विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के बीच जिनीवा में हुई मुलाकात का सिर्फ इन दो महाशक्तियों के लिए ही महत्व नहीं है, विश्व राजनीति की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण घटना है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पूतिन के बीच पहले से चल रही सांठ—गांठ के किस्से काफी मशहूर हो चुके थे और जब वे 2018 में हेलसिंकी में मिले थे तो उनकी भेंट का माहौल काफी गर्म था लेकिन इस बार बाइडन और पूतिन, दोनों ही मिलने के पहले काफी सावधान और संकोचग्रस्त थे। इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि दोनों नेताओं की भेंट काफी सकारात्मक रही। पहला काम तो यही हुआ कि दोनों देशों ने अपने राजदूतों को एक दूसरे की राजधानी में वापस भेजने की घोषणा कर दी है। दोनों देशों ने अपने-अपने राजदूतों को वापस बुला लिया था, क्योंकि बाइडन ने पूतिन के लिए 'हत्याराÓ शब्द का इस्तेमाल कर दिया था। इस भेंट में भी बाइडन ने रुस के विपक्षी नेता ऐलेक्सी नवाल्नी के बारे में कड़ा रुख अपनाया और उन्होंने पत्रकारों से कह डाला कि जेल में पड़े हुए नवाल्नी की हत्या हो गई तो उसके परिणाम भयंकर होंगे। मेरी राय में यह अतिवादी प्रतिक्रिया है। किसी भी देश के अंदरुनी मामलों में आप अपनी राय जरुर जाहिर कर सकते हैं, लेकिन उनमें टांग अड़ाने की कोशिश कहां तक ठीक है ?
दोनों नेताओं ने कई परमाणु शस्त्र-नियंत्रण संधि और साइबर हमलों को रोकने पर भी विचार करने का संकल्प किया। ऊक्रेन के पूर्वी सीमांत पर रुसी फौजों के जमावड़े और साइबर हमलों के लिए कुछ रूसियों को जिम्मेदार ठहराने के अमेरिकी रवैए को भी पूतिन ने रद्द कर दिया, लेकिन इन असहमतियों के बावजूद दोनों नेताओं के बीच चार घंटे तक जो संवाद हुआ, उसमें कहीं भी कोई कहा-सुनी नहीं हुई और नेताओं ने बाद में पत्रकारों से जो बात की, उसके आधार पर माना जा सकता है कि दोनों विश्वशक्तियों के बीच सार्थक संवाद का शुभारंभ हो गया है। दोनों ही नेता इस भेंट से कोई खास उम्मीद नहीं कर रहे थे, लेकिन इस भेंट ने दोनों के बीच अब संवाद के दरवाजे खोल दिए हैं।
बाइडन का यह कथन ध्यातव्य है कि वे रुस के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन वे अमेरिकी जनता के हितों के पक्ष में हैं। पूतिन को 'हत्याराÓ कहने के बावजूद बाइडन उनसे मिलने को तैयार हो गए, इसके पीछे मूल कारण मुझे चीन लगता है। अमेरिका चीन से बहुत चिढ़ा हुआ है। वह दो-दो महाशक्तियों को अपने विरुद्ध एक कैसे होने देगा? अभी यदि शीतयुद्ध के माहौल को लौटने से रोकना है तो रुस-अमेरिकी संबंधों का सहज होना बहुत जरुरी है। कोई आश्चर्य नहीं कि बाइडन और शी चिन फिंग के पुराने परिचय के बावजूद यह बाइडन-पूतिन संवाद अंतराष्ट्रीय राजनीति में एक नई लकीर खींचने का काम कर डाले। भारत के लिए भी यह लाभकर रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
ग़ैर-भाजपाई विचारधारा वाले दलों से चुनिंदा नेताओं को भाजपा में शामिल कर विपक्षी सरकारों को गिराने या चुनाव जीतने की कोशिशों पर जताई जाने वाली नाराजग़ी और नजरिए में थोड़ा सा बदलाव कर लिया जाए तो जो चल रहा है उसे बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी में सरकार के स्थायित्व को लेकर इन दिनों जैसी राजनीतिक हलचल दिखाई पड़ रही है वैसी पहले कभी नहीं दिखाई दी। अटलजी भी अगर दल-बदल करवाकर पार्टी के सत्ता में बने रहने के मोदी-फॉर्मूले पर काम कर लेते तो 2004 में उनकी सरकार न सिर्फ फिर से क़ायम हो जाती, दस साल और बनी रहती।
नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं माना जा रहा है कि भाजपा में दूसरे दलों से उन तमाम प्रतिभाओं की भर्ती की जा रही है जो पार्टी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि, उसकी साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति और रणनीति के सार्वजनिक तौर पर निर्मम आलोचक रहे हैं। पिछले कुछ सालों में (2014 के बाद से) मनुवाद-विरोधी बसपा, सम्प्रदायवाद-विरोधी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित तमाम दलों के बहुतेरे लोगों के लिए भाजपा के दरवाजे खोल दिए गए और उनके गले में केसरिया दुपट्टे लटका दिए गए। हाल ही में भाजपा में शामिल होने वालों में कांग्रेस के जितिन प्रसाद को गिनाया जा सकता है। सचिन पायलट रास्ते में हो सकते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य (बसपा), ज्योतिरादित्य सिंधिया (कांग्रेस), शुभेंदु अधिकारी (तृणमूल कांग्रेस ), आदि की कहानियाँ अब पुरानी पड़ गईं हैं। बदलती हुई स्थितियों में राजनीतिक धर्म-परिवर्तन की इन तमाम घटनाओं को भगवा चश्मों से देखना स्थगित कर कोरी आँखों से देखने का अभ्यास शुरू कर दिया जाना चाहिए।
हो यह रहा है कि बहती हुई लाशों के चित्रों को देख-देखकर शोक मनाते रहने की व्यस्तता में हम दूसरी महत्वपूर्ण घटनाओं को अपनी आँखों की पुतलियों के सामने तैरते रहने के बावजूद नहीं देख पा रहे हैं। साथ ही यह भी कि कुछ ऐसे कामों, जिनमें अपनी जान बचाना भी शामिल हो गया है, में हम इस कदर जोत दिए गए हैं कि हमें होश ही नहीं रहेगा और किसी दिन राष्ट्र के नाम एक भावुक सम्बोधन मात्र से नागरिकों की जि़ंदगी की दशा और देश की दिशा बदल दी जाएगी। टीका केवल कोरोना महामारी से बचने का ही लगाया जा रहा है, राजनीतिक पोलियो से बचाव का नहीं।
इस समय सत्ता में बैठे तमाम लोगों को एक साथ दो मोर्चों पर लडऩा पड़ रहा है। यह अभूतपूर्व स्थिति आजादी के बाद पहली बार उपस्थित हुई है। पहला मोर्चा यह है कि देश में प्रजातंत्र के ऑक्सीजन की लगातार होती कमी के कारण हम दुनिया की उस बिरादरी में अछूत माने जा रहे हैं जहां लोगों को खुले में साँस लेने की सुविधा और अधिकार प्राप्त है। इस सवाल पर दुनिया की प्रजातांत्रिक हुकूमतें सरकार के विरोध और स्पष्टीकरण के बावजूद उसे लगातार कठघरों में खड़ा कर रही है।अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर मानव संसाधनों और स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से पायदान-दर-पायदान नीचे गिरते जा रहे हैं। उसकी शर्म से विदेशों में बसने वाले अप्रवासी भारतीय नागरिकों के सिर झुकते जा रहे हैं। हो सकता है प्रधानमंत्री एक लम्बे समय तक ह्यूस्टन जैसी किसी रैली में यह नहीं कह पाएँ कि ‘आल इज वेल इन इंडिया।’
सत्ताधीशों की परेशानी का दूसरा बड़ा मोर्चा यह है कि हिंदुत्व के कट्टरवाद की बुनियाद पर नागरिकों के साम्प्रदायिक विभाजन को वोटों में बदलने का मानसून अब कमजोर पड़ता जा रहा है। इसे यूँ समझ जा सकता है कि हाल के विधानसभा चुनावों तक स्टार प्रचारक के तौर पर माथों पर तोके जा रहे आदित्यनाथ योगी को बंगाल और उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में पार्टी को धक्का लगते ही बदलने की चर्चाएँ चलने लगीं।
महामारी ने जिस तरह से बिना कोई आधार कार्ड मांगे सभी धर्मों और सम्प्रदायों के प्राणियों को नदियों की लहरों पर उछलती-डूबती लाशों की गठरियों या राख के ढेरों में बदल दिया है उसकी सबसे बड़ी चोट हिंदुत्व के चुनावी एजेंडे पर पड़ी है। महामारी के साथ लोहा लेने में जर्जर जर्जर साबित हुई व्यवस्था ने संकुचित राष्ट्रवाद के नारों से लोगों के जीवन, रोजग़ार और घरों को बचा पाने की निरर्थकता को कमोबेश बेनकाब कर दिया है। मौतों के वास्तविक आँकड़ों में हुई हेराफेरी और पारस्परिक विश्वास में किए गए गबन ने सत्ता के शीर्ष पुरुषों के प्रति यकीन को खंडित कर उनकी लोकप्रियता के अहंकार को अड़तीस प्रतिशत तक सीमित कर दिया है। जनता की समझ में अब आने लगा है कि उनकी समस्याओं के राष्ट्रवादी कोरोनिली इलाज का रास्ता ‘ब्लू व्हेल चैलेंज’ का खेल है जिसमें व्यक्ति संकट की घड़ी में अपने सत्ता-पुरुषों की तलाश करता हुआ अंत में आत्महंता बन जाता है।
विभिन्न दलों की सर्वगुण सम्पन्न प्रतिभाओं के भाजपा में-प्रवेश को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि पार्टी अपने अश्वमेघ यज्ञ का अधूरी विजय-यात्रा में ही समापन होते देख भयभीत हो रही है। भाजपा अब अपनी आगे की यात्रा सिफऱ् पुरानी भाजपा के भरोसे नहीं कर सकती ! उसे अपनी पुरानी चालों और पुराने चेहरों को बदलना पड़ेगा। चेहरे चाहे किसी योगी के हों या साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह , साध्वी प्राची, प्रज्ञा ठाकुर या उमा भारती के हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राजनीति में सत्ता का बचे रहना जरूरी है, व्यक्तियों का महत्व उनकी तात्कालिक जरूरत के हिसाब से निर्धारित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री को दुनिया की महाशक्तियों का नेतृत्व करना है और उसके लिए अब नए फ्रंटलाइन चेहरों और, चाहे दिखावटी तौर पर ही सही, बदले हुए पार्टी एजेंडे की जरूरत है।
जो कुछ चल रहा है उसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि बिना प्रजातांत्रिक हुए भी मोदी तो भाजपा को बदल रहे हैं पर राहुल गांधी कांग्रेस को, मायावती और अखिलेश यादव बसपा-सपा को, ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस को और उद्धव ठाकरे शिव सेना को अपने परिवारों की पकड़ से मुक्त करने को कोई जोखिम नहीं ले रहे हैं। यह काम काफी रिस्क लेने जैसा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया, शुभेंदु अधिकारी, हेमंत बिस्व सरमा, जितिन प्रसाद, ,स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा आदि बाहरी व्यक्तियों को पार्टी के तपे-तपाए और वर्षों से दरियाँ बिछा रहे पार्टी नेताओं को हाशियों पर धकेलते हुए महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सौंपने का सोचा जाए। यह देखना अवश्य बाकी रह जाएगा कि क्या ये नए लोग चाल और चेहरों के अलावा भाजपा का ‘ओरिजनल’ चरित्र भी बदल पाएँगे! वैसे जो लोग कांग्रेस आदि दलों को छोडक़र भाजपा में शामिल हो रहे हैं वे भी तो कुछ सोच रहे होंगे कि अब किस तरह की तानाशाही में आगे का वक्त बिताना उनकी ढलती हुई उम्र और राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से ज़्यादा फायदे का सौदा रहेगा ।
-कनुप्रिया
रोनाल्डो कोई पूँजीवाद विरोधी या समाज सुधारक नहीं हैं, एक ज़बरदस्त खिलाड़ी हैं, अपने खेल के लिए समर्पित हैं, सेलिब्रिटी है, उसके द्वारा विज्ञापन किए जाने वाले प्रोडक्ट्स की सूची इतनी लंबी है कि वो पार्ट टाइम मॉडल ही कहलाया जाए। संभव हैं उनमे व्यक्तिगत दोष हों और कल को ऐसे मामले में फँस जाएँ (जिसकी पॉसिबिलिटी मुझे अब और ज़्यादा लगती है) कि लोग कहें उन्हें हीरो बनाने में जल्दी की।
संभव है वो हीरो बनाने लायक न ही हों, मगर कल का उनका एक्ट तो वीर रस ही था।
कहीं पढा कि उन्हें सॉफ्ट ड्रिंक्स पसंद ही नहीं, जब उनके बच्चे सॉफ्ट ड्रिंक पीते हैं तो वो उन्हें मना करते हैं। कोका कोला कम्पनी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि सबकी अपनी पसंद होती है कि वो कौनसा ड्रिंक पिएँ या नही, मगर रोनाल्डो के लिये यह पसन्द से ज्यादा स्वास्थ्य का मामला है और वो इन कोल्ड ड्रिंक्स को स्वास्थ्य के लिये ठीक नही मानते।
रोनाल्डो चाहते तो अपने विचार को अपने घर तक सीमित रखते, या किसी इंटरव्यू में व्यक्तिगत विचार की तरह कह देते, वो चाहते तो कोक का विज्ञापन करने से मना भर कर देते मगर उन्होंने अपने दोषसिद्धि के लिए सरे आम प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्टैंड लिया और कोक को हटाकर पानी पीने की सलाह दी, उस कोक को जो यूरो कप का स्पॉन्सर है जिसमे वो खेल रहे हैं।
सेलिब्रिटीज़ की ताक़त उनके फ़ॉलोअर्स होते हैं, उनकी सामाजिक प्रभाव शक्ति होती है, जिस पावर को कम्पनियाँ अपने हित मे इस्तेमाल करती हैं और सेलिब्रिटीज के हितों का खयाल रखती हैं, मगर हमारे यहाँ जिस तरह वो अम्बानी की शादी में लाइन से बैठे नजर आते हैं और देश की हर आपदा स्थिति में चुप्पी साधने के बाद ट्वीट कर कर के किसान आंदोलन को देश का आंतरिक मामला बताते हैं, साफ है कि उनकी ताकत बस जनता को प्रभाव करने तक सीमित है। इससे ज़्यादा स्टैंड वो ले नही सकते। वो घर में चाहे कोई विचार रखते हों किसी तरह का भी रिस्क लेकर उन विचारों को कहने की क्षमता उनके पास नहीं।
इसी से याद आया कि सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद बहुत लोगों ने दबे हुए स्वरों में फिल्म इंडस्ट्रीज की बड़ी प्रोडक्शन कम्पनीज़ के आधिपत्य के बारे में कहा था, बात नेपोटिज़्म तक सीमित कर दी गई और मामला परिवावाद बनाम व्यक्तिगत संघर्ष का हो गया मगर असल पावर तो उन प्रोडक्शन कम्पनीज के पास है। अब सुनते हैं कार्तिक आर्यन उसी उत्पीडऩ से गुजर रहे हैं और सिर्फ अनुराग कश्यप ने इसके विरोध में अपनी जुबान खोली है।
सेलिब्रिटीज की छोडिय़े, दुनिया भर की सरकारों में अगर बड़ी कम्पनीज से अपनी शर्ते मनवाने का हौसला होता तो हम दो हमारे दो टाइप सरकारें न चल रही होतीं, जिसमे 56 इंच का असल मतलब उन कम्पनियों के हित मे बिना पलक झपकाए जनता का बड़े से बड़ा अहित करने का माद्दा होता है।
जब खोने की कीमत ज़्यादा हो, जो स्टेक पर लग सकता हो उसका साइज़ बड़ा हो यानी बड़ा रिस्क इन्वॉल्व हो तब भी अपने विचारों अपने दोषसिद्धि के लिये स्टैंड लेना रीढ़ की हड्डी कहलाता है। स्टार शक्ति कम्पनियों को करोड़ों का मुनाफ़ा कराने में नही है, एक हल्के से एक्ट से मिनटों में बिलियन डॉलर का नुकसान कराने में है, नियंत्रण के खिलाफ खड़े होने में है और दूसरे सेलिब्रिटीज तक यह सन्देश पहुँचाने में है कि यह रिस्क लिया जा सकता है लेना चाहिये।
सुना है नॉन अल्कोहॉलिक फ्रांसीसी खिलाड़ी पॉल पोग्बा ने आज मंच पर अपने सामने से हैनिकेन बियर की बोतल सरका दी है।
-लता जिश्नु
कोविड-19 की घातक दूसरी लहर से जूझ रहे भारत को रूस ने मानवीय आधार पर मई के अंत तक दवाईयों के लगभग ढाई लाख पैकेट भेजे। इन पैकेटों में रेमेडीफार्म दवा भी शामिल थी, जिसका इस्तेमाल अस्पतालों में भर्ती कोरोना के गंभीर मरीजों को बचाने में किया जाता है। यह दवा रेमेडेसिवर का रूसी जेनरिक वर्जन थी, जिसका वास्तविक उत्पादन गिलियड साइंसेस नाम की अमेरिकी फार्मा कंपनी करती है। इस दवा के आने से भारत सरकार की उस दवा नीति पर एक बार फिर सवाल खड़े हुए, जिसके तहत सरकार अनिवार्य लाइसेंस के जरिए उन दवाओं के विकल्प का उत्पादन नहीं कर सकती, जिनका पेटेंट कराया जा चुका है। भले ही पेटेंट वाली दवाएं आम लोगों की पहुंच से बाहर और महंगी हों।
रूस में रेमेडीफार्म का उत्पादन, अनिवार्य लाइसेंस के जरिए ही किया जा रहा है। ऐसा विश्व व्यापार संगठन की उस लचीली नीति के तहत संभव है, जो अपने किसी सदस्य देश में स्वास्थ्य की आपातकालीन स्थितियों में बौद्धिक संपदा कानून के नियमों में ढील देती है। भारत में रेमेडेसिवर, इसकी पेटेंट होल्डर फार्मा कंपनी गिलियड के स्वैच्छिक लाइसेंस के तहत बनाई जाती है। उसने आठ कंपनियों को ऐसे लाइसेंस दे रखे हैं, जो उसके नियम-कानूनों के तहत इस दवा का उत्पादन और निर्यात कर सकती हैं।
स्वैच्छिक लाइसेंस को अनिवार्य लाइसेंस की तुलना में तेज माना जाता है। इसके तहत दवाओं के उत्पादन और निर्यात में उस तरह की कानूनी अड़चनों का सामना नहीं करना पड़ता, जैसे अनिवार्य लाइसेंस में। पेटेंट होल्डर कंपनी स्वैच्छिक लाइसेंस लेने वाली फर्म को अपनी दवा की मांग और दाम तय करने की इजाजत देती है, चाहे बाजार में उस दवा की कितनी ही जरूरत क्यों न हो। यही वजह है कि अप्रैल-मई में भारत में रेमेडेसिवर की जितनी जरूरत थी, उसकी उपलब्धता उससे कहीं कम थी। जिसके चलते देश का दूसरे देशों की मदद लेनी पड़ी।
रूस के मुताबिक, उसने गिलियड से स्वैच्छिक लाइसेंस के लिए कई बार अनुमति मांगी्, लेकिन उसके इंकार किए जाने के बाद मजबूरी में उसे जनवरी में अनिवार्य लाइसेंस का फैसला लेना पड़ा। पुतिन सरकार का कहना था कि दवा के उत्पादन की मुख्य वजह यह थी कि उसकी कमी पड़ रही थी और दाम तेजी से बढ़ रहे थे। इसके चलते सरकार को गिलियड साइंसेस और गिलियड फार्मासेट के पेटेंट नियमों को एक साल तक के लिए खारिज करना पड़ा, हालांकि सरकार फार्मा कंपनी को रॉयल्टी का भुगतान करेगी। गिलियड ने रूस सरकार के फैसले को कानूनी चुनौती दी थी, जिसे कई में देश के शीर्ष कोर्ट ने खारिज कर दिया था। गिलियड की दलील थी कि अनिवार्य लाइसेंस लेना च्अनावश्यक और अनुत्पादक’ था। हालांकि रूस सरकार का कहना था कि इस प्रक्रिया से दवा के उत्पादन में, स्वैच्छिक लाइसेंस की तुलना में छह गुना कम लागत आई।
दूसरी ओर मोदी सरकार बड़ी फार्मा कंपनियों से टकराने से बचना चाहती है। यहां तक कि जब लोग महामारी से मर रहे थे और दवा की कमी से तड़प रहे थे, सरकार सार्वजनिक तौर पर स्वैच्छिक लाइसेंस का पक्ष ले रही थी। सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सरकार से कहा कि वह रेमेडेसिवर और कोविड-19 की दूसरी दवाओं की कमी को देखते हुए स्वैच्छिक लाइसेंस को वरीयता देने के अपने फैसले पर पुर्नविचार करे।
सरकार ने कोर्ट में अपने शपथ-प़त्र में कहा कि दवाओं की कमी की असली वजह कच्चे माल और दूसरी जरूरी चीजों की कमी है। फार्मा कंपनियों की दलील में सरकार ने यह तक कहा कि ‘यह मानना धृष्टता होगी कि पेटेंट होल्डर कंपनिया और स्वैच्छिक लाइसेंस देने पर राजी नहीं होंगी।’ सरकार की इस तरह की प्रतिबद्धता क्या साबित करती है?
कहीं यह मोदी सरकार के उस वादे की वजह से तो नहीं, जिसमें उसने 2016 में भारत- अमेरिका बिजनेस काउंसिल में कहा था कि वह दवाओं के अनिवार्य लाईसेस की अनुमित नहीं देगी।
हालांकि अमेरिका के रुख में इसे लेकर अजीब सा बदलाव नजर आया है। प्रारंभिक तौर पर कारपोरेट के हितों की रक्षा के लिए इसने अनिवार्य लाइसेंस का विरोध किया। हालांकि अब यह इसका प्रशंसक बन गया है। पिछले दो दशकों में अमेरिका ने स्वास्थ्य इमरजेंसी में अनिवार्य लाईसेंस का इस्तेमाल करने वाले किसी देश पर शायद ही उसने जुर्माना लगाया हो या उसे धमकी दी हो।
अब जबकि अमेरिकी और यूरोपीय देश अलग सुर आलाप रहे हैं। सौ से ज्यादा देश भारत और दक्षिण अफ्रीका के विश्व व्यापार संगठन में उस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं, जिसमें दोनों देशों ने गुजारिश की है कि महामारी से लडऩे के लिए बौद्धिक संपदा कानून के नियमों में ढील देना जरूरी है, जिससे कि दुनिया के गरीब और मध्यवर्गीय देशों को भी दवाईयां, वैकसीन और इलाज उपलब्ध हो सके।
अमेरिकी और यूरोपीय संघ भी ऐसे समय में अनिवार्य लाईसेंस की वकालत कर रहे हैं, जिससे पेटेंट की जड़ताओं को तोड़़क़र दवाओं और वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाया जा सके।
हालांकि जून की शुरुआत में विश्व व्यापार संगठन में पेश यूरोपीय संघ का प्रस्ताव कुछ हद तक स्पष्ट नहीं है। उसका कहना है कि स्वैच्छिक निर्णय और सार्वजनिक-निजी सहयोग ही कोविड के इलाज और वैक्सीन तैयार करने का सबसे प्रभावी रास्ता है। उसका मानना है कि चूंकि ऐसे स्वैच्छिक समझौते हमेशा संभव नहीं हो सकते हैं, ऐसे में अनिवार्य लाइसेंस एक ‘महत्वपूर्ण और उचित तरीका ’ है।
हालांकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के ट्रैक रिकॉर्ड का देखते हुए इसे उलटफेर ही कहा जाएगा। भारत ने केवल एक बार 2012 में अनिवार्य लाइसेंस की अनुमति दी थी जब हैदराबाद स्थित नाटको फार्मा की कैंसर की दवा नेक्सावर बाजार में बहुत महंगे दाम पर बिक रही थी। तब अमेरिका और यूरोपीय संघ ने उस पर धावा बोल दिया था और इस कदम की कड़ी आलोचना की थी। तब अमेरिका के व्यापारिक घरानों ने भारत की छवि ऐसे देश के तौर पर पेश की थी, जो बार-बार अनिवार्य लाइसेंस लागू करने वाला देश है, हालांकि भारत ने दोबारा ऐसा अब तक नहीं किया।
कोरोना महामारी ने फार्मा कंपनियों के बौद्धिक संपदा कानून के बड़े हितैषियों को भी सोच बदलने को मजबूर किया है। अमीर देश अब अनिवार्य लाइसेंस को कोविड-19 से लडऩे में जरूरी औजार मान रहे हैं।
2020 की शुरुआत से एक दर्जन देशों ने अपने बौद्धिक संपदा कानूनों में सुधार की अनिवार्य लाइसेंस को स्वीकृति देना तेज किया है। इनमें आर्थिक पॉवरहाउस कहे जाने वाले जर्मनी समेत यूरोपीय संघ के कई देश शामिल हैं। दूसरे देश भी पीछे नहीं हैं, जैसे इजरायल, जिसने मार्च 2020 में कोविड-19 के मरीजों के काम आने वाले एचआईवी एडस की एक दवा के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने में देर नहीं लगाई। दरअसल, इस दवा की पेटेंट होल्डर कंपनी उसकी पर्याप्त सप्लाई नहीं कर पा रही थी।
इस पृष्ठभूमि में अनिवार्य लाइसेंस को लेकर भारत की हिचकिचाहट को समझना मुश्किल है क्योंकि इसे लेकर इस देश के नियम तार्किक हैं और जिन्हें सुधारने की जरूरत भी नहीं है। अप्रैल और मई में देश के लोगों का रेमेडेसिवर के लिए संघर्ष करना, स्वैच्छिक लाइसेंस वाली कंपनियों के लिए काला धब्बा था। सुप्रीम कोर्ट को मोदी सरकार को यह बताने को बाध्य होना पड़़ा कि स्वास्थ्य के आपातकाल की स्थिति मे बौद्धिक संपदा के नियमों में छूट देकर अनिवार्य लाइसेंस दिए जा सकते हैं। इससे कोई सबक लिया जा सकता है तो वह यह कि अनिवार्य लाइसेंस, स्वैच्छिक लाइसेंस से एक कदम आगे की चीज है।
निश्चित तौर पर अनिवार्य लाइसेंस उन सारी बीमारियों का इलाज नहीं है, जो महामारी ने हमें दी हैं। नए उत्पादों के उभरने से बौद्धिक संपदा का परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है और लगातार बदलता जा रहा है। व्यापार के नए रंग- ढंग के चलते पेटेंट प्रकाशित नहीं कराए जा रहे और तकनीक का बड़ा हिस्सा स्क्रूटनी से बाहर है। यह बात नई एमआरएनए वैक्सीन के बारे में बिल्कुल सच है, जिसे अमेरिका और यूरोप में बनाया जा रहा है और जिसकी नकल करना बहुत मुश्किल है।
भारत की दवा इंडस्ट्री में ख्याति वाले दिन इसकी रिवर्स इंजीनियरिंग दवाओं में दक्षता के चलते आए, जिन्हें छोटे अणुओं खासकर रासायनिक यौगिकों से विकसित किया गया था। निश्चित तौर पर रेमेडेसिवर तैयार करना इसकी क्षमता से बाहर नहीं है? या फिर जेनरिक दवा तैयार करने वालों की बदलाव वाली सोच खत्म हो गई। एचआईवी दौर की सिपला जैसी मुख्य कंपनिया आज स्वैच्छिक लाइसेंस की पृष्ठभूमि में भी मजबूती से खड़ी हैं। शक्तिशाली नाटको फार्मा कंपनी ने हाल ही में बैरीसिटनिब के लिए पहले अनिवार्य लाइसेंस हासिल किया, बाद में उसने पेटेंट होल्डर कंपनी को पीछे छोडक़र स्वैच्दिक लाइसेंस पा लिया। बैरीसिटनिब, गठिया रोग की दवा है, जिसे अब कोविड-19 की दवा के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। (downtoearth.org.in)
-गिरीश मालवीय
हाइपरइन्फ्लेशन महंगाई का सर्वोच्च स्तर होता है, इसमें वस्तुओं की कीमत बहुत ज्यादा मात्रा में बढ़ जाती है तथा मुद्रा की क्रय शक्ति बहुत ही कम हो जाती है।
पिछले कुछ साल में जिस तरह से बेतहाशा महंगाई बढ़ी है उससे यह तस्वीर भारत के संदर्भ में सच भी हो सकती है। यह यह प्रथम विश्व युद्ध के जर्मनी की तस्वीर है जर्मनी के ऊपर अन्य देशों का भारी कर्ज था इस कर्ज को उतारने के लिए उसने बेतहाशा मुद्रा छापी लेकिन जर्मनी साल 1923 में अपना बकाया नहीं चुका सका. इस घटना से देश पर महंगाई का संकट घिर गया और महंगाई दर 29,500 फीसदी प्रतिमाह पहुंच गई. हर 3 से 4 दिनों के अंतराल पर सामानों की कीमत दोगुनी हो जाती थी. ओर एक समय यह हालत हो गयी थी कि करंसी नोट बच्चों को खेलने के दिए जाते थे, जर्मनी में उस वक्त करंसी नोट को जलाकर लोग आग तापते थे क्योकि वह लकड़ी से ज्यादा सस्ते पड़ते थे।
आपको जानकर बहुत आश्चर्य होगा कि भारत में भी पिछले डेढ़ साल में आरबीआई ने नोट छाप-छाप कर ढेर लगा दिए है। कोरोना के दौर वाले पिछले 15 महीनों में देश में करेंसी का मूल्य और प्रसार काफी तेजी से बढ़ा है। 3 जनवरी 2020 को देश में करेंसी का कुल मूल्य 21.79 लाख करोड़ रुपये था, लेकिन मार्च 2021 तक आरबीआई द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी का चलन बढक़र 28.6 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया हैं।
इसका साफ मतलब है कि पिछले सालों से कई गुना ज्यादा पिछले डेढ़ सालों में करंसी नोट छापकर बाजार में उतारे गए हैं और हम देख रहे हैं कि इसके परिणाम अच्छे नही है पिछले कुछ सालों से रुपये की क्रय शक्ति घट रही है जब किसी मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी आने के फल स्वरुप वस्तुओं के दामों में वृद्धि हो जाती है तो इस स्थिति को ही महंगाई या मुद्रास्फीति या इन्फ्लेशन कहते हैं। और भारत में महंगाई इस वक्त चरम पर है।
हमारे यहाँ के बड़े-बड़े विद्वान अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि रिजर्व बैंक को और ज्यादा करंसी छापनी चाहिए सरकार को खर्च बढ़ाना चाहिए लेकिन वे भूल रहे हैं कि दरअसल नोट छापकर सरकारी खर्च बढ़ाने से अर्थव्यवस्था में उत्पादन तो बढ़ता नहीं है, क्योंकि इसमें वक्त लगता है, लेकिन नकदी हाथ में आते ही मांग तत्काल बढ़ जाती है। ज्यादा मांग और कम आपूर्ति के कारण महंगाई बढऩे लगती है तो अंततोगत्वा अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित होती है।
आम आदमी के रसोईघर का खर्च पिछले कुछ सालों में 50 प्रतिशत तक बढ़ गया है जबकि उसकी आवक घट रही है रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं और खर्च बढ़ रहा है महंगाई दिन प्रतिदिन बढ़ रही है हम हाइपरइन्फ्लेशन की तरफ बढ़ते दिख रहे हैं।
-संजय पराते
इस वर्ष के अप्रैल माह में छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश में मनरेगा में काम करने वाले दलित व आदिवासी समुदाय से जुड़े मजदूरों के लिए भुगतान का संकट खड़ा हो गया, जबकि बाकी मजदूरों को भुगतान पहले की तरह ही हो रहा था। पूरे देश में हल्ला मचने के बाद यह पता चला कि यह अव्यवस्था नरेंद्र तोमर के अधीन ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक ऐसी एडवाइजरी के कारण पैदा हुई है, जिसके बारे में कोई चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं हुई थी और इस एडवाइजरी पर संसद में तो दूर, इस मंत्रालय से संबंधित संसदीय स्थायी समिति तक में कोई चर्चा नहीं हुई थी। मंत्रालय के अधिकारी भी इस एडवाइजरी से अनजान थे और ‘वायर’ की रिपोर्ट के अनुसार भुगतान संकट का हंगामा मचने पर मंत्रालय की वेबसाइट से इस एडवाइजरी को चुपचाप हटा लिया गया है।
एडवाइजरी यह है कि अब इस वित्त वर्ष से अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए मनरेगा फंड का आबंटन व भुगतान अलग से किया जाएगा। इस एडवाइजरी के कारण राज्यों के लिए नामित डीडीओ का काम इतना अधिक बढ़ गया है कि वर्कलोड दुगुना होने के कारण उसे एफटीओ पर अपने हस्ताक्षर करने के लिए समय कम पडऩे लगा है। भुगतान के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये आने के बावजूद बैंक भी नए एससी/एसटी खातों के लिए पीएफएमएस मैपिंग का काम समय पर न कर पाने के कारण भुगतान करने में असमर्थ थे।
इस एडवाइजरी की जरूरत क्या है? एडवाइजरी इस पर चुप है, लेकिन यह प्रचारित किया जा रहा है कि ऐसा आदिवासी व दलित मजदूरों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन इसके लिए क्या वाकई मजदूरों का भुगतान अलग-अलग श्रेणियों में करने की जरूरत है? क्या यह मनरेगा की मूल मंशा के खिलाफ नहीं है?
केंद्र सरकार की ही रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में मनरेगा में काम करने वालों में 50 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं और 40 प्रतिशत से ज्यादा दलित और आदिवासी तबकों से जुड़े मजदूर हैं। केंद्र सरकार को यह सामाजिक वर्गीकरण कैसे मिला? इसलिए कि मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों के सामाजिक वर्गीकरण का रिकॉर्ड पहले से रखा जा रहा है और इसका पता करने के लिए मजदूरी भुगतान को श्रेणीकरण से जोडऩा जरूरी नहीं है। तो फिर श्रेणीकृत भुगतान के पीछे वास्तविक मंशा क्या हो सकती है?
वास्तव में भाजपा मनरेगा के पक्ष में कभी नहीं रही तथा इस कानून का ‘मिट्टी-कुदाली वाले अधकचरे काम’ के रूप में उपहास उड़ाती रही है। लेकिन सामाजिक अध्ययन यह बताते है कि मनरेगा ने ग्रामीण मजदूरों को आर्थिक रूप से सशक्त किया है और इससे उनकी सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बढ़ी है। मनरेगा मजदूरों की आय में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इस बढ़ी हुई आर्थिक ताकत के कारण अब वे गांवों के प्रभुत्वशाली तबकों के यहां बेगारी या कम मजदूरी पर काम करने से इंकार करते हैं। भाजपा की असली दिक्कत यही है कि ग्रामीण गरीब, विशेषकर इन कामों में लगे हुए पददलितों की आर्थिक ताकत बढ़ रही है। यह ताकत जितनी बढ़ेगी, गांवों के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन पर कब्जा जमाए हुए इस प्रभुत्वशाली वर्ग की ताकत को उतनी ही ज्यादा चुनौती भी मिलेगी और उसी अनुपात में वे कमजोर भी होंगे।
इसीलिए भाजपा इस सार्वभौमिक रोजगार गारंटी कानून को, जो बिना किसी जातीय-धार्मिक भेदभाव के, काम चाहने वाले किसी भी ग्रामीण परिवार को न्यूनतम 100 दिनों के काम की गारंटी करता है, को कमजोर करना चाहती है तथा वह इस मांग आधारित सार्वभौमिक रोजगार गारंटी कानून को, आबंटन आधारित सीमित रोजगार योजना में तब्दील करना चाहती है यदि फंड का आबंटन नहीं, तो काम भी नहीं। इसका सीधा असर दलित-आदिवासी समुदाय से जुड़े लोगों के रोजगार पर पड़ेगा, जिसे बताया जाएगा कि चूंकि फंड ही नहीं है, या नहीं आया है, तो काम कैसे दिया जा सकता है? इसलिए ये एडवाइजरी मनरेगा की मूल संकल्पना के ही खिलाफ है।
ऐसा होने की आशंका इसलिए भी बढ़ जाती है कि आज भी हमारे ग्रामीण समाज व पंचायतों पर ऊंची जातियों का ही प्रभुत्व है। यह प्रभुता मनरेगा के सार्वभौमिक रोजगार कार्यक्रम होने के बावजूद इस समुदाय के लोगों को गैर-कानूनी तरीके से काम से वंचित रखती है। समाज में व्याप्त जातिगत असमानता के विषाणु इस रोजगार गारंटी कानून को भी दूषित कर रहे हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के नितिन धाकतोड़े ने वर्ष 2017-18 में तेलंगाना में इस संबंध में एक अध्ययन किया है। अपनी रिपोर्ट ‘कास्ट इन मनरेगा वर्क्स एंड सोशल ऑडिट’ में वे बताते हैं कि हालांकि सरकार द्वारा मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी 202 रुपये प्रतिदिन है, लेकिन पिछड़ा वर्ग मजदूरों को औसतन 172 रुपये, अनुसूचित जाति के मजदूरों को 155 रुपये तथा धार्मिक अल्प संख्यक मजदूरों को औसतन केवल 123 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी मिली। तेलंगाना के बाथ मंडल की सोनाला पंचायत में मजदूरों को औसतन केवल 153 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी मिली और कुछ मजदूरों को तो केवल 86 रुपये ही मजदूरी मिली। समाज के जातिक्रम में जो जितना नीचे था, वह मजदूरी से उतना ही ज्यादा वंचित था।
साफ है कि यह रिपोर्ट पंचायतों में जातीय प्रभाव को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है। लेकिन यह वंचना किसी राज्य के किसी पंचायत तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार पूरे देश के सभी पंचायतों तक है। प्रख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के अध्ययन के अनुसार झारखंड राज्य में मनरेगा कार्यों में एसटी-एससी समुदाय के लोगों की भागीदारी लगातार घट रही है।वर्ष 2015-16 में इन दोनों समुदायों की भागीदारी 51.20त्न थी, जो घटकर वर्ष 2019-20 में महज 35.79त्न रह गई। मोदी सरकार की यह एडवाइजरी और फंड आबंटन नीति इस वंचना को और बढ़ाएगी।
दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान के विश्लेषण के अनुसार अनुसूचित जाति के लिए वर्ष 2014-19 के बीच सरकारी खर्च केवल 3.1 लाख करोड़ रुपये ही था, जबकि इस समुदाय के लिए कुल 6.2 लाख करोड़ रुपये ही आबंटित किए गए थे। इसी प्रकार, इसी समयावधि के लिए अनुसूचित जनजाति के लिए आबंटित 3.28 लाख करोड़ रुपयों के विरुद्ध केवल 2 लाख करोड़ रुपये ही खर्च किये गए। यह है केंद्रीय स्तर पर अजा-जजा उपयोजना की स्थिति! इसलिए यह दावा कि यह एडवाइजरी दलित-आदिवासी समुदाय के हित में है, बेहद बचकाना है। संभावना यही ज्यादा है कि श्रेणीगत आबंटन के बाद फंड की कमी का रोना रोकर या फिर जान-बूझकर गैर-कानूनी तरीके से इन तबकों के मजदूरों को रोजगार से वंचित करने का खेल खेला जाएगा।
पिछले वर्ष मोदी सरकार को मनरेगा के लिए 1,11,500 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े। कोरोना महामारी और इसके कारण गांवों में अपने घर वापस पहुंचे करोड़ों अतिरिक्त लोगों को काम देने की जरूरत होने के बावजूद इस वित्त वर्ष में केवल 73000 करोड़ रुपये ही आबंटित किये गए हैं। आज भी जरूरतमंद ग्रामीण परिवारों को न्यूनतम 100 दिनों की जगह औसतन केवल 46 दिन ही काम मिल रहा है। ऐसे में श्रेणीकृत आबंटन इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएगा और किस श्रेणी के मजदूर को काम मिलेगा, यह इस बात से तय होगा कि किस श्रेणी के लिए फंड का आबंटन है। यह भारत के ग्रामीण समाज मे जातिगत असमानता को बढ़ाएगा तथा यह इस कानून की आधारभूत संकल्पना सार्वभौमिक रोजगार गारंटी के भी खिलाफ है। इस एडवाइजरी से आगे अब मनरेगा की विदाई का ही रास्ता खुलता है कानूनन न सही, लेकिन व्यवहारिक रूप से ही। इसके बाद रोजगार गारंटी कानून सवर्णों के नियंत्रण से ही संचालित होगा और दलित-आदिवासी समुदायों के लिए न रहेगा फंड, न मिलेगा रोजगार!
(लेखक सीपीएम के एक पदाधिकारी हैं। )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले से सरकार और पुलिस की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। दिल्ली पुलिस ने पिछले साल मई में तीन छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार कर लिया था। एक साल उन्हें जेल में सड़ाया गया और उन्हें जमानत नहीं दी गई। अब अदालत ने उन तीनों को जमानत पर रिहा कर दिया है। जामिया मिलिया के आसिफ इकबाल तन्हा, जवाहरलाल नेहरु विवि की देवांगना कलीता और नताशा नरवल पर आतंकवाद फैलाने के आरोप थे। उन्हें कई छोटे-मोटे अन्य आरोपों में जमानत मिल गई थी लेकिन आतंकवाद का यह आरोप उन पर आतंकवाद-विरोधी कानून (यूएपीए) के अन्तर्गत लगाया गया था।
ट्राइल कोर्ट में जब यह मामला गया तो उसने इन तीनों की जमानत मना कर दी, लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने उन्हें न सिर्फ जमानत दे दी, बल्कि सरकार और पुलिस की मरम्मत करके रख दी। जजों ने कहा कि इन तीनों व्यक्तियों पर आतंकवाद का आरोप लगाना संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन है। इन तीनों व्यक्तियों पर जो आरोप लगाए हैं, वे बिल्कुल निराधार हैं। आरोपों की भाषा बड़बोलों और गप्पों से भरी हुई है। ये लोग न तो किसी प्रकार की हिंसा फैला रहे थे, न कोई सांप्रदायिक या जातीय दंगा भड़का रहे थे और न ही ये किन्हीं देशद्रोही तत्वों के साथ हाथ मिलाए हुए थे। वे तो नागरिक संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में भाषण और प्रदर्शन कर रहे थे। यदि वे कोई विशेष रास्ता रोक रहे थे और उस पर आप कार्रवाई करना ही चाहते थे तो भारतीय दंड संहिता के तहत कर सकते थे लेकिन आतंकवाद-विरोधी कानून की धारा 43-डी (5) के तहत आप उनकी जमानत रद्द नहीं कर सकते हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय अपने इस एतिहासिक फैसले के लिए बधाई का पात्र है। उसने न्यायपालिका की इज्जत में चार चांद लगा दिए हैं। लेकिन उसने कई बुनियादी सवाल भी खड़े कर दिए हैं। पहला तो यही कि उन तीनों को साल भर फिजूल जेल भुगतनी पड़ी, इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? पुलिसवाले या वे नेता, जिनके इशारों पर उन्हें गिरफ्तार किया गया है ? या वह जज जिसने इनकी जमानत रद्द कर दी ? दूसरा, इन तीनों व्यक्तियों को फिजूल में जेल काटने का कोई हर्जाना मिलना चाहिए या नहीं ? तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह कि देश की जेलों में ऐसे हजारों लोग सालों सड़ते रहते हैं, जिनका कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है और जिन पर मुकदमे चलते रहते हैं। शायद उनकी संख्या सजायाफ्ता कैदियों से कहीं ज्यादा है। बरसों जेल काटने के बाद जब वे निर्दोष रिहा होते हैं तो वह रिहाई भी क्या रिहाई होती है ? क्या हमारे सांसद ऐसे कैदियों पर कुछ कृपा करेंगे ? वे अदालती व्यवस्था इतनी मजबूत क्यों नहीं बना देते कि कोई भी व्यक्ति दोष सिद्ध होने के पहले जेल में एक माह से ज्यादा न रहे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनुप्रिया
मुझे तो ईश्वर कहीं न मिले, न जयपुर के बिड़ला मंदिर में मिले, न नाथद्वारा में, न सोमनाथ में, न द्वारिका में, न जगन्नाथपुरी में, न अमरकंटक में, न अजमेर की दरगाह में, न लद्दाख लाहौल स्पीती के बौद्ध मठों में, न यूरोप के चर्चों में मिले, न वैटिकन सिटी में। सब जगहें दर्शनीय थीं, सबका अपना स्थापत्य, अपनी कलात्मक खूबसूरती, सबके अपने कर्मकांड, दर्शन की रेलमपेल, प्रसाद चढ़ावों का बाजार, ईश्वर मिले तो मन में मिल जाए। वरना कहीं न मिले।
हाँ भारत में मंदिरों के भक्ति बाजारों के आसपास इतनी गंदगी जरूर मिली कि वो अच्छे पर्यटक स्थल भी न बन पाएँ।
स्वर्ण मंदिर गुरुद्वारा मुझे पसंद आया था, मगर उसका कारण वहाँ की सामुदायिकता की भावना थी, बुजुर्गों का वहाँ कुछ काम, कुछ आराम करते हुए दिन बिताना, सबका मिलजुलकर लंगर में योगदान देना और बिना जाति धार्मिक भेदभाव के साथ बैठकर खाना। मुझे लगता है कि धार्मिक स्थलों का यदि समाज में कोई योगदान है और हो सकता है तो वह बेसहारा लोगों के आश्रय, खाने-पीने, बुजुर्गों के समय बिताने और सामूहिकता की भावना के लिये ही। मगर वही धार्मिक स्थल अगर किसी मुसलमान बच्चे को पानी पीने भर के लिए पीट-पीटकर अधमरा कर दें तो ईश्वर का उन मन्दिरों में रहना शर्मनाक है, वो फिर पूजने लायक तो बिल्कुल नहीं है। और इसीलिये कभी-कभी इबादतगाहों और पूजाघरों से वितृष्णा सी होने लगती है, जगन्नाथपुरी लिखता है यहाँ हिंदुओं के सिवा कोई नहीं घुसेगा, कितनी ही मस्जिदों में स्त्रियाँ स्वीकार नहीं हैं, कितने ही मंदिरों में भी, दलितों के लिये तो उनके दरवाजे बहुत बाद में खुले, ईश्वर के घरों में इतना भेदभाव?
ऊपर से जब सुनते हैं कि फलाँ बौद्ध मठों को उजाडक़र मंदिर बनाए गए, फलाँ मंदिर को तोडक़र या फलाँ चर्च को खरीदकर मस्जिद बनाई गई, बाबरी मस्जिद को तोडक़र मंदिर बनाया तो समझ नहीं आता कि यह मासूम आस्था है जो जरा-जरा बातों पर आहत हो जाती है, या धर्म आस्था के खुले मैदान में अपनी धार्मिक सत्ता का झंडा लहराना है।
क्या पूरी दुनिया में आपको जमीन नहीं मिली जो आपने दूसरों के आस्था केंद्रों को तोड़ा, खरीदा, कब्जा किया, ढहाया?
कितने ही दंगे करवाकर, न्याय व्यवस्था को ताक पर रखकर, लोगों से जबरन चंदे उगहाकर, राम के नाम पर आतंक मचाकर, और अब घोटाले तक करके जो ये राम मंदिर बन रहा है, राम होते तो पूछती क्या वाकई यहाँ रहोगे और पूजा भी करवाओगे अपनी? मन करेगा? या आत्मा धिक्कारेगी। जो सियाराम लोगों के दिलों में बसते थे, उन्हें वहाँ से निकलकर, जिस शत्रुनाशक श्री राम को इन धर्म के ठेकेदारों ने अपनी सत्ता का द्वारपाल बनाया है वो इनका ईश्वर है कि इनका कैदी, ये तो राम ही बता सकते हैं। कुल मिलाकर अयोध्या वाली गत अगर काशी-मथुरा की भी होने वाली है तब धर्म अपने सबसे विकृत रूप में इस देश में रहने वाला है।
इंसानियत से मुँह मोडक़र धर्म अपने अस्तित्व के लिए अगर सत्तामुखी हो जाएँ तो अस्तित्व की यह कवायद समझिये इस भौतिक जगत तक ही सीमित है, ऐसे धर्मों का किसी अभौतिक ईश्वर से फिर भला क्या लेना-देना है?
-अशोक पांडे
बीते सोमवार को यानी परसों एक जबरदस्त घटना घटी। फुटबॉल के सुपरस्टार क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने यूरो चैम्पियनशिप के एक मैच के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में अपने सामने रखीं कोकाकोला की दोनों बोतलें एक तरफ हटा दीं। उसके बाद उन्होंने वहीं रखी पानी की बोतल को उठाकर पत्रकारों को दिखाते हुए कहा- ‘आगुवा!’ यानी पानी! दस सेकेंडों में उन्होंने जता दिया कि सॉफ्ट ड्रिंक्स को लेकर उनका क्या नजरिया है।
रोनाल्डो की इस एक भंगिमा ने यह किया कि कोकाकोला के शेयर गिरना शुरू हो गए। इस घटना का ऐसा जबर्दस्त प्रभाव पड़ा कि कुछ ही घंटों के भीतर कम्पनी को चार बिलियन डॉलर यानी करीब 75 अरब रुपयों का नुकसान हो गया। यह गिरावट अब भी जारी है।
खिलाड़ी में रीढ़ की हड्डी साबुत बची हो तो वह अकेला भी दुनिया के सबसे मजबूत दुर्गों में सेंध लगा सकता है।
मुझे उम्मीद है लोग अभी पुलेला गोपीचंद को नहीं भूले होंगे।
सत्तर और अस्सी के दशकों में विश्व के नम्बर एक खिलाड़ी बन गए प्रकाश पादुकोण के रिटायर होने के बाद देश को सैयद मोदी से बहुत उम्मीदें थीं पर 1988 में लखनऊ में उनकी हत्या हो गई। इस त्रासद घटना के कोई दस सालों तक भारतीय बैडमिंटन के दिन कोई विशेष उल्लेखनीय नहीं रहे। फिर आंध्रप्रदेश के नलगोंडा में जन्मा एक बेहद प्रतिभाशाली खिलाड़ी इस खालीपन में किसी सनसनी की तरह उभर रहा था। पुलेला गोपीचंद नाम के एक खिलाड़ी की शैली में कई विशेषज्ञों को प्रकाश पादुकोण की झलक दिखाई देती थी, लेकिन 1995 में पुणे में चल रही एक प्रतियोगिता में डबल्स के एक मैच के दौरान गोपीचन्द के घुटने में घातक चोट लगी और उनका करिअर करीब-करीब समाप्त हो गया।
एक सामान्य खिलाड़ी और एक बड़े खिलाड़ी में क्या फर्क होता है, यह अगले एक साल में गोपीचंद ने कर दिखाया। चोट से उबरकर उन्होंने न केवल विश्व बैडमिंटन में अपनी रैंकिंग में उल्लेखनीय सुधार किया बल्कि 2001 में चीन के चेन हांग को हराकर ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप जीत ली। इसके कुछ माह पहले वे वल्र्ड नंबर वन को परास्त कर चुके थे।
जैसा कि बाजार के इस युग में होना था, तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों ने ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप जीतने के बाद गोपीचंद को नोटिस किया। कोकाकोला ने विज्ञापन के लिए उनसे संपर्क किया और बहुत बड़ी रकम देने का प्रस्ताव किया। लेकिन उस समय तक अपने माता-पिता के साथ किराए के घर में रह रहे पुलेला गोपीचंद ने साफ-साफ मना कर दिया। आमतौर पर बहुत शांत रहने वाले इस खिलाड़ी ने इस बात को कोई तूल नहीं दी, न ही किसी तरह की पब्लिसिटी की। मीडिया तक को इस बात का पता दूसरे स्रोतों से लगा।
एक इंटरव्यू में उनसे इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘चूंकि मैं खुद सॉफ्ट ड्रिंक नहीं पीता, मैं नहीं चाहूंगा कि कोई दूसरा बच्चा मेरी वजह से ऐसा करे। मैं कोई चिकित्सक नहीं हूं, लेकिन मुझे पता है कि सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं और मैंने अपने मैनेजर को इस बारे में साफ-साफ कह रखा है कि मैं किसी भी ऐसे प्रॉडक्ट के साथ नहीं जुड़ूंगा, चाहे वह सॉफ्ट ड्रिंक हो या सिगरेट या शराब।’
पैसे को लेकर भी उनका दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था- ‘मेरे लिए ज़्यादा महत्व उसूलों का है और मैं किसी भी कीमत पर अपने उसूलों को पैसे के तराजू पर नहीं तौल सकता।’
क्रिस्टियानो रोनाल्डो के कारनामे ने मुझे न केवल पुलेला गोपीचंद की बल्कि पीटी उषा पर लिखी वीरेन डंगवाल की कविता की भी याद दिलाई। ये सारे नाम आने वाले वक्तों में जरूरी रोशनी का काम करेंगे। इन सब को सलाम कीजिए -
काली तरुण हिरनी
अपनी लम्बी चपल टांगों पर
उड़ती है मेरे गऱीब देश की बेटी
आंखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली
विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की-सी छटा
मत बैठना पीटी ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति कार पर
मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए मुँह से चपचप की आवाज होती है?
कोई गम नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज जबड़े को सभ्यता
दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह संतोष का विषय है कि देश में आई कोरोना की दूसरी लहर अब लौटती हुई दिखाई पड़ रही है। लोग आशावान हो रहे हैं कि हताहतों की संख्या कम होती जा रही है और अपने बंद काम-धंधों को लोग फिर शुरु कर रहे हैं। लेकिन मंहगाई की मार ने आम जनता की नाक में दम कर दिया है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक थोक मंहगाई दर 12.94 प्रतिशत हो गई है। सरल भाषा में कहें तो यों कहेगे कि जो चीज़ एक हजार रु. में मिलती थी, वह अब 1294 रु. में मिलेगी। ऐसा नहीं है कि हर चीज के दाम इतने बढ़े हैं। किसी के कम और किसी के ज्यादा बढ़ते हैं। जैसे सब्जियों के दाम यदि 10 प्रतिशत बढ़ते है तो पेट्रोल के दाम 35 प्रतिशत बढ़ गए। याने कुल मिलाकर सभी चीजों के औसत दाम बढ़ गए हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि मंहगाई की यह छलांग पिछले 30 साल की सबसे ऊँची छलांग है।
यहां तकलीफ की बात यह नहीं है कि मंहगाई बढ़ गई है बल्कि यह है कि लोगों की आमदनी घट गई है। जिस अनुपात में मंहगाई बढ़ती है, यदि उसी अनुपात में आमदनी भी बढ़ती है तो उस मंहगाई को बर्दाश्त कर लिया जाता है लेकिन आज स्थिति क्या है ? करोड़ों लोग बेरोजगार होकर अपने घरों में बैठे हैं। ज्यादातर प्राइवेट कंपनियों ने अपने कर्मचारियों का वेतन आधा कर दिया है। कई दुकानें और कारखाने बंद हो गए हैं। छोटे-मोटे अखबार भी बंद हो गए हैं। कई बड़े अखबारों को पिछले साल भर में इतने कम विज्ञापन मिले हैं कि उनकी पृष्ठ संख्या घट गई, पत्रकारों का वेतन आधा हो गया और लेखकों का पारिश्रमिक बंद हो गया। राष्ट्र का कोई काम-धंधा ऐसा नहीं है, जिसकी रफ्तार धीमी नहीं हुई है लेकिन सरकार की जेबें फूल रही हैं। उसका विदेशी-मुद्रा भंडार लबालब है, जीएसटी और टैक्स बरस रहा है, उसके नेताओं और कर्मचारियों को किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है लेकिन आम आदमी अपनी रोजमर्रा की न्यूनतम जरुरतें भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं।
कोरोना की महामारी के दौरान शहरों के मध्यमवर्गीय परिवार तो बिल्कुल लुट-पिट चुके हैं। अस्पतालों ने उनका दीवाला पीट दिया है। यह ठीक है कि भारत सरकार ने गरीबी-रेखा के नीचेवाले 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त खाद्यान्न की व्यवस्था कर रखी है लेकिन आदमी को जिंदा रहने के लिए खाद्यान्न के अलावा भी कई चीजों की जरुरत होती है। पेट्रोल और डीजल के दाम सुरसा के बदन की तरह बढ़ गए हैं। उनके कारण हर चीज मंहगी हो गई है। गांवों में शहरों के मुकाबले मंहगाई की मार ज्यादा सख्त है। मंहगाई पर काबू होगा, तो लोगों की खपत बढ़ेगी। खपत बढ़ेगी तो उत्पादन ज्यादा होगा, अर्थ-व्यवस्था अपने आप पटरी पर आ जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दीपक असीम
राम मंदिर के लिए जितनी जमीन चाहिए, उतनी तो अदालत के आदेश से मिल गई है। मुफ्त ही मिल गई है। फिर ये आस पास की जमीनों की खरीद क्यों? जो पैसा राम मंदिर निर्माण के नाम पर मिला है, उससे ज़मीन की खरीदी अपने आप में चंदे का दुरुपयोग है। मंदिर निर्माण के लिए मिला पैसा ईंट, सीमेंट, पत्थर, सरिया खरीदने के लिए है। ट्रस्ट का काम मंदिर निर्माण है या फिर ट्रस्ट वहां जमीन का कारोबार कर रहा है। यह जमीन जो अठारह करोड़ में खरीदी गई, उसका क्या उपयोग होने वाला था?
अगर यह जमीन ठीक भाव में खरीदी गई है, तो पुजारी हरीश पाठक और उनकी पत्नी से सीधे ही क्यों नहीं खरीद ली गई? ऐसा क्यों किया गया कि पहले यह ज़मीन रवि मोहन और सुल्तान अंसारी ने दो करोड़ में खरीदी और पांच मिनिट बाद इसे ट्रस्ट ने 18 करोड़ 50 लाख में खरीद लिया? ऐसी क्या मजबूरी थी कि सदियों से इस ज़मीन के मालिक रहे हरीश पाठक और उनकी पत्नी को केवल दो ही करोड़ दिये गए, और पांच मिनट के मालिकों को लगभग दस गुना फायदा देकर साढ़े अठारह करोड़ दे दिये गए। अगर वाकई मंदिर ट्रस्ट ईमानदार था, तो उसने पुजारी हरीश पाठक से सीधे बात क्यों नहीं की?
गाइडलाइन के हिसाब से ज़मीन पांच करोड़ के आस पास की है। कोई भी ट्रस्ट कैसे कोई जमीन गाइडलाइन से महंगे दाम पर खरीद सकता है?उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए कि इस मामले में जांच का आश्वासन दे, मगर उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य कह रहे हैं कि सपा के हाथ खून से रंगे हैं और आम आदमी पार्टी दुर्भावना के चलते आरोप लगा रही है। यह तो भ्रष्टाचार उजागर करने वालों पर ही गुस्सा करना हुआ। साफ है कि इस मामले में भ्रष्टाचार हुआ है। यह पहली बार नहीं है कि जब देश को राम के नाम पर इन फर्जी रामभक्तों ने ठगा है। 1990 से राममंदिर और रामभक्तों के नाम पर तरह तरह के चंदे हो रहे हैं। विहिप पर 1400 करोड़ डकार जाने का आरोप संत समुदाय ही लगाता रहा है। राहत की बात यह है कि 2024 तक राम मंदिर का काम पूरा हो सकता है। मगर चिंता इस बात की है कि इन चंदाखोरों और चंदाचोरों के मुंह में खून लग चुका है। ये लोग अब कोई दूसरा विवाद उठाएंगे ताकि उसके नाम पर चंदा करते रह सकें। इस मुद्दे की सीबीआई जांच गैरज़रूरी है। कोई निष्पक्ष पटवारी और तहसीलदार ही बता सकता है कि क्या झोल-झाल है। मगर भाजपा नहीं मानेगी कि कोई गड़बड़ हुई, क्योंकि अगर मान लिया तो अगले चुनाव में दिक्कत हो जाएगी।
-जगदीश जोशी
शिमला में सेब के बाग है और किसानों से छोटे छोटे व्यापारी सेब ख़रीदकर देश भर में भेजते थे। व्यापारियों के छोटे छोटे गोदाम थे। अडानी की नजर इस कारोबार पर पड़ी । हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार है तो अडानी को वहाँ ज़मीन लेने और बाक़ी काग़ज़ी कार्यवाही में कोई दिक्कत नहीं आयी। अडानी ने वहाँ पर बड़े बड़े गोदाम बनाए जो व्यापारियों के गोदाम से हजारों गुना बड़े थे ।
अब अडानी ने सेब खरीदना शुरू किया, छोटे व्यापारी जो सेब किसानों से 20 रुपए किलो के भाव से खरीदते थे, अडानी ने वो सेब 22 रुपये किलो ख़रीदा। अगले साल अडानी ने रेट बढ़ाकर 23 रुपये किलो कर दिया। अब छोटे व्यापारी वहाँ खत्म हो गए, अडानी से कम्पीट करना किसी के बस का नहीं था। जब वहां अडानी का एकाधिकार हो गया तो तो तीसरे साल अडानी ने सेब का भाव 6 रुपय किलो कर दिया।
अब छोटा व्यापारी वहाँ बचा नहीं था, किसान की मजबूरी थी कि वो अडानी को 6 रुपये किलो में सेब बेचे। अब अडानी किसान से 6 रुपए किलो सेब खरीदता है और उस पर एक-दो पैसे का अडानी लिखा स्टिकर चिपका कर 100 रुपए किलो बेच रहा है। बताइए क्या अडानी ने वो सेब उगाए?
टेलिकॉम इंडस्ट्री की मिसाल भी आपके सामने हैं। कांग्रेस की सरकार में 25 से ज़्यादा मोबाइल सर्विस प्रवाइडर थे। JIO ने शुरू के दो-तीन साल फ्री कॉलिंग, फ्री डेटा देकर सबको समाप्त कर दिया। आज केवल तीन सर्विस प्रवाइडर ही बचे हैं और बाक़ी दो भी अंतिम सांसे गिन रहे हैं। अब JIO ने रेट बढ़ा दिए। रिचार्ज पर महीना 24 दिन का कर दिया। पहले आपको फ़्री और सस्ते की लत लगवाई अब JIO अच्छे से आपकी जेब काट रहा है।
कृषि बिल अगर लागू हो गया तो गेहूं , चावल और दूसरे कृषि उत्पाद का भी यही होगा। पहले दाम घटाकर वो छोटे व्यापारियों को खत्म करेंगे और फिर मनमर्ज़ी रेट पर किसान की उपज ख़रीदेंगे। जब उपज केवल अडानी जैसे लोगों के पास ही होगी तो मार्केट में इनका एकाधिकार और वर्चस्व होगा और बेचेंगे भी यह अपने रेट पर। अब सेब की महंगाई तो आप बर्दाश्त कर सकते हो क्योंकि उसको खाए बिना आपका काम चल सकता है लेकिन रोटी और चावल तो हर आदमी को चाहिए।
अभी भी वक्त है, जाग जाइए, किसान केवल अपनी नहीं आपकी और देश के 100 करोड़ से अधिक मध्यमवर्गीय परिवारों की भी लड़ाई लड़ रहा है।
-अतीत शर्मा
नई दिल्ली, 15 जून : पाकिस्तान परमाणु हथियारों, मिसाइलों और विमान वितरण प्रणालियों के वैश्विक भंडार में वृद्धि के साथ परमाणु हथियारों में उपयोग के लिए प्लूटोनियम का उत्पादन करने की अपनी क्षमता बढ़ा रहा है, जिसका नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस कर रहे हैं, जिनके बीच अपने परमाणु हथियारों का आधुनिकीकरण करने की होड़ लगी दिख रही है।
परमाणु हथियारों के लिए कच्चा माल विखंडनीय सामग्री है, या तो अत्यधिक समृद्ध यूरेनियम (एचईयू) या अलग प्लूटोनियम। चीन, फ्रांस, रूस, युनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने परमाणु हथियारों में उपयोग के लिए एचईयू और प्लूटोनियम दोनों का उत्पादन किया है। भारतीय और इजरायली शस्त्रागार मुख्य रूप से प्लूटोनियम आधारित है।
नवीनतम अनुमानों के अनुसार, अब तक पाकिस्तान लगभग 165 परमाणु हथियारों के अपने भंडार के लिए मुख्य रूप से एचयू पर निर्भर रहा है। लेकिन स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई) के निष्कर्षों के मुताबिक, इस्लामाबाद हथियार-ग्रेड प्लूटोनियम का उत्पादन करने की अपनी क्षमता को बढ़ाकर विविधता ला रहा है।
सोमवार को जारी, एसआईपीआरआई इयरबुक 2021 में हथियारों, निरस्त्रीकरण और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा की वर्तमान स्थिति का आकलन किया गया है। एक महत्वपूर्ण खोज यह है कि 2020 में परमाणु आयुधों की संख्या में समग्र कमी के बावजूद, परिचालन बलों के साथ अधिक तैनात किए गए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका और रूस ने 2020 में सेवानिवृत्त वॉरहेड्स को नष्ट करके अपने समग्र परमाणु हथियारों की सूची को कम करना जारी रखा, लेकिन अनुमान है कि दोनों के पास एक साल पहले की तुलना में 2021 की शुरुआत में परिचालन तैनाती में लगभग 50 अधिक परमाणु हथियार थे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 की शुरुआत में, नौ राज्यों - संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, युनाइटेड किंगडम, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इजराइल और डेमोक्रेटिक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया (डीपीआरके, या उत्तर कोरिया) के पास लगभग 13,080 थे। परमाणु हथियार, जिनमें से 3825 को परिचालन बलों के साथ तैनात किया गया था। इनमें से लगभग 2000 को हाई ऑपरेशनल अलर्ट की स्थिति में रखा गया है।
हालांकि, एसआईपीआरआई ने अनुमान लगाया था कि इन राज्यों के पास 2020 की शुरुआत में 13,400 से कमी आई थी। इस समय परिचालन बलों के साथ तैनात परमाणु हथियारों की अनुमानित संख्या पिछले साल 3720 से बढ़कर 3825 हो गई। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि इनमें से लगभग 2000, जिनमें से लगभग सभी रूस या अमेरिका के थे, को हाई ऑपरेशनल अलर्ट की स्थिति में रखा गया था।
संस्थान ने कहा कि एशिया और ओशिनिया क्षेत्र में तीन उभरते रुझान चिंता का विषय बने हुए हैं - बढ़ती चीनी-संयुक्त राज्य प्रतिद्वंद्विता के साथ-साथ एक तेजी से मुखर चीनी विदेश नीति; जातीय या धार्मिक ध्रुवीकरण (या दोनों) के आधार पर पहचान की राजनीति से संबंधित बढ़ती हिंसा और अंतर्राष्ट्रीय हिंसक जिहादी समूहों में वृद्धि, जिनमें से कुछ सबसे अधिक संगठित समूह दक्षिण पूर्व एशिया में सक्रिय हैं, विशेष रूप से इंडोनेशिया, मलेशिया और फिलीपींस में।
वैश्विक सैन्य भंडार में हथियारों की कुल संख्या अब बढ़ती हुई प्रतीत होती है, एक चिंताजनक संकेत है कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से वैश्विक परमाणु शस्त्रागार की विशेषता में गिरावट की प्रवृत्ति रुक गई है। रिपोर्ट में एसोसिएट सीनियर हैंस एम. क्रिस्टेंसन को उद्धृत किया गया है, जो एसआईपीआरआई के परमाणु निरस्त्रीकरण, शस्त्र नियंत्रण और अप्रसार कार्यक्रम के फेलो और फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स (एफएएस) में परमाणु सूचना परियोजना के निदेशक हैं।
पाकिस्तान परमाणु भंडार बढ़ा रहा है :
परमाणु हथियार और गैर-परमाणु हथियार राज्यों, पाकिस्तान - परमाणु अप्रसार संधि के बाहर एक परमाणु हथियार राज्य - दोनों के हथियारों के नियंत्रण और अप्रसार विशेषज्ञों के एक स्वतंत्र समूह, विखंडनीय सामग्री पर अंतर्राष्ट्रीय पैनल (आईपीएफएम) के अनुसार, हथियारों के लिए विखंडनीय सामग्री का उत्पादन जारी है।
प्रिंसटन स्थित पैनल ने कहा कि 2020 की शुरुआत तक पाकिस्तान के पास लगभग 410 किलोग्राम प्लूटोनियम का संचित भंडार था, जिसका उत्पादन पंजाब प्रांत के सरगोधा डिवीजन के खुशाब में चार उत्पादन रिएक्टरों में किया गया है।
इसमें आगे उल्लेख किया गया है कि, 2020 की शुरुआत तक, पाकिस्तान के पास 3.90.4 टन एचईयू का भंडार होने का अनुमान है और अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम के लिए एव का उत्पादन जारी रखता है।
पाकिस्तान पर पैनल अपने देश की रिपोर्ट में कहता है, पाकिस्तान के यूरेनियम संसाधनों के बारे में अनिश्चितता, और कहुटा में इसके अपकेंद्रित्र संयंत्र के संचालन इतिहास और संवर्धन क्षमता और गडवाल में एक संभावित दूसरा संयंत्र (जो एचईयू उत्पादन के लिए समर्पित हो सकता है) अनुमान की विश्वसनीयता को सीमित करता है।
पिछले साल, हाल ही में और ऐतिहासिक सार्वजनिक डोमेन उपग्रह इमेजरी के आधार पर किए गए एक विस्तृत शोध में, वाशिंगटन के विज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थान ने चश्मा पुनसंर्साधन संयंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण और पहले अनिर्दिष्ट विस्तार की पहचान की और पिछले वर्षों में सह-स्थित बुनियादी ढांचे के काफी विकास की पहचान की।
संस्थान ने एक विस्तृत रिपोर्ट में खुलासा किया, कम से कम, चश्मा में प्लूटोनियम पृथक्करण संयंत्र और संबंधित सुविधाओं का विस्तार औद्योगिक पैमाने पर प्लूटोनियम पृथक्करण प्रौद्योगिकी में निवेश और संचालित करने के लिए एक सतत प्रतिबद्धता दर्शाता है।
(यह आलेख इंडिया नैरेटिव के साथ एक व्यवस्था के तहत प्रस्तुत है)
-पूनम वासम
जहाँ खेत जोतने अंदर गाँव जाने पर जेल, जहाँ वनौषधि के लिए जंगल जाने पर जेल, सूखी लकडिय़ां बटोरने जंगल जाने पर जेल, पानी पकडऩे (नहाने) तालाब जाने पर ढेरों पूछताछ की जाती हैं। जहाँ साप्ताहिक बाजार नमक, तेल खरीदी करने जाने पर मुखबीर समझकर जेल भेज दिया जाता है। जहाँ अपनी छोटी-मोटी जरूरतों की पूर्ति हेतु महुआ, तेंदू, चिरौंजी, इमली, अमचूर, टोरा बीनने पर ढेरों नियमों की लिस्ट पकड़ा देना। जहाँ पगडंडियों से शहर आते हुए फूलों, आयती और मनकी जैसी लड़कियों की तलाशी के नाम पर कुछ भी कर लेने की आजादी समझ लेना। जहाँ धनुष, बाण पकड़े आखेट पर जाते हुए आदिवासियों को नक्सली बताकर उनके हथियार उनसे छीन लेना। जहाँ बीजपंडुम मनाते जहाँ मेला, उत्सव मनाते जहाँ रेला नाचा करते हुए लोगों पर बेवजह गोलियां बरसा देना। जहाँ जल, जंगल, जमीन के सारे अधिकार उनसे छीनकर किसी और के हाथों में थमा देना। जहाँ निहत्थे आदिवासियों पर कभी भी किसी भी वक्त किसी भी कारण से हमला करने की आजादी हो। जहाँ उन्हें उनके ही घर से बाहर निकाल कर बेघर करने की तैयारी कर ली गई हो। जहाँ जल, जंगल, जमीन को नष्ट करने और उनके रखवालों को जंगल से बाहर कर देने की साजिश हो। वहाँ कुछ और हो भी क्या सकता है बेकसूर आदिवासियों की चीखती, तड़पती, फडफ़ड़ाती लाशों के सिवाय।
वह जितनी बार जंगल के सबसे ऊंचे टीले से दोहराते हैं-
सुनो साहब!
राजा मर गया, लेकिन प्रजा की मौत अभी बाकी है।
जंगल की सीमा पर हर बार एक सरकारी बयान चस्पा होता है
कि जंगलवाद सबसे बड़ा खतरा है देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए।
हर बार ऐसा उत्तर पाती एक सभ्यता घूरती है जंगल की देह
हड्डियों से बनी आँखों से!
उनकी आँखों में अब पानी नहीं उतरता।
-आशुतोष भारद्वाज
बताया जा रहा है कि ‘लगान’ को बीस बरस हो गए। यह फिल्म कई बड़े विश्वविद्यालयों के उत्तर-औपनिवेशिक पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है। इस फिल्म का एक प्रमुख पात्र, एक अछूत किरदार, जो अपनी गेंदबाजी से मैच को पलट देता है, भारत के पहले महान क्रिकेट खिलाड़ी पर आधारित माना जाता है। अछूत बालू पालवणकर जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में पुणे के मैदानों में नेट बांधने इत्यादि से जीवन शुरू किया था, और जल्द ही अंग्रेज खिलाडियों को नेट में गेंद फेंकने लगे थे।
उन दिनों बम्बई और पुणे में चल रही क्रिकेट प्रतियोगिताओं में तीन प्रमुख टीम हुआ करती थीं। हिन्दुओं, यूरोपियों और पारसियों की। बालू को हिन्दू टीम में आने के लिए विकट चुनौतियों से जूझना पड़ा। कई लोग अछूत को टीम में लिए जाने का विरोध करते थे। लेकिन बालू को देर तक कोई न रोक सका। जल्द ही बालू हिन्दू टीम के सबसे प्रमुख गेंदबाज बन गए, अर्से तक बने रहे। बालू 1911 में भारतीय टीम के साथ इंग्लैंड गए, और सौ से अधिक प्रथम श्रेणी विकेट लिए। इस उपलब्धि को ऐसे समझिये कि तबसे लेकर आज तक सिर्फ एक अन्य भारतीय गेंदबाज इंग्लैंड दौरे पर सौ से अधिक विकेट ले पाया है, वीनू मांकड़।
बालू के बाद उनके भाई भी हिन्दू क्रिकेट टीम में आये और आखिरकार एक साल आया जब अछूत पालवणकर भाइयों की बदौलत हिन्दू क्रिकेट टीम ने वह प्रतियोगिता जीत ली जिस पर यूरोपीय टीम का कब्जा हुआ करता था। बालू कई दशकों तक महाराष्ट्र में दलितों के आदर्श रहे। एक समय खुद अम्बेडकर बालू को बड़े आदर से देखा करते थे।
बालू 1937 में कांग्रेस की टिकिट पर अंबेडकर के खिलाफ चुनाव भी लड़े, और मामूली अंतर से हार गए। (एक निर्दलीय ‘वोट कटुआ’ उनके सामने खड़ा था, जो बालू की हार की वजह बना।) इस तरह बालू राजनीति में आने वाले दुनिया के शायद पहले खिलाड़ी भी बने।
इतनी लम्बी भूमिका इसलिए कि ‘लगान’ में हुए अन्याय को बतलाया जा सके। इस लम्बे, बलिष्ठ और घनघोर स्वाभिमानी गेंदबाज का रोल ‘लगान’ में एक अपाहिज और सहमे हुए अछूत को दिया गया।
इस किरदार का नाम क्या रखा गया?
कचरा।
भारतीय क्रिकेट के पहले महान खिलाड़ी और अब तक के महानतम गेंदबाजों में शुमार बालू के किरदार को एक हिंदी फिल्म में बड़ी दयनीय स्थिति में तब्दील कर दिया गया। इस अछूत कचरा का उद्धार भी एक सवर्ण के हाथों कराया गया, जबकि असल जिंदगी में अछूत बालू ने पूरी सवर्ण टीम का अकेले उद्धार कर दिया था।
बम्बई के अनेक फिल्मकारों को ऐसा दलित चाहिए जिससे उनकी ‘सामाजिक सुधार’ की भूख मिटती रहे। दलित की ‘आदर्श’ छवि लिए जीते वे एक क्रूर स्टीरियोटाइप रचते चलते हैं। दलित उनके लिए मनुष्य नहीं, अपने जाति के पूर्वाग्रहों को बढ़ाने का औजार नजर आता है।
-हितेश एस वर्मा
प्रशांत किशोर कहते हैं आपको सुनकर आश्चर्य हो सकता है, पर राहुल गांधी 2024 में आश्चर्यचकित रूप से प्रधानमंत्री बन जाएंगे।
यह हवा में कही हुई बात नहीं है और इसके कुछ कारण है। कुछ दिनों पूर्व प्रशांत किशोर शरद पवार से क्या मिले लोगों ने तरह तरह के कयास लगाने शुरू कर दिए। यहां तक निष्कर्ष निकाले गए कि यह मीटिंग इसलिए हुई क्योंकि किशोर, ममता बनर्जी के लिए प्रधानमंत्री पद हेतु लॉबिंग कर रहे हैं। कल्पनाओं के घोड़ों का क्या है, कितने ही दौड़ा लो।
खैर, पॉलिटिक्स में पीएम पद की दौड़ पूरी करनी हो तो, तैयारियों पर काम होना अमूमन ढाई-तीन साल पहले शुरू हो जाता है। जब आप एक बेहतरीन सब्जी खाते हैं तो उसमें तरह-तरह के इंग्रेडिएंट्स पड़ते हैं तब कहीं वो बन पाती है। ठीक वैसे ही बेस्वाद सब्जी बनने में भी तरह-तरह के इंग्रेडिएंट्स पड़ते हैं।
ऐसी बेस्वादी का जायका पिछले कुछ वर्षों से भारत ले ही रहा है, जिसे हमें परोसने का जिम्मा प्रशांत किशोर ने ही 2013-14 में निभाया था। इन्हीं की मार्केटिंग स्ट्रेटजी के तहत मोदी को महान बता कर, शानदार पैकेजिंग के साथ लॉन्च किया गया था। उन्हें सक्सेस भी मिली। पर मेरी नजर में इतने वर्षों में मोदी जी बेहतरीन अवसर को भुना ना सके।
ख़ुद के एवं मित्रों के लिए क्या कर गए वैसे नहीं, पब्लिक के लिए क्या कर पाए उस दृष्टि से। मुख्य बात यह है कि इस दौरान प्रशांत किशोर की कुछ निजी मांगें रहीं थीं, जिन्हें वो पूरा करने के लिए मोदी को चुनाव जीतने उपरांत कहते रह गए, पर उनकी सुनी नहीं गई। भारत के तंत्र में प्रोफेशनल्स एवं रिसर्चर्स की कोलेटरल एंट्री और रिसोर्सेज को डिसेंट्रलाइज करने को लेकर उन्होंने जबरदस्त वकालत की, जिस पर मोदी जी का उन्हें सपोर्ट नहीं मिला।
प्रशांत किशोर के अनुसार राहुल गांधी अचानक 2024 में प्रधानमंत्री बन जाएंगे, इसे आज मज़ाक में लिया जा सकता है। पर अगले तीन वर्षों में उन्हें पीएम की कुर्सी तक पहुंचाने की तैयारी प्रशांत किशोर कर चुके हैं, जिसमें ममता, केजरीवाल, पवार, उद्धव, अखिलेश, स्टालिन आदि, जैसे इंग्रेडिएंट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। वे समझते हैं कि उनके ये रेवोल्यूशनरी आइडियास को इम्प्लीमेंट करने की क्षमता राहुल जैसे विजनरी नेता में ही है।
प्रशांत किशोर की सियासी बुद्धिमता कहती है कि रीजनल पार्टीज या इनका नेता पीएम पद के लिए पब्लिकली एक्सेप्ट हो पाना कठिन है, पर राष्ट्रीय पार्टी का वो नेता जो विगत कई वर्षों से राष्ट्र निर्माण की गलत नीतियों पर सवाल उठा रहा हो, उसके सोलूशन्स बता रहा हो, सरकार को समय पूर्व सचेत कर रहा हो, तमाम नीतियों पर काम कर रहा हो और पार्टी के लिए जमीन पर धूप-धूल छान रहा हो, उसका पीएम पद के लिए एक्सेप्टेन्स पब्लिक में निश्चित ही होगा।
भारत की जनता इतनी भी मूर्ख नहीं की अपने ऊपर इतनी तकलीफ लेती रहे कि उनसे सहन ही ना हो। वैसे भी कहते हैं कि ईश्वर भी हमें उतनी ही तकलीफ देते हैं जितने भोगने की हमारी क्षमता हो। मैं जितना करीब से फिलहाल कांग्रेस पार्टी की एक्टिविटीज को देख पा रहा हूँ, मेरा अनुमान भी यही है कि राहुल को रोक पाना अब नामुमकिन होगा।
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जी-7 याने सात राष्ट्रों के समूह का जो सम्मेलन अभी ब्रिटेन में हुआ, उसमें भारत, दक्षिण अफ्रीका, द. कोरिया और आस्ट्रेलिया को भी अतिथि के रुप में बुलाया गया था। द. कोरिया को इस समूह में न गिनें तो दस-राष्ट्रों के इस समूह ने अनेक अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सहमति प्रकट की। इस सम्मेलन के संयुक्त वक्तव्य और नेताओं के भाषणों में सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया गया कि यह समूह दुनिया में लोकतंत्र का सबसे प्रबल पक्षधर है।
भारत को भी इसमें इसीलिए आमंत्रित किया गया कि वह सबसे बड़ा लोकतंत्र है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस तथ्य पर गर्व प्रकट किया लेकिन असलियत क्या है ? यह ठीक है कि इन सभी देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। तानाशाही कहीं नहीं है। बहुपार्टी व्यवस्था है। वोट के दम पर सरकारें वहां उलटती-पलटती रहती हैं लेकिन ये राष्ट्र अपने आप को विश्व लोकतंत्र का ध्वजवाहक कहें, यह तर्क-संगत नहीं लगता।
पहली बात तो यह कि ये सात राष्ट्र कौन से हैं ? ये हैं— अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान! इनमें से ज्यादातर राष्ट्रों ने एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में तानाशाहियों को प्रोत्साहित किया है। आज भी गैर-लोकतांत्रिक देशों से इनकी गहरी सांठ-गांठ है। इन्हें अपने राष्ट्रहितों की सुरक्षा से मतलब है। उन राष्ट्रों में कैसी शासन-पद्धति है, इससे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। जब ये अपने आपको लोकतांत्रिक समूह कहते हैं तो ये अपनी उंगली चीन, रुस, ईरान और क्यूबा की तरफ उठाते हैं, क्योंकि ये ही देश आज इनके प्रतिद्वंदी हैं। यह एक प्रकार से ढका हुआ शीतयुद्ध ही है।
यह ठीक है कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युल मेक्रों ने फ्रांस को गुटमुक्त बताया है लेकिन जी-7 का यह सम्मेलन चीन-विरोधी जमावड़ा बनकर ही उभरा है। हालांकि इस सम्मेलन में जलवायु-सुधार के लिए 100 बिलियन डाॅलर खर्च करने, कोविड वेक्सीन को सर्वसुलभ बनाने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से 15 प्रतिशत टैक्स वसूलने आदि के मुद्दों पर भी प्रस्ताव पारित हुए हैं, लेकिन नेताओं के भाषणों पर यदि आप बारीकी से गौर करें तो उनके चाकुओं की तेज धार चीन पर ही चली है।
उन्होंने चीन के उइगरों, हांगकांग, ताइवान और कोविड-फैलाव के मामलों पर इतना ज्यादा जोर दिया है कि मानो यह सम्मेलन चीन-विरोध के लिए ही बुलाया गया था लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय के अफसरों ने संयम दिखाया। उन्होंने मोदी के भाषण में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं लिखी, जिससे यह ध्वनित होता हो कि भारत इस सम्मेलन में किसी देश की टांग खींचने के लिए शामिल हुआ है।
मोदी ने अपने तीनों मंचों के भाषणों में पर्यावरण-रक्षा के लिए रचनात्मक सुझाव पेश किए और विश्व के असमर्थ राष्ट्रों को कोरोना-रोधी टीके दिलवाने की वकालत की। भारत न तो पहले किसी सैन्य-गुट में शामिल हुआ था और न ही अब वह किसी राजनीतिक गुट में शामिल होने की भूल करेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-स्मिता
रायपुर के आउटर में एक पंजाबी ढाबे में मद्धम रोशनी में थोड़ा वाइल्ड, विद्रोही थीम के इंटीरियर में ‘चे ग्वेरा’ की पोस्टर लगी हुई थी।
ऐसे ही कितने टी शर्ट, टैटू, कैप,बाइक और पोस्टर में उनकी तस्वीर चस्पा है । वे सिर्फ फैशन स्टेटमेंट नहीं विचार और जीवनशैली है।
मूलत: युवाओं के प्रतिरोध, उनकी ऊर्जा से भरी क्रांति और दु:साहसके प्रतीक के रूप में ‘चे’ युवाओं के महानायक है।
दक्षिण अमेरिकी देशों का सफर करते हुए ‘चे ग्वेरा’ ने इन देशों की बदहाली देखी और शस्त्र उठा लिया। चे का बचपन बीमारियों से लडऩे में बिता और युवाकाल गुरुल्ला-युद्ध में। चे के पुस्तक पढऩे के प्रेम ने चे को एक पुस्तकालय में नौकरी भी करा दी। इस बेहद जिद्दी और स्वभाव से जोखिमों से खेलने वाले युवा ने क्यूबा को तानाशाही से आजादी दिला दी और लोकतांत्रिक सरकार में मंत्री भी बने।
चे ग्वेरा यही पर नहीं रुक जाते बल्कि अन्य देशों में जहाँ अन्याय हो रहा था, उन देशों के भी युवाओं को गुरुल्ला युद्ध की ट्रेनिग देने लगे। इसी क्रम में बोलविया के सैनिकों और सीआईए ने एक संयुक्त अभियान चलाकर चे को पकड़ा और गोली मार दी (9 अक्टूबर 1967)। इस तरह एक महान क्रांतिकारी शहीद हो गया और तृतीय-विश्वयुद्ध होने से पूर्व ही उसका समापन हो गया।
चे एक जिद्दी, जोशीले, बेहद निडर, ईमानदार और सबसे बढक़र अन्याय के खिलाफ सदैव खड़े रहने वाले योद्धा थे। अपने इसी गुणों से चे ग्वेरा दुनिया भर में आज भी बेहद पसंद किये जाते है, आज भी चे ग्वेरा ‘विद्रोह का महान चेहरा’ हैं और युवाओं की पहली पसंद हैं।
वैसे तो चे ग्वेरा माथे एक दाग भी है, चे ग्वेरा जब क्यूबा के जेल मंत्री थे तब उनने सैकड़ों युद्धबंदियों को बिना मुकदमा फाँसी पर लटकाया दिया था, जिसकी बड़ी आलोचना हुई थी।
बहरहाल आज चे ग्वेरा को उसके जन्मदिन पर याद करते हुए उसके बेटे को उसके द्वारा लिखे ख़त की एक लाइन याद आ रही है जो उसे दुनिया के महानतम क्रन्तिकारियों में शामिल किये जाने को जायज़ ठहराती है। खत में अपने बेटे को चे ग्वेरा ने लिखा था,-‘दुनिया में कहीं भी अन्याय हो रहा हो तो सशत्र क्रांति ही एक मात्र विकल्प है।’
सलाम कामरेड!
-सुशीला सिंह
हम दोनों ने अगर शादी की है तो क्या किसी लडक़े से की है?
क्यों हमसे लोग नाराज हैं? लडक़ी-लडक़ी ने ही तो की है (फिर गाली देते हुए) इससे गांव वालों को क्या दिक्कत है।
ये कहकर प्रिया (बदला हुआ नाम) मुझसे पूछती हैं आप क्या हमारी मदद करोगे?
मैंने ठहर कर कहा कि तुम्हारी शादी ही वैध नहीं है प्रिया।
फोन पर कुछ सेकेंड के लिए चुप्पी पसरगई फिर उसने मुझसे कई सवाल करने के बाद कहा कि हमने प्यार क्या किया जिंदगी ही बर्बाद हो गई।
प्रिया, लता (बदला हुआ नाम) से प्यार करती हैं। जो उनके गांव से थोड़े ही दूर रहती हैं।
प्रिया बेलदारी या मनरेगा कार्यक्रम के तहत जो काम मिल जाता है उसी से अपना ख़र्चा चलाती हैं। प्रिया के माता-पिता का निधन हो गया है और वह अपने भाइयों, भाभियों और बहन के साथ रहती हैं।
प्रिया कहती है, ‘मुझे उससे पहली नजऱ में प्यार हो गया था। हम पहली कक्षा से साथ पढ़े हैं। स्कूल में भी जब उसे कोई लडक़ा या लडक़ी तंग करता तो मैं लड़ जाया करता।’
प्रिया बातचीत में अपने आप को लडक़ों की तरह संबोधित करती हैं। दोनों से बातचीत में प्रिया जितनी दबंग लगती हैं लता उतनी ही सहमी नजर आती हैं।
लता फोन पर बड़ी दबी ज़ुबान में बात करते हुए मुझसे कहती हैं कि मेरे आस-पास घर वाले हैं, मैं खुलकर बात नहीं कर सकती।
बचपन से हमें प्यार है
वह बताती हैं, ‘प्यार तो हम में पहली कक्षा से था लेकिन सातवीं से जब हमारी समझ बननी शुरू हुई तो हम एक दूसरे के लिए एक अलग प्यार महसूस करने लगे। स्कूल में साथ रहना, आस-पास या बाजार साथ में जाना। प्रिया आठवीं से बेलदारी का काम भी कभी-कभी करती तो उन पैसों से मेरे लिए कपड़े, कॉपी और मिठाई लेकर आती थी।’
‘वह कहीं भी अगर जाती तो मुझे हमेशा अपने साथ लेकर जाती थी। हमसे दूर रहा नहीं जाता था। जितने हम दूर रहते थे उतना ही और मिलने का दिल करता था। किसी को हमारे प्यार की कोई भनक नहीं थी। हम स्कूल के बाद भी रोज़ मिलते थे।’
प्रिया बताती हैं कि आठवीं तक सब ठीक चल रहा था लेकिन आठवीं के बाद अलग-अलग स्कूल में दाखिला हो गया।
इस बीच प्रिया, लता से नाराज़ हो गई कि उसने उसी के स्कूल में मां-पिता को दाखिले के लिए क्यों नहीं कहा। बीच में कुछ दिन के लिए बात भी बंद हुई और इसी बीच प्रिया के मुताबिक एक लडक़ा लता को छेडऩे लगा। प्रिया को इस बारे में पता चला और शिकायत की लेकिन इसमें लता पर उलटे आरोप लगा दिए गए और चरित्र पर सवाल उठाया गया।
इधर लता की शादी की बात भी घर में होने लगी।
दोनों अलग-अलग स्कूल में दो साल पढ़े मगर लता दसवीं में फेल हो गईं। प्रिया बताती हैं कि इस दौरान हमारी लड़ाई ज़्यादा होती थी, लेकिन फिर उसने घरवालों को मनाया और लता को आगे पढ़ाने को कहा।
प्रिया ने लता का 10वीं में दाखिला कराया और खुद 12वीं में उसी स्कूल में दाखिला लिया। लेकिन दसवीं के बाद प्रिया ने लता को आगे पढऩे नहीं दिया। उसका कहना था कि माहौल ठीक नहीं था। मैं उसके लिए किस-किस से लड़ता।
लता का कहना था, ‘घर में उसकी शादी की बातें तेज़ होने लगी थीं। मैंने इस बारे में प्रिया को भी बताया। इसके बाद हमने शादी करने का फैसला लिया। मुझे किसी प्रकार का कोई डर नहीं था। वह जो कहेगी मैं वो करने को तैयार हूं।’
जब घर वालों को पता चला
लता बताती है, ‘मैंने घर के ही कपड़े, सलवार-कमीज़ पहने और उसने पेंट शर्ट पहना था। हमने मंदिर में शादी कर ली लेकिन घर में कुछ नहीं बताया। और अपने-अपने घर लौट आए।’
आगे बताते हुए प्रिया कहती हैं कि पता नहीं कहां से अख़बार में ये खबर छपी और पूरे गांव में ये बात फैल गई।
लता के अनुसार, ‘जब घरवालों को पता चला वो काफी नाराज हुए। मम्मी से लड़ाई भी हुई। उनका कहना था लडक़ी-लडक़ी की शादी थोड़े न होती है, उसने (प्रिया) इस पर कुछ करा दिया है। इसका दिमाग खराब हो गया है।’
प्रिया के घर में भी यही सवाल पूछा गया कि क्या लडक़ी-लडक़ी के बीच में शादी होती है? वो कहती हैं कि इसके तीन दिन बाद घर में पुलिस आ गई और मेरे जो दस भाई-बहन हैं वे लोग ऐसा कर रहे थे जैसे पता नहीं क्या हो गया है फिर पुलिस की ओर से भी मुझे समझाया गया।
लता बताती हैं कि उन्हें डर लग रहा था। इसके बाद प्रिया ने पूछताछ की और एक वकील की मदद से कोर्ट का दरवाजा भी खटखटखटाया। इसका सारा खर्च प्रिया ने ख़ुद उठाया।
मैं जो बोलूंगी वो लता करेगी
इन दोनों के वकील भीम सेन का कहना है कि प्रिया और लता ने लिव-इन-रिलेशनशिप का एक हलफनामा दायर किया था और उच्च न्यायलय, जयपुर में याचिका डालकर कहा था कि इन दोनों ने 20 दिसंबर 2018 को मंदिर में शादी की थी।
इनका कहना था कि हमने शादी की बात घरवालों को नहीं बताई थी लेकिन पता चलने के बाद हमारे घरवाले और रिश्तेदार जान से मारने की धमकी दे रहे हैं।
कोर्ट ने कहा था कि दोनों याचिकाकर्ता का एक ही जेंडर हैं और ये एक साथ रहना चाहती हैं। हाईकोर्ट ने इस जोड़े को सुरक्षा देने का निर्देश दिया ताकि शारीरिक नुक़सान न पहुंचाया जा सके। लेकिन कोर्ट ने उनकी शादी पर कोई टिप्पणी नहीं की थी। भारत की सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक संबंधों को गैर कानूनी बताने वाली धारा 377 को खारिज कर चुकी है।
प्रिया हंस कर कहती हैं, ‘अगर मैं लता को कहूं कि कुएं में गिर जाओ तो गिर जाएगी। उसे गुलाब जामुन और बर्फी बहुत पसंद है। मैं उसके खर्चे के लिए पैसे भी देता हूं। मैं उसके पापा से कह चुका हूं कि छोरी को हाथ भी लगाया तो देख लेना।’
मैंने पूछा कि ये बताओ अब आगे क्या करोगी। उसका जवाब था, ‘अब मैं थक गया हूं , मैं लता की शादी कर रहा हूं। मैं उसके लिए लडक़ा ढूंढ कर उसकी शादी कर दूंगा।’
ये कहकर प्रिया कुछ देर के लिए शांत हो गई।
शादी में दहेज बनकर चली जाऊंगी
मेरे फोन पर बार-बार नाम पुकारने के बाद उसने कहा कि मैं अगर उसे अपने घर लेकर आता हूं तो घरवाले धमकी देते हैं कि फांसी लगा लेंगे। मैं क्या कर सकता हूं?
मैंने पूछा कि लता की शादी के बाद तुम क्या करोगी और तुम्हारे प्यार का क्या होगा? वो कहती हैं, ‘मैं उसके साथ दहेज में चला जाऊंगा। कहूंगी कमाता तो हूं बस दो समय की रोटी चाहिए।’
जब मैंने लता से पूछा कि तुम क्या करोगी, वो बोली जो प्रिया बोलेगी मैं बस वही करूंगी। जून महीने को प्राइड मंथ के तौर पर मनाया जाता है। प्राइड मंथ यानी समलैंगिक लोगों के अधिकारों और उनके अस्तित्व को पहचान देने का, जश्न मनाने का महीना।
राजस्थान में रहने वाली ये दो दलित लड़कियां इस प्राइड मंथ के बारे में न कुछ जानती हैं और न ही उनके लिए ये शायद मायने रखता है क्योंकि उनके जीवन की ख़्वाहिश सिर्फ साथ रहने की है जिससे वो कोसों दूर हैं।
30 साल का बेमिसाल साथ
लेकिन गुजरात के अहमदाबाद में पिछले तीन दशकों से साथ रह रहे दिब्येंदु गांगुली और समीर सेठ अपने तीस वर्षों के सफऱ को बेमिसाल बताते हैं।
वे कहते हैं इतने सालों में न जाने कितने लोगों की शादियां टूट जाती हैं, रिश्तों में कड़वापन या उदासीनता आ जाती है लेकिन हम एक साथ हैं। दिब्येंदु बताते हैं कि उनमें और समीर में उम्र का फासला है लेकिन वो कभी उन दोनों के बीच मुद्दा नहीं बना।
दिब्येंदु कोलकता से आते हैं और समीर गुजरात के रहने वाले हैं। नौकरी के सिलसिले में दिब्येंदु अहमदाबाद आए और फिर यहीं बस गए। दोनों ही अपनी पहली मुलाकात को पहली नजर का प्यार बताते हैं और उस तारीख को याद करते वक्त इन दोनों की ही आवाज में एक मिठास सुनाई देती है।
ये पूछने पर कि क्या उन्हें अपनी पहचान को लेकर कभी कोई परेशानी नहीं हुई?
पहचान को लेकर समस्या
दिब्येंदु कहते हैं कि, ‘मैं 12वीं के बाद पढ़ाई करने के लिए कोलकता से निकल गया। 14-15 साल का रहा होऊंगा तब अपनी इच्छाओं के बारे में मुझे पता चल रहा था लेकिन कन्फ्य़ूज़ था। उस जमाने में न इंटरनेट था न सेक्स एजुकेशन के बारे में जानकारी थी तो आप अंधेरे में ही तीर मार रहे होते हैं।’
वे बताते हैं, ‘मेरे संबंध फीमेल पार्टनर के साथ बने लेकिन फिर मुझे ये जाकर साफ हुआ कि मेरी केवल लडक़ों से ही संबंध बनाने में रूचि है। क्योंकि में 12वीं के बाद ही आगे की पढ़ाई के लिए कोलकता से बाहर निकल गया तो माता-पिता से इस बारे में बात नहीं हुई। समीर से अहमदाबाद में मुलाकात हुई। हम साथ रहने लगे। इस बीच पिता का निधन हो गया। मां मुझसे मिलने अहमदाबाद आईं। वो समझ गईं और बोलीं समीर ठीक है और तुम्हारा बहुत ध्यान रखता है। कोई मेरा मज़ाक उड़ा रहा हो या कुछ ताना दे रहा हो वैसा मैंने कभी महसूस नहीं किया।’
समीर के भी ऐसे ही अनुभव रहे। वे कहते हैं मुझे अपने मम्मी-पापा को मनाने में थोड़ा वक्त लगा। पापा ने कुछ नहीं कहा लेकिन मां कुछ कहती नहीं थी पर मैं उनकी ख़ामोशी समझता था।
मैं बस उन्हें यही कहता था, ‘मां सोचो कि अगर तुम्हारी बेटी होती और उसकी शादी मेरे जैसे आदमी से होती तो क्या वो खुश रहती या तुम सुकून से रह पाती। मैं लडक़े के साथ ही खुश रह सकता हूं और लडक़ी से शादी नहीं कर सकता अगर तुम ऐसा करोगी तो दो जिंदगियां बर्बाद करोगी। वो धीरे-धीरे मेरी इस बात को समझीं और अब हम इतने साल से एक साथ रह रहे हैं और मेरे माता-पिता भी हमारे पास आते जाते रहते हैं।’
दिब्येंदु और समीर कहते हैं कि उन्हें समाज क्या बोलता है उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम ये जानते हैं कि हम एक साथ हैं, खुश हैं और आगे भी ये सिलसिला जारी रहेगा।
दिब्येंदू और समीर जैसी कई कहानियां अपने मुकाम पर पहुंची हैं पर लता और प्रिया जैसी कई कहानियां अभी भी एक किनारा तलाश रही हैं या अधूरी रह गई हैं। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के नेता दिग्विजयसिंह पर भाजपा के नेताओं का यों बरस पड़ना मेरी समझ में नहीं आ रहा है। दिग्विजय ने ऐसा क्या कह दिया है कि आप कांग्रेस को ही पाकिस्तानपरस्त पार्टी कहने लगे हैं। किसी संगोष्ठी में दिग्गी राजा ने यही तो कहा है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आ गई तो वह धारा 370 को लागू करने के बारे में पुनिर्विचार करेगी। उन्होंने यह तो नहीं कहा कि वह धारा 370 फिर से लागू कर देगी। यह भी उन्होंने कब कहा, जबकि एक पाकिस्तानी पत्रकार उनसे उस संगोष्ठी में यह सवाल पूछ रहा था। आजकल पाकिस्तानी राजनीति का यही भारत-विरोधी मूल मुद्दा है। यदि ऐसा गोलमाल जवाब देने पर कांग्रेस को आप पाकिस्तानी पार्टी कह देते हैं तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को क्या कहेंगे ? क्या आप उन्हें पाकिस्तान का प्रवक्ता कहने का दुस्साहस करेंगे, क्योंकि उन्होंने तो कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य बनाने की घोषणा कई बार की है। स्वयं गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में जब धारा 370 खत्म करने की घोषणा की थी, तब कहा था कि कश्मीर को केंद्र प्रशासित क्षेत्र से पूर्ण राज्य बनाने की कोशिशें शीघ्र की जाएगी।
मैं स्वयं मानता हूं कि कश्मीर को भारत के अन्य प्रांतों की तरह ही होना चाहिए। जहां तक धारा 370 खत्म करने का सवाल है, मेरी पहली टिप्पणी यह है कि अपने मूल रुप में वह पहले ही खत्म हो चुकी थी। इंदिरा गांधी के ज़माने में उसे खोखला कर दिया गया था। और अब जबकि वह औपचारिक रुप से खत्म हो चुकी है, उसके नए प्रावधानों के तहत अब तक कितने गैर-कश्मीरियों या तथाकथित राष्ट्रवादियों ने वहां जमीनें खरीदी है और वहां बसने का फैसला किया है?
धारा 370 खत्म करने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि कश्मीर का प्रशासन जरा चुस्त हो गया है। उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा की देख-रेख में वहां भ्रष्टाचाररहित प्रशासन चल रहा है। नेताओं की दुकानदारी फीकी पड़ गई है। इस समय दिग्गी राजा ने कश्मीर के सवाल पर जैसा नरम और व्यावहारिक रवैया अपनाया है, वह भारत और पाकिस्तान की वर्तमान मनस्थिति के अनुकूल है।
पाकिस्तान भारत के साथ बंद हुए व्यापार को दुबारा खोलना चाहता है और संयुक्त राष्ट्र में हमारे प्रतिनिधि ने द्विपक्षीय संबंध सुधारने पर जोर दिया है। विदेश नीति के मामले बहुत नाजुक होते हैं। उन्हें अदरुनी राजनीति में घसीटना कभी-कभी नुकसानदेह साबित होता है। कांग्रेस क्या, भारत की कोई भी प्रतिष्ठित पार्टी किसी भी अन्य देश की हिमायती नहीं हो सकती। जिस पार्टी ने कश्मीर को भारत का अटूट-अंग बनाए रखा, पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए और जिसकी नेता इंदिरा गांधी के नाम से पड़ौसी नेताओं के पसीने छूटते थे, उसे पाकिस्तानपरस्त कहना कहां तक उचित है ?
धारा 370 को हटाने के सवाल पर यदि कोई मतभेद रखता है तो उसे आप गलत कह दीजिए लेकिन उसे पाकिस्तानपरस्त (या देशद्रोही) कहना तो समझ के परे है। अपने आप को हम राष्ट्रवादी कहें और राष्ट्रहित की रक्षा में अग्रणी रहें, यह तो प्रशंसनीय है लेकिन अपने प्रतिद्वंद्वियों के माथे पर देशद्रोही का बिल्ला चिपका देना तो सर्वथा अनुचित है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
असम के नए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने अपने राज्य के बांग्लाभाषी मुसलमानों से ऐसी अपील कर दी है कि वैसी अपील कोई अखिल भारतीय नेता कर देता तो पता नहीं, कौन-कौन उस पर टूट पड़ता ? सरमा ने कहा है कि असम बांग्लाभाषी मुसलमान अपने बच्चों की शिक्षा और संख्या पर ध्यान दें याने दो से ज्यादा बच्चे पैदा न करें। वैसे 2017 में असम सरकार ने यह कानून बना दिया था कि उसकी नौकरी में वही व्यक्ति रह सकेगा और प्रवेश पा सकेगा, जिसके सिर्फ दो बच्चे हों।
इसी तरह 2018 से पंचायत-चुनावों में भी वे ही लोग उम्मीदवार बन सकते हैं, जिसके बच्चे दो से ज्यादा न हों। मैं तो समझता हूं कि ऐसा कानून विधानसभा और लोकसभा के उम्मीदवारों पर भी लागू होना चाहिए और इस पर देश के सभी प्रांतों में अमल होना चाहिए। लेकिन असम के मुख्यमंत्री के उक्त बयान से काफी गलतफहमी पैदा हो सकती है। लोग यह भी अंदाज लगाने लगेंगे कि यह मुस्लिम-विरोधी नीति है या यह अल्पसंख्यकों पर जुल्म करने की साजिश है। इस शक को इस तथ्य से भी बल मिल सकता है कि 77000 बीघा जमीन से बांग्ला-मुसलमानों को बेदखल करने का अभियान आजकल चला हुआ है।
इस सरकारी जमीन पर उनका अवैध कब्जा हटाया जा रहा है। जबकि असम के मुस्लिम संगठनों का तर्क है कि भाजपा की पिछली सरकार ने स्थानीय असमिया लोगों में से 2 लाख 28 हजार को 2 लाख बीघे से भी अधिक जमीन मुफ्त में बांटी है। इन स्थानीय लोगों के बारे में किसी तरह का कोई विवाद नहीं है। वे हिंदू हों, मुसलमान हों या ईसाई हों– यदि वे जरुरतमंद हैं तो उन्हें जमीन मिलेगी लेकिन बांग्लादेशी शरणार्थी मुसलमानों को लेकर फिलहाल काफी विवाद चल रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ ने इस समस्या को और भी तीखा बना दिया है। जहां तक असम के मुसलमानों को दो बच्चे रखने की अपील का सवाल है, वह मुख्यमंत्री सरमा के मुस्लिम-विरोधी होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यह कानून तो सभी पर समान रुप से लागू होगा। सरमा ने अपना बयान इतनी नरम, सधी हुई और प्रेमल भाषा में दिया है कि उसे पढक़र ऐसा लगता है कि वे मुसलमानों के भले के लिए ही ऐसी अपील जारी कर रहे हैं।
असम के लगभग तीन करोड़ लोगों में से एक करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं। इन एक-तिहाई मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति कैसी है ? दयनीय है। उसकी बेहतरी के उपाय ही मुख्यमंत्री सुझा रहे हैं। यदि सरमा कोरोना महामारी के इस दौर में अवैध कब्जों को हटाने के अभियान को थोड़ा आगे खिसका दें, जो कुछ अनुचित नहीं होगा। यही बात असम के उच्च न्यायालय ने भी कही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
लक्षद्वीप की फिल्मकार आयशा सुल्ताना पर राजद्रोह का मुकदमा हो गया। उन्होंने एक चैनल पर बहस के दौरान लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल्ल खोड़ा पटेल पर टिप्पणी की थी। बहस के दौरान आयशा ने कहा था कि जिस तरह चीन ने महामारी फैलाई उसी तरह भारत सरकार ने लक्षद्वीप के लोगों के खिलाफ जैविक हथियार का इस्तेमाल किया है।
बीजेपी का कहना है कि मुझे लगता है कि उन्होंने एक राष्ट्रविरोधी बयान दिया है। क्या बीजेपी का हर व्यक्ति अपने आप में राष्ट्र है? इस टिप्पणी में ऐसा क्या है जिसके लिए राजद्रोह का मुकदमा होना चाहिए? व्यक्ति पर टिप्पणी करना राष्ट्रविरोधी कैसे हो गया? अगर कोई प्रशासक जन भावनाओं के विरुद्ध कोई सनक भरा फैसला लेता है तो जनता को उसकी आलोचना का अधिकार है। अगर टिप्पणी अपमानजनक है तो मानहानि का मुकदमा होना चाहिए।
लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल पटेल ने वहां कई विवादित फैसले लिए हैं। पटेल ने लक्षद्वीप में बीफ बैन कर दिया है। शराब पर वहां पहले से पाबंदी थी जिसे हटा दिया। केरल और गोवा में बीफ खिलाने का वादा करने वालों ने लक्षद्वीप में बीफ बैन क्यों किया, यह कोई नहीं जानता। गुजरात में शराब बैन करने वाली पार्टी के गुजराती पटेल ने लक्षद्वीप में शराब से पाबंदी क्यों हटाई, ये वह भी नहीं जानता। उन्होंने एक नया विकास प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव दिया है जो लक्षद्वीप के किसी भी इलाके को डेवलपमेंट जोन घोषित करके जमीन का अधिग्रहण कर सकता है। जनता इन फैसलों के विरोध में है।
राजद्रोह कानून अंग्रेजों का सबसे कारगर हथियार था। दुर्भाग्य से हमारे भूरे अंग्रेज इस दमनकारी काले कानून का खूब दुरुपयोग कर रहे हैं।
कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश में दो टीवी चैनलों पर राजद्रोह के मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने आंध्र प्रदेश पुलिस को कार्रवाई करने से रोकते हुए कहा कि राजद्रोह से संबंधित आईपीसी की धारा 124ए की व्याख्या करने के जरूरत है। कोर्ट ने साफ किया है कि किसी बयान को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है। भले ही वह देश के किसी भी हिस्से में चल रही सत्ता की आलोचना में ही क्यों ना हों। यहां हालत ये है कि सारे चिंटू पिंटू अपने को राष्ट्र माने बैठे हैं।
इस कानून में सुधार करके या तो इसे नागरिकों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने से रोका जाए या फिर इस कानून को रद्द किया जाना चाहिए। नेताओं को ये बताए जाने की जरूरत है कि वे ईश्वर नहीं हैं। न ही यह देश उनकी जागीर है। उनकी सनक का खामियाजा जनता भोगती है तो जनता को हर प्रशासक के बारे में अपनी राय रखने का अधिकार है।
-रमेश अनुपम
यह मेरे लिए एक अत्यंत सुखद और दुर्लभ संयोग ही है कि जब मैं माधव राव सप्रे पर केंद्रित इक्कीसवीं कड़ी का शुभारंभ करने जा रहा हूं, इसके ठीक छ: दिन बाद ही 19 जून को उनकी एक सौ पचासवीं जयंती पूरे देश भर में मनाई जाएगी।
निश्चित ही छत्तीसगढ़ प्रदेश भी इस अवसर पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेगा क्योंकि उसके इस सपूत ने इस प्रदेश का नाम पूरे देश में रौशन किया है।
माखन लाल चतुर्वेदी, द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविंद दास, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसी विभूतियां जिनसे अनुप्रेरित होने में अपना सौभाग्य मानती रही हैं, ठाकुर जगमोहन सिंह, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ जैसे लेखक जिसकी मित्रता पर गर्वित होते रहे हों, ऐसे महामानव माधव राव सप्रे को एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर नमन करना हम सबका परम कर्तव्य बनता है।
मात्र चार वर्ष की उम्र से ही अपने पिता तुल्य भाई बाबूराव की उंगली थामकर छत्तीसगढ़ की भूमि पर पांव धरने वाले माधव राव सप्रे आजीवन छत्तीसगढ़ के होकर ही रह गए। छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में धडक़ता था, रायपुर उनके हृदय में बसता था।
माधव राव सप्रे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। वे कोई साधारण मानव नहीं, अपितु एक महामानव थे, जिन्होंने इस देश के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर कर दिया।
जिन्होंने कभी अपने लिए फूलों भरे पथ की चाह नहीं की, बल्कि कांटों भरे मार्ग का चुनाव किया। उन्हेें कांटों भरे मार्ग पर चलना ही जीवनपर्यंत प्रिय रहा।
‘एकला चलो रे’ जैसे उनके जीवन का सबसे प्रिय मंत्र था। यही कारण है कि वे जीवन भर अपने मार्ग पर एकाकी चलते रहे, उन्होंने कभी अपने लाभ या हानि की परवाह नहीं की, कभी अपने व्यक्तिगत सुख को महत्व नहीं दिया।
छत्तीसगढ़ के एक छोटे से कस्बे पेंड्रा रोड से सन् 1900 में
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ जैसा एक मासिक पत्र निकालने का दुस्साहस केवल माधव राव सप्रे ही कर सकते थे। सन् 1900 में पेंड्रा रोड से किसी मासिक पत्र का प्रकाशन ही अपने आप में किसी असाधारण घटना से कम नहीं है।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का आज एक स्वर्णिम अध्याय बन चुका है।
एक परतंत्र देश में स्वतंत्रता का अलख जगाने के उद्देश्य से किए गए इस महान कार्य को शब्दों में बयान करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
सन् 1900 से लेकर सन् 1902 तक पेंड्रा रोड से लगातार तीन वर्षों तक एक मासिक पत्र का प्रकाशन केवल एक व्यक्ति की जिद और जुनून का ही परिणाम था और वह व्यक्ति थे माधव राव सप्रे।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में पंडित रामराव चिंचोलकर के साथ संपादक के रूप में माधव राव सप्रे बी.ए. का नाम प्रकाशित होता था पर सच कहा जाए तो संपादक का भार अकेले माधव राव सप्रे के कंधों पर ही टिका हुआ था।
प्रोप्राइटर के रूप में वामन बलि राव लाखे बी.ए.का नाम जाता था। इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया रखा गया था। पहले वर्ष के मुद्रक थे कय्यूमी प्रेस रायपुर।
आज ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ अपने आप में एक इतिहास बन चुका है। पेंड्रा रोड को पूरे देश में इसी मासिक पत्र के चलते ही जाना जाता है।
माधव राव सप्रे पेंड्रा रोड कैसे पहुंचे ? इसकी भी अपनी एक अलग कहानी है।
पेंड्रा रोड के राजकुमार को अंग्रेजी सीखने के लिए एक अच्छे शिक्षक की जरूरत थी। जिन दिनों राजकुमार रायपुर के राजकुमार कॉलेज में पढ़ रहे थे उस समय माधव राव सप्रे उनके हिंदी ट्यूटर हुआ करते थे, इस तरह वे पूर्व से ही एक दूसरे से भली-भांति परिचित थे। पचास रुपए मासिक पर माधव राव सप्रे ने यह कार्य स्वीकार कर लिया और पेंड्रा रोड जाकर राजकुमार को अंग्रेजी सीखाने का मन बना लिया।
माधव राव सप्रे का उद्देश्य था इस पैसे से एक मासिक पत्र का प्रकाशन कर देश को जगाने का। माधव राव सप्रे जैसे मनीषी यह जानते थे कि हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की बेडिय़ों में जकड़े हुए इस महादेश को जगाया जा सकता है। इस तरह ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
तीन वर्षों तक वे इस मासिक पत्र का नियमित प्रकाशन करते रहे। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के इन छत्तीस अंकों के माध्यम से माधव राव सप्रे ने छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण देश को जिस तरह से जागृत करने का प्रयास किया, उसे यह देश कभी भूला नहीं सकता है।
( एक डेढ़ वर्ष पहले मैं अपने मित्र संजीव बख्शी के साथ पेंड्रा रोड स्थित राजकुमार की वह हवेली जहां माधव राव सप्रे पढ़ाने जाया करते थे, देख आया हूं। उस जगह को भी जहां माधव राव सप्रे निवास करते थे। पेंड्रा रोड स्थित हवेली की तस्वीर यहां दी जा रही है। )
पेंड्रा रोड जाने से पहले ही माधव राव सप्रे का विवाह रायपुर के एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर लक्ष्मी राव शेवडे की सुपुत्री से सन 1889 में संपन्न हो चुका था। माधव राव सप्रे के ससुर ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने दामाद के लिए नायब तहसीलदार की सरकारी नौकरी का प्रबंध भी कर लिया था।
वे चाहते थे कि उनका दामाद भी उनकी तरह ही सरकारी नौकरी में आ जाए। पर माधव राव सप्रे अंग्रेजों की चाकरी करने के लिए नहीं बने थे। उनकी मंजिल अलग थी और रास्ते भी अलग थे।
देश के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून जिसके भीतर अंगड़ाई ले रहा हो, उस नवयुवक को सरकारी नौकरी का प्रलोभन भला कैसे डिगा सकता था। उन्होंने इस सरकारी नौकरी के लिए अपने ससुर को साफ-साफ मना कर दिया।
सन् 1898 में माधव राव सप्रे की पत्नी का निधन हो गया। माधव राव सप्रे अपनी पत्नी के निधन के पश्चात अकेले रह गए थे। पत्नी के निधन के आघात को झेलते हुए भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और हिसलाप कॉलेज नागपुर से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
पिता तुल्य भाई बाबूराव के दबाव के चलते सन 1899 में माधव राव सप्रे को भंडारा के पंडित गोविंद राव भाटवडेकर की सुपुत्री पार्वती से विवाह करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
पेंड्रा रोड जाने से पहले वे पुन: विवाह सूत्र में बंध चुके थे।
सन् 1902 के पश्चात ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन
सन् 1902 के पश्चात ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन बंद हो जाने से माधव राव सप्रे बहुत आहत हुए पर उन्होंने थक कर चुपचाप बैठ जाना कभी स्वीकार नहीं किया। उनके जीवन का मिशन तो पत्रकारिता के माध्यम से देश को जागृत करना था।
सो सन् 1905 में माधव राव सप्रे नागपुर चले गए। वहां जाकर उन्होंने हिंदी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापना की। सन् 1906 से ‘हिंदी ग्रंथ माला’ मासिक पत्रिका के रूप में नागपुर से प्रकाशित होने लगा। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की जगह अब ‘हिंदी ग्रंथ माला’ ने ले लिया था।
(शेष अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
असम के नए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने अपने राज्य के बांग्लाभाषी मुसलमानों से ऐसी अपील कर दी है कि वैसी अपील कोई अखिल भारतीय नेता कर देता तो पता नहीं, कौन-कौन उस पर टूट पड़ता ? सरमा ने कहा है कि असम बांग्लाभाषी मुसलमान अपने बच्चों की शिक्षा और संख्या पर ध्यान दें याने दो से ज्यादा बच्चे पैदा न करें। वैसे 2017 में असम सरकार ने यह कानून बना दिया था कि उसकी नौकरी में वही व्यक्ति रह सकेगा और प्रवेश पा सकेगा, जिसके सिर्फ दो बच्चे हों। इसी तरह 2018 से पंचायत-चुनावों में भी वे ही लोग उम्मीदवार बन सकते हैं, जिसके बच्चे दो से ज्यादा न हों। मैं तो समझता हूं कि ऐसा कानून विधानसभा और लोकसभा के उम्मीदवारों पर भी लागू होना चाहिए और इस पर देश के सभी प्रांतों में अमल होना चाहिए। लेकिन असम के मुख्यमंत्री के उक्त बयान से काफी गलतफहमी पैदा हो सकती है। लोग यह भी अंदाज लगाने लगेंगे कि यह मुस्लिम-विरोधी नीति है या यह अल्पसंख्यकों पर जुल्म करने की साजिश है। इस शक को इस तथ्य से भी बल मिल सकता है कि 77000 बीघा जमीन से बांग्ला-मुसलमानों को बेदखल करने का अभियान आजकल चला हुआ है।
इस सरकारी जमीन पर उनका अवैध कब्जा हटाया जा रहा है। जबकि असम के मुस्लिम संगठनों का तर्क है कि भाजपा की पिछली सरकार ने स्थानीय असमिया लोगों में से 2 लाख 28 हजार को 2 लाख बीघे से भी अधिक जमीन मुफ्त में बांटी है। इन स्थानीय लोगों के बारे में किसी तरह का कोई विवाद नहीं है। वे हिंदू हों, मुसलमान हों या ईसाई हों– यदि वे जरुरतमंद हैं तो उन्हें जमीन मिलेगी लेकिन बांग्लादेशी शरणार्थी मुसलमानों को लेकर फिलहाल काफी विवाद चल रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ ने इस समस्या को और भी तीखा बना दिया है। जहां तक असम के मुसलमानों को दो बच्चे रखने की अपील का सवाल है, वह मुख्यमंत्री सरमा के मुस्लिम-विरोधी होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यह कानून तो सभी पर समान रुप से लागू होगा। सरमा ने अपना बयान इतनी नरम, सधी हुई और प्रेमल भाषा में दिया है कि उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि वे मुसलमानों के भले के लिए ही ऐसी अपील जारी कर रहे हैं।
असम के लगभग तीन करोड़ लोगों में से एक करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं। इन एक-तिहाई मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति कैसी है ? दयनीय है। उसकी बेहतरी के उपाय ही मुख्यमंत्री सुझा रहे हैं। यदि सरमा कोरोना महामारी के इस दौर में अवैध कब्जों को हटाने के अभियान को थोड़ा आगे खिसका दें, जो कुछ अनुचित नहीं होगा। यही बात असम के उच्च न्यायालय ने भी कही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बस्तर के सुकमा क्षेत्र के सिलगेर गांव में आदिवासी जीवन में नीयतन कोहराम मचाया गया। नक्सली उन्मूलन के मकसद के नाम पर पुलिस शिविर स्थापित करने के एकतरफा सरकारी फैसले के खिलाफ सैकड़ों गांवों के लोग लामबंद होकर करीब एक माह लगातार धरना प्रदर्शन करते रहे। वे नहीं चाहते उनके अमनपसन्द इलाके में पुलिस-नक्सली भिड़ंत की आड़ में खौफनाक मंजर उगें। उसकी शुरुआत पुलिस शिविर स्थापित करने से हो गई उन्हें लगती है। जनप्रतिरोध का मुकाबला लोकतंत्र की कई तुनकमिजाज सरकारें जनता की छातियों को गोलियों से छलनी करती ही करती हैं, उससे कमतर कुछ नहीं। पुलिस को लाचारों पर सरकारी गोलीबारी करने की खुली छूट है। जनप्रतिनिधियों, समाज और मंत्रियों का भी नैतिक दबाव उन पर नहीं होता। बंदूक के ट्रिगर पर उंगली सत्ता के अहंकार में दबा दी जाए। तो एक के बाद एक इंसान लाशों में तब्दील होते जाते हैं। बस्तर में वर्षों से वह हो रहा है।
इन्हें रूपक कथाओं के जरिए समझा जा सकता है। स्कूली बच्चे एक पागलखाना देखने गए। देखा पहला पागल रस्सी की गांठ खोल रहा है और चीख रहा है। डॉक्टर ने कहा यह आज तक रस्सी की गांठ नहीं खोल पाया। इसीलिए पागल हो गया। दूसरे पागल को बार बार रस्सियां गांठ लगाकर दी जातीं। वह पांच सेकेंड में ही खोल देता और हंसने लगता। डॉक्टर ने कहा यह हर गांठ को इतनी जल्दी खोलता रहा है कि खुशी में पागल हो गया है। तीसरा पागल रस्सी में गांठें लगाकर ठहाकों में हंस रहा था। डॉक्टर ने कहा यह हर रस्सी में गांठ लगाता कहता है और फिर हंसता रहता है। सरकारें आदिवासी समस्या की गांठें खोल नहीं पा रहीं और दिमागी संतुलन को लेकर चीख रही हैं। नक्सली हर समस्या का हल बंदूक से तुरंत निकालते हंसते रहते हैं। कॉरपोरेटिए भारत की सभी दौलत, वन संपत्ति और आदिवासी जीवन के भविष्य पर गांठ लगाये रहते अहसास करते रहते हैं। उनके सामने सरकार और नक्सली दोनों की हिम्मत पस्त है। यही बस्तर का सच है।
बस्तर में सिलगेर में पहला सरकारी गोलीबार नहीं है। आदिवासी तो नक्सली और सरकारी हिंसा के बीच लगातार पिस रहे हैं। हर गोली अमूमन आदिवासी की ही छाती में धंसती है। अब आदिवासी के मनुष्य के रूप में ही जीवित रहने तक पर खतरे हैं। पूरा आदिवास खतरे में है। यही हाल रहा तो कुछ दशकों के बाद भारत में न रहेंगे आदिवासी और न रह पाएगा आदिवास। वे सब चित्रों, कैलेंडर, किताबों में छपेंगे। आदिवासी देश के मूल निवासी हैं। उन्हें सदियों तक शहरियों से लेना देना नहीं रहा। उन्होंने अपना अर्थतंत्र, देशी इलाज, सामाजिक एका, कुदरत से लगाव और सामुदायिक जनभावना का अनोखा इंसानी संसार उगाया है। वह अपने आपमें स्वायत्त और संपूर्ण है। धीरे धीरे सामंतवादियों, बादशाहों और बाद में क्रूर अंगरेज हुक्कामों ने आदिवासी जीवन और वन संस्कृति को बरबाद करना शुरू किया। तब भी आज की तरह की बेशर्म कॉरपोरेटी लुटेरी घुसपैठ नहीं थी। खनिज, लकड़ी, वन उपज वगैरह में अंगरेज ने अपनी व्यापारिक हैसियत पुख्ता करते यूरोपीय मार्केट में भारतीय आदिवासी जीवन बेचना शुरू किया। कानून, सरकार, पुलिस, पटवारी, जंगल साहब, कलेक्टर और न जाने कितने रुतबेदार जंगलों में पैठते गए। आदिवासी को पीछे खदेड़ा जाने लगा जिस तरह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रेड इन्डियन्स और माओरी वगैरह को नेस्तनाबूद कर किया गया है।
उल्लास, उमंग, जद्दोजहद और प्रयोग करते भारत में आजादी और संविधान आए। उम्मीद जगी कि समाज के सबसे कमजोर तबकों दलित और आदिवासी के साथ हो चुके अन्याय की भरपाई करते अन्याय रोका जाएगा। हुआ लेकिन उल्टा। यह त्रासदायक खबर है कि शिक्षित युवा आदिवासी तक नहीं जानते कि संविधान बनाने में आदिवासी अधिकारों को लेकर धोखा हुआ है! आदिवासियों का सबसे बड़ा भरोसा नेहरू पर था। नेहरू ने जिम्मेदारी बाबा साहब अम्बेडकर को सौंपी। बाबा साहब ने दलित उत्थान को अपने निजी अनुभवों की तल्खी का इजहार करते लगातार ध्यान में रखा। गांधी के विश्वासपात्र ठक्कर बापा को संविधान सभा में गैरआदिवासी होने पर भी आदिवासी अधिकार तय करने की उपसमिति का अध्यक्ष बनाया। ठक्कर बापा ने सबसे उद्दाम, मौलिक, बेलौस और प्रखर आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के मौलिक, साहसी और शोधपरक सुझावों का लगातार विरोध किया। संवैधानिक ज्ञान में निष्णात आलिम फाजिल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भी जयपाल सिंह के तर्कों को ठिकाने लगाने में शहरी भद्र वाला आचरण किया। कई और थे जिन्हें आदिवासियों के स्वाभिमानी नारों में समाजविरोधी चुनौती दिखाई देती। जयपाल सिंह का बुनियादी तर्क आज भी संशय, ऊहापोह और नामुराद भविष्य में तैर रहा है। वे तय नहीं करा पाए कि नागर सभ्यता की पैदाइश के काफी पहले से आदिवासी जंगलों और संलग्न इलाकों में अपना पुश्तैनी हक लेकर जीवनयापन करते रहे हैं। संविधान लागू होने पर वह रिश्ता धीरे धीरे खत्म किया जाता रहा है।
बीसवीं सदी के आखिरी दशक से अंतर्राष्ट्रीय पूंजीखोर और भारतीय कॉरपोरेटिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी संपत्ति की लूट करते अरबपति, खरबपति बनने आर्थिक बराबरी की लोकतंत्र की मूल भावना और न्याय को नेस्तनाबूद कर अट्टहास करने लगे। कहा होगा गांधी ने जॉन रस्किन की किताब ‘अन टु दिस लास्ट’ को पढक़र कि कतार में सबसे आखिर में खड़े व्यक्ति की आंखों से जब तक आंसू पोछे नहीं जा सकें, लोकतंत्र नहीं आएगा। एक के बाद एक आती जाती ज्यादातर नाकाबिल सरकारों ने आदिवासी समझ की अमानत में खयानत की है।
बस्तर में कोहराम (2)
आओ! आदिवासियों की चटनी पीसें
बस्तर जैसे अनुसूचित इलाकों की कुदरती दौलत आदिवासियों से जबरिया छीन ली गई है। आदिवासी इलाके तो धर्मशाला, सराय या होटल बने ग्राहकों के स्वागत के लिए हैं। अय्याश अमीर और पर्यटक मौज मस्ती और लूट लपेट करने आते हैं। पूरे माहौल में कचरा, मुफलिसी, गंदगी, अभिशाप बिखेरकर लौट जाते हैं। आदिवासियों से चौकीदारी, सफाईगिरी और गुलामी करने की उम्मीदें की जाती हैं। वे यह सब करने के लिए सरकारों द्वारा अभिशप्त भी बना दिए गए हैं। यही आदिवासी जीवन का सच है। प्रमुख खनिज, गौण खनिज, जंगली उत्पाद, पानी, धरती, पेड़ पौधे, पशु पक्षी तो दूर आदिवासी की अस्मत और अस्मिता तक कानूनों ने गिरवी रख ली है। सरकारी मुलाजिम और पुलिस ने जंगलों में जाना शुरू किया। उनकी निगाहें आदिवासियों की बहू बेटी, बकरियां, खेत खलिहान और जो कुछ भी उनके साथ दिखे को लूटने की बराबर रही हैं। गांधी के लाख विरोध के बावजूद सरकारी सिस्टम में करुणा और सहानुभूति की कोई जगह नहीं रही। लोकतंत्र आखिर तंत्र लोक में तब्दील हो गया है।
बहुत माथापच्ची करने के बाद पूर्वोत्तर इलाकों को छोडक़र, (जहां छठी अनुसूची लागू है), बाकी प्रदेशों के आदिवासी सघन क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची लागू की गई। ‘आदिवासी‘ शब्द तक बदलकर उसे संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति‘ कह दिया और कई आदिवासी समुदायों को बाहर कर दिया गया। वे अपनी पहचान के लिए अब तक बेचैन हैं। आदिवासी ने नहीं चाहा लेकिन उसे संसद ने राज्यपाल की एकल संवैधानिक कही जाती हुक्मशाही के तहत कर दिया। राज्यपाल चाहें तो राज्य सरकार से बिना परामर्श किए केन्द्र और राज्य के कई कानूनों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू कराएं या नहीं लागू कराएं। राज्यपाल की नियुक्ति में नकेल डालकर। उसे प्रधानमंत्री की कलम की नोक से बांध दिया। राज्यपाल के लिए राज्य सरकार के मंत्रियों की बात मानना भी लाजिमी किया। संविधान में राज्यपाल का पद खुद त्रिशंकु है तो आदिवासियों की रक्षा क्या खाक करेगा? संविधान ने फिर परंतुक लगाया। लॉलीपॉप के स्वाद जैसा नाम रखा आदिम जाति मंत्रणा परिषद। वह झुनझुना जब बजता है तो आदिवासी को वी0आई0पी0 होने का नशा होने लगता है कि उसके लिए कुछ होने वाला है। परिषद की अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं। प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के त्रिभुज में आदिवासी जीवन उम्र में कैद हो गया है। उसका अंत हत्या, आत्महत्या और इच्छा मृत्यु का विकल्प ढूंढ़ रहा है।
कुछ सक्रिय आदिवासी नेताओं ने संसद में चहलकदमी की। फिर कुछ अधिनियम और कानून बने। जैसे गैरइरादतन हत्या का अपराध होता है। ऐसे ही गैरइरादतन विधायन का संसदीय कौशल भी होता है। जंगलों से बेदखल किए गए आदिवासियों के लिए भूमि व्यवस्थापन का अधिनियम बना। राजीव गांधी जैसे इंसानियत परस्त प्रधानमंत्री ने अफसोस में कहा दिल्ली से एक रुपया भेजो तो सबसे पीछे खड़े आदमी के पास पंद्रह बीस पैसे ही पहुंचते हैं। नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में तय हुआ पंचायतों को पुरानी परंपरा के अनुसार मजबूत करना है। आदिवासी इलाकों में पंचायतों को विशेष अधिकार देने होंगे। मंत्रीशाही में ‘चाहिए‘ शब्द बहुत चटोरा है। कोरोना के कारण हर भारतीय को वैक्सीन लगनी चाहिए। हर घर बिजली का प्रकाश चाहिए। हर हाथ को काम चाहिए। हर बेटी को पढऩा चाहिए। इतने चाहिए हैं, लेकिन ‘हो गया‘ नहीं कहते। ऐसे ही पेसा नाम का अधिनियम संसद ने आधे अधूरे मन से बनाया। तब भी छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में अब तक लागू और कारगर नहीं हो पाया है। मंत्रालय के एयरकण्डीशन्ड कमरों में बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी इलाकों के आदिवासियों के खून, पसीने और आंसू की कॉकटेल नशा पैदा करती है। दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता वाली कमेटी ने सिफारिशें कीं। वे पेसा कानून में नहीं आईं।
कोई नहीं बताता बस्तर में नक्सली कब आए? किसकी हुकूमत में कैसे आ गए? पंद्रह साल में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने इतने अपराधिक ठनगन किए कि पार्टी प्रदेश में नैतिक रूप से अधमरी हो गई है। कांग्रेसी महेन्द्र कर्मा के साथ भाजपाई गलबहियों के कारण सलवा जुडूम नाम की औरस संतान का जन्म हुआ। विशेष पुलिस भर्ती अभियान में सोलह वर्ष के बच्चों के हाथों नक्सलियों से लडऩे के नाम पर बंदूकें थमा दी गईं। भला हो सुप्रीम कोर्ट के जज सुदर्शन रेड्डी का जिन्होंने नंदिनी सुंदर वगैरह की याचिका पर ऐतिहासिक फैसले में आादिवासी अत्याचारों का खुलासा करते सरकारी गड़बड़तंत्र की धज्जियां उड़ा दीं। नक्सलियों के उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ में जनविरोधी हिटलरी कानून बना। उसमें ज़्यादातर डॉक्टरों, दर्जियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया। अब उस कानून की हालत है जैसे बाजार से बच्चों के लिए शाम को खरीदा गया फुग्गा अगली सुबह निचुड़ जाता है।
पेसा के तहत बुनियादी हक दिए जाने के लिए ग्राम सभाएं बनीं। बैठकों में कलेक्टर साहब और कप्तान साहब टीम टाम के साथ या कारिंदों के जरिए दहशत का माहौल बनाते हैं। लाचार, अपढ़, कमजोर, डरे हुए आदिवासी केवल हाथ उठाते हैं। अंगूठा लगाते हैं। सब कुछ कानूनसम्मत होकर आदिवासी की जमीन और अधिकार छीनने का सरकारी नाटक कॉरपोरेटी मंच पर धूमधाम से उद्घाटन पर्व मनाता है। बस्तरिहा आादिवासी मुरिया, मारिया, गोंडी, हल्बा, भतरी बोलियों के अलावा कस्बाई छत्तीसगढ़ी तक नहीं जानते, जिसका छत्तीसगढ़ की मादरी जबान के रूप में सियासी, बौद्धिक हंगामा किया जाता है। कागज पर जबरिया दबा दिए गए उनके अंगूठे को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक उनके सच का ऐलान मानते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता उन कागजों में लिखा क्या है। सरकारी झांसा संविधान का आचरण ऐसे भी करता है।