विचार / लेख

बुद्धिजीवियों को कोरोना के बारे में दुबारा सोचना होगा
07-Nov-2020 2:40 PM
 बुद्धिजीवियों को कोरोना के बारे में दुबारा सोचना होगा

गिरीश मालवीय

अमेरिका के 48 प्रतिशत वोटर्स ने ट्रम्प को वोट किया है और ट्रम्प की कोरोना के संबंध में क्या सोच है यह हम सब अच्छी तरह से जानते हैं। इसका मतलब साफ है कि अमेरिका जिसे बेहद समझदार मुल्क माना जाता है जो तकनीक और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया को लीड करता है वहाँ की 48 फीसदी आबादी कोरोना को फर्जी महामारी मानती है, उसे हॉक्स मानती है! वो भी तब जब दुनिया में सबसे अधिक कोरोना केस अमेरिका में ही पाए गए हैं और मौतें भी सबसे अधिक वहीं हुई है। 48 फीसदी अमेरिकी जनता का ट्रम्प का साथ देना एक बहुत बड़ी घटना है क्योंकि पश्चिमी मीडिया यहाँ हमें अब तक यही बात बता रहा था कि ट्रम्प तो बुरी तरह से हारने वाले हैं जबकि सच्चाई अब हमारे सामने है और वो यह है कि वोट काउंटिंग को तीन दिन हो चुके हैं और आज भी वह मुकाबले में बने हुए हैं ओर डर है कि वह कही वापसी नही कर जाए

यहाँ भारत में यह पोस्ट पढक़र बहुत से लोग हंसेंगे लेकिन उससे सच्चाई नहीं बदल जाएगी। आप 48 फीसदी आबादी के समर्थन को खारिज नहीं कर सकते। ऐसा नहीं है कि भारत का आम आदमी इस बात को नहीं समझता, लेकिन वह इस बारे में खुलकर अपने विचार व्यक्त नहीं करता। उसे लगता है कि उसने खुलकर अपनी बात रखी जोर-शोर से कोरोना को हॉक्स कहा, लॉकडाउन जैसे मूर्खतापूर्ण उपायों का विरोध किया तो उसे पुलिस पकड़ कर ले जाएगी जबकि पूरे यूरोप में लॉक डाउन का प्रयोग करने के विरोध में जनता स्वस्फूर्त प्रदर्शन कर रही है।

ऐसा क्यों है? क्या आपने कभी जानने की कोशिश की?

दरअसल आधुनिक युग में भारत में कोई महामारी की बात पहली बार ही सामने आई है लेकिन यूरोप में महामारियों के नाम पर डराने का सिलसिला बहुत पुराना है। सबसे पहले पाश्चात्य जगत में एड्स का भय फैलाया गया, ( एड्स पर अलग से पोस्ट लिखूंगा कभी) फिर 2002 में सार्स आया जो तेजी से 29 देशों में फैल गया। कमाल की बात यह है कि ये भी कोरोना वायरस परिवार से ही संबंधित बीमारी थी लेकिन यह वायरस आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया शायद तब विश्व की आर्थिक परिस्थितियां इस बीमारी का बोझ उठाने के काबिल नही थी

2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद आई स्वाइन फ्लू चर्चा में आया 2009 में इस पैनडेमिक को बहुत बड़ी आपदा के रूप में देखा जा रहा था इस बीमारी का भी यूरोप अमेरिका में बहुत हल्ला मचा यूरोप की सरकारों ने हजारों करोड़ की डील दवा निर्माताओं कम्पनियों से वैक्सीन ओर दवाओं के लिए की बाद में पता चला कि यह बीमारी उतनी बड़ी बिल्कुल भी नही थी जितना कि उसे बताया गया। बड़े पैमाने पर सरकारी भ्रष्टाचार के प्रकरण सामने आए। वहाँ का आम आदमी समझ चुका था कि यह सिर्फ डराने की ही बात थी।

2012 में एक और जानलेवा कोरोना वायरस मर्स-कोव (मिडल ईस्ट रेसिपेरिटरी सिंड्रोम) का प्रकोप सामने आया अब लोग वहाँ ऐसे वायरस की सच्चाई के बारे में अवेयर हो चुके थे।

फिर आया इबोला वायरस जिसके बारे में भी अनेक दुष्प्रचार किए गए लेकिन इतने सारे महामारियों के अनुमान से यूरोप अमेरिका की जनता में एक समझ विकसित हो गई थी ।

और जब 2020 में जब कोविड 19 का खौफ फैलाया गया और और कुछ बिके हुए पब्लिक हैल्थ एक्सपर्ट लॉकडाउन जैसे बेवकूफाना उपायों की अनुशंसा की तो शुरुआत में तो कोई कुछ नहीं बोला लेकिन बाद में बड़ी संख्या में जनता ऐसे उपायों के खिलाफ हो गई और अपने अनुभवों के आधार पर कोरोना को हॉक्स बताने लगी। लेकिन भारत की जनता तो छोडि़ए यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग भी इसके बारे कोई स्पष्ट सोच विकसित नहीं कर पाया इसलिए यहाँ शुरुआत में हम सभी बिलकुल हक्के-बक्के रह गए, और अभी बहुत से लोग सारी सिचुएशन को जानते-बुझते भी चुप्पी साधे हुए हैं।

लेकिन यूरोप-अमेरिका में लोग अवेयर है और ट्रम्प ऐसी ही जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उन्हें इतना बड़ा जन समर्थन मिलना यह दिखाता है उनकी बात में भी दम हैं और भारत के बुद्धिजीवियों को कोरोना के बारे में दुबारा सोचना होगा।

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