संपादकीय
अमरीका के टेनेसी राज्य में पुलिस ने अपनी एक स्पेशल यूनिट को भंग कर दिया है। इस यूनिट की एक टीम के पांच अफसरों को पिछले हफ्ते एक काले नौजवान को बुरी तरह पीटने के आरोप में, उसकी मौत हो जाने के बाद, नौकरी से निकाल दिया गया है। यह पूरी हिंसक पिटाई एक सार्वजनिक जगह पर वीडियो में दर्ज हुई है, और यह वीडियो सामने आने के बाद इस पुलिस के नाम पर थूका जा रहा था। इस मामले को लेकर अमरीका में कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे, और लोग पुलिस के आतंक की कुछ पुरानी कुख्यात वारदातों को भी इस सिलसिले में याद कर रहे थे। अश्वेत की मार-मारकर हत्या के इस मामले में तकनीकी रूप से कोई नस्लभेद नहीं है, क्योंकि मारने वाले तमाम पुलिस-अफसर अश्वेत ही थे। अमरीका में नस्लभेद के माहौल में काले लोग अपने को काला कहलाना पसंद करते हैं, क्योंकि उनका यह मानना है कि उनकी पहचान श्वेत लोगों से तुलना करते हुए अश्वेत के रूप में नहीं होनी चाहिए, काले के रूप में होनी चाहिए। अमरीका बुरी तरह से नस्लभेद का शिकार देश है, फर्क सिर्फ यही है कि वहां का कानून इसके खिलाफ तेजी से काम करता है।
अब एक काले नौजवान को सडक़ पर ट्रैफिक जांच करते हुए पांच काले पुलिस वालों ने मार-मारकर मार डाला, तो क्या यह पूरी तरह नस्लभेद से परे का मामला है? इस मामले को हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक सत्ता की ताकत के साथ जुड़े हुए लोगों के मिजाज को देखकर समझने की जरूरत है। खुद अमरीका का एक सर्वे यह कहता है कि जब किसी काले पर जुल्म की वारदात होती है, तो पुलिसवर्दी के काले लोग भी पीछे नहीं रहते। हिन्दुस्तान की राजनीति और सत्ता में ऊपर आए हुए लोगों को देखें, तो उनके बीच भी यही बात दिखती है कि वे चाहे दलित-आदिवासी तबकों की रिजर्व सीटों से लडक़र आ जाएं, चाहे उन तबकों के वोटों को पाकर आ जाएं, जब वे सत्ता पर आ जाते हैं, तो उनका मिजाज सत्ता का हो जाता है। कोई दलित या आदिवासी अफसर किसी दलित या आदिवासी का जायज काम भी नाजायज रिश्वत लिए बिना करते हों, ऐसा सुनने में नहीं आता। सत्ता तक पहुंचने के लिए जाति की जिस सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता है, लोग सबसे पहले उसी सीढ़ी को लात मारकर गिराते हैं, ताकि उनकी बिरादरी के दूसरे लोग उन सीढिय़ों से उनकी बराबरी तक न पहुंच जाएं।
सत्ता का मिजाज ऐसा होता है कि जो महिलाएं सत्ता पर पहुंचती हैं, वे भी सत्ता पर बैठे हुए मर्दों की तरह ही सोचने लग जाती हैं, और हिन्दुस्तान के संदर्भ में देखें तो बलात्कार की शिकार महिलाओं के खिलाफ जितने बयान मर्दों के आते हैं, उनसे कुछ ही कम बयान औरतों के भी आते हैं। अगर महिलाओं को दूसरी महिलाओं की, उनके हकों की फिक्र होती, तो फिर सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती, और महबूबा की पार्टियां मिलकर महिला आरक्षण विधेयक को कब का कानून बनवा चुकी रहतीं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि भारतीय संसदीय राजनीति पर हावी मर्दों का दिल औरतों की बराबरी मानने के खिलाफ हमेशा अड़े रहा, और महिलाएं पार्टी की अध्यक्ष रहते हुए भी, उन पर मालिकाना हक रखते हुए भी कोई कोशिश करते नहीं दिखीं।
अमरीका में काले पुलिस अफसरों के हाथों एक गरीब काले नौजवान की इस तरह हत्या से उस देश और बाकी दुनिया में यही सवाल उठ खड़े होते हैं कि सत्ता की ताकत, ओहदे की ताकत, क्या लोगों को अपनी जाति, अपने धर्म, और अपने रंग के प्रति भी संवेदनशील नहीं छोड़ती है? सत्ता लोगों की बुनियादी सोच को ही बदल देती है, और वह औरत-मर्द का फर्क भी खत्म कर देती है। अभी साल भर के भीतर की बात है, बंगाल में एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार के मामले में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने ऐसी गैरजिम्मेदारी का बयान दिया था कि जिसे लोगों ने जमकर धिक्कारा। ममता ने इस बलात्कार पर सवाल उठाया और कहा- ‘यह खबर बताती है कि एक नाबालिग की बलात्कार की वजह से मौत हो गई है, क्या आप इसे बलात्कार कहेंगे? क्या वह गर्भवती थी, या उसका किसी से कोई प्रेम-प्रसंग था? क्या इसकी जांच हुई है? मैंने पुलिस से जांचने कहा है। मुझे बताया गया है कि इस लडक़ी का किसी लडक़े के साथ कोई चक्कर था, और परिवार को इसके बारे में मालूम था। अगर एक जोड़े में कोई संबंध है, तो क्या मैं उसे रोक सकती हूं?’ एक मुख्यमंत्री की हैसियत से, और एक महिला होते हुए लोगों ने इस बयान को जमकर धिक्कारा था। लेकिन अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग महिला लीडर, या उनकी पार्टी के पुरूष लीडर ऐसे बयान देते हैं, और इनसे यही साबित होता है कि महिलाएं भी अपनी पार्टी की लीडर बनने के बाद महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता कुछ या बहुत हद तक खो बैठती हैं। ताकत एक नशा होता है, और इसके असर से बचना मुश्किल होता है। अगर सरकारों में बैठे दलित या आदिवासी अफसर और कर्मचारी ही दलित और आदिवासी जनता के काम बिना रिश्वत लिए करने लगते, उनके काम करवाने के लिए कुछ मेहनत करते होते, तो आज इन दबे-कुचले तबकों की हालत इतनी खराब नहीं होती। किसी समाज से आकर ताकत के ओहदे तक पहुंचने वाले लोगों को उनके समाज का प्रतिनिधि मानना ठीक नहीं है, वे सिर्फ सत्ता के प्रतिनिधि होकर रह जाते हैं।
आज चाहे हॅंसी-मजाक में सही, कई डॉक्टरों के ऐसे असली या मजाकिया नोटिस देखने में आते हैं कि गूगल पर पढक़र आए लोगों के सवालों के लिए अलग से फीस ली जाएगी। दरअसल इंटरनेट पर सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाले सर्च इंजन गूगल पर किसी जानकारी को ढूंढने को ही अब ढूंढना मान लिया गया है। गूगल अब ब्रांड नहीं रह गया, वह अब एक क्रिया बन गया है, तलाशने का समानार्थी शब्द बन गया है। लोगों को स्कूल-कॉलेज के प्रोजेक्ट पूरे करने हो, या किसी इंटरव्यू की तैयारी करनी हो, उन्हें सबसे आसान और आम सलाह यही मिलती है कि गूगल कर लो। ऐसा माना जाता है कि लोगों की अधिकतर जरूरतों की जानकारी इस सर्च इंजन पर निकल आती है। इसके बाद इंटरनेट पर एक दूसरी वेबसाइट विकिपीडिया है जो कि विश्व ज्ञानकोश है, और उस पर मिली अधिकतर जानकारी आमतौर पर सही मानी जाती है। लोगों की आम जरूरतें इस पर पूरी हो जाती हैं, और खास जरूरतों के लिए दूसरी वेबसाइटें भी इंटरनेट पर हैं।
सहूलियत के ऐसे माहौल के बीच अचानक एक नई वेबसाइट आई है जो कि इंटरनेट पर काम करने वाला एक एआई एप्लीकेशन है, एआई का मतलब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस। चैटजीपीटी नाम की यह वेबसाइट 2021 तक की जानकारी से लैस है, और इस पर जाकर लोग मनचाही फरमाइश कर सकते हैं। कोई उस पर नासा या इसरो के लिए एक निबंध लिखने कह सकते हैं, कोई भूपेश बघेल पर कविता लिखने की फरमाइश कर सकते हैं, और कोई रमन सिंह पर कविता लिखवाकर यह पा सकते हैं कि इस एप्लीकेशन में सिर्फ नाम बदलकर दोनों की तारीफ में एक ही कविता खपा दी है। लेकिन अभी कुछ महीनों के भीतर इस वेबसाइट या एप्लीकेशन की शोहरत ऐसी हो गई है कि अमरीकी विश्वविद्यालयों में इम्तिहान में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब इस पर बनाए जा रहे हैं, और इसका आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जानकारी ढूंढकर, अपनी खुद की भाषा में तकरीबन सही जवाब बनाकर कुछ सेकेंड में ही पेश कर दे रहा है। लोग जिस रफ्तार से पढ़ सकते हैं उससे कई गुना रफ्तार से यह जवाब गढक़र पेश करता है। अभी कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों ने चैटजीपीटी के जवाबों को आंकने की कोशिश की, तो उन्होंने पाया कि बिजनेस मैनेजमेंट जैसे कई कोर्स के इम्तिहानों के जवाब अगर इस वेबसाइट से बनवाए जाएं, तो भी लोग बी या बी माइनस (शायद सेकेंड डिवीजन) से पास हो जाएंगे। और चैटजीपीटी अपने इस्तेमाल करने वाले के सवालों से, इंटरनेट पर रोज जुडऩे वाली जानकारियों से अपने आपको लैस करते चलता है, सीखते चलता है, और हर दिन उसके जवाब पहले से बेहतर हो सकते हैं।
आज मीडिया में भी ऐसा माना जा रहा है कि आम रिपोर्टिंग आने वाले दिनों में हो सकता है कि ऐसे ही किसी सॉफ्टवेयर से होने लगे, और उसमें बुनियादी जानकारी डाल देने से कम्प्यूटर तुरंत ही समाचार बनाकर पेश कर देगा। आज भी चैटजीपीटी पर जानकारियां डालने से वह तुरंत रिपोर्ट बनाकर दे देता है। आने वाला वक्त बिजली की रफ्तार से किसी भी विषय पर लिख देने वाले ऐसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस रहेगा, और दुनिया में मौलिक लेखन के लिए यह एक बड़ा खतरा रहेगा। आज ही पश्चिम के विकसित विश्वविद्यालयों में यह चर्चा छिड़ी हुई है कि चैटजीपीटी जैसे औजारों को देखते हुए अब इम्तिहान लेने के तरीकों में तुरंत बदलाव करना पड़ेगा, क्योंकि अब सवालों के लंबे जवाब लिखने, या निबंध लिखने के ढंग से इम्तिहान बेकार हो जाएंगे क्योंकि कुछ पल में ही लोग दुनिया के किसी भी विषय पर ऐसा निबंध पा सकते हैं। ऐसा ही हाल पत्र-पत्रिकाओं या मीडिया की दूसरी जगहों पर लिखने वालों का भी होगा, क्योंकि उनसे बेहतर लिखा हुआ पल भर में पेश हो जाएगा, तो उनकी जरूरत क्या रह जाएगी?
आज डिजिटल टेक्नालॉजी पर टिकी हुई पढ़ाई वैसे भी सीखने और जवाब देने की मौलिकता खोती चल रही है। लोग गूगल पर एक किस्म के जवाब ढूंढते हैं, और मशीनी अंदाज में जवाब लिखते हैं। और अब तो हर किसी के लिए अलग-अलग किस्म से लिखे हुए जवाब चैटजीपीटी जैसी वेबसाइटों पर बढ़ते ही चलेंगे, और इससे सीखने का सिलसिला भी बहुत बुरी तरह प्रभावित होगा। मूल्यांकन करने वाले लोगों को यह समझ ही नहीं आएगा कि जवाब या इम्तिहान देने वाले लोगों ने क्या खुद लिखा है, और क्या उनके लिए चैटजीपीटी जैसे सॉफ्टवेयर ने लिखा है।
हजारों बरस में दुनिया ने भाषा सीखी, दुनिया भर के विषयों पर जानकारी हासिल की, उनका विश्लेषण किया, और ज्ञान को समझ में तब्दील किया। अब रातों-रात एक ऐसी मुफ्त की सहूलियत लोगों के फोन और कम्प्यूटर पर पहुंच गई है कि उसने हजारों बरस के विकास की बराबरी कुछ सेकेंड में करने की कोशिश की है। अभी बस उसने भाषा और ज्ञान को सीखा है, लिखना सीखा है, लेकिन फिर भी वह है तो कृत्रिम ही। उसे दो बिल्कुल अलग-अलग सोच के नेताओं पर कविता लिखते हुए नाम बदलने के अलावा कुछ और बदलना नहीं सूझता। यहां पर आकर वह बेवकूफ है। लेकिन दुनिया में मूल्यांकन के अधिकतर तरीके भी इसी तरह के या इसी दर्जे के बेवकूफ हैं। इसलिए कृत्रिम बुद्धि का बनाया हुआ माल भी बाजार में तकरीबन तमाम जगहों पर काम कर जाएगा, खप जाएगा। बहुत ही कम ऐसी जगहें रहेंगी जहां पर मौलिकता का सम्मान होगा, उसकी जरूरत होगी, और उसे परखा जा सकेगा। फिलहाल एक जानकार ने नसीहत यह दी है कि लोग अपने जिन मोबाइल फोन से लेन-देन का काम करते हैं उन पर आर्टिफिशियल इंटेलीजेेंस के कोई भी एप्लीकेशन डाउनलोड न करें क्योंकि वे फोन पर आपके तमाम काम से लगातार सीखते चलते हैं, और हो सकता है कि वे आपके बैंकों के पासवर्ड भी सीख जाएं, जो कि आगे जाकर हैकरों के हाथ लग जाएं। इसलिए यह कृत्रिम बुद्धि लोगों को इस एप्लीकेशन की शक्ल में मुफ्त में हासिल तो है, लेकिन दुनिया में जैसा कहा जाता है कि कुछ भी मुफ्त नहीं होता, इसे भी सावधानी से इस्तेमाल करना चाहिए। और स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय को भी ऐसी तकनीक को अपनी परंपरागत परीक्षा प्रणाली के लिए एक बड़ी चुनौती मानना चाहिए कि इसके बाद अब उनके दिए जा रहे ज्ञान और लिए जा रहे इम्तिहान की शक्ल क्या होनी चाहिए।
मध्यप्रदेश में डीआईजी स्तर की एक आईपीएस और उसके आईएएस पति के सरकारी बंगले पर तैनात सिपाहियों को लेकर एक प्रमुख अखबार भास्कर ने एक रिपोर्ट की तो यह पता लगा वहां 44 सिपाही सेवा में लगे हुए हैं। ये सिपाही वहां खाना पकाते, झाड़ू-पोंछा करते हैं, कपड़े धोते हैं, माली का काम करते हैं, और चौकीदारी करते हैं। अखबार का हिसाब है कि इन सिपाहियों को हर महीने 27 लाख रूपए से ज्यादा का भुगतान किया जा रहा है। सिर्फ खाना बनाने के लिए यहां 12 सिपाही तैनात हैं। यह हाल मध्यप्रदेश में तब है जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने बंगलों पर सिपाहियों की ड्यूटी के खिलाफ नाराजगी दिखाई थी। इस अफसर जोड़े के बंगले पर आईएएस पति के विभाग के 12 कर्मचारी भी तैनात हैं।
इन दो अफसरों को कुल मिलाकर पांच लाख रूपए महीने के आसपास तनख्वाह मिलती होगी, लेकिन इनके बंगलों पर तैनात सरकारी कर्मचारियों पर 30 लाख रूपए महीने खर्च हो रहे हैं। यह नौबत अकेले मध्यप्रदेश में नहीं है, उसका हिस्सा रह चुके छत्तीसगढ़ में यही हाल है। एक-एक अफसर के बंगले पर दर्जनों कर्मचारी तैनात हैं, और वे अमानवीय स्थितियों में काम कर रहे हैं। अभी कुछ समय पहले ही ऐसे एक बंगले पर तैनात एक बटालियन के सिपाही ने अफसर के लगातार चल रहे जुल्मों से थककर उसे एक थप्पड़ मारी, और बताया कि वह किस आरक्षित जाति का है, और वह अफसर उसका जो बिगाड़ सकता है बिगाड़ ले, वह खुद ही थाने जाकर एसटी-एससी एक्ट में उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखा रहा है। इसके बाद किसी तरह कई अफसरों ने मिलकर दौड़-भाग करके उस जवान को मनाया, और उसे बस्तर में तैनात उसकी बटालियन वापिस भेजा गया। एक दूसरे बहुत बड़े सवर्ण रिटायर्ड अफसर के बंगले पर दर्जनों कर्मचारी तैनात हैं, और उनमें से जो बंगले के भीतर काम करते हैं, उन्हें आकर नहाकर भीतर जाना पड़ता है। खाना पकाने वाले कर्मचारियों को नहाकर बंगले के धोती-कुर्ते में किचन में जाना पड़ता है, और खाना बनाना पड़ता है। अब एक सवर्ण अफसर को एक एसटी-एससी सिपाही के थप्पड़ के बाद भी अगर बाकी लोगों को खतरा समझ नहीं आ रहा है, तो छोटे कर्मचारियों के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव पुलिस कर्मचारियों के परिवारों के आंदोलन के लिए एक पर्याप्त वजह होनी चाहिए।
जब लोग पुलिस में भर्ती होते हैं, तो वे ऐसे अमानवीय बर्ताव के लिए नहीं आते हैं। सिपाहियों के साथ जब ऐसा बर्ताव होता है, तो मुजरिमों पर कार्रवाई करने का उनका मनोबल भी टूट जाता है, और वे अपने परिवार के बीच भी सिर उठाकर नहीं जी पाते हैं। विभाग के दूसरे कर्मचारियों के बीच भी वे मखौल का सामान बन जाते हैं, और काम के इस तरह के हालात उनके बुनियादी मानवाधिकार के भी खिलाफ हैं। न सिर्फ सरकार को अपने अमले की ऐसी बर्बादी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, बल्कि मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था को भी खुद होकर हर अफसर से हलफनामा लेना चाहिए कि उनके बंगले पर कौन-कौन लोग काम कर रहे हैं, वे किस-किस विभाग से आए हुए हैं। अब ऐसा तभी हो सकेगा जब मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था के अध्यक्ष या सदस्यों के घरों पर इसी तरह से सिपाही या दूसरे कर्मचारी तैनात नहीं होंगे। अगर जजों के बंगलों पर भी यही हाल रहेगा, तो फिर कर्मचारियों के ऐसे बेजा इस्तेमाल के खिलाफ कोई पिटीशन लगाने का भी कोई फायदा नहीं होगा।
यह पूरा सिलसिला बहुत ही अलोकतांत्रिक और अमानवीय है। यह इंसानों को गुलामों की तरह इस्तेमाल करने का है, और अपनी तनख्वाह से दस-बीस गुना बर्बादी कर्मचारियों की तैनाती की शक्ल में करने का भी है। अब सवाल यह उठता है कि जब तमाम अफसर, रिटायर्ड अफसर, मंत्री, और दूसरे नेता, सभी लोग ऐसी गुलामी-प्रथा का मजा ले रहे हैं, तो कार्रवाई कौन करे? यहां पर पुलिस कर्मचारियों के परिवारों को चाहिए कि इसी एक मुद्दे को लेकर वे जमकर आंदोलन छेड़ें, मीडिया में जाएं, अदालतों में जाएं, तरह-तरह की वीडियो रिकॉर्डिंग जुटाएं, और नेता-अफसर सबका भांडाफोड़ करें। ऐसा लगता है कि अंग्रेज अफसरों के घर पर भी कर्मचारियों की इतनी बड़ी भीड़ नहीं रहती होगी। भोपाल में जिस अखबार के भांडाफोड़ से यह गिनती सामने आई है, वैसे तमाम कर्मचारियों से हलफनामे लेने चाहिए कि वे कहां काम कर रहे थे। उन्हें तैनात करने वाले अफसरों से भी हलफनामे लेने चाहिए कि उन्होंने किस आधार पर कर्मचारियों को किसी बंगले पर भेजा था। हिन्दुस्तान एक गरीब देश है, लेकिन आजादी की पौन सदी बाद भी आज के अफसर अंग्रेज बहादुर की तरह राज कर रहे हैं, और यह सिलसिला सामाजिक दखल से भी खत्म करना चाहिए। जनसंगठनों और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे छोटे-छोटे बेजुबान कर्मचारियों को गुलामी से आजाद कराने के लिए एक सामाजिक आंदोलन छेड़ें, और ऐसे बंगलों के सामने खड़े रहकर आने-जाने वाले कर्मचारियों की रिकॉर्डिंग करें, और बंगलों पर काबिज लोगों का जीना हराम करें।
बहुत से अफसरों के परिवार कर्मचारियों के साथ तरह-तरह की बदसलूकी करते हैं। कई जगहों पर वर्दीधारी कर्मचारियों को साहबों के बच्चों का पखाना धोना पड़ता है, और उनके जानवरों को नहलाना भी पड़ता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और एक लोकतांत्रिक समाज में ऐसे सामंती सिलसिले की कोई जगह नहीं हो सकती। छत्तीसगढ़ में भी लोगों को आरटीआई के माध्यम से, या बंगलों की निगरानी करके कर्मचारियों के नाम जुटाने चाहिए। विधानसभा के सदस्य अगर खुद इस तरह का बेजा इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें वहां ये सवाल उठाने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के कोरबा में कल एक आदतन मुजरिम को जिलाबदर किया गया। उसे एक साल के लिए कोरबा जिले से बाहर रहने को कहा गया है। गोपू पांडेय नाम के इस नौजवान के खिलाफ बहुत से हिंसक मामले दर्ज थे, और पुलिस की कार्रवाई का कोई असर न देखते हुए उसे चौबीस घंटे के भीतर जिला छोड़ देने को कहा गया। इसके साथ ही उसे कोरबा से लगे हुए जिलों, बिलासपुर, जांजगीर-चाम्पा, सक्ती, रायगढ़, सरगुजा, सूरजपुर, कोरिया, मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर, और गौरेला-पेण्ड्रा-मरवाही जिलों से भी एक साल के लिए बाहर चले जाने के लिए कहा गया। ऐसे जिलाबदर के मामले जिला पुलिस की बनाई गई फाईल के आधार पर जिला मजिस्ट्रेट के हुक्म से पूरे होते हैं। जिलाबदर के मामले कम होते हैं, और ऐसे ही आदतन गुंडे-बदमाश, मुजरिम के खिलाफ होते हैं जो कि पुलिस की आम कार्रवाई से काबू में नहीं आ रहे हैं।
अंग्रेजों के वक्त का बना हुआ जिलाबदर कानून आजाद हिन्दुस्तान के मानवाधिकार के किसी पैमाने को देखते हुए नहीं बना था। किसी को पूरे एक बरस के लिए उसके जिले, और आसपास के तमाम जिलों के बाहर भेज देने का मतलब उसके लिए जिंदा रहने की एक चुनौती भी खड़ी कर देना है, क्योंकि अगर वह ऐसा ही आदतन मुजरिम या गुंडा-बदमाश है, तो उसके लिए बाहर जाकर कोई काम करना आसान नहीं होगा। दूसरी बात यह कि जो एक जिले के लिए खतरनाक साबित हो रहा है, उस खतरे को उठाकर बाकी जिलों पर डाल दिया जाए, यह उनके साथ बेइंसाफी है कि ऐसे गुंडे का जिला अपनी बला दूसरों पर डाल रहा है, और उन दूसरे जिलों में इस अपराधी की कोई शिनाख्त भी नहीं है, वहां पर वह अपने आदतन जुर्म और आसानी से कर सकता है, वहां वह लोगों के लिए एक अधिक बड़ा खतरा बन सकता है क्योंकि उसे आते-जाते देखकर उस पराये जिले की पुलिस मुजरिम की तरह पहचान भी नहीं पाएगी।
इस बारे में बात करने पर कुछ पुलिस अफसरों का यह कहना है कि यह बहुत ही दुर्लभ मामलों में होने वाली कार्रवाई है, और ऐसे मामले गिने-चुने रहते हैं, इसलिए इन्हें किसी मानवाधिकार से जोडक़र देखना जायज नहीं है। पुलिस का यह भी तर्क रहता है कि ऐसे लोग स्थानीय स्तर पर अपने बाहुबल, और अपने गिरोह के चलते बाकी तमाम लोगों के मानवाधिकार कुचलने की हालत में रहते हैं, कुचलते ही रहते हैं, और ऐसे लोगों को अगर एक साल बाहर रहकर जिंदा रहने को कहा जाए, तो यह उन्हें उनके गिरोह की ताकत से दूर रखना भी होता है, और आज के वक्त हर किसी के पास किसी न किसी तरह की मजदूरी करने का विकल्प रहता है, इसलिए ऐसे कोई गुंडे दूसरे जिलों में भी जाकर भूखे नहीं मर सकते। अपने खुद के जिलों में ये इतने बड़े दबंग गुंडे रहते हैं कि वहां जुर्म करना उनके लिए आम बात रहती है, और इलाके के लोगों के लिए उनके खिलाफ शिकायत करना खतरे की बात हो जाती है। पुलिस का यह भी कहना रहता है कि यह किसी को भूखे मारने का काम नहीं है, और खुले समाज में मेहनत-मजदूरी करके या अपने हुनर का और कोई काम करके लोग आसानी से जिंदा रह सकते हैं।
अब मानवाधिाकर के नजरिए से देखें तो ऐसे गुंडे-बदमाश या मुजरिम जुर्म के अलावा भी हो सकता है कि कोई और काम करके अपने परिवार को भी चला रहे हों। जिन्हें कोई अदालती सजा मिले, उनका तो जेल जाना, और परिवार को बेसहारा छोड़ देना एक कानूनी नौबत है, लेकिन बिना सजा मिले जिलाबदर कर देना एक बड़ी सजा है, जो कि पुलिस की कार्रवाई नहीं कही जा सकती, यह कार्रवाई से अधिक है, और सजा है। यह अपने आपमें एक अलोकतांत्रिक बात है कि अदालती कार्रवाई का विकल्प मौजूद रहते हुए पुलिस और प्रशासन मिलकर किसी को जिलाबदर की ऐसी सजा दें, जिसे वे सजा में नहीं गिनते। लेकिन पुलिस का एक तर्क देखने-समझने लायक है कि ऐसे आदतन या पेशेवर गुंडे-बदमाश या मुजरिम आए दिन करने वाले जुर्म के लिए अदालतों से हाथों-हाथ जमानत पा जाते हैं। कायदे से तो होना यह चाहिए कि हर जुर्म के साथ पिछले जुर्मों के रिकॉर्ड भी अदालत में पेश होने चाहिए जिससे न तो ताजा जुर्म पर जमानत मिल सके, और न ही पिछले जुर्म में मिली जमानत जारी रह सके, लेकिन ऐसा होता नहीं है। पुलिस और अदालत का सिलसिला इतना बेअसर और शायद भ्रष्ट भी रहता है कि लोग दस-दस अलग-अलग जुर्मों पर जमानत लिए हुए घूमते रहते हैं, और उनके मामलों की सुनवाई की बारी नहीं आती, सजा की बात तो दूर रही।
जिलाबदर के ऐसे मामलों को देखें तो यह साफ दिखाई पड़ता है कि दर्जन-दर्जनभर जुर्म जिन पर दर्ज है, वे हर मामले में जमानत लिए घूम रहे हैं, और हर नए मामले में पुराने तमाम जुर्म का जिक्र भी हो रहा है, और पहले की कोई भी जमानत रद्द भी नहीं हो रही है। मतलब यह कि आज जिलाबदर की नौबत इस बात का सुबूत है कि जुर्म के खिलाफ अदालती कार्रवाई इतनी बेअसर हो गई है कि पुलिस फैसलों और सजा का इंतजार करते-करते जिलाबदर को मजबूर हो रही है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार की बात करने वालों को यह आसानी से समझ में आएगा कि अदालत की नियमित प्रक्रिया के बेअसर हो जाने से अंग्रेजों के वक्त के ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों का इस्तेमाल जरूरी हो रहा है, या जायज लग रहा है। कायदे की बात यह है कि जिलाबदर की कार्रवाई से होने वाले मानवाधिकार उल्लंघन पर फिक्र होनी चाहिए, लेकिन अदालती रफ्तार ने उस फिक्र की गुंजाइश को खत्म कर दिया है। जब मौजूदा कानून के तहत, जुर्म के सीधे-सीधे मुकदमों में सजा नहीं हो पाती है, उसमें बरसों लग जाते हैं, तब पुलिस को असाधारण ताकत का इस्तेमाल करना पड़ता है, और लोगों को उसके अलोकतांत्रिक होने का अहसास भी नहीं होता। यह भारत की न्याय व्यवस्था के बेअसर होने के हजार किस्म के नुकसानों में से एक है, और यह इस बात का पुख्ता सुबूत है कि इस व्यवस्था में सुधार की कितनी जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कुछ दिनों से पहले नागपुर और अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर बागेश्वर धाम के एक स्वघोषित चमत्कारी धीरेन्द्र शास्त्री नाम के नौजवान को लेकर खबरों में उबल रहे हैं। यह नौजवान कहने के लिए प्रवचनकर्ता या कुछ और है, लेकिन उसकी शोहरत धर्मालुओं के बीच मंच पर चमत्कार दिखाने की है। बहुत से लोगों का कहना है कि ये गढ़े गए चमत्कार रहते हैं, और यह एक पाखंड है, धोखा है। यह नौजवान अपने आपको अलौकिक शक्तियों वाला बताता है, मंच और माइक से धर्म के कपड़े ओढ़े हुए घोर साम्प्रदायिकता की बात करता है, तरह-तरह की धमकी देता है, और नागपुर में जब अंधविश्वास विरोधियों ने इसे चमत्कार साबित करने की चुनौती दी, तो यह वहां से भाग निकला। अब छत्तीसगढ़ में राजधानी के एक कांग्रेस विधायक विकास उपाध्याय ने अपनी धार्मिक गतिविधियों की कड़ी में इस धीरेन्द्र शास्त्री का एक और कार्यक्रम कराया जिसे कि टीवी समाचार चैनलों की मेहरबानी से एक बार फिर चमत्कार साबित करने की कोशिश की गई। अब यह तो वक्त बताएगा कि इस ‘चमत्कारी’ की साख बची या टीवी चैनलों की साख गई।
लोगों के मन की बात बताने, उनका भूतकाल बताने, या भविष्य बताने, उनकी समस्याओं के समाधान बताने वाले ढेर सारे फर्जी और पाखंडी बाबाओं का हिन्दुस्तान में बोलबाला है। ये सिर्फ हिन्दू धर्म में नहीं हैं, ईसाईयों की चंगाई सभाएं होती थीं, जिनमें पोस्टर यही लगते थे कि अंधे देखने लगेंगे, लंगड़े चलने लगेंगे, बहरे सुनने लगेंगे। इसके बाद ईसाई धर्म प्रचारक मंच पर तैयार किरदारों को लाकर पहले उनके विकलांग होने का नाटक पेश करते थे, और फिर उन्हें ठीक करने का। अभी भी इंटरनेट पर ऐसे अनगिनत वीडियो तैर रहे हैं जिनमें मानसिक रूप से परेशान दिखती हुई महिलाएं ऐसे ईसाई धर्म प्रचारकों के छूते ही स्टेज पर झटके से गिरकर लोटपोट होने लगती हैं। हिन्दुस्तान में समाजसेवा का बहुत बड़ा काम करने वाली मदर टेरेसा को भी वैटिकन ने संत की उपाधि तभी दी थी जब वैटिकन की टीम ने किसी एक मरीज का यह बयान दर्ज किया कि मदर टेरेसा के चमत्कार से उसकी बीमारी ठीक हुई। बिना चमत्कार किसी को संत का दर्जा वैटिकन नहीं देता। यह एक अलग बात है कि आज हिन्दुस्तान में कई राज्यों में ऐसे कानून हैं जो चमत्कार से किसी बीमारी को ठीक करने के दावे को जुर्म करार देते हैं, और उन पर सजा है। अब मदर टेरेसा के मामले में तो ऐसे चमत्कार पर ही उनकी संत की उपाधि टिकी हुई है, यह एक अलग बात है कि ऐसा कोई दावा उन्होंने खुद ने नहीं किया था।
एक ऐसे मुस्लिम बाबा का वीडियो भी कुछ समय से सोशल मीडिया पर चल रहा है जो कि विचलित और बीमार महिलाओं के दरबार में बच्चों की खेल की बंदूकों को उनकी तरफ तानकर, चलाकर उनका इलाज कर रहा है। हिन्दुस्तान में प्रचलित अन्य धर्मों में इस तरह के पाखंड की बात याद नहीं पड़ रही है। जैन, सिक्ख, बौद्ध धर्मों की नसीहत हो सकता है कि पाखंडों से परे ले जाती हो। लेकिन हिन्दुस्तान की हिन्दू आबादी ऐसे पाखंड की सबसे बुरी जकड़ में है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जब समाज में डॉक्टरी इलाज ठीक से हासिल नहीं रहता, मनोचिकित्सा हिन्दुस्तान में नहीं के बराबर मौजूद है, और हजार मनोरोगियों में से शायद वह सौ-पचास को भी हासिल नहीं है, तब ऐसे चमत्कारी पाखंडियों की दुकान चल निकलती है। कहीं कोई दरबार लगता है, कहीं प्रवचन के बीच इलाज होता है, तो कहीं पर निर्मल बाबा नाम का एक प्राणी इंटरनेट पर एडवांस बुकिंग से लोगों को टिकटें बेचता है, और हॉल में इक_ा लोगों को दुनिया के सबसे अनोखे समाधान सुझाता है। शुक्रवार को काले कुत्ते को पीले कपड़ों में जाकर लाल समोसा खिलाने से कृपा बरसेगी, जैसा समाधान बतलाने वाला निर्मल बाबा अभी पता नहीं कुछ समय से टीवी से गायब क्यों है, वरना कुछ टीवी चैनल उसी को समर्पित रहते थे। कई और बाबाओं की कई तरह की शोहरत रही, उन्होंने समाजसेवा के कुछ बड़े काम भी किए, लेकिन उनकी महिमा भी चमत्कार के रास्ते स्थापित हुई। पुट्टपर्थी के सत्य सांई बाबा हवा में हाथ उठाकर कई तरह की चीजें पैदा कर देते थे। किसी भक्त को घड़ी, किसी को गहने, और किसी को कुछ और मिल जाता था। उनके भक्त पिछले एक प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव से लेकर बड़े-बड़े जज भी रहे, और ऐसी भक्त मंडली के चलते सत्य सांई बाबा का धार्मिक-आध्यात्मिक कारोबार बहुत फैला। उन्होंने हार्ट के ऑपरेशन के लिए अस्पताल बनाए जिनका गरीबों की जिंदगी में बहुत बड़ा योगदान है, और छत्तीसगढ़ में उनके अस्पताल के कम्प्यूटरों पर बिल बनाने और भुगतान लेने का कॉलम ही नहीं है। यहां सौ फीसदी इलाज मुफ्त होता है। अलौकिक चमत्कारों से जुटाए गए दान का आधुनिक मेडिकल चिकित्सा पर खर्च समझ आता है। लेकिन आज के कई बाबा जिस तरह नफरत फैलाते हुए घूम रहे हैं, साम्प्रदायिकता की बातें कर रहे हैं, वह हिन्दुस्तान को तोडऩे वाली बातें हैं।
अब ऐसे अंधविश्वास और साम्प्रदायिकता को और ताकत तब मिल जाती है जब स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी के मंत्री-मुख्यमंत्री, या विधायक-सांसद ऐसे बाबाओं के आयोजन करवाते हैं, उनके पांवों में पड़े रहते हैं। लोगों को याद होगा कि बलात्कारी आसाराम के अनगिनत वीडियो आज मौजूद हैं जिनमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी आसाराम की स्तुति करते दिखते हैं। लेकिन उन्हीं वीडियो के साथ-साथ कुछ ऐसे वीडियो भी मौजूद हैं जिनमें कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह भी अपने मुख्यमंत्री होने के वक्त आसाराम के पैरों पर पड़े हैं। जिस देश में नेहरू ने एक वैज्ञानिक सोच विकसित की थी, जहां उन्होंने धर्म को निजी आस्था तक सीमित रखा था, हर किस्म के अंधविश्वास और पाखंड का विरोध किया था, हिन्दुस्तान की संस्कृति को धर्मान्धता से अलग करने का बहुत बड़ा काम किया था, आज उन्हीं की पार्टी के नेता पाखंडियों के आयोजन कर रहे हैं जो कि धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता दोनों को फैला रहे हैं। यह बात बहुत हैरान नहीं करती क्योंकि नेहरू की कांग्रेस में उनकी धर्मनिरपेक्ष सोच, और पाखंड का उनका विरोध उन्हीं की बेटी इंदिरा ने खत्म कर दिया था जब वे मचान पर बैठे देवरहा बाबा के लटके हुए पांव के नीचे अपना सिर टिकाने जाकर खड़ी हुई थीं। उसके बाद तो कांग्रेस में धर्मान्धता को औपचारिक मंजूरी ही मिल गई थी, जो आज भी जारी है। कांग्रेस में धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता से पूरी तरह बचे हुए सोनिया परिवार के बावजूद पार्टी मोटेतौर पर धर्म के नाम पर धर्मान्धता को बढ़ा रही है। और भाजपा की तो पूरी बुनियाद ही धर्म पर टिकी हुई है। पूरे देश में फैली हुई महज दो ही पार्टियां हैं, और जब ये दोनों हिन्दुत्व की ए और बी टीम की तरह काम कर रही हैं, तो फिर वैज्ञानिक सोच की गुंजाइश कहां है?
हम देश में फैल रही धर्मान्धता को लेकर महज भाजपा को कोसना इसलिए नहीं चाहते क्योंकि कांग्रेस उसी के पदचिन्हों पर चलते हुए उससे आगे निकलने की हड़बड़ी में दिख रही है। यह एक अलग बात है कि धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों को कांग्रेस के मुकाबले भाजपा अधिक माकूल बैठती है, और वे किसी बी टीम पर दांव क्यों लगाएंगे, जब खालिस और असली ए टीम अभी बाजार में मौजूद भी है, और अधिक कामयाब भी है। धर्मान्ध आयोजन करवाने वाले कांग्रेस नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि वे इस पाखंड में सडक़ों पर कितना ही नाचें, वोट के दिन धर्मान्ध लोगों को कांग्रेस सबसे बेहतर पार्टी नहीं लगने वाली है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस एक मामले में समझदारी दिखाई कि उन्होंने अपने ही विधायक और संसदीय सचिव के इस पाखंडी आयोजन में जाने से इंकार कर दिया, और नर्म शब्दों में सही, इसकी आलोचना भी की। धर्म पर आधारित नफरत की लड़ाई में कांग्रेस कभी भी भाजपा से नहीं जीत पाएगी, और उसे ऐसी कोशिश बंद कर देना चाहिए, क्योंकि ऐसी कोशिश के चलते हुए वह अपना चरित्र खो बैठ रही है, और उसके परंपरागत मतदाताओं को यह अब उनकी पसंदीदा पार्टी नहीं दिख रही है।
दुनिया की सबसे बड़ी, कामयाब और मुनाफा कमा रही टेक्नालॉजी कंपनियों ने पिछले एक बरस में 70 हजार से अधिक कर्मचारियों को नौकरी से निकाला है। इन कंपनियों में तनख्वाह की जो हालत रहती है, उसके मुताबिक बाकी कंपनियों के कर्मचारियों से वे काफी अधिक पाते हैं, और ऐसे लोगों की नौकरी जाने का एक मतलब यह भी है कि बाजार में उनका खर्च कम या बंद हो जाएगा, और अर्थव्यवस्था का चक्का घूमना कुछ धीमा हो जाएगा। इसे इस तरह देखना भी ठीक होगा कि इन कंपनियों में जो हिन्दुस्तानी काम करते थे, वे अब भारत में बसे अपने परिवारों तक पैसे नहीं भेज पाएंगे, इससे यहां के परिवार अपना खर्च घटाएंगे, कोई नई खरीदी करने की तैयारी रही होगी, तो वह भी घट जाएगी। इसलिए दुनिया में कहीं भी बड़े पैमाने पर रोजगार जाते हैं, तो दूसरे कई देशों तक भी उसका असर होता है। और रोजगार जाने का यह सिलसिला सिर्फ टेक्नालॉजी कंपनियों या अमरीकी कंपनियों तक सीमित नहीं है, यह दुनिया में तरह-तरह के देशों में तरह-तरह से हो रहा है। रूस के यूक्रेन पर हमले, और उसके बाद की जंग के चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी तरह चौपट हुई है, और उससे भी कामकाजी देशों के सामने रोजगार की दिक्कत आ गई है, खाते-कमाते लोगों पर महंगाई की मार दिख रही है, और भुखमरी के शिकार देशों में इंसानों के कुपोषण और भूख से मरने का सिलसिला बढ़ गया है।
कल ही पाकिस्तान की एक रिपोर्ट है कि वहां से कपड़े के निर्यात में आई गिरावट की वजह से करीब 70 लाख लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है, और वहां का कपड़ा उद्योग गर्त में चले गया है। एक वक्त यह पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में बड़ा कारोबार था, लेकिन अब न तो घरेलू ग्राहक रह गए, न ही निर्यात रह गया, और न ही उस कपास की फसल बची जिससे बना सूती कपड़ा दूसरे देशों में जाता था। पिछले बरस आई बाढ़ में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा ऐसा डूबा कि वहां सडक़, पुल, इमारतें, गांव-कस्बे सभी कुछ बह गए या डूब गए। इस बाढ़ से साढ़े 3 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे, कपास की फसल का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया था, किसान तो बर्बाद हुए ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद हुई, और अब नतीजा यह दिख रहा है कि कारखानेदार भी डूब रहे हैं, और मजदूर तो नौकरी खो ही बैठे हैं। पाकिस्तान के निर्यात का आधा हिस्सा कपड़े का निर्यात था, जो ठप्प पड़ा है। नतीजा यह होगा कि देश में आने वाली विदेशी मुद्रा नहीं आएगी, स्थानीय कारखानेदारों, कारोबारियों, और मजदूरों के पास खर्च का पैसा नहीं रहेगा, और स्थानीय अर्थव्यवस्था का चक्का घूमना धीमा हो जाएगा।
हिन्दुस्तान में कुछ दिन पहले ही आई ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट को गौर से देखने की जरूरत है। इस रिपोर्ट में बताया है कि देश की 40 फीसदी दौलत सिर्फ एक फीसदी अमीर लोगों के पास है, और नीचे की आधी आबादी के पास सिर्फ तीन फीसदी दौलत है। यह रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तान के 10 सबसे अमीर लोगों की दौलत में 2021 के मुकाबले एक बरस में 32.8 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में अरबपतियों की संख्या 2020 में 102 थी, जो बढक़र 2021 में 142, और 2022 में 166 हो गई। इसके साथ यह जोडक़र देखने की जरूरत है कि देश में करीब 23 करोड़ लोग गरीबी में जी रहे हैं, जो कि दुनिया के किसी भी एक देश में गरीबों की सबसे बड़ी संख्या है। अब अडानियों और अंबानियों के साथ इन 23 करोड़ लोगों की दौलत को जब मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े तैयार किए जाते हैं, तो वे सुहाने लगने लगते हैं, यह लगने लगता है कि हिन्दुस्तान दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन देश के भीतर संपत्ति और साधनों के बंटवारे की हालत क्या है, इस बदहाली को न देखकर, न समझकर, महज जश्न मनाने वाले लोग ही इसे तीसरी-चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनते देख रहे हैं। आठ बरस पहले मोदी सरकार ने देश में हर बरस दो करोड़ रोजगार या नौकरियों की बात कही थी, और उसके बाद के आंकड़े बताते हैं ऐसे अच्छे दिन का वायदा अभी तक सिर्फ एक मृगतृष्णा बना हुआ है।
हिन्दुस्तान में असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की हालत खराब है। सरकारी या गैरसरकारी आंकड़े आमतौर पर संगठित क्षेत्र तक सीमित रह जाते हैं, असंगठित क्षेत्र को लेकर लोग भी कम फिक्रमंद रहते हैं, और वहां के आंकड़े भी मौजूद नहीं रहते हैं। कोरोना और लॉकडाउन के चलते हुए पिछले दो बरस से अधिक का वक्त ऐसा रहा है जिसमें असंगठित क्षेत्र के भूखों रहने की नौबत आ गई है। अब कामकाज शुरू हुआ है, लेकिन कारोबार और रोजगार में अनिश्चितता बनी हुई है। सरकार अपना कामकाज किस हद तक टैक्स की कमाई से चला रही है, और किस हद तक सार्वजनिक कंपनियों को बेचकर चला रही है, इसका आर्थिक विश्लेषण देखने और समझने की जरूरत है। हिन्दुस्तान में आज कई किस्म के आर्थिक आंकड़े लोगों के सामने रखना बंद कर दिया गया है, और बहुत किस्म के विश्लेषण अब हो नहीं पा रहे हैं।
लेकिन हम इस बात को दुहराना चाहते हैं कि दुनिया का सबसे बुरा वक्त आना अभी बाकी है। अभी बहुत से विशेषज्ञों की यह भविष्यवाणी है कि दुनिया में मंदी का दौर आने वाला है। जिस रूस-यूक्रेन जंग से दुनिया की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई है, उस नौबत के और बुरे होने की एक आशंका बनी हुई है। यह जंग कहीं से कम होते नहीं दिख रही है, और इसके चलते बाकी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय राहत संस्थानों के काम में कमी आई है क्योंकि लोगों की सामाजिक-आर्थिक मदद यूक्रेन की तरफ मुड़ गई है। इन तमाम बातों के साथ कुदरत की मार को जोडक़र भी देखना चाहिए कि किस तरह एक बाढ़ ने पाकिस्तान का वर्तमान और भविष्य तबाह कर दिया है, योरप और अमरीका मौसम की मार से इतिहास का सबसे बड़ा नुकसान झेल रहे हैं। भारत जैसे देशों को भी यह सोचना चाहिए कि बदलते मौसम की मार और तबाह पर्यावरण के असर से आने वाला वक्त और तबाही देख सकता है। ऐसे में उन लोगों को अधिक सावधान रहना चाहिए जो अपनी आज की कमाई के आधार पर कर्ज लेकर किस्तें पटाने का बोझ पाल रहे हैं। कल को रोजगार और कारोबार ही नहीं रहा तो वे किस्तें आएँगी कहां से? यह वक्त बहुत सावधान रहने का है, अपना काम-धंधा बचाकर रखने का है, रोज की जिंदगी में किफायत पर अधिक से अधिक अमल करने का है।
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ बंगाल के राज्यपाल के रूप में ममता बैनर्जी सरकार के खिलाफ अभियान चलाने वाले एक आंदोलनकारी की तरह बरसों जुटे रहे। अब वे उपराष्ट्रपति हो गए हैं, तो इस हैसियत से वे राज्यसभा के उपसभापति रहते हैं, और वहां उन्हें बोलने का मौका कोलकाता के राजभवन के मुकाबले काफी अधिक मिल रहा है। लेकिन राज्यसभा से परे भी वे सार्वजनिक रूप से बहुत से मुद्दों पर अपनी राय रखते रहते हैं। अभी उन्होंने संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में कहा कि संसद के बनाए कानून को किसी आधार पर अगर अदालत खारिज करती है तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। उन्होंने बहुत खुलासे से सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि संसद सबसे ऊपर है, और किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनमत की प्रधानता ही उसके मूल ढांचे का आधार है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका या कार्यपालिका संसद में कानून बनाने, या संविधान संशोधन करने की ताकत को नामंजूर नहीं कर सकतीं। उन्होंने 1973 के सुप्रीम कोर्ट के एक बहुत ही चर्चित केशवानंद भारती मामले की चर्चा करते हुए कहा कि इस फैसले ने गलत मिसाल पेश की है, और अगर कोई भी संस्था संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर सवाल उठाती है, तो यह कहना मुश्किल होगा कि हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। सुप्रीम कोर्ट का इतिहास बताता है कि केरल सरकार के खिलाफ केशवानंद भारती के मामले में 13 जजों की बेंच के सामने देश के एक सबसे बड़े वकील नानी पालखीवाला ने जिरह की थी, और सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि संविधान में संशोधन तो किया जा सकता है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता। केशवानंद भारती केस पर इस फैसले की वजह से इस मामले को संविधान का रक्षक कहा जाता है।
अब इस पर लिखने की अधिक जरूरत इसलिए है कि उपराष्ट्रपति के न्यायपालिका पर हमले के एक पखवाड़े के भीतर ही, मानो उन्हें जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने इसी फैसले को अभूतपूर्व बताया, और कहा कि संविधान को समझने और उसे लागू करने के मामले में यह फैसला एक ध्रुव-तारे की तरह जजों को रास्ता दिखाता है। उन्होंने बॉम्बे बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित पालखीवाला स्मृति व्याख्यान माला में कहा कि बदलते वक्त में जज संविधान में लिखी बातों की व्याख्या करते हैं, और केशवानंद भारती मामले में दिया गया फैसला भारतीय संविधान की आत्मा को बनाए रखने में मदद करता है। उन्होंने कहा कि 1973 की फैसला सफलता की ऐसी दुलर्भ कहानी है जिसका भारत के पड़ोसी देशों, नेपाल, बांग्लादेश, और पाकिस्तान ने भी अनुकरण किया। उन्होंने कहा कि जब जजों के सामने एक जटिल रास्ता होता है उस वक्त हमारे संविधान की मूल संरचना एक तारे की तरह इसकी व्याख्या करने वालों, और इस पर अमल करने वालों को एक दिशा देती है, और उनका मार्गदर्शन करती है।
यह मामला हिन्दुस्तान के संविधान के तहत सरकारों की कानून बनाने और संविधान संशोधन करने की ताकत को सबसे बड़ी चुनौती था। मामला केरल से जुड़ा था लेकिन जब इस मामले पर फैसला आया तो इसने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी विचलित किया था। और 13 जजों की बेंच में से असहमति रखने वाले एक जज अजीतनाथ रे को फैसले से सहमति रखने वाले तीन सीनियर जजों के ऊपर ले जाकर भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। यह अपने आपमें एक अनोखा मामला था जब न्यायपालिका में इस तरह मनमानी से किसी को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। केशवानंद भारती का यह मामला इस मामले में भी अनोखा था कि 13 जजों में से 9 जजों ने तो फैसले पर दस्तखत किए थे, लेकिन 4 जजों ने इस पर दस्तखत भी नहीं किया था।
लेकिन आज इस मुद्दे पर यहां लिखने का मकसद 1973 के उस ऐतिहासिक मामले और फैसले की चर्चा करना नहीं है। हमने उसकी चर्चा सिर्फ एक प्रसंग के रूप में की है जिसे लेकर आज सरकार के मनोनीत उपराष्ट्रपति, और देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़़ के बीच एक अघोषित बहस छिड़ी है। सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों से बड़ी कोई बेंच आज तक बनी नहीं है। ऐसे में यह कल्पना नहीं की जा सकती कि केन्द्र सरकार की तमाम हसरत के बावजूद संविधान की मूल संरचना को बदलना आसानी से मुमकिन होगा। बार-बार ऐसा लगता है कि मोदी सरकार संविधान की कुछ बुनियादी बातों को बदलना चाहती है, लेकिन संसद में अपार बहुमत होते हुए भी, अधिकतर राज्यों में बहुमत होते हुए भी ऐसा कोई संशोधन उसके लिए आज मुमकिन नहीं दिख रहा है क्योंकि 14 जजों की संविधानपीठ के 1973 के फैसले को पार पाना आसान नहीं है। सिर्फ संसद और विधानसभाओं से यह बुनियादी फेरबदल शायद नहीं किया जा सकेगा।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की यह एक खूबी है कि लोकसभा और राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों या गठबंधनों के बहुमत होने का एक इतिहास रहा है। केन्द्र और राज्यों में ऐसी ही अलग-अलग सरकारों का इतिहास रहा है। न्यायपालिका में कार्यपालिका या विधायिका से असहमति का एक इतिहास रहा है। यही वजह थी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा के चुनाव को अवैध ठहराया था, बाद में आपातकाल से जुड़े हुए कुछ संविधान संशोधनों को खारिज किया गया था, और सुप्रीम कोर्ट और संसद के बीच असहमत होने पर सहमति का एक रिश्ता बना हुआ था। लोगों को याद होगा कि एक अभूतपूर्व संसदीय बाहुबल के चलते प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले को संविधान संशोधन करके खारिज कर दिया था। लेकिन पिछले कुछ महीनों से केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो तनातनी सार्वजनिक रूप से बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए यह सोचने की जरूरत लग रही है कि अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा छांटे गए जजों के नामों को मंजूरी देने के अधिकार को केन्द्र सरकार एक रणनीति की तरह इस्तेमाल करेगी, तो हो सकता है कि धीरे-धीरे करके सुप्रीम कोर्ट में वह अपनी सोच से सहमति रखने वाले जजों का बहुमत बनाने में कामयाब हो जाए। ऐसा दिन देश के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि आपातकाल में इंदिरा गांधी की ओर से प्रतिबद्ध न्यायपालिका का एक नारा दिया गया था, और वह अगर कामयाब हो जाता, तो देश में संसदीय लोकतंत्र के बजाय महज सरकारी लोकतंत्र रह जाता।
देश के कानूनी समझ रखने वाले तबके को इन बातों को गौर से देखना चाहिए, और देश की आज की नाजुक जरूरतों पर, आगे खड़े हुए खतरों पर भी गौर करना चाहिए। ऐसी संवैधानिक जटिलताएं कोई लुभावना चुनावी नारा तो नहीं बन सकतीं, लेकिन विचार गढऩे वाले तबकों में से कुछ लोग तो इस मुद्दे को समझ सकते हैं, और देश के व्यापक लोकतंत्र के हित में बाकी जनता के लिए इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान की हीरा राजधानी सूरत के एक कारोबारी जौहरी की आठ बरस की बेटी ने अभी सांसारिकता छोडक़र संन्यास लिया तो पहले हीरो से लदी हुई उसकी तस्वीर आई, और फिर सिर मुंडाए हुए जैन साध्वी के सफेद सूती कपड़ों में। उसके आसपास के लोगों का कहना है कि उसकी शुरू से धर्म में दिलचस्पी थी, और उसने कभी टीवी, मोबाइल या फिल्में नहीं देखीं, कभी वह मॉल या रेस्त्रां नहीं गई थी। उसके मां-बाप का कहना है कि वह साध्वी बनना चाहती थी, और अगर वह परिवार में रहती तो अपने करोड़पति-अरबपति पिता की वारिस रहती। जैन समाज में पहले भी बहुत से बच्चे दीक्षा लेकर घर छोडक़र जा चुके हैं, लेकिन आठ बरस की यह लडक़ी शायद उनमें भी कुछ कम उम्र की ही है। गुजरात में एक बड़े समारोह में देवांशी संघवी नाम की इस बच्ची की दीक्षा हुई, और वह बाकी साध्वी के साथ चली गई।
जैन समाज में नाबालिग और नाबालिगों में भी बहुत कम उम्र के बच्चों के संन्यास ले लेने की खबरें हर कुछ महीनों में आती रहती हैं। इस समाज के भीतर के कुछ लोग, और बाहर के कुछ लोग यह मानते हंै कि यह कम उम्र बच्चों के साथ एक धार्मिक ज्यादती है जिन्होंने अभी दुनिया को ठीक समझा नहीं है। जैन समाज के धर्मालु लोग लगातार ऐसी दीक्षा के हिमायती बने रहते हैं, और उनका यह मानना है कि इसे बच्चों पर जुल्म करार देते हुए अदालत तक जाने वाले लोग गलत थे। यह मामला एक वक्त मुंबई हाईकोर्ट तक पहुंचा था, और उसका नतीजा अभी हमें ठीक से याद नहीं है। लेकिन अदालत ने सुनवाई के दौरान एक वक्त इतना जरूर कहा था कि बच्चों की दीक्षा को लेकर कुछ तय किए जाने की जरूरत है। और जजों ने यह माना था कि आठ बरस की बच्ची की दीक्षा को लेकर मां-बाप के इन तर्कों को नहीं माना जा सकता कि बच्ची ने खुदी ने यह फैसला लिया है। 2008 की उस सुनवाई में बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि अदालत इतनी छोटी बच्ची के संन्यास को चुप बैठकर देखते नहीं रह सकती। उसी वक्त मानो इसके जवाब में गुजराती की एक पत्रिका ने जैन धर्म गुरुओं के लेखों का एक विशेषांक निकाला था जिसमें बाल दीक्षा की वकालत की गई थी। बाल दीक्षा विशेषांक में कई अदालतों के ऐसे आदेश अपने तर्क के रूप में छापे गए थे जिनमें अदालतों ने इस रीति-रिवाज का समर्थन किया था। राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में यह कहा था कि दीक्षा को लेकर नियम बनाना धार्मिक मामलों में दखल देना होगा। इस अदालत ने बाल दीक्षा को हिंदुओं के जनेऊ संस्कार की तरह माना था।
बच्चों को धार्मिक दीक्षा दिलाकर उन्हें अगर पारिवारिक जीवन से अलग कर दिया जाता है, और बाकी जिंदगी के लिए संन्यासी जीवन में डाल दिया जाता है, तो यह हमारे हिसाब से उन बच्चों के मानवीय अधिकारों का हनन है। किसी को भी बालिग होने के पहले ऐसे संन्यासी जीवन में डालना उन बच्चों के अपने हितों के खिलाफ है जिन्होंने अभी पूरी दुनिया नहीं देखी है, आगे की पूरी जिंदगी को लेकर जिनका कोई अंदाज नहीं है। अपने परिवार में धार्मिक वातावरण देखकर कई बच्चों का इस तरह का रूझान हो सकता है, लेकिन उससे उनका वह फैसला स्वाभाविक फैसला नहीं माना जा सकता। जिस तरह वोट देने की एक उम्र होती है, गाड़ी चलाने की एक उम्र होती है, सेक्स की सहमति देने की भी एक न्यूनतम उम्र सीमा तय की गई है, एक उम्र के पहले शादी पर कानूनी रोक है। इसी तरह किसी के संन्यास पर उसके बालिग होने तक रोक होनी चाहिए। हमारी सामान्य समझ यह कहती है कि किसी धर्म के लिए भी यह ठीक नहीं है कि वह इतने छोटे बच्चों को परिवारों से अलग करके संन्यासी बनाए। इंसान इसी तरह के सामाजिक प्राणी हैं कि उनका विकास परिवार और समाज के बीच कई तरह के अंतरसंबंधों के चलते होता है, और उन सबसे उन्हें काटकर सिर्फ संन्यास जीवन में रखना उनके अपने शारीरिक और मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के लिए ठीक नहीं है। जिन बच्चों की धर्म में अधिक दिलचस्पी है, वे परिवार के भीतर रहते हुए भी धर्म को बेहतर हद तक समझ सकते हैं। इसके बाद जब वे बालिग हों, तो वे अपने परिपक्व विवेक का इस्तेमाल करके संन्यास ले सकते हैं।
जो लोग इसे एक धार्मिक रिवाज मानते हैं, और इसके लिए नियम बनाने को धर्म में दखल मानते हैं, उन लोगों को यह भी समझना चाहिए कि एक वक्त हिंदू समाज में, और शायद कुछ दूसरे समाजों में भी बालविवाह प्रचलित थे, और उसके खिलाफ कड़े कानून बनाने, सामाजिक जागरूकता फैलाने, और सरकारी रोकथाम करने के बावजूद आजतक दस-बीस फीसदी शादियां बालविवाह हो रही हैं। इसी तरह एक वक्त हिंदू धर्म में पति खो चुकी महिला को सामाजिक दबाव में सती बनाने की अमानवीय परंपरा थी, जिसे कड़ा कानून बनाकर किसी तरह रोका गया। आज भी मुस्लिमों के बीच नाबालिग लडक़ी की शादी को सामाजिक, और मुस्लिम विवाह कानून के तहत मंजूरी हासिल है, और इसके खिलाफ भी एक जनमत तैयार किया जा रहा है। जैन समाज को भी यह सोचना चाहिए कि अपरिपक्व उम्र में बच्चों का लिया गया फैसला इस समाज को बेहतर साधू-साध्वी नहीं दे सकता। अगर समाज को अपने धर्म को परिपक्व बनाकर रखना है, तो उसे कम उम्र बच्चों को संन्यास में भेजने का काम बंद करना होगा। यह तर्क किसी काम का नहीं है कि ये छोटे बच्चे अपनी मर्जी से संन्यास लेते हैं। इतने छोटे बच्चे अपनी मर्जी से पिकनिक पर भी नहीं जा सकते, कोई फिल्म देखने भी नहीं जा सकते, किसी दोस्त या सहेली के घर की दावत में भी नहीं जा सकते, इसलिए यह मान लेना निहायत गलत बात होगी कि वे संन्यास में जाने का फैसला लेने के काबिल हैं। जब परिवारों का माहौल बहुत अधिक धार्मिक होता है, जब परिवार ऐसी ही सामाजिकता के बीच जीता है, जब ऐसे बच्चों के सामने बार-बार ऐसी कहानियां आती हैं कि किस शहर में जैन समाज के किस उम्र के बच्चे या बच्ची ने संन्यास ले लिया है, तो उनकी बचपन की सोच उसी के असर से प्रभावित होने लगती है। ऐसे असर के बीच लिया गया कोई फैसला उन बच्चों का परिपक्व फैसला नहीं माना जा सकता। हमारा यह भी मानना है कि कोई भी धर्म बाल संन्यासियों से समृद्ध नहीं हो सकता, उसके लिए कम से कम बालिग हो चुके, सांसारिकता को देख चुके, और उसके बाद उसे छोडऩे का फैसला ले चुके संन्यासियों की जरूरत होती है। हिंदुस्तान का अदालती कानून धार्मिक मामलों से बचते हुए चलता है, लेकिन जैन समाज को किसी अदालत का इंतजार नहीं करना चाहिए, उसे खुद होकर ऐसा सुधारवादी कदम उठाना चाहिए कि सिर्फ वयस्क लोग ही संन्यास का फैसला ले सकें।
सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार के बीच का टकराव कल एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया जब मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अपने छांटे गए जजों के नाम पर केन्द्र की आपत्ति को सार्वजनिक किया, और उसका सार्वजनिक रूप से जवाब भी दिया। केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू पिछले कुछ महीनों से लगातार एक या दूसरी वजह निकालकर सुप्रीम कोर्ट पर हमले कर रहे थे, और सुप्रीम कोर्ट ने उनसे जख्मी होने के बजाय सार्वजनिक रूप से उनका सामना करना तय किया। अदालत से मिली जानकारी के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने जजों के नाम तय करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के बाकी सदस्यों से चार दिनों तक चर्चा करने के बाद यह फैसला लिया कि उसके भेजे नामों पर केन्द्र की आपत्ति को सार्वजनिक कर दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की आपत्ति में शामिल खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट को भी उजागर कर दिया। यह एक अभूतपूर्व कदम है, और मौजूदा सीजेआई के बाद जो सीजेआई बनेंगे, वे भी इस कॉलेजियम में शामिल थे, इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट जजों के बीच एक व्यापक सहमति से की गई आपत्ति माना जाना चाहिए।
केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के भेजे गए नामों पर लंबे समय तक बैठने की आदी रही है, और जिन नामों से वह सहमत नहीं रहती है, उन्हें अंतहीन समय तक रोकते रही है। पिछले कुछ दिनों में कानून मंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट जजों को लिखा है कि जज छांटने वाले कॉलेजियम में केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि भी रहना चाहिए। एक दूसरी बात यहां पर यह भी प्रासंगिक है कि देश के अलग-अलग बहुत से तबकों के जानकार लोग भी यह मानते हैं कि संविधान निर्माताओं की ऐसी कोई सोच नहीं थी कि जजों को छांटने का काम जज ही करें। इस पर केन्द्र सरकार से परे भी कई लोग लिखते और बोलते आए हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जज छांटने के लिए कॉलेजियम की जो व्यवस्था खुद तय कर ली है, वह संविधान की भावना के अनुकूल नहीं है, और इसके लिए कोई दूसरी व्यवस्था होनी चाहिए। इसलिए केन्द्रीय कानून मंत्री की यह ताजा मांग बहुत अटपटी, अनोखी, और अभूतपूर्व नहीं है। लेकिन पिछले काफी समय से केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो तनातनी चल रही है, उसे देखते हुए कल का सुप्रीम कोर्ट का जनता की अदालत में जाने का फैसला पूरी तरह से अनोखा और अभूतपूर्व है। खासकर दिल्ली हाईकोर्ट के लिए एक वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल के नाम को कॉलेजियम ने डेढ़ बरस से भी पहले केन्द्र सरकार को भेजा था, और केन्द्र ने इस नाम पर इसलिए आपत्ति की थी कि सौरभ कृपाल एक स्वघोषित समलैंगिक हैं, और उनका साथी स्विस नागरिक है। केन्द्र की इस आपत्ति पर कॉलेजियम ने कल सार्वजनिक रूप से कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि जज-उम्मीदवार का साथी जो स्विस नागरिक है, हमारे देश के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा क्योंकि उसका मूल देश भारत का एक मित्रराष्ट्र है। कॉलेजियम ने केन्द्र सरकार को यह भी याद दिलाया कि संवैधानिक पदों पर मौजूदा और पिछले कई ऐसे लोग रहे हैं जिनके पति-पत्नी विदेशी नागरिक थे, और हैं।
हम इस बहस के सार्वजनिक होने के पहलू को लेकर खुश हैं। हम बार-बार इसी जगह जजों की नियुक्ति के लिए अमरीकी व्यवस्था का हवाला देते आए हैं जिसमें वहां के सुप्रीम कोर्ट के लिए अमरीकी राष्ट्रपति अपनी पसंद से जज छांटते हैं, लेकिन फिर ऐसे उम्मीदवारों को संसद की एक समिति के सामने लंबी खुली सुनवाई का सामना करना पड़ता है जिसमें उनकी पिछली जिंदगी, पिछले काम, पिछली और मौजूदा सोच, ऐसे हर पहलू पर सवालों का सामना करना पड़ता है, और जवाब देना पड़ता है। इसके बाद संसदीय कमेटी ही ऐसे उम्मीदवार को जज बनाना पसंद या नापसंद करती है। यह खुली सुनवाई अमरीकी टीवी पर भी आती है, और वहां की जनता को यह अच्छी तरह मालूम रहता है कि अगर इस व्यक्ति को जज बनाया गया तो उनकी सोच क्या रहेगी, उनके पहले के फैसले कैसे रहे हैं, वे गर्भपात से लेकर महिला अधिकारों और रंगभेद के मुद्दों पर क्या सोचते रहे हैं। जनता को जजों के इतिहास और उनकी सोच के बारे में सब पता रहे, यह एक अधिक पारदर्शी व्यवस्था है। इस हिसाब से हम सुप्रीम कोर्ट के इस अभूतपूर्व फैसले से सहमत हैं कि जजों के बारे में कॉलेजियम और केन्द्र के बीच जो कुछ चर्चा होती है, वह देश की जनता के सामने रखी जानी चाहिए। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने कुछ हफ्ते पहले ही ठीक यही सिफारिश की थी कि इन बातों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए।
देश में सूचना का अधिकार लागू है। इसके तहत जनता सरकार और सार्वजनिक संस्थाओं से कई किस्म की जानकारी मांग सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने आपको इसकी पहुंच से भी बहुत हद तक बाहर रखा था, इसलिए जनता अदालतों के रहस्य से दूर ही रह जाती है। अब यह वक्त आ गया है कि देश में सूचना पाने के अधिकार को बदलकर सूचना देने की जिम्मेदारी बनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को भी जनता को यह बताना चाहिए कि किन लोगों के नाम जज बनाने के लिए किस वजह से छांटे गए हैं, और सरकार को भी यह बताना चाहिए कि उसे इनमें से कौन से नाम किस वजह से नामंजूर हैं। इसे कॉलेजियम के एकाधिकार और केन्द्र सरकार के एकाधिकार के खोल से ढांककर नहीं रखना चाहिए। केन्द्र सरकार आज यह मांग कर रही है कि कॉलेजियम में उसका प्रतिनिधि भी होना चाहिए। हमारा मानना है कि जजों के नाम तय करने में सरकार के बजाय संसद का प्रतिनिधि होना बेहतर होगा, और जिस तरह सीबीआई के डायरेक्टर, और कुछ दूसरे लोगों को चुनने के लिए प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता एक कमेटी में होते हैं, उसी तरह संसद की एक कमेटी होनी चाहिए जिसकी कि जजों के चयन में हिस्सेदारी हो। अब हमारी यह भावना किस तरह अमल में आ सकती है, इसके लिए एक संवैधानिक व्यवस्था जरूरी होगी, और देखना होगा कि यह नौबत कैसे लाई जा सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान का वैसे तो न्यूजीलैंड से कुछ अधिक लेना-देना नहीं है, लेकिन आज की वहां की एक खबर कुछ सोचने, और उस पर लिखने का मौका दे रही है जो कि हिन्दी और हिन्दुस्तानी पाठकों की दिलचस्पी का भी हो सकता है। वहां की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने कहा है कि वे 7 फरवरी के पहले इस्तीफा दे देंगी। उनका कहना है कि वे 6 साल तक इस चुनौतीपूर्ण ओहदे को सम्हालने के बाद अब महसूस करती हैं कि उनके पास योगदान देने के लिए कुछ खास नहीं बचा है, इसलिए वे अगला चुनाव भी नहीं लड़ेंगीं। वे 2017 में ही 37 साल की उम्र में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनी थीं। और अब 42 बरस की उम्र में वे एक कार्यकाल खत्म करके सरकार से हट भी जा रही हैं।
हिन्दुस्तान के लोगों को यह बात बड़ी अजीब लग सकती है। यहां पर 75 बरस की उम्र पार करने के बाद अगर किसी को संसद या विधानसभा का चुनाव लडऩे से रोका जाता है, तो वे हाथ में थमी छड़ी को उठाकर बगावत पर उतारू हो जाते हैं, खुद तो चुनाव लड़ ही लेते हैं, अपने कुनबे को भी बगावत में उतार देते हैं। पार्टियां भी सयान के ऐसे तेवरों से बचने के लिए उनके जीते जी ही उनके कुनबे को उनकी सीट पर टिकट देने का समझौता कर लेती हैं। कुल मिलाकर एक नेता एक सीट पर अपने कुनबे का पीढ़ी-दर-पीढ़ी कब्जा मानकर चलते हैं। फिर अगर राजनीति में कुनबापरस्ती है, तो फिर लालू, मुलायम, सोनिया, फारूख, मेहबूबा, बादल, चौटाला, पवार, ठाकरे, शुक्ल परिवारों के एक से अधिक लोग भी एक समय सांसद-विधायक हो सकते हैं, एक से अधिक सरकारों में हिस्सेदार हो सकते हैं, संसद, विधानसभा, और पार्टी संगठन सब पर काबिज हो सकते हैं। फिर यह भी है कि वे मरने तक सत्ता पर काबिज रहते हैं, और उनके बाद अगली पीढ़ी चिता की आग से तपी हुई ही शपथ ले लेती है। इसलिए न्यूजीलैंड की इस नौजवान प्रधानमंत्री की बात भारत के बहुत से लोगों को बेइज्जत करने वाले आईने की तरह लग सकती है जिसमें वे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग से होते हुए कलियुग तक अपने कुनबे के लिए सीट की गारंटी कर लेते हैं।
न्यूजीलैंड के इस ताजा फैसले से हिन्दुस्तान के बारे में यह भी सीखने और समझने मिलता है कि एक नौजवान प्रधानमंत्री कुल 6 बरस काम करने के बाद अगर यह पाती है कि उसके पास और अधिक योगदान देने को कुछ नहीं है, तो वह अपनी पार्टी के दूसरे नेता के लिए कुर्सी खाली करके हट जाती है। और यह महिला किसी कुनबापरस्ती के चलते इस जगह नहीं पहुंची थी, उसने योरप के समाजवादी आंदोलन में 17 बरस की उम्र से काम करना शुरू कर दिया था, और राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा लेने लगी थी। एक बहुत लंबे और बहुत सक्रिय राजनीतिक जीवन के बाद वह पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री के ओहदे के लिए चुनी गई थी। और उसने इराक पर हमले के फैसले को लेकर 2003 के ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर से रूबरू कड़े सवाल किए थे। ऐसे सक्रिय जीवन और सब कुछ अपने बूते हासिल करने के बाद एक महिला अपने देश के इस सबसे बड़े ओहदे को छोडक़र जिस आसानी से, जिस स्वाभाविक तरीके से चली जा रही है, वह सीखने लायक बात है। हिन्दुस्तान में लोग अपनी पार्टी को बेच खाते हैं, पार्टी के सांसदों और विधायकों की थोक पैकिंग बनाकर उसे दुश्मन पार्टी के हाथ बेच देते हैं, और कुर्सी पर बने रहते हैं, या पहुंच जाते हैं। कुर्सी ही हिन्दुस्तान में सब कुछ है, वह महज कामयाबी नहीं है, वही महानता भी है। जिसे कुर्सी हासिल नहीं हुई, उसे कभी महान का दर्जा नहीं मिल सकता, और जिसे कुर्सी हासिल हो गई, वह हजार जुर्म, और हजार नाकामयाबी के बाद भी महान गिनाते हैं।
यह बात तो निर्वाचित नेताओं को लेकर है, लेकिन लोग अपने राजनीतिक संगठन के भीतर भी कोई कुर्सी छोडऩा नहीं चाहते। अपने चुनाव क्षेत्र को अपनी जागीर मानकर चलते हैं, अपने साथ-साथ धीरे-धीरे जीवनसाथी और आल-औलाद, और बहू-दामाद, सबको संसद-विधानसभा, और पार्टी में घुसाने में लगे रहते हैं। मरने के बाद भी वे अपने कुनबे से किसी को अनुकम्पा टिकट दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। यह बात तो राजनीति के लोगों की हुई, लेकिन हिन्दुस्तान में गौशाला, अनाथाश्रम, शिक्षा समिति और दूसरे किस्म के ट्रस्ट या सभा समितियों में लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी काबिज रहते हैं, सरकारी अनुदान पर पलते हैं, और वह अनुदान मानो उनके डीएनए को मिला हो। वे संस्थाओं की ‘समाजसेवा’ में इतने समर्पित रहते हैं कि धरती पर कोई और काबिल इंसान उन्हें दिखते ही नहीं। ऐसे देश में मोटी कमाई वाली राजनीतिक और सरकारी कुर्सियों के लिए लोग पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद भी, कब्र में दफन हो जाने के बाद भी ‘सेवा’ करने पर आमादा रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को न्यूजीलैंड की 42 बरस की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेइज्जती का सामान ही लग सकती है।
भारत में न सिर्फ राजनीति में, बल्कि अदालतों में जजों के बीच भी, वकालत और डॉक्टरी जैसे पेशों में भी, और कारखानों से लेकर कारोबार तक कुनबापरस्ती का जो बोलबाला है, और लोग जिस तरह पहले कब्जे के बाद अंतिम संस्कार तक काबिज रहते हैं, उसे देखते हुए यह सोचने की जरूरत है कि क्या वे सचमुच मरने तक योगदान देने की हालत में रहते हैं, और क्या उनका डीएनए ही सामाजिक संगठनों को चलाने के लिए सबसे हुनरमंद डीएनए है? हिन्दुस्तान के लोगों को अपने इर्द-गिर्द देखना और सोचना चाहिए, आज की यह चर्चा बस इसी मकसद से है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
21वीं सदी के भारत में उत्तरप्रदेश के बाद हिन्दुत्व की दूसरे नंबर की प्रयोगशाला, मध्यप्रदेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी हैरानी भरी नाराजगी जाहिर की है। इस प्रदेश के एक लॉ कॉलेज की लाइब्रेरी में एक ऐसी किताब मिली जिसे हिन्दू धर्म की आलोचना ठहराते हुए मध्यप्रदेश की पुलिस ने प्रिंसिपल को गिरफ्तार करने की तैयारी कर ली। इस पर प्रिंसिपल ने अदालत से अग्रिम जमानत ले ली, तो प्रदेश की पुलिस इसके खिलाफ हाईकोर्ट गई, हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगाने से इंकार कर दिया तो प्रिंसिपल इनामुर रहमान सुप्रीम कोर्ट गए। वहां मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने प्रिंसिपल को गिरफ्तार करने की पुलिस की जिद पर हैरानी जाहिर की, और पूछा कि क्या पुलिस गंभीरता से बात कर रही है? चीफ जस्टिस ने कहा कि लाइब्रेरी में एक किताब मिली है जिसमें साम्प्रदायिक प्रतिध्वनि की बात कही जा रही है, यह किताब 2014 में खरीदी गई और उस पर आज प्रिंसिपल को गिरफ्तार करने की कोशिश हो रही है! मुख्य न्यायाधीश ने मध्यप्रदेश की पुलिस को इस पर जमकर फटकार लगाई और कहा कि राज्य को कुछ गंभीर काम करने चाहिए। जाहिर है कि इस फटकार वाला यह मामला मध्यप्रदेश में मुस्लिमों के खिलाफ चल रही सत्ता की एक मुहिम का एक हिस्सा है, और यह भी एक संयोग है कि इसे दो दिनों में दो बार कुछ सुनना पड़ा।
अब कल ही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा नेताओं को दो नसीहतें दी हैं। पहली तो यह कि उन्हें फिल्मों पर गैरजरूरी बयानबाजी से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि कुछ लोग किसी फिल्म पर बयान देते हैं, फिर वह पूरे दिन टीवी और मीडिया में चलता है, ऐसे अनावश्यक बयानों से बचना चाहिए। प्रधानमंत्री की इस बात का सीधा रिश्ता मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा से है जिन्होंने शाहरूख खान के किरदार वाली पठान नाम की फिल्म में दीपिका पादुकोण की भगवा बिकिनी को लेकर चेतावनी दी थी कि इस फिल्म को मध्यप्रदेश में दिखाने की इजाजत दी जाए या नहीं यह सोचा जाएगा। फिल्म का विरोध करने वाले नरोत्तम मिश्रा सबसे बड़े भाजपा नेता थे। और उनका यह विरोध 14 दिसंबर को सामने आया था। आज महीने भर से अधिक निकल जाने पर प्रधानमंत्री या किसी भी भाजपा नेता की ओर से ऐसे नरोत्तम मिश्राओं की बयानबाजी पर कुछ कहा गया। प्रधानमंत्री का भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में यह बयान भी खबरों में आया है कि उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा है कि मुस्लिम समाज के बारे में गलत बयानबाजी न करें। समाज के सभी वर्गों से मुलाकात करें, चाहे वे वोट दें, या न दें। उन्होंने कहा कि पार्टी के कई लोगों को मर्यादित भाषा बोलनी चाहिए।
अब मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री इन दोनों की कही हुई बातें मध्यप्रदेश पर तो पूरी तरह से लागू होती हैं जहां पर गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा हिन्दुत्व का एक सबसे ही आक्रामक प्रयोग लगातार कर रहे हैं। एक-एक फिल्म को लेकर उनकी बयानबाजी होती ही रहती है, और मुस्लिमों के मकानों को बुलडोजरों से गिरा देने वाले मामले में भी उनका बयान हक्का-बक्का करने वाला था। लेकिन आज सवाल यह है कि जब दिन-दिन भर किसी भाजपा मंत्री या नेता के बयान टीवी पर छाए रहते हैं, और जाहिर है कि वे प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के अध्यक्ष तक को दिखते ही होंगे, तो ऐसे कई विरोध हो जाने के बाद, और शाहरूख खान के अभिनय वाली फिल्म पठान को इन्हीं दो मुस्लिम नामों की वजह से निशाने पर लेने के महीने भर के बाद नरोत्तम मिश्रा से बिना उनका नाम लिए कुछ कहा गया। मध्यप्रदेश में उनसे ऊपर मुख्यमंत्री हैं, संगठन की तरफ से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, राष्ट्रीय संगठन की तरफ से कोई न कोई प्रभारी महासचिव होंगे, और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो हैं ही। लेकिन इनमें से किसी ने भी अपने से नीचे आने वाले गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को कोई नसीहत देने की कोशिश नहीं की? भगवा कपड़ों में उत्तेजक और वीभत्स किस्म के अश्लील डांस वाले दर्जनों वीडियो तो भाजपा के सांसद फिल्मकलाकारों के साथ अभिनेत्रियों के ही हैं जो कि पठान पर हमले के बाद सोशल मीडिया पर लोगों ने डाले हैं, लेकिन उन सबको भुलाकर सिर्फ मुस्लिम नामों वाली एक फिल्म पर ऐसा साम्प्रदायिक हमला करना, देश की हवा को और जहरीला कर गया, लेकिन इस पर नरोत्तम मिश्रा को समझाईश देने का काम 34 दिनों बाद प्रधानमंत्री ने बिना नाम लिए किया है। क्या पार्टी के किसी भी और तरीके से भी ऐसे लोगों को चुप कराने का काम नहीं किया जाना चाहिए था? दूसरी बात नरेन्द्र मोदी की कही हुई ही है, उन्होंने मुस्लिमों के खिलाफ बयानबाजी न करने की सलाह भी दी है। यह तो बारहमासी खिले रहने वाले कंटीले पौधे की तरह के बयान हैं जिनके बिना हिन्दुस्तान में सूरज नहीं डूब पाता। इस पर भी अब जाकर अगर मोदी को सलाह देनी पड़ रही है, तो अब तक पार्टी का ढांचा इस पर क्या कर रहा था?
हम प्रधानमंत्री के शब्दों के भी महत्व को कम नहीं आंक रहे, लेकिन इस पर हैरानी है कि ये शब्द वक्त पर क्यों नहीं आए, बरसों देर से क्यों आए, और देश की हवा को जहरीला हो जाने देने के बाद क्यों आए? अगर उनके शब्दों के पीछे उनकी यही भावना भी है, तो फिर इसके जाहिर होने का मौका तो पिछले 8 बरस में हर दिन सामने आ रहा था, हर दिन फिल्मों को लेकर, मुस्लिमों को लेकर हवा में जहर घोला जा रहा है, और प्रधानमंत्री के आज के शब्द मानो भोपाल गैस त्रासदी के बाद वहां खोले गए एक क्लिनिक से दी जा रही दवाई सरीखे हैं। यह गैस त्रासदी रोज ही सोशल मीडिया और देश के मीडिया पर होते दिख रही है, टीवी की स्क्रीन से निकलकर जहरीली गैस लोगों के दिमागों में घर कर रही है, और अब इन शब्दों के असर का कोई वक्त पता नहीं रह गया है या नहीं। प्रधानमंत्री की नसीहत को सुप्रीम कोर्ट में अभी चल रही टीवी चैनलों की साम्प्रदायिकता की सुनवाई से भी जोडक़र देखना चाहिए कि आज देश की सबसे बड़ी अदालत ने साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वालों के खिलाफ कुछ महीनों में लगातार एक कड़ा रूख दिखाया है। हो सकता है कि इसे देखते हुए भी प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी के लोगों को समझाईश देना जरूरी और बेहतर लगा हो। भाजपा के बहुत से नेताओं को इन दोनों मुद्दों पर मोदी के कहे हुए शब्दों को भावना के स्तर पर जाकर भी मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सभ्य दुनिया वह होती है जो एक-दूसरे से कुछ सीखने को तैयार रहती है। अलग-अलग बहुत से देशों में किसी एक चर्चित जुर्म के बाद कानून बनाने वाली संसद या विधानसभा के सामने यह बड़ा तनाव खड़ा हो जाता है कि वोटरों से भरे समाज को संतुष्ट कैसे किया जाए। ऐसे में जुर्म को सुलझाने, मुजरिमों को पकडऩे, और अदालत में सजा दिलवाने में कामयाबी का काम आसान नहीं रहता है, और बहुत से मामलों में मुमकिन भी नहीं रहता है। ऐसे में निर्वाचन से संसद और विधानसभा तक पहुंचने वाले नेताओं के लिए सबसे सहूलियत का काम रहता है कि बेअसर कानून, बेअसर इंतजाम को छुपाने के लिए उसके सामने और कड़े कानून की एक दीवार खड़ी कर दी जाए। जिस तरह परदेसी मेहमानों की नजरों से छुपाने के लिए अहमदाबाद और इंदौर में गरीब बस्तियों के सामने दीवारें खड़ी कर दी गई थीं, ताकि संपन्न मेहमानों को यहां के गरीब न दिखें, ठीक उसी तरह एक नाकामयाब प्रशासन के सामने अधिक कड़े कानून की दीवार खड़ी कर दी जाती है। हिन्दुस्तान में निर्भया नाम से चर्चित बलात्कार और भयानक हिंसा के एक मामले के बाद देश भर में उठ खड़े हुए जनआक्रोश को देखते हुए अलग से कानून बनाया गया, और कई राज्यों में सामूहिक बलात्कार या बच्चों से बलात्कार पर मौत की सजा जोड़ दी। इससे नेताओं और राजनीतिक दलों को अपनी सरकारों की नाकामयाबी की तरफ से ध्यान मोडऩे की एक तरकीब मिली, और आम लोगों को ऐसा लगा कि इससे बलात्कार थम जाएंगे। सच तो यह है कि उसके बाद से बलात्कार के साथ हत्याएं अधिक होते दिख रही हैं क्योंकि जब बलात्कार पर भी सजा उतने ही मिलनी है जितनी कि कत्ल से मिलनी है, तो फिर एक गवाह और सुबूत को छुपा क्यों न दिया जाए?
अभी धरती के दूसरे सिरे, अमरीका में एक मामला हुआ जिससे वहां के कानून की बेइंसाफी का इतिहास सामने आया। खुद अमरीका में तो यह कभी इतिहास बना ही नहीं था क्योंकि एक नाजायज कड़ा कानून बनाकर जुर्म रोकने की यह कोशिश वहां तो हमेशा चर्चा में थी, लेकिन हमारे सरीखे दूर बैठे हुए लोगों को इसके बारे में मालूम नहीं था। अभी वहां की जेल से 20 बरस कैद के बाद 55 बरस के एक आदमी को जब रिहा किया गया, तो वहां के एक कानून की बेइंसाफी फिर खबरों और चर्चा में आई। वैसे तो कैलिफोर्निया अमरीका का सबसे प्रगतिशील और उदार राज्य माना जाता है, लेकिन वहां 1990 के दशक में 12 बरस की एक बच्ची का अपहरण हुआ था, और उसका कत्ल कर दिया गया था। उस वारदात को लेकर न सिर्फ इस अमरीकी राज्य में, बल्कि पूरे देश में जुर्म की दहशत फैल गई थी, और कैलिफोर्निया में तीसरे जुर्म (थ्री स्ट्राइक्स) नाम का एक कुख्यात कानून बनाया था जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को किसी अहिंसक तीन अपराधों पर भी उम्रकैद सुनाई जा सकती थी। अगर वे किसी दुकान में सामान चुराते पकड़ा गए, या उनके पास कोई नशा मिल गया, या उन्होंने कोई उठाईगीरी कर दी, तो ऐसा तीसरा जुर्म साबित होते ही उन्हें उम्रकैद की सजा देने का कानून बनाया गया। एक अपहरण और कत्ल से फैली दहशत से जूझती हुई राज्य और संघीय सरकारों के सामने जनता को संतुष्ट करने की एक चुनौती थी, और उस वक्त के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भी इस कानून को मंजूरी दे दी थी। करीब आधे अमरीकी राज्यों ने इस कानून को अपना लिया था। ऐसे ही कानून के तहत कैलिफोर्निया में एक बेघर, बेरोजगार नौजवान डेविड को जब एक घर के गैरेज से कुछ सिक्के चुराने पर गिरफ्तार किया गया, तो उसके पास से 14 डॉलर (हिन्दुस्तान के स्तर से 14 रूपये के बराबर) मिले थे, और पहले के दो अहिंसक जुर्म के साथ इस ताजा जुर्म को जोडक़र जज ने उसे 35 बरस या उम्रकैद की सजा सुनाई थी। दरअसल 1994 में जब यह थ्री स्ट्राइक्स कानून बना था, तब इस राज्य में दस बरस के भीतर छोटे-छोटे तीसरे जुर्म पर करीब 35 सौ लोगों को उम्रकैद सुना दी गई थी, और वे मरने के लिए जेल भेज दिए गए थे। डेविड को 14 डॉलर चुराने के जुर्म में उम्रकैद भी दी गई थी, और 10 हजार डॉलर का जुर्माना भी सुनाया गया था। वह अफ्रीकी मूल का एक बेघर बेरोजगार था, जिसने इतनी रकम अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं देखी थी। वह बचपन से परिवार और जगह बदलते जाने का शिकार था, और गरीबी के चलते वह किसी काम के लायक भी नहीं बन पाया था, और राह से भटक गया था। बहुत बाद में जाकर 2012 में अमरीका ने यह पाया कि इस तरह की सजा नाजायज है, और फिर ऐसे कैदियों के मामलों को देखकर उनमें से कुछ को छोडऩा शुरू किया गया, और उसी के तहत 20 बरस की कैद के बाद डेविड रिहा किया गया, और उसका परिवार उसके स्वागत को बांहें फैलाए तैयार था।
अमरीका के इस कानून को लेकर सामाजिक इंसाफ और समानता पर भरोसा रखने वाले लोगों को कभी भरोसा नहीं रहा। उन्होंने यह माना कि इसकी सबसे बुरी मार उन लोगों पर पड़ी जो कि सामाजिक गैरबराबरी के शिकार थे। कैलिफोर्निया में इस कानून के तहत उम्रकैद पाने वाले लोगों में अधिकतर लोग गरीब थे, काले थे, दूसरे अश्वेत थे, और हालात के मारे हुए लोग थे। कानून ही ऐसा था कि बहुत मामूली से अहिंसक जुर्म के लिए भी गरीबों को पूरी जिंदगी के लिए जेल में डाल दिया जा रहा था। अमरीका के इन मामलों को देखकर हिन्दुस्तान के बारे में सोचें, तो यहां पर दलित-आदिवासी, गरीब, मुस्लिम अल्पसंख्यक तबकों के लोग ही जेलों को भरे हुए हैं। उनकी गरीबी और सामाजिक हालत उन्हें जुर्म की ओर मोड़ भी देती है, और हिन्दुस्तान की महंगी और मुश्किल अदालतें उन्हें इंसाफ पाने का अधिक मौका भी नहीं देती हैं। नतीजा यह होता है कि वे फैसले के इंतजार में ही संभावित सजा से अधिक वक्त जेल में गुजार देते हैं। और जैसा कि अमरीका के इस कानून का तजुर्बा रहा है कि इसकी वजह से कहीं जुर्म कम नहीं हुआ, जबकि इस कड़े कानून को बनाने का सबसे बड़ा मकसद ही जुर्म में कमी लाना था। इसी तरह हिन्दुस्तान में बलात्कार पर मौत की सजा से बलात्कार में कोई कमी हुई हो ऐसा नहीं दिख रहा है, बल्कि बलात्कार के बाद हत्या अधिक सुनाई दे रही है। अब अमरीका में लोग खुलकर यह मान रहे हैं कि एक अपहरण और कत्ल से फैली दहशत कम करने के लिए निर्वाचित सरकारों ने इस तरह का कड़ा कानून बनाया था, और यह कि निर्वाचित लोगों के बनाए सारे कानून जायज नहीं होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस को लेकर छिड़ी ताजा बहस में दलितों का मुद्दा भी सामने आ रहा है कि किस तरह उन्होंने शूद्रों को प्रताडऩा (ताडऩ या पिटाई) का हकदार लिखा था। अब वह बहस तो बहुत से और लोग आगे बढ़ा रहे हैं, हम भी कल इसी पेज पर उस बारे में लिखा है, लेकिन आज हिन्दुस्तान के शूद्रों के बारे में। विख्यात अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने अभी दुनिया के कुछ देशों के बारे में रिपोर्ट छापी है कि किस तरह वहां पर विशेष दर्जे के लोग प्रमुख विश्वविद्यालयों में अधिकतर सीटों पर काबिज हो जाते हैं। दुनिया के कुछ और देशों के बारे में भी इसमें है, और साथ-साथ हिन्दुस्तान के बारे में भी इसमें एक रिपोर्ट है। भारत में दलित और आदिवासी सबसे ही पिछड़े हुए तबके हैं, और रिजर्वेशन के बावजूद उनकी हालत आज कैसी है, यह इन आंकड़ों से दिखाई पड़ता है। इस पत्रिका की रिपोर्ट बताती है कि देश भर के विश्वविद्यालयों में अगर ग्रेजुएशन तक की गिनती देखें, तो आदिवासी छात्र-छात्राओं की सीटें आधी भी नहीं भरी हैं। इसके बाद देश के आईआईटी में देखें, तो वहां आदिवासी कोटा पीएचडी छात्रों में शायद चौथाई के करीब भरा है, वहां असिस्टेंट प्रोफेसर इस तबके की आरक्षित कुर्सियों पर दो-चार फीसदी ही हैं, और प्रोफेसर हंै ही नहीं। इस पत्रिका में प्रकाशित चार्ट देखकर हम अंदाज से इन आंकड़ों को देख रहे हैं। देश भर में दलित छात्रों की आरक्षित सीटों से अधिक छात्र-छात्राएं ग्रेजुएशन तक हंै। आईआईटी में पीएचडी छात्रों में भी दलितों की संख्या आरक्षित कोटे से कुछ अधिक है। लेकिन असिस्टेंट प्रोफेसर आरक्षित कोटे से करीब एक तिहाई ही हैं, एसोसिएट प्रोफेसर और भी कम हैं, और प्रोफेसर गिनती के हैं। जब देश में हर तरह के छात्र-छात्राओं और प्राध्यापकों को मिला लिया जाए, तो दलित और आदिवासी अपने निर्धारित कोटे से बहुत ही कम हैं, ओबीसी में भी ग्रेजुएशन के छात्रों को छोडक़र बाकी की हालत यही है। लेकिन अनारक्षित वर्ग के प्राध्यापक लगभग सौ फीसदी सीटों पर काबिज हैं, एसोसिएट प्रोफेसर की 90-95 फीसदी सीटों पर अनारक्षित वर्ग के लोग हैं, और सहायक प्राध्यापक की कुर्सियों पर भी 90 फीसदी से अधिक सामान्य वर्ग के लोग हैं। ये सारे आंकड़े 2019-20 तक के हैं, और ये सरकार और आईआईटी जैसे संस्थानों से लिए गए हैं। इस रिपोर्ट के आंकड़े सब कुछ कह रहे हैं, इसलिए हम अपनी अधिक टिप्पणियों के बिना भी इन आंकड़ों को लिखते चले जा रहे हैं। भारत के सबसे प्रमुख शैक्षणिक संस्थान, आईआईटी में प्रोफेसरों की कुर्सियों पर दलित-आदिवासी तबकों के एक फीसदी से कम प्रोफेसर हैं। इस बारे में इस पत्रिका से एक रिटायर्ड दलित वरिष्ठ प्राध्यापक ने कहा कि यह सोची-समझी नौबत है, वे लोग हम लोगों को कामयाब नहीं होने देना चाहते। ये उच्च शिक्षा संस्थान आरक्षण के नियम नहीं मान रहे, और सरकारें इन पर कुछ नहीं कर रहीं। कुछ प्राध्यापकों का मानना है कि अगर आरक्षित तबकों को उनका जायज हक दिलाना है, तो ऐसे बड़े इंस्टीट्यूट के डायरेक्टरों को जब तक सजा नहीं दी जाएगी, तब तक वंचित तबकों को उनका हक नहीं मिलेगा।
इस रिपोर्ट के आगे के आंकड़े भी दिलचस्प हैं कि देश भर के विश्वविद्यालयों में ग्रेजुएशन में दलित और आदिवासी छात्र-छात्राओं की गिनती उनके वर्गों के आरक्षण से कुछ अधिक दिखती है, लेकिन जब बारीकी से देखें तो यह दिखता है कि यह सिर्फ आर्टस् के विषयों में है, दूसरी तरफ इंजीनियरिंग, चिकित्सा, विज्ञान, और टेक्नालॉजी में आदिवासी सीटें खाली पड़ी हैं, और यही हाल दलितों में भी है। मतलब यह है कि गांवों से निकलकर आने वाले दलित-आदिवासी छात्र-छात्राओं को विज्ञान की अच्छी पढ़ाई नहीं मिलती है, इसलिए वे कॉलेज पहुंचकर भी आर्टस् के विषय लेकर पढ़ते हैं। इनके मुकाबले ओबीसी की हालत कुछ बेहतर है जो कि अपने आरक्षित कोटे से अधिक सीटों पर हैं, लेकिन उनकी आबादी शायद सीटों के इस अनुपात से और अधिक मानी जाती है।
तुलसीदास का शूद्रों को लेकर जो लिखा हुआ है, वह आज भी हिन्दू धर्म और समाज के अधिकतर हिस्सों में चले आ रहा नजरिया बना हुआ है। वो जिन तबकों को पिटाई के लायक पाते हैं, उन तबकों की आज भी देश भर में जमकर पिटाई हो रही है। वीडियो-कैमरों के सामने महिलाएं भी पीटी जा रही हैं, दलित तो पीटे ही जा रहे हैं, इनके मुकाबले जानवरों की हालत बेहतर है क्योंकि पशु प्रताडऩा के खिलाफ कड़ा कानून बन गया है। तुलसीदास ने ऐसी बातें लिखते समय यह कल्पना भी नहीं की होगी कि अनपढ़ लोगों के बीच भी मशहूर उनकी रामचरितमानस की उनकी सोच 21वीं सदी में देश की दिग्गज आईआईटी में अमल में आती रहेगी। हिन्दुत्ववादी लोगों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि दूसरे धर्म के लोगों के मुकाबले अपनी अधिक आबादी गिनाने के लिए तो वे दलित और आदिवासी तबकों को हिन्दू समुदाय में गिन लेते हैं, लेकिन जैसे ही दूसरे धर्मों के साथ कोई तुलना बंद होती है, तो घर के भीतर वे दलित-आदिवासी तबकों को मारने के लिए अपने चमड़े के बेल्ट उतार लेते हैं, इन तबकों के खानपान से लेकर इनके कामकाज तक को कुचलने की कोशिश करते हैं, और उन्हें एक सवर्ण जीवनशैली का गुलाम बनाने में जुट जाते हैं। यह पाखंड ही लोगों को, दलितों और आदिवासियों को कभी बौद्ध धर्म की तरफ ले जाता है, तो कभी ईसाई धर्म की तरफ। और फिर ऐसे एक-एक मामले को लेकर वे धर्मांतरण का हल्ला बोलने लगते हैं, और जब ऐसा हल्ला बोलने का मौका नहीं मिलता, तो फिर वे अपने घर के भीतर वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे वाले दलित-आदिवासियों को कूटने में लग जाते हैं। लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि तुलसी की रामकथा के वानर कौन थे? क्या वे जंगलों में बसे हुए आदिवासी ही नहीं थे जो कि वहां से गुजरते हुए राम के साथ हो गए थे, और जिन्हें सवर्ण, शहरी कथाकारों की कल्पना में वनवासी आदिवासी की जगह बंदर का रूप दे दिया गया था? आज कम से कम यह तो अच्छा हुआ कि बिहार के एक मंत्री ने रामचरितमानस को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ करार दिया, तो रामचरितमानस के बचाव में, और उसके खिलाफ लोग टूट पड़े हैं, और ‘वानरों’ से लेकर दलितों तक का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के नागपुर दफ्तर को फोन करके धमकी दी गई और माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम का नाम लेते हुए फिरौती मांगी गई वरना गडकरी को जान से मार देने की बात कही गई। नागपुर पुलिस ने जब जांच की, तो पता लगा कि ये टेलीफोन कॉल कर्नाटक की एक जेल में बंद एक बड़े गैंगस्टर जयेश कांथा ने किए थे। अब यह तो एक बड़े केन्द्रीय मंत्री का मामला था इसलिए पुलिस ने आनन-फानन धमकाने वाले फोन का पता लगा लिया वरना कोई कारोबारी होता तो पुलिस रिपोर्ट की हिम्मत भी नहीं होती, और हो सकता है कि इस धमकी के एवज में भुगतान भी कर दिया जाता। दूसरी बात यह है कि नितिन गडकरी भाजपा नेता हैं, और कर्नाटक में भाजपा का ही राज है। वहां की जेल से अगर मुजरिम इस तरह की फिरौती मांग रहे हैं, तो यह बात देश की तमाम जेलों में एक सुधार की नौबत दिखा रही है।
कुछ महीने पहले जब पंजाब में एक बड़े मशहूर गायक का कत्ल हुआ, तो उसके पीछे कनाडा-ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बसे हुए पंजाबी गैंगस्टरों का भी नाम आया, और दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद पंजाब के एक बड़े गैंगस्टर का भी नाम आया। जाहिर है कि जो लोग जेल के भीतर रहते हुए, या देश के बाहर रहते हुए भी यहां पर माफिया अंदाज में खुलेआम कत्ल करवाने की ताकत रखते हैं, तो वे इसी ताकत के बदौलत उगाही भी करते ही होंगे। लोगों को याद होगा कि मुम्बई में जिस वक्त दाऊद इब्राहिम का राज चलता था, उस वक्त बड़े-बड़े बिल्डरों और कारोबारियों को धमकी के फोन जाते थे, और वे जिंदा रहने की कीमत अदा करते थे। उस वक्त और उसके बाद भी मुम्बई की जेलों से ऐसे गिरोह चलते रहे, और दाऊद जैसे बड़े मुजरिम पाकिस्तान में रहते हुए आज भी भारत में कई किस्म के जुर्म में शामिल बताए जाते हैं।
देश के तकरीबन हर राज्य में जेलों का यही हाल सुनाई पड़ता है कि वहां पैसा बोलता है। चाहे वह मुजरिम का हो, या किसी कारोबारी का, जिसके पास जेल अफसरों को देने के लिए पैसा है, उसके पास हर गैरकानूनी ताकत आ जाती है। बहुत से लोग जेलों से निकलकर रात गुजारने अपने घर चले जाते हैं, जेलों के भीतर हर किस्म की सहूलियत, हर किस्म के नशे, मोबाइल फोन की सुविधा, इन सबके लिए या तो पैसा लगता है, या राजनीतिक ताकत लगती है। पिछले कुछ बरसों से तिहाड़ जेल में बंद एक ऐसे मुजरिम की कहानी चारों तरफ से स्थापित हो रही है जिसने वहां रहते हुए देश के कुछ सबसे बड़े कारोबारियों को जमानत दिलवाने के नाम पर उनके परिवार से सैकड़ों करोड़ रूपये उगाही कर लिए, और फिल्म अभिनेत्रियों से अंतरंग संबंध बनाने के लिए उन पर सैकड़ों करोड़ खर्च भी कर दिए। यह पूरा काम जेल में रहते किया गया। देश की राजधानी की यह सबसे प्रमुख जेल अगर मुजरिमों के लिए इस किस्म का आरामगाह है कि वहां रहकर वे उसे जुर्म के अड्डे की तरह चला सकते हैं, तो फिर बाकी जेलों के बारे में कोई उम्मीद करना फिजूल की बात है।
दरअसल जेलों के भीतर हिफाजत के नाम पर जेलों के पूरे कैम्पस की जिस तरह तालाबंदी होती है, उसकी वजह से बाहर के दूसरे अफसर भी जेलों में झांक नहीं पाते। जिलों के कलेक्टरों पर जेलों के कामकाज की निगरानी का जिम्मा रहता है, लेकिन वे भी उस तरफ से रहस्यमय वजहों से आंखें मोड़े रहते हैं। बड़े-बड़े नेताओं के कोई न कोई पसंदीदा मुजरिम हमेशा ही जेलों में बंद रहते हैं, इसलिए वे भी जेलों के अपराधीकरण के खिलाफ आवाज नहीं उठाते। कुल मिलाकर सत्ता और पैसों की ताकत जेलों को बिकने का सामान बना देती है, और वहां एक अलग ही कानून चलता है जो कि देश के कानून से परे का होता है। हमने अपने आसपास की जेलों की कई ऐसी कहानियां सुनी हैं कि वहां कोई पैसे वाला बंद होता है, तो जेलों में बंद दूसरे सरगना उसे पीट-पीटकर बाहर अपने गिरोह को भुगतान करवाते हैं। अगर ऐसा भुगतान नहीं होता तो रोज उस पैसे वाले कैदी की थाली में लोग थूक देंगे, उसके मुंह पर थूक देंगे। छत्तीसगढ़ की जेलों के भीतर से भी बाहर फोन करके वसूली और उगाही करने के मामले सुनाई देते रहते हैं। बड़़े-बड़े मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का दुर्ग जिले की जेल ऐसी माफियागिरी की सबसे बड़ी गवाह है। और यह बात महज हिन्दुस्तान पर लागू होती हो ऐसा भी नहीं है, दुनिया के सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले अमरीका में भी जेलों के भीतर मुजरिमों का इसी किस्म का राज चलता है, जेलों के भीतर हत्याएं होती हैं, और वहां से गिरोह चलते हैं।
जेलों के भीतर बंद लोगों के हाथ मोबाइल फोन पहुंच जाने से बाहर की दुनिया में उनकी खूनी ताकत की दहशत और फैल जाती है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सोचना चाहिए कि इस सिलसिले को कैसे खत्म किया जा सकता है। जेलों में मोबाइल सिग्नल रोकने के लिए जैमर लगाना एक पुरानी तकनीक है, लेकिन जब तक जैमर नए सिग्नलों के लायक बने, तब तक मोबाइल सर्विस और अगले सिग्नलों पर चली जाती हैं। फिर मोबाइल से परे भी जेलों में जुर्म बहुत किस्म के होते हैं, और इन्हें रोकने के लिए वहां जांच की एक अधिक पारदर्शी व्यवस्था होना जरूरी है। यह कैसे हो सकता है इसे जानकार अफसर तय कर सकते हैं, लेकिन जिन जगहों को सजा पाने के लिए बनाया गया है, वे जगहें जुर्म करने के अड्डे बन जाएं, यह तो बर्दाश्त के लायक बात नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड में जोशीमठ जो दरारें शुरू हुईं, वे इस राज्य के दूसरे कई कस्बों तक पहुंच रही हैं, और दूसरे कस्बों में भी टूटते हुए घरों को देखकर सरकार बस्तियां खाली करा रही है। ठंड का यह मौसम और पीढिय़ों से बसे हुए लोग इस बीच बेघर हो रहे हैं, न सिर्फ उनके मकान जा रहे हैं, बल्कि उनकी जमीन भी धंस जा रही है, और वह शायद ही उन्हें कभी वापिस मिले क्योंकि हिमालय के किनारे बसे इस प्रदेश में इंसान की बाजारू नीयत ने विकास के नाम पर जो विनाश किया है, उसका असर शायद सदियों तक जारी रहेगा। इसलिए देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में लाखों लोगों की जिंदगी तबाह होने जा रही है, और यह आंकड़ा बढ़ते ही चले जाना है, ठीक उसी तरह, जिस तरह कि कोई दरार बढ़ती चली जाती है।
लोगों को याद होगा कि पर्यावरण की फिक्र करने वाले लोग लगातार दशकों से यह मुद्दा उठा रहे थे कि हिमालय के पड़ोस के इस राज्य की भूगर्भ की हालत नाजुक है, और उसके साथ बांध और सुरंग बनाने, पहाड़ काटकर सडक़ों को चौड़ा करने का खतरनाक काम नहीं किया जाना चाहिए। लोगों ने इस पहाड़ी राज्य में जंगल और पेड़ बचाने के लिए अपनी जिंदगी दे दी, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ने दीवारों पर लिखे धरती और कुदरत के संदेशों को पढऩे से इंकार कर दिया, और नेता, अफसर, ठेकेदार, तीनों की पहली पसंद, कांक्रीट और कंस्ट्रक्शन को अंधाधुंध बढ़ाया गया। जिस प्रदेश में आज कस्बे के कस्बे धसक रहे हैं, उस प्रदेश में सरकारों ने सौ के करीब सुरंगें बनाने का बीड़ा उठाया है, बिना यह समझे कि इसके कितने दाम चुकाने होंगे। आज यह दाम चुकाने के लिए सरकार के नोट कम पडऩे वाले हैं क्योंकि खोखले कर दिए गए एक पहाड़ी राज्य को फिर से भरने के लिए न तो दुनिया में सीमेंट काफी है, न ही इसकी टेक्नालॉजी मौजूद है, और न ही यह सरकार के बस में है। अंधाधुंध निर्माण का दाम उत्तराखंड की जनता अपने घर, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी देकर चुका रही है। दुनिया में कहीं भी पड़ी हुई दरार बढ़ती ही चली जाती है, और इस वक्त जब हम इस पर लिख रहे हैं, उत्तराखंड में जगह-जगह लोग घर छोडक़र अपने ही वतन में शरणार्थियों की तरह दूसरी जमीन पर तम्बुओं में जा रहे हैं, तब भी रात-रात जागकर कंस्ट्रक्शन कंपनियों की क्रेन और बुलडोजर धरती को हिलाने में, छेदने और पार करने में लगे हुए हैं। एक टीवी समाचार पर यह देखना भयानक था कि बस्तियों में लोग सर्द रातें कहीं तम्बुओं में बैठे हुए हैं, और दूसरी तरफ सरकारी प्रोजेक्टों में ठेकेदारों की दानवाकार मशीनें जमीन हिलाने में लगी हुई हैं।
दरअसल इंसान जिस रफ्तार से धरती और कुदरत को दुह लेना चाहते हैं, धरती और कुदरत उस मुताबिक बनी नहीं हैं। हिन्दुस्तान के इन पहाड़ी प्रदेशों में जिस रफ्तार से पेड़ काटे गए, जिस रफ्तार से जल-बिजली के लिए बांध और उसके तालाब बनाए गए, सडक़ों को चौड़ा करने के लिए जिस रफ्तार से पहाडिय़ां काटी गईं, अधिक से अधिक सैलानियों को लाने, ठहराने, और घुमाने के लिए होटलों और गाडिय़ों का समंदर खड़ा कर दिया गया, जगहों को एक-दूसरे से करीब लाने के लिए सुरंगों का जाल बनाना शुरू किया गया, इन सबके खिलाफ पर्यावरण के जानकार लोग, और गैरपर्यावरणवादी तकनीकी विशेषज्ञ भी चेतावनी देते आए थे, लेकिन हर कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट में बंटने वाले कमीशन और रिश्वत के चलते सरकारों को हांकने वाले लोगों ने सारी चेतावनियों को अनसुना कर दिया। इस रफ्तार से हिमालय के किनारे बसे इस इलाके को तबाह किया गया कि मानो ये इलाके अगली सदी न देख लें।
दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी ऐसी खबरें सामने आ रही हैं कि इंसान जैव विविधता को इस रफ्तार से खत्म करने में लगे हुए हैं कि उसकी भरपाई लाखों बरस भी नहीं हो पाएगी। दो दिन पहले बीबीसी पर एक रिपोर्ट थी कि मेडागास्कर के टापू पर पेड़-पौधों और पशु-पक्षी जैसी तमाम किस्म की जैव विविधता पिछले बहुत थोड़े से समय में इस रफ्तार से खत्म हुई है कि उतनी विविधता दुबारा बनने में तीस लाख बरस लगेंगे, और अगर इसी रफ्तार से यह विविधता कुछ और समय तक बर्बाद हुई तो उसकी भरपाई में दो सौ लाख बरस लगने का वैज्ञानिक अंदाज है। खतरनाक बात यह है कि बहुत थोड़ी आबादी वाले इस टापू पर इंसानों का इतिहास बहुत छोटा है, लेकिन गिनी-चुनी आबादी ने इस रफ्तार से जैव विविधता को खत्म कर दिया है कि यह इंसान के खूनी मिजाज की एक जलती-सुलगती मिसाल दिख रही है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुदरत के हिस्सों को तबाह करना, अंधाधुंध शिकार, और जलवायु परिवर्तन के रास्ते इंसानों ने जैव विविधता को कुछ दशकों में ही इतना खत्म कर दिया है कि दसियों लाख साल उसकी भरपाई नहीं होने वाली है।
कुछ ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान में पांच-पांच बरस के लिए आने वाली सरकारों ने पहाड़ी इलाकों का किया है। हर निर्वाचित सरकार को यह हड़बड़ी रहती है कि वह अधिक से अधिक कितने कंस्ट्रक्शन-ठेके दे सके, कितनी कमाई कर सके। कुदरत की गोद में हर इंसान के लिए जरूरत का तो काफी है, लेकिन इंसान बेहिसाब हवस के लिए उसके पास उतना कुछ नहीं है। यह नौबत हिन्दुस्तान जैसे देश के सम्हलकर बैठने की है, और दरारों वाले मकान गिराकर किसी दूसरे इलाके में कुछ दूसरे कच्चे-पक्के मकान बनाना तो हो सकता है, लेकिन हिमालय की तराई, उसके बदन पर आई दरारों को पाटना इंसानों के बस के बाहर का है। ये इलाके न इतने निर्माण के लायक हैं, और न ही इतने सैलानियों के लायक हैं। अगले किसी अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ अध्ययन तक उत्तराखंड जैसे प्रदेश में सारे बड़े प्रोजेक्ट पर काम पूरी तरह रोक देना चाहिए, ऐसा न करना एक ऐतिहासिक खुदकुशी होगी, जिसमें मौत आज के नेताओं की नहीं होगी, ऐसे प्रदेशों की अगली कई पीढिय़ों की होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र में अभी सुबह-सुबह एक निजी मुसाफिर बस और ट्रक में टक्कर हुई जिसमें 10 लोगों की मौत हो गई है, और बहुत से जख्मी हो गए हैं। बस की हालत देखें तो लगता है कि मानो अफगानिस्तान या इराक में बम के धमाके से उड़ा दी गई बस हो। ऐसी कोई सुबह नहीं होती जब इस किस्म की पांच-दस थोक मौतों की कोई खबर न आई हो। हर रात के अंधेरे में देश भर में जगह-जगह हादसों में ऐसी मौतें हो रही हैं, और अगर उनका आंकड़ा आधा दर्जन पार कर जाता है, तो ही उनकी खबर प्रदेश की सरहद पार कर पाती है। इक्का-दुक्का मौतों की तो मानो कोई गिनती नहीं है। सरकारी आंकड़ों को देखें तो 2021 में चार लाख बारह हजार सडक़ हादसे हुए हैं जिनमें डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए हैं, और पौन चार लाख से अधिक लोग जख्मी हुए हैं। जाहिर है कि बाद में इन घायलों में से और बहुत सी मौतें हुई होंगी, या मौत से बदतर जिंदगी चल रही होगी। सडक़ हादसों का यह हाल भयानक है, लेकिन इस पर चर्चा इसलिए जरूरी है कि इसे रोका जा सकता है।
आए दिन शहरों की खबर आती है कि उनके किनारे हाइवे और रिंगरोड पर किस तरह ट्रांसपोर्ट कारोबारियों की स्थाई पार्किंग चलती है, और जिन दुपहिया-तिपहिया गाडिय़ों को सर्विस रोड से चलना चाहिए, वे हाइवे पर चलने को मजबूर रहती हैं, दुपहिया सवार लोगों की अधिकतर मौतें इसी तरह की सडक़ों पर होती हैं, और हर बार यह बात सामने आती है कि उन्होंने हेलमेट नहीं लगाया हुआ था। केन्द्र सरकार ने हेलमेट लगाने को जरूरी बना दिया है, और न लगाने पर एक जुर्माना भी लगाया है। लेकिन देश के अधिकतर प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने लोगों के सिर पर बोझ रखकर उन्हें नाराज करना नहीं चाहतीं, इसलिए वोटर की चापलूसी के मकसद से उसकी आदत खराब होने दी जाती है, और हेलमेट, सीटबेल्ट जैसे नियमों को कुछ महानगरों को छोडक़र अधिकतर जगहों पर लागू नहीं किया जाता। हम अपने अखबार में शुरू से ही इसके लिए अभियान चलाते आए हैं, लेकिन सरकार ने मानो कसम खा रखी है कि वह किसी भी कीमत पर वोटर को नाराज नहीं होने देगी। इसलिए कंधे और कान के बीच मोबाइल दबाए हुए दुपहिया चलाते लोगों को भी कहीं नहीं रोका जाता, और न ही अंधाधुंध रफ्तार से सांप की तरह आड़ी-तिरछी मोटरसाइकिल चलाने वालों को रोका जाता। यह तय है कि अगर राज्य सरकार हेलमेट को लागू कर दे, दुपहिया और मोबाइल के मेल को खत्म कर दे, तो रोजाना आधा दर्जन मौतें तो छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में टल सकती हैं।
लेकिन बस और ट्रक जैसी टक्कर हेलमेट से परे का मामला है। हिन्दुस्तान के किसी भी राज्य में जितनी कारोबारी गाडिय़ां रहती हैं, वे आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस दोनों की मंजूरी और निगरानी वाली रहती हैं। ये गाडिय़ां ओवरलोड भी चलती हैं, बिना फिटनेस की भी चलती हैं, और अंधाधुंध रफ्तार से तो चलती ही हैं। ड्राइवर कई बार नशे में रहते हैं, और कई बार उनकी नींद अधूरी हुई रहती है। इन सबके साथ-साथ उन्हें माल और मुसाफिर को जल्द से जल्द मंजिल तक पहुंचाने का एक किस्म से ठेका दे दिया जाता है, और यहीं से रफ्तार और हड़बड़ी का जानलेवा मुकाबला शुरू होता है। फिर हिन्दुस्तान में जगह-जगह सडक़ों का हाल खराब है, सावधानी के निशान लगे नहीं रहते, कई गाडिय़ां बिना लाईट के चलती हैं, कई गाडिय़ां सडक़ किनारे बिना लाईट जलाए खड़ी रहती हैं, और यह सब पुलिस और आरटीओ की लापरवाही का नतीजा रहता है। ये दोनों ही विभाग परले दर्जे के भ्रष्टाचार में डूबे हुए रहते हैं, और ये जितनी मोटी कमाई करते हैं, वह लोगों की जिंदगी बेचकर ही हो पाती है। अगर इन दोनों विभागों के लोग ईमानदारी से जांच और जुर्माना करने लगें, तो सडक़ मौतें घटकर एक चौथाई रह जाएंगी। लोगों को जानलेवा लापरवाही, जानलेवा रफ्तार, और गाडिय़ों की जानलेवा कंडम हालत की छूट देकर जो कमाई की जाती है, उसी से सडक़ों पर लाशें बिखरती हैं।
केन्द्र सरकार सडक़ सुरक्षा के लिए कई तरह के नियम तो बना सकती है, लेकिन उन पर अमल राज्य सरकार के दायरे की बात रहती है। ऐसे में केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए कि किस तरह सडक़ों की हिफाजत के काम में, हादसों को रोकने में आम जनता की मदद ली जा सकती है। जनता की भागीदारी से अगर उनके साथ मौजूद पुलिस और आरटीओ के अफसर जांच करेंगे, तो हो सकता है कि उतने संगठित भ्रष्टाचार की गुंजाइश न रह जाए। वैसे तो हिन्दुस्तान का राष्ट्रीय चरित्र देखें, तो एक खतरा यह भी लगता है कि जनता की ऐसी भागीदारी के नाम पर जनता को भ्रष्ट बनाने का भी एक सिलसिला शुरू हो सकता है। लेकिन कुछ समय पहले सडक़ परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने यह कहा था कि केन्द्र सरकार ऐसा कानून बनाने जा रही है कि सडक़ों पर नियम तोडऩे वाली गाडिय़ों के फोटो-वीडियो लोग अगर पुलिस को भेजेंगे, तो उनके आधार पर होने वाले जुर्माने में उन्हें भी एक हिस्सा ईनाम की शक्ल में मिलेगा। हमने पहले भी इस सोच की तारीफ की थी, हालांकि कुछ अच्छे पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ लिखा था, और लिखा था कि सरकार अपना काम खुद करने के बजाय लोगों पर इसकी जिम्मेदारी डाल रही है। हम ऐसी सोच से सहमत नहीं हैं, और हमारा मानना है कि देश को चलाने का जिम्मा अकेले सरकार पर नहीं हो सकता, और हर नागरिक का यह जिम्मा और अधिकार है कि वे जहां कानून टूटते देखें, वे सरकार को खबर करें। हर जगह तो पुलिस को तैनात करना दुनिया की किसी भी सरकार के लिए मुमकिन नहीं है, और आम लोगों को भी अपनी नागरिक जवाबदेही निभानी चाहिए। और ऐसा करने में अगर जुर्माने के एक हिस्से पर उनका हक भी तय किया जा रहा है, तो यह सचमुच ही अच्छी बात है। वैसे तो केन्द्र सरकार के किए बिना भी कोई समझदार और जिम्मेदार राज्य सरकार भी यह काम कर सकती है, और हम तो नितिन गडकरी की बात के दस-बीस बरस पहले से यह सुझाव लिखते आए हैं। किसी भी जिम्मेदार राज्य सरकार को सडक़ों के नियम तोडऩे वालों के सुबूत भेजने के लिए जनता का हौसला बढ़ाना चाहिए, और जुर्माना वसूली के बाद उन्हें एक हिस्सा देना चाहिए, इससे हादसे रूकेंगे, और मौतें थमेंगी।
बाबाओं से भरे हुए हरियाणा में बलात्कार की ताजा सजा पाने वाला बाबा बड़े दिलचस्प नाम वाला है। जलेबी बाबा को फास्ट ट्रैक कोर्ट के स्पेशल जज ने 14 साल की कैद सुनाई है, उस पर अनगिनत महिलाओं से बलात्कार के अलावा उनके वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करने का भी आरोप है। पांच बरस से मुकदमा चल रहा था, और फास्ट ट्रैक कोर्ट में भी इतना समय लग गया। यह बाबा किसी धार्मिक संगठन से निकलकर नहीं आया था, वह हरियाणा में एक जगह जलेबी बनाकर बेचता था, और बाद में उसने घर में मंदिर बनवाया, और इस मंदिर में वह महिलाओं को उनकी परेशानियों का समाधान बताता था, और यह करते-करते वह बिल्लू राम से जलेबी बाबा बन गया था। पुलिस ने अदालत को बताया कि वह शारीरिक और मानसिक तकलीफों वाली महिलाओं के इलाज का दावा करता था, उन्हें खाने-पीने की चीजों में नशा देता था, और उसके बाद उनसे छेडख़ानी को मंदिर के खुफिया कैमरों में रिकॉर्ड कर लेता था। इसके बाद वह ब्लैकमेल करके बलात्कार भी करता था, और रकम भी वसूलता था।
हरियाणा ढेर किस्म के पाखंडी बाबाओं का प्रदेश है, और इनमें से बहुत से बलात्कारी दर्ज हुए हैं, और ऐसा माना जा सकता है कि बाकी के बलात्कार अब तक सामने नहीं आए होंगे, वे बलात्कारी रहे जरूर होंगे। धर्म और आध्यात्म लोगों के शोषण का सबसे आसान जरिया रहता है, भक्तजन और मानने वाले लोग अपने तर्कों को, अपनी वैज्ञानिक समझ को ताक पर धरकर आते हैं, और अपने आपको शारीरिक और मानसिक रूप से गुलाम की तरह पेश कर देते हैं। बाबाओं के चक्कर में पडऩे वाले लोग बलात्कार को भी अपनी खुशकिस्मत मान लेते हैं, और भक्तजनों के पूरे-पूरे परिवार बलात्कारी बाबाओं को समर्पित रहते हैं। हम पहले कई बार इसी जगह पर आसाराम के बारे में लिख चुके हैं जो कि स्वघोषित बापू था, और अपने भक्त परिवार की एक नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में अब तक जेल में है, और देश के सबसे बड़े और महंगे वकील भी उसको जमानत नहीं दिला पाए हैं। लेकिन इससे उसके भक्तों पर बहुत असर नहीं पड़ा है, और आज भी वे आसाराम का प्रचार करते हुए अपने पूरे परिवार और बच्चों सहित सडक़ों पर दिखते हैं, और कभी जुलूस निकालते हैं, कभी कार्यक्रम करते हैं, और उसे छोडऩे की मांग भी करते हैं। इतिहास में हर जगह धर्म का नाम लेकर पाखंड चलाने वाले ऐसे बलात्कारी दर्ज हुए हैं, और हर किस्म के धर्म में ऐसे बलात्कार सामने आए हैं। अभी पिछले पोप के मरने पर चार दिन पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा था कि उस पोप ने किस तरह दुनिया भर में पादरियों द्वारा बच्चों के साथ बलात्कार के मामलों में नरमी दिखाई थी, और उन्हें सजा से बचाया था। ऐसा हाल हिन्दुस्तान में जगह-जगह देखने मिलता है, और जलेबी बाबा नाम के इस बलात्कारी के बारे में कुछ खबरें बताती हैं कि उसने सवा सौ महिलाओं से बलात्कार किया था।
हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह भी है कि यहां अधिकतर लोगों को किसी भी मानसिक समस्या के लिए न तो मनोचिकित्सक हासिल हैं, और न ही परामर्शदाता। इसलिए मानसिक परेशानी रहने पर गरीब परिवार अपने लोगों को सीधे किसी बाबा, किसी मजार, या किसी गुरू के पास ले जाते हैं, और वहां पर उनका तरह-तरह से शोषण होता है। एक तो परिवार परेशान रहता है, दूसरा ऐसे पाखंडी उन्हें अपने किस्म के इलाज का झांसा देते हैं, और मरीज बच्चे और महिलाएं बलात्कार के शिकार हो जाते हैं। इससे परे हरियाणा में ही बाबा राम-रहीम नाम के एक और बलात्कारी की भयानक कहानी सबके सामने है, जिसे 20 साल की कैद हुई है, और एक पत्रकार की हत्या करवाने के जुर्म में उम्रकैद भी हुई है। राम-रहीम ने अपने आपको एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक गुरू बताया, और उसके डेरे में साधुओं को बधिया बनाने के बहुत से मामले किए गए थे। उस पर साध्वियों से बलात्कार के मामले चले, और इसका भांडाफोड़ करने वाले पत्रकार की भी इस बाबा ने हत्या करवा दी। जिस हरियाणा में महिलाओं को सामाजिक रूप से अधिकारों से दूर रखा जाता है, उस हरियाणा में इस किस्म के पाखंडियों को एक उपजाऊ जमीन मिल जाती है।
हिन्दुस्तान में धर्म के नाम पर धर्मान्धता और कट्टरता को बढ़ावा देकर लोगों की वैज्ञानिक सोच को खत्म करने का जो सिलसिला पिछले बरसों में चलाया गया है, उससे इस देश की जनता इसी किस्म के पाखंडी और बलात्कारी बाबाओं की गुलाम बनने के खतरे में पड़ गई है। धर्म सिर्फ अनपढ़ों को ही धोखे के लायक नहीं बनाता, पढ़े-लिखे लोगों को भी शोषण के लायक तैयार करता है। लोगों को याद होगा कि देश में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे केरल में किस तरह एक बिशप पर एक नन से बलात्कार का केस चला था, हालांकि वह बाद में बरी हो गया था। दुनिया के विकसित और पढ़े-लिखे देशों में ही पढ़े-लिखे परिवारों के बच्चे चर्च में पादरियों के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं जहां उनसे बलात्कार होते हैं। धर्म पढ़ाई-लिखाई से मिली समझ को भी खत्म करने की ताकत रखता है, और हरियाणा का सामाजिक पिछड़ापन ऐसे शोषण को और दूरी तक ले जाता है।
हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह भी है कि कई किस्म के बाबा और पाखंडी बरसों तक बलात्कार करते रहते हैं, लेकिन कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। राम-रहीम और आसाराम जैसे अधिक चर्चित बलात्कारियों के मामले में हमने देखा है कि बड़ी-बड़ी पार्टियों के बड़े-बड़े नेता इनके चरणों में बिछे रहते हैं, और छोटे-मोटे अफसर किसी शिकायत के आने पर भी इन पर कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करते। समाज के जागरूक लोगों और उनके संगठनों को इस नौबत को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। धर्म से जुड़े हुए लोगों को भी अगर अपने धर्म की इज्जत बरकरार रखनी है, तो उन्हें भी पाखंड के ऐसे बलात्कारी सिलसिले को खत्म करना पड़ेगा। हम जानते हैं कि हमारा यह कहना आसान है, और लोगों के मन से अंधविश्वास को मिटाना मुश्किल बात है, लेकिन ऐसी कोशिशों के अलावा और कोई चारा भी नहीं है।
ब्राजील में नए निर्वाचित राष्ट्रपति लूला के चुनाव को गैरकानूनी करार देते हुए पिछले राष्ट्रपति बोलसोनारो के समर्थकों ने जिस तरह ब्राजील की संसद, सुप्रीम कोर्ट, और राष्ट्रपति भवन पर हमला बोला, उसने सबको हक्का-बक्का कर दिया। दो बरस पहले जनवरी के महीने का ही पहला हफ्ता था जब अमरीका में राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे पर उनके समर्थकों ने जो बाइडन के चुनाव को नाजायज करार दिया था, और इसी तरह संसद पर हमला बोला था। अब मानो ब्राजील में उसी अमरीकी हमले से रास्ता समझकर ब्राजील में ठीक वैसा ही हुआ, कुछ बड़े पैमाने पर हुआ, और कुछ दूसरी संवैधानिक संस्थाओं पर भी हुआ। जिस तरह अमरीका में ट्रंप ने बाइडन के चुनाव को मतगणना पूरी हो जाने के बाद भी लगातार खारिज किया, कुछ वैसा ही ब्राजील में भी हारे हुए राष्ट्रपति ने किया। चूंकि ये दोनों मामले महज दो बरस के फासले पर बिल्कुल एक सरीखे दिखते हुए सामने आए हैं, इसलिए यह मानने की हर वजह है कि ट्रंप की बगावत से ही ब्राजील में हारे हुए राष्ट्रपति बोलसोनारो को रास्ता सूझा। इससे यह भी साबित होता है कि दुनिया में एक देश में की गई वारदातें दूसरे देशों को भी उस तरह का रास्ता दिखा सकती हैं। ब्राजील में बोलसोनारो की हार के आसार बने हुए थे, और इस बार की यह हिंसक बगावत सोशल मीडिया पर हमले के तार जोडक़र की गई साबित हो रही है।
दुनिया में लोग और देश मोहब्बत की बातें चाहे एक-दूसरे से न सीख पाएं, नफरत और हिंसा की बातें तेजी से एक-दूसरे से सीख लेते हैं। हिन्दुस्तान में आज धर्म को लेकर जिस तरह की कट्टरता पनप रही है, धर्मान्धता बढ़ रही है, किसी भी तरह की हिंसा के लिए धर्म को एक न्यायसंगत वजह मान लिया गया है, उसकी जड़ें पड़ोस के पाकिस्तान से लेकर उसके बगल के अफगानिस्तान तक की धार्मिक कट्टरता से जुड़ी हुई हैं। एक देश का आतंक दूसरे देश के आतंक को बढ़ावा देता है। हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को इस बात से तकलीफ पहुंचती है जब इस देश के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक संगठनों की तुलना कुछ लोग अफगान-तालिबानों से करते हैं। हो सकता है कि यह तुलना कुछ नाजायज हो, लेकिन कट्टरता और धर्मान्धता के मामलों में फर्क महज हिंसा के पैमानों का है, बाकी राह तो एक ही है। जिस तरह ट्रंप की दिखाई राह पर बोलसोनारो चले, ठीक उसी तरह दूसरे देशों में इस्लामी कट्टरपंथ और आतंक की दिखाई गई राह पर हिन्दुस्तान में आज की धार्मिक हिंसा चल रही है। हो सकता है कि वह कई मील पीछे हो, लेकिन यह समझ लेना जरूरी है कि यह उसी राह पर मील के अलग-अलग पत्थरों तक पहुंचा हुआ सफर है।
पहले अमरीका, और उसके बाद ब्राजील, दुनिया के दो बड़े और महत्वपूर्ण देशों में हुए पारदर्शी चुनावों के बाद जिस तरह जाती हुई सत्ता ने गुजरने से इंकार कर दिया, और अपनी हार के आंकड़ों को नकार दिया, उससे दुनिया के बहुत से दूसरे देशों के सामने एक मिसाल बन सकती है, और उससे जगह-जगह लोकतंत्र कमजोर हो सकता है। जो लोग अमरीका की खबरों को ध्यान से देखते हैं, उन्हें यह मालूम है कि अमरीकी संसद पर ट्रंप समर्थकों द्वारा 6 जनवरी को किए गए हमले की संसदीय सुनवाई पूरी हो चुकी है, और इस कमेटी ने ट्रंप और उनके समर्थकों के खिलाफ चार गंभीर पहलुओं पर आपराधिक मामले चलाने की सिफारिश अमरीका के न्याय विभाग से की है। वहां संसदीय समिति की सिफारिश कोई बंदिश नहीं है, इसलिए अमरीका के सबसे बड़े सरकारी वकील अपने स्तर पर यह तय करेंगे कि किन-किन सिफारिशों के आधार पर आपराधिक मुकदमे चलाने हैं, और क्या पिछले राष्ट्रपति ट्रंप पर भी इन दंगों और हमलों को भडक़ाने और उकसाने का मुकदमा चलाना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो अमरीकी इतिहास में यह पहला मौका रहेगा जब किसी राष्ट्रपति पर ऐसा मुकदमा चलेगा। अमरीका के इस मामले को बाकी लोकतंत्रों को भी बारीकी से देखना चाहिए कि कोई संसदीय समिति किस तरह काम कर सकती है, और किस तरह पिछले राष्ट्रपति को भी कटघरे मेें खड़ा कर सकती है।
हिन्दुस्तान इस मामले में एक बेहतर मिसाल बनकर दुनिया के तमाम लोकतंत्रों के सामने है कि एक बार चुनावी नतीजे आ जाने के बाद कोई सरकार हटने से इंकार नहीं कर पाती। यह एक अलग बात है कि हटने के पहले वह चुनावों में हर गलत काम कर जाती है, थोक में दलबदल करवाती है, चुने हुए सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त करती है, लेकिन वोटरों के फैसले के खिलाफ हथियारबंद बगावत, संसद पर हमला किस्म की बातें हिन्दुस्तान में कभी देखने में नहीं आतीं। या तो इसके पीछे एक वजह यह है कि यहां वोटरों को प्रभावित करने, और सांसदों-विधायकों को खरीदने की इतनी संभावनाएं हमेशा ही बनी रहती हैं कि नतीजों के बाद बगावत की जरूरत नहीं रहती। लेकिन एक पार्टी की सरकार दूसरी पार्टी की सरकार को सत्ता के हस्तांतरण में किसी हिंसा को बढ़ावा देते कभी नहीं दिखी है। अमरीका और ब्राजील को हिन्दुस्तानी संसदीय व्यवस्था से यह एक पहलू जरूर सीख लेना चाहिए, यह एक अलग बात है कि चुनावी नतीजों को भ्रष्टाचार से खरीद लेने में हिन्दुस्तान को जो महारथ हासिल है, उसे सीखने में दूसरे लोकतंत्रों को खासा वक्त लग सकता है।
अमरीका में ट्रंप एक गंभीर मुकदमे का एक गंभीर खतरा झेल रहे हैं, जिसमें उन्हें सजा तक होने का खतरा है। लेकिन अपने देश में वे सजा भुगतें या न भुगतें, उन्होंने पास के एक दूसरे देश में बगावत की प्रेरणा तो दे ही दी है। हमारा यह मानना है कि ट्रंप ने अमरीका में एक आतंकवादी का काम किया, और दूसरे देशों के लिए वे एक आतंकवादी मिसाल बन भी चुके हैं। दुनिया के गंभीर, सभ्य, और परिपक्व लोकतंत्रों को ऐसी घटिया मिसाल बनने से बचना चाहिए जिससे कि वे खुद तो चाहे उबर जाएं, लेकिन वे दूसरों को डुबाने का इंतजाम कर देते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का मौजूदा तरीका संविधान के बहुत से जानकार लोगों की नजरों में गलत है, और केन्द्र सरकार भी कई बार इसका विरोध कर चुकी है कि जज ही जजों को छांटते हैं, और फिर सरकार को उन्हीं में से नामों को मंजूरी देनी पड़ती है। जानकारों का कहना है कि जब संविधान बनाया गया तो उसमें ऐसी सोच बिल्कुल नहीं थी कि एक कॉलेजियम बनाकर सुप्रीम कोर्ट खुद ही अगले जज छांटते रहेगा। यह नौबत अगर कोई कामयाब नतीजा लाती, तो भी चल जाता, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सबसे सीनियर जजों के इस कॉलेजियम ने अब तक कैसे जज छांटे हैं उन्हें अगर देखें तो समझ पड़ता है कि यह पूरा इंतजाम एक सवर्ण तबके से बनाई गई न्यायपालिका सामने रख पाया है।
केन्द्र सरकार ने संसद की एक कमेटी को यह जानकारी दी है कि 2018 से 2022 तक, इन चार बरसों में देश के हाईकोर्ट में जो जज बनाए गए, उनमें 79 फीसदी जज ऊंची जातियों के थे। देश की 35 फीसदी ओबीसी से 11 फीसदी जज ही हैं, दलितों से कुल 2.8 फीसदी, और आदिवासियों से कुल 1.3 फीसदी जज बने हैं। केन्द्र सरकार ने इस संसदीय समिति को बताया है कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज कॉलेजियम प्रणाली से बनते हैं इसलिए सामाजिक विविधता के लिए सरकार इसमें कुछ भी नहीं कर सकती। सरकार ने यह भी बताया कि वह कई बार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को यह लिख चुकी है कि जजों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता और सामाजिक न्याय का ध्यान रखना चाहिए, लेकिन कॉलेजियम प्रणाली इसमें नाकामयाब रही है। केन्द्र सरकार मुख्य न्यायाधीशों को विभिन्न जातियों और धर्मों के तबकों के अलावा महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में भी लिखते आई है, लेकिन ऊंची अदालतों में महिलाओं की मौजूदगी उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
आज ही छपी एक और अखबारी रिपोर्ट में ये आंकड़े हैं कि कोर्ट में कितने पुराने केस भी चल रहे हैं। देश का सबसे पुराना चल रहा आपराधिक मामला 69 साल पुराना है, और चले ही जा रहा है। इसी तरह जमीन-जायदाद के पारिवारिक मामले में 70 साल में अब तक फैसला नहीं हुआ है। सरकार के खिलाफ दायर एक दूसरा मामला बंगाल में 70 साल से चल रहा है। कलकत्ता हाईकोर्ट में एक मामला 71 साल से चल रहा है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश की निचली अदालतों में सवा चार करोड़ से अधिक मामले चल रहे हैं। इन आंकड़ों से परे अदालतों की रोजाना की हकीकत यह है कि वहां वादी, प्रतिवादी, गवाह, सभी को हर पेशी पर जुर्माने की तरह रिश्वत देकर आना होता है, और जजों की आंखों के सामने बैठे उनके बाबू यह रिश्वत वसूलते रहते हैं। अदालत के बाहर रिश्वत वसूलने के लिए बदनाम पुलिस वाले भी अदालतों में रिश्वत दिए बिना नहीं निकल पाते।
अब इन दो अलग-अलग खबरों के साथ देश की इस सामाजिक हकीकत को भी जोडक़र देखें कि आरक्षण के खिलाफ देश में कैसा माहौल बनाया जाता है। यह भी देखें कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में किसी तरह का कोई आरक्षण नहीं है, और ये ताजा आंकड़े बताते हैं कि किस तरह वहां सवर्ण तबके का बहुमत है। अब ऐसे सवर्ण तबके के बहुमत वाली बड़ी अदालतों में भी अगर मामले नहीं सुलझ रहे हैं, तो इसकी तोहमत तो उन आरक्षित जातियों पर नहीं डाली जा सकती जिन्हें देश की बर्बादी का गुनहगार ठहराते हुए सवर्ण तबका थकता नहीं है। यह एक और बात है कि आज देश के बड़े से बड़े सवर्ण नेता को भी अगर संविधान के बारे में चार लाईनें कहनी होती हैं, तो उन्हें एक दलित, बाबा साहब अंबेडकर का नाम लेना ही होता है। कानून के इतने बड़े जानकार के इतिहास वाले हिन्दुस्तान में दलित, आदिवासी तबकों को ही हिकारत से देखा जाता है। और ऐसी हिकारत अगर कॉलेजियम में नहीं भी है, तो भी उनकी पसंद तो 79 फीसदी ऊंची जातियों के जजों की है।
हम यहां दो-तीन मुद्दों को जोडक़र लिख रहे हैं, और भारत की सामाजिक हकीकत में इनको जोडक़र देखने की जरूरत भी है। जहां सवर्ण तबकों से आए हुए जजों का इतना बहुतायत है, वहां पर अदालतों की रफ्तार इतनी धीमी क्यों होनी चाहिए? जिस देश की ऊंची अदालतों में दलित-आदिवासी जज नाम के हैं, वहां पर तो काम बहुत तेजी से और बहुत अच्छे से होना चाहिए था, फिर क्या हो गया है? दूसरी तरफ अदालतों से बाहर का हाल देखें तो देश के अफसरों में जो सबसे भ्रष्ट लोग हैं, उनमें दलित-आदिवासी तो सबसे ही कम हैं। जितने नाम खबरों में आते हैं उनमें से बड़े-बड़े भ्रष्टाचार वाले लोगों को देखें, बड़े-बड़े आर्थिक अपराधियों को देखें, तो तकरीबन तमाम लोग सवर्ण दिखते हैं। मतलब यह कि वैसे ही लोग राजनीति और सरकार में, बैंक और कारोबार में ताकत की ऐसी जगहों पर पहुंचे रहते हैं कि वे ही लोग बड़ा भ्रष्टाचार और बड़ा जुर्म कर पाते हैं। भारत में जनता के पैसों के खिलाफ होने वाले बड़े-बड़े जुर्म में किन जातियों के कितने मुजरिम हैं, इसका एक सामाजिक अध्ययन दिलचस्प हो सकता है। फिलहाल तो हम लोगों को यही सुझा सकते हैं कि वे अपनी पूरी याददाश्त के सारे के सारे बड़े आर्थिक अपराधियों के नाम याद कर लें कि उनमें सवर्ण कितने थे, और बाकी जातियों के कितने थे, तो उनकी याददाश्त हंडी के एक दाने की तरह बता देगी कि खाना कितना पका है।
जिस सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति को अपना एकाधिकार बना रखा है, उसे इस सामाजिक भेदभाव की नौबत पर सफाई देनी चाहिए। देश की बड़ी-बड़ी अदालतों में काम करने वाले हर जाति और धर्म के बड़े-बड़े वकील हैं, महिला वकीलों में भी बहुत सी बहुत नामी-गिरामी हैं, इसलिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को आरक्षण से बचाकर चलने का तर्क करीब 80 फीसदी सवर्ण जजों के मनोनयन के बाद दम तोड़ता दिखता है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के जजों के घर का नहीं है, यह सार्वजनिक महत्व का और सामाजिक न्याय का मामला है, इसलिए कॉलेजियम को खुलकर जनता के सामने अपनी सोच रखनी चाहिए, और अपनी पसंद की वजह भी बतानी चाहिए, उसे फाइलों में एक रहस्य की तरह बंद करके रखना ठीक नहीं है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के एक चर्चित और विवादास्पद कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की याचिकाओं की सुनवाई से मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अपने को अलग कर लिया है। 2020 में जब सुप्रीम कोर्ट ने एक चर्चित और विवादास्पद टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी को जमानत दी थी, तब कुणाल कामरा ने जस्टिस चन्द्रचूड़ और सुप्रीम कोर्ट की खिल्ली उड़ाते हुए कई ट्वीट की थीं। अभी जस्टिस चन्द्रचूड़ ने इसलिए अपने को अलग कर लिया क्योंकि अर्नब को जमानत देने वाली बेंच पर वे भी थे। आत्महत्या के लिए उकसाने के एक आरोप में अर्नब गोस्वामी को जिस आनन-फानन तरीके से सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली थी, उस पर कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम जोक ऑफ द कंट्री कहा था। इसके अलावा कुणाल ने सुप्रीम कोर्ट की एक गढ़ी हुई तस्वीर पोस्ट की थी जिसमें अदालत की इमारत भगवा रंग की दिख रही है, और भाजपा का झंडा उस पर फहरा रहा है। इसके अलावा इस कॉमेडियन ने यह भी लिखा कि जस्टिस चन्द्रचूड़ उस एयरहोस्टेज की तरह हैं जो कि अर्नब को शैम्पेन परोस रहे हैं, और आम मुसाफिर इस इंतजार में हैं कि उन्हें प्लेन में चढऩे भी मिलेगा या नहीं। इस पर जब आपत्ति की गई थी तो कुणाल कामरा ने माफी मांगने से इंकार कर दिया था और कहा था कि सुप्रीम कोर्ट का सम्मान उसके जैसे कॉमेडियन के ट्वीट से नहीं घटता, बल्कि इस संस्था के अपने कामों से घटता है।
जस्टिस चन्द्रचूड़ का अपने को अलग कर लेना तो ठीक है, लेकिन इससे अभी मुद्दे की बात धरी रह जाती है कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना क्या होती है? और अवमानना का यह कानून कितना जायज है? लोगों को याद होगा कि बरसों पहले एक भूतपूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के कई जजों पर भ्रष्टाचार का खुला आरोप लगाया था, और बाद में इसकी अवमानना-सुनवाई भी हुई थी। पिता-पुत्र अपनी बात पर अड़े थे, और उन्होंने किसी भी तरह की माफी मांगने से इंकार कर दिया था। जितना अभी याद पड़ता है उस मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कोई सजा सुनाने से परहेज किया, और वह मामला शायद अब तक ताक पर धरा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के बारे में उस वक्त भी ऐसी चर्चा रहती थी कि वे भ्रष्ट हैं, और चूंकि यह बयान देने वाले देश के दो दिग्गज वकील थे जो कि सार्वजनिक जीवन में भी पारदर्शिता के ऊंचे पैमानों को लेकर काम कर रहे थे, और जो अदालती जवाबदेही की मांग करते हुए लंबे समय से संघर्ष कर रहे थे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट उन्हें आम लोगों की तरह सजा नहीं दे पाया था। अब कुणाल कामरा के मामले से देश में यह भी तय होने जा रहा है कि व्यंग्य को लेकर भारतीय समाज में कितनी सहनशीलता हो सकती है, या नहीं हो सकती है?
दुनिया के अलग-अलग लोकतंत्रों में देश के प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति से लेकर वहां की संसद, अदालतें, वहां के धर्म, सभी को लेकर बर्दाश्त अलग-अलग तरह के रहते हैं। आज हिन्दुस्तान में जिस तरह आए दिन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचने की शिकायत पर बहुत से राज्यों में जुर्म दर्ज हो रहे हैं, उसकी कल्पना भी अमरीका जैसे देश में नहीं की जा सकती जहां धर्मों को लेकर लोगों के अधिकार असीमित हैं। हिन्दुस्तान में धार्मिक भावनाओं को लेकर नौबत ऐसी खतरनाक मानी जाती है कि इस्लाम से जुड़े कुछ लोगों को नाराज कर सकने वाली सलमान रुश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेज को हिन्दुस्तान ने तब प्रतिबंधित कर दिया था जब दुनिया के किसी मुस्लिम देश ने भी ऐसा नहीं किया था। देश में अदालतें धर्मालु लोगों से भी अधिक संवेदनशील हैं, और छोटी से लेकर सबसे बड़ी अदालत तक अपने आपको अवमानना के कानून की फौलादी ढाल से घेरकर बैठती हैं। यह बहस भी बहुत समय से चल रही है कि क्या न्यायपालिका की अवमानना का यह कानून खत्म होना चाहिए? लेकिन हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में जिस तबके को अपने सही या गलत कामों के बचाव के लिए जो कानून हाथ लग जाता है, उसे कोई छोडऩा नहीं चाहते। इसीलिए बात-बात में संसद या विधानसभा की अवमानना की बात उठने लगती है, और सदनों में विशेषाधिकार भंग का प्रस्ताव आने लगता है।
अब इसी एक मामले को लें जिसमें रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी की अंतरिम जमानत के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई थी। बहुत से लोगों का मानना है कि जिस रफ्तार से अर्नब गोस्वामी को जजों का वक्त पाने का मौका मिला था, वह असाधारण था, और सुप्रीम कोर्ट के सामने बहुत ही आम, दीनहीन या गरीब लोगों के मामले बरसों तक पड़े रहते हैं, लेकिन कुछ चुनिंदा ताकतवर लोगों के मामले बिजली की रफ्तार से अदालती आदेश पाते हैं। ऐसा सिर्फ कुणाल कामरा का ही नहीं मानना है, बल्कि बहुत से लोगों का मानना है। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के बड़े-बड़े जज भी वकालत के कुछ सबसे बड़े नामों को सबसे पहले बहुत तेजी से सुनने को तैयार हो जाते हैं, और जिन लोगों में इतने बड़े वकीलों की फीस देने की ताकत रहती है, उन्हें जल्द सुनवाई की गारंटी सी हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट को देश में उसकी जो छवि बनी हुई है, उसे एकदम से अनदेखा भी नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र में हर बात अदालत के कटघरे से साबित नहीं की जा सकती, और सुबूतों के बिना भी लोग अपनी भावनाएं तरह-तरह से सामने रखते हैं। जनता के बीच, सोशल मीडिया पर, या अखबारों में लिखकर भी लोग जजों और न्यायपालिका के बारे में अपनी बात रखते हैं। अभी-अभी देश के कानून मंत्री ने भी कई मौकों पर सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के तौर-तरीकों से असहमति भी जताई है, और आलोचना भी की है। इन सब बातों को देखते हुए यह लगता है कि अदालतें अपने आपको आलोचना से परे रखने के लिए अगर अवमानना के कानून के पीछे अपने को बचाकर रखेंगी, तो शायद वे अपना भी अधिक नुकसान करेंगी। हो सकता है कि बहुत से लोगों को कुणाल कामरा के कहे हुए शब्द, और उनकी मिसालें जजों के लिए, अदालतों के लिए अपमानजनक लगें, लेकिन यह भी सोचना चाहिए कि कुणाल कामरा के शब्दों से परे यही भावनाएं तो देश के और भी बहुत से लोगों की हैं। आलोचना कहां तक जायज है, और कहां उसे नाजायज या सजा के लायक मान लिया जाए, इसकी कोई सीमारेखा नहीं हो सकती, लोगों को अपने आपको व्यक्ति के रूप में, और एक संस्थान के रूप में लगातार तौलते रहना चाहिए कि उनकी आलोचना कितनी जायज है, और कितनी नाजायज। हम एक अखबार के रूप में लोकतंत्र में आलोचना को अधिक दूर तक आजादी देने के हिमायती हैं, हमारा मानना है कि लोकतंत्र को असहमति के प्रति अधिक लचीला होना चाहिए, अदालतों को भी। हो सकता है कि जजों की आलोचना करते हुए एक कॉमेडियन ने अपने पेशेवर अंदाज में कुछ अधिक चुभती हुई बात कही हो, लेकिन इस पर भी हमारी राय यही रहेगी कि सुप्रीम कोर्ट जजों को बर्दाश्त बढ़ाना चाहिए, और इन आलोचनाओं पर गौर भी करना चाहिए कि क्या कुछ लोगों को सचमुच ही कुछ तरकीबों से जल्द सुनवाई हासिल हो जाती है?
यही सुप्रीम कोर्ट है जिसने अभी हाल के बरसों में ही एक दूसरे मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई के खिलाफ उनकी मातहत एक महिला कर्मचारी की यौन शोषण की शिकायत की ऐसी सुनवाई दर्ज की थी जिसमें रंजन गोगोई खुद ही बेंच के मुखिया बनकर बैठे थे। अब अगर आरोपी ही जजों का मुखिया बनकर अपने खिलाफ आरोपों पर इंसाफ करने बैठे तो अदालत की इज्जत तो कम होनी ही थी। देश के किसी छोटे से सरकारी दफ्तर में भी अगर ऐसी शिकायत आई होती, तो क्या आरोपी अफसर को इसकी सुनवाई में बैठने का मौका मिला होता? सुप्रीम कोर्ट और देश की बाकी अदालतों को अपनी आलोचना से इतना अधिक परहेज नहीं करना चाहिए। व्यंग्य की जुबान बोलने वाले लोगों की भावनाओं को भी समझना चाहिए।
मध्यप्रदेश के इंदौर में आज से प्रवासी भारतीय सम्मेलन शुरू होने जा रहा है। इसके लिए पूरे शहर को सजाया जा रहा है। और खासकर जिन सडक़ों से प्रवासी भारतीय गुजरेंगे, उनमें सडक़ किनारे जो बस्तियां और गरीब कॉलोनियां हैं, उन्हें मेहमानों की नजरों से छिपाने के लिए कांक्रीट की दीवार उठाई जा रही है, और उसके ऊपर लोहे की चादरें लगाई जा रही हैं ताकि कोई प्रवासी भारतीय किसी बस की छत पर खड़े होकर भी देखे तो उसे शहर की कोई गरीब बस्ती और कॉलोनी न दिखे। पिछले चार महीनों में दीवारों के पीछे की इन बस्तियों का हाल ऐसा बताया जा रहा है कि यहां तक एम्बुलेंस पहुंचना भी मुश्किल है। और गरीब बस्तियों को बुलडोजर का डर दिखाकर दहशत में लाना आसान रहता है। इन बस्तियों में आने-जाने का रास्ता अब पीछे किसी दूसरी तरफ से है, लोगों का अपने घर पहुंचना मुश्किल हो गया है।
लोगों को याद होगा कि जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप नरेन्द्र मोदी के न्यौते पर गुजरात के अहमदाबाद आए थे, तो उनकी राह की बस्तियों को छुपाने के लिए भी इसी तरह की दीवारें बनाई गई थीं। सरकार की सोच में मेहमान की नजरों में गरीबी अगर आंखों की किरकिरी की तरह खटकेगी, तो हो सकता है कि वे गुजरात या मध्यप्रदेश में पूंजीनिवेश नहीं करेंगे। लेकिन पूंजीनिवेश करने वाले उस देश-प्रदेश की गरीबी से अच्छी तरह वाकिफ रहते हैं, और उन्हें पता होता है कि जिस देश में गरीबों के हक नहीं है, वहीं पर पूंजीनिवेश बेहतर होता है। जहां मजदूर जागरूक और ताकतवर होते हैं, वहां पंूजीवाद का जुल्म नहीं चल सकता। इंदौर में दीवारें इतनी ऊंची बना दी गई हैं कि अब छोटे घरोंं पर धूप आना भी बंद हो रही है, वहां बनाया हुआ मजदूरी का सामान भी बाहर निकालना मुश्किल है, और बीमार रहें तो अस्पताल ले जाना उससे भी अधिक मुश्किल है।
यह पाखंड हिन्दुस्तान के मिजाज में सदियों से बैठा हुआ है। किसी प्रदेश में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का आना हो, तो भी वहां की साज-सज्जा में सरकारी खजाने को झोंक दिया जाता है। अभी गुजरात के मोरवी में एक झूलता पुल गिरा था, बड़ी संख्या में लोग मरे थे, और चुनाव के ठीक पहले का वक्त था, प्रधानमंत्री भी वहां घायलों को देखने पहुंचे थे। उनके लिए शहर की सडक़ों का फिर से डामरीकरण हुआ, अस्पताल की पूरी इमारत का रंग-रोगन हुआ, और अपने ही देश के प्रधानमंत्री को झांसा देने के लिए करोड़ों रूपये खर्च किए गए। हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही देखते हैं कि विधानसभा के हर सत्र के पहले विधानसभा तक जाने वाली सडक़ों का डामरीकरण किया जाता है ताकि विधायकों को जरा भी धक्का न लगे। जब अपने ही देश के लोगों को हकीकत से दूर रखने के लिए इतना धोखा देने की पुख्ता सरकारी परंपरा है, तो फिर वह विदेशी मेहमानों के आने पर जारी रहने में क्या हैरानी है?
लेकिन सडक़ों और शहरों की सजावट से परे बस्तियों को छुपाने की इस हरकत को मानवाधिकार आयोग से लेकर अदालत तक चुनौती देनी चाहिए क्योंकि यह गरीबों को नजरों से दूर कर देने, और उन्हें अछूत बना देने का एक बड़ा जुर्म है जिसकी कोई जगह लोकतंत्र में नहीं होनी चाहिए। यह सिलसिला हाल के बरसों में गुजरात के बाद मध्यप्रदेश में दिखा है, और हो सकता है कि बाकी राज्य भी अपने आपको गरीबमुक्त दिखाने के लिए गरीबों के हक के पैसे को इस तरह से रातोंरात खर्च करने पर उतारू रहें। यह समझ लेने की जरूरत है कि सरकार के पास कोई भी पैसा बजट में पास हुए बिना नहीं आता, और इस तरह के काम में जब खर्च होता है तो वह विधानसभा या म्युनिसिपल के बजट को धोखा देते हुए किसी और मद का खर्चा इस जगह पर किया जाता है, और जागरूक जनसंस्थाओं को सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी भी मांगनी चाहिए कि ऐसी दीवार बनाने का खर्च आखिर आया कहां से है? और फिर जरूरत हो तो अदालत जाकर ऐसी हरकत के खिलाफ जनहित याचिका लगानी चाहिए।
ऐसा भी नहीं है कि भाजपा सरकारें ही ऐसा करती हैं। हम इसी मुद्दे पर लिखते हुए इसी जगह पर पहले कई बार लिख चुके हैं कि किस तरह ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर के कोलकाता आने पर वहां की वामपंथी सरकार ने पूरे शहर को सजाकर रख दिया था, और फुटपाथ पर जीने वाले लोगों को, भिखारियों और विक्षिप्त लोगों को, सबको पकडक़र शहर के बाहर ले जाकर छोड़ दिया था। मजदूरों की वामपंथी सरकार को एक गोरे प्रधानमंत्री के आने पर स्वागत-सत्कार की ऐसी सामंती दहशत में क्यों आना चाहिए था? लेकिन इस बारे में उस वक्त भी बहुत सी खबरें छपी थीं, बहुत सी तस्वीरें आई थीं। यह सिलसिला पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है। कुछ मिनटों के लिए किसी सडक़ से प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के, या किसी विदेशी नेता के गुजरने के लिए उस पूरी सडक़ को एक बार फिर नया बनाया जाए, तो यह इन नेताओं की निजी जेब से नहीं होता है, यह काम आम जनता के हक के सरकारी खजाने से होता है, और दूसरी जरूरी चीजों को रोककर होता है। ऐसा जहां कहीं भी होता है उसका गैरराजनीतिक आधार पर जमकर विरोध होना चाहिए, ऐसे खर्च का हिसाब मांगना चाहिए, और अदालत से यह मांग करनी चाहिए कि ऐसा फैसला लेने वाले लोगों पर निजी जुर्माना लगाकर ऐसे बेइंसाफ खर्च की उगाही की जाए।
हिन्दुस्तान, और शायद बाकी जगहों पर भी, किसी महिला के साथ हुई ज्यादती की चर्चा का रूख मोडऩा हो, तो बड़ा आसान तरीका रहता है कि उस महिला के चाल-चलन को गड़बड़ साबित कर दिया जाए। और चाल-चलन की गड़बड़ी अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पैमानों पर तय होती है। हिन्दुस्तान में अगर कोई लडक़ी या महिला देर रात अकेले है, दोस्तों के बीच या किसी दावत में शराब पी चुकी है, तो उसके साथ बलात्कार होने पर भी लोगों की हमदर्दी तकरीबन खत्म हो जाती है। महानगरों को छोड़ दें तो बाकी हिन्दुस्तानी शहरों में सिगरेट पीने वाली लडक़ी का भी चाल-चलन गड़बड़ मान लिया जाता है। अधिक समय नहीं हुआ अभी एक-दो दशक पहले तक कस्बाई हिन्दुस्तान में स्लीवलेस ब्लाऊज पहनने वाली महिला के चाल-चलन को भी गड़बड़ मान लिया जाता था कि ऐसे कपड़े पहनी है, तो उसे साथ चलने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन आज भी हिन्दुस्तान के महानगरों में किसी लडक़ी के नशे में रहने पर उसके साथ होने वाले बलात्कार के लिए बड़ी आसानी से उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है।
अब दिल्ली में अभी मोपेड सवार जिस लडक़ी को नशे में घूमते नौजवानों की कार ने कुचल दिया, और उसकी लाश को दस-बीस किलोमीटर घसीटते हुए ले गए, उसके बारे में दिल्ली पुलिस की मेहरबानी से अब बहुत से टीवी चैनलों को यह चारा मिल गया है कि वह नशे में थी। और इसके बाद खबरों का रूख उस लडक़ी के नशे की तरफ मुड़ गया, नशे में गाड़ी चलाते कुचलने वाले नौजवान मानो अब कम कुसूरवार हो गए। एक महिला वकील ने ट्विटर पर लिखा- ‘जो लड़कियां ओयो जैसे होटलों में शराब पीकर अनजान लडक़ों के साथ रात-रात अपने घर से गायब रहती हैं, और उनके साथ अगर कोई घटना हो जाए तो मुझे ऐसी लड़कियों से कोई हमदर्दी नहीं है।’ वकील साहिबा की यह सोच कोई अनोखी नहीं है, और हिन्दुस्तान के अधिकतर लोग इसी तरह सोच रहे होंगे।
यह देश और इसके लोग औरत के खिलाफ हजारों बरस से चले आ रहे अपने पूर्वाग्रह से शायद और हजारों बरस तक घिरे रहेंगे। और मानो अपनी सोच के इस जुर्म को छुपाने के लिए इस देश के लोग कुछ देवियों की पूजा करने की एक परंपरा निभाते हैं, और जब कभी इन लोगों पर महिलाविरोधी पूर्वाग्रहों की तोहमत लगती है, तो वे तुरंत लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, काली की पूजा गिनाने लगते हैं कि यह संस्कृति तो महिलाओं की पूजा करने की है। यह बात सिर्फ इस हद तक सही है कि यह उन महिलाओं की पूजा करने वाली संस्कृति है जिनका आत्मविश्वास इस पूजा से बढ़ न जाए। जिंदा महिलाओं की पूजा अगर होने लगे तो अधिक आत्मविश्वास के साथ उनमें मर्दों से बराबरी करने की बददिमागी आने का खतरा रहता है, इसलिए मिट्टी-पत्थर की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करना आसान है क्योंकि वे पूजा के दिनों के बाद मर्दों की राह में आकर खड़ी नहीं होतीं, उनके लिए चुनौती नहीं बनतीं।
कोई लडक़ी नशे में है, देर रात तक बाहर है, उसने अपनी मर्जी के तंग या छोटे कपड़े पहन रखे हैं, तो उसके साथ बलात्कार समाज का मानो हक ही बन जाता है। इस देश के मुख्यमंत्रियों से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों तक, और कई दूसरे नेताओं तक यह बात बहुत आम है कि बलात्कार के मामले में लड़कियों और महिलाओं की ऊपर लिखी इन बातों को सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार ठहरा दिया जाए। यह सिलसिला इतना आम है कि हर बलात्कार के बाद बलात्कारी के आसपास के, या उस इलाके के जिम्मेदार नेताओं के बीच से तुरंत ही यह बात आने लगती है कि किस तरह उस लडक़ी या महिला ने ही बलात्कार को न्यौता दिया है। ऐसे मर्दों को शायद तब अफसोस होता है जब बलात्कार की शिकार बच्ची तीन-चार साल की होती है, और ऊपर की कोई भी बातें तोहमत की तरह उस पर नहीं लगाई जा सकती, और बलात्कार की जिम्मेदारी मर्द पर ही आकर टिकती है।
यह सिलसिला तब तक चलते रहेगा जब तक कानून की किताबों से परे महिलाओं को बराबरी का हक नहीं मिलता। पूरी की पूरी बराबरी तो पश्चिम के सबसे विकसित देशों में भी कई जगह नहीं मिलती, और आज की दुनिया तो ईरान और अफगानिस्तान की शक्ल में ऐसी सरकारों को देख रहा है जो महिलाओं को इंसान भी नहीं मानते, और उन्हें तरह-तरह से कुचलने में लगे हुए हैं। इनमें आधुनिक विज्ञान समझने वाली ईरानी सरकार भी है, और निपट-गंवार आतंकियों की तालिबानी सरकार भी है। हिन्दुस्तान में भी वैसे तो अलग-अलग कई धर्मों के लोगों की सोच में काफी फर्क दिखाई पड़ता है, लेकिन औरत को कुचलने के लिए तमाम धर्मों के मर्दों की सोच एक सरीखी ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो जाती है। इस नौबत से छुटकारा पाना आसान नहीं है, खासकर तब जबकि लोकतंत्र में चौथा स्तंभ होने का दावा करने वाले मीडिया के लोग हर लडक़ी या औरत की इज्जत को हवा में उछालकर उसे अपने टीआरपी में बदलने की ताक में रहते हैं। दिल्ली में इस लडक़ी के साथ यही हो रहा है, अगर वह देर रात बाहर थी, या उसने शराब पी थी, तो उसे कुचलकर दस-बीस किलोमीटर घसीटने वाले लोग तकरीबन बेगुनाह हो गए हैं।
अमरीका के सबसे चर्चित शहर न्यूयॉर्क में वहां के गवर्नर ने मानव शरीर को खाद में बदलने को कानूनी इजाजत दे दी है। इसके पहले अमरीका के कई और प्रदेश ऐसी इजाजत दे चुके हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसी शव को खाद के ढेर पर या गड्ढे में डाल दिया जा सकेगा, इसके लिए अलग से बनाए गए अंतिम संस्कार सेंटरों में उसे छोडऩा होगा जहां उन्हें वैज्ञानिक तरीके से ऐसे माइक्रोब के बीच छोड़ दिया जाएगा जहां वे उस शरीर को खाद में बदल देंगे। इससे अंतिम संस्कार में लगने वाले ताबूत, और बाकी दुनिया भर की चीजों, कब्र की जगह, उस पर लगने वाले पत्थर, इन सबसे बचा जा सकेगा, और धरती पर बोझ घटेगा। कुछ धर्मों में वैसे भी मरने के बाद शरीर को पंचतत्वों में विलीन कर देने, खाक में मिला देने, या चील-कौवों को खिला देने जैसी सोच बनी हुई है, अभी अमरीका के इन आधा दर्जन राज्यों में जो किया जाने वाला है, वह बिना कब्र बनाए मिट्टी में दफना देने किस्म का ही काम है जिसमें शरीर तेज रफ्तार से खाद में चाहे न बदले, वह पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुंचाए बिना दफन हो जाता है, और जमीन के भीतर जाहिर है कि तरह-तरह के कीड़े उसे खाकर खत्म कर देते हैं। अब ऐसे दफन से, या हिन्दुओं के जलाने वाले अंतिम संस्कार से धरती को कुछ वापिस हासिल नहीं होता, लेकिन अमरीका में यह नया चलन धरती को खाद देता है, और एक शरीर से करीब 36 बोरे खाद मिल सकेगी। लोग जीते-जी अपनी अंतिम इच्छा लिखकर जा सकेंगे कि वे अपना अंतिम संस्कार किस तरह से चाहेंगे, और क्या वे खाद में बदल जाना चाहेंगे।
लोगों को मृतकों के शरीर से निपटने के बेहतर तरीके सोचने चाहिए। हिन्दुस्तान के कुछ शहरों में बिजली से चलने वाले शवदाह गृह काम कर रहे हैं, और कई शहरों में गैस से चलने वाले। इन दोनों का खर्च लकड़ी से शव जलाने के मुकाबले कम आता है, वक्त भी कम लगता है, प्रदूषण भी शायद कम ही होता है, लेकिन कई किस्म के धार्मिक रीति-रिवाजों की गुंजाइश इनमें कम रहती होगी, इसलिए पेशेवर पंडित इसका समर्थन नहीं करते हैं। वैसे भी अगर अंतिम संस्कार के रीति-रिवाजों में कटौती हो जाए, तो फिर पंडितों के जजमान तो खत्म ही हो जाएंगे। लेकिन शव को जलाने का मतलब कुछ क्विंटल लकडिय़ों को साथ जलाना होता है, जिससे धरती पर घटते हुए पेड़ों पर एक हमला होता ही है। फिर इसके साथ-साथ कई किस्म का प्रदूषण भी होता है, और सच तो यह है कि अंतिम संस्कार में पहुंचने वाले लोगों का बहुत सा वक्त भी लगता है। इसलिए अगर कोई बेहतर तरीका सोचा जा सकता है तो उससे कई किस्म की बचत हो सकती है।
सबसे अच्छा तो यही हो सकता है कि लोग मरने के पहले अपने अंगदान करने की घोषणा कर जाएं, और अगर वे ऐसी मेडिकल हालत में पहुंच जाएं कि उनकी दिमागी मौत हो चुकी रहे, तो घरवालों को उनके अंगदान के बारे में सोचना चाहिए। अब तो बहुत से मामलों में छोटे-छोटे बच्चों के गमगीन मां-बाप भी उनका अंगदान करके कई लोगों को जिंदगियां देते हैं, और उनके बच्चे कई अलग-अलग लोगों की शक्ल में जिंदा रहते हैं। अगर ऐसी नौबत न रहे तो भी लोग अपना शरीर मेडिकल कॉलेज को देकर जा सकते हैं जहां पर चिकित्सा-छात्र-छात्राओं को मानव शरीर समझने के लिए मृत शरीरों की हमेशा ही कमी रहती है। ऐसा भी बहुत से लोग करते आए हैं, और इस तरीके से भी अंतिम संस्कार में होने वाली लकड़ी या दूसरे किस्म की बर्बादी बचती है, लोगों का वक्त बचता है।
अलग-अलग धर्मों में मृत शरीर के अलग-अलग किस्म के निपटारे के तरीके हैं। पारसी समुदाय में मृतकों की लाश को उनके पूजा स्थल पर एक ऊंचे टॉवर पर रख दिया जाता है, जहां पंछी उन्हें खाकर खत्म कर देते हैं। हिन्दुस्तान में ही कई जगहों पर लकड़ी की कमी से गरीब अपने लोगों के अंतिम संस्कार करने के बजाय लाशों को नदी में बहा देते हैं जिससे प्रदूषण का खतरा रहता है क्योंकि इन्हीं नदियों से किनारे के गांव-कस्बों, और शहरों में पीने का पानी जाता है। अमरीका में बिना किसी धार्मिक आधार के पूरी तरह वैज्ञानिक तरीके से शव को खाद में बदलने का जो काम शुरू हुआ है, वह बाकी दुनिया के लिए भी बड़ा दिलचस्प हो सकता है जहां कब्रगाह के लिए जगहें कम पड़ रही हैं, और अब तो जमीन न रह जाने से बहुमंजिला कब्रगाह बन रही है जहां लोगों को महज ताबूत जितनी जगह मिलती है, और सामने नाम की तख्ती लग जाती है। अभी ब्राजील में दुनिया के सबसे महान फुटबॉल खिलाड़ी पेले का अंतिम संस्कार ऐसी ही एक बहुमंजिला कब्रगाह में किया गया है जिसमें 32 मंजिला ढांचे में 16 हजार कब्रे हैं। आज बड़े शहरों से लेकर गांवों तक कब्रिस्तान और श्मशान की जगहें कम पडऩे लगी हैं, लोगों में झगड़े हो रहे हैं, एक ही धर्म के भीतर अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच अंतिम संस्कार की जगह के झगड़े होने लगे हैं। ऐसे में बिना धार्मिक आधार के, सिर्फ वैज्ञानिक सोच के साथ होने वाले ऐसे अंतिम संस्कार शायद सबसे अच्छे हो सकते हैं जो कि जाने के बाद भी खाद बनकर पौधों की शक्ल में जिंदा रह सकें। इस बारे में लोगों को सोचना चाहिए। और यह तकनीक ऐसी हो सकती है कि लोगों के शरीर की खाद उनके ही गांव-कस्बे या शहर के खेतों में काम आ सके। हिन्दुस्तान में वैसे भी बहुत से लोग शवदाह के बाद बचने वाली राख को नदियों में विसर्जित करते हैं, या खेतों में डालते हैं। नेहरू भी अपनी अस्थियों को इन्हीं दो जगहों पर बिखेर देने की इच्छा जाहिर कर गए थे। हालांकि नेहरू यह लिख गए थे कि उनका अंतिम संस्कार किसी धार्मिक रीति-रिवाज से न किया जाए, लेकिन इर्द-गिर्द के नेताओं के दबाव में इंदिरा ने हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया था, और फिर उनकी अस्थियां गंगा में विसर्जित की गईं, और विमान से भारत के खेतों पर बिखरा दी गई थीं।
अमरीका में जिस तकनीक से यह अंतिम संस्कार किया जा रहा है, वह कोई मुश्किल बात नहीं है, और हिन्दुस्तान तो किसान आबादी और खेतों से भरा हुआ देश है। अगर यह सोच यहां पर बढ़ निकली, तो यहां के पेड़ों पर से दबाव घटेगा, धरती का बेहिसाब बेजाइस्तेमाल थमेगा, और प्रदूषण भी रूकेगा। और लोग खाद बनकर पौधों और पेड़ों से होकर हमेशा के लिए जिंदा रह सकेंगे।
अमरीकी संसद के निचले सदन, हाऊस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत के बाद भी उस पार्टी का स्पीकर बनना नहीं हो पा रहा है क्योंकि प्रत्याशी केविन मैक्कार्थी का उन्हीं की पार्टी के कई सांसद विरोध कर रहे हैं, और खुलकर उनके खिलाफ वोट दे रहे हैं। अमरीका की संवैधानिक व्यवस्था के तहत यह वोटिंग बार-बार होते रहेगी, जब तक कि किसी उम्मीदवार को बहुमत न मिल जाए। अब तक छह बार वोट डल चुके हैं, लेकिन रिपब्लिकन सांसदों में से कुछ लोग अपनी पार्टी के इस उम्मीदवार के खिलाफ हैं, और वोट डालने के अलावा वे बार-बार बयान भी दे रहे हैं। जब तक स्पीकर का चुनाव नहीं हो जाता, तब तक ये वोट इसी तरह डलते रहेंगे, और अमरीकी संसद में यह नौबत करीब सौ साल के बाद आई है। इस संसद के इतिहास में कुल सात बार ऐसा हुआ है जब तीन बार से अधिक वोट डाले गए। जब तक स्पीकर चुन नहीं लिया जाता तब तक न तो नए सांसद शपथ ले सकते, और न ही कोई संसदीय कामकाज हो सकता। एक बार तो इस संसद के इतिहास में स्पीकर चुनने का सिलसिला करीब दो महीने तक चला था, और 133 बार वोट डाले गए थे। यह वाकया 1855 का है, संसद गुलामों के मुद्दे पर बुरी तरह से बंटी हुई थी, और शुरू में स्पीकर के लिए 21 उम्मीदवार थे, जो घटते-घटते कम हुए, लेकिन आखिर में 133वीं बार के मतदान से स्पीकर का चुनाव हुआ था।
अमरीकी संसद की प्रतिनिधि सभा में कौन स्पीकर बने इसमें हमारी इतनी अधिक दिलचस्पी नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन इस पर लिखने की एक वजह है। इससे यह पता लगता है कि एक पार्टी का उम्मीदवार संसद के भीतर अपनी ही पार्टी के 18-20 सांसदों का विरोध किस तरह झेलता है, और स्पीकर नहीं बन पाता। इसके लिए किसी दूसरी पार्टी को सांसद खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती, बगावत करवाने की जरूरत नहीं पड़ती, और वहां की प्रचलित संसदीय व्यवस्था, और राजनीतिक परंपराओं के तहत ही ऐसा हो रहा है। अब अगर हिन्दुस्तान में मुख्यमंत्री या विधानसभा अध्यक्ष चुनने की बात आए, तो पहले थोड़े-बहुत विधायक बिकते थे, अब दल-बदल विधेयक की वजह से वे थोक में बिकते हैं, और एक अनुपात से अधिक फूट होने पर ही विधायक दल बंटा हुआ माना जाता है, और उसे दल-बदल नहीं माना जाता। मतलब यह कि थप्पड़ मारना जुर्म है, और कत्ल करने पर कोई सजा नहीं है। अमरीका के इस ताजा मामले को देखते हुए हिन्दुस्तान के दल-बदल कानून के बारे में एक बार फिर सोचने की जरूरत है कि क्या यह सचमुच ही असरदार साबित हो रहा है, या फिर यह सांसदों और विधायकों की मंडी में थोक में खरीद-बिक्री को बढ़ाने वाला साबित हो रहा है?
आज भारतीय संसदीय व्यवस्था में संसद और विधानसभाओं में किसी छोटे से छोटे मुद्दे पर भी अगर वोट डालने की नौबत आती है, तो तमाम राजनीतिक दल अपने सांसदों या विधायकों को एक पार्टी व्हिप जारी करते हैं जिसके बाद वे अगर उसके खिलाफ वोट डालते हैं, तो उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। मतलब यह कि विधायकों या सांसदों के निजी विवेक को पार्टी के फैसले से एक फौलादी जंजीर से बांध दिया गया है, और वे उससे परे नहीं जा सकते। यह बात तो वोटिंग के समय की है, वोटिंग से परे की भी सोचें, तो संसदीय बहस के दौरान भी हिन्दुस्तान के सांसदों और विधायकों को यह आजादी नहीं रहती कि वे पार्टी की तय की गई सोच से परे की कोई बात कर सकें। पार्टी अनुशासन के नाम पर निजी विवेक को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है, और अब वह किसी पार्टी के संसदीय दल के सामूहिक फैसले से परे कुछ भी नहीं है। यह बात पहले भी हमें खटकती रही है कि भारतीय मतदाता किसी को अपना सांसद या विधायक सिर्फ पार्टी निशान पर नहीं बनाते हैं, बल्कि वे उम्मीदवार के निजी व्यक्तित्व, उनकी निजी सोच को भी ध्यान में रखकर उसे वोट देते हैं। लेकिन एक बार चुन लिए जाने के बाद संसद या विधानसभा में उनके सारे फैसले पार्टी के हुक्म के मुताबिक होते हैं जिससे कि उनके मतदाताओं की उम्मीद भी पूरी नहीं हो सकती, और ऐसे निर्वाचित सदस्यों की निजी सोच और समझबूझ का कोई फायदा भी सदन को नहीं मिल पाता। जब कभी एक निर्वाचित प्रतिनिधि के हिस्से का फैसला उसका संगठन करने लगता है, तो उस सांसद या विधायक की प्रतिभा का फायदा संसदीय व्यवस्था को नहीं मिल पाता। भारत में आज अगर कोई पार्टी कोई बुरे से बुरा उम्मीदवार खड़ा कर दे, तो उसके खिलाफ पार्टी के लोग तभी वोट दे सकते हैं जब वे बिक चुके हों, उसके पहले तक उन्हें पार्टी के सामूहिक फैसले को ही मानना पड़ता है।
हर लोकतांत्रिक और संसदीय व्यवस्था को इस किस्म की दूसरी व्यवस्थाओं के तजुर्बों और उनकी मिसालों से सीखना चाहिए। इसीलिए हम अलग-अलग देशों से सामने आने वाली अलग-अलग व्यवस्थाओं पर चर्चा करते हैं। अमरीका में किसी को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाते हुए जिस तरह वहां की संसदीय कमेटी उस संभावित जज के इतिहास से लेकर उसकी आत्मा तक सबको टटोल लेती है, वह भी हमें भारत में अमल में लाने लायक एक बात लगती है जहां पर आज सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नाम तय करने का एकाधिकार रखता है, और उसे मंजूर या नामंजूर करने का काम केन्द्र सरकार के हाथ रहता है। इस व्यवस्था को लेकर भी आज कई लोगों का यह मानना है कि भारतीय संविधान बनाने वाले लोगों ने ऐसी कॉलेजियम प्रणाली की कल्पना नहीं की थी। ठीक उसी तरह आज यह मामला भी लग रहा है कि संसद के भीतर क्या सांसदों को पार्टी अनुशासन से परे अपने निजी विवेक से वोट देने का हक रहना चाहिए? और खासकर दल-बदल कानून आने के बाद से चिल्हर में दल-बदल गैरकानूनी, और थोक में दल-बदल कानूनी हो जाने का तजुर्बा देखते हुए क्या ऐसे कानून का कोई फायदा दिखता है?
फिलहाल अमरीकी संसद का निचला सदन, प्रतिनिधि सभा, को छह बार वोट डालने के बाद भी थकान नहीं है, क्योंकि उसके पास 133 बार के मतदान की एक ऐतिहासिक मिसाल है। वहां की संसद सदन में सांसदों की निजी राय को पार्टी के किसी भी हुक्म के ऊपर महत्व देते दिख रही है, और शायद यह लोकतंत्र की जिंदादिली का एक सुबूत भी है। अमरीकी राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार बनने के पहले अपनी पार्टी के भीतर देश भर में घूमकर पार्टी के वोटरों के बीच अपनी काबिलीयत साबित करने की व्यवस्था सबकी देखी हुई है, और विपक्षी उम्मीदवार से मुकाबले के पहले अपनी ही पार्टी के प्रतिद्वंद्वी से कड़े मुकाबले की परंपरा पार्टी के भीतर के सबसे लोकप्रिय और कामयाब व्यक्ति को सामने रखती है। इसके मुकाबले भारत के राजनीतिक दलों में उम्मीदवार तय करना पूरी तरह से अलोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसमें कुछ भी पारदर्शी नहीं है। जरूरी नहीं है कि इसमें से हर बात हिन्दुस्तान में अमल के लायक हो, लेकिन दूसरी संसदीय व्यवस्थाओं की ऐसी मिसालों को ध्यान से देखते हुए ही बाकी लोकतंत्र परिपक्व हो सकते हैं।
अभी कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर किसी एक पत्रकार का यह पोस्ट तैर रहा है कि किस तरह मुंबई एयरपोर्ट पर उसे दो समोसे और पानी की एक बोतल के लिए चार सौ से अधिक रूपये देने पड़े। यह हाल देश के हर एयरपोर्ट का है जहां अगर लोग चाहें कि उन्हें खाने को कोई सेहतमंद चीज मिल जाए, तो वह मिल नहीं सकती, और जंकफूड दर्जे के सामान अंधाधुंध दाम पर मिलते हैं। जिन लोगों को एयरपोर्ट या बड़े रेलवे स्टेशनों के निजीकरण में पहली नजर में सिर्फ साफ-सफाई और अधिक सहूलियतें दिखती हैं, उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि बाद में पूरी जिंदगी वे हर छोटी-छोटी चीज के लिए कितना अधिक भुगतान करेंगे। अब जिन बड़े रेलवे स्टेशनों का निजीकरण हो रहा है, वहां पर पार्किंग से लेकर खाने-पीने तक हर चीज का कई गुना भुगतान करना पड़ रहा है। जब यह कहा जाता है कि सरकार सार्वजनिक संपत्तियों को बेच रही है, तो उसका यही मतलब होता है कि दाम के ऐसे लूटपाट की तीस बरस की लीज बेच देने से भी ज्यादा बुरी होती है। लेकिन सार्वजनिक संपत्ति से परे भी हिन्दुस्तान में सार्वजनिक जगहों पर खानपान के सामान सेहत के ठीक खिलाफ होते हैं, और सुप्रीम कोर्ट का एक ताजा फैसला ऐसे खानपान को बढ़ाने वाला साबित होने वाला है।
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने कुछ अरसा पहले सिनेमाघरों की लगाई हुई इस रोक को खारिज कर दिया था कि वहां आने वाले दर्शक अपना कुछ खानपान लेकर नहीं आ सकते। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज करते हुए कहा है कि सिनेमा हॉल एक निजी संपत्ति होती है, और वहां पर खाने-पीने की कौन सी चीजें बेची जाएं, बाहर से लाने पर रोक लगाई जाए, वह सिनेमा मालिक का अपना फैसला रहेगा। अदालत ने कहा कि सिनेमाघर जिम नहीं है जहां आपको पौष्टिक भोजन चाहिए, वह मनोरंजन की जगह है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क भी दिया कि यह दर्शकों का अधिकार या इच्छा है कि वे थियेटर में कौन सी फिल्म देखने जाएं, और यह सिनेमा मालिक का हक है कि वहां खानपान के क्या नियम बनाने हैं।
ये दो मामले अलग-अलग किस्म के हैं, एक तो एयरपोर्ट और स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर खानपान से जुड़ा हुआ है, उनकी किस्म और उनके दाम दोनों ही, और दूसरा मामला निजी मालिकाना हक की सार्वजनिक जगहों पर मैनेजमेंट के लगाए प्रतिबंधों को लेकर है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना तो सही है कि यह दर्शक की आजादी है कि वह किस सिनेमाघर में जाए और किसमें नहीं, लेकिन यह अदालत यह बात भूल रही है कि सेहतमंद खाने की जरूरत सिर्फ जिम में नहीं होती, हर जगह होती है। आज हिन्दुस्तान को दुनिया का डायबिटीज कैपिटल कहा जा रहा है क्योंकि यहां न सिर्फ गिनती में बल्कि आबादी के अनुपात में इसके मरीज लगातार बढ़ते चल रहे हैं। यह बात बहुत जाहिर है कि ऊपर जिन सार्वजनिक जगहों की चर्चा की गई है, उनमें सेहत के लिए सही खाने को रखा ही नहीं जाता, और बहुत बुरी तरह से शक्कर, नमक, फैट, और मैदे से भरा हुआ खानपान वहां रहता है। अब किसी से यह उम्मीद की जाए कि वे इन जगहों पर कई घंटे गुजारें, लेकिन घर से लाया हुआ कुछ न खाएं, यह बात अटपटी है, और नाजायज है। स्टेशनों और एयरपोर्ट पर तो लोग घर से लाया खाना खा सकते हैं, लेकिन सिनेमाघरों में सफाई के नाम पर भी इस पर रोक लगाई गई है, और सुप्रीम कोर्ट ने इसे जायज माना है। हमारा मानना है कि अदालत ने मध्यमवर्गीय लोगों, और सेहत की खास जरूरत के लोगों के हक और जरूरत को अनदेखा किया है। तमाम सिनेमाघरों में भी हॉल के बाहर ऐसी जगह रहनी चाहिए जहां बैठकर लोग अपना लाया हुआ खाना खा सकें, और सिनेमाघर के भीतर खानपान पर मैनेजमेंट की बंदिश जारी रहे क्योंकि यह वहां की सफाई से भी जुड़ी हुई है। इन तीन-चार घंटों में जिन लोगों को कुछ खाने की जरूरत रहती है, उनसे उनकी पसंद को छीनना ठीक नहीं है, क्योंकि अब तो ऐसे कोई सिनेमाघर भी नहीं है जो कि सेहतमंद चीजें बेचते हों। जनता को सिनेमाघरों के रहम-ओ-करम पर इस तरह छोड़ देना ठीक नहीं है कि वहां पर बिना किसी सेहतमंद सामान के सिर्फ जंकफूड को बेचा जाए। इसके बजाय तो सुप्रीम कोर्ट को ऐसी हर महंगी जगहों के लिए खानपान के कुछ बेहतर सामान भी रखने की शर्तें तैयार करने के लिए एक कमेटी बना देनी थी जिसकी सिफारिशें स्टेशन, एयरोपोर्ट, सिनेमाघर, और ऐसी दूसरी सार्वजनिक जगहों पर लागू हों। आज जब हिन्दुस्तान कई किस्म की बीमारियों से जूझ रहा है, ऐसे में मनोरंजन की जगहों को सिर्फ जानलेवा बाजारूकरण के हवाले कर देना समझदारी का फैसला नहीं है।
हमारा यह मानना है कि पर्यटन स्थलों और दूसरी जगहों पर सेहतमंद और बेहतर खानपान रखने के लिए, रियायती खानपान के लिए सरकार को नियम बनाने चाहिए। और जिस तरह अब विमानों में भी लोग घरों से ले जाया हुआ खाना खाते हैं, उसी तरह सिनेमाघरों में भी हॉल के बाहर इसके लिए इंतजाम करना राज्य सरकार को अपने नियमों के तहत करवाना चाहिए। राज्य सरकार जिस तरह निजी कॉलोनियों में भी गरीबों के लिए छोटे प्लॉट या मकान छोडऩे की शर्त लगा चुकी है, उसी तरह महंगे सिनेमाघरों पर भी मध्यमवर्गीय लोगों के हित में ऐसा लागू करना चाहिए। और फिर इस महंगाई से परे एक बात तो अनिवार्य रूप से लागू करनी चाहिए कि हर जगह सेहतमंद सामान अनिवार्य रूप से रखा जाए, और तभी बाकी दूसरी किस्म का सामान बेचने की छूट मिले। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बनाए हुए शक्कर और नमक भरे हुए खानपान से सेहत पर बुरा असर पूरी दुनिया में दर्ज किया जा रहा है, और भारत में सार्वजनिक जगहों को लीज पर देने, या महंगे किराये के नाम पर इसी तरह के खानपान के एकाधिकार की जगह बना देना बहुत गैरजिम्मेदारी की बात है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला मौजूदा कानून के हिसाब से है, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने अधिकार क्षेत्र में चलने वाले कारोबार पर खानपान के बेहतर सामानों की शर्त लागू करने से कोई नहीं रोक सकता, और इलाज का खर्च कुल मिलाकर सरकार पर ही आता है, इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए।