विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर को लेकर अब एक और नया विवाद छिड़ गया है। चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि जम्मू-कश्मीर में रहनेवाले अन्य प्रांतों के नागरिकों को अब वोट डालने का अधिकार मिलनेवाला है। जम्मू-कश्मीर की लगभग सभी पार्टियां इस नई पहल पर परेशान दिखाई पड़ रही हैं। पहले तो वे धारा 370 और 35 ए को ही हटाने का विरोध कर रही थीं। अब उन्हें लग रहा है कि उनके सिर पर एक नया पहाड़ टूट पड़ा है।
उनका मानना है कि केंद्र सरकार के इशारे पर किया जा रहा यह कार्य अगला चुनाव जीतने का भाजपाई पैतरा भर है लेकिन इससे जम्मू-कश्मीर का असली चरित्र नष्ट हो जाएगा। सारे भारत की जनता कश्मीर पर टूट पड़ेगी और कश्मीरी मुसलमान अपने ही प्रांत में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। इस वक्त वहां की स्थानीय मतदाताओं की संख्या लगभग 76 लाख है। यदि उसमें 25 लाख नए मतदाता जुड़ गए तो उन बाहरी लोगों का थोक वोट भाजपा को मिलेगा।
जम्मू के भी ज्यादातर वोटर भाजपा का ही साथ देंगे। ऐसे में कश्मीर की परंपरागत प्रभावशाली पार्टियां हमेशा के लिए हाशिए में चली जाएंगी। पहले ही निर्वाचन-क्षेत्रों के फेर-बदल के कारण घाटी की सीटें कम हो गई हैं। इसी का विरोध करने के लिए नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष डाॅ. फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा को छोड़कर सभी दलों की एक बैठक भी बुलाई है। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती भी काफी गुस्से में नजर आ रही हैं।
इन कश्मीरी नेताओं का गुस्सा बिल्कुल स्वाभाविक है, क्योंकि नेता लोग राजनीति में आते ही इसीलिए हैं कि उन्हें येन-केन-प्रकरेण सत्ता-सुख भोगना होता है। केंद्र सरकार इधर जो भी सुधार वहां कर रही है, वह उन नेताओं को बिगाड़ के अलावा कुछ नहीं लगता। ऐसे में इन कश्मीरी नेताओं से मेरा निवेदन है कि वे अपनी दृष्टि ज़रा व्यापक क्यों नहीं करते हैं?
यदि कश्मीरी नेता देश के गृहमंत्री, राज्यपाल, सांसद, राजदूत और केंद्र सरकार के पूर्ण सचिव बन सकते हैं तथा कश्मीरी नागरिक देश में कहीं भी चुनाव लड़ सकते हैं और वोट डाल सकते हैं तो यही अधिकार गैर-कश्मीरी नागरिकों को कश्मीर में दिए जाने का विरोध क्यों होना चाहिए? देश के जैसे अन्य प्रांत, वैसा ही कश्मीर भी। वह कुछ कम और कुछ ज्यादा क्यों रहे?
यदि कश्मीरी लोग देश के किसी भी हिस्से में जमीन खरीद सकते हैं तो देश के कोई भी नागरिक कश्मीर में जमीन क्यों नहीं खरीद सकते? हमारे कश्मीरी नेता कश्मीर जैसे सुंदर और शानदार प्रांत को अन्य भारतीयों के लिए अछूत बनाकर क्यों रखना चाहते हैं? मैं तो वह दिन देखने को तरस रहा हूं कि जबकि कोई पक्का कश्मीरी मुसलमान भारत का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा ने पहले राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति नियुक्त किए। और अब उसने अपने संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति का पुनर्गठन कर दिया। इन दोनों निर्णयों में नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जगतप्रकाश नड्डा ने बहुत ही व्यावहारिक और दूरदर्शितापूर्ण कदम उठाया है। इन चारों मामलों में सत्तारुढ़ नेताओं का एक ही लक्ष्य रहा है- 2024 का अगला चुनाव कैसे जीतना? इस लक्ष्य की विरोधी दल आलोचना क्या, निंदा तक करेंगे। वे ऐसा क्यों नहीं करें?
उनके लिए तो यह जीवन-मरण की चुनौती हैं? उनका लक्ष्य भी यही होता है लेकिन इस मामले में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा की चतुराई देखने लायक है। उसने एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाकर देश के आदिवासियों को भाजपा से सीधा जोड़ लेने की कोशिश की है और भारत की महिला मतदाताओं को भी आकर्षित किया है। उप-राष्ट्रपति के तौर पर श्री जगदीप धनखड़ को चुनकर उसने देश के किसान और प्रभावशाली जाट समुदाय को अपने पक्ष में प्रभावित किया है।
अब संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति के चुनाव में भी उसकी यही रणनीति रही है। इन संस्थाओं में से केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान के नाम हटाने पर काफी उहा-पोह मची हुई है। सडक़ मंत्री के तौर पर गडकरी की उपलब्धियां बेजोड़ हैं। माना जा रहा है कि इन दोनों सज्जनों में भावी प्रधानमंत्री बनने की योग्यता देखी जा रही है।
यह कुछ हद तक सच भी है लेकिन महाराष्ट्र से देवेंद्र फडऩवीस और मप्र से डॉ. सत्यनारायण जटिया को ले लिया गया है। ये दोनों ही बड़े योग्य नेता हैं। डॉ. जटिया तो अनुभवी और विद्वान भी हैं। वे अनुसूचितों का प्रतिनिधित्व करेंगे। शिवराज चौहान भी काफी सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। लेकिन इन समितियों में किसी भी मुख्यमंत्री को नहीं रखा गया है।
जिन नए नामों को इन समितियों में जोड़ा गया है, जैसे भूपेंद्र यादव, ओम माथुर, सुधा यादव, बनथी श्रीनिवास, येदुयुरप्पा, सरकार इकबालसिंह, सर्वानंद सोनोवाल, के. लक्ष्मण, बी.एल. संतोष आदि- ये लोग विभिन्न प्रांतों और जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सब भाजपा की चुनावी-शक्ति को सुद्दढ़ करने में मददगार साबित होंगे।
इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं माना जाना चाहिए कि ये नेता जिन वर्गों या जातियों से आते हैं, उनका कोई विशेष लाभ होनेवाला है। लाभ हो जाए तो उसे शुभ संयोग माना जा सकता है। जिन नेताओं के नाम हटे हैं, उन्हें मार्गदर्शक मंडल के हवाले किया जा सकता है, जैसे 2014 में अटलजी, आडवाणीजी और जोशीजी को किया गया था। वे नेता तो 8 साल से मार्ग का दर्शन भर कर रहे हैं। नए मार्गदर्शक नेता शायद मार्गदर्शन कराने की कोशिश करेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
आदरणीय प्रधानमंत्री जी का स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन कुछ ऐसा था कि जो कुछ उन्होंने कहा वह चर्चा के उतना योग्य नहीं है जितना कि वे मुद्दे हैं जिन पर उनका भाषण केंद्रित होना चाहिए था।
वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री जी ने न्यू इंडिया प्लेज शीर्षक एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने देश के नागरिकों का आह्वान किया था कि वे सन 2022 तक निर्धनता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद से सर्वथा मुक्त एवं स्वच्छ नया भारत बनाने हेतु शपथ लें।
इसी तारतम्य में दिसंबर 2018 में नीति आयोग ने कुछ ऐसे लक्ष्य निर्धारित किए थे जिन्हें 2022 तक प्राप्त किया जाना था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के संबंध में इंडिया स्पेंड के विशेषज्ञों द्वारा किया गया फ़ैक्टचेकर में प्रकाशित अन्वेषण बहुत निराशाजनक तस्वीर हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है।
नीति आयोग ने देश के प्रत्येक परिवार को 2022 तक अबाधित बिजली और पानी की आपूर्ति तथा शौचालय युक्त सहज पहुंच वाला घर उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया था। स्वतंत्रता बाद से ही चली आ रही गृह निर्माण योजनाओं का नया नामकरण 2016 में प्रधानमंत्री आवास योजना किया गया और इसे एक नई योजना के रूप में प्रस्तुत किया गया। चूंकि योजना अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने नाकाम रही इसलिए इसे दिसंबर 2021 में कैबिनेट द्वारा 2024 तक बढ़ा दिया गया। दिसंबर 2021 की स्थिति में 2.95 करोड़ ग्रामीण आवासों के निर्धारित लक्ष्य में से केवल 1.66 करोड़ ग्रामीण आवासों का निर्माण हो सका था। प्रधानमंत्री आवास योजना शहरी के अंतर्गत दिसंबर 2021 की स्थिति में निर्धारित लक्ष्य 1.2 करोड़ में से केवल 52.88 लाख शहरी आवास बनाए जा सके थे।
खुले में मल त्याग की समाप्ति के लक्ष्य के संबंध में भी सरकारी दावों और जमीनी हकीकत में बहुत बड़ा अंतर दिखाई देता है। सरकार ने यह दावा किया था कि अक्टूबर 2019 में ग्रामीण भारत खुले में शौच की प्रथा से सर्वथा मुक्त हो गया है किंतु एनएफएचएस-5 के अनुसार बिहार, झारखंड, उड़ीसा आदि राज्यों और लद्दाख जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में केवल 42-60 प्रतिशत आबादी इन सैनिटेशन सुविधाओं का उपयोग कर रही है। जुलाई 2021 की डब्लूएचओ और यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फण्ड की एक साझा रपट यह बताती है कि भारत की 15 प्रतिशत आबादी अब भी खुले में शौच करती है। एनएफएचएस 4 के 37 प्रतिशत की तुलना में एनएफएचएस 5 में रूरल सैनिटेशन 65 प्रतिशत पर पहुंचा है जबकि अर्बन सैनिटेशन के लिए यही आंकड़े क्रमशः 70 फीसदी और 82 फीसदी हैं।
मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के विषय में सरकारी दावों और वास्तविकता में बहुत अंतर दिखता है। सफाई कर्मचारियों के विषय में सरकार के 2019-20 के आंकड़े केवल 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए आधे अधूरे सर्वेक्षण पर आधारित हैं। जुलाई 2021 में सम्बंधित विभाग के मंत्री रामदास अठावले ने यह दावा किया था कि पिछले पांच वर्षों में किसी मैला ढोने वाले की मृत्यु नहीं हुई है। दरअसल सरकार के अनुसार सीवर की सफाई करने वाले कर्मचारी मैला ढोने वाले कर्मचारियों की श्रेणी में नहीं आते। यह धूर्ततापूर्ण व्याख्या पिछले पांच वर्षों में सीवर सफाई के दौरान हुई 340 सफाई कर्मचारियों की मौत को नकारने के लिए सरकार द्वारा की गई है। वर्ष 2021 में ही सीवर सफाई के दौरान 22 मौतें हुईं।
स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में भी हम निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। एनएफएचएस 4 के 38.4 प्रतिशत की तुलना में स्टंटेड शिशुओं की संख्या एनएफएचएस 5 में घटकर 35.5 प्रतिशत रह गई है जबकि कम भार वाले शिशुओं की संख्या 35.8 से घटकर 32.1 प्रतिशत रह गई है किंतु यह उपलब्धि सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे है जो 2022 तक स्टंटेड और कम भार वाले शिशुओं की संख्या को घटाकर 25 प्रतिशत पर लाना चाहती थी।
बच्चों और महिलाओं में एनीमिया की स्थिति बिगड़ी है। 2014-15 में 58.6 प्रतिशत बच्चे एनीमिया ग्रस्त थे जो 2019-20 में बढ़कर 67.1 प्रतिशत हो गए जबकि महिलाओं के संदर्भ में यह आंकड़ा 2014-15 के 53.1 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में 57 प्रतिशत हो गया।
नीति आयोग द्वारा 2022 तक पीएम 2.5 के स्तर को 50 प्रतिशत से नीचे लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट 2020 भारत को वायु में पीएम 2.5 की सर्वाधिक मात्रा वाले देश के रूप में चिह्नित करती है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में दो तिहाई भारत में हैं।
केंद्र सरकार ने फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट को 2022-23 तक 30 प्रतिशत के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा था किंतु यह 2019 में 20.3 और 2020 की दूसरी तिमाही में 16.1 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई।
प्रधानमंत्री जी को यह बताना था कि पिछले पांच वर्षों में अपनी सैकड़ों जन सभाओं में बहुत जोशोखरोश के साथ दुहराए गए इन लक्ष्यों की प्राप्ति में उनकी सरकार क्यों असफल रही?
प्रधानमंत्री जी अगस्त 2022 से पहले किसानों की आय दोगुनी करने के अपने बहुचर्चित वादे पर भी मौन रहे। सरकार ने इस संबंध में अब तो बात करना ही छोड़ दिया है। जब अप्रैल 2016 में इस विषय पर अंतर मंत्रालयीन समिति का निर्माण हुआ था तब किसानों की आय 8931 रुपए परिकलित की गई थी। राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के अनुसार वर्ष 2018 में किसानों की आय 10218 रुपए थी, यह वृद्धि 2016 की तुलना में केवल 14.4 प्रतिशत की है। इसके बाद सरकार की ओर से कोई अधिकृत आंकड़े नहीं आए हैं। बहरहाल एनएसओ स्वयं स्वीकारता है कि यह आय औसत रूप से परिकलित की गई है। स्थिति यह है कि छोटी जोत वाले किसानों की आय बड़े भू स्वामियों की तुलना में कहीं कम है। यदि उर्वरकों, बीजों, कीट नाशकों, डीज़ल, बिजली और कृषि उपकरणों की महंगाई को ध्यान में रखें तो किसानों की आय बढ़ने के स्थान पर घटती दिखाई देगी।
प्रधानमंत्री अपने भाषण में देश की आम जनता को त्रस्त करने वाली महंगाई और बेरोजगारी की समस्याओं पर भी मौन रहे। खाद्य पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने के विवादास्पद निर्णय पर भी उनके भाषण में कोई टिप्पणी नहीं थी।
अब जरा चर्चा उन विषयों की जिन पर प्रधानमंत्री का भाषण केंद्रित था। अपने स्वयं के अधूरे संकल्पों और वर्तमान की समस्याओं को हल करने में अपनी असफलता की चर्चा से मुंह चुराते प्रधानमंत्री जी आगामी 25 वर्षों के लिए 5 नए प्रण और एक महासंकल्प की बात करते नजर आए।
पहला प्रण यह है कि देश अब बड़े संकल्प लेकर ही चलेगा। यह प्रण महत्वपूर्ण तो है लेकिन यदि देशवासी प्रधानमंत्री जी की भांति ऐसे संकल्प लेना प्रारंभ कर दें जिन्हें पूर्ण करने की न तो कोई योजना हो, न कार्यनीति हो और सबसे बढ़कर कोई इरादा भी न हो तो देश का क्या होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि देशवासी कैशलेस अर्थव्यवस्था के लिए नोटबन्दी और अपने कॉरपोरेट मित्रों की सुविधा के लिए जीएसटी जैसी किसी कर प्रणाली को क्रियान्वित करने का आत्मघाती संकल्प ले लें। प्रधानमंत्री जी ने अपने आचरण से प्रण-संकल्प-शपथ जैसे शब्दों की गरिमा को कम करने का काम ही किया है।
दूसरा प्रण गुलामी से सम्पूर्ण मुक्ति का प्रण है। वर्तमान सरकार की अर्थनीतियों और विकास की उसकी समझ को गांधीवाद का विलोम ही कहा जा सकता है। गांधी जी की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना, विकेंद्रीकरण का उनका आग्रह और आधुनिक सभ्यता का उनका नकार - वे विचार हैं जो गुलामी से वास्तविक मुक्ति दिला सकते हैं। किंतु इन्हीं की सर्वाधिक उपेक्षा आज हो रही है। अपने भाषण में आदरणीय प्रधानमंत्री जी एस्पिरेशनल सोसाइटी और डेवलप्ड नेशन जैसे शब्दों का प्रयोग करते नजर आए, यह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और विकसित देशों द्वारा गढ़े गए वही शब्द हैं जिनकी ओट में नवउपनिवेशवाद अपनी चालें चलता है।
तीसरा प्रण है- हमें अपनी विरासत पर गर्व होना चाहिए। प्रधानमंत्री जी को स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या हमारी विरासत को परिभाषित करने का अधिकार संकीर्ण, असमावेशी और हिंसक हिंदुत्व के पैरोकारों को दे दिया गया है? क्या हमारी इतिहास दृष्टि श्री सावरकर द्वारा लिखित "भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने" में वर्णित भयावह सिद्धांतों द्वारा निर्मित हो रही है? पिछले कुछ वर्षों से हमारी गंगा जमनी तहजीब और सामासिक संस्कृति को नष्ट करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है। क्या आदरणीय प्रधानमंत्री जी इसकी निंदा करने का साहस दिखाएंगे?
एकता और एकजुटता प्रधानमंत्री जी का चौथा प्रण है। धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बल पर सत्ता हासिल कर पूरे देश को एक रंग में रंगने को आमादा राजनीतिक दल के अगुआ द्वारा जब एकता और एकजुटता जैसे शब्द प्रयोग किए जाते हैं तब हमें जरा सतर्क हो जाना चाहिए। यह उदार और व्यापक अर्थ वाले शब्दों को संकीर्ण अर्थ देने का युग है। एकता किसकी? क्या हिन्दू धर्मावलंबियों की या फिर सारे भारतवासियों की? एकजुटता किस कीमत पर? क्या अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान गँवा कर बहुसंख्यक वर्ग के धर्म की अधीनता स्वीकार करने की कीमत पर? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशे जाने चाहिए।
पाँचवां प्रण जिसका आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने उल्लेख किया वह है नागरिकों के कर्त्तव्य। यदि विश्व इतिहास पर नजर डालें तो हर तानाशाह- चाहे वह सैनिक तानाशाह हो, कोई निरंकुश राजा हो या फिर कोई ऐसा निर्वाचित जननेता हो जिसके मन के किसी अंधेरे कोने में कोई तानाशाह छिपा हो- एक आज्ञापालक-अनुशासित प्रजा चाहता है। वह अपनी इच्छा को- भले ही वह कितनी ही अनुचित क्यों न हो- सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य के रूप में प्रस्तुत करता है। सार्वभौम नागरिक कर्त्तव्य शासक की हर गलत बात का समर्थन करना नहीं है अपितु सच्चा नागरिक वही है जो देश,समाज, संविधान और मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील होता है भले ही इसके लिए उसे शासक का विरोध ही क्यों न करना पड़े।
भारत को डेवलप्ड कंट्री बनाना प्रधानमंत्री जी का महासंकल्प है। उन्होंने मानव केंद्रित व्यवस्था विकसित करने का आह्वान किया। लेकिन यह विकसित देश कैसा होगा? वर्तमान सरकार की विकास प्रक्रिया के कारण निर्धन और निर्धन हो रहे हैं, चंद लोगों के हाथों में राष्ट्रीय संपत्ति का अधिकांश भाग केंद्रित हो गया है। जातिगत और धार्मिक गैरबराबरी से जूझ रहे, लैंगिक असमानता से ग्रस्त भारतीय समाज के लिए यह आर्थिक विषमता विस्फोटक और विनाशक सिद्ध हो सकती है। स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा किए जा रहे आकलन धार्मिक स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, मानवाधिकारों की रक्षा, हाशिये पर रहने वाले समुदायों के हित संवर्धन, प्रजातांत्रिक मूल्यों का पालन, लैंगिक समानता की प्राप्ति आदि अनेक क्षेत्रों में हमारे गिरते प्रदर्शन को रेखांकित करते रहे हैं। हमारी सरकार इन पर लज्जित होने के बजाए इन्हें झूठा करार देती रही है। क्या डेवलप्ड इंडिया- अलोकतांत्रिक, असमावेशी, असहिष्णु और आर्थिक-सामाजिक असमानता से ग्रस्त होगा?
प्रधानमंत्री जी ने संविधान निर्माताओं का धन्यवाद दिया कि उन्होंने हमें फ़ेडरल स्ट्रक्चर दिया। क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को समाप्त करने पर आमादा भाजपा की केंद्र सरकार विभिन्न राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों को अस्थिर करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग और असंवैधानिक तरीकों के प्रयोग से गुरेज नहीं करती। मजबूत केंद्र, मजबूत नेतृत्व, डबल इंजन की सरकार जैसी अभिव्यक्तियां और "भाजपा का शासन देश की एकता- अखंडता हेतु परम आवश्यक" जैसे नारे कोऑपरेटिव फ़ेडरलिज्म को किस तरह मजबूत करते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है।
जब आदरणीय प्रधानमंत्री जी संविधान का जिक्र कर रहे थे तब उन्हें स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले धर्म संसद द्वारा तैयार हिन्दू राष्ट्र के संविधान के मसौदे पर भी अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों को मताधिकार से वंचित करने का प्रस्ताव है। मानो प्रधानमंत्री जी के हर तरह की गुलामी से मुक्ति के प्रण का पूर्वाभास धर्म संसद को हो गया था तभी उसने हमारी वर्तमान सशक्त एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए इसे वर्ण व्यवस्था के आधार पर संचालित करने और त्रेता तथा द्वापर युगीन न्याय व्यवस्था की स्थापना का प्रस्ताव दिया है। प्रधानमंत्री जी के जय अनुसंधान के नारे को साकार करने के लिए ही जैसे धर्म संसद द्वारा संविधान के मसौदे में ग्रह नक्षत्रों और ज्योतिष आदि की शिक्षा का प्रावधान किया गया है। यह हम किस ओर ले जाए जा रहे हैं? क्या समय का पहिया पीछे घुमाया जा सकता है? हम एक उदार सेकुलर लोकतंत्र से एक कट्टर धार्मिक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हैं। क्या यही प्रधानमंत्री जी का भी सपना है? क्या आदरणीय प्रधानमंत्री जी भी श्री सावरकर की भांति मनु स्मृति को हिन्दू विधि मानते हैं? क्या वे श्री गोलवलकर के इस कथन से सहमत हैं कि हमारा संविधान पूरे विश्व के अनेक संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके?
आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में श्री सावरकर एवं श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी का प्रशंसात्मक उल्लेख किया। श्री सावरकर स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक और सर्वसमावेशी स्वरूप से असहमत थे। गांधी जी की अपार लोकप्रियता और जन स्वीकार्यता उन्हें आहत करती थी। उन्होंने गांधी जी के प्रति अपनी घृणा और असम्मान की भावना को कभी छिपाने की चेष्टा नहीं की। सेलुलर जेल से रिहाई के बाद स्वाधीनता आंदोलन से उन्होंने दूरी बना ली थी। स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप से असहमत और गांधी विरोध की अग्नि में जलते सावरकर उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के प्रसार में लग गए जो उन्हें प्रारम्भ से ही प्रिय थी। उन्होंने अंग्रेजों से मैत्री की, मुस्लिम लीग से भी एक अवसर पर गठबंधन किया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध भी किया। श्री सावरकर की भांति श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के शीर्ष नेता थे और उनकी पहली प्राथमिकता हिंदुत्व के अपने संस्करण का प्रसार करना था। मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार का हिस्सा रहे श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आन्दोलन का न केवल विरोध किया था, अपितु उसके दमन हेतु अंग्रेजी सरकार को सुझाव भी दिए थे। संकीर्ण और असमावेशी हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादकों के रूप में प्रधानमंत्री जी अवश्य इन महानुभावों के प्रशंसक होंगे किंतु इन्हें गांधी-सुभाष-भगत सिंह-नेहरू की पंक्ति में स्थान देना घोर अनुचित है।
प्रधानमंत्री जी का भाषण बहुत प्रभावशाली लगता यदि वे उन आदर्शों और सिद्धांतों पर अमल भी कर रहे होते जिनका उल्लेख वे बारंबार कर रहे थे। किंतु उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान के अंतर ने वितृष्णा ही उत्पन्न की।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस 15 अगस्त को नारी-सम्मान में जैसे अदभुत शब्द कहे, वैसे किसी अन्य प्रधानमंत्री ने कभी कहे हों, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता लेकिन देखिए कि उसके दूसरे दिन ही क्या हुआ और वह भी कहां हुआ गुजरात में। 2002 के दंगों में सैकड़ों निरपराध लोग मारे गए, लेकिन जो एक मुस्लिम महिला बिल्किस बानो के साथ हुआ, उसके कारण सारा भारत शर्मिंदा हुआ था। न सिर्फ बिल्किस बानो के साथ लगभग दर्जन भर लोगों ने बलात्कार किया, बल्कि उसकी तीन साल की बेटी की हत्या कर दी गई।
उसके साथ-साथ उसी गांव के अन्य 13 मुसलमानों की भी हत्या कर दी गई। इस जघन्य अपराध के लिए 11 लोगों को सीबीआई अदालत ने 2008 में आजीवन कारावास की सजा सुनवाई थी। इस मुकदमे में सैकड़ों लोग गवाह थे। जजों ने पूरी सावधानी बरती और फैसला सुनाया था लेकिन इन हत्यारों की ओर से बराबर दया की याचिकाएं लगाई जा रही थीं। किसी एक याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस याचिका पर विचार करने का अधिकार गुजरात सरकार को है।
बस, फिर क्या था? गुजरात में भाजपा की सरकार है और उसने सारे हत्यारों को रिहा कर दिया। गुजरात सरकार ने अपने ही नेता नरेंद्र मोदी के कथन को शीर्षासन करवा दिया। क्या यही नारी का सम्मान है? क्या यही ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता:’ श्लोक को चरितार्थ करना है। क्या यही नारी की पूजा है? किसी परस्त्री के साथ बलात्कार करके हम क्या हिंदुत्व का झंडा ऊँचा कर रहे हैं? इन हत्यारों को आजन्म कारावास भी मेरी राय में बहुत कम था।
ऐसे बलात्कारी हत्यारे किसी भी संप्रदाय, जाति या कुल के हों, उन्हें मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, उनको सरे-आम फांसी लगाई जानी चाहिए और उनकी लाशों को कुत्तों से घसिटवा कर नदियों में फिंकवाना चाहिए ताकि भावी बलात्कारियों को सांप सूंघ जाए। गुजरात सरकार ने यह कौटलीय न्याय करने की बजाय एक घिसे-पिटे और रद्द हुए कानूनी नियम का सहारा लेकर सारे हत्यारों को मुक्त करवा दिया।
हत्यारे और उनके समर्थक उन्हें निर्दोष घोषित कर रहे हैं और उनका सार्वजनिक अभिनंदन भी कर रहे हैं। गुजरात सरकार ने 1992 के एक नियम के आधार पर उन्हें रिहा कर दिया लेकिन उसने ही 2014 में जो नियम जारी किया था, उसका यह सरासर उल्लंघन है। इस ताजा नियम के मुताबिक ऐसे कैदियों की दया-याचिका पर सरकार विचार नहीं करेगी, ‘जो हत्या और सामूहिक बलात्कार के अपराधी हों।’
सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में बिल्किस बानो को 50 लाख रु. हर्जाने के तौर पर दिलवाए थे। अब गुजरात सरकार ने इस मामले में केंद्र सरकार की राय भी नहीं ली। उसने क्या यह काम आसन्न चुनाव जीतने और थोक वोटों को दृष्टि में रखकर किया है? यदि ऐसा है तो यह बहुत गर्हित कार्य है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लाल किले से हर पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री लोग जो भाषण देते हैं, उनसे देश में कोई विवाद पैदा नहीं होता। वे प्राय: विगत वर्ष में अपनी सरकार द्वारा किए गए लोक-कल्याणकारी कामों का विवरण पेश करते हैं और अपनी भावी योजनाओं का नक्शा पेश करते हैं लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के लगभग एक घंटे के हिस्से पर किसी विरोधी ने कोई अच्छी या बुरी टिप्पणी नहीं की लेकिन सिर्फ दो बातें को लेकर विपक्ष ने उन पर गोले बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कांग्रेसी नेताओं को बड़ा एतराज इस बात पर हुआ कि मोदी ने महात्मा गांधी, नेहरु और पटेल के साथ-साथ इस मौके पर वीर सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम क्यों ले लिया? चंद्रशेखर, भगतसिंह, बिस्मिल आदि के नाम भी मोदी ने लिये और स्वातंत्र्य-संग्राम में उनके योगदान को प्रणाम किया। क्या इससे नेहरुजी की अवमानना हुई है? कतई नहीं। फिर भी सोनिया गांधी ने एक गोल-मोल बयान जारी करके मोदी की निंदा की है।
कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने सावरकर को पाकिस्तान का जनक बताया है। उन्हें द्विराष्ट्रवाद का पिता कहा है। इन पढ़े-लिखे नेताओं से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे सावरकर के लिखे ग्रंथों को एक बार फिर ध्यान से पढ़ें। पहली बात तो यह है कि सावरकर और उनके भाई ने जो कुर्बानियां की हैं और अंग्रेजी राज के विरुद्ध जो साहस दिखाया है, वह कितना अनुपम है।
इसके अलावा अब से लगभग 40 साल पहले राष्ट्रीय अभिलेखागार से अंग्रेजों के गोपनीय दस्तावेजों को खंगाल कर सावरकर पर लेखमाला लिखते समय मुझे पता चला कि अब के कांग्रेसियों ने उन पर अंग्रेजों से समझौते करने के निराधार आरोप लगा रखे हैं। यदि सावरकर इतने ही अछूत हैं तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुंबई में बने उनके स्मारक के लिए अपनी निजी राशि से दान क्यों दिया था?
हमारे स्वातंत्र्य-संग्राम में हमें क्रांतिकारियों, गांधीवादियों, मुसलमान नेताओं यहां तक कि मोहम्मद अली जिन्ना के योगदान का भी स्मरण क्यों नहीं करना चाहिए? विभाजन के समय उनसे मतभेद हो गए, यह अलग बात है। कर्नाटक के भाजपाइयों ने नेहरु को भारत-विभाजन का जिम्मेदार बताया, यह बिल्कुल गलत है। मोदी की दूसरी बात परिवारवाद को लेकर थी। उस पर कांग्रेसी नेता फिजूल भन्नाए हुए हैं। वे अब कुछ भाजपाई मंत्रियों और सांसदों के बेटों के नाम उछालकर मोदी के परिवारवाद के आरोप का जवाब दे रहे हैं। वे बड़ी बुराई का जवाब छोटी बुराई से दे रहे हैं।
बेहतर तो यह हो कि भारतीय राजनीति से ‘बापकमाई’ की प्रवृत्ति को निर्मूल करने का प्रयत्न किया जाए। विपक्ष को मोदी की आलोचना का पूरा अधिकार है लेकिन वह सिर्फ आलोचना करे और मोदी द्वारा कही गई रचनात्मक बातों की उपेक्षा करे तो जनता में उसकी छवि कैसी बनेगी? ऐसी बनेगी कि जैसे खिसियानी बिल्ली खंभा नोचती है।
विपक्ष में बुद्धि और हिम्मत होती तो भाजपा के इस कदम की वह कड़ी भर्त्सना करता कि उसने 14 अगस्त (पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस) को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाया। अब तो जरुरी यह है कि भारत और पाक ही नहीं, दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देश मिलकर ‘आर्यावर्त्त’ के महान गौरव को फिर लौटाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमिता नीरव
शादी के बाद के शुरुआती सालों में हमारे यहाँ दूधवाला आता था, वो बहुत मीठा बोलता था और बहुत विनम्र था। एक दिन मेरे देवर ने मुझसे कहा, ‘ये आदमी शातिर है!’ मैं समझ नहीं पाई। इतने अच्छे से तो बोलता है, कितना विनम्र भी है। मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों कह रहे हो?’
देवर ने कहा, ‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलता है। अतिरिक्त रूप से विनम्र है!’, मुझे थोड़ा अटपटा लगा। मैंने कहा, ‘ये तो उसकी खूबी है, यह कब से बुराई हो गई है?’ उसने जवाब दिया, ‘कोई अतिरिक्त रूप से सज्जन होता है तो वह उसे छुपाने की कोशिश करता है, जो वह असल में होता है।’
हालाँकि मुझे बात समझ नहीं आई थी, लेकिन मैंने बात को भविष्य के लिए सहेज ली थी। अखबार में काम की शुरुआत रीजनल डेस्क से हुई थी। ट्रेनिंग खत्म करके नई-नई डेस्क पर आई थी। हमारे इंचार्ज बहुत सरल, शांत और स्नेहिल इंसान थे। बहुत धैर्य से सिखाते थे। कई बार बहुत बारीक बात भी कह जाते थे।
एक दिन मैं अपनी न्यूज कॉपी उनसे चेक करवा रही थी, कॉपी उनके हाथ में थी, तभी सुदूर जिले के एक संवाददाता उनसे मिलने आ गए। संवाददाता ने झुककर उनके पैर छुए, तो इंचार्ज ने उसे सख्ती से कहा, ‘पैर-वैर मत छुआ कीजिए!’ जिस तरह से उन्होंने कहा वो उनके स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था। मुझे अजीब लगा था।
शायद वे मेरी मन को समझ गए थे, इसलिए संवाददाता के जाने के बाद वे बोले, ‘मुझे इससे बहुत डर लगता है।’ मेरे लिए ये थोड़ी नई बात थी। मैंने पूछा, ‘इनसे डर! क्यों?’ वे अपनी चिर-परिचित सौम्य मुस्कुराहट बिखेर कर बोले, ‘बहुत ज्यादा झुकने वाले लोग खतरनाक होते हैं!’ यह बात उसी खाने में सहेज ली गई थी।
महावीर के अपरिग्रह का सिद्धांत मेरे लिए बड़ी अटपटी बात है। महावीर के सिद्धांतों के बिल्कुल उलट जैन समुदाय अति परिग्रही है, लेकिन सवाल यह उठा था कि महावीर ने अपने समय में अपरिग्रह को अपना संदेश क्यों बनाया था? और यह भी कि अपरिग्रह के सिद्धांत के बावजूद जैन इतने परिग्रही कैसे हैं?
सदी के पहले दशक में जैन संत मुनि तरुण सागर के कर्कश आवाज में प्रवचन बहुत प्रचलित थे। अक्सर उनके प्रवचन में सास-बहू की कहानियाँ हुआ करती थी। अलग-अलग जगहों पर उनके प्रवचन सुनाई दिया करते थे। अक्सर सोचती थी कि सास-बहु की कहानियाँ टीवी सीरियल से निकल कर धार्मिक प्रवचनों का हिस्सा कैसे और क्यों हो गई। जल्द ही समझ आया कि जैन समुदाय में शायद ये ज्वलंत समस्या होगी।
कई बार कुछ बड़े अटपटे सवाल भी उठते हैं जैसे महावीर ने अपरिग्रह, बुद्ध ने अहिंसा और करुणा, कृष्ण ने युद्ध, ईसा मसीह ने क्षमा को अपने संदेश के लिए क्यों चुना? मतलब ऐसा भी हो सकता था कि बुद्ध युद्ध को, कृष्ण अहिंसा या अपरिग्रह को और ईसा मसीह युद्ध को चुन लें।
फिर समझ आया कि महावीर का अपरिग्रह असल में तत्कालीन समाज के परिग्रह का निषेध है, हिंसा और क्रूरता के निषेध के तौर पर बुद्ध की अहिंसा और करूणा ने जन्म लिया होगा। युद्ध से पलायन के अर्जुन के संकल्प से कृष्ण की युद्ध की प्रेरणा जन्मी होगी। प्रतिशोध के दौर में यीशू ने क्षमा को प्रतिष्ठा दी होगी।
हर सिद्धांत तत्कालीन सामाजिक व्यवहार का निषेध होता है यह तो ठीक है, लेकिन इससे आगे की बात यह है कि प्रचलित और स्थापित सिद्धांत वास्तविक सामाजिक व्यवहार की ढाल बनते जाते हैं। जैसे प्राय: विनम्रता की आड़ में धूर्तता और मीठा बोलने की आड़ में चापलूसी होती है।
जैसा कि अज्ञेय ने अपने किसी उपन्यास में कहा कि, ‘जो व्यक्ति जैसा है उससे उलट वह अपने सिद्धांत गढ़ लेता है और उनका प्रचार करता फिरता है, इससे एक तो वह ठीक-ठीक समझ में नहीं आ पाता औऱ दूसरी ओर वह अपने अंतस के प्रकटन को बचा ले जाता है। इसे क्षतिपूर्ति का सिद्धांत कहा जाता है।’
कल ही सोशल मीडिया पर परसाई जी के नाम पर एक पोस्टर घूम रहा था, जिसमें लिखा था कि, ‘कभी-कभी राष्ट्र की रक्षा का नारा सबसे ऊँचा चोर ही लगाते हैं। राष्ट्र की रक्षा से कभी-कभी चोरों की रक्षा का मतलब भी निकलता है।’ जैसे नाथूराम गोड़से ने गाँधीजी को गोली मारने से पहले उनके पैर छुए थे।
कहना सिर्फ इतना है कि हर घर तिरंगा अभियान का शिगूफा कहीं सामाजिक और राजनीतिक जीवन में गहरे पैठे भ्रष्ट, अमानवीय, परपीडक़, अन्यायी और शोषक समाज की क्षतिपूर्ति का प्रयास तो नहीं है! आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर कहीं हम अपने हिपोक्रेट स्वभाव को तिरंगे की आड़ में छुपा तो नहीं रहे हैं?
अक्सर सिद्धांत प्रचलित व्यवहार की क्षतिपूर्ति है।
पुस्तक सार
-लक्ष्मण सिंह देव
1975 तक नंदा देवी भारतीय कब्जे वाले क्षेत्र की सबसे ऊंची पर्वत चोटी थी। 1975 में सिक्किम के भारत में विलय के बाद कंचनजंगा हो गयी।नंदा देवी एक ऐसा पर्वत है जिस पर आरोहण करने से भी ज्यादा मुश्किल साबित हुआ उसकी घाटी में पहुंचना। पहली बार नन्दा देवी नेशनल पार्क में एरिक शिप्टन एवम तिलमैन पहुंचे। नन्दा देवी गवाल इलाके में है और नंदा देवी की पवित्र पर्वत एवम देवी के रूप में भी मान्यता भी है।
नंदा देवी नेशनल पार्क में सिर्फ प्रवेश करने में 50 साल तक प्रयास चलते रहे। दर्जन भर अभियानों के बाद 1934 में ब्रिटिश नागरिक शिप्टन एवं टिलमैन 3 नेपालियों की सहायता से वहां पहुंच पाए।नन्दा देवी पार्क की लोकेशन ऐसी है कि उस पर किसी इंसान का प्रवेश करना बहुत मुश्किल है। यह इलाका चारों ओर से 6 हजार मीटर ऊंचे पहाड़ों से घिरा है जिन्हें पार करना बहुत मुश्किल था, सिर्फ एक छोटा रास्ता ऋषि गंगा खोह के पास है। उसे ढूंढने में 50 साल से भी ज्यादा समय लग गया।
कहा जाता है कि नंदा देवी पार्क में प्रवेश अभियान, उत्तरी ध्रुव पर जाने वाले अभियान से भी दुष्कर एवम कठिन था। एवरेस्ट पर चढऩे वाले पहले इंसान एडमंड हिलेरी ने भी कहा कि नन्दा देवी पर चढऩा एवरेस्ट से ज्यादा मुश्किल है। 1935 में टिलमैन ने इस पर सफलतापूर्वक आरोहण किया।
किताब में जिक्र है कि एक बार बद्रीनाथ धाम के महारावल (मुख्य पुजारी) ने शिप्टन को बताया कि पहले जमाने मे एक ऐसा पुरोहित होता था जो एक ही दिन में बदरीनाथ एवम केदारनाथ दोनों जगह पूजा करवा देता था। दोनों धामों के बीच 35 किलोमीटर की दूरी है, लेकिन ग्लेशियर एवम ऊंचे पहा? हैं। शिप्टन एवम टिलमैन ने बद्रीनाथ से केदारनाथ तक यात्रा उसी कल्पित मार्ग से करने की सोची कि क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति पैदल एक ही दिन बदरीनाथ से केदारनाथ पहुंच जाए। वे पहुंच तो गए लेकिन बहुत ज्यादा मुश्किल हुई क्योंकि ग्लेशियर एवं ऊंचे पहाड़ थे।
शिप्टन ने किताब में लिखा है कि दोनों धाम पहले बौद्ध धर्मस्थल थे जिन पर शंकराचार्य ने हिन्दुओं का कब्जा करवा दिया। शिप्टन ने बद्रीनाथ के मार्ग में तीर्थ यात्रियों के द्वारा गंदगी करने पर हैजा फैलने का जिक्र किया है और यह भी लिखा है कि सरकार ने उस समय कुछ गांवों में पाइप से साफ पानी भिजवाने का इंतेजाम किया जिससे लोग बीमार न हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने लाल किले के भाषण में देशवासियों को प्रेरित करने के लिए कई मुद्दे उठाए लेकिन दिन भर टीवी चैनलों पर पार्टी वक्ता लोग सिर्फ दो मुद्दों को लेकर एक-दूसरे पर जमकर प्रहार करते रहे। उनमें पहला मुद्दा परिवारवाद और दूसरा मुद्दा भ्रष्टाचार का रहा। यद्यपि मोदी ने किसी परिवारवादी पार्टी का नाम नहीं लिया और न ही किसी नेता का नाम लिया लेकिन उनका इशारा दो-टूक था। वह था कांग्रेस की तरफ। यदि कांग्रेस मां-बेटा या भाई-बहन पार्टी बन गई है तो, जो दुर्गुण उसके इस स्वरुप से पैदा हुआ है, वह किस पार्टी में पैदा नहीं हुआ है? यह ठीक है कि कोई भी अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस की तरह किसी खास परिवार की जेब में नहीं पड़ी है लेकिन क्या आप देश में किसी ऐसी पार्टी को जानते हैं, जो आज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम नहीं कर रही है? सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र लकवाग्रस्त हो चुका है।
एक नेता या मु_ीभर नेताओं ने लाखों-करोड़ों पार्टी- कार्यकर्त्ताओं के मुंह पर ताले जड़ दिए हैं। भारत की प्रांतीय पार्टियां तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी का मुखौटा भी नहीं लगाती हैं। वे बाप-बेटा, भाई-भाई, बुआ-भतीजा, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, चाचा-भतीजा, ससुर-दामाद पार्टी की तरह काम कर रही हैं। ये सब पार्टियां परिवारवादी ही हैं। इन परिवारवादी पार्टियों का मूलाधार जातिवाद है, जो परिवारवाद का ही बड़ा रूप है। ये पार्टियां थोक वोट के दम पर जिंदा हैं। थोक वोट आप चाहे जाति के आधार पर हथियाएं, चाहे हिंदू-मुसलमान के नाम पर कब्जाएँ या भाषावाद के नाम पर गटकाएँ, ऐसी राजनीति लोकतंत्र का दीमक है। हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जरुर है लेकिन बड़ा हुआ तो क्या हुआ? जैसे पेड़ खजूर! पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर !! यदि 75 साल में भी इस खजूर के पेड़ को हम आम का पेड़ नहीं बना सके तो हम अपना सीना कैसे फुला सकते हैं?
इस कमजोरी के लिए हमारे सारे नेता और जनता भी जिम्मेदार है। इस साल यदि इस बीमारी का संसद कोई इलाज निकाल सके तो 2047 में भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बन सकता है। जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, यह दृष्टव्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आज तक उसका एक छींटा भी नहीं लगा है लेकिन यह भी तथ्य है कि प्रशासन और जन-जीवन में आज भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सिर्फ विरोधी नेताओं को जेल में डालने से आपको प्रचार तो अच्छा मिल जाता है लेकिन उससे भ्रष्टाचार-निरोध रत्ती भर भी नहीं होता। सारे भ्रष्टाचारी भरसक प्रयत्न करते हैं कि वे सरकार के शरणागत होकर बच जाएं और जो पहले से सरकार के साथ हैं, उन्हें भ्रष्टाचार करते समय जऱा भी भय नहीं लगता। यदि भ्रष्टाचार जड़मूल से नष्ट करना है तो इसमें अपने-पराए का भेद एकदम खत्म होना चाहिए और सजाएं इतनी कठोर होनी चाहिए कि भावी भ्रष्टाचारियों के रोम-रोम को कंपा डालें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-विष्णु नागर
कल मैं रायपुर में था। विनोद कुमार शुक्ल जी से उनके निवास पर भेंट हुई। साथ में लीलाधर मंडलोई भी थे। जीवन के ८६ वें वर्ष में चल रहे विनोद जी पर उम्र की सघन छाया पड़ रही है। कल उन्हें देखकर मन विकल हुआ। उन्हें कैथेटर लगा हुआ है, जिसकी थैली एक डिब्बे में रखे हुए वह हम लोगों के स्वागत के लिए अपने घर के दरवाजे तक आए और अंदर घर में ले आए।बाद में बहुत मना करने पर भी नहीं माने, छोड़ने भी आए।
विनोद जी का रहन-सहन हमेशा से बेहद सादगीपूर्ण रहा है। शायद किसी भी अन्य मध्यवर्गीय लेखक की तुलना में। वह उनके व्यक्तित्व तथा उनके निवास में भी झलकता है। कुछ बातें हुईं। अभी उनका मन बच्चों के लिए लिखने में रमा हुआ है। वह लिख रहे हैं। उनके दो कविता संग्रह भी तैयार हैं मगर अपने प्रकाशकों से वह संतुष्ट नहीं हैं रायल्टी को लेकर। राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी तो उन किताबों के प्रकाशनाधिकार लौटाते जा रहे हैं मगर दूसरे बड़े प्रकाशक उनके अनुसार अड़े हुए हैं।किताबों की धीमी बिक्री की बात कहकर प्रकाशनाधिकार वापिस करने में बहानेबाजी कर रहे हैं।
पिछले दिनों उनके समवयस्क कवि मित्र नरेश सक्सेना उन पर फिल्म बनाने रायपुर गए थे। रायपुर में तो शूटिंग का काम पूरा हो चुका है मगर उनके अपने बचपन के शहर राजनांदगांव का अभी शेष है। अभी तक का काम तो नरेश जी ने अपने संसाधनों से किया मगर यह महंगा काम है। राज्य सरकार के एक शीर्ष अधिकारी ने उत्सुकता तो दिखाई मगर कहा कि इसके लिए प्रार्थनापत्र लिख कर दीजिए। जब राज्य सरकार खुद आगे बढ़कर मदद करने की बजाय प्रार्थनापत्र मांगे तो नौकरशाही आगे क्या- क्या पेंच पैदा करेगी, इसकी कल्पना डराने वाली है। फिलहाल काम स्थगित है।
एक समवयस्क महत्वपूर्ण कवि द्वारा दूसरे समवयस्क महत्वपूर्ण कवि पर इस तरह का काम शायद ही पहले कभी हुआ हो मगर वह अधूरा ही रह जाने का भय है। अस्सी पार कर चुके इन कवियों का यह मिशन अधूरा न रहे, इसका कोई सम्मानजनक उपाय निकल सके तो अच्छा है। कोई संस्था आगे आए तो सबसे बेहतर है लेकिन कुछ भी ऐसा न हो, जिसके कारण इन दोनों कवियों के सम्मान को ठेस न पहुंचे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल भारत और चीन के बीच काफी नरम-गरम नोंक-झोंक चलती नजर आती है। गलवान घाटी विवाद ने तो तूल पकड़ा ही था लेकिन उसके बावजूद पिछले दो साल में भारत-चीन व्यापार में अपूर्व वृद्धि हुई है। भारत-चीन वायुसेवा आजकल बंद है लेकिन इसी हफ्ते भारतीय व्यापारियों का विशेष जहाज चीन पहुंचा है। गलवान घाटी विवाद से जन्मी कटुता के बावजूद दोनों देशों के सैन्य अधिकारी बार-बार बैठकर आपसी संवाद कर रहे हैं। कुछ अंतरराष्ट्रीय बैठकों में भारतीय और चीनी विदेश मंत्री भी आपस में मिले हैं। इसी का नतीजा है कि विदेशी मामलों पर काफी खुलकर बोलनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के विरुद्ध लगभग मौन दिखाई पड़ते रहे। यही बात हमने तब देखी, जब अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की ताइवान-यात्रा पर जबर्दस्त हंगामा हुआ। पेलोसी की ताइवान-यात्रा के समर्थन या विरोध में हमारे प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की चुप्पी आश्चर्यजनक थी लेकिन यह चुप्पी अब टूटी है। क्यों टूटी है?
क्योंकि चीन ने इधर दो बड़े गलत काम किए हैं। एक तो उसने सुरक्षा परिषद में पाकिस्तानी नागरिक अब्दुल रउफ अज़हर को आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव का विरोध कर दिया है और दूसरा उसने श्रीलंका के हंबनतोता बंदरगाह पर अपना जासूसी जहाज ठहराने की घोषणा कर दी थी। ये दोनों चीनी कदम शुद्ध भारतविरोधी हैं। अजहर को अमेरिका और भारत, दोनों ने आतंकवादी घोषित किया हुआ है। चीन ने पाकिस्तानी आतंकवादियों को बचाने का यह दुष्कर्म पहली बार नहीं किया है। लगभग दो माह पहले उसने लश्करे-तय्यबा के अब्दुल रहमान मक्की के नाम पर भी रोक लगवा दी थी। इसी प्रकार जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद को आतंकवादी घोषित करने के मार्ग में भी चीन ने चार बार अडंगा लगाया था।
अब्दुल रउफ अजहर पर आरोप है कि उसने 1998 में भारतीय जहाज के अपहरण, 2001 में भारतीय संसद पर हमले, 2014 में कठुआ के सैन्य-शिविर पर आक्रमण और 2016 में पठानकोट के वायुसेना पर हमले आयोजित किए थे। चीन इन पाकिस्तानी आतंकवादियों को संरक्षण दे रहा है लेकिन उसने अपने लाखों उइगर मुसलमानों को यातना-शिविरों में झोंक रहा है। ये पाकिस्तानी आतंकवादी उन्हें भी उकसाने में लगे रहते हैं। यह मैंने स्वयं चीन के शिन-च्यांग प्रांत में जाकर देखा है। इसीलिए इस चीनी कदम की भारतीय आलोचना सटीक है। जहां तक ताइवान का प्रश्न है, भारत की ओर से की गई नरम आलोचना भी समयानुकूल है। वह चीन-अमेरिका विवाद में खुद को किसी भी तरफ क्यों फिसलने दे? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी की एक कहावत है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को देय।’ अपने नेताओं ने अपने आचरण से इस कहावत को यों बदल दिया है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, सिर्फ खुद को ही देय।’ सिर्फ खुद को फायदा करने के लिए ही आजकल हमारे सत्तारुढ़ दल सरकारी रेवडिय़ां बांटते रहते हैं। आजकल देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां थोक वोट बटोरने के लालच में मतदाताओं को तरह-तरह की चीजें उपहार में बांटती रहती हैं। ये ऐसी चीजें हैं, जिनके बिना भी करोड़ों लोग आराम से गुजर-बसर कर सकते हैं।
कई राज्य सरकारों ने अपनी महिला वोटरों को मुफ्त साडिय़ां, सोने की चेन, बर्तन, मिक्स-ग्राइंडर और बच्चों को कंप्यूटर, पोषाख, भोजन आदि मुफ्त भेंट किए हैं। कई प्रदेश सरकारों ने मुफ्त साइकिलें भी भेंट में दी हैं। क्या ये सब चीजें जिंदा रहने के लिए बेहद जरुरी हैं? नहीं हैं, फिर भी इन्हें मुफ्त में इसीलिए बांटा जाता है कि सरकारों और नेताओं की छवि बनती है। इसका नतीजा क्या होता है? यह होता है कि हमारी प्रांतीय सरकारें गले-गले तक कर्ज में डूब जाती हैं।
वे डूब जाएं तो डूब जाएं, मुफ्त रेवडिय़ां बांटने वाले नेता तो तिर जाते हैं। आजकल हमारी प्रांतीय सरकारें लगभग 15 लाख करोड़ रु. के कर्ज में डूबी हुई हैं। वे रेवडिय़ां बांटने में एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए उतावली हो रही हैं। कुछ सरकारों ने तो अपने नागरिकों को बिजली और पानी मुफ्त में देने की घोषणा कर रखी है। महिलाओं के लिए बस-यात्रा मुफ्त कर दी गई है। इसका नतीजा यह है कि हमारी सरकारें देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने में बहुत पिछड़ गई हैं।
देश में गरीबी, बेरोजगारी, रोग और भुखमरी का बोलबाला है। इसी को लेकर आजकल भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जमकर बहस चल रही है। एक याचिका में मांग की गई है कि उन राजनीतिक दलों को अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए, जिनकी सरकारें मुफ्त की रेवडिय़ां बांटती हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की राय है कि यह तय करना न्यायालय नहीं, संसद का काम है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक कमेटी बना दी है, जिसमें केंद्र सरकार के अलावा कई महत्वपूर्ण संस्थाओं के प्रतिनिधि अपने सुझाव देंगे। चुनाव आयोग ने इसका सदस्य बनने से इंकार कर दिया है, क्योंकि वह एक संवैधानिक संगठन है। सच्चाई तो यह है कि यह बहुत ही पेचीदा मामला है। सरकारें यदि राहत की राजनीति नहीं करेंगी तो उनका कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा।
यदि बाढग़्रस्त इलाकों में सरकारें खाद्य-सामग्री नहीं बांटेंगी तो उनका रहना और न रहना एक बराबर ही हो जाएगा। इसी तरह महामारी के दौरान 80 करोड़ लोगों को दिए गए मुफ्त अनाज को क्या कोई रिश्वत कह सकता है? वास्तव में भारत-जैसे विकासमान राष्ट्र में शिक्षा और चिकित्सा को सर्वसुलभ बनाने के लिए जनता को जो भी राहत दी जाए, वह सराहनीय मानी जानी चाहिए लेकिन शेष सभी रेवडिय़ों को परोसे जाने के पहले न्याय के तराजू पर तोला जाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रविश कुमार
सलमान रुश्दी पर जानलेवा हमला शर्मनाक है। इस हमले के समर्थन में खड़े होने वाले लोग दूसरों के लिए भी कट्टरता बो रहे हैं। ऐसे लोगों की मौजूदगी दूसरी तरफ भी कट्टरता को फल-फूलने का मौक़ा देती रहती है।जिसके कारण करोड़ों लोग दहशत की ज़िंदगी जी रहे हैं। कितने बेकसूर लोग मार दिए जाते हैं। कट्टरता कभी एक नहीं होती है। वह कई ख़ेमों में बंटी होती है। हर ख़ेमा दूसरे ख़ेमे की कट्टरता से सीना फुलाता है, मुस्कुराता है और आंखें दिखाता है।ऐसे वक्त में हिंसा का विरोध करने वाले मज़ाक का पात्र बना दिए जाते हैं, मगर दूसरा रास्ता क्या है, क्या आप नहीं जानते कि हिंसा का समर्थन करने का मतलब किसी की हत्या और किसी को हत्यारा बनाना है?
सलमान रुश्दी पर हमला संगठित कट्टरता का परिणाम है। संगठित का मतलब ज़रूरी नहीं कि कोई संगठन बनाकर ही कट्टरता फैला रहा हो। अगर 24 साल का हादी उतार एक लेखक की हत्या का इरादा रखता हो, योजना बनाकर घात लगाने बैठा हो तो उसके भीतर की कट्टरता संगठित कट्टरता है। यह पैदा होती है, उन लोगों के बीच जो लगातार ऐसी हिंसा के लिए एलान करते रहते हैं। खुलकर या दबी ज़ुबान में समर्थन करते रहते हैं। किसी लेखक को कई साल से मार देने की योजना बनती रही हो, ख़तरे पैदा किए जाते रहे हों तो यह संगठित कट्टरता है। धर्मांधता आसमान से नहीं टपकती है। जहां भी समूह की संभावना है, समूह का निर्माण है, वहाँ धर्मांधता और कट्टरता की भी संभावनाएँ है। जो भी इस हत्या के पक्ष में खड़ा है, वह जानबूझकर कर अपने समुदाय के भीतर किसी और के हत्यारा बनने की संभावनाएँ पैदा कर रहा है। किसी और इंसान की हत्या के हालात रचता है।
सलमान रुश्दी लंबे समय तक हत्या की आशंका के साये में जीते रहे हैं। दुनिया उनके लेखन की कायल रही है। बताया तो यही जाएगा कि यह हमला उनकी हार है जो धर्मांधता और हिंसा के ख़िलाफ आवाज़ उठाते हैं। दूसरे के नाम पर अपनी कट्टरता को सही ठहराने वाले मुस्कुराते ही रहेंगे। इसमें कोई नई बात नहीं है। मूर्ख को अगर पता चल जाए कि दूसरी तरफ़ भी मूर्ख है, तो वह ख़ुश ही होता है। अपनी विद्वता समझ हंसता है।
धर्मांधता से लड़ने वाले हारते ही रहेंगे।जो भी कट्टरता के खिलाफ लड़ता है, वह केवल अपने धार्मिक समाज के भीतर संग्राम नहीं झेलता बल्कि दूसरे धार्मिक समाजों में भी निशाना बनाया जाता है। हर तरह की कट्टरता उनका इस्तेमाल करती है, उन पर हमले करती है। यह लड़ाई अपने भीतर के बल से लड़ी जाती है। कभी चुप रह कर, कभी बोल कर, कभी सिसक कर।
दुआ कीजिए कि सलमान रुश्दी ठीक हो जाएं।
-डॉ. संजय शुक्ला
आगामी 15 अगस्त को भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव यानि 75 वीं सालगिरह मनाने जा रहा है। इस साल पूरे देश में तिरंगा की धूम मची हुई है सरकारी अमला और प्रचार माध्यम तिरंगे के जोश से अटा पड़ा है। बेशक लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री जी बड़े जोशो-खरोश से देश को संबोधित करेंगे और जनता को सुनहरे सपने भी दिखाएंगे। इस बीच जब देश की आजादी और तिरंगा का ज्वार शांत हो जाएगा तब एक बार फिर सवाल खड़ा होगा कि आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी क्या हम आजादी के लक्ष्य को हासिल करने में सफल हो पाए हैं?
क्या देश का लोकतंत्र ‘जनता द्वारा, जनता के लिए,जनता का शासन’ के उद्देश्य को साकार कर पाई है? कहने को तो हम आजाद देश में रहते हैं जहाँ का संविधान सभी नागरिकों को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय का समान अवसर उपलब्ध कराता है। हकीकत पर गौर करें तो नजारा कुछ और ही है आज भी देश गांधी के सपनों के भारत से बहुत दूर है। देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की बात करें तो आज का भारत उनके सपनों का भारत से कोसों दूर है।
गौरतलब है कि आजादी के सात दशकों बाद भी एक बड़ी आबादी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, महंगाई,धार्मिक और जातिवादी कट्टरता व भेदभाव, अपराध, हिंसा और छुआछूत जैसे समस्याओं का गुलाम है। महिला सशक्तिकरण के नारे और दावे के बावजूद देश की आधी आबादी अभी भी हिंसा, प्रताडऩा, लैंगिक भेदभाव,अशिक्षा और सामाजिक रूढि़वादी अन्याय का शिकार है। देश की आजादी का संघर्ष उपरोक्त विसंगतियों को दूर करने के लिए किया गया था लेकिन नतीजा सिफर है। भले ही हम अपने आपको दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का हिस्सा होने का ढोल पीट लें लेकिन आम जनता अभी भी भूख,भय और भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो पाया है। इन समस्याओं के पृष्ठभूमि में कुछ के लिये जनता द्वारा चुनी गई सरकार जिम्मेदार है तो कुछ के लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता जवाबदेह है।
किसी राष्ट्र का विकास उसकी बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर निर्भर होता है लेकिन हमारे देश में यह व्यवस्था अत्यंत दयनीय है। देश के नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और साफ पेयजल मुहैया कराना उस देश के सरकार की संवैधानिक जवाबदेही है लेकिन भारत में यह संविधान के किताब में ही मौजूद है। इन बुनियादी जरूरतों की उपलब्धता में व्यापक असमानता है तथा यह अमीरी-गरीबी, शहरी-ग्रामीण और सरकारी व निजी क्षेत्रों के बीच बँटी हुई है।
एक बड़ी आबादी को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उसकी आर्थिक हैसियत के बल पर मिल रही है। सरकारी और पांच सितारा निजी स्कूल-कॉलेजों के संसाधनों और गुणवत्ता में जमीन-आसमान का अंतर है। आर्थिक सामर्थ्य के आधार पर शिक्षा की उपलब्धता के कारण जहाँ गरीब मेधावी छात्रों के मेधा का क्षरण हो रहा है वहीं सामाजिक असमानता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवा खुद बीमार है अस्पतालों में संसाधनों का काफी अभाव है।
खस्ताहाल सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण गरीबों और ग्रामीणों को मजबूरन निजी अस्पतालों के शरण में जाना पड़ रहा है। एक बड़ी आबादी को अपने बच्चों के भविष्य और अपनी सेहत बचाने के लिए निजी क्षेत्रों की सेवा लेने की मजबूरी के चलते अपनी संपत्ति बेचने या गिरवी रखने के लिए विवश होना पड़ रहा है फलस्वरूप हर साल करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। देश की 14 फीसदी आबादी भयंकर कुपोषण का शिकार है तो दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारत में रहते हैं। कुपोषण का प्रमुख कारण भुखमरी और पोषक आहार में कमी है।वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत 116 देशों के बीच ‘गंभीर’ श्रेणी के साथ 101 वें पायदान पर है। यह स्थिति उस कृषिप्रधान देश भारत की है जहाँ अनाज का बंफर उत्पादन होता है लेकिन उचित भंडारण और वितरण के अभाव में लाखों टन साबूत अनाज सड़ जाते हैं या पकाया हुआ भोजन नालियों में चला जाता है।विडंबना है कि आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी करोड़ों लोगों को साफ पेयजल मयस्सर नहीं हो पाया है। लाखों लोग भूखे पेट फुटपाथ पर रात गुजारने के लिए मजबूर हैं, लाखों बच्चों ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। आखिरकार यह कैसी आजादी?
पूरी दुनिया में युवाओं की सर्वाधिक आबादी हमारे देश में है लेकिन युवा भारत में नौजवान भटकाव की राह पर हैं। युवा बेरोजगारों की फौज लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन हमारी सरकारें कुछ हजार बेरोजगारी भत्ता देकर और रोजगार के लिए कागजी योजना बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री माने बैठी है। बेरोजगारी और आर्थिक तकलीफों के कारण युवाओं में कुंठा और हताशा पनप रही है। फलस्वरूप वे नशाखोरी या मनोरोगों का शिकार हो रहे हैं या अपराध जगत की राह पर हैं। किसी राष्ट्र का समावेशी विकास उसके युवाओं पर निर्भर होता है क्योंकि उनमें ऊर्जा और नये विचारों की अपार शक्ति होती है लेकिन हमारे युवा राष्ट्र निर्माण की भूमिका में हाशिये पर हैं। दुनिया का इतिहास गवाह है कि किसी व्यवस्था में बदलाव युवाओं ने ही लाया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में साकारात्मक बदलाव के लिए युवाओं को सियासत का हिस्सा बनना ही होगा लेकिन देश की राजनीति में जारी वंशवाद, धनबल और बाहुबल के बढ़ते दखल के कारण अधिकांश युवाओं के लिए राजनीति नापसंदगी का क्षेत्र बना हुआ है।
दरअसल देश का आम युवा धार्मिक, जातिगत भेदभाव से परे भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त भारत की अवधारणा में भरोसा रखता है लेकिन राजनीति इसके ठीक उलट है। भारतीय प्रतिभाओं का परदेस पलायन भी देश के विकास में बाधक हैं। दलितों और आदिवासियों का उत्पीडऩ और आर्थिक शोषण बदस्तूर जारी है तो आदिवासियों की सदियों से थाती रही जल,जंगल और जमीन को सरकार कार्पोरेट घरानों को कौडिय़ों के मोल बेच रही है। दलितों और आदिवासियों को सामाजिक न्याय और समानता दिलाने के लिए लागू आरक्षण व्यवस्था राजनीतिक तुष्टिकरण और वोट हथियाने का जरिया बनते जा रहा है। जिन वर्गों के समता और सर्वांगीण विकास के लिए यह व्यवस्था लागू किया गया है उनकी बड़ी आबादी आज भी इस कानून के लाभ से वंचित हैं। देश में नक्सलवाद और अलगाववाद आज भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विकास में बाधक बनी हुई है तो कालाधन और भ्रष्टाचार अभी भी लाइलाज मर्ज बना हुआ है।
देश की आजादी के संघर्ष में कई पीढिय़ों ने कुर्बानी अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए दी थी लेकिन हालिया राजनीतिक परिदृश्य निराशा पैदा कर रही है। विडंबना है कि पचहत्तर साल का बूढ़ा लोकतंत्र अभी तक परिपच् नहीं हो पाया है जिसकी झलक संसद और सदन से लेकर चुनावी राजनीति में दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारे जनप्रतिनिधियों का लोकतंत्र के मंदिर में आचरण बेहद निराशाजनक है फलस्वरूप देश शर्मसार हो रहा है। जनता के खून-पसीने की कमाई से हर मिनट लाखों रुपए खर्च कर चलने वाले संसद और सदन बिना किसी कामकाज के हंगामे और जूतमपैजार की भेंट चढ़ रहे हैं।
विश्वगुरू बनने का दंभ भरने वाले देश की चुनावी राजनीति इक्कीसवीं सदी में भी धर्म और जाति पर निर्भर है जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी, पर्यावरण प्रदूषण और महंगाई जैसे करोड़ों भारतीयों से जुड़े बुनियादी मुद्दे पूरी तरह से हाशिये पर हैं। इस सियासत का दुष्परिणाम है कि देश में धार्मिक और जातिवादी कट्टरता की जड़ें और गहरी होती जा रही है। वर्तमान हालात के लिए देश का आम नागरिक भी जवाबदेह है। हमें यह याद रखना चाहिए कि संविधान प्रदत अधिकार के साथ साथ नागरिक कर्तव्य भी जरूरी है लेकिन इसमें न्यूनता दृष्टिगोचर हो रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ही देश की दशा और दिशा तय करती है लेकिन मतदाताओं का एक वर्ग मतदान की जगह ‘वोटिंग हॉलिडे’ मनाता है या फिर पैसे, कंबल और शराब में अपना वोट बेच देता है।आमजनता का भी कर्तव्य है कि वे देश की एकता और अखंडता के खिलाफ काम करने वाले ताकतों के प्रति सचेत रहें।
बहरहाल तमाम बाधाओं और विसंगतियों के बावजूद हमारे देश ने बीते दशकों के सफर में विकास के नये आयाम भी गढ़े हैं। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाली भारत ने वैश्विक लिहाज से विकास के सभी क्षेत्रों में शानदार कीर्तिमान स्थापित किया है। देश ने आर्थिक, सामाजिक, सामरिक, विज्ञान और तकनीक, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, अधोसंरचना विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की है। इन उपलब्धियों का लोहा समूची दुनिया मान रही है। बहरहाल आजादी के लिए किए गए संघर्ष तथा शहादत का सम्मान और स्वतंत्रता दिवस के आयोजन की सार्थकता तब है जब देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के फैसलों में युवाओं, महिलाओं और सर्वहारा वर्ग की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित हो।
-सनियारा खान
आजादी के ऐसे बहुत से क्रांतिकारी वीर-वीरांगनाएं हैं, जिन्हें हम लोग जानते भी नहीं हैं। हमारी सर जमीन पर ना जाने कितने आजादी के दीवानें हुआ करते थे, जिनमे से कइयों को हम जानते ही नहीं और अगर जानते भी थे तो जल्द भूल भी गए। ऐसा ही एक नाम है बंगाल की देशभक्त और क्रांतिकारी महिला बीना दास का। उनके पिता बेनी माधव दास एक जाने माने शिक्षक थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी उनके छात्र रह चुके है। माता सरला देवी एक समाजसेवी थी।
छोटी उम्र से ही बीना दास और उनकी बहन कल्याणी दास दोनों ही स्वतंत्रता की दीवानी रही। स्कूल के दिनों से ही दोनों अंग्रेजों के खिलाफ रैलियों और मोर्चों में शामिल होने लगी थी। बेथुन कॉलेज में पढ़ते समय 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए बीना ने अन्य छात्राओं के साथ कॉलेज के फाटक पर धरना दे कर सब का ध्यान आकर्षित किया था। कांग्रेस अधिवेशन में वह स्वयंसेवी बन कर भी काम करती रही। इसके बाद उसने जो काम किया वह कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में उसने बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैकसन को अपनी गोली का निशाना बनाया। यह अलग बात है कि उसका निशाना चुक गया और वह गिरफ्तार कर ली गई। लेकिन अब वह अखबारों के फ्रंट पेज पर छा गई थी। जेल में उन पर बार बार साथी क्रांतिकारियों के नाम बताने के लिए दबाव डाला जा रहा था और अत्याचार भी किया जा रहा था। लेकिन वह मुंह नहीं खोली। बल्कि बहादुरी से कहा कि 30 करोड़ हिन्दुस्तानियों को गुलामी से मुक्त करना और अंग्रेज सरकार के पूरे सिस्टम को हिला देना ही उसका मकसद है। उसे नौ साल के लिए कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।
इसके बाद 1937 में उस प्रांत में कांग्रेस सरकार बनते ही सभी बंदियों के साथ बीना दास भी रिहा हो गई। लेकिन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय उन्हे फिर से तीन साल के लिए नजरबंद कर रखा गया था। 1946 से 1951 तक वह बंगाल विधान सभा की सदस्य भी रही। गांधीजी के साथ नौआखाली यात्रा में शामिल हो कर लोगों का पुनर्वास करने में बढ़-चढक़र भाग लिया। बाद में एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही उनकी शादी हुई। कहा जाता था कि पति के मृत्यु के बाद वह ऋषिकेश में किसी आश्रम में रहने लगी और सरकार से स्वतंत्रता पैंशन लेने से इन्कार कर दिया। और एक शिक्षिका बन कर जीवन व्यतीत करने लगी।
देश के लिए सब कुछ त्याग देने वाली बीना दास के दुखद अंत को लेकर एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी प्रोफेसर सत्यब्रत घोष ने अपने लेख ‘फ्लैशबैक: बीना दास, रीबॉर्न’ में लिखा कि किस प्रकार सडक़ के किनारे उनका जीवन समाप्त हो गया था। छिन्न-भिन्न अवस्था में लोगों को उनका शव मिला था। पुलिस ने खोज बीन कर पता किया कि वह शव क्रांतिकारी बीना दास का था। सही में ये बेहद अफसोस की बात है कि एक क्रांतिकारी को गुमनामी के अंधेरे में इस तरह मौत को गले लगाना पड़ा। हम सब का सर शर्म से झुक जाना चाहिए।
-डॉ राजू पाण्डेय
मैच के दौरान कई बार ऐसा होता है कि मैदान पर खेल रहे खिलाड़ियों से ज्यादा मैच देख रहे दर्शक उत्साहित-उत्तेजित हो जाते हैं; खिलाड़ी तो सौहार्द-संतुलन बनाए रखते हैं किंतु दर्शक आपस में उलझ पड़ते हैं, कभी कभी तो तनाव, आनंद या दुःख के अतिरेक के कारण उनकी धड़कनें हमेशा के लिए रुक जाती हैं।
राजनीति की दृष्टि से यह कोई असाधारण घटना नहीं थी कि नीतीश और तेजस्वी 2015 की भांति ही एक बार फिर एक साथ आए। यह वैसा ही गठजोड़ है जिसे 2015 की तरह मजबूत एवं परिवर्तन का संवाहक माना जा सकता है लेकिन जो 2017 में हुए अलगाव की भांति कमजोर और अल्पजीवी सिद्ध हो सकता है। बीजेपी की अपराजेयता और उससे भी अधिक देश के संवैधानिक ढांचे और सेकुलर चरित्र को तहस नहस करने के उसके खतरनाक इरादों से चिंतित मुझ जैसे अनेक बुद्धिजीवी इतने भर से खुशी के मारे सचमुच दीवाने हो गए और कल्पनालोक में विचरण करते करते कुछ असंभव दृश्यों की कल्पना करने लगे। उनकी इस हिस्टिरियाई प्रतिक्रिया को देखकर उन पर दया ही आई।
नीतीश के व्यक्तिगत गुणों की खूब चर्चा-प्रशंसा होने लगी और उन्हें परिवारवाद और भ्रष्टाचार जैसे अवगुणों से मुक्त, जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति के धुर विरोधी, सबको साथ लेकर चलने में सक्षम सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री और तेजस्वी को बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत किया गया।
नीतीश की राजनीतिक यात्रा को देखते हुए कोई सामान्य व्यक्ति भी यह बड़ी आसानी से कह सकता है कि वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि रखने वाले राजनेता हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे बड़ी आसानी से विचारधारा और नैतिकता के साथ समझौते कर सकते हैं।
यदि सबको साथ लेकर चलने का अर्थ किसी को भी साथ लेकर चलने जैसा लचीला बना दिया जाए तो हम अवसरवादियों को बड़ी आसानी से सर्वसमावेशी कह सकते हैं। नीतीश सबको साथ लेकर चलते रहे हैं लेकिन किसी व्यापक लक्ष्य अथवा परिवर्तन के लिए नहीं बल्कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए।
भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दो प्रकार के नेता देखने में आते हैं। एक वे जो राजनीति के पारंपरिक ढांचे और प्रचलित मुहावरे को आत्मसात कर उसमें कुशलता अर्जित करते हैं। दूसरे वे जो राजनीति का नया मुहावरा गढ़ते हैं और एक नई राजनीति का प्रारंभ करते हैं। नीतीश पहली श्रेणी में जबकि लालू दूसरी श्रेणी में आते हैं। लालू जैसा करिश्मा न रखते हुए भी नीतीश ने अपने राजनीतिक चातुर्य के बल पर उनसे कहीं लंबी पारी खेली है। राजनीति में चातुर्य और धूर्तता अथवा कुटिलता समानार्थी हो सकते हैं, यह हम सभी जानते हैं।
बिहार का हालिया घटनाक्रम भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव का सूत्रपात कर सकता था यदि नीतीश तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपते और स्वयं राष्ट्रीय राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो जाते। तेजस्वी की आरजेडी संख्याबल में नीतीश की जेडीयू से काफी आगे है तो है ही लेकिन जिस तरह से पिछले विधानसभा चुनावों में कुटिल राजनीति के जरिए तेजस्वी से जीत छीनी गई और लोगों में उनके प्रति सहानुभूति का भाव उत्पन्न हुआ वह उन्हें मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाता था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इतने वर्षों तक बिहार का शासन संभालने वाले नीतीश मुख्यमंत्री पद का मोह नहीं छोड़ पाए।
यह कहना कि नीतीश सभी दलों को स्वीकार्य और लोकप्रिय हैं परिस्थितियों को कुछ अधिक सरलीकृत करना है। दरअसल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने और इससे भी अधिक उसे यह अहसास दिलाने की इच्छा ने कि जो कुछ वह विरोधी दलों के राज्यों में करती रही है वह कितना अनुचित और तकलीफदेह है, कांग्रेस, वाम दलों और आरजेडी को नीतीश का समर्थन करने के लिए विवश कर दिया। शायद ये पार्टियां विपक्षी एकता का संदेश भी देना चाहती थीं। नीतीश भाग्यशाली हैं कि उन्हें बिना मांगे अनेक विपक्षी दलों का समर्थन परिस्थितिवश मिल रहा है।
नीतीश किसी ऐसे विपक्षी गठबंधन का चेहरा बन चुके हैं या बन सकते हैं जिसमें कांग्रेस शामिल है, यह आशा बहुत आसानी से यथार्थ रूप में परिणत होती नहीं लगती। कांग्रेस भाजपा के बाद एकमात्र ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है जिसकी उपस्थिति पूरे देश में है और स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री पद पर उसका नैसर्गिक अधिकार बनता है।
किंतु बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सचमुच राष्ट्रीय पार्टी की भांति चुनाव लड़ेगी और इतनी सीटों पर विजय प्राप्त करेगी कि वह उसे ऐसे किसी गठबंधन के सबसे बड़े दल का दर्जा दिला सकें? ऐसा तभी संभव है जब किसी एक चेहरे को सामने रखकर कांग्रेस चुनाव लड़े और वह भी कांग्रेसवाद को आधार बनाकर। नेतृत्वविहीन और भाजपा के नक्शेकदम पर चलने को लालायित कांग्रेस को चुनावी सफलता मिलना कठिन है। और यदि ऐसा हो गया तब भी इसके टूटने बिखरने की संभावना अधिक रहेगी। बीजेपी की मानसिकता वाले कांग्रेसी नेताओं को बीजेपी का चुम्बक अवश्य अपनी ओर खींचेगा।
कांग्रेस का अनिर्णय खत्म होता नहीं दिखता। यदि उत्तरप्रदेश में राहुल और अखिलेश का एक साथ आना एक भूल थी जिसे प्रियंका ने सुधारा तो फिर बिहार में कांग्रेस की भावी रणनीति क्या होनी चाहिए? क्या चुनावों में भी वह इसी गठबंधन के साथ जाएगी और पार्टी कार्यकर्ताओं के व्यापक असंतोष को आमंत्रित करती हुई एक जूनियर पार्टनर के रूप में चंद सीटों पर चुनाव लड़कर संतोष कर लेगी? क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का कांग्रेस को कोई फायदा मिला हो ऐसा कोई उदाहरण देखने में नहीं आता बल्कि गठबंधन के बाद उसका सिकुड़ता जनाधार और सीमित हुआ है। यह देखा गया है कि चुनावी गठजोड़ के बाद वोट ट्रांसफर अंकगणित के सवालों की तरह नहीं होता, राजनीति का गणित ठीक उल्टा होता है।
क्षेत्रीय दलों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे "केंद्र में कांग्रेस और राज्य में क्षेत्रीय दल" फॉर्मूले को कभी स्वीकारेंगे, हर क्षेत्रीय पार्टी संसद में मजबूत प्रतिनिधित्व चाहती है ताकि वह केंद्र पर दबाव बना सके। और फिर आजकल तो हर क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले है-चाहे वह शरद पवार हों या ममता बनर्जी हों या के. चंद्रशेखर राव हों या फिर आजकल चर्चित नीतीश कुमार हों। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव ने यह सिद्ध किया है कि अनेक विपक्षी दल कांग्रेस के साथ सहयोग करना नहीं चाहते। ऐसी परिस्थिति में विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस की अतिशय उदारता कहीं उसके लिए नुकसानदेह न हो जाए।
क्षेत्रीय राजनीति में सफलता अर्जित करने वाले क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं तीसरा मोर्चा बनने के मार्ग में बाधक हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में जब भाजपा देश का मूल चरित्र बदलने की ओर अग्रसर है तब विपक्षी दल तुच्छ निजी स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं में उलझे हुए हैं। लगता ही नहीं कि कभी कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम अथवा मुद्दों के आधार पर विपक्षी एकता की बात करेगा।
जुलाई 2017 से जुलाई 2022 वह कालखंड रहा है जब भाजपा सरकार ने अनेक ऐसे निर्णय लिए जो किसान और मजदूर विरोधी थे। भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। सबसे बढ़कर इन पांच सालों में देश के संवैधानिक ढांचे और साम्प्रदायिक सौहार्द को कमजोर करने वाले कितने ही सफल-असफल प्रयास हुए हैं। नीतीश की इनमें मौन सहभागिता रही है। इन 5 सालों में भाजपा ने प्रतिपक्षी दलों के अवसरवादी, भीरू,पदलोलुप, भ्रष्ट और महत्वाकांक्षी राजनेताओं को प्रलोभन अथवा दबाव के बल पर अपने वश में लेकर अनेक राज्य सरकारों को अस्थिर किया है और जनादेश का निरादर करते हुए अपनी पसंदीदा सरकारों का गठन किया है, कोई आश्चर्य नहीं है कि भाजपा के हाथों की कठपुतली बने ये नेता नीतीश को अपना आदर्श मानते रहे हों।
पूर्व के अनेक उदाहरणों की भांति नीतीश फिर अपनी कुर्सी बचाने के लिए एक नए गठबंधन में हैं,यह कोई असाधारण घटना नहीं है। असाधारण है परिवर्तनकामी बुद्धिजीवियों का उल्लास जो उन्माद की सीमा को स्पर्श कर रहा है। फासिस्ट विचारधारा के प्रसार को रोकना हम सबकी की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, किंतु इसके लिए पहली शर्त यह है कि हमारे पैर यथार्थ की जमीन पर टिके हों।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज की भारतीय राजनीति का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व यदि कोई कर सकता है तो वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ही हैं। आज की राजनीति क्या है? वह क्या किसी विचारधारा या सिद्धांत या नीति पर चल रही है? डाॅ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के बाद भारत में जो राजनीति चल रही है, उसमें सिर्फ सत्ता और पत्ता का खेल ही सबसे बड़ा निर्णायक तत्व है। क्या आज देश में एक भी नेता या पार्टी ऐसी है, जो यह दावा कर सके कि उसने अपने विरोधियों से हाथ नहीं मिलाया है? सत्ता का सुख भोगने के लिए सभी पार्टियों ने अपने सिद्धांत, विचारधारा और नीति को दरी के नीचे सरका दिया है।
नीतीशकुमार पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि वे जिन नेताओं और पार्टियों की भद्द पीटा करते थे, उन्हीं के साथ वे अब गलबहियां डाले हुए हैं। ऐसा वे पहली बार नहीं, कई बार कर चुके हैं। इसीलिए उन्हें कोई पल्टूराम और कोई बहुरूपिया भी कह रहे हैं। लेकिन इन लोगों को मैं संस्कृत की एक पंक्ति बताता हूं। ‘क्षणे-क्षणे यन्नावतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः’ याने जो रूप हर क्षण बदलता रहता है, वही रमणीय होता है। इसीलिए नीतीशकुमार हमारे सारे नेताओं में सबसे विलक्षण और सर्वप्रिय हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो क्या वे आठवीं बार मुख्यमंत्री बन सकते थे? क्या आप देश में नीतीश के अलावा किसी ऐसा नेता को जानते हैं, जो आठ बार मुख्यमंत्री बना हो? लालू और नीतीश 4-5 दशक से बिहार की राजनीति के सिरमौर हैं लेकिन आज भी वह देश का सबसे पिछड़ा हुआ प्रांत है। फिर भी भाजपा से कोई पूछे कि नीतीश से डेढ़-दो गुना सीटें जीतने के बाद भी उसने उन्हें मुख्यमंत्री का पद क्यों लेने दिया? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पटना में दरकिनार करनेवाले नीतीश को आपने मुख्यमंत्री क्यों मान लिया?
नीतीश के अप्रिय आर सी पी सिंह को केंद्रीय मंत्री बनाना और उसको नीतीश से तोड़ना क्या ठीक था? इसके पहले कि भाजपा नीतीश को गिरा देती, नीतीश ने भाजपा के नेहले पर दहला मार दिया। नीतीश और भाजपा की यह टूट हर दृष्टि से बेहतर है। नीतीश जातीय जनगणना कराने पर उतारु हैं और भाजपा उसकी विरोधी है। इस समय नीतीश की सरकार के साथ पहले से भी ज्यादा विधायक हैं। भाजपा के अलावा बिहार की लगभग सभी पार्टियों का समर्थन उसको प्राप्त है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अगले विधानसभा चुनाव में इस नए गठबंधन को बहुमत मिल ही जाएगा।
नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बन पाएंगे, यह तो निश्चित नहीं है लेकिन 2024 के आम चुनाव में समस्त विरोधी दलों को जोड़ने में सक्रिय भूमिका निभा सकते है। उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए विरोधी दल तैयार हो या न हों लेकिन उनका लचीला व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है कि वे राम और रावण दोनों के हमजोली हो सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रदीप कुमार
नीतीश कुमार एक बार फिर सुर्खय़िों में हैं। आखिर उन्होंने वह कर दिखाया, जिसकी चर्चा पिछले कई महीनों से राजनीतिक गलियारे में चल रही थी।
चर्चा यही थी कि नीतीश कुमार फिर से पाला बदलने जा रहे हैं और इसकी तस्दीक तो उसी दिन हो गई थी कि जब जनता दल यूनाइटेड के अंदर आरसीपी के कथित भ्रष्टाचार की खबर आने के बाद आरसीपी सिंह ने जनता दल यूनाइटेड और नीतीश कुमार पर हमला किया।
आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार पर हमला करते हुए दो ऐसी बातें कहीं जो खुल्लम खुल्ला नीतीश के विरोधी भी नहीं करते हैं। उन्होंने कहा, ‘नीतीश कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जन्म तक नहीं बन सकते।’
इसके अलावा आरसीपी सिंह ने कहा, ‘जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज है। आप लोग तैयार रहिए, एकजुट रहिए।चला जाएगा।’
ये दो बातें हैं जिसको लेकर नीतीश कुमार हमेशा से कहीं ज़्यादा सतर्कता बरतते रहे हैं। राजनीतिक तौर पर उनकी महत्वाकांक्षा देश के शीर्ष पद पर रही है। यही वजह है कि जनता दल यूनाइटेड पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने बीजेपी से गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।
नीतीश कुमार की राजनीति को नजदीक से जानने वाले कई नेताओं ने तस्दीक की है प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने परे नीतीश कुमार प्रफुल्लित होते रहे हैं। आरसीपी सिंह भी नीतीश कुमार के बरसों तक सबसे करीब रहे हैं, जाहिर होता है कि उनके मनोभावों को समझते हुए ही आरसीपी सिंह ने ये निशाना साधा था।
जैसा कि उम्मीद थी कि उनके इन बयानों का जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने जवाब दिया। ललन सिंह के प्रेस कांफ्रेंस में भी दो ऐसी बातें हुईं जिससे यह तय हुआ कि बीजेपी और जनता दल यूनाइटेड की राह जुदा होने वाली है।
ललन सिंह ने पहली बात यही कही कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान चिराग पासवान को हमारे नुकसान के लिए खड़ा किया गया था और अब हमारी पार्टी को तोडऩे की कोशिश की गई है। इसकी चर्चा जनता दल यूनाइटेड के पटना में हुई विधायकों और सांसदों की बैठक में भी हुई। नीतीश कुमार ने खुद अपने नेताओं को संबोधित करते हुए कहा कि हमारा लगातार अपमान किया गया, हमारी पार्टी को लगातार कमज़ोर करने की कोशिश की गई।
जनता दल यूनाइटेड से जुड़े सूत्रों के मुताबिक च्बीजेपी के एक नेता का आरसीपी सिंह के साथ एक ऑडियो बातचीत ने इस अलगाव को बढ़ावा दिया। इस बातचीत में कथित तौर पर आरसीपी सिंह को जनता दल यूनाइटेड में कुछ करने को कहा जा रहा है।’
हालांकि इस तमाम घटनाक्रम को लेकर बीजेपी के किसी बड़े नेता का कोई बयान सामने नहीं आया है। नई दिल्ली एयरपोर्ट से पटना लौटते हुए उड़े हुए चेहरे के साथ शाहनवाज़ हुसैन ने कहा, ‘हमारी पार्टी किसी को नहीं तोड़ती है, हमलोग केवल अपनी पार्टी को मजबूत करते हैं।’
इससे पहले बिहार में महीने की शुरुआत में बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा के एक बयान को अहम माना रहा था जिसमें उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में सभी क्षेत्रीय दल खत्म हो जाएंगे। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना को दो गुटों में विभक्त किया था, उसको लेकर भी जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार सशंकित हो गए थे। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये सब अचानक से हुआ है। बिहार की राजनीति पर लंबे समय से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘आरसीपी सिंह पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है, लेकिन नीतीश कुमार इस गठबंधन से बाहर निकलने की पोजिशनिंग लंबे समय से कर रहे थे।’
दरअसल 2020 विधानसभा चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार के लिए लगातार असहज स्थिति बनी हुई थी। पार्टी के अंदर भी और उस सरकार के अंदर भी, जिसके वे मुखिया थे।
असहज थे नीतीश कुमार
सरकार का मुखिया होने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों, विधानसभा अध्यक्ष और नेताओं का उन पर लगातार दबाव दिखा। यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक़ जैसे मुद्दों की चर्चा नीतीश कुमार की राजनीति को असहज करने जैसी ही स्थिति थी। यही वजह है कि गठबंधन से अलग होने से पहले अपने नेताओं के सामने नीतीश कुमार ने कहा भी कि बीजेपी ने अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा था।
इसकी शुरुआत इस सरकार के बनने के तुरंत बाद शुरू हो गई थी, जब बीजेपी ने नीतीश कुमार के बेहद करीबी सुशील कुमार मोदी को बिहार की सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। दरअसल नीतीश कुमार और सुशील कुमार की आपसी अंडरस्टैंडिंग ऐसी थी कि वे एक दूसरे की जरूरत को अच्छी तरह समझते थे।
बिहार बीजेपी के कई नेताओं ने 2020 के चुनाव के दौरान भी माना था कि सरकार आएगी लेकिन ये जोड़ी आगे नहीं रहेगी। सुशील कुमार मोदी को बाद में बीजेपी ने राज्य सभा भेज तो दिया लेकिन उनकी कमी बिहार बीजेपी को सोमवार को खली होगी।
सोमवार को बीजेपी नीतीश कुमार से संपर्क करने की कोशिश कर रही थी और वे फोन लाइन पर नहीं आ रहे थे, अगर सुशील कुमार मोदी बिहार की राजनीति में सक्रिय होते तो संपर्क करना आसान होता। सरकार बनने के बाद विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा के साथ नीतीश कुमार की नोंकझोंक को दुनिया भर में लाइव देखा गया था।
जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार ने अलग रास्ता लिया, लेकिन तब बिहार की बीजेपी ने राष्ट्रीय नेतृत्व से अलग रास्ता लेकर गठबंधन को बनाए रखने की कोशिश की।
इसके बाद ही नीतीश कुमार ने इफ़्तार पार्टी में तेजस्वी यादव के घर पहुंचे और वहां कुछ दूर पैदल चलकर उन्होंने बीजेपी को एक संकेत दे दिया था। इसके बाद लालू प्रसाद यादव के बीमार होने पर नीतीश कुमार ना केवल उन्हें देखने गए बल्कि मीडिया में घोषणा की थी राज्य सरकार लालू जी के इलाज का सारा ख़र्च उठाएगी।
नीतीश कुमार के बीजेपी से अलग होने की इस कहानी में एम्स अस्पताल की भी अहम भूमिका रही है। जहां लालू प्रसाद यादव अपना इलाज करा रहे थे और वहीं जनता दल यूनाइटेड के वरिष्ठ नेता वशिष्ठ नारायण सिंह भी इलाज कराने पहुंचे थे। इन दो समाजवादी धड़े के नेताओं की आपसी मुलाकातों ने महागठबंधन को एकजुट करने में अहम भूमिका निभायी। वशिष्ठ नारायण सिंह उन वरिष्ठ नेताओं में हैं जो राजनीतिक मुद्दों पर नीतीश कुमार से सलाह मशविरा करते रहे हैं।
यूपीए में बढ़ेगी भूमिका?
वहीं दूसरी तरफ़ पार्टी के अंदर, आरसीपी सिंह की वजह से पार्टी का संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा था। पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह के साथ उनके रिश्तों में तल्खी आती जा रही थी। कभी नीतीश सरकार में आरसीपी टैक्स का जिक्र तेजस्वी यादव ने भी किया था। उन्हीं आरसीपी सिंह पर पार्टी की ओर से आर्थिक अनियमितता का आरोप भी है, जिसके जवाब में उन्होंने पार्टी से ही इस्तीफ़ा दे दिया है।
नीतीश कुमार बार-बार जातिगत जनगणना की हिमायत क्यों कर रहे हैं
इन सबके बाद ही नीतीश कुमार ने मंगलवार, नौ अगस्त को एनडीए का साथ छोड़ते हुए फिर से महागठबंधन का दामन थाम लिया है। नौ अगस्त को राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंपने के बाद नीतीश कुमार सीधे लालू-तेजस्वी यादव के घर पहुंचे और कहा कि हमने एनडीए को छोडऩे का फ़ैसला कर लिया था। उन्होंने यह भी कहा कि 2017 में महागठबंधन से अलग होने का उन्हें अफ़सोस है और वे उसे भूल करके आगे बढऩे को तैयार हैं।
कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। नीतीश कुमार के इसी बयान के साथ बिहार में राजनीति का एक चक्र पूरा हुआ। 2015 में महागठबंधन की सरकार के वे मुखिया बने थे। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने आपस में मिलकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के विजय रथ को रोक दिया था।
लेकिन 20 महीने के बाद तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उन्होंने जुलाई, 2017 में आनन फ़ानन में राजद का हाथ छोड़ते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया था। इसके बाद लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव ने कई मौकों पर उन्हें ‘पलटू राम’ या ‘पलटू चाचा’ कहा था।
लेकिन अब एक बार फिर से दोनों एक साथ हैं। इस महाठबंधन में कांग्रेस की भूमिका भी बेहद अहम है। बीजेपी से अलग होने से पहले नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से कम से कम तीन बार लंबी बातचीत की है। राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा है कि आने वाले दिनों में यूपीए में नीतीश कुमार की अहम भूमिका होने वाली है।
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार जयशंकर गुप्ता कहते हैं, ‘महागठबंधन के पिछले समय में भी यह चर्चा चली थी कि यूपीए का पुनर्गठन किया जाए। हालांकि तब उन्होंने अपने लिए कोई भूमिका नहीं मांगी थी। लेकिन इस बार संभव है कि उन्हें कनवेनर जैसा पद दिया जाए।’
राजनीतिक चर्चाओं के मुताबिक यूपीए कनवेनर के तौर पर नीतीश कुमार 2024 में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का चेहरा भी हो सकते हैं और इसके लिए वे बिहार की कमान तेजस्वी यादव को थमा सकते हैं। नीतीश कुमार एक बार कह भी चुके हैं कि वे सब कुछ रह चुके हैं, बस एक पद है बाक़ी है। उपेंद्र कुशवाहा के बयान से साफ़ है कि ये पद प्रधानमंत्री का ही है।
अब तक का राजनीतिक सफऱ
नीतीश कुमार की अपनी राजनीति लालू प्रसाद यादव के सहयोगी के तौर पर भी विकसित हुई थी और इसकी शुरुआत 1974 के छात्र आंदोलन से हुई थी। 1990 में लालू प्रसाद यादव जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तब नीतीश कुमार उनके अहम सहयोगी थी। लेकिन जार्ज फर्नांडीस के साथ उन्होंने 1994 में समता पार्टी बना ली।
पहली बार 1995 में नीतीश कुमार की समता पार्टी ने लालू प्रसाद यादव के राज के जंगलराज को मुद्दा बनाया था, तब पटना हाईकोर्ट ने राज्य में बढ़ते अपहरण और फिरौती के मामलों पर टिप्पणी करते हुए राज्य की व्यवस्था को जंगलराज बताया था। इसी मुद्दे पर विपक्ष ने 2000 और 2005 का चुनाव लड़ा, 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी।
नीतीश कुमार की राजनीतिक ताक़त
2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद नीतीश कुमार बीजेपी से अलग हो गए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें महज दो सीटें मिली थीं, इसके बाद 2015 में वे राष्ट्रीय जनता दल के साथ एकजुट हुए। 20 महीने बाद वे फिर से बीजेपी के साथ गए और अब एक बार फिर से आरजेडी के साथ हो गए हैं।
दरअसल, व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार और सुशासन बाबू की छवि वाले नीतीश कुमार ने 2005 से पहले बिहार के अत्यंत पिछड़े समुदाय और दलितों का एक बड़ा वोट बैंक एकजुट करने में कामयाबी हासिल की और वह लगातार उनके साथ है।
नीतीश कुमार अपने इस वोट बैंक को लेकर कितने सजग हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे जब भी अपनी पार्टी के पदाधिकारियों से मिलते हैं या फिर भरोसेमंद अफसरों को दिशा निर्देश दे रहे होते हैं, तो हमेशा याद दिलाते हैं कि बिहार के अत्यंत पिछड़े समुदाय का ख्याल रखिए।
नीतीश कई बार ये भी कहते हैं कि आप लोगों को मालूम भी है कि इनकी आबादी बिहार की कुल आबादी की एक तिहाई है, हालांकि यह अभी तक रहस्य ही है कि इस वर्ग की आबादी का हिस्सा कितना है।
लेकिन एक मोटा आंकलन यह बताता है कि बिहार की आबादी में करीब एक चौथाई आबादी इसी वर्ग की है, इसमें करीब सौ जातियों का समूह है, जिसे नीतीश कुमार ने साधकर ना केवल एकजुट किया बल्कि बीते 17 सालों से बिहार की सत्ता पर इनकी मदद से काबिज रहे और इसके चलते ही वे ऐसे राजनीतिक जादूगर साबित हुए हैं जिनकी पालकी बीजेपी और आरजेडी- दोनों उठाने के लिए तैयार हैं।
और इसी वजह से यह सवाल भी बेमानी है कि पिछली बार महागठबंधन का साथ छोडऩे की वजहें क्या थीं और इस बार बीजेपी का साथ छोडऩे की वजहें क्या हो सकती हैं। (https://www.bbc.com/hindi)
पुस्तक समीक्षा
लक्ष्मण सिंह देव
Gita press and the making of hindu india. अक्षय मुकुल द्वारा गहन शोध के बाद लिखी गयी किताब है। पुस्तक का मूल विषय है कि कैसे गोरखपुर की गीता प्रेस ने वर्तमान भारतीय हिन्दू धर्म को प्रभावित किया? नोट-किताब में मारवाड़ी शब्द का प्रयोग राजस्थान मूल के या राजस्थानी बनियों के लिए इस्तेमाल किया गया है। मारवाड़ी वस्तुत: एक भाषायी एवम भौगोलिक पहचान है। अतैव ध्यान दें।
1926 में हुई मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के अधिवेशन में घनश्याम दास बिरला ने आत्माराम खेमका के भाषण का विरोध किय। आत्माराम खेमका का कहना था कि हिन्दू धर्म शाश्वत है एवं भारत की मुक्ति केवल हिन्दू धर्म के सिद्धांतों पर चल कर हो सकती है। जबकि इसी अधिवेशन में घनश्याम दास बिरला ने बनियों को समय के साथ बदल जाने के लिए कहा। घनश्याम ने अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया, खर्चीली शादियों की आलोचना की।
बाद में पता चला कि खेमका का भाषण हनुमानदास पोद्दार ने लिखा था। हनुमान दास पोद्दार, कोलकाता के एक मारवाड़ी जयदयाल गोयन्दका द्वारा स्थापित धार्मिक प्रकाशन का हेड था। 19 वीं शताब्दी में मारवाडिय़ों को व्यापार में खूब सफलता मिली, दूसरों से ना घुलन- मिलने के कारण मारवाडिय़ों पर खूब चुटकुले बने और उनकी छवि कुछ-कुछ यूरोपीय यहूदियों जैसी हो गई। निसंदेह इसके पीछे ईष्र्या की भावना भी रही होगी।1927 राम रख सहगल द्वारा प्रकाशित पत्रिका चांद के मारवाड़ी अंक में मारवाडिय़ों की बहुत आलोचना की गई। उन्हें और उनकी स्त्रियों को सेक्स का भूखा बताया गया। साथ ही गीता प्रेस को चलाने वाली संस्था गोविंद भवन में होने वाले एक सेक्स स्कैंडल का भी जिक्र किया गया।
बनिये वर्णाक्रम में तीसरे स्थान पर हैं।जब मारवाडियो ने खूब पैसा कमा लिया। कहीं-कहीं बनियों के पास बड़ी जमींदारियां आयी उन्हें राजा की उपाधि भी मिली तो उन्हेंअपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने की चिंता हुई। इसलिए जयदयाल गोयन्दका नामक मारवाड़ी ने 1925 में गीता प्रेस की स्थापना गोरखपुर में की। गीता प्रेस का मकसद हिन्दू धर्म से सम्बंधित साहित्य का प्रकाशन करना था। इसके अतिरिक्त वहां से एक कल्याण नामक पत्रिका भी निकलती है। गीता प्रेस का अधिकतर साहित्य पुराणों पर आधारित हिन्दू धर्म के बारे में है। वैदिक सनातन धर्म की उसने अवहेलना की।गीता प्रेस ने समय समय पर प्रगतिशील बातें भी प्रकाशित की। जैसे गांधी जी के कई आध्यात्मिक आलेख प्रकाशित किये। और उनकी आलोचना करते हुए लेख भी छापे।रूसी रहस्यवादी निकोलस रोरिख के लेख भी गीता प्रेस ने प्रकाशित किये।
1939 में गोरखपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगे में गीता प्रेस के स्टाफ ने हिस्सा लिया। रामचरित मानस , गीता एवम अन्य गर्न्थो के अलावा अन्य विचार कल्याण नामक पत्रिका में प्रकाशित होते है। गीता प्रेस की नजर में हिन्दू कोड बिल, सेकुलरिज्म, बहुत बड़ी बुराइयां थी। गीता प्रेस ने दलितों के मंदिर प्रवेश का भी विरोध किया। गीता प्रेस ने हिन्दू समाज को नैतिक निर्देशन देने का काम भी किया। स्त्रियों की आचार संहिता छपवाई। और महिलाओं के लिए कहा कि उन्हें घर संभालना चाहिए एवं आधुनिक शिक्षा न लेकर केवल संस्कृत विद्यापीठों में पढऩा चाहिए। किशोरी दास वाजपेयी ने लिखा कि गणित जैसे विषय मे मास्टर डिग्री ली हुई लड़कियां उदास रहती हैं और घर गृहस्थी के काम की नही रहती, विवाह के लिए अनफिट होती हैं।
1928 में मॉस्को में हुए एंटी गॉड सम्मेलन का गीता प्रेस ने पुरजोर विरोध किया। गीता प्रेस ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त कि कम्युनिज्म जैसा राक्षसी विचार भारत मे भी बढ़ रहा है।गीता प्रेस ने कहा कि हिन्दू धर्म वस्तुत: कम्युनिज्म , समाजवादी ही है।1959 में कल्याण में कम्युनिज्म केपक्ष में एक आर्टिकल रूसी विद्वान नेस्तरेन्को का भी छप। कल्याण के कुछ अंक काफी प्रगतिशील भी होते थे। उसमें मुस्लिम और ईसाई आध्यात्मिक विभूतियों के भी परिचय होते थे, जिस कारण कल्याण को कट्टर हिंदुओं का विरोध भी झेलना पड़ा। पचास के दशक में गीता प्रेस के मुखिया हनुमान प्रसाद पोदार ने हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर डॉक्टर अंबेडकर के खिलाफ काफी कुछ लिखा और साफ साफ कहा कि कैसे एक अछूत तय कर सकता है कि हिन्दू धर्म कैसे चले?
गीता प्रेस दलितों के मंदिर प्रवेश के पक्ष में नही रही। उन्होंने कहा कि दलितों के अलग मंदिर होने चाहिए।बीच बीच में गीता प्रेस आरएसएस का भी समर्थन करती थी। गीता प्रेस के कर्ता धृताओ ने अपनी सदस्यता केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए सुरक्षित रखी थी। और राजस्थान में गुरुकुल भी खोले जो केवल ऊपरी 3 वर्णों के बालको के लिए थे।गीता प्रेस की आज के हिन्दू धर्म को आकार देने में बड़ी भूमिका रही है।
गीता प्रेस वस्तुत: कुछ राजस्थानी बनियों का ऐसा प्रोजेक्ट रहा है जिसका मकसद है बनियों को धर्म रक्षक साबित करना और वर्णाक्रम में बेहतर स्थिति में ले आना। जो पैसा तो ग्लोबल और सभी समुदायों से बिजनेस करके कमा रहे थे लेकिन दूसरों को संकुचित बनाना चाह रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका और पाकिस्तान की विकट आर्थिक स्थिति पिछले कुछ माह से चल ही रही है और अब बांग्लादेश भी उसी राह पर चलने को मजबूर हो रहा है। जिस बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति दक्षिण एशिया में सबसे तेज मानी जा रही थी, वह अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश के सामने पाकिस्तान की तरह झोली फैलाने को मजबूर हो रहा है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने भी ढाका का खाली चक्कर लगा लिया लेकिन इस समय बांग्लादेश इतने बड़े कर्ज में डूब गया है कि 13 हजार करोड़ रु. का कर्ज चुकाने के लिए उसके पास कोई इंतजाम नहीं है।
प्रधानमंत्री शेख हसीना ने ताइवान के मसले पर चीन को मक्खन लगाने के लिए कह दिया कि वह ‘एक चीन नीति’ का समर्थन करता है लेकिन वांग यी ने अपनी जेब जरा भी ढीली नहीं की। अंतरराष्ट्रीय कर्ज चुकाने और विदेशी माल खरीदने के लिए हसीना सरकार ने तेल पर 50 प्रतिशत टेक्स बढ़ा दिया है। रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज़ों के दाम कम से कम 10 प्रतिशत बढ़ गए हैं।
लोगों की आमदनी काफी घट गई है। कोरोना की महामारी ने बांग्लादेश के विदेश व्यापार को भी धक्का पहुंचाया है। बांग्ला टका याने रुपए का दाम 20 प्रतिशत गिर गया है। इस देश में 16-17 करोड़ लोग रहते हैं लेकिन टैक्स भरनेवाले की संख्या सिर्फ 23 लाख है। इस साल तो वह और भी घटेगी। अभी तक ऐसा लग रहा था कि पूरे दक्षिण एशिया में भारत के अलावा बांग्लादेश ही आर्थिक संकट से बचा है, लेकिन अब वहां भी श्रीलंका की तरह जनता ने बगावत का झंडा थाम लिया है।
ढाका के अलावा कई शहरों में हजारों लोग सडक़ों पर उतर आए हैं। इसमें शक नहीं कि विरेाधी नेता इन प्रदर्शनों को खूब हवा दे रहे हैं लेकिन असलियत यह है कि श्रीलंका और पाकिस्तान की तरह बांग्ला जनता भी अपने ही दम पर अपना गुस्सा प्रकट कर रही है। बांग्लादेश की मदद के लिए उससे गाढ़ी मित्रता गांठनेवाला चीन भी दुबका हुआ है लेकिन शेख हसीना की सही सहायता इस समय भारत ही कर सकता है।
पिछले 30 साल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पाकिस्तान ने 12 बार, श्रीलंका ने 6 बार और बांग्लादेश ने सिर्फ 3 बार कर्ज लिया है। भारत ने इन तीन दशकों में उससे कभी भी कर्ज नहीं मांगा है। भारत के पास विदेशी मुद्रा कोश पर्याप्त मात्रा में है।
वह चाहे तो पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को अराजकता से बचा सकता है। इस समय इन देशों को धार्मिक आधार पर अपने परिवार का बतानेवाले कई मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्र भी कन्नी काट रहे हैं। ऐसी विकट स्थिति में भारत इनका त्राता सिद्ध हो जाए तो पूरे दक्षिण और मध्य एशिया के 16 राष्ट्रों को एक बृहद् परिवार में गूंथने का काम भारत कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
विश्व आदिवासी दिवस विशेष
-डॉ राजू पाण्डेय
जब विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर अनेक आयोजन हो रहे हैं तब पता नहीं क्यों उस घटना की ओर ध्यान जा रहा है जिसे भारतीय मीडिया में अपवाद स्वरूप ही चर्चा के योग्य माना गया। कुछ समय पूर्व पोप फ्रांसिस ने 19वीं शताब्दी से 1970 के दशक तक संचालित सरकारी-वित्त पोषित ईसाई स्कूलों में कनाडा के 150000 से भी अधिक मूल निवासियों को जबरन उनके घरों और सांस्कृतिक परिवेश से दूर रखे जाने के लिए क्षमा याचना की थी। कनाडा सरकार ने यह स्वीकारा था कि इन स्कूलों में इन मूल निवासियों का जमकर शारीरिक और यौन शोषण हुआ था, बड़ी संख्या में इनकी मौतें भी हुईं जिन्हें छिपाकर रखा गया था। बहुत सारे मूल निवासी अब तक इस मानसिक आघात से उबर नहीं पाए हैं। ईसाई धर्म को श्रेष्ठ समझने वाले धर्म प्रचारक और सरकार इन्हें ईसाईयत के रंग में ढालकर सभ्य बनाने के लिए अमानवीय अत्याचार करते रहे।
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमरीका की सरकारें क्रमशः फरवरी 2008, जून 2008 और दिसंबर 2009 में आदिवासियों पर किए गए अत्याचार के लिए माफी मांग चुकी हैं यद्यपि इन देशों में मूल निवासियों की संख्या बहुत कम है और चुनावों में इनके मुद्दे जीत हार का निर्धारण नहीं करते। 2016 में सत्तासीन होने के बाद ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन ने ताइवान के मूल निवासियों से क्षमा याचना करते हुए कहा कि "पिछले 400 वर्षों में ताइवान में जिसका भी शासन रहा है उसने मूल निवासियों के अधिकारों का खूब हनन किया है। इन पर सशस्त्र आक्रमण किए गए हैं और इनकी जमीन छीनी गई है। मैं सरकार की ओर से इन मूल निवासियों से क्षमा याचना करती हूँ।"
भारत के आदिवासी इतने सौभाग्यशाली नहीं हैं कि हमारे धर्म प्रचारक और सरकार इनसे क्षमा याचना करें। अभी तो हमारे देश में इनकी मूल पहचान मिटाकर इन्हें हिन्दू सिद्ध करने का अभियान जोरों पर है। सरकार की मौन सहमति और संरक्षण इस अभियान के साथ हैं।
हर धर्म प्रचारक को यह लगता है कि उसका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और यह उसका धार्मिक कर्त्तव्य है कि वह अधिकाधिक लोगों को अपने धर्म का अनुयायी बनाए। भोले भाले आदिवासी इन धर्म प्रचारकों के निशाने पर पहले आते हैं।
धर्म प्रचार की आधुनिक रणनीतियां सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण और प्रयोगों का अवलंबन लेती हैं। कभी धर्म प्रचारक सेवक,शिक्षक अथवा चिकित्सक का बहुरूप धर कर आता है और इन आदिवासियों को सशर्त सुविधाएं और राहत प्रदान कर उनका विश्वास अर्जित करने की कोशिश करता है। वह उन्हें उनके पारंपरिक अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाते दिलाते अपने धर्म के अंधविश्वासों के भंवर में फंसा देता है। कभी वह दानदाता का स्वांग भरता है और रोटी,कपड़ा,मकान जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर उन्हें आभारी और कृतज्ञ बना देता है, फिर धीरे से जब वह अपने धर्म को अपनाने का प्रस्ताव रखता है तो मिलने वाला उत्तर सकारात्मक ही होता है।
धर्म प्रचार की दूसरी रणनीति बल प्रयोग, सामाजिक दबाव तथा छल कपट पर आधारित होती है। विश्व के अनेक देशों में तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन के लंबे इतिहास की भयानकता से हम सभी अवगत हैं। अपना धर्म न स्वीकारने अथवा इसे त्याग कर दूसरा धर्म अपनाने पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी और भयादोहन भी धर्म प्रचारकों के तरकश के अचूक तीर हैं।
बहरहाल हर धर्म प्रचारक प्रकृतिपूजक आदिवासियों के पारंपरिक धर्म और विश्वासों को खारिज करता है,उन्हें हीन और त्याज्य बताता है और अपने धर्म को उन पर इस तरह थोपता है कि वह उन्हें थोपा हुआ न लगे। इसके लिए वह प्रायः उनकी लोकभाषा, लोक संगीत और लोक साहित्य में विद्यमान मिथकों एवं प्रतीकों को बहुत धूर्ततापूर्वक अपने धर्म के अनुकूल बनाता है।
सत्ता का संरक्षण मिलने पर धर्म प्रचारक बेखौफ और निडर हो जाते हैं एवं आदिवासियों की अद्वितीयता के अपहरण की उनकी घृणित कोशिशें परवान चढ़ती हैं।
अंग्रेजों के शासनकाल में ईसाई मिशनरियों ने इन आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनाई थी और अब कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां सत्ता का संरक्षण पाकर नई ऊर्जा के साथ आदिवासियों के हिंदूकरण के अभियान में जुट गई हैं। ईसाई मिशनरियों की तुलना में कट्टर हिंदुत्व के यह हिमायती अधिक आक्रामक,हिंसक और प्रतिशोधी हैं। मोहरा बना सरल हृदय आदिवासी समुदाय धर्म प्रचारकों के आपसी संघर्ष में पिसने के लिए अभिशप्त है।
हमारा संविधान आदिवासियों की अलग पहचान को स्वीकारता है।जनगणना में भी इन्हें उपजातिवार अंकित किया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम आदिवासियों पर लागू नहीं होते। इन मूल निवासियों के रहवास के भौगोलिक क्षेत्रों को चिह्नांकित कर इन्हें जनजातीय क्षेत्रों की संज्ञा दी गई है और इनके लिए पांचवीं और छठी अनुसूची के माध्यम से अलग प्रशासनिक व्यवस्था भी की गई है जिससे आदिवासियों की पारंपरिक विरासत एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो सके। संविधान की इसी भावना के आधार पर पेसा एक्ट जैसे कानून भी कालांतर में बनाए गए हैं।
किंतु कट्टर हिंदुत्व के हिमायतियों को यह संवैधानिक व्यवस्था मंजूर नहीं है। वे आदिवासी शब्द को बड़ी चतुराई से वनवासी शब्द द्वारा प्रतिस्थापित कर देते हैं। आदिवासियों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले अनेक संगठन वनवासी शब्द पर ही गहरी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों के अनुसार भारत के आदिवासी अनार्य हैं और आर्यों के पहले से ही भारत में निवास करते रहे हैं। आदिवासी आर्यन नहीं बल्कि द्रविड़ या ऑस्ट्रिक भाषा समूह से संबंधित हैं। आदिवासियों की अपनी भाषा, संस्कृति और धार्मिक परंपराएं हैं जो हिन्दू धर्म से भिन्न हैं। आदिवासी प्रकृति पूजक हैं और इनकी धार्मिक परंपराएं, पूजन विधि,धार्मिक उत्सव आदि सभी अविभाज्य रूप से प्रकृति से संबंधित हैं। आदिवासियों के विविध संस्कारों यथा जन्मोत्सव, अंतिम क्रिया, श्राद्ध तथा विवाह आदि की भिन्नता और विशिष्टता सहज स्पष्ट है। आदिवासी हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था एवं दहेज आदि अनेक कुरीतियों से सर्वथा मुक्त हैं। आदिवासी स्वर्ग एवं नरक की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते। अपितु वे अपने मृत पूर्वजों की आत्माओं को अपने सन्निकट अनुभव करते हैं। इनकी अपनी न्याय प्रणाली एवं विधि व्यवस्था है।
यदि कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां आदिवासी शब्द को स्वीकार कर लेंगी तो उनका यह दावा अपने आप खंडित हो जाएगा कि वैदिक सभ्यता की स्थापना करने वाले आर्य भारत के मूल निवासी हैं।
आदिवासियों को हिन्दू धर्म के अधीन लाने के लिए एक संगठित अभियान चल रहा है जो वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय,सेवा भारती, विवेकानंद केंद्र, भारत कल्याण प्रतिष्ठान तथा फ्रेंड्स ऑफ ट्राइबल सोसाइटी आदि अनेक संगठनों द्वारा संचालित है। ये संगठन यह प्रचार करते हैं कि आदिवासियों का हिंदूकरण राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है। इनके मतानुसार ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे कथित धर्मांतरण पर रोक लगाना और धर्मांतरित आदिवासियों को वापस हिन्दू धर्म के अधीन लाना देश की अखंडता के लिए बहुत जरूरी है।
यह विचारधारा न केवल ईसाइयों की राष्ट्र भक्ति पर संदेह करती है बल्कि अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के इच्छुक आदिवासियों को भी संदिग्ध मानती है। जैसा विहिप के वरिष्ठ पदाधिकारी रह चुके मोहन जोशी ने एक अवसर पर कहा था- "हिन्दू धर्म के प्रति अनादर,राष्ट्र के प्रति अनादर की भावना उत्पन्न करता है। धर्म परिवर्तन का अर्थ है राज्य के प्रति अपनी निष्ठा में भी परिवर्तन।" यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मोहन जोशी का राष्ट्र, संकीर्ण हिन्दू राष्ट्र है, संविधान द्वारा संचालित उदार और सर्वसमावेशी भारत नहीं।
कट्टर हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा अपनाई गई हिन्दू धर्म के प्रचार की विधियां ईसाई मिशनरियों से उधार ली गई हैं। ईसाई मिशनरी जिस प्रकार धर्म प्रचार के लिए आदिवासी युवाओं को प्रशिक्षित करती है उसी प्रकार सेवा भारती रामकथा के प्रसार के लिए आदिवासी युवक युवतियों हेतु अयोध्या में 8 माह का प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती है। इसी तरह एकल विद्यालय का प्रयोग भी सेवा-शिक्षा-सहयोग के बहाने हिन्दू धर्म के प्रचार की वैसी ही विधि है जैसी ईसाई धर्म प्रचारक पहले ही अपना चुके हैं।
इन संगठनों द्वारा संचालित विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा न केवल ईसाई अल्पसंख्यकों बल्कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति भी आदिवासियों के मन में संदेह और घृणा उत्पन्न करने में योगदान देती है। जैसे जैसे यह प्रचार अपनी जड़ें जमाने लगता है वैसे वैसे आदिवासी बहुल इलाकों में धार्मिक और साम्प्रदायिक टकराव की स्थितियां उत्पन्न होने लगती हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण चुनावों में बीजेपी की कामयाबी में योगदान देता है। आने वाले वर्षों में जब संकीर्ण राष्ट्रवाद और हिंसक हिंदुत्व के पैरोकार इन मासूम आदिवासियों के मन में ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत का जहर भरने में कामयाब हो जाएंगे तब हम साम्प्रदायिकता और हिंसा के नए ठिकानों को रूपाकार लेते देखेंगे। हिन्दू-ईसाई और हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के इन नए केंद्रों में आदिवासियों को हिंसा एवं नकारात्मकता की अग्नि में झोंका जाएगा।
आदिवासियों के धार्मिक ध्रुवीकरण ने व्यापक आदिवासी एकता की संभावना को समाप्त प्राय कर दिया है। धर्म के आधार पर मतदान करने वाला आदिवासी समुदाय राजनीतिक दलों को भी पसंद है क्योंकि इस तरह वे भावनात्मक मुद्दों को हवा देकर आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं से किनारा कर सकते हैं। आदिवासियों को धर्म की अफीम के नशे का शिकार बना कॉरपोरेट लूट भी निर्बाध रूप से की जा सकती है।
आदिवासियों का आवास वे वन क्षेत्र हैं जिनके नीचे कोयले, माइका और बॉक्साइट आदि के भंडार हैं जिनके दोहन पर पूंजीपतियों की नजर है। विस्थापन आदिवासियों की नियति है। विस्थापन का दंश भुक्तभोगी ही जानते हैं। विस्थापन किसी स्थान विशेष से दूर हटा दिया जाना ही नहीं है। यह एक जीवन शैली का अंत भी है। यह अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत से जबरन बेदखल कर दिया जाना भी है। संविधान तब कितना असहाय बन जाता है जब संवैधानिक प्रावधानों को बेमानी बनाकर सत्ता अपने कॉरपोरेट मित्रों के उद्योगों के मार्ग में बाधक बन रहे आदिवासियों को रास्ते से हटा देती है। आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों को मजबूत बनाने और फिर उनमें सेंध लगाने की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। आदिवासी हितों से जुड़े कानूनों को मजबूत बनाना वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा है और इन कानूनों को व्यावहारिक रूप से अप्रभावी बना देना सत्ता के असली कॉरपोरेट परस्त चरित्र का मूल गुण है। नए उद्योगों की स्थापना के लिए पर्यावरणीय प्रभाव, सामाजिक प्रभाव, पुनर्वास, मुआवजे और रोजगार तथा ग्राम सभा की शक्तियों से संबंधित जटिल नियमों की पोथियों को अर्थहीन होते देखने के लिए किसी कॉरपोरेट मालिक के एक और नए प्रोजेक्ट का अवलोकन भर आवश्यक है। न्यायपालिका की अपनी सीमाएं हैं, यह सीमाएं सशक्त कानूनी प्रावधानों के अभाव से अधिक नीयत, इच्छाशक्ति और प्राथमिकता के अभाव की सीमाएं हैं।
आदिवासियों के हितों के लिए कार्य करने वाले संगठन यह ध्यानाकर्षण करते हैं कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले एक बड़े क्षेत्र को हिंसाग्रस्त बताकर यहां आदिवासियों के अधिकारों को स्थगित रखा गया है। क्या यह महज संयोग है कि इन्हीं क्षेत्रों में बड़े कॉरपोरेट घरानों की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं संचालित होनी हैं? नक्सल समस्या के आर्थिक-सामाजिक पहलुओं से इतर एक प्रश्न जो बार बार हमारे सम्मुख उपस्थित होता है वह यह कि क्या नक्सल समस्या राजनीतिक दलों को रास आ गई है और क्या यह उनके राजनीतिक-आर्थिक हितों की सिद्धि में कोई योगदान देती है? क्या नक्सल समस्या का समाधान न हो पाने का एक मुख्य कारण राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है? नक्सल समस्या के कारण जो भी हों परिणाम तो एक ही होता है- आदिवासियों का दमन। चाहे वह पुलिस की हो या नक्सलियों की हो, गोली खाकर मरने वाला कोई मासूम आदिवासी ही होता है।
वन्यजीव संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2006, आदिवासियों के संरक्षण और उनकी आजीविका को उतना ही महत्त्व देता है जितना कि वन्य पशुओं के संरक्षण को। किंतु पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण के नाम पर आदिवासियों के विस्थापन का एक षड्यंत्र भी चल रहा है और बिना किसी स्पष्ट कारण एवं सुपरिभाषित नीति के उन्हें विस्थापित करने की कोशिश जारी है। वास्तव में कॉरपोरेट समर्थक पर्यावरणविद और संरक्षणवादी वन अधिकार कानून 2006 को भारतीय वन अधिनियम, वाइल्ड लाइफ एक्ट तथा पर्यावरण संबंधी अन्य अनेक कानूनों का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक बताकर खारिज कराना चाहते हैं।
हमने आदिवासियों के विकास के मापदंड तय कर दिए हैं। यदि वे अपनी मौलिकता, अद्वितीयता और अस्मिता खोकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पोषक धर्म परंपरा को स्वीकार कर लें तो हम उन्हें देश की धार्मिक-सांस्कृतिक मुख्य धारा का अंग मान लेंगे। यदि वे सहर्ष अपना जल-जंगल-जमीन त्यागकर स्वामी से सेवक बन जाएं तो हम अपनी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा उनका उद्धार करेंगे।
आदिवासियों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी- वह भी पूरी तरह अहिंसक रूप से। उनका बचना धरती पर मासूमियत को जिंदा रखने के लिए जरूरी है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जगदीप धनखड़ उप-राष्ट्रपति तो बन गए हैं लेकिन उनके चुनाव ने देश की भावी राजनीति के अस्पष्ट पहलुओं को भी स्पष्ट कर दिया है। सबसे पहली बात तो यह कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला है। उन्हें कुल 528 वोट मिले और मार्गेट अल्वा को सिर्फ 182 वोट याने उन्हें लगभग ढाई-तीन गुने ज्यादा वोट! भाजपा के पास इतने सांसद तो दोनों सदनों में नहीं हैं। फिर कैसे मिले इतने वोट? जो वोट तृणमूल कांग्रेस के धनखड़ के खिलाफ पडऩे थे, वे नहीं पड़े। वे वोट तटस्थ रहे।
इसका कोई कारण आज तक बताया नहीं गया। धनखड़ ने राज्यपाल के तौर पर मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी की जैसी खाट खड़ी की, वैसी किसी मुख्यमंत्री की क्या किसी राज्यपाल ने आज तक की है? इसी कारण भाजपा के विधायकों की संख्या बंगाल में 3 से 73 हो गई। इसके बावजूद ममता के सांसदों ने धनखड़ को हराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की। इसका मुख्य कारण मुझे यह लगता है कि ममता कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थक के तौर पर बंगाल में दिखाई नहीं पडऩा चाहती थीं।
इसका गहरा और दूरगामी अर्थ यह हुआ कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को ममता नेता की भूमिका नहीं देना चाहती हैं याने विपक्ष का भाजपा-विरोधी गठबंधन अब धराशायी हो गया है। कई विपक्षी पार्टियों के सांसदों ने भी धनखड़ का समर्थन किया है। हालांकि राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति का पद पार्टीमुक्त होता है, लेकिन धनखड़ का व्यक्तित्व ऐसा है कि उसे भाजपा के बाहर के सांसदों ने भी पसंद किया है, क्योंकि वी. पी. सिंह की सरकार में वे मंत्री रहे हैं, कांग्रेस में रहे हैं और भाजपा में भी रहे हैं। उनके मित्रों का फैलाव कम्युनिस्ट पार्टियों और प्रांतीय पार्टियों में भी रहा है।
वे एक साधारण किसान परिवार में पैदा होकर अपनी गुणवत्ता के बल पर देश के उच्चतम पदों तक पहुंचे हैं। ममता बनर्जी के साथ उनकी खींच-तान काफी चर्चा का विषय बनी रही लेकिन वे स्वभाव से विनम्र और सर्वसमावेशी हैं। हमारी राज्यसभा को ऐसा ही सभापति आजकल चाहिए, क्योंकि उसमें विपक्ष का बहुमत है और उसके कारण इतना हंगामा होता रहता है कि या तो किसी भी विधेयक पर सांगोपांग बहस हो ही नहीं पाती है या फिर सदन की कार्रवाई स्थगित हो जाती है।
उप-राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद इस सत्र के अंतिम दो दिन की अध्यक्षता वे ही करेंगे। वे काफी अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं लेकिन अब वे अपने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए पक्ष और विपक्ष में सदन के अंदर और बाहर तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश करेंगे ताकि भारत की राज्यसभा, जो कि उच्च सदन कहलाती है, वह अपने कर्तव्य और मर्यादा का पालन कर सके। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला और राज्यसभा के अध्यक्ष जगदीप धनखड़ को अब शायद विपक्षी सांसदों को मुअत्तिल करने की जरुरत नहीं पड़ेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अभी भी उसे 1.2 बिलियन डालर के कर्ज देने में काफी हीले-हवाले कर रहा है। उसकी दर्जनों शर्तें पूरी करते-करते पाकिस्तान कई बार चूक चुका है। इस बार भी उसको कर्ज मिल पाएगा या नहीं, यह पक्का नहीं है। शाहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बनते ही सउदी अरब दौड़े थे। यों तो सभी पाकिस्तानी शपथ लेते से ही मक्का-मदीना की शरण में जाते हैं लेकिन इस बार शाहबाज का मुख्य लक्ष्य था कि सउदी सरकार से 4-5 बिलियन डालर झाड़ लिये जाएं। उन्होंने झोली फैलाई लेकिन बदकिस्मती कि उन्हें वहां से भी खाली हाथ लौटना पड़ा।
वे अब पाकिस्तान में ऐसे हालात का सामना कर रहे हैं, जैसे अब तक किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किए। लोगों को रोजमर्रा की खुराक जुटाने में मुश्किल हो रही है। आम इस्तेमाल की चीजों के भाव दुगुने-तिगुने हो गए हैं। बेरोजगारी और बेकारी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इमरान खान के जलसों और जुलूसों में लोगों की तादाद इतनी तेजी से बढ़ रही है कि सरकार को कंपकंपी छूटने लगी है। पंजाब में इमरान-समर्थक सरकार भी आ गई है। इससे बड़ा धक्का सत्तारुढ़ मुस्लिम लीग (न) के लिए क्या हो सकता है।
इमरान का जलवा सिर्फ पख्तूनख्वाह में ही नहीं, अब पाकिस्तान के चारों प्रांतों में चमकने लगा है। हो सकता है कि अगले कुछ माह में ही आम चुनाव का बिगुल बज उठे। ऐसे में अब प्रधानमंत्री की जगह पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा खुद पहल करने लगे हैं। उन्होंने सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के शासकों से अनुरोध किया है कि वे पाकिस्तान को कम से कम 4 बिलियन डालर की मदद तुरंत भेजें। लेकिन दोनों मुस्लिम राष्ट्रों के शासकों ने बाजवा को टरका दिया है।
वे पाकिस्तान को दान या कर्ज देने के बजाय अपनी संपत्तियाँ रखकर उनके बदले में शेयर खरीदने के लिए कह रहे हैं। पाकिस्तानी अर्थ-व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता होती जा रही है कि उसे बचाने के लिए उसे ऐसे कदम भी उठाने पड़ रहे हैं, जो शीर्षासन करने के समान हैं। माना तो यह जा रहा है कि काबुल में अल-जवाहिरी का खात्मा करवाने के लिए पाकिस्तान ने अमेरिका की मदद इसीलिए की है कि अमेरिका इस वक्त उसे कोई वित्तीय टेका लगा दे।
शाहबाज शरीफ अगर थोड़ी हिम्मत करें तो वे भारत से भी मदद मांग सकते हैं। भारत यदि मालदीव, श्रीलंका और नेपाल को कई बिलियन डालर दे सकता है तो पाकिस्तान को क्यों नहीं दे सकता? पाकिस्तान आखिर क्या है? वह अखिरकार कभी भारत ही था। यह मौका है, जो दोनों देशों के बीच दुश्मनी की दीवारों को ढहा सकता है और सारे झगड़े बातचीत से सुझलवा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सोनिया गांधी और राहुल गांधी आजकल ‘नेशनल हेराल्ड’ घोटाले में बुरी तरह से फंस गए हैं। मोदी सरकार उन्हें फंसाने में कोई कसर छोड़ नहीं रही है। वे दावा कर रहे हैं कि वे साफ-सुथरे हैं। यदि यह दावा ठीक है तो वे डरे हुए किस बात से हैं? जांच चलने दें। दूध का दूध और पानी का पानी अपने आप हो जाएगा। वे खरे तो उतरेंगे ही। सरकार की इज्जत पैदें में बैठ जाएगी लेकिन ऐसा लगता है कि दाल में कुछ काला है। इसीलिए आए दिन धुआंधार प्रदर्शन हो रहे हैं।
दर्जनों कांग्रेसी सांसद और सैकड़ों कार्यकर्ता हिरासत में जाने को तैयार बैठे रहते हैं। अब उन्होंने अपने नेताओं को बचाने के लिए नया शोशा छोड़ दिया है। मंहगाई, बेरोजगारी और जीएसटी का। इनके कारण जनता परेशान तो है लेकिन फिर भी वह कांग्रेस का साथ क्यों नहीं दे रही है? देश के लोग हजारों-लाखों की संख्या में इन प्रदर्शनों में शामिल क्यों नहीं हो रहे हैं? इन प्रदर्शनों के दौरान राहुल गांधी के बयानों में थोड़ी-बहुत सत्यता होते हुए भी उन्हें कहने का तरीका ऐसा है कि वे हास्यास्पद लगने लगते हैं।
जैसे राहुल का यह कहना कि भारत में लोकतंत्र की हत्या हो गई है। वह भूतकाल का विषय बन गया है। राहुल को आपातकाल की शायद कोई भी याद नहीं है। राहुल को मोदी-शासन शुद्ध तानाशाही लग रहा है। क्यों नहीं लगेगा? कांग्रेस को मोदी ने मां-बेटा पार्टी में सीमित कर दिया है। इस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की साख निरंतर घटती चली जा रही है। यदि कांग्रेसी नेता अब कोई सही बात भी बोलें तो भी लोग उस पर भरोसा कम ही करते हैं। जहां तक लोकतंत्र का सवाल है, जब कांग्रेस पार्टी जैसी महान पार्टी ही प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है तो भाजपा की क्या बिसात है कि वह लोकतांत्रिक पार्टी होने का आदर्श उपस्थित करे?
हमारे देश की लगभग सभी प्रांतीय पार्टियां उनके नेताओं की जेबी पुडिय़ा बन गई हैं। भाजपा के राज में लगभग सभी पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र तो हवा हो ही गया है, अब पत्रकारिता याने खबरपालिका भी लंगड़ी होती जा रही है। लोकतंत्र के इस चौथे खंभे में अब दीमक बढ़ती जा रही है। प्रधानमंत्री की पत्रकार-परिषद का रिवाज खत्म हो गया है। सरकार का मुंह खुला है और कान बंद है। संसद के सेंट्रल हाल में अब पत्रकारों का प्रवेश वर्जित है। वहां बैठकर देश के बड़े-बड़े नेता पत्रकारों से खुलकर व्यक्तिगत संवाद करते थे। पत्रकारों को अब प्रधानमंत्री की विदेश-यात्राओं में साथ ले जाने का रिवाज भी खत्म हो गया है।
‘महिला पत्रकार क्लब’ से अब सरकारी बंगला भी खाली करवाया जा रहा है। कई अखबारों को सरकारी विज्ञापन मिलने भी बंद हो गए हैं। हमारे सभी टीवी चैनल, एक-दो अपवादों को छोडक़र, बातूनी अखाड़े बन गए हैं, जिनमें पार्टी-प्रवक्ता खम ठोकने और दंड पेलने के अलावा क्या करते है? कई अखबार और चैनल-मालिकों के यहां छापे मारकर उन्हें भी ठंडा करने की कोशिश जारी है।
हमारे विरोधी दलों ने संसद की जो दुगर्ति कर रखी है, वह भी देखने लायक है। दूसरे शब्दों में जिस देश की खबरपालिका और विधानपालिका लडख़ड़ाने लगे, उसकी कार्यपालिका और न्यायपालिका से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसले नकारात्मक कारणों से चर्चा में रहे। इनमें कुछ फैसले जरा पुराने थे और कुछ एकदम हाल के।
इन फैसलों के चर्चा में आने का कारण सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस खानविलकर की सेवानिवृत्ति थी। इन सभी फैसलों से उनका संबंध रहा था और इन फैसलों को आपस में जोड़ने वाली चिंतन प्रक्रिया और वैचारिक अंतर्धारा को इनमें सहज ही पढ़ा जा सकता था।
जाहिर है कि न्यायालय का हर फैसला हर किसी को पसंद नहीं आ सकता, हर किसी को संतुष्ट करना न्यायालय का काम भी नहीं है। क्या इन फैसलों की आलोचना भी केवल इसी सामान्य कारण से हो रही थी कि सुप्रीम कोर्ट से राहत की उम्मीद कर रहे पक्ष को निराशा हाथ लगी थी और वह अपने असंतोष की अभिव्यक्ति कर रहा था? दरअसल ऐसा नहीं था।
अनेक न्यायविदों की राय में इन फैसलों के दूरगामी परिणाम होंगे जो राज्य की निरंकुश शक्ति की अभिवृद्धि तथा आम आदमी के दमन और उत्पीड़न में सहायक होंगे। इन न्यायविदों के अनुसार वटाली मामले और पीएमएलए मामले में दिए गए निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित और समाप्त करने में राज्य की मदद कर सकते हैं। एफसीआरए पर दिया गया निर्णय अभिव्यक्ति और संघ निर्माण की स्वतंत्रता में कटौती करने वाला है। जबकि जाकिया जाफरी और हिमांशु कुमार के मामले में आए फैसले न्यायालय के हस्तक्षेप द्वारा अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने तथा राज्य के अनुचित आचरण के विरुद्ध न्यायिक समाधान पाने के नागरिक अधिकारों को कमजोर बनाने वाले हैं।
जाकिया जाफरी मामले और हिमांशु कुमार प्रकरण के विषय में न्यायालय का निर्णय संविधान के उस अनुच्छेद 32 पर ही प्रहार करता है जो आंबेडकर को सर्वाधिक प्रिय था और जिसे उन्होंने संविधान के हृदय एवं आत्मा की संज्ञा दी थी जिसके बिना संविधान का महत्व ही समाप्त हो जाएगा।
यह देखना दुःखद है कि तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय उस राज्य द्वारा याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई का आधार बन रहा है जिसकी कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होकर वे न्याय मांगने सर्वोच्च न्यायालय गए थे।
गौतम भाटिया जैसे कानून के अनेक जानकार यह मानते हैं कि स्वतंत्र भारत के न्याय शास्त्र के इतिहास में पहले भी इस प्रकार के अधिसंख्य उदाहरण मिलते हैं जब राज्य विजयी हुआ है और व्यक्ति को पराजय झेलनी पड़ी है। राज्य पर व्यक्ति की विजय अपवादस्वरूप ही रही है। किंतु ऊपर उल्लिखित फैसलों में जो चिंताजनक बात है वह राज्य के जीतने के तरीके में आया बदलाव है। अब न्यायालय राज्य के हितों, उसके दावों और उसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को तत्काल बिना विचारे यथावत अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करने लगा है किंतु जब आम आदमी की बारी आती है तो उसे प्रथम दृष्टया ही संदिग्ध, मिथ्याभाषी और अनावश्यक विवाद उत्पन्न करने वाला मान लिया जाता है। जब न्यायपालिका आम नागरिक को महत्वहीन और उपेक्षणीय समझने लगेगी तो स्वाभाविक है कि उसके अधिकार भी गैरजरूरी मान लिए जाएंगे।
टेरर फंडिंग के आरोपी जहूर अहमद शाह वटाली के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर अनेक न्यायविद असहमत थे। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय महज उच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत को रद्द करने तक सीमित नहीं था। वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि वटाली को जमानत देने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया कानूनी मापदंड ही गलत था। यूएपीए के सेक्शन 43(डी)(5) के मामलों में जमानत की याचिका पर विचार करते समय साक्ष्यों की विस्तृत पड़ताल अथवा छानबीन की कोई आवश्यकता नहीं है। राज्य के अस्वीकार्य कथनों को खारिज करना मामले के गुण दोषों पर विचार करने जैसा है। न्यायालय को पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर व्यापक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए जमानत याचिका पर निर्णय लेना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद यूएपीए के मामलों में जमानत मिलना असंभव प्राय हो गया है। जब बचाव पक्ष जमानत पर सुनवाई के दौरान अपने तर्क नहीं रख सकता है, अपने गवाह प्रस्तुत नहीं कर सकता है, न ही अभियोजन पक्ष के पक्ष के गवाहों का प्रति परीक्षण कर सकता है तब उसकी असहायता की कल्पना ही की जा सकती है। यूएपीए का सेक्शन 43(डी)(5) आरोपी को तब जमानत देने से मना करता है जब यह विश्वास करने का पर्याप्त आधार हो कि लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं। यदि न्यायालय, राज्य द्वारा आरोपी के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की गहराई से जांच नहीं करेगा तो उसे यह कैसे ज्ञात होगा कि इनमें सत्यता कितनी है। दशकों चलने वाले यूएपीए के मामलों में जमानत को असंभव बना देने की भयानकता की कल्पना करना कठिन नहीं है।
विधि विशेषज्ञों का मानना है कि पीएमएलए पर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भी राज्य को अनुचित रूप से असीमित अधिकार देने वाला है। दंड प्रक्रिया संहिता पुलिस की कार्यप्रणाली पर जो अंकुश लगाती है उससे ईडी को सर्वथा मुक्त कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस की एफआईआर के समतुल्य मानी जाने वाली ईसीआईआर की प्रति आरोपी के साथ साझा करने से ईडी को छूट दी है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार ईडी के समन्स का अर्थ गिरफ्तारी नहीं है। आत्म दोषारोपण के विरुद्ध प्राप्त संवैधानिक अधिकार ईडी की पूछताछ पर लागू नहीं होगा क्योंकि ईडी, पुलिस नहीं है। ईडी के सामने की गई स्वीकारोक्तियां साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होंगी यद्यपि पुलिस के मामले में ऐसा नहीं है। शायद न्यायालय यह मानता है कि पुलिस किसी व्यक्ति को झूठी स्वीकारोक्तियाँ करने के लिए मजबूर कर सकती है किंतु ईडी के अधिकारी कोई अनुचित आचरण कर ही नहीं सकते। सर्वोच्च न्यायालय के मतानुसार ईडी मैन्युअल के तहत ईडी जिन प्रक्रियाओं को अपनाता है उन्हें सार्वजनिक करने की कोई बाध्यता नहीं है और यह ईडी के आंतरिक दस्तावेजों के रूप में दर्ज होकर हमेशा गुप्त बनी रहेंगी। सर्वोच्च न्यायालय यह भी कहता है कि पीएमएलए के मामलों में यह व्यक्ति का उत्तरदायित्व रहेगा कि वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करे न कि यह राज्य की जिम्मेदारी रहेगी कि वह व्यक्ति को दोषी सिद्ध करे। पीएमएलए को इतना व्यापक बना दिया गया है कि अनजाने में पीएमएलए के दायरे में आने वाले किसी लेनदेन में अप्रत्यक्ष भागीदारी होने पर भी किसी व्यक्ति को इसके अंतर्गत आरोपी बनाया जा सकता है।
जब हम यह जानते हैं कि पिछले आठ वर्षों में पीएमएलए के तहत ईडी द्वारा दर्ज किए गए मामलों में 8 गुना वृद्धि हुई है और दोष सिद्ध होने की दर एक प्रतिशत से भी कम है तो सर्वोच्च न्यायालय की यह सख्ती और आश्चर्यजनक लगती है।
अंतरराष्ट्रीय संधियों की बाध्यता को आधार बनाकर अपनी सुविधानुसार सत्ता नागरिक अधिकारों में कटौती कर रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के उन उदार अंशों को जो शरणार्थियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित हैं, रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है। ऐसे समय मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगाए आम आदमी की हताशा स्वाभाविक ही है।
जब सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से जुड़े जस्टिस खानविलकर सेवानिवृत्त हुए तब स्वाभाविक था कि उनके इन फैसलों की चर्चा-समीक्षा होती। प्रिंट और सोशल मीडिया में इन पर खूब लिखा गया, अधिकांश आलोचनात्मक टिप्पणियों में इन फैसलों के विवादास्पद अंशों के लिए श्री खानविलकर को व्यक्ति के रूप में अधिक और न्यायाधीश के रूप में कम दोषी ठहराया गया। अनेक आलेखों का यह भाव था कि यदि जस्टिस खानविलकर के स्थान पर कोई और न्यायाधीश होता तो निर्णय कुछ और होता।
इस तरह अनेक गंभीर प्रश्न अचर्चित रह गए। क्या जस्टिस खानविलकर की चिंतन प्रक्रिया और न्यायपालिका की भूमिका के विषय में उनके दृष्टिकोण को व्यक्तिगत कह कर हम सुप्रीम कोर्ट की साझा सोच और कार्यप्रणाली में आए महत्वपूर्ण वैचारिक परिवर्तनों को गौण नहीं बना रहे हैं? यह महत्वपूर्ण मामले अलग अलग मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में श्री खानविलकर को सौंपे गए, क्या इससे यह संकेत नहीं जाता कि राज्य को सशक्त और आम आदमी को कमजोर करने के उनके न्यायिक दर्शन से मोटे तौर पर सर्वोच्च न्यायालय भी सहमत था? सुप्रीम कोर्ट में पिछले कुछ वर्षों में मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभालने वाले जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रंजन गोगोई एवं जस्टिस एस ए बोबडे के फैसले, उनकी प्राथमिकताएं एवं कार्यप्रणाली तथा उनसे जुड़े विवाद जिस तरह जनचर्चा का विषय बने क्या वह इस बात का द्योतक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अब कमिटेड जुडिशरी से भी कुछ आगे बढ़कर राज्य के हितों की रक्षा के लिए प्रोएक्टिव रोल निभाना चाह रहा है? यह तो असंभव है कि न्यायाधीश मानवीय कमजोरियों से सर्वथा मुक्त हों किंतु उनसे यह तो अपेक्षा होती है कि बतौर न्यायाधीश वे अपनी इन कमजोरियों को कर्त्तव्य पालन के मार्ग में बाधक न बनने दें। क्या हमारे न्यायाधीश इस अपेक्षा पर खरे उतर पाए हैं?
क्या अब ऐसे न्यायाधीशों का युग समाप्त होता जा रहा है जो निर्णय लेते समय अपनी विचारधारा और सोच को इसलिए दरकिनार कर देते थे क्योंकि वह संविधान और कानून से संगत नहीं होती थी? क्या यह ऐसे न्यायाधीशों का जमाना है जो निर्णय पहले ले लेते हैं और बाद में उसे न्यायोचित सिद्ध करने के लिए संवैधानिक और कानूनी विधियां तलाशते हैं? दूसरे शब्दों में क्या संविधान के अनुकूल निर्णय देने के स्थान पर अपने निर्णय को संविधान सम्मत सिद्ध करने का चलन बढ़ा है? क्या नए भारत में राज्य की इच्छा ही न्याय है और न्यायाधीशों की भूमिका राज्य की इच्छा को कानूनी जामा पहनाने तक सीमित होती जा रही है?
वर्तमान सरकार और आदरणीय प्रधानमंत्री जी बार बार यह कहते रहे हैं कि अधिकारों की बात बहुत हुई, कर्त्तव्य पालन आज के समय की मांग है। किंतु क्या सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और इच्छा का पालन करना ही - भले ही वह कितनी ही अनुचित और प्रतिगामी क्यों न हों - क्या सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य है? क्या सर्वोच्च न्यायालय सरकार की इस मान्यता से सहमत है कि नागरिक अधिकारों की मांग करना सरकार की कार्यप्रणाली में रोड़े अटकाना है और नागरिक अधिकारों के दमन से ही विकास प्रक्रिया को अपेक्षित त्वरा प्रदान की जा सकती है?
कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने पीएमलए के प्रावधानों को संविधान सम्मत ठहराने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खतरनाक बताया है। लेकिन यह भी सच है कि हर राजनीतिक दल इस तरह के नागरिक अधिकार विरोधी दमनकारी कानूनों के निर्माण में योगदान देता रहा है और अपने शासन काल में इनके दुरुपयोग द्वारा विरोधियों का दमन करता रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही विधि विशेषज्ञ भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं, यह परिपाटी स्वतंत्र भारत में भी जारी रही है। किंतु अपने दल की सत्ता होने पर इन दमनकारी कानूनों पर यह विधि विशेषज्ञ एक वफादार पार्टी कार्यकर्ता की भांति मौन साध लेते हैं या इनका बचाव करने की चेष्टा करते हैं। यही कारण है कि अब इनके द्वारा की जा रही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना के पीछे नैतिक बल नहीं दिखाई देता।
वर्तमान सरकार जिस प्रकार लोकतांत्रिक परंपराओं और संविधान की अनदेखी कर रही है उस परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। हमारी सर्वोच्च अदालत के इतिहास में अनेक गौरवपूर्ण क्षण आए हैं और बहुत बार सर्वोच्च न्यायालय संविधान और लोकतंत्र की गरिमा की रक्षा का माध्यम बना है। आशा की जानी चाहिए कि इस बार भी न्यायपालिका के भीतर से ही कोई सकारात्मक पहल सामने आएगी भले ही वह मौजूदा दौर से असहमति और विरोध के रूप में ही क्यों न हो।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश के कुल मुसलमानों में पसमांदा मुसलमानों की संख्या लगभग 90 प्रतिशत है। पसमांदा का मतलब है- पिछड़े हुए! इन पिछड़े हुए मुसलमानों में वे सब शामिल हैं, जो कभी हिंदू थे लेकिन उनमें भी पिछड़े, अछूत, अनुसूचित और निम्न समझी जाने वाली जातियों के थे। इस्लाम तो जातिवाद और ऊँच-नीच के भेद को नहीं मानता है लेकिन हमारे मुसलमानों में ही नहीं, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुसलमानों में भी जातिवाद जस-का-तस कायम है, जैसा कि वह हिंदुस्तान में फैला हुआ है।
पाकिस्तान के जाट, गूजर, अहीर, कायस्थ, खत्री, पठान और यहां तक कि अपने आप को ब्राह्मण कहने वाले मुसलमानों से भी मेरा मिलना हुआ है। अफगानिस्तान में पठान, ताजिक, उजबेक, किरगीज, खत्री और मू-ए-सुर्ख मुसलमानों से भी मेरा कई बार साबका पड़ा है। इन मुस्लिम देशों में हिंदू-जातिवाद मौजूद है लेकिन वह वहां दबा-छिपा रहता है। भारत में तो जातिवाद का इतना जबर्दस्त बोलबाला है कि भारत के ‘अशराफ’ और ‘अजलाफ’ मुसलमान ‘अरजाल’ मुसलमानों से हमेशा कोई न कोई फासला बनाए रखते हैं।
पहले दो वर्गों में आने वाले लोग अपने आप को तुर्कों, मुगलों और पठानों का वंशज समझते हैं और अजलाफ लोग वे हैं, जो ब्राह्मण और राजपूतों से मुसलमान बन गए हैं। भारत के मालदार, उच्च पदस्थ और शिक्षित मुसलमानों में अरजाल मुसलमानों की संख्या लगभग नगण्य है। उनमें ज्यादातर खेती, मजदूरी, साफ-सफाई और छोटी-मोटी नौकरियां करने वाले गरीब लोग ही होते हैं। इन्हीं मुसलमानों को न्याय दिलाने के लिए तीन-चार पसमांदा नेताओं ने इधर कुछ पहल की है।
उनमें से एक नेता अली अनवर अंसारी ने एक बड़ा सुंदर नारा दिया है, जो मेरे विचारों से बहुत मेल खाता है। वे कहते हैं: दलित-पिछड़ा एक समान। हिंदू हों या मुसलमान! मैं तो इसमें सभी भारतवासियों को जोड़ता हूँ, वे चाहे किसी भी धर्म या जाति के हों। जाति और धर्म किसी का न देखा जाए, सिर्फ उसका हाल कैसा है, यह जाना जाए। हर बदहाल का उद्धार करना भारत सरकार का धर्म होना चाहिए। इसीलिए मैं जातीय और मजहबी आरक्षण को अनुचित मानता हूं।
आरक्षण जन्म से नहीं, जरूरत से होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पसमांदा मुसलमानों के साथ न्याय की आवाज उठाई है। मेरे ही सुझाव पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिवंगत प्रमुख श्री कुप्प सी. सुदर्शन ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना की थी।
यदि हम जाति और मजहब को सामाजिक और आर्थिक न्याय का आधार बनाएंगे तो देश में हम जातिवाद और सांप्रदायिकता का जहर फैला देंगे। ऐसा करके हम अगली सदी में भारत के कई टुकड़े करने का आधार तैयार कर देंगे। हमें ऐसा भारत बनाना है, जिसके महासंघ में भारत के पड़ौसी हिंदू, सुन्नी, मुस्लिम, बौद्ध और शिया देश में शामिल होने की आकांक्षा रखें। (नया इंडिया की अनुमति से)