विचार / लेख
कोविड 19 महामारी फैलने के बाद केन्द्र सरकार ने देश में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। जिसके तहत केन्द्र सरकार 9,940 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। केन्द्र सरकार देश के तीन राज्यों में तीन मेगा बल्कड्रग पार्क बनाने जा रही है जिसमें से हर एक में करीब 3000 करोड़ रुपये अगले 5 सालों में खर्च किये जायेंगे।
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की खबरों के बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत आवश्यक तथा जीवनरक्षक दवाओं के उत्पादन के लिये चीन पर अत्यधिक निर्भर है। भारतीय दवा कंपनियां तकरीबन 60 ऐक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स इनग्रेडियेंट या एपीआई चीन से मंगाती रही हैं, जो चीन के हेनान, हुबेई, गुआनडोंग, हुनान, वुहान, झेजेंग में बनते हैं। यह दिगर बात है कि बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट के लिए चीन पर निर्भर होने के बावजूद भारत यूरोप, इटली, अमरीका जैसे दुनिया के करीब 200 देशों को दवाओं की सप्लाई करता है तथा ‘फॉर्मेसी ऑफ वल्र्ड’ के नाम से जाना जाता है।
यदि भारतीय दवा कंपनियां चीन की बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट का बहिष्कार तुरंत कर दें तो भारत में दवाओं की आपूर्ति बाधित हो जायेगी। हालांकि, हाल ही में केन्द्र सरकार ने भारत में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट के देश में ही उत्पादन के लिये कई कदम उठाए हैं लेकिन उसके बावजूद तुरंत ही इससे कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है। इस कारण से जीवनरक्षक तथा आवश्यक दवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये सावधानी से कदम उठाने की जरूरत है न कि उन्माद में आकर बहिष्कार-बहिष्कार का नारा दिया जाए खासकर दवाओं के मामले में।
भारत सरकार के द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार साल 2018-19 में देश में दवाओं का वार्षिक कारोबार 2 करोड़ 58 लाख 5 हजार 3 सौ 41 करोड़ रुपयों का था जिसमें से 1 करोड़ 28 लाख 2 सौ 82 करोड़ रुपयों के दवाओं तथा एंटरमीडियेट का निर्यात किया गया। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इससे देश को कितनी विदेशी मुद्रा की आय होती है।
चीन पर दवाओं के लिए निर्भरता का मामला साल 2016 में संसद में उठा था। भारतीय दवा कंपनियां दवा उत्पादन में लगने वाली 84 फीसदी बल्कड्रग का आयात करती हैं, जिसमें से 65 से 70 फीसदी चीन से आयात किया जाता है। दरअसल, इन बल्क ड्रग से ही जीवन रक्षक तथा आवश्यक दवाएं बनाई जाती हैं। दो साल पहले जब चीन की सरकार ने पर्यावरणीय कारणों से चीन के कई उत्पादन इकाई को बंद कर दिया था तब भारत में बल्क ड्रग के दाम बढ़ गए थे। मसलन बुखार की दवा पैरासीटामॉल के बल्कड्रग का दाम 45 फीसदी, एंटीबायोटिक एजिथ्रोमाइसिन का दाम 36 फीसदी, सिप्रोफ्लाक्सासिन का दाम 28 फीसदी बढ़ गया था।
इसके अलावा भी अल्सर की दवा रैबीप्राजॉल, इशमोप्रजॉल, पैन्टाप्रजॉल, नसों की दवा मिथाइलकोबाल्मिन, उच्च रक्तचाप की दवा लोसारटन, टेल्मीसारटान, हृदयरोग की दवा सिल्डनाफिल तथा सिफोलोस्पोरिन ग्रुप की दवा सीफेक्सिन, सैफपोडक्सोमिन और सेफ्युरोक्सिन के बल्क ड्रग की कीमत बढ़ गई थी। इससे यही साबित होता है कि आप लाख वैश्वीकरण के गुणों का बखान करे परन्तु जिस देश से आयात किया जाता है वहां पर होने वाली हर हलचल से हम प्रभावित हो जाते हैं। बता दें कि हमारे देश में दवाओं पर ढीला-ढीला ही सही, मूल्य नियंत्रण लागू है। ऐसी हालात में कौन सी निजी कंपनी घाटा सहकर जनता को दवा बेचेगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
मोदी सरकार-1 के समय वाणिज्य मंत्रालय और बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास ने संयुक्त रूप से एक अध्ययन करवाया था। जिसे तत्कालीन वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने जारी किया था जिसमें कहा गया था कि भारत दवाओं के एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स के लिए चीन पर निर्भर है। इसके अनुसार भारत अपने पड़ोसी देशों से करीब 80 फीसदी (मात्रा के आधार पर) एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स का आयात करता है।
इसी अध्ययन में पाया गया कि चीनी सरकार वहां की एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स बनाने वाली निजी कंपनियों को भरपूर मदद करती तथा बैंकों से भी कम ब्याज पर कर्ज दिया जाता है। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि चीन की दवाओं को भारत में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए 2-5 माह का समय लगता है जबकि चीन में भारतीय दवाओं को रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए -5 साल का समय लगता है। जाहिर है कि इस मामले में भारत कुछ ज्यादा ही खुला हुआ देश है।
दवाओं के लिये चीन पर अति निर्भरता पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने आगाह भी किया था। उसके बाद कटोच समिति का गठन किया गया, जिसने अपनी अनुशंसा में कहा कि देश में बल्कड्रग के उत्पादन को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए निर्माताओं को कर सहित कई रियायतें दी जाए पर उसके बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है।
दो-ढाई दशक पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। तब बल्कड्रग का हमारे यहां उत्पादन होता था तथा उसे विदेशों को निर्यात भी किया जाता था। पर वैश्वीकरण की जंग में भारत इसमें पिछड़ गया, क्योंकि चीन से मंगाये जाने वाले बल्कड्रग सस्ते होने लगे।
दुखद यह है कि पिछले कई दशकों से सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां सरकारी नीतियों के कारण बीमार हो गई हैं। सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि देश का आत्मनिर्भर दवा उद्योग विदेशों पर निर्भरशील होता जा रहा है। पूरी दुनिया में भारत को ‘फॉर्मेसी ऑफ वल्र्ड’ माना जाता है। करीब 200 देशों को भारत से दवाओं का निर्यात किया जाता है। यहां तक कि जब से अमरीका में भारतीय कंपनियों ने एड्स की दवा सस्ते दामों में उपलब्ध कराई, तो मजबूरन वहां की दवा कंपनियों को भी अपनी दवाओं के दाम कम करने पड़े। इसका सीधा लाभ मरीजों को हुआ। दवा उद्योग की देश की जीडीपी में 1।75 फीसदी की भागीदारी है।
कोविड-19 महामारी फैलने के बाद केन्द्र सरकार ने देश में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। (बाकी पेज 8 पर)
जिसके तहत केन्द्र सरकार 9,940 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। केन्द्र सरकार देश के तीन राज्यों में तीन मेगा बल्कड्रग पार्क बनाने जा रही है जिसमें से हर एक में करीब 3000 करोड़ रुपये अगले 5 सालों में खर्च किये जायेंगे। इन बल्कड्रग पार्को में कॉमन सॉल्वेंट रिकवरी प्लांट, डिस्टीलाइजेशन प्लांट, बिजली तथा भाप की व्यवस्था रहेगी। यहां पर बनाने के लिये 53 बल्कड्रग, 26 फरमेंटेशन बेस्ड बल्कड्रग तथा 27 केमिकल सिंथेसिस बेस्ड बल्कड्रग को चिन्हित किया गया है। इनके उत्पादन पर भारतीय बल्कड्रग कंपनियों को इसेंटिव भी दिया जायेगा।
जाहिर है कि बल्कड्रग के उत्पादन के मामलें में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिये मोदी सरकार द्वारा उठाये गये कदम सराहनीय हैं लेकिन जैसा कि घोषणाओं से ही जाहिर है कि यह योजना अगले 5 सालों के लिये बनाई गई है तथा इसमें एक-दो साल का समय लगने वाला है। तब तक बहिष्कार-बहिष्कार का नारा देने वालों को दिल थामकर बैठना पड़ेगा। आखिरकार दिल की दवाईयों के लिये भी हम वर्तमान में चीन पर ही निर्भर हैं।