विचार/लेख
Sainik Chaubey
1. The guy is important if the camera pans to his black leather shoe before the face is revealed.
2. Movie ghosts have amazing powers but they tend to play defensively at the start of the innings by using harmless strokes like ‘खिड़की/दरवाज़ा बंद करना’, छोटी मोटी क्रॉकरी तोड़ना, ‘आईने में दिखना फिर छुप के troll करना’ इत्यादि. They move on to the really dangerous powers like murdering and आत्मा transplants at the end of the innings, which is usually too late.
3. When a person is declared dead but his dead body isn’t shown, मैं मानता ही नहीं। खाई से गिर के, समुद्र में डूबने से, भयानक आग में फँसने भर से थोड़ी मरते हैं।
4. If a sport is being shown in the movie, it has to go on till the last ball, last minute, 100%. It is never like the 2003 World Cup Final (I still have PTSD).
5. Clearly, villains do not recruit their गुर्गेs on the basis of shooting skills. It doesn’t matter if they use burst fire or sniper, they will miss the protagonist all the time.
6. सारे Mr. Singhanias और Mr. Oberois अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलते हैं.
7. Blood banks in movies are useless, they are always out of stock. After all, जो मज़ा तेज बारिश में खून ढूँढने जाने में है वो normally लेने में कहाँ है।
8. Movie courts don’t work according to CPC, CrPC or any other law. Decisions are purely based on circumstantial evidences followed by emotional speeches.
9. Have you ever seen a movie जिसमें realistic शादी दिखाई है? I mean, we see are shown one big dance, followed by फेरा, वरमाला or both. मुझे देखनी है वो stage में चढ़ने वाली लम्बी लाइन, वो awkward फ़ोटोग्राफ़, एक लिफ़ाफ़ा पद्यति और गुलाबजामुन और पनीर का mixed random taste.
10. Who was that fake foreigner guy who came to sell guns and grenades to every villain? He could never get ease in doing business.
11. Wonder who came up with that ठोकियोकी sound for the revolver?
12. In Airport climax scenes, CISF people are shown in very bad light. To address this, an amendment needs to be made in the law. Like a provisio (परंतुक) - not withstanding the above, acts which endanger the security of the airport and (or) delay flights deliberately, shall still be ignored if done for the purpose of stopping your romantic interest or for any other purpose as may be prescribed by Directors from time to time.
13. Has anyone ever encashed these so called blank cheques the heroine’s father hands out. By the way, हर चेक भी एक लिमिट तो लिखी ही होती है so I guess its just a troll.
14. I really don’t think the police says क़ानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं or you are under arrest to every person they nab.
15. Whats up with rich people waking up to ‘Orange Juice’?
-अरुण कान्त शुक्ला
हिरोशिमा दिवस 2022 हत्याओं की 77वीं वर्षगांठ है। पूरे विश्व में हर साल 6 अगस्त को परमाणु बम के भयावह प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने और शांति की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए हिरोशिमा दिवस मनाया जाता है। इस दिन 1945 में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक जापानी शहर हिरोशिमा पर एक परमाणु बम गिराया था। परमाणु विस्फोट बड़े पैमाने पर हुआ और शहर के 90 प्रतिशत हिस्से को नष्ट कर दिया और हजारों लोग मारे गए। इसने लगभग 20,000 सैनिकों और 90,000 से 125,000 नागरिकों को मार डाला। तीन दिन बाद, 9 अगस्त 1945 को जापान के एक और शहर, नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया गया, जिसमें 80,000 से अधिक लोग लोग मारे गए। हिरोशिमा दिवस को हम उन हत्याओं की वर्षगांठ भी कह सकते हैं, जो विश्व युद्ध के लगभग समाप्त होने की कगार पर परमाणु बमों के द्वारा की गईं। आज परमाणु बमों का इतना जखीरा दुनिया के बड़े और शक्तिशाली से लेकर विकासशील देशों के पास जमा है कि विश्व के प्रत्येक शांतिकामी नागरिक को ये व्याकुलता स्वाभाविक रूप से होती है कि कहीं किसी भी देश का सत्तानशीं चाहे वह लोकतांत्रिक देश का हो अथवा अधिनायकवादी देश का सनक में आकर मानवता पर फिर वही वहशी अत्याचार को न कर बैठे, जो द्वितीय विश्वयुद्ध की लगभग समाप्ति पर अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमेन ने किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के देशों के बीच अनगिनत युद्ध हो चुके हैं और शांतिकामी लोगों के मध्य परमाणु बम के इस्तेमाल को लेकर होने वाली व्याकुलता कभी कम नहीं रही।
अभी शायद हम बड़े देशों के बीच बढ़ती हुई अदावत और तनाव के मामले में सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि रूस और युक्रेन के मध्य चल रहे युद्ध में युक्रेन एक छद्म है और वास्तविक संघर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बीच है। सबसे ज्यादा त्रासदायी बात यह है कि पांच महीने से अधिक के अत्यधिक विनाशकारी युद्ध के बाद भी कोई दिलासा देने वाली शांति प्रक्रिया किसी भी देश के द्वारा शुरू नहीं की गयी है और यह हो भी कैसे जब दो विश्व महा शक्ति युद्ध पर ही आमादा हों तो शान्ति की पहल होगी ही कैसे? रही सही कसर हाल के घटना विकास ने पूरा कर दिया है। ऐसा लग रहा है मानो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच अब ताइवान मोहरा बन रहा है। अभी की परिस्थिति में शामिल तीनों देश परमाणु संपन्न हैं| आज परमाणु संपन्न देशों के पास 13000 से अधिक न्यूक्लियर हथियार हैं और इनमें से अधिकांश की मारक क्षमता हिरोशिमा या नागासाकी पर गिराए गए बमों से कई गुना अधिक है।
जापान हमारे सामने परमाणु बम के विनाश के उदाहरण के रूप में मौजूद है, जहाँ न केवल दो लाख से अधिक लोग फौरी तौर पर मारे गए बल्कि उसके बाद वर्षों तक जलने-झुलसने और विकिरण के फलस्वरूप हजारों की संख्या में लोगों की मौत हुई।यहाँ तक कि उसके बाद के लगभग चार दशकों तक पैदा हुए बच्चे भी परमाणु विकिरण के शिकार रहे।आज जब फ़ैटमैन और लिटिल ब्वॉय, उन परमाणु बमों के नाम जो नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए थे, से ज्यादा शक्तिशाली न्यूक्लियर हथियार परमाणु संपन्न देशों के पास हैं, हम कल्पना कर सकते हैं कि लाखों लोगों को तुरंत मारने के अलावा, परमाणु हथियारों के युद्ध से अभूतपूर्व पर्यावरणीय तबाही भी हो सकती है जो जापान में मारे गए लोगों से भी बड़ी संख्या में लोगों को मार सकती है। इतना ही नहीं इसका विनाशकारी परिणाम जीव जगत के अन्य जीवन-रूपों को भी भोगना पड़ेगा और प्रकृति का विनाश होगा। आज परमाणु हथियारों का प्रयोग अकेले दो देशों के बीच का मामला हो ही नहीं सकता है, इसके दुष्परिणाम बिना किसी विवाद में शामिल हुए पड़ोसी देशों के लोगों को भी भुगतने होंगे।
यह कोरा मुगालता ही है कि सामरिक परमाणु हथियारों के रूप में परमाणु हथियारों की कम विनाशकारी भूमिका हो सकती है। यह किसी युद्धोन्मादी का ही दृष्टिकोण हो सकता है। यदि युद्धरत देशों के पास परमाणु हथियार हैं तो सामरिक हथियारों से शुरू हुआ परमाणु युद्ध आसानी से कभी भी एक पूर्ण परमाणु युद्ध में बदल सकता है। फिर, परमाणु हथियार सामरिक हों तो भी उनका उपयोग बहुत विनाशकारी हो सकता है, यहां तक कि उपयोग करने वाले देश के लिए भी उनका उपयोग विनाशकारी ही होगा!
इसके अलावा, जैसा कि न्यूक्लियर हथियारों के बारे में आम धारणा है कि इनके इस्तेमाल का अधिकार केवल राष्ट्र प्रमुखों के पास ही होता है| पर, यही बात छोटे स्तर के सामरिक न्यूक्लियर हथियारों के बारे में नहीं कही जा सकती| क्योंकि, जब सामरिक परमाणु हथियारों को उपयोग के लिए तैयार करना होता है तो उनके नियंत्रण के अधिकार का अनेक लोगों के पास पहुंचना साधारण सी बात ही होगी। इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि कट्टर या कट्टरपंथी झुकाव या आतंकवाद फैलाने वाले व्यक्ति या समूह भी इसके नियंत्रण तक पहुँच हासिल कर सकते हैं या उन हथियारों को ही हासिल कर सकते हैं।
इसलिए इस भ्रम में रहना एकदम गलत है कि छोटे स्तर के सामरिक न्यूक्लियर हथियार परमाणु हथियारों का कोई सुरक्षित विकल्प प्रदान करते हैं। क्योंकि, ऐसा भ्रम लाखों-करोड़ों लोगों के लिए अत्यंत विनाशकारी हो सकता है।
हमारी प्यारी धरती, उस पर बसे जीवन और उस पर्यावरण तथा प्रकृति के लिए सबसे अच्छी बात यही है कि परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कभी नहीं होना चाहिए। वास्तव में, परमाणु हथियारों का उपयोग तो विनाशकारी है ही, परमाणु हथियारों से संबंधित दुर्घटनाएं भी बहुत विनाशकारी हो सकती हैं। इसलिए यदि हम पृथ्वी पर जीवन की परवाह करते हैं तो अंततः एकमात्र सुरक्षित विकल्प यही है कि हम सभी परमाणु हथियारों और सामूहिक विनाश के सभी हथियारों को हमेशा के लिए छोड़ दें।
दुर्भाग्यवश, एक समय शुरू हुआ निशस्त्रीकरण अभियान अपने उद्देश्य में सफल तो नहीं ही हो पाया, अब उस तरफ प्रयास भी बंद हो गए हैं। बड़े देश जो शस्त्रों के निर्माता हैं, वे न केवल अपने देशों के हथियार निर्माताओं के माफियाओं के चंगुल में फंसे हैं, उनकी अर्थव्यवस्था बहुत कुछ अपने से छोटे देशों को हथियारों को बेचने और उनके बीच के युद्ध पर ही टिकी है। हिरोशिमा दिवस हमें प्रेरित करता है कि हम इस विषय पर ईमानदारी से विचार करें, हम किसी भी पक्ष के हों, हमारा एकमात्र ईमानदार निष्कर्ष यही होना चाहिए कि यदि पृथ्वी पर जीवन को बचाना है तो हमें परमाणु हथियारों से दूर रहना ही होगा, उन्हें नष्ट करना ही होगा और इसके लिए विश्व की शांतिकामी जमात को एक स्वर में आवाज उठानी ही होगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ और मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने भारत के प्रति जिन शब्दों में आभार व्यक्त किया है, वैसे कर्णप्रिय शब्द किसी पड़ौसी देश के नेता शायद ही कभी बोलते हैं। क्या ही अच्छा हो कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल के शीर्ष नेता भी भारत के लिए वैसे ही शब्दों का प्रयोग करें। यह बात मैंने एक भाषण में कही तो कुछ श्रोताओं ने मुझसे पूछा कि क्या पाकिस्तान भी कभी भारत के लिए इतने आदरपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है?
श्रीलंका और मालदीव, ये दोनों हमारे पड़ौसी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। ऐसे में भारत ने इन दोनों देशों को अनाजों, दवाइयों और डॉलरों से पाट दिया है। ये दोनों देश भारत की मदद के बिना अराजकता के दौर में प्रवेश करने वाले ही थे। श्रीलंका के राष्ट्रपति ने अपनी संसद को दिए पहले संबोधन में भारत का नाम लेकर कहा कि भारत ने श्रीलंका को जीवन-दान किया है। भारत ने श्रीलंका को 4 बिलियन डालर तथा अन्य कही सहूलियतें इधर दी हैं जबकि चीन ने भारत के मुकाबले आधी मदद भी नहीं की है और वह श्रीलंका को अपना सामरिक अड्डा बनाने पर तुला हुआ है।
इसी तरह पिछले कुछ वर्षों में मालदीव के कुछ नेताओं को अपना बगलबच्चा बनाकर चीन ने उसके सामने कई चूसनियां लटका दी थीं लेकिन इसी हफ्ते मालदीव के राष्ट्रपति सोलेह की भारत-यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच छह समझौतों पर दस्तखत हुए। सोलिह ने कोरोना-काल में भारत द्वारा भेजी गई दवाइयों के लिए भारत के प्रति आभार व्यक्त किया। उन्होंने हिंद महासागर क्षेत्र में आतंकवाद और राष्ट्रों के उस पार से होने वाले अपराधों के विरुद्ध भारत के साथ खुला सहयोग करने की बात कही है। बिना बोले ही उन्होंने सब कुछ कह दिया है।
भारत की मदद से सैकड़ों करोड़ रु. के कई निर्माण-कार्यों की योजना भी बनी है। भारत ने मालदीव को अनेक सामरिक संसाधन भी भेंट किए हैं। अब प्रश्न यही है कि क्या भारत ऐसे ही लाभदायक काम पाकिस्तान के लिए भी कर सकता है? किसी से भी आप यह प्रश्न पूछें तो उसका प्रश्न यही होगा कि आपका दिमाग तो ठीक है? पाकिस्तान का बस चले तो वह भारत का ही समूल नाश कर दे।
यह बात मोटे तौर पर ठीक लगती है लेकिन अभी-अभी अल-कायदा के सरगना जवाहिरी के खात्मे में पाकिस्तान का जो सक्रिय सहयोग रहा और उसामा बिन लादेन के बारे में भी उसकी नीति यही रही, इससे क्या सिद्ध होता है? यही कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी! जब आसिफ जरदारी राष्ट्रपति थे तो मैंने फोन करके पूछा कि आपके भयंकर आर्थिक संकट में क्या हम आपको कुछ मदद दें तो आप स्वीकार कर लेंगे? उससे आपकी सीट को खतरा तो नहीं हो जाएगा?
उनकी तरफ से हर्ष और आश्चर्य दोनों व्यक्त किए गए लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंहजी की हिम्मत नहीं पड़ी। यदि नरेंद्र मोदी इस समय शाहबाज शरीफ को वैसा ही इशारा करके देखें तो शायद कोई चमत्कार हो जाए। भारत-पाक संबंधों में अपूर्व सुधार के द्वार खुल सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Ninad Vengurlekar
Aamir’s boycott is laughable.
PK was made by a Hindu called Raju Hirani, written by a Hindu called Abhijat Joshi and produced by a Hindu called Vinod Chopra. The other star cast included Anushka Sharma who is a Hindu, Sanjay Dutt, a Hindu, and Sushant Singh Rajput, also a Hindu. All these people jointly heard the script and decided to participate in the making of PK. Yet, the target of Hindu nationalists and their supporters is Aamir Khan. Why? Because he is a Muslim.
If the metrics of Hindu nationalists have to be applied, then Canadian national Akshay Kumar and Paresh Rawal had acted in an even more “regressive” film called O My God, which was based on Hindu religious malpractices. But they are not Muslims, so it is okay.
Aamir has quoted his wife, a Hindu, saying that she feels insecure in India. He later added that he convinced her that India is not intolerant. Yet, the Hindu nationalists did not target Kiran Rao. They abused Aamir Khan because he is a Muslim.
There is a section of Hindu in this country who will use his majority status to demean a national icon just because he belongs to a minority religion. It doesn’t matter that Aamir played Bhuvan, a Hindu, in Lagaan, which was nominated at the Oscars. It doesn’t matter that Aamir produced and acted in Dangal, a story that celebrated the life of a Hindu wrestler called Mahavir Singh Phogat. In Sarfarosh, he was Ajay Rathod, in Ghulam he was Siddharth Marathe, in Dil Hai Ke Manta Nahi he was Raghu Jetley, in Dil Chahta Hai he was Akash Malhotra, in Taare Zameen Par he was Ram Shankar Nikumbh, in QSQT he was Raj and in Jo Jeeta Wohi Sikandar he was Sanjay Sharma.
In his entire life, Aamir has played Hindu characters embedded in Hindu culture and got glory to Bollywood across the world, including Oscars. When he played a rare Muslim character called Rehan Qadri in Fanaa, he played an Islamic terrorist who is killed by his Muslim wife.
But the Hindu nationalists want to focus on PK because it is convenient to abuse him as a Muslim. This is the smallness of this community that bugs me to no end. I refuse to identify with such losers. It is a shame that they belong to the same religious community I was born in.
I will watch Lal Singh Chaddha.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी कांग्रेस (निम्न सदन) की अध्यक्षा नैन्सी पेलोसी की ताइवान-यात्रा पर सारी दुनिया का ध्यान केंद्रित हो गया था। न तो ताइवान कोई महाशक्ति है और न ही पेलोसी अमेरिका की राष्ट्रपति है। फिर भी उनकी यात्रा को लेकर इतना शोर-शराबा क्यों मच गया? इसीलिए कि दुनिया को यह डर लग रहा था कि ताइवान कहीं दूसरा यूक्रेन न बन जाए। वहां तो झगड़ा रूस और यूक्रेन के बीच हुआ है लेकिन यहाँ तो एक तरफ चीन है और दूसरी तरफ अमेरिका!
यदि ताइवान को लेकर ये दोनों महाशक्तियाँ भिड़ जातीं तो तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा पैदा हो सकता था लेकिन संतोष का विषय है कि पेलोसी ने शांतिपूर्वक अपनी ताइवान-यात्रा संपन्न कर ली है। चीन मानता है कि ताइवान कोई अलग राष्ट्र नहीं है बल्कि वह चीन का अभिन्न अंग है। यदि अमेरिका चीन की अनुमति के बिना ताइवान में अपने किसी बड़े नेता को भेजता है तो यह चीनी संप्रभुता का उल्लंघन है। अमेरिकी नेता नैन्सी पेलोसी की हैसियत राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के बाद तीसरे स्थान पर मानी जाती है।
यों तो कई अमेरिकी सीनेटर और कांग्रेसमेन ताइवान जाते रहे हैं लेकिन पेलोसी के वहां जाने का अर्थ कुछ दूसरा ही है। चीन मानता है कि यह चीन को अमेरिकी की खुली चुनौती है। चीनियों ने दो-टूक शब्दों में धमकी दी थी कि यदि नैन्सी की ताइवान यात्रा हुई तो चीन उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई किए बिना नहीं रहेगा। चीन ने ताइवान के चारों तरफ कई लड़ाकू जहाज और जलपोत डटा दिए थे और अमेरिका ने भी अपने हमलावर जहाज, प्रक्षेपास्त्र और जलपोत आदि भी तैनात कर दिए थे।
डर यह लग रहा था कि यदि गल्ती से एक भी हथियार का इस्तेमाल किसी तरफ से हो गया तो भयंकर विनाश-लीला छिड़ सकती है। चीन इस यात्रा के कारण इतना क्रोधित हो गया था कि उसने ताइवान जानेवाली हर चीज़ पर प्रतिबंध लगा दिया था। ताइवान भी इतना डर गया था कि उसने अपने सवा दो करोड़ लोगों को बमबारी से बचाने के लिए सुरक्षा का इंतजाम कर लिया था। पेलोसी 24 घंटे ताइवान में बिताकर अब दक्षिण कोरिया रवाना हो गई हैं।
वे ताइवानी नेताओं से खुलकर मिली हैं और अमेरिका चीन के खिलाफ बराबर खम ठोक रहा है। जो बाइडन की सरकार के लिए पेलोसी की ताइवान-यात्रा और अल-क़ायदा के सरगना अल-जवाहिरी का उन्मूलन विशेष उपलब्धि बन गई है। चीन ने जवाहिरी की हत्या पर भी अमेरिका की आलोचना की है। चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते हुए तनाव के कारण चीन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बने चार देशों के चौगुटे की भी खुलकर निंदा की थी।
पेलोसी की इस ताइवान-यात्रा ने सिद्ध कर दिया है कि चीन कोरी गीदड़ भभकियाँ देने का उस्ताद है। इस मामले के कारण चीन का बड़बोलापन बदनाम हुए बिना नहीं रहेगा। पेलोसी की इस यात्रा ने अमेरिका की छवि चमका दी है और चीन की छवि को धूमिल कर दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
अपने सार्वजनिक जीवन में बेहद चंचल, खिलंदड़े , शरारती और निजी जीवन में बहुत उदास और खंडित किशोर कुमार रूपहले परदे के सबसे अलबेले, रहस्यमय और विवादास्पद व्यक्तित्वों में एक रहे हैं। बात अगर अभिनय की हो तो अपने समकालीन दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, अशोक कुमार, बलराज साहनी जैसे अभिनेताओं की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरते, लेकिन वे ऐसे अदाकार ज़रूर थे जिनके पास अपने समकालीन अभिनेताओं के बरक्स मानवीय भावनाओं और विडंबनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अलग अंदाज़ था। एक ऐसा नायक जिसने नायकत्व की स्थापित परिभाषाओं को बार-बार तोडा। ऐसा विदूषक जो जीवन की त्रासद से त्रासद परिस्थितियों को एक मासूम बच्चे की निगाह से देख सकता था। हाफ टिकट, चलती का नाम गाड़ी, रंगोली,मनमौजी, दूर गगन की छांव में, झुमरू, दूर का राही, पड़ोसन जैसी फिल्मों में उन्होंने अभिनय के नए अंदाज़, नए मुहाबरों से हमें परिचित कराया।
अभिनय से भी ज्यादा स्वीकार्यता उन्हें उनके गायन से मिली। उनकी आवाज़ में शरारत भी थी, शोख़ी भी, चुलबुलापन भी, संज़ीदगी भी, उदासीनता भी और बेपनाह दर्द भी। मोहम्मद रफ़ी के बाद वे अकेले गायक थे जिनकी विविधता सुनने वालों को हैरत में डाल देती है। 'मैं हूं झूम-झूम-झूम-झूम झुमरू' का उल्लास, 'ओ मेरी प्यारी बिंदु' की शोख़ी, ये दिल न होता बेचारा' की शरारत, 'ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना' की मस्ती, 'ये रातें ये मौसम नदी का किनारा' का रूमान ,'चिंगारी कोई भड़के' का वीतराग, 'सवेरा का सूरज तुम्हारे लिए है' की संजीदगी, 'घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं' की निराशा, 'छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं' की उम्मीद, 'कोई हमदम न रहा' की पीड़ा, 'मेरे महबूब क़यामत होगी' की हताशा, 'दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना' का वैराग्य - भावनाओं की तमाम मनःस्थितियां एक ही गले में समाहित ! यह सचमुच अद्भुत था। उनके गाए सैकड़ों गीत हमारी फिल्म संगीत विरासत का अनमोल हिस्सा हैं और बने रहेंगे।
जन्मदिन (4 अगस्त) पर किशोर दा को श्रद्धांजलि !
-डेविड ब्राउन
चीन और अमेरिका के बीच अमेरिकी कांग्रेस की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर तनाव पैदा हो गया है।
पिछले 25 सालों में ये अमेरिका के किसी उच्चस्तरीय राजनेता की ये पहली ताइवान यात्रा है।
चीन ने पेलोसी की ताइवान यात्रा को ‘बहुत खतरनाक’ बताया है।
चीन के उप-विदेश मंत्री शी फ़ेंग ने इसे विद्वेषपूर्ण बताते हुए गंभीर परिणाम की चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि चीन हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठा रहेगा।
वहीं अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा विभाग के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा है नैंसी पेलोसी की यात्रा चीन की वन-चाइना पॉलिसी के अनुरूप है और इसे एक संकट में बदलने की कोई जरूरत नहीं है।
ताइवान को लेकर विवाद क्यों?
चीन ताइवान को अपने से अलग हुआ एक प्रांत मानता है और उसे लगता है कि अंतत: वो चीन के नियंत्रण में आ जाएगा।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग कह चुके हैं कि ताइवान का ‘एकीकरण’ पूरा होकर रहेगा। उन्होंने इसे हासिल करने के लिए ताकत के इस्तेमाल को भी खारिज नहीं किया है।
मगर ताइवान खुद को एक स्वतंत्र देश मानता है जिसका अपना संविधान और अपने चुने हुए नेताओं की सरकार है।
ताइवान क्यों अहम है?
ताइवान एक द्वीप है जो चीन के दक्षिण-पूर्वी तट से लगभग 100 मील दूर है।
चीन मानता है कि ताइवान उसका एक प्रांत है, जो अंतत: एक दिन फिर से चीन का हिस्सा बन जाएगा।
दूसरी ओर, ताइवान खुद को एक आजाद मुल्क मानता है। उसका अपना संविधान है और वहां लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार का शासन है।
ये ‘फस्र्ट आइलैंड चेन’ या ‘पहली द्वीप शृंखला’ नाम से कहे जाने वाले उन टापुओं में गिना जाता है जिसमें अमेरिका के करीबी ऐसे क्षेत्र शामिल हैं जो अमेरिकी विदेश नीति के लिए अहम माने जाते हैं।
अमेरिका की विदेश नीति के लिहाज से ये सभी द्वीप काफी अहम हैं।
चीन यदि ताइवान पर कब्जा कर लेता है तो पश्चिम के कई जानकारों की राय में, वो पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपना दबदबा दिखाने को आजाद हो जाएगा। उसके बाद गुआम और हवाई द्वीपों पर मौजूद अमेरिकी सैन्य ठिकाने को भी खतरा हो सकता है। हालांकि चीन का दावा है कि उसके इरादे पूरी तरह से शांतिपूर्ण हैं।
चीन से अलग क्यों हुआ ताइवान?
दोनों के बीच अलगाव करीब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ। उस समय चीन की मुख्य भूमि में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का वहां की सत्ताधारी नेशनलिस्ट पार्टी (कुओमिंतांग) के साथ लड़ाई चल रही थी।
1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जीत गई और राजधानी बीजिंग पर कब्जा कर लिया। उसके बाद, कुओमिंतांग के लोग मुख्य भूमि से भागकर दक्षिणी-पश्चिमी द्वीप ताइवान चले गए। उसके बाद से अब तक कुओमिंतांग ताइवान की सबसे अहम पार्टी बनी हुई है। ताइवान के इतिहास में ज़्यादातर समय तक कुओमिंतांग पार्टी का ही शासन रहा है। फिलहाल दुनिया के केवल 13 देश ताइवान को एक अलग और संप्रभु देश मानते हैं।
चीन का दूसरे देशों पर ताइवान को मान्यता न देने के लिए काफी कूटनीतिक दबाव रहता है।
चीन की ये भी कोशिश होती है कि दूसरे देश कुछ ऐसा न करे जिससे ताइवान को पहचान मिलती दिखे। ताइवान के रक्षामंत्री ने कहा है कि चीन के साथ उसके संबंध पिछले 40 सालों में सबसे खऱाब दौर से गुजर रहे हैं।
ताइवान क्या अपनी रक्षा खुद कर सकता है?
चीन सैन्य तरीकों से इतर कदम उठाकर भी ताइवान का फिर से एकीकरण कर सकता है। ऐसा दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाकर हो सकता है। लेकिन दोनों देशों में यदि लड़ाई हुई तो ताइवान की सैन्य ताकत चीन के सामने बौनी साबित होगी।
चीन का अपनी सेना पर सालाना खर्च दुनिया में अमेरिका को छोडक़र सबसे ज़्यादा है। उसकी सैन्य ताकत काफी विविध और विशाल है। चाहे मिसाइल टेक्नोलॉजी को देखें या नौसेना या वायुसेना को। साइबर हमले करने में भी चीन का मुकाबला करना कुछ ही देश के बूते की बात है।
सैन्य ताकत में चीन का कोई मुकाबला नहीं
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटेजिक स्टडीज (आईआईएसएस) के मुताबिक, चीन के पास हर तरह के सैनिकों को मिला लें तो वहां 20.35 लाख सक्रिय सैनिक हैं।
वहीं, ताइवान में केवल 1.63 लाख सक्रिय सैनिक हैं। इस तरह चीन की ताकत इस मामले में ताइवान से करीब 12 गुना ज्यादा हुई। बात यदि थल सेना की करें तो चीन में 9.65 लाख थल सैनिक हैं, जबकि ताइवान में 11 गुना कम केवल 88 हजार। वहीं नौसेना में चीन के पास 2.60 लाख कार्मिक हैं और ताइवान में केवल 40 हजार।
चीन की वायुसेना में करीब चार लाख लोग हैं, लेकिन ताइवान में केवल 35 हजार कार्मिक हैं। इन सबके अलावा, चीन के पास और 4.15 लाख दूसरे सैनिक हैं। वहीं ताइवान के साथ ऐसा नहीं है।
पश्चिम के कई जानकारों का अनुमान है कि दोनों देशो के बीच यदि आमने सामने की भिड़ंत हुई तो ताइवान बहुत कोशिश करके चीन के हमले को थोड़ा धीमा कर सकता है। उसे अमेरिका से मदद मिल सकती है, जो ताइवान को हथियार बेचता है। हालांकि अमेरिका की औपचारिक नीति ‘कूटनीतिक अस्पष्टता’ की रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका जानबूझकर अपनी नीति को साफ नहीं करता कि हमले की सूरत में क्या और कैसे वो ताइवान की मदद करेगा। कूटनीतिक तौर पर चीन फिलहाल ‘एक चीन की नीति’ का समर्थन करता है। इसका मतलब ये हुआ कि अमेरिका की आधिकारिक लाइन है कि बीजिंग सरकार ही असली चीन की प्रतिनिधि है। उसका औपचारिक संबंध ताइवान की बजाय चीन के साथ है।
क्या हालात खऱाब होते जा रहे हैं?
2021 में, चीन ने ताइवान के वायु रक्षा क्षेत्र में अपने लड़ाकू विमान भेजकर उस पर दबाव बनाता हुआ दिखा। किसी देश का वायु रक्षा क्षेत्र, वो इलाका होता है, जहां देश की रक्षा के लिए विदेशी विमानों को पहचानकर, उन पर निगरानी और नियंत्रण रखा जाता है। ताइवान ने 2020 में विमानों की घुसपैठ के आंकड़े सार्वजनिक किए। वैसे इस तरह की घुसपैठ में तेजी पिछले साल के अक्टूबर में आई। अक्टूबर 2021 में एक ही दिन में चीन के 56 विमानों को ताइवानी इलाके में दाखिल होने की सूचना मिली।
दुनिया के लिए ताइवान अहम क्यों?
ताइवान की अर्थव्यवस्था दुनिया के लिए काफी मायने रखती है। दुनिया के रोजाना इस्तेमाल के इलेक्ट्रॉनिक गैजेटों जैसे फोन, लैपटॉप, घडिय़ों और गेमिंग उपकरणों में जो चिप लगते हैं, वे ज्यादातर ताइवान में बनते हैं।
चिप के मामले में ताइवान फिलहाल दुनिया की बहुत बड़ी जरूरत है। उदाहरण के लिए ‘वन मेजर’ नाम की कंपनी को लें। अकेले यह कंपनी दुनिया के आधे से अधिक चिप का उत्पादन करती है।
2021 में दुनिया का चिप उद्योग करीब 100 अरब डॉलर का था और इस पर ताइवान का दबदबा है। यदि ताइवान पर चीन का कब्जा हो गया तो दुनिया के इतने अहम उद्योग पर चीन का नियंत्रण हो जाएगा।
क्या ताइवान के लोग चिंतित हैं?
चीन और ताइवान के बीच के तनाव के बढ़ जाने के बावजूद हाल के रिसर्च बताते हैं कि इसका ज्यादा असर वहां के लोगों पर नहीं पड़ा है। अक्टूबर में ताइवान पब्लिक ओपिनियन फाउंडेशन ने लोगों से पूछा कि क्या वे सोचते हैं कि चीन के साथ युद्ध होकर ही रहेगा। ताइवान के करीब 64 फीसदी लोगों ने इसका जवाब ‘न’ में दिया। वहीं एक दूसरे रिसर्च से पता चला कि ताइवान के ज़्यादातर लोग खुद को चीनी लोगों से अलग मानते हैं।
नेशनल चेंग्ची यूनिवर्सिटी के एक सर्वे में पता चला कि 1990 की तुलना में आज ताइवान में लोगों के बीच ताइवानी पहचान बढ़ती गई है। लोगों में खुद को चीनी या ताइवानी और चीनी दोनों मानने की प्रवृत्ति पहले से काफी कम हो गई है। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में मजहब के नाम पर किस कदर पोंगापंथी लोग कोहराम मचाकर खुश होते हैं? अब ताजा कि़स्सा सामने आया है, मुजफ्फरनगर की युवा गायिका फरमानी नाज़ का! यह एक घरेलू मुस्लिम महिला है। इस तीस वर्षीय मुस्लिम महिला के खिलाफ कुछ मुस्लिम मौलानाओं ने अपने तोप और तमंचे दागने शुरु कर दिए हैं, क्योंकि उसका गाया हुआ एक भजन ‘हर हर शंभू’ बहुत लोकप्रिय हो रहा है। उस भजन को इंटरनेट पर अभी तक लगभग 10 लाख लोग सुन चुके हैं। देवबंद के उलेमाओं के वाग्बाणों के बाद कोई आश्चर्य नहीं कि अब नाज़ के भजनों, गजलों और गीतों को सुननेवालों की संख्या करोड़ों तक पहुंच जाए।
हमारे पोंगापंथी मौलानाओं की फरमानी नाज़ पर यह बड़ी कृपा बरसेगी। मैंने भी फरमानी नाज़ को सुनने की कोशिश की। उसके शिव भजन में तो मुझे कोई खास रस नहीं आया लेकिन उसकी गजलें सुनकर मैं दंग रह गया। अपने चूल्हे पर गोबर लीपती हुई नाज़ जो गजल गा रही है, बिना तबला और बांसुरी के, वह भी सीधे दिल में उतर रही थी। देवबंद के एक मौलाना और मुफ्ती ने फरमानी नाज़ के शिव भजन गाने पर घोर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि यदि आप मुसलमान हैं तो आपको किसी अन्य मजहब के देवी-देवताओं के भजन बिल्कुल नहीं गाने चाहिए। इस्लाम इसकी इज़ाजत कतई नहीं देता।
उनके इस एतराज़ का फरमानी और उसकी माँ, दोनों ने साफ़-साफ़ लफ्जों में जवाब दिया है। उनका कहना है कि फरमानी नाज़ पक्की मुसलमान है और वह नियमित नमाज़ भी अदा करती है। लेकिन उसकी शादी के दो साल बाद ही उसका तलाक हो गया। उसे मुंबई के ‘इंडियन आइडोल’ में गोल्डन टिकिट भी मिल गया था लेकिन उसे छोडक़र उसे फिर मुजफ्फरनगर आना पड़ा, क्योंकि उसके दो साल के बेटे के गले का गंभीर आपरेशन जरुरी था। उसके लिए वह पैसा कहां से लाती? सो, उसने गाना शुरु कर दिया। उसके पास कोई कमी नहीं रही। उसकी माँ फातिमा बेगम ने कहा कि उसके गायन ने ही बच्चे के जान बचाई!
उन दोनों का कहना है कि संगीत का कोई मजहब नहीं होता। उनकी यह बात गलत होती तो मोहम्मद रफी, ए़.आर, रहमान, जावेद अख्तर, लता मंगेशकर, शकील बदायूंनी जैसे दर्जनों बड़े नाम मैं गिना सकता हूं कि जिन्होंने एक-दूसरे के धार्मिक भजनों और गीतों को गाया और लिखा है। मुसलमान और ईसाई अभिनेताओं ने हिंदू देवी-देवताओं के रोल किए हैं और हिंदू अभिनेताओं ने मुस्लिम बादशाहों के रोल अदा किए हैं। क्या देवबंद के मौलानाओं को पता नहीं है कि रसखान ने कृष्णभक्ति में जो अदभुत काव्य लिखा है, क्या वैसा किसी हिंदू कवि ने भी लिखा है?
अगर फरमानी नाज़ के खिलाफ आप फतवा जारी करेंगे तो आपको रहीम, रसखान, कबीर, मलिक मुहम्मद जायसी जैसे भारतीय महाकवियों के खिलाफ भी फतवा जारी करना पड़ेगा। मुझे तो कई बार पाकिस्तान के कई प्रसिद्ध गायकों के घर पर हिंदू भजन सुनकर चकित हो जाना पड़ा है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के अनेक शास्त्रीय संगीत महारथियों को मैंने काबुल, कराची, लाहौर और दिल्ली में पक्के शास्त्रीय गायन में हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख करते हुए सुना ।
मीर, गालिब, इकबाल जैसे महान शायरों की कविताओं में मजहबी पोंगापंथियों की जो मज़ाक उड़ाई गई है, उसे मैं यहां दोहराना नहीं चाहता हूं। देवबंद के मुल्ला-मौलवियों से मेरा अनुरोध है कि वे थोड़ी उदारता अपनाएं ताकि भारतीय इस्लाम दुनिया भर के इस्लाम से बेहतर बनकर उभरे और जिनकी नकल आप करना चाह रहे हैं, वे आपकी नकल करने लगें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अप्पू झा अपूर्वा
आपको फेसबुक पर मुख्यत: तीन प्रकार के लपहला- जो आपकी एक गलती के इंतजार में बैठे रहेंगे जैसे आपसे कोई गलती हुई। ये चिल्ला उठेंगे। सार्वजनिक रूप से कमेंट करेंगे। बहस करने लगेंगे। जो नहीं भी जानते है उनको टैग कर के बताएँगे। ऐसे लोगों से उचित दूरी बना कर रखना चाहिए।
दूसरा - ये तमाशबीन होंगे। इन्हें आपके अच्छे-बुरे से कोई मतलब नहीं है। ये पोस्ट पसन्द आने पर लाइक या कमेंट करेंगे या चुपचाप रह जाएंगे। इनका होना या ना होना आपके लिए कोई महत्व नहीं रखता है।
तीसरा - कभी-कभी भावावेश या अज्ञानता की वजह से लोग कुछ ऐसा पोस्ट कर देते है। जो बाद में जी का जंजाल बन जाता है। ऐसे लोग सार्वजनिक रूप से बात नहीं करेंगे लेकिन अकेले में या इनबॉक्स में आकर आपको बताएँगे। ये आपके लिए संपत्ति की तरह हैं, इन्हें सहेज कर रखिये।
आप कहेंगे कि मैं सुबह-सुबह क्यों ज्ञान देने के लिए बैठ गया। हुआ यूं कि मैंने किसी पोस्ट में कटिहार को कतिहार लिख दिया तो क्चड्डड्ढद्बह्लड्ड मैडम ने मुझे इनबॉक्स में गलती की सूचना दी। मैंने इसे ठीक कर दिया। तब तक इस पोस्ट पर चार सौ से ज्यादा लाइक आ चुके थे। ये बात बहुतों के नजरों से गुजरी होगी। आप कह सकते है कि ये तो बहुत छोटी और सामान्य बात है। लेकिन दोस्तों जो लोग बड़े होते है वो छोटी-छोटी बातों का भी ख्याल रखते है। ये चीज ही उनको बड़ा बनाती है। एक बात और मैडम से ना तो मेरी कभी कोई औपचारिक मुलाकात है ना कभी कोई बात हुई है।
हाँ, एक बार भले अनौपचारिक रूप से साल या दो साल पहले कटिहार से पटना जाते समय एक बार कटिहार पटना इंटरसिटी ट्रेन में इनसे मुलाकात हुई थी। हुआ यूं कि इनका दो एसी चेयर कार इनके और हसबैंड के नाम पर रिजर्व था। और वो शायद नहीं आ सके तो ये अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी। टीटी ने आकर इन्हें टोक दिया और गलत टिकट का हवाला दिया। मैडम को लगा होगा कि मैंने तो रेलवे को दो सीट के पैसे दिए ही हैं। अब हसबैंड किसी कारणवश नहीं आ सके तो मैं अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही हूं। इसमें क्या दिक्कत है। जो कि किसी भी सामन्य समझ वाले व्यक्ति के नजर में सही है, लेकिन रेलवे के नजर में ये गलती मानी जाती है। इसी को लेकर बहस होने लगा। दोनों लोग अड़ गए। बहस विवाद का रूप लेने लगा। मैं इनसे दस बारह सीट आगे बैठा हुआ सबकुछ सुन रहा था। मुझे लगा कि अब अगर इस विवाद को नहीं रोका गया तो दिक्कत आ सकती है। मेरे अंदर का फेसबुक मित्र जाग गया। मैं अपनी सीट से उठा और टीटी जो कि एक रेलकर्मी होने के कारण मेरे पूर्व परिचित ही थे। उन्हें शांत करवाया और इन्हें भी शांत होने को कहा। मेरे हस्तक्षेप के बाद दोनों जन शांत हुए। बस वही जो पाँच दस मिनट की हमारी मुलाकात थी।
उसके बाद मैं वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गया। हाँ, एक बात और इनकी सोशल मीडिया की लोकप्रियता देखकर मैंने इनसे एक बार अपने कानूनी सलाह पेज की प्रमोशन करने की गुजारिश की थी। जो इन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। जिससे मेरी पेज की पहुंच में कुछ इजाफा हो गया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह शुभ-संकेत है कि भारत की न्याय-व्यवस्था की दुर्दशा पर हमारे प्रधानमंत्री और प्रमुख न्यायाधीशों ने आजकल खुलकर बोलना शुरु किया है। हम आजादी का 75 वाँ साल मना रहे हैं लेकिन कौनसी आजादी है, यह! यह तो सिर्फ राजनीतिक आजादी है याने अब भारत में ब्रिटिश महारानी की जगह राष्ट्रपति और ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर की जगह प्रधानमंत्री को दे दी गई है। हमारे चुने हुए सांसद और विधायक कानून भी बनाते हैं। लेकिन यह तो औपचारिक राजनीतिक आजादी है लेकिन क्या देश को सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आजादी मिली है?
क्या हम भारत में समतामूलक समाज का निर्माण कर पाए हैं? ये काम भी कुछ हद तक हुए हैं लेकिन ये हुए हैं, हाशिए के तौर पर! मूल पन्ने पर आज भी अंग्रेज की गुलामी छाई हुई है। सिर्फ तीन क्षेत्रों को ही ले लें। शिक्षा, चिकित्सा और न्याय! इन तीनों क्षेत्रों में जो गुलामी पिछले दो सौ साल से चली आ रही है, वह ज्यों की त्यों है। हमारे प्रधानमंत्री लोग और न्यायाधीशगण इस गुलामी के खिलाफ आजकल खुलकर बोल रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि इस गुलामी से भारत को छुटकारा कैसे दिलाया जाए। शिक्षा और चिकित्सा पर तो मैं पहले लिख चुका हूं। इस बार न्याय की बात करें।
हमारी अदालतों में इस समय 4 करोड़ 70 लाख मुकदमे लटके पड़े हुए हैं। इनमें से 76 प्रतिशत ऐसे कैदी हैं, जिनके मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। उनका जुर्म सिद्ध नहीं हुआ है लेकिन वे 10-10 साल से जेल काट रहे हैं। 10-15 साल जेल काटने के बाद अब अदालतें उन्हें निर्दोष सिद्ध करती हैं तो क्या उन्हें कोई हर्जाना मिलता है? क्या उन पुलिसवालों और एफआईआर लिखानेवालों को कोई सजा मिलती है? इसके अलावा अदालती कार्रवाई इतनी लंबी और मंहगी है कि भारत के ज्यादातर लोग उसका फायदा ही नहीं उठा पाते। 76 प्रतिशत उक्त कैदियों में से 73 प्रतिशत दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग होते हैं। अंग्रेजी में चलनेवाली अदालत बहस और फैसले किसी जादू-टोने से कम नहीं होते। वादी और प्रतिवादी को पल्ले ही नहीं पड़ता कि उनके मामलों में बहस क्या हुई है और फैसले का आधार क्या है?
हमारे जज और वकील बड़े योग्य होते है लेकिन उनकी सारी शक्ति को अंग्रेजी ही चाट लेती है। यदि हमारी सरकारें, न्यायाधीश और वकील लोग उक्त कमजोरियों का समाधान खोजने लगें तो देश में सच्ची न्यायिक आजादी कायम हो सकती है। मुकदमे जल्दी-जल्दी निपटें, इसके लिए जरुरी है कि हमारे जज लोग साल के 365 दिनों में कम से कम 8 घंटे रोज काम करें और साल में कम से कम 250-275 दिन काम करें। अभी तो वे साल में सिर्फ 168 दिन काम करते हैं, वह भी सिर्फ 5-6 घंटे रोज! कानून की पढ़ाई भी स्वभाषा में शुरु की जाए और सारी प्रांतीय अदालतों में बहस और फैसले भी उन्हीं की भाषा में हो। सर्वोच्च न्यायालय में सिर्फ अगले पांच वर्ष तक अंग्रेजी का विकल्प रहे लेकिन सारा काम-काज हिंदी में हो। जजों की नियुक्ति में सरकारी दखलंदाजी कम से कम हो ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहे। दुनिया के वे कई देश, जो पहले भारत की तरह गुलाम रहे, उनमें भी आजादी के बाद अदालतें स्वभाषाओं में ही काम करती हैं। जिन देशों की अदालतें आज भी विदेशी भाषाओं के माध्यम से चलती हैं, वे फिसड्डी ही बने हुए हैं। भारत की आजादी के 75 वें वर्ष में हमारे नेता और न्यायाधीश यदि खोखले भाषण ही झाड़ते रहे तो इससे बड़ा मजाक इस उत्सव का क्या होगा? (नया इंडिया की अनुमति से)
-गजानन माधव मुक्तिबोध
एक छाया-चित्र है। प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं। प्रसाद गम्भीर सस्मित। प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य। विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है। प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है। जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही हैं। फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं। उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं।
इस फोटो का मेरे जीवन में काफी महत्व रहा है। मैने उसे अपनी माँ को दिखाया था। प्रेमचन्द की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई। वह प्रेमचन्द को एक कहानीकार के रूप में बहुत-बहुत चाहती थी। उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्व रखने वाले, सिर्फ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं - एक हरिनारायण आप्टे, दूसरे प्रेमचन्द। आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, उनके लेखे, 'पण लक्षात कोण घेतो' है, जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करुण कथा कही गयी है। वह क्रान्तिकारी करुणा है। उस करुणा ने महाराष्ट्रीय परिवारों को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया। मेरी माँ जब प्रेमचन्द की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आँसू छलछलाते से मालूम होते। और तब—उन दिनों मैं साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र, मैट्रिक का एक छोकरा था—प्रेमचन्द की कहानियों का दर्द भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती। प्रेमचन्द के पात्रों को देख, तदनुसारी-तदनरूप चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोज-खोजकर निकालती। इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचन्द का "नमक का दारोगा" आलमारी में से खोजकर निकाला था। प्रेमचन्द पढ़ते वक्त माँ को खूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किये बगैर मुझे प्रेमचन्द कथा प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती।
प्रेमचन्द के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय मेरी माँ को ही है। मैं अपनी भावना में प्रेमचन्द को माँ से अलग नहीं कर सकता। मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़नों के विरूद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी। यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी। वह स्वयं उत्पीड़ित थी। और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचन्द के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी। मेरी ताई (माँ) अब बूढ़ी हो गयी है। उसने वस्तुत: भावना और सम्भावना के आधार पर मुझे प्रेमचन्द पढ़ाया। इस बात को वह नहीं जानती है कि प्रेमचन्द के पात्रों के मर्म का वर्णन-विवेचन करके वह अपने पुत्र के ह्रदय में किस बात का बीज बो रही है। पिताजी देवता हैं, माँ मेरी गुरू है। सामाजिक दम्भ, स्वाँग, ऊँच-नीच की भावना, अन्याय और उत्पीड़नों से कभी भी समझौता न करते हुए घृणा करना उसी ने मुझे सिखाया।
लेकिन मेरी प्यारी श्रद्धास्पदा माँ यह कभी न जान सकी कि वह किशोर-हृदय में किस भीषण क्रान्ति का बीज बो रही है, कि वह भावात्मक क्रान्ति अपने पुत्र को किस उचित-अनुचित मार्ग पर ले जायेगी, कि वह किस प्रकार अवसरवादी दुनिया के गणित से पुत्र को वंचित रखकर, उसके परिस्थिति-सामंजस्य को असम्भव बना देगी।
आज जब मैं इन बातों पर सोचता हूँ तो लगता है कि यदि मैं, माँ और प्रेमचन्द की केवल वेदना ही ग्रहण न कर, उनके चारित्रिक गुण भी सीखता, उनकी दृढ़ता, आत्म-संयम और अटलता को प्राप्त करता, आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति नष्ट कर देता, और उन्हीं के मनोजगत की विशेषताओं को आत्मसात करता, तो शायद, शायद मैं अधिक योग्य पात्र होता। माँ मेरी गुरू थी अवश्य, किन्तु, मैं उनका शायद योग्य शिष्य ना था। अगर होता तो कदाचित् अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक होता, केवल प्रयोगवादी कवि बनकर न रह जाता।
मतलब यह कि जब कभी भी प्रेमचन्द के बारे में सोचता हूँ, मुझे अपने जीवन का ख्याल आ जाता है। मुझे महान चरित्रों से साक्षात्कार होता है, और मैं आत्म-विश्लेषण में डूब जाता हूँ। आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति बहुत बुरी चीज है।
जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तो मेरे कुछ लेखक-मित्रों के पास प्रेमचन्दजी के पत्र आये। मैं उन मित्रों के प्रति ईर्ष्यालु हो उठा। उन दिनों मैं उन लोगों को जीनियस समझता था, और प्रेमचन्द को देवर्षि। अब सोचता हूँ कि दोनों बातें गलत है। मेरे लेखक-मित्र जीनियस थे ही नहीं, बहुत प्रसिद्ध अवश्य थे और अभी भी है। किन्तु वे प्रेमचन्द के लायक न तब थे, न अब हैं। और यहाँ हम हिन्दी साहित्य के इतिहास के एक मनोरंजक और महत्वपूर्ण मोड़ तक पहुँच जाते है। प्रेमचन्द जी भारतीय सामाजिक क्रान्ति के एक पक्ष का चित्रण करते थे। वे उस क्रान्ति के एक अंग थे। किन्तु अन्य साहित्यिक उस क्रान्ति का एक अंग होते हुए भी उसके सामाजिक पक्ष की संवेदना के प्रति उन्मुख नहीं थे। वह क्रान्ति हिन्दी साहित्य में छायावादी व्यक्तिवाद के रूप में विकसित हो चुकी थी। जिस फोटो का मैंने शुरू में जिक्र किया, उसमें के प्रसादजी इस व्यक्तिवादी भाव-धारा के प्रमुख प्रवर्तक थे।
यह व्यक्तिवाद एक वेदना के रूप में सामाजिक गर्भितार्थों को लिये हुए भी, प्रत्यक्षत: किसी प्रत्यक्ष सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित नहीं था। जैनेन्द्र में तो फिर भी मुक्तिकामी सामाजिक ध्वन्यर्थ थे, किन्तु आगे चलकर अज्ञेय में वे भी लुप्त हो गये। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रान्ति के प्रथम और अन्तिम महान कलाकार थे। प्रेमचन्द की भाव-धारा वस्तुत: अग्रसर होती रही, किन्तु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया। यह सम्भव भी नहीं था, क्योंकि इस क्रान्ति का नेतृत्व पढ़े-लिखे मध्यम-वर्ग के हाथ में था, और वह शहरों में रहता था। बाद में वह वर्ग अधिक आत्म-केन्द्रित और अधिक बुद्धि-छन्दी हो गया तथा उसने काव्य में प्रयोगवाद को जन्म दिया।
किन्तु, क्या यह वर्ग कम उत्पीड़ित है? आज तो सामाजिक विषमताएँ और भी बढ़ गयी हैं। प्रेमचन्द का महत्व पहले से भी अधिक बढ़ गया है। उनकी लोकप्रियता अब हिन्दी तक ही सीमित नहीं रह गयी है। अन्य भाषाओं में उनके अनुवादकर्ताओं के बीच होड़ लगी रहती है। प्रेमचन्द द्वारा सूचित सामाजिक सन्देश अभी भी अपूर्ण है। किन्तु हम जो हिन्दी के साहित्यिक है, उसकी तरफ विशेष ध्यान नहीं दे पाते। एक तरह से यह यथार्थ से भागना हुआ। उदाहरणत: आज का कथा-साहित्य पढ़कर पात्रों की प्रतिच्छाया देखने के लिए हमारी आँखे आस-पास के लोगों की तरफ नहीं खिंचतीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे पात्रों की छाया ही नहीं गिरती, कि वे लगभग देहहीन है। लगता है कि हमारे यहाँ प्रेमचन्द के बाद एक भी ऐसे चरित्र का चित्रण नहीं हुआ, जिसे हम भारतीय विवेक-चेतना का प्रतीक कह सकें। शायद, अज्ञान के कारण मेरी ऐसी धारणा होगी। कोई मुझे प्रकाश-दान दें।
किन्तु, कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द की जरूरत आज पहले से भी ज्यादा बढ़ी हुई है। प्रेमचन्द के पात्र आज भी हमारे समाज में जीवित हैं। किन्तु वे अब भिन्न स्थिति में रह रहे हैं। किसी के चरित्र का कदाचित् अध:पतन हो गया है। किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है। बहुतेरे पात्र अपने सृजनकर्त्ता लेखक की खोज में भटक रहे है। उन्हें अवश्य ऐसा कोई-न-कोई लेखक शीघ्र ही प्राप्त होगा।
प्रेमचन्द की विशाल छाया में बैठकर आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति मुझे अजीब ख्यालों में डुबो देती है। माना कि आज व्यक्ति पहले जैसा ही जीवन-संघर्ष में तत्पर है, किन्तु अब वह अधिक आत्म-केन्द्रित और आत्म-ग्रस्त हो गया है, माना कि इन दिनों वह समाज-परिवर्तन की, समाजवाद की, वैज्ञानिक विकास की, योजनाबद्ध कार्य की, अधिक बात करता है। किन्तु एक चरित्र के रूप में, एक पात्र के रूप में, वह सघन और निबिड़ आत्म-केन्द्रित होता जा रहा है। माना कि आज वह अधिक सुशिक्षित-प्रशिक्षित है, और अनेक पुराणपंथी विचारों को त्याग चुका है, तथा जीवन जगत से अधिक सचेत और सचेष्ट है किन्तु मानो ये सब बातें, ये सारी योग्यताएँ, ये सारी स्पृहणीय विशेषताएँ, उसे अधिकाधिक स्वयं-ग्रस्त बनाती गयी हैं। कदाचित् मेरा यह मन्तव्य अतिशयोक्तिपूर्ण है, किन्तु यह भी सही है कि वह एक तथ्य की ही अतिशयोक्ति है।
आश्चर्य मुझे इस बात का होता है कि आखिर आदमी को हो क्या गया है। उसकी अन्तरात्मा, एक जमाने में समाजोन्मुख सेवाभावी थी, आज आदर्शवाद की बात करते हुए भी इतनी अजीब क्यों हो गयी ? एक बार बातचीत के सिलसिले में, एक सम्मानीय पुरुष ने मुझे कहा कि व्यक्ति जितना सुशिक्षित-प्रशिक्षित होता जायेगा, उतना ही बौद्धिक होता जायेगा, और उसी अनुपात में उसकी आत्म-केन्द्रिता बढ़ती जायेगी, उतने ही उसके मानवोचित गुण कम होते जायेंगे, जैसे करुणा, क्षमा, दया, शील, उदारता आदि। मेरे ख्याल से उसने जो कहा है, गलत है। किन्तु यह मैं निश्चय नहीं कर पाता कि उसका मन्तव्य निराधार है। शायद, मैं ग़लती कर रहा हूँगा। जीवन के सिर्फ एक पक्ष को (अधूरे ढंग से और अपर्याप्त निरीक्षण द्वारा) आकलित कर मैं इस निराशात्मक मन्तव्य की ओर आकर्षित हूँ।
किन्तु, कभी-कभी निराशा भी आवश्यक होती है। विशेषकर प्रेमचन्द की छाया में बैठे, आज के अपने आस-पास के जीवन के दृश्य देख, वह कुछ तो स्वाभाविक ही है। सारांश यह, कि प्रेमचन्दजी का कथा-साहित्य पढ़कर आज हम एक उदार और उदात्त नैतिकता की तलाश करने लगते है, चाहने लगते हैं कि प्रेमचन्दजी के पात्रों के मानवीय गुण हममें समा जायें, हम उतने ही मानवीय हो जायें जितना कि प्रेमचन्द चाहते हैं। प्रेमचन्दजी का कथा-साहित्य हम पर एक बहुत बड़ा नैतिक प्रभाव डालता है। उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट ऊँचे पात्रों द्वारा हमारे अन्त:करण में विकसित की गयी भावधाराएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती हैं, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती हैं। और जब प्रेमचन्द हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं। प्रेमचन्द समाज के चित्रणकर्त्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी हैं।
माना कि हमारे साहित्य का टेकनीक बढ़ता चला जायेगा, माना कि हम अधिकाधिक सचेत और अधिकाधिक सूक्ष्म-बुद्धि होते जायेंगे, माना कि हमारा बुद्धिगत ज्ञान संवेदनाओं और भावनाओं को न केवल एक विशेष दिशा में मोड़ देगा, वरन् उनका अनुशासन-प्रशासन भी करेगा। किन्तु क्या यह सच नहीं है कि मानवीय सत्यों और तथ्यों को देखने की सहज भोली और निर्मल दृष्टि, हृदय का सहज सुकुमार आदर्शवाद, दिल को भीतर से हिला देने वाली कर्त्तव्योन्मुख प्रेरणा भी हमारे लिए उतनी ही कठिन और दुष्प्राप्त होती जायेगी ?
ओह! काश, हम भी भोली कली से खिल सकते! पराये दु:ख में रोकर उसे दूर करने की भोली सक्रियता पा सकते! शायद मैं विशेष मन:स्थिति में ही यह सब कह रहा हूँ। फिर भी मेरी यह कहने की इच्छा होती है कि समाज का विकास अनिवार्यत: मानवोचित नैतिक-हार्दिक विकास के साथ चलता जाए, यह आवश्यक नहीं है। सभ्यता का विकास नैतिक विकास भी करता है, यह ज़रूरी नहीं है।
यह समस्या प्रस्तुत लेख के विषय से सम्बन्धित होते हुए भी उसके बाहर है। मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रेमचन्द का कथा-साहित्य पढ़कर हमारे मन पर जो प्रभाव होते हैं, वे धीरे-धीरे हमारी चिन्तना को इस सभ्यता-समस्या तक ले आते हैं। क्या यह हमें प्रेमचन्द की ही देन नहीं है ?
राष्ट्रभारती (1953-57 के बीच) में प्रकाशित
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी के एक बयान को लेकर महाराष्ट्र के नेता लोग कैसा धमाल मचा रहे हैं ? कोश्यारी ने मारवाडिय़ों की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि यदि मारवाड़ी और गुजराती व्यापारियों को हटा दिया जाए तो मुंबई देश की आर्थिक राजधानी नहीं रह पाएगी। कोश्यारी के इस बयान में गलत क्या है? उन्होंने जो सर्वमान्य तथ्य है, उसे बस कहा भर है। उन्होंने महाराष्ट्र के मराठों और दक्षिण भारतीयों के बारे में कोई ऐसी बात नहीं कही, जो अपमानजनक या आपत्तिजनक है।
उन्होंने मुंबई के मारवाड़ी और गुजराती सेठों की पीठ ठोककर महाराष्ट्र का भला ही किया है। सेठों को यह नहीं लगेगा कि वे महाराष्ट्र पर कोई बोझा हैं। कोश्यारी के बयान से वे थोड़े और उत्साहित हो जाएंगे। जहां तक मराठीभाषी लोगों का सवाल है, उन्होंने ऐसा एक शब्द भी नहीं बोला, जिससे उनका अपमान हो या अवमूल्यन हो। जब पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं ने उनके बयान की आलोचना की तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनके अभिप्राय को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। वे मराठी लोगों के योगदान के प्रशंसक हैं लेकिन जरा हम देखें कि महाराष्ट्र के सभी नेता कैसी भेड़चाल चल रहे हैं। भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सभी दलों के नेताओं ने राज्यपाल के बयान को या तो गलत बताया है या उसकी कड़ी भर्त्तसना की है। हर नेता मराठीभाषी मतदाताओं को खुश करने के लालच में फिसलता गया है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी अपना मौन तोड़ दिया। किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि अधमरी शिवसेना के पति उद्धव ठाकरे को कोई मुंहतोड़ जवाब देता। ठाकरे ने शिष्टता की सारी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दिया है।
उन्होंने कहा है कि राज्यपाल को इस वक्त ‘कोल्हापुरी चप्पल’ दिखाने का वक्त है। इतना फूहड़ बयान तो किसी नेता का आज तक हमने कभी सुना नहीं। जो व्यक्ति महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री रह चुका हो, वह एक बुजुर्ग राज्यपाल के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करेगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने राज्यपाल कोश्यारी पर ‘नमकहरामी’ होने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पिछले तीन साल से कोश्यारी महाराष्ट्रियनों का नमक खा रहे हैं और फिर भी उनकी निंदा कर रहे हैं। वे मराठी और गैर-मराठी लोगों में दुश्मनी पैदा कर रहे हैं। उन्हें बर्खास्त किया जाए या जेल भेजा जाए। ये सारे विषाक्त वाक्य क्या बता रहे हैं? यही कि उद्धव ठाकरे की हताशा चरम सीमा पर है। वे अपने खाली झुनझुने को पूरी ताकत से हिला रहे हैं। उनका बयान सुनकर मराठी-मानुस उन पर हंसने के अलावा क्या कर सकते हैं? वे अब चाहें तो मारवाडिय़ों और गुजरातियों को महाराष्ट्र से भगाने का अभियान भी चला सकते हैं, लेकिन कांग्रेस और शरद पवार कांग्रेस की गोद में बैठकर सत्ता-सुख भोगनेवाले ठाकरे परिवार की बौखलाहट पर अब मराठी लोग कान क्यों देंगे? महाराष्ट्र के लोगों को पता है कि ठाकरे परिवार ऐसा अभियान चला देगा तो महाराष्ट्र के कई शहरों में लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
भारत में सिनेमा एक ऐसी कला है जिसके बारे में हर कोई साधिकार बोल सकता है। बोलना भी चाहिए। लोकप्रिय सिनेमा का निर्माण एक बड़े समूह को ध्यान में रखकर होता है। लेकिन जब हम उसे आलोचना के दायरे में लाते हैं तो उसकी अपनी एक सैद्धांतिकी और दायरा होता है। इसके माध्यम से हमारी सोसाइटी बहुत कुछ फिल्टर करती है और विमर्श की एक दिशा तय होती है। दुर्भाग्य से सिनेमा के मामले में ऐसा नहीं हुआ।
हिंदी में आरंभ से ही सिनेमा पर गिने-चुने लिखने वाले रहे हैं। एक रूढ़ि बनी रही कि सिनेमा दोयम दर्जे की कला है। मुख्यधारा के अखबारों, पत्रिकाओं और ऑनलाइन मीडिया का हाल तो और भी बुरा रहा है। बीते करीब एक दशक से हिंदी मुख्यधारा का सिनेमा पीआर के चंगुल में था। जैसा ब्रीफ किया जाता था, जैसा वे चाहते थे, वैसा ही लिखा जाता था।
हर फिल्म को पांच में तीन से चार स्टार मिलते थे, हर फिल्म की टुकड़ों में समीक्षा की जाती थी, जैसे कहानी कमजोर-पटकथा अच्छी, लोकेशन भव्य-फोटोग्रॉफी साधारण, संगीत सामान्य-गीत अच्छे। फिल्म स्टार्स के इंटरव्यू तक पीआर ही मैनेज करते थे। एक ही बात सभी जगह छपती थी। एक्सक्लूसिव इंटरव्यू भी शायद इसी शर्त पर मिलते थे कि कोई निगेटिव बात न तो पूछी जाए और न लिखी जाए।
हिंदी के अखबारों में इतनी खराब समीक्षाएं छपती थीं कि फिल्म सचमुच कैसी है इसे जानने का दो ही तरीका था, या तो सोशल मीडिया पर फिल्म प्रेमी मित्रों से मशवरा किया जाए या आईएमडीबी के रिव्यू पढ़े जाएं। मुझे निर्विवाद रूप से आईएमडीबी में लिखे जाने वाले रिव्यू सबसे ईमानदार लगते हैं। कुछ ऑफबीट फिल्में बनाने वाले चालाक निर्माताओं ने अपनी मार्केटिंग के लिए आईएमडीबी पर भी पेड रिव्यू लिखवाने शुरू कर दिए। मगर दो हफ्ते-महीने में कोई न कोई पोल खोलने वाला आ ही जाता था।
इतनी सब कहानी सुनाने के पीछे वजह ये थी कि अब मामला बिल्कुल उलट है। इन दिनों हर फिल्म की जमकर आलोचना हो रही है। जाने-माने समीक्षकों से लेकर यूट्यूबर तक बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। कुल मिलाकर फिल्म पर, उसके कलात्मक पक्ष पर, उसके कंटेंट पर, उसके सामाजिक सरोकारों पर अब भी बात नहीं हो रही है।
अब मुद्दा है नेपोटिज़्म और हिंदूवाद। मुद्दा है दक्षिण का सिनेमा बनाम उत्तर भारत का सिनेमा। बॉलीवुड बनाम साउथ। किसी फिल्म की आलोचना इस आधार पर कैसे हो सकती है कि उसमें किस फिल्म स्टार के बेटे या बेटी ने काम किया है।
सभी जानते हैं कि धर्म के बाद जनमानस के दिल-दिमाग को प्रभावित करने का सबसे सशक्त माध्यम है सिनेमा। एक खास किस्म का लोकहितवाद हमारे लोकप्रिय सिनेमा की पहचान और ताकत रही है। संदेश की दृष्टि से वी शांताराम की 'पड़ोसी', मनमोहन देसाई की 'अमर अकबर एंथोनी' और गोविंद निहलानी की 'तमस' एक जैसे हैं।
असल मकसद है इसमें फांक पैदा करना।
यह सीधे-सीधे तो किया नहीं जा सकता लिहाजा जिम्मा सौंपा गया कुछ औसत प्रतिभा वाले कलाकारों और फिल्मकारों को। समाचार माध्यमों के जरिए एक बहस चली बॉलीवु़ड में नेपोटिज्म की, दूसरा प्रॉपेगैंडा सोशल मीडिया के जरिए चलाया गया और बॉलीवुड बनाम हिंदुत्व का फंडा फैलाया गया। तीसरी तरफ दक्षिण की कुछ गुणवत्ता में औसत दर्जे की मगर सफल फिल्मों के जरिए यह बहस छेड़ी गई कि दक्षिण का सिनेमा बेहतर है।
कुल मकसद यह है कि सिनेमा जैसी सशक्त विधा को एक पॉलिटिकल प्रॉपेगैंडा का हथियार बनाया जाए। मनोरंजन की ताकत का इस्तेमाल परोक्ष रूप से खास राजनीतिक विचारधारा के प्रसार में किया जाए। देखा-देखी कई समझदार लोग भी इसी बहस में शामिल हो गए। कुछ ठीक-ठाक लिखने वाले समीक्षकों को भी नेपोटिज्म में टीआरपी दिख रही है।
दिलीप मंडल ने यही फॉर्मूला अपनाते हुए तय किया कि वे सिनेमा के जातिवादी एंगल की पड़ताल करेंगे। यानी सिनेमा को अब उसकी कला के जरिए नहीं बल्कि इस आधार पर परखा जाएगा कि उसे किसने बनाया है? उसमें जो विषय उठाए गए हैं उनके संवेदनशील निर्वहन पर बात नहीं होगी बल्कि जो लोग उसके रचयिता हैं वो किस जाति-धर्म से आते हैं इस आधार पर मूल्यांकन होगा।
यानी सिनेमा पर अब तक जो अधकचरा लिखा-पढ़ा जा रहा था, आने वाले समय में उसमें और गिरावट ही देखने को मिलेगी। सिनेमा की घरानेदारी की बहस बहुत बेबुनियाद है और गहराई में जाकर चीजों को नहीं देखा जा रहा है। लोकप्रिय सिनेमा एक बिजनेस है और कारोबार पर हमेशा घरानों का ही वर्चस्व रहा है। यकीन न हो तो देश के सबसे बड़े कारोबारियों के परिवार का इतिहास उठाकर देख लें। अमेरिका या हॉलीवुड का सिनेमा भी इसी तरह से विकसित हुआ है। डेविड सोल्जेनिक और वार्नर ब्रदर्स जैसे कई परिवारों का लंबे समय तक इंडस्ट्री पर वर्चस्व रहा है।
भारत में सिनेमा की शुरुआत स्टूडियो सिस्टम से हुई। निर्देशक, लेखक, अभिनेता, संगीतकार और गीतकार तक बाकायदा वेतन पर नौकरी करते थे। एक फिल्म खत्म होती तो उसी टीम के साथ अगली फिल्म शुरू की जाती थी। बांबे टॉकीज और प्रभात कंपनी ने इसी पैटर्न पर यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन जैसे-जैसे अभिनेताओं, गीतकारों और संगीतकारों को लोकप्रियता मिलती गई वे इस सिस्टम से छुटकारा पाने के लिए कसमसाने लगे। इसके बाद शुरू हुआ इंडिपेंडेंट निर्माता-निर्देशकों का दौर।
जहां तक मेरी जानकारी है प्रीतिश नंदी ने फिल्म इंडस्ट्री को कॉरपोरेट का जामा पहनाने में पहल की थी और उसी दौरान प्रीतीश नंदी कम्यूनिकेशंस और एबीसीएल सामने आए। समय से पहले के प्रयास थे सो सफल नहीं हुए। लेकिन घरानों से हटकर ये कलाकार ही थे जिन्होंने सिनेमा को बेहतर बनाने में अपना योगदान दिया। सरोकार वाले निर्माता-निर्देशकों को भूल जाएं, सीधे-सीधे बिजनेस की बात करें।
राज कपूर ने "आवारा हूँ" गीत को तत्कालीन सोवियत रूस के लोगों को गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया। यश चोपड़ा की रोमांटिक फिल्मों ने एक समय में एनआरआई के बीच भारतीय सिनेमा की पैठ बनाई। केतन मेहता की प्रोडक्शन कंपनी ने तकनीकी पर फोकस बढ़ाया। विधु विनोद चोपड़ा ने बतौर निर्माता कारोबार को जबरदस्त ऊंचाइयां दीं। जिन आमिर खान को लोग कोस रहे हैं उन्होंने 'थ्री ईडियट्स' और 'दंगल' जैसी फिल्में दी हैं जिन्होंने पश्चिम और ईस्ट एशिया में एक साथ कारोबार की संभावनाओं को विस्तार दिया।
अब, जबकि सही समय आ रहा था और भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री को हॉलीवुड, कोरिया और हांगकांग के सिनेमा की तरह अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर उड़ान भरनी थी, हम उत्तर और दक्षिण के विवाद में उलझते जा रहे हैं। (फ़ेसबुक से)
-श्रवण गर्ग
मुंशी प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर कवि-पत्रकार मित्र ध्रुव शुक्ल ने कथा सम्राट के विशाल रचना संसार से ढूँढकर कुछ सवाल ‘अपने आप से पूछने के लिए’ सार्वजनिक किए हैं।पूछे गए सवालों में एक यह भी है कि ‘गोदान के होरी का क्या हुआ ?’ उन्होंने यह भी जानना चाहा है कि हम प्रेमचंद को क्या जवाब देंगे ?
पिछले साल आज के ही दिन लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार विजय बहादुर सिंह के आमंत्रण पर विदिशा में पंडित ‘गंगाप्रसाद पाठक ललित कला न्यास’ द्वारा प्रेमचंद जयंती पर आयोजित एक संगोष्ठी में ‘पत्रकारिता और लोक समाज’ विषय पर बोलने का अवसर मिला था।अपनी बात प्रेमचंद के अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ से प्रारम्भ की थी।प्रेमचंद ने यह अद्भुत उपन्यास अपने निधन से दो वर्ष पूर्व 1936 में लिखा था।उन्हें तब तक शायद आभास हो गया था कि आने आने वाले भारत में उनके होरी का क्या हश्र होने वाला है ! विदिशा संगोष्ठी में जो कहा था उसे संक्षिप्त रूप में पहली बार बाँट रहा हूँ :
हम चाहें तो शर्म महसूस कर सकते हैं कि साल 1936 से 2021 के बीच गुजरे 85 सालों के बीच मुंशी प्रेमचंद द्वारा ‘गोदान’ में उकेरे गए पात्रों और उनके ज़रिए उठाए गए सवालों में कुछ नहीं बदला है। सिर्फ़ पात्रों के नाम ,उनके चेहरे और स्थान बदल गए हैं। शेष वैसा ही है। देश के जीवन में ग्रामीण भारत या तो ‘गोदान’ के समय जैसा ही है या और ख़राब हो गया है।पत्रकारिता और साहित्य के केंद्र में ग्रामीण के बजाय शहरी भारत हो गया है।
‘गोदान’ उपन्यास में प्रेमचंद का मुख्य पात्र होरी बीमार होकर मरता है, आज का होरी आत्महत्या कर रहा है। उसे सिंघु बॉर्डर पर बैठकर आंदोलन करना पड़ रहा है। वह पुलिस-प्रशासन की लाठियाँ और गोलियाँ झेल रहा है। क़र्ज़ में डूबकर जान देने वाले हज़ारों किसानों के चेहरों में होरी की शक्ल तलाश की जा सकती है। ‘गोदान’ में वर्णित ज़मींदार की भूमिका सरकारों ने ले ली है और तहसीलदार-पटवारी उसके वसूली एजेंट हो गए हैं।
अखबारी दुनिया में भी कुछ नहीं बदला है। ’गोदान’ में उल्लेखित ‘बिजली’ पत्र के राय साहब जैसे मालिक-सम्पादक व्यवस्था में आज भी न सिर्फ़ उसी तरह उपस्थित हैं बल्कि ज़्यादा ताकतवर हो गए हैं। वे अब होरी की ही तक़दीर नहीं सरकारें बनाने-गिराने की हैसियत में पहुँच गए हैं। ‘गोदान’ की ही तरह सौ या हज़ार ग्राहकों का चंदा भरकर या विज्ञापनों के दम पर आज भी खबरें ‘गोदान’ की तरह रुकवाई-छपवाई जा सकतीं हैं। धर्म और सत्ता की राजनीति के बीच हुई साँठगाँठ ने पत्रकारिता को विज्ञापन और चंदा वसूल करने की मशीन में तब्दील कर दिया है। होरी की मौत मीडिया की नज़रों से ग़ायब है। किसानों को बाँटे जाने वाले नक़ली बीजों और उर्वरकों की तरह ही नक़ली खबरें भी राजनीति के ज़मींदारों के द्वारा राय साहबों के अख़बारों की मदद से जनता को बेची जा रहीं हैं।
मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ में जिस गाय की अतृप्त आस में होरी को अंतिम साँस लेना पड़ती है वह गाय इस समय सत्ता की साँस बन गई है। चिंता होरी के मरने की नहीं है, गाय अगर छूट गई तो सत्ता की साँस उखड़ जाएगी। समूची राजनीति को होरी के जन-जल-जंगल-ज़मीन-जानवर से विमुख कर गाय-गोबर-गोमूत्र के चमत्कार में केंद्रित कर दिया गया है।
मुंशी प्रेमचंद को हम कुछ भी जवाब देने की स्थिति में नहीं बचे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के गृहमंत्री अमित शाह जिस मर्दानगी से शिक्षा में भारतीय भाषाओं के माध्यम का समर्थन कर रहे हैं, आज तक वैसी मर्दानगी मैंने भारत के किसी प्रधानमंत्री या शिक्षा मंत्री में भी नहीं देखी। यह ठीक है कि मैकाले की गुलामी से भारतीय शिक्षा को मुक्त करवाने का प्रयत्न मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, त्रिगुण सेन, डा. जोशी, भागवत झा आजाद और प्रो. शेरसिंह—जैसे शिक्षा मंत्रियों ने जरुर किया है लेकिन अमित शाह ने अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया है।
वे अंग्रेजी की अनिवार्यता के खिलाफ महर्षि दयानंद, गांधी, लोहिया या मेरी तरह नहीं बोल रहे हैं लेकिन वे जो कुछ बोल रहे हैं, उसका अर्थ यही है कि देश की शिक्षा पद्धति में क्रांतिकारी परिवर्तन होना चाहिए। इसका पहला कदम यह है कि देश में डाक्टरी, वकीली, इंजीनियरी, विज्ञान, गणित आदि की पढ़ाई का माध्यम मातृभाषाएं या भारतीय भाषाएं ही होना चाहिए।
क्यों होना चाहिए? क्योंकि अमित शाह कहते हैं कि देश के 95 प्रतिशत बच्चे अपनी प्रारंभिक पढ़ाई स्वभाषा के माध्यम से करते हैं। सिर्फ पांच प्रतिशत बच्चे, निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं? ये किनके बच्चे होते हैं? मालदार लोगों, नेताओं, बड़े अफसरों और ऊँची जातिवालों के बच्चे ही मोटी-मोटी फीस भरकर इन स्कूलों में जा पाते हैं। अमित शाह की चिंता उन 95 प्रतिशत बच्चों के लिए हैं, जो गरीब हैं, ग्रामीण हैं, पिछड़े हैं और अल्पसंख्यक हैं।
ये बच्चे आगे जाकर सबसे ज्यादा फेल होते हैं। ये ही पढ़ाई अधबीच में छोडक़र भाग खड़े होते हैं। बेरोजगारी के शिकार भी ये ही सबसे ज्यादा होते हैं। यदि केंद्र की भाजपा सरकार राज्यों को प्रेरित कर सके तो वे अपनी शिक्षा उनकी अपनी भाषाओं में शुरु कर सकती हैं। 10 राज्यों ने केंद्र से सहमति व्यक्त की है। अब ‘जी’ और ‘नीट’ की परीक्षाएं भी 12 भाषाओं में होंगी। केंद्र अपनी भाषा-नीति राज्यों के लिए अनिवार्य नहीं कर सकता है लेकिन भाजपा के करोड़ों कार्यकर्ता क्या कर रहे हैं?
वे अपने राज्यों की सभी पार्टियों के नेताओं से शिक्षा में क्रांति लाने का आग्रह क्यों नहीं करते? गैर-भाजपाई राज्यों से अमित शाह बात कर रहे हैं। यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं और शिक्षा मंत्री भी उनसे बात करें तो यह क्रांतिकारी कदम शीघ्र ही अमल में लाया जा सकता है। मध्यप्रदेश की सरकार तो सितंबर से डाक्टरी की पढ़ाई हिंदी में शुरु कर ही रही है।
सिर्फ नई शिक्षा नीति की घोषणा कर देना काफी नहीं है। पिछले 8 साल में बातें बहुत हुई हैं, शिक्षा और चिकित्सा में सुधार की लेकिन अभी तक ठोस उपलब्धि निर्गुण और निराकार ही है। यदि देश की शिक्षा और चिकित्सा को मोदी सरकार औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त कर सकी तो उसे दशकों तक याद किया जाएगा। भारत को महासंपन्न और महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं पाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार भयंकर दुर्गति को प्राप्त हो गई है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि ममता बेनर्जी की सरकार इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार कर सकती है। ममता के राज में मैं जब-जब कोलकाता गया हूँ, वहां के कई पुराने उद्योगपतियों और व्यापारियों से बात करते हुए मुझे लगता था कि ममता के डर के मारे अब वे कोई गलत-सलत काम नहीं कर पा रहे होंगे लेकिन उनके उद्योग और व्यापार मंत्री पार्थ चटर्जी को पहले तो जांच निदेशालय ने गिरफ्तार किया और फिर उनके निजी सहायकों, मित्रों और रिश्तेदारों के घरों से जो नकद करोड़ों रु. की राशियां पकड़ी गई हैं, उन्हें टीवी चैनलों पर देखकर दंग रह जाना पड़ता है।
अभी तो उनके कई फ्लेटों पर छापे पडऩा बाकी है। पिछले एक सप्ताह में जो भी नकदी, सोना, गहने आदि छापे में मिले हैं, उनकी कीमत 100 करोड़ रु. से भी ज्यादा का ही अनुमान है। यदि जांच निदेशालय के चंगुल में उनके कुछ अन्य मंत्री भी फंस गए तो यह राशि कई अरब तक भी पहुंच सकती है। बंगाल के मारवाड़ी व्यवसायियों का खून चूसने में ममता सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। पार्थ चटर्जी सिर्फ तीन विभागों के मंत्री ही नहीं है। उन्हें ममता बेनर्जी का उप-मुख्यमंत्री माना जाता है।
इस हैसियत में ममता का सारा लेन-देन वही करते रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। वे पार्टी के महामंत्री और उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। उन्हें बंगाल के लोग पार्टी की नाक मानते रहे हैं। इसीलिए उनकी गिरफ्तारी के छह दिन बाद तक उनके खिलाफ पार्टी ने कोई कार्रवाई नहीं की बल्कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटता रहा। तृणमूल के नेता भाजपा सरकार पर प्रतिशोध का आरोप लगाते रहे।
अब जबकि सारे देश में ममता सरकार की बदनामी होने लगी तो कुछ होश आया और पार्थ चटर्जी को मंत्रिपद तथा पार्टी की सदस्यता से बर्खास्त किया गया है। यह बर्खास्तगी नहीं, सिर्फ मुअत्तिली है, क्योंकि पार्टी प्रवक्ता कह रहे हैं कि जांच में वे खरे उतरेंगे, तब उनको उनके सारे पदों से पुन: विभूषित कर दिया जाएगा। यह मामला सिर्फ तृणमूल कांग्रेस के भ्रष्टाचार का ही नहीं है। देश की कोई भी पार्टी और कोई भी नेता यह दावा नहीं कर सकता कि वे भ्रष्टाचार-मुक्त हैं।
भ्रष्टाचार के बिना याने नैतिकता और कानून का उल्लंघन किए बिना कोई भी व्यक्ति वोटों की राजनीति कर ही नहीं सकता। रूपयों का पहाड़ लगाए बिना आप चुनाव कैसे लड़ेंगे? अपने निर्वाचन-क्षेत्र के पांच लाख से 20 लाख तक के मतदाताओं को हर उम्मीदवार कैसे पटाएगा? नोट से वोट और वोट से नोट कमाना ही अपनी राजनीति का मूल मंत्र है। इसीलिए हमारे कई मुख्यमंत्री तक जेल की हवा खा चुके हैं।
नोट और वोट की राजनीति विचारधारा और चरित्र की राजनीति पर हावी हो गई है। यदि हम भारतीय लोकतंत्र को स्वच्छ बनाना चाहते हैं तो राजनीति में या तो आचार्य चाणक्य या प्लेटो के ‘दार्शनिक नेता’ जैसे लोगों को ही प्रवेश दिया जाना चाहिए। वरना आप जिस नेता पर भी छापा डालेंगे, वह आपको कीचड़ में सना हुआ मिलेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने राष्ट्रपति की जगह ‘राष्ट्रपत्नी’ शब्द बोलकर तूफान-सा खड़ा कर लिया है। यह शब्द उन्होंने कल संसद के बाहर कहीं बोल दिया था। भाजपा के कई स्थानीय नेता और कार्यकर्ता देश में जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं और कह रहे हैं कि यह नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का अपमान है। इसे वह बर्दाश्त नहीं करेंगे। संसद की कार्रवाई भी इस मुद्दे को लेकर ठप्प हो गई है।
भाजपा के मंत्री और सांसद आग्रह कर रहे हैं कि अधीर रंजन संसद में माफी मांगे। अधीर रंजन का कहना है कि वे भाजपाइयों से माफी क्यों मांगें? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि उन्होंने पहले ही राष्ट्रपति से माफी मांग ली है। उनकी जुबान फिसल जाने का उन्हें दुख है। वे बंगाली है। उन्हें हिंदी ठीक से नहीं आती। यह तर्क तो कमजोर है। क्या कोई बंगाली कह सकता है कि वह पति और पत्नी शब्दों में अंतर करना नहीं जानता? वैसे अधीर रंजन इस तरह की गल्तियां करने के लिए पहले से जाने जाते हैं।
उन्होंने नरेंद्र मोदी को एक बार ‘गंदी नाली’ की उपमा दे दी थी। उन्होंने कश्मीर को भारत का सिर्फ भौगोलिक हिस्सा बता दिया था। उन्होंने पं. बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ को ‘पागल’ तक कह दिया था। उम्मीद है कि भाजपाइयों का यह क्रोध-प्रदर्शन उन्हें अब अधीर रंजन से सुधीर रंजन बना देगा। लेकिन इस विवाद ने मेरी एक पुरानी दुखती रग पर उंगली रख दी है।
पचासों वर्षों पहले मैं सोचता रहता था कि यदि कोई महिला हमारे देश के इस सर्वोच्च पद पर पहुंचेगी तो क्या उसे भी हम ‘राष्ट्रपति’ ही कहेंगे? तब मुझे लगता था कि इस शब्द का कोई विकल्प ढूंढना चाहिए वरना बड़ी हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाएगी। तब मेरे दिमाग में जो वैकल्पिक शब्द आया, वह था- राष्ट्राध्यक्ष! यदि कोई महिला इस पद पर चुनी गई तो उसे हम ‘राष्ट्राध्यक्षा’ आसानी से कह सकते हैं।
लेकिन अपना देश तो अंग्रेजी का गुलाम है। उसमें ‘प्रेजिडेंट’ शब्द का प्रयोग किसी भी महिला या पुरुष या दोनों के लिए हो सकता है तो अंग्रेजी के ‘प्रेजिडेंट’ का हिंदी अनुवाद ‘राष्ट्रपति’ भी दोनों पर थोपा जा सकता है। मेरी राय में यह गलत है। ‘राष्ट्रपत्नी’ शब्द को आपत्तिजनक बताकर हम क्या भारत के महिला समाज का अपमान नहीं कर रहे हैं?
लेकिन इस प्रश्न का उचित समाधान यही है कि हम पति और पत्नी के दलदल में न फंसें और राष्ट्रपति और राष्ट्रपत्नी के बजाय राष्ट्राध्यक्ष और राष्ट्राध्यक्षा शब्दों का प्रयोग करें। यही प्रयोग लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्षों और अध्यक्षाओं के लिए भी हो सकता है, हालांकि पति शब्द ऐसा नहीं है कि उसका उपयोग सिर्फ पत्नी के विलोम के रूप में ही इस्तेमाल किया जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रियंका झा
अपने पहनावों की वजह से सुर्खियों में रहने वाले बॉलीवुड अभिनेता रणवीर सिंह अब बिना कपड़ों की तस्वीरें खिंचवाने और शेयर करने की वजह से चर्चा में है. दूसरी ओर, इन तस्वीरों की वजह से रणवीर सिंह पर अश्लीलता फैलाने का मामला दर्ज किया गया है.
दरअसल, एक से बढ़कर एक हिट फ़िल्मों में काम कर चुके रणवीर सिंह ने हाल में अपने सोशल मीडिया अकाउंट से कुछ न्यूड तस्वीरें शेयर कीं, जो अमेरिकी मैगज़ीन 'पेपर' के लिए खींची गई थी. रणवीर सिंह की ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हैं और लोग तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं.
वहीं, इन तस्वीरों को आपत्तिजनक मानते हुए दो लोगों ने रणवीर सिंह के ख़िलाफ़ मुंबई के चेंबुर में शिकायत दर्ज कराई है. इनमें से एक महिला हैं और दूसरे शख्स एनजीओ से जुड़े हैं.
शिकायतकर्ताओं के वकील अखिलेश चौबे के अनुसार रणवीर सिंह की न्यूड तस्वीरों को ज़ूम करने पर उनके 'प्राइवेट पार्ट दिख रहे थे'. इससे 'महिलाओं की भावनाएं' आहत हुई और उनकी गरिमा को ठेस पहुँची है.
बॉलीवुड सितारों पर इस तरह के मामले कोई नई बात नहीं है. मॉडलिंग की दुनिया से आए मिलिंद सोमन और पूनम पांडे जैसे कलाकार भी इस तरह के मुकदमे झेल चुके हैं.
न्यूड फ़ोटोग्राफ़ी कुछ लोगों के लिए कला को रचनात्मक ढंग से परोसने का तरीका है तो दूसरा धड़ा इसे अश्लीलता मानता है. इसलिए समय-समय पर ये विषय बहस का मुद्दा बनता रहा है.
मगर कोई काम या सामग्री अश्लीलता के दायरे में कब आ जाती है? और भारत में इसको लेकर कानून क्या कहता है?
क्या है पूरा मामला
रणवीर सिंह ने अमेरिकी पत्रिका 'पेपर' के कवर के लिए कराए न्यूड फ़ोटोशूट की कुछ तस्वीरें अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से शेयर की. इंस्टाग्राम पर उनके चार करोड़ से अधिक फॉलोअर्स हैं.
रणवीर सिंह की पोस्ट को करीब साढ़े 22 लाख लोगों ने इंस्टाग्राम पर पसंद किया है लेकिन इसने कुछ लोगों को असहज भी कर दिया. शिकायत के बाद मुंबई में रणवीर के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 292, 293 और 509 के साथ आईटी एक्ट की धारा 67 (ए) के तहत केस दर्ज किया गया है.
प्राथमिकी में कहा गया है, भारत की एक 'अच्छी संस्कृति' है और ऐसी तस्वीरों की वजह से लोगों की भावनाएं आहत हो रही हैं.
बीबीसी हिंदी से बात करते हुए शिकायकर्ता के वकील ने दलील दी कि संभव है कि रणवीर की तस्वीरें 40 से 45 साल के लोगों को अश्लील न लगे लेकिन ये 20 साल के युवक-युवतियों के लिए अश्लील है.
आईपीसी में क्या है प्रावधान?
भारत में क़ानूनी नज़रिये से अश्लीलता एक अपराध है और इसके लिए सज़ा का प्रावधान है.
आईपीसी की धारा 292, 293 और 294 अश्लीलता से जुड़े मामलों के लिए है, लेकिन इनमें ये स्पष्ट नहीं किया गया है कि अश्लीलता आखिर है क्या.
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड राहुल शर्मा के अनुसार धारा 292 ये बताती है कि किसी रचना या सामग्री को कब अश्लील कहा जा सकता है.
इसके अनुसार अगर कोई शख्स ऐसी अभद्र सामग्री, किताब या अन्य आपत्तिजनक सामान बेचे अथवा उसे सर्कुलेट करे जो दूसरों को नैतिक रूप से परेशानी या तकलीफ़ देती हो तो दोषी पाए जाने पर उसे दो साल की सज़ा और दो हज़ार रुपये तक का जुर्माना देना पड़ सकता है. अगर कोई शख्स दूसरी बार ऐसे मामले में दोषी पाया जाता है तो सज़ा बढ़कर 5 साल तक हो सकती है.
रणवीर सिंह के ऊपर आईपीसी की जो धारा 293 लगाई गई है उसके तहत अश्लील सामग्री 20 साल से कम के युवक-युवतियों को बेचने या सर्कुलेट करने पर 3 साल से 7 साल तक की सज़ा का प्रावधान है.
आईपीसी की धारा 294 के तहत सार्वजनिक स्थलों पर अश्लील कृत्य करने वालों के लिए सज़ा का प्रावधान है. हालाँकि, रणवीर सिंह पर दर्ज एफ़आईआर में इस धारा का ज़िक्र नहीं है.
रणवीर पर दर्ज दो अन्य धाराओं में से एक धारा 509 के तहत महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने के मकसद से किया गया कोई काम, कहे गए शब्द या फिर हावभाव आते हैं. ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने पर तीन साल तक की सज़ा और जुर्माना दोनों हो सकते हैं.
वहीं, अश्लील सामग्री को इलेक्ट्रॉनिक तरीके यानी सोशल मीडिया आदि के माध्यम से प्रकाशित और प्रसारित करने पर आईटी एक्ट की धारा 67 ए के तहत अधिकतम 5 साल की सजा और 5 लाख तक के जुर्माने का प्रावधान है. दोबारा या कई बार ऐसे अपराध करने पर 7 साल तक की सजा और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है. यहाँ जानना ज़रूरी है कि ये गैर-ज़मानती धारा है.
तो गैर-ज़मानती धारा के बावजूद रणवीर सिंह की गिरफ़्तारी क्यों नहीं हुई?
इस सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय के वकील और सायबर कानून के जानकार विराग गुप्ता कहते हैं, "अगर किसी एफ़आईआर में गैर-ज़मानती धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है तो भी अभियुक्त की गिरफ़्तारी ज़रूरी नहीं है. कानून और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के अनुसार यदि अभियुक्त जाँच में सहयोग नहीं कर रहा हो, सबूतों के साथ खिलवाड़ होने की आशंका हो या फिर हिरासत में पूछताछ ज़रूरी हो, तभी पुलिस को गिरफ़्तारी करनी चाहिए."
यहाँ सवाल उठता है कि आईपीसी में अश्लीलता की परिभाषा नहीं है तो फिर ये कैसे तय होता है कि कौन सी सामग्री अश्लील है और कौन नहीं?
दिलचस्प है कि इसके लिए भारतीय अदालतें अब तक अंग्रेज़ी कानून का सहारा लेती आई हैं.
अदालतों में कैसे हुए फैसले?
जानकारों के मुताबिक, साल 2014 तक अदालतों में जजों ने 'हिक्लिन टेस्ट' के ज़रिए ये तय किया कि कोई सामग्री अश्लील है या नहीं. इस टेस्ट नाम इंग्लैंड में 1868 में आए एक मामले के आधार पर पड़ा था.
अवीक सरकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हिक्लिन टेस्ट को दरकिनार करते हुए इसे अमेरिका में प्रचलित रौथ टेस्ट की कसौटी पर परखा. इसके तहत माना जाता है कि नग्नता को संवेदनशील लोगों के किसी समूह की बजाय तात्कालिक सामाजिक मानकों को ध्यान में रखते हुए एक सामान्य व्यक्ति के नज़रिए से मापा जाना चाहिए.
वकील राहुल शर्मा कहते हैं, ""हिक्लिन टेस्ट के अंतर्गत देखा जाता है कि क्या कोई अश्लील सामग्री किसी व्यक्ति को अनैतिक रूप से प्रभावित कर रही है. इस परीक्षण की एक बड़ी कमी ये थी कि ये उस सामग्री को भी अश्लील मानता था, जिसने भले ही किसी कमज़ोर मानसिकता वाले को ही प्रभावित क्यों न किया हो."
"चूंकि, नैतिकता समय और समाज के साथ बदलती रहने वाली अवधारणा है, इसलिए सामाजिक मानक परीक्षण अभियव्यक्ति की आज़ादी और मर्यादा तथा नैतिकता के अंकुश के बीच एक संतुलन बैठाता है."
ये मामला टेनिस के महान खिलाड़ी रहे बोरिस बेकर की उनकी मंगेतर के साथ न्यूड तस्वीर से जुड़ा था. तस्वीर मूल रूप से एक जर्मन पत्रिका में छपी थी लेकिन इसे भारत में स्पोर्ट्सवर्ल्ड मैगज़ीन और आनंद बाज़ार पत्रिका अख़बार ने भी छापा था.
आनंद बाज़ार पत्रिका समूह से जुड़े इस मामले की सुनवाई करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि तस्वीर त्वचा से गोरे पुरुष और काली महिला के बीच प्यार को दिखा रही है. तस्वीर का संदेश है कि त्वचा का रंग नहीं बल्कि प्यार मायने रखता है.
रणवीर सिंह को इस मामले में सज़ा हो सकती है या नहीं इस सवाल पर वकील विराग गुप्ता का मानना है, "ऐसे मामले लग्ज़री लिटिगेशन की कैटेगरी में आते हैं. हेडलाइन बनने से शिकायतकर्ता और सेलेब्रिटी सभी को पब्लिसिटी मिल जाती है. शुरुआती दौर में अदालत से राहत मिलने के बाद मुकदमे का आखिरी फैसला आने में अच्छा-खासा वक्त बीत जाता है. इस प्रक्रिया को ही दण्ड माना जाता है. सामान्यतः ऐसे मामलों में लोगों को सज़ा नहीं होती." (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उर्दू में एक कहावत है कि माले-मुफ्त और दिले-बेरहम! इसे हमारे सभी राजनीतिक दल चरितार्थ कर रहे हैं याने चुनाव जीतने और सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए वे वोटरों को मुफ्त की चूसनियाँ पकड़ाते रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे रेवड़ी संस्कृति कहा है, जो कि बहुत सही शब्द है। असली कहावत तो यह है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को देय’ लेकिन हमारे नेता लोग अंधे नहीं हैं।
उनकी तीन आंखें होती हैं। वे अपनी तीसरी आंख से सिर्फ अपने फायदे टटोलते हैं। इसलिए सरकारी रेवडिय़ां बांटते वक्त अपने-पराए का भेद नहीं करते। उनकी जेब से कुछ जाना नहीं है। वोटरों को मुफ्त माल बांटकर वे अपने लिए थोक वोट पटाना चाहते हैं। वे क्या-क्या बांट रहे हैं, उसकी सूची बनाने लगें तो यह पूरा पन्ना ही भर जाएगा।
शराब की बोतलों और नोटों की गड्डियों की बात को छोड़ भी दें तो वे खुले-आम जो चीजें मुफ्त में बांटते हैं, उनका खर्च सरकारी खजाना उठाता है। इन चीजों में औरतों को एक हजार रु. महिना, सभी स्कूली छात्रों को मुफ्त वेश-भूषा और भोजन, कई श्रेणियों को मुफ्त रेल-यात्रा, कुछ वर्ग के लोगों को मुफ्त इलाज और कुछ को मुफ्त अनाज भी बांटा जाता है। इसका नतीजा यह है कि देश के लगभग सभी राज्य घाटे में उतर गए हैं। कई राज्य तो इतने बड़े कर्जे में दबे हुए हैं कि यदि रिजर्व बैंक उनकी मदद न करे तो उन्हें अपने आप को दिवालिया घोषित करना पड़ेगा।
इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस सहित लगभग सभी दलों के राज्य हैं। तमिलनाडु और उप्र पर लगभग साढ़े छह लाख करोड़, महाराष्ट्र, पं. बंगाल, राजस्थान, गुजरात और आंध्रप्रदेश पर 4 लाख करोड़ से 6 लाख करोड़ रु. तक का कर्ज चढ़ा हुआ है। इन राज्यों की हालत श्रीलंका-जैसी है। उसका कारण उनकी रेवड़ी-संस्कृति ही है। इसे लेकर जनहित याचिकाएं लगानेवाले प्रसिद्ध वकील अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटा दिए। अदालत के जजों ने चुनाव आयोग और सरकारी वकील की काफी खिंचाई कर दी।
वित्त आयोग इस मामले में हस्तक्षेप करे, यह अश्विनी उपाध्याय ने कहा। चुनाव आयोग ने अपने हाथ-पांव पटक दिए। उसने अपनी असमर्थता जता दी। उसने कहा कि मुफ्त की इन रेवडिय़ों का फैसला जनता ही कर सकती है। उससे पूछे कि जो जनता रेवडिय़ों का मजा लेगी, वह फैसला क्या करेगी?
मेरी राय में इस मामले में संसद को शीघ्र ही विस्तृत बहस करके इस मामले में कुछ पक्के मानदंड कायम कर देने चाहिए, जिनका पालन केंद्र और राज्यों की सरकारों को करना ही होगा। कुछ संकटकालीन स्थितियां जरुर अपवाद-स्वरूप रहेंगी। जैसे कोरोना-काल में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांटा गया। वैसे ये रेवडिय़ां जनता को दी जानेवाली शुद्ध रिश्वत के अलावा कुछ नहीं हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
दोनों हिन्दुस्तानी कहानीकार ..एक बाद में विवश होकर पाकिस्तान गए .
दोनों सबसे बड़े गालीबाज .
दोनों सबसे विद्रोही और सताए कहानीकार .
एक उर्दू का महान अफ़साना निगार तो दूसरा हिंदी का .
दोनों की ज़िंदगी में शराब में डूबी रही .
सआदत हसन मंटो गले तक डूबे रहे
तो पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र ' उदर तक !
दोनों को सबसे अश्लील कहानीकार माना गया .
दोनों बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में रहे ..
मंटो लम्बा रहे और बड़ी हस्तियों के साथ रहे जबकि उग्र जी 124 A के तहत अंग्रेज़ों के खिलाफ राजद्रोह के आरोपी थे , फरारी काटने के दौरान फिल्मों से जुड़े पर जल्दी पकडे गए .
दोनों ने जिस्म मंडियों को जिस तरह देखा, भोगा उसी तरह लिखा ...
जो देखा वो लिखा ,इसलिए सबसे फसादी लेखक रहे और बहिष्कृत, तिरस्कृत होकर दुर्दिन देखे, भयानक गरीबी देखी .
एक को बार -बार पागलखाने में शरण लेनी पड़ी तो दूसरे ज़िंदगी भर गुस्सैल ओर उग्र रहे ...ये हाल बनाया इस समाज ने दो सबसे महान कहानीकारों का .
टॉलस्टॉय ,गोर्की ,शेक्सपियर ,मिल्टन जैसे लेखकों के नाम उनके देशों ने सब कुछ समर्पित कर दिया ..मूर्तियाँ छोड़िये उनके नाम के नगर भी छोड़िये उनके लेखन और व्यक्तित्व को जितने सम्मान से रखा गया उतना ही अपमान इस देश में हिंदी -उर्दू साहित्यकारों के साथ हुआ .
मणिकर्णिका घाट की ओर 20-25 लोग प्रेमचंद की अर्थी लेकर चलते हैं और पूछने पर बताते हैं कोई मास्टर था !
मंटो एक बैरिस्टर के बेटे ज़रूर रहे पर बहुत जल्दी घर छोड़ा और पूरा जीवन जूझते रहे .
पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' के पैदा होने से पहले उनके एक दर्ज़न से ज़्यादा भाई बहन दम तोड़ चुके थे .
उनके पैदा होने के बाद उनकी माँ जयकली ने महज़ एक टके में बेच दिया और ये हमेशा 'बेचन ' कहलाये .
मंटो की ठंडा गोश्त, काली सलवार, हतक, बू जैसी कहानियों को अश्लील घोषित कर मंटो को हर तरह से पीड़ा दी गई तो पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र ' की 'चॉकलेट' के खिलाफ अश्लीलता फैलाने का प्रचार कर उनके साहित्य को 'घासलेटी साहित्य' घोषित कर मुहिम चलाई गयी .
बनारसीदास चतुर्वेदी ने इस मुहिम की अगुवाई ही नहीं की, गांधीजी से हस्तक्षेप की मांग की .
गांधीजी ने बाक़ायदा पढ़कर चतुर्वेदी जी की मुहिम की हवा निकाल दी और उन्हें पत्र भी लिखा था जो कभी सामने नहीं लाया गया .
मंटो अमृतसर में फैज़ के शिष्य थे, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़े .
दिल्ली के रेडियो स्टेशन में मंटो नौकरी पर थे. मंटो के नाटक नियमित प्रसारित होते .
मंटो अपनी दुनिया में रहते, अकेला महसूस करते पर उनका एक साहित्यिक सर्किल था जिसमें
दुश्मनों के साथ कृष्ण चन्दर, बेदी, शाहिद लतीफ़, इस्मत चुगताई जैसे कई थे
बम्बई में मंटो टॉप के फिल्म अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, निर्माताओं की संगत में थे.
निर्माता एस. मुखर्जी, अशोक कुमार, श्याम, देविका रानी, हिमांशु रॉय, नरगिस, नूरजहां ..
मंटो के साथ उनकी हमसफ़र सफ़िया थीं उनके बच्चे भी थे ...
पर एक टके में बिकने के बाद ठोकरें खाते बेचन ...उग्र के सिर्फ एक बड़े भाई थे जो उन पर जम कर ज़ुल्म करते और ऐसी ठोकरें खाकर पांडेय बेचन शर्मा काफी 'उग्र ' बने.
बाद में बेऔलाद चाचा ने बेचन को गोद ज़रूर लिया पर बाद में अपनी औलाद होते ही बेचन को बाहर कर दिया .
'अपनी ख़बर ' लेते हुए उग्र जी ने लिखा भी है 'सच तो ये है शिक्षा शब्द मेरे निकट आते-आते भिक्षा बन जाया करता था .
इसी कड़वाहट के साथ लड़ते भिड़ते पढ़ते रहे. बाद में कभी दैनिक आज में तो कभी कलकत्ता के मतवाले में रहे फ़िल्मी लेखन किया तो चॉकलेट ,,चंद हसीनों के खतूत, फागुन के दिन चार दिल्ली का दरबार, शराबी पीली इमारत, ग़ालिब और उग्र जैसी ढेरों पुस्तकें लिखीं .
हरिशंकर परसाई ने उग्रजी के लिए लिखा है -'बेचन शर्मा उग्र फक्कड़, लीजेंड थे. अक्खड़, फक्कड़ और बदज़बान. जीवन के अँधेरे से अँधेरे कोने में वे घुसे थे और वहां से अनुभव लाये थे .''
परसाई जी बताते हैं एक प्रकाशक ने कहानी संग्रह तैयार करने को कहा. संग्रह में उनकी एक कहानी 'उसकी माँ ' लेना तय हुआ .उग्रजी को लिखा गया प्रकाशक सौ रुपये भेजेगा. प्रकाशक ने संग्रह छापने का विचार छोड़ दिया. 5 महीने बाद उग्रजी का पत्र मिला कि पुस्तक छापकर कोर्स में लग गयी होगी ...प्रकाशक और तुम खूब पैसे कमा रहे होंगे पर मुझे सौ रुपये नहीं भेजे .
मैं तुम जैसे हरामज़ादे, कमीने, बेईमान, लुच्चे लेखकों को जानता हूँ ...परसाई जी ने जवाब दिया -' प्रकाशक ने वह पुस्तक नहीं छापी ...इसलिए आपको पैसे नहीं भेजे गए, जहाँ तक मुझे दी गयी आपकी गालियों का सवाल है, मैंने काफी गालियां आपसे ही सीखी हैं.......''
इसके बाद उग्र जी का पोस्ट कार्ड आया -" वाह पट्ठे ''
अश्कजी ने मंटो को 'मंटो मेरा दुश्मन' में याद कर लिखा है कैसे 'आठ दिन ' की शूटिंग के दौरान मंटो उन्हें गालियां देते हैं और थोड़ी देर बाद हाथ दबाकर माफ़ी भी मांग लेते हैं .
कृष्ण चन्दर ने लिखा है --''मंटो एक बहुत बड़ी गाली था। उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं था, जिसे उसने गाली न दी हो । कोई प्रकाशक ऐसा न था, जिससे उसने लड़ाई मोल न ली हो, कोई मालिक ऐसा न था, जिसकी उसने बेइज्ज़ती न की हो। प्रकट रूप से वह प्रगतिशीलों से खुश नहीं था, न अप्रगतिशीलों से, न पाकिस्तान से, न हिन्दुस्तान से, न चचा सैम से, न रूस से। जाने उसकी बेचैन और बेक़रार आत्मा क्या चाहती थी। उसकी ज़बान बेहद तल्ख थी।''
पाकिस्तान जाने के बाद मंटो रेडियो पर प्रतिबंधित थे पर उनकी मौत के बाद रेडियो पाकिस्तान ने आधे घंटे का कार्यक्रम रखा .
उग्रजी पर हरिवंश राय बच्चन ने सबसे सुंदर संस्मरण लिखा है :
बच्चनजी ने उग्र के व्यक्तित्व पर लिखा है '' उग्र महात्मा थे -महान. उनके सम्बन्धियों जाति भाइयों, उनके मित्रों ने भी उन्हें गलत समझा था, उनके साथ बहुत अन्याय किया था. वे अपने को अकेले पाते पर अकेलेपन की हीनता से पीड़ित मैंने उन्हें कभी नहीं देखा ........
एक बार उनके बीमारी की ख़बर पढ़कर मैंने उन्हें कुछ भेजने की आज्ञा चाही थी .उन्होंने मेरे पत्र का उत्तर ही नहीं दिया. मिलने पर उन्होंने कहा था तुमसे पैसे लेकर तुम्हारे सामने कभी आने पर मुझे अहसानमंद होना पड़ता, वह मैं किसी के सामने नहीं हुआ हूँ ........अहसानमंद तो मैं अपनी लाश उठाने वाले का भी न होना चाहूंगा ..... जब मैं मरुँ और तुमको ख़बर मिले तो मेरी लाश हरिजनों से उठवाकर बस्ती से दूर किसी नदी में फिकवा देना .''
बच्चन जी ने आगे लिखा है '' उनके मरने की ख़बर मुझे मिली थी ...मृत्यु के पश्चात मैंने बहुत से चेहरे देखे ,लेकिन जितनी शान्ति उग्र के चेहरे पर थी ,उतनी मैंने किसी मृतक के चेहरे पर न देखी थी. मृत्यु में सच कहूं तो उनका चेहरा सुंदर हो गया था ...''
उग्र निराला से कैसे भिड़ते कैसे पेश आते इसका ज़्यादा ज़िक्र है, पर यही उग्र निराला से दुर्व्यहार करने वाले प्रकाशक महादेव प्रसाद सेठ को विवश करते हैं वो निरालाजी से माफ़ी मांगे . इसके बाद निराला 'मतवाले ' के दरवाज़े पर आकर उग्र से कहते हैं ' तुम मर्द हो ' किसे याद है.
मंटो और उग्र की ज़बान जितनी खराब और ऊपर जितने सख़्त दीखते, अंदर से उतने ही कोमल थे.
मंटो और उग्र की कहानी कुछ बदलाव के साथ एक जैसी रही. मुझे मंटो उर्दू कहानियों के उग्र तो
उग्र हिंदी कहानी के मंटो भी नज़र आते हैं.
-अशोक पांडेय
1921 से आज तक हुई सैकड़ों बोर्ड परीक्षाओं की मेरिट लिस्ट्स निकाली गयी होंगी और जाहिर है इन सूचियों में जगह पाने वालों की संख्या हजारों में रही होगी। आप हाल के अखबार उठा कर देख लीजिये। सभी टॉपर्स अपने-अपने भविष्य की बड़ी-बड़ी योजनाओं की बाबत आपको सूचित करता नजर आते हैं। इन योजनाओं में देश-संसार को पूरी तरह बदल देने के सपने शामिल होते हैं और उन सपनों को असलियत में बदलने की वैसी ही कार्यनीतियों की डीटेल्स भी होती हैं। कोई आईएएस-आईएफएस बनना चाहता है, कोई गरीबों को पढ़ाना चाहता है, कोई वैज्ञानिक बनना चाहता है तो कोई देश से कूड़ा खत्म करना चाहता है।
इतने हजार टॉपर्स की मेहनत के बाद हमें जैसे मोहल्ले-नगर-राज्य-देश और दुनिया नजर आते हैं उनकी तरफ एक निगाह भर डालने से आपको मालूम पड़ जाएगा कि सच्चाई कितनी नंगी है।
मैं टॉपर्स के खिलाफ नहीं हूँ। मैं उनके सपनों के खिलाफ भी नहीं हूँ। मेरी दिलचस्पी फकत इतना जानने में है कि ये टॉपर्स समाज के कितने काम आते हैं। और यह भी कि क्या हमारी शिक्षा पद्धति ने उन्हें इस लायक छोड़ा भी है कि वे समाज में बदलाव ला सकने वाले किसी बड़े काम में हिस्सेदारी कर सकें।
हमारे यहाँ कोई ऐसी रिसर्च हुई या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन बोस्टन अमेरिका की कैरेन आर्नोल्ड ने टॉपर्स को लेकर एक ऐसा शोध किया है और बाकायदा साबित किया है कि 90 प्रतिशत टॉपर्स अपने व्यक्तिगत जीवन में खासे सफल रहे हैं लेकिन उनमें से किसी एक ने भी संसार को नहीं बदला है। वे सब एक बने-बनाए और घिसे-पिटे रास्ते पर चल कर बड़े अफसर और कंपनियों के सीईओ वगैरह तो बने लेकिन दुर्गम जंगल को काटकर नया रास्ता बनाने का काम किसी ने नहीं किया।
पिछले सौ वर्ष की महानतम मानवीय उपलब्धियों पर निगाह डालें तो पता लगता है कि ये सभी बड़े कारनामे करने वाले स्कूली परीक्षाओं में फिसड्डी रहा करते थे अलबत्ता समाज को लेकर उनका ज्ञान और नजरिया विषद था। तो हो सकता है कि आपके नगर का टॉपर डिफरेंशियल कैलकुलस का सबसे मुश्किल सवाल चुटकियों में हल कर देता हो लेकिन उसे यह मालूम न हो कि पॉपकॉर्न भुट्टे से बनता है और बेसन चने की दाल से। और हो यह भी सकता है कि पड़ोस में रहने वाला, बार-बार गणित में कमजोर बताया जाने वाला, भोंदू के नाम से विख्यात कोई लडक़ा आपके उड़े हुए फ्यूज को मिनट से पहले जोड़ देता हो।
मैं ऐसे टॉपर को भी व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ जिसने सरकारी नौकरी नहीं की और डाक्टरी की बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बाद उड़ीसा के आदिवासियों के बीच रह कर अपनी जि़ंदगी गुजारी। उसके चाचा अक्सर कहते पाए जाते हैं कि उसने समाजसेवा के चक्कर में अपनी जिन्दगी बर्बाद कर ली है। एक ऐसे दूसरे टॉपर से भी मेरा परिचय है जिसने बड़ा सरकारी अफसर बन कर बीस सालों में इतनी रकम खड़ी कर ली है कि वह अपनी रोलेक्स घडिय़ों की संख्या तक भूल जाता है। वह बताता है कि उसके संग्रह में दुनिया की सबसे महंगी शराबों का जखीरा भरा पड़ा है। उसके बारे में राजधानी के सर्कल्स में चल चुका है कि एक पेटी एक्सक्लूसिव सिंगल माल्ट शराब देकर उससे किसी भी फाइल पर दस्तखत करवाए जा सकते हैं।
हमारे देश के टॉपर्स के बाद के जीवन और उसके योगदान पर जब कोई रिसर्च होगी तब होगी। फिलहाल इस संसार को टॉपर्स से ज्यादा उन जिम्मेदार और समझदार छात्र-नागरिकों की आवश्यकता है जो भीषण संकट से जूझ रही हमारी महान मानव जाति के लिए नई कल्याणकारी इबारतें लिख सकें। फिलहाल टॉपर्स के बहाने अखबारों को अपने लिए सुर्खियाँ बना लेने का लुत्फ उठा लेने दीजिये।
जिनके बच्चों ने टॉप किया उन्हें मुबारकबाद।
और जिनके बच्चों ने टॉप नहीं किया उन्हें डबल मुबारकबाद!
-प्रकाश दुबे
वन में निवास करने वाली महिला को दुनिया का सबसे विशाल राष्ट्राध्यक्ष महल सौंपना प्रधानमंत्री का ऐतिहासिक प्रयोग है। इससे भी बड़ा प्रयोग इस बीच अनदेखा रह गया। संविधान और राजनीति के ज्ञानी- विश्लेषक तक अनजान हैं। दूसरे दल से अपने दल में शामिल करने की व्यवस्था करने के लिए पहली बार बाकायदा समिति का गठन किया गया। समिति शब्द अटपटा लगे तो वार्ताकार मंडल कह कर तसल्ली कर लें। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने एटला राजिन्दर को भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया। कुपित राजिन्दर भाजपा में शामिल होकर उपचुनाव जीत कर फिर विधायक बने। वार्ताकार मंडल के अध्यक्ष की हैसियत से गुणीजनों से संपर्क कर राजिन्द्र दल बदल कराने की गति तेज करेंगे। इसे संविधान-सम्मत विशेष अवसर कहकर चतुर सुजान उत्साहित हो सकते हैं। हैदराबाद में भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के दौरान हुए निर्णय का ऐलान न प्रधानमंत्री ने किया और न अनुशासित अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र में इसकी जरूरत नहीं पड़ी। तेलंगाना राष्ट्र समिति निशाने पर है। हालां कि सेंध लगाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही है।
व्यक्ति की गरिमा
लाट साहब यानी वाइसराय महल के आसपास बाबुओं के दफ्तर लगाकर भाई सराय बना दिया जाए। यह तो निर्माता लुटियंस नहीं चाहते थे। इसके बावजूद नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक बने। राष्ट्रपति भवन के पास पेड़ पौधों की समाधि पर सेंट्रल विस्ता में नया संसद भवन बन रहा है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला की मौजूदगी में गुर्राते शेर के साथ प्रधानमंत्री मुस्कराए। राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू गैरहाजिर थे। शेर के अगवाड़े और घोड़े के पिछवाड़े में बदलाव से दुखी खुराफाती देवदास बने जा रहे हैं। गीता, कुरान, बाइबल की तरह संविधान में दूसरे महत्वपूर्ण उपराष्ट्रपति पद पर नायडू समारोह में नजर नहीं आए। चेहरा चमकाऊ पोथी (फेसबुक) वाले चहकने लगे कि कुछ दिन के मेहमान उपराष्ट्रपति को जानबूझकर न्यौता नहीं भेजा। सेंट्रल विस्ता के प्रभारी शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी जानें न जानें, संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी को पक्का पता था कि राष्ट्रपति पद का चुनाव चल रहा था। संवैधानिक क्रम में दूसरे स्थान पर शेर के साथ वैंकैया जी को खड़ा करना पड़ता। प्रधानमंत्री की कल्पनाशीलता की उपेक्षा होती। एक जंगल में दो शेर सिर्फ फिल्मी तरानों में हो सकते हैं। यह जानकारी उन लोगों के लिए, जिन्हें शिकायत है कि संविधान की अनदेखी हो रही है।
पंथनिरपेक्ष
प्रधानमंत्री ने उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जगदीप धनखड़ को किसान पुत्र और संविधान के अति उत्कृष्ट विशेषज्ञ कहा। विरोधी उनकी जात उछाल रहे हैं। अनेक दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले धनखड़ पहले उपराष्ट्रपति होंगे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता सरकार में धनखड़ राज्यमंत्री रहे। कुछ महीनों की सरकार में चंद्रशेखर ने उन्हें शामिल नहीं किया। धनखड़ का विरोध करने से पहले विपक्ष सोचे। अयोध्या में ढांचा गिराए जाने के बाद कल्याण सिंह, सुंदर लाल पटवा और भैरोंसिंह शेखावत बर्खास्त हुई। ढांचा ढहाने को अनैतिकता बताने वाले अलवर के कांग्रेस विधायक जगदीप का कांग्रेस ने फिर भी टिकट काट दिया। भारतीय जनता पार्टी में बरसों तपस्या के बाद राज्यपाल बने। भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने जनता का राज्यपाल कहकर धनखड़ की उम्मीदवारी घोषित की। मुख्यमंत्री से पहले जनता के बीच पहुंचने में उनकी बराबरी महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी तक नहीं कर सकते। इसीलिए दूसरे सिंहासन तक पहुंचते पहुंचते रह गए। नड्डा ने एक और बात कही- वे जनता के उम्मीदवार हैं। जनता से पहले भारतीय तो हैं ही। हिरण शिकारी सलमान के वकील की राज्यसभा में नए तेवर वाली भूमिका देखने लायक होगी।
विचार, विश्वास, धर्म की स्वतंत्रता
दर्जन भर विधायकों को गुड़ की डली दिख जाए तो खजुराहो, बंगलूरु, कामरूप सब जगह की सूरत दिख जाती है। झूमते नाचते थरकने लगते हैं। मगर राष्ट्रपति का चुनाव था। हजार दो हजार वोट यहां से वहां हो जाने पर किसी की सरकार नहीं गिरनी थी। कांग्रेस वाले जाने क्यों तमाशा करते फिरे। मतदान से पहले गोवा के अपने 11 विधायकों को पार्टी वाले चेन्नई उड़ा ले गए। पूर्व मुख्यमंत्री और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष दोनों को पता नहीं था कि उनको क्यों छोड़ गए। कांग्रेस वाले शायद 13 का अंक अशुभ मानते होंगे। चुनाव में बहुमत न मिलने से दिगम्बर कामत मुख्यमंत्री नहीं बन सके। कांग्रेस में अपने इस तरह नाम के मुताबिक हालत होने का दिगम्बर को अंदाज नहीं था। भाजपा से कांग्रेस में आकर कामत मुख्यमंत्री बने थे। छुटकू से गोवा में दल बदल कर मंत्री, उपमुख्यमंत्री बनने का अवसर हाथ नहीं आया। गोवा राज्य के कांग्रेस प्रभारी दिनेश गुंडू राव ने कामत की भरपूर बदनामी कर डाली है।
(सभी शीर्षक संविधान की प्रस्तावना के अंश हैं।)
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-प्रेमसिंह सियाग
सबीर हका ईरान के करमानशाह में सन 1986 में पैदा हुए। अब तेहरान शहर में किराये के कमरे में रहते है। इमारतों के निर्माण कार्य मे मजदूर है और ईरान के युवा कवि भी है।
अपनी हालत को देखते हुए ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हुए लिखा है....
मैं ईश्वर का दोस्त नहीं हूँ
इसका सिर्फ एक ही कारण है
जिसकी जड़ें बहुत पुराने अतीत में हैं
जब छह लोगों का हमारा परिवार
एक तंग कमरे में रहता था
तब ईश्वर के पास बहुत बड़ा मकान था
जिसमें वह अकेले ही रहता था
सबीर हका ने दुनियाँ भर की व्यवस्थाओं पर भी सवाल खड़ा करते हुए लिखा..
मैं पूरी दुनिया को अपना कह सकता हूँ
दुनिया के हर देश को अपना कह सकता हूँ
मैं आसमान को भी अपना कह सकता हूँ
इस ब्रह्मांड की हरेक चीज को भी
लेकिन तेहरान के इस बिना खिडक़ी वाले
किराए के कमरे को अपना नहीं कह सकता,
मैं इसे अपना घर नहीं कह सकता
जब श्रमिक स्पर्धा में कविता का प्रथम पुरस्कार मिला तो इंटरव्यू देते समय पत्रकार ने पूछा कि आप थके हुए लग रहे हो तो जवाब में कहा- ‘मैं थका हुआ हूँ, बेहद थका हुआ, मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूँ। मेरी माँ मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मजदूरी करती थी, मैं तब से ही एक मजदूर हूँ। मैं अपनी माँ की थकान महसूस कर सकता हूँ। उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है।’
सबीर हका ने आगे कहा कि कविताओं से पेट नहीं भरता।पेट भरने के लिए हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। मैं अपने कमरे के कोने में यह पुरस्कार रख दूंगा और ईंट-रोड़ा उठाने निकल जाऊंगा। पड़ौसी मजदूरों के बच्चे टूटी खिडक़ी से इस पुरस्कार को देखेंगे।
एक गरीब के लिए,एक मजदूर के लिए साहित्य लेखन बहुत ही मुश्किल कार्य होता है। दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में ही जीवन संघर्ष चलता रहता है। अगर इसके बीच भी लिखना/बोलना शुरू कर दे तो तमाम राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक ताकतें दायरा दिखाने लगती है कि तुझ गरीब की इतनी हिम्मत!
सबीर हका ने मजदूरों की मौत को सबसे सस्ती बताते हुए लिखा है.....
क्या आपने कभी शहतूत देखा है!
जहां गिरता है, उतनी जमीन पर
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं
मैंने कितने मजदूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए!
सबीर हका लिखते है कि पूरी जिंदगी मैंने महसूस किया है कि मौत भी जिंदगी का हिस्सा है फिर भी मरने से डर लगता है कि कहीं दूसरी दुनियाँ में भी मजदूर न बन जाऊं! गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलना अपने आपमें जीवन की मुक्ति है अन्यथा हका जैसा युवा जो ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर देता है वो भी सदा मजदूर बने रहने से खौफजदा रहता है।
एक गरीब का, एक मजदूर का दर्द खुद मजदूरी करने वाले सबीर हका जैसे लोग ही व्यक्त कर सकते है। हका लिखते है कि मैं चाहकर भी अपने कैरियर का चुनाव नहीं कर सकता। मैं बैंककर्मी नहीं बन सकता, मैं इन्स्पेक्टर नहीं बन सकता। मेरा पिता मजदूर थे। मेरी माँ मजदूर थी। किराये का मकान था। पिता के गुजरने के बाद मजदूर बनकर घर संभालना मजदूर बनने का जरूरी आधार बन गया।
हर इंसान के अपने सपने होते है व सपनों को पूरा करने की चाहतें दिलों में समेटे रोज जिंदगी के संघर्ष में गतिमान रहता है। सबीर ने लिखा कि जब मर जाऊंगा तो सारी किताबें कफन में बांधकर कब्र में ले जाऊंगा। सिगरेट जलाऊंगा और कस खींचते हुए रोऊंगा उन सपनों के लिए जो जिंदगी में प्राप्त न हो सके। एक डर फिर भी रहेगा कि किसी सुबह कोई कंधा झंझोडक़र न कह दें ‘अबे सबीर उठ! काम पर चलते हंै!’
-डॉ. राजू पाण्डेय
सेंट्रल विस्टा की ऊपरी मंजिल पर स्थापित अशोक स्तंभ की प्रतिकृति के अनावरण के बाद से प्रारंभ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश के अनेक जाने माने इतिहासकार अशोक स्तम्भ के मूल स्वरूप के साथ हुई छेड़छाड़ से आहत हैं। हरबंस मुखिया, राजमोहन गांधी, कुणाल चक्रवर्ती तथा नयनजोत लाहिड़ी आदि अनेक इतिहासकारों के मतानुसार अशोक स्तम्भ की वर्तमान प्रतिकृति में शेरों का स्वरूप मूल अशोक स्तंभ से अलग है और ये मूल अशोक स्तंभ के शेरों की भांति शांति और स्थिरता नहीं दर्शाते।
इन सभी इतिहासकारों का मानना है कि यद्यपि शेरों की प्रकृति आक्रामक होती है किंतु अशोक स्तम्भ के शेरों की मुख मुद्रा ऐसी नहीं है। ऐसा लगता है कि ये हमें संरक्षण दे रहे हैं। इनमें गरिमा, आंतरिक शक्ति एवं आत्मविश्वास परिलक्षित होते हैं। अशोक स्तम्भ के शेर शांति प्रिय, शान्तिकामी और शांति के रक्षक हैं। इनके चेहरे पर दयालुता का भाव है। जबकि नए संसद भवन की छत पर स्थापित प्रतिकृति में शेरों की भाव भंगिमा में गुस्सा है, अशांति है, आक्रामकता है।
प्रतिकृति में दिखने वाले शेरों के दांत अधिक तीखे, बड़े और स्पष्ट हैं। यह हिंसा और आक्रामकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। अशोक स्तंभ इस मायने में अनूठा है कि इसमें शेरों की भावभंगिमा को संयमित और शांत दिखाया गया है जबकि सामान्यतया कलाकारों द्वारा शेरों की पाशविक प्रवृत्ति को आधार बनाकर उन्हें हिंसक, आक्रामक और भयोत्पादक रूप में चित्रित किया जाता है। नए संसद भवन पर स्थापित प्रतिकृति अशोक स्तंभ की इस विलक्षण विशेषता को ही विनष्ट कर देती है। जानेमाने मूर्तिकार अनिल सूतार के अनुसार यह रेप्लिका मूल अशोक स्तंभ से एकदम अलग है।
सेंट्रल विस्टा पर स्थापित प्रतिकृति के शेरों के पिचके हुए टेढ़े जबड़े, अधिक खुले हुए मुख, निकले हुए दांत, भयानक नेत्र, हिंसक चेहरा एवं पैरों और नाखूनों की बदली हुई बनावट तथा शेरों के शरीर एवं अयाल में केशों का विन्यास इन्हें एक रौद्र रूप प्रदान करते हैं। अशोक स्तंभ के शेरों की उपस्थिति आश्वासनदायी है जबकि सेंट्रल विस्टा के शेर भयोत्पादक हैं।
अनेक इतिहासकार सेंट्रल विस्टा की ऊपरी मंजिल पर स्थापित प्रतिकृति के तीखे और हिंसक तथा डरावने लगने वाले दांतों को उग्र राष्ट्रवाद से जोड़कर देख रहे हैं। इनका प्रश्न यह है कि क्या अब भारत एक शांतिप्रिय देश से एक आक्रामक और युद्धप्रिय राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है? इन इतिहासकारों का यह भी मानना है कि अशोक स्तम्भ के शेरों की प्रकृति में लाए गए इस परिवर्तन को कलाकार की स्वतंत्रता कहकर महत्वहीन बनाने की कोशिश गलत है क्योंकि यहां तो कलाकार ने शांति का संदेश देने वाले अशोक स्तंभ को हिंसा की हिमायत करने वाले स्मारक में बदल दिया है।
किंतु कुछ इतिहासकार ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि मूल अशोक स्तंभ और सेंट्रल विस्टा पर स्थापित प्रतिकृति के निर्माण काल में 2500 वर्ष का अंतर है, तबसे लेकर अब तक शिल्प कला के स्वरूप एवं कलाकारों की सोच में बहुत बदलाव आ गया है इसलिए मूल एवं प्रतिकृति का एक समान होना न तो संभव है न ही अपेक्षित है। सेंट्रल विस्टा पर स्थापित प्रतिकृति के शेर वास्तविक शेरों के अधिक निकट और जीवंत हैं।
सरकार की ओर से इस मामले पर सफाई केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री हरदीप पुरी के ट्वीट संदेशों के रूप में सामने आई है। श्री पुरी के अनुसार नई संसद हेतु निर्मित अशोक स्तंभ सारनाथ के स्तंभ की हूबहू प्रतिकृति है। दोनों की डिजाइन एवं बनावट समान है। केवल लोगों के देखने के नजरिए में अंतर है। नए संसद भवन पर स्थापित प्रतिकृति(6.5 मीटर) सारनाथ के संग्रहालय में स्थित अशोक स्तम्भ(1.6 मीटर) से काफी बड़ी है। यदि मूल अशोक स्तंभ के आकार वाली प्रतिकृति सेंट्रल विस्टा की छत पर रखी जाती तो यह दिखाई ही नहीं पड़ती। विशेषज्ञ यह क्यों भूल रहे हैं कि सारनाथ का मूल अशोक स्तंभ जमीन के स्तर पर है और नया प्रतीक जमीन से 33 मीटर की ऊंचाई पर है। जब हम मूल और प्रतिकृति की तुलना करते हैं तो कोण,लंबाई और स्केल का ध्यान क्यों नहीं रखते? यदि सेंट्रल विस्टा पर रखे रेप्लिका को छोटा कर दिया जाए तो यह हूबहू मूल अशोक स्तंभ की भांति दिखाई देगा। यदि हम मूल अशोक स्तंभ को नीचे से देखें तो इसके शेर रेप्लिका की भांति ही क्रोधित या शांत लगेंगे।
लगभग यही तर्क इस रेप्लिका के निर्माता द्वय लक्ष्मण व्यास और सुनील देवड़े ने दिए हैं और हरदीप पुरी की ही भांति उन्होंने अंग्रेजी की उस उक्ति का आश्रय लिया है जिसके अनुसार सौंदर्य देखने वाले की दृष्टि में होता है।
सरकार और प्रतिकृति के निर्माताओं के तर्क तब अर्थहीन लगने लगते हैं जब हम बनारस के उन कलाकारों की राय से अवगत होते हैं जो वर्षों से काष्ठ, पत्थर और कागज-कैनवास पर अशोक स्तंभ की प्रतिकृतियां बनाकर पर्यटकों को बेचते रहे हैं। न ये इतिहास विशेषज्ञ हैं न ही इन्होंने मूर्तिकला की विधिवत शिक्षा पाई है किंतु अशोक स्तंभ इनके जीवन का अविभाज्य हिस्सा है क्योंकि इसकी सैकड़ों प्रतिकृतियां गढ़ते गढ़ते इन कलाकारों ने अशोक स्तंभ को आत्मसात कर लिया है। यह कलाकार भी प्रथम दृष्टया ही सेंट्रल विस्टा के अशोक स्तम्भ को मूल से भिन्न बताते हैं। इन कलाकारों के संस्कार सैकड़ों बार अशोक स्तम्भ की प्रतिकृतियां गढ़ते समय एक बार भी इन्हें इसके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ का दुस्साहस नहीं करने देते।
इतिहासकारों एवं बौद्ध धर्म के जानकारों के अनुसार बुद्ध के अनेक नामों में शाक्य सिंह एवं नरसिंह जैसे नाम भी हैं। सारनाथ भगवान बुद्ध का प्रथम उपदेश स्थल है। इसी स्थान से उन्होंने धर्म चक्र प्रवर्तन का प्रारम्भ किया था और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का विचार इस विश्व को दिया था। तदुपरांत शांति, सद्भाव और बंधुत्व के संदेश के वैश्विक प्रसार हेतु उन्होंने अपने शिष्यों को चतुर्दिक भ्रमण हेतु प्रेरित किया था। बुद्ध द्वारा परम सत्य का उद्घोष किसी सिंह नाद से कम नहीं। अशोक स्तंभ के चारों सिंह सम्राट अशोक की धम्म विजय की घोषणा का नाद करते प्रतीत होते हैं। अशोक स्तम्भ की यह धार्मिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अशोक स्तंभ के शेरों की सौम्य और शांत मुखमुद्रा का कारण समझने के लिए पर्याप्त है।
इस प्रकार यदि मूल अशोक स्तम्भ के संदेश को सेंट्रल विस्टा पर लगाई गई इसकी प्रतिकृति के माध्यम से उलट देने के आरोप सही हैं तो यह राष्ट्रीय प्रतीक के स्वरूप में परिवर्तन का विषय ही नहीं है अपितु यह बौद्ध धर्म के मर्म और सम्राट अशोक की छवि दोनों को एक भिन्न और संभवतः गलत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की चेष्टा भी है।
बुद्ध धर्म और सम्राट अशोक के प्रति हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादकों और उनके अनुयायियों की नापसंदगी जगजाहिर है। श्री गोलवलकर का कथन है, "बुद्ध के पश्चात यहां उनके अनुयायी पतित हो गए। उन्होंने इस देश की युगों पुरानी प्राचीन परंपराओं का उन्मूलन प्रारंभ कर दिया। हमारे समाज में पोषित महान सांस्कृतिक सद्गुणों का विनाश किया जाने लगा। अतीत के साथ के संबंध-सूत्रों को भंग कर दिया गया। धर्म की दुर्गति हो गई। संपूर्ण समाज-व्यवस्था छिन्न-विच्छिन्न की जाने लगी। राष्ट्र एवं उसके दाय के प्रति श्रद्धा इतने निम्न तल तक पहुंच गई कि धर्मांध बौद्धों ने बुद्ध धर्म का चेहरा लगाए हुए विदेशी आक्रांताओं को आमंत्रित किया तथा उनकी सहायता की। बौद्ध पंथ अपने मातृ समाज तथा मातृ धर्म के प्रति द्रोही बन गया।" यहां श्री गोलवलकर अप्रत्यक्ष रूप से सम्राट अशोक की ओर ही संकेत करते लगते हैं।
श्री गोलवलकर के अभिमत पर आधारित एक लेख लगभग 6 वर्ष पहले राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद (जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का आनुषांगिक संगठन है) द्वारा प्रकाशित 'बप्पा रावल' के मई 2016 के अंक में 'भारत : कल, आज और कल' लेखमाला के अंतर्गत छपा।
इसमें 'बप्पा रावल' की संपादिका डॉ. राधिका लढ़ा ने लिखा
- "मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक के कारण ही भारतीय राष्ट्र पर बड़े संकटों के पहाड़ टूटे और यूनानी हमलावर भारत को पदाक्रांत करने आ धमके। …..यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि जो अशोक भारतीय राष्ट्र की अवनति का कारण बना, उसकी ही हमने 'अशोक महान' कह कर पूजा की। अच्छा होता कि राजा अशोक भी भगवान बुद्ध की तरह साम्राज्य त्यागकर, भिक्षु बनकर बौद्ध धर्म के प्रचार में लग जाते।……इसके विपरीत उन्होंने सारे साम्राज्य को ही बौद्ध धर्म प्रचारक विशाल मठ के रूप में बदल दिया। इन वजहों से ही यूरोप से फिर एक बार ग्रीक हमलावर भारत को कुचलने आ धमके।"
डॉ. राधिका लढ़ा के अनुसार अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया, फिर इसे ही राज धर्म बना दिया। विदेशों से जो भी आता, यदि वह बौद्ध होता तो अशोक तुरंत ही उसे अपना मान लेते थे, जो गलत था। …..उन्होंने (अशोक ने) इतनी शांति फैलाई कि सीमा पर लगे सैनिक ही हटा दिए। इससे हमले बढ़े और राष्ट्र की उसी वक्त अवनति शुरू हो गई।"
संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं 'पाथेय कण' पत्रिका के संपादक कन्हैयालाल चतुर्वेदी ने अधिक संयत ढंग से इसी तर्क को आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा-"सम्राट अशोक में अच्छाई थी तो दोष भी थे। उनके आने से भारत में शक्ति पूजा समाप्त हो गई। इससे राष्ट्र कमजोर बनता गया और विदेशियों के आक्रमण बढ़ते गए। अकबर और अशोक को महान बताने वाले जो भी इतिहासकार हैं, वे सभी विदेशी हैं, जो भारत को जानते ही नहीं।"
जब डॉ. राधिका लढ़ा के लेख पर विवाद बढ़ा तो संघ ने इसे लेखिका की निजी राय बताकर खुद को इससे अलग कर लिया।
सम्राट अशोक की छवि धूमिल करने का नवीनतम प्रयास भाजपा के सांस्कृतिक मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक एवं आरएसएस की संस्कार भारती से संबद्ध श्री दया प्रकाश सिन्हा द्वारा किया गया। श्री सिन्हा इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशन्स के उपाध्यक्ष भी हैं। श्री सिन्हा 2 अप्रैल 2015 को तत्कालीन संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री डॉ. महेश चन्द्र शर्मा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल की उपस्थिति में लोकार्पित अपने विवादास्पद नाटक "सम्राट अशोक" के लिए पहले ही चर्चा में रह चुके हैं। उन्होंने एक दैनिक समाचार पत्र में 8 जनवरी 2022 को प्रकाशित अपने साक्षात्कार में सम्राट अशोक के विषय में अनेक नकारात्मक और विवादित टिप्पणियां कीं।
श्री सिन्हा ने कहा-" श्रीलंका के तीन बौद्ध ग्रंथ दीपवंस, महावंस, अशोकावदान और तिब्बती लेखक तारानाथ के ग्रंथ से यह ज्ञात होता है कि सम्राट अशोक बहुत ही बदसूरत था। उसके चेहरे पर दाग था और वह आरंभिक जीवन में बहुत ही कामुक था। बौद्ध ग्रंथ भी कहते हैं कि अशोक कामाशोक और चंडाशोक था। चंडाशोक यानी कि वह बहुत ही क्रूर था। उसने बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई थी।
श्री सिन्हा ने आगे कहा-" (मुझे) अशोक और मुगल बादशाह औरंगजेब के चरित्र में बहुत समानता दिखाई दी। दोनों ने अपने प्रारंभिक जीवन में बहुत पाप किए थे और अपने पाप को छिपाने के लिए अतिधार्मिकता का सहारा लिया ताकि जनता का ध्यान धर्म के प्रति प्रेरित हो जाए और उनके पाप पर किसी का ध्यान न जाए। दोनों ने अपने भाई की हत्या की थी और अपने पिता को कारावास में डाल दिया था। अशोक का चरित्र बहुत ही रोचक है। उसने अपनी पत्नी को जला दिया था, क्योंकि उसने एक बौद्ध भिक्षु का अपमान किया था।"
श्री सिन्हा की इन टिप्पणियों के बाद सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो राजेन्द्र प्रसाद सिंह एवं अन्य विद्वानों ने जब जनता के सम्मुख यह सच उजागर किया कि दीपवंस, महावंस और अशोकावदान, दिव्यावदान आदि परवर्ती ग्रंथों में अशोक से संबंधित अनेक मनगढ़ंत और कपोल कल्पित कथाएं हैं जिनका कोई पुरातत्विक आधार नहीं है और इनकी बुनियाद पर अशोक को कुरूप, हीनभावना से ग्रस्त, अपने परिवार जनों और अन्य स्त्रियों का हत्यारा कहना सर्वथा अनुचित है तो श्री सिन्हा इन प्रतिप्रश्नों से बचते नजर आए।
बहरहाल इस विवाद के परिणामस्वरूप अशोक द्वारा अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं सहकार के क्षेत्र में उठाए गए कदमों, उनके द्वारा आम जन के कल्याण लिए चलाए गए कार्यक्रमों, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु रहने और उनका सम्मान करने के उनके सिद्धांत,मानवाधिकारों की रक्षा के लिए उनके द्वारा की गई पहलकदमी तथा प्राणिमात्र के संरक्षण की उनकी उदार दृष्टि की जमकर चर्चा हुई और जो नई पीढ़ी अशोक के विषय में अनभिज्ञ थी उसने भी उनकी महानता को जाना।
सेंट्रल विस्टा के शिखर पर विराजमान हिंसक और भयोत्पादक शेरों के साथ मुदित भाव से अकेले खड़े माननीय प्रधानमंत्रीजी की तस्वीर आश्वासन कम देती है, चिंता और भय अधिक उत्पन्न करती है। शायद इस तस्वीर में प्रधानमंत्री जी के साथ विपक्ष का होना उनकी अद्वितीयता को कम कर देता किंतु कम से कम उनके सहयोगियों को तो इस बात का अवसर मिलना था कि वे अपने बौनेपन और असहायता का अनुभव कर सकें। इस दौरान घटित घटनाक्रम बहुत प्रतीकात्मक रहा, लोकसभा अध्यक्ष (जिन्हें वास्तव में अनावरण का यह कार्य सम्पन्न करना था) उपेक्षित से बस उपस्थित थे, उसी वैदिक रीति से पूजा पाठ भी हुआ जिससे विद्रोह कर बुद्ध धर्म अस्तित्व में आया था। हमारे देश से हिन्दू धर्म के अतिरिक्त अन्य अनेक धर्मों के अनुयायियों का अटूट रिश्ता है, किंतु संसद शायद अब उनसे दूर होती जा रही है।
माननीय प्रधानमंत्री जी के मुख पर व्याप्त संतोष और आनंद की व्याख्या करना कठिन है। क्या यह प्रसन्नता इस बात की है कि हमारी उदार राष्ट्रीय पहचान से जुड़े एक और चिह्न को उन्होंने असमावेशी हिंदुत्व के रंग में रंगने में सफलता अर्जित कर ली है?
क्या उनका आनंद इस बात को लेकर है कि नए कीर्तिमान स्थापित करती महंगाई और बेरोजगारी के बीच जब देश में आर्थिक संकट की आहट स्पष्ट सुनाई दे रही है, उन्होंने अपनी अति महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना को हठपूर्वक पूर्णता तक पहुंचा ही लिया है?
अभी ही जब आलोचना, समीक्षा और बहस में सहज प्रयुक्त होने वाले अति प्रचलित शब्दों को असंसदीय घोषित करने वाली सूची चर्चा में है तब शायद उनकी खुशी इस बात को लेकर होगी कि सेंट्रल विस्टा के भव्य गलियारों में असहमत स्वरों को गूँजने न देने का एक और रास्ता तलाश कर लिया गया है।
यह भी विचारणीय प्रश्न है कि इन हिंसक शेरों का गुस्सा आखिर किस पर टूटेगा? कर्ज में डूबा, मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने वाले संगठनों के आदेश का अनुपालन करने को लालायित भारत विश्व को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले ताकतवर देशों से तो लड़ नहीं सकता। ढीठ चीन के आक्रामक व्यवहार और उकसाने वाले कदमों पर हम कोई ठोस रणनीति बनाने के बजाए देश की जनता को भ्रम में रखने की विधियां तलाश रहे हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि शेरों की यह गुर्राहट अपनी अकर्मण्यता, अक्षमता और शक्तिहीनता को छिपाने की रणनीति है। शायद अपने पौरुष के छद्म को कायम रखने के लिए नए भारत के ये शेर अपने ही देश के उन निरीह लोगों पर आक्रमण करेंगे जिन्हें देश की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी काल्पनिक शत्रुओं के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में आदिवासियों को कितना महत्व दिया जाता है, इसे आप इसी तथ्य से समझ सकते हैं कि इस समय भारत की राष्ट्रपति एक आदिवासी, वह भी महिला द्रौपदी मुर्मू हैं और तीन राज्यपाल आज भी आदिवासी हैं। छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसूय्या उइके ने जो मूलत: मध्यप्रदेश की हैं, आदिवासियों के लिए कई नई पहल की हैं। भारत में कई आदिवासी मुख्यमंत्री और मंत्री हैं और पहले भी रहे हैं। संसद में भी भारत के लगभग 50 सदस्य आदिवासी ही होते हैं। कई विश्वविद्यालयों के उप-कुलपति और प्रोफेसर भी आदिवासी हैं।
भारत के कई डाक्टर और वकील भी आपको आदिवासी मिल जाएंगे। सरकारी नौकरियों और संसद में उन्हें आरक्षण की भी सुविधा है लेकिन आप जरा जानें कि अमेरिका और कनाडा के आदिवासियों का क्या हाल हैं। मैं अपनी युवा अवस्था से इन देशों में पढ़ता और पढ़ाता रहा हूं। मुझे इनके कई आदिवासी इलाकों में जाने का मौका मिला है। यह संयोग है कि मेरे साथी छात्रों में कभी कोई अमेरिकी या कनीडेयन आदिवासी नहीं रहा है। वहां के आदिवासी आज भी जानवरों की जिंदगी जी रहे हैं।
उनसे माफी मांगने के लिए पोप फ्रांसिस, जो कि 86 साल के हैं, आजकल कनाडा गए हैं। व्हीलचेयर में बैठे पोप वहां क्यों गए हैं? ईसाई पादरियों और गोरे प्रवासियों द्वारा वहां के आदिवासियों पर किए गए अत्याचारों के लिए माफी मांगने के लिए गए हैं। पिछले 80-90 साल में आदिवासियों के लगभग डेढ़ लाख बच्चे लापता हो चुके हैं। इन बच्चों को उनके घर से जबरन उठाकर ईसाई स्कूल में भर्ती कर दिया जाता था।
उन पर हुए अत्याचारों की कहानी रौंगटे खड़े कर देती है। हजारों बच्चे भूख से तडफ़-तडफ़ कर मर गए, हजारों के साथ बलात्कार हुए और हजारों की हत्या कर दी गई। उनके ईसाई स्कूल उनके गांवों से इतने दूर बनाए जाते थे कि उनके माँ-बाप उन तक नहीं पहुंच सकें। कनाडा सरकार ने जांच आयोग बिठाकर जो तथ्य उजागर किए हैं, उनसे पोप मर्माहत हुए और कनाडा जाकर उन आदिवासियों से माफी मांगने का संकल्प किया।
कनाडा सरकार ने उनके पुनरोद्धार के लिए 40 बिलियन डॉलर देने की घोषणा की है। अमेरिका और केनाडा के आदिवासियों को ‘रेड इंडियन’ और ‘इंडियन’ कहा जाता है लेकिन जऱा देखिए कि उन देशों और भारत के आदिवासियों में कितना फर्क है। (नया इंडिया की अनुमति से)