विचार / लेख

अभिव्यक्ति की आजादी से जोडऩा कहाँ की समझदारी?
07-Nov-2020 2:39 PM
अभिव्यक्ति की आजादी से जोडऩा कहाँ की समझदारी?

ओम थानवी

अर्णब गोस्वामी को ज़मानत नहीं मिली। अफ़सोस होता है कि एक पत्रकार- भले इस बीच पथभ्रष्ट पत्रकारिता करने लगा हो-जेल में है। इस बीच बहुत से संजीदा पत्रकार भी (जैसे हाल में हाथरस में) पुलिस ने पकड़े। तब पकडऩे वालों के विवेक पर तरस आया था। पर अर्णब पर किसी का देय धन डकार जाने और लेनदार माँ-बेटे को आत्महत्या के लिए मजबूर करने जैसे संगीन आरोप हैं। ऐसे ही सुधीर चौधरी, तरुण तेजपाल आदि जेल गए थे। हालाँकि उन पर लगे आरोप अलग तरह के थे। पर थे बुरे और निपट आपराधिक।

बहरहाल, अर्णब की गिरफ्तारी पर पत्रकारों में दो मत हैं- अपराध किया है तो उनका बचाव कैसा। दूसरा तबका कहता है कि यह तो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है।

अभिव्यक्ति वाली दलील देने वालों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, देश के गृहमंत्री, रक्षामंत्री, सूचना-प्रसारण मंत्री, कपड़ा मंत्री आदि से लेकर भाजपा-शासित विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री शामिल हैं। पार्टी की ट्रोल टुकड़ी भी। एबीवीपी वाले विभिन्न शहरों में गिरफ़्तारी के विरोध में सडक़ों पर उतरे हैं। किसी ने लिखा है कि ऐसा लगता है गोया भाजपा का अपना कोई कार्यकर्ता गिरफ़्तार कर लिया गया हो। और तो और, योगी आदित्यनाथ भी सहसा ‘अभिव्यक्ति’ के हिमायती हो गए हैं, जिनके प्रदेश में पत्रकारों पर अत्याचार का कीर्तिमान बन चुका है।

कुछ भाजपा-समर्थक पत्रकार भी-स्वाभाविक ही-अर्णब की गिरफ्तारी से आहत हैं। कुछ पहले से गंडा-बंध थे; कुछ अपनी बौखलाहट में पहचान लिए गए हैं। उनकी प्रतिक्रिया ऐसे भडक़ी है मानो उनका सगा धर लिया गया हो। कुछ (संघ-मोह के चलते) अपने फासिस्ट-समर्थक तेवर के बावजूद वॉल्तेयर की दुहाई दे रहे हैं। इतना ही नहीं, वे अर्णब की गिरफ़्तारी को वाजिब बताने वालों के खिलाफ मोर्चा ले उन्हें कांग्रेस के (शिवसेना के नहीं) प्रवक्ता ठहराने में भी लगे हैं।

लेकिन अगर आप फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि टटोलें तो अधिकांश पत्रकार मुखर और न्यायप्रिय मिलेंगे। वे इस गिरफ्तारी से विचलित नहीं, बल्कि मामले की समुचित जाँच के हक में हैं। वे पत्रकारिता (जैसी भी हो) और अपराध को अलग करके देखते हैं, अभिव्यक्ति के नाम पर संगीन अपराध के आरोपी का बचाव नहीं करना चाहते। 

बहुत-से पत्रकारों ने लिखा है कि अपराध अपराध है; मुलजिम भले पत्रकार हो, पर उसकी हिमायत में पत्रकारिता को आड़ की तरह नहीं ताना जा सकता। मैं भी अपने आप को इसी मत का पाता हूँ।

इसका मतलब यह नहीं कि सरकार को बदले की भावना से काम करना चाहिए या पुलिस को ससम्मान पेश नहीं आना चाहिए। मगर मुल्क की हकीकत क्या हमें नहीं मालूम? इज्जतदार पत्रकारों पर देश में राजद्रोह तक के मुकदमे दर्ज हुए हैं। पुलिस ने ‘जी-जी’ वाला नहीं, शातिर अपराधियों जैसा बरताव पत्रकारों के साथ किया है।

लेकिन एक जगह का गलत आचरण दूसरी जगह औचित्य नहीं बन सकता। अगर शासन या पुलिस ज़्यादती करें तो इसकी आलोचना होनी चाहिए। आत्महत्याओं का मामला दुबारा खोलने में सरकार ने दुराग्रह रखा हो या पुलिस ने पत्रकार या उसके परिजनों से दुव्र्यवहार किया हो तो मुझे भी इसकी आलोचना में शरीक समझें। पर हम आत्महत्याओं और पत्रकार के यहाँ डूबे भुगतान से आहत माँ-बेटियों के प्रति भी मानवीय रवैया जाहिर करें।

पत्रकारिता स्वयं न्याय, संवेदनशीलता, ईमानदारी और मानवीय अधिकारों जैसे मूल्यों की वाहक होती है। किसी ‘अपने’ पर आ पड़ी तो सभी मूल्यों को तिलांजलि दे बैठना हद दरजे की नादानी होगी।

अर्णब की हाल की पत्रकारिता सांप्रदायिकता (याद करें पालघर) और चरित्रहत्या (उदाहरण रिया चक्रवर्ती) की तरफ़ जाने लगी थी। शायद चैनल चलाने (दूसरे शब्दों में विज्ञापन बटोरने) के लिए ऐसे हथकंडे काम आते हैं। टीआरपी के आपराधिक जुगाड़ पर उन पर अलग से मुक़दमा दायर है। लेकिन उस पर अभी बात नहीं; अभी बात अलग मसले की है।  

बताया यह जा रहा है कि भाजपा काल में मुख्यमंत्री फडनवीस ने अर्णब की मदद की, जबकि मामला व्यवसाय में लेन-देन का था और कर्ज में डूबी कम्पनी के निदेशक माँ-बेटे ने तीन नाम जि़म्मेदार बताकर आत्महत्या कर ली थी।

जैसा कि मृतक की विधवा (कितनी जुझारू महिला है) ने कहा है, सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या में कहीं रिया का नाम नहीं लिया गया था, पर अर्णब अपने चैनल पर रिया को गुनहगार मानकर उसकी गिरफ्तारी का अभियान चला रहे थे। अब जब अदालत के आदेश से वह मामला फिर से खुल गया जिसमें अर्णब का नाम मृतक के हस्तलेख में दर्ज था, तो उस मामले में सहयोग न कर उसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोडऩा कहाँ की समझदारी है?  

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