विचार/लेख
-ज़ुबैर अहमद
आज मोहनदास करमचन्द गांधी की 150वीं जयंती है. वो महात्मा बने, प्यार से बापू भी कहलाये और उन्हें अंत में राष्ट्रपिता होने का सम्मान भी दिया गया.
गांधी अहिंसा और सत्याग्रह के पैग़ंबर थे. अंग्रेज़ी राज को घुटने टिकाने वाले उनके इस मंत्र का जन्म साउथअफ़्रीका में हुआ था.
आज भारत में शायद कम लोगों को इस बात का अंदाज़ा होगा कि साउथ अफ़्रीका में, जहाँ गांधी ने अपनी जवानी के 21 साल गुज़ारे, उनकी विरासत बची है या नहीं. उनका नाम यहाँ लिया जाता है या नहीं?
कुछ समय पहले हम यही जानने के लिए भारत से यहाँ आये.
यही वो घर है जहां गांधी जी ने अपने सत्याग्रह और अहिंसा से जुड़े विचार विकसित किए.
डरबन और जोहानसबर्ग जैसे बड़े शहरों में गांधी को भुलाना आसान नहीं है. यहाँ के कुछ चौराहों और बड़ी सड़कों पर गांधी का नाम जुड़ा है. उनकी प्रतिमाएं लगी हैं और उनके नाम पर संग्रहालय बने हैं जहाँ इस देश में गुज़रे समय को क़ैद कर दिया गया है.
गांधी 1893 में साउथ अफ्रीका आये और 1914 में हमेशा के लिए भारत लौट आए.
शायद इस बात पर इतिहासकारों की सहमति हो कि इस देश में गांधी जी की सबसे अहम विरासत डरबन के फ़ीनिक्स सेटलमेंट में है जो भारतीय मूल के लोगों की एक बड़ी बस्ती है.
जोहानसबर्ग का गांधी चौक जहाँ कभी गांधी का दफ़्तर होता था.
फ़ीनिक्स सेटलमेंट में गांधी ने 1904 में 100 एकड़ ज़मीन पर एक आश्रम शुरू किया था जहाँ, उनकी पोती इला गांधी के अनुसार, गांधी जी की शख़्सियत में भारी परिवर्तन आने लगा.
सत्याग्रह के आइडिया से लेकर सामूहिक रिहाइश, अपना काम खुद करने की सलाह हो और पर्यावरण संबंधी क़दम (जैसे मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल और जल संरक्षण) जैसे विचार फ़ीनिक्स सेटलमेंट के गांधी आश्रम में जन्मे और पनपे.
गांधी इस देश में एक बैरिस्टर की हैसियत से सूट और टाई में आये थे. उनके क़रीबी दोस्तों में गोरी नस्ल और भारतीय मूल के लोग अधिक थे.
जोहानसबर्ग के इस जेल में गांधी और मंडेला दोनों क़ैद रह चुके हैं.
कहा जाता है कि आश्रम में बसने से पहले उनका लाइफ़ स्टाइल अंग्रेज़ों जैसा था. खाना वो काँटा छुरी से खाते थे.
वो काली नस्ल की स्थानीय आबादी से दूर रहते थे. इसी कारण उनके कुछ आलोचक उन्हें रेसिस्ट भी कहते हैं.
गांधी को नस्लवादी क्यों कहते थे लोग?
लेकिन 78 वर्षीया उनकी पोती इला गांधी के अनुसार लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी साउथ अफ़्रीक़ा जब आये थे तो उनकी उम्र केवल 24 वर्ष थी.
इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई तो कर ली थी लेकिन व्यावहारिक जीवन में पूरी तरह से क़दम नहीं रखा था.
बीबीसी की टीम गांधी की पोती इला गांधी के साथ.
इला गांधी का जन्म इसी आश्रम में 1940 में हुआ था और इनका बचपन यहीं गुज़रा. तेज़ बारिश के बावजूद वो खुद गाड़ी चलाकर हमसे मिलने आयी थीं.
हमने गांधी के ख़िलाफ़ नस्ली भेदभाव के इलज़ाम के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "बापू के उस युवा दौर के एक दो बयान को लोगों ने कॉन्टेक्स्ट से हटाकर देखा जिससे ये ग़लतफ़हमी हुई कि उनके विचार नस्ली भेदभाव वाले हैं."
अपनी बात ख़त्म करने के तुरंत बाद हमें वो आश्रम के उस कमरे में ले गयीं जो एक ज़माने में परिवार का रसोई घर होता था. लेकिन अब ये पूरा घर एक संग्रहालय है.
उन्होंने दीवार पर लगे गांधी जी के कुछ बयानों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "ये देखिये, इस बयान को लेकर बापू को रेसिस्ट समझा गया. लेकिन इनके साथ एक-दो और बयान पर नज़र डालिये जिससे लगेगा कि वो नस्लपरस्त बिलकुल नहीं थे"
इला गांधी महात्मा गांधी के चार बेटों में से दूसरे बेटे मणिलाल गांधी की बेटी हैं.
वो आज एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गांधी की एक ज़बर्दस्त शिष्या भी. वो एक रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और पूर्व सांसद भी.
इला गांधी ने, जो सात साल की उम्र में बापू की गोद में खेल चुकी हैं, गांधी के शांति मिशन का चिराग़ साउत अफ़्रीका में अकेले ज़िंदा रखा हुआ है.
अपनी मृत्यु से पहले उनकी बड़ी बहन सीता धुपेलिया गांधी के विचारों का प्रचार-प्रसार किया करती थीं. उनकी बेटी कीर्ति मेनन और बेटे सतीश गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी हैं.
हमारी मुलाक़ात कीर्ति मेनन से हुई जिन्होंने भारत में बढ़ती हिंसा और विभाजित होते समाज पर दुःख प्रकट किया.
इला गांधी
गांधी की स्थायी विरासत में शामिल है उनके परिवार की नयी पीढ़ी. हमारी मुलाकात गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी से भी हुई.
ये साउथ अफ़्रीक़ा के डरबन, केप टाउन और जोहानसबर्ग जैसे शहरों में आबाद हैं. उनमें से तीन युवाओं से हमारी मुलाक़ात डरबन में कीर्ति मेनन के घर हुई.
गांधी को कैसे देखती है उनकी पांचवीं पीढ़ी
इनका ज़िक्र स्कूल पाठ्य पुस्तकों में नहीं मिलेगा. इनकी तस्वीरें शायद आपने नहीं देखी होंगी क्योंकि ये मीडिया की चमक-दमक से कोसों दूर रहते हैं.
गांधी की पांचवीं पीढ़ी: कबीर, मिशा और सुनीता
ये साधारण जीवन बिता रहे हैं और अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट नज़र आते हैं.
तीनों में कुछ बातें समान हैं: वो आत्म विश्वास से भरे हैं. बहुत अच्छा बोलते हैं. गांधी परिवार की संतान होने के बावजूद अपनी विरासत का ग़लत इस्तेमाल करने की कोशिश करते नहीं दिखते और तो और साफ़ सटीक बातें करने से घबराते नहीं हैं.
कबीर धुपेलिया 27 वर्ष के हैं और डरबन में एक बैंक में काम करते हैं. उनकी बड़ी बहन मिशा धुपेलिया उनसे 10 साल बड़ी हैं और एक स्थानीय रेडियो स्टेशन में एक कम्युनिकेशन एग्ज़ीक्यूटिव हैं.
ये दोनों कीर्ति मेनन के भाई सतीश की संतानें हैं. इन दोनों की कज़न सुनीता मेनन एक पत्रकार हैं. वो कीर्ति मेनन की एकलौती औलाद हैं.
मिशा और सुनीता
चश्मे और हल्की दाढ़ी में कबीर एक बुद्धिजीवी की तरह नज़र आते हैं.
मिशा अपनी उम्र से काफ़ी छोटी लगती हैं लेकिन बातें समझदारी की करती हैं. सुनीता अपने काम को काफ़ी गंभीरता से लेती हैं.
वो खुद को भारतीय महसूस करते हैं या दक्षिण अफ़्रीकी?
इस सवाल पर कबीर एक झटके में कहते हैं, "हम साउथ अफ़्रीकी हैं."
मिशा और सुनीता के अनुसार वो साउथ अफ़्रीक़ी पहले हैं, भारतीय मूल के बाद में.
ये युवा बापू के दूसरे बेटे मणिलाल गांधी की नस्ल से हैं.
गांधी 1914 में दक्षिण अफ़्रीक़ा से भारत लौट गए थे. मणिलाल भी वापस लौटे लेकिन कुछ समय बाद गांधी ने उन्हें डरबन वापस भेज दिया.
गांधी ने 1904 में डरबन के निकट फ़ीनिक्स सेटलमेंट में एक आश्रम बनाया था जहाँ से वो "इंडियन ओपिनियन" नाम का एक अख़बार प्रकाशित करते थे.
मणिलाल 1920 में इसके संपादक बने और 1954 में अपनी मृत्यु तक इसी पद पर रहे.
इन युवाओं को इस बात पर गर्व है कि गांधी भारत के राष्ट्रपिता हैं और दुनिया भर में उन्हें अहिंसा और सत्याग्रह का गुरू माना जाता है.
'इंसान की तरह देखे जाएं गांधी
कबीर कहते हैं, "मेरे विचार में इस बात से मैं काफ़ी प्रभावित हूँ कि किस तरह वो अपने मुद्दों पर शांतिपूर्वक डटे रहते थे. ये आज आपको देखने को नहीं मिलेगा. गांधी ने शांति के साथ अपनी बातें मनवाईं जिसके कारण उस समय कुछ लोग नाराज़ भी रहते होंगे."
गांधी की विरासत की अहमियत का उन्हें ख़ूब अंदाज़ा है लेकिन उनके अनुसार ये भारी विरासत कभी-कभी उनके लिए एक बोझ भी बन जाती है.
सुनीता कहती हैं, "गांधी जी को एक मनुष्य से बढ़ कर देखा जाता है. उनकी विरासत के स्तर के हिसाब से जीवन बिताने का हम पर काफ़ी दबाव होता है."
सुनीता मेनन बताती हैं, "सामाजिक न्याय मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. और ये सोच गांधी परिवार में पिछली पांच पीढ़ी से चली आ रही है."
इमेज स्रोत,GANDHI MUSEUM DURBAN
वे कहती हैं कि उनके कई दोस्तों को सालों तक नहीं पता चलता कि वो गांधी परिवार से हैं.
मिशा बताती हैं, "मैं जानबूझ कर लोगों को ये नहीं कहती रहती हूँ कि आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ".
जब हमने पूछा कि जब उनके दोस्तों को पता चलता है कि उनका बैकग्राउंड किया है तो उनके दोस्तों की प्रतिक्रियाएं किया होती हैं?
इस सवाल के जवाब में सुनीता कहती हैं, "जब लोगों को हमारे बैकग्राउंड के बारे में पता चलता है तो वो कहते हैं कि हाँ अब समझ में आया कि आप सियासत के प्रति इतने उत्साहित क्यों हैं."
लेकिन इससे उनकी दोस्ती पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
वो गांधी की शिक्षा को अपने जीवन में अपनाने की कोशिश करते हैं लेकिन वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि वो एक अलग दौर में अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं और उनके अनुसार ये ज़रूरी नहीं है कि गांधी की 20वीं शताब्दी की सभी सीख आज के युग में लागू हो.
सुनीता के अनुसार उनके व्यक्तित्व को कई व्यक्तियों ने प्रभावित किया है, गांधी उनमें से एक हैं.
इमेज स्रोत,GANDHI AASHRAM, DURBAN
ये युवा गांधी के अंधे भक्त नहीं हैं. गांधी की कई कमज़ोरियों से वो वाक़िफ़ हैं लेकिन वो ये भी कहते हैं कि उन्हें उनके दौर की पृष्ठभूमि में देखना चाहिए.
गांधी परिवार की इन संतानों को इस बात की भी जानकारी है कि भारत में गांधी के आलोचक भी बहुत हैं. मगर वो इससे दुखी नहीं हैं.
कबीर कहते हैं, "काफ़ी लोग ये समझते हैं कि अहिंसा को अपनाने के लिए आपको गांधीवादी होना पड़ेगा. अहिंसा के लिए आप गांधी से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन आप अगर उनके आलोचक हैं और अहिंसा के रास्ते पर चलना चाहते हैं तो आप गांधीवाद के ख़िलाफ़ नहीं है."
सुनीता कहती हैं कि गांधी की आलोचना उनके समय के हालत और माहौल के परिपेक्ष्य में करना अधिक उचित होगा. (bbc.com)
-कनक तिवारी
अन्य किसी नौकरी या सेवा के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए पदों के आरक्षण का कोई डबल पेंशन जैसा कानून नहीं है। रिटायर्ड जजों के लिए कई अधिनियमों में पांच वर्षों का अतिरक्त कामकाजी इंतजाम है। कई पदों के लिए अन्य बौद्धिक क्षेत्रों से ज्यादा काबिल अधिकारी मिल सकते हैं। यह गलतफहमी अब भी है कि जज अन्य अधिकारियों के मुकाबले ज्यादा इंसाफपसन्द और निष्पक्ष होते हैं।
संविधान ने अधिकारों और जिम्मेदारियों का अपनी समझ से बंटवारा किया है। एक धड़े को कानून, अधिनियम रचने का अधिकार देकर विधायिका कहा। उनकी शैक्षणिक योग्यता सिफर रखी। वे भी कानून बना सकते हैं जिन्हें तालीम में ककहरा भी नहीं मालूम हो। सांसदों, विधायकों के दीवानेआम के अधिकतम पंद्रह प्रतिशत से मंत्रिपरिषद का दीवानेखास बनता है। तिकड़मी लोग ही कैबिनेट में शामिल हो पाते हैं। संविधान और कानून की पोथियां पढऩे से ज्यादातर मंत्री बेपरवाह रहते हैं। सरदार पटेल की समझाईश के कारण अंगरेजपरस्ती की नौकरशाही लगभग जस की तस आ गई। अलबत्ता राष्ट्रपति और राज्यपाल के जरिए उसे मंत्रियों की मातहती में रखकर कई संवैधानिक जिम्मेदारियां भी दी जाती हैं। सत्ता की सुरंग में जब अंधेरा दिखाई देता है, तब ये नौकरशाह टॉर्च लेकर मंत्रियों को रास्ता दिखाते हैं। बीच-बीच में टॉर्च बुझाकर बगल हो जाते हैं। पता चलता है मंत्री जी पतित हो गए हैं।
जनता सताई जाती है। सत्ता की बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तब मुहावरे के बंदर की तरह रोटियां तोड़ तोडक़र तराजू वाला इंसाफ करना न्यायपालिका के जिम्मे होता है। इंसाफ की मशीनरी के मेकेनिकों को बरसों बाद इलहाम हुआ कि मु_ी में सत्ता ही जीवन का ऑक्सीजन सिलेन्डर है। उससे सुख की ऑक्सीजन भर लें। केन्द्रीय केबिनेट ने जजों के साथ गलबहियां कीं। संसद ने तय किया कि सत्ता के सेल की दूकान में बाटा का जूता घिस जाए तब बी. एस. सी. का बेच लें। शासन चलाना बिटिया के ब्याह जैसा बेगैरत काम नहीं है। अक्ल रखो और सत्ता के दामाद बनो। रिटायर होने की उम्र आए तो समधी भी बनो। तय हुआ कि ऐसे पद कायम किए जाएं जिनमें जनता को लगे कि सब ठीक-ठाक है। सिस्टम को भी लगे कि हमारी दूकान गुडविल में चल निकली। चरित्र भले सूख जाए लेकिन हथेली गीली रहे। जो धरती दिखे, वह असल में दलदल रहे। हाथ के पंजे ने यारी दोस्ती में कमल का फूल ले लिया। दोनों को लक्ष्मीजी प्रिय हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सरोगेट कोख से उछलकर एक शब्द ‘मानव अधिकार’ दुनिया में चकरघिन्नी हो रहा है। जनता को खुशफहमी में भरमाते देश और प्रदेशों के स्तर पर ‘मानव अधिकार आयोग’ गठित हुए। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट जजों को ही पदेन अध्यक्ष बनाने नेता-जज गठजोड़ के कारण अधिनियम बने। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस के लिए राष्ट्रीय और राज्य मानव अधिकार आयोग अध्यक्ष पद यथासंभव आरक्षित हो ही गए। पांच वर्षों तक रिटायर जज न्याय की मूर्ति लगते मानव अधिकार का बोनस बांटें। पुलिस अत्याचार पर अत्याचार करे। सरकारें नागरिकों की चटनी पीसें। मानव अधिकार आयोग अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खरू होते कुछ कर धर नहीं पाते हैं। कागज पर छपे शेर बने अपने वेतन के लिए कभी-कभार दहाड़ते हैं। उनकी रिपोर्टें रद्दी की सरकारी टोकरी में इज्जतबख्श होती रहती हैं।
खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट और जहरखुरानी की बेईमानियां, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी, जमाखोरी व्यापारी वर्ग करता ही है। उपभोक्ता संरक्षण आयोग बनाकर रिटायर्ड जजों को वहां भी अध्यक्षी वाला बुढ़ऊ के ब्याह का एकाधिकार है। 62 वर्ष की आयु में रिटायर होने पर पांच वर्षों या सत्तर वर्षों तक माय लॉर्ड की आधी अधूरी ठसक समुद्र के उतरते भाटा की तरह होती है। ठेकेदारों और सरकारों के बीच खराब सडक़ों, टूटते पुल, भरभराती इमारतों, मिलावटी सीमेंट वगैरह के सैकड़ों हजारों करोड़ के विवाद सरफुड़ौव्वल करते हैं। देश, प्रदेश और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक विवादों को हल करने रेफरी का काम रिटायर्ड जजों को ही अमूमन सौंपा जाता है। मनमोहन सिंह सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र को निजी इजारेदारों का बहिश्त बना दिया। बिना लाइसेंस के भी बिजली कारखाना बनाने के नाम पर, देश का कोयला सार्वजनिक क्षेत्र और निजी कारोबारियों के बीच गरीब की लुगाई बन गया। शोषण निजी क्षेत्र ने ज्यादा किया। कोयले की दलाली में मंत्रियों के हाथ काले होकर कोलगेट स्कैम हुआ। धांधली ढूंढने जांच आयोग बने, एजेंसियां बनीं। बिजली अधिनियम में प्रदेश और केन्द्र के स्तर पर शक्तियों को नियंत्रित करने कमीशन बने। उनमें भी रिटायर्ड हाईकोर्ट जजों को ही बिजली की स्विच पर हाथ रखना होगा। भले ही जीवन भर फ्यूज सुधारना तो दूर बलब बदलना भी नहीं आता रहा हो।
आगजनी, बमबारी, नक्सल आतंक, देश पार आतंक, पुलिसिया गोलीकांड, खाद्य वितरण घोटाला, बलात्कार, राजनीतिक हत्याएं, विदेशी खातों की जांच को लेकर धड़ाधड़ आयोग बनाए जाने का शगल है। सत्ता में ‘डेटिंग’ और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के नये रोमांस भी हो रहे हैं। ऊंची अदालतों के जजों की दांईं आंख रिटायर होते ही शुभ संकेत देती है। सरकारपरस्तों को कुछ न कुछ वजीफा या पक्षपाती फैसलों के रिटर्न गिफ्ट का मिलना होता है। जांच आयोगों में जांच तो वर्षों तक लटकाई जाती है। ठसक के दौरे होते हैं। बुढ़ापा और भत्ता दोनों पकते हैं। इंसाफ की मृगतृष्णा झिलमिलाती है। जनता की याददाश्त तो गंगा में लाशें पटने पर भी धूमिल होने लगती है। कुल मिलाकर मंत्री-जज भाई भाई। जैसे हिन्दी चीनी भाई भाई।
बेताल विक्रमादित्य से पूछता है। इंजीनियरिंग ठेका विवादों के लिए गैर आलिमफाजिल जज के बदले बड़े रिटायर्ड इंजीनियर या प्रोफेसर मध्यस्थ क्यों नहीं बनाए जा सकते? डॉक्टरों, अस्पतालों, दवा कम्पनियों की धांधलगर्दी पकडऩे रिटायर्ड डॉक्टर या प्रोफेसर जांच क्यों नहीं कर सकते? मानव अधिकार आयोगों के लिए समाज के प्रमुख, प्रखर और ईमानदार नागरिकों पर भरोसा क्यों नहीं किया जाता? रिटायर्ड हाईकोर्ट जज तो पेट्रोल पंप और गैस एजेंसियों के आवंटन की समितियों के अध्यक्ष बने घपलों में डूबे पाए गए थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन समितियों को भंग कर दिया। निजी व्यावसायिक कॉलेज छात्रों से कितनी फीस लें। उसे कमेटी तय करे। उसके अध्यक्ष हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज ही होंगे। किसी कानून में नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अंधा बांटे रेवड़ी का मुहावरा गिफ्ट कर दिया था क्या?
अन्य किसी नौकरी या सेवा के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए पदों के आरक्षण का कोई डबल पेंशन जैसा कानून नहीं है। रिटायर्ड जजों के लिए कई अधिनियमों में पांच वर्षों का अतिरक्त कामकाजी इंतजाम है। कई पदों के लिए अन्य बौद्धिक क्षेत्रों से ज्यादा काबिल अधिकारी मिल सकते हैं। यह गलतफहमी अब भी है कि जज अन्य अधिकारियों के मुकाबले ज्यादा इन्साफपसन्द और निष्पक्ष होते हैं।
मौजूदा हालात की अदालतों के आचरण की सामाजिक ऑडिट की जरूरत है। विश्वविद्यालयों के कुलपति, राज्यपाल, राज्यसभा, प्रेस काउंसिल, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, राजदूत, गोलीकांड जांच, दंगों की रिपोर्ट, तेंदूपत्ता घोटाला, गुलाबी चना घोटाला, आपातकालीन अत्याचार, सेना-पुलिस विवाद, आदिवासी-नक्सलवादी संहार, उपभोक्ता आयोग, औद्योगिक न्यायालय, अल्पसंख्यक-आयोग जाने कितने ठनगन हैं जिन्हें रिटायर्ड जजों के लिए जबरिया चारागाह बना दिया गया है। बाकी सरकारी सेवकों या नागरिकों के लिए इस तरह बुढ़ापे में वसन्त का मौसम नहीं खिल पाता है।
-डॉ. संजय शुक्ला
देश में कोरोना के असर के मद्देनजर भारी ऊहापोह के बाद आखिरकार केन्द्र सरकार के फैसले के बाद सीबीएसई और आईसीएसई की बारहवीं बोर्ड परीक्षा रद्द हो गई है। नि:संदेह महामारी के इस दौर में परीक्षा के दौरान बच्चों के स्वास्थ्य की सुरक्षा सरकार, अभिभावकों और शिक्षकों के लिए बड़ी चिंता थी लेकिन इस फैसले के दूसरे पहलुओं और विकल्पों पर सरकार को विचार करना था।
गौरतलब है कि बारहवीं बोर्ड परीक्षा के मद्देनजर मंत्री समूह की बैठक के बाद दिल्ली, महाराष्ट्र और गोवा राज्य के सरकारों ने प्रस्तावित नए परीक्षा पैटर्न पर इम्तिहान के लिए हामी भरी थी। इस बीच बारहवीं बोर्ड परीक्षा को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया गया था वहीं सियासत भी तेज हो गई थी।
फिलहाल बारहवीं के बच्चों के मूल्यांकन कैसे किया जाएगा? यह तय नहीं हुआ है लेकिन यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि 12 वीं कक्षा के प्री-बोर्ड और आंतरिक परीक्षा के मूल्यांकन के आधार पर रिजल्ट घोषित किए जा सकते हैं। ज्ञातव्य है कि दसवीं बोर्ड के परीक्षार्थियों को भी उनके आंतरिक मूल्यांकन और असाइनमेंट के आधार पर नंबर देकर उत्तीर्ण करने का निर्णय केंद्रीय और राज्य बोर्डों ने लिया था।
हालांकि इस व्यवस्था को पूरी तरह से पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि आंतरिक मूल्यांकन में दिए जाने वाले अंक हमेशा सवालों के घेरे में रहते हैं। यह मसला इस लिहाज से और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बारहवीं के अंकों के आधार पर देश के अनेक शीर्षस्थ नामी यूनिवर्सिटी और कालेजों में दाखिला मिलता है जहाँ छात्रों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा रहता है। ऐसी परिस्थिति में यदि कोई छात्र पारिवारिक या स्वास्थ्यगत कारणों से प्री-बोर्ड या आंतरिक परीक्षा देने में असमर्थ रहता है , उसके पेपर बिगड़ जाते हैं या शिक्षक इन परीक्षाओं में पक्षपाती रवैया रखे तो योग्य छात्र को उसकी रूचि अनुसार उच्च शिक्षा संस्थान में दाखिले में दिक्कत आ सकती है। परीक्षा रद्द करने का फैसला उन छात्रों के मेहनत पर भी पानी फेर गया जो अपने कठिन मेहनत से इस बोर्ड परीक्षा में बहुत अच्छे अंक हासिल कर अपने परिवार के आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते थे। चूंकि बारहवीं की परीक्षा के अंंक छात्रों के कैरियर और उच्च शिक्षा, प्रोफेशनल कोर्स के दाखिले से लेकर नौकरियों में काफी अहमियत रखते हैं। हालांकि सीबीएसई दसवीं बोर्ड की ही तरह बारहवीं के छात्रों को भी यह व्यवस्था दे रही है कि यदि कोई छात्र अपने रिजल्ट से संतुष्ट नहीं है तो वह स्थिति सामान्य होने पर फिर से परीक्षा दे सकता है। यह फैसला छात्रों को कितना राहत पहुंचाएगा? यह काल के गाल में है।
गौरतलब है कि देश में कोरोना संक्रमण के मामलों मे लगातार गिरावट आ रही है और अधिकांश राज्य अनलॉक के दौर में है लिहाजा कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए आवश्यक सभी सावधानियों का पालन सुनिश्चित करते हुए मुख्य विषयों के एक बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र के आधार पर ओएमआर शीट के माध्यम से परीक्षा लेने जैसे विकल्प पर सरकार को विचार करना था। इस परीक्षा के लिए परीक्षा केंद्र उन्हीं स्कूलों को बनाया जा सकता था जहाँ छात्र पढ़ते थे या परीक्षार्थियों की संख्या को सीमित रखने और सोशल डिस्टेंसिंग के लिहाज से स्कूलों के साथ-साथ कालेजों को भी परीक्षा केंद्र बनाया जा सकता था। यह परीक्षा केवल एक दिन दो या तीन पालियों में डेढ़ से दो घंटों के ऑब्जेक्टिव प्रश्नपत्र में संभव हो सकता था।
गौरतलब है कि प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर के सभी कक्षाओं में बिना परीक्षा के अगली कक्षा में जनरल प्रमोशन जैसे फैसले शिक्षा की गुणवत्ता पर बड़ा सवाल खड़ा कर रहे हैं। गौरतलब है कि स्कूली शिक्षा ही उच्च शिक्षा की नींव होती है लेकिन कोरोना महामारी ने सबसे प्रतिकूल प्रभाव शालेय शिक्षा पर ही डाला है। शिक्षा प्रणाली में शिक्षण के साथ परीक्षा और मूल्यांकन इस व्यवस्था का अहम हिस्सा है जो किसी छात्र के लिए शिक्षा की बुनियाद और योग्यता का मापदंड होता है।
परीक्षा ही छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना और संघर्ष का जज्बा पैदा करता है जो उसके भावी जीवन का अहम हिस्सा है। बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में स्कूलों की महत्वपूर्ण भूमिका है, बच्चे स्कूल में ही अनुशासन, सामूहिकता, सहयोग की भावना, संस्कृति और स्वावलंबन सीखते हैं। कोरोना लॉकडाउन ने बच्चों के बालमन पर काफी गहरा असर डाला है और यह दुष्प्रभाव स्कूल में ही खत्म हो सकता है लेकिन बच्चे फिलहाल स्कूल से दूर हैं।
बहरहाल भारत में जहाँ सरकारी शिक्षा पहले से ही बदहाल थी वहां इस महामारी के कारण बीते साल से ही स्कूल और कॉलेज बंद हैं तथा ऑनलाइन कक्षा और परीक्षा के नाम पर महज औपचारिकता निभाई जा रही हैं जिससे शिक्षा और परीक्षा दोनों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। स्कूलों में महामारी के नाम पर जारी ऑनलाइन कक्षाएं समाज में शिक्षा में असमानता की खाई को चौड़ी कर रही है। देश की सरकारें बीते एक साल से ऑनलाइन शिक्षा और परीक्षा की ढिंढोरा पीटते रही हंै लेकिन ये दावे की हकीकत कोसों दूर है। देश में 46 फीसदी छात्रों के पास वर्चुअल पढ़ाई और परीक्षा के लिए स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप आदि नहीं हैं तो 32 फीसदी छात्रों के पास इंटरनेट सुविधा नहीं है।
फलस्वरूप महज 30 से 40 फीसदी छात्र ही ऑनलाइन शिक्षा हासिल कर पा रहे हैं इन परिस्थितियों में शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धा के समान अवसर का अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है। कोरोना त्रासदी ने लाखों लोगों के हाथ से रोजगार छीन लिया है बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई और गरीबी जैसे कठिन हालतों के कारण वे अपने बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा दिलाने में असमर्थ हो रहे हैं। यह महामारी बालिका शिक्षा के राह में भी रोड़ा बन रही है, हालात यही रहे तो भविष्य में स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की संख्या में काफी इजाफा हो सकता है। इन परिस्थितियों में सोचनीय यह कि एक न एक दिन तो कोरोना महामारी खत्म हो जाएगा और देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां वापस पटरी पर लौट जाएंगी लेकिन शिक्षा का क्या होगा? क्योंकि वक्त का पहिया तो उल्टा नहीं घुमाया जा सकता और शिक्षा वक्त के पहिए पर ही घूमती है।
इस बीच अहम सवाल यह कि जब दुनिया भर के महामारी विशेषज्ञ और विश्व स्वास्थ्य संगठन पिछले साल से ही चेतावनी देते रहे कि यह महामारी अगले दो-तीन वर्षों तक नहीं जाएगी तब देश के शिक्षा बोर्ड और सरकारों ने क्या कदम उठाया? दरअसल इन संस्थानों के नीति नियंताओं ने महामारी की समस्या का हल तत्कालिक तौर पर ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल पाठ्यसामग्री को ही मानते हुए सिलेबस में तीस फीसदी कटौती कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली। जिम्मेदारों ने इन फैसलों के क्रियान्वयन में आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता , दिक्कतों तथा इसके दूरगामी परिणामों पर विचार ही नहीं किया। हालिया परिदृश्य में जब महामारी की मियाद तय नहीं है तब शिक्षण और परीक्षा की परंपरागत प्रणाली में बदलाव करने की जरुरत थी ताकि छात्र घर में ही ऑनलाइन और ऑफलाइन पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी कर सके। कोविड संक्रमण के मद्देनजर दसवीं और बारहवीं के मुख्य विषयों को शामिल करते हुए बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र यानि एमसीक्यू (ऑब्जेक्टिव टाइप क्वेश्चन्स )आधारित ओएमआर शीट पर लिया जाना संक्रमण से बचाव के लिये जरूरी सावधानी और मूल्यांकन के लिहाज से उचित होता। हालांकि अभी केंद्रीय बोर्डों ने इसी पैटर्न पर परीक्षा लेने का प्रस्ताव दिया था लेकिन ऐसे फैसले सत्र के शुरुआत में ही ले लेना था ताकि अभिभावक, शिक्षक और छात्र नये पैटर्न पर परीक्षा के लिए तैयार रहते।
गौरतलब है कि देश के तमाम प्रोफेशनल कोर्सेस में दाखिला और नौकरियों के लिए इसी पैटर्न पर परीक्षाएं ली जाती है लिहाजा यह व्यवस्था छात्रों के लिए उपयोगी और मददगार हो सकता था। बहरहाल शिक्षा से ही किसी राष्ट्र का समग्र विकास संभव है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की पूरी व्यवस्था आयु के अनुसार समयबद्ध ढांचे पर निर्भर है इसलिए यह आवश्यक है कि छात्र पढ़ाई और परीक्षा से वंचित न रहें। हालिया परिवेश में जब महामारी की मियाद और इसका सामाजिक व आर्थिक दुष्प्रभाव तय नहीं है तब सरकारों को आज के जरूरत के मुताबिक क्लास रुम, सिलेबस और परीक्षा प्रणाली सुनिश्चित करते हुए स्कूल-कालेजों को संचालित करने की दरकार है।
( लेखक, शासकीय आयुर्वेद कॉलेज रायपुर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली सरकार के गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल और शोध-संस्थान में केरल की नर्सों को लिखित आदेश दिया गया है कि वे अस्पताल में मलयालम में बातचीत न करें। वे या तो हिंदी बोलें या अंग्रेजी बोलें, क्योंकि दिल्ली के मरीज़ मलयालम नहीं समझते। नर्सों को यह भी कहा गया है कि इस आदेश का उल्लंघन करनेवालों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। जिस अफसर ने यह आदेश जारी किया है, क्या वह यह मानकर चल रहा है कि केरल की नर्सें दिल्ली के मरीजों से मलयालम में बात करती हैं ?
यह संभव ही नहीं है। किसी नर्स का दिमाग क्या इतना खराब हो सकता है कि वह मरीज से उस भाषा में बात करेगी, जो उसका एक वाक्य भी नहीं समझ सकता? ऐसा क्यों करेगी ? हमें गर्व होना चाहिए कि केरल के लोग काफी अच्छी हिंदी बोलते हैं। शर्म तो हम हिंदीभाषियों को आनी चाहिए कि हम मलयालम तो क्या, दक्षिण या पूरब की एक भी भाषा न बोलते हैं और न ही समझते हैं। पंत अस्पताल में लगभग 350 मलयाली नर्सें हैं। वे मरीजों से हिंदी में ही बात करती हैं। अगर वे अंग्रेजी में ही बात करने लगें तो भी बड़ा अनर्थ हो सकता है, क्योंकि ज्यादातर साधारण मरीज अंग्रेजी भी नहीं समझते। उन नर्सों का ‘दोष’ बस यही है कि वे आपस में मलयालम में बात करती हैं।
इस आपसी बातचीत पर भी यदि अस्पताल का कोई अधिकारी प्रतिबंध लगाता है तो यह तो कानूनी अपराध है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कानून का स्पष्ट उल्लंघन है। केरल की नर्सें यदि आपस में मलयालम में बात करती हैं तो इसमें किसी डॉक्टर या मरीज़ को कोई आपत्ति क्यों हो सकती है ? यदि पंजाब की नर्सें पंजाबी में और बंगाल की नर्सें बंगाली में आपसी बात करती हैं और आप उन्हें रोकते हैं, उन्हें हिंदी या अंग्रेजी में बात करने के लिए मजबूर करते हैं तो आप एक नए राष्ट्रीय संकट को जन्म दे रहे हैं। आप अहिंदीभाषियों पर हिंदी थोपने का अनैतिक काम कर रहे हैं। जिन अहिंदीभाषियों ने इतने प्रेम से हिंदी सीखी है, उन्हें आप हिंदी का दुश्मन बना रहे हैं। इसका एक फलितार्थ यह भी है कि किसी भी अहिंदीभाषी प्रांत में हिंदी के प्रयोग को हतोत्साहित किया जाएगा। यह लेख लिखते समय मेरी बात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से हुई और पंत अस्पताल में डॉक्टरों से भी। सभी इस आदेश को किसी अफसर की व्यक्तिगत सनक बता रहे थे। इसका दिल्ली सरकार से कोई संबंध नहीं है। मुख्यमंत्री केजरीवाल को बधाई कि इस आदेश को रद्द कर दिया गया है।
(लेखक, भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर सीएसई और डाउन टू अर्थ ने स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट इन फिगर्स 2021 रिपोर्ट जारी की
पिछले साल ग्रामीणों ने कोरोनावायरस संक्रमण से बचने के लिए बाहर के लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी थी। फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुरपिछले साल ग्रामीणों ने कोरोनावायरस संक्रमण से बचने के लिए बाहर के लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी थी। फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुर पिछले साल ग्रामीणों ने कोरोनावायरस संक्रमण से बचने के लिए बाहर के लोगों के आने पर पाबंदी लगा दी थी। फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुर
कोविड-19 (कोरोना) महामारी ने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को बुरी तरह बेनकाब कर दिया है। शहरी भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की बदतर स्थिति व कोरोना से लड़ने की उसकी तैयारियां सुर्खियों में रही है। वहीं ग्रामीण भारत के भीतरी इलाकों से जो परिदृश्य उभर कर आई, वो अत्यधिक चिंताजनक रही- यह बातें आज सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायरनमेंट एवं डाउन टू अर्थ पत्रिका द्वारा संयुक्त रूप से जारी की गई स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट एन फिगर्स 2021 रिपोर्ट में कही गई है।
रिपोर्ट बताती है कि- ग्रामीण भारत में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को 76 प्रतिशत अधिक डॉक्टरों, 56 प्रतिशत अधिक रेडियोग्राफरों और 35 प्रतिशत अधिक लैब तकनीशियनों की आवश्यकता है।
इस रिपोर्ट में वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से लेकर जैव विविधता, कोविड, कृषि और भूमि से लेकर पानी व कचरे तक कई महत्वपूर्ण विषयों को शामिल किया गया है।
पर्यावरण और विकास के आंकड़ों पर आधारित वार्षिक रिपोर्ट को सीएसई द्वारा आयोजित एक वेबिनार में जारी करते हुए केंद्र की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा, "यह संख्याओं का नाटक जैसा ही है, खासकर जब ये नंबर आपको एक ट्रेंड देती है और बताती है कि चीजें बेहतर या बदतर हो रही है।
यह और भी शक्तिशाली हो जाती है जब आप संकट, चुनौती और अवसर को समझने के लिए इन संख्याओं के ट्रेंड का उपयोग करते हैं।"
महामारी के संकेतक/ बिंदु
संख्या के माध्यम से महामारी के बारे में विश्लेषणात्मक रिपोर्ट तैयार किया गया है इसने कई अन्य दिलचस्प तथ्यों की एक श्रृंखला को सामने लाने में मदद की है।
डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक रिचर्ड महापात्रा कहते हैं: “एक महत्वपूर्ण जानकारी जो सामने आ रही है, वह यह है कि दूसरी लहर में, भारत विश्व स्तर पर सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है और ग्रामीण भारत, हमारे शहरी क्षेत्रों की तुलना में काफी बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
इस साल मई में, छह दिनों में दैनिक रूप से जो विश्व में संक्रमण के मामलों आये उसमें आधे से अधिक में अकेले भारत का योगदान था। संक्रमण अपने चरम पर दिखा क्योंकि ग्रामीण जिलों में संक्रमण के मामलों में काफी वृद्धि देखी गई। ”
महापात्रा आगे कहते हैं: "जलवायु संबंधी जोखिमों के साथ, संक्रामक रोग 2006 के बाद पहली बार प्रमुख वैश्विक आर्थिक खतरों की सूची में शामिल हुए हैं।"
बायोमेडिकल कचरा (वेस्ट) के भार की ओर इशारा करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि देश इस वक्त महामारी से जूझ रहा है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अप्रैल और मई 2021 के बीच कोविड-19 बायोमेडिकल कचरे के उत्सर्जन में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
वहीं दूसरी ओर इसके ट्रीटमेंट (प्रबंधन) में गिरावट आई है: 2019 में, भारत अपने 88 प्रतिशत बायोमेडिकल कचरे का ट्रीटमेंट करने में कामयाब रहा - हालांकि 2017 देश लगभग 93 प्रतिशत तक कचरे का ट्रीटमेंट स्वंय करता था।
देश में कुल आबादी का 3.12 प्रतिशत लोगों का पूरी तरह से टीकाकरण हो चुका है, टीकाकरण का वैश्विक औसत 5.48 प्रतिशत है। उस लिहाज से टीकाकरण में अभी भी कमी है।
महामारी के आर्थिक प्रभाव बहुत गंभीर रहे हैं - और रहेंगे। रिपोर्ट के प्रमुख लेखकों में से एक रजित सेनगुप्ता कहते हैं, "महामारी कमजोर ग्रामीण जिलों में फैल गई"इसका मतलब है कि देश को ठीक होने में अधिक समय लगेगा। इससे अगले साल सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर धीमी होने की आशंका है।" जबकि मई 2021 में शहरी बेरोजगारी दर लगभग 15 प्रतिशत तक पहुंच गई,
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का कार्यान्वयन में ढ़िलाई एवं भुगतान में काफी देरी देखी गई है। जम्मू और कश्मीर, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भुगतान में अधिकतम विलंब दर्ज किया गया है।
जलवायु परिवर्तन: एक ऐसा खतरा जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता
सीएसई की इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन पर विशेष जोर दिया गया है। नारायण कहती हैं: “जब हम एक ऐसे खतरनाक महामारी से जूझ रहे हैं, जो लोगों को दुर्बल बना देती है ऐसे में हम एक और स्पष्ट और वर्तमान की खतरे से मुंह नहीं मोर सकते हैं जो हमारे अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। वह खतरा है जलवायु परिवर्तन।हमारी रिपोर्ट का डेटा खतरे की भयावहता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।"
रिपोर्ट बताती है कि २००६ और २०२० के बीच की अवधि में १५ वर्षों में भारत में १२सबसे गर्म वर्ष दर्ज किए गए। यह रिकॉर्ड के रूप में सबसे गर्म दशक था। देश भर में मौसम अपने चरम पर रही और इससे जुड़ी हुई घटनाओं ने अपना कहर जारी रखा। इन आपदाओं के कारण आंतरिक विस्थापन के मामले और नुकसान के लिहाज से भारत का दुनिया में चौथा स्थान रहा।
नारायण कहती हैः: “ प्रवासियों से संबंधित बहुत ही कम आंकड़ें है – इसलिए जब भी लॉकडाउन लगाया जाता है तब शहरों से पलायन को लेकर जो स्थिति बनती है उसके संदर्भ में सरकार की तैयारी अपूर्ण रहती है। यह भी तथ्य है कि लोग अपने घरों से छोड़ कर – प्रवास को इसलिए जाते हैं क्योंकि उनके समक्ष जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनके समक्ष घोर आर्थिक और पारिस्थितिक संकट उत्पन्न हो जाती है और उन्हे अपना घर छोड़ना पड़ता है।”
वह आगे कहती हैं: "यह रिपोर्ट हमें बताती है कि 2020 में, दुनिया में 76 प्रतिशत आंतरिक विस्थापन जलवायु आपदाओं के कारण ही हुए ।
2008 और 2020 के बीच, बाढ़, भूकंप, चक्रवात और सूखे के कारण प्रति वर्ष लगभग 3.73 मिलियन लोग विस्थापित हुए ।
2020 में जो महत्वपूर्ण मौसम संबंधी घटनाएं घटी उसका सचित्रण इस नक्शा में किया गया है और दूसरे अर्थों में कहे तो यह देश की नई घटनाओं का मानचित्र (कार्टोग्राफी) है।
फिर इन सारे तथ्यों को जोड़ कर देखें तो फिर आपको पता चलेगा कैसे सरकारों ने इन तथाकथित प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई हेतु भारी मात्रा में खर्च की है और आपको समझ में आएगा कि कैसे इस तरह की हर घटना के साथ विकास के लाभांश को कैसे बर्बाद किया जा रहा है। ”
ग्लेशियरों के पिघलने से खतरा और बढ़ा
सीएसई पर्यावरण संसाधनों के कार्यक्रम निदेशक और रिपोर्ट के प्रमुख लेखक किरण पांडे के कहते हैं:
"39 ग्लेशियर हैं जिनके अपने क्षेत्र में गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है और ये सर्वाधिक आपदाग्रस्त क्षेत्रों में चिन्हांकित हैं हैं।" (डेटा कार्ड देखें)
रिपोर्ट में कहा गया है कि देश इसके संदर्भ में उपर्युक्त कार्रवाई करने में पिछड़ती दिख रही है।
अक्षय ऊर्जा
भारत का महत्वाकांक्षी अक्षय लक्ष्य, जो हरित होने की दिशा में एक सराहनीय कदम था, उसमें वो फिसल गया है जैसा दिखता है। भारत इस संदर्भ में अपने लक्ष्य के केवल 55 प्रतिशत ही पूर्ति कर पाया है, इस लिहाज से देखें तो भारत 2022 तक 175 GW नवीकरणीय क्षमता वाले संयत्र स्थापित कर लेगा ऐसा लगता ही नहीं है क्योंकि ये उसके करीब तक भी नहीं पहुंच पाया है। देश में 2021-22 तक कम से कम 50 सोलर पार्क स्थापित करने का भी लक्ष्य है। अब तक, उनमें से एक को भी चालू नहीं हो पाया है। (डेटा कार्ड देखें)
नारायण कहते हैं: " हम ऐसे समय और युग में है जहां हमारे पास आमतौर पर उपलब्ध डेटा की गुणवत्ता या तो खराब होती है -इसमें या तो आंकड़े अधिकतर गायब है, सार्वजनिक रूप से अनुपलब्ध है या तो उसकी गुणवत्ता संदिग्ध है – ऐसी परिस्थिति में इस तरह के अगर प्रमाणिक एवं गुणवत्ता युक्त संग्रह अगर मिल जाए तो वह बेहद मददगार हो सकता है, खासकर पत्रकारों के लिए।
डेटा की गुणवत्ता में सुधार तभी हो सकता है जब हम इसे नीति के लिए उपयोग करते हैं। चल रही महामारी का ही मामला लें। जरा सोचिए कि हमने इस पिछले एक साल में कितना नुकसान उठाया है क्योंकि हमारे पास परीक्षणों, या मौतों की संख्या, या सीरोलॉजिकल सर्वेक्षण, या वेरिएंट की जीनोमिक अनुक्रमण पर पर्याप्त या सटीक डेटा नहीं था। नीति निर्माण के लिए डेटा का होना महत्वपूर्ण होता है।
वह आगे कहती हैं: "डेटा संग्रह महत्वपूर्ण है - यह शासन करने की कला का हिस्सा है - लेकिन पूरे डेटा सेट को साझा किया जाना चाहिए उस पर काम किया जाना चाहिए ऐसा करना उतना ही महत्वपूर्ण भी है ताकि इसकी सकारात्मक आलोचना हो। ऐसा करने से इसका उपयोग बढ़ेगा और उत्तरोतर सुधार किया जा सकेगा।" (downtoearth.org.in)
-रमेश अनुपम
सन् 1885 में ठाकुर जगमोहन सिंह का स्थानांतरण शिवरीनारायण से रायपुर हो गया।उन्हें अब एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर पदोन्नत कर दिया गया था। उस जमाने में यह बहुत बड़ा पद माना जाता था।रायपुर में जिलाधीश कार्यालय से लगी हुई एक कॉलोनी को बहुत दिनों तक ई ए सी कॉलोनी कहा जाता था। संभवत: वहां एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के निवास होने के कारण ही ऐसा नामकरण पड़ गया होगा।
रायपुर आने के बाद उन्होंने अपने कालजयी उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’ की भूमिका लिखी। यह उपन्यास सर्वप्रथम सन 1888 में एजूकेशन सोसायटी प्रेस बायकुला, बॉम्बे से प्रकाशित हुआ।
‘श्यामा स्वप्न’ की भूमिका बहुत ऐतिहासिक है और चकित करने वाली भी। इस भूमिका के अंत में तारीख है, 25 दिसंबर 1885 और स्थान की जगह लिखा हुआ है रायपुर, छत्तीसगढ़।
सन् 1885 तक मध्यप्रदेश का ही कोई अस्तित्व नहीं था, सो ठाकुर जगमोहन सिंह द्वारा ‘श्यामा स्वप्न’ की भूमिका में छत्तीसगढ़ लिखना, क्या अपने आप में कम विस्मयजनक नहीं है ? क्या यह अपने आप में हमारे छत्तीसगढ़ के लिए एक महान गर्व की बात नहीं है ?
आज से एक सौ पैंतीस वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ की परिकल्पना करना और भूमिका में उसका उल्लेख करना , अपने आप में ही विलक्षण घटना है। संभवत: वे जानबूझकर अपने इस उपन्यास के माध्यम से संपूर्ण भारतवर्ष को छत्तीसगढ़ जैसी एक अज्ञात और सुंदर भूमि से परिचित करवाना चाहते थे?
अपने इस उपन्यास के द्वारा वे जैसे सारे देश को छत्तीसगढ़ की अपूर्व सुंदरता और यहां की रंग बिरंगी संस्कृति का दर्शन करवाना चाहते थे।
इस नैसर्गिक भूखंड के अनुपम सौंदर्य को, इसके रूप माधुर्य को अपने इस उपन्यास के माध्यम से जैसे पूरी दुनिया को दिखाना चाहते थे।
वे जबलपुर और कटनी के निकट स्थित विजयराघवगढ़ रियासत के राजकुमार थे, पर शायद जितना प्रेम, जितना अनुराग छत्तीसगढ़ की भूमि से वे किया करते थे, वैसा शायद अपने भूखंड बघेलखंड से भी वे नहीं करते रहे होंगे।
छत्तीसगढ़ की भूमि का जितना सुंदर और नयनाभिराम चित्रण ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपने इस उपन्यास ‘श्यामा स्वप्न’ में किया है, वैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है।
उनके इस वर्णन में छत्तीसगढ़ के प्रति उनके अटूट प्रेम और गहरे अनुराग को भी भली-भांति देखा तथा समझा जा सकता है।
किसी कवि ने भी छत्तीसगढ के इस सुंदर रूप का इतना सुंदर चित्रण या वर्णन नहीं किया होगा जितना ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपने इस दुर्लभ उपन्यास में किया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में ठाकुर जगमोहन सिंह की इन्हीं विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है-
‘प्राचीन संस्कृत साहित्य से अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूप-माधुर्य की जैसी सच्ची अनुभूति ठाकुर जगमोहन सिंह में थी, वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। ’
अब जरा ‘श्यामा स्वप्न’ के ‘प्रथम याम के स्वप्न’ में ठाकुर जगमोहन सिंह ने छत्तीसगढ़ का जो सुंदर चित्रण किया है, उसे देखिए और छत्तीसगढ़ के रूप-सौंदर्य की नयनाभिराम छवि को निरखिए-
‘मैं कहां तक इस सुंदर देश का वर्णन करूं कहीं कहीं कोमल कोमल श्याम- कहीं भयंकर और रूखे सूखे वन-कहीं झरनों का झंकार, कहीं तीर्थ के आकार-मनोहर दिखाते हैं। कहीं कोई बनैला जंतु प्रचंड स्वर से बोलता है-कहीं कोई मौन ही होकर डोलता है-कहीं विहंगमो का रोर कहीं निष्कुजित निकुंजों के छोर-कहीं नाचते हुए मोर..कहीं विचित्र तमचोर।’
सन् 1885 में ऐसी काव्यात्मक भाषा भारतेंदु युग के किसी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती है। जैसी ठाकुर जगमोहन सिंह के यहां दिखाई देती है।
सन् 1886 में स्वास्थ्य ने ठाकुर जगमोहन सिंह का साथ नहीं दिया इसलिए उन्होंने शासकीय सेवा से इस्तीफा दे देना मुनासिब समझा। 4 मार्च 1899 में मात्र बयालीस वर्ष की आयु में इस महान लेखक ने सुहागपुर में अंतिम सांसें ली।
उन्नीसवीं शताब्दी के नवें दशक में जब खड़ी बोली ठीक से अपने पावों पर खड़ी भी नहीं हो पाई थी। आधुनिक हिंदी साहित्य अभी ठीक से अपनी आंखें भी नहीं खोल पाया था और हिंदी उपन्यास का जन्म भी जब संभव नहीं हो पाया था। तब ठाकुर जगमोहन सिंह छत्तीसगढ़ की भूमि पर ‘श्यामा स्वप्न’ जैसे उपन्यास की रचना संभव कर रहे थे।
यह अलग बात है कि कुछ विद्वान सन 1882 में लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखित ‘परीक्षा गुरु’ को प्रथम हिंदी उपन्यास होने का गौरव प्रदान करते हैं। जबकि हिंदी का प्रथम उपन्यास का दर्जा तो ‘श्यामा स्वप्न’ को ही मिलना चाहिए था।
यह अपने आप में बेहद आश्चर्य की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश के साहित्यिक केंद्र इलाहाबाद, बनारस से कोसों दूर छत्तीसगढ़ में धूनी रमाए ठाकुर जगमोहन सिंह खड़ी बोली का एक नया इतिहास रच रहे थे।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की तरह वे बनारस में होते तो आज हिंदी साहित्य जगत में उनकी भी दुदुंभी बज रही होती। हिंदी साहित्य जगत आज उन्हें भी अपने सिर माथे पर उठाए घूम रहा होता।
यह हम सबका दुर्भाग्य है कि छत्तीसगढ़ को अपने हृदय में बसाए रखने वाले और छत्तीसगढ़ को पूरे देश में प्रतिष्ठा दिलाने वाले ठाकुर जगमोहन सिंह को हम सबने तथा छत्तीसगढ़ राज्य ने आज पूरी तरह से भूला दिया है ।
अगले रविवार हिन्दी पत्रकारिता का दीप स्तंभ माधव राव सप्रे..
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान और चीन का ताजा रवैया बहुत ही तारीफ के काबिल है लेकिन यह रवैया बहुत ही हैरान करने वाला भी है। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मो. हनीफ अतमार के साथ जो संवाद किया, उसमें साफ-साफ कहा कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी में जल्दबाजी न की जाए। यों तो ये फौजें 1 मई को लौटनी थीं लेकिन बाइडन ने इस तारीख को बढ़ाकर 11 सितंबर कर दिया है। पाकिस्तान और चीन उन देशों में से हैं, जो अमेरिकी और नाटो फौजों के अफगानिस्तान में रहने का घोर विरोध करते रहे हैं, क्योंकि उनके द्वारा पोषित तालिबान का उन्मूलन करना उनका मुख्य उद्देश्य रहा है। यदि पाकिस्तान का समर्थन और सक्रिय सहयोग नहीं होता तो क्या मुजाहिदीन और तालिबान काबुल पर कब्जा कर सकते थे? बबरक कारमल और नजीबुल्लाह को अपदस्थ करने में उस समय अमेरिका ने भी पाकिस्तान की सक्रिय सहायता की थी लेकिन इस्लामी आतंकवादियों द्वारा अमेरिका में किए गए हमलों ने सारा खेल उलट दिया।
अमेरिका ने तालिबान को काबुल से बेदखल कर दिया लेकिन पिछले 20 वर्षो में अफगान जनता द्वारा चुनी हुई हामिद करजई और अशरफ गनी सरकारों के विरुद्ध तालिबान की पीठ कौन ठोक रहा है? क्या पाकिस्तान की सक्रिय सहायता के बिना तालिबान जिंदा रह सकते हैं? तालिबान के जितने भी गुट हैं, वे सब पाकिस्तान में स्थित हैं। उनके नाम हैं। क्वेटा शूरा, पेशावर शूरा और मिरानशाह शूरा! पाकिस्तान अब खुले में तो तालिबान का विरोध करता है लेकिन उसने तालिबान को अपनी अफगान-नीति का मुख्य अस्त्र बना रखा है। इसके बावजूद उसे पता है कि गिलजई पठानों का यह संगठन अंततोगत्वा पाकिस्तान के पंजाबी शासकों को धता बता देगा। जो पठान अंग्रेजों, रूसियों और अमेरिकियों के हौंसले पस्त कर सकते हैं, वे पाकिस्तान के लिए भी बहुत बड़ा सिरदर्द बन सकते हैं। वे पख्तूनिस्तान की मांग फिर से जीवित कर सकते हैं। वे काबुल नहीं, पेशावर को अपनी राजधानी बनाना चाहेंगे।
पाकिस्तानियों को यह डर तो है ही और चीनियों को भी यह डर है कि यदि काबुल में तालिबान आ गए तो अफगानिस्तान से लगा हुआ उसका शिनच्यांग प्रांत अस्थिर हो जाएगा। शिनच्यांग के उइगर मुसलमानों को दबाना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए अब इन दोनों देशों के विदेश मंत्री घुमा-फिराकर तालिबानी सत्ता का विरोध कर रहे हैं। यदि इनका विरोध इतना ही प्रामाणिक है तो ये दोनों राष्ट्र अपने लाख-दो लाख सैनिक अफगानिस्तान क्यों नहीं भिजवा देते। वे वहां लोकतांत्रिक सरकार को कायम रखने में मदद क्यों नहीं करते। पाकिस्तान बहुत गंभीर पसोपेश में फंसा हुआ है। एक तरफ वह अमेरिकियों को काबुल में टिके रहने को कह रहा है और दूसरी तरफ उनकी वापसी के बाद वे अफगानिस्तान को जो हवाई सुरक्षा देना चाहते हैं, वह भी नहीं दे रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रेहान फ़ज़ल
अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले भिंडरांवाले ने जिन तीन पत्रकारों से बात की थी, उनमें से एक थे बीबीसी के मार्क टली. दूसरे थे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सुभाष किरपेकर और तीसरे थे मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय.
सीआरपीएफ़ ने ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू होने से चार दिन पहले यानी 1 जून को स्वर्ण मंदिर पर फ़ायरिंग शुरू कर दी थी.
2 जून को मार्क टली की भिंडरांवाले से आख़िरी मुलाक़ात हुई थी. उस वक्त वे अकाल तख़्त में बैठे हुए थे.
मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब 'अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल' में लिखते हैं, "जब मैंने भिंडरांवाले से फ़ायरिंग के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया. फ़ायरिंग की घटना बताती है कि सरकार स्वर्ण मंदिर का अपमान करने पर तुली हुई है और वो सिखों और उनके रहने के तरीके को बर्दाश्त नहीं कर सकती है. अगर सरकार ने मंदिर में घुसने की कोशिश की तो उसका माकूल जवाब दिया जाएगा."
वो इसके बाद लिखते हैं, "लेकिन उस दिन भिंडरांवाले सहज नहीं दिख रहे थे. ज़ाहिर है वो तनाव में थे. आमतौर से वो इंटरव्यू देना पसंद करते थे लेकिन उस दिन उन्होंने उखड़ कर कहा था, "आप लोग जल्दी कीजिए. मुझे और भी ज़रूरी काम करने हैं."
भिंडरांवाले को विश्वास था कि सेना अंदर नहीं आएगी
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सुभाष किरपेकर अकेले पत्रकार थे जो सेना के स्वर्ण मंदिर को घेर लिए जाने के बाद जरनैल सिंह भिंडरांवाले से मिले थे. तब भी जरनैल सिंह का मानना था कि सेना मंदिर के अंदर नहीं घुसेगी.
किरपेकर ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद छपी क़िताब 'द पंजाब स्टोरी' में लिखते हैं, "मैंने भिंडरांवाले से पूछा क्या सेना के सामने आपके लड़ाके कम नहीं पड़ जाएंगे? उनके पास बेहतर हथियार भी हैं."
"भिंडरांवाले ने तुरंत जवाब दिया था- भेड़ें हमेशा शेरों से ज़्यादा संख्या में होती हैं. लेकिन एक शेर हज़ार भेड़ों का सामना कर सकता है. जब शेर सोता है तो चिड़ियाँ चहचहाती हैं. लेकिन जब वो उठता है तो चिडियाँ उड़ जाती हैं."
"जब मैंने उनसे पूछा कि आपको मौत से डर नहीं लगता तो उनका जवाब था- कोई सिख अगर मौत से डरे तो वो सच्चा सिख नहीं है."
"भिंडरांवाले के बगल में स्वर्ण मंदिर की सुरक्षा की योजना बनाने वाले मेजर जनरल शहबेग सिंह भी खड़े थे. जब मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या उम्मीद है, एक्शन कब शुरू होगा? तो उन्होंने जवाब दिया शायद 'आज रात ही."
इमेज स्रोत,RAGHU RAI
भिंडरांवाले की लाल सुर्ख़ आँखें
मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय ने मुझे बताया था कि वो भिंडरांवाले से उनकी मौत से एक दिन पहले मिले थे.
रघु राय ने कहा, "उन्होंने मुझसे पूछा तू यहाँ क्यों आया है?"
"मैंने कहा पाजी मैं आपसे मिलने आया हूँ. मैं तो आता ही रहता हूँ."
"उन्होंने फिर पूछा अब क्यों आया है तू?"
"तो मैंने जवाब दिया 'देखने के लिए कि आप कैसे हैं.' मैं देख सकता था कि उनकी आँखे लाल सुर्ख़ थीं. मैं उनमें गुस्सा और डर दोनों पढ़ पा रहा था."
इमेज स्रोत,UBS PUBLISHERS
पकड़ा गया चरमपंथी सैनिकों को भिंडरांवाले के शव के पास ले गया
6 जून को दोपहर चार बजे से लाउडस्पीकर से लगातार घोषणाएं की जा रही थीं कि जो चरमपंथी अभी भी कमरों या तयख़ानों में हैं, बाहर आकर आत्मसमर्पण कर सकते हैं.
लेकिन तब तक भिंडरांवाले का कोई पता नहीं था.
इमेज स्रोत,VIKAS PUBLISHING
स्वर्ण मंदिर के ऊपर चढ़े सिख चरमपंथी
ऑपरेशन ब्लूस्टार के कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल बुलबुल बरार अपनी क़िताब 'ऑपरेशन ब्लूस्टार द ट्रू स्टोरी' में लिखते हैं, "जब 26 मद्रास रेजिमेंट के जवान अकाल तख़्त में घुसे तो उन्होंने दो चरमपंथियों को भागने की कोशिश करते पाया. उन्होंने उन पर गोली चलाई."
"उनमें से एक व्यक्ति तो मारा गया लेकिन दूसरे शख़्स को उन्होंने पकड़ लिया. उससे जब सवाल किए गए तो उसने सबसे पहले बताया कि भिंडरांवाले अब इस दुनिया में नहीं हैं. फिर वो हमारे सैनिकों को उस जगह ले गया जहाँ भिंडरांवाले और उनके 40 अनुयायियों की लाशें पड़ी हुई थीं."
"थोड़ी देर बाद हमें तयख़ाने में जनरल शहबेग सिंह की भी लाश मिली. उनके हाथ में अभी भी उनकी कारबाइन थी और उनके शरीर के बगल में उनका वॉकी-टॉकी पड़ा हुआ था."
बाद में जब मैंने जनरल बरार से बात की तो उन्होंने मुझे बताया, "अचानक तीस चालीस लोगों ने बाहर निकलने के लिए ने दौड़ लगाई. तभी मुझे लग गया कि भिंडरांवाले नहीं रहे, क्योंकि तभी अंदर से फ़ायरिंग होनी भी बंद हो गईं."
"तब हमने अपने जवानों से कहा कि अंदर जा कर तलाशी लो. तब जा कर हमें उनकी मौत का पता लगा. उसके बाद उनके शव को उत्तरी विंग के बरामदे में ला कर रखा गया जहाँ पुलिस, इंटेलिजेंस ब्यूरो और हमारी हिरासत में आए चरमपंथियों ने उनकी शिनाख़्त की."
इमेज स्रोत,ROLI BOOKS
फ़र्श में दो इंच तक कारतूस ही कारतूस
ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद प्रकाशित हुई क़िताब 'द पंजाब स्टोरी' में शेखर गुप्ता लिखते हैं, "अफ़सरों ने मुझे बताया कि जब वो लोग अकाल तख़्त के अंदर घुसे तो पूरे इलाक़े में बारूद की गंध भरी हुई थी और दो इंच तक फ़र्श इस्तेमाल हो चुके कारतूसों से पटा पड़ा था."
"कुछ अफ़सर तो इस बात को लेकर अचंभे में थे कि चरमपंथी इतनी ज़्यादा फ़ायरिंग कैसे कर पाए. ऑटोमेटिक फ़ायरिंग आप लगातार नहीं कर सकते, क्योंकि आपके हथियार में समस्या उठ खड़ी होती है और अगर आप बीच में अंतराल न रखे तो कभी-कभी तो बंदूक की नाल भी गर्म हो और कभी-कभी पिघल तो वो भी जाती है."
"अगर भारतीय सेना के जवान इस तरह की भीषण फ़ायरिंग करते तो उन्हें कारतूस बर्बाद करने के लिए अपने अफ़सरों की डाँट खानी पड़ सकती थी. भारतीय सेना के अफ़सरों ने मुझे बताया कि कई चरमपंथियों के कंधों पर नीले निशान थे जो बताता था कि उनमें तर्कसंगत होने की कमी भले ही हो लेकिन उनके जोश में कोई कमी नहीं निकाली जा सकती थी."
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अमरीक सिंह और भिंडरांवाले
ज्ञानी प्रीतम सिंह ने भिंडरांवाले को देखा
भिंडरांवाले के आख़िरी क्षणों का वर्णन दो जगह पर मिलता है.
अकाल तख़्त के तत्कालीन जत्थेदार किरपाल सिंह ने अपनी क़िताब 'आई विटनेस अकाउंट ऑफ़ ऑपरेशन ब्लूस्टार' में अकाल तख़्त के प्रमुख ग्रंथी ज्ञानी प्रीतम सिंह को कहते हुए बताया हैं "मैं तीन सेवादारों के साथ अकाल तख़्त के उत्तरी किनारे में बैठा हुआ था. क़रीब 8 बजे फ़ायरिंग थोड़ी कम हुई तो मैंने संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले को अपने कमरे के पास शौचालय की तरफ़ से आते देखा. उन्होंने नल में अपने हाथ धोए और वापस अकाल तख़्त की तरफ़ लौट गए."
"क़रीब साढ़े आठ बजे भाई अमरीक सिंह ने अपने हाथ धोए और हम सब को सलाह दी कि हम सब लोग निकल जाएं. जब हमने उनसे उनकी योजना के बारे में पूछा. उन्होंने मुझे बताया कि संत तयख़ाने में हैं. पहले उन्होंने 7 बजे शहीद होना तय किया था लेकिन फिर उन्होंने उसे साढ़े नौ बजे तक स्थगित कर दिया था."
"फिर मैंने संत के लोगों से लोहे के दरवाज़े की चाबी ली और अपने 12 साथियों के साथ बोहार वाली गली में निकल आया और दरबार साहब के एक दूसरे सेवादार भाई बलबीर सिंह के घर में शरण ली."
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भिंडरांवाले की अंतिम प्रार्थना
एक और क़िताब 'द गैलेंट डिफ़ेंडर' में ए आर दरशी अकाल तख़्त के सेवादार हरि सिंह को बताते हैं, "मैं 30 लोगों के साथ कोठा साहब में छिपा हुआ था. 6 जून को क़रीब साढ़े सात बजे भाई अमरीक सिंह वहाँ आए और हमसे कहा कि हम कोठा साहब छोड़ दें क्योंकि अब सेना के लाए गए टैंकों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता."
"कुछ मिनटों बाद संत भिंडरांवाले अपने 40 समर्थकों के साथ कमरे में दाख़िल हुए. उन्होंने गुरुग्रंथ साहब के सामने बैठ कर प्रार्थना की और अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए कहा जो लोग शहादत लेना चाहते हैं, मेरे साथ रुक सकते हैं. बाकी लोग अकाल तख़्त छोड़ दें."
भिंडरांवाले की जाँघ में गोली लगी
जब भिंडरांवाले मलबे पर पैर रखते हुए अकाल तख़्त के सामने की तरफ़ गए तो उनके पीछे उनके 30 अनुयायी भी थे. जैसे ही वो आँगन में निकले उनका सामना गोलियों से हुआ.
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सतीश जैकब और मार्क टली
मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब 'अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल' में लिखते हैं, "बाहर निकलते ही अमरीक सिंह को गोली लगी लेकिन कुछ लोग आगे दौड़ते ही चले गए. फिर फ़ायर का एक और बर्स्ट-सा आया जिससे भिंडरांवाले के 12 या 13 साथी धराशाई हो गए."
"मुख्य ग्रंथी प्रीतम सिंह भी उस कमरे में छिपे हुए थे. अचानक कुछ लोगों ने अंदर आ कर कहा कि अमरीक सिंह शहीद हो गए हैं. जब उनसे संत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्होंने उन्हें मरते हुए नहीं देखा है."
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स्वर्ण मंदिर में देश के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह
मार्क टली और सतीश जैकब लिखते हैं, "राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के सलाहकार रहे त्रिलोचन सिंह को अकाल तख़्त के एक ग्रंथी ने बताया था कि जब भिंडरांवाले बाहर आए थे तो उनकी जाँघ में गोली लगी थी."
"फिर उनको दोबारा भवन के अंदर ले जाया गया. लेकिन किसी ने भी भिंडरांवाले को अपनी आँखों के सामने मरते हुए नहीं देखा."
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क्षतिग्रस्त अकाल तख्त
अकाल तख़्त के आँगन में शव मिलने पर विवाद
एक और ग्रंथी ज्ञानी पूरन सिंह को सैनिकों ने बताया था कि उन्हें भिंडरांवाले और अमरीक सिंह के शव सात तारीख़ की सुबह अकाल तख़्त के आँगन में मिले थे.
स्वर्ण मंदिर के बरामदे में इन तीनों के शव की तस्वीरें हैं. इनमें से एक तस्वीर में ये साफ़ दिखाई देता है कि शहबेग सिंह की बाँह में रस्सी बँधी हुई है जिससे पता चलता है कि उनके शव को अकाल तख़्त से खींच कर बाहर लाया गया था.
ये भी हो सकता है कि वे सैनिक सिर्फ़ ये बताना चाह रहे हों कि उन्होंने शवों को अकाल तख़्त के सामने देखा था और उनको ये पता ही न हो कि शव पहले कहाँ पाए गए थे.
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भिंडरांवाले के शव की शिनाख़्त
भिंडरांवाले की मौत 6 जून को ही हो गई थी. मार्क टली और सतीश जैकब अपनी क़िताब 'अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटल' में लिखते हैं, "जब एक अफ़सर ने बरार को सूचना दी कि भिंडरांवाले का किला ढह गया है तो उन्होंने एक गार्ड की ड्यूटी वहाँ लगा दी."
"उन्होंने प्राँगण की तलाशी लेने के लिए सुबह होने का इंतज़ार किया. 7 जून की सुबह तलाशी के दौरान भिंडरांवाले, शहबेग सिंह और अमरीक सिंह के शव तयख़ाने में मिले."
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ब्रिगेडियर ओंकार एस गोराया
ब्रिगेडियर ओंकार एस गोराया भी अपनी क़िताब 'ऑपरेशन ब्लूस्टार ऐंड आफ़्टर ऐन आइविटनेस अकाउंट' में लिखा हैं, "भिंडरांवाले के शव की सबसे पहले शिनाख़्त डीएसपी अपर सिंह बाजवा ने की."
"मैं भी बर्फ़ की सिल्ली पर लेटे हुए जरनैल सिंह भंडरावाले के शव को पहचान सकता था, हालांकि पहले मैंने उन्हें कभी जीवित नहीं देखा था. उनका जूड़ा खुला हुआ था और उनके एक पैर की हड्डी टूटी हुई थी. उनके जिस्म पर गोली के कई निशान थे."
भिंडरांवाले का अंतिम संस्कार
भिंडरांवाले के शव का अंतिम संस्कार 7 जून की शाम को साढ़े सात बजे किया गया.
मार्क टली लिखते हैं, "उस समय मंदिर के आसपास क़रीब दस हज़ार लोग जमा हो गए थे लेकिन सेना ने उनको आगे नहीं बढ़ने दिया. भिंडरांवाले, अमरीक सिंह और दमदमी टकसाल के उप प्रमुख थारा सिंह के शव को मंदिर के पास चिता पर रखा गया."
"चार पुलिस अधिकारियों ने भिंडरांवाले के शव को लॉरी से उठाया और सम्मानपूर्वक चिता तक लाए. एक अधिकारी ने मुझे बताया कि वहाँ मौजूद बहुत से पुलिसकर्मियों की आँखों में आँसू थे."
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जनरल शहबेग सिंह
शहबेग सिंह के बेटे को अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति नहीं
जनरल शहबेग सिंह का शव भी अकाल तख़्त के तयख़ाने में पाया गया था. संभव है कि वो 5 या 6 जून की रात को ही घायल हो गए हों.
जब शहबेग सिंह के बेटे प्रबपाल सिंह ने पंजाब के राज्यपाल को फ़ोन कर अपने पिता के अतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति माँगी तो राज्यपाल ने कहा हज़ारों और लोग भी अंतिम संस्कार में शामिल होने का अनुरोध कर रहे हैं. अगर उन्होंने शहबेग सिंह के बेटे को ये अनुमति दी तो उन्हें अन्य लोगों को भी अनुमति देनी पड़ेगी.
जब प्रबपाल सिंह ने कहा कि क्या उन्हें उनकी अस्थियाँ मिल सकती हैं तो राज्यपाल का जवाब था, उन्हें भारत की पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाएगा.
शहबेग सिंह के अंतिम संस्कार का कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं मिलता.
ऑपरेशन ब्लूस्टार का नेत़ृत्व करने वाले तीन चोटी के जनरलों में से दो सिख थे. एक पश्चिमी कमान के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल रंजीत सिंह दयाल और दूसरे नवीं इनफ़ेंट्री डिवीज़न और स्वर्ण मंदिर में घुसने वाली सेना के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार. इन दोनों ने पश्चिमी कमान के प्रमुख जनरल सुंदर जी के साथ मिल कर ऑपरेशन ब्लू स्टार की योजना बनाई थी. तब थल सेनाध्यक्ष जनरल एएस वैद्य थे.
भिंडरांवाले के जीवित रहने की अफ़वाह
भिंडरांवाले का अंतिम संस्कार हो जाने के बावजूद कई दिनों तक ये अफ़वाह फैली रही कि वे जीवित हैं.
जनरल बरार ने मुझे बताया, "कहानियां अगले ही दिन शुरू हो गई थीं कि भिंडरांवाले उस दिन सुरक्षित निकल गए थे और पाकिस्तान पहुँच गए थे. पाकिस्तान का टेलीविज़न अनाउंस कर रहा था कि भिंडरांवाले हमारे पास हैं और 30 जून को हम उन्हें टेलीविज़न पर दिखाएंगे."
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ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में इंदिरा गांधी
"मेरे पास सूचना और प्रसारण मंत्री एच के एल भगत और विदेश सचिव एमके रस्गोत्रा के फ़ोन आए कि आप तो कह रहे हैं कि भिंडरांवाले की मौत हो गई है लेकिन पाकिस्तान कह रहा है कि वो उनके यहाँ हैं."
"मैंने उन्हें बताया उनके शव की पहचान हो गई है. उनका शव उनके परिवार को दे दिया गया है और उनके समर्थकों ने आ कर उनके पैर छुए हैं."
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ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद स्वर्ण मंदिर की सफाई करते सैनिक
पंजाब के गाँवों में रहने वाले लोगों ने 30 जून का बहुत बेसब्री से इंतज़ार किया. उन्हें उम्मीद थी कि वो अपने हीरो को टीवी पर साक्षात देख पाएंगे लेकिन उनकी ये मुराद पूरी नहीं हुई.
जनरल बरार अपनी क़िताब 'ऑपरेशन ब्लूस्टार द ट्रू स्टोरी' में स्वीकार करते हैं, "मैंने भी कौतुहलवश उस रात अपना टेलीविज़न ऑन किया क्योंकि इस तरह की अफ़वाहें थीं कि भिंडरांवाले की शक्ल से मिलते-जुलते किसी शख़्स को प्लास्टिक सर्जरी कर पाकिस्तानी टीवी पर दिखाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं."
-सुनीता नारायण
महामारी के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल है। अपार मानवीय पीड़ा और हानि के इस समय में पर्यावरण की आखिर क्या बिसात है? लेकिन आइए इस विषय में सोचने के लिए हम थोड़ा समय निकालें। पिछले एक महीने में हमें जिस चीज की कमी सर्वाधिक खली वह था ऑक्सीजन। आइए हम उन दिनों एवं घंटों के बारे में सोचें जो हमने अपने प्रियजनों के लिए ऑक्सीजन खोजने में बर्बाद किए। अस्पतालों की ऑक्सीजन की टंकियां खाली होने के कारण कई मरीजों की जानें चली गईं। हालात यहां तक पहुंच गए कि देशभर के उद्योगों से ऑक्सीजन के परिवहन को विनियमित करने के लिए अदालतों को संज्ञान लेना पड़ा। यह वह दौर था जब हमें ऑक्सीजन कनसेन्ट्रेटर के व्यवसाय के बारे में पता चला।
यह एक ऐसा यंत्र है जो हवा को अंदर खींचता है और हमें आवश्यकतानुसार ऑक्सीजन देता है। हमने लोगों को एक-एक सांस के लिए तरसते देखा है और हम इसकी कीमत का अनुभव कर चुके हैं। अत: हमें विश्व पर्यावरण दिवस के इस अवसर पर इन चीजों को याद रखने की आवश्यकता है। प्रकृति से हमें जो ऑक्सीजन मिलती है, वह हरित आवरण को बढ़ाने और हवा, यानि हमारी हर एक सांस को प्रदूषित न करने पर आधारित है। यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हम बात तो अवश्य करते हैं लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाते।
हर साल 5 जून को मनाए जाने वाले इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस का विषय पारिस्थितिकी तंत्र की मरम्मत है। वृक्षों के घनत्व में वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की देखभाल के फलस्वरूप हमारी धरती कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करके ऑक्सीजन रिलीज करने में सफल हो पाएगी। यह गैस हमारे वातावरण को लगातार भरे जा रही है और जलवायु परिवर्तन की समस्या को भयावह बना रही है। हमें यह समझने की जरूरत है कि पेड़ लगाने या पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने के लिए हमें पहले प्रकृति और समाज के साथ अपने संबंधों को बहाल करना होगा। तथ्य यह है कि पेड़ मुख्यत: भूमि पर आधारित होते हैं। कौन इसका मालिक है? कौन इसकी रक्षा करता है और कौन उसे पुनर्जीवित करता है? उपज पर अधिकार किसका होता है यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारत में, वन विभाग के पास सामान्य वन भूमि के विशाल क्षेत्रों का ‘वामित्व’ है। लेकिन भारत जैसे देशों में ’जंगल’ नहीं है।
इसके बजाय, हमारे पास ऐसे आवास हैं जहां लोग जंगलों में जंगली जानवरों के साथ रहते हैं। ये वही वन जिले हैं जिन्हें सबसे पिछड़े और सबसे गरीब के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह भी सच है कि तमाम कानूनी एवं प्रशासनिक और कभी-कभी बाहुबल का इस्तेमाल करते हुए हमारे देश का वन विभाग ग्रीन कवर को बरकरार रखने में कुछ हद तक सक्षम रहा है। यह विभाग लोगों और उनके जानवरों को जंगलों से बाहर रखने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत करता है। निचले पायदान पर आने वाले संतरियों से लेकर शीर्ष नौकरशाहों के बीच फाइलों के आदान-प्रदान की गति को धीमा करके खदानों एवं बांधों जैसी च्च्विकास परियोजनाओंज्ज् के लिए पेड़ों की कटाई को भी यह विभाग भरसक रोकता है ।
वृक्ष लगाने के लिए इसके प्रबंधन का स्वामित्व लेने की आवश्यकता होती है ताकि पौधों को नुकसान न पहुंचे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पेड़ों का एक मूल्य होता है, चाहे उनकी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए या लकड़ी के लिए जिसका उत्पादक को भुगतान करने की आवश्यकता होती है। यह एक वृक्ष आधारित नवीकरणीय भविष्य की तैयारी होगी, जहां लकड़ी का उपयोग घर बनाने और ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जा सकता है। यह एक सदाबहार क्रांति होगी जो गरीबों के हाथ में पैसे देने के साथ-साथ आजीविका एवं ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करके जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करेगी। आज पूरी दुनिया प्रकृति आधारित समाधानों के बारे में बात कर रही है, जिनका मैंने ऊपर वर्णन भी किया है लेकिन यह गरीब समुदाय को समाधान के केंद्र में रखे बिना किया जा रहा है।
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है। यह लैन्ड टेन्यर की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बारे में है, सबसे बेजुबान और हाशिए पर खड़े लोगों की ताकत और इंसानों की कीमत पर वनों की रक्षा के बारे में भी। इस योजना में भूमि और श्रम के मूल्य का भुगतान हवा से कार्बन डाईऑक्साइड को कम करने के सबसे सस्ते विकल्पों के संदर्भ में नहीं बल्कि उस आजीविका के संदर्भ में किया जाना चाहिए जो यह समाधान प्रदान करेगा। इससे सस्ते कार्बन ऑफसेट खरीदने का पूरा विचार अव्यवहारिक हो जाएगा। इसके अलावा एक और चुनौती जो है वह यह है कि हम हर सांस के साथ ऑक्सीजन न लेकर जहर खींच रहे हैं। हम हर साल इस पर चर्चा करते हैं जब सर्दी आती है और प्रदूषण भारी हवा और नमी की वजह से वातावरण में फंस जाता है। तब हमें इसकी भयवाहता महसूस होती है।
हम हताशा में चिल्लाते हैं। लेकिन फिर हम भूल जाते हैं। इसलिए,जैसे ही इस साल सर्दी समाप्त हुई, भारत सरकार ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के नियम बदल दिए, जिससे उन्हें प्रदूषण फैलाने में असुविधा न हो। सीधे शब्दों में कहें तो आप गैर-अनुपालन के लिए भुगतान कर सकते हैं और यह जुर्माना प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों पर आपके द्वारा किए जाने वाले खर्च से कम होगा। बिजली कंपनियों के लिए ऑक्सीजन और बाकी लोगों के लिए दमघोंटू सांसें, नियम कुछ ऐसे ही हैं।
हमारे ऑक्सीजन को एक सिलेंडर में या एक ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मशीन द्वारा सुरक्षित नहीं किया जा सकता है। मुझे संदेह है कि हर अमीर भारतीय अब इसे खरीदेगा और रखेगा। इसे एयर प्यूरीफायर से भी सुरक्षित नहीं किया जा सकता है जिसे हमने पहले ही अपने घरों और कार्यालयों में खरीदा और स्थापित किया है। इसके बजाय, ऑक्सीजन को हमें इसे अपनी दुनिया की सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण जीवन-समर्थन प्रणाली के रूप में महत्व देना चाहिए।
इसलिए, इस विश्व पर्यावरण दिवस पर जब महामारी के कहर ने हमें क्रोधित और हताश छोड़ दिया है, आइए अब समय बर्बाद करना बंद करें। आज हम पहले से कहीं बेहतर तरीके से जानते हैं कि बात करने से जान नहीं बचती है। हमें इन बातों पर अमल भी करना होगा। हरित और अधिक समावेशी कल के लिए इस लड़ाई में ऑक्सीजन हमारी वैश्विक पीड़ा है। यह हमारे अस्तित्व की लड़ाई है, इससे कम कुछ नहीं। (downtoearth.org.in)
-अशोक पांडेय
बीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश फौजियों के बीच एक शब्द लोकप्रिय हुआ-टॉमी एटकिन्स। किसी भी औसत, बेचेहरा और मामूली लगने वाले सिपाही को इस नाम से पुकारा जाता था। पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद अमरीका के फ्लोरिडा में उगने वाली आम की एक प्रजाति को टॉमी एटकिन्स का नाम दिया गया। लंबी शेल्फ लाइफ के चलते इस साधारण प्रजाति का ऐसा प्रसार-प्रचार हुआ कि आज अमेरिका, कनाडा और इंग्लैण्ड में खाए जाने वाले आमों का कुल 80 फीसदी टॉमी एटकिन्स होता है।
कितनी उबाऊ बात है!
अपने यहाँ सफेदा है, चुस्की है, दशहरी है, कलमी है, चौसा है। कितनी तरह के तो आम हैं और ऊपर बताये गए नामों की तुलना में कैसे और भी उनके दिलफरेब नाम - मधुदूत, मल्लिका, कामांग, तोतापरी, कोकिलवास, जरदालू, कामवल्लभा। अनुमान है भारत में ग्यारह सौ से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। गौतम बुद्ध के चमत्कारों से लेकर श्रीलंका में पत्तिनिहेला की लोकगाथाओं तक और ज्योतिषशास्त्र की गणनाओं से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र तक आम का जिक्र मिलता है। पत्तिनिहेला के मुताबिक़ तो सुन्दर स्त्रियों की उत्पत्ति आम के फल के भीतर से हुई थी। कालिदास के यहाँ तो बिना आम और उसके बौरों के आधी उपमाएं पूरी नहीं होतीं। फिर पता नहीं क्या हुआ हजारों सालों की समृद्ध विरासत के बावजूद हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा से आम गायब है।
आम को असल मोहब्बत आधुनिक उर्दू शायरों ने की। मिर्जा गालिब का आम-प्रेम और आम न खाने वालों की गधे से बराबरी करने वाला वह किस्सा सबने सुना है। बताते हैं गर्मियों के उरूज पर मिर्जा गालिब की खस्ताहाल हवेली का सहन दारू की खाली बोतलों और आम की गुठलियों से भर जाया करता।
सबसे पहली बात तो यह कि आम के साथ सामूहिकता और यारी-दोस्ती हमेशा जोड़ कर देखी जाती रही। जिनके घर आम होते थे वे दूसरों के घर आम भेजते थे। फिर ये दूसरे वाले पहले के घर वापस आम भिजवाते। पहले के यहाँ दशहरी का बाग था दूसरों के यहाँ चौसे का। शहरों के बीच की दूरियां मायने नहीं रखती थीं। किस्सा है अकबर इलाहाबादी ने अल्लामा इकबाल के लिए आम भिजवाये। वह भी अपने नगर से साढ़े नौ सौ किलोमीटर दूर लाहौर। उस जमाने में सडक़ के रास्ते थे और आने-जाने के साधन बहुत कम। आम सलामत पहुंचे तो चचा ने शेर लिखा -
असर ये तेरे अन्फासे मसीहाई का है अकबर,
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा
यानी तूने आमों के ऊपर अपनी मसीहाई का ऐसा मंतर फूंका कि माल बिना खराब हुए आराम से ठिकाने पर पहुँच गया। यही अकबर अपने एक दोस्त से किस बेशर्मी से आम मांग भी लेते थे-
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा जरूर हो कि उन्हें रख के खा सकूॅं
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस खाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
शायरों के बीच आम की इतनी विविधताओं के बीच जिस नाम ने खूब नाम हासिल किया वह था लंगड़ा। ऐसा इसलिए हुआ कि इस शब्द के दो मायने निकलते हैं। तभी तो सागर खय्यामी ने कहा-
आम तेरी ये खुश-नसीबी है
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है
भारतीय इतिहास में तैमूर लंग को उसके पैरों के दोष के कारण अधिक, अपने कारनामों के लिए कम ख्याति मिली। कहते हैं उसने नाम के चलते इस स्वादिष्ट आम का अपने महल में प्रवेश बंद करवा रखा था। शायरी ने इसे यूँ दर्ज किया-
तैमूर ने कस्दन कभी लंगड़ा न मंगाया
लंगड़े के कभी सामने लंगड़ा नहीं आया
आमों का मौसम आता है तो दो किताबें अपने आप अलमारी से आप मेरे सिरहाने पहुँच जाती हैं - एलेन सूसर की ‘द ग्रेट मैंगो बुक’ और एडम गॉलनर की ‘द फ्रूट हन्टर्स’। इस मौसम में मेरे बेहद करीबी और फलों के कारोबारी असगर अली कोई तीन माह तक मुझे एक से बढक़र एक तमाम तरह के आम चखाते हैं। आजकल सफेदा आ रहा है, दो एक हफ्ते में कलमी आ जाएगा। दशहरी, लंगड़ा, चौसा वगैरह से होता हुआ यह क्रम तोतापरी, बम्बइया और मल्लिका तक चलेगा।
लखनऊ से हर साल मलीहाबादी दशहरी की पेटी लेकर आने वाले मेरे अजीज बड़े भाई विनोद सौनकिया अक्सर एक मच्छर-विरोधी शेर सुनाते हैं -
उठाएं लुत्फ वो बरसात में मसहरी के
जिन्होंने आम खिलाये हमें दशहरी के
खुद अपने लिए कोई आदमी इससे बड़ी दुआ क्या करेगा!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में राजद्रोह एक मजाक बनकर रह गया है। अभी तीन-चार दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र के एक सांसद के खिलाफ लगाए राजद्रोह के मुकदमे के धुर्रे बिखेरे थे। अब राजद्रोह को दो मामलों पर अदालतों की राय सामने आई है। सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकार विनोद दुआ के मामले में और बाबा रामदेव के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन दोनों पर राजद्रोह का मुकदमा ठोकने वालों की खूब खबर ली है।
जो लोग किसी पर भी राजद्रोह का मुकदमा ठोक देते हैं, उन्हें या तो राजद्रोह शब्द का अर्थ पता नहीं है या वे भारत के संविधान की भावना का सम्मान करने की बजाय अंग्रेजों के राज की मानसिकता में जी रहे हैं। उन्होंने अपने अहंकार के फुग्गे में इतनी हवा भर ली है कि वह किसी के छूने भर से फटने को तैयार हो जाता है। विनोद दुआ और रामदेव का अपराध क्या है ? दुआ ने मोदी की आलोचना ही तो की थी, शाहीन बाग धरने और कश्मीर के सवाल पर और रामदेव ने एलोपेथी को पाखंडी-पद्धति ही तो कहा था। इसमें राजद्रोह कहां से आ गया ?
क्या इन दोनों के बयान से सरकारों का तख्ता-पलट हो रहा है या कोई सांप्रदायिक या जातीय हिंसा फैल रही है ? या रामदेव के बयान से क्या हमारे देश के लाखों डाक्टर बेरोजगार हो रहे हैं? दुआ और रामदेव के बयानों से आप पूरी तरह असहमत हो सकते हैं, उन्हें गलत मान सकते हैं, उन पर आप दुराग्रही होने का आरोप भी लगा सकते हैं और उनकी आप भर्त्सना करने के लिए भी स्वतंत्र हैं लेकिन उनके विरुद्ध आपका अदालत में जाना एकदम हास्यास्पद है।
बयान को टक्कर देना चाहते हैं तो आप बयान से दीजिए। तर्क को तर्क से काटिए। तार्किक को अदालत में घसीटना तो आपके दिमागी दिवालियापन पर मोहर लगाता है। विनोद दुआ ने दर्जनों बार टीवी पर मुझे इंटरव्यू किया है। हमारी घनघोर असहमति के बावजूद हमारे बीच कभी भी अप्रिय संवाद नहीं हुआ। दुआ हमेशा पत्रकार की मर्यादा और गरिमा का पालन करते रहे। वे आजकल काफी अस्वस्थ हैं। मैं उनके स्वास्थ्य-लाभ की कामना करता हूं।
जहां तक रामदेव का सवाल है, इस चिर-युवा संन्यासी ने करोड़ों भारतीयों और विदेशियों के जीवन में अपने योग और आयुर्वेद के द्वारा नई रोशनी भर दी है। क्या हम किसी अन्य भारतीय संन्यासी की तुलना बाबा रामदेव से कर सकते हैं ? रामदेव के मुंह से एलोपेथी के बारे में जो अतिरंजित शब्द निकल गए थे, उन्होंने वे वापस भी ले लिए, फिर भी उन पर राजद्रोह का मुकदमा ठोकना कौनसी बुद्धिमानी है ? डाक्टरों और नर्सों ने इस महामारी में अद्भुत सेवा की है।
देश उनका सदा आभारी रहेगा लेकिन एलोपेथिक-चिकित्सा के नाम पर भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में जैसी लूट-पाट मची है, उस पर भारत में कम, विदेशों में ज्यादा खोजबीन हुई है। यदि आप उसे पढ़ें तो बाबा रामदेव का कथन आपको ज़रा फीका लगेगा। भारत की सरकारों और अदालतों ने एलोपेथिक दवाइयों और अस्पतालों में मरीजों की लूटपाट को रोकने में जरुरी मुस्तैदी नहीं दिखाई, इस पर किसी ने अदालत के दरवाजे क्यों नहीं खटखटाए? (नया इंडिया की अनुमति से)
- मोहम्मद अकबर
- वन मंत्री, छत्तीसगढ़ शासन
राजीव गांधी किसान न्याय योजना दिलाएगी पेड़ों से भी आय
अभी कुछ दशक पहले तक गांवों के रोजमर्रा के कामों में लकड़ियों का भरपूर उपयोग होता था। भोजन तैयार करने से लेकर घर बनाने, तरह-तरह के कृषि-उपकरण तैयार करने और फसलों की सुरक्षा तक के लिए लकड़ियों अथवा वृक्षों की शाखाओं का इस्तेमाल हुआ करता था। निश्चित रूप से इसकी पूर्ति वृक्षों की कटाई से ही होती थी, यह सिलसिला सदियों तक चलता रहा। बाद में पर्यावरण को लेकर आई चेतना ने हमें लकड़ियों के स्थान पर वैकल्पिक साधनों को चुनने के लिए प्रेरित किया। हमने गांवों में भी वृक्षों की कटाई को लेकर तरह-तरह के प्रतिबंध लागू कर दिए, यहां तक कि निजी भूमि के वृक्षों की कटाई के लिए भी कड़े नियम लागू कर दिए। पर्यावरण को बचाए रखने की दिशा में हमारे द्वारा की गई कोशिशों को भी अब एक लंबा वक्त बीत चुका है। आज जब हम अपनी इन कोशिशों के परिणामों की ओर देखते हैं तो हैरान रह जाते हैं। वन क्षेत्रों का विस्तार उतनी तेजी से नहीं हो पाया, जितनी हमें अपेक्षा थी। हमने ग्रामीण क्षेत्रों में जिस तरह की हरियाली की कल्पना की थी, वैसी हरियाली नजर नहीं आती। पुराने दौर की खेतों, मेड़ों, बाड़ियों और निजी भूमि पर न तो हमें नये पेड़ नजर आते हैं, न नयी अमराइयां और न ही नये बाग-बगीचे। निश्चित रूप से हमारे उपायों में ही खामियां थीं।
असल में लकड़ियों की आवश्यकता और उसकी पूर्ति को लेकर गांवों में जो आत्मनिर्भरता थी, हमारे उपायों ने उसे ही खत्म कर दिया। किसान अपनी जरूरतें अपने खेतों और बाड़ियों से ही पूरी कर लिया करते थे, लेकिन वृक्षों की कटाई को लेकर लागू किए गए कड़े नियमों ने उन्हें हतोत्साहित किया। उन्हें अपनी निजी भूमि पर वृक्षों को रोपने और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में रुचि ही नहीं रह गई। परिणाम यह हुआ कि गांवों से वृक्षों के साथ-साथ जैविक विविधता भी लुप्त होती चली गईं, जिसका लाभ अंततः कृषि को ही मिला करता था।
ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और कृषि-वानिकी के बीच जैसे-जैसे दूरियां बढ़ती गईं, वैसे-वैसे चिंताएं भी बढ़ती गईं। भारत सरकार द्वारा भी समय-समय पर राज्यों को निजी भूमि पर ईमारती, गैर ईमारती वृक्षों के रोपण तथा कृषि वानिकी को प्रोत्साहित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाते रहे हैं। इसी क्रम में राज्यों ने भी सुधारात्मक कदम उठाए। छत्तीसगढ़ में भी 22 प्रजातियों के वृक्षों के परिवहन के लिए परमिट की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। 09 जिलों में बांस प्रजातियों के परिवहन के लिए परमिट की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। निजी भूमि पर स्थित 04 प्रजातियों के वृक्षों की कटाई कर परिवहन के लिए परमिट जारी करने का अधिकार ग्राम पंचायतों को दे दिया गया।... लेकिन किसानों को अपनी भूमि पर वृक्ष रोपने तथा उन्हें सहेजने की दिशा में प्रेरित करने के लिए ये सुधारात्मक कदम भी पर्याप्त नहीं हैं। अपने खेतों में खड़े पेड़ोंसे उनको कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है, इसलिए वे अपनी भूमि पर वृक्षारोपण करने का झंझट नहीं पालना चाहते।
ग्रामीण क्षेत्रों में वानिकी तथा कृषि वानिकी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से राज्य शासन ने एक व्यापक सोच के साथ नयी रणनीति तैयार की है। इसी क्रम में मुख्यमंत्री वृक्षारोपण प्रोत्साहन योजना शुरु की जा रही है। इस व्यापक योजना के दायरे में राजीव गांधी किसान न्याय योजना को शामिल कर लिया गया है। नये प्रावधानों में किसानों को धान के बदले वृक्षारोपण के लिए प्रेरित किया जा रहा है। जिन किसानों ने खरीफ वर्ष 2020 में धान की फसल ली हो, तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के अंतर्गत धान विक्रय के लिए पंजीयन कराया हो और धान बेचा हो, यदि वे धान की फसल के बदले अपने खेतों में वर्ष 2021-22 तथा आगामी वर्षों में वृक्षारोपण करते हैं, तो उन्हें तीन वर्षों तक 10 हजार रुपएप्रति एकड़ प्रति वर्ष की दर से प्रोत्साहन राशि दी जाएगी। जिन खेतों में किसान वृक्षारोपण करते हैं, उनमें धान को छोड़कर वे इंटरक्राप के रूप में अन्य फसल भी ले सकते हैं। भविष्य में, अपनी निजी भूमि पर बोए गए वृक्षों की कटाई के लिए किसानों को किसी भी विभाग की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी।
छत्तीसगढ़ का 44 प्रतिशत भू-भाग वनों से आच्छादित है। विविध फसलों के लिए यहां का भूगोल समरूप नहीं है। कुछ दशकों पहले तक ज्यादातर मैदानी क्षेत्रों में धान की फसल ली जाती थी, शेष भू-भाग में स्थानीय परंपरा के अनुरूप फसलों की बोनी की जाती थी। लेकिन शासन द्वारा धान उत्पादक किसानों के कल्याण के लिए लागू की गई योजनाओं और कार्यक्रमों के कारण गैर-परंपरागत क्षेत्रों में भी धान के रकबे में तेजी से विस्तार हो रहा है। यह इसके बावजूद है कि वहां की भूमि धान के उत्पादन के लिए अनुकूल नहीं होने के कारण किसानों को लागत और मेहनत के अनुरूप आर्थिक लाभ नहीं हो पाता है। धान के नये खेत तैयार करने के लिए वृक्षों तथा वनों की कटाई करने की भी प्रवृत्ति बढ़ी है। राजीव गांधी किसान न्याय योजना के नये प्रावधान ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करते हुए, किसानों को वृक्षरोपण करने तथा भौगोलिक परिवेश के अनुरूप फसलें लेने के लिए प्रेरित करेंगे। इससे राज्य में फसल विविधीकरण की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में भी तेजी आएगी। राज्य के वर्तमान वन-क्षेत्र को सहेजे रखने के साथ-साथ उन्हें समृद्ध करने तथा विस्तारित करने में मदद मिलेगी।
मुख्यमंत्री वृक्षारोपण प्रोत्साहन योजना के एक हिस्से के रूप में राजीव गांधी किसान न्याय योजना गांवों में कृषि तथा कृषि-वानिकी की परस्पराता को मजबूत करेगी। निकट भविष्य में गांवों तथा किसानों को आय का एक नया जरिया मिलेगा। गांवों और किसानों के घरों में समृद्धि के नये दरवाजे खुलेंगे।
वायु प्रदूषण पूरी दुनिया में अकाल मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण रहा
वायु प्रदूषण ने आम लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाकर बीते कुछ वर्षों में न सिर्फ आर्थिक बोझ को बढ़ाया बल्कि यह घातक और जानलेवा भी साबित हो रहा है। 2019 में उच्च रक्तचाप, तंबाकू के इस्तेमाल और कुपोषित आहार के बाद वायु प्रदूषण ही पूरी दुनिया में अकाल मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण रहा है। भारत में 2019 में 16.7 लाख मौतों का कारण वायु प्रदूषण रहा। इनमें 50 फीसदी यानी 851,698 मौतें देश के महज पांच राज्यों में ही हुई हैं।
इन पांच राज्यों की सूची में उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान शामिल हैं। वायु प्रदूषण के सर्वाधिक भुक्तभोगी यह पांच राज्य न सिर्फ बड़ी आबादी वाले हैं बल्कि इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय भी बेहद कम है। वायु प्रदूषण के कारण इन राज्यों में समयपूर्व मौतें और रुग्णता बढ़ी है जिससे इन पांच राज्यों को 2019 में 36,803 बिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत का नुकसान उठाना पड़ा।
वहीं, 2019 में 17 लाख मौतों में 58 फीसदी मौतें बाहरी वायु प्रदूषण (आउटडोर एयर पॉल्यूशन) के कारण हैं जबिक 36 फीसदी मौतें भीतरी यानी घर के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण के कारण हैं। घर में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक प्रदूषित ईंधन से खाने का पकाया जाना है।
2019 में वायु प्रदूषण के यह नतीजे नए नहीं हैं बल्कि बीते कुछ वर्षों से यह प्रवृत्ति चली आ रही है। वहीं, सर्वाधिक चिंताजनक है कि इसके शिकार बच्चे होते हैं। यदि 1990 से 2018 तक उपलब्ध ग्लोबल बर्डन डिजीज (जीबीडी), 2017 के आंकड़े बताते हैं कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ही सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण जनित निचले फेफड़ों का संक्रमण (एलआरआई) होता है। जीबीडी 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक 1990 में पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की डायरिया से 16.73 फीसदी (4.69 लाख मौतें) हुई थीं जबकि 2017 में नियंत्रण से यह 9.91 फीसदी (एक लाख) पहुंच गईं।
वहीं, निचले फेफड़ों के संक्रमण से 1990 में 20.20 फीसदी (5.66 लाख मौतें) हुईं थी जो कि 2017 में 17.9 फीसदी (1.85 लाख) तक ही पहुंची। यानी करीब तीन दशक में एलआरआई से मौतों की फीसदी में होने वाली गिरावट की रफ्तार बेहद मामूली है, जिसका अर्थ है कि इस दिशा में प्रयास बहुत धीमे किए जा रहे हैं। वायु प्रदूषण में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 एक प्रमुख प्रदूषक है। इसका तय मानकों से कई गुना ज्यादा होना और वायु प्रदूषण जनित मौतों का सीधा संबंध देखा गया है। जहां पीएम 2.5 प्रदूषण ज्यादा रहा है और वहां होने वाली मौतें भी ज्यादा रही हैं। ऐसा कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में बताया जा चुका है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के मुताबिक पीएम 2.5 का सालाना सामान्य सांद्रण 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से नीचे का है। जबकि ऐसे राज्य जहां 20 गुना ज्यादा पीएम 2.5 प्रदूषण है और वहां मौतें भी सबसे ज्यादा हैं। (downtoearth.org.in)
देश में उत्पन्न 78 प्रतिशत सीवेज बिना उपचारित नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है
भारत में शहरीकरण के साथ ही शहरों पर सीवेज का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही बढ़ती जा रही है सीवेज की उपचार की समस्या। यह समस्या दशकों से बनी हुई है। इस समस्या को दूर करने के लिए बड़े पैमाने पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की आवश्यकता है। हालांकि इस दिशा में काम जरूर हुए हैं लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रहे हैं। अनुमान है कि देश में उत्पन्न 78 प्रतिशत सीवेज बिना उपचारित नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है। यह अनुपचारित सीवेज स्वच्छ भारत की राह में सबसे बड़ी बाधा है।
मौजूदा समय में 55-56 मिलियन टन म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट हर साल शहरों से निकलता है। अनुमान है कि 2030 तक 165 मिलियन टन सॉलिड वेस्ट हर साल निकलेगा। ऐसे में इसे उपचारित करने की चुनौती बड़ी है। अगर सीवेज की बात करें तो भारत में 72,368 मिलियन लीटर (एमएलडी) सीवेज प्रतिदिन उत्पन्न होता है जबकि उपचार क्षमता 31,841 एलएलडी ही है। हैरानी की बात यह भी है कि अधिकांश सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) अपनी क्षमता से बहुत कम सीवेज का उपचार कर रहे हैं। इस कारण भारत का कुल 28 प्रतिशत सीवेज ही उपचारित हो पाता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि 10 राज्य/केंद्र शासित प्रदेश- अंडमान एवं निकोबार दीप समूह, अरुणाचल प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, लक्ष्यद्वीप, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड अपने सीवेज का उपचार ही नहीं करते। इसके अलावा 13 राज्य/केंद्र शासित प्रदेश ऐसे हैं जो अपने सीवेज का 20 प्रतिशत से भी कम हिस्सा उपचारित करते हैं। इनमें झारखंड, केरल, त्रिपुरा, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, जम्मू एवं कश्मीर, दमन दीव, आंध्र प्रदेश, गोवा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु और पुदुचेरी शामिल हैं।
सात राज्य- सिक्किम, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र 50 प्रतिशत से कम सीवेज उपचारित करते हैं। केवल पांच राज्य- गुजरात, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब और चंडीगढ़ की 50 प्रतिशत से अधिक सीवेज उपचारित करते हैं। शहरों का अनुपचारित सीवेज नालों के माध्यम से सीधे नदियों में बहा दिया जाता है जिससे न केवल नदियां प्रदूषित होती हैं बल्कि जलीय जीवों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
अनुमान के मुताबिक, 2050 तक शहरों में 416 मिलियन यानी 41.6 करोड़ लोग और रहने लगेंगे। इस तरह देश की 58 प्रतिशत आबादी की रिहाइश शहरों में होगी। देश के सकल घरेलू उत्पाद में शहरों में रहने वाली आबादी की हिस्सेदारी अभी 62 से 63 प्रतिशत है जो 2030 में बढ़कर 75 प्रतिशत हो जाएगी। इस प्रकार के आर्थिक विकास के गंभीर परिणाम निकलेंगे। शहरों से उत्पन्न सीवेज शहरीकरण की सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरेगा। (downtoearth.org.in)
-रिचर्ड महापात्रा
ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूदा महामारी का आर्थिक प्रभाव बेहद नुकसानदेय होने वाला है क्योंकि वहां ज्यादातर अनौपचारिक और कम कमाई करने वाली मजदूर रहते हैं
वित्त वर्ष 2020-21 के लिए राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की तरफ से पेश किए गए ताजा आंकड़े उसी बात को दोहराते हैं जिसकी पहले से संभावना थी। लेकिन, मौजूदा वित्त वर्ष के लिए यह इस बात का संकेत देते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था गहरी नींद की अवस्था में गिरती जा रही है।
इसके पीछे कारण है ग्रामीण इलाकों में मांग और खपत में आई कमी, जो देश की दो-तिहाई आबादी का भरण-पोषण करती है। यह भी इसके बावजूद कि सिर्फ कृषि ही ऐसा सेक्टर है जिसने 2020-21 में 20.40 लाख करोड़ रुपये के सकल मूल्य के साथ सकारात्मक वृद्धि दर्ज कराई। इस साल मानसून भी सामान्य से बेहतर रहने वाला है।
2019-20 और 2020-21 के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पादन में 10.56 लाख करोड़ रुपये का नुकसान दर्ज हुआ है। यह -7.3 फीसदी की नकारात्मक वृद्धि है। लेकिन खपत पर मौजूद आंकड़े वही दोहराते हैं जिसकी उम्मीद थी: अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के कारण निजी खपत में सामूहिक स्तर पर गिरावट हुई है।
इसके बिना कोई अर्थव्यवस्था कभी फल-फूल नहीं सकती। निजी खपत खर्च जो कि 2019-20 में 83,21,701 करोड़ रुपये (जीडीपी का 57.1 फीसदी) से गिरकर 2020-21 में 75,60,985 करोड़ रुपये (जीडीपी का 56 फीसदी) रह गया। यह कुल जीडीपी नुकसान का 70 फीसदी है। यह दर्शाता है कि आर्थिक वृदि्ध में निजी खपत कितनी अहम होती है।
इसके पहले ही, देश लगातार चौथे साल अर्थव्यवस्था में गिरावट देख रहा था। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों की निजी खपत में इतना इजाफा नहीं हो रहा था, जिससे आर्थिक वृद्धि 5 फीसदी से अधिक होने का बल मिल सके।
प्रति व्यक्ति निजी खपत 2020-21 में 55,783 रुपये सालाना रही जो कि 2019-20 में 62,056 रुपये सालाना थी। खपत खर्च को आय के स्थान पर गरीबी स्तर मापने के लिए उपयोग किया जा सकता है, जैसा भारत में होता है। खपत खर्च को इस्तेमाल करके, अंदाजे के तौर पर यह कहा जा सकता है कि महामारी आने के पहले साल में देश में मासिक प्रति व्यक्ति आय 4,649 रुपये थी। यह महामारी से पहले के साल के मुकाबले किए गए खर्च के स्तर से तकरीबन 10 फीसदी कम थी।
यह आंकड़ा क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि सभी तरह की आर्थिक गतिविधियों में कमी आई है, जैसा कि महामारी के पहले साल में अंदेशा भी था। लेकिन विरोधाभासी बात यह है कि यह खर्च भी तब हुआ जब बड़ी संख्या में लोगों की आय के साधन नहीं रहे या उनकी नौकरी अनियमित हो गई। इससे यह साफ होता है कि इसमें से अधिकांश लोगों ने अपनी बचत का इस्तेमाल करके घर चलाया। सीधा हिसाब लगाया जाए तो कहा जा सकता है कि या तो लोगों के पास मौजूदा वक्त में कोई धन बाकी नहीं है या फिर लोग धीरे-धीरे नौकरियों की तरफ लौट रहे हैं, जैसा कि पिछली तिमाही के जीडीपी के आंकड़े दर्शाते हैं कि नौकरियों में इजाफा हो रहा है, भले ही यह बेहद कम क्यों न हो।
इस गिरावट ने भारत को विषम तरीके से प्रभावित किया है। विश्व बैंक के आंकड़ों का इस्तेमाल करके प्यू रिसर्च सेंटर ने आकलन किया है कि महामारी के चलते आई आर्थिक मंदी के कारण एक ही साल में भारत में गरीबों (प्रतिदिन 2 डॉलर या उससे कम की आय वाले लोग) की संख्या 6 करोड़ से 13.4 करोड़ हो गई है। यह इजाफा दोगुना से भी अधिक है।
यहां से भारत ऐसी परिस्थिति की तरफ जा रहा है जो अकल्पनीय तौर पर विपदाग्रस्त नजर आ रही है। यह आंकड़ा ऐसे समय पर आया है जब हमें लगा था कि महामारी तकरीबन खत्म हो ही चुकी है। गंभीर हानि पहुंचाने वाली दूसरी लहर भी भारत में अप्रैल में आई, जब नया वित्त वर्ष शुरू होता है। यह दूसरी लहर अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी सेंध लगा रही है, जिसके चलते अधिक क्षेत्रों में और लंबे समय तक के लिए पाबंदियां और लॉकडाउन लगाया जा रहा है। और ऐसे में जब तकरीबन 50 करोड़ लोग भारत के गांवों में रहते हैं, तो इसे दुनिया की पहली ग्रामीण महामारी कहा जा सकता है।
1 मई से 24 मई के बीच भारत में तकरीबन 78 लाख नए मामले दर्ज किए गए, जो किसी महीने में अब तक सबसे अधिक हैं। इस दौरान, दुनिया में आने वाला कोविड-19 का हर दूसरा नया मामला भारत से था। और इस महामारी के चलते दुनिया में होने वाली हर तीसरी मौत भारत में हुई। इस दौरान भारत में दर्ज हुआ हर दूसरा नया मामला ग्रामीण इलाकों से रहा जबकि हर दूसरी मौत भी गांवों में ही दर्ज की गई। यानी दुनिया का हर तीसरा मामला भारत के ग्रामीण इलाकों से निकला।
पहली लहर में ग्रामीण क्षेत्रों पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था, बल्कि तब यह आम धारणा थी कि कोविड-19 शहरी इलाकों की बीमारी है। जब हम यह देख ही चुके हैं कि क्षमता से अधिक भार पड़ने पर शहरों और महानगरों में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा कैसे बिखरा है, तो ग्रामीण क्षेत्रों में क्या हाल हुआ होगा, इसकी कल्पना मात्र ही डरावनी लगती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि भारत पिछले वित्त वर्ष की तुलना में अपनी आर्थिक स्थिति बरकरार रखेगा या और खराब करेगा? संकेत तो ऐसे हैं कि इस साल हालात पिछले साल के मुकाबले कहीं अधिक खराब होने वाले हैं। इस बीमारी ने ग्रामीण क्षेत्रों पर जो हमला किया है, उसके चलते देश का अच्छे हालात में लौटना मुश्किल और अप्रत्याशित लगता है।
दूसरी लहर, जो कि ग्रामीण इलाकों तक भी पहुंची है, वह देश की पहले से गरीब आबादी के लिए और भी घातक बनकर उभरी है। विशेषज्ञों का पूर्वानुमान है कि देश की 50 करोड़ से अधिक की ग्रामीण आबादी एक क्रूर चक्र में फंस जाएगी।
ग्रामीण भारतीय- जिसमें अधिकतम लोग अनौपचारिक श्रमिक बल का हिस्सा हैं और लगभग सभी परिभाषाओं से गरीब हैं- वे महामारी से होने वाले विध्वंस के कारण पिछले एक साल से अनियमित रोजगार के साथ जी रहे हैं। अधिक ग्रामीण मामलों के साथ यह दूसरी लहर पहले से मौजूद आर्थिक संकट को और बढ़ा देगी।
इतना ही नहीं, मामलों के बढ़ने के कारण स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च भी तेजी से ऊपर जा सकता है, जिससे लोगों की आय या बचत पानी की तरह बह सकती है। फिलहाल सभी राज्यों में लोगों के घर से बाहर निकलने और गतिविधियों पर रोक लगी है।
लॉकडाउन की कड़ाई पिछले साल जैसी नहीं है, इस साल इस राज्य से दूसरे राज्य तक और राज्यों के भीतर एक जिले से दूसरे जिले तक लॉकडाउन की स्तर अलग-अलग है। ठीक ऐसे ही, पाबंदियों का हटाया जाना भी राज्यों पर निर्भर करेगा। लिहाजा, जिन लोगों के पास पिछले एक साल से नियमित आय नहीं है, वे गंभीर आर्थिक अनिश्चितता की स्थिति में जी रहे हैं। सभी संकेत इस तरफ इशारा करते हैं कि इन हालातों के चलते लोग गरीबी के कुचक्र से बाहर नहीं आ पाएंगे।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के मुताबिक, नौकरियों के खोने और बेरोजगारी के जो आंकड़ों ग्रामीण इलाकों से दर्ज कराए जा रहे हैं वे पिछले साल जैसे नहीं हैं।
सीएमआईई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय बेरोजगारी दर पिछले साल जून के स्तर के करीब हैं, जब देशभर में लगे लॉकडाउन और पाबंदियों के चलते बेराजगारी अपने चरम पर थी। मई 16 वाले सप्ताह में शहरी इलाकों के लिए बेरोजगारी दर 14.71 फीसदी था, जबकि ग्रामीण इलाकों के लिए यह 14.34 फीसदी था। मई माह के मासिक बुलेटिन में भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा, “महामारी ने मजदूरों के काम करने की दर को गिरा दिया है। 2019-20 में यह दर औसतन 42.7 फीसदी थी, जो घटकर 39.9 फीसदी रह गई।”
बेरोजगारी का यह स्तर, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में, इसी को ‘गिरावट का बिंदु’ कहा जाता है। संतोष मेहरोत्रा के मुताबिक, ‘2017-18 में बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे ज्यादा थी। कोविड-19 ने इस स्थिति को गंभीर बना दिया है।’ कई अनुमानों के मुताबिक, दूसरी लहर ने अनौपचारिक सेक्टर को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। मेहरोत्रा ने कहा, ‘पहली लहर से अलग, इस लहर में किसान और उत्पादनकर्ता भी प्रभावित हुए हैं, लिहाजा इससे ग्रामीण सप्लाई चेन पर भी असर पड़ेगा।’
ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूदा महामारी का आर्थिक प्रभाव बेहद नुकसानदेय होने वाला है क्योंकि यहां पर अधिकतर अनौपचारिक और बेहद कम कमाई करने वाली मजदूर आबादी रहती है। दूसरी तरफ भारत की ग्रामीण आय देश की कुल आय में तकरीबन 46 फीसदी का योगदान करती है।
पिछले साल ग्रामीण अर्थव्यवस्था किसी तरह स्थिर बनी रही। कृषि क्षेत्र में हुए ठोस इजाफे और सरकार की तरफ से ग्रामीण योजनाओं पर किए गए खर्च का इसमें बड़ा हाथ रहा। लेकिन इस साल, यह भी रुक कर रह गई है। लाखों लोगों के गांव लौटने के चलते कृषि क्षेत्र में रोजगार में 3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन इस साल इसमें और लोगों को रोजगार दे पाने की क्षमता नहीं है।
इसके अलावा कृषि सौदे के नियम प्रतिकूल होने के कारण बंपर पैदावार होने पर भी कमाई कम और कम ही होती जा रही है। इस वजह से लगातार तीसरे साल सामान्य मानसून रहने के जो फायदे बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं, वे नहीं होंगे। कम आय का मतलब होगा खपत पर कम खर्च।
ठीक ऐसे ही, देश में होने वाले निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग का 50 फीसदी ग्रामीण इलाकों में होता है। इसमें ग्रामीण आबादी सिर्फ मजदूर की भूमिका नहीं निभाती, बल्कि काम देती भी है। लॉकडाउन के चलते इन गतिविधियों पर भी असर पड़ता है और डिमांड में आई कमी के चलते यह गतिविधियां सुस्त पड़ी हैं। यहां भी ग्रामीण क्षेत्रों की आय में गिरावट दर्ज होगी। (downtoearth.org.in)
-सुनीता नारायण
कोविड-19 वैश्विक महामारी के इस भयावह दौर में विश्व पर्यावरण दिवस की तार्किकता बयान करता सुनीता नारायण का आलेख
महामारी के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल है। अपार मानवीय पीड़ा और हानि के इस समय में पर्यावरण की आखिर क्या बिसात है? लेकिन आइए इस विषय में सोचने के लिए हम थोड़ा समय निकालें। पिछले एक महीने में हमें जिस चीज की कमी सर्वाधिक खली वह था ऑक्सीजन। आइए हम उन दिनों एवं घंटों के बारे में सोचें जो हमने अपने प्रियजनों के लिए ऑक्सीजन खोजने में बर्बाद किए। अस्पतालों की ऑक्सीजन की टंकियां खाली होने के कारण कई मरीजों की जानें चली गईं। हालात यहां तक पहुंच गए कि देशभर के उद्योगों से ऑक्सीजन के परिवहन को विनियमित करने के लिए अदालतों को संज्ञान लेना पड़ा। यह वह दौर था जब हमें ऑक्सीजन कनसेन्ट्रेटर के व्यवसाय के बारे में पता चला।
यह एक ऐसा यंत्र है जो हवा को अंदर खींचता है और हमें आवश्यकतानुसार ऑक्सीजन देता है। हमने लोगों को एक-एक सांस के लिए तरसते देखा है और हम इसकी कीमत का अनुभव कर चुके हैं। अतः हमें विश्व पर्यावरण दिवस के इस अवसर पर इन चीजों को याद रखने की आवश्यकता है। प्रकृति से हमें जो ऑक्सीजन मिलती है, वह हरित आवरण को बढ़ाने और हवा, यानि हमारी हर एक सांस को प्रदूषित न करने पर आधारित है। यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हम बात तो अवश्य करते हैं लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाते।
हर साल 5 जून को मनाए जाने वाले इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस का विषय पारिस्थितिकी तंत्र की मरम्मत है। वृक्षों के घनत्व में वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की देखभाल के फलस्वरूप हमारी धरती कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करके ऑक्सीजन रिलीज करने में सफल हो पाएगी। यह गैस हमारे वातावरण को लगातार भरे जा रही है और जलवायु परिवर्तन की समस्या को भयावह बना रही है। हमें यह समझने की जरूरत है कि पेड़ लगाने या पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने के लिए हमें पहले प्रकृति और समाज के साथ अपने संबंधों को बहाल करना होगा। तथ्य यह है कि पेड़ मुख्यतः भूमि पर आधारित होते हैं। कौन इसका मालिक है? कौन इसकी रक्षा करता है और कौन उसे पुनर्जीवित करता है? उपज पर अधिकार किसका होता है यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारत में, वन विभाग के पास सामान्य वन भूमि के विशाल क्षेत्रों का “स्वामित्व” है। लेकिन भारत जैसे देशों में “जंगल” नहीं है।
इसके बजाय, हमारे पास ऐसे आवास हैं जहां लोग जंगलों में जंगली जानवरों के साथ रहते हैं। ये वही वन जिले हैं जिन्हें सबसे पिछड़े और सबसे गरीब के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह भी सच है कि तमाम कानूनी एवं प्रशासनिक और कभी-कभी बाहुबल का इस्तेमाल करते हुए हमारे देश का वन विभाग ग्रीन कवर को बरकरार रखने में कुछ हद तक सक्षम रहा है। यह विभाग लोगों और उनके जानवरों को जंगलों से बाहर रखने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत करता है। निचले पायदान पर आने वाले संतरियों से लेकर शीर्ष नौकरशाहों के बीच फाइलों के आदान-प्रदान की गति को धीमा करके खदानों एवं बांधों जैसी “विकास परियोजनाओं” के लिए पेड़ों की कटाई को भी यह विभाग भरसक रोकता है ।
वृक्ष लगाने के लिए इसके प्रबंधन का स्वामित्व लेने की आवश्यकता होती है ताकि पौधों को नुकसान न पहुंचे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पेड़ों का एक मूल्य होता है, चाहे उनकी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए या लकड़ी के लिए जिसका उत्पादक को भुगतान करने की आवश्यकता होती है। यह एक वृक्ष आधारित नवीकरणीय भविष्य की तैयारी होगी, जहां लकड़ी का उपयोग घर बनाने और ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जा सकता है। यह एक सदाबहार क्रांति होगी जो गरीबों के हाथ में पैसे देने के साथ-साथ आजीविका एवं ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करके जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करेगी। आज पूरी दुनिया प्रकृति आधारित समाधानों के बारे में बात कर रही है, जिनका मैंने ऊपर वर्णन भी किया है लेकिन यह गरीब समुदाय को समाधान के केंद्र में रखे बिना किया जा रहा है।
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है। यह लैन्ड टेन्यर की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बारे में है, सबसे बेजुबान और हाशिए पर खड़े लोगों की ताकत और इंसानों की कीमत पर वनों की रक्षा के बारे में भी। इस योजना में भूमि और श्रम के मूल्य का भुगतान हवा से कार्बन डाईऑक्साइड को कम करने के सबसे सस्ते विकल्पों के संदर्भ में नहीं बल्कि उस आजीविका के संदर्भ में किया जाना चाहिए जो यह समाधान प्रदान करेगा। इससे सस्ते कार्बन ऑफसेट खरीदने का पूरा विचार अव्यवहारिक हो जाएगा। इसके अलावा एक और चुनौती जो है वह यह है कि हम हर सांस के साथ ऑक्सीजन न लेकर जहर खींच रहे हैं। हम हर साल इस पर चर्चा करते हैं जब सर्दी आती है और प्रदूषण भारी हवा और नमी की वजह से वातावरण में फंस जाता है। तब हमें इसकी भयवाहता महसूस होती है।
हम हताशा में चिल्लाते हैं। लेकिन फिर हम भूल जाते हैं। इसलिए,जैसे ही इस साल सर्दी समाप्त हुई, भारत सरकार ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के नियम बदल दिए, जिससे उन्हें प्रदूषण फैलाने में असुविधा न हो। सीधे शब्दों में कहें तो आप गैर-अनुपालन के लिए भुगतान कर सकते हैं और यह जुर्माना प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों पर आपके द्वारा किए जाने वाले खर्च से कम होगा। बिजली कंपनियों के लिए ऑक्सीजन और बाकी लोगों के लिए दमघोंटू सांसें, नियम कुछ ऐसे ही हैं।
हमारे ऑक्सीजन को एक सिलेंडर में या एक ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मशीन द्वारा सुरक्षित नहीं किया जा सकता है। मुझे संदेह है कि हर अमीर भारतीय अब इसे खरीदेगा और रखेगा। इसे एयर प्यूरीफायर से भी सुरक्षित नहीं किया जा सकता है जिसे हमने पहले ही अपने घरों और कार्यालयों में खरीदा और स्थापित किया है। इसके बजाय, ऑक्सीजन को हमें इसे अपनी दुनिया की सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण जीवन-समर्थन प्रणाली के रूप में महत्व देना चाहिए।
इसलिए, इस विश्व पर्यावरण दिवस पर जब महामारी के कहर ने हमें क्रोधित और हताश छोड़ दिया है, आइए अब समय बर्बाद करना बंद करें। आज हम पहले से कहीं बेहतर तरीके से जानते हैं कि बात करने से जान नहीं बचती है। हमें इन बातों पर अमल भी करना होगा। हरित और अधिक समावेशी कल के लिए इस लड़ाई में ऑक्सीजन हमारी वैश्विक पीड़ा है। यह हमारे अस्तित्व की लड़ाई है, इससे कम कुछ नहीं। (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारी विदेश नीति आजकल बड़ी दुविधा में फंस गई है। एक तरफ चीन ने हमारे लिए कई फिसलपट्टियां लगा दी हैं और दूसरी तरफ हमारे दोनों दोस्त- इस्राइली और फलस्तीनी हमें कोस रहे हैं। हमारे विदेश मंत्रालय की घिग्घी बंधी हुई है, जबकि हमारा विदेश मंत्री एक ऐसा आदमी है, जो विदेश मंत्री बनने के पहले कई देशों में हमारा राजदूत और विदेश सचिव भी रह चुका है। जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सवाल है, उनको ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि हमारे ज्यादातर प्रधानमंत्री विदेशी मामलों के जानकर नहीं होते। वे अफसरों के लिखे भाषण पढ़ देते हैं और विदेशी नेताओं के साथ फोटो खिंचाने का मौका हाथ से निकलने नहीं देते। खैर, अभी तो हमारा ध्यान अफगानिस्तान पर होनेवाली उस त्रिराष्ट्रीय वार्ता ने खींचा है, जो चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच हो रही है। उनके बीच यह चौथी वार्ता है। कितने आश्चर्य की बात है कि अफगानिस्तान की सबसे ज्यादा आर्थिक मदद करनेवाला देश, भारत की इस वार्ता में कोई भूमिका नहीं है। और मैं यह भी देख रहा हूं कि चीन हमें चपत लगाने का कोई मौका नहीं चूक रहा है। चपत भी प्यारी-सी ! पहले उसने ब्रिक्स की बैठक में भारत की तारीफ पेली और अब उसने अफगान-संकट के हल में भी भारत की भूमिका को रेखांकित किया है।
चीनी विदेश मंत्री ने कहा है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी वापसी के बाद भारत और चीन को मिलकर काम करना चाहिए। उसे पता है कि भारत आजकल अमेरिका का अंधभक्त बना हुआ है। उसकी अपनी कोई पहल नहीं है। भाजपा के पास एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो वैदेशिक मामलों को ठीक से समझता हो। यदि मोदी सरकार को वैदेशिक मामलों की थोड़ी-बहुत भी समझ होती तो अफगानिस्तान की डोर को वह अपने हाथ से फिसलने नहीं देती। वह अफगान-सवाल पर पाकिस्तान को ऐसा पटाती कि कश्मीर का मसला भी हल हो जाता। दक्षिण एशिया एक बड़े परिवार के रुप में ढलने लगता। खैर, आज फलिस्तीनी विदेश मंत्री को लिखी चिट्ठी भी देखी। संयुक्तराष्ट्र संघ में और मानव अधिकार आयोग में भारतीय प्रतिनिधियों के जो परस्पर विरोधी रवैए रहे हैं, उनके कारण इस्राइल और फलस्तीन, दोनों ने भारत के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की है। जबकि मैं मानता हूं कि अफगानिस्तान और फलस्तीन के मामलों में भारत की भूमिका दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा सार्थक हो सकती थी। (नया इंडिया की अनुमति से)
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
कोरोना महामारी के दौरान दुनिया भर में गरीब हुए लोगों में 60 फीसदी भारतीय हैं. एक रिसर्च के मुताबिक बढ़ी बेरोजगारी के चलते भारत के मिडिल क्लास में 3.2 करोड़ लोग कम हुए है और गरीबों की संख्या साढ़े सात करोड़ बढ़ी है.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
साल 2020-21 के GDP आंकड़ों के मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था 7.3 फीसदी सिकुड़ गई है. हालांकि देश में इसे राहत की बात बताया जा रहा है क्योंकि केंद्रीय सांख्यिकी संगठन एनएसओ ने साल 2021 में अर्थव्यवस्था के 8 फीसदी सिकुड़ने का अनुमान लगाया था लेकिन विश्व बैंक के चीफ इकॉनमिस्ट रहे कौशिक बसु इसे राहत की बात नहीं मानते.
सरकार की नीतिगत असफलता की ओर इशारा करते हुए वे लिखते हैं, "साल 2020-21 के GDP ग्रोथ के आंकड़े के साथ भारत 194 देशों की रैंकिंग में 142वें नंबर पर आ गया है, जो कभी दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते देशों में एक था. जो ऐसा कह रहे हैं कि कोविड के चलते सभी देशों के साथ ऐसा हुआ है, उन्हें मैं सलाह दूंगा कि वे जाएं और फिर से अपनी स्कूली किताबों में रैंकिंग का मतलब पढ़ें."
बेरोजगारी और गरीबी चरम पर
साल 2021 में सिर्फ कृषि और बिजली को छोड़कर बाकी सभी सेक्टर कोरोना महामारी और लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित हुए. व्यापार, निर्माण, खनन और विनिर्माण सेक्टर में भारी गिरावट दर्ज की गई. भारत में असंगठित क्षेत्र के 40 करोड़ कामगारों में से ज्यादातर इन्हीं सेक्टर में काम करते है. इन सेक्टर में आई बड़ी गिरावट के चलते बड़ी संख्या में ये कामगार बेरोजगार हुए. CMIE के आंकड़ों के मुताबिक अब भी देश में बेरोजगारी दर फिलहाल 11% से ज्यादा है.
कमाई न होने के चलते ये या तो गरीबी के मुंह में चले गए हैं या जाने वाले हैं. Pew के एक रिसर्च के मुताबिक महामारी के दौरान दुनिया भर में गरीबी के स्तर पर चले गए लोगों में 60 प्रतिशत लोग भारतीय हैं. भारत में मिडिल क्लास में आने वाले लोगों की संख्या में 3.2 करोड़ की गिरावट आई है और गरीब लोगों की संख्या में 7.5 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है. ऐसा तब हुआ, जबकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में किसी गरीब परिवार को मिडिल क्लास में आने में 7 पीढ़ियों का समय लग जाता है.
सरकार का चुनावी लाभ पर ध्यान
जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय के प्रोफेसर और अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा कहते हैं, "अक्टूबर से ही जो अर्थव्यवस्था की रिकवरी का शोर मचाया गया, वो सिर्फ रिबाउंड था यानि अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान की भरपाई हो रही थी. रिकवरी का मतलब होता है, अर्थव्यवस्था का फिर से ग्रोथ पा लेना. अब भी सरकार V-शेप रिकवरी की बात कह रही है. जबकि यह साफ है कि यह K-शेप रिकवरी होगी. यानी अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से तो फिर से अपनी गति पा लेंगे लेकिन कुछ हिस्से लगातार बर्बाद होते जाएंगे. यही वजह है कि लॉकडाउन में जो विनिर्माण इकाइयां बहुत घाटे में गईं, वे बंद हो गईं और वहां काम करने वाले रोजगार से हाथ धो बैठे."
मेहरोत्रा इसके लिए केंद्र में शासन कर रही बीजेपी को जिम्मेदार ठहराते हैं. उनके मुताबिक, "फिलहाल सरकार के हर फैसले में राजनीति शामिल है. केंद्र की ओर से समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लिए शुरू की गई उज्ज्वला, पीएम आवास, पीएम किसान जैसी योजनाओं का मकसद चुनावी फायदा कमाना है. इनमें लाभार्थी को सीधा लाभ देकर सरकार चुनावी फायदा ले लेती है और उनके शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मूलभूत ढांचे पर खर्च करने से बच जाती है. गांवों में फैली कोरोना की दूसरी लहर ने यह सच्चाई उजागर कर दी."
वैक्सीन और आर्थिक मदद प्राथमिकता
कोरोना के चलते बेरोजगार होने वाले लोगों के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस सवाल पर अर्थशास्त्री विवेक कौल कहते हैं, "फिलहाल युद्धस्तर पर वैक्सीनेशन का प्रबंध करना भारत सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. इसी के जरिए लोगों के अंदर बैठे कोरोना के डर को खत्म कर उन्हें काम पर वापस लाने और मांग बढ़ाने में मदद मिलेगी." इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च के मुताबिक भारत में 18 से ज्यादा उम्र की कुल जनसंख्या का वैक्सीनेशन करने में सरकार पर करीब 670 अरब रुपये का खर्च आएगा. यह रकम कुल जीडीपी की मात्र 0.36 फीसदी है.
विवेक कौल कहते हैं, "कोविड की दूसरी लहर से करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं. ज्यादातर की जमा पूंजी का बड़ा हिस्सा खर्च हो गया है. कई परिवार कर्ज में भी डूब गए हैं. ऐसे में जिस तरह पिछले साल महिलाओं के जनधन खातों में लगातार तीन महीने तक 1500 रुपये डाले गए थे, इस बार सभी जनधन खातों में रुपये डाले जाने चाहिए. इससे उन लोगों को बुरी तरह गरीबी के चक्र में फंसने से बचया जा सकेगा, जिनकी नौकरियां गई हैं. यह रकम पर्याप्त तो नहीं होगी लेकिन थोड़ी आर्थिक मदद भी, कुछ न मिलने से अच्छी है. इसके अलावा मनरेगा के अंतर्गत भी कामगारों को बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए." (dw.com)
सीबीएसई और आईएससी समेत विभिन्न राज्यों की 12वीं परीक्षा रद्द होने से बहुत से छात्रों ने राहत की सांस ली है तो बहुत से परेशान भी हैं. खासकर उच्च शिक्षा के लिए राज्य से बाहर या विदेश जाने की सोचने वाले छात्र संशय में हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट
ऐसे छात्र भी हैं जिन्हें लगता है कि असमंजस में रहने की बजाय परीक्षा रद्द होने के फैसले की वजह से वे फिलहाल तनावमुक्त जरूर हो गए हैं. लेकिन साथ ही आगे की पढ़ाई को लेकर चिंता पैदा हो गई है. हजारों छात्रों ने 12वीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों में जाने की योजना बनाई थी और उसी के अनुरूप दाखिला भी ले लिया था. अब उनको डर है कि कहीं इस वजह से आगे कोई दिक्कत नहीं हो. दूसरी ओर, देश में भी कॉलेजों में दाखिले की प्रक्रिया पर नए सिरे से मंथन शुरू हो गया है.
मिली-जुली प्रतिक्रिया
कोलकाता में डीपीएस रूबी पार्क में 12वीं के छात्र अहन कनौजिया कहते हैं, "परीक्षा रद्द करने का फैसला उचित है. हम अधर में लटके थे. मैंने एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में दाखिला लिया है. अब अगर आगे परीक्षा होती भी तो मुझे समय से न तो मार्कशीट मिलती और न ही बाकी प्रमाणपत्र.” अहन को 31 जुलाई तक तमाम प्रमाणपत्र जमा करना है. अब कम से कम उनकी यह चिंता दूर हो गई है. उनका कहना है कि रिजल्ट के लिए चाहे जो कसौटी तय की जाए, महीने भर के भीतर इसका प्रकाशन निश्चित रूप से हो जाएगा. इसी तरह ला मार्टिनियर स्कूल में पढ़ने वाली अनुष्का अग्रवाल ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिला लिया है. उनका कहना है, "परीक्षा का मामला जितना टल रहा था उतना डर लग रहा था. मुझे लग रहा था कि समय से अपने प्रमाणपत्र नहीं भेज सकूंगी. लेकिन अब यह चिंता दूर हो गई है.”
लेकिन कुछ छात्र ऐसे भी हैं जो परीक्षा रद्द होने से खुश नहीं हैं. यह ऐसे छात्र हैं जिन्होंने बोर्ड की परीक्षा के लिए जम कर तैयारी की थी और 10वीं या 11वीं में उनके नंबर बेहतर नहीं थे. उको लगता है कि अगर उन नंबरों को आधार बनाया गया तो 12वीं के नंबर कम हो जाएंगे. ऐसे छात्रों के लिए हालात सामान्य होने पर परीक्षा आयोजित करने का प्रावधान भी है. लेकिन प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के इच्छुक मनोजित सेन कहते हैं, "दाखिले में कटऑफ काफी अहम होता है. अगर मेरे नंबर बढ़िया नहीं आए तो दाखिला मिलने में दिक्कत होगी.” दिल्ली पब्लिक स्कूल के छात्र हाशिम फरीद इस बात से चिंतित हैं कि परीक्षा नहीं होने की स्थिति में कहीं ग्रेट ब्रिटेन के एक विश्वविद्यालय में उनका दाखिला रद्द तो नहीं हो जाएगा. वह कहते हैं कि जब तक मार्किंग प्रणाली साफ नहीं होती तब तक चिंता बनी रहेगी. मुझे कटऑफ से ज्यादा नंबर नहीं मिले तो दाखिला रद्द होने का अंदेशा है.
हालांकि अब तक यह साफ नहीं किया गया है कि 12वीं के नंबर किस आधार पर तय किए जाएंगे. कोलकाता के ही एक स्कूल में पढ़ने वाले रुचिका बनर्जी कहती हैं कि जो हुआ अच्छा हुआ. इस महामारी के दौरान परीक्षा देने में काफी खतरा था. अगर हमें संक्रमण हो जाता तो विदेश जाना भी टल जाता.
दूरगामी असर का अंदेशा
उधर, शिक्षाविदों ने महामारी के दौरान परीक्षा रद्द करने के फैसले का तो स्वागत किया है. लेकिन साथ ही कहा है कि शैक्षणिक चक्र पर इसका दूरगामी असर हो सकता है. कोलकाता के एक कॉलेज में प्रोफेसर दिनेश कुमार मंडल कहते हैं, "इस फैसले से छात्रों और उनको परिजनों को फौरी राहत तो जरूर मिली है. लेकिन आगे इसका प्रतिकूल असर हो सकता है. कॉलेजों में दाखिले के मामलों में असमानता पैदा हो सकती है. नतीजतन मेधावी छात्र दाखिले से वंचित रह सकते हैं जबकि सामान्य छात्रों को पहले के प्रदर्शन के आधार पर दाखिला मिल सकता है.”
एक कोचिंग संस्थान से जुड़े रंजीत मल्लिक कहते हैं, "जब तक मार्किंग प्रणाली तय नहीं होती तब तक चिंता स्वाभाविक है. हालांकि नंबर से संतुष्ट नहीं होने की स्थिति में इच्छुक छात्र हालत सामान्य होने पर परीक्षा में बैठ सकते हैं. लेकिन इसमें समय लगेगा.”
ज्यादातर शिक्षाविदों की राय में परीक्षाएं रद्द करने का यह फैसला मौजूदा परिस्थितियों में उचित और प्रासंगिक है. लेकिन साथ ही इससे छात्रों में करियर और भविष्य को लेकर नई तरह की चिंता पैदा हो गई है. ऐसे छात्रों की काउंसलिंग की जानी चाहिए. यह समझना होगा कि जीवन रहेगा तो शिक्षा भी हासिल की जा सकेगी.
दाखिले की नई रणनीति
इस बीच, इन परीक्षाओं के रद्द होने के बाद अब तमाम शैक्षणिक संस्थानों ने दाखिले के लिए नई रणनीति पर विचार शुरू कर दिया है. अब ज्यादातर संस्थान मेरिट की बजाय भर्ती परीक्षा के जरिए दाखिले पर विचार कर रहे हैं ताकि सबको बराबर मौके मिल सकें. कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय के एक प्रवक्ता बताते हैं, "जिन पाठ्यक्रमों में नंबरों के आधार पर दाखिला होता था, उनके लिए भी भर्ती परीक्षा आयोजित करने पर विचार चल रहा है.”
महामारी के दौरान भर्ती परीक्षा आयोजित करना भी आसान नहीं होगा. पिछले साल जादवपुर यूनिवर्सिटी और कुछ अन्य कॉलेज ये टेस्ट नहीं करवा पाए थे. पिछले साल कई कॉलेजों को छात्रों की भर्ती में भी मुश्किलें आई थीं. दाखिले अगस्त में शुरू हुए थे और इस साल जनवरी तक चलते रहे, क्योंकि कॉलेजों को सीटें भरने में मुश्किल हो रही थी. ऑनलाइन भर्ती परीक्षा पर भी विचार किया जा रहा है, लेकिन बहुत से छात्रों को हाई स्पीड इंटरनेट सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण यह विकल्प भी विवादों में है. (dw.com)
-सुसंस्कृति परिहार
आज पूरे देश में जिन प्रमुख खबरों पर लोगों की नजरें टिकी रहीं उनमें विनोद दुआ पर राजद्रोह मामले का खरिज होना। जागरण में योगी जी का जबरदस्त इंटरव्यू और रिटायर कर्मचारियों की अभिव्यक्ति को बाधित कर पेंशन पर रोक महत्वपूर्ण हैं। हर जर्नलिस्ट संरक्षण का हकदार है।
सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह का मामला रद्द कर दिया है। सुको ने कहा कि वर्ष 1962 का आदेश हर जर्नलिस्ट को ऐसे आरोप से संरक्षण प्रदान करता है। गौरतलब है कि एक बीजेपी नेता की शिकायत के आधार पर विनोद दुआ पर दिल्ली दंगों पर केंद्रित उनके एक शो को लेकर हिमाचल प्रदेश में राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। एक एफआईआर में उन पर फर्जी खबरें फैलाने, लोगों को भडक़ाने, मानहानिकारक सामग्री प्रकाशित करने जैसे आरोप लगाए गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार दुआ ने इस एफआईआर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी। सुको ने केस को रद्द कर लिया। हालांकि कोर्ट ने दुआ के इस आग्रह को खारिज कर दिया कि 10 साल का अनुभव रखने वाले किसी भी जर्नलिस्ट पर एफआईआर तब तक दर्ज नहीं की जानी चाहिए जब तक कि हाईकोर्ट जज की अगुवाई में एक सशक्त पैनल इसे मंजूरी न दे दे। कोर्ट ने कहा कि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण की तरह होगा। किन सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण रूप से एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि हर जर्नलिस्ट को ऐसे आरोपों से संरक्षण प्राप्त है। कोर्ट ने कहा, हर जर्नलिस्ट को राजद्रोह मामलों पर केदारनाथ केस के फैसले के अंतर्गत संरक्षण प्राप्ति का अधिकार होगा। 1962 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि सरकार की ओर से किए गए उपायों को लेकर कड़े शब्दों में असहमति जताना राजद्रोह नहीं है।
यह फैसला पत्रकार जगत के लिए आज के माहौल में बड़ी उपलब्धि बतौर देखने की ज़रुरत है।
आज ही दूसरी तरफ एक अखबार ने योगी के वर्चुअल इंटरव्यू को जिस अंदाज में पूरे पेज पर प्रकाशित कर जन जागरण का बिगुल बजाया उसकी जितनी भत्र्सना की जाए वह कम है। यह पत्रकारिता के नाम पर कलंक है। एक नाकाम मुख्यमंत्री की छवि स्वच्छ करने के लिए जो एकजुटता अखबार के संवाददाताओं ने दिखाई वह घृणास्पद है। इस निर्लज्ज कोशिश ने पत्रकारों का मान ना केवल घटाया है बल्कि आज सुको के विनोद दुआ के फैसले पर सोचने भी मजबूर किया है। क्या ऐसे पत्रकारों को भी संरक्षण का हकदार माना जाए? दस साल और बीस साल कोई मायने नहीं रखते। यह खौल बेबाक तौर पर सच्चाई का दामन थामे रहने वाले पत्रकारों और समाजसेवी लोगों के दिलों में भी है। सभी को एक तराज़ू में नहीं तौला जा सकता है। लोकतंत्र का यह चतुर्थ खंभा यदि राष्ट्रहित की जगह इस तरह चापलूसी भरी झूठी हरकत करता है तो वह संरक्षण का हकदार नहीं होना चाहिए।
इस बीच एक तीसरी खबर भी बहुत ही खतरनाक है, जिसके अनुसार सेवानिवृत्त शासकीय अधिकारी कर्मचारी शासन के खिलाफ अपनी अभिव्यक्ति नहीं दे पाएंगे। यदि देते हैं तो उनकी पेंशन बंद कर दी जाएगी। इससे दमित नौकरशाही द्वारा जो पोल पट्टी हर विभाग की खुल रही है वह उजागर नहीं हो पाएगी। ज्ञातव्य हो कि सेवानिवृत्त हुए जज से लेकर हर विभाग के अधिकारियों ने शासन की खामियों को धड़ल्ले से जनता के बीच लाकर उन्हें सावधान करने की कोशिश की है। उससे सरकार को भी सबक लेना तो दूर वह उन्हें सबक सिखाने तैयार है, ऐसे में तो सबको मिलकर अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। नौकरी की गुलामी से निजात के बाद ताउम्र दासता का ये नया कानून भी वापस लेने की मुहिम चलानी होगी।
वस्तुत: आज के समय जिस तरह के नये नये माडल सामने आ रहे हैं, जिस तरह के नये कानून लाए जा रहे हैं उसके पीछे गलत को सही सिद्ध करने की दुर्भावना साफ झलकती है। जनता गुमराह ना हो अभिव्यक्ति बाधित ना हो इसके लिए सुको को ही पहल कदमी करने की जरूरत है।
-डाॅ. परिवेश मिश्रा
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक की एक सुबह सूरजमल जी अपनी पत्नी और छोटे भाई के साथ रायगढ़ से बैलगाड़ी में रवाना हुए। लगभग 17 मील दूर दो विशाल नदियों के बीच बसे चन्द्रपुर पहुंचे तो बैलगाड़ी छोड़ना पड़ी। पैदल और नाव के बाद उन्होंने यात्रा जारी रखी और सारंगढ़ पहुंचे।
कहते भी हैं:
जहां न पहुंचे रेलगाड़ी, वहां पहुंचे बैलगाड़ी,
जहां न पहुंचे बैलगाड़ी, वहां पहुंचे मारवाड़ी.
सारंगढ़, चन्द्रपुर या रायगढ़ इलाके में बसने के लिए आने वाला यह पहला मारवाड़ी परिवार था।
"मारवाड़ी" शब्द जाति या भूगोल की अपेक्षा संस्कृति से अधिक जुड़ा है। राजपूताना के साथ जुड़े हरियाणा, मालवा आदि क्षेत्रों के अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल, खण्डेलवाल, पोरवाल और सरावगी आदि वैश्य के अलावा जाट, राजपूत, ब्राह्मण और अन्य जातियों के लोग भी इसी संबोधन से जाने जाते हैं।
राजपूताने का वैश्य समुदाय अनन्त काल से पशुपालन और कृषि के साथ वाणिज्य का कार्य करता रहा है। हिम्मत, लगनशीलता, अनुशासन, विनम्रता, सहनशीलता, दूरदर्शिता, समर्पण, जोखिम उठाने का माद्दा, और इन सब से अधिक जबरदस्त आत्मविश्वास इस समुदाय की विशेषताएं रही हैं।
मध्यकाल तक इनके इलाके में अनेक व्यापारिक मार्ग विकसित हो चुके थे। चुरू (बीकानेर राज्य), राजगढ़ (सादुलपुर) और रेनी (अलवर) जैसे बाज़ार सिंधु और गंगा नदी के मार्फत आयातित सामान से पटे रहते थे।
इस काल में मारवाड़ियों के बंगाल पहुंचने का पहला अवसर आया था 1564 में। राजा मानसिंह अकबर की सेना लेकर युद्ध करने बिहार गये तो उन्होंने अपनी फ़ौज में मोदीखाने की जिम्मेदारी मारवाड़ी वैश्यों को दी थी। मोदी अर्थात राशन, हथियार और गोला बारूद के स्टाॅक का प्रभारी। लेकिन इस काल में कोई बड़ा सामूहिक पलायन नहीं हुआ था। "मोदी" बनकर बंगाल पहुंचने वाले मारवाड़ियों में से ही "जगत-सेठ" भी हुए। लेकिन उनकी कहानी कभी और।
राजपूताने में मध्यकाल वाली जीवनशैली अंग्रेज़ों के आने से प्रभावित हुई। अंग्रेज़ों से पहले की व्यवस्था में अपेक्षाकृत सुरक्षित माहौल में यात्राएं और व्यापार हो जाते थे। प्रमुख व्यावसायिक मार्गों पर हर दस कोस पर सराय या धर्मशालाएं थीं, घोड़ों के खाने-पीने की व्यवस्थाएं थी। रास्ते में सुरक्षा का जिम्मा उन इलाकों के राजाओं का था जिन्हें ये व्यापारी चुंगी और कर पटाया करते थे।
सन 1818 आते तक राजपूताने के सारे राजाओं ने अंग्रेज़ों के साथ संधि कर ली। नयी व्यवस्था में राजाओं के ख़ज़ानों से काफ़ी धन अंग्रेज़ों को जाने लगा। फ़ौजी खर्च में भारी कटौती हो गयी। सुरक्षा की जिम्मेदारी अंग्रेज़ों ने ले ली किन्तु वे मौके पर सुरक्षा देने में सफल न हो सके। राजाओं के अनेक ठिकानेदार भी थे और आमद कम होने से व्यापारियों के प्रति उनकी आर्थिक अपेक्षाएं बढ़ने लगीं थीं। इन्हीं सब के साथ व्यवसायियों की तकलीफ़ें भी बढ़ने लगी।
इधर कलकत्ता और बम्बई के बन्दरगाहों से व्यापार का एकाधिकार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने प्राप्त कर लिया था। अब उसे एक नेटवर्क की आवश्यकता थी जो देश के भीतरी इलाकों से सामान की खरीदी कर बंदरगाह तक पहुंचा सके और साथ ही योरोप से आए माल को आगे पहुंचाने की व्यवस्था कर सके।
1850 के बाद के अनेक वर्षों तक राजपूताना अवर्षा और भीषण अकाल की चपेट में आया। मारवाड़ियों के पुरखे उस काल को "छप्पनिया का अकाल" के नाम से याद करते रहे। 1860 में दिल्ली से कलकत्ता रेल लाईन प्रारम्भ हो गयी। 1874 और 1881 के बीच राजपूताने के अधिकांश महत्वपूर्ण स्थानों में रेल लाईन बिछ गयी। इन सब कारणों के इकट्ठा होने से उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, बड़ी संख्या में मारवाड़ी बम्बई तथा अंग्रेज प्रशासित इलाकों (जैसे नागपुर राजधानी वाला सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज़) में पहुंचे थे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या में ये बंगाल पहुंचे। बम्बई की अपेक्षा यहां प्रतियोगी के रूप में गुजराती और पारसी का मौजूद न होना भी एक कारण था। उन दिनों ये कहावत चल निकली थी :
उपजे ज्योंही खाते हैं, कायर क्रूर कपूत
औं परदेसा में खपे, सायर न्यार सपूत
हमारे सूरजमल जी ऐसे ही एक मारवाड़ी थे। राजपूताने के झुंझुनू जिले में कतली नदी के किनारे एक गांव है केड़। बताते हैं इनके पूर्वजों ने सन् 1458 में इस खुली भूमि में बसने के निर्णय लिया और एक केड़ का पौधा लगाया था। कालांतर में इस गांव के लोग केड़िया उपनाम से जाने गये। इतिहास के अनुसार सारंगढ़ में पहले मारवाड़ी के आने की घटना पांच सौ वर्ष पहले की है। लेकिन वे यहां बसे नहीं थे और यह एक अन्य सम्पूर्ण कहानी का विषय है।
श्री सूरजमल केड़िया का सारंगढ़ आना संयोग नहीं था। सारंगढ़ के गिरिविलास पैलेस में उपलब्ध रिकाॅर्ड बताते हैं उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में राज्य में प्रशासनिक अस्थिरता का एक दौर आया था। राजा संग्राम सिंह की मृत्यु 43 वर्षों के सफल शासन के बाद हुई थी। उनका सिर्फ कार्यकाल लम्बा रहा हो ऐसा नहीं था। मध्य और पूर्वी भारत के इस भू-भाग में उनका कद बहुत ऊंचा था। सारंगढ़ किले और नगर की स्थापना तो उनके पूर्वज राजा रतन सिंह ने कर दी थी किन्तु आधुनिक सारंगढ़ को शहर के रूप में बसाने और उसकी आर्थिक उन्नति की पुख्ता व्यवस्था करने का पूरा श्रेय राजा संग्राम सिंह को जाता है। 1857 के आस-पास के वर्षों में इलाके के गोंड और बिंझवार राजाओं और जमींदारों ने जब अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह किया तो नेतृत्व करने वालों में राजा संग्राम सिंह अग्रिम पंक्ति में थे। सम्बलपुर के वीर सुरेन्द्र साय और सोनाखान के वीर नारायण सिंह की कहानियां इसी दौर की हैं।
राजा संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे राजा भवानी सिंह और राजा रघुवर सिंह की मृत्यु बहुत कम अंतराल में हो गयी थी। 1890 में राजा रघुवर सिंह के बेटे जवाहिर सिंह को जब राजा के पद पर आसीन किया गया तो उनकी उम्र मात्र एक वर्ष नौ महीना थी।
अस्त-व्यस्त प्रशासनिक माहौल का सीधा असर राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ा था और इस बात ने अंग्रेज़ों को बहुत चिंतित कर दिया था। उनका एकमात्र ध्येय था राज्य से राजस्व की वसूली जिसे वे नज़राना कहते थे। आर्थिक अव्यवस्था उनकी आमदनी प्रभावित करती थी। शिशु राजा जवाहिर सिंह को कुछ ही वर्षों में औपचारिक शिक्षा के लिए रायपुर के राजकुमार काॅलेज में भेज दिया गया। सारंगढ़ राज्य की व्यवस्था देख रहीं उनकी दादी बोधकुमारी देवी की सहायता के लिए अंग्रेज़ों ने एक सुपरिटेंडेंट के साथ अधिकारियों का अमला पदस्थ कर दिया था। 'एकाउन्टेन्सी' फिर भी एक समस्या रही। राजा संग्राम सिंह के समय का बही खाता और दैनन्दिनी लेखन अंग्रेज़ समझ नहीं पाते थे। अंत में निर्णय लिया गया कि अंग्रेज़ी एकाउंटिंग से वाकिफ़ किसी व्यक्ति को यह काम सौंपा जाए। किन्तु यह आसान नहीं था। यह कार्य उन दिनों मारवाड़ी ही कर सकते थे और अधिकांश मारवाड़ी 'देश' से अपना पारम्परिक पाटी-गणित सीखकर कलकत्ता पहुंचते थे और यह गणित अंग्रेज़ों को कभी समझ नहीं आया था। किसी ऐसे मारवाड़ी की तलाश शुरू हुई जिसकी थोड़ी-बहुत वाकफ़ियत अंग्रेज़ी एकाउन्टेन्सी से हो।
खबर कलकत्ता भेजी गयी। उन दिनों कलकत्ता की बड़ी मारवाड़ी फर्मों में झुंझुनू ज़िले के चिड़ावा की एक फर्म थी "नन्दराम बैजनाथ केड़िया"। इनका मुख्य व्यापार जूट से बने टाट का था और वे पटसन निर्यात करने वाले सारंगढ़-रायगढ़ इलाके से वाकिफ़ थे। जूट का कारोबार उन दिनों अंग्रेज़ों के हाथ से सरक कर मारवाड़ियों के हाथ आना शुरू हो गया था। यहीं से निकल कर सूरजमल जी ने सारंगढ़ आने का निर्णय लिया था।
सारंगढ़ में इन्हें "ख़जांची" का पदनाम मिला। सबसे महत्वपूर्ण: बात रही कि इनके माध्यम से मारवाड़ियों को इस इलाके में सुरक्षित माहौल में व्यवसाय करने का अघोषित अभयदान मिला।
बीसवीं सदी के पहले दशक में राजा जवाहिर सिंह ने राजा के रूप में काम काज सम्भाल लिया और एक बेहद कुशल प्रशासक साबित हुए। उन्होंने मारवाड़ी समेत वणिक परिवारों को आने के लिए प्रोत्साहित किया तथा व्यवसाय के लिए अनुकूल परिस्थितियां निर्मित कीं। आजकल इसे "ईज़ ऑफ डूईंग बिज़नेस " कहा जाता है।
सारंगढ़ से पटसन (जूट), चावल, हाथ के बुने सूती तथा कोसा कपड़े, बरेजों से पान, कपास, बीड़ी, चिरौंजी, महुआ, तेंदूपत्ता का निर्यात होता था। सूत, तम्बाखू कृषि के मामूली औजार आदि आयात होने वाली मुख्य वस्तुएं थीं। अफ़ीम और गांजे का व्यापार अंग्रेज़ों ने अपने हाथों में रखा था।
सूरजमल जी स्टेट की नौकरी में रहे और निःसंतान रहे। उनके भाई श्री बृन्दावन केड़िया ने व्यापार किया।
बृन्दावन केड़िया जी के वंशजों के आज भरे पूरे परिवार हैं। देखते देखते केड़ के पास चिड़ावा गांव से सीताराम जी (इनके वंशजों में वर्तमान नगरपालिका अध्यक्ष श्री अमित और बड़े भाई श्री नन्दकिशोर अग्रवाल आदि हैं), बाबूलाल जी (श्री रामअवतार तथा श्री पवन अग्रवाल के परिवार) तथा हनुमान प्रसाद जी आ गये। पास के गांव सुल्ताना के सागरमल जी भी आये (इनके वंशज श्री हनुमान और श्री घनश्याम तथा दोनों के पिता श्री रामदास हैं तथा यह परिवार सुल्तानिया कहलाता है। सागरमल जी ने शुरुआत में सूत आयात कर उसकी रंगाई का काम हाथ में लिया। यह काम उन उपक्रमों में से एक था जिनसे सारंगढ़ में बुनकरी को बहुत बढ़ावा मिला। सारंगढ़ नगर में कोष्टा तथा ग्रामीण क्षेत्रों में गांड़ा, पैनका आदि जातियों में बुनकरी बड़ा उद्यम रहा है।1970-80 के दशक तक सारंगढ़ के ग्रामीण अंचलों में सिर्फ दो रंग दिखते थे - हरा और नीला। महिलाएं इन्हीं रंगों का लुगड़ा (साड़ी) और पुरुष घुटनों तक की धोती पहनते थे। एक जोड़ा खरीद लें तो सदियों नहीं फटता है ऐसी यहां के बुने कपड़े की रेपुटेशन थी। इलाके में मिल की बनी साड़ियों का प्रवेश नव-ब्याहता बहुओं के माध्यम से ही हुआ।)
उन्नीस सौ चालीस के दशक में बृन्दावन जी के बेटे जयदेव प्रसाद केड़िया जी के साथ उसी कुटुम्ब के और परिवार साथ आए : श्री शिवभगवान और श्री बंशीधर केड़िया (श्री नत्थूलाल केड़िया) आये, माखनलालजी आये। और उसके बाद सिलसिला चल निकला। श्री नन्दकिशोर केजरीवाल के पिता आये। अन्य परिवार आये।
समय बीतता गया। आज पुराने सारंगढ राज्य के शहरी और ग्रामीण इलाकों में लगभग तीन सौ मारवाड़ी वैश्य परिवार निवास करते हैं। खान-पान और पूजा-पाठ की परम्पराएं अनेक मारवाड़ी ब्राह्मणों को भी खींच लायी हैं।
लगभग इसी काल में रायगढ़, चन्द्रपुर, खरसिया, लैलूंगा आदि स्थानों में मारवाड़ी पहुंचे। केसरवानी यहां पहले आ गये थे। गुजराती, पारसी, और कच्छी पहुंचे। सबने यहां व्यवसाय, उद्योग और राजनीति में उपलब्धियां हासिल कीं। सबकी अपनी अपनी कहानी हैं। लेकिन उनके बारे में आगे लिखूंगा।
डाॅ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)
-कनक तिवारी
डॉ लोहिया ने यही समझाया था
संविधान में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर राज्य द्वारा बनाए गए किसी कानून के जरिए प्रतिबंध लगाए जाने को प्रख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने बार बार चुनौती दी। एक मामला उत्तरप्रदेश सरकार के खिलाफ उन्होंने दायर किया जब उन्हें उत्तरप्रदेश स्पेशल पावर्स एक्ट, 1932 की धारा 3 के तहत फर्रुखाबाद में उत्तेजक भाषण देने के लिए गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ की ओर से प्रख्यात जज के0 सुब्बाराव ने लोहिया के पक्ष में फैसला सुनाया जिन्हें अपने उदार दृष्टिकोण के लिए सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में याद किया जाता है। यह कहा कि जो कुछ डा0 लोहिया ने कहा वह पूरी तौर पर उनकी नागरिक आज़ादी के तहत रहा है।
यह दिलचस्प है कि 1932 में अंगरेजों के बनाए कानून की मुखालफत कांग्रेस ने अपने आंदोलन के जरिए लगातार की लेकिन राजद्रोह किसी न किसी तरह कायम रहा। संविधान लागू होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और संविधान सभा के सदस्य रहे गोविन्द वल्लभ पंत ने खुद उसे राज्य के 35 जिलों में लागू कर दिया था।
तुमने बहुत तकलीफ दी है राजद्रोह
जेएनयू में कुछ छात्रों, कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट, टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले, डाॅक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, उड़ीसा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको तथा एक और प्रकरण कश्मीरी युवक बिलाल अहमद कालू का 1997 में कोर्ट से सजाओं में निपटा। 1995 में बलवंत सिंह वगैरह के प्रकरण में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके हत्यारों को मिली सजा को लेकर सिनेमा हाॅल के सामने ‘खालिस्तान जिंदाबाद‘ के नारे लगाने पर प्रकरण दर्ज हुआ था। वहां जमा भीड़ में भी कुछ लोगों ने नारे को दोहराया। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि न तो अभियुक्तों ने कोई जुलूस निकाला और न ही उनके भड़काऊ नारों के कारण लोगों का सरकार विरोधी सक्रिय समर्थन मिला। वैसा ही विचारण रंगराजन और अरूप भुइयां के प्रकरणों में भी हुआ था।
केदारनाथ सिंह के कारण राजद्रोह नहीं हटा
सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों को हौसला देता रहता है। बिहार की फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और अत्याचार सहित कई आरोप बेहद भड़काऊ भाषा में लगाए थे। केदारनाथ सिंह ने यहां तक कहा कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं। हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। कई बार सुप्रीम कोर्ट ने कहा चाहे जिस प्रणाली की हो, प्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को दंड देने की शक्ति भी होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं। ऐसी दुर्भावना इसी नीयत से फैलाना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने दरअसल ब्रिटिश अवधारणाओं पर भरोसा किया और ‘राज्य की सुरक्षा‘ शब्दांश को लचीला कर दिया।
जानना दिलचस्प है कि केदारनाथ सिंह प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी के तथ्य पर कुछ नहीं कहा। 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘ऑर्गनाइजर‘ में क्रमश: मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे। उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संशोधन करते अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों को संशोधित करना पड़ा था। केदारनाथ सिंह में कहा कि राजद्रोह का अपराध जोड़े गए शब्द ‘राज्य की सुरक्षा‘ और ‘लोकव्यवस्था‘ की चिंता करता हुआ बनाया गया है। इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता। केदारनाथ सिंह के प्रकरण में बहुत बारीक व्याख्या करने से मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजों के जमाने के इस आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को भी असुविधा महसूस होनी चाहिए।
अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए!
राजद्रोह का सुप्रीम कोर्ट के केदारनाथ सिंह के फैसले के कारण गोदनामा वैध बना हुआ है। यह अंगरेज बच्चा भारत माता के कोखजाए पुत्रों को अपनी दुष्टता के साथ प्रताड़ित करता रहता है। राजद्रोह की परिभाषा को संविधान में वर्णित वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में विन्यस्त करते केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में सार्थक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह के अपराध को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर विचार में आ सकता था। केदारनाथ सिंह के प्रकरण में किसी पत्रकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का कथित उल्लंघन करने का आरोप नहीं था। एक राजनीतिक व्यक्ति ने भी यदि सरकार के खिलाफ और आपत्तिजनक भाषा में जनआह्वान किया था तो वह अपने परिणाम में तो टांय टांय फिस्स निकला था। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि कहा कि यदि कोई लोक दुर्व्यवस्था हो जाए या कोई लोक दुर्व्यवस्था होने की संभावना बना दे तो उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा होने की संभावना बनती है।
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‘राज्य की सुरक्षा‘ का कांच महल
‘राज्य की सुरक्षा‘ नामक शब्दांश बेहद व्यापक लेकिन अस्पष्ट है। सरकार या सरकार तंत्र में बैठे हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध का बिगुल बजाता है, तो उससे भर राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा। इसी नाजुक मोड़ पर गांधी सबके काम आते हैं। अंगरेजी हुकूूमत के दौरान गांधी कानूनों की वैधता को संविधान के अभाव में चुनौती नहीं दे पाते थे। फिर भी उन्होंने कानून का निरूपण किया। जालिम कानूनों का विरोध करने के लिए गांधी ने जनता को तीन अहिंसक हथियार दिए। असहयोग, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी। अंगरेजी हुकूमत से असहयोग, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाने पर तिलक, गांधी और कांग्रेस के असंख्य नेताओं को बार बार सजाएं दी गईं। इन्हीं नेताओं के वंशज देश में बाद में हुक्काम बने।
आजादी के संघर्ष के दौरान जिस विचारधारा ने नागरिक आजादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी। आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढूंढ़ सकते हैं? राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर कोड़ा बनकर पड़ता है। अंगरेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच देशों के संगठन ‘ब्रिक्स’ की अध्यक्षता इस साल भारत कर रहा है। भारत, ब्राजील, रुस, चीन और दक्षिण अफ्रीका– इन पांच देशों के इस संगठन की इस बैठक में जो चर्चाएं हुई और जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ है, उसमें कई अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सभी सदस्य-देशों ने भारत के दृष्टिकोण पर सहमति व्यक्त की है। ऐसा कोई मुद्दा नहीं उठा, जिसे लेकर उनमें किसी तरह का मतभेद दिखा हो।
डर यही था कि चीन और भारत के विदेश मंत्रियों के बीच कुछ कहा-सुनी हो सकती थी, क्योंकि गलवान घाटी प्रकरण अभी शांत नहीं हुआ है लेकिन संतोष का विषय है कि चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कोई विवाद छेड़ने की बजाय भारत में चल रहे कोरोना महामारी के अभियान में भारत की सक्रिय सहायता का अनुरोध किया, भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति व्यक्त की और भारत सरकार के प्रयत्नों की प्रशंसा की।
भारत और दक्षिण अफ्रीका के उस प्रस्ताव का सभी विदेश मंत्रियों ने समर्थन किया, जिसमें उन्होंने कोविड-वेक्सीन पर से निर्माताओं के स्वत्वाधिकार में ढील देने की मांग की थी। चीन और रूस तो स्वयं वेक्सीन-निर्माता राष्ट्र हैं, फिर भी उन्होंने इस मुद्दे पर सहमति प्रकट करके अमेरिका ओर यूरोपीय राष्ट्रों पर दबाव बना दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हाथ मजबूत करने में इस प्रस्ताव का विशेष योगदान रहेगा। अफगानिस्तान के सवाल पर सभी राष्ट्रों ने वही राय जाहिर की, जो भारत कहता रहा है।
भारत की मान्यता है कि अफगानिस्तान में से हिंसा और आतंकवाद का खात्मा होना चाहिए और वहां के लोगों की स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा होनी चाहिए। उसकी संप्रभुता अक्षुण्ण रहनी चाहिए। जहां तक अंतरराष्ट्रीय संगठनों का सवाल है, भारत बरसों से जो मांगें रख रहा है, पांचों राष्ट्रों ने उनका समर्थन किया है। रूस और चीन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य है, इसके बावजूद उन्होंने भारत, ब्राजील और द. अफ्रीका की आवाज में आवाज मिलाते हुए संयुक्तराष्ट्र संघ के ढांचे में बुनियादी परिवर्तनों की मांग की है।
अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन का रवैया इन मुद्दों पर ढीला या नकारात्मक ही रहता है। ब्रिक्स-राष्ट्रों ने विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक आदि संस्थाओं में भी बदलाव की मांग की है। भारत को इस दृष्टि से विशेष सफलता मिली है कि उसने सभी प्रकार के आतंकवाद और खास तौर से सीमा पार के आतंकवाद के विरुद्ध ब्रिक्स-राष्ट्रों को बोलने पर सहमत करा लिया है।
ब्रिक्स की इस बैठक के पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने अमेरिकी नेताओं और अफसरों से गहन संवाद स्थापित करके भारत की यह छवि बनाई है कि भारत अंतरराष्ट्रीय गुटबाजी से मुक्त रहकर सभी राष्ट्रों के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए तत्पर है। (नया इंडिया की अनुमति से)
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में राजद्रोह के अपराध को कई कारणों से दुबारा जांचने की जरूरत महसूस की है। यह एक अच्छा लक्षण है। राजद्रोह तो सांप है जो जनता को डस रहा है। जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ दिक्कत यही है कि वे अपनी पूरी प्रतिभा का फलसफा गढ़ पाने में कहीं न कहीं संकोच कर रहे हैं। वे कर गए, तो कर गए। बाकी आगे क्या है? जो है सो है। इसलिए यह लेख लिखने का मन हो गया। जानता हूं बहुत से लोग नहीं पढ़ते हैं। भरमाते जरूर रहते हैं कि आप लिखते रहिए। हम तो आपको पढ़ते हैं। लेखक वही सच्चा होता है, जो लिखता रहता है। भले कोई उसे पढ़े या न पढे़। उसकी किताब छापकर प्रकाशक उसे धोखा देकर देश का सबसे बड़ा प्रकाशक भी कहलाने लगे।
धरती पर क्यों आए हुजूर?
1704 में इंग्लैंड में चीफ जस्टिस सर जाॅन होल्ट ने राजद्रोह के अपराध की परिभाषा में सुधार लाते कहा था लोग सरकार के खिलाफ बुरी भावना या बददिमागी रखें तो जवाबदेही तय किए बिना सरकार का चलना संभव नहीं होगा। लोगों को सरकार के लिए सद्भावना रखनी चाहिए। भले ही आरोप लगाने वाले सच भी क्यों न बोल रहे हों। ज़्यादा गंभीर मामलों में पूरा सच उजागर करने से सरकार की छवि का नुकसान तो होता ही है। भारत में भारतीय दंड संहिता केे रचनाकार लाॅर्ड मैकाले ने शुरुआत में राजद्रोह का अपराध शामिल नहीं किया था। मैकाॅले की टक्कर के न्यायशास्त्री जेम फिट्ज़ेम्स स्टीफन ने दस साल बाद राजद्रोह को जोड़ते कहा यह धोखे से छूट गया था। कारण असल में यह था कि 1863 से 1870 तक भारत में आज़ादी के लिए मशहूर वहाबी आंदोलन चला था। उससे निपटने सरकार को राजद्रोह का दंड संहिता में बीजारोपण करना मुफीद लगा। राजद्रोह अपराध का गर्भगृह इंग्लैंड का ‘द ट्रेजन फेलोनी एक्ट‘ काॅमन लाॅ में रहा। भारत में 1892 में ‘बंगबाशी‘ पत्रिका के संपादक जोगेन्द्र चंदर बोस एवं अन्य के खिलाफ अदालती विचारण में आया। मामले में चीफ जस्टिस पेथेरम ने कहा आरोपी की सरकार के खिलाफ नफरत या मनमुटाव की भावना साफ झलकती है।
इंग्लैंड में जन्मे, तिलक तक पहुंचे
राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मुकदमे एक के बाद एक आकर लोकमान्य तिलक को नागपाश में बांधने की कोशिश कर गए। 1859 में तिलक का पहला मामला उनके भाषण और भक्तिपूर्ण भजन गायन को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की स्मृति संबंधी आयोजन में दर्ज हुआ। दूसरा मुकदमा 1908 में चस्पा किया गया। बंगाल विभाजन के नतीजतन मुजफ्फरपुर में अंगरेजी सत्ता के खिलाफ बम कांड हुआ। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए जा रहे अत्याचारों की तिलक ने समाचार पत्र ‘केसरी‘ में कड़ी आलोचना की। जज दावर ने तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहराया। 1908 में तिलक के अपराधिक प्रकरण में बचाव पक्ष के वकील मोहम्मद अली जिन्ना की जानदार तकरीर भी काम नहीं आई। तिलक को छह वर्ष के लिए कालापानी की सजा दी गई।
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गांधी ने राजद्रोह को आईना दिखाया
सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ। 1922 में सम्पादक गांधी और समाचार पत्र ‘यंग इंडिया‘ के मालिक शंकरलाल बैंकर पर तीन आपत्तिजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। सुनवाई में बहुत महत्वपूर्ण राजनेता अदालत में हाजिर रहते। देश में उस मामले को लेकर सरोकार था। जज स्टैंªगमैन के सामने गांधी ने तर्क किया कि वे साम्राज्य के पक्के भक्त रहे हैं लेकिन अब गैरसमझौताशील, असंतुष्ट बल्कि असहयोगी नागरिक हैं। ब्रिटिश कानून की मुखालफत करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। यह कानून वहशी है। जज चाहें तो अधिकतम सजा दे दें। कहा कि राजद्रोह भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है। वह नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है। जज ने कहा वे मजबूर हैं। गांधी को छह वर्ष के कारावास की सजा दी गई।
1910 में गणेश दामोदर सावरकर ने कई द्विअर्थी कविताओं का प्रकाशन किया था। पढ़ने पर नहीं कहा जा सकता था कि खुले आम कोई नफरत या हुक्मउदूली की जा रही है। लेकिन आरोप था कि लेखक का आशय हिन्दू देवी देवताओं के नामोल्लेख के जरिए अंगरेज़ी हुकूमत के खिलाफ नफरत और मुखालफत का इजहार करना ही था। 1927 में सत्यरंजन बख्शी के मामले में राजद्रोह का हथियार फिर चलाया गया। 1942 में मशहूर मुकदमा निहारेन्दुदत्त मजूमदार का हुआ। उनके प्रकरण में चीफ जस्टिस माॅरिस ग्वाॅयर ने लेकिन पारंपरिक ब्रिटिश कानून की व्याख्या का अनुसरण करते यही सही ठहराया कि जब आरोपी के कहने से लोक शांति के भंग या भंग होने की युक्तियुक्त सम्भावना या खतरा प्रतीत हो तो ही वह अपराधी ठहराया जाएगा। अपराधी की मानसिक स्थिति भर से अपराध होने का कोई आधार नहीं माना गया। लेकिन आगे चलकर सदाशिव नारायण भालेराव के प्रकरण में प्रिवी काउंसिल ने निहारेंदु दत्त मजूमदार के प्रकरण के फैसले के आधारों को पलट दिया।
संविधान सभा से खारिज
संविधान सभा में ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने इस संड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे। इतिहास का सच है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी के प्रतिबंध के रूप में शामिल किया। संविधान सभा में सोमनाथ लाहिरी ने वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोड़ा बनाए जाने पर बेहद कड़ी आलोचना की। उन्होंने व्यंग्य में पूछा क्या सरदार पटेल सोचते हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार को ब्रिटिश सरकार से भी ज़्यादा नागरिक विरोधी शक्तियां मिलनी चाहिए? महत्वपूर्ण है जवाहरलाल नेहरू ने संविधान बनने के बाद अनुच्छेद 19 (1) (क) के सिलसिले में संविधान में प्रथम संशोधन होते वक्त साफ कहा था मैं इस राजद्रोह को कायम रखने के पक्ष में कभी नहीं रहा। इसे व्यावहारिक और ऐतिहासिक कारणों से हटा दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य लेकिन यही है कि जाने क्यों राजद्रोह का अपराध कायम रहकर अपने बाज जैसे जबड़ों में हर तरह के अभिव्यक्तिकारक विरोध को गौरेया समझकर दबा लेता है।
1954 में रामनंदन नामक राजनीतिक व्यक्ति ने कांग्रेस और नेहरू के खिलाफ बहुत आपत्तिजनक भाषण दिए थे। निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को पलटते इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस गुर्टू ने फैसले में लिखा ऐसी आलोचना करते वक्त लोकव्यवस्था और लोकशांति को ध्वस्त करने के कृत्य किए ही जाएं, तब ही राजद्रोह का अपराध घटित होना माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसके पहले 1951 में पंजाब हाईकोर्ट ने तारासिंह गोपीचंद के प्रकरण में ऐसा ही फैसला दिया था कि भारत अब सार्वभौम लोकतांत्रिक राज्य है। सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी और राज्य की बुनियाद को हिलाए बिना उन्हें रुखसत करने के कारण भी पैदा किए जा सकते हैं। ( बाकी हिस्सा कल )
-पुष्य मित्र
मनमोहन सिंह के हाथ जोड़ लेने के पीछे वही स्वाभिमान था। जो आने वाले दिनों में बढ़ता गया। मैं मनमोहन सिंह का बहुत प्रशंसक नहीं हूं। वे भारत में विनाशकारी बाजारवाद के अगुआ रहे हैं। आज हमारा देश जिन नीतियों पर चल रहा है, उसकी शुरुआत उन्होंने ही की और इन नीतियों के जरिये हमारे देश में अमीर और अमीर हुए, गरीब और गरीब। मगर उनका दुर्भाग्य और देश का सौभाग्य था कि उनकी दस साल की सरकार पर लगातार साम्यवादी और समाजवादी नियंत्रण रहा। पहले वाम दलों का, फिर सोनिया गांधी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का। इसलिए वे सब्सिडी का खात्मा, सरकारी कंपनियों की बिक्री और कारपोरेट को खुली छूट उस तरह से नहीं दे पाये, जैसा वे चाहते थे या कहें तो जैसा विश्व बैंक चाहती है।
कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो एक देश के रूप में आपको कभी न भूलने वाला गौरव देती हैं। आजादी के बाद कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिन्हें आज भी लोग देश के गौरव के रूप में याद करते हैं। जैसे- नेहरू का गुटनिरपेक्ष देशों के नेता के रूप में उभरना, शास्त्री जी की यह कोशिश कि वे अपने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना लें, इंदिरा गांधी के प्रयासों से बांग्लादेश की आजादी, इसके अलावा लोग दो परमाणु परीक्षणों को भी उस कड़ी में जोड़ते हैं। मगर जब मैं आजादी के इतिहास के बाद किसी ऐसी घटना की कड़ी तलाशता हूं जो एक देश के रूप में दुनिया में भारत को प्रतिष्ठित करती हो तो मुझे 2004 दिसंबर की वह घटना याद आती है, जब सुनामी के भीषण प्रकोप के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। उस आपदा से उबरने के लिए पूरी दुनिया भारत को मदद करने के लिए तैयार खड़ी थी, मगर उन्होंने बड़ी विनम्रता से कह दिया कि हमें लगता है कि हम इस आपदा से खुद निपटने में सक्षम हैं, अगर फिर भी ऐसा लगा कि हम अपने लोगों की मदद नहीं कर पा रहे तो आपकी मदद स्वीकार कर लेंगे।
मनमोहन सिंह के इस बयान को उस वक्त काफी हैरत के साथ देखा गया था। उस वक्त लोग इस बात को स्वाभाविक मानते थे कि आपदा के वक्त में दुनिया भर के मुल्क सहायता तो करते ही हैं। 1991 में उत्तरकाशी के भूकंप और 1993 में लातूर के भूकंप के वक्त हमें खूब अंतरराष्ट्रीय सहयोग मिला था। 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण के बाद हमारे ऊपर कई मुल्कों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये थे। मगर जनवरी, 2001 में जब गुजरात में भूकंप आया तो फिर कम से कम 20 मुल्कों ने हमें इस आपदा से निपटने के लिए सहयोग किया। मगर 2004 की सुनामी जो कि इन आपदाओं के मुकाबले काफी बड़ी आपदा थी, के वक्त हमारी सरकार ने दुनिया भर के आगे हाथ जोड़ लिये। कहा, एक बार हमें कोशिश कर लेने दीजिये। नहीं होगा तो मांग लेंगे। उस साल हमारी सरकार ने न सिर्फ खुद अपने लोगों को राहत और पुनर्वास उपलब्ध कराया, बल्कि श्रीलंका की भी मदद की।
इस घटना के बाद भारत जैसे मुल्क में ‘नो एड पॉलिसी’ की शुरुआत हुई। आपदाओं के वक्त सरकार हर बार विदेशी मुल्कों के सामने हाथ जोड़ती रही। फिर चाहे वह 2005 का कश्मीर का भूकंप हो, 2013 में उत्तराखंड की भीषण बाढ़ या 2014 की कश्मीर की बाढ़। हर बार हमारी सरकार ने अपने दम पर इन आपदाओं का सामना किया और अपने लोगों को राहत पहुंचायी। कश्मीर में आये भूकंप के वक्त तो भारत सरकार ने अपने इलाके में राहत चलाने के साथ-साथ पीओके के लिए भी मदद उपलब्ध कराया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई के बाद मुझे भारत सरकार का यह फैसला सबसे अधिक गौरवान्वित करता है।
इस फैसले को मैं उस घटना से जोड़ता हूं। 2001 की भूकंप के वक्त हम लोग राहत अभियान में भाग लेने के लिए गुजरात गये थे। वहां कच्छ के इलाके में राहत बांटते वक्त हमने देखा था गुजरात के पटेलों का स्वाभिमान। अमूमन हर जगह पटेलों ने हमारे आगे हाथ जोड़ लिये। हमें जरूरत नहीं, हम कैसे भी कर लेंगे। गरीबों को बांटिये। जबकि उनके घर भी ध्वस्त पड़े थे, लोगों की मौतें हुई थीं। परेशानी और अभाव उनके सामने भी था। मगर वे हाथ जोडक़र मना कर देते थे। 15 दिन तक चले उस राहत अभियान में हमने ज्यादातर भोजन पटेलों के घर किया। पारंपरिक गुजराती भोजन, मगर वे परिवार जो हमें भोजन कराते, वे भी राहत का एक दाना लेने के लिए तैयार नहीं थे।
बाद में मुझे समझ आया कि मनमोहन सिंह के हाथ जोड़ लेने के पीछे वही स्वाभिमान था। जो आने वाले दिनों में बढ़ता गया। मैं मनमोहन सिंह का बहुत प्रशंसक नहीं हूं। वे भारत में विनाशकारी बाजारवाद के अगुआ रहे हैं। आज हमारा देश जिन नीतियों पर चल रहा है, उसकी शुरुआत उन्होंने ही की और इन नीतियों के जरिये हमारे देश में अमीर और अमीर हुए, गरीब और गरीब। मगर उनका दुर्भाग्य और देश का सौभाग्य था कि उनकी दस साल की सरकार पर लगातार साम्यवादी और समाजवादी नियंत्रण रहा। पहले वाम दलों का, फिर सोनिया गांधी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का। इसलिए वे सब्सिडी का खात्मा, सरकारी कंपनियों की बिक्री और कारपोरेट को खुली छूट उस तरह से नहीं दे पाये, जैसा वे चाहते थे या कहें तो जैसा विश्व बैंक चाहती है। जो मौका बाद में नरेंद्र मोदी की सरकार को मिला, क्योंकि इस सरकार पर जनसरोकारी कार्यों का कोई दबाव नहीं है। इसके वोटरों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश आर्थिक रूप से बेहतर हो। तबाह हो जाये तो हो जाये, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने तो यह सरकार मुसलमानों को दबाकर रखने के लिए चुनी है।
तो खैर, भले मुझे मनमोहन सिंह की नीतियां पसंद नहीं हैं, मगर उनका यह फैसला मुझे अच्छा लगा। इसने मुझे गौरवान्वित किया। बाद में नरेंद्र मोदी सरकार ने इस नीति का इस्तेमाल विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारों को दबाने में किया। 2018 में जब केरल में बाढ़ आयी तो यूएई ने राज्य सरकार को 700 करोड़ की सहायता का ऑफर किया। मगर उसे लेने से मोदी जी की सरकार ने इसलिए मना कर दिया कि हमारी अपनी पॉलिसी नो एड की है।
पर अब सरकार ने एक तरह से उस पॉलिसी को ताक पर रख दिया है। अब हर किसी की मदद का स्वागत है। यह मदद इसलिए है कि हमने सही वक्त पर अपनी तैयारी नहीं की और अपने लोगों को बचाने में विफल रहे। लिहाजा हमने स्वास्थ्य उपकरणों के साथ-साथ हर तरह की मदद को स्वीकार करना शुरू कर दिया है।
कहा जा रहा है कि भारत सरकार ने मदद नहीं मांगी है। मदद खुद आ रही है। मगर सरकारें कब मदद मांगती हैं। मदद तो खुद आती हैं। हां, आपमें वह आत्मविश्वास है तो पूरी विनम्रता से इनकार कर दीजिये। अगर नहीं है तो स्वीकार करना ही होगा। कहा जा रहा है कि मदद सरकार नहीं ले रही, रेड क्रॉस सोसाइटी ले रही है। मगर क्या यह सच नहीं कि इन मदद को स्वीकार करने के लिए रेड क्रॉस सोसाइटी को अधिकृत केंद्र सरकार ने ही किया है। इस तरह हम माने न माने मगर पिछले सोलह सालों का गौरव बोध अब खत्म हो गया है। सरकार ने नो एड पॉलिसी को बायपास करने रास्ता निकाल लिया है। हमारे हवाई अड्डे पर मदद के लिए सामान लेकर उतरा हर विमान यही कह रहा है कि भारत अब वह मुल्क नहीं जो कभी मदद का ऑफर करने वाली हर विदेशी पहल के आगे हाथ जोड़ लेता था। अभी रहने दीजिये, एक बार कोशिश कर लेने दीजिये। अब इसे वैधता देने के लिए तो भाजपा की आईटी सेल ने कई तरह के तर्क गढ़े हैं। वे ऐसा करते रहते हैं। मगर सच तो यही है।