संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वातावरण और खानपान से हजारों किस्म के रसायनों का इंसानी बदन में बना डेरा
23-Sep-2024 3:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : वातावरण और खानपान से हजारों किस्म के रसायनों का इंसानी बदन में बना डेरा

एक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र के मुताबिक खानपान के सामानों की पैकिंग से इंसान के शरीर में पहुंचने वाले रसायनों की जांच करने पर 36 सौ से अधिक ऐसे केमिकल मिले हैं। ये केमिकल इंसान के शरीर के हर हिस्से में पहुंच रहे हैं, और इनसे होने वाले नुकसान का पूरा अंदाज लगाना आसान नहीं है। लेकिन इनमें से कई रसायन बहुत ही चिंताजनक खतरनाक किस्म के हैं, और ये इंसान के खून, पेशाब, और मां के दूध में भी मिल रहे हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले हमने माइक्रो प्लास्टिक प्रदूषण के बारे में इसी जगह पर लिखा था, और लोगों के रोज के कपड़ों, पानी, और खानपान के बोतल और डिब्बों से निकलने वाले माइक्रो प्लास्टिक इंसान के बदन के हर हिस्से में पहुंच चुके हैं, और दुनिया के सबसे साफ-सुथरे, और प्रदूषण मुक्त देशों में भी एकदम स्वस्थ वालंटियरों में, 22 में से 17 के खून के नमूनों में माइक्रो प्लास्टिक निकले हैं। अब उसके बाद की यह ताजा खबर और अधिक फिक्र पैदा करती है कि खानपान की पैकिंग से 36 सौ से अधिक किस्म के रसायन बदन में पहुंचे हुए मिले हैं।

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बार-बार लोगों को इस बात के लिए सावधान करते हैं कि बाजार का खाना कम से कम खाना चाहिए। फैक्ट्रियों में बने खाने-पीने के सामान बहुत अलग-अलग किस्मों से नुकसानदेह होते हैं, उनमें नमक, शक्कर, स्वाद बढ़ाने वाले रसायन, तरह-तरह के तेल-घी-मक्खन, खराब होने से बचाने के लिए प्रिजरवेटिव, और भी न जाने क्या-क्या रहता है। हम खासकर बच्चों के संदर्भ में यह बात लिखते हैं कि घर के बने हुए खाने-पीने के सामान उनके लिए सबसे अच्छे रहते हैं, और बाहर के सामान नुकसानदेह होते हैं। अब अगर इतने किस्म के रसायन खून और दूध तक पहुंच जा रहे हैं, तो मां के शरीर से बच्चे के पैदा होने के पहले खून आते-जाते रहता है, और बच्चे के पैदा होने के बाद वे मां के दूध पर ही जिंदा रहते हैं। अब अगर इंसान के शरीर में खून के रास्ते दिल और दिमाग तक माइक्रो प्लास्टिक पहुंचते हैं, इतने किस्म के रसायन पहुंचते हैं, तो इसके खतरों को समझने की जरूरत है। ये खतरे हवा और पानी के प्रदूषण से, सामानों की पैकिंग से, फल-सब्जी, और खाए जाने वाले प्राणियों से लगातार बने रहते हैं। आज ही एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह सडक़ों पर चलने वाली गाडिय़ों के टायर घिसने से निकलने वाले बहुत बारीक कण सांसों के रास्ते सीधे बदन में पहुंचते हैं, और जब सडक़ों से बहता पानी नदी, तालाब, और खेतों में जाता है, तो यह घिसा हुआ रबर पानी और फल-सब्जियों के रास्ते भी कई दूसरे रसायनों से मिलकर इंसान के बदन में दाखिल होता है।

चूंकि जब तक किसी प्रदूषण की गंध न आए, या धुएं की शक्ल में वह न दिखे, उसका स्वाद न आए, या आंखें न जलें, हमें न प्रदूषण दिखता, न कोई खतरा दिखता। नतीजा यह होता है कि जब तक प्रदूषण हमारे दिल की धमनियों में जम चुका रहता है, दिमाग में पहुंच चुका रहता है, अजन्मे बच्चों में पहुंच जाता है, तब तक हमें इसका अहसास भी नहीं होता। अब ऐसे में लोगों के बीच प्रदूषण को लेकर निजी जागरूकता की न तो कोई संभावना है, और न ही उस जागरूकता का कोई इस्तेमाल है। यह तो सरकारों के देखने की बात है कि किस तरह के प्रदूषण को कैसे घटाया जा सकता है। लोगों की निजी जागरूकता इतने काम आ सकती है कि जिन चीजों से रसायन बदन में पहुंचते हैं, उन्हें खरीदना बंद करें, खाना-पीना बंद करें, और उनका इस्तेमाल कम से कम करें। एक तरफ लोगों में जागरूकता की कमी है, दूसरी तरफ बाजार का हमला इतना आक्रामक है कि वह लोगों को अंधाधुंध रसायनों, और खतरनाक पैकिंग के सामान खरीदने के लिए झोंक देता है। दुनिया के कई जिम्मेदार देशों ने जंक फूड कहे जाने वाले चीजों के इश्तहार बच्चों के कार्यक्रमों में दिखाना रोका जा रहा है। इसमें टीवी के इश्तहार भी हैं, और ऑनलाईन इश्तहार भी हैं, और बच्चे इन दोनों को देखकर नुकसानदेह खानपान की तरफ आकर्षित होते हैं। फिर हमें ऐसी मिसालों के लिए पश्चिम के संपन्न और उदार अर्थव्यवस्था के देशों की तरफ देखने की जरूरत नहीं है क्योंकि हिन्दुस्तान में भी अब घर बैठे मोबाइल ऐप से बच्चे भी खाना बुलाना सीख गए हैं, तो तरह-तरह के रसायनों वाला खान-पान, तरह-तरह की लापरवाह और खतरनाक पैकिंग में घर पहुंचने लगा है, और जागरूकता से परे के मां-बाप को यह सहूलियत का भी लगने लगा है कि कुछ पकाना नहीं पड़ता, और बच्चे बिना परेशान किए खा लेते हैं। 

बाहरी खान-पान का यह सिलसिला बढ़ते ही जा रहा है। ऐसे में जागरूकता बढ़ाना कुछ हद तक मददगार हो सकता है, लेकिन इसके साथ-साथ सरकारों को भी पैकिंग-मटेरियल को लेकर कानून कड़े करने होंगे। आज भी बड़े-बड़े रेस्त्रां के खाने की पैकिंग का प्लास्टिक फूड ग्रेड का नहीं होता। जो बड़े-बड़े ब्रांड पुट्ठे के डिब्बों में फास्ट फूड भेजते हैं, वे भी खानपान के लायक नहीं रहते। जब घटिया प्लास्टिक में गर्म और खौलता खाना पहुंचता है, या उसी को दुबारा माइक्रोवेव में गर्म किया जाता है, तो उससे फिर कई तरह के रसायन पैदा होते हैं। भारत जैसे देश में न ग्राहक की जागरूकता है, न ग्राहक के बचाव के लिए कानून कड़े हैं, न किसी कानून पर अमल ईमानदारी से होता है। इसके बाद हर किस्म के संगठित उद्योग और कारोबार की लॉबी इतनी मजबूत रहती है कि वह सरकार से पैकिंग पर चेतावनी और जानकारी छापने से बच भी जाती है। 

आज तरह-तरह के प्रदूषण के नुकसान लोगों को अपनी खुद की पीढ़ी में भी सांस की गंभीर बीमारियों की शक्ल में दिख रहे हैं, लेकिन खान-पान में पहुंचने वाले, या पानी के रास्ते मिलने वाले माइक्रो प्लास्टिक, और रसायन की शिनाख्त आसान नहीं है। इसलिए जब कई पीढिय़ां खतरे में पड़ चुकी होंगी, तब जाकर हो सकता है कि लोगों की नींद खुले। तब तक नुकसान इतना हो चुका रहेगा कि वह अगली कई पीढिय़ों को नुकसान पहुंचाना जारी रखेगा। आज जब हिन्दुस्तान जैसे देश में लोग आंखों से दिखते प्रदूषण को भी अनदेखा करके रहने में कोई दिक्कत महसूस नहीं करते, तो ऐसा समाज बड़े लंबे नुकसान को न्यौता दे चुका है। देखें यह बर्बादी कहां तक पहुंचती है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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