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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अभियुक्तों का मुजरिमों की तरह प्रचार कितना जायज?
28-Jul-2024 6:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अभियुक्तों का मुजरिमों की तरह प्रचार कितना जायज?

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

हर दिन देश भर में पुलिस हजारों मामलों में लोगों की गिरफ्तारी करती है, और अगर जुर्म करने वाले लोग नाबालिग होते हैं, तो उन्हें महज हिरासत में लेकर सुधारगृह भेजा जाता है। बाकी तमाम लोगों के नाम-पते सहित उनकी तस्वीरें पुलिस समाचार में जारी करती है। इनमें नाबालिग को बहला-फुसलाकर ले जाने, और बलात्कार करने से लेकर मारपीट या बकरी चोरी तक की खबरें रहती हैं। इनमें जो लोग पकड़ाते हैं, उनके चेहरे दिखाते हुए पूरी जानकारी पुलिस प्रेसनोट से शुरू होकर पुलिस के ही सोशल मीडिया पेज, या अखबार-टीवी तक छपती और दिखती है। अब तो पुलिस प्रेसनोट के साथ छोटे-छोटे वीडियो बनाकर भी भेजने लगी है ताकि टीवी चैनलों और यूट्यूब पर उसका इस्तेमाल हो सके। यहां एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि भारत की जांच और न्याय व्यवस्था में बड़ी संख्या में लोग अदालत से छूट जाते हैं। बहुत से लोगों को अदालतें संदेह का लाभ देकर बरी करती हैं क्योंकि जांच एजेंसियां कमजोर जांच, या कमजोर गवाह और सुबूत के चलते अदालत ने आरोप साबित नहीं कर पातीं। दूसरी तरफ कई ऐसे मामले रहते हैं जिनमें अदालतें गिरफ्तार और कटघरे में खड़े किए गए लोगों को पूरी तरह बेकसूर पाती हैं, और उन्हें बाइज्जत बरी करती है। कुछ मामले तो ऐसे भी होते हैं जिनमें अदालतें पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी लिखती हैं कि उन्होंने साजिशन किसी को गिरफ्तार करके जेल में डाला, और मुकदमा चलाया, जबकि पुलिस को अच्छे से मालूम था कि वे बेकसूर हैं।

अब इनमें से जिस किसी किस्म का जो भी मामला हो, अदालत ने तो अभियुक्त बनाकर खड़े किए गए लोगों की इज्जत जितनी मटियामेट होनी रहती है, वह तो होती ही है, लेकिन जब तक मामला अदालत में चलते रहता है, और साबित कुछ भी नहीं हुआ रहता, तब तक उनकी गिरफ्तारी की तस्वीरें जारी करना क्या ठीक है? इसे एक दूसरे तरीके से देखें कि जिन नेताओं पर ऐसे मुकदमे चलते हैं जिसमें उन्हें एक सीमा से अधिक सजा हो सकती है, और उनके आगे चुनाव लडऩे की अपात्रता हो सकती है, ऐसे मामलों में जब तक उन्हें सजा नहीं हो जाती, तब तक चुनाव घोषणापत्र में उन पर चल रहे मुकदमों का जिक्र होने के बाद भी उनके चुनाव लडऩे पर रोक नहीं रहती। दूसरी तरफ जिन लोगों को साइकिल चोरी से लेकर छेडख़ानी तक के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है, उनके चेहरे पुलिस पहले दिन से जारी कर देती है, और उनके जमानत पर छूटने के बाद भी, उनका चेहरा लोगों के दिमाग में बैठे रहता है, और शायद ही उन्हें कोई नौकरी पर रखे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि किसी के जुर्म के लिए किस तरह की सजा का प्रावधान होना चाहिए? क्या सजा अदालत दे, हिरासत में पिटाई करके पुलिस दे, सडक़ों पर पीटकर जनता दे, या रोजगार पाने का हक छीनकर समाज दे? किसी एक व्यक्ति के किसी एक जुर्म पर उसे कब, कब तक, और कितनी, कितने किस्म की सजाएं दी जानी चाहिए? जब देश के सांसद उन पर चल रहे मुकदमों के बावजूद अपनी रोजी-रोटी पाते रहते हैं, सांसद बने रहते हैं, वहां से वेतन-भत्ते पाते रहते हैं, शायद रियायती खाना भी पाते हैं, विशेषाधिकार भी कायम रहते हैं, तो फिर छोटे-छोटे आम जुर्म में फंसे हुए लोगों की बदनामी करके उनके जिंदा रहने की संभावनाओं को खत्म करना क्या इंसाफ कहलाएगा?

हमारी यह बात कई लोगों को बहुत खटक सकती है कि हम मुजरिमों को बचाने की बात कह रहे हैं। सवाल यह है कि क्या किसी जुर्म के शक में गिरफ्तार लोग समाज में जिंदा रहने का अपना हक खो बैठते हैं? पुलिस के प्रेसनोट से संदिग्ध लोगों, और आरोपियों की बदनामी गिरफ्तारी के साथ ही इतनी हो जाती है कि समाज एक किस्म से उनका बहिष्कार कर देता है। जब कोई काम पर न रखे, कोई काम न दे, तो लोग जिंदा रहने का हक खो बैठते हैं। इसलिए सवाल यह उठता है कि क्या एक आरोपी और अभियुक्त को अदालती सजा के साथ-साथ ऐसी सामाजिक सजा देना भी जायज है जिससे उन्हें आगे मुजरिम बनने की एक मजबूरी ही हो जाए? ऐसी बात हमने पुलिस और प्रशासन द्वारा जिलाबदर किए जाने वाले लोगों के बारे में भी लिखी थी। जिन लोगों पर बहुत से जुर्म दर्ज होते हैं, और जिनके बारे में पुलिस का मानना रहता है कि उनके सुधरने के आसार नहीं दिख रहे, और जिन्हें उनके इलाके से हटा देना ही अकेला इलाज है, उन्हें पुलिस की सिफारिश पर कलेक्टर जिलाबदर करते हैं। हमें इसमें दो बातें नाजायज लगती हैं। कोई व्यक्ति अपने इलाके में कितने ही बड़े गुंडे या मुजरिम क्यों न हों, वे पुलिस की नजर में रहते हैं, और समाज में भी उन्हें काफी लोग पहचानते हैं, इसलिए लोग उनके संभावित जुर्म से बचकर भी रह सकते हैं, और पुलिस भी उन्हें किसी भी शक की नौबत में तुरंत उठा सकती है। दूसरी तरफ जब वे अपने जिले के बाहर भेज दिए जाते हैं, और अड़ोस-पड़ोस के लगे हुए जिलों से भी परे जाने उन्हें कह दिया जाता है, तब उनके सामने नई जगह पर किसी भी तरह का रोजगार पाना मुश्किल हो जाता है, उन्हें रहने के लिए अलग से घर बसाना पड़ता है, जिसका खर्च रहता है, और उनके सामने सिवाय मुजरिम बनने के और कोई आसान रास्ता नहीं रहता। दूसरी तरफ जिस जिले में जाकर वे बसते हैं, वहां की पुलिस और जनता उन्हें पहचानती नहीं है, और उनसे सावधान रहना किसी के लिए मुमकिन नहीं रहता, वे समाज के लिए वहां अधिक बड़ा खतरा हो सकते हैं।

खैर, जिलाबदर पर कार्रवाई का वर्तमान कानून एक अलग किस्म की बेइंसाफी है, और समाज के लिए कहीं अधिक बड़ा खतरा है, दूसरी तरफ हर तरह के छोटे-छोटे आरोपों में गिरफ्तार लोगों की तस्वीरें रोज जारी करके पुलिस रोजाना ही कई लोगों के बुनियादी हक कुचलती है। हो सकता है आज सरकार के नियमों में इस पर कोई रोक न हो, और यह भी हो सकता है कि आज के नियम ऐसे प्रचार का समर्थन भी करते हों, ताकि बाकी समाज सावधान रह सके, लेकिन किसी संदिग्ध आरोपी के भी कुछ बुनियादी हक होने चाहिए, यह सोच भारत में लोकप्रिय नहीं है। यहां पर लोगों को यही सुहाता है कि शराबी, या किसी संदिग्ध के कोई बुनियादी हक नहीं होने चाहिए। यही वजह है कि जब पुलिस कुछ आरोपियों की बेरहमी से, अमानवीय तरीके से पिटाई करती है, तो लोग उसकी भी तारीफ करते हैं। कुछ पुराने लोगों को याद होगा कि 1980 में बिहार के भागलपुर में यह मामला सामने आया था जब पुलिस ने सजायाफ्ता या अभियुक्त लोगों की आंखों में तेजाब डालकर 31 लोगों को अंधा कर दिया था, क्योंकि पुलिस का यह मानना था कि ये लोग ऐसे आदतन मुजरिम हो गए थे कि इनके लिए और कोई सजा असरदार नहीं थी।

हमारा मानना है कि भारत की न्याय व्यवस्था में अदालती सजा ही अकेली सजा है, और पुलिस को अभियुक्तों के फोटो जारी करते हुए यह सोचना चाहिए कि क्या वे जुर्म के आरोप में फंसे लोगों को किसी रोजगार की संभावना से दूर करके महज मुजरिम बनने का विकल्प तो नहीं दे रहे हैं?

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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