विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र संघ की मानव अधिकार परिषद ने चीन को कठघरे में खड़ा कर दिया है। उसकी ताजा रपट में उसने बताया है कि चीन के शिन च्यांग (सिंक्यांग) प्रांत के लगभग दस लाख उइगरों को यातना शिविरों में बंद करके रखा हुआ है। ये उइगर मुसलमान हैं। ये दिखने में भी चीनियों से अलग दिखते हैं। उनका सिंक्यांग प्रांत हमारे लद्दाख से लगा हुआ है। सैकड़ों सालों से पैदल रास्ते चीन जानेवाले और वहां से आनेवाले व्यापारी, विद्वान, यात्रीगण इसी रास्ते से आया जाया करते थे।
उइगरों का यह क्षेत्र सदियों से चीनी वर्चस्व के बाहर रहा है। कम्युनिस्ट शासन की स्थापना होने के पहले इस उइगर-क्षेत्र में आजादी का आंदोलन चलता रहा है लेकिन जब से चीन में कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ है, उइगर मुसलमानों को बड़ी बेरहमी से दबाया गया है। कुछ उइगर नेताओं और व्यापारियों को अपना हथियार बनाकर चीनी सरकार उन पर निरंतर जुल्म करती रहती है।
संयुक्तराष्ट्र संघ की लंबी रपट में ठोस तथ्य और तर्क देकर बताया गया है कि चीन के ये मुसलमान गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं। उनकी जनसंख्या न बढ़े, इसलिए उनकी जबरन सामूहिक नसबंदी कर दी जाती है। उनकी मस्जिदों पर ताले ठोक दिए जाते हैं। वहां मदरसे नहीं चलने दिए जाते हैं। इस्लामी देशों के प्रचारकों को वहां घुसने भी नहीं दिया जाता है। उनकी वेशभूषा और नाम भी बदलने की कोशिश बराबर जारी रहती है। उइगर बच्चों के स्कूलों में चीनी भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती है।
शिंनच्यांग प्रांत में कम्युनिस्ट पार्टी का शिंकजा इतना कड़ा है कि जो उइगर मुसलमान उसके पदाधिकारी हैं, वे चीनियों की नकल भर बने रहते हैं। सिंक्यांग प्रांत की राजधानी उरुमची और अन्य शहरों व गांवों में मुझे घूमने-फिरने और आम आदमियों से खुलकर बात करने का मौका मिला है। कई उइगरों से पेइचिंग और शांघाई में भी मेरा खुलकर संवाद हुआ है। वे अपने आप को चीनी कहने में ही संकोच करते हैं। सिंक्यांग में मैंने जैसी गरीबी देखी, वैसी दुनिया के बहुत कम देशों में देखी है।
वहां की कई महिलाओं ने शिकायत की कि चीनी लोग उनके साथ काफी बुरा बर्ताव करते हैं। राजधानी उरुमची में पाकिस्तानी छात्रों की भरमार रहती है। चीनी सरकार उन्हें लगभग मुफ्त में मेडिकल की शिक्षा देती है लेकिन उसे यह डर भी लगा रहता है कि इन इस्लामी पाकिस्तानियों के जरिए अफगानिस्तान और मध्य एशियाई मुस्लिम राष्ट्रों के आतंकवादी कहीं सिंक्यांग में अपना अड्डा न बना लें।
ये उइगर लोग भारत और पाकिस्तान को बहुत प्यार करते हैं लेकिन देखिए उनकी बदकि़स्मती कि इन दोनों देशों के नेता उइगरों के मुद्दे पर मौन धारण किए रहते हैं। अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्र जब मुंह खोलते हैं, चीन उन पर निहित स्वार्थ और दुश्मनी का आरोप लगाता है। चीनी सरकार ने संयुक्तराष्ट्र की इस ताजा रपट को भी यही कहकर रद्द कर दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मिखाइल गोर्बाच्येव के निधन पर पश्चिमी दुनिया ने गहन शोक व्यक्त किया है। शोक तो व्लादिमीर पुतिन ने भी प्रकट किया है लेकिन रूस के इतिहास में जैसे व्लादिमीर इलिच लेनिन का नाम अमर है, वैसे ही गोर्बाच्येव का भी रहेगा। रूस के बाहर की दुनिया शायद लेनिन से ज्यादा गोर्बाच्येव को याद करेगी। यह ठीक है कि लेनिन के प्रशंसक और अनुयायी चीन से क्यूबा तक फैले हुए थे और माओ त्से तुंग से लेकर फिदेल कास्त्रो तक लेनिन की विरुदावलियां गाया करते थे लेकिन गोर्बाच्येव ने जो कर दिया, वह एक असंभव लगनेवाला कार्य था।
उन्होंने सोवियत संघ को कम्युनिस्ट पार्टी के शिकंजे से बाहर निकाल दिया, सारी दुनिया में फैले शीतयुद्ध को बिदा कर दिया, सोवियत संघ से 15 देशों को अलग करके आजादी दिलवा दी, दो टुकड़ों में बंटे जर्मनी को एक करवा दिया, वारसा पेक्ट को भंग करवा दिया, परमाणु-शस्त्रों पर नियंत्रण की कोशिश की और रूस के लिए लोकतंत्र के दरवाजे खोलने का भी प्रयत्न किया। यदि मुझे एक पंक्ति में गोर्बाच्येव के योगदान को वर्णित करना हो तो मैं कहूंगा कि उन्होंने 20 वीं सदी के महानायक होने का गौरव प्राप्त किया है।
बीसवीं सदी की अंतरराष्ट्रीय राजनीति, वैश्विक विचारधारा और मानव मुक्ति का जितना असंभव कार्य गोर्बाच्येव ने कर दिखाया, उतना किसी भी नेता ने नहीं किया। लियोनिद ब्रेझनेव के जमाने में मैं सोवियत संघ में पीएच.डी. का अनुसंधान करता था। उस समय के कम्युनिस्ट शासन, बाद में गोर्बाच्येव-काल तथा उसके बाद भी मुझे रूस में रहने के कई मौके मिले हैं। मैंने तीनों तरह के रूसी हालात को नजदीक से देखा है। कार्ल मार्क्स के सपनों के समाजवादी समाज की अंदरुनी हालत देखकर मैं हतप्रभ रह जाता था।
मास्को और लेनिनग्राद में मुक्त-यौन संबंध, गुप्तचरों की जबर्दस्त निगरानी, रोजमर्रा की चीजों को खरीदने के लिए लगनेवाली लंबी कतारें और मेरे-जैसा युवा मेहमान शोध-छात्र के लिए सोने के पतरों से जड़ी कारें देखकर मैं सोचने लगता था कि हमारे श्रीपाद अमृत डांग क्या भारत में भी ऐसी ही व्यवस्था कायम करना चाहते हैं? गोर्बाच्येव ने लेनिन, स्तालिन, ख्रुश्चेव और ब्रेझनेव की बनाई हुई इस कृत्रिम व्यवस्था से रूस को मुक्ति दिला दी।
उन्होंने पूर्वी यूरोप के देशों को ही रूसी चंगुल से नहीं छुड़वाया बल्कि अफगानिस्तान को भी रूसी कब्जे से मुक्त करवाया। अपने पांच-छह साल (1985-1991) के नेतृत्व में उन्होंने ‘ग्लासनोस्त’ और ‘पेरिस्त्रोइका’ इन दो रूसी शब्दों को विश्व व्यापी बना दिया। उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिला लेकिन रूसी राजनीति में पिछले तीन दशक से वे हाशिए में ही चले गए।
उनके आखिरी दिनों में उन्हें अफसोस था कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। उनकी माता यूक्रेनी थीं और पिता रूसी! यदि गोर्बाच्येव नहीं होते तो आज क्या भारत-अमेरिकी संबंध इतने घनिष्ट होते? रूसी समाजवादी अर्थ-व्यवस्था की नकल से नरसिंहरावजी ने भारत को जो मुक्त किया, उसके पीछे गोर्बाच्येव की प्रेरणा कम न थी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-मुकेश नेमा
इतने दिनों से जिसका डर था वही हुआ आज। कद्दू महाराज, यथोचित परीक्षण उपरान्त बालिगों में गिने गए। अपनी डार से बिछुड़े और सब्जी की टोकनी में आ विराजे।
कद्दू के गृहप्रवेश को साधारण मत समझिए। खूसट बाप से कमतर आँकेंगे आप उसे तो गलती करेंगे। कद्दू का आना, कठिन टाइप के बाप के शाम की घर लौटने जैसी दारुण परिस्थिति। गणित जैसा उलझा हुआ बाप इसलिए लौटता है घर कि घर न जाए तो कहाँ जाए। चिड़चिड़ा, हैरान परेशान, उलझा उलझा सा जीव। आमतौर पर जमाने भर से लड़ता जूझता बंदा। फिलिस्तीनियों जैसे बच्चों के लिए इजरायल टाईप की चीज। ऐसे बम वर्षक विमान जैसा जिसे देखकर वो किताबों के बंकर में जा छुपने में ही खैरियत मानते हैं। वो होता है और उसका कुछ नहीं किया जा सकता।
खैर हम अपने कद्दू पर लौटें। कद्दू को आना ही था। वो आया। आ चुका। और मैं सोच में हूँ कि इससे निपटा कैसे जाए। कुछ दिनों पहले ही ज्ञानियों से पता चला कि पेठे बनाने वाला कद्दू, कद्दू होकर भी कद्दू नहीं है। वो कुम्हड़ा है। इसका अमीर रिश्तेदार है। और इसके कारण अनचाहे ही सही, लोग उसकी इज़्जत करते हैं।
ऐसे में हमारा वाला कोई दीन का लगा नहीं हमें। ऐसा जैसे घर में नालायक औलाद पैदा हो जाए। औलाद तो औलाद है, उसे फेंक तो सकते नहीं आप। हमारे मिडिल क्लॉस की यही सबसे बड़ी व्यथा है। भरी जवानी खूसट, जल्लाद जैसे बाप के नीचे दबी-कुचली बीती और जब खुद बाप हुए तो निकम्मी उजड्ड औलाद के हाथों गिने नहीं गए। खैर किस्मत है अपनी अपनी। किसी के घर निकम्मी औलाद पैदा होती है और मेरे घर के पिछवाड़े ये असहनीय टाईप के कद्दू महाशय पैदा हुए है।
कद्दू की रामजी को याद कराने में। आपको आस्तिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। आपको क्या लगता है हमारे सारे बड़े बड़े संत जो संत का चोला पहनने के पहले बड़े, खाते-पीते आदमी हुआ करते थे। वो अपने महल छोडक़र ऐसे ही, सेंत मेत में जंगल में कुटिया बनाकर रहने लगे? कद्दू ही प्रेरणा बना उनके वानप्रस्थ की। वे इससे लड़े। पराजित हुए और वन गए और ज्ञान की बड़ी बड़ी करने लायक हो पाए।
ऐसा भी नहीं मूरख की तरह फूले, कद्दू की खामियों बाबत ही सोचा मैंने। इसकी खूबियों का भी पता किया। इसके सारे पोषक तत्वों और इसमें भरे तमाम विटामिन्स की कारगुजारियों से वाकिफ हुआ मैं। इसके बावजूद मेरा मनोबल अर्थव्यवस्था की माफिक ही घुटनों पर रहा। मेरी जीभ डरी। मैं डरा। सोचने में भी डर शामिल। यह कि यह पकेगा और मुझे पकाएगा। मानव सभ्यता कद्दू को खाने के कुछ ही तरीके विकसित कर सकी है अब तक। इसकी सब्जी बनेगी या रायता। बहुत हुआ तो हलवा बने इसका। रायता तो फिर भी ठीक। यदि सब्जी बनी तब तो इसका स्वरूप और हाहाकारी होगा। खैर। जो भी होगा अब विध्नहर्ता गणेशजी करेंगे, कद्दू करेगा।
यह सब बता क्यों रहा हूँ मैं आपको ? केवल इसलिए क्योंकि आज बहुत जोर से लग रहा है मुझे कि दुनिया को एक और ज्ञानी की जरूरत है। एकदम सिद्धार्थ वाली मनोदशा। जो उन्हें बूढ़े आदमी और अर्थी को देखकर लगा वैसा ही मुझे कद्दू को देखकर लगा। लगभग निश्चित कर चुका मैं। अध्यात्म और वैराग्य का संसार प्रतीक्षा कर रहा है मेरी। बहुत हो चुकी दुनियादारी। ऐसे में यदि कल किसी दिन मेरे बाबा बैरागी होने की, महावीर, बुद्ध की तरह किसी नए धर्म के प्रवर्तक होने की, खबर मिले आपको तो हैरान न हों।
-प्रिय दर्शन
यह 1985 का साल था। इंटरमीडिएट में पढ़ते हुए मैंने तीस रुपये में सात रूसी किताबें खरीदी थीं- चेखव का कहानी संग्रह, मैक्सिम गोर्की की तीन किताबें- 'मेरा बचपन', 'मेरे विश्वविद्यालय' और 'जीवन की राहों में', तुर्गनेव का 'पिता और पुत्र', ऑस्त्रोव्स्की का 'अग्निदीक्षा', और टॉल्स्टॉय का 'पुनरुत्थान'।
तीस रुपये में यह ख़ज़ाना हाथ में लगने जैसा था। रूसी साहित्य से यह मेरा पहला विपुल परिचय हो रहा था। रूस की सर्द रातों में ओवरकोट पहने लोग, बग्घियों में घूमती लड़कियां, बेंत लिए बूढ़े, बेंच पर बैठी महिलाएं- अगले कुछ महीने में मॉस्को, लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद सब जैसे अपने जाने-पहचाने शहर होते गए थे। आने वाले वर्षों में इस ख़ज़ाने में और भी किताबें जुड़ती चली गईं- मैक्सिम गोर्की का 'मां', टॉल्स्टॉय का 'अन्ना कैरेनिना', दॉस्तोएव्स्की का 'अपराध और दंड', और 'बौड़म', जॉन रीड का 'वे दस दिन जब दुनिया हिल उठी', शोलोखोव का 'धीरे बहो दोन होय', मारिया प्रिलेयाजेवा की लिखी लेनिन की जीवनी, 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' लेनिन का 'क्या करें' और ऐसी ढेर सारी किताबें जो आने वाले दिनों में हमें कुछ कम्युनिस्ट, कुछ समझदार, कुछ प्रगतिशील और कुछ साहित्यिक बनाती रहीं। यह सियासत से ज़्यादा किताबों और बदलाव की चाहत से मोहब्बत थी जो हम कुछ से कुछ होते चले गए। अगर सोवियत संघ ने अपने संसाधन नहीं झोंके होते तो शायद बहुत सारे बहुमूल्य साहित्य से हम अपरिचित रह जाते।
1985 के इसी साल मिखाइल सर्गेयेविच गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने। उसके पहले सोवियत संघ अपने दो राष्ट्रपतियों की बहुत तेज़ विदाई देख चुका था। कुछ महीने चेरनेन्को रहे, जिनका नाम तक लोगों को याद नहीं होगा और दो साल यूरी आंद्रोपोव रहे, जिनके पहले ब्रेझनेव युग चला था। यह वह दुनिया थी जिसमें कई जाने-माने राष्ट्र प्रमुख अपने-अपने देशों की सत्ता संभाल रहे थे। अमेरिका को रोनाल्ड रीगन बदल रहे थे और ब्रिटेन को लौह महिला मार्गरेट थैचर। पश्चिम जर्मनी को हेलमुट कोल ने संभाल रखा था। लेकिन इन तमाम लोगों के बीच गोर्बाचेव की हैसियत शायद सबसे ऊंची थी- कुछ सोवियत संघ की विराट हैसियत की वजह से और कुछ अपनी निजी शख़्सियत के कारण। निश्चय ही वे कुछ अलग से नेता थे। सोवियत सत्ता की सीढ़ियों पर बहुत कम उम्र में पहुंच गए थे। उनके सामने कई सपने और कई लक्ष्य थे। उनको एहसास था कि देश में घुटन बढ़ रही है और दुनिया में तनाव। पश्चिम से वे बेहतर रिश्ते चाहते थे। किसी भी सूरत में तीसरा विश्वयुद्ध रोकने के पक्षधर थे। चालीस साल से धधक रहे शीतयुद्ध को ख़त्म करना चाहते थे। उन्होंने ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका शुरू किया- यानी खुलापन और बदलाव।
इसी दौर में रूसी किताबों की खरीद का मेरा सिलसिला जारी था। सोवियत संघ के अटूट बने रहने पर मेरा विश्वास दूसरों से ज़्यादा था क्योंकि अध्ययन और कम था। वैसे भी जिनका अध्ययन था, उनमें भी कोई शख़्स यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि अगले पांच साल में सोवियत संघ टूट जाएगा। मैंने इन्हीं दिनों कभी गोर्बाचेव की लिखी किताब 'पेरेस्त्रोइका' ख़रीदी। पेरेस्त्रोइका के जो आर्थिक ब्योरे थे, वे तो मुझे कम समझ में आए लेकिन गोर्बाचेव की एक दलील बहुत साफ़ समझ में आई। गोर्बाचेव ने लिखा था कि दुनिया की कोई भी क्रांति एक दौर में सफल नहीं हुई है। उन्होंने अमेरिकी क्रांति, ब्रिटिश संसदीय सुधार और फ्रांसीसी क्रांति के उदाहरण दिए। कहा कि सोवियत क्रांति भी एक दौर में पूरी नहीं मानी जानी चाहिए। उसे क्रांति के एक और दौर से गुज़रना होगा।
लेकिन यह स्वप्नदर्शिता गोर्बाचेव के बहुत काम नहीं आई। वे सोवियत संघ की खिड़कियां खोलने चले थे ताकि कुछ हवा आए, लेकिन उससे ऐसा बवंडर भीतर आया जिसने घर की छत ही उड़ा दी। सोवियत संघ का अंत हो गया।
यह बहुत सारी चीज़ों का अंत था। हमारे सामने दुनिया ढह या बन रही थी। जर्मनी की दीवार गिर चुकी थी। सोवियत संघ बिखर गया था। यूगोस्लाविया-चेकोस्लोवाकिया ने के नक्शे फट रहे थे और ज़मीन पर गृह युद्धों में उलझी जातीय अस्मिताएं इस आधुनिक समय के बर्बर युद्धों में लगी थीं। सोवियत संघ के साथ शीत-युद्ध का भी अंत हो गया, इतिहास का भी अंत हो गया, विचारधारा का भी अंत हो गया, बहुत सारे सपनों का भी अंत हो गया।
मेरी किताबों की ख़रीद का भी अंत हो गया। पीपुल्स बुक हाउस नाम की जिस दुकान से मैं किताब खरीदता था, उसकी आलमारियां ख़ाली होती गईं, वह सन्नाटे में डूबती चली गईं, रादुगा और प्रगति प्रकाशन बस स्मृतियों में रह गए। कुछ बरस बाद रूसी विद्वान वरयाम सिंह के कहने पर मैंने रूसी कविताओं के अनुवाद के सहारे रूसी कविता की परंपरा पर कुछ काम किया और पुश्किन, त्यूतचेव, लेर्मेंतेव, मायाकोव्स्की, ब्लोक, अख़्मातोवा, त्स्वेतायेवा, येव्तुशेन्को और वोज्नेसेंस्की जैसे कवियों को नए सिरे से पढा तो मेरे भीतर वे स्मृतियां सिर उठाती रहीं जिनके साथ अपने होने का भी एक मतलब जुड़ा था, अपना भी एक सपना बंधा था। इन्हीं दिनों टूटे हुए सोवियत संघ और बचे हुए रूस में बीस साल बाद उसका एक निर्वासित और नोबेल विभूषित लेखक सोलजेनिस्तीन लौटा तो उसने पाया कि रूस बदल गया है, उसकी भाषा बदल गई है। जिस मुल्क की तलाश में वह गया था, वह उसे नहीं मिला। वहां भी वह एक उदास-अकेला शख्स था।
बहरहाल, सोवियत संघ ढह गया और शीतयुद्ध ख़त्म हो गया। लेकिन क्या इसके बाद जो शीत शांति आई, वह कुछ ज़्यादा मानवीय थी? विचारधाराओं के पुराने संघर्ष नहीं बचे, लेकिन सभ्यताओं के संघर्ष शुरू हो गए। स्टारवार्स जैसा कार्यक्रम खत्म हो गया, अमेरिका-रूस की ऐटमी होड़ कुछ घटी, लेकिन अमेरिका के नेतृत्व में जो एकध्रुवीय दुनिया बनी, उसने सब कुछ बदल कर रख दिया। पश्चिमी वर्चस्ववाद के आक्रामक रवैये ने, दक्षिण एशिया से पश्चिम एशिया तक धार्मिक कट्टरता को पोसने और उसे वहां की सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा करने की अमेरिकी रणनीति ने कहीं तालिबान पैदा किए, कहीं अल क़ायदा बनाए। पुराने छापामार युद्ध आतंकी हमलों में बदले, अमेरिका के ट्विन टावर गिरा दिए गए, देश ढहते गए, प्रगतिशील मूल्य पीछे छूटते गए, धार्मिक कट्टरताएं दक्षिणपंथी राजनीति के उभार की बुनियाद बनीं और दुनिया भर में तकनीक पर आधारित संस्कृतिशून्य बाजार व्यवस्था का क़ब्ज़ा बढ़ता चला गया। इस पूरी प्रक्रिया में तकनीक का भी बड़ा योगदान रहा। आज स्थिति ये है कि दुनिया भर में बाज़ार और बड़े औद्योगिक घराने सत्ता का स्वरूप तय कर रहे हैं। अपने भारत में भी लोकतंत्र या तो पुरानी धार्मिक और जातीय जकड़नों में जकड़ा हुआ है या आवारा-काली पूंजी की गिरफ़्त में है। कम्युनिस्ट आंदोलन या तो उपहास की वस्तु है या उपेक्षा की। गोर्बाचेव 1991 के बाद शायद बिल्कुल शून्य में चले गए। एक बार येल्तसिन के मुक़ाबले चुनाव लड़ने की कोशिश की, लेकिन आधे फ़ीसदी के आसपास वोट हासिल कर सके। रूसी जनता ने उन्हें नकार दिया था। आख़िर उनकी वजह से दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क अपनी चमक और हैसियत खो बैठा था।
हमारे लिए भी गोर्बाचेव लगभग गुजर चुके थे। 91 बरस की उम्र में उनकी मौत की ख़बर जिन्होंने सुनी, उन्हें हैरत हुई होगी कि वे अब भी ज़िंदा थे! हमारी तरह के बहुत सारे लोगों के लिए सोवियत संघ का ख़त्म होना बस एक देश का, दुनिया की एक व्यवस्था का, ख़त्म होना नहीं था, अपने बहुत सारे सपनों के निर्माण की सामग्री का भी मिट्टी हो जाना था। अगर वह सोवियत संघ न होता तो हम क्या जूलियस 'फ़्यूचिक की फांसी के तख़्ते से' जैसी धड़कती हुई किताब पढ़ पाते, क्या रसूल हमजातोव का 'मेरा दागिस्तान' देख पाते, क्या दोस्तोएव्स्की के कार्मोजोव ब्रदर्स से परिचित हो पाते? क्या चेखव की 'थ्री सिस्टर्स' को मनोयोग के साथ एनएसडी में देख पाते? क्या गिरगिट जैसी कहानी पर हंस पाते और हंसते हुए अचरज कर पाते कि दुनिया और सभ्यता में कितना कुछ मूल्यवान है और कितना कुछ छोड़ दिए जाने लायक? यही नहीं, क्या वे बहुत सारी यादगार कविताएं हिंदी की दुनिया में होतीं जिन्होंने हमें सपना देखना भी सिखाया और न्याय और समानता को अपरिहार्य मूल्य मानना भी?
लेकिन ठीक है। सब कुछ नष्ट होने के लिए बना है। सभ्यताएं बनने और बिखरने को अभिशप्त होती हैं। यह एक दार्शनिक मायूसी भर नहीं है, एक ठोस सच्चाई है जो हमारे सामने घटी है। जिसकी वजह से घटी, उसके जाने से याद आया- हम कितनी चीज़ों के गवाह रहे हैं।
-अपूर्व गर्ग
आंकड़े बताते हैं अब इस देश की 75 प्रतिशत जनता नॉन वेजीटेरियन है। पर ये भी सच्चाई है इस 75 प्रतिशत में बहुत ही कम लोग अपना भोजन कटते हुए देख सकते हैं।
इस मामले में लोग बहुत संवेदनशील हैं। खुद काटना तो दूर लोग कटते भी नहीं देख सकते, कई तो खरीदने भी नहीं जाते। पका पकाया खाते हैं या कोई लाकर देता है। संवेदनशील हैं।
आजकल लोग शांति भी चाहते हैं और ऐसी रेजिडेंशियल सोसाइटी ढूंढते हैं जो ‘पीसफुल’ हो पूरी तरह शांत, शोर शराबे से दूर, उपद्रव तो दूर की बात पीसफुल लोग हैं।
लोग सप्ताहांत मनाने शहर से दूर ढाबों में जाते हैं ताकि चैन से भीड़ से दूर कहीं अपना समय व्यतीत कर सकें।
आजकल लोग परिवार के साथ पहाड़ों, जंगलों और रिमोट जगहों पर ज़्यादा जाने लगे ताकि शहरी भीड़, शोर शराबे से दूर अपने लोगों के साथ एकांत में कुछ दिन शांति से रह सकें। सबको आत्मिक शांति चाहिए।
लंबी-लंबी लॉन्ग ड्राइव सूफी गीत, गजल और पुराने गाने चाहिए ताकि दिल को ठंडक मिले। दिल तन-मन तनाव रहित होना चाहिए।
कितनी अच्छी-अच्छी पहल कर कितने सुंदर, शांत अमन और चैन से जीने के तरीके अपनाते हैं लोग।
वाकई दाद दी जानी चाहिए।
पर क्या यही लोग अपने देश, समाज और शहर में जब किसी बच्ची को पेट्रोल से जलाया जाता है तो विचलित होते हैं?
क्या यही लोग जब बलात्कारियों का महिमामंडन होता है तो अमन शांति और चैन से सो पाते हैं?
इस देश की सीमा पात्राएँ जब विकलांग बच्ची पर बर्बर ज़ुल्म करती है, बच्ची को भूखा रखकर पेशाब तक पिलाती है तो क्या उनकी कथित संवेदनशीलता कभी जागती है?
शांति, चैन-अमन, सिविल सोसाइटी सबको चाहिए पर उसे बनाने की भूमिका से वो ठीक वैसे ही दूर रहते हैं जैसे नॉन वेज तो बहुत बहुत पसंद है पर उसके कटने से बनने की प्रक्रिया बहुत गलत है। पसंद नहीं!
सोचिये, ये कैसी दुनिया बन चुकी जहाँ दूर-दूर नहीं बल्कि आसपास कई बार घर के भीतर ही हैवान बैठे हैं जो एक रेतीले तूफान की तरह सब कुछ बर्बाद कर रहे और हम शुतुरमुर्ग की तरह सिर रेत में गड़ाए हुए हैं।
बहुत बहुत भयानक बेदर्द और ऐसा हिंसक दौर सामने है। जब इसी समाज के आदतन अपराधियोंको नहीं बल्कि तथाकथित वाइट कॉलरड लोगों को हिंसक परपीडऩ से अब ‘किक’ मिलती है ।
इस पर अगर सवाल उठाकर आप एक कीचड़ को पोछने जायेंगे तो पूछा जायेगा। तब उस कीचड़ को क्यों नहीं साफ किया?
अगर उस कीचड़ को साफ करने जायेंगे तो उधर भी वही सवाल आएगा। तब कहाँ थे?
अब कहाँ हैं तब कहाँ थे ये सवाल चारों ओर से आएंगे पर वो खुद इस देश समाज और अपने लोगों के साथ एक ऐसी अंधी गली में चले गए जहाँ सिर्फ बर्बरता, हिंसा, अमानवीयता पाशविकता ही है उस पर कभी गौर नहीं करेंगे।
ज़्यादा से ज़्यादा क्या? इस गली के अँधेरे ओर शोर शराबे से बहुत ऊबे तो चले जंगल, पहाड़। समुद्र के तट।
पर क्या इससे अँधेरा छटेगा?
ज़रूर सोचिये हमारे आसपास अच्छी-अच्छी पोशाक में बनावटी मुस्कराहट वाले, समाज देश सेवा के बैनर पर कैसे-कैसे कातिल हैं जिनके बारे में ओर जिनकी हरकतों पर सीधी-सरल जिंदगी जीने वाले कल्पना भी नहीं कर सकते।
पर ऐसी ही प्रवृत्ति के लोग रोज हैवानियत के नए रिकॉर्ड इसीलिए कायम कर पा रहे क्योंकि आम आदमी गलत देखना-बोलना-सुनना छोडक़र एक भद्र आदमी की मोम की मूर्ती सा अनजान बना बैठा है।
हमें अपनी इस खामोश भूमिका पर विचार करना चाहिए,
एक बार जऱा सोचिये।
‘ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में जरा दुनिया से हम ने क्या लिया दुनिया को क्या दिया।’
दुनिया के सबसे पुराने और अनछुए जंगलों में से एक भारत के केंद्र में है। इस जंगल का नाम है हसदेव अरण्य। क्या भारत की बिजली की मांग हसदेव अरण्य को निगल लेगी?
वैभव बेमतरिहा की शादी का कार्ड देखते ही उनकी होने वाली पत्नी और न्योता पाने वालों को हैरानी हुई। कार्ड पर ‘सेव हसदेव’ लिखा था। 38 साल के वैभव, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते हैं। भारत का एक बड़ा कोयला भंडार उनके राज्य में दबा है, वो भी हसदेव के जंगल में। हसदेव अरण्य, मध्य भारत के आखिरी समृद्ध जंगलों में से एक है। भारत के मूल निवासी कहे जाने वाले गोंड आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या हसदेव में रहती है। जंगल के बीच से हसदेव नाम की नदी गुजरती है। वहां शताब्दियों से चला आ रहा जंगली हाथियों का कॉरिडोर भी है।
जंगल के 1,878 हेक्टेयर से ज्यादा बड़े इलाके में कोयले का भंडार है। 2010 में छत्तीसगढ़ सरकार ने जंगल से कोयला निकालने के लिए फॉरेस्ट क्लीयरेंस का आवेदन किया। मामला अदालतों तक भी पहुंचा। इसी दौरान पर्यावरण मंत्रालय की फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने खनन के लिए वन भूमि ट्रांसफर करने पर आपत्ति जताई। इसके बावजूद 2012 में भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने हसदेव जंगल में कोयले के खनन के लिए फॉरेस्ट क्लीयरेंस को मंजूरी दे दी। यह पारसा ईस्ट और केंते बसान (पीईकेबी) का पहला चरण था। कोयला राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को दिया गया, निगम के लिए यहां खनन काम अडानी ग्रुप करता है।
पहले चरण के 10 साल बाद मार्च 2022 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एलान किया कि उसने पीईकेबी के दूसरे चरण के लिए भी खदान आवंटित कर दी है। इस फैसले से पहले हसदेव जंगल को बचाने के लिए करीब ढाई सौ आदिवासी 300 किलोमीटर लंबा पैदल मार्च कर रायपुर तक पहुंचे। अक्टूबर 2021 के इस पैदल मार्च का कोई असर नहीं हुआ, छह महीने बाद लोगों द्वारा चुनी गई सरकार ने दूसरे चरण को मंजूरी दे दी।
कैसे जनांदोलन बन गया सेव हसदेव
अप्रैल 2022 में हसदेव जंगल में सैकड़ों साल पुराने साल और सागवान के पेड़ों की कटाई शुरू हो गई। जब सैकड़ों पेड़ों की कटाई के वीडियो सामने आने लगे तो नाराजगी शहरों तक पसरने लगी। लोगों को आदिवासियों का पैदल मार्च याद आने लगा। सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर प्तस्ड्ड1द्ग॥ड्डह्यस्रद्गश ट्रेंड करने लगा। यूट्यूबर, कलाकार और छात्र भी खुलकर जंगल बचाने के लिए शुरू हुए आंदोलन का समर्थन करने लगे। इंटरनेट पर हो रहा विरोध जल्द ही छत्तीसगढ़ के सारे शहरों के साथ साथ देश के कई महानगरों तक फैल गया।
लक्ष्य मधुकर के नाना खनन इंजीनियर थे। लक्ष्य की मां का बचपन छत्तीसगढ़ के कोरबा में गुजरा। कोरबा को छत्तीसगढ़ में खनन का गढ़ कहा जाता है। मधुकर कहते हैं, ‘मेरी मां का परिवार कोरबा के एक गांव से आता है, जहां खनन ही जिंदगी जीने का तरीका है। लेकिन हमें पता है कि खनन का असर कैसा होता है।’ लक्ष्य कलाकार हैं और चित्रकला के जरिए वह हसदेव बचाओ का संदेश दे रहे हैं।
आलोक शुक्ला छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन नाम का एक एनजीओ चलाते हैं। शुक्ला कहते हैं, ‘लंबा मार्च कई लोगों के लिए आंखें खोलने वाला था। विरोध करने वाले समुदाय थक चुके थे, उन्हें नहीं मालूम था कि उनकी लड़ाई अभी कितनी लंबी चलेगी। लेकिन जिस तरह का समर्थन उन्हें मिला, उसने आंदोलन तो नई जान और लोगों को नई ऊर्जा दी।’
विदेशों तक पहुंची सेव हसदेव की पुकार
प्रदर्शनकारी हसदेव अरण्य में सभी कोयला खनन प्रोजेक्टों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि नकली जमीन मालिक और नकली ग्राम सभाएं बनाकर जमीन गैरकानूनी ढंग से ली गई। आंदोलन की पुकार इंग्लैंड तक भी पहुंची। मई 2022 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में एक आयोजन के दौरान कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी से हसदेव अरण्य में खनन के बारे में सवाल पूछा गया। एक छात्रा ने उनसे पूछा कि 2015 में आप खुद को आदिवासियों के साथ खड़ा बताते थे, और आज आपकी पार्टी अडानी के जंगल कटाई और खनन विस्तारीकरण के साथ है। इसके जवाब में राहुल गांधी ने कहा कि वह आदिवासियों की मांगों से सहमत हैं और कुछ ही दिन में पार्टी इसका समाधान निकाल लेगी।गांधी परिवार के सदस्य के मुंह से निकली इस बात का असर हुआ। छत्तीसगढ़ विधानसभा ने हाल ही में एक प्रस्ताव पारित करते हुए केंद्र सरकार से हसदेव अरण्य के सभी कोयला ब्लॉकों का आंवटन रद्द करने की मांग की। इस बार राज्य सरकार ने कहा कि वहां हाथियों का कॉरिडोर है, जिस वजह से वहां से कोयला नहीं खोदा जाना चाहिए।
जंगल बचाने के अभियान में जुटे सभी लोग इस फैसले से थोड़ी राहत तो महसूस कर रहे हैं, लेकिन उन्हें डर है कि खनन पूरी तरह बंद नहीं होगा। भारत में गर्मियों में लगातार बिजली की मांग बढ़ती जा रही है। मध्य वर्ग की आय में इजाफा होने से एयरकंडीशनिंग का दायरा बढ़ता जा रहा है। हर साल गर्मियों में देश के अखबारों में कोयले की कमी से जूझते कोयला बिजलीघरों की खबरें आने लगती हैं। राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा समेत कई राज्य छत्तीसगढ़ के कोयले से खुद को भले ही रोशनी दें, लेकिन कई आदिवासियों की जिंदगी में वो अंधकार भरते आ रहे हैं।
ओएसजे/एनआर (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में पहले से ही आर्थिक और राजनीतिक संकट गहराया हुआ है। अब प्राकृतिक संकट ने उसका दम फुला दिया है। घनघोर बरसात और बाढ़ के कारण लगभग आधा पाकिस्तान पानी में डूब गया है। सवा हजार से ज्यादा लोग मर चुके हैं। लाखों लोगों के घर ढह गए हैं। करोड़ लोगों को खाने-पीने की सांसत हो गई है। 4000 किमी की सडक़ें उखड़ गई हैं। डेढ़ सौ से ज्यादा पुल ढह गए हैं।
2010 में भी लगभग ऐसा ही भयंकर दृश्य पाकिस्तान में उपस्थित हुआ था, लेकिन इस बार जो महाविनाश हो रहा है, उसके बारे में प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ और विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने कहा है कि ऐसा वीभत्स दृश्य उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा।
यदि यही स्थिति दो-तीन दिन और बनी रही तो सिंधु नदी और काबुल नदी का उफनता हुआ पानी पता नहीं कितने करोड़ अन्य लोगों को अनाथ कर देगा। इस साल पाकिस्तान के सिंध और बलूचिस्तान में हर साल के मुकाबले तीन गुने से ज्यादा पानी बरसा है। कुछ गांवों और शहरों में इस बार 8-10 गुना पानी ने खेत-खलिहान और बस्तियों को पूरी तरह डुबा दिया है। पाकिस्तान के 150 जिलों में से 110 जिले इस वक्त आधे या पूरे डूबे हुए हैं। यदि प्रकृति का प्रकोप इसी तरह कुछ दिन और चलता रहा तो पाकिस्तान की हालत अफगानिस्तान और यूक्रेन से भी बदतर हो सकती है।
उसके नेता अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और कई मुस्लिम राष्ट्रों से मदद की गुहार लगा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रों के नाम अपील जारी करके पाकिस्तान के लिए मदद मांगी है। ब्रिटेन ने 15 लाख पौंड भिजवाए हैं। ईरान, यूएई और सउदी अरब भी जल्दी ही मदद भिजवानेवाले हैं। यूएई 3000 टन अनाज और दवाइयां भी भिजवा रहा है। हमने श्रीलंका, अफगानिस्तान और यूक्रेन को आड़े वक्त में मदद करके जो सदभावना अर्जित की है, वह अमूल्य है।
जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, शाहबाज शरीफ ने भारत के साथ आपसी रिश्ते सुधारने की बात पिछले हफ्ते ही कही थी। यों भी पाकिस्तान के सिंध, पख्तूनख्वाह और बलूच इलाके इस वक्त सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। यदि नरेंद्र मोदी सरकार इस वक्त मदद की पहल करे तो उससे दो लक्ष्य पूरे होंगे। एक तो दक्षिण एशिया के वरिष्ट राष्ट्र होने का दायित्व हम निभाएंगे।
दूसरा, भारत की मदद से पाकिस्तान की आम जनता इतनी प्रभावित होगी कि उसका असर उसकी फौज पर भी पड़ेगा, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत से लडऩा ही रहा है। यह भी संभव है कि इस पहल के कारण दक्षेस (सार्क) के जो दरवाजे सात-आठ साल से बंद हैं, वे खुल जाएं। हम यह न भूलें कि 1947 में विभाजन की दीवारें हमारे बीच जरुर खिंच गई हैं, लेकिन हमारे पहाड़, नदियां, जंगल, मैदान और मौसम एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सुपरटेक द्वारा निर्मित नोएडा के दो संयुक्त टावरों का गिराया जाना अपने आप में एतिहासिक घटना है। पहले भी अदालत के आदेशों और सरकारों के अपने हिसाब से कई इमारतें भारत के विभिन्न प्रांतों में गिराई गई हैं लेकिन जो इमारतें कुतुब मीनार से भी ऊंची हों और जिनमें 7000 लोग रह सकते हों, उनको अदालत के आदेश पर गिराया जाना सारे भारत के भ्रष्टाचारियों के लिए एक कड़वा सबक है। ऐसी गैर-कानूनी इमारतें सैकड़ों-हजारों की संख्या में सारे भारत में खड़ी कर दी गई हैं।
नेताओं और अफसरों को रिश्वतों के दम पर ऐसी गैर-कानूनी इमारतें खड़ी करके मध्यमवर्गीय ग्राहकों को अपने जाल में फंसा लिया जाता है। वे अपना पेट काटकर किश्तें भरते हैं, बैंकों से उधार लेकर प्रारंभिक राशि जमा करवाते हैं और बाद में उन्हें बताया जाता है कि जो फ्लेट उनके नाम किया गया है, अभी उसके तैयार होने में काफी वक्त लगेगा। लोगों को निश्चित अवधि के दस-दस साल बाद तक उनके फ्लेट नहीं मिलते हैं।
इतना ही नहीं, नोएडा में बने कई भवन ऐसे हैं, जिनके फ्लेटों में बेहद घटिया सामान लगाया गया है। ये भवन ऐसे हैं कि जिन्हें गिराने की भी जरुरत नहीं है। वे अपने आप ढह जाते हैं, जैसे कि गुडग़ांव का एक बहुमंजिला भवन कुछ दिन पहले ढह गया था। नोएडा के ये संयुक्त टावर सफलतापूर्वक गिरा दिए गए हैं लेकिन भ्रष्टाचार के जिन टावरों के दम पर ये टावर खड़े किए गए हैं, उन टावरों को गिराने का कोई समाचार अभी तक सामने नहीं आया है।
जिन नेताओं और अफसरों ने ये गैर-कानूनी निर्माण होने दिए हैं, उनके नामों की सूची उ.प्र. की योगी सरकार द्वारा तुरंत जारी की जानी चाहिए। उन नेताओं और अफसरों को अविलंब दंडित किया जाना चाहिए। उनकी पारिवारिक संपत्तियों को जब्त किया जाना चाहिए। जो नौकरी में हैं, उन्हें बर्खास्त किया जाना चाहिए। जो सेवा-निवृत्त हो गए हैं, उनकी पेंशन बंद की जानी चाहिए।
अदालतों को चाहिए कि उनमें से जो भी दोषी पाए जाएं, उन अधिकारियों को तुरंत जेल भेजा जाए। कुछ नेताओं और अफसरों को चौराहों पर खड़े करके हंटरों से उनकी चमड़ी भी उधेड़ दी जाए ताकि भावी भ्रष्टाचारियों के रोंगटे खड़े हो जाएं। यदि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यदि यह करतब करके दिखा सकें तो उनकी छवि ‘भारत के महानायक’ की बन जाएगी। इन 30-30 मंजिला भवनों को बनाने की इजाजत देनेवाली ‘नोएडा अथारिटी’ को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘भ्रष्ट संगठन’ की उपाधि से विभूषित किया है।
यदि केंद्र और उप्र सरकार इस मुद्दे पर चुप्पी मारे रखे तो मैं अपने पत्रकार बंधुओं से आशा करुंगा कि इन गैर-काननी भवनों के निर्माण-काल में जो भी मुख्यमंत्री, मंत्री और अधिकारी रहे हों, वे उनकी सूची जारी करें और उनके भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ करें। अदालतों में बरसों तक माथाफोड़ी करने की बजाय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ याने खबरपालिका को इस समय सक्रिय होने की जरुरत है। ईंट-चूने के गैर-कानूनी भवनों को गिराना तो बहुत सराहनीय है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी है- भ्रष्टाचार के भवन को गिराना! किसकी हिम्मत है, जो इसको गिराएगा? (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
नोएडा में आज दोपहर सुपरटेक एमराल्ड कोर्ट के ट्विन टावर विस्फोटक लगा कर ध्वस्त कर दिए जाएंगे... देश की राजधानी से कुछ ही किलोमीटर दूर बने यह दोनों टावर सरकार के भ्रष्टाचार का अनुपम उदाहरण है आश्चर्य की बात है कि मोदी जी जो ड्रोन भेजकर जांच करवाते थे उसमें भी यह टावर नहीं दिखे।
ये टॉवर एक मिसाल है कि इस देश में कैसे बिल्डर सरकारी एजेंसी के आला अधिकारियों को इतनी रिश्वत खिलाते हंै कि सरकारी एजेंसी खुलेआम कोर्ट में बिल्डर के पक्ष में खड़ी हो जाती हैं।
सुपरटेक के ट्विन टावर को तोडऩे के फैसले के साथ नोएडा अथॉरिटी की कार्यशैली पर सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की थी उसे कोई गैरतमंद अधिकारी सुनता तो तुरंत ही इस्तीफा दे दे देता लेकिन अब इनकी खाल इतनी मोटी हो चुकी है कि इन्हें अब कोई परवाह ही नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए नोएडा अथॉरिटी को कहा कि आपको निष्पक्ष होना चाहिए था, लेकिन आप से भ्रष्टाचार टपकता है। कोर्ट ने कहा कि आपने ग्राहकों से बिल्डिंग के प्लान को छिपाया और हाईकोर्ट के आदेश के बाद इसे दिखाया गया। आप सुपरटेक के साथ मिले हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान नोएडा अथॉरिटी को फटकार लगाते हुए कहा था ‘यह अधिकारों का चौंकाने वाला इस्तेमाल है। आप (नोएडा प्राधिकरण) न केवल (बिल्डर के साथ) मिलकर काम कर रहे हैं बल्कि सुपरटेक के साथ सांठगांठ कर रखी है। जब घर खरीदारों ने एक स्वीकृत योजना के लिए कहा, तो आपने सुपरटेक को लिखा कि आपको दस्तावेज देना चाहिए या नहीं और इनकार करने पर आपने उन्हें योजना देने से इनकार कर दिया। ‘उच्च न्यायालय द्वारा स्पष्ट रूप से आपको यह निर्देश दिए जाने के बाद ही आपने उन्हें योजना सौंपी। आप पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं।’ ....पीठ ने नोएडा प्राधिकरण से कहा कि ‘अधिकारी होने के नाते, आपको सुपरटेक के कृत्यों का बचाव करने के बजाय एक तटस्थ रुख अपनाना चाहिए। आप किसी भी प्रमोटर के लिए एक निजी स्टैंड नहीं ले सकते।’
ट्विन टावर का यह मामला और इस मामले में दिया गया फैसला एक माइल स्टोन है, क्योंकि कुछ आम लोगों ने एक दिग्गज कंपनी के खिलाफ लड़ाई शुरू की और आखिरकार अब उसे जीत लिया है।
सुपरटेक ने जब 40-40 मंजिल वाले अपने दो टावर खड़े करने शुरू किए। इसे लेकर वहां के रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने विरोध करना शुरू कर दिया। क्योंकि उनकी सोसाइटी के ठीक सामने, जिसे नोएडा अथॉरिटी ने पहले ग्रीन बेल्ट बताया था, वहां ये विशालकाय टावर खड़े हो रहे थे। आरडब्ल्यूए से जुड़े लोगों ने फैसला किया कि वो इस प्रोजेक्ट के खिलाफ लड़ेंगे। कुल 660 लोगों ने एक साथ कोर्ट का रुख किया और बताया कि कैसे अथॉरिटी और कंपनी की मिलीभगत के चलते ये टावर खड़े किए जा रहे हैं।
दरअसल बिल्डर ने नक्शे में जो भी संशोधन किए थे उन संशोधन पर यहां रहना शुरू कर चुके फ्लैट बायर्स की मंजूरी ली जानी चाहिए थी, यूपी अपार्टमेंट एक्ट की शर्तों के तहत 60 पर्सेंट बायर्स की बिना सहमति के रिवाइज्ड प्लान को अप्रूवल नहीं दिया जा सकता था। इसकी एनओसी नहीं ली गई। लेकिन नोएडा अथॉरिटी के तत्कालीन अधिकारियों ने भी इस नियम की परवाह नहीं की। साथ ही नेशनल बिल्डिंग कोड का नियम यह है कि किसी भी दो आवासीय टावर के बीच कम से कम 16 मीटर की दूरी होनी जरूरी है, लेकिन प्रोजेक्ट में टावर नंबर 16, 17 की मंजूरी देने पर टावर नंबर-15, 16 और 1 के बीच मौके पर 9 मीटर से भी कम दूरी बची।
एक रहवासी ने बताया कि बिल्डर ने हमे फ्लैट देते हुए कहा था कि यहां बच्चों के खेलने के लिए एक पार्क भी होगा। लेकिन पार्क की जमीन पर अवैध टॉवर खड़े कर दिए।
सुप्रीम कोर्ट का टॉवर गिराए जाने का यह निर्णय उन बिल्डरों के लिए सबक है जो यह समझते हैं कि प्राधिकरण और कानून सब उनकी जेब में है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीरी नेता गुलाम नबी आजाद का कांग्रेस को छोड़ देना कोई नई बात नहीं है। उनके पहले शरद पवार और ममता बेनर्जी जैसे कई नेता कांग्रेस छोड़ चुके हैं लेकिन गुलाम नबी का बाहर निकलना ऐसा लग रहा है, जैसे कांग्रेस का दम ही निकल जाएगा। कांग्रेस के कुछ छोटे-मोटे नेताओं ने गुलाम नबी आजाद के मोदीकरण की बात कही है, जो कुछ हद तक सही है, क्योंकि नरेंद्र मोदी ने बेहद भावुक होकर गुलाम नबी को राज्यसभा से विदाई दी थी।
लेकिन कई अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह गुलाम नबी आजाद भाजपा में शामिल नहीं हो रहे हैं। वे अपनी पार्टी बनाएंगे, जो जम्मू-कश्मीर में ही सक्रिय रहेगी। वे कोई अखिल भारतीय पार्टी नहीं बना सकते। जब शरद पवार और ममता बेनर्जी नहीं बना सके तो गुलाम नबी के लिए तो यह असंभव ही है। यह हो सकता है कि वे अपने प्रांत में भाजपा के साथ हाथ मिलाकर चुनाव लड़ लें। सच्चाई तो यह है कि पिछले लगभग 50 साल से कांग्रेस एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम कर रही है।
कांग्रेस की देखादेखी सभी पार्टियां उसी ढर्रे पर चल पड़ी है। भाजपा भी उसका अपवाद नहीं है। गुलाम नबी आजाद वास्तव में अब आजाद हुए हैं। उन्होंने नबी की गुलामी कितनी की है, यह तो वे ही जानें लेकिन इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी की गुलामी में उनका पूरा राजनीतिक जीवन कटा है। मुझे खूब याद है, कांग्रेस में गुलाम-संस्कृति की!
गुलाम नबी, जो आज आजादी का नारा लगा रहे हैं, संजय गांधी के साथ उनके रिश्तों पर अन्य कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणियां पढऩे लायक हैं। जो नेता गुलाम नबी की निंदा कर रहे हैं, उनके दिल में भी एक गुलाम नबी धडक़ रहा है लेकिन बेचारे लाचार हैं। राहुल गांधी के बारे में गुलाम नबी की टिप्पणियां नई नहीं हैं। देश की जनता और सारे कांग्रेसी पहले से वह सब जानते हैं। गांधी, नेहरु, पटेल और सुभाष बाबू की कांग्रेस अब नौकर-चाकर कांग्रेस (एन.सी. कांग्रेस) बन गई हैं।
अब यदि अशोक गहलोत या कमलनाथ या चिदंबरम या किसी अन्य को भी कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाए तो वह क्या कर लेगा? यह एक शेर उस पर भी लागू होगा-‘इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन, अब आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे?’ अब कांग्रेस को यदि कोई बचा सकता है तो वह एकमात्र सोनिया गांधी ही हैं। वे अपने बेटे को गृहस्थी बनाएं और अपनी बेटी को अपना गृहस्थ चलाने को कहें और पार्टी में ऊपर से नीचे तक चुनाव करवाकर खुद भी संन्यास ले लें।
कांग्रेस की देखादेखी भारत की सभी पार्टियां ‘ऊर्ध्वमूल’ बन गई हैं याने उनके जड़ें छत में लगी हुई हैं। सोनियाजी यदि कांग्रेस को ‘अधोमूल’ बनवा दें याने उसकी जड़ें फिर से जमीन में लगवा दें तो भारत के लोकतंत्र की बड़ी सेवा हो जाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-असगर वजाहत
दिल्ली में केरल के एक प्रोफेसर की लडक़ी की शादी दक्षिण भारतीय मंदिर के कम्युनिटी सेंटर में संपन्न हुई। सब अतिथियों को केले के पत्ते पर दक्षिण भारतीय खाना खिलाया गया। सब ने अपने-अपने झूठे पत्तल डस्टबिन में डाले। सब कुछ बहुत सफाई और सहजता से हुआ। न कोई चमक-धमक, न कोई सम्पन्नता और धन का प्रदर्शन।
दिल्ली के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार की लडक़ी की शादी एक बहुत शानदार मैरिज वेन्यू में हुई। चमचमाते और जगमगाते पहले हाल में सिर्फ चाट और ताजा फलों के स्टाल लगे हुए थे। दूसरे हॉल में सूप और तरह-तरह की सलाद के स्टाल थे। तीसरे चमचमाते हॉल में खाना हो रहा था। एक बहुत बड़े चमचमाते जगमगाते हाल में मंच पर दूल्हा दुल्हन की बैठने की व्यवस्था थी। उसके पास ही डीजे का इंतजाम था। जबरदस्त चमक-दमक और संपन्नता का दिखावा।
ये दोनों दृश्य एक ही हैं एक हिंदी भाषी क्षेत्र से संबंधित और दूसरा केरल राज्य से।
उत्तर भारत और दक्षिण भारत में इतना बड़ा अंतर क्यों है?
तमिलनाडु के गांव बहुत सुनियोजित और साफ-सुथरे हैं। कर्नाटक में भी गांव एक योजना के अंतर्गत दिखाई पड़ते हैं। केरल में कोई आवारा पशु दिखाई नहीं देता।
दक्षिण भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर हिंदी प्रदेशों से बहुत ऊंचा है। तमिलनाडु में पुस्तकालय आंदोलन बहुत सशक्त है जबकि उसकी तुलना में हिंदी प्रदेशों में यह लगभग शून्य है। सहकारी आंदोलन हिंदी प्रदेशों में असफल हो गया जबकि दक्षिण भारत में वह सफल हुआ है।
हिंदी प्रदेशों में जिस प्रकार लोगों के अंदर अहंकार और प्रदर्शन का भाव है। सत्ता प्रेम है। अपने आप को महान और बड़ा समझने की प्रवृत्ति है। असहिष्णुता है। हिंसा है। वैसी दक्षिण भारत में नहीं है । उत्तर भारत में जितने अपराध होते हैं, जितने बलात्कार होते हैं उतने दक्षिण में नहीं।
मेरा आश्रय किसी का अपमान करना नहीं है। हिंदी प्रदेशों और दक्षिण भारत के अंतर को समझने का एक प्रयास है। कोई भी मुझसे सहमत/असहमत हो सकता है।
मैंने जो कुछ लिखा है वह मेरे अपने अनुभव और जानकारी के आधार पर है।
एक देश, एक संविधान, एक नियम कानून, एक सुप्रीम कोर्ट, एक सरकार।
फिर इतना अंतर क्यों है?
मेरे विचार से हिंदी क्षेत्र सैकड़ों साल से सत्ता का केंद्र रहा है और अब भी है।
सत्ता का एक विशेष चरित्र होता है जो सत्ता क्षेत्र में फैल जाता। हिंदी क्षेत्र के ऐसे चरित्र का यह एक कारण है। और भी हो सकते हैं।
-कृष्ण कांत
आज गुलाम नबी भी अपने फर्ज से आजाद हो गए। ऐसे समय में जब कांग्रेस को उनके ज्यादा सहयोग की जरूरत थी, वे भाग खड़े हुए। राहुल गांधी और कांग्रेस जिन्हें अपना समझते हैं, वही उन्हें ऐन मौके पर धोखा देता है। उनके लिए रास्ता उम्मीद से ज्यादा कठिन है।
हालांकि, उन्होंने कुछ नया नहीं किया है। इसकी अपेक्षा तब से थी जबसे डंकापति उनके लिए रोये थे। गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता कहते थे कि पार्टी में कुछ हो नहीं रहा है। लेकिन जब कांग्रेस खुद को मजबूती देने के लिए लगातार मेहनत कर रही है, ये सारे के सारे नेता भाग रहे हैंं। हाल में महंगाई पर प्रदर्शन हुआ, अगली रैली 4 सितंबर को है, उसके बाद एक ऐतिहासिक देशव्यापी यात्रा है।
खुद गुलाम नबी को कश्मीर में चुनाव अभियान की कमान सौंपी गई थी। उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अब पार्टी से भी निकल गए।
गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस से क्या नहीं मिला? 1970 में वे कांग्रेस से जुड़े। 1975 में जम्मू कश्मीर यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1980 में यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1980 में महाराष्ट्र की वाशिम लोकसभा से चुनाव जीते। 1982 में केंद्रीय मंत्री बनाया गया। 1984 में फिर इसी सीट से जीते। 1990-1996 तक महाराष्ट्र से राज्यसभा सांसद भेजे गए। नरसिम्हा राव की सरकार में मंत्री रहे। 1996 से 2006 तक जम्मू कश्मीर से राज्यसभा गए। 2005 में जम्मू कश्मीर के सीएम बने। फिर मनमोहन सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बने। 2014 में उन्हें राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाया गया। 2015 में आजाद को जम्मू कश्मीर से फिर राज्यसभा भेजा गया।
1990 से लेकर अब तक वे सिर्फ राज्यसभा में रहे। एक चुनाव जीतने की औकात नहीं रही लेकिन पार्टी उन्हें राज्यसभा से मंत्री बनाती रही और सबसे खराब दौर में भी उन्हें राज्यसभा में नेता बनाया। अब भी उनका राज्य उन्हें सौंपा जा रहा था। कांग्रेस जो नहीं कर पा रही थी, उनके पास कर दिखाने का मौका था। वे कांग्रेस की निष्क्रियता से तंग आ गए थे, लेकिन जब पार्टी ने उन्हें सक्रिय होने को कहा तो फुस्स हो गए। 42 साल बिना पद के कभी नहीं रहे। अब कांग्रेस पद देने की हालत में नहीं थी तो साथ छोड़ गए। चर्चा है कि बंगला खाली करना था, शायद अब भाजपा के शायद कुछ खिचड़ी पक जाए तो बंगला बच जाएगा। जिनका लक्ष्य इतना छुद्र हो, वे लोग कांग्रेस के किस काम आएंगे?
कभी ऐसा लगता है कि जी-23 कांग्रेस के अंदर भाजपा का खड़ा किया हुआ किला है जो ऐन मौके पर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के लिए सक्रिय होता है, फिर सोया रहता है। कांग्रेस को भाजपा ने उतना नुकसान पहुंचाया है जितना कांग्रेस के कथित दिग्गजों और राहुल के करीबियों ने पहुंचाया है। कांग्रेस को सबसे पहले अपने धोखेबाज नेताओं से निपटना होगा, वरना यह मुसीबत बढ़ती जाएगी।
-गिरीश मालवीय
कल चीफ जस्टिस एनवी रमण रिटायर हों गए अपने विदाई भाषण में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए मामलों को सूचीबद्ध करने के मुद्दे पर अधिक ध्यान न दे पाने को लेकर खेद व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि लंबित मुद्दों के बढ़ते बोझ का समाधान खोजने के लिए आधुनिक तकनीकी उपकरणों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है।
आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा ?
देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना भले ही मास्टर ऑफ रोस्टर रहे हों और कोर्ट की 16 पीठों में सुनवाई के लिए मुकदमों का वितरण करते हों, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि कई मामलों में आदेश के बावजूद मुकदमा बेंच के आगे सुनवाई के लिए पहुंच ही जाए। मुकदमों की लिस्टिंग को लेकर वे सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री के आगे बेबस हैं।
यानि एक सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ी एक संस्था है जो यह डिसाइड करती हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस किस दिन कौन सा मामला सुनेंगे ?
पिछले हफ्ते बुधवार को एनवी रमना के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध एक मामले को रजिस्ट्री द्वारा हटा देने से वे इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने कहा कि वे इस मुद्दे पर 26 तारीख को अपने विदाई भाषण में बोलेंगे।
दरअसल मुख्य न्यायाधीश के समक्ष एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि उनका मामला सूचीबद्ध था, लेकिन बाद में उसे सूची से हटा दिया गया वरिष्ठ वकील ने कहा कि सूची से मामले के अंतिम समय में हटने से दिक्कतें होती हैं। हम रात को आठ बजे तक तैयारी करते हैं। वादी से भी बातचीत होती है। अगले दिन जब सुनवाई का मौका आता है तो पता चलता है कि उसकी जगह कोई और मुकदमा सूचीबद्ध है।
लगभग महीने भर पहले जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने रजिस्ट्री अधिकारियों से जवाब मांगा था कि मुकदमा एक निश्चित दिन पर लगाने का आदेश जारी होने के बावजूद उसे क्यों नहीं लगाया गया।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ को एक मामले के बारे में कोर्ट मास्टर ने बताया कि मामला रजिस्ट्री द्वारा हटा दिया गया था। जस्टिस चंद्रचूड़ की पीठ ने इस पर हैरानी के साथ-साथ नाराजगी जताते हुए कहा कि जज हम हैं या रजिस्ट्री? हद होती है, अगर हटाना था तो कम से कम बताना चाहिए कि क्यों हटा रहे हैं। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि हम मामले पढ़ते हैं और आते हैं और फिर हमें बताया जाता है कि वे रजिस्ट्री द्वारा हटा दिए गए हैं।
इस महिने की शुरुआत में जस्टिस एमआर शाह ने भी रजिस्ट्री को मनमाना रवैया अपनाने पर कड़ी नाराजगी जताई। जस्टिस शाह ने कोर्ट मास्टर को संबोधित करते हुए कहा कि वो (रजिस्ट्रार) कौन होते हैं यह तय करने वाले? उनका इससे कोई लेना देना नहीं है। यह उनका काम ही नहीं है कि क्या डिलीट होगा और क्या एड होगा। जो बेंच तय करती है, उसी के मुताबिक रजिस्ट्री काम करता है, लेकिन वो कहते हैं कि ज्यादा मैटर थे इसलिए हमने डिलीट कर दिया। ये कोई तरीका है उनके काम करने का? रजिस्ट्री के अधिकारियों के रवैए से नाराज जस्टिस शाह ने कहा कि यह नहीं चलेगा। वह तय नहीं करेंगे। वो मास्टर नहीं हैं, हम मास्टर हैं।
इससे पहले भी एक मुख्य न्यायाधीश ने रजिस्ट्री के अधिकारियों को कोर्ट में ही बैठा लिया था और कहा था कि वे सुनें वकील कैसे शिकायत करते हैं।
कुछ साल पहले जब न्यायमूर्ति जस्ति चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसेफ और मदन बी। लोकुर ने एक प्रेस कांफ्रेंस की थी तो उन्होंने उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के बारे में कहा था कि वे अपनी ‘पसंद की पीठों’ को ‘चुनिंदा मामले सौंप कर’ लंबे समय से स्थापित प्रोटोकॉल को तोड़ रहे हैं।
दरअसल ‘रोस्टर का मास्टर’ होने के नाते मुख्य न्यायाधीश को कोर्ट के दूसरे जजों को मामले आबंटित करने का विशेषाधिकार हासिल है। सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री मुख्य न्यायाधीश के आदेश पर ही मामलों का आबंटन करती है
अब कमाल की बात यह है कि चीफ जस्टिस एनवी रमना एक तरह से बोल रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री अपनी मर्जी से मामलों की लिस्टिंग कर उनकी डेट दे रही है।
अब आप ही बताइए कि आप कैसे सुप्रीम कोर्ट की सुप्रीमेसी पर विश्वास करेंगे ? जाहिर है जिसके पास सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री का प्रभार है वो ही सर्वोच्च है।
-चैतन्य नागर
आजादी के पचहत्तर वर्ष पूरे होने का जश्न एक तरफ बड़े उत्साह और कहीं-कहीं उन्मत्तता के साथ भी मनाया गया, वहीं हाल ही में ऐसी घटनाएँ भी हुईं, जिनसे यह भी इशारा मिला कि जिस आजादी और लोकतंत्र के ढोलक हम बजा रहे हैं, उनसे हमारा सामाजिक जीवन अभी अछूता ही रह गया है।
राजस्थान की घटना बड़ी भयावह थी। एक नन्हे बच्चे को उसके हेड मास्टर ने सिर्फ इसलिए पीट कर मार डाला क्योंकि उसने अपनी प्यास बुझाने के लिए उस मटकी को छू लिया था जो उस बच्चे की ‘नीच जाति’ वालों के लिए नहीं थी।मध्य प्रदेश के सिंगरौली में पिछली 2 अगस्त को एक सरकारी स्कूल टीचर ने एक दलित बच्चे को इसलिए बेतरह पीटा क्योंकि वह आगे की बेंच पर बैठ गई थी। बच्ची बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी। जुलाई महीने की एक खबर के अनुसार हापुड जिले के उदयपुर गाँव में एक प्राथमिक स्कूल की दो दलित छात्राओं के यूनिफार्म को शिक्षिकाओं ने उतरवा दिया था और उनको दो अन्य छात्राओं को दे दिया था ताकि वे अपनी तस्वीर खिंचवा सकें। बाद में छात्राओं के अभिभावकों की शिकायत पर शिक्षिकाओं को निलंबित करने के आदेश जारी हुए थे।
इस तरह के न जाने कितने उदाहरण मिलेंगे। करीब दो हफ्ते पहले नेल्लोर में वाईएसआर कांग्रेस के नेता द्वारा ‘प्रताडि़त’ किये जाने के बाद एक दलित युवक ने आत्महत्या कर ली। अभी हाल ही में, मुजफ्फरनगर के ताजपुर गाँव में ग्राम प्रधान ने एक दलित युवक को भीड़ के सामने चप्पलों से मारा। पिछले कुछ महीनों में कई जगह ऐसा हुआ। महोबा, हापुड़, मुजफ्फरनगर—ये सिर्फ जगहों के नाम हैं।उस ज़हर का जो जातिवाद के नाम पर फैला है, उसका कोई विशेष नाम नहीं, कोई ठिकाना नहीं। यह कहीं भी, कभी भी कोबरा बन कर किसी को डंस सकता है।
आजादी का ‘अमृत’ बरस रहा है कि नहीं इसे तो लोग अपने व्यक्तिगत, सामाजिक अनुभवों पर ही बता सकते हैं, पर जातिवाद के विष का बादल पूरे देश में कहीं भी, कभी फट सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं। अछूत जैसे रुग्ण शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर किसी समय में इस देश में ऐसी भी जातियां रही हैं, जिन्हें देखना भी वर्जित था। बीसवीं सदी की शुरुआत में ही केरल को स्वामी विवेकानंद ने ‘जातिवाद का पागलखाना’ कहा था। वहां पर कुछ लोगों को सिर्फ दिन के बारह बजे बाहर निकलने की अनुमति थी क्योंकि उस समय उनकी परछाई दूर तक नहीं फैलती थी। उनकी परछाई भी किसी ‘ऊंची जाति’ वाले को छू जाए, तो वह अशुद्ध हो जाता था। उन्हें अपनी गर्दन में एक घंटा लटका कर निकलना पड़ता था और उसे लगातार बजाते रहना पड़ता था, जिससे सवर्ण दूर से ही उनके आने की आहट पा जाएँ और दूर हो जाएँ। आज भी ये बातें सच हैं, दूर के गावों में हैं, इक्का-दुक्का हैं, खबरों में नहीं आतीं, पर उनकी जड़ें बरसों से हमारे सामूहिक मन में बनी हुई हैं। राजनीतिक परिवर्तन जल्दी-जल्दी होते हैं।
हर पांच साल में एक नया ‘मसीहा’आता है और हम सोचते हैं हमारा जीवन बदल जाएगा। पर लोकतंत्र की सुरभि न ही हमारे सामाजिक आचरण का स्पर्श करती है न ही परिवार और शिक्षा जैसी समाज की अन्य संस्थाओं का। रंग बिरंगे उत्सवों की नीचे हम इस तरह की बदरंग भद्दगियों को बड़ी कुटिलता के साथ छिपा ले जाते हैं। देश का छात्र कई तरह के हादसों का शिकार होता है जिसे आसानी से टाला भी जा सकता था। पर सबसे अधिक फिक्र जाति, धर्म के नाम पर शैक्षणिक संस्थानों के भीतर ही उनके साथ साथ भेदभाव किये जाने की घटनाओं को लेकर होती है।
हमारी आबादी का एक तिहाई हिस्सा अपने हर दिन का बड़ा हिस्सा स्कूल या कॉलेज में बिताता है। यह समय उनको समझने, समझाने और उनमें आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन लाने के लिए सबसे सही है। यही समय है जब शिक्षक बच्चों को बौद्धिक लब्धि (आई क्यू) के साथ भावनात्मक लब्धि (ई क्यू) के महत्तव के बारे में बता सकता है। एक लोकतंत्र में रहने वाले लोग अलग अलग हो सकते हैं, पर वे विभाजित नहीं। विभाजित कौमें सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सकतीं। उनके पास कई तरह की आजादियाँ हैं जिन्हें संविधान परिभाषित करता है वगैरह। इस तरह की समझ किताबों की पढ़ाई के साथ-साथ भी दी जा सकती है। पर इसके लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण उन लोगों के द्वारा जरूरी है जो शिक्षा के इस आयाम को गहराई से समझते हैं, इस दिशा में उन्होंने काम किया है।
शिक्षकों का बौद्धिक और नैतिक स्तर (सामाजिक, परंपरागत अर्थ में नहीं, बल्कि गहरे अर्थ में) बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही संस्थान में काम करने वाले अन्य कर्मियों के साथ भी नियमित रूप से बातचीत की जानी चाहिए। जातिवाद और साम्प्रदायिकता के जहर को फैलाने का काम ये भी खूब करते हैं। शिक्षकों के किये-धरे पर पानी फेरना इनके बाएं हाथ का खेल है। बुनियादी रूप से यह प्रक्रिया शिक्षक की समझ और प्रशिक्षण से शुरू होती है। उनकी दिलचस्पी होनी चाहिए इस बात में कि समाज में गहरे बदलाव आयें। जातिवाद और साम्प्रदायिकता का ज़हर शांत हो। समानता, आजादी, भाईचारे में उनकी वास्तविक रूचि होनी चाहिए, सिर्फ बौद्धिक और मौखिक नहीं। शैक्षणिक संस्थान के बाकी गैर-शिक्षक कर्मियों में यह समझ लाने का काम भी शिक्षक ही कर सकते हैं, यदि वे लगातार सतर्क और सजग रहें। स्कूल कॉलेजों को इन मूल्यों को सम्प्रेषित करने के लिए लगातार अभिभावकों के संपर्क में रहने की जरुरत है। यह काम वे ऑफ लाइन बैठकों या फिर डिजिटल माध्यमों से भी कर सकते हैं। इन दोनों का भी समय समय पर उपयोग किया जा सकता है...
क्या किसी विपक्षी दल की सरकार का कोई मंत्री या देश का सामान्य नागरिक प्रधानमंत्री द्वारा किसी विषय पर विचार व्यक्त किए जाने को यह कहते हुए चुनौती दे सकता है कि ऐसा करने के लिए उनके पास अपेक्षित विशेषज्ञता या शैक्षणिक डिग्रियाँ नहीं हैं ? क्या सर्वोच्च अदालत को उन विषयों पर राय देने का अधिकार नहीं है जिनका लिखित उल्लेख संविधान में नहीं है या जो केवल विधायिका के ही अधिकार क्षेत्र में आते हैं ?
एक राष्ट्रीय टीवी चैनल पर पिछले दिनों डिबेट के दौरान तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलानिवेल त्याग राजन (पीटीआर) ने प्रधानमंत्री के वैचारिक अधिकार-क्षेत्र और उनकी आर्थिक उपलब्धियों को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। चूँकि मामला दक्षिण के एक गैर-हिंदी भाषी राज्य के मंत्री से जुड़ा था और बहस अंग्रेज़ी के चैनल पर थी, हिंदी पट्टी का उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं गया। भाजपा के मीडिया सेल सहित हिंदी के गोदी चैनलों द्वारा भी या तो विषय को बहस के योग्य नहीं समझा गया या जान-बूझकर नजऱंदाज़ कर दिया गया। हिंदी-भाषी राज्य की किसी विपक्षी सरकार का कोई वित्त मंत्री अगर प्रधानमंत्री की आर्थिक-विशेषज्ञता को लेकर सवाल करता तो अभी तक बवाल मच चुका होता।
टीवी चैनल की उक्त डिबेट में पीटीआर के उत्तेजित होने का कारण प्रधानमंत्री द्वारा लोकलुभावन चुनावी वादों की तुलना रेवड़ी बाँटने से किया जाना था। चैनल के एंकर ने प्रधानमंत्री के कथन के पीछे के मंतव्य को यह कहते हुए प्रस्तुत किया कि दलों द्वारा मतदाताओं को सब्सिडी की पेशकश किसी दीर्घकालीन उपलब्धि के बजाय सरकारी खजाने को खाली करने का ही काम करती है। साथ ही, इस तरह की चुनावी पेशकशों और लोक-सशक्तिकरण के लिए क्रियान्वित की जाने वाली जन-कल्याणकारी योजनाओं के बीच फर्क किया जाना चाहिए। टीवी डिबेट के लेकर कलकत्ता के ‘द टेलिग्राफ’ में चेन्नई से प्रकाशित एक विस्तृत समाचार के मुताबिक़, एंकर के कथन पर तमिलनाडु के छप्पन-वर्षीय वित्त मंत्री ने जो जवाब दिया उससे एक नई बहस छिड़ गई।
पीटीआर ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि वे ईश्वर में यक़ीन करते हैं पर ऐसा नहीं मानते कि कोई इंसान भगवान है। उन्होंने आगे कहा :’ आप जो कह रहे हैं उसका कोई संवैधानिक आधार होना चाहिए। तभी लोग सुनेंगे ! या फिर आपके पास कोई विशेष योग्यता होनी चाहिए—जैसे आपके पास अर्थशास्त्र में दोहरी पीएचडी हो या आपको नोबेल पुरस्कार मिला हो ! आपके पास ऐसा कुछ होना चाहिए जो हमें बता सके कि आप हमसे बेहतर जानते हैं ! आपके अब तक के काम का रिकॉर्ड ऐसा हो कि अर्थव्यवस्था ने ऊंचाइयां हासिल कर ली हो ! कज़ऱ् में कमी हो गई हो ! प्रति व्यक्ति आय बढ़ा गई हो ! नौकरियाँ मिलने लगीं हों ! तब हम कहेंगे —ओह, हम आपकी बात सुनते हैं !‘ अगर इसमें कुछ भी सच नहीं है तो किसी की बात क्यों सुनना चाहिए ? किस आधार पर तब मुझे आपके लिए अपनी नीति बदल देना चाहिए ? क्या कोई संविधानेतर आदेश है जो आसमान से जारी हो रहा है ? आप कहना क्या चाह रहे हैं ?’
माथे पर कुंकू धारण करने वाले देवी मीनाक्षी के समर्पित भक्त पीटीआर ने त्रिची से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद एमआईटी (अमेरिका) से फाइनेंस में एमबीए किया है। साल 2016 में तमिलनाडु की राजनीति में प्रवेश करने से पहले वे अमेरिका और सिंगापुर के बड़े वित्तीय संस्थानों में काम कर चुके थे। वित्त मंत्री बनने के बाद पहले ही साल में उन्होंने राज्य के वित्तीय घाटे को सात हज़ार करोड़ रुपए से कम कर दिया। उनके पिता भी करुणानिधि सरकार में मंत्री थे।
मानकर चला जाना चाहिए कि तमिलनाडु के वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री की आर्थिक विषयों पर विचार व्यक्त कर सकने की सीमाओं पर जो टिप्पणी की उससे मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और राज्य की आठ करोड़ जनता भी सहमत है। स्टालिन या राज्य सरकार का ऐसा कोई स्पष्टीकरण देखने में नहीं आया कि टीवी चैनल की डिबेट में पीटीआर ने जो कुछ कहा वे उनके निजी विचार हैं। तमिलनाडु के वित्त मंत्री को यह कहते हुए भी उद्धृत किया गया है कि भारत की ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी प्रजातांत्रिक मुल्क की सर्वोच्च अदालत के लिए यह संवैधानिक प्रावधान नहीं है कि वह जनता के धन के उपयोग के सम्बंध में निर्देशित करे। ऐसा करना केवल विधायिका के ही अधिकार-क्षेत्र में आता है।
( इस बीच ,सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने मुफ़्त वाले वादों के ख़िलाफ़ दायर एक याचिका पर 23 अगस्त को सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि : ‘देश में ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है जो चुनावों के दौरान मुफ़्त वाले वादे नहीं करना चाहती है। इस मुद्दे पर बहस करना ज़रूरी है और देश हित में भी है।’ रमना ने तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश हुए वकील को भी फटकार लगाई और कहा :’ जिस तरह से आप बातें कर रहे हैं और बयान जारी कर रहे हैं , ये मत सोचिए कि जो कहा जा रहा है हम उसे नजऱंदाज़ कर रहे हैं।’)
पीटीआर के कहे पर विपक्ष के मौन को तो समझा जा सकता है, पर केंद्रीय वित्त मंत्री सहित भाजपा-शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों या वित्तमंत्रियों की ओर से भी किसी प्रभावशाली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा का अंत होना बाक़ी है। भाजपा के एक प्रवक्ता नरेंद्र तनेजा की प्रतिक्रिया को अख़बार ने बहस की खबर के साथ ज़रूर उद्धृत किया है जिसमें पीटीआर की टिप्पणी को ‘बौद्धिक अहंकार’ निरूपित करते हुए कहा गया है कि : ‘सिफऱ् इसलिए कि उन्होंने पीएचडी अमेरिका से की है इस तरह से नहीं बोलना चाहिए।’
तमिलनाडु के वित्त मंत्री की टिप्पणी केंद्र और ग़ैर-भाजपाई राज्य सरकारों के बीच सम्बन्धों में बढ़ते टकराव का संकेत तो देती ही है, दो अन्य सवाल भी जगाती है : पहला यह कि भाजपा के हिंदी-भाषी प्रभाव क्षेत्र की किसी विपक्षी सरकार का कोई मंत्री अथवा देश का कोई आम नागरिक अगर प्रधानमंत्री के आर्थिक विषयों पर अधिकारपूर्वक विचार व्यक्त करने अथवा उनकी उपलब्धियों के दावों को लेकर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है तो उसकी प्रतिक्रिया कितनी सामान्य या असामान्य होगी ? दूसरे यह कि अगर पीटीआर द्वारा प्रधानमंत्री की वैचारिक स्वतंत्रता को कठघरे में खड़े करने का संवैधानिक प्रतिरोध नहीं किया जाता है है तो उस संसदीय व्यवस्था का क्या होगा जिसमें बहुमत प्राप्त करने वाले दल के सांसद किसी व्यक्ति विशेष को उसके द्वारा अर्जित योग्यता के आधार ही पर देश का नेतृत्व करने के लिए अधिकृत करते हैं ? बड़ा सवाल यह है कि पीएम अगर आर्थिक विषयों और अपनी उपलब्धियों पर बोलना बंद कर देंगे तो वे फिर किस बात की चर्चा करेंगे ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूस से संबंधित अभी-अभी दो घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिन्होंने सारी दुनिया का ध्यान खींचा है। पहली घटना है- दारिया दुगिना की हत्या। यह लडक़ी रूसी नेता व्लादिमीर पूतिन के मुख्य रणनीतिकार अलेक्जेंडर दुगिना की बेटी थी। दूसरी घटना भारतीयों के लिए और भी ज्यादा गंभीर है। वह है आजमोव की गिरफ्तारी की ! आजमोव को रूसी पुलिस ने गिरफ्तार किया है, क्योंकि उससे कई ठोस प्रमाण मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि उज़बेकिस्तान का यह नागरिक किसी बड़े भारतीय नेता की हत्या के लिए तैयार किया गया था।
यह ‘इस्लामिक स्टेट आफ खुरासान प्राविंस’ का कारिंदा है। यह मुसलमान युवक किसी पूर्व-सोवियत राज्य से आकर तुर्किए में प्रशिक्षित हुआ है। इसे जिम्मेदारी दी गई थी कि वह भारत जाकर किसी नेता पर आत्मघाती हमला करे। यह हमला नुपूर शर्मा के बयान के विरोध में होना था। अब से तीन माह पहले ‘इस्लामिक स्टेट’ ने 50 पृष्ठ का एक दस्तावेज इसी मुद्दे पर जारी किया था, जिस पर गाय के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र भी था।
तुर्किए में प्रशिक्षित यह 30 वर्षीय उजबेक आजमोव रूस पहुंच कर भारत आने की फिराक में था। इसके पीछे काम कर रही ‘इस्लामिक स्टेट’ चाहती थी कि वह ‘अल-क़ायदा’ के उग्रवाद से भी आगे निकल जाए। जब रूसी गुप्तचर एजेंसी ने आज़मोव को गिरफ्तार करके कड़ी पूछताछ की तो उसने बहुत-से रहस्यों को उगल दिया। मध्य एशिया के इन पूर्व-सोवियत देशों में इस्लामिक कट्टरवाद को रूसी कम्युनिस्टों ने कभी पनपने नहीं दिया था।
इन पांच राष्ट्रों के सात करोड़ लोग ठीक से नमाज़ पढऩा भी नहीं जानते थे। वे रोज़े भी ठीक से नहीं रखते थे। उन्होंने अपने तुर्की और फारसी नामों का भी रूसीकरण कर लिया था। जैसे आजम का आजमोव और रहमान का रहमानोव। लेकिन पड़ौसी मुस्लिम राष्ट्रों की मेहरबानी से वहां उग्रवाद और आतंकवाद की भट्टियां धधकने लगी हैं। इन स्वतंत्र हुए सभी प्राचीन आर्य राष्ट्रों में मुझे पहले और अब भी रहने का अवसर मिला है। मैं उनकी भाषा भी बोल लेता हूं। वे यदि उग्रवाद और आतंकवाद को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे तो इन देशों को बर्बाद होने से कोई रोक नहीं पाएगा।
रूस को इन देशों के खिलाफ भी कार्रवाई करनी पड़ सकती है। जहां तक दारिया दुगिना की हत्या का सवाल है, रूसी अधिकारियों का कहना है कि एक यूक्रेनी औरत, जिसका नाम नतालिया वोक है, उसने दारिया की हत्या की है। वह भेजी तो गई थी अलेक्जेंडर दुगिना की हत्या के लिए लेकिन दारिया ही उसके हाथ लग गई। दारिया को श्रद्धांजलि देते हुए राष्ट्रपति पूतिन ने उसे गहन राष्ट्रवादी और निर्भीक युवती बताया है।
हालांकि यूक्रेन के राष्ट्रपति तथा अन्य अधिकारियों ने इस हत्याकांड से अपना कोई भी वास्ता नहीं बताया है लेकिन यह घटना रूस-यूक्रेन युद्ध को और भी गंभीर रूप प्रदान कर सकती है। रूसी जांच एजेंसी को शक है कि हत्या करने के बाद नतालिया तुरंत भागकर एस्टोनिया में छिप गई है। एस्टोनिया एक पूर्व-सोवियत राष्ट्र है और आजकल रूस से उसके संबंध सामान्य नहीं हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अब यह रूसी युद्ध यूक्रेन के बाहर भी फैल जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुर्णेन्दु शुक्ला
बिलकिस बानो ने कहा ‘इतना अन्यायपूर्ण फैसला लेने के पहले किसी ने भी मेरी सुरक्षा के बारे में नहीं सोचा...’
14 लोगों की हत्या और गर्भवती महिला से गैंगरेप के 11 दोषियों की रिहाई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई..!
गुजरात दंगों से जुड़ा बिलकिस बानो मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। 11 दोषियों की रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर जल्द सुनवाई की मांग की गई है। ष्टछ्वढ्ढ ने कहा कि वो इस मामले को देखेंगे। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और वकील अपर्णा भट ने जल्द सुनवाई की मांग की गई है। सिब्बल ने कहा कि मामले की बुधवार को ही सुनवाई हो। उन्होंने कहा कि 14 लोगों की हत्या और गर्भवती महिला से गैंगरेप के 11 दोषियों को गुजरात सरकार ने रिहा कर दिया है।
बिलकिस ने इसे लेकर कहा था कि इस कदम ने न्याय के प्रति उनके विश्वास को हिलाकर रख दिया है। उन्होंने कहा, ‘दो दिन पहले, 15 अगस्त 2022 को पिछले 20 साल का दर्द फिर से उभर आया। जब मैंने सुना कि जिन 11 दोषियों ने मेरे परिवार और मेरी जिंदगी को तबाह किया था और मेरी 3 साल की बेटी को मुझसे छीना था, आजाद हो गए हैं।’ बिलकिस ने कहा, ‘मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। मैं स्तब्ध हूं। मैं केवल यही कह सकती हूं-किसी महिला के लिए न्याय आखिर इस तरह कैसे खत्म हो सकता है? मैंने अपने देश के सर्वोच्च कोर्ट पर भरोसा किया, मैंने सिस्टम पर भरोसा किया और मैं धीरे-धीरे इस बड़े ‘आघात’ के साथ जीने की आदत डाल रही थी।’
उन्होंने कहा, ‘इन दोषियों की रिहाई ने मेरे जीवन की शांति छीन ली है और न्याय के प्रति मेरे विश्?वास को हिला डाला है। मेरा गम और डगमगाता भरोसा केवल मेरे लिए नहीं है, बल्कि हर उस महिला के लिए है जो अदालतों में न्याय के लिए संघर्ष कर रही है।’ इस महिला ने कहा, ‘इतना बड़ा और अन्यायपूर्ण फैसला लेने के पहले किसी ने भी मेरी सुरक्षा और भले के बारे में नहीं सोचा। मैं गुजरात सरकार से अपील करती हूं कि फैसले को वापस ले। बिना किसी भय और शांति से मेरे जीने का अधिकार वापस दें।’
उन्होंने कहा कि सरकार के इस फैसले को सुनकर उन्हें लकवा सा मार गया है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं अभी भी होश में नहीं हूं।’’ दोषियों की रिहाई से मेरी शांति भंग हो गई है और न्याय पर से मेरा भरोसा उठ गया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की प्रसिद्ध गायिका नय्यारा नूर (71) का रविवार को निधन हो गया। सारे पाकिस्तान के अखबार और चैनल उनके शोक-समाचार से भरे हुए हैं। नय्यारा नूर से मेरी पहली मुलाकात 1981 में हुई थी। जनवरी 1981 में जब मैं काबुल में प्रधानमंत्री बबरक कारमल से मिलने जा रहा था तो राजमहल के ड्राइवर ने कार में एक हिंदी गजल चला दी। मैंने उससे फारसी में पूछा कि यह पठान या ताजिक गायिका इतनी अच्छी हिंदी-उर्दू गजल कैसे गा रही है?
उसने बताया कि यह महिला अफगान नहीं, पाकिस्तानी है और इसका नाम नय्यारा नूर है। उसी साल मेरा पाकिस्तान भी जाना हुआ, ‘इंस्टीट्यूट आफ स्ट्रेटिजिक स्टडीज’ के निमंत्रण पर। उस समय पाकिस्तान के लगभग सभी सत्तारुढ़ और विरोधी नेताओं से मेरा मिलना हुआ लेकिन मेरी बड़ी इच्छा थी कि कुछ वक्त मिले तो मैं नय्यारा नूर से जरुर मिलूं। उन दिनों नूरजहां और मलिका पुखराज जैसी वरिष्ठ गायिकाओं का सिक्का बहुत जमा हुआ था।
उनसे भेंट के बाद नय्यारा से संपर्क करके मैं लाहौर में उनके घर पहुंचा तो मुझे ढूंढते-ढूंढते मेहदी हसन भी वहां आ पहुंचे। वे जयपुर के थे। मैंने बताया कि मेरे दादा-परदादा खाटू के थे तो वे मुझसे मारवाड़ी में बात करने लगे। नय्यारा के पति शहरयार जैदी लखनऊ के थे। हम चारों भारतीय मूल के लोग आपस में इतने रम गए कि जैसे बरसों से दोस्त रहे हों। नय्यारा नूर गुवाहाटी में 1950 में पैदा हुई थीं। 8 साल बाद उनके पिता पाकिस्तान चले आए।
जब नय्यारा लाहौर के कालेज में पढ़ रही थीं तो अचानक उनकी गायन-प्रतिभा प्रस्फुटित हो गई। वे पहले रेडियो पर गाने लगीं। फिर क्या था? उनकी बड़ी-बड़ी महफिलें सजने लगीं। टीवी चैनलों और फिल्मों में भी उनकी गजलें सुनी जाने लगीं। छोटी उम्र में ही वे बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय होने लगीं। उन्होंने मीर, गालिब, फैज़ और कई शायरों की गजलें गाईं। उन्हें कई सम्मान और पुरस्कार मिले। लेकिन मैंने जो सज्जनता और सरलता उनमें और उनके पति जैदी साहब में पाई, वह बहुत कम भारतीय और पाकिस्तानी कलाकारों में पाई।
पहली मुलाकात में ही पति-पत्नी ने मेरा दिल जीत लिया। उन्होंने मुझे अपने कई कैसेट भेंट दिए, जो आजतक मेरे पास हैं और जिन्हें मैं बहुत प्रेम से सुनता हूं। पिछले 40 साल में पाकिस्तान की मेरी हर यात्रा के दौरान मेरी इच्छा रहती थी कि बहन नय्यारा से मिलूं और उनके पास बैठकर उनकी गजलें सुनूं लेकिन वे अब कराची में रहने लगी थीं। कराची जब भी जाना हुआ, वह भी सिर्फ कुछ घंटों के लिए और कुछ खास मुलाकातों के लिए! इसीलिए नय्यारा समेत कई मित्रों से सिर्फ फोन पर बात करके ही संतुष्ट होना पड़ता रहा।
नय्याराजी से अभी दो-तीन महिने पहले भी फोन पर बात हुई थी। उनकी तबियत ठीक नहीं थी। उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से गाना छोड़ दिया है। उनका गायन और आत्म-प्रचार के प्रति यह अनासक्त भाव मुझे आश्चर्यचकित करता रहा।
नय्यारा नूर, मलिका पुखराज, नूरजहां और मेहदी हसन जैसे लोगों ने पाकिस्तान की इज्जत बढ़ाई और अपनी प्रतिभा से पाकिस्तानियों को आनंदित किया लेकिन जैसा कि राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने कहा था कि ‘हर पाकिस्तान के दिल में एक हिंदुस्तान धडक़ता है’, उनकी यह कहानी नय्यारा नूर जैसे कई महान कलाकारों के लिए एकदम सही बैठती है। नय्याराजी को हार्दिक श्रद्धांजलि ! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अपने दल के मंत्रियों के लिए एक नई आचार-संहिता जारी की है, जो मेरे हिसाब से अधूरी है लेकिन बेहद सराहनीय है। सराहनीय इसलिए कि हमारे नेता ही देश में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्त्रोत हैं। यदि उनमें आचरण की थोड़ी-बहुत शुद्धता शुरु होने लगे तो धीरे-धीरे भारतीय राजनीति का शुद्धिकरण काफी हद तक हो सकता है। फिलहाल तेजस्वी ने अपने मंत्रियों से कहा है कि वे बुजुर्गों से अपने पांव छुआना बंद करें। उन्हें खुद नमस्कार करें।
हमारे देश में अपने से बड़ों के पांव छूने की जो परंपरा है, दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। जापान में कमर तक झुकने, अफगानिस्तान में गाल पर चुम्मा जमाने और अरब देशों में एक-दूसरे के गालों को छुआने की परंपरा मैंने देखी है लेकिन अपने भारत की इस महान परंपरा को सत्ता, पैसा, हैसियत और स्वार्थ के कारण लोगों ने शीर्षासन करवा रखा है। देश के कई वर्गो के लोगों को मैंने देखा है कि वे अपने से उम्र में काफी बड़े लोगों से अपना पांव छुआने में जरा भी संकोच नहीं करते बल्कि वे इस ताक में रहते हैं कि बुजुर्ग उनके पांव छुएं तो उनके बड़प्पन का सिक्का जमे।
बिहार और उत्तरप्रदेश में तो मंत्रियों, सांसदों और साधुओं के यहां ऐसे दृश्य अक्सर देखने को मिल जाते हैं। तेजस्वी यादव इस कुप्रथा को रूकवा सकें तो उन्हें यह बड़ा नेता बनवा देगी। तेजस्वी ने दूसरी सलाह अपने मंत्रियों को यह दी है कि वे आगंतुकों से उपहार लेना बंद करें। उनकी जगह कलम और किताबें लें। कितनी अच्छी बात है, यह? लेकिन नेता उन किताबों का क्या करेंगे? किताबों से अपने छात्र-काल में दुश्मनी रखने वाले ज्यादातर लोग ही नेता बनते हैं।
तेजस्वी की पहल पर अब वे कुछ पढऩे-लिखने लगें तो चमत्कार हो जाए। वरना होगा यह कि वे किताबें भी अखबारों की रद्दी के साथ बेच दी जाएंगी। डर यह भी है कि अब मिठाई के डिब्बों की बजाय किताबों के डब्बे मंत्रियों के पास आने लगेंगे और उन डिब्बों में नोट भरे रहेंगे। तेजस्वी ने तीसरी पहल यह की है कि मंत्रियों से कहा है कि वे अपने लिए नई कारें न खरीदवाएं। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन यह काफी नहीं है। तेजस्वी चाहें तो नेताओं के आचरण को आदरणीय और आदर्श भी बनवाने की प्रेरणा दे सकते हैं।
पहला काम तो वे यह करें कि सांसदों और विधायकों की पेंशन खत्म करवाएं। दूसरा, उन्हें सरकारी मकानों में न रहने दें। अब से 50-55 साल पहले वाशिंगटन में मैं 45 डालर महिने के जिस कमरे में रहता था, उसी के पास तीन कमरों में अमेरिका के कांग्रेसमेन और सीनेटर भी किराये पर रहते थे। तेजस्वी खुद बंगला छोड़ें तो बाकी मंत्री भी शर्म के मारे भाग खड़े होंगे।
हमारी राजनीति को यदि भ्रष्टाचार से मुक्त करना है तो हमारे नेताओं को अचार्य कौटिल्य और यूनानी विद्वान प्लेटो के ‘दार्शनिक राजाओं’ के आचरण से सबक लेना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ ली, तब कहा था कि वे देश के ‘प्रधान सेवक’ हैं। तेजस्वी इस कथन को ठोस रूप देकर क्यों न दिखाएं? यदि वे ऐसा कर सकें तो पिछड़ा हुआ बिहार भारत-गुरु बन जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-निधीश त्यागी
21वीं सदी में पनप चुकी मार्केट इकोनॉमी की बदौलत बने एक हाइवे पर एक चमकीली कार तेजी से दौड़ रही है। उसके स्टीरियो के चार या शायद ज्यादा स्पीकर्स से जो आवाज आ रही है, वह नैय्यरा नूर तुम्हारी है। उस वीरान शाम के लंबे से सफर में अगर तुम फैज को न गा रही होती तो मुझे तुमसे शायद मुहब्बत न हुई होती। वैसे तो यह भी कह सकता हूं, मेरी जिंदगी में भी वह सब न चल रहा होता, तो भी शायद ऐसा न होता।
पता नहीं कब फैज ने लिखा उन्हें पता नहीं कहां, और पता नहीं किस स्टूडियो में तुमने जाकर उन्हें रिकॉर्ड किया। कौन सा वक्त कौन सी जगह। पर जैसे उस धूप किनारे सब पिघलता, घुलता मेरी आत्मा में तुम्हारे बोल ऐसे दस्तक दे रहे थे कि तय करना मुश्किल था कि दस्तक बाहर से आ रही है या भीतर से। हम वक्त के एक तिलिस्मी पड़ाव पर हैं इकट्ठे और नजरों से ओझल। तुम्हारी आवाज एक पल या डोरे की तरह जोड़ती है दिल के कहे को दिल के सुने से। फैज को पढ़ना फैज के बारे में पढ़ना नहीं है। फैज की तस्वीर देखना (एक प्रापर्टी डीलर वाला सफेद सफारी सूट जिसमें बस मोबाइल फोन नहीं झांक रहे) इन दोनों से अलग है।
नैय्यरा नूर, तुम्हारी आवाज से उस बगावत की बू नहीं आती, जिसके लिए हम फैज को जानते हैं। तुम्हारी आवाज फैज के गुस्से को नहीं, उसकी पेचीगियों को भी नहीं, बल्कि उसके भीतर के नर्मदिल और मजबूर, और प्यार करने वाले इंसान का हलफिया बयान बनती है। जो न काटती है, न चीरती है, बस एक फाहे की तरह नम उस जख्म को छूती है, जो पता नहीं कब से हरे थे और तुम्हारी आवाज के इंतजार में।
पहले तुम्हारी आवाज और फिर तुम्हारे बोल जहन में घुलते हैं। संगीत और कविता दोनों ही आत्मा का द्रव्य है। शब्द फिर भी कई बार फंस जाते हैं, संगीत नहीं। मैं बार-बार तुम्हारी आवाज से भरता हूँ, अपनी आत्मा के खाली मर्तबान को। तुम्हारे उन गीतों को गाने और मेरे सुनने में करीब पच्चीसेक सालों का फासला है और फैज को उनके लिखे का और भी ज्यादा। परिदों की तरह संगीत भी आसमानी होता है, जमीन पर खिंची लकीरें उसे रोक नहीं सकतीं।
तुम्हारी आवाज से मुझे इतना प्यार हो गया कि मैंने तुम्हारी शक्ल लंबे समय नहीं देखी। एक अरसे तक तुम्हें गूगल नहीं किया। बस तुम्हारी आवाज और लोगों से उसकी तारीफ। फिर एक दिन किसी ने एक यू-ट्यूब का लिंक भेजा जिसमें कोई और गा रहा है, तुम उस में बैठी हुई हो। और तुम उस भीड़ में भी अलग हो...। सादगी और गरिमा से जगमग...। मेरे बचपन के कस्बों की भली पड़ोसन लड़कियों की तरह, दोस्तों की बड़ी बहनों की तरह, जिनमें हमेशा एक तरह की पवित्रता रहती है।
बहुत मन था कि इस चिट्ठी को उर्दू में लिखवाकर तम्हें भेज दंू। पर जिस तारीख की आवाज से मुझे मुहब्बत है, वह तारीख दीवार पर टंगे कलैंडरों से फडफ़ड़ाकर कब की उड़ चुकी है। तुम्हारी अपनी जिंदगी होगी, अपना संसार। और जितना यकीं तुम्हारी आवाज पर है, उतना बाकी सब पर नहीं। न मैं तुम्हारे गाए के लिए गलत समझा जाना चाहता हूं न अपने सुने के लिए।
कार को जहां पहुंचना था, पहुंच गई है। मैं अपनी जगह नहीं पहुंचा हूं। फिलवक्त तुम्हारा गीत फिर से बज रहा है। और जल्दी नहीं है...
('तमन्ना तुम अब कहां हो' किताब से)
-राहुल कुमार सिंह
यहां प्रस्तुत जानकारी, मुख्यत: इंटरनेट पर उपलब्ध अधिकृत या विश्वसनीय स्रोतों से ली गई है। साथ ही अल्पज्ञात प्रकाशित सामग्री तथा स्वयं द्वारा एकत्र जानकारियों का समन्वय किया गया है। यथासंभव तथ्यों का परीक्षण स्वयं किया गया है। भारत शासन द्वारा सन 2000 में पुनर्मुद्रित कराई गई भारतीय संविधान की प्रति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के पं. सुन्दरलाल शर्मा ग्रंथागार में उपलब्ध है, सदस्यों के हस्ताक्षर के लिए स्वयं अवलोकन कर इसे आधार बनाया गया है। अन्य जानकारी किसी अधिकृत स्रोत से उपलब्ध होने पर, यहां प्रस्तुत जानकारी में संशोधन/परिवर्धन कर दिया जावेगा।
इंटरनेट पर उपलब्ध कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया - वाल्युम 1 में सोमवार, 9 दिसंबर 1946 की पहली बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में मद्रास 43, बाम्बे से 19, बंगाल से 26, युनाइटेड प्राविंस से 42, पंजाब से 12, बिहार से 30, सी.पी. एंड बरार के 14, असम के 7, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस से 2, उ?ीसा से 9, सिंध से 1, दिल्ली से 1, अजमेर-मेरवारा से 1, कुर्ग से 1, इस प्रकार कुल 208 नामों का उल्लेख है, जिसमें सी.पी. एंड बरार के 14 नामों में सरल क्रमांक 1 पर पं. रवि शंकर शुक्ल, 6 पर ठाकुर छेदीलाल, एम.एल.ए., 10 पर गुरु अगमदास अगरमनदास, एम.एल.ए. का नाम छत्तीसगढ़ के सदस्यों का आया है। कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया-वाल्युम 4 में सोमवार, 14 जुलाई 1947 की बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में इस्टर्न स्टेट्स से राय साहब रघुराज सिंह का नाम आया है।
विकिपीडिया के ‘भारतीय संविधान सभा‘ पेज पर मध्यप्रांत और बरार [संपादित करें] के अंतर्गत दर्ज सदस्य नामों में से छत्तीसगढ़ के नाम, गुरु अगमदास, बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, पं किशोरी मोहन त्रिपाठी, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल, रामप्रसाद पोटाई, इस प्रकार कुल छह नाम हैं।
विकिपीडिया के कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया पेज पर सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 19 नाम हैं, जिनमें ठाकुर छेदीलाल, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल के अतिरिक्त अंबिका चरण शुक्ल (क्रम 1 पर) तथा गनपतराव दानी (क्रम 19 पर) नाम मिलता है, जो छत्तीसग? से संबंधित हैं, उक्त दोनों नामों की पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं हुई है।
जानकारी मिलती है कि पुनर्गठित संविधान सभा के 299 सदस्यों की बैठक 31 दिसंबर 1947 को हुई, जिन सदस्यों की 2 वर्ष 11 माह, 18 दिन में कुल 114 दिन बैठक के बाद 24 जनवरी 1950 को हस्ताक्षर कर संविधान को मान्यता दी गई। संविधान सभा के सदस्यों के हस्ताक्षर संविधान की प्रति में पेज 222 पर आठवीं अनुसूची के बाद पेज 231 तक दस पृष्ठों पर हैं। पेज 222 पर 17, 223 पर 30, 224 पर 34, 225 पर 34, 226 पर 34, 227 पर 32, 228 पर 30, 229 पर 34, 230 पर 34, 231 पर 5, इस प्रकार कुल 284 हस्ताक्षर हैं। हस्ताक्षरों के संबंध में ध्यान देने योग्य-
0 कुछ सदस्यों ने दो लिपियों में हस्ताक्षर किए हैं।
0 हस्ताक्षर के साथ कोष्ठक में नाम भी लिखा है।
0 मैसूर के एच.आर. गुरुवरेड्डी का हस्ताक्षर पेज 226 पर तथा पेज 229 पर, इस प्रकार एक ही व्यक्ति का एक जैसा ही दो हस्ताक्षर, कोष्ठक में नाम सहित आया है।
0 पेज 229 पर दो हस्ताक्षर के नीचे दिनांक 24.1.1950 भी अंकित है।
0 राजेन्द्र प्रसाद का हस्ताक्षर जिस स्थान पर है, उसे देख कर लगता है कि अंतिम प्रारूप हस्ताक्षर के लिए सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू को प्रस्तुत किया गया और जैसा कायदा है, लेख और हस्ताक्षर के बीच खाली स्थान न छोड़ते हुए, उन्होंने अपने हस्ताक्षर किए हैं। अतएव राजेन्द्र प्रसाद द्वारा जगह बनाते जवाहरलाल नेहरू के उपर तिरछे हस्ताक्षर किया गया।
0 संविधान सभा की बैठकों के प्रतिवेदन से जानकारी मिलती है कि 24 जनवरी 1950 को संविधान की प्रति पर हस्ताक्षर के लिए अध्यक्ष द्वारा सदस्यों से आग्रह किया जाता है कि वे एक-एक कर आएं और प्रतियों पर हस्ताक्षर करें। सदस्यगण जिस क्रम में बैठे हैं, उसी क्रम में उन्हें पुकारा जाएगा प्रधानमंत्री को पब्लिक ड्यूटी में जाना है इसलिए हस्ताक्षर के लिए उनसे पहले आग्रह किया गया।
0 ग्रंथागार वाली जिस प्रति का मैंने अवलोकन किया है उसमें कुल 231 पेज में, पेज 228 तथा पेज 229 दो-दो बार हैं, इससे संभव है कि इस संस्करण में मुद्रित किसी प्रति में उक्त दो पेज कम हों।
छत्तीसगढ़ के सदस्यों में, पेज 227 पर रविशंकर शुक्ल और ठाकुर छेदीलाल के हस्ताक्षर 228 पर घनश्याम सिंह गुप्त के हस्ताक्षर (नागरी में), 229 पर रामप्रसाद पोटाई और 230 पर के.एम. त्रिपाठी के हस्ताक्षर (रोमन में) हैं, इस प्रकार कुल पांच व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं। लोक सभा की साइट पर नवंबर 1949 की स्थिति में संविधान सभा के सदस्यों की प्रदेशवार सूची में सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 17 नामों में छत्तीसग? के ठाकुर छेदीलाल (क्रम 5 पर), घनश्याम सिंह गुप्त (क्रम 10 पर), रवि शंकर शुक्ल (क्रम 13 पर) तथा सेंट्रल प्राविंसेस स्टेट्स के तीन नामों में छत्तीसगढ़ के किशोरीमोहन त्रिपाठी (क्रम 2 पर) तथा रामप्रसाद पोटई (क्रम 3 पर) हैं। इस प्रकार पुष्टि होती है कि उक्त पांच संविधान सभा के नियमित तथा हस्ताक्षर की तिथि तक सदस्य रहे।
उक्त संविधान पुरुषों के यों अन्य फोटो भी उपलब्ध होते हैं, किंतु यहां उनकी फोटो आगे आए समूह चित्र से निकाली गई है। उक्त समूह चित्र में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान मेरे द्वारा निश्चित नहीं कर पाने के कारण उनकी अन्य तस्वीर ली गई है। फोटो के नीचे हस्ताक्षर संविधान की प्रति में किए गए हस्ताक्षर से लिए गए हैं।
यहां आए छत्तीसगढ़ के नामों में मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल, अकलतरा के बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्त, कांकेर के रामप्रसाद पोटई, रायगढ़ के के.एम. त्रिपाठी यानि किशोरी मोहन त्रिपाठी और सतनामी गुरु अगमदास अगरमनदास, उनका परिवार सामान्यत: जाना जाता है। रघुराज सिंह (क्रड्डद्दद्धश क्रड्डद्भ स्द्बठ्ठद्दद्ध), सरगुजा स्टेट के दीवान रहे तथा बाद में राजकुमार कॉलेज, रायपुर में प्रिंसिपल रहे, उनका परिवार अब रायपुर निवासी है।
सामने से पहली की पंक्ति-59 सदस्य, दूसरी पंक्ति-59, तीसरी पंक्ति-58, चौथी पंक्ति-54 तथा सबसे पीछे पांचवीं पंक्ति में 48, इस प्रकार कुल 278 व्यक्ति हैं। चित्र में पं. रविशंकर शुक्ल पहली पंक्ति में बायें से दाएं गणना में क्रम 39 पर, इसी तरह ठाकुर छेदीलाल दूसरी पंक्ति में क्रम 40 पर, किशोरी मोहन त्रिपाठी तीसरी पंक्ति में क्रम 7 पर और रामप्रसाद पोटई इसी तीसरी पंक्ति में क्रम 34 पर हैं। जैसा कि उपर उल्लेख है इस तस्वीर में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान निश्चित नहीं हो सकी है।
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत का संविधान पारित किए जाने के अवसर पर अपने भाषण में अनुवादकों का उल्लेख करते हुए कहा था माननीय श्री जी.एस. गुप्त की अध्यक्षता वाली अनुवाद समिति के द्वारा संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी के समानार्थी हिंदी शब्द तलाशने का कठिन कार्य किया गया है। (सिंहावलोकन)
(akaltara.blogspot.com)
-कृष्ण कांत
महात्मा गांधी को महात्मा किसने कहा? गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने। महात्मा गांधी को फादर ऑफ नेशन किसने कहा? नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने। विनायक दामोदर सावरकर को वीर किसने कहा? खुद सावरकर ने।
तो हुआ यूं कि जब सात माफीनामे के बाद सावरकर जेल से छूटे तो उसके 2 साल बाद उनकी एक जीवनी छपी- ‘बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर का जीवन’। इस किताब में ही पहली बार उनको ‘स्वातंत्र्य वीर’ कहा गया।
इसके बाद सावरकर वीर बने रहे। किसी ने सवाल नहीं उठाया। यहां तक कि जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस इंडियन नेशनल आर्मी बनाकर अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध छेडऩे की घोषणा कर रहे थे, जब पूरी कांग्रेस और पूरे आंदोलन के नेता लोग जेल में थे, तब सावरकर अंग्रेजों से पेंशन ले रहे थे और अंग्रेजी सेना के लिए भारतीय युवाओं की भर्ती के लिए कैंप लगवा रहे थे। फिर भी वे वीर बने रहे।
1986 में इस किताब को फिर से प्रकाशित करवाया गया और तब इस किताब की प्रस्तावना लिखने वाले डॉक्टर रवींद्र वामन रामदास ने किताब के कुछ हिस्से के हवाले से यह रहस्योद्घाटन किया चित्रगुप्त और कोई नहीं खुद सावरकर थे। इस दावे का खंडन आज तक नहीं हुआ है कि कोई चित्रगुप्त नाम का लेखक, उसका कोई चेला या उसका कोई परिवार इस दावे का खंडन करे कि नहीं चित्रगुप्त सावरकर खुद नहीं थे। चित्रगुप्त नाम का कोई व्यक्ति इस दुनिया में मौजूद था जिसने वीर सावरकर को ‘वीर’ और ‘जन्मजात नायक’ घोषित किया था।
अब आरएसएस वाले चाहते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के फादर ऑफ नेशन और गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के महात्मा को उनकी पदवियों से बेदखल कर दिया जाए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के 30 साल के नेतृत्व को नकार दिया जाए और माफी मांग कर जेल से छूटकर अंग्रेजों से पेंशन लेने वाले, अंग्रेजों का साथ देने वाले और भारतीय क्रांतिकारियों से गद्दारी करने वाले सावरकर को इस देश का सबसे महान क्रांतिकारी घोषित कर दिया जाए। यही नहीं, वे ये भी चाहते हैं कि गांधी के हत्यारे की भी पूजा की जाए। आप ही बताइए क्या यह संभव है?
जीएस राममोहन
आजाद भारत के 75 साल पूरे होने पर जो भी विश्लेषण देखने को मिल रहा है उनमें से अधिकांश में पिछले तीन दशकों की बात हो रही है। ज़ोर इस बात पर है कि कैसे इस अवधि के दौरान भारत एक बेमिसाल देश बन गया है।
कई लोग याद दिला रहे हैं कि कैसे लैंडलाइन फोन कनेक्शन के लिए अपने इलाके के सांसद के चक्कर लगाने होते थे, गैस कनेक्शन के लिए महीनों लंबा इंतज़ार करना होता था और अपने परिजनों से बात करने के लिए सार्वजनिक फोन बूथ के बाहर लंबी कतार में घंटों इंतज़ार करना पड़ता था।
1990 के दशक में और उसके बाद पैदा हुए लोग उपरोक्त बातों से परिचित न होंगे लेकिन पुरानी पीढय़िों के लिए ये जीता जागता सच रहा है।
स्कूटर खरीदने के लिए भी सालों इंतजार करना होता था। वहां से स्थितियां काफी बदल गई हैं। प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, उत्पादों की निरंतर आपूर्ति और लाइसेंस के तौर तरीकों में संशोधन से यह बदलाव आया है।
सर्विस सेक्टर और रोजमर्रा के कामों में एक हद तक व्यक्तिगत आग्रहों या फैसलों को खत्म किया गया था। इससे मध्य वर्ग की रोजमर्रा की जिंदगी काफी आसान हो गई है।
1990 के दशक में आर्थिक सुधार जोर-शोर से लागू कर दिए गए और तब से जो रास्ता बना है उसमें कई बदलाव आ चुके हैं जो आज भी स्पष्ट तौर पर नजऱ आ रहे हैं।
आर्थिक सुधारों से निकले महत्वपूर्ण बदलाव ये थे: प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में बढ़ोतरी, आपूर्ति व्यवस्था की स्थिति में सुधार और लाइसेंस राज की समाप्ति।
लेकिन इन बदलावों के अलावा और भी ऐसे बुनियादी मुद्दे थे जिन पर चर्चा किए जाने की ज़रूरत है और जो ज़्यादा प्रखर तौर पर सर्विस सेक्टर में नजऱ आने लगे थे। इसे समझने के लिए दो मुख्य प्रक्रियाओं को देखना होगा। एक तरफ़ गऱीबी कम हो रही है तो दूसरी तरफ़ असमानता बढ़ रही है। इस लिहाज से देखें तो 75 साल में दो अहम बदलाव हुए- गरीबी में कमी और असमानता बढ़ गई।
गरीबी में कमी
1994 और 2011 के बीच भारत में कहीं ज़्यादा तेज गति से गरीबी कम हुई। इस अवधि के दौरान गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या 45 फीसद से गिरकर 21.9 फीसद पर आ गई।
करीब 13 करोड़ लोगों को घोर गरीबी से बाहर निकाल लिया गया था। 2011 के बाद के आंकड़े आधिकारिक तौर पर जारी नहीं हुए हैं। हालांकि सर्वे हुए हैं लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं।
विश्व बैंक के मुताबिक 2019 के अंत तक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले आबादी 10।2 फीसदी पर आ गई थी। शहरी भारत के मुकाबले ग्रामीण भारत की स्थिति ज़्यादा बेहतर थी।
ये ध्यान देने वाली बात है कि अत्यंत गरीबी में जीवन यापन करने वालों की संख्या कम करने में 75 साल लगे थे और आर्थिक सुधारों के 30 सालों की इसमें एक अहम भूमिका थी। करीब आधी से ज़्यादा आबादी-करीब 45 फीसदी-तीन दशक पहले गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही थी। आज वो संख्या 10 फीसद है। ये एक असाधारण बदलाव है। ये साफ़ है कि इन तीन दशकों में गरीबी हटाओं के नारे को जीवंत बनाने के लिए जबर्दस्त तेजी दिखाई गई है।
इसी दौरान, इन तीन दशकों में लागू आर्थिक सुधारों से असमानताएं भी बढ़ी है। अरबपतियों की संपत्ति आसमान छूने लगी है। राष्ट्रीय संपदा में सबसे निचले पायदान के लोगों का हिस्सा कम होता जा रहा है।
90 के दशक में भारत से दुनिया के अरबपतियों की फोर्ब्स की सूची में कोई शामिल नहीं था। 2000 में उस सूची में 9 भारतीय थे। 2017 में उनकी संख्या 119 हो गई। और 2022 में फोब्र्स की अरबपतियों की सूची में 166 भारतीयों के नाम हैं।
रूस के बाद सबसे ज्यादा अरबपति भारत में हैं। 2017 की ऑक्सफैम रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय संपदा का 77 फीसद हिस्सा शीर्ष पर मौजूद 10 फीसद लोगों तक सीमित है। सबसे अमीर शीर्ष के एक फीसदी लोग 58 फीसदी राष्ट्रीय संपत्ति पर स्वामित्व रखते हैं।
भारत में अरबपतियों की संख्या
1990 में अगर आय को देखें तो शीर्ष 10 फीसदी के पास राष्ट्रीय आय का 34.4 फीसद हिस्सा था और 50 फीसद निम्न तबके की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में महज 20.3 फीसद थी। 2018 में सबसे अमीर लोगों के लिए यह हिस्सेदारी बढक़र 57.1 फीसद हो गई जबकि गरीबों के लिए ये घटकर 13.1 फीसदी रह गई।
उसके बाद भी, ऑक्सफेम रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड महामारी के दौरान भी अमीर लोगों की संपत्ति बढ़ती गई।
20 महीने में 23 लाख करोड़
2017 में सबसे अमीर 10 फीसद लोगों के पास 77 फीसद राष्ट्रीय संपत्ति थी। सबसे अमीर एक फीसद लोगों के बाद राष्ट्रीय संपत्ति का 58 प्रतिशत हिस्सा मौजूद था।
ऑक्सफैम के आंकड़ों के मुताबिक शीर्ष 100 अरबपतियों के पास 2021 में 57.3 लाख करोड़ की संपत्ति आंकी गई थी। जबकि कोविड महामारी के दौरान (मार्च 2020 से नवंबर 2021 तक) भारत में अरबपतियों बढक़र 23.14 लाख करोड़ हो गई थी।
भारत की कामयाबी या आर्थिक समृद्धि की कहानी को, गरीबी में कमी और असमानता में बढ़ोतरी के दो विपरीत तथ्यों के बीच देखना चाहिए।
बात सरहद पार
दो देश, दो शख्सियतें और ढेर सारी बातें। आजादी और बँटवारे के 75 साल। सीमा पार संवाद।
भारत उन देशों में से है जहां असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या ज़्यादा है। संगठित क्षेत्र में भी, वेतन का अंतर अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में अपर्याप्त वेतन, वेतन का अंतर, काम करने की परिस्थितियां और गैरसमावेशी बढ़ोत्तरी को भारत के लिए बड़ी चुनौती माना है। आईएलओ के अलावा, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन ने भी अपने एक शोध पत्र में इन मुद्दों की ओर रेखांकित किया है।
कुछ संगठनों में, सीईओ की पगार करोड़ों मे है, वहीं कर्मचारी 15 हजार रुपये प्रति महीने का वेतन पा रहे हैं। कुछ निजी कंपनियों में वेतन का अंतराल 1000 फीसदी से ज्यादा का है।
अगर बड़े देशों को देखें तो उनमें वेतन में अंतर के मामलों में भारत सूची में सबसे ऊपर है। इससे भी असमानता और बढ़ रही है।
इतिहास बताता है कि पूंजीवाद जितनी तरक्की करता है, विशेषज्ञता बढ़ती है। प्रौद्यगिकी के इस्तेमाल से कुशल और अकुशल श्रम में अंतर भी बढ़ जाता है। कुशल कर्मचारियों के लिए प्रीमियम भुगतान, वेतन के अंतर को बढ़ा देता है। ये याद रखना होगा कि उपरोक्त कारकों को पैमाना मानें भी तो भी वेतन का अंतर, विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले, भारत में असामान्य ढंग से ज्यादा है।
इसी तरह, संपत्ति वितरण के मापदंड के रूप में ज्ञात गिनी गुणांक को रखें तो 2011 में 35.7 था। 2018 में ये बढक़र 47.9 हो गया। पूरी दुनिया में, खासतौर पर बड़े बाजारों के बीच, जब अत्यधिक असमानता की बात आती है तो भारत का नाम सूची में सबसे ऊपर आता है।
आय की असमानता
वल्र्ड इनइक्वेलिटी डाटाबेस (डब्लूआईडी) के मुताबिक 1995 से 2021 के दौरान सबसे अमीर एक फीसद लोग और निम्न तबके के 50 फीसद लोगों के बीच आमदनी का अंतर बढ़ा है।
नीचे दिए गए ग्रॉफिक्स में 1995 से 2021 के दरम्यान अमीर 1 फीसदी और निचले तबके के 50 फीसदी के बीच आय के बढ़ते अंतर को दर्शाया गया है। लाल रेखा अमीर 1 फीसदी और नीली रेखा निम्न तबके के 50 फीसदी को दर्शाती है। ये ग्राफ बीते 20 वर्षों के दौरान इन दोनों वर्गों के बीच बढ़ती आय की असमानता को दर्शाता है।
अमीर और निम्न वर्गों की आय में बीच बढ़ता फासला
जाने माने अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भी भारत में बढ़ती असमानता की चर्चा की है। जब सबसे अमीर 10 फीसद की आय को लेते हैं, तो भारत में असमानता 2015 के रूस और अमेरिका के मुकाबले ज़्यादा दिखती है। गरीबी की तरह, असमानता भी एक सामाजिक बुराई है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में संपत्ति बढऩे के साथ साथ असमानताएं भी बढ़ी थीं और दोनों के बीच एक अकाट्य या अपरिहार्य रिश्ता है।
भारत में कई विश्लेषक अपनी सुविधा से आंकड़े चुनते हैं, अपना नज़रिया आगे बढ़ाकर पेश करते हैं और दूसरे मुद्दों को पीछे कर देते हैं। हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जो ये सुनिश्चित करना नहीं भूलते कि वे मुद्दे बिल्कुल भी सुनाई न दें।
सरकार इस पर बात कर रही है लेकिन, तब भी पूरी तस्वीर उभर कर नहीं आती है। वास्तव में भारत सरकार चौथी पंचवर्षीय योजना से लेकर 2020-21 के आर्थिक सर्वे तक हर संभव स्थिति में बढ़ती असमानता की चर्चा करती आई है।
1969-74 की चौथी पंचवर्षीय योजना ने ऐलान किया था, ‘विकास का मुख्य मापदंड निजी स्तर पर लोगों को फ़ायदा पहुंचाना नहीं है। विकास की यात्रा समानता की ओर होनी चाहिए।’
2020-21 की आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट, अरस्तू के इस कथन से शुरू होती है कि ‘गरीबी, क्रांति और अपराध की जननी है।’ इस रिपोर्ट में, विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के असमानता पर किए काम पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है।
हालांकि रिपोर्ट का नतीजा ये था कि संपत्ति में वृद्धि के साथ गरीबी में कमी आती है और इस अवस्था में बढ़ती हुई संपत्ति, असमानता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इससे ये दिखता है कि भारत किस दिशा की ओर बढ़ रहा है।
प्रथम पंचवर्षीय योजना का मानना था कि तात्कालिक तौर पर पर्याप्त संपदा उपलब्ध नहीं है, और उसे फिर से बांटने का मतलब, फिर से गरीबी बांटना ही होगा, लिहाजा, फोकस संपत्ति बढ़ाने पर होना चाहिए। 75 साल बाद, जब भारत का संपन्न वर्ग दुनिया के टॉप-10 अरबपतियों के बीच अपनी राह बना चुका है तो भी भारत वही पुरानी लकीर पीट रहा है।
अगर हम 1936 से, जब मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने औद्योगिक नीति का प्रस्ताव रखा था, तबसे लेकर 2020-21 के आर्थिक सर्वे तक, भारत की औद्योगिक यात्रा पर निगाह डालें तो हम देखते हैं कि ये तमाम चीजें संपत्ति के असमान वितरण की ओर संकेत करती हैं।
इस यात्रा का दूसरा हिस्सा गरीबी को कम करने पर रहा लेकिन इससे गांव से शहरों की ओर जबरन पलायन देखने को मिला और ये लोग शहर में आकर महज उपभोक्ता के तौर पर बदल गए।
आर्थिक सुधारों की वकालत करने वाले कुछ लोगों का मानना है कि प्रतिस्पर्धा में कमी की वजह से भारत ने अतीत में तकलीफें भुगतीं। 1990 के दशक से पहल हर चीज़ राज्य के नियंत्रण में थी। वे इस बात की आलोचना भी करते हैं कि भारत समाजवादी मॉडल की वजह से एक हाशिये की ताकत ही बना रहा।
उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि नेहरू और इंदिरा गांधी की नीतियों ने देश की वृद्धि को बाधित किया। और पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की नीतियों की बदौलत भारत उन जंजीरो को तोड़ पाया और आज जो संपदा हम देख रहे हैं वे इन दोनों के उठाए कदमों की बदौलत हैं।
ये सच है कि पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी सुधारों को गति देने वाले इंजिन की तरह रहीं। लेकिन हमें इससे आगे जाकर प्रक्रिया को देखना चाहिए। सुधारों की ओर उनके उन्मुख होने के पीछे भी एक ऐतिहासिक रूप से क्रमिक विकास था, वो एक प्रक्रिया थी, महज कोई छलांग नहीं थी।
वो उस दौर के उद्योगपति थे जो कहते थे कि प्रतिस्पर्धा की जरूरत नहीं है। भारत के उद्योगपतियों ने ही पहली बार प्रतिस्पर्धा का विरोध किया था और सरकार से घरेलू उद्योगों को बचाने की गुहार लगाई थी। शुरुआती चरण में उद्योगपतियों ने गुजारिश की थी कि सरकार का नियमन, नियंत्रण होना चाहिए, और विदेशी उद्योगों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए।
ये सिर्फ नेहरू का ख्याली पुलाव नहीं था। जब हम आज़ादी के मुहाने पर थे, तब जेआरडी टाटा की अगुवाई में उद्योगपतियों की 9 सदस्यों की टीम ने 1944-45 के दौरान बॉम्बे प्लान तैयार किया था। ये प्लान हमें बताता है कि उस दौर के उद्योगपतियों की सोच क्या थी।
प्रतिस्पर्धा के मामले में उद्योगपतियों ने इस बात पर जोर दिया था कि विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रह पाने की भारत की क्षमता नहीं और नियमन और नियंत्रण बने रहने चाहिए। वे न सिर्फ विदेशी निवेशों के खिलाफ थे, बल्कि सरकार से मदद मांग रहे थे। बॉम्बे समूह ने यहां तक कह दिया था कि घरेलू देसी उद्योग में जान फूंकने के लिए राज्य को पैसा लगाना चाहिए।
लेकिन लायसेंसिंग और नियंत्रण से जुड़ी नीतियां एकाधिकार की ओर ले गईं। एकाधिकार जांच समिति ने खुद इस बात की तस्दीक की थी।
एकाधिकार की वजह से ही क्षमता का विकास नहीं हो सकता था और लोगों को रोजमर्रा के उपभोक्ता सामान के लिए कतारों में खड़ा रहना पड़ता था। चाहे वो संसाधन हों, या ज़रूरत के सामान हों, लैंडलाइन फोन हों या स्कूटर या कुछ भी, हर चीज किसी न किसी चीज़ के एकाधिकार की शिकार थी।
सरकार सबसे बड़ी पूंजीपति है और पूंजीवादियों की पोषक है।
सरकारी पैसों से भारतीय पूंजीपतियों की मदद, आजाद भारत के इतिहास में होता आया है। 1955-56 में संसद में नेहरू का भाषण इसी औद्योगिक नीति के इर्द-गिर्द केंद्रित था।
रूस और चीन की तरह, यहां भी, इस्पात के उत्पादन पर ध्यान दिया गया था। पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं में इस बात पर जोर दिया गया था कि अगर देश को विकास करना है तो सार्वजनिक और निजी सेक्टरों को काम करना होगा और सरकार को इसमें मुख्य भूमिका निभानी होगी।
शुरुआत में ये ही महसूस कर लिया गया था कि पूंजी के विस्तार में राज्य की भूमिका बहुत अहम है और राज्य ही सबसे बड़ा पूंजीपति और पूंजीपतियों की पोषक है।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में लिखा गया कि अगर निजी सेक्टर बड़े उद्योग स्थापित करने की लागत वहन नहीं कर सकता है तो राज्य को ये ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ेगी।
पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि को अहमियत दी गई थी, लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना में उस जगह पर उद्योग ने कब्जा कर लिया।
पहली पंचवर्षीय योजना ने खाद्यान्न के आयात की ज़रूरत से निपटने और सरप्लस की हद तक वृद्धि करने के लक्ष्य का ऐलान किया था। विश्व भर के अनुभव हमें बताते हैं कि सरप्लस की स्थिति नयी पूंजी और पूंजीपतियों का निर्माण करते हैं। भारत में भी यही हुआ।
सामाजिक और क्षेत्रीय असमानताएं
भारत ने 80 के दशक में खाद्यान्न की कमी से निजात पा ली थी। आज वो खाद्यान्न का निर्यातक है। इस परिवर्तन में हरित क्रांति का अहम रोल था। उसके साथ, विभिन्न कृषि जातियों से पूंजीपतियों के नये वर्ग का उदय हुआ था।
आंध्र प्रदेश से कम्मा और रेड्डी जातियों का उदय इसकी एक मिसाल है। हरियाण और पंजाब के जाट और सिख व्यापारी बन गए। लिहाजा इस विकास ने कुछ जातियों में और ज़्यादा संपत्ति को फिर से वितरित कर दिया। सामाजिक असमानता यहीं पर उभरीं। शहर केंद्रित विकास मॉडल के चलते, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य औद्योगिकीकरण में पीछे रह गए। उसी दौरान तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्य आगे बढ़ निकले।
आजादी के समय, बिहार और पश्चिम बंगाल, बम्बई की तरह समान रूप से औद्योगिक थे। लेकिन आज वो पीछे रह गए हैं। ये वो बदलाव है कि जो आज आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी दिखता है।
दलील दी जाती है कि पश्चिम बंगाल के पास भले ही कोलकाता जैसा महानगर है, लेकिन भूमि सुधारों पर सख्ती से अमल करने और कृषि सरप्लस के निजी पूंजी के रूप में जमा नहीं होने से वो आज औद्योगिक रूप से पिछड़ा हुआ है।
इसी दौरान, दूसरे पक्ष का कहना है कि पश्चिम बंगाल जैसी जगह में पूंजीवादियों को अपने क़दम पीछे करने पड़े जहां काम की अच्छी स्थितियां और बेहतर पगार जैसी मांगों के लिए जगह बन चुकी थी, और इसकी वजह थी अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता। पश्चिम बंगाल आज भी कई लोगों के लिए एक केस स्टडी है।
अभाव से प्रचुरता तक
1960 के दशक में, भारत में भोजन की कमी थी और अमेरिका के आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। आज, स्थिति ये है कि खाद्यान्न इतना ज़्यादा है कि उसका क्या करें ये स्पष्ट नहीं है। हरित क्रांति और उसके बाद की प्रक्रियाओं की वजह से ये हालात बने थे।
मालूम था कि पूंजी, कृषि उपज की अधिकता से मिली है, फिर भी राज्य एक जरूरी शुरुआती चरण में उसके हित के लिए जरूरी पर्यावरण देने में नाकाम रहा।
कृषि में पैदावार के पिछड़े तरीक़ों की वजह से अधिक उत्पादन एक बड़ा अवरोध बन गया था। आज, पैदावार योग्य भूमि घट रही है लेकिन उत्पादन बढ़ रहा है। ये एक अहम बदलाव है।
लाल बहादुर शास्त्री ने हरित क्रांति की शुरुआत की थी और इंदिरा गांधी ने उसे जारी रखा। वो हरित क्रांति और उससे प्रेरित कृषि प्रौद्योगिक बदलावों ने उन बहुत सारे बदलावों की नींव रखी थी जिन्हें हम आज देख रहे हैं।
उस दौरान, नेहरू की दूरदर्शिता की बदौलत बनाए गए बांध, बड़े काम आए थे। आर्थिक प्रणाली वित्तीय अभाव से प्रचुरता की ओर उन्मुख हुई। नये पूंजीपति परिदृश्य में उभर आए। ख़ासकर उन इलाकों और जातियों में जिन्हें हरित क्रांति से लाभ हुआ था।
ये संयोग नहीं है कि आंध्रप्रदेश में चाहे कोई भी सेक्टर हो- दवा, सिनेमा, मीडिया आदि-अधिकांश सेक्टरों पर उन लोगों का स्वामित्व है जो हरित क्रांति से लाभ हासिल करने वाले इलाकों से आते थे।
दुनिया भर में उदाहरण हैं जहां औद्योगिक पूंजी और उद्योगपति कृषि क्षेत्र से उभर कर आए हैं। लेकिन भारत को पूंजी के विस्तार में मददगार कृषि सरप्लस में वृद्धि के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा था। उसी दौरान, बैंकिंग की आम लोगों तक पहुंच होने से लोगों की जमा पूंजी बढऩे लगी थी।
पूंजीपतियों को उदारतापूर्वक कर्ज़ देने के लिए सरकार को टैक्स के ज़रिए भी मदद मिल रही थी। इस प्रक्रिया के दौरान, भारी कर्ज लेने और उसे न चुकाने की प्रवृत्ति भी शुरू हो गई थी।
चीन के मुकाबले 12 साल की देरी
चीन में 1978 मे सुधार शुरू हो गए थे। उसी दौरान भारत में उन पर विचार होना ही शुरू हुआ था। इंदिरा गांधी दूसरी बार सत्ता में आई तो उसका आगाज हुआ। उनकी अचानक मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने उसे आगे बढ़ाने की कोशिश की थी।
लेकिन उस दौरान के राजनीतिक बवंडरों की बदौलत उनकी कोशिशों उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं रही थी। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में आर्थिक सुधार 12 साल की देरी से शुरू हुए थे।
1991 में भुगतान संकट के दौरान सोने को गिरवी रखने के घटनाक्रम ने सुधारों को अवश्यंभावी बना दिया। तत्पश्चात पीवी नरसिम्हाराव, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शर्तों पर सहमत हो गए और उन्होंने सुधारों की शुरुआत कर दी। मनमोहन सिंह जैसे काबिल अर्थशास्त्री की अगुवाई में सुधारों ने रफ्तार पकड़ ली।
औद्योगिकीकरण के तीन चरण
पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की भूमिका को समझते हुए भी ये ध्यान रखना चाहिए कि इन सुधारों के पीछे एक ऐतिहासिक प्रक्रिया था।
शुरुआत में औद्योगिक सेक्टर सरकार के नियंत्रण में था। अगले चरण में, ये पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी थी। आखिरी चरण में, यानी की मौजूदा अवस्था में, निजी सेक्टर प्रमुख भूमिका निभा रहा है।
ये तीनों चरण भारतीय औद्योगिक सेक्टर और आर्थिक वृद्धि की यात्रा में साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। ये भी स्पष्ट होता है कि ये तीनों चरण क्रमवार रहे हैं और निजी पूंजीपतियों को तैयार कर, राज्य धीरे-धीरे कई सेक्टरों से दूर हटा है।
कुल मिलाकर, सुधारों से जो तरक्की हासिल हुई है और जो संपत्ति इस तरक्की से पैदा हुई है, उसे रेखांकित करते हुए गऱीबी को कम करने में भी उनकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन उसी दौरान ये भी नहीं भूलना चाहिए कि असमानताएं बहुत ख़तरनाक तेजी के साथ बढ़ती जा रही हैं।
सरकार की रिपोर्ट ने खुद ये संकेत दिया है कि ‘गरीबी क्रांति और अपराध की जननी है’ तो जाहिर तौर पर सरकार को ही, बढ़ती असमानताओं पर लगाम लगाने की हर मुमकिन कोशिश करनी होगी। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने कमाल की बहादुरी दिखाई है। इमरान ने सलमान रश्दी पर हमले की निंदा जिन शब्दों में की है, क्या भारत और पाकिस्तान के किसी नेता में इतना दम है कि वह भी उस हमले की वैसा निंदा करे? इमरान के इस बयान ने उनको दक्षिण एशिया ही नहीं, सारे पश्चिम एशिया का भी बड़ा नेता बना दिया है।
इमरान खान ने लंदन के अखबार ‘गार्जियन’ को दी गई भेंटवार्ता में दो-टूक शब्दों में कह दिया कि रश्दी पर जो हमला हुआ वह ‘अत्यंत भयंकर और दुखद’ था। उन्होंने यह भी कहा कि सलमान रश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेस’ पर मुस्लिम जगत का गुस्सा बिल्कुल जायज है लेकिन भारत में पैदा हुए इस मुस्लिम लेखक पर जानलेवा हमला करना अनुचित है। पैगंबर मोहम्मद के लिए हर मुसलमान के दिल में कितनी श्रद्धा है, यह बात रश्दी को पता है। इसके बावजूद उसने ऐसी किताब लिख मारी।
इमरान ने अपने इसी नजरिए के कारण 10 साल पहले भारत में हुए एक लेखक सम्मेलन में भाग लेने से मना कर दिया था, जिसमें रश्दी भाग लेने वाला था। लेकिन इस बार अमेरिका में चल रहे एक सम्मेलन में जब लेबनान में पैदा हुए एक मुस्लिम नौजवान ने रश्दी पर जानलेवा हमला कर दिया तो दक्षिण, मध्य और पश्चिम एशिया के नामी-गिरानी नेताओं को सांप सूंघ गया। वे डर गए कि उनकी हालत भी कहीं सलमान रश्दी जैसी न हो जाए। भारत के बड़े-बड़े सीनों वाले नेताओं की भी छातियां सिकुड़ गईं।
उन्हें भी डर लगा कि उनके साथ भी कहीं वैसा ही न हो जाए, जो नुपुर शर्मा के नाम पर हुआ है। लेकिन इमरान ने सिद्ध किया कि वह मुसलमान तो पक्का है लेकिन वह पूरा पठान भी है। वह सच बोले बिना रह नहीं सकता। जिस ईरान ने सलमान रश्दी की हत्या का फतवा 1989 में जारी किया था, उसका रवैया पहले के मुकाबले इस बार थोड़ा नरम था लेकिन उसमें भी हिम्मत नहीं थी कि वह इमरान की तरह दूध का दूध और पानी का पानी कर दे।
इमरान खान ऐसे अकेले पाकिस्तान के बड़े नेता हैं, जो तालिबान से खुले-आम कह रहे हैं कि वे अफगान औरतों का सम्मान करें। लेकिन इमरान ने पिछले साल यह भी कहा था कि पश्चिमी राष्ट्र तालिबान को अपनी जीवन-पद्धति का अनुकरण करने के लिए मजबूर न करें। तालिबान ने गुलामी का जुआ उतार फेंका है याने अमेरिकियों को अफगानिस्तान से मार भगाया है। इमरान के रश्दी और तालिबान पर दिए गए बयानों से क्या पता चलता है?
क्या यह नहीं कि इमरान मध्यम मार्ग अपना रहे हैं? एक ऐसा मार्ग, जिससे सत्य की रक्षा भी हो और कोई उससे आहत भी न हो। यही मार्ग असली भारतीय मार्ग है, जिसे गौतम बुद्ध ने भी प्रतिपादित किया था। संकीर्ण और सांप्रदायिक लोगों को यह बयान इमरान के लिए घाटे का सौदा लगेगा लेकिन इस बयान ने इस्लाम और पाकिस्तान की छवि को चमकाने का काम किया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
भारतीय संगीत के युगपुरूष, शहनाई के जादूगर, भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां देश के कुछ सबसे सम्मानित संगीत व्यक्तित्वों में एक हैं। यह दिलचस्प है कि उस्ताद ख़ुद अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद रहे थे। उनमें से पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाया करते थे। रास्ते में रसूलन बाई का कोठा पड़ता था। कोठे के साथ एक बदनामी जुड़ी होती है, फिर भी वे बड़े भाई से छुपकर कभी-कभी कोठे पर पहुंच जाते थे। जब रसूलन गाती थीं तो वे एक कोने में खड़े मुग्ध होकर उन्हें सुनते रहते थे। रसूलन की खनकदार आवाज़ में ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की की बारीकियां सीखी थीं। एक दिन जब भाई ने उनकी चोरी पकड़ ली और कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज़ होता है तो उस्ताद का जवाब था - 'दिल से निकली आवाज़ में क्या नापाक होता होगा भला ?' उस्ताद जीवन भर रसूलन बाई को बहुत संम्मान के साथ याद करते रहे थे।
लता मंगेशकर उनकी दूसरी प्रिय गायिका थी। उन्हें तो वे देवी सरस्वती का साक्षात रूप ही कहते थे और मानते थे कि अगर देवी सरस्वती होंगी तो वे लता जैसी ही सुरीली होंगी। उन्होंने लता के गायन में त्रुटियां निकालने की उन्होंने बहुत कोशिशें की, लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे तो लता जी के बहुत सारे गीत उन्हें पसंद थे, लेकिन उनका एक गीत 'हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना, दुनिया बड़ी बेईमान' वे अकेलेपन में अक्सर गुनगुनाया करते थे।
बेगम अख्तर उनकी तीसरी पसंदीदा गायिका थीं। बेग़म की गायिकी को वे उनके एक ख़ास ऐब के लिए पसंद करते थे। एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने उन्हें चौंकाया था। ग़ज़ल थी- 'दीवाना बनाना है तो, दीवाना बना दे' और आवाज़ थी बेगम अख्तर की। वह आवाज़ उनके दिल में उतर गई। कमी यह थी कि ऊंचे स्वर पर जाकर बेगम की आवाज़ अक्सर टूट जाया करती थी। संगीत की दुनिया में इसे एक ऐब समझा जाता है,लेकिन उस्ताद को बेगम का यही ऐब भा गया था। बेगम को सुनते वक़्त उन्हें उसी ऐब वाले लम्हे का इंतज़ार होता था। वह लम्हा आते ही उनके मुंह से बरबस निकल जाता था - माशाअल्लाह !
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन !