विचार / लेख
आजकल चीन के उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चल रहा है। कहा जा रहा है कि भारत के बाजार चीन के सस्ते उत्पादों से भरे हुए हैं और यह हमारे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान कर रहे हैं। इसी प्रसंग पर मुझे याद आ गया कि एक जमाना वह भी था जब हम चीन को सॉफ्टवेयर यानी जीने का तरीका निर्यात किया करते थे। और मुझे याद आ गए विमलकीर्ति जिन्हें उनके शहर में भी बहुत कम लोग जानते हैं।
यह तस्वीर विमलकीर्ति की है। देखकर समझा जा सकता है कि इसे किसी चीनी पेंटर ने तैयार किया है। चीनी और जापान में उनके लिखे निर्देश सूत्र काफी पॉपुलर हैं। महायान और जेन बुद्धिज्म पर उनके शून्यवाद की गहरी छाप है। और तो और वहां के मठ के कमरे भी उसी आकार के बनते हैं, जिस आकार का कमरा विमलकीर्ति का था।
ह्वेनसांग जब भारत की यात्रा पर आए थे तो खास तौर पर विमलकीर्ति का घर देखने के लिए वैशाली गए थे। वहां ध्वस्त पड़े उनके कमरे का आकार उन्होंने मापा था और तभी से चीन में बौद्ध भिक्षु इसी आकार का यानी 10 बाई 10 फुट का कमरा बनाने लगे। जबकि मुझे नहीं लगता कि वैशाली में भी विमलकीर्ति को लोग ठीक से जानते होंगे।
विमलकीर्ति कोई बौद्ध भिक्षु नहीं थे। वे बुद्ध के समकालीन एक समृद्ध गृहस्थ थे। एक बार जब वे बीमार पड़े तो बड़ी संख्या में लोग उनकी बीमारी का हाल चाल पूछने उनके घर पहुंचने लगे। इस अवसर का लाभ उठाकर वे मिलने वालों को बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपने तरीके से बताने लगे। उनके निर्देशों में मौन का बड़ा महत्व बताया जाता है। कहते हैं इसी से शून्यवाद का जन्म हुआ। खासकर बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने इसे दुनिया भर में प्रतिष्ठा दिलाई। उनके निर्देशों की खासियत यह थी कि यह मठों में रहने वाले बौद्धों के साथ साथ गृहस्थों के लिए भी उतनी ही उपयोगी थी। इसी वजह से चीन और जापान के आम पारिवारिक बौद्धों ने इसे अपनाया।
जब विमलकीर्ति उपदेश दे रहे थे तब बुद्ध ने अपने दस प्रमुख शिष्यों को उन्हें सुनने के लिये बारी बारी से भेजा। मगर दसों ने उनके निर्देशों को अपूर्ण बताया। बाद में उन्होंने बौद्ध साधिका मंजूश्री को भेजा। उन्हें विमलकीर्ति की बातें पसंद आईं। विमलकीर्ति और मंजूश्री का वार्तालाप काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।
विमलकीर्ति के अलावा नागार्जुन, कुमारजीव, बोधिधर्म जैसे कई भारतीय बौद्ध दार्शनिकों का चीन की संस्कृति पर गहरा प्रभाव रहा है। बोधिधर्म तो वहां के मार्शल आर्ट के भी संस्थापक माने जाते हैं। भले ही आज चीन में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या 20 फीसदी से कम ही है। मगर फिर भी यह काफी बड़ी संख्या है। और जो लोग बौद्ध धर्म को नहीं मानते उनपर भी इस धर्म और इसके बहाने भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव है।
दिलचस्प है कि जिस बौद्ध धर्म ने पूरे एशिया में भारतीय विचारों को स्थापित किया, जिसे लाइट ऑफ एशिया कहा जाता है, वह भारत में ही धीरे धीरे क्षीण हो गया। आज हम ताइवान द्वारा बनाये गए राम और ड्रेगन की तस्वीर को देख कर खुश होते हैं। मगर सम्राट अशोक के धम्म विजय अभियान को भूल जाते हैं। जिनकी वजह से पूरे एशिया में हमारे विचारों की जीत हुई थी। उसे स्वीकारा गया था। कहते हैं चीन के शासकों ने भारत से बौद्ध भिक्षुओं का अपहरण करवा लिया था, ताकि वे बुद्ध के विचारों से अवगत हो सकें।