विचार/लेख
निखिल गुप्ता के बारे में अमेरिकी अभियोग में क्या-क्या कहा गया है?
अमेरिकी अदालत में दाख़िल अभियोग में भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता पर एक लाख डॉलर कैश के बदले एक अमेरिकी नागरिक की हत्या की सुपारी देने के आरोप लगाए गए हैं।
अदालत में पेश दस्तावेज के मुताबिक निखिल गुप्ता ने भारत सरकार के लिए काम करने वाले एक अधिकारी के कहने पर अमेरिका में एक हिटमैन से संपर्क किया और उसे एक सिख अलगाववादी नेता की हत्या का कॉन्ट्रैक्ट दिया।
अभियोग में दावा किया गया है कि भारतीय अधिकारी से बातचीत के दौरान निखिल गुप्ता ने बताया था कि वो नार्कोटिक्स और हथियारों की अंतरराष्ट्रीय तस्करी से जुड़े हुए हैं।
अभियोग में ये भी दावा किया गया है कि निखिल गुप्ता पर गुजरात में एक आपराधिक मामला चल रहा है जिसमें मदद के बदले वो भारतीय अधिकारी के लिए न्यूयॉर्क में हत्या करवाने के लिए तैयार हो गए थे।
दस्तावेज़ के मुताबिक़ निखिल गुप्ता ने जिस हिटमैन से संपर्क किया था वह अमेरिकी ख़ुफिय़ा विभाग के अंडरकवर एजेंट थे।
इस एजेंट ने निखिल गुप्ता की सभी गतिविधियों और बातचीत को रिकॉर्ड किया। इसी के आधार पर ये मुक़दमा दायर किया गया है।
भारतीय मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक़ अमेरिका के न्यूयॉर्क में रहने वाले सिख अलगाववादी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया था। पन्नू ने भी एक पत्र जारी कर इसे अपने खिलाफ साजिश बताया है। पन्नू भारत में घोषित आतंकवादी हैं।
पन्नू ने सार्वजनिक रूप से अलग खालिस्तान देश बनाने की अपील की है। हाल ही में उन्होंने एयर इंडिया की फ्लाइट को बम से उड़ाने की धमकी भी दी थी।
अभियोग में बताया गया है कि जिस अधिकारी ने निखिल गुप्ता को सुपारी दी थी वो भारत की सीआरपीएफ में कार्यरत रहे हैं।
गंभीर आरोप
अभियोग के मुताबिक मई 2023 में अधिकारी ने निखिल गुप्ता को अमेरिका में हत्या करवाने का काम दिया।
दस्तावेज के मुताबिक निखिल गुप्ता भारतीय नागरिक हैं और भारत में ही रहते हैं।
गुप्ता ने हिटमैन से संपर्क करने के लिए एक व्यक्ति से संपर्क किया, जिसे वो एक आपराधिक सहयोगी मान रहे थे। वास्तव में ये व्यक्ति अमेरिकी ख़ुफिय़ा एजेंसी का विश्वसनीय सूत्र था।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र ने गुप्ता का संपर्क अमेरिकी एजेंसी के एक अंडरकवर एजेंट से करा दिया।
गुप्ता और अंडरकवर एजेंट के बीच एक लाख अमेरिकी डॉलर के बदले हत्या का सौदा हुआ।
निखिल गुप्ता ने अपने एक संपर्क के ज़रिए पंद्रह हज़ार अमेरिकी डॉलर न्यूयॉर्क के मैनहेटन में अमेरिकी एजेंट तक पहुंचाए।
ये हत्या के काम के लिए दी गई पेशगी थी। इसका वीडियो भी एजेंट ने रिकॉर्ड किया है और अभियोग के साथ लगाया गया है।
अभियोग के मुताबिक इस काम को निर्देशित कर रहे भारतीय अधिकारी ने जून 2023 में टार्गेट के बारे में व्यक्तिगत जानकारियां गुप्ता को दीं जो गुप्ता ने आगे अमेरिकी एजेंट को दे दीं। इनमें टार्गेट व्यक्ति की तस्वीरें और घर का पता भी था।
अभियोग के मुताबिक़ अमेरिका की गुज़ारिश पर और इस मामले के संबंध में निखिल गुप्ता को 30 जून 2023 को चेक गणराज्य में गिरफ़्तार कर लिया गया था। उन्हें अमेरिका प्रत्यर्पित किया जाएगा।
मामला कहाँ फँसा?
अभियोग में दावा किया गया है कि मई के शुरुआती सप्ताह में भारतीय अधिकारी ने निखिल गुप्ता से एनक्रिप्टेड एप्लीकेशन के ज़रिए संपर्क किया था।
दावा है कि भारतीय अधिकारी ने गुप्ता की एक आपराधिक मामले में मदद करने के बदले हत्या की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया था।
निखिल गुप्ता और भारतीय अधिकारी के बीच इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन के ज़रिए लगातार वार्ता हो रही थी। इसके अलावा दिल्ली में दोनों ने मुलाक़ात भी की थी।
अभियोग में अमेरिकी एजेंसी की जांच के हवाले से कहा गया है कि गुप्ता और भारतीय अधिकारी के बीच लगातार एनक्रिप्टेट ऐप के ज़रिए बात हो रही थी और इस वार्ता के दौरान गुप्ता दिल्ली या आसपास के इलाक़े में ही थे।
अभियोग में दावा किया गया है कि 12 मई को गुप्ता को बता दिया गया था कि ‘उनके खिलाफचल रहे आपराधिक मामले को देख लिया गया है।’
उन्हें ये भी बताया गया था कि ‘गुजरात पुलिस की तरफ से अब कोई कॉल नहीं करेगा।’
23 मई को भारतीय अधिकारी ने फिर से गुप्ता को आश्वस्त किया कि ‘उन्होंने अपने बॉस से बात कर ली है और गुजरात में जो मामला है, वो अब साफ है और अब तुम्हें दोबारा कोई कॉल नहीं करेगा।’
अभियोग में दावा किया गया है कि भारतीय अधिकारी ने गुप्ता की एक डीसीपी से मुलाक़ात की व्यवस्था भी की।
अधिकारी से भरोसा मिलने के बाद गुप्ता ने न्यू यॉर्क में हत्या करवाने की योजना को आगे बढ़ाया।
गुप्ता ने इस काम के लिए अमेरिका में अमेरिकी खुफिया एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र से संपर्क किया और कहा कि ‘जिस व्यक्ति की हत्या की जानी है वह न्यूयॉर्क और एक अन्य अमेरिकी शहर के बीच आता जाता है।’
भारत की प्रतिक्रिया
अभियोग में दावा गिया गया है कि गुप्ता ने न्यू यॉर्क में ये हत्या हो जाने के बाद अमेरिका और कनाडा में और अधिक काम देने का वादा भी एजेंट से किया था।
गुप्ता ने अमेरिकी ख़ुफिय़ा एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र से 18 जून को कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद 19 जून को किए ऑडियो कॉल में कहा था, ‘हमें हरी झंडी मिल गई है, आप किसी भी वक़्त काम करवा सकते हैं, आज या कल। जितनी जल्दी हो ये काम करो, इस काम को पूरा करो।’
अभियोग के मुताबिक़ निखिल गुप्ता ने 30 जून को भारत से चेक गणराज्य की यात्रा की और इसी दिन चेक पुलिस ने अमेरिका के आग्रह पर उसे गिरफ़्तार कर लिया।
अमेरिका ने इस घटनाक्रम की जानकारी भारत को दी थी। भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत इन आरोपों को गंभीरता से ले रहा है।
अरिंदम बागची ने गुरुवार को एक प्रेसवार्ता में कहा है कि इस अभियोग में किसी भारतीय अधिकारी का नाम नहीं है।
बागची ने कहा है, ‘हम पहले ही बता चुके हैं कि अमेरिका के साथ द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग पर वार्ता के दौरान, अमेरिकी पक्ष ने कुछ इनपुट साझा किए थे जो संगठित अपराधियों, आतंकवादियों, हथियारों के कारोबारियों और अन्य के नेक्सस के बारे में थे। भारत ने इसकी जांच के लिए विशेष जांच समिति गठित की है।’
उन्होंने कहा, ‘भारत सरकार ने इस मुद्दे की पूरी तरह से जांच करने के लिए एक विशेष जांच समिति का गठन करके जवाब दिया है, जो भारत केअंतरराष्ट्रीय संबंधों और आंतरिक सुरक्षा के लिए किसी भी प्रभाव को संबोधित करने के उसके संकल्प का प्रदर्शन करता है।’ (bbc.com/hindi)
मनोरमा सिंह
24 नवम्बर को देश में बहुत से खास-आम लोगों ने तुलसी विवाह किया, शायद उन्हें इसकी कथा मालूम हो अगर नहीं तो यहाँ शेयर कर रही हूँ, ये विवाह किसी भी स्त्री के अपने साथ यौन दुव्र्यहार करने वाले से विवाह को सौभाग्य के रूप में स्थापित और ग्लोरीफाय करता है और ईश्वर जैसा कोई व्यक्ति हो तो उस विवाह को स्त्री पर कृपा की तरह से ग्रहण किये जाने का संदेश देता है, उसे ईश्वर कृपा के रूप में जस्टिफाय करता है, बाकी आप इस कहानी को आज की किसी भी स्त्री से जोडक़र देखें और विचार करें। शुक्र है अपने देश का संविधान धर्म और आस्था की इन कहानियों से संचालित नहीं है इसलिए किसी भी पुरुष के ऐसे आचरण को अपराध की श्रेणी में रखा है चाहे वो किसी भी पद, रुतबे , ताकत या हैसियत का हो।
बहरहाल, कहानी इस प्रकार से है-
नारद पुराण के अनुसार, एक समय दैत्यराज जलंधर के अत्याचारों से ऋषि-मुनि, देवता और मनुष्य सभी बहुत परेशान थे। वह बड़ा ही पराक्रमी और वीर था। इसके पीछे उसकी पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली पत्नी वृंदा के पुण्यों का फल था, जिससे वह पराजित नहीं होता था। उससे परेशान देवता भगवान विष्णु के पास गए और उसे हराने का उपाय पूछा। तब भगवान श्रीहरि ने वृंदा का पतिव्रता धर्म तोडऩे का उपाय सोचा। भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण कर वृंदा को स्पर्श कर दिया। जिसके कारण वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग हो गया और जलंधर युद्ध में मारा गया।
भगवान विष्णु से छले जाने तथा पति के वियोग से दुखी वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया कि आपकी पत्नी का भी छल से हरण होगा तथा आपको पत्नी वियोग सहना होगा। यह श्राप देने के बाद वृंदा अपने पति जलन्धर के साथ सती हो गईं जिसकी राख से तुलसी का पौधा निकला। वृंदा का पतिव्रता धर्म तोडऩे से भगवान विष्णु को बहुत ग्लानि हुई। तब उन्होंने वृंदा को आशीष दिया कि वह तुलसी स्वरुप में सदैव उनके साथ रहेगी। उन्होंने कहा कि कार्तिक शुक्ल एकादशी को जो भी शालिग्राम स्वरुप में उनका विवाह तुलसी से कराएगा, उसकी मनोकामना पूर्ण होगी। तब से तुलसी विवाह होने लगा।
आकार पटेल
50 वर्षों से, भारत ने लोकसभा की संरचना या सीटों की संख्या में (जिसे परिसीमन कहा जाता है) कोई बदलाव नहीं किया है। किसी क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के लिए सीटों की हिस्सेदारी बढ़ाने या घटाने के लिए जिस व्यक्ति को चुना जाता है उसके हाथ में बहुत ताकत होती है। आदेशों में 'क़ानून की शक्ति है और किसी भी अदालत में उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता' और उसे संशोधित नहीं किया जा सकता है।
हाल की घटनाओं ने परिसीमन के मुद्दे को फिर से प्रमुखता से सामने ला दिया है, और संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की भी शर्त है कि यह काम 'परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद प्रभावी होगा।'
लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह व्यक्ति कौन है। परिसीमन निर्धारित करने वाली समिति की आखिरी अध्यक्ष रिटायर्ड जज रंजना देसाई थी, जिन्होंने 2022 में यह काम छोड़ दिया था, और उन्हें दूसरा पद (प्रेस परिषद) दे दिया गया, लेकिन चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अभी भी उनका ही नाम अंकित है।
आइए, परिसीमन से जुड़े कुछ मुख्य मुद्दों की पड़ताल करते हैं, जो कि हमारे राज्यों में आबादी की विभिन्न संख्या पर आधारित हैं। आंध्र प्रदेश में कुल प्रजनन दर, किसी महिला से जन्म लेने वाले बच्चों की औसत संख्या 1.7 है, जबकि बिहार में यह दर 3 है। फिलहाल भारत में यह दर 2 के आसपास है और करीब एक दशक में हमारी आबादी घटने लगेगी। हालांकि हमारे 29 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पहले ही प्रतिस्थापन दर 2 से नीचे है। लेकिन बाकी 7 राज्यों की दर ऐसी है जिससे कि देश का औसत बढ़ जाता है।
पचास साल पहले उत्तर प्रदेश से (तब उत्तराखंड भी यूपी का हिस्सा था) 85 सांसद चुने जाते हैं, और हर सीट पर लगभग 10 लाख आबादी थी, इसी तरह केरल से 20 सांसद, तमिलनाडु से 40 सांसद, कर्नाटक से 28 सांसद और राजस्थान से 25 सांसद चुने जाते थे।
बीते 50 साल में यानी जब आखिरी बार लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाई गई थी, तब से केरल की आबादी में 56 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इसी अवधि में राजस्थान में आबादी 166 फीसदी बढ़ गई है। तमिलनाडु की आबादी में 75 फीसदी तो हरियाणा में 157 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऐसे में यह तर्क कि परिवार नियोजन को प्रभावी तरीके से लागू करने वाले दक्षिणी राज्यों की अनदेखी कर उत्तरी राज्यों को अधिक प्रतिनिधित्व देना अर्थपूर्ण और सही है। लेकिन यह तर्क भी सही है कि उत्तरी राज्यों के सांसद कहीं अधिक भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो यह तर्क सही नहीं होगा। बिहार के 40 और उत्तर प्रदेश के 80 सांसद औसतन प्रति सांसद 30 लाख भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उधर केरल का हर सांसद 17 लाख और तमिलनाडु का हर सांसद औसतन 19 लाख भारतीयों के प्रतिनिधि होते हैं।
विभिन्न राज्यों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उस राज्य की आबादी के हिसाब से तय हुआ था, और उस समय सभी सांसद लगभग एक जैसी संख्यी में भारतीयों के प्रतिनिधि है। लेकिन आज स्थितियां अलग हैं।
इस बाबत दोनों तरफ से अर्थपूर्ण और जायज तर्क दिए जा रहे हैं और जब परिसीमन आयोग की बैठक होगी तो उस पर एक किस्म का दवाब होगा क्योंकि वह कोई भी तरीका अपनाए, सबको तो संतुष्ट नहीं किया जा सकता।
संभवत: परिसमीन का काम अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया जाए, खासतौर से इसलिए क्योंकि इससे पहले तो जनगणना होनी है जोकि बिना किसी कारण के स्थगित कर दी गई है। और, इसलिए भी क्योंकि महिलाओं को लोकसभा में एक तिहाई हिस्सेदारी देने वाला महिला आरक्षण विधेयक अब कानून बन चुका है, यानी परिसीमन का आधार अब सिर्फ भौगोलिक स्थितियों पर ही निर्भर नहीं होगा। लेकिन इससे हमें भ्रम में नहीं आना चाहिए और समस्या जस की तस बनी रहेगी।
तो फिर क्या किया जाए?
इस पर अमल न करने का अर्थ है संविधान का उल्लंघन। संविधान का अनुच्छेद 82 (प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारण) कहता है, ‘प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, राज्यों को लोक सभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य का क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसे तरीके से पुन: समायोजित किया जाएगा जैसा संसद कानून द्वारा निर्धारित कर सकती है।’
यहां ध्यान देने योग्य शब्द हैं ‘प्रत्येक जनगणना’ और इस पर बीते 50 साल में अमल न होगा ही समस्या की जड़ है। 1972 तक इस प्रक्रिया का पालन किया गया। 1950 के दशक की 494 लोकसभा सीटें 1960 के दशक में 522 और फिर 1970 के दशक में 543 हो गईं। इस समय, जैसा कि ऊपर दिए गए आंकड़ों से पता चलता है, जबकि सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व समान था, यह मान्यता थी कि दक्षिण बहुत बेहतर कर रहा था और राज्य को विशेष रूप से उत्तर के लिए परिवार नियोजन को बढ़ावा देने की आवश्यकता थी।
पाठकों को इंदिरा गांधा द्वारा इमरजेंसी के दौरान उठाए गए कठोर कदमों की याद होगी और बहुत से लोगों को परिवार नियोजन को प्रोत्साहन देने वाले विज्ञापन भी याद होंगे जो 1980 के दशक में दूरदर्शन और अखबारों में दिखते थे।
इस अभियान का एक दीर्घगामी लक्ष्य था परिसीमन के लिहाज़ से राज्यों को एक स्तर पर लाना। लेकिन जनगणना और परिसीमन के बीच का सूत्र टूट गया या और साफ कहें तो इसे स्थगित कर दिया गया।
1980 और 1990 के दशक में जब हमने जनगणना की तो राज्यों की आबादी के आकार में काफी विभिन्नता सामने आई थी, लेकिन तब भी परिसीमन नही किया गया।
वाजपेयी सरकार ने 2002 में इसे और अगले 25 साल के लिए टाल दिया, कि परिसीमन 2031 में होगा (यानी 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना)
यह कब होगा? हमें नहीं पता। 1880 के बाद पहली बार कोई जनगणना नहीं की गई है, जोकि 2021 में हो जानी थी। इसे न करने का कारण कोविड महामारी बताया गया, लेकिन महामारी खत्म होने के बाद भी अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिख रहा है कि जनगणना कराई जाएगी (या फिर सीएए को कैसे लागू किया जाएगा जोकि महामारी के बाद लागू किया जाना था)।
यह मानते हुए कि जनगणना जल्द ही शुरु होगी, सरकार को कुछ धारणाओं को बदलने की कोशिश करनी होगी। लेकिन पिछले 50 वर्षों में असमानता और भारी बदलाव को देखते हुए ऐसा होना आसान नहीं लगता। हो सकता है इसे लोगों के साथ खुले औ स्पष्ट संवाद के बिना ही कर लिया जाए, और नेता जी की शैली को जानते हुए, इसके शुरु होने की उम्मीद भी कम ही है।
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा सुरंग में फँसे 41 मज़दूरों के सुरक्षित बाहर आने के बाद उनके परिवारों ने राहत की सांस ली है।
ये मज़दूर दिवाली के दिन हुए हादसे के बाद से फँसे हुए थे। अब, जबकि ये 17 दिनों के बाद बाहर आए हैं, इनमें से कइयों के घर पर दिवाली जैसा माहौल है।
अंदर फँसे 41 मज़दूरों में 15 झारखंड, आठ उत्तर प्रदेश, पांच-पांच बिहार और ओडिशा से, तीन पश्चिम बंगाल से, दो-दो असम और उत्तराखंड से थे और एक श्रमिक हिमाचल प्रदेश से था।
सुरंग से निकाले जाने के बाद इन्हें अस्पताल ले जाया गया है और वहाँ से उन्हें ज़रूरी स्वास्थ्य जांच के बाद घर भेजा जा सकता है।
बाहर आए मज़दूर बता रहे हैं कि अंदर किस तरह के हालात थे, वे कैसा महसूस कर रहे थे और उन्हें क्या कठिनाइयां आईं।
झारखंड के सुबोध कुमार वर्मा ने बताया कि सुरंग का हिस्सा धंसने के बाद शुरुआत के 24 घंटे काफ़ी मुश्किल थे।
समाचार एजेंसी एएनआई के वीडियो में उन्होंने कहा, ‘हमें सिर्फ 24 घंटे दिक्क़त हुई। खाने और हवा (सांस लेने) को लेकर। फिर कंपनी ने खाने को लेकर काजू-किशमिश वगैरह भेजे और दस दिन के बाद हमेें दाल-रोटी और चावल खाने को मिला।’
उन्होंने कहा, ‘अब मैं स्वस्थ हूं, किसी तरह की कोई दिक्क़त नहीं है। मैं बिल्कुल सही हूँ। सब आप लोगों की दुआ और मेहनत है। केंद्र और राज्य सरकार की मेहनत से निकल आया हूँ, वरना अंदर क्या होता, मैं ही जानता हूँ।’
सुरक्षित निकले लोगों में झारखंड के विश्वजीत कुमार भी हैं। वह कंप्रेशर मशीन चलाते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें पूरा यक़ीन था कि उन्हें बचा लिया जाएगा और वह बाहर की दुनिया एक बार फिर देख सकेंगे।
उन्होंने एएनआई को बताया, ‘मैं बहुत ख़ुश और सुरक्षित हूँ। सभी श्रमिक ख़ुश हैं। अभी हम अस्पताल में हैं। मलबा सुरंग के मुहाने के पास गिरा। मैं उसके दूसरी ओर था। अंदर कऱीब ढाई किलोमीटर का हिस्सा ख़ाली था। हम वक़्त बिताने के लिए अंदर घूमा करते थे।’
थोड़ा डर भी था शुरू में, लेकिन फिर जब खाना और पानी आया, उसके बाद परिजनों से बात हुई तो हमारा मनोबल लगातार बढ़ता गया। हमें जल्द ही यक़ीन हो गया कि हम बाहर की दुनिया देख पाएंगे।
विश्वजीत का भी यही कहना है कि फँसने के बाद के शुरुआती घंटे काफ़ी परेशानी हुई। उन्होंने बताया, ‘थोड़ा डर भी था शुरू में, लेकिन फिर जब खाना और पानी आया, उसके बाद परिजनों से बात हुई तो हमारा मनोबल लगातार बढ़ता गया। हमें जल्द ही यक़ीन हो गया कि हम बाहर की दुनिया देख पाएंगे।’
विश्वजीत कुमार वर्मा ने कहा, ‘जैसे ही ऊपर से मलबा गिरा, तब हमें लगा कि निकलने का रास्ता बंद हो गया। लेकिन सब लोग हमें निकालने के प्रयास में लगे रहे। फिर ऑक्सीजन और पानी के पाइप से खाने-पीने की व्यवस्था की गई। बाहर से मशीनें मंगाई गईं।’
उन्होंने बताया कि परिवार से बात होने से भी बड़ा सहारा मिला। उन्होंने कहा, ‘परिवार से बात हो रही थी। इसके लिए माइक लगाया गया था। उससे हम बात करते रहते।’
इस पूरे मामले में अब जो एक नाम चर्चा में आ रहा है, वह है गब्बर सिंह नेगी। वह इस प्रॉजेक्ट में टनल फ़ॉरमैन के तौर पर काम कर रहे थे।
जिस समय सुरंग का हिस्सा धंसा, उस समय वह भी 40 श्रमिकों के साथ अंदर फंस गए थे। बाहर निकले मज़दूरों ने बताया कि गब्बर सिंह नेगी लगातार उनका मनोबल बढ़ा रहे थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेस्क्यू किए गए श्रमिकों से बात करते समय जब गब्बर सिंह नेगी से मुख़ातिब हुए, तो उन्होंने उनकी जमकर तारीफ़ की।
पीएम ने कहा, ‘आपको विशेष रूप से बधाई, आपने जिस तरह से लीडरशिप दिखाई है, उस पर आने वाले समय में किसी विश्वविद्यालय को शोध करना चाहिए कि कैसे गाँव के व्यक्ति ने मुश्किल हालात में नेतृत्व दिखाया और संकट के समय अपनी पूरी टीम को संभाला।’
वहीं गब्बर सिंह नेगी ने पीएम का शुक्रिया अदा किया और कहा कि उन्हें ख़ुशी है कि सबने उनका साथ दिया। नेगी ने कहा, केंद्र सरकार, राज्य सरकार, एनडीआरएफ़, एसडीआरएफ़ और हमारी कंपनी ने हमारा हौसला बनाया, हमारा हालचाल लेते रहे। हम सब एक परिवार की तरह रहे। दोस्तों (अंदर फंसे) का भी शुक्रिया, जो मुश्किल घड़ी में शांत बने रहे, हमारी बात सुनी और हौसला नहीं छोड़ा।’
गांवों में जश्न, छोटे गए पटाखे
इस रेस्क्यू ऑपरेशन के सफल होने के बाद देश के कई हिस्सों से आम लोगों द्वारा ख़ुशी मनाने की तस्वीरें और वीडियो सामने आए।
प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से संबंध रखने वाले मज़दूरों के परिजनों की भी राहत और ख़ुशी भरी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
41 में से सबसे ज़्यादा 15 मज़दूर झारखंड से थे। रांची के ओरामांझी के खीराबेड़ा गांव में 17 दिनों बाद ख़ुशियां लौटी हैं।
इस गांव के तीन लडक़ों- राजेन्द्र बेदिया, अनिल बेदिया और सुखराम बेदिया के उत्तरकाशी टनल से सुरक्षित निकलने की ख़बर से गांव वालों ने राहत की सांस ली है। अब लोगों को उनके गांव लौटने का इंतज़ार है।
बीबीसी सहयोगी रवि प्रकाश ने बताया कि गांववालों को मंगलवार रात आठ बजे मज़दूरों के सुरंग से सुरक्षित निकलने की ख़बर मिली। इसके बाद गांववालों ने पटाखे छोड़े। सुबह भी पटाखे छोड़े गए और एक-दूसरे का मुंह मीठा करवाकर ख़ुशियां मनाई गईं।
तीनों लडक़ों के परिजनों ने उनके सुरक्षित घर वापसी के लिए मन्नतें मांगी हुई थीं। अनिल बेदिया की मौसी घटना के बाद से ही उनके घर पर आई हुई हैं। ख़ुशख़बरी मिलते ही उन्होंने घर के बाहर पूरे द्वार की लीपाई की। घर में पूजा-पाठ की भी तैयारी चल रही है।
इन तीनों ने जिस स्कूल में पढक़र मैट्रिक पास की है, वहां भी जश्न का माहौल है। स्कूल में पढऩे वाले बच्चों और शिक्षकों ने ढोल मांदर की थाप पर नाचकर जश्न मनाया।
‘ख़ुशी बयां नहीं कर सकते’
श्रावस्ती के राम मिलन भी सुरंग में फंसे हुए थे। उनके बेटे संदीप कुमार ने एएनआई से कहा, ‘हम बहुत ख़ुश हैं। मेरे रिश्तेदार पापा को लाने उत्तराखंड गए हैं। मैं रेस्क्यू ऑपरेशन से जुड़े सभी लोगों को शुक्रिया कहना चाहता हूं।’
एक अन्य श्रमिक संतोष कुमार भी श्रावस्ती से हैं। उनकी ताई शमिता देवी ने बताया कि श्रावस्ती के आठ लोग सुरंग के अंदर फंसे हुए थे। संतोष की मां ने कहा कि बेटे से बात हुई है और वह जल्दी घर आ रहा है।
उन्होंने कहा, ‘हम बहुत ख़ुश हैं। हम भी दिवाली मना रहे हैं और हमारे साथ पूरा गांव दिवाली मना रहा है।’
ओडिशा के मयूरभंज के रहने वाले श्रमिक धीरेन नायक की मां ने बचावकर्मियों को शुक्रिया कहा है। इशी तरह, सुरंग से बचाए गए असम के रहने वाले राम प्रसाद नरजरी के परिजनों ने भी ख़ुशी जताई है।
उनके बुज़ुर्ग पिता ने कहा, ‘बेटे से बात करके इतनी ख़ुशी मिली, जिसे मैं बयां नहीं कर सकता। मैं सभी सरकारों और बचाव अभियान में जुटे लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं।’
ये एक चमत्कार है-डिक्स
जैसे ही मलबे से होते हुए बचाव का रास्ता निकाला गया, सुरंग के अंदर फंसे मज़दूरों तक पहुंचने वाले शुरुआती लोगों में एनडीआरएफ़ कर्मी मनमोहन सिंह रावत भी शामिल थे।
उन्होंने कहा, ‘जैसे ही मैं अंदर पहुंचा, मज़दूरों के चेहरे पर बहुत ख़ुशी नजऱ आ रही थी। हम पहले से ही उन्हें भरोसा दिलाते आ रहे ते कि जल्द ही उन्हें बचा लिया जाएगा। इससे उनकी मानसिक स्थिति को स्थिर रखने में मदद मिली।’
इस रेस्क्यू ऑपरेशन में मदद के लिए बतौर कंल्टेंट तैनात रहे अंतरराष्ट्रीय टनलिंग एक्सपर्ट आरनल्ड डिक्स ने कहा, इस अभियान में मदद कर पाना उनके लिए सम्मान का विषय है।
उन्होंने कहा, ‘मैं ख़ुद भी एक पिता हूं। ऐसे में माता-पिता के बच्चों (जो सुरंग में फंसे हुए थे) को घर भेज पाया, यह मेरे लिए सम्मान की बात है। आपको याद होगा कि शुरू में मैंने कहा था कि क्रिसमस से पहले 41 लोग अपने घरों में होंगे। इस बार क्रिसमस जल्दी आ गया है।’
जिस समय रेस्क्यू ऑपरेश चल रहा था, उस दौरान आरनल्ड डिक्स हर रोज़ सुरंग के बाहर बने मंदिर में पूजा करते नजऱ आते थे।
इसे लेकर समाचार एजेंसी एनएनआई से उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा, मैंने सिफऱ् अंदर फंसे 41 लोगों और उनकी मदद कर रहे लोगों के लिए प्रार्थना की। हम नहीं चाहते थे कि किसी को कोई नुक़सान हो।’
उन्होंने कहा, ’हम शांत थे और जानते थे कि हमें क्या करना है। हमने कमाल की टीम के तौर पर काम किया। भारत में बेहतरीन इंजीनियर हैं और इस सफल अभियान का हिस्सा बनना ख़ुशी देने वाला है।’
‘अब मुझे मंदिर जाना है, क्योंकि मैंने वादा किया था कि मैं शुक्रिया अदा करूंगा। पता नहीं आपने देखा या नहीं, लेकिन हमने एक चमत्कार देखा है।’ (bbc.com/hind)
अर्जेंटीना के राष्ट्रपति चुनाव में हाबियर मिलेई की जीत से चीन के दबदबे वाले गुट ब्रिक्स के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है।
ब्रिक्स में ब्राज़ील, रूस, इंडिया और साउथ अफ्ऱीका हैं।
इसी साल अगस्त महीने में दक्षिण अफ्ऱीका में इसे ब्रिक्स प्लस करते हुए कई अन्य देशों को भी सदस्य बनने के लिए आमंत्रित किया गया था।
जिन देशों को आमंत्रित किया गया था, उनमें अर्जेंटीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और यूएई थे।
अगले साल जनवरी महीने में ये देश ब्रिक्स के पूर्णकालिक सदस्य बन जाते। लेकिन अर्जेंटीना में हाबियर मिलेई की नई सरकार ने ब्रिक्स में शामिल होने का इरादा बदल दिया है।
अर्जेंटीना के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति हाबियर मिलेई की विदेशी मामलों की सलाहकार दियाना मोनदिनो ने इसी महीने 19 नवंबर को कहा था कि अर्जेंटीना ब्रिक्स में शामिल होने की योजना पर आगे नहीं बढ़ेगा।
दियाना ने कहा क्या था?
दियाना मोनदिनो ने रूसी समाचार एजेंसी स्पूतनिक न्यूज़ से कहा था, ‘अर्जेंटीना अभी इस गुट से क्या हासिल कर लेगा, यह हमारी समझ से बाहर है। अगर भविष्य में हमें लगता है कि इसमें शामिल होना हमारे लिए फ़ायदेमंद है तो ज़रूर विचार करेंगे।’
अगस्त महीने में जिन छह देशों को ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था, उनमें अर्जेंटीना दक्षिणी अमेरिका का एकमात्र देश था। लेकिन हाबियर मिलेई ने अपने चुनावी कैंपेन में ही वादा किया था कि वह चुनाव जीते तो ब्रिक्स की सदस्यता को स्वीकार नहीं करेंगे।
हाबियर मिलेई चुनाव जीत गए हैं और जनवरी 2024 से देश की बागडोर संभालेंगे।
सामरिक मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी अर्जेंटीना के इस रुख़ को चीन के लिए शर्मिंदगी के रूप में देखते हैं।
ब्रह्मा चेलानी ने ट्वीट कर कहा है, ''चीन के लिए यह शर्मनाक है। चीन के अगुआई वाले इस गुट ने जोहानिसबर्ग में पाँच सदस्य से बढक़र 11 सदस्यों वाला गुट करने का फ़ैसला किया था। अर्जेंटीना में आने वाली नई सरकार ने कहा है कि वह ब्रिक्स में शामिल होने वाले निमंत्रण को स्वीकार नहीं करेगी क्योंकि इससे कोई ठोस फ़ायदा नहीं होने जा रहा है।’
चेलानी कहते हैं, ‘अर्जेंटीना के इस क़दम को देखते हुए चीन ने ब्रिक्स को एक अहम मंच बताते हुए कहा कि वो ब्रिक्स परिवार में शामिल होने की इच्छा रखने वाले किसी भी देश का स्वागत करेगा। चीन बोल ऐसे रहा है जैसे वो ड्राइवर सीट पर हो और सब कुछ वही चला रहा है। हाल ही में चीन ने पाकिस्तान को ब्रिक्स में शामिल होने के लिए कहा था।’
चीन से संबंधों पर क्या रुख़
हाबियर मिलेई देश के चुनावों में वित्त मंत्री सर्जियो मासा के ख़िलाफ़ मैदान में थे। हालांकि चुनाव अधिकारियों ने चुनावी नतीजों का औपचारिक तौर पर एलान नहीं किया है।
शुरुआती आंकड़ों से पता चला है कि मिलेई को 56 फ़ीसदी वोट और मासा को 44 फ़ीसदी वोट मिले हैं। लगभग 99 फ़ीसदी वोटों को गिनती अब तक हो चुकी है।
इससे पहले दक्षिण पंथी मिलेई ने कहा था कि वो कम्युनिस्ट देशों के साथ व्यापार नहीं करेंगे। साथ ही मिलेई ने चीन से संबंध तोडऩे और 'दुनिया के सभ्य पक्षों' से संबंध स्थापित करने की वकालत की थी।
मिलेई ने चीन पर मासा के समर्थन में चलाए जा रहे यू-ट्यूब अभियानों को फंड करने का आरोप भी लगाया था।
हालांकि बीते कुछ हफ़्तों में मिलेई के सहयोगियों ने ये कोशिश की कि वो संंयम बरतते हुए बयानबाज़ी करें ताकि मतदाताओं को लुभाया जा सके।
इसी महीने आयोजित एक कार्यक्रम में दियाना मोनदिनो ने कहा कि अर्जेंटीना और बीजिंग के संबंधों में कोई रुकावटें नहीं आएंगी।
ठीक इसी दौरान मोनदिनो ने ये भी कहा कि मिलेई के साथ जो गठबंधन है, वो सरकार और चीन के बीच हुए किसी ''गोपनीय समझौते'' की जांच करने को उत्सुक रहेगा।
जानकारों का क्या कहना है?
जानकारों का कहना है कि चीन और अर्जेंटीना के संबंधों में बदलाव की संभावनाएं काफ़ी कम हैं।अर्जेंटीना के नेशनल साइंटिफिक एंड टेक्निकल रिसर्च काउंसिल के बेरनाबे मालकाल्ज़ा ने साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट से कहा, ‘अर्जेंटीना के पूर्व राष्ट्रपति और दक्षिणपंथी नेता माउरिसियो मैक्री का साथ पाने के लिए मिलेई के सहयोगियों को कुछ रियायतें देनी पड़ी थीं।’
ब्राज़ील के बाद चीन अर्जेंटीना का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। ऐसे में मैक्री की ओर से ये शर्त थी कि चीन से मज़बूत आर्थिक संबंध बनाए रखे जाएं।
मालकाल्ज़ा कहते हैं, ‘मौजूदा संकट के बीच अर्जेंटीना को डॉलर्स की सख़्त ज़रूरत है। साथ ही केंद्रीय बैंकों और प्रोजेक्टस को जारी रखने के लिए उसे फंड की ज़रूरत है। ऐसे में चीन एक अहम भूमिका निभा सकता है।’
2008 के बाद से अर्जेंटीना चीन से बड़े स्तर पर वित्तीय तौर पर जुड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच नौ लोन एग्रीमेंट के ज़रिए 8।1 बिलियन डॉलर के समझौते हुए। इनमें से 7.7 बिलियन डॉलर सीधे चीन डिवेलपमेंट बैंक और चीन के एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक के ज़रिए छह प्रोजेक्टस के लिए दिए गए।
चिली यूनिवर्सिटी के फ्रांसिस्को यूर्डिनेज़ कहते हैं- मिलेई ने चुनाव अभियान में वही घोर दक्षिणपंथी रणनीति अपनाई, वो पहले ब्राज़ील में बोलसोनारो और अमेरिका में ट्रंप भी अपना चुके हैं। इसके तहत चीन, एंटी कम्युनिस्ट बातें करके मतदाताओं का ध्यान खींचा जाता रहा है।
वो बोले- बातें भले ही चीन विरोधी कर ली जाएं, मगर चीन देश की अर्थव्यवस्था में काफ़ी शामिल है। ऐसे में चीन पर निर्भरता कम किया जाना काफ़ी मुश्किल है।
यूर्डिनेज़ ने कहा, ''जीत व्यवहारिकता की ही होगी और अंत में चीन से रिश्ते वैसे ही रहेंगे, जैसे पिछली सरकारों में रहे थे।
यूर्डिनेज़ का मानना है कि मिलेई और उनकी टीम के लिए ये चुनौतीपूर्ण रहेगा कि चीन से जो समझौते हुए, उनकी फिर से जांचा परखा जाए। ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर ये समझौते किसी तरह से तोड़े गए तो तगड़ा जुर्माना होगा।
वो कहते हैं- चीन से संबंध खऱाब करने की दिशा में अगर अर्जेंटीना आगे बढ़ा तो इसके गंभीर नतीजे होंगे। वैचारिक भाषणों को एक तरफ़ रखकर समझौतों का पालन करें।
ब्रिक्स से दूरी की बात पर चीन का ज़ोर
अर्जेंटीना की नई हुकूमत की ओर से ब्रिक्स से दूरी की जब बातें हो रही हैं, तब चीन की सरकार हर तरह से अर्जेंटीना को लुभाने में लगा हुआ है।
चाइना डेली में एक संपादकीय छपा है जिसमें कहा गया है कि ब्रिक्स में शामिल होने से अर्जेंटीना को फ़ायदा होगा।
इस संपादकीय में कहा गया है कि ब्रिक्स में शामिल होने को लेकर जो भी फ़ैसला किया जाएगा, ये देश के आर्थिक भविष्य पर असर डालने वाला होगा। चुनावों से पहले चीन पर बरसने और ब्रिक्स में शामिल ना होने की बात करने वाले मिलेई व्यवहारिकता को अपनाते हुए अगर रुख़ बदलते हैं तो ये कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी।
चाइना डेली लिखता है कि एक ऐसा देश जहां गऱीबी दर 40 फ़ीसदी से ज़्यादा है, जहां काफी महंगाई है और आर्थिक चुनौतियां हैं, वहां विपक्ष से सत्ता में आए मिलेई के सामने मुश्किल रास्ता है।
संपादकीय के मुताबिक़, ब्रिक्स के उभरते हुए बड़े बाज़ारों के साथ अर्जेंटीना के अच्छे रिश्ते काफ़ी ज़रूरी हैं।
सत्ता से अब बाहर हुए राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नांडिज़ ने कहा था- ब्रिक्स में शामिल होकर अर्जेंटीना को मदद मिलेगी और इससे नए बाज़ार की संभावनाएं खुलेंगी। नौकरियां मिलेंगी, नया निवेश आएगा और निर्यात बढ़ेगा।
ब्रिक्स देशों में दुनिया की 42 फ़ीसदी आबादी है और ये दुनिया की जीडीपी में एक चौथाई हिस्सा रखते हैं।
जिन नए देशों को ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया है, उनके शामिल होने पर ब्रिक्स समूह में दुनिया की 46 फ़ीसदी आबादी आएगी और दुनिया की जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 37 फ़ीसदी होगी।
इस संपादकीय में लिखा है कि ब्रिक्स विकासशील देशों और उभरते बाज़ारों के लिए अहम मंच है। ब्रिक्स देशों के लिए बने न्यू डेवलपमेंट बैंक में अरबों रुपये हैं, इससे अर्जेंटीना को कज़ऱ् से निपटने में मदद मिलेगी।
अर्जेंटीना के पास खोने के लिए कुछ नहीं है लेकिन पाने के लिए सब कुछ है। अगर अर्जेंटीना ने ऐसा नहीं किया तो इससे देश का नुकसान होगा।
ब्रिक्स में शामिल होकर अर्जेंटीना को क्या फ़ायदा?
साउथ अफ्रीका के ब्रिक्स शेरपा प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल ने स्पूतनिक अफ्रीका से कहा, ‘अर्जेंटीना स्वतंत्र है कि वो ब्रिक्स में शामिल होता है या नहीं। जिन छह नए देशों को आमंत्रित किया गया है, अगर उनमें से कोई एक शामिल नहीं हुआ तो ब्रिक्स समूह गऱीब नहीं हो जाएगा।’
प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल ने कहा, ‘लातिन अमेरिका का बड़ा देश अर्जेंटीना अगर ब्रिक्स में शामिल होता है तो हम बिल्कुल स्वागत करेंगे। इसी कारण नेताओं को ये महसूस हुआ कि अर्जेंटीना के शामिल होने से ब्रिक्स समूह मजबूत हो जाएगा। ऐसे में अगर अर्जेंटीना शामिल नहीं हुआ तो बचे हुए पांच देश ब्रिक्स को समृद्ध करेंगे।’
प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल कहते हैं कि ब्रिक्स ग्लोबल साउथ का अहम प्लेटफॉर्म बन गया है। दक्षिण अफ्रीका में हुए सम्मेलन में 60 देश शामिल हुए और ये स्वीकार किया कि ग्लोबल साउथ को साथ आने की ज़रूरत है।
दियाना मोनदिनो ने स्पूतनिक से कहा कि अर्जेंटीना का ब्रिक्स में शामिल ना होने का कोई मतलब नहीं है।
रूस के विदेश मंत्रालय ने अर्जेंटीना पर कहा कि रुख़ में स्पष्टता को लाए जाने की ज़रूरत है और रूस अर्जेंटीना के संकेतों का इंतज़ार करेगा, ख़ासकर नए प्रशासन के सत्ता संभालने के बाद। रूसी उप विदेश मंत्री ने अर्जेंटीना की जगह किसी और देश को शामिल किए जाने के विचार को ख़ारिज किया।
प्रोफेसर अनिल सूकलाल बोले, ‘मुझे लगता है कि जिन देशों से ब्रिक्स में शामिल होने के लिए कहा गया, वो ब्रिक्स सदस्य बनकर फायदे में रहेंगे। इसी कारण आप देखेंगे कि ऐसे देशों की लंबी लिस्ट है जो ब्रिक्स में शामिल होना चाहते हैं। ऐसे में फैसला अर्जेंटीना को लेना है कि वो शामिल होना चाहता है या नहीं।’
प्रोफ़ेसर अनिल सूकलाल ने कहा, ‘जो नई सरकार बनी है, वो जब तक औपचारिक तौर पर हमें इस बारे में कुछ नहीं बताती है तब तक हमें इंतजार करना होगा। (bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
डीपफेक इन दिनों चर्चा में है। टेक्नोलॉजी के गलत इस्तेमाल की इन ताज़ा घटनाओं ने दुनिया भर के लोगों, खासकर लड़कियों और सार्वजनिक जीवन के सेलेब्रिटीज़ की नींद हराम कर रखी है। लड़कियां इस तकनीक की खास शिकार हो रही हैं। इस तकनीक से सोशल मीडिया से किसी की भी तस्वीर चुराकर उसे किसी नग्न और अश्लील वीडियो के ऊपर चेपकर उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जाता है। ऐसे वीडियोज के कारण दुनिया भर के असंख्य लोगों को भारी मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा है। कुछ लोगों द्वारा अवसाद की हालत में आत्महत्या की खबरें भी आई है। यह दूसरों के अपराध की सजा खुद भुगतने जैसा है। अपने देश में भी इस तकनीक का दुरुपयोग करने वाले लफंगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आज के ही अखबार की एक खबर के मुताबिक झारखंड के रांची में डीपफेक से एक शिक्षण संस्था की 16 से 18 वर्षों की 8 लड़कियों के अश्लील वीडियो बनाकर उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया गया। संतोष की बात यह है कि उन सभी लड़कियों ने अवसाद में जाने की जगह इस अपराध का प्रतिकार करने की सोची और पुलिस में इसकी रिपोर्ट दर्ज करा दी। पुलिस ने मुस्तैदी से काम करते हुए इस अपराध के जिम्मेदार मुजफ्फरपुर के एक युवक को गिरफ्तार कर लिया है और सोशल मीडिया से ऐसे वीडियोज हटाने की कारवाई की है। हमारे देश में अश्लीलता संबंधी कानून तो है लेकिन उसकी सज़ा बहुत कम है। सरकार डीपफेक से निबटने के लिए कठोर कानून बनाने की कोशिशें कर रही हैं। इसमें थोड़ा समय लग सकता है। कुछ लोग यह सलाह दे रहे हैं कि डीपफेक से बचने के लिए लड़कियों को अपनी तस्वीरें और वीडियोज सोशल मीडिया पर डालने से बचना चाहिए।यह मांग अमानवीय है। इस तरह से तो हम औरतों से उनकी अभिव्यक्ति की आजादी ही छीन लेंगे। ज़रूरी यह है कि सरकार जल्द से जल्द इस अपराध के लिए कठोर दंड वाला कानून बनाकर उसे लागू करे और उसकी पड़ताल के लिए हर राज्य में तकनीकी विशेषज्ञों की एक कुशल टीम तैनात करे।
इस अपराध से पीडि़त लड़कियों को मेरी सलाह है कि किसी संत्रास में जाने के बजाय वे ऐसे अपराधियों के कारनामों की रिपोर्ट बिना समय गंवाए पुलिस में दर्ज कराएं। ऐसे अपराध की अनदेखी करने से अपराधियों का मनोबल ही बढ़ेगा।
-प्रमोद जोशी
आज़ादी का आंदोलन बीस के दशक से सन 47 तक सबसे जोरदार तरीके से चला था। उस दौरान ही हमने अपनी भावी व्यवस्था के बारे में विचार किया। आधारभूत संवैधानिक उपबंध आजादी के एक दशक पहले से तैयार थे। उसके काफी तत्व अंग्रेजों ने हमें बनाकर दिए थे। पच्चीसेक साल के उस दौर में हमारी कोशिश थी कि सत्ता हाथ में आ जाए, बाकी काम हम कर लेंगे। सत्ता हासिल करने के 76 साल बाद भी सुराज की परिभाषाएं गढ़ी जा रहीं हैं।
भ्रष्टाचार सिर्फ वित्तीय अनियमितता का नाम नहीं है। वह हमारे संस्कारों में बसा है। इसकी वजह शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराएं और वे स्थितियाँ हैं जो हमें स्वार्थी बनाती हैं। असमानता और भेदभाव का अपने किस्म का सबसे बड़ा उदाहरण हमारा देश है। ज़रूरत इस बात की है कि हमारा लोकतंत्र और नीचे तक जाए। जनता को छुए। उससे मशवरा करे। लोकतंत्र अब सिर्फ उन्ही प्रतिनिधि संस्थाओं तक सीमित नहीं है, जिनकी रचना सौ साल या उससे भी पहले हुई थी। अब डायरेक्ट डेमोक्रेसी की बात फिर से होने लगी है। इसे कंसेंसस डेमोक्रेसी, डेलीबरेट डेमोक्रेसी, सोशियोक्रेसी, ओपन सोर्स गवर्नेंस, इनक्ल्यूसिव डेमोक्रेसी, ई-पार्टिसिपेशन जैसे तमाम नए नाम मिल रहे हैं। टेक्नॉलजी ने सोशल नेटवर्किंग के जो टूल दिए हैं, वे आज नहीं तो कल इस भागीदारी को कोई शक्ल देंगे।
इसका अर्थ संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन नहीं। नए ढंग से परिभाषित करना है। संवैधानिक संस्थाएं ही इस नई परिस्थिति की रचना करेंगी। हमने आर्थिक उदारीकरण और पंचायत राज कानून के तीन दशक पूरे कर लिए हैं। दोनों में तादात्म्य की ज़रूरत है। यह व्यवस्था का खोट है कि देश के सौ से ज्यादा जिले नक्सली हिंसा की चपेट में हैं। यह विदेशी साजिश नहीं है। मुख्यधारा-राजनीति की पराजय है। जो काम हम फौज से कराना चाहते हैं, वह राजनीति आसानी से कर सकती थी। इसके लिए हमें उन लोगों को इस विमर्श में शामिल करना था, जो आज बंदूक लेकर खड़े हैं। दुर्भाग्य है कि मुख्यधारा की राजनीति कई राज्यों में नक्सलियों का इस्तेमाल अपने हित में करती है।
जर्मनी में छात्रों के बीच धुर दक्षिणपंथी रुझानों के विरोध के बाद स्कूल छोड़ने को मजबूर दो शिक्षक नागरिक साहस पुरस्कार से सम्मानित किए गए. लेकिन स्कूलों में नस्लवाद की समस्या से निपटने के लिए साहसिक बदलावों की जरूरत है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर बेन नाइट का लिखा-
इनमें से एक शिक्षक हैं माक्स टेस्के। वे ये नहीं बताते कि अभी वो कहां काम करते हैं और ये बहुत स्वाभाविक भी है। इस साल जुलाई में, जर्मनी के पूर्वी प्रांत ब्रांडेनबुर्ग के बुर्ग शहर में उन्हें और उनकी सहकर्मी लॉरा निकेल को धुर-दक्षिणपंथी दबंगों ने स्कूल छोडऩे को मजबूर कर दिया। उनकी गलती बस इतनी थी कि उन्होंने स्कूल में धुर-दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों के बारे में एक खुली चिट्ठी लिखी थी।
पूरे देश में हलचल मचा देने वाली उस चिट्ठी में उन्होंने कहा था कि उन्हें हर रोज ‘दक्षिणपंथी चरमपंथ, सेक्सिज्म और होमोफोबिया+ के मामलों का सामना करना पड़ता है। टेस्के और निकेल ने लिखा, ‘स्कूल के फर्नीचर स्वास्तिक के निशानों से अटे पड़े हैं, क्लास में उग्र दक्षिणपंथी संगीत बजता रहता है और स्कूल के गलियारे लोकतंत्र विरोधी नारों के शोर से पटे रहते हैं।’
‘दक्षिणपंथी छात्रों और उनके मातापिता के समूहों का खुला विरोध करने वाले अध्यापकों और विद्यार्थियों को अपनी सुरक्षा का डर सताता रहता है।’ ये लिखते हुए दोनों शिक्षकों ने ‘खामोशी की दीवार और स्कूल अधिकारियों और राजनीतिज्ञों से मदद के अभाव’ की आलोचना भी की। चिट्ठी सार्वजनिक होते ही दोनों टीचरों का जीना मुहाल हो गया। पूरे शहर में लैंपपोस्टों पर फ्लायर टंगे मिले जिनमें उनके खिलाफ लिखा था कि वे बर्लिन चले जाएं (फ...ऑफ टू बर्लिन)।’
बराबरी के लिए खड़े होने की जुर्रत
वारदात के चार महीने बाद, अब दोनों शिक्षकों को बर्लिन में एक नागरिक साहस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। होलोकॉस्ट स्मारक संगठन और बर्लिन का यहूदी समुदाय संयुक्त रूप से ये पुरस्कार देते हैं। टेस्के और निकेल इस बीच अपनी जिंदगियां फिर से संवार चुके हैं। अज्ञात शहरों में उन्हें न सिर्फ नई नौकरियां मिल गई बल्कि पब्लिक फिगर हो जाने के बाद उनके एक के बाद एक इंटरव्यू होने लगे और पैनल की बहसों में बुलाया जाने लगा।
टेस्के ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘बहुत कुछ बदल गया। एक तरफ उस कॉटबुस शहर में जहां मैं 31 साल रहा, जो मेरा घर था, वहां से जाना पड़ा, नये सहकर्मी और विद्यार्थी मिले, और दूसरी तरफ मीडिया में जगह मिली जिसके जरिए हम इन मुद्दों को सार्वजनिक करने की कोशिश कर रहे हैं।’
उन्हें अपने लिए एक नया काम भी मिल गया, जर्मन ड्रीम के लिए ‘वैल्यू एम्बेसेडर्स’ की भूमिका। इसका मतलब वे स्कूलों में सेमिनार करते हैं, जहां अपने अनुभव सुनाते हैं और टीचरों और छात्रों को बताते हैं कि चरमपंथ के खिलाफ कैसे खड़ा होना है। टेस्के कहते हैं, ‘ये हमारे लिए वाकई महत्वपूर्ण हो गया है। हमने गौर किया कि हम अकेले नहीं थे और हमने जो किया वो सही था।’ उनके मुताबिक, ‘हम लोग खुद को माउथपीस कहेंगे और ये वो रोल है जिसकी मैं बड़ी कद्र करता हूं क्योंकि ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसे हालात में फंसे हैं जो मेरी स्थिति से भी ज्यादा पेचीदा और मुश्किल है।’
टीचरों को उनके हाल पर छोड़ा
जर्मन ड्रीम की प्रमुख ड्युसेन टेकल ने 2019 में इस अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘बुनियादी तौर पर ये इस बारे में है कि धुर-दक्षिणपंथी पॉपुलिज्म और यहूदियों के प्रति नफरत के खिलाफ लड़ाई में हम शिक्षकों को अकेला छोड़ रहे हैं। दुनिया बदल चुकी है। लेकिन पाठ्यक्रम अभी भी पुराने दशकों में फंसे पड़े हैं।’
जर्मन ड्रीम इस खाई को पाटते हुए उनके सेमिनारों का ढांचा बनाने की कोशिश करता है, जिनकी अगुवाई तमाम पेशों से जुड़े लोग करते हैं। टीचर अपनी गुजारिश भेजते हैं, उनके आधार पर मुद्दे चुने जाते हैं चाहे वो पश्चिम एशिया का मुद्दा हो, यूरोप में आप्रवासियों का या इस्लामोफोबिया या फिर समलैंगिकता।
टेकल के मुताबिक, ‘बहुत सारे शिक्षक हमें अपने सुझाव या प्रतिक्रिया लिखकर भेजते हैं। दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उससे वे भी हैरान-परेशान हैं। बच्चे स्कूल में एक खास माइंडसेट के साथ आते हैं, जो उन्हें अपने माता-पिता से मिला होता है या इंटरनेट से, और टीचर अपने स्तर पर इन तमाम चीजों से नहीं निपट सकते, चाहे वे कितने ही समर्थ और योग्य क्यों न हों।’
आंकड़े दिखाते हैं कि टेस्के और निकेल के अनुभव, अलग नहीं। अक्टूबर में जारी ब्रांडेनबुर्ग पुलिस के नये आंकड़ों के अनुसार 2022 में ‘प्रोपेगेंडा क्राइम’ के 159 मामले स्कूलों में आए। ज्यादातर नाजी प्रतीकों या निशानों से जुड़े थे। महामारी से पहले 2018 में 136 मामले सामने आए थे। टेस्के कहते हैं, ‘चिट्ठी लिखने से पहले हम जानते थे कि ये सिर्फ हमारे स्कूल तक सीमित नहीं। दक्षिण ब्रांडेनबुर्ग के एक शहर स्प्रेमबर्ग में एक स्कूल के दौरे पर मैंने खुद इसका अनुभव किया। दक्षिणपंथी छात्रों ने मुझे धमकाया और मुझ पर हमला किया।’
‘चुप्पी की दीवार’ को तोडऩे की जरूरत
टेस्के और निकेल ने जो तूफान पैदा किया, उस पर नेताओं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक-वाल्टर श्टायनमायर ने कहा कि उस चिट्ठी और इस बात ने उन्हें ‘स्तब्ध’ कर दिया कि शिक्षकों को वो लिखनी पड़ी। टेस्के और निकेल ने जिन घटनाओं का जिक्र किया, उनके बारे में ब्रांडेनबुर्ग की सरकार ने जांच कराने का फैसला किया। शिक्षा मंत्री स्टेफेन फ्राइबर्ग ने शिक्षकों के इन आरोपों से इंकार किया कि उन्हें कोई मदद नहीं मिली।
अगस्त में उन्होंने टागेसश्पीगेल अखबार को बताया, ‘अपने इन दो अध्यापकों कि हिफाजत के लिए जो कुछ भी राज्य मशीनरी से संभव हो सका, वो सब हमने किया और करते रहेंगे।’ सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता फ्राइबर्ग ने ये वादा भी किया कि स्कूलों में हिंसा से निपटने की कार्ययोजना में नया साल शुरू होते ही सुधार किया जाएगा।
फिर भी उन्होंने माना कि समग्र तौर पर समाज में धुर-दक्षिण चरमपंथ की समस्या तो है। फ्राइबर्ग ने अखबार से कहा, ‘अलग-अलग परिवारों में अब दक्षिणपंथी चरमपंथ के रुझानों वाली दूसरी पीढ़ी उभर आई है। ये असर तो पड़ा ही है। ये भी सच है कि क्षेत्रीय स्तर पर कुछ नाजी ढांचे बने हुए हैं, इस नाटकीय स्थिति को मैंने कभी कमतर नहीं आंका।’
स्कूलों में बदलाव
लेकिन टेस्के और टेकल मानते हैं कि स्कूलों के भीतर गहरे स्तर पर बदलाव होने चाहिए। टेस्के कहते हैं, ‘राजनीतिक शिक्षा जैसे विषय क्लास में और ज्यादा पढ़ाए जाने चाहिए। सप्ताह में एक बार से ज्यादा। मेरा ये भी मानना है कि लोकतांत्रिक शिक्षा के विषय पर टीचरों के लिए अनिवार्य कोर्स रखे जाने चाहिए।’ जर्मनी में शिक्षा नीति, संघीय सरकार की ओर से नहीं बल्कि राज्यों के स्तर पर लागू की जाती है। हर राज्य ‘राजनीतिक शिक्षा’ का अपना स्तर खुद तय करता है कि लोकतांत्रिक संविधान के सिद्धांतों में से क्या, कब और कैसे पढ़ाना है।
युवाओं और बच्चों से जुड़ी चिंताएं पूर्वी जर्मनी तक सीमित नहीं। बवेरिया सरकार भी स्कूलों में धुर-दक्षिण रुझानों के उभार पर चिंतित है। बवेरिया प्रांत में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के हालिया चुनावी अभ्यास में धुर-दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) पार्टी ने 14।9 प्रतिशत वोटों के साथ दूसरा स्थान हासिल किया। वास्तविक प्रांतीय चुनाव में भी एएफडी को करीब उतने ही 14।7 फीसदी वोट मिले थे। प्रतिक्रियास्वरूप बवेरिया राज्य के मुख्यमंत्री मारकुस सोयडर ने हर हफ्ते ‘संवैधानिक 15 मिनट’ का विचार पेश किया है जिसमें कक्षाओं में जर्मन संविधान के एक पहलू पर चर्चा होगी।
टेकल कहती हैं ऐसे विचार एक अच्छी शुरुआत हो सकते हैं लेकिन उन्हें आगे ले जाना होगा। ‘स्कूलों में हमें नए विषय चाहिए, हमें स्वीकार करना होगा कि ये आप्रवासन वाला समाज है। हमारे सामने पूरी तरह नई समस्याएं, नए मुद्दे और नए अवसर मौजूद हैं।’ (dw.com)
फिलीस्तीन तुम्हारे बच्चे
आसमान में उड़ रहे हैं साये-साये बनकर
इस तनी हुई नीली चादर में
अंगुश्त भर भी जगह नहीं
जो उनकी सिहरन छुपा सके
उनकी डोलती आकृतियाँ
टर्टल बे, न्यूयॉर्क के ऊपर
बिना पंजों पर उदास भीमकाय डैनों वाले
परिंदों की तरह छा जाती हैं
कभी वे जिनेवा की साफ अन्त:करण वाली हवा में
किसी फरेब से घुल जाते हैं
दिखते हैं पेरिस की गलियों में एक-दूसरे के पीछे भागते
नई दिल्ली की धुंध भरी सडक़ों पर
हाथ से छूटे गुब्बारों की मानिंद उड़ जाते हैं
वे बेरूत का मलबा हैं
बगदाद की धूल हैं
काबुल की कूक वे,
समरकन्द की सदाएं हैं
वे टोरा के अक्षर हैं
हजरत मूसा की उचटी हुई नींद हैं
यहूदी प्रार्थनाघरों पर रोई हुई शबनम हैं वे
वे हिजरत की रेत, सलीब का सपना हैं
मस्जिदों की जालियाँ
मंदिरों की जोत हैं
फ़लस्तीन तुम्हारे बच्चे,
काहिरा के बादल
कलकत्ते की उमस, टोक्यो के फूल
बीजिंग की रौशनियाँ
इस्तांबुल की कश्तियाँ
भूमध्यसागर का नमक हैं,
गज़़ा के खोखले मकान
बहिश्त तक खुली हुई छतें
बिना पल्लों की खिड़कियाँ
जले हुए पर्दे-कोरे दस्तरख़्वान
जैतून की डालियाँ-ख़ून में डूबी खुबानियाँ हैं
फिलीस्तीन तुम्हारे बच्चे,
उनके कसकर बाँधे हुए जिस्म
उनपर झुकी उनकी माँएँ
जिनके सामने पिएटा भी
मोम के ख्वाब की तरह पिघल जाए
ठिठुर रहे हैं खुले हुए ताबूतों में
ये दुनिया बहुत बड़ी,
मुलायम और सुखमय है फिलीस्तीन
और तुम्हारे बच्चे हैं कि उन्हें
कंटीली घास के बीच अपने खेलने की जगह की ख़ब्त है
उतनी जगह तो अब ख़ुदा के पास भी नहीं बची
फिलीस्तीन,
ईश्वर भी कहीं तुम्हारा ही जना
कोई बच्चा तो नहीं?
-असद ज़ैदी
डॉ. आर.के. पालीवाल
ग्राम स्वराज और आदर्श ग्राम पंचायत के स्वरूप और कार्यशैली को समझने के लिए महात्मा गांधी का यह कथन याद रखना चाहिए कि ‘भारत में ज्यों-ज्यों ग्राम पंचायतें नष्ट होती गई, त्यों त्यों लोगों के हाथ से स्वराज्य की कुंजी निकलती गई। ग्राम पंचायतों का उद्धार पुस्तकें लिखने से न होगा। यदि गांव के लोग समझ जाएं कि वे अपने अपने गांव की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं, तभी यह कहा जा सकेगा कि स्वराज्य की सच्ची कुंजी मिल गई।’ इस कथन में गांधी सबसे ज्यादा जोर गांव के लोगों के यह समझने पर देते हैं कि वे अपने गांव की व्यवस्था कैसे करें। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी उसे अब युटोपिया माना जाने लगा है ताकि उसे असंभव कहकर आसानी से दरकिनार किया जा सके। महात्मा गांधी राजनीति में संत थे और संत भी शत-प्रतिशत।सत्य और अहिंसा सहित एकादश व्रतधारी आदर्श व्यक्ति। इसलिए उनकी परिकल्पना चाहे ग्राम स्वराज को लेकर हो या आजादी के आंदोलन के स्वरूप अथवा संपत्तियों के ट्रस्टीशिप को लेकर हो वह आदर्श के सर्वोच्च संस्कारों पर ही आधारित होती थी। इन परिकल्पनाओं को तभी साकार किया जा सकता है जब देश के अधिकांश नागारिक भी कमोवेश वैसी ही उच्च कोटि के संस्कारी नागरिक हों जैसे गांधी खुद थे और जैसा वे तमाम नागरिकों को बनाना चाहते थे।
गांधी चाहते थे कि भारत के गांव में इतनी एकता हो कि वे उसी तरह एक यूनिट की तरह व्यवहार करें जैसे एक संयुक्त परिवार होता है और जैसे एक आश्रम होता है। वे ग्राम स्वराज में सरकार और अपने सहयोगियों की भूमिका उत्प्रेरक और सहायक के रुप में देखते थे जो ग्रामवासियों को जागरूक करके उन्हें ग्राम स्वराज स्थापित करने में सहायता करें।जमीनी हकीकत यह है कि आजादी के बाद किसी सरकार और गांधी के बाद विनोबा और उनके चंद सहयोगियों एवं अनुयायियों को अपवाद स्वरूप छोडक़र अधिकांश गांधीवादियों ने इस दिशा में कोई ठोस जमीनी कार्य नहीं किया। उल्टे आजादी के बाद पिछ्ले पचहत्तर सालों में गांव ग्राम स्वराज की परिकल्पना से लगातार दूर होते चले गए और उस सीमा तक दूर हो गए जहां गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को हकीकत में देखना लगभग असंभव हो गया है। आदिवासी गांवों के अलावा लगभग सभी गांवों में नेताओं ने धर्म और जातियों की इतनी खाई बना दी हैं कि गांव वाले एक यूनिट के रुप में एक साथ उठते बैठते तक नहीं।
ग्राम पंचायत और ग्राम स्वराज किताबों, लेखों और भाषणों में ही सिमट कर रह गए।इस मुद्दे पर गांधीवादी संस्थाएं बुरी तरह फेल हुई हैं। इन संस्थाओं और उनके पदाधिकारियों के महानगर और शहरों में केंद्रित होने से उनका गांवों से कोई जुड़ाव ही नहीं बचा। जिस तरह की ग्राम पंचायतों की कल्पना गांधी ने की थी उसकी हल्की सी झलक भी गांवों में दिखाई नहीं देती। इसकी सबसे बड़ी बाधा तो सरकार और विधायिका एवं कार्यपालिका में बैठे उसके प्रतिनिधि और नौकरशाही हैं जो ग्राम पंचायतों को अपने इशारों पर नचाने के लिए तमाम आर्थिक और प्रशासनिक अधिकारों पर अजगर की तरह कुंडली मारकर बैठे गए और अपनी पकड़ को और मजबूत करते जा रहे हैं। दूसरी बाधा ग्राम समाज की सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विपन्नता और विषमता है। गांव के जो परिवार सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध हैं वे भी खुद को नेताओं और अफसरों की तरह छोटे मोटे देवता से कम नहीं समझते और सरकार के नुमाइंदों के साथ सांठ-गांठ कर ऐसा चक्रव्यूह रचते है जिसे भेदना अधिसंख्य ग्रामीण आबादी के लिए असंभव है। जब तक कोई बड़ा जन जागरण अभियान शुरु नहीं होगा तब तक ग्राम स्वराज का सूर्योदय मुश्किल होता जा रहा है।
रश्मि सहगल
उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का धंसना और उसमें 41 मजदूरों का फंस जाना तमाम सवालों को जन्म देता है। हिमालयीन इलाके में ढीली चट्टानों और मिट्टी से बने ये पहाड़ पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील तो हैं ही लेकिन इनके साथ सावधानी से पेश न आने के कैसे खतरे हो सकते हैं, यह बार-बार के हादसों ने बताया है। इन इलाकों में न तो विकास रुकने वाला है और न हादसे, लेकिन इनके बीच संतुलन कैसे बनाया जाए, इस सवाल के साथ सिल्कयारा सुरंग हादसा हमारे सामने है। सोचना नीति निर्धारकों को है।
बडक़ोट-सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकालने में, काफी देर से ही सही, तमाम एजेसियों और देशी-विदेशी विशेषज्ञों को लगना पड़ा, उससे ही समझा जा सकता है कि इस किस्म की दुर्घटना से निबटने की तैयारी पहले से नहीं थी। मतलब, निर्माण एजेंसियों ने बचाव की सूरत का प्लान ही नहीं बनाया था।
सिर्फ जानकारी के लिए कि आखिरकार, किस-किस स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों को इसमें जुटना पड़ा: पीएमओ, वायु सेना, एनएचआईडीसीएल, ओएनजीसी, डीआरडीओ, बीआरओ, रेल विकास निगम, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल, राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल प्राधिकरण, सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड (एसजेवीएनएल), टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (टीएचडीसी), इसरो, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसी तमाम सरकारी एजेसियों से लेकर ट्रेंचलेस इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड और एलएंडटी सेफ्टी यूनिट सहित कई निजी एजेंसियों को भी।
मजदूरों को निकालने के अभियान की देखरेख में तो राष्ट्रीय राजमार्ग एवं बुनियादी ढांचा विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) जुटना ही था क्योंकि यह चार धाम परियोजना को पूरा करने से जुड़ी प्रमुख एजेंसी है। ध्यान रहे कि एनएचआईडीसीएल ने बरकोट-सिल्कयारा सुरंग की इंजीनियरिंग, खरीद और निर्माण के लिए जून, 2018 में हैदराबाद स्थित नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड (एनईसीएल) के साथ 853.79 करोड़ रुपये के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे।
लगता है या तो दुर्घटना की स्थिति से निबटने के लिए जो प्लान बनाया भी गया था, उस पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी। दुर्घटना 12 नवंबर को दीपावली के दिन हुई। अमेरिकी ऑगुर मशीन लगाई गई लेकिन यह 16 नवंबर को खराब हो गई। एनएचआईडीसीएल के निदेशक अंशू मनीष खलको के अनुसार, 16 नवंबर को खराब हो गई अमेरिकी ऑगुर मशीन को मरम्मत करके फिर से काम में लगाया गया। ऑगुर मशीन से 900 मिलीमीटर स्टील पाइप में ड्रिल करके इसमें 800 मिलीमीटर पाइपों को डालकर अतिरिक्त मजबूती प्रदान करते हुए सिल्क्यारा की ओर से क्षैतिज ड्रिलिंग का काम फिर से शुरू किया गया। ढहे हुए हिस्से सिल्क्यारा से सुरंग के मुहाने की दूरी 270 मीटर बताई गई। 17 नवंबर को पहले वाले ऑपरेशन को छोड़ दिया गया था क्योंकि मशीन रास्ते में कठोर पत्थर आ जाने से क्षतिग्रस्त हो गई थी।
बचाव अभियान जिस तरह चलता रहा, उससे ही समझा जा सकता है कि बचाव के लिए एक के बाद दूसरे विकल्प पर बार-बार जाना पड़ा, मतलब यह कि किसी को अंदाजा ही नहीं था कि फंसे मजदूरों तक पहुंचने का सुगम और सुरक्षित तरीका क्या है। टीएचडीसी को बारकोट छोर से ड्रिलिंग कार्य शुरू करने के लिए कहा गया और ड्रिल और ब्लास्ट विधि का उपयोग करके वे 6.5 मीटर लंबी खुदाई करने में सफल रहे। एसजेवीएनएल द्वारा क्रियान्वित तीसरी योजना सुरंग के ऊपर पहाड़ी से सीधी ड्रिलिंग की थी। इस ऑपरेशन के लिए एक ड्रिलिंग मशीन 21 नवंबर की शाम को साइट पर पहुंची। इस प्रक्रिया में मदद के लिए ओएनजीसी के विशेषज्ञों को बुलाया गया। गुजरात और ओडिशा से अतिरिक्त मशीनें भेजी गईं। सुरंग की बाईं ओर से माइक्रो-ड्रिलिंग भी चालू कर दी गई।
इस ऑपरेशन में तमाम एजेंसियां सक्रिय रहीं, इसके बावजूद शुरू से ही किसी के पास बचाव कार्य को लेकर सही आकलन नहीं था। सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने मौके पर ही आकलन करने के बाद कहा था कि इसमें दो से तीन दिन लगेंगे। जनरल वी.के. सिंह (सेवानिवृत्त) ने भी यही समय सीमा दोहराई। जबकि प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार भास्कर खुल्बे ने एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान प्रेस को बताया था कि इसमें लगभग ‘पांच से सात दिन लगेंगे।’ उत्तराखंड के सडक़ परिवहन सचिव ने कहा था कि इसमें 15 दिन या उससे भी अधिक समय लग सकता है। अतिरिक्त सहायता के लिए उत्तरकाशी भेजे गए ऑस्ट्रेलियाई सुरंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स ने तो स्थानीय पत्रकारों से यह कह दिया कि बचाव अभियान क्रिसमस तक जारी रह सकता है।
कुछ भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ डिक्स की विशेषज्ञता को लेकर खुद ही आशंकित थे। दरअसल, उसकी विशेषज्ञता का क्षेत्र सुरंगों में अग्नि सुरक्षा और वायु गुणवत्ता का रहा है। गडकरी, सिंह और डिक्स- सभी ने टिप्पणी की कि ये पहाडिय़ां ‘ढीले पत्थर और कीचड़’ से बनी हैं जो सुरंग और सुरंग बनाने वालों के लिए खतरनाक हैं। यह सब तब कहा गया जब वहां हादसा हो चुका था। लेकिन क्या यह बात तब सामने नहीं आई थी जब योजना ड्राइंग स्तर पर थी? क्या हिमालय की नाजुक संरचना को ध्यान में नहीं रखा गया?
सिल्क्यारा सुरंग के बाहर इक_ा श्रमिकों, उनके परिवार के लोगों समेत आम लोगों के मन में यह सवाल पहले दिन से ही उठता रहा कि नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी (एनईसी) किसी भी आपात स्थिति में निकलने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध कराने में विफल रही है जबकि सुरंग निर्माण के मामले में यह अनिवार्य होता है।
देहरादून स्थित कांग्रेस प्रवक्ता सुजाता पॉल ने कहा, ‘इतनी लंबी सुरंग में न केवल सुरक्षा नलिका और आपात स्थिति में निकलने का रास्ता नहीं था बल्कि एनईसी और एनएचआईडीसीएल ऐसी आपात स्थिति के लिए कोई सुरक्षा योजना तैयार करने में भी विफल रहे। हादसे के वक्त घटनास्थल पर सिर्फ एक जेसीबी थी। ऑगुर की दो मशीनें खराब हो गईं और तीसरी इंदौर से मंगवानी पड़ी।’
आपराधिक लापरवाही के लिए एनईसी के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। जब दुर्घटना स्थल पर मौजूद बड़े लोगों से इसका कारण पूछा गया, तो उन्होंने सवाल को टाल दिया और जोर देकर कहा कि फिलहाल तो उनका ध्यान यह सुनिश्चित करना है कि मजदूर सुरक्षित और स्वस्थ बाहर निकाले जाएं।
देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीना पॉल ने इस बात पर जोर दिया कि ‘उत्तराखंड की सुरंगें मौत का जाल बन गई हैं। कुछ दिन पहले ही सहारनपुर को देहरादून से जोडऩे वाली डाट काली सुरंग को भूस्खलन की वजह से कुछ देर के लिए बंद कर दिया गया था और तीन घंटे तक सुरंग में फंसे रहे यात्रियों ने दम घुटने और सांस फूलने की शिकायत की थी।’
सिल्क्यारा सुरंग में आपात रास्ता क्यों नहीं था? जब सरकार ने फरवरी, 2018 में सुरंग परियोजना को मंजूरी दी, तो उसने साफ कहा था कि इसमें ‘सुरक्षा वैकल्पिक मार्ग’ होगा। देहरादून स्थित एनजीओ समाधान ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सिल्कयारा सुरंग के निर्माण में बड़ी सुरक्षा चूक के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ लापरवाही का आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की है। कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक डॉ पी.सी. नवानी ने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसी बड़ी परियोजनाओं के लिए सुरक्षा रास्ता बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। वे न केवल जीवन बचाने और बचाव कार्य को सुविधाजनक बनाने में मदद करते हैं, बल्कि सुरंग के अंदर साजो सामान और अन्य आपूर्ति पहुंचाने में भी मददगार होते हैं। नवानी ने इस बात पर भी जोर दिया कि सुरंग निर्माण के लिए इंजीनियरिंग भूवैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ टीम के इनपुट की जरूरत होती है लेकिन यह काम उन ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है जिन्हें संबंधित इलाके की बेहतर जानकारी नहीं होती और वे सभी तरह के शॉर्टकट अपनाने को तैयार होते हैं।
दुनिया भर में सडक़, रेल और जलविद्युत परियोजनाओं में सुरंगें जरूरी हिस्सा होती हैं। यही बात भारत के लिए भी लागू होती है लेकिन यह देखते हुए कि हिमालय पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है, किसी भी सुरंग के निर्माण में उचित सावधानी अपेक्षित और जरूरी हो जाती है। यह देखते हुए कि हिमालय के पहाड़ नरम चट्टानों से बने हैं, ये रेल सुरंगें भला किस तरह की सुरक्षा का आश्वासन दे सकती हैं? 16,000 करोड़ रुपये की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना के तहत 17 सुरंगें बननी हैं जिनमें 15.1 किलोमीटर लंबी सुरंग भी शामिल है जो भारत में सबसे लंबी सुरंग होगी। सिल्कयारा दुर्घटना को देखते हुए इस रेल लिंक का सुरक्षा ऑडिट जरूरी हो जाता है।
2020 में एनईसी समेत अन्य निजी कंपनियों को इनमें से कुछ रेल सुरंगों के निर्माण का ठेका दिया गया था। यह भी गौर करने की बात है कि एनईसी का सुरक्षा ट्रैक रिकॉर्ड अपने आप में संदिग्ध है। इस बात का खुलासा हाल ही में तब हुआ जब समृद्धि एक्सप्रेस-वे पर पुल निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली मोबाइल गैन्ट्री क्रेन के गिर जाने से 15 मजदूरों की मौत हो गई जबकि एक इंजीनियर और पांच अन्य कर्मचारी मलबे में फंस गए। यह हादसा 1 अगस्त, 2023 को ठाणे जिले के शाहपुर तहसील में हुआ। समृद्धि एक्सप्रेस-वे के पहले चरण का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिसंबर, 2022 में किया था। यह दुर्घटना तीसरे चरण के दौरान हुई। तब एनईसी द्वारा काम पर रखे गए उप-ठेकेदारों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। (हैदराबाद स्थित कंपनी को चंद्रबाबू नायडू का करीबी माना जाता है। जब 2019 में आंध्र प्रदेश में सत्ता बदली, तो नए मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने राज्य में एनईसी को दिए गए कई अन्य ठेके रद्द कर दिए।)
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली उत्तराखंड सरकार ने बयान जारी कर कहा है कि चार धाम परियोजना के तहत प्रस्तावित सभी सुरंगों का पुनर्मूल्यांकन अगले छह महीनों में किया जाएगा। लेकिन जब तक इसमें विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया जाता, इस तरह के पुनर्मूल्यांकन से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होने जा रहा। सवाल यह है कि क्या वे देहरादून को टिहरी से जोडऩे वाली दुनिया की सबसे लंबी सडक़ सुरंग के निर्माण जैसी योजनाओं की वैधता की भी समीक्षा करेंगे?
इन रेल सुरंगों के पर्यावरणीय प्रभाव की भी नए सिरे से समीक्षा की जरूरत है। प्रसिद्ध भूविज्ञानी और भूकंप विशेषज्ञ डॉ. सी.पी. राजेंद्रन कहते हैं, ‘ऐसा माना जाता है कि सुरंगों के निर्माण से पर्यावरण पर पडऩे वाले असर को कम किया जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि सतह के भीतर इस तरह की संरचनाओं की वजह से पर्यावरण को कहीं भारी नुकसान हो सकता है जिसमें यातायात से होने वाले प्रदूषक तत्वों का ऐसी सुरंग में इक_ा होते जाना शामिल है जहां सूरज की रोशनी भी नहीं होती।’
राजेंद्रन कहते हैं, ‘ट्रेनें अब बेशक बिजली से चलती हों और इससे प्रदूषण नहीं होता हो। लेकिन जब बात सुरंगों की आती है तो ट्रेन की आवाजाही के दौरान लगातार उत्पन्न होने वाला कंपन एक बड़ा खतरा होता है और इससे पहाड़ की ढलान अस्थिर हो जाती है और कोई मामूली सा कारक भी इसे भूस्खलन के प्रति संवेदनशील बना देता है। समस्या और भी बड़ी इसलिए हो जाती है कि सुरंगों को बनाने के दौरान किए गए विस्फोट से चट्टानें पहले से ही कमजोर हो गई होती हैं। नतीजतन बार-बार छोटे-बड़े भूस्खलन होते हैं। इसके साथ ही निर्माण के दौरान भारी मात्रा में चट्टानी अपशिष्ट निकलते हैं जिससे भूमिगत जल पर स्थायी असर पड़ता है और जल स्तर में गिरावट हो जाती है। तमाम सुरंग निर्माण क्षेत्रों का यही अनुभव है।’
अत्यधिक सडक़ और रेल सुरंग निर्माण हिमालय में चल रही बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधि के सबसे खतरनाक पहलुओं में से एक है। वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए ग्राफ से पता चला है कि पिछले पांच सालों में उत्तराखंड में भूस्खलन के मामले 2,900 फीसदी तक बढ़ गए हैं। भूस्खलन कई कारकों पर निर्भर करता है और इनमें चट्टान की प्रकृति, उनकी क्षमता और इस्तेमाल किए गए विस्फोट तरीके शामिल होते हैं। चट्टानों का भूविज्ञान और उनके भीतर विखंडन की प्रकृति पर विचार करना जरूरी होता है।
सिल्क्यारा सुरंग संकट में पहाडिय़ों की अस्थिरता बिल्कुल साफ हो गई है। जैसे ही विशेषज्ञों ने मलबे में खुदाई की, कंपन के कारण भूस्खलन हुआ जिससे बचाव कार्य में देरी हुई। इस अफसोसनाक हादसे में अकेली राहत यह रही कि अधिकारी छह इंच की पाइपलाइन के लिए खुदाई करने में कामयाब रहे जिसके जरिये फंसे हुए मजदूरों को भोजन, फल, अवसाद रोधी दवाएं वगैरह भेजी जा सकीं। एंडोस्कोपिक कैमरा भी लगाया गया ताकि मजदूरों की तस्वीरें झारखंड, बंगाल, ओडिशा, बिहार, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में उनके परिवारों तक पहुंचाई जा सकें।
एक और राहत की बात यह रही कि सुरंग में बिजली बंद नहीं की गई और श्रमिकों के पास घूमने के लिए लगभग 1.5 किलोमीटर की जगह थी। बहरहाल, बचाए जाने का इंतजार कर रहे मजदूरों के लिए ये छोटी-छोटी राहतें इस मुश्किल समय को काटने में बड़ी मददगार साबित रही होंगी। (navjivanindia.com)
स्मिता
‘न कोई इस पार हमारा,
न कोई उस पार.......’
शैलेंद्र
डहरुराम किसी सुदूर छत्तीसगढ़ के गांव में ही थोड़े न मिलते है, वह बिहार या यू पी या राजस्थान के गांव में भी मिल जाएंगे।
डहरुराम के माई ने 6-6 बच्चा जना है । अब जितने हाथ, उतने काम ,उतना पइसा ।
फिर बीमारी हारी में भी तो लइका बच्चा मर जावत है। सो नाम ल बिगाड़ कर रख दे हे, ‘डहरुराम’
मान्यता है, भगवान भी बिगड़े नाम के बाबू को नहीं ले जावत है ।
फिर राम भी तो लगा दिए न बचाने को .... राम नाम तो सबको बचा लेत है लोकलाज के डर से अपनी पत्नी को नहीं बचा पाए तो क्या ?
‘डहरु’, को का पता कि नाम ही जी का जंजाल बन जाई ।
आधार में अलग नाम और जमीन के टुकड़े में अलग नाम । पिछले बरस सूखा में सारा फसल तो जल के नुकसान हो गए । रोज रात में अंतडिय़ों में ऐसी मरोड़ उठे है कि पूछो मत ।
रोज बैंक के सामने ‘डहरु’ उखड़ू हाथ जोड़ के बैठ जावत है ।सब गांव वाले को फसल बीमा का पैसा मिल गया है । बाबू साहब मोर खाता में पइसा कब आही?
अब आधार में तुम्हर नाम ‘डाहरु राम’ काहे लिखा दिये हो?
ऑनलाइन पोर्टल में अलग अलग नाम नहीं एक्सेप्ट करय, टेक्नोलॉजी के जमाना है भाई ..
तो काहे बुला के न सुधरवा लिये साहेब । हम तो फसल बीमा के पइसा न मिलब तो मर जाई जीते जी ।
अबके सरकार तो बोली रहे न , बीमा का पइसा मिली । हम तो बीमा का उ का कहिथे, प्रीमियम भी जमा किये रहे ।
अब इ ‘अ’का मात्रा ‘आ’ का मात्रा हमको कहाँ समझ में आत है साहब ।
पेट को तो अन्न का दाना और खेत को बीज/खातू समझ म आवत हे साहब
अब कहाँ से हम नांगर चलाई , निंदायी बोआई करी । अक्षर पढ़ लेते तो, काहे ये सब करते ?
साहब कैसे भी करके हमर पइसा दिलवा दो ...अब मां की कसम खाते है जो डहरु को कोई डाहरु बोला तो, जबान खींच लेंगे हम उका ..
अब जाओ बे, वकील करो, फोरम जाओ । सरकार को गुहार लगाओ ।
सुने है अब डहरु ओ ठाकुर वकील के ज़मीन में मजूरी कर रहा है ।
(गलती से अगर किसानों के खसरा और आधार कार्ड में नामान्तर हो गया हो तो उन किसानों को फसल बीमा का लाभ नहीं मिलता है । इसमें करेक्शन करवाना, बैंक की जवाबदेही होती है । लेकिन इस छोटी सी तकनीकी खामी से हज़ारों किसान फसल बीमा के लाभ से वंचित हो रहे है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। )
विष्णु नागर
खबर है कि एनसीआरटी की किताबों में रामायण और महाभारत के प्रसंग शामिल होंगे।यह कहना तो बेकार है कि कुरान, बाइबिल के प्रसंग भी शामिल कर लेते।
गुरुग्रंथ साहिब के प्रसंग भी जोड़ लेते।कबीर भी पढ़ा देते। बेकार है ये बातें इनके आगे मगर बेकार बातें भी कर लेना चाहिए।केवल ‘कार’ बातों से कुछ होता नहीं।ये भी बताना बेकार है कि संविधान के अनुसार भारत की और प्रदेशों की सरकारें धर्मनिरपेक्ष देश की सरकारें हैं।मगर संविधान इनके लिए शपथग्रहण की सुविधा मात्र है!
और जो रामायण -महाभारत पढ़वाएंगे, क्या उन्होंने भी इन्हें पढ़ा है?वैसे ये भी बेकार का सवाल? है।इनके संस्कार, इनकी कूढ़मगजी तो कुछ और ही संकेत देती है।वह तो संकेत देती है कि इनका पढऩे से दूर- दूर का संबंध नहीं।संघ के , तथाकथित ‘बौद्धिक ’ से आगे इनकी गति -मति नहीं।जरा इनकी भाषा, इनके कारनामे देखिए! एक भी अक्ल की बात इन्हें सुहाती है?
लेकिन यह सुझाव इनके काम आ सकता है कि इन्हें तो मालूम होगा कि ये हमेशा के लिए भारत पर राज करने आए हैं मगर भारत की जनता को? यह नहीं मालूम। इसलिए छह महीने बाद आम चुनाव होने जा रहे हैं, तब जनता से पूछकर एक बार देख लेना कि वह इनकी कूढ़मगजी और पुलिस राज को कितना और सहने को तैयार है?बाकी तो सब जयश्री राम है! क्यों जी है न!
सच्चिदानंद जोशी
दिवाली आते ही साफ सफाई का भूत सबके सिर पर सवार हो जाता है। हर बार घर का ज्यादा दिखने वाला सामान बाहर निकालने का संकल्प लिया जाता है। एक दो दिन उत्साह से काम भी किया जाता है और बाद में ये संकल्प अगली दिवाली तक के लिए मुल्तवी कर दिया जाता है। दो चार दिन लगातार छुट्टियां आ जाएं और पतिदेव घर पर मिल जाए तो फिर टांड ( जी हां आधुनिक भाषा में उसे द्यशद्घह्ल कहते हैं) या पलंग में बने बक्सों की सफाई का अतिरिक्त काम भी हाथ में लिया जाता है।
इस बार भी दो दिन की छुट्टियां साथ आ जाने से श्रीमती जी को पलंग के नीचे बक्से को खोलने का समय मिल गया। ये बक्से यानी पुरातत्व संरक्षण विभाग के गोदाम की तरह होते हैं। इन्हे खोलें तो ना जाने आपको क्या क्या मिल जाए। इन्हे खोलना यानी हड़प्पा , मोहन जो दारो की खुदाई करने जैसा है।
इनमे से एक बक्से में से दो बड़ी बड़ी गठरियां निकली। पुरानी साड़ी की गठरियाँ थी।
‘अरे ये मेरी साडिय़ां हैं। अब तो ये पहनी ही नहीं जाती। मैं तो ऊब चुकी हूं इन्हे पहन पहन कर। मै तो सब किसी किसी को दे देना चाहती हूं। ’ श्रीमती जी बोली। आगे का खतरा मैं भांप चुका था। यानी अब मेरी जिम्मेदारी सिर्फ बक्सा खोलने तक ही नहीं थी। मुझे गठरियां भी खोलनी थी।
मैने चुपचाप गठरियां खोली और आगे के आदेश का इंतजार करता रहा।
‘देखो हम इनमे से सॉर्ट आऊट कर लेते हैं कौन सी रखनी है और कौन सी देनी है। ‘आगे का फरमान आया। अब ‘ हम’ शब्द का तो कोई मतलब नहीं था। चयन उन्ही को करना था , अपन को तो सिर्फ हां में हां मिलानी थी।
तभी घड़ी ने दस बजाए। घंटो का घनघनाना था कि श्रीमती जी को याद आया ‘अरे भगवान दस बज गए। अभी तो खाना बनना शुरू भी नहीं हुआ है। ‘श्रीमती जी हड़बड़ाकर बोली। ‘ऐसा करो तुम साडिय़ां छांट लो। वैसे भी मैं तुमसे पूछकर ही साड़ी पहनती हूं। मैं तब तक दाल सब्जी छौंक कर आती हूं। ’
यानी अब सारी सफाई का दारोमदार हम पर ही था। दाल सब्जी छौंकने में श्रीमती जी को दो घंटे से कम तो लगने वाले नही थे। पूरे दो घंटे लगा कर साडिय़ां छांटी गई। जो साडिय़ां मेरी नजर में एकदम बेकार या देने लायक थी वे अलग रखी गईं और जो मुझे पसंद थी वे अलग रखी गई। कुछ साडिय़ों से मुझे विशेष प्रेम था वे अलग रखी गई।जो साडिय़ां देने के लिए रखी गई उनका ढेर बड़ा हो गया और दूसरा रखने वाली साडिय़ों का ढेर छोटा।
दो ढाई घंटे बाद श्रीमती जी लौटी तो काम की प्रगति देख खुश हुई। छोटा ढेर देख कर बोली ’ बस इतनी सी ही रिजेक्ट कर पाए। मैं होती तो एक दो को छोड़ कर पूरी रिजेक्ट कर देती।’ फिर उन्हें समझना पड़ा कि जिसे वह रिजेक्टेड माल समझ रहीं है दरअसल वही रखना है ,बाकी रिजेक्टेड वाला ढेर तो बड़ा है।
‘चलो ठीक है एक काम तो हुआ। मैं तो इनकी तरफ देखूंगी भी नही वर्ना मुझे इनमे से कुछ को रखने का मोह हो जाएगा। ‘श्रीमती जी ने कहा और मैने राहत की सांस ली कि चलो एक काम तो उनके हिसाब से संतोषजनक हुआ। इस संतोष के आनंद को महसूस ही कर रहा था कि श्रीमती जी एक साड़ी उठा कर बोली ’ अरे ये क्या किया , ये तो मेरी बहुत प्यारी साड़ी है, मां ने दी थी जब मेरी नौकरी लगी थी। ‘उन्होंने वह साड़ी उस छोटे ढेर में रख दी जो वापिस बक्से में जानी थी। फिर उसके बाद दूसरी , तीसरी , चौथी वे साडिय़ां निकलती जा रही थी और हर साड़ी की कहानी सुनाती जा रही थी।पहली कमाई की साड़ी, मां की दी पहली साड़ी , दीदी की साड़ी, पहली बार मुंबई जाकर खरीदी साड़ी, पहली साड़ी नल्ली सिल्क की, पहली साड़ी कुमारन सिल्क की, मैने दी हुई पहली साड़ी, पहली बार हम मिले वो साड़ी, मसूरी घूमने गए वो साड़ी , बुआ जी ने खुश होकर दी गई साड़ी , मौसी जी ने खीज कर दी हुई साड़ी। न जाने कितनी कहानियां।बड़े ढेर से एक एक साड़ी निकाल कर छोटे ढेर में डाली जा रही थी और छोटा ढेर बड़ा होता जा रहा था।
तभी मेरी नजर एक साड़ी पर पड़ी जो एक पैकेट में पैक बंद पड़ी थी।
‘अरे ये पैक बंद है , इसे तो खोला भी नही कभी। ’ मैने कहा।
‘उसे वैसे ही रहने दो। ’ श्रीमती जी की आंखो में आंसू थे,। वो अपनी रो में बोले जा रही थीं, ’ स्कूल की फेयर वेल पार्टी थी। मां की साडिय़ां पुराने जमाने की थी इसलिए भाभी से उनकी नई साड़ी मांग ली। भाभी ने साफ मना कर दिया। कहने लगी बच्चों को नही दूंगी साड़ी खराब करने के लिए। मन बहुत खराब हो गया।
पड़ोस की पुष्पा भाभी से मेरी बहुत छनती थी
उन्होंने मुझे मायूस देखा तो झट अपनी नई कोरी साड़ी निकाल कर दे दी।स्कूल में पहनी तो सबने बहुत तारीफ की। लेकिन वापिस आते समय एक हादसा हुआ । आपसी धक्का मुक्की में साड़ी टेबल में अटक कर फट गई। घर आई तो बहुत डर रही थी। डरते डरते पुष्पा भाभी को बताया। वो हंस कर बोली ‘अरे इतना परेशान क्यों होती हो , साड़ी तो मुझसे भी फट सकती थी। ‘उन्होंने कहा और वह साड़ी मुझे ही दे दी। । मेरे मन पर बोझ था। मैने अपनी पॉकेट मनी और स्कॉलरशिप के पैसे बचा कर पुष्पा भाभी के लिए साड़ी खरीदी और उन्हें देने के लिए रखी। भाभी डिलिवरी के लिए अपने मायके आगरा गई थी। मैं उनका इंतजार करती रही लेकिन भाभी लौटी ही नहीं । पता चला डिलिवरी के दौरान ही उनकी डेथ हो गई। तब से ये साड़ी ऐसे ही पैक बंद रखी है। ’
वातावरण थोड़ा भारी हो गया था। साडिय़ों के ढेर को व्यवस्थित करने के बहाने जब मैने एक और साड़ी को करीने से रखने की कोशिश की तो श्रीमती जी बोली ‘ये साड़ी याद है ना। इसी में विदा करा कर लाए थे आप। ’ उस साड़ी को मैं भला कैसे भूल सकता था। तभी उस ढेर में से एक सूती चादर नुमा साड़ी भी निकली। जिसे देख कर हम दोनो ही हंस पड़े । ‘याद है न इस साड़ी को ओढ़ कर सोना पड़ा था आपको शादी की रात। श्रीमती जी बोली।
‘कैसे भूल सकता हूं। अजीब रिवाज था तुम लोगो का। आज विदा नही होगी।दूल्हे को भी रुकना पड़ेगा। अरे भाई रोका तो बेचारे को ढंग से ओढऩे बिछाने को तो देते। उस हाल में बाकी सब तो अपना बिछा ओढ़ कर सो गए। दूल्हा बेचारा ठंड के मारे कुडकुड़ा रहा है। आखिर तारा बाई को दया आई और उसने ये साड़ी चौघडी करके मेरे बदन पर डाली। ’ शादी की रात के मेरे जख्म हरे हो गए।
बात बात में रिजेक्ट होने वाला पूरा ढेर अपना पाला बदल चुका था ।
‘अरे ये क्या हुआ । हम तो कोई भी साड़ी रिजेक्ट नही कर पाए। लेकिन क्या करें , हर साड़ी के साथ कोई न कोई यादगार जुड़ी है। फेंकने का मन ही नही होता।।’
मेरी दो ढाई घंटे की मेहनत पर पानी फिर रहा था। तभी एक कोने में पड़ी साडिय़ों को देखकर श्रीमती जी बोली ‘अरे वो कौन से साडिय़ां हैं ये तो मैने देखी नही। किसी ने ऐसे ही दी होंगी। बहुत पुरानी भी हो गई हैं। इन्हे चाहें तो रिजेक्ट कर सकते हैं। ’
‘ये साडिय़ां मैने अलग रखी हैं। जहां इतनी साडिय़ां रखी हैं ये तीन और रख लो। ’ मैने कहा।
‘रख लेंगे , लेकिन ये हैं किसकी।’
‘ये मेरी दादी की साड़ी है। पिताजी इसे हमेशा अपने ट्रंक में सबसे नीचे तहा कर रखते थे। एक बार पूछने पर बताया था उन्होंने कि ये साड़ी रहती है तो दादी पास होने का अहसास बना रहता है।’
‘और ये दूसरी?’ श्रीमती जी ने पूछा ।
‘ये मेरी प्यारी ताई जी की साड़ी है जो उन्होंने मेरे जनेऊ में पहनी थी। मेरा और दादा का जनेऊ साथ हुआ था न, तो मेरे संस्कार ताऊ जी ताई जी ने किए थे। ताई जी मजाक में बोली’ मैं आज से तेरी मां बन गई। ‘वो बहुत प्यार करती थी मुझे। उसके कुछ दिन बाद मैं उनसे मांग कर ये साड़ी ले आया था।’
एक और साड़ी कोने में पड़ी थी उपेक्षित सी।
‘ये भी आपने ही सहेज कर रखी होगी। ये किसकी की है?’श्रीमती जी की पूछताछ जारी थी।
‘जहां ये सारी साडिय़ां रखी हैं , इसे भी पड़ी रहने दो।’ मैने उस साड़ी को भी उसी ढेर में मिला दिया और खोली गठरियों को फिर से बांधने लगा। श्रीमती जी भी उन गठरियों को बांधने में मदद कर रही थीं।
‘आपने बताया नही वो आखरी साड़ी किसकी थी।’ गठरी की गांठ बांधते हुए उन्होंने पूछा। मैने उनकी बात को अनसुना कर दिया। क्या बताता , जिसके लिए खरीदी थी वह तो हजारों मील दूर ह्यूस्टन में अपने परिवार के साथ अपनी दुनिया में रम चुकी थी।
‘ दो बज गया , चलो खाना खाते हैं। ’
मैने कहा और गठरी की गठान कस कर बांध दी।
सफाई के उत्साह में तो हम भूल ही गए थे कि साड़ी यानी सिर्फ साढ़े पांच मीटर का कपड़ा नहीं है । वह तो यादों का , परंपराओं का ,इतिहास का संस्कारों का बहुत बड़ा भंडार है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
देश के संविधान ने हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था दी है हालांकि हमारा इतिहास और संस्कृति आदि काल से मुख्यत : अलोकतांत्रिक रही हैं। जिस तरह से यूरोप और अमेरिका में लोगों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात किया है उस तरह भारत और एशिया के लोगों ने नहीं किया। यही कारण है कि लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने न अपने दलों में आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की है और न ठीक से देश के नागरिकों को लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ लेने दिया है। निश्चित रूप से राजनीतिक दल इसके लिए जितने जिम्मेदार हैं हम भारत के नागारिक भी इस बदहाली के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं।
सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की बात करें तो लोकतंत्र के मंदिर में जवाहर लाल नेहरू के समय हल्की फुल्की घुन शुरु हो गई थी जिसके चलते सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे ऊंचे कद के जमीनी नेताओं की जगह कृष्णा मेनन जैसे हवाई नेताओं को ज्यादा अहमियत दी जाने लगी थी। उसी के चलते राम मनोहर लोहिया जैसे नेता को अलग पथ चुनना पड़ा था।इंदिरा गांधी तक पहुंचते पहुंचते कांग्रेस लोकतंत्र का बुरा हाल कर चुकी थी। कभी गांधी नेहरू के करीबी रहे वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण को आपात काल की अलोकतांत्रिक कुव्यवस्था को बदलने के लिए ही समग्र क्रांति का आव्हान करना पड़ा था।आज स्थिति यह है कि राजीव गांधी परिवार के तीनों जीवित सदस्य ही कांग्रेस के सर्वे सर्वा हैं। यही कारण है कि प्रियंका गांधी जो न कांग्रेस संगठन में किसी महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन है और न किसी वार्ड की पार्षद तक हैं, वे कांग्रेस के हर पोस्टर में मौजूद रहती हैं। वर्तमान कांग्रेस की अलोकतांत्रिक परंपरा का यह अपने आप में अकाट्य प्रमाण है।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है वह अटल बिहारी बाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी के जमाने तक काफी हद तक लोकतांत्रिक थी लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के युग में पहुंचकर इस मामले में वह भी कांग्रेस पथ पर अग्रसर है। भाजपा में आजकल विधानसभा चुनावों में भी स्थानीय नेताओं की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने रखा जाता है जो निहायत अलोकतांत्रिक है। यह जग जाहिर है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष जे पी नड्डा की जगह संगठन की कमान गृहमंत्री अमित शाह ही संभालते हैं। भारतीय जनता पार्टी में अलोकतांत्रिकता का विकास कांग्रेस की तुलना में ज्यादा तेजी से हुआ है।
अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन की छत्रछाया में आम आदमी पार्टी जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए खड़ी हुई थी उसने अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में बाल्यावस्था में ही तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों को धता देकर किनारे कर दिया है। जिन प्रमुख लोगों ने इस बहुत तेजी से उभरे दल की नीव रखी थी उनमें से अधिकांश या तो पूत के पांव पालने में देखकर खुद पार्टी से अलग हो गए या तिरस्कृत कर बाहर निकलने के लिए मजबूर किए गए हैं।
जहां तक प्रमुख क्षेत्रीय दलों का प्रश्न है उनकी शुरुआत ही एक व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए होती है चाहे वह महाराष्ट्र की बाल ठाकरे की शिव सेना हो या मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी हो या ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और करुणानिधि की द्रविड़ मुनेत्र कडगम आदि। ऐसे दलों की नीव में ही तानाशाही का म_ा होता है जो लोकतंत्र की हरी घास को पनपने ही नहीं देता।
वामपंथी दलों में जरूर लोकतांत्रिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया भर की गरीबी और आर्थिक विषमताओं के बावजूद हमारे देश मे वामपंथी दलों का विभाजित होकर ह्रास होते जाना बेहद दुर्भाग्यजनक है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आज़ादी के बाद उभरी वामपंथी पीढ़ी भारतीय जन जीवन के बजाय रूस और चीन की क्रांतियों से ज्यादा प्रभावित रही है। वाम दल भी भारत के संविधान में प्रदत्त लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात नही कर पाए। लगता है हमारे लोकतंत्र के पौधे को वट वृक्ष बनने के लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा।
CEO of IndiGo Airlines, the so-called cheap airline in India, after arriving at a hotel in Mumbai, went to the bar and asked for a pint of Guinness.
The barman nodded and said, "That will be ?50 please, Mr. Bhatia."
Somewhat taken aback, the CEO (Rahul Bhatia) replied, "That's very cheap," and handed over his money.
"Well, we do try to stay ahead of the competition", said the barman. "And we are serving free pints every Wednesday from 6pm until 8pm. We have the cheapest beer in Mumbai."
"That is a remarkable value!" Rahul comments.
"I see you don't seem to have a glass, so you'll probably need one of ours. That will be ?150 please."
Rahul scowled but paid up.
He took his drink and walked towards a seat. "Ah, you want to sit down?" said the barman. "That'll be an extra ?150. You could have pre-booked the seat and it would have only cost you ?100."
"I think you may be too big for the seat sir, can I ask you to sit in this frame please."
Rahul attempts to sit down, but the frame is too small and when he can't squeeze in he complains, "Nobody would fit in that little frame".
"I'm afraid if you can't fit in the frame, you'll have to pay an extra surcharge of ?250 for your seat, Sir."
Rahul swore to himself, but paid up.
"I see that you have brought your laptop with you," added the barman. "And since that wasn't pre-booked either, that will be another ?300."
Rahul was so incensed that he walked back to the bar, slammed his drink on the counter and yelled, "This is ridiculous, I want to speak to the manager!"
"I see you want to use the counter.." says the Barman, "that will be ?200 please."
Rahul's face was red with rage. "Do you know who I am?"
"Of course I do, Mr. Bhatia!"
"I've had enough! What sort of hotel is this? I come in for a quiet drink and you treat me like this? I insist on speaking to a Manager!"
"Here is his E-mail address, or if you wish, you can contact him between 9.00am and 9.01am every morning, Monday to Tuesday at this toll free phone number. Calls are free, until they are answered, then there is a talking charge of only ?10 per second, or part thereof."
"I will never use this bar again!!" hollers Mr. Bhatia.
"OK Sir, but remember, we are the only star hotel in Mumbai selling pints for ?50."
And that my friends, is how IndiGo works in India!! (from Facebook)
सुशीला सिंह
पिछले कुछ दिनों से आप अखबारों, टीवी न्यूज और सोशल मीडिया पर डीपफेक या डीपफेक वीडियो के बारे में बार-बार सुन-देख रहे होंगे। डीपफेक तकनीक के शिकार होने के मामले लगातार सामने आ रहे हैं।
इस तकनीक के गलत इस्तेमाल से जहां आम लोग प्रभावित हो रहे हैं, वहीं हाल के दिनों में सेलिब्रिटीज के भी कई डीपफेक वीडियो वायरल हुए हैं।
इस कड़ी में फि़ल्म अभिनेत्री रश्मिका मंदाना, काजोल, कटरीना का नाम सामने आया वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गरबा करते हुए वायरल हुए वीडियो ने सब को चौंका भी दिया कि क्या ये सच है? लेकिन ये डीपफेक के मामले केवल भारत तक सीमित हो ऐसा नहीं है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर फे़सबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है के प्रमुख मार्क जक़रबर्ग भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। ये सभी वीडियो जो आपने देखें हैं ये सभी डीपफ़ेक हैं।
डीपफेक है क्या?
डीपफेक दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) का इस्तेमाल करता है जिसके जरिए किसी की भी फेक (फर्जी) इमेज या तस्वीर बनाई जाती है।
इसमें किसी भी तस्वीर,ऑडियो या वीडियो को फेक(फर्जी) दिखाने के लिए एआई के एक प्रकार डीप लर्निंग का इस्तेमाल होता है और इसलिए इसे डीपफेक कहा जाता है। इसमे से ज़्यादातर पोर्नाग्राफिक या अश्लील होते हैं।
एम्सटर्डम स्थित साइबर सिक्सयोरिटी कंपनी डीपट्रेस के मुताबिक 2017 के आखिर में इसकी शुरुआत के बाद डीपफेक़ का तकनीकी स्तर और इसके सामाजिक प्रभाव में तेज़ी से विकास हुआ।
डीपट्रेस की साल 2019 में छपी इस रिपोर्ट के मुताबिक कुल 14,678 डीपफेक वीडियो ऑनलाइन थे। इनमें से 96 फीसदी वीडियो पोर्नोग्राफिक सामग्री थी और चार फीसदी ऐसे थे जिनमें ये सामग्री नहीं थी।
डीपट्रेस ने जेंडर, राष्ट्रीयता और पेशे के आधार पर जब डीपफेक वीडियो का आकलन किया तो पाया कि डीपफेक पोर्नोग्राफी का इस्तेमाल महिलाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जाता है। वहीं डीपफेक पोर्नोग्राफी वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है और इन पोर्नोग्राफी वीडियो में मनोरंजन जगत से जुड़ी अभिनेत्रियों और संगीतकारों का इस्तेमाल किया गया था।
वकील पूनीत भसीन कहती हैं कि कुछ साल पहले सुली और बुली बाई के मामले सामने आए थे जिनमें महिलाओं को टारगेट किया गया था। लेकिन डीपफेक में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों की भी टारगेट किया गया है। ये अलग बात है कि ज्यादातर मामलों में पुरुष ऐसे फर्जी सामग्री को दरकिनार कर देते हैं।
मुंबई में रहने वाली पुनीत भसीन साइबर लॉ और डेटा प्रोटेक्शन प्राइवेसी की एक्सपर्ट हैं और वे मानती है कि डीपफेक अब समाज में दीमक की तरह से फैल रहा है।
वे कहती हैं, ‘पहले भी लोगों की तस्वीरों को मॉर्फ किया जाता था लेकिन वो पता चल जाता था लेकिन एआई के जरिए जो डीपफेक किया जा रहा है वो इतना परफेक्ट (सटीक) होता है कि सही या गलत में भेद कर पाना मुश्किल होता है। ये किसी के शील का अपमान करने के लिए काफी होता है।’ जानकार बताते हैं कि ये तकनीक इतनी विकसित है कि वीडियो या ऑडियो रियल या वास्तविक नजर आता है।
लेकिन क्या ये केवल वीडियो तक सीमित हैं?
ये तकनीक केवल वीडियो में ही उपयोग में नहीं लाई जाती बल्कि फोटो को भी फेक दिखलाया जाता है और ये पता लगाना इतना मुश्किल होता है कि असल नहीं बल्कि फर्जी है।
वहीं इस तकनीक के ज़रिए ऑडियो का भी डीपफेक किया जाता है। बड़ी हस्तियों की आवाज बदलने के लिए वॉयस स्किन या वॉयस क्लोन्स का इस्तेमाल किया जाता है।
साइबर सिक्योरिटी और एआई विशेषज्ञ पवन दुग्गल कहते हैं, ‘डीपफेक-कंप्यूटर, इलेक्ट्रानिक फॉरमेट और एआई का मिश्रण है। इसे बनाने के लिए किसी तरह के प्रशिक्षण की जरुरत नहीं होती। इसे मोबाइल फोन के जरिए भी बनाया जा सकता है जो एप और टूल के जरिए बनाया जा सकते हैं।’
कौन कर रहा है डीपफेक का उपयोग?
एक सामान्य कंप्यूटर पर अच्छा डीपफेक बनाना मुश्किल है। डीपफ़ेक एक उच्च-स्तरीय डेस्कटॉप पर बेहतरीन फोटो और ग्राफिक्स कार्ड के ज़रिए बनाया जा सकता है।
पवन दुग्गल बताते हैं कि इसका ज़्यादातर इस्तेमाल साइबर अपराधी कर रहे हैं।
वे बताते हैं, ‘ये लोगों के अश्लील वीडियो बनाते हैं और फिर ब्लैक मेल करके फिरौती के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। किसी व्यक्ति की छवि को खऱाब करने के लिए सोशल मीडिया पर डाल देते हैं और इसका उपयोग ख़ासकर सेलीब्रिटीज, राजनीतिज्ञों और बड़ी हस्तियों को नुकसान करने के लिए किया जा रहा है।’
इसका एक और कारण बताते हुए पुनीत भसीन कहती हैं कि लोग ऐसे वीडियो इसलिए भी बनाते हैं क्योंकि ऐसे वीडियो ज़्यादा लोग देखते हैं और उनके व्यू बढ़ते हैं और इससे उनका फायदा होता है।
वहीं पवन दुग्गल ये अशंका जताते हैं कि डीपफेक का इस्तेमाल चुनावों को भी प्रभावित कर सकता है।
उनके अनुसार, ‘राजनेताओं के डीपफेक वीडियो बनाए जा सकते हैं, इससे न केवल उनकी छवि को धूमिल किया जा सकता है लेकिन पार्टी की जीत की संभवनाओं पर भी असर पड़ सकता है।’
चुनावों में डीपफ़ेक वीडियो के उपयोग की बात की जाए तो दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने एआई का इस्तेमाल करके पार्टी नेता मनोज तिवारी के डीपफेक वीडियो बनाए थे। इसमें दिखाया गया था कि वो मतदाताओ से दो भाषाओं में बात करके वोट डालने की अपील कर रहे थे।
इस डीपफेक वीडियो में वे हरियाणवी और हिंदी में लोगों से वोट डालने की अपील कर रहे थे।
कानून में क्या है प्रावधान?
भारतीय जनता पार्टी के दिवाली समारोह में प्रधानमंत्री ने एआई का इस्तेमाल कर डीपफेक बनाने पर चिंता जाहिर की थी।
उन्होंने कहा था, ‘डीपफेक भारत के सामने मौजूद सबसे बड़े खतरों में से एक है। इससे अराजकता पैदा हो सकती है।’
केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव कह चुके है कि सरकार जल्द ही डीपफेक पर सोशल मीडिया से चर्चा करेगी और अगर इन मंचों ने उपयुक्त कदम नहीं उठाए तो उन्हें आईटी अधिनियम के सेफ हार्बर के तहत इम्यूनिटी या सरंक्षण नहीं मिलेगा।’
उन्होंने ये भी कहा कि डीपफेक के मुद्दे पर कंपनियों को नोटिस भी जारी किया गया था और इस सिलसिले में उनके जवाब भी आए हैं।
डीपफेक के मामले सामने आने के बाद इस बात पर बहस तेज हो गई है कि क्या कड़े कानून बनाने की जरूरत है?
वकील पुनीत भसीन कहती हैं कि भारत में आईटी एक्ट के तहत सज़ा का प्रावधान हैं।
वहीं पिछले साल इस सिलसिले में इंटरमिडियरी गाइडलाइन्स भी आई थी जिसमें कहा गया था कि ऐसी सामग्री जिसमें नग्नता, अश्लीलता हो और अगर किसी की मान, प्रतिष्ठा को नुकसान हो रहा हो तो ऐसी सामग्री को लेकर किसी भी प्लेटफॉर्म को शिकायत जाती है तो उन्हें तुरंत हटाने के दिशानिर्देश हैं।
वे कहती हैं, ‘पहले ये प्लेटफॉर्म कहते थे कि वे अमेरिका या जिस देश में है वहां के स्थानीय कानून द्वारा नियमित है। लेकिन अब ये कंपनियां एफआईआर दर्ज कराने के लिए कहती है और फिर सामग्री को प्लेटफॉर्म से हटाने के लिए कोर्ट के ऑर्डर की मांग करती हैं।’
वे आईटी मंत्री के कंपनियों को इम्यूनिटी देने के मामले पर कहती हैं, ‘आईटी एक्ट के सेक्शन 79 के एक अपवाद के तहत कंपनियों को सरंक्षण मिलता था। अगर किसी प्लेटफॉर्म पर सामग्री किसी तीसरी पार्टी ने अपलोड की है लेकिन प्लेटफॉर्म ने सामग्री को सरकुलेट नहीं किया है तो ऐसे में प्लेटफॉर्म को इम्यूनिटी मिलती थी और माना जाता था कि प्लेटफॉर्म जिम्मेदार नहीं है।’
लेकिन इंटरमिडियरी गाइडलाइंस में ये स्पष्ट किया गया कि प्लेटफॉर्म के शिकायत अधिकारी के पास सामग्री को लेकर ऐसी शिकायत आती है तो और कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो सेक्शन 79 के अपवाद के तहत इम्यूनिटी नहीं मिलेगी और इस प्लेटफॉर्म के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई होगी।
ऐसे में जिसने सामग्री प्लेटफॉर्म पर डाली है उसके खिलाफ तो मामला बनेगा ही वहीं जिस प्लेटफॉर्म पर अपलोड किया गया उसके खिलाफ भी सजा होगी।
भारत के आईटी एक्ट 2000, के सेक्शन 66 ई में डीपफ़ेक से जुड़े आपराधिक मामलों के लिए सजा का प्रावधान किया गया है।
इसमें किसी व्यक्ति की तस्वीर को खींचना, प्रकाशित और प्रसारित करना, निजता के उल्लंघन में आता है और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता हुआ पाया जाता है तो इस एक्ट के तहत तीन साल तक की सज़ा या दो लाख तक के ज़ुर्माना का प्रावधान किया गया है।
वहीं आईटी एक्ट के सेक्शन 66 डी में ये प्रावधान किया गया है कि अगर कोई किसी संचार उपकरण या कंप्यूटर का इस्तेमाल किसी दुर्भावना के इरादे जैसे धोखा देने या किसी का प्रतिरुपण के लिए करता है तो ऐसे में तीन साल तक की सजा या एक लाख रुपए तक के ज़ुर्माने का प्रावधान है।
भारत के आईटी एक्ट 2000 , के सेक्शन 66 ई में डीपफेक से जुड़े आपराधिक मामलों के लिए सज़ा का प्रावधान किया गया है।
कैसे जानें डीपफेक के बारे में?
किसी भी डीपफेक सामग्री को जानने के लिए कुछ बिंदुओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।
आंखों को देखकर-अगर कोई वीडियो डीपफ़ेक है तो उसमें लगा चेहरा पलक नहीं झपक पाएगा।
होठों को ध्यान से देखकर-डीपफेक वीडियो में होठों के मूवमेंट और बातचीत में सामंजस्य नहीं दिखाई देगा।
बाल और दांत के जरिए-डीपफेक में बाल के स्टाइल से जुड़े बदलाव को दिखाना मुश्किल होता है और दांत को देखकर भी पहचाना जा सकता है कि वीडियो डीपफेक है।
जानकारों का मानना है कि डीपफेक एक बड़ी समस्या है और इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून बनाए जाने की जरूरत है नहीं तो भविष्य में इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। (bbc.com)
-महेन्द्र पांडे
हम आज जिस चरम पूंजीवाद के दौर से गुजर रहे हैं, उसमें जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने के लिए किसी गंभीर पहल की उम्मीद करना व्यर्थ है। पूंजीवाद पहले समस्याएं पैदा करता है और फिर उन्हीं समस्याओं से मुनाफा कमाता है। तापमान वृद्धि में साल-दर-साल तेजी आ रही है, पर पूंजीवादी व्यवस्था ने इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर उर्जा और पवन ऊर्जा का एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। पूंजीवादी व्यवस्था ही अब प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर देशों में सत्ता का निर्धारण करती है, इसीलिए दुनिया की तमाम सरकारें जलवायु परिवर्तन को रोकने की चर्चा करने के नाम पर हरेक वर्ष बस पिकनिक मनाती हैं और फिर ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल में निर्बाध गति से झोकती हैं।
हाल में ही संयुक्त राष्ट्र के वल्र्ड मेटेरिओलोजिकल आर्गेनाईजेशन (डब्लूएमओ) ने बताया है कि वर्ष 2022 में वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता अभूतपूर्व स्तर तक पहुँच गयी और इनमें कमी आने के आसार कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल (वर्ष 1750) की तुलना में 150 प्रतिशत अधिक हो चुकी है, वर्ष 2022 में इसकी औसत सांद्रता 420 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) तक पहुँच गयी। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की ऐसी सांद्रता 30 से 50 लाख वर्ष पहले भी नहीं थी, जब पृथ्वी का औसत तापमान अभी की तुलना में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक था और औसत समुद्र तल अभी की तुलना में 10 से 20 मीटर अधिक था। इसी तरह, वायुमंडल में मीथेन की सांद्रता 1923 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी) तक पहुंच गई, यह सांद्रता वर्ष 1750 यानि पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 264 प्रतिशत अधिक है। तीसरी सबसे प्रभावी ग्रीनहाउस गैस, नाइट्रस ऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता 335.8 पीपीबी तक पहुंच गई है, यह सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 124 प्रतिशत अधिक है।
जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि रोकने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र के तहत हरेक वर्ष कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) का जलसा आयोजित किया जाता है। इस वर्ष कॉप-28 का आयोजन दुबई में 30 नवम्बर से किया जा रहा है। हरेक वर्ष की तरह भी इसमें बड़े-बड़े वादे किये जाएंगे, हरेक देश अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा हितैषी घोषित करेगा, जलसे के अंत में घोषणा की जायेगी कि आयोजन सफल रहा – पर अगले साल तापमान वृद्धि में पहले से अधिक तेजी आ गयी होगी। हरेक देश ऐसे सम्मेलनों में नेट जीरो, यानि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य करने का दावा करते हैं, पर डब्लूएमओ की रिपोर्ट में कहा गया है तमाम देश जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की हरेक नीति में असफल रहे हैं। यदि दुनिया को इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकना है तो फिर प्रयासों में कई गुना तेजी लानी होगी। दुनिया कोयले के उपयोग को जिस दर से कम करती जा रही है, उससे 7 गुना अधिक दर से यह काम करना पड़ेगा।
डब्लूएमओ के सेक्रेटरी जनरल, प्रोफेसर पेत्तेरी टालस के अनुसार, जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के संदर्भ में दुनिया विपरीत और गलत दिशा में जा रही है। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन देखकर यह स्पष्ट है कि दुनिया इसे नियंत्रित करने के बारे में सोच ही नहीं रही है, ऐसे में इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने का लक्ष्य ही बेईमानी है। वर्ष 1990 में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत साद्रता 350 पीपीएम थी, पर वर्ष 2022 तक पृथ्वी के गर्म होने का प्रभाव 50 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और इसमें 80 प्रतिशत योगदान अकेले कार्बन डाइऑक्साइड का ही है।
संयुक्त राष्ट्र क्लाइमेट चेंज ने हाल में ही दुनिया के 195 देशों द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय जलवायु कार्य योजना, जिसमें 20 संशोधित कार्य योजनायें भी सम्मिलित हैं, का अध्ययन कर बताया है कि इस कार्य योजनाओ को यदि पूरा भी कर लिया जाये तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोका नहीं जा सकेगा। फिर से संशोधित कार्ययोजनाओं को प्रस्तुत करने की अवधि वर्ष 2025 में है, जाहिर है इन दो वर्षों में इसके आगे कुछ भी नहीं होना है।
दुनिया इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की चर्चा करती है, घोषणा करती है और तमाम सम्मेलन आयोजित करती है, पर औद्योगिक युग के शुरुआती दौर से अब तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस शताब्दी के अंत में अभी 77 वर्ष शेष हैं। वैज्ञानिकों का आकलन है कि तापमान वृद्धि को रोकने के सन्दर्भ में दुनिया विफल रही है और यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तब सभी देशों को इसे रोकने की योजनाओं में कम से कम 45 प्रतिशत अधिक तेजी लानी पड़ेगी। दुनिया यदि ऐसी योजनाओं को 30 प्रतिशत अधिक तेजी से भी ख़त्म कर पाती है तब भी तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है। अभी तापमान वृद्धि का जो लक्ष्य तमाम राष्ट्रीय कार्य योजनाओं में दिखता है, यदि सभी योजनाओं और लक्ष्यों को समय से पूरा कर भी लिया जाए तब भी वर्ष 2100 तक तापमान वृद्धि 2.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जायेगी। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत कटौती की जरूरत है, जबकि वर्तमान परिस्थितियों में 10 से 20 प्रतिशत की कटौती ही संभव हो सकती है।
क्लाइमेट सेंट्रल नामक पर्यावरण से जुडी संस्था ने एक रिपोर्ट में बताया है कि पिछले एक वर्ष के दौरान तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से दुनिया की 7.6 अरब, यानि 96 प्रतिशत, आबादी प्रभावित हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रभाव की तीव्रता किसी क्षेत्र में कम और किसी में अधिक हो सकती है, पर प्रभाव हरेक जगह पड़ा है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय देश और छोटे द्वीपों वाले देश हैं, जिनका ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान लगभग नगण्य है।
साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण वर्ष 1990 से अबतक दुनिया को खरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। अमीर देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार हैं पर उनके सकल घरेलू उत्पाद में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण औसतन 1.5 प्रतिशत की गिरावट आई है, दूसरी तरफ अमीर देशों के कारण जलवायु परिवर्तन की मार झेलते गरीब देशों के सकल घरेलू उत्पाद में औसतन 6.7 प्रतिशत की हानि हो रही है।
पिछले 40 वर्षों से भी अधिक समय से वैज्ञानिक इससे आगाह कर रहे थे। शुरू में वैज्ञानिकों ने कहा कि तापमान वृद्धि के ऐसे संभावित प्रभाव हो सकते हैं – दुनिया उदासीन रही। इसके बाद वैज्ञानिकों ने कहा, तापमान वृद्धि के ऐसे प्रभाव हो रहे हैं, दुनिया फिर उदासीन बनी रही। पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिकों के साथ ही प्राकृतिक आपदाएं स्वयं बता रही हैं कि तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव है, पर दुनिया अभी तक उदासीन है। अब यह आपदाएं एक-दो दिनों के समाचार से अधिक कोई महत्व नहीं रखतीं। बस इन्हीं एक-दो दिनों के लिए हम जलवायु परिवर्तन के बारे में भी बात कर लेते हैं। इन दिनों पूरी दुनिया जंगलों की आग, भयानक सूखा, बाढ़ और रिकॉर्ड तोड़ गर्मी से परेशान है। हरेक सरकार इन आपदाओं से प्रभावित लोगों की कुछ हद तक मदद कर रही है, पर ऐसी आपदाओं को भविष्य में कम किया जा सके, इसके बारे में कोई भी सरकार नहीं सोच रही है। पिछले वर्ष भी गर्मियों में ऐसे ही हालात थी, पर कुछ दिनों बाद ही सारी सरकारें इन आपदाओं को भूल गईं।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्रचंड गर्मी, असहनीय सर्दी, जंगलों की आग, जानलेवा सूखा, लगातार आती बाढ़ और ऐसी ही दूसरी आपदाओं से पूरी दुनिया बेहाल है, और इन आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती जा रही है। इन सबका असर हरेक देश की सामान्य आबादी पर ही पड़ता है। पूंजीवाद और सत्ता इन आपदाओं को प्राकृतिक आपदा साबित करती रहती है, पर यह सब पूंजीवाद की देन है। सत्ता और पूंजीवाद की जुगलबंदी के कारण पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन का असर भुगत रही है। (navjivanindia.com)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
क्रिकेट हमारे लिए पैंट शर्ट और अंग्रेजी भाषा की तरह अंग्रेजों द्वारा भद्र जन का खेल कहकर दी गई सौगात है लेकिन बाजार और सट्टेबाजों ने क्रिकेट को आकाश पर चढ़ाकर हमारे देश की बड़ी आबादी के लिए दाल रोटी की तरह बुनियादी जरूरत बना दिया। इस खेल के नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के सरंक्षण में आने से सबसे ज्यादा समय बर्बाद करने वाला क्रिकेट हमारे हॉकी, कबड्डी, रेसलिंग,वॉलीबॉल और फुटबॉल जैसे परंपरागत खेलों के शीर्ष पर बैठ गया है। यह अकारण नहीं है कि अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, जापान और फ्रांस जैसे विकसित देश क्रिकेट को कतई बढ़ावा नहीं देते। दूसरी तरफ हमारे देश में प्रधानमन्त्री, गृहमंत्री और कई मुख्यमंत्री क्रिकेट को हद से ज्यादा अहमियत देते हैं। यहां तक कि क्रिकेट का मैनेजमेंट भी मंत्रियों के रिश्तेदार करते हैं जिन्हें क्रिकेट का कोई इल्म नहीं लेकिन इसमें पैसा और शोहरत ठूंस-ठूंसकर भरे हैं इसलिए नेताओं के परिजन इस खेल का नियंत्रण चाहते हैं।
आजादी के पहले केवल उच्च मध्यम वर्ग के परिवार अंग्रेजों की नकल करते थे,अब हमारी अधिसंख्य आबादी में अंग्रेजी भाषा से लेकर पहनावे और खेल तक की अंग्रेजियत भरी है। इसी के चलते पिछ्ले दो महीने क्रिकेट के विश्व कप का महीने से ज्यादा लंबा चला बुखार था। सट्टा बाजार, मीडिया और इंटरनेशनल और भारतीय क्रिकेट काउंसिल के प्रचार के कारण देश में क्रिकेट को इतना हाईप मिला है कि इसी खेल की वजह से सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिला और उन्हें क्रिकेट का भगवान कहा गया। अब विराट कोहली उनसे आगे निकल गया, उसके लिए भी भारत रत्न की मांग उठेगी। आजकल जिधर भी नजऱ दौड़ाएं महानगरों से लेकर दूरदराज के गांवों में तरह तरह की गेंदों, तरह तरह की गिल्लियों और तरह तरह के बैट्स से क्रिकेट खेलते युवा और बच्चे मिल जाएंगे। यदि यह विश्व कप हम जीत जाते तो सत्ताधारी दल और मीडिया इसे सालों तक तरह तरह से भुनाता रहता। ऑस्ट्रेलिया ने हमेशा की तरह जबरदस्त प्रदर्शन कर वह मौका छीन लिया।
यह विश्व कप फाइनल कई विवादों को भी जन्म दे गया। देश के लिए दो विश्व कप जीतने वाली टीम के सदस्यों और उनके कप्तान कपिल देव और धोनी को निमंत्रित नहीं किया गया। कपिल देव 1983 की पूरी टीम को भी इस अवसर पर बुलाना चाहते थे। सरकार ने ऑस्ट्रेलिया के पी एम को आमंत्रित किया लेकिन वह अपने घरेलू जांबाजों को भूल गई। यह प्रशासनिक चूक नहीं हो सकती। कुछ दिन पहले 1983 का क्रिकेट विश्व कप जीतने वाली पूरी टीम ने महिला पहलवानों के पक्ष में अपील जारी की थी। निश्चित रूप से सरकार के लिए वह अपील शर्मिंदगी का सबब थी , शायद इसीलिए विजेता टीम के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार हुआ है। कपिल देव और धोनी क्रमश: हमारी पीढ़ी और युवा पीढ़ी के आदर्श खिलाड़ी रहे हैं, उनकी अनुपस्थिति से हम सब भी बेहद निराश हुए हैं।
खेल में हार-जीत होती रहती है। यह सच में दुखद है कि पूरे टूर्नामेंट में अजेय रहने वाली भारतीय टीम अपने देश के मैदान में अपनी जबरदस्त प्रशंसक भीड़ की उपस्थिति में बगैर संघर्ष किए ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। बैटिंग, बॉलिंग और फील्डिंग के तीनों प्रभाग सामान्य टीम जैसे रहे। सब खिलाडिय़ों का एक साथ खराब प्रदर्शन लोगों के गले उतरना आसान नहीं है इसीलिए सोसल मीडिया पर बहुत से लोग अपनी तरह से हार का विश्लेषण कर रहे हैं और मैच को संदेह की नजर से भी देख रहे हैं। नतीजा कुछ भी रहा हो लेकिन बात बात में पर्ची निकालकर भविष्य बताने वाले धीरेंद्र शास्त्री की पर्ची फेल हों गई और धुरंधर ज्योतिषियों की भविष्यवाणी और पुरोहितों के जीत के यज्ञ फेल हो गए। उम्मीद है इन सबके द्वारा आए दिन मूर्ख बनती जनता इन अंधविश्वास फैलाने वालों की हकीकत समझेगी।
-महिपाल नेगी
मैं भूगर्भ विज्ञान का विद्यार्थी नहीं रहा हूं लेकिन यदि मुझे फिर से पढऩे का मौका मिले तो मैं भूगर्भ विज्ञान विषय अवश्य चुनूंगा। जब भी हिमालय में किसी क्षेत्र में कुछ बड़ी भूगर्भी हलचल होती है, तो मैं हिमालय के विख्यात भूगर्भ वैज्ञानिक प्रोफेसर के एस वाल्दिया की कोई किताब ढूंढने लग जाता हूं। हिमालय के भूगर्भ के समग्र जानकार रहे हैं प्रोफेसर वाल्दिया।
जब उत्तरकाशी में चार धाम की सुरंग बंद होने से 41 मजदूर फंसे, तब भी मैंने ऐसे ही किया कि इस क्षेत्र के बारे में उन्होंने कुछ कहा हो। मैं चौंक उठा। उनकी पुस्तक‘हाई डैम्स इन द हिमालय’ में उस क्षेत्र के भूगर्भ के बारे में भी कुछ है जहां यह सुरंग बन रही है।
टोंस /श्रीनगर भ्रंस जोकि सक्रिय मानी जाती है, लघु हिमालय की इस पर्वत श्रृंखला ‘राड़ी डांडा’ को यमुना से लेकर गंगा तक काटती है। यमुना को नौगांव के पास तो गंगा को धरासू के पास। इसके ऊपर है राड़ी डांडा। जहां सुरंग बन रही है, टोंस भ्रंस कुछ किलोमीटर दूर है, लेकिन पुस्तक में उनके कुछ मानचित्र प्रकाशित हुए हैं, उससे स्पष्ट होता है की राड़ी श्रृंखला को कुछ स्थानीय फॉल्ट भी काटते हैं।
और ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि भ्रंस और पहाड़ी को दो स्थानीय फॉल्ट उन्हीं जगह उत्तर से दक्षिण काट रहे हैं, जहां सुरंग बन रही है। सुरंग के निकट शेयर जोन की बात एक भूगर्भ विज्ञानी कल ही इस सुरंग स्थल पर सुरंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स को बता रहे थे, संयोग से टी वी पर मैंने भी यह बात सुनी।
प्रोफेसर वाल्दिया की पुस्तक से ज्ञात होता है कि शेयर जोन 2 - 3 मीटर से लेकर 11 - 22 मीटर तक भी फैले हो सकते हैं। जहां सुरंग में भूस्खलन हुआ, क्या वह एक बड़ा शेयर जोन है। और ऐसे कितने और शेयर जोन 4.5 किलोमीटर की सुरंग के निकट होंगे। भू - सक्रियता के कारण शेयर जोन के खुलने का डर रहता है। क्या ब्लास्टिंग और कटिंग से शेयर जोन पर असर नहीं पड़ा होगा? मशीनों से भी भूकंपन तो होता ही है।
क्योंकि ‘राड़ी डांडा’ भी लघु हिमालय श्रृंखला का हिस्सा है, जोकि ‘फिलाइटी क्वार्टजाइटी’ चट्टानों से भरा पड़ा है। चट्टानें भुरभरी और दरारों से कटी फटी है।
ख़ास बात यह भी कि दो दिन पहले सुरंग में मलवा साफ करने के दौरान जब मजदूरों ने चट्टानों के चटकने की आवाज़ें सुनी, उसका उल्लेख भी प्रोफेसर वाल्दिया की किताब में है। उन्होंने इसे ‘शॉक वेव’ कहा है। यह भी कहा गया है की जकड़े गए भ्रंशों को छेडऩा भी घातक हो सकता है।
लघु हिमालय की कुछ श्रृंखलाओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जो छोटी नदियां-बड़ी नदियों में मिलती हैं, उनका मिजाज भी क्षेत्र की सक्रियता को दर्शाता है। इस क्षेत्र से भागीरथी में मिलने वाली क्रमश: स्यांसू, नगुण, खुरमोला और नाकुरी गाड का मिजाज देखें तो यह सभी तीव्र प्रवणता वाली ढलानों पर वेग से बहती हैं और अब तक भी सामान्य प्रवणता स्थापित नहीं कर पाई हैं।
राड़ी पर्वत श्रृंखला यमुना और गंगा दोनों का जल ग्रहण क्षेत्र है। सुरंग के ऊपरी क्षेत्र का आधा पानी यमुना में तो आधा गंगा में आता है। सुरंग की डीपीआर बनाने वालों ने प्रोफेसर के एस वाल्दिया या हिमालय के अन्य विख्यात भूगर्भ विज्ञानियों के अध्ययन को पढ़ा और समझा होगा?
अब भी पढ़ें और समझें। यह जो उत्तर-पश्चिम के दो फॉल्ट और बड़े शेयर जोन हैं, इनकी फिर से डिटेल स्टडी कीजिए।
कुछ दिन पहले की बात है। मैंने अपने बच्चों की गवर्नेस जूलिया को अपने पढऩे के कमरे में बुलाया और कहा-‘बैठो जूलिया।’ मैं तुम्हारी तनख्वाह का हिसाब करना चाहता हूँ। मेरे खयाल से तुम्हें पैसों की जरूरत होगी और जितना मैं तुम्हें अब तक जान सका हूँ, मुझे लगता है तुम अपने आप तो कभी पैसे माँगोगी नहीं। इसलिए मैं खुद तुम्हें पैसे देना चाह रहा हूँ। तो बताओ कितनी फीस तय हुई थी। तीस रूबल ना?’
‘जी नहीं, चालीस रुबल महीना।’ जूलिया ने दबे स्वर में कहा।
‘नहीं भाई तीस। मैंने डायरी में नोट कर रखा है। मैं बच्चों की गवर्नेस को हमेशा तीस रुबल महीना ही देता आया हूँ। अच्छा... तो तुम्हें हमारे यहाँ काम करते हुए कितने दिन हुए हैं, दो महीने ही ना?
‘जी नहीं, दो महीने पाँच दिन।’
‘क्या कह रही हो! ठीक दो महीने हुए हैं। भाई, मैंने डायरी में सब नोट कर रखा है। तो दो महीने के बनते हैं- साठ रुबल। लेकिन साठ रुबल तभी बनेंगे, जब महीने में एक भी नागा न हुआ हो। तुमने इतवार को छुट्टी मनाई है। इतवार-इतवार तुमने काम नहीं किया। इतवार को तुम कोल्या को सिर्फ घुमाने ले गई हो। इसके अलावा तुमने तीन छुट्टियाँ और ली हैं...।’
जूलिया का चेहरा पीला पड़ गया। वह बार-बार अपने ड्रेस की सिकुडऩें दूर करने लगी। बोली एक शब्द भी नहीं।
हाँ तो नौ इतवार और तीन छुट्टियाँ यानी बारह दिन काम नहीं हुआ। मतलब यह कि तुम्हारे बारह रुबल कट गए। उधर कोल्या चार दिन बीमार रहा और तुमने सिर्फ तान्या को ही पढ़ाया। पिछले सप्ताह शायद तीन दिन हमारे दाँतों में दर्द रहा था और मेरी बीबी ने तुम्हें दोपहर बाद छुट्टी दे दी थी। तो इस तरह तुम्हारे कितने नागे हो गए? बारह और सात उन्नीस। तुम्हारा हिसाब कितना बन रहा है? इकतालीस। इकतालीस रुबल। ठीक है न ?
जूलिया की आँखों में आँसू छलछला आए। वह धीरे से खाँसी। उसके बाद अपनी नाक पोंछी, लेकिन उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला।
हाँ एक बात तो मैं भूल गया था’ मैंने डायरी पर नजर डालते हुए कहा- ‘पहली जनवरी को तुमने चाय की प्लेट और प्याली तोड़ डाली थी। प्याली का दाम तुम्हें पता भी है? मेरी किस्मत में तो हमेशा नुकसान उठाना ही लिखा है। चलो, मैं उसके दो रुबल ही काटूँगा। अब देखो, तुम्हें अपने काम पर ठीक से ध्यान देना चाहिए न? उस दिन तुमने ध्यान नहीं रखा और तुम्हारी नजर बचाकर कोल्या पेड़ पर चढ़ गया और वहाँ उलझकर उसकी जैकेट फट गई। उसकी भरपाई कौन करेगा? तो दस रुबल उसके कट गए। तुम्हारी इसी लापरवाही के कारण हमारी नौकरानी ने तान्या के नए जूते चुरा लिए। अब देखो भाई, तुम्हारा काम बच्चों की देखभाल करना है। इसी काम के तो तुम्हें पैसे मिलते हैं। तुम अपने काम में ढील दोगी तो पैसे तो काटना ही पड़ेंगे। मैं कोई गलत तो नहीं कर रहा हूँ न?
तो जूतों के पाँच रुबल और कट गए और हाँ, दस जनवरी को मैंने तुम्हें दस रुबल दिए थे...।’
‘जी नहीं, आपने मुझे कुछ नहीं दिया...।’
जूलिया ने दबी जुबान से कहना चाहा।
‘अरे तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? मैं डायरी में हर चीज नोट कर लेता हूँ। तुम्हें यकीन न हो तो दिखाऊँ डायरी?
‘जी नहीं। आप कह रहे हैं, तो आपने दिए ही होंगे।’
‘दिए ही होंगे नहीं, दिए हैं।’
मैं कठोर स्वर में बोला।
‘तो ठीक है, घटाओ सत्ताइस इकतालीस में से... बचे चौदह.... क्यों हिसाब ठीक है न?
उसकी आँखें आँसुओं से भर उठीं। उसके शणीर पर पसीना छलछला आया। उसकी आवाज काँपने लगी। वह धीरे से बोली- ‘मुझे अभी तक एक ही बार कुछ पैसे मिले थे और वे भी आपकी पत्नी ने दिए थे। सिर्फ तीन रुबल। ज्यादा नहीं।’
‘अच्छा’ मैंने आश्चर्य के स्वर में पूछा और इतनी बड़ी बात तुमने मुझे बताई भी नहीं? और न ही तुम्हारी मा?लकिन ने मुझे बताई। देखो, हो जाता न अनर्थ। खैर, मैं इसे भी डायरी में नोट कर लेता हूँ। हाँ तो चौदह में से तीन और घटा दो। इस तरह तुम्हारे बचते हैं ग्यारह रुबल। बोलो भाई, ये रही तुम्हारी तनख्वाह...? ये ग्यारह रुबल। देख लो, ठीक है न?
जूलिया ने काँपते हाथों से ग्यारह रुबल ले लिए और अपने जेब टटोलकर किसी तरह उन्हें उसमें ठूँस लिया और धीरे से विनीत स्वर में बोली - ‘जी धन्यवाद।’
मैं गुस्से से आगबबूला होने लगा। कमरे में टहलते हुए मैंने क्रोधित स्वर में उससे कहा -
‘धन्यवाद किस बात का?’
‘आपने मुझे पैसे दिए-इसके लिए धन्यवाद।’
अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने ऊँचे स्वर में लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो, जबकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने तुम्हें ठग लिया है। तुम्हें धोखा दिया है। तुम्हारे पैसे हड़पकर तुम्हारे साथ अन्याय किया है। इसके बावजूद तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो।’
‘जी हाँ, इससे पहले मैंने जहाँ-जहाँ काम किया, उन लोगों ने तो मुझे एक पैसा तक नहीं दिया। आप कम से कम कुछ तो दे रहे हैं।’ उसने मेरे क्रोध पर ठंडे पानी का छींटा मारते हुए कहा।
‘उन लोगों ने तुम्हें एक पैसा भी नहीं दिया। जूलिया! मुझे यह बात सुनकर तनिक भी अचरज नहीं हो रहा है। मैंने कहा। फिर स्वर धीमा करके मैं बोला - जूलिया, मुझे इस बात के लिए माफ कर देना कि मैंने तुम्हारे साथ एक छोटा-सा क्रूर मजाक किया। पर मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता था। देखो जूलिया, मैं तुम्हारा एक पैसा भी नहीं काटूँगा।
देखो, यह तुम्हारे अस्सी रुबल रखे हैं। मैं अभी तुम्हें देता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुमसे कुछ पूछना चाहूँगा।
जूलिया! क्या जरूरी है कि इंसान भला कहलाए जाने के लिए इतना दब्बू और बोदा बन जाए कि उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसका विरोध तक न करे? बस चुपचाप सारी ज्यादतियाँ सहता जाए? नहीं जूलिया, यह अच्छी बात नहीं है। इस तरह खामोश रहने से काम नहीं चलेगा। अपने आप को बनाए रखने के लिए तुम्हें इस संसार से लडऩा होगा। मत भूलो कि इस संसार में बिना अपनी बात कहे कुछ नहीं मिलता...।
जूलिया ने यह सबकुछ सुना व फिर चुपचाप चली गई। मैंने उसे जाते हुए देखा और सोचा - ‘इस दुनिया में ताकतवर होना कितना आसान है।
त्रिभुवन
स्वतंत्रता के बाद वक्ष खोले लोकतंत्र की अमराइयां हिलोरें लेने लगीं तो राजस्थान की सुनहरी सरज़मीं पर गर्व से आकाश थामे खड़ी सदियों पुरानी राजशाही के चेहरे ही एकबारगी पीले नहीं पड़े, उनके अस्तित्व के पाए भी चरमरा गए।
लेकिन वे हारे नहीं और प्रदेश में अंकुराती राजनीति के रथ में जुते अश्वों की वल्गा अपने हाथ में बड़ी कुशलता से रखने की भरसक कोशिशें कीं।
राजस्थान निर्माण के बाद प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री का नाम जयपुर महाराजा की प्रशंसा और अनुशंसा के बाद देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सिटी पैलेस में तय किया। यह नाम था हीरालाल शास्त्री।
प्रदेश में तीन साल बाद विधानसभा के चुनाव होने थे और उससे पहले लोकतंत्र की कोंपलें यहाँ किसी जनस्थल पर नहीं, एक ऐसे राजमहल में फूटीं, जो पिछले 217 साल से राजतंत्र के शक्ति केंद्र के लिए जाना जाता रहा था।
स्वतंत्रता की लड़ाई लडऩे वाले योद्धा जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा और गोकुलभाई भट्ट सहित कितने ही नेताओं के लिए बैठने तक की व्यवस्था नहीं की गई थी।
समारोह की अग्रिम पंक्तियों में राजे-महाराजे, जागीरदार, ठिकानेदार और नवाबों के साथ-साथ बड़े नौकरशाहों और आभिजात्य वर्ग के लिए स्थान आरक्षित किए गए थे।
यह देखकर कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता लाने में अग्रणी रहे नेता समारोह का बहिष्कार करके चले गए। किसी ने आजादी के आंदोलन में भागीदार रहे इन नायकों को रोकने, मनाने और वापस लाने की भी कोशिश नहीं की।
हैरानी की बात है कि उस समय वहाँ देश के उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल मौजूद थे।
राजस्थान की राजनीति में राजघराने
पहले मुख्यमंत्री पद और बाद में मंत्रिमंडल गठन को लेकर 1949 में कांग्रेस के नेताओं में कटुता और विवाद का शुरू हुआ सिलसिला 2023 तक रुकने और थमने का नाम नहीं ले रहा है।
इस कलह ने हीरालाल शास्त्री को जाने पर विवश किया और 20 जनवरी, 1951 को जयनारायण व्यास नए मुख्यमंत्री तय हुए, जिन्होंने 26 अप्रैल, 1951 को शपथ ली।
इसी साल प्रदेश की 160 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव तय हुए, जो 1952 में पूरे हुए।
लगातार अंतर्विरोधों और कलह से ग्रस्त कांग्रेस इस चुनाव में हारते-हारते बची और 82 सीटें ला सकी।
स्पष्ट बहुमत के लिए 81 सीटों की ज़रूरत थी। इस चुनाव में रजवाड़े भी लड़े। उनकी पसंद राम राज्य परिषद थी, जिसे 24 सीटें मिलीं।
इस चुनाव में सबसे दिलचस्प रहा मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास का दो रजवाड़ों के सामने बुरी तरह हारना। वे दो जगह लड़े और दोनों जगह पूर्व राजघरानों के प्रतिनिधियों से हारे।
जोधपुर में महाराजा हनुवंत सिंह से और जालोर-ए सीट पर एक माधोसिंह से। हनुवंतसिंह स्वतंत्र लड़े थे और माधोसिंह राम राज्य परिषद से।
प्रदेश की लोकतांत्रिक राजनीति को राजघरानों की यह शुरुआती चुनौती और चेतावनी थी।
लोकतंत्र का राग राजस्थान की धमनियों में बजने लगा; रजवाड़े लगातार अपनी भृकुटियां ताने रहे। जागीरदारों ने सरकारी प्रशासन का कामकाज करना तक मुहाल कर दिया।
इन हालात को पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय समझा गया और न ही लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में।
इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने चार अहम क़ानूनों के माध्यम से बड़े बदलाव लाकर राजशाही के ऊंचे धोरों को पूरी तरह समतल कर दिया और वे आम आदमी के बराबर हो गए।
ये बदलाव थे- प्रीविपर्स क़ानून लाकर राजघरानों को मिलने वाला पैसा और विशेष सम्मान बंद करना, सीलिंग एक्ट के माध्यम से उनकी जमीनें भूमिहीनों को देना, वेपन एक्ट के माध्यम से राजघरानों के लोगों का हथियारों से सुसज्जित रहना बंद करना और आम लोगों में भय को समाप्त करना और गोल्ड एक्ट के माध्यम से उनकी परंपरागत संपन्नता पर रोक।
आजकल यह प्रश्न अहम है कि राजघरानों का मोह भाजपा के प्रति क्यों है? इसका सहज जवाब यह है कि इंदिरा गांधी नए बदलावों के माध्यम से राजस्थान के रजवाड़ों को धरातल पर ले आईं।
उनका वैभव धूमिल हो गया और ग्लोरी अतीत की एक लोरी बनकर रह गई। वे अब आम नागरिक के बराबर हो गए। रजवाड़ों को यह बात आज भी सालती है।
राजस्थान के राजघराने और भाजपा
इतिहासकार और रजवाड़ों की राजनीति के जानकार प्रो। राजेंद्र सिंह खंगारोत बताते हैं, ‘किसी के भी विशेषाधिकार छिनते हैं तो वह सत्ताविरोधी हो जाता है। यही बात राजस्थान के राजघरानों के साथ थी।’
‘कांग्रेस के कार्यकाल में उनके विशेषाधिकार छिने तो उन्होंने ऐसी पार्टी के साथ तालमेल बिठाने के लिए तलाश शुरू की, जो उनके अधिकारों की रक्षा तो नहीं तो कम से कम उन्हें छीने तो नहीं।’
वे पहले रामराज्य परिषद और फिर स्वतंत्र पार्टी से जुड़े। स्वतंत्र पार्टी का विलय हुआ तो बाद में भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से यह जुड़ाव सहज होता चला गया। कुछ राजघराने कांग्रेस में भी गए।
किसी भी राजघराने के बूढ़े व्यक्ति से राजस्थान में मिलें तो वे साफ़ कहेंगे कि कांग्रेस ने पहले उनका राज छीना, फिर जागीरें छीनीं, फिर प्रिवीपर्स ख़त्म किए, विशालकाय कृषि भूमियों से वंचित कर दिया, शस्त्रहीन कर दिया और वे इसके बाद भी नहीं रुके, उसने हमारे सोने, चांदी और हीरों वाले बहुमूल्य आभूषणों से भी हमें विहीन कर दिया।
कुछ लोग इसे समाजवाद की आंधी कहते हैं और कुछ लोग आजादी के बाद की समता।
लेकिन इन हालात के बाद राजस्थान की राजनीतिक सरज़मीं पर राजशाही के कुछ फूल कुम्हला गए, कुछ सूखकर झर गए और कुछ अपने होने के लिए खिले रहने की कोशिश करते रहे।
लेकिन इनके लिए फिर से खड़े होने का समय आया भैरोसिंह शेखावत और वसुंधरा राजे के कार्यकाल में।
शेखावत जनसंघ के शुरुआती नेताओं में अकेले ऐसे थे, जिन्होंने जागीरदारी प्रथा उन्मूलन में जागीरदारों का विरोध और लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन किया था।
पहले चुनाव के बाद हनुवंत सिंह का एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया और रजवाड़ों की सत्ता प्राप्ति का सपना टूट गया।
अलबत्ता, करौली से प्रिंस ब्रजेंद्रपाल, कुम्हेर से राजा मान सिंह, नवलढ़ से भीम सिंह, ठिकाना उनियारा से राव राजा सरदार सिंह, आमेर बी से महारावल संग्राम सिंह, जैसलमेर से हड़वंत सिंह, सिरोही से जवान सिंह, बाली से लक्ष्मण सिंह, जालोर ए से माधो सिंह, जोधपुर शहर बी से हनवंत सिंह, कुम्हेर से राजा मान सिंह, अटरू से राजा हिम्मत सिंह और बनेड़ा से राजा धीरज अमर सिंह जैसे लोग जीते।
राजस्थान में राजघरानों का प्रारंभिक परिदृश्य बताता है कि प्रदेश की राजनीति में आज सबसे चर्चित और बड़े नामों ने अपनी जगह लोकसभा में जाकर बनाई। भले वे जयपुर राजघराने के लोग रहे हों या अलवर-भरतपुर के।
जयपुर राजघराने का कोई सदस्य विधानसभा चुनाव में विद्याधरनगर सीट से पहली बार उतरा है।
वह हैं दीया कुमारी। यहाँ से भाजपा के संस्थापकों में प्रमुख रहे नेता और प्रदेश की राजनीति के शक्ति केंद्र रहे भैरो सिंह शेखावत के दामाद का टिकट काटा गया है।
एक और वाकया टिकट घोषित होने के समय का है।
जयपुर के परकोटे में किताबों की एक दुकान पर मैं एक जहीन-शहीन कॉलेज शिक्षक से मिलता हूँ। बात चुनाव की चल निकलती है तो वे जयपुर की सियासी आबोहवा के बारे में बताने लगते हैं, इस बार टिकट दिया है दीया कुमारी को। वह राजघराने से हैं।
वे एक शेर सुनाते हैं, ‘शहजादी तुझे कौन बताए तेरे चराग-कदे तक कितनी मेहराबें पड़ती हैं, कितने दर आते हैं।’
पुस्तक विक्रेता उन्हें टोकता है, ‘साहब शेर तो आपका बहुत खू़बसूरत है; लेकिन दीया कुमारी के तो पीछे अभी से हुजूम है।’
जयपुर के पूर्व महाराजा ब्रिगेडियर भवानी सिंह और पद्मनी देवी की इकलौती बेटी दीया राजसमंद से लोकसभा सदस्य हैं। इससे पहले वे सवाई माधोपुर से भाजपा की विधायक रहीं।
महारानी गायत्री देवी ने दी थी
इंदिरा गांधी को चुनौती
दीया कुमारी की दादी महारानी गायत्री देवी 1962, 1967 और 1971 में स्वतंत्र पार्टी से जयपुर से तीन बार सांसद रही हैं। गायत्री देवी का शुमार उन शख्सियतों में है, जिन्होंने इंदिरा गांधी से सीधी टक्कर ली थी।
गायत्री देवी के बेटे पृथ्वीराज सिंह 1962 में दौसा से स्वतंत्र पार्टी से लोकसभा के लिए चुने गए थे। यानी उस साल दोनों माँ-बेटे लोकसभा में थे।
गायत्री देवी ने 1967 में टोंक जिले की मालपुरा सीट से स्वतंत्र पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था और वे कांग्रेस के दामोदर लाल व्यास के सामने हार गई थीं।
राजस्थान की राजनीति के पुराने जानकारों का आकलन है कि गायत्री देवी वह चुनाव नहीं हारतीं तो राजस्थान की गैर कांग्रेसी राजनीति की लगाम उसी महारानी के हाथ होती और संभवत: शेखावत के बजाय भाजपा का नेतृत्व 1977 में वे करतीं।
सौंदर्य और साहस की इस प्रतिमूर्ति ने अपने आखिरी दिनों में आम लोगों की समस्याओं को लेकर भाजपा की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ धरना तक दिया था।
वे इंदिरा गांधी से भी मुठभेड़ कर चुकी थीं। इंदिरा उन्हें इतना नापसंद करती थीं कि 1975 में उन्होंने टैक्स संबंधी कुछ मामलों को लेकर गायत्री देवी को कई महीनों तक जेल में डाल दिया था।
राजस्थान के राजपरिवार में माना जाता है कि इंदिरा के मन में गायत्री देवी के प्रति तभी से डाह थी, जब से अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की पत्नी जैक्लीन कैनेडी मार्च 1962 में कई दिन तक उनके यहाँ ठहरी थीं और उन्होंने जयपुर में हाथी की सवारी की, पोलो मैच देखे, बाजार घूमीं और उनकी निजी मेहमान बनकर रहीं।
वसुंधरा राजे के एक पुराने साक्षात्कार के अनुसार, राजमाता विजयराजे सिंधिया मानती थीं कि गायत्री देवी अपने समय में दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में थीं।
गायत्री देवी के बेटे ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने 1989 में लोकसभा का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था; लेकिन उन्हें भाजपा के एक साधारण कार्यकर्ता गिरधारीलाल भार्गव ने हरा दिया।
मेवाड़ के चुनावी मैदान में कितने राजघराने
जयपुर की तरह नाथद्वारा में देखें। वहाँ कांग्रेस के प्रखर नेता और राजनीतिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ प्रो सीपी जोशी का मुक़ाबला मेवाड़ के राजघराने के युवक विश्वराज सिंह मेवाड़ से है।
विधानसभा अध्यक्ष जोशी वर्षों से लोगों के बीच हैं और विश्वराज पहली बार क़दम रख रहे हैं। लेकिन मुकाबला कड़ा है।
राजस्थान के इस विधानसभा चुनाव में अनेक ऐसे क्षेत्रों में कमोबेश यही स्थिति है, जहाँ-जहाँ राजघरानों से जुड़े चेहरों को उतारा गया है।
भाजपा ने इस बार उदयपुर के पूर्व राजपरिवार से जुड़े लक्ष्यराज सिंह पर भी डोरे डाले थे; लेकिन वे राजनीति से दूर रहे। वे नहीं आए तो भाजपा विश्वराज सिंह को ले आई।
विश्वराज सिंह एक बार चित्तौडग़ढ़ से सांसद रहे महाराणा महेंद्र सिंह के बेटे हैं, जबकि लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ महेंद्र सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह मेवाड़ के बेटे हैं। दोनों परिवारों में उत्तराधिकार और परिसंपत्तियों को लेकर दूरियां हैं। लेकिन सिटी पैलेस अरविंद सिंह के पास है।
राजस्थान के दो राजघराने जाट हैं। ये हैं भरतपुर और धौलपुर।
धौलपुर के जाट राजघराने की बहू वसुंधरा राजे झालावाड़ की झालरापटन से 2003 से लगातार चुनाव जीत रही हैं तो उनके बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां लोकसभा सीट से 2004 से सांसद हैं।
वसुंधरा राजे का सफर
राजे 1985 में पहली बार भाजपा के टिकट पर धौलपुर से विधायक चुनी गईं। राजे झालावाड़ से 1991, 1996, 1998, 1999 तक लोकसभा की सदस्य रहीं।
प्रदेश की राजनीति में सबसे अधिक प्रभावी और सक्रियता के मामले में भरतपुर के जाट राजघराने से सब पीछे हैं।
इस घराने के विश्वेंद्र सिंह डीग-कुम्हेर सीट से 2013 से लगातार काँग्रेस विधायक हैं और सरकार में मंत्री हैं।
वे 1989 में जनता दल के सांसद बने और 1999 और 2004 में भाजपा से।
विश्वेंद्र सिंह 1993 में नदबई से विधायक चुने गए थे। उनकी पत्नी महारानी दिव्या सिंह एक बार विधायक और एक बार सांसद रही हैं।
विश्वेंद्र सिंह के पिता महाराजा ब्रिजेंद्र सिंह 1962 में लोकसभा और 1972 में विधानसभा के सदस्य रहे थे।
इसी राजघराने से संबंधित राजा मान सिंह डीग, कुम्हेर और वैर से अलग-अलग समय पर 1952 से 1980 तक सात बार विधायक रहे। वे 1985 के बहुचर्चित चुनाव के दौरान पुलिस गोलीकांड में मारे गए थे।
राजा मानसिंह की बेटी कृष्णेंद्र कौर दीपा 1985, 1990, 2003, 2008 और 2013 में विधायक रहीं। इस बार भाजपा ने उनका टिकट काट दिया है। वे 1991 में लोकसभा की सदस्य चुनी गईं।
इसी राजपरिवार के अरुण सिंह 1991 से 2003 तक लगातार चार बार विधायक रहे।
भरतपुर राजपरिवार के गिर्राजशरण सिंह उर्फ बच्चूसिंह पहले लोकसभा चुनाव में सवाई माधोपुर से विजयी हुए थे।
बीकानेर से लंबे समय तक महाराजा करणी सिंह 1952 से 1972 तक के चुनावों में लगातार लोकसभा सदस्य चुने जाते रहे। अब उनकी पौत्री सिद्धि कुमारी बीकानेर पूर्व से विधायक हैं। वो इस बार भी चुनाव मैदान में हैं।
अलवर राजघराना भी प्रमुख रहा है। भंवर जितेंद्र सिंह अभी काँग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं और राहुल गांधी के बेहद करीबी हैं। वे दो बार विधायक और एक बार सांसद रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार में केंद्र में मंत्री भी रहे। उनकी माँ युवरानी महेंद्रा कुमारी भाजपा की सांसद रह चुकी हैं।
जोधपुर राजघराना शुरू में बहुत प्रभावी था।
हनुवंत सिंह विधानसभा का चुनाव भी जीते और लोकसभा का भी। उनकी पत्नी राजमाता कृष्णा कुमारी 1972 से 1977 तक जोधपुर से लोकसभा की सदस्य रहीं। हनुवंतसिंह और कृष्णाकुमारी के बेटे गज सिंह भाजपा के समर्थन से 1990 के उप चुनाव में राज्यसभा भी पहुंचे।
कृष्णा कुमारी और हनुवंत सिंह की बेटी और हिमाचल प्रदेश की काँग्रेस नेता चंद्रेश कुमारी जोधपुर से सांसद भी चुनी गईं।
कोटा के पूर्व महाराजा बृजराज सिंह 1962 में काँग्रेस और 1967 और 1972 में झालावाड़ से भारतीय जनसंघ की टिकट पर लोकसभा के सदस्य रहे। वे 1977 और 1980 में काँग्रेस की टिकट पर लड़े; लेकिन हार गए।
बृजराज सिंह के बेटे इज्जेराज सिंह 2009 में कोटा लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुने गए; लेकिन 2014 में वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के सामने हार गए। इसके बाद इज्जेराज और उनकी पत्नी कल्पना देवी भाजपा में शामिल हो गए। कल्पना देवी लाडपुरा से 2018 में विधायक बनीं और अब फिर भाजपा की उम्मीदवार हैं।
करौली राजघराना भी राजनीति में सक्रिय रहा है। ब्रजेंद्रपाल सिंह 1952 और 1957 तथा 1962, 1967 और 1972 में विधायक रहे।
वे शुरू और आखिर में वे निर्दलीय थे; लेकिन बीच के दो चुनावों में वे कांग्रेस से चुने गए। इसी राजपरिवार की रोहिणी कुमारी 2008 में भाजपा से विधायक चुनी गईं।
गायत्री देवी और लक्ष्मण सिंही की रस्साकशी
इस दौरान 1958 से राजाधिराज सरदार सिंह खेतड़ी, महारावल लक्ष्मण सिंह, कुंवर जसवंत सिंह दाउदसर जैसे लोग राज्यसभा भी पहुंचे।
राजसी राजनीति का सबसे दिलचस्प मोड़ 1977 में उस समय आया, जब जनता पार्टी ने विजय प्राप्त की। उस समय महारावल लक्ष्मण सिंह के नेतृत्व में लगभग सारे राजघराने एक हुए। लेकिन जीत के बाद महारानी गायत्री देवी और लक्ष्मण सिंह के बीच रस्साकशी रही।
विवाद गहराता चला गया तो पहले से अवसर के लिए चौकन्ने भैरोसिंह शेखावत सक्रिय हुए। उन्होंने राजनीतिक सूझबूझ और अपनी कुशलता से ऐसे नेतृत्व हासिल किया और मुख्यमंत्री बन गए।
राजघरानों के ताकतवर चेहरों के बीच एक साधारण राजपूत के रूप में शेखावत ने मुख्यमंत्री बनकर जता दिया कि लोकतंत्र का आकाश अब राजघरानों के बजाय लोकआकांक्षाओं की पलकों पर झुक आया है।
शेखावत ने बैठकों के लिए सिटी पैलेस में जाने से इनकार कर दिया और राजसी ठाठबाठ वाले राजघरानों के प्रतिनिधि हाशिए पर आ गए।
महारावल लक्ष्मण सिंह को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया तो गायत्री देवी के कद के अनुसार आरटीडीसी का चेयरपर्सन बनाया गया। यह कार्पोरेशन उनके लिए ख़ास तौर पर गठित किया गया।
इसके बाद प्रदेश की राजनीति तेजी से बदली और राजघरानों के वैभव के बरक्स साधारण राजपूत नेताओं के नामों का एक प्रभावशाली एक्वेरियम तैयार हो गया।
इसमें जसवंत सिंह जसोल, कल्याण सिंह कालवी, तनसिंह, देवीसिंह भाटी, नरपत सिंह राजवी, सुरेंद्र सिंह राठौड़ और राजेंद्र सिंह राठौड़ जैसे कितने ही अनूठे नाम तैरने लगे।
इससे राजघरानों की राजनीति ने बेचैनी महसूस की।
राजस्थान की सियासत एक संकरी सुरंग से गुजरते हुए 1987 तक आई तो राजघरानों ने देखा कि देश के राजनीतिक परिदृश्य पर वीपी सिंह छाए जा रहे हैं।
बदलाव लाने वाले शेखावत
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती दी तो बड़े राजघरानों ने उनके साथ अपना भविष्य देखा।
दरअसल, वीपी सिंह राजस्थान के देवगढ़ ठिकाने के दामाद थे। इस तरह 1993 के चुनाव में राजपूत राजघरानों और ठिकानेदारों के लोगों को काफी टिकट दिए गए। पराक्रम सिंह बनेड़ा और वीपी सिंह बदनौर जैसे नेता उभरे।
शेखावत की सरकार बनी तो 1993 से 1998 के बीच गढ़ों-किलों और ठिकानों के दिन फिरे और नई पर्यटन नीति से नई बहार आई।
जिन सूने किलों की विशाल मेहराबों पर कबूतर बैठते थे, इस नीति के बाद वहाँ सरकारी सहायता और मार्गदर्शन से विदेशी पर्यटक आने लगे।
कभी धोरों की रेत में नहाए सूने किले अब चाँदनी में नहाने लगे और रेगिस्तान में संपन्नता की झीलें अठखेलियां करने लगीं।
चुनाव आए तो आरोप लगे कि शेखावत ने सारा खजाना राजमहलों और राजघरानों पर लुटा दिया है। नतीजा यह निकला कि भाजपा 200 में से 33 सीटों पर जा टिकी और कांग्रेस ने 153 सीटें हासिल कीं।
1998 में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार बनी और 2003 के चुनाव आए तो महारानी वसुंधरा राजे की आंधी चली और कांग्रेस 56 सीटों पर सिमट गई और भाजपा को 120 सीटें मिलीं।
भाजपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। वसुंधरा राजे परिवर्तन यात्रा पर निकलीं और प्रदेश का चप्पा-चप्पा छान मारा तो उन्हें जहाँ कहीं किसी राजघराने या राजपूत परिवार में राजनीति की संभावना दिखी, उन्होंने उसे आगे बढ़ाया।
अब उत्तर-वसुंधरा काल में भाजपा के नेतृत्व ने एक बार फिर राजघरानों के लिए कंधे चौड़े कर लिए हैं और सीना खोल दिया है।
प्रो. खंगारोत बताते हैं, ‘राजस्थान के सारे ही राजघराने उत्पीडक़ नहीं थे। लेकिन यह सच है कि सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता। राजों-नवाबों के लिए पहले जो लाल कालीन बिछता था, उस पर अब चुने हुए सत्ताधीश चलते हैं और वे मनमाने फैसले करते हैं।’ और उनके इन्हीं फैसलों की बदलौत पार्टियों के सामान्य कार्यकर्ता दरियां-बिछाते और नारे लगाते रह जाते हैं और राजमहलों में टिकट पहुँच जाते हैं। (bbc.com/hindi)
ब्रिटेन के लिश्टरशायर में रहने वाले 38 साल के साजन देवशी कहते हैं कि उन्होंने पैसिव इनकम के बारे में पहली बार 2020 के कोरोना लॉकडाउन के समय सुना था।
उस वक्त लगभग हर व्यक्ति अपने घर में बैठा था, तभी देवशी ने नोटिस किया कि बहुत सारे लोग फ़ेसबुक और टिकटॉक पेज पर पोस्ट लिखकर बता रहे थे कि कैसे बहुत कम या मामूली मेहनत में ही वो लोग पैसे कमा रहे हैं।
देवशी कहते हैं, ‘मुझे भी यह आइडिया बहुत पसंद आया कि बहुत कम मेहनत और पूंजी लगाकर कुछ बिजनेस शुरू किया जाए और फिर उसे अपने-आप चलने दिया जाए। इसका मतलब यह था कि मैं अपने वो सारे काम कर सकता था जो मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं और साथ ही साथ मैं अपने गुजारे के लिए पैसे भी कमा सकता था।’
इसी सोच के साथ देवशी ने ऑफि़स से लौटने के बाद जब उनके बच्चे सो जाते थे तो उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में काम करना शुरू किया। विशेषज्ञों ने इसका नाम दिया पैसिव इंकम यानी बहुत कम मेहनत में कमाई करना।
रांची स्थित पूर्व बैंकर और अब फाइनांशियल एडवाइजर मनीष विनोद इसको और समझाते हुए कहते हैं, ‘शुरुआत में आपको थोड़ा सक्रिय होकर कोई काम या बिजऩेस शुरू करना होता है लेकिन कुछ दिनों के बाद आपको उससे पैसे आने लगते हैं और तब आपको हर दिन उसके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती है आपका काम ऑटो मोड में आ जाता है।’
विनोद ने इसे सेकंड लाइन ऑफ डिफेंस करार देते हैं। वो कहते हैं, ‘अपने और अपने परिवार के भविष्य की सुरक्षा के लिए आप जो दूसरी पंक्ति तैयार करते हैं उसे ही पैसिव इनकम कहा जाता है।’
कोरोना लॉकडाउन
पहले यह सिर्फ अमीर लोग ही कर सकते थे क्योंकि उनके पास संपत्ति होती थी जिससे वो रियल स्टेट में लगाकर उसके किराए से आमदनी करते थे या फिर कहीं और इन्वेस्ट कर देते थे। लेकिन कोरोना लॉकडाउन के बाद पैसिव इंकम की पूरी परिभाषा ही बदल गई। क्योंकि अब नौजवान और खासकर जेड जेनेरेशन कहे जाने वाले नौजवानों ने पैसिव इनकम कमाने का नया-नया तरीक़ा खोज निकाला है।
जानकारों का कहना है कि नौकरियों की चुनौती और सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण पैसिव इंकम में लोगों का रुझान बढ़ रहा है।
अमेरिकी सेंसस ब्यूरो के अनुसार अमेरिका में कऱीब 20 फीसद घरों में लोग पैसिव इनकम कमाते हैं और उनकी औसत आमदनी करीब 4200 डालर सालाना होती है। और 35 फीसद मिलेनियल्स भी पैसिव इनकम कमाते हैं। भारत में भी इसका चलन बढ़ रहा है।
मनीष विनोद के अनुसार भारत में पैसिव इनकम कमाने वालों की सही तादाद बता पाना मुश्किल है क्योंकि कई लोग इसे छिपाते हैं।
डेलॉइट ग्लोबल 2022 के जेनेरेशन जेड़ एंड मिलेनियल सर्वे के अनुसार भारत के 62 फीसद जेनेरेशन ज़ेड और 51 फ़ीसद मिलेनियल कोई ना कोई साइड जॉब करते हैं और पैसिव इनकम कमाते हैं।
मुंबई स्थित पर्सनल फाइनेंस एक्सपर्ट कौस्तुभ जोशी भी मानते हैं कि भारत में इसका चलन बढ़ रहा है, हालांकि उनके पास भी इसका कोई आधिकारिक डेटा मौजूद नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘पर्सनल फाइनेंस के लिए जो नई पीढ़ी के युवा आते हैं, तो पैसा कैसे इन्वेस्ट किया जाए? यह तो पूछते ही हैं, उसके अलावा कोई पैसिव इनकम कमाने का जरिया हो तो वह जानने में भी उनकी रुचि रहती है, यह मैंने देखा है।’
सोशल मीडिया का प्रभाव
टिक टॉक और इंस्टा पर ऐसे हजारों वीडियो मिल जाएंगे जो आपको बताएंगे कि आप कैसे पैसे कमा सकते हैं।
ब्रिटेन के लीड्स यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल में पढ़ाने वाले प्रोफेसर शंखा बासु कहते हैं कि इसी तरह के वीडियो की वजह से नौजवानों में पैसिव इंकम कमाने का शौक बढ़ रहा है।
वो कहते हैं कि लोग इन्फ्लूएंसर्स को अपनी सफलता की कहानी सुनाते हुए देखते हैं और उससे प्रभावित होकर वो भी वही करने लगते हैं। फिर उनमें से कुछ लोग जो कामयाब हो जाते हैं फिर वो अपनी कहानी सुनाते हैं और इस तरह से यह चक्र चलता रहता है।
जेनेरेशन मनी के संस्थापक और पर्सलनल फ़ाइनांस के एक्सपर्ट ऐलेक्स किंग भी मानते हैं कि सोशल मीडिया के कारण लोगों को यकीन होने लगता है कि पैसिव इनकम कमाना ना केवल संभव है बल्कि अपनी वित्तीय आज़ादी हासिल करने का एक सामान्य जरिया है।
किंग कहते हैं कि आर्थिक स्थिति के कारण भी लोग पैसिव इनकम कमाने के बारे में ज़्यादा सोचने लगे हैं।
वो कहते हैं, ‘पिछले एक दशक में लोगों की आमदनी में कोई इजाफा नहीं हुआ। बहुत सारे नौजवान बहुत ही खराब स्थिति में नौकरी करते हैं और कई कंपनी में ओवरटाइम को लेकर भी कड़े नियम हैं, आप केवल कुछ ही घंटे ओवरटाइम कर सकते हैं।’
बासु के अनुसार, बढ़ती मंहगाई और रोज़मर्रा के बढ़ते खर्चे के कारण कई नौजवान अब पैसिव इंकम की तरफ झुक रहे हैं क्योंकि उनके अनुसार, वो मेनस्ट्रीम नौकरी में घंटों काम करते हैं लेकिन उनकी आमदनी उस हिसाब से बहुत कम है।
कोविड लॉकडाउन के कारण कई लोगों को लगा कि उन्हें अपनी नौकरी में और आजादी चाहिए और इस दौरान लोगों को समय और मौका दोनों मिल गया पैसिव इनकम के लिए नई नई तकनीक और हुनर हासिल करने का।
किंग के अनुसार नई पीढ़ी में यह आम राय बन गई है कि मौजूदा आर्थिक स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि आपकी आमदनी का एक से ज़्यादा जरिया होना चाहिए।
भारत में पैसिव इनकम
मनीष विनोद के अनुसार भारत में कुछ लोग खानेपीने का बिजनेस कर रहे हैं तो कुछ ब्लॉगर बन गए हैं। कुछ लोग शेयर के खरीद-फरोख्त में जुट गए हैं तो कुछ ड्रॉप शिपिंग स्टोर की देखभाल कर रहे हैं।
अपनी संपत्ति को किराए पर देना पैसे कमाने का सबसे आसान जरिया है। कोरोना के दौरान ऑनलाइन क्लासेज का चलन बहुत तेज हुआ था।
उस दौरान बहुत से लोग जो नौकरी तो कुछ और करते थे लेकिन उन्हें पढ़ाने का शौक था। ऐसे लोगों ने इसका फायदा उठाते हुए ना केवल अपना शौक पूरा किया बल्कि आमदनी का एक दूसरा ज़रिया भी पैदा कर लिया।
कई लोगों ने तो इस दौरान किताबें लिख दीं और फिर उनको छापकर पैसे कमा लिए। मनीष विनोद के अनुसार यू-ट्यूब चैनल पर कूकरी क्लासेज से भी बहुत लोगों ने और खासकर महिलाओं ने अपने शौक के साथ-साथ ख़ूब पैसे कमाए। मनीष विनोद कहते हैं कि कोरोना के दौरान ड्रॉपशीपिंग के ज़रिए भी लोगों ने ख़ूब कमाई की और अब यह बहुत ही पॉपुलर हो गया है।
ड्रॉपशीपिंग आधुनिक ऑनलाइन बिजनेस मॉडल है, जिसमें बहुत ही कम निवेश की जरूरत होती है। इसमें ना तो आपको ढेर सारा सामान खरीद कर गोदाम में रखने की जरूरत है और ना ही इस बात से घबराने की कि आपका उत्पाद बिकेगा या नहीं। इसमें आप सप्लायर से सामान लेकर सीधे जरूरतमंद को दे देते हैं।
आपको बस एक ऑनलाइन स्टोर खोलना होता है। उन सप्लायर्स से आपको टाईअप करना होता है।
जैसे ही आपके पास कोई मांग आती है आप सप्लायर से वो चीज लेकर खरीदने वाले को वो चीज़ ऑनलाइन बेच देते हैं। स्टॉक और शेयरों की लेन-देन भी एक ऐसा बिजनेस है जिससे आप घर बैठे पैसे कमा सकते हैं।
कौस्तुभ जोशी कहते हैं, पिछले 5 साल में मैंने यह देखा है ऑनलाइन पोर्टल, इंस्टाग्राम, अकाउंट फेसबुक और यूट्यूब की मदद से पैसे इनकम कमाई जा रही है।
जो चीज आपको आती है उसकी वीडियो या कॉन्टेंट के माध्यम से सोशल मीडिया पर अपलोड करने से आपको पैसा मिल सकता है।
यह बात इतनी ही सही है की यूट्यूब यह बहुत लोगों का आमदनी का पहला सोर्स बनता जा रहा है , लेकिन कई लोगों को वह आज भी पैसिव इनकम का जरिया लगता है।
इंस्टाग्राम ने युवाओं को एक आसान तरीका उपलब्ध करवाया है, जिसमें के आपके इंस्टाग्राम हैंडल को अगर बहुत अच्छी ‘रिच’ मिल रही है तो आप मार्केटिंग कंपनी के साथ टाइप कर पेड़ प्रमोशन भी कर सकते हैं।
राह में मुश्किलें
लेकिन यह भी सच्चाई है कि कुछ लोगों के लिए यह काम करता है लेकिन कई लोगों के लिए इस तरह का सपना सपना ही रह जाता है। सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर्स जितनी आसानी से इस बारे में बताते हैं वास्तव मे चीज़ें उतनी आसान भी नहीं होती हैं।
देवशी ने एडुकेशनल रीसोर्स वेबसाइट लॉन्च किया ताकि छात्रों को अपनी परीक्षा में मदद मिले। उन्होंने पहले जितना आसान सोचा था वो उतना है नहीं।
देवशी कहते हैं कि किसी भी प्रोजेक्ट को जमाने में मेहनत और समय लगता है और फिर बाद में पैसिव इनकम आने लगती है।।।इसलिए सिफऱ् पैसिव इनकम कमाना उतना आसान भी नहीं है जैसे बताया जा रहा है
किंग कहते हैं कि बहुत सारे इन्फलूएंसर्स ग़लत नियत से ऐसा करते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह के कोर्स को बेचकर पैसे कमाया जा सकता है। जिससे इनको तो आमदनी होती है लेकिन देखने वालों को नहीं।
फिर भी एक मौका तो है
जानकार मानते हैं कि कुछ कामयाब मिसालों को उसी तरह लेना चाहिए लेकिन इसके बावजूद इसके कुछ मौके तो हैं।ज्यादा लोग अगर पैसिव इनकम कमाते हैं तो नौजवानों के पैसे कमाने के जरिए में शिफ्ट आएगा। बासु कहते हैं कि डिजीटल बिजनेस को बंद करना ज्यादा नुकसानदेह नहीं है।
माइडसेट बदला है...सिर्फ अमीरों का नहीं है। पैसे से पैसे कमाया जा सकता है यह सोच बदल रही हैं।
सावधानी भी जरूरी है
पैसिव इनकम का चलन बढ़ रहा है और कई लोग इसकी वकालत भी कर रहे हैं। लेकिन कौस्तुभ जोशी इसको लेकर सतर्क रहने की भी सलाह देते हैं। वो कहते हैं, ‘जब लोग पैसिव इनकम को अपना पैसे कमाने का मूल इनकम सोर्स समझने लगे तो यह उचित बात नहीं है।
कई लोग अपने ऑफिस के काम को नजरअंदाज करके अपने पैसिव इनकम पर जोर देने का प्रयास करते हुए मैंने देखा है, यह प्रयास गलत है। इससे आपके दोनों इनकम सोर्स पर इफेक्ट हो सकता है।’
वो एक और अहम बात की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘पैसिव इनकम कमाना आजकल हर एक की ख्वाहिश है, लेकिन इसमें आप अपना ज्यादा वक्त लगा रहे हैं और ख़ुद के लिए और अपने परिवार के लिए समय नहीं निकाल पा रहे हैं तो युवाओं को ध्यान देना चाहिए। पैसा कमाना आपका मुख्य उद्देश्य होना ज़रूरी है, लेकिन वह आपका अंतिम उद्देश्य नहीं होना चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
दुनियां भर के वैज्ञानिकों की चेतावनियों और प्रकृति के विनाश, पर्यावरण असंतुलन, भयंकर वायु एवम जल प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम के कारण चारों तरफ घट रही दुर्घटनाओं की असंख्य चीखों के बावजूद हमारे देश के नीति नियंत्रक राजनीतिज्ञों और राजनितिक दलों में प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति जरा भी गंभीरता दिखाई नहीं देती। हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों में जारी विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों और इन दलों के स्टार प्रचारकों के चुनावी भाषणों में इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कोई चर्चा तक नहीं है। यह तथ्य सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी मुख्य धारा की राजनीति ने आम आदमी और विशेष रूप से युवा पीढ़ी के लिए जीवन मरण के मुद्दे बन चुके प्रकृति और पर्यावरण के प्रति शुतुरमुर्ग जैसा रवैया अपना रखा है। सत्ता हासिल करने के लिए विभिन्न वर्गों के मतदाताओं के लिए तरह तरह के लोक लुभावन वादों की बौछार करने वाले दलों को इस बात की कतई चिंता नहीं दिखती कि चौतरफा प्रदूषण और जलवायू परिर्वतन हमारे करोड़ों नागरिकों के स्वास्थ्य और अर्थ व्यवस्था के लिए कितना बड़ा खतरा बनकर सामने खड़ा है।
जलवायु परिवर्तन भारत जैसे आबादी बहुल कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था को किस तरह बर्बाद कर सकता है इसके लिए चंद उदाहरण ही काफी हैं। मध्य प्रदेश में अक्टूबर और नवम्बर में सर्दी की जगह वसंत ऋतु जैसा मौसम है जिससे मुश्किल से एक महीने की सरसों पर समय से दो माह पहले फूल आने लगे हैं। इसी तरह आम के कुछ पौधों पर समय से दो महीने पहले बोर आने लगे हैं। वैज्ञानिक डॉ ओ पी सिंह के अनुसार इस तरह समय से पहले आए फूल और फल की फ़सल सामान्य से पचास प्रतिशत कम होती है। यह एक तरह से प्री मेच्योर डिलीवरी की तरह है। जलवायु के जरा से परिर्वतन से कृषि फसलों के उत्पादन पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इसकी सहज कल्पना इन दो हाल में घटित उदाहरणों से की जा सकती है।जल और वायु की गुणवत्ता लगातार नीचे गिरते गिरते खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है और शुद्ध जल और वायु की उपलब्धता आम आदमी के लिए असंभव होती जा रही है। मध्य प्रदेश में आम किसान भी यह जान रहा है कि इस बार रबी की फ़सल के लिए पानी की काफी किल्लत झेलनी पड़ेगी लेकिन राजनीतिज्ञ बेफिक्र हैं।
गोवा के गांधी विचारक और पर्यावरणविद कुमार कलानंद मणि बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन गोवा के उन निर्दोष किसानों को भी बहुत परेशान कर रहा है जिनका जलवायु परिवर्तन में कोई योगदान नहीं है। गोवा में काफी किसान आम की बागवानी करते हैं। इधर आम की फ़सल दो महीना विलंब से मार्च की जगह मई में आने लगी है और उसकी उपज भी घट रही है। आम की खेती घाटे का सौदा बन रही है। उनका कहना है कि यह केवल गोवा ही नही दक्षिण पश्चिम के कई प्रदेशों में फैले पश्चिम घाट में सब जगह हो रहा है। दिल्ली में प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने से सरकार को नवंबर में शिक्षण संस्थाओं को बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय को केंद्र और राज्य सरकार को समन्वय कर समस्या का त्वरित समाधान करने की नसीहत के साथ कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से भी यह प्रमाणित होता है कि सरकारों का रवैया प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील नहीं है। यह बेहद चिंता का विषय है कि पूरी राजनीति वोट बैंक के चक्कर में केवल लोक लुभावन योजनाओं तक सीमित हो गई है। इससे भी भयावह यह है कि अधिकांश जनता भी प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति उदासीन है। यही रवैया रहा तो अभी कभी कभी होने वाली प्राकृतिक आपदाएं स्थाई हो जाएंगी, फिर उनके कहर से बचने का हमारे पास कोई उपाय नहीं होगा इसलिए इस मुद्दे पर हम सबको अविलंब चेतने की जरुरत है।
-शोभा अक्षर
जि़न्दगी से पूछेंगे तो कहेगी हर पहलू अधूरा रह गया, मैं कहती हूँ पूरा होना कुछ नहीं होता। प्रेम पाना, पाने की मुसलसल ख़्वाहिश ही तो जिन्दगी में रूमानियत बरकरार रखती है, जिन्दा रखती है, वैसे भी मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं! अपने पूर्व प्रेमियों को याद करती हूँ तो उनके लिए मेरा हृदय सम्मान से भर जाता है, उन्होंने मुझे अथाह प्रेम दिया, प्रेम करना सिखाया, प्रेम को जीना सिखाया।
हम जब-जब अलग हुए, हर बार एक संवाद के बाद ही अलग हुए। जहाँ कोई कुछ त्याग नहीं रहा था, किसी को समझौता नहीं करना था। अलग होने को चुनने में भी जो ‘साथ’ था। यही ‘साथ होना’ ही तो प्रेम है। अपने एक प्रेमी से ही मैंने जो सीखा उसे कुछ वर्ष पहले एक वाक्य में समेट सकी, यहाँ उसका उल्लेख करना वाजिब लग रहा है। मैंने लिखा था,
‘एक दिन पुरुषार्थ ही उन सभी स्त्रियों को जन्म देगा जो दफऩ हैं मर्दों के मस्तिष्क में।’
अब जब मुझे लिखना आ गया है, मैं अपने प्रेमियों के नाम अनगिनत चिट्ठियाँ लिखना चाहती हूँ। पते पर लिखूँगी, अपनी किताब की उस सेल्फ का पता जहाँ मैंने अपने प्रिय कवियों की किताबें सजाई हैं।
मुझे इस वक्त एक प्रेमी की याद आ रही है, कॉलेज के दिनों में उस लडक़े से मिली थी, उसने मुझे बेइंतहा मोहब्बत दी जबकि मैं उस वक्त एक रिलेशनशिप में थी। उसे मेरी ओर से एक लम्बे समय के बाद रिस्पांस तब मिला जब मेरा रिलेशनशिप पार्टनर शादी करने अपने गाँव चला गया। मुझे कुछ वक्त लगा लेकिन वह प्रेम ही तो था जिसने मुझमें फिर से ऊर्जा भर दी थी, मैंने उस साल टॉप किया था। और वो जो पढऩे में एकदम फुद्दु था, उसे पढ़ा-पढ़ा कर मैंने उसे किसी तरह पास करा दिया था।
उसका रोना, बाप रे! चुप होने में घंटों लगाता था। जैसे कोई बच्चा माख लगने पर अपनी माँ की गोद से लिपटकर खूब रोता है, उसी तरह वो भी मेरी कमर में अपने दोनों हाथ डाल कर चिपट जाता था। खूब रोता था।
जब हम अलग हुए तो उसे मूव ऑन होने में बहुत मुश्किलें आईं थी। इधर मैं भी उस वक्त अपने बेहद बुरे दौर से गुजरी।
सोचती हूँ अलग होना, प्रेमी-प्रेमियों में क्या वाकई अलग होना होता है।
इतनी खूबसूरत यादें, प्रेम की दुनिया में बनाया अपना एक प्यारा-सा अदृश्य घर जिसमें अनगिनत खिड़कियाँ होती हैं, हर खिडक़ी से झाँकते ख़ुशबूदार फूलों के गुच्छे। ओह!
मेरे प्रेमियों ने ही बताया कि दुनिया में तथाकथित मर्दों से अधिक कोमल पुरुषों की अधिकता है, और उन्होंने ही प्रेम को आबाद रखा है। शुक्रिया! मुझे ख़ुद से प्रेम करने के लिए तुमने ही तो प्रोत्साहित किया।
मैं इंतजार करती हूँ कि तुम भी लिखो मुझे एक खत। तुमने मुझसे जो साहस पाया है, उसकी स्याही से।