी उस समय पशु चिकित्सा विभाग में वहाँ वरिष्ठ पद पर तैनात थे।माथुर साहब से उनका मैत्रीपूर्ण संबंध था।मैं सोमजी के यहाँ पहुँचा, तब वे माथुर साहब को अपने विषय से संबंधित कुछ तकनीकी बातें बता रहे थे और माथुर साहब अच्छे जिज्ञासु छात्र की तरह सुन रहे थे और बीच-बीच में कुछ सवाल भी करते जा रहे थे। 'नई दुनिया ' में उनसे न जाने दुनिया -जहान की न जाने क्या- क्या बातेंं आधा-पौन घंटे तक होती रहींं, याद नहीं। मैं जब वहाँ से रवाना होने लगा तो उनसे इतने कनिष्ठ को भी वह बाहर तक छोड़ने आए, जिस कारण मैं बहुत संकोच में पड़ा।मैंने मना किया बार बार मगर वे नहीं माने।
बाद में उनके रहते 1984 में दुबारा मैं नवभारत टाइम्स आया।तब ' नवभारत टाइम्स ' अपनी श्रेष्ठता के शिखर पर था।माथुर साहब के संपादन के वे वर्ष-जिसने भी तब उनके साथ काम किया- पत्रकारिता के स्वर्ण युग कहे जा सकते हैं।उनके दौर में जो अखबार में पहले से थे, काम जानते थे और जो काम करना चाहते थे,उनके लिए बेहतरीन अवसर थे।उस दौरान विभिन्न आयु और अनुभव के बहुत से लोग लाए गए। मधुसूदन आनंद दुबारा आए।राजकिशोर, आलोक मेहता, प्रकाश दुबे, विष्णु खरे, उर्मिलेश,शाहिद मिर्जा आदि कई आए। कुछ दिल्ली में,कुछ बाहर। मेहरुद्दीन खाँ भी उनमें थे।वह स्कूल मास्टरी छोड़कर तभी पत्रकार में आए थे और कृषि पर उन्होंने खूब लिखा।इसके अलावा मेहरुद्दीन खाँँ उस समय 'कबीर चौरा ' नाम से समसामयिक राजनीति पर रोज चुटीली कुंंडलियाँँ लिखते थे ।गुणाकर मुले विज्ञान पर लिखते थे। हिंदी की लगभग सभी श्रेष्ठ प्रतिभाएँ "तब छपती थीं।तब का संपादकीय पृष्ठ बहुत पठनीय था।' आठवां कालम' उसी समय शुरू हुआ। शरद जोशी का व्यंग्य स्तंभ ' प्रतिदिन' भी।और शायद यह पहला अखबार था,जिसके पाठक पहले पिछले पृष्ठ पर छपा शरद जी का स्तंभ पढ़ते थे ,बाद में प्रथम पृष्ठ पर आते थे।न जाने कितनी तरह की नई पहल उस समय हुई।मैंने भी उस दौर में खूब लिखा।एक समय तक संपादकीय पृष्ठ भी देखा,जिसमें पाठकों के पत्रों के चयन-संपादन तक ही मेरा अधिकार क्षेत्र सीमित था।तब पाठ खूब पत्र लिखते थे और अखबार में उनके लिए जगह भी बहुत होती थी।इस काम में मुझे खूब आनंद आया।बाद में विशेष संवाददाता का काम भी काफी समय तक किया।तब दिनभर घूम कर शाम को और कभी रात दस बजे तक भी खबर देते थे।आज की तरह हड़बड़ाहट नहीं थी।
संयोग से उसी दौर में कई पुराने लोग रिटायर हुए,इस कारण भी बहुत से नये लोगों को इस अखबार से जुड़ने का मौका मिला।उस समय प्रभाष जोशी के संपादन में ' जनसत्ता' नया- नया निकला था और वह भी अपने ताजे -टटकेपन के कारण ' नवभारत टाइम्स ' के अस्तित्व के लिए चुनौती बन रहा था। अगर उस समय माथुर साहब जैसा संपादक न होता,अखबार अपने पुराने ढर्रे पर चल रहा होता तो शायद डूब जाता।माथुर साहब से पहले और आपातकाल के बाद अज्ञेय जैसे बड़े नामी संपादक भी आए मगर वे अपनी कोई छाप न छोड़ पाए।विद्यानिवास मिश्र को भी माथुर साहब-एसपी सिंह के बाद न क्या सोच करलाया गया था जबकि यह उनका क्षेत्र नहीं थाः पत्रकारिता का क-ख भी नहीं आता था । माथुर साहब के समय काम करने का उत्साह बहुत था क्योंकि छूट भी बहुत थी।अखबार की बढ़ती प्रतिष्ठा भी उत्साह बढ़ाती थी।एक दो बार अखबार के संपादकीय पृष्ठ के कर्ताधर्ता ने बहुत आपत्तिजनक और मूर्खतापूर्ण चीजें छापीं और मैंने आपत्ति दर्ज की तो उस पर गौर करके उनके कदम उठाया। आतंकवाद के दौर में मैं पंजाब गया और मुझे तो समझ नहीं थी मगर माथुर साहब ने कंपनी से मेरा जीवन बीमा करवाया।
माथुर साहब की पत्रकारिता की योग्यता असंदिग्ध थी।उनमें विनम्रता और आत्मविश्वास दोनों की कमी नहीं थी।विनम्रता का यह हाल कि न्यूज डेस्क पर उनके आने तक कोई नहीं आया तो हायतौबा मचाने की बजाय उपमुख्य संपादक की कुर्सी पर बैठकर खुद खबरें छाँटने लगते थे।कोई बात करनी है तो किसी की भी सीट पर आकर, उसके सामने बैठ कर चर्चा करने में उन्हें समस्या नहीं थी।वह कम्युनिस्ट कभी नहीं रहे मगर व्यवहार में एक तरह की कामरेडरी थी। जब एस पी सिंह दिल्ली कार्यकारी संपादक बनाए गए तो यह समझा जाने लगा और यह झूठ भी नहीं था कि अब यहाँ दो पावर सेंटर बन जाएँगे।उन्हें समझाया गया कि एसपी उनके लिए खतरा बन सकते हैं मगर वह चिंतित नहीं हुए।वह जानते थे कि उनके लेखन और व्यक्तित्व में जो ताकत है,उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता।इस कारण कम से कम सीधे टकराव की स्थिति तो नहीं आई,अंदरूनी बात मुझे नहीं मालूम।दोनों अपने कार्यक्षेत्र में अपने ढँग से काम करते रहे।एसपी ने पिछड़ों को आरक्षण देने के विश्वनाथ प्रताप सिंह के फैसले के अलावा शायद ही कभी कुछ अपने अखबार में लिखना जरूरी नहीं समझा.हो।हाँ 'द इकनॉमिक टाइम्स' में वह जरूर साप्ताहिक स्तंभ लिखा करते थे।
कुछ समस्याओं के साथ, अखबार अच्छा चल रहा था। अंग्रेजी के बड़े पत्रकार भी 'नवभारत टाइम्स' का नोटिस लेने लगे थे,जबकि पहले कोई कौड़ियों के भाव भी नहीं पूछता था मगर नई पीढ़ी के मालिक संपादक की जगह प्रबंधन को हावी करने के रास्ते पर चल पड़े थे। दो -तीन घटनाएँ ऐसी हुईं,जो माथुर साहब के लिए अपमानजनक थीं,फिर भी वह हताश नहीं थे। एक बार उनके और सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संयुक्त निर्णय और प्रबंधन की सहमति से शारजाह क्रिकेट कवर करने भेजे गए परवेज़ अहमद को बीच में वापिस बुलाने की जिद कंपनी के उपाध्यक्ष समीर जैन ने ठान ली और मजबूरन उन्हें बुलाना पड़ा।इससे दोनों वरिष्ठ काफी आहत हुए।फिर नवभारत टाइम्स का कद छोटा करने के लिए हिंदी में अनूदित 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' प्रकाशित करने का निर्णय प्रबंधन ने लिया और विष्णु खरे के नेतृत्व में एक टीम भी खड़ी की गई।फिर एक वरिष्ठ सहयोगी ने उनके कक्ष में जाकर उनसे असहनीय व्यवहार किया,ऐसी खबर भी है।संस्थान में ओम्बड्समैन नियुक्त करने का आइडिया लागू किया गया। था। उस अवसर पर एक भव्य कार्यक्रम पाँँच सितारा होटल ओबेरॉय मेंं हुआ।उसमें कुछ महीनों के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर मुख्य अतिथि थे।माथुर साहब जैसा गरिमामय आदमी किसी का भी अपमान करे,इसकी कल्पना करना मुश्किल है मगर माथुर साहब की हल्कीफुल्की मजेदार, टिप्पणी -जो प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के विलंब से आने पर थी- नागवार गुजरी।चंद्रशेखर ने मंच से ही कुछ ऐसा कहा कि क्या आप प्रधानमंत्री को अपमान करने के लिए यहाँ बुलाते हैं?इस टिप्पणी से माथुर साहब बहुत बेचैन हुए।उन्होंने मुझ समेत कई साथियों से पूछा कि क्या मैंंने कोई अपमानजनक बात कही थी?शायद प्रबंधन भी इस घटना से खुश नहीं था। ये सब सदमे उन्हें लगभग एकसाथ लगे। ये सब शायद माथुर साहब को दिल का दौरा पड़ने और अचानक मृत्यु के कारण बने होंगे।जब 9 अप्रैल,1991 को ग्यारह-बारह बजे उनके अस्वस्थ होने का संदेश अखबार के दफ्तर में आया तो कम से कम मैंने सोचा कि हो गया होगा छोटामोटा कुछ।इसके कुछ घंटे बाद उनके न रहने की खबर आई और यह साधारण खबर नहीं थी।तब उनकी उम्र ही क्या थी-मात्र 56 साल।उसके बाद एसपी सिंह ने कुछ समय के लिए कार्यभार संभाला।तब तक राजेन्द्र माथुर के 'नवभारत टाइम्स | की झलक मिलती रही।फिर तो प्रबंधन ही सबकुछ होता गया और आज पता नहीं कितनों को मालूम होगा कि इस. अखबार का संपादक कोई है या नहींं है?अब यही क्या बाकी बड़े अखबार भी प्राडक्ट हैं और संपादक, दरअसल संपादन प्रबंधक है। संपादक की नौकरी की तब तक गारंटी है,जब तक कि वह सार्वजनिक रूप से चुप रहे,लिखे नहीं,या सत्ता के समर्थन में लिखे,जो वास्तव में हो रहा है,उससे उदासीन रहे। और यह अब परंपरा सी बन गई है ।प्रबंधक के हाथों सुरक्षित ' नवभारत टाइम्स ' आदि कोरोना से पहले तक कमाई की दृष्टि से फलफूल खूब रहे थे यानी मालिकों की रणनीति कमाई की दृष्टि से सफल थी।आगे भी संभवतः यह इसी तरह फले -फूले ।अब किसी अखबार को राजेन्द्र माथुर नहीं चाहिए। दिनमान जैसा समाचार साप्ताहिक नहीं चाहिए, रघुवीर सहाय नहीं चाहिए, जिन्हें तभी अनुपयोगी समझा जाने लगा था।यह मान लिया गया है कि हिंदी के पाठक को हल्काफुल्कका मनोरंजक कुछ चाहिए।उसकी तार्किक-वैज्ञानिक समझ को विकसित करना व्यवसाय के लिए घातक है।उसे भांग और अफीम चाहिए। लगभग हर बड़ा अखबार यही दे रहा है और बड़ा बना हुआ है।एक बार टाइम्स समूह के एक बड़े अधिकारी ने बयान दिया था कि विज्ञापनों के बाद बची खाली जगह में जो चेंपा जाता है,उसे खबर कहते हैं।यही अब सिद्धांत है।उन्होंने यह बात बेधड़क होकर कह दी थी,दूसरे शायद इस तरह कहना नहीं चाहते मगर कर के दिखाना चाहते है और दिखा रहे हैं।
‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने यह लेख वर्ष 1996 में भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह से मुलाकात के बाद लिखा था
वह सर्दियों की शाम थी. एक, तीन मूर्ति के बंगले से बाहर निकलते हुए मुझे लगा कि अंदर से भर गया हूं. एक तरह की आत्मीयता से. लगा कि किसी दोस्त के साथ घंटा भर बतियाकर तनावमुक्त और प्रसन्न हूं. दिल्ली में ऐसे मौके आप कहें तो उंगलियों पर गिन सकता हूं.
नई दिल्ली के उस इलाके में पिछले अट्ठाइस सालों में कई नामी और सत्तावान लोगों से मिलना हुआ है. यह नहीं कि राजनीतिक लोगों से बात करना उनके साथ हमेशा शतरंज खेलना ही हो. अगर संवाद का सही तार मिल जाए तो जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका दाहिना हाथ नहीं जानता कि बायां क्या कर रहा है, वे भी अपने अंदर की और ऐसे पते की बात कह जाते हैं कि आप को और सुनने वाले को लगे कि अरे ये तो अपने इतने आत्मीय हैं. लेकिन मिनट भर बाद ही लगता है कि वह तो कोई बिजली थी जो कौंध कर चली गई और अब आप अंधेरे में उस आदमी को ढूंढ़ रहे हैं जो पल भर पहले आपको इतना अपना लगा था.
मेरी उस शाम विश्वनाथ प्रताप सिंह से बात हुई थी. उस भूतपूर्व प्रधानमंत्री से नहीं जिसे कई लोग कपटी, कुटिल, काइयां और राजनीतिबाज कहते नहीं थकते. एक ऐसे वीपी सिंह से जिसे मैं पहले नहीं जानता था. जो कवि है, चित्रकार है और जीवन के बारे में ऐसी बोली और मुहावरे में बात कर सकता है जो हमारी राजनीति ही नहीं सार्वजनिक जीवन में भी सुनाई नहीं देती.
लेकिन वह शायद विश्वनाथ जी में एक कवि और चित्रकार का अविष्कार नहीं था जो मुझे भीतर से छू गया. वह शायद एक ऐसे व्यक्ति की रचनात्मक ऊर्जा थी जो देख चुका है कि शाम घिरने लगी है. उजाले की कुछ घड़ियां डूबता सूरज अपने लिए छोड़ गया है. इन घड़ियों में कुछ ऐसा करो जो पहले दूसरे कई बुलावों, दबावों और मजबूरियों के कारण कर नहीं पाए. लेकिन इस ‘सब करने’ में कहीं कोई हताशा, कोई जल्दबाजी या हड़बड़ी नहीं है. कोई भय या लालच नहीं है. सृजन की अपनी एक लय होती है. वह काल और स्थान से उतनी संचालित नहीं होती, जितनी कि रचना के अपने उत्स से. उस शाम विश्वनाथ प्रताप सिंह में एक ऐसे सर्जक से मुलाकात हुई जो अपने आसपास की उठापटक, गहमागहमी और उखाड़-पछाड़ से ही नहीं अपने से चिपकी सत्ता, प्रसिद्धि और कीर्ति से भी ऊपर उठ गया हो.
जिस कमरे में बैठे हम बात कर रहे थे उसकी दीवारों पर विश्वनाथ के बनाए स्केच और पेंटिंग टंगे हुए थे. बीच में उनने एक कविता सुनाई थी जो ‘मैं और मेरा नाम’ पर थी और कुछ ऐसे शुरू हुई थी कि - एक दिन मेरा नाम मुझसे अलग होकर पूछने लगा... - इसे सुनते हुए मुझे लगा कि जैसे वे विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने से अलग हुआ देख चुके हैं और दुनिया के वीपी सिंह से अपने आत्म तत्व को अलग देखकर उससे संवाद कर रहे हैं.
थोड़ी बहुत कविता अपन ने पढ़ी है, उससे थोड़ी कम समझता भी हूं लेकिन सुख के हों या त्रास के, सबसे सघन क्षणों में मुझे कविता ही याद आती है. उस शाम विश्वनाथजी की वह कविता मुझे बहुत भायी और छू भी गई. वह शायद उनकी सबसे अच्छी कविता न हो. हाल ही में आए उनके कविता संग्रह ‘एक टुकड़ा धरती, एक टुकड़ा आकाश’ में वह है भी कि नहीं, मैंने देखने की कोशिश नहीं की. कई बार किसी मनःस्थिति विशेष में आप कोई कविता सुनें और तब उसका जो अर्थ आपके सामने खुले और वह आप को जितना छू जाए जरूरी नहीं कि वह हमेशा आप को वैसा ही लगे.
उस शाम मुझे मालूम था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह को ऐसा रोग है जिसका कोई उपचार नहीं. जो इलाज है या किया जाता है वह भी शरीर को कष्ट देकर नष्ट करने वाला ही है. उस रोग को माइलोमा कहा जाता है. इसमें रक्त के सफेद और लाल सेल्स मरने लगते हैं. हड्डियों के जोड़ों में जो बोन मैरो होते हैं और जहां से सेल्स बनते हैं वही बिगड़ जाता है.
ढाई साल पहले अमेरिका के डॉक्टरों ने उनकी जांच करके कीमोथैरेपी जैसा करने को कहा था. लेकिन ब्रिटेन के डॉक्टरों ने उनकी जांच रपटें देखकर कहा कि जो उपचार रोग बहुत बढ़ जाने पर किया जाता है, उस बमबारी को आप अभी से क्यों करते हैं. गड़बड़ी तो हो गई है लेकिन जरूरी नहीं कि आपके शरीर में भी उतनी तेजी से फैले जैसी दूसरे किसी के बदन में बढ़ सकती है. इसलिए देखिए कि रोग क्या करता है. कीमोथैरेपी तो अंतिम उपचार है, उससे शुरुआत क्यों करनी चाहिए? हमारी राय है कि अभी आप निगरानी में रहें.
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वापस लौटकर बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बता दिया था कि उन्हें क्या रोग है और उन्हें क्या-क्या सावधानियां बरतने के लिए कहा गया है. लेकिन, राजनीति में रहते और करते हुए जीवन शैली इस तरह बदली तो नहीं जा सकती. अपने रोग के बारे में कितनी जानकारी उनने कर ली है इसका साक्षात दर्शन उस दोपहर को डॉक्टरों के सामने हुआ जब वे बाईपास के बाद मुझे देखने बंबई अस्पताल आए. कुछ जवान डॉक्टरों का उनकी मेडिकल जानकारी पर चकित होना जैसे उनके चेहरों पर छपा हुआ था.
उसी बातचीत के दौरान एक सीनियर डॉक्टर ने उस उपवास की बात बताई जिस पर वीपी सिंह मुंबई में बैठ गए थे. तब रक्त में उनकी शर्करा इकतालीस तक नीचे उतर गई थी जो कि खतरे का स्तर है. वे डॉक्टर दौड़े-दौड़े आए थे और उनने विश्वनाथजी को जबरदस्ती खिचड़ी खिलाई थी. तभी उनने राज की यह बात बताकर सबको स्तब्ध कर दिया था कि किसी ने उनसे टेलीफोन पर कहा था कि वीपी को मर जाने देने का वे कितना पैसा देंगे. वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री होते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह के राज में कई व्यापार घरानों और व्यापारियों में आतंक छा गया था. कोई चाहता था कि वह आतंक फैलाने वाला हमेशा के लिए शांत हो जाए.
उस आमरण उपवास के दौरान ही वीपी सिंह की शर्करा इतनी कम हो जाने के कारण उनके गुर्दे स्थायी रूप से खराब हो गए. फिर हुआ प्लाज्म सेल डिसक्रिसिया जिसका दूसरा नाम माइलोमा है. फिर भी वे राजनीति में सक्रिय रहे और आंध्र-कर्नाटक में जनता दल के जीतने के बाद उनने चुनावी राजनीति से पांच साल के संन्यास की घोषणा की. फतेहपुर की अपनी लोकसभा सीट से भी इस्तीफा दे दिया. कहा कि जब हमारी पार्टी मुश्किल में थी तब नहीं छोड़ा उसे. जब उसकी हालत कुछ बेहतर हुई तभी चुनावी राजनीति से संन्यास लिया.
फिर भी पिछले साल अगर वे बिहार और ओडीशा आदि के चुनाव अभियान में नहीं लगते और जैसा डॉक्टरों ने बताया था वैसा संयमित और नियमित गतिविधियों वाला जीवन जीते तो कुल हालत संभली हुई रहती. लेकिन उस चुनाव अभियान में उन्हें लगना पड़ा. उसी के दौरान उनने कहा था कि बिहार में हम जीतेंगे और इस बार लालू अपने बहुमत से आएंगे. लेकिन हम ओडीशा में हार जाएंगे. तब सारे चुनाव सर्वेक्षण और भविष्यवाणियां इससे उलट बातें कर रही थीं. नतीजे आए तो विश्वनाथ प्रताप सिंह सही निकले.
इस साल के लोकसभा चुनाव में वे न अभियान में सक्रिय रह सकते थे, न उनकी इच्छा थी. फिर भी जितना बना, किया. चुनाव के पहले उनने कहा था कि कांग्रेस तो हार जाएगी, लेकिन भाजपा जीतेगी नहीं. और परिवर्तन की ताकतें भाजपा को सरकार नहीं बनाने देंगी. आप जानते हैं कि तेरह पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बनाने और फिर पहले ज्योति बसु और फिर देवगौड़ा को उनका नेता बनाने में विश्वनाथ प्रताप सिंह की क्या भूमिका रही है. सही है कि यह मोर्चा उन्हीं को नेता बनाकर राजतिलक करना चाहता था. वे किसी भी सूरत में तैयार नहीं हुए. ‘नहीं, इस बार हम नहीं मानने वाले. पिछली बार जो हुआ सो हुआ. हम अपनी विश्वनीयता नहीं खोएंगे. फिर हंस कर कहा – आप ही लिखेंगे कि वीपी सिंह अविश्वसनीय है.’
‘वह तो वीपी सिंह ने मुझे बनवा दिया. नहीं तो अपनी तो कोई तैयारी थी ही नहीं. अपन कर्नाटक में ही ठीक थे’ – देवेगौड़ा ने विश्वास मत जीतने के बाद कहा. और अपन ने हंसकर सुझाया कि आप उत्तर भारत के लिए नए हैं. इसलिए राजनीति वीपी सिंह और चंद्रशेखर के लिए छोड़ दीजिए और स्वयं प्रशासन पर ध्यान दीजिए. बाद में वीपी सिंह को मैंने कहा कि देवेगौड़ा को मैं ऐसा कहकर आया हूं और उनने जवाब दिया कि देखिए, प्राइमिनिस्टिर को प्राइमिनिस्टर होना ही चाहिए. उनके लिए कोई और राज नहीं चला सकता. हमारी अब कतई इच्छा नहीं कि सरकार के काम में पड़ें. कोई काम करवाने, रुकवाने में हम नहीं पड़ेंगे. हम अपनी पेंटिंग करेंगे, कविता लिखेंगे और उन मामलों पर दो टूक बोलेंगे जो हमें ठीक लगते हैं. उन कामों में पड़ेंगे जो समाज को, राजनीति को बना सकते हैं.
लेकिन, अखबारों में पढ़ता हूं कि जिस सरकार को उनने बनवाया और जो उनके कहने से प्रधानमंत्री चुने गए - उस सरकार और प्रधानमंत्री से वे आजकल नाराज चल रहे हैं. क्योंकि देवेगौड़ा उनकी सुनते नहीं और सरकार उनका किया करती नहीं. इस उपेक्षा से चिढ़े हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार की आलोचना भी करते हैं और ऐसे मामले भी उठाते फिर रहे हैं जो इस सरकार और इस प्रधानमंत्री को शर्मिंदा करे. उन्हें सीख भी दी जा रही है कि जब वे संन्यास ले चुके तो राजनीति के मामलों पर अपने उच्च विचार क्यों प्रकट करते हैं. ‘मैंने चुनावी राजनीति से संन्यास लिया है. चुप होकर बैठ जाऊं तो क्या नागरिक होने की अपनी भूमिका भी निभा पाऊंगा?’ – वीपी सिंह पूछते हैं.
संन्यास एक तरह का, जेपी ने भी लिया था लेकिन वे भी राजनीति पर अपनी राय बेझिझक प्रकट करते थे. सत्ता राजनीति में लगे राजनेता और अखबार तब उनको भी ऐसी ही सीख देते थे. उनके संन्यास का मखौल उड़ाते थे. हमारे राजनीतिबाजों को यह रास नहीं आता कि कोई उससे बाहर रहते हुए भी उसे प्रभावित करे. इसीलिए सत्ता की तात्कालिक राजनीति इतनी खोखली और दिशाहीन है. जो दूर तक देख सकता है, दिशा दे सकता है, उसकी हमारी राजनीति में जगह नहीं है.
सन् नब्बे के बाद हमारी राजनीति को बुनियादी रूप से किसी ने बदला है तो वीपी सिंह ने. कांग्रेस को किसी एक राजनेता ने निराधार किया है तो उसी में से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने. लेकिन वे एक असाध्य रोग से दिन बचाते हुए रचनात्मक ऊर्जा में जी रहे हैं. जो मृत्यु से, कविता और चित्र से साक्षात्कार करके उसे अप्रासंगिक बनाता हुआ उस के पार जा रहा हो, उसकी सर्जनात्मक स्थितप्रज्ञता को भी थोड़ा समझिए. वह प्रणम्य है. (satyagrah.scroll.in)
-श्रवण गर्ग
कुछ लोगों को ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि देश में आपातकाल लगा हुआ है और इस बार क़ैद में कोई विपक्ष नहीं बल्कि पूरी आबादी है ? घोषित तौर पर तो ऐसा कुछ भी नहीं है। न हो ही सकता है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि पैंतालीस साल पहले जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने वाले जो लोग तब विपक्ष में थे उनमें अधिकांश इस समय सत्ता में हैं। वे निश्चित ही ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे।हालाँकि इस समय विपक्ष के नाम पर देश में केवल एक परिवार ही है।इसके बावजूद भी आपातकाल जैसा क्यों महसूस होना चाहिए ! कई बार कुछ ज़्यादा संवेदनशील शरीरों को अचानक से लगने लगता है कि उन्हें बुखार है।घरवाले समझाते हैं कि हाथ तो ठंडे हैं फिर भी यक़ीन नहीं होता।थर्मामीटर लगाकर बार-बार देखते रहते हैं।आपातकाल को लेकर इस समय कुछ वैसी ही स्थिति है।
देशअपने ही कारणों से ठंडा पड़ा हुआ हो सकता है पर कुछ लोगों को महसूस हो रहा है कि आपातकाल लगा हुआ है क्योंकि उन्हें लक्षण वैसे ही दिखाई पड़ रहे हैं।लोगों ने बोलना,आपस में बात करना, बहस करना ,नाराज़ होना सबकुछ बंद कर दिया है।किसी अज्ञात भय से डरे हुए नज़र आते हैं।मास्क पहने रहने की अनिवार्यता ने भी कुछ न बोलने का एक बड़ा बहाना पैदा कर दिया है।संसद-विधानसभा चाहे नहीं चल रही हो पर राज्यों में सरकारें गिराई जा रही हों ,पेट्रोल-डीज़ल के दाम हर रोज़ बढ़ रहे हों, अस्पतालों में इलाज नहीं हो रहा हो, किसी भी तरह की असहमति व्यक्त करने वाले बंद किए जा रहे हों और उनकी कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही हो, जनता इस सबके प्रति तटस्थ हो गई है। वह तो इस समय अपनी ‘प्रतिरोधक’ क्षमता बढ़ाने में लगी है जो कि आगे सभी तरह के संकटों में काम आ सके।
अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया की हालत तो असली आपातकाल से भी ज़्यादा ख़राब नज़र आ रही है ।वह इस मायने में कि आपातकाल में तो सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल का मीडिया पर आतंक था पर वर्तमान में तो वैसी कोई स्थिति नहीं है।जैसे-जैसे कोरोना के ‘पॉज़िटिव’मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं वैसे-वैसे मीडिया का एक बड़ा वर्ग और ज़्यादा ‘पॉज़िटिव’ होता जा रहा है।आपातकाल के बाद आडवाणी जी ने मीडिया की भूमिका को लेकर टिप्पणी की थी कि :’आपसे तो सिर्फ़ झुकने के लिए कहा गया था ,आप तो रेंगने लगे।’ आडवाणी जी तो स्वयं ही इस समय मौन हैं,उनसे आज के मीडिया की भूमिका को लेकर कोई भी प्रतिक्रिया कैसे माँगी जा सकती है ?
हम ऐसा मानकर भी अगर चलें कि देश के शरीर में बुखार जैसा कुछ नहीं है केवल उसका भ्रम है तब भी कहीं तो कुछ ऐसा हो रहा होगा जो हमारे लिए कुछ बोलने और नाराज़ होने की ज़रूरत पैदा करता होगा ! उदाहरण के लिए करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की पीड़ाओं को ही ले लें ! उसे लेकर व्यवस्था के प्रति जनता का गुमसुम हो जाना क्या दर्शाता है ? किसकी ज़िम्मेदारी थी उनकी मदद करना ? कभी ज़ोर से पूछा गया क्या ? सोनू सूद की जय-जयकार में ही जो कुछ व्यवस्था में चल रहा है उसके प्रति प्रसन्नता ढूँढ ली गई ?
सर्वोदय आंदोलन के एक बड़े नेता से जब पूछा कि वे लोग जो जे पी के आंदोलन में सक्रिय थे और आपातकाल के दौरान जेलों में भी बंद रहे इस समय प्रतिमाओं की तरह मौन क्यों हैं ? क्या इस समय वैसा ही ‘अनुशासन पर्व’ मन रहा है जैसी कि व्याख्या गांधी जी के प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावेजी ने आपातकाल के समर्थन में 1975 में की थी ? वे बोले : ‘कोई कुछ भी बोलना नहीं चाहता।या तो भय है या फिर अधिकांश संस्थाएँ सरकारी बैसाखियों के सहारे ही चल रही हैं।’ किसी समय के ‘कार्यकर्ता’ इस समय ‘कर्मचारी’ हो गए हैं।सत्तर के दशक के अंत में जब कांग्रेस में विभाजन का घमासान मचा हुआ था ,मैंने विनोबा जी के पवनार आश्रम (वर्धा) में उनसे पूछा था देश में इतना सब चल रहा है ‘बाबा’ कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते ? उन्होंने उत्तर में कहा था :’ क्या चल रहा है ? क्या सूरज ने निकलना बंद कर दिया है या किसान ने खेतों पर जाना बंद कर दिया ? जिस दिन यह सब होगा बाबा भी प्रतिक्रिया दे देंगे।’
आपातकाल के दिनों और उसके ख़िलाफ़ किए गए संघर्ष का स्मरण करते रहना और उस समय के लोगों की याद दिलाते रहना इसलिए ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि इस समय दौर स्थापित इतिहासों को बदलकर नए सिरे से लिखे जाने का चल रहा है।आपातकाल के जमाने की कहानियों को किसी भी पाठ्यपुस्तक में नहीं बताया जाएगा।गांधी की प्रतिमाएँ इसलिए लगाई जाती रहेंगी क्योंकि दुनिया में हमारी पहचान ही उन्हीं की छवि से है। आज की सत्ता के लिए गांधी का नाम एक राजनीतिक मजबूरी है, कोई नैतिक ज़रूरत नहीं।गांधी के आश्रम भी इसीलिए ज़रूरी हैं कि हम पिछले सात दशकों में ऐसे और कोई तीर्थस्थल नहीं स्थापित कर पाए। डर इस बात का नहीं है कि हमें बुखार नहीं है फिर भी बुखार जैसा लग रहा है।डर इस बात का ज़्यादा है कि सही में तेज बुखार होने पर भी हम कहीं बर्फ़ की पट्टियाँ रख-रखकर ही उसे दबाने में नहीं जुट जाएँ। जब बहुत सारे लोग ऐसा करने लगेंगे तब मान लेना पड़ेगा कि आपातकाल तो पहले से ही लगा हुआ था। बुखार और आपातकाल दोनों ही सूचना देकर नहीं आते। लक्षणों से ही समझना पड़ता है।वैसे भी अब किसी आपातकाल की औपचारिक घोषणा नहीं होने वाली है।सरकार भी अच्छे से जान गई है कि दुनिया के इस सबसे लम्बे तीन महीने के लॉक डाउन के दौरान एक सौ तीस करोड़ नागरिक स्वयं ही देश की ज़रूरतों के प्रति कितने समझदार और अपने कष्टों को लेकर कितने आत्मनिर्भर हो गए हैं !
कुछ बहुत अच्छी, कंपनियों की शुरुआत बुरे दौर में ही हुई थीं
पैडरैग बेल्टन
बिज़नस रिपोर्टर
जनरल मोटर्स, बर्गर किंग, सीएनएन, उबर और एयरबीएनबी में आख़िर कौन सी बात है जो एक जैसी है?
इन सब की स्थापना ऐसे वक़्त में हुई थी, जब कारोबार और अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बुरा समय चल रहा था.
जनरल मोटर्स की स्थापना साल 1908 में हुई थी, जब अमरीकी अर्थव्यवस्था साल 1907 के आर्थिक संकट के बाद उथल-पुथल के दौर से गुज़र रही थी.
इस बीच बर्गर किंग ने साल 1953 में पहली बार पैटी लॉन्च की. ये वो समय था, जब अमरीकी अर्थव्यवस्था एक बार फिर से मंदी का सामना कर रही थी.
साल 1980 में सीएनएन ने जब अपनी ब्रॉडकास्ट सर्विस शुरू की, तब भी अमरीका में महंगाई दर तक़रीबन 15 फ़ीसद की दर तक पहुंच चुकी थी.
ऊबर और एयरबीएनबी ने जब अपना कारोबार शुरू किया तो पूरी दुनिया 2007-09 के वित्तीय संकट से निकलने की कोशिश कर रही थी.
मुश्किल आर्थिक हालात
अमरीका के वॉशिंगटन स्थित बाइपार्टिज़न पॉलिसी सेंटर के फ़ेलो डैन स्ट्रैंगलर के अनुसार, ये वो उदाहरण हैं जो बताते हैं कि कुछ बहुत अच्छी, लंबे समय तक चलने वाली कंपनियों की शुरुआत बुरे दौर में ही हुई थीं.
उनका कहना है कि मुश्किल आर्थिक हालात ने उन्हें आने वाले सालों के लिए बेहद क़ाबिल बना दिया था.
वो कहते हैं, "अगर आप मंदी में काम शुरू करते हैं तो कंपनी को कामयाब बनाने के लिए आपको एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना होगा. आप ऐसे समय में ये कोशिश कर रहे होते हैं, जब आपको आसानी से पैसे का इंतज़ाम नहीं होता. जब बाज़ार में ग्राहक नहीं हों तो आप ग्राहक जुटाने की कोशिश कर रहे होते हैं."
हम यक़ीनन अर्थव्यवस्था और कारोबार के नज़रिये से एक बुरे वक़्त से गुज़र रहे हैं. इसके लिए ज़िम्मेदार कोरोना संकट और दुनिया भर में लगा लॉकडाउन है.
इतिहास गवाह है....
विश्व बैंक ने ये अनुमान लगाया है कि साल 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 5.2 फ़ीसद की गिरावट आएगी. द्वितीय विश्व युद्ध और साल 1946 के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्था ने ऐसा संकट नहीं देखा था.
अमरीका की अर्थव्यवस्था पहले से मंदी का सामना कर रही है और बैंक ऑफ़ इंग्लैंड का कहना है कि ब्रिटेन साल 1706 के बाद सबसे बड़ी आर्थिक गिरावट का गवाह बनने जा रहा है. इसका मतलब ये भी हुआ कि पिछले 314 सालों में ब्रिटेन ने ऐसे ख़राब आर्थिक हालात नहीं देखे थे.
लेकिन जैसा कि इतिहास बताता है, कामयाब कंपनियों की नींव बुरे वक़्त में ही रखी गई थी.
ऐसे में सवाल उठता है कि साल 2020 का उद्यमी वर्ग क्या ऐसी कंपनियों का नींव रख सकेगा जो आने वाले वक़्त में घर-घर में अपनी पहुंच बना सकेगा?
कोरोना संकट
कोविड-19 की महामारी के कारण या इसके बावजूद यक़ीनन कई नए कारोबार शुरू हो रहे हैं.
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि अकेले अमरीका में नई कंपनियों के गठन के लिए सिर्फ़ मई के आख़िरी हफ़्ते में 67,160 आवेदन फ़ाइल किए गए.
साल 2019 के इन्हीं सात दिनों की अवधि में फ़ाइल किए गए आवेदनों से ये आंकड़े 21 फ़ीसद ज़्यादा हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया सैंटा क्रूज़ में अर्थव्यवस्था के प्रोफ़ेसर रॉबर्ट फेयरली कहते हैं कि ये चलन कुछ हद तक इस वजह से भी बढ़ रहा है कि क्योंकि नौकरियों की तंगी है और बहुत से लोग इस वजह से कारोबार शुरू कर रहे हैं.
रॉबर्ट फेयरली इसे आवश्यकता से जन्मी उद्यमवृति कहते हैं, "अगर किसी को सैलेरी वाली नौकरी नहीं मिल रही है तो अपनी कंपनी शुरू के लिए मोटीवेट होने की एक वजह ये भी होती है."
आपदा में अवसर
मुमकिन है कि कारोबारियों का एक तबक़ा कुछ समय से अपने बिज़नेस आइडिया पर काम कर रहा हो.
प्रोफ़ेसर फेयरली कहते हैं, "लॉकडाउन की वजह से लोगों को सोचने के लिए वक़्त मिला है. हो सकता है कि बिज़ी शेड्यूल के समय भी उन्होंने इस बारे में सोचा हो लेकिन उन्हें लगा होगा कि चलो इस पर काम करके देखते हैं."
कुछ अन्य स्टार्ट-अप्स ने ये समझा कि कोरोना संकट ने उन्हें कारोबार का अवसर दिया है और इससे महामारी को मात देने में वे मदद कर सकते हैं.
पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट्स (पीपीई किट्स) बनाने वाले कारोबारियों के साथ ये बात ख़ास तौर पर खरी उतरती है.
पिछले कुछ महीनों में तो कई कंपनियां आपूर्ति की कमी को पूरा करने के लिए वजूद में आई हैं.
नए कारोबार
मैथ्यू कैम्पबेल-हिल और उनकी पत्नी लीडिया ने 'एरोसॉल शील्ड' का अपना बिज़नेस अप्रैल में शुरू किया था.
उनका ये उत्पाद मेडिकल स्टाफ़ को मरीज़ों के कफ़ से बचाने के लिए है.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्मिंघम के क्लिनिकल साइंस इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो मैथ्यू कहते हैं, "कारोबार शुरू करने के छह दिन के भीतर ही हमें बड़ी मात्रा में ऑर्डर मिलने लगे थे."
ये शील्ड बनाने के लिए मैथ्यू और लीडिया ने सेना और दूसरी सहायता एजेंसियों के लिए टेंट बनाने वाली एक कंपनी के साथ कुछ दिनों तक काम किया था.
ब्रिटेन में कोरोना संकट के दौर में 'हिडेन स्माइल' नाम से एक फ़ेस मास्क लॉन्च किया गया. बिज़नेसमैन नील कॉटन की कंपनी के इस फ़ेस मास्क में कॉटन के दो सतहों के बीच मुड़ा हुआ पेपर फ़िल्टर लगाया गया है.
नील कॉटन बताते हैं, "आपको बार-बार फ़िल्टर बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ती है क्योंकि न तो ये मुंह से निकलने वाले भाप से और न ही बाहर की हवा से इसका ज़्यादा संपर्क होता है."
लॉकडाउन
कोरोना संकट के दौर में कुछ और भी उद्योग हैं जिनके कारोबार में तेज़ उछाल देखने में आया. इनमें घरेलू सुविधाओं और डिलेवरी सेक्टर में सेवाएं मुहैया कराने वाले स्टार्ट-अप्स शुरू हुए.
साल 2018 में अमरीका में पेंट का कारोबार शुरू करने वाली निकोल गिबंस का धंधा लॉकडाउन के दौरान चमक गया.
वे कहती हैं, "आम तौर पर सप्ताहांत में लोग खाने-पीने का कार्यक्रम बनाते हैं न कि घरों को पेंट करने का. लेकिन अब वे कुछ करना चाहते हैं और उन्हें घर सजाने का बुख़ार चढ़ गया है."
लंदन की कूरियर कंपनी गोफ्र का बिज़नेस पिछले दो महीने में सबसे व्यस्त रहा. कंपनी का कहना है कि लॉकडाउन के दौर में लोगों को ऑनलाइन शॉपिंग का चस्का लग गया है.
वे लोग जो अपना बिज़नेस शुरू करने की सोच रहे हैं, मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फ़र्म मैकिंज़े के पार्टनर मार्कस बर्गर डे लियोन उन्हें सलाह देते हैं कि फ़ैसला करने से पहले सोचने के लिए पूरा वक्त लें. और अगर आप बिज़नेस शुरू करने का फ़ैसला लेते हैं तो फुर्ती से काम करें.(www.bbc.com)
-सिन्धुवासिनी
आइसलैंड की मशहूर पॉप गायिका बियर्क ने एक बार कहा था, “मुझे लगता है कि पुरुष और महिला में से एक को चुनना केक और आइसक्रीम में से किसी एक को चुनने जैसा है. इनके इतने अलग-अलग तरह के फ़्लेवर उपलब्ध होने के बावजूद सबको न आज़माना बेवकूफ़ी होगी.
बियर्क ने जो कहा वो कुछ लोगों के लिए थोड़ा 'बेमतलब' हो सकता है लेकिन यहां उनका इशारा ‘बाइसेक्शुअलिटी’ की तरफ था.
जो लोग पुरुषों और महिलाओं दोनों से यौन आकर्षण महसूस करते हैं उन्हें बाइसेक्शुअल कहा जाता है.
जब हम एलजीबीटीक्यूआई समुदाय की बात करते हैं तो इसमें शामिल ‘बी’ का मतलब बाइसेक्शुअल होता है.
एक लड़की का बाइसेक्शुअल होना
दिल्ली में रहने वाली 26 साल की गरिमा भी ख़ुद को बाइसेक्शुअल मानती हैं. वो लड़कियों और लड़कों से समान यौन आकर्षण महसूस करती हैं और दोनों को डेट कर चुकी हैं.
गरिमा बताती हैं, 'जब मैंने पहली बार एक लड़की को किस किया तो मुझे वो लम्हा उतना ही ख़ूबसूरत लगा जितना पहली बार लड़के को किस करने पर लगा था. मैंने सोचा कि अगर ये इतना सहज है तो लोग इसे अप्राकृतिक क्यों कहते हैं!'
गरिमा ने ख़ुद को तो बड़ी आसानी और निडरता के साथ स्वीकार कर लिया था लेकिन इसे दूसरों को समझाना उनके लिए उतना ही मुश्किल था.
वो कहती हैं, “हमारे समाज में लड़कियों का अपनी सेक्शुअलिटी ज़ाहिर करना अपने-आप में ही काफ़ी मुश्किल होता है. आपसे ऐसे बर्ताव करने की उम्मीद की जाती है, जैसे आपमें यौन इच्छाएं ही नहीं हैं. ऐसे में आपके लड़के और लड़की दोनों को पसंद करने की बात तो लोग बिल्कुल स्वीकार नहीं कर पाते.”
गरिमा को लड़कियां किशोरावस्था से ही अच्छी लगती थीं लेकिन वो कभी इस बारे में ज़्यादा सोच नहीं पाईं.
वो कहती हैं, 'हमारे आस-पास के माहौल में किसी और सेक्शुअलिटी का न तो कोई ज़िक्र होता है और न कोई चित्रण. फ़िल्मों और कहानियों से लेकर विज्ञापनों तक, हर जगह सिर्फ़ एक महिला और पुरुष को ही साथ दिखाया जाता है. ऐसे में हम ये मान लेते हैं कि सिर्फ़ वही सही है और सिर्फ़ वही नॉर्मल.”
कॉलेज के फ़र्स्ट इयर में आते-आते गरिमा एलजीबीटीक्यू समुदाय के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ और समझ चुकी थीं. उन्हें ये भी पता चल चुका था कि लड़कों और लड़कियों दोनों से आकर्षित होना नॉर्मल है. इसी बीच अपने पहले बॉयफ़्रेंड से ब्रेकअप होने के बाद उन्होंने एक लड़की को डेट करना शुरू किया और तब जाकर वो अपनी सेक्शुअलिटी को स्वीकार कर पाईं.
मगर गरिमा फिर दुहराती हैं कि एक संकुचित समाज में किसी लड़की का बाइसेक्शुअल पहचान के साथ जीना आसान नहीं है.
बाहरी दुनिया तो दूर, ख़ुद एलजीबीटी समुदाय के भीतर बाइसेक्शुअल लोगों को लेकर कई तरह की शंकाएं और ग़लत अवधारणाएं हैं. नतीजन, उन्हें समुदाय के भीतर भी कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.
वफ़ादारी और चरित्र पर सवाल
गरिमा कहती हैं कि एलजीबीटी समुदाय के बहुत से लोगों को भी ये लगता है कि बाइसेक्शुअल लोग रिश्ते में वफ़ादार नहीं होते. लोग मानते हैं कि बाइसेक्शुअल लोगों को पुरुषों और महिलाओं दोनों से आकर्षण होता है इसलिए वो अपनी सुविधा के हिसाब से रिश्ते तय करते हैं.
उन्होंने बताया, 'आम तौर पर लेस्बियन लड़की किसी बाइसेक्शुअल लड़की के साथ रिश्ते में नहीं आना चाहती क्योंकि उसे लगता है कि बाइसेक्शुअल लड़की उसे डेट ज़रूर करेगी लेकिन जब शादी करने या ज़िंदगी भर साथ निभाने की बात आएगी तो वो अपनी सुविधा और समाज के उसूलों के मुताबिक़ किसी लड़के का हाथ थाम लेगी. ऐसा ही कुछ बाइसेक्शुअल लड़कों के बारे में भी सोचा जाता है.”
इतना ही नहीं, बाइसेक्शुअल लोगों को कई बार ‘लालची’ और ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जो रिश्ते में कमिटमेंट नहीं करना चाहते, किसी एक जगह टिकना नहीं चाहते लेकिन डेट सबको करना चाहते हैं.
गरिमा कहती हैं, 'हमसे ये भी कहा जाता है कि हम अपनी सेक्शुअलिटी के लेकर भ्रमित हैं और ये महज एक दौर है जो बीत जाएगा. हम जैसे हैं, हमें वैसे स्वीकार नहीं किया जाता बल्कि हमेशा शक़ भरी निगाहों से देखा जाता है.'
बाइसेक्शुअल लड़कियों को पुरुष वर्ग कई बार महज सेक्शुअल फ़ैंटेसी से जोड़कर देखता है.
गरिमा बताती हैं, 'मैं अपनी सेक्शुअलिटी के बारे में खुलकर बात करती हूं और इसी वजह से लोग मेरे बारे में कई धारणाएं गढ़ लेते हैं. लड़के मुझे सोशल मीडिया पर भद्दे मैसेज भेजते हैं. शायद उन्हें लगता है कि बाइसेक्शुअल लड़की किसी के भी साथ सोने को तैयार हो जाएगा. वो सहमति और पसंद-नापसंद के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते.'
सोनल ज्ञानी
फ़िल्ममेकर और एलजीबीटी राइट्स एक्टिविस्ट सोनल ज्ञानी (32 साल) का मानना है कि एलजीबीटी समुदाय के भीतर लोगों पर किसी न किसी रूप में ये दबाव होता है कि या तो वो ख़ुद को गे मानें या लेस्बियन.
सोनल कहती हैं कि बाइसेक्शुअलिटी के बारे में बात करने में लोग बहुत ज़्यादा सहज नहीं होते. इसीलिए कई बार बाइसेक्शुअल लोग दबाव के कारण ख़ुद को गे या लेस्बियन बताते हैं.
समुदाय के भीतर बाइसेक्शुअलिटी को यूं जानबूझकर नज़रअंदाज़ करने को जेंडर स्टडी की भाषा में बाइसेक्शुअल इरेज़र (Bisexual erasure) कहते हैं.
ख़ुद को बाइसेक्शुअल मानने वाली सोनल कहती हैं कि एलजीबीटी समुदाय के लोग भी इसी समाज का हिस्सा हैं और वो भी भेदभाव की भावना से मुक्त नहीं हैं.
वो कहती हैं, 'मीडिया और पॉपुलर कल्चर में बाइसेक्शुअलिटी को ना के बराबर जगह मिलती है. समलैंगिकता के मुद्दे पर अब धीरे-धीरे फ़िल्में और वेबसिरीज़ बनने लगी हैं लेकिन बाइसेक्शुअलिटी अभी इस चर्चा से बहुत दूर है.'
सोनल अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि कैसे बहुत बार उन्हें अपनी महिला पार्टनर के साथ देखकर लेस्बियन बता दिया गया जबकि वो खुले तौर पर ख़ुद को बाइसेक्शुअल बताती हैं.
वो कहती हूं, 'कई अख़बारों और चैनलों ने मुझे लेस्बियन लिखा जबकि मैंने उन्हें बार-बार बताया कि मैं बाइसेक्शुअल हूं. अगर मैं किसी पुरुष के साथ दिखूंगी तो वो मुझे स्ट्रेट समझेंगे और महिला के साथ नज़र आने पर मुझे लेस्बियन कहा जाएगा. मेरी बाइसेक्शुअलिटी को कहीं न कहीं नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.'
बाइसेक्शुअल मतलब पॉर्न और फ़ैटेंसी नहीं
सोनल का मानना है किसी लड़की के लिए ख़ुद की बाइसेक्शुअल पहचान को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना बहुत साहस भरा कदम होता है.
वो कहती हैं, “कई बार लोग बाइसेक्शुअल लड़कियों को पॉर्न से जोड़कर देखते हैं और उनके चरित्र पर सवाल उठाते हैं. ऐसे में ये लड़कियों की सुरक्षा से जुड़ा मसला भी बन जाता है. यही वजह है कि बाइसेक्शुअल लड़कियां अब भी खुलकर सामने नहीं आ पातीं.''
युवा क्वियर एक्टिविस्ट धर्मेश चौबे एक और महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाते हैं.
वो मानते हैं कि समाज बड़ी चतुराई से बाइसेक्शुअल पुरुषों और महिलाओं की यौनिकता को अपनी सुविधा के हिसाब से और अलग-अलग दलीलें देकर ख़ारिज करने की कोशिश करता है.
धर्मेश कहते हैं, “बाइसेक्शुअल लड़कियों के बारे में ये माना जाता है कि वो स्ट्रेट ही हैं, बस थोड़ा ‘सेक्शुअल एडवेंचर’ कर रही हैं. वहीं, बाइसेक्शुअल पुरुषों के बारे में माना जाता है कि वो गे हैं लेकिन अपनी समलैंगिकता छिपाने के लिए बाइसेक्शुअल होने के बहाना कर रहे हैं. इसका मतलब ये हुआ कि पितृसत्तात्मक समाज में औरतों की यौनिकता कुछ ख़ास मायने नहीं रखती. कुल मिलाकर उनसे यही उम्मीद की जाती है कि वो पुरुषों की इच्छाओं का ख़याल रखें.'
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‘टेक मी ऐज़ आई एम’
इतनी मुश्किलों के बाद भी भारत में बाइसेक्शुअल लड़कियां धीरे-धीरे ही सही मगर खुलकर बाहर आने लगी हैं. ख़ासकर, जून के इस महीने (प्राइड मंथ) में कई लड़कियों ने सोशल मीडिया पर बेहिचक अपनी सेक्शुअलिटी को कबूला है.
जून महीने को एलजीबीटी समुदाय ‘प्राइड मंथ’ के तौर पर मनाता है. इस दौरान वो अपने संघर्षों, इच्छाओं और उपलब्धियों के बारे में बात करते हैं.
यही वजह है कि इस समय युवा बाइसेक्शुअल लड़कियां भी कई सामाजिक बेड़ियों को तोड़ती हुई नज़र आ रही हैं. वो मांग कर रही हैं कि उनकी बाइसेक्शुअलिटी को स्वीकार किया जाए, वो जैसी हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार किया जाए.
सितंबर, 2018 में जब भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध ठहराने वाली आईपीसी की धारा 377 को निरस्त कर दिया था. तब तत्कालीन सीजेआई जस्टिस दीपक मिश्रा ने अदालत का फ़ैसला पढ़ते हुए जर्मन लेखक योहन वॉफ़गैंग को याद किया था. जस्टिस मिश्रा ने कहा था-आई एम वॉट आई एम, सो टेक मी ऐज़ आई एम (I am what I am, so take me as I am). (bbc.com/hindi)
-श्रवण गर्ग
पच्चीस जून, 1975 का दिन। पैंतालीस साल पहले।देश में 'आपातकाल' लग चुका था। हम लोग उस समय 'इंडियन एक्सप्रेस' समूह की नई दिल्ली में बहादुरशाह जफ़ऱ मार्ग स्थित बिल्डिंग में सुबह के बाद से ही जमा होने लगे थे।किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। इंडियन एक्सप्रेस समूह तब सरकार के मुख्य निशाने पर था। उसके प्रमुख रामनाथ गोयंनका इंदिरा गांधी से टक्कर ले रहे थे। वे जे पी के नज़दीकी लोगों में एक थे। उन दिनों मैं प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र, जयंत मेहता, मंगलेश डबराल आदि के साथ 'प्रजनीति' हिंदी साप्ताहिक में काम करता था।शायद उदयन शर्मा भी साथ में जुड़ गए थे। जयप्रकाशजी के स्नेही प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' प्रधान सम्पादक थे पर काम प्रभाष जी के मार्गदर्शन में ही होता था। मैं चूँकि जे पी के साथ लगभग साल भर बिहार में काम करके नई दिल्ली वापस लौटा था, पकड़े जाने वालों की प्रारम्भिक सूची में मेरा नाम भी शामिल था। वह एक अलग कहानी है कि जब पुलिस मुझे पकडऩे गुलमोहर पार्क स्थित एक बंगले में गैरेज के ऊपर बने मेरे एक कमरे के अपार्टमेंट में पहुँची तब मैं साहित्यकार रमेश बक्षी के ग्रीन पार्क स्थित मकान पर मौजूद था।वहाँ हमारी नियमित बैठकें होतीं थीं। कमरे पर लौटने के बाद ही सबकुछ पता चला।मकान मालिक 'दैनिक हिंदुस्तान' में वरिष्ठ पत्रकार थे।उन्होंने अगले दिन कमरा खाली करने का आदेश दे दिया।वह सब एक अलग कहानी है। बहरहाल, अगले दिन एक्सप्रेस बिल्डिंग में जब सबकुछ अस्तव्यस्त हो रहा था और सभी बड़े सम्पादकों के बीच बैठकों का दौर जारी था, जे पी को नजऱबंद किए जाने के लिए दिए गए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के आदेश की कॉपी अचानक ही हाथ लग गई। उस जमाने में प्रिंटिंग की व्यवस्था आज जैसी आधुनिक नहीं थी। फोटोग्राफ और दस्तावेजों के ब्लॉक बनते थे। जे पी की नजरबंदी के आदेश के दस्तावेज का भी प्रकाशन के लिए ब्लॉक बना था। मैंने चुपचाप एक्सप्रेस बिल्डिंग के तलघर की ओर रुख़ किया जहाँ तब सभी अख़बारों की छपाई होती थी।वह ब्लॉक वहाँ बना हुआ रखा था। मैंने हाथों से उस ब्लॉक पर स्याही लगाई और फिर एक कागज को उसपर रखकर आदेश की प्रति निकाल पॉकेट में सम्भाल कर रख लिया।पिछले साढ़े चार दशक से उस कागज को सहेजे हुए हूँ।इस बीच कई काम, मालिक, शहर और मकान बदल गए पर जो कुछ कागज तमाम यात्राओं में बटोरे गए वे कभी साथ छोड़कर नहीं गए।बीता हुआ याद करने के लिए जब लोग कम होते जाते हैं, ये कागज के कीमती पुर्जे ही स्मृतियों को सहारा और सांसें देते हैं। नीचे चित्र में जे पी की नजरबंदी के आदेश की फोटो छवि।
उसके बिना दवा कहां से लाएगा भारत ?
नितिन श्रीवास्तव बीबीसी संवाददाता
क्या आपको डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर, थाइरॉइड या गठिया जैसे किसी बीमारी के लिए दवा खानी पड़ती है?
क्या आपके किसी जानने वाले का कोलेस्ट्रोल बढ़ने पर डॉक्टर ने उसे चंद हफ़्तों की दवा का कोर्स कराया है क्योंकि इसका बढ़ना हार्ट के लिए अच्छा नहीं होता.
आपमें बहुतों ने सर्दी, खाँसी या बुखार के दौरान पैरासिटामोल वाली कोई न कोई दवा ज़रूर खाई होगी. ज़्यादा दिन वायरल या इंफ़ेक्शन रहने पर डॉक्टर ने आपको एंटिबायोटिक का कोर्स कराया होगा.
हो सकता है आपके घर, रिशेतदारी, पड़ोस या दफ़्तर में किसी को कैंसर हुआ हो और उनके इलाज में कीमोथेरेपी का सहारा लिया गया हो.
अगर किसी में भी हाँ, है तो इस बात की संभावना ज़्यादा है कि इनमें से कई दवाओं में भारत के पड़ोसी चीन का भी गहरा योगदान हो.
भारत-चीन विवाद
ये पड़ताल इसलिए हो रही है क्योंकि एक-दूसरे से गहरे व्यापारिक संबंध रखने वाले इन दोनों पड़ोसियों में इन दिनों अप्रत्याशित तनाव चल रहा है.
पिछले कई हफ़्तों से लद्दाख क्षेत्र में दोनों देशों की सीमा- वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी), पर जारी तनाव बढ़ता गया और आख़िरकार गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच 'घंटों चली हाथापाई और झड़प में 20 भारतीय सैनिकों की मौत हुई और 76 अन्य घायल हुए.
चीन की तरफ़ से अभी तक हताहतों या घायलों पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है.
मामला गर्म इसलिए भी हुआ कि पूरे 45 साल बाद एलएसी पर दूसरे देश की फ़ौज के हाथों किसी भारतीय सैनिक की जान गई.
भारत में घटना की निंदा होने के साथ ही चीन से आयात होने वाली वस्तुओं के बहिष्कार और बैन की मांग बढ़ने लगी जबकि केंद्र सरकार ने अभी इस तरह के किसी फ़ैसले की बात नहीं कही है.
भारत के रेल और टेलिकॉम मंत्रालयों ने भविष्य में होने कुछ आयात पर रोक लगाने की ओर इशारा ज़रूर किया है.
इस बीच कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) ने बहिष्कार किए जाने वाले 500 से अधिक चीनी उत्पादों की सूची भी जारी की है.
भारत के कई शहरों में चीनी सामान का बहिष्कार करने वाले विरोध-प्रदर्शन भी हुए.
चीन की दवाई भारत में
पिछले दो दशकों में भारत और चीन के बीच का व्यापार 30 गुना बढ़ा है. यानी जहाँ 2001 में कुल व्यापार तीन अरब डॉलर का था तो 2019 आते-आते ये 90 अरब डॉलर छू रहा था.
इस व्यापार में जिन चीज़ों की मात्रा तेज़ी से बढ़ी है उनमें दवाइयाँ शामिल हैं. ख़ासतौर से पिछले एक दशक के दौरान जब दवाइयों के आयात में 28% का उछाल दर्ज किया गया.
भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि 2019-20 के दौरान भारत ने चीन से 1,150 करोड़ रुपए के फ़ार्मा प्रॉडक्ट्स आयात किए जबकि इसी दौरान चीन से भारत आने वाले कुल आयात क़रीब 15,000 करोड़ रुपए के थे.
बात दवाओं की हो तो जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात में भारत अव्वल है. साल 2019 में भारत ने 201 देशों से जेनेरिक दवाई बेची और अरबों रुपए की कमाई की.
लेकिन आज भी भारत इन दवाओं को बनाने के लिए चीन पर निर्भर है और दवाओं के प्रोडक्शन के लिए चीन से एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आयात करता है. इसे दवाइयां बनाने का कच्चा माल या बल्क ड्रग्स के नाम से जाना जाता है.
इंडस्ट्री के जानकार बताते हैं कि भारत में दवा बनाने के लिए आयात होने वाली कुल बल्क ड्रग्स या कच्चे माल में से 70% तक चीन से ही आता है.
चीन की निर्यात स्ट्रैटिजी पर "कम्पिटिटिव स्टडीज़: लेसन्स फ़्रोम चाइना" नाम की किताब के लेखक और गुजरात फ़ार्मा एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयमन वासा का मानना है, "इस तथ्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि चीन से आयात किए बिना हमें दिक्क़त हो सकती है."
उन्होंने बताया, "भारत सरकार जब तक ज़्यादा से ज़्यादा फ़ार्मा पार्क या ज़ोन नहीं बनाएगी तब तक चीन की बराबरी करना मुश्किल है क्योंकि उनका शोध बेहद ठोस है. इस बराबरी तक पहुँचने में हमें कई साल लग जाएंगे."
हक़ीक़त यही है कि भारत में एपीआई (API) का उत्पादन बहुत कम है और जो एपीआई भारत में बनाया जाता है उसके फ़ाइनल प्रोडक्ट बनने के लिए भी कुछ चीज़ें चीन से आयात की जाती हैं.
यानी भारतीय कंपनियां एपीआई या बल्क ड्रग्स प्रोडक्शन के लिए भी चीन पर निर्भर हैं.
अंतरराष्ट्रीय फ़ार्मा एलायंस के सलाहकार और जायडस कैडिला ड्रग कंपनी के पूर्व मैन्यूफ़ैकचरिंग प्रमुख एसजी बेलापुर के मुताबिक़, "चीन से बल्क ड्रग (API) आयात करने की प्रमुख वजह कम क़ीमत है. वहाँ से आने वाली बल्क ड्रग की क़ीमत दूसरे देशों को तुलना में 30 से 35% कम होती है (इसमें भारत भी शामिल है) और ऐंटिबयोटिक या कैंसर के इलाज की दवाओं के मामले में तो भारत चीन पर ज़्यादा निर्भर है".
तो डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर, थाइरॉड, गठिया, वायरल इंफ़ेक्शंस के लिए कच्चा माल या फिर कई प्रकार के सर्जिकल औजार और मेडिकल मशीनें, चीन से भारत आयात होने वाले फ़ार्मा उत्पादों की फ़ेहरिस्त लंबी है.
विशेषज्ञों की मानें तो भारत में पेनसिलिन और ऐजिथ्रोमायसीन जैसी एंटिबायोटिक्स के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली 80 फ़ीसदी बल्क ड्रग या कच्चे माल का आयात चीन से होता है.
बिजली की भूमिका
चीन में दवाओं के निर्माताओं से लगातार मिलने वाले और ड्रग रिसर्च मैन्युफ़ैक्चरिंग के विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग हितकारी का कहना है कि, "चीन से बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात की बड़ी वजह दवा के दामों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखना है."
उन्होंने कहा, "एपीआइ या बल्क ड्रग्स के उत्पादन में बिजली का बड़ा योगदान रहता है. हाल कुछ समय पहले तक चीन में बिजली की क़ीमत भारत की तुलना में बहुत कम थी जिससे पूरी लागत कम आती थी. दूसरे, चीन की फ़ार्मा इंडस्ट्री देश की यूनिवर्सिटीज में होने वाले निरंतर शोध से जुड़ी रहती हैं जो दवा बनाने की रीढ़ की हड्डी माना जाता रहा है. किसी नई रिसर्च के होते ही उसे उत्पादन के उपयोग में लाने में उन्हें महारथ है."
ज़ेज़ियांग, गुआंगडांग, शंघाई, जियांगसू, हेबेयी, निंगशिया, हारबिन जैसे कुछ चीनी प्रांत है जहाँ से दवाओं को बनाने वाली बल्क ड्रग्स भारत आयात करता है.
डॉक्टर अनुराग ने बताया, "इस कच्चे माल को इन प्रांतों से बीजिंग, शंघाई या हॉन्ग कॉन्ग के बंदरगाहों से ज़रिए भारत लाया जाता है".
रहा सवाल चीन से आने वाली 'सस्ती बल्क ड्रग्स' और उनकी क्वालिटी का, तो जायडस कैडिला ड्रग कम्पनी के पूर्व मैन्यूफ़ैकचरिंग प्रमुख एसजी बेलापुर ने कहा, "पहले तो कोई दिक्क़त नहीं होती थी लेकिन अब भारतीय ख़रीदारों को इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि वेंडर्स कौन हैं".
उनके मुताबिक़, "ऐहतियात न बरतने पर कभी-कभी कच्चे माल की गुणवत्ता बेहद ख़राब भी हो सकती है."
ऐसा नहीं है कि सीमा पर तनाव के चलते भारत में चीन से आयात होने वाली चीज़ों पर निर्भरता कम करने की मांग पहली बार उठ रही है.
2017 में भी दोनों देशों के सैनिकों के बीच डोकलाम में अच्छी-ख़ासी हाथापाई होने के बाद सीमा पर तनाव फैल गया था. तब भी चीन पर इस तरह की पाबंदी लगाने की बात होने लगी थी.
भारत के फ़ार्मा उद्योग से भी इस तरह के स्वर सुनाई दिए थे जिनमें कहा गया था कि देश में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आत्म-निर्भरता लाने की ज़रूरत है लेकिन आँकड़े इशारा करते हैं कि आयात में कोई कमी नही आई.
2019 में जब चीन के वुहान प्रांत से कोरोना वायरस के संक्रमण और फिर लॉकडाउन की ख़बरें आनी शुरू हुईं तो भारतीय फ़ार्मा क्षेत्र में भी हड़कंप मच गया था क्योंकि बिना बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात के जेनेरिक दवाओं का उत्पादन भी संभव नहीं.
गुजरात फ़ार्मा एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयमन वासा की राय साफ़ है, "अगर मैं कहूँ कि कोविड-19 की चुनौती मुश्किल समय में भारतीय फ़ार्मा सेक्टर के लिए एक बड़ा मौक़ा है तो ग़लत नहीं होगा. दवाओं के मामले में हमें चीन पर निर्भरता काम करनी है और इसके लिए सरकार की मदद भी ज़रूरी है."
एक सवाल ये भी उठता है कि अगर भारत को बल्क ड्रग्स आत्म-निर्भर बनने में एक लंबा समय लगता है तो क्या तब तक चीन के अलावा दूसरे विकल्प मौजूद हैं?
अंतरराष्ट्रीय फ़ार्मा एलायंस के सलाहकार एसजी बेलापुर की राय है कि, "अगर भारत को दवाई के क्षेत्र में चीन से आयात कम करना है तो स्पेन, इटली, स्विटज़रलैंड और कुछ दक्षिण अमरीकी देशों से इन ही आयात करना पड़ेगा. अब क्योंकि वो महँगे हैं तो दवाओं की क़ीमत भी बढ़ेगी."
आख़िरकार, भारत में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) यानी बल्क ड्रग्स के भूत और भविष्य पर बात करते हुए ड्रग रिसर्च मैन्युफ़ैक्चरिंग विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग हितकारी ने कहा, "भारत में प्रदूषण संबंधी क्लियेरेंस कई स्तर पर लेने पड़ते थे जिसमें राज्य, केंद्र सरकार, पर्यावरण मंत्रलाय सभी के पास जाना पड़ता था".
उन्होंने आगे बताया, "कच्चा माल या बल्क ड्रग बनाने की सोचने वाले छोटे और लघु उद्योग इस जटिल प्रक्रिया से बचते रहे. अब चीज़ें बेहतर हो रहीं हैं क्योंकि प्रदूषण क्लियेरेंस लेने की प्रक्रिया में ज़रूरी संशोधन हुए हैं". (www.bbc.com)
‘सबको सूचित कर दीजिए कि अगर मासिक लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ वेतन रुक जाएगा बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी होगा। सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मुझे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें।’
यह टेलीग्राफ से भेजा गया एक संदेश है। इसे आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने अपने मातहतों को भेजा था। जिस लक्ष्य की बात की गई है वह नसबंदी का है। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि नौकरशाही में इसे लेकर किस कदर खौफ रहा होगा।
आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जोर-शोर से नसबंदी अभियान चलाया था। इस पर जोर इतना ज्यादा था कि कई जगह पुलिस द्वारा गांवों को घेरने और फिर पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी करने की भी खबरें आईं। जानकारों के मुताबिक संजय गांधी के इस अभियान में करीब 62 लाख लोगों की नसबंदी हुई थी। बताया जाता है कि इस दौरान गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई।
1933 में जर्मनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था। इसके लिए एक कानून बनाया गया था जिसके तहत किसी भी आनुवंशिक बीमारी से पीडि़त व्यक्ति की नसबंदी का प्रावधान था। तब तक जर्मनी नाजी पार्टी के नियंत्रण में आ गया था। इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवंशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जर्मनी इंसान की सबसे बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से मुक्त होगी। बताते हैं कि इस अभियान में करीब चार लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी।
लेकिन संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए?
दरअसल ऐसा कई चीजों के समय के एक मोड़ पर मिलने से मुमकिन हुआ था। इनमें पहली थी संजय की कम से कम समय में खुद को प्रभावी नेता के तौर पर साबित करने की महत्वाकांक्षा। दूसरी, परिवार नियोजन को और असरदार बनाने के लिए भारत पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से पड़ता दबाव। तीसरी, जनसंख्या नियंत्रण के दूसरे तरीकों की बड़ी विफलता और चौथी आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति।
25 जून 1975 को आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संजय गांधी के बारे में यह साफ हो गया था कि आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वही संभालेंगे। संजय भी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे। उस समय वृक्षारोपण, दहेज उन्मूलन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर जोर था, लेकिन संजय को लगता था कि उन्हें किसी त्वरित करिश्मे की बुनियाद नहीं बनाया जा सकता।
राजनीति में नए-नए आए संजय गांधी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे।
संयोग से यही वह दौर भी था जब दुनिया में भारत की आबादी का जिक्र उसके अभिशाप की तरह होता था। अमेरिका सहित कई पश्चिमी देश मानते थे कि हरित क्रांति से अनाज का उत्पादन कितना भी बढ़ जाए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती आबादी के लिए वह नाकाफी ही होगा। उनका यह भी मानना था कि भारत को अनाज के रूप में मदद भेजना समंदर में रेत फेंकने जैसा है जिसका कोई फायदा नहीं। ऐसा सिर्फ अनाज ही नहीं, बाकी संसाधनों के बारे में भी माना जाता था।
अपनी किताब द संजय स्टोरी में पत्रकार विनोद मेहता लिखते हैं, ‘अगर संजय आबादी की इस रफ्तार पर जरा भी लगाम लगाने में सफल हो जाते तो यह एक असाधारण उपलब्धि होती। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा होती।’ यही वजह है कि आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करवाना संजय गांधी का अहम लक्ष्य बन गया। इस दौरान उन्होंने देश को दुरुस्त करने के अपने अभियान के तहत सौंदर्यीकरण सहित कई और काम भी किए, लेकिन अपनी राजनीति का सबसे बड़ा दांव उन्होंने इसी मुद्दे पर खेला। उन्हें उम्मीद थी कि जहां दूसरे नाकामयाब हो गए हैं वहां वे बाजी मार ले जाएंगे।
25 जून 1975 से पहले भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इस बात का दबाव बढऩे लगा था कि भारत नसबंदी कार्यक्रम को लेकर तेजी दिखाए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और एड इंडिया कसॉर्टियम जैसे संस्थानों के जरिये अपनी बात रखने वाले विकसित देश यह संदेश दे रहे थे कि भारत इस मोर्चे पर 1947 से काफी कीमती समय बर्बाद कर चुका है और इसलिए उसे बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के लिए यह कार्यक्रम युद्धस्तर पर शुरू करना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते भारत में काफी समय से जनसंख्या नियंत्रण की कई कवायदें चल भी रही थीं। गर्भनिरोधक गोलियों सहित कई तरीके अपनाए जा रहे थे, लेकिन इनसे कोई खास सफलता नहीं मिलती दिख रही थी।
आपातकाल शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों का गुट और भी जोरशोर से नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की वकालत करने लगा। इंदिरा गांधी ने यह बात मान ली। (बाकी पेज 8 पर)
जानकारों के मुताबिक यह उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि वे खुद कुछ ऐसा करना चाह रही थीं जिससे लोगों का ध्यान उस अदालती मामले से भटकाया जा सके जो उनकी किरकिरी और नतीजतन आपातकाल की वजह बना। उन्होंने संजय गांधी को नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी सौंप दी जो मानो इसका इंतजार ही कर रहे थे।
इसके बाद कुछ महीनों तक इतने बड़े कार्यक्रम के लिए कामचलाऊ व्यवस्था खड़ी करने का काम हुआ। संजय गांधी ने फैसला किया कि यह काम देश की राजधानी दिल्ली से शुरू होना चाहिए और वह भी पुरानी दिल्ली से जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है। उन दिनों भी नसबंदी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां थीं। मुस्लिम समुदाय के बीच तो यह भी धारणा थी कि यह उसकी आबादी घटाने की साजिश है। संजय गांधी का मानना था कि अगर वे इस समुदाय के बीच नसबंदी कार्यक्रम को सफल बना पाए तो देश भर में एक कड़ा संदेश जाएगा। यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश ताकत का इस्तेमाल करते हुए यह अभियान शुरू कर दिया। अधिकारियों को महीने के हिसाब से टारगेट दिए गए और उनकी रोज समीक्षा होने लगी।
होना यह चाहिए था कि इतना बड़ा अभियान छेड़े जाने से पहले लोगों में इसको लेकर जागरूकता फैलाई जाती। जानकार मानते हैं कि इसे युद्धस्तर की बजाय धीरे-धीरे और जागरूकता के साथ आगे बढ़ाया जाता तो देश के लिए इसके परिणाम क्रांतिकारी हो सकते थे। लेकिन जल्द से जल्द नतीजे चाहने वाले संजय गांधी की अगुवाई में यह अभियान ऐसे चला कि देश भर में लोग कांग्रेस से और भी ज्यादा नाराज हो गए। माना जाता है कि संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम से उपजी नाराजगी की 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में सबसे अहम भूमिका रही। (satyagrah.scroll.in)
देश की भौगोलिक अखंडता पर खतरे को लेकर झूठ बोलना बेहद कमजोर नेता की निशानी है। कोई अतिक्रमण नहीं हुआ है, यह कहने के बाद भी इस झूठ को अब छुपाना मुश्किल हो गया है।
पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग की मानें तो तीन अलग-अलग इलाकों में भारतीय क्षेत्र के कुल 40 से 60 वर्ग किलोमीटर हिस्से पर चीन कब्ज़ा जमा चुका है। जनरल पनाग का कहना है कि भारत को ये सुनिश्चित करना है कि एलएसी पर 1 अप्रैल 2020 से पूर्व की स्थिति कायम हो। यदि ये कूटनीतिक तरीकों से नहीं हो पाता तो फिर बलपूर्वक करना होगा। लेकिन एक स्पष्ट रणनीति बनाने और उसे राष्ट्र के साथ साझा करने के बजाय मोदी सरकार और सेना, मौजूदा स्थिति के लिए एलएसी संबंधी धारणाओं में अंतर को दोष देते हुए, अपनी ज़मीन गंवाने की बात को ‘नकारने’ में जुट गई है।
जमीन कोई जुमला नहीं है। वह एक भौतिक सत्य है। अगर भारत अपनी जमीन गंवाता है तो यह आज नहीं तो कल सबके सामने आएगा। भौगोलिक अखंडता को हुआ नुकसान झूठ के पर्दे से नहीं ढंका जा सकता।
यह कहकर कब तक काम चलेगा कि नेहरू ने भी तो ऐसा किया था। नेहरू के बाद किसने क्या किया, इसका हिसाब भी समय करेगा ही।
राजनीति में अपनी छवि को चमकाने का हर प्रयास जायज माना जाता है, लेकिन क्या तब भी इसे जायज माना जाएगा जब देश पर ऐतिहासिक संकट हो, जैसा कि तालाबंदी के दौरान पलायन से उपजा? क्या तब भी इसे जायज माना जाएगा जब देश की अखंडता पर दुश्मन देश की ओर से खतरा हो?
शी जिनपिंग से पीएम मोदी 18 बार मिल चुके हैं। झूला झूलते हुए, साथ चलते हुए, गाइड बनते हुए, दोस्ती गांठते हुए विभिन्न मुद्राओं में हास्यास्पद तस्वीरों के अलावा, इन 18 मुलाकातों का हासिल क्या रहा? महाबलीपुरम में जब शी जिनपिंग पधारे थे, तब कहा गया कि वह दौरा आधिकारिक था ही नहीं। ऐसी मुलाकातों का क्या फायदा?
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही जनता को चमत्कृत करने के लिए विदेश नीति के मोर्चे पर भी स्टंट किए। उन्होंने ऐसा प्रचारित किया कि भारतीय प्रधानमंत्री कई देशों में अब तक गए ही नहीं थे, लेकिन हम जा रहे हैं और इतिहास रच रहे हैं।लेकिन यह कारनामा मोर का नाच साबित हुआ। भारत के पास विदेश नीति के मोर्चे पर ऐतिहासिक असफलता के अलावा कुछ नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है नेपाल। जिस नेपाल में आधे बिहारियों की ससुराल और मायका है, वहां भी भारत को फजीहत और विफलता के सिवाय कुछ हासिल नहीं है।
सरकार को चाहिए कि देश के लिए कम से कम अब जनता से झूठ बोलना बंद कर दे। सरकार का झूठ चीन को ताकत देगा। आप कहेंगे कि कोई घुसपैठ नहीं हुई, तो जहां घुसपैठ हुई है, वह वैधता पा लेगी।
नेता बयानों से कभी मजबूत नहीं हो सकता। नेता अपने कारनामों से मजबूत होता है और फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी एक बेहद कमजोर नेता के रूप में दिख रहे हैं जो जनता से अपनी नाकामी छुपाने के लिए झूठ बोल रहे हैं।
एक मित्र किसी तरह का ध्यान करते हैं, किन्हींं बाबाजी ने बरसों पहले उन्हें सिखाया था। ध्यान पर मेरी पोस्ट पढक़र उन्होंने मुझे फोन किया। पूछने लगे कि क्या आप मोक्ष या निर्वाण को मानते हैं?
मैने कहा कि हां मोक्ष और निर्वाण होता है। सभी को होता है और रोज़ ही होता है।
उन्होंने पूछा कि कैसा होता है?
मैंने कहा कि मान लो कि आपके दिमाग में कोई बेकार की झक्क चल रही थी, आपको खिडक़ी के बाहर अंधेरे में भूत नजर आता था और आपने एक दिन टार्च जलाकर देखा तो वहां किसी का कुर्ता सूख रहा था। बस यही मोक्ष या निर्वाण है। आप भूत से मुक्त हो गए।
वे बोले बस इतना ही?
मैंने कहा हां इतना ही!! और नहीं तो क्या?
तब वे असल मुद्दे पर आए, बोले कि सुनते हैं कि वहां परम् आनन्द है अनन्त आनन्द है।
मैंने कहा कि पहली बात तो यह कि मनोवैज्ञानिक रूप से परम् आनन्द अनन्त काल के लिए असंभव है। कोई चीज़ शुरुआत में ही परम लगती है फिर वह सामान्य हो जाती है, सो परमानन्द इत्यादि की बकवास भूल जाइए। दूसरी बात कि मोक्ष या निर्वाण एक स्टेट ऑफ माइंड है जो व्यर्थ की विचारणा के थम जाने से जन्मी शांति या स्थायित्व है। वहां कोई आनन्द इत्यादि नहीं है। यह आनन्द की बकवास बाबाओं ने बना रखी है अपना धंधा चलाने के लिए। जब तक मन और जीवन है तब तक ही यह शांति है। उसके बाद सब तरह की शांति-अशांति दोनों मिट्टी में मिल जाती हैं।
वे तपाक से बोले कि अगर अनन्तकाल तक परमानन्द नहीं है या अवागमन से मुक्ति नहीं है तो फिर ध्यान करें ही क्यों?
मुझे हंसी आ गई, मैंने कहा कि ध्यान करके आप किस पर एहसान कर रहे हैं? मत कीजिये, आप यदि यह मानते हैं कि ध्यान से बरसों बाद कोई परमानन्द मिलेगा तो आप गलती में हैं। अगर ध्यान से तत्काल शांति नहीं मिलती तो आपको ध्यान समझ ही नहीं आया आज तक और हां आपको जिसने ध्यान सिखाकर अनन्तकाल तक परमानन्द का आश्वासन दिया है जरा उसके साथ हफ्ते भर रह आइये, आपको उनके जीने के ढंग में उनके मोक्ष की असली शक्ल नजर आ जायेगी।
यह सुनकर वे मित्र कुछ नाराज से हो गए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गलवान घाटी में हुए हत्याकांड पर विरोधी नेता हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखे आरोप लगा रहे हैं तो चीनी अखबार उनके संयम की तारीफें पेल रहे हैं। कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने कहा है कि यह ‘नरेन्दर’ मोदी नहीं, ‘सरेन्डर’ मोदी है याने मोदी ने चीनियों के आगे आत्म-समर्पण कर दिया है।
मोदी ने जान-बूझकर भारतीय जमीन चीन को सौंप दी है। राहुल की इस जुमलेबाजी पर मुझे खास आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि आस-पास बैठे किसी आदमी ने जैसी चाबी भरी, गुड्डे ने वैसा नाच दिखा दिया। हां, यह तो मानना पड़ेगा कि ‘नरेन्दर’ को ‘सरेन्डर’ कहकर तुकबंदी में राहुल ने मोदी को मात कर दिया है। बेहतर होता कि हमारे नेता सार्वजनिक रुप से इस तरह के बयान देने की बजाय इस राष्ट्रीय दुख और अपमान की घड़ी में घर में बैठकर समयानुकूल सलाह-मश्विरा करते और आगे की रणनीति बनाते। यदि मोदी भी चाहते तो जवाहरलाल नेहरु की तरह अकड़ दिखा सकते थे। जैसे नेहरु ने 1962 में श्रीलंका-यात्रा पर जाते हुए कहा था कि मैंने भारतीय फौजों को आदेश दे दिया है कि चीनियों को अपनी सीमा में से मार भगाएं। ऐसा आदेश वर्तमान सरकार दे देती तो उसके परिणाम क्या होते ?
वैसा आदेश जारी करने की बजाय मोदी ने सारी कूटनीति का बोझ अपने ही कंधों पर डाल लिया है। उन्होंने कह दिया कि भारत की सीमा में कोई घुसा ही नहीं। भारत की जमीन पर किसी का भी कब्जा नहीं हुआ है। यदि ऐसा ही है तो यह सारा बवाल हुआ ही क्यों है ? इस संबंध में 16 जून से ही मैं कई सवाल कर चुका हूं। उन्हें अब दोहराने की जरुरत नहीं है लेकिन उन सवालों में से एक का जवाब तो रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने दे दिया है। उन्होंने फौज से कहा है कि अब वह सीमांत पर देख-रेख और बातचीत के लिए जाए तो निहत्थे न जाए। हथियारबंद होकर जाए। चीनियों को भी समझ में आ गया होगा कि अब वे 15 जून की रात दुबारा दोहरा नहीं पाएंगे लेकिन मोदीजी का क्या होगा ? वे तो नेहरुजी से भी ज्यादा फंस गए। नेहरु ने 1962 में इतनी हिम्मत तो दिखाई कि चीनियों को निकाल बाहर करने का आदेश उन्होंने दे दिया था, यहां तो बात करने की भी हिम्मत का अभाव है।
चीन के सरकारी अखबारों और विदेश नीति विशेषज्ञों ने गलवान-कांड पर मोदी की नरमी और संयम की तारीफ की है। अब भी मौका है कि मोदी पहल करके इस अत्यंत दुखद कांड से आगे बढ़ें। अपनी दुविधा को खत्म करें। या तो जवाबी हमला करें या शी चिन फिंग से बात करें! मामले को सुलझाएं वरना जो जनता आज चीन के खिलाफ उठ खड़ी हुई है, वह कल मोदी के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग इस समय जिस परेशानी को महसूस कर रहे हैं, क्या मोदी को उसका अंदाज है? (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)