विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने घोषणा की है कि वह अपनी सेना के 2500 जवानों को अफगानिस्तान से वापस बुलवाएगा। यह काम क्रिसमिस के पहले ही संपन्न हो जाएगा। जिस अफगानिस्तान में अमेरिका के एक लाख जवान थे, वहां सिर्फ 2 हजार ही रह जाएं तो उस देश का क्या होगा ? ट्रंप ने अमेरिकी जनता को वादा किया था कि वे अमेरिकी फौजों को वहां से वापस बुलवाकर रहेंगे क्योंकि अमेरिका को हर साल उन पर 4 बिलियन डॉलर खर्च करना पड़ता है, सैकड़ों अमेरिकी फौजी मर चुके हैं और वहां टिके रहने से अमेरिका को कोई फायदा नहीं है। 2002 से अभी तक अमेरिका उस देश में 19 बिलियन डॉलर से ज्यादा पैसा बहा चुका है।
ट्रंप का तर्क है कि अमेरिकी फौजों को काबुल में अब टिकाए रखने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि अब तो सोवियत संघ का कोई खतरा नहीं है, पाकिस्तान से पहले-जैसी घनिष्टता नहीं है और ट्रंप के अमेरिका को दूसरों की बजाय खुद पर ध्यान देना जरुरी है। ट्रंप की तरह ओबामा ने भी अपने चुनाव-अभियान के दौरान फौजी वापसी का नारा दिया था लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इस मामले में काफी ढील दे दी थी लेकिन ट्रंप ने फौजों की वापसी तेज करने के लिए कूटनीतिक तैयारी भी पूरी की थी।
उन्होंने जलमई खलीलजाद के जरिए तालिबान और काबुल की गनी सरकार के बीच संवाद कायम करवाया और इस संवाद में भारत और पाकिस्तान को भी जोड़ा गया। माना गया कि काबुल सरकार और तालिबान के बीच समझौता हो गया है लेकिन वह कागज पर ही अटका हुआ है। अमल में वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। आए दिन हिंसक घटनाएं होती रहती हैं। इस समय नाटो देशों के 12 हजार सैनिक अफगानिस्तान में हैं। अफगान फौजियों की संख्या अभी लगभग पौने दो लाख है जबकि उसके-जैसे लड़ाकू देश को काबू में रखने के लिए करीब 5 लाख फौजी चाहिए। मैं तो चाहता हूं कि बाइडन-प्रशासन वहां अपने, नाटो और अन्य देशों के 5 लाख फौजी कम से कम दो साल के लिए संयुक्तराष्ट्र की निगरानी में भिजवा दे तो अफगानिस्तान में पूर्ण शांति कायम हो सकती है।
ट्रंप को अभी अपना वादा पूरा करने दें (25 दिसंबर तक)। 20 जनवरी 2021 को बाइडन जैसे ही शपथ लें, काबुल में वे अपनी फौजें डटा दें। हालांकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान पहली बार काबुल पहुंचे हैं लेकिन तालिबान को काबू करने की उनकी हैसियत 'नाÓ के बराबर है। बाइडन खुद अमेरिकी फौजों की वापसी के पक्ष में बयान दे चुके हैं लेकिन उनकी वापसी ऐसी होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में उनकी दुबारा वापसी न करना पड़े। यदि अफगानिस्तान आतंक का गढ़ बना रहेगा तो अमेरिका सहित भारत-जैसे देश भी हिंसा के शिकार होते रहेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
वेटिकन ने कहा है कि उन्होंने इंस्टाग्राम से स्पष्टीकरण माँगा है कि 'आख़िर पोप फ़्रांसिस के आधिकारिक अकाउंट से ब्राज़ीलियन मॉडल नतालिया गेरीबोतो की एक तस्वीर कैसे लाइक हुई?'
वेटिकन ने यह भी बताया है कि वो इस मामले की जाँच कर रहे हैं.
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि पोप के आधिकारिक अकाउंट से नतालिया की कम कपड़ों वाली तस्वीर कब लाइक की गई.
नतालिया की जिस तस्वीर को पोप के अकाउंट से लाइक किया गया, उसमें उन्होंने स्कूल यूनिफ़ॉर्म से मिलती जुलती ड्रेस पहनी हुई थी.
ब्राज़ीलियन मॉडल नतालिया गेरीबोतो
इस घटना पर वेटिकन के अधिकारियों ने हैरानी ज़ाहिर की है.
वहीं नतालिया की मैनेजमेंट कंपनी ने कथित तौर पर 'पोप द्वारा लाइक की गई' उस तस्वीर को यह कहते हुए दोबारा पोस्ट किया कि "उन्हें आधिकारिक तौर पोप की दुआएं मिली हैं."
ब्राज़ीलियन मॉडल नतालिया गेरीबोतो के इंस्टाग्राम पर 24 लाख फ़ॉलोअर्स हैं. उनके बीच नतालिया ने चुटकी लेते हुए यह लिखा, "मैं तो अब पक्का स्वर्ग जाने वाली हूँ."
वेटिकन द्वारा बताया गया है कि कुछ लोगों की टीम मिलकर पोप के आधिकारिक सोशल मीडिया पन्नों को संभालती है. (bbc.com)
फर और फैशन के लिए उदबिलाव की एक प्रजाति मिंक को जंगल से घसीटकर बड़े ब्रीडिंग फार्मों में कैद किया गया. अब आशंका है कि मिंक फार्मों के कारण भी कोरोना फैल रहा है.
आयरलैंड में प्रशासन पूरे देश के फार्मों में पल रहे मिंकों को कुचलकर मारने की तैयारी कर रहा है. आयरलैंड के कृषि मंत्रालय के मुताबिक डेनमार्क के मिंक फार्म में कोविड-19 के म्यूटेशन की आशंका के बाद यह कदम उठाया जा रहा है.
अब तक किए गए टेस्टों में आयरलैंड के किसी मिंक फार्म में कोविड-19 के सबूत नहीं मिले हैं. इसके बावजूद स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा है, "मिंक पालन जारी रखने से मिंकों में फैलने वाले कोरोना वायरस के नए रूप का खतरा बना हुआ है." आयरिश मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक देश के तीन बड़े मिंक फार्मों में ही करीब एक लाख मिंक पाले जा रहे हैं.
मिंक की शामत क्यों आई?
बीते हफ्ते डेनमार्क में मिंक फार्म में काम करने वाला एक कर्मचारी कोविड-19 पॉजिटिव पाया गया. जांच में बड़े अलग किस्म का कोविड-19 वायरस मिला. इसके बाद आशंका जताई जा रही है कि मिंकों में कोविड-19 म्यूटेट कर चुका है. वायरस के किसी जीव में दाखिल होकर रूप बदलने को म्यूटेशन कहा जाता है.
इस बीच गुरुवार को स्वीडन के स्वास्थ्य अधिकारियों ने दावा किया कि मिंक इंडस्ट्री में काम करने वाले कई लोग कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए हैं. प्रशासन अब इस बात की जांच कर रहा है कि क्या मिंक में मिला कोरोना वायरस का स्ट्रेन ही इंसानों में भी मिला है.
महामारी को रोकने के लिए डेनमार्क में डेढ़ करोड़ से ज्यादा मिंकों को मारने की योजना है. हालांकि इतने बड़े पैमाने पर मिंक मारने का डेनमार्क में विरोध भी हो रहा है. मिंको को मारने का आदेश देने वाले कृषि मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा है. उन पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए सारे मिंक फॉर्मों के लिए आदेश जारी करने के आरोप सही साबित हुए.
58 लाख की जनसंख्या वाले डेनमार्क में इंसान के मुकाबले तीन गुना ज्यादा मिंक पाले जाते हैं. डेनमार्क दुनिया में मिंक का सबसे बड़ा निर्यातक है.
मिंक पालक चिंता में
डेनमार्क, स्वीडन और आयरलैंड से आ रही खबरों ने अमेरिका, इटली, नीदरलैंड्स और स्पेन के मिंक पालकों को परेशान कर दिया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका, इटली, नीदरलैंड्स और स्पेन के मिंकों में भी कोरोना वायरस मिला है.
कोरोना महामारी फैलने के 11 महीने बाद नंवबर में डब्ल्यूएचओ ने कहा कि मिंक कोरोना वायरस से संक्रमित हो सकते हैं और ये इंसान में भी वायरस का संक्रमण कर सकते हैं.
मिंक उदबिलाव प्रजाति का ही एक जीव है. जमीन और पानी में रहने वाले मिंक उदबिलाव से थोड़े छोटे होते हैं. मूल रूप से मिंक उत्तरी अमेरिका और यूरोप में पाई जाने वाले प्रजाति है. फर के लिए अमेरिकन मिंक की लंबे समय के फार्मिंग हो रही है. पशु प्रेमियों के विरोध के बावजूद हर साल लाखों मिंक फर के लिए मारे जाते हैं.
केंद्र सरकार ने इंसानों द्वारा सीवर की सफाई को पूरी तरह से खत्म करने के लिए नया अभियान शुरू किया है. क्या ये नए कदम इस अमानवीय प्रथा को खत्म कर पाएंगे?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
केंद्र सरकार ने गुरूवार 19 नवंबर को दो नई घोषणाएं की. सामाजिक कल्याण मंत्रालय सीवरों और सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए मशीनों का उपयोग अनिवार्य करने के लिए एक कानून लेकर आएगा. दूसरी तरफ शहरी कार्य मंत्रालय ने इंसानों द्वारा सीवर की सफाई रोकने के लिए राज्यों के बीच एक प्रतियोगिता की शुरुआत की.
243 शहरों के बीच होने वाली इस प्रतियोगिता के लिए 52 करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं. राज्य सरकारों ने प्रण लिया है कि अप्रैल 2021 तक इस तरह की सफाई की प्रक्रिया को पूरी तरह से मशीन आधारित बना दिया जाएगा. सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले शहरों को इनाम दिया जाएगा.
भारत में मैन्युअल स्केवेंजिंग या इंसानों द्वारा नालों की सफाई एक बड़ी समस्या है. 2013 में एक कानून के जरिए इस पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया था, लेकिन बैन अभी तक सिर्फ कागज पर ही है. देश में आज भी लाखों लोग सीवरों और सेप्टिक टैंकों की सफाई करने के उद्देश्य से उनमें उतरने के लिए मजबूर हैं.
282 सफाईकर्मियों की मौत
यह अमानवीय होने के साथ साथ जानलेवा भी है. नालों में फैली गंदगी से उनमें घातक गैसें बन जाती हैं जिन्हें सूंघ लेने मात्र से इंसान बेहोश हो जाता है. गैसें अधिक मात्रा में नाक में गईं तो जान ले लेती हैं. 2016 से 2019 के बीच देश के अलग अलग हिस्सों में कम से कम 282 सफाईकर्मी सीवर और सेप्टिक टैंक साफ करने के दौरान मारे गए.
Twitter/ Shiv Sunny
केंद्र सरकार द्वारा संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक इनमें से सबसे ज्यादा (40) सफाईकर्मियों की मृत्यु तमिल नाडु में हुई, 31 की हरियाणा में और 30 की दिल्ली और गुजरात में हुई. सफाईकर्मियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों का कहना है कि असली आंकड़े इस से कहीं ज्यादा हैं और असली तस्वीर कहीं ज्यादा भयावह.
इसी स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार ने ये नए कदम उठाए हैं. सरकार ने निर्णय लिया है कि कानून में संशोधन करके सीवरों और सेप्टिक टैंकों की मशीन आधारित सफाई को अनिवार्य कर दिया जाएगा और शब्दावली में से 'मैनहोल' शब्द को हटा कर 'मशीन-होल' शब्द का उपयोग किया जाएगा.
इसके अलावा कानून के उल्लंघन के मामलों की शिकायत करने के लिए एक राष्ट्रीय हेल्पलाइन भी शुरू की जाएगी. सामाजिक कल्याण मंत्रालय ने यह भी फैसला लिया है कि सफाई मशीनें खरीदने के लिए नगर पालिकाओं और ठेकेदारों की जगह सीधे सफाई कर्मचारियों को पैसे दिए जाएंगे.
नोएडा के सेक्टर 50 मेट्रो स्टेशन को ट्रांसजेंडरों के लिए समर्पित कर इसका नाम प्राइड किया गया है. यहां काम करने वाले ट्रांसजेंडर मान-सम्मान पाकर बेहद खुश हैं और कहते हैं कि इस तरह के अवसर अन्य सदस्यों को भी मिलने चाहिए.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
बिहार के कटिहार से निकलकर माही गुप्ता मुंबई रोजगार की तलाश में पहुंची लेकिन वहां कुछ समय बिताने के बाद उन्हें प्राइड स्टेशन में काम करने का मौका मिला. माही गुप्ता एक ट्रांसजेंडर हैं और उनकी नई नौकरी नोएडा के सेक्टर 50 स्थित "प्राइड" स्टेशन में लगी है. यह उत्तर भारत का पहला मेट्रो स्टेशन है जो ट्रांसजेंडरों को समर्पित किया गया है. मकसद बेहद साफ है इस समुदाय से जुड़े लोगों को रोजगार और सम्मान देकर मुख्यधारा में लाना और समाज में उनके प्रति सोच में बदलाव लाना शामिल है. माही गुप्ता टिकट काउंटर पर आने वाले मेट्रो यात्रियों के सवालों के जवाब देती हैं और उन्हें कोई परेशानी होने पर उसे हल करने की भी कोशिश करती हैं. माही का काम काउंटर पर मेट्रो टोकन बेचने का है लेकिन वे इस नौकरी से बेहद खुश हैं. माही डीडब्ल्यू से कहती हैं, "हमारे लिए यह बेहद अनोखा अनुभव है इसी के साथ उन लोगों के लिए भी जो यहां आते हैं. हमें पहले सिर्फ ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वालों की तरह देखा जाता था लेकिन मौका मिलना पर हम अपनी क्षमता दिखा सकते हैं."
Aamir Ansari/DW
नौकरी पाकर खुश हैं ट्रांसजेडर समुदाय के लोग.
ट्रांसजेंडर के लिए अवसर
नोएडा मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (एनएमआरसी) ने सेक्टर 50 स्टेशन को ट्रांसजेंडर समुदाय को समर्पित किया है. इस पहल का मकसद है कि ट्रांसजेंडर को मुख्यधारा से जोड़ा जा सके. एनएमआरसी ने छह ट्रांसजेंडरों को टिकट काउंटर और हाउस कीपिंग की ट्रेनिंग दिलवाकर इस स्टेशन पर तैनात किया है. यह पहल ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक 2019 से प्रेरित है, जिसके मुताबिक किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ शैक्षणिक संस्थानों, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं आदि में भेदभाव नहीं किया जा सकता है. प्राइड स्टेशन में हाउस कीपिंग का काम करने वाली प्रीति कहती हैं, "तीसरे लिंग के लोगों को सिर्फ गलत नजरों से ही देखा जाता रहा है. लेकिन जब से मैं यहां काम कर रही हूं तो मेरे अंदर आत्मविश्वास बढ़ा है और मैं गर्व महसूस करती हूं. हम ट्रांसजेंडर हैं तो क्या हुआ जो इज्जत हमें समाज में मिलनी चाहिए वो यहां काम करने के बाद मिल रही है."
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ट्रांसजेंडर समुदाय को समर्पित है प्राइड स्टेशन.
"सम्मान वाली जिंदगी"
माही कहती हैं कि उन्होंने 2013 में अपना लिंग बदलवाया और उसके बाद गांव गई तो गांव वालों ने उन पर तरह तरह के ताने मारे जिसके बाद वह गांव छोड़ कर चली गई. माही ने इस दौरान बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया और बाद में एनजीओ के साथ मिलकर एचआईवी के लिए कार्यक्रम में काम किया. माही के मुताबिक, "नौकरी से लोगों की सोच में बदलाव आना एलजीबीटी समुदाय के लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि यह समुदाय समाज में स्वीकृति पाने के लिए बोल बोल कर थक चुका है. अब इस समुदाय के सदस्यों को काम की जरूरत है क्योंकि बिना काम के वे समाज में अपने आपको साबित नहीं कर सकते हैं."
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नोएडा मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की पहल से समाज में सोच बदलेगी.
स्टेशन के बाहर और भीतर इस समुदाय को महत्व देने के लिए दीवारों पर सतरंगी रंग और चित्र बनाए गए हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 4.9 लाख ट्रांसजेंडर रहते हैं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इनकी संख्या 35,000 के करीब है. गौरतलब है कि सेक्टर 50 स्टेशन का नाम बदलने से पहले एनएमआरसी ने ऑनलाइन सुझाव मांगे थे, अधिकतर लोगों ने स्टेशन का नाम "प्राइड" करने का सुझाव दिया.
2017 में केरल के कोच्चि मेट्रो रेल लिमिटेड ने इसी तरह 23 ट्रांसजेंडरों को नौकरी पर रखा था.
भारतीय सेना के इतिहास में पहली बार महिला अधिकारियों का स्थायी सेवा के लिए चयन हुआ है. यह फरवरी में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश की वजह से संभव हो पाया है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
सेना ने बताया है कि स्थायी सेवा यानी परमानेंट कमिशन (पीसी) के लिए जिन 615 महिला प्रत्याशियों का मूल्यांकन किया गया था उनमें से 300 को चुन लिया गया है. मीडिया में आई खबरों में दावा किया गया है कि जिनका चयन नहीं हो पाया उनमें चयन के मानदंडों पर खरी ना उतरने वाली और मेडिकल जांच में उत्तीर्ण ना होने वाली प्रत्याशियों के अलावा वो महिला अधिकारी भी शामिल हैं जिन्होंने स्थायी सेवा नहीं चुनी.
ऐसी महिला अधिकारी 20 सालों की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हो जाएंगी और उन्हें पेंशन भी मिलेगी. पीसी मिलने वाली महिला अधिकारी सेना में अपने पूरे कार्यकाल तक सेवाएं दे सकेंगी और वो समय समय पर पदोन्नति की पात्र भी बन जाएंगी. 13 लाख सिपाहियों और अधिकारियों वाली भारतीय सेना में 43,000 अधिकारी हैं जिनमें महिला अधिकारियों की संख्या लगभग 1,600 है.
इन्हें अभी तक शॉर्ट सर्विस कमिशन के जरिए भर्ती किया जाता था, लेकिन फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने सेना में लिंग के आधार पर भेदभाव को खत्म करने का आदेश दिया था. उसके बाद सेना ने अपनी 10 शाखाओं में महिला अधिकारों को पीसी देने के लिए चयन प्रक्रिया शुरू कर दी थी.
13 लाख सिपाहियों और अधिकारियों वाली भारतीय सेना में 43,000 अधिकारी हैं जिनमें महिला अधिकारियों की संख्या लगभग 1,600 है.
सेना की कानूनी और शिक्षा संबंधी शाखाओं में महिला अधिकारियों को इसके पहले से पीसी दिया जा रहा था, लेकिन अब ये बाकी आठ शाखाओं में भी हो पाएगा. इसके लिए एक विशेष चयन बोर्ड का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष एक लेफ्टिनेंट जनरल थे. बोर्ड में ब्रिगेडियर रैंक की एक महिला अधिकारी भी थी.
महिला अधिकारियों को आब्जर्वर की तरह बोर्ड की कार्यवाही देखने का भी अवसर दिया गया था, जिससे प्रक्रिया में पारदर्शिता बनी रहे. हालांकि महिला अधिकारियों को अभी भी लड़ाई की किसी भी भूमिका में शामिल होने की अनुमति नहीं है. नौसेना में भी महिलाएं लड़ाकू जहाजों और सबमरीनों में सेवा नहीं कर सकती हैं. सिर्फ वायु सेना में महिलाएं लड़ाकू भूमिका में सक्रिय हैं.
-ज़ुबैर अहमद
इस समय भारतीय मुसलमानों का राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता है? - अक्सर वो लोग जो ये सवाल करते हैं कि भारतीय मुसलमानों में लीडरशिप की कमी है उनके लिए इम्तियाज़ जलील का सीधा जवाब है - एआईएमआईएम के अध्यक्ष भारतीय मुसलमानों के एक ही लीडर हैं.
इम्तियाज़ जलील ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन या एआईएमआईएम के महाराष्ट्र से चुने सांसद हैं. उनके इस दावे को चुनौती देने वालों से वो पूछते हैं, "आप दूसरा कोई मुसलमान नेता बताएं?"
अपने नेता का नाम लेकर, एक और सवाल करते हैं, "मुसलमानों का उतना ही लोकप्रिय नेता बता सकते हैं जितना ओवैसी साहब हैं? इतना डट कर, जम कर बोलने वाले, संसद के अंदर मुसलमानों के लिए बोलने वाले किसी और (मुस्लिम) नेता का नाम बता दीजिये? किसी भी राज्य और शहर में पूछ लीजिये आपको कोई दूसरा नाम मिलेगा ही नहीं."
इम्तियाज़ जलील अपनी पार्टी को भी वही दर्जा देते हैं जो वो अपने नेता को देते हैं.
बिहार विधानसभा के चुनाव में पांच सीटें जीतने के बाद कहा ये जा रहा है कि एआईएमआईएम मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन कर उभरी है और इसके अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी समुदाय के सबसे बड़े नेता के रूप में सामने आए हैं.
एआईएमआईएम का गठन साल 1927 में हुआ था. शुरूआत में ये पार्टी केवल तेलांगना तक महदूद थी. 1984 से ये पार्टी लगातार हैदराबाद लोकसभा सीट से जीतती आ रही है.
2014 में हुए तेलांगना विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सात सीटें जीती और 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीतने के बाद इस पार्टी ने अपना दर्जा एक छोटी शहरी पार्टी से हटाकर राज्य स्तर की पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया.
बिहार में जीत दर्ज करने के बाद पार्टी के हौसले बुलंद हैं. तेलंगाना और महाराष्ट्र के बाद पार्टी ने अब बिहार में अपना खाता खोला है और अपने मुख्यालय हैदराबाद के बाहर विधानसभा की सबसे अधिक सीटें पहली बार जीती है.
पार्टी ने अब पश्चिम बंगाल में अपनी क़िस्मत आज़माने का फ़ैसला किया है जहाँ चुनाव अगले छह महीने के भीतर होने वाला है. बिहार की तुलना में यहां मुसलमानों की कहीं बड़ी आबादी है.
पार्टी उत्तर प्रदेश में 2017 में कई सीटों पर ज़मानत ज़ब्त होने के बाद भी 2022 के विधानसभा चुनाव में भाग लेने की बात कर रही है.
इम्तियाज़ जलील का कहना है पार्टी की चुनावी सफलता के पीछे ओवैसी पर लोगों का बढ़ता विश्वास भी है.
वो कहते हैं, "लोगों को अब एहसास हो रहा है कि ओवैसी थोड़ा तीखा बोलेगा, थोड़ा टेढ़ा बोलेगा लेकिन जो बोलेगा वो सच बोलेगा. लोगों को उनकी ज़बान पसंद नहीं आती होगी, उनको लगता होगा कि उनका लहज़ा सही नहीं है लेकिन वो सही बात करेगा."
मुस्लिम समुदाय में फिलहाल बहस का मुद्दा ये है कि क्या एआईएमआईएम समुदाय के लिए एक मसीहा बन कर उभर रही है या फिर ये आगे चल कर समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ा कर सकती है?
हैदराबाद के ज़ैद अंसार, पार्टी के पक्के समर्थकों में से एक है. वो कहते हैं, "मुसलमानों को देश की सियासत और सत्ता से दूर रखने की कोशिश की जा रही है. हमें लगता है कि हम अनाथ हैं. हमारे लिए कोई बोलने वाला नहीं. वो पार्टियाँ जो हमारा वोट हासिल करती आई हैं वो भी ख़ामोश रहती हैं. ऐसे में ओवैसी साहब ने हमें आवाज़ दी है, हमारे हक़ में बोलते हैं जिससे हमें ताक़त मिलती है."
सांसद इम्तियाज़ जलील पहले तो ये साफ़ करते हैं कि उनकी पार्टी केवल मुसलमानों की पार्टी नहीं है. वो कहते हैं कि पार्टी ने कई दलितों और हिंदुओं को चुनाव में टिकट दिए हैं, ख़ास तौर से स्थानीय चुनावों में.
लेकिन वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनकी पार्टी सियासी सिस्टम में मुसलमानों के सिकुड़ते स्पेस को पूरा कर रही है.
वो कहते हैं, "हमने कभी और कहीं पर ये नहीं कहा है कि एआईएमआईएम मुसलमानों की ही पार्टी है. ये सही बात है कि मुसलमानों के सबसे ज़्यादा मुद्दे हैं इस वजह से इन मुद्दों को जब कोई नहीं उठता है तो हम को उठाना पड़ रहा है. अगर दूसरी पार्टियाँ मुसलमानों के मुद्दे उठाती तो मेरे विचार में हमारी पार्टी को वो स्पेस ही नहीं मिला होता."
कहा ये जा रहा है कि मुस्लिम युवाओं में एआईएमआईएम को खासी लोकप्रिय हासिल है.
मुंबई में एक कंपनी में मैनेजर की पोस्ट पर काम करने वाली दीबा अरीज किराये के अपने मकान को बदलना चाहती हैं. लेकिन उनके अनुसार उन्हें मुसलमान होने के नाते दूसरा घर नहीं मिल पा रहा है. उनका ब्वॉयफ़्रेंड एआईएमआईएम के समर्थक हैं लेकिन वो ख़ुद ओवैसी या ज़ाकिर नाइक जैसे मुस्लिम नेताओं को पसंद नहीं करतीं.
वो कहती हैं, "मैं हमेशा ओवैसी के बढ़ते फेम (लोकप्रियता) से परेशान थी. अपने ब्वॉयफ़्रेंड और उनके दोस्तों से हमारा कई बार इस मुद्दे पर झगड़ा भी हो चुका है. मैं सेकुलर मुस्लिम परिवार से हूँ. लेकिन जब मेरे साथ धर्म के नाम पर भेदभाव होने लगा, घर ढूंढने में दिक्कत होने लगी, तो मेरे ज़ेहन में बात घूमने लगी कि क्या अब तक मैं ग़लत थी और मेरा ब्वॉयफ़्रेंड और उसके एआईएमआईएम समर्थक सही थे?"
दीबा को अब भी किराए पर घर नहीं मिला है. लेकिन इस कड़वे अनुभव के बावजूद वो कहती है कि वो ओवैसी की सियासत का विरोध करती रहेंगी क्योंकि कि उनकी सियासत "मुस्लिम समाज के लिए नुक़सानदेह है".
फहद अहमद भी मुंबई में रहते हैं. वो टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के छात्र हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में रुचि के कारण वो चुनाव के दौरान बिहार में ही थे.
उनका कहना है कि एआईएमआईएम के पक्ष या विरोध में दिए जा रहे दोनों तरह के तर्क को वो सही नहीं मानते. वो कहते हैं कि मुसलमान युवाओं में ये एहसास है कि सेकुलर पार्टियाँ मुस्लिम मुद्दे उठाती नहीं हैं और ओवैसी ऐसे मुद्दे उठाते हैं.
वो कहते हैं, "ओवैसी को सेकुलर पार्टियां एक पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल कर रही हैं. उनको अगर आप एक लगाओगे तो वापस आपको ही चोट लगेगी."
फहद अहमद के अनुसार ओवैसी की पार्टी का पनपना अंततः मुसलमानों के हक़ में नहीं है. उनके विचार में अगर सेकुलर पार्टियां नौजवान, उभरते हुए मुसलमान नेताओं को जगह दें तो ओवैसी की अहमियत ख़ुद-बख़ुद से कम हो जाएगी.
28 जनवरी 2020 को मुंबई के बायकुला में आयोजित असदउद्दीन ओवैसी की रैली में शामिल भीड़
एआईएमआईएम एक सांप्रदायिक पार्टी?
ये बात सही है कि असदउद्दीन ओवैसी अक्सर संसद में मुसलमान समुदाय से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं. चाहे वो बाबरी मस्जिद पर फ़ैसले का मुद्दा हो, कथित 'लव जिहाद का' मुद्दा हो या फिर नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी का.
उनकी आवाज़ संसद में गूंजती है और अक्सर दूसरे नेताओं की तुलना में वो बेहतर तर्क देते सुनाई देते हैं. वो बेबाक तरीके से ख़ुल कर बोलते दिखते हैं.
लेकिन ये भी सही है कि एक तरफ़ आम मुसलमानों में पार्टी की लोकप्रियता बढ़ रही है तो दूसरी तरफ़ मुस्लिम समाज के एक बड़े तबक़े में इससे चिंता भी है.
इंडियन मुस्लिम फ़ॉर प्रोग्रेस एंड रिफ़ॉर्म की सदस्य शीबा असलम फ़हमी कहती हैं, "(एआईएमआईएम का लोकप्रिय होना) बिलकुल ख़तरनाक है. ये बहुत अफ़सोसनाक़ भी है. हम लोगों को उम्मीद नहीं थी कि 1947 में जो इलाक़े बंटवारे से बेअसर रहे वहां पर टू-नेशन या दो क़ौमों का जो तसव्वुर है वो उन इलाक़ों में परवान चढ़ाया जा सकता है."
"उन इलाक़ों से होकर बँटवारे की लकीर नहीं गुज़री, न उन इलाक़ों ने नफ़रतें देखी थीं, न शरणार्थियों का आना देखा था, न लुटे सरदारों और बंगालियों का आना देखा था. इतना आसान है कि कितना भी नाकाम प्रधानमंत्री हो उसके सामने कोई मुसलमान आकर कहे कि हम मुसलमान हैं हम मुसलमानों की सियासत करेंगे तो फिर उसके लिए कुछ ज़्यादा मेहनत करने के लिए बचता ही नहीं है."
शीबा कहती हैं कि भारत के मुसलमानों को साम्प्रदायिकता की जगह सेकुलर सिस्टम की सबसे अधिक ज़रुरत है. इसी सिस्टम में मुसलमान सुरक्षित रह सकता है.
वो कहती हैं, "देखिये मुझे बहुत साफ़ दिख रहा है कि बीजेपी चाहती है कि उनका विपक्ष उनकी पसंद का होना चाहिए और ओवैसी साहब से वो अपनी पसंद का विपक्ष पैदा करवा रहे हैं. ये एक आज्ञाकारी विपक्ष है जो बीजेपी को सूट करता है."
शीबा आगाह करना चाहती हैं कि स्थिती देश के बँटवारे से पहले की तरह से बनती जा रही है. उनके अनुसार इसकी असल ज़िम्मेदार बीजेपी है जिसे देश की अखंडता से अधिक हिन्दू राष्ट्र बनाने की पड़ी है.
हालांकि राजनीतिक विश्लेषक और स्वराज इंडिया के नेता योगेंद्र यादव ओवैसी के बढ़ते प्रभाव को सेक्लुर राजनीति की हार और सेकुलर पार्टियों की राजनीति की विफलता मानते हैं.
अपने एक वक्तव्य में वो कहते है कि "बंटवारे के बाद मुसलमानों ने कभी मुस्लिम पार्टी को वोट नहीं दिया. अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने मुस्लिम नेताओं का सहारा नहीं लिया क्योंकि उनका मानना था कि जो पार्टी बहुसंख्यकों का ख़याल रख सकती है वो उनके हितों का भी ख़याल रख सकती है."
"लोकतंत्र के लिए यही सबसे ख़ूबसूरत चीज़ होती है. लेकिन इस देश की सेकुलर पार्टियों ने मुसलमानों को वोट का बंधक बनाने की कोशिश की है. मुसलमान तंग आ चुका है इस राजनीति से."
इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के कामयाब उम्मीदवारों में से एक शकील अहमद ख़ान ओवैसी के उदय की तुलना बिहार के दिवंगत नेता सैयद शहाबुद्दीन से करते हैं जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के दौर में मुसलमानों के मुद्दे उठाये थे और समुदाय के राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने की कोशिश की थी.
एआईएमआईएम की बढ़ती लोकप्रियता के कारण
एआईएमआईएम मुसलमानों को केंद्र में रखकर बनाई गई पहली पार्टी नहीं है. केरल की मुस्लिम लीग हो या असम की एआीयूडीएफ़ हो- इससे पहले भी इस पहचान के साथ पार्टियां बनी है लेकिन दोनों ही पार्टियां अपने इलाक़े तक सीमित रही हैं.
एआईएमआईएम इस तरह से अलग है कि अब ये हैदराबाद से निकलकर दूसरे राज्यों में अपनी राजनीतिक पैठ बना रही है. लेकिन एआईएमआईएम की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद विरोधी दलों में चिंता का अभाव नज़र आता है.
शकील अहमद ख़ान बिहार में एआईएमआईएम की कामयाबी को 'सोडा वाटर के बुलबुले' की तरह बताते हैं जिसका जितनी तेज़ी से उभार होता है उतनी ही तेज़ी से अंत भी होता है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह इसे भारतीय जनता पार्टी की B-टीम की तरह से देखते हैं और लगभग सभी विरोधी दल इसे मुसलमानों की एक सांप्रदायिक पार्टी मानते हैं.
हालांकि असद्दुदीन ओवैसी हमेशा बीजेपी की टीम-बी जैसे तमगों को नकारती रहे हैं. उन पर 'वोटकटवा पार्टी' होने का भी आरोप लगता रहा है. लेकिन एआईएमआईएम के आगे बढ़ने पर विश्लेषण लगभग सभी के पास है.
कांग्रेस नेता शकील अहमद ख़ान की नज़रों में एआईएमआईएम के आगे बढ़ने के मुख्य तीन कारण हैं, "पहला, पिछले पांच सालों में संसद में जो फ़ैसले हुए और ओवैसी ने जिस तरह से उन्हें भंजाने की कोशिश की इससे उन्हें मदद मिली है क्योंकि युवाओं को लगता है उनकी आवाज़ सबसे मज़बूत है. लेकिन वो समझ नहीं पाते हैं कि इस तरह की सियासत की मुश्किलें क्या हैं और लोकतंत्र में इसका नुक़सान क्या हो सकता है."
"दूसरी वजह ये है कि जहाँ से पार्टी ने जीत दर्ज की है उन इलाक़ों की आबादी में 73-74 फीसदी मुसलमान हैं. तो वहां इस पार्टी का आगे बढ़ना वहां की मुस्लिम लीडरशिप का निकम्मापन है."
"और तीसरा कारण ये है कि अगर कोई सांप्रदायिक बातें करता है तो मुस्लिम समाज के लोगों को उसका उतना ही सख्ती से विरोध करना चाहिए जो नहीं किया गया".
शकील अहमद ख़ान का कहना था कि उन्होंने एआईएमआईएम की साम्प्रदायिकता का सामना किया और इसलिए वो अपनी सीट से जीते.
वो कहते हैं, "ओवैसी की तरह मैं भी लच्छेदार उर्दू बोल सकता हूँ, शेर पढ़ सकता हूँ लेकिन इससे यहाँ के मुसलमानों के मसले तो हल नहीं हो सकते? मैं कहता हूँ कि उनके भड़काऊ भाषणों से मुस्लिम समाज का कोई फायदा नहीं होने वाला है. मुस्लिम समाज या किसी भी समाज का फायदा एक सेकुलर सियासत में ही हो सकता है. मैंने इसी लाइन को फॉलो किया और लोगों ने हमारा साथ दिया."
शीबा फ़हमी के मुताबिक़ ओवैसी पीड़ितों की राजनीति कर रहे हैं. वो कहती हैं, "इस देश में किसी को सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा है. केवल मुसलमान ही पीड़ित नहीं हैं. दलितों और ग़रीबों को भी सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा. लेकिन मुस्लिम समुदाय को ये बताया जा रहा है कि सिर्फ आपको न्याय नहीं मिल रहा है. ऐसे में लोग आपके साथ जुड़ सकते हैं."
इम्तियाज़ जलील अपनी पार्टी के बचाव में कहते हैं कि क्या वो कांग्रेस या दूसरी पार्टियों से पूछ कर सियासत करेंगे? उन्होंने कांग्रेस को दोहरी पॉलिसी अपनाने और मुसलमानों को धोखा देने वाली पार्टी बताया.
वो कहते हैं, "मेरी नज़र में कांग्रेस, एनसीपी जैसी पार्टियाँ - ये सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. मुसलमानों का इलेक्शन के वक़्त में इस्तेमाल करो और उसके बाद उन्हें भूल जाओ. ये अपने नुक़सान की बात करते हैं, लेकिन सबसे बड़ा नुकसान तो मुसलमानों का हुआ है."
वो कहते हैं, "सोशल मीडिया के दौर में छोटा बच्चा भी देख रहा है कि क्या हो रहा है. मध्यप्रदेश में सेकुलरिज़्म के नाम पर कांग्रेस के विधायक जीतते हैं और बाद में वो बीजेपी की गोद में बैठ जाते हैं."
"2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुसलमान नीतीश कुमार के साथ खड़े थे क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी को वही बिहार में हरा सकते हैं. लेकिन उन्होंने मुसलमानों का वोट हासिल किया और डेढ़ साल बाद मोदी से हाथ मिला लिया. महाराष्ट्र में जो शिव सेना मुसलमानों को गालियाँ देती थी अब कांग्रेस और एनसीपी उनके साथ मिलकर सरकार में है. ये कब तक चलेगा? कम से कम लोगों को ये यक़ीन है कि हमारी पार्टी बीजेपी के साथ हाथ नहीं मिलाएगी."
लेकिन एआईएमआईएम के ख़िलाफ़ बीजेपी को जानबूझ कर फायदा पहुँचाने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं.
अखिलेश प्रताप सिंह कहते हैं वो शुरू से कहते आए हैं कि ओवैसी की पार्टी बीजेपी की B-टीम है. वो कहते हैं, "जब से मोदी जी आए हैं एक तरह से एआईएमआईएम को प्रमोट कर रहे हैं, चाहे वो महाराष्ट्र के चुनाव में हों, दिल्ली में लोकल बॉडीज़ के चुनाव में या फिर इससे पहले बिहार विधानसभा चुनाव में या उत्तर प्रदेश में."
"उनका उद्देश्य ये है कि वो अल्पसंख्यकों के वोट बांट दें जिससे उनको जीतने में आसानी हो. ये हकीक़त है कि जब से मोदी जी आए हैं, दोनों तरफ़ कट्टरता की राजनीति में इज़ाफा हुआ है."
योगेंद्र यादव ओवैसी की पार्टी पर लग रहे बीजेपी की टीम-बी और वोटकटवा के आरोप से सहमत नहीं हैं. हालांकि वो कहते हैं कि इस पार्टी की सफलता सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देगी.
वो मानते है कि हिंदुत्व की राजनीति ने मुसलमानों की एक्सक्लूसिव पार्टी को बढ़ावा दिया है और ये ट्रेंड भारतीय लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है.
वो कहते हैं, "इससे निपटने का एक ही उपाय है कि सेकुलर पार्टियों को मुसलमान हिंदू और सभी धर्म के साधारण लोगों का विश्वास जीतना होगा. अभी न तो हिंदू उन पर भरोसा करता है ना मुसलमान."
तारिक़ अनवर बिहार के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं जो कई साल तक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में भी रह चुके हैं. उनका कहना है कि बीजेपी और एआईएमआईएम दोनों साम्प्रदायिक सियासत करने वाली पार्टियाँ हैं और इन दोनों का विरोध ज़रूरी है क्योंकि ये देश की एकता को भंग करने वाली ताक़तें हैं.
वो कहते हैं, "जहाँ तक एआईएमआईएम या ओवैसी साहब का सवाल है, मैं कहूंगा कि किसी तरह की साम्प्रदायिकता देश के ख़िलाफ़ है. हिन्दू साम्प्रदायिकता हो या मुस्लिम साम्प्रदायिकता- दोनों एक दूसरे के लिए ख़ुराक़ हैं और इसका नुक़सान देश को उठाना पड़ेगा."
"एआईएमआईएम के नाम का मतलब है मुस्लिम इत्तेहाद या एकता. जब आप मुस्लिम एकता की बात करते हैं तो ज़ाहिर है इससे जो हिन्दू फ़िरकापरस्त हैं या कट्टरपंथी है उनको इसका फायदा पहुँचता है. अगर सीधे तौर पर नहीं तो अप्रत्यक्ष तौर पर एआईएमआईएम ज़रूर हिन्दु साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है और ये केवल मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे मुल्क के लिए नुक़सानदेह है."
ओवैसी पर ये भी इल्ज़ाम है कि वो मोदी सरकार की आलोचना करने से बचने की कोशिश करते हैं और उनका निशाना अक्सर कांग्रेस और दूसरे सेकुलर दल होते हैं.
शीबा कहती हैं, "अकबरुद्दीन ओवैसी (असद्दुदीन ओवैसी के छोटे भाई) के एक गंदे बयान से 100 तोगड़िया के गंदे बयान जस्टिफाई हो रहे हैं, 100 उमा भारती के बयान जस्टिफाई किये जाते हैं."
ओवैसी विरोधी तत्व ये भी कहते हैं कि उनकी पार्टी केवल उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ती है जहाँ मुसलमान आबादी अधिक है.
तारिक़ अनवर के अनुसार ओवैसी मुसलमानों की भावनाओं से खेल कर वोट हासिल करने की कोशिश करते हैं जिसके कारण वोटों का बंटवारा होता है और इसका फायदा बीजेपी को होता है जबकि सेकुलर पार्टियों को इसका नुकसान होता है.
वो कहते हैं, "ओवैसी ने बिहार चुनाव में गठबंधन के 15 सीटों में वोट काटे. अगर ये 15 सीट हम जीत जाते तो आज बिहार में सरकार हमारी होती."
लेकिन पार्टी सांसद इम्तियाज़ जलील मुसलमानों के हित में बोलने को साम्प्रदायिकता नहीं मानते और ये भी नहीं मानते कि उनकी पार्टी की सियासत से बीजेपी को फायदा होता है.
वो कहते हैं, "अगर हम उन इलाक़ों से चुनाव नहीं लड़ेंगे जहाँ हमारी मुसलमान अधिक हैं तो क्या वहां से आरएसएस वाले, बजरंग दल वाले, शिव सेना वाले चुनाव लड़ेंगे?"
पार्टी का अगला पड़ाव बंगाल है जहाँ छह महीने के बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. बंगाल में मुस्लिम वोट 25 प्रतिशत से अधिक है. इम्तियाज़ जलील कहते हैं, "इंशाल्लाह हम लड़ेंगे. हम हर जगह जाएंगे".
बंगाल विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए बीजेपी पूरा ज़ोर लगा रही है. शायद ये ख़बर कि एआईएमआईएम बंगाल में चुनाव लड़ेगी बीजेपी के लिए खुशख़बरी होगी.
लेकिन कांग्रेस के लिए ये ख़बर कैसी होगी? अखिलेश प्रताप सिंह कहते हैं, "हम अभी से राज्य में सक्रिय हो गए हैं और एआईएमआईएम को रोकने की हमारी तैयारी शुरू हो चुकी है."(bbc.com)
-सर्वप्रिया सांगवान
पत्रकार, सरकार की बदले की कार्रवाई, सुप्रीम कोर्ट और आज़ादी का मौलिक अधिकार. पिछले कुछ दिनों से ये शब्द मीडिया में छाए हुए हैं. हाल ही में आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में रिपब्लिक न्यूज़ चैनल के मालिक और पत्रकार अर्नब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिली है.
आम लोगों में इस सवाल पर चर्चा हो रही है कि क्या देश की सर्वोच्च अदालत का रवैया और रूख़ सभी पत्रकारों के मामले में समान है या नहीं.
केरल के एक पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. आज उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अपना जवाब कोर्ट में दाखिल किया है.
पत्रकार कप्पन को उत्तर प्रदेश पुलिस ने तब गिरफ्तार कर लिया था जब वह एक दलित महिला के साथ बलात्कार और हत्या मामले की कवरेज के लिए हाथरस जा रहे थे.
उन्हें पांच अक्तूबर को हिरासत में लिया गया था. बाद में पुलिस ने उन पर यूएपीए एक्ट के तहत मामला दर्ज किया. उनके साथ तीन और लोगों को गिरफ्तार किया गया था जिसमें दो आंदोलनकारी छात्रों के साथ एक टैक्सी ड्राइवर शामिल है.
पत्रकार कप्पन और तीन अन्य लोगों को मथुरा पुलिस ने पांच अक्तूबर को 'प्रिवेंटिव पावर' के तहत हिरासत में लिया था.
क्या है पूरा मामला?
पत्रकार कप्पन और तीन अन्य लोगों को मथुरा पुलिस ने 'प्रिवेंटिव पावर' के तहत हिरासत में लिया था. सीआरपीसी की धारा 151 के तहत पुलिस किसी अपराध की आशंका के कारण किसी को हिरासत में ले सकती है.
इन चारों को छह अक्तूबर के दिन एक्ज़ेक्यूटिव मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और कोर्ट ने उन्हें 14 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया. जबकि एक्ज़ेक्यूटिव मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र में सिक्योरिटी या बॉन्ड भरवाना है ना कि हिरासत में भेजना.
दूसरी तरफ़, छह अक्तूबर को ही केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ने संविधान के आर्टिकल 32 के तहत कप्पन के लिए हेबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल कर दी.
याचिका में कहा गया था कि उनके सहकर्मी, परिवार या किसी को भी कप्पन को हिरासत में लिए जाने की ख़बर नहीं दी गई थी. किसी को नहीं बताया गया कि उन्हें कहां रखा गया है और किस मामले में हिरासत में लिया गया है.
ये सब होने के बाद सात अक्तूबर को पुलिस ने इस मामले में पहली एफ़आईआर दर्ज की.
इस एफ़आईआर में यूएपीए के सेक्शन 17 और 18, भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 124A(राजद्रोह), 153A(दो समूहों के बीच वैमनस्य बढ़ाने), 295A(धार्मिक भावनाएं आहत करने) और आईटी एक्ट के सेक्शन 62, 72, 76 लगाए गए थे.
क्या है एफआईआर में?
सिद्दीक़ कप्पन के साथ-साथ अतिकुर्रहमान, आलम और मसूद पर एफ़आईआर दर्ज की गई. रहमान और आलम छात्र और एक्टिविस्ट हैं और मसूद एक टैक्सी ड्राइवर हैं जिनकी टैक्सी में बाक़ी लोग हाथरस के पीड़ित परिवार से मिलने जा रहे थे.
एफ़आईआर के मुताबिक़ "अभियुक्तों के पास कुल छह फोन पाए गए और एक लैपटॉप. उनके पास 'जस्टिस फॉर हाथरस विक्टिम' लिखा एक पोस्टर था. ये लोग शांति भंग करने के मक़सद से हाथरस जा रहे थे. मीडिया रिपोर्ट्स से प्रतीत हो रहा है कि कुछ असामाजिक तत्व जातिगत तनाव और दंगा भड़काने का प्रयास कर रहे हैं. अभियुक्त carrd.co नाम की वेबसाइट भी चला रहे हैं और इस वेबसाइट के माध्यम से विदेशी चंदा इकट्ठा कर रहे हैं. इनके पास से बरामद पोस्टर 'एम आई नॉट इंडियास डॉटर' सामाजिक वैमनस्यता बढ़ाने और जन विद्रोह भड़काने वाले हैं. वेबसाइट के कृत्यों से यूएपीए के सेक्शन 17 और 18 के अंतर्गत मामला बन रहा है. आईटी एक्ट की धारा 65, 72 और 75 में मामला बन रहा है."
कोर्ट में अब तक क्या हुआ?
कप्पन की हेबियस कॉर्पस याचिका पर 12 अक्तूबर को चीफ़ जस्टिस बोबडे, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमनियन की बेंच ने पहली सुनवाई की.
कप्पन के लिए केस लड़ रहे वकील कपिल सिबल ने कोर्ट को बताया था कि उनके मुवक्किल से परिवार को और वकील को नहीं मिलने दिया जा रहा.
उनकी मांग थी कि कोर्ट राज्य सरकार को नोटिस जारी करे और मथुरा ज़िला जज को जेल में मानवाधिकार उल्लंघन की जांच करने का निर्देश दे.
लेकिन कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस नहीं दिया और वकील सिबल को पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट जाने की सलाह दी. लेकिन सिबल के आग्रह पर कोर्ट ने चार हफ्ते बाद की तारीख़ दी.
16 नवंबर की सुनवाई के दिन कोर्ट ने कहा कि वो आर्टिकल 32 की याचिकाओं को बढ़ावा नहीं देना चाहता. हालांकि कोर्ट उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस भेजने के लिए राज़ी हो गया.
उसी नोटिस पर 20 नवंबर को उत्तर प्रदेश सरकार ने कोर्ट ने अपना जवाब दाखिल किया है. सरकार का कहना है कि पत्रकार की याचिका नहीं टिकती क्योंकि वह अपने वकीलों के संपर्क में हैं.
इसके अलावा सरकार ने कहा है कि कप्पन पीएफआई संस्था के सचिव हैं और हाथरस में कवरेज के लिए जा रहे थे जबकि जिस अख़बार में वह काम करने का दावा करते हैं, वो 2018 में बंद हो चुका है.
दूसरी ओर, बाकी तीन अभियुक्तों की हेबियस कॉर्पस याचिका पर सुनवाई इलाहाबाद हाई कोर्ट में चल रही है और अगली सुनवाई 14 दिसंबर को होगी.
लेकिन इसी बीच 11 नवंबर को पत्रकार अर्नब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिली है जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपनी टिप्पणी में कहा कि अगर हम एक संवैधानिक कोर्ट के तौर पर आज़ादी की सुरक्षा नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा.
इसके बाद पत्रकार कप्पन के केस की तुलना अर्नब के केस से की जाने लगी है क्योंकि अर्नब 4 नवंबर को गिरफ्तार हुए और 11 को उन्हें ज़मानत मिल गई. वहीं कप्पन 5 अक्तूबर से जेल में हैं.
अर्नब गोस्वामी और सिद्दक़ी कप्पन के केस में तुलना क्यों?
सबसे पहली बात तो दोनों ही केस 'पर्सनल लिबर्टी' यानी निजी आज़ादी के बारे में है. आर्टिकल 21 कहता है कि किसी भी व्यक्ति से उसकी ज़िंदगी या निजी आज़ादी नहीं छीनी जा सकती और सिर्फ़ कानून पालन की प्रक्रिया में ही ऐसा हो सकता है.
दोनों ही केस में कोर्ट के सामने सवाल था और है कि क्या अभियुक्त को हिरासत में रखना क़ानून के हिसाब से सही है.
दोनों ही केस में अभियुक्त पत्रकार हैं. कप्पन को जब गिरफ्तार किया गया तो वह रिपोर्टिंग के लिए जा रहे थे.
हालांकि अर्नब के केस में उन्हें एक पुराने मामले में गिरफ्तार किया गया था जिसका संबंध उनकी पत्रकारिता से नहीं था. लेकिन आरोप है कि महाराष्ट्र सरकार ने उनकी पत्रकारिता के जवाब में ऐसी कार्रवाई की.
कप्पन मामले में भी उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप है कि ये पत्रकारों पर दबाव बनाने की कोशिश का हिस्सा है. यानी मामला मीडिया की आज़ादी का भी है.
लेकिन ये दोनों मामले कई वजहों से अलग भी हैं.
क्यों हैं दोनों मामले अलग?
अर्नब गोस्वामी को 2018 के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था. उन पर आरोप है कि उन्होंने अन्वय नाइक को आत्महत्या के लिए उकसाया. अन्वय नाइक ने अपनी मौत से पहले एक ख़त में लिखा था कि अर्नब और अन्य दो लोगों ने उनके लाखों रूपयों का भुगतान नहीं किया.
अर्नब ने पहले हाई कोर्ट में हेबियस कॉर्पस याचिका दाखिल की थी. हेबियस कॉर्पस को आसान शब्दों में समझाया जाए तो अगर किसी व्यक्ति को ग़ैर-कानूनी तरीक़े से हिरासत में रखा गया है चाहे पुलिस की या किसी और अथॉरिटी की तो वह इसके ख़िलाफ़ कोर्ट में जा सकता है.
कोर्ट में पुलिस को या अथॉरिटी को हिरासत में रखने की वजह बतानी होगी और अगर कोई वाजिब और क़ानूनी वजह नहीं सामने आती है तो कोर्ट याचिकाकर्ता की रिहाई का आदेश देता है.
भारत में ऐसी याचिका सुनने का अधिकार सिर्फ़ हाई कोर्ट (आर्टिकल 226) और सुप्रीम कोर्ट (आर्टिकल 32) के पास है.
लेकिन अर्नब की हेबियस कॉर्पस याचिका बॉम्बे हाई कोर्ट ने ख़ारिज कर दी.
फिर उनके वकील हरीश साल्वे ने अंतरिम ज़मानत के लिए हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की. उसे भी कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया और कहा कि पहली नज़र में ऐसा केस नहीं दिख रहा कि कोर्ट आर्टिकल 226 के अंतर्गत अर्नब को ज़मानत दे और अर्नब सीआरपीसी के मुताबिक़ ही सेक्शन 439 के तहत ज़मानत के लिए सेशन कोर्ट जाएं.
ज़मानत याचिका ख़ारिज होते ही अर्नब ने 10 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट का रूख़ कर स्पेशल लीव पीटीशन दाखिल की और अगले ही दिन वहां से उन्हें ज़मानत मिल गई. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि हाई कोर्ट ने अर्नब को ज़मानत ना देकर ग़लती की है.
वहीं, कप्पन के केस में हाई कोर्ट का रूख नहीं किया गया है और सीधा सुप्रीम कोर्ट में हेबियस कॉर्पस याचिका दाखिल की गई है. ज़मानत याचिका में ये तर्क दिया जाता है कि किसी ट्रायल के लिए अभियुक्त को हिरासत या जेल में रखने की ज़रूरत क्यों नहीं है. वहीं, हेबियस कॉर्पस में तर्क दिया जाता है कि क्यों किसी की हिरासत ग़लत है और कानून के मुताबिक़ नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में ही अब कप्पन के लिए ज़मानत याचिका भी दाखिल कर दी गई है.
कप्पन पर मथुरा पुलिस ने यूएपीए के सेक्शन भी लगाए हैं. इसलिए भी मामला अर्नब के मामले से अलग हो जाता है. जब किसी पर राज्य सरकार यूएपीए कानून के तहत मामला दर्ज करती है तो इसकी जानकारी केंद्र को दी जाती है.
केंद्र को 15 दिन के अंदर रिपोर्ट बनानी होती है कि जिस अपराध में मामला दर्ज किया गया है क्या वो अपराध नैशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी एक्ट 2008 के अंतर्गत बनता है, अगर बनता है तो क्या उस पर राज्य सरकार मामला चलाएगी या एनआईए. लेकिन अब तक इस पर कोई जानकारी सामने नहीं आई है.
केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के लिए याचिका दायर करने वाले वकील विल मैथ्यूस ने बताया कि उन्होंने हाई कोर्ट जाने की बजाय सीधा सुप्रीम कोर्ट का रूख क्यों किया?
"हम पहले हाई कोर्ट में नहीं गए, उसके कुछ कारण हैं. पहला तो ये कि याचिकाकर्ता की मर्ज़ी है कि वह पहले कहां जाना चाहता है. हमें ये नहीं पता कि अभी हम कहां स्टैंड कर रहे हैं. डीके बसु बनाम स्टेट ऑफ़ वैस्ट बंगाल केस में सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन थी कि अगर किसी को हिरासत में लिया जाए तो उसे बताया जाए कि क्यों लिया जा रहा है, उसके परिवार में किसी को ख़बर दी जाए. लेकिन कप्पन के केस में पुलिस ने ऐसा नहीं किया. ये सिर्फ़ ज़मानत की बात नहीं है, कानूनी प्रक्रिया की बात है. ये केस मीडिया बनाम सरकार का भी है. कप्पन किसी निजी केस में नहीं पकड़े गए हैं, वह एक रिपोर्ट करने के लिए जाते हुए हिरासत में लिए गए हैं. तो ये मीडिया की आज़ादी की बात भी है. सुप्रीम कोर्ट को इस मामले पर जल्द फ़ैसला देना चाहिए."
लेकिन बाक़ी तीन अभियुक्त हेबियस कॉर्पस पिटिशन लेकर पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ही गए हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 18 नवंबर को राज्य सरकार, केंद्र सरकार और पुलिस अधिकारियों को नोटिस देकर जवाब मांगा है.
इस मामले में उनकी पैरवी कर रहे हैं सुप्रीम कोर्ट के वक़ील शाश्वत आनंद. वे बताते हैं कि इस मामले में पुलिस ने उनके मुवक्किल को ग़लत तरीके से हिरासत में लिया, गिरफ्तारी की जानकारी नहीं दी गई, एक्ज़ेक्यूटीव मजिस्ट्रेट ने अपने दायरे से बाहर जाकर हिरासत में भेजने का आदेश दे दिया और मुवक्किल से मिलने भी नहीं दिया जा रहा.
वे कहते हैं, "इसलिए ही अर्नब मामले से इस केस की तुलना की जा रही है क्योंकि वहां हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जिस तेज़ी से सुनवाई कर रहे थे, वो तेज़ी और ज़रूरत इस केस में नहीं दिखाई जा रही. हमें अगली तारीख 14 दिसंबर की दे दी गई है. तो क्यों कप्पन के केस के लिए वकील कपिल सिबल को हाई कोर्ट जाना चाहिए?"
सुप्रीम कोर्ट में इतनी जल्दी कैसे हुई अर्नब की ज़मानत याचिका पर सुनवाई?
कोई भी मामला सुप्रीम कोर्ट में एओआर (एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड) दाखिल करता है और उसके बाद मुक़दमा रजिस्ट्री विभाग में जाता है.
रजिस्ट्री विभाग को याचिका में कोई ग़लती नज़र आती है तो उसे ठीक करने के लिए वापस भेज देता है. ग़लती ठीक होने के बाद मामला सुनवाई के लिए लिस्ट हो जाता है.
कोर्ट में हेबियस कॉर्पस और ज़मानत की याचिकाओं को वरीयता दी जाती है. उसके बाद ऐसे केस जिसमें तुरंत दख़ल की ज़रूरत है और फिर बाक़ी मामले आते हैं.
अर्नब मामले में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को ख़त लिख कर सवाल पूछा था कि 'एक तरफ़ हज़ारों नागरिक जेल में लंबे वक्त से हैं और उनका मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में हफ्तों महीनों तक लिस्ट नहीं होता है.'
'ये चिंताजनक है कि अर्नब गोस्वामी का केस हर बार कोर्ट में इतनी जल्दी कैसे सुनवाई के लिए लिस्ट हो जाता है.'
लेकिन सुप्रीम कोर्ट में वक़ील बजिंदर सिंह कहते हैं कि जिस तरह से रजिस्ट्री ने अर्नब के मामले में पर्सनल लिबर्टी को लेकर तेज़ी दिखाई या काम किया, वैसा ही होना चाहिए. लेकिन समस्या ये है कि ऐसा अधिकतर मामलों में नहीं होता.
ऐसा ही एक मामला जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का भी था. आर्टिकल 370 हटने के बाद से ही उन्हें हिरासत में रखा गया था.
उनकी बेटी ने सुप्रीम कोर्ट में हेबियस कॉर्पस याचिका भी डाली लेकिन लंबे वक्त तक उस पर सुनवाई नहीं हुई.
आख़िरकार, जब एक साल बाद सरकार ने ही उन्हें रिहा कर दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने याचिका ये कहते हुए ख़ारिज कर दी कि इसे सुनने की ज़रूरत नहीं क्योंकि अब वे हिरासत में नहीं हैं.(bbc.com)
प्रभाकर मणि तिवारी
क्या चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर यानी पीके अगले साल होने वाले अहम विधानसभा चुनावों से पहले पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस का आशियाना बिखरने से रोक सकेंगे?
हाल के घटनाक्रम से अब राजनीतिक हलकों के साथ ख़ुद तृणमूल कांग्रेस के भीतर यही सवाल उठ रहे हैं.
बिहार के चुनावी परिदृश्य से हैरतअंगेज़ तरीक़े से नदारद रहने वाले पीके ने बीते साल लोकसभा चुनावों में बीजेपी से मिले करारे झटकों के बाद तृणमूल कांग्रेस की चुनावी रणनीति की कमान संभाली थी.
लेकिन पार्टी की जीत की हैट्रिक का जिम्मा संभालने वाले पीके ख़ुद तृणमूल के वरिष्ठ नेताओं के आंखों की किरकिरी और असंतोष की वजह बनते जा रहे हैं. कई विधायकों ने हाल में उनके ख़िलाफ़ सार्वजनिक तौर पर टिप्पणी की है.
पूर्व मेदिनीपुर के ताक़तवर नेता और राज्य के परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी लंबे समय से बग़ावत की राह पर चल रहे हैं. लेकिन पीके अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक उनको मनाने में नाकाम रहे हैं.
वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री पद के बीजेपी उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और उसके अगले साल बिहार में महागठबंधन के चुनाव अभियान को कामयाबी से संचालित कर पीके सुर्खियों में आए थे.
उसके बाद तो उनके लिए विभिन्न राजनीतिक दलों में होड़ मच गई थी. उस दौर में पीके का नाम ही जीत की गारंटी बन गया था.
लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बढ़ते मतभेदों और सीएए के मुद्दे पर प्रतिकूल टिप्पणी की वजह से उनको इस साल जनवरी में जद(यू) से निकाल दिया गया था.
वर्ष 2015 में पीके बिहार विधानसभा चुनावों में छाए हुए थे. लेकिन इस बार चुनावी परिदृश्य में कहीं नज़र ही नहीं आए.
अब नीतीश के शपथग्रहण के बाद अपने एक ट्वीट में पीके ने कहा है, "भाजपा मनोनीत मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने के लिए नीतीश कुमार को बधाई. मुख्यमंत्री के रूप में एक थके और राजनीतिक रूप से महत्वहीन हुए नेता के साथ बिहार को कुछ और सालों के लिए प्रभावहीन शासन के लिए तैयार रहना चाहिए."
यह चार महीनों में उनका पहला ट्वीट था.
भाजपा मनोनीत मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने पर @NitishKumar जी को बधाई।
— Prashant Kishor (@PrashantKishor) November 16, 2020
With a tired and politically belittled leader as CM, #Bihar should brace for few more years of lacklustre governance.
पीके से बढ़ती नाराज़गी
बीते साल लोकसभा चुनावों में बीजेपी से मिले ज़बरदस्त झटके के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे और सांसद अभिषेक बनर्जी पीके को तृणमूल के खेमे में ले आए थे.
प्रशांत किशोर की फर्म आई-पैक के हज़ारों कार्यकर्ता अगले विधानसभा चुनावों में तृणमूल की जीत की रणनीति पर काम कर रहे हैं.
लेकिन हाल में उनकी सलाह पर ममता ने जो फ़ैसले किए हैं वह पार्टी के कई नेताओं को काफ़ी नागवार गुज़रे हैं. ख़ासकर संगठनात्मक फेरबदल से कई पुराने नेता काफ़ी नाराज़ चल रहे हैं.
परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी की नाराज़गी के पीछे भी पीके एक प्रमुख वजह हैं. यही वजह है कि घर जाकर अधिकारी से मुलाक़ात के बावजूद पीके उनको मनाने में नाकाम रहे हैं.
इससे शुभेंदु के बीजेपी में शामिल होने या नई पार्टी बनाने के कयास लगातार तेज़ हो रहे हैं. शुभेंदु हाल में कैबिनेट की बैठक में भी नहीं पहुंचे.
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परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी
पूर्व मेदिनीपुर के तहत वह नंदीग्राम ही है जहां जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन ने ममता की पार्टी के सत्ता में पहुंचने की राह तैयार की थी. शुभेंदु, तृणमूल कांग्रेस से इतर अपने स्तर पर लगातार रैलियां और सभाएं आयोजित कर रहे हैं.
हाल में तृणमूल कांग्रेस के कई विधायकों और नेताओं ने पीके के मुद्दे पर सार्वजनिक तौर पर नाराज़गी जताई है. इन नेताओं का आरोप है कि पुराने चेहरों को दरकिनार कर नए लोगों को जगह दी जा रही है, उनमें से कइयों ने पिछले चुनाव में बीजेपी समर्थन किया था.
मुर्शिदाबाद जिले के हरिहरपाड़ा के तृणमूल कांग्रेस विधायक नियामत शेख़ ने तो रविवार को एक रैली में पीके पर सीधा हमला किया.
नियामत का कहना था, "पार्टी में तमाम परेशानियों की वजह प्रशांत किशोर हैं. शुभेंदु अधिकारी ने मुर्शिदाबाद में पार्टी को मज़बूत किया और अब उनसे बात करने वाले नेताओं पर कार्रवाई की जा रही है."
उनका सवाल है कि क्या हमें अब प्रशांत किशोर से राजनीति सीखनी होगी? वह कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में अगले चुनावों में अगर तृणमूल कांग्रेस को झटका लगता है तो इसके लिए सिर्फ पीके ही ज़िम्मेदार होंगे.
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विधायक नियामत शेख़
यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि बीते महीने मुर्शिदाबाद ज़िला मुख्यालय बरहमपुर टाउन में मूल तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के नाम से लगे पोस्टरों में पीके की टीम पर जबरन उगाही के आरोप लगाए गए थे.
हालांकि पार्टी के मुर्शिदाबाद जिला अध्यक्ष और सांसद अबू ताहिर खान टीम पीके के ख़िलाफ़ उगाही के आरोपों को निराधार बताते हुए दावा करते हैं कि कुछ विपक्षी नेताओं ने उक्त पोस्टर लगाए थे.
कूचबिहार के विधायक मिहिर गोस्वामी भी सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराज़गी का इज़हार कर चुके हैं.
गोस्वामी ने सोशल मीडिया पर अपने एक पोस्ट में सवाल उठाया है कि क्या तृणमूल कांग्रेस सचमुच ममता बनर्जी की पार्टी है. वो कहते हैं कि ऐसा लग रहा है कि इस पार्टी को किसी ठेकेदार के हाथ में सौंप दिया गया है.
मिहिर कहते हैं, "अब पार्टी पर ममता बनर्जी का कोई नियंत्रण नहीं है. तृणमूल कांग्रेस बदल गई है. आप या तो जी-हुज़ूरी करिये या फिर पार्टी छोड़ दीजिए."
गोस्वामी ने फिलहाल सक्रिय राजनीति से अलग रहने का ऐलान किया है.
इसी ज़िले में सिताई के विधायक जगदीश वर्मा बसुनिया कहते हैं, "तृणमूल कांग्रेस को अगर अगले चुनावों में जीतना है तो सबको अपना अहं छोड़ना होगा. पुराने नेताओं को पार्टी से निकालने की साज़िश चल रही है."
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विधायक मिहिर गोस्वामी
नाराज़गी की वजह
लेकिन अचानक पीके के ख़िलाफ़ पार्टी के नेताओं में बढ़ती नाराज़गी की वजह क्या है?
दरअसल, पीके की सलाह पर ममता बनर्जी ने बीती जुलाई में सांगठनिक फेरबदल शुरू किया था. इसमें राज्य समिति के अलावा जिला और ब्लॉक समितियों में भी बड़े पैमाने पर फेरबदल किए गए. इससे नेताओं में नाराज़गी बढ़ गई.
तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "टीम पीके ने तमाम जिलों के दौरे के बाद जो रिपोर्ट तैयार की थी उसी के आधार पर सांगठनिक बदलाव किए गए हैं. पीके की टीम ने असंतुष्ट नेताओं की भी एक सूची बनाई थी. इस फेरबदल का मकसद साफ-सुथरी छवि वाले नेताओं को सामने की कतार में लाना था."
प्रशांत किशोर से तो संपर्क नहीं हो सका. लेकिन टीम पीके के एक सदस्य नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "हम पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी और वरिष्ठ नेताओं की सलाह के आधार पर ही रणनीति तय कर रहे हैं. हमारा काम सुझाव देना है. उसे लागू करने या नहीं करने का फ़ैसला तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व पर है. इसलिए पार्टी में नाराज़गी के मुद्दे पर हमारे लिए कोई टिप्पणी करना संभव नहीं है."
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विधायक जगदीश वर्मा बसुनिया
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस में प्रशांत किशोर के बढ़ते क़द और प्रभाव की वजह से कई पुराने नेता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं.
बाग़ी तेवर अपनाने वाले परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी भी कई बार सांगठनिक मामलों में टीम पीके के हस्तक्षेप पर नाराज़गी जता चुके हैं.
टीम पीके की ओर से अधिकारी के गृह जिले पूर्व मेदिनीपुर जिले में आयोजित कई कार्यक्रमों में परिवहन मंत्री की ग़ैर-मौजूदगी ने प्रशांत किशोर से उनकी बढ़ती नाराज़गी के बारे में लगने वाले कयासों को मज़बूत किया है.
राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "तृणमूल कांग्रेस सीपीएम की तरह काडर-आधारित पार्टी नहीं है. पीके की टीम पार्टी ब्लॉक स्तर से प्रदेश स्तर तक में अनुशासन और पेशेवर रवैया कायम करने की दिशा में काम कर रही है. इससे कुछ नेताओं का असंतुष्ट होना स्वाभाविक है. लेकिन शीर्ष नेतृत्व का भरपूर समर्थन होने की वजह से इस नाराज़गी का पीके के कामकाज पर कोई ख़ास असर पड़ने की आशंका नहीं है."
लेकिन लंबे अरसे से बंगाल की राजनीति पर निगाह रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार श्यामलेंदु मित्र कहते हैं, "पीके की राह इस बार काफ़ी मुश्किल है. तृणमूल कांग्रेस के नेता और विधायक ममता बनर्जी को अपना नेता मानते हैं. लेकिन पीके की ओर से सांगठनिक मामलों में हस्तक्षेप से नाराज़गी बढ़ रही है. इससे लगता है कि पीके को यहां वैसी कामयाबी नहीं मिलेगी जिसके लिए वे मशहूर हैं." (bbc.com)
-Raju Sajwan
28 फरवरी 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के शहर बरेली में किसान रैली को संबोधित करते हुए कहा कि उनका सपना है कि जब देश साल 2022 में आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा हो तो किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाए।
इसके बाद कुछ विशेषज्ञों ने इसे अव्यवहारिक बताते हुए कहा था कि पांच साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए 14.86 फीसदी सालाना कृषि विकास दर की जरूरत पड़ेगी। लेकिन बाद में यह स्पष्ट किया गया कि सरकार किसानों की आमदनी का आधार वर्ष 2015-16 मानेगी और कृषि वर्ष 2022-23 में यह लक्ष्य हासिल किया जाएगा। जिसका मतलब था कि सरकार सात साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करेगी। नीति आयोग के सदस्य रमेश कुमार द्वारा मार्च 2017 में जारी पॉलिसी पेपर में आकलन किया गया कि सालाना विकास दर 14.86 फीसदी नहीं बल्कि 10.4 प्रतिशत की जरूरत पड़ेगी।
इस आधार पर देखा जाए तो अब दो साल 4 माह का समय बचा है। अब तक किसान की आमदनी कितनी बढ़ी है। इस बारे में सरकार के पास कोई जानकारी नहीं है।
15 सितंबर 2020 को लोकसभा में मारगनी भरत और रणजीत रेड्डी द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तौमर ने जानकारी दी कि किसानों की आय का आकलन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के द्वारा किया जाता है। इस संगठन ने पिछला अनुमान कृषि वर्ष 2012-13 तैयार किया था। नए अनुमान अभी उपलब्ध नहीं हुए हैं। हालांकि किसानों के कल्याण के लिए कार्यान्वित किए जा रहे विभिन्न गतिविधियां व योजनाओं के प्रभाव से यह संकेत मिलता है कि किसानों की आय दोगुनी करने संबंधी कार्यनीति सही दिशा में चल रही है। तौमर ने स्पष्ट तौर पर कहा कि ऐसी कोई भी आय मूल्यांकन रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है, जिससे किसानों की आय दोगुनी करने संबंधी लक्ष्य पर कोरोना वायरस से पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किया जा सके।
इसका मतलब है कि सरकार आय दोगुनी करने की बात तो कर रही है, लेकिन साल दर साल इस तरह का कोई आकलन नहीं किया जा रहा है, जिससे पता चल सके कि सरकार अपने लक्ष्य से कितनी दूर है। हालांकि कृषि मंत्री ने यह भी बताया कि एनएसओ वर्ष 2019-20 के लिए परिवारों का भूमि स्वामित्व और पशुधन का सर्वेक्षण व कृषि भू स्वामियों की स्थिति का मूल्यांकन कर रहा है। यानी कि एनएसओ की इस रिपोर्ट में ही पता चल पाएगा कि चार साल के दौरान किसानों की आमदनी में कितनी वृद्धि हुई।
सरकार का कहना है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कई स्तर पर काम चल रहा है। सरकार ने सभी संबंधित विभागों को इस काम में जुटने के निर्देश दिए थे। इसके मद्देनजर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने किसानों की आय दोगुना करने के लिए राज्य विशिष्ट कार्यनीति दस्तावेज तैयार किया और राज्य सरकारों को भेज दिया। लेकिन इस कार्यनीति को सही मायने में लागू करने के लिए आईसीएआर ने हर जिले में मॉडल के तौर पर दो गांवों के किसानों की आमदन दोगुनी करने का बीड़ा उठाया और हर जिले में कृषि विज्ञान केंद्र को यह जिम्मेवारी सौंपी गई कि वे दो गांव को गोद ले लें। तीन मार्च 2020 को संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत कृषि पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि तीस राज्यों व केंद्र शासित क्षेत्रों के 651 कृषि विज्ञान केंद्रों ने 1,416 गांवों को गोद ले लिया है। इन गांवों को "डबलिंग फार्मर्स इनकम विलेज " नाम दिया गया है।
इसके अलावा आईसीएआर से सबंद्ध अलग-अलग संस्थान भी कुछ मॉडल पर काम कर रहा है। जैसे कि इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ शुगर रिसर्च, लखनऊ ने पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल अपनाते हुए उत्तर प्रदेश के आठ गांव को गोद लिया है और यहां की 2028 किसान परिवारों की आमदनी दोगुनी करने का बीड़ा उठाया है।
डाउन टू अर्थ ने पांच राज्यों के कुछ गांवों की तफ्तीश की कि आखिर यह योजना किस स्तर पर चल रही है और किसानों की आमदनी कैसे बढ़ रही है। अगली कड़ियों में आप राज्यवार जानेंगे कि क्या 2022 तक इन गांवों के किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी, क्या ये गांव दूसरे गांवों के मिसाल बनेंगे। कल पढ़िए, डाउन टू अर्थ की तफ्तीश की पहली कड़ी- (downroearth)
- Lalit Maurya
रटगर्स यूनिवर्सिटी द्वारा किए नए शोध से पता चला है कि जिन शिशुओं को शुरुआती 2 वर्षों में एंटीबायोटिक्स दिया जाता है, उनमें कई अन्य बीमारियों जैसे अस्थमा, सांस संबंधी एलर्जी, सीलिएक, एक्जिमा, मोटापा और एकाग्रता में कमी जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है। साथ ही उनके इम्यून सिस्टम पर भी इसका बुरा असर पड़ता है।
मायो क्लीनिक और रटगर्स यूनिवर्सिटी द्वारा किया यह शोध जर्नल मायो क्लिनिक प्रोसीडिंग्स में छपा है। इस शोध में 2003 से 2011 के बीच जन्मे 14,572 बच्चों का अध्ययन किया है। जिनमें से करीब 70 फीसदी को जन्म के दो वर्षों के भीतर कम से कम एक एंटीबायोटिक दिया गया था। उनमें से ज्यादातर बच्चे मुख्य रूप से सांस या कान सम्बन्धी संक्रमण से ग्रस्त थे।
शोध के अनुसार हमारे शरीर में मौजूद माइक्रोबायोम की संरचना इस तरह होती है जो बचपन में इम्युनिटी, मेटाबोलिज्म और मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गौरतलब है कि माइक्रोबायोम हमारे शरीर में मौजूद वो खरबों सूक्ष्मजीव होते हैं जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से लाभदायक होते हैं।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता और रटगर्स के सेंटर फॉर एडवांटेड बायोटेक्नोलॉजी एंड मेडिसिन के निदेशक मार्टिन ब्लेसर ने बताया कि एंटीबायोटिक्स का ज्यादा उपयोग न चाहते हुए भी शरीर में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स बैक्टीरिया के विकास का कारण बन जाता है। बचपन में बीमारियों के ग्रस्त होने पर जब एंटीबायोटिक्स का प्रयोग किया जाता है तो वो बच्चों के इम्यून सिस्टम और मानसिक विकास पर असर डालता है। एंटीबायोटिक्स का प्रयोग शरीर में मौजूद माइक्रोबायोम पर असर डालता है, जो आगे चलकर कई अन्य समस्याओं का कारण बन जाता है।
जरुरी है एंटीबायोटिक्स के ज्यादा और अनावश्यक उपयोग से बचना
हालांकि इससे पहले भी कई शोधों में एंटीबायोटिक दवाओं और किसी रोग के बीच सम्बन्ध को देखा गया है। पर यह पहला मौका है जब किसी शोध में एंटीबायोटिक्स और कई बीमारियों के बीच के सम्बन्ध को देखा गया है। शोध के अनुसार एंटीबायोटिक्स मेटाबोलिज्म से जुड़ी बीमारियों (मोटापा, वजन का बढ़ना), इम्यून से जुड़ी बीमारियों (अस्थमा, फूड एलर्जी, हे फीवर और मानसिक विकार (जैसे एडीएचडी और ऑटिज्म) के खतरे को बढ़ा सकते हैं, हालांकि अलग-अलग एंटीबायोटिक का भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है। सेफालोस्पोरिन नामक एंटीबायोटिक कई बीमारियों के जोखिम को बढ़ा देता है, खासतौर पर इसके चलते फूड ऐलर्जी और ऑटिज्म का खतरा काफी बढ़ जाता है।
साथ ही शोधकर्ताओं के अनुसार बच्चों को जितनी कम उम्र में एंटीबायोटिक्स दवाएं दी जाती हैं उनमें उतना ही ज्यादा खतरा बढ़ता जाता है। विशेष रूप से जब जन्म के शुरुवाती 6 महीनों में बच्चों को एंटीबायोटिक्स किया जाता है, तो वो ज्यादा खतरनाक होता है। ऐसे में शोधकर्ताओं का मानना है कि डॉक्टर्स को एंटीबायोटिक्स के ज्यादा और अनावश्यक प्रयोग से बचना चाहिए, जब तक जरुरी न हो इनका प्रयोग बच्चों पर नहीं किया जाना चाहिए। (downtoearth)
- Dayanidhi
कोरोना जैसी कई बीमारियां जानवरों से लोगों में फैली है, जिसके कई गंभीर परिणाम सामने आए हैं। एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल का कहना है कि पशुओं में पाए जाने वाले इन वायरसों को फैलने से रोकने के लिए जब तक तत्काल कार्रवाई नहीं की जाए, तब तक और अधिक महामारियों के फैलने के आसार हैं। शोधकर्ताओं ने चेतावनी देते हुए कहा कि भविष्य में होने वाली महामारियों से बचाव करना और भी कठिन हो सकता है। इसलिए अभी से पर्याप्त कदम उठाने आवश्यक है, इसमें सरकारों से वन्यजीवों के व्यापार, लोगों से वन्यजीवों के आवासों की सुरक्षा, वन्यजीवों और घरेलू पशुओं के बीच संपर्क को कम करने जैसे प्रभावी कानूनों को लागू करना शामिल है।
रोग फैलाने वाले (पैथोजन) से होने वाली संक्रामक बीमारी किसी एक जीवाणु, वायरस या परजीवी से होती है, जो जानवरों से लोगों में फैलता है इसे "ज़ूनोसिस" के रूप में जाना जाता है। वन्यजीव या पशुओं से उत्पन्न रोगों ने पिछले तीस वर्षों में अधिकतर लोगों के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया है। ऐसी बीमारियों में इबोला, एड्स और सार्स शामिल हैं। कोविड-19 इन जूनोटिक रोगों में से एक है और वर्तमान में फैली एक ऐसी महामारी है जिसके कारण दुनिया भर में करोड़ों मौतें हुई हैं।
इस तरह के प्रकोप के फैलने के दो मुख्य कारण है जिसमें वन्यजीव व्यापार और प्राकृतिक आवास का तोड़ा जाना शामिल है, दोनों ही मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच सीधे संपर्क को बढ़ाते हैं। इसके अलावा बढ़ती मानव आबादी, उनकी बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक आवासों में रहने, उनका उपयोग करने की मंजूरी दी जा रही है, जो पशुओं और लोगों में जूनोटिक रोग फैलाने वाले जंगली जानवरों के साथ निकट संपर्क को बढ़ावा दे रहा है। इन दो कारणों के बारे में गहन विचार करने से भविष्य में होने वाली बीमारियों को रोकने में मदद मिल सकती है। यह अध्ययन इकोलॉजी एंड ऐवोलुशन पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
यह स्वीकार करते हुए कि कोविड-19 बाजार में बिक रहे वन्यजीवों से फैला हो सकता है। चीन, वियतनाम और कोरिया की सरकारों ने प्रकोप के बाद से वन्यजीव व्यापार को नियंत्रित करने के लिए नियमों में कुछ बदलाव किए हैं, जिससे वन्यजीवों से फैलने वाली बीमारियों पर रोक लगने के साथ-साथ इनके संरक्षण को भी मदद मिलेगी। वन्यजीव व्यापार के नियमों में दुनिया भर में बदलाव किए जाने की आवश्यकता है।
हालांकि अध्ययनकर्ता वन्यजीव बाजारों पर अचानक पूरी तरह प्रतिबंध लगाने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि इससे वंचित, प्रवासी और ग्रामीण आबादी पर असमान रूप से बुरा प्रभाव पड़ेगा जो कि अपने निर्वाह के लिए ऐसे बाजारों पर निर्भर करते हैं। क्या उपाय किए जाए इन पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय समुदायों के साथ काम करने वाली सरकारों का शामिल होना, उचित प्रतिबंधों से पहले निर्वाह के वैकल्पिक साधनों को बनाने और बनाए रखने के लिए-विशेष रूप से जीवित जानवरों और खाने में उपयोग नहीं किए जाने वाले वन्यजीव उत्पादों पर विचार किया जाना चाहिए।
जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ गोटिंगन, वन्यजीव विज्ञान विभाग के डॉ. तृष्णा दत्ता कहती है कि दुनिया भर में कोरोनावायरस महामारी ने रोग प्रबंधन करने में काफी ऊर्जा लगी है, कुछ हद तक देशों ने इस पर काबू भी पाया है। लेकिन भविष्य में होने वाले प्रकोप को रोकने के लिए, यह कैसा रूप लेगा, इसके लिए तैयारी करने की आवश्यकता है। साथ ही प्राकृतिक दुनिया के साथ लोगों के रिश्ते में भी बदलाव लाने की आवश्यकता है। (downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के संस्मरण ‘ए प्रोमिज्ड लेंड’ नामक पुस्तक में भारत संस्मरण प्रकाशित हुए हैं। इस पुस्तक के पहले भाग में उन्होंने अपनी 2010 की पहली भारत-यात्रा का वर्णन किया है। उसके दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल से हुई उनकी भेंट का भी विवरण है। उसे लेकर भारत के पक्ष-विपक्ष में काफी नोक-झोंक हो रही है।
यह नोक-झोंक उस वक्त हो रही है, जबकि कांग्रेस पार्टी बिहार, म.प्र., उ.प्र., गुजरात आदि प्रांतों में बुरी तरह से हार गई हैं। राहुल गांधी को पसंद करते हुए भी ओबामा ने उन्हें आत्मविश्वासरहित उथला-सा नौजवान बताया है। इसे लेकर राहुल पर आक्रमण करने की जरूरत क्या है ? यह तो राहुल पर बड़ी तात्कालिक, नरम और तटस्थ टिप्पणी है।
भारत के लोग यह कई बार बता चुके हैं कि वे राहुल के बारे में क्या सोचते हैं लेकिन कांग्रेसी लोग सार्वजनिक तौर पर या तो चुप रहते हैं या फिर राहुल के कसीदे काढ़ते हैं। यह उनकी मजबूरी है। ओबामा की इस टिप्पणी को लेकर उनकी आलोचना करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन्हें जो ठीक लगा, सो उन्होंने लिख दिया। यदि वे कांग्रेस-विरोधी और मोदीभक्त होते तो क्या उसी प्रसंग में वे डॉ. मनमोहनसिंह और सोनिया गांधी की इतनी ज्यादा तारीफ करते ?
उनकी टिप्पणियों से यह अंदाज जरूर लगता है कि ओबामा खुले दिल के आदमी हैं। 1999 में वे जब शिकागो से सीनेटर थे, उनसे मेरी मुलाकात अचानक हो गई। मैं एक भारतीय मूल के मित्र से मिलने गया तो उन्होंने उनके पास बैठे एक अश्वेत व्यक्ति से मिलवाया था और वह सज्जन मेरे साथ 5-10 मिनिट बैठे रहे। कई वर्ष बाद 2008 में मुझे मेरे मित्र ने बताया कि वे बराक ओबामा ही थे, जो हिलैरी के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं।
बराक ओबामा की सज्जनता के कई किस्से अमेरिका में मशहूर हैं। यह पूछा जा रहा है कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखा? हो सकता है कि वे अपनी पुस्तक के दूसरे खंड में लिखें और कुछ ऐसा लिख दें कि उसे लेकर कांग्रेसी लोग भाजपा पर टूट पड़ें। यदि डोनाल्ड ट्रंप आपबीती लिख मारें तो वह दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब बन सकती है। ओबामा ने अपनी संस्मरणों में अन्य कई देशों के नेताओं पर भी टिप्पणी की है। इन टिप्पणियों के कारण उनकी किताब कई देशों में बहुत बिकेगी।
ओबामा की तुलना यदि हम अमेरिका के अन्य राष्ट्रपतियों-रिचर्ड निक्सन, रोनाल्ड रेगन, जर्ॉ बुश, जिमी कार्टर आदि से करें और उनके गोपनीय दस्तावेज देखे तो हम दंग रह जाएंगे। उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्रियों के बारे में इतनी फूहड़ और आपत्तिजनक टिप्पणियां की हैं कि उनका उल्लेख करना भी उचित नहीं लगता।
यदि भारत के प्रधानमंत्री लोग भी ओबामा की तरह अपने संस्मरण लिखते तो उन पर जमकर बहस चल सकती थी लेकिन ज्यादातर प्रधानमंत्री अपने पद से हटने के बाद देवगौड़ा या मनमोहनसिंह की तरह ज्यादा जिये नहीं। हमारे कुछ पूर्व राष्ट्रपतियों ने जरूर अपने संस्मरण लिखे हैं, जो कि पठनीय हैं लेकिन उनमें वह वजन नहीं है, जो किसी प्रधानमंत्री के संस्मरण में होता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-शंकर शरण
अभी एक साक्षात्कार में वरिष्ठ लेखक-पत्रकार अरुण शौरी ने कहा कि मीडिया का ध्यान एक बड़े परिवर्तन पर नहीं गया है। यह है भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) में आया बदलाव। शौरी का संघ-भाजपा से लंबे समय तक निकट संबंध रहा। उन्हें एक बार आर.एस.एस. ने अपना सर्वोच्च सम्मान भी दिया था। वैसे भी, शौरी तथ्य लेखन के लिए जाने जाते रहे हैं। इसलिए उन की बातें ध्यातव्य हैं।
शौरी ने कहा कि कि पहले भाजपा में आर.एस.एस. के कुछ लोग भेजे जाते थे। तब भाजपा के पास अपने कार्यकर्ता होते थे। लेकिन अब भाजपा के पास अपने कैडर नहीं हैं। वह कोई पार्टी नहीं रह गई है। केवल ऊपर नेताओं का एक फेन या झाग (‘फ्रॉथ’) है, जिसे दिखाकर वोट लिया जाता है। वे चाहे नाटक, तमाशे कर या किसी चतुराई से चुनाव जीतते हैं। बाकी नीचे लोग उन के आसरे रहते हैं। मंत्री जैसे लोग भी, जिन्हें अब कुछ बोलने का अवसर नहीं है।
इस बीच, उन ऊपरी नेताओं के लिए पूरे देश में कैडर का काम आर.एस.एस. के लोग कर रहे हैं। वे आर.एस.एस. के सरसंघचालक के हाथ में नहीं रह गए। शौरी के अनुसार, “मोहन भागवत बड़े भले आदमी हैं। मगर अब उन के हाथ-पैर नहीं हैं। यदि भाजपा सत्ताधारी ने कह दिया कि एक हजार आर.एस.एस. कार्यकर्ता बिहार भेजने हैं, तो वे भेजे जाएंगे। चाहे भागवत जी चाहें या न चाहें।” इस प्रकार, आर.एस.एस. पूरी तरह भाजपा की सेना बन गई है।
यह अनायास नहीं हुआ। शौरी 1980 के दशक का एक प्रसंग सुनाते हैं, जब वे अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे। एक बार तात्कालीन आर.एस.एस. सरसंघचालक बालासाहब देवरस के छोटे भाई, और प्रमुख संघ नेता भाऊराव जी देवरस ने उन्हें दिल्ली के झंडेवालान मिलने बुलाया। शौरी गए तो देखा कि एक छोटी सी कोठरी में भाऊराव रहते हैं, जिस में एक चारपाई और एक कुर्सी है। एक आदमी उन की सेवा के लिए है। बातचीत से शौरी चकित हुए कि भाऊराव जी की दृष्टि कितनी पैनी थी, उन्हें शौरी के लेखन के नुक्तों की गहरी समझ थी। वापस आकर उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका को बताया कि उतना प्रखर और बड़ा व्यक्ति कैसा साधु सा रहता है! किन्तु गोयनका पर कुछ असर नहीं हुआ। वे बोले, कि ‘अरे, उन लोगों को अभी तक कुछ मिला ही नहीं, इसलिए साधु बने फिर रहे हैं! एक बार सत्ता-सुन्दरी मिलने दो, फिर देखना उन की साधुता या भोग-विलास।”
शौरी के अनुसार, आर.एस.एस. के आम नेता गोयनका के इस टेस्ट में फेल हुए हैं। भाजपा सत्ताधारियों ने आर.एस.एस. के मँझोले, निचले नेताओं को अपना आदमी बना लिया है। इस से इन की पूछ बढ़ गई है। जिन्हें कोई पहचानता तक न था, उन्हें लेने के लिए गाड़ी आती है, बढ़िया गेस्ट-हाउस रहता है, एयरपोर्ट पर लोगों को किनारे हटा कर उन के लिए रास्ता खाली कराया जाता है। बेचारों को यह महत्व कब मिला था! लिहाजा वे भाजपा चुनाव-मशीनरी के पुर्जों में बदल गए हैं। ऊपर के चार-पाँच आर.एस.एस. नेता संस्कृति, हिन्दुत्व, आदि पर भाषण देते रहते हैं। जबकि उन के राज्य और जिले स्तर के लोग अब सीधे भाजपा सत्ताधारियों के कब्जे में हैं, और खुश हैं। संघ के ऊपरी नेता यह पसंद करें या नहीं, अब बेबस हैं।
भाजपा-आर.एस.एस में आया यह परिवर्तन विचारणीय है। यह केवल शौरी का अवलोकन नहीं। कुछ पुराने संघ-भाजपा नेता भी मानते हैं कि बहुत कुछ बदल गया है। पुराने, प्रतिष्ठित आर.एस.एस. कार्यकर्ताओं की स्थिति चुपचाप सब स्वीकारने या किनारे पड़े रहने की है। भाजपा मशीनरी शहर के किसी भी व्यक्ति को कार्यकारी बना कर चुनावी काम करवाती है। वह व्यक्ति आर.एस.एस. से बाहर का व्यापारी, चालबाज, कारकुन, आदि कोई भी हो सकता है। मुख्य.काम है – चुनाव जीतना। ताकि आगे फिर चुनाव जीता जा सके। यह अपने आप में संपूर्ण गतिविधि हो गई है। सत्ता ने भाजपा को खोखला कर दिया है। उस में अब कोई नया विचार, समाधान, आदि देने की क्षमता नहीं है। भाजपा मानो एक रोजगार-एजेंसी भर है, जिस में किसी तरह ऊपर का ध्यान आकृष्ट कर, ठकुरसुहाती करके कोई पद, सुविधा, आदि पाई जाती है।
यह दयनीय दृश्य है। बड़े-बड़े पदों पर लोग काम के लिए नहीं, बल्कि ऊपर की कृपा बनाए रखने के लिए हैं। ऐसे में हमारी राष्ट्रीय स्थिति शोचनीय हो सकती है। क्योंकि ऐसे लोगों में कोई रीढ़ या विवेक होने की संभावना संयोग भर है। यद्यपि वे गंभीर जिम्मेदार पदों पर हैं। इस पर हम जैसों की आलोचना का कोई महत्व नहीं। किन्तु चीन जैसी ताकतें पूरे हालात को गौर से देख रही होंगी, कि ऐसे कार्यकारी लोग उन का दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकता। कोई संकट झेल नहीं सकता। क्योंकि कार्यकारी बड़े औसत किस्म के हैं, जिन की स्थितियाँ योग्यता और सामर्थ्य से नहीं बनी है। वे तो केवल ऊपर का मुँह जोहते हैं। जो अपने नेता से साफ-साफ कुछ बोलने तक का साहस नहीं रखते।
यदि शौरी की बातों में आधा भी सही हो, तो चिन्ता का विषय है। चुनाव जीतना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। असल चीज है कि देश का क्या हो रहा है? ब्राजील और तुर्की जैसे समृद्ध देशों के उदाहरण से शौरी कहते हैं कि वहाँ नेता चुनाव जीतते गए हैं, पर अपने देश को कहाँ पहुँचा दिया! तुर्की पूरे मुस्लिम विश्व में इस्लाम की जकड़ से निकल कर विकसित होने का उदाहरण बन सकता था। यही कमाल पाशा की महान विरासत थी। उसे एरदोगान ने तहस-नहस कर दिया। भारत में भी भाजपा के चुनाव जीतते जाने के हजार कारण बताए जा सकते हैं। जिस में विपक्ष की दुर्गति और राष्ट्रीय संस्थाओं का पतन भी कारण हो सकते हैं। यदि संस्थाएं बिगाड़ी जाती रहें, जो इंदिरा गाँधी के समय से शुरू होकर लगातार चल रहा है, तो लोग किस के पास जाएंगे? कानून सत्ताधारियों को लाभ पहुँचाने के लिए बनाए जाते हैं। जैसे, हाल के चुनावी बाँड कानून के कारण बड़े उद्योगपति सत्ताधारी दल को ही चंदा देंगे, जिस का हिसाब भी दल को नहीं देना है। इस का मुकाबला विपक्षी दल कैसे कर सकते हैं? फिर उन में स्वार्थ, आपसी ईर्ष्या, आदि से वे थोड़े समय के लिए भी एकताबद्ध नहीं हो पाते। अतः भाजपा का चुनाव जीतना अपने-आप में कोई अनोखी बात नहीं।
कई लोग अरुण शौरी की आलोचना को ‘अंगूर खट्टे हैं’ जैसा लेते हैं। किन्तु उन आलोचनाओं को स्वतंत्र रूप से परखा जा सकता है, इसलिए परखा जाना चाहिए। क्योंकि वही बात कोई दूसरा अवलोकनकर्ता, कोई तटस्थ लेखक कहे, तो क्या उत्तर दिया जाएगा? सदैव आलोचक का चरित्र-हनन करना कोई उत्तर नहीं है। यह तो उलटे आलोचना के सही होने का संकेत हो जाता है। चूँकि देश और समाज किसी पार्टी या संगठन से बहुत ऊँचा है। उस के भवितव्य को किसी पूर्वाग्रह से उपेक्षित करना अनुचित है। फिर, देश-सेवा के दावे को किसी कसौटी से क्यों बचना चाहिए?
स्वयं शौरी को अपने बारे में अधिक मुगालता नहीं है। वे कहते हैं, “हम जैसे लिखने-पढ़ने, टीका-टिप्पणी करने वाले तो कीट-पतंग हैं, जिन की तकलीफ बेमानी है। किन्तु हमारे द्वारा दिखाए तथ्यों की उपेक्षा करने वाले ही कष्ट भोगेंगे। साथ ही, देश की और आम लोगों की हानि होगी । चिन्ता उसी की करनी चाहिए।” निस्संदेह। विचारशील लोगों को सारी बात पर शान्ति से अवश्य सोचना चाहिए। (nayaindia.com)
'वॉकर' ने भारत में अब तक दर्ज 'एक बाघ द्वारा सबसे लंबी पैदल-यात्रा' पूरी कर ली है. अब इस बाघ ने महाराष्ट्र के ज्ञानगंगा अभयारण्य को अपना घर बना लिया है.
वॉकर को वन्य-जीव अधिकारियों ने यह नाम दिया है.
साढ़े तीन साल के इस नर बाघ ने पिछले साल जून में महाराष्ट्र के एक वन्य-जीव अभयारण्य में अपना घर छोड़ दिया था.
वह संभवतः शिकार, अपने लिए अलग इलाक़े या एक साथी की तलाश में था.
जिस रेडियो कॉलर के सहारे उसे ट्रैक किया जा रहा था, उसे अप्रैल में हटा दिया गया था.
बाघ की यात्रा को दिखलाता नक्शा
मिल गया ठिकाना
205 वर्ग किलोमीटर में फैले ज्ञानगंगा अभयारण्य में तेंदुए, नीलगाय, जंगली सूअर, मोर और हिरण रहते हैं.
वन्यजीव अधिकारियों का कहना है कि वॉकर वहाँ रहने वाला एकमात्र बाघ है.
महाराष्ट्र के वरिष्ठ वन अधिकारी नितिन काकोडकर ने बीबीसी को बताया, "अब उसे 'टैरेटरी' (सीमा) की चिंता नहीं है और यहाँ शिकार भी पर्याप्त हैं."
अब वन्यजीव अधिकारी इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या उन्हें वॉकर को संभोग साथी देने के लिए एक मादा बाघ को अभयारण्य में ले जाना चाहिए या नहीं.
बाघ अकेले रहने वाला जीव नहीं है. इसलिए उसे साथी की ज़रूरत तो है, लेकिन अभयारण्य में एक दूसरे बाघ को ले जाना, एक आसान निर्णय नहीं है.
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बाघ उसे पसंद था, उसी ने ले ली जान
काकोडकर कहते है, "ज्ञानगंगा कोई बड़ा अभयारण्य नहीं है. इसके चारों ओर खेती होती है. इसके अलावा, अगर वॉकर यहाँ प्रजनन करता है, तो बाक़ी जानवरों पर दबाव बढ़ेगा."
भारत में बाघ के 'दुनिया में कुल हैबिटेट' का सिर्फ़ 25% हिस्सा है लेकिन दुनिया के 70 फ़ीसदी यानी क़रीब 3,000 बाघ यहीं रहते हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन उनके आवास सिकुड़ गए हैं और उन्हें अपना पेट भरने के लिए हमेशा शिकार भी नहीं मिल पाता.
जानकार बताते हैं कि हर बाघ को "फ़ूड बैंक" सुनिश्चित करने के लिए, अपने क्षेत्र में 500 जानवरों की आवश्यकता होती है.
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रेडियो कॉलर से ट्रैकिंग
वॉकर को पिछले साल फ़रवरी में एक रेडियो कॉलर लगाया गया था.
उसने अपने लिए सही स्थान खोजने के लिए मॉनसून की बारिश शुरू होने तक जंगलों में घूमना जारी रखा.
वन्यजीव अधिकारियों का कहना है कि "वॉकर ने ये 3000 किलोमीटर की यात्रा सीधे नहीं की. हर घंटे जीपीएस के सहारे उसकी लोकेशन दर्ज की जाती थी. इस दौरान वॉकर की लोकेशन 5,000 से अधिक स्थानों में दर्ज की गई."
वॉकर अधिकांश हिस्से में नदी, नालों और राजमार्गों के साथ-साथ खेतों में, कभी आगे-कभी पीछे यात्रा करते हुए ट्रैक किया गया.
बाघ और बकरी की यारी कैसे हो जाती है? (bbc.com)
सेलम 11 साल की उम्र में अपने गांव से भागी थी क्योंकि बड़ी उम्र के एक आदमी से उसकी शादी हो रही थी. तब उसने सोचा था कि वह आजाद हो गई है. लेकिन बेहतर भविष्य की उसकी उम्मीदें जल्द ही टूट गईं.
सेलम (बदला हुआ नाम) ने पिछले तीन साल अफ्रीकी देश इथियोपिया के उत्तरी शहर गोंडर में देह व्यापार में बिताए हैं. अधिकारियों और साामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस शहर में सैकड़ों लड़कियां इस धंधे में पिस रही हैं और कोरोना महामारी के चलते उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है.
सेलम ने 11 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया था. इसलिए वह अपने घर लौटने की स्थिति में नहीं थी. सेलम कहती है कि उसे देह व्यापार से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखा. इथियोपिया में देह व्यापार की अनुमति है इसलिए बड़े हिस्से में यह काम धड़ल्ले से होता है. कम उम्र लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध बनाना दंडनीय अपराध है. लेकिन उम्र तय करना हमेशा मुश्किल होता है.
अब 14 साल की हो चुकी सेलम ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "ये काम गंदा है, लेकिन अगर ये करना छोड़ दूंगी तो फिर क्या खाऊंगी." सेलम अभी अपनी एक पड़ोसन के घर पर आराम कर रही है, जो व्यस्क है और वह भी सेक्स वर्कर है. सेलम कहती है, "मैं इससे बाहर निकलना चाहती हूं, लेकिन बाहर निकलकर करूंगी क्या."
12. इंडोनेशिया: 2.25 अरब डॉलर
इंडोनेशिया में देह व्यापार गैरकानूनी है. इसे नैतिक अपराध माना जाता है. लेकिन इसके बावजूद मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया में देह व्यापार काफी फैला हुआ और संगठित है. यूनिसेफ के मुताबिक इंडोनेशिया में देह व्यापार से जुड़ी 30 फीसदी युवतियां नाबालिग है.
महामारी का चंगुल
जिन दर्जन भर सेक्स वर्कर्स से बात की गई, उनमें से पांच नाबालिग थीं. कार्यकर्ता और अधिकारी अमहारा इलाके में बच्चों के यौन शोषण को रोकने के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन उनके सामने कई बाधाएं हैं जिनमें कोरोना महामारी भी शामिल है.
महिला, बाल और युवा मंत्रालय में बाल अधिकार विभाग के निदेशक किबरी हैलु अबे का कहना है कि सरकार स्थानीय अधिकारियों की मदद कर रही है. वह कहते हैं, "बच्चों की सुरक्षा के लिए कई अहम कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं." उनके मुताबिक 10 वर्षीय कार्यक्रम के तहत बड़ी संख्या में सामाजिक कार्यकर्ताओं को नियुक्त किया जाएगा, हॉटलाइन बनाई जाएगी और यौन अपराधियों का रजिस्टर बनाया जाएगा.
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि गांवों में कुछ परिवार अपनी लड़कियों को शहरों में नौकरियां करने भेजते हैं, जहां उनके लिए देह व्यापार ही पैसा कमाने का अकेला जरिया बचता है. कई लड़कियां तस्करों को पैसे देकर बेहतर जिंदगी की तलाश में सऊदी अरब या यूरोप जाना चाहती हैं.
गोंडर में फैमिली गाइडेंस एसोसिएशन ऑफ इथियोपिया नाम की संस्था की तरफ से चलाने जाने वाले एक क्लीनिक के प्रमुख गेटाशियू फेंटाहुन कहते हैं, "उनके पास जीवित रहने का बस यही जरिया है." यह संस्था गरीब लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराती है.
गेटाशियू कहते हैं कि वेटर और घरों में नौकरानी का काम करने वाली बहुत सी लड़कियां कोरोना महामारी के कारण बेरोजगार हुई हैं. वे खाली हाथ वापस अपने गांव जाने की बजाय देह व्यापार में ही लौट रही हैं. महामारी ने दुनिया भर में बहुत से परिवारों को गरीबी में धकेला है. ऐसे में, संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि खास तौर से बच्चों पर बाल श्रम और समय से पहले उनकी शादी करने का जोखिम मंडरा रहा है.
विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि 2021 के अंत तक कोविड-19 की वजह से 15 करोड़ लोग बेहद गरीबी में जा सकते हैं. इसके चलते पिछले तीन साल में गरीबी को खत्म करने के लिए जितनी प्रगति हुई है, उस पर पानी फिर सकता है.
इन देशों में कानूनी है देह व्यापार
नीदरलैंड्स और बेल्जियम
देह व्यापार में एम्सटर्डम का रेड लाइट एरिया शायद दुनिया का सबसे मशहूर हिस्सा है. अन्य देशों से विपरीत, जहां लोग छिप छिपा कर रेड लाइट एरिया में जाते हैं, एम्सटर्डम में टूरिस्ट खास तौर से इस इलाके को देखने पहुंचते हैं. बेल्जियम में भी देह व्यापार कानूनी है.
गोंडर और उसके पास मामेताम शहर में सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि नाबालिग लड़कियों के देह व्यापार को रोकना इतना आसान नहीं है क्योंकि लड़कियां अपनी उम्र के बारे में झूठ बोलती हैं. उन्हें अधिकारियों पर भरोसा नहीं है. इसलिए वे मदद मांगने से भी डरती हैं.
गोंडर में तैनात एक पुलिस कमांडर अलमाज लाकेयू कहते हैं कि देह व्यापार में लगी लड़कियां इसलिए पुलिस से छिपती हैं क्योंकि उन्होंने डर है कि कहीं उन्हें वापस उनके गांव ना भेज दिया जाए. वह कहते हैं, "इस तरह हमारे लिए उनकी मदद करना बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है."
ईसाई बहुल आबादी वाले गेंडर में बहुत सी सेक्स वर्कर रात के समय बार और रेस्त्रां में मिलती हैं. वे खुद को वहां काम करने वाली वेट्रेस के तौर पर पेश करती हैं. लेकिन उनका असल काम अपने ग्राहक तलाशना होता है. रेस्त्रां और बार के मालिकों को भी उनकी कमाई से कमीशन मिलता है.
दूसरी तरफ, बहुत से सेक्स वर्कर गली के कोने पर खड़ी होकर ग्राहकों का इंतजार करती हैं. उन्हें एक बार किसी के साथ सोने के 100 बिर यानी (लगभग 200 रुपये से भी कम) मिलते हैं. जिन लड़कियों और महिलाओं को कोई ग्राहक नहीं मिलता, उन्हें अकसर खुले में ही रात गुजारनी पड़ती है.
कई सेक्स वर्कर्स का कहना है कि उनकी परवाह ना तो समाज करता है और ना ही अधिकारी. 19 साल की मेकदेस कहती है, "लोग हमें कूड़े की तरह देखते हैं. कुछ लोग हमारी मजबूरी और परेशानियों को समझते हैं जबकि बाकी लोग समझते हैं कि हम किसी काम की नहीं हैं."
एके/ओएसजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट
पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में वर्षों से शरणार्थी शिविरों में रहने वाले करीब 32 हजार ब्रू शरणार्थियों को त्रिपुरा में स्थायी तौर पर बसाने की सरकारी योजना का भारी विरोध शुरू हो गया है.
कुछ संगठनों की अपील पर कंचनपुर सबडिवीजन में सोमवार से ही बेमियादी हड़ताल चल रही है. पड़ोसी मिजोरम में हिंसा के बाद ब्रू समुदाय के हजारों लोग लंबे अरसे से त्रिपुरा के कंचनपुर इलाके में रह रहे हैं. केंद्र ने इस साल जनवरी में इन शरणार्थियों को स्थायी तौर पर बसाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और छह सौ करोड़ के पुनर्वास पैकेज का एलान किया था.
ब्रू समस्या
ब्रू जनजाति का विवाद दशकों पुराना है. दरअसल, इस समुदाय के लोग पड़ोसी मिजोरम के रहने वाले हैं. ज्यादातर ब्रू परिवार मामित और कोलासिब जिले में रहते हैं. ब्रू-रियांग और बहुसंख्यक मिजो समुदाय के बीच 1996 में हुआ सांप्रदायिक दंगा इनके पलायन का कारण बना था. मिजोरम में हिंसक झड़पों के बाद ब्रू जनजाति के हजारों लोग भाग कर पड़ोसी राज्य त्रिपुरा के शरणार्थी शिविरों में चले गए थे.
इस तनाव ने ब्रू नेशनल लिबरेशन फ्रंट (बीएनएलएफ) और राजनीतिक संगठन ब्रू नेशनल यूनियन (बीएनयू) को जन्म दिया, इन दोनों संगठनों ने राज्य के चकमा समुदाय की तरह एक स्वायत्त जिले की मांग की. इस मुद्दे पर विवाद वर्ष 1995 में उस समय शुरू हुआ जब मिजोरम के ताकतवर संगठनों यंग मिजो एसोसिएशन और मिजो स्टूडेंट्स एसोसिएशन ने ब्रू समुदाय के लोगों की चुनावों में भागीदारी का विरोध किया. इन संगठनों का कहना था कि ब्रू समुदाय के लोग मिजोरम के मूल निवासी नहीं हैं.
केंद्र और राज्य सरकारें त्रिपुरा के राहत शिविरों में रहने वाले ब्रू शरणार्थियों की मिजोरम वापसी के लिए लंबे समय से प्रयास कर रही थी. लेकिन सरकार की ओर से सुरक्षा और रोजगार के तमाम आश्वासनों के बावजूद बीते साल अक्टूबर 2019 में 51 लोग मिजोरम लौटे. लेकिन ज्यादातर लोग मिजोरम लौटने को तैयार नहीं हैं जबकि सरकार की ओर से शरणार्थी शिविरों में मुफ्त राशन-पानी का इंतजाम किया गया था.
समझौता
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और ब्रू शरणार्थियों के प्रतिनिधियों ने इस साल जनवरी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब और मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा की मौजूदगी में शरणार्थी संकट के समाधान और उनको स्थायी तौर पर त्रिपुरा में बसाने के लिए दिल्ली में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके तहत 600 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया है.
समझौते के मुताबिक शरणार्थियों को एक आवासीय प्लॉट दिया जाएगा और परिवार के नाम पर चार लाख रुपए का फिक्स डिपाजिट किया जाएगा. साथ ही हर परिवार को मासिक पांच हजार रुपए की नकद सहायता दी जाएगी. यही नहीं, समझौते में अगले दो वर्षों मुफ्त राशन के अलावा मकान बनाने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने का भी प्रावधान रखा गया है.
वैसे इससे पहले जुलाई, 2018 में भी दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देव और मिजोरम के मुख्यमंत्री ललथनहवला के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे. इस समझौते में ब्रू परिवारों के 30 हजार से ज्यादा लोगों के लिए 435 करोड़ रुपए का राहत पैकेज दिया गया था. लेकिन ज्यादातर विस्थापितों के मिजोरम वापसी से इंकार करने की वजह से यह समझौता लागू नहीं किया जा सका था.
असल चुनौती पुनर्वास समझौतों को जमीन पर लागू करना है
ताजा विवाद
अब त्रिपुरा के कुछ संगठन ब्रू शरणार्थियों को स्थायी तौर पर बसाने का विरोध कर रहे हैं. नागरिक सुरक्षा मंच और मिजो कन्वेंशन ने पुनर्वास योजना के विरोध में जॉइंट एक्शन कमिटी (जेएसी) के बैनर तले मिजोरम सीमा से लगे कंचनपुर सब-डिवीजन में सोमवार से बेमियादी बंद शुरू किया है.
जेएसी के चेयरमैन डॉ. जाएकेमथियामा पछुआ कहते हैं, "स्थानीय प्रशासन ने पहले भरोसा दिया था कि महज डेढ़ हजार ब्रू परिवारों को ही यहां बसाया जाएगा. लेकिन अब वह छह हजार परिवारों को बसाने की योजना बना रहा है. इससे इलाके का माहौल और आबादी का संतुलन बिगड़ जाएगा. हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते.”
जिला प्रशासन का कहना है कि राज्य के अलग-अलग जिलों में ब्रू शरणार्थियों को बसाने के लिए 15 जगहों की शिनाख्त की गई है.
उधर, शरणार्थियों के संगठन मिजोरम ब्रू डिस्प्लेस्ड पीपुल्स फोरम (एमबीडीपीएफ) ने हाल में स्थायी नागरिक और अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र जारी करने की मांग उठाई है. संगठन के महासचिव ब्रूनो मशा कहते हैं, "हमें स्थानीय संगठनों के आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं हैं. हमें भरोसा है कि सरकार समझौते के मुताबिक हमारे पुनर्वास के लिए जरूरी कदम उठाएगी.”
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ब्रू शरणार्थियों का मुद्दा पहले से ही विवादास्पद और राजनीति से प्रेरित रहा है. समझौते के बावजूद जमीनी स्तर पर उसे लागू करना आसान नहीं होगा. एक पर्यवेक्षक सुनील कुमार देब कहते हैं, "इससे पहले भी ब्रू शरणार्थियों को वापस भेजने या उनके पुनर्वास के लिए समझौते हो चुके हैं. लेकिन उन्हें लागू नहीं किया जा सका. अब स्थानीय संगठनों के आंदोलन से मौजूदा समझौते पर भी गतिरोध के आसार पैदा हो गए हैं.”
एक अतिवादी इस्लामिक मौलाना के हजारों समर्थकों ने इस्लामाबाद में अपने विरोध प्रदर्शन को खत्म कर दिया है. वे फ्रांस में पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों के दोबारा छापे जाने पर द्विपक्षीय रिश्ते तोड़ लेने की मांग कर रहे थे.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
प्रदर्शनकारी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान पार्टी के सदस्य थे. उन्होंने धरना तब खत्म किया जब सरकार ने आश्वासन दिया कि फ्रांस से रिश्तों पर पुनर्विचार पर तीन महीनों में संसद में चर्चा कराई जाएगी. इसे लेकर पार्टी के नेताओं और केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच सोमवार देर रात समझौता हुआ.
धरने का नेतृत्व तेजतर्रार मौलाना खादिम हुसैन रिजवी कर रहे थे. इसकी शुरुआत रविवार रात एक जुलूस से हुई जो सैन्य छावनी वाले इस्लामाबाद के करीबी शहर रावलपिंडी से निकाला गया. प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच रावलपिंडी को इस्लामाबाद से जोड़ने वाले फैजाबाद चौराहे पर झड़प भी हुई.
प्रदर्शनकारियों ने पथराव किया और पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे और इस क्रम में कई प्रदर्शनकारी और पुलिसकर्मी घायल हो गए. हिंसा के खत्म होने के बाद प्रदर्शनकारी धरने पर बैठ गए और मांग करने लगे कि सरकार इस्लामाबाद से फ्रांस के राजदूत को निष्कासित कर दे.
पैगंबर पर बनाए गए इन कार्टूनों को लेकर एशिया और मध्य पूर्वी देशों में काफी विरोध हुआ है और लोगों ने फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार की भी मांग की है. माना जा रहा है इसी रोष की वजह से पिछले कुछ सप्ताहों में कई स्थानों पर फ्रांसीसी लोगों और संपत्ति पर हमले भी हुए हैं.
तहरीक-ए-लब्बैक के प्रवक्ता शफीक अमिनी ने कहा कि सरकार ने प्रदर्शनकारियों की मांग मान ली है और फ्रांस से रिश्ते तोड़ने के फैसले को संसद के सामने रखा जाएगा. उन्होंने ने यह भी कहा कि गिरफ्तार किए गए उनकी पार्टी के सभी सदस्यों को रिहा भी कर दिया जाएगा.
सरकार ने इस पर कोई बयान नहीं दिया. अपनी मांगो को लेकर धरने और प्रदर्शन आयोजित करने का तहरीक-ए-लब्बैक का पुराना इतिहास है. नवंबर 2017 में पार्टी के समर्थकों ने एक सरकारी फॉर्म से पैगंबर की पवित्रता के उल्लेख को हटाने के खिलाफ 21 दिनों तक धरना-प्रदर्शन का आयोजन किया था.
सीके/एए (एपी)
रवि प्रकाश
वह साल 2015 का नवंबर महीना था.
झारखंड के आदिवासी अपने अलग धर्म कोड को लेकर मुखर थे. राँची की सड़कों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत के पुतले फूंके जा रहे थे.
इसकी वजह बना था आरएसएस में नंबर-2 की हैसियत रखने वाले सह सरकार्यवाह डॉक्टर कृष्णगोपाल का वह बयान, जिसमें उन्होंने आदिवासियों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताया था.
उन्होंने कहा था कि सरना कोई धर्म नहीं है. आदिवासी भी हिंदू धर्म कोड के अधीन हैं. इसलिए उनके लिए अलग से धर्म कोड की कोई ज़रूरत नहीं है.
वे आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में शामिल होने राँची आए थे और यहां आयोजित प्रेस वार्ता में उन्होंने यह बात कही थी.
तब झारखंड में बीजेपी की सरकार थी.
पांच साल बाद अब साल 2020 का नवंबर है.
राँची की सड़कों पर आदिवासियों की टोलियां जश्न मना रही हैं. जय सरना के नारे लग रहे हैं. सड़कें लाल और सफ़ेद धारियों वाले सरना झंडे से पट चुकी हैं.
झारखंड विधानसभा ने 'सरना आदिवासी धर्म कोड बिल' को सर्वसम्मति से पास कर दिया है. इसमें आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रस्ताव है. झारखंड सरकार ने कहा है कि ऐसा करके आदिवासियों की संस्कृति और धार्मिक आज़ादी की रक्षा की जा सकेगी.
अब केंद्र सरकार को यह तय करना है कि वह इस माँग को लेकर क्या रुख अख्तियार करती है.
इन पांच सालों का एक फ़र्क़ यह भी है कि अब यहां की सत्ता बदल चुकी है.
राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व वाली सरकार है. नज़ारा पूरी तरह बदला हुआ है. यही वजह है कि इस बिल के पास होने के अगले दिन जब आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने पहुंचे, तो मुख्यमंत्री स्वयं उनके साथ नाचने लगे.
पारंपरिक आदिवासी धुनों पर थिरकते मुख्यमंत्री ने कहा कि उन्हें काफी दिनों बाद चैन की नींद नसीब हुई है.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, "सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव झारखंड विधानसभा से पारित करा लिया गया है लेकिन अभी कई लड़ाईयाँ लड़नी हैं. केंद्र सरकार से इसे हर हाल में लागू कराना है ताकि आगामी जनगणना में इसे शामिल किया जा सके. हमें हमारा हक और अधिकार मिले, इसके लिए हम हर लड़ाई लड़ने को तैयार हैं. अब देश स्तर पर आदिवासी समाज की एकजुटता की ज़रूरत है. हमलोगों ने इसके लिए विशेष कार्य योजना बनाई है."
RAVI PRAKASH/BBC
क्या केंद्र सरकार से भिड़ेंगे हेमंत सोरेन
गुजरात के आदिवासी नेता व विधायक छोटूभाई बसावा ने मीडिया से कहा कि अब हेमंत सोरेन को देश के स्तर पर आदिवासियों का नेतृत्व करना चाहिए. हालाँकि इसके लिए सरना धर्म कोड की जगह कोई वैसा नाम सोचना चाहिए, जो देश भर के आदिवासियों को मान्य हो.
वहीं झारखंड के पूर्व मंत्री बंधु तिर्की का मानना है कि झारखंड सरकार ने आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का बिल लाकर ऐतिहासिक काम किया है.
अब केंद्र सरकार की जवाबदेही है कि वह इस संबंधित विभिन्न प्रस्तावों में एकरूपता लाकर आदिवसियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रावधान कराए.
झारखंड सरकार का प्रस्ताव
झारखंड सरकार ने केंद्र को यह प्रस्ताव भेजते वक्त लिखा है कि साल 1931 में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी का 38.3 प्रतिशत थी, जो साल 2011 की जनगणना के वक्त घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई.
आदिवासियों की इस घटती संख्या की एक वजह उनके लिए अलग धर्म कोड का नहीं होना है.
लिहाजा, केंद्र सरकार को सरना आदिवासी धर्म कोड बिल पर विचार करना चाहिए.
विपक्ष का आरोप
हालाँकि पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी मानते हैं कि आदिवासी सरना धर्म कोड को लेकर झारखंड सरकार की मंशा ठीक नहीं है.
बाबूलाल मरांडी ने बीबीसी से कहा, "मैं इस मुद्दे पर सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देना चाहता था लेकिन मुझे विधानसभा में बोलने तक नहीं दिया गया. जब सरना आदिवासी धर्म कोड बिल के लिए ही विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया था, तो मुझे बोलने क्यों नहीं दिया गया. अगर बोलने ही नहीं देना था, तब विशेष सत्र की क्या आवश्यकता थी. मेरा मानना है कि हेमंत सोरेन की सरकार इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति कर रही है. इसके बावजूद मेरी पार्टी ने इस विधेयक का समर्थन किया है."
RAVI PRAKASH/BBC
आदिवासियों की हिस्सेदारी
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या दस करोड़ से कुछ अधिक है.
इनमें क़रीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं.
देश में आदिवासियों की 750 से भी अधिक जातियां हैं.
अधिकतर राज्यों की आबादी में इनकी हिस्सेदारी है. इसके बावजूद अलग आदिवासी धर्म कोड की व्यवस्था नहीं है.
इस कारण पिछली जनगणना में इन्हें धर्म की जगह 'अन्य' कैटेगरी में रखा गया था.
जबकि ब्रिटिश शासन काल में साल 1871 से लेकर आज़ादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था रही है.
तब अलग-अलग जनगणना के वक्त इन्हें अलग-अलग नामों से सबोधित किया गया. आज़ादी के बाद इन्हें शिड्यूल ट्राइब्स (एसटी) कहा गया.
इस संबोधन को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी. इस कारण विवाद हुआ. तभी से आदिवासियों के लिए धर्म का विशेष कॉलम ख़त्म कर दिया गया.
वरिष्ठ पत्रकार मधुकर बताते हैं कि 1960 के दशक में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के वक्त लोकसभा में भी इस संबंधित एक संशोधन विधेयक लाया गया लेकिन बहस के बावजूद वह पारित नहीं कराया जा सका.
वो कहते हैं," यह विवाद पैदा करने की कोशिश की जाती रही कि आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं अलग-अलग हैं. कोई सरना है, कोई ईसाई तो कोई हिंदू धर्म को मानता है. आदिवासियों का एक समूह इस्लाम, जैन और बौद्ध धर्मावलंबी भी है. इस कारण उनके लिए अलग धर्म कोड की ज़रूरत नहीं है."
बकौल मधुकर, ऐसे लोग आदिवासी स्कॉलर और कांग्रेस के सांसद रहे कार्तिक उरांव की पुस्तक 'बीस वर्ष की काली रात' का भी उल्लेख करते हैं लेकिन ज़्यादातर मौकों पर इसकी ग़लत व्याख्या की जाती रही है.
इस कारण विभिन्न आदिवासी संगठन अलग धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलन करते रहे हैं.
बहरहाल, अब यह मामला केंद्र सरकार के पास है. यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार इस प्रस्ताव पर क्या निर्णय लेती है. (bbc.com/hindi)
(1982 का एशियाड 19 नवंबर को शुरू हुआ था जिसकी सालगिरह कल आ रही है। उसे कवर करने वाले छत्तीसगढ़ के, आकाशवाणी के मिर्ज़ा मसूद ने इस अखबार के लिए उस वक्त की अपनी एक याद ताजा की है।)
पहली बार 1951 और दूसरी बार सन 1982 में एशियाई खेलों की मशाल दिल्ली में रौशन हुई। एशियाड 82 की मेजबानी करते हुए भारत ने कबड्डी को प्रदर्शन खेल के रूप में शामिल किया। कई देश की टीमों ने हिस्सा लिया। रेडियो प्रसारण दो भाषाओं में होना था। हिंदी और अंग्रेजी। अंग्रेजी में आंखों देखा हाल सुनने के लिए इंदौर से प्रोफेसर नाडकर्णी आए थे। हिन्दी में कोई नहीं था। मुझसे कहा गया तो मैंने इंकार कर दिया। गली कूचे में खेली जाने वाली कबड्डी के बारे में तो मैं जानता था लेकिन आधुनिक नियमों के बारे में मेरी जानकारी नहीं थी।
जब कोई दूसरा व्यक्ति तैयार नहीं हुआ तो मुझसे श्री जसदेव सिंह ने कहा तुम्हारे पास दो-ढाई दिन का समय है। तुम तैयारी कर लो। और मैंने तैयारी की। कबड्डी की कुछ टीमों के साथ मिलकर। प्रतियोगिताएं शुरू होने के पहले मैंने अनुभव किया एक खिलाड़ी विपक्षी पाले में प्रवेश करता है तो सिर्फ आया-आया ही सुनाई देता है। शेष शब्द जो वह आरंभ में कहता था बिल्कुल सुनाई नहीं देते या अस्पष्ट रहते। बाद में मैंने उससे जानने की कोशिश की तो उसने कहा, वह कहता है-कुंअर सिंह आला कुंअर सिंह आला...वह खिलाड़ी झारखंड बिहार का था।
वास्तव में कुंअर सिंह भारत के वीर योद्धा थे। एक छोटी सी रियासत जगदीशपुर के। उन्हें राजा की उपाधि थी। अंग्रेजों से अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए उन्हें लगातार संघर्ष करना पड़ा। जंगलयुद्ध में पारंगत कुंअर सिंह ने अंग्रेजी फौजों को कई बार शिकस्त दी थी। अंग्रेजों के लिए वे आतंक का पर्याय थे। एक बार नदी पार करते समय कुंअर सिंह की बांह में गोली लग गई, तो उन्होंने जख्मी हाथ को दूसरे हाथ से काटकर नदी में फेंक दिया। उन्हें डर था कि विष चढ़ जाने से मौत हो सकती है। अंत तक वो अपने महल में रहे और वीर सेनानी की शान के साथ ही स्वाभाविक मृत्यु को गले लगाया। आखरी समय में भी उनके महल पर उनका अपना ध्वज फहरा रहा था।
दिल्ली एशियाड 82 की शुरूआत से ठीक एक वर्ष पहले प्रबंधन की ओर से एक सेमिनार कार्यशाला का आयोजन किया गया। दिल्ली में एशियाड के लिए किए जा रहे निर्माण कार्यों को दिखाया गया, समझाया गया उपयोगिता बताई गई। यह आयोजन केवल ब्राडकास्टर्स के लिए थे। बाहरी व्यक्तियों के लिए नहीं। उसी समय एक स्टेडियम में खेल अधिकारियों का जापानी दल मिला। जिज्ञासावश पूछने पर उन्होंने बताया। ठीक एक बरस बाद एशियाड 82 में जापान के खिलाड़ी यहां आकर खेलों में भाग लेंगे। हम यहां की स्थानीय परिस्थितियों का अवलोकन करने आए हैं। एक बरस बाद खिलाडिय़ों के प्रदर्शन पर यहां की परिस्थितियों का कैसा प्रभाव पड़ेगा। हम इसकी तैयारी करेंगे।
ठीक एक बरस बाद 1982 में जापान में एशियाई खेलों की विभिन्न प्रतियोगिताओं में अपने खिलाड़ी भेजे और गंभीर योजनाबद्ध तैयारियों और रणनीति के कारण अनेक पदक जीत कर ले गए।
दिल्ली एशियाड 82 की तैयारियों के समय राजधानी में अनेक निर्माण कार्य हुए, जिनमें कई प्रकार की सामग्री की जरूरत थी। कुछ कार्यों में तीस मीटर रेलपांतों की आवश्यकता थी। इतनी लंबी पांत को ठंडी करने वाली टंकी केवल रायपुर वर्कशॉप में उपलब्ध थी। इसलिए दिल्ली एशियाड 82 के आयोजन में रायपुर का भी योगदान था।
अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा सत्ता सौंपने में देरी के कारण देश में कोविड-19 से और अधिक मौतें हो सकती हैं. अमेरिका में संक्रमितों का आंकड़ा 1.12 करोड़ से ज्यादा हो गया है.
राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप के हार ना मानने की वजह से निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन की टीम को कई अहम मसलों में काम करने में खासी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. खासकर कोरोना वायरस के बढ़ते मामले और प्रस्तावित कोविड-19 वैक्सीन वितरण योजना को लेकर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.
ट्रंप प्रशासन ने अभी तक औपचारिक रूप से बाइडेन को निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में मान्यता नहीं दी है, जिसका मतलब है कि बाइडेन और उनकी टीम के पास राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों पर खुफिया ब्रीफिंग तक पहुंच नहीं है, साथ ही साथ कोविड-19 टीकों के संभावित वितरण पर योजना नहीं बना सकते हैं. अपने गृह राज्य डेलावेयर में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाइडेन ने कहा, "कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए समन्वय की आवश्यकता है और अगर हम गति नहीं रखते हैं तो और अधिक मौतें हो सकती हैं." उन्होंने आगे कहा, "अगर हमें योजना के लिए 20 जनवरी तक इंतजार करना पड़ा, तो हम एक या डेढ़ महीने पीछे रह जाएंगे. इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है और तत्काल समन्वय जरूरी है."
बाइडेन के मुताबिक, "कोविड-19 से लड़ने के लिए हमें सुनिश्चित करना होगा कि व्यवसायों और श्रमिकों के पास स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों पर आवश्यक उपकरण, संसाधन और राष्ट्रीय मार्गदर्शन हो ताकि वे सुरक्षित रूप से काम कर सकें." ट्रंप के हार नहीं स्वीकार करने पर बाइडेन ने कहा, "यह मेरे काम करने की क्षमता को कमजोर करने से ज्यादा देश के लिए अधिक शर्मनाक है." गौरतलब है कि ट्रंप ने सोमवार को एक बार फिर ट्वीट किया और कहा कि "मैं चुनाव जीत गया हूं." इस बीच राष्ट्रपति ट्रंप के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट ओ ब्रायन ने देश के निर्वाचित राष्ट्रपति को प्रशासन का बहुत पेशेवर तरीके से हस्तांतरण का वादा किया है.
सर्दी में और बढ़ेगी मुसीबत!
इस बीच बाइडेन और उप राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित कमला हैरिस ने यूनियन नेताओं और उद्योग घरानों के प्रमुखों के साथ वर्चुअल बैठकें की हैं. बैठक के दौरान बाइडेन ने यूनियन के नेताओं और बिजनेस लीडर्स से कहा कि सभी मानते हैं कि वायरस के प्रसार को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर उपायों की जरूरत है. साथ ही साथ कोरोना महामारी के कारण देश में आर्थिक नुकसान पर भी काम करने की जरूरत है. बाइडेन ने कहा, "हम बहुत कठिन सर्दी में प्रवेश करने जा रहे हैं. चीजें आसान होने से पहले बहुत कठिन होने जा रही है." गौरतलब है कि अमेरिका में संक्रमितों का आंकड़ा एक करोड़ 12 लाख से ज्यादा हो गया है और देश में कोरोना के कारण करीब ढाई लाख लोगों की मौत हो चुकी है.(dw.com)
एए/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)
बिहार और उत्तर प्रदेश में बदमाशों ने एक बार फिर महिलाओं के खिलाफ अपराध को अंजाम दिया है. बिहार में छेड़खानी का विरोध करने पर जिंदा जलाने का मामला सामने आया है तो यूपी में भी कुछ सनसनीखेज केस सामने आए हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट
बिहार के वैशाली जिले के चांदपुरा पुलिस थाने इलाके में 20 साल की युवती को जिंदा जलाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है. आरोप है कि युवती ने छेड़खानी का विरोध किया था जिसके बाद गांव के ही दबंगों ने उसे जिंदा जला दिया. रिपोर्ट्स के मुताबिक 30 अक्टूबर को गांव के तीन लोगों ने केरोसीन डालकर उसे जिंदा जला दिया था. युवती का इलाज हाजीपुर के एक निजी अस्पताल में चल रहा था और जब उसकी हालत बिगड़ी तो उसे पटना पीएमसीएच में दाखिल कराया गया था. 15 दिन बाद उसकी मौत हो गई. परिवार ने पटना के करगिल चौक पर आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग पर 15 नवंबर को विरोध प्रदर्शन भी किया था.
मंगलवार को पुलिस के आश्वासन के बाद परिवार ने शव का अंतिम संस्कार कर दिया. इसी बीच पुलिस ने 18 दिन बाद मामले के मुख्य आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है. पुलिस का दावा है कि अन्य दो आरोपी भी जल्द गिरफ्तार कर लिए जाएंगे.
इस बीच नई सरकार ने शपथ ग्रहण के बाद काम संभाल लिया है और प्रदेश की डिप्टी सीएम रेणु देवी ने युवती को जिंदा जलाने के मामले की जांच के आदेश दिए हैं. इसी के साथ विपक्ष ने भी राज्य में "जंगल राज" का मुद्दा उठाते हुए केंद्र सरकार के मंत्रियों पर निशाना साधा है. कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने एक अखबार की रिपोर्ट का हवाला देते हुए इस अपराध के बारे में बीजेपी और जेडीयू से सवाल किया है.
मृतक लड़की ने अपनी मौत से पहले कुछ बयान दिए थे जो कि सोशल मीडिया पर भी वायरल हो रहे हैं. प्रशासन ने मामले में लापरवाही बरतने के आरोप में एसएचओ को निलंबित कर दिया है.
Bihar: Funeral of a girl, allegedly burnt to death in Vaishali district, held by family after assurance from police.
— ANI (@ANI) November 17, 2020
Family members had held a protest at Kargil Chowk in Patna on Nov 15th demanding arrest of 2 accused, who allegedly burnt the 20-yr old girl
(Pics from 15.11.2020) pic.twitter.com/Oc7tBruKGF
उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध
यूपी में एक के बाद एक महिलाओं के खिलाफ कई अपराध के मामले बीते दिनों में सामने आए हैं. कहीं बलात्कार पीड़ित को इंसाफ नहीं मिला तो कहीं छेड़खानी से परेशान हो कर छात्रा ने आत्महत्या कर ली. बुलंदशहर में एलएलबी की छात्रा ने न्याय नहीं मिलने पर खुदकुशी कर ली. उसने तीन लोगों पर अगवाकर गैंगरेप का आरोप लगाया था, सोमवार को युवती ने इंसाफ नहीं मिलने पर खुदकुशी कर ली और एक सुसाइड नोट भी लिखा था, जिसपर उसने पुलिस पर भी गंभीर आरोप लगाए हैं. वहीं पुलिस का कहना है कि गैंगरेप के एक आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है. पीड़ित युवती ने पिछले महीने पुलिस में इसकी शिकायत की थी लेकिन आरोप है कि पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. बताया जा रहा है कि आरोपी युवती को धमकी देते थे.
पिछले दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मिशन शक्ति की शरुआत की थी लेकिन प्रदेश में आए दिन हो रहे महिलाओं के खिलाफ अपराध इस ओर जरूर इशारा कर रहे हैं कि बदमाश अब भी बेखौफ हैं. विपक्ष भी सरकार से सवाल कर रहा है कि मिशन शक्ति अभियान कितना सफल रहा है.(dw.com)
- अज़ीज़ुल्लाह ख़ान
"मेरी पत्नी में कोई कमी नहीं है, डॉक्टरों ने मेरे टेस्ट कराए तो मालूम हुआ कि कमी मुझ में है. मैं इज़ोस्पर्मिया (Azoospermia) नाम की बीमारी का शिकार हूं."
अताउल्लाह (बदला हुआ नाम) की शादी दो साल पहले हुई थी मगर उनकी पत्नी गर्भवती नहीं हो पा रहीं थीं.
उन्होंने पहले दो साल तक तो अपनी पत्नी का इलाज करवाया क्योंकि उन्हें एक मामूली सा इंफ़ेक्शन था मगर यह कोई ऐसी समस्या नहीं थी जिसके कारण वो गर्भवती नहीं हो सकती थीं.
आख़िरकार अताउल्लाह ने डॉक्टरों के सुझाव पर अपना टेस्ट करवाया. रिपोर्ट आने पर पता चला कि अताउल्लाह एज़ोस्पर्मिया के शिकार हैं. एज़ोस्पर्मिया उस मेडिकल अवस्था को कहते हैं जब सिमेन में स्पर्म नहीं होता है और इसका इलाज करवाए बग़ैर पिता बनना संभव नहीं.
अताउल्लाह पाकिस्तान के क़बायली इलाक़े में रहते हैं.
क़बायली रिवाजों के उलट
अताउल्लाह के अनुसार जब उनके मेडिकल टेस्ट के नतीजे आए और उनमें इस बीमारी का पता चला तो क़बायली रिवाजों के ठीक उलट उन्होंने अपनी पत्नी को साफ़-साफ़ बता दिया कि कमी ख़ुद उनमें है और अब वो अपना इलाज करवा रहे हैं.
अताउल्लाह पेशावर स्थित एक मेडिकल संस्थान के इन्फ़र्टिलिटी विभाग में अपना इलाज करवा रहे हैं.
उनका कहना है, "मुझे और कोई लैंगिक बीमारी नहीं है बस स्पर्म की कमी का मसला है. मुझे अपना इलाज करवाने में कोई हिचकिचाहट नहीं है और ना ही मैंने इसे अपनी अहंकार का मुद्दा बनाया. अगर कोई दिक़्क़त है तो उसे इलाज के ज़रिए हल किया जा सकता है."
पाकिस्तान में जगह-जगह दीवारों पर मर्दाना कमज़ोरी और बांझपन के इलाज के बारे में इश्तहार नज़र आते हैं लेकिन कभी आपने सोचा है कि ऐसा क्यों है, क्योंकि दूसरी बीमारियों के बारे में तो इस तरह का कोई इश्तहार तो दीवारों पर नहीं दिखता.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इसकी सबसे बुनियादी वजह यह है कि इस तरह की बीमारियों का इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं होता है और सस्ते इलाज का झांसा देकर नीम-हकीम लोग कम पढ़े लिखे आम लोगों की मासूमियत का फ़ायदा उठाते हैं.
सामाजिक समस्या
इसके अलावा पाकिस्तान में पिता बनने में असमर्थ मर्दों के इलाज करवाने को एक सामाजिक समस्या समझा जाता है और अक्सर मर्द या तो इलाज करवाने में शर्माते हैं या फिर इसे अपने अहंकार से जोड़ कर देखते हैं.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों से जब बीबीसी ने बात की तो लगभग सभी का यही कहना था कि मर्द अपनी पत्नियों का तो सालों इलाज करवाते हैं लेकिन ख़ुद अपना बुनियादी टेस्ट भी नहीं करवाते हैं.
पाकिस्तान में अब पहली मर्तबा पेशावर के हयातआबाद मेडिकल कॉम्पलेक्स में संतान पैदा करने की अक्षमता और लैंगिक बीमारियों का विभाग क़ायम किया गया है और उसमें विशेषज्ञ डॉक्टरों को बहाल किया गया है.
पाकिस्तान में इस तरह के विशेषज्ञों की कमी है. इस विभाग में तैनात डॉक्टर मीर आबिद जान ने बीबीसी को बताया कि आम तौर पर संतान पैदा करने की अक्षमता और लैंगिक बीमारियों का संबंध यूरोलोजी से होता है और उसके लिए उच्च शिक्षा हासिल करना ज़रूरी है और पाकिस्तान में इस वक़्त ऐसे डॉक्टरों की बहुत कमी है.
उनके अनुसार निजी स्तर पर कुछ अस्पताल हैं जो इस तरह का इलाज करते हैं लेकिन सरकारी स्तर पर पहली मर्तबा पेशावर के सरकारी अस्पताल में इसका इलाज शुरू किया गया है.
डॉक्टर मीर आबिद के अनुसार उनके पास संतान पैदा करने की अक्षमता के जो मर्द मरीज़ आते हैं, उनमें 90 फ़ीसद ऐसे होते हैं तो सालों तक पहले अपनी बीवी का इलाज करवाने पर ज़ोर देते हैं.
उन्होंने बताया कि चंद मर्द ऐसे भी आए जो अपनी कमी को समझे बग़ैर बच्चे की ख़्वाहिश के कारण दो-दो और तीन-तीन शादियां कर चुके थे.
जानकारों का कहना है कि दुनिया भर में औसतन 15 फ़ीसद जोड़े संतान पैदा करने की अक्षमता का शिकार होते हैं, लेकिन पाकिस्तान में इसकी तादाद ज़्यादा है. डॉक्टर आबिद के अनुसार लैंगिक बीमारी कई कारणों से हो सकती है जिनमें मानसिक स्थिति भी शामिल है.
वो कहते हैं, "कम उम्र के लोग भी इसके शिकार हो सकते हैं और 40 से अधिक उम्र के 50 प्रतिशत से ज़्यादा लोग विभिन्न तरह की लैंगिक बीमारी के शिकार होते हैं और किसी न किसी वजह से शाीरिक संबंध नहीं बना पाते हैं."
उन्होंने कहा कि पाकिस्ता में यह समस्या ज़्यादा गंभीर है क्योंकि यहां यौन शिक्षा नहीं है और यहां डॉक्टरों के इलाज की कोई बाक़ायदा सुविधा नहीं है.
डॉक्टर आबिद के अनुसार पाकिस्तान में कामोत्तेजक दवाओं पर पाबंदी है क्योंकि सरकार का कहना है कि इन दवाओं को ग़लत उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और दूसरे यह कि समाज में भी इन दवाओं को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता है.
लेकिन यह समस्या का हल नहीं है. वो कहते हैं, "इस तरह की दवाएं पेशेवर डॉक्टरों की सलाह से मरीज़ों को दी सकती हैं. अगर ग़लत इस्तेमाल की बात है तो पाकिस्तान में ऐसी कई दवाएं हैं जिनका ग़लत इस्तेमाल होता है लेकिन उसको रोकने और उनकी ख़रीद-बिक्री को नियमित करने के लिए क़दम उठाने की ज़रूरत है."
आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि ज़्यादातर मर्द संतान पैदा करने की अपनी अक्षमता के इलाज के लिए तैयार नहीं होते हैं. डॉक्टर आबिद के अनुसार 90 प्रतिशत मर्द ऐसे होते हैं जो सालों तक अपनी पत्नियों का इलाज करवाते हैं लेकिन कभी यह सोचते तक नहीं कि उन्हें अपना भी कम से कम एक टेस्ट करा लेना चाहिए.
वो कहते हैं, "अब हालात थोड़े बदल रहे हैं क्योंकि कुछ ऐसे नौजवान सामने आए हैं जो शादी से पहले अपना टेस्ट कराने आते हैं. वो चाहते हैं कि शादी से पहले सारे टेस्ट करा लें ताकि शादी के बाद कोई परेशानी ना हो."
उनके अनुसार "अब ऐसे परिवार भी सामने आ रहे हैं जहां परिवार ही कहता है कि शादी से पहले लड़का और लड़की दोनों के ज़रूरी टेस्ट करवाना चाहिए ताकि अगर कोई परेशानी है तो वो पहले ही पता चल जाए और शादी के बाद इसको लेकर किसी तरह की समस्या ना खड़ी हो."
डॉक्टर आबिद कहते हैं कि जो मर्द अपना टेस्ट कराने के लिए तैयार नहीं होते उनकी पत्नी से कहा जाता है कि वो अपने पति को टेस्ट कराने के लिए तैयार करें.
उनके अनुसार दूसरे विकसित देशों में कपल थेरेपिस्ट होते हैं जो लड़के-लड़की को पूरी तरह गाइड करते हैं, बीमारी और उसके इलाज के बारे में सारी जानकारी देते हैं.(bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया के सबसे बड़े साझा बाजार (रिसेप) की घोषणा वियतनाम में हो गई है। इसमें 15 देश शामिल होंगे और अगले दो वर्ष में यह चालू हो जाएगा। साझा बाजार का अर्थ यह हुआ कि इन सारे देशों का माल-ताल एक-दूसरे के यहां मुक्त रुप से बेचा और खरीदा जा सकेगा। उस पर तटकर या अन्य रोक-टोक नहीं लगेगी। ऐसी व्यवस्था यूरोपीय संघ में है लेकिन ऐसा एशिया में पहली बार हो रहा है।
इस बाजार में दुनिया का 30 प्रतिशत व्यापार होगा। इस संगठन में चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और द. कोरिया के अलावा एसियान संगठन के 10 राष्ट्र शामिल होंगे। 2008 में इसका विचार सामने आया था। इसे पकने में 12 साल लग गए लेकिन अफसोस की बात है कि 2017 में ट्रंप के अमेरिका ने इस संगठन का बहिष्कार कर दिया और भारत इसका सहयोगी होते हुए भी इससे बाहर रहना चाहता है।
भारत ने पिछले साल ही इससे बाहर रहने की घोषणा कर दी थी। इसके दो कारण थे। एक तो यह कि भारत को डर था कि उसका बाजार इतना बड़ा है कि उस पर कब्जा करने के लिए चीन किसी भी हद तक जा सकता है। उसका अमेरिकी बाजार आजकल सांसत में है। इसीलिए वह अपने सस्ते माल से भारतीय बाजारों को पाट डालेगा। इससे भारत के व्यापार-धंधे ठप्प हो जाएंगे।
दूसरा यह कि ‘एसियान’ के ज्यादातर देशों के साथ भारत का मुक्त-व्यापार समझौता है और उसके कारण भारत का निर्यात कम है और आयात बहुत ज्यादा है। पिछले साल एसियान देशों के साथ भारत का निर्यात 37.47 बिलियन डालर का था जबकि आयात 59.32 बिलियन डालर का रहा। चीन के साथ भी घोर व्यापारिक असंतुलन पहले से ही बना हुआ है।
अब यदि यह साझा बाजार लागू हो गया तो मानकर चलिए कि कुछ ही वर्षों में यह चीनी बाजार बन जाएगा। इसीलिए भारत का संकोच स्वाभाविक और सामयिक है। लेकिन भारत के बिना यह साझा बाजार अधूरा ही रहेगा। इसीलिए इस संगठन ने घोषणा की है कि उसके द्वार भारत के लिए सदा खुले रहेंगे। वह जब चाहे, अंदर आ जाए। मेरी राय है कि देर-सबेर भारत को इस ‘क्षेत्रीय विशाल आर्थिक भागीदारी’ (रिसेप) संगठन में जरुर शामिल होना चाहिए लेकिन अपनी शर्तों पर। वह चाहे तो चीन की चौधराहट को चुनौती दे सकता है।
भारत को चाहिए कि वह दक्षिण एशिया के देशों में इसी तरह का एक संगठन (साझा बाजार) ‘रिसेप’ के पहले ही खड़ा कर दे लेकिन कैसे करे? उसके नेताओं में इतनी दूरगामी समझ नहीं है और उनका अहंकार छोटे-मोटे पड़ौसी देशों के साथ भाईचारे के संबंध बनाने नहीं देता। यदि दक्षेस (सार्क) देशों का साझा बाजार हम खड़ा कर सकें तो न सिर्फ 10 करोड़ लोगों को तुरंत रोजगार मिल सकता है बल्कि यह इलाका दुनिया के सबसे समृद्ध क्षेत्रों के रुप में विकसित हो सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा सत्ता सौंपने में देरी के कारण देश में कोविड-19 से और अधिक मौतें हो सकती हैं. अमेरिका में संक्रमितों का आंकड़ा 1.12 करोड़ से ज्यादा हो गया है.
राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप के हार ना मानने की वजह से निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन की टीम को कई अहम मसलों में काम करने में खासी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. खासकर कोरोना वायरस के बढ़ते मामले और प्रस्तावित कोविड-19 वैक्सीन वितरण योजना को लेकर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.
ट्रंप प्रशासन ने अभी तक औपचारिक रूप से बाइडेन को निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में मान्यता नहीं दी है, जिसका मतलब है कि बाइडेन और उनकी टीम के पास राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों पर खुफिया ब्रीफिंग तक पहुंच नहीं है, साथ ही साथ कोविड-19 टीकों के संभावित वितरण पर योजना नहीं बना सकते हैं. अपने गृह राज्य डेलावेयर में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाइडेन ने कहा, "कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए समन्वय की आवश्यकता है और अगर हम गति नहीं रखते हैं तो और अधिक मौतें हो सकती हैं." उन्होंने आगे कहा, "अगर हमें योजना के लिए 20 जनवरी तक इंतजार करना पड़ा, तो हम एक या डेढ़ महीने पीछे रह जाएंगे. इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है और तत्काल समन्वय जरूरी है."
बाइडेन के मुताबिक, "कोविड-19 से लड़ने के लिए हमें सुनिश्चित करना होगा कि व्यवसायों और श्रमिकों के पास स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों पर आवश्यक उपकरण, संसाधन और राष्ट्रीय मार्गदर्शन हो ताकि वे सुरक्षित रूप से काम कर सकें." ट्रंप के हार नहीं स्वीकार करने पर बाइडेन ने कहा, "यह मेरे काम करने की क्षमता को कमजोर करने से ज्यादा देश के लिए अधिक शर्मनाक है." गौरतलब है कि ट्रंप ने सोमवार को एक बार फिर ट्वीट किया और कहा कि "मैं चुनाव जीत गया हूं." इस बीच राष्ट्रपति ट्रंप के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट ओ ब्रायन ने देश के निर्वाचित राष्ट्रपति को प्रशासन का बहुत पेशेवर तरीके से हस्तांतरण का वादा किया है.
सर्दी में और बढ़ेगी मुसीबत!
इस बीच बाइडेन और उप राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित कमला हैरिस ने यूनियन नेताओं और उद्योग घरानों के प्रमुखों के साथ वर्चुअल बैठकें की हैं. बैठक के दौरान बाइडेन ने यूनियन के नेताओं और बिजनेस लीडर्स से कहा कि सभी मानते हैं कि वायरस के प्रसार को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर उपायों की जरूरत है. साथ ही साथ कोरोना महामारी के कारण देश में आर्थिक नुकसान पर भी काम करने की जरूरत है. बाइडेन ने कहा, "हम बहुत कठिन सर्दी में प्रवेश करने जा रहे हैं. चीजें आसान होने से पहले बहुत कठिन होने जा रही है." गौरतलब है कि अमेरिका में संक्रमितों का आंकड़ा एक करोड़ 12 लाख से ज्यादा हो गया है और देश में कोरोना के कारण करीब ढाई लाख लोगों की मौत हो चुकी है.
एए/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)