विचार / लेख
अमिता नीरव
आपमें से कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने न्याय और समानता जैसे मूल्यों के लिए अपने-अपने प्रिविलेजेस का त्याग किया है? या आप कितने ऐसे लोगों को या लोगों के बारे में जानते हैं जिन्होंने उदात्त मानवीय मूल्यों के लिए अपने विशेषाधिकारों का परित्याग किया है? इतिहास में इस तरह के लोग गिने जाने लायक संख्या में होंगे। ऐसे में ये उम्मीद कि समानता या न्याय के लिए कोई अपने प्रिविलेजेस त्यागेगा कितनी व्यावहारिक लगती है?
हम सब एक खास सेट ऑफ वैल्यूज और माइंडसेट में बड़े होते हैं। हम कितने ही सह्दय क्यों न हों, मानवीय मूल्यों की परतों को समझने में हमेशा सक्षम नहीं हो पाते हैं। कुछ हमारी अपनी सुविधाएँ हुआ करती हैं, कुछ कंडिशनिंग। ऐसे में यह सोचना कि प्रिविलेज्ड लोग समानता के मूल्य के लिए अपना प्रिविलेज छोड़ेंगे कितनी बड़ी उम्मीद है भई। पुरुष होने की हैसियत में ही कितने प्रिविलेज मिले हैं, पति होने की हैसियत तो इजाफा ही करती है।
पति जितने महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठा पुरुष आसानी से अपने पूजे जाने के प्रति असहज हो जाएगा? यदि स्त्री इस समाज में कंडिशंड हैं तो पुरुष भी है। अपने इर्दगिर्द ही पुरुषों को इस बात पर आहत होते देखा है कि उनकी पत्नियाँ उनकी लंबी उम्र के लिए किए जाने वाले व्रत नहीं करना चाहती हैं। जिस तरह से स्त्रियों पर पीयर प्रेशर होता है, उसी तरह पुरुषों के लिए भी यह ईगो का प्रश्न हुआ करता है।
ऐसे में हम ये कहें कि पुरुष इस सिलसिले में पहल करे कितनी इनोसेंट ख्वाहिश है न हमारी...
बकौल दुष्यंत-उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें।
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए।