विचार/लेख
अपूर्व झा
सोशल मीडिया के एक पोस्ट पर नजर पड़ी। जिसमें रील्स बनाने वाली किसी लडक़ी के शादी का विज्ञापन था। जिसमें लडक़ी की तरफ से मांग थी कि लडक़े का चेहरा फोटोजेनिक होना चाहिए। वो लडक़ी के साथ रील्स बना सके। लडक़े का संयुक्त परिवार ना हो। लडक़े को वीडियो एडिटिंग आनी चाहिए। और कुछ फिल्म या वेब सीरीज का भी जिक्र किया गया था। जिससे समझा जा सके कि लडक़ी को किस तरह का लाइफ पार्टनर चाहिए। इससे सम्बंधित और भी कुछ मांग थी। मुझे ठीक से याद नहीं।
कुछ लोग उस विज्ञापन को सोशल मीडिया पर पोस्ट कर लडक़ी का माखौल उड़ा रहे हंै। और नीचे कमेंट सेक्शन में भी लोग चटकारे लेकर तरह-तरह के कमेंट लिख रहे हैं। जबकि मेरा मानना है कि लडक़ी ने बहुत अच्छा किया कि शादी से पहले ही अपनी सारी प्राथमिकता बता दी। आपको पसंद है तो ठीक, वरना आप अपने रास्ते और लडक़ी अपने रास्ते। मैंने निजी जिंदगी में कई ऐसी शादियां देखी है जिसमें लडक़ी और लडक़े दोनों का जीवन नरक से भी बदतर बना हुआ है। मैं इसकी सबसे बड़ी वजह झूठ के बुनियाद पर हुई, शादी को मानता हूँ। अरे, मेरा लडक़ा कुछ भी खाता-पीता नही है। सुपारी तक नहीं खाता। पचास हजार सैलेरी है। शादी के बाद पता चलता है कि लडक़ा ठीक से बात तक नहीं कर पाता क्योंकि चौबीस घंटे पुडिय़ा मुंह में ठुसे रहता है। शाम होते ही शराब की तलब जग जाती है। पन्द्रह हजार की सैलरी को पचास हजार बता दिया गया था। लडक़ा या लडक़ी पहले से किसी दूसरी महिला या पुरूष से रिलेशनशिप में है। अक्सर ऐसी बातें छुपा ली जाती हैं। आप पार्टी लवर हैं। आपको देर रात तक मौज-मस्ती करना पसंद है। आपको ऐसा लाइफ पार्टनर मिल गया या मिल गई जो शाम सात बजे के बाद घर से बाहर ही नहीं निकलता या निकलती है। आप ओपेन माइंडेड हैं। आपका पति या पत्नी इस वजह से आप सदैव शक करती या करता है।
ऐसे कई कारण है। जिन्हें अरेंज मैरेज में अक्सर बड़े बुजुर्ग छुपा लेते हैं। कई बार तो लव मैरिज में भी लडक़े या लडक़ी कई बातें नहीं बताते। जिसका बाद में पता चलने पर पति-पत्नी में कलह शुरू हो जाती है। चूंकि हमारा समाज पुरुष प्रधान है। इसलिए पहले महिलाओं को ही मन मारना पड़ता था। वो ही अरजेस्ट करती थीं। वक्त बदला, अब महिलाएं भी पुरुषों के बराबर आकर खड़ी हो रही हैं। वो भी अपनी पसंद या नापसंद जाहिर कर रही हैं। इससे आपको क्या दिक्कत है? उसने अपनी पसंद बता दी। आपको पसंद है तो ठीक, वरना आप अपने रास्ते, वो अपने रास्ते।
मैंने गाय बताकर बिहाई गई लड़कियों द्वारा नाक से नीचे एक बीता भर घूंघट लेकर सास-ससुर को ऐसी-ऐसी गालियां, यहाँ तक कि मारते भी देखा है। वहीं ऐसे पुरूष भी देखे हैं जिनके बारे में शादी से पहले बताया गया कि वो हीरा है हीरा और लडक़े ने सारे अवगुणों पर पीएचडी कर रखी है। इससे अच्छी ये लडक़ी है। जिसने पहले से अपनी प्राथमिकता बता दी है। आपको पसंद है तो आगे बढि़ए। वरना कोई जोर जबर्दस्ती तो है नहीं।
इसराइल और फिलीस्तीनियों के बीच संघर्ष को लेकर दशकों से अंतरराष्ट्रीय समुदाय बँटा हुआ है लेकिन पिछले महीने सात अक्टूबर को इसराइल के भीतर हमास के हमले के बाद विभाजन की यह लकीर पहले से कहीं ज़्यादा मोटी और स्पष्ट हो गई है।
हमास के हमले के तुरंत बाद कुछ देशों ने हमास की निंदा करते हुए इसराइल का समर्थन किया तो कुछ देश हमास के समर्थन में जा खड़े हुए।
कुछ देशों ने स्थायी शांति स्थापित करने के लिए नई कोशिशें करने की अपील की, तो कुछ ने इसराइल को इस युद्ध का दोष दिया। लेकिन अब पश्चिम के देश इसराइल के पीछे और अरब के देश हमास के पीछे लामबंद होते हुए दिखाई दे रहे हैं।
इसराइल के साथ राजनयिक संबंध कायम करते हुए, जिन अरब के देशों ने अपने राजदूत वहाँ भेजे थे, वहाँ भी असहजता बढ़ रही है। दुनिया के कई देशों ने इसराइल से अपने राजदूत वापस बुला लिए हैं।
ईरान ने तो सभी इस्लामिक देशों से इसराइल से ट्रेड खत्म करने की अपील की है। दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश इसराइल के साथ खड़े हैं और इस युद्ध में उसकी मदद कर रहे हैं।
युद्ध शुरू हुए 27 दिन हो गए हैं। हमास शासित स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक गाजा में मरने वालों की संख्या 8700 से ज्यादा हो गई है, वहीं इसराइल के करीब 1400 लोग मारे गए हैं।
युद्ध कब खत्म होगा? हमास ने जिन लोगों को बंधक बनाया है, वे कब रिहा होंगे? गाजा में रहने वाले लोगों की जिंदगी कब पटरी पर लौटेगी, इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।
बात सबसे पहले उन देशों की जो इसराइल के साथ खड़े हैं। 26 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा में ‘गजा में नागरिकों की सुरक्षा, कानूनी और मानवीय कदमों को जारी रखने' के समर्थन में युद्धविराम का प्रस्ताव लाया गया था।
इस प्रस्ताव के पक्ष में 120 वोट पड़े, जबकि अमेरिका समेत 14 पश्चिमी देशों ने इसके खिलाफ मतदान किया, वहीं भारत समेत 45 ऐसे देश थे, जो वोटिंग से बाहर रहे।
अमेरिका
साल 1948 में इसराइल को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक अमेरिका था। हमास के हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन इसराइल पहुंचे थे और उन्होंने कहा था कि वे ‘इसराइल के साथ खड़े हैं’।
इसराइल को अमेरिका, मध्य-पूर्व में एक महत्वपूर्ण सहयोगी की तरह देखता है। डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन, दोनों ही पार्टी के राष्ट्रपतियों के कार्यकाल के दौरान इसराइली इलाक़े को महफूज रखने की कोशिश, अमेरिकी विदेश नीति का हिस्सा रही है।
साल 2020 में अमेरिका ने इसराइल की 3।8 अरब डॉलर की मदद की थी, इसके पहले साल 2016 में 2017 से 2028 तक लागू होने वाले 38 अरब डॉलर के एग्रीमेंट पर अमेरिका ने दस्तखत किए थे।
अमेरिका न सिर्फ यहूदियों को अपने यहाँ बसाता है, बल्कि इसराइल की सेना को दुनिया की सबसे उन्नत सेना बनाने में भी करोड़ों डॉलर खर्च करता है।
फ्रांस
यूरोप में फ्रांस एक ऐसा मुल्क है, जहां बड़ी संख्या में यहूदी और मुसलमान समुदाय के लोग रहते हैं। यहां करीब पांच लाख यहूदी बसते हैं, जो यूरोप के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा हैं।
वहीं एक आंकलन के मुताबिक, मुसलमानों की आबादी करीब 50 लाख है। यह भी यूरोप के दूसरे किसी देश के मुकाबले सबसे अधिक हैं।
हमास के हमले के बाद न सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति बल्कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी इसराइल पहुंचे थे।
उन्होंने कहा था कि अगर इस युद्ध में हमास की जीत हुई तो यूरोप खतरे में पड़ जाएगा। मैक्रों ने कहा कि यह लड़ाई सिर्फ इसराइल की नहीं है, बल्कि यह लड़ाई पूरे यूरोप, अमेरिका और मध्य पूर्व के भविष्य की लड़ाई है।
मैक्रों ने फिलीस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास को ‘एक आतंकी संगठन’ बताया और कहा कि ‘ये संगठन इसराइल के लोगों की मौत चाहता है।’
इसराइल पर हमसे के हमले में 10 से ज्यादा फ्रांस के नागरिक मारे जा चुके हैं और दर्जन भर से ज्यादा अब भी लापता हैं।
फ्रांस की सरकार ने देश में फ़लस्तीनियों के समर्थन में विरोध प्रदर्शनों पर भी रोक लगा दी है। गृहमंत्री जेराल्ड डर्माविन ने चेतावनी दी है कि फ्रांस में रहने वाले विदेशी नागरिक अगर नियमों का पालन नहीं करेंगे तो उन्हें वापस उनके देश भेज दिया जाएगा।
इस सबके बावजूद यूएन में गाजा को लेकर हुई वोटिंग में फ्रांस ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था और कहा था किसी भी हाल में नागरिकों की हत्या को उचित नहीं ठहराया जा सकता। फ्रांस ने यूएन में संघर्ष विराम की वकालत करते हुए बंधकों को छोडऩे की अपील की है। इसके अलावा जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड ने हमास की आलोचना करते हुए इसराइल का साथ दिया है।
ईरान
1948 में संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव से अस्तित्व में आने के बाद से इसराइल ने अपने पड़ोसी अरब देशों के साथ कई युद्ध लड़े हैं।
मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के दो दर्जन से ज्यादा देश ऐसे हैं जिनका इसराइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं हैं। इन देशों में सबसे अहम नाम ईरान का है।
ईरान, इसराइल के अस्तित्व से ही इनकार करता है। उसका कहना है कि इसराइल फिलीस्तीनियों की ज़मीन पर अवैध कब्जा कर रहा है।
ईरान और इसराइल की सीमाएं तो एक दूसरे नहीं लगती हैं, लेकिन इसराइल के पड़ोसी देशों जैसे लेबनान, सीरिया और फिलीस्तीन में ईरान का प्रभाव साफ दिखाई देता है।
जानकार मानते हैं कि भले ही इस हमले के पीछ सीधे तौर पर ईरान का हाथ न हो लेकिन हमास के लड़ाकों की ट्रेनिंग, उन्हें हथियार देने और हमले से पहले समर्थन देने में ईरान की अहम भूमिका है।
इस जंग में ईरान, खुलकर हमास का समर्थन कर रहा है और बार-बार इसराइल को कड़े परिणाम भुगतने की चेतावनी दे रहा है।
ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खामेनेई का कहना है कि अगर इसराइल के हमले जारी रहे तो मुसलमानों को कोई नहीं रोक पाएगा।
ताजा बयान में उन्होंने सभी मुस्लिम देशों से इसराइल के खिलाफ लामबंद होने के लिए कहा है।
उन्होंने कहा है, ‘गाजा पर हमले बंद होने चाहिए। जो मुस्लिम देश इसराइल को तेल और खाने-पीने का सामान भेज रहे हैं, वह तुरंत बंद होना चाहिए। मुस्लिम देशों को इसराइल के साथ आर्थिक सहयोग करने की जरूरत नहीं है।’
जॉर्डन
अरब मुल्क जॉर्डन की सीमा वेस्ट बैंक से मिलती है और यहां फिलीस्तीनी शरणार्थियों की बड़ी संख्या रहती है।
इसराइल जब बना तो इस क्षेत्र की एक बड़ी आबादी भागकर जॉर्डन आ गई थी। इस युद्ध में जॉर्डन फिलीस्तीनियों के साथ खड़ा है और वह द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की बात करता है।
गाजा में मानवीय कदमों के लिए संघर्ष विराम को लेकर यूएन में प्रस्ताव को लाने का काम भी जॉर्डन ने ही किया था।
युद्ध शुरू होने के बाद जॉर्डन ने अपने राजदूत को इसराइल से वापस बुला लिया है, वहीं जॉर्डन में इसराइल के राजदूत दो हफ्ते पहले विरोध के चलते तेल अवीव चले गए थे।
जॉर्डन के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री अयमन साफादी ने कहा, ‘हमने तेल अवीव से अपने राजदूत को बुला लिया है और बता दिया है कि हम राजदूत को दोबारा नहीं भेजेंगे। गाजा पर जो युद्ध छेड़ा गया है, जिसमें हजारों फिलीस्तीनी नागरिकों की जान गई है, इससे मानवीय संकट पैदा हो गया है और ये पीढिय़ों तक लोगों को परेशान करेगा।’
जॉर्डन के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि राजदूत की तेल अवीव वापसी तभी होगी, जब इसराइल गाजा पर अपने युद्ध को रोक दे और जो मानवीय संकट पैदा हुआ है, उसे खत्म करे।
जॉर्डन के उप प्रधानमंत्री ने कहा, ‘ये कदम जॉर्डन के रुख को बताने और गाजा पर इसराइल के हमले की निंदा करने के लिए उठाया गया है।’ इस पर ध्यान दिलाते हुए जॉर्डन सरकार ने कहा कि राजदूत वापस बुलाने का फैसला इसलिए भी किया गया है क्योंकि युद्ध शुरू होने के बाद इसराइल फिलीस्तीनियों के पास खाना, दवाएं और तेल तक नहीं पहुंचने दे रहा है।
तुर्की
तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं। तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था।
तुर्की और इसराइल के बीच रिश्ते में 2002 के बाद से उतार-चढ़ाव रहे हैं। फ़लस्तीन मुद्दे को लेकर तुर्की हमेशा इसराइल पर हमलावर रहा है।
2018 में गाजा में फिलीस्तीनी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ इसराइल की हिंसक कार्रवाइयों के विरोध में तुर्की ने अपने राजदूत को तेल अवीव से वापस बुला लिया था।
अगस्त 2022 में तुर्की और इसराइल ने चार साल के गतिरोध के बाद एक-दूसरे के साथ राजनयिक रिश्ते बहाल किए थे।
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने शनिवार, 28 अक्टूबर को इस्तांबुल में हुई फलस्तीन समर्थन रैली को संबोधित किया।
उन्होंने इस रैली में हमास को लिबरेशन ग्रुप और इसराइल को युद्ध अपराधी बताया।
अर्दोआन ने कहा कि हमास एक आतंकवादी संगठन नहीं है, बल्कि यह एक लिबरेशन ग्रुप है, जो अपनी भूमि और लोगों की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहा है।
गज़़ा में इसराइली सेना का किन चुनौतियों से होगा मुक़ाबला
सऊदी अरब
कुछ वक्त पहले ही सऊदी अरब और इसराइल के बीच संबंधों को बेहतर करने की दिशा में कदम उठाने शुरू किए गए थे।
लेकिन इसराइल-हमास संघर्ष ने इस पूरी कवायद को पटरी से उतार दिया है। दुनियाभर के मुसलमानों और अरबी लोगों के लिए फिलीस्तीन बेहद महत्वपूर्ण है।
सऊदी नेतृत्व को इसका अहसास है कि अगर उसने फिलीस्तीनियों के संघर्ष से मुँह मोड़ा तो असर इलाके में और वैश्विक स्तर पर उसकी छवि पर पड़ेगा। अगर सऊदी अरब ने इसराइल के साथ समझौता किया तो इससे उसकी धार्मिक वैधता को गंभीर हानि पहुँच सकती है।
सऊदी अरब की मुश्किल ये है कि ऐसे वक्त में इसराइल से हाथ मिलाना, अपने खिलाफ ईरान के हाथों में हथियार दे देने जैसा होगा।
युद्ध शुरू होने के बाद सऊदी अरब ने बयान जारी कर कहा था, ‘सऊदी अरब फिलीस्तीनी लोगों के वैध अधिकार हासिल करने, सम्मानजनक जीवन जीने की कोशिश और उनकी उम्मीदों को पूरा करने और न्यायपूर्ण और स्थायी शांति की कोशिश में उसके साथ खड़ा रहेगा।’
कतर
कतर के विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा है, ‘कतर एक बार फिर सभी पक्षों से संघर्ष को आगे न बढ़ाने की अपील करता है। दोनों पक्ष पूरी तरह हिंसा छोड़ दें ताकि ये इलाके और बड़ी हिंसा के दुश्चक्र में न फंस जाए।’
कतर का इसराइल के साथ कोई औपचारिक संबंध नहीं है। बावजूद इसके कतर मध्यस्थता के मामले में केंद्रीय भूमिका में आ गया है।
अब कतर की मदद से हमास के कब्जे से बंधकों को छुड़वाने की कोशिशें की जा रही हैं। बंधकों को छुड़ाने के मुद्दे पर कतर के अधिकारी इसराइल के मध्यस्थों के साथ फोन पर बात कर रहे हैं।
हमास ने हाल ही में चार बंधकों को रिहा किया था, जिसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कतर को धन्यवाद दिया था।
कतर की राजधानी दोहा में 2012 से ही हमास के राजनीतिक विंग का कार्यालय मौजूद है।
जानकारों का मानना है कि कतर के कई अधिकारी गाजा गए हैं और हमास के वरिष्ठ नेताओं से उनकी अच्छी जान पहचान है।
लेकिन कतर और इसराइल के बीच बैक चैनल बातचीत का रास्ता खुला हुआ है और बंधकों को छुड़ाने के मुददे पर कतर के अधिकारी इसराइल के मध्यस्थों के साथ फोन पर बात कर रहे हैं।
क़तर की राजधानी दोहा में 2012 से ही हमास के राजनीतिक विंग का कार्यालय मौजूद है।
बोलीविया
लातिन अमेरिकी देश बोलीविया ने गाजा में इसराइल के सैन्य अभियान के मद्देनजर उससे राजनयिक संबंध तोडऩे की घोषणा की है।
उप विदेश मंत्री फ्रेडी ममानी ने इसराइल के क़दम को ‘आक्रामक और असंगत’ करार दिया है।
बोलीविया लातिन अमेरिका का पहला देश है, जिसने इस संघर्ष की वजह से इसराइल से संबंध खत्म करने की घोषणा की है। इस देश ने संघर्ष विराम की अपील की थी और कहा था कि वो गाजा में मानवीय सहायता भेजेंगे।
बोलीविया पहले भी गज़़ा पट्टी को लेकर इसराइल से संबंध तोड़ चुका है। करीब एक दशक तक इसराइल से संबंध तोडऩे के बाद 2019 में ही दोनों के बीच राजनयिक संबंध बहाल हुए थे।
कोलंबिया
कोलंबिया ने इसराइल से अपने राजदूत को वापस बुलाने का घोषणा की है।
राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो का कहना है कि हमास के खिलाफ युद्ध में इसराइल, गाजा में फलस्तीनियों का ‘जनसंहार’ कर रहा है और ऐसी स्थिति में उनका देश इसराइल के साथ नहीं रह सकता।
उन्होंने कहा कि यह जनसंहार मानवता के खिलाफ अपराध है।
चिली
चिली ने भी अपने राजदूत को इसराइल से वापस बुलाने का फैसला किया है।
चिली के राष्ट्रपति ग्रेबियल बोरिक का कहना है कि इसराइल के हमले में निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं। वहीं चिली के रुख पर इसराइल ने आपत्ति जताते हुए कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि चिली ईरान की तरफ झुककर हमास के ‘आतंकवाद’ का समर्थन नहीं करेगा।
पाकिस्तान
इस युद्ध में पाकिस्तान, फलीस्तीन का समर्थन करते हुए दिखाई दे रहा है। पाकिस्तान ने इसराइल पर हमास के हमले का विरोध भी नहीं किया था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा है, ‘पाकिस्तान फिलीस्तीन के समर्थन में खड़ा है और इसराइल की कब्जा करने वाली सेना की हिंसा और अत्याचार को खत्म करने की अपील करता है।’’
वह भी दो देशों के सिद्धांत की वकालत करता आ रहा है। पाकिस्तान का कहना है कि इसी से मध्य-पूर्व में शांति आ सकती है और फिलीस्तीन की समस्या का अंतरराष्ट्रीय कानून के हिसाब से वाजिब और व्यापक समाधान ही यहाँ स्थाई शांति बहाल कर सकता है।
भारत
इसराइल पर हमास के हमले को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवादी हमला बताया है और कहा कि वो इस मुश्किल वक्त में इसराइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं।
भारत भी कई देशों की तरह दो राष्ट्र समाधान की बात करता है। दो राष्ट्र समाधान के तहत फिलीस्तीन को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने की बात है। इस देश को वेस्ट बैंक में 1967 के पहले की संघर्ष विराम लाइन, गाजा पट्टी और पूर्वी यरुशलम में बनाने की बात कही गई है।
लेकिन 26 अक्टूबर को जब यूएन में गाजा को लेकर वोटिंग हुई, तो भारत ने प्रस्ताव से दूरी बना ली। कहा जा रहा है कि भारत का रुख पश्चिमी देशों की लाइन पर है।
चीन
चीन ने यूएन महासभा में फ़लस्तीनियों के पक्ष में वोट किया था। चीन टू-स्टेट समाधान की बात कर रहा है। यानी उसका कहना है कि इस संकट का समाधान तभी हो सकता है, जब फ़लस्तीन एक स्वतंत्र और संप्रभु देश बन जाएगा।
हमास का समर्थन करने वाले ईरान के साथ चीन के करीबी रिश्ते हैं। जानकारों का मानना है कि ईरान के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल कर चीन मध्यस्थता की भूमिका भी निभा सकता है।
लेकिन चीन को इस युद्ध में संतुलन बनाने में दिक्कत का सामना करना पड़ा रहा है। इसकी वजह है कि लंबे समय से चीन में फलस्तीनी मुद्दे को लेकर सहानुभूति रही है।
एक समय था जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माओत्से तुंग ने फिलीस्तीनियों के लिए हथियार भेजे थे।
बाद में चीन ने अपनी आर्थिक नीतियां बदलीं और इसराइल के साथ रिश्तों को सामान्य किया, लेकिन चीन ने साफ कर दिया है कि वह फिलीस्तीनियों का समर्थन करता रहेगा।
हाल के दिनों में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और दूसरे अधिकारियों ने आजाद फिलीस्तीनी देश की जरूरत पर जोर दिया है। (bbc.com/hindi)
वंदना
1992 में जब टीवी से आए एक नए-नवेले हीरो शाहरुख खान की फि़ल्म ‘दीवाना’ आई, तो लगा एक होनहार सितारे ने दिलों पर दस्तक दी है। बेपरवाह, तेवर से बाग़ी राजा (शाहरुख) ने ‘दीवाना’ में ही एंट्री नहीं ली थी बल्कि सीधे लोगों के दिलों में एंट्री ले ली थी।
लेकिन उस हीरो ने सही मायनों में बॉक्स ऑफि़स पर तहलका मचाया 1993 में जब शाहरुख़ की ‘बाजीगर’ और ‘डर’ एक-के-बाद एक रिलीज हुई।
आज भले शाहरुख़ को किंग ऑफ़ रोमांस कहा जाता है लेकिन कामयाबी की पहली सीढिय़ाँ शाहरुख़ ने रोमांस के जरिए नहीं, बल्कि एंटी-हीरो बनकर चढ़ी हैं।
एंटी-हीरो के रूप में 1993 में शुरु हुआ ‘बाज़ीगर’ का ये काफि़ला अब 2023 में ‘जवान’ तक पहुँच चुका है। यानी तीस साल के फ़ासले पर दो कि़स्म के एंटी-हीरो का सफर शाहरुख़ ने तय किया है।
ग्लोबल रोमांटिक हीरो
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार नम्रता जोशी कहती हैं, ‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ में शाहरुख का एंटी-हीरो वाला इमोशन एक लडक़ी के प्रति उनके प्रेम से प्रेरित था। लेकिन बाद में उन्होंने इस नेगेटिव इमेज को छोड़ते हुए कूल, ग्लोबल, शहरी रोमाटिंक हीरो का चेहरा अपना लिया।’
‘पिछले कुछ सालों में उन्होंने जब ख़ुद को री-इन्वेंट करने की कोशिश की तो उनकी फि़ल्में चलना बंद हो गईं। 2023 में हम कह सकते हैं कि ‘पठान’ और ‘जवान’ के जरिए वो ख़ुद को नए सिरे से ढाल पाए हैं। हिंदी सिनेमा के लिए ये बात नई है कि जिन हालत में हम रह रहे हैं, वहाँ शाहरुख जवान जैसी फिल्म में सत्ता को खुली चुनौती देते हैं।’
‘इस तरह का सत्ता विरोधी रुख अपनाना काबिले-गौर है। ‘बाजीगर’ में एक प्रेमिका के लिए एंटी-हीरो बनना उसके बाद ‘जवान’ में पूरी सत्ता और तंत्र के खिलाफ एंटी हीरो बनना, इन दोनों में बुनियादी फर्क है, और यही शाहरुख़ के सफर को दिखाता है।’
अब्बास-मस्तान की फि़ल्म ‘बाज़ीगर’ 30 साल पहले 13 नंवबर 1993 को आई थी। शायद किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि एक नया हीरो जिसने चंद सीरियल और एक-दो फि़ल्में ही की हैं, वो एक ऐसे क़ातिल का रोल करेगा जो बिना किसी ख़ास ग्लानि के क़त्ल-पर-क़त्ल करता है और उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती।
फि़ल्म ‘बाज़ीगर’ की शुरुआत में शाहरुख़ और शिल्पा शेट्टी के बीच दो रोमांटिक गाने आते हैं। फिर दोनों कोर्ट मैरिज करने जाते हैं और अचानक शाहरुख़ शिल्पा शेट्टी को बहुत ही बेरहमी से एक ऊँची इमारत से नीचे फ़ेंक देते हैं जिसे अंग्रेज़ी में कोल्ड ब्लडेड मर्डर कहते हैं।
रोमांस के बीच ये सीन इतने झटके से आता है कि फि़ल्म देख रहे दर्शक लभभग भौंचक्के से रह गए थे। उस वक्त के लिए ये काफ़ी शॉकिंग और लीक से हटकर था। उस दौर में सलमान ख़ान जहाँ ‘मैंने प्यार किया’ में प्यार के लिए हर इम्तहान से गुजर जाते हैं और आमिर जहाँ ‘कय़ामत से कय़ामत’ तक में प्यार के लिए मर मिटते हैं, वहाँ अजय शर्मा उफऱ् विकी मल्होत्रा (शाहरुख़) ने बाज़ीगर के रोल से बॉलीवुड हीरो की छवि तोडक़र रख दी थी।
स्टीरियोटाइप तोडऩे की कोशिश
फि़ल्म इतिहासकार अमृत गंगर कहते हैं, ‘यूँ तो शाहरुख़ ने लीक से हटकर मणि कौल की फि़ल्म ‘अहमक’ से शुरुआत की थी और उन्होंने ‘माया मेम साहब’ जैसी फि़ल्म भी की। ‘सर्कस’ जैसा सीरियल किया। ‘बाज़ीगर’ बहुत बड़ी कॉमर्शियल हिट हुई और एंटी-हीरो वाले रोल में उन्हें स्थापित किया।’
‘मैं इसे शाहरुख़ खान की एक्टिंग काबिलियत की तौर पर देखता हूँ, ये उनकी रेंज को दिखाता है। साथ ही, ये बॉलीवुड कास्टिंग में दिखने वाले स्टीरियोटाइप को तोडऩे की शाहरुख़ की काबिलियत को भी दर्शाता है। ‘डर’ में भी यश चोपड़ा ने उन्हें नेटेगिव रोल दिया जो हीरो के लिए तब टैबू माना जाता था।’
‘बाज़ीगर’ का किरदार इतना डार्क था कि कई बड़े हीरो ने इस रोल को करने से मना कर दिया था। इंडस्ड्री में नए होने के बावजूद शाहरुख़ वो हीरो थे जिन्होंने ये दांव खेलने की हिम्मत दिखाई।
‘बाज़ीगर’ के कऱीब एक महीने बाद 24 दिसंबर 1993 को आई यश चोपड़ा की ‘डर’ जिसमें शाहरुख़ ख़ान एक ऐसे लडक़े के किरदार में थे जो मानसिक रूप से अस्थिर है, उसका एकतरफ़ा प्यार उसे जुनून की उस हद तक ले जाता है जहाँ वो अपने लिए और जिससे वो प्यार करता है उसके लिए भी ख़तरा बन जाता है। आज के शब्दों मे कहें तो ‘डर’ का राहुल एक स्टॉकर था।
‘डर’ में जो रोल शाहरुख़ ने किया वो यश चोपड़ा ने पहले ऋषि कपूर को दिया था। अपनी आत्मकथा ‘खुल्लम खुल्ला’ में ऋषि कपूर लिखते हैं, जब यश चोपड़ा ने मुझे रोल दिया तो मैंने उनसे कहा कि मैं विलेन के रोल के साथ न्याय नहीं कर सकता।
मैंने अभी आपके साथ चांदनी की है (जो रोमांटिक फि़ल्म थी)। मैंने फि़ल्म ‘खोज’ में नेगेटिव रोल किया था और वो फ्लॉप हुई। आप शाहरुख़ को ले सकते हैं, मैंने उसके साथ काम किया है और वो काबिल और स्मार्ट लडक़ा है। फिर वो फिल्म आमिर ख़ान और अजय देवगन के पास चली गई। दोनों ने नहीं की, आखऱिकर शाहरुख़ ने वो रोल किया।’
‘बाज़ीगर’ का विकी हो या ‘डर’ का राहुल, दोनों ही किरदारों में शाहरुख़ जो काम करते हैं, उससे सामान्य रूप से आपमें एक तरह की घृणा का भाव पैदा होना चाहिए लेकिन दोनों फि़ल्मों की यही विरोधाभासी बात थी उसमें दर्शक फि़ल्म के हीरो (सनी देओल) या दूसरे किरदारों के पाले में नहीं, बल्कि शाहरुख़ की साइड में नजऱ आते हैं।
इसका क्रेडिट आप स्क्रीनप्ले लेखक या निर्देशक को दे सकते हैं लेकिन लोगों ने तो पर्दे पर दिखने वाले शाहरुख़ को ही याद रखा।
बदलाव का दशक
अमृत गंगर कहते हैं, ‘1990 का दशक बदलाव का दशक था और लोग शाहरुख़ की पर्सनेलिटी से ख़ुद को जोड़ पा रहे थे। शाहरुख़ के ये नेगेटिव रोल प्रेम और इरोटिका के इमोशन में मिले हुए थे।’
‘इन भूमिकाओं में एक तरह का पागलपन था, कुछ ऐसा जिसकी युवाओं को तलाश थी। मसलन, ‘डर’ में एक ऐसे इमोशन को दिखाया गया था जो हिंदी फि़ल्मों में देखने को नहीं मिलता था। स्क्रीन पर शाहरुख़ का वो बॉयइश चार्म एक तरह का रहस्य बन गया था।’
याद कीजिए ‘डर’ का वो सीन जब गुमसुम-सा रहने वाला राहुल (शाहरुख़) फोन पर अपनी माँ से बातें करता है जो कब की गुजऱ चुकी है, छुरी से अपने सीने पर किरण लिखवाता है, या फिर वो सीन जब जूही चावला का मंगेतर सनी देओल बहरुपिए बने शाहरुख़ को देख लेता है और शाहरुख़ के पीछे भागता है। लभगभ तीन मिनट का वो चेज़ जब चलता है तो ये जानते हुए भी शाहरुख़ का किरादर ग़लत है, बहुत सारे दर्शक उन्हीं की साइड होते हैं।
हालाँकि इस किरदार को टॉक्सिक कहकर कई लोगों ने फि़ल्म की आलोचना भी की लेकिन डर हो या बाज़ीगर दोनों में शाहरुख़ ने एंटी हीरो का किरदार कर अपने लिए एक इबारत तैयार की , ख़ास तौर तब जबकि एक के बाद सब हीरो इन भूमिकाओं को मना कर चुके थे।
शाहरुख़ ख़ान बने किंग ख़ान
‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे’, ‘दिल तो पागल है’, ‘कुछ कुछ होता है’ ये सारी फि़ल्में तो बाद में आई और शाहरुख़ को किंग ख़ान बनाया। लेकिन किंग ख़ान बनने की राह में एंटी हीरो वाले शाहरुख़ के किरदारों ने ही शाहरुख़ ख़ान के लिए सफलता की ज़मीन तैयार की। और लोगों को एक ऐसे एक्टर से भी रूबरू करवाया जो रिस्क लेने का माद्दा रखता था। फिर वो ‘अंजाम’ हो, ‘माया मेमसाब’ हो या फिर ‘ओ डार्लिंग ये है इंडिया’ हो।
ऐसा नहीं था सुपरस्टारडम की इस राह में सिफऱ् फूल ही फूल थे, शुरु में कुछ फि़ल्में फ्लॉप भी हुईं, फि़ल्मों में सुपरस्टार की छवि से हटकर किदरारों में न ढलने के लिए कई लोगों ने आलोचना भी की, इस बीच बॉक्स ऑफि़स पर सारे रिकॉर्ड भी तोड़े, फिर हीरो से ज़ीरो भी बने जब लोगों ने कहा कि शाहरुख़ के दिन अब ख़त्म हुए। कई सालों तक शाहरुख़ सिनेमा के पर्दें पर दिखे ही नहीं, पर टीवी पर विमल इयालची का विज्ञापन करते हुए ज़रूर नजऱ आए। इस बीच उनके बयानों पर राजनीतिक बवाल भी हुआ, उनके बेटे को जेल भी हुई। पर शाहरुख़ एकदम खामोश रहे।
2023 में शाहरुख़ ने 'पठान' और फिर 'जवान' से अपनी शैली में जबाव दिया। ये कहते हुए अपने डायलॉग से ख़ामोशी तोड़ी कि 'बेटे को हाथ लगाने से पहले बाप से बात कर'। जवान के इस डायलॉग का सबने अपना-अपना राजनीतिक और सामाजिक मतलब निकाला।
‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ की तरह ‘जवान’ का आज़ाद राठौर भी एक किस्म का एंटी-हीरो ही है पर वो 90 के एंटी-हीरो से अलग है। आज़ाद राठौर समाज में फैले भ्रष्टाचार को एक विजीलांटे ग्रुप के ज़रिए चुनौती देता है, वो क़ानून हाथ में लेता है, शासन के नियम-कायदे उसके लिए मायने नहीं रखते। लेकिन ये एंटी-हीरो ‘बाज़ीगर’ के विकी या डर के राहुल की तरह लोगों की जान लेता नहीं बल्कि लोगों की जान बचाता है।
हालांकि नम्रता जोशी की अपनी शिकायत की भी है, ‘जवान सफल रही है लेकिन मुझे नहीं लगता कि बतौर फि़ल्म ये मेरे लिए काम करती है। ये पुरुष प्रधान फि़ल्म है जहाँ शाहरुख़ कोशिश ज़रूर करते हैं कि महिलाओं को भी जगह मिले। इसकी बजाए मैं शाहरुख़ को ‘चक दे इंडिया’ जैसी फि़ल्म में ज़्यादा पसंद करूँगी जहाँ महिलाओं की टीम को जीत तक ले जाते हैं। जवान में जेंडर समानता को दिखाने की कोशिश की गई है पर मुझे नहीं लगता ये कारगर रही।’
‘बाज़ीगर’ की मेकिंग
बात बाज़ीगर से शुरू हुई थी तो वहीं पर ख़त्म करते हैं। फि़ल्म की शूटिंग दिसंबर 1992 में शुरू हुई थी लेकिन उसके बाद बॉम्बे दंगों की आग में झुलस गया और कई महीनों के बाद इसकी शूटिंग दोबारा शुरु हो पाई। फि़ल्म के लिए श्रीदेवी, माधुरी से लेकर कई अभिनेत्रियों से बात हुई। लेकिन श्रीदेवी दोनों बहनों यानी काजोल और शिल्पा का रोल करना चाहती थीं, लेकिन निर्देशकों को लगा कि शाहरुख़ के हाथों श्रीदेवी जैसी बड़ी हीरोइन का क़त्ल शायद दर्शकों को रास न आए।
फि़ल्म में दलीप ताहिल ने मदन चोपड़ा का रोल किया था जिससे बदला लेने के लिए शाहरुख़ ख़ान अजय से विकी यानी बाज़ीगर बनते हैं। हाल में ‘द अनट्रिडगर्ड’ नाम के एक पॉडकास्ट में दलीप ताहिल ने कहा था, ‘मैं लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर था। एक लडक़ी मेरे पास आई और बोली कि आपने ‘बाज़ीगर’ में शाहरुख़ खान को इतना क्यों पीटा। आखिर क्यों। वो लडक़ी शाहरुख़-मय हो चुकी थी।’
‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ के क़ातिल वाले और एंटी-हीरो किरदार को भी कुछ हद तक मानवीय बना पाना ही शाहरुख़ का हासिल था। इस बीच शाहरुख़ राज बनकर भी आए, इंडिया टीम के कोच कबीर ख़ान भी बने, ‘स्वदेश’ लौटने वाले मोहन भी, ‘पहेली’ में गाँव के किशनलाल भी, ‘यस बॉस’ में चांद तारे तोड़ कर लाने की हसरत रखने वाले राहुल भी थे , 'हे राम' के अमजद अली ख़ान भी और ज़ीरो के बऊआ सिंह भी।
असल जि़ंदगी और पर्दे की जि़ंदगी के बीच इन्हीं किरदारों में किसी ने शाहरुख़ में अपना हीरो ढूँढा है, किसी ने विलेन और किसी ने एंटी-हीरो। (bbc.com/hindi)
डॉ. संजय शुक्ला
आमतौर पर ‘विंटर सीजन’ यानि सर्दियों के मौसम को ‘हेल्दी सीजन’ कहा जाता है लेकिन दिल्ली-एनसीआर सहित देश के विभिन्न शहरों में यह मौसम लोगों के सेहत के लिए मुसीबत लेकर आता है। दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण एक बार फिर से कहर बरपाने लगा है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित दूसरे राजधानी दिल्ली के लिए यह प्रदूषण कोई नई बात नहीं है अपितु अमूमन हर साल अक्टूबर से लेकर पूरे सर्दियों के मौसम में दिल्लीवासी इस कहर का सामना करते हैं। इस दौरान दिल्ली-एनसीआर का इलाका धूल भरी आंधी यानि स्मॉग से लिपटी रहती है तथा यह महानगर ‘गैस चैंबर’ के रूप में तब्दील हो जाता है। दिल्ली सरकार अमूमन हर साल ‘हेल्थ इमरजेंसी’ लगानी पड़ती है तथा ट्रैफिक पर दबाव कम करने के लिए ऑड-इवन व्यवस्था लागू करती है।
सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च ‘सफर-इंडिया’ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में बीते रविवार को वायु गुणवत्ता सूचकांक यानि एक्यूआई 325 तथा नोयडा में 361 दर्ज किया गया। देश में सबसे अधिक एक्यूआ?ई हरियाणा के कैथल में 380 दर्ज किया गया। मानकों के मुताबिक 0-50 अच्छा, 51-100 संतोषजनक, 101-200 मध्यम, 201-300 खराब, 301-400 बहुत खराब और 401 से 500 एक्यूआई को गंभीर श्रेणी में माना जाता है। बहरहाल सिर्फ भारत की राजधानी दिल्ली की हवा ही दमघोंटू नहीं है बल्कि दिल्ली से सटे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश सहित देश के अनेक बड़े शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर खराब से बहुत खराब स्तर पर है।
बहरहाल सरकार के मुताबिक प्रदूषण की मुख्य वजह दिल्ली से सटे राज्यों के किसानों द्वारा पराली जलाने को बताती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस दलील पर नाइत्तेफाकी जाहिर करते हुए वायु प्रदूषण के लिए परिवहन, उद्योगों और यातायात व्यवस्था को भी अहम वजह बताते हुए इसे नौकरशाही की विफलता करार देती है। कुछ सालों पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासन को कड़ी फटकार लगाते हुए यह टिप्पणी की थी कि दिल्ली ‘नरक से भी बदतर’ हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के फटकार के बावजूद दिल्ली के हवा में कोई आशातीत बदलाव दिखाई नहीं देता लेकिन इसके लिए अकेले सरकार या प्रशासनिक नुमाइंदों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा क्योंकि इसके लिए आम जनता भी जवाबदेह है। बिलाशक दिल्ली सहित उत्तर भारतीय राज्यों में भयावह प्रदूषण के लिए पराली जलाने की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसके अलावा उद्योग व वाहनों के धुआं उत्सर्जन और सडक़ों तथा निर्माण स्थलों से उडऩे वाला धूल भी जवाबदेह है। भूविज्ञान मंत्रालय के रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण में सर्वाधिक 41 फीसदी भागीदारी वाहनों की होती है, निर्माण गतिविधियों से उडऩे वाले धूल के कारण 21.5 फीसदी और उद्योगों की वजह से 18 फीसदी प्रदूषण होता है। इसके अलावा पटाखे और पराली भी जीवनदायिनी हवा को दूषित करते हैं।
बहरहाल भारत जैसे विकासशील और गरीब देश में वायु प्रदूषण बहुत ही गंभीर चुनौती है जिसका असर अर्थव्यवस्था और जनस्वास्थ्य पर पड़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘डब्ल्यूएचओ’द्वारा दुनिया के 1650 शहरों वायु प्रदूषण पर में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक भारत की राजधानी दिल्ली में हवा की गुणवत्ता अन्य शहरों की तुलना में बहुत खराब है। स्विट्जरलैंड की संस्था आईक्यू एयर की ‘वल्र्ड एयर क्वालिटी-2022’ रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में भारत 8 वां सर्वाधिक प्रदूषित देश है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 20 शहरों में 19 एशिया के हैं जिसमें 14 भारतीय शहर हैं। रिपोर्ट के अनुसार बीते साल 2022 में भारत का सबसे ज्यादा प्रदूषित महानगर दिल्ली तथा शहर राजस्थान का भिवाड़ी रहा। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित राजधानियों में न?ई दिल्ली दूसरे पायदान पर रहा। आंकड़ों को देखें तो देश के 60 फीसदी शहरों में प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएच?ओ के मानक से सात गुना ज्यादा है।
बहरहाल हालिया रिपोर्ट यह बताता है कि प्रदूषण को लेकर भारत तनिक भी गंभीर नहीं है बल्कि इस विकराल समस्या पर हम सिर्फ जुबानी जमा खर्च ही कर रहे हैं। यदि हम अब भी नहीं चेते तो आने वाले समय में इसकी कीमत देश और आम लोगों चुकानी ही पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि देश में प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी कानून और अमला नहीं है लेकिन इच्छाशक्ति के आभाव के कारण ये सभी महज किताबों में कैद हैं। देश में हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित सभाकक्षों में पर्यावरण संरक्षण के लिए शाब्दिक जुगाली होती है रैलियां और कार्यक्रम आयोजित होते हैं लेकिन नतीजा शून्य ही निकल रहा है।
विचारणीय यह भी कि भारत में बढ़ता प्रदूषण जहां जनस्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रही वहीं विरोधाभास यह कि देश के अब तक के राजनीतिक इतिहास में पर्यावरण प्रदूषण कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बना और न ही इस मसले पर संसद में कभी गंभीर बहस हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण पूरी दुनिया में हर साल तकरीबन 70 लाख असामयिक मौतें होती हैं,जिसमें अकेले भारत में 20 लाख लोगों की मौत होती है। एक अन्य शोध के मुताबिक भारत में प्रदूषण के कारण लोगों की जिंदगी पांच साल कम हो रही है। प्रदूषण के कहर से लाखों लोग फेफड़ों और दिल के गंभीर बीमारियों का शिकार भी होते हैं। आलम यह कि देश के सैकड़ों शहरों की वायु गुणवत्ता बेहद खराब श्रेणी में हैं फलस्वरूप बच्चों और बुजुर्गों में श्वसन तंत्र से संबंधित रोगों में लगातार इजाफा हो रहा है। देश में जहाँ वायु और जल प्रदूषण सबसे ज्यादा है वहीं नदियां मानव सभ्यता की गंदगी ढोते-ढोते दम तोड़ रहीं हैं। गौरतलब है कि प्रदूषण का सीधा संबंध ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से है जिस पर दुनिया भर की सरकारें और पर्यावरण कार्यकर्ता चिंतित हैं।बीते एक दशक की बात करें तो भारत में जलवायु परिवर्तन की आहट प्राकृतिक आपदाओं और बढ़ते तापमान के रूप में सुनाई पड़ रही है। देश के कई हिस्सों में बेमौसम बारिश, अम्लीय वर्षा, बाढ़,सूखा, भूस्खलन, भूकंप तथा ग्लेशियर पिघलने की घटनाएं लगातार बढ़ रही है जिसमें भारी जानमाल का नुकसान हो रहा है इसके पृष्ठभूमि में प्रदूषण ही है।
प्रदूषण के कहर से छत्तीसगढ़ राज्य भी अछूता नहीं है। राज्य में दुर्ग, भिलाई, रायपुर, कोरबा, बिलासपुर , बलौदाबाजार-भाटापारा और रायगढ़ सहित अनेक औद्योगिक शहर हैं जहां उद्योगों से निकलने वाले धुंआ और फ्लाई एश (सफेद राख) पर्यावरण के साथ जनजीवन पर काफी बुरा असर डाल रहा है।इन जिलों में संचालित कोयला आधारित विद्युत संयंत्र, लौह उद्योग, सीमेंट फैक्ट्रियों के कारण वायु प्रदूषण में लगातार इजाफा हो रहा है वहीं शहरों में जारी विभिन्न विकास और निर्माण कार्यों के कारण भी धूलजनित प्रदूषण ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। उद्योगों और निर्माण कार्यों से निकलने वाले धुंआ और धूल हवा को प्रदूषित कर रहे हैं जो जनस्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक है। गौरतलब है कि सुबह की सैर करने वालों के श्वसनतंत्र और त्वचा पर इस धुंआ और धूल का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है वहीं घरों के छतों,फर्श और पेड़-पौधों की पत्तियों पर कालिख की परत परेशानी का सबब बन रहा है।छत्तीसगढ़ भी अब पराली जनित प्रदूषण से अछूता नहीं है राज्य के विभिन्न के किसान अगली फसल के लिए खेतों में ही पराली जलाने लगे हैं लिहाजा इस दिशा में सरकार और प्रशासन को सचेत होने की दरकार है। अलबत्ता वायु प्रदूषण सिर्फ आम जनजीवन को ही प्रभावित नहीं कर रहा है बल्कि यह पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं सहित परिस्थिकीय तंत्र पर भी बुरा असर डाल रहा है।
बहरहाल देश की सरकारें और आम जनता पर्यावरण प्रदूषण और पर्यावरण कानूनों के प्रति कितना गंभीर है? इसका अंदाजा सिंगल यूज प्लास्टिक के निर्माण, विक्रय और उपयोग संबंधी प्रतिबंधात्मक कानून से पता चलता है। गौरतलब है कि भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने 1 जुलाई 2022 से देश में एक बार उपयोग लायक‘सिंगल यूज प्लास्टिक’ के आयात, निर्माण, भंडारण, विक्रय और उपयोग को प्रतिबंधित करने की अधिसूचना जारी की थी। इस प्रतिबंध को लागू करने और लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार, प्रशासन और नागरिक संगठनों ने बढ़ चढक़र अभियान चलाया लेकिन हकीकत में इन चीजों का निर्माण, बिक्री और उपयोग धड़ल्ले से जारी है। आज से सात दशक पहले जो प्लास्टिक मानव सभ्यता के लिए सुविधा के लिहाज से आम जीवन का अहम हिस्सा बन गया था वह आविष्कार अब प्रकृति और मनुष्य के लिए अभिशाप बनने लगा है। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर प्लास्टिक के दुष्प्रभाव के दृष्टिगत दुनिया के लगभग दो दर्जन से ज्यादा विकसित और विकासशील देशों ने सिंगल यूज प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को बंद कर दिया है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा अब सामने आने लगा है जंगलों, पहाड़ों, नदियों और धरती के साथ हवा भी अब इसके बोझ से हांफने लगे हैं वहीं मनुष्य और मवेशियों के सेहत पर भी इसका दुष्प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। दरअसल सिंगल यूज प्लास्टिक नॉन -बायोडिग्रेडेबल होते हैं जो सैकड़ों सालों तक नष्ट नहीं होते बल्कि इनके जमीन में दबे रहने के कारण भूमिगत जल स्त्रोत भी प्रदूषित होता है। इसके अलावा कचरों के साथ प्लास्टिक के जलने से कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और डाई-ऑक्सीन जैसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है जो मनुष्य के श्वसन और तंत्रिका तंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाता है साथ ही यह गर्भवती माता और गर्भस्थ शिशु के लिए भी घातक होता है।
विचारणीय है कि साल दर साल बढ़ते जानलेवा वायु प्रदूषण का असर भारत जैसे गरीब देशों के लोगों के सेहत के साथ-साथ घरेलू बजट और आजीविका पर भी पडऩा अवश्यंभावी है। गौरतलब है कि कोविड से संक्रमित रहे अनेकों लोग आज भी फेफड़ों से संबंधित दिक्कतों से जूझ रहे हैं ऐसे में सर्दियों के मौसम में वायु प्रदूषण का कहर उनके लिए घातक साबित हो रहा है। लिहाजा सरकार की जवाबदेही है कि वह कोयला आधारित पावर प्लांट, लौह एवं सीमेंट उद्योगों के प्रदूषण को रोकने पर्याप्त कदम उठाए। स्थानीय प्रशासन की जवाबदेही है कि अधोभूत संरचना विकास के दौरान सडक़ अथवा नालियों की खुदाई के दौरान धूल जनित प्रदूषण को रोकने के लिए पानी का नियमित छिडक़ाव करें। इसके अलावा परंपरागत ऊर्जा संसाधनों के उपयोग को सीमित करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों और बॉयोगैस के प्रचलन को प्रोत्साहित करना होगा वहीं अपरंपरागत ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना होगा। आम नागरिकों की भी जवाबदेही है कि वे पर्यावरण संरक्षण के लिए लागू प्रतिबंधों और कानूनों के प्रति स्व-अनुशासित और जागरूक हों। नागरिकों से अपेक्षा है कि वे पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का अधिकाधिक उपयोग करें तथा अपने वाहनों का नियमित प्रदूषण जांच करवाएं। बिलाशक दीपावली में पटाखे तो चलेंगे ही लेकिन कोशिश यह होनी चाहिए कि इस दौरान ग्रीन पटाखों का ही इस्तेमाल हो ताकि त्योहार सेहत का दुश्मन न बने।घरों में कोयले की सिगडिय़ों और चूल्हों के इस्तेमाल को बंद करें वहीं किसानों से भी अपेक्षा है कि वे खेतों में पराली को जलाने की अपेक्षा इसकी मशीन के द्वारा कटाई करवाएं क्योंकि अब पराली का उपयोग औद्योगिक इंधन के अलावा अन्य चीजों के निर्माण में होने लगा है जो किसानों के लिए आय का एक जरिया भी बन सकता है। इन उपायों से ही देश में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाया जा सकता है।
- कनुप्रिया
आज के दिन महज करवाचौथ ही नही स्त्रीवादियों को भी गरियाने का प्रचलन है।
क्यों गरियाया जाता है स्त्रीवादियों को? कि वो दूसरी स्त्रियों को त्योहारों के बहाने नीचा दिखाती हैं? Superiority complex से भरी हैं? पुरुष द्वेष की मारी हैं? अगर ऐसा है तो वो स्त्रीवादी हैं ही नहीं, अगर कोई स्त्री अपने अधिकार, सम्मान और उससे बढक़र अपने अस्तित्व के महत्व को समझ लेती हैं और उनके लिए खड़ी होती है तो वो महज विद्रोही है, साहसी है, मगर यदि वो सभी स्त्रियों के अधिकारों, सम्मान और अस्तित्व के महत्व को समझ लेती है बिना जाति और धर्म की बाधा के तो वो स्त्रीवादी हो सकती है। इससे बढक़र यदि वो स्त्रियों के ही नही है बाकी कमजोर तबकों के अधिकारों और सम्मान के महत्व को भी समझ लेती है तो मुझे लगता है कि वो स्त्रीवादी है, नही तो वो स्त्रीवाद अधूरा है।
ऐसा ही दलित वादियों या अल्पसंख्यक वादियों के लिए भी है, अगर बाकी कमजोर तबकों के संघर्ष को आप नही समझ सकते तो फिर ये पावर स्ट्रगल है, आपका वाद अधूरा है।
ऐसे व्रतों का विरोध करने का ख़तरा आखिऱ क्यों उठाया जाए, नही ये किसी को नीचा दिखाने के लिये है ही नहीं। यह बस इस बात को underline करना है कि इन व्रतों का रिश्ते से कोई लेना देना नही है, ये बस पितृसत्तावादी ब्राह्मणों का बनाया धार्मिक अनुष्ठान है जैसे कि कई अन्य व्रत त्योहार।
जिन्हें व्रत त्योहारों में रस हो वो इसे करें मगर किन्ही दो लोगों के रिश्ते में प्रेम, परस्पर सम्मान, भरोसा और ईमानदारी ऐसे व्रतों की मोहताज नही है, अगर ये सब दो लोगों के बीच है तो कोई फर्क नही पड़ता कि आप इस अनुष्ठान को करें न करें और अगर ये दो लोगों के बीच नही है तो भी फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे करें न करें। कुल मिलाकर दो लोगों के बीच के रिश्ते की मजबूती का इन अनुष्ठानों से लेना देना नहीं है।
इसलिये विरोध इन अनुष्ठानों का भर नही है, इनको प्रेम और रिश्ते से जोड़ देने का है, उस दबाव का है जो कहता है कि ये धार्मिक अनुष्ठान ही आपके रिश्ते को, उसकी गठन और मजबूती को परिभाषित करते हैं। बस इतना ही।
आज के दिन व्रत कर रही भूखी बैठी महिलाओं को सब्र, हौसला और ख़ुशी मिले, और वो प्रेम भी जिसकी वो कामना करती हैं। व्रत आपके शरीर को स्वस्थ करें और आपकी उम्र बढ़ाएँ।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश चुनाव में गृह मंत्री के अनुचित आचरण के दो उदाहरण ही काफी हैं। उनका बयान आया है कि जो अधिकारी कमल का ध्यान नहीं रखेंगे उन्हें छोडऩा नहीं, उनकी शिकायत चुनाव आयोग से जरूर करना। क्या अधिकारियों का कार्य कमल का ध्यान रखकर अन्य दलों को नुक्सान पहुंचाना है या निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराना है? यदि यह बयान संगठन के किसी पदाधिकारी की तरफ से आता तो इसकी उतनी गंभीरता नहीं होती लेकिन देश के गृहमंत्री की तरफ से आए ऐसे बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया जरूरी है क्योंकि राज्यों की दो सबसे प्रमुख सेवाओं आई ए एस और आई पी एस के अधिकारियों की कमान गृह मंत्रालय के हाथ में ही होती है।
वैसे भी गृह मंत्री अमित शाह के केन्द्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी में प्रभाव को सब जानते हैं। यह आए दिन देखा जाता है कि उन्होने मध्य प्रदेश के चुनावी दौरे भाजपा अध्यक्ष से कहीं ज्यादा किए हैं और उनकी भूमिका टिकट वितरण से लेकर अन्य तैयारियों और निर्णयों में सबसे ऊपर है। ऐसे में उनके इस बयान से नौकरशाही पर अतिरिक्त दबाव बनना अवश्यंभावी है। देखना यह है कि केन्द्रीय चुनाव आयोग इस मुद्दे को कितनी गंभीरता से लेता है। चुनाव आयोग का निर्णय जब भी और जो भी आएगा वह अपनी जगह है लेकिन गृह मंत्री के रुप में अमित शाह ने इस तरह का बयान देकर इस महत्त्वपूर्ण पद की गरिमा गिराई है।
गृह मंत्री का दूसरा बयान बेहद हास्यास्पद और सफेद झूठ है। मध्य प्रदेश की सडक़ों के बारे में उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की सरकार, जिसे वे बंटाधार की सरकार कहते हैं, के दौरान मध्य प्रदेश की सडक़ें खस्ताहाल थी जो भाजपा सरकार के दौरान बहुत अच्छी हो गई। उनका यह बयान सरासर झूठ है जो देश के गृह मंत्री को शोभा नहीं देता। मध्य प्रदेश की सडक़ों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। भोपाल के पास भोजपुर के प्रसिद्ध मंदिर जाने वाली रोड की स्थिति साल भर से बेहद खराब है। यही हाल प्रदेश की अन्य सडक़ों का है। नरसिंहपुर जिले की खस्ताहाल सडक़ों के निर्माण और मरम्मत के लिए ग्रामीण कई दिन से सडक़ सत्याग्रह कर रहे हैं। बेतवा यात्रा के दौरान हमने देखा कि भोपाल के सबसे करीब जिले रायसेन की ग्रामीण सडक़ों की हालत इतनी खराब है कि काफी दूर तक सडक़ की जगह गड्ढे ही गड्ढे हैं। इस परिपेक्ष्य में गृह मंत्री का बयान कोरा झूठ है।
देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल भी उसी गुजरात से थे जहां से वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह आते हैं। कल सरदार पटेल की जयंती पर प्रधानमंत्री भी गुजरात में बनी उनकी प्रतिमा स्टेचू ऑफ यूनिटी पर गए थे। सरदार पटेल भले ही आजीवन कांग्रेस में रहे लेकिन भारतीय जनता पार्टी भी उन्हें अपना महानायक मानती है क्योंकि उनकी लौहपुरुष छवि के कारण ही भारत इतना बड़ा है।अंग्रेजों द्वारा राजाओं की रियासतों को आजाद करने से खंड खंड हुए भारत को एकता की माला में पिरोने का अत्यन्त साहसी कार्य करने का सर्वाधिक श्रेय सरदार पटेल के कुशल नेतृत्व को ही जाता है। सरदार पटेल अपने अल्प काल में ही गृह मंत्री की ऐसी छवि छोडक़र गए हैं जिसे छूना उनके बाद संभव नहीं हुआ उल्टे कुछ ग्रह मंत्रियों ने इस महत्वपूर्ण पद की गरिमा को काफी कम किया है।
मुंबई हमले के दौरान तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल को भाजपा ने इसलिए त्यागपत्र के लिए मजबूर किया था क्योंकि उस दिन उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए कपड़े बदले थे। वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह पर भी गृह मंत्री की गरिमा गिराने के लगातार आरोप लग रहे हैं। मणिपुर की हिंसा कई महीने लंबी हो गई, उधर महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन हिंसक हो गया लेकिन गृहमंत्री की सबसे बड़ी चिंता येन केन प्रकारेण मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने पर है। ऐसा लगता है कि जिस तरह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पिछ्ले नौ साल से लगातार चुनावी मोड़ में हैं वैसे ही गृह मंत्री भी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मोड़ में हैं। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए उचित नहीं है।
-राघवेंद्र राव
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायधीशों की एक संविधान पीठ इलेक्टोरल बॉन्ड या चुनावी बॉन्ड योजना की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है।
ये मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से ज्यादा वक्त से लंबित है और इस पर सभी निगाहें इसलिए भी टिकी हैं क्योंकि इस मामले का नतीजा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर बड़ा असर डाल सकता है।
इस मामले पर सुनवाई शुरू होने से एक दिन पहले 30 अक्टूबर को भारत के अटॉर्नी जनरल आर। वेंकटरमणी ने इस योजना का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ये योजना राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में ‘साफ धन’ के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है।
साथ ही अटॉर्नी जनरल ने शीर्ष अदालत के सामने तर्क दिया कि नागरिकों को उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना कुछ भी और सब कुछ जानने का सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है।
इस बात का सन्दर्भ उस तर्क से जुड़ा हुआ है, जिसके तहत ये मांग की जा रही है कि राजनीतिक पार्टियों को ये जानकारी सार्वजानिक करनी चाहिए कि उन्हें कितना धन चंदे के रूप में किससे मिला है। क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड्स, जिन्हें लेकर इतनी बहस चल रही है, आइए समझते हैं।
गुमनाम वचन पत्र
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकता है।
भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को कानूनन लागू कर दिया था।
इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता है। इन्हें ऐसा कोई भी दाता खरीद सकता है, जिसके पास एक ऐसा बैंक खाता है, जिसकी केवाईसी की जानकारियां उपलब्ध हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है।
योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं।
चुनावी बॉन्ड्स की अवधि केवल 15 दिनों की होती है, जिसके दौरान इसका इस्तेमाल सिर्फ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है।
केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा दिया जा सकता है, जिन्होंने लोकसभा या विधान सभा के लिए पिछले आम चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो।
योजना के तहत चुनावी बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में 10 दिनों की अवधि के लिए खरीद के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं। इन्हें लोकसभा चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी किया जा सकता है।
क्या हैं चिंताएं?
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा। लेकिन पिछले कुछ सालों में ये सवाल बार-बार उठा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है।
एक आलोचना यह भी है कि यह योजना बड़े कॉर्पोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी।
इस योजना को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की गई हैं। पहली याचिका साल 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और गैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी और दूसरी याचिका साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) ने दायर की थी।
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि इस योजना की वजह से भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा असीमित राजनीतिक दान और राजनीतिक दलों के गुमनाम फंडिंग के फ्लडगेट्स या ‘बाढ़ के द्वार’ खुल जाते हैं, जिससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बना दिया जाता है।
याचिकाओं में ये भी कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की गुमनामी एक नागरिक के ‘जानने के अधिकार’ का उल्लंघन करती है, उस अधिकार का जिसे सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू माना है।
सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाई गई एक चिंता यह है कि एफसीआरए में संशोधन किया गया है ताकि भारत में सहायक कंपनियों के साथ विदेशी कंपनियों को भारतीय राजनीतिक दलों को फंड देने की अनुमति दी जा सके। इस वजह से अपने एजेंडा रखने वाले अंतरराष्ट्रीय लॉबिस्टों को भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में दखल देने का मौका मिलता है।
याचिकर्ताओं ने कंपनी अधिनियम, 2013 में किए गए उन संशोधनों पर भी आपत्तियां उठाई हैं जो कंपनियों को अपने वार्षिक लाभ और हानि खातों में राजनीतिक योगदान का विवरण देने से छूट देते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बढ़ेगी और राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने को बढ़ावा मिलेगा।
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को बजट में डाल दिया गया था और चूंकि बजट एक मनी बिल होता है तो राज्यसभा उसमें कोई फेरबदल नहीं कर सकती।
ये बात भी बार-बार उठाई गई है कि चूंकि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं था तो इस विषय को मनी बिल में डाल दिया ताकि उसे आसानी से पारित करवाया जा सके। तो क्या इलेक्टोरल बॉन्ड को मनी बिल के तहत पारित किया जा सकता था?
इस कानूनी सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ फि़लहाल विचार नहीं करेगी क्योंकि कब किसी विधेयक को धन विधेयक नामित किया जा सकता है, इस बात पर सात न्यायधीशों की संविधान पीठ पहले से ही विचार कर रही है।
किसे कितना फायदा?
चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉण्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपये मिले।
इस 9,188 करोड़ रुपये में से अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी लगभग 5272 करोड़ रुपये थी। यानी कुल इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दिए गए चंदे का करीब 58 फीसदी बीजेपी को मिला।
इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड से करीब 952 करोड़ रुपये मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपये मिले।
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिलने वाले चंदे में 743 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि में राष्ट्रीय पार्टियों को मिलने वाला कॉर्पोरेट चंदा केवल 48 फीसदी बढ़ा।
एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 (जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था) में सबसे ज़्यादा 3,439 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये आया। इसी तरह वर्ष 2021-22 में (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए) राजनीतिक पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये करीब 2,664 करोड़ रुपये का चंदा मिला।
चुनाव आयोग और आरबीआई की राय
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर एक हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता को खत्म कर देंगे और इनका इस्तेमाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के लिए विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियों को आमंत्रण देने जैसा होगा।
चुनाव आयोग ने ये भी कहा था कि कई प्रमुख कानूनों में किए गए संशोधनों की वजह से ऐसी शेल कंपनियों के खुल जाने की संभावना बढ़ जाएगी, जिन्हें सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के इकलौते मकसद से बनाया जाएगा।
एडीआर की याचिका के मुताबिक़, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बार-बार चेतावनी दी थी कि इलेक्टोरल बॉण्ड का इस्तेमाल काले धन के प्रसार, मनी लॉन्ड्रिंग, और सीमा-पार जालसाजी को बढ़ाने के लिए हो सकता है।
इलेक्टोरल बॉन्ड को एक ‘अपारदर्शी वित्तीय उपकरण’ कहते हुए आरबीआई ने कहा था कि चूंकि ये बॉन्ड मुद्रा की तरह कई बार हाथ बदलते हैं, इसलिए उनकी गुमनामी का फायदा मनी-लॉन्ड्रिंग के लिए किया जा सकता है।
क्या कहती है सरकार
सरकार का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं।
सरकार के मुताबिक़, ये योजना पारदर्शी है और इसके ज़रिये काले धन की अदला-बदली नहीं होती।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कई मौकों पर बताया है कि धन प्राप्त करने का तरीका बिल्कुल पारदर्शी है और इसके जरिये किसी भी काले या बेहिसाब धन को हासिल करना संभव नहीं है।
यह कहते हुए कि यह योजना ‘स्वच्छ धन के योगदान’ और ‘टैक्स दायित्वों के पालन’ को बढ़ावा देती है, अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा है कि इस मसले को सार्वजनिक और संसदीय बहस के दायरे में छोड़ दिया जाना चाहिए। (bbc.com/hindi)
सिद्धार्थ ताबिश
सत्रहवीं और अ_ारवीं शताब्दी के विक्टोरियन इतिहास पर बनी कोई भी फिल्म या वेब सीरीज़ जब मैं देखता हूँ तो मुझे उफन सी लगने लगती है उनके कपड़ों को देखकर मर्द और औरत इतना ज्यादा कपड़े पहनते हैं उसमें कि देखकर लगता है कि ये एक सेकंड भी कभी रिलैक्स न रह पाते रहे होंगे.. वो कपड़े नहीं टॉर्चर थे फिर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने जैसे ‘ओवरकुक्ड’ खाना पहचानना सीखा वैसे ही ओवर ‘क्लोथिंग’ भी पहचान गए वो और फिर उन्होंने कपडे ऐसे चुने जो उन्हें ‘रिलैक्स’ कर सकें। उन्होंने टी शर्ट बनाईं, बारमुडा बनाये, और कोशिश ये की कि कम से कम कपड़ा पहनें अब वो, क्यूंकि टाइट कपडा पहनने और ज्यादा कपड़ा पहनने के शरीर पर बहुत ही ‘खराब’ प्रभाव पड़ते हैं
जितने ज्यादा घंटे कुर्सी पर बैठकर काम करना होता है पश्चिम के लोगों को वो उतने ही ढीले और आरामदेह कपड़े पहनते हैं। जापान और अन्य देशों के लोग भी ऐसे ही हैं।
ढीले-ढाले और आरामदेह कपड़े पहनने वाले यहाँ वाले पेंट, शर्ट, बेल्ट और पॉइंटेड जूते पहन कर कंप्यूटर पर 9 घंटे काम करते हैं। समुद्र तट पर भी आपको पेंट और शर्ट पहने मिल जायेंगे ये लोग।
हम भारतीयों ने अंग्रेजों से कपड़ों की नकल तो कर ली मगर फिर वो कपड़ों को लेकर अपग्रेड नहीं हुए। हम किसी भी नकल के बाद अपग्रेड नहीं हुए। वो लोग पेंट और शर्त से आगे बढ़ गए और यहाँ का युवा सड़ी गर्मी में भी आपको पेंट, फुल शर्ट, उस पर बेल्ट, चमड़े का जूता पहने मिलेगा.. दिन रात जो बाइक पर पर घूम घूम कर खाना डिलीवर करते हैं वो भी यही ड्रेस पहने मिलेंगे जबकि अब कहीं भी ये सब अनिवार्य नहीं है मगर फिर भी भारतीय 45 डिग्री की गर्मी में फुल शर्ट, पैंट, बेल्ट और चमड़े के जूते को फॉर्मल कपड़ा बोलकर उसे ऑफिस वियर कहते हैं और वही पहनते हैं। ये टी शैर्ट पहन कर शर्माते हैं और उसे घर में पहना जाने वाला कपड़ा बोलते हैं। जबकि बड़े से बड़े लोग चाहे मार्क जुकरबर्ग हों या एलोन मस्क, सब टी-शर्ट ही पहने मिलेंगे आपको ज़्यादातर
ये बड़ी छोटी-छोटी चीजें हैं जिन्हें अगर आप ‘अपग्रेड’ करते रहेंगे तो आपका मानसिक स्तर भी अपग्रेड होता रहेगा। सोचिये थोड़ा कि जब आप 70 साल की उम्र तक शर्ट और पेंट ही नहीं छोड़ पा रहे हैं उसे ही ‘मान्य और सभ्य’ कपड़ा समझते हैं तो कैसे आप धर्म, दर्शन, समाज और संस्कृति को अपग्रेड करेंगे या उनके अपग्रेड विचारों को अपनाएंगे?
अमिता नीरव
आपमें से कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने न्याय और समानता जैसे मूल्यों के लिए अपने-अपने प्रिविलेजेस का त्याग किया है? या आप कितने ऐसे लोगों को या लोगों के बारे में जानते हैं जिन्होंने उदात्त मानवीय मूल्यों के लिए अपने विशेषाधिकारों का परित्याग किया है? इतिहास में इस तरह के लोग गिने जाने लायक संख्या में होंगे। ऐसे में ये उम्मीद कि समानता या न्याय के लिए कोई अपने प्रिविलेजेस त्यागेगा कितनी व्यावहारिक लगती है?
हम सब एक खास सेट ऑफ वैल्यूज और माइंडसेट में बड़े होते हैं। हम कितने ही सह्दय क्यों न हों, मानवीय मूल्यों की परतों को समझने में हमेशा सक्षम नहीं हो पाते हैं। कुछ हमारी अपनी सुविधाएँ हुआ करती हैं, कुछ कंडिशनिंग। ऐसे में यह सोचना कि प्रिविलेज्ड लोग समानता के मूल्य के लिए अपना प्रिविलेज छोड़ेंगे कितनी बड़ी उम्मीद है भई। पुरुष होने की हैसियत में ही कितने प्रिविलेज मिले हैं, पति होने की हैसियत तो इजाफा ही करती है।
पति जितने महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठा पुरुष आसानी से अपने पूजे जाने के प्रति असहज हो जाएगा? यदि स्त्री इस समाज में कंडिशंड हैं तो पुरुष भी है। अपने इर्दगिर्द ही पुरुषों को इस बात पर आहत होते देखा है कि उनकी पत्नियाँ उनकी लंबी उम्र के लिए किए जाने वाले व्रत नहीं करना चाहती हैं। जिस तरह से स्त्रियों पर पीयर प्रेशर होता है, उसी तरह पुरुषों के लिए भी यह ईगो का प्रश्न हुआ करता है।
ऐसे में हम ये कहें कि पुरुष इस सिलसिले में पहल करे कितनी इनोसेंट ख्वाहिश है न हमारी...
बकौल दुष्यंत-उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें।
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए।
जय शुक्ल
‘मैं मुसलमानों का सच्चा दोस्त हूं लेकिन मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है। मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने में विश्वास रखता हूं। मैं उन्हें स्पष्ट करना चाहता हूं कि ऐसी स्थिति में भारतीय संघ के प्रति देशभक्ति की घोषणा मात्र से उन्हें मदद नहीं मिलेगी। उनकी घोषणा का व्यावहारिक प्रमाण भी उन्हें प्रस्तुत करना चाहिए।’
‘मैं भारतीय मुसलमानों से एक सवाल पूछना चाहता हूं कि हाल ही में संपन्न अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन में उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की आक्रामकता की निंदा क्यों नहीं की? यह लोगों के मन में संदेह पैदा करता है। अब आपको एक साथ तैरना होगा या एक साथ डूबना होगा। एक ही नाव में, आप दो घोड़ों की सवारी नहीं कर सकते।’
‘जो लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं उन्हें वहां जाना चाहिए और शांति से रहना चाहिए, लेकिन यहां के लोगों को भी शांति से रहना चाहिए और प्रगति के काम में योगदान देना चाहिए।’
ये सरदार वल्लभभाई पटेल के एक भाषण के कुछ अंश हैं जो उन्होंने छह जनवरी, 1948 को लखनऊ में दिया था।
महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक 'पटेल, ए लाइफ़' में लिखते हैं, ‘लखनऊ एक ऐसा शहर था जहां कई लोग थे जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण की वकालत की थी। शहर में वैसे मुसलमान भी थे जो कोई फ़ैसला नहीं ले सके थे और कट्टर हिंदुओं का भी घर था। सरदार ने यहां पहले समूह को व्यंग्यात्मक ढंग से, दूसरे समूह को कठोर शब्दों में और तीसरे समूह को स्पष्ट रूप से समझाया था।’
नवम्बर, 1946 के चौथे सप्ताह में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मेरठ में हुआ। राजमोहन गाधी अपनी पुस्तक ‘पटेल, ए लाइफ’ में लिखते हैं, ‘इस सम्मेलन में सरदार ने पाकिस्तान की मांग करने वालों से कहा कि तुम जो भी करो, शांति और प्रेम के साथ करो और तुम सफल हो जाओगे, लेकिन तलवार का जवाब तलवार से दिया जाएगा।’
महात्मा गांधी की चि_ी
नोआखाली और बिहार हिंसा की वारदात के एक महीने से भी कम समय के बाद में पटेल द्वारा दिए गए ये भाषण के कुछ अंश नेहरू को पसंद नहीं आए। गांधी जी उस समय नोआखाली में थे और नेहरू तथा आचार्य कृपलानी उनसे मिलने गये।
उस समय ‘तलवार का जवाब तलवार’ से देने की बात पर सरदार का मेरठ में दिया गया भाषण चर्चा में था। गांधीजी ने 30 दिसंबर 1946 को सरदार को एक पत्र लिखा, जो नेहरू के साथ उनको भेजा।
राजमोहन गांधी सरदार की बेटी मणिबहन पटेल की डायरी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि गांधीजी के पत्र के कारण वह पूरे दिन दुखी रहे थे। गांधीजी ने अपने पत्र में लिखा था, ‘आपके विरुद्ध कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं। यदि आप तलवार का बदला तलवार से देने वाला न्याय सिखाते हैं, और यदि यह सत्य है, तो यह हानिकारक है।’
पत्र मिलने के पांच दिन बाद यानी सात जनवरी को सरदार पटेल ने गांधीजी को जवाबी पत्र लिखा। सरदार ने लिखा, ‘सच बोलना मेरी आदत है। मेरे लंबे वाक्य को छोटा करके ‘तलवार का जवाब तलवार से’ देने के संदर्भ को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है।’
हालांकि कई बार ऐसा हुआ जब सरदार ने मुसलमानों की वफ़ादारी पर सवाल उठाए। 5 जनवरी, 1948 को कलकत्ता में अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘मुसलमान कहते हैं कि उनकी निष्ठा पर सवाल क्यों उठाया जाता है। मैं कहता हूं कि आप अपनी अंतरात्मा से क्यों नहीं पूछते?’
सरदार पटेल के ये भाषण प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘भारत की एकता का निर्माण’ में शामिल हैं।
1978 में संसद में कांग्रेस विधानमंडल के उपनेता रहे रफ़ीक़ जक़ारिया ने अपनी किताब ‘सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान’ में लिखा है, ‘देश के विभाजन के दौरान हिंदू शरणार्थियों की हालत देखकर सरदार के मन में हिंदू समर्थक रवैया भले देखा जा सकता है। लेकिन उनमें भारतीय मुसलमानों के साथ अन्याय करने की कोई प्रवृत्ति देखी नहीं जा सकती थी।’
नेहरू की नाराजगी
सरदार के भाषणों को लेकर उनके नेहरू से भी मतभेद थे। नेहरू कैंप में माना जाता था कि सांप्रदायिक सद्भावना के मामले में सरदार मुसलमानों के प्रति उदार नहीं थे।
जानकारों का कहना है कि सरदार के बयान को घटना, समय, स्थान, व्यक्ति और संदर्भ से नहीं जोड़ा जाना चाहिए और न ही उनके किसी वाक्य को मुस्लिम विरोधी करार दिया जाना चाहिए।
इतिहासकार और शोधकर्ता रिज़वान कादरी ने बीबीसी गुजराती से कहा, ''वे बिना सोचे-समझे नहीं बोलते थे। संदर्भों में देखें तो, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जिस धर्म ने देश को विभाजित किया, उसके अनुयायी देश के प्रति वफ़ादार रहेंगे।’
कई बार उनके द्वारा किये गये व्यंग्य या कटाक्ष भी विवादों का कारण बने।
जकारिया लिखते हैं, ‘सरदार ने एक बार कहा था कि भारत में केवल एक ही ‘राष्ट्रवादी मुस्लिम’ है और वह ‘नेहरू’ हैं। यह बात इतनी फैल गई कि गांधीजी को सरदार से कहना पड़ा कि ‘वह अपनी हाजिऱ जवाबी को अपने विवेक पर हावी न होने दें।’
ऑपरेशन पोलो को लेकर आलोचना
हैदराबाद में स्थिति नियंत्रण में आने के बाद, सरदार ने वहां मुसलमानों को आश्वासन दिया गया कि जब तक वे भारत के प्रति वफ़ादार रहेंगे, उन्हें डरने की कोई बात नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने स्तंभकार रहे ए।जी नूरानी ने लिखा है कि हैदराबाद में सेना के इस्तेमाल की कोई ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द डिस्ट्रक्शन ऑफ़ हैदराबाद’ में लिखा, ‘सरदार के फ़ैसले के कारण हैदराबाद में मुसलमान मारे गए थे।’ उन्होंने इसके लिए सुंदरलाल कमेटी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया है।
नूरानी लिखते हैं कि कन्हैया मुंशी कांग्रेस पार्टी में ‘राष्टप्तीय स्वयंसेवक संघ के एजेंट’ थे। उल्लेखनीय है कि सरदार ने मुंशी को हैदराबाद में भारत सरकार का प्रतिनिधि बनाकर भेजा था और वह सरदार के खास व्यक्ति माने जाते थे।
सरदार उस समय हैदराबाद को भारत का कैंसर मानते थे क्योंकि निज़ाम हैदराबाद को स्वतंत्र रखना चाहते थे। सरदार ने ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद में सैन्य अभियान चलाया। नेहरू और राजाजी ने सैन्य कार्रवाई का विरोध किया, लेकिन सरदार अड़े रहे।
रफीक जकरिया लिखते हैं, ‘सरदार 7 अक्टूबर 1950 को हैदराबाद गए। उन्हें बताया गया कि लायक अली पुलिस से बचते हुए विमान से पाकिस्तान जा चुके हैं। यह ख़बर सुनकर हैदराबाद के मुसलमानों ने खुशी मनाई। लायक अली निज़ाम के अंतिम प्रधानमंत्री थे। इस संदर्भ में सरदार ने मुसलमानों से नाराजग़ी व्यक्त करते हुए कहा कि मुझे संदेह है कि मुसलमान अपना भविष्य भारत से नहीं जोड़ रहे हैं।’
जब सरदार बोले-मुस्लिम लीग ने दंगों से सबक सीखा
जब जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 को पाकिस्तान की मांग पर सीधी कार्रवाई करने का दिन घोषित किया, तो इसका बंगाल में भीषण असर देखने को मिला।
राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘राजाजी, ए लाइफ’ में लिखते हैं, ‘बंगाल सरकार के प्रमुख एच.एस. सुहारावर्दी ने इस दिन छुट्टी की घोषणा की थी। उस दिन हत्या, बलात्कार, लूटपाट की होली खेली गई थी। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। पहले दो दिनों तक हिंदुओं को पीटा गया। लेकिन फिर जवाबी हमला किया गया। पांच दिनों तक चले इस जानलेवा खेल में 5,000 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई और 15,000 लोग घायल हो गए।’
‘सरदार पटेल ने 21 अगस्त, 1946 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को लिखे एक पत्र में कहा कि लीग ने सबक सीख लिया है, क्योंकि मैंने सुना है कि इसमें अधिक मुसलमान हताहत हुए हैं।’
नोआखाली के बाद बिहार में भी हिंसा हुई। तत्कालीन अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में नेहरू ने बंगाल और बिहार की निष्पक्ष जाँच के आदेश दिए थे। इसी बीच मुस्लिम लीग के एक सदस्य ने गांधी जी को लिखा कि बिहार में जांच में देरी के लिए सरदार पटेल जिम्मेदार हैं।
पहले गांधी जी ने सरदार को पत्र लिखा कि ऐसा लग रहा है कि आप जांच आयोग के खिलाफ हैं और बाद में पांच फरवरी, 1947 को दूसरा पत्र लिख कर कहा, ‘अगर आप जांच आयोग नहीं बिठाएंगे तो स्थिति भयावह हो जाएगी।’
सरदार ने गांधी जी को उत्तर दिया। 17 फरवरी को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, ‘किसने कहा कि मैं जांच आयोग के गठन में बाधा डाल रहा हूं। जांच रोकने में राज्यपाल का हाथ है और वायसराय भी ऐसा नहीं चाहते। वायसराय की सिफ़ारिश पर कलकत्ता में जांच चल रही है। लेकिन रिपोर्ट 12 महीने बाद आएगी। इतनी देर बाद जांच का क्या मतलब? यह अनावश्यक खर्च होगा, इससे कोई फायदा नहीं होगा।’
मौलाना आज़ाद के आरोप
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। पश्चिमी पंजाब और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांतों में सांप्रदायिक दंगे भडक़ उठे। पश्चिमी पंजाब के लाहौर, सियालकोट, गुजरांवाला और शेखपारा में भयानक जनसंहार हुए। इसका असर अमृतसर पर भी पड़ा। यह आग कलकत्ता में भी फैल गई।
गांधीजी ने कलकत्ता में शांति के प्रयास के लिए उपवास किया और जब वहां शांति स्थापित हुई तो दिल्ली में दंगे भडक़ उठे। यहां पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को शरण दी जानी थी। 5 सितंबर, 1948 तक लगभग दो लाख हिंदू या सिख शरणार्थी दिल्ली आ चुके थे।
दिल्ली में मुसलमानों को निशाना बनाया गया।
मौलाना अबुल कलाम आजाद अपनी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम में लिखते हैं, ‘दिल्ली में सिखों की एक दंगाई भीड़ ने मुसलमानों पर हमले शुरू कर दिए। मुझे आश्चर्य हुआ कि अगर पश्चिमी पंजाब में हिंदुओं और सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए वहां के मुसलमान जिम्मेदार थे, तो दिल्ली में निर्दोष मुसलमानों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?’
‘पीडि़तों की संख्या इतनी अधिक थी कि पुराने किले में उनके लिए एक राहत शिविर स्थापित करना पड़ा। गांधीजी मुझसे, सरदार पटेल और नेहरू से मामले पर विवरण देने के लिए कहते थे। सरदार का दृष्टिकोण अलग था। हम दोनों के बीच मतभेद बढ़े। एक तरफ मैं और जवाहरलाल थे। जबकि दूसरी तरफ सरदार थे। प्रशासन में दो गुट हो गए। लोग सरदार की ओर देखते थे क्योंकि वह देश के गृह मंत्री थे। उन्होंने ऐसा काम किया कि बहुसंख्यक गुट उनसे खुश था। अल्पसंख्यक गुट मुझसे और जवाहरलाल से उम्मीद कर रहा था।’
मौलाना ने सरदार पर आरोप लगाया कि दिल्ली प्रशासन, जो सीधे सरदार पटेल के विभाग के तहत काम करता है, हिंसा पर अंकुश लगाने में विफल रहा है।
मौलाना लिखते हैं कि 'जब दिल्ली में मुसलमान कुत्ते-बिल्लियों की तरह मर रहे थे, तब मैं, जवाहर और सरदार गांधीजी के साथ बैठे थे। जब जवाहरलाल ने दिल्ली में हिंसा को रोकने के लिए प्रशासन के काम करने के तरीके पर नाराजगी व्यक्त की, तो सरदार ने उनसे कहा कि मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं है। सरकार मुसलमानों की जान-माल बचाने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन और कुछ नहीं किया जा सकता।’
मौलाना लिखते हैं कि, ‘सरदार के जवाब से जवाहरलाल को सबसे ज्यादा झटका लगा। उन्होंने गांधी जी से कहा कि यदि सरदार पटेल के ऐसे विचार हैं तो मुझे उसमें कुछ कहना नहीं है।’
मौलाना ने लिखा, ‘गांधी ने यह भी कहा था कि दिल्ली में मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है और सरदार का गृह विभाग इसे नियंत्रित करने में विफल रहा है। 12 जनवरी, 1948 को गांधी ने हिंसा को रोकने के लिए उपवास का हथियार उठाने का फ़ैसला किया। सरदार ने गांधीजी को उपवास करने से रोकने की बहुत कोशिश की।’
‘सरदार को अगली सुबह बॉम्बे और काठियावाड़ के लिए निकलना था। वह गांधीजी से कहने लगे कि वह बिना किसी कारण के उपवास कर रहे हैं। गांधीजी ने उत्तर दिया कि, ‘मैं चीन में नहीं रह रहा हूं, मैं दिल्ली में हूं। मेरी आंखें और कान अभी भी काम कर रहे हैं। यदि आप कह रहे हैं कि मुसलमानों की शिकायतें बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हैं, न तुम मुझे समझते हो, न मैं तुम्हें समझता हूं।’’
सरदार अपनी यात्रा पर निकल पड़े। वहीं दिल्ली में गांधीजी का अनशन तुड़वाने की कोशिशें शुरू हो गईं। शांति प्रयासों से संतुष्ट होकर गांधीजी ने 18 जनवरी को मौलाना से मौसम्बी का जूस पीकर अपना उपवास तोड़ा। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि मुसलमानों के नष्ट किये गये धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण कराया जाये।
मौलाना के मुताबिक, ‘गांधी जी के इस रवैये से न केवल सरदार नाराज थे, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के कार्यकर्ता भी नाराज़ थे।’
हालांकि राजमोहन गांधी ने इसके उलट लिखा है कि जब गांधीजी ने अपना उपवास तोड़ा, तो सरदार ने उनका आभार व्यक्त करते हुए बम्बई से एक तार भेजा।
वरिष्ठ विश्लेषक और सरदार पटेल पर किताब लिख चुके उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘मौलाना ने कई आरोप लगाए लेकिन सरदार उनके लिए जि़म्मेदार नहीं थे। उस समय ऐसी स्थिति थी। 1946-50 की अवधि को हाल की परिस्थिति से तुलना करते सरदार को मुस्लिम विरोधी या सांप्रदायिकतावादी नहीं कहा जा सकता है।’
जब सरदार ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा रोकी
पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों को पंजाब से होकर जाना पड़ता था। वहां मुस्लिम विरोधी माहौल चरम पर था।
पाकिस्तान के तत्कालीन मंत्री गजनफर अली ख़ान ने सरदार पटेल को एक टेलीग्राम भेजा कि पाकिस्तान आने वाले लोगों का राजपुरा और लुधियाना के बीच पटियाला और बठिंडा के पास नरसंहार किया जा रहा है।
26 अगस्त, 1947 को सरदार ने पटियाला के महाराजा को टेलीग्राम कर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने और विश्वास का माहौल बनाने का अनुरोध किया। दंगे न रुकने पर सरदार 30 सितम्बर को खुद अमृतसर पहुँचे और वहाँ एक बैठक की।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘उन्होंने सभा में कहा आज स्थिति यह हो गई है कि लाहौर में कोई हिंदू या सिख अकेला नहीं चल सकता, कोई मुसलमान नहीं रह सकता अमृतसर में।।।इस हालत ने दुनिया में हमारा नाम खराब कर दिया है।’
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘सरदार के इन व्यक्तिगत प्रयासों के कारण उसके बाद पाकिस्तान जाने वाली एक भी ट्रेन पर हमला नहीं किया गया।’
जब जिन्ना ने सरदार पर निशाना साधा
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने स्तंभकार ए। जी नूरानी ने एक बार द हिंदू में लेख लिखा था।
इस लेख में उन्होंने लिखा था, ‘नवंबर 1945 में, एक शीर्ष कांग्रेस नेता ने बॉम्बे के मरीन ड्राइव के पास चोपाटी बीच पर एक स्विमिंग पूल का उद्घाटन किया। इस स्विमिंग पूल का नाम प्राणसुखलाल मफतलाल हिंदू स्विमिंग पूल था। इस स्विमिंग पूल के दरवाजे मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए बंद कर दिए गए थे। यह नेता कौन था? इस पूल का उद्घाटन करने वाले व्यक्ति का नाम था-वल्लभभाई पटेल। पूल के बाहर एक पट्टिका पर इस साहसिक कार्य के लिए उनकी प्रशंसा करते हुए देखा जा सकता है।’
पहले तो इसका किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने 18 नवंबर, 1945 को दिल्ली से एआईसीसी सत्र में पटेल द्वारा दिए गए भाषण का जवाब देते हुए कहा, ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई और भारत एक है जैसे नारे सरदार पटेल के मुख में शोभा नहीं देते। क्या पटेल ने बंबई में केवल हिंदू स्विमिंग पूल का उद्घाटन नहीं किया था? जिसका कुछ युवकों ने विरोध किया। स्विमिंग पूल के साथ-साथ मुसलमान इतने भाग्यशाली नहीं थे कि समुद्र के पानी का उपयोग कर सकें।’
इसके लिए नूरानी ने वहीद अहमद की किताब द नेशन्स वॉइस का हवाला दिया। उन्होंने यह भी लिखा, ‘उस समय न तो नेहरू और न ही राजाजी ने उन्हें रोकने की कोशिश की।’
उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘अगर कोई सरदार को मुस्लिम विरोधी बताकर उनका राजनीतिकरण करता है, तो वह सरदार का अपमान कर रहा है।’
नूरानी लिखते हैं कि सरदार अपने विरोधियों से निपटने में बहुत सख्त थे, उनके पास छुपे हुए आरएसएस कनेक्शन थे।
नूरानी लिखते हैं, ‘22 अक्टूबर, 1946 को भारत के वायसराय लॉर्ड वेवेल ने ब्रिटेन के राजा को लिखी एक रिपोर्ट में लिखा था कि पटेल स्पष्ट रूप से एक सांप्रदायिक हैं।’
इन सभी आरोपों के बीच सरदार एक को संप्रभु भारत के निर्माता के रूप में जाना जाता है। जक़ारिया लिखते हैं, ‘देशभर में फैली 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण वास्तव में एक बहुत बड़ा काम था। यह चमत्कार करके सरदार ने अपने लिए भारत के बिस्मार्क की उपाधि अर्जित की। इसमें कश्मीर शामिल नहीं था। उसकी जि़म्मेदारी सरदार के हाथ में नहीं थी। आज भी कश्मीर हमारी राजनीति के लिए एक समस्या के तौर पर देखा जाता है।’
सरदार स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए बनाए गए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को जारी रखने या पुनर्गठन के विरोध में थे।
सरदार ने संविधान सभा में अनुसूचित जाति को छोडक़र सभी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने का समर्थन किया।
संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और जनजाति को छोडक़र अन्य सभी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने का निर्णय लिया।
आरएसएस के प्रति नरमी दिखाने का आरोप
नेहरू को यह भी शिकायत थी कि दिल्ली हिंसा में आरएसएस कार्यकर्ता शामिल थे, फिर भी पुलिस ने उनके खिलाफ और दंगा करने वाले सिख गिरोहों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। हालाँकि, बाद में नेहरू ने स्वीकार किया कि पुलिस ने धीरे-धीरे उनके खिलाफ कार्रवाई की थी।
20 जनवरी को गांधी जी की प्रार्थना सभा में जोरदार विस्फोट हुआ। गांधी जी बच गये। उसी दिन पश्चिम पंजाब के मदनलाल पाहवा नामक एक व्यक्ति ने बम फेंका। मदनलाल तो पकड़ लिया गया लेकिन बाकी लोग भाग निकले। पुलिस को मदनलाल से जानकारी मिली कि गांधीजी की हत्या की साजिश रची जा रही है।
सरदार ने गांधीजी को सुरक्षा देने की बात की लेकिन गांधीजी ने इसका विरोध किया। 30 जनवरी को सरदार मणिबहन के साथ गांधीजी से मिलने पहुंचे। नेहरू और सरदार के बीच मतभेदों पर चर्चा हुई। गांधीजी ने सरदार से कहा कि वे इस विषय पर नेहरू से भी बात करेंगे। उनका मानना था कि वर्तमान परिस्थितियों में दोनों के बीच मतभेद देश हित में नहीं है।
तीन मिनट में मणिबहन और सरदार अपने घर पहुँच गये। वहां पता चला कि किसी ने बापू को गोली मार दी है।
गांधी जी की हत्या के बाद सरदार पर आरोप लगने लगे। तीन फरवरी को स्टेट्समैन के एक स्तंभकार ने लिखा कि महात्मा गांधी को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहने के लिए सरदार को गृह मंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने भी सरदार की आलोचना की और कहा कि जिस विभाग को चलाना तीस साल के युवा के लिए भी मुश्किल हो, उसे 74 साल का आदमी कैसे चला सकता है?
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘सरदार ने अपना इस्तीफा लिखा लेकिन भेजा नहीं। नेहरू ने सरदार को एक भावनात्मक पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि हमारे बीच मतभेदों को नमक और मिर्च लगाकर पेश किया जा रहा है। इस बुरे खेल को रोकना ज़रूरी है। बापू की मौत के बाद जो आपातकाल पैदा हुआ है इसका मुकाबला करने के लिए हमें मित्र या सहयोगी के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए।’
सरदार ने भी उत्साहपूर्वक अपना उत्तर दिया। सरदार ने लिखा, ‘बापू की भी राय थी कि हम परस्पर जुड़े हुए हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आपके नेतृत्व में मैं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हूं।’
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस और हिंदू महासभा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालांकि, सरदार और नेहरू के उनके बारे में अलग-अलग विचार थे। नेहरू आरएसएस और हिंदू महासभा को फासीवादी मानते थे जबकि सरदार उन्हें देशभक्त मानते थे। नेहरू का मानना था कि बापू की हत्या एक बड़ी साजिश का हिस्सा थी। इसके लिए अभियान आरएसएस ने चलाया था। हालांकि, सरदार इससे सहमत नहीं थे।’
7 जुलाई 1948 को सरदार ने प्रान्तों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। इससे पहले हिंदू महासभा के नेता और नेहरू सरकार में मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पत्र लिखकर कुछ मामलों पर विचार करने को कहा था।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लिखा, ‘गांधीजी की हत्या में एक छोटा समूह शामिल था। जिनके ख़िलाफ़ साजिश में शामिल होने का कोई सबूत नहीं है, उन्हें तुरंत रिहा किया जाना चाहिए। इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इस मामले में आरएसएस का कोई हाथ है।’
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शिकायत की कि हर मोर्चे पर हिंदुओं को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है लेकिन मुसलमानों की ऐसी (संदिग्ध) गतिविधियों के ख़िलाफ़ कोई भी कुछ करने की स्थिति में नहीं है।
मुख्यमंत्रियों की बैठक समाप्त होने के बाद सरदार ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखा, ‘आरएसएस और हिंदू महासभा के ख़िलाफ़ मामला अदालत में विचाराधीन है। आरएसएस की गतिविधियां सरकार के खिलाफ खतरनाक थीं। सुरक्षा अधिनियम के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को छह महीने से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता।’
लखनऊ में दिए एक भाषण में
सरदार ने लखनऊ में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कांग्रेस में शामिल होने की अपील की थी और उन्होंने यह भी कहा था कि वे अकेले हिंदुओं के ठेकेदार नहीं हैं।
उन्होंने कहा, ‘कुछ सत्ता पर काबिज कांग्रेसी सोचते हैं कि वे अपनी ताक़त के बल पर आरएसएस को कुचल सकते हैं। आप किसी संगठन को सत्ता के जोर के बल पर नहीं कुचल सकते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग चोर और लुटेरे नहीं हैं। वे देशभक्त हैं। वे अपने देश से प्यार करते हैं लेकिन उनके विचार गुमराह हैं।’
लेखक हिम्मतभाई पटेल अपनी पुस्तक चक्रवर्ती संन्यासी सरदार पटेल में लिखते हैं कि सरदार का यह भाषण रेडियो पर भी प्रसारित किया गया था। आरएसएस ने इसका फायदा उठाया और इसे सर्वत्र प्रचारित किया।
बीबीसी गुजराती से बातचीत में उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘सरदार ने आरएसएस और हिंदू महासभा को कांग्रेस में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, इसका मतलब यह नहीं था कि उनका उनके प्रति अधिक स्नेह था। वह चाहते थे कि भारत अब आज़ाद है और सभी को इसका समर्थन करना चाहिए। सब मिलकर इसे आगे बढ़ायें। अगर आम्बेडकर सरकार में हैं, श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं तो उनके अनुसार संघ को साथ लेने में कोई दिक्कत नहीं थी।’
क्या चाहते थे पटेल?
मौलाना आज़ाद लिखते हैं कि सरदार का दिमाग किस दिशा में काम कर रहा था, इसका एक और उदाहरण देखिए। ‘सरदार को लगा कि मुसलमानों पर हमलों के पीछे कारण और तर्क देना ज़रूरी है।’
वह लिखते हैं, ‘सरदार ने दिल्ली में एक मुस्लिम घर में पाए गए हथियारों की एक प्रदर्शनी आयोजित की थी। उनका सिद्धांत था कि मुसलमानों ने हिंदुओं और सिखों पर हमला करने के लिए हथियार एकत्र किए थे। अगर हिंदुओं और सिखों ने विरोध नहीं किया होता, तो मुसलमानों ने उन्हें नष्ट कर दिया होता।’
‘कैबिनेट बैठक के दौरान इन हथियारों का प्रदर्शन किया गया। लॉर्ड माउंटबेटन ने कुछ चाकू उठाए और कहा, मेरे लिए यह पचाना मुश्किल है कि कोई इन हथियारों से पूरी दिल्ली पर कब्जा कर सकता है।’
हालाँकि, ऐसे आरोपों के विपरीत, सरदार को मुसलमानों की भी चिंता थी। राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘जब राजपूत और सिख सैनिकों ने मुसलमानों की रक्षा करने के बजाय उन पर हमला किया, तो दिल्ली में सरदार ने सिख और राजपूत रेजिमेंट के स्थान पर मद्रास रेजिमेंट को तैनात कर दिया।’
‘वह दक्षिण दिल्ली में निज़ामुद्दीन दरगाह के बारे में चिंतित हो गए। कुछ डरे हुए मुसलमानों ने दरगाह में शरण ली। सरदार दरगाह के दौरे पर गए। वहां गए और प्रभारी अधिकारी को उनकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने का निर्देश दिया।’
उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘सरदार पर उस दौरान बहुत सारी जिम्मेदारियां थीं। उनमें हिन्दू-मुस्लिम एकता से अधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक दृष्टिकोण था। उनके मन में मुसलमानों के प्रति अलगाव की भावना थी लेकिन वे मुसलमानों को ख़त्म करने की विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे।’ (bbc.com/hindi)
रेहान अहमद
उत्तर प्रदेश के अमरोहा के लोकल टूर्नामेंट में तौसीफ अली नाम के एक तेज गेंदबाज का बोलबाला था। तौसीफ तेज गेंदबाजी का शौक और हुनर दोनो रखते थे। लोग बाग सलाह भी देते कि क्लब में जाओ, ट्रेनिंग करो डोमेस्टिक में जा सकते हो। पर तौसीफ अली किसान परिवार से थे, डोमेस्टिक या नेशनल के लायक तैयारी के लिए न पैसे थे, ना ही उम्र बची थी। एक समय आया जब तौसीफ अली ने स्वीकार कर लिया कि शायद ये खेती किसानी ही उनका मुकद्दर है, प्रोफेशनल क्रिकेट के लिए देर हो चुकी है। तौसीफ अली भारतीय टीम के फास्ट बॉलर का सपना दिल में दफन करके अपनी आम जिंदगी में लौट आए। शादी हुई, खेती किसानी से परिवार पाला। पांच बेटे हुए, और सबके अंदर क्रिकेट को लेकर दीवानगी। तौसीफ अली को मालूम था कि उनसे कहा कहा गलती हुई थी, क्या क्या नहीं हुआ जिसकी वजह से उन्हें अपने सपने मारने पड़े। वो अपने बच्चो के साथ ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहते थे। पंद्रह साल तक अपने बेटे को गेंदबाज बनने के लिए खुद ट्रेन करते रहे, अपने तजरबे अपनी गलतियों का निचोड़ उन्होंने अपने बेटे की राह में रख दिए। बेटे को बस चलना था और वो हासिल करना था जिसे हासिल करने की जद्दोजहद का मौका भी उसके अब्बू को हासिल नहीं हुआ था।
पंद्रह साल की उम्र तक बेटे को ट्रेन करने के बाद तौसीफ अली अपनी सारी जमा पूंजी इक_ा करके अपने बेटे को लेकर मुरादाबाद की एक क्रिकेट एकेडमी में कोच बदरुद्दीन के पास लेकर गए। कोच के सामने बेटे ने गेंद फेंकना शुरू किया तो बदरुद्दीन ने तुरंत उसे अपना शागिर्द कुबूल कर लिया। वो लडक़ा इस कदर मेहनती था कि उसने एक दिन भी ट्रेनिंग का नागा नही किया,मुरादाबाद में ट्रेनिंग के दौरान अगर कोई मैच खत्म होता तो वो लडक़ा पुरानी इस्तेमाल हुई गेंद मांगने खड़ा हो जाता, वजह पूछी गई तो बताया कि इन पुरानी गेंदों से मैं रिवर्स स्विंग की प्रैक्टिस करूंगा। बदरुद्दीन को पूरा यकीन था कि इस लडक़े को अंडर 19 के ट्रायल में तो सिलेक्टर उठा ही लेंगे। इसी उम्मीद के साथ शमी ने ट्रायल दिया, सोच बदरुद्दीन के मुताबिक सिलेक्टर के पक्षपातपूर्ण रवैए के कारण शमी को मौका नहीं दिया गया। बदरुद्दीन से कहा गया कि अगले साल आइए इसे लेकर, लडक़े में जान है, कब तक दूर रखेंगे सिलेक्टर इसे इंडियन कैप से। बदरुद्दीन दूरदर्शी आदमी थे, बोले इस लडक़े का एक साल और दाव पर नहीं लगाना है, उन्होंने लडक़े के पिता तौसीफ अली से बात की और कहा कि इसे आप कलकत्ता भेजिए। वहां क्लब खेलेगा तो आज नहीं कल स्टेट टीम में आ ही जायेगा। तौसीफ अली के पास ये जुआ खेलने की सिर्फ एक वजह थी अपने बेटे की काबिलियत और जुनून पर उनका भरोसा।
कलकत्ता आकर उस लडक़े ने एक क्लब ज्वाइन कर लिया,पर स्टेट और नेशनल टीम का रास्ता दूर भी था और मुश्किल भी। जुनून के भरोसे वो बंगाल तो पहुंच गया, पर जुनून न तो पेट भरता है न सर पर छत रखता है।पर दुनिया में ऐसे लोगो की कमी नहीं जो जुनून और काबिलियत ही ढूढते है लोगों में,ऐसे ही एक शख्स थे देवव्रत दास, जो की उस वक्त बंगाल क्रिकेट के असिस्टेंट सेक्रेटरी की हैसियत पर थे। वो उस लडक़े की काबिलियत से इतने इंप्रेस हुए कि कलकत्ता में बेघर उस लडक़े को अपने साथ रहने के लिए रख लिया। फिर उन्होंने बंगाल के एक चयनकर्ता बनर्जी को उस लडक़े की प्रतिभा पर नजर रखने को कहा।बनर्जी ने लडक़े को गेंद फेंकते देखा और उसे बंगाल की अंडर 22 की टीम में सिलेक्ट कर लिया। देवदत्त दास से जब उस लडक़े पर ऐसी मेहरबानी की वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा कि ‘इस लडक़े को रूपया पैसा नहीं चाहिए,इसे बस एक चीज नजर आती है वो है पिच के आखिर में गड़े हुए तीन स्टंप। स्टंप से गेंद की टकराने की आवाज उस लडक़े को इतनी पसंद है कि उसके ज्यादातर विकेट बोल्ड आउट ही है।’
वहा से निकलकर उस लडक़े ने मोहन बागान क्लब ज्वाइन किया, वहा ईडन गार्डन के नेट्स में उसने सौरव गांगुली को गेंदबाजी की। सौरव के साथ भी वही हुआ, जो अब तक हर उस इंसान के साथ हो रहा था जो उस लडक़े को गेंद फेंकते हुए देख रहा था। गांगुली इंप्रेस हुए और फिर उनकी रिकमेंडेशन पर शमी को बंगाल की 2010–11 की रणजी टीम में चुन लिया गया। कुछ साल की मेहनत और जद्दोजहद के बाद 6 जनवरी 2013 के दिन पाकिस्तान के खिलाफ इस लडक़े को इंडियन टीम की डेब्यू कैप दी गई। जिसे पहनने के बाद आज तक वो लडक़ा उस टोपी नंबर 195 का रुतबा दिन ब दिन बढ़ाए जा रहा है। हजारों दर्शकों के बीच में, वो लडक़ा पूरे दम के साथ जब दौडऩा शुरू करता था तो उसके अंदर एक ही लालच रहता, किसी तरह गेंद स्टंप को लगे और वो टक का साउंड आए जिसे सुनकर ही इतने साल वो सांस लेता रहा है। जिंदगी की तमाम उतार चढ़ाव, मुश्किलों परेशानियों के बावजूद आज भी, अमरोहा के तेज गेंदबाज तौसीफ अली का बेटा मोहम्मद शमी, जर्सी नंबर 11 पहन कर जब रनअप पर दौडऩा शुरू करता है, तो उसके पीछे पीछे उसके अब्बू का सपना, कोच बदरुद्दीन की लगन, देवदत्त दास की इंसानियत सब कुछ साथ साथ चलता है दौड़ता है।
1992 में आईसीसी क्रिकेट वल्र्ड जीतने वाला पाकिस्तान 2023 के वल्र्ड कप में बाहर होने के खतरे से जूझ रहा है।
क्रिकेट वल्र्ड कप 2023 में पाकिस्तान की लगातार चौथी हार के बाद उसके इस टूर्नामेंट से बाहर होने का खतरा बढ़ गया है।
अब पाकिस्तान को न केवल अपने सारे मैचे जीतने होंगे, बल्कि दूसरी टीमों के नतीजे पर भी निर्भर रहना होगा। खास करके जो मैच ऑस्ट्रेलिया से जुड़े हैं, उन पर पाकिस्तान का भविष्य ज़्यादा टिका है।
पाकिस्तान चाहेगा कि ऑस्ट्रेलिया को बांग्लादेश या अफगानिस्तान से झटका लगे।
इस वल्र्ड कप में पाकिस्तान ने अब तक छह मैच खेले हैं और केवल दो में जीत मिली है। अंक तालिका में पाकिस्तान के केवल चार प्वाइंट्स हैं। पाकिस्तान को अभी बांग्लादेश, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड से मैच खेलने हैं।
पाकिस्तान अगर तीनों मैच जीत भी जाता है तो इस बात का इंतजार करना होगा कि बाक़ी टीमों के नतीजे उसके पक्ष में हैं या नहीं।
पाकिस्तान को न केवल तीनों मैच जीतने होंगे, बल्कि बड़े अंतर से जीतने होंगे ताकि नेट रन रेट में सुधार हो सके।
ऑस्ट्रेलिया ने न्यूज़ीलैंड को हरा दिया है और इससे पाकिस्तान की राह और मुश्किल हो गई है। अब ऑस्ट्रेलिया के तीन मैच और बचे हैं।
ऑस्ट्रेलिया को अभी बांग्लादेश, अफगानिस्तान और इंग्लैंड से मैच खेलने हैं।
बांग्लादेश और अफग़़ानिस्तान से ऑस्ट्रेलिया शायद ही मैच हारे। इंग्लैंड भी इस वल्र्ड कप में लगातार मैच हार रहा है।
ऐसे में ये उम्मीद करना कि ऑस्ट्रेलिया हार जाएगा, बहुत उम्मीद नहीं जगाता है।
अब केवल अपनी जीत ही काफी नहीं
पाकिस्तान ने अपने दो शुरुआती मैच नीदरलैंड्स और श्रीलंका से जीते थे। इन दो जीत के बाद इंडिया से हार मिली और उसके बाद से पाकिस्तान को सभी तीन मैचों में हार मिली है।
यहाँ तक कि पाकिस्तान को अफगानिस्तान से भी हार का सामना करना पड़ा।
चार लगातार हार के बाद पाकिस्तान का नेट रन रेट गिरकर माइनस 0.378 हो गया है।
लेकिन पाकिस्तान अभी टॉप फोर से बाहर पाँच मैचों के दम पर है और उसे अभी तीन मैच और खेलने हैं।
ग्रुप मैच में इंडिया, न्यूजीलैंड और साउथ अफ्रीका पहले ही सेमीफाइनल की ओर जगह लगभग पक्की कर चुके हैं।
चौथे नंबर पर अभी ऑस्ट्रेलिया है और पाकिस्तान को यही जगह लेनी है। अभी पाँचवें नंबर पर श्रीलंका है लेकिन वो भी लगातार मैच हार रहा है। पाकिस्तान और श्रीलंका दोनों के चार-चार अंक हैं।
पाकिस्तान अगर बाक़ी बचे सभी तीन मैच जीत जाता है तो उसके हिस्से में कुल पाँच जीत होगी और 10 अंक होंगे। लेकिन तब भी पाकिस्तान के लिए सेमीफाइनल की राह मुश्किल है।
इस स्थिति में पाकिस्तान चाहेगा कि ऑस्ट्रेलिया अपने बाकी बचे तीन मैच में से कम से दो मैच हारे।
अगर ऐसा होता है तो फिर मामला नेट रन रेट पर जाएगा। अगर ऑस्ट्रेलिया तीनों मैच हार जाता है तो पाकिस्तान चौथे नंबर पर आ जाएगा। हालांकि यह असंभव सा लगता है।
अगर पाकिस्तान कुल तीन बचे मैच में केवल दो मैच जीतता है तो उसके हिस्से में कुल चार जीत आएगी और आठ अंक होंगे।
ऐसी स्थिति में पाकिस्तान वर्ल्ड कप से लगभग बाहर हो जाएगा लेकिन प्वाइंट्स टेबल की जटिलता की स्थिति में थोड़ी संभावना बची रहेगी। अगर पाकिस्तान केवल एक मैच ही जीत पाता है तो वह वल्र्ड कप से बाहर हो जाएगा।
ये चार स्थितियाँ
अगर न्यूजीलैंड बाकी के सभी तीन मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता है तो प्वाइंट्स टेबल में पाकिस्तान के दस अंक हो जाएंगे और न्यूजीलैंड के आठ अंक रहेंगे।
ऐसी स्थिति में इंडिया, साउथ अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान शीर्ष की चार टीमें होंगी। शीर्ष की चार टीमें ही सेमीफाइनल में जाएँगी।
अगर न्यूजीलैंड तीन में से दो मैच हार जाता है और एक में ही जीत मिलती है तो उसके कुल 10 अंक होंगे।
दूसरी तरफ पाकिस्तान भी अगर तीनों मैच जीत जाता है तो उसके भी 10 अंक हो जाएँगे। इस हालत में नेट रन रेट निर्णायक साबित होगा।
अगर ऑस्ट्रेलिया बाकी के सभी मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता है तब भी ऑस्ट्रेलिया के 8 अंक होंगे और पाकिस्तान के 10। ऐसे में इंडिया, साउथ अफ्रीका, न्यूज़ीलैंड और पाकिस्तान सेमीफ़ाइनल में पहुँच जाएँगे।
अगर ऑस्ट्रेलिया एक मैच ही जीत पाता है और दो हार जाता और पाकिस्तान तीनों मैच जीत लेता है तो दोनों टीमों के अंक बराबर यानी 10-10 हो जाएँगे। ऐसे में फैसला नेट रन रेट पर होगा।
अगर दक्षिण अफ्रीका बाकी के तीन मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता है तो दोनों के 10-10 अंक हो जाएँगे।
ऐसे में यहां भी फैसला नेट रन रेट पर होगा और इसमें पाकिस्तान पीछे छूट जाएगा।
अगर भारत बाकी के सभी तीन मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि भारत पहले ही 12 अंक हासिल कर चुका है।
पाकिस्तान तीन मैच जीतकर भी 10 अंक ही हासिल कर सकता है।
अगर श्रीलंका अपने चार में से तीन मैच जीत जाता है और पाकिस्तान भी अपने सभी तीन मैच जीत जाता है तो दोनों के 10-10 अंक हो जाएंगे। ऐसे में नेट रन रेट ही निर्णायक साबित होगा।
पाकिस्तान चाहता है कि श्रीलंका न्यूज़ीलैंड को हरा दे और इंडिया, बांग्लादेश या अफग़़ानिस्तान से हार जाए।
पाकिस्तान का भविष्य अब केवल अपनी जीत पर नहीं बल्कि दूसरों की हार और जीत पर ज़्यादा निर्भर है। (bbc.com/hindi)
-सिद्धार्थ ताबिश
असल में अगर आप देखेंगे तो पायेंगे कि ‘मोह और माया’ रहित जीवन सिर्फ पश्चिम के लोग जीते हैं। उनका सारा जीवन उधार और क्रेडिट कार्ड में चलता है। धन संचय न के बराबर। सोना और चांदी तो बिल्कुल न के बराबर खरीदते हैं क्यूंकि उन्हें मुसीबत के दिनों की फिक्र नहीं होती है.. और रिश्तों का ये मामला होता है कि लडक़ों को अपने माता पिता से मिले भी चालीसों साल हो जाते हैं कभी-कभी बाकी रिश्तेदारी छोड़ ही दीजिये। अंकल, आंटी, कजिन के सिवा उनके शब्दकोष में और रिश्तेदारी के नाम ही नहीं होते हैं। शादी के बाद वो कभी भी माँ और पिता के पास नहीं रहते हैं। अपने 2 साल के बच्चे को भी अलग कमरे में सुलाते हैं.. दुनिया में कहीं भी जा कर एकदम अकेले बस जाते हैं। ठीक से सिर्फ एक त्यौहार क्रिसमस मनाते हैं बस.. मोह और माया से मुक्त होना उनके बचपन की ट्रेनिंग होती है। खतरों से खेलना और जग कर जीना उनके रोजमर्रा का जीवन होता है। इसलिए ज़्यादातर ‘जग’ कर और मोह माया से मुक्त होकर ही मरते हैं।
और भारतीय अपना जीवन उम्र भर सोना खरीदने, प्रॉपर्टी खरीदने, अपनी दस पुश्तों तक के लिए धन संचय करने, बेटा बेटी समेत दो दर्जन रिश्तेदारों को अपने आसपास रखने, कम से कम 50 तरह के रिश्तों के नाम, फुफेरी मौसी, चचेरी बुआ, लुटेरी ताई इत्यादि, इनका 35 साल का बेटा बहु को लेकर अलग जा कर रहने लगे तो कोई जतन नहीं छोड़ते हैं उसे अपने पास घसीटने में, सिर्फ परिवार और अपने परिवार को सीने से लगाने, सारी उम्र अपना और पराया करने, अम्मा बेटे के लिए मरी जाती है बेटा माँ के लिए भले दोनों 70 साल के हो गए हों, दुनिया में कहीं भी अकेले नहीं बस पाते हैं, सारा परिवार हर जगह ले जाते हैं, अकेलापन इनका सबसे बड़ा डर होता है। मरते दम तक अकेला रहने से डरते हैं.. साल में 300 त्यौहार मनाते हैं.. खतरे और जोखिम से कोसो दूर रहते हैं.. जाति और धर्म को अपना जीवन मानते हैं और जो कुछ भी भौतिक है बस उसी में जीवन बिताने में इनका सारा जीवन निकल जाता है फिर ये बेहोशी में मर जाते हैं और बाद में इनको मोक्ष दिलाने के लिए कव्वे को खाना खिला दिया जाता है जिस से इन्हें मोक्ष मिल जाता है।
भारतीय सिर्फ आध्यात्म के नाम पर गाल बजाते हैं और लोगों को उल्लू बनाते हैं। भारतीयों से बड़ा भौतिकवादी संसार में कोई दूसरा नहीं होता है।
-अर्पित द्विवेदी
मैं यूरोप ट्रिप पर था। ट्रेन से यात्रा कर रहा था। ट्रेन लगभग खाली सी थी। मैंने एक चीज नोटिस की, ट्रेन में जो भी यात्री चढ़ता वह किसी यात्री के पास बैठने के बजाय कोई एकांत जगह ही तलाशता। वहीं कोई किताब खोलकर पढऩे लगता या अपने मोबाइल या लैपटॉप में लग जाता।
यही परिस्थिति अगर भारत में होती तो अधिकांश लोग ऐसी जगह चुनते जहाँ उन्हें कोई बतियाने को मिल जाये। आप किसी भी सार्वजनिक परिवहन से यात्रा कीजिए या किसी समारोह में जाइये कुछ ही देर में आपके आस पास के अनजान लोग आपसे बतियाने लगेंगे। थोड़ी ही देर में वो आपके व्यक्तित्व जीवन के बारे में पूछने लगेंगे। आप जरूरत भर की बात करेंगे तो आपसे कहेंगे कि आप बहुत कम बोलते हैं। क्या आप ऐसे ही चुप चुप रहते हैं या कोई समस्या है?
इनको लगता है कि जो इनकी तरह बात नहीं कर रहा वह असामान्य है। उसे कोई मानसिक समस्या है। शायद अवसाद से पीडि़त है। या बहुत घमंडी है।
पर्सनल स्पेस क्या होता है, उसका क्या महत्व है और किसी के पर्सनल स्पेस का कैसे सम्मान किया जाए ये हमें नहीं आता। हम तो पूरे अधिकार के साथ धड़धड़ाते हुए किसी के भी पर्सनल स्पेस में घुस जाते हैं।
आप देखिए यहां लोग किसी को कभी भी बिना सोचे फोन मिला देते हैं। अगर वह न उठाए तो बुरा मान जाते हैं। जबकि कायदा यह कहता है कि अगर कोई इमरजेंसी नहीं है तो एक बार मैसेज पर पूछ लें कि यह काम है अथवा आपसे बात करने का मन था, आपसे किस समय बात हो सकती है।
मुझे लगता है यहां अधिकांश लोगों को अपने साथ कैसे जिया जाए ये आता ही नहीं है। अगर इन्हें कुछ समय अकेले रहना पड़े, कोई बात करने को न मिले तो ये बेचैन हो जाते हैं। इन्हें कोई न कोई चाहिए खोपड़ी चाटने को।
असल में यहां लोगों की जिंदगियों में कोई रचनात्मकता नहीं है। अधिकांश एक ढर्रे पर चले जा रहे हैं। उन्हें लगता है यही जीवन है। सुख साधन जमा करके, शानो-शौकत का दिखावा करके खुद को बेहतर दिखाने ही अंतहीन दौड़ में दौड़ते रहना ही इनके लिए जीवन का उद्देश्य है।
जिन समाजों में रचनात्मकता होती है वो खुद के साथ ज्यादा समय बिताते हैं। दूसरों से बतियाने में ही नहीं बल्कि अपने विचारों में भी आनंदित रहते हैं। और इसीलिए वो पर्सनल स्पेस को महत्व देते हैं। क्योंकि ये किसी के आनंद में दखल देने जैसा है।
-इमरान कुरैशी
भारत के पूर्वोत्तर राज्य नगालैंड के एक शख़्स दक्षिण भारत के केरल में स्वास्थ्य सुविधाओं के ब्रांड एम्बेसडर बन गए हैं। ये शख़्स हैं डॉ. विसाज़ो कीची, जिनका मलयालम में बनाया गया वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है।
विभिन्न उत्पादों के ब्रांड एम्बेसडरों के लिए ये कोई अनोखी बात नहीं है कि वो अपने वीडियो को कई स्थानीय भाषाओं में डब करते हैं। लेकिन नगालैंड की राजधानी कोहिमा के रहने वाले 29 साल के डॉ. विसाज़ो कीची का मामला कुछ अलग है। वे धाराप्रवाह मलयालम बोलते हैं। हालांकि वो यह भी मानते हैं कि ये बहुत कठिन भाषा है।
कीची ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘अगर आप डॉक्टर हैं तो ये मजबूरी हो जाती है क्योंकि आपको अपने मरीजों से बात करने के लिए भाषा सीखनी पड़ती है।’
जब अगस्त 2013 में डॉ. कीची कोझिकोड पहुंचे तो सरकारी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स में एडमिशन लेने वाले वो पूर्वोत्तर के पहले व्यक्ति थे। इसके दो साल बाद ही पूर्वोत्तर से लोगों का वहां आना शुरू हुआ। कई लोगों के लिए ये ‘दूसरा घर’ बन गया है।
केरल में प्रवासी मजदूर
केरल के बारे में उनकी हिचक तब गायब हो गई जब उनके अध्यापक और सहपाठी बहुत मददगार साबित हुए, जैसा कि कोहिमा में उनके मलयाली पड़ोसी ने उन्हें आश्वस्त किया था।
डॉ. कीची ने कोझिकोड में अपना एमबीबीएस कोर्स पूरा किया और तिरुवनंतपुरम मेडिकल कॉलेज अस्पताल में सर्जरी की पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री में दाखिला लिया। उनके लिए केरल शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में मॉडल राज्य है।
वे कहते हैं, ‘अगर किसी के पास पैसा नहीं है तो वो भी अस्पताल में बेधडक़ जा सकता है और राज्य कि विभिन्न योजनाओं के तहत अपना इलाज करा सकता है।’
लेकिन जो बात डॉ। कीची को ब्रांड एम्बेसडर बनाती है, वो है केरल का ख़ुद को एक ऐसे राज्य के रूप में दिखाने का दृढ़ संकल्प जहां ‘किसी भी भारतीय के पढऩे, काम करने और रहने का स्वागत है।’
जैसा कि एक अधिकारी ने कहा, यह राज्य बार-बार साबित करना चाहता है कि यह ‘ईश्वर का अपना देश है’, जो कि राज्य की लोकप्रिय टैगलाइन भी है।
‘सभी का स्वागत’
एक्सपर्ट केरल सरकार के इस नीतिगत फैसले के पीछे कई कारण बताते हैं।
मुख्यमंत्री पिनराई विजयन प्रवासी मज़दूरों को मेहमान वर्कर बताते हैं। सभी के स्वागत वाला बोर्ड लगाना राज्य की मजबूरी है ताकि राज्य से बाहर जाने वाली मलयाली मजदूरों की आबादी के साथ यहां आने वाले प्रवासी मजदूरों का संतुलन बिठाया जा सके।
केरल से लोग, खासतौर पर 20 से 40 साल की उम्र वाले, दूसरे देशों में रोजग़ार के लिए जाते हैं और वहां से वो पेट्रोडॉलर या अन्य विदेशी मुद्राएं भेजते हैं जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था चलती है और यह सालाना एक लाख 10 हजार करोड़ रुपये की राशि है।
केरल में उनके परिवारों को घर बनाने, बिजली के काम करने, बढ़ई, खेत और औद्योगिक मजदूर आदि के रूप में मानव संसाधन की जरूरत है।
1980 के दशक से 2000 की शुरुआत तक केरल में तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र से प्रवासी मजदूर आते थे। बीते दो दशक से यहां बंगाल, असम, बिहार, पूर्वोत्तर और उत्तरी राज्यों के लोग आने लगे हैं।
सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इन्क्लूसिव डेवलपमेंट के डायरेक्टर बेनॉय पीटर ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘दिहाड़ी मज़दूरों में 40 प्रतिशत बंगाल से और 20 प्रतिशत असम से आते हैं जबकि बाकी ओडिशा और अन्य पूर्वोत्तर के राज्यों जैसे त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड, मेघालय आदि से आते हैं।’
हैदराबाद यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एसोसिएट प्रोफेसर जजाति के पारिदा बताते हैं कि क्यों अन्य राज्यों से कुशल और अकुशल मजदूर केरल आ रहे हैं।
वे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जो लोग कृषि में रोजगार खो रहे हैं, वे ही प्रवास कर रहे हैं।’
‘वे केरल में मजदूरी को लेकर भी आकर्षित हो रहे हैं। अगर ओडिशा की बात करें तो वहां के मुकाबले केरल में करीब-करीब चार से पांच गुना मजदूरी है।’
अन्य राज्यों से अधिक मजदूरी
पारिदा ने कहा, ‘अगर ओडिशा में 200 रुपये दिहाड़ी है तो केरल में 800 रुपये है। बड़े पैमाने पर मजदूरों के यहां आने की प्रमुख वजह यही अंतर है। केरल की अर्थव्यस्था में उनका बड़ा योगदान है। उनके बिना, केरल की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।’
पारिदा ने केरल प्लानिंग बोर्ड के सदस्य डॉ. रवि रमन के साथ मिलकर 2021 में एक अध्ययन ‘ऑन माइग्रेशन, इनफॉर्मल एम्प्लायमेंट एंड अरबनाइजेशन इन केरला’ का सह लेखन किया।
पारिदा ने कहा कि अध्ययन दिखाता है, ‘बहुत कम जगहें हैं जहां औसत आमदनी थोड़ी बहुत कम थी। कुछ जगहें ऐसी थीं जहां स्थानीय लोगों का बर्ताव प्रवासी मज़दूरों के साथ अच्छा नहीं था लेकिन कुल मिलाकर संबंध अच्छे थे। चंद जगहों पर स्थानीय लोगों को प्रवासी मज़दूर स्थानीय मजदूरों के मुक़ाबले अधिक बेहतर लगे। प्रवासी मज़दूर 30 मिनट ज़्यादा काम करते थे जबकि स्थानीय मज़दूर इनकार कर देते थे।’
पीटर ने कहा कि 2017-18 में केरल में 31 लाख प्रवासी मज़दूर थे। 17.5 लाख प्रवासी मजदूर निर्माण में, 6.3 उद्योग में, 3 लाख खेती और उससे जुड़ी सेवाओं में, 1.7 लाख सेवा क्षेत्र में, एक लाख रिटेल या होलसेल व्यापार में और 1.6 लाख अन्य नौकरियों में थे।
अध्ययन के मुताबिक, ‘औसतन भुगतान की सूचनाओं के आधार पर अनुमान है कि केरल से हर साल 7.5 अरब रुपये अन्य राज्यों को जाता है।’
लेकिन पीटर केरल सरकार के ताजा प्रस्ताव से असहमति जताते हैं, ‘ऐसी खबरें हैं कि पुलिस प्रवासी मजदूरों से उनके राज्य से क्लीयरेंस सर्टिफिकेट चाहती है। ये सिर्फ इसलिए कि बमुश्किल एक या दो प्रतिशत लोग अपराध में संलिप्त होते हैं। केरल को ये नहीं करना चाहिए। उसे दुनिया को दिखाना चाहिए कि बाकी जगहों पर मलयालियों के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए।’
प्रवासी स्टूडेंट
जब बीती तीन मई को मणिपुर में हिंसा शुरू हुई तब भी केरल सरकार ने ‘सबका स्वागत’ वाली नीति को जारी रखा।
एंथ्रोपोलॉजी (मानव शास्त्र) के 25 साल की पीएचडी स्डूडेंट किमशी लहैनीकिम ने मणिपुर की राजधानी इम्फ़ाल में ‘भयावह अनुभव’ के बाद एक महीने पहले ही कन्नूर विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘जब हिंसा शुरू हुई उस समय मैं एक किराए के कमरे में रहती थी जबकि मेरे माता पिता चुराचांदपुर में थे। हमने ऐसे नारे सुने कि सभी कुकी को मार डालो। चार मई को हम डीजीपी के घर पहुंच गए। हम 300 लोग थे और इसके बावजूद हम पर दिनदहाड़े हमला हुआ। शाम को जब डीजीपी लौटे, हम सभी को मणिपुर राइफल्स कैंप में भेज दिया गया।’
किमशी ने बताया, ‘बहुत सारे लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों को विदाई देना शुरू कर दिया क्योंकि हमें यकीन नहीं था कि हम भीड़ के हाथों बच पाएंगे।’
किमशी और उनके दूसरे साथी किसी तरह 9 मई को इम्फाल से निकलने में कामयाब होकर दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने नौकरी तलाश करनी शुरू कर दी।
उन्होंने बताया, ‘मुझे एक कॉल सेंटर में नौकरी भी मिल गई। कुकी स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन की अपील पर केरल पहला राज्य था जिसका जवाब आया। बिना दोबारा सोचे मैं अपना अध्ययन पूरा करने कन्नूर चली आई। मैंने कभी सुना था कि मेरे हाईस्कूल के कुछ टीचर यहीं के थे।’
किमशी और 34 अन्य छात्रों को उनके मोबाइल पर मौजूद दस्तावेजों के आधार पर एडमिशन दे दिया गया, ‘फीस अदा करने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे।’
किमशी को जो सबसे अच्छी बात लगी कि यहां के लोग ‘बहुत सरल और मेहमानवाज़ हैं। और हम यहां सुरक्षित महसूस करते हैं। केरल सरकार और विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों ने जो हमें मौके मुहैया कराए हम उसके बहुत आभारी हैं। यहां के लोगों ने जो प्यार बरसाया, उसके लिए हम उनका शुक्रगुजार हैं।’
राज्य में 81 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों के बच्चों को शिक्षा मिलती है। हाल के महीनों में पायल कुमारी ने प्रवासी समुदाय का नाम ऊंचा किया जब उन्होंने कुछ महीने पहले डिग्री परीक्षा में पहला रैंक हासिल किया। अर्नाकुलम में एक पेंट शॉप में सेल्समैन का काम करने वाले की बेटी पायल का जन्म बिहार में हुआ और पालन पोषण केरल में हुआ क्योंकि उनके पिता यहीं बस गए थे।
पायल ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘जब पत्रकारों ने मेरा साक्षात्कार लिया तो वो ये देख कर हैरान हुए और खुश हुए कि मैं मलयालम बोल लेती हूं। एक बार आपको मलयालम आ गई तो आप यहां स्वीकार लिए जाते हैं।’
पायल का भाई एक एनजीओ में फ़ाइनेंस अधिकारी है और उनकी बहन पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई कर रही है। पायल इस समय सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं।
डॉ.कीची ने कहा, ‘मैं हमेशा कहता हूं कि केरल को अनुभव करने के लिए आपको यहां की संस्कृति और भाषा सीखनी पड़ेगी।’ अगले महीने भारतीय रेलवे में नौकरी जॉइन करने के लिए वो वडोदरा, गुजरात जा रहे हैं। (bbc.com/hindi)
अपूर्व गर्ग
रविश कुमार ने सवाल उठाया कुत्ते हिंसक क्यों हो रहे? उन्होंने कुत्तों के हमला करने की पेपर कतरनें भी पोस्ट की।
पहली बात क्या कुत्ते इंसान से ज़्यादा हिंसक हुए ?
दूसरी बात, आज की दुनिया में घर से बाहर पैर रखते ही मौजूदा वातावरण में हमारा दिल-दिमाग, तेवर कैसे बदल जाते हैं। बीपी बढऩे के प्रकरण बताते हैं इंसान कितना परेशान, तनाव में और घुटन में जी रहा है।
शहर में आम आदमी के खुल कर सांस लेने की जगह नहीं बची।
बगीचे प्लाट बन गए, खेल के मैदान काम्प्लेक्स, व्यावसायिक मैदान बन चुके । बच्चे खेल नहीं सकते, बुजुर्ग आजादी से घूम नहीं सकते।
जरूरत से ज्यादा औद्योगिकीकरण ने धूल, धूप और हवा में जहर घोल दिया। बाकी जो बचा वो डीजे, तेज हॉर्न जैसे ध्वनि प्रदूषण ने पूरा कर दिया ।
सुनिए , ये दुनिया पागलखाना बन चुकी है । आज की भाषा न हिंदी है न उर्दू न इंग्लिश। आज सिफऱ् एक भाषा में बात लोग समझते हैं , वो है , पूँजी की भाषा। लालच, लूट, हवस, मुनाफे की।
शोषण कर सकते हैं तो आप इस दुनिया में फिट हैं वरना ये दुनिया जेल से भी बदतर हो चुकी।
इस दुनिया ने चैन, अमन, आराम,प्यार, मोहब्बत, दोस्ती-यारी, मुस्कराहट, ठहाके, स्वास्थ्य सब छीन लिया।
न तालाब छोड़े न पेड़, न समुद्र को बख़्शा न नदियों पर रहम किया, पहाड़ों को तो मटियामेट कर अपनी कब्र ही खोद डाली!
मैं आपको पर्यावरण, प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, ध्वनि के आतंवाद पर कोई निबंध नहीं पढ़ाना चाहता।
मैं तो सिर्फ ये बता रहा हूँ कि दुनिया का पागलपन चरम पर पहुँच चुका जहाँ इंसान भयानक हिंसक हो चुका और ठीक ऐसे दौर में ऐसे वातावरण में ऐसे पागलों के बीच रहते हुए अगर कुत्ते हिंसक न होंगे तो क्या अहिंसा का आंदोलन करेंगे ?
इंसानों के लिए ही नहीं मयस्सर खाना-पानी-छाया-मैदान तो कुत्ते जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
परेशान इंसान आत्महत्या कर सकता है पर कुत्ते हिम्मत नहीं हारते वो आवाज उठाते हैं ,भौकते हैं और बेहद -बेहद विपरीत परिस्थितियों में होने के बाद काटते हैं ।
उनकी हिंसा को उनका प्रतिरोध समझिये और समीक्षा कुत्तों की नहीं सर्जरी इंसानों के बनाए इस पागलखाने की करिये।
कुत्ते तो बुनियादी तौर पर परिवार के सदस्य होते हैं।
वो इंसानों से ज़्यादा प्यार करते हैं।
उनके दिल में नफरत की एक बूँद नहीं सिर्फ मोहब्बत होती है । उनसे मोहब्बत चाहिए तो खुद को बदलिये और इस दुनिया को बदलिए ।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
गाजा: संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों ने अस्पतालों और स्कूलों पर बमबारी को मानवता के खिलाफ अपराध बताते हुए निंदा की, नरसंहार की रोकथाम का आह्वान किया-
जिनेवा (19 अक्टूबर 2023) - संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों ने आज गाजा शहर के अल अहली अरब अस्पताल में हुए घातक हमले के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया, जिसमें मंगलवार (17) को 470 से अधिक नागरिक मारे गए और सैकड़ों लोग मलबे में फंस गए। यह हमला कथित तौर पर इजऱाइल द्वारा जारी की गई दो चेतावनियों के बाद हुआ कि अगर अस्पताल के अंदर के लोगों को बाहर नहीं निकाला गया तो अस्पताल पर हमला आसन्न था।
‘अल अहली अरब अस्पताल के खिलाफ हड़ताल एक अत्याचार है। हम उसी दिन अल मगाजी शरणार्थी शिविर में स्थित यूएनआरडब्ल्यूए स्कूल पर हुए घातक हमले से समान रूप से नाराज हैं, जिसने लगभग 4000 विस्थापित लोगों और साथ ही दो घनी आबादी वाले शरणार्थी शिविरों को आश्रय दिया था,’ विशेषज्ञों ने कहा।
विशेषज्ञों ने इस बात पर गंभीर मानवीय और कानूनी चिंता जताई कि इजरायल ने एन्क्लेव और उसकी आबादी पर 16 साल से चली आ रही घेराबंदी और लंबे समय से चले आ रहे कब्जे के कारण 2.2 मिलियन लोगों को आवश्यक भोजन, ईंधन, पानी, बिजली और दवा से वंचित कर दिया है। गाजा में अनुमानित 50,000 गर्भवती महिलाओं को प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर देखभाल की सख्त जरूरत है। गाजा पट्टी में आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या लगभग दस लाख होने का अनुमान है।
उन्होंने याद दिलाया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने युद्ध के एक तरीके के रूप में नागरिकों की भुखमरी के उपयोग की बार-बार निंदा की है, जो अंतरराष्ट्रीय मानवीय और आपराधिक कानून के तहत निषिद्ध है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी कि मानवीय पहुंच से गैरकानूनी इनकार और नागरिकों को उनके अस्तित्व के लिए अपरिहार्य वस्तुओं से वंचित करना भी अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का उल्लंघन है।
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्र में स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर 136 से अधिक हमलों का दस्तावेजीकरण करने के बाद सभी मानवीय कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का आह्वान किया, जिसमें गाजा पट्टी पर 59 हमले भी शामिल थे, जिसके परिणामस्वरूप लोगों की मौत हो गई। 7 अक्टूबर को शत्रुता की शुरुआत के बाद से कम से कम 16 स्वास्थ्य कार्यकर्ता। गाजा पर इजरायली बमबारी में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कार्य एजेंसी (यूएनआरडब्ल्यूए) के 15 कर्मचारी और एक एम्बुलेंस में सवार चार फिलिस्तीन रेड क्रिसेंट पैरामेडिक्स भी मारे गए हैं। इजराइल में मैगन डेविड एडोम के एक एम्बुलेंस ड्राइवर की घायल लोगों के इलाज के लिए गाड़ी चलाते समय जान चली गई।
‘अव्यवहार्य निकासी आदेशों और जबरन जनसंख्या स्थानांतरण के साथ गाजा की पूरी घेराबंदी, अंतरराष्ट्रीय मानवीय और आपराधिक कानून का उल्लंघन है। यह अकथनीय रूप से क्रूर भी है, ‘विशेषज्ञों ने कहा।
उन्होंने याद दिलाया कि नागरिक घरों और बुनियादी ढांचे का जानबूझकर और व्यवस्थित विनाश, जिसे ‘डोमिसाईड’ के रूप में जाना जाता है, और पीने के पानी, दवा और आवश्यक भोजन में कटौती करना अंतरराष्ट्रीय आपराधिक कानून के तहत स्पष्ट रूप से निषिद्ध है।
‘हम खतरे की घंटी बजा रहे हैं: इजराइल द्वारा लगातार अभियान चलाया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप गाजा में मानवता के खिलाफ अपराध हो रहे हैं। इजराइली राजनीतिक नेताओं और उनके सहयोगियों द्वारा दिए गए बयानों को ध्यान में रखते हुए, गाजा में सैन्य कार्रवाई और वेस्ट बैंक में गिरफ्तारियों और हत्याओं में वृद्धि के साथ, फिलिस्तीनी लोगों के खिलाफ नरसंहार का भी खतरा है,’ विशेषज्ञों ने कहा।
‘ऐसे अपराधों के लिए कोई औचित्य या अपवाद नहीं हैं। हम जुझारू युद्धोन्माद के सामने अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निष्क्रियता से भयभीत हैं, ‘विशेषज्ञों ने कहा।
विशेषज्ञों ने कहा,‘गजान की आबादी, जिनमें से आधे बच्चे हैं, पहले से ही कई दशकों तक गैरकानूनी क्रूर कब्जे का सामना कर चुकी है और 16 साल तक नाकाबंदी में रही है।’
‘यह तुरंत आग बंद करने और भोजन, पानी, आश्रय, दवा, ईंधन और बिजली सहित आवश्यक मानवीय आपूर्ति तक तत्काल और अबाधित पहुंच सुनिश्चित करने का समय है। विशेषज्ञों ने कहा, नागरिक आबादी की भौतिक सुरक्षा की गारंटी दी जानी चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘कब्जा खत्म होना चाहिए और फि़लिस्तीनियों के लिए पूर्ण न्याय की दिशा में मुआवज़ा, पुनस्र्थापन और पुनर्निर्माण होना चाहिए।’
डॉ. लखन चौधरी
केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण ने देश की शीर्षस्थ एवं बेहद लोकप्रिय कोचिंग संस्थाओं के प्रचार एवं कामकाज के तरीके पर सवाल खड़ा करते हुए एक बेहद जरूरी और समसामयिक विमर्श खड़ा किया है कि देश की दशा-दिशा तय करने वाली नौकरशाही के सर्वोच्च पदों पर चयनित होने वाले अभ्यर्थियों को प्रभावित करने के लिए किस-किस तरह के भ्रामक विज्ञापनों का सहारा लिया जा रहा है। सरकार के नाक के नीचे हो रहे इस तरह के कारनामे युवाओं को कितना प्रभावित करते हैं, यह तो वक्त तय करेगा लेकिन इस मसले पर स्वत: संज्ञान लेकर सीसीपीए ने जो कार्रवाई की है; वह सराहनीय है। यदि देश की तमाम सरकारी संस्थाएं इसी तरह स्वत: संज्ञान लेकर सचेत होकर काम करती रहें तो लोकतंत्र की लगातार गिरती साख के बीच सुकून का अहसास होता है।
सीसीपीए यानि केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण ने विशेषकर संघ लोक सेवा आयोग की आईएए, आईपीएस, आईआरएस, आईएफएस जैसी देश की सर्वोच्च पदो ंके लिए परीक्षाओं की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को प्रभावित करने के लिए टॉपर और सफल उम्मीदवारों के नाम तथा तस्वीरों का उपयोग करने के भ्रामक विज्ञापनों और अनुचित कारोबारी प्रथाओं के लिए 20 आईएएस कोचिंग सेंटरों के खिलाफ जांच चल रही है। यूपीएससी 2022 के अंतिम परिणाम में 933 उम्मीदवारों का चयन हुआ लेकिन 20 कोचिंग संस्थानों ने 3,500 से अधिक पूर्व छात्रों के चयनित होने का दावा किया है। यही वजह है कि इन कोचिंग संस्थाओं को पिछले डेढ़ साल में सफल छात्रों के बारे में जानबूझकर अहम जानकारी छिपाने के लिए नोटिस जारी किए गए हैं। सीसीपीए का कहना है कि भविष्य में नीट, जेईई परीक्षाओं की तैयारियां करा रहे संस्थानों पर भी ऐसी कार्रवाई की जा सकती है।
सीसीपीए ने भ्रामक दावे करने वाले वाजीराव एंड रेड्डी इंस्टीट्यूट, चहल अकादमी, खान स्टडी ग्रुप आईएएस, एपीटीआई प्लस, एनालॉग आईएएस, शंकर आईएएस, श्रीराम आईएएस, बायजूस आईएएस, अनअकैडमी, नेक्स्ट आईएएस, दृष्टि आईएएस, इकरा आईएएस, विजन आईएएस, आईएएस बाबा, योजना आईएएस, प्लूटस आईएएस, एएलएस आईएएस, राव आईएएस स्टडी सर्किल आदि 20 कोचिंग संस्थानों को नोटिस जारी किया है। जबकि भ्रामक दावों और अनुचित कारोबारी प्रथाओं के लिए पांच सेंटरों राव आईएएस, स्टडी सर्किल, इकरा आईएएस, चहल अकादमी और आईएएस बाबा पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया है।
सीसीपीए अध्यक्ष का कहना है कि संघ लोक सेवा आयोग के परिणाम घोषित होते ही कोचिंग संस्थान विज्ञापनों की होड़ में लग जाते हैं। कई संस्थान अहम जानकारी छिपाकर अपने कोचिंग संस्थान के छात्रों के समान रैंक धारक होने का दावा करते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि सफल अभ्यर्थी ने उनके यहां किस विषय में दाखिला लिया था। सीसीपीए के अनुसार इस समय देश में कोचिंग संस्थाएं उद्योग के तौर पर काम कर रही हैं। कोचिंग सस्थाओं का एक फलता-फूलता कारोबार है, जिसका मौजूदा बाजार राजस्व करीब 58-60 हजार करोड़ रुपये है। कोचिंग के लिए 2 लाख छात्र सालाना राजस्थान के कोटा जाते हैं। वहीं, दिल्ली यूपीएससी-सीएसई कोचिंग का गढ़ मानी जाती है।
भारत में अब ऐसे आईएएस कोचिंग सेंटर चलाने वाले की खैर नहीं है जो बेईमानी से कामयाबी दर का झूठा दावा कर लोगों को लुभाकर कोचिंग संस्थान चला रहे हैं। केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण इनके खिलाफ हरकत में आ चुका है। बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से गलत तरीके से अधिकतर आईएएस कोचिंग संस्थान अपने विज्ञापनों में उन छात्रों को दिखाकर यूपीएससी परीक्षा में अपनी ‘सफलता दर’ का दावा करते हैं, जिन्होंने उनके केंद्रों पर केवल मॉक इंटरव्यू दिए थे न कि पूरा सिलेबस पढ़ा था।
कोचिंग सेंटर के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावों का पैमाना इस कदर बड़ा है कि कोचिंग संस्थाएं, यूपीएससी को ही झूठे साबित करते नजर आते हैं। हालांकि दो संस्थानों ने सीसीपीए की कार्रवाई को चुनौती दी है। जुर्माने के आदेश के खिलाफ राउज आईएएस स्टडी सर्किल ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग में अपील दायर की है, तो वहीं ‘आईएएस बाबा’ ने इसके खिलाफ स्टे ले लिया है। सीसीपीए के मुताबिक भ्रामक विज्ञापन आईएएस बनने के इच्छुक उम्मीदवारों के फैसले पर असर डालते हैं। उसने कोचिंग सेंटर्स से अपने दावों को साबित करने के लिए कहा है और उन पाठ्यक्रमों या विषयों के बारे में ईमानदार खुलासा भी करने को कहा है जिनके लिए सफल छात्रों ने उनसे कोचिंग ली है।
सीसीपीए की मुख्य आयुक्त निधि खरे के मुताबिक ’पिछले डेढ़ साल में कोचिंग सेंटर्स को अपने सफल छात्रों के बारे में जानबूझकर अहम जानकारी छिपाने के लिए नोटिस जारी किए गए हैं। हम उनके विज्ञापनों के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन उन्हें सभी जानकारी ईमानदारी से देनी चाहिए। यदि सही खुलासे होंगे तो धोखा कम होगा। उन्होंने आगे कहा कि सीसीपीए ने ऐसे विज्ञापनों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2(28) के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए इन सेंटर्स के खिलाफ नोटिस जारी किया है।’ उनके अनुसार सीसीपीए के कोचिंग सेंटर्स को उनके दावों का विवरण मांगने के लिए जारी स्वत: संज्ञान नोटिस के जवाब में अधिकांश ने जवाब दिया हैं। इसमें उन्होंने स्वीकार किया है कि उनके विज्ञापनों में दिखाए गए यूपीएससी के कामयाब उम्मीदवारों केवल मॉक इंटरव्यू और इंटरव्यू गाइडेंस प्रोग्राम में शामिल हुए थे।
सीसीपीए ने पाया कि कोचिंग सेंटर्स यह सब मुफ्त में करते हैं क्योंकि यह उनके (सेंटर्स) फायदे में है। खरे ने आगे बताया किसी भी विज्ञापन में यह जिक्र नहीं है कि सफल उम्मीदवारों ने केवल मॉक इंटरव्यू दिए। इससे ऐसी धारणा बनती है जैसे कि परीक्षा पास करने वाले सभी लोगों ने इन सेंटर्स में पूरा कोर्स किया है, जो भ्रामक है। सीसीपीएके अधिकारियों ने कहा कि आईएएस कोचिंग सेंटर प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा के बाद शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों को मुफ्त मॉक इंटरव्यू सत्र के लिए आमंत्रित करते हैं, ताकि उनके सफल होने के वो उनके सेंटर के पूर्व छात्र होने का दावा कर सकें। कई मामलों में ये मॉक इंटरव्यू मुश्किल से कुछ घंटों के लिए होते हैं। ऐसे में कोचिंग संस्थाओं की साख और विश्वसनीयता पर सवाल उठना-उठाना लाजिमी है।
अणु शक्ति सिंह
अनुभव से सोचने-प्रतिक्रिया देने का अंदाज बदलता है। बहुत दिन नहीं हुए जब मैं औरतों को उनकी किसी आस्था/कंडीशनिंग/परम्परा को जस्टिफाई करते देखती थी तो खीझ जाती थी।
पढ़ी-लिखी औरतों से मेरी उम्मीद हमेशा थोड़ी अधिक रही है। पढऩे-लिखने का मूल अर्थ ही पीटी जा रही परिपाटी को बदलना है। नई हिम्मत लाना हैज् पर क्या यह हिम्मत इतनी आसान और सहज उपलब्ध चीज है? जवाब है ‘नहीं’!
मैं अपनी जिंदगी खास तरीके से जीती हूँ। मेरे अपने उतार-चढ़ाव रहे हैं पर क्या कोई हिम्मत वाला तब ही होगा जब मेरे अंदाज से जिंदगी जियेगा? इसका भी उत्तर है, ‘नहीं’!
मर्दों के दबदबे वाले समाज ने औरतों से बहुत सारी चीजें छीनी हैं। सबसे पहली दो चीजें जो औरतों ने खोई वे हिम्मत और आत्म-विश्वास थीं। इन दोनों चीजों का खोना उम्मीद का बदल जाना भी था।
उनसे हिम्मत और आत्मविश्वास लेकर उन्हें परंपरा की थाती थमा दी गई। औरत यह करेगी तो परम्परा चलेगी। मर्द इन परंपराओं में एक्स्ट्रा की तरह रहे। उनसे हो पा रहा है तो करें, नहीं तो औरतें कर ही लेंगी।
होते-होते वे परम्परा/रिवाज उन औरतों की उम्मीद वाली जगह स्थापित हो गये। आस्था भी वहीं रही। वह कुछ व्रत करती है तो बेटे जिएँगे। कोई उपवास रखती है कि पति की उम्र लंबी रहे।
पितृ-सत्ता ने यही तो किया। औरतों का अपना वजूद खत्म कर दिया। उसकी मुक्ति की चाबी पति/पुत्र के हाथों में थमा दी और उम्मीद व्रत-उपवास में कि ये दोनों न सही ईश्वर तो सुनेगा।
रिवाज और पूजा-पाठ उनकी आखिरी उम्मीद रहे। मैंने सबसे दुखी स्त्रियों को सबसे अधिक व्रत रखते देखा है जैसे व्रत न हो, ईश्वर की कृपा की कोई कुञ्जी हो।
कुछ समय पहले तक ऐसी स्त्रियों पर मैं कुढ़ जाती थी। उनसे सीधा कहती कि इन उपवासों का कोई फायदा नहीं। उनमें कई सिटपिटा जातीं। कुछ मुझे बेवकूफ कह डाँट दिया करतीं।
धीरे-धीरे मैंने अपने पाँव उनकी चप्पलों में रखनी शुरू की। एहसास हुआ कि उनकी चप्पलों का तला मेरे जूतों जितना साबुत नहीं। उतना नर्म भी नहीं। जमीन पर चलते हुए उनके पाँव ठीक रहें इसलिए जरूरी है कि पहले उनके फटे जूतों और चप्पलों की मरम्मत हो। उनके पाँव के घाव साफ हों।
उनकी तरह से चीजों को सोचा जाए। समझा जाए। उन्हें उनके ‘स्व’ का भान करवाया जाए। धीरे-धीरे।
वह जो दु:ख में भी पति के लिए उपवास रखती हुई स्त्री है उससे अगर हौले से कहा जाए कि यह तीन चीजें तुम पति के लिए कर लेना, पर एक चीज अपने लिए कर लो कि खाना वक्त पर और अपनी पसंद का खाना तो वह किसी भी बात को अधिक गौर से सुनेगी। उससे हठात् या बलात् कहा जाए कि तुम जो यह कर रही हो कुछ और नहीं बेवकूफी है। पितृसत्ता का षडय़ंत्र है तो वह मेरी बात सुनने से पहले ही उखड़ जाएगी।
बात होगी नहीं तो बनेगी कैसे। मेरा कई सालों का अनुभव डेवलपमेंट कम्युनिकेशन का है। वह दुनिया जो लोगों के जीवन को लगातार बेहतर करने के लिए प्रयासरत है। समाज से अंधविश्वास हटाने में जुटा हुआ है। उनकी एक बात देखी है मैंने और चूँकि उनके कैंपेन के लिए लिखती रही हूँ, यह समझ पाई हूँ कि वे अधिकतम सहृदयता से काम करते हैं। लोगों के साथ मिल-जुलकर उनकी भावनाओं को समझते हुए छोटे-छोटे बदलाव लाते हैं।
छोटे बदलाव ही बड़े परिवर्तनों की भूमिका होते हैं। यह सहृदयता से ही सम्भव हुआ है कि भारत के पिछड़े इलाकों में माँओं के स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाने लगा।
आरोपित करने से जवाब केवल अदालतों में मिलते हैं। पहले से बंद समाज इसके बाद अपने दरवाज़े और बंद कर लेता है। कोई तरीका नहीं बचता है।
वहाँ जरूरत उंगली दिखाकर दोष बताने की नहीं है। हाथ पकडक़र बाहर बाहर निकाल लाने की है। उनके मन को समझते हुए उन्हें बारगेन करना सिखाने की है। अपने बेहतर भविष्य के लिए रास्ता खोजने की है।
हर क्रांति तोड़-फोडक़र नहीं होती। कुछ क्रांतियाँ हौले से मूल में चीजों को बदलते हुए हो जाती हैं। बात जब भी समाज के उस तबके की औरतों की हो जिनकी जिंदगी परिवार में भी तय कर दी गई है, सजग औरतों को हद से अधिक सहृदय होना होगा।
सहृदय तो उनके लिए भी होना ही होगा, जिनके बैरियर पढऩे-लिखने के बाद भी नहीं टूटे और आस्था वाली कंडीशनिंग बरकरार है। यह समझना जरूरी है कि परिवार और समाज की जकड़ में कई बार वे भी बारगेन करती हैं।
उन्हें समझकर उनका साथ दिया जाए तो शायद वह स्थिति धीरे-धीरे जगह लेने लग जाए जिनमें उत्सव का अर्थ ‘भूखा रहना’ नहीं होगा। और औरतें पति-बेटों को धता बताकर अपने आप को आगे रखने लग जाएँ।
जेरेमी बोवेन
बीते कुछ दिनों में मैंने दक्षिण इसराइल में गाजा से सटी उसकी सीमा के पास का दौरा किया और वेस्ट बैंक में बसाए गए कट्टर यहूदी लोगों से मुलाकात की।
इसके अलावा एक रिफ्यूजी शिविर में इसराइली सेना के हमले में मारे गए दो फिलस्तीनी युवाओं के जनाजे को भी मैंने करीब से देखा।
तेल अवीव की एक ऊंची इमारत में मैंने एक पूर्व इसराइली नेता से उनके दफ्तर में मुलाकात की, साथ ही मैंने रामल्ला में एक वरिष्ठ फिलस्तीनी अधिकारी से उनके दफ्तर में बात की।
एक प्रदर्शन के दौरान मैंने एक इसराइली पिता से बात की जिन्होंने मुझसे कहा कि उनकी बेटी का बर्थडे केक उस वक्त फ्रिज में रखा हुआ था जब उनकी पत्नी और उनके तीन बच्चों को हमास के बंदूकधारियों ने अगवा कर लिया था। वो कहते हैं वो केक अब भी फ्रिज में रखा हुआ है।
जो काम मैं अब तक नहीं कर सका वो है गजा में प्रवेश कर पाना। अब तक गाजा में प्रवेश कर पाने वालों में राहत सामग्री की कुछ गाडिय़ां हैं और कुछ इसराइली सैनिक हैं जो टोह लेने पहुंचे हैं।
बीते ढाई हफ्तों में यहां और अधिक फिलस्तीनियों और इसराइलियों की मौत हुई है। मरने वालों की ये संख्या साल 2000 से शुरू होकर 2004 में खत्म हुए दूसरे फिलस्तीनी इंतिफादा या फिलस्तीनी हथियारबंद संघर्ष में मरने वालों से अधिक हो गई है।
जिन अलग-अलग तरह के लोगों से मेरी मुलाकात हुई उनमें इसराइली और फ़लस्तीनी लोगों के अलावा विदेशी नागरिक शामिल हैं। इन सबसे बात कर के मेरे जेहन में एक ही तस्वीर साफ हुई।
सभी को ये एहसास है कि लंबे वक्त से चले आ रहे इसराइल-फिलस्तीनी संघर्ष में आखिरी इंतिफादा के बाद आम जिंदगी जीने का लोगों का एक तरीका-सा बन गया था। लेकिन सात अक्तूबर की घटना के बाद जो कुछ हुआ वो इतना बड़ा है कि उसने पुरानी बातों को हमेशा के लिए बदल दिया। अब हर तरफ ये डर है कि इसके बाद जो भी होगा वो और भी बुरा होगा।
इसराइल के कब्जे वाले इलाकों में गाजा, पूर्वी यरूशलम समेत वेस्ट बैंक शामिल हैं।
1967 के मध्य पूर्व युद्ध के दौरान इसराइल ने सीरिया के गोलन हाइट्स पर कब्जा कर लिया था। और इसी वक्त इसराइल ने इन फिलस्तीनी इलाकों पर भी कब्जा कर लिया था।
इसराइल के इतिहास में ये अब तक की सबसे तेज़ और सबसे बड़ी जीत थी, जिसे उसने केवल छह दिनों में हासिल कर लिया था।
1948 में आजादी की लड़ाई के 19 साल के बाद हुई 1967 की अरब-इसराइल युद्ध को फिलस्तीनी तबाही या अल-नकबा करार देते हैं।
यही वो लड़ाई है जिसने उन स्थितियों को जन्म दिया जिस कारण पैदा हुए हालात आज के संघर्ष के लिए जिम्मेदार हैं।
बीते कुछ सालों से इसराइल और फ़लस्तीन के बीच जारी संघर्ष पर नजऱ रखने वालों की तरह मेरा भी यह मानना था कि कभी भी कोई बड़ा संघर्ष छिड़ सकता है।
14 मई 2018 को जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तेल अवीव में मौजूद अमेरिका के दूतावास को वहां से बंद करने और यरूशलम में खोलने का फैसला किया, तो इस मुद्दे पर हिंसा शुरू हो गई। मुझे लगा कि ये एक बड़े संघर्ष की शुरुआत है।
ट्रंप के फैसले के बढ़ा तनाव
यरूशलम की विवादित स्थिति को लेकर अंतरराष्ट्रीय समझौते को मानने से ट्रंप ने इनकार कर दिया था। इसराइल यरूशलम को अपनी अविभाजित राजधानी मानता है, जबकि फिलस्तीनी पूर्वी यरूशलम को अपने भावी राष्ट्र की राजधानी मानते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप ने इसराइल के दावे का समर्थन किया। वहीं, ब्रिटेन समेत इसराइल के दूसरे सहयोगियों के दूतावास अभी भी तेल अवीव में हैं।
जिस वक्त डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप दूतावास का उद्घाटन कर रही थीं, उस वक्त टेलीविजन स्क्रीन दो हिस्सों में बांटकर, पहले हिस्से में उद्घाटन का फुटेज और दूसरे हिस्से में इसराइल और गाजा में सीमा पर जारी भीषण हिंसा का फुटेज दिखाया जा रहा था।
हमास के ‘ग्रेट मार्च ऑफ रिटर्न’ की अपील के बाद सीमा पर लगी बाड़ के पास हजारों फिलस्तीनी विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे और इसराइली सैनिक उन पर गोलियां चला रहे थे।
प्रदर्शनकारियों में से कुछ ने बाड़ तोडऩे की कोशिश की। इस घटना में 59 फिलस्तीनियों की मौत हुई जबकि हज़ारों घायल हुए।
अमेरिका का समर्थन पाने वाले इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा कि उनका देश सीमा पर होने वाले किसी भी हमले का कड़ा जवाब देगा।
इसके एक सप्ताह बाद दिनचर्या पटरी पर वापस लौट आई। बिन्यामिन नेतन्याहू और ट्रंप प्रशासन में उनके सहयोगी एक-दूसरे को ये बधाई देने लगे कि उन्होंने फिलस्तीनियों को काबू कर लिया है।
शायद यही वो वक्त था जब हमास ने इसराइल पर हमला करने की योजना बनानी शुरू कर दी थी और इसका नतीजा वो हुआ जो हमने सात अक्तूबर को देखा।
कहां चूक गए बिन्यामिन नेतन्याहू ?
अमेरिका का समर्थन मिलने के बाद बिन्यामिन नेतन्याहू ने फैसला किया कि वो इस संघर्ष को नजरअंदाज कर दूसरे मसलों पर ध्यान देंगे। उनकी ये गलत धारणा बन गई थी कि इसराइल इस मसले पर अपना नियंत्रण रखते हुए दुनिया के दूसरे मसलों की तरफ अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है। लेकिन ये उनकी बहुत बड़ी रणनीतिक गलती थी।
वेस्ट बैंक में फ़लस्तीनी क्षेत्र की राजधानी माने जानेवाले रामल्ला में मैं साबरी सायदाम से मुलाकात करने पहुंचा। साबरी की पढ़ाई लंदन के इंपीरियल कॉलेज में हुई है। वो फिलस्तीनी प्रशासन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास के सलाहकार रह चुके हैं और फतह पार्टी के वरिष्ठ सदस्य हैं।
फिलस्तीनी लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख रहे यासिर अराफात की बनाई फतह पार्टी अभी भी वेस्ट बैंक के उन हिस्सों पर शासन करती है जिन पर इसराइल ने अब तक कब्जा नहीं किया है।
1990 के दशक में ओस्लो शांति प्रक्रिया के तहत फ़लस्तीनी क्षेत्र को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए जो फ़लस्तीनी प्रशासन बना महमूद अब्बास उसके प्रमुख हैं।
ये प्रशासन अब नौकरियां पैदा करने वाली योजना बनकर रह गया है, जो एक म्यूनिसिपालिटी की तरह की भूमिका निभा रहा है। ये भ्रष्टाचार और अक्षमता की मिसाल बन कर रह गया है। प्रशासन के प्रमुख के पद के लिए साल 2006 से कोई चुनाव नहीं हुए हैं, यानी महमूद अब्बास प्रशासन के प्रमुख तो हैं लेकिन 2006 से वो कभी चुनावों में खड़े नहीं हुए हैं।
साबरी सायदाम ने कहा कि उन्होंने बिन्यामिन नेतन्याहू की धारणा को लेकर अमेरिका को पहले ही चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि नेतन्याहू को लगता है कि वो फिलस्तीन के मुद्दे पर नियंत्रण रखते हुए अमेरिका की मदद से खाड़ी के बेहद धनी अरब तेल उत्पादक देशों के साथ अपने रिश्ते सामान्य कर लेंगे।
वो कहते हैं, ‘इसे लेकर प्रतिक्रिया आएगी, इसका जवाब आएगा, किसी को नहीं पता कब, कैसे और किस पैमाने पर ये होगा। हमने बैठकों के दौरान कई बार अमेरिकियों को चेतावनी दी थी कि फिलस्तीनी इस पर प्रतिक्रिया देंगे, मामले को मझधार में नहीं छोडऩा चहिए। आपको हस्तक्षेप करना चाहिए और शांति प्रक्रिया के बारे में गंभीर रुख अपनाना चाहिए।’
उन्होंने उन खबरों से इंकार किया जिनमें कहा गया था कि हमास आम लोगों का इस्तेमाल मानव ढाल के रूप में कर रहा है। उन्होंने कहा कि जो इसराइल कर रहा है वो ‘जनसंहार है’।
इसराइल-फिलस्तीन संघर्ष का समाधान
संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुसार इलाक़े में दशकों से जारी संघर्ष को कम करने के लिए एक स्वतंत्र फिलस्तीनी राष्ट्र के साथ-साथ एक स्वतंत्र इसराइल राष्ट्र बनाने की कोशिश की जानी थी। लेकिन अब शांति प्रक्रिया इस दिशा में सालों से नाकाम हुई बातचीत के बाद बच गई एकमात्र कोशिश है।
हमास के हमले के बाद से इस मुद्दे पर सामने आने वाले और इसराइल का दौरा करने वाले राष्ट्राध्यक्षों ने एक बार फिर कहा है कि ये ‘दो राष्ट्र समाधान’ इस संघर्ष के निपटारे का वास्तविक हल है।
इसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, ब्रितानी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक, फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और दूसरे राष्ट्राध्यक्ष शामिल हैं। लेकिन इसके साथ मुश्किल ये है कि फिलहाल कोई शांति प्रक्रिया जारी ही नहीं है। आखिरी बार करीब एक दशक पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसे फिर से शुरू करने की कोशिश की थी, लेकिन वो इसमें कामयाब नहीं हो सके। इसके बाद ‘दो राष्ट्र समाधान’ के लिए बातचीत केवल एक स्लोगन बनकर रह गया।
बिन्यामिन नेतन्याहू के प्रतिद्वंद्वी
इसराइल के पूर्व प्रधानमंत्री एहुद बराक से मुलाकात करने के लिए मैं तेल अवीव की एक ऊंची इमारत में मौजूद कांच की दीवारों से बने उनके दफ्तर पहुंचा।
1973 में एक युवा कमांडर के तौर पर उन्होंने लेबनान पर हमले की न केवल योजना बनाई बल्कि उसे अमलीजामा भी पहनाया। इसराइल इस अभियान को ‘स्प्रिंग ऑफ यूथ’ कहता है।
बराक ने अपना भेष बदला और मेक-अप और विग लगाकर एक लडक़ी का रूप लिया। वो घातक लड़ाकों की एक टुकड़ी लेकर बेरुत में प्रवेश कर गए।
बाद में एहुद बराक इसराइली सेना में कमांडर बने और फिर 1999 से 2001 तक इसराइल के प्रधानमंत्री रहे। बिन्यामिन नेतन्याहू के कार्यकाल के दौरान एहुद बराक रक्षा मंत्री भी रहे, जो इससे पहले इसराइली सेना की स्पेशल फोर्स यूनिट में जूनियर अधिकारी थे। ये स्पेशल फोर्स यूनिट ब्रिटेन के स्पेशल एयर सर्विस (एसएएस) की तरह काम करती है।
तब से एहुद बराक और बिन्यामिन नेतन्याहू एक-दूसरे के राजनीतिक प्रतिद्विंद्वी बन गए हैं। बराक नेतन्याहू पर आरोप लगाते रहे हैं कि उन्होंने हमास के हमलों के लिए इसराइल को कमजोर किया है। वो मानते हैं कि अगर सेना को हमास से निपटने की जिम्मेदारी दी जाए तो प्रधानमंत्री का लंबा कार्यकाल खत्म हो जाएगा।
बराक ने मुझसे कहा, ‘युद्ध जीतने में वक्त लगता है और फिर इस मुहिम में जो खून और पसीना बहेगा उसे उचित ठहराना आसान नहीं होगा। जब युद्ध खत्म हो जाएगा, या फिर खत्म होने वाला होगा, मुझे लगता है कि लोगों का गुस्से का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा और वो सरकार को सत्ता से बेदखल कर देंगे।’
नेतन्याहू के लिए मुश्किल फैसला
इसराइल पर हमास का हमला सात अक्तूबर को हुआ था। इसके बाद इसराइल ने जबाबी कार्रवाई शुरू की और गाजा पर हवाई हमले किए। लेकिन हमास के पास 200 से अधिक इसराइली नागरिक बंधक के तौर पर हैं, जिनमें से अधिकांश आम नागरिक हैं। इसलिए गाजा में जमीनी कर्रवाई करने से वो हिचक रहे हैं।
हमले के दौरान हमास के लड़ाके इसराइली नागरिकों को अपने साथ बंधक बना कर ले गए ताकि वो इसराइल पर दबाव बना सकें और अपनी इस रणमनीति में कामयाब भी हो रहे हैं।
दोनों पक्षों के बीच एक तरह की मनोवैज्ञानिक लड़ाई भी जारी है और इसमें चार बंधक छोडऩा और फिर कुछ और बंधकों को छोडऩा एक कारगर तरीका बन गया है। इसराइल के भीतर से आवाजें उठने लगी हैं और लोगों की मांग है कि सरकार किसी भी तरह के हमले से पहले हमास के पास मौजूद बंधकों को छुड़ाए।
एहुद बराक मानते हैं कि हमास को पूरी तरह से खत्म करने के लिए बिन्यामिन नेतन्याहू को अपनी सेना को गाजा के भीतर जाने का आदेश देना चाहिए।
वो कहते हैं कि उनके और उनकी वॉर कैबिनेट के सामने बेहद मुश्किल फैसला है। वो कहते हैं, ‘अगर कोई रास्ता न बचा तो हमें ये करना होगा। क्योंकि ऐसा नहीं किया तो हम मानवता के खिलाफ अपराध करने वाले और 1,400 लोगों की हत्या करने वाले बर्बर आतंकियों को विकल्प दे देंगे। नेतन्याहू को मुश्किल फैसला लेना है।’
‘हम युद्ध में हैं’
इस सप्ताह दो दिन मैंने वेस्ट बैंक के उन इलाकों का दौरा किया जो इसराइल के सख्त कंट्रोल में है। मैं एक जगह पहुंचा जहां बेहद अधिक तनाव था।
यहां के फिलस्तीनी गांवों के आसपास हजारों इसराइली सैनिकों को युद्ध के लिबास में तैनात किया गया है और रास्तों पर अवरोध बनाए गए हैं। वो यहां बसाए गए यहूदी गांवों की सुरक्षा कर रहे हैं। इस गांवों को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत अवैध माना जा रहा है लेकिन इसराइल इस बात से इंकार करता है।
हेब्रॉन के बाहरी इलाके में बसावट से दूर एक आउटपोस्ट पर मुझे एक कट्टरपंथी यहूदी राष्ट्रवादी दिखे। हथियार लिए इन व्यक्ति ने मुझे बताया कि वो उस मौके का इंतजार कर रहे हैं जब वो अपने हथियारों का इस्तेमाल फिलस्तीनियों के खिलाफ कर सकें।
आउटपोस्ट के आसपास हथियार के साथ उनके नेता मीर सिमचा चहलकदमी कर रहे थे। उनके पास एक बड़ा धारदार चाकू था जो चमड़े के म्यान में रखा हुआ था। उन्होंने कहा कि 7 अक्तूबर को हमास के हमले से कई इसराइलियों को आश्चर्य हुआ लेकिन इस उन्हें इससे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
उन्होंने कहा कि ये शर्म की बात है कि जो बात पहले से पता है, मुख्यधारा के इसराइल को वो दिखाने के लिए कई यहूदियों को अपनी जान देनी पड़ी।
वो कहते हैं, ‘युद्ध में आपके पास एक बंदूक होती है और उस पर एक ट्रिगर होता है। और जो लोग अब तक ये नहीं समझ पाए, मैं बता दूं कि हम युद्ध में हैं। एक ऐसा युद्ध जिसके एक पक्ष दूसरे पक्ष के लिए कोई दया नहीं दिखाता और हमें भी यही करने का जरूरत है। इसमें हमारे पास चुनने जैसा कुछ नहीं है।’
‘वेस्ट बैंक में इसराइल ले रहा बदला’
वेस्ट बैंक के और उत्तर की तरफ जब मैं रामल्ला के बाहरी इलाके में बनाए गए जालाजोन शरणार्थी शिविर में पहुंचा, मैं माहौल में दुख, डर और गुस्से का एहसास कर पा रहा था। यहां इसराइली आर्मी के गिरफ्तारी अभियान में मारे गए दो फिलस्तीनी युवाओं का जनाजा निकाला जा रहा था।
मारे गए एक व्यक्ति महमूद सैफ इसराइलियों पर पत्थरबाजी कर रहे थे। उनके कजन मुस्तफा अल-अयान कहते हैं कि पुलिस संदिग्धों को गिरफ्तार करने नहीं आई थी बल्कि सात अक्तूबर को हमास ने जो किया उसकी सजा देने के लिए यहां आई थी।
हम वहां खड़े हैं जहां से हम देख सकते थे कि कब्र के ऊपर मिट्टी डाली जी रही है। मुस्तफा अल-अयान कहते हैं, ‘वो बदला लेने के लिए वेस्ट बैंक आए थे क्योंकि गाजा में विद्रोह करने वाले गुटों ने उन्हें बड़ी चोट पहुंचाई है। इसलिए वो अब वेस्ट बैंक में लोगों पर हमले कर रहे हैं। गाजा और वेस्ट बैंक में मारे गए शहीदों की आत्मा को ईश्वर शांति दे।’
फिलस्तीनी नागरिक एक डर ये भी जता रहे हैं कि इसराइल अपने गुस्से में इस संकट के बहाने 1948 की तर्ज पर एक और नकबा या तबाही बरपाने की कोशिश कर सकता है।
वो कहते हैं कि इसराइल ने गाजा के लाखों लोगों को वादी गाजा के उत्तर काा इलाका छोडक़र दक्षिण की तरफ जाने को कहा है, ये इस बात का सबूत है कि इसराइल तबाही लाना चाहता है। वो ये भी कहते हैं कि कुछ इसराइली नेताओं ने धमकी दी है कि वो गाजा को और छोटा कर देंगे और उसके कुछ इलाके में जमीन को बफर जोन बनाएंगे।
भविष्य को लेकर डर
रामल्ला में मौजूद फतह के अधिकारी साबरी सायदाम कहते हैं कि सितंबर में नेतन्यााहू ने संयुक्त राष्ट्र में एक मानचित्र दिखाया था जिसमें वेस्ट बैंक और गाजा को इसराइल के हिस्से के तौर पर दिखाया गया था।
वो कहते हैं, ‘सभी को इसका अंदाज़ा है क्योंकि नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में जो मानचित्र दिखाया था उसमें न तो वेस्ट बैंक था और न ही गाजा। इसलिए लोगों में ये आम धारणा है कि नेतन्याहू फ़लस्तीनियों को डिपोर्ट करेंगे, उन्हें विस्थापित करेंगे और गाजा पर इसराइल कब्जा कर लेगा।’
दोनों ही तरफ लोगों की धारणा का आधार अतीत की घटनाओं पर टिका है।
इसराइल के लिए हमास का ताजा हमला उन्हें नाजी जर्मनी के हाथों यूरोप में यहूदियों के बड़े पैमाने पर हत्याओं की याद दिलाता है।
सात अक्तूबर को हुए हमास के हमले में मारे गए लोगों को लेकर इसराइल ने कहा कि होलोकॉस्ट के बाद से यहूदियों के लिए ये सबसे बुरा दिन था। (bbc.com/hindi)
राघवेंद्र राव
दृश्य 1: भारत के हर जि़ले में साल 2014 से लेकर अब तक की सरकारी उपलब्धियों का प्रचार करते हुए रथ यात्रा निकल रही है और हर रथ का प्रभारी भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का एक अधिकारी है।
दृश्य 2: अपनी सालाना छुट्टी पर घर आया हुआ एक भारतीय सैनिक स्थानीय लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारियाँ दे रहा है।
अगर केंद्र सरकार की मंशा पूरी हुई, तो ये दोनों दृश्य जल्द ही हकीकत में बदलते नजर आएँगे।
दरअसल केंद्र सरकार पिछले नौ साल की उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए आईएएस अधिकारियों को रथ प्रभारी के तौर पर तैनात करने की तैयारी में है।
दूसरी ओर हाल ही में रक्षा मंत्रालय के एक निर्देश में कहा गया कि छुट्टी पर जा रहे भारतीय सेना के सैनिकों को राष्ट्र-निर्माण के काम में हिस्सा लेना चाहिए और स्थानीय समुदाय के साथ रचनात्मक तरीके से जुडऩा चाहिए और ये काम करते हुए सरकारी योजनाओं का प्रचार करना चाहिए।
इन दोनों ही बातों को लेकर राजनीति गरमा गई है और इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या नौकरशाही और सेना का राजनीतिकरण किया जा रहा है।
‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ और ‘रथ प्रभारी’
18 अक्तूबर को वित्त मंत्रालय के एक पत्र में सामने आया कि विभागों से जिला रथ प्रभारी के रूप में तैनाती के लिए संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव स्तर के अधिकारियों का नामांकन माँगा गया है।
इस पत्र में कहा गया कि 20 नवंबर 2023 से 25 जनवरी 2025 तक ग्राम पंचायत स्तर पर सूचना के प्रसार, जागरूकता और सेवाओं के विस्तार के लिए पूरे देश में विकसित भारत संकल्प यात्रा के माध्यम से भारत सरकार की पिछले 9 वर्षों की उपलब्धियों का प्रदर्शन और उत्सव आयोजित करने का प्रस्ताव है।
इन जिला रथ प्रभारियों की तैनाती सभी 765 जिलों में की जानी है, जिनमें 2.69 लाख ग्राम पंचायतें कवर हो जाएँगी।
साथ ही पत्र में कहा गया कि रथ यात्रा की तैयारियों, योजना, कार्यान्वयन, निगरानी के लिए समन्वय स्थापित करने के लिए भारत सरकार के संयुक्त सचिवों, निदेशकों, उप सचिवों को रथ प्रभारी (विशेष अधिकारी) के रूप में तैनात करने का निर्णय लिया गया है।
इस चि_ी पर कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया एक्स (जो पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था) पर लिखा, ‘सिविल सर्वेन्ट्स को चुनाव में जाने वाली सरकार के लिए राजनीतिक प्रचार करने का आदेश कैसे दिया जा सकता है?’
पवन खेड़ा के ट्वीट पर वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सांसद जयराम रमेश ने लिखा, ‘यह नरेंद्र का एक और अहंकारोन्मादी आदेश है।’
सरकार ने भी विपक्ष को इस मुद्दे पर आड़े हाथ लिया है।
भारतीय जनता पार्टी की अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक्स पर लिखा, ‘मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि कांग्रेस पार्टी को योजनाओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए ज़मीनी स्तर तक पहुँचने वाले लोक सेवकों से दिक्कत है। अगर ये शासन का मूल सिद्धांत नहीं है, तो क्या है?’
नड्डा ने आगे लिखा, ‘शायद कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक अनजान अवधारणा है लेकिन सार्वजनिक सेवा प्रदान करना सरकार का कर्तव्य है। अगर मोदी सरकार सभी योजनाओं की संतृप्ति सुनिश्चित करना चाहती है और सभी लाभार्थियों तक पहुँचना सुनिश्चित करना चाहती है तो गऱीबों के हित को ध्यान में रखने वाले किसी भी व्यक्ति को समस्या नहीं हो सकती है। लेकिन कांग्रेस की रुचि केवल गऱीबों को गऱीबी में रखने में है और इसलिए वे विरोध कर रहे हैं।’
खडग़े का सरकार पर निशाना
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आक्रामक तेवर अपनाते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, ‘मोदी सरकार के लिए सभी सरकारी एजेंसियाँ, संस्थान, विंग और विभाग अब आधिकारिक तौर पर ‘प्रचारक’ हैं ! हमारे लोकतंत्र और हमारे संविधान की रक्षा के मद्देनजर यह जरूरी है कि उन आदेशों को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए जो नौकरशाही और हमारे सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण को बढ़ावा देंगे।’
खडग़े ने इस विषय पर चिंता जताते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा। पत्र में उन्होंने कहा कि सरकार की रथ प्रभारी बनाने की योजना केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 का स्पष्ट उल्लंघन है, जो निर्देश देते हैं कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेगा।
खडग़े ने कहा, ‘हालाँकि सरकारी अधिकारियों के लिए सूचना का प्रसार करना स्वीकार्य है, लेकिन उपलब्धियों का ‘जश्न मनाना’ और ‘प्रदर्शन’ करना उन्हें स्पष्ट रूप से सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल देता है।’
कांग्रेस अध्यक्ष ने ये भी कहा कि चूँकि सिर्फ पिछले नौ वर्षों की ‘उपलब्धियों’ की बात की जा रही है तो ये साफ़ है कि ये पाँच राज्यों के चुनाव और 2024 के आम चुनावों पर नजर रखते हुए एक राजनीतिक फैसला है।
उन्होंने कहा, ‘अगर विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों को वर्तमान सरकार की मार्केटिंग गतिविधियों के लिए नियुक्त किया जा रहा है तो हमारे देश का शासन अगले छह महीनों के लिए ठप हो जाएगा।’
खडग़े ने रक्षा मंत्रालय के हाल ही में निकाले गए उस आदेश की भी बात की ‘जिसमें वार्षिक अवकाश पर गए सैनिकों को सरकारी योजनाओं को बढ़ावा देने में समय बिताने का निर्देश दिया गया है, जिससे वे ‘सैनिक-राजदूत’ बन जाएँगे’।
उन्होंने कहा, ‘सेना प्रशिक्षण कमान को हमारे जवानों को देश की रक्षा के लिए तैयारी करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, वो सरकारी योजनाओं को बढ़ावा देने के तरीकों पर स्क्रिप्ट और प्रशिक्षण मैनुअल तैयार करने में व्यस्त हैं।’
खडग़े ने कहा, ‘लोकतंत्र में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सशस्त्र बलों को राजनीति से दूर रखा जाए।’
उन्होंने साथ ही ये भी कहा कि ‘हर जवान की निष्ठा देश और संविधान के प्रति है।’
वे बोले, ‘हमारे सैनिकों को सरकारी योजनाओं का मार्केटिंग एजेंट बनने के लिए मजबूर करना सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण की दिशा में एक ख़तरनाक क़दम है। इसके अलावा हमारे देश के लिए कई महीनों या वर्षों की कठिन सेवा के बाद हमारे जवान अपनी वार्षिक छुट्टी पर अपने परिवारों के साथ समय बिताने और निरंतर सेवा के लिए ऊर्जा बहाल करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता के पात्र हैं। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उनकी छुट्टियों पर डाका नहीं डाला जाना चाहिए।’
‘सरकार को काम करने दीजिए, चुनाव तो जब होंगे तब होंगे’
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने भी इस मामले पर सरकार का पक्ष रखा और विपक्ष के विरोध का जवाब दिया।
मालवीय ने ङ्ग पर लिखा, ‘किसने कहा कि भारत सरकार में नौकरशाहों को कार्यान्वित कार्यक्रमों और योजनाओं के बारे में बात करने का अधिकार नहीं है? क्या उन्हें सिर्फ दफ्तरों में बैठना चाहिए और प्रभाव का आंकलन करने के लिए ज़मीन पर नहीं होना चाहिए? नौकरशाहों का कर्तव्य है कि वे लोगों की सेवा करें, जैसा निर्वाचित सरकार उचित समझे।’
मालवीय के मुताबिक ‘सिर्फ इसलिए कि पाँच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं और आम चुनाव सात महीने दूर हैं, क्या हमें शासन करना छोड़ देना चाहिए? गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी, हर साल, चुनाव की परवाह किए बिना, मोदी जी ने सुनिश्चित किया कि उनके नौकरशाह जून-जुलाई के दौरान मैदान में जाएँ, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्कूल जाने वाले सभी बच्चों का नामांकन हो। इसने गुजरात में सार्वभौमिक शिक्षा सुनिश्चित की।’
मालवीय ने कहा कि इसी तरह पीएम मोदी चाहते हैं कि पीएम आवास योजना (ग्रामीण), राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, पीएम किसान, फसल बीमा योजना, पोषण अभियान, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत, जनऔषधि योजना, पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना जैसी कल्याणकारी योजनाएँ अगले छह महीने में पूरी तरह लागू हो जाएँ।
‘पूरी सरकार ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ नामक एक मेगा संतृप्ति अभियान के तहत 2.7 लाख पंचायतों में फैलेगी, संभावित लाभार्थियों तक पहुंचेगी और उनका नामांकन करेगी। इसलिए सरकार को काम करने दीजिए, चुनाव तो जब होंगे तब होंगे।’
‘नौकरशाही न्यूट्रल होती है’
प्रोफेसर अपूर्वानंद दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग में कार्यरत हैं और एक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार हैं।
वे कहते हैं, ‘जिसे आप आधुनिक राज्य कहते हैं, उसकी एक ख़ासियत बताई जाती है नौकरशाही। नौकरशाही वो है जो पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव से एक दूरी पर रहती है। यानी वो राजनीतिक तौर पर तटस्थ है। तो जहाँ लोकतांत्रतिक स्टेटस है वहां नौकरशाही राज्य का जरूरी हिस्सा तो है पर वो पॉलिटिकली न्यूट्रल है।’
साथ ही वे यह भी कहते हैं कि भारत में एक ऐसी प्रक्रिया से चुनकर नौकरशाह आते हैं जो ऑब्जेक्टिव है और किसी भी राजनीतिक नेतृत्व से आजाद है।
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद कहते हैं, ‘वे राजनीतिक नेतृत्व के प्रतिनिधि नहीं होते हैं। उनका काम नीतियाँ बनाना और उनका क्रियान्वयन करना ज़रूर है, लेकिन उनका काम प्रचार करना नहीं है। पिछले 75 वर्षों में ये पहली बार हो रहा है। पहले कभी भी नौकरशाही ने योजनाओं का प्रचार करने का काम नहीं किया।’
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद के मुताबिक नौकरशाही का जो पहले से चला आ रहा तरीक़ा था वो टूट गया है।
वे कहते हैं, ‘अब राजनीतिक वैचारिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच पूर्ण तालमेल है जबकि नौकरशाही को वैचारिक झुकाव से अलग रहना चाहिए।’
प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं कि ‘अगर नौकरशाही किसी एक विचारधारा का अनुसरण करने लग गई तो वो किसी नई सरकार के आने पर उस सरकार के लिए बाधा बन जाएगी।’
वे कहते हैं, ‘या तो वो उस सरकार को काम नहीं करने देगी या बाधाएं डालेगी या एक अप्रत्यक्ष रूप से तख्तापलट करेगी। तो ये काफी खतरनाक है क्योंकि ये लोकतंत्र और लोकतांत्रिक राज्य का विनाश होने जैसा है।’
‘ये सेंटर-स्टेट रिलेशन्स का मामला है’
प्रोफेसर आशुतोष कुमार चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं।
वे कहते हैं, ‘इस तरह की कोशिश राजीव गाँधी ने भी की थी जब वो पंचायती राज से जुड़ा 64वाँ संविधान संशोधन संसद में लाए थे। उससे पहले उन्होंने जि़ला मजिस्ट्रटों के साथ मीटिंग करनी शुरू की थी। तो विपक्षी राज्य सरकारों को लगा कि उन्हें बाइपास किया जा रहा है। साल 1989 चुनावी साल था और 1988 में राजीव गाँधी ने ये काम शुरू किया था। तो विपक्षी दलों ने इस बात पर काफी हल्ला मचाया और ये संशोधन राज्य सभा में पास नहीं होने दिया।’
प्रोफेसर आशुतोष कहते हैं, ‘मोदीजी के बारे में भी कहा जाता है कि वो सीधे तौर पर आल इंडिया सर्विसेज में कार्यरत अधिकारियों से जुडऩे ने कोशिश करते हैं। और अभी केंद्र सरकार ये दिखाने की कोशिश कर रही है कि ऑल इंडिया सर्विसेज के लोग हमारे लोग हैं और वो सेंट्रल सर्विसेज रूल्स के तहत काम करते हैं।’
वे कहते हैं कि ‘ये मामला सेंटर-स्टेट रिलेशन्स’ यानी केंद्र और राज्यों के बीच के संबंधों से जुड़ा है। उनके मुताबिक केंद्र सरकार आईएएस अफसरों से सीधा राब्ता बनाने की कोशिश कर रही है।
वे कहते हैं, ‘तो कोशिश ये है कि आप सीधे आल इंडिया सर्विसेज की सेवाओं का उपयोग करें और उन्हें यह महसूस कराएं कि वे केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं। लेकिन केंद्र सरकार जो करने जा रही है उस पर राज्यों की सरकारें बहुत हल्ला करेंगी।’
‘सेना को वैचारिक बनाना बहुत ही खतरनाक’
प्रोफेसर अपूर्वानंद के मुताबिक सेना को वैचारिक बनाना बहुत ही ख़तरनाक है।
वे कहते हैं, ‘आर्मी का काम न तो राष्ट्रवाद और न किसी विचारधारा का प्रोपगैंडा करना है। और न ही आर्मी सरकार के बात की प्रचारक होती है। लेकिन हमने पिछले कुछ सालों में देखा है कि जो हमारे आम्र्ड फोर्सेज के चीफ हैं वो विचारधारा से जुड़े स्टेटमेंट देने लगे हैं। ये भी बहुत खतरनाक है।’
वे कहते हैं, ‘अमेरिका मेंं ट्रंप के समय पुलिस चीफ ने खड़े होकर बयान दिया था कि वो संविधान से बंधे हुए हैं न कि किसी पद से। तो ये स्वतंत्रता होती है।’
प्रोफेसर अपूर्वानंद के मुताबिक भारत की सेना एक प्रोफेशनल सेना के तौर पर मशहूर रही है और भारत की आर्मी पर भारत की जनता यकीन करती है, हर धर्म के लोग यकीन करते हैं कि वो संकट की स्थिति में बिना किसी भेदभाव के खड़ी होगी।
सैनिकों के सरकारी योजनाओं के प्रचार की बात पर प्रोफेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘अगर ऐसा किया जा रहा है तो बहुत गलत है। इस तरह की बातें हताशा और सत्ता से बाहर हो जाने का डर दिखाती हैं। इंडिया गठबंधन बनने के बाद सरकार की हठ बहुत बढ़ गई है। पता नहीं अभी और क्या क्या किया जाएगा।’
अंग्रेजी अखबार डेक्कन हेराल्ड में रक्षा मामलों के जानकार सुशांत सिंह ने लिखा कि कहा ये जा रहा है कि इस कवायद का मक़सद राष्ट्र-निर्माण है लेकिन ‘सेना मुख्यालय द्वारा उल्लिखित हर एक योजना में मोदी सरकार की विशिष्ट छाप है। अन्यथा, इसमें यूपीए-युग की एनआरईजीएस जैसी या विपक्ष द्वारा संचालित राजस्थान, केरल या पंजाब जैसे राज्यों की योजनाओं को भी सूचीबद्ध किया गया होता।’
सुशांत सिंह लिखते हैं कि स्पष्ट रूप से यह एक पूरी तरह से राजनीतिक पहल है जिसमें सेना अपने सैनिकों को मोदी सरकार के राजदूत के रूप में कार्य करने पर सहमत हुई है।
वे कहते हैं, ‘राजनीतिक मकसद साफ है। 2014 के बाद से मोदी ने जनता के मन में सेना और सैनिकों के साथ अपनी और अपनी पार्टी की पहचान बनाने की पुरजोर कोशिश की है।’
सुशांत सिंह लिखते हैं कि भारत का लोकतांत्रिक मॉडल जानबूझकर सेना को समाज से अलग रखने पर आधारित है लेकिन ये बात अब खत्म हो गई है। ‘इन सैनिकों को अब भाजपा के लिए अर्ध-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, या अधिक सटीक रूप से, मोदी के राजनीतिक राजदूतों में बदल दिया जाएगा।’
नौकरशाही के राजनीतिकरण पर बहस
नौकरशाही का राजनीतिकरण एक ऐसा मुद्दा है जो दशकों से चर्चा का विषय रहा है।
पिछले वर्षों में हुए कई चुनावों में ऐसी खबरें आम थीं कि रिटायर्ड आईएएस या आईपीएस अधिकारी चुनाव लडऩे की उम्मीद में राजनीतिक दलों के चक्कर काटते दिखे।
हाल ही में ओडिशा कैडर के आईएएस अधिकारी वीके पांडियन सुखिऱ्यों में तब आ गए जब वॉलन्टरी रिटायरमेंट या स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के एक दिन बाद ही उन्हें ओडिशा सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दे दिया गया। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि पांडियन ओडिशा के मुख्यमंत्री के करीबी रहे हैं और आने वाले समय में उन्हें और बड़ी जि़म्मेदारियां दी जा सकती हैं।
ऐसे राजनेताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है जो पहले नौकरशाह थे और बाद में राजनीति में आ गए। इनमें से कुछ जाने-माने नाम हैं यशवंत सिन्हा, नटवर सिंह, डॉ एस जयशंकर, हरदीप सिंह पुरी, अजीत जोगी, मणिशंकर अय्यर, मीरा कुमार और अरविंद केजरीवाल।
बहस का विषय ये भी रहा है कि क्या नौकरी करते वक्त नौकरशाह राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े होते हैं।
सेवानिवृत होने के बाद जब कोई ब्यूरोक्रेट किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल हो जाता है तो ये इल्जाम भी लगते हैं कि क्या वो ब्यूरोक्रेट सेवा में रहते वक्त उसी राजनीतिक दल के हितों की रक्षा करता था?
प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं कि हर किसी की राजनीतिक राय हो सकती है और राजनीतिक राय होगी तभी तो कोई वोट देगा।
वे कहते हैं, ‘नौकरशाह भी वोट देते हैं और ज़रूरी नहीं है कि सत्तारूढ़ पार्टी को ही दें। यही तो खास बात है कि जो भी उसकी अपनी राजनीतिक राय है वो इस बात के आड़े नहीं आनी चाहिए कि वो सरकार के लिए काम कर रहा है। अगर आपने उसे प्रॉपगैंडिस्ट (प्रचारक) बना दिया तो वो किसी भी और विचारधारा की सरकार के लिए बाधा बन जाएगा।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
देश के मतदाताओं के लालच ने लोकतांत्रिक सत्ता को टैक्स पर ऐश करने का साधन बनाकर रख दिया है। करदाताओं के टैक्स पर तीन वर्ग सबसे ज्यादा ऐश करते हैं। इनमें सबसे ज्यादा ऐश नेता और अफसर करते हैं जो टैक्स की रकम को अपना माल समझ कर खर्च करते हैं। प्रधानमंत्री के लिए बड़ा सुसज्जित आवास, बड़ा दफ्तर, बड़ा हवाई जहाज और मुख्यमंत्रियों के लिए नए-नए हेलीकॉप्टर और मंत्रियों के बड़े बड़े बंगलों की साज सज्जा इसी टैक्स के बूते होती है। अफसरों के गाड़ी घोड़े और बंगलों की भी रौनक का स्रोत भी यही टैक्स है।सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार का नीव से शिखर तक का पूरा पिरामिड भी इसी टैक्स से बनता है, जिसकी ईद के चांद सी थोडी सी झलक कभी कभार सी बी आई, एंटी करप्शन ब्यूरो, लोकायुक्त, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों में दिखाई देती है। सरकारी कार्यों का ठेका लेने वाले लाखों छोटे बड़े ठेकेदारों की ऐश भी इसी रकम से होती है जिसमें मंत्रालयों से सांठ गांठ कर लोहे को पीतल और पीतल को सोने के भाव बेचकर अपना और अपने आकाओं के गणपति से बड़े उदर भरे जाते हैं। इसी से आलसी होती हट्टे कट्टे लोगों की बडी फौज को प्रधानमन्त्री का मुस्कुराता फोटो चिपकाकर मुफ़्त राशन का झोला दिया जाता है। होना तो यह चाहिए कि मुफ्त राशन के झोलों पर उन टैक्स देने वालों की तरफ से एक अपील होनी चाहिए कि जिस तरह हम अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए कड़ी मेहनत कर आपको भी मुफ्त राशन उपलब्ध करा रहे हैं, उसी तरह हम चाहते हैं कि आप भी यथाशीघ्र लेने वालों की कतार से निकलकर हमारी तरह देने वालों की कतार में आ जाएं। इस अपील से कम से कम संवेदनशील लोगों को कुछ शर्म आएगी। अभी तो वे समझते हैं कि हमने जिन नेताओं को वोट दिया है वे हमे मुफ्त की रेवडिय़ों की सौगात दे रहे हैं।
कांग्रेस इस मामले में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को भी पछाड़ती दिखाई दे रही है। मध्य प्रदेश में हाल ही में जारी हुए मेनिफेस्टो, जिसे वचन पत्र का नाम दिया गया है, में कई अहम वर्गों को तरह तरह के लालच दिए गए हैं। इसमें कोई दो राय नही कि इस घटिया खेल की शुरुआत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की थी।समाज में जितनी ज्यादा असमानता और तनाव होते हैं वर्तमान पीढ़ी के अधिकांश नेताओं के लिए वह स्वर्णिम दौर हो जाता है जिसमें जनता के किसी बड़े वर्ग की भावनाओं से खिलवाडक़र आसानी से सत्ता हासिल की जा सकती है। हमारे देश मे जहां तरह तरह की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विषमताएं हैं और उसी के परिणाम स्वरूप तरह तरह के तनाव और कई राजनीतिक दल हैं वहां स्वार्थी नेताओं के लिए सत्ता हथियाना इसलिए भी आसान हो जाता है क्योंकि बहु कोणीय मुकाबलों में मात्र तीस प्रतिशत वोट पाकर भी शत-प्रतिशत लोगों पर हुकूमत की जा सकती है।
दु:ख की बात यह है कि मध्य प्रदेश सहित ज्यादातर राज्यों की आर्थिक हालत काफी नाजुक है। राज्यों के बजट में होने वाले खर्च आय से अधिक होने के कारण उन्हें लगातार कजऱ् लेना पड़ रहा है लेकिन राज्य कजऱ् में डूबने के बावजूद नेता मुफ्त की रेवडिय़ों पर अंकुश लगाना तो दूर उन्हें बढ़ावा देकर किसी भी तरह सत्ता हासिल करना चाहते हैं।मध्य प्रदेश इस मामले में नित नए उदाहरण पैदा कर रहा है।हमारी संस्कृति के अनुसार यदि हम किसी की सहायता करते हैं तो वह चुपचाप होनी चाहिए।
कहावत है कि बाएं हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए कि दाएं ने किसी की मदद की है। इसके विपरीत मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने अखबारों में विज्ञापन पर विज्ञापन देकर, जगह जगह पोस्टर लगाकर, पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर पूरे सरकारी तंत्र को लाडली बहना योजना के बड़े बड़े आयोजनों के लिए भीड़ जुटाने पर लगाकर न केवल करदाताओं के टैक्स की गाढ़ी कमाई स्वाहा की है बल्कि विकास के सडक़ मरम्मत जैसे जरूरी कार्यों की भयंकर अवहेलना की है। यह सब सत्ता हासिल करने के लिए हुआ है ताकि अगले पांच साल भी पहले की तरह ऐश की जा सके।
दीपाली अग्रवाल
इस दौर के कितने ही शायर अपनी प्रेमिका को अमृता कहते हैं और साहिर की चौखट पर खुद को खड़ा करते हैं। हर गजल कहने वाला चाहता है कि उसकी कलम में साहिर का गम बहे, जि़न्दगी का अब्दुल हई से वास्ता है या नहीं ये दूर की बात है। वैसी जि़न्दगी तो आसान नहीं है लेकिन इश्क में किसी को अमृता कह देना आसान है। सो वहीं खुद को साहिर के कद से नापने की कोशिश करते हैं।
यक़ीनन साहिर सिर्फ जिस्म से ही लंबे नहीं थे उनकी कलम आसमान की सातवीं परत के भी तारे खोज लायी थी। अब्दुल हई जो बाद में साहिर लुधियानवी हो गए अजीयतों के तमाम दौर से गुजरे। तल्खिय़ों का शायर लिफ्ट से डरता था, अकेलेपन से घबराता था, उसे अपने लिए कपड़े चुनने में मुश्किल होती थी। लेकिन जब उसकी रौशनाई बहती तो दुनिया भर के कितने किस्से उसमें उछाल खाते थे।
चकलाघर से लेकर जंग टालने तक साहिर ने वो सब कुछ कहा जो कहा जाना था और जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जैसा तब था। सिर्फ नज्में और गजलें नहीं गीत भी। ‘हमने सुना है एक है भारत’ कईयों बार फेसबुक फीड में दिखा। 1959 में लिखा गीत जो खासतौर पर अपने बोलों की वजह से वायरल है। उसमें दूरदर्शिता है, जहन की बारीकी है। साहिर के हर गीत में यही तासीर है।
मैं सोचती हूँ साहिर अगर शायर या गीतकार न होते तो एक अच्छे दार्शनिक भी हो सकते थे।
‘ग़म और खुशी में फर्क न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मकाम पे लाता चला गया’
‘संसार की हर शय का इतना ही फसाना है
इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना ह’
एक शेर में जिन्दगी के पूरे फसाने को समझाने वाले इस शायर जैसा फिर कौन न होना चाहेगा। लेकिन आज के दौर के प्यारे शायरों प्रेमिका को अमृता कहने से काम न चल पावेगा, वो जब जाएगी इमरोज के पास तो तुम कहोगे
‘मह़िल से उठ जाने वालो तुम लोगों पर क्या इल्ज़ाम
तुम आबाद घरों के वासी मैं आवारा और बदनाम’
साहिर की चौखट से कब तक काम चलाओगे। साहिर ने तो अपनी मोहब्बत के खुलासे कभी खुल कर नहीं किए, ये तमाम बातें तो अमृता की इक तरफा दास्तान हैं। हाँ, तुम अगर भीतर आँगन तक जाने की हिम्मत करो तो शायद कुछ राज़ खुलें।
राघवेंद्र राव
दृश्य 1: भारत के हर जि़ले में साल 2014 से लेकर अब तक की सरकारी उपलब्धियों का प्रचार करते हुए रथ यात्रा निकल रही है और हर रथ का प्रभारी भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का एक अधिकारी है।
दृश्य 2: अपनी सालाना छुट्टी पर घर आया हुआ एक भारतीय सैनिक स्थानीय लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारियाँ दे रहा है।
अगर केंद्र सरकार की मंशा पूरी हुई, तो ये दोनों दृश्य जल्द ही हकीकत में बदलते नजर आएँगे।
दरअसल केंद्र सरकार पिछले नौ साल की उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए आईएएस अधिकारियों को रथ प्रभारी के तौर पर तैनात करने की तैयारी में है।
दूसरी ओर हाल ही में रक्षा मंत्रालय के एक निर्देश में कहा गया कि छुट्टी पर जा रहे भारतीय सेना के सैनिकों को राष्ट्र-निर्माण के काम में हिस्सा लेना चाहिए और स्थानीय समुदाय के साथ रचनात्मक तरीके से जुडऩा चाहिए और ये काम करते हुए सरकारी योजनाओं का प्रचार करना चाहिए।
इन दोनों ही बातों को लेकर राजनीति गरमा गई है और इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या नौकरशाही और सेना का राजनीतिकरण किया जा रहा है।
‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ और ‘रथ प्रभारी’
18 अक्तूबर को वित्त मंत्रालय के एक पत्र में सामने आया कि विभागों से जिला रथ प्रभारी के रूप में तैनाती के लिए संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव स्तर के अधिकारियों का नामांकन माँगा गया है।
इस पत्र में कहा गया कि 20 नवंबर 2023 से 25 जनवरी 2025 तक ग्राम पंचायत स्तर पर सूचना के प्रसार, जागरूकता और सेवाओं के विस्तार के लिए पूरे देश में विकसित भारत संकल्प यात्रा के माध्यम से भारत सरकार की पिछले 9 वर्षों की उपलब्धियों का प्रदर्शन और उत्सव आयोजित करने का प्रस्ताव है।
इन जिला रथ प्रभारियों की तैनाती सभी 765 जिलों में की जानी है, जिनमें 2.69 लाख ग्राम पंचायतें कवर हो जाएँगी।
साथ ही पत्र में कहा गया कि रथ यात्रा की तैयारियों, योजना, कार्यान्वयन, निगरानी के लिए समन्वय स्थापित करने के लिए भारत सरकार के संयुक्त सचिवों, निदेशकों, उप सचिवों को रथ प्रभारी (विशेष अधिकारी) के रूप में तैनात करने का निर्णय लिया गया है।
इस चि_ी पर कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया एक्स (जो पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था) पर लिखा, ‘सिविल सर्वेन्ट्स को चुनाव में जाने वाली सरकार के लिए राजनीतिक प्रचार करने का आदेश कैसे दिया जा सकता है?’
पवन खेड़ा के ट्वीट पर वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सांसद जयराम रमेश ने लिखा, ‘यह नरेंद्र का एक और अहंकारोन्मादी आदेश है।’
सरकार ने भी विपक्ष को इस मुद्दे पर आड़े हाथ लिया है।
भारतीय जनता पार्टी की अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक्स पर लिखा, ‘मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि कांग्रेस पार्टी को योजनाओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए ज़मीनी स्तर तक पहुँचने वाले लोक सेवकों से दिक्कत है। अगर ये शासन का मूल सिद्धांत नहीं है, तो क्या है?’
नड्डा ने आगे लिखा, ‘शायद कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक अनजान अवधारणा है लेकिन सार्वजनिक सेवा प्रदान करना सरकार का कर्तव्य है। अगर मोदी सरकार सभी योजनाओं की संतृप्ति सुनिश्चित करना चाहती है और सभी लाभार्थियों तक पहुँचना सुनिश्चित करना चाहती है तो गऱीबों के हित को ध्यान में रखने वाले किसी भी व्यक्ति को समस्या नहीं हो सकती है। लेकिन कांग्रेस की रुचि केवल गऱीबों को गऱीबी में रखने में है और इसलिए वे विरोध कर रहे हैं।’
खडग़े का सरकार पर निशाना
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आक्रामक तेवर अपनाते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, ‘मोदी सरकार के लिए सभी सरकारी एजेंसियाँ, संस्थान, विंग और विभाग अब आधिकारिक तौर पर ‘प्रचारक’ हैं ! हमारे लोकतंत्र और हमारे संविधान की रक्षा के मद्देनजर यह जरूरी है कि उन आदेशों को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए जो नौकरशाही और हमारे सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण को बढ़ावा देंगे।’
खडग़े ने इस विषय पर चिंता जताते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा। पत्र में उन्होंने कहा कि सरकार की रथ प्रभारी बनाने की योजना केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 का स्पष्ट उल्लंघन है, जो निर्देश देते हैं कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेगा।
खडग़े ने कहा, ‘हालाँकि सरकारी अधिकारियों के लिए सूचना का प्रसार करना स्वीकार्य है, लेकिन उपलब्धियों का ‘जश्न मनाना’ और ‘प्रदर्शन’ करना उन्हें स्पष्ट रूप से सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल देता है।’
कांग्रेस अध्यक्ष ने ये भी कहा कि चूँकि सिर्फ पिछले नौ वर्षों की ‘उपलब्धियों’ की बात की जा रही है तो ये साफ़ है कि ये पाँच राज्यों के चुनाव और 2024 के आम चुनावों पर नजर रखते हुए एक राजनीतिक फैसला है।
उन्होंने कहा, ‘अगर विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों को वर्तमान सरकार की मार्केटिंग गतिविधियों के लिए नियुक्त किया जा रहा है तो हमारे देश का शासन अगले छह महीनों के लिए ठप हो जाएगा।’
खडग़े ने रक्षा मंत्रालय के हाल ही में निकाले गए उस आदेश की भी बात की ‘जिसमें वार्षिक अवकाश पर गए सैनिकों को सरकारी योजनाओं को बढ़ावा देने में समय बिताने का निर्देश दिया गया है, जिससे वे ‘सैनिक-राजदूत’ बन जाएँगे’।
उन्होंने कहा, ‘सेना प्रशिक्षण कमान को हमारे जवानों को देश की रक्षा के लिए तैयारी करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, वो सरकारी योजनाओं को बढ़ावा देने के तरीकों पर स्क्रिप्ट और प्रशिक्षण मैनुअल तैयार करने में व्यस्त हैं।’
खडग़े ने कहा, ‘लोकतंत्र में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सशस्त्र बलों को राजनीति से दूर रखा जाए।’
उन्होंने साथ ही ये भी कहा कि ‘हर जवान की निष्ठा देश और संविधान के प्रति है।’
वे बोले, ‘हमारे सैनिकों को सरकारी योजनाओं का मार्केटिंग एजेंट बनने के लिए मजबूर करना सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण की दिशा में एक ख़तरनाक क़दम है। इसके अलावा हमारे देश के लिए कई महीनों या वर्षों की कठिन सेवा के बाद हमारे जवान अपनी वार्षिक छुट्टी पर अपने परिवारों के साथ समय बिताने और निरंतर सेवा के लिए ऊर्जा बहाल करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता के पात्र हैं। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उनकी छुट्टियों पर डाका नहीं डाला जाना चाहिए।’
‘सरकार को काम करने दीजिए, चुनाव तो जब होंगे तब होंगे’
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने भी इस मामले पर सरकार का पक्ष रखा और विपक्ष के विरोध का जवाब दिया।
मालवीय ने ङ्ग पर लिखा, ‘किसने कहा कि भारत सरकार में नौकरशाहों को कार्यान्वित कार्यक्रमों और योजनाओं के बारे में बात करने का अधिकार नहीं है? क्या उन्हें सिर्फ दफ्तरों में बैठना चाहिए और प्रभाव का आंकलन करने के लिए ज़मीन पर नहीं होना चाहिए? नौकरशाहों का कर्तव्य है कि वे लोगों की सेवा करें, जैसा निर्वाचित सरकार उचित समझे।’
मालवीय के मुताबिक ‘सिर्फ इसलिए कि पाँच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं और आम चुनाव सात महीने दूर हैं, क्या हमें शासन करना छोड़ देना चाहिए? गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी, हर साल, चुनाव की परवाह किए बिना, मोदी जी ने सुनिश्चित किया कि उनके नौकरशाह जून-जुलाई के दौरान मैदान में जाएँ, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्कूल जाने वाले सभी बच्चों का नामांकन हो। इसने गुजरात में सार्वभौमिक शिक्षा सुनिश्चित की।’
मालवीय ने कहा कि इसी तरह पीएम मोदी चाहते हैं कि पीएम आवास योजना (ग्रामीण), राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, पीएम किसान, फसल बीमा योजना, पोषण अभियान, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत, जनऔषधि योजना, पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना जैसी कल्याणकारी योजनाएँ अगले छह महीने में पूरी तरह लागू हो जाएँ।
‘पूरी सरकार ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ नामक एक मेगा संतृप्ति अभियान के तहत 2.7 लाख पंचायतों में फैलेगी, संभावित लाभार्थियों तक पहुंचेगी और उनका नामांकन करेगी। इसलिए सरकार को काम करने दीजिए, चुनाव तो जब होंगे तब होंगे।’
‘नौकरशाही न्यूट्रल होती है’
प्रोफेसर अपूर्वानंद दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग में कार्यरत हैं और एक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार हैं।
वे कहते हैं, ‘जिसे आप आधुनिक राज्य कहते हैं, उसकी एक ख़ासियत बताई जाती है नौकरशाही। नौकरशाही वो है जो पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव से एक दूरी पर रहती है। यानी वो राजनीतिक तौर पर तटस्थ है। तो जहाँ लोकतांत्रतिक स्टेटस है वहां नौकरशाही राज्य का जरूरी हिस्सा तो है पर वो पॉलिटिकली न्यूट्रल है।’
साथ ही वे यह भी कहते हैं कि भारत में एक ऐसी प्रक्रिया से चुनकर नौकरशाह आते हैं जो ऑब्जेक्टिव है और किसी भी राजनीतिक नेतृत्व से आजाद है।
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद कहते हैं, ‘वे राजनीतिक नेतृत्व के प्रतिनिधि नहीं होते हैं। उनका काम नीतियाँ बनाना और उनका क्रियान्वयन करना ज़रूर है, लेकिन उनका काम प्रचार करना नहीं है। पिछले 75 वर्षों में ये पहली बार हो रहा है। पहले कभी भी नौकरशाही ने योजनाओं का प्रचार करने का काम नहीं किया।’
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद के मुताबिक नौकरशाही का जो पहले से चला आ रहा तरीक़ा था वो टूट गया है।
वे कहते हैं, ‘अब राजनीतिक वैचारिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच पूर्ण तालमेल है जबकि नौकरशाही को वैचारिक झुकाव से अलग रहना चाहिए।’
प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं कि ‘अगर नौकरशाही किसी एक विचारधारा का अनुसरण करने लग गई तो वो किसी नई सरकार के आने पर उस सरकार के लिए बाधा बन जाएगी।’
वे कहते हैं, ‘या तो वो उस सरकार को काम नहीं करने देगी या बाधाएं डालेगी या एक अप्रत्यक्ष रूप से तख्तापलट करेगी। तो ये काफी खतरनाक है क्योंकि ये लोकतंत्र और लोकतांत्रिक राज्य का विनाश होने जैसा है।’
‘ये सेंटर-स्टेट रिलेशन्स का मामला है’
प्रोफेसर आशुतोष कुमार चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं।
वे कहते हैं, ‘इस तरह की कोशिश राजीव गाँधी ने भी की थी जब वो पंचायती राज से जुड़ा 64वाँ संविधान संशोधन संसद में लाए थे। उससे पहले उन्होंने जि़ला मजिस्ट्रटों के साथ मीटिंग करनी शुरू की थी। तो विपक्षी राज्य सरकारों को लगा कि उन्हें बाइपास किया जा रहा है। साल 1989 चुनावी साल था और 1988 में राजीव गाँधी ने ये काम शुरू किया था। तो विपक्षी दलों ने इस बात पर काफी हल्ला मचाया और ये संशोधन राज्य सभा में पास नहीं होने दिया।’
प्रोफेसर आशुतोष कहते हैं, ‘मोदीजी के बारे में भी कहा जाता है कि वो सीधे तौर पर आल इंडिया सर्विसेज में कार्यरत अधिकारियों से जुडऩे ने कोशिश करते हैं। और अभी केंद्र सरकार ये दिखाने की कोशिश कर रही है कि ऑल इंडिया सर्विसेज के लोग हमारे लोग हैं और वो सेंट्रल सर्विसेज रूल्स के तहत काम करते हैं।’
वे कहते हैं कि ‘ये मामला सेंटर-स्टेट रिलेशन्स’ यानी केंद्र और राज्यों के बीच के संबंधों से जुड़ा है। उनके मुताबिक केंद्र सरकार आईएएस अफसरों से सीधा राब्ता बनाने की कोशिश कर रही है।
वे कहते हैं, ‘तो कोशिश ये है कि आप सीधे आल इंडिया सर्विसेज की सेवाओं का उपयोग करें और उन्हें यह महसूस कराएं कि वे केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं। लेकिन केंद्र सरकार जो करने जा रही है उस पर राज्यों की सरकारें बहुत हल्ला करेंगी।’
‘सेना को वैचारिक बनाना बहुत ही खतरनाक’
प्रोफेसर अपूर्वानंद के मुताबिक सेना को वैचारिक बनाना बहुत ही ख़तरनाक है।
वे कहते हैं, ‘आर्मी का काम न तो राष्ट्रवाद और न किसी विचारधारा का प्रोपगैंडा करना है। और न ही आर्मी सरकार के बात की प्रचारक होती है। लेकिन हमने पिछले कुछ सालों में देखा है कि जो हमारे आम्र्ड फोर्सेज के चीफ हैं वो विचारधारा से जुड़े स्टेटमेंट देने लगे हैं। ये भी बहुत खतरनाक है।’
वे कहते हैं, ‘अमेरिका मेंं ट्रंप के समय पुलिस चीफ ने खड़े होकर बयान दिया था कि वो संविधान से बंधे हुए हैं न कि किसी पद से। तो ये स्वतंत्रता होती है।’
प्रोफेसर अपूर्वानंद के मुताबिक भारत की सेना एक प्रोफेशनल सेना के तौर पर मशहूर रही है और भारत की आर्मी पर भारत की जनता यकीन करती है, हर धर्म के लोग यकीन करते हैं कि वो संकट की स्थिति में बिना किसी भेदभाव के खड़ी होगी।
सैनिकों के सरकारी योजनाओं के प्रचार की बात पर प्रोफेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘अगर ऐसा किया जा रहा है तो बहुत गलत है। इस तरह की बातें हताशा और सत्ता से बाहर हो जाने का डर दिखाती हैं। इंडिया गठबंधन बनने के बाद सरकार की हठ बहुत बढ़ गई है। पता नहीं अभी और क्या क्या किया जाएगा।’
अंग्रेजी अखबार डेक्कन हेराल्ड में रक्षा मामलों के जानकार सुशांत सिंह ने लिखा कि कहा ये जा रहा है कि इस कवायद का मक़सद राष्ट्र-निर्माण है लेकिन ‘सेना मुख्यालय द्वारा उल्लिखित हर एक योजना में मोदी सरकार की विशिष्ट छाप है। अन्यथा, इसमें यूपीए-युग की एनआरईजीएस जैसी या विपक्ष द्वारा संचालित राजस्थान, केरल या पंजाब जैसे राज्यों की योजनाओं को भी सूचीबद्ध किया गया होता।’
सुशांत सिंह लिखते हैं कि स्पष्ट रूप से यह एक पूरी तरह से राजनीतिक पहल है जिसमें सेना अपने सैनिकों को मोदी सरकार के राजदूत के रूप में कार्य करने पर सहमत हुई है।
वे कहते हैं, ‘राजनीतिक मकसद साफ है। 2014 के बाद से मोदी ने जनता के मन में सेना और सैनिकों के साथ अपनी और अपनी पार्टी की पहचान बनाने की पुरजोर कोशिश की है।’
सुशांत सिंह लिखते हैं कि भारत का लोकतांत्रिक मॉडल जानबूझकर सेना को समाज से अलग रखने पर आधारित है लेकिन ये बात अब खत्म हो गई है। ‘इन सैनिकों को अब भाजपा के लिए अर्ध-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, या अधिक सटीक रूप से, मोदी के राजनीतिक राजदूतों में बदल दिया जाएगा।’
नौकरशाही के राजनीतिकरण पर बहस
नौकरशाही का राजनीतिकरण एक ऐसा मुद्दा है जो दशकों से चर्चा का विषय रहा है।
पिछले वर्षों में हुए कई चुनावों में ऐसी खबरें आम थीं कि रिटायर्ड आईएएस या आईपीएस अधिकारी चुनाव लडऩे की उम्मीद में राजनीतिक दलों के चक्कर काटते दिखे।
हाल ही में ओडिशा कैडर के आईएएस अधिकारी वीके पांडियन सुखिऱ्यों में तब आ गए जब वॉलन्टरी रिटायरमेंट या स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के एक दिन बाद ही उन्हें ओडिशा सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दे दिया गया। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि पांडियन ओडिशा के मुख्यमंत्री के करीबी रहे हैं और आने वाले समय में उन्हें और बड़ी जि़म्मेदारियां दी जा सकती हैं।
ऐसे राजनेताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है जो पहले नौकरशाह थे और बाद में राजनीति में आ गए। इनमें से कुछ जाने-माने नाम हैं यशवंत सिन्हा, नटवर सिंह, डॉ एस जयशंकर, हरदीप सिंह पुरी, अजीत जोगी, मणिशंकर अय्यर, मीरा कुमार और अरविंद केजरीवाल।
बहस का विषय ये भी रहा है कि क्या नौकरी करते वक्त नौकरशाह राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े होते हैं।
सेवानिवृत होने के बाद जब कोई ब्यूरोक्रेट किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल हो जाता है तो ये इल्जाम भी लगते हैं कि क्या वो ब्यूरोक्रेट सेवा में रहते वक्त उसी राजनीतिक दल के हितों की रक्षा करता था?
प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं कि हर किसी की राजनीतिक राय हो सकती है और राजनीतिक राय होगी तभी तो कोई वोट देगा।
वे कहते हैं, ‘नौकरशाह भी वोट देते हैं और ज़रूरी नहीं है कि सत्तारूढ़ पार्टी को ही दें। यही तो खास बात है कि जो भी उसकी अपनी राजनीतिक राय है वो इस बात के आड़े नहीं आनी चाहिए कि वो सरकार के लिए काम कर रहा है। अगर आपने उसे प्रॉपगैंडिस्ट (प्रचारक) बना दिया तो वो किसी भी और विचारधारा की सरकार के लिए बाधा बन जाएगा।’ (bbc.com/hindi)
आर.के.पालीवाल
रहीमदास कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के टिकिटार्थियो की दशा देखते तो अपने पानी वाले दोहे को संशोधित कर कहते ‘टिकिट बिना सब सून’, क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेताओं के लिए टिकिट ही सबसे ज्यादा जरूरी हो गया। टिकिट नही मिला तो सब सूना है। जिसे टिकिट मिल गया उसके घर, दफ्तर, खेत, खलिहान ,फार्म हाउस और बागान में रौनक ही रौनक है लेकिन जिस पर टिकिट की किरपा नहीं बरसी उसके चहुं और चंबल के बीहड़ जैसा सुनसान पसरा है। कल तक जो चेले चपाटे गुड के इर्द गिर्द भिनभिनाती मख्यियों की तरह दिन रात घेरे रहते थे वे टिकिट नही मिलने पर रातोरात गायब हो जाते हैं। वर्तमान दौर के नेताओं ने यह गूढ़ रहस्य जान लिया है कि सरपंच,
पार्षद, विधायक और सांसद बने बगैर जन सेवा नहीं हो सकती। जनता की सेवा के लिए टिकट सबसे जरूरी है। टिकिट नहीं मिलने पर जनता ऐसे हिकारत भाव से देखती है जैसे टी टी बिना टिकिट सवारी को देखता है।
वैसे तो चुनाव जीतने पर भी वर्तमान तंत्र में कोई खास सेवा तब तक संभव नहीं होती जब तक जीतने के बाद मंत्री परिषद में चयन नहीं हो जाता।मंत्री बनने के बाद भी सेवा की ज्यादा संभावना तभी दिखती है जब मुख्यमंत्री की कुर्सी मिले और मुख्यमंत्री नहीं तो उप मुख्यमंत्री का पद हासिल हो और साथ में राजस्व या पी डब्लू डी जैसे किसी जानदार मंत्रालय का कैबिनेट प्रभार मिले।दरअसल टिकट ऐसा ताबीज है जो नेताजी को कुर्सी और दरी बिछाने, मंच सज्जा करने, भीड़ बढ़ाने और जिन्दाबाद मुर्दाबाद के कानफोडू नारे लगाने वाले आम कार्यकर्ताओं से अलग कर खास की श्रेणी में प्रविष्ट कराता है इसीलिए टिकट के लिए इतनी मारामारी मचती है।
आजकल मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के टिकिट को लेकर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में घमासान मचा हुआ है। टिकिट बांटने वालों के कपड़े फाड़े जा रहे हैं, समर्थकों द्वारा पार्टी कार्यालय में धरना और शक्ति प्रदर्शन के साथ साथ ध्यानाकर्षण के लिए कार्यकर्ताओं द्वारा शीर्षासन तक किया जा रहा है। बड़े नेताओं का घेराव और धक्का मुक्की हो रही है, टिकिट नही मिलने की स्थिती में निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में उतरने की धमकियां दी जा रही हैं और ब्रह्मास्त्र के रुप में बरसों से दबी कुचली आत्मा की आवाज सुनकर दल बदलने की तैयारी हो रही है। नेता टिकिट पाने के लिए तरह तरह के पापड़ बेलने को तैयार हैं। टिकिट खरीदने के लिए मोटी रकम का जुगाड किया जा रहा है, अपने फेवर में आए सर्वे का हवाला दिया जा रहा है, अपने अपने गॉडफादर और गॉड मदर की चरण वंदना की जा रही है और हाई कमान की सिफारिश के लिए कोई मजबूत डोरी खोजी जा रही है।
टिकिटों को लेकर मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में टिकिटार्थियों और उनके समर्थकों द्वारा जिस तरह की उद्दंडता हो रही है वह विगत चुनावों की तुलना में काफी ज्यादा है। इसका एक कारण यह भी है कि पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस में सबसे ज्यादा जोर आजमाइश मध्य प्रदेश में हो रही है। दोनों ने जिताऊ उम्मीदवारों को चुनने के चक्कर में कई पुराने नेताओं के टिकिट काटे हैं इसलिए टिकिट कटने वाले उम्मीदवार बौखलाए हुए हैं।
भाजपा ने जहां जहां सिंधिया के साथ दल बदल कर कांग्रेस से आए नेताओं को टिकिट दी है वहां संघ और भाजपा के पुराने लोग बगावत कर रहे हैं और जहां कांग्रेस ने भाजपा से पाला बदलकर आए लोगों को प्राथमिकता दी है वहां पुराने कांग्रेसी बागी हो रहे हैं। इसके अलावा दोनों दलों में कई उप समूह भी हैं, जैसे भाजपा में शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया के उपसमूह हैं तो कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के कैंप हैं। हर उपसमूह अपने ज्यादा से ज्यादा विधायक चाहता है ताकि जीतने पर मंत्रिमंडल गठन में ज्यादा अहमियत मिल सके। इस वजह से भी बागियों को बड़े नेताओं की शह मिल रही है जिससे वे उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं।