अंतरराष्ट्रीय
मध्य पूर्व और ईरान के करीब आधे मुसलमानों का इस्लाम से नाता कमजोर हो रहा है. इसकी वजह से राज सत्ताओं पर धर्म की ठेकेदार बनी संस्थाओं में सुधार करने का दबाव बढ़ रहा है.
आधिकारिक तौर पर अरब जगत के सभी देश मुस्लिम बहुल हैं. लेबनान में मुसलमानों की आबादी 60 फीसदी है तो वहीं जॉर्डन और सऊदी अरब में करीब 100 फीसदी. इन सभी देशों में लोगों की धार्मिक जिंदगी में शीर्ष धार्मिक सत्ताओं, सरकारी विभागों और सरकारों का अहम रोल रहता है. वे अक्सर मस्जिदों, मीडिया और स्कूली पाठ्यक्रम को नियंत्रित करते हैं.
लेकिन हाल के समय में मध्य पूर्व और ईरान में कराए गए बड़े और विस्तृत सर्वे एक नई कहानी कहते हैं: ये सभी सर्वे दिखाते हैं कि इन देशों में आबादी का बड़ा हिस्सा धर्मनिरपेक्षता की तरफ बढ़ रहा है और धार्मिक राजनीतिक संस्थाओं में सुधारों की मांग तेज हो रही है.
धर्म से दूर जाता लेबनान
अरब बैरोमीटर मध्य पूर्व के सबसे बड़े सर्वेकर्ताओं में एक है. यह अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी और मिशिगन यूनिवर्सिटी का रिसर्च नेटवर्क है. अरब बैरोमीटर ने अपने सर्वे के लिए लेबनान में 25,000 इंटरव्यू किए. नतीजे बताते हैं, "एक दशक से ज्यादा समय के भीतर धर्म के प्रति निजी आस्था में करीब 43 फीसदी कमी आई है. संकेत मिल रहे हैं कि एक तिहाई से भी कम आबादी ही अब खुद को धार्मिक इंसान समझती है."
लेबनान की एक महिला ने अपने अनुभव डीडब्ल्यू से साझा करते हुए कहा, "मैं बहुत ही धार्मिक परिवार से आती हूं. जब मैं 12 साल की थी तो माता पिता ने मुझे बुर्का पहनने के लिए मजबूर किया." अब यह युवती 27 साल की है. डर की वजह से नाम छुपाने वाली इस महिला ने आगे कहा, "वे मुझे लगातार डराते थे कि अगर मैंने बुर्का हटाया तो मुझे नर्क में जलाया जाएगा."
यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान इस युवती की दोस्ती कुछ ऐसे छात्रों से हुई जो नास्तिक थे, "मैं धीरे धीरे उनकी सोच से प्रभावित होने लगी, एक दिन यूनिवर्सिटी जाने से पहले मैंने अपना बुर्का हटाकर घर से बाहर निकलने का फैसला किया." फैसले का असर लाजिमी था, "सबसे मुश्किल था मां बाप का सामना करना. दिल की गहराई में मुझे भी इस बात पर शर्म आ रही थी कि मैंने अपने माता पिता के सम्मान को ठेस पहुंचाई है."
इसके बावजूद लेबनान में आधिकारिक रूप से धर्म के बिना रहना संभव नहीं है. देश के सिविल रजिस्टर में हर लेबनानी नागरिक की धार्मिक पहचान दर्ज की जाती है. रजिस्टर में कुल 18 श्रेणियां हैं, लेकिन इसमें "गैर धार्मिक" या नास्तिक जैसी कोई कैटेगरी नहीं है.
ईरान में भी आस्था की बदलती बयार
ग्रुप फॉर एनालाइजिंग एंड मेजरिंग एटीट्यूड्स इन ईरान (गामान) ने 50,000 लोगों को इंटरव्यू किया. इस सर्वे के नतीजे कहते हैं कि ईरान में 47 फीसदी लोग "मजहबी से गैर मजहबी" हो चुके हैं. नीदरलैंड्स की उटरेष्ट यूनिवर्सिटी में धार्मिक शोध विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर पूयान तमिनी सर्वे के सह लेखक हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "ईरान का समाज एक बड़े व्यापक बदलाव से गुजर चुका है, वहां सारक्षता दर जबरदस्त तेजी से बढ़ी है, देश व्यापक शहरीकरण का अनुभव कर चुका है, आर्थिक बदलावों ने पारंपरिक पारिवारिक ढांचे पर असर डाला है, इंटरनेट की पहुंच यूरोपीय संघ जितनी रफ्तार से बढ़ी है और प्रजनन की दर गिर चुकी है."
ईरान में सर्वे में हिस्सा लेने वाले 99.5 फीसदी लोग शिया थे. उनमें से 80 फीसदी ने कहा कि वे ईश्वर पर विश्वास करते हैं. लेकिन खुद को शिया मुसलमान कहने वालों की संख्या सिर्फ 32.2 फीसदी थी. नौ फीसदी ने खुद को नास्तिक बताया. इन नतीजों का विश्लेषण करते हुए तमिनी कहते हैं, "आस्था और विश्वास के मामले में हम बढ़ती धर्मनिरपेक्षता और विविधता देख रहे हैं." तमिनी के अनुसार सबसे निर्णायक तत्व है, "शासन और धर्म का मिश्रण, इसी की वजह से ईश्वर पर यकीन रखने के बावजूद धार्मिक संस्थानों से ज्यादातर आबादी का मोहभंग हुआ है."
कुवैत की एक महिला ने सुरक्षा कारणों के कारण डीडब्ल्यू से नाम न छापने की गुजारिश की और कहा कि वह एक धर्म के रूप में इस्लाम और एक सिस्टम के रूप में इस्लाम, इन दोनों में फर्क करती हैं, "एक टीनएजर होने के नाते मैं कुरान में सरकारी नियम कायदों का सबूत नहीं खोज पाती हूं." 20 साल पुरानी यादों को ताजा करते हुए वह बताती हैं कि किस तरह आज इस्लाम के प्रति मुसलमानों की भावना बदल चुकी है, "इस्लाम को एक सिस्टम के तौर पर खारिज करने का मतलब यह नहीं है कि हम इस्लाम को धर्म के तौर पर भी खारिज कर रहे हैं."
स्वभाव बदलने से पैदा होने वाली चुनौतियां
धर्म को आस्था बनाम एक सिस्टम के रूप में तौलने पर सुधारों की मांग बुलंद होती है. सिंगापुर की नानयांग टेक्निकल यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्ट्डीज के सीनियर फेलो जेम्स डॉरसे कहते हैं, "यह ट्रेंड ईरान और उसके प्रतिद्वंद्वियों सऊदी अरब, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात की कोशिशों पर चोट पहुंचा रहा है. ये सब धार्मिक सॉफ्ट पावर के जरिए मुस्लिम जगत का नेतृत्व करना चाहते हैं."
डोरसे धार्मिक मामलों के विशेषज्ञ हैं. वह दो बड़े विरोधाभासों की तरफ इशारा करते हैं. एक तरफ संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) अल्कोहल पीने पर प्रतिबंध हटा चुका है और अविवाहित जोड़ों को साथ में रहने की अनुमति दे चुका है. वहीं दूसरी तरफ सऊदी अरब में आज भी नास्तिक विचारों को एक तरह का आतंकवाद माना जाता है.
डोरसे सऊदी ब्लॉगर रईफ बदावी का उदाहरण देते हैं. बदावी को धर्म त्यागने का दोषी करार दिया गया. उन पर इस्लाम की तौहीन करने का दोष लगाया गया. बदावी को 10 साल की जेल और 1,000 कोड़ों की सजा दी गई. बदावी ने सिर्फ यही पूछा था कि क्यों सऊदी नागरिकों को इस्लामिक तौर तरीकों को मानने के लिए बाध्य किया जाता है. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि धर्म के पास जिंदगी के सभी सवालों का जवाब नहीं है.
रिपोर्ट: जेनिफर होलआइस/रजान सलमान (बेरूत)
यूरोप कोरोना टीकों की सप्लाई में कमी का सामना कर रहा है. वैक्सीनों से पेटेंट हटा दिया जाए तो विकासशील देश बड़ी मात्रा में वैक्सीन बना सकेंगे. लेकिन अमीर देश भारत और दक्षिण अफ्रीका के इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध कर रहे हैं.
भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापास संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सामने एक प्रस्ताव रखा है. इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अगर कोरोना की वैक्सीनों को कुछ समय के लिए बौद्धिक संपदा (आईपी) अधिकार कानूनों से बाहर कर दिया जाए तो महामारी से लड़ने में आसानी होगी. जर्मन न्यूज एजेंसी डीपीए के मुताबिक इस प्रस्ताव पर डब्ल्यूटीओ में चर्चा हो रही है और अमीर देश प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं. भारत और दक्षिण अफ्रीका की दलील है कि आईपी अधिकार से छूट मिलते ही गरीब देशों की दवा निर्माता कंपनियां असरदार वैक्सीन का उत्पादन शुरू कर पाएंगी. भारत दुनिया में सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता देश है.
भारत और दक्षिण अफ्रीका ने इस मुद्दे को लेकर अक्टूबर 2020 में डब्ल्यूटीओ का रुख किया. इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी (आईपी) अधिकार को निलंबित करने का मतलब यह होगा कि वैक्सीनों से जुड़े इंडस्ट्रियल डिजायन, कॉपीराइट और उनकी गोपनीय जानकारी साझा की जा सकेगी. दोनों देशों का कहना है, "वैक्सीनों, दवाओं, ताजा रिसर्च, मैन्युफैक्चरिंग और सप्लाई जैसे अफोर्डेबल मेडिकल प्रोडक्ट्स की जानकारी अगर समय रहते मिल जाए तो इससे कोविड-19 से असरदार तरीके से निपटने में मदद मिलेगी."
अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया है. इन देशों का कहना है आईपी अधिकार निलंबित करना, दवा निर्माता कंपनियों पर डाका डालने जैसा है. इससे मौलिक खोज करने वालों को धक्का लगेगा. वैक्सीनों के लिए की गई रिसर्च और इनके निर्माण में बहुत ज्यादा पैसा खर्च किया गया है. अमीर देशों का कहना है कि महामारी के इस दौर में वैक्सीन निर्माता कंपनियां रात दिन एक कर प्रोडक्शन कर रही हैं. इस दौरान वायरस म्यूटेट भी हो रहा है, लिहाजा ऐसे नाजुक दौर में आईपी अधिकारों को निलंबित करना नुकसानदेह हो सकता है.
वैक्सीन पर अमीर देशों की आलोचना
कुछ अमीर देश, अपनी जनसंख्या से कहीं ज्यादा कोरोना वैक्सीन ऑर्डर करने की वजह से भारी आलोचना झेल रहे हैं. वहीं गरीब देश वैक्सीन की सप्लाई पाने के लिए छटपटा रहे हैं. यही कारण है कि डब्ल्यूटीओ में इस मुद्दे पर बातचीत हो रही है. विशेषज्ञों का कहना है कि वैक्सीनों के लिए मचा ये त्राहिमाम या वैक्सीन राष्ट्रवाद महामारी को और लंबा खींच सकता है.
मोदी की वैश्विक कंपनियों से निवेश की अपील
दवाओं को कोने कोने तक पहुंचाने की वकालत करने वाले गैर लाभकारी अभियान, मेडिसिंस लॉ एंड पॉलिसी की डायरेक्टर एलंट ह्योन कहती हैं, "हमें ये स्वीकार करना होगा कि वायरस किसी सीमा को नहीं जानता, ये पूरे विश्व में घूमता है, लिहाजा इससे निपटने का तरीका भी वैश्विक होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय एकजुटता को इसका आधार बनाया जाना चाहिए." डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "कई बड़े स्तर के वैक्सीन निर्माता विकासशील देशों में हैं. जितनी प्रोडक्शन क्षमता है, उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि जिन लोगों के पास जानकारी और तकनीक है वे इसे साझा करें."
विरोधियों के तर्क
भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव का विरोध करने वाले विशेषज्ञों का दावा है कि आईपी अधिकार में छूट देने से प्रोडक्शन पर बिल्कुल असर नहीं पड़ेगा. इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ फार्मास्युटिकल मैन्युफैक्चर्स एंड एसोसिएशंस के जनरल डायरेक्टर थोमस सुएनी कहते हैं, "वैक्सीन की पेटेंट जानकारी देने की मांग कुछ समय तक सप्लाई में एक सिंगल डोज भी नहीं बढ़ाएगी क्योंकि वे वैक्सीन निर्माण की उन जटिलताओं को नजरअंदाज कर रहे हैं जिससे वैक्सीन निर्माता और फॉर्मास्युटिकल कंपनियां गुजरती हैं."
वह यह भी कहते हैं, "बहुत असरदार वैक्सीन के विकास को लेकर जो माहौल बना दिया गया है, उससे ऐसा लगता है जैसे एक बार वैक्सीन तैयार होते ही, एक बटन दबाकर फैक्ट्रियों से अरबों डोज निकाली जाएंगी. मुझे लगता है कि हमें इस बात का अहसास रहना चाहिए कि वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया कितनी जटिल और मुश्किल है."
यूरोपीय संघ की हालत बहुत खराब
जर्मन कंपनी बायोन्टेक और अमेरिकी कंपनी फाइजर द्वारा कारगर कोरोना वैक्सीन विकसित करने के बावजूद यूरोप में वैक्सीन के लाले पड़े हैं. संघ के सभी 27 देशों के लिए वैक्सीन खरीदने वाले यूरोपीय संघ के पास पर्याप्त डोज नहीं हैं. वैक्सीन निर्माता भी पहले किए गए वादों को निभा पाने में असमर्थता जता रहे हैं. यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला फोन डेय लाएन ने पहली बार स्वीकार किया है कि कोरोना वायरस की वैक्सीन जुटाने में यूरोपीय संघ नाकाम हुआ है.
कोरोना वैक्सीन लगाने में पिछड़ गया है जर्मनी
जर्मन अखबार ज्युडडॉएचे त्साइटुंग और अंतरराष्ट्रीय मीडिया से बात करते हुए फोन डेय लाएन ने कहा, "हमने वैक्सीन डेवलपमेंट के समय इस सवाल पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया कि क्या कोई वैक्सीन मिल भी सकेगी. अब पीछे देखने पर लगता है कि हमें इसके समानांतर यह भी सोचना चाहिए था कि बड़े पैमाने पर प्रोडक्शन करने में कैसी चुनौतियां सामने आएंगी." ब्रिटेन, और इस्राएल जैसे देशों में चल रहे बड़े टीकाकरण अभियान यूरोपीय संघ को चिढ़ा रहे हैं. ईयू के प्रोक्योरमेंट प्रोग्राम की खासी आलोचना हो रही है. ओएसजे/एमजे (डीपीए, एएफपी)
-कैरी एलेन
चीन के शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी एक नोटिस को लेकर चीन में लोग नाराज़ हैं. इस नोटिस में यह टिप्पणी की गई है कि चीनी युवा 'महिलाओं की तरह' होते जा रहे हैं.
कई ऑनलाइन यूज़र्स ने इसे सेक्सिट टिप्पणी कहते हुए इसकी आलोचना की है लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि चीन के पुरुष सेलिब्रिटी इस धारणा के लिए आंशिक तौर पर जिम्मेदार हैं.
चीन की सरकार ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि देश के लोकप्रिय पुरुष मॉडल 'सेना के नायकों' की तरह मज़बूत और हष्ट-पुष्ट नहीं हैं. यहाँ तक कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग जो खुद फ़ुटबॉल प्रेमी हैं, वो भी चाहते हैं कि देश में अच्छे खिलाड़ी पैदा हों.
इसलिए पिछले हफ्ते शिक्षा मंत्रालय ने एक नोटिस जारी किया जिसमें उनका मकसद साफ़ तौर पर जाहिर हुआ है.
किशोराव्स्था के लड़कों में लड़कियों वाली प्रवृत्ति रोकने के लिए इस नोटिस में शारीरिक शिक्षा को लेकर सुधार लाने की बात कही गई है. इसे ध्यान में रखते हुए शिक्षकों की बहाली को भी दुरुस्त करने की बात इसमें कही गई है.
इसमें यह सलाह दी गई है कि रिटार्यड एथलिट्स और खेल-कूद के बैकग्राउंड वाले लोगों को शिक्षकों के तौर पर बहाल किया जाए. फ़ुटबॉल जैसे खेल पर विशेष ध्यान दिया जाए ताकि 'छात्रों के अंदर मर्दानगी' पैदा की जा सके.
चीन में मीडिया को बिल्कुल साफ़ छवि वाले 'सामाजिक रूप से जिम्मेदार' स्टार्स को कवर करने के अलावा किसी चीज़ को कवर करने की इजाज़त ना हो, वहाँ इस तरह का फ़ैसला इस दिशा में अहम कदम माना जा रहा है.
हालांकि इस तरह का फ़ैसला आने वाला है, इसके संकेत पहले ही मिलने शुरू हो गए थे.
पिछले साल मई में चीन की शीर्ष सलाहकार समिति के प्रतिनिधि सी ज़ेफू ने कहा था कि चीन के कई नौजवान 'कमज़ोर, डरपोक और हीन भावना से ग्रसित' होते जा रहे है.
उन्होंने दावा किया कि चीनी मर्दों में 'महिलाओं जैसा' रुझान बढ़ता जा रहा है. उनका कहना था कि अगर इस मुश्किल का 'कारगर तरीके से उपाय नहीं निकला' तो ये 'आख़िरकार चीनी राष्ट्र के विकास और उसके अस्तित्व को ख़तरे' में डाल सकते हैं.
सी ज़ेफू ने कहा कि इसके लिए आंशिक तौर पर घर के माहौल को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि ज्यादातर लड़कों का लालन-पालन मां और दादियाँ ही करती हैं.
उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि पुरुष सेलेब्रिटियों का बढ़ता हुआ क्रेज़ भी इसके लिए जिम्मेदार है. इसकी वजह से कई बच्चे अब "सेना के नायकों की तरह नहीं बनना चाहते". उन्होंने स्कूलों को सलाह दी कि नौजवानों को संतुलित शिक्षा देने में स्कूलों को बड़ी भूमिका अदा करनी चाहिए.
शिक्षा मंत्रालय के इस नोटिस को लेकर ज्यादातर चीनी लोगों की प्रतिक्रिया नकारात्मक रही है. हज़ारों चीनी लोगों ने सोशल मीडिया पर अपना गुस्सा निकाला है. कइयों ने सरकार के इस रवैये को सेक्सिट बताया है.
एक वीबो यूज़र ने पूछा है,"क्या महिलाओं की तरह होना अब एक अपमानजनक बात हो चुकी है?"
उनके इस पोस्ट को दो लाख लोगों ने पसंद किया है. एक अन्य यूज़र ने कहा, "लड़के भी इंसान होते हैं. … भावुक होना, डरना और नरम स्वभाव रखना ये सभी मानवीय गुण ही हैं."
एक अन्य यूज़र ने पूछा है, "मर्द किससे डरते हैं? क्या महिलाओं की तरह होने से?"
एक यूज़र ने दावा किया है कि, "इस देश में औरतों की तुलना में सात करोड़ पुरुष ज्यादा है. किसी भी दूसरे देश में लिंग अनुपात में इस तरह की गैर-बराबरी नहीं है. क्या इतना मर्दानापन पर्याप्त नहीं है?"
एक अन्य यूज़र का कहना था, "इनमें से कोई भी प्रस्ताव औरतों की ओर से नहीं दिए गए हैं."
यह बात सही भी हो सकती है क्योंकि चीन का शीर्ष नेतृत्व कितना पुरुष प्रधान है, इसके बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है.
हालांकि मीडिया में सरकार की इस मुहिम को लेकर कुछ सकरात्मक बातें भी कही गई हैं. ग्लोबल टाइम्स न्यूज़पेपर ने लिखा है इस मुहिम को 'कुछ समर्थन प्राप्त' हुआ है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म वीबो पर चीन के पुरुष सेलेब्रिटीज़ को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कुछ टिप्पणियाँ की गई हैं. इन्हें व्यापक पैमाने पर "लिटल फ्रेश मीट' के तौर पर जाना जाता है.
यह संबोधन उन चीनी मर्द आइकॉन की चर्चा के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं जिन्हें नाज़ुक माना जाता है. बॉयबैंड टीएफ़ बॉयज़ और चीनी गायक लू हान इस श्रेणी में आते हैं. ये दोनों ही पॉप स्टार्स हैं. बास्केटबॉल खिलाड़ी याओ मिंग तो देश के बाहर भी काफी नाम कमा चुके हैं.
लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सरकार के प्रस्ताव में ख़ासतौर पर फ़ुटबॉल को शामिल किया गया है. लेकिन इसको लेकर कोई ताज्जुब भी नहीं होना चाहिए क्योंकि राष्ट्रपति शी जिनपिंग पहले ही कह चुके हैं कि वो 2050 तक चीन के 'वर्ल्ड फुटबॉल में सुपरपावर' बनने की उम्मीद करते हैं.
लेकिन चीनी फुटबॉल को आगे बढ़ाने की तमाम कोशिशें अब तक नाकाम रही हैं. इसे असंभव कार्य कहकर इसका मज़ाक भी उड़ाया जा चुका है.
साल 2006 के फुटबॉल वर्ल्ड कप में इटली को जीत दिलाने वाले मार्सेलो लीप्पी ने जब दो साल पहले चीन के राष्ट्रीय फ़ुटबॉल टीम के कोच पद से इस्तीफा दिया था तब यह प्रतिक्रिया आई थी.
इस बीच अब चीन की सरकार हाल के महीनों में चीनी युवाओं के लिए नए रोल मॉडल तैयार करने की मुहिम में लगी हुई है.
जहाँ तक महिलाओं की बात है तो कोविड-19 महामारी के दौर ने यह दर्शाने को लेकर एक अच्छा अवसर प्रदान किया है कि महिलाओं ने फ्रंटलाइनर्स के तौर पर अहम भूमिका निभाई है.
पिछले साल अंतरिक्ष के क्षेत्र में चीन की अहम कामयाबी में जोउ चेंग्यु जैसी महिला की बड़ी भूमिका थी. 24 साल की ये स्पेस कमांडर इसके बाद एक नई सनसनी के तौर पर सामने आई थीं.
सी ज़ेफू ने पिछले साल इस बात के संकते दिए थे कि युवा चीनी मर्दों में मजबूत और निडर सेना के जवानों, पुलिस वालों और फायर फाइटर्स को लेकर अपील कम हो रहा है.
नाज़ुक और कमसिन दिखने वाले पुरुष सेलेब्रिटीज़ की लोकप्रियता बनी हुई है लेकिन उनके लिए अपनी साफ-सुथरी छवि से अलग होने की कवायद भी आसान नहीं है और इसे लेकर उन पर भारी दबाव रहता है.
हाल के सालों में मीडिया को युवा पुरुष स्टार्स को टैटू और कान की बाली के साथ स्क्रीन पर दिखने में जद्दोजहद का सामना करना पड़ा है. एक युवा पॉप स्टार्स को उस वक्त आलोचनाका सामना करना पड़ा था जब साल 2019 में उनकी एतक तस्वीर ोसशल मीडिया में आई थी. इस तस्वीर में वो सधूम्रपान करते दिख रहे थे. (bbc.com)
दुबई, 5 फरवरी | परहित सरिस धरम नहीं भाई - इस कहावत को दो-वर्षीय भारतीय बच्चा तक्ष जैन पूरी तरह चरितार्थ कर रहा है। कैंसर मरीजों के लिए अपने बाल दान करने वाला वह संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का सबसे कम उम्र का बच्चा बन गया है। गुरुवार को गल्फ न्यूज में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, समूचे संयुक्त अरब अमीरात में विद्यार्थियों ने कैंसर के मरीजों के लिए हेयर डोनेशन का अभियान चला रखा है। तक्ष की यह पहल उसी अभियान का ही एक हिस्सा है।
वह मूलत: राजस्थान के कोटा का रहने वाला है। तक्ष की मां नेहा जैन ने बताया कि वह अपने बाल बड़े कर रहा है ताकि बालों की अच्छी-खासी लंबाई हो जाने के बाद उसे दान किया जा सके।
गल्फ न्यूज ने नेहा जैन के हवाले से लिखा है कि मेरी आठ साल की बेटी मिशिका ने भी नवंबर, 2019 में अपने बाल दान कर दिए थे। उसके भी स्कूल में एक ऐसा ही अभियान चलाया गया था और वह अपने बाल दान करना चाहती थी। वह इस बारे में घर पर हमलोगों से बात भी किया करती थी। मेरा बेटा भी उन बातों को सुना करता था और उसने भी यह कहना शुरू कर दिया कि मैं भी दीदी की तरह अपने बालों को दान करूंगा। उसकी ये बातें मुझे छू गईं और इसके बाद वह अपने बाल बढ़ाने लगा।
नेहा ने बताया कि हम उसके बालों को एक अच्छी-खासी लंबाई मिलने तक बढ़ा रहे हैं। उसे अपने लंबे बालों को लेकर कोई शिकायत नहीं है। मेरे बच्चों ने मुझे भी इतना प्रेरित किया कि मैंने भी इस नेक काम के लिए अपने बालों को डोनेट कर दिया।
हेयर फॉर होप इंडिया के संस्थापक प्रेमी मैथ्यू के मुताबिक, इस हेयर डोनेशन अभियान में यूएई के कम से कम सात स्कूल शामिल हैं।
गल्फ न्यूज ने तक्ष जैन के अलावा यूएई में रह रहे अन्य भारतीय बच्चों का भी अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है जिन्होंने अपने बाल डोनेट किए हैं। उन बच्चों में 12वीं कक्षा के अनिलेष रामचंद्रन (17), छठवीं कक्षा के सूर्यवर्त सुरेश कुमार (12) और आठवीं कक्षा के हितांश हसीत शाह (12) शामिल हैं। (आईएएनएस)
वॉशिंगटन: सदन में महाभियोग प्रक्रिया के प्रबंधकों ने गुरुवार को पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को छह जनवरी की घटना में अपनी भूमिका के संबंध में सीनेट में महाभियोग की सुनवाई में गवाही के लिए बुलाया था, लेकिन उनके वकील ने स्पष्ट कर दिया है वह गवाही देने नहीं आएंगे.प्रमुख प्रबंधक जैमी रस्किन ने ट्रंप को लिखे पत्र में उनसे सुनवाई के दौरान या उससे पहले शपथ के साथ गवाही देने को अनुरोध किया था.ट्रंप की कानूनी टीम के महाभियोग के मामले में जवाब दाखिल करने के बाद यह पत्र भेजा गया था जवाब में उनकी टीम ने कहा था, ‘‘महाभियोग ऐसे व्यक्ति पर चलाया जाता है जिसके पास इससे संबंधित पद हो...क्योंकि वह (ट्रंप) अब राष्ट्रपति नहीं हैं, इसलिए उनपर महाभियोग नहीं चलाया जा सकता.''
जैमी रस्किन ने ट्रंप को लिखे पत्र में कहा, ‘‘ दो दिन पहले, आपने जवाब दाखिल किया था, जिसमें आपने महाभियोग से जुड़े कई तथ्यात्मक आरोपों का खंडन किया था.... ''उन्होंने पत्र में कहा, ‘‘ आपके इन तथ्यात्मक आरोपों का खंडन करने के मद्देजनर, मैं आपको छह जनवरी 2021 की घटना में आपकी भूमिका के संबंध में शपथ के साथ गवाही देने के लिए बुलाता हूं, आप चाहे सीनेट में महाभियोग की सुनवाई के दौरान या उससे पहले गवाही दे सकते हैं. हम चाहते हैं कि आप सोमवार आठ फरवरी 2021 को गवाही दें और हो सके तो इसमें बृहस्पतिवार 11 फरवरी 2021 से देरी ना करें.''इस पत्र पर पूर्व राष्ट्रपति के वरिष्ठ वकील जैसन मिलने ने कहा कि ट्रंप गवाही नहीं देंगे.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने पहले राजनयिक संबोधन में देश की विदेश नीति के बारे में खुलकर बात की. उन्होंने वैश्विक मंच पर राष्ट्रपति के तौर पर "अमेरिका इज बैक" का ऐलान किया.
बाइडेन ने अपने पूर्ववर्ती डॉनल्ड ट्रंप की बेढंग विदेश नीति के बाद एक नए युग का वादा किया है. गुरुवार को वे विदेश विभाग पहुंचे और अपनी सरकार की विदेश नीति के बारे में पहला संबोधन दिया. बाइडेन ने अपने भाषण में चीन और रूस के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण का संकेत दिया तो वहीं म्यांमार की सेना से सैन्य शासन खत्म करने का आग्रह किया. साथ ही उन्होंने यमन पर सऊदी हमलों का समर्थन बंद करने की घोषणा की है.
बाइडेन ने कहा कि अमेरिका यमन में सऊदी के नेतृत्व वाले सैन्य अभियानों के लिए अपना समर्थन वापस ले रहा है. उन्होंने कहा कि छह साल का युद्ध "समाप्त होना चाहिए" लेकिन जोर देकर कहा कि अमेरिका अपने पुराने सहयोगी सऊदी अरब का समर्थन करना जारी रखेगा. बाइडेन ने चीन और रूस के प्रति अपने भाषण में कहा, "अमेरिकी नेतृत्व को इस बढ़ती तानाशाही से सामने करना होगा, जिसमें चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने और उसे बाधित करने का रूस का संकल्प शामिल है. हमें चुनौतियों का सामना करना होगा जिनमें महामारी, जलवायु संकट और परमाणु प्रसार शामिल हैं."
ट्रंप ने अपने कार्यकाल के दौरान टैरिफ बढ़ाए थे, जिसके चलते अमेरिका को एशियाई और यूरोपीय नेताओं की नाराजगी का सामना करना पड़ा था और वैश्विक गठबंधन को नुकसान भी पहुंचा था. ट्रंप ने कुछ देशों में सत्तावाद को पीछे धकेलने के लिए बहुत ही कम काम किया था. 6 जनवरी को कैपिटल हिल पर हुए हिंसा के बाद वैश्विक नेताओं जिनमें सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी शामिल थे, उन्होंने अमेरिकी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के बारे में संदेह व्यक्त किया था. कैपिटल हिल पर हुई हिंसा के लिए ट्रंप पर अपने समर्थकों को भड़काने का आरोप लगा है और गुरुवार को बाइडेन का भाषण एक तरह की हुंकार भरने की कोशिश थी उन शंकाओं को दूर करने और अमेरिकियों को अपने देश के मूल्यों के प्रति समझाने के लिए.
बाइडेन ने कहा, "हम कूटनीति में सिर्फ इसलिए निवेश नहीं करते हैं क्योंकि निवेश करना है बल्कि यह दुनिया के लिए सही है और हम ऐसा करते हैं. हम ऐसा शांति, सुरक्षा और खुशहाली के साथ जीने के लिए करते हैं. हम अपने हित के लिए भी ऐसा करते हैं." वैश्विक गठबंधन के बारे में उन्होंने कहा, "अमेरिकी गठबंधन हमारी सबसे बड़ी संपत्ति है और कूटनीति के साथ अग्रणी होने का मतलब है कि हमारे सहयोगियों और प्रमुख साझेदारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक बार फिर चलना है."
अमेरिका ने यमन पर सऊदी हमलों का समर्थन बंद किया
इसी के साथ बाइडेन ने कहा है कि अमेरिका यमन में सऊदी के नेतृत्व वाले सैन्य अभियानों के लिए अपना समर्थन वापस ले रहा है. बाइडेन के मुताबिक छह साल से जारी युद्ध को समाप्त होना चाहिए लेकिन जोर देकर कहा कि अमेरिका अपने पुराने सहयोगी सऊदी अरब का समर्थन करना जारी रखेगा. बाइडेन ने कहा, "यमन में युद्ध ने मानवीय और सामरिक तबाही मचाई है और हम यमन में युद्ध को समाप्त करने के लिए अपनी कूटनीति को आगे बढ़ा रहे हैं." उन्होंने कहा,"इस युद्ध में हम यमन में हथियारों की बिक्री समेत सभी अमेरिकी सहयोग को बंद कर रहे हैं." यमन में युद्ध के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि यमन दुनिया की सबसे खराब मानवीय संकट के दौर से गुजर रहा है.
एए/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
पाकिस्तान में चीन की बनाई सिनोफार्म कोरोना वैक्सीन को 60 वर्ष की आयु से अधिक लोगों को नहीं लगाया जाएगा। उन्हें केवल एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन लगाने की अनुमति दी गई है। पाकिस्तान का कहना है कि सिनोफार्म के आंकड़े इसकी इजाजत नहीं देते हैं।
इस्लामाबाद (पीटीआई)। पाकिस्तान में चीन से लाई गई सिनोफार्म कोविड-19 वैक्सीन का इस्तेमाल 60 वर्ष की उम्र से अधिक लोगों पर नहीं किया जाएगा। प्रधानमंत्री इमरान खान के स्वास्थ्य मामलों के विशेष सचिव डॉक्टर फैसल सुल्तान के मुताबिक इसको इस उम्र से अधिक आयु वर्ग के लोगों के लिए स्वीकृत नहीं किया गया है। उन्होंने पत्रकारों से हुई वार्ता के दौरान बताया है कि सरकार की एक्सपर्ट कमेटी ने इसके आंकड़ों का विश्लेषण किया है जिसमें पता लगा है कि फिलहाल ये केवल 18-60 वर्ष की आयु वर्ग के लिए ही है। लिहाजा ऐसी सूरत में इसको 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए स्वीकृत नहीं किया जा सकता है।
उन्होंने ये भी कहा है कि ये किसी भी तरह से असामान्य परिस्थिति नहीं है। फैसल के मुताबिक जब नई वैक्सीन पाकिस्तान को मिल जाएंगी और इसके अधिक आंकड़े हासिल हो जाएंगे तब उनके विश्लेषण के आधार पर आगे का फैसला लिया जाएगा। इस दौरान जब उनसे पूछा गया कि 60 वर्ष की आयु से अधिक लोगों को कौन सी वैक्सीन दी जाएगी तो उन्होंने जवाब में एस्ट्राजेनेका की बनाई वैक्सीन देने की बात कही है।
आपको बता दें कि कुछ ही दिन पहले पाकिस्तान ने चीन में अपना विशेष विमान भेज कर सिनोफार्म वैक्सीन की 5 लाख खुराक मंगवाई थी। सरकार के लिए मुताबिक ये खुराक उन्हें चीन की तरफ से मुफ्त में मिली हैं। पाकिस्तान ने इसको चीन से मिला गिफ्ट करार दिया था। इसके बाद ही पाकिस्तान में कोविड-19 के टीकाकरण को शुरू किया गया है। पाकिस्तान में शुरुआत में स्वास्थ्यकर्मियों को वैक्सीन दी जा रही है।
आपको यहां पर ये भी बता दें कि इसी तरह का फैसला जर्मनी ने ऑक्सफॉर्ड और एस्ट्राजेनेका की बनाई कोविड-19 वैक्सीन को लेकर लिया था। वहां पर इस वैक्सीन को 65 वर्ष से अधिक आयु वर्ग में लगाने के लिए मना कर दिया गया था। हालांकि विशेषज्ञों जर्मनी के इस फैसले को सही नहीं मानते हैं। पाकिस्तान में भी यही सवाल खड़ा हुआ है। एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन को 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को लगाने के बाबत डॉक्टर फैसल से पूछा गया कि इसको कई देशों ने इस उम्र के लोगों को लगाने की इजाजत नहीं दी है, तो उनका जवाब था कि कई देशों ने इसकी इजाजत दे रखी है।
उन्होंने ये भी कहा है कि पाकिस्तान के विशेषज्ञों ने इससे मिले आंकड़ों पर गौर किया है इसके बाद ही ये फैसला लिया गया है। जहां तक सिनोफार्म की बात है तो इस उम्र के लोगों पर मिले आंकड़ों से विशेषज्ञ सहमत नहीं हैं। चीन में भी इसको दोहराया गया है। डॉक्टर फैसल के मुताबिक ये काफी पेचिदा मसला है। गौरतलब है कि पाकिस्तान में बुधवार से कोविड-19 टीकाकरण की शुरुआत कर दी गई है।
जहां तक पाकिस्तान को इसकी वैक्सीन की बात करें तो वो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्गत आने वाली कोवैक्स पर नजरें लगाए हुए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ ही दिन पहले कहा था कि वो विश्व के 145 देशों में इस प्रोग्राम से जुड़े देशों को ये वैक्सीन उपलब्ध करवाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इस मुहिम से दुनिया की करीब 3.3 फीसद आबादी को कोविड-19 से सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी।
आपको यहां पर ये भी बता दें कि ड्रग रेगुलेटरी ऑथरिटी ऑफ पाकिस्तान ने अपने यहां पर इस्तेमाल के लिए अब तक तीन कोविड-19 वैक्सीन को इजाजत दी है। इनमें से एक एस्ट्राजेनेका है, दूसरी रूस की स्पुतनिक-5 है और तीसरी चीन की सिनोफार्म है। कुछ दिन पहले पाकिस्तान के योजना मंत्री ने कहा था कि उन्हें एक पत्र मिला है जिसमें कोवैक्सी की एक करोड़ 70 खुराक को जुलाई 2021 तक मुहैया कराने की बात कही गई थी। (jagran.com)
अरुल लुईस
न्यूयॉर्क, 5 फरवरी | अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने वॉशिंगटन में स्थित डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया कोर्ट ऑफ अपील्स के न्यायाधीश के रूप में विजय शंकर के नामांकन को रद्द कर दिया है।
व्हाइट हाऊस ने गुरुवार सीनेट को सूचित किया कि उनके द्वारा नामांकन को वापस लिया जा रहा है, जिस पर पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जून में फैसला लिया था।
ट्रंप के ऑफिस में रहने और रिपब्लिकन पार्टी के पास बहुमत होने के बावजूद भी सीनेट ने शंकर के नामांकन को नहीं स्वीकारा था।
शंकर 32 नामांकितों में से एक थे, जिनमें से 17 नामांकन न्यायाधीशों के लिए था, जिसे ट्रंप प्रशासन ने अपनी जिम्मेदारी में ले रखा था और अब बाइडन ने इसे अपने कंधे ले लिया।
न्यायाधीशों की नियुक्ति अमेरिका में एक राजनीतिक मामला है। राष्ट्रपति द्वारा इन्हें समान विचारधारा या पार्टी के प्रति वफादारी के तर्ज पर नियुक्त किया जाता है। यहां तक कि संघीय अभियोजकों की नियुक्ति भी न्यायाधीशों की ही तरह से होती है, इन्हें भी सीनेट से अनुमोदन प्राप्त करना पड़ता है।
ट्रंप ने जिस वक्त शंकर को नामांकित किया था, उस वह वह न्याय विभाग में आपराधिक प्रभाग के अपीलीय अनुभाग के उप प्रमुख थे। (आईएएनएस)
नई दिल्ली/वाशिंगटन, 4 फरवरी | भारत ने किसान आंदोलन और किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा को लेकर अमेरिका की ओर से की गई टिप्पणी का करारा जवाब दिया है। भारत ने गणतंत्र दिवस पर किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली में हुई हिंसक घटना की अमेरिका के कैपिटल हिल में हुई घटना से तुलना की है। भारत का कहना है कि गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को हिंसा की घटनाएं और लाल किले में तोड़फोड़ ने भारत में उसी तरह की भावनाएं और प्रतिक्रियाएं उत्पन्न की, जैसा कि छह जनवरी को अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों द्वारा कैपिटल हिल पर हुई हिंसा के बाद देखने को मिला था।
अमेरिकी विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने बुधवार को वॉल स्ट्रीट जर्नल से कहा था, जो बाइडेन प्रशासन मानता है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन किसी भी सफल लोकतंत्र की पहचान है और भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा है। हम प्रोत्साहित करते हैं कि पक्षों के बीच किसी भी मतभेद को बातचीत के माध्यम से हल किया जाए।
अमेरिका ने किसानों के आंदोलन पर अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि वह बातचीत के जरिए दोनों पक्षों के बीच मतभेदों के समाधान को बढ़ावा देता है। इसके साथ ही उन्होंने कुछ किसानों के विरोध स्थलों और इनके आसपास के क्षेत्रों में इंटरनेट सेवाओं के निलंबन पर भारत सरकार की आलोचना भी की।
वहीं अब गुरुवार को अपने साप्ताहिक ब्रीफिंग के दौरान विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने अमेरिका पर पलटवार किया है। श्रीवास्तव ने कहा कि हमने कृषि कानूनों पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय की टिप्पणियों पर ध्यान दिया है।
उन्होंने कहा कि गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को हिंसा की घटनाएं, लालकिले में तोड़फोड़ ने भारत में उसी तरह की भावनाएं और प्रतिक्रियाएं उत्पन्न की, जैसा कि छह जनवरी को अमेरिका में कैपिटल हिल घटना के बाद देखने को मिला था।
गौरतलब है कि भारत के विदेश मंत्रालय ने किसानों के प्रदर्शन पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया पर बुधवार को कड़ी आपत्ति जताई थी। भारत ने कहा था कि भारत की संसद ने एक सुधारवादी कानून पारित किया है, जिस पर किसानों के एक बहुत ही छोटे वर्ग को कुछ आपत्तियां हैं और वार्ता पूरी होने तक कानून पर रोक भी लगाई गई है।
विदेश मंत्रालय ने कहा कि केंद्र सरकार ने प्रदर्शनकारी की भावनाओं का सम्मान करते हुए उनके प्रतिनिधियों से सिलसिलेवार वार्ता की हैं और बातचीत में केंद्रीय मंत्री शामिल रहे हैं। पहले ही 11 दौर की वार्ता हो चुकी है। मंत्रालय के अनुसार सरकार ने कानूनों को निलंबित करने की भी पेशकश की और स्वयं प्रधानमंत्री ने यह प्रस्ताव रखा है।
इसने कहा कि निहित स्वार्थी समूहों को इन प्रदर्शनों पर अपना एजेंडा थोपने और उसे पटरी से उतारने की कोशिश करते देखना दुर्भाग्यपूर्ण है। गणतंत्र दिवस पर यह देखा गया। देश के संविधान को अपनाने वाले दिन एक राष्ट्रीय स्मारक को नुकसान पहुंचाया गया, भारतीय राजधानी में हिंसा और तोड़फोड़ की गई।
मंत्रालय ने कहा कि भारतीय पुलिस बलों ने पूरे संयम के साथ इन प्रदर्शनों को संभाला। पुलिस में कार्यरत सैकड़ों महिलाओं और पुरुषों पर हमला किया गया और कुछ मामलों में तो धारदार हथियारों से हमले किए गए और गंभीर रूप से चोट पहुंचाई गई। मंत्रालय ने यह भी कहा कि संसद ने कृषि क्षेत्र से जुड़े सुधारवादी विधेयक पारित किए हैं।(आईएएनएस)
-सुमित कुमार सिंह
बेंगलुरु, 4 फरवरी| अंतरिक्ष के खतरों से निपटने के लिए अमेरिका भारत के साथ काम मिलकर काम करना चाह रहा है। भारत में अमेरिकी रक्षा अटैची रियर एडमिरल एलीन लाउबाचर ने गुरुवार को यह बात कही।
बेंगलुरु में चल रहे एयरो इंडिया कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, "जैसा कि हम अपने स्वयं के स्पेस फोर्स का निर्माण कर रहे हैं और स्पेस कमांड को फिर से स्थापित कर रहे हैं, हम भारत और रक्षा अंतरिक्ष एजेंसी के साथ व्यापक सहयोग के लिए तत्पर हैं। यह जरूरी है कि हम दोनों इस उभरते हुए डोमेन में एक साथ काम करें, क्योंकि अंतरिक्ष के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है।"
रियर एडमिरल एलीन ने बढ़ती चीनी आक्रामता और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के लिए उभरते खतरों का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि आज के समय पर हम पूरे इंडो-पैसिफिक में ताइवान स्ट्रेट से साउथ चाइना सी तक और हिमालय में ऊंचाई पर भारतीय बॉर्डर तक चीन के तेजी से बढ़ते उत्तेजक व्यवहार को देख रहे हैं। उन्होंने चीनी मंसूबों के प्रति चेताते हुए कहा कि इन कार्रवाइयों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मानदंडों को खतरा है। एलीन ने इस तरह के खतरों से निपटने पर जोर दिया।
उन्होंने यह भी कहा कि भारत के दरवाजे पर आई सुरक्षा चुनौतियां दोनों देशों के बीच मजबूत साझेदारी के महत्व को रेखांकित करती हैं।
अमेरिका इन उभरते खतरों का मुकाबला करने के लिए भारत और समान विचारधारा वाले देशों के साथ शामिल होकर काम करना चाहता है। (आईएएनएस)
म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार का तख़्तापलट किए जाने के कुछ दिन बाद यहां सैन्य शासकों ने फ़ेसबुक पर रोक लगा दी है.
अधिकारियों ने कहा है कि 'सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म फ़ेसबुक को देश में 'स्थिरता' बनाये रखने के लिए बंद किया गया है.'
सोमवार को म्यांमार में तख़्तापलट के बाद अधिकांश लोगों ने फ़ेसबुक के माध्यम से ही अपना विरोध दर्ज कराया था.
म्यांमार के सूचना मंत्रालय ने कहा है कि "फ़ेसबुक पर फ़िलहाल 7 फ़रवरी तक के लिए रोक लगाई गई है." हालांकि, म्यांमार के कुछ इलाक़ों में अब भी लोग आंशिक रूप से फ़ेसबुक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं.
म्यांमार की क़रीब आधी आबादी फ़ेसबुक का इस्तेमाल करती है और इसी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की मदद से सामाजिक कार्यकर्ता लोगों से इस तख़्तापलट के बारे में बात कर रहे थे.
म्यांमार में फ़ेसबुक बिना किसी अतिरिक्त डेटा शुल्क के अपना ऐप इस्तेमाल करने की अनुमति देता है, ताकि लोगों को फ़ेसबुक इस्तेमाल करने के लिए महंगे मोबाइल डेटा का इस्तेमाल ना करना पड़े.
फ़ेसबुक ने आधिकारिक तौर पर म्यांमार के सैन्य शासकों द्वारा लगाई गई पाबंदी की पुष्टि की है.
कंपनी का कहना है कि "हम म्यांमार के सैन्य अधिकारियों से कनेक्टिविटी बहाल करने का आग्रह करते हैं, ताकि लोग अपने परिजनों और दोस्तों से बात कर सकें और महत्वपूर्ण जानकारियाँ हासिल कर सकें."
सड़कों पर क्या हो रहा है?
म्यांमार के दूसरे सबसे बड़े शहर, मांडले से मिल रहीं रिपोर्ट्स के अनुसार, शहर में कुछ जगहों पर छोटे पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं जिसके बाद कुछ लोगों की गिरफ़्तारियाँ भी हुई हैं.
वहीं म्यांमार के मुख्य शहर, यंगून के निवासियों ने 'विरोध की निशानी' के तौर पर दूसरी रात भी बर्तन बजाये और लोकतंत्र सरकार की बहाली की मांग की.
म्यांमार के कम से कम 70 सांसद जो इस वक़्त एक सरकारी विश्राम गृह में मौजूद हैं, उन्होंने इमारत खाली करने से इनकार कर दिया है. ये सभी म्यांमार की सर्वोच्च नेता रहीं आंग सान सू ची की नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के सांसद हैं.
सोमवार सुबह म्यांमार की सेना ने सू ची समेत उनकी सरकार के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके तख़्तापलट की घोषणा कर दी थी.
तख़्तापलट के बाद वहाँ की पुलिस ने सू ची पर कई आरोप लगाये हैं. पुलिस के दस्तावेज़ों के अनुसार, सू ची को 15 फ़रवरी तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है. साथ ही अपदस्त राष्ट्रपति विन मिन पर भी कई आरोप लगाये गए हैं. पुलिस ने उन्हें भी हिरासत में ले लिया है.
हालांकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सू ची को गिरफ़्तार करने के बाद कहाँ रखा गया है. कुछ ख़बरें हैं, जिनमें दावा किया गया है कि सू ची को राजधानी नेपीडाव में स्थित उनके घर में ही नज़रबंद कर दिया गया है.
म्यांमार के सभी प्रमुख शहरों में सड़कें वीरान हैं. शहरों में कर्फ़्यू लगाया गया है, इस वजह से कहीं भी बड़े प्रदर्शन नहीं देखे गये हैं.
मगर अस्पतालों में इस तख़्तापलट का विरोध देखने को मिल रहा है. कई बड़े अस्पतालों में डॉक्टरों ने काम छोड़ दिया है या फिर वो सांकेतिक ढंग से इसका विरोध कर रहे हैं.
यह अस्वीकार्य है- संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने विश्व समुदाय से अपील की है कि वो सोमवार को म्यांमार में हुए तख़्तापलट को नाकाम करें.
उन्होंने कहा कि चुनाव के नतीजों को पलटना 'अस्वीकार्य' है और तख़्तापलट करने वाले नेताओं को यह समझना चाहिए कि देश को चलाने का यह कोई तरीक़ा नहीं है.
दुनिया के सात अमीर मुल्कों ने म्यांमार में तख़्तापलट को लेकर 'गंभीर चिंता' ज़ाहिर की है और वहाँ गणतंत्र की बहाली की माँग की है.
जी7 देशों (कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका) ने एक बयान जारी कर कहा है, "हम म्यांमार के सेना से अपील करते हैं कि वो तुरंत आपातकाल ख़त्म करें और गणतांत्रिक रूप से चुनी सरकार को बहाल करें. साथ ही वो मानवाधिकार का सम्मान करें और जिन नेताओं को हिरासत में लिया गया है उन्हें रिहा करें."
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस घटना पर बयान जारी करने को लेकर चर्चा कर रही है, लेकिन ऐसा अनुमान है कि तख़्तापलट करने के किसी भी बयान को चीन रोक सकता है.
पश्चिम के अधिकांश देशों ने म्यांमार में हुए तख़्तापलट की आलोचना की है. लेकिन चीन का मत है कि अगर म्यांमार पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा कड़े प्रतिबंध लगाये गए तो स्थिति और बिगड़ेगी.
म्यांमार को अंतरराष्ट्रीय स्तर के दवाब से बचाने के लिए चीन पहले भी कोशिश करता रहा है. वो ना केवल म्यांमार का मित्र देश है, बल्कि आर्थिक तौर पर म्यांमार को बेहद अहम मानता है.
अल्पसंख्यक रोहिंग्या पर हमलों और उनके पलायन को लेकर रूस और चीन ने पहले भी संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार का बचाव किया था. चीन का कहना है कि उसे उम्मीद है सभी पक्ष आपसी सहमति से मामले को सुलझा लेंगे.
आंग सान सू ची पर लगे आरोप कितने गंभीर?
कोर्ट के समक्ष पुलिस ने 'फ़र्स्ट इनिशियल रिपोर्ट' यानी प्राथमिक रिपोर्ट के नाम से एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें आंग सान सू ची पर लगाये गए आरोपों के बारे में लिखा गया है.
रिपोर्ट के अनुसार, सू ची पर ग़ैर-क़ानूनी तरीके से वॉकी-टॉकी जैसे दूरसंचार यंत्रों का आयात करने का आरोप है. नेपीडाव में उनके घर से म्यांमार पुलिस को ये यंत्र मिले हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, उन्हें कस्टडी में लेकर, गवाहों से पूछताछ की जाएगी, सबूत जुटाये जाएंगे और उनसे पूछताछ करने के बाद क़ानूनी राय ली जाएगी.
विन मिन पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून के तहत आरोप लगाये गए हैं. उन पर कोविड-19 महामारी के दौरान लगाई गई पाबंदियों का उल्लंघन कर 220 गाड़ियों के काफ़िले के साथ अपने समर्थकों से मिलने जाने का आरोप है.
कौन हैं आंग सान सू ची?
आंग सान सू ची म्यांमार की आज़ादी के नायक रहे जनरल आंग सान की बेटी हैं.
1948 में ब्रिटिश राज से आज़ादी से पहले ही जनरल आंग सान की हत्या कर दी गई थी. सू ची उस वक़्त सिर्फ दो साल की थीं.
1990 के दशक में सू ची को दुनिया भर में मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला के रूप में देखा गया जिन्होंने म्यांमार के सैन्य शासकों को चुनौती देने के लिए अपनी आज़ादी त्याग दी.
1989 से 2010 तक सू ची ने लगभग 15 साल नज़रबंदी में गुज़ारे.
साल 1991 में नजरबंदी के दौरान ही सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया.
साल 2015 के नवंबर महीने में सू ची के नेतृत्व में नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने एकतरफा चुनाव जीत लिया. ये म्यांमार के इतिहास में 25 सालों में हुआ पहला चुनाव था जिसमें लोगों ने खुलकर हिस्सा लिया.
म्यांमार की स्टेट काउंसलर बनने के बाद से आंग सान सू ची ने म्यांमार के अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में जो रवैया अपनाया उसकी काफ़ी आलोचना हुई. लाखों रोहिंग्या ने म्यांमार से पलायन कर बांग्लादेश में शरण ली. (bbc.com)
-रजनीश कुमार
ईश्वरी बराल नेपाल की राजधानी काठमांडू में ऑनलाइन पत्रकार हैं. पिछले कुछ सालों से ईश्वरी भारत से बहुत नाराज़ हैं. वे बताती हैं कि इसी नाराज़गी के कारण वो पाकिस्तानी क्रिकेट टीम का समर्थन करती हैं. ईश्वरी नेपाल में पहाड़ी इलाक़े लामजुंग की हैं.
राजकिशोर यादव मधेसी इलाक़े के सिराहा ज़िले के हैं. वो बाबूराम भट्टराई की जनता समाजवादी पार्टी के नेता हैं. राजकिशोर यादव कहते हैं कि ईश्वरी रिएक्शन में ऐसा कर रही हैं.
राजकिशोर कहते हैं, ''नेपाल में पहाड़ियों के बीच एक नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की गई है कि भारत विस्तारवादी शक्ति है और उससे सतर्क रहने की ज़रूरत है. ऐसा कम्युनिस्ट पार्टियों ने सत्ता के लालच में किया है. मुझे नहीं लगता है कि क्रिकेट मैच पाकिस्तान और भारत के बीच हो और मधेस में कोई पाकिस्तान का समर्थन करेगा. ये भी सच नहीं है कि पहाड़ में केवल भारत विरोधी भावना है. गोरखा तो पहाड़ी ही हैं और भारतीय सेना में बहादुरी के साथ सरहद की रक्षा में लगे हुए हैं. लेकिन इतना ज़रूर है कि अभी भारत को लेकर पहाड़ और मधेस में सोच एक जैसी नहीं है.''
नेपाली गोरखा ब्रिटिश इंडिया से ही भारतीय सेना में हैं. गोरखाओं ने गोरखा-सिख, एंग्लो-सिख और अफ़ग़ान युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी.
इसके अलावा 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी गोरखाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा. भारतीय सेना में गोरखाओं की एंट्री 1816 में एंग्लो-नेपाली वॉर के बाद हुई सुगौली संधि से जुड़ी है. तब भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था और गोरखाओं ने ब्रिटिश हुक़ूमत को कड़ी चुनौती दी थी.
जब भारत आज़ाद हुआ, तो नेपाल, भारत और ब्रिटेन के त्रिपक्षीय क़रार में छह गोरखा रेजिमेंट्स भारतीय सेना के हवाले किए गए. सातवाँ रेजिमेंट आज़ादी के बाद शामिल हुआ. वर्तमान में सात गोरखा रेजिमेंट के 40 बटालियन में क़रीब 32 हज़ार गोरखा हैं.
राजकिशोर कहते हैं कि मधेसियों के लिए काठमांडू दूर है, लेकिन दिल्ली ज़्यादा क़रीब है. युवराज चौंलगाईं नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (प्रचंड गुट) के केंद्रीय सदस्य हैं और नेपाली प्रवास समन्वय समिति के अध्यक्ष हैं. युवराज कहते हैं कि भारत को लेकर नाराज़गी केवल प्रतिक्रियावश नहीं है.
वे कहते हैं कि इसके ठोस कारण हैं. युवराज कहते हैं, ''भारत की सरकार को यह स्वीकार करना होगा कि नेपाल एक संप्रभु देश है. 2015 में नेपाल जब संविधान लागू कर रहा था, तो भारत के वर्तमान विदेश मंत्री तब विदेश सचिव थे और वे बिना बुलाए नेपाल आकर संविधान नहीं लागू करने की ज़िद करने लगे. उन्हें इस बात पर आपत्ति थी कि नेपाल हिंदू राष्ट्र से सेक्युलर स्टेट ना बने और मधेसियों को लेकर कुछ चिंताएँ थीं.''
युवराज पूछते हैं, ''हमें हिंदू राष्ट्र रहना है या सेक्युलर स्टेट, ये भारत की सरकार तय करेगी या नेपाल की चुनी हुई सरकार? नेपाल की राजनीति में भारत माइक्रोमैनेजमेंट करता आया है और भारत की वर्तमान सरकार भी वही कर रही है. एस जयशंकर विदेश सचिव रहते हुए संविधान को लेकर नेपाल के नेतृत्व के सामने अजीब तरीक़े से पेश आए थे. भारत को नेपाल की राजनीति में माइक्रोमैनेजमेंट की रणनीति से बाज आने की ज़रूरत है.''
26 मई 2006 को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था, ''नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए. बीजेपी इस बात से ख़ुश नहीं होगी कि नेपाल अपनी मौलिक पहचान माओवादियों के दबाव में खो दे.''
युवराज कहते हैं, ''आप इस क्रोनोलॉजी को समझिए. पिछले साल अक्तूबर महीने में भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ (रिसर्च एनलिसिस विंग) के प्रमुख सामंत कुमार गोयल पीएम ओली से मिले. फिर भारत के सेना प्रमुख जनरल नरवणे मिले. इसके बाद विदेश सचिव आए. इसके बाद बीजेपी के विदेशी मामलों के प्रभारी विजय चौथाईवाले ने ओली से मुलाक़ात की. ये सारी मुलाक़ातें गोपनीय हुईं. कुछ डिटेल नहीं दी गई. फिर अचानक से 20 दिसबंर को पीएम ओली ने संसद को भंग कर दिया. अभी उनके पास बहुमत नहीं है, लेकिन संविधान का उल्लंघन करते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं. ज़ाहिर सी बात है कि ओली बिना विदेशी समर्थन के इतनी अकड़ के साथ नहीं रह सकते.''
भारत में नेपाल के राजदूत रहे लोकराज बराल कहते हैं कि 2015 में भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर नेपाली नेतृत्व के सामने जिस तेवर से पेश आए थे, वो ठीक नहीं था.
लोकराज बराल कहते हैं, ''नेपाल में भारत विरोधी भावना के ठोस कारण हैं. नेपाल पहली बार लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपना संविधान लागू कर रहा था. संभव है कि संविधान में कुछ कमियाँ हों, लेकिन वक़्त के साथ ये कमियाँ दूर हो जातीं. मधेसियों को लेकर चिंताएँ जायज़ थीं, लेकिन आप ये नहीं कह सकते कि संविधान रोक दीजिए.''
बराल कहते हैं कि एस जयशंकर के रुख़ के कारण ही नेपाल की सारी राजनीतिक पार्टियाँ एकजुट हो गई थीं और संविधान को लेकर आम सहमति बन गई.
बराल कहते हैं, ''इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने नाकेबंदी लगा दी. भारत को पता था कि नाकेबंदी के कारण नेपाल में ज़रूरी सामानों की किल्लत हो जाती है और मानवीय संकट खड़ा हो जाता है. इसके बावजूद भारत ने ऐसा किया. ऐसे में नेपाल में अगर भारत विरोधी भावना मज़बूत होती है, तो भारत की सरकार को सोचना चाहिए कि ग़लती किसकी है.''
डॉ संदुक रुइत नेपाल के विश्व विख्यात आइ सर्जन हैं. संदुक ने भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में ग़रीबों का मुफ़्त में इलाज किया है. उन्हें रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड भी मिला है.
संदुक 2015 में भारत की अघोषित नाकेबंदी को याद करते हुए कहते हैं, ''बहुत ही डरावना था. काठमांडू की सड़कों पर दिन में सन्नाटा पसरा रहता था. पेट्रोल और डीजल लेने के लिए कई किलोमीटर की लंबी लाइन लगती थी. रसोई गैस की लाइन देख इंसान ख़ून के आँसू रो जाता था. भारत को पता है कि नेपाल का जनजीवन उसी पर निर्भर है और उसकी नाकेबंदी मानवीय संकट पैदा करती है.''
रूस में नेपाल के राजदूत रहे हिरण्य लाल श्रेष्ठ कहते हैं कि भारत नेपाल को परेशान भी करता है और चाहता है कि नेपाल उससे अपनी निर्भरता भी कम ना करे.
वे कहते हैं, ''अगर आप अचानक से नाकाबंदी करेंगे और हम खाने-पीने के सामान से भी महरूम हो जाएँ, तो हमें कोई दूसरा विकल्प देखना होगा. हमें देखना होगा कि चीन से ट्रांजिट रूट को कैसे मज़बूत किया जाए. हम भारत पर निर्भर रहकर अपना स्वाभिमान गिरवी नहीं रख सकते. नेपालियों को भी स्वाभिमान से जीने का हक़ है.''
नेपाल में कितना चीन
नेपाल के एक पूर्व डिप्लोमेट ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान कहा कि भारत अपने यहाँ तो चीन को रोक ही नहीं पा रहा है, नेपाल में क्या ख़ाक रोकेगा. उन्होंने कहा, ''लद्दाख़ में चीनी फ़ौज घुसी हुई है और अरुणाचल में गाँव बसा लिया है. इसलिए नेपाल की चिंता छोड़ भारत पहले अपनी चिंता करे.''
नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे ने बीबीसी हिंदी से कहा कि उन्होंने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि वो नेपाल दौरे पर अपने भाषणों में हिमालय का इतना ज़िक्र क्यों करते हैं? रमेशनाथ पांडे ने नेहरू से पूछा था कि वो हिमालय की ख़ूबसूरती से प्रभावित हैं या उसके पार के पड़ोसी देश से डरे रहते हैं. पांडे के अनुसार, नेहरू ने जवाब में कहा था कि दोनों बातें हैं.
नेहरू से लेकर अब तक नेपाल में चीन को लेकर भारत की आशंका बनी रही है. लेकिन नेपाल को लगता है कि भारत उसकी निर्भरता का फ़ायदा उठाता है, इसलिए चीन के साथ ट्रांजिट रूट को और मज़बूत करने की ज़रूरत है.
नेपाल और चीन के बीच एक अगस्त 1955 को राजनयिक रिश्ते की बुनियाद रखी गई. दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है. नेपाल और चीन के बीच की यह सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है. हिमालय की इस लाइन में नेपाल के 16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं.
यह सीमा नेपाल के उत्तरी हिस्से के हिमालयन रेंज में है. हालाँकि यह सीमा नेपाल और तिब्बत के बीच थी, लेकिन चीन ने तिब्बत को भी अपना हिस्सा बना लिया था. नेपाल हमेशा से चीन को लेकर संवेदनशील रहा. वन चाइना पॉलिसी का नेपाल ने हर हाल में पालन किया है और चीन के हिसाब से क़दम भी उठाया है.
21 जनवरी 2005 को नेपाल की सरकार ने दलाई लामा के प्रतिनिधि ऑफिस, जिसे तिब्बती शरणार्थी कल्याण कार्यालय के नाम से जाना जाता था, उसे बंद कर दिया. काठमांडू स्थित अमेरिकी दूतावास ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई थी, लेकिन नेपाल अपने फ़ैसले पर अडिग रहा. चीन ने नेपाल के इस फ़ैसले का स्वागत किया था.
1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल ने ख़ुद को तटस्थ रखा. नेपाल ने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया. नेपाली डिप्लोमैट हिरण्य लाल श्रेष्ठ कहते हैं कि भारत का पूरा दबाव था कि इस जंग में भारत के साथ नेपाल खुलकर आए.
हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 इयर्स ऑफ़ डायनेमिक पार्टनर्शिप' में लिखा है, ''नेपाल ने चीन के साथ 15 अक्तूबर 1961 को दोनों देशों के बीच रोड लिंक बनाने के लिए एक समझौता किया. इसके तहत काठमांडू से खासा तक एरानिको हाइवे बनाने की बात हुई. इस समझौते का भारत समेत कई पश्चिमी देशों ने भी विरोध किया. समझौते के हिसाब से चीन ने एरानिको हाइवे बनाया और इसे 1967 में खोला गया. कहा जाता है कि इस सड़क का निर्माण चीनी सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने किया. यह भारत से निर्भरता कम करने की शुरुआत थी.''
हालाँकि इस हाइवे को दुनिया का सबसे ख़तरनाक रोड कहा जाता है. भूस्खलन यहाँ लगातार होता है और अक्सर यह सड़क बंद रहती है. नेपाल इसी रूट के ज़रिए चीन से कारोबार करता है, लेकिन ये बहुत ही मुश्किल है. यहाँ भारी बारिश होती है जिससे, भूस्खलन यहाँ आम बात है. 144 किलोमीटर लंबी यह सड़क एकदम खड़ी ढाल में है और कहा जाता है कि इस पर गाड़ी चलाना जान जोखिम में डालने की तरह है.
चीन नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. हालाँकि इसके बावजूद कारोबार का आकार बहुत छोटा है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017-18 में नेपाल ने चीन से कुल 2.3 करोड़ डॉलर का निर्यात किया. इसी अवधि में नेपाल ने चीन से डेढ़ अरब डॉलर का आयात किया. नेपाल का चीन से कारोबार घाटा लगातार बढ़ रहा है.
हालाँकि चीन 2009 से 8,000 नेपाली उत्पादों को बिना कोई शुल्क के आने देता है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार नेपाल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ़डीआई का सबसे बड़ा स्रोत चीन है.
मार्च 2017 में काठमांडू में आयोजित नेपाल इन्वेस्टमेंट समिट में चीनी निवेशकों ने 8.3 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया था. नेपाल में विदेशी पयर्टकों का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत चीन है. 2018 में 164,694 चीनी पर्यटक नेपाल आए. एक जनवरी, 2016 से नेपाल की सरकार ने चीनी पर्यटकों के लिए वीज़ा शुल्क ख़त्म कर दिया था.
1989 में राजीव गाँधी की सरकार ने नेपाल और चीन ट्रांजिट संधि और बढ़ती क़रीबी की प्रतिक्रिया में आर्थिक नाकेबंदी लगा दी थी.
हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 इयर्स ऑफ डायनेमिक पार्टनर्शिप' में लिखा है, ''नवंबर 1989 में चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग नेपाल के दौरे पर आए. तब भारत ने नेपाल पर आर्थिक नाकेबंदी लगा दी थी और दोनों देशों में भारी तनाव था. नेपाल ने चीन से हथियार आयात करने का फ़ैसला किया था, इसीलिए राजीव गाँधी की सरकार ने नाकेबंदी लगा दी थी. मुश्किल भरे दिनों में चीनी प्रीमियर ली नेपाल आए और उन्होंने सहानुभूति के साथ हर संभव मदद देने की घोषणा की. 21 नवंबर, 1989 को ली पेंग ने काठमांडू में प्रेस कॉन्फ़्रेंस की और कहा कि चीन ने अपने दोस्त राष्ट्रों को सैन्य उपकरण मुहैया कराया है. हम उन देशों को मज़बूत करना चाहते हैं जिनकी सुरक्षा चिंताएँ हैं. सुरक्षा उपकरणों को भेजना बिल्कुल उचित फ़ैसला है और यह किसी भी देश के ख़िलाफ़ नहीं है. भारत को समझना चाहिए कि नाकेबंदी से नेपाल के आम लोग प्रभावित हो रहे हैं.''
इस दौरे को लेकर नेपाल राइजिंग ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा था, ''नेपाल में चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग का 19 से 21 नवंबर तक का तीन दिवसीय दौरा ऐतिहासिक रहा. ली पेंग नेपाली प्रधानमंत्री मरिचमान सिंह श्रेष्ठ के आमंत्रण पर आए और यह दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में मील का पत्थर साबित हुआ.''
चीन से नेपाल का संबंध राणाशाही से लेकर आज की लोकतांत्रिक सरकार तक से अच्छा रहा. किंग वीरेंद्र तो 1966 से 2001 तक 10 बार चीन गए. हालाँकि ओली और प्रचंड के नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में अलग होने को चीन के लिए झटके के तौर पर देखा जा रहा है.
चीन ने दोनों गुटों को एक करने की कोशिश की, लेकिन ओली नहीं माने. काठमांडू में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना एक प्रतिनिधिमंडल भी भेजा और चीन की राजदूत भी काफ़ी सक्रिय रहीं, लेकिन ओली नहीं माने.
नेपाल में कितना भारत?
नेपाल के साथ भारत के पाँच राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की 1850 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है. दोनों देशों के बीत बिना वीज़ा के आवाजाही है. तराई के इलाक़े के लोगों का रोज़ी-रोटी का संबंध काठमांडू की तुलना में भारत से कहीं ज़्यादा है.
1950 में भारत और नेपाल के बीच हुई शांति और मैत्री संधि को भी दोनों देशों के रिश्तों में अहम माना जाता है. हालाँकि नेपाल दशकों से इस संधि की समीक्षा चाहता है लेकिन भारत तैयार नहीं है. नेपाल का कहना है कि भारत ने ये संधि तब की थी, जब नेपाल में राणाशाही थी. नेपाल का तर्क है कि अब नेपाल एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है और सारी संधियाँ गणतंत्र के हिसाब से ही होंगी.
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने बीबीसी हिंदी से इस संधि को लेकर कहा कि ये नेपाल और भारत के रिश्तों में रोड़ा है और इन्हें दूर करने की ज़रूरत है. भट्टराई ने कहा कि भारत को समझना होगा कि नेपाल ऐतिहासिक बोझों को हमेशा के लिए नहीं ढो सकता.
1950 की मैत्री संधि के अनुच्छेद दो के अनुसार नेपाल और भारत दोनों किसी पड़ोसी देश से टकराव और ग़लतफ़हमी की सूरत में एक दूसरे को सूचित करेंगे. नेपाल का कहना है कि भारत ने इस उपबंध का कभी पालन नहीं किया. नेपाल का तर्क है कि भारत का चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ, तो उसने नेपाल को इसे लेकर कोई सूचना नहीं दी.
इस संधि के अनुच्छेद पाँच के अनुसार नेपाल भारत या भारत के ज़रिए हथियार, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री ख़रीद सकता है. नेपाल का कहना है कि भारत इसका पालन नहीं करता है. नेपाल का कहना है कि उसने 1989 में चीन से एंटी-एयरक्राफ़्ट गन ख़रीदने का फ़ैसला किया, तो भारत ने इसकी प्रतिक्रिया में नाकेबंदी लगा दी.
इस संधि के अनुच्छेद छह से नेपाल और भारत के नागरिकों को दोनों देशों में औद्योगिक और आर्थिक गतिविधि की अनुमति मिली हुई है. नेपाल इस उपबंध की समीक्षा चाहता है. नेपाल का तर्क है कि इस उपबंध के चलते नेपाली अपनी ही ज़मीन पर भारतीयों से पिछड़ जा रहे हैं.
1950 की मैत्री संधि के अनुच्छेद सात में नेपाल और भारत के लोगों को दोनों देशों में संपत्ति की ख़रीद और कारोबार की अनुमति मिली हुई है. नेपाल चाहता है कि भारत जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के नागरिकों को इस तरह का अधिकार नहीं मिलना चाहिए. लेकिन नेपाल ये चाहता है कि नेपालियों को भारत में संपत्ति की ख़रीद का अधिकार मिलना चाहिए.
भारत का कहना है कि इस संधि से नेपालियों को फ़ायदा है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार भारत में 80 लाख नेपाली भारतीयों की तरह रहते हैं और काम करते हैं और क़रीब छह लाख भारतीय नेपाल में रहते हैं. नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे कहते हैं कि भारत को चाहिए कि वो नेपाल को ऐतिहासिक और एकतरफ़ा बोझों से मुक्त करे.
वे कहते हैं, ''बात केवल 1950 की संधि की ही नहीं है. नेपाल के पानी से भारत को बिजली और सिंचाई ज़्यादा मिल रही है, जबकि नेपालियों को कम. नेपाल एक संप्रभु देश है और उस पर भारत का पहरा नहीं हो सकता. सीमा विवाद भी कोई आज की समस्या नहीं है. ये ऐतिहासिक विवाद हैं और इन्हें हल करने की ज़रूरत है. भारत में जब भी मज़बूत सरकार रही है, तब नेपाल को लेकर भारत की नीति एक जैसी रही है. मज़बूत सरकार से मतलब सरकार और पार्टी दोनों पर जिस प्रधानमंत्री का नियंत्रण रहा है, उनका छोटे पड़ोसी देशों के साथ व्यवहार एक जैसा रहा है. नरेंद्र मोदी, राजीव गाँधी, इंदिरा गाँधी और नेहरू तक की सरकार का छोटे पड़ोसी देशों के साथ एक जैसी नीति रही.''
क्या भारत को नेपाल में चीन की मौजूदगी से डरने की ज़रूरत है? रमेशनाथ पांडे कहते हैं, ''चीन और भारत में प्रतिस्पर्धा है, थी और रहेगी. अभी कुछ सालों से नेपाल चीन, भारत और अमेरिका के सामरिक हितों का टकराव केंद्र बना हुआ है. चीन और भारत दो ही देश हैं, जिनसे नेपाल ज़मीन से जुड़ा हुआ है. भारत को नेपाल में चीन को लेकर आशंकित होना स्वाभाविक है, लेकिन नेपाल सरकार की ज़िम्मेदारी है कि दोनों देशों के बीच समझदारी बनाए.''
क्या भारत को नेपाल से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वो खुलकर बोले कि अरुणाचल प्रदेश भारत का है और पूरा जम्मू-कश्मीर भी भारत का है? इस पर नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे कहते हैं, ''भारत को ये उम्मीद करनी चाहिए, लेकिन ये भी सोचना चाहिए कि नेपाल ने आज तक ऐसा क्यों नहीं किया. आख़िर भारत की ऐसी कौन सी नीति है, जिसकी वजह से नेपाल इस मामले में खुलकर सामने नहीं आया. इस मामले में नेपाल का स्टैंड ये है कि चीन और भारत का संबंध मधुर रहे और हम इसमें ही योगदान दे सकते हैं.''
दोनों देशों का कारोबार
नेपाल का भारत सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2018-19 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 8.27 अरब डॉलर का रहा. हालाँकि भारत के साथ भी नेपाल का द्विपक्षीय कारोबार घाटे का है. इस अवधि में नेपाल ने भारत में महज़ 50.9 लाख डॉलर का निर्यात किया, जबकि भारत से उसका आयात 7.76 अरब डॉलर का रहा.
भारत से नेपाल पेट्रोलियम उत्पाद, मोटर-गाड़ी, स्पेयर पार्ट्स, चावल, दवा, मशीनरी, बिजली उपकरण, सीमेंट, कृषि उपकरण, कोयला और कई तरह के उत्पादों का आयात करता है. नेपाल के साथ चीन की तुलना में भारत का कारोबार आठ गुना ज़्यादा है.
नेपाल में भारत का निवेश भी बहुत बड़ा है. भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार नेपाल में कुल मंज़ूर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारत का हिस्सा 30 फ़ीसदी है. नेपाल में भारत के 150 उपक्रम काम कर रहे हैं. इनमें बैंक से लेकर कई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियाँ तक शामिल हैं.
नेपाल अब हर हाल में भारत पर अपनी निर्भरता कम करना चाहता है. नेपाल बेटी-रोटी के संबंध वाले जुमले से अलग कहीं यथार्थ की ज़मीन पर भारत से रिश्ता बनाना चाहता है. नेपाली की चुनावी राजनीति में भारत का मुखर विरोध एक अहम राजनीतिक और चुनावी मुद्दा है.
कहा जाता है कि ओली अगर नेपाल के बड़े नेता बने, तो भारत विरोधी भावना का दोहन करके. 2015 में मोदी सरकार की अघोषित नाकेबंदी ने नेपालियों में भारत विरोधी भावना बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की. छह महीने की लंबी नाकेबंदी ने नेपाली राष्ट्रवाद में भारत विरोधी भावना को अहम कारक बनाकर रख दिया है.
इसी नाकेबंदी के बाद प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली 20 मार्च 2016 को चीन के दौरे पर गए थे और उन्होंने भारत से निर्भरता कम करने के लिए कई समझौते किए. ओली ने कोशिश की कि चीन के साथ ट्रांजिट रूट का विस्तार व्यापक हो.
लेकिन नेपाल और चीन के संबंधों में भौगौलिक दिक़्क़तें हैं. नेपाल और भारत के बीच 27 बॉर्डर प्वाइंट्स हैं, जबकि चीन और नेपाल के बीच महज़ एक बॉर्डर प्वाइंट तातोपानी है. चीनी पोर्ट गुआंगचोऊ काठमांडू से 2,844 किलोमीटर दूर है, जबकि कोलकाता पोर्ट काठमांडू से महज़ 866 किलोमीटर ही दूर है. ऐसे में दोनों देश चाहकर भी संबंधों को विस्तार नहीं दे पा रहे हैं.
इस्लामाबाद, 4 फरवरी | पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में सुरक्षा अभियान के दौरान चार आतंकवादी और दो सैनिक मारे गए। सेना ने यह जानकारी दी। गुरुवार की सुबह एक बयान में, सेना की मीडिया विंग, इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस ने कहा कि अफगानिस्तान की सीमा से लगे मीर अली शहर में बुधवार रात को दोनों तरफ से हुई गोलीबारी में चार सैनिक घायल भी हुए हैं।
बयान के अनुसार, सुरक्षा बलों को मीर अली के एक परिसर में आतंकवादियों की मौजूदगी का पता चला था।
बयान में कहा गया, "जैसे ही जवानों ने इलाके दबिश बढ़ाई, वहां छिपे आतंकवादियों ने सुरक्षाबलों पर गोली चला दी, जिसके बाद शुरू हुई मुठभेड़ में चार आतंकवादी मारे गए। "
बयान के अनुसार, मारे गए आतंकवादी फिरौती, जबरन वसूली, आईडी विस्फोट में शामिल थे।
पाकिस्तानी सेना ने हाल के वर्षो में उत्तरी वजीरिस्तान में तालिबान सहित आतंकवादी समूहों के खिलाफ कई ऑपरेशन चलाए हैं। (आईएएनएस)
कुवैत सिटी, 4 फरवरी | कुवैत कोविड -19 के प्रसार को रोकने के लिए एक नया प्रयास कर रहा है, जिसके तहत वह दो सप्ताह की अवधि के लिए देश में दूसरे देशों के निवासियों के प्रवेश को रोक देगा। एक सरकारी प्रवक्ता ने यहां इसकी घोषणा की। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के मुताबिक, बुधवार शाम को कुवैत सरकार की बैठक के बाद सरकारी प्रवक्ता तारेक अल-मेजरेम ने इस बारे में घोषणा की। बैठक सार्वजनिक स्वास्थ्य की स्थिति और नवीनतम घटनाओं पर चर्चा करने के लिए आयोजित की गई थी।
दो सप्ताह का प्रतिबंध 7 फरवरी से शुरू होगा।
इसके अलावा, सरकार ने सभी व्यावसायिक गतिविधियों को रात 8 बजे से सुबह 5 बजे तक निलंबित करने का फैसला लिया है।
उन्होंने कहा कि दवाई कंपनियों और किराने की दुकानों को छोड़कर यह समय अवधि लागू है।
उन्होंने कहा कि स्पोर्ट्स क्लब, जिम, सैलून और स्पा सेंटर में सभी गतिविधियों को भी फिलहाल रोक दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि इस दौरान राष्ट्रीय दिवस सहित सभी उत्सव गतिविधियों को प्रतिबंधित किया जाएगा।
स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि कुवैत में कोरोना के मामलों की संख्या बढ़कर 167,410 हो गई है। जबकि इस महामारी से यहां 961 लोगों की मौत हुई है। (आईएएनएस)
इस्लामाबाद, 4 फरवरी | पाकिस्तान सेना ने घोषणा की कि उसने सतह से सतह पर मार करने वाली बैलिस्टिक मिसाइल का सफल अभ्यास परीक्षण किया है। यह 290 किमी की दूरी तक परमाणु और पारंपरिक वारहेड को पहुंचाने में सक्षम है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने सेना के मीडिया विंग इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशन के हवाले से बुधवार को कहा, " 'गजनवी' मिसाइल का यह अभ्यास परीक्षण वार्षिक फील्ड ट्रेनिंग एक्सरसाइज ऑफ आर्मी स्ट्रेटेजिक कमांड का समापन बिंदु था।
बयान के अनुसार, राष्ट्रपति आरिफ अल्वी, प्रधान मंत्री इमरान खान और सेवा प्रमुखों ने लॉन्च के सफल आयोजन पर सेना के सामरिक बल कमान के सभी रैंकों, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को बधाई दी।
बयान में कहा गया है कि कमांडर आर्मी स्ट्रेटेजिक फोर्सेज कमांड लेफ्टिनेंट जनरल मुहम्मद अली ने हथियार प्रणाली को संभालने और संचालन में उत्कृष्ट मानक के संचालन की तैयारी और प्रदर्शन की सराहना की।
पाकिस्तान ने पिछले महीने सतह से सतह पर मार करने वाली शाहीन-3 बैलिस्टिक मिसाइल का सफल परीक्षण किया था, जिसकी रेंज 2,750 किमी है। (आईएएनएस)
ईरानी सरकार के आलोचक रुहोल्लाह जाम अक्टूबर 2019 में परिवार के साथ फ्रांस में निर्वासन में रह रहे थे. वहां से वे एक अच्छी खासी न्यूज वेबसाइट चला रहे थे. लेकिन साल भर बाद 12 दिसंबर 2020 को उन्हें ईरान में फांसी दे दी गई.
जाम को फांसी चढ़ाए जाने की दुनिया भर में निंदा हुई. लेकिन सवाल यह है कि 42 साल के जाम कैसे फ्रांस में अपनी आराम वाली जिंदगी छोड़कर ईरान में मौत के मुंह में जा गिरे. जाम उन नेताओं की चालों को क्यों नहीं समझ पाए, जिनके खिलाफ वह अपनी वेबसाइट पर लिखा करते थे.
जाम के पिता एक मौलवी हैं और ईरान में रहते हैं. वह ईरानी सांस्कृतिक संस्थानों में बड़े पदों पर रह चुके हैं. इसलिए वह 1979 की इस्लामी क्रांति के भी कड़े समर्थक रहे हैं जिसके तहत ईरानी शाह को सत्ता से हटाया गया. उन्होंने मौजूदा ईरान के संस्थापक रुहोल्लाह खोमैनी के नाम पर अपने बेटे का नाम रखा.
फ्रांस में रुहोल्लाह जाम के साथियों और दोस्तों ने एएफपी को बताया कि ईरान ने अक्टूबर 2019 में एक जाल फैलाया और जाम उसमें फंस गए. पेरिस में रहने वाले लेखक और जाम के साथ काम कर चुके महताब गोरबानी ने बताया, "उन्होंने इराक जाकर एक खतरनाक खेल खेला, जिसमें उन्हें मात मिली. वह ईरानी सरकार की तरफ से खेले गए गए गंदे मनोवैज्ञानिक खेल में घसीट लिए गए."
जाम लगभग पांच साल से फ्रांस में रह रहे थे. उनके टेलीग्राम चैनल एडमन्यूज को बीस लाख लोगों ने फॉलो किया था. उन्होंने 2017-18 की सर्दियों में ईरान में होने वाले प्रदर्शनों में लोगों से ज्यादा से ज्यादा संख्या में हिस्सा लेने को कहा. इसके अलावा उन्होंने अपने लेखों में ईरानी नेतृत्व पर कई सनसनीखेज आरोप भी लगाए थे.
एक प्रभावशाली व्यक्ति की संतान होने के नाते जाम के तेहरान में कई बड़े लोगों से संपर्क थे, जो उन्होंने 2009 में ईरान छोड़ने के बाद भी बनाए रखे. जाम ने 2009 के विवादित राष्ट्रपति चुनाव के बाद हुए प्रदर्शनों के बीच ईरान छोड़ा था. पहले वह मलेशिया गए, फिर तुर्की और उसके बाद फ्रांस पहुंचे.
जाम के दोस्त और एक ईरानी शरणार्थी माजियार कहते हैं, "जब सत्ता में बैठे लोगों के बीच टकराव होता था तो वे जाम की तरफ आते थे. जाम ने उन्हें खूब जानकारियां दी. उनके लिए कोई सीमा नहीं थी. वह ना राष्ट्रपति का सम्मान करते थे और ना ही सर्वोच्च नेता का. किसी का नहीं. यहां तक वह खुद अपने पिता पर हंसा करते थे."
लेकिन एडमन्यूज की कामयाबी और जाम के बढ़ते कट्टरपन की एक सीमा थी. टेलीग्राम ने एडमन्यूज का चैनल सस्पेंड कर दिया और उस पर अपने फॉलोवर को पुलिस के खिलाफ पेट्रोल बम इस्तेमाल करने के लिए उकसाने का आरोप लगा. जाम का प्रभाव घटने लगा. यहां तक कि उनके दोस्त भी पूछने लगे कि क्या वह ईरानी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए ज्यादा ही उतावले नहीं हो रहे हैं.
कैसे जाल में फंसे
पेरिस में जाम की मदद करने वाले एक वकील हसनन पेरेशत्यान कहते हैं, "रुहोल्लाह बहुत मशहूर हो गए. वह ईरानी सरकार को उखाड़ फेंकने की वकालत करने लगे. कहीं ना कहीं वह खुद को नेता समझने लगे. धीरे धीरे वह अपने दोस्तों को खोते चले गए."
गोरबानी कहते हैं, "जाम अकेले थे और अलग थलग भी. यहां तक कि निर्वासन में रहने वाले ईरानी विपक्ष के एक धड़े ने उन पर विश्वास करना छोड़ दिया." उन्हें धमकियां मिलने लगी, जिसके बाद पेरिस की पुलिस को उन्हें सुरक्षा मुहैया करानी पड़ी. जाम के दोस्त कहते हैं कि यह उनके लिए बहुत मुश्किल समय था. एक बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति, जिसे लग रहा था कि उसने मीडिया में तेजी से जो जगह बनाई थी, वह हाथ से फिसल रही है. माजियार कहते हैं, "वह ऐसी जगह पर थे कि उनसे गलत फैसले हों और वह जाल में फंस जाएं."
वर्ष 2019 में अक्टूबर के मध्य में वह पेरिस में पेरेशत्यान के दफ्तर में पहुंचे और बताया कि वह इराक जा रहे हैं. वहां जाकर वह अयातोल्लाह अली सिस्तानी का इंटरव्यू करना चाहते थे जो शिया इस्लाम की बड़ी हस्तियों में से एक हैं. बताया गया कि इस इंटरव्यू के साथ एक नया टीवी चैनल लॉन्च होना था, जिसमें एक ईरानी कारोबारी का पैसा लगेगा.
जाम के दोस्तों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि बगदाद ना जाएं क्योंकि इराक एक शिया बहुल देश है और उस पर ईरान का काफी प्रभाव है. पेरेशत्यान कहते हैं - मैंने चिल्लाकर उससे कहा, "अगर तुम वहां गए तो यह अंत होगा. फिर तुम कभी वापस फ्रांस नहीं आ पाओगे."
लेकिन जाम ने अगले दिन अम्मान जाने वाली फ्लाइट ली और उसके बाद वहां से अगले दिन बगदाद की तरफ उड़ चले. माजियार कहते हैं, "हर किसी ने उन्हें सलाह दी कि वहां मत जाओ, यहां तक कि उनके अंगरक्षक ने भी. लेकिन वह नहीं माने और इतना ही कहा कि वह इंतजार करके थक गए हैं. और अफसोस की बात है कि वह चले गए."
कितने देशों में
एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट कहती है कि 2017 तक 142 देशों ने अपने यहां मौत की सजा को खत्म कर दिया था. 106 देशों में तो किसी भी अपराध के लिए मौत की सजा नहीं होती. लेकिन 23 देशों में यह सजा अब भी है.
जाम ने अम्मान एयरपोर्ट से अपनी पत्नी को टेलीफोन किया, लेकिन लगता है कि जैसे ही वह बगदाद के एयरपोर्ट पर पहुंचे, उन्हें दबोच लिया गया. उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई और एक कार में डालकर ईरानी सीमा की तरफ ले जाया गया. बाद में एक ईरानी टीवी में प्रसारित एक फुटेज में यह सब दिखाया गया. ईरान में हिरासत में रखे जाने के दौरान जुलाई 2020 में उनका एक इंटरव्यू सरकारी टीवी चैनल पर प्रसारित हुआ. विपक्षी कार्यकर्ता कहते हैं कि ईरान में अकसर कैदियों का इस तरह इंटरव्यू लिया जाता है जिसमें जबरदस्ती अपना जुर्म कबूल कराया जाता है.
जाम पर "भ्रष्टाचार के बीज बोने" और फ्रांस और इस्राएल जैसे देशों के लिए जासूसी करने के आरोप लगे, जिन्हें खुद जाम और उनके समर्थकों ने खारिज किया. 12 दिसंबर को उन्हें फांसी दे दी गई. उनके पिता ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर लिखा कि उन्हें फांसी से एक दिन पहले अपने बेटे से मिलने दिया गया. उनका कहना है कि रुहोल्लाह को अंधेरे में रखा गया था.
जाम की बेटी नियाज ने सोशल मीडिया पर लिखा ने उनके पिता ने फांसी से पहले व्हाट्सएप पर कॉल किया, ब्रिटेन के किसी नंबर से. उन्होंने लिखा, "मुझे पता चल गया था कि ऐसा होने वाला है. और सबसे मुश्किल बात यह है कि मैं कुछ नहीं कर सकती थी." परिवार अभी तक सदमे है. उन्होंने एएफपी से बात करने से इनकार कर दिया.
निंदा और आलोचना
अमेरिका और यूरोपीय देशों ने जाम की फांसी की निंदा की जबकि संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार प्रमुख मिशेल बेशलेट ने कहा कि उन्हें ईरानी सीमा के बाहर जाम को पकड़ने के बारे में "गंभीर आपत्तियां" हैं और "इसे अपहरण के बराबर" माना जाएगा. लेकिन ईरानी राष्ट्रपति हसन रोहानी ने कहा कि वह मानते हैं कि इसकी वजह से ईरान और यूरोप के संबंधों को कोई नुकसान नहीं होगा. उन्होंने कहा कि मौत की सजा ईरानी न्याय व्यवस्था का हिस्सा है.
बहरहाल यह फांसी फ्रांस में रहने वाले ईरान के आलोचकों को एक चेतावनी थी कि देश से बाहर होने के बाजवूद वे अपनी सुरक्षा को लेकर निश्चिंत नहीं हो सकते. गोरबानी कहते हैं, "इस फांसी के जरिए वे सरकार समर्थकों को संदेश देना चाहते हैं कि दूसरे रास्ते पर जाने की हिम्मत भी ना करें. साथ ही वे ईरान से बाहर रहने वाले लोगों को दिखाना चाहते हैं कि वे कितने ताकतवर हैं."
एके/एमजे (एएफपी)
म्यांमार में कुछ दिनों से उड़ रहीं तख्तापलट की अफवाहें आखिरकार सच साबित हुईं. रिटारटमेंट की तरफ बढ़ रहे सेना प्रमुख का सत्ता बने रहने का लालच अंत में लोकतंत्र पर भारी पड़ा. अब इसकी कीमत पूरा देश चुकाएगा.
डॉयचेवेले पर राहुल मिश्र का लिखा
एक फरवरी की रात को हुए नाटकीय घटनाक्रम के बीच स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची और सत्तारूढ़ नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के तमाम नेताओं को म्यांमार की सेना ने गिरफ्तार कर लिया. राष्ट्रपति विन मिन और कई प्रांतों के मुख्यमंत्रियों और बड़े नेताओं को भी सेना ने बंधक बना लिया और सुबह होते ही देश में आपातकाल की घोषणा कर दी.
प्रमुख सेनाध्यक्ष जनरल मिन आंग लाई के वक्तव्य के साथ सेना ने देश में राजनीतिक तख्तापलट को अंजाम दे दिया. आनन फानन में मिन स्वे को राष्ट्रपति बना दिया गया और उन्होंने सत्ता जनरल मिन आंग लाई को सौंप दी. अपनी बातों में वजन और गंभीरता लाने के लिए सेना ने यह भी कहा है कि आपातकाल सिर्फ एक साल के लिए है और संवैधानिक हालात में सुधार होते ही आम चुनाव करा दिए जाएंगे. वैसे म्यांमार में सेना किसी दूसरे पक्ष को सत्ता हस्तांतरित करेगी, यह बात फिलहाल तो नामुमकिन ही लगती है.
हैरत की बात यह है कि सेना के मुताबिक देश में राष्ट्रीय आपातकाल और तख्तापलट संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और चुनावों में तथाकथित धांधली की निष्पक्ष जांच के लिए जरूरी था. सेना का कहना है कि सू ची की पार्टी ने चुनावों में 80 लाख वोटों की धांधली की है. इसके संदर्भ में उन्होंने संघीय चुनाव आयोग से शिकायत भी की थी, लेकिन आयोग ने इस मांग को खारिज कर दिया. देश की सप्रीम कोर्ट में भी यह मामला अभी लंबित है.
जो भी हो, अपनी हार से झुंझलाई सेना ने सोची समझी रणनीति के तहत लोकतंत्रिक व्यवस्था को ही उखाड़ फेंका और नतीजा सबके सामने है. इसके बावजूद सेना संवैधानिक तौर पर गलत नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 417 के तहत सेना राष्ट्रहित में यह कदम उठा सकती है.
म्यांमार
म्यांमार की सेना ने आंग सान सू ची को हिरासत में लेकर फिर एक बार देश की सत्ता की बाडगोर संभाली है. 2020 में हुए आम चुनावों में सू ची की एनएलडी पार्टी ने 83 प्रतिशत मतों के साथ भारी जीत हासिल की. लेकिन सेना ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया. देश में लोकतंत्र की उम्मीदें फिर दम तोड़ती दिख रही हैं.
म्यांमार दुनिया के उन देशों में से एक है जहां एक आम इंसान के लिए अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र जैसी बातें अधूरे सपने जैसी लगती रही हैं. 1962 से सैन्य तानाशाही का झेल रहे म्यांमार में सिर्फ आठ साल पहले सत्ता के गलियारों में प्रशासनिक सुधारों और लोकतंत्र की बात चली. पूर्व सेनाध्यक्ष थीन सीन ने 2011 में सुधारों की शुरुआत की और अप्रैल 2012 के उपचुनावों में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची और उनकी पार्टी एनएलडी को बहुत अच्छा समर्थन और सीटें मिलीं.
इसके बाद 8 नवंबर 2015 को हुए आम चुनावों में तो मानो कमाल ही हो गया. कमाल यह नहीं कि सू ची और उनकी पार्टी की जीत हुई, बल्कि कमल यह कि सेना और उसकी प्रॉक्सी पार्टी और रिटायर्ड फौजियों के क्लब यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) ने अपनी हार को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया.
इसके पांच साल बाद फिर 8 नवंबर 2020 को आम चुनाव हुए और एक बार फिर एनएलडी को भारी बहुमत हासिल हुआ. अपने पक्ष में लगभग 83 प्रतिशत कुल वैध वोटों के अलावा निचले सदन की 440 में से 315 सीटें और ऊपरी सदन की दो तिहाई से ज्यादा सीटें हासिल करने के बाद सू ची की सत्ता में वापसी सुनिश्चित थी. यूएसडीपी की हार के बाद सेनाध्यक्ष आंग मिन लाई का भविष्य भी तय ही लग रहा था.
जनरल मिन लाई का सेनाध्यक्ष के तौर पर रिटायरमेंट नजदीक है. राजनीति में उनकी दिलचस्पी है और उन्हें एनएलडी से खासी नफरत भी है. थीन सीन की तरह सन्यास और वानप्रस्थ का उनका कोई इरादा भी नहीं है. लिहाजा उन्होंने संविधान को बचाने के नाम पर अपनी सत्ता को बचाने की ठानी. जनरल मिन लाई की महत्वाकांक्षा को सेना के कार्यरत और रिटायर्ड अधिकारियों का समर्थन भी है. इसलिए भी कि सेना को यह अंदेशा हो चला था कि सू ची संविधान में बदलाव कर उसकी शक्ति को कम करने की फिराक में है. संसद में संख्या बल के आधार पर तो यह बहुत दूर की कौड़ी नहीं दिख पड़ रही थी.
इंदिरा गांधी- जवाहर लाल नेहरू
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा को राजनीति में गूंगी गुड़िया तक कहा गया. लेकिन इंदिरा गांधी अपने नेतृत्व और राजनीतिक दांव पेंच के दम पर भारत की महिला प्रधानमंत्री बनीं.
बहरहाल, एक फरवरी को देश की नवनिर्वाचित संसद की पहली बैठक होनी थी. अगर सेना के लिहाज से देखें तो सत्ता परिवर्तन का इससे अच्छा तो कोई समय हो नहीं सकता था. अगर सेना की यही घोषणा संसद का सत्र शुरू होने के हफ्ते भर बाद होती तो शायद एनएलडी की स्थिति ज्यादा मजबूत होती और उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं में ज्यादा समन्वय भी होता. लेकिन पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद भी आज सू ची और उनकी पार्टी फिर उसी जगह खड़े हैं जहां से उन्होंने यह सफर शुरू किया था.
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सेना के इस कदम को रोका नहीं जा सकता था, या क्या वक्त रहते उसका प्रतिरोध नहीं किया जा सकता था? इस सवाल का जवाब हां ही है.
पिछले पांच साल में सू ची और उनकी पार्टी की रणनीति यूएसडीपी से तालेमल बिठा कर और सत्ता का बंटवारा कर राज करने की रही थी. सेना की शक्ति से भला कौन नहीं डरता? सेना को मनाने और शांति से रहने की आस ने सू ची की राजनीतिकि सूझ-बूझ को कुंद कर दिया. राजनीति कौटिल्य, मैकियावली और सुं जू के दिखाए रास्ते वाली शतरंज की चाल है जहां अधमने मन से किया काम पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है.
शांति से सत्ता पर काबिज रहने की कवायद सू ची को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के दरवाजे भी ले गई जहां उन्हें सेना के अधिकारियों के ऊपर लगे रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के नरसंहार के आरोपों पर बयान देना था. सू ची ने कोर्ट में वही कहा जो पिछले पांच सालों से उनकी पार्टी कहती आई है.
संयुक्त राष्ट्र संघ और दूसरी सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के कहने के बावजूद एनएलडी और म्यांमार की सेना यह मानने को तैयार नहीं हैं कि रोहिंग्या अल्पसंख्यक मुस्लिम और हिंदूओं का नरसंहार हुआ है या लाखों की संख्या में वे देश छोड़ कर भाग कर रहे हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था के रवायती मुद्दों को छोड़ दें तो पिछले पांच सालों में म्यांमार को सू ची वह सब नहीं दे सकीं जिसकी उम्मीद की गई थी.
निंदा और आलोचना
बहरहाल देश में तनाव और अनिश्चितता का माहौल है. अमेरिका की कड़ी आलोचनाओं के बीच कहीं न कहीं सेना को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का डर भी सता रहा है. साथ ही ये चिंताएं भी कि आगे की चाल कैसे चली जाए कि सब कुछ निर्बाध चलता रहे.
दूसरी ओर लोग सड़कों पर अपने-अपने तरीके से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. देश के डॉक्टरों ने अनौपचारिक तौर पर एक असहयोग आंदोलन का बिगुल फूंक दिया है और अप्रवासी म्यांमारी नागरिक जहां भी हैं वहां से म्यांमार के दूतावासों के सामने लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों में लगे हैं.
सोशल मीडिया पर विरोध की आग धधक रही है लेकिन यांगोन और मांडले जैसे शहरों में गहरा सन्नाटा पसरा है. म्यांमार में लोकतंत्र के हर समर्थक को शायद यही डर है कि जैसे जैसे समय बीतता जाएगा, वैसे वैसे इस चुनाव की जीत की प्रासंगिकता पर सवाल भी उठते जाएंगे और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर वापसी भी.
(राहुलमिश्रमलायाविश्वविद्यालयकेएशिया-यूरोपसंस्थानमेंअंतरराष्ट्रीयराजनीतिकेवरिष्ठप्राध्यापकहैं)
अरुल लुइस
संयुक्त राष्ट्र, 4 फरवरी | सीरिया में आतंकी समूह इस्लामिक स्टेट (आईएस) के पुनरुत्थान के मद्देनजर भारत ने चेतावनी दी है कि आतंकवादियों के हाथों में केमिकल हथियार पहुंच सकता है।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के उप स्थायी प्रतिनिधि आर. रवींद्र ने बुधवार को सुरक्षा परिषद को बताया, "भारत आतंकवादी संगठनों और आतंकवादियों के हाथों में सामूहिक विनाश के ऐसे खतरनाक हथियारों के पहुंचने की संभावना को लेकर चिंतित है। इन आतंकवादी समूहों ने सीरिया में एक दशक से चल रहे संघर्ष का फायदा उठाते हुए पूरे क्षेत्र के लिए खतरा पैदा किया है। क्षेत्र में आईएस के पुनरुत्थान की खबरें लगातार बढ़ रही हैं।"
2013 में अपनाए गए प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से मांग की गई थी कि सदस्य देशों के अलावा अन्य लोग या आतंकवादी समूह परमाणु, रासायनिक या जैविक हथियारों का ना तो वितरण कर सकेंगे, ना ही उनका विकास, अधिग्रहण, निर्माण, स्वामित्व, परिवहन, हस्तांतरण या उपयोग कर सकेंगे।
रवींद्र ने कहा, "दुनिया इन आतंकवादियों को कोई इलाका देने या इन आतंकवादी समूहों के खिलाफ अपनी लड़ाई को कम करने का जोखिम नहीं उठा सकती है।"
निरस्त्रीकरण मामलों के संयुक्त राष्ट्र की उच्च प्रतिनिधि इजुमी नाकामित्सु ने आरोप लगाया कि सीरिया ने इस प्रस्ताव का पालन नहीं किया है। उन्होंने कहा, "इस स्तर पर सीरियाई अरब गणराज्य द्वारा पेश की गई घोषणा को केमिकल वेपंस कंवेंशन (सीडब्ल्यूसी) के अनुसार सटीक और पूर्ण नहीं माना जा सकता है।"
उन्होंने कहा कि कुल 19 मुद्दे बाकी थे और उनमें से एक केमिकल हथियारों के उत्पादन करने वाली फैसिलिटी से जुड़ा था। वैसे दमिश्क ने इस आरोप से इनकार किया है। सीरिया में रासायनिक हथियारों के मुद्दे ने रूस को चीन से कुछ हद तक पीछे कर दिया है, जो पश्चिमी देशों की खिलाफत कर रही बशर अल-असद की सरकार के खिलाफ विरोध कर रहे हैं। बता दें कि नई दिल्ली के भी सीरिया से घनिष्ठ संबंध हैं।
रवींद्र ने कहा, "भारत ने सीरिया के नेतृत्व में वार्ता के जरिए सीरियाई संघर्ष का व्यापक और शांतिपूर्ण समाधान खोजने का आह्वान किया है। भारत ने हमेशा सीरिया को सामान्यीकरण और पुनर्निर्माण के लिए योगदान दिया है। अब वह इस रिश्ते को कोविड-19 टीके देने के साथ आगे बढ़ाने के लिए तैयार था। "
उन्होंने यह भी कहा कि भारत पहला देश था जिसने खुद को रासायनिक हथियार मुक्त देश घोषित करते हुए सीडब्ल्यूसी पर सबसे पहले हस्ताक्षर किए थे। (आईएएनएस)
नाएप्यीडा, 4 फरवरी | म्यांमार ने राज्य के स्वामित्व वाली दूरसंचार कंपनियों को 7 फरवरी की मध्यरात्रि तक फेसबुक को अस्थायी रूप से ब्लॉक करने का निर्देश दिया है। इसकी वजह यह बताई गई है कि सोशल मीडिया देश में अस्थिर माहौल पैदा कर सकता है। इंटरनेट के संचालन की निगरानी रखने वाला संगठन नेटब्लॉक्स ने अपनी रिपोर्ट में बताया, यहां राज्य के स्वामित्व वाली प्रमुख दूरसंचार ऑपरेटर एमपीटी ने अपने नेटवर्क पर फेसबुक के साथ मैसेंजर, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप को भी ब्लॉक कर दिया है।
टेकक्रंच की रिपोर्ट के मुताबिक, फेसबुक के एक प्रवक्ता ने बुधवार देर रात को बताया कि कंपनी इस बात से वाकिफ थी कि फेसबुक का इस्तेमाल कर पाना अभी यूजर्स के लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है।
देश में कुछ उपयोगकर्ताओं ने बताया कि उनके फोन पर फेसबुक नहीं चल रहा है।
बजफीड के मुताबिक, हफ्ते की शुरुआत में यहां तख्तापलट होने के बाद फेसबुक ने म्यांमार को अस्थायी रूप से उच्च जोखिम वाले स्थान के रूप में नामित किया है। (आईएएनएस)
बीजिंग, 3 फरवरी : चीन ने कोविड-19 टीके पर अपने कूटनीतिक प्रयासों को तेज करते हुए कहा है कि वह वैश्विक ‘कोवैक्स' पहल के लिए कोरोना वायरस के टीके की एक करोड़ खुराक उपलब्ध कराएगा.
चीन का यह बयान विशेषज्ञों के इस अनुमान के बीच आया है कि भारत विश्व को यह टीका वितरित करने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है.चीन ने ‘कोवैक्स' के टीकों की आपूर्ति करने की पेशकश की है. इसके लिए उसने अपने टीके को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) से आपात उपयोग मंजूरी का इंतजार किया है.
‘कोवैक्स' को औपचारिक रूप से कोविड-19 टीके वैश्विक पहुंच सुविधा के तौर पर जाना जाता है, जो कि एक वैश्विक पहल है. इसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि मध्यम और निम्न आय वाले देशों को कोरोना वायरस के टीके समय से मिल जाएं.
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबीन ने यहां संवाददाताओं से कहा कि चीन ने विकासशील देशों की टीके की तत्काल जरूरत को पूरा करने के लिए WHO के अनुरोध पर इसकी एक करोड़ खुराक मुहैया करने का फैसला किया है.
चीन पिछले साल कोवैक्स में शामिल हुआ था, जिसका नेतृत्व गावी कर रहा है, जो कि एक अंतरराष्ट्रीय टीका गठबंधन है.चीनी अधिकारियों ने कहा कि उनका देश अभी 16 टीकों का ‘फील्ड ट्रायल' कर रहा है, जबकि उसने अपने टीके सीनोफार्म को सशर्त मंजूरी प्रदान की है और इसने पाकिस्तान सहित कई देशों को खुराक की आपूर्ति शुरू कर दी है.
गौरतलब है कि हाल ही में चीन में नकली टीके के खिलाफ कार्रवाई के दौरान 80 से अधिक लोग गिरफ्तार किये गये थे. दरअसल, टीके की शीशी में सलाइन का पानी भरा हुआ पाया गया था. कुछ नकली टीके कथित तौर पर अफ्रीकी देशों को भेजे गये हैं.कोवैक्स को टीके मुहैया करने की चीन की घोषणा से पहले ही भारत ने कई देशों को टीके की आपूर्ति की है.
वहीं, चीन ने घोषणा की है कि वह श्रीलंका को तीन लाख टीकों की आपूर्ति करेगा, जबकि भारत ने हाल ही में पांच लाख खुराक कोलंबो भेजी थी. चीन ने नेपाल, मालदीव और ब्राजील को भी टीके की आपूर्ति करने की पेशकश की है. हालांकि, ये देश भारत से टीकों की पहली खेप पहले ही प्राप्त कर चुके हैं. दक्षिण अफ्रीका ने पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित कोविशील्ड टीके की 10 लाख खुराक प्राप्त की है. दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरील रामफोस ने घोषणा की है कि उनका देश इस महीने के अंत में भारत से और पांच लाख खुराक प्राप्त करने की उम्मीद कर रहा है.जार्जटाउन विश्वविद्यालय में ओनील इंस्टीट्यूट फॉर नेशनल ऐंड ग्लोबल हेल्थ लॉ के निदेशक लॉरेंस गोस्टीन ने एससीएमपी से कहा है, ‘‘विश्व को टीका वितरण करने में भारत के अग्रणी बनने की संभावना है, खासतौर पर निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों के लिए इसकी आपूर्ति करने में.''
व्लादिमीर पुतिन "बंकर में रहने वाले छोटे कद के चोर" हैं जो "रूस का खून चूस रहे हैं" ऐसे दावे करने वाले अलेक्सी नवाल्नी ने रूसी जनता के एक बड़े तबके को पुतिन का विरोधी बना दिया है.
दो फरवरी 2021 को मॉस्को की एक अदालत ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुके अलेक्सी नवाल्नी को साढ़े तीन साल कैद सजा सुनाई. कोर्ट ने उन्हें 2014 के एक मामले में पैरोल के नियम तोड़ने का दोषी करार दिया. नवाल्नी पहले ही कुछ समय हाउस अरेस्ट में काट चुके हैं. लिहाजा मंगलवार को सुनाई गई सजा दो साल आठ महीने की होगी.
सुनवाई के दौरान नवाल्नी ने कोर्ट में कहा कि "मैंने जिंदा बचकर उन्हें (पुतिन को) गंभीर रूप से नाराज किया है." आगे नवाल्नी ने कहा, "और इसके बाद भी मैंने एक बहुत ही गंभीर अपराध किया: मैं न तो भागा और ना ही छुपा."
पुतिन के खिलाफ प्रदर्शन
नवाल्नी को जिस वक्त सजा सुनाई जा रही थी, उस समय अदालत के बाहर बड़ी संख्या में पुतिन विरोधी प्रदर्शन भी हो रहे थे. रूसी प्रशासन ने कई शहरों में नवाल्नी का समर्थन कर रहे 1,400 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया. सबसे ज्यादा प्रदर्शनकारी मॉस्को और सेंट पीटर्सबर्ग शहर में गिरफ्तार किए गए हैं. रूस में बीते दो हफ्ते से नवाल्नी की अपील के बाद प्रदर्शन हो रहे हैं. इन रैलियों में हिस्सा लेने वाले 50 फीसदी लोग ऐसे हैं जो पहली बार प्रदर्शन कर रहे हैं.
नागरिक अधिकारों की निगरानी करने वाले पर्यवेक्षकों के मुताबिक बीते दो हफ्तों में 10 हजार से ज्यादा लोग हिरासत में लिए जा चुके हैं.
जेल जाने से पहले नवाल्नी कांच के दरवाजे में जमी भाप पर दिल का आकार बनाया. उनका ये संदेश अपनी पत्नी और समर्थकों के लिए था.
नवाल्नी के पीछे क्यों पड़े हैं पुतिन
44 साल के अलेक्सी नवाल्नी लंबे समय में पुतिन के आलोचक रहे हैं. नवाल्नी बीते एक दशक से अपने यूट्यूब चैनल के जरिए रूसी सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोलने का दावा करते हैं. वह रूस के पूर्व राष्ट्रपति और पुतिन के करीबी सहयोगी दिमित्री मेद्वेद्वेव की इटली में अकूत संपत्ति पर वीडियो बना चुके हैं. पुतिन को भी वह भ्रष्टाचार में डूबा तानाशाह कहते हैं. नवाल्नी के मुताबिक पुतिन दुनिया के सबसे अमीर लोगों में आते हैं. उनकी संपत्ति 200 अरब डॉलर से ज्यादा है. नवाल्नी काले सागर के पास स्थित एक विला पर वीडियो रिलीज कर चुके हैं. नवाल्नी का आरोप है कि एक अरब डॉलर का ये विला व्लादिमीर पुतिन का है. इंटरनेट के जरिए पुतिन सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले नवाल्नी राजनीतिक तौर पर भी पुतिन को चुनौती देते रहते हैं.
नवाल्नी को जान से मारने की कोशिश
अगस्त 2020 में साइबेरिया से मॉस्को की फ्लाइट में नवाल्नी बुरी तरह बीमार हो गए. उन्हें उल्टियां होने लगी और उड़ान के दौरान ही वह बेहोश हो गए. विमान को इमरजेंसी में रूस के ओम्स्क में उतारना पड़ा. इसके बाद बढ़ते दबाव के कारण रूस को नवाल्नी को इलाज के लिए जर्मन राजधानी बर्लिन भेजना पड़ा.
बर्लिन के शारिटे अस्पताल में इलाज के दौरान जर्मनी और फ्रांस ने दावा किया कि नवाल्नी को तंत्रिकाओं पर हमला करने वाला जहर नोविचोक दिया गया था. नवाल्नी का आरोप है कि यह हमला पुतिन के इशारे पर हुआ. नवाल्नी का दावा है कि हमले में शामिल खुफिया सर्विस के एजेंट ने खुद यह बात स्वीकार की है. व्लादिमीर पुतिन इन आरोपों से इनकार करते हैं.
कई महीने चले इलाज के बाद 17 जनवरी को नवाल्नी वापस मॉस्को लौटे. लेकिन कुछ ही देर में उन्हें हिरासत में लिया गया और अगले दिन 30 दिन के लिए जेल भेज दिया गया.
नवाल्नी के असर को खत्म करने की कोशिश
नवाल्नी के समर्थन में रूस के कई शहरों में प्रदर्शन हो रहे हैं. विश्लेषकों का कहना है कि इन प्रदर्शनों को ठंडा करने के लिए ही नवाल्नी को सजा दी गई है. लंबे समय बाद यह पहला मौका है जब बड़ी संख्या में प्रदर्शनों से दूर रहने वाले आम रूसी भी नवाल्नी के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं. पुतिन और उनकी सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप लोगों की जबान पर हैं.
रूस में सोशल मीडिया पर नवाल्नी के वो आरोप शेयर हो रहे हैं, जिनमें वह पुतिन को "बंकर में छुपा एक छोटा कद का चोर" कह रहे हैं. जेल जाने से पहले नवाल्नी कह चुके हैं कि "ये ऐसे ही काम करता है- एक आदमी को कैद कर दीजिए ताकि लाखों लोगों को डराया जा सके."
पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया और दुविधा
अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन नवाल्नी की सजा की आलोचना कर रहे हैं. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने नवाल्नी की सजा पर गहरी चिंता जताते हुए रूस से उन्हें तुरंत रिहा करने की मांग की है.
फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने एक बयान जारी कर कहा है, "राजनीतिक असहमति कभी अपराध नहीं होती है." माक्रों ने भी मॉस्को से नवाल्नी को तुरंत रिहा करने की अपील की है.
जर्मनी के विदेश मंत्री हाइको मास ने रूसी अदालत के फैसले को "रूस में बुनियादी आजादी और कानून के शासन पर कड़ी चोट बताया है."
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब ने भी कड़े शब्दों ने रूस की आलोचना की है.
नवाल्नी को सजा देने के बाद जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका पर रूस के खिलाफ कड़े कदम उठाने का दबाव पड़ रहा है. जर्मनी की स्थिति खासी मुश्किल है. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल पर रूस से यूरोप तक आने वाली गैस पाइपलाइन नॉर्ड स्ट्रीम 2 के निर्माण पर रोक लगाने का दबाव पड़ रहा है. हालांकि फ्रांस का कहना है कि वह गैस पाइपलाइन के मुद्दे पर दखल नहीं देगा. ओएसजे/एमजे (रॉयटर्स, डीपीए, एएफपी)
सीरिया के गृह युद्ध से बचकर भागे तारेक अलाओस की आंखों में एक बड़ा सपना पल रहा है. इस साल जर्मनी में चुनाव होने हैं और वह इन चुनावों में हिस्सा लेकर जर्मन संसद का सदस्य बनना चाहते हैं.
(dw.com)
31 साल के अलाओस अब एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. सात साल पहले वह सीरिया के अलेप्पो और दमिश्क में कानून की पढ़ाई कर रहे थे. जब देश में गृह युद्ध भड़का, तो उन्होंने भी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया. उन्होंने रेड क्रॉस के साथ मिलकर सीरिया में लगातार बढ़ रहे युद्ध क्षेत्र में जरूरतमंदों तक मदद भी पहुंचाई. लेकिन फिर वह राष्ट्रपति असद की सरकार के निशाने पर आ गए. शुरुआती हिचकिचाहट के बाद उन्होंने जुलाई 2015 में सीरिया से भागकर जर्मनी में शरण ली.
अब अलाओस ऐसे पहले सीरियाई शरणार्थी बनना चाहते हैं जो जर्मन संसद के निचले सदन बुंडेस्टाग का सदस्य हो. जर्मन नागरिकता के लिए आवेदन करने के साथ ही उन्होंने ग्रीन पार्टी से टिकट पाने की मुहिम भी शुरू कर दी है. वह संसद में जर्मनी के पश्चिमी राज्य नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया के ओबरहाउजेन इलाके का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं.
जर्मनी में इस साल 26 सितंबर को संसदीय चुनाव होने हैं. इस बार जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल चुनावी मैदान में नहीं होंगी. उन्होंने ही 2015 में शरणार्थियों के लिए जर्मनी के दरवाजे खोले थे. इसके बाद सीरिया, अफगानिस्तान और दूसरे संकट ग्रस्त इलाकों से लाखों शरणार्थी जर्मनी में आए. शरणार्थी संकट के बाद से इस साल जर्मनी में दूसरा आम चुनाव होगा. 2017 के चुनाव में धुर दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी ने राष्ट्रीय संसद में मजबूत विपक्ष के तौर पर जगह बनाई थी और वह शरणार्थियों के मुद्दे पर अकसर सरकार से टकराती रहती है.
जर्मन गायिका और अभिनेत्री डिट्रीश नाजी जर्मनी को छोड़ कर अमेरिका गई थीं और 1939 में उन्होंने वहां की नागरिकता ली. वो एक अहम शरणार्थी शख्सियत थीं जिसने हिटलर के खिलाफ खुलकर बोला. उन्होंने कहा था, "वो जर्मन पैदा हुई हैं और हमेशा जर्मन रहेंगी."
गरिमा के लिए संघर्ष
ट्विटर पर पोस्ट की गई अपनी प्रचार मुहिम के एक वीडियो में तारेक अलाओस ने कहा, "जर्मनी में, एनआरडब्ल्यू मेरा घर है. यहीं पर मेरे निर्वाचन क्षेत्र ओबरहाउजेन और डिंसलाकेन में मेरे राजनीतिक कार्य की शुरुआत हुई."
अलाओस दो महीनों तक कुख्यात बाल्कन रूट पर चलते हुए जर्मनी के बोखुम शहर में पहुंचे. उन्होंने जर्मन अखबार टागेसश्पीगल के साथ बातचीत में कहा, "मैं बस ऐसा जीवन चाहता हूं जिसमें सुरक्षा और गरिमा हो."
जर्मनी में शरणार्थी जिस हाल में रह रहे हैं, उसे देखकर वह स्तब्ध रह गए. इसलिए उन्होंने जर्मनी में आने के कुछ ही महीनों बाद ही एक पहल शुरू की जो आप्रवासियों की ज्यादा भागीदारी और उनके रहने की परिस्थितियों में सुधार की वकालत करती है.
अलाओस ने सिर्फ छह महीनों में जर्मन भाषा सीख ली. इसके बाद उन्होंने एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर नया करियर शुरू किया. वह दूसरे शरणार्थियों को कानूनी मदद देने लगे. जब 2018 में यूरोप में नए शरणार्थियों को आने की अनुमति पर राजनीतिक टकराव शुरू हुआ तो उन्होंने "सी ब्रिज" नाम से एक संस्था बनाई, जो समुद्र में फंसे शरणार्थियों को बचाने के लिए आवाज उठाती है.
बेजुबानों की आवाज
खासतौर से पर्यावरण के लिए आवाज उठाने वाली ग्रीन पार्टी के टिकट पर अलाओस चुनाव लड़ना चाहते हैं. वह जलवायु परिवर्तन और माइग्रेशन नीतियों के बीच सीधा संबंध देखते हैं. उन्होंने अपने ट्विटर वीडियो में कहा, "जलवायु संकट दक्षिणी गोलार्ध में रहने वाले लोगों की जिंदगी को और मुश्किल बनाएगा. इसीलिए एक निष्पक्ष जलवायु नीति में शरणार्थियों और आप्रवासन पर ध्यान दिया जाना चाहिए."
वह कहते हैं, "बुंडेस्टाग में पहले सीरियाई शरणार्थी के तौर पर मैं उन लाखों लोगों को आवाज देना चाहता हूं जिन्हें भागने के लिए मजबूर होना पड़ा और जो हमारे साथ रह रहे हैं." वह कहते हैं कि अगर सफल रहे तो वह सभी शरणार्थियों की आवाज बनना चाहते हैं.
एके/एमजे (डीपीए)
जर्मनी में विदेशी मूल के लोगों से नफरत करने वाले 1200 से ज्यादा धुर दक्षिणपंथियों के पास हथियारों का लाइसेंस हैं. कुछ कट्टरपंथी तो विदेशों में हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी ले चुके हैं.
जर्मनी में घरेलू खुफिया एजेंसी बीएफवी, जाने पहचाने और संदिग्ध कट्टर दक्षिणपंथियों पर नजर रखती है. इसी दौरान एजेंसी को दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के पास मौजूद हथियारों का भी पता चला. एजेंसी के मुताबिक दिसंबर 2020 तक 1,203 लोगों के पास लाइसेंसी हथियार थे.
जर्मनी के गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए दिसंबर 2019 के आंकड़ों में भी ऐसे 528 हथियारधारक थे, जो दक्षिणपंथी संगठन "राइषबुर्गर" के सदस्य हैं. ये लोग जर्मन के लोकतांत्रिक ढांचे और संविधान को खारिज करते हैं.
विदेशों में हथियार चलाने की प्रैक्टिस
जांच में यह भी पता चला कि 2019 की शुरुआत से 2020 के अंत तक कट्टर दक्षिणपंथियों ने शूटिंग के अभ्यास भी किए. ऐसे दो तिहाई अभ्यास जर्मनी के बाहर यूरोप के दूसरे हिस्सों में किए गए. हालांकि जर्मनी की संघीय पुलिस का हवाला देते हुए मंत्रालय ने कहा कि शूटिंग रेंज का इस्तेमाल करना "आपराधिक जुर्म नहीं है."
संसद में वामपंथी पार्टी डी लिंके के सवालों का जवाब देते हुए गृह मंत्रालय ने कहा कि 2019 में बंदूकधारी दक्षिणपंथियों की संख्या कितनी थीं, इसकी ठोस जानकारी फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं.
नवनाजियों और नस्लभेदियों के पास हथियार
दिसंबर 2019 में जर्मन संसद में गन लॉ पर बहस के दौरान वामपंथी पार्टी की आतंरिक मामलों की प्रतिनिधि मार्टिना रेनेर ने देश में हथियारबंद नवनाजियों की संख्या 700 से ज्यादा होने के अनुमान लगाया. इसके बाद सितंबर 2020 में घरेलू खुफिया एजेंसी ने एक खास रिपोर्ट दी, जिसमें एजेंसी ने अंदाज से कहा कि जर्मनी में हिंसक रुझान रखने वाले 13,000 से ज्यादा दक्षिणपंथी कट्टरपंथी हैं. एजेंसी ने यह भी कहा कि इस तथाकथित "न्यू राइट" धड़े में हथियारों के प्रति भी काफी दिलचस्पी है.
जर्मनी में आम लोगों के लिए दो तरह के हथियार लाइसेंस हैं. एक है, पेशेवर शिकारियों और स्पोर्ट्स शूटर्स के लिए. दूसरा, बॉडीगार्डों के लिए, जिन्हें सुरक्षा के लिहाज से सार्वजनिक जीवन में हथियार रखने की अनुमति दी जाती है. हाल ही कानूनों में बदलाव कर शिकारियों और खिलाड़ियों वाले लाइसेंस के प्रावधान कड़े किए गए हैं.
कट्टरपंथी दक्षिणपंथियों से बढ़ता खतरा
आतंकवाद के मुद्दों पर संसदीय आयोगों में शामिल रेनेर के मुताबिक, नया डाटा साबित करता है कि "नवनाजियों और नस्लभेदियों से उपजने वाला खतरा बढ़ता जा रहा है." निजी तौर पर भी अति दक्षिणपंथियों के खतरे का सामना करने वाली रेनेर ने कहा, अंदाजे के मुताबिक, खुफिया सेवा को शामिल करने से भी दक्षिणपंथी परिदृश्य तक हथियार पहुंचने पर असरदार रोक नहीं लगी. दिसंबर में संसद के सामने रखे गए सवालों के जरिए रेनेर और लेफ्ट पार्टी के अन्य सदस्यों ने बीते दो साल के कानूनी और गैरकानूनी हथियारों के इस्तेमाल से जुड़ी बातें भी पूछीं.
जर्मनी की संघीय पुलिस के मुताबिक 2019 में अति दक्षिणपंथियों से जुड़ी हिंसा की 176 घटनाएं सामने आईं. सबसे ज्यादा सनसनीखेज वारदात हेस्से प्रांत में कासेल काउंटी के प्रशासक वाल्टर ल्युब्के की हत्या थी. हत्याकांड के दोषी नवनाजी को आजीवन कैद की सजा सुनाई गई. वहीं दूसरे अभियुक्त को गैरकानूनी पिस्तौल रखने के आरोप में सजा दी गई. दोनों दोषियों ने कासेल शहर के पास के दो क्लबों में हैंडगन और लंबी बैरल वाली बंदूकों के फायरिंग का अभ्यास किया था. यह जानकारियां संसद में दिए गए जवाब में सामने आई हैं.
शरणार्थियों के सामने संकट?
हनाऊ शहर में हुए नस्लभेदी हमले के दोषी ने भी 2019 में स्लोवाकिया की शूटिंग रेंजों में ट्रेनिंग की थी. उसे दो बार ट्रेनिंग सेंटर में एडमिशन नहीं दिया गया. तीसरी बार उसने खुद की ट्रेनिंग का तरीका खोज लिया. ट्रेनिंग के बाद टोबियास आर नाम के उस शख्स ने फरवरी 2020 में हनाऊ शहर में एक कैफे बार को निशाना बनाया. हमले में नौ लोग मारे गए.
क्या ऐसे हथियारों शरणार्थियों के हॉस्टलों के आस पास इस्तेमाल हो रहे हैं? इस सवाल का जबाव देते हुए गृह मंत्रालय ने कहा कि 2019 में धुर दक्षिणपंथी हिंसा के 24 मामले दर्ज किए गए. ज्यादातर मामलों में एयर और गैस से चलने वाली बंदूकों और वॉर्निंग पिस्टलों का इस्तेमाल किया गया. 2020 में ऐसे सात मामले दर्ज किए गए.
ओएसजे/एमजे (डीपीए, ईपीडी)
जेनेवा, 3 फरवरी | विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वुहान में कोरोना वायरस की उत्पत्ति का पता लगाने गई टीम का समर्थन करते हुए इसकी आलोचना करने वालों को कड़ी फटकार लगाई है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, जेनेवा में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में डब्ल्यूएचओ के हेल्थ इमरजेंसीज प्रोग्राम के कार्यकारी निदेशक माइकल रेयान ने कहा कि बहुत से आलोचक यह दावा कर रहे हैं कि वे डब्ल्यूएचओ की जांच टीम की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करेंगे। आलोचकों का यह भी कहना है कि यह महामारी कैसे उत्पन्न हुई - इस बाबत और भी खुफिया जानकारी है जो कुछ और ही कहानी बयां कर सकती हैं।
माइकल रेयान ने कहा कि "अगर आप के पास कोई जवाब है तो कृपया हमें बताइए। जो टीम वुहान में है, उसे अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिलना चाहिए। रिपोर्ट आने से पहले ही यह कहना कि हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे, यह उचित नहीं है।" (आईएएनएस)
सरोज सिंह
पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्ते इन दिनों काफ़ी उतार-चढ़ाव से गुज़र रहे हैं.
पाकिस्तान, चीन और नेपाल के बाद अब एक बुरी ख़बर श्रीलंका से आई है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ श्रीलंका में बंदरगाहों के निजीकरण के विरोध में एक मुहिम चल रही है. ट्रेड यूनियन, सिविल सोसाइटी और विपक्षी पार्टियाँ भी इस विरोध में शामिल हैं.
अब वहाँ की राजपक्षे सरकार ने भारत के साथ एक ट्रांसशिपमेंट परियोजना के करार को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
इस ट्रांसशिपमेंट परियोजना को ईस्ट कंटेनर टर्मिनल नाम से जाना जाता है. इसे बनाने का करार राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना- प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे सरकार के दौरान मई 2019 में हुआ था, जो भारत और जापान को मिल कर बनाना था. भारत की तरफ़ से अडानी पोर्ट को इस प्रोजेक्ट पर काम करना था.
ईस्ट कंटेनर टर्मिनल को लेकर श्रीलंका के अख़बार में प्रकाशित ख़बर
यानी ये करार श्रीलंका, भारत और जापान के बीच था, जिसमें 51 फ़ीसदी हिस्सेदारी श्रीलंका की और 49 फ़ीसदी हिस्सेदारी भारत और जापान की होनी थी.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताब़िक सोमवार को बंदरगाहों के निजीकरण का विरोध कर रहे ट्रेड यूनियन वालों से प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने कहा कि ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी (एसएलएपी) की ही होगी.
उनके इसी बयान के बाद ख़बरे आई कि भारत के साथ ईस्ट कंटेनर टर्मिनल का करार श्रीलंका ने रद्द कर दिया गया है.
ईस्ट कंटेनर टर्मिनल क्यों महत्वपूर्ण है ?
सामारिक नज़रिए से ये कंटेनर टर्मिनल बहुत ही महत्वपूर्ण बताया जाता है. उस इलाक़े का लगभग 70 फ़ीसदी कारोबार इसी के ज़रिए होता है. ये ट्रांसशिपमेंट कोलंबो के नज़दीक है. पड़ोसी देश होने के नाते भारत इसका सबसे ज़्यादा उपयोग भी करता है.
श्रीलंका सरकार ने अब ईस्ट कंटेनर टर्मिनल की जगह वेस्ट कंटेनर टर्मिनल भारत के सहयोग से बनाने का प्रस्ताव दिया है. नए प्रस्ताव के तहत श्रीलंका इसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की तर्ज़ पर भारत और जापान के साथ ही मिल कर बनाना चाहता है. हालाँकि अभी तक भारत सरकार नए प्रस्ताव को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है.
श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति
अभी हाल ही की बात है, जब भारत ने वैक्सीनमैत्री के तहत श्रीलंका को 50 हज़ार कोरोना वैक्सीन की डोज़ भेजी है. भारत सरकार के इस प्रयास के लिए श्रीलंका सरकार ने काफ़ी सरहाना भी की. भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी श्रीलंका को अपना भरोसेमंद दोस्त बताते नहीं थक रहे थे.
फिर आख़िर श्रीलंका सरकार ने ये फ़ैसला क्यों लिया?
ऑक्सफ़ोर्ड रिसर्च फ़ाउंडेशन से जुड़े सत्यमूर्ति इसके पीछे वहाँ की अंदरूनी राजनीति और उसमें ट्रेड यूनियन के दखल को मानते हैं.
चेन्नई से बीबीसी से बात करते हुए वे कहते हैं, "श्रीलंका में हर सरकार ट्रेड यूनियन को नाराज़ करने का रिस्क नहीं उठा सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिक तौर पर उनका दखल बहुत है. राजनीति में उनकी नाराज़गी किसी भी पार्टी को बहुत नुक़सान पहुँचा सकती हैं. कुछ पार्टियाँ इस बात को स्वीकार करती हैं, कुछ नहीं करती. लेकिन ये बात हर पार्टी पर लागू होती है. यही वजह है कि पिछली सरकार ने एमओयू साइन तो किया, लेकिन उनके कार्यकाल में भी ये काम शुरू नहीं हो पाया."
ऐसे में ज़ाहिर है कि अगर स्थानीय ट्रेड यूनियन की तरफ़ से भारत के इस परियोजना में शामिल होने का विरोध हो रहा है, तो सत्ताधारी पार्टी उनकी नाराज़गी का जोखिम नहीं उठाना चाहेगी.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार टीआर रामचंद्रन भारत के साथ परियोजना को रद्द करने के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण मानते हैं. वो कहते हैं, पहली वजह हैं वहाँ के भारतीय तमिल- श्रीलंका के सिंहला समुदाय के बीच की खींचतान, जो लंबे समय से चली आ रही है.
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"तमिल समुदाय को वहाँ अल्पसंख्यक माना जाता है, भारत की तरफ़ से किसी भी तरह की मदद को वहाँ के स्थानीय लोग भारत के बढ़ते दबदबे के तौर पर देखते हैं. इसलिए वहाँ के पोर्ट यूनियन वाले नहीं चाहते कि भारत की मदद से वहाँ इस तरह का कोई काम हो. वो कहते हैं कि बंदरगाह यूनियन में तमिलों का प्रतिनिधित्व तो है, लेकिन चलती सिंहला समुदाय के लोगों की है."
वो बताते हैं कि पिछले एक-सवा महीने से वहाँ निजीकरण के विरोध में काफ़ी तेज़ आवाज़ें उठीं हैं और सत्ताधारी पार्टी को दिक़्कतों का सामना करना पड़ रहा है.
सत्ताधारी पार्टी को डर है कि कहीं इस वजह से कुर्सी को ख़तरा ना हो जाए. निजीकरण के विरोध में ना केवल पोर्ट ट्रेड यूनियन है, बल्कि अब सिविल सोसाइटी भी उनके साथ आ गई है.
श्रीलंका से रिश्ते सँवारने को लेकर भारत जल्दी में क्यों
चीन का श्रीलंका में दख़ल
टीआर रामचंद्रन श्रीलंका के इस फ़ैसले के पीछे दूसरी वजह चीन के बढ़ते दबाव को मानते हैं.
उनके मुताबिक़, "अगले 15-20 साल में वहाँ पूरी पॉपुलेशन चीन के कब्ज़े में चली जाएगी. आज वहाँ चीनियों की तादाद इतनी ज़्यादा हो गई है. श्रीलंका में चीन की काफ़ी परियोजनाएँ चल रही है. उनमें से चीन को अलग नहीं किया गया है. ये अपने आप में ग़ौर करने वाली बात है."
टीआर रामचंद्रन कहते हैं, "चीन की श्रीलंका में रणनीति ये रही है कि छोटे देशों को इतना क़र्ज़ दे दो कि वो उसका एक 'उपनिवेश' बन कर ही रह जाए. फिर छोटे देशों की अपने भले और बुरे के निर्णय लेने की क्षमता नहीं बचती."
इसके लिए वो हम्बनटोटा बंदरगाह का उदाहरण देते हैं.
श्रीलंका ने चीन का क़र्ज़ न चुका पाने के कारण हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लिए लीज पर दे दिया था. साल 2017 में इस बंदरगाह को 1.12 अरब डॉलर में इस कंपनी को सौंपा गया. इसके साथ ही पास में ही क़रीब 15,000 एकड़ जगह एक इंडस्ट्रियल ज़ोन के लिए चीन को दी गई थी.
अजित डोभाल ने श्रीलंका दौरे में एक मुलाक़ात से चौंकाया - प्रेस रिव्यू
भारत और चीन को एक साथ साधने की कोशिश
भारत में विदेश मामलों की वरिष्ठ पत्रकार और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की डिप्लोमेटिक एडिटर इंद्राणी बागची भी चीन को इस फ़ैसले के पीछे एक वजह मानती है.
बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, "अगर ट्रेड यूनियन को ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में श्रीलंका की 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी चाहिए तो, वहाँ की सरकार वेस्ट कंटेनर टर्मिनल का प्रस्ताव भारत को क्यों दे रही है? क्या उस प्रस्ताव से ट्रेड यूनियन को दिक़्क़त नहीं होगी. चीन की पोर्ट परियोजनाओं में ऐसी माँग क्यों नहीं होती."
वो आगे कहती हैं, "सिरीसेना सरकार के साथ जब भारत का समझौता हुआ था, उस वक़्त भी चीन का उनपर बहुत दबाव था. राजपक्षे सरकार को वैसे भी चीन के क़रीब माना जाता है. नई सरकार चाहती है कि चीन के साथ आर्थिक समझौते करे और भारत के साथ सुरक्षा समझौते. ताकि दोनों को एक साथ साध सके."
इंद्राणी कहती हैं कि आर्थिक मोर्चे पर एक देश के साथ और सुरक्षा के मोर्चे पर दूसरे देश के साथ ऐसा होना थोड़ा मुश्किल है.
श्रीलंका सरकार के ताज़ा फ़ैसले से भारत सरकार की 'नेबरहुड फ़र्स्ट' पॉलिसी को एक धक्का ज़रूर लगा है.
लेकिन इंद्राणी इसे भारत की विदेश नीति की विफलता नहीं मानती. उनका कहना है कि एक परियोजना हाथ से जाने के बाद ऐसा कहना ग़लत होगा. लेकिन श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते हमेशा से जटिल रहे हैं. ये कोई नई बात नही है.
चीन से यारी श्रीलंका के लिए क्यों बन रही दुश्वारी
नई सरकार से भारत नज़दीकियाँ
नवंबर 2019 में श्रीलंका में नई सरकार बनने के बाद से अब तक भारत ने अब तक कई ऐसे पहल किए हैं, जिससे दोनों देशों के बीच बढ़ती दूरियों को पाटने की कोशिश के तौर पर देखा गया.
श्रीलंका में नई सरकार बनने पर भारत उन देशों में से था, जिसने सबसे पहले अपना संदेश उन्हें भेजा. गोटाबाया राजपक्षे के राष्ट्रपति पद संभालते ही अगले दिन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका दौरे पर पहुँच गए थे. उन्होंने गोटाबाया राजपक्षे से मुलाक़ात की और उन्हें भारत आने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से न्यौता भी दिया.
इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे नवंबर में भारत के दौरे पर आए और दोनों देशों के बीच गर्मजोशी देखने को मिली.
इस दौरे को लेकर श्रीलंका की विदेश नीति पर नज़र रखने वाले जानकारों ने हैरानी भी जताई थी, क्योंकि गोटाबाया चीन के क़रीब बताए जाते थे.
इसके बाद जनवरी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की श्रीलंका यात्रा के दौरान भारत की ओर से श्रीलंका को 50 मिलियन डॉलर की मदद देने का वादा भी किया गया था.
हाल ही में कोरोना महामारी से निपटने के लिए भारत की तरफ़ से वैक्सीन भी श्रीलंका को भेजी गई है.
अभी एक महीना पहले ही विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका के दौर से वापस लौटे हैं. लेकिन आज ऐसा लग रहा है जैसे मोदी सरकार द्वारा उठाए गए ये सारे क़दम श्रीलंका को भारत की तरफ़ खींचने में नाकाफ़ी साबित हुए हैं.
वरिष्ठ पत्रकार टीआर रामचंद्रन कहते हैं कि भारत सरकार की तरफ़ से अब भी कोशिशें जारी है कि श्रीलंका सरकार अपने फ़ैसले को वापस ले ले.
उनके मुताबिक़, "श्रीलंका के अख़बारों में भारतीय दूतावास के प्रवक्ता के हवाले से ख़बरे छपी हैं. भारत को भरोसा है कि श्रीलंका सरकार इस मसले को सुलझाने में कामयाब हो जाएगी. भारत सरकार नाउम्मीद नहीं है. पूरा मामला थोड़ा पेंचीदा और संजीदा है. जल्द ठीक नहीं होगा."
हालांकि इंद्राणी कहती हैं कि भारत अगर केरल और तमिलनाडु में उतने बड़े स्तर का ट्रांसशिपमेंट पोर्ट बना ले, तो श्रीलंका पर से निर्भरता कम हो सकती है. ऐसे में भले ही भारत को अभी ज़्यादा नुक़सान हो, लेकिन आने वाले दिनों में श्रीलंका को भी कम परेशानी नहीं होगी. ये भी हो सकता है श्रीलंका चीन के और क़रीब चला जाए. (bbc.com)