संपादकीय
वैसे तो भाजपा के राज वाले मध्यप्रदेश का नारा है कि एमपी गजब है, लेकिन यह नारा भाजपा के एक दूसरे राज्य उत्तरप्रदेश पर भी माकूल बैठता है जहां पर एक लोक गायिका नेहा सिंह राठौर को पुलिस ने एक नोटिस दिया है कि उनके पोस्ट किए गए एक गाने को लेकर समाज में दुश्मनी और तनाव की हालत उत्पन्न हुई है इसलिए उस बारे में वे तीन दिन के भीतर स्पष्टीकरण पेश करे। ‘यूपी में का बा’ शब्दों से बने हुए इस गाने में इस लोक गायिका ने उत्तरप्रदेश में आज फैली हुई बदअमनी पर लोकगीतों के तल्ख अंदाज में सीधे सपाट सवाल किए हैं जिनमें सीएम से लेकर डीएम तक से पूछा गया है कि अभी-अभी कानपुर में एक झोपड़ी में जलकर मरी मां-बेटी, और उस पर चलाए गए बुलडोजर पर उनका क्या कहना है। लोगों को यह घटना याद ही होगी कि अभी पिछले ही हफ्ते अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते ने जब एक झोपड़ी को हटाने की कोशिश की, तो दहशत में भरी हुई मां-बेटी ने आग लगाकर जान दे दी, या किसी ने उन्हें जलाकर मार डाला, अफसरों ने आग लगने या लगाने के बाद झोपड़ी पर बुलडोजर भी चला दिया। उल्लेखनीय है कि उत्तरप्रदेश में बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पोस्टर लगाकर चलते हैं, और योगी की साख वहां पर बुलडोजर बाबा के रूप में खुद सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी ही फैला रही है। ऐसे में एक लोक गायिका को उसके सवाल भरे गाने पर इस तरह का पुलिस नोटिस देना और लोगों को हैरान कर सकता है, लेकिन जिन लोगों ने उत्तरप्रदेश पुलिस के काम करने के तरीके देखे हैं, उन्हें यह आम बात लग सकती है, फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार मरने, मारने, या गाने में सवाल करने वाले कोई भी गैरहिन्दू नहीं हैं। सत्ता से तीखे लेकिन सौ फीसदी जायज सवाल करने वाली लोक गायिका अपनी सादगी से और अपने सरल तरीकों से पहले भी लोगों को मोह चुकी है, और जाहिर है कि उसकी लोकप्रियता से परेशान योगी सरकार ने पुलिस के हाथों यह कार्रवाई चालू करवाई है। जिस अंदाज में पुलिस की टीम यह नोटिस देने पहुंची थी, और जिस तरह से कई फोन वीडियो बना रहे थे, उससे समझ पड़ रहा था कि सरकार दहशत में है। इस गायिका ने यह सवाल किया है कि राज्य के हालात पर वह सरकार से सवाल नहीं करेगी, तो क्या विपक्षी समाजवादी पार्टी से सवाल करेगी?
पुलिस के किसी थाने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जैसी समझ हो सकती है, और योगीराज में पुलिस का जिस तरह से आम इस्तेमाल हो रहा है, उसके मुताबिक ही नेहा सिंह राठौर से पूछा गया है कि उनके गाने से समाज पर पडऩे वाले प्रभाव से वे वाकिफ हैं या नहीं? पुलिस ने इससे समाज में दुश्मनी और तनाव पैदा होने का अपना निष्कर्ष जांच के पहले ही सामने रख दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर यह एक बहुत ही घटिया और ओछा हमला है। अभी कुछ दिन पहले ही हमने देश के कुछ दूसरे राज्यों और दूसरे नेताओं के आलोचना के खिलाफ अभियान के बारे में लिखा था, और उन राज्यों की पुलिस की हरकतों को भी धिक्कारा था। लोगों को याद होगा कि भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा द्वारा फिल्म पठान के खिलाफ छेड़े गए अभियान के संदर्भ में बड़ी कड़ी बात कही थी, और उसके बाद से ही नरोत्तम मिश्रा भी शांत हैं, मीडिया से दूर हैं, फिल्मी विवादों से दूर हैं। लेकिन एक लोक गायिका के सवालों से डरकर योगी सरकार जिस तरह की हरकत कर रही है, वह उसकी मजबूती को खोखला साबित कर रही है। यह लोक गायिका सोशल मीडिया के कई किस्म के प्लेटफॉर्मों पर भारी लोकप्रिय है, और उसकी शोहरत में जो कमी रह गई होगी, वह अब योगी पुलिस ने पूरी कर दी है। हमें इस बात में जरा भी शक नहीं है कि इस लोक गायिका का यह गाना देश की किसी भी अदालत में जुर्म साबित नहीं किया जा सकेगा, लेकिन आज सरकारों की दिलचस्पी किसी जुर्म को साबित करने में नहीं रहती है, बल्कि मुकदमेबाजी में फंसाकर जिंदगी मुश्किल करने में जरूर रहती है। आज देश में बहुत से पत्रकार, बहुत से दूसरे लोग, कलाकार, फिल्मकार इसी तरह मामलों में फंसाए जा रहे हैं, और फिर सरकार अदालतों में उन मामलों को किसी किनारे ही नहीं पहुंचने देती। पूरी तरह बदनीयत से किए जा रहे ऐसे हमले देश के बाकी हास्य कलाकारों को, या बाकी कार्टूनिस्टों को डराने में कामयाब जरूर होते हैं, और सत्ता की नीयत यही रहती है कि असहमति को दहशत से, और पुलिसिया ताकत से कुचल दिया जाए। सत्ता की ऐसी गुंडागर्दी का मुकाबला देश की जनता बेहतर तरीके से कर सकती है, और उसे ऐसे गाने, ऐसे कार्टून, ऐसी खबरें, ऐसे वीडियो या डॉक्यूमेंट्री अधिक से अधिक फैलाने का काम करना चाहिए, ताकि उनका मकसद पूरा किया जा सके। उत्तरप्रदेश सरकार अपनी जितने किस्म की फजीहत करवा सकती थी, उससे कुछ अधिक हद तक फजीहत अब इस एक मामले से होगी। आने वाले दिनों में हो सकता है कि ये आंकड़े सामने आए कि इस एक पुलिस नोटिस से इस लोक गायिका के चाहने वाले सोशल मीडिया पर और कितने बढ़े हैं, और यह बढऩा ही लोकतंत्र की कामयाबी होगी।
हिन्दी फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर अपनी फिल्मों से कहीं अधिक अपनी सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता के लिए खबरों में रहती हैं। वे आला दर्जे की अभिनेत्री हैं लेकिन देश में धर्मनिरपेक्षता के लिए वे एक खुली लड़ाई लड़ती हैं, और जेएनयू से निकले अमूमन अच्छे लोगों के मुताबिक वे अपने सिद्धांतों के लिए सडक़ों पर लडऩे से पीछे नहीं रहतीं। ऐसे में एक मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता से उनकी शादी को लेकर देश के साम्प्रदायिक लोग बुरी तरह घायल हैं। वे तमाम लोग भी जो स्वरा को रात-दिन सोशल मीडिया पर बलात्कार की धमकियां देते थे, उनके बारे में अश्लील और गंदी बातें लिखते थे, उन्हें भी अचानक एक हिन्दू लडक़ी के मुस्लिम से शादी करने पर चोट लगी है। तरह-तरह के लोग तरह-तरह की अपमानजनक बातें लिख रहे हैं और मानो इसी के एक जख्मी ने कर्नाटक में अभी एक ताजा साम्प्रदायिक बयान दिया है।
कर्नाटक के घोर साम्प्रदायिक संगठन श्रीराम सेना को उसकी दूसरी कट्टर बातों के लिए भी जाना जाता है, और कई बरस पहले के वो वीडियो लोगों को याद होंगे जिनमें बेंगलुरू शहर के पब में पहुंची लड़कियों को निकाल-निकालकर मारते हुए इस श्रीराम सेना के नेता-कार्यकर्ता कैमरों पर कैद हुए थे। उस समय से इसके मुखिया प्रमोद मुथालिक खबरों में आए थे, और अब तक वे अपने हिंसक बयानों को लेकर हर कुछ महीनों में अखबारी सुर्खियों में लीज नवीनीकरण करवाते रहते हैं। अभी उन्होंने कर्नाटक के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में खुलकर कहा- अगर हमारी एक हिन्दू लडक़ी जाती है, तो हमे दस मुस्लिम लड़कियों को फंसाना चाहिए, और आप ऐसा करते हैं तो श्रीराम सेना आपकी जिम्मेदारी लेगी। उन्होंने ऐसा करने वालों को हिफाजत और रोजगार देने का वायदा किया है। उनके इस बयान का वीडियो चारों तरफ फैला हुआ है। पिछले बरस उन्होंने टीपू सुल्तान का विरोध करते हुए सावरकर के पोस्टर पूरे कर्नाटक में लगाने का अभियान छेड़ा था, और बयान दिया था कि अगर मुस्लिम या कांग्रेस के किसी ने इन पोस्टरों को छुआ तो उनके हाथ काट दिए जाएंगे। पिछले साल का उनका बयान तो सुप्रीम कोर्ट की हेट-स्पीच की चेतावनी के पहले का था, लेकिन अब दस मुस्लिम लड़कियों को फंसाने का यह ताजा साम्प्रदायिक बयान तो सुप्रीम कोर्ट की कई बार दुहराई जा चुकी हेट-स्पीच चेतावनी के बाद का है, और देखना है कि कोई अदालत, कोई अफसर इस पर कार्रवाई करते हैं या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी कल ही दिल्ली पुलिस से कहा है कि उसने 2021 के दिल्ली हेट-स्पीच केस की चार्जशीट की एफआईआर फाईल करने में पांच महीने क्यों लगाए, और क्या अभी तक उसमें किसी को गिरफ्तार किया गया है? देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ इस बेंच के मुखिया हैं, और यह बेंच एक सामाजिक कार्यकर्ता तुषार गांधी की दाखिल की गई अवमानना याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड पुलिस, और दिल्ली पुलिस नफरत के तेजाबी भाषणों के मामलों में कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पुलिस ने इस मामले में नफरती भाषण देने वालों को संदेह का लाभ देने की पूरी कोशिश की, लेकिन अदालत ने उनकी इस हरकत को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट इस मामले एक कड़ा रूख दिखा रही है, और हो सकता है कि यह रूख बाकी देश के लिए भी एक मिसाल बने। फिलहाल तो अदालत ने इस तरह के नफरती भाषणों के लिए किसी को जेल भेजा नहीं है, इसलिए कर्नाटक में श्रीराम सेना के नफरती नेता फिर से अपने पुराने हिंसक मिजाज वाले साम्प्रदायिक रूख को दोहरा रहे हैं। ऐसे में अदालत को देश के बाकी हिस्सों में डिजिटल सुबूतों पर दर्ज हो रही नफरती और हिंसक बातों को भी कटघरे में लेना चाहिए क्योंकि उत्तराखंड में किसी को सजा हो भी जाए तो उससे कर्नाटक में किसी के सहमने की गुंजाइश कम ही रहती है। लोगों को अपने आसपास सजा दिखने पर ही उन पर इसका असर होता है।
हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक नफरत की बातों पर अगर देश का कोई कानून लागू होता है, तो उस पर सुप्रीम कोर्ट को एक कड़ी और व्यापक मिसाल पेश करने की जरूरत है। जब तक ऐसी मिसालें देश की बाकी अदालतों के लिए मौजूद नहीं रहेंगी, तब तक नफरती लोग कानून के ढीले-ढाले इस्तेमाल का फायदा उठाते रहेंगे। यह सिलसिला पूरी तरह से तोडऩे की जरूरत है, खासकर इसलिए कि आज देश में साम्प्रदायिकता के आधार पर चुनाव जीतने की जुगत में लगी हुई कुछ राजनीतिक ताकतें, और देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में लगी हुई कुछ गैरचुनावी ताकतें रात-दिन नफरत फैलाने में लगी हुई है। इनकी नफरत के झांसे में सबसे पहले तो इनके अपने बच्चे खुद आ रहे हैं जो कि समझ आने के पहले से घर से ही ऐसी नफरत का नमूना पाते चलते हैं। इसलिए देश को बचाने के लिए यह जरूरी है कि संविधान की मूल भावना, लोकतंत्र, और इंसानियत की तथाकथित बातों को नफरत से बचाया जाए। आज एक बहुत बड़ी जरूरत यह भी आ खड़ी हुई है कि देश में अल्पसंख्यकों को दूसरे धर्मों के लोगों में से साम्प्रदायिक-हमलावर लोगों से बचाया जाए। और यह काम आज चुनाव हार चुकी राजनीतिक ताकतें नहीं कर पा रही हैं, इस काम को फिलहाल तो अदालत को ही करना पड़ेगा जहां पर आज जजों का रूख पहले के मुकाबले थोड़ा सा बेहतर दिख रहा है, साम्प्रदायिकता से परे का दिख रहा है, सरकार के सामने दंडवत हो जाने से अलग दिख रहा है। आज अदालत को तेज रफ्तार से देश की हवा में घुल चुकी साम्प्रदायिक नफरत को साफ करने का काम करना है, और इस काम को करने में जिन राज्यों की पुलिस की बेरूखी दिख रही है, वहां के आला अफसरों को कटघरे में खड़ा भी करना है, उससे कम किसी कार्रवाई से काम नहीं बनेगा।
दुनिया के कई सबसे प्रतिष्ठित अखबारों के रिपोर्टरों ने मिलकर अभी एक सबसे बड़ी सनसनीखेज रिपोर्ट पेश की है जिसमें एक इजराइली कारोबारी को दुनिया के दर्जनों देशों ने चुनाव प्रभावित करने का ठेका लेते पाया गया है। रहस्य के पर्दों में रहने वाला यह इजराइली आखिरकार जाकर शातिर रिपोर्टरों के स्टिंग ऑपरेशन में फंसा, और वह कम्प्यूटर स्क्रीन पर इन रिपोर्टरों को यह बताते हुए कैद हुआ कि वे किस तरह लोगों के ईमेल खातों में घुसपैठ करते हैं, और सोशल मीडिया अकाऊंट्स को प्रभावित करके चुनाव के वक्त माहौल बदलने का काम करते हैं। बरसों से इस इजराइली चुनावी-सुपारी लेने वाले कारोबारी के बारे में चर्चा होती थी, लेकिन वह कभी सामने नहीं आया था, कभी फंसा नहीं था, लेकिन अब वह उजागर हो गया है, और उसने जिन दर्जनों देशों के नाम गिनाए हैं कि उसने वहां के चुनावों को प्रभावित किया है, उनमें भारत का नाम भी है। और उसका यह दावा भी है कि जिन अब तक 31 देशों में उन्होंने चुनाव प्रभावित किए हैं, उनमें से 26 देशों में नतीजे उनके मनमाफिक आए हैं। उन्होंने राजनीतिक दलों, सरकारों, और कारोबारियों से ठेके लेकर जनमत प्रभावित करने के ऐसे बड़े-बड़े साइबर-अभियान चलाए थे।
इस एजेंसी का भांडाफोड़ करने के लिए पत्रकारों के अंतरराष्ट्रीय संगठन, आईसीजे (इंटरनेशनल कन्सोर्र्टिएम ऑफ इंवेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स, की जिस टीम में काम किया उसमें 30 से ज्यादा मीडिया संस्थानों के पत्रकार जुड़े हुए थे। इन पत्रकारों ने संभावित ग्राहक बनकर इस इजराइली कारोबारी से संपर्क किया था, और नए ग्राहक फंसते देख इस इजराइली ने बारीकी से यह बताया कि वे किस तरह किसी के भी ईमेल अकाऊंट को हैक कर सकते हैं, सोशल मीडिया पर कम्प्यूटर एप्लीकेशनों की मदद से चलाए जाने वाले अनगिनत अकाऊंट से वे किसी पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में या उसके खिलाफ माहौल खड़ा कर सकते हैं। यह इजराइली कारोबारी वहां का रिटायर्ड फौजी या खुफिया अफसर रहा हुआ है, और वह बिना किसी पहचान के, अपना नाम और चेहरा छुपाए हुए इसी तरह के खुफिया अभियान चलाने का कारोबार करता है। लोगों को याद होगा कि दो बरस पहले जब इजराइली फौजी घुसपैठिया सॉफ्टवेयर पेगासस का भांडा फूटा था, तो वह भी पत्रकारों की इसी किस्म की एक टोली की बनाई हुई रिपोर्ट थी, और उसमें इजराइली कंपनी का यह दावा था कि वह सिर्फ सरकारों को ही यह स्पाइवेयर बेचती है। इसके साथ ही रिपोर्ट में यह भी दावा था कि भारत में उसका इस्तेमाल हुआ है। फिर भारत के सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला पहुंचने पर अदालत के सामने भारत सरकार ने साफ-साफ यह कहा था कि वह ऐसा कोई हलफनामा नहीं देगी कि उसने पेगासस खरीदा या उसका इस्तेमाल किया है या नहीं। अभी तक सुप्रीम कोर्ट में इसकी जांच चल ही रही है, कि यह दूसरा इजराइली कारोबार सामने आया है जो लोगों के ईमेल अकाऊंट में घुसपैठ तो करता ही है, वह साथ-साथ जनधारणा बनाने, और जनमत को मोडऩे का ठेका भी लेता है ताकि चुनावों को प्रभावित किया जा सके।
पिछले कई बरस से भारत में भी यह फिक्र चल रही है कि सोशल मीडिया पर तमाम वक्त कुछ ताकतें एक खास किस्म के एजेंडा को बढ़ाने का काम कर रही हैं। लेकिन इसके कोई सुबूत सामने नहीं आए थे। यह पहला ऐसा सुबूत दिख रहा है जिसमें यह इजराइली कंपनी साइबर-जुर्म करके चुनावों को प्रभावित करने का ठेका ले रही है, और उसके ग्राहकों की लिस्ट में हिन्दुस्तानी चुनाव की कोई एक ताकत भी है। यह जांच किसी किनारे तक पहुंचे या न पहुंचे, लोगों को इस खतरे को समझने की जरूरत है कि जिस सोशल मीडिया को दुनिया एक बहुत बड़ा लोकतांत्रिक औजार मानकर चलती है, वह लोकतंत्र के खिलाफ एक उतने ही बड़े भाड़े के हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर यह रिपोर्ट सही है, और इजराइली घुसपैठिया कंपनी इजराइल की बहुत सी दूसरी बदनाम निगरानी-कंपनियों की तरह काम करती है, तो हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत बड़ा खतरा है। हिन्दुस्तान के लिए खतरे को इस हिसाब से समझना चाहिए कि आज इजराइल के पूरे निर्यात का आधा हिस्सा अकेला हिन्दुस्तान खरीदता है। इसके अलावा भारत की आज की सरकार अपनी विदेश नीति में इजराइल के साथ खड़ी हुई है, और फिलीस्तीनियों को भारत का ऐतिहासिक और परंपरागत समर्थन अब तक खत्म हो गया दिखता है। ऐसे में भारत की कुछ ताकतें अगर एक ग्राहक की शक्ल में ऐसे इजराइली कारोबारी को ठेका देती हैं, तो यह बात इजराइल की सरकार और वहां के सारे कारोबार को भी माकूल बैठेगी क्योंकि वह कारोबार को जारी रखने वाली बात होगी। इसलिए भारत में इस पर अधिक बारीकी और चौकन्नेपन से गौर किया जाना चाहिए कि इस देश के किस चुनाव में किस पार्टी या संगठन, सरकार या नेता ने इन्हें जनमत प्रभावित करने की सुपारी दी थी।
सोशल मीडिया अच्छा हो या बुरा, वह अब एक अपरिहार्य ताकत बन चुका है, और किसी भी चुनाव में इसकी ताकत को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा। फिर फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म दुनिया के कई देशों में तरह-तरह की जांच और संसदीय सुनवाई का सामना कर रहे हैं कि वह किस तरह अपने इस्तेमाल करने वाले लोगों की सोच को प्रभावित करने का काम करते आया है। फेसबुक और ट्विटर जैसे अमरीकी कारोबार को अमरीका में ही संसदीय जांच का सामना करना पड़ रहा है कि वे राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने, या पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे पर हिंसा को बढ़ाने का काम करते रहे हैं। ऐसे माहौल में हिन्दुस्तान जैसे देश को यह समझना चाहिए कि अब यहां ईवीएम से चुनावी धोखाधड़ी के आरोपों से चिपके रहने से कुछ साबित नहीं होगा। अब सोशल मीडिया के खतरों को समझना होगा, और अनगिनत इजराइली कंपनियों की बदनीयत पर भी नजर रखनी होगी कि वे लोकतंत्रों को किस तरह अपना वफादार ग्राहक बनाने में लगी रहती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भूकम्प से बर्बाद तुर्की से अभी दो-तीन दिन पहले खबर आई थी कि वहां गिरी हुई इमारत के मलबे तले दस दिनों से दबी हुई एक लडक़ी को इतना वक्त सर्द मौसम में गुजार लेने के बाद अभी बचाया जा सका है। दसवें दिन भी दो महिलाओं और दो बच्चों को मलबे से जिंदा निकाला गया था। इसे करिश्मा ही माना जा रहा था, और यह एक विश्व रिकॉर्ड बन गया था कि अभी तीन दिन और गुजरने के बाद तीन लोगों को मलबे के नीचे से और बचा लिया गया है, यानी पिछला रिकॉर्ड तीन दिन भी नहीं टिक पाया। ये लोग भूख-प्यास के बावजूद बिना किसी मदद के, बिना गर्म कपड़ों के जिंदा थे। तुर्की और सीरिया के इस भूकम्प में 46 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इसे सदी का इस इलाके का सबसे जानलेवा भूकम्प माना जा रहा है, और लोगों के इस तरह बचने को आस्तिक लोग ऊपरवाले की मेहरबानी मान रहे हैं, और नास्तिक लोग इसे इंसान के जिंदा रहने के जज्बे की एक बड़ी मिसाल।
जो भी हो, तुर्की और सीरिया के इस हाल को देखकर बाकी दुनिया को हौसले की एक बड़ी नसीहत लेने की जरूरत है। दुनिया का हर हिस्सा इतनी बड़ी मुसीबत से नहीं घिरता है। खासकर सीरिया तो बरसों से गृहयुद्ध से घिरा हुआ है, विदेशी हमलों का शिकार है, और कल ही इजराइल ने वहां एक मिसाइल हमला किया जिसमें 15 मौतों की खबर है। इतने किस्म की कुदरती और इंसानी मार कुछ देशों पर पड़ी हुई है, लेकिन वहां लोगों का हौसला है जो कि दस-दस मंजिली इमारतों के दस-बीस फीट ऊंचे रह गए मलबे के नीचे भी जिंदा है। और यह हौसला देखकर उन लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए जो कि अपनी जिंदगी की अनिश्चितता से, उसकी नाकामयाबी से, उसकी तकलीफों से निराश होकर जिंदगी छोडऩे की सोचते हैं। ऐसा आए दिन हो रहा है, अभी दो दिन पहले ही ये आंकड़े सामने आए कि हिन्दुस्तान में पिछले दो-तीन बरसों में कितने लाख मजदूरों ने खुदकुशी की, कितनी लाख महिलाओं ने जान दे दी, और ऐसे ही कुछ और तबकों के भी आंकड़े सामने आए हैं। कई लोग इसे कोरोना और लॉकडाउन के दौर में सरकार की नाकामी का नतीजा मान रहे हैं, कुछ लोग इसकी जड़ें नोटबंदी और जीएसटी की दिक्कतों से बर्बाद हुए कारोबार में देख रहे हैं, जो भी हो, आम हिन्दुस्तानी की हालत आज किसी इमारत के मलबे में दबे हुए इंसान से बेहतर तो है ही। दुनिया की मिसालों से सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, और लोगों को भी। किसी भी मिसाल से इन दोनों के लिए अलग-अलग नसीहतों का मौका रहता है, और सरकारों के लिए भी हम लिखते ही रहते हैं कि देश में धर्मान्धता और कट्टरता को बढ़ाने का नतीजा क्या होता है, इसे समझने के लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे नाकामयाब लोकतंत्रों की तरफ देखना चाहिए, और अब तक वैसी नौबत में न पहुंचे हुए देशों को वैसी धर्मान्धता, और कट्टरता से बचना चाहिए। लेकिन सरकारों से परे इंसानों के सीखने की बातें भी तमाम नौबतों में रहती हैं। लोगों को बुरे से बुरे वक्त में भी किसी अच्छे की न तो उम्मीद छोडऩी चाहिए, और न ही उसकी कोशिश बंद करनी चाहिए।
जिंदगी की छोटी-छोटी मिसाल भी बड़े-बड़े हौसले दे जाती है। फिलीस्तीन में इजराइली हमले का शिकार एक ऐसा फोटोग्राफर है जिसका बदन बस कमर के ऊपर बचा है, नीचे कुछ भी नहीं है। और वह न सिर्फ जिंदा है, बल्कि पहियों की कुर्सी पर चलते हुए वह फोटोग्राफी का अपना काम भी करता है, और फिलीस्तीन की आजादी की लड़ाई भी लड़ता है। ऐसे और भी लोग हैं जो बिना हाथ-पैर के पैदा हुए हैं, और जो आज दूसरे लोगों को प्रेरणा देने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रमों में मंच पर व्याख्यान देते हैं। एक वक्त कुछ लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि वे तो अंग्रेजी जानते नहीं हैं, और दुनिया घूमने कैसे जा सकते हैं, तो एक समझदार ने उन्हें याद दिलाया कि जो लोग मूक-बधिर होते हैं, न सुन सकते न बोल सकते, क्या वे कहीं जाते ही नहीं हैं? और यह बात भी कई बरस पहले की थी, अब तो आम मोबाइल फोन पर लोग दुनिया की किसी भी देश की जुबान में अनुवाद कर सकते हैं, किसी भी भाषा में पूछे गए सवाल का अपनी भाषा में जवाब देकर उसे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर किसी तीसरी या चौथी भाषा में भी दिखा सकते हैं। जरूरत हौसले की थी, और टेक्नालॉजी ने तो वक्त के साथ सारी दिक्कतें दूर कर ही दीं। लेकिन टेक्नालॉजी हौसला नहीं दिला सकती, वह खुद का ही लगता है। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले जब अमरीका के न्यूयॉर्क में मौसम के बदलाव के खतरों पर एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम हो रहा था, तो स्वीडन की एक किशोरी, ग्रेटा थनबर्ग, लोगों का ध्यान खींचने के लिए एक बोट पर सवार होकर 35 सौ मील का समुद्री सफर तय करके न्यूयॉर्क पहुंची थी, और तब से लेकर अब तक वह मौसम के बदलाव के मोर्चे पर दुनिया की सबसे लड़ाकू नौजवान सामाजिक कार्यकर्ता बनी हुई है। इस लडक़ी ने अपने मां-बाप से लेकर अपने स्कूल तक, और अपने देश की संसद तक को अपने आंदोलन से मजबूर किया कि वे जीवनशैली में बदलाव लाएं ताकि पर्यावरण बच सके। उसने शुरूआत घर से की, फिर अपना शहर, फिर अपना देश, और फिर समंदर चीरते हुए वह ब्रिटेन से अमरीका पहुंची थी। हिन्दुस्तान में इस टीनएज के तकरीबन तमाम बच्चे पर्यावरण के बजाय अपने मोबाइल फोन के अगले मॉडल में मगन दिखते हैं, और पर्यावरण को बचाना उन्हें सफाई कर्मचारियों और रद्दी बीनने वालों का जिम्मा लगता है। इसलिए न सिर्फ हौसले की, बल्कि जागरूकता की नसीहत लेना भी मुमकिन है, कोई दस मंजिला इमारत के मलबेतले बिना खाए-पिए सर्द मौसम में जिंदा रहने का हौसला दिखा रहे हैं, तो कोई अपने खेलने-खाने के दिनों में दुनिया को बचाने, गैरजिम्मेदार और लापरवाह अमरीकी राष्ट्रपति को आईना दिखाने के लिए समंदर चीरने का हौसला दिखाते हैं, और इन सबसे बाकी दुनिया के सीखने का बहुत कुछ रहता है। ऐसी हर मिसाल पर लोगों को अपने आसपास के लोगों से भी चर्चा करनी चाहिए, और चाहे इनसे कितनी ही शर्मिंदगी क्यों न खड़ी होती हो, लोगों को अपने बच्चों से भी इन मिसालों की चर्चा करनी चाहिए। हो सकता है कि वे फोन पर ऑर्डर किए हुए पीत्जा का इंतजार करते हुए वीडियो गेम खेल रहे हों, लेकिन उन्हें असल जिंदगी की ऐसी करिश्माई लगती घटनाएं जरूर बतानी चाहिए, हो सकता है कि किसी एक बात से उन्हें अपनी बाकी जिंदगी के लिए एक बेहतर रास्ता सूझे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भयानक भूकम्प से अभी हाल में गुजरे सीरिया में इमारतों का मलबा भी नहीं उठ पाया है, नीचे लाशें बिना कफन दफन हैं जिनकी गिनती भी नहीं हुई है, और शिनाख्त भी नहीं हुई है, और ऐसे सीरिया में आईएसआईएस नाम के इस्लामी आतंकी संगठन ने एक हमला किया है जिसमें 53 लोगों की मौत हो गई है। अगर किसी को उसके धर्म ने कुछ भला सिखाया होता तो वे लोग आज भूकम्प से तबाह लोगों की मदद में लगे रहते, अभी इसी भूकम्प में पड़ोस के टर्की में मलबे के नीचे से दस दिन बाद एक लडक़ी जिंदा निकली है, उससे सबक लेकर सीरिया में भी लोगों को जिंदा निकालने की कोशिश करते, लेकिन उन्हें अभी धर्म के आधार पर आतंकी हमले सूझ रहे हैं। और यह हमला कोई अनोखा नहीं है, अभी हफ्ते भर के भीतर ही ऐसे ही एक दूसरे हमले में इसी आतंकी संगठन ने 16 लोगों को मार डाला था, और दर्जनों का अपहरण कर लिया था। एक दूसरी खबर पाकिस्तान की है जहां प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने अभी ट्वीट किया है कि पाकिस्तान न सिर्फ आतंक को उखाड़ फेंकेगा बल्कि आतंकियों को कानून के कटघरे तक लाकर मौत की सजा दिलवाएगा। उन्होंने लिखा है कि पिछले दो दशक में इस देश ने अपना लहू बहाकर भी आतंक से मुकाबला किया है, और उसने इस दुष्टता को हमेशा के लिए खत्म करने की कसम खाई है। पाक प्रधानमंत्री वहां की कारोबारी राजधानी करांची के पुलिस मुख्यालय पर कल हुए आतंकी हमले के संदर्भ में बोल रहे थे जिसमें चार लोग मारे गए थे, और 14 जख्मी हुए थे। पाकिस्तान के आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है।
जिस सीरिया से हमने आज बात शुरू की है वह सीरिया बरसों से गृहयुद्ध से गुजर रहा है, वहां के कई इलाके सरकारविरोधी विद्रोहियों के कब्जे में है। और वह इलाका भूकम्प में सबसे अधिक तबाह हुआ है। वहां तक अंतरराष्ट्रीय राहत पहुंचने में भी बहुत मुश्किल आई है। और वहां से यह मांग भी उठ रही है कि पड़ोसी टर्की से इस इलाके में राहत आने के लिए और रास्ते खोले जाएं, और सीरिया की सरकार भी इन इलाकों तक आवाजाही खोले। जब देश बरसों से चले आ रहे गृहयुद्ध, और फौजी हवाई हमलों का शिकार रहा है, और आज वहां दसियों हजार लोगों की भूकम्प से मौत का अंदेशा है, तब भी धार्मिक आतंकियों को जानलेवा हमलों के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा है। ऐसा भी नहीं कि धर्म से जुडऩे का मतलब नेक कामों से रिश्ता खत्म हो जाना ही होता है। दुनिया के बहुत से देशों में सिक्ख संगठन राहत पहुंचाने में सबसे आगे रहते हैं, और वे मुसीबत के वक्त अपने गुरुद्वारों को भी दूसरे धर्म के लोगों की प्रार्थना के लिए खोल देते हैं। एक वक्त ऐसा भी था जब सिक्ख धर्म की सत्ता को अपने कब्जे में किए हुए भिंडरावाले ने पंजाब में छांट-छांटकर गैरसिक्खों को अपने आतंकी हत्यारों से निशाना बनवाया था, लेकिन सिक्ख उससे उबर गए हैं, और वे आज दुनिया में राहत पहुंचाने में सबसे आगे शामिल रहते हैं। दूसरी तरफ आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन इस्लाम के नाम पर गृहयुद्ध और भूकम्प से मलबा हुए देश में आतंकी हमले किए जा रहे हैं।
सीरिया, और कुछ ही दूरी पर बसे हुए एक दूसरे मुस्लिम देश पाकिस्तान, इन दोनों में मजहबी आतंकियों को देखें, तो ये अपने-अपने देश की सरकारों के काबू से बाहर हैं, और धर्म के नाम पर ये अपने ही धर्म के लोगों को मार रहे हैं। अभी 20 दिन पहले पाकिस्तान के पेशावर में पुलिस के इलाके की एक मस्जिद में आतंकी आत्मघाती हमला किया गया था जिसमें हमलावर ने पुलिसवर्दी के भीतर विस्फोटकों से लैस होकर नमाज के दौरान धमाका किया, और करीब पांच दर्जन लोग मारे गए थे, और डेढ़ सौ से अधिक जख्मी हुए थे। आज पाकिस्तान में लोगों के खाने को आटा नहीं है, गाडिय़ां चलाने को पेट्रोल नहीं है, बिजली बंद है, और पिछले बरस की बाढ़ से देश की करोड़ों की आबादी अब तक उबर नहीं पाई है, लेकिन धार्मिक आतंकियों को कत्ले-आम सुहा रहा है। मतलब यह कि जिंदगी को बचाने के काम में धर्म की दिलचस्पी बड़ी सीमित रहती है, लेकिन थोक में कत्ल करने में धर्म दौड़ में सबसे आगे रहता है। हकीकत तो यह है कि पिछली सदियों में थोक में हुए अधिकतर कत्ल धर्म के नाम पर, धर्म की वजह से, धर्म के झंडे-डंडे के साथ ही हुए हैं।
दम तोड़ते देशों में मजहबी दहशतगर्दी के कत्ले-आम से बाकी दुनिया के लिए भी कुछ सबक है। एक वक्त जो देश अच्छे-भले चल रहे थे, वहां पर धार्मिक आतंकी संगठन इसलिए पनप और हावी हो पाए कि वहां लोगों के बीच धार्मिक कट्टरता पहले तो धार्मिक रीति-रिवाजों तक थी, बाद में वह कट्टरता में बदली, और फिर उसके बाद उसे हिंसा में तब्दील होने में अधिक वक्त नहीं लगा। दुनिया के जो देश आज वैज्ञानिक सोच खोकर धर्मान्धता के शिकार हो रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान और सीरिया जैसे दुनिया के बहुत से देशों का इतिहास देखना चाहिए कि एक वक्त वहां धर्म तो था, लेकिन धार्मिक-आतंकी नहीं थे। धर्म का मिजाज उसे कट्टरता की तरफ ले जाता है, यह कट्टरता उसे हिंसा की तरफ ले जाती है, और यह हिंसा उसे आतंकी बनाकर कामयाब होती है। इसलिए जिन देशों को, जिन लोगों को आज अपना धर्म सुहा रहा है, और जिन्हें अपने धर्म की कट्टरता पर भी उसे तालिबानी बुलाने पर बड़ी आपत्ति होती है, उन्हें यह समझना चाहिए कि यह पहाड़ से लुढक़ती हुई चट्टान सरीखी नौबत है जिसकी रफ्तार बढ़ती चलती है, और जो आखिर में जाकर जानलेवा ही साबित होती है। धर्म को जब भी नफरत से जोड़ा जाता है, किसी दूसरे धर्म के खिलाफ उसे खड़ा किया जाता है, देशों के कानून और संविधान के मुकाबले धर्म को अधिक ऊंचा दर्जा दिया जाता है, तो वहां पर अपने-अपने धर्मों के तालिबान बनाने का रास्ता खोल दिया जाता है, यह मंजिल पाने में वक्त कम या अधिक लग सकता है। समझदार देशों के लिए यह भी समझने की बात है कि जो देश मजहबी आतंक के शिकार हैं, उन देशों की तमाम संभावनाएं इन आतंकियों से जूझने में खत्म हो जाती हैं, उनकी अंतरराष्ट्रीय साख खत्म हो जाती है, उनकी आने वाली कई पीढिय़ां अपनी संभावनाओं को छू नहीं पातीं। इसलिए धर्म नाम के इस खूंखार जानवर को इंसानी लहू चटा-चटाकर इतना इंसानखोर नहीं बना देना चाहिए कि वह स्वर्ग नाम की पाखंडी धारणा को पाने के फेर में अपने ही देश, अपने ही धर्म, अपने ही लोगों को थोक में मारने में लग जाए। धर्म और धार्मिक आतंक के बीच नंगी आंखों से दिखने वाली कोई सीमारेखा नहीं होती है, इनके बीच सलेटी रंग का एक समंदर होता है, जिसमें मामला कहां तक पहुंचा है यह पता नहीं लगता। धर्म की कातिल ताकत को समझने की जरूरत है, और सीरिया से लेकर पाकिस्तान तक, अफगानिस्तान से लेकर कई अफ्रीकी देशों तक लोग धर्म के झंडे लेकर इस ताकत को साबित कर रहे हैं, एक-एक हमले में दर्जनों और सैकड़ों लोगों को मार-मारकर।
मध्यप्रदेश हिन्दुस्तान का बाबाबाड़ा लगता है, जिस तरह मुर्गियों का, गाय-भैंस का, या सुअर का बाड़ा होता है, उसी तरह मध्यप्रदेश बाबाओं का बाड़ा है। इस मामले वह हरियाणा नाम के एक बाबाबाड़ा को टक्कर देता है। राजस्थान में एक बलात्कारी आसाराम का बाड़ा चलता था जिसमें बलात्कार के शिकार भक्तों के परिवार का हाल देखते हुए भी दूसरे भक्त जानवरों की तरह बेदिमाग जुटते थे, और आज भी जुटते हैं। ऐसा ही हरियाणा में कई बलात्कारी और हत्यारे बाबाओं का हाल है जिनकी दुकानें उनके जेल में रहने के बाद भी दूर छत्तीसगढ़ के सरकारी मेलों तक में चल रही हैं, और साबित कर रही हैं कि हत्या या बलात्कार जैसे जुर्म किसी को सरकारी मेले में स्टॉल लगाने से नहीं रोक सकते। ऐसे माहौल में मध्यप्रदेश के कुछ बाबाओं का ऐसा बोलबाला है कि वहां से राजनीति को रास्ता मिलते दिखता है। प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों के नेता इन बाबाओं के पैरों पर पड़े रहते हैं, और सरकारें अपनी ताकत इनके पांव दबाने में झोंक देती है। हिन्दी के कुछ समाचार चैनल इन बाबाओं की मेहरबानी से रोटी पर लगाने के लिए घी-मक्खन और जैम कमाते हैं, और जिंदगी से निराश आम जनता इन्हीं बाबाओं में अपनी तमाम दिक्कतों का इलाज तलाशती फिरती रहती हैं।
ऐसे ही पाखंडी बाबाओं का बोलबाला मध्यप्रदेश से रिस-रिसकर छत्तीसगढ़ तक में आ जाता है, और यहां पर कुछ कुख्यात भूमाफिया अपनी संदिग्ध कमाई से इन त्रिकालदर्शी बाबाओं के आयोजन करते हैं, जिनमें इन बाबाओं को भक्तों की भीड़ के कपड़ों में लगे दाग का राज भी दिखता है, यह एक अलग बात है कि आयोजक-माफिया का कोई जुर्म उन्हेें नहीं दिखता। मध्यप्रदेश में अभी एक बाबा ने रूद्राक्ष बांटने का एक बखेड़ा खड़ा किया जिसमें लाखों लोग जुट गए, ऐसी भगदड़ मची दस-बीस किलोमीटर तक सडक़ें जाम हो गईं, लेकिन बाबा 30 लाख रूद्राक्ष बांटने पर उतारू रहे, और वहां के मीडिया के मुताबिक जब इस भीड़ में मौत भी हो गई, तो भी यह बाबा राक्षसी हॅंसी के साथ मौत के बारे में कहते रहा कि मौत आनी है तो आएगी ही। सरकार का किसी तरह का कोई काबू इस तरह की भीड़ पर नहीं था क्योंकि तमाम बड़े राजनीतिक दलों के नेता ऐसे हर बाबा के चरणों की धूल पाने पर उतारू रहते हैं, जब तक कि वे बलात्कारी साबित न हो जाएं।
किसी भी बाबा की कामयाबी उस प्रदेश में न सिर्फ वैज्ञानिक सोच की कमी बताती है, बल्कि वह सरकार की नाकामी और लोकतंत्र की असफलता का एक संकेत भी होती है। जहां पर लोग सरकार और अदालत पर भरोसा करते हों, जहां पर जिंदगी की उनकी दिक्कतें निर्वाचित सरकारों से दूर होती हों, वहां पर कोई किसी बाबा के फेर में आखिर पड़ेंगे क्यों? जब सरकारी इलाज किसी काम का नहीं रहता, लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर पाता, तब जाकर लोग पाखंडियों के चक्कर में पड़ते हैं, जो अलग-अलग कई किस्म के धर्मों के चोले पहने हुए रहते हैं, और अलग-अलग तरीके से लोगों को धोखा देते हैं। सरकारें भी ये चाहती हैं कि जनता बाबाओं के चक्कर में इस हद तक पड़ी रहें कि वे अपनी जिंदगी की दिक्कतों के लिए, बेइंसाफी के लिए सरकार पर तोहमत लगाने के बजाय अपने ही पिछले जन्मों के गिनाए जा रहे कुछ काल्पनिक कुकर्मों को जिम्मेदार मानें, और सरकार को बरी करें। यह सिलसिला हिन्दुस्तान की आजादी से या लोकतंत्र से शुरू हुआ हो ऐसा भी नहीं है, यह सिलसिला तो कबीलों में तब से शुरू हो गया था जब सरदार ने किसी ओझा को तैयार किया था जो कि लोगों की जिंदगियों की मुश्किलों के लिए कुछ दुष्टात्माओं को जिम्मेदार ठहराता था। वहां से शुरू होकर आधुनिक धर्म को बनाने, ईश्वर की धारणा विकसित करने, और फिर इस धर्म के एक विस्तार के रूप में तरह-तरह के बाबा, पादरी, मौलवी खड़े करने की यह साजिश नाकामयाब राजाओं की एक कामयाबी रही है, जो आज भी जारी है।
चाहे ईसाईयों की चंगाई सभा हो, चाहे जन्नत और जहन्नुम के सपने और डर दिखाकर लोगों को बरगलाने वाली तकरीरें हों, या फिर आज के बाबाओं के आए दिन होने वाले भगवा जलसे हों, इन सबका मकसद सिर्फ यही है कि किस तरह लोगों की दिक्कतों के लिए जिम्मेदारी सरकार पर आने के बजाय उसे लोगों के तथाकथित पाप के सिर मढ़ा जाए, किस तरह चमत्कार को एक इलाज और समाधान बताया जाए, किस तरह लोगों को सरकार की तरफ देखने से रोका जाए, इसी मकसद के साथ राजनीति भी इन बाबाओं को स्थापित करती है, और सरकारें चाहती हैं कि ऐसे बाबा हमेशा बने रहें। सरकारें चाहती हैं कि इस देश से वैज्ञानिक सोच पूरी तरह खत्म हो जाए, और लोग चमत्कारों की चाह में ऐसे दरबारों में सिर हिलाते बैठे रहें, बजाय सडक़ों पर खड़े होकर सरकार से दिक्कतों का इलाज मांगते हुए। इसलिए ये बाबा जब कानून तोड़ते हैं, तो भी सरकारें इन्हें अनदेखा करती हैं। ये जब इलाज के बड़े-बड़े दावे करते हैं, तब भी राज्य वहां लागू चमत्कार-विरोधी कानूनों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। मध्यप्रदेश शायद ऐसे बाबा लोगों के मामले में हरियाणा के बाद दूसरे नंबर का राज्य बन गया है, और अब वहां का यह ताजा बाबा अपने बांटे जा रहे रूद्राक्ष के पक्ष में सरकारी विज्ञान प्रयोगशालाओं के प्रमाणपत्र का दावा भी खुलकर कर रहा है, और ऐसा दावा भी सरकार को मजेदार लग रहा है। हो सकता है कि मध्यप्रदेश को देखकर दूसरे प्रदेशों के बाबा भी सरकारी प्रयोगशालाओं के सर्टिफिकेट गिनाने लगें, और देश में विज्ञान की कुछ और हद तक मौत हो जाए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी मीडिया में नफरत फैलाने की अधिकतर जिम्मेदारी टीवी चैनलों के कुछ एंकरों ने उठा रखी है क्योंकि अपनी पुरानी पहचान के मुताबिक टीवी के दर्शकों का अक्ल से अधिक रिश्ता नहीं रह जाता, और उन्हें नफरत बेचना उसी तरह आसान हो जाता है जिस तरह सडक़ किनारे कोई तमाशा दिखाकर मंजन बेचना। हिन्दुस्तान में नफरत के ये सौदागर अच्छी तरह पहचाने हुए हैं, और इन्हें अपने इस काम पर बड़ा फख्र भी दिखता है। इन्हें हिन्दुस्तान की दिक्कतों पर चर्चा के बजाय यहां के मुकाबले पाकिस्तान में महंगा बिकता आटा और पेट्रोल चर्चा के लायक लगता है ताकि हिन्दुस्तानी लोग अपनी दिक्कतों को लेकर किसी बेचैनी से न घिरें। और फिर देश के भीतर, पड़ोसी देशों से, एक धर्म के खिलाफ दूसरे धर्म को खड़ा करके, मोहब्बत की बात करने वाले राहुल गांधी को खिलौनों से खेलने वाला पप्पू साबित करते हुए ये लोग नफरत को दूर-दूर तक और नई ऊंचाईयों तक ले जाने में लगे रहते हैं। ऐसे में अभी सोशल मीडिया पर कांग्रेस के एक नेता के साथ ऐसे दो नफरतजीवी एंकरों की तस्वीरों को पोस्ट करते हुए एक महिला पत्रकार ने लिखा- नफरत के इन सौदागरों को कभी इंटरव्यू न दें, इंटरव्यू देना ही है तो मुझे दे दें, मैं ले लूंगी। उसने आगे लिखा- नफरत, हिंसा, और राष्ट्र की एकता को तोडऩे वालों के सामने आना पाप है।
इससे एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि क्या जाहिर तौर पर नफरत फैलाने में लगे हुए ऐसे टीवी एंकरों, या मीडिया के दूसरे लोगों से धर्मनिरपेक्ष और अमन-पसंद लोगों को बात नहीं करना चाहिए? यह सवाल दिलचस्प इसलिए भी है कि बड़े कारोबारी मीडिया का मालिकाना हक इन दिनों तरह-तरह के आर्थिक अपराधियों या विवादास्पद कारोबारियों के पास आ गया है। और अगर जाहिर तौर पर इनकी नीयत पल-पल उजागर न भी होती हो, तो भी उनका वह एजेंडा तो रहेगा ही। कभी-कभी उनके सवाल मासूम लग सकते हैं, लेकिन अपना नाखूनों और दांतों के बिना वे आखिर खाएंगे क्या? इसलिए यह तो तय है कि वे या तो हर बातचीत में नफरत को आगे बढ़ाने का अपना एजेंडा लागू करते होंगे, या फिर वे कुछ भले लोगों से भली या बुरी कैसी भी बातें करके उनकी साख का इस्तेमाल अपनी साख को बनाने और बढ़ाने में करते होंगे। टीवी से परे अखबारों में भी कुछ ऐसे होते हैं जो अपनी सारी साम्प्रदायिकता के बीच किसी एक धर्मनिरपेक्ष लेखक का एक कॉलम छापकर उसकी साख को अपनी साख में तब्दील करने का काम करते हैं। तो ऐसे में लिखने वाले लोगों, बहस में शामिल होने वाले लोगों, और इंटरव्यू देने वाले नेताओं या प्रमुख लोगों को क्या करना चाहिए?
वैसे तो जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, उनके लिए यह कुछ मुश्किल काम ही होता है कि वे किसी भी माइक्रोफोन और कैमरे को मना कर सकें। और ऐसी मनाही का एक मतलब आगे के लिए दुश्मनी भी होता है। लेकिन भारतीय राजनीति में भी कुछ ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने कुछ चैनलों या कुछ अखबारों के लोगों के सवालों का जवाब देने से साफ मना कर दिया। इस वक्त अर्नब गोस्वामी टाईम्स नाऊ चैनल का मुखिया था, और वहां से नफरत फैलाता था, तो कुछ नेताओं ने भरी प्रेस कांफ्रेंस में भी टाईम्स नाऊ के रिपोर्टर के सवालों का जवाब देने से मना कर दिया था। ऐसा करना आसान नहीं रहता है क्योंकि कई बार नफरत से परे काम करने वाले मीडिया के लोग भी अपने नफरतजीवी साथी का साथ देने के लिए गिरोहबंदी पर उतर आते हैं, और नेता को एक पूरा बहिष्कार झेलना पड़ सकता है। फिर यह भी है कि इंटरव्यू देने वाले या प्रेस कांफ्रेंस लेने वाले लोगों का अपना नैतिक मनोबल भी इतना ऊंचा रहना चाहिए कि वे किसी बुरे मीडिया को मुंह पर साफ-साफ मना करने का हौसला रख सकें, और दिखा सकें।
लेकिन बुनियादी बात पर अभी भी चर्चा बाकी है कि ऐसे बदनाम मीडिया के बदनाम लोगों से बात करनी चाहिए या नहीं? इसका जवाब आसान नहीं हो सकता, लेकिन है जरूर। लोग इंटरव्यू दे सकते हैं, सवालों के जवाब दे सकते हैं, लेकिन उनमें से किस जवाब के किस हिस्से को किस तरह से पेश किया जाएगा, यह तो उसी बदनाम मीडिया के बदनाम रिपोर्टर या एंकर के हाथ में रहेगा। इसलिए ऐसे लोगों से बात करना कम खतरनाक नहीं होता है क्योंकि वे लोग वैचारिक रूप से असहमत लोगों से बात करने, उन्हें जगह देने का दिखावा भी करते हैं, और उनकी बातों को कुल मिलाकर तोड़-मरोडक़र अपने एजेंडा के मुताबिक इस्तेमाल भी कर लेते हैं। अगर पांच उंगलियां एक माईक और एक मुंह होने से ही कोई इंटरव्यू लेने के हकदार हो सकते हैं, तो बदनाम मीडिया के बदनाम लोगों के मुकाबले बेहतर साख वाले छोटे मीडिया के अनजान लोगों से भी बात करना बेहतर है।
नेताओं के मुकाबले सडक़ों पर आम जनता अधिक जागरूक रहती हैं क्योंकि उसका दांव पर कम लगा रहता है। वह कई बार कई बदनाम चैनलों के लोगों से बात करने से मना कर देती है, और उन्हें आईना भी दिखाती है कि उनकी किन हरकतों की वजह से वे उनसे बात करना नहीं चाहते। लेकिन वोटों की राजनीति में लगे हुए लोग हर बार इतना खरा-खरा नहीं बोल पाते। बीच-बीच में ऐसा जरूर होता है कि कोई राजनीतिक पार्टी किसी चैनल का कम या अधिक समय तक पूरा बहिष्कार करती है, वहां पर अपने प्रवक्ता नहीं भेजती है, लेकिन धीरे-धीरे फिर बीच का कोई रास्ता निकाला जाता है, और सार्वजनिक जीवन की इस बात को मान लिया जाता है कि राजनीति में कोई स्थाई शत्रु नहीं होते। लेकिन अभी सोशल मीडिया पर यह सवाल उठना एक बड़ा प्रासंगिक मामला है, और इस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। ऐसी चर्चा से नफरतजीवी लोगों में थोड़ी सी बेचैनी होगी क्योंकि सवाल पूछने के उनके पेशेवर एकाधिकार के खिलाफ जाकर दूसरे लोग भी उनसे सवाल कर सकेंगे। और सवाल करने वालों से सवाल न करना कोई शर्त तो हो नहीं सकती। ऐसी जागरूकता से ही नफरत फैलाने वाले लोगों के हौसले पस्त हो सकते हैं। जो उनका बहिष्कार करना चाहें, वह भी ठीक है, और जो उनसे बात करते हुए कुछ असुविधाजनक सवाल करना चाहें, वह भी ठीक है। लेकिन उन्हें स्वाभाविक मीडिया मानकर उनकी नफरत को अनदेखा करना ठीक नहीं है। वरना नफरत पर टिकी हुई मीडिया आज के लिए नवसामान्य हो जाएगी। आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में कई किस्म की नफरत नवसामान्य हो गई है, लेकिन बदनाम मीडिया को नवसामान्य का दर्जा देना देश में नफरत को और फैलाने से कम कुछ नहीं होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के एक सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय, जेएनयू, के एक प्राध्यापक सुरजीत मजूमदार अभी ओडिशा में राजधानी के उत्कल विश्वविद्यालय सभागार में एक नागरिक मंच के कार्यक्रम में अंबेडकर पर बोल रहे थे कि कुछ लोगों ने चिल्लाते हुए उन्हें गालियां बकीं, और आयोजकों के साथ धक्का-मुक्की की। प्रोफेसर मजूमदार अंबेडकर के सिद्धांतों और उद्देश्यों पर बात करते हुए प्राकृतिक संसाधनों को कुछ लोगों को सौंपे जाने की बात कह रहे थे, तो यह बात कुछ बाहरी लोगों को नागवार गुजरी। वहां मौजूद लोगों का कहना है कि उन्होंने अडानी जैसे किसी उद्योगपति का नाम नहीं लिया था, लेकिन इस मुद्दे पर बोलना ही कुछ लोगों को गवारा नहीं हुआ, और वे विरोध और धक्का-मुक्की पर उतर आए। इस धक्का-मुक्की में एक स्थानीय प्राध्यापक गिरफ्तार भी हुए हैं, और हमलावरों को दक्षिणपंथी गुटों से जुड़ा बताया गया है।
अब अंबेडकर वैसे भी लोगों को नहीं सुहाते हैं। उनकी बातें संविधान के तहत तो हैं ही, वे बातें सबसे कुचले और वंछित तबकों को हक दिलाने की बातें भी हैं। जिस तरह वे संविधान के लिए अपनी सोच सामने रखते हुए हमेशा ही एक सामाजिक न्याय की वकालत करते रहे, उसकी वजह से वे दलितों के लिए एक प्रेरणा भी बने कि वे जात-पात और छुआछूत मानने वाले हिन्दू समाज को छोडक़र बाहर निकलें, और जात-पात न मानने वाले बौद्ध समाज में जाएं। इस तरह देश के कट्टर हिन्दुओं की नजरों में अंबेडकर इसलिए भी खटकते हैं कि उन्होंने हिन्दू समाज के सबसे निचले कहे जाने वाले तबके, पैरोंतले लगातार कुचले जाने वाले दलितों को हिन्दू समाज से हटा दिया। अब इसके बाद अगर उनकी नसीहत को याद दिलाते हुए कोई जानकार और विद्वान प्रोफेसर प्राकृतिक स्रोतों को लेकर यह फिक्र जाहिर करता है कि ये स्रोत कुछ लोगों को दिए जा रहे हैं, तो इसका एक मतलब यह भी होता है कि वे हिन्दू समाज के भीतर के दलितों के शोषण की चर्चा करते हुए उससे आगे बढक़र आदिवासियों के हक की बात भी कर रहा है, और यह बात हिन्दुत्व के ठेकेदारों, और कारखानेदारों के दलालों, दोनों को खटकने वाली बात है, और आज के हिन्दुस्तान में एक तबका ऐसा खड़ा हो गया है जो कि ये दोनों ही झंडे अपने डंडों पर लगाकर चल रहा है।
जेएनयू जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को सुनने का ओडिशा में यह गिना-चुना मौका ही रहा होगा। ओडिशा के बारे में लोगों को यह याद रखना चाहिए कि वहां दलितों से बड़ा मुद्दा आदिवासियों का है, और आदिवासियों के जंगल, उनके पहाड़, इन सबको कारखानेदारों को देने के खिलाफ दुनिया का एक सबसे चर्चित आंदोलन ओडिशा में चल रहा है। ऐसे में अभी की इस ताजा घटना को समझने की जरूरत है कि सिर्फ पढ़े-लिखे और समझदार, सोचने वाले लोगों के बीच अगर एक सभागृह में कोई कार्यक्रम हो रहा है, तो वहां पहुंचकर विरोध करना अनायास नहीं हो सकता, और यह विरोध जेएनयू के नाम का भी रहा होगा, और जंगलों पर आदिवासियों के हक की वकालत का भी विरोध रहा होगा। ऐसा लगता है कि विरोध की यह साजिश हमलावर हिन्दुत्ववादियों और कारखानेदारों की तरफ से पहले से गढ़ी गई होगी। क्योंकि हमलावर हिन्दुत्ववादियों को खुद होकर तो जंगलों पर आदिवासियों के हकों की अलग से समझ नहीं है। ऐसा लगता है कि कारखानेदारों के दलालों ने अपने प्राकृतिक समर्थक हिन्दुत्ववादी हमलावरों को साथ लेकर इस कार्यक्रम में यह विरोध किया। यह विरोध अपने आपमें बतलाता है कि आज के हिन्दुस्तान में अंबेडकर की सोच की कितनी जरूरत है, और इस सोच का विरोध करने वाली ताकतें कितने हमलावर तेवरों के साथ मौजूद हैं।
न सिर्फ हिन्दुस्तान में, बल्कि दुनिया के तमाम बड़े जंगलों वाले देशों में कारखानेदार और कारोबारी जिस तेज रफ्तार से और जितनी बड़ी मशीनों के साथ कुदरत पर हमला कर रहे हैं, उसकी भरपाई अगले लाखों बरस तक होने के कोई आसार नहीं रहेंगे। अमेजान के जिन जंगलों से दुनिया भर में बिखरा हुआ कारोबार करने वाली कंपनी अमेजान ने अपना नाम लिया है, अमेजान के उन जंगलों को खत्म करने की पूरी कोशिशें चल रही हैं। यह कुदरत का बड़ा अजीब सा इंतजाम है कि जहां खनिज हैं वहीं पर जंगल हैं, और जहां पर जंगल हैं वहीं पर आदिवासी हैं, और इसलिए आदिवासियों की बेदखली के बिना खनिज निकालना मुमकिन नहीं है। यह हाल हम छत्तीसगढ़ में हसदेव के सबसे घने जंगलों के नीचे से कोयला निकालने की अडानी की हड़बड़ी में भी देख रहे हैं, और दुनिया भर के जंगलों में अलग-अलग कंपनियों के हमलों की शक्ल में भी। ऐसे में अगर अंबेडकर को याद करते हुए कोई विचारक इन हमलों के खतरे गिनाता है, तो आज ऐसे विचारक को ही एक खतरा मानकर उस पर हमले किए जा रहे हैं। इनसे पहली बात तो यही साबित होती है कि आज लोगों के कुदरत पर हक बनाए रखने के लिए अंबेडकर की सोच कितनी जरूरी है। दूसरी बात यह साबित होती है कि हिन्दुस्तान में कारोबारी हमलावर गिरोह सिर्फ राष्ट्रवादी खाल ओढक़र नहीं आते, वे हिन्दुत्ववादी खाल ओढक़र भी आ सकते हैं, आ रहे हैं। अभी जब एक अंतरराष्ट्रीय भांडाफोड़ एजेंसी ने अडानी पर खाता-बही में हेरफेर करके, विदेशी रास्तों से संदिग्ध पैसा लाकर कारोबार को बड़ा दिखाने की तोहमत लगाई, तो रातों-रात अडानी ने इसे हिन्दुस्तान पर हमला करार दिया। और अडानी के बचाव में स्वघोषित हिन्दू सांस्कृतिक संगठन आरएसएस ने झंडा-डंडा उठा लिया। जहां पर साफ-साफ जांच एजेंसियों के हरकत में आने की जरूरत थी, वहां पर तिरंगे झंडे से लेकर भगवा झंडे तक की ढाल खड़ी कर दी गई। इस पूरे सिलसिले को समझने की जरूरत है। और ऐसे सिलसिले को समझाने वाले न रहें, इसलिए भी जेएनयू जैसी जगह को खत्म करने की खुली कोशिश चल रही है। जिस दिन जेएनयू जैसे संस्थानों से उपजी हुई जागरूकता खत्म हो जाएगी, उस दिन हिन्दुस्तान में जल, जंगल, जमीन को बचाने के आंदोलन भी खत्म हो जाएंगे। और देश का एक हमलावर तबका वैसे ही ‘अच्छे दिन’ लाने में लगा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2015 में स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया था जिसके तहत सौ शहरों को छांटकर उन्हें शहरी सुविधाओं के मामले में बेहतर बनाने का बीड़ा उठाया गया था। अगले महीने मार्च 2023 में इनमें से 22 शहर स्मार्ट होने जा रहे बताए गए हैं, और दावा किया गया है कि इससे वहां के लोगों की जिंदगी बेहतर होगी, और वे एक साफ-सुथरे माहौल में रह सकेंगे। इन शहरों में भोपाल, इंदौर, आगरा, वाराणसी, भुवनेश्वर, चेन्नई, कोयम्बटूर, इरोड़, रांची, सालेम, सूरत, उदयपुर, विशाखापत्तनम, अहमदाबाद, काकीनाड़ा, पुणे, वेल्लूर, पिम्परी-चिंचवाड़ा, मदुरै, अमरावती, तिरुचिरापल्ली, और तंजौर के नाम हैं। अब तक इन शहरों में एक लाख करोड़ रूपये के प्रोजेक्ट पूरे हो चुके हैं, और तकरीबन उतने ही और शुरू किए गए हैं। इसमें आधी रकम केन्द्र सरकार देता है, और आधी रकम राज्य सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल की लगती है।
जब यह योजना शुरु हुई थी तब भी हमने इसके खिलाफ लिखा था कि यह निर्वाचित म्युनिसिपलों के अधिकारों में दखल है, और स्मार्ट सिटी का काम करने वाली एक अलग बनाई गई कंपनी उन शहरों के म्युनिसिपलों के प्रति जवाबदेह नहीं रहती हैं जो कि एक असंवैधानिक नौबत है। भारत में केन्द्र, राज्य, और स्थानीय संस्थाओं से परे कुछ नहीं हो सकता, लेकिन स्मार्ट सिटी की पूरी धारणा ही केन्द्र सरकार की सोच पर शहरों को ढालने के लिए राज्यों पर थोपी गई थी, और ‘स्मार्ट’ बनने की हड़बड़ी में राज्य इस बात की अनदेखी कर गए थे कि केन्द्र की सोच पर राज्यों को बराबरी से खर्च करना पड़ रहा है, और उनकी अपनी कल्पनाशीलता की कोई जगह इसमें नहीं है। इसके अलोकतांत्रिक मिजाज को भी अनदेखा किया गया था, और अभी छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट में इसके खिलाफ एक पिटीशन पर सुनवाई हो ही रही है। हम ‘स्मार्ट’ बनने जा रहे ऐसे शहरों का हाल देखें तो इनमें से मध्यप्रदेश का इंदौर बार-बार देश का सबसे साफ शहर घोषित हो रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि मध्यप्रदेश की कारोबारी राजधानी होने की वजह से इंदौर म्युनिसिपल की कमाई अंधाधुंध है, और उतना खर्च करके कोई भी शहर साफ रखा जा सकता है। देश के किसी भी शहर में अगर म्युनिसिपल या वार्ड मेम्बर यह तय कर लें कि उन्हें चारों तरफ से रकम जुटाकर शहर को साफ रखना है, तो शहर की संपन्नता में यह मुमकिन तो है, लेकिन सफाई के ऐसे टापू बाकी प्रदेश के हक को छीनते हैं, और एक स्थानीय वाद को बढ़ावा देते हैं। भारत में ही दक्षिण भारत के कुछ शहरों ने सफाई की योजना इस तरह बनाई है कि उन पर धेला भी खर्च नहीं किया जा रहा है, और कचरे से कमाई की जा रही है। ऐसे में सैकड़ों करोड़ सालाना खर्च करके किसी टैक्स देने वाले शहर को साफ रखना कोई बड़ी चुनौती नहीं है। होना तो यह चाहिए कि कचरे को छांटना और सफाई रखना स्थानीय जनता के मिजाज में लाया जाना चाहिए ताकि उस पर टैक्स का पैसा खर्च न हो। शहरों पर अनुपातहीन खर्च करके उन्हें ‘स्मार्ट’ बनाने की सोच असंतुलित विकास है, और जब निर्वाचित संस्था के काबू से परे ऐसा काम होता है, तो वह पूरी तरह से अलोकतांत्रिक भी रहता है।
जिस तरह राज्यों में डीएमएफ के नाम पर जो जिला खनिज निधि अंधाधुंध बर्बाद करने के लिए कलेक्टरों के हाथ रहती है, उसी तरह ‘स्मार्ट’ सिटी के नाम पर ऐसा अंधाधुंध खर्च म्युनिसिपल कमिश्नरों के हाथ आ जाता है। और उसकी बर्बादी की मिसाल डीएमएफ से कम नहीं है। यह राज्य के नेताओं और अफसरों की मनमर्जी से होने वाली बर्बादी का जश्न रहता है। हमने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अभी-अभी देखा कि ऐतिहासिक सरकारी खेल मैदान को काटकर किस तरह खाने-पीने का एक बहुत महंगा बाजार स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत बनाया जा रहा है, और फिर मानो उसे आबाद करने के लिए आसपास कई किलोमीटर तक सडक़ किनारे के गरीब ठेलेवालों को हटा दिया गया है कि अगर वे भी खानपान बेचते रहेंगे, तो स्मार्ट सिटी का बनाया महंगा बाजार कैसे चलेगा। कुछ दर्जन नई चमचमाती और बड़ी दुकानों को चलाने के लिए सैकड़ों गरीबों को बेदखल और बेरोजगार कर दिया गया, और इसे स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर किया गया है। यह पूरा सिलसिला अमानवीय भी है, और तानाशाह भी है, क्योंकि बिना किसी तर्कसंगत और न्यायसंगत आधार के बरसों से सडक़ किनारे कारोबार कर रहे छोटे और गरीब लोगों को इस तरह रातों-रात हटा देना एक सरकारी गुंडागर्दी के अलावा कुछ नहीं है। और ऐसा इसलिए किया गया है कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत एक अफसर के मातहत सैकड़ों करोड़ खर्चने का जिम्मा और हक दोनों दे दिया गया है। जिस तरह डीएमएफ को कलेक्टरों का पॉकेटमनी कहा जाता है, और उसके तहत होने वाले खर्च के ठेकों और सप्लाई में जमकर भ्रष्टाचार होता है, ठीक वैसा ही शहरों में स्मार्टसिटी के नाम पर चलते रहता है जहां दसियों करोड़ के शौचालय बनते रहते हैं, और करोड़ों के कचरे के डिब्बे लगते रहते हैं, और कोई जवाबदेही नहीं रहती।
जब देश में पंचायत या म्युनिसिपलों की शक्ल में स्थानीय शासन का संवैधानिक इंतजाम है, तो स्मार्ट सिटी के नाम पर यह अफसरशाही शुरू से ही गलत थी, लेकिन मोदी की विरोधी पार्टियों में इसे समझने की फुर्सत नहीं थी। ऐसे खर्च का एक सामाजिक ऑडिट होना चाहिए, और अदालत में इस पूरी सोच को शिकस्त मिलनी चाहिए कि किसी निर्वाचित म्युनिसिपल से अधिक अधिकार किसी एक अफसर को रहे। स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर अंधाधुंध खर्च करके एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था चलाना अपने आपमें बेवकूफी है, और यह उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट लोकतंत्र विरोधी इस सोच को रोक पाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के एक और जज को राज्यपाल बनाया गया है जो अयोध्या में राम मंदिर बनाने, और तीन तलाक को गैरकानूनी करार देने, और नोटबंदी को जायज ठहराने वाली बेंच पर रहे हैं। जज एस.अब्दुल नजीर अभी 4 जनवरी को ही रिटायर हुए थे, और 40 दिन के भीतर उन्हें आन्ध्र का राज्यपाल बना दिया गया है। अयोध्या में मंदिर का फैसला देने वाली पांच जजों की संविधान बेंच के रंजन गोगोई को मोदी सरकार राज्यसभा भेज चुकी है, और अशोक भूषण को एनसीएलटी का अध्यक्ष बना चुकी है। यह बात भी खबरों में आ चुकी है कि अयोध्या पर मंदिर बनाने के ऐतिहासिक फैसले को पांच जजों की बेंच में अशोक भूषण ने ही लिखा था। इन पांच में से एक, डी.वाई.चन्द्रचूड़ चीफ जस्टिस बन चुके हैं। कांग्रेस ने एस.अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाने के फैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है। कांग्रेस ने अपने तर्क की वकालत में एक गुजर चुके बड़े भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील रहे, केन्द्रीय कानून मंत्री रहे अरूण जेटली का संसद के एक भाषण का वीडियो पोस्ट किया है जिसमें जेटली कह रहे हैं कि रिटायर होने के ठीक पहले के जजों के फैसले रिटायरमेंट के बाद मिल सकने वाले कामों से जुड़े रहते हैं। यह बात अरूण जेटली ने संसद में कही थी, लेकिन संसद के बाहर भी बहुत से लोगों में यह चर्चा होती रहती है कि जजों को रिटायर होने के बाद क्या ऐसे कोई काम लेने चाहिए जिनमें कोई रिटायर्ड जज होना जरूरी न हो। भारत में ऐसी दर्जनों कुर्सियां तय की गई हैं जिन पर रिटायर्ड हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों को ही नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन राजभवन वैसी बंदिश की जगह नहीं है, राज्यपाल बनाने के लिए जज होना कहीं जरूरी नहीं है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम जजों और अफसरों के रिटायर होने के बाद उन्हें किसी जगह मनोनीत करने के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं। बरसों से हम यह मुद्दा उठाते आए हैं कि किसी भी राज्य में वहां काम कर चुके जज या अफसर को किसी पद पर मनोनीत नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी आस लगाए हुए लोग रिटायरमेंट के पहले सरकार की मर्जी के काम करने का खतरा रखते हैं। यह सीधे-सीधे हितों के टकराव का एक मामला रहता है, और इससे इंसान बच नहीं सकते हैं। अरूण जेटली ने संसद में इसी इंसानी कमजोरी के बारे में कहा था, और हमने इस बात का विस्तार पिछले दस-बीस बरस में हर बरस एक से अधिक बार किया है कि राज्य से रिटायर हो रहे लोगों को उस राज्य में कोई नियुक्ति न मिले। हम यह देखते ही आए हैं कि बहुत सारी संवैधानिक कुर्सियां सत्ता के साथ गठबंधन में खोखली हो जाती हैं, और ऐसे ओहदों की जिम्मेदारी अहसान चुकाते दम तोड़ देती है।
हिन्दुस्तान में वैसे भी बहुत सारे संवैधानिक आयोग, तरह-तरह के ट्रिब्यूनल, कौंसिल ऐसे हैं जहां पर रिटायर्ड जजों को ही नियुक्त किया जा सकता है। इस बारे में एक दस्तावेज बताता है कि 1950 से अब तक 44 मुख्य न्यायाधीश रिटायरमेंट के बाद कोई न कोई काम मंजूर कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के सौ रिटायर्ड जजों में से 70 ने सरकारी मनोनयन से कोई दूसरा ओहदा संभाला है। कुछ मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट के जजों को रिटायर होने के चार महीने पहले भी किसी आयोग में मनोनीत किया जा चुका है। इस बारे में पहले भी जानकार लोग यह बात लिख चुके हैं कि रिटायर होने के तुरंत बाद जजों को ऐसी कुर्सियां मंजूर करना खटकने वाली बात है जहां किसी गैरजज को भी मनोनीत किया जा सकता था। सरकार को सुहाने वाले फैसलों के बाद जब किसी जज को फायदे, सहूलियत, और अहमियत का कोई ओहदा दिया जाता है, तो वह शुकराना अधिक लगता है, और यह एक खतरनाक सिलसिला खड़ा करता है।
हमने राज्यों के स्तर पर तो उस राज्य के रिटायर्ड जज और अफसर से बचने की नसीहत दी ही थी, और यह भी सुझाया था कि राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंट-पूल बनाना चाहिए जिसमें काम करना चाहने वाले रिटायर्ड लोग अपना नाम दर्ज करा सकें, और फिर दूसरे राज्यों की सरकारें उनमें से नाम छांट सकें। जिस राज्य में पूरी जिंदगी काम किया हो, या हाईकोर्ट में जज रहते हुए सरकार से जुड़े हुए बहुत से मामलों में फैसले दिए हों, उसी राज्य में उसी सरकार से वृद्धावस्था-पुनर्वास की बख्शीश पाना नाजायज है। अब राज्यों के स्तर पर तो दूसरे राज्यों से लोगों को लाना चल सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रीम कोर्ट जजों को किसी दूसरे देश भेजना तो हो नहीं सकता। फिर भी इतना तो होना ही चाहिए कि जहां रिटायर्ड जज को ही नियुक्त करने की बंदिश न हो, वहां तो रिटायर्ड जजों को बिल्कुल न छुआ जाए, और राजभवन ऐसी ही एक जगह है। लोकतंत्र में सरकार और जजों को न सिर्फ ईमानदार रहना चाहिए, बल्कि उन्हें ईमानदार दिखना भी चाहिए। जहां कोई कानूनी बंदिश न हो, वहां पर ऐसी आजादी का नाजायज फायदा उठाकर यह तर्क देना बेईमानी है कि इस पर कोई कानूनी रोक नहीं है। लोकतंत्र में हर बात कानूनी रोक से काबू में नहीं की जाती है, कुछ गौरवशाली परंपराओं, और कुछ जनभावनाओं का भी ख्याल रखा जाता है। आज अपार, असाधारण, और जरूरत से ज्यादा बहुमत की सरकार कुछ भी कर सकती है, लेकिन उससे उसका हर फैसला लोकतांत्रिक और जायज नहीं हो जाता।
बड़ी अदालतों के फैसलों को नीचे की अदालतों में एक मिसाल की तरह पेश किया जाता है जिसे नजीर कहा जाता है। एस.अब्दुल नजीर ने, और केन्द्र सरकार ने भी देश के सामने एक बहुत खराब नजीर पेश की है। इन दोनों को ऐसा करने का हक है, लेकिन यह देश की लोकतांत्रिक भावनाओं, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और जनभावनाओं के ठीक खिलाफ काम है, यह एक अच्छी नजीर नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चीन में सरकार बड़ी फिक्रमंद है कि अब देश की आबादी गिरना शुरू हो रही है। और अगर इस गिरावट में अलग-अलग उम्र के तबकों का एक संतुलन रहता, तो भी कोई बात नहीं रहती। हालत यह है कि नए बच्चे पैदा होना कम होते जा रहे हैं, और बूढ़ी आबादी टस से मस नहीं हो रही है। जिंदगी बेहतर होने, इलाज बेहतर होने की वजह से बूढ़े और अधिक बूढ़े होते चल रहे हैं, और मौत को धकेलते जा रहे हैं। लेकिन देश में उनका उत्पादक योगदान नहीं रह गया है, और वे या तो अपने परिवार, समाज पर बोझ हैं, या फिर सरकार पर। और सरकार की फिक्र यह है कि नौजवान या कामकाजी लोगों की उत्पादक आबादी का अनुपात गिरना नहीं चाहिए, वरना देश की कमाई कम होगी, और बूढ़ों पर खर्च अधिक होगा।
दरअसल चीन में आधी सदी पहले आबादी पर काबू पाने के लिए परिवारों के बच्चे पैदा करने पर रोक लगाई गई थी। इसमें शहरी इलाकों में शादीशुदा जोड़ों को एक बच्चा, और गांवों में दो बच्चे पैदा करने की छूट थी। इससे अधिक बच्चे पैदा करने पर सजा का इंतजाम था। नतीजा यह हुआ कि इस आधी सदी में लोगों के बच्चे कम हुए, वे बच्चे बिना भाई-बहन के बड़े हुए, और जब उनके मां-बाप बनने की बारी आई, तो उन्हें अपने बच्चों के भाई-बहन की बात न सूझी, न सही लगी। ऐसे में इस आधी सदी के भीतर ही चीन में आबादी बढऩा रूक गया, और इस बरस वहां होने वाली मौतों के साथ उसे जोडक़र देखें तो आबादी अब कम होना शुरू हो रही है।
जैसा कि हिन्दुस्तान में है, जब लोगों को एक ही बच्चा पैदा करना हो, तो अधिक लोग लडक़ा चाहते हैं, और चीन में भी ऐसी सोच रही, और गर्भपात से लोगों ने कन्या शिशु को रोका, और अब वहां आदमियों के मुकाबले शादी के लिए लड़कियां कम हैं, इसलिए भी शादियों में दिक्कत है, लड़कियां मिल नहीं रही हैं। दूसरी बात चीन की आज की अर्थव्यवस्था में एक से अधिक बच्चों को पालना भी बहुत बड़ा आर्थिक दबाव है, और लोग उसे उठाने की हालत में नहीं हैं। इस नौबत को सुलझाने के लिए सरकार वहां अधिक बच्चों पर कुछ किस्म की मदद और रियायत भी दे रही है, या देने जा रही है।
अब अगर चीन में कामकाजी जवानों का अनुपात कायम नहीं रहेगा, और बूढ़ों का अनुपात औसत उम्र बढऩे से बढ़ते चले जाएगा, तो एक बूढ़ा देश कामयाब अर्थव्यवस्था नहीं बन पाएगा। चीन में इस बात को लेकर बड़ी फिक्र हो रही है, लेकिन चीन से परे भी और देशों को अपने बारे में सोचना चाहिए। अब हिन्दुस्तान की बात करें, तो हिन्दुस्तान में आबादी को देश की हर दिक्कत की जड़़ मान लिया गया है। जिस आबादी की चीन को जरूरत लग रही है, वह आबादी हिन्दुस्तान में बेकार और बेरोजगार है, निठल्ली बैठी है। जो आबादी चीन की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा रही है, और चीन को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाकर चल रही है, वह आबादी हिन्दुस्तान में अगर बोझ है, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? नौजवान कामगारों और कारीगरों की, हुनरमंद लोगों की जो पीढ़ी न सिर्फ देश के भीतर उत्पादक रहती है, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी दूर-दूर तक जाकर काम करती है, कमाई करती है, हिन्दुस्तान में आज वह निठल्ली या ठलहा बैठी है। इसकी जिम्मेदारी इस देश और इसके प्रदेशों की सरकारों की है जो कि पूरी नौजवान पीढ़ी को काम के लायक बनाकर, उनके काम के मौके मुहैया कराकर देश को आगे बढ़ा सकती थीं, लेकिन वे बेरोजगारी भत्ता देने को अपनी कामयाबी मान रही हैं। जब आबादी पढ़ी-लिखी होती है, टेक्नालॉजी के काम कर सकती है, सरकार और बाजार मिलकर उसे काम दे सकते हैं, और सब लोग कमा सकते हैं, वहां पर उसे बेरोजगारी भत्ता देना देश-प्रदेश की सरकारों की परले दर्जे की नाकामयाबी है जिससे ऐसे देशों का पूरा भविष्य ही अंधेरे में डूब रहा है।
हिन्दुस्तान और चीन, इन्हीं दो देशों को अगल-बगल रखकर देखें, तो 2023 में चीन में न्यूनतम मजदूरी 268 यूरो है, और हिन्दुस्तान में 55 यूरो। बाकी आंकड़ों को देखें तो चीन की प्रतिव्यक्ति आय 2021 में 12564 डॉलर थी, और उसी वक्त हिन्दुस्तान में यह 2280 डॉलर प्रतिव्यक्ति थी जो कि 5वां हिस्सा भी नहीं थी। इस उत्पादकता को हम चीनी नागरिकों की सरकारी स्वास्थ्य सेवा से जोडक़र देखें, तो वह कुछ बरस पहले हिन्दुस्तानियों के मुकाबले प्रतिव्यक्ति तेरह गुना से अधिक थी। पढ़ाई के मामले में चीन का प्रतिव्यक्ति खर्च हिन्दुस्तान के प्रतिव्यक्ति से करीब सात गुना था। अब आंकड़ों पर अधिक न जाते हुए भी हम नौजवान पीढ़ी के कामकाजी बनने लायक पढ़ाई और स्वास्थ्य सेवा दो पैमानों को जरूर देख रहे हैं, और यह समझ पड़ रहा है कि चीन ने इन दोनों में खूब पूंजीनिवेश किया है, लोगों को हुनरमंद बनाया है, और उन्हें देश की उत्पादकता बढ़ाने वाला बनाया है। वहां की आबादी आधी सदी पहले वहां बोझ थी, और आज वहां पर दौलत बन गई है। कमाई की इस खदान का महत्व चीन को आधी सदी के भीतर समझ आ गया है, और आज वह आबादी बढ़ाते चलना चाह रही है। दूसरी तरफ आबादी को समस्या मानकर बैठे हुए हिन्दुस्तान में लोग आबादी को सिर्फ बेरोजगारी भत्ता देकर उसे खुश रखना चाहते हैं, जो कि देश पर एक बोझ भी है, और जिससे किसी उत्पादकता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
चीन को कोसने के लिए हिन्दुस्तानियों को हजार वजहें मिल सकती हैं, लेकिन चीन से सीखने की वजहें तो चीन में अपनी नौजवान आबादी की इज्जत और जरूरत है, जिससे हिन्दुस्तान की बेरोजगारी भत्ता देने वाली सरकारों को बहुत कुछ सीखना चाहिए। जो देश इतनी बड़ी जमीन रहते हुए, इतनी समुद्री सरहदें रहते हुए, सूरज की इतनी रौशनी और धरती के भीतर इतने खनिज रहते हुए भी अपनी आबादी को बेरोजगारी भत्ता दे, वहां की सरकारों को डूब मरना चाहिए। चीन से दो-दो हाथ कर लेने के राष्ट्रवादी उन्मादी नारों से परे हकीकत यह है कि हिन्दुस्तान के बाजार, दुकानें, और कारखानें चीन से आए सामान के बिना चार दिन नहीं चल सकते, यह एक अलग बात है कि चीन हिन्दुस्तानी बाजार के बिना चार बरस भी चल सकता है।
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आदिवासियों से जुड़े एक ट्विटर पेज पर एक गरीब की तस्वीर और खबर पोस्ट हुई है। ओडिशा के कोरापुट के रहने वाले सामुलु पांगी ने अपनी बीमार पत्नी को विशाखापत्तनम में एक अस्पताल में भर्ती कराया था। उसका गांव वहां से करीब सौ किलोमीटर दूर था। वापस ले जाते समय पत्नी की रास्ते में मौत हो गई तो ऑटो वाले ने शव को ले जाने से मना कर दिया। ऐसे में यह आदमी कंधे पर पत्नी के शव को लिए 33 किलोमीटर पैदल गया। ट्राइबल आर्मी नाम के इस ट्विटर पेज पर इस बात का खुलासा नहीं है कि यह आदमी आदिवासी था या नहीं, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, अगर वह गैरआदिवासी गरीब भी है, तो भी आदिवासियों की हमदर्दी उसके साथ होगी, क्योंकि आदिवासी दूसरे समुदायों के मुकाबले अधिक इंसानियत रखते हैं। वे कुदरत के करीब रहते हैं, और जाहिर है कि उनमें संवेदनशीलता अधिक होगी। एक दूसरी खबर यह कहती है कि पुलिस ने इस आदमी को अपनी पत्नी को कंधे पर ले जाते देखा तो आधे रास्ते से उसकी मदद की, और उसे गांव तक पहुंचाया। सच इन दो खबरों के बीच कहीं भी हो सकता है, और हो सकता है कि 33 किलोमीटर पैदल चलने के बाद बचा रास्ता पुलिस की मदद मिली हो।
ट्विटर पर बहुत से लोगों ने इस खबर पर लिखा है। एक ने लिखा आखिर लोग कौन सी जाति, धर्म, संस्कृति, परंपरा, प्रथा की आस्था में डूबे हुए हैं जहां इंसान के लिए इंसान की कोई आस्था नहीं है, ज्ञान-विज्ञान संविधान का तर्क व वैज्ञानिक दृष्टिकोण मर गए हैं। कुछ लोगों ने याद दिलाया कि इसी ओडिशा की एक आदिवासी आज देश की राष्ट्रपति है। सैकड़ों लोगों ने इस नौबत को धिक्कारा है, और अलग-अलग सरकारों को अलग-अलग जिम्मेदार तबकों को कोसा है। लोगों ने यह भी हैरानी जाहिर की है कि 33 किलोमीटर के ऐसे पैदल सफर में कोई इंसान नहीं मिला। कुछ लोगों ने यह भी लिखा कि यही असली भारत है, जरूरतमंद को मदद नहीं मिलती, और अरबों-खरबों रूपये अडानी, मेहुल चौकसी जैसे लोग हड़प जाते हैं। एक ने लिखा कि मनुवादियों ने मानवता को खत्म कर दिया एक ऐसी मनुवादी व्यवस्था बनाकर जो लोगों में भेदभाव रखती है। किसी ने लिखा कि इंसान जानवरों से ज्यादा गिर गए हैं, एक ने लिखा हम ऐसे भारत में रहते हैं बिलियन और ट्रिलियन की बात के बीच कोई शव को कंधे पर 25-50 किलोमीटर ढो रहा है। एक ने लिखा है जब देश का मीडिया दलाली में व्यस्त हो तो इस भारत की बात कौन करेगा? किसी ने सही कहा है, दो भारत हैं, एक गरीबों का, दूसरा अमीरों का। एक ने लिखा कि जिस देश में लोग ऐसे मर रहे हैं उस देश में हम हिन्दू-मुस्लिम कर रहे हैं, शर्म आना चाहिए सरकार को। एक ने लिखा इस पर भी कुछ लोग कहते हैं कि यह अमृतकाल है। किसी ने आदिवासियों के संदर्भ में लिखा कि ये बेचारे वहीं के वहीं हैं क्योंकि इनका हक कोई और खा रहे हैं। एक का कहना है कि सरकारें तो सभी जगह मरी हुई हैं, पर लोगों की इंसानियत कहां मर गई है?
ऐसी खबरें हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं से आती ही रहती हैं। कहीं सरकारी साधन-सुविधा रहने पर भी गरीबों की उन तक पहुंच नहीं रहती, तो कहीं रिश्वत दिए बिना सरकारी सुविधाओं का हक नहीं मिलता। बहुत सी खबरें ऐसी भी आती हैं कि रिश्वत देने से मना करने पर लाश चीरघर में पड़ी रहती है, और उसका पोस्टमार्टम भी तब तक नहीं होता, जब तक रिश्वत न दे दी जाए। सरकारी अस्पतालों में जान बचाने वाले इलाज के पहले भी रिश्वत मांगी जाती है, और कहीं कोई बीमार मुसाफिर रहे, तो भी उसे ट्रेन में बिना रिश्वत बैठने को जगह नहीं मिलती। इस तरह की और भी बहुत सी बातें हिन्दुस्तान में देखने मिलती हैं, और उनसे यही साबित होता है कि यहां लोगों की इंसानियत सच ही मर गई है, या कम से कम वह इंसानियत खत्म हो गई है जिसे लोग इंसानों की खूबी मानते हैं। इंसानों के भीतर की सारी नकारात्मक और हिंसक सोच को लोग इंसानों से परे की कोई बात साबित करना चाहते हैं, और उसके लिए हैवानियत जैसा एक शब्द गढ़ लिया गया है जो कि और कुछ नहीं है, इन्हीं इंसानों के भीतर की ही एक सोच है। हिन्दुस्तान इस कदर गैरजिम्मेदार और मतलबपरस्त देश हो गया है कि लोग गंदगी फैलाते यह नहीं सोचते कि उन्हीं की तरह के कुछ दूसरे इंसान अपनी जाति और गरीबी की वजह से पूरी जिंदगी इस गंदगी को साफ करते गुजार देंगे। लोग सार्वजनिक जगहों, सार्वजनिक चीजों को बर्बाद करते चलते हैं, और इस बात की तरफ से पूरी तरह बेपरवाह रहते हैं कि इसकी लागत उन्हीं पर आनी है।
ऐसा लगता है कि इस देश में मंत्री, अफसर, जज, कारोबारी, और बाकी तमाम चर्चित लोगों के भ्रष्टाचार को देखकर लोगों के मन में अब लोकतांत्रिक मूल्यों, नियम-कायदों, इंसानियत, इन सबके लिए एक बड़ी हिकारत घर कर गई है। लोगों को लगता है कि जब बड़े-बड़े लोग बलात्कार करके घूम रहे हैं, तो उनके कहीं थूक देने को मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है? जब नेता, अफसर, ठेकेदार से सैकड़ों करोड़ रूपये का कालाधन बरामद हो रहा है, तो गरीबों से ईमानदारी से टैक्स पटाने की उम्मीद क्यों की जा रही है? जब हर सरकारी काम में परले दर्जे का भ्रष्टाचार दिख रहा है, तो फिर गरीब भी अपने-अपने स्तर पर कुछ बचाने की कोशिश क्यों न करें? ऐसा लगता है कि लोगों के सामने किसी किस्म की प्रेरणा नहीं रह गई है, नेक और अच्छा काम करने की जो बुनियादी इंसानियत लोगों में रहनी चाहिए थी, वह भी हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित, औरत-मर्द के तनाव खड़े करके खत्म कर दी गई है। लोग अब किसी धर्म के हैं, किसी जाति के हैं, किसी प्रदेश के हैं, और किसी संगठन के हैं, लेकिन इंसान नहीं हैं। यह नौबत इस देश को एक घटिया देश बना चुकी है, और झूठे आत्मगौरव से परे यहां गौरव के लायक इंसानियत कम से कम गैरगरीबों में नहीं रह गई है।
इस देश की पहचान एक बेरहम देश की हो गई है जो कि अपनी लड़कियों और औरतों को काट डाल रहा है। इस देश की पहचान एक हिंसक जाति व्यवस्था वाली जगह की हो गई है जहां पर दलित और आदिवासी कुचले जा रहे हैं। और चारों तरफ माहौल ऐसा बना दिया गया है कि लोगों के सामने इंसान बने रहना आखिरी प्राथमिकता रह गई है, या कि एक पूरी तरह से अवांछित बात बना दी गई है। इस देश में कहीं विश्वगुरू होने के दावे किए जा रहे हैं, कहीं इसका अमृतकाल आया हुआ बताया जा रहा है, कहीं गाय को गले लगाने का सरकारी फतवा जारी होता है, लेकिन दूसरे इंसानों से मोहब्बत करने का कोई सरकारी फतवा जारी नहीं होता, बल्कि नफरत को बढ़ावा देने की सरकारी कोशिशें जरूर दिखती हैं। एक फर्जी आत्मगौरव में जीते हुए इस आत्ममुग्ध देश को अपनी हिंसा का आत्मविश्लेषण करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश में चार शादीशुदा आदमी सदमे से गुजर रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री आवास योजना का पैसा खाते में आते ही वह पैसा लेकर उनकी पत्नियां अपने प्रेमियों के साथ भाग निकलीं। अब ये चारों आदमी एक और परेशानी में फंसे हुए हैं कि उन्हें सरकार की तरफ से नोटिस मिला है कि उन्होंने पैसा मिलने के बाद भी मकान बनाना शुरू नहीं किया है। अब सरकारी अधिकारी इन पतियों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे अपनी पत्नियों को समझाकर घर लेकर आएं और उस पैसे से मकान बनाएं क्योंकि यह पैसा मकान बनाने के लिए ही मिला है। महिला के नाम से बैंक खाता होने की वजह से यह हो पाया है, वरना आमतौर पर तो हिन्दुस्तान में यही होता है कि आदमी ही घर छोडक़र किसी और महिला के साथ रहने चले जाते हैं, या घर पर रहते हुए भी बाहर दूसरा इंतजाम कर लेते हैं। यह खबर दूसरी बहुत सी खबरों की याद दिलाती है जिनमें महिलाएं अपनी परंपरागत तस्वीर से हटकर कई तरह के काम करते दिखती हैं, और लोगों को महिलाओं से ऐसी उम्मीद नहीं रहती।
इन दिनों बहुत सी जगहों पर ऐसे जुर्म दिखाई पड़ रहे हैं जिनमें कोई महिला अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति को मार डाल रही है, या परेशान कर रहे प्रेमी से छुटकारा पाने के लिए अपने पति या अपने भाई के साथ मिलकर प्रेमी को मार डाल रही है। हाल के बरसों में ऐसे मामलों की खबरें बढ़ती हुई दिखाई पड़ रही हैं। बहुत से ऐसे वीडियो भी बीच-बीच में सामने आते हैं जिनमें कहीं शराब के नशे में महिला किसी कॉलोनी के सुरक्षा कर्मचारियों को पीट रही है, गंदी गालियां दे रही है। अभी दो दिन पहले ही दिल्ली या उसी किस्म की किसी बस्ती का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक बाजार में भीड़ के बीच एक आदमी पर छेड़ख़ानी की तोहमत लगाते हुए तीन महिलाएं उसके कपड़े उतार रही हैं, और उसे पूरा नंगा करके उसे पीट रही हैं, उसे तमाम किस्म की गालियां भी दे रही हैं। ऐसे बहुत से मामलों को देखें तो लगता है कि महिलाएं एक नए किस्म की ताकत का इस्तेमाल कर रही हैं, और 25-30 बरस पहले तक ऐसी कल्पना नहीं हो पाती थी।
दरअसल यह पीढ़ी पढ़ी-लिखी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, मोबाइल और मोबाइक से लैस लड़कियों और महिलाओं की है जो कि एक-दो पीढ़ी पहले की महिलाओं के मुकाबले बहुत रफ्तार से आगे निकल गई हैं। ये महिलाएं कामकाज में भी कामयाबी की बुलंदी छू रही हैं, और जिस तरह किसी भी कामयाब और ताकतवर, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर के फैसले होते हैं, उस तरह के तमाम फैसले भी महिलाओं की हाल की पीढिय़ां लेने लगी हैं। इनमें बहुत से फैसले लोगों को अच्छे भी लग सकते हैं, और बहुत से खराब भी लग सकते हैं क्योंकि लोग महिलाओं के बारे में ऐसी कल्पना करने के आदी नहीं रहे हैं। इन गिने-चुने दशकों में महिलाओं की ताकत में जो इजाफा हुआ है, वह पूरी तरह उनकी पढ़ाई, आर्थिक आत्मनिर्भरता, आसपास बढ़ते शहरीकरण, और फोन और गाड़ी से मिले आत्मविश्वास से पैदा हुआ है। जब किसी तबके की ताकत बढ़ेगी, आत्मविश्वास बढ़ेगा, तो उस तबके के कुछ लोग मरने-मारने का आत्मविश्वास भी इस्तेमाल करते दिखने लगेंगे, और हाल के बरसों में वही हो भी रहा है।
बहुत से दकियानूसी मर्दों को यह लग सकता है कि औरत को आजादी देने का यही नतीजा होना था कि वह शादी के बाहर दूसरे प्रेम-संबंधों में पड़ रही है, अवैध कहे जाने वाले संबंध बना रही है, हिंसा कर रही है, और कत्ल की सुपारी दे रही है। लेकिन इन मर्दों को यह भी समझना चाहिए कि ये तमाम मिसालें मर्द जात ही पेश करते आई है, और चूंकि आर्थिक ताकत, सामाजिक ताकत मर्द के ही हाथ थी, इसलिए औरत सब बर्दाश्त करते आ रही थी। अब जब उसके हाथ आर्थिक ताकत लगी है, बंधी-बंधाई सामाजिक भूमिका से परे वह सोच पा रही है, और लोग क्या सोचेंगे इस तरफ से वह कुछ बेफिक्र होने लगी है, तो वह अपनी जिंदगी के अच्छे-बुरे फैसले भी लेने लगी है। हो सकता है कि पिछले 10-15 बरसों में सोशल मीडिया ने भी औरत को एक इंसान की तरह सोचने की ताकत दी है। अब एक लडक़ी या महिला अपने परिवार के मर्दों के बिना भी बाहर किसी अनजान मर्द के साथ ऑनलाईन दोस्ती कर सकती है, दुख-दर्द बांट सकती है, तारीफ पा सकती है, और बहुत से मामलों में ऑनलाईन से हटकर असल जिंदगी में भी उन लोगों से मिल सकती है। इस तरह सोशल मीडिया ने हिन्दुस्तान जैसे समाज की लड़कियों और महिलाओं को अपने बंधे हुए दायरे से बाहर के लोगों से भी जान-पहचान करने की एक संभावना दी है, और आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ मिली हुई ऐसी संभावना से महिला अपने कुछ बड़े फैसले भी लेने लगी है जिनमें से कुछ फैसले लोगों को खटकने वाले भी हो सकते हैं।
खबरों में जो हिंसक या नकारात्मक बातें आती हैं, उनसे भी महिला सशक्तिकरण का एक संकेत मिलता है। जिस समाज में कोई महिला किसी तरह की ताकत हासिल करती है, उसी समाज में कोई-कोई महिला ऐसी हिंसा भी कर सकती है, और अपनी शादीशुदा जिंदगी से बाहर के कोई दूसरे रिश्ते भी बना सकती है। जो महिला हर तरह से कमजोर बनाकर रखी जाती थी, वह जिंदगी के अच्छे, या बुरे, कैसे भी बड़े फैसले नहीं ले पाती थी। इसलिए किसी भी किस्म का बड़ा फैसला आज बदले हुए वक्त का संकेत है जिसमें महिलाएं पहले के मुकाबले अधिक ताकत रखती हैं। हिन्दुस्तान के अधिकतर राज्यों में पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हैं, और कई राज्यों में 50 फीसदी निर्वाचित जनप्रतिनिधि महिलाएं हैं। इनके पति और परिवार ऐसी संवैधानिक व्यवस्था में भी उनकी निर्वाचित ताकत पर काबू करने की पूरी कोशिश कर लेते हैं, लेकिन धीरे-धीरे अधिकतर महिलाएं कुछ या अधिक हद तक अपनी ताकत का इस्तेमाल करने लगी हैं। इससे भी महिलाएं अपनी जिंदगी के बारे में बेहतर और बड़े फैसले ले पा रही हैं। इन तमाम बातों के साथ-साथ हिन्दुस्तान जैसे देश में बढ़ता हुआ शहरीकरण औरत और मर्द के बीच के फासले को कुछ कम करने वाला रहता है क्योंकि गांवों के मुकाबले शहरों में औरतों को बर्दाश्त करने की संस्कृति कुछ अधिक रहती है। कुल मिलाकर महिलाओं द्वारा की गई हिंसा की खबरें भी यह बात साबित करती हैं कि महिलाएं पहले के मुकाबले अधिक ताकतवर हो रही हैं, और वे भी बराबरी से फैसले लेने की ताकत रखती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तानी बाग-बगीचों और सार्वजनिक जगहों पर बवाल आने में अभी चार दिन बाकी हैं, लेकिन समय रहते इस पर लिख लेना ठीक है। वेलेंटाइन -डे 14 फरवरी को पड़ता है, और तथाकथित भारतीय संस्कृति के स्वघोषित ठेकेदारों ने डंडों पर तेल मलना शुरू कर दिया होगा, और धर्म के झंडे उन पर बांधना भी। हिंदुस्तान के सबसे बेवकूफ प्रदेशों में ये गुंडे लाठियां लेकर निकलेंगे, और नौजवान लडक़े-लड़कियों को साथ देखकर उन्हें पीटना शुरू करेंगे कि कहीं वे मोहब्बत तो नहीं कर रहे हैं। बात नफरत की होती, तो इन लोगों को ठीक लगती, इनके मिजाज की लगती, लेकिन पश्चिम के किसी नाम पर प्रेम के पर्व का नाम होने से इन हिंदुत्ववादियों को कम से कम इस एक दिन तो पे्रम से नफरत हो जाती है। और हिंदुस्तान के बेवकूफ प्रदेशों में सरकारें भी इन गुंडों की लाठियों के सामने आत्मसमर्पण करते हुए अपने शहरों के बाग-बगीचों से नौजवान लडक़े-लड़कियों को दूर भगाने में जुट जाती हंै। यह घोर साम्प्रदायिक, कट्टर, और नफरती सोच के सामने सरकार का समर्पण होता है, और यही बात इन गुंडों को मान्यता देती है।
छत्तीसगढ़ में पिछली भाजपा की डॉ. रमन सिंह की सरकार ने बलात्कारी आसाराम (उस वक्त बलात्कार कर चुका था, पर कैद नहीं हुई थी) के एक साम्प्रदायिक फतवे पर अंग्रेजी कैलेंडर के वेलेंटाइन-डे के दिन को मातृ-पितृ पूजन दिवस मनाना शुरू किया था। उसी वक्त हमने इसी जगह पर उसका विरोध किया था कि माता-पिता की पूजा तो साल भर की जा सकती है, और इस पूजा को पे्रमी जोड़ों के प्रेम का कत्ल करके करवाने की जरूरत नहीं है। जिस आसाराम को अपने बुढ़ापे में पहुंचकर भी नाबालिग शिष्याओं से बलात्कार ठीक लगता था, उस आसाराम को नौजवान जोड़ों में प्रेम ठीक नहीं लग रहा था, और भाजपा की सरकार ने उसके दिए फतवे को सिर-आंखों पर उठाया था। एक तो आसाराम, ऊपर से भाजपा, और उनसे भी ऊपर उन्मादी हिंदू संगठन, इन सबने एक ऐसा माहौल बना रखा है कि मोहब्बत से बड़ा कोई जुर्म नहीं है। वैसे तो ये सब कृष्ण जन्मभूमि को मुक्त कराने में लगे हुए हैं, लेकिन उन्हें कृष्ण का बचपन ही पसंद है, पे्रम करने की उनकी जवानी पसंद नहीं है। कृष्ण के वक्त से, कृष्ण के पहले से, और हाल के संस्कृत और दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य से ये लोग पे्रम को अनदेखा करना चाहते हैं। इन्हें सबसे बड़ा डर यह है कि प्रेम धर्म और जाति के दायरों को तोडऩे की ताकत रखता है, और अगर ये दायरे टूट गए, तो फिर हिंदुत्व की बुनियाद ही हिल जाएगी। इसलिए प्रेम का अंकुर निकले, और उसे कुचल देना चाहिए। फिर इसके बाद भले मध्यप्रदेश के भाजपा मंत्री अपने नौकर से बलात्कार करते पकड़ाएं, या तरह-तरह के बलात्कार करते हुए हिंदुत्व के झंडाबरदार जगह-जगह पकड़ाएं, वह सब ठीक है, लेकिन दो बालिग लोगों के बीच सार्वजनिक जगह पर बैठ जाना भी इन लोगों की नजरों में जुर्म है, और इनकी नफरत के लिए हिंदुस्तान के बेवकूफ राज्यों में मोहब्बत से अधिक इज्जत है।
और मानो तुलसी पूजन दिवस, मातृ-पितृ पूजन दिवस काफी न हों, अब भारत सरकार के पशु पालन मंत्रालय के पशु कल्याण बोर्ड की तरफ से एक अपील जारी की गई है कि 14 फरवरी को काऊ-हग दिवस मनाया जाए। अंग्रेजी का शब्द हग, गोबर से अलग है, और इसका मतलब लिपटाना होता है। इस सरकार अपील में कहा गया है कि गौमाता कामधेनु होती है और पश्चिमी संस्कृति के बढऩे की वजह से वैदिक परंपराएं खत्म होने को हैं। चौदह फरवरी को सभी गौ प्रेमी गौमाता को लिपटाकर यह दिन मनाएं। यह अपील केंद्र सरकार के निर्देश पर जारी करने की बात भी लिखी गई है। मतलब यह कि इंसानी जोड़े एक-दूसरे को गले लगाने के बजाय, और ऐसा खतरनाक धर्मनिरपेक्ष, जातिनिरपेक्ष काम करने के बजाय तुलसी की पूजा कर लें, माँ-बाप के चरणों की पूजा कर लें, गाय को गले लगा लें, लेकिन जिन जोड़ों को अगली पीढ़ी लानी है, वे एक-दूसरे के गले न लगें। मोहब्बत जिन लोगों में इतनी दहशत पैदा करती है, और जो हर दिन नफरत फैलाने की कोई वजह तलाशते रहते हैं, आज अगर हिंदुस्तान में वही लोग इतिहासकार हो गए हैं, वही लोग संस्कृति के ठेकेदार हो गए हैं, चौकीदार हो गए हैं, तो फिर यह देश, इसकी जवान पीढिय़ां अंतरिक्ष की तरफ नहीं, घसीटकर गुफा की तरफ ले जाई जा रही हैं।
हिंदुस्तान की एक ऐसी काल्पनिक संस्कृति का इतिहास लेखन चल रहा है जिसमें मोहब्बत की कोई जगह नहीं थी। विरोध करने वाले ऐसे मवालियों को बलात्कार से परहेज नहीं है, बल्कि बलात्कारी कोई हिंदू हो तो उसके समर्थन में ये देश के तिरंगे झंड़े से लेकर, हिंदू झंड़ों तक को लेकर जुलूस निकालते हैं, आसाराम जैसे भयानक बलात्कारी के समर्थन में आज भी परिवार के बच्चों सहित जुलूस निकालते हैं, लेकिन जिन नौजवानों से वे हिंदुओं की अगली पीढ़ी लाने की उम्मीद करते हैं, उन नौजवानों को वे मिलने से तब तक रोकना चाहते हैं, जब तक उनके माँ-बाप अपने धर्म के भीतर, अपनी जाति के भीतर, अपनी मर्जी से उनके लिए जीवनसाथी तय न कर दें। ऐसे गिरोह की दहशत सिर्फ पश्चिमी संस्कृति से नहीं है, हिंदुस्तान के भीतर रक्त की शुद्धता खत्म हो जाने की दहशत भी उन पर हावी है, अगर नौजवान दूसरे धर्म, दूसरी जाति में शादी करने लगेंगे, तो अपने धर्म के कट्टर लोगों, धर्मांध हिंसकों की लठैती उन पर से खत्म हो जाएगी। ये लोग वेलेंटाइन-डे पर सिर्फ ईसाई इतिहास से आए हुए शब्द का विरोध नहीं कर रहे हैं, ये लोग भारत की जाति-व्यवस्था को जारी रखने के लिए मेहनत भी कर रहे हैं। और बेवकूफ सरकारें इन गिने-चुने मुट्ठी भर गुंडों को जेल में डालने के बजाय प्रेमी जोड़ों को भगाकर कानून व्यवस्था बनाए रखने का झूठ गौरव पाती हैं।
लोग सुबह-सुबह पूजा करने की तैयारी में निकलते हैं, और किसी बगीचे, किसी कॉलोनी, या किसी सरकारी अहाते के फूल तोडऩे लगते हैं कि मानो पूजा के लिए कहीं से भी हर फूल को तोड़ लेने का ईश्वर का आदेश उनके पास है। धर्म लोगों को कई तरह के गलत काम करने का हौसला देता है जिनमें फूल तोडऩा सबसे ही छोटा जुर्म है। इसके बाद सार्वजनिक जगहों पर देखें तो धार्मिक प्रतीकों को ढो रहे लोग तरह-तरह के गलत काम करते दिखते हैं, जो अपने ईश्वर को बताने वाले प्रतीक सिर पर, चेहरे पर, कपड़ों की शक्ल में, या धागे या ताबीज की तरह दिखाते चलते हैं, उन्हें ऐसी नुमाइश के साथ-साथ गलत काम करने में कोई हिचक नहीं रहती। अभी कुछ महीने पहले एक धर्मांध और कट्टर इस्लामी हमलावर ने विख्यात लेखक सलमान रूश्दी पर जानलेवा हमला किया था जिसमें वे खुद तो किसी तरह बच गए, लेकिन उनकी एक आंख चली गई। अब उनकी उस तस्वीर के साथ उनके नाम से मुसलमानों और कुरान के खिलाफ एक बात चिपकाकर लोग चारों तरफ फैला रहे हैं, और हिंदुस्तान से की गई एक हिंदू की ऐसी ट्वीट की तस्वीर लगाकर सलमान रूश्दी ने यह लिखा है कि यह उनके नाम से फैलाया जा रहा झूठ है जो कि उन्होंने नहीं कहा है।
अब पिछले दो दिनों से इस लेखक की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, उनकी वजह से साथ की खबरों पर भी ध्यान जा रहा है, और काफी दिनों बाद सलमान रूश्दी ट्विटर पर दिखे हैं। लेकिन यह देखना हैरानी की बात थी कि मुसलमानों और कुरान के खिलाफ दिखती हुई रूश्दी का नाम लगाकर की गई यह पोस्ट हिंदुस्तान के एक हनुमान-भक्त की की हुई थी जिसके सारे ही ट्वीट मुस्लिम विरोधी हैं, या भाजपा और अदानी के समर्थन की हैं, या मोदी की भक्ति के हैं। तमाम हिंदुत्व की ट्वीट, मुस्लिम विरोधी ट्वीट से यह अकाउंट भरा पड़ा है। अब ऐसा व्यक्ति मुस्लिमों के खिलाफ अपनी भड़ास निकालने के लिए रूश्दी के नाम से झूठ को फैला रहा है। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा व्यक्ति अपनी फोटो की जगह बजरंग बली की फोटो लगाता है, ट्विटर पेज की तस्वीर की जगह मंदिरों की फोटो लगाता है, तो क्या वह अपने ऐसे झूठ के साथ, अपनी ऐसी नफरत के साथ काम करते हुए हिंदू धर्म का भी अपमान करता है?
आज यह बात जरूरी इसलिए है कि हिंदुस्तान जैसे देश में किसी धर्म का अपमान सिर्फ धर्मांध लोगों को दिख रहा है। आम अमनपसंद लोग जिन बातों में अपनी धार्मिक भावनाओं का कोई अपमान नहीं देखते हैं, उन बातों में भी कट्टर धर्मांध लोगों को अपमान दिखता है, और वे पुलिस और अदालतों तक भी दौड़ते हैं, और सडक़ों पर भी हिंसा करते हैं। दूसरी तरफ जब वे अपने धर्म को बचाने के नाम पर तरह-तरह की हिंसा करते हैं, सोशल मीडिया पर कत्ल और बलात्कार की धमकी देते हैं, गालियां लिखते हैं, अश्लील बातें पोस्ट करते हैं, तो उन्हें यह नहीं लगता कि उनके धर्म और उनके ईश्वर का असली अपमान तो इससे हो रहा है।
यह बात हमने उस वक्त भी लिखी थी जब स्वर्ण मंदिर पर ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार नाम की फौजी कार्रवाई हुई थी, और सिख लोगों ने उसे पवित्र स्वर्ण मंदिर को अपवित्र करने की कार्रवाई माना था, और बाद में उसी का बदला लेने के लिए सिख अंगरक्षक ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी। उस वक्त भी हमने लिखा था कि स्वर्ण मंदिर की पवित्रता को उन लोगों ने खत्म की थी जिन लोगों ने इस मंदिर परिसर को आतंकियों का डेरा बना दिया था। भिंडरावाले के आतंकी वहां से निकलते थे, चुनिंदा कत्ल करते थे, और लौटकर आ जाते थे। स्वर्ण मंदिर की पवित्रता तो ऐसे आतंकियों ने खत्म की थी जिन्होंने उसे आतंकियों की पनाहगाह बना रखा था, और धर्म से जुड़े लोगों ने उसका कोई विरोध भी नहीं किया था। आज भी हिंदुस्तान में अपने-अपने धर्म के बलात्कारियों को बचाने के लिए उस धर्म के लोग अपने झंडे-डंडे लेकर तो निकलते ही हैं, जम्मू में मुस्लिम खानाबदोश बच्ची से मंदिर में बलात्कार और उसका कत्ल कर देने वाले पुजारी से लेकर हिंदू पुलिसवाले तक को बचाने के लिए जिस तरह धर्म का इस्तेमाल किया गया था, उसके बाद इस धर्म का अपमान करने की किसी और को कोई जरूरत पड़ सकती है?
कोई धर्म उतना ही इज्जतदार हो सकता है जितना इज्जतदार उस धर्म को मानने वाले आम और औसत लोगों का बर्ताव होता है। अपने मानने वाले लोगों के औसत से अधिक सम्मान कोई धर्म नहीं पा सकता। आज हिंदुस्तान में अपने घर बैठे घायल रूश्दी के नाम से मुसलमान और कुरान के खिलाफ झूठ फैलाकर कोई व्यक्ति बजरंग बली की तस्वीर का सम्मान बढ़ा रहा हो, ऐसा कोई बेवकूफ ही सोच सकते हैं। इसलिए जिन लोगों को अपने धर्म की इज्जत की बड़ी फिक्र है, वे अपने धर्म को मानने वाले लोगों के बर्ताव की फिक्र करें। यह बात तमाम धर्मों पर लागू होती है, और हर किसी को पहले अपने घर में झांकना चाहिए, अपना घर सुधारना चाहिए, फिर दूसरे धर्म, और उसके ईश्वर पर सवाल उठाने चाहिए।
हिंदुस्तान में धार्मिक और साम्प्रदायिक नफरत की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं। महीनों गुजर गए जब सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के अफसरों को यह खुली चेतावनी दी थी कि उनके इलाकों में अगर कोई नफरत की बातें करें, और उनके खिलाफ जुर्म दर्ज न हों, तो अफसरों का ऐसा निकम्मापन और उनकी ऐसी अनदेखी अदालत की अवमानना मानी जाएगी। लेकिन महीनों गुजर गए, नफरत का सैलाब उसी रफ्तार से चल रहा है, और देश की सरकारें, अधिकतर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं। अभी जरा से दिन पहले राजस्थान में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच से अपने-आपको बाबा कहने वाले रामदेव ने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ माईक से इतना जहर उगला, इतना जहर उगला कि उसे उनके कारखानों के सारे मिलावटी शहद से भी मीठा नहीं किया जा सकता था। और कई दिन तक जब रामदेव का यह वीडियो सोशल मीडिया पर तैरते रहा, तब जाकर राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने रामदेव के खिलाफ जुर्म दर्ज किया।
कल ही सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने नफरत की बातों को लेकर कहा है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर नफरती-जुर्मों की कोई गुंजाइश नहीं है, हेट स्पीच को लेकर कोई समझौता नहीं हो सकता। अदालत ने साफ-साफ कहा कि अगर सरकारें नफरत की ऐसी बातों को एक समस्या मानेंगी, तो ही उनका समाधान निकल सकेगा। जजों ने कहा कि अपने नागरिकों को ऐसे घृणित अपराधों से बचाना राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी है। कल जब सुप्रीम कोर्ट सरकारी वकील को उत्तरप्रदेश के एक मुस्लिम के साथ हुए साम्प्रदायिक जुल्म पर रिपोर्ट दर्ज न करने पर फटकार रहा था, तो अदालत की फिक्र साफ दिख रही थी। लेकिन पिछले कुछ दिनों में दिल्ली में हुई धर्म-संसद नाम के एक धर्मांध और साम्प्रदायिक हिंदू जमावड़े के जो वीडियो तैर रहे हैं, वे साम्प्रदायिक फतवे देने वाले तमाम लोगों की गिरफ्तारी के लिए काफी होने चाहिए थे, लेकिन खुलेआम मुस्लिमों और ईसाईयों के जनसंहार के आव्हान भी दिल्ली पुलिस को जुर्म दर्ज करने के लिए काफी नहीं लगे, और यह इसी दिल्ली के दिल में बैठे हुए सुप्रीम कोर्ट के लिए आत्मविश्लेषण का एक मौका भी है कि क्या वह एक लोकतंत्र में बोल रहा है, या किसी गुफा में अकेले कुछ बड़बड़ा रहा है।
नफरत की बातें करने वाले तथाकथित धार्मिक लोग हिंदुस्तान में एक तालिबानी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं, और इसके लिए ओवरटाईम मेहनत भी कर रहे हैं। चारों तरफ बहुसंख्यक हिंदू समुदाय, और उसके वोट बैंक पर राजनीति करने वाली पार्टी या गठबंधन को भी लोगों में यह उन्माद ठीक लग रहा है क्योंकि यह सत्ता पर वापिसी का सबसे कामयाब फॉर्मूला साबित हो चुका है। ऐसी उन्मादी भीड़ यह अच्छी तरह जानती है कि लोकतांत्रिक मुद्दों को लेकर होने वाले मतदान के मुकाबले धार्मिक ध्रुवीकरण के बाद होने वाला साम्प्रदायिक जनमत संग्रह उनके लिए अधिक संभावनाएं रखता है। इसलिए एक-एक करके हिंदू-मुस्लिम खाई खड़ी करने वाले मुद्दों को उठाया जा रहा है, और मुस्लिमों के प्रतीक के रूप में पाकिस्तान को इस तरह खलनायक पेश किया जाता है कि मानो वह हिंदुस्तानी मुस्लिमों का प्रतिनिधि है, हिंदुस्तानी मुस्लिमों को इस तरह पेश किया जाता है कि वे पाकिस्तान के यहां पर छूट गए प्रतिनिधि हैं। और इन तमाम तरकीबों से हिंदुओं के मन में यह दहशत पैदा की जाती है कि हिंदू खतरे में हैं। कल सोशल मीडिया पर किसी समझदार ने यह बात लिखी है कि पहले हिंदू सिर्फ खतरे में था, अब हिंदू (अदानी की वजह से) घाटे में भी है। अब जब अदानी की वजह से सरकारी बैंकों और एलआईसी के मार्फत दसियों हजार करोड़ का घाटा, और उससे कई गुना अधिक का खतरा जनता के मत्थे मढ़ दिया गया है, तो उसके दर्द की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए देश में तेजी से बाबाओं की जुबानी हिंदू-मुस्लिम नफरत फैलाई जा रही है ताकि अदानी से जख्मी जनता अपन दर्द भूलकर साम्प्रदायिकता में उलझी रहे। यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में अदानी की मिल्कियत, एनडीटीवी, ने भी अदानी की तरफ से किसी पर साजिश की तोहमत नहीं लगाई, लेकिन आरएसएस के अखबार पांचजन्य ने भारत के कई विश्वसनीय मीडिया संस्थानों पर अदानी के खिलाफ साजिश का आरोप लगा दिया, कई पत्रकारों के नाम गिना दिए, और कई सामाजिक संगठनों पर विदेशी साजिश में हिस्सेदारी की तोहमत लगा दी। रातों-रात एक स्वघोषित सांस्कृतिक संगठन, आरएसएस, के अखबार ने खोजी अखबारनवीसी करके कई बरसों से अदानी के खिलाफ चल रहे इस राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘षडयंत्र का भांडाफोड़’ किया और अदानी को एक क्लीनचिट देकर देश के हिंदुओं को यह संदेश दिया कि परेशानी में घिरे अदानी का साथ देना है। और मानो यह काफी नहीं था तो आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने अभी दो दिन पहले हिंदू समाज की वर्णव्यवस्था को लेकर एक अविश्वसनीय किस्म का बयान दिया, और फिर उस पर एक स्पष्टीकरण आया, और मीडिया का एक हिस्सा अदानी को छोड़ इन बयानों में उलझ गया। यह सब कुछ बहुत मासूम सिलसिला हो, ऐसा गले नहीं उतरता है। कुल मिलाकर दिखता यह है कि अदानी को बचाने के लिए भी जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम मुद्दों के टायर जलाकर सडक़ों पर रखे जा रहे हैं, ताकि लोगों का अदानी की तरफ से ध्यान हट जाए। यह तमाम कोशिशें उस वक्त हो रही हैं जब संसद चल रही है, और वहां पर सरकार अदानी के नाम पर घिरी हुई है।
साम्प्रदायिकता की बातें, मुस्लिम समाज के रीति-रिवाज को लेकर कानून, ईसाईयों पर धर्मांतरण की तोहमतें, भारत के खिलाफ पाकिस्तान की तरफ से आतंकी साजिशें, जाति-व्यवस्था का विवाद, ये तमाम चीजें हाल के बरसों में बड़ी सहूलियत के साथ जनधारणा प्रबंधन के काम आ रही हैं, और देश को इन खतरों की शिनाख्त करना अब तक सीख लेना चाहिए था। सोशल मीडिया इस काम में एक बड़ा औजार बनकर मौजूद है, और देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मानो इसके मुकाबले अपने-आपको धारदार हथियार बनाकर पेश कर रहा है। देश की थोड़ी बहुत रही-सही उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से है, लेकिन उसकी मजबूरी यह है कि वह अदानी, संघ, और हेट स्पीच को एक साथ मिलाकर नहीं देख सकता है, लेकिन जनता तो देख सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत और चीन के बीच सरहद पर बने हुए तनाव के चलते चीन के कई किस्म के कारोबार पर पिछले बरसों में रोक लगाई गई जिनमें सबसे अधिक चर्चित रहा मोबाइल ऐप पर रोक लगाना। टिक-टॉक जैसे लोकप्रिय मोबाइल ऐप पर भारत में रोक लगाई गई और अमरीका सरीखे बहुत से देशों में इस पर रोक लगाने की मांग हो रही है। अब कल भारत सरकार ने 232 मोबाइल ऐप पर रोक लगाई है जिनमें से अधिकतर चीनी हैं। इनमें बड़ा हिस्सा मोबाइल ऐप के मार्फत सट्टा लगाने और जुआ खेलने का था, और सौ के करीब ऐसे ऐप थे जो कि ऑनलाईन कर्ज देते थे, और गुंडागर्दी से उनकी वसूली होती थी। कर्जदार को इतना प्रताडि़त किया जाता था कि आंध्र और तेलंगाना में ऐसे बहुत से लोग आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से कोई भी बात नई नहीं है, और बरसों से ये खबरें में बनी हुई हैं, लेकिन केंद्र सरकार का काम करने के तरीके और उसकी रफ्तार का हाल यह है कि सूचना तकनीक से जुड़े ऐसे ऑनलाईन जुर्म पर रोक लगाने में उसे बरसों लग जाते हैं, दूसरी तरफ बीबीसी की एक डाक्यूमेंट्री पर रोक लगाने में उसे कुछ घंटे ही लगते हैं।
चीन से जुड़े हुए किसी भी मोबाइल ऐप को लेकर पूरी दुनिया में यह फिक्र बनी रहती है कि उसके मार्फत जुटाया जाने वाला डेटा चीन के सर्वरों पर इकट्ठा होता है, और उसका इस्तेमाल बाकी देशों के लोगों की जासूसी करने में किया जाता है। अब भारत में जिन दो किस्मों के चीनी मोबाइल ऐप पर अभी रोक लगाई गई है उसे देखें तो एक अजीब सी बात सामने आती है। पहले लोग ऑनलाईन सट्टा लगाएं, या जुआ खेलें, और फिर उन्हें ऑनलाईन खड़े-खड़े कर्ज देने वाले एप्लीकेशन आ जाएं। क्या यह महज एक संयोग है, या फिर यह धंधा जोड़े में चल रहा है? ठीक वैसे ही जैसे जो लोग बाजार में सोने के गहने खरीद चुके हैं, उनके पास गहने गिरवी रखने के इश्तहार आने लगें। एक मजाक की बात यह भी है कि अमिताभ बच्चन हफ्ते के कुछ दिन गहनों का इश्तहार करते हैं, और कुछ दिन गहने गिरवी रखने वाली साहूकार कंपनियों का। तो क्या चीनी मोबाइल ऐप की एक किस्म में जुए-सट्टे में फंसे लोगों को संभावित कर्जदार मानकर उन्हें कर्ज देने के मोबाइल ऐप में फांसा जाता है?
दुनिया भर में यह फिक्र तो चलती ही रहती है कि ऑनलाईन कामकाज पर दुनिया के इतने कारोबारी निगरानी रखते हैं कि अभी वॉट्सऐप पर किसी के जूते की चर्चा करें, तो वॉट्सऐप के मालिक फेसबुक अपने पेज पर जूतों का इश्तहार दिखाने लगते हैं। लेकिन इस फिक्र से परे जो बहुत सीधा-सीधा खतरा हिंदुस्तान में लोगों पर छाया हुआ है वह चीनी या हिंदुस्तानी, कई किस्म के धोखाधड़ी और जालसाजी के मोबाइल ऐप, वॉट्सऐप संदेशों, एसएमएस और टेलीफोन कॉल के मार्फत लोगों को धोखा देने और ठगने का है। आज लोगों के बैंक खाते बात की बात में खाली हो जा रहे हैं, और बहुत से लोगों को तो उसकी खबर भी नहीं हो रही है। खुद भारत सरकार का हाल देखें तो 232 ऐसे खतरनाक एप्लीकेशन एक साथ बंद किए जा रहे हैं, जबकि इनमें से हर किसी की शिनाख्त तो अलग-अलग हुई होगी, अलग-अलग समय पर हुई होगी। इतनी लंबी लिस्ट बनने के पहले हर एप्लीकेशन को शिनाख्त होते ही बंद करने का एक इंतजाम अगर किया जाता, तो हो सकता है कि लाखों लोग लुटने से बच गए होते। सरकार का एक ऐसा ढांचा होना चाहिए जो कि ऐसे किसी भी एप्लीकेशन पर जल्द से जल्द फैसला लेकर उसे अलग-अलग रोक सके। यह तो कुछ ऐसा मामला हो गया कि जब किसी शहर में चालीस अलग-अलग कत्ल हो जाएं, तब जाकर पुलिस कातिलों की तलाश शुरू करे। थोक में ऐसे कार्रवाई सरकार की सहूलियत की हो सकती है, लेकिन ऐसी सहूलियत से परे का एक ऐसा ढांचा बनाना चाहिए जो ठगों और जालसाजों को तुरंत रोक सके। आज हर हिंदुस्तानी के पास झारखंड के जामताड़ा नाम के गांव या कस्बे से आए दिन फोन आते हैं, और उनके बैंक खातों को लूटा जाता है। यह जुर्म मोबाइल फोन और सिम कार्ड के जरिए होता है, लेकिन सरकार अपने सारे साइबर औजार रहते हुए भी, जगहों की शिनाख्त हो जाने के बाद भी मुजरिमों पर हाथ डालने में महीनों और बरसों लगा रही है। एक तरफ तो शरीफ लोगों के सिम कार्ड खरीदने के लिए कई किस्म के पहचान पत्र लगते हैं, दूसरी तरफ एक-एक मुजरिम दर्जनों और सैकड़ों सिम कार्ड इस्तेमाल करते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें जुर्म की इस पूरी मशीन को तोड़ क्यों नहीं पा रही हैं, यह समझ से परे है।
हिंदुस्तान में जैसे-जैसे डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल बढ़ते चल रहा है, लोग ऑनलाईन काम और कारोबार करते जा रहे हैं, वैसे-वैसे साइबर जुर्म का खतरा भी बढ़ते चल रहा है, और लोग ऐसे जुर्म के शिकार होते चल रहे हैं। सरकार को रात-दिन काम करने वाली एक ऐसी सरकारी मशीनरी के बारे में सोचना चाहिए जो कि देश के भीतर से भी ठगी-जालसाजी करने वाले लोगों को पकड़े। छत्तीसगढ़ में ही पिछले जाने कितने महीनों से ऑनलाईन सट्टेबाजी के एक मोबाइल ऐप, महादेव आईडी की चर्चा है जिसमें सैकड़ों छोटे-छोटे से लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है, कुछ करोड़ रुपये जब्त भी किए गए हैं, लेकिन जिसके बारे में चर्चा है कि उसे चलाने वाले छत्तीसगढ़ के ही कुछ बहुत ताकतवर लोग हैं, और इस सट्टेबाजी में लोगों के दसियों हजार करोड़ रुपये लूट लेने की चर्चा है, जिसके मुकाबले अब तक जब्त रकम जुर्म का छिलका भी नहीं है। अब महीनों से लोग पकड़ा भी रहे हैं, और हिंदुस्तानी टेलीफोन और इंटरनेट से वह जुर्म चलते भी जा रहा है, तो इसका मतलब यह है कि केंद्र और राज्य सरकार में से किसी का ढांचा ही कमजोर है। चीन के साथ तनाव के चलते वहां से चलने वाले मोबाइल ऐप बंद कर देना लोगों के लुटने का अंत नहीं हो सकता, इसके लिए इस देश में ही बसे हुए महादेव जैसे सट्टेबाजी-धोखेबाजी के ऐप पर भी रोक लगाना होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब दिल्ली में केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया के पास नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ चल रहे विरोध-प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई थी, तो केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने कई छात्रों और दूसरे लोगों को गिरफ्तार किया था। इन पर हिंसा के आरोप लगाए गए थे। इनमें अधिकतर नाम मुस्लिम थे। इनमें से सबसे चर्चित नाम जेएनयू के छात्र शरजील इमाम का था जिस पर राजद्रोह और दंगा भडक़ाने वाले भाषण का जुर्म लगाया गया था। यह होनहार छात्र आईआईटी से कम्प्यूटर इंजीनियर है, और जेएनयू से पीएचडी कर रहा है। अभी दिल्ली के साकेत कोर्ट के जज अरुल वर्मा ने दिसंबर 2019 के एक मामले से ऐसे 10 छात्रों को बरी कर दिया है जो लगातार जेल में चले आ रहे थे। अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि पुलिस जुर्म करने वाले असली मुजरिमों को पकडऩे में नाकाम रही, लेकिन इन लोगों को बलि के बकरे के तौर पर गिरफ्तार किया। जज ने कहा कि इस तरह की पुलिस कार्रवाई ऐसे नागरिकों की आजादी को चोट पहुंचाती है जो अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए जुटते हैं। फैसले में लिखा गया है कि इन छात्रों (तमाम मुस्लिम) को इस तरह के लंबे और कठोर मुकदमे में घसीटना देश और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिए अच्छा नहीं है। जज ने कहा यह बताना जरूरी है कि असहमति और कुछ नहीं बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में निहित प्रतिबंधों के अधीन भाषण देने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अमूल्य मौलिक अधिकार का विस्तार है। जज ने कहा ये एक ऐसा अधिकार है जिसे बरकरार रखने की हमने शपथ ले रखी है। जब भी कोई चीज हमारी अंतरात्मा के खिलाफ जाती है तो हम उससे मानने से इंकार कर देते हैं। अपना कर्तव्य समझते हुए हम ऐसा करने से इंकार करते हैं। ये हमारा फर्ज बन जाता है कि हम किसी ऐसी बात को मानने से इंकार करें जो हमारी अंतरात्मा के खिलाफ है। जज वर्मा ने देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ की हाल की एक टिप्पणी का भी हवाला दिया है जिसमें कहा गया था कि सवाल करने और असहमतियों के लिए जगह खत्म करना राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक तरक्की के आधार को खत्म करना है। इसलिए लिहाज से असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। जज वर्मा ने आगे लिखा, इसका मतलब ये है कि असहमतियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि उन्हें कुचलना चाहिए, हालांकि असहमति शांतिपूर्ण होनी चाहिए, और हिंसा में तब्दील नहीं होनी चाहिए।
हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली की पुलिस, और उत्तरप्रदेश में भाजपा की योगी सरकार की पुलिस ने बहुत से मामलों में मुस्लिमों को इसी तरह फर्जी मामलों में घेरा है, और एक के बाद एक कई मुकदमे दायर करके लोगों की रिहाई को अंतहीन तरीके से रोक रखा है। अदालतों ने इन सरकारों की पुलिस की ऐसी साजिशों का भांडाफोड़ होने के बाद भी सरकारों के रूख में कोई फर्क नहीं है क्योंकि संदेह का लाभ देते हुए अदालतें जांच एजेंसियों के खिलाफ आमतौर पर कोई कार्रवाई नहीं करती हैं। इसलिए सत्ता के दबाव में पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां लोगों को विचाराधीन कैदी बनाकर ही सजा दिलवाने का काम करती हैं। और अब तो हाल ऐसा हो गया है कि इसे सत्ता का दबाव कहना भी ठीक नहीं है, बहुत से राज्यों में, बहुत सी पार्टियों की सरकारों के मातहत आज पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां खुद होकर सत्ता की सेवा करने में ऐसी जुट जाती हैं कि सत्ता को मुंह भी नहीं खोलना पड़ता। जांच एजेंसियां और पुलिस जब एक चापलूस निजी सेवक की तरह काम करके मोटी कमाई करने का एक जरिया ढूंढ निकालती हैं, तो फिर कोई बड़े पेशेवर मुजरिम भी जुर्म करने में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। ऐसे ही रूख का नतीजा है कि हिन्दुस्तान में बेकसूर लोग बरसों तक जेल काट रहे हैं, और आमतौर पर जिला अदालतों के जज उन्हें रिहा करने का हौसला भी नहीं दिखा पाते हैं। पिछले बरसों में इस देश ने छात्र आंदोलनकारियों, सामाजिक आंदोलनकारियों, कॉमेडियन और कार्टूनिस्ट, सोशल मीडिया पर सक्रिय जागरूक लोगों को कुचलने का ऐसा सिलसिला देखा है जो बताता है कि लोकतंत्र इस देश में एक कागजी सामान होकर रह गया है, और अमल में उसकी कोई जगह रखने की नीयत सरकारों की नहीं रहती है।
हमारा ख्याल है कि जब अदालतें यह पाती हैं कि पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां बदनीयत से कोई काम कर रही थीं, तो उनकी जवाबदेही कटघरे में तय होनी चाहिए। जब अदालत यह पा रही है कि बेकसूर छात्रों को बलि का बकरा बनाया गया, उन पर राजद्रोह जैसे मुकदमे चलाए गए, तो फिर ऐसी पुलिस को महज एक आलोचना के साथ छोड़ देना ठीक नहीं है। ऐसी पुलिस को ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि सत्ता की फरमाईश पर वह ऐसा अगला जुर्म करने के पहले चार बार सोचे, और अपने भविष्य की फिक्र करे। अदालती आलोचना से किसी वर्दी पर कोई आंच नहीं आती, बल्कि ऐसी आलोचना को ऐसी पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं को दिखाकर उनसे वाहवाही और पा सकती है।
हिन्दुस्तान में पुलिस सुधार की बातें होते पीढिय़ां गुजर गई हैं, और एक वक्त अंग्रेज सरकार की पुलिस में जिस तरह हिन्दुस्तानी सिपाही उसके वफादार थे, उसी तरह आज की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों में आज पुलिस सत्ता पर काबिज लोगों की बदनीयत के प्रति वफादार रहती है। यह सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके बिना बेकसूर लोग बरसों तक जेल में कैद रहेंगे, राजद्रोह जैसी तोहमतें झेलेंगे, और इंसाफ नाम के अजगर को करवट बदलने में ही कई बरस लग जाएंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के जिस महंगे और सरकारी रिहायशी इलाके शंकर नगर में अफसरों और मंत्रियों के बंगले हैं वहां अभी दो दिन पहले, एक आम दिन पर वायु प्रदूषण का पीएम 2.5 का स्तर 138 था, पीएम 2 का मतलब हवा में प्रदूषण के बारीक कण। एक पर्यावरण एक्टिविस्ट के मुताबिक विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने पर यह 5 होना चाहिए था, अधिकतम 40 होना चाहिए था। यह हाल कारखानों से दूर चौड़ी सडक़ों वाले इलाके का है। अब इसी शहर का एक बड़ा हिस्सा कारखानों का है, और फौलाद के बहुत अधिक प्रदूषण पैदा करने वाले कारखानों का है। उस इलाके में लाखों मजदूर रहते हैं, और रोजाना लाखों मजदूर कई किस्म के कारखानों में भी काम करते हैं। इसलिए वहां प्रदूषण का क्या हाल होगा इसके सरकारी आंकड़ों पर कोई भरोसा करना ठीक नहीं है। लेकिन पूरे हिन्दुस्तान में 21 ऐसे शहर हैं जो कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित देशों की फेहरिस्त का हिस्सा हैं। दुनिया में सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले 20 शहरों में से 13 हिन्दुस्तान में हैं। हिन्दुस्तान में कम से कम 14 करोड़ लोग ऐसी हवा में सांस लेते हैं जो कि डब्ल्यूएचओ की बताई सीमा से दस गुना अधिक प्रदूषित है। एक वैज्ञानिक अनुमान के मुताबिक वायु प्रदूषण से हिन्दुस्तान में हर बरस 20 लाख समय पूर्व जन्मे बच्चों की मौत होती है। विकिपीडिया के आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण का आधा हिस्सा उद्योगों से है, एक चौथाई से कुछ अधिक हिस्सा वाहनों के प्रदूषण से है, 17 फीसदी हिस्सा फसलों के ठूंठ जलाने से है, और 5 फीसदी हिस्सा बाकी वजहों से है।
दो दिन पहले की एक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक रिपोर्ट यह कहती है कि प्रदूषित हवा में खेल रहे शतरंज खिलाडिय़ों के फैसले उससे बुरी तरह प्रभावित होते हैं, वे जल्द फैसले नहीं ले पाते, गलतियां बार-बार करते हैं, और बड़ी-बड़ी करते हैं। मैनेजमेंट साईंस नाम की एक पत्रिका में प्रकाशित इस शोध रिपोर्ट में शतरंज टूर्नामेंट के बंद कमरों के भीतर के प्रदूषण को नापकर वहां खेल रहे खिलाडिय़ों की चली जा रही चालों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया, तो उसका यह नतीजा निकला। आज दुनिया के बड़े-बड़े शतरंज खिलाड़ी, जिनमें भारत के कुछ दिग्गज खिलाड़ी भी हैं, वे मैच के वक्त अपने आसपास के वायु प्रदूषण को नापने लगे हैं, क्योंकि इससे उनका खेल प्रभावित हो रहा है। अब देखें तो ऐसे टूर्नामेंट तो बेहतर शहरों में, बेहतर हॉल के भीतर तकरीबन साफ हवा में होते हैं, लेकिन वहां भी अगर हवा में पीएम 2.5 जैसा प्रदूषण अधिक है, तो इससे खिलाडिय़ों के फैसलों पर सीधे-सीधे असर पड़ता है। यह रिसर्च रिपोर्ट दुनिया के एक सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय, एमआईटी के एक प्राध्यापक की लिखी हुई है। इसमें पिछले 20 बरस के शतरंज मुकाबलों का अध्ययन किया गया है, और यह नतीजा निकालते हुए दूसरी वजहों, जैसे कि शोरगुल, तापमान में फेरबदल के प्रभावों को अलग कर दिया गया था।
अब इन दो बातों को मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि जितने तरह का प्रदूषण लोगों की जिंदगी पर हावी है, वह लोगों के काम और फैसलों की क्षमता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभावित कर रहा है। हिन्दुस्तान में अगर वायु प्रदूषण से हर बरस 20 लाख से अधिक जन्म पूर्व पैदा बच्चे मर रहे हैं, तो बाकी लोगों पर मौत से कम जो असर हो रहा होगा, उसकी कल्पना अधिक मुश्किल नहीं है। आज सचमुच में रईस और ताकतवर लोग, कामयाब पेशेवर लोग किसी प्रदूषित देश या शहर में रहना नहीं चाहते, अगर वहां रहना उनकी मजबूरी न हो। लोग साफ-सुथरे शहरों में रहना चाहते हैं, जहां प्रदूषण उनकी जिंदगी खत्म न करे, और उनकी जिंदगी की क्वालिटी, और काम की क्वालिटी बेहतर हो सके। हवा के साथ दिक्कत यह है कि वह शहर के एक हिस्से में अगर बहुत खराब है, तो शहर के दूसरे हिस्से में वह लाख तरकीबें आजमाने पर भी बहुत अच्छी नहीं हो सकती। इसलिए अगर किसी शहर में बहुत प्रदूषण है, तो उस शहर को हांकने वाले लोग बेहतर इलाकों में रहते हुए भी उससे पूरी तरह नहीं बच सकते। शतरंज का खेल तो बहुत तेज रफ्तार से फैसले लेने का रहता है, और एक सीमित समय के भीतर लोगों के बहुत सी चालें चलनी पड़ती हैं, इसलिए लोगों के फैसलों की तेजी को आंकना हो पाता है। लेकिन असल जिंदगी में गाड़ी चलाते हुए अचानक किसी हादसे से बचने का फैसला लेने में अगर प्रदूषण की वजह से देरी हो रही है, तो ऐसी होने वाली मौतों की वजहों को देखते हुए कोई वायु प्रदूषण के बारे में सोचेंगे भी नहीं।
ऐसा लगता है कि यह दुनिया अब बेहतर पर्यावरण के बीच जीने वाले लोगों और खराब पर्यावरण से प्रभावित लोगों के बीच एक दिखाई न देने वाला मुकाबला भी बन गई है। अगर प्रदूषित हवा से जिंदगी में तमाम वक्त एक फर्क पड़ रहा है, तो प्रदूषित शहरों की पीढिय़ां एक किस्म से साफ शहरों से पीछे रह जाने का खतरा तो रखती ही हैं। यह पूरा प्रदूषण पिछली कुछ सदियों का ही है, जब से मशीनें बनीं, कारखाने चले, और सडक़ों पर गाडिय़ां आईं। इसलिए यह सब कुछ इंसान की पिछली सौ पीढिय़ों के भीतर की ही बात है। इतने कम वक्त में दुनिया की आबादी का एक बहुत बड़ा गरीब हिस्सा बहुत गंभीर प्रदूषण का शिकार हो गया है, और अपने आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ वह सेहत के ऐसे पिछड़ेपन का भी शिकार हुआ दिखता है जो कि कुपोषण से शुरू हुआ है, और प्रदूषण के साथ पल-बढ़ रहा है। ऐसे में कारखानों और गाडिय़ों के प्रदूषण को कम करके प्रदूषण के तीन चौथाई हिस्से में से काफी कुछ घटाया जा सकता है। सरकारें हांकने वाले लोगों को यह सोचने पर मजबूर करने के लिए जानकार लोगों का इस पर लिखना जरूरी है, इसकी चर्चा करना जरूरी है, और इसके लिए अदालतों का ध्यान खींचना भी जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकसभा का यह सत्र शुरू होते ही थम गया है क्योंकि विपक्ष ने आज देश में खड़े सबसे बड़े आर्थिक खतरे को लेकर उच्च स्तरीय जांच की मांग की है। यह मांग संयुक्त संसदीय समिति से भी हो सकती है, और सुप्रीम कोर्ट के किसी जज की निगरानी में भी हो सकती है। आज संसद के दो सत्र शुरू तो हुए हैं, लेकिन अडानी का मुद्दा सरकार का पीछा नहीं छोडऩे वाला है। एक कंपनी के शेयरों के दाम गिरने को लेकर संसद की फिक्र का कोई सामान नहीं बनना चाहिए था लेकिन अडानी के साथ दिक्कत यह है कि एलआईसी और देश के सरकारी बैंकों के दसियों हजार करोड़ रूपये इसमें लगे हुए हैं। फिर यह भी है कि सरकारी बैंकों और एलआईसी को अगर नुकसान हो रहा है, तो वह बोझ जनता पर ही जाता है, इनकी अपनी कोई जेब नहीं होती है। इसलिए जनता के पैसों को अगर इन बड़ी सरकारी कंपनियों में बैठे हुए लोग अडानी जैसी संदिग्ध कंपनी में झोंकते हैं, तो इस पर सरकार की संसद में जवाबदेही बनती है। इसके अलावा जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अडानी के खिलाफ ऐसे आरोप लगते हैं कि इस कंपनी ने अपने खाता-बही में आंकड़ों का चमत्कार दिखाकर, कई बातों को छुपाकर, कई बदनाम देशों के मार्फत रहस्यमय रकम लाकर अपने कारोबार को इस तरह बढ़ाया है, तो ऐसे आरोपों के साथ-साथ जब भारत में प्रचलित यह आम धारणा जोड़ दी जाए कि ये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सबसे पसंदीदा और कृपापात्र कंपनी है, तो फिर इस पर लगे आरोपों की जांच नीचे के स्तर पर तो नहीं हो सकती। फिलहाल बाजार में इस कंपनी का जो भ_ा बैठा है, उसे देखते हुए इसमें सरकारी कंपनियों के पूंजीनिवेश देखते हुए इसकी एक पारदर्शी जांच की जरूरत है। फिर कांग्रेस प्रवक्ता जयराम नरेश ने मांग की है कि एक स्वतंत्र जांच से ही एलआईसी, एसबीआई जैसी अन्य संस्थाएं बचाई जा सकती हैं जिन्हें पीएम ने अडानी समूह में निवेश करने के लिए बाध्य किया। जयराम रमेश का यह आरोप इन तथ्यों पर आधारित है कि पिछले तीन बरस में एलआईसी और सरकारी बैंकों ने अडानी में अपना पूंजीनिवेश कई गुना बढ़ाया है।
अब जो उद्योग समूह अपनी आधा दर्जन से अधिक कंपनियों के साथ भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी है, वह वैसे भी बहुत से नियमों से बंधी रहती है। इसके बाद जब वह सरकारी संस्थाओं से पूंजीनिवेश पा रही है, तो भी उससे पारदर्शिता की उम्मीद की जाती है। फिर जैसा कि अमरीकी फर्म हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट में अडानी पर आरोप लगाया गया है कि इसने दसियों हजार करोड़ संदिग्ध देशों की रहस्यमय कंपनियों से बहुत रहस्यमय तरीके से लाने का काम किया है, तो यह बात भी अपने आपमें एक बड़ी ऊंची जांच के लायक है। इस कंपनी में देश की आम जनता का भी काफी पैसा लगा हुआ है, और उन निजी पूंजनिवेशकों के हितों को बचाने के लिए भी यह सरकार की जवाबदेही है कि वह अडानी की जांच करे। यह जाहिर है कि मौजूदा जांच एजेंसियां सरकार के साथ इतनी घुली-मिली हैं कि वे सरकार की एक पसंदीदा कंपनी की जांच ठीक से नहीं कर सकतीं। इसलिए देश के सामने अगर इतना बड़ा आर्थिक खतरा खड़ा हुआ है, तो ऐसी जांच करवाना सरकार की एक जिम्मेदारी है। इसके पहले भी हम देख चुके हैं कि किस तरह से देश के कई बड़े-बड़े कारोबारी सरकारी बैंकों से दसियों हजार करोड़ निकालकर या तो देश छोडक़र भाग गए हैं, या उन्होंने पैसा किसी तरह बाहर भेज दिया है, और अब कानून के साथ लुकाछिपी खेल रहे हैं।
अडानी का बहुत सारा पूंजीनिवेश सरकार से ही सार्वजनिक संपत्तियों को खरीदकर किया गया है। एयरपोर्ट, बंदरगाह जैसे एकाधिकार वाले कारोबार को जिस अंदाज में अडानी ने हासिल किया है, उस पर भी देश के लोग हैरान हैं। इससे परे अडानी ने हिमाचल में सेब खरीदने जैसा काम शुरू किया है, और छोटे लोगों को इस कारोबार से बाहर कर दिया है। छत्तीसगढ़ में अडानी का नाम लगातार खबरों में बने रहता है कि वह पहले से कोयले के कारोबार में है, जिसमें उसने कई तरकीबों से हक से बहुत अधिक कोयला निकालकर बेचा है, और छत्तीसगढ़ के स्थानीय कारखाने इस कारोबार को बहुत अच्छी तरह देखते आए हैं क्योंकि वे ऐसा कोयला खरीदते आए हैं। अब छत्तीसगढ़ के हसदेव के सबसे घने जंगलों को काटकर वहां कोयला खदान से राजस्थान सरकार के लिए कोयला निकालने का काम भी अडानी को मिला है, और यह आज छत्तीसगढ़ का एक सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है जिसमें राज्य की भूपेश सरकार भी घिर गई है।
अभी कुछ हफ्तों पहले जब अडानी ने एनडीटीवी खरीदा, तो भी देश के लोग इस फिक्र में पड़ गए कि इतने बड़े-बड़े कारखानेदार अगर मीडिया खरीद लेंगे, तो फिर उसकी आजादी का क्या होगा? इससे पहले मुकेश अंबानी ने एक बड़े मौजूदा मीडिया कारोबार को एक दिन में हजारों करोड़ रूपये देकर ले लिया था, और अब अडानी। मीडिया कारोबार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गुंजाइश विवादास्पद कारोबारियों के बड़े पूंजीनिवेश के साथ जिंदा नहीं रह सकती। फिर जब ऐसे कारोबारियों पर सरकारी कृपा भी बरसने की जनधारणा हो, तो फिर ऐसे मीडिया की विश्वसनीयता क्या रह जाती है। भारत में अगर इतने बड़े-बड़े कारोबारी इतने बड़े-बड़े सरकारी पूंजीनिवेश पाकर, और दसियों हजार करोड़ रूपये का सरकारी कर्ज पाकर, और रहस्यमय तरीकों से बदनाम देशों से लाखों करोड़ का पूंजीनिवेश लाकर अगर बही-खातों में हेराफेरी करके बाजार में अपनी साख बना रहे हैं, तो फिर ऐसे कारोबार जांच का मुद्दा तो हैं ही। सरकार को खुद भी अपनी साख बचाए रखने के लिए अडानी की एक पारदर्शी जांच होने देना चाहिए। और इसके साथ-साथ एलआईसी और सरकारी बैंकों को अपनी पूंजीनिवेश और दिए हुए कर्ज को लेकर अधिक सावधान भी रहना चाहिए कि उनका खतरा कम से कम हो। आज इन सरकारी बैंकों और एलआईसी के करोड़ों ग्राहकों का नफा-नुकसान ऐसे पूंजीनिवेश से जुड़ा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की दो छोटी-छोटी घटनाएं अलग-अलग इलाकों की स्कूलों की हैं, लेकिन इन्हें मिलाकर लिखने की जरूरत है। गरियाबंद के ग्रामीण इलाके में पांचवीं के एक छात्र की शिक्षिका ने माचिस की तीली जलाकर उसके गले पर रख दिया जिससे जख्म हो गया है। परिवार ने शिकायत अफसर से की है, शिक्षिका का कहना है कि बच्चा कम बोलता है, उसे चंचल बनाने के लिए उसने यह टोटका किया था। स्कूल में दो ही शिक्षक हैं, एक पहले से किसी दुर्घटना में जख्मी है, और अब यह शिक्षिका भी छुट्टी पर चली गई है, स्कूल बंद हो गया। एक दूसरे मामले में कोरबा जिले के एक सरकारी आवासीय विद्यालय में एक छात्र को घर से लौटने में देर हुई, तो हॉस्टल अधीक्षक ने दूसरे सीनियर छात्रों से इस छात्र की चप्पलों से पिटाई करवाई, इस लडक़े को भी जिला अस्पताल में भर्ती किया गया है, और मामले की जांच की जा रही है। छत्तीसगढ़ में बहुत सी स्कूलों से ऐसे वीडियो सामने आते हैं जिनमें शिक्षक शराब के नशे में धुत्त स्कूल में बैठे हुए हैं, या फर्श पर पड़े हुए हैं, और उनके आसपास बच्चे बैठे हुए हैं। अधिकतर मामलों में यह हाल सरकारी स्कूलों में ही हैं जहां पर जवाबदेही नहीं के बराबर है। सरकारी स्कूलों के ऐसे हाल पर सोचने की जरूरत है, और इसीलिए हम आज यहां यह चर्चा छेड़ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक स्कूल शिक्षा से जुड़े हुए तमाम पहलू परले दर्जे के भ्रष्टाचार के शिकार रहे हैं। मंत्री से लेकर अफसरों तक, और स्कूलों में काम करने वाले लोगों तक भ्रष्टाचार बहुत बुरी तरह फैला हुआ है। पिछली भाजपा सरकार के समय की बात हो, या आज की कांग्रेस सरकार की बात हो, स्कूलों की फर्नीचर-खरीदी से लेकर वहां दोपहर के सरकारी खाने तक, तमाम मामलों में भ्रष्टाचार इतना आम है, और इतना बड़ा है कि जिम्मेदार लोगों का तमाम ध्यान बस इसी में लगे रहता है कि इस विभाग को कैसे दुहा जा सकता है। इसमें सहूलियत की बात यह भी रहती है कि विभाग से जुड़े हुए बच्चे जुबान खोल नहीं सकते, भ्रष्टाचार को समझते नहीं हैं, और सरकारी स्कूलों के बच्चों के गरीब मां-बाप की अधिक जुबान होती नहीं है। इसलिए जिस तरह निजी स्कूलों में पालक-शिक्षक बैठक होती है जिसमें बच्चों के मां-बाप स्कूलों की कमियों और खामियों को गिनाते हैं, उस तरह का कुछ सरकारी स्कूलों में नहीं होता जहां पर कि गरीब परिवारों के बच्चों को अहसान करने के अंदाज में पढ़ाया जाता है।
कोई भी ऐसा विभाग जिसमें मंत्री से लेकर नीचे तक तमाम लोगों की दिलचस्पी अधिक से अधिक वसूली और उगाही में रहती है, विभाग को इस हद तक दुह लिया जाता है कि उसके थन से खून निकलने लगे, तो फिर विभाग के काम, पढ़ाने में भला किसकी दिलचस्पी रह सकती है? और छत्तीसगढ़ में जिस तरह शिक्षाकर्मियों के भरोसे पढ़ाई चलती है, जिनका कि जिले के बाहर कोई तबादला भी नहीं हो सकता, वहां पर वे शिक्षाकर्मी पढ़ाने जाते भी हैं या नहीं, यह जानकारी भी कम से कम ग्रामीण इलाकों में तो नहीं रहती है। यह सिलसिला शिक्षा की बुनियाद को इतना खोखला कर गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के ज्ञान के एक मूल्यांकन में छत्तीसगढ़ बहुत ही पिछड़ा हुआ मिला है कि यहां के बच्चे अपनी कक्षा से कई क्लास नीचे की भी जानकारी नहीं रखते हैं। यह दिक्कत इसलिए भी है कि सरकार और समाज में जरा सी भी ताकत रखने वाले लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, और सरकारी स्कूलों से किसी ताकतवर के परिवार पर फर्क नहीं पड़ता।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक दूसरी चीज भी हो रही है। सरकार ने स्वामी आत्मानंद के नाम पर चुनिंदा सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी स्कूल बनाना शुरू किया है। अब तक ऐसे कई सौ अंग्रेजी स्कूल बन चुके हैं जिनके लिए मौजूदा सरकारी स्कूलों में से सबसे अच्छे ढांचे वाले स्कूल छांटकर उन्हें आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बना दिया गया है। इनके लिए अलग से शिक्षक नियुक्त किए गए हैं, या मौजूदा शिक्षकों में से जो बेहतर हैं, उन्हें आत्मानंद स्कूल भेजा गया है। जिलों में कलेक्टरों के हांके चलने वाले डीएमएफ (जिला खनिज निधि) से अंधाधुंध पैसा आत्मानंद स्कूलों को आलीशान बनाने में खर्च किया जा रहा है, और ऐसे स्कूलों की तस्वीरें स्कूल विभाग की कामयाबी की तरह फैल रही हैं। हकीकत यह है कि पढ़ाई को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से करवाने के लिए चुनिंदा स्कूलों पर ऐसे किसी खर्च की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि अंग्रेजी पढ़ाने के लिए बेहतर इमारत नहीं लगती, बहुत बेहतर फर्नीचर नहीं लगता। सरकार इन बरसों में शायद पांच फीसदी स्कूलों को भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं बना पाई है, और बाकी तकरीबन तमाम गरीब बच्चे टूटी-फूटी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिनकी मरम्मत तक नहीं हो रही है, क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान आत्मानंद अंग्रेजी स्कूलों पर है।
हिन्दी भाषी इलाके की सरकार की अंग्रेजी भाषा को लेकर इतनी हीनभावना समझ से परे है। एक वक्त हिन्दुस्तान पर राज करने वाले अंग्रेजों की भाषा सिखाने के लिए आज बाकी स्कूलों का हक छीनकर अंग्रेजी के लिए इतने महंगे ढांचे तैयार करना अपनी खुद की भाषा को लेकर एक हीनभावना के अलावा और कुछ नहीं है। प्रदेश में विपक्षी भाजपा को भी इस बात की समझ नहीं है कि 95 फीसदी से अधिक गरीब बच्चों के हक छीनकर अगर 5 फीसदी अंग्रेजी बच्चों को दिया जा रहा है, तो यह सामाजिक विसंगति उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी है। लेकिन छत्तीसगढ़ में सामाजिक समानता के मोर्चे पर विपक्ष के मुर्दा रहने का यह पहला मौका नहीं है, जब भाजपा की सरकार पन्द्रह बरस थी, तब विपक्षी कांग्रेस पार्टी भी गरीबों के हक के मुद्दों पर कुछ ऐसी ही थी, और वही वजह थी कि भाजपा लगातार तीन विधानसभा चुनाव, तीन लोकसभा चुनाव, और तीन म्युनिसिपल चुनाव जीत सकी थी।
सरकारी स्कूल शिक्षा इतने गरीब तबके का मुद्दा है कि शायद ही कोई विधायक अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाते होंगे। स्कूलों की हालत खराब है, और सरकार मानो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी का वक्त गुजार देने के लिए इन स्कूलों को किसी तरह चला रही है, इनका उत्कृष्टता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऐसे माहौल में अब सरकार का लाड़ला बच्चा आत्मानंद स्कूल के नाम पर उसके तमाम साधन-सुविधाओं का अकेला हकदार बन गया है, और प्रदेश में बाकी स्कूलों की बदहाली की चर्चा करने वाले लोग भी नहीं रह गए हैं, विपक्ष में भी नहीं।
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हिन्दुस्तान के सबसे बड़े उद्योगपति गौतम अडानी ने अभी अपनी कंपनियों के लिए पैसा जुटाने को शेयर बाजार में खरीददारों के लिए एक एफपीओ उतारा था जिसके बिकने के आसार बहुत कम दिख रहे थे, लेकिन आखिर में अचानक अबूधाबी के एक शाही परिवार से जुड़ी कंपनी ने अडानी में 32 सौ करोड़ रूपये पूंजीनिवेश किया, और आखिरी दिन हिन्दुस्तान के कुछ उद्योगपतियों ने इसमें खासी रकम लगाई, जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी सज्जन जिंदल, सुनील भारती मित्तल, और पंकज पटेल के नाम आए, और सत्ता के एक और दूसरे सबसे करीबी देश के दूसरे सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी भी। एक अमरीकी कंपनी के विश्लेषण के बाद हिन्दुस्तान में अडानी के शेयर जमीन तोडक़र पाताल पहुंच रहे थे, और उसी वक्त कंपनी का यह एफपीओ आया था। कुछ बड़े लोगों ने मिलकर इस एफपीओ को खरीद तो लिया, लेकिन इसमें छोटे पूंजीनिवेशकों के लिए जितने शेयर रखे गए थे, उनमें से सिर्फ 10 फीसदी ही बिके हैं। मतलब यह कि जनता का भरोसा कम से कम इस वक्त तो इस कंपनी पर से उठा हुआ है। पिछले तीन बरस में हिन्दुस्तान की सरकारी बीमा कंपनी, एलआईसी ने अडानी की कंपनियों में अपना पूंजीनिवेश दस गुना बढ़ा दिया था, और अभी की खबर कहती है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अडानी को साढ़े पांच लाख करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है, और इसमें एलआईसी को भी 16 हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है जो कि जीवन बीमा पॉलिसी लेने वाले लोगों का नुकसान है।
अमरीका की हिंडनबर्ग नाम की फर्म ने अडानी-समूह का कई तरह का विश्लेषण करके इसे हिसाब-किताब में जोड़तोड़ करने, और कई दूसरे तरह के गलत काम करके आगे बढऩे का आरोप लगाया था। इस आरोप के जवाब में अडानी ने इसे भारत पर हमला बताया। हिन्दुस्तान के लोग यह बात जानकर चौंक गए कि अडानी ही भारत है। सोशल मीडिया पर लोगों ने यह नया रहस्य उजागर होने पर काफी कुछ लिखना चालू किया। लोगों ने याद दिलाया कि अंग्रेजी के एक विद्वान ने किस तरह जमाने पहले यह लिखा था कि किसी बदमाश के लिए छुपने की आखिरी जगह उसके देश के झंडे के पीछे होती है। जब कोई कारोबारी गैरकानूनी हरकतों के आरोपों के बीच अपने आपको देश बताए, तो यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जो कि अडानी की सफाई के जवाब में आई, और अडानी की बात किसी बात को साफ नहीं कर पाई, बल्कि अपने पर और गंदगी ही फैला गई, लोग अंग्रेजी का हिन्दी तर्जुमा करने में लग गए, और सोशल मीडिया अब तक हिन्दुस्तान के किसी कारोबारी के शिकंजे से परे है। लेकिन बात अगर भारत पर आकर खत्म हो गई रहती, तब भी ठीक था। अडानी कारोबार-समूह के चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर, जगशिंदर सिंह ने एक और बड़ी अनोखी बात कही। उन्होंने कहा कि एक अमरीकी कंपनी, हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर जिस तरह से कुछ हिन्दुस्तानी बर्ताव कर रहे हैं, उससे उन्हें हैरानी नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि जालियांवाला बाग में सिर्फ एक अंग्रेज ने हुक्म दिया था, और हिन्दुस्तानी (सिपाहियों) ने ही दूसरे हिन्दुस्तानियों पर गोलियां चलाई थीं।
यह बहुत ही अनोखी बात है जब आजाद हिन्दुस्तान के जागरूक लोगों की बराबरी अंग्रेजों के सिपाहियों से की जा रही है, और अडानी पर वित्तीय गड़बडिय़ों की रिपोर्ट को जालियांवाला बाग में हिन्दुस्तानियों के जनसंहार के बराबर बताया जा रहा है। जालियांवाला बाग में सैकड़ों लोग मारे गए थे, और हजारों लोग घायल हुए थे, और यह हिन्दुस्तान के ब्रिटिश इतिहास का सबसे भयानक फौजी हमला था। अब हिन्दुस्तान के सबसे विवादास्पद कारखानेदार और कारोबारी के खिलाफ आई एक वित्तीय रिपोर्ट को अगर अडानी यानी हिन्दुस्तान पर हिंडनबर्ग यानी अंग्रेज के हुक्म से की गई गोलीबारी यानी हिन्दुस्तानी आलोचकों का किया गया जनसंहार कहा जा रहा है, तो फिर वह दिन अधिक दूर नहीं दिखता जब देश में सबसे अधिक दौलतमंद को राष्ट्रपिता घोषित किया जाएगा। दिलचस्प बात यह है कि अडानी का यह सबसे बड़ा वित्त अफसर खुद ऑस्ट्रेलिया का नागरिक है, और नाम से पंजाबी मूल का भी लगता है, और अपनी कंपनी को हिन्दुस्तानी आलोचकों के सवालों से बचाने के लिए जालियांवाला बाग की आड़ ले रहा है। अब देखना पड़ेगा कि आगे जाकर हिन्दुस्तानी शहादत के इस सबसे बड़े स्मारक की आड़ में छुपने वाले के लिए, अंग्रेजी दुनिया में कौन सी कहावत गढ़ी जाएगी। लेकिन यह तय है कि जो भी कहावत गढ़ी जाएगी, उसके मुकाबले राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय झंडे की आड़ में छुपना एक बहुत कमजोर कहावत रह जाएगी। दुनिया के राजनीतिक इतिहास में अडानी के इस अफसर को दुनिया की एक सबसे ताकतवर नई कहावत देने की शोहरत जरूर मिलेगी।
आज हिन्दुस्तान कई किस्म के पाखंडों से गुजर रहा है। भगवा या केसरिया रंग को हिन्दू धर्म मान लिया गया है, और हरे रंग को इस्लाम करार दिया गया है। स्वदेशी का नाम लेकर योगी से कारोबारी बने हुए रामदेव अपने गलत कामों की आलोचना को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत पर हमला करार देते थकते नहीं है, कुछ लोग रामचरित मानस की आलोचना को हिन्दू धार्मिक भावनाओं पर हमला करार दे रहे हैं, कई लोग मोदी को ही भारत और लोकतंत्र ठहरा रहे हैं, और अब अडानी अपने को भारत मानने लगा है, और अपने हिन्दुस्तानी आलोचकों को हत्यारा ब्रिटिश-हिन्दुस्तानी सैनिक करार दे रहा है, आरएसएस हर हिन्दुस्तानी को हिन्दू करार दे रही है, और सावरकर को पूजने वाले लोग सावरकर की गाय खाने की खुली वकालत को अनदेखा करके उन्हें गांधी के मुकाबले अधिक महान राष्ट्रभक्त साबित करने में लग गए हैं। यह पाखंड और कई मोर्चों पर भी किया जा रहा है, और इसी का नतीजा है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में अभी आरएसएस के किए जा रहे एक कार्यक्रम से नेताजी की बेटी ने असहमति जारी की है, और आरएसएस को एक साम्प्रदायिक सोच करार दिया है। पूरा देश तरह-तरह के पाखंडों में मस्त है। टीवी समाचार चैनल अपने काम को पत्रकारिता बताते हुए हर किस्म के पत्रकारिता-विरोधी चाल-चलन से अपना धंधा बढ़ा रहे हैं।
किसी देश के नाम, उसके प्रतीकों के नाम, उसके शहादत के नाम, उसके झंडे का ऐसा इस्तेमाल शर्मनाक है। इसे धिक्कारने के लिए लोगों को सामने आना चाहिए। अगर यह समाज नहीं जागेगा तो हो सकता है कि टमाटर की चटनी बनाने वाला कोई ब्रांड अपने इश्तहार में जालियांवाला बाग में बहे लहू सरीखी लाल चटनी का नारा लगाए, और यह मुर्दा समाज उसको भी झेल जाए। आज हिन्दुस्तान एक झूठे गौरव के गुणगान में लगा हुआ है, और उसके सच्चे इतिहास की सच्ची शहादत की सबसे बड़ी मिसाल पर हो रहे ऐसे बाजारू हमले पर इन तथाकथित गौरवान्वित लोगों को अगर कुछ नहीं कहना है तो उन्हें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।
पाकिस्तान के पेशावर में एक मस्जिद पर कल आत्मघाती हमला हुआ, और हमलावर ने अपनी विस्फोटक जैकेट के धमाके से मस्जिद की इमारत का एक हिस्सा भी गिरा दिया, और 83 लोगों की मौत की खबर है। पुलिस लाईन की इस मस्जिद में दोपहर को नमाज पढऩे इक_ा हुए अधिकतर लोग पुलिस के थे, और मारे जाने वाले लोग भी वही हैं। यह इलाका पेशावर का सबसे अधिक हिफाजत वाला इलाका माना जाता है। वहां के धार्मिक-आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। पाकिस्तान का यह संगठन पड़ोस के अफगानिस्तान के तालिबानियों के साथ तालमेल से काम करता है, और अफगान सरकार से पाकिस्तान की कुछ सरहदी मुद्दों को लेकर तनातनी भी चल रही है। टीटीपी नाम का यह संगठन पाकिस्तान में अधिक कट्टर इस्लामी कानूनों को लागू करने के लिए हथियारबंद आंदोलन चलाता है।
पाकिस्तान लगातार धार्मिक कट्टरता वाले आतंकी हमलों का शिकार होते रहता है। हर बरस ऐसे कई बड़े हमले होते हैं जिनमें सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। दो-चार मौतों की तो खबर भी मुल्क से बाहर नहीं जाती। यह पाकिस्तान अभी पौन सदी पहले तक आज के हिन्दुस्तान का एक हिस्सा था, और अंग्रेजों ने जाते-जाते इसे दो मुल्कों में बांट दिया था। तब से लेकर अब तक पाकिस्तान धर्म के आधार पर चलने वाला एक देश रहा, और आतंकी हमलों से परे भी पाकिस्तान की आम जिंदगी में धार्मिक कट्टरता हर दिन अपना दखल रखती है। वहां पर न सिर्फ गैरमुस्लिम लोग, बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर के कुछ ऐसे सम्प्रदायों के लोग जो कि कट्टर इस्लामियों को पसंद नहीं आते हैं, वे भी आए दिन मारे जाते हैं। यह तो बात हुई मौतों के आंकड़ों की, लेकिन इससे परे भी रोजाना की सामाजिक जिंदगी में धार्मिक कट्टरता हिंसा पैदा करती ही रहती है। आए दिन वहां से खबरें आती हैं कि किसी ईसाई को मारा गया, तो किसी हिन्दू लडक़ी का अपहरण करके उसे मुस्लिम बनाकर उससे शादी कर ली गई।
यह धर्म का एक आम मिजाज है कि वह कट्टरता की तरफ बढ़ते ही चलता है। जिस तरह किसी धार्मिक कार्यक्रम या धर्मस्थल के लाउडस्पीकर लगातार तेज होते जाते हैं, क्योंकि उनके आम हल्ले से लोगों पर असर होना बंद सा होने लगता है, इसलिए वे अधिक तेज होकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहना चाहते हैं। पाकिस्तान में इस धार्मिक कट्टरता ने पहले तो देश में सभी धर्मों की बराबरी खत्म की, बहुसंख्यक धर्म ने देश पर अपना एकाधिकार जमाया, आसपास के देशों में भी बढ़ती चली गई धार्मिक कट्टरता का असर हुआ, और पड़ोस के हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के खिलाफ पाकिस्तान में जैसे मजहबी फतवे तैरते रहे, उनसे भी वहां की जनता का दिमाग हिन्दू विरोधी होते गया, और नतीजतन वह मुस्लिम कट्टरपंथी भी होते गया।
यह कहानी सिर्फ पाकिस्तान की नहीं है, दूसरी जगहों पर भी धार्मिक कट्टरता और हिंसा साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। हिन्दुस्तान में आज हिन्दू बहुसंख्यक हैं, और वे एक साम्प्रदायिक सोच की आग में झोंक भी दिए जा रहे हैं। उन्हें एक रंग को हिन्दू रंग मान लेने और देश में साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के फिजूल के काम में झोंक दिया गया। फिर बाद में लोगों ने सैकड़ों वीडियो निकालकर याद दिलाया कि एक हिन्दू अभिनेत्री ने अपने हिन्दू बदन पर जो भगवा-केसरिया बिकिनी पहनी थी, वैसी भगवा-केसरिया बिकिनी और दूसरे उत्तेजक कपड़े पहनी हुई अभिनेत्रियों के साथ निहायत ही फूहड़ और अश्लील डांस करते हुए भाजपा के बड़े-बड़े सांसद फिल्में करते आए हैं। बेशरम रंग का यह मुद्दा छेडऩा खुद भाजपा को भारी पड़ा क्योंकि उसके अपने लोगों के इसी बेशरम रंग के भुलाए जा चुके सैकड़ों वीडियो फिर ताजा हो गए, लोगों को समझ आ गया कि धार्मिक रंग के नाम पर एक फिजूल की नफरत फैलाई जा रही थी, और एक मुस्लिम अभिनेता शाहरूख खान की पठान नाम की फिल्म हिन्दुस्तान के हिन्दू बहुसंख्यक दर्शकों के बीच इतिहास की सबसे बड़ी हिट भी हो गई। पाकिस्तान को देखकर भी हिन्दुस्तान में धर्मान्धता फैलाने पर आमादा लोगों को अगर कोई सबक नहीं मिल रहा है, तो किसी दिन उन्हें कोई धमाका मिल सकता है। हिंसा को लगातार बढ़ाते जाने से वह किसी समस्या का समाधान नहीं होती, वह और बड़ा खतरा बन जाती है, हिन्दुस्तान में आज यही होते हुए दिख रहा है। देश के लोग इतने खाली और बेकार बैठे हैं, उनमें मनोबल और महत्वाकांक्षा की इतनी कमी है कि वे धर्म के नाम पर अपने पीढिय़ों के पड़ोसी का सिर तोड़ देने के लिए तैयार हो रहे हैं। आज अगर हिन्दुस्तान में चुनाव जीतने के लिए कोई हिन्दू वोटों का इस तरह से ध्रुवीकरण करना चाहते हैं कि मुस्लिमों से नफरत करवाकर हिन्दू वोट पा लिए जाएं, तो वोट तो मिल सकते हैं, लेकिन शांति की गारंटी नहीं मिल सकती। और यह मानना सिवाय बेवकूफी और क्या होगा कि 140 करोड़ आबादी में 20 करोड़ मुस्लिम, दसियों करोड़ दलित, दसियों करोड़ आदिवासी, इन सबको प्रताडि़त करके, सबको कुचलकर, सब पर एक आक्रामक हिन्दुत्ववादी जीवनशैली लादकर इस देश को चैन से रखा जा सकता है। लोगों को पाकिस्तान के आज के मजहबी आतंक के साथ हिन्दुस्तान की तुलना कुछ नाजायज लग सकती है, लेकिन लोगों को अगर भविष्य के लिए, आने वाली पीढिय़ों के लिए कोई सबक लेना है, तो वह अपने से अधिक खतरा झेल रहे देशों को देखकर ही लिया जा सकता है। आज हिन्दुस्तान का रूख जिस तरफ है, वह रूख बहुत खतरनाक है, और वह रूख पाकिस्तान जैसे ही किसी भविष्य की ओर इशारा करता है। यह भी समझने की जरूरत है कि आतंकी हमलों के लिए बराबरी की आबादी जरूरी नहीं होती है, दर्जन भर लोग भी दसियों लाख की आबादी पर आतंकी हमले कर सकते हैं, लोगों को थोक में मार सकते हैं। इससे बचने और बचाने का अकेला तरीका यही है कि देश के लोगों में धार्मिक कट्टरता खत्म की जाए, धर्मान्धता खत्म की जाए, धर्म के नाम पर हिंसा को मंजूरी देना खत्म किया जाए, और कानून के राज को सबसे ऊपर माना जाए। हिन्दुस्तान आज ऐसी कुछ बुनियादी जरूरतों से खिलवाड़ करते दिख रहा है, इसके नतीजे में आज तो धार्मिक ध्रुवीकरण से धार्मिक जनगणना की तरह के चुनावी नतीजे मिल रहे हैं, लेकिन चुनावों से परे रोज की जिंदगी एक खतरनाक मंजिल की तरफ बढ़ भी रही है। यह भी नहीं समझना चाहिए कि हिन्दुस्तान जैसे देश में धार्मिक आतंक हिन्दू-मुस्लिम होकर खत्म हो जाएगा, जैसा कि पाकिस्तान में देखने मिल रहा है, एक धर्म के भीतर भी दो समुदाय एक-दूसरे को थोक में मार सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस सांसद और पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेता राहुल गांधी की कन्याकुमारी से शुरू हुई पदयात्रा 136 दिनों में 12 राज्यों, 2 केन्द्र प्रशासित प्रदेशों के 75 जिलों से होती हुई कश्मीर के श्रीनगर में तिरंगा फरहाने के साथ खत्म हुई। 3500 किलोमीटर से अधिक की यह पदयात्रा 116 दिन रोजाना 23-24 किलोमीटर चली। जब यह शुरू हुई तो इसके नारे, नफरत छोड़ो, भारत जोड़ो, को लेकर राहुल गांधी का मखौल उड़ाया गया, और बहुत से लोगों को इसकी कामयाबी पर शक था। लेकिन सफर जैसे-जैसे आगे बढ़ा, राहुल को मिलने वाला जनसमर्थन एक सैलाब की तरह बढ़ते चले गया। कांग्रेस पार्टी तो इसके साथ थी ही, लेकिन दूसरी पार्टियों के भी दर्जनों नेता अलग-अलग दिनों पर इसमें शामिल हुए, रास्ते के गांव-कस्बे और शहर के लोग सडक़ों पर उमड़ पड़े, और राहुल गांधी इतने महीनों तक सिर्फ मोहब्बत और दिल जोडऩे, नफरत छोडऩे की बात दुहराने वाले हाल के हिन्दुस्तान के अकेले नेता बने। इस पदयात्रा का किसी चुनाव से कोई रिश्ता नहीं था, और वही मानो सबसे अच्छी बात थी। इसके बीच दो राज्यों में चुनाव हुए, लेकिन राहुल तकरीबन वहां से दूर ही रहे, और अपनी पदयात्रा में लगे रहे।
हिन्दुस्तान के आज के मुख्यधारा के कहे जाने वाले तथाकथित मीडिया ने इससे एक दूरी बना रखी थी, लेकिन सोशल मीडिया की मेहरबानी से बिना किसी आडंबर के एक आम इंसान की तरह राहुल हर दिन दर्जनों तस्वीरों में लोगों के सामने आते रहे, लोगों से जुड़ते रहे, और लोग उनसे जुड़ते रहे। राहुल को इस पदयात्रा में मिले अपार जनसमर्थन की वजह से जो लोग उन्हें आज विपक्ष का सबसे बड़ा या सर्वमान्य नेता मानने और बताने की चूक कर रहे हैं, वे इस पदयात्रा की अहमियत को घटा भी रहे हैं। जहां तक हमें समझ पड़ता है, यह पदयात्रा ठीक अपने नारे को पूरा करते हुए आज टुकड़े-टुकड़े किए जा रहे हिन्दुस्तान को बचाने के लिए, सहेजने और जोडऩे के लिए निकाली गई थी, और उसने अपना वह मकसद हैरानी की हद तक पूरा किया है। जिस तरह आम तबकों के लोग, हर धर्म के लोग, हर उम्र के आदमी-औरत, और बच्चे राहुल के साथ कुछ दूर चलने के लिए होड़ करते रहे, उनसे लिपटकर पिघलते रहे, वह देखना अद्भुत रहा। आज के वक्त जब इस देश में पोशाक से जाति और धर्म पहचानने का फतवा दिया जा रहा है, तब राहुल एक सम्पूर्ण हिन्दुस्तानी की तरह, हर हिन्दुस्तानी के गले मिलते रहे, अनगिनत लोगों के हाथ थामकर उन्हें साथ चलाते रहे, और इसके बदले देश के लोगों के लिए मोहब्बत के अलावा उन्होंने कुछ नहीं मांगा।
आज जब देश के बड़े-बड़े नेता मुंह खोलते हैं, और तेजाबी, साम्प्रदायिक नफरत की लपट निकलती है, वैसे में तकरीबन पांच महीने हर दिन 10-12 घंटे लोगों के बीच रहना, हर दिन अनगिनत लोगों से बात करना, पदयात्रा में जाने कितनी बार प्रेस से बात करना सब होते रहा, लेकिन न तो राहुल ने अपनी लोकप्रियता को लेकर कोई दावे किए, न ही अपनी अहमियत बखान करने की कोशिश की, और न ही उन्होंने भविष्य को लेकर इस यात्रा के योगदान का कोई दावा किया। हर मायने में वे एक आम इंसान की तरह रहते और चलते दिखे, और दाढ़ी और टी-शर्ट का उनका यह नया अवतार आज देश का सबसे चर्चित चेहरा बना हुआ है। जब उनके अगल-बगल के तमाम नेता, और दर्जनों सुरक्षा कर्मचारी ऊनी कपड़ों से लदे हुए थे, तब भी राहुल गांधी जिस तरह महज एक टी-शर्ट में चल रहे थे, उसने भी उन्हें लोगों की हैरानी का सबब बना दिया। उन्होंने इसकी जो वजह बताई, वह भी दिल छू लेने वाली थी कि उन्होंने ठंड में तीन गरीब बच्चियों को फटे कपड़़ों में देखा जिनके पास पहनने को गर्म कपड़े नहीं थे, तब उन्होंने तय किया कि जब तक वे कंपकंपाने नहीं लगेंगे, तब तक एक टी-शर्ट ही पहनेंगे, और वे पूरी ही पदयात्रा में वैसे ही रहे।
राहुल की पदयात्रा को गांधी की किसी पदयात्रा से जोडक़र देखना राहुल के साथ ज्यादती होगी। कल उन्होंने श्रीनगर में पदयात्रा पूरी की है, और आज गांधी पुण्यतिथि है। लेकिन गांधी से तुलना के लिए एक लंबे इतिहास और बहुत ऊंची महानता की जरूरत पड़ती है, और राहुल की किसी बात से ऐसा नहीं लगता है कि वे खुद अपनी इस पदयात्रा का महिमामंडन चाहते हैं। उनकी पार्टी के लोगों को भी चाहिए कि राहुल को महान दिखाने के फेर में कोई ऐसे दावे न करें जिनसे कि उनकी कामयाबी को शिकस्त मिले। देश के लोगों ने महीनों तक राहुल गांधी को आम लोगों के बीच बिना किसी आडंबर के, और बिना फैशन परेड के, बिना नफरत की कोई बात किए, और बिना कोई दावे किए देखा है, और इस अभूतपूर्व स्थिति को बिना कुछ कहे एक अहसास की तरह बने रहने देना चाहिए, बजाय फिजूल की बातें करके उसके असर को खत्म करने के। कांग्रेस के कुछ लोगों ने राहुल को विपक्ष का प्रधानमंत्री का चेहरा बताने का अतिउत्साह भी इसी दौरान दिखाया है, और ऐसी बातों ने राहुल का नुकसान करने के अलावा कुछ नहीं किया है। ऐसा कहने वाले लोगों ने हिन्दुस्तान में प्रचलित एक पुरानी कहावत नहीं सुनी है कि सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा। इस यात्रा को किसी भी चुनावी मकसद और संभावना से जोडक़र देखना अपने मन के भीतर तो लोग कर सकते हैं, लेकिन बयानों में इसे लेकर कुछ भी कहना न सिर्फ राहुल और कांग्रेस के खिलाफ जाएगा, बल्कि लोकतंत्र के भी खिलाफ जाएगा। एक लोकतांत्रिक देश में उसके सबसे नाजुक दौर में सिर्फ चुनावों को ध्यान में रखकर बयानबाजी किसी के लिए अच्छी नहीं है।
राहुल गांधी को लोगों से मिलने का यह सिलसिला जारी रखना चाहिए। इस हौसलेमंद नौजवान से अब यह उम्मीद करना कुछ ज्यादती होगी कि वह गुजरात से उत्तर-पूर्व तक एक और पदयात्रा निकाल ले, हालांकि देश को आज इसकी जरूरत है, भारत को जोडऩे की जरूरत गुजरात से असम तक भी है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है तो भी राहुल गांधी को उन प्रदेशों का दौरा करना चाहिए जो कि भारत जोड़ो पदयात्रा के रास्ते में नहीं आए थे। जितने राज्यों में वे गए हैं, उससे डेढ़ गुना राज्य अभी बाकी हैं, और कांग्रेस का संगठन तो हर राज्य में है। इसलिए राहुल गांधी इनमें से हर राज्य में जाकर वहां पार्टी के बैनर से परे भी आम लोगों से बात कर सकते हैं, अपना संस्मरण सुना सकते हैं, और लोगों की बात सुन सकते हैं। हो सकता है कि ऐसे हर प्रदेश में वे एक-एक दिन पैदल चल लें, और उसके पहले और बाद लोगों से बात कर लें। उन्हें अगले कुछ वक्त कांग्रेस के घरेलू पचड़ों से परे रहना चाहिए, और देश के माहौल को बेहतर बनाने के लिए शुरू की गई अपनी कोशिश को जारी रखना चाहिए। इस सर्द पदयात्रा में हजारों किलोमीटर का यह टी-शर्ट में पैदल सफर राहुल को तपाकर अधिक मजबूत कर गया है, और अगला काफी वक्त राहुल को चुनावी राजनीति से परे रहकर देश के लोगों में नफरत खत्म करने, और मोहब्बत जगाने में लगाना चाहिए। आज भारतीय राजनीति में ऐसे किरदार की जगह खाली थी, उसे बीते इन महीनों में राहुल ने बखूबी भरा है, और उन्हें यही सिलसिला कुछ और वक्त जारी रखना चाहिए। लोगों को इससे चुनावी हासिल का हिसाब नहीं लगाना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में इंसानियत और मोहब्बत चुनावी फतह से ऊपर की बातें हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के टेनेसी राज्य में पुलिस ने अपनी एक स्पेशल यूनिट को भंग कर दिया है। इस यूनिट की एक टीम के पांच अफसरों को पिछले हफ्ते एक काले नौजवान को बुरी तरह पीटने के आरोप में, उसकी मौत हो जाने के बाद, नौकरी से निकाल दिया गया है। यह पूरी हिंसक पिटाई एक सार्वजनिक जगह पर वीडियो में दर्ज हुई है, और यह वीडियो सामने आने के बाद इस पुलिस के नाम पर थूका जा रहा था। इस मामले को लेकर अमरीका में कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे, और लोग पुलिस के आतंक की कुछ पुरानी कुख्यात वारदातों को भी इस सिलसिले में याद कर रहे थे। अश्वेत की मार-मारकर हत्या के इस मामले में तकनीकी रूप से कोई नस्लभेद नहीं है, क्योंकि मारने वाले तमाम पुलिस-अफसर अश्वेत ही थे। अमरीका में नस्लभेद के माहौल में काले लोग अपने को काला कहलाना पसंद करते हैं, क्योंकि उनका यह मानना है कि उनकी पहचान श्वेत लोगों से तुलना करते हुए अश्वेत के रूप में नहीं होनी चाहिए, काले के रूप में होनी चाहिए। अमरीका बुरी तरह से नस्लभेद का शिकार देश है, फर्क सिर्फ यही है कि वहां का कानून इसके खिलाफ तेजी से काम करता है।
अब एक काले नौजवान को सडक़ पर ट्रैफिक जांच करते हुए पांच काले पुलिस वालों ने मार-मारकर मार डाला, तो क्या यह पूरी तरह नस्लभेद से परे का मामला है? इस मामले को हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक सत्ता की ताकत के साथ जुड़े हुए लोगों के मिजाज को देखकर समझने की जरूरत है। खुद अमरीका का एक सर्वे यह कहता है कि जब किसी काले पर जुल्म की वारदात होती है, तो पुलिसवर्दी के काले लोग भी पीछे नहीं रहते। हिन्दुस्तान की राजनीति और सत्ता में ऊपर आए हुए लोगों को देखें, तो उनके बीच भी यही बात दिखती है कि वे चाहे दलित-आदिवासी तबकों की रिजर्व सीटों से लडक़र आ जाएं, चाहे उन तबकों के वोटों को पाकर आ जाएं, जब वे सत्ता पर आ जाते हैं, तो उनका मिजाज सत्ता का हो जाता है। कोई दलित या आदिवासी अफसर किसी दलित या आदिवासी का जायज काम भी नाजायज रिश्वत लिए बिना करते हों, ऐसा सुनने में नहीं आता। सत्ता तक पहुंचने के लिए जाति की जिस सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता है, लोग सबसे पहले उसी सीढ़ी को लात मारकर गिराते हैं, ताकि उनकी बिरादरी के दूसरे लोग उन सीढिय़ों से उनकी बराबरी तक न पहुंच जाएं।
सत्ता का मिजाज ऐसा होता है कि जो महिलाएं सत्ता पर पहुंचती हैं, वे भी सत्ता पर बैठे हुए मर्दों की तरह ही सोचने लग जाती हैं, और हिन्दुस्तान के संदर्भ में देखें तो बलात्कार की शिकार महिलाओं के खिलाफ जितने बयान मर्दों के आते हैं, उनसे कुछ ही कम बयान औरतों के भी आते हैं। अगर महिलाओं को दूसरी महिलाओं की, उनके हकों की फिक्र होती, तो फिर सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती, और महबूबा की पार्टियां मिलकर महिला आरक्षण विधेयक को कब का कानून बनवा चुकी रहतीं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि भारतीय संसदीय राजनीति पर हावी मर्दों का दिल औरतों की बराबरी मानने के खिलाफ हमेशा अड़े रहा, और महिलाएं पार्टी की अध्यक्ष रहते हुए भी, उन पर मालिकाना हक रखते हुए भी कोई कोशिश करते नहीं दिखीं।
अमरीका में काले पुलिस अफसरों के हाथों एक गरीब काले नौजवान की इस तरह हत्या से उस देश और बाकी दुनिया में यही सवाल उठ खड़े होते हैं कि सत्ता की ताकत, ओहदे की ताकत, क्या लोगों को अपनी जाति, अपने धर्म, और अपने रंग के प्रति भी संवेदनशील नहीं छोड़ती है? सत्ता लोगों की बुनियादी सोच को ही बदल देती है, और वह औरत-मर्द का फर्क भी खत्म कर देती है। अभी साल भर के भीतर की बात है, बंगाल में एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार के मामले में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने ऐसी गैरजिम्मेदारी का बयान दिया था कि जिसे लोगों ने जमकर धिक्कारा। ममता ने इस बलात्कार पर सवाल उठाया और कहा- ‘यह खबर बताती है कि एक नाबालिग की बलात्कार की वजह से मौत हो गई है, क्या आप इसे बलात्कार कहेंगे? क्या वह गर्भवती थी, या उसका किसी से कोई प्रेम-प्रसंग था? क्या इसकी जांच हुई है? मैंने पुलिस से जांचने कहा है। मुझे बताया गया है कि इस लडक़ी का किसी लडक़े के साथ कोई चक्कर था, और परिवार को इसके बारे में मालूम था। अगर एक जोड़े में कोई संबंध है, तो क्या मैं उसे रोक सकती हूं?’ एक मुख्यमंत्री की हैसियत से, और एक महिला होते हुए लोगों ने इस बयान को जमकर धिक्कारा था। लेकिन अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग महिला लीडर, या उनकी पार्टी के पुरूष लीडर ऐसे बयान देते हैं, और इनसे यही साबित होता है कि महिलाएं भी अपनी पार्टी की लीडर बनने के बाद महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता कुछ या बहुत हद तक खो बैठती हैं। ताकत एक नशा होता है, और इसके असर से बचना मुश्किल होता है। अगर सरकारों में बैठे दलित या आदिवासी अफसर और कर्मचारी ही दलित और आदिवासी जनता के काम बिना रिश्वत लिए करने लगते, उनके काम करवाने के लिए कुछ मेहनत करते होते, तो आज इन दबे-कुचले तबकों की हालत इतनी खराब नहीं होती। किसी समाज से आकर ताकत के ओहदे तक पहुंचने वाले लोगों को उनके समाज का प्रतिनिधि मानना ठीक नहीं है, वे सिर्फ सत्ता के प्रतिनिधि होकर रह जाते हैं।