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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धार्मिक बनाई जाती पुलिस साम्प्रदायिक होती जा रही
25-Jul-2024 4:29 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : धार्मिक बनाई जाती पुलिस साम्प्रदायिक होती जा रही

2020 में भारत की राजधानी दिल्ली में दंगे हुए जिनमें 40 मुसलमान और 13 हिन्दू मारे गए थे। इनमें से फैजान नाम का एक नौजवान उन 5 लडक़ों में था जिन्हें दिल्ली पुलिस मार-मारकर राष्ट्रगान गाने को कह रही थी। बाद में पुलिस हिरासत से निकलते ही दो दिन में बहुत ही संदिग्ध हालात में फैजान की मौत हो गई थी। हिरासत-मौत की वैसे भी कड़ी जांच का इंतजाम है, लेकिन दिल्ली पुलिस ने अपने ही साथियों पर आ रही तोहमत के इस मामले में अदालत के बार-बार झिडक़ने पर भी इस तरह से जांच की थी कि अभी दिल्ली हाईकोर्ट ने यह जांच सीबीआई को दे दी है। हाईकोर्ट ने पाया कि वीडियो पर जो पुलिसवाले मुस्लिम लडक़ों को मार-मारकर राष्ट्रगान गाने पर दबाव डाल रहे हैं, उनकी चार साल में भी न शिनाख्त हुई है, न ही कोई चार्जशीट पेश हुई है। हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए यह कहा है कि अब तक की जांच लापरवाह और ढीली रही है, और ऐसा लगता है कि पुलिस अभियुक्तों को बचा रही है। फैजान की मां ने अदालत को बताया था कि जब वे उससे मिलने थाने पहुंची थी, तो उन्हें मिलने नहीं दिया गया, और एक रात पुलिस ने उन्हें फैजान को ले जाने दिया, तो उसकी हालत बहुत खरीब थी, उसके कपड़े खून से लथपथ थे। रहस्यमय और संदिग्ध बात यह है कि जिस रात फैजान को थाने में इस तरह के जख्म आए, उस रात थाने का सीसीटीवी कैमरा काम नहीं कर रहा था। अब हाईकोर्ट के जस्टिस अनूप भंभानी ने दिल्ली पुलिस के रवैये की कड़ी निंदा की है, और कहा है कि पुलिसवालों का पांच मुस्लिम लडक़ों को पीटना धार्मिक कट्टरता से प्रेरित था, और इसलिए ये एक हेट-क्राईम माना जाएगा, जिस पर कार्रवाई और तेजी से होनी चाहिए। जज ने पुलिस के इस बयान पर भी सवाल उठाया कि फैजान उस रात खुद थाने में रूकना चाहता था। जज ने कहा कि जब उसका परिवार उसे ढूंढ रहा था, तो उसके खुद थाने में रूकने की बात गले नहीं उतरती है, और यह एक असामान्य बात है। अदालत ने यह भी पूछा कि पुलिस फैजान का इलाज करवाने के बजाय उसे थाने क्यों ले गई? जज ने कहा कि ऐसे नाजुक मौके पर पुलिस थाने के सारे सीसीटीवी कैमरों का खराब हो जाना भी भरोसे के लायक नहीं है। इन सब तर्कों के आधार पर हाईकोर्ट ने इस मामले को दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआई को दे दिया है। यह एक अलग बात है कि आज की तारीख में दिल्ली पुलिस और सीबीआई दोनों ही केन्द्र सरकार के मातहत काम करती हैं, यह एक अलग बात हो सकती है कि सीबीआई में चूंकि अलग-अलग सभी प्रदेशों से आए हुए लोग प्रतिनियुक्ति पर काम करते हैं, इसलिए हो सकता है कि उसकी जांच कुछ ईमानदार हो सके। जहां तक दिल्ली पुलिस का सवाल है तो उसका सूरजमुखी के फूल की तरह सूरज की तरफ घूम जाना सत्ता के प्रति उसका समर्पण दिखाता है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 के दंगों की जांच को लेकर अदालतों ने दिल्ली पुलिस को पहले भी फटकार लगाई हुई है। सितंबर 2021 में दिल्ली कडक़डड़ूमा अदालत के जज विनोद यादव ने तीन लोगों को बरी करते हुए लिखा था कि आजादी के बाद हुए दिल्ली के सबसे भीषण साम्प्रदायिक दंगे को इतिहास देखेगा तो इसमें जांच एजेंसियों की नाकामी पर लोकतंत्र समर्थकों का ध्यान जाएगा कि किस तरह से जांच एजेंसियां वैज्ञानिक तौर-तरीके का इस्तेमाल नहीं कर पाईं। इसी अदालत के एक दूसरे जज पुलस्त्य प्रमचाला ने 2023 में दंगा फैलाने के मामले में तीन लोगों को बरी करते हुए लिखा था कि उन्हें शक है कि पुलिस ने सुबूतों के साथ छेड़छाड़ की है, और केस की ठीक तरह से जांच नहीं की।

हम दिल्ली पुलिस के खिलाफ पूर्वाग्रह, भेदभाव, और पक्षपात के मामलों की पूरी लिस्ट यहां पर गिनाना नहीं चाहते, वरना लोगों को यह तो याद है ही कि किस तरह अभी हाल ही में पहलवान लड़कियों की अनगिनत शिकायतों पर भी दिल्ली पुलिस ने भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ जुर्म दर्ज नहीं किया था, और सुप्रीम कोर्ट की दखल, और बहुत कड़े रूख के बाद बहुत मजबूरी में दिल्ली पुलिस ने अनमने ढंग से केस दर्ज किया था, लेकिन बृजभूषण शरण सिंह पर कार्रवाई तो कभी की भी नहीं। देश की राजधानी में पुलिस को बाकी राज्यों के मुकाबले भी कुछ बेहतर होना चाहिए क्योंकि वहां हर राज्य की सरकारों का आना-जाना लगे रहता है, वहां पर दुनिया के हर देश के डिप्लोमेटिक दफ्तर हैं, संयुक्त राष्ट्र की हर संस्था के दफ्तर हैं। लेकिन दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के निजी सेवक की तरह उसके हुक्म पर काम करते दिखती है, और जब दिल्ली में पुलिस का यह हाल है, तो अधिकतर राज्यों में मानो इसी से सीखकर पुलिस सत्ता की चाटुकार एजेंसी बन गई दिखती है। आज कहीं पुलिस से किसी इलाके में लाउडस्पीकर बहुत तेज बजने की शिकायत की जाए तो पुलिस सबसे पहले यह पूछती है कि कोई राजनीतिक कार्यक्रम तो नहीं है, किस पार्टी का है, या धार्मिक कार्यक्रम है, तो किस धर्म का है? जब पुलिस को यह भरोसा हो जाता है कि उसकी किसी कार्रवाई से सत्ता पर काबिज लोग नाराज नहीं होंगे, तभी वह थाने से हिलने को तैयार होती है। अब सवाल यह है कि देश में राज्य की पुलिस से कौन-कौन सा काम छीन लिया जाए?

जिन मामलों की जांच में आम पुलिस काबिल मानी जा सकती है, उन मामलों को भी पुलिस की धर्म या राजनीति के साथ गिरोहबंदी की वजह से अगर सीबीआई को देने की नौबत आ रही है, तो पहली बात तो यह कि सीबीआई पर भी सत्ता के दबाव की तोहमतें कम नहीं है, और दूसरी बात यह कि देश की बुनियादी जांच एजेंसी पुलिस को जड़ों से पत्तों तक सुधारने के बजाय कुछ मामले उससे लेकर सीबीआई को दे देने से पुलिस में तो कोई सुधार आ नहीं सकता। मुद्दा कुछ चुनिंदा मामलों की जांच का नहीं है, मुद्दा तो पुलिस में जड़ों तक फैल चुकी बीमारी का है, जिसमें भ्रष्टाचार से लेकर साम्प्रदायिकता तक की बीमारी है, और जो राजनीति में खुशी-खुशी शामिल होने वाली एजेंसी हो गई है। हम अभी देश में पुलिस सुधार के लिए बने हुए आयोगों और उनकी रिपोर्टों की चर्चा करना नहीं चाहते, क्योंकि अभी इस कॉलम की बाकी जगह में उसे लिखा नहीं जा सकता। लेकिन अब यह समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट को केन्द्र और राज्य सरकारों से पुलिस की इस आम बर्बादी को सुधारने के बारे में राय मांगनी चाहिए, और दखल देना चाहिए। पुलिस राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात रहती है, और हाल के बरसों में उसे राजनीतिक पसंद-नापसंद के आधार पर काम करने वाले घरेलू कामगार की तरह इस्तेमाल करना बढ़ते चले गया है। देश में जहां-जहां पुलिस का धार्मिक इस्तेमाल हो रहा है, वहां-वहां वह साम्प्रदायिक तो खुद होते चल रही है। धर्म और साम्प्रदायिकता के बीच अहाते की कोई दीवार नहीं खड़ी है, बल्कि इनके बीच एक खुला मैदान है, और पुलिस अपनी पसंद उस पर कहीं भी जाकर खड़ी हो सकती है। यह देश के लिए बहुत फिक्र की बात है, क्योंकि राज्यों में पुलिस का एकाधिकार है, और उसका कोई विकल्प भी नहीं है। दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक दंगों को लेकर वहां की अदालतों के जजों को अगर बार-बार पुलिस के खिलाफ टिप्पणी करनी पड़ रही है, तो यह केन्द्र सरकार के खिलाफ भी कड़ी टिप्पणी है, और देश की बाकी संवैधानिक संस्थाओं को भी इस बारे में सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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