विचार / लेख
-सनियारा खान
आजादी के ऐसे बहुत से क्रांतिकारी वीर-वीरांगनाएं हैं, जिन्हें हम लोग जानते भी नहीं हैं। हमारी सर जमीन पर ना जाने कितने आजादी के दीवानें हुआ करते थे, जिनमे से कइयों को हम जानते ही नहीं और अगर जानते भी थे तो जल्द भूल भी गए। ऐसा ही एक नाम है बंगाल की देशभक्त और क्रांतिकारी महिला बीना दास का। उनके पिता बेनी माधव दास एक जाने माने शिक्षक थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी उनके छात्र रह चुके है। माता सरला देवी एक समाजसेवी थी।
छोटी उम्र से ही बीना दास और उनकी बहन कल्याणी दास दोनों ही स्वतंत्रता की दीवानी रही। स्कूल के दिनों से ही दोनों अंग्रेजों के खिलाफ रैलियों और मोर्चों में शामिल होने लगी थी। बेथुन कॉलेज में पढ़ते समय 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए बीना ने अन्य छात्राओं के साथ कॉलेज के फाटक पर धरना दे कर सब का ध्यान आकर्षित किया था। कांग्रेस अधिवेशन में वह स्वयंसेवी बन कर भी काम करती रही। इसके बाद उसने जो काम किया वह कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में उसने बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैकसन को अपनी गोली का निशाना बनाया। यह अलग बात है कि उसका निशाना चुक गया और वह गिरफ्तार कर ली गई। लेकिन अब वह अखबारों के फ्रंट पेज पर छा गई थी। जेल में उन पर बार बार साथी क्रांतिकारियों के नाम बताने के लिए दबाव डाला जा रहा था और अत्याचार भी किया जा रहा था। लेकिन वह मुंह नहीं खोली। बल्कि बहादुरी से कहा कि 30 करोड़ हिन्दुस्तानियों को गुलामी से मुक्त करना और अंग्रेज सरकार के पूरे सिस्टम को हिला देना ही उसका मकसद है। उसे नौ साल के लिए कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।
इसके बाद 1937 में उस प्रांत में कांग्रेस सरकार बनते ही सभी बंदियों के साथ बीना दास भी रिहा हो गई। लेकिन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय उन्हे फिर से तीन साल के लिए नजरबंद कर रखा गया था। 1946 से 1951 तक वह बंगाल विधान सभा की सदस्य भी रही। गांधीजी के साथ नौआखाली यात्रा में शामिल हो कर लोगों का पुनर्वास करने में बढ़-चढक़र भाग लिया। बाद में एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही उनकी शादी हुई। कहा जाता था कि पति के मृत्यु के बाद वह ऋषिकेश में किसी आश्रम में रहने लगी और सरकार से स्वतंत्रता पैंशन लेने से इन्कार कर दिया। और एक शिक्षिका बन कर जीवन व्यतीत करने लगी।
देश के लिए सब कुछ त्याग देने वाली बीना दास के दुखद अंत को लेकर एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी प्रोफेसर सत्यब्रत घोष ने अपने लेख ‘फ्लैशबैक: बीना दास, रीबॉर्न’ में लिखा कि किस प्रकार सडक़ के किनारे उनका जीवन समाप्त हो गया था। छिन्न-भिन्न अवस्था में लोगों को उनका शव मिला था। पुलिस ने खोज बीन कर पता किया कि वह शव क्रांतिकारी बीना दास का था। सही में ये बेहद अफसोस की बात है कि एक क्रांतिकारी को गुमनामी के अंधेरे में इस तरह मौत को गले लगाना पड़ा। हम सब का सर शर्म से झुक जाना चाहिए।