विचार/लेख
अशोक पांडेय
दिएगो माराडोना ने अपने टखने और बांह पर बीसवीं सदी के दो सबसे बड़े लातीन अमेरिकी क्रांतिकारियों फिदेल कास्त्रो और चे गुएवारा के टैटू गुदवा रखे थे। एक बहुत बड़ी सेलेब्रिटी के तौर उसे अधिकार था कि जितनी चाहे उतनी रकम मांग कर अमेरिकी पूंजीवाद का टट्टू बन जाता। अमेरिकी साम्राज्यवाद के झंडाबरदारों ने उसे अपने पाले में लाने के लिए ऐसी अकल्पनीय रकमें देने के प्रस्ताव दिए जिन की हमारे भारतीय सुपरस्टार कल्पना नहीं कर सकते। उसने उन पर थूक दिया। उसने कहा वह अपने लोगों से मोहब्बत करता है।
फुटबॉल को समझने-चाहने वालों में से आधे लोग उसे भगवान मानते हैं। इतनी ही तादाद उसे बर्बाद नशेड़ी बताने वालों की भी है। कुछ भी हो आपने उसे पिछले सौ सालों के सबसे बड़े दो या तीन फुटबॉलरों में गिनना ही होगा। उसके जैसी बेबाक राजनैतिक प्रतिबद्धता और सजगता बहुत कम खिलाडिय़ों में रही।
इस चैम्पियन ने अपने समय के सबसे ताकतवर आदमी यानी अमेरिकी राष्ट्रपति को सार्वजनिक रूप से ‘मानव गू का हिस्सा’ कहा। माराडोना कहता था- ‘जब आपको दुनिया जानने लगती है तो आपको अमरीका या उसके राष्ट्रपति के बारे में कुछ भी कहने की अनुमति नहीं होती। ऐसे और भी बहुत से निषिद्ध विषय होते हैं लेकिन आपको यह सीखना होता है कि किसे कितनी इज़्जत दी जानी चाहिये। आप चाहे कितने ही मशहूर फुटबॉलर या और कोई खिलाड़ी क्यों न हों, आपको एक हत्यारे व्यक्ति के बारे में अपने विचार व्यक्त करने का पूरा अधिकार होता है।’
अगर माराडोना की मौत पर कुछ लिखे-कहे बिना चैन न आ रहा हो तो तेल और फ्लैट बेचने वाले महानायकों वाले हमारे देश के हर खेलप्रेमी नागरिक को सर्बिया के जबदस्त फिल्मकार एमीर कुस्तुरिका की 2008 में बनाई फिल्म ‘माराडोना’ एक बार जरूर देखनी चाहिए।
माराडोना कहता था- ‘अमेरिका की यह बात मुझे जरा भी पसंद नहीं है कि वह दुनिया पर अपनी दादागीरी चलाने के लिए बहुत मेहनत करता है और उसे दुनिया के हर नागरिक की समस्या दूर करने का फितूर है।’
सलाम चैम्पियन! अलविदा चैम्पियन!
(फोटो- कास्त्रो को कास्त्रो का टैटू दिखाते मारादोना)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तरप्रदेश सरकार ने लव जिहाद के खिलाफ अध्यादेश जारी कर दिया है। उस अध्यादेश में लव जिहाद शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, यह अच्छी बात है, क्योंकि लव और जिहाद, ये दोनों शब्द परस्पर विरोधी हैं। जहां लव होगा, वहां जिहाद हो ही नहीं सकता। लव के आगे सारे जिहाद ठंडे पड़ जाते हैं। लव जिहाद का हिंदी रुप होगा- ‘प्रेमयुद्ध’। जहां प्रेम होगा, वहां युद्ध नहीं हो सकता और जहां युद्ध होगा, वहां प्रेम कैसे होगा ?
लव जिहाद में न लव होता है और न ही जिहाद होता है। उसमें धोखाधड़ी होती है, तिकड़म होती है, दुष्कर्म होता है, बल-प्रयोग होता है और गंदी राजनीति होती है। इसे रोकना तो हर सरकार का कर्तव्य है। इस उद्देश्य से बने हर कानून का स्वागत किया जाना चाहिए। उ.प्र. के मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने कहा है कि धर्म-परिवर्तन याने हिंदू लड़कियों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाने के लगभग 100 ऐसे मामले सामने आए हैं। यदि ऐसे मामलों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए यह कानून लाया जा रहा है तो इसका अवश्य स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन छल-छिद्र से धर्म-परिवर्तन करने के खिलाफ तो पहले से ही कठोर कानून बने हुए हैं और कई राज्यों ने इन्हें पूरी दृढ़ता के साथ लागू भी किया है।
उ.प्र. सरकार के इस अध्यादेश में एक नई और अच्छी बात यह है कि सामूहिक धर्म-परिवर्तन करनेवाली संस्थाओं पर प्रतिबंध लगेगा और उसकी सजा भी कठोर है लेकिन सरकार यह कैसे सिद्ध करेगी कि फलां धर्म-परिवर्तन शादी के लिए ही किया गया है ? अगर धर्म-परिवर्तन के लिए शादी का बहाना बनाया गया है तो ऐसी शादी कितने दिन चलेगी ? और शादी के खातिर यदि कोई हिंदू या मुसलमान बनना चाहेगा तो कानून उसे कैसे रोकेगा ? जो हिंदू लडक़ी किसी मुसलमान से शादी करेगी, वह दो माह पहले इसकी सूचना पुलिस को देगी लेकिन किसी हिंदू लडक़े से शादी करनेवाली मुसलमान लडक़ी को भी यह सूचना देनी होगी। सूचना देने भर से शादी कैसे रुकेगी ?
‘हिंदू मेरिज एक्ट’ और ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के मुताबिक ऐसी शादी अवैध होती है लेकिन ‘स्पेश्यल मेरिज एक्ट’ यह अनुमति देता है कि शादी करनेवाले वर और वधू अपने-अपने धर्म को बदले बिना भी शादी कर सकते हैं। इसीलिए जो भी वर या वधू अपना धर्म बदलेंगे, उन्हें बदलने से कैसे रोका जा सकता है और जो नहीं बदलना चाहेंगे, उन्हें भी शादी करने से कैसे रोका जाएगा? क्या यह कानून ‘घर वापसी’ याने शुद्धि करनेवालों पर भी लागू होगा? यदि होगा तो तबलीगी जमात और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी इसे लागू करना पड़ेगा। जिस प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार होगी, वह अपने वोटों के गणित के आधार पर इस कानून का लागू करेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कबीर संजय
उत्तराखंड से बेहद बुरी खबर आ रही है। उत्तराखंड के लोग अपनी जमीन को देवभूमि भी कहते हैं। आशय यह है कि यह देवताओं की पवित्र भूमि है। लेकिन, इस देवभूमि की सरकार अब हाथियों का आशियाना छीन लेने वाली है। जी हां, उत्तराखंड सरकार 14 एलीफेंट रिजर्व खत्म करने जा रही है। उसके हिसाब से एलीफेंट रिजर्व विकास परियोजनाओं के लिए अड़ंगा साबित हो रहे हैं।
आज के जमाने के लिए विकास एक भयंकर और खौफनाक शब्द होता जा रहा है। विकास परियोजनाओं के नाम पर तमाम जगहों पर पर्यावरण और वन्यजीवन का विनाश ही देखने को मिलता है। आम लोगों को भी इसका लाभ नहीं मिलता। जबकि, कारपोरेट और उनसे कमीशन खाने वाले राजनीतिज्ञ इसकी मलाई चाटते हैं। जाहिर है उनके खयाल में भी कहीं वन्यजीवन, जंगल और पर्यावरण नहीं है। उनके लिए तो यह एक पार्टी चल रही है। जिसमें जितना ज्यादा वे भकोस और ठूंस सकते हैं, उतना भकोस और ठूंस लेना चाहते हैं। भले ही आगे आने वाली पीढिय़ों को उनकी झूठी पत्तलें उठानी पड़ें और गंदगी साफ करनी पड़ें। उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं है। यह विकास आखिर इतना मानव और प्रकृति द्रोही क्यों है।
कुछ ही दिन पहले उत्तराखंड सरकार ने जौलीग्रांट एयरपोर्ट को विस्तार देने के लिए थानों के जंगलों के एक हिस्से को अधिकार में लेने का प्रस्ताव किया था। इसके लिए हजारों पेड़ों का काटा जाना था और देहरादून, ऋषिकेश और हरिद्वार का प्रबुद्ध समाज और युवा इसके खिलाफ प्रदर्शन भी कर रहे थे। पेड़ों को रक्षासूत्र बांधे जा रहे थे। अब सरकार इससे भी एक कदम आगे बढ़ गई है।
उत्तराखंड के शिवालिक एलीफेंट रिजर्व में चौदह प्रकोष्ठ में हैं। इनमें लगभग दो सौ वर्ग किलोमीटर का हिस्सा एलीफेंट रिजर्व के नाम पर नोटीफाइड हैं। उत्तराखंड के वन मंत्री द्वारा इस पूरे इलाके को डी-नोटीफाई करने की बात कही गई थी। मंगलवार की शाम को स्टेट वाइल्ड लाइफ बोर्ड की बैठक में इस प्रस्ताव को हरी झंडी भी दे दी गई। यानी हाथियों से उनका आशियाना छीने जाने पर मुहर लग गई। वन मंत्रालय हो या वाइल्ड लाइफ बोर्ड, ऐसा लगता है कि ये जंगल को बढ़ाने और जंगली जीवों के जीवन के संरक्षण के लिए नहीं बल्कि उनकी मौत के परवाने पर दस्तखत करने के लिए ही बने हुए हैं।
आशियाना छिन जाने के बाद हाथियों का क्या होगा। उनके अपने जंगल सुरक्षित नहीं रहेंगे। उनके अपने जंगलों में तमाम योजनाएं बनाई जाएंगी। इंसान उन इलाकों में घुस जाएगा। हाथी और इंसान के बीच टकराव और तनाव बढ़ेगा। जिसका खामियाजा इंसान और हाथी दोनों ही भुगतना पड़ेगा। जाहिर है कि हाथियों को करंट लगाकर मार देने की घटनाओं में भी इजाफा होने वाला है।
सरकारें जंगलों को चूस लेना चाहती हैं, वे वन्यजीवों के रक्त की एक-एक बूंद को मुनाफे में ढाल लेना चाहती हैं। हाथियों के जीवन की परवाह किसे है। उसकी पूजा तो सिर्फ मूर्तियों में की जानी है।
एक दिन ऐसा भी आएगा जब सिर्फ मूर्तियां ही बचेंगी।
-दिव्या आर्य
अमूमन भारत में बलात्कार के मामले इतने भयावह होते हैं कि देश में सुर्खियां बनने के साथ साथ दुनियाभर के मीडिया में उनकी चर्चा होती है.
दिल्ली में 2012 में निर्भया के सामूहिक बलात्कार के बाद क़ानून को सख़्त बनाया गया और इसके बाद पुलिस के पास दर्ज होने वाले मामलों की संख्या भी बढ़ी है.
इसकी एक वजह महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली यौन हिंसा पर बढ़ती बहस बताई जाती है, तो कई जानकार क़ानूनी सुधार की ओर भी इशारा करते हैं.
सरकार मौत की सज़ा जैसे कड़े प्रावधान भी लाई है.लेकिन कुछ विश्लेषकों के मुताबिक ऐसे प्रावधान खोखले और आम लोगों का गुस्सा ठंडा करने के लिए लाए जाते हैं और इनमें समस्या की गहराई और उसको जड़ से निपटाने पर ध्यान नहीं दिया गया है.
बीबीसी 100 वीमन सीरीज़ के तहत बीबीसी ऐसी तीन कहानियाँ बता रहा है, जिनसे ज़ाहिर होता है कि भारत के सख़्त क़ानूनों से बलात्कार की शिकार महिलाओं को मदद नहीं मिल रही है.
"यही ख़्वाहिश है कि हमारे जीवित रहते न्याय मिल जाए"
आज इस गांव की पहचान यही है कि यह वो 'गाँव है जहां लड़कियां फंदे पर लटकती' मिली थीं.
15 और 12 साल की दो चचेरी बहनें इस गांव में आम के पेड़ पर 'फंदे पर लटकती' मिली थीं. उनके परिवार वालों का दावा है कि बलात्कार के बाद उनकी हत्या की गई.
2012 के दिल्ली गैंगरेप के बाद यह बलात्कार का पहला बड़ा मामला बना था. घटना को छह साल से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन कइयों के जहन में यह ताज़ी घटना ही है, मानो कल की बात हो.
उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले की संकरी सड़कों पर जब हमने लोगों से गांव का रास्ता पूछा तो हर किसी ने गांव को पहचान लिया और हमें वहां तक पहुंचने का सही रास्ता भी बताया.
हालांकि बदायूं में प्रभावित परिवार के लिए लड़ाई इतनी आसान नहीं रही है. मैं इन लोगों से 2014 की गर्मियों में मिली थी. तब कार से आठ घंटे लंबा सफ़र तय करके मैं दिल्ली से यहां सबसे पहले पहुंचने वाले संवाददाताओं में थी.
फाँसी लगाने वाली लड़कियों में एक के पिता ने मुझसे उसी पेड़ के नीचे बात की जिस पेड़ पर उनकी बेटी लटकी हुई मिली थी.
उन्होंने कहा था कि वे बेहद डरे हुए हैं क्योंकि स्थानीय पुलिस ने ताने मारते हुए मदद करने से इनकार कर दिया था. लेकिन उनमें बदला लेने की एक चाहत भी दिखी. उन्होंने कहा, "इन लोगों को आमलोगों की भीड़ में फांसी पर लटकाना चाहिए, जैसा इन लोगों ने हमारी बेटियों के साथ किया."
बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य पीड़िताओं के पिता के साथ
जब कानून कड़े किए गए तो मक़सद था कि महिलाओं और लड़कियों को पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने में आसानी हो. बलात्कार के मामलों में मौत की सज़ा को भी शामिल किया गया और मामलों की सुनवाई के लिए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए गए.
नए प्रावधानों में एक के मुताबिक किसी भी नाबालिग़ लड़की के साथ बलात्कार के मामले की सुनवाई हर हाल में एक साल के अंदर पूरी होनी चाहिए. इसके बाद भी बलात्कार के लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.
सरकार के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक साल 2013 के अंत तक ऐसे लंबित मामलों की संख्या 95 हज़ार थी जो 2019 के अंत तक बढ़कर एक लाख 45 हज़ार हो गई.
बदायूं में हम फिर उस पेड़ की तरफ गए लेकिन लड़की के पिता ने नज़रें नीची रखीं. बोले कि पुरानी यादें बहुत दर्द देती हैं. उन्हें देख लगा कि छह साल में उनकी उम्र मानो कई साल बढ़ गई है.
गुस्सा अब भी कायम है, लेकिन साथ ही उस कड़वी सच्चाई का एहसास भी है कि न्याय हासिल करने की लंबी लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ती है.
उन्होंने कहा, "क़ानून के मुताबिक मामले की सुनवाई जल्दी होनी चाहिए लेकिन हमारी याचिकाओं को लेकर अदालतें बहरी हैं. मैं अदालतों के चक्कर लगा रहा हूं लेकिन ग़रीबों को शायद ही न्याय मिलता है."
हालांकि मामले की जांच तेज़ गति से हुई. पर जांच करने वाले अधिकारियों ने कहा कि बलात्कार और हत्या को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, जिसके चलते संदिग्ध छूट गए.
परिवार ने इसको चुनौती दी और मामले को फिर से शुरू कराया. लेकिन अदालत ने इस बार छेड़छाड़ और अपहरण के कहीं कम संगीन अपराध दर्ज किए. अब परिवार ने इसे भी चुनौती देकर दोबारा बलात्कार और हत्या के आरोप कायम करने की याचिका दायर की है.
भारतीय न्यायिक व्यवस्था के पास संसाधन और कर्मचारी, दोनों ही कम हैं. बदायूं मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो रही है लेकिन परिवार के वकील ज्ञान सिंह के मुताबिक यहां भी कोई विशेष सुविधाएं नहीं हैं.
उन्होंने कहा, "फास्ट ट्रैक कोर्ट तेज़ी से सुनवाई करने की कोशिश करती है लेकिन कभी फॉरेंसिक तो कभी कोई अन्य रिपोर्ट में देरी हो जाती है, डॉक्टर और जांच अधिकारियों का तबादला हो जाता है और गवाहों के अदालत में पलट जाने से भी देरी होती है."
बदायूं में परिवार के घर में पिछले सालों में दस्तावेज़ों और फाइलों का ढेर लग चुका है. फांसी के फंदे पर झुलती पायीं गई दो लड़कियों में एक की मां के लिए ये लड़ाई बर्दाश्त से ज़्यादा लंबी चल चुकी है.
उनसे विदा लेने के बाद भी उनके शब्द मेरे कानों में गूंजते रहे. मां ने कहा, "यही ख़्वाहिश है कि हमारे जीवित रहते न्याय मिल जाए."
'मेरे माता-पिता ने मेरे प्रेमी को बलात्कार के मामले में जेल भिजवाया'
उषा (बदला हुआ नाम) 17 साल की थी जब उनके माता पिता को स्थानीय लड़के के साथ उनके प्रेम प्रसंग का पता चला.
गुजरात के पंचमहल ज़िले के छोटे से गांव में यह अनोखा मामला भी नहीं था. लेकिन उषा के माता-पिता ने इस जोड़ी को अपनी मंजूरी नहीं दी.
तब प्रेमी जोड़े ने घर से भागने का फ़ैसला लिया. लेकिन वो कुछ ही दिनों के लिए आज़ाद रह पाए. उषा के मुताबिक पिता ने उन दोनों का पता लगा लिया और घर ले आए.
उषा ने कहा, "उन्होंने मुझे रस्सी और डंडों से पीटा. भूखा रखा और फिर मुझे एक दूसरे शख़्स के हाथों सवा लाख रूपये में बेच दिया."
पर उषा उस दूरे शख़्स के घर से शादी की रात ही भाग निकलीं. वापस अपने प्रेमी के पास गईं, शादी की और गर्भवती भी हो गईं. लेकिन इस प्रेम कहानी में दूसरी बड़ी बड़ी मुश्किल आ गई.
क़ानूनी सुधारों के तहत लड़कियों के लिए सेक्स के लिए सहमति देने की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई थी. ऐसे में ऊषा अपनी मर्ज़ी से प्रेम करे तो भी उन्हें कानून की नज़र में सेक्स के लिए सहमति देने लायक नहीं माना जा सकता.
इसी वजह से उषा के मां-बाप ने उनके प्रेमी पर उनके बलात्कार का आरोप लगाकर जेल भिजवा दिया.
लड़के के परिवार वालों को भी बख़्शा नहीं गया. उषा के बलात्कार के बाद उसके अपहरण करने की साज़िश का आरोप लड़के की मां पर लगाया गया.
लड़के की मां ने बताया, "मैं दो सप्ताह तक जेल में रही. लड़की के परिवार वालों ने हमारे घर को लूट लिया, दरवाज़े तोड़ दिए, हमारे जानवरों को ले गए. हमें अपना जान बचाने के लिए छिपना पड़ा."
यह 'उषा' के नाम पर दर्ज कराया गया बलात्कार का एक 'झूठा' मामला है, जबकि क़ानून का काम 'ऊषा' की सुरक्षा करना था.
अदालतों तक पहुंचने वाले ऐसे झूठे मामलों की संख्या के बारे में कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है. पर वकीलों का कहना है कि उनके पास इस बात के पुख़्ता सबूत हैं कि ऐसे मामलों से पहले से चरमरा रही व्यवस्था पर दबाव बढ़ रहा है.
वहीं, विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मामले गहरी समस्या की ओर इशारा करते हैं जिसे कोई क़ानून नहीं बदल सकता.
गरिमा जैन नीदरलैंड्स के टिलबर्ग विश्वविद्यालय के इंटरनेशनल विक्टिमॉलॉजी इंस्टीट्यूट से अपने शोध के लिए बलात्कार पीड़िताओं की साइकॉलोजी पर अध्ययन कर रही हैं.
गरिमा के मुताबिक किसी भी युवती के लिए अपने माता-पिता के फ़ैसले से अलग जाना काफ़ी मुश्किल भरा होता है ख़ासकर तब जब वह नाबालिग हों और आर्थिक तौर पर अपने घर वालों पर निर्भर भी.
उन्होंने ने कहा, "बलात्कार पीड़िताओं के अनुभव जुटाने के दौरान मैंने देखा है कि जब उनके प्रेमी को बलात्कार के झूठे मामले में जेल भिजवा दिया जाता है तो ना केवल उनके आपसी संबंध नष्ट हो जाते हैं बल्कि महिला अंदरूनी तौर से सहम जाती है और नतीजा ये कि उन पर माता-पिता का नियंत्रण और बढ़ जाता है."
उषा को गैर सरकारी संगठन 'आनंदी' की मदद मिली. इसी के चलते ऊषा अपने पति के परिवार वालों को ज़मानत पर बाहर निकलवा सकीं और अपने माता-पिता के ख़िलाफ़ खड़ी हुईं.
सामाजिक कार्यकर्ता सीमा शाह
जैसे ही उषा 18 साल की हुईं तो उन्होंने अपने ही माता-पिता के ख़िलाफ़ तस्करी का मामला दर्ज कराया. हालांकि वो ये नहीं चाहती थीं कि उन्हें ऐसा करना पड़े.
उषा ने कहा, "अगर युवतियां अपने पसंद के शख़्स से शादी कर पाएं तो दुनिया कहीं ज़्यादा सुखी होगी."
लेकिन दुर्भाग्य से, जब लड़कियां समाज की तय सीमाओं को लांघने की कोशिश करती है तो माता-पिता उन्हें रोकने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हो जाते हैं.
उषा के परिवार वालों ने भी आनंदी के सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ तस्करी का मामला दर्ज करने की धमकी दी.
इस ग्रामीण इलाके में सहमति देने के उम्र वाले क़ानून का ऐसा ग़लत इस्तेमाल काफी हो रहा है. 'आनंदी' की ओर से किए गए 2013, 2014 और 2015 में दर्ज की गई प्राथमिकियों के अध्ययन के मुताबिक इनमें से 95 प्रतिशत मामले माता-पिता की ओर से दर्ज कराए गए थे.
आनंदी की सामाजिक कार्यकर्ता सीमा शाह ने कहा, "ऐसा लगता है कि क़ानून का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है. यह एक बड़ी समस्या है जहां युवतिओं को वस्तु के तौर पर देखा जाता है और उन्हें स्वतंत्र रूप से बोलने की अनुमति नहीं होती है."
'क़ानून की पढ़ाई कर अपनी जैसी दलित महिलाओं के लिए लड़ना चाहती हूं'
माया की मुस्कान उनकी आंखों तक नहीं पहुंचती. पर अपना दर्द छिपाने के लिए वो उसका इस्तेमाल करने की खूब कोशिश करती हैं.
वो अपनी ज़िंदगी की कहानी विस्तृत ढंग से बांटना चाहती हैं लेकिन पिछले साल में जिस सदमे से गुज़री हैं उसे याद करने में बार-बार गला रुंध जाता है.
माया दलित हैं. और महिला भी. यानी भेदभाव दोगुना है. वो इंजीनियर बनने की चाह से पढ़ाई कर रही थीं जब एक ऊंची जाति के शख़्स ने उनका पीछा करना शुरू किया. उस शख़्स ने अपने हाथ की नस काट ली और माया की 'ना' सुनने के तैयार ही नहीं हुआ. आख़िर में उसने माया के साथ बलात्कार किया.
माया ने कहा, "वह काफी भारी भरकम था, मैंने कोशिश की लेकिन उसे रोक नहीं सकी."
माया के माता पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज भी कराई, लेकिन जब उस शख़्स ने शादी का प्रस्ताव दिया तो समाज के दबाव में आकर मामला वापस ले लिया.
उनका ख़याल था कि उन्होंने अपनी बेटी को बलात्कार पीड़ित होने के सामाजिक 'कलंक' से बचा लिया, लेकिन ये शादी एक दूसरे तरह का नरक साबित हुई.
सुबकते हुए माया ने कहा, "मेरे पति के परिवार वाले कहते थे कि तुम दलित हो, गंदे नाले की तरह, हमें तुम्हें देख कर भी घृणा होती है."
"पति शराब के नशे में घर आता. पुलिस केस दर्ज कराने के लिए मुझे गालियां देता, प्रताड़ित करता और मेरे इनकार करने के बाद भी अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करता."
माया के मुताबिक वो इतना असहाय महसूस करने लगीं कि उन्होंने अपनी जान लेने के बारे में तक सोच डाला. पर एक दिन जब उनके पति ने ग़लती से दरवाजा खुला छोड़ दिया, वो वहां से भाग निकलीं.
सामाजिक कार्यकर्ता मनीषा मशाल
उन्हें आज़ादी का पूरा अहसास तब हुआ जब माया की मुलाकात एक दलित वकील और सामाजिक कार्यकर्ता मनीषा मशाल से हुई.
मनीषा तब हरियाणा में दलित महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार के मामलों का अध्ययन कर रही थीं. उन्होंने पाया कि जाति उन्मूलन और यौन हिंसा मिटाने के लिए बनाए गए क़ानून कारगर नहीं हैं क्योंकि दलित महिलाओं को इन क़ानूनों के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है.
इसके अलावा अमूमन अभियुक्त दलितों की तुलना में बेहतर आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के होते हैं. मनीषा के मुताबिक प्रशासन, पुलिस और न्यायपालिका में भी जातिगत असमानता है जो पीड़िता के इंसाफ पाने के रास्ते में आती है.
मनीषा के लिए समस्या का एक हल दलित महिलाओं को सशक्तीकरण था. लिहाज़ा वह माया जैसी बलात्कार पीड़ितों को क़ानून की पढ़ाई करने में सहायता करने लगीं.
वकालत की पढ़ाई माया के लिए ज़िंदगी जीने की एक नई वजह बनी. जिस जीवन को वो ख़त्म करने को तैयार ती अब उसका एक मक़सद मिल गया. उन्होंने अपने बलात्कार की शिकायत को दोबारा शुरू करवाया और उसमें अप्राकृतिक यौन संबंध के आरोपों को शामिल करवाया.
माया ने बताया, "मनीषा दीदी से मिलने के बाद ही मुझे आवाज़ उठाने और ज़िंदगी की ओर सकारात्मक बने रहने का आत्मविश्वास मिला."
"मैंने तब क़ानून पढ़ने का फ़ैसला लिया ताकि मैं अपनी जैसी दलित महिलाओं के लिए लड़ सकूं जिन्हें अत्याचार के बाद चुप रहने के लिए मज़बूर किया जाता है."
माया उन छह बलात्कार पीड़िताओं में एक हैं जो मनीषा के साथ रहती हैं. इनके छोटे से किराए के फ़्लैट में गर्मजोशी, मज़बूती और एकता का अहसास है. यह उनकी खतरनाक और दम घोंटने वाली पुरानी ज़िंदगी से एकदम अलग है.
मनीषा ने बताया, "दलित महिलाओं को ऊंची जाति के लोग वस्तु की तरह देखते हैं, जिसका मर्ज़ी के मुताबिक इस्तेमाल हो सकता है या छोड़ा जा सकता है. अगर कोई महिला इस अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की कोशिश करती है तो उसकी हत्या हो जाती है."
अभियुक्तों के परिवार वालों की तरफ से मनीषा को नियमित तौर पर धमकियां मिलती हैं लेकिन इससे उनके क़दम नहीं डगमगाए हैं. मनीषा दलित समुदाय की उभरती हुई नेत्री बनकर सामने आयी हैं और वह युवतियों और न्यायिक व्यवस्था के बीच पुल की भूमिका निभा रही हैं.
उन्होंने कहा, "हमारे समुदाय के लोग हिंसा के शिकार होते रहे हैं और पीड़ित के तौर पर मरते आए हैं. मैं ऐसा नहीं चाहती. मैं एक नेता के तौर पर संघर्ष करना चाहती हूं, एक पीड़िता के तौर पर नहीं."
(भारतीय क़ानून के मुताबिक बलात्कार पीड़िताओं के नाम में बदलाव किए गए हैं.) (bbc.com)
-ज़ुबैर अहमद
"कांग्रेस पार्टी ऊपर से बहुत भारी हो गई है, इसमें बहुत सारे बुद्धिजीवी जमा हो गए हैं."
"नेता आरामतलब और आलसी हो चुके हैं. इन्हें दिल्ली में रहने की आदत हो चुकी है."
"ज़मीनी सच से बहुत परे हो चुके हैं, पार्टी कार्यकर्ताओं से कट गए हैं और आम जनता से भी."
"लीडरशिप का एक बड़ा संकट है. सोनिया गाँधी अपने बेटे राहुल से अंधे प्यार के कारण पार्टी की बागडोर किसी और को सौंपना नहीं चाहतीं."
"नेताओं में अब भी घमंड बाक़ी है, वो सोचते हैं जनता वापस उनके पास जल्द ही लौटेगी."
"पार्टी में उभरते हुए सियासी रुझानों से निपटने के लिए कोई मेकेनिज़्म नहीं है."
"पार्टी डूब रही है, इसका अंत नज़दीक है."
हाल के बिहार विधानसभा चुनाव और कई राज्यों में हुए उप-चुनावों में पार्टी को लगे झटके के बाद ऐसे ही विचार, कांग्रेस के भीतर और बाहर गूंज रहे हैं.
पार्टी में सुधार की मांग
साल 2014 में हुए आम चुनाव में हार के बाद से कांग्रेस पार्टी जब भी कोई चुनाव हारती है तो पार्टी में दबा-दबा सा विद्रोह जैसा माहौल बनता है जो कुछ समय बाद टल जाता है.
मीडिया में पार्टी के भविष्य और इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगना शुरू हो जाता है.
कांग्रेस के अंदर कई नेता पार्टी में सुधार की मांग तेज़ कर देते हैं, जिनमें वो लोग भी शामिल हैं जो पार्टी के प्रति पूरी तरह से वफ़ादार माने जाते हैं.
लेकिन एक संकट से दूसरे संकट के बीच कांग्रेस ने कर्नाटक, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव जीते भी और मध्य प्रदेश और कर्नाटक में सत्ता गंवाई भी.
इस बार "बग़ावत" करने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद और कपिल सिब्बल उन 23 नेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने पिछले साल अगस्त में पार्टी में सुधार के लिए लिखी गई चिट्ठी पर दस्तख़त किए थे.
इन नेताओं की पहचान अनौपचारिक रूप से G23 कहकर की जाती है. इनमें से एक कपिल सिब्बल मीडिया को दिए गए एक इंटरव्यू में पूछते हैं कि डेढ़ साल पहले लिखी गई चिट्ठी के सुझावों पर अब तक अमल क्यों नहीं हुआ.
ये नेता पार्टी में एक नई जान डालने की बात करते हैं, पार्टी को एक ऐसी शक्ति बनाना चाहते हैं जो बीजेपी का मुक़ाबला हर चुनाव में कर सके.
गाँधी परिवार कांग्रेस की राह का रोड़ा?
कांग्रेस पार्टी के एक पूर्व प्रवक्ता संजय झा ने मार्च में एक अंग्रेज़ी अख़बार में एक लेख लिखकर पार्टी में सुधार लाने पर ज़ोर दिया था जिसके नतीजे में पार्टी ने उन्हें प्रवक्ता के पद से हटा दिया था.
अब तक उन्हें कोई परिवर्तन नज़र आया है? वो बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "नहीं, कोई खास नहीं, जो हमें उम्मीदें थीं, जिन मुद्दों की हमने अपने लेख में चर्चा की थी, इच्छाशक्ति और बदलाव लाने का जज़्बा जो पार्टी के लिए ज़रूरी है वो अब भी पार्टी नहीं कर सकी है. अभी बयानबाज़ी हम ज़्यादा सुन रहे हैं. लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई खास बदलाव नहीं हुआ है."
पार्टी के नेताओं की सुधार की मांग की पुकार में सबसे अहम लीडरशिप के चयन की है. राहुल गाँधी में पिछले साल मई में आम चुनाव में हार की नैतिक ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हुए पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. कुछ समय के लिए सोनिया गाँधी अंतरिम अध्यक्ष बनीं लेकिन वो अक्सर बीमार रहती हैं.
संजय झा के अनुसार पार्टी का नया अध्यक्ष कब का बन जाना चाहिए था लेकिन वो मायूस हैं कि ऐसा अब तक नहीं हुआ है.
कांग्रेस के भीतर लोगों को लगने लगा है कि गांधी परिवार ही पार्टी की राह का रोड़ा बन गया है.
कई नेता सीधे तौर पर गाँधी परिवार पर हमला नहीं करते हैं लेकिन वो नहीं चाहते कि परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष बने "क्योंकि अब उनमे पहले जैसी वोटरों को आकर्षित करने की शक्ति नहीं रही". उनके मुताबिक़ सबसे बड़ी समस्या गाँधी परिवार है.
परिवार गया पार्टी टूटी?
दूसरी तरफ़, पार्टी के कई दूसरे नेता ये समझते हैं कि गाँधी परिवार के नेतृत्व के बग़ैर पार्टी टूट जाएगी, ठीक उसी तरह जब सीताराम केसरी के नेतृत्व के दौर में कई कांग्रेसी नेता पार्टी छोड़ गए थे और जो पार्टी में थे वो सोनिया गाँधी से अधिक क़रीब थे. उनकी पसंद और वफ़ादारी गाँधी परिवार से जुड़ी है.
पार्टी के सूत्रों का कहना है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा देने के बाद भी पार्टी के बड़े फैसले लेते हैं और बड़े मुद्दों पर वही अधिक बोलते हैं. सोनिया गाँधी की मुहर एक औपचारिकता है. एक सूत्र ने कहा "वो बेताज बादशाह हैं."
लेकिन ज़मीन पर आम कार्यकर्ताओं में राहुल गाँधी की लोकप्रियता और वफ़ादारी अब भी सुरक्षित दिखती है.
मैंने नवंबर-दिसंबर 2018 में कांग्रेस पार्टी पर रिपोर्टिंग के लिए कई राज्यों का दौरा किया था. उस दौरे में आम कार्यकर्ताओं से बात करके मुझे एहसास हुआ था कि राहुल गाँधी कार्यकर्ताओं के हीरो हैं.
मुंबई स्थित ऑल इंडिया महिला कांग्रेस की सेक्रेटरी भावना जैन ज़मीनी सतह पर आम कार्यकर्ताओं के बीच काम करती हैं .
मैंने फ़ोन करके उनसे पूछा कि बड़े नेताओं की परिवर्तन की मांग का असर आम कार्यकर्ताओं पर कितना पड़ा है तो उनका कहना था कि राहुल गाँधी की कार्यकर्ताओं में लोकप्रियता वैसी है जैसे चुनाव में हार से पहले थी.
उनका कहना था कि पार्टी का हर कार्यकर्ता उन्हें अध्यक्ष के पद पर देखना चाहता है. "मुझे लगता है कि आम कार्यकर्ता और नेताओं को अलग करके देखना चाहिए, कार्यकर्ता का राहुल गाँधी के प्रति विश्वास और आस्था दृढ़ है. ये आपने भी महसूस किया होगा."
भावना जैन कहती हैं कि उनके इस्तीफ़े पर दो राय है. "अगर उन्होंने इस्तीफ़ा दिया तो बुरे बने और नहीं देते तो और बुरे बनते. अब सारे कार्यकर्ता चाहते हैं कि वो अध्यक्ष पद पर वापस लौटें. आप देखेंगे कि छह महीने में ये परिवर्तन आएगा."
कार्यकर्ताओं का मनोबल
ग्वालियर में डॉक्टर रश्मि पवार शर्मा पार्टी की नेता हैं. वहां से 2008 में विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुकी हैं और आज मध्य प्रदेश कांग्रेस कमिटी की सेक्रेटरी हैं. वो कहती हैं कि उनके शहर और राज्य का हर कार्यकर्ता चाहता है कि राहुल गाँधी पार्टी के अगले अध्यक्ष बनें.
"राहुल गाँधी को पार्टी का नेतृत्व करना चाहिए, हमारे सब लोग ये चाहते हैं कि राहुल जी आएं और कमान संभालें. मुझे लगता है कि मार्च तक पार्टी में बदलाव हो जाना चाहिए और पार्टी का एक नया अध्यक्ष होगा, हमारी मांग है कि वो राहुल गाँधी जी हों."
उनके अनुसार राहुल गाँधी की क़ाबिलियत पर किसी कार्यकर्ता को संदेह नहीं है. "वो बहुत अच्छा काम कर रहे थे. देखिये कांग्रेस अपने आप में एक बहुत बड़ा समुद्र है. तो मैं आपसे ये नहीं कहूँगी कि उनके आने से एकदम से कोई चमत्कार हो जाएगा, लेकिन धीरे-धीरे परिवर्तन आएगा."
रश्मि पवार का कहना है कि ग्वालियर और चंबल इलाक़े में पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा है. उन्होंने कहा कि पार्टी के प्रति कार्यकर्ताओं की वफ़ादारी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि "ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने के बावजूद आम कार्यकर्ताओं ने उनके साथ जाने से इनकार कर दिया."
तीन नवंबर को हुए उप चुनाव के नतीजों में ज्योतिरादित्य सिंधिया के 'घटते असर' पर टिप्पणी करते हुए वो कहती हैं, "ग्वालियर पूर्व चुनावी क्षेत्र से, जहाँ उनका महल है, उनका गढ़ है और जहाँ की जनता को वो कहते हैं कि ये मेरी जनता है, तो उनकी जनता ने उनके उम्मीदवार मुन्ना लाल गोयल को कांग्रेस के उम्मीदवार से हरवा दिया."
कांग्रेस और राहुल गाँधी का दामन
रश्मि पवार उत्तेजित हो कर कहती हैं कि पार्टी के कार्यकर्ताओं ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने के बाद जश्न मनाया और खुद को आज़ाद महसूस किया क्योंकि "पहले वो उनसे डरते थे."
रश्मि पवार, जो एनएसयूआई की प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुकी हैं, कहती हैं कि वो कांग्रेस और राहुल गाँधी का दामन कभी नहीं छोड़ेंगी, चाहे कुछ भी हो जाए. उनके मुताबिक़ पार्टी और राहुल गाँधी के लिए वफ़ादारी की झलक आम कार्यकर्ताओं में भी मिलेगी.
भावना जैन कहती हैं कि दिल्ली में नेताओं के बयानों से आम कार्यकर्ताओं में ग़लत पैग़ाम तो जाता है लेकिन उनके मनोबल पर इसका असर नहीं होता, लेकिन राहुल गाँधी के बारे में कहा ये जाता है कि अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा देने के बाद भी पार्टी में उन्हीं की चलती है, जैसे कि वो एक बेताज बादशाह हैं.
इस पर भावना जैन कहती हैं, "आप कहते हैं कि राहुल जी सारे बड़े फैसले अब भी लेते हैं तो बिलकुल, क्यों नहीं. वो आज भी पार्टी के एक अहम नेता हैं, उनके विचारों और उनकी भूमिकाओं का महत्त्व है. अगर सोनिया जी उनसे सलाह लेती हैं वो पार्टी के भले के लिए सलाह लेती हैं. आखिर में फैसला सोनिया जी ही लेती हैं, बीमार रहने के बावजूद."
जम्मू में पार्टी के एक युवा कार्यकर्ता राज रैना कहते हैं कि वो राहुल गाँधी के पक्ष में ज़रूर हैं लेकिन वो चाहते हैं कि इस पद का खुलेपन के साथ चुनाव हो.
कांग्रेस कार्यसमिति और अध्यक्ष के पदों का चुनाव हो और इसी तरह के चुनाव नीचे से ऊपर तक कराए जाएँ.
वो पार्टी के बड़े नेताओं से नाराज़ हैं, "हम जब दिल्ली जाते हैं तो बड़े नेताओं से मिलना असंभव होता है. इनमें से कोई जम्मू नहीं आता. और भूले-भटके आया भी तो ज़रूरी नहीं है कि हमारी पहुँच उन तक हो."
पार्टी का कोई नेता नहीं
संजय झा भी इस मुद्दे को उठा चुके हैं. वो कहते हैं, "अगर आप किसी को उत्तरदायी नहीं ठहराते तो पार्टी इसी तरह से हारती रहेगी. पार्टी में ज़िम्मेदारी इस समय किसी के पास नहीं है. अब लगभग दो साल हो जाएंगे लेकिन पार्टी के पास कोई अध्यक्ष नहीं है. ये पार्टी के साथ मज़ाक़ हो रहा है."
संजय झा आगे कहते हैं, "परिवार का पार्टी या देश के लिए जो योगदान है उस पर कोई विवाद नहीं है. परिवार ने जो बलिदान दिया है वो इतिहास में लिखा जा चुका है. परन्तु ये भी सच है कि अभी कांग्रेस पार्टी से लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अब आप एक नए नेता को मौक़ा दीजिए."
संजय झा कहते हैं, "राहुल गाँधी जी से जो ग़लती हुई है वो ये कि उन्होंने इस्तीफ़ा दिया,लेकिन उन्होंने ये नहीं कहा कि एक महीने के अंदर नए नेता को आना चाहिए.
उन्होंने ये प्रक्रिया नहीं शुरू की. अंत में सोनिया जी को वापस आना पड़ा. अब दुनिया बोलती है कि कांग्रेस पार्टी के पास कोई नेता नहीं है. उन्होंने अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारी है".
संजय झा के अनुसार पार्टी के दूसरे नेता भी इसकी गिरती साख के ज़िम्मेदार हैं. उनके अनुसार पार्टी में सुधार न लाने के पीछे बड़े नेताओं का घमंड और सुस्ती है.
वो कहते हैं कि इन नेताओं को ये ग़लतफ़हमी है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सियासत को लोग जल्द रद्द करेंगे और वो उनके पास वापस आ जाएँगे.
संजय झा कहते हैं, "पार्टी किसी एक शख़्स या एक परिवार की तो है नहीं है. पार्टी को जब इस समय फ्रंट फुट पर खेलना था हम अपने ही अंदरूनी मसलों में फंसे हुए हैं. नेतृत्व कुछ बोलता नहीं है, मुंह खोलता नहीं है. G23 के नेताओं ने सुझाव दिए हैं. किसी ने पार्टी छोड़ी नहीं है. पार्टी ने हमें निलंबित किया है, हमने पार्टी छोड़ी नहीं है."
बिहार में कांग्रेस के नए चुने विधायक शकील अहमद खान को ये बात कुछ साल पहले समझ में आई थी कि उनके नेता आरामतलब हो गए हैं और दिल्ली छोड़कर नहीं जाना चाहते. उनके अनुसार वो दिल्ली में कई साल रहे और जब खुद को आम जनता और आम कार्यकर्ता से कटा हुआ महसूस किया तो वापस बिहार लौट गए.
वे कहते हैं, "मैंने कुछ साल पहले बिहार वापस लौटने का फैसला किया ताकि मैं आम लोगों से जुड़ सकूं और उनके लिए काम करूँ".
दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार पंकज वोहरा पिछले 40 से कांग्रेस पर रिपोर्टिंग करते आए हैं. पार्टी के उतार-चढ़ाव पर उनकी गहरी नज़र है. उनकी राय है कि राहुल गाँधी को अपने परिवार से बाहर किसी को अध्यक्ष बनाने में मदद करके पार्टी को मज़बूत बनाना चाहिए.
बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं " बिहार विधानसभा चुनाव में बुरी शिकस्त के बाद राहुल गाँधी को 135 साल पुरानी पार्टी के निर्विवाद नेता के रूप में स्वीकार करना कठिन होगा इसलिए उन्हें अध्यक्ष के पद की दौड़ में शामिल होने की जगह किसी और को अध्यक्ष बनाने में मदद करनी चाहिए."
लेकिन भावना जैन और रश्मि पवार शर्मा को अटल विश्वास है कि अगर अध्यक्ष के पद के लिए पारदर्शी चुनाव हुआ तो आम कार्यकर्ता राहुल गाँधी के अलावा किसी और को नहीं चुनेंगे. (bbc.com)
अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्रा अगले साल से वापस पटरी पर लौट सकती है लेकिन एक नए नियम के साथ. कुछ देशों की यात्रा करने से पहले यात्रियों के लिए कोरोना वायरस के खिलाफ पहले टीका लगवाना जरूरी होगा.
वैक्सीन कार्यक्रम को लेकर आती सकारात्मक खबरों ने एयरलाइंस और देशों को उत्साहित कर दिया है कि वे जल्द ही निलंबित फ्लाइट रूट्स पर दोबारा उड़ान शुरू कर पाएंगे. इसी के साथ पर्यटन और होटल उद्योग के भी दोबारा पटरी पर लौटने की उम्मीद जगी है. लेकिन एशिया के कुछ देश और खास तौर से प्रशांत क्षेत्र के देश कोरोना वायरस के खिलाफ कड़ी मेहनत को बर्बाद नहीं होना देना चाहते हैं.
ऑस्ट्रेलिया में क्वांटास के प्रमुख ने कहा है कि जब एक बार वैक्सीन व्यापक तौर पर उपलब्ध हो जाती है तो उनकी एयरलाइंस चाहेगी कि यात्री यात्रा करने से पहले वैक्सीन लगवा लें या फिर ऑस्ट्रेलिया की जमीन पर उतरने से पहले टीका लगवाया लिया हो. क्वांटास के मुख्य कार्यकारी एलन जॉयस ने कहा है कि उनकी बातचीत कुछ और एयरलाइंस के प्रमुखों से अंतरराष्ट्रीय यात्रियों के लिए संभावित ''वैक्सीनेशन पासपोर्ट'' के बारे में हो रही है.
उनके मुताबिक, ''अंतरराष्ट्रीय यात्रियों के लिए हम अपने नियम और शर्तों को बदल रहे हैं, जिसमें यात्रियों से विमान में चढ़ने से पहले वैक्सीन लगवाने के बारे में कहा जाएगा.''
उनके मुताबिक वे इलेक्ट्रॉनिक रूप से सत्यापित करने के तरीकों को भी देख रहे हैं ताकि लोग अपनी मंजिल पर जाने से पहले टीका लगवा पाए. हालांकि यह एक मुश्किल काम है. उनके मुताबिक, "लेकिन निश्चित रूप से हमें लगता है कि बाहर से आने वाले अंतरराष्ट्रीय यात्रियों और देश छोड़कर जाने वालों के लिए यह जरूरी है."
यात्रा से पहले कोरोना वैक्सीन
दक्षिण कोरिया की सबसे बड़ी एयरलाइंस का भी ऐसा ही कुछ संदेश है. कोरियन एयर की प्रवक्ता जिल चुंग ने कहा है कि ऐसी पूरी संभावना है कि यात्रा से पहले यात्रियों को टीका लगवाने की जरूरत होगी. उनके मुताबिक ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारों को नए आगमन के लिए क्वारंटीन की शर्त खत्म करने के लिए टीका जरूरी होगा. एयर न्यूजीलैंड ने भी कुछ इसी तरह का बयान दिया है. एक बयान में एयर न्यूजीलैंड ने कहा, ''अंत में सरकारों पर निर्भर करता है कि कब और कैसे सीमाओं को फिर से खोला जाए और वह कितना सुरक्षित है. हम प्रशासन के साथ मिलकर काम करना जारी रखेंगे.''
गौरतलब है कि ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड सभी कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने में कामयाब रहे हैं. इस कामयाबी के लिए सबसे बड़ा योगदान संक्रमित लोगों को बाहर रखने पर ध्यान देने को दिया जाता रहा है. ऑस्ट्रेलिया में बहुत कड़ाई के साथ बॉर्डर सील किए गए. देश ने अंतरराष्ट्रीय यात्रियों के लिए सीमा बंद कर दी और अपने नागरिकों को विशेष हालात में ही यात्रा की इजाजत दी तो वहीं न्यूजीलैंड ने भी अपनी सीमाएं सील कीं, जबकि दक्षिण कोरिया ने बाहर से आने वाले सभी यात्रियों के लिए दो हफ्ते का क्वारंटीन नियम बनाया.
हरियाणा के पानीपत के रहने वाले अर्श शाह दिलबगी ने महज 16 साल की उम्र में ‘टॉक’ नाम से एक ऐसे यंत्र को बना डाला था, जो एमियोट्रॉफ़िक लैटरल स्कलिरॉसिस और पार्किंसन रोग जैसी बीमारियों की वजह से अपनी आवाज खो बैठे लोगों को साँसों के जरिए बोलने में मदद कर सकती है।
कुमार देवांशु देव
देश में रोबोट के प्रयोग को लेकर लंबे समय से बहस जारी है। जहाँ कई लोग रोबोट को मानवता के लिए खतरा बताते हैं, वहीं कुछ लोग इसे उपयोगी भी मानते हैं। हम सभी ने कोरोना महामारी के दौरान देखा कि रोबोट ने अस्पताल से लेकर सड़क पर भोजन बाँटने में, इंसानियत की किस तरह से मदद की।
तो, आज हम आपको एक ऐसे ही शख्स से मिलाने जा रहे हैं, जिन्होंने महज 22 साल की उम्र में रोबोटिक्स और इनोवेशन के क्षेत्र में कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं।
यह कहानी है मूल रूप से हरियाणा के पानीपत के रहने वाले अर्श शाह दिलबगी की। अर्श फिलहाल, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, यूएस में ऑपरेशन रिसर्च एंड फाइनेंशियल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन कर रहे हैं।
अर्श
लेकिन, उन्होंने 16 साल की उम्र में एक ऐसा यंत्र बना डाला था, जो एमियोट्रॉफ़िक लैटरल स्कलिरॉसिस और पार्किंसन रोग जैसी बीमारियों की वजह से अपनी आवाज खो बैठे लोगों को साँसों के जरिए बोलने में मदद कर सकती है। उनके इस प्रोजेक्ट को ‘गूगल साइंस फेयर अवॉर्ड 2014’ के लिए चुने गए 15 प्रोजेक्ट में भी शामिल किया गया।
अर्श के इस डिवाइस का नाम ‘टॉक’ है और यह संवर्धी एवं वैकल्पिक संचार यंत्र है। यह एम्योट्रोफिक लेटरल स्केलेरोसिस (एएलएस) बीमारी से निपटने में मदद करता है। बता दें कि एएलएस एक न्यूरो-डिसॉर्डर रोग है, जो मस्तिष्क और रीढ़ की तंत्रिका कोशिकाओं को प्रभावित करता है।
टॉक डिवाइस
इसे लेकर वह बताते हैं, “मैं एक बदलाव लाना चाहता था और कुछ ऐसा बनाना चाहता था, जिससे समस्त मानव जाति की मदद हो। ‘टॉक’ एक ऐसा ही एक डिवाइस है।”
‘टॉक’ का डिजाइन काफी सरल है और यह काफी आसानी से पोर्टेबल है। यह उस वक्त दुनिया का एकमात्र एएसी उपकरण था, जो साँसों को आवाज देता है।
यह कैसे काम करता है?
अन्य एएसी उपकरणों के विपरीत, टॉक उपयोगकर्ताओं को व्हीलचेयर तक सीमित नहीं करता है, जो इसे और अधिक आरामदायक और सुलभ बनाता है। इस यंत्र में अलग लिंग और आयु वर्ग के लिए नौ अलग-अलग आवाजें हैं।
दिलबगी कहते हैं, “इसमें भाषा के संश्लेषण के मद्देनजर यूजर को सही सिंबल का चयन करने के लिए जटिल मैट्रिक्स मैप सीखने की जरूरत नहीं है और न ही उन्हें खुद को व्यक्त करने के लिए किसी स्क्रीन पर टकटकी लगाने की जरूरत है।”
यह दो मोड में काम करता है – कम्युनिकेशन मोड और कमांड मोड। कमांड मोड के जरिए यूजर डब्ल्यू – वाटर जैसे पूर्वनिर्धारित कमांड को बोल सकता है, जबकि कम्युनिकेशन मोड, आम बोलचाल के वाक्यांशों को एनकोड करने और बोलने में मदद करता है।
उस वक्त बाजार में ऐसे एएसी उपकरणों की कीमत हजारों डॉलर थी, लेकिन अर्श के टॉक डिवाइस की कीमत महज 100 डॉलर थी। अर्श का इरादा इस डिवाइस को आम लोगों तक पहुँचाने का था, लेकिन दुःखद रूप से इस प्रोजेक्ट को साल 2015 में रोकना पड़ा।
इसे लेकर वह कहते हैं, “टॉक एक मेडिकल डिवाइस है और हमें जल्द ही एहसास हो गया था कि ऐसे किसी भी डिवाइस को आम लोगों के लिए लॉन्च करने के लिए कई नियामक संस्थाओं और क्लीनिकल ट्रायल से गुजरना पड़ता है और टॉक के मामले में हमें समझ में आ गया था कि यह प्रक्रिया काफी महंगी होने वाली है और उस वक्त हमारे लिए इतना खर्च उठाना संभव नहीं था।”
इसके बाद उन्होंने पेटेंट फाइल किया और साल 2015 में इस प्रोजेक्ट पर काम करना बंद कर दिया। इस वजह से टॉक एक कंज्यूमर डिवाइस नहीं बन पाई।
इसके अलावा, अर्श ने साल 2016 में क्लमसी नाम से एक रोबोट डॉग को भी बनाया, जो फिलहाल नई दिल्ली में प्रेजिडेंट एस्टेट के संग्राहलय में सुरक्षित है।
इसे लेकर वह कहते हैं, “क्लमसी 16 सर्वो मोटर्स और आईएमयू यूनिट के साथ एक रोबोट डॉग है। यह एक रिसर्च प्रोजेक्ट था और इसके तहत हम डीप लर्निंग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंट न्यूरल नेटवर्क विकसित करना चाहते थे। इसके तहत हमने सॉफ्टवेयर के जरिए एक वाकिंग मैकेनिज्म को विकसित किया। यह रोबो डॉग, फिलहाल राष्ट्रपति भवन संग्रहालय, नई दिल्ली में सुसज्जित है।”
पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को रोबो डॉग क्लमसी के बारे में जानकारी देते अर्श
इसके अलावा, पिछले 5 वर्षों के दौरान अर्श ने एप्पल, ब्रिजवाटर जैसी कई प्रतिष्ठित संस्थाओं में भी काम किया है और कुछ ही महीने पहले उन्होंने अपना एक एप लॉन्च किया है – जेच एप।
इस एप के बारे में वह कहते हैं, “यह एक बैंकिंग एप है और इसके तहत हमारा उद्देश्य मूल्यों के आदान-प्रदान को सहज और न्यायसंगत बनाना है। क्योंकि, आज सभी बड़े बैंक ट्रांजेक्शन के दौरान काफी चार्ज करते हैं। इससे छोटे व्यवसायों को 11 प्रतिशत तक शुल्क चुकाना पड़ता है। हमारी कोशिश इसे न्यूनतम करने की है।”
क्या कहते हैं रोबोटिक्स के बारे में
अर्श कहते हैं, “रोबोट के बारे में हमारे दिमाग में जो पहली छवि उभरती है, वह हॉलीवुड की फिल्मों को लेकर होती है। लेकिन, रोबोटिक्स का दायरा यहीं तक सीमित नहीं है, आज के दौर में मशीनें हमारी जिंदगी से काफी बड़े पैमाने पर जुड़ी हुई हैं। आज ऑटोमेशन का इस्तेमाल अस्पतालों में हार्ट सर्जरी करने से लेकर सड़कों पर भोजन वितरण करने तक किया जा रहा है, जिससे हमारी जिंदगी में इसकी उपयोगिता साबित होती है।”
भारत के संदर्भ में क्या है राय
आज के समय में भारत को विज्ञान और तकनीकी विकास के क्षेत्र में काफी कमतर आँका जाता है, लेकिन अर्श के विचार इससे ठीक विपरीत हैं।
वह कहते हैं, “भारत, तकनीकों के विकास को लेकर कई मायनों में पूरी दुनिया से आगे है। उदाहरण के तौर पर हम मिशन मंगलयान को ले सकते हैं। इसरो के इस महत्वाकांक्षी परियोजना की पूरी दुनिया में तारीफ हुई थी। इसके साथ ही, भारत में डिजिटल बैंकिंग का चलन भी काफी तेजी से बढ़ रहा है, जो एक बेहद सकारात्मक संदेश है।”
टॉक डिवाइस के संबंध में अर्श का वीडियो यहाँ देखें।
द बेटर इंडिया अर्श शाह दिलबगी के उज्जवल भविष्य की कामना करता है। (thebetterindia.com)
ध्रुव गुप्त
उर्दू शायरी के लंबे सफऱ में पाकिस्तान की लोकप्रिय शायरा परवीन शाकिर को शायरी के तीसरे पड़ाव का मीलस्तम्भ माना जाता है। उनकी शायरी खुशबू के उस सफऱ की तरह है जो रूह की गहराईयों तक पहुंचती है। परवीन ने स्त्री के प्रेम, एकांत, भावुकता, निजी और वैचारिक स्वतंत्रता, जिजीविषा, स्वाभिमान और अथक संघर्षों का जैसा हृदयस्पर्शी चित्र खींचा है, उससे गुजऱना एक विरल अनुभव है।
परवीन की शायरी में यथास्थिति के खिलाफ गहरा प्रतिरोध तो है, लेकिन उस प्रतिरोध का स्वर कर्कश नहीं, मुलायम है। कठोर परिस्थितियों के बीच यह मुलायमियत उनकी शायरी की रूह है। मात्र बयालीस साल की उम्र में एक सडक़ दुर्घटना में दिवंगत परवीन की कविताओं में एक जीवंत लडक़ी भी है, प्रेमिका भी, पत्नी भी, कामकाजी स्त्री भी, मां भी और पुरूषों की दुनिया में पांव टिकाने की जद्दोज़हद करती एक ख़ुद्दार औरत भी। यानी एक मुकम्मल औरत उनकी कविताओं में सांस लेती महसूस होती है।.अपनी नज़्मों और गज़़लों में उन्होंने प्रेम और विरह के ज़ुदा-ज़ुदा रंगों की कसीदाकारी के अलावा स्त्री-जीवन के उन अछूते मसलों को भी छुआ है जिनपर पारंपरिक शायरों की नजऱ नहीं गई। यह बेवज़ह नहीं कि आज की युवा पीढ़ी की वे सबसे प्रिय शायरा हैं। उनके यौमे विलादत (24 नवंबर) पर ख़ेराज-ए-अक़ीदत, उनकी एक गज़़ल के अशआर के साथ !
उसी तरह से हर इक जख़़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुजऱ गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चांद - सा देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनजऱ थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का जर्ऱा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफिऱ का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
बस एक रेत का जर्ऱा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफिऱ का रास्ता देखे
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू इस वक्त तहलका मचाए हुए हैं। उन्होंने चुपचाप सउदी अरब की यात्रा कर ली, जो पिछले 68 साल में किसी भी इजराइली नेता ने नहीं की। सच्चाई तो यह है कि सउदी अरब और इजराइल, दोनों ही अमेरिकापरस्त रहे हैं लेकिन दोनों में हमेशा 36 का आंकड़ा बना रहा है। सउदी अरब फिलिस्तीन की आजादी का सबसे बड़ा हिमायती और प्रवक्ता रहा है।
हालांकि इजराइल की सउदी अरब के साथ वैसी लड़ाई नहीं हुई, जैसी मिस्र और जोर्डन के साथ हुई है लेकिन इजराइल के खिलाफ संपूर्ण इस्लामी जगत को खड़ा करने में सउदी अरब का बड़ा योगदान रहा है। इसीलिए जब इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू लाल समुद्र के पास स्थित इजराइल के नियोम में जाकर सउदी शासक मुहम्मद बिन सलमान और अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो से चुपचाप मिल लिये तो सारे अरब जगत में झनझनी फैल गई।
सउदी अरब के विदेश मंत्री ने तो अखबारों को कह दिया कि यह खबर ही झूठी है। सउदी युवराज सिर्फ पोंपियो से मिले हैं। लेकिन इजराइल के पत्रकारों ने साफ़-साफ़ तथ्य पेश करके बताया है कि नेतन्याहू कितने बजे किसके जहाज में बैठ कर किसके साथ उस शहर में गए थे। सउदी राज परिवार को यह डर लग रहा है कि दुनिया के इस्लामी देश उसकी अब टांग खिंचाई करेंगे।
कोई आश्चर्य नहीं कि ईरान और तुर्की अब सउदी अरब पर बरस पड़ें। वे सउदी अरब को अमेरिका के लिए बिकाऊ माल घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। वे यह शंका भी प्रकट करेंगे कि हाल ही में जैसे संयुक्त अरब अमारात (यू.ए.ई.) और बहरीन के साथ इजराइल के कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए हैं, वैसे ही सउदी अरब के साथ भी होने वाले हैं।इस वक्त इजराइल के सिर्फ चार मुस्लिम देशों के साथ कूटनीतिक संबंध हैं- मिस्र, जोर्डन, यूएई और बहरीन लेकिन सउदी के साथ उसके यही संबंध हो गए तो मान लीजिए कि सारे मुस्लिम देश उसकी पकड़ में आ जाएंगे। इतना बड़ा पट-परिवर्तन अरब-जगत में अमेरिका के दबाव में तो हो ही रहा है, उसका मूल कारण ईरान ही है।
सबको लग रहा है कि अमेरिका का बाइडन-प्रशासन ईरान के प्रति ट्रंप-नीति को जरुर बदलेगा। उस स्थिति का सामना करने के लिए इजराइल और मुस्लिम देशों का एकजुट होना जरुरी है। ओबामा-काल में संपन्न हुआ ईरानी परमाणु-समझौता यदि फिर जीवित हो गया तो सबसे ज्यादा इजराइल डरेगा। इसीलिए इजराइल जरुरत से ज्यादा सक्रिय दिखाई पड़ रहा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
लिखने के स्त्रोत को निर्मल वर्मा खंगालने की कोशिश किया करते थे। करीब तेईस वर्ष पहले जब निर्मल वर्मा वाराणसी में राजघाट के कृष्णमूर्ति फाउंडेशन स्थित सेंटर पर आये थे तो उस समय उनसे यही सवाल मैंने पूछा था : लेखक क्या लिखता है और क्यों? क्यों में 'कैसे' भी छिपा हुआ है, और क्या लिखता है से ज्यादा कीमती सवाल है कि लेखक कैसे लिखता है।
मेरा प्रश्न यह भी है कि क्या हर रचनाकार अपनी रचनात्मकता के स्त्रोत तक जाने की कोशिश करता होगा? यह सवाल सिर्फ लेखन से जुड़े लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि हर विधा में काम कर रहे कलाकार के लिए हैं। विन्सेंट वॉन गो यह मानता था कि हर पेंटिंग में जीवन होता है और वह जीवन कलाकार की आत्मा ही उसे प्रदान करती है। महान संगीतकार बेटोफेन के बारे में एक मशहूर लेखक ने लिखा कि वह तो इतने बधिर हैं कि खुद को चित्रकार समझ बैठते हैं! रचनात्मकता के स्त्रोत में थोड़ी गहराई में उतरने पर दिखता है कि विधाएं भले ही अलग अलग हों, कोई स्त्रोत है जो हर कलाकार के मन-मस्तिष्क से होकर प्रवाहित होता है, और वह अक्सर एक ही स्त्रोत होता है, अलग अलग वाह्य अभिव्यक्तियों के बावजूद। किशोरी अमोनकर जब गाती थीं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता था कि कौन है जो उनके जरिये, उन्हें गा रहा है! अक्सर कोई रचनात्मक ऊर्जा कलाकार का एक माध्यम के रूप में मानो इस्तेमाल करती प्रतीत होती है।पर ऐसा कहने में रचनात्मकता को एक रहस्यमयी प्रक्रिया बनाने के खतरे हैं। उसपर अनावश्यक और बोझिल आध्यात्मिकता की खरोंचे भी पड़ सकती हैं।
विक्टर ह्यूगो कहते थे कि मैं तभी लिखता हूँ जब प्रेरणा मिलती है पर मैंने यह तय किया हुआ है कि किसी भी हालत में मैं रोज़ सुबह नौ बजे प्रेरित होता रहूँ! टी एस एलियट ने रचनात्मकता के बारे में एक बड़ी ही विवादस्पद बात कह डाली। उनका कहना था कि अपरिपक्व कवि नक़ल करते हैं; महान कवि तो चोरी करते हैं। इस बात को लेकर भी बड़ा विवाद था कि यह बात ऑस्कर वाइल्ड ने कही है या पाब्लो पिकासो ने, पर यह अब करीब करीब तय हो चुका है कि यह वक्तव्य एलियट का ही है। इसे स्पष्ट करते हुए एलियट कहते हैं : 'खराब कवि जो भी उठाते हैं, उसे भद्दा बना कर छोड़ देते हैं जबकि उम्दा कवि उसे बेहतर बना डालता है या कम से कम कुछ अलग तो बना ही देता है'।
हर लेखक के अपने अनुभव होते हैं, जिन्हें वह अपने संस्कारों के आलोक में देखता-समझता है। उन अनुभवों के साथ उसका गहरा तादात्म्य भी स्थापित हो जाता है। उन्ही अनुभवों को ही वह अपनी रचनाओं में व्यक्त किये चला जाता है। ऐसा अचेतन या अवचेतन स्तर पर भी होता है क्योंकि लेखक के लिए खुद यह जान पाना मुश्किल हो सकता है कि कौन सी रचना अतीत में हुए किस अनुभव से उपजी है। अक्सर लेखक इस बारे में कोई प्रश्न उठाने में खतरा भी महसूस कर सकता है कि वे अनुभव वास्तविक हैं या काल्पनिक, छिछले हैं, या गहरे; या फिर मूलभूत रूप से किस मानसिक उद्वेलन से उपजे हैं। इन बातों को उठाने से लेखन के प्रवाह रुक सकता है।अक्सर इस तरह के मूलभूत सवालों में लेखक खतरा महसूस करता है। लेखक या कवि किसी गहरी या अब्सोल्युट या अंतिम अंतर्दृष्टि की खोज में नहीं रहता, अपनी आंशिक अंतर्दृष्टि को साझा करने की एक व्याकुलता होती है उसमें और अपनी 'खोज' पर प्रश्न उठाने से उसकी अभिव्यक्ति बाधित होगी इस तथ्य से वह अच्छी तरह परिचित होता है। प्रश्न की आंच में बहुधा कई निष्कर्ष मुरझा सकते हैं, जबकि लेखक उन निष्कर्षों को पूरे विश्वास के साथ व्यक्त करना चाहता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो लेखक की संस्कारबद्धता उसके लिखने का स्त्रोत हो सकती है।
भावनाएं या विचार भी रचनाकार को लेखन की दिशा में ले जाते हैं। पर विचार का महिमामंडन न करके उनकी संरचना को खंगालने की कोशिश की जानी चाहिए। गौरतलब है कि विचार भी खास किस्म के संस्कार से ही उपजते हैं। अक्सर वे स्मृतियों के प्रत्युत्तर के रूप में व्यक्त होते हैं। लेखक स्मृतियों से अपनी ऊर्जा लेता है। सुखद स्मृतियों से भी और दुखदायी यादों से भी। इन्हें लेकर अलग- अलग रस निर्मित करता है। क्या मृत स्मृतियाँ उत्कृष्ट, जीवंत लेखन को जन्म दे सकती हैं? इस प्रश्न को लेखक दर्शन और मनोविज्ञान के पाले में धकेल देता है। हाइकू के जनक बाशो स्मृतियों पर निर्भर नहीं रहते, सिर्फ और सिर्फ वर्तमान क्षण को उकेरते हैं।'ताल पुराना/ कूदा दादुर/ डुबुक', में अतीत की कोई परछाई नहीं, सिर्फ वर्तमान का शुद्ध अवलोकन है, उसका उत्सव है जो कि स्मृतियों के नीचे दबे मन की सीमाओं से परे है। कहीं ऐसा इशारा है कि स्मृतियों से परे भी कोई ऐसा अवलोकन है, जो वर्तमान क्षण में है, ज़्यादा टटका है, सिर्फ नए वस्त्र धारण किये हुए कोई मृत देह नहीं। 'तुमि केमोन कोरे जे गान कोरो हे गुनी, आमी ओवाक होए शुनी, केबोल शुनी', गुरुदेव टैगोर के इस सुनने में, अवाक होकर सुनने में स्मृति कहाँ, कहाँ है कोई संचित ज्ञान, कहाँ है बीते हुए कल की कोई परछाई!
हाँ, गहरी ऊब और द्वंद्व भी लेखन या किसी अन्य तरह की सृजनशीलता की ऊर्जा को जन्म दे सकते हैं। अक्सर कलाकार के जीवन और लेखन में भयंकर द्वंद्व देखा जा सकता है। वॉर एंड पीस का संत लेखक टॉलस्टॉय अपनी पत्नी के साथ भयंकर कलह में जीता रहा। अपने मशहूर उपन्यास एना कारेनीना के प्रारंभ में ही उन्होंने दुखी परिवार की दशा के बारे में लिखा है। दरअसल द्वंद्व एक तरह की ऊर्जा पैदा करता है और किसी सृजनशील व्यक्ति में यह ऊर्जा सौन्दर्यपूर्ण और प्रभावी ढंग से व्यक्त भी हो सकती है पर उसके पीछे छिपा बैठा, बिलबिलाता, तड़पता रचनाकार दुनिया की नज़र से बचा रह जाता है। निदा फाजली इसे बखूबी कहते हैं: 'मेरी आवाज़ तो पर्दा है मेरे चेहरे का, मैं हूँ खामोश जहाँ मुझको वहां से सुनिए'। पर खामोशी के पीछे छिपे ज़ख्मों को कौन देख पाता है! शब्दों के सौन्दर्य में खोये पाठक और दर्शक बस वाह-वाही में मगन हो जाते हैं।
प्रतिष्ठा की कामना, खुद को बाकियों से अलग दिखाने की इच्छा भी लेखन के लिए प्रेरित कर सकती है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा लेखन या किसी और कला की ओर ले जा सकती है। और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित लेखक किसी राजनेता की तरह भयंकर परिश्रमी और उर्वर भी हो सकता है।
अनवरत चलने वाले विचार के बीच का पल भर का अंतराल सृजनशीलता का एक बहुत ही समृद्ध स्त्रोत होता है। यह अंतराल बहुत ही कीमती होता है और संभवतः यही सृजनात्मक संवेग को जन्म देता है; उसके बाद इसकी अभिव्यक्ति तो एक तरह से यंत्रवत होती है, बाहरी माध्यमों का सहारा लेती है। नन्दलाल बोस ने इस यांत्रिकता से बचने के लिए रंग भी खुद ही बनाए। तो यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या अनवरत चलने वाले विचारों में कोई सृजनशीलता होती है, या फिर उनके खुद बखुद थम जाने से उपजी खामोशी सृजनशील होती है। विज्ञान के क्षेत्र में आर्किमिडीज़ की अंतर्दृष्टि जो उनके दिमाग में नहाते वक़्त कौंधी थी, एक अलग तरह की रचनात्मकता की तरफ इशारा करती है जिसकी ज़मीन विचारों के निरंतर प्रवाह से हट कर है। जो वैज्ञानिक निर्वस्त्र होकर अपनी खोज की घोषणा करते हुए सड़कों पर दौड़ लगा सकता है, वह परंपरागत विचारों की गिरफ्त से तो जरुर ही बाहर रहा होगा।
और भी बहुत कुछ हो सकता है। मन की हर बारीक से बारीक हरकत और उसकी अभिव्यक्ति पर आँखे टिकाये रखना आसान नहीं होता। सृजनात्मकता अपने आपमें ही बड़ी कोमल वस्तु है, इसकी पीड़ा को समझना, इसके मार्ग पर चलना, इसे संजोये रखना, बुझने से रोकना, यह सब कुछ एक चुनौती जैसा है, खासकर आज के माहौल में जहाँ हर स्तर पर एक उठा पटक मची हुई है। सही अर्थ में एक गहरे सृजनशील व्यक्ति के लिए आज का समय तरह तरह की अनिश्चितताओं और संदेहों से भरा हुआ है। फिर भी बात यही सच है कि जो रचेगा, आखिर में वही बचेगा।
Dayanidhi-
कोलोराडो और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नए अध्ययन के अनुसार, तेजी से लोगों का कोविड-19 परीक्षण (रैपिड टेस्ट) करने से कुछ ही हफ्तों के भीतर वायरस को खत्म किया जा सकता है। भले ही परीक्षण सस्ता और मानकों की तुलना में काफी कम संवेदनशील ही क्यों न हों? अध्ययन में रैपिड टेस्ट को कम संवेदनशील जिसके, परिणाम 15 मिनट में आ जाते हैं और पीसीआर (पोलीमरेज चेन रिएक्शन) जिसके परिणाम आने में 48 घंटे तक का समय लग जाता है, उसे अधिक संवेदनशील बताया गया है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बोल्डर (सीयू बोल्डर) में कंप्यूटर विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डैनियल लारमोरे ने कहा जब सार्वजनिक स्वास्थ्य की बात आती है, तो तेजी से कम संवेदनशील परीक्षण करना बेहतर होता है। हर किसी को घर पर रहने के लिए कहने के बजाय, आप यह सुनिश्चित कर सकें कि जो व्यक्ति बीमार है वह घर पर ही रहे, ताकि उसके संक्रमण फैलाने की आशंका कम हो जाए। इस तरह हम केवल संक्रमण फैलाने वाले लोगों को ही घर पर रहने के लिए कह सकते हैं ताकि बाकी सभी लोगों में संक्रमण न फैले।
अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि इस तरह की रणनीति बाजार, रेस्तरां, खुदरा स्टोर और स्कूलों को बंद किए बिना "घर पर रहने के आदेश" को बढ़ावा दे सकती है।
लारमोरे ने सीयू के बायोफ्रीस्टियर्स इंस्टीट्यूट और हार्वर्ड टीएच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के सहयोगियों के साथ मिलकर यह पता लगाया कि क्या परीक्षण संवेदनशीलता, अधिक परीक्षण करना, कोविड-19 के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन साइंस एडवांस में प्रकाशित हुआ है।
शोधकर्ताओं ने बताया कि संक्रमण के दौरान शरीर के अंदर संक्रमण कैसे बढ़ता है और कम होता है, जब लोग इन लक्षणों का अनुभव करते हैं, इसका मतलब है कि वे संक्रमण फैला सकते हैं।
फिर उन्होंने तीन काल्पनिक परिदृश्यों पर विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के साथ जांच के प्रभाव का पूर्वानुमान लगाने के लिए गणितीय मॉडल का उपयोग किया। इसमें 84 लाख की आबादी के शहर में, विश्वविद्यालय की तरह 20,000 लोगों की एक परिस्थिति तैयार की गई और इसमें से 10,000 लोगों को चुना गया।
जब संक्रमण फैलने पर अंकुश लगाने की बात आई तो उन्होंने पाया कि बार-बार परीक्षण और इसके समय में बदलाव इसकी संवेदनशीलता की तुलना में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, एक बड़े शहर का एक परिदृश्य में, जहां काफी बड़े क्षेत्र में सप्ताह में दो बार तेजी से लेकिन कम संवेदनशील परीक्षण किया गया, जिसने वायरस की संक्रामकता की दर या आरओ की डिग्री 80 फीसदी कम हो गई। लेकिन जब अधिक संवेदनशील पीसीआर (पोलीमरेज चेन रिएक्शन) परीक्षण सप्ताह में दो बार किया गया, जिसके परिणाम आने में 48 घंटे तक का समय लग जाता है, इसने केवल 58 फीसदी संक्रामकता को कम किया। अधिक तेजी से होने वाले परीक्षणों ने धीमी, अधिक संवेदनशील पीसीआर परीक्षण की तुलना में हमेशा संक्रमण फैलाने की गति को कम किया।
ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग दो-तिहाई संक्रमित लोगों में कोई लक्षण नहीं होते हैं और जैसा कि वे अपने परीक्षण के परिणामों की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, वे इस दौरान वायरस फैलाना जारी रखते हैं।
बायोफ्रीस्टियर्स इंस्टीट्यूट के निदेशक और हावर्ड ह्यूजेस मेडिकल के वरिष्ठ अध्ययनकर्ता रॉय पार्कर ने कहा, यह दिखाने वाला पहला अध्ययन है जो हमें परीक्षण की संवेदनशीलता के बारे में कम चिंता करने के बारे में बताता है और जब सार्वजनिक स्वास्थ्य की बात आती है, तो बार-बार परीक्षण किए जाने चाहिए।
एक परिदृश्य जिसमें एक शहर में 4 फीसदी लोग पहले से ही संक्रमित थे, चार में से तीन का हर तीन दिनों में तेजी से परीक्षण किया गया, इसने संख्या को 88 फीसदी तक कम कर दिया। यह छह सप्ताह के भीतर महामारी को खत्म करने के लिए पर्याप्त था।
संवेदनशीलता का स्तर व्यापक रूप से भिन्न होता है। एंटीजन परीक्षणों में संक्रमण का पता लगाने के लिए पीसीआर परीक्षण की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में संक्रामक (वायरल लोड) - लगभग 1,000 गुना वायरस की आवश्यकता होती है। एक अन्य परीक्षण, जिसे आरटी-लैंप के रूप में जाना जाता है (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन लूप-मेडिटेड इजोटेर्मल एम्प्लीफिकेशन), पीसीआर की तुलना में लगभग 100 गुना अधिक वायरस का पता लगा सकता है। बेंचमार्क पीसीआर परीक्षण के लिए प्रति मिली लीटर प्रति 5,000 से 10,000 संक्रमित आरएनए की आवश्यकता होती है, जिसका अर्थ है कि यह वायरस को या तो बहुत जल्दी या बहुत देर से पकड़ सकता है।
हार्वर्ड टी.एच. में महामारी विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डॉ माइकल मीना ने कहा रैपिड टेस्ट किए जा सकते हैं, जब लोग संक्रामक होते हैं तब यह कोविड-19 का पता लगाने में बेहद प्रभावी हैं। उन्होंने कहा वे सस्ती भी हैं, हर रैपिड टेस्ट की लागत 1 डॉलर जितनी हो सकती है और इसके परिणाम 15 मिनट में आ सकते हैं। कुछ पीसीआर परीक्षणों में कई दिन लग सकते हैं। लारौर ने कहा रैपिड टेस्टिंग से सुपर स्प्रेडर के खतरों जैसे फुटबॉल स्टेडियमों, कॉन्सर्ट वेन्यू और एयरपोर्ट्स में संक्रमण फैलने से रोका जा सकता है।
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि उन्हें यह देखकर खुशी होती है कि कई देशों ने पहले ही अपने सभी नागरिकों का परीक्षण शुरू कर दिए हैं। लारमोर ने कहा यह कोविड परीक्षण के बारे में सोच में बदलाव लाने का समय है क्योंकि ट्रांसमिशन श्रृंखला को तोड़ने और अर्थव्यवस्था को खुला रखने के लिए एक परीक्षण महत्वपूर्ण हैं। (downtoearth)
-रशीद किदवई
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
अहमद पटेल कांग्रेस में हमेशा संगठन के आदमी माने गए. वे पहली बार चर्चा में तब आए थे जब 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें ऑस्कर फर्नांडीस और अरुण सिंह के साथ अपना संसदीय सचिव बनाया था, तब इन तीनों को अनौपचारिक चर्चाओं में 'अमर-अकबर-एंथनी' गैंग कहा जाता था.
अहमद पटेल के दोस्त, विरोधी और सहकर्मी उन्हें अहमद भाई कह कर पुकारते रहे, लेकिन वे हमेशा सत्ता और प्रचार से खुद को दूर रखना ही पसंद करते थे.
सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और संभवतः प्रणब मुखर्जी के बाद यूपीए के 2004 से 2014 के शासनकाल में अहमद पटेल सबसे ताकतवर नेता थे.
इसके बावजूद वे उस दौर में केंद्र सरकार में मंत्री के तौर पर शामिल नहीं हुए.
2014 के बाद से, जब कांग्रेस ताश के महल की तरह दिखने लगी है तब भी अहमद पटेल मज़बूती से खड़े रहे और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी के निर्माण में अहम भूमिका निभाई और धुर विरोधी शिवसेना को भी साथ लाने में कामयाब रहे.
इसके बाद जब सचिन पायलट ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बग़ावत की तब भी अहमद सक्रिय हुए.
सारे राजनीतिक विश्लेषक ये कह रहे थे कि पायलट ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह बीजेपी में चले जाएंगे तब अहमद पटेल पर्दे के पीछे काम कर रहे थे, उन्होंने मध्यस्थों के जरिए यह सुनिश्चित किया कि सचिन पायलट पार्टी में बने रहे.
पर्दे के पीछे की सक्रियता
अहमद पटेल से जुड़ी ऐसी कई कहानियां हैं. और ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर कहा जाए कि 2014 के बाद गांधी परिवार की तुलना में पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच सद्भाव क़ायम रखने में अहमद पटेल का प्रभाव ज़्यादा दिखा.
लेकिन हर आदमी की अपनी खामियां या कहें सीमाएं होती हैं. अहमद पटेल हमेशा सतर्क रहे और किसी भी मुद्दे पर निर्णायक रुख लेने से बचते रहे.
जब 2004 में यूपीए की सरकार बनी तब कपिल सिब्बल और पी चिदंबरम जैसे कांग्रेसी नेताओं का समूह गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और मौजूदा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की 2002 के गुजरात दंगों में कथित भूमिका पर कड़ी कानूनी कार्रवाई चाहता था.
लेकिन अहमद पटेल इसको लेकर दुविधा में थे, उनकी इस दुविधा और हिचक को सोनिया गांधी और डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भांप लिया था और ये दोनों अहमद पटेल की राजनीतिक सूझबूझ पर भरोसा करते थे.
यही वजह है कि अहमद पटेल की सलाह पर दोनों ने अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति धीमी और सहज प्रक्रिया का सहारा लिया.
वहीं, बाहरी दुनिया के लिए अहमद पटेल हमेशा एक पहेली बने रहे. लेकिन जो लोग कांग्रेसी संस्कृति को समझते हैं उनकी नज़र में वो हमेशा एक पूँजी रहे.
वे हमेशा सतर्क दिखते, लेकिन थे मिलनसार और व्यावहारिक. उनकी छवि भी अपेक्षाकृत स्वच्छ थी.
पार्टी के कोषाध्यक्ष के तौर पर...
संभवतः राहुल गांधी, अहमद पटेल को ऐसे शख़्स के तौर पर देखते रहे जो कम से कम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति को ठीक-ठीक भांपने में सक्षम हों.
अब यह कोई रहस्य की बात भी नहीं रही कि अगस्त 2017 में अहमद पटेल कांग्रेस की ओर से पांचवीं बार राज्यसभा भेजे जाने (यह अपने आप में अनोखा था, क्योंकि कांग्रेस ने इससे पहले किसी भी नेता को पांच बार राज्य सभा नहीं भेजा था) को लेकर बहुत उत्सुक नहीं थे.
लेकिन कहा जाता है कि तत्कालीन पार्टी सर्वेसर्वा सोनिया गांधी ने उन्हें इसके लिए मनाया था और कहा था कि अकेले वही हैं जो अमित शाह और पूरी बीजेपी की बराबरी करने में सक्षम हैं.
पार्टी के कोषाध्यक्ष के तौर पर, उनकी जिम्मेदारी पार्टी के लिए ना केवल फंड जुटाने की थी बल्कि विभिन्न विधानसभा चुनावों और 2019 के आम चुनाव के दौरान जब राहुल गांधी की किस्मत उनका साथ नहीं दे रही थी, ऐसे समय में पार्टी कार्यकर्ताओं को एकजुट रखना और उन्हें सहायता पहुंचाने की जिम्मेदारी भी उनकी थी.
भारत के सभी राज्यों में ज़िला स्तरीय कांग्रेस कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों में अधिकांश को अहमद पटेल व्यक्तिगत तौर पर जानते थे, ऐसा कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी.
वे समझदारी और गोपनीय ढंग से संसाधनों (एक घंटे के अंदर पैसा, भीड़, प्राइवेट जेट और दूसरे तमाम लॉजिस्टिक शामिल हैं) की व्यवस्था करने में माहिर थे.
कारोबारी घरानों में अहमद पटेल की पहुंच
इतना ही नहीं, अहमद पटेल राहुल गांधी और संभावित साझीदार होने वाले नेताओं ममता बनर्जी, मायावती, और चंद्रबाबू नायडू के बीच में महत्वपूर्ण कड़ी भी थे.
इनके अलावा ग़ैर एनडीए और गैर यूपीए क्षेत्रीय दलों में भी उनकी पैठ थी. नौकरशाही, मीडिया और कारोबारी घरानों में अहमद पटेल की पहुंच के बारे में कांग्रेस सर्किल में तरह-तरह के किस्से सुनने को मिलते हैं.
इस सर्किल में कहा जाता है कि लो प्रोफाइल रहने वाले कांग्रेस के इस वरिष्ठ नेता के एहसानों के तले दबे लोग समाज के सभी हिस्सों में हैं, ढेरों लोग उनके एहसानों का बदला चुकाने के लिए हमेशा तैयार होते थे.
लेकिन अहमद पटेल ने उनमें से अधिकांश का इस्तेमाल शायद ही किया हो.
राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में अहमद पटेल का 23, मदर टेरेसा मार्ग का आवास, 10 जनपथ (सोनिया गांधी का आवास), 12 तुगलक क्रेसेंट (राहुल गांधी का आवास) और 15, गुरुद्वारा रकाबगंज मार्ग (कांग्रेस का वाररूम) के बाद पावर सेंटर जैसा ही था.
उनके घर में कई रास्तों से प्रवेश किया जा सकता है और निकला जा सकता है.
घर में कई कमरे, चैंबर्स हैं और ढेरों लोगों के बैठने की व्यवस्था भी, जहां निकाय चुनावों से लेकर संसदीय चुनाव तक के उम्मीदवारों, राज्यों के पार्टी अधिकारियों और कांग्रेस मुख्यमंत्रियों तक के भाग्य का फ़ैसला होता रहा है.
राजनीतिक चतुराई
हालांकि अहमद पटेल की रानजीतिक यात्रा जितनी आकर्षक आज नजर आती है, उतनी आसान भी नहीं रही.
साल 1985 में युवा और उत्साही राजीव गांधी नौकरशाही के बंधनों (इसे प्रधानमंत्री कार्यालय पढ़ा जा सकता है) को तोड़ना चाहते थे, लेकिन अहमद पटेल, अरुण सिंह और ऑस्कर फर्नांडीस को लेकर किया गया उनका प्रयोग नाकाम हो गया था.
क्योंकि इन तीनों के पास सशक्त आईएस लॉबी से पार पाने का ना तो कोई प्रशासनिक अनुभव था और ना ही राजनीतिक चतुराई.
लेकिन अहमद पटेल राजीव गांधी की 1991 में हुई मौत के बाद भी अहम भूमिका में बने रहे. राजीव गांधी के बाद पीवी नरसिम्हाराव ने अपने और 10 जनपथ के बीच सेतु के तौर पर अहमद पटेल का इस्तेमाल किया.
इस प्रक्रिया के दौरान अहमद पटेल ने सोनिया गांधी का भरोसा हासिल किया. जब सीताराम केसरी नरसिम्हाराव की जगह कांग्रेस अध्यक्ष बने तो अहमद पटेल कोषाध्यक्ष बने.
तब शरद पवार ने कांग्रेस अध्यक्ष पद की होड़ में सीताराम केसरी को चुनौती दी थी. वे केसरी के आसपास मौजूद घेरे की आलोचना करते हुए कहा करते थे, तीन मियाँ, एक मीरा (तीन मियाँ यानी अहमद पटेल, ग़ुलाम नबी आजाद, तारिक अनवर और एक मीरा यानी मीरा कुमार).
मार्च, 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. तब उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज से पटेल की नहीं बनी. जल्दबाज़ी में पटेल ने तब अपना इस्तीफा दे दिया था.
राहुल की पहली पसंद नहीं थे
बिना किसी ज़िम्मेदारी के अहमद एक तरह से कोपभवन में रहे. लेकिन सोनिया गांधी ने ही उन्हें वहां से बाहर निकाला, यह एक तरह से विसेंट जॉर्ज का दबदबा कम होने का संकेत था.
इस दौरान अहमद पटेल को मोतीलाल वोरा और माधवराव सिंधिया का सहयोग मिला और इन दोनों ने 10 जनपथ में उनकी वापसी में मदद की. अहमद पटेल, इसके लिए हमेशा मोतीलाल वोरा के आभारी रहे.
यह भी दिलचस्प है कि जब दिसंबर, 2017 में सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान राहुल गांधी को थमानी शुरू की तब अहमद पटेल राहुल की पहली पसंद नहीं थे.
राहुल गांधी एक बार लंबे समय के लिए अवकाश पर चले गए तो कांग्रेस के अंदर इस बात की खूब चर्चा हुई कि युवा राहुल चाहते हैं कि सोनिया गांधी पुराने लोगों को बाहर करें.
इसमें थोड़ी सच्चाई भी नज़र आई क्योंकि राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में पार्टी के अहम चेहरा रहे जनार्दन द्विवेदी को जगह नहीं मिली थी.
लेकिन किसी तरह से अहमद पटेल और मोतीलाल वोरा वापसी में कायमाब रहे.
अहमद पटेल और मोतीलाल वोरा को बनाए रखने की कोई वजह होगी, लेकिन पिछले तीन दशकों में देखें तो भारत की सबसे पुरानी पार्टी का भार दो मियां- अहमद पटेल और ग़ुलाम नबी आजाद और अहम पदों पर मौजूद कुछ पुराने नेताओं के कंधों पर रहा.
पार्टी आलाकमान का भरोसा
पार्टी के अंदर पीढ़ीगत बदलाव की बात अहमद के सामने परवान नहीं चढ़ी. कई कांग्रेसी नेता मानते थे कि अहमद और वोरा पदमुक्त किए जाएंगे और उनकी जगह कनिष्क सिंह, मिलिंद देवड़ा या फिर नई पीढ़ी का कोई नेता लेगा जो पार्टी का वित्त प्रबंधन संभालेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
अगस्त, 2018 में अहमद पटेल कांग्रेस के कोषाध्यक्ष पद पर लौटे. यह एक तरह से अहमद पटेल की अहमियत को साबित करने वाला था.
पार्टी संगठन पर उनके प्रभाव को देखते हुए ही शायद राहुल गांधी ने पार्टी में सुधार लाने या प्रयोग करने के बदले निष्ठा को सम्मानित करने का मन बनाया होगा और यथास्थिति को बनाए रखा.
परंपरागत तौर पर, कांग्रेस मुख्यालय में कोषाध्यक्ष का पद सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित माना जाता है.
उमाशंकर दीक्षित, अतुल्य घोष, प्रणब मुखर्जी, पीसी सेठी, सीताराम केसरी और मोतीलाल वोरा जैसों को पार्टी आलाकमान का भरोसा इसलिए भी हासिल रहा क्योंकि उन्हें गोपनीय जानकारी होती थी कि पार्टी फंड में पैसा कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है.
ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है मौजूदा दौर में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बाद कांग्रेस में सबसे सम्मानित शख़्स पार्टी कोषाध्यक्ष के तौर पर अहमद पटेल ही थे.
-अदिति फडनीस
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
9 अगस्त 2017
(करीब तीन बरस पहले का बीबीसी का यह लेख अहमद पटेल के बारे में बहुत कुछ बताता है)
''अहमद पटेल की हार सोनिया गांधी की हार है, उनकी जीत सोनिया गांधी की जीत है.'', गुजरात में मंगलवार को हुए राज्यसभा चुनाव में हुए सियासी ड्रामे की ख़बरों में ये चर्चा सुनने को मिल रही थी.
यही दिखाता है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल की अहमियत क्या है.
मंगलवार को गुजरात में राज्यसभा की तीन सीटों के लिए चुनाव हुआ जिसमें कांटे की टक्कर में अहमद पटेल जीत गए.
तो अहमद पटेल इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं?
अहमद पटेल का ये क़द सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि वो तीन बार लोकसभा में कांग्रेस के सांसद रहे और पांच बार कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा सांसद रह चुके हैं, बल्कि कांग्रेस के सबसे शीर्ष परिवार यानी गांधी परिवार के प्रति उनकी वफ़ादारी से उन्हें ये क़द हासिल हुआ है.
बात 1977 की है जब कांग्रेस की हार के घावों से जूझ रहीं इंदिरा गांधी को अहमद पटेल और उनके साथी सनत मेहता ने अपने चुनाव क्षेत्र भरूच बुलाया, इंदिरा गांधी की वापसी की कहानी की शुरुआत इसी दौरे से हुई थी.
लेकिन अहमद पटेल कांग्रेस की पहली पंक्ति में 1980 और 1984 के बीच आए जब इंदिरा गांधी के बाद ज़िम्मेदारी संभालने के लिए बेटे राजीव गांधी को तैयार किया जा रहा था, तब शर्मीली शख्सियत वाले अहमद पटेल राजीव गांधी के क़रीब आए.
राजीव गांधी और सोनिया गांधी
उन दिनों को क़रीब से देखने वाले बताते हैं कि जब भी राजीव गांधी गुजरात के दौरे पर आते तब अहमद पटेल उनके विमान तक सेव-भूसा, चूड़ा और मूंगफली लेकर दौड़ जाते, इन गुजराती खानों को गांधी परिवार ख़ास तौर पर पसंद करता था.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी 1984 में लोकसभा की 400 सीटों के बहुमत के साथ सत्ता में आए थे. और अहमद पटेल कांग्रेस सांसद होने के अलावा पार्टी की संयुक्त सचिव बनाए गए, उन्हें कुछ समय के लिए संसदीय सचिव और फिर कांग्रेस का महासचिव भी बनाया गया.
नरसिम्हा राव के दौर में किनारे
लेकिन नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो गांधी परिवार से अहमद पटेल की नज़दीकी के बावजूद उन्हें किनारे कर दिया गया.
कांग्रेस वर्किंग कमेटी की सदस्यता के अलावा अहमद पटेल को सभी पदों से हटा दिया गया.
कांग्रेस की बात करें तो उन वर्षों में गांधी परिवार का प्रभाव कम हुआ तो परिवार के वफ़ादार क़रीबियों के लिए भी ये मुश्किलों से भरा समय था.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राजीव गांधी फ़ाउन्डेशन को बजट से 20 करोड़ रुपए का फंड दिलाया लेकिन सोनिया गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया और अहमद पटेल के कंधों पर राजीव गांधी फ़ाउन्डेशन के लिए फंड इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी आई.
जब पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने मंत्री पद की पेशकश की तो उसे पटेल ने ठुकरा दिया. अहमद पटेल गुजरात से लोकसभा चुनाव भी हार गए और उन्हें सरकारी आवास खाली करने के लिए लगातार नोटिस मिलने लगे.
उनकी मित्र नज़मा हेपतुल्ला ने उनके लिए कई सरकारी आवासों के विकल्प खोजे, लेकिन इसके लिए राव सरकार से मंज़ूरी मिलना ज़रूरी था. अहमद पटेल ने नज़मा हेपतुल्ला का शुक्रिया तो अदा किया लेकिन मदद स्वीकार करने से इनकार कर दिया. पटेल के समर्थक कहते हैं कि अगर वो नजमा हेपतुल्ला की मदद स्वीकार कर लेते तो इसका मतलब होता नरसिम्हा राव से मदद लेना. बताया जाता है कि एक बार उन्होंने तिरस्कार से भरे लहज़े में कहा था, ''उस शख्स से? मदद मांगूं?''
अहमद पटेल बहुत धार्मिक बताए जाते हैं, ये भी एक वजह थी कि वो नरसिम्हा राव के दौर में ख़ुद को अलग-थलग महसूस करते थे.
धार्मिक पहचान से दूर
पटेल बाबरी मस्जिद विध्वंस में नरसिम्हा राव की भूमिका को कभी माफ़ी नहीं कर पाए. लेकिन ये भी देखने वाली बात है कि धार्मिक होने के बावजूद वो दाढ़ी और शेरवानी जैसे धार्मिक चिह्नों से दूर रहते हैं.
जिस तरह कांग्रेस के दमदार नेता कमला पति त्रिपाठी ने कहा था कि बाबरी मस्जिद गिराने वाले का पहला कुदाल हमारे सिर पर गिरेगा. उसी तरह अहमद पटेल भी कांग्रेस की परंपरा के मुताबिक हिंदूवाद समेत सभी धर्मों को समझते हैं और स्वीकार करते हैं.
लेकिन ये भी उतना ही सही है कि कांग्रेस की परंपरा में वो बहुत सधे हुए और प्रेरणादायक नेता नहीं हैं.
उनके भाषण मामूली होते हैं और वो किरश्माई नेता नहीं हैं, वो साधारण आदतों वाले सामान्य व्यक्ति हैं.
न ही उनके बच्चों, न ही बहुओं और दामाद ने राजनीति में आने की इच्छा दिखाई है. उनके दामाद वकील हैं लेकिन वो इतना साधारण जीवन जीते हैं कि ज़ाहिर नहीं हो पाता कि वो कांग्रेस के एक बड़े नेता के दामाद हैं. बहुत बड़ा हिसाब-किताब उनके हाथ में होता है लेकिन वो इससे अछूते नज़र आते हैं.
कार्यकर्ताओं में गहरी पैठ
कहते हैं कि राजनीति में वो नेता सफल होते हैं जो लोगों को उनके नाम से पहचानते और याद रखते हैं. अहमद पटेल कांग्रेस के उन कार्यकर्ताओं को जानते हैं, जिनके बारे में किसी ने नहीं सुना.
अहमद पटेल सबको जानते हैं, वो पहले से भांप लेते हैं कि जिनसे वो मिल रहे हैं उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी और वो क्या कहेंगे, उनकी पृष्ठभूमि के बारे में भी जानकारी रखते हैं. उनकी इस याददाश्त के कारण ही पार्टी में वो एक संस्था की तरह हैं.
उनकी कुछ ख़ास आदतें हैं जैसे रात बहुत देर तक काम करना और वो किसी भी कांग्रेस कार्यकर्ता को फ़ोन कर गहरी नींद से उठा कर कोई भी काम सौंप देते हैं.
वो बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम करते हैं, एक मोबाइल फ़ोन हमेशा खाली रखा जाता है जिस पर सिर्फ़ 10 जनपथ से ही फ़ोन आते हैं.
अहमद पटेल कभी भी गप नहीं मारते. न ही भावनाओं में बहते हैं. वो नरेंद्र मोदी को एक राजनीतिक चुनौती के तौर पर देखते हैं और मानते हैं कि एक बेहद लोकप्रिय नेता के खिलाफ़ लगातार बयानबाज़ी करना नुकसानदेह ही साबित हो सकता है. नरेंद्र मोदी की चुनौती का सामना करने के लिए वो एक रणनीति के साथ काम करने की बात कहते हैं.
जिस बात के लिए अहमद पटेल की आलोचना हो सकती है वो है कांग्रेस में मुस्लिम नेता की ग़ैरमौजूदगी. उनसे कभी ये सवाल पूछा भी नहीं गया है.
सलमान ख़ुर्शीद को कांग्रेस में मुस्लिम नेता की पहचान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. मोहसिना किदवई से कहा गया था कि उन्हें राज्यपाल बनाया जाएगा जिसके बाद वो सक्रिय राजनीति से रिटायर हो जाएंगी लेकिन जब वो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिली तो कुछ और ही संकेत मिला था.
आने वाले पांच साल अहमद पटेल के लिए सक्रिय राजनीति के आख़िरी पांच साल हो सकते हैं. अब कांग्रेस की कमान उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ में है जिनकी राजनीति का तरीक़ा अलग है, पटेल इससे कुछ अलग-थलग दिखते हैं.
वो कांग्रेस नेताओं की उस पीढ़ी के हैं जिसका तालमेल कांग्रेस की नई पीढ़ी से आसानी से बैठता नज़र नहीं आता.
बड़ी कंपनियों को बैंक खोलने की अनुमति देने के आरबीआई के प्रस्ताव के नतीजे कैसे होंगे? क्या कॉरपोरेट घरानों के बैंक भारतीय बैंकिंग व्यवस्था को मजबूत करेंगे और क्या खाताधारकों की जमा-पूंजी को सुरक्षित रखेंगे?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा
आरबीआई की एक समिति ने बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को बैंक खोलने की अनुमति देने का प्रस्ताव दिया है. साथ ही इस समिति ने बड़ी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को बैंक में बदलने की अनुमति देने का भी प्रस्ताव दिया है. केंद्रीय बैंक के इंटरनल वर्किंग ग्रुप (आईडब्ल्यूजी) द्वारा दिए गए इन प्रस्तावों पर 15 जनवरी, 2021 तक प्रतिक्रिया स्वीकार की जाएगी और उसके बाद आरबीआई अपना फैसला सुना देगी.
आरबीआई का क्या फैसला होगा यह इस समय कहना मुश्किल है, लेकिन कई जानकार इस प्रस्ताव पर आपत्ति जता रहे हैं. बीते कुछ सालों में पीएमसी बैंक, यस बैंक और लक्ष्मी विलास जैसे बैंकों की वित्तीय हालत बेहद खराब हो गई और आरबीआई को उनका नियंत्रण अपने हाथों में ले लेना पड़ा.
दूसरे बैंक भी ऐसे हाल तक तो नहीं पहुंचे हैं लेकिन बड़े-बड़े ऋण के ना चुक पाने के कारण सबका वित्तीय स्वास्थ्य अच्छा नहीं है. एसबीआई और एचडीएफसी जैसे शीर्ष बैंक भी इस समस्या से जूझ रहे हैं. ऐसे में पूरा बैंकिंग क्षेत्र अनिश्चिततताओं से गुजर रहा है और तरह तरह के सुधारों का प्रस्ताव दिया जा रहा है.
बीते कुछ सालों में पीएमसी बैंक, यस बैंक और लक्ष्मी विलास जैसे बैंकों की वित्तीय हालत बेहद खराब हो गई और आरबीआई को उनका नियंत्रण अपने हाथों में ले लेना पड़ा.
इस प्रस्ताव की भी यही पृष्ठभूमि है, लेकिन कई जानकारों ने इस से असहमति जताई है. यहां तक की आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया है. उनके अनुसार आईडब्ल्यूजी ने जितने विशेषज्ञों से सलाह ली थी उनमें से एक को छोड़ सबने प्रस्ताव का विरोध किया था और इसके बावजूद समूह ने प्रस्ताव की अनुशंसा कर दी.
दोनों अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कॉरपोरेट घरानों को बैंक खोलने की अनुमति देने से "कनेक्टेड लेंडिंग" शुरू हो जाएगी. "कनेक्टेड लेंडिंग" यानी ऐसी व्यवस्था जिसमें बैंक का मालिक अपनी ही कंपनी को आसान शर्तों पे लोन दे देता है. राजन और आचार्य के अनुसार इससे "सिर्फ कुछ व्यापार घरानों में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीकरण की समस्या और बढ़ जाएगी."
लेकिन आईडब्ल्यूजी के प्रस्ताव से बैंकिंग लाइसेंस पाने की इच्छुक कंपनियों में उत्साह है. भारत में 1980 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था और उसके बाद 1993 में निजी कंपनियों को बैंक खोलने की अनुमति दी गई थी. तब से कई बड़े औद्योगिक घराने बैंक खोलने का लाइसेंस मिलने की राह देख रहे हैं.
पिछले कुछ सालों में इन सभी ने एनबीएफसी भी खोल लिए हैं, जिनमें बजाज फिनसर्व, एम एंड एम फाइनेंस, टाटा कैपिटल, एल एंड टी फाइनैंशियल होल्डिंग्स, आदित्य बिरला कैपिटल इत्यादि शामिल हैं. लेकिन कई जानकार 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट की भी याद दिला रहे हैं जिसके बाद कई देशों में कॉरपोरेट घरानों द्वारा चलाए जाने वाले बैंकों के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया था.
अंतर-धार्मिक विवाहों के खिलाफ नफरत के मौजूदा माहौल में इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फैसला एक ताजा बयार की तरह आया है. अदालत ने कहा है कि दो वयस्क अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं.
अदालत एक अंतर-धार्मिक विवाह के बाद दुल्हन के परिवार द्वारा दूल्हे के खिलाफ दायर किए गए मामले पर सुनवाई कर रही थी. सलामत अंसारी और प्रियंका खरवार ने पिछले साल अगस्त में शादी की थी. विवाह से ठीक पहले प्रियंका ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और अपना नाम बदल कर 'आलिया' रख लिया था.
इस पर प्रियंका के परिवार वालों ने सलामत के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी थी जिसमें उस पर अपहरण और जबरन विवाह करने जैसे आरोप लगाए थे. नाबालिग बच्चियों के खिलाफ अपराध की रोकथाम के लिए बने कानून पॉक्सो के तहत भी सलामत के खिलाफ आरोप लगाए गए थे.
लेकिन पूरे मामले को सुनने के बाद अदालत ने सारे आरोप हटा दिए और एफआईआर को रद्द कर दिया. अपने फैसले में अदालत ने कहा कि धर्म की परवाह ना करते हुए अपने पसंद के साथी के साथ जीवन बिताने का अधिकार जीवन के अधिकार और निजी स्वतंत्रता के अधिकार में ही निहित है.
अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर दो बालिग व्यक्ति अपनी मर्जी से एक दूसरे के साथ रह रहे हैं तो इसमें किसी दूसरे व्यक्ति, परिवार और यहां तक कि सरकार को भी आपत्ति करने का अधिकार नहीं है. यह फैसला देते वक्त अदालत ने अपने उन पिछले फैसलों को भी गलत बताया जिनमें कहा गया था कि विवाह के लिए धर्मांतरण प्रतिबंधित है और ऐसे विवाह अवैध हैं.
We do not see Priyanka and Salamat as Hindu and Muslim, rather as two grown up individuals who out of their own free will and choice are living together peacefully and happily over a year. Allahabad High Court
— Bar & Bench (@barandbench) November 24, 2020
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अंतर-धार्मिक विवाहों को लेकर इस समय देश में बहस छिड़ी हुई है. आभूषणों की एक कंपनी के एक टीवी विज्ञापन में अंतर-धार्मिक विवाह दिखाए जाने का इतना विरोध हुआ कि कंपनी ने विज्ञापन वापस ले लिया. कई विरोधियों ने मुस्लिम पुरुषों द्वारा हिंदू स्त्रियों से शादी को 'लव जिहाद' की संज्ञा दी है. हाल ही में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसी कई राज्य सरकारों ने भी अंतर-धार्मिक विवाहों पर नाराजगी जताई थी और इन्हें रोकने के लिए नए कानून लाने की घोषणा की थी.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केरल की वामपंथी सरकार को हुआ क्या है? उसने ऐसा अध्यादेश जारी करवा दिया है, जिसे अदालतें तो असंवैधानिक घोषित कर ही देंगी, उस पर अब उसके विपक्षी दलों ने भी हमला बोल दिया है। इस अध्यादेश का उद्देश्य यह बताया गया है कि इससे महिलाओं और बच्चों पर होनेवाले शाब्दिक हमलों से उन्हें बचाया जा सकेगा। केरल पुलिस एक्ट की इस धारा 118 (ए) के अनुसार उस व्यक्ति को तीन साल की जेल या 10 हजार रु. जुर्माना या दोनों होंगे, ‘जो किसी व्यक्ति या समूह को धमकाएगा, गालियां देगा, शर्मिंदा या बदनाम करेगा।’ इस तरह के, बल्कि इससे भी कमजोर कानून को 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। वह 2000 में बने सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए थी। अदालत ने उसे संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध माना था। केरल के इस अध्यादेश में तो किसी खबर या लेख या बहस के जरिए यदि किसी के प्रति कोई गलतफहमी फैलती है या उसे मानसिक कष्ट होता है तो उसी आरोप में पुलिस उसे सीधे गिरफ्तार कर सकती है। पुलिस को इतने अधिकार दे दिए गए हैं कि वह किसी शिकायत या रपट के बिना भी किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है। क्या केरल में अब रुस का स्तालिन-राज या चीन का माओ-राज कायम होगा ?
जाहिर है कि यह अध्यादेश बिना सोचे-समझे जारी किया गया है। बिल्कुल इसी तरह का गैर-जिम्मेदाराना काम केरल की वामपंथी सरकार ने ‘नागरिकता संशोधन कानून’ के विरुद्ध विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके किया था। वह संघीय कानून के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में भी चली गई थी। देश की दक्षिणपंथी सरकारों पर जिस संकीर्णता का आरोप हमारे वामपंथी लगाते हैं, वैसे ही और उससे कहीं ज्यादा संकीर्णता अब वे खुद भी दिखा रहे हैं। केरल की कम्युनिस्ट सरकार इस कानून के सहारे अनेक पत्रकारों, लेखकों और विपक्षी नेताओं को डराने और कठघरों में खड़ा करने का काम करेगी। आश्चर्य तो इस बात का है कि आरिफ मोहम्मद खान जैसे राज्यपाल ने, जो अनुभवी राजनीतिज्ञ और कानून के पंडित हैं, ऐसे अध्यादेश पर दस्तखत कैसे कर दिए ? उन्होंने पहले भी राज्य सरकार को कुछ गलत पहल करने से रोका था और इस अध्यादेश को भी वे लगभग डेढ़ माह तक रोके रहे लेकिन केरल या केंद्र के सभी वामपंथी और विपक्षी नेताओं ने भी मुंह पर पट्टी बांधे रखी तो उन्होंने भी सोचा होगा कि वे अपने सिर बल क्यों मोल लें ? उनके दस्तखत करते ही कांग्रेसी और भाजपा नेताओं तथा देश के बड़े अखबारों ने इस अध्यादेश की धज्जियां उड़ाना शुरु कर दीं। इसके पहले कि सर्वोच्च न्याालय इसे रद्द कर दे, केरल सरकार इसे अपनी मौत मर जाने दे तो बिल्कुल सही होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
हीरे की परख जौहरी को होती है। फौजी मुंह से नहीं बोलता। उसकी तलवार बोलती है। ये महज पुराने मुहावरे नही हैं। चतुर सुजान व्यक्ति इन नुस्खों पर अमल करते हैं। जम्मू-कश्मीर की साल भर पुरानी केन्द्र शासित इकाई में लोकतंत्र की लड़ाई में इसका पूरा ध्यान रखा गया। देश की राजधानी के विधान सभा के दंगल में चुनौती देने वाले वीर की दहाड़ का जबर्दस्त असर हुआ। उसे दोबारा मैदान में उतारने की जरूरत नहीं पड़ी। लोग इस गलतफहमी में खुश रहे कि चुनाव आयोग ने प्रचार करने पर रोक लगा दी। ऐसी रोक टोक असरदार होती तो बिहार के दंगल में पहले चरण में जीत खिसकने का अंदाज लगने के बाद परमवीर फिर ताल ठोंकते न दिखते। जम्मू-कश्मीर में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव की कमान पार्टी ने केन्द्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर को सौंप दी। सीमा पर हिमाचल के जवान लड़ते हैं। पार्टी के बढ़ते अनुराग से प्रसन्न चुनाव प्रभारी की ठकुराई के दांव कसौटी पर हैं।
जी का जंजाल
वस्तु एवं सेवाकर कहने से आप समझेंगे या समझेंगी नहीं। जीएसटी नाम की बला ही कितनों की समझ में आई? उपभोक्ता नहीं जानता कि लागू करने से पहले बताए गए फायदे मिलने लगे या नहीं? व्यापारी नाखुशी दिखा रहे हैं। सरकार ने एक दो बार अच्छी वसूली पर खुशी जतलाई। लेकिन राज्यों ने बकाया न मिलने पर हंगामा मचाकर गुड़ गोबर कर दिया। जीएसटी की पकड़ से कम ही वस्तुएं बाहर हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने वसूली में सख्ती का फरमान जारी किया। सरकार और सरकारी विभागों को सामान की आपूर्ति करने वाले बुरे फंसे। महामारी की मार ऐसी पउ़ी कि अनेक सरकारी विभागों ने भुगतान नहीं किया। उधर जीएसटी वाले कहते हैं हम तो जीएसटी काटेंगे। तुम्हारा बकाया मिले या नहीं। मंत्रालय और निगम तक तो फिर भी खैर थी। प्रधानमंत्री कार्यालय को सप्लाई करने वाले भी इस पचड़े में फंसे हैं।
चुनाव का चक्कर
चुनाव के नाम से कई कांग्रेस जनों को बुखार आता होगा। सरकार ने नियम इस तरह बदले हैं कि अगले तीन महीने के अंदर कांग्रेस को संगठन चुनाव कराना जरूरी है। महामारी का बहाना नहीं चलेगा। अध्यक्ष के चुनाव के लिए तैयारी जारी है। महामारी का कारण बताकर बैठक टाली जा सकती है। इसलिए मतदान आन लाइन होगा। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के 1500 सदस्य मतदान कर सकेंगे। ये कब चुने गए? शायद कोई कांग्रेसी बता सके। बहरहाल डेढ़ हजार मतदाताओं को पासवर्ड भेजा जाएगा। सारी उठा पटक के बाद क्या होगा? पता नहीं। अभी तो अध्यक्ष े लिए उम्मीदवारों के नाम सामने नीं आए। चुनाव की परंपरा नहीं है। लेकिन परिवार के तीन रत्नों पर समर्थकों की निगाह टिकी है। किसी एक नाम पर आम राय बनी तो मतदाता वोट डालने की जहमत उठाने से बच जाएंगे। कोई राहुल भैया को मनाए।
बढ़ती का नाम
पश्चिम बंगाल चुनाव की चर्चा छिड़ते ही चेहरा दिखाकर चहकने वाले कवि कुल गुरु रवीन्द्र नाथ ठाकुर से तुलना करने लगे। केन्द्रीय मंत्री रह चुके अरुण शौरी ने फब्ती कसी-रूप बदलते रहते हैं। राजर्षि कहलाना चाहते हैं। घर और वार करने का जिम्मा संभालने वाले दाढी बिरादरी के। सूचना का संचार करने वाले का पुणेरी चेहरा। मध्यप्रदेश की सरकार बचाने के लिए विधायकों का इस्तीफा कराने से लेकर उपचुनाव में विधायक जिताने वाले प्रहलाद की पटैली चमक। गद्य को पद्य में बदल कर समाज कल्याण करने वाले भारतीय रिपब्लिकन दास के मुख मंडल पर ध्यान दो।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर प्रधानमंत्री और सूचना मंत्री तस्वीर में और प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष जयशंकर गुप्त सदेह उपस्थित थे। गुप्त ने दाढी जमात में शामिल होकर चौंकाया। चलती का नाम गाड़ी फिल्म से नोट बटोरने के बरसों बाद किशोर कुमार ने बढ़ती का नाम दाढ़ी फिल्म बनाई। सिनेमाई दाढ़ी फहरा नहीं सकी। चुनावी दाढ़ी के जादू की परीक्षा बंगाल के चुनाव में होगी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार ने देश की चिकित्सा-पद्धति में अब एक एतिहासिक पहल की है। इस एतिहासिक पहल का एलोपेथिक डॉक्टर कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि देश के वैद्यों को शल्य-चिकित्सा करने का बाकायदा अधिकार दे दिया गया तो देश में इलाज की अराजकता फैल जाएगी। वैसे तो देश के लाखों वैद्य छोटी-मोटी चीर-फाड़ बरसों से करते रहे हैं लेकिन अब आयुर्वेद के स्नातकोत्तर छात्रों को बकायदा सिखाया जाएगा कि वे मुखमंडल और पेट में होनेवाले रोगों की शल्य-चिकित्सा कैसे करें। जैसे मेडिकल के डाक्टरों को सर्जरी का प्रशिक्षण दिया जाता है, वैसे ही वैद्य बननेवाले छात्रों को दिया जाएगा।
मैं तो कहता हूं कि उनको कैंसर, दिमाग और दिल की शल्य-चिकित्सा भी सिखाई जानी चाहिए। भारत में शल्य-चिकित्सा का इतिहास लागभग पांच हजार साल पुराना है। सुश्रुत-संहिता में 132 शल्य-उपकरणों का उल्लेख है। इनमें से कई उपकरण आज भी- वाराणसी, बेंगलुरु, जामनगर और जयपुर के आयुर्वेद संस्थानों में काम में लाए जाते हैं। जो एलोपेथी के डाक्टर आयुर्वेदिक सर्जरी का विरोध कर रहे हैं, क्या उन्हें पता है कि अब से सौ साल पहले तक यूरोप के डॉक्टर यह नहीं जानते थे कि सर्जरी करते वक्त मरीज को बेहोश कैसे किया जाए। जबकि भारत में इसकी कई विधियां सदियों से जारी रही हैं। भारत में आयुर्वेद की प्रगति इसलिए ठप्प हो गई कि लगभग डेढ़ हजार साल तक यहां विदेशी धूर्तों और मूर्खों का शासन रहा। आजादी के बाद भी हमारे नेताओं ने हर क्षेत्र में पश्चिम का अंधानुकरण किया। अब भी हमारे डॉक्टर उसी गुलाम मानसिकता के शिकार हैं। उनकी यह चिंता तो सराहनीय है कि रोगियों का किसी प्रकार का नुकसान नहीं होना चाहिए लेकिन क्या वे यह नहीं जानते कि आयुर्वेद, हकीमी, होमियोपेथी, तिब्बती आदि चिकित्सा-पद्धतियां पश्चिमी दवा कंपनियों के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं ? उनकी करोड़ों-अरबों की आमदनी पर उन्हें पानी फिरने का डर सता रहा है।
हमारे डॉक्टरों की सेवा, योग्यता और उनके योगदान से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति यदि उन्नत हो गई तो इलाज में जो जादू-टोना पिछले 80-90 साल से चला आ रहा है और मरीजों के साथ जो लूट-पाट मचती है, वह खत्म हो जाएगी। मैंने तो हमारे स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन और आयुष मंत्री श्रीपद नाइक से कहा है कि वे डाक्टरी का ऐसा संयुक्त पाठ्यक्रम बनवाएं, जिसमें आयुर्वेद और एलोपेथी, दोनों की खूबियों का सम्मिलन हो जाए। जैसे दर्शन और राजनीति के छात्रों को पश्चिमी और भारतीय, दोनों पक्ष पढ़ाए जाते हैं, वैसे ही हमारे डाक्टरों को आयुर्वेद और वैद्यों को एलोपेथी साथ-साथ क्यों न पढ़ाई जाए ? इन पद्धतियों के अंतर्विरोधों में वे खुद ही समन्वय बिठा लेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-महेन्द्र पांडे
पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के कहर के बीच टीके को लेकर सामने आ रहे दावे कई तरह के सवाल खड़ा करते हैं। टीकों को लेकर हो रहे दावों के बीच कई महत्वपूर्ण तथ्य ऐसे हैं, जिसपर अभी कोई चर्चा भी नहीं की जा रही है।
कोरोना वायरस को लेकर इन दिनों भारत समेत लगभग सभी देश लापरवाही की हदें पार कर चुके हैं और दूसरी तरफ इसके टीके का बेसब्री से इंतजार भी कर रहे हैं। फाइजर और मोडेर्ना ने अपने टीकों से दुनिया की उम्मीदों को बढा दिया है। आशा है कि इस वर्ष के अंत तक या फिर अगले वर्ष के आरंभ में इन दोनों कंपनियों के टीके उपलब्ध होने लगेंगे।
इस बीच कंपनियां रहस्यमय तरीके से अपने दावों को बदलती जा रही हैं। दो दिनों पहले तक फाइजर का दावा था कि उसका टीका 90 प्रतिशत तक कामयाब है। इसके बाद अमेरिकी कंपनी मोडेर्ना ने अपने टीके का 94.5 प्रतिशत सफलता दर का दावा पेश किया। इस दावे के अगले दिन ही फाइजर ने बताया कि उसने फिर से टीके की सफलता का आकलन किया है और यह 95 फीसदी सफल है। जाहिर है, इन दोनों कंपनियों में अपने टीके को अधिक प्रभावी बताने की होड़ लगी है।
इन दावों के बीच एक महत्वपूर्ण तथ्य भी है, जिसपर अभी चर्चा भी नहीं की जा रही है। फाइजर के टीके को शून्य से भी 70 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर रखने की जरूरत होगी। ऐसे में सवाल यह है कि भारत जैसे कितने गरीब देश हरेक जगह ऐसी सुविधा विकसित कर पाएंगे? इसी तापमान पर इन्हें एक जगह से दूसरे जगह पहुंचाना भी पड़ेगा। फिर गांवों में ऐसा तापमान किस तरह पाया जा सकेगा?
दूसरी तरफ मोडेर्ना का दावा है कि उसके टीके का भंडारण शून्य से 20 डिग्री सेल्सियस नीचे पर लगभग 3 महीने तक किया जा सकता है। देश के बड़े अस्पतालों में तो यह तापमान मिल जाएगा, पर कस्बों और गांव में यह तापमान मिलना भी कठिन होगा। दरअसल ये दोनों टीके एक नई तकनीक, जिसमें मैस्सेंजर आरएनए की प्रमुख भूमिका है, पर आधारित हैं और इसमें टीकों को बहुत ठंढे तापमान पर रखना ही पड़ेगा, नहीं तो टीके जल्दी ही खराब हो जाएंगे।
इन दोनों टीकों का मूल्य भी एक समस्या है। फाइजर के टीके की कीमत 20 डॉलर है, जबकि मोडेर्ना के टीके की कीमत 37 डॉलर है। हरेक टीके का एक बूस्टर टीका भी होगा, ऐसे में इस कीमत पर कितने लोग टीके का खर्च उठा पाएंगे? मोडेर्ना ने वक्तव्य जारी किया है कि कोविड 19 जब तक समाप्त नहीं हो जाता, तब तक अपने टीके को वह पेटेंट के दायरे से बाहर रखेगा। इसका मतलब है कि कोई भी दूसरा देश इसे फिलहाल अपने देश में बना सकता है और अपनी जनता को सस्ते दरों पर उपलब्ध करा सकता है।
लेकिन अनेक विशेषज्ञ इस दावे को बकवास करार देते हैं। मेडिसिंस सैंस फ्रंटियर्स नामक गैर सरकारी संस्था के अनुसार यह सोचना भूल होगी कि मोडेर्ना जैसी व्यवसायिक कंपनी अमेरिका सरकार के सहयोग से कोई टीका बनाएगी और उससे मुनाफा नहीं कमाएगी। इस संस्था ने बताया कि संभवत: इसीलिए मोडेर्ना ने पेटेंट न लागू करने की कोई निश्चित समयसीमा के बारे में बात नहीं की है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका का टीका अभी अंतिम परीक्षण के दौर में है, पर इसके बारे में स्पष्ट बताया गया है कि जुलाई 2021 तक इससे कोई मुनाफा नहीं कमाया जाएगा।
हमारे देश में तो किन्हें प्राथमिकता के आधार पर टीका मिलेगा यह भी तय नहीं है। भारत सरकार के नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप ऑन वैक्सीन एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार टीके को सबसे पहले बुजुर्गों और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ ही कोविड 19 से संबंधित फ्रंटलाइन वर्कर्स को लगाया जाएगा। दूसरी तरफ बीजेपी बिहार में इसे देने की बात करती है, मध्य प्रदेश सरकार भी यही दावा कर रही है। कुछ महीनों बाद बंगाल के चुनावों के दौरान भी बीजेपी निश्चित तौर पर बंगाल के लोगों के साथ टीके का सौदा करेगी। पर, अंत में जब टीका आएगा तब प्राथमिकता निश्चित तौर पर विधायिका और वरिष्ठ कार्यपालिका तक पहुंच जाएगी।
फ्रांस के स्ट्रासबर्ग यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में किये गए अध्ययन के अनुसार कोविड 19 से संक्रमित होकर ठीक होने वाले पुरुषों के शरीर में स्त्रियों की अपेक्षा अधिक तेजी से एंटीबॉडीज नष्ट हो रहे हैं। यहां पर कोरोना से ग्रस्त होने वाले 308 मरीजों का 6 महीने तक गहन अध्ययन किया गया और एंटीबॉडीज के स्तर को 172 दिनों के अंतराल पर मापा गया। कोविड 19 के बारे में शुरू से बताया जा रहा है कि महिलाएं इससे अधिक ग्रस्त होती हैं, पर मृत्यु दर के सन्दर्भ में पुरुष बहुत आगे हैं। संक्रमण के शुरू में भी स्त्रियों की तुलना में पुरुषों के शरीर में एंटीबॉडीज अधिक बनाते हैं और नए अध्ययन के अनुसार पुरुषों के एंटीबॉडीज अपेक्षाकृत अधिक तेजी से नष्ट भी होते हैं।
जाहिर है, पुरुषों और स्त्रियों का रोग-प्रतिरोधक तंत्र इस वायरस के सन्दर्भ में अगल व्यवहार करता है। ऐसे में एक ही टीके से सबको एक समान रोग से बचा पाना असंभव है, पर किसी भी टीके के परीक्षण में ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया है। कोविड 19 का टीका इस दौर में शुद्ध मुनाफे का सौदा है और पूंजीवाद में करोड़ों लोगों की जिंदगी दाव पर लगाना कोई नई बात नहीं है। (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहनसिंह की अध्यक्षता में तीन कमेटियां बना दी हैं, जिनका काम पार्टी की अर्थ, सुरक्षा और विदेश नीतियों का निर्माण करना है। इन कमेटियों में वे कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी भी हैं, जिन्होंने कांग्रेस की दुर्दशा सुधारने के लिए पत्र लिखा था। इस कदम से यह अंदाज तो लगता है कि जिन 23 नेताओं ने सोनियाजी को टेढ़ी चि_ी भेजी थी, उनसे वह भयंकर रुप से नाराज़ नहीं हुईं।
ये बात और है कि उस चि_ी का जवाब उन्होंने उनको अभी तक नहीं भेजा है। उनकी इस कोशिश की तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने कोई ऐसे संकेत नहीं उछाले, जिससे पार्टी में टूट-फूट के आसार मजबूत हो जाएं लेकिन यह समझ में नहीं आता कि उक्त तीनों मुद्दों पर पार्टी के बुजुर्ग नेताओं से इतनी कसरत करवाने का उद्देश्य क्या है? मानों उन्होंने कोई दस्तावेज तैयार कर दिया तो भी उसकी कीमत क्या है ?
पार्टी में क्या किसी नेता की आवाज में इतना दम है कि राष्ट्र उसकी बात पर कान देगा ? उसकी बात पर ध्यान देना तो बहुत दूर की बात है। सारा प्रचारतंत्र जानता है कि कांग्रेस का मालिक कौन है ? मां, बेटा और अब बेटी। बाकी सबकी हैसियत तो नौकर-चाकर कांग्रेस (एन.सी.= नेशनल कांग्रेस) की है। जो कांग्रेस आज अधमरी हो चुकी है, पहले उसे जिंदा करने की कोशिश होनी चाहिए या देश को बचाने की ? देश बचाने के लिए अभी तो नरेंद्र मोदी ही काफी हैं। यदि कांग्रेस मजबूत होती और संसद में उसके लगभग 200 सदस्य होते तो वह एक वैकल्पिक सरकार बना सकती थी। वैकल्पिक छाया सरकार के नाते उसके सुझाव में थोड़ा दम भी होता लेकिन अब जो पहल हो रही है, वह हवा में लाठी घुमाने-जैसा है। कांग्रेस के सामने अभी उसके अस्तित्व का संकट मुंह फाड़े खड़ा हुआ है और वह वैकल्पिक नीतियां बनाने में लगी रहेगी। इस समय ये तीन कमेटियां बनाने की बजाय उसे सिर्फ एक कमेटी बनानी चाहिए और उसका सिर्फ एक मुद्दा होना चाहिए कि कांग्रेस में कैसे जान फूंकी जाए ? इस समय कांग्रेस का दम घुट रहा है। यदि उसे ताजा नेतृत्व की हवा नहीं मिली तो हमारा लोकतंत्र कोरोनाग्रस्त हो सकता है। सक्षम विपक्ष के बिना कोई भी लोकतंत्र स्वस्थ नहीं रह सकता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रियाज़ मसरूर
अब्दुल अज़ीज़ खताना पाँच पीढ़ियों से पहलगाम के लिड्रू में रहते हैं. यह कम आबादी वाली, जंगलों के बीच बसी एक ख़ूबसूरत जगह है जो जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से क़रीब सौ मील दूर पहलगाम की पहाड़ियों के बीच है.
लेकिन अब 50 साल के खताना, उनके भाई-बहन, पत्नी और बच्चे मलबे के ढेर में तब्दील हो चुके अपने घर के पास बैठे रो रहे हैं. मिट्टी की दीवारों से बने इस घर को वो 'कोठा' कहते थे.
अधिकारियों का कहना है कि सरकार ने 'वन भूमि के अतिक्रमण' को लेकर एक नया अभियान शुरू किया है जिसके तहत खताना का घर तोड़ा गया है.
अभियान का नेतृत्व कर रहे वरिष्ठ अधिकारी मुश्ताक़ सिमनानी कहते हैं कि 'जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के आदेश पर वन भूमि का अतिक्रमण करने वाले घरों और इमारतों को हटाया जा रहा है.'
पहलगाम विकास प्राधिकरण के प्रमुख मुश्ताक़ कहते हैं, "कोर्ट ने शहर में जंगल की क़रीब 300 एकड़ की ज़मीन पर किये गए सभी अतिक्रमण और ग़ैर-क़ानूनी निर्माण को हटाने का आदेश दिया है. ये अवैध ढांचे हैं और इन्हें हटाकर हम कोर्ट के आदेश का पालन कर रहे हैं."
इसी साल अक्तूबर में कोर्ट ने प्रशासन को जंगल की ज़मीन से ग़ैर-क़ानूनी अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था.
अब्दुल अज़ीज़ खताना और उनके जैसे कई लोगों के लिए यह एक सदमे की तरह है कि जिस घर में वे पीढ़ियों से रहते आये, अब वो घर उनका नहीं रहा. वो अचानक ही बेघर हो गए थे.
बीबीसी से बातचीत के दौरान ग़मगीन आवाज़ में खताना ने कहा, "मुझे नहीं पता कि ये क़ानून किस बारे में है. मुझे पता है कि ये घर जो अब मलबे का ढेर बन गया है, वो मेरे परदादा ने बनाया था."
खताना के घर के पास एक दूसरा कोठा भी है जो उनकी भाभी नसीमा अख़्तर का है.
नसीमा के तीन बच्चे हैं. जिस वक़्त अधिकारी उनका घर तोड़ने के लिए आये, उस वक़्त वो अपने बच्चों को खाना खिला रही थीं.
अब्दुल अज़ीज़ खताना का घर जो अब नष्ट हो चुका है
अभियान को लेकर लोगों में नाराज़गी
नसीमा रोते-रोते कहती हैं, "हम डर गए थे. बच्चे रोने लगे और हम चीख रहे थे. यहां सैंकड़ों अधिकारी और पुलिस के लोग थे. उनके हाथों में कुल्हाड़ियां, रॉड और बंदूक़ें थीं. उन्होंने देखते ही देखते मेरे घर को गिरा दिया."
प्रशासन के इस क़दम को लेकर प्रदेश में तीखी राजनीतिक प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. कई वरिष्ठ राजनेताओं ने इलाक़े का दौरा किया है और आश्वासन दिया है कि वो पीड़ित परिवारों के साथ हैं.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और पूर्व मंत्री मियां अलताफ़ कहते हैं, "भारत का वन अधिकार क़ानून जंगलों में रहने वाले अदिवासियों और वनवासियों को ज़मीन का हक़ और जंगलजात उत्पादों को जमा करने का हक़ देता है. खानाबदोश समुदायों और आदिवासियों को सशक्त करने की बजाय इस नए क़ानून को ग़ैर-क़ानूनी तरीके से लागू किया जा रहा है ताकि ग़रीबों को बेघर किया जा सके."
मियां अलताफ़
देश की संसद ने वन अधिकार क़ानून, 2006 पारित तो कर दिया था लेकिन अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को मिले विशेष अधिकार के कारण इस क़ानून को वहां लागू नहीं किया जा सका था.
बीते साल अगस्त में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को आंशिक स्वायत्तता देने वाले अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिया था जिसके बाद सरकार ने वहां कई क़ानून लागू किए हैं, इन्हीं में से एक है- वन अधिकार क़ानून.
मियां अलताफ़ सवाल करते हैं, "खानाबदोशों को बेघर करना ग़ैर-क़ानूनी है क्योंकि क़ानून उन्हें भी अधिकार देता है. और वन पारिस्थितिकी तंत्र यानी फ़ॉरेस्ट इकोसिस्टम के लिए जंगलों में रहने वाले यानी वनवासी लोग बेहद अहम हैं. आप उन्हें कैसे बेघर कर सकते हैं."
बीजेपी ने आरोपों को किया ख़ारिज
लेकिन बीजेपी ने इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज किया है और कहा है कि केंद्र शासित प्रदेश में वन अधिकार क़ानून लागू किया गया है.
जम्मू कश्मीर बीजेपी के प्रवक्ता अल्ताफ़ ठाकुर ने फ़ोन पर बीबीसी को बताया कि "आदिवासी और वनवासियों को क़ानून के तहत जो अधिकार दिए गए हैं वो उनका लाभ उठा सकते हैं. कुछ पार्टियां अपने राजनीतिक हितों के लिए इस मामले का इस्तेमाल कर रही हैं लेकिन केंद्र सरकार अपने वादे से पीछे नहीं हटेगी."
हालांकि वनवासी अल्ताफ़ ठाकुर की बात से इत्तेफ़ाक रखते नहीं दिख रहे. इस अभियान के ख़िलाफ़ वनवासियों के नेता मोहम्मद यूसुफ़ गोर्सी ग़ैर-आदिवासी लोगों और राजनीतिक पार्टियों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.
बकरवाल समुदाय की महिलाएं
लिड्रू में बेघर हो चुके खानाबदोशों के एक कार्यक्रम में गोर्सी कहते हैं, "हम ये बर्दाश्त नहीं कर सकते. जंगल के पास ग्रीन ज़ोन में बड़ी-बड़ी इमारतें और घर बनाए गए हैं लेकिन सरकार उन वनवासियों को सज़ा दे रही है जो पीढ़ियों से यहां रहते हैं. वन अधिकार क़ानून का ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है और मुझे नहीं पता कि खानाबदोश समुदाय के मुसलमानों को ही क्यों परेशान किया जा रहा है."
'सरकार ग़रीब हटाना चाहती है या ग़रीबी?'
जम्मू कश्मीर सीपीआईएम के सेक्रेटरी ग़ुलाम नबी मलिक ने एक बयान जारी कर कहा है कि ये दुख की बात है कि जो वनवासी सदियों से जंगलों का सुरक्षा कर रहे हैं उन्हें ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से बेघर किया जा रहा है.
वो कहते हैं, "धर्म और राजनीति से हटकर, उन सभी लोगों के ख़िलाफ़ कठोर क़दम उठाए जाने चाहिए जो वनभूमि का अतिक्रमण कर रहे हैं, लेकिन यहां ग़रीब खानाबदोशों को उनके ढोक (अस्थाई रिहाइश) से निकाला जा रहा है."
मीडिया से बातचीत में अनंतनाग ज़िला प्रशासन ने उन पर लगे आरोपों से इनकार किया है.
बकरवाल समुदाय के एक परिवार का घर
एक रिपोर्ट के अनुसार अनंतनाग के डिप्टी कमिश्नर कुलदीप कृष्णा सिधा ने मीडिया से कहा, "कुछ लोगों का आरोप है कि खानाबदोश समुदाय (गुर्जर-बकरवाल) के लोगों को बेघर किया जा रहा है और उनके घरों को तोड़ा जा रहा है. ये आरोप बेबुनियाद हैं."
पहलगाम में प्रशासन के अतिक्रमण के ख़िलाफ़ अभियान से स्थानीय ग़ैर-अदिवासी भी नाराज़ हैं.
पहलगाम शहर में रहने वाले मोहम्मद रफ़ी कहते हैं, "हमें सुनने को मिलता है कि सरकार ग़रीबी ख़त्म करना चाहती है. लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ग़रीबों को उनके घर नष्ट करके और उन्हें बेघर करके सज़ा देना चाहती है. ये एक मानवाधिकार संकट है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे."
कुछ लोग इस अभियान की तुलना फ़लस्तीनियों के अधिकारों के हनन और उनके इलाक़े में इसराइल की बस्तियां बसाने से कर रहे हैं.
इतिहासकार और टिप्पणीकार पीजी रसूल कहते हैं, "गुर्जर समुदाय में केवल मुसलमान ही नहीं हैं, बल्कि हिंदू भी खानाबदोश गुर्जर हैं और ये भारत में अनुसूचित जनजाति की आबादी का क़रीब 70 फ़ीसदी हैं. अगर मुसलमान खानाबदोशों को इस अभियान में निशाना बनाया जाएगा तो पीड़ितों को लगेगा कि उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जा रहा है जैसा इसराइल फ़लस्तीनियों के साथ करता है."
जम्मू कश्मीर पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती ने सोमवार को केंद्र शासित प्रदेश में गुर्जर-बकरवाल समुदाय के लोगों को वनभूमि से हटाने की मुहिम को लेकर सरकार को चेतावनी दी है और कहा है कि अगर उन्हें परेशान किया गया तो नतीजे भयानक हो सकते हैं.
मीडिया के साथ बात करते हुए उन्होंने कहा, "ये केवल कश्मीर में नहीं हो रहा है. अगर आप जम्मू के दूसरे इलाक़ों को देखें भटिन्डी, सुजवान और छत्ता जैसे इलाक़े जहां गुर्जर-बकरवाल मुसलमानों की आबादी है वहां उन्हें निशाना बनाया जा रहा है जंगलों से निकाला जा रहा है. ये वो लोग हैं जो असल में जंगलों को बचाते हैं. सर्दियों में ये लोग कहां जाएंगे?"
पूर्व मुख्यमंत्री ने गुर्जर-बकरवाल समुदाय के लोगों को भरोसेमंद और शांतिप्रिय बताया और कहा कि अगर उन्हें परेशान करना जारी रहा तो सरकार को इसके भयानक परिणाम भुगतने होंगे.
हालांकि अनंतनाग के डिप्टी कमिश्नर कुलदीप ने कहा है कि केवल वही ढांचे हटाए जा रहे हैं जो अवैध रूप से बनाए गए हैं.
वन अधिकार क़ानून लागू करना
जंगल की ज़मीन पर अतिक्रमण हटाने का अभियान
सरकार के प्रवक्ता के हवाले से समाचार एजेंसी पीटीआई ने कहा है कि जम्मू कश्मीर के चीफ़ सेक्रेटरी बीवीआर सुब्रमण्यम ने बुधवार को अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकार की मान्यता) क़ानून, 2006 लागू करने संबंधी रिव्यू मीटिंग में शिरकत की थी. जम्मू और कश्मीर पुर्नगठन अधिनियम, 2019 के लागू होने के बाद वन अधिकार क़ानून भी प्रदेश में लागू हो गया था.
उनका कहना था कि इस साल अक्तूबर से अदिवासी मामलों के विभाग समेत, जंगल, पारिस्थितिकी और पर्यावरण विभाग ने इस क़ानून को लागू करने के लिए काम करना शुरू कर दिया था.
वो कहते हैं, "ये बताया जाना ज़रूरी है कि वन अधिकार क़ानून, 2006 देश भर के वनवासियों को अधिकार दिए गए हैं."
पीटीआई के अनुसार प्रवक्ता का कहना था कि क़ानून के तहत ये तय किया गया है कि पारंपरिक तौर पर वनवासी और जंगलों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों के रहने के लिए, ख़ुद खेती करने के लिए, आजीविका कमाने के लिए, मालिकाना हक़ और लघु वन उत्पाद जमा करने, इस्तेमाल करने और बेचने का अधिकार दिया गया है. इसके अलावा जंगलों से मिलने वाले मौसमी संसाधनों पर भी उनका अधिकार होगा.
चीफ़ सेक्रेटरी बीवीआर सुब्रमण्यम ने जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकार की मान्यता) क़ानून, 2006 लागू करने के लिए वन विभाग से चार-स्तर पर समितियां बनाने के लिए कहा है. ये समितियां हैं - राज्य स्तरीय मॉनिटरिंग समिति, ज़िला स्तरीय मॉनिटरिंग समिति, सब डिविज़नल स्तरीय समिति और वन अधिकार समिति. (bbc)
राम पुनियानी
मंगलसूत्र पर सवाल उठाकर गोवा के लॉ स्कूल में सहायक प्रोफेसर शिल्पा सिंह उन पितृसत्तात्मक प्रतीकों का विरोध कर रहीं हैं, जो हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का हिस्सा बन गईं हैं और जिन्हें विभिन्न धार्मिक समुदायों द्वारा अपनी महिलाओं पर थोपा जाता है।
गोवा के लॉ स्कूल में सहायक प्राध्यापक शिल्पा सिंह के खिलाफ हाल में (नवम्बर 2020) में इस आरोप में एक एफआईआर दर्ज की गई है कि उन्होंने मंगलसूत्र की तुलना कुत्ते के गले में पहनाए जाने वाले पट्टे से की। शिकायतकर्ता का नाम राजीव झा बताया जाता है। वो राष्ट्रीय युवा हिन्दू वाहिनी नामक संस्था से जुड़ा है। एफआईआर में कहा गया है कि शिल्पा सिंह ने जानबूझकर शिकायतकर्ता की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई। एबीवीपी ने कॉलेज के मैनेजमेंट से भी शिल्पा की शिकायत की है।
अपने जवाब में शिल्पा सिंह ने कहा, ‘बचपन से मुझे यह जिज्ञासा रही है कि विभिन्न संस्कृतियों में केवल महिलाओं को ही उनकी वैवाहिक स्थिति का विज्ञापन करने वाले चिन्ह क्यों धारण करने होते हैं, पुरुषों को क्यों नहीं?’ उन्होंने मंगलसूत्र और बुर्के का उदाहरण देते हुए हिन्दू धर्म और इस्लाम की कट्टरवादी परम्पराओं की आलोचना की। उनके इस वक्तव्य से एबीवीपी आगबबूला हो गई।
शिल्पा, दरअसल, उन पितृसत्तात्मक प्रतीकों का विरोध कर रहीं हैं जो हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का हिस्सा बन गईं हैं और जिन्हें विभिन्न धार्मिक समुदायों द्वारा अपनी महिलाओं पर थोपा जाता है। ये काम शिल्पा तब कर रहीं हैं जब हमारे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में धार्मिक राष्ट्रवाद का बोलबाला बढ़ रहा है। भारत में इस तरह के नियमों और परम्पराओं को अचानक अधिक सम्मान मिलने लगा है। रूढि़वादी नियमों को आक्रामकता के साथ सब पर लादा जा रहा है। उन्हें नया ‘नार्मल’ बनाने की कोशिशें हो रहीं हैं।
सतही तौर पर देखने से लग सकता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद का एकमात्र लक्ष्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण है। परंतु यह हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद (हिंदुत्व) के एजेंडे का केवल वह हिस्सा है जो दिखलाई देता है। दरअसल, धर्म का चोला पहने इस राष्ट्रवाद के मुख्यत: तीन लक्ष्य हैं। इसमें पहला है, धार्मिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण। यह हमारे देश में देखा जा सकता है। मुसलमानों को समाज के हाशिये पर धकेला जा रहा है और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के हर संभव प्रयास हो रहे हैं।
इसके बाद दूसरा लक्ष्य है, दलितों को उच्च जातियों के अधीन बनाए रखना। इसके लिए सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया जा रहा है। तीसरा और महत्वपूर्ण लक्ष्य है महिलाओं का दोयम दर्जा बनाए रखना। एजेंडे के इस तीसरे हिस्से पर अधिक चर्चा नहीं होती है, लेकिन वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितने कि अन्य दो हिस्से।
भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जहां भी राजनीति धर्म के रैपर में लपेट कर पेश की जा रही है, वहां वह पितृसत्तात्मकता को मजबूती देने के लिए विविध तरीकों से प्रयास करती है। भारत में महिलाओं के समानता की तरफ कदम बढ़ाने की शुरुआत सावित्रीबाई फुले द्वारा लड़कियों के लिए पाठशाला स्थापित करने और राजा राममोहन राय द्वारा सती प्रथा के उन्मूलन जैसे समाज सुधारों से हुई। आनंदी गोपाल और पंडिता रामाबाई जैसी महिलाओं ने अपने जीवन और कार्यों से सिद्ध किया कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति नहीं हैं और ना ही वे पुरुषों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियां हैं।
ये सभी क्रान्तिकारी कदम पितृसत्ता की इमारत पर कड़े प्रहार थे और इनका विरोध करने वालों ने धर्म का सहारा लिया। जैसे-जैसे महिलाएं स्वाधीनता आन्दोलन से जुडऩे लगीं, पितृसत्तात्मकता की बेडिय़ां ढीली पडऩे लगीं। पितृसत्तात्मकता और जातिगत पदक्रम के किलों के रक्षकों ने इसका जमकर विरोध किया। हमारे समाज में जातिगत और लैंगिक दमन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी एक समस्या बन कर उभरी। मुस्लिम लीग के संस्थापक इस समुदाय के श्रेष्ठी वर्ग के पुरुष थे। इसी तरह, हिन्दू महासभा की स्थापना उच्च जातियों के पुरुषों ने की। ये दोनों ही संगठन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को थामना चाहते थे।
इस समय भारत में ऊंच-नीच को बढ़ावा देने में हिन्दू साम्प्रदायिकता सबसे आगे है। सांप्रदायिक ताकतों का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हाथ में है, जो केवल पुरुषों का संगठन है। जो महिलाएं ‘हिन्दू राष्ट्र’ के निर्माण में सहयोगी बनना चाहती थीं, उन्हें राष्ट्रसेविका समिति बनाने की सलाह दी गई। कृपया ध्यान दें कि महिलाओं के इस संगठन के नाम से ‘स्व’ शब्द गायब है।
यह मात्र संयोग नहीं है। यह इस बात का द्योतक है कि पितृसत्तात्मक विचारधाराएं महिलाओं के ‘स्व’ को पुरुषों के अधीन रखना चाहती हैं। इन विचारधाराओं के पैरोकारों के अनुसार महिलाओं को बचपन में अपने पिता, युवा अवस्था में अपने पति और बुढ़ापे में अपने पुत्रों के अधीन रहना चाहिए। संघ द्वारा लड़कियों के लिए दुर्गा वाहिनी नामक संगठन भी अलग से बनाया गया है।
सती प्रथा का उन्मूलन, महिलाओं की समानता की ओर यात्रा का पहला बड़ा पड़ाव था। परन्तु बीजेपी सन 1980 के दशक तक इस प्रथा की समर्थक बनी रही। राजस्थान के रूपकुंवर सती कांड के बाद बीजेपी की तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया ने संसद तक मार्च निकाल कर यह घोषणा की थी कि सती प्रथा न केवल भारत की महान परंपरा का हिस्सा है, वरन् सती होना हिन्दू महिलाओं का अधिकार है।
‘सैवी’ नामक पत्रिका को अप्रैल 1994 में दिए गए अपने साक्षात्कार में बीजेपी महिला मोर्चा की मृदुला सिन्हा ने दहेज प्रथा और पत्नियों की पिटाई को उचित ठहराया था। संघ के एक पूर्व प्रचारक प्रमोद मुतालिक ने मंगलौर में पब में मौजूद लड़कियों पर हमले का नेतृत्व किया था।
वैलेंटाइन्स डे पर बजरंग दल नियमित रूप से प्रेमी जोड़ों पर हमले करता रहा है। लव जिहाद का हौव्वा भी महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने के लिए खड़ा किया गया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभिवावकों से कहा है कि वे अपनी लड़कियों पर नजर रखें और यह देखें कि वे मोबाइल पर किससे बातचीत कर रही हैं।
अमेरिका में महिलाओं को जो स्वतंत्रताएं हासिल हैं, उन्हें देखकर भारत से वहां गए हिन्दू प्रवासियों को इतना धक्का लगता है कि वे विश्व हिन्दू परिषद और संघ से जुड़ी अन्य संस्थाओं के शरण में चले जाते हैं। वे उन लैंगिक समीकरणों को बनाए रखना चाहते हैं, जिन्हें वे भारत से अपने साथ ले जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि केवल संघ ही पितृसत्तात्मकता को औचित्यपूर्ण ठहराता है और ‘लड़कियों पर नजर रखने’ की बात कहता है। हमारा पूरा समाज इस पश्यगामी सोच के चंगुल में है। यही कारण है कि शिल्पा सिंह जैसी महिलाएं, जो मंगलसूत्र या बुर्के के बारे में अपने विचार प्रकट करतीं हैं, तो उन्हें घेर लिया जाता है। संघ के अलावा धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली अन्य ताकतें भी लैंगिक मसलों पर ऐसे ही विचार रखती हैं। इस मामले में तालिबान और बौद्ध और ईसाई कट्टरपंथी एक ही नाव पर सवार हैं। हां, उनकी कट्टरता के स्तर और अपनी बात को मनवाने के तरीकों में फर्क हो सकता है।
शिल्पा सिंह इसके पूर्व रोहित वेमुला, बीफ के नाम पर लिंचिंग और दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तर्कवादियों की हत्या जैसे मुद्दों पर भी अपनी कक्षा में चर्चा करती रहीं हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि एबीवीपी उन पर क्यों हमलावर है। (navjivanindia.com)
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की जमात-उद-दावा के सरगना हाफिज सईद को 10 साल की जेल की सजा हो गई है। वह पहले से ही लाहौर में 11 साल की जेल काट रहा है। अब ये दोनों सजाएं साथ-साथ चलेंगी। ये सजाएं पाकिस्तान की ही अदालतों ने दी हैं। क्यों दी हैं ? क्योंकि पेरिस के अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कोश संगठन ने पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद कर रखा है। उसने पाकिस्तान का नाम अपनी भूरी सूची में डाल रखा है, क्योंकि उसने सईद जैसे आतंकवादियों को अभी तक छुट्टा छोड़ रखा था।
हाफिज सईद की गिरफ्तारी पर अमेरिका ने लगभग 75 करोड़ रु. का इनाम 2008 में घोषित किया था लेकिन वह 10-11 साल तक पाकिस्तान में खुला घूमता रहा। किसी सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि वह उसे गिरफ्तार करती। दुनिया के मालदार मुल्कों के आगे पाकिस्तान के नेता भीख का कटोरा फैलाते रहे लेकिन मुफ्त के 75 करोड़ रु. लेना उन्होंने ठीक नहीं समझा। क्यों नहीं समझा ? इसीलिए कि हाफिज सईद तो उन्हीं का खड़ा किया गया पुतला था। जब मेरे-जैसा घनघोर राष्ट्रवादी भारतीय पत्रकार उसके घर में बे-रोक-टोक जा सकता था तो पाकिस्तान की पुलिस क्यों नहीं जा सकती थी ? अमेरिका ने जो 75 करोड़ रु. का पुरस्कार रखा था, वह भी किसी ढोंग से कम नहीं था। यदि वह उसामा बिन लादेन को उसके गुप्त ठिकाने में घुसकर मार सकता था तो सईद को पकडऩा उसके लिए कौनसी बड़ी बात थी ? लेकिन सईद तो भारत में आतंक फैला रहा था। अमेरिका को उससे कोई सीधा खतरा नहीं था। अब जबकि खुद पाकिस्तान की सरकार का हुक्का-पानी खतरे में पड़ा तो देखिए, उसने आनन-फानन सईद को अंदर कर दिया। सईद की यह गिरफ्तारी भी दुनिया को एक ढोंग ही मालूम पड़ रही है। सईद और उसके साथी जेल में जरुर रहेंगे लेकिन इमरान-सरकार के दामाद की तरह रहेंगे। अब उनके खाने-पीने, दवा-दारु और आने-जाने का खर्चा भी पाकिस्तान सरकार ही उठाएगी। उन्हें राजनीतिक कैदियों की सारी सुविधाएं मिलेंगी। आंदोलनकारी कैदी के रूप में मैं खुद कई बार जेल काट चुका हूं। जेल-जीवन के आनंद का क्या कहना ? भारत में आतंकवाद फैलाकर इन तथाकथित जिहादियों ने, पाकिस्तानी फौज और सरकार की जो सेवा की है, उसका पारितोषिक अब उन्हें जेल में मिलेगा। ज्यों ही पाकिस्तान भूरी से सफेद सूची में आया कि ये आतंकवादी रिहा हो जाएंगे। पाकिस्तानी आतंकवादियों के कारण पाकिस्तान सारी दुनिया में ‘नापाकिस्तान’ बन गया है और भारत और अफगानिस्तान से ज्यादा निर्दोष मुसलमान पाकिस्तान में मारे गए हैं। पाकिस्तान यदि जिन्ना के सपनों को साकार करना चाहता है और शांतिसंपन्न राष्ट्र बनना चाहता है तो उसे इन गिरफ्तारियों की नौटंकी से आगे निकलकर आतंकवाद की नीति का ही परित्याग करना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
राजा नरेशचन्द्र की 112 वीं जन्मतिथि
-डॉ. परिवेश मिश्रा
एक समय था जब हैजा भारत की सबसे बड़ी जानलेवा महामारी था। इसकी एक एक खेप (या आज की भाषा में ‘वेव’) लाखों लोगों की जान ले जाती थी। वैक्सीन आने तक यही सिलसिला आम था।
एक ‘वेव’ 1941 से 45 के बीच भी आयी थी। दूसरा विश्वयुद्ध उन दिनों जारी था। बंगाल के साथ साथ देश के अन्य इलाके भीषण अकाल और भुखमरी की चपेट में थे। देश की कृषि पैदावार फौजियों के लिये थी और बाकी इंगलैंड भेज दी गयी थी। डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी फौज में ले लिए गए थे। दवाईयां फौजी इस्तेमाल में खप जा रही थीं।
देश में स्थिति भयावह थी। बंगाल में अनेक गांवों में गलियाँ लाशों से पटने की खबरें आम हो गयी थीं। सारंगढ़ राज्य भी इस महामारी की चपेट में था।
शरदचंद्र बेहार मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे हैं। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ में हुआ और बचपन भी यहीं बीता। 1944 में वे 5 वर्ष के थे। वे दुखी मन से याद करते हैं इस दौरान उन्होंने अपने घर से एक दिन में तीन शव निकलते देखे थे।
किन्तु कुछ मामलों में स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर थी। अनाज की उपलब्धता में कमी नहीं होने दी गयी थी। सारंगढ़ स्टेट के अपने डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी थे जिनकी मौज़ूदगी भी महत्वपूर्ण साबित हो रही थी। बाकी सारे विभागों के कर्मचारियों को भी हैजा नियंत्रण के काम में लगाया गया था।
किन्तु सबसे बड़ा ‘गेम-चेन्जर’ साबित हुआ था हैजे का वैक्सीन। विश्व युद्ध के कारण पैदा हुई स्थितियों के बावज़ूद अपने संबंधों का इस्तेमाल कर राजा जवाहिर सिंह सारंगढ़ राज्य के लिये वैक्सीन प्राप्त करने में सफल हुए थे। खडग़पुर में जहाँ इन दिनों प्रसिद्ध आय.आय.टी. है वहां उन दिनों अमरीकी एयरफोर्स का बेस हुआ करता था। अमरीकी सैनिकों के लिए खडग़पुर पहुंची सप्लाई में से पेनिसिलिन के इन्जेक्शन और हैजा वैक्सीन भारत के इस हिस्से में पहली बार विमानों के जरिये सारंगढ़ हवाई पट्टी तक पहुंचे थे। (पेनिसिलिन की कहानी फिर कभी)।
हैजा का वैक्सीन पहली बार प्राप्त करना ज़ाहिर है बहुत मुश्किल काम था। किन्तु इससे कहीं अधिक मुश्किल काम इसके आगे था, लोगों को यह वैक्सीन लगाने का।
सारंगढ़ के शहरी और ग्रामीण, दोनों, इंजेक्शन नाम की किसी चीज से परिचित नहीं थे। लोगों को वैक्सीन लगाने का जिम्मा दिया गया मैदान में अगुवाई कर रहे स्टेट के युवराज नरेशचन्द्र सिंहजी को। उनके नेतृत्व में स्टेट के डॉक्टर और बाकी लोग नगर की गलियों में पैदल और गांवों में साइकिलों में जाया करते थे। टीम के लोग बोरों में भर कर ब्लीचिंग पाउडर और थैलियों में भर कर सल्फाग्युनाडीन पाउडर की एक-एक ग्राम की पुडिय़ा साथ ले कर चला करते थे।
थोड़ी थोड़ी दूरी पर लोगों को इकट्ठा किया जाता। उन्हें वैक्सीन के लाभ के बारे में समझाईश दी जाती। और फिर किसी सफल स्टेज-शो के क्लाइमेक्स के रूप में युवराज नरेशचन्द्र सिंह जी पूरी नाटकीयता के साथ अपनी बांह ऊपर करते, कौतूहल अपने चरम पर पहुंचता और डॉक्टर उन्हें इंजेक्शन की सुई चुभोता। यह सब किया जाता देखने वालों को आश्वस्त करने के लिये कि इन्जेक्शन एक सुरक्षित तरीका है। युवराज को लगाए जाने वाले इन्जेक्शन में वैक्सीन नहीं होता था यह बात उनके अलावा सिर्फ डॉक्टर जानता था। लेकिन इसके बाद लोग सामने आ जाते और वैक्सीन ले लेते। इससे मृत्यु दर पर तेजी से अंकुश लगाने में बहुत सफलता मिली। लेकिन ऐसे हर दिन के अंत तक तीस से चालीस बार इन्जेक्शन की सुई चुभवाने के कुछ दिनों के बाद जब नरेशचन्द्र जी की बांह सूज गयी तो इस बात को गोपनीय रखा गया ताकि लोग इसे वैक्सीन का दुष्प्रभाव न समझ बैठें।
1946 में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंह जी सारंगढ़ के राजा बने। 1 जनवरी 1948 को राज्य का भारतीय गणराज्य में विलीनीकरण करने के बाद वे औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए। 1949 से वे मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे तथा 1969 में राजनीति से सन्यास की घोषणा करने से पूर्व राज्य के पहले और अब तक के एकमात्र आदिवासी मुख्यमंत्री बने।
राजा नरेशचन्द्र सिंह का जन्म रायपुर के राजकुमार कॉलेज में 21 नवम्बर 1908 के दिन हुआ था। आज उनकी 112वीं जन्मतिथि है।
-फ़रहत जावेद
मेरे सामने साल 2005 में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के उस वक़्त के प्रधानमंत्री को लिखा गया एक ख़त पड़ा है. यह ख़त एक मां ने लिखा है जो पिछले तीन बरसों से अपने बेटे फ़ारूक़ के जवाब की प्रतीक्षा कर रही है.
वो लिखती हैं, "मैं अपने बच्चे की रिहाई के लिए हर क़िस्म की क़ुर्बानी देने को तैयार हूं."
उनके इस ख़त के बाद एक स्थानीय संगठन ने रेडक्रॉस से संपर्क किया फिर रेडक्रॉस के लोगों ने भारत के राजस्थान जेल में बंद फ़ारूक़ से मुलाक़ात की.
रेडक्रॉस के दस्तावेज़ के अनुसार उन्होंने फ़ारूक़ की मां को लिखा कि उनका बेटा ठीक है और वो अपने बेटे को ख़त लिखना जारी रखें.
उसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के कारण उन मां-बेटे का क्या हुआ, क्या फ़ारूक़ वापस लौटे और मां से मिल सके, इन सारे सवालों का जवाब नहीं मिल सका.
बीबीसी के पास मौजूद दूसरे कई ख़तों में से एक ख़त एक बूढ़े बाप के बारे में भी है.
यह ख़त पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के भारत दौरे से पहले लिखा गया था.
ख़त लिखने वाले व्यक्ति के अनुसार, उनके पिता मोहम्मद शरीफ़ लाइन ऑफ़ कंट्रोल के क़रीब मवेशी चरा रहे थे कि उन्हें भारत की बीएसएफ़ ने गिरफ़्तार कर लिया था और वो जम्मू सेंट्रल जेल में पिछले पाँच साल से अपनी रिहाई की राह देख रहे हैं.
भारत, पाकिस्तान और दोनों के बीच बंटे कश्मीर में पिछले दो दशकों में सरकारें बदलती रही हैं और सरकारों के साथ-साथ उनकी प्राथमिकताएं भी बदलती रही हैं.
भारत और पाकिस्तान के बीच सीज़फ़ायर हुआ और एलओसी के बड़े हिस्से पर बाड़ भी लगा दी गई. मगर इस तरह की कहानियां ख़त्म नहीं हुईं.
शमशाद बेगम के पति जो 2008 से लापता हैं
शमशाद बेगम से मिलें
13 साल पहले शमशाद बेगम के पति लापता हुए और वह आज तक अपने पति की राह तक रही हैं.
उनका संबंध नीलम घाटी के गांव चकनार से है.
चकनार नाम का यह गांव एलओसी से महज़ 50 मीटर की दूरी पर बसा हुआ है और यहां जाने की इजाज़त नहीं है.
साल 2008 की बात है. चकनार गांव की तरफ़ जाने वाला रास्ता एक भारतीय सैन्य पोस्ट से गुज़रता है. शमशाद बेगम ने अपने पति की गुमशुदगी की कहानी सुनाते हुए कहा था कि वो पाकिस्तानी सेना की एक यूनिट में धोबी की हैसियत से काम कर रहे थे लेकिन वो सरकारी मुलाज़िम नहीं थे.
शमशाद बेगम कहती हैं, "एक दिन जब वो छुट्टी पर घर आ रहे थे तो रास्ते में गांव के ही दो लोग उनके साथ हो लिए. जब वे लोग सैन्य पोस्ट के पास पहुँचे तो भारतीय सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया. जब शाम तक कोई घर नहीं आया तो गांव वालों ने तलाशना शुरू किया. मेरे पति का सामान जिसमें मेरे लिए नए कपड़े भी थे, वहीं सैन्य पोस्ट के क़रीब पड़ा मिला. आज तक मेरे पति वापस नहीं आए."
शमशाद बेगम ने इंतज़ार करने का फ़ैसला किया
कश्मीर दुनिया के उन क्षेत्रों में से एक है जहां सबसे ज़्यादा सेना तैनात है. उसे विभाजित करती हुई सीमा रेखा कई जगहों पर ऐसी है कि कोई भी धोखा खा सकता है. भारत और पाकिस्तान दोनों के सैनिक यहां तैनात हैं और दोनों एक-दूसरे पर कड़ी नज़र रखते हैं.
शमशाद बेगम कहती हैं कि वो पाकिस्तान और भारत की सरकार से गुज़ारिश करती रही हैं कि उनके पति का पता लगाया जाए.
वो कहती हैं, "मैंने हर दर पर हाथ फैलाएं हैं, जब मौक़ा मिला कहती रही कि मेरे पति का पता करवाया जाए. मगर किसी ने नहीं सुनी. आख़िर में मुझे यह विधवा का कार्ड पकड़ा दिया गया. मैंने तो अपने पति को मरा हुआ नहीं देखा, किसी ने नहीं देखा मगर किसी ने ख़बर भी नहीं ली."
शमशाद बेगम की हालत यह हो गई है कि अब हंसते हुए भी उनकी आंखें नम ही रहती हैं.
"मैं हर रोज़ उन्हें ख़्वाब में देखती थी...हर रोज़. मैं देखती थी कि वो ज़िंदा हैं. मुझे अभी भी यक़ीन है कि वो ज़िंदा हैं और जब तक मुझमें आख़िरी सांस है, मैं उनका इंतज़ार करूंगी. मुझे बस यह पता है कि अभी वो बस अपनी क़िस्मत में लिखी तकलीफ़ काट रहे हैं."
उनके पति के साथ लापता होने वाले दूसरे दो लोगों की पत्नियों ने दोबारा शादी कर ली है मगर शमशाद बेगम ने इंतज़ार करने का फ़ैसला किया है.
यह और ऐसी कई कहानियां उन लोगों की हैं जो 1990 से अब तक सिर्फ़ इसलिए भारतीय सेना की हिरासत में गए क्योंकि उन पर एलओसी पार करने का आरोप था.
उनके परिजन दावा करते हैं कि उनमें से कई लोगों ने अनजाने में एलओसी पार कर ली और कई तो अपने ही इलाक़े में मौजूद थे जब उन्हें गिरफ़्तार किया गया.
लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी) भारत और पाकिस्तान के बीच विवादित कश्मीर को बांटती हुई एक लकीर है. उसके ज़्यादातर हिस्से पर भारत ने अपनी तरफ़ बाड़ लगा दी है लेकिन फिर कई जगह ऐसे हैं जहां बाड़ नहीं लगाई गई है और कई जगहों पर आबादी के पीछे बाड़ लगा दी गई है.
अगर एलओसी के साथ सफ़र करें तो एक बड़े हिस्से पर सैन्य चौकियां या तो आबादी के पीछे हैं और कई जगहों पर ये बाड़ से आगे पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की तरफ़ हैं. और यह दोनों तरफ़ है.
हर साल ख़ासतौर पर फसलों और घांस की कटाई के दौरान ग़लती से एलओसी पार करने की घटना सामने आती रहती है.
एलओसी पार करने वाले तो ख़ैर दूसरे देश की जेलों में क़ैद हो जाते हैं लेकिन पीछे रह जाने वाले उनके घरवालों की ज़िंदगी भी किसी क़ैद से कम दुश्वार नहीं होती है.
ख़ासकर उन घरानों में जहां घरवालों को लंबे अर्से तक यह पता नहीं चलता कि उनके घर के लापता लोग ज़िंदा भी हैं या नहीं.
शमशाद बेगम के बेटे मोहम्मद सिद्दीक़ ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उनकी उम्र 10 साल थी जब उनके पिता लापता हुए थे.
उस गांव में इस तरह का यह चौथा मामला था. यह गांव ज़ीरो लाइन पर होने के कारण क्रॉस बॉर्डर फ़ायरिंग की ज़द में भी रहता था जिसके बाद फ़ैसला किया गया कि गांववालों को किसी सुरक्षित जगह पर भेज दिया जाए.
शमशाद बेगम के अनुसार उनके गांव चकनार और क़रीबी आबादी वाले ढक्की को ख़ाली कराया गया और उन्हें नीलम घाटी में ही एक अस्थायी कैंप में शिफ़्ट कर दिया गया.
शमशाद बेगम कुछ अर्से तक तो कैंप में रहीं लेकिन बाद में मुज़फ़्फ़राबाद चली गईं.
उस वक़्त को याद करते हुए शमशाद बेगम कहती हैं, "मैंने घरों में, खेतों में काम शुरू किया तो मेरे बच्चों ने कहा कि वो मुझे काम नहीं करने देंगे. मेरा बड़ा बेटा सिर्फ़ 10 साल का था, उसने स्कूल छोड़ दिया और मुज़फ़्फ़राबाद में मज़दूरी करने लगा. मेरे दूसरे बच्चों ने भी ऐसा ही किया. हमारा गुज़र-बसर बहुत मुश्किल था. लोगों से क़र्ज़ लेते और घर का सौदा लाते. यह कमरा और टीन की छत भी क़र्ज़ लेकर बनाई. पति के चले जाने से मेरी और मेरे बच्चों की ज़िंदगी तबाह हो गई."
पाक प्रशासित कश्मीर
जब पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के पीएम भी पार कर गए सीमा
लेकिन इस तरह की घटना आम नागरिकों तक ही सीमित नहीं है.
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के प्रधानमंत्री राजा फ़ारूक़ हैदर ने इस बारे में बीबीसी उर्दू को बताया कि वो भी ग़लती से एलओसी पार कर गए थे.
वो कहते हैं, "मैं चुनाव प्रचार के लिए अपने इलाक़े में गया हुआ था और वाशरूम नहीं होने के कारण मुझे लोगों से कुछ दूर जाना पड़ा. अचानक एक व्यक्ति की आवाज़ आई, तुम इधर क्या कर रहे हो मैंने ऊपर देखा तो एक भारतीय सैनिक था. मैंने उसको बताया कि भाई मुझे क्या पता कि यह तुम्हारा इलाक़ा है, मैं तो अब कॉल ऑफ़ नेचर अटेंड करके ही जाऊंगा."
राजा फ़ारूक़ हैदर कहते हैं, "मेरी जगह कोई आम आदमी होता तो उसको गिरफ़्तार कर लिया जाता या गोली मार दी जाती."
लेकिन एक भूल कैसे ज़िंदगी भर का ख़ौफ़ बन सकती है, अपनी पहचान ज़ाहिर ना करने की शर्त पर उस व्यक्ति ने बीबीसी को बताया जिसने ग़लती से एलओसी पार कर ली थी और भारतीय सेना की हिरासत में भी रहे.
साद (बदला हुआ नाम) को भारतीय सेना ने यह कहते हुए हिरासत में ले लिया था कि वो भारत प्रशासित कश्मीर में दाख़िल हो गए हैं. हालांकि साद का कहना है कि वो अपने दोस्त के साथ अपने ही गांव में घास काट रहे थे जब भारतीय सैनिको ने उन्हें पकड़ा था.
साद कहते हैं, "हम घास काट रहे थे और मवेशी चरा रहे थे. हम गांव के क़रीब अपने ही इलाक़े में मौजूद थे. इतने में चारों तरफ़ से सैनिक आए और हममें से दो लोगों को ले गए. उन्होंने ख़ुद को भारतीय सैनिक बताया और कहा कि हम उनके इलाक़े में आ गए हैं. हमने कहा भी कि यह तो हमारा अपना इलाक़ा है मगर उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी और हमें क़ैद कर लिया."
"जब हमें यह एहसास हुआ कि भारतीय सैनिक हमें अपने कैंप में ले जा रहे हैं तो हमारी ज़िंदा रहने की उम्मीद भी ख़त्म हो गई थी. उन्होंने हमारी आंखों पर कानों पर कई दिनों तक पट्टी बांधे रखी थी. हम जब भी कहते कि हम बेकसूर हैं तो वो हमें मारते थे. हमें यह भी नहीं पता था कि हम कहां हैं और हमारे साथ कोई और है या नहीं."
साद के परिजनों ने पाकिस्तानी सेना से संपर्क किया और पाकिस्तानी सरकार ने भारत सरकार से बातचीत की.
वापसी का तरीक़ा
लगभग एक हफ़्ते बाद लाइन ऑफ़ कंट्रोल के एक क्रॉसिंग प्वाइंट पर उन्हें पाकिस्तानी सेना के हवाले कर दिया गया.
बीबीसी ने इस बारे में जब पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता से संपर्क किया और पूछा कि एलओसी पर बाड़ लगने के बाद अब हालात कैसे हैं तो सेना की तरफ़ से कहा गया कि साल 2005 के बाद इस तरह की घटनाओं में कमी आई है.
सेना का कहना था, "पहले इस तरह की घटना बहुत ज़्यादा होती थी. लेकिन यह समझना भी ज़रूरी है कि यह कश्मीरी जनता का इलाक़ा है और वो जहां चाहें जा सकते हैं. कई जगहों पर दोनों तरफ़ आबादी सैनिक पोस्टों के आगे है. ऐसी स्थिति में हम लोगों को लगातार बताते रहते हैं कि उन्होंने ध्यान रखना है और उस तरफ़ नहीं जाना है. यह भी बताया जाता है कि एलओसी कहां है. एलओसी की पूरी तरह से निशानदेही नहीं की जा सकी है, इसलिए लोग ग़लती से दूसरी तरफ़ चले जाते हैं."
सेना के प्रवक्ता के अनुसार इम मामले में दो तरह की घटनाएं अमूमन होती हैं. एक वो जिनमें किसी ने ग़लती से एलओसी क्रॉस कर ली हो और दूसरी वो जिन्हें भारतीय सैनिक हमारी तरफ़ आकर गिरफ़्तार कर लेते हैं. दोनों हालत में गिरफ़्तार किए गए लोगों को वापस लाने की कोशिश की जाती है.
अगर कोई व्यक्ति एलओसी के इलाक़े से लापता हुआ है या उसको भारतीय सैनिकों ने अपनी हिरासत में लिया है तो उनकी वापसी का क्या तरीक़ा होगा, इस सवाल के जवाब में पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी ने बताया कि लापता या हिरासत में लिए जाने वाले व्यक्ति के घर वाले क़रीबी सैन्य पोस्ट से संपर्क करते हैं जिसके बाद केस को फ़ॉलो किया जाता है.
केस को फ़ॉलो करने के दो तरीक़े होते हैं.
"एक तो मिलिट्री ऑपरेशन डायरेक्टरेट को सूचना दी जाती है, दूसरी तरफ़ स्थानीय सतह पर भी पहले से स्थित हॉटलाइन पर भारतीय अधिकारियों से संपर्क किया जाता है और उन्हें बताया जाता है कि फ़लां व्यक्ति ने ग़लती से एलओसी पार कर ली है, क्या वो आपके पास है?"
सेना के अनुसार साल 2005 के बाद से इस तरह की घटना में कमी आई है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले 15 वर्षों में इस तरह के 52 मामले सामने आएं हैं जिनमें से 33 लोगों को भारतीय सेना ने हिरासत में लेने के बाद वापस भेज दिया. मगर उनमें से छह लोग ऐसे भी थे जिनकी लाशें वापस मिलीं.
उनमें से ज़्यादातर उस वक़्त मारे गए जब एलओसी पर तैनात बॉर्डर फ़ोर्स ने उन पर गोली चला दी.
पाकिस्तानी सेना के अनुसार 13 लोग अभी भी भारतीय सेना की हिरासत में हैं और अपने देश लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं.
मगर पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की सरकार के अनुसार एलओसी के क़रीबी देहातों से साल 2005 से पहले लापता हुए लोगों की सही संख्या का कोई सरकारी रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.
उस इलाक़े में लापता लोगों के लिए काम करने वाली एक ग़ैर-सरकारी संस्था के अनुसार साल 2005 तक लापता होने वालों की संख्या क़रीब 300 थी. लेकिन उस एनजीओ ने भी साल 2008 के बाद वहां काम करना बंद कर दिया था.
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के प्रधानमंत्री राजा फ़ारूक़ हैदर
भारत-पाकिस्तान के अपने-अपने दावे
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के प्रधानमंत्री राजा फ़ारूक़ हैदर ने बीबीसी को बताया था कि इस तरह की घटनाएं पहले भी होती रहीं हैं.
उन्होंने कहा था, "अगर पहले कोई ग़लती से चला जाए तो हम भी वापस कर देते थे और वो भी कर देते थे. मगर पाँच अगस्त 2019 के बाद दोनों तरफ़ तनाव पैदा हो गया है. अक्सर वो मार देते हैं. यहां कोई नहीं मारता किसी को. वो गोली मार देते हैं. वापस नहीं करते, बताते भी नहीं कि वहां गया था या नहीं. मैं विदेश मंत्रालय को लिखूंगा कि वो यूएन में यह मामला उठाएं ताकि उनकी वापसी हो सके."
वो कहते हैं, "जो बाड़ लगी है वो एलओसी से कुछ पीछे है. हमारे यहां मवेशी के लिए घास की बहुत ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है. इस कारण यह लोग घास काटने के लिए चले जाते हैं. वो उन्हें पकड़ लेते हैं कि एलओसी पार किया है. हालांकि फ़ेन्स तो पीछे लगा है. इस तरह के बेशुमार लोग हैं."
लेकिन भारत इन तमाम आरोपों को ख़ारिज करता है. भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार पाकिस्तान एलओसी के पार चरमपंथी और हथियार भेजता है.
बीबीसी के सवालों का जवाब देते हुए भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, "पाकिस्तान की जानिब से सिविलियन सरगर्मियों की आड़ में असलहा और बारूद एलओसी की इस जानिब भेजने की कोशिश की गई हैं. हमने सीमापार दहशतगर्दी, हथियारों और ड्रग्स की तस्करी में भी पाकिस्तान की मदद देखी है. उन सरगर्मियों के लिए ड्रोन और काडकॉप्टर भी इस्तेमाल किए गए हैं."
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के लापता (एलओसी पार करके भारत में दाख़िल होने वाले) लोगों की संख्या और उनकी रिहाई के बारे में पूछे गए सवाल का भारत ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया.
भारतीय प्रवक्ता का कहना था, "पाकिस्तानी सेना एक तरफ़ तो सीज़फ़ायर का उल्लंघन करती है और अक्सर इस तरह का उल्लंघन आबादी वाले इलाक़ों में होता है जिनसे चरमपंथियों को एलओसी पार करने में मदद मिलती है. यह 2003 के सीज़फ़ायर का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन है."
इस बारे में पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय का क्या कहना है, बीबीसी की तमाम कोशिशों के बावजूद भी उनका कोई जवाब नहीं मिल सका.
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के प्रधानमंत्री मानते हैं कि पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय में उन लापता लोगों के लिए काम होना चाहिए और एक ऐसा डेस्क बनाया जाना चाहिए जो भारतीय अधिकारियों से उनकी वापसी या उनसे संबंधित जानकारियां जमा करने के लिए बात करे.
लेकिन यह होगा या नहीं और होगा तो कब होगा?
इसका जवाब फ़िलहाल किसी के पास नहीं है.
जिन्होंने ना तो यह जंग शुरू की और न ही इसे ख़त्म करने की हैसियत रखते हैं, उनकी मदद करने वाला कोई नहीं.
जब हम शमशाद बेगम से मिलकर वापस आ रहे थे, वो अपने घर में अपनी भतीजी का स्वागत कर रही थीं. उनकी भतीजी की शादी थी और वो एक स्थानीय रस्म के तहत दुलहन को एक दिन के लिए अपने घर ले आई थीं.
उनके बेटे सिद्दीक़ मेहमानों के लिए खाना बना रहे थे.
यह ख़ानदान भी कश्मीर को विभाजित करने वाली एलओसी की दोनों जानिब बसे दर्जनों परिवारों की तरह ज़िंदगी में आगे बढ़ रहा है. मगर उनका ना तो दुख कम हुआ है और ना ही लापता हुए लोगों की वापसी की उम्मीद टूटी है. (bbc)