विचार/लेख
बदलती ऊर्जा तकनीकों को लेकर कई पर्यावरण विशेषज्ञ और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता डरे हुए हैं. वे मानते हैं कि इससे न सिर्फ संसाधनों की खींचतान बढ़ सकती है बल्कि नागरिक अधिकार हनन के मामलों में भी बढ़ोतरी हो सकती हैं.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
साल 2022 के अंत तक जर्मनी अपनी ऊर्जा जरूरत का सबसे बड़ा हिस्सा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से हासिल करेगा. परमाणु ऊर्जा मुक्त बिजली के उत्पादन का लक्ष्य उसने पा लिया है, वह 2038 तक बिजली उत्पादन के लिए कोयले के प्रयोग को भी पूरी तरह खत्म करने वाला है. भारत ने भी 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को 30-35% तक घटाने का लक्ष्य रखा है. दुनिया के 135 देश अन्य देश भी 2050 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को 90-95 प्रतिशत घटाने की शपथ ले चुके हैं.
इन बातों को पढ़कर दुनिया की एक खूबसूरत तस्वीर दिमाग में बनती है. लगता है कि ऐसी दुनिया में बहुत शांति होगी क्योंकि बड़े-बड़े देश तेल और कोयले के बड़े भंडारों पर एकाधिकार के लिए झगड़े और षड्यंत्र नहीं कर रहे होंगे. सूरज, हवा और पानी हमारी सभी ऊर्जा जरूरतें पूरी कर देंगे. यह सोचना सुखद तो है लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिख रहा है. बदलती ऊर्जा तकनीकों को लेकर कई पर्यावरण विशेषज्ञ और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता डरे हुए हैं. वे मानते हैं कि आने वाली दुनिया में न सिर्फ संसाधनों को लेकर खींचतान बढ़ने वाली है बल्कि बदलते ऊर्जा परिदृश्य में नागरिक अधिकार हनन के मामले भी बढ़ सकते हैं.
सीमित मात्रा में मौजूद खनिजों की भारी जरूरत
यह बात तभी समझी जा सकती है, जब हमें पता हो कि सौर और पवन ऊर्जा से बिजली कैसे बनती है? सौर ऊर्जा का निर्माण फोटोवोल्टिक सेल के जरिए किया जाता है. इससे पर्याप्त बिजली निर्माण के लिए सोलर पैनल को बहुत बड़े भू-भाग लगाया जाता है. ऐसी ही हवा से बिजली बनाने के लिए बड़ी-बड़ी पवनचक्कियों की जरूरत होती है. इसके अलावा यातायात में काम आने वाली इलेक्ट्रिक कार और ट्रकों में बड़ी-बड़ी बैटरियां लगानी पड़ती हैं. इन उपकरणों और बैटरियों में भारी मात्रा में खनिजों का इस्तेमाल किया जाता है. इनके लिए जरूरी कुछ प्रमुख खनिज हैं, कोबाल्ट, तांबा, मोलिब्डेनम, ग्रेफाइट, लिथियम, मैंगनीज, निकल, जिंक और दुर्लभ खनिज.
ये सभी खनिज कच्चे तेल और कोयले की तरह ही सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं. मतलब यह हुआ कि भले ही यह सच हो कि सूरज और हवा अक्षय ऊर्जा के स्रोत हैं लेकिन इनके जरिए बिजली बनाने के लिए हमें जिन खनिजों की जरूरत होगी, उनके भंडार सीमित हैं. अभी दुनिया के कुल बिजली उत्पादन में पवन और सौर ऊर्जा का हिस्सा सिर्फ 7 प्रतिशत है. वहीं दुनिया की कुल गाड़ियों में सिर्फ 1 प्रतिशत ही इलेक्ट्रिक हैं. इसलिए फिलहाल इन खनिजों की पर्याप्त उपलब्धता है. लेकिन जबकि दुनिया के देश तेजी से ग्रीन इनर्जी की ओर बढ़ रहे हैं, इन खनिजों की मांग भी तेजी से बढ़ रही है लेकिन इनकी आपूर्ति सीमित है.
कच्चे तेल की तरह इन खनिजों के लिए भी खींचतान
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) की हालिया स्टडी के मुताबिक अगर दुनिया तेजी से इलेक्ट्रिक गाड़ियों की ओर बढ़ी तो साल 2040 तक लीथियम की मांग 50 गुना और कोबाल्ट-ग्रेफाइट की मांग 30-30 गुना तक बढ़ जाएगी. ऐसा होते ही इन खनिजों की कीमतों और आपूर्ति को लेकर दुनिया के देशों के बीच राजनीति भी बढ़ जाएगी. अमेरिका के हैम्पशर कॉलेज में पीस एंड वर्ल्ड सिक्योरिटी स्टडीज के प्रोफेसर माइकल क्लेयर के मुताबिक, "दुनिया के बड़े देशों ने पेट्रोलियम आपूर्ति को लेकर जैसा संघर्ष किया था, वैसा ही संघर्ष इन खनिजों पर एकाधिकार के लिए भी देखने को मिल सकता है क्योंकि ज्यादातर खनिजों के भंडार सिर्फ कुछ देशों में ही सीमित हैं."
2030 तक दुनिया में कुल कारों में से 15 प्रतिशत के इलेक्ट्रिक हो जाने की उम्मीद है. दुनिया में अभी 370 मॉडल की इलेक्ट्रिक कारें हैं, जिनके 2022 तक बढ़कर 450 हो जाने की उम्मीद है. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक एक साधारण इलेक्ट्रिक कार में तेल से चलने वाली कार के मुकाबले 6 गुना ज्यादा खनिजों का प्रयोग होता है. माइकल क्लेयर कहते हैं, "जाहिर है दुनिया के बड़े देशों को इन खनिजों की जरूरत होगी. ये देश तेल उत्पादन और उसके निर्यात पर अधिकार जमाने जैसी कोशिश ग्रीन इनर्जी के लिए जरूरी खनिजों के मामले में भी कर सकते हैं. याद रहे कि कच्चे तेल को अमेरिका के 'इराक युद्ध' की बड़ी वजह माना जाता है."
खनिज भंडार अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक दुनिया के कुल कोबाल्ट में से 80 प्रतिशत से ज्यादा की सप्लाई सिर्फ डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो करता है. ऐसा ही चीन में कुल दुर्लभ खनिजों का 70 प्रतिशत हिस्सा है. कुल लीथियम का 80 प्रतिशत से ज्यादा सिर्फ अर्जेंटीना और चिली सप्लाई करते हैं. क्लाइमेट ट्रेंडस की संस्थापक और पूर्व में WWF से जुड़ी रही आरती खोसला इस मामले में कहती हैं, "इन खनिजों की उपलब्धता वाले ज्यादातर देश अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में हैं. जो कई मामलों में कमजोर स्थिति में हैं. ऐसे में डर है कि विकसित देश या उनकी कंपनियां इनका फायदा न उठाएं."
आरती खोसला कहती हैं, "इन देशों में खनन को लेकर कड़े कानून नहीं हैं, जिससे मानवाधिकारों के हनन का डर है. वहीं अगर यहां कड़े नियम बना दिए गए तो दुनिया की बड़ी कॉरपोरेट खनन कंपनियों को यहां इंट्री मिल जाएगी, क्योंकि स्थानीय खनन कंपनियां नियम पालन की स्थिति में नहीं होतीं. डर इस बात का है कि ये कंपनियां न सिर्फ किसी देश में एकाधिकार जमा सकती हैं बल्कि स्थानीय निवासियों का शोषण भी कर सकती हैं. 2019 में पांच अमेरिकी टेक कंपनियों टेस्ला, एप्पल, अल्फाबेट, डेल और माइक्रोसॉफ्ट पर बाल मजदूरी कराने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया गया था. यह गंभीर मामला था क्योंकि कांगो में कोबाल्ट की खदान धंसने से 14 बच्चे उसमें दब गए थे. इनमें से 6 की मौत हो गई थी."
वैश्विक नीतियों के बिना मुसीबत बन सकती है ग्रीन इनर्जी
आरती खोसला कहती हैं, "बात इतनी ही नहीं है. ग्रीन एनर्जी के लिए जरूरी इन खनिजों का रिसाइकिल किया जाना भी समस्या है." इलेक्ट्रिक कारों के लिए बैटरियां तो बनने लगी हैं, लेकिन अभी तक उसकी रिसाइक्लिंग के समाधान सामने नहीं आए हैं. इन खनिजों के प्रयोग वाले उपकरण और बैटरियां खराब होने के बाद उनके पर्यावरण सम्मत निबटारे की चुनौती होगी. मसलन भारत की बात करें तो यहां मोबाइल-लैपटॉप बैटरी और पावर बैंक में इन खनिजों का इस्तेमाल होता है लेकिन इनके खराब होने के बाद सिर्फ 1-2 प्रतिशत की रिसाइक्लिंग हो पाती है. बाकी कचरे के तौर पर इन्फॉर्मल सेक्टर में चली जाती है. जहां उन्हें घटिया ढंग से रिसाइकल किया जाता है, जिससे स्वास्थ्य और पर्यावरण को भारी नुकसान होता है.
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी भी इसे लेकर चिंता जता चुका है. एजेंसी के एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर फातिह बिरोल का कहना है, "सोलर पैनल, पवन चक्कियों और इलेक्ट्रिक गाड़ियों के लिए कई महत्वपूर्ण खनिजों की उपलब्धता बहुत कम है. हमें यह देखना होगा कि यह हमें स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ाएंगे या इसमें बाधा बन जाएंगे." फिलहाल जरूरी खनिजों की दुर्लभता को देखते हुए ऊर्जा रणनीतिकार ज्यादा से ज्यादा जगहों पर नए स्रोत खोजने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन इस ग्रीन इनर्जी से कुछ फायदा तभी लिया जा सकेगा, जब कंपनियों और देशों को इस बड़े ऊर्जा बदलाव के लिए आजाद छोड़ देने से पहले इसके लिए वैश्विक स्तर पर दूरगामी नीतियां बनाई जाएं. (dw.com)
अपने ही आंकड़ों को संशोधित कर कोरोना से मौत के मामले में बिहार अब देश में 12वें स्थान पर आ गया है. नए आंकड़ों के सामने आने के बाद कोरोना से होने वाली मौतों का रिकॉर्ड रखने पर सियासी बहस छिड़ गई है.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट
आंकड़ों में संशोधन से पहले गलत आंकड़ों के सहारे कोरोना से 0.76 प्रतिशत मौत के साथ बिहार 16वें स्थान पर था. बुधवार को जारी संशोधित आंकड़ों के मुताबिक राज्य में मौत की दर 1.07 फीसद हो गई है. अब तक यहां कोरोना महामारी से 9375 लोगों की जान जा चुकी है, जबकि पहले सात जून तक 5424 लोगों की मौत बताई जा रही थी. आंकड़ों में उछाल से इस महामारी के कारण मृत्युदर भी 42.1 प्रतिशत पर पहुंच गई. राज्य में मौत के आंकड़े में एक दिन में 3951 का इजाफा हो गया. तात्पर्य यह कि 72.84 प्रतिशत मौत से राज्य सरकार अनजान थी.
इसी वजह से बुधवार को भारत पूरे विश्व में एक दिन में सर्वाधिक मौतों वाला देश बन गया. इस दिन देशभर में 6139 लोगों की मौत हुई जिनमें सबसे ज्यादा 3951 बिहार से थी. राज्य के स्वास्थ्य विभाग के अपर मुख्य सचिव प्रत्यय अमृत के अनुसार कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान अधिक लोगों की मौत हुई. मार्च 2020 से मार्च 2021 के बीच 1600 लोगों की जान गई थी, जबकि मार्च 2021 के बाद से इस साल आठ जून तक 7775 लोगों की मौत हुई. इस प्रकार कोरोना महामारी ने कुल 9375 लोगों को लील लिया. बुधवार, नौ जून को 20 मौत और 589 नए मामले सामने आए.
आश्रितों को मुआवजे के लिए डेथ ऑडिट
विभागीय अपर मुख्य सचिव के अनुसार दूसरी लहर के दौरान निजी अस्पतालों में अनरजिस्टर्ड डेथ तथा इलाज के लिए ले जाए जाने के दौरान भी कई लोगों की मौत की सूचना मिल रही थी. इसलिए राज्य सरकार ने सभी जिलों में डेथ ऑडिट कराने का निर्णय किया और इसके लिए आवश्यक निर्देश जारी किया गया. प्रत्यय अमृत कहते हैं, "कोविड के कारण हुई मौतों की पारदर्शी जांच के लिए यह ऑडिट जरूरी था, ताकि पीड़ितों के आश्रितों को राज्य सरकार की ओर से बतौर मुआवजा दी जाने वाली चार लाख की राशि का भुगतान किया जा सके. अब तक 3737 लोगों को यह राशि दी जा चुकी है." इसी कड़ी में सरकार ने कोविड से मौत के मामलों के सत्यापन के लिए 18 मई को प्रदेश के सभी मेडिकल कालेज अस्पतालों एवं जिला स्तर पर तीन-तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था.
पिछले महीने पटना हाईकोर्ट ने भी राज्य सरकार से कोरोना से मौत के मामलों की सही गिनती को करने को कहा था. मेडिकल कालेज अस्पताल वाली कमेटी में प्राचार्य, अस्पताल के अधीक्षक तथा मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष शामिल थे. वहीं जिला स्तर पर बनाई गई टीम में सिविल सर्जन (सीएस), एक्टिंग चीफ मेडिकल ऑफिसर व सीएस द्वारा तय कि ए गए मेडिकल ऑफिसर को रखा गया था. इन्हें जिला भर में होम आइसोलेशन, कोविड केयर सेंटर, डेडिकेटेड कोविड हेल्थ सेंटर, निजी अस्पतालों व एंबुलेंस या अन्य वाहनों से अस्पताल तक लाने के दौरान हुई मौतों का आकलन करना था. दरअसल, इन्हीं दोनों समितियों द्वारा दी रिपोर्ट को कंपाइल कर अपर मुख्य सचिव प्रत्यय अमृत ने बुधवार को नए आंकड़ों को सार्वजनिक किया.
उन्होंने कहा कि यह एक अति संवेदनशील मामला है. मौत के मामलों की पुष्टि में कुछ जिलों से लापरवाही की सूचना मिली है, ऐसे लापरवाह अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. उन्होंने यह भी कहा कि जिनकी भी मौत कोरोना से हुई है, उनके आश्रितों को मुआवजे की राशि मिलेगी, चाहे इस साल मौत हुई हो या फिर पिछले साल. उन्होंने साफ किया कि यह राशि उन्हें भी मिलेगी जिनकी कोरोना रिपोर्ट मौत के समय निगेटिव थी. वहीं आरटीपीसीआर या रैपिड टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव रहने के बावजूद जिनके चेस्ट सीटी स्कैन में कोरोना था और उनकी मौत हो गई, उस मामले में केंद्र की गाइडलाइन को फॉलो किया जाएगा. पहले बिहार सरकार ने कहा था कि चार लाख के मुआवजे की राशि उन्हीं के आश्रितों को मिलेगी, मौत के समय जिनकी आरटीपीसीआर की रिपोर्ट पॉजिटिव थी. इस वजह से मुख्यमंत्री राहत कोष से मिलने वाली चार लाख की इस अनुग्रह राशि से काफी लोगों के परिजन वंचित हो जा रहे थे.
पटना में सर्वाधिक मौत, मुजफ्फरपुर दूसरे नंबर पर
संशोधित आंकड़ों के मुताबिक कोरोना से सबसे ज्यादा 2303 लोगों की जान केवल पटना जिले में गई, वहीं मुजफ्फरपुर में 609, नालंदा में 463, बेगूसराय में 454, पूर्वी चंपारण में 425, दरभंगा में 342 तथा मधुबनी जिले में 317 लोगों की मौत हुई. मुंगेर एकमात्र ऐसा जिला है जिसके आंकड़े में कोई बदलाव नहीं देखा गया. पटना के जिलाधिकारी चंद्रशेखर सिंह ने ताजा आंकड़े पर कहा, "विभिन्न स्रोतों जैसे प्राइवेट हॉस्पिटल, श्मशान घाट व पटना नगर निगम के माध्यम से कोरोना से हुई मौतों को वेरिफाई किया गया, इससे ही मृतकों की संख्या में वृद्धि हुई." जानकार बताते हैं कि मौतों की संख्या अभी भी वास्तविक नहीं है. इसमें खासा इजाफा होने के आसार हैं.
दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के अनुसार राजधानी पटना के तीन घाटों पर ही इस वर्ष अप्रैल-मई में 3243 शवों को कोविड प्रोटोकॉल से अंतिम संस्कार का आंकड़ा है. जबकि दानापुर घाट, फतुहा घाट तथा ग्रामीण इलाकों के अन्य घाटों पर रिकॉर्ड रखने की कोई व्यवस्था नहीं है. राजधानी पटना में जब आंकड़े इस तरह छुपाए गए तो बांकी का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने आठ जून तक कोरोना से मौत का आंकड़ा जारी कर दिया किंतु वास्तविकता यह है कि पटना के 28 निजी अस्पतालों ने कोरोना मृतकों का आंकड़ा अब तक सरकार को नहीं सौंपा है. इस संबंध में आठ जून को ही सिविल सर्जन विभा कुमारी ने पत्र जारी कर इन अस्पतालों को जनवरी 2021 से अब तक हुई मौत की सूचना तीन दिनों में देने का निर्देश दिया है.
ताजा आंकड़ों पर सियासत भी हुई तेज
बिहार सरकार पर काफी पहले से कोविड मृतकों की संख्या में हेरफेर के आरोप लगते रहे हैं. संशोधित आंकड़ा जारी करने के कारण यह आशंका और भी गहरा गई है. बीते मंगलवार को सरकार ने मृतकों की संख्या 5424 बताई थी जो 24 घंटे के अंदर 9375 हो गई. इसी तरह कोरोना संक्रमण की चपेट में आकर ठीक होने वालों की संख्या 7,01,234 बताई गई थी जो बुधवार को घटकर 6,98,397 हो गई. कोविड से मौत के आंकड़ों में संशोधन ने राज्य में विपक्ष को सियासी मुद्दा सौंप दिया है. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने बिहार सरकार पर निशाना साधते हुए कहा है कि नीतीश अपना फर्ज भुला बैठे हैं. उन्होंने ट्वीट कर कहा, "बन आंकड़ों का दर्जी, घटा-बढ़ा दिया मनमर्जी, फर्ज भुला नीतीश बने फर्जी, अपार हुई जगहंसाई, फिर भी शर्म न आई."
वहीं उनके पुत्र व बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने ट्वीट किया, "नीतीश जी, इतना झूठ मत बोलिए और बुलवाइए कि उसके बोझ तले दबने के बाद कभी उठ न पाएं. जब फंसे तो एकदम से एक दिन में 4000 मौतों की संख्या बढ़ा दी." तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया है कि नीतीश सरकार मौतों का जो आंकड़ा बता रही है उससे 20 गुना अधिक मौतें हुई हैं. राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने मौत के आंकड़ों की न्यायिक जांच कराने की मांग करते हुए कहा है, "हाईकोर्ट ने फटकार लगाई तब अब सरकार स्वीकार कर रही है कि पहले के आंकड़े से मौत ज्यादा है."
और मौत रोकने के लिए एहतियाती कदमों की मांग
भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी से संबंधित एंबुलेंस मामले को उठाने वाले जन अधिकार पार्टी के प्रमुख व पूर्व सांसद पप्पू यादव ने भी ट्वीट कर कहा, "सरकार बताए, आखिर इतनी मौतें एक दिन में कैसे हुईं. वहीं भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल कहते हैं, "ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में मौतें हुईं हैं. इसका कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है. इसकी जांच हमारी पार्टी कर रही है." इस प्रकरण पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन झा का कहना है, "यह ठीक है सरकार ने अपनी गलती सुधारी है, किंतु अभी यह ज्यादा जरूरी है कि सरकार तेजी से टीकाकरण अभियान चलाए. गड़बड़ी की जांच तो बाद में भी हो सकती है. लेकिन लोगों की और अधिक मौत हुई तो यह अच्छी बात नहीं होगी."
कोविड मौत के ताजा आंकड़े ने यह तो साबित कर ही दिया है कि पहली या दूसरी लहर के दौरान होम आइसोलेशन, कोविड केयर सेंटर व प्राइवेट अस्पताल में कोरोना संक्रमितों की निगरानी का राज्य सरकार का दावा झूठा था. हाईकोर्ट के निर्देश पर ही सही जब सरकार ने अपनी मॉनीटरिंग मैकेनिज्म में सुधार किया तो परिणाम परिवर्तित हो गया. वैसे यह अच्छी बात है कि सरकार अब मौतों के प्रति संवेदनशील हो गई है तथा हर हाल में कोविड पीड़ितों की सहायता के उद्देश्य से निर्णय ले रही है. बहरहाल, अब जो बचे हैं उन्हें बचाए रखने के बारे में सोचना ज्यादा जरूरी है. (dw.com)
-गीता पांडे
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के आधर पर बीते 70 सालों में सैकड़ों फ़िल्मों में इस्तेमाल हुए डायलॉग्स की एक स्टडी में इसका जवाब दिया- हां भी और ना भी.
2.1 अरब डॉलर की भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनती हैं और देश-विदेश में फैले लाखों भारतीय इन फ़िल्मों को पसंद करते हैं.
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बॉलीवुड कलाकारों के फैन्स उन्हें पसंद करते हैं, उनकी अच्छी सेहत की कामना करते हैं, कहीं-कहीं तो उनके नाम के मंदिर बनाते हैं और फैन्स उनके नाम पर अपना ख़ून भी दान करते हैं.
लेकिन बीते सालों में प्रतिगामी विचारों, महिला विरोधी भावना, रंगभेद और महिलाओं के प्रति भेदभाव के लिए बॉलीवुड इंडस्ट्री की काफी आलोचना भी हुई है. लेकिन सामाजिक भेदभाव के पैमाने पर फ़िल्म इंडस्ट्री कैसी रही है इस पर कोई स्टडी नहीं हुई.
अमेरिका के कार्नेजी मेलन यूनिवर्सिटी के कुणाल खादिलकर और आशिक़ुर ख़ुदाबख़्श इसी बारे में शोध करना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने साल 1950 से 2020 के सात दशकों के दौरान हर एक दशक की सौ ऐसी फ़िल्मों का चुनाव किया है जो कमर्शियल रूप से हिट मानी गई हैं.
खादिलकर और ख़ुदाबख़्श मानते हैं कि वो "खुद पक्के बॉलीवुड फैन्स" हैं. उन्होंने इन फ़िल्मों के सबटाइटल्स को एक ऑटोमेटेड लैंग्वेज प्रोसेसिंग सॉफ्टवेयर में अपलोड किया ताकि वो ये जान सकें कि क्या इन सालों में बॉलीवुड के डायलॉग्स में किस तरह का बदलाव आया है.
ख़ुदाबख़्श ने पेन्सिल्वेनिया के पीट्सबर्ग से फ़ोन के ज़रिए बीबीसी को बताया, "फ़िल्में समाज में मौजूद भेदभाव को दिखाने वाला आईना होती हैं और हमारी ज़िंदगी पर इनका बड़ा असर होता है. इस स्टडी के मनोरंजन के चश्मे से समझने की कोशिश कर रहे हैं कि बीते सत्तर सालों में भारत में स्थिति कितनी बदली."
दूसरे देशों की फ़िल्म इंडस्ट्री के मुक़ाबले बॉलीवुड को समझने के लिए खादिलकर और ख़ुदाबख़्श ने भारतीय फ़िल्मों के साथ-साथ हॉलीवुड की 700 फ़िल्में और ऑस्कर्स में विदेशी फ़िल्मों की कैटेगरी में नामांकित की गई समीक्षकों की तारीफ़ बटोर चुकी 200 फ़िल्मों को अपनी स्टडी में शामिल किया.
इस स्टडी में नतीजे चौंकाने वाले रहे हैं. स्टडी में उन्होंने पाया कि बॉलीवुड में भेदभाव तो है ही, कम ही सही, लेकिन हॉलीवुड में भी भेदभाव है. हालांकि दोंनों की इंडस्ट्री में बीते सत्तर सालों में सामाजिक भेदभाव धीरे-धीरे कम होता गया है.
खादिलकर ने बीबीसी को बताया, "सत्तर सालों में हमने काफी लंबा रास्ता तय किया है, लेकिन इस दिशा में हमें अभी और भी आगे जाना है."
शोधकर्ताओं का सवाल था कि क्या बॉलीवुड में परिवार में लड़कों को प्राथमिकता देने वाली विचारधारा और दहेज जैसी सामाजिक कुरीति को लेकर कोई बदलाव आया है. इस सवाल के जवाब में वक्त के साथ बड़ी गिरावट देखी गई है.
ख़ुदाबख़्श बताते हैं, "1950 से 60 के दशक में फ़िल्मों में पैदा होने वाले 74 फीसदी बच्चे लड़के थे. साल 2000 में ये आंकड़ा 54 फीसदी तक हो गया था. हम मान सकते हैं कि इस दौरान लिंगानुपात विषम रहा लेकिन ये गिरावट काफी बड़ी है."
वो कहते हैं कि भारत में बेटों की चाहत, दहेज की इच्छा से अधिक है. दहेज प्रथा को साल 1961 में एक क़ानून बना कर ख़त्म कर दिया गया था. लेकिन अब भी दर दस शादियों में से नौ शादियां अरेंज्ड मैरिज होती हैं और इनमें उम्मीद की जाती है कि वधु पक्ष कैश, गहने और तोहफ़े की शक्ल में वर को दहेज देगा. दहेज के कारण हर साल भारत में बड़ी संख्या में बहुओं की हत्या होती है.
ख़ुदाबख़्श कहते हैं, "जब हमने डेटाबेस देखा तो हमने पाया कि पुरानी फ़िल्मों में दहेज के साथ-साथ पैसा, कर्ज़, गहने, फ़ीस और उधार जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो दहेज प्रथा से संबंधित था. लेकिन आधुनिक फ़िल्मों में हिम्मत और इनकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. साथ ही इन फ़िल्मों में दहेज प्रथा का पालन न करने की सूरत में तलाक और परेशानी जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल देखा गया है."
स्टडी में ये भी सामने आया है कि कुछ भेदभाव वक्त के साथ बदले ही नहीं, जैसे कि गोरे रंग के प्रति झुकाव का पुराना पूर्वाग्रह.
खादिलकर ने कहा इस संबंध में उन्होंने रिक्त स्थन भरो जैसे एक अभ्यास का इस्तेमाल किया था.
उन्होंने सवाल किया, "एक सुंदर महिला का रंग ...... होना चाहिए." सवाल के जवाब में अधिकतर जवाब मिला "गोरा." हॉलीवुड फ़िल्मों के सबटाइटल्स में भी ऐसे ही नतीजे थे लेकिन ये पूर्वाग्रह कम था.
वो कहते हैं, "स्टडी में सामने आया कि बॉलीवुड के लिए सुदंरता का सबसे क़रीबी मतलब हमेशा से गोरा रंग ही रहा है."
'पुराने ढर्रे को छोड़ने का डर'
स्टडी में ये भी पता चला है कि बॉलीवुड की फ़िल्मों जाति को लेकर भी एक तरह का भेदभाव है. स्टडी के अनुसार फ़िल्मों में डॉक्टर "अधिकतर ऊंची जाति के हिंदू होते हैं." लेकिन वक्त के साथ दूसरे धर्म के लोगों को भी इस भूमिका में दिखाया गया है. लेकिन देश के सबसे अधिक संख्या वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को इस भूमिका में कम ही दिखाया गया है.
फ़िल्म समीक्षक और 'फ़िफ्टी फ़िल्म्स दैट चेंज्ड बॉलीवुड' की लेखिका शुभ्रा गुप्ता इसका कारण बताते हुए कहती हैं, "ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकांश निर्माता ऊंची जाति, उच्च वर्ग और प्रभावशाली धर्म को अपने दर्शकों के तौर पर देखते हैं और ऐसे में इन भूमिकाओं में इन्ही वर्ग से जुड़े लोगों को देखते हैं."
शुभ्रा गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस नाम के अख़बार में नियमित तौर पर लिखती हैं. वो "प्रतिगामी विचारों, महिला विरोधी भावना और पुरुषसत्तात्मक फ़िल्मों" के बारे में लिखती हैं.
वो कहती हैं कि बॉलीवुड फ़िल्मों में हीरो बड़ा किरदार होता है जिसके नाम को देखें तो वो अधिकांश मामलों में हिंदू नाम होता है. फ़िल्मों में मुलसमान कम ही दिखते हैं और दिखते भी हैं तो ये रूढ़िवाद से भरे किरदार होते हैं.
भारत में सिनेमा देखने जाने वाले अधिकतर लोग उसमें चोंकाने वाले दृश्य, नाच और गीत तलाशते हैं और इसलिए निर्माता भी इसी सांचे के अनुसार ही फ़िल्में बनाते हैं.
बीच-बीच में ऐसी फ़िल्में आती रहती हैं जो आपको सर्प्राइज़ कर देती हैं. लेकिन फिर ऐसी एक फ़िल्म के मुक़ाबले दस ऐसी फ़िल्में होती हैं जो पुराने ढर्रे पर बनी होती हैं.
शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "ये इंडस्ट्री जोखिम लेने से डरती है. फ़िल्म निर्माताओं का कहना है कि वो वही फ़िल्में बनाते हैं जो दर्शक पसंद करते हैं. उन्हें ये चिंता सताती है कि फैन्स से मुंह मोड़ लिया तो उन का क्या होगा?"
वो कहती हैं कि अगर हम कोरोना महामारी के दौरान ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लोकप्रिय हो रही फ़िल्मों और सीरिज़ को देखें तो कहा जा सकता है कि "बदलाव लाना मुश्किल नहीं है."
वो कहती हैं, "महामारी ने ये बता दिया है कि दर्शक अब पारंपरिक रूढ़ियों से हट कर अलग चीज़ें देखने के लिए तैयार हैं. और जब दर्शक कहें कि उनके पास शक्ति है, वो अलग तरह के कंटेन्ट की मांग करें तो फ़िल्म निर्माताओं को बेहतर फ़िल्में बनानी होंगी. इसके बाद बॉलीवुड को भी बदलना ही होगा." (bbc.com)
-ललित मौर्य
आईएलओ के मुताबिक, लगभग 7.9 करोड़ बच्चे ऐसे जोखिम भरे काम कर रहे हैं, जो उनकी सेहत के लिए खतरनाक है
कहते हैं कि भूख और गरीबी ऐसी चीज है जो इंसान से कुछ भी करा सकती है। शायद यही वजह है कि अपने खेलने कूदने और स्कूल जाने की उम्र में दुनिया का हर दसवां बच्चा मजदूरी करने को मजबूर है। जो न केवल उनके आज बल्कि उनके भविष्य को भी बर्बाद कर रहा है। यह आंकड़ा करीब 16 करोड़ है। इनमें से करीब 39.4 फीसदी (6.3 करोड़) बच्चियां और 60.6 फीसदी (9.7 करोड़) बच्चे हैं। यह जानकारी हाल ही में इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन (आईएलओ) और यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आई है।
हालांकि इन आंकड़ों को देखें तो बच्चियों की तुलना में कहीं अधिक बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं पर यदि इसमें बच्चियों द्वारा हर सप्ताह घर के कामों में लगाए 21 घंटों को और जोड़ दिया जाए तो अंतर काफी हद तक बराबर हो जाता है। समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है इनमें से करीब आधे बच्चे मतलब 7.9 करोड़ बच्चे ऐसे कार्यों में संलग्न हैं, जो उनके स्वास्थ्य को दिन-प्रतिदिन बर्बाद कर रहा है। ऐसे जोखिम भरे कामों के कारण उनके न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि बाल मजदूरी को खत्म करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई थी। 2000 से इसमें लगातार कमी आ रही थी। पर पिछले 20 वर्षों में यह पहला मौका है जब बाल मजदूरों की संख्या में इजाफा हुआ है। आंकड़ों के मुताबिक 2000 में करीब 24.6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे थे। जिसमें से 17 करोड़ से ज्यादा बच्चे जोखिम भरे कामों में लगे हुए थे।
2004 में बाल मजदूरों का यह आंकड़ा घटकर 22.2 करोड़, 2008 में 21.5 करोड़, 2012 में 16.8 करोड़ और 2016 में घटकर 15.2 करोड़ पर पहुंच गया था जब इनमें से करीब 7.3 करोड़ बच्चे जोखिम भरे कामों में लगे हुए थे। पर 2020 के आंकड़ों के अनुसार यह बाल मजदूरों का आंकड़ा 84 लाख की वृद्धि के साथ बढ़कर 16 करोड़ पर पहुंच गया है, जिसका मतलब है कि दुनिया के करीब 9.6 फीसदी बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं।
कृषि और सेवा क्षेत्र में लगे हैं सबसे ज्यादा बाल मजदूर
कौन सा बच्चा किस काम में लगा है यदि इस आधार पर देखें तो 70 फीसदी से ज्यादा बाल मजदूर कृषि में लगे हुए हैं जिनकी कुल संख्या करीब 11.2 करोड़ है। वहीं 19.7 फीसदी बच्चे सेवा क्षेत्र में और पांच से 17 वर्ष की उम्र के 10.3 फीसदी बाल मजदूर कारखानों, खानों और अन्य उद्योगों में लगे हुए हैं।
वहीं रिपोर्ट के अनुसार यदि इस पर आज ध्यान न दिया गया तो कोविड-19 के कारण आया आर्थिक संकट 2022 तक और 89 लाख बच्चों को बाल मजदूरी के दलदल में धकेल देगा, जिससे उनका भविष्य अंधकारमय हो सकता है। यही नहीं अनुमान है की बाल मजदूरों का यह आंकड़ा 2022 तक बढ़कर 20.6 करोड़ तक जा सकता है।
बाल मजदूरों की संख्या में सबसे ज्यादा वृद्धि उप-सहारा अफ्रीका में देखी गई है, जहां बढ़ती आबादी, गरीबी और आर्थिक संकट और सामाजिक सुरक्षा के आभाव के चलते 2016 से 2020 तक और 1.6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करने को मजबूर हो गए हैं। उप-सहारा अफ्रीका में पांच से 17 वर्ष की उम्र के लगभग एक चौथाई बच्चे पहले से ही बाल मजदूरी कर रहे हैं। वहीं यूरोप में 5.7 फीसदी, दक्षिण एशिया में 4.9 फीसदी और उत्तरी अमेरिका में यह आंकड़ा 0.3 फीसदी है।
इसी तरह बाल मजदूरी में शहरी-ग्रामीण असमानता भी साफ देखी जा सकती है। जहां ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले करीब 13.9 फीसदी बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं वहीं शहरी क्षेत्र में यह आंकड़ा 4.7 फीसदी है। इसकी सबसे बड़ी वजह भारी संख्या में बच्चों का कृषि क्षेत्र में मजदूरी करना है। वहीं करीब 72.1 फीसदी बच्चे अपने पारिवारिक काम-धंधों में मदद कर रहे हैं।
शिक्षा से भी वंचित हैं बड़ी संख्या में बाल मजदूर
रिपोर्ट से इस बात की भी जानकारी मिली है कि लॉकडाउन के कारण स्कूलों बंद कर दिए गए हैं। जिसके कारण भी बाल मजदूरी बढ़ रही है। बच्चे अपने माता पिता का हाथ बंटाने के लिए अलग-अलग कामों में लग गए हैं। वहीं बच्चियों पर भी घरेलु और कृषि सम्बन्धी कार्यों को करने का दबाव बढ़ गया है। इनमें से ज्यादातर बाल मजदूर शिक्षा से वंचित हैं।
रिपोर्ट के अनुसार 5 से 11 वर्ष की आयु के एक चौथाई से अधिक बच्चे और 12 से 14 वर्ष की आयु के एक तिहाई से अधिक बच्चे जो बाल मजदूरी करने को मजबूर हैं, वो स्कूल नहीं जाते हैं।
इससे पहले आईएलओ और यूनिसेफ द्वारा जारी एक अन्य रिपोर्ट कोविड-19 एंड चाइल्ड लेबर: अ टाइम ऑफ क्राइसिस ने भी कोविड-19 के कारण बाल मजदूरों की संख्या में इजाफा होने का अंदेशा जताया था। यही नहीं रिपोर्ट के मुताबिक जो बच्चे पहले से बाल मजदूरी कर रहे हैं यह संकट उन्हें ज्यादा लम्बे समय तक मजदूरी करने को मजबूर कर देगा। इसके साथ ही वो विषम परिस्थितियों में काम करने को मजबूर हो जाएंगें, जो उनके स्वास्थ्य को खराब कर देगा।
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 55 फीसदी करीब 400 करोड़ लोगों के पास इस आर्थिक संकट से निपटने का कोई विकल्प नहीं है। यदि यह संकट लम्बे समय तक बना रहता है तो यह लोग इस संकट का सामना नहीं कर पाएंगे। वहीं एडीबी का अनुमान है कि कोरोनावायरस के चलते 24.2 करोड़ नौकरियां खत्म हो जाएंगी। यदि आम मजदूरों और कामगारों को देखा जाये तो उनको होने वाला कुल नुकसान करीब 136.2 लाख करोड़ रुपए तक हो सकता है। ऐसे में यह परिवार अपना गुजर-बसर कैसे करेंगें, वो भविष्य में एक बड़ी समस्या होगी। (downtoearth.org.in)
-बृजेश सिंह
राहुल गांधी चाहते तो 10 साल की यूपीए सरकार में स्वयं प्रधानमंत्री बन सकते थे, कैबिनेट मंत्री बन सकते थे किंतु उन्होंने राज्यमंत्री तक का पद नहीं लिया। मगर जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आरपीएन सिंह, सचिन पायलट ये सब वो थे जिनको पहली बार सांसद बनने पर ही मंत्री पद मिला।
किन्तु इन सभी नेताओं में एक बात कॉमन थी वो ये कि इनका बैकग्राउंड बाप-दादाओं की जमीन से था न कि स्वयं संघर्ष का। इन्होंने पार्टी के लिए कोई संघर्ष नहीं किया, बल्कि पैराशूट से लांच किए गए और वो सभी पद और प्रतिष्ठा जिसकी कामना हर एक नेता को जीवन भर रहती है, वो एक झटके में मिल गई। एक जमीनी, कट्टर, और मिट्टी से निकले कार्यकर्ताओं को तरजीह न देकर कांग्रेस ने 10 साल जो शासन किया उसका परिणाम आज भुगत रही है।
अभी भी कांग्रेस में ऐसे हजारों कार्यकर्ता हैं जिन्होंने अपनी जवानी गला दी है पार्टी के लिए, एक उम्र बिता दी है, उनके खून में कांग्रेस बसती है, किंतु उन्हें एक अदद जिम्मेदारी देने के लिए भी पार्टी के लोग तैयार नहीं हैं, यह मेरा मूल्यांकन है कि जिसने अपनी राजनीति जमीन से शुरू की, वह बिना पद के भी आज 32 साल का सूखा झेलने के बाद इस प्रतिकूल समय में भी पार्टी के कार्यकर्ता हैं। आज पार्टी का जो अस्तित्व बचा है वह उनके पसीने के ही कारण है।
इन पैराशूटधारियों के बजाय यदि कांग्रेस अपने इन जमीनी कार्यकर्ताओं पर विश्वास कर ले तो आज कम से कम मुख्य लड़ाई में तो दिखाई ही देने लगेगी। पार्टी की दुर्दशा से कष्ट उन्हें ही होता है जिन्होंने अपना जीवन हवन कर दिया है। पार्टी के लिए, न कि जितिन प्रसाद या ज्योतिरादित्य टाइप के लोगों को।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इन दिनों खाने-पीने की चीजों और दवाइयों में मिलावट की खबरें बहुत ज्यादा आ रही हैं। दुनिया के मिलावटखोर तो बड़ी बेरहमी से पैसा कमा रहे हैं लेकिन सैकड़ों-हजारों लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। इन मिलावटखोरों के लिए सभी देशों में सजा का प्रावधान है लेकिन भारत में तो उनकी सजा उनके अपराध के मुकाबले बहुत कम है। ये अपराधी सामूहिक हत्या के दोषी होते हैं। इन्हें फांसी की सजा क्यों नहीं दी जाती ? इनके पूरे परिवार की संपत्ति जब्त क्यों नहीं की जाती?
हमारे भारत के लोग जरुरत से ज्यादा सहनशील हैं। वे अपनी विधायकों और सांसदों का घेराव क्यों नहीं करते ? वे उन्हें इस मुद्दे पर सख्त कानून बनाने के लिए बाध्य क्यों नहीं करते ? अदालतें इन मिलावटखोरों को फांसी पर तभी लटका सकेंगी, जब उस तरह का कानून होगा। फिर भी दो ताजा मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने मिलावटखोरों की खूब लू उतारी है। नीमच के दो व्यापारियों को पुलिस ने इसलिए पकड़ लिया कि उन्होंने गेहूं पर सुनहरी पॉलिश (अखाद्य) चढ़ाकर बेचा था। दूसरे व्यापारी ने घी में ऐसी मिलावट की थी कि वह खाने लायक नहीं रह गया था। जो वकील इन दोनों मामलों में पक्षकारों की तरफ से बोल रहा थे, उनसे जजों ने पूछा कि क्या आप खुद वैसा गेहूं और वैसा घी खाना चाहेंगे?
दोनों वकीलों की हवा खिसक गई। उन्होंने वकीलों से कहा कि आप इन मिलावटखोरों की पैरवी करने यहां खड़े हैं, जो लोगों की थोक में हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। अदालत क्या करेगी ? उन्हें जेल भेज देगी। वे जेल में जनता के पैसे की मुफ्त रोटी खाएंगे और जब वे छूटकर आएंगे तो वही धंधा वे बड़े पैमाने पर फिर शुरु कर देंगे। खाने-पीने की चीजों के मिलावटखोरों से भी ज्यादा खतरनाक दवाइयों में मिलावट करनेवाले हैं। उनकी दवाइयों का सेवन करनेवाले तो अपनी जान से ही हाथ धो बैठते हैं। इंदौर शहर में ऐसे 10 लोग अचानक मर गए, जिन्हें रेमदेसेवीर के नकली इंजेक्शन लगाए गए थे। नकली इंजेक्शनों, नकली गोलियों, नकली ऑक्सीजन कंसट्रेटरों और नकली कोरोना-किटों के सैकड़ों मामले भारत में पिछले दो-ढाई माह में सामने आते रहे हैं। भारत में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में यह राक्षसी धंधा जोरों से चला है। 92 देशों ने ऐसे धंधों के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरु की है। इंटरपोल ने 1 लाख 13 हजार वेबसाइटों को बंद किया है, क्योंकि ये नकली दवाइयों का धंधा कर रही थीं। इस तरह के धंधे ब्रिटेन, वेनेजुएला, इटली, कतार आदि कई देशों में बहुत जोरों से चल पड़े हैं। इन राक्षसी धंधों पर काबू पाने का एक ही तरीका है। वह यह कि इन अपराधियों को तुरंत फांसी पर लटकाया जाए और उस घटना को राष्ट्रीय उत्सव की तरह प्रचारित किया जाए। फिर देखिए कि क्या होता है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-श्रवण गर्ग
जनता अपने प्रधानमंत्री से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि उसे उनसे भय लगता है।जनता उनसे उनके ‘मन की बात ‘, उनके राष्ट्र के नाम संदेश, चुनावी सभाओं में दिए जाने वाले जोशीले भाषण सबकुछ धैर्यपूर्वक सुन लेती है पर अपने दिल की बात उनके साथ शेयर करने का साहस नहीं जुटा पाती है । प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई होगी। सम्भव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं ज़ाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्द-गिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं।
प्रजातांत्रिक मुल्कों के शासनाध्यक्षों को आमतौर पर इस बात से काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है कि लोग उन्हें हक़ीक़त में कितना चाहते हैं ! वे अपने आपको लोगों के बीच चाहने के चोचले या टोटके भी आज़माते रहते हैं। मसलन, अमेरिकी जनता को व्हाइट हाउस के लॉन पर अठखेलियाँ करते राष्ट्रपति के श्वान के नाम, उम्र और उसकी नस्ल की जानकारी भी होगी। शासनाध्यक्ष यह पता करवाते रहते हैं कि लोग उन्हें लेकर आपस में, घरों में, पार्टियां शुरू होने के पहले और उनके बाद क्या बात करते होंगे ! यह बात तानाशाही मुल्कों के लिए लागू नहीं होती जहां किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति के हल्के से मुस्कुरा लेने भर को भी सत्ता के ख़िलाफ़ साज़िश के तौर पर देखा जाता है।
पुराने जमाने की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि राजा स्वयं फ़क़ीर का वेष बदलकर देर शाम या अंधेरे में अपनी प्रजा के बीच घूमने निकल जाता था और उसके बीच अपने ही शासन की आलोचना करते हुए डायरेक्ट फ़ीडबैक लेता था कि उसकी लोकप्रियता किस मुकाम पर है। वह इस काम में किसी पेड एजेन्सी या पेड न्यूज वालों की मदद नहीं लेता था। हमारी जानकारी में क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि प्रधानमंत्री ने अपने ‘डाई हार्ड’ समर्थकों के अलावा देश की बाक़ी जनता से यह पता करने की कोशिश की होगी कि वह उन्हें दिल और दिमाग दोनों से कितना चाहती है या कितना ख़ौफ़ खाती है ?
आपातकाल के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग आपस में बात करते हुए भी इस चीज़ का ध्यान रखते थे कि आसपास कोई दीवार तो नहीं है।भ्रष्टाचार का रेट भी ‘दूर दृष्टि ‘ और ‘कड़े अनुशासन’ के बीस-सूत्रीय कार्यक्रमों की रिस्क के चलते काफ़ी बढ़ गया था ।पर जनता पार्टी शासन के अल्पकालीन असफल प्रयोग के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आईं तब तक उन्होंने अपने आपको काफ़ी बदल लिया था। उनके निधन के बाद किसी ने यह नहीं कहा कि देश को एक तानाशाह से मुक्ति मिल गई। ऐसा होता तो सहानुभूति लहर के बावजूद ‘परिवार’ के एक और प्रतिनिधि राजीव गांधी इतने बड़े समर्थन के साथ सत्ता में नहीं आ पाते। अटल जी का तो जनता के दिलों पर राज करने का सौंदर्य ही अलग था।
नायक कई मर्तबा यह समझने की गलती कर बैठते हैं कि जनता तो उन्हें खूब चाहती है, सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग ही उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र में लगे रहते हैं यानी शासक के हरेक फ़ैसले में सिर्फ़ नुक्स ही तलाशते रहते हैं। अगर यही सही होता तो दुनिया भर में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति, एक ही परिवार या एक ही पार्टी की हुकूमतें राजघरानों की तर्ज़ पर चलती रहतीं। ऐसा होता नहीं है। नायक ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं और वर्तमान को ही भविष्य भी मान बैठते हैं।
सात जून की दोपहर जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट के ज़रिए लोगों को जानकारी मिली कि मोदी शाम पाँच बजे राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे तो (चैनलों को छोड़कर) जनता के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। मसलन, प्रधानमंत्री कोरोना की पहली लहर के बाद जनता द्वारा बरती गई कोताही और उसके कारण मची दूसरी लहर की तबाही के परिप्रेक्ष्य में सम्भावित तीसरी लहर के प्रतिबंधों पर तो कुछ नहीं बोलने वाले हैं ? या फिर मौतों के आँकड़ों को लेकर चल रहे विवाद पर तो कोई नई जानकारी नहीं देंगे ? या फिर क्या वे इस बात का ज़िक्र करेंगे कि दूसरी लहर के दौरान समूचा सिस्टम कोलैप्स कर गया था और लोगों को इतनी परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। सम्बोधन में ऐसा कुछ भी व्यक्त नहीं हुआ। कुछ सुनने वालों ने राहत की साँस ली और ज़्यादातर निराश हुए। प्रधानमंत्री को शायद सलाह दी गई होगी कि दूसरी लहर उतार पर है और अब उन्हें अपनी अर्जित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जनता की नब्ज टटोलने के लिए उससे मुख़ातिब हो जाना चाहिए।
पीएमओ को किसी निष्पक्ष एजेंसी की मदद से सर्वेक्षण करवाकर उसके आँकड़े प्रधानमंत्री ,पार्टी और संघ को सौंपने चाहिए कि सम्बोधनों में उनके बोले जाने का असर जनता के सुने जाने पर कितना और किस तरह का पड़ रहा है ? प्रधानमंत्री ने अपने सात जून के संबोधन में केवल इस बात का ज़िक्र किया कि 2014 (उनके सत्ता में आने के साल ) के बाद से देश में टीकाकरण कवरेज साठ प्रतिशत से बढ़कर नब्बे प्रतिशत हो गया है । उन्होंने यह नहीं बताया कि जनता में उनके प्रति भय अथवा नाराज़गी का कवरेज क्षेत्र भी उसी अनुपात में सात सालों में और बढ़ा है या कम हो गया है। समय बीतने के साथ ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री के मंच और और जनता के बैठने के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दोनों ही एक-दूसरे के चेहरे के ‘भावों’ को नहीं पढ़ पा रहे हैं।अपार भीड़ की ‘अभाव’पूर्ण उपस्थिति ऐसी ख़ुशफ़हमी में डाल देती है जो परिणामों में ग़लतफ़हमी साबित हो जाती है।बंगाल में ऐसा ही हुआ। एक ‘अलोकप्रिय’ मुख्यमंत्री एक ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री को चुनौती देते हुए फिर सत्ता में काबिज हो गई।
प्रधानमंत्री को सरकार की उपलब्धियाँ गिनाने, ,मुफ़्त के टीके और अस्सी करोड़ लोगों को दीपावली तक मुफ़्त का अनाज देने की बात करने के बजाय मरहम बाँटने का काम करना चाहिए था। जितने लोगों की जानें जाना थीं, जा चुकी है। अब जो हैं उन्हें कुछ और चाहिए। प्रधानमंत्री से इस बात का ज़िक्र छूट जाता है कि जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है जिसे कि वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं। जब वे कहते हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी पिछले सौ सालों में नहीं देखी गई तो लोगों की उम्मीदें भी अब वैसी ही हैं जो सौ सालों में प्रकट नहीं हुईं। और उसे समझने के लिए यह जानना पड़ेगा कि उनका 2014 का मतदाता 2021 में उनके संबोधन को टीवी के पर्दे के सामने किसी अज्ञात आशंका के साथ क्यों सुनता है ?
अंत में : अंग्रेज़ी अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने अपने बत्तीस मिनट के संबोधन में कोई छब्बीस सौ शब्दों का इस्तेमाल किया पर देश की उस सर्वोच्च अदालत के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा जिसे कि जनता अपने लिए मुफ़्त टीके का श्रेय देना चाहती है !
-राजीव
मूल्यांकन का कोई न कोई तरीका खोजा जाना चाहिए था। बड़ी कक्षाओं की परीक्षाएं रद्द करना बहुत ही गलत निर्णय है। आप भले महामारी की आड़ ले लीजिए लेकिन रद्द हुई परीक्षाओं ने पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी है। अभी जो विद्यार्थी कक्षा ग्यारहवीं जैसी महत्वपूर्ण कक्षा में दाखिल हुए हैं उनका स्कूली शिक्षा में अभी तक कोई वास्तविक मूल्यांकन हुआ ही नहीं है ।
देश ने पिछले दिनों देखा कि सरकारों में शिक्षा को लेकर कितनी गंभीरता है। स्कूली शिक्षा से जुड़ी सभी परीक्षाएं सारे देश में रद्द कर दी गई।
चुनाव, धार्मिक आयोजन इसके अलावा ऐसे कितने ही गैरजरूरी काम थे जो सरकारों ने अपनी उपलब्धि बताते हुए संपन्न करवाएं। सीना चौड़ा कर ऐसे सारे काम जो समय के हिसाब से गैरजरूरी थे, जिन्हें टाला जा सकता था और भावी संक्रमण से बचा जा सकता था लेकिन वह सारे काम हुए। सिर्फ बंद रही तो इन 15 महीनों में देश की स्कूली शिक्षा। स्कूल ही अकेली ऐसी संस्था है जिसे खोलने के लिए किसी भी सरकार ने कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई, कोई ऐसा नियम नहीं बनाया, कोई ऐसी अनूठी पहल नहीं की जिससे शिक्षा वापस अपने पुराने रूप को पा सके।
हवाला हमेशा यह दिया गया कि बच्चों को संक्रमण का खतरा है। तमाम तरह के लोक-लुभावने जुमले दिए गए कि बच्चे देश का भविष्य है जबकि भविष्य बचाने जैसा कोई काम किया ही नहीं किया। करोड़ों बच्चों में जो अवसाद पनप रहा है उसकी भी कहीं कोई गंभीर चर्चा नहीं है।
पिछले साल भी मार्च में जब पूरा देश बंद किया गया साथ ही स्कूल बंद हुए उसके बाद से कोई भी परीक्षा नहीं ली गई जबकि परीक्षा केन्द्रों पर जाकर बहुत सारी परीक्षाएं हुई जैसे जे.ई.ई., क्लैट, नीट इत्यादि जबकि यह सारी परीक्षाएं बारहवीं कक्षा पास करने वाले बच्चे ही देते हैं।
इस साल भी पढ़ाने के जो प्रयास थे उसे ऑनलाइन तक ही सीमित रखा गया और प्रत्यक्ष पढ़ाई बहुत ही कम प्रदेशों में शुरू हो पाई। पहली से आठवीं तक पूरे देश में लगभग स्कूल मार्च 2020 से बंद है और सरकारों के रवैया से यह इस साल भी खुलते नहीं दिख रहे। इस समय सबसे चिंताजनक बात यह है इस बारे में सोचा भी नहीं जा रहा।
मूल्यांकन की बात करें तो जब पिछले साल परीक्षाएं रद्द हुई और पूरे साल भर यही स्थिति थी। तमाम महामारी से जुड़े वैज्ञानिक, डॉक्टर और स्वयं सरकारें बोलती रहेगी स्थिति अभी कुछ दिन ऐसी ही रहेगी। ऐसे में पूरे देश का भारी-भरकम स्कूल शिक्षा विभाग क्या कर रहा था? क्यों उसने मूल्यांकन का कोई नया तरीका या नई विधा विकसित करने की नहीं सोची? परीक्षाएं रद्द कर देना एक तरीके है अपनी जिम्मेदारी से भागने का।
मूल्यांकन का कोई न कोई तरीका खोजा जाना चाहिए था। बड़ी कक्षाओं की परीक्षाएं रद्द करना बहुत ही गलत निर्णय है। आप भले महामारी की आड़ ले लीजिए लेकिन रद्द हुई परीक्षाओं ने पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी है। अभी जो विद्यार्थी कक्षा ग्यारहवीं जैसी महत्वपूर्ण कक्षा में दाखिल हुए हैं उनका स्कूली शिक्षा में अभी तक कोई वास्तविक मूल्यांकन हुआ ही नहीं है ।
सी.बी.एस.ई. और राज्यों के शिक्षा बोर्ड यह कर सकते थे कि कम से कम कुछ ही महीने पहले जब उसने परीक्षा फॉर्म ऑनलाइन भरवाए थे तब परीक्षा फॉर्म भरने वाले विद्यार्थियों से उसकी आवश्यक जानकारी जैसे मोबाइल की उपलब्धता, इंटरनेट कनेक्शन आदि की स्थिति पूछकर मूल्यांकन को लेकर एक वास्तविक स्थिति जान सकता था।
सी.बी.एस.ई. बोर्ड में कक्षा दसवीं मैं इस साल 17 लाख से ऊपर विद्यार्थियों ने अपना पंजीयन कराया था तथा बारहवीं में यह संख्या चौदह लाख से ऊपर थी। सी.बी.एस.ई. अपने प्रत्येक वार्षिक परीक्षा का परीक्षा शुल्क लगभग पन्द्रह सौ रुपए लेता है।
अगर इन दोनों परीक्षाओं का शुल्क जोड़ा जाए तो वह पांच सौ करोड़ के आसपास होता है। इतने शुल्क लेने के बाद भी किसी तरह का कोई काम ना करना, क्या देश के बच्चों के साथ नाइंसाफी नहीं है? क्या देश की शिक्षा के साथ नाइंसाफी नहीं है?
-तसलीमा नसरीन
नुसरत की खबर बहुत चौंकाने वाली है । वह गर्भवती है, पर उनके पति निखिल को इस बारे में कुछ नहीं पता। दोनों को छ: महीने के लिए अलग कर दिया गया था लेकिन इस बीच अभिनेत्री नुसरत को अभिनेता यश से प्यार हो गया। लोग मान रहे हैं बच्चे का पिता यश है निखिल नहीं। खबर आखिर सच है या अफवाह पता नहीं !!! लेकिन यही हाल रहा तो क्या निखिल व नुसरत का तलाक होना अच्छा नहीं है? चमगादड़ की तरह किसी रिश्ते को लटकाना सही नहीं। यह दोनों पक्ष को लिए असुविधाजनक हैं।
मुझे खूब मज़ा आया था जब नुसरत और निखिल की शादी हुई थी जैसी खुशी सृजित और मिथिला की शादी में हुई थी। क्योंकि मैं धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती हूँ, अगर दो धर्मों के बीच विवाह हो तो मैं स्वाभाविक रूप से खुश हो जाती हूँ । जाति धर्म आदि को खत्म करना है तो विभिन्न जाति/धर्म को आपस में वैवाहिक संबंध कायम करना होगा। इससे हिंसा दूर हो सकती है। लेकिन किसे पता था कि आँखों के समान जोड़ी ज़्यादा दिन खुश नहीं रहेगी?
उस दिन ब्रत्या की एक तस्वीर में नुसरत को देखा था। मैंने पहली बार नुसरत की इतनी अच्छी तस्वीर देखी। लडक़ी एंजोलीना जॉली की तरह ही सुन्दर दिखती है और अभिनय भी अच्छा करती है। निश्चित रूप से आत्मनिर्भर है। दरअसल यदि आप आत्मनिर्भर और जागरूक हैं, यदि आपके पास आत्मविश्वास और आत्मसम्मान है, तो आप अपने बच्चे के संरक्षक बन सकते हैं। आप अपने बच्चे को अपनी पहचान से बड़ा कर सकते हैं। आपको किसी पुरुष की ज़रूरत नहीं है।
दरअसल निखिल और यश में क्या अन्तर है? आखिर में रूद्गठ्ठ 2द्बद्यद्य ड्ढद्ग द्वद्गठ्ठ. एक व्यक्ति को छोडक़र दूसरी शादी करने पर जीवन बहुत खुश हो जाता है। क्या हमें दूसरी ज़हरीली जि़ंदगी जीने के लिए दूसरी शादी करनी पड़ती है? फिर ये दौड़ खत्म नहीं होगी। मनचाहा आदमी मेल नहीं खाता। स्वतंत्र स्त्री का वांछित पुरुष कल्पना में जीता है, वास्तविकता में नहीं।
-सुसंस्कृति परिहार
आज पूरे देश में जिन प्रमुख खबरों पर लोगों की नजरें टिकी रहीं उनमें विनोद दुआ पर राजद्रोह मामले का खरिज होना। जागरण में योगी जी का जबरदस्त इंटरव्यू और रिटायर कर्मचारियों की अभिव्यक्ति को बाधित कर पेंशन पर रोक महत्वपूर्ण हैं। हर जर्नलिस्ट संरक्षण का हकदार है।
सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह का मामला रद्द कर दिया है। सुको ने कहा कि वर्ष 1962 का आदेश हर जर्नलिस्ट को ऐसे आरोप से संरक्षण प्रदान करता है। गौरतलब है कि एक बीजेपी नेता की शिकायत के आधार पर विनोद दुआ पर दिल्ली दंगों पर केंद्रित उनके एक शो को लेकर हिमाचल प्रदेश में राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। एक एफआईआर में उन पर फर्जी खबरें फैलाने, लोगों को भडक़ाने, मानहानिकारक सामग्री प्रकाशित करने जैसे आरोप लगाए गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार दुआ ने इस एफआईआर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी। सुको ने केस को रद्द कर लिया। हालांकि कोर्ट ने दुआ के इस आग्रह को खारिज कर दिया कि 10 साल का अनुभव रखने वाले किसी भी जर्नलिस्ट पर एफआईआर तब तक दर्ज नहीं की जानी चाहिए जब तक कि हाईकोर्ट जज की अगुवाई में एक सशक्त पैनल इसे मंजूरी न दे दे। कोर्ट ने कहा कि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण की तरह होगा। किन सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण रूप से एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि हर जर्नलिस्ट को ऐसे आरोपों से संरक्षण प्राप्त है। कोर्ट ने कहा, हर जर्नलिस्ट को राजद्रोह मामलों पर केदारनाथ केस के फैसले के अंतर्गत संरक्षण प्राप्ति का अधिकार होगा। 1962 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि सरकार की ओर से किए गए उपायों को लेकर कड़े शब्दों में असहमति जताना राजद्रोह नहीं है।
यह फैसला पत्रकार जगत के लिए आज के माहौल में बड़ी उपलब्धि बतौर देखने की ज़रुरत है।
आज ही दूसरी तरफ एक अखबार ने योगी के वर्चुअल इंटरव्यू को जिस अंदाज में पूरे पेज पर प्रकाशित कर जन जागरण का बिगुल बजाया उसकी जितनी भत्र्सना की जाए वह कम है। यह पत्रकारिता के नाम पर कलंक है। एक नाकाम मुख्यमंत्री की छवि स्वच्छ करने के लिए जो एकजुटता अखबार के संवाददाताओं ने दिखाई वह घृणास्पद है। इस निर्लज्ज कोशिश ने पत्रकारों का मान ना केवल घटाया है बल्कि आज सुको के विनोद दुआ के फैसले पर सोचने भी मजबूर किया है। क्या ऐसे पत्रकारों को भी संरक्षण का हकदार माना जाए? दस साल और बीस साल कोई मायने नहीं रखते। यह खौल बेबाक तौर पर सच्चाई का दामन थामे रहने वाले पत्रकारों और समाजसेवी लोगों के दिलों में भी है। सभी को एक तराज़ू में नहीं तौला जा सकता है। लोकतंत्र का यह चतुर्थ खंभा यदि राष्ट्रहित की जगह इस तरह चापलूसी भरी झूठी हरकत करता है तो वह संरक्षण का हकदार नहीं होना चाहिए।
इस बीच एक तीसरी खबर भी बहुत ही खतरनाक है, जिसके अनुसार सेवानिवृत्त शासकीय अधिकारी कर्मचारी शासन के खिलाफ अपनी अभिव्यक्ति नहीं दे पाएंगे। यदि देते हैं तो उनकी पेंशन बंद कर दी जाएगी। इससे दमित नौकरशाही द्वारा जो पोल पट्टी हर विभाग की खुल रही है वह उजागर नहीं हो पाएगी। ज्ञातव्य हो कि सेवानिवृत्त हुए जज से लेकर हर विभाग के अधिकारियों ने शासन की खामियों को धड़ल्ले से जनता के बीच लाकर उन्हें सावधान करने की कोशिश की है। उससे सरकार को भी सबक लेना तो दूर वह उन्हें सबक सिखाने तैयार है, ऐसे में तो सबको मिलकर अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। नौकरी की गुलामी से निजात के बाद ताउम्र दासता का ये नया कानून भी वापस लेने की मुहिम चलानी होगी।
वस्तुत: आज के समय जिस तरह के नये नये माडल सामने आ रहे हैं, जिस तरह के नये कानून लाए जा रहे हैं उसके पीछे गलत को सही सिद्ध करने की दुर्भावना साफ झलकती है। जनता गुमराह ना हो अभिव्यक्ति बाधित ना हो इसके लिए सुको को ही पहल कदमी करने की जरूरत है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पहाड़ी के वन-क्षेत्र की रक्षा के लिए कठोर फरमान जारी कर दिया है। उसने फरीदाबाद के जिला अधिकारियों को आदेश दिया है कि वे डेढ़ माह में उन सब 10 हजार कच्चे-मकानों को ढहा दें, जो अरावली के खोरी गांव के आस-पास बने हुए हैं। ये मकान अवैध हैं। लगभग 100 एकड़ वन्य क्षेत्र में बने ये मकान पंजाब भू-रक्षण अधिनियम 1900 के विरुद्ध हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में वृक्ष आदि उगाने के अलावा कोई और काम नहीं हो सकता।
इन मकानों में रहनेवाले हजारों लोगों को कुछ फर्जी ठेकेदारों ने नकली कागज पकड़ाकर प्लाट बेच दिए। इन मकानों में रहनेवाले लोग ज्यादातर वे हैं, जो आस-पास की पत्थर-खदानों में मजदूरी करते थे। अब जब से खदानें बंद हुई हैं, ये लोग आस-पास के मोहल्लों में मजदूरी करके अपनी गुजर-बसर करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी सरकार को आदेश दिया था कि वह जंगल की इस ज़मीन को खाली करवाए लेकिन उस पर बहुत कम अमल हुआ।
पिछले साल तीन सौ मकान गिराए गए लेकिन सरकारी कर्मचारियों पर लोगों ने पत्थर बरसाए और उनका सारा अभियान ठप्प कर दिया। इस बार सरकार ने जिला प्रशासन को सख्त हिदायत दी है और कर्मचारियों की पूर्ण सुरक्षा का आदेश भी दिया है। इन 10 हजार कच्चे-पक्के मकानों के अलावा अरावली के वन्य-क्षेत्रों जैसे रायसीना, गैरतपुर बास, सांप की नांगली, दमदमा, सोहना, ग्वालपहाड़ी, बंधवाड़ी आदि में देश के करोड़पतियों और नेताओं ने अपने आलीशन फार्म हाउस बना रखे हैं। क्या वे भी नष्ट किए जाएंगे ?
यदि हां तो यह तो उनका बड़ा नुकसान होगा लेकिन इसके लिए वे ही जिम्मेदार हैं। इससे भी बड़ा नुकसान यह होगा कि कच्चे-मकानोंवाले हजारों लोग सडक़ पर आ जाएंगे। इस भयंकर गर्मी में वे अपना सिर कहां छिपाएंगे ? उनके लिए सरकार कोई वैकल्पिक व्यवस्था करे, यह जरुरी है। हालांकि अदालत ने वैकल्पिक व्यवस्था करवाने के प्रस्ताव को रद्द कर दिया है।
लेकिन सरकार संबंधित भू-माफिया लोगों को गिरफ्तार क्यों नहीं कर सकती ? उनकी संपत्तियां जब्त क्यों नहीं कर सकती ? उस पैसे को पुनर्वास में क्यों नहीं लगा सकती ? इसके अलावा अदालत और सरकार का यह कर्तव्य है कि वे हरयाणा सरकार और वन-विभाग के उन अफसरों को दंडित करें, जिनके कार्यकाल में ये अवैध-निर्माण हुए हैं। उनकी संपत्तियां जब्त की जाएं, जो सेवानिवृत्त हो गए हैं, उनकी पेंशन भी रोकी जाए और जो अभी सेवा में हों, उन्हें पदमुक्त किया जाए। यह अवैध काम सिर्फ हरयाणा में ही नहीं हुआ है। यह देश के हर इलाके में धड़ल्ले से हो रहा है। यह सही मौका है, जबकि अपराधियों को इतनी कड़ी सजा दी जाए कि भावी अपराधियों की रुह कांपने लगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
पिछले सात साल में हर चुनाव हार चुके जितिन प्रसाद का कद कितना बड़ा है? चर्चा है कि कांग्रेस अपने नेताओं को नहीं रोक पाती और उसके नेता पार्टी छोडक़र नुकसान कर जाते हैं। कांग्रेस को इन्हें रोकना भी क्यों चाहिए?
यूपीए के दो कार्यकाल में केंद्रीय मंत्री रह चुके जितिन प्रसाद की राजनीतिक बिसात इतनी है कि हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में अपनी भाभी तक को चुनाव नहीं जिता सके। वे 2014 में लोकसभा चुनाव हारे और तब से लगातार हार रहे हैं। पहले लोकसभा में आप उन्हें वाकओवर दे सकते हैं कि मोदी लहर में वे नहीं टिक सके। लेकिन वे 2017 में विधानसभा भी हार गए। 2019 में वे फिर से लोकसभा चुनाव हारे और इतना बुरा हारे कि जमानत जब्त हो गई।
उन्हें हाल में बंगाल कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया था। बंगाल चुनाव में कांग्रेस को उन्होंने कहां पहुंचाया है, ये आपने देखा ही। यूपी पंचायत चुनाव में जितिन की भाभी राधिका प्रसाद चुनाव नहीं जीत सकीं।
अब कहा जा रहा है कि वे कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से खफा थे। जैसे कि कांग्रेस उनसे अपेक्षा कर लेती तो वे सरकार बनवा देते!
यही हाल मध्यप्रदेश में सिंधिया का था। अपनी खुद की लोकसभा सीट हारने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री बनना चाह रहे थे। उन्होंने कांग्रेस की सरकार गिरा दी, भाजपा में चले गए, लेकिन क्या भाजपा ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया? सिंधिया कांग्रेस से एक असंभव डिमांड कर रहे थे। वह पार्टी बदलकर भी पूरी नहीं हुई।
हां, आप ये कह सकते हैं कि सिंधिया की हालत जितिन प्रसाद के मुकाबले लाख गुना बेहतर है।
अब ऐसे लोगों को कांग्रेस मनाए और रोके भी तो इनका करे क्या? कांग्रेस के समर्थनविहीन नेता ही कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत हैं। पदलोलुपता में वे न तो अपनी जगह खाली कर रहे हैं, न ही कुछ कर पाने की हालत में हैं। कांग्रेस को उन सारे नेताओं से मुक्ति ले लेनी चाहिए जो सियासत में दगे कारतूस हो चुके हैं और पार्टी के लिए बाधा बन रहे हैं।
कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी इसमें 50 कदम आगे है। वह जितना आक्रामक विपक्ष के साथ है, उतना ही पार्टी के भीतर भी है। जो बाधा है वह तुरंत बाहर हो जाता है। कांग्रेस उन्हें ढोती रहती है। अपनी पंचायत सीट न बचा पाने वाले जितिन के जाने से नुकसान कितना होगा, असली मसला ये नहीं है। असली संकट ये है कि कांग्रेस ऐसे लोगों को ढो रही है जो अपना भी भला नहीं कर पा रहे हैं। फिर वे पार्टी के लिए क्या करेंगे?
बाकी जितिन प्रसाद यूपी में कितने बड़े ब्राह्मण चेहरे हैं, इसका अंदाजा इसी एक बात से लगाया जा सकता है कि वे ब्राह्मण परिषद बनाकर भी न कांग्रेस को चर्चा में ला सके, न ब्राह्मणों का ही कोई भला कर सके और न ही खुद कोई चुनाव जीत सके।
वे किस पार्टी में जाएं, ये उनका निजी फैसला है, लेकिन जितिन प्रसाद को आज मीडिया में उनकी बिसात से ज्यादा आंका जा रहा है।
-सुसंस्कृति परिहार
सुख्यात पर्यावरणविद और प्रकृति उपासक चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदर लाल बहुगुणा की अचानक मौत ने पर्यावरण प्रेमियों को दूने उत्साह से इस अभियान में जोड़ा है। बहुगुणा जी के प्रति उनकी यह निष्ठा बकस्वाहा को ऐसा लगता टिहरी गढ़वाल बना देगी जहां लोग पेड़ों को अपने परिवार का सदस्य मानते हैं। उनके पदचिन्हों पर चलकर पूरा भरोसा है बुंदेलखंड के लोग हीरा के विरुद्ध अपने जंगल की जीत दजऱ् करा लेंगे।
बकस्वाहा का जंगल जो एमपी में छतरपुर जिले की अमानत है पर जैसे ही आदित्य बिड़ला ग्रुप को यहां हीरा खनन का ठेका मिलने की घोषणा हुई समस्त पर्यावरण प्रेमियों के कान खड़े हो गए क्योंकि इससे पहले इस स्थान का सर्वे सबसे पहले ऑस्ट्रेलिया की कंपनी रियो टिंटो ने शुरू किया था और कंपनी ने उस दौर में बिना अनुमति 800 से ज्यादा पेड़ काट डाले थे। गौरतलब है कि बंदर डायमंड प्रोजेक्ट के तहत इस स्थान का सर्वे 20 साल पहले शुरू हुआ था। अब यहां सवा दो लाख पेड़ काटे जाने वाले हैं।
खनिज विभाग ने पूर्व में यह खदान 2008 में ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी वाली रियो टिंटो कंपनी को लीज पर आवंटित की थी। जिसमें नीरव मोदी की पार्टनरशिप थी तब शर्त ये थी कि रियो टिंटो खदान से निकलने वाले हीरे निर्यात नहीं करेगी और हीरे की कटिंग और पॉलिशिंग मध्य प्रदेश में ही करेगी। कंपनी को इसमें मुनाफा नहीं दिखा तो वो यह प्रोजेक्ट सन् 2016 में छोड़ दी। तब यह भी कहा जाता है कि यह कंपनी बड़ी मात्रा में हीरे लेकर जा चुकी थी, जबकि कुछ ही हीरे राज्य सरकार के खजाने में जमा करके गई है।
एक छतरपुर जिले के बकस्वाहा की बंदर हीरा खदान 364 हेक्टेयर वनभूमि में है, जिसमें 34. 2 मिलियन कैरेट हीरा होने की संभावना है। इसकी कीमत करीब 55 हजार करोड़ रुपये है। इसके लिए पांच कंपनियों यानी भारत सरकार के उपक्रम नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉपोर्रेशन लिमिटेड, एस्सेल माइनिंग, रूंगटा माइंस लिमिटेड, अडानी ग्रुप की चेंदीपदा कलरी और वेदांता कंपनी ने तकनीकी निविदाएं जमा की थीं। आदित्य बिड़ला ग्रुप की कंपनी ने बंदर खदान को नीलामी के दौरान उच्चतम बोली 30.5 प्रतिशत लगाकर प्राप्त किया है।
यह खदान एशिया महाद्वीप की सबसे उत्कृष्ट जैम क्वालिटी के हीरों की खदान है। नीलामी प्रक्रिया में देश की बड़ी कंपनियों में शुमार अडानी ग्रुप 30 प्रतिशत अधिकतम बोली लगाकर दूसरे स्थान पर रहा। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले की बंदर हीरा खदान पर आदित्य बिड़ला समूह जल्दी ही काम शुरू कर देगा, क्योंकि सरकार ने इसका आशय पत्र (एलओआई) समूह के अधिकारियों को सौंप दिया है। इससे राज्य सरकार को करीब 23 हजार करोड़ रुपए रायल्टी के रूप में मिलेंगे जो सरकारी बोली के राजस्व का चार गुना होगा। सरकार एक साल में यह राजस्व हासिल करने की कोशिश करेगी।
लेकिन हीरा खदान के लिए 62.64 हेक्टेयर जंगल चिह्नित है। नियम है कि 40 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र के खनन का प्रोजेक्ट है तो उसे केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय मंजूरी देता है। वन विभाग में लैंड मैनेजमेंट के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक सुनील अग्रवाल का कहना है कि इस प्रपोजल को केंद्र सरकार में भेजा जा चुका है, अभी मंजूरी नहीं हुई है।
इसीलिए पर्यावरण प्रेमी अपनी एकजुटता के साथ पर्यावरण दिवस से हीरा खदान के खनन के काम को रोकने अपने जंगल को बचाने पांच जून विभिन्न चरणों में आंदोलन करने जा रहे हैं जिसमें देश और विदेश से पर्यावरण संरक्षण करने वाले लोग आते रहेंगे। कोरोना कफ्र्यू के कारण इसमें विलंब हुआ है।
छतरपुर में बकस्वाहा हीरा खदान के लिए काटे जाने वाले 2.15 पेड़ों को बचाने के लिए म प्र समेत देश भर के एक लाख 15 हजार लोग सामने आ गए हैं। कोरोना को देखते हुए इन सभी ने फिलहाल सोशल मीडिया पर ‘सेव बक्सवाहा फॉरेस्ट’ कैंपन चलाया है, जरूरत पड़ी तो पेड़ों से चिपकेंगे। गत 9 मई को देश भर की 50 संस्थाओं ने इसके लिए वेबिनार किया और रणनीति बना ली है। चिपको आंदोलन का प्रशिक्षण भी युवाओं को दिया जा रहा है।
इस बीच दिल्ली की नेहा सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है, जिसे सुनने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मंजूर कर लिया है। बिहार में पीपल, तुलसी और नीम लगाने के देशव्यापी अभियान से जुड़े डॉ. धर्मेंद्र कुमार का कहना है कि कोरोना ने ऑक्सीजन की अहमियत बता दी है। राष्ट्रीय जंगल बचाओ अभियान से जुड़ी भोपाल की करुणा रघुवंशी ने बताया कि कई राज्यों के लोग जुड़े हैं। डॉ. धर्मेंद्र कुमार ने भी आंदोलन को सहमति के तौर पर जुडऩे की इच्छा जाहिर की है।
5 जून को पर्यावरण दिवस है इस अवसर पर पर्यावरण बचाओ अभियान के संस्थापक सदस्य, मार्गदर्शक एवं समाजसेवी बकस्वाहा जंगल बचाओ केम्पेन के समर्थन में कृषि वैज्ञानिक एवं समाज सेवी डॉ सदाचारी सिंह तोमर उम्र 70 वर्ष जो CAR , PUSA, New Delhi से सेवानिवृत्त और एकमात्र जीवित कृषि वैज्ञानिक हैं जिन्हें दो बार इंजीनियरिंग फील्ड में राष्ट्रपति सम्मान मिला है।
पद्मश्री बाबूलाल दाहिया Babulal Dahiya उम्र 85 वर्ष, सतना, जो जैविक खेती, विभिन्न प्रकार के बीज संग्रहण, संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान है। शरद सिंह कुमरे 50 वर्ष संस्थापक पराक्रम जनसेवी संस्थान, पर्यावरण बचाओ अभियान, जागो भारत अभियान, भोपाल, कैप्टन राज द्विवेदी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भूतपूर्व सैनिक परिषद रीवा। श्री आनंद पटेल अध्यक्ष, पर्यावरण शिक्षा एवं संरक्षण समिति, भोपाल, ईश्वरचंद्र त्रिपाठी, उम्र 75 वर्ष, सतना वरिष्ठ समाज सेवी और भ्रष्टाचार हटाओ अभियान प्रमुख विवेक सक्सेना, पर्यावरण शिक्षा एवं संरक्षण समिति भोपाल, बकस्वाहा पहुंच कर एक दिन का उपवास/जंगल भ्रमण/पेड़ों से चिपक कर बकस्वाहा जंगल बचाने के लिए चिपको आंदोलन का सांकेतिक शुरुआत/रक्षा सूत्र बांधकर बकस्वाहा जंगल बचाने का संकल्प लेंगे।स्थानीय लोगों से भी संपर्क कर उन्हें पर्यावरण संरक्षण के हित में बकस्वाहा जंगल बचाने के लिए प्रेरित करेंगे। ग्रामवासियों के साथ पौधरोपण कर बकस्वाहा जंगल बचाने का संकल्प दिलवाएंगे।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत होंगे भगतसिंह को अपना आदर्श मानने वाले बुंदेलखंड के क्रांतिकारी युवा योद्धा जो पूंजीवादी व्यवस्था के समूल नाश के लिए प्रतिबद्ध हैं वे जन जन में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों के लिए जिम्मेदार सरकार से जंगल बचाने की गुहार कई से लगा रहे हैं। जंगल क्षेत्र के लोगों का उनको साथ भी मिला हुआ है। लोग बुंदेली भाषा में लोकगीत और विभिन्न नारों के जरिए पहुंच बनाए हुए हैं, क्षेत्र की कई वीडियो प्रसारित हो रही हैं। महिलाओं और बच्चों में भी जंगल बचाने की जोत जल चुकी है।
सुख्यात पर्यावरणविद और प्रकृति उपासक चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदर लाल बहुगुणा की अचानक मौत ने पर्यावरण प्रेमियों को दूने उत्साह से इस अभियान में जोड़ा है। बहुगुणा जी के प्रति उनकी यह निष्ठा बकस्वाहा को ऐसा लगता टिहरी गढ़वाल बना देगी जहां लोग पेड़ों को अपने परिवार का सदस्य मानते हैं। उनके पदचिन्हों पर चलकर पूरा भरोसा है बुंदेलखंड के लोग हीरा के विरुद्ध अपने जंगल की जीत दजऱ् करा लेंगे। प्रसिद्ध करीबी हीरा खनन क्षेत्र पन्ना की खदानों से लोगों को क्या मिला वे भी आंदोलन में शरीक होकर वहां की बदहाली से परिचित करा रहे हैं। लोग जाग गए हैं और उनसे उम्मीद की जा सकती है कि वे तब तक पीछे नहीं हटेंगे जब तक कामयाब नही होंगे। अंत में कैफ़ी आज़मी के ये लफ्ज़़ सबके लिए-
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिडक़ी इसी दीवार में खुल जाएगी..
-प्रकाश दुबे
दिल्ली विधानसभा अधिनियम बदलकर केन्द्र सरकार ने नियुक्ति अधिकार उपराज्यपाल को सौंपे। उपराज्यपाल ने संतोष वैद्य को मुख्यमंत्री का सचिव नियुक्त करने का आदेश जारी किया।
केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों के सलाहकार, सचिव, निजी सचिव, सहायक आदि के नियुक्ति आदेश यूं ही जारी नहीं होते। राष्ट्रीय स्वयं संघ की कसौटी पर खरा उतरने वालों के नाम पर मुहर लगती है। यह धारण सच है या नहीं, इसका पुष्टि के लिए नामों की सूची की पड़ताल करें या नागपुर मुख्यालय से संपर्क करें। दैनिक भास्कर के नहीं। इस धारणा पर शक करने की पूरी पूरी गुंजाईश है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सचिव राजिन्दर कुमार घोटाले के लपेटे में छापे की ज़द में आए। मुख्यमंत्री को कुमार की बेगुनाही पर पक्का भरोसा है। इसलिए किसी अधिकारी को नियुक्त ही नहीं किया। केजरीवाल कहते रहे-कसकर जांच करा लो। उनकी जगह खाली रखेंगे।
दिल्ली विधानसभा अधिनियम बदलकर केन्द्र सरकार ने नियुक्ति अधिकार उपराज्यपाल को सौंपे। उपराज्यपाल ने संतोष वैद्य को मुख्यमंत्री का सचिव नियुक्त करने का आदेश जारी किया। अटकलबाज प्रधानमंत्री कार्यालय से फरमान आने का कयास लगाते रहे। केजरीवाल ठनठन गोपाल। दिल्ली के दिल में कोई बसे, नकेल केन्द्र सरकार के हाथ है।
लाकर की कुंजी
जबलपुर के दामाद जगत प्रकाश ने एटाला राजेन्दर को दिल्ली आने का न्योता दिया। चाय पर चर्चा में भाजपा अध्यक्ष ने राजेन्दर को ऐसा लपेटा कि उन्होंने पार्टी में शामिल होने पर हामी भर दी। बताते हैं। बताते हैं, नड्डा ने कौन सी चिडिय़ा फांसी। तेलंगाना की चंद्रशेखर राव सरकार में राजेन्दर मंत्री थे। जमीन घोटाले के कारण कुर्सी छिनी। यह पूछना कतई जरूरी नहीं कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल से कोई सबक नहीं लिया। दलबदलू लाकर की कुंजी की तरह हैं। माहौल बनाने से तिजोरी के पास पहुंचना आसान है। ताला खुल भी सकता है। तेलंगाना राष्ट्र समिति में भी पुराने कांग्रेसियों, तेलुगु देसम पार्टी वालों की भरमार है। मुख्यमंत्री राव नंदमूरि तारक रामाराव के परम भक्त थे। बेटे का नाम रामाराव रखा। पुत्र पिता की सरकार में मंत्री है।
ताला खोल
बिहार में शिक्षकों के कितने पद बरसों से रिक्त पड़े हैं? बेरोजगार स्नातकों के अनुसार तीन लाख से अधिक। 94 हजार शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया अदालत में लडख़ड़ा रही थी। भर्ती में विलम्ब के विरोध में पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, केन्द्रीय सूचना आयुक्त रहे यशोवर्धन आजाद आदि ने सरकार की आलोचना की।
बेरोजगार युवकों के संगठन हल्ला बोल और बिहार नीड्स टीचर्स मुख्यमंत्री की नाक में दम किए हुए हैं। अब तक अदालत की आड़ थी। बाजीगर की तरह बहानों की गेंद उछालते शिक्षा मंत्री कहा करते-अदालत से मामला सुलटने के अगले दिन भर्ती कर देंगे। पटना उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से बहाली प्रक्रिया जल्दी पूरी करने कहा। शिक्षा विभाग से मुख्यमंत्री स्वयं परेशान हैं। मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद उन्होंने सुपात्र शिक्षामंत्री चुना। लोगों ने हल्ला मचाया-इसे तो भर्ती घोटाले का अनुभव है। नीतीश कुमार नालंदा के रहने वाले हैं। नालंदा किस बात के लिए प्रसिद्ध है? पूछने पर मुख्यमंत्री झेंप जाएंगे।
टीके की दूसरी खुराक
सिद्धांत या नैतिकता की खातिर कुर्बानियों का पुराना इतिहास है। लाल बहादुर शास्त्री से बात करना कई कारणों से उचित होगा। रेल दुर्घटना के बाद मंत्री पद से त्यागपत्र देने वाले शास्त्री जी बाद में प्रधानमंत्री बने। कुछ साल पहले सुरेश प्रभू ने अनुकरण करते हुए रेलभवन से विदा ली। प्रधानमंत्री न सही, उनके शेरपा बने। पत्रकार स्वपन दासगुप्त ने वस्तुनिष्ठता की कुर्बानी दी। राजनीतिक पार्टी ने राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। विधानसभा की उम्मीदवारी मिलने पर राज्यसभा सदस्यता की कुर्बानी दी। पश्चिम बंगाल के मतदाता त्याग का महत्व नहीं समझे। बुरी तरह परास्त हुए।
राष्ट्रपति ने कुर्बानी का महत्व समझकर उनकी ही खाली कुर्सी पर फटाफट फिर नामजद किया। संसद की पुरानी इमारत में नई प्रथा बनी। पत्रकार कोटे से किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को नामजद करने का संभवत: पहला अवसर है। वह भी अधबीच में। नामजद व्यक्तियों के पद रिक्त होने पर किसी उपचुनाव की तरह नहीं भरे जाते। राज्य (सभा) और राष्ट्र (पति) के मधुर संबंधों की सचमुख यह दिलचस्प मिसाल है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार और दिल्ली की सरकार के बीच आजकल अजीब-सा विवाद चला हुआ है। दिल्ली की केजरीवाल-सरकार दिल्ली के लगभग 72 लाख लोगों को अनाज उनके घरों पर पहुंचाना चाहती है, लेकिन मोदी सरकार ने उस पर रोक लगा दी है। इन गरीबी की रेखा के नीचेवाले लोगों को ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ के तहत राशन की दुकानों से बहुत कम दामों पर अनाज पहले से मिल रहा है।
इसके बावजूद दिल्ली सरकार ने राशन का यह सस्ता अनाज लोगों के घर-घर पहुंचाने की योजना इसलिए बनाई है कि एक तो राशन की दुकानों पर लगनेवाली भीड़ से महामारी का खतरा बढ़ जाता है। दूसरा, बुजुर्ग गरीब लोगों को उन दुकानों तक पहुंचने और कतार में खड़े रहने में काफी दिक्कत महसूस होती है और तीसरा, इन दुकानों का बहुत-सा माल चोरी-छिपे मोटे दामों पर खुले बाजारों में बिकता रहता है।
इस सस्ते अनाज पर देश में ‘राशन माफिया’ की एक फौज पलती जा रही है। इसीलिए दिल्ली सरकार ने अनाज घर-घर पहुंचाने की योजना बनाई है। इस योजना को पिछले साल से लागू करने पर वह आमादा है। पांच बार उसने केंद्र से इसकी अनुमति मांगी है, लेकिन केंद्र सरकार इस पर कोई न कोई अड़ंगा लगा देती है। उसका पहला अड़ंगा तो यही था कि इसका नाम ‘मुख्यमंत्री घर-घर योजना’ क्यों रखा गया? मुख्यमंत्री शब्द इसमें से हटाया जाए? केजरीवाल ने हटा लिया। क्यों हटा लिया?
यदि मुख्यमंत्री के नाम से कोई योजना नहीं चल सकती तो प्रधानमंत्री के नाम से दर्जनों योजनाएं कैसे चल रही हैं ? मुझे आश्चर्य है कि केजरीवाल ने सभी योजनाओं से प्रधानमंत्री शब्द को हटाने की मांग क्यों नहीं की? प्रधानमंत्री को पूरे भारत में जितनी सीटें और वोट मिले हैं, उससे ज्यादा सीटें और वोट दिल्ली में केजरीवाल को मिले हैं। इसमें शक नहीं कि दिल्ली की आप सरकार की यह योजना भारत में ही नहीं, सारे संसार में बेजोड़ है, लेकिन उसे सफलतापूर्वक लागू कैसे किया जाएगा ?
यदि केंद्र सरकार को इसमें कुछ संशय है, तो वह जायज है। 72 लाख लोगों तक अनाज पहुंचाने के लिए हजारों स्वयंसेवकों की जरुरत होगी। उन्हें कहां से लाया जाएगा ? यदि उन्हें मेहनताना देना पड़ गया, तो करोड़ों रु. की यह भरपाई कैसे होगी ?
इस बात की क्या गारंटी है कि इस घर-घर अनाज-वितरण में मोटी धांधली नहीं होगी? इन सब संशयों के बावजूद केंद्र सरकार को चाहिए कि इस पहल में वह कोई अड़ंगा नहीं लगाए। यदि वह गड़बड़ाए तो इसे तत्काल रोका जा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ज़ुबैर अहमद
आज मोहनदास करमचन्द गांधी की 150वीं जयंती है. वो महात्मा बने, प्यार से बापू भी कहलाये और उन्हें अंत में राष्ट्रपिता होने का सम्मान भी दिया गया.
गांधी अहिंसा और सत्याग्रह के पैग़ंबर थे. अंग्रेज़ी राज को घुटने टिकाने वाले उनके इस मंत्र का जन्म साउथअफ़्रीका में हुआ था.
आज भारत में शायद कम लोगों को इस बात का अंदाज़ा होगा कि साउथ अफ़्रीका में, जहाँ गांधी ने अपनी जवानी के 21 साल गुज़ारे, उनकी विरासत बची है या नहीं. उनका नाम यहाँ लिया जाता है या नहीं?
कुछ समय पहले हम यही जानने के लिए भारत से यहाँ आये.
यही वो घर है जहां गांधी जी ने अपने सत्याग्रह और अहिंसा से जुड़े विचार विकसित किए.
डरबन और जोहानसबर्ग जैसे बड़े शहरों में गांधी को भुलाना आसान नहीं है. यहाँ के कुछ चौराहों और बड़ी सड़कों पर गांधी का नाम जुड़ा है. उनकी प्रतिमाएं लगी हैं और उनके नाम पर संग्रहालय बने हैं जहाँ इस देश में गुज़रे समय को क़ैद कर दिया गया है.
गांधी 1893 में साउथ अफ्रीका आये और 1914 में हमेशा के लिए भारत लौट आए.
शायद इस बात पर इतिहासकारों की सहमति हो कि इस देश में गांधी जी की सबसे अहम विरासत डरबन के फ़ीनिक्स सेटलमेंट में है जो भारतीय मूल के लोगों की एक बड़ी बस्ती है.
जोहानसबर्ग का गांधी चौक जहाँ कभी गांधी का दफ़्तर होता था.
फ़ीनिक्स सेटलमेंट में गांधी ने 1904 में 100 एकड़ ज़मीन पर एक आश्रम शुरू किया था जहाँ, उनकी पोती इला गांधी के अनुसार, गांधी जी की शख़्सियत में भारी परिवर्तन आने लगा.
सत्याग्रह के आइडिया से लेकर सामूहिक रिहाइश, अपना काम खुद करने की सलाह हो और पर्यावरण संबंधी क़दम (जैसे मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल और जल संरक्षण) जैसे विचार फ़ीनिक्स सेटलमेंट के गांधी आश्रम में जन्मे और पनपे.
गांधी इस देश में एक बैरिस्टर की हैसियत से सूट और टाई में आये थे. उनके क़रीबी दोस्तों में गोरी नस्ल और भारतीय मूल के लोग अधिक थे.
जोहानसबर्ग के इस जेल में गांधी और मंडेला दोनों क़ैद रह चुके हैं.
कहा जाता है कि आश्रम में बसने से पहले उनका लाइफ़ स्टाइल अंग्रेज़ों जैसा था. खाना वो काँटा छुरी से खाते थे.
वो काली नस्ल की स्थानीय आबादी से दूर रहते थे. इसी कारण उनके कुछ आलोचक उन्हें रेसिस्ट भी कहते हैं.
गांधी को नस्लवादी क्यों कहते थे लोग?
लेकिन 78 वर्षीया उनकी पोती इला गांधी के अनुसार लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी साउथ अफ़्रीक़ा जब आये थे तो उनकी उम्र केवल 24 वर्ष थी.
इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई तो कर ली थी लेकिन व्यावहारिक जीवन में पूरी तरह से क़दम नहीं रखा था.
बीबीसी की टीम गांधी की पोती इला गांधी के साथ.
इला गांधी का जन्म इसी आश्रम में 1940 में हुआ था और इनका बचपन यहीं गुज़रा. तेज़ बारिश के बावजूद वो खुद गाड़ी चलाकर हमसे मिलने आयी थीं.
हमने गांधी के ख़िलाफ़ नस्ली भेदभाव के इलज़ाम के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "बापू के उस युवा दौर के एक दो बयान को लोगों ने कॉन्टेक्स्ट से हटाकर देखा जिससे ये ग़लतफ़हमी हुई कि उनके विचार नस्ली भेदभाव वाले हैं."
अपनी बात ख़त्म करने के तुरंत बाद हमें वो आश्रम के उस कमरे में ले गयीं जो एक ज़माने में परिवार का रसोई घर होता था. लेकिन अब ये पूरा घर एक संग्रहालय है.
उन्होंने दीवार पर लगे गांधी जी के कुछ बयानों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "ये देखिये, इस बयान को लेकर बापू को रेसिस्ट समझा गया. लेकिन इनके साथ एक-दो और बयान पर नज़र डालिये जिससे लगेगा कि वो नस्लपरस्त बिलकुल नहीं थे"
इला गांधी महात्मा गांधी के चार बेटों में से दूसरे बेटे मणिलाल गांधी की बेटी हैं.
वो आज एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गांधी की एक ज़बर्दस्त शिष्या भी. वो एक रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और पूर्व सांसद भी.
इला गांधी ने, जो सात साल की उम्र में बापू की गोद में खेल चुकी हैं, गांधी के शांति मिशन का चिराग़ साउत अफ़्रीका में अकेले ज़िंदा रखा हुआ है.
अपनी मृत्यु से पहले उनकी बड़ी बहन सीता धुपेलिया गांधी के विचारों का प्रचार-प्रसार किया करती थीं. उनकी बेटी कीर्ति मेनन और बेटे सतीश गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी हैं.
हमारी मुलाक़ात कीर्ति मेनन से हुई जिन्होंने भारत में बढ़ती हिंसा और विभाजित होते समाज पर दुःख प्रकट किया.
इला गांधी
गांधी की स्थायी विरासत में शामिल है उनके परिवार की नयी पीढ़ी. हमारी मुलाकात गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी से भी हुई.
ये साउथ अफ़्रीक़ा के डरबन, केप टाउन और जोहानसबर्ग जैसे शहरों में आबाद हैं. उनमें से तीन युवाओं से हमारी मुलाक़ात डरबन में कीर्ति मेनन के घर हुई.
गांधी को कैसे देखती है उनकी पांचवीं पीढ़ी
इनका ज़िक्र स्कूल पाठ्य पुस्तकों में नहीं मिलेगा. इनकी तस्वीरें शायद आपने नहीं देखी होंगी क्योंकि ये मीडिया की चमक-दमक से कोसों दूर रहते हैं.
गांधी की पांचवीं पीढ़ी: कबीर, मिशा और सुनीता
ये साधारण जीवन बिता रहे हैं और अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट नज़र आते हैं.
तीनों में कुछ बातें समान हैं: वो आत्म विश्वास से भरे हैं. बहुत अच्छा बोलते हैं. गांधी परिवार की संतान होने के बावजूद अपनी विरासत का ग़लत इस्तेमाल करने की कोशिश करते नहीं दिखते और तो और साफ़ सटीक बातें करने से घबराते नहीं हैं.
कबीर धुपेलिया 27 वर्ष के हैं और डरबन में एक बैंक में काम करते हैं. उनकी बड़ी बहन मिशा धुपेलिया उनसे 10 साल बड़ी हैं और एक स्थानीय रेडियो स्टेशन में एक कम्युनिकेशन एग्ज़ीक्यूटिव हैं.
ये दोनों कीर्ति मेनन के भाई सतीश की संतानें हैं. इन दोनों की कज़न सुनीता मेनन एक पत्रकार हैं. वो कीर्ति मेनन की एकलौती औलाद हैं.
मिशा और सुनीता
चश्मे और हल्की दाढ़ी में कबीर एक बुद्धिजीवी की तरह नज़र आते हैं.
मिशा अपनी उम्र से काफ़ी छोटी लगती हैं लेकिन बातें समझदारी की करती हैं. सुनीता अपने काम को काफ़ी गंभीरता से लेती हैं.
वो खुद को भारतीय महसूस करते हैं या दक्षिण अफ़्रीकी?
इस सवाल पर कबीर एक झटके में कहते हैं, "हम साउथ अफ़्रीकी हैं."
मिशा और सुनीता के अनुसार वो साउथ अफ़्रीक़ी पहले हैं, भारतीय मूल के बाद में.
ये युवा बापू के दूसरे बेटे मणिलाल गांधी की नस्ल से हैं.
गांधी 1914 में दक्षिण अफ़्रीक़ा से भारत लौट गए थे. मणिलाल भी वापस लौटे लेकिन कुछ समय बाद गांधी ने उन्हें डरबन वापस भेज दिया.
गांधी ने 1904 में डरबन के निकट फ़ीनिक्स सेटलमेंट में एक आश्रम बनाया था जहाँ से वो "इंडियन ओपिनियन" नाम का एक अख़बार प्रकाशित करते थे.
मणिलाल 1920 में इसके संपादक बने और 1954 में अपनी मृत्यु तक इसी पद पर रहे.
इन युवाओं को इस बात पर गर्व है कि गांधी भारत के राष्ट्रपिता हैं और दुनिया भर में उन्हें अहिंसा और सत्याग्रह का गुरू माना जाता है.
'इंसान की तरह देखे जाएं गांधी
कबीर कहते हैं, "मेरे विचार में इस बात से मैं काफ़ी प्रभावित हूँ कि किस तरह वो अपने मुद्दों पर शांतिपूर्वक डटे रहते थे. ये आज आपको देखने को नहीं मिलेगा. गांधी ने शांति के साथ अपनी बातें मनवाईं जिसके कारण उस समय कुछ लोग नाराज़ भी रहते होंगे."
गांधी की विरासत की अहमियत का उन्हें ख़ूब अंदाज़ा है लेकिन उनके अनुसार ये भारी विरासत कभी-कभी उनके लिए एक बोझ भी बन जाती है.
सुनीता कहती हैं, "गांधी जी को एक मनुष्य से बढ़ कर देखा जाता है. उनकी विरासत के स्तर के हिसाब से जीवन बिताने का हम पर काफ़ी दबाव होता है."
सुनीता मेनन बताती हैं, "सामाजिक न्याय मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. और ये सोच गांधी परिवार में पिछली पांच पीढ़ी से चली आ रही है."
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वे कहती हैं कि उनके कई दोस्तों को सालों तक नहीं पता चलता कि वो गांधी परिवार से हैं.
मिशा बताती हैं, "मैं जानबूझ कर लोगों को ये नहीं कहती रहती हूँ कि आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ".
जब हमने पूछा कि जब उनके दोस्तों को पता चलता है कि उनका बैकग्राउंड किया है तो उनके दोस्तों की प्रतिक्रियाएं किया होती हैं?
इस सवाल के जवाब में सुनीता कहती हैं, "जब लोगों को हमारे बैकग्राउंड के बारे में पता चलता है तो वो कहते हैं कि हाँ अब समझ में आया कि आप सियासत के प्रति इतने उत्साहित क्यों हैं."
लेकिन इससे उनकी दोस्ती पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
वो गांधी की शिक्षा को अपने जीवन में अपनाने की कोशिश करते हैं लेकिन वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि वो एक अलग दौर में अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं और उनके अनुसार ये ज़रूरी नहीं है कि गांधी की 20वीं शताब्दी की सभी सीख आज के युग में लागू हो.
सुनीता के अनुसार उनके व्यक्तित्व को कई व्यक्तियों ने प्रभावित किया है, गांधी उनमें से एक हैं.
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ये युवा गांधी के अंधे भक्त नहीं हैं. गांधी की कई कमज़ोरियों से वो वाक़िफ़ हैं लेकिन वो ये भी कहते हैं कि उन्हें उनके दौर की पृष्ठभूमि में देखना चाहिए.
गांधी परिवार की इन संतानों को इस बात की भी जानकारी है कि भारत में गांधी के आलोचक भी बहुत हैं. मगर वो इससे दुखी नहीं हैं.
कबीर कहते हैं, "काफ़ी लोग ये समझते हैं कि अहिंसा को अपनाने के लिए आपको गांधीवादी होना पड़ेगा. अहिंसा के लिए आप गांधी से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन आप अगर उनके आलोचक हैं और अहिंसा के रास्ते पर चलना चाहते हैं तो आप गांधीवाद के ख़िलाफ़ नहीं है."
सुनीता कहती हैं कि गांधी की आलोचना उनके समय के हालत और माहौल के परिपेक्ष्य में करना अधिक उचित होगा. (bbc.com)
-कनक तिवारी
अन्य किसी नौकरी या सेवा के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए पदों के आरक्षण का कोई डबल पेंशन जैसा कानून नहीं है। रिटायर्ड जजों के लिए कई अधिनियमों में पांच वर्षों का अतिरक्त कामकाजी इंतजाम है। कई पदों के लिए अन्य बौद्धिक क्षेत्रों से ज्यादा काबिल अधिकारी मिल सकते हैं। यह गलतफहमी अब भी है कि जज अन्य अधिकारियों के मुकाबले ज्यादा इंसाफपसन्द और निष्पक्ष होते हैं।
संविधान ने अधिकारों और जिम्मेदारियों का अपनी समझ से बंटवारा किया है। एक धड़े को कानून, अधिनियम रचने का अधिकार देकर विधायिका कहा। उनकी शैक्षणिक योग्यता सिफर रखी। वे भी कानून बना सकते हैं जिन्हें तालीम में ककहरा भी नहीं मालूम हो। सांसदों, विधायकों के दीवानेआम के अधिकतम पंद्रह प्रतिशत से मंत्रिपरिषद का दीवानेखास बनता है। तिकड़मी लोग ही कैबिनेट में शामिल हो पाते हैं। संविधान और कानून की पोथियां पढऩे से ज्यादातर मंत्री बेपरवाह रहते हैं। सरदार पटेल की समझाईश के कारण अंगरेजपरस्ती की नौकरशाही लगभग जस की तस आ गई। अलबत्ता राष्ट्रपति और राज्यपाल के जरिए उसे मंत्रियों की मातहती में रखकर कई संवैधानिक जिम्मेदारियां भी दी जाती हैं। सत्ता की सुरंग में जब अंधेरा दिखाई देता है, तब ये नौकरशाह टॉर्च लेकर मंत्रियों को रास्ता दिखाते हैं। बीच-बीच में टॉर्च बुझाकर बगल हो जाते हैं। पता चलता है मंत्री जी पतित हो गए हैं।
जनता सताई जाती है। सत्ता की बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तब मुहावरे के बंदर की तरह रोटियां तोड़ तोडक़र तराजू वाला इंसाफ करना न्यायपालिका के जिम्मे होता है। इंसाफ की मशीनरी के मेकेनिकों को बरसों बाद इलहाम हुआ कि मु_ी में सत्ता ही जीवन का ऑक्सीजन सिलेन्डर है। उससे सुख की ऑक्सीजन भर लें। केन्द्रीय केबिनेट ने जजों के साथ गलबहियां कीं। संसद ने तय किया कि सत्ता के सेल की दूकान में बाटा का जूता घिस जाए तब बी. एस. सी. का बेच लें। शासन चलाना बिटिया के ब्याह जैसा बेगैरत काम नहीं है। अक्ल रखो और सत्ता के दामाद बनो। रिटायर होने की उम्र आए तो समधी भी बनो। तय हुआ कि ऐसे पद कायम किए जाएं जिनमें जनता को लगे कि सब ठीक-ठाक है। सिस्टम को भी लगे कि हमारी दूकान गुडविल में चल निकली। चरित्र भले सूख जाए लेकिन हथेली गीली रहे। जो धरती दिखे, वह असल में दलदल रहे। हाथ के पंजे ने यारी दोस्ती में कमल का फूल ले लिया। दोनों को लक्ष्मीजी प्रिय हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सरोगेट कोख से उछलकर एक शब्द ‘मानव अधिकार’ दुनिया में चकरघिन्नी हो रहा है। जनता को खुशफहमी में भरमाते देश और प्रदेशों के स्तर पर ‘मानव अधिकार आयोग’ गठित हुए। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट जजों को ही पदेन अध्यक्ष बनाने नेता-जज गठजोड़ के कारण अधिनियम बने। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस के लिए राष्ट्रीय और राज्य मानव अधिकार आयोग अध्यक्ष पद यथासंभव आरक्षित हो ही गए। पांच वर्षों तक रिटायर जज न्याय की मूर्ति लगते मानव अधिकार का बोनस बांटें। पुलिस अत्याचार पर अत्याचार करे। सरकारें नागरिकों की चटनी पीसें। मानव अधिकार आयोग अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खरू होते कुछ कर धर नहीं पाते हैं। कागज पर छपे शेर बने अपने वेतन के लिए कभी-कभार दहाड़ते हैं। उनकी रिपोर्टें रद्दी की सरकारी टोकरी में इज्जतबख्श होती रहती हैं।
खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट और जहरखुरानी की बेईमानियां, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी, जमाखोरी व्यापारी वर्ग करता ही है। उपभोक्ता संरक्षण आयोग बनाकर रिटायर्ड जजों को वहां भी अध्यक्षी वाला बुढ़ऊ के ब्याह का एकाधिकार है। 62 वर्ष की आयु में रिटायर होने पर पांच वर्षों या सत्तर वर्षों तक माय लॉर्ड की आधी अधूरी ठसक समुद्र के उतरते भाटा की तरह होती है। ठेकेदारों और सरकारों के बीच खराब सडक़ों, टूटते पुल, भरभराती इमारतों, मिलावटी सीमेंट वगैरह के सैकड़ों हजारों करोड़ के विवाद सरफुड़ौव्वल करते हैं। देश, प्रदेश और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक विवादों को हल करने रेफरी का काम रिटायर्ड जजों को ही अमूमन सौंपा जाता है। मनमोहन सिंह सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र को निजी इजारेदारों का बहिश्त बना दिया। बिना लाइसेंस के भी बिजली कारखाना बनाने के नाम पर, देश का कोयला सार्वजनिक क्षेत्र और निजी कारोबारियों के बीच गरीब की लुगाई बन गया। शोषण निजी क्षेत्र ने ज्यादा किया। कोयले की दलाली में मंत्रियों के हाथ काले होकर कोलगेट स्कैम हुआ। धांधली ढूंढने जांच आयोग बने, एजेंसियां बनीं। बिजली अधिनियम में प्रदेश और केन्द्र के स्तर पर शक्तियों को नियंत्रित करने कमीशन बने। उनमें भी रिटायर्ड हाईकोर्ट जजों को ही बिजली की स्विच पर हाथ रखना होगा। भले ही जीवन भर फ्यूज सुधारना तो दूर बलब बदलना भी नहीं आता रहा हो।
आगजनी, बमबारी, नक्सल आतंक, देश पार आतंक, पुलिसिया गोलीकांड, खाद्य वितरण घोटाला, बलात्कार, राजनीतिक हत्याएं, विदेशी खातों की जांच को लेकर धड़ाधड़ आयोग बनाए जाने का शगल है। सत्ता में ‘डेटिंग’ और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के नये रोमांस भी हो रहे हैं। ऊंची अदालतों के जजों की दांईं आंख रिटायर होते ही शुभ संकेत देती है। सरकारपरस्तों को कुछ न कुछ वजीफा या पक्षपाती फैसलों के रिटर्न गिफ्ट का मिलना होता है। जांच आयोगों में जांच तो वर्षों तक लटकाई जाती है। ठसक के दौरे होते हैं। बुढ़ापा और भत्ता दोनों पकते हैं। इंसाफ की मृगतृष्णा झिलमिलाती है। जनता की याददाश्त तो गंगा में लाशें पटने पर भी धूमिल होने लगती है। कुल मिलाकर मंत्री-जज भाई भाई। जैसे हिन्दी चीनी भाई भाई।
बेताल विक्रमादित्य से पूछता है। इंजीनियरिंग ठेका विवादों के लिए गैर आलिमफाजिल जज के बदले बड़े रिटायर्ड इंजीनियर या प्रोफेसर मध्यस्थ क्यों नहीं बनाए जा सकते? डॉक्टरों, अस्पतालों, दवा कम्पनियों की धांधलगर्दी पकडऩे रिटायर्ड डॉक्टर या प्रोफेसर जांच क्यों नहीं कर सकते? मानव अधिकार आयोगों के लिए समाज के प्रमुख, प्रखर और ईमानदार नागरिकों पर भरोसा क्यों नहीं किया जाता? रिटायर्ड हाईकोर्ट जज तो पेट्रोल पंप और गैस एजेंसियों के आवंटन की समितियों के अध्यक्ष बने घपलों में डूबे पाए गए थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन समितियों को भंग कर दिया। निजी व्यावसायिक कॉलेज छात्रों से कितनी फीस लें। उसे कमेटी तय करे। उसके अध्यक्ष हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज ही होंगे। किसी कानून में नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अंधा बांटे रेवड़ी का मुहावरा गिफ्ट कर दिया था क्या?
अन्य किसी नौकरी या सेवा के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए पदों के आरक्षण का कोई डबल पेंशन जैसा कानून नहीं है। रिटायर्ड जजों के लिए कई अधिनियमों में पांच वर्षों का अतिरक्त कामकाजी इंतजाम है। कई पदों के लिए अन्य बौद्धिक क्षेत्रों से ज्यादा काबिल अधिकारी मिल सकते हैं। यह गलतफहमी अब भी है कि जज अन्य अधिकारियों के मुकाबले ज्यादा इन्साफपसन्द और निष्पक्ष होते हैं।
मौजूदा हालात की अदालतों के आचरण की सामाजिक ऑडिट की जरूरत है। विश्वविद्यालयों के कुलपति, राज्यपाल, राज्यसभा, प्रेस काउंसिल, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, राजदूत, गोलीकांड जांच, दंगों की रिपोर्ट, तेंदूपत्ता घोटाला, गुलाबी चना घोटाला, आपातकालीन अत्याचार, सेना-पुलिस विवाद, आदिवासी-नक्सलवादी संहार, उपभोक्ता आयोग, औद्योगिक न्यायालय, अल्पसंख्यक-आयोग जाने कितने ठनगन हैं जिन्हें रिटायर्ड जजों के लिए जबरिया चारागाह बना दिया गया है। बाकी सरकारी सेवकों या नागरिकों के लिए इस तरह बुढ़ापे में वसन्त का मौसम नहीं खिल पाता है।
-डॉ. संजय शुक्ला
देश में कोरोना के असर के मद्देनजर भारी ऊहापोह के बाद आखिरकार केन्द्र सरकार के फैसले के बाद सीबीएसई और आईसीएसई की बारहवीं बोर्ड परीक्षा रद्द हो गई है। नि:संदेह महामारी के इस दौर में परीक्षा के दौरान बच्चों के स्वास्थ्य की सुरक्षा सरकार, अभिभावकों और शिक्षकों के लिए बड़ी चिंता थी लेकिन इस फैसले के दूसरे पहलुओं और विकल्पों पर सरकार को विचार करना था।
गौरतलब है कि बारहवीं बोर्ड परीक्षा के मद्देनजर मंत्री समूह की बैठक के बाद दिल्ली, महाराष्ट्र और गोवा राज्य के सरकारों ने प्रस्तावित नए परीक्षा पैटर्न पर इम्तिहान के लिए हामी भरी थी। इस बीच बारहवीं बोर्ड परीक्षा को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया गया था वहीं सियासत भी तेज हो गई थी।
फिलहाल बारहवीं के बच्चों के मूल्यांकन कैसे किया जाएगा? यह तय नहीं हुआ है लेकिन यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि 12 वीं कक्षा के प्री-बोर्ड और आंतरिक परीक्षा के मूल्यांकन के आधार पर रिजल्ट घोषित किए जा सकते हैं। ज्ञातव्य है कि दसवीं बोर्ड के परीक्षार्थियों को भी उनके आंतरिक मूल्यांकन और असाइनमेंट के आधार पर नंबर देकर उत्तीर्ण करने का निर्णय केंद्रीय और राज्य बोर्डों ने लिया था।
हालांकि इस व्यवस्था को पूरी तरह से पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि आंतरिक मूल्यांकन में दिए जाने वाले अंक हमेशा सवालों के घेरे में रहते हैं। यह मसला इस लिहाज से और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बारहवीं के अंकों के आधार पर देश के अनेक शीर्षस्थ नामी यूनिवर्सिटी और कालेजों में दाखिला मिलता है जहाँ छात्रों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा रहता है। ऐसी परिस्थिति में यदि कोई छात्र पारिवारिक या स्वास्थ्यगत कारणों से प्री-बोर्ड या आंतरिक परीक्षा देने में असमर्थ रहता है , उसके पेपर बिगड़ जाते हैं या शिक्षक इन परीक्षाओं में पक्षपाती रवैया रखे तो योग्य छात्र को उसकी रूचि अनुसार उच्च शिक्षा संस्थान में दाखिले में दिक्कत आ सकती है। परीक्षा रद्द करने का फैसला उन छात्रों के मेहनत पर भी पानी फेर गया जो अपने कठिन मेहनत से इस बोर्ड परीक्षा में बहुत अच्छे अंक हासिल कर अपने परिवार के आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते थे। चूंकि बारहवीं की परीक्षा के अंंक छात्रों के कैरियर और उच्च शिक्षा, प्रोफेशनल कोर्स के दाखिले से लेकर नौकरियों में काफी अहमियत रखते हैं। हालांकि सीबीएसई दसवीं बोर्ड की ही तरह बारहवीं के छात्रों को भी यह व्यवस्था दे रही है कि यदि कोई छात्र अपने रिजल्ट से संतुष्ट नहीं है तो वह स्थिति सामान्य होने पर फिर से परीक्षा दे सकता है। यह फैसला छात्रों को कितना राहत पहुंचाएगा? यह काल के गाल में है।
गौरतलब है कि देश में कोरोना संक्रमण के मामलों मे लगातार गिरावट आ रही है और अधिकांश राज्य अनलॉक के दौर में है लिहाजा कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए आवश्यक सभी सावधानियों का पालन सुनिश्चित करते हुए मुख्य विषयों के एक बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र के आधार पर ओएमआर शीट के माध्यम से परीक्षा लेने जैसे विकल्प पर सरकार को विचार करना था। इस परीक्षा के लिए परीक्षा केंद्र उन्हीं स्कूलों को बनाया जा सकता था जहाँ छात्र पढ़ते थे या परीक्षार्थियों की संख्या को सीमित रखने और सोशल डिस्टेंसिंग के लिहाज से स्कूलों के साथ-साथ कालेजों को भी परीक्षा केंद्र बनाया जा सकता था। यह परीक्षा केवल एक दिन दो या तीन पालियों में डेढ़ से दो घंटों के ऑब्जेक्टिव प्रश्नपत्र में संभव हो सकता था।
गौरतलब है कि प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर के सभी कक्षाओं में बिना परीक्षा के अगली कक्षा में जनरल प्रमोशन जैसे फैसले शिक्षा की गुणवत्ता पर बड़ा सवाल खड़ा कर रहे हैं। गौरतलब है कि स्कूली शिक्षा ही उच्च शिक्षा की नींव होती है लेकिन कोरोना महामारी ने सबसे प्रतिकूल प्रभाव शालेय शिक्षा पर ही डाला है। शिक्षा प्रणाली में शिक्षण के साथ परीक्षा और मूल्यांकन इस व्यवस्था का अहम हिस्सा है जो किसी छात्र के लिए शिक्षा की बुनियाद और योग्यता का मापदंड होता है।
परीक्षा ही छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना और संघर्ष का जज्बा पैदा करता है जो उसके भावी जीवन का अहम हिस्सा है। बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में स्कूलों की महत्वपूर्ण भूमिका है, बच्चे स्कूल में ही अनुशासन, सामूहिकता, सहयोग की भावना, संस्कृति और स्वावलंबन सीखते हैं। कोरोना लॉकडाउन ने बच्चों के बालमन पर काफी गहरा असर डाला है और यह दुष्प्रभाव स्कूल में ही खत्म हो सकता है लेकिन बच्चे फिलहाल स्कूल से दूर हैं।
बहरहाल भारत में जहाँ सरकारी शिक्षा पहले से ही बदहाल थी वहां इस महामारी के कारण बीते साल से ही स्कूल और कॉलेज बंद हैं तथा ऑनलाइन कक्षा और परीक्षा के नाम पर महज औपचारिकता निभाई जा रही हैं जिससे शिक्षा और परीक्षा दोनों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। स्कूलों में महामारी के नाम पर जारी ऑनलाइन कक्षाएं समाज में शिक्षा में असमानता की खाई को चौड़ी कर रही है। देश की सरकारें बीते एक साल से ऑनलाइन शिक्षा और परीक्षा की ढिंढोरा पीटते रही हंै लेकिन ये दावे की हकीकत कोसों दूर है। देश में 46 फीसदी छात्रों के पास वर्चुअल पढ़ाई और परीक्षा के लिए स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप आदि नहीं हैं तो 32 फीसदी छात्रों के पास इंटरनेट सुविधा नहीं है।
फलस्वरूप महज 30 से 40 फीसदी छात्र ही ऑनलाइन शिक्षा हासिल कर पा रहे हैं इन परिस्थितियों में शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धा के समान अवसर का अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है। कोरोना त्रासदी ने लाखों लोगों के हाथ से रोजगार छीन लिया है बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई और गरीबी जैसे कठिन हालतों के कारण वे अपने बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा दिलाने में असमर्थ हो रहे हैं। यह महामारी बालिका शिक्षा के राह में भी रोड़ा बन रही है, हालात यही रहे तो भविष्य में स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की संख्या में काफी इजाफा हो सकता है। इन परिस्थितियों में सोचनीय यह कि एक न एक दिन तो कोरोना महामारी खत्म हो जाएगा और देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां वापस पटरी पर लौट जाएंगी लेकिन शिक्षा का क्या होगा? क्योंकि वक्त का पहिया तो उल्टा नहीं घुमाया जा सकता और शिक्षा वक्त के पहिए पर ही घूमती है।
इस बीच अहम सवाल यह कि जब दुनिया भर के महामारी विशेषज्ञ और विश्व स्वास्थ्य संगठन पिछले साल से ही चेतावनी देते रहे कि यह महामारी अगले दो-तीन वर्षों तक नहीं जाएगी तब देश के शिक्षा बोर्ड और सरकारों ने क्या कदम उठाया? दरअसल इन संस्थानों के नीति नियंताओं ने महामारी की समस्या का हल तत्कालिक तौर पर ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल पाठ्यसामग्री को ही मानते हुए सिलेबस में तीस फीसदी कटौती कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली। जिम्मेदारों ने इन फैसलों के क्रियान्वयन में आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता , दिक्कतों तथा इसके दूरगामी परिणामों पर विचार ही नहीं किया। हालिया परिदृश्य में जब महामारी की मियाद तय नहीं है तब शिक्षण और परीक्षा की परंपरागत प्रणाली में बदलाव करने की जरुरत थी ताकि छात्र घर में ही ऑनलाइन और ऑफलाइन पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी कर सके। कोविड संक्रमण के मद्देनजर दसवीं और बारहवीं के मुख्य विषयों को शामिल करते हुए बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र यानि एमसीक्यू (ऑब्जेक्टिव टाइप क्वेश्चन्स )आधारित ओएमआर शीट पर लिया जाना संक्रमण से बचाव के लिये जरूरी सावधानी और मूल्यांकन के लिहाज से उचित होता। हालांकि अभी केंद्रीय बोर्डों ने इसी पैटर्न पर परीक्षा लेने का प्रस्ताव दिया था लेकिन ऐसे फैसले सत्र के शुरुआत में ही ले लेना था ताकि अभिभावक, शिक्षक और छात्र नये पैटर्न पर परीक्षा के लिए तैयार रहते।
गौरतलब है कि देश के तमाम प्रोफेशनल कोर्सेस में दाखिला और नौकरियों के लिए इसी पैटर्न पर परीक्षाएं ली जाती है लिहाजा यह व्यवस्था छात्रों के लिए उपयोगी और मददगार हो सकता था। बहरहाल शिक्षा से ही किसी राष्ट्र का समग्र विकास संभव है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की पूरी व्यवस्था आयु के अनुसार समयबद्ध ढांचे पर निर्भर है इसलिए यह आवश्यक है कि छात्र पढ़ाई और परीक्षा से वंचित न रहें। हालिया परिवेश में जब महामारी की मियाद और इसका सामाजिक व आर्थिक दुष्प्रभाव तय नहीं है तब सरकारों को आज के जरूरत के मुताबिक क्लास रुम, सिलेबस और परीक्षा प्रणाली सुनिश्चित करते हुए स्कूल-कालेजों को संचालित करने की दरकार है।
( लेखक, शासकीय आयुर्वेद कॉलेज रायपुर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली सरकार के गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल और शोध-संस्थान में केरल की नर्सों को लिखित आदेश दिया गया है कि वे अस्पताल में मलयालम में बातचीत न करें। वे या तो हिंदी बोलें या अंग्रेजी बोलें, क्योंकि दिल्ली के मरीज़ मलयालम नहीं समझते। नर्सों को यह भी कहा गया है कि इस आदेश का उल्लंघन करनेवालों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। जिस अफसर ने यह आदेश जारी किया है, क्या वह यह मानकर चल रहा है कि केरल की नर्सें दिल्ली के मरीजों से मलयालम में बात करती हैं ?
यह संभव ही नहीं है। किसी नर्स का दिमाग क्या इतना खराब हो सकता है कि वह मरीज से उस भाषा में बात करेगी, जो उसका एक वाक्य भी नहीं समझ सकता? ऐसा क्यों करेगी ? हमें गर्व होना चाहिए कि केरल के लोग काफी अच्छी हिंदी बोलते हैं। शर्म तो हम हिंदीभाषियों को आनी चाहिए कि हम मलयालम तो क्या, दक्षिण या पूरब की एक भी भाषा न बोलते हैं और न ही समझते हैं। पंत अस्पताल में लगभग 350 मलयाली नर्सें हैं। वे मरीजों से हिंदी में ही बात करती हैं। अगर वे अंग्रेजी में ही बात करने लगें तो भी बड़ा अनर्थ हो सकता है, क्योंकि ज्यादातर साधारण मरीज अंग्रेजी भी नहीं समझते। उन नर्सों का ‘दोष’ बस यही है कि वे आपस में मलयालम में बात करती हैं।
इस आपसी बातचीत पर भी यदि अस्पताल का कोई अधिकारी प्रतिबंध लगाता है तो यह तो कानूनी अपराध है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कानून का स्पष्ट उल्लंघन है। केरल की नर्सें यदि आपस में मलयालम में बात करती हैं तो इसमें किसी डॉक्टर या मरीज़ को कोई आपत्ति क्यों हो सकती है ? यदि पंजाब की नर्सें पंजाबी में और बंगाल की नर्सें बंगाली में आपसी बात करती हैं और आप उन्हें रोकते हैं, उन्हें हिंदी या अंग्रेजी में बात करने के लिए मजबूर करते हैं तो आप एक नए राष्ट्रीय संकट को जन्म दे रहे हैं। आप अहिंदीभाषियों पर हिंदी थोपने का अनैतिक काम कर रहे हैं। जिन अहिंदीभाषियों ने इतने प्रेम से हिंदी सीखी है, उन्हें आप हिंदी का दुश्मन बना रहे हैं। इसका एक फलितार्थ यह भी है कि किसी भी अहिंदीभाषी प्रांत में हिंदी के प्रयोग को हतोत्साहित किया जाएगा। यह लेख लिखते समय मेरी बात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से हुई और पंत अस्पताल में डॉक्टरों से भी। सभी इस आदेश को किसी अफसर की व्यक्तिगत सनक बता रहे थे। इसका दिल्ली सरकार से कोई संबंध नहीं है। मुख्यमंत्री केजरीवाल को बधाई कि इस आदेश को रद्द कर दिया गया है।
(लेखक, भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर सीएसई और डाउन टू अर्थ ने स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट इन फिगर्स 2021 रिपोर्ट जारी की
पिछले साल ग्रामीणों ने कोरोनावायरस संक्रमण से बचने के लिए बाहर के लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी थी। फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुरपिछले साल ग्रामीणों ने कोरोनावायरस संक्रमण से बचने के लिए बाहर के लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी थी। फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुर पिछले साल ग्रामीणों ने कोरोनावायरस संक्रमण से बचने के लिए बाहर के लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी थी। फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुर
कोविड-19 (कोरोना) महामारी ने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को बुरी तरह बेनकाब कर दिया है। शहरी भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की बदतर स्थिति व कोरोना से लड़ने की उसकी तैयारियां सुर्खियों में रही है। वहीं ग्रामीण भारत के भीतरी इलाकों से जो परिदृश्य उभर कर आई, वो अत्यधिक चिंताजनक रही- यह बातें आज सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायरनमेंट एवं डाउन टू अर्थ पत्रिका द्वारा संयुक्त रूप से जारी की गई स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट एन फिगर्स 2021 रिपोर्ट में कही गई है।
रिपोर्ट बताती है कि- ग्रामीण भारत में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को 76 प्रतिशत अधिक डॉक्टरों, 56 प्रतिशत अधिक रेडियोग्राफरों और 35 प्रतिशत अधिक लैब तकनीशियनों की आवश्यकता है।
इस रिपोर्ट में वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से लेकर जैव विविधता, कोविड, कृषि और भूमि से लेकर पानी व कचरे तक कई महत्वपूर्ण विषयों को शामिल किया गया है।
पर्यावरण और विकास के आंकड़ों पर आधारित वार्षिक रिपोर्ट को सीएसई द्वारा आयोजित एक वेबिनार में जारी करते हुए केंद्र की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा, "यह संख्याओं का नाटक जैसा ही है, खासकर जब ये नंबर आपको एक ट्रेंड देती है और बताती है कि चीजें बेहतर या बदतर हो रही है।
यह और भी शक्तिशाली हो जाती है जब आप संकट, चुनौती और अवसर को समझने के लिए इन संख्याओं के ट्रेंड का उपयोग करते हैं।"
महामारी के संकेतक/ बिंदु
संख्या के माध्यम से महामारी के बारे में विश्लेषणात्मक रिपोर्ट तैयार किया गया है इसने कई अन्य दिलचस्प तथ्यों की एक श्रृंखला को सामने लाने में मदद की है।
डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक रिचर्ड महापात्रा कहते हैं: “एक महत्वपूर्ण जानकारी जो सामने आ रही है, वह यह है कि दूसरी लहर में, भारत विश्व स्तर पर सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है और ग्रामीण भारत, हमारे शहरी क्षेत्रों की तुलना में काफी बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
इस साल मई में, छह दिनों में दैनिक रूप से जो विश्व में संक्रमण के मामलों आये उसमें आधे से अधिक में अकेले भारत का योगदान था। संक्रमण अपने चरम पर दिखा क्योंकि ग्रामीण जिलों में संक्रमण के मामलों में काफी वृद्धि देखी गई। ”
महापात्रा आगे कहते हैं: "जलवायु संबंधी जोखिमों के साथ, संक्रामक रोग 2006 के बाद पहली बार प्रमुख वैश्विक आर्थिक खतरों की सूची में शामिल हुए हैं।"
बायोमेडिकल कचरा (वेस्ट) के भार की ओर इशारा करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि देश इस वक्त महामारी से जूझ रहा है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अप्रैल और मई 2021 के बीच कोविड-19 बायोमेडिकल कचरे के उत्सर्जन में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
वहीं दूसरी ओर इसके ट्रीटमेंट (प्रबंधन) में गिरावट आई है: 2019 में, भारत अपने 88 प्रतिशत बायोमेडिकल कचरे का ट्रीटमेंट करने में कामयाब रहा - हालांकि 2017 देश लगभग 93 प्रतिशत तक कचरे का ट्रीटमेंट स्वंय करता था।
देश में कुल आबादी का 3.12 प्रतिशत लोगों का पूरी तरह से टीकाकरण हो चुका है, टीकाकरण का वैश्विक औसत 5.48 प्रतिशत है। उस लिहाज से टीकाकरण में अभी भी कमी है।
महामारी के आर्थिक प्रभाव बहुत गंभीर रहे हैं - और रहेंगे। रिपोर्ट के प्रमुख लेखकों में से एक रजित सेनगुप्ता कहते हैं, "महामारी कमजोर ग्रामीण जिलों में फैल गई"इसका मतलब है कि देश को ठीक होने में अधिक समय लगेगा। इससे अगले साल सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर धीमी होने की आशंका है।" जबकि मई 2021 में शहरी बेरोजगारी दर लगभग 15 प्रतिशत तक पहुंच गई,
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का कार्यान्वयन में ढ़िलाई एवं भुगतान में काफी देरी देखी गई है। जम्मू और कश्मीर, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भुगतान में अधिकतम विलंब दर्ज किया गया है।
जलवायु परिवर्तन: एक ऐसा खतरा जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता
सीएसई की इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन पर विशेष जोर दिया गया है। नारायण कहती हैं: “जब हम एक ऐसे खतरनाक महामारी से जूझ रहे हैं, जो लोगों को दुर्बल बना देती है ऐसे में हम एक और स्पष्ट और वर्तमान की खतरे से मुंह नहीं मोर सकते हैं जो हमारे अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। वह खतरा है जलवायु परिवर्तन।हमारी रिपोर्ट का डेटा खतरे की भयावहता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।"
रिपोर्ट बताती है कि २००६ और २०२० के बीच की अवधि में १५ वर्षों में भारत में १२सबसे गर्म वर्ष दर्ज किए गए। यह रिकॉर्ड के रूप में सबसे गर्म दशक था। देश भर में मौसम अपने चरम पर रही और इससे जुड़ी हुई घटनाओं ने अपना कहर जारी रखा। इन आपदाओं के कारण आंतरिक विस्थापन के मामले और नुकसान के लिहाज से भारत का दुनिया में चौथा स्थान रहा।
नारायण कहती हैः: “ प्रवासियों से संबंधित बहुत ही कम आंकड़ें है – इसलिए जब भी लॉकडाउन लगाया जाता है तब शहरों से पलायन को लेकर जो स्थिति बनती है उसके संदर्भ में सरकार की तैयारी अपूर्ण रहती है। यह भी तथ्य है कि लोग अपने घरों से छोड़ कर – प्रवास को इसलिए जाते हैं क्योंकि उनके समक्ष जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनके समक्ष घोर आर्थिक और पारिस्थितिक संकट उत्पन्न हो जाती है और उन्हे अपना घर छोड़ना पड़ता है।”
वह आगे कहती हैं: "यह रिपोर्ट हमें बताती है कि 2020 में, दुनिया में 76 प्रतिशत आंतरिक विस्थापन जलवायु आपदाओं के कारण ही हुए ।
2008 और 2020 के बीच, बाढ़, भूकंप, चक्रवात और सूखे के कारण प्रति वर्ष लगभग 3.73 मिलियन लोग विस्थापित हुए ।
2020 में जो महत्वपूर्ण मौसम संबंधी घटनाएं घटी उसका सचित्रण इस नक्शा में किया गया है और दूसरे अर्थों में कहे तो यह देश की नई घटनाओं का मानचित्र (कार्टोग्राफी) है।
फिर इन सारे तथ्यों को जोड़ कर देखें तो फिर आपको पता चलेगा कैसे सरकारों ने इन तथाकथित प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई हेतु भारी मात्रा में खर्च की है और आपको समझ में आएगा कि कैसे इस तरह की हर घटना के साथ विकास के लाभांश को कैसे बर्बाद किया जा रहा है। ”
ग्लेशियरों के पिघलने से खतरा और बढ़ा
सीएसई पर्यावरण संसाधनों के कार्यक्रम निदेशक और रिपोर्ट के प्रमुख लेखक किरण पांडे के कहते हैं:
"39 ग्लेशियर हैं जिनके अपने क्षेत्र में गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है और ये सर्वाधिक आपदाग्रस्त क्षेत्रों में चिन्हांकित हैं हैं।" (डेटा कार्ड देखें)
रिपोर्ट में कहा गया है कि देश इसके संदर्भ में उपर्युक्त कार्रवाई करने में पिछड़ती दिख रही है।
अक्षय ऊर्जा
भारत का महत्वाकांक्षी अक्षय लक्ष्य, जो हरित होने की दिशा में एक सराहनीय कदम था, उसमें वो फिसल गया है जैसा दिखता है। भारत इस संदर्भ में अपने लक्ष्य के केवल 55 प्रतिशत ही पूर्ति कर पाया है, इस लिहाज से देखें तो भारत 2022 तक 175 GW नवीकरणीय क्षमता वाले संयत्र स्थापित कर लेगा ऐसा लगता ही नहीं है क्योंकि ये उसके करीब तक भी नहीं पहुंच पाया है। देश में 2021-22 तक कम से कम 50 सोलर पार्क स्थापित करने का भी लक्ष्य है। अब तक, उनमें से एक को भी चालू नहीं हो पाया है। (डेटा कार्ड देखें)
नारायण कहते हैं: " हम ऐसे समय और युग में है जहां हमारे पास आमतौर पर उपलब्ध डेटा की गुणवत्ता या तो खराब होती है -इसमें या तो आंकड़े अधिकतर गायब है, सार्वजनिक रूप से अनुपलब्ध है या तो उसकी गुणवत्ता संदिग्ध है – ऐसी परिस्थिति में इस तरह के अगर प्रमाणिक एवं गुणवत्ता युक्त संग्रह अगर मिल जाए तो वह बेहद मददगार हो सकता है, खासकर पत्रकारों के लिए।
डेटा की गुणवत्ता में सुधार तभी हो सकता है जब हम इसे नीति के लिए उपयोग करते हैं। चल रही महामारी का ही मामला लें। जरा सोचिए कि हमने इस पिछले एक साल में कितना नुकसान उठाया है क्योंकि हमारे पास परीक्षणों, या मौतों की संख्या, या सीरोलॉजिकल सर्वेक्षण, या वेरिएंट की जीनोमिक अनुक्रमण पर पर्याप्त या सटीक डेटा नहीं था। नीति निर्माण के लिए डेटा का होना महत्वपूर्ण होता है।
वह आगे कहती हैं: "डेटा संग्रह महत्वपूर्ण है - यह शासन करने की कला का हिस्सा है - लेकिन पूरे डेटा सेट को साझा किया जाना चाहिए उस पर काम किया जाना चाहिए ऐसा करना उतना ही महत्वपूर्ण भी है ताकि इसकी सकारात्मक आलोचना हो। ऐसा करने से इसका उपयोग बढ़ेगा और उत्तरोतर सुधार किया जा सकेगा।" (downtoearth.org.in)
-रमेश अनुपम
सन् 1885 में ठाकुर जगमोहन सिंह का स्थानांतरण शिवरीनारायण से रायपुर हो गया।उन्हें अब एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर पदोन्नत कर दिया गया था। उस जमाने में यह बहुत बड़ा पद माना जाता था।रायपुर में जिलाधीश कार्यालय से लगी हुई एक कॉलोनी को बहुत दिनों तक ई ए सी कॉलोनी कहा जाता था। संभवत: वहां एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के निवास होने के कारण ही ऐसा नामकरण पड़ गया होगा।
रायपुर आने के बाद उन्होंने अपने कालजयी उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’ की भूमिका लिखी। यह उपन्यास सर्वप्रथम सन 1888 में एजूकेशन सोसायटी प्रेस बायकुला, बॉम्बे से प्रकाशित हुआ।
‘श्यामा स्वप्न’ की भूमिका बहुत ऐतिहासिक है और चकित करने वाली भी। इस भूमिका के अंत में तारीख है, 25 दिसंबर 1885 और स्थान की जगह लिखा हुआ है रायपुर, छत्तीसगढ़।
सन् 1885 तक मध्यप्रदेश का ही कोई अस्तित्व नहीं था, सो ठाकुर जगमोहन सिंह द्वारा ‘श्यामा स्वप्न’ की भूमिका में छत्तीसगढ़ लिखना, क्या अपने आप में कम विस्मयजनक नहीं है ? क्या यह अपने आप में हमारे छत्तीसगढ़ के लिए एक महान गर्व की बात नहीं है ?
आज से एक सौ पैंतीस वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ की परिकल्पना करना और भूमिका में उसका उल्लेख करना , अपने आप में ही विलक्षण घटना है। संभवत: वे जानबूझकर अपने इस उपन्यास के माध्यम से संपूर्ण भारतवर्ष को छत्तीसगढ़ जैसी एक अज्ञात और सुंदर भूमि से परिचित करवाना चाहते थे?
अपने इस उपन्यास के द्वारा वे जैसे सारे देश को छत्तीसगढ़ की अपूर्व सुंदरता और यहां की रंग बिरंगी संस्कृति का दर्शन करवाना चाहते थे।
इस नैसर्गिक भूखंड के अनुपम सौंदर्य को, इसके रूप माधुर्य को अपने इस उपन्यास के माध्यम से जैसे पूरी दुनिया को दिखाना चाहते थे।
वे जबलपुर और कटनी के निकट स्थित विजयराघवगढ़ रियासत के राजकुमार थे, पर शायद जितना प्रेम, जितना अनुराग छत्तीसगढ़ की भूमि से वे किया करते थे, वैसा शायद अपने भूखंड बघेलखंड से भी वे नहीं करते रहे होंगे।
छत्तीसगढ़ की भूमि का जितना सुंदर और नयनाभिराम चित्रण ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपने इस उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’ में किया है, वैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है।
उनके इस वर्णन में छत्तीसगढ़ के प्रति उनके अटूट प्रेम और गहरे अनुराग को भी भली-भांति देखा तथा समझा जा सकता है।
किसी कवि ने भी छत्तीसगढ के इस सुंदर रूप का इतना सुंदर चित्रण या वर्णन नहीं किया होगा जितना ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपने इस दुर्लभ उपन्यास में किया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में ठाकुर जगमोहन सिंह की इन्हीं विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है-
‘प्राचीन संस्कृत साहित्य से अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूप-माधुर्य की जैसी सच्ची अनुभूति ठाकुर जगमोहन सिंह में थी, वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। ’
अब जरा ‘श्यामा स्वप्न’ के ‘प्रथम याम के स्वप्न’ में ठाकुर जगमोहन सिंह ने छत्तीसगढ़ का जो सुंदर चित्रण किया है, उसे देखिए और छत्तीसगढ़ के रूप-सौंदर्य की नयनाभिराम छवि को निरखिए-
‘मैं कहां तक इस सुंदर देश का वर्णन करूं कहीं कहीं कोमल कोमल श्याम- कहीं भयंकर और रूखे सूखे वन-कहीं झरनों का झंकार, कहीं तीर्थ के आकार-मनोहर दिखाते हैं। कहीं कोई बनैला जंतु प्रचंड स्वर से बोलता है-कहीं कोई मौन ही होकर डोलता है-कहीं विहंगमो का रोर कहीं निष्कुजित निकुंजों के छोर-कहीं नाचते हुए मोर..कहीं विचित्र तमचोर।’
सन् 1885 में ऐसी काव्यात्मक भाषा भारतेंदु युग के किसी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती है। जैसी ठाकुर जगमोहन सिंह के यहां दिखाई देती है।
सन् 1886 में स्वास्थ्य ने ठाकुर जगमोहन सिंह का साथ नहीं दिया इसलिए उन्होंने शासकीय सेवा से इस्तीफा दे देना मुनासिब समझा। 4 मार्च 1899 में मात्र बयालीस वर्ष की आयु में इस महान लेखक ने सुहागपुर में अंतिम सांसें ली।
उन्नीसवीं शताब्दी के नवें दशक में जब खड़ी बोली ठीक से अपने पावों पर खड़ी भी नहीं हो पाई थी। आधुनिक हिंदी साहित्य अभी ठीक से अपनी आंखें भी नहीं खोल पाया था और हिंदी उपन्यास का जन्म भी जब संभव नहीं हो पाया था। तब ठाकुर जगमोहन सिंह छत्तीसगढ़ की भूमि पर ‘श्यामा स्वप्न’ जैसे उपन्यास की रचना संभव कर रहे थे।
यह अलग बात है कि कुछ विद्वान सन 1882 में लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखित ‘परीक्षा गुरु’ को प्रथम हिंदी उपन्यास होने का गौरव प्रदान करते हैं। जबकि हिंदी का प्रथम उपन्यास का दर्जा तो ‘श्यामा स्वप्न’ को ही मिलना चाहिए था।
यह अपने आप में बेहद आश्चर्य की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश के साहित्यिक केंद्र इलाहाबाद, बनारस से कोसों दूर छत्तीसगढ़ में धूनी रमाए ठाकुर जगमोहन सिंह खड़ी बोली का एक नया इतिहास रच रहे थे।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की तरह वे बनारस में होते तो आज हिंदी साहित्य जगत में उनकी भी दुदुंभी बज रही होती। हिंदी साहित्य जगत आज उन्हें भी अपने सिर माथे पर उठाए घूम रहा होता।
यह हम सबका दुर्भाग्य है कि छत्तीसगढ़ को अपने हृदय में बसाए रखने वाले और छत्तीसगढ़ को पूरे देश में प्रतिष्ठा दिलाने वाले ठाकुर जगमोहन सिंह को हम सबने तथा छत्तीसगढ़ राज्य ने आज पूरी तरह से भूला दिया है ।
अगले रविवार हिन्दी पत्रकारिता का दीप स्तंभ माधव राव सप्रे..
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान और चीन का ताजा रवैया बहुत ही तारीफ के काबिल है लेकिन यह रवैया बहुत ही हैरान करने वाला भी है। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मो. हनीफ अतमार के साथ जो संवाद किया, उसमें साफ-साफ कहा कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी में जल्दबाजी न की जाए। यों तो ये फौजें 1 मई को लौटनी थीं लेकिन बाइडन ने इस तारीख को बढ़ाकर 11 सितंबर कर दिया है। पाकिस्तान और चीन उन देशों में से हैं, जो अमेरिकी और नाटो फौजों के अफगानिस्तान में रहने का घोर विरोध करते रहे हैं, क्योंकि उनके द्वारा पोषित तालिबान का उन्मूलन करना उनका मुख्य उद्देश्य रहा है। यदि पाकिस्तान का समर्थन और सक्रिय सहयोग नहीं होता तो क्या मुजाहिदीन और तालिबान काबुल पर कब्जा कर सकते थे? बबरक कारमल और नजीबुल्लाह को अपदस्थ करने में उस समय अमेरिका ने भी पाकिस्तान की सक्रिय सहायता की थी लेकिन इस्लामी आतंकवादियों द्वारा अमेरिका में किए गए हमलों ने सारा खेल उलट दिया।
अमेरिका ने तालिबान को काबुल से बेदखल कर दिया लेकिन पिछले 20 वर्षो में अफगान जनता द्वारा चुनी हुई हामिद करजई और अशरफ गनी सरकारों के विरुद्ध तालिबान की पीठ कौन ठोक रहा है? क्या पाकिस्तान की सक्रिय सहायता के बिना तालिबान जिंदा रह सकते हैं? तालिबान के जितने भी गुट हैं, वे सब पाकिस्तान में स्थित हैं। उनके नाम हैं। क्वेटा शूरा, पेशावर शूरा और मिरानशाह शूरा! पाकिस्तान अब खुले में तो तालिबान का विरोध करता है लेकिन उसने तालिबान को अपनी अफगान-नीति का मुख्य अस्त्र बना रखा है। इसके बावजूद उसे पता है कि गिलजई पठानों का यह संगठन अंततोगत्वा पाकिस्तान के पंजाबी शासकों को धता बता देगा। जो पठान अंग्रेजों, रूसियों और अमेरिकियों के हौंसले पस्त कर सकते हैं, वे पाकिस्तान के लिए भी बहुत बड़ा सिरदर्द बन सकते हैं। वे पख्तूनिस्तान की मांग फिर से जीवित कर सकते हैं। वे काबुल नहीं, पेशावर को अपनी राजधानी बनाना चाहेंगे।
पाकिस्तानियों को यह डर तो है ही और चीनियों को भी यह डर है कि यदि काबुल में तालिबान आ गए तो अफगानिस्तान से लगा हुआ उसका शिनच्यांग प्रांत अस्थिर हो जाएगा। शिनच्यांग के उइगर मुसलमानों को दबाना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए अब इन दोनों देशों के विदेश मंत्री घुमा-फिराकर तालिबानी सत्ता का विरोध कर रहे हैं। यदि इनका विरोध इतना ही प्रामाणिक है तो ये दोनों राष्ट्र अपने लाख-दो लाख सैनिक अफगानिस्तान क्यों नहीं भिजवा देते। वे वहां लोकतांत्रिक सरकार को कायम रखने में मदद क्यों नहीं करते। पाकिस्तान बहुत गंभीर पसोपेश में फंसा हुआ है। एक तरफ वह अमेरिकियों को काबुल में टिके रहने को कह रहा है और दूसरी तरफ उनकी वापसी के बाद वे अफगानिस्तान को जो हवाई सुरक्षा देना चाहते हैं, वह भी नहीं दे रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रेहान फ़ज़ल
अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले भिंडरांवाले ने जिन तीन पत्रकारों से बात की थी, उनमें से एक थे बीबीसी के मार्क टली. दूसरे थे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सुभाष किरपेकर और तीसरे थे मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय.
सीआरपीएफ़ ने ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू होने से चार दिन पहले यानी 1 जून को स्वर्ण मंदिर पर फ़ायरिंग शुरू कर दी थी.
2 जून को मार्क टली की भिंडरांवाले से आख़िरी मुलाक़ात हुई थी. उस वक्त वे अकाल तख़्त में बैठे हुए थे.
मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब 'अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल' में लिखते हैं, "जब मैंने भिंडरांवाले से फ़ायरिंग के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया. फ़ायरिंग की घटना बताती है कि सरकार स्वर्ण मंदिर का अपमान करने पर तुली हुई है और वो सिखों और उनके रहने के तरीके को बर्दाश्त नहीं कर सकती है. अगर सरकार ने मंदिर में घुसने की कोशिश की तो उसका माकूल जवाब दिया जाएगा."
वो इसके बाद लिखते हैं, "लेकिन उस दिन भिंडरांवाले सहज नहीं दिख रहे थे. ज़ाहिर है वो तनाव में थे. आमतौर से वो इंटरव्यू देना पसंद करते थे लेकिन उस दिन उन्होंने उखड़ कर कहा था, "आप लोग जल्दी कीजिए. मुझे और भी ज़रूरी काम करने हैं."
भिंडरांवाले को विश्वास था कि सेना अंदर नहीं आएगी
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सुभाष किरपेकर अकेले पत्रकार थे जो सेना के स्वर्ण मंदिर को घेर लिए जाने के बाद जरनैल सिंह भिंडरांवाले से मिले थे. तब भी जरनैल सिंह का मानना था कि सेना मंदिर के अंदर नहीं घुसेगी.
किरपेकर ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद छपी क़िताब 'द पंजाब स्टोरी' में लिखते हैं, "मैंने भिंडरांवाले से पूछा क्या सेना के सामने आपके लड़ाके कम नहीं पड़ जाएंगे? उनके पास बेहतर हथियार भी हैं."
"भिंडरांवाले ने तुरंत जवाब दिया था- भेड़ें हमेशा शेरों से ज़्यादा संख्या में होती हैं. लेकिन एक शेर हज़ार भेड़ों का सामना कर सकता है. जब शेर सोता है तो चिड़ियाँ चहचहाती हैं. लेकिन जब वो उठता है तो चिडियाँ उड़ जाती हैं."
"जब मैंने उनसे पूछा कि आपको मौत से डर नहीं लगता तो उनका जवाब था- कोई सिख अगर मौत से डरे तो वो सच्चा सिख नहीं है."
"भिंडरांवाले के बगल में स्वर्ण मंदिर की सुरक्षा की योजना बनाने वाले मेजर जनरल शहबेग सिंह भी खड़े थे. जब मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या उम्मीद है, एक्शन कब शुरू होगा? तो उन्होंने जवाब दिया शायद 'आज रात ही."
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भिंडरांवाले की लाल सुर्ख़ आँखें
मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय ने मुझे बताया था कि वो भिंडरांवाले से उनकी मौत से एक दिन पहले मिले थे.
रघु राय ने कहा, "उन्होंने मुझसे पूछा तू यहाँ क्यों आया है?"
"मैंने कहा पाजी मैं आपसे मिलने आया हूँ. मैं तो आता ही रहता हूँ."
"उन्होंने फिर पूछा अब क्यों आया है तू?"
"तो मैंने जवाब दिया 'देखने के लिए कि आप कैसे हैं.' मैं देख सकता था कि उनकी आँखे लाल सुर्ख़ थीं. मैं उनमें गुस्सा और डर दोनों पढ़ पा रहा था."
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पकड़ा गया चरमपंथी सैनिकों को भिंडरांवाले के शव के पास ले गया
6 जून को दोपहर चार बजे से लाउडस्पीकर से लगातार घोषणाएं की जा रही थीं कि जो चरमपंथी अभी भी कमरों या तयख़ानों में हैं, बाहर आकर आत्मसमर्पण कर सकते हैं.
लेकिन तब तक भिंडरांवाले का कोई पता नहीं था.
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स्वर्ण मंदिर के ऊपर चढ़े सिख चरमपंथी
ऑपरेशन ब्लूस्टार के कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल बुलबुल बरार अपनी क़िताब 'ऑपरेशन ब्लूस्टार द ट्रू स्टोरी' में लिखते हैं, "जब 26 मद्रास रेजिमेंट के जवान अकाल तख़्त में घुसे तो उन्होंने दो चरमपंथियों को भागने की कोशिश करते पाया. उन्होंने उन पर गोली चलाई."
"उनमें से एक व्यक्ति तो मारा गया लेकिन दूसरे शख़्स को उन्होंने पकड़ लिया. उससे जब सवाल किए गए तो उसने सबसे पहले बताया कि भिंडरांवाले अब इस दुनिया में नहीं हैं. फिर वो हमारे सैनिकों को उस जगह ले गया जहाँ भिंडरांवाले और उनके 40 अनुयायियों की लाशें पड़ी हुई थीं."
"थोड़ी देर बाद हमें तयख़ाने में जनरल शहबेग सिंह की भी लाश मिली. उनके हाथ में अभी भी उनकी कारबाइन थी और उनके शरीर के बगल में उनका वॉकी-टॉकी पड़ा हुआ था."
बाद में जब मैंने जनरल बरार से बात की तो उन्होंने मुझे बताया, "अचानक तीस चालीस लोगों ने बाहर निकलने के लिए ने दौड़ लगाई. तभी मुझे लग गया कि भिंडरांवाले नहीं रहे, क्योंकि तभी अंदर से फ़ायरिंग होनी भी बंद हो गईं."
"तब हमने अपने जवानों से कहा कि अंदर जा कर तलाशी लो. तब जा कर हमें उनकी मौत का पता लगा. उसके बाद उनके शव को उत्तरी विंग के बरामदे में ला कर रखा गया जहाँ पुलिस, इंटेलिजेंस ब्यूरो और हमारी हिरासत में आए चरमपंथियों ने उनकी शिनाख़्त की."
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फ़र्श में दो इंच तक कारतूस ही कारतूस
ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद प्रकाशित हुई क़िताब 'द पंजाब स्टोरी' में शेखर गुप्ता लिखते हैं, "अफ़सरों ने मुझे बताया कि जब वो लोग अकाल तख़्त के अंदर घुसे तो पूरे इलाक़े में बारूद की गंध भरी हुई थी और दो इंच तक फ़र्श इस्तेमाल हो चुके कारतूसों से पटा पड़ा था."
"कुछ अफ़सर तो इस बात को लेकर अचंभे में थे कि चरमपंथी इतनी ज़्यादा फ़ायरिंग कैसे कर पाए. ऑटोमेटिक फ़ायरिंग आप लगातार नहीं कर सकते, क्योंकि आपके हथियार में समस्या उठ खड़ी होती है और अगर आप बीच में अंतराल न रखे तो कभी-कभी तो बंदूक की नाल भी गर्म हो और कभी-कभी पिघल तो वो भी जाती है."
"अगर भारतीय सेना के जवान इस तरह की भीषण फ़ायरिंग करते तो उन्हें कारतूस बर्बाद करने के लिए अपने अफ़सरों की डाँट खानी पड़ सकती थी. भारतीय सेना के अफ़सरों ने मुझे बताया कि कई चरमपंथियों के कंधों पर नीले निशान थे जो बताता था कि उनमें तर्कसंगत होने की कमी भले ही हो लेकिन उनके जोश में कोई कमी नहीं निकाली जा सकती थी."
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अमरीक सिंह और भिंडरांवाले
ज्ञानी प्रीतम सिंह ने भिंडरांवाले को देखा
भिंडरांवाले के आख़िरी क्षणों का वर्णन दो जगह पर मिलता है.
अकाल तख़्त के तत्कालीन जत्थेदार किरपाल सिंह ने अपनी क़िताब 'आई विटनेस अकाउंट ऑफ़ ऑपरेशन ब्लूस्टार' में अकाल तख़्त के प्रमुख ग्रंथी ज्ञानी प्रीतम सिंह को कहते हुए बताया हैं "मैं तीन सेवादारों के साथ अकाल तख़्त के उत्तरी किनारे में बैठा हुआ था. क़रीब 8 बजे फ़ायरिंग थोड़ी कम हुई तो मैंने संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले को अपने कमरे के पास शौचालय की तरफ़ से आते देखा. उन्होंने नल में अपने हाथ धोए और वापस अकाल तख़्त की तरफ़ लौट गए."
"क़रीब साढ़े आठ बजे भाई अमरीक सिंह ने अपने हाथ धोए और हम सब को सलाह दी कि हम सब लोग निकल जाएं. जब हमने उनसे उनकी योजना के बारे में पूछा. उन्होंने मुझे बताया कि संत तयख़ाने में हैं. पहले उन्होंने 7 बजे शहीद होना तय किया था लेकिन फिर उन्होंने उसे साढ़े नौ बजे तक स्थगित कर दिया था."
"फिर मैंने संत के लोगों से लोहे के दरवाज़े की चाबी ली और अपने 12 साथियों के साथ बोहार वाली गली में निकल आया और दरबार साहब के एक दूसरे सेवादार भाई बलबीर सिंह के घर में शरण ली."
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भिंडरांवाले की अंतिम प्रार्थना
एक और क़िताब 'द गैलेंट डिफ़ेंडर' में ए आर दरशी अकाल तख़्त के सेवादार हरि सिंह को बताते हैं, "मैं 30 लोगों के साथ कोठा साहब में छिपा हुआ था. 6 जून को क़रीब साढ़े सात बजे भाई अमरीक सिंह वहाँ आए और हमसे कहा कि हम कोठा साहब छोड़ दें क्योंकि अब सेना के लाए गए टैंकों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता."
"कुछ मिनटों बाद संत भिंडरांवाले अपने 40 समर्थकों के साथ कमरे में दाख़िल हुए. उन्होंने गुरुग्रंथ साहब के सामने बैठ कर प्रार्थना की और अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए कहा जो लोग शहादत लेना चाहते हैं, मेरे साथ रुक सकते हैं. बाकी लोग अकाल तख़्त छोड़ दें."
भिंडरांवाले की जाँघ में गोली लगी
जब भिंडरांवाले मलबे पर पैर रखते हुए अकाल तख़्त के सामने की तरफ़ गए तो उनके पीछे उनके 30 अनुयायी भी थे. जैसे ही वो आँगन में निकले उनका सामना गोलियों से हुआ.
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सतीश जैकब और मार्क टली
मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब 'अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल' में लिखते हैं, "बाहर निकलते ही अमरीक सिंह को गोली लगी लेकिन कुछ लोग आगे दौड़ते ही चले गए. फिर फ़ायर का एक और बर्स्ट-सा आया जिससे भिंडरांवाले के 12 या 13 साथी धराशाई हो गए."
"मुख्य ग्रंथी प्रीतम सिंह भी उस कमरे में छिपे हुए थे. अचानक कुछ लोगों ने अंदर आ कर कहा कि अमरीक सिंह शहीद हो गए हैं. जब उनसे संत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्होंने उन्हें मरते हुए नहीं देखा है."
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स्वर्ण मंदिर में देश के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह
मार्क टली और सतीश जैकब लिखते हैं, "राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के सलाहकार रहे त्रिलोचन सिंह को अकाल तख़्त के एक ग्रंथी ने बताया था कि जब भिंडरांवाले बाहर आए थे तो उनकी जाँघ में गोली लगी थी."
"फिर उनको दोबारा भवन के अंदर ले जाया गया. लेकिन किसी ने भी भिंडरांवाले को अपनी आँखों के सामने मरते हुए नहीं देखा."
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क्षतिग्रस्त अकाल तख्त
अकाल तख़्त के आँगन में शव मिलने पर विवाद
एक और ग्रंथी ज्ञानी पूरन सिंह को सैनिकों ने बताया था कि उन्हें भिंडरांवाले और अमरीक सिंह के शव सात तारीख़ की सुबह अकाल तख़्त के आँगन में मिले थे.
स्वर्ण मंदिर के बरामदे में इन तीनों के शव की तस्वीरें हैं. इनमें से एक तस्वीर में ये साफ़ दिखाई देता है कि शहबेग सिंह की बाँह में रस्सी बँधी हुई है जिससे पता चलता है कि उनके शव को अकाल तख़्त से खींच कर बाहर लाया गया था.
ये भी हो सकता है कि वे सैनिक सिर्फ़ ये बताना चाह रहे हों कि उन्होंने शवों को अकाल तख़्त के सामने देखा था और उनको ये पता ही न हो कि शव पहले कहाँ पाए गए थे.
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भिंडरांवाले के शव की शिनाख़्त
भिंडरांवाले की मौत 6 जून को ही हो गई थी. मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब 'अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल' में लिखते हैं, "जब एक अफ़सर ने बरार को सूचना दी कि भिंडरांवाले का किला ढह गया है तो उन्होंने एक गार्ड की ड्यूटी वहाँ लगा दी."
"उन्होंने प्राँगण की तलाशी लेने के लिए सुबह होने का इंतज़ार किया. 7 जून की सुबह तलाशी के दौरान भिंडरांवाले, शहबेग सिंह और अमरीक सिंह के शव तयख़ाने में मिले."
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ब्रिगेडियर ओंकार एस गोराया
ब्रिगेडियर ओंकार एस गोराया भी अपनी क़िताब 'ऑपरेशन ब्लूस्टार ऐंड आफ़्टर ऐन आइविटनेस अकाउंट' में लिखा हैं, "भिंडरांवाले के शव की सबसे पहले शिनाख़्त डीएसपी अपर सिंह बाजवा ने की."
"मैं भी बर्फ़ की सिल्ली पर लेटे हुए जरनैल सिंह भंडरावाले के शव को पहचान सकता था, हालांकि पहले मैंने उन्हें कभी जीवित नहीं देखा था. उनका जूड़ा खुला हुआ था और उनके एक पैर की हड्डी टूटी हुई थी. उनके जिस्म पर गोली के कई निशान थे."
भिंडरांवाले का अंतिम संस्कार
भिंडरांवाले के शव का अंतिम संस्कार 7 जून की शाम को साढ़े सात बजे किया गया.
मार्क टली लिखते हैं, "उस समय मंदिर के आसपास क़रीब दस हज़ार लोग जमा हो गए थे लेकिन सेना ने उनको आगे नहीं बढ़ने दिया. भिंडरांवाले, अमरीक सिंह और दमदमी टकसाल के उप प्रमुख थारा सिंह के शव को मंदिर के पास चिता पर रखा गया."
"चार पुलिस अधिकारियों ने भिंडरांवाले के शव को लॉरी से उठाया और सम्मानपूर्वक चिता तक लाए. एक अधिकारी ने मुझे बताया कि वहाँ मौजूद बहुत से पुलिसकर्मियों की आँखों में आँसू थे."
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जनरल शहबेग सिंह
शहबेग सिंह के बेटे को अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति नहीं
जनरल शहबेग सिंह का शव भी अकाल तख़्त के तयख़ाने में पाया गया था. संभव है कि वो 5 या 6 जून की रात को ही घायल हो गए हों.
जब शहबेग सिंह के बेटे प्रबपाल सिंह ने पंजाब के राज्यपाल को फ़ोन कर अपने पिता के अतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति माँगी तो राज्यपाल ने कहा हज़ारों और लोग भी अंतिम संस्कार में शामिल होने का अनुरोध कर रहे हैं. अगर उन्होंने शहबेग सिंह के बेटे को ये अनुमति दी तो उन्हें अन्य लोगों को भी अनुमति देनी पड़ेगी.
जब प्रबपाल सिंह ने कहा कि क्या उन्हें उनकी अस्थियाँ मिल सकती हैं तो राज्यपाल का जवाब था, उन्हें भारत की पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाएगा.
शहबेग सिंह के अंतिम संस्कार का कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं मिलता.
ऑपरेशन ब्लूस्टार का नेत़ृत्व करने वाले तीन चोटी के जनरलों में से दो सिख थे. एक पश्चिमी कमान के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल रंजीत सिंह दयाल और दूसरे नवीं इनफ़ेंट्री डिवीज़न और स्वर्ण मंदिर में घुसने वाली सेना के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार. इन दोनों ने पश्चिमी कमान के प्रमुख जनरल सुंदर जी के साथ मिल कर ऑपरेशन ब्लू स्टार की योजना बनाई थी. तब थल सेनाध्यक्ष जनरल एएस वैद्य थे.
भिंडरांवाले के जीवित रहने की अफ़वाह
भिंडरांवाले का अंतिम संस्कार हो जाने के बावजूद कई दिनों तक ये अफ़वाह फैली रही कि वे जीवित हैं.
जनरल बरार ने मुझे बताया, "कहानियां अगले ही दिन शुरू हो गई थीं कि भिंडरांवाले उस दिन सुरक्षित निकल गए थे और पाकिस्तान पहुँच गए थे. पाकिस्तान का टेलीविज़न अनाउंस कर रहा था कि भिंडरांवाले हमारे पास हैं और 30 जून को हम उन्हें टेलीविज़न पर दिखाएंगे."
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ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में इंदिरा गांधी
"मेरे पास सूचना और प्रसारण मंत्री एच के एल भगत और विदेश सचिव एमके रस्गोत्रा के फ़ोन आए कि आप तो कह रहे हैं कि भिंडरांवाले की मौत हो गई है लेकिन पाकिस्तान कह रहा है कि वो उनके यहाँ हैं."
"मैंने उन्हें बताया उनके शव की पहचान हो गई है. उनका शव उनके परिवार को दे दिया गया है और उनके समर्थकों ने आ कर उनके पैर छुए हैं."
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ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद स्वर्ण मंदिर की सफाई करते सैनिक
पंजाब के गाँवों में रहने वाले लोगों ने 30 जून का बहुत बेसब्री से इंतज़ार किया. उन्हें उम्मीद थी कि वो अपने हीरो को टीवी पर साक्षात देख पाएंगे लेकिन उनकी ये मुराद पूरी नहीं हुई.
जनरल बरार अपनी क़िताब 'ऑपरेशन ब्लूस्टार द ट्रू स्टोरी' में स्वीकार करते हैं, "मैंने भी कौतुहलवश उस रात अपना टेलीविज़न ऑन किया क्योंकि इस तरह की अफ़वाहें थीं कि भिंडरांवाले की शक्ल से मिलते-जुलते किसी शख़्स को प्लास्टिक सर्जरी कर पाकिस्तानी टीवी पर दिखाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं."
-सुनीता नारायण
महामारी के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल है। अपार मानवीय पीड़ा और हानि के इस समय में पर्यावरण की आखिर क्या बिसात है? लेकिन आइए इस विषय में सोचने के लिए हम थोड़ा समय निकालें। पिछले एक महीने में हमें जिस चीज की कमी सर्वाधिक खली वह था ऑक्सीजन। आइए हम उन दिनों एवं घंटों के बारे में सोचें जो हमने अपने प्रियजनों के लिए ऑक्सीजन खोजने में बर्बाद किए। अस्पतालों की ऑक्सीजन की टंकियां खाली होने के कारण कई मरीजों की जानें चली गईं। हालात यहां तक पहुंच गए कि देशभर के उद्योगों से ऑक्सीजन के परिवहन को विनियमित करने के लिए अदालतों को संज्ञान लेना पड़ा। यह वह दौर था जब हमें ऑक्सीजन कनसेन्ट्रेटर के व्यवसाय के बारे में पता चला।
यह एक ऐसा यंत्र है जो हवा को अंदर खींचता है और हमें आवश्यकतानुसार ऑक्सीजन देता है। हमने लोगों को एक-एक सांस के लिए तरसते देखा है और हम इसकी कीमत का अनुभव कर चुके हैं। अत: हमें विश्व पर्यावरण दिवस के इस अवसर पर इन चीजों को याद रखने की आवश्यकता है। प्रकृति से हमें जो ऑक्सीजन मिलती है, वह हरित आवरण को बढ़ाने और हवा, यानि हमारी हर एक सांस को प्रदूषित न करने पर आधारित है। यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हम बात तो अवश्य करते हैं लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाते।
हर साल 5 जून को मनाए जाने वाले इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस का विषय पारिस्थितिकी तंत्र की मरम्मत है। वृक्षों के घनत्व में वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की देखभाल के फलस्वरूप हमारी धरती कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करके ऑक्सीजन रिलीज करने में सफल हो पाएगी। यह गैस हमारे वातावरण को लगातार भरे जा रही है और जलवायु परिवर्तन की समस्या को भयावह बना रही है। हमें यह समझने की जरूरत है कि पेड़ लगाने या पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने के लिए हमें पहले प्रकृति और समाज के साथ अपने संबंधों को बहाल करना होगा। तथ्य यह है कि पेड़ मुख्यत: भूमि पर आधारित होते हैं। कौन इसका मालिक है? कौन इसकी रक्षा करता है और कौन उसे पुनर्जीवित करता है? उपज पर अधिकार किसका होता है यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारत में, वन विभाग के पास सामान्य वन भूमि के विशाल क्षेत्रों का ‘वामित्व’ है। लेकिन भारत जैसे देशों में ’जंगल’ नहीं है।
इसके बजाय, हमारे पास ऐसे आवास हैं जहां लोग जंगलों में जंगली जानवरों के साथ रहते हैं। ये वही वन जिले हैं जिन्हें सबसे पिछड़े और सबसे गरीब के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह भी सच है कि तमाम कानूनी एवं प्रशासनिक और कभी-कभी बाहुबल का इस्तेमाल करते हुए हमारे देश का वन विभाग ग्रीन कवर को बरकरार रखने में कुछ हद तक सक्षम रहा है। यह विभाग लोगों और उनके जानवरों को जंगलों से बाहर रखने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत करता है। निचले पायदान पर आने वाले संतरियों से लेकर शीर्ष नौकरशाहों के बीच फाइलों के आदान-प्रदान की गति को धीमा करके खदानों एवं बांधों जैसी च्च्विकास परियोजनाओंज्ज् के लिए पेड़ों की कटाई को भी यह विभाग भरसक रोकता है ।
वृक्ष लगाने के लिए इसके प्रबंधन का स्वामित्व लेने की आवश्यकता होती है ताकि पौधों को नुकसान न पहुंचे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पेड़ों का एक मूल्य होता है, चाहे उनकी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए या लकड़ी के लिए जिसका उत्पादक को भुगतान करने की आवश्यकता होती है। यह एक वृक्ष आधारित नवीकरणीय भविष्य की तैयारी होगी, जहां लकड़ी का उपयोग घर बनाने और ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जा सकता है। यह एक सदाबहार क्रांति होगी जो गरीबों के हाथ में पैसे देने के साथ-साथ आजीविका एवं ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करके जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करेगी। आज पूरी दुनिया प्रकृति आधारित समाधानों के बारे में बात कर रही है, जिनका मैंने ऊपर वर्णन भी किया है लेकिन यह गरीब समुदाय को समाधान के केंद्र में रखे बिना किया जा रहा है।
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है। यह लैन्ड टेन्यर की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बारे में है, सबसे बेजुबान और हाशिए पर खड़े लोगों की ताकत और इंसानों की कीमत पर वनों की रक्षा के बारे में भी। इस योजना में भूमि और श्रम के मूल्य का भुगतान हवा से कार्बन डाईऑक्साइड को कम करने के सबसे सस्ते विकल्पों के संदर्भ में नहीं बल्कि उस आजीविका के संदर्भ में किया जाना चाहिए जो यह समाधान प्रदान करेगा। इससे सस्ते कार्बन ऑफसेट खरीदने का पूरा विचार अव्यवहारिक हो जाएगा। इसके अलावा एक और चुनौती जो है वह यह है कि हम हर सांस के साथ ऑक्सीजन न लेकर जहर खींच रहे हैं। हम हर साल इस पर चर्चा करते हैं जब सर्दी आती है और प्रदूषण भारी हवा और नमी की वजह से वातावरण में फंस जाता है। तब हमें इसकी भयवाहता महसूस होती है।
हम हताशा में चिल्लाते हैं। लेकिन फिर हम भूल जाते हैं। इसलिए,जैसे ही इस साल सर्दी समाप्त हुई, भारत सरकार ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के नियम बदल दिए, जिससे उन्हें प्रदूषण फैलाने में असुविधा न हो। सीधे शब्दों में कहें तो आप गैर-अनुपालन के लिए भुगतान कर सकते हैं और यह जुर्माना प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों पर आपके द्वारा किए जाने वाले खर्च से कम होगा। बिजली कंपनियों के लिए ऑक्सीजन और बाकी लोगों के लिए दमघोंटू सांसें, नियम कुछ ऐसे ही हैं।
हमारे ऑक्सीजन को एक सिलेंडर में या एक ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मशीन द्वारा सुरक्षित नहीं किया जा सकता है। मुझे संदेह है कि हर अमीर भारतीय अब इसे खरीदेगा और रखेगा। इसे एयर प्यूरीफायर से भी सुरक्षित नहीं किया जा सकता है जिसे हमने पहले ही अपने घरों और कार्यालयों में खरीदा और स्थापित किया है। इसके बजाय, ऑक्सीजन को हमें इसे अपनी दुनिया की सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण जीवन-समर्थन प्रणाली के रूप में महत्व देना चाहिए।
इसलिए, इस विश्व पर्यावरण दिवस पर जब महामारी के कहर ने हमें क्रोधित और हताश छोड़ दिया है, आइए अब समय बर्बाद करना बंद करें। आज हम पहले से कहीं बेहतर तरीके से जानते हैं कि बात करने से जान नहीं बचती है। हमें इन बातों पर अमल भी करना होगा। हरित और अधिक समावेशी कल के लिए इस लड़ाई में ऑक्सीजन हमारी वैश्विक पीड़ा है। यह हमारे अस्तित्व की लड़ाई है, इससे कम कुछ नहीं। (downtoearth.org.in)
-अशोक पांडेय
बीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश फौजियों के बीच एक शब्द लोकप्रिय हुआ-टॉमी एटकिन्स। किसी भी औसत, बेचेहरा और मामूली लगने वाले सिपाही को इस नाम से पुकारा जाता था। पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद अमरीका के फ्लोरिडा में उगने वाली आम की एक प्रजाति को टॉमी एटकिन्स का नाम दिया गया। लंबी शेल्फ लाइफ के चलते इस साधारण प्रजाति का ऐसा प्रसार-प्रचार हुआ कि आज अमेरिका, कनाडा और इंग्लैण्ड में खाए जाने वाले आमों का कुल 80 फीसदी टॉमी एटकिन्स होता है।
कितनी उबाऊ बात है!
अपने यहाँ सफेदा है, चुस्की है, दशहरी है, कलमी है, चौसा है। कितनी तरह के तो आम हैं और ऊपर बताये गए नामों की तुलना में कैसे और भी उनके दिलफरेब नाम - मधुदूत, मल्लिका, कामांग, तोतापरी, कोकिलवास, जरदालू, कामवल्लभा। अनुमान है भारत में ग्यारह सौ से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। गौतम बुद्ध के चमत्कारों से लेकर श्रीलंका में पत्तिनिहेला की लोकगाथाओं तक और ज्योतिषशास्त्र की गणनाओं से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र तक आम का जिक्र मिलता है। पत्तिनिहेला के मुताबिक़ तो सुन्दर स्त्रियों की उत्पत्ति आम के फल के भीतर से हुई थी। कालिदास के यहाँ तो बिना आम और उसके बौरों के आधी उपमाएं पूरी नहीं होतीं। फिर पता नहीं क्या हुआ हजारों सालों की समृद्ध विरासत के बावजूद हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा से आम गायब है।
आम को असल मोहब्बत आधुनिक उर्दू शायरों ने की। मिर्जा गालिब का आम-प्रेम और आम न खाने वालों की गधे से बराबरी करने वाला वह किस्सा सबने सुना है। बताते हैं गर्मियों के उरूज पर मिर्जा गालिब की खस्ताहाल हवेली का सहन दारू की खाली बोतलों और आम की गुठलियों से भर जाया करता।
सबसे पहली बात तो यह कि आम के साथ सामूहिकता और यारी-दोस्ती हमेशा जोड़ कर देखी जाती रही। जिनके घर आम होते थे वे दूसरों के घर आम भेजते थे। फिर ये दूसरे वाले पहले के घर वापस आम भिजवाते। पहले के यहाँ दशहरी का बाग था दूसरों के यहाँ चौसे का। शहरों के बीच की दूरियां मायने नहीं रखती थीं। किस्सा है अकबर इलाहाबादी ने अल्लामा इकबाल के लिए आम भिजवाये। वह भी अपने नगर से साढ़े नौ सौ किलोमीटर दूर लाहौर। उस जमाने में सडक़ के रास्ते थे और आने-जाने के साधन बहुत कम। आम सलामत पहुंचे तो चचा ने शेर लिखा -
असर ये तेरे अन्फासे मसीहाई का है अकबर,
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा
यानी तूने आमों के ऊपर अपनी मसीहाई का ऐसा मंतर फूंका कि माल बिना खराब हुए आराम से ठिकाने पर पहुँच गया। यही अकबर अपने एक दोस्त से किस बेशर्मी से आम मांग भी लेते थे-
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा जरूर हो कि उन्हें रख के खा सकूॅं
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस खाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
शायरों के बीच आम की इतनी विविधताओं के बीच जिस नाम ने खूब नाम हासिल किया वह था लंगड़ा। ऐसा इसलिए हुआ कि इस शब्द के दो मायने निकलते हैं। तभी तो सागर खय्यामी ने कहा-
आम तेरी ये खुश-नसीबी है
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है
भारतीय इतिहास में तैमूर लंग को उसके पैरों के दोष के कारण अधिक, अपने कारनामों के लिए कम ख्याति मिली। कहते हैं उसने नाम के चलते इस स्वादिष्ट आम का अपने महल में प्रवेश बंद करवा रखा था। शायरी ने इसे यूँ दर्ज किया-
तैमूर ने कस्दन कभी लंगड़ा न मंगाया
लंगड़े के कभी सामने लंगड़ा नहीं आया
आमों का मौसम आता है तो दो किताबें अपने आप अलमारी से आप मेरे सिरहाने पहुँच जाती हैं - एलेन सूसर की ‘द ग्रेट मैंगो बुक’ और एडम गॉलनर की ‘द फ्रूट हन्टर्स’। इस मौसम में मेरे बेहद करीबी और फलों के कारोबारी असगर अली कोई तीन माह तक मुझे एक से बढक़र एक तमाम तरह के आम चखाते हैं। आजकल सफेदा आ रहा है, दो एक हफ्ते में कलमी आ जाएगा। दशहरी, लंगड़ा, चौसा वगैरह से होता हुआ यह क्रम तोतापरी, बम्बइया और मल्लिका तक चलेगा।
लखनऊ से हर साल मलीहाबादी दशहरी की पेटी लेकर आने वाले मेरे अजीज बड़े भाई विनोद सौनकिया अक्सर एक मच्छर-विरोधी शेर सुनाते हैं -
उठाएं लुत्फ वो बरसात में मसहरी के
जिन्होंने आम खिलाये हमें दशहरी के
खुद अपने लिए कोई आदमी इससे बड़ी दुआ क्या करेगा!