अंतरराष्ट्रीय
अरुल लुईस
न्यूयॉर्क, 10 फरवरी | अमेरिकी सीनेट पैनल के सामने पेश होने के दौरान, राष्ट्रपति जो बाइडेन के कैबिनेट की नॉमिनी भारतीय-अमेरिकी नीरा टंडन ने ट्वीट कर अपमान करने के लिए रिपब्लिकन सीनेटरों से माफी मांगी।
मंगलवार को 'सीनेट होमलैंड सिक्योरिटी एंड गवर्नमेंट अफेयर्स कमेटी' के सामने पेश होने के बाद, उन्होंने कहा, "मुझे अपनी अपमानजनक भाषा और पूर्व में भी की गई बयानबाजी को लेकर बेहद अफसोस है और माफी मांगती हूं।"
टंडन का इस तरह का ट्वीट करने का रिकॉर्ड है और उन्होंने नवंबर 2020 में 1,000 से ज्यादा ट्वीट डिलीट किए थे, जब बाइडेन ने उन्हें प्रबंधन और बजट (ओएमबी) ऑफिस के निदेशक के पद के लिए नामित किया था।
रिपब्लिकन नेताओं के विरोध के बावजूद, टंडन के नाम पर मुहर लगना निश्चित है क्योंकि सीनेट में डेमोक्रेट बहुमत में हैं और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का वोट टंडन के चुनाव में अहम भूमिका निभा सकता है।
वह अमेरिकी कैबिनेट में सेवा देने वाली दूसरी भारतीय-अमेरिकी होंगी।
पहली निक्की हेली थीं, जिन्हें पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कैबिनेट रैंक के साथ संयुक्त राष्ट्र में देश का स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त किया था।
इससे पहले कि टंडन के नामांकन पर सीनेट द्वारा मतदान हो, उन्हें सीनेट होमलैंड सिक्योरिटी एंड गवर्नमेंट अफेयर्स कमेटी के अनुमोदन की आवश्यकता होगी, साथ ही सीनेट बजट कमेटी की मंजूरी की भी जररूत होगी।
रिपब्लिकन सीनेटर रॉब पोर्टमैन ने टंडन के ट्वीट को लेकर कहा, "आपने लिखा कि सुजन कॉलिंस सबसे खराब है, टॉम कॉटन एक धोखेबाज हैं। वैम्पायर्स का दिल टेड क्रूज से ज्यादा बड़ा है। आपने लीडर मैककोनेल को मॉस्को मिच और वोल्डेमॉर्ट कहा।"
इस पर जवाब में टंडन ने कहा, "मेरी बयानबाजी और मेरी भाषा को लेकर मैं माफी मांगती हूं।" (आईएएनएस)
मंगलवार को आंग सान सू ची की पार्टी के यंगून स्थित कार्यालय पर सेना ने छापे मारे थे. इसके बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने सैन्य कार्रवाई पर चिंता व्यक्त की है. तख्तापलट के खिलाफ आम लोग सड़कों पर उतर आए हैं.
अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के खिलाफ प्रदर्शनकारियों पर हुई कार्रवाई की कड़ी निंदा की है. अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा कि हर किसी को अभिव्यक्ति की आजादी और शांतिपूर्ण तरीके से जुटने का अधिकार है. उन्होंने कहा, "हम सेना को शक्ति त्यागने की मांग दोहराते हैं, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को बहाल करने, हिरासत में लिए गए लोगों को रिहा करने और सभी दूरसंचार प्रतिबंध हटाने के साथ हिंसा से बचने की मांग करते हैं." संयुक्त राष्ट्र ने भी प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई को लेकर चिंता व्यक्त की है. म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र के समन्वयक ओला अल्मग्रेन के मुताबिक, "प्रदर्शनकारियों के खिलाफ बल का इस्तेमाल अस्वीकार्य है."
इस बीच यूरोपीय संघ में विदेश मामलों के प्रमुख ने कहा है कि संघ म्यांमार की सेना पर प्रतिबंध लगाने जैसे सभी विकल्पों पर विचार कर रहा है. यंगून में अपदस्थ नेता आंग सान सू ची की पार्टी कार्यालय पर छापे के बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने गहरी चिंता जाहिर की है. नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने एक बयान में कहा, "सेना ने मंगलवार रात पार्टी के मुख्यालय पर छापा मारा और इसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया."
जारी है विरोध
सेना ने देश में विरोध प्रदर्शनों के लिए सभी सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग विरोध करने के लिए मंगलवार को अपने घरों से बाहर आए. सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए रबर की गोलियों, आंसू गैस और पानी की बौछारों का इस्तेमाल किया.
प्रदर्शनकारी एक लोकतांत्रिक सरकार की बहाली के साथ-साथ सू ची की रिहाई की मांग कर रहे हैं. 1 फरवरी को देश की सेना ने विद्रोह किया और चुनी हुई सरकार को सत्ता से बेदखल कर डाला था. सेना का कहना है कि पिछले साल नवंबर में आम चुनाव में धांधली हुई थी.
एए/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)
सना, 10 फरवरी | यमन में सरकार द्वारा नियंत्रित तेल संपन्न उत्तर-पूर्वी शहर मारिब में हिंसा जारी है और दो बड़े विस्फोट हुए हैं। एक सरकारी अधिकारी ने यह जानकारी दी। अधिकारी ने समाचार एजेंसी सिन्हुआ को मंगलवार को बताया, "हौथी विद्रोहियों ने बैलिस्टिक मिसाइलों के द्वारा घनी आबादी वाले शहर मारिब को निशाना बनाकर दो बड़े विस्फोट किए। कोई हताहत नहीं हुआ है।"
उन्होंने कहा कि हौथी द्वारा दागे गए बैलिस्टिक मिसाइलें मारिब में एक सरकारी फैसिलिटी के पास एक खाली जगह पर गिरीं।
लगातार तीसरे दिन, मारिब के दक्षिणी और पश्चिमी क्षेत्रों में लगातार लड़ाई देखी जा रही है, जिससे दो-संघर्षरत पक्षों के दर्जनों लोग मारे गए और घायल हो गए।
मारिब के पब्लिक हॉस्पिटल के सूत्रों ने कहा, "आज की लड़ाई में लगभग 30 सैनिक गंभीर रूप से घायल हो गए और मेडिकल सेंटर में इलाज करा रहे हैं।"
पिछले दो दिनों से, ईरान समर्थित हौथी विद्रोहियों ने अपने सैन्य अभियानों को तेज कर दिया और यमन सरकार द्वारा नियंत्रित शहर के खिलाफ एक बड़े हमले को अंजाम दिया।
इससे पहले, यमन के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत मार्टिन ग्रिफिथ्स ने ताजा हमलों पर चिंता व्यक्त की थी। (आईएएनएस)
अरुल लुइस
न्यूयॉर्क, 10 फरवरी | कैंसर की दवाएं बनाने वाले एक भारतीय कंपनी ने स्वीकार किया है कि उसने अमेरिकी अधिकारियों द्वारा पश्चिम बंगाल में उसके प्लांट का निरीक्षण करने से पहले रिकॉर्ड छिपाए थे और नष्ट किए थे। न्याय विभाग के अनुसार कंपनी ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए 50 मिलियन डॉलर (3 अरब रुपये से ज्यादा) जुर्माना देने की हामी भर दी है।
विभाग ने कहा है कि कंपनी फ्रेजेनियस काबी अन्कोलॉजी लिमिटेड (एफकेओएल) ने मंगलवार को लास वेगस में संघीय अदालत में सार्वजनिक तौर पर ये बातें स्वीकार कीं। कंपनी ने माना कि वह यूस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) के जांचकर्ताओं को कुछ रिकॉर्ड उपलब्ध कराने में नाकाम रही। उसने फेडरल फूड, ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट का उल्लंघन किया और वह अपने इन अपराधों के लिए 30 मिलियन डॉलर का आपराधिक जुर्माना और 20 मिलियन डॉलर का दंड भरेगी।
एक्टिंग असिस्टेंट अटॉर्नी जनरल ब्रायन बॉयटन ने कहा, "एफकेओएल के आचरण ने रोगियों के जीवन को जोखिम में डाल दिया। निर्माण संबंधी रिकॉर्ड छिपाकर और हटाकर एफकेओएल ने एफडीए की रेगुलेटरी अथॉरिटी को दवाओं की शुद्धता और शक्ति सुनिश्चित करने से रोका।"
कोर्ट के दस्तावेजों के अनुसार 2013 में एफडीए के निरीक्षण से पहले कंपनी मैनेजमेंट ने पश्चिम बंगाल के कल्याणी में अपनी मैन्यूफेक्च रिंग फैसिलिटी के कर्मचारियों से कुछ रिकॉर्ड हटाने और कम्प्यूटर से कुछ रिकॉर्ड डिलीट करने के लिए कहा था। जिनसे यह खुलासा हो जाता कि एफकेओएल यूएस एफडीए के नियमों का उल्लंघन करके कुछ प्रतिबंधित ड्रग इंग्रेडिएंट्स बना रही थी। मैनेजमेंट के निर्देश पर कर्मचारियों ने परिसर के कंप्यूटर, हार्डकॉपी दस्तावेज और अन्य सामग्री को हटा दिया था।
इस मामले को लेकर एफडीए ने 4 दिसंबर, 2017 को चेतावनी पत्र भेजा था। एफकेओएल की वेबसाइट पर उपलब्ध कंपनी के इतिहास के अनुसार, इस कंपनी की शुरुआत डाबर फार्मा के एक हिस्से के रूप में शुरू हुई थी और 2008 में डाबर फार्मा समूह के प्रमोटर्स बर्मन परिवार ने डाबर फार्मा लिमिटेड की अपनी पूरी हिस्सेदारी जर्मन मल्टीनेशनल कंपनी फ्रजेनियस एसई एंड कंपनी के बिजनेस सेगमेंट फ्रेसेनियस काबी को दे दी थी। (आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 10 फरवरी | अमेरिकी सीनेट ने मंगलवार को डोनाल्ड ट्रंप के ऐतिहासिक दूसरे महाभियोग ट्रायल के लिए 56-44 से मतदान किया। इसके बाद पूर्व राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग ट्रायल का रास्ता साफ हो गया। वोट इस सवाल पर था कि क्या सीनेट के पास मुकदमा चलाने के लिए अधिकार है। चार घंटों तक चली बहस के बाद महाभियोग चलाने के पक्ष में मतदान हुआ।
इसमें खास भूमिका निभाई 6 जनवरी के 13 मिनट की एक वीडियो क्लिप ने, जिसमें ट्रंप चुनाव परिणाम के खिलाफ भीड़ को कैपिटल भवन में धावा बोलने के लिए उकसाते नजर आ रहे हैं। क्लिप में ट्रंप समर्थक शीशे, दरवाजे तोड़ते हुए, पुलिस अधिकारियों पर हमला और एक महिला को गोली मारते हुए देखे जा सकते हैं।
ट्रंप की टीम ने संवैधानिकता के सवाल पर अपनी दलीलें पेश की, जबकि डेमोक्रेट ने वीडियो दिखा कर कहा कि, यह एक अक्षम्य अपराध नहीं है तो क्या है। ट्रंप पद छोड़ने के बाद महाभियोग के आरोपों का सामना करने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं और दो बार महाभियोग का सामना करने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं। (आईएएनएस)
-थॉम पूल
क्या चीन 'कैप्टन अमेरिका' का अपना अलग वर्ज़न बना रहा है? अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने ऐसे संकेत दिये हैं. मगर प्रचार के परे, एक सुपर सैनिक की संभावना कोरी कल्पना मात्र नहीं है और सिर्फ़ चीन ही नहीं बल्कि कई दूसरे देश भी इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं.
भारी निवेश और आगे रहने की इच्छा के दम पर दुनिया की सेनाएं तकनीकी नवाचार को प्रेरित करती रही हैं. इस इच्छा ने सिर्फ़ बेहद उन्नत ही नहीं, बल्कि मामूली चीज़ों को भी जन्म दिया है.
डक्ट टेप को ही ले लीजिए. इलेनोए की एक हथियार बनाने की फ़ैक्ट्री में काम करने वाले एक कर्मचारी के सुझाव पर इसका अविष्कार हुआ था. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इस कर्मचारी के बेटे नौसेना में काम कर रहे थे.
उस दौर में गोला बारूद के डिब्बों को पेपर टेप से चिपकाया जाता था. इसे इस्तेमाल करना आसान नहीं था.
वेस्ता स्टाउट ने वाटरप्रूफ़ कपड़े के टेप का सुझाव दिया. लेकिन वरिष्ठ कर्मचारियों ने उनके विचार को नकार दिया. उन्होंने राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को पत्र लिखा और फिर उनके इस विचार को हकीक़त में बदलने का आदेश दे दिया गया.
साल 2014 में एक नये प्रयास की घोषणा करते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पत्रकारों से कहा था कि 'मैं यहाँ ये घोषणा करने के लिए आया हूँ कि हम 'आयरन मैन' बनाने जा रहे हैं.'
उस वक़्त उनकी इस बात पर भले ही ठहाका लगा हो, लेकिन वो गंभीर थे. अमेरिकी सेना इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर चुकी है. सेना एक सुरक्षात्मक सूट बना रही है जिसे नाम दिया गया है 'टेक्टिकल असॉल्ट लाइट ऑपरेशन सूट' (टालोस).
वीडियो गेम की तरह लगने वाले इसके विज्ञापन वीडियो में एक सैनिक दुश्मन के सेल में घुसता दिखता है और गोलियाँ उसके शरीर से टकारकर इधर-उधर बिखर जाती हैं.
पर अमेरिकी सेना का 'आइरन मैन' नहीं बन सका. पाँच साल बाद ये प्रयास रोक दिया गया. लेकिन इसे बनाने वालों को उम्मीद है कि इसके अलग-अलग हिस्सों का कहीं और इस्तेमाल किया जा सकेगा.
एक्सोस्केलेटन (शरीर के बाहर पहना जाने वाला ढांचा) उन कई तकनीकों में से एक है, जिन्हें सेनाएं अपने सैनिकों को और ताक़तवर बनाने के लिए आज़मा रही हैं.
प्राचीन काल से ही तरक्की (क्षमता बढ़ाना) कोई नई बात नहीं है. सेनाएं अपने सैनिकों को ताक़तवर और प्रभावी बनाने के लिए हथियारों, उपकरणों और उनकी ट्रेनिंग में निवेश करती रही हैं.
लेकिन आज के दौर में तरक्की का मतलब सिर्फ़ सैनिक को बेहतरीन बंदूक थमा देना नहीं है. इसका मतलब सैनिक को ही बदल देना भी हो सकता है.
साल 2017 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने चेतावनी दी थी कि इंसान बहुत जल्द ही परमाणु बम से भी ख़तरनाक कोई चीज़ बना सकता है.
'हम कल्पना कर सकते हैं कि इंसान एक ऐसे इंसान का निर्माण कर सकता है जिसमें इच्छानुसार विशेषताएं होंगी. ये सिर्फ़ थ्योरी में नहीं, बल्कि ऐसा करना संभव होगा. वो एक जीनियस गणितज्ञ हो सकता है, एक शानदार संगीतकार हो सकता है या फिर एक ऐसा सैनिक हो सकता है जो डर, दया, दुख, अफ़सोस और दर्द के बिना लड़ सके.'
पिछले साल अमेरिका की नेशनल इंटेलीजेंस के पूर्व निदेशक जॉन रेटक्लिफ़ ने इससे भी आगे बढ़कर चीन पर आरोप लगाते हुए कहा था कि 'चीन पीपल्स लिब्रेशन आर्मी के सैनिकों की शारीरिक क्षमताएं बढ़ाने के लिए उन पर परीक्षण कर रहा है क्योंकि चीन की सत्ता की भूख के सामने कोई नैतिक सीमा-रेखा नहीं है.'
चीन ने इस लेख को झूठ का पुलिंदा कहा था.
जब अमेरिका की मौजूदा नेशनल इंटेलिजेंस डायरेक्टर एवरिल हेंस से इस बारे में पूछा गया तो उनके दफ़्तर की तरफ़ से जवाब दिया गया कि उन्होंने इस पर टिप्पणी नहीं की है. एवरिल ने चीन की तरफ़ से पेश ख़तरों पर कई बार बयान दिए हैं.
नए राष्ट्रपति जो बाइडन का प्रशासन भले ही ट्रंप के एजेंडे से पीछा छुड़ा रहा हो, लेकिन चीन के साथ तनाव अमेरिकी विदेश नीति की चुनौती बना रहेगा.
महत्वाकांक्षा बनाम वास्तविकता
सुरक्षा बलों में सुपर सैनिक का होना सेनाओं को रोमांचित करता रहा है. ऐसे सैनिक की कल्पना कीजिए जिसे दर्द ना हो, जिस पर बेहद ठंडे तापमान या नींद का असर ना हो.
लेकिन अमेरिका का 'आइरन मैन' बनाने का प्रयास दर्शाता है कि महत्वाकांक्षाओं की भी तकनीकी सीमाएं हैं.
अमेरिका के दो शोधार्थियों ने साल 2019 में प्रकाशित एक शोध में यह दावा किया था कि चीन की सेना जीन एडिटिंग और एक्सोस्केलेटन और मानव-मशीन सहयोग की संभावनाओं को तलाश रही है. चीन की सेना के रणनीतिकारों के बयानों को इस शोध का आधार बनाया गया था.
इस शोध की सह-लेखिका एल्सा कानिया रैटक्लिफ़ की टिप्पणी पर संदेह करती हैं.
सेंटर फ़ॉर न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी की फेलो एल्सा कानिया कहती हैं, 'चीन की सेना किन चीज़ों पर चर्चा कर रही है और किन्हें अमली जामा पहनाना चाहती है उसे समझना महत्वपूर्ण है. लेकिन महत्वकांक्षाओं और आज की तकनीक कहाँ खड़ी है, उसके फ़ासले को समझना भी ज़रूरी है.'
वे कहती हैं कि 'दुनियाभर की सेनाएं सुपर सैनिक की संभावना को साकार करना चाहती हैं, लेकिन अंत में वैज्ञानिक तौर पर क्या करना संभव है, ये उन लोगों की महत्वकांक्षाओं पर रोक ज़रूर लगाता है जो सीमाओं को पार कर देना चाहते हैं.'
रैटक्लिफ़ ने अपने लेख में वयस्क सैनिकों की जीन एडिटिंग का ज़िक्र किया था, लेकिन यदि गर्भ में ही किसी भ्रूण का जीन संशोधित कर दिया जाये तो उससे सुपर सैनिक के निर्माण की सबसे मज़बूत संभावना पैदा होगी.
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में मोलीक्यूलर जेनेटीसिस्ट डॉक्टर हेलेन ओ नील कहती हैं कि सवाल ये है कि क्या वैज्ञानिक इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं? सवाल ये नहीं है कि ये तकनीक संभव है या नहीं.
वे कहती हैं, 'जीनोम संशोधित करने और प्रजनन में सहायता की तकनीक ट्रांस्जेनिक्स और कृषि क्षेत्र में ख़ूब इस्तेमाल हो रही हैं. फ़िलहाल इंसानों में इन दोनों के इस्तेमाल को अनैतिक माना गया है.'
जेनेटिक तकनीक का इस्तेमाल
साल 2018 में चीन के वैज्ञानिक हे जियानकुई ने एक हैरान करने वाली घोषणा की थी.
उन्होंने गर्भ में भ्रूण का डीएनए संशोधित कर जुड़वा बहनों को एचआईवी संक्रमण से बचा दिया था.
उनके इस कारनामे पर दुनियाभर में आक्रोश ज़ाहिर किया गया था. चीन समेत दुनिया के अधिकतर देशों में इस तरह जीन को संशोधित करने पर रोक है.
अभी तक इस तकनीक का इस्तेमाल ऐसे भ्रूण पर ही किया गया है, जिन्हें तुरंत मार दिया जाता है और जिनका इस्तेमाल बच्चा पैदा करने के लिए नहीं किया जाता.
इस लेख के लिए जिन लोगों का साक्षात्कार किया गया, उनमें से कई का कहना है कि हे जियानकुई का मामला बायोएथिक्स (वैज्ञानिक नैतिकता) से जुड़ा अहम पड़ाव है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि सिर्फ़ भ्रूण को एचआवी से ही नहीं बचाया गया था, बल्कि उसकी क्षमताएं भी बढ़ाई गईं थीं.
हे जियानकुई ने जुड़वा भ्रूण बनाने के लिए क्रिस्पर तकनीक का इस्तेमाल किया था.
इस तकनीक के ज़रिए जीवित कोशिकाओं का डीएनए बदल दिया जाता है. इससे उनके चरित्र से कुछ चीज़ों को मिटाया जा सकता है और कुछ को जोड़ा जा सकता है.
ये तकनीक बहुत आशाएं भी बंधाती हैं, संभवतः इसका इस्तेमाल अनुवांशिक बीमारियों को दूर करने के लिए किया जा सकता है. लेकिन सेना के लिए ये क्या कर सकती है?
फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट लंदन में सीनियर रिसर्च साइंटिस्ट क्रिस्टोफ़े गेलीशे क्रिस्पर इस तकनीक को क्रांति कहते हैं.
लेकिन वे कहते हैं कि इसकी भी सीमाएं हैं. वो इसकी तुलना टेक्स्ट में 'फ़ांइड एंड रिप्लेस' टूल से करते हुए कहते हैं कि 'आप सटीक तरीके से शब्द तो बदल सकते हैं, लेकिन एक जगह जहाँ इसके सही मायने निकल सकते हैं, ये वहीं हो सकता है. वहाँ नहीं, जहाँ इसका कोई मतलब ना निकले.'
वे कहते हैं कि 'ये सोचना ग़लत है कि एक जीन बदलने से कोई एक ख़ास प्रभाव होगा. हो सकता है एक जीन निकाल लेने से आप एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण कर लें जिसकी मांसपेशियाँ मज़बूत हों और जो ऊंचाई पर भी आसानी से साँस ले सके, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि वो आगे चलकर कैंसर से पीड़ित हो जाये.'
'और कुछ ख़ासियतों को अलग करना भी मुश्किल है, उदाहरण के तौर पर कई जीन लम्बाई को प्रभावित करते हैं और अगर किसी विशेषता को बदला जाता है तो वो अगली पीढ़ियों को भी प्रभावित कर सकते हैं.'
नैतिकता का सवाल
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चीन अमेरिका के जवाब में प्रयास कर रहा है.
द गार्डियन अख़बार में 2017 में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि अमेरिकी सेना जेनेटिक एक्सटिंक्शन टेक्नोलॉजी में करोड़ों डॉलर का निवेश कर रही है.
ये तकनीक आक्रामक प्रजातियों का सफ़ाया कर सकती है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों का मानना है कि इसके सैन्य इस्तेमाल भी हो सकते हैं.
इस दिशा में सिर्फ़ चीन और अमेरिका ही बढ़त हासिल करना नहीं चाहते हैं. फ्रांस में भी सेना को उन्नत सैनिकों के विकास की अनुमति दे दी गई है. हालांकि उन्हें नैतिक सीमाओं में रहने के दिशा-निर्देश भी दिये गए हैं.
रक्षा मंत्री फ़्लोरेंस पार्ले ने कहा था कि 'हमें तथ्यों का सामना करना ही होगा. हर किसी में हमारे जैसी नैतिकता की भावना नहीं है, लेकिन भविष्य की चुनौतियों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए.'
भले ही वैज्ञानिक सुरक्षित तरीके से किसी व्यक्ति की विशेषताओं को परिवर्तित कर लें, लेकिन इस तकनीक के सैन्य इस्तेमाल की अपनी चुनौतियाँ रहेंगी.
उदाहरण के तौर पर क्या सेना के कमांड ढांचे के तहत काम करने वाला कोई सैनिक किसी ख़तरनाक ट्रीटमेंट के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होकर अपनी रज़ामंदी दे पाएगा? रिपोर्टों के मुताबिक़, चीन और रूस ने कोविड-19 महामारी की वैक्सीन का परीक्षण अपने सैनिकों पर किया है.
ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी में एथिक्स (नैतिकता) मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर जूलियन सावूलेस्कू कहते हैं कि 'सेनाएं व्यक्तिगत सैनिकों के हितों को बढ़ावा देने के लिए नहीं होती हैं, उनका अस्तित्व ही रणनीतिक बढ़त हासिल करने या युद्ध जीतने के लिए होता है.'
'सैनिकों को आप किस स्तर के ख़तरे में डाल सकते हैं, इसको लेकर सीमाएं निर्धारित हैं, लेकिन उन्हें आम जनता से अधिक ख़तरों में तो डाला ही जाता है.'
प्रोफ़ेसर सावूलेस्कू कहते हैं कि किसी के लिए भी क्षमता बढ़ाने के ख़तरों का उससे होने वाले फ़ायदों से तुलना करना महत्वपूर्ण है.
'लेकिन ज़ाहिर तौर पर, सेनाओं के समीकरण अलग हैं, यहाँ व्यक्ति (सैनिक) को ख़तरा तो उठाना पड़ता है लेकिन फ़ायदा उसे नहीं मिलता.'
वीडियो कैप्शन,
एयरफ़ोर्स के प्रमुख ने कहा- चीन आक्रामक हुआ तो हमारी पूरी तैयारी है
सैनिकों के सामने मरने-जीने की परिस्थितियां होती हैं, और ऐसा सोचा जा सकता है कि उनकी क्षमता बढ़ाने से उनके ज़िंदा रहने की संभावना को बढ़ाया जा सकता है.
लेकिन कैलिफ़ोर्निया पॉलीटेक्निक स्टेट यूनिवर्सिटी के दार्शनिक प्रोफ़ेसर पैट्रिक लिन कहते हैं कि ये इतना सरल भी नहीं है.
'मिलिट्री एनहेंसमेंट का मतलब ही है प्रयोग करना और अपने नागरिकों को ख़तरे में डालना. ऐसे में ये भी अस्पष्ट ही है कि अधिक सुरक्षित और क्षमता विकसित सैनिक कैसे होंगे. इसके ठीक उलट उन्हें और अधिक ख़तरनाक मिशन पर भेजा जा सकेगा या सामान्य सैनिकों के मुक़ाबले उन्हें लड़ने के अधिक मौक़े दिये जा सकेंगे.'
प्रोफ़ेसर सावूलेस्कू कहते हैं कि 'सेना में चीज़ों का विकास कैसे होता है, उस पर नैतिक या लोकतांत्रिक नियंत्रण रखना बहुत मुश्किल है, क्योंकि राष्ट्रीय हित की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए ऐसे तकनीकी विकास हमेशा गुप्त ही रखे जाते हैं.'
ऐसे मे इस क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए या क्या किया जा सकता है? इस पर प्रोफ़ेसर लिन कहते हैं कि 'इसकी मुख्य चुनौती ये है कि ये एक दोहरे इस्तेमाल वाली रिसर्च है. उदाहरण के तौर पर एक्सोस्केलेटन शोध का शुरुआती मक़सद लोगों को बीमारी से निजात देना था, जैसे कि किसी लकवा मार गए व्यक्ति को चलने में मदद करना.'
दिमाग़ से नियंत्रित होने वाल ये एक्सोस्केलेटन लकवा मार गए व्यक्ति को चलने में मदद कर सकता है
लेकिन इस उपचारात्मक इस्तेमाल का आसानी से सैन्यकरण किया जा सकता है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि इसे कैसे रोका जाये.
इसका मतलब ये है कि ये स्पष्ट नहीं कि इसे कैसे नियंत्रित किया जाये, बिना अत्याधिक व्यापक विनियमन के, जो उपचारात्मक शोध को भी प्रभावित कर सकता है.
डॉक्टर ओ नील के मुताबिक़, जेनेटिक रिसर्च में चीन पहले ही आगे बढ़ चुका है और बाकी देश इस मामले में चीन से पीछे हैं.
वे कहती हैं, 'मुझे लगता है कि हमने आज की ज़रूरत पर ध्यान देने के बजाए नैतिक सवालों में अपना समय नष्ट कर दिया है.'
'अटकलों और द्वंद पर बहुत अधिक ऊर्जा ख़र्च की जा चुकी है, जबकि ऊर्जा वास्तविक ख़तरों और तकनीक का कैसे इस्तेमाल किया जाए इस पर ख़र्च की जानी चाहिए, ताकि हम उसे बेहतर तरीके से समझ सकें क्योंकि कहीं और तो ये होगा ही और हो भी रहा है. और सिर्फ़ शोध करते रहने से ही हमें ये पता चलेगा कि ये कहाँ गलत हो सकता है.' (bbc.com)
पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पर अपने समर्थकों को अमेरिकी संसद पर 6 जनवरी को हुई हिंसा के लिए उकसाने का आरोप है. अमेरिकी सांसदों ने महाभियोग की कार्यवाही चलाने के लिए मतदान किया.
पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के खिलाफ सीनेट में दूसरी बार महाभियोग की सुनवाई की शुरुआत मंगलवार को हुई. अमेरिकी सीनेट ने महाभियोग की कार्यवाही को संवैधानिक माना है और वहां इसके पक्ष में 56 वोट पड़े हैं. यह पहली बार है जब एक पूर्व राष्ट्रपति को दो बार महाभियोग का सामना करना पड़ रहा है. महाभियोग के तहत उन पर राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को पलटने के लिए 6 जनवरी को अमेरिकी संसद में हिंसा भड़काने का आरोप लगाया गया है. पहले दिन की ऐतिहासिक कार्यवाही के बाद सीनेट बुधवार तक के लिए स्थगित हो गई. ट्रंप के वकीलों की दलील है कि पूर्व राष्ट्रपति ने अपने समर्थकों की रैली को संबोधित करने के दौरान उन्हें हिंसा के लिए नहीं उकसाया. मंगलवार से शुरू हुई सुनवाई को देखते हुए कैपिटल हिल के आसपास सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए.
सीनेटरों ने कैसे किया मतदान?
हालांकि अधिकांश सीनेटरों ने अपनी पार्टी लाइन के मुताबिक मतदान किया, छह रिपब्लिकन सीनेटरों ने पार्टी लाइन से अलग हटते हुए मतदान किया. कार्यवाही की संवैधानिकता पर पूर्व-महाभियोग सुनवाई से पहले उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. पहले के विपरीत लुइसियाना के बिल कैसिडी इस महत्वपूर्ण फैसले में पांच अन्य रिपब्लिकन सीनेटरों के साथ आ गए. पार्टी से अलग हटकर भले ही छह रिपब्लिकन सीनेटरों ने मतदान किया हो फिर भी दो तिहाई बहुमत के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी को रिपब्लिकन पार्टी के कम से कम 11 सांसदों के समर्थन की जरूरत होगी.
ट्रंप पर "विद्रोह के लिए उकसाने" का सिर्फ एक आरोप लगाया गया है. आरोप है कि उन्होंने 6 जनवरी को अपने हजारों समर्थकों को अमेरिकी संसद पर हमला करने के लिए उकसाया था. डेमोक्रेट्स का कहना है कि ट्रंप ने भीड़ को उकसाया था. डेमोक्रेट्स और कई संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि जिस राष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा हो गया हो और अगर उसने महाभियोग चलाने योग्य अपराध को अंजाम दिए हो तो संविधान में उसे बचाने के लिए अपवाद नहीं है. रिपब्लिकन ने तर्क दिया कि कार्यवाही संवैधानिक नहीं है क्योंकि ट्रंप अब पद पर नहीं हैं. ट्रंप को कैपिटल हिल पर हिंसा के लिए प्रतिनिधि सभा में 13 जनवरी को पहले ही आरोपित किया जा चुका है, जिसमें एक पुलिस अधिकारी समेत पांच लोग मारे गए थे. अमेरिका के इतिहास में ट्रंप एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन पर दो बार महाभियोग का मामला चलाया गया है.
सुनवाई की शुरुआत में क्या कहा गया?
महाभियोग की कार्यवाही की शुरुआत करते हुए डेमोक्रेटिक पार्टी के जेमी रस्किन ने कहा, "हमारा मामला तथ्यों पर आधारित है." अपने शुरुआती बयान में रस्किन ने "जनवरी अपवाद" की धारणा को खारिज कर दिया. ट्रंप के वकील ब्रूस कैस्टर ने दलील दी कि महाभियोग की जरूरत नहीं है क्योंकि मतदाताओं ने ट्रंप को "पद से हटा" दिया है. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ट्रंप पर महाभियोग चलाना असंवैधानिक है, क्योंकि वह अब पद पर नहीं है. वकीलों की दलील है कि संविधान साधारण नागरिक के खिलाफ महाभियोग चलाने की शक्ति नहीं देता है.
एए/सीके (एपी, एएफपी)
अपने साथ हुई ज्यादती की शिकायत लिखाने पुलिस थाने जाएं भी तो वहां पुरुषों से घिर जाने का डर सताता है. इसीलिए पाकिस्तान अब पुलिस में महिलाओं की भर्ती बढ़ा रहा है.
डॉयचे वैले पर मावरा बारी की रिपोर्ट-
पाकिस्तान में महिलाओं के खिलाफ हिंसा नई बात नहीं. पिछले साल बलात्कार के कई मामले वहां सुर्खियों में रहे. लेकिन महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि जिन मामलों पर बात हो रही है, वे असल संख्या के सामने कुछ भी नहीं है. पाकिस्तान में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के ज्यादातर मामले रिपोर्ट नहीं किए जाते. अधिकतर महिलाएं ही ऐसा करने में संकोच करती हैं.
बदनामी का डर एक तरफ है लेकिन साथ ही उन्हें न्याय ना मिलने का डर भी सताता है क्योंकि पुलिस स्टेशन और कचहरी में मर्दों का ही सामना करना होता है. मामले की जांच के दौरान पुलिस स्टेशन में भी उत्पीड़न की खबरें आती हैं. ऐसे में महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की मांग हैं कि बलात्कार पीड़ितों के लिए खास कोर्ट बनाए जाएं, जहां वे सुरक्षित महसूस करें. साथ ही उनकी यह मांग भी है कि महिला पुलिसकर्मियों और महिला जजों की संख्या बढ़ाई जाए. पाकिस्तान की कुल पुलिस फोर्स में महिलाओं की संख्या मात्र 1.8 प्रतिशत ही है.
फोन पर ही रिपोर्ट लिखवाएं महिलाएं
रावलपिंडी शहर के डीआईजी मुहम्मद एहसान यूनुस ने डॉयचे वेले से बातचीत में बताया, "हमारे यहां थानों में बहुत ज्यादा महिलाकर्मी तो नहीं हैं लेकिन हमारे सीनियर अफसरों को काफी अच्छी ट्रेनिंग हासिल है. पर साथ ही हमें महिला पुलिसकर्मियों को सशक्त करने की भी जरूरत है."
डीआईजी यूनस ने ऐसे कई प्रॉजेक्ट चलाए हैं जिनका नेतृत्व महिला पुलिसकर्मी कर रही हैं. रावलपिंडी और आसपास के इलाके की महिलाएं एक टोल फ्री नंबर पर कॉल कर यौन उत्पीड़न या घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करा सकती हैं. इसके लिए उन्हें पुलिस स्टेशन जाने की जरूरत नहीं पड़ती. एफआईआर दर्ज हो जाने के बाद महिला पुलिसकर्मी पीड़िता से मुलाकात करने आती है.
इस हेल्पलाइन का काम संभाल रही 29 वर्षीय आमना बेग का कहना है कि महिलाओं के लिए शिकायत लिखवाना आसान नहीं होता, "समाज में जिस तरह की धारणाएं हैं, उनके चलते वे रिपोर्ट लिखवाने के बारे में सोचती भी नहीं हैं. पाकिस्तान में महिलाओं का थाने जाना आज भी वर्जित है. हमारी हेल्पलाइन उनकी पहचान सुरक्षित रखती है ताकि उन्हें कोई दिक्कत ना हो."
इस हेल्पाइन को 8 दिसंबर 2020 को शुरू किया गया था और तब से अब तक दर्जनों महिलाएं यहां फोन कर चुकी हैं. रावलपिंडी पुलिस के अनुसार अब तक औपचारिक रूप से 25 एफआईआर भी दर्ज की जा चुकी हैं. पुलिस रिकॉर्ड्स के अनुसार 52 प्रतिशत कॉल छेड़छाड़ के कारण, 12 प्रतिशत यौन उत्पीड़न के कारण और 36 प्रतिशत घरेलू हिंसा को ले कर की गई. हालांकि यह भी सच है कि लड़कियों ने हिम्मत दिखा कर फोन तो किया पर ज्यादातर मामलों में परिवार के दबाव में आ कर औपचारिक रूप से शिकायत नहीं लिखवाई.
बदल रहा है पाकिस्तान
बेग को उम्मीद है कि आने वाले सालों में ज्यादा से ज्यादा संख्या में महिलाएं पुलिस में भर्ती होंगी, "मैं पाकिस्तान के एक पारंपरिक घराने से नाता रखती हूं. मेरे घर में अगर किसी महिला को कभी पुलिस की जरूरत पड़ती है, तो घर का कोई ना कोई मर्द उसमें दखल दे देता है. पाकिस्तान में महिलाएं बिना किसी चिंता के स्कूल या अस्पताल जाती हैं क्योंकि वहां और भी महिलाएं होती हैं. इसलिए मैंने सोचा कि अगर मैं पुलिस में शामिल हो जाऊंगी तो महिलाओं को पुलिस के पास आना भी आसान लगेगा."
ट्विटर पर बेग के 80,000 से ज्यादा फॉलोवर हैं. वे पाकिस्तान में हो रहे बदलाव की मिसाल हैं. लेकिन कुछ दशकों पहले महिलाओं का पुलिस में भर्ती होना बेहद मुश्किल था. एसएचओ शाहिदा यासमीन बताती हैं, "मैं जिस जमाने में पुलिस फोर्स से जुड़ी थी, उस वक्त तो लोगों ने इस बारे में सुना भी नहीं था. मुझे यह देख कर खुशी होती है कि अब ऐसा नहीं रहा."
उस जमाने को याद करते हुए वह बताती हैं, "कई बार तो हमारे सहकर्मी ही हमें परेशान करते थे और हम कुछ नहीं कर पाती थीं. अब पुरुष पुलिसकर्मियों में बदलाव आया है, अब वे हमें इज्जत भरी नजरों से देखते हैं." यासमीन अब एक करियर काउंसलिंग सर्विस शुरू करने जा रही हैं, जहां वे युवा लड़कियों को पुलिस से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी. इन छोटे छोटे कदमों के साथ पाकिस्तान बदलाव की राह पर चल रहा है. (dw.com)
दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले देश चीन में लोग अब बच्चे पैदा करने से कतरा रहे हैं. बीते साल चीन में नवजात शिशुओं की संख्या में 15 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली है.
चीन के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय का कहना है कि देश में 2020 में एक करोड़ बच्चे पैदा हुए. यह संख्या एक साल पहले के मुकाबले 15 प्रतिशत कम है. इसकी वजह कोरोना महामारी और उससे पैदा होने वाली स्थिति को माना जा रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि लोग आर्थिक अस्थिरता के माहौल में परिवार बढ़ाने से पहले बहुत सोच विचार कर रहे हैं.
मंत्रालय का कहना है कि 2019 में चीन में 1.1 करोड़ बच्चों का जन्म हुआ था. पिछले साल इनकी संख्या काफी कम रही. 2020 में जो बच्चे पैदा हुए उनमें से 52.7 लड़के और 47.3 प्रतिशत लड़कियां हैं. सरकार के साथ साथ अब लोग भी देश की घटती जन्मदर को लेकर चिंतित हैं. चीनी सोशल मीडिया पर एक हैशटैग चल रहा है जिसका मतलब है "चीन को कम जन्मदर के जाल से कैसे मुक्त कराएं." लगभग 12 करोड़ लोगों ने इससे जुड़ी पोस्ट्स पर रिएक्ट किया है. एक यूजर ने घटती जन्मदर को "चीनी राष्ट्र के सामने मौजूद सबसे बड़ा संकट बताया."
बदलता समाज
कुछ लोग घटती जन्मदर की वजह रोजमर्रा की जरूरतों पर बढ़ते खर्च को मानते हैं जबकि अन्य लोगों के मुताबिक लोगों की सोच में बड़ा बदलाव आ रहा है. चीन की सोशल मीडिया साइट वाइबो पर एक यूजर ने लिखा, "घटती जन्मदर असल में चीनी लोगों की सोच में हो रही प्रगति को दिखाती है. महिलाएं अब सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हैं." लेकिन एक अन्य यूजर ने लिखा, "अगर पूरा समाज ही बच्चे पैदा करने और उनकी परवरिश को बोझ समझेगा तो फिर समाज के सामने समस्या पैदा हो जाएगी"
हाल के सालों में चीनी जोड़े स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और रहन सहन पर बढ़ते खर्च को देखते हुए बच्चे पैदा करने का फैसला बहुत सोच समझकर ले रहे हैं. चीन ने 1970 के दशक में जनसंख्या को नाटकीय रूप से कम करने के लिए एक बच्चे की नीति लागू की थी. लेकिन देश की तेजी से बूढ़ी होती आबादी को देखते हुए 2016 में इस नीति को छोड़ दिया है. इसके बावजूद जन्मदर में उम्मीद के मुताबिक इजाफा देखने को नहीं मिल रहा है.
बड़ी गिरावट
बीते साल कोरोना महामारी की वजह से पैदा आर्थिक अस्थिरताओं ने ऐसे लोगों को और ज्यादा दुविधा में डाला है. इसका जन्मदर पर दीर्घकालीन असर पड़ सकता है. यह चीन के लिए चिंता की बात है क्योंकि उसकी आबादी लगातार बूढ़ी होती जा रही है और सरकार ने सबको स्वास्थ्य सेवा और पेंशन की गारंटी दी है. चीन में 20 फीसदी आबादी यानी लगभग 25 करोड़ लोगों की उम्र 60 बरस से ज्यादा है.
जन्मदर में आ रही कमी आगे चल कर चीन के श्रम बाजार के लिए समस्याएं पैदा कर सकती है. इससे अर्थव्यवस्था पर भी असर होगा. चीन का राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो इसी महीने जनसंख्या को लेकर 2020 के आंकड़े पेश करेगा.
दिसंबर में चीन के सरकारी मीडिया ने नागरिक मामलों के मंत्री लिय चिहेंग के हवाले से लिखा कि देश की जन्मदर "खतरनाक तरीके से कम हो गई है". यह जनसंख्या को एक निश्चित स्तर पर बनाए रखने के लिए जरूरी प्रति महिला 2.1 जन्म से भी नीचे पहुंच गई है.
एके/आईबी (एएफपी, रॉयटर्स)
इस्लामाबाद, 9 फरवरी | पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने खैबर पख्तूनख्वा प्रांतीय सरकार को उस हिंदू मंदिर का तत्काल पुनर्निर्माण शुरू करने का निर्देश दिया, जहां दिसंबर 2020 में एक भीड़ द्वारा आग लगा दी गई थी। 30 दिसंबर, 2020 को एक अनियंत्रित भीड़ ने करक जिले के टेरी इलाके में स्थित श्री परमहंस जी महाराज की समाधि में आग लगा दी थी। यहां एक धार्मिक पार्टी के कुछ स्थानीय बुजुर्गों के नेतृत्व में एक हजार से अधिक लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया और मंदिर को हटाने की मांग की थी, जो कि मूल रूप से 1920 से पहले बनाया गया था।
पिछले महीने खैबर पख्तूनख्वा सरकार ने मंदिर के पुनर्निर्माण की घोषणा की थी, साथ ही हमलावरों के खिलाफ एक कार्रवाई भी की थी।
द एक्सप्रेस ट्रिब्यून की रिपोर्ट के अनुसार, सोमवार को सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश गुलजार अहमद की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने प्रांत को धर्मस्थल के पूरा होने के लिए एक समय-सीमा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
इवैक्यू ट्रस्ट प्रॉपर्टी बोर्ड पाकिस्तान में हिंदू और सिख पूजा स्थलों की देखरेख करता है। इसके वकील इकराम चौधरी ने पीठ को अवगत कराया कि मंदिर के मुद्दे पर अब तक कोई रिकवरी नहीं की गई है।
चौधरी ने अदालत को बताया, सरकार ने मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए 3.41 करोड़ पीकेआर (पाकिस्तानी मुद्रा) की मंजूरी दी थी।
द एक्सप्रेस ट्रिब्यून की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस बीच, हिंदू परिषद के प्रमुख और नेशनल असेंबली के सदस्य रमेश कुमार ने कहा है कि करक क्षेत्र संवेदनशील है और मंदिर का पुनर्निर्माण हिंदू समुदाय द्वारा किया जाना चाहिए।
यह दूसरी बार था, जब धर्मस्थल पर हमला हुआ है। यह 1997 में ध्वस्त कर दिया गया था और फिर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार इसका पुनर्निर्माण किया गया था।
सोमवार का आदेश एक फरवरी को सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई एक रिपोर्ट के बाद आया है, जिसमें एकल व्यक्ति शोएब सूडल कमीशन ने खुलासा किया है कि देशभर में अधिकांश हिंदू पवित्र स्थल उपेक्षा एवं अनादर की तस्वीर पेश करते हैं।
अल्पसंख्यक अधिकारों पर अपने फैसले के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए आयोग को 2019 में शीर्ष अदालत द्वारा स्थापित किया गया था।
यह बताया गया कि ईटीपीबी अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकांश प्राचीन और पवित्र स्थलों को बनाए रखने में विफल रहा है।
एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार, विभाजन से पहले मौजूद पाकिस्तान के 428 हिंदू मंदिरों में से केवल 20 ही बचे हैं।
पाकिस्तान के कुछ प्रमुख हिंदू मंदिरों में श्री हिंगलाज माता मंदिर (बलूचिस्तान), श्री रामदेव पीर मंदिर (सिंध), उमरकोट शिव मंदिर (सिंध) और चुरियो जबाल दुर्गा माता मंदिर (सिंध) शामिल हैं।
2017 की पाकिस्तान जनगणना के अनुसार, देश की कुल आबादी में हिंदुओं की संख्या 2.14 प्रतिशत है। (आईएएनएस)
-रजनीश कुमार
6 दिसंबर, 1992 को जब भारत में बाबरी मस्जिद गिराई गई, तब मोहना अंसारी पाँचवीं क्लास में पढ़ती थीं. मोहना, नेपाल में बाँके ज़िले के नेपालगंज की हैं.
मोहना याद करती हुए बताती हैं कि उस दिन वे पूरे परिवार के साथ किसी शादी में शामिल होने उत्तर प्रदेश के नानपारा गई हुई थीं. तभी पता चला कि उत्तर प्रदेश के बहराइच और नानपारा के बीच दंगा हो गया है.
मोहना कहती हैं, ''मेरे वालिद की पुलिस प्रशासन में अच्छी पहचान थी. इत्तेफ़ाक से नेपालगंज के उस वक़्त के पुलिस ऑफिसर और मेरे वालिद की अच्छी दोस्ती थी. उनके ज़रिए मेरे वालिद ने यूपी पुलिस से संपर्क कर हमें नानपारा से सुरक्षित निकाला. मेरे बचपन की यह याद कभी मिटती नहीं है. उसके बाद इलाक़े में जितने दंगे हुए, उसका प्रभाव नेपाल के मुसलमानों पर पड़ा. ख़ास करके उन मुसलमानों पर, जो यूपी-बिहार से लगे नेपाल के सीमाई इलाक़ों में रहते हैं.''
मोहना कहती हैं, ''जब भी भारत में कोई आतंकवादी हमला होता था, उसका प्रभाव हमारे जनजीवन पर भी स्वाभाविक रूप से पड़ा. लोग चीज़ों को व्यक्तिगत तौर पर देखने लगते हैं. मुसलमान होने के कारण शक करने लगते हैं.''
पिछले साल भारत में जब कोविड-19 महामारी ने दस्तक दी, तो तब्लीग़ी जमात से जुड़े लोगों पर भी उंगली उठी. इसकी चपेट में मोहना अंसारी भी आ गईं.
मोहना कहती हैं, ''मैं मार्च महीने में अपने रिश्तेदार की शादी में उत्तर प्रदेश के कानपुर गई थी. संयोग से, भारत में तभी तब्लीग़ी जमात का प्रोग्राम हुआ था. मेरे परिवार वाले तो आज तक किसी भी ऐसे धार्मिक कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए. शादी से लौटते वक़्त भारत में लॉकडाउन की घोषणा हो गई. मेरे पास तो ट्रैवेल परमिट थी. अपनी गाड़ी भी थी. मैं तब नेपाल मानवाधिकार में भी थी. यूपी पुलिस ने मुझे नेपाल जाने दिया.''
मोहना बताती हैं, ''नेपालगंज से काठमांडू आई. लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखना शुरू कर दिया कि मैं जमात में शामिल होने भारत गई थी. मैं दफ़्तर पहुँची, तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मैडम जमात में गई थीं और वो बिना पीसीआर टेस्ट के क्यों आई हैं. मुझे इसे लेकर बहुत जूझना पड़ा.''
नेपाल के लोग पाकिस्तान के बारे में क्या सोचते हैं?
नेपाल में मुसलमान किस हाल में?
नेपाल की राजधानी काठमांडू के सुंधारा इलाक़े में 24 अक्तूबर की सुबह कुछ लोगों ने जेसीबी मशीन से एक मस्जिद की दीवार गिरा दी. इस मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक़ को लेकर विवाद था.
इस वाक़ये को लोगों ने किसी आपराधिक मामले की तरह लिया. पुलिस में शिकायत की गई और मस्जिद तोड़ने वाले को पकड़ लिया गया. सरकार ने फिर से मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी. यह मामला किसी भी तरह से हिंदू बनाम मुसलमान नहीं हुआ और न ही किसी ने ऐसा करने के लिए हवा दी. जब यह मस्जिद की दीवार गिराई गई, तब भी वहाँ कोई सांप्रदायिक भीड़ नहीं थी.
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इस इलाक़े के मुसलमान और हिंदू दोनों मानते हैं कि ज़मीन के मालिकाना हक़ को लेकर विवाद है, लेकिन पिछले कई दशकों से यह मुसलमानों के ही पास है. यहाँ मुसलमान गोश्त बेचते थे और बाद में लोगों ने नमाज़ पढ़ना शुरू किया, तो मस्जिद बन गई.
नेपाल में 2018 में मुसलामानों के हितों को ध्यान में रखते हुए केपी शर्मा ओली की सरकार ने मुस्लिम कमिशन का गठन किया था. इस कमिशन के पहले चेयरमैन शमीम मियाँ अंसारी बने. अंसारी कहते हैं कि यह कोई हिंदू बनाम मुस्लिम का मामला नहीं था.
अंसारी कहते हैं, ''ज़मीन को लेकर विवाद था और यहाँ मस्जिद होने के बावजूद धर्म का एंगल नहीं आया. पुलिस ने तत्काल कार्रवाई की और अब नई मस्जिद बन रही है. नेपाल में मुसलमानों के साथ वैसा कोई भेदभाव नहीं है. काठमांडू में दो लाख से ज़्यादा मुसलमान किराए के घरों में रहते हैं, लेकिन कभी उस रूप में कोई भेदभाव की शिकायत नहीं मिली.''
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मोहम्मद अयूब तराई के लुंबिनी से हैं. उन्होंने दिल्ली के साउथ एशियन यूनिवर्सिटी से मास्टर की पढ़ाई की है. 2013 में दिल्ली छोड़ने के बाद से वो काठमांडू में रिसर्चर के तौर पर काम कर रहे हैं. अयूब को नेपाली भाषा नहीं आती है. वे हिंदी, उर्दू और अवधी में बात करते हैं. अयूब कहते हैं कि लुंबिनी में अवधी ही बोली जाती है.
अयूब कहते हैं, ''काठमांडू में मुस्लिम पहचान से ज़्यादा बड़ी पहचान मधेसी होना है. भेदभाव का सामना करने के लिए मधेसी होना काफ़ी है. जैसे आप काठमांडू में किसी पहाड़ी मकान मालिक के घर किराए पर लेने जाएँ, तो चेहरा देखकर ही समझ जाएगा कि आप तराई से हैं यानी मधेसी हैं. आप नेपाली नहीं बोलेंगे, तो शक हो जाएगा कि यूपी, बिहार के हैं. पहला भेदभाव यहीं से शुरू होगा. उसके बाद वे नाम पूछेंगे. नाम से पता चल जाएगा कि आप मुसलमान हैं, तो दूसरी तरह का भेदभाव शुरू होगा.''
अयूब बताते हैं कि कई बार उनसे नेपाल के लोग ही पूछ बैठते हैं कि क्या वे भारत के हैं. मोहम्मद अयूब कहते हैं कि नेपाल में कोई बीजेपी जैसी पार्टी नहीं है, नहीं तो सुंधारा में मस्जिद की दीवार गिराने के मामले को सांप्रदायिक रंग दिया जा सकता था.
अयूब कहते हैं, ''नेपाल की चुनावी राजनीति में धार्मिक ध्रुवीकरण की बुराई नहीं आई है. इसकी एक वजह ये भी है कि मुसलमानों की तादाद मामूली है. मुसलमानों से अगर भेदभाव है, तो मधेस के हिंदुओं से भी है. कमल थापा की राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग कर रही है, लेकिन उन्होंने कभी मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत की बात नहीं की. यहाँ तक कि तराई के मुसलमान ही उनकी पार्टी में हिंदू राष्ट्र बनाने की माँग में शामिल दिखते हैं.''
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रामचंद्र झा कहते हैं कि नेपाल की राजनीति भारत की तरह धर्म के आधार पर बाँटने वाली नहीं है. वे कहते हैं, ''भारत में चुनावों में जीत के लिए विभाजनकारी राजनीति की जाती है. नेपाल अभी इससे बचा हुआ है. नेपाल में भेदभाव का मसला अभी तराई बनाम पहाड़ है. इसलिए मुसलमान बनाम हिंदू जैसी स्थिति नहीं है. यहाँ कोई बीजेपी जैसी पार्टी भी नहीं है, इसलिए भी धर्म के आधार पर नफ़रत से नेपाल मुक्त है.''
रामचंद्र झा कहते हैं हिंदी मीडिया नेपाल में इस तरह के विभाजन की कोशिश कर रहा है और इसका असर भी कुछ हलकों में दिख रहा है. वे कहते हैं कि इस मामले में नेपाल की राजनीति को सतर्क रहने की ज़रूरत है. रामचंद्र झा कहते हैं कि भारत में मोदी सरकार के आने के बाद नेपाल में भी धार्मिक आक्रामकता की ज़मीन को मज़बूत करने की कोशिश की जा रही है.
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मोहम्मद अयूब कहते हैं कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत के मुसलमानों पर जैसा असर पड़ा है, उसकी छींटें नेपाल के मुसलामानों पर भी आई हैं.
अयूब कहते हैं, ''जैसे 2014 के बाद भारत का मीडिया बदला है. तराई क्या पहाड़ के लोग भी हिंदी न्यूज़ चैनल देखते हैं. हिंदी न्यूज़ चैनलों में मुसलमानों की जो छवि गढ़ी जाती है, उसका सीधा असर नेपाल के समाज पर पड़ रहा है. फ़र्ज़ी ख़बरों का प्रसार सोशल मीडिया के ज़रिए तेज़ी से बढ़ रहा है. इसके ज़रिए प्रॉपेगैंडा फैलाया जा रहा है.''
अयूब एक उदाहरण देते हैं, ''पाकिस्तान में अभी एक मंदिर तोड़े जाने की घटना हुई थी. इसका असर लुंबिनी में भी पड़ा. लुंबिनी के लोगों को मैंने बातचीत में कहते हुए सुना कि नेपाल में भी मुसलमान ज़्यादा हो गए, तो पाकिस्तान की तरह हमारे मंदिर भी तोड़ दिए जाएँगे. ऐसा पहले नहीं होता था. डर इस बात का है कि नेपाल में सत्ता के लिए लोगों को लामबंद करने में धर्म की आड़ ली गई, तो नेपाल के मुसलमानों की भी हालत भारत की तरह हो सकती है. मेरा मानना है कि भारत की तुलना में नेपाल का समाज अभी बहुत ही सहिष्णु है.''
दिनेश पंत उत्तराखंड की सीमा से लगे नेपाल के कंचनपुर ज़िले के रहने वाले हैं. उन्होंने पिछले साल ही दिल्ली की साउथ एशिया यूनिवर्सिटी से मास्टर की पढ़ाई पूरी की है.
दिनेश याद करते हुए बताते हैं कि पिछले साल लॉकडाउन के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वास्थ्यकर्मियों के समर्थन के लिए बालकनी से थाली बजाने और दीप जलाने की अपील की, तो उनके इलाक़े में भी लोगों ने इसे माना. दिनेश कहते हैं कि लोगों ने थाली भी बजाई और दीप भी जलाए.
दिनेश कहते हैं, ''भारत में पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद यहाँ उग्र हिंदुओं का एक जमात है, जिसका उत्साह बढ़ा और उसका सीधा असर मुसलमानों पर पड़ा. कोरोना संक्रमण फैलाने के लिए यहाँ भी मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराने वाली रिपोर्ट प्रसारित की गई. भारतीय मीडिया तो ऐसा कर ही रहा था और उसका सीधा असर यहाँ भी पड़ा. मुसलमानों पर नोट में थूक लगाकर लोगों के देने की फ़र्ज़ी ख़बरें चलाई गईं. भारत एक बड़ा मुल्क है और यहाँ के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता से नेपाल में राजशाही के ख़िलाफ़ आंदोलन को प्रेरणा मिलती रही, लेकिन भारत में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को कमज़ोर किया जाएगा, तो इसका असर नेपाल पर पड़ना लाजिमी है.''
दिनेश कहते हैं कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में गोहत्या बैन करने का असर सीधा नेपाल पर पड़ा है. पंत कहते हैं कि यहाँ के हिंदू गाय बूढ़ी होने पर बेच देते थे. लेकिन अब नहीं बेच पाते हैं और मुसलमान भी बीफ़ खाने को लेकर आशंकित रहते हैं. पंत कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि बीफ़ केवल मुसलमान ही खाते हैं बल्कि यहाँ के तो ब्राह्मण भी खाते हैं.
दिनेश पंत कहते हैं, ''नेपाल में मुसलमान भारत की तुलना में बहुत कम हैं. इसलिए यहाँ के मुसलमान कुछ कहने या करने से पहले बहुसंख्यक आबादी से कन्फ़र्म हो लेते हैं. जैसे नेपाल के मुसलमानों ने हिंदू राष्ट्र ख़त्म किए जाने का जश्न नहीं मनाया या अब फिर से हिंदू राष्ट्र बनाने की माँग चल रही है तो इसका विरोध भी नहीं कर रहे हैं.''
नेपाल में हिंदू-मुसलमानों की आपसी रंजिश
काठमांडू के इस्लामी स्कॉलर क़ाज़ी मुफ़्ती अबुबकर सिद्दीक़ी क़ासमी कहते हैं कि नेपाल में मुसलमान भले कम हैं, लेकिन बहुत सुकून से हैं. वे कहते हैं, ''नेपाल के हिंदू बहुत ही अच्छे हैं. हममें धर्म को लेकर कोई टकराव नहीं है. मैं कह सकता हूं कि हम भारत के मुसलमानों से ज़्यादा सुकून से नेपाल में हैं.''
इन सबके बावजूद, नेपाल में हिंदुओं और मुसलमानों के दंगे हुए. लेकिन ज़्यादातर के संबंध भारत की घटनाओं से जुड़े रहे हैं. डेविड सेडोन ने अपनी किताब 'द मुस्लिम कम्युनिटीज ऑफ़ नेपाल' में लिखा है कि जब भी भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई दंगे की स्थिति बनी है, तो उसका असर नेपाल में भी दिखा है.
डेविड सेडोन ने अपनी किताब में लिखा है, ''1994-95 में नेपाल के बांके ज़िले में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगा हुआ. यह उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद टूटने के बाद के तनाव से हुआ था. नेपालगंज में मुस्लिम मुसाफ़िरखाने की जगह एक हिंदू मंदिर बनाने को लेकर तीन दिन तक दंगे हुए थे. लेकिन यह स्थानीय स्तर तक ही रहा. तराई इलाक़े में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव 1990 के दशक में सबसे ज़्यादा रहा. बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के कारण भारत से लगी सीमाओं पर भारी तनाव रहा.''
''नेपालगंज में अक्सर हिंदू और मुसलमान भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच या किसी महिला को लेकर आपस में भिड़ जाते थे. 1997 में नेपागंज में शिव सेना ने एक दफ़्तर खोला. शिव सेना ने नगर निकाय चुनाव में नेपालगंज में मेयर और अन्य उम्मीदवारों को अपना समर्थन दिया. कथित तौर पर शिव सेना के समर्थकों ने एक मुस्लिम को मतदान केंद्र पर जाने से रोक दिया. इसकी प्रतिक्रिया में शिव सेना के एक समर्थक को गोली लग गई और वो ज़ख़्मी हो गया. पूरा शहर दंगे की चपेट में आ गया. घरों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया. इसमें एक मुस्लिम व्यक्ति की मौत हुई थी और 27 लोग ज़ख़्मी हुए थे.''
इराक़ में 12 नेपालियों की हत्या से निशाने पर आए नेपाली मुसलमान
एक सितंबर 2004 को इराक़ में 12 नेपालियों को इस्लामिक चरमपंथी संगठन अंसार अल-सुन्ना ने मार दिया था. इन्हें चरमपंथियों ने इराक़ पर 2003 में अमेरिकी हमले का समर्थन करने का इल्ज़ाम लगाकर गोली मार दी थी.
ये सारे नेपाली इराक़ में कुकिंग और साफ़-सफ़ाई का काम करते थे. नेपाल में इसे नेपाली हिंदुओं पर इराक़ी मुसलमानों के हमले की तरह लिया गया. इसकी प्रतिक्रिया में काठमांडू में आम मुसलमान निशाने पर आए. मदरसों और मस्जिदों पर हमले किए गए. कई दिनों तक मुसलमानों को लेकर नफ़रत जैसी स्थिति रही.
इस वाक़ये को लेकर थॉमस बेल ने अपनी किताब काठमांडू में लिखा है कि हज़ारों नेपालियों की भीड़ काठमांडू स्थित कश्मीरी मस्जिद में घुस गई. थॉमस बेल ने लिखा है, ''मेरे लिए कश्मीरी मस्जिद पहुँचना आसान नहीं था. पुलिस आँसू गैस के गोले दाग रही थी. लेकिन पुलिस के आने से पहले ही सैकड़ों की संख्या में दंगाई मस्जिद पहुँच गए थे.''
''मस्जिद के कैंपस में अरबी भाषा में लिखे पन्ने बिखरे थे. जहाँ लोग नमाज़ पढ़ते थे, वहाँ कालिख पोत दी गई थी. हर तरफ़ टूटे गमले और शीशे बिखरे हुए थे. मस्जिद के गुंबद को भी नुक़सान पहुँचाया गया था. पुलिस लाठी लिए घूम रही थी. इमाम को बुरी तरह से पीटा गया और उनकी जान बचाने के लिए उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया गया था. दोपहर बाद सरकार ने कर्फ़्यू लगा दिया, जो अगले चार दिनों तक लगा रहा.''
रिपब्लिका अख़बार ने तब लिखा था कि इराक़ में 12 नेपालियों की हत्या के बाद काठमांडू में न केवल जामा मस्जिद पर हमला हुआ, बल्कि मुसलमानों की संपत्ति को भी नुक़सान पहुँचाया गया. अख़बार ने लिखा था कि इसके बाद नेपाल में मुसलमानों को न केवल अल्पसंख्यक के तौर पर बल्कि ख़तरे के तौर पर भी देखा जाने लगा.
नेपाल में इसे काला बुधवार की संज्ञा दी जाती है. डेविड सेडोन ने अपनी किताब में लिखा है कि इसके बाद मुसलमानों ने भी एकजुट होने की कोशिश की और कुछ संगठन भी बने. 2005 में नेशनल मुस्लिम फ़ोरम का गठन किया गया. दोनों तरफ़ से ऐसे कई संगठन बने. डेविड सेडोन के अनुसार, तब मुसलमान अपनी पहचान मधेसी से अलग देखने लगे.
नेपाल में कितने मुसलमान
नेपाल में 2011 की जनगणना के अनुसार, यहाँ मुस्लिम आबादी 11 लाख 62 हज़ार 370 है. यह संख्या नेपाल की कुल आबादी की चार से पाँच फ़ीसदी के बीच है. अभी नेपाल की कुल आबादी दो करोड़ 86 लाख है. नेपाल के 97 फ़ीसदी मुसलमान तराई में रहते हैं और तीन फ़ीसदी काठमांडू के अलावा पश्चिमी पहाड़ी इलाक़ों में. नेपाल में तराई की कुल आबादी का 10 फ़ीसदी हिस्सा मुसलमानों का है.
हालाँकि, कुछ मुस्लिम स्कॉलरों का मानना है कि नेपाल में मुसलमानों की असली आबादी 10 फ़ीसदी के आसपास है और तराई में इनकी तादाद 20 फ़ीसदी है. नेपाल मानवाधिकार आयोग की चेयरमैन रहीं मोहना अंसारी कहती हैं कि जनगणना में असली डेटा नहीं आ पाता.
वे कहती हैं, ''कई परिवार तो असली संख्या बताने से परहेज़ करते हैं. उन्हें लगता है कि कहीं सच्चाई जानने पर सरकार कुछ कार्रवाई तो नहीं करेगी. इसके अलावा, जनगणना में कई तरह की गड़बड़ियाँ भी होती हैं. मेरा मानना है कि नेपाल में मुसलमानों की असली आबादी 10 से 12 फ़ीसदी है.''
2011 की जनगणना के अनुसार, नेपाल के रौतहट (19.70%), कपिलवस्तु (18.15%) और बांके (18.98%) ज़िले में मुसलमानों की सबसे ज़्यादा आबादी है. 1990 के दशक की शुरुआत में नेपाल का संविधान फिर से लिखा गया. हालाँकि, इस संविधान में भी नेपाल के हिंदू राष्ट्र का दर्जा कायम रहा.
हिंदू राष्ट्र होने के बावजूद 1990 के संविधान के अनुच्छेद 11 और 12 में स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया कि राज्य नेपाल के सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करेगा और धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा.
अनुच्छेद 19 में कहा गया कि सभी धर्मावलंबियों को अपने धर्म के पालन का अधिकार होगा और इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा. लेकिन धर्मांतरण की अनुमति इस संविधान में भी नहीं मिली.
1990 के दशक से ही नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र को बढ़ावा मिला. बहुदलीय लोकतंत्र में मुसलमानों ने भी राजनीति पार्टियों में शामिल होना शुरू किया.
डेविड सेडोन ने अपनी किताब 'मुस्लिम कम्युनिटीज ऑफ़ नेपाल' में लिखा है, ''नेपाली कांग्रेस ऑर यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (UCPN) ने अपना जनसमर्थन बढ़ाने के लिए मुसलमानों को टिकट दिया. आधिकारिक डेटा के अनुसार, 1991 के चुनाव में 91 मुसलमान उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और इनमें से कुल पाँच लोग सांसद चुने गए.''
बहुदलीय लोकतंत्र आने के बाद सभी पार्टियों ने मुसलमानों को तवज्जो देना शुरू किया. प्रोविंस 2 के मुख्यमंत्री मोहम्मद लालबाबू राउत हैं, जो मुसलमान हैं.
नेपाल का हिंदू राष्ट्र से सेक्युलर राष्ट्र बनना
माओवादी आंदोलन की सफलता के बाद नेपाल ने राजनीतिक रूप से अंगड़ाई लेना शुरू किया. 240 सालों की राजशाही का अंत हो गया और नेपाल हिंदू राज्य का चोला उतारकर फेंकने को तैयार हो गया.
भारत से भारतीय जनता पार्टी का दबाव था कि नेपाल हिंदू राष्ट्र बना रहे, लेकिन नेपाल की अंगड़ाई थमी नहीं. 2006 से पहले तक नेपाल हिंदू राष्ट्र बना रहा, जहाँ धर्मांतरण अपराध था.
लेकिन नवंबर 2006 में माओवादी और सात पार्टियों के गठबंधन के बीच ऐतिहासिक व्यापक शांति समझौता हुआ. इसी दौरान अंतरिम सरकार बनी और नेपाल को सेक्युलर राज्य घोषित कर दिया गया. 2007 के अंतरिम संविधान में भी सेक्युलर स्टेट की बात कही गई.
नेपाल मुस्लिम आयोग के चेयरमैन शमीम मियाँ अंसारी से पूछा कि मुसलमानों को हिंदू स्टेट से सेक्युलर स्टेट बनने का क्या फ़ायदा मिला?
शमीम मियाँ कहते हैं, ''हमारी पहचान और हक़ को रेखांकित किया गया. हम मधेसियों में ही गिन लिए जाते थे, लेकिन मुसलमान पहचान को पहली बार संविधान में जगह दी गई. हम आश्वस्त हुए कि नेपाल सभी मजहबों के लिए संवैधानिक रूप से एक जैसा है. जिस मुस्लिम आयोग का मैं चेयरमैन हूँ, वो आयोग भी सेक्युलर स्टेट बनने के बाद बना. अब मैं इस आयोग के ज़रिए मुसमलानों के हक़ों की बात उठाता हूँ. यह पहले संभव नहीं था.''
नेपाली मुसलमानों में शिक्षा
नेपाली मुसलमानों में शिक्षा की हालत बहुत ही ख़राब है. हाल के दशकों में नेपाल ने शिक्षा में काफ़ी प्रगति की है, लेकिन मुसलमान इस रेस में पीछे छूट गए हैं. 2001 की जनगणना के अनुसार, 1991 में नेपाल में साक्षरता दर 39.6 फ़ीसदी थी, जो 2011 में 14.1 फ़ीसदी बढ़कर 53.7 फ़ीसदी हो गई थी.
वहीं 1991 में मुसलमानों में साक्षरता दर 22.4 फ़ीसदी थी, जो 2001 में बढ़कर 34.7 फ़ीसदी ही रही. नेपाल में सबसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी आबादी पहाड़ी ब्राह्मणों की है. नेपाल की कुल आबादी में इनका हिस्सा 12.91 फ़ीसदी है और साक्षरता दर 74.90 फ़ीसदी.
नेपाल में मुसलमान अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से खेती पर आश्रित हैं. ये या तो खेती करते हैं या खेतीहर मज़दूर हैं.
UNDP 2009 के अनुसार नेपाल में प्रति व्यक्ति मासिक आय 15000 नेपाली रुपए है, लेकिन मुसलमानों की आय 10,200 नेपाली रुपए ही है. नेपाल में सबसे ज़्यादा मासिक आय 26,100 नेवार जाति की है. उसके बाद ब्राह्मण और छेत्री हैं. मुसलमान नीचे से दूसरे नंबर हैं और आख़िरी नंबर पर 8, 830 रुपए के साथ पहाड़ी दलित हैं.
नेपाल के मुसलमान बड़ी संख्या में खाड़ी के देशों में भी काम करते हैं. (bbc.com)
काठमांडू, 9 फरवरी | पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' की अगुवाई वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) गुट ने मंगलवार को कहा कि वह अप्रैल और मई के लिए प्रस्तावित चुनावों का बहिष्कार कर सकती है। इसने कहा कि 'अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक' चुनाव स्वीकार्य नहीं हैं। प्रचंड ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से नेपाल में लोकतंत्र और संविधान के पक्ष में बोलने का भी आह्वान किया।
उन्होंने यहां पत्रकारों से कहा कि हालांकि चुनावों में भाग लेने के बारे में फैसला किया जाना अभी बाकी है, लेकिन उनका गुट प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली 'अलोकतांत्रिक और अवैध' सरकार के तहत होने वाले चुनावों पर गंभीरता से विचार करेगा।
ओली ने 20 दिसंबर, 2020 को प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया और 30 अप्रैल और 10 मई को चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा है।
ओली के सदन को भंग करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और इसकी सुनवाई चल रही है।
एक बार जब शीर्ष अदालत अपना फैसला सुना देगी, तो यह साफ हो जाएगा कि नेपाल चुनावों के साथ आगे बढ़ेगा या नहीं।
प्रचंड ने कहा, "हमें सुप्रीम कोर्ट सहित हमारे संस्थानों में विश्वास है। हम ईमानदारी से उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सदन को भंग करने और चुनाव कराने के ओली के फैसले के पक्ष में निर्णय नहीं देगा।" गौरतलब है कि प्रचंड ने ओली को एनसीपी अध्यक्ष के पद से हटा दिया और पार्टी की सदस्यता भी छीन ली थी।
प्रचंड के नेतृत्व वाला गुट अब एक अलग पार्टी के रूप में काम कर रहा है और उसने दावा किया है कि चुनाव आयोग में यह प्रामाणिक एनसीपी है, हालांकि पार्टी को तकनीकी रूप से विभाजित करना बाकी है।
ओली के सदन को भंग करने के कदम के परिणामस्वरूप एनसीप में दरार पड़ गई और प्रचंड और माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व में दूसरे गुट ने इस कदम का विरोध किया।
गुट ने सदन की बहाली की मांग की है और नियोजित चुनावों का विरोध किया है।
विभिन्न राजनीतिक दलों के विरोध के बावजूद, ओली सरकार ने सोमवार शाम को पहले चरण में 40 जिलों में और दूसरे चरण में 37 जिलों में घोषित चुनाव कराने का फैसला किया।
प्रचंड ने ओली के कदम के पीछे किसी भी तरह के विदेशी कनेक्शन और हस्तक्षेप को नकार दिया।
एक सवाल का जवाब देते हुए कि प्रचंड और उनके गुट ने ओली के कदम के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय समर्थन लेने की कोशिश क्यों नहीं की, तो प्रचंड ने कहा कि चूंकि वे विभिन्न देशों जैसे भारत, चीन, अमेरिका राजदूतों के साथ बैठक कर रहे हैं, उन्होंने सार्वजनिक रूप से लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने की अपील की है।
उन्होंने कहा, "नेपाल में लोकतंत्र की हत्या हुई है और हमने अपनी अलग-अलग बैठकों में विदेशी दूतों को यह बताया है। अगर जरूरत पड़ी तो हम काठमांडू स्थित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इस संबंध में ब्रीफ करेंगे।" (आईएएनएस)
स्विट्जरलैंड का नाम लेते ही एक रईस देश की छवि सामने आती है जहां सब कुछ किसी परीकथा जैसा सुंदर है. लेकिन इस सुंदरता के पीछे एक ऐसा अतीत है जिस पर आज भी कई लोग शर्मिंदा हैं.
डॉयचे वैले पर ऑलिवर जीवकोविक की रिपोर्ट-
स्विट्जरलैंड हमेशा से कहता रहा है कि वह दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में से एक है. इस बात का उसे खूब गर्व भी है. पर क्या वाकई ऐसा है? यह सच है कि मध्य युग में भी वहां लोग साल में एक बार जुटा करते थे और समाज के निम्न वर्ग वाले भी बड़े बड़े फैसलों के लिए अपना मत दिया करते थे. लेकिन ये सब पुरुष थे. सदियों तक वहां वोट देने की परंपरा जारी रही. लेकिन 1971 तक महिलाओं को इससे दूर रखा गया. उन्हें महज पांच दशक पहले ही वोट देने का अधिकार मिला.
यहां तक कि स्विट्जरलैंड यूरोप के उन देशों की सूची में है जहां महिलाओं को यह अधिकार सबसे देर से मिला है. यूरोप में सबसे पहले फिनलैंड ने 1906 में महिलाओं को यह हक दिया था. 1918 से जर्मनी में भी महिलाएं वोट देने लगी थीं. तो फिर स्विट्जरलैंड को इतना वक्त क्यों लग गया? स्विट्जरलैंड की सबसे जानी मानी महिला कार्यकर्ता सिटा कुइंग इसका जवाब देती हैं, "इसकी वजह सरकार नहीं है. संसद भी नहीं है. इसकी वजह स्विट्जरलैंड के लोग हैं, वे पुरुष हैं जो फैसला लेने की हालत में थे."
स्विट्जरलैंड का रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज
67 वर्षीय कुइंग का जन्म स्विट्जरलैंड के एक मध्य वर्गीय परिवार में हुआ था. वह अपने परिवार की पहली महिला थीं जो यूनिवर्सिटी तक पहुंच सकीं. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने बताया कि महिलाओं को अपना अधिकार हासिल करने के लिए इस बात का इंतजार करना पड़ा कि कब पुरुष का बहुमत उनके लिए खड़ा होगा.
महिला विषयों की जानकार इजाबेल रोनर ने भी इस बात की पुष्टि की. उन्होंने बताया कि कई अन्य देशों की तरह स्विट्जरलैंड भी एक पितृसत्तात्मक समाज था जहां घर और बाहर को साफ साफ अलग रखा जाता था. राजनीति और सेना में पुरुष काम करते थे और घर में औरतें. 1848 में जब देश का संविधान लिखा गया तो उसमें सिर्फ पुरुषों को ही वोट करने का अधिकार दिया गया. रोनर कहती हैं, "आप लोकतंत्र की तो बात कर ही नहीं सकते, जब आप एक ऐसे समाज की बात कर रहे हैं जहां 50 फीसदी से ज्यादा लोगों को राजनीति और कानून में हिस्सा लेने का अधिकार ही नहीं है. 1971 से पहले तक कानून बनाते हुए महिलाओं के बारे में सोचा ही नहीं जाता था और कई बार तो ये कानून महिला विरोधी भी होते थे."
1960 का वो क्रांति वाला दशक
1960 के दशक में स्विट्जरलैंड में महिलाओं ने वोट देने के अधिकार के लिए आवाज उठानी शुरू की. देश के कुछ हिस्सों में वे राजनीति में सक्रिय होती भी दिखीं लेकिन ज्यादातर हिस्सों में ऐसा नहीं था. यह वह दौर था जब पश्चिमी देशों में कई तरह के प्रदर्शन चल रहे थे. अमेरिका में लोग वियतनाम युद्ध के खिलाफ आवाज उठा रहे थे, अश्वेत लोगों के अधिकारों की बातें हो रही थीं और आसपास के देशों में युवा क्रांति ला रहे थे. उस वक्त स्विट्जरलैंड के अलावा यूरोप में लिष्टेनश्टाइन और पुर्तगाल ही वे देश थे जहां महिलाओं को वोट का अधिकार नहीं था.
रोनर बताती हैं, "स्विट्जरलैंड के लिए यह शर्मिंदगी की बात थी कि जो देश खुद को सबसे पुराना लोकतंत्र कह रहा था वहां आधी आबादी लोकतंत्र का हिस्सा ही नहीं थी." यह वह जमाना भी था जब "यूरोपियन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स" लिखा जा रहा था और स्विट्जरलैंड की इसमें भी भागीदारी थी. एक तरफ वह महिलाओं को अधिकार नहीं दे रहा था और दूसरी ओर मानवाधिकारों की बात कर रहा था. इस दोगलेपन के चलते 1969 में देशव्यापी प्रदर्शन हुए. रोनर बताती हैं, "महिलाओं ने अब ठान लिया था कि पुरुषों को अपनी आवाज सुनानी है. वे दिखा रही थीं कि वे गुस्से से भरी हुई हैं."
महिलाओं के साथ "गुलामों" जैसा व्यवहार
1971 में आखिरकार उनकी जीत हुई. स्विट्जरलैंड के पुरुषों ने एक रेफरेंडम में अपनी पत्नियों, माओं और बेटियों को वोट का अधिकार दे दिया था. हालांकि देश का एक हिस्सा था जहां महिलाएं रेफरेंडम हार गई थीं. स्विट्जरलैंड में राज्यों को कैंटॉन का नाम दिया गया है. 26 में से एक कैंटॉन आपेनसेल इनेरहोडेन में महिलाओं को बीस साल और संघर्ष करना पड़ा. 1991 में जाकर वे अपना हक हासिल कर पाईं.
सिटा कुइंग इसे सिर्फ शुरुआत भर बताती हैं, "जाहिर है, राजनीतिक अधिकार जरूरी हैं. लेकिन हमें गर्भपात के अधिकार के लिए लड़ना पड़ा, हमें गर्भ निरोधन के लिए लड़ना पड़ा, हम कैसे जिएंगी, क्या पढ़ेंगी. हमें महिलाओं और बच्चों की आर्थिक स्थिति बदलने के लिए आवाज उठानी पड़ी. न्याय के लिए, सामाजिक बदलाव के लिए, हिंसा के खिलाफ हमने आवाज उठाई. और मैं स्विट्जरलैंड के इस पूरे संघर्ष का हिस्सा रही हूं."
1969 की क्रांति ने बदला स्विट्जरलैंड को
स्विट्जरलैंड में ऐसा कानून था जिसके तहत शादीशुदा महिलाओं को अपना खुद का बैंक अकाउंट रखने की अनुमति नहीं थी. उन्हें अपने पति से इसके लिए स्वीकृति लेनी पड़ती थी. वे कहां रहेंगी, इसका फैसला भी वे खुद नहीं ले सकती थीं. रोनर इसे "गुलामी" का नाम देती हैं क्योंकि शादी होते ही महिलाओं से उनके सभी अधिकार छीन लिए जाते थे. इस कानून का बदलना स्विट्जरलैंड के इतिहास में सबसे अहम पड़ावों में से एक माना जाता है. कुइंग कहती हैं कि ऐसा सिर्फ इसीलिए मुमकिन हो सका क्योंकि महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला. अगर पुरुष ही फैसले लेते रहते तो महिलाओं को कभी उनके हक नहीं मिल पाते.
50 साल का सफर
आज इस अधिकार मिलने के 50 साल बाद स्विट्जरलैंड में महिलाओं का क्या हाल है? यूरोप के अन्य देशों से तुलना की जाए तो हालात बहुत अच्छे नहीं हैं. महिला और पुरुषों को समान अधिकार देने में स्विट्जरलैंड अब भी काफी पीछे है. 2019 में #MeToo मूवमेंट के तहत महिलाएं एक बार फिर सड़कों पर उतरीं. उन्होंने महिलाओं को कम वेतन मिलने, घर के काम के लिए कोई आर्थिक सहयोग ना मिलने और राजनीति में कम भागीदारी जैसे मुद्दे उठाए.
रोनर का कहना है कि स्विट्जरलैंड में आज भी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से महिलाओं के पास समान अधिकार नहीं हैं. लेकिन वे यह भी मानती हैं कि देश में सुधार हो रहा है. राजनीति में महिलाएं 42 फीसदी पदों पर हैं. कुछ दशकों पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. उनका कहना है, "1971 में पहल हुई थी एक समान समाज बनाने की. (50 साल बाद) वह संघर्ष खत्म नहीं हुआ है, बल्कि अभी तो बस शुरुआत ही है."
(आईबी)
अफ्रीकी देश मैडागास्कर में वैज्ञानिकों को दुनिया का सबसे छोटा गिरगिट मिला है. यह आकार में इतना छोटा हैं कि इंसान की ऊंगली पर आराम से बैठ सकता है.
इस छोटे से गिरगिट को ब्रूकेशिया नाना नाम दिया गया है. इसके शरीर का अनुपात भी वैसा ही है जैसा दुनिया में पाए जाने वाले बड़े गिरगिटों का होता है. जर्मनी में बबेरियन स्टेट कलेक्शन ऑफ जूलॉजी के क्यूरेटर फ्रांक ग्लाव कहते हैं, "हमें यह उत्तरी मैडागास्कर के पहाड़ों में मिला." यह खोज 2012 में जर्मनी और मैडागास्कर के वैज्ञानिकों की साझा कोशिशों का नतीजा है.
जब वैज्ञानिकों को एक नर और एक मादा ब्रूकेशिया नाना गिरगिट मिलें तो उन्हें पता नहीं चला कि ये दोनों व्यस्क हैं. बहुत बाद में उन्हें यह बात मालूम हुई. ग्लाव कहते हैं, "हमें पता चला कि मादा के शरीर में अंडे हैं जबकि नर गिरगिट के जननांग बड़े हैं. इससे हमें पता चला कि वे वयस्क हैं."
विज्ञान पत्रिका "साइंटिफिक रिपोर्ट्स" में ग्लाव और उनके साथियों ने लिखा कि नर गिरगिट के जननांग काफी बड़े थे, मतलब उनके शरीर का 20 प्रतिशत उसके जननांग ही थे. एक मूंगफली के आकार जितने नर ब्रूकेशिया गिरगिट के शरीर का आकार 13.5 मिलीमीटर यानी लगभग आधा इंच लंबा होता है जबकि पूंछ के और नौ मिलीमीटर जोड़ लीजिए. वहीं मादा की लंबाई उनकी नाक से लेकर पूंछ तक 29 मिलीमीटर है.
यह अपनी प्रजाति का अकेला जोड़ा है जो अभी तक मिला है. मैडागास्कर के जंगल खासकर छोटे छोटे जीवों के लिए बहुत मशहूर रहे हैं. मैडागास्कर की एंटानानारीवो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और साइंफिटिक रिपोर्ट्स में छपे शोध के सह लेखक एंडोलालाओ राकोतोआरिसन कहते हैं, "मैडागास्कर में बहुत सारी बहुत ही छोटी कशेरुकी प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें कुछ सबसे छोटे बंदरों से लेकर सबसे छोटी मेंढक तक शामिल हैं."
रंग बदलने में चैंपियन
त्वचा का रंग बदलने के मामले में गिरगिट का कोई मुकाबला नहीं. लंबे समय से माना जाता रहा है कि सांप जैसे शिकारियों से बचने के लिए वे ऐसा करते हैं. लेकिन असल में अपनी अलग अलग भावनाओं जैसे आक्रामकता, गुस्सा, दूसरे गिरगिटों को अपना मूड दिखाने और इस माध्यम से संवाद करने के लिए भी वे रंग बदलते हैं.
रिसर्चर कहते हैं कि ब्रकेशिया नाना गिरगिट समुद्र तल से 1,300 मीटर की ऊंचाई पर पर्वतों में मिले. ग्लाव कहते हैं, "हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते हैं कि यह प्रजाति इतनी छोटी क्यों है." लेकिन वैज्ञानिक इतना जरूर जानते हैं कि ये गिरगिट लुप्त होने की कगार पर खड़े हैं. हालांकि लुप्तप्राय जीवों की रेड लिस्ट बनाने वाली संस्था इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजरवेशन फॉर नेचर (आईयूसीएन) को अभी उसका मूल्यांकन करना बाकी है.
ग्लाव कहते हैं, "मैडागास्कर में बसेरों का नष्ट होना उभयचरों और सरीसृपों के लिए सबसे बड़ा खतरा है. हो सकता है कि भविष्य में उन्हें जलवायु परिवर्तन से खतरा हो, लेकिन अभी तो वनों को काटे जाने से खतरा है."
बीसवीं सदी की शुरुआत से मैडागास्कर ने अपने 45 प्रतिशत जंगल गंवा दिए हैं. ग्लाव और उनके साथियों ने मैडागास्कर के तट के पास जिस द्वीप पर ब्रूकेशिया नाना और कई दूसरे गिरगिटों को खोजा है, वह खासतौर से खतरे में है. वह बताते हैं कि ब्रूकेशिया नस्लों की कई प्रजातियां दो वर्ग किलोमीटर से भी कम के इलाके में रहती हैं. उनके मुताबिक, "एक भी बड़ी त्रासदी, जैसे कि जंगल की आग तेजी से यहां की आबादी को खत्म कर देगी."
मैडागास्कर अपनी जैवविविधता के लिए दुनिया भर में विख्यात है. दुनिया के सबसे अनोखे पौधे और जीवों में से पांच प्रतिशत यहां रहते हैं. लेकिन एक द्वीपीय देश मैडागास्कर दुनिया के सबसे गरीब देशों में शामिल है. ऐसे में संसाधनों की कमी प्रकृति और उसकी अमूल्य धरोहरों को बचाने की राह में अड़चन बनती है.
एके/आईबी (एएफपी, एपी)
-संज्ञा सिंह
टेस्ला के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एलन मस्क ने खुलासा किया है कि क्यों इलेक्ट्रिक कार निर्माता ने अपनी 401 (k) योजना में कोई मिलान योगदान नहीं बनाया है. संयुक्त राज्य में, एक 401 (k) एक लोकप्रिय कंपनी-प्रायोजित सेवानिवृत्ति खाता है, जो कर्मचारी अपने वेतन के प्रतिशत में योगदान कर सकते हैं. कर्मचारी मैचिंग योगदान दे सकते हैं - कुछ ऐसा जो टेस्ला ने तीन साल तक चलने के लिए नहीं चुना है, यह पेंशन और निवेश की एक रिपोर्ट से पता चलता है.
पत्रकार स्टेफ़नी रूहले ने एलन मस्क को टैग करते हुए रिपोर्ट को उद्धृत किया और पूछा कि, टेस्ला मस्क को अरबों का भुगतान करते समय कर्मचारी 401 (k) योगदान के लिए अनिच्छुक क्यों दिखते हैं - जिन्होंने हाल ही में अमेज़न के जेफ बेजोस को दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति बनने के लिए पीछे छोड़ दिया.
रूहले से ट्विटर पर पूछा, "मैं क्या भूल रही हूँ?" "टेस्ला ने @elonmusk को अरबों का भुगतान किया है और वे कर्मचारी 401 के मैच के लिए तैयार नहीं हैं?"
49 वर्षीय एलोन मस्क ने रूहले की क्वेरी का जवाब दिया और खुलासा किया कि सभी टेस्ला कर्मचारियों को स्टॉक विकल्प मिलते हैं.
उन्होंने लिखा, "टेस्ला में हर कोई स्टॉक प्राप्त करता है. मेरी कंपनी में सभी स्टॉक / विकल्प हैं, जिसे मैं कभी नहीं हटाता. यह वही है जो आप भील रही हैं."
अरबपति की प्रतिक्रिया को माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म पर अबतक 60,000 से अधिक बार 'लाइक' किया गया, जहां उनके 46 मिलियन से अधिक फॉलोअर्स हैं. प्रतिक्रियाएं मिश्रित थीं - कुछ ट्विटर यूजर ने मुआवजे की योजना की तारीफ की और कुछ ने इसकी आलोचना की.
रूहले ने खुद "ट्विटर की सुंदरता" पर कमेंट करते हुए कहा, कि मंच ने लोगों को व्यवसायियों से सीधे जवाब प्राप्त करने की अनुमति दी जो अन्यथा कमेंट के लिए उपलब्ध नहीं होंगे.
उसने मुआवजे की योजना कैसे संरचित की जाती है, इस पर आगे सवाल पूछने से पहले लिखा था, "यह सभी कर्मचारियों के लिए एक जीत है और सभी को वहाँ रहने और उत्पादकता को अनुकूलित करने के लिए प्रोत्साहित करने का एक शानदार तरीका है."
समाचार वेबसाइट इलेक्ट्रेक के अनुसार, टेस्ला अपने कर्मचारियों को मुआवजे के पैकेज के हिस्से के रूप में स्टॉक विकल्प और अनुदान प्रदान करता है. अधिकांश अन्य वाहन निर्माताओं के विपरीत, कंपनी अपने सभी कर्मचारियों को स्टॉक विकल्प प्रदान करती है, न कि केवल प्रबंधन में.
इस मुआवजे की योजना के कारण, टेस्ला के मौसम में वृद्धि ने अपने कई कर्मचारियों को बहुत अमीर बनाने में मदद की है, जिसके कई शीर्ष अधिकारी लाखों शेयरों के मालिक हैं.
संयुक्त राष्ट्र की एक गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक लंबी दूरी की मिसाइलों को बनाने में ईरान ने उत्तर कोरिया का सहयोग किया था. यूएन की ओर इस तरह के कार्यक्रम पर रोक लगाई है. ईरान ने अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार किया है.
उत्तर कोरिया ने साल 2020 में परमाणु और बैलिस्टिक मिसाइलों को विकसित करने का कार्यक्रम जारी रखा. उसने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का उल्लंघन करते हुए अपने कार्यक्रम को चलाया. संयुक्त राष्ट्र की ओर से इस पर रोक लगाई गई है लेकिन उत्तर कोरिया ने इसे दरकिनार करते हुए इन कार्यक्रमों में इस्तेमाल के लिए दूसरे देशों से तकनीक और सामग्री मंगवाने का सिलसिला जारी रखा. कई मीडिया रिपोर्टों में यूएन की उस गोपनीय रिपोर्ट का हवाला दिया गया है जो सुरक्षा परिषद के सदस्यों को भेजी गई है. रिपोर्ट में बताया गया कि उत्तर कोरिया ने साइबर हमलों के जरिए 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर चुराए और उसने इस कार्यक्रम के लिए इस धन का इस्तेमाल किया और इन कार्यक्रमों को जारी रखने के लिए अभी भी उस दिशा में आगे बढ़ रहा है.
रिपोर्ट में एक अनाम सदस्य देश का हवाला दिया गया जिसने आकलन किया कि उत्तर कोरिया की मिसाइल "परमाणु उपकरण" से लैस हो सकती है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि रहस्यात्मक देश ने सैन्य परेड में नई कम दूरी की मिसाइल, मध्यम दूरी और पनडुब्बी से लॉन्च होने वाली बैलिस्टिक मिसाइलें प्रदर्शित किए थे. रिपोर्ट के मुताबिक, "उत्तर कोरिया ने नई बैलिस्टिक मिसाइल वारहेड्स और सामरिक परमाणु हथियारों के विकास की तैयारियों का ऐलान किया था साथ ही उसने अपनी बैलिस्टिक मिसाइल के बुनियादी ढांचे को उन्नत किया है."
संयुक्त राष्ट्र की लीक की रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा है कि वह उत्तर कोरिया के प्रति "नया दृष्टिकोण" अपनाएगा, जिसमें दबाव के विकल्प और कूटनीति जैसी रणनीति शामिल होगी. लीक रिपोर्ट पर उत्तर कोरिया के यूएन में दूत ने फिलहाल कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
ईरान की भागीदारी
रिपोर्ट में पाया गया कि ईरान ने साल 2020 में लंबी दूरी की मिसाइल परियोजनाओं के विकास पर उत्तर कोरिया के साथ सहयोग किया था. रिपोर्ट में विशेषज्ञों के एक स्वतंत्र पैनल ने कहा, "फिर से शुरू किए गए सहयोग में कहा जाता है कि इसमें महत्वपूर्ण पार्ट्स के हस्तांतरण को शामिल किया गया है, इस रिश्ते के साथ सबसे हालिया सामग्री 2020 में भेजी गई." ब्लूमबर्ग के मुताबिक उत्तर कोरिया के मिसाइल विशेषज्ञों ने ईरान के शहीद हज अली मोवाहिद रिसर्च सेंटर के एक लॉन्च व्हिकल को लॉन्च करने में समर्थन और सहायता भी की. ईरान ने रिपोर्ट के बारे में पैनल को बताया कि यह संभव है कि रिपोर्ट तैयार करने के लिए गलत जानकारी और फर्जी डाटा का इस्तेमाल किया गया हो. उसने इन आरोपों से इनकार किया है. पिछले दिनों राष्ट्रपति बाइडेन ने साफ तौर पर कहा था कि अमेरिका ईरान के खिलाफ एकतरफा प्रतिबंध नहीं हटाएगा और तेहरान को पहले अपने परमाणु वादों को पूरा करना होगा. बाइडेन ने पुष्टि की कि ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों को तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक कि वह परमाणु समझौते की शर्तों का अनुपालन नहीं करता है.
एए/सीके (रॉयटर्स, एपी)
सैन फ्रांसिस्को, 9 फरवरी | फेसबुक ने अपने खुद के प्लेटफॉर्म और इंस्टाग्राम पर कोविड-19 और इसके वैक्सीन को लेकर गलत सूचनाओं को हटाने के अपने प्रयास में और तेजी लाने का ऐलान किया है। कोविड-19 और वैक्सीन संबंधी जिन दावों को हटाया जाएगा, उसकी विस्तारित सूची में ये बातें शामिल रहेंगी जैसे कि कोविड इंसानों द्वारा निर्मित है, वैक्सीन महामारी से सुरक्षा दिलाने में कारगर नहीं है, वैक्सीन लेने से बेहतर तो बीमार हो जाना ही अच्छा है, वैक्सीन हानिकारक है, जहरीला है, इससे ऑटिज्म के होने की आशंका है इत्यादि।
सोमवार देर रात को जारी अपने एक बयान में फेसबुक ने कहा कि डब्ल्यूएचओ सहित प्रमुख स्वास्थ्य संगठनों के साथ विचार-विमर्श कर यह फैसला लिया गया है।
अमेरिका में इस हफ्ते से शुरू करते हुए फेसबुक द्वारा कोविड-19 सूचना केंद्र से लेकर स्थानीय स्वास्थ्य मंत्रालयों की वेबसाइट के लिंक को अपने मंच पर साझा किया जाएगा ताकि यह समझने में लोगों को मदद की जा सके कि टीकाकरण के लिए वे योग्य हैं या नहीं और इसके आगे की प्रक्रिया क्या है। (आईएएनएस)
अगर कोई आपसे कहे.. मेरी एक गर्लफ्रेंड है, जिसका पहले से एक बॉयफ्रेंड है और उस बॉयफ्रेंड की एक मंगेतर भी है. तो क्या आप उससे पूछेंगे नहीं.. यह रिश्ता क्या कहलाता है?
आना और जॉनाथन एक दूसरे से प्यार करते हैं. लेकिन आना योहानेस से भी प्यार करती है. इतना ही नहीं, उसके इन दोनों के साथ शारीरिक संबंध भी हैं.. और.. कुछ और लोगों के साथ भी.
वैसे, जॉनाथन की भी कुछ दिन पहले तक एक दूसरी गर्लफ्रेंड भी थी. और जहां तक बात योहानेस की है, तो पिछले दस साल से उसकी एक गर्लफ्रेंड है, जिसके साथ उसने हाल ही में मंगनी भी की है.
रिश्तों की इस खिचड़ी में कोई किसी से कुछ छिपा नहीं रहा है. ये सब लोग एक दूसरे के साथ ओपन रिलेशनशिप में हैं और इन सबका मानना है कि ऐसा सिर्फ इसलिए मुमकिन है क्योंकि वे एक दूसरे से खुल कर बात करते हैं, कुछ भी छिपाने की कोशिश नहीं करते.
अजीब है ना! लेकिन अजीब बात तो यह भी है कि जर्मनी में हर दूसरे शख्स ने कभी ना कभी अपने पार्टनर को धोखा दिया है. कुछ पकड़े जाते हैं, तो कुछ नहीं. कुछ इसे एक रात की बात समझ कर भूल जाते हैं, तो कुछ पाप बोध में दब जाते हैं और सायकोलॉजिस्ट के पास मदद के लिए पहुंचते हैं.
कमिटमेंट का डर
ऐसे ही एक सायकोलॉजिस्ट हैं उवे मालिन, जिनका कहना है कि इंसान प्राकृतिक रूप से एक ही पार्टनर के साथ पूरी उम्र बिताने के लिए नहीं बना है, यह सिर्फ एक सामाजिक दबाव है. वे ऐसे कई लोगों को जानते हैं जिनके एक से अधिक पार्टनर हैं या रहे हैं.
उनके अनुसार ऐसे लोग किसी एक व्यक्ति के साथ कमिटमेंट करने से डरते हैं, "जब एक रिश्ता बहुत करीबी हो जाता है, जब आप किसी से बंध जाते हैं, तो स्वाभाविक ही उससे बाहर निकलने की कोशिश में लग जाते हैं."
एरिक ऐसे ही हैं. उनकी उम्र 35 साल है. उनका अब तक का सबसे लंबा रिश्ता डेढ़ साल चला है. वे बताते हैं, "मुझे ऐसा लगता है कि मैं किसी एक रिश्ते में कमिटमेंट के लिए - शादी और बच्चों के लिए तैयार नहीं हूं."
रिश्तों का जाल
आना और जॉनाथन जिस तरह के रिश्ते में हैं, ऐसा नहीं है कि उसमें कुछ भी चलता है. दो पार्टनर वाले इस रिश्ते के भी कुछ नियम हैं. दोनों दूसरे को सब बताते हैं. सिर्फ प्यार ही नहीं, ईर्ष्या को भी व्यक्त करते हैं.
जैसे, जॉनथन की दूसरी गर्लफ्रेंड फ्रांस में रहती थी. जब तक वह दूर थी, सब ठीक चल रहा था. लेकिन जब वह उसी शहर में शिफ्ट हो गई जहां आना और जॉनाथन रहते हैं, तो दिक्कत शुरू हुई. दूसरी गर्लफ्रेंड दो महीने के लिए आई थी और चाहती थी कि इस दौरान जॉनाथन उसी के साथ रहे. आना ने ऐसा होने दिया लेकिन उसे इससे परेशानी भी हुई.
आखिरकार जॉनाथन को दूसरी गर्लफ्रेंड से ब्रेकअप करना पड़ा. हालांकि, आना का योहानेस से रिश्ता बरकरार है और योहानेस का अपनी मंगेतर के साथ.
ईमानदारी जरूरी
सायकोलॉजिस्ट गिजेला वोल्फ का कहना है कि इस तरह के "पॉलिमोरस" रिश्तों में रहने वाले लोगों के लिए संवाद बेहद जरूरी है. ऐसे रिश्ते तब ही चल सकते हैं, अगर इसमें जुड़ा हर व्यक्ति खुश हो, "पॉलिमोरस रिश्ते में आप उतने ही खुश या नाखुश हो सकते हैं जितना कि मोनोगैमस (एक ही व्यक्ति से) रिश्ते में. इसलिए, यह सवाल आपको खुद से करना होगा कि आप क्या चाहते हैं."
गिजेला वोल्फ के अनुसार दोनों ही तरह के रिश्तों में सबसे बड़ी गलती है राज छिपाना. इस लिहाज से पारंपरिक रिश्तों में जी रहे लोग इनसे यह सीख सकते हैं कि कैसे एक दूसरे से खुल कर बात करनी है. किसी भी रिश्ते में ईमानदारी सबसे अहम है. और अपने पार्टनर से आप तब ही ईमानदार हो सकते हैं, अगर अपने खुद से ईमानदार होंगे. इसके बिना ना ही एक इंसान से रिश्ता निभ सकता है और कइयों से तो हरगिज नहीं.
रिपोर्ट: जूलिया वर्जिन/आईबी
ने पी ता, 8 फरवरी | म्यांमार में तख्तापलट के बाद से ही विरोध-प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया है। राजधानी ने पी ता में सोमवार को लगातार तीसरे दिन बड़ी संख्या में जुटे प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस को पानी की बौछारें करनी पड़ी। प्रदर्शनकारी स्टेट काउंसलर आगं सान सू ची की तत्काल रिहाई की मांग कर रहे थे। असैनिक सरकार और सेना के बीच बढ़ते तनाव के मद्देनजर पिछले सोमवार को राष्ट्रपति विन मिंत, सू ची और सत्तारूढ़ नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था। इसके बाद सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी, जो एक साल तक चलेगी।
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, सोमवार को म्यांमार की राजधानी ने पी ता में बड़ी संख्या में लोग जमा हुए और उन्हें हटाने के लिए पुलिस को पानी की बौछार करनी पड़ी। इसका एक वीडियो भी खूब वायरल हो रहा है। इस वीडियो को बनाने वाले क्याव जेयार ने बीबीसी को बताया कि लोग शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस के दो वाहन बिना किसी पूर्व सूचना के उन्हें वहां से हटाने के लिए पहुंच गए। रिपोर्ट के मुताबिक, दोपहर तक हालात नियंत्रण में थे।
म्यांमार में हाल ही में चुनाव हुए थे, जिसे सेना ने फर्जी बताया है और इसके बाद सैनिक विद्रोह की आशंकाएं बढ़ गई थीं। तख्तापलट के बाद सेना ने देश का नियंत्रण एक साल के लिए अपने हाथों में ले लिया है। सेना ने जनरल को कार्यकारी राष्ट्रपति नियुक्त किया है। नवंबर, 2020 में आम चुनावों के बाद से ही सरकार और सेना के बीच गतिरोध बना हुआ था।
सेना का कहना है कि 8 नवंबर, 2020 को जो आम चुनाव हुए थे, वे फर्जी थे। इस चुनाव में सू ची की एनएलडी पार्टी को संसद में 83 प्रतिशत सीटें मिली थीं, जो सरकार बनाने के लिए पर्याप्त थीं।
सेना ने इस चुनाव को फर्जी बताते हुए देश की सर्वोच्च अदालत में राष्ट्रपति और मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ शिकायत भी दर्ज कराई थी। हालांकि चुनाव आयोग ने उनके आरोपों को सिरे से नकार दिया था। इस कथित फजीर्वाड़े के बाद सेना ने हाल ही में कार्रवाई की धमकी दी थी। इसके बाद से ही तख्ता पलट की आशंकाएं बढ़ गई थीं। (आईएएनएस)
सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया में लड़कियों को स्कूल में हिजाब पहनने से आजादी मिल गई है. सरकार ने उन स्कूलों को बैन करने का फैसला किया है जो लड़कियों के हिजाब पहनने को अनिवार्य मानते हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इंडोनेशियाई सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है. उनका कहना है कि देश के कई रूढ़िवादी इलाकों में बरसों से गैर-मुस्लिम लड़कियों को भी स्कूल में हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया जाता रहा है.
इंडोनेशिया के शिक्षा मंत्री नदीम माकारिम का कहना है कि धार्मिक कपड़े पहनने हैं या नहीं, यह व्यक्ति की पसंद पर निर्भर है और स्कूल इसे अनिवार्य नहीं बना सकते. उनके मुताबिक जो भी स्कूल लड़कियों को हिजाब पहनने के लिए मजबूर करेंगे, उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा. ऐसे स्कूलों को सरकार से मिलने वाला अनुदान रोका जा सकता है.
पश्चिमी सुमात्रा के पाडांग शहर में एक ईसाई लड़की के कारण हिजाब पहनने का मुद्दा वहां काफी दिनों से सुर्खियों में था. स्कूल ने उस पर हिजाब पहनने के लिए दबाव डाला. उसने इनकार कर दिया. उसके माता पिता ने हिजाब को सभी लड़कियों के लिए अनिवार्य बताने वाले अधिकारी से हुई अपनी बातचीत को चुपके से रिकॉर्ड कर लिया. जब यह वीडियो वायरल हो गया तो स्कूल को माफी मांगनी पड़ी.
27 करोड़ की आबादी वाले इंडोनेशिया में आधिकारिक तौर पर छह धर्मों को मान्यता दी गई है, लेकिन वहां 90 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं. हाल के समय में इंडोनेशिया में लगातार धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है.
धार्मिक मामलों के मंत्री याकूत चोलिल ने सुमात्रा के मामले को "सिर्फ एक शुरुआत" बताया है. उन्होंने कहा, "धर्म का यह मतबल नहीं है कि वह दूसरे धर्म को मानने वाले लोगों के साथ टकराए या फिर उनके साथ होने वाले किसी अनुचित कार्य को उचित ठहराए."
मुस्लिम पहनावा
सार्वजनिक जगहों पर बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों में सबसे ताजा नाम ऑस्ट्रिया का है. बुर्के के अलावा मुस्लिम महिलाओं के कई और कपड़े भी अकसर चर्चा का विषय रहते हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ता स्कूलों में हिजाब के बारे में सरकार के फैसले से खुश हैं. राजधानी जकार्ता में ह्यूमन राइट्स वॉच में सीनियर रिसर्चर आंद्रिया हारसोनो कहते हैं, "यह फैसला इंडोनेशिया में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए एक सकारात्मक कदम है."
उनका कहना है कि सरकारी स्कूलों में लाखों लड़कियों और महिला टीचरों को हिजाब बनने के लिए मजबूर किया जाता है. और अगर वे ऐसा नहीं करती हैं तो उन्हें "धौंसपट्टी, परेशान किए जाने और सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ता है. कुछ मामलों में तो उन्हें स्कूल से निकाल दिया जाता है या फिर उनका इस्तीफा ले लिया जाता है,"
इंडोनेशिया के मानवाधिकार आयोग के प्रमुख पेका उलुंग हापसारा का कहना है कि सरकार का फैसला लोगों की व्यक्तिगत पसंद का सम्मान करता है. उन्होंने कहा, "स्कूल वह जगह है जहां व्यक्ति सभी तरह के भेदभावों से मुक्त होना सीखता है, जहां सबके लिए सम्मान होता है."
स्कूलों में हिजाब पहनने से मिलने वाली रियायत इंडोनेशिया के आछेह प्रांत में लागू नहीं होगी क्योंकि वहां लंबे समय से चले आ रही स्वायत्तता समझौते के तहत सख्त शरिया कानून है. हारसोनो कहते हैं कि इंडोनेशिया में 20 से ज्यादा ऐसे प्रांत हैं जहां अब तक स्कूलों में लड़कियों को धार्मिक कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया जाता रहा है.
एके/आईबी (एएफपी, रॉयटर्स)
इस्लामाबाद, 8 फरवरी | पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में पेश की गई एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि देश भर में अधिकांश हिंदू धार्मिक स्थल उपेक्षित हैं। डॉन न्यूज ने सोमवार को अपनी रिपोर्ट में कहा कि यह रिपोर्ट 5 फरवरी को एक व्यक्ति वाले शोएब सूडल कमीशन ने पेश की थी। इस कमीशन को शीर्ष अदालत ने गठित किया था।
रिपोर्ट में खेद जताया गया है कि "पाकिस्तान में हिंदू और सिख धार्मिक स्थलों की देखरेख करने वाला एवाक्यू ट्रस्ट प्रॉपर्टी बोर्ड (ईटीपीबी) अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकांश प्राचीन और पवित्र स्थलों को मेंटेन करने में विफल रहा है।"
6 और 7 जनवरी को आयोग ने क्रमश: चकवाल में कटास राज मंदिर मुल्तान में चकवाल और मुल्तान में प्रह्लाद मंदिर का दौरा किया था। रिपोर्ट में पाकिस्तान के 4 सबसे अधिक मान्यता वाले स्थलों में से 2 की बदहाल स्थिति की तस्वीर दिखाई गई है। आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि वह खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में निर्जन टेरी मंदिर/समाधि का जीर्णोद्धार करने के लिए ईटीपीबी को निर्देश दें। 1997 में एक मुस्लिम धर्मगुरु द्वारा जबरन कब्जा किए जाने के बाद यह स्थल नष्ट हो गया था।
डॉन न्यूज ने बताया कि रिपोर्ट में दोनों अल्पसंख्यक समुदायों के पवित्र धार्मिक स्थलों के पुनर्वास के लिए एक कार्यकारी समूह की स्थापना करने का भी सुझाव दिया गया है।
एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार, विभाजन से पहले पाकिस्तान में 428 हिंदू मंदिर थे, जिनमें से अब केवल 20 ही बचे हैं। पाकिस्तान के कुछ प्रमुख हिंदू मंदिरों में श्री हिंगलाज माता मंदिर (बलूचिस्तान), श्री रामदेव पीर मंदिर (सिंध), उमरकोट शिव मंदिर (सिंध) और चुरियो जबाल दुर्गा माता मंदिर (सिंध) शामिल हैं।
2017 में पाकिस्तान में हुई जनगणना के अनुसार, देश की कुल आबादी में हिंदुओं का प्रतिशत 2.14 है। (आईएएनएस)
मनीला, 8 फरवरी | फिलीपींस के दवाओ ओरिएंटल प्रांत में सोमवार सुबह रिक्टर पैमाने पर 5.7 तीव्रता का भूकंप का झटका लगा। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, फिलीपीन इंस्टीट्यूट ऑफ वॉल्केनोलॉजी एंड सीस्मोलॉजी ने कहा है कि सुबह 8 बजे आए भूकंप का केंद्र प्रांत के गवर्नर जेनेरोसा शहर से 211 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में 44 किमी की गहराई में था।
संस्थान ने कहा इस भूकंप के बाद फिर से झटके लगने और नुकसार होने की आशंका नहीं है। इससे पहले रविवार को रिक्टर पैमाने पर 6.3 की तीव्रता का भूकंप आया था। ये भूकंप दवाओ डेल सुर प्रांत में आया था।
संस्थान ने कहा था कि इस भूकंप के बाद और झटके लगेंगे, जिनसे नुकसान भी हो सकता है।
बता दें कि फिलीपींस पैसिफिक रिंग ऑफ फायर के पास स्थित है, जिसके कारण यहां अक्सर भूकंप आते रहते हैं। (आईएएनएस)
ईरान ने अमेरिका से कहा है कि वह 2015 के परमाणु समझौते पर लौटे. अमेरिका ने इसके जवाब में कहा है कि जब तक ईरान अपने वादे को पूरा नहीं करता है उस पर लगे प्रतिबंध नहीं हटाए जाएंगे.
राष्ट्रपति बाइडेन ने रविवार को स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका ईरान के खिलाफ एकतरफा प्रतिबंध नहीं हटाएगा और तेहरान को पहले अपने परमाणु वादों को पूरा करना होगा. बाइडेन ने पुष्टि की कि ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों को तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक कि वह परमाणु समझौते की शर्तों का अनुपालन नहीं करता है. सीबीएस के साथ इंटरव्यू में जब बाइडेन से पूछा गया कि क्या अमेरिका ईरान पर पहले प्रतिबंधों को हटाकर बातचीत की मेज पर लौटने के लिए राजी है, तो बाइडेन ने स्पष्ट तौर पर "नहीं" में जवाब दिया. जब उनसे आगे पूछा गया कि ईरान के लिए यूरेनियम संवर्धन रोकना प्रतिबंध हटाने के लिए शर्त है तो बाइडेन ने सिर हिलाया.
साल 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस समझौते से एकतरफा बाहर होते हुए ईरान पर कठोर प्रतिबंध लगा दिए थे. इसी के साथ समझौते के रद्द होने का डर पैदा हो गया था. 2015 में ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस और अमेरिका के साथ ही जर्मनी के साथ परमाणु समझौता हुआ था.
ईरान ने जनवरी में यूरेनियम को 20 प्रतिशत तक समृद्ध करना शुरू कर दिया था. परमाणु समझौते के तहत केवल 3.76 प्रतिशत के यूरेनियम संवर्धन की सीमा तय की गई थी. पिछले महीने बाइडेन ने राष्ट्रपति पद संभालने के बाद, अमेरिका और ईरान ने 2015 के समझौते को पुनर्जीवित करने में रुचि व्यक्त की थी, लेकिन दोनों अपनी शर्तों पर जोर दे रहे हैं.
"अमेरिका को पहले प्रतिबंधों को हटाना चाहिए"
इससे पहले ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह खमेनेई ने रविवार को कहा, "अगर वे चाहते हैं कि ईरान समझौते में वापस लौट आए, तो अमेरिका को लगभग सभी प्रतिबंधों को हटाना होगा." उन्होंने कहा, "एक बार सभी प्रतिबंधों के हटने की पुष्टि हो जाने के बाद हम अपने सभी वादों पर लौटेंगे. यह निर्णय अंतिम और अपरिवर्तनीय है."
खमेनेई का बयान उसी दिन आया जब यमन में चल रहे युद्ध का राजनीतिक समाधान खोजने के अमेरिकी प्रयासों के तहत यमन के लिए अमेरिका के विशेष दूत ने तेहरान का दौरा किया. अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि यमन में युद्ध वास्तव में ईरान और सऊदी अरब के बीच एक छद्म युद्ध है.
ईरान और अमेरिका के बीच पिछले साल तनाव तब चरम पर पहुंच गया जब उसने ईरान के शीर्ष जनरल को हवाई हमले में मार दिया था और देश पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिए थे. इसके जवाब में ईरान ने तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया था और आसपास के अमेरिकी सैन्य अड्डे पर फायरिंग भी की थी. बाइडेन ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान यह संकेत दिया था कि वह ईरान के साथ परमाणु समझौते में फिर से शामिल हो सकते हैं.
एए/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)
न्यूयॉर्क. न्यूयॉर्क स्टेट असेम्बली के पाकिस्तान के बहकावे में आकर 5 फरवरी को कश्मीर अमेरिकी दिवस घोषित किए जाने के प्रस्ताव पर भारत ने तीखी नाराजगी जताई है. भारत ने इसे निहित स्वार्थों को साधने की चिंताजनक कोशिश करार दिया है. इतना ही नहीं, भारत ने दो टूक लहजे में कहा है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, जिसे अलग नहीं किया जा सकता. भारत ने न्यूयॉर्क स्टेट में निर्वाचित प्रतिनिधियों से भारतीय समुदाय से जुड़े सभी मामलों पर बातचीत करने की बात भी कही है.
दरअसल न्यूयॉर्क स्टेट असेम्बली ने पांच फरवरी को कश्मीर अमेरिकी दिवस घोषित किए जाने का गवर्नर एंड्रयू कुओमो से अनुरोध करने संबंधी प्रस्ताव पारित किया है. बता दें कि पाकिस्तान इस दिन को कश्मीर एकता दिवस के रूप में मनाता है. इस प्रस्ताव पर भारत ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि यह लोगों को विभाजित करने के लिए जम्मू-कश्मीर के समृद्ध सांस्कृतिक एवं सामाजिक ताने-बाने की गलत व्यख्या करने की निहित स्वार्थों की चिंताजनक कोशिश हैं. इस प्रस्ताव को असेम्बली के सदस्य नादर सायेघ और 12 अन्य सदस्यों ने प्रायोजित किया है.
स्टेट असेंबली में प्रस्ताव में कहा गया है कि कश्मीरी समुदाय ने हर कठिनाई को पार किया है, दृढ़ता का परिचय दिया है और अपने आप को न्यूयॉर्क प्रवासी समुदायों के एक स्तम्भ के तौर पर स्थापित किया है. इसमें कहा गया है कि न्यूयॉर्क राज्य विविध सांस्कृतिक, जातीय एवं धार्मिक पहचानों को मान्यता देकर सभी कश्मीरी लोगों की धार्मिक, आवागमन एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समेत मानवाधिकारों का समर्थन करने के लिए प्रयासरत है.
भारत ने जताया कड़ा विरोध
वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास के एक प्रवक्ता ने इस प्रस्ताव पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हमने कश्मीर अमेरिकी दिवस संबंधी न्यूयॉर्क असेम्बली का प्रस्ताव देखा है. अमेरिका की तरह भारत भी एक जीवंत लोकतांत्रिक देश है और 1.35 अरब लोगों का बहुलवादी लोकाचार गर्व की बात है. भारत जम्मू-कश्मीर समेत अपने समृद्ध सांस्कृतिक ताने-बाने और अपनी विविधता का उत्सव मनाता है. जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, जिसे अलग नहीं किया जा सकता. हम लोगों को विभाजित करने के लिए जम्मू-कश्मीर के समृद्ध एवं सामाजिक ताने-बाने को गलत तरीके से दिखाने की निहित स्वार्थों की कोशिश को लेकर चिंता व्यक्त करते हैं.
न्यूयॉर्क असेंबली के सदस्यों से बात करेगा भारत
भारतीय दूतावास के प्रवक्ता ने प्रस्ताव संबंधी प्रश्न का उत्तर देते हुए शनिवार को कहा कि हम भारत-अमेरिका साझेदारी और विविधता भरे भारतीय समुदाय से जुड़े सभी मामलों पर न्यूयॉर्क स्टेट में निर्वाचित प्रतिनिधियों से संवाद करेंगे. यह प्रस्ताव तीन फरवरी को न्यूयॉर्क असेम्बली में पारित किया गया था, जिसमें कुओमो से पांच फरवरी, 2021 को न्यूयॉर्क राज्य में ‘कश्मीर अमेरिकी दिवस’ घोषित करने का अनुरोध किया गया है.
पाकिस्तान ने जताई खुशी
न्यूयॉर्क में पाकिस्तान के महावाणिज्य दूतावास ने इस प्रस्ताव को पारित कराने के लिए सायेघ और ‘द अमेरिकन पाकिस्तानी एडवोकेसी ग्रुप’ की सराहना की. पाकिस्तान पांच अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किए जाने और उसे जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख के रूप में दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने के कारण भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहयोग जुटाने के असफल प्रयास करता रहता है. भारत पाकिस्तान से कह चुका है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा तथा इससे जुड़े मामले उसके आंतरिक मामले हैं. (bbc.com)
वाशिंगटन, 7 फरवरी | अमेरिकी राज्य यूटा के मिलक्रीक कैनयन में हिमस्खलन से चार लोगों की मौत हो गई और चार अन्य घायल हो गए। अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, यूटा एवलांच सेंटर (यूएसी) ने एक बयान में कहा कि हिमस्खलन शनिवार पूर्वाह्न करीब 11.40 बजे हुआ ये 9,300 फीट पर हुआ।
इसमें शामिल आठों 23-38 आयु वर्ग के थे और बचावकर्मियों ने इन्हें बाहर निकाला।
चार जीवित बचे लोगों को इलाज के लिए ले जाया गया जबकि खोज और बचाव दल ने इस क्षेत्र का सर्वे करना जारी रखा है ताकि यह पुष्टि कर सकें कि कोई और हिमस्खलन में न फंसा हो।
यूएसी, जिसने शनिवार सुबह हिमस्खलन खतरे की चेतावनी दी, ने ट्वीट कर लोगों से दुर्घटना स्थल से दूर रहने के लिए कहा।
यूटा के गवर्नर स्पेंसर कॉक्स ने राज्य के निवासियों को हिमस्खलन खतरे के साथ अत्यधिक सावधानी बरतने की सलाह दी।
कॉक्स ने ट्वीट किया, "यह एक भयानक त्रासदी है और हमारी प्रार्थना पीड़ितों और परिवारों के साथ है।"
पिछले हफ्ते, कोलोराडो राज्य में एक हिमस्खलन में तीन लोग मारे गए थे। (आईएएनएस)