विचार/लेख
नितिन श्रीवास्तव
रविवार को अहमदाबाद में होने वाले एकदिवसीय वल्र्डकप 2023 के फाइनल तक भारतीय टीम के सफर में कप्तान रोहित शर्मा की भूमिका अहम रही है।
लेकिन इस नई भूमिका के पहले बात उस दौर की जब रोहित शर्मा के क्रिकेट खेलने के भविष्य पर सवालिया निशान इसलिए लग गया था क्योंकि पैसों की तंगी की वजह से उनके करियर में रुकावट आ सकती थी।
बात 1999 की है जिस साल भारतीय क्रिकेट टीम इंग्लैंड में मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी में वल्र्ड कप खेल रही थी।
इधर मुंबई के एक उपनगर, बोरिवली, में 12 साल के रोहित शर्मा के लिए उनके पिता और परिवारजनों ने पैसे इक_े कर के एक क्रिकेट कैंप में भेजा था।
एक ट्रांसपोर्ट फर्म वेयरहाउस में काम करने वाले उनके पिता की आमदनी कम थी तो रोहित उन दिनों अपने दादा और चाचा रवि शर्मा के घर पर ही रहते थे, वो भी ख़ासी तंगी में।
लेकिन एक मैच और एक स्कूल ने उनके क्रिकेट करियर की दिशा बदल दी।
उसी साल रोहित शर्मा बोरिवली के स्वामी विवेकानंद इंटरनेशनल स्कूल के खिलाफ एक मैच खेल रहे थे जब उस स्कूल के कोच रमेश लाड ने उनके खेल को देख कर स्कूल के मालिक योगेश पटेल से उन्हें स्कॉलरशिप देने की सिफारिश की।
अब 54 साल के हो चुके योगेश पटेल के मुताबिक, ‘हमारे कोच ने कहा इस लडक़े में क्रिकेट का बड़ा हुनर है लेकिन इसका परिवार हमारे स्कूल की 275 रुपए महीना फ़ीस नहीं भर सकता इसलिए इसे स्कॉलरशिप दे दीजिए।’
वो कहते हैं, ‘मुझे खुशी है कि हमने वो फ़ैसला लिया और आज रोहित भारतीय कप्तान है। हमारे कोच की राय सही थी।’
पैसों की तंगी
इस फैसले के सालों बाद खुद रोहित शर्मा ने ईएसपीएनक्रिकइंफो.कॉम को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘कोच चाहते थे कि मैं विवेकानंद स्कूल में भर्ती होकर क्रिकेट खेलना शुरू कर दूँ लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे। फिर उन्होंने मुझे स्कॉलरशिप दिलवा दी और चार साल तक मुझे फ्री में पढ़ाई और खेलने का मौक़ा मिल गया।’
इस नए स्कूल में भर्ती होने के कुछ ही महीने के भीतर रोहित शर्मा ने 140 रनों की एक नाबाद पारी खेली थी जिसकी मुंबई के स्कूलों, मैदानों और क्रिकेट समीक्षकों में खासी चर्चा हुई थी।
मुंबई के शिवाजी पार्क पर क्रिकेट सीखते हुए सचिन तेंदुलकर, विनोद कांबली से लेकर प्रवीण आमरे तक बड़े हुए हैं।
इसी मैदान पर आज भी दर्जनों नेट्स चलते हैं जिसमें से एक अशोक शिवलकर का है जो उसी दौर में यहां बतौर खिलाड़ी खेला करते थे।
अशोक शिवलकर कहते हैं, ‘मुझे याद है रोहित शर्मा पहले अपने स्कूल की तरफ से ऑफ स्पिन गेंदबाजी करते थे। फिर उनके कोच ने उनकी बल्लेबाजी की प्रतिभा को पहचाना।’
‘इसके बाद रोहित ने मुंबई की मशहूर कांगा लीग क्रिकेट से लेकर मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के टूर्नामेंट में अपने झंडे गाडऩे शुरू कर दिए थे।’
विवेकानंद स्कूल के मालिक योगेश पटेल आज अपने उस फैसले पर खुश होते हुए बताते हैं, ‘रोहित ने कोविड-19 के दौरान मुझे कॉल किया, हालचाल जानने के लिए। मैंने कहा बस लोगों की मदद करते रहो। उसे देख कर बेहद ख़ुशी होती है।’
नया रोल
ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ नरेंद्र मोदी स्टेडियम में खेले जाने वाले इस फाइनल के पहले रोहित टूर्नामेंट में न सिर्फ अपनी सटीक कप्तानी बल्कि अपनी धाकड़ बल्लेबाजी की छाप छोड़ चुके हैं।
2019 वल्र्ड कप में सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले रोहित ने इस टूर्नामेंट में नई स्ट्रैटजी से खेलते हुए, बिना बड़े स्कोर की परवाह किए, पहले पॉवरप्ले में ही गेंदबाजों को अटैक किया है।
इससे न सिर्फ शुभमन गिल को विकट पर सध जाने का मौका मिला है बल्कि मध्यक्रम में कोहली, अय्यर और राहुल को भी पारी जमाने का पूरा मौका मिला है।
इस वल्र्ड कप के पहले मैच में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ वे शून्य पर आउट हुए लेकिन उसके बाद रोहित शर्मा के स्कोर एक दूसरी ही कहानी बयान कर रहे हैं।
131, 86, 48, 46, 87, 4, 40, 61 और 47 रनों की पारियाँ जिसमें उनका स्ट्राइक रेट 124।15 रहा है वाक़ई में क़ाबिले तारीफ़ है जिसने न सिफऱ् भारत को अच्छी शुरुआत दी है बल्कि बड़े टार्गेट चेस करने में आसानी भी ला दी है।
सिर्फ एक कसर बची है रोहित के लिए टूर्नामेंट में बतौर कप्तान ये खिताब जीतने के अलावा।
टूर्नामेंट का आखिरी मैच उसी ऑस्ट्रेलिया से है जिसके खिलाफ पहले मैच में वे खाता नहीं खोल सके थे।
अब फ़ाइनल में बड़ा स्कोर बनाकर पहले मैच की बात भुलाने से अच्छा क्या तरीक़ा हो सकता है! (bbc.com/hindi)
संजीव श्री
हम इंटरनेट युग में जी रहे हैं जहां पूरी दुनिया डैटा से घिरी हुई है। यह डैटा और कुछ नहीं बल्कि हमारी यादें, अनुभव, सूझ-बूझ, दुख-दर्द के क्षण और कभी-कभी सांसारिक गतिविधियों के बारे में है। जैसे, कोई विगत यात्रा या महीने और वर्ष में दिन के किसी विशेष घंटे में क्या खाया या फिर दैनिक जीवन के सामान्य घटनाक्रम का लेखा-जोखा।
क्या ऐसा पहले नहीं था? ऐसे तथ्यात्मक, भावनात्मक, आनुभविक और व्यवहारिक क्षणों को संग्रहित और संरक्षित करना हमेशा से एक मानवीय प्रवृत्ति रही है। अंतर केवल इतना है कि हमारे पूर्वज डैटा को अपनी स्मृतियों में या गुफाओं, पत्थरों या कागजों पर उकेरी गई छवियों के माध्यम से संग्रहित करते थे, जबकि आज हम प्रौद्योगिकी एवं उपकरणों की मदद से ऐसा करते हैं!
अतीत में, बातों को मानव स्मृति में संग्रहित करने के साथ-साथ पत्थर पर नक्काशी करना, पत्तों पर और बाद में कागज़ो पर ग्रंथ लिखना काफी श्रमसाध्य था। यह संग्रहण कुछ समय तक ही रह पाता था। समय के साथ, जलवायु के प्रहार पत्थरों, कागज़ों को नष्ट कर डैटा को भी विलोपित कर देते थे। मानव स्मृति की भी डैटा संग्रहण की एक निर्धारित क्षमता होती है। दूसरे शब्दों में, प्राचीन काल से चली आ रही डैटा संग्रहण की मानवीय प्रवृत्ति, वर्तमान युग की वैज्ञानिक तकनीकों एवं साधनों की आसान उपलब्धता से डैटा विज्ञान का उदय हुआ है।
डैटा विज्ञान: शुरुआती वर्ष
शब्द ‘डैटा विज्ञान’ 1960 के दशक में एक नए पेशे का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया था, जो उस समय भारी मात्रा में एकत्रित होने वाले डैटा को समझने और उसका विश्लेषण करने में सहायक सिद्ध हुआ। वैसे संरचनात्मक रूप से इसने 2000 की शुरुआत में ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
यह एक ऐसा विषय है जो सार्थक भविष्यवाणियां करने और विभिन्न उद्योगों में सूझ-बूझ प्राप्त करने के लिए कंप्यूटर विज्ञान और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग करता है। इसका उपयोग न केवल सामाजिक जीवन, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बल्कि व्यापार में भी बेहतर निर्णय लेने के लिए किया जाता है।
1962 में अमेरिकी गणितज्ञ जॉन डब्ल्यू. टुकी ने सबसे पहले डैटा विज्ञान के सपने को स्पष्ट किया। अपने प्रसिद्ध लेख ‘दी फ्यूचर ऑफ डैटा एनालिसिस’ में उन्होंने पहले पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) से लगभग दो दशक पहले इस नए क्षेत्र के उद्गम की भविष्यवाणी की थी।
एक अन्य प्रारंभिक व्यक्ति डेनिश कंप्यूटर इंजीनियर पीटर नॉर थे, जिनकी पुस्तक कॉन्साइस सर्वे ऑफ कंप्यूटर मेथड्स डैटा विज्ञान की सबसे पहली परिभाषाओं में से एक प्रस्तुत करती है।
1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि डैटा विज्ञान एक मान्यता प्राप्त और विशिष्ट क्षेत्र के रूप में उभरा। कई डैटा विज्ञान अकादमिक पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं, और जेफ वू और विलियम एस. क्लीवलैंड आदि ने डैटा विज्ञान की आवश्यकता और क्षमता को विकसित करने और समझने में मदद करना जारी रखा।
पिछले 15 वर्षों में, पूरे विषय को व्यापक उपकरणों, प्रौद्योगिकियों और प्रक्रिया के द्वारा परिभाषित और लागू करने के साथ एक भलीभांति स्थापित पहचान मिली है।
डैटा विज्ञान और जीवन
पिछले 100 वर्षों में मानव जीवन शैली में बहुत कुछ बदला है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी से 20 वर्षों में तो बदलावों का सैलाब-सा ही आ गया है। अलबत्ता, जो चीज़ समय के साथ नहीं बदली, वह है मूल मानव व्यवहार और अपने क्षणों और अनुभवों को संग्रहित करने की उसकी प्रवृत्ति।
मानवीय अनुभव और क्षण (डैटा!), जो मानव स्मृति, नक्काशी और चित्रों में रहते थे, उन्हें प्रौद्योगिकी के ज़रिए एक नया शक्तिशाली भंडारण मिला है। अब मानव डैटा छोटे/बड़े बाहरी ड्राइव्स, क्लाउड स्टोरेज जैसे विशाल डैटा भंडारण उपकरणों में संग्रहित किए जा रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि अब डैटा को, पहले के विपरीत, बिना किसी बाधा के, जितना चाहें उतना और जब तक चाहें तब तक संग्रहित रखा जा सकता है।
पिछले 20 वर्षों में, एक और दिलचस्प बदलाव इंटरनेट टेक्नॉलॉजी के आगमन से भी हुआ। इंटरनेट टेक्नॉलॉजी की शुरुआत के साथ, मानव व्यवहार और उसके सामाजिक संपर्क की प्रवृत्ति ने एक बड़ी छलांग लगाई। लोगों ने दिन-प्रतिदिन हज़ारों किलोमीटर दूर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अन्य मनुष्यों से जुडऩा शुरू कर दिया और इस तरह विभिन्न तरीकों से बातचीत करने और अभिव्यक्ति की मानवीय क्षमता कई गुना बढ़ गई।
आज छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के ग्रामीण इलाके का कोई बच्चा बॉलीवुड की किसी मशहूर हस्ती को सुन सकता है और उससे जुड़ सकता है, वहीं न्यूयॉर्क में रहते हुए एक व्यक्ति उत्तरी अफ्रीका में रह रहे किसी पीडि़त बच्चे की भावनाओं से रूबरू हो सकता है। इंटरनेट क्रांति ने इस पूरी दुनिया को मानो एक बड़े से खेल के मैदान में बदल दिया है जहां हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति, विषय या घटना से तत्काल जुड़ सकता है।
इन क्षमताओं के रहते पूरा विश्व नई तरह की संभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रयोगों से भर गया है। इस तरह की गतिविधियों ने अपनी एक छाप छोड़ी है (जिन्हें हम डैटा कह सकते हैं) और टेक्नॉलॉजी ने इसे असीमित रूप से एकत्रित और संग्रहित करना शुरू कर दिया है।
नई दुनिया के ये परिवर्तन विशाल डैटा (क्चद्बद्द ष्ठड्डह्लड्ड) के रूप में प्रस्फुटित हुए। अधिकांश लोग (जो इंटरनेट वगैरह तक पहुंच रखते हैं) डैटा (यानी शब्द, आवाज़, चित्र, वीडियो वगैरह के रूप में) के ज़रिए यादों और अनुभवों से सराबोर हैं। ये डैटा न केवल सामाजिक या अंतर-वैयक्तिक स्तर पर, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर (जैसे ऑनलाइन भुगतान, ई-बिल, ई-लेनदेन, क्रेडिट कार्ड) और यहां तक कि अस्पतालों के दौरों, नगर पालिका की शिकायतों, यात्रा के अनुभवों, मौसम के परिवर्तन तक में नजऱ आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण जीवन की गतिविधियां डैटा पैदा कर रही हैं और इसे संग्रहित किया जा रहा है।
आधुनिक जीवनशैली बड़ी मात्रा में डैटा उत्पन्न करती है। डैटा की मात्रा इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आधुनिक तकनीक ने बड़ी मात्रा में डैटा निर्मित करना और संग्रहित करना आसान बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों में, दुनिया में पैदा किया गया 90त्न से अधिक डैटा संग्रहित कर लिया गया है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हर घंटे 2 करोड़ से अधिक छवियां पोस्ट करते हैं।
डैटा विज्ञान:कार्यपद्धति
मानव मस्तिष्क विभिन्न उपकरणों में संग्रहित विशाल डैटा का समय-समय पर उपयोग करना चाहता है। इस कार्य के लिए एक अलग प्रकार की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी, जो संग्रहित डैटा को निकालने और निर्णय लेने का काम कर सके। यह मस्तिष्क के संचालन की नकल करने जैसा था। ऐसे जटिल दिमागी ऑपरेशनों को दोहराने के लिए एक कदम-दर-कदम चलने वाले एक समग्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है ताकि-
- डैटा इष्टतम तरीके से संग्रहित किया जाए;
- डैटा को कुशलतापूर्वक, शीघ्रता से प्रबंधित, पुनर्प्राप्त, संशोधित, और विलोपित किया जा सके;
- डैटा की व्याख्या आसानी से और शीघ्रता से की जा सके; इससे भविष्य के बारे में निर्णय लेने में मदद मिलती है।
वैसे तो हमारा मस्तिष्क सूक्ष्म और जटिल तरीके से डैटा को आत्मसात करने और निर्णय लेने का काम करता आया है, लेकिन मस्तिष्क की क्षमता सीमित है। डैटा से जुड़ी उक्त प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मानव मस्तिष्क जैसे
एक विशाल स्पेक्ट्रम की आवश्यकता हुई। टेक्नॉलॉजी ने इस प्रक्रिया के लिए डैटा भंडारण (विशाल डैटा सर्वर), पुनर्प्राप्ति के विभिन्न साधनों को सांख्यिकीय/गणितीय जानकारी से युक्त करना शुरू कर दिया। जावा, पायथन, पर्ल जैसी कोडिंग भाषा, विभिन्न मॉडलिंग तकनीकों (जैसे क्लस्टरिंग, रिग्रेशन, भविष्यवाणी और डैटा माइनिंग) के साथ-साथ ऐसी मशीनें विकसित हुईं जो डैटा को बार-बार समझ सकती हैं और स्वयं सीखकर खुद को संशोधित कर सकती हैं (मशीन लर्निंग मॉडल)। मूल रूप से कोशिश यह थी कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान के सहारे हम अपने मस्तिष्क जैसी निर्णय लेने की क्षमता मशीन में पैदा कर सकें!
प्रौद्योगिकी द्वारा मानव मस्तिष्क की क्षमताओं के प्रतिरूपण की इस पूरी प्रक्रिया को डैटा विज्ञान का नाम दिया गया है। डैटा विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जो डैटा से अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी, वैज्ञानिक तकनीक, कृत्रिम बुद्धि (एआई) और डैटा विश्लेषण सहित कई विषयों को जोड़ता है। डैटा वैज्ञानिक वे हैं जो वेब, स्मार्टफोन, ग्राहकों और सेंसर सहित विभिन्न स्रोतों से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को एकीकृत करते हैं।
डैटा साइंस का भविष्य
क्या यह डैटा विज्ञान, भारत जैसे देश में अंतिम व्यक्ति के जीवन को छू सकता है या यह केवल थ्रिलर फिल्म या सस्ते दाम में कॉन्टिनेंटल खाने के लिए सर्वश्रेष्ठ रेस्तरां की खोज करने जैसे कुछ मनोरंजक/आनंद/विलास की गतिविधियों तक ही सीमित है? क्या यह हमारे समाज को बेहतर बनाने और वंचितों को कुछ बुनियादी सुविधाएं देने में मदद कर सकता है?
यकीनन। किसी भी अन्य गहन ज्ञान की तरह विज्ञान भी राष्ट्र, पंथ, जाति, रंग या एक वर्ग तक सीमित नहीं है। इरादा हो तो यह सभी के लिए है। संक्षेप में इसका उपयोग भारत में समाज को कई तरीकों से बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। कुछ उदाहरण देखिए।
चिकित्सा/स्वास्थ्य
यह एक प्राथमिक क्षेत्र हो सकता है जहां डैटा विज्ञान का लाभ उठाया जा सकता है। डैटा के संदर्भ में, वर्तमान अस्पताल प्रणाली अभी भी रोगियों के प्रवेश, निदान और उपचार जैसे सामान्य संदर्भो में ही काम करती है। इस क्षेत्र में जनसांख्यिकी, स्वास्थ्य मापदंडों से लेकर रोगियों के विभिन्न चरणों में किए गए निदान/उपचार जेसे डैटा को संग्रहित करने की आवश्यकता है, जिसे नैदानिक परिणामों और उपचार विकल्पों को एकत्रित, संग्रहित, और व्याख्या के द्वारा व्यापक रूप से चिकित्सा समुदाय में साझा किया जा सके। यह डैटा विज्ञान को भारतीय स्थिति में रोगियों को समझने और सर्वोत्तम संभव उपचार विकल्पों के साथ-साथ रोकथाम के उपायों को समझने में सक्षम करेगा। यह रोगियों/डॉक्टरों का बहुत सारा धन और समय बचा सकता है, त्रुटियों को कम कर सकता है और मानव जीवन को अधिक सुरक्षित और स्वस्थ बना सकता है। आवश्यकता यह है कि सरकारी और निजी अस्पताल डैटा रिकॉर्ड करना और संग्रहित करना शुरू करें ताकि इसका उपयोग अनुसंधान और विकास के लिए किया जा सके। यूएस जैसे विकसित देशों में ऐसी प्रक्रिया से समाज को काफी लाभ मिलता है। डैटा विज्ञान वास्तव में भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को कई लाभकारी तरीकों से सम्पन्न कर सकता है।
कृषि उत्पादकता
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में डैटा विज्ञान तरह-तरह की जानकारी के ज़रिए किसानों को लाभ पहुंचा सकता है:
- मिट्टी किस प्रकार की फसल के लिए अच्छी है;
- मौसम और जलवायु की परिस्थिति में किन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है;
- फसल के प्रकार के लिए आवश्यक मिट्टी की पानी और नमी की आवश्यकता;
- अप्रत्याशित मौसम की भविष्यवाणी और फसलों की सुरक्षा;
- ऐतिहासिक आंकड़ों के साथ-साथ मौसम के मिज़ाज के आधार पर निश्चित समय में किसी निश्चित क्षेत्र में इष्टतम फसल की पैदावार की भविष्यवाणी करना।
इस तरह के डैटा का सरकार द्वारा समय-समय पर निरीक्षण करना और भौगोलिक सेंसर व अन्य उपकरणों की मदद से डैटा तैयार करने की आवश्यकता है। डैटा विज्ञान फसलों की बहुत बर्बादी को बचा सकता है और हमारी उपज में भारी वृद्धि कर सकता है।
शिक्षा एवं कौशल विकास
अशिक्षा का मुकाबला करने के लिए शैक्षणिक सुविधाओं के अधिक प्रसार की और शिक्षकों की दक्षता, अनुकूलित शिक्षण विधियों के विकास की भी आवश्यकता है। इसके अलावा विभिन्न छात्रों की विविध और व्यक्तिगत सीखने की शैलियों/क्षमताओं के संदर्भ में गहरी समझ की भी आवश्यकता है। डैटा विज्ञान इस संदर्भ में समाधान प्रदान कर सकता है:
- देश भर में छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों के विस्तृत प्रोफाइल तैयार करना;
- छात्रों के सीखने और प्रदर्शन के आंकड़े जुटाना;
- प्रतिभाओं के कुशल प्रबंधन के लिए व्यक्तिगत शिक्षण विधियों/शैलियों का विकास
- देश भर में कनेक्टेड डैटा के साथ अकादमिक अनुसंधान को बढ़ाना।
पर्यावरण संरक्षण
- भूमि, जल, वायु/अंतरिक्ष और जीवन के सम्बंध में डैटा एकत्र करना और पृथ्वी ग्रह के स्वास्थ्य को बढ़ाना;
- वनों की कटाई के विभिन्न कारणों जैसे मौसम पैटर्न, मिट्टी या नदियों की स्थलाकृति के बीच सम्बंध का पता लगाना;
- ग्रह-स्तरीय डिजिटल मॉडल निरंतर, वास्तविक समय में डैटा कैप्चर करेगा और चरम मौसम की घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं (जैसे, आग, तूफान, सूखा और बाढ़), जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के संसाधनों से सम्बंधित अत्यधिक सटीक पूर्वानुमान प्रदान कर सकता है;
- विलुप्ति की प्रक्रिया का कारण जानने और इसे उलटने के तरीके के लिए वर्षों से एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण;
- विलुप्ति के खतरे से घिरे जीवों को बचाने के लिए कारणों का विश्लेषण।
ग्रामीण एवं शहरी नियोजन
भारत में नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों, भू-राजस्व सम्बंधी डैटा अभी भी विशाल कागज़ी फाइलों में संग्रहित किया जाता है, जिससे कुशल निर्णय लेने में देरी होती है। डैटा विज्ञान डैटा को एकीकृत करने में मदद कर सकता है और डैटा साइंस राज्य के प्रबंधन के लिए प्रभावी नीति निर्माण और निर्णय प्रक्रिया में गति ला सकता है।
कुल मिलाकर डैटा विज्ञान के उपयोग के कई लाभ हैं। देश की विशाल प्रतिभा और अपेक्षाकृत कम श्रम लागत की बदौलत भारत तेज़ी से डैटा साइंस का केंद्र बनता जा रहा है। नैसकॉम विश्लेषण का अनुमान है कि भारतीय डैटा एनालिटिक्स बाज़ार 2017 के 2 अरब डॉलर से बढक़र 2025 में 16 अरब डॉलर का हो जाएगा। यह तीव्र वृद्धि कई कारकों से प्रेरित है, जिसमें डैटा की बढ़ती उपलब्धता, डैटा-संचालित निर्णय-प्रक्रिया, कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वृद्धि शामिल हैं। भारत में कई विश्वविद्यालयों में डैटा साइंस के कोर्सेस भी चलाए जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
सुजाता आनंदन
इसराइल-गाजा युद्ध के दौरान तरबूज़ फ़लस्तीन मुद्दे के समर्थन में एक शक्तिशाली रूपक बन गया है।
तरबूज़ का लाल, काला, सफ़ेद और हरा रंग न केवल इस रसीले फल में होता है बल्कि फ़लस्तीन के झंडे का भी रंग है। तरबूज एक बार फिर फ़लस्तीन समर्थक रैलियों और सोशल मीडिया पोस्ट में प्रमुख तौर पर दिखाई देने लगा है।
आइए जानते हैं कि इसके पीछे का इतिहास क्या है और तरबूज फिलीस्तीनी एकजुटता का इतना मजबूत प्रतीक कैसे बना।
‘फिलीस्तीन में, जहाँ फिलीस्तीन का झंडा लहराना अपराध है, फ़लस्तीन के लाल, काले, सफेद और हरे रंग के लिए इसराइली सैनिकों के खिलाफ तरबूज के टुकड़े उठाए जाते हैं।’
ये पंक्तियां अमेरिकी कवि अरासेलिस गिर्मे की एक कविता ‘ओड टू द वॉटरमेलन’ से हैं। वे फिलीस्तीनी समस्या के रूप फल के प्रतीकात्मक अर्थ का उल्लेख करते हैं।
लाल, काला, सफेद और हरा रंग न केवल तरबूज बल्कि फलस्तीनी झंडे के भी रंग हैं। इसलिए गाजा में इसराइल के हमले के बीच दुनिया भर में फिलीस्तीन समर्थक मार्च और अनगिनत सोशल मीडिया पोस्ट में प्रतीकवाद देखा जा सकता है। लेकिन तरबूज के रूपक बनने के पीछे एक इतिहास है।
फ़लस्तीन के झंडे पर पाबंदी
साल 1967 के अरब-इसराइल युद्ध के बाद, जब इसराइल ने गाजा और वेस्ट बैंक पर नियंत्रण कर लिया, तो उसने जीते हुए इलाक़ों में फिलीस्तीनी ध्वज और उसके रंगों जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों को रखने पर पाबंदी लगा दी।
जैसे की झंडा ले जाना एक अपराध बन गया। इसके विरोध में फिलीस्तीनियों ने तरबूज के टुकड़ों का उपयोग करना शुरू कर दिया।
साल 1993 में इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच हुए ओस्लो अंतरिम समझौते के बाद, झंडे को फिलीस्तीनी प्राधिकरण ने मान्यता दी थी। प्राधिकरण को गडजा और कब्जे वाले वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों में शासन करने के लिए बनाया गया था।
‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पत्रकार जॉन किफनर ने ओस्लो समझौते पर दस्तखत किए जाने के बाद लिखा था, ‘गाजा में एक बार कुछ युवकों को कटा हुआ तरबूज ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। ये युवक लाल, काले और हरे फलस्तीनी रंगों को प्रदर्शित करते हुए और प्रतिबंधित झंडे के साथ जुलूस निकाला था और वहाँ खड़े सैनिकों के साथ गाली-गलौज की थी।’
इसके कई महीने बाद, दिसंबर 1993 में, अखबार ने नोट किया कि इस रिपोर्ट में गिरफ़्तारी के दावों की पुष्टि नहीं की जा सकती है। हालांकि यह भी कहा गया है कि जब इसराइली सरकार के प्रवक्ता से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि वह इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि ऐसी घटनाएं हुई होंगी। उसके बाद से ही कलाकारों ने फिलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए तरबूज़ की विशेषता वाली कला को बनाना जारी रखा है।
तरबूज के टुकड़े
सबसे प्रसिद्ध कलाकृतियों में से एक खालिद हुरानी की है। उन्होंने 2007 में ‘सब्जेक्टिव एटलस ऑफ फिलीस्तीन’ नाम की किताब के लिए तरबूज के एक टुकड़े को चित्रित किया।
‘द स्टोरी ऑफ द वॉटरमेलन’ नाम की यह पेंटिंग दुनिया भर में घूमी। मई 2021 में इसराइल-हमास संघर्ष के दौरान इसे और अधिक प्रसिद्धि मिली।
तरबूज़ के चित्रण में एक और उछाल इस साल की शुरुआत में आया। जनवरी में, जब इसराइल के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतामार बेन ग्विर ने पुलिस को सार्वजनिक स्थानों से फलस्तीनी झंडे हटाने का निर्देश दिया।
उन्होंने कहा कि फिलीस्तीनी झंडे लहराना आतंकवाद के समर्थन जैसा काम है। इसके बाद इसराइल विरोधी मार्च के दौरान तरबूज की तस्वीरें दिखाई देने लगीं।
इसराइली कानून फिलीस्तीनी झंडों को गैर कानूनी नहीं कहता, लेकिन पुलिस और सैनिकों को उन मामलों में उन्हें हटाने का अधिकार है, जहाँ उन्हें लगता है कि इससे सार्वजनिक व्यवस्था को ख़तरा है।
इस साल जुलाई में यरूशलम में आयोजित एक विरोध-प्रदर्शन में, फिलीस्तीनी प्रदर्शनकारियों ने फिलीस्तीनी झंडे के रंग में तरबूज या स्वतंत्रता शब्द के प्रतीक ले रखे थे। वहीं अगस्त में, प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की न्यायिक सुधार योजनाओं का विरोध करने के लिए तेल अवीव में तरबूज की फोटो वाली टी-शर्ट पहनी थी।
हाल ही में, गाजा युद्ध का विरोध करने वाले सोशल मीडिया पोस्टों में तरबूज के चित्रों का इस्तेमाल हुआ है।
फिलीस्तीन के समर्थन में आगे आए कलाकार
टिक टॉक पर ब्रितानी मुस्लिम कॉमेडियन शुमीरुन नेस्सा ने तरबूज फिल्टर बनाए और अपने फॉलोवर को उनके साथ वीडियो बनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इससे होने वाली आय को गाजा की मदद के लिए दान करने का वादा किया।
कुछ सोशल मीडिया यूजर्स इस डर से फिलस्तीनी झंडे के बजाय तरबूज पोस्ट कर रहे होंगे कि उनके अकाउंट या वीडियो को सोशल नेटवर्क द्वारा दबाया जा सकता है।
अतीत में फिलीस्तीन समर्थक यूजर्स ने इंस्टाग्राम पर ‘शैडो बैन’ लगाने का आरोप लगाया है। शैडो बैन तब होता है, जब कोई सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म यह सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करता है कि कुछ पोस्ट अन्य लोगों के फीड में दिखाई न दें।
लेकिन बीबीसी के साइबर मामलों के संवाददाता जो टाइडी का कहना है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि अब ऐसा हो रहा है।
वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं लगता कि फिलीस्तीन समर्थक सामग्री पोस्ट करने वाले यूजर्स पर शैडो बैन लगाने की कोई साजिश है।’
वो कहते हैं, ‘लोग सोशल मीडिया पोस्ट में तरबूज का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन वे फिलस्तीन के झंडे का भी खुलकर उपयोग कर रहे हैं और संघर्ष के बारे में खुलकर लिख रहे हैं।’
फिलीस्तीन में दशकों तक तरबूज को एक राजनीतिक प्रतीक माना जाता था, खासकर पहले और दूसरे इंतिफादा के दौरान।
आज तरबूज इस इलाके में अविश्वसनीय रूप से न केवल एक लोकप्रिय भोजन बना हुआ है, बल्कि फिलीस्तीनियों की पीढिय़ों और उनके संघर्ष का समर्थन करने वालों के लिए एक शक्तिशाली रूपक भी है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
गुजरात और उत्तर प्रदेश के बाद मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी की तीसरी प्रयोगशाला बन गया है। इसके पहले उत्तर प्रदेश और गुजरात में भाजपा के दो नए प्रयोग सफल हुए हैं। हालांकि पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में भाजपा के तुलनात्मक रूप से हल्के फुल्के प्रयोग विफल भी रहे हैं। जहां तक मध्य प्रदेश का प्रश्न है वह भाजपा के लिए कई मायनों में अहम है। एक तो यह देश के मध्य में स्थित ऐसा बड़ा प्रदेश है जिसकी सीमा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख और बड़े राज्यों से मिलती है और इन प्रदेशों की भी अच्छी खासी आबादी भावनात्मक रूप से मध्य प्रदेश से जुड़ी है। एक तरह से यह प्रदेश देश का दिल है जहां से पूरे देश की नब्ज बेहतर तरीके से पकड़ी जा सकती है। यहां केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रमुख विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस शुरु से आमने सामने रहे हैं इसलिए विधान सभा चुनावों में जो दल ज्यादा बढ़त लेगा उसका व्यापक मनोवैज्ञानिक असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। प्रधानमंत्री का यहां बार-बार आना और प्रदेश के अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग वर्गों के मतदाताओं को साधने की कोशिश करना इसका प्रमाण है कि यहां का विधान सभा चुनाव कितना महत्त्वपूर्ण है।
मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के अंतर्संबंध पर इतने लेख लिखे जा चुके हैं कि इस पर राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी शोध कर पी एच डी की उपाधि प्राप्त कर सकता है। केन्द्र सरकार में वरिष्ठ मंत्रियों, सांसदों और राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पदाधिकारी रह चुके कैलाश विजयवर्गीय सरीखे वरिष्ठ नेताओं को मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव में उतारने का प्रयोग अपने आप में अभिनव है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खुद अगला मुख्यमंत्री घोषित करने के दावों के बावजूद केन्द्र द्वारा उन्हें अगला मुख्यमंत्री घोषित नहीं किए जाने को बहुत से राजनीतिक विश्लेषक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बीच बढ़ी खाई के रुप में देख रहे हैं तो कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे वर्तमान सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को दरकिनार करने की रणनीति के रुप में देख रहे हैं।जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीतने के लिए विभिन्न राज्यों में तरह तरह के नए और चौंकाने वाले प्रयोग करती है उससे राजनीतिक विश्लेषक भी तरह तरह के कयास लगाने लगते हैं।
गुजरात में नरेंद्र मोदी के बाद पहले आनंदी बेन और उनके बाद कई मुख्यमंत्री बदलने से काम नहीं बना तो लगभग पूरा मंत्रिमंडल ही बदलकर भाजपा ने विधान सभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी।उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के अचानक मुख्यमंत्री के रुप में सामने लाने से भी एकबारगी तमाम राजनीतिक विश्लेषक चौंके थे। मध्यप्रदेश में भी अमूमन उसी तरह की स्थिति बन रही है। क्या यहां भी तमाम बड़े चेहरों और दावेदारों को दरकिनार कर प्रज्ञा ठाकुर या किसी वैसे ही चेहरे को कमान सौंपी जा सकती है जो महिला आरक्षण मामले पर भी एक कदम आगे चलने का संकेत होगा और हिंदुत्व का भी झंडा ऊंचा कर सकेगा।
मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री का चेहरा आगे बढ़ाकर भाजपा शायद कर्नाटक के उस दाग को भी धोना चाहती है जो कर्नाटक में प्रधानमंत्री के नाम पर लड़े चुनाव हारने से प्रधानमंत्री की छवि को लगा है। भारतीय जनता पार्टी की नजऱ निश्चित रूप से 2024 के लोकसभा चुनाव पर है। यदि प्रधानमंत्री के नाम पर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा जीतती है तो यह लोकसभा चुनाव में बहुत सहायक सिद्ध होगा लेकिन यदि पांसा यहां भी उल्टा पड़ा तो भाजपा की रणनीति गुड गोबर भी हो सकती है। दस साल के एंटी इंकंबेंसी फैक्टर और विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन द्वारा अडानी समूह की अनियमितताओं और जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोपों के कारण भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के लिए 2024 का चुनाव निश्चित रूप से 2014 और 2019 के चुनाव से कहीं ज्यादा कठिन है। उसी की प्रारंभिक तैयारी एक तरह से मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में दिख रही है ।
सुजाता आनंदन
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) सुप्रीमो शरद पवार ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति की जाति उसके जन्म से ही होती है, और उसे बदला नहीं जा सकता। उन्होंने कहा है कि, ‘मेरी जाति पूरी दुनिया जानती है...मैंने (वायरल हो रहे) सर्टिफिकेट्स को देखा है, एक मेरा स्कूल छोडऩे वाला प्रमाण पत्र है और यह महाराष्ट्र एजुकेशन सोसाइटी के हाई स्कूल से जुड़ा है। यह सर्टिफिकेट असली है। उस पर लिखी हुई बातें सही हैं। इसके अलावा एक अंग्रेजी में लिखा हुआ डॉक्यूमेंट जारी हुआ है जिसमें मेरी जाति को ओबीसी बताया गया है।’ उन्होंने कहा कि, ‘मैं ओबीसी का पूरा सम्मान करता हूं लेकिन मैं अपनी जाति छिपा नहीं सकता जो मुझे जन्म से मिली है।’
शरद पवार ने यह बातें सोशल मीडिया पर वायरल हुए उन दो दस्तावेजों के सिलसिले में कही हैं, जिनमें शरद पवार को ओबीसी बताया गया है।
शरद पवार ने कहा कि वह जाति का इस्तेमाल राजनीति के लिए नहीं करते हैं और ऐसा कभी नहीं करेंगे, लेकिन वह मराठा समुदाय के मुद्दों को हल करने में पूरा प्रयास करते रहेंगे। इस सवाल पर कि क्या आरक्षण को लेकर ओबीसी और मराठा समुदाय के बीच दुश्मनी बढ़ रही है, शरद पवार ने कहा कि ‘दोनों समुदायों के बीच ऐसा कोई मुद्दा नहीं है।’ उन्होंने कहा कि, ‘मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि ओबीसी और मराठों के बीच कोई विवाद नहीं है। हालांकि कुछ लोग ऐसा माहौल जरूर बनाना चाहते हैं।
वायरल हो रहे दस्तावेजों को लेकर शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने भी कहा है कि यह राजनीतिक षडय़ंत्र है। बारामती से एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले ने कहा कि जाति प्रमाण पत्र के दावे गलत हैं और सर्टिफिकेट्स फर्जी हैं। उन्होंने कहा कि, ‘ये शरद पवार को बदनाम करने की साजिश है, यह किसी की बचकानी हरकत है..यह सोचना चाहिए कि जब शरद पवार 10वीं कक्षा में पढ़ते थे तब क्?या इंग्लिश मीडियम स्कूल थे?’
गौरतलब है कि शरद पवार का जन्म 1942 में हुआ था और उन्होंने बारामती में मराठी भाषी स्कूल से स्कूली शिक्षा ली थी। बाद में पुणे के अंग्रेजी माध्यम कॉलेज में गए थे। वे 1955-57 के बीच स्कूल से पास आउट हुए होंगे। यहां रोचक है कि उस समय ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) अस्तित्व में ही नहीं था। संविधान में सिर्फ अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को मान्यता दी गई थी। ओबीसी का जिक्र तो विश्वनाथ प्रताप सिंह के शासन में 80 के दशक में पहली बार मंडल आयोग की रिपोर्ट से सामने आया था।
तार्किक तौर पर देखें तो इस तरह शरद पवार की जाति को ओबीसी बताना हास्यास्पद लगता है। इसके अलावा शरद पवार तो खुद को गर्व के साथ ‘मी मर्द मराठा’ (मैं एक मराठा पुरुष हूं) कहते रहे हैं। ऐसे में शरद पवार खुद को ओबीसी के तौर पर कैसे स्कूल में रजिस्टर करा सकते हैं।
तो सवाल है कि आखिर शरद पवार का फर्जी सर्टिफिकेट क्यों वायरल हो रहा है? मोटे तौर पर देखें तो इसकी जड़े महाराष्ट्र में चल रहे मराठा आरक्षण आंदोलन से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं। इस आंदोलन को संभालने में मौजूदा शिंदे सरकार ने आग पर चलने जैसा काम किया है। शिंदे सरकार ने आंदोलनरत मराठों को कुनबी जाति के प्रमाणपत्र देने का वायदा किया है।
कुनबी दरअसल मराठों की ही एक उपजाति है, जो परंपरागत तौर पर खेती-किसानी से जुड़े होते हैं। लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में वे मराठा दिखते हुए भी ओबीसी आरक्षण का लाभ लेना चाहते हैं। संभवत:इसी की तरफ इशारा करते हुए महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने कहा था, ‘वे अपनी बेटी की शादी के वक्त तो मराठा हो जाते हैं, लेकिन नौकरियों में फायदे के लिए ओबीसी बनने से परहेज नहीं करते।’
शरद पवार को ओबीसी बनाने के पीछे एक अन्य राजनीतिक कारण भी माना जा सकता है। 80 के दशक के मंडल आंदोलन के दौरान मराठों ने पहली बार ओबीसी श्रेणी में आरक्षण की मांग की थी, तो उस समय शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने इस मांग को खारिज कर दिया था। अलबत्ता, उन्होंने 52 छोटी और महत्वहीन जातियों को ओबीसी में शामिल कर लिया था। इसीलिए जहां ओबीसी इसके लिए उन्हें सबसे महान ओबीसी नेता के रूप में तारीफें कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसी तथ्य को राजनीतिक शरारत करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के मतदाताओं में मराठों की आबादी करीब 33 फीसदी है। लेकिन सारे मराठा एक जैसे नहीं हैं। मराठों के करीब 96 कुल हैं। इनमें से 6 को राजशाही कुल माना जाता है, जैसे बड़ौदा के गायकवाड, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, भोसले, देशमुख और जाधव। लेकिन ऐसे भी कुल हैं, जिनकी वंशावली राजस्थान के चौहान और सिसोदिया से मिलती है। रोचक तथ्य यह है कि वर्तमान समय के महाराष्ट्र में सबसे मजबूत नेता माने जाने वाले शरद पवार इनमें से किसी भी वंश से नहीं हैं। वे एक मामूली मराठा किसान परिवार से आते हैं और शायद इसीलिए वे खुद को किसान ही कहते रहे हैं।
संभवत: यही कारण हो सकता है कि एस वी चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण और विलासराव देशमुख सरीखे अन्य मराठा नेताओँ से उनकी ज्यादा बनती नहीं है। शरद पवार की राजनीति हमेशा कुलीन मराठा को राजनीति में या सरकारी स्तर पर उच्च पद पर आसीन होने से रोकने वाली रही है। लेकिन वे इसमें हमेशा कामयाब भी नहीं हुए हैं।
शरद पवार को ओबीसी स्थापित करने की शरारत के पीछे वह राजनीतिक बहस भी हो सकती है जिसमें देश की आबादी में हिस्सेदारी के मुताबिक हक देने का तर्क दिया जा रहा है और जातीय जनगणना को बड़े राजनीतिक मुद्दे के तौर पर सामने रखा जा रहा है। (navjivanindia.com)
-पीयूष बबेले
झूठ 1-
पंडित जवाहरलाल नेहरू के कपड़े पेरिस में धुलते थे?
सच्चाई- पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट लिखा है कि उनके बारे में इस तरह की बातें फैलाई जाती हैं। लेकिन एक बात तो यह है कि कोई कैसे हर रोज पेरिस से अपने कपड़े धुलवा सकता है। दूसरी बात यह है कि जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा हो और गरीबी की चपेट में हो तो इस तरह की बात सोचना भी अय्याशी है।
झूठ 2-
नेहरू जी ने क्रांतिकारियों के लिए कुछ नहीं किया?
सच्चाई- पंडित नेहरू जेल में बंद भगत सिंह से मिलने गए और उनकी रिहाई के लिए पूरे प्रयास किए। चंद्रशेखर आजाद भी नेहरू जी के संपर्क में थे। उत्तर प्रदेश में सारे क्रांतिकारियों के अगुवा श्री गणेश शंकर विद्यार्थी नेहरू जी के नेतृत्व में ही काम कर रहे थे।
झूठ 3-
सरदार पटेल को दरकिनार करके महात्मा गांधी ने पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया?
सच्चाई- महात्मा गांधी ने 1935 के बाद से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि जवाहरलाल नेहरू उनके उत्तराधिकारी हैं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी महात्मा गांधी ने यह बात कही थी। 1937 और 1946 के चुनाव में नेहरू जी कांग्रेस के निर्विवाद नेता थे और जनता की पहली पसंद इसलिए, उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया।
झूठ 4-
कश्मीर के मुद्दे को पंडित नेहरू ने उलझा दिया?
सच्चाई- भारत की आजादी के काफी समय पहले से ही पंडित नेहरू का ध्यान इस बात पर था कि अगर पाकिस्तान की मांग उठती है तो मुस्लिम बहुल होने के कारण कश्मीर के पाकिस्तान में जा सकता है। इसलिए उन्होंने शेख अब्दुल्ला के माध्यम से कश्मीर की जनता को कांग्रेस पार्टी के साथ किया। यह पंडित नेहरू की कूटनीति ही थी जिसकी वजह से कश्मीर राज्य का भारतीय संघ में विलय हुआ।
झूठ 5-
अक्सर कहा जाता है कि सरदार पटेल की कश्मीर के मामले में कोई भूमिका नहीं थी और नेहरू अकेले यह काम कर रहे थे?
सच्चाई-यह है कि पंडित नेहरू शेख अब्दुल्लाह से और सरदार पटेल राजा हरि सिंह से बातचीत कर रहे थे। कश्मीर का मिशन दोनों नेताओं का संयुक्त मिशन था।
झूठ 6-
धारा 370 को लेकर नेहरू जी को दोष दिया जाता है?
सच्चाई- जिस दिन संविधान सभा में धारा 370 पास हुई उस दिन पं. नेहरु अमेरिका में थे। सरदार पटेल ने अपने दम पर कांग्रेसी संविधान सभा सदस्यों को समझा कर बिना किसी बहस के धारा 370 पास कराई। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी धारा 370 का विरोध नहीं किया था।
झूठ 7-
पंडित नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस की जासूसी कराई?
सच्चाई- पंडित नेहरू और सुभाष चंद्र बोस सच्चे दोस्त थे। बोस की मृत्यु के बाद पंडित नेहरू और सरदार पटेल ने गोपनीय रूप से उनकी पत्नी और बेटी को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जो लंबे समय तक गुप्त रूप से जारी रही। इसी सहायता को आज जासूसी के नाम से प्रचारित किया जाता है।
झूठ 8-
पंडित नेहरू ने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि सुभाष चंद्र बोस को गिरफ्तार किया जाएगा?
सच्चाई- यह पत्र पूरी तरह फर्जी है। इसमें ब्रिटेन की प्रधानमंत्री के नाम की स्पेलिंग तक गलत है। सच्चाई यह है कि पंडित नेहरू ने लाल किले में बंद आजाद हिंद फौज के सिपाहियों का मुकदमा एक वकील की हैसियत से लड़ा और सारे कमांडरों और सैनिकों की रिहाई कराई।
झूठ 9-
नेहरू जी ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बना कर वंशवाद को बढ़ावा दिया?
सच्चाई- पंडित नेहरू सबसे पहले अपना उत्तराधिकारी जयप्रकाश नारायण को और उसके बाद राम मनोहर लोहिया को बनाना चाहते थे। लेकिन दोनों नेता इसके लिए तैयार नहीं हुए। नेहरू जी के बाद उनके सबसे विश्वस्त लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। नेहरू जी ने इंदिरा जी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया।
झूठ 10-
नेहरू जी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की स्थाई सदस्यता ठुकरा दी?
सच्चाई- इस तरह के दावे भी सरासर झूठ है। पंडित नेहरू ने अपने जीवन काल में ही संसद में स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसा कोई प्रस्ताव कभी भारत के सामने नहीं आया। दूसरी बात ताइवान की जगह चीन को ही संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिलनी थी जो उसे पहले से हासिल थी।
भारत ने पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र महासभा में उस प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया, जिसमें कब्जे वाले फिलीस्तीनी क्षेत्र में इसराइली बस्तियों की निंदा की गई थी। ‘पूर्वी यरुशलम और सीरियाई गोलान समेत कब्जे वाले फिलीस्तीनी क्षेत्र में इसराइली बस्तियां’ टाइटल से यूएन महासभा में प्रस्ताव पेश किया गया था।
इस प्रस्ताव के समर्थन में 145 वोट पड़े, ख़िलाफ़ में सात और 18 देश वोटिंग से बाहर रहे।
जिन्होंने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया, वे देश हैं- कनाडा, हंगरी, इसराइल, मार्शल आईलैंड्स, फेडरेटेड स्टेट्स ऑफ माइक्रोनेसिया, नाऊरु और अमेरिका।
सबसे दिलचस्प है कि भारत ने इसराइल के ख़िलाफ़ वोट किया। इसराइल के खिलाफ वोट करने वाले देशों में बांग्लादेश, भूटान, चीन, फ्रांस, जापान, मलेशिया, मालदीव, रूस, साउथ अफ्रीका, श्रीलंका और ब्रिटेन हैं।
अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू से भारत के अधिकारियों ने बताया है कि यूएन में इसराइल पर भारत के रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया है।
उस अधिकारी ने कहा कि यूएन में इसराइल को लेकर हर साल इस तरह के प्रस्ताव आते हैं और भारत के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
इसराइल के खिलाफ क्यों गया भारत
थिंक टैंक ओआरएफ के फेलो कबीर तनेजा ने लिखा है कि भारत का इसराइल के खिलाफ वोट करना कोई चौंकाने वाला नहीं है।
तनेजा ने लिखा है, ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसराइल के खिलाफ प्रस्ताव के पक्ष में भारत का मतदान करना कोई चौंकाने वाला नहीं है। भारत द्वि-राष्ट्र समाधान का समर्थन करता है और अरब के साझेदारों के साथ संतुलन की नीति भी भारत की पुरानी है। यह प्रस्ताव आतंकवाद के मुद्दे से भी अलग था।’
भारत के जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी का कहना है, ‘यूएन में इसराइल के खिलाफ प्रस्ताव में जिस तरह से वोटिंग हुई, उससे साफ है कि अमेरिका अलग-थलग पड़ गया है। ट्रूडो के मनमाने नेतृत्व वाले कनाडा को छोड़ दें तो अमेरिका को सारे सहयोगियों ने अकेले छोड़ दिया।’
ब्रह्मा चेलानी के इस ट्वीट के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार विक्रम चंद्रा ने लिखा है, ‘जो ट्रूडो भारत के मामले में नियम आधारित व्यवस्था की बात करते हैं वो फ़लस्तीनी क्षेत्र में इसराइली कब्जे का समर्थन कर रहे हैं। दिलचस्प है।’
हालांकि पिछले महीने जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में गाजा में इसराइल के हमले को लेकर युद्धविराम का प्रस्ताव लाया गया था तो भारत वोटिंग से बाहर रहा था। तब भारत के रुख को इसराइल के प्रति मोदी सरकार की नरमी के तौर पर देखा गया था।
यूएन में पिछले हफ्ते इसराइल के खिलाफ आए प्रस्ताव को अमेरिका ने एकतरफा बताया था। वहीं इसराइल ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट करने की अपील करते हुए कहा था, ‘हम आप सभी से अपील करते हैं कि इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट करें। सात अक्टूबर को हमास के आतंकवादी हमले के बावजूद प्रस्ताव में इसका जिक्र नहीं किया गया है। हमास के युद्ध अपराध का कोई जिक्रनहीं है। ऐसे में इसराइल सभी देशों से इस प्रस्ताव के विरोध में वोट करने की अपील करता है।’ हालांकि भारत ने इसराइल की अपील पर ध्यान नहीं दिया और प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया।
भारत के रुख के मायने
इसराइल के खिलाफ यूएन में भारत की वोटिंग को कई लोग मोदी सरकार की इसराइल पर बदली नीति के रूप में भी देख रहे हैं।
26 अक्टूबर को यूएन में इसराइल के गज़ा पर जारी हमले को लेकर आपातकालीन सत्र बुलाया गया था और भारत ने युद्धविराम के प्रस्ताव पर वोट नहीं किया था।
भारत के इस रुख को इसराइल के पक्ष में माना गया था। भारत ने तब कहा था कि प्रस्ताव में सात अक्टूबर को इसराइली इलाके में हमास के हमले का संदर्भ नहीं था और भारत की नीति आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की रही है।
यूएन में 26 अक्टूबर की वोटिंग के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरब और खाड़ी के देशों के कई नेताओं से बात की है।
इस बातचीत में पीएम मोदी से अरब के नेताओं ने फिलीस्तीनियों के पक्ष में खड़े होने की अपील की थी। इनमें ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, यूएई के राष्ट्रपपति शेख़ मोहम्मद बिन जायद अल नाह्यान और मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल-सीसी शामिल थे।
अमेरिका और यूके में भारत के राजदूत रहे नवतेज सरना ने इंडो-अमेरिका फ्रेंडशिप असोसिएशन की ओर सोमवार को आयोजित एक चर्चा में कहा, ‘भारत का रुख़ पूरी तरह से राष्ट्रहित में है और पूरी तरह से यथार्थवादी है। अगर हम अरब के देशों को भी देखें तो वहाँ से भी फ़लस्तीनियों के समर्थन में कोई मज़बूत प्रतिक्रिया नहीं आई है। भारत का रुख़ एक अहम संकेत है कि हम कहाँ खड़े हैं। हम द्वि-राष्ट्र समाधान के सिद्धांत के साथ इसराइल के साथ खड़े हैं।’
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे टीएस तिरूमूर्ति ने इसराइल-हमास की जंग पर भारत के रुख को लेकर 31 अक्टूबर को अंग्रेजी अखबार द हिन्दू में भारत के रुख को लेकर लिखा था कि भारत ने हमेशा से इसराइल-फिलस्तीन संकट का समाधान द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत में देखा है। इसराइल के भीतर आतंकवादी हमले से भारत का चिंतित होना भी लाजिमी है।
अरब देशों का रुख क्या है?
टीएस तिरूमूर्ति ने लिखा है, ‘इसराइल-फ़लस्तीन संकट में पश्चिम को उनके पाखंड और दोहरे मानदंड के लिया घेरा जा सकता है लेकिन क्या अरब इस मामले में दूध का धुला है? क्या फिलीस्तीनियों को किनारे करने के लिए अरब के देश जिम्मेदार नहीं हैं?’
इसराइल से रिश्ते सामान्य करने की रेस में अरब के देश फ़लस्तीनियों के मुद्दे पर बात करते हुए कहते हैं कि इसराइल अब फ़लस्तीन के किसी और इलाक़े को अपने में नहीं मिलाने पर सहमत हो गया है। हालांकि इसराइल ठीक इसके उलट करता रहा है।’
‘इसराइल के प्रधानमंत्री की कोशिश रहती है कि पश्चिम एशिया में मुद्दा ईरान को बनाया जाए न कि फिलीस्तीन को। अभी इसराइल को लेकर अरब देशों की जो प्रतिक्रिया है, वह सडक़ों पर फ़लस्तीनियों के समर्थन में विरोध-प्रदर्शन को रोकने के लिए है।’
‘क्या खाड़ी के देश गाजा पर इसराइली हमले को रोकने के लिए अपने तेल को हथियार नहीं बना सकते थे?फिलीस्तीनियों के हक़ों की उपेक्षा कर इसराइल से रिश्ते सामान्य करने से उन्हें सुरक्षा नहीं मिलेगी, वो भी तब जब खाड़ी के देशों में उदार सरकार बनाने की बात हो रही है।’
26 अक्टूबर को भारत जब यूएन महासभा में गज़़ा में युद्धविराम के प्रस्ताव पर वोटिंग से बाहर रहा था तब फ्रांस की मिसाल दी गई थी। फ्रांस ने युद्धविराम के समर्थन में वोट किया था जबकि पश्चिम के देश खुलकर इसराइल के समर्थन में हैं।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी हमास के सात अक्टूबर के हमले के बाद इसराइल गए थे और उन्होंने इसराइली राष्ट्रपति बिन्यामिन नेतन्याहू साथ खड़े होने का आश्वासन दिया था।
अंतरराष्ट्रीय मामलों की विशेषज्ञ निरूपमा सुब्रमण्यम ने फ्रांस के रुख़ पर लिखा था, ‘फ्रांस ने गज़़ा में युद्धविराम वाले प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया। ऐसा तब है, जब यूरोप में सबसे ज़्यादा यहूदी आबादी फ्रांस में रहती है। इसराइल और अमेरिका के बाद सबसे ज़्यादा यहूदी फ्रांस में ही हैं।’
‘फ्रांस में यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी भी रहती है। फ्रांस और इसराइल में कऱीबी का संबंध है और फ्रांस के पीएम इमैनुएल मैक्रों इसराइली पीएम नेतन्याहू को अपना दोस्त मानते हैं। लेकिन फ्रांस ने बाकी के पश्चिमी देशों के तुलना में वोटिंग से बाहर रहने के बजाय प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया।’
पिछले महीने जब भारत इसराइल के खिलाफ वोटिंग से बाहर रहा था तब दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर में प्रोफेसर रहे ए।के। पाशा ने कहा था कि भारत ने इसराइल-हमास युद्ध में जो रुख दिखाया है, वह मोदी सरकार के दोहरे मानदंड को दिखाता है।
प्रोफेसर पाशा ने कहा था, ‘भारत ने यूक्रेन और रूस जंग में स्वतंत्र विदेश नीति के साथ ग्लोबल साउथ की आवाज बनने की जो ठोस कोशिश की थी, उन पर खुद ही पानी फेर दिया है। गाजा में आम फिलीस्तीनी, बच्चे और महिलाएं हर दिन मारे जा रहे हैं।’
‘इससे रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव आया तो भारत वोटिंग से बाहर रहा। भारत किस मुँह से कहेगा कि वह ग्लोबल साउथ की आवाज है। इसराइल-हमास संघर्ष में मोदी सरकार का रुख भारत की स्वतंत्र विदेश नीति के उलट अमेरिका के पिछलग्गू की तरह है।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
महुआ मोइत्रा ने यह तो खुद स्वीकार किया है कि उद्योगपति हीरानंदानी से उनकी मित्रता थी और उन्होंने संसद के पोर्टल का अपना पासवर्ड उन्हें दिया था। निसंदेह उनका यह कृत्य नैतिकता से परे है। लेकिन सांसदों की नैतिकता क्या इसी तक सीमित है कि संसद के पोर्टल का पासवर्ड अपने किसी विश्वसनीय व्यक्ति को सौंपने से ही सासंद की सांसदी चली जाए! यह प्रश्न तब और अधिक प्रासंगिक हो जाता है जब केन्द्र सरकार के मंत्री के पुत्र के ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हों जब वे उद्योगपतियों से सैकड़ों करोड़ वसूलने की बातें कर रहे हों।
हालांकि जांच में ऐसे वीडियो फर्जी निकल सकते हैं लेकिन क्या संसद की नैतिकता देखने वाली कमेटी को ऐसे वीडियो पर मंत्री की उसी तरह की जांच नहीं करनी चाहिए जैसी महुआ मोइत्रा की हुई है। यही बात सत्ताधारी दल के सासंद बृजभूषण शरण सिंह की नैतिकता की नहीं होनी चाहिए जिन पर देश की प्रतिष्ठित महिला पहलवानों ने यौन प्रताडऩा के इतने गम्भीर आरोप लगाए थे कि सर्वोच्च न्यायालय को दिल्ली पुलिस को एफ आई आर के निर्देश देने पड़े। क्या सांसदों और विधायकों की नैतिकता उनके संसदीय व्यवहार तक ही सीमित है! यदि ऐसा ही है तब संसद की नैतिकता देखने वाली कमेटी ने सत्ताधारी दल के सासंद रमेश बिधूड़ी का वह अनैतिक आचरण क्यों नहीं देखा जिसने अपने साथी सासंद दानिश अली को बेहद अपमानजनक गालियों से नवाजा था।
ऐसा लगता है कि संसद की नैतिकता पर नजर रखने वाली समिती भी उसी तरह के आरोपों में घिरती जा रही है जिस तरह के आरोप केन्द्रीय जांच एजेंसियों पर लग रहे हैं कि वे केवल विपक्षी नेताओं पर ही कार्यवाही कर रही हैं और सरकार को समर्थन देने वाले नेताओं और उद्योगपतियों के मामलो में शांत रहती हैं। ऐसे आरोप दिल्ली पुलिस पर भी लगते रहे हैं कि उसका रवैया आम आदमी पार्टी से जुड़े नेताओं के प्रति अलग है और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े बृजभूषण शरण सिंह आदि नेताओं के प्रति अलग है। महुआ मोइत्रा ने भी संसद की नैतिकता देखने वाली समिती के अध्यक्ष विनोद सोनकर के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए हैं कि जांच के नाम पर वे उनसे ऐसे निजी प्रश्न पूछ रहे थे जो महिला की अस्मिता के खिलाफ हैं। संसद की यह समिती भी महुआ मोइत्रा के मामले में दो फाड़ हो गई है।
भाजपा और उसके सहयोगी सासंद महुआ मोइत्रा के निष्कासन से सहमत हैं और विपक्षी दलों के सासंद महुआ मोइत्रा के साथ हैं। संसदीय समिती का राजनैतिक विचारधारा के कारण दो फाड़ होना संसदीय लोकतंत्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह दर्शाता है कि भविष्य में इन समितियों के फैसले तथ्यों, तर्क और विवेक से होने के बजाय राजनीतिक विचार के चश्मे से हुआ करेंगे। यह राजनीतिक कटुता की पराकाष्ठा है और इसे नैतिक मूल्यों का नितांत ह्रास ही कहा जाएगा।
देश की संसद ऐसी संवैधानिक संस्था है जो देश के शासन को दिशा देने के लिए कानून बनाती है। यदि ऐसी सर्वोच्च संस्था के सदस्यों की नैतिकता पर नजर रखने वाली संसदीय समिती की नैतिकता पर कई सांसद प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या हो सकती है। अगले महीने संसद का शीत कालीन सत्र शुरु होने जा रहा है।
इस सत्र में महुआ मोइत्रा के निलंबन और संसद की एथिक्स कमेटी के व्यवहार पर लंबी चर्चा होने की संभावना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्व दलीय बैठक बुलाकर लोकसभा अध्यक्ष इस संवेदनशील मुद्दे पर कोई तर्कसंगत निर्णय लेने का प्रयास करेंगे। लोकसभा अध्यक्ष को इस मामले में जल्दबाजी में फैसला लेने से बचना चाहिए। महुवा मोइत्रा का सांसद के रुप में लंबा अनुभव नहीं है इसलिए उन्हें चेतावनी दी जा सकती है और भविष्य में सांसदों के लिए संसद के पोर्टल पर प्रश्न पूछने के लिए विस्तृत गाइडलाइन जारी की जानी चाहिए ताकि जाने अंजाने कोई सासंद ऐसी गलती न करे।
डॉ. आर.के. पालीवाल
सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बैंच ने एक अभूतपूर्व फैसले में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले देश के तमाम सांसदों और विधायकों पर नकेल कसने की शानदार शुरुवात की है। यदि उनके इस फैसले को विभिन्न राज्यों के हाई कोर्ट और जि़ला अदालतों ने अपने अपने क्षेत्राधिकार में ठीक से कार्यान्वित कर दिया तो यह निर्णय राजनीति से आपराधिक तत्वों की सफाई के लिए मील का पत्थर साबित होगा और भविष्य के लिए ऐतिहासिक नजीर बन सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने दिशा निर्देश जारी किए हैं कि देश के सभी हाई कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश स्वत: संज्ञान लेकर अपने अपने क्षेत्र में सांसदों और विधायकों के आपराधिक मामलों की समीक्षा करें। उन्होने जि़ला अदालतों के प्रमुखों को भी यह दायित्व सौंपा है कि वे अपने जिलों के सांसदों और विधायकों के आपराधिक मामलों के डोजियर हमेशा अपडेट करते रहेंगे ताकि जब भी हाई कोर्ट उनसे यह जानकारी मांगे तो वे तुरंत अद्यतन जानकारी हाई कोर्ट की समीक्षा के लिए प्रस्तुत कर सकें।
यदि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज़ारी यह दिशा निर्देश सभी हाई कोर्ट भी उसी भावना से लागू कर दें जो सर्वोच्च न्यायालय ने दिखाई है तो एक पंच वर्षीय योजना में सांसदों और विधायकों के अरसे से लटके सभी मामलों में त्वरित निर्णय आ सकते हैं। यह और बेहतर होता यदि सर्वोच्च न्यायालय यह भी निर्देश देता कि तीन साल से अधिक लंबित मामलों में संबंधित न्यायालय के जज को हर तीन महीने में एक रिर्पोट देनी होगी कि यह मामला अभी तक क्यों नहीं निबटा और पिछली तिमाही में उसमें क्या प्रगति हुई है। यह प्रशासनिक प्रावधान भी जरूरी है कि ऐसे मामलों की प्रतिदिन सुनवाई होनी चाहिए जो पांच साल से अधिक समय से लंबित हैं। वर्तमान दौर में चुनाव इतने महंगे हो गए हैं कि अधिकांश विधायक और सांसद करोड़पति हैं क्योंकि आम आदमी के लिए दलों का टिकट पाना लगभग असंभव हो गया। उनके रसूख हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले बड़े वकीलों से हैं। धन और रसूख के कारण जन प्रतिनिधि अपने आपराधिक मामलों को साल दर साल टालने में सक्षम हैं।सत्ताधारी दलों के सांसदों और विधायकों की पहुंच पुलिस प्रशासन के आला अधिकारियों तक भी होती है जिनकी मदद से वे हर पल शहर में उपलब्ध होते हुए भी खुद को आसानी से कई साल तक फरार दिखा कर अदालती कार्यवाही से बचते रहते हैं।ज्यादा समय मिलने पर गवाहों को भय और लालच से तोडऩे का खतरा भी बहुत बढ जाता है।
जिला अदालतों और हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले संवेदनशील वकीलों और बार संघों का भी यह कर्तव्य बनता है कि वे भी अपने इलाकों में सांसदों और विधायकों के आपराधिक मामलो की प्रगति पर पैनी नजऱ रखें और समय समय पर जिला न्यायधीश और अपने राज्य के हाई कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को ज्यादा विलंब वाले मामलो की सूचना देते रहें।सर्वोच्च न्यायालय ने जो साहसिक कदम उठाया है उसमें सब प्रबुद्ध नागरिक और न्याय एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था मे सुधार के लिए प्रयासरत समाजसेवी संस्थाएं जुड़ेंगी तो निश्चित रूप से राजनीतिक भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी पर लगाम कसी जा सकती है। संवेदनशील मीडिया की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि जिन मामलों को उसने घटना के समय सनसनीखेज खबरों की सुर्खियां बनाकर प्रकाशित किता था, निश्चित अंतराल के साथ उन मामलों की न्यायिक प्रगति की रिर्पोट भी प्रकाशित करें ताकि यह सब मामले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आते रहें।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर नागरिक का कर्तव्य होता है कि वह समाज की शुचिता के लिए हर संभव प्रयास करे। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय की पहल अपना रंग दिखाएगी।
सनियारा खान
इलेक्शन का भी एक अलग ही मौसम
होता है। आपके गेट से लेकर आंगन
तक प्रत्याशियों के परचें यहां वहां जहां तहां पड़े दिखेंगे। कल दोपहर कॉल बैल की आवाज से गहरी नींद से जाग कर दरवाजा खोला तो गेट के सामने कार्यकर्ताओं का झुंड खड़ा था।
‘भैया निर्वाचन में खड़े है। तो एक सर्वे करना है। कुछ सवाल करेंगे आप से।’
झुंड की तरफ देख कर मैंने कहा-‘मतदान और कन्यादान करने से पहले बहुत गंभीरता पूर्वक सोचना चाहिए। अभी हम आधी अधूरी नींद से उठ कर कतई गंभीर नहीं हो पाएंगे। तो आप को कोई जवाब भी नहीं दे पाएंगे।’ गुस्से में पैर पटकते हुए हम अंदर चले आए। एक दिन तो हमारे मुहल्ले में माइक पर किसी एक नेताजी के चमचे ने इस कदर शोर मचा रखा था कि हो न हो आधे से ज्यादा कॉलोनी
वालों को पक्का सरदर्द हुआ होगा। तभी मेरे घर में काम करने वाली लडक़ी ने कहा- ‘आज मैं रैली में चली जाती तो दो तीन घंटे में ही 200 रुपए कमा लेती। आपको मालूम कि हमारे मुहल्ले में हर घर में चार चार हजार रुपए भी मिले?’
‘किसने दिया? ‘मेरा सवाल अनसुना करते हुए वह कहती गई’ सिर्फ पैसा ही नहीं, रोज रात को पूरे मोहल्ले में खाना होता है। कभी मुर्गा तो कभी बकरा कटता है। घरों में तो खाना बन ही नहीं रहा है। मजे चल रहे हैं सभी के। आदमियों को दारू और औरतों को कपड़े मिल रहे है सो अलग।’
खामोश हो कर सोचती रही कि ये जो पानी की तरह पैसे हर बार इलेक्शन के समय बहाया जाता है... ये आता कहां से और कोई पूछता क्यों नहीं? नेताओं की इलेक्शन में लुटाने और जीतने के बाद लूटने की जो आदत हो गई अब उसमें कोई भी शायद रोक नहीं लगा पाएगा। रोक लगाने के लिए सिस्टम में जैसे लोग होने चाहिए वैसे लोगों की सख्त कमी हो गई है। कुछ खटर पटर आवाज सुन कर बाहर आई तो देखा कि एक बंदा शान से गेट में एक पार्टी का झंडा रस्सी से बांध रहा था।
‘भैया, पूछने की आदत खत्म हो गई क्या?’ मेरी बात वह समझ नहीं पाया।
‘क्या पूछना दीदी?’
‘बिना पूछे ये जो बांध रहे हो?‘मेरी बात सुन कर उसने हंसते हुए कहा _अरे दीदी, पार्टी का झंडा है।’
‘लेकिन ये किसी का घर है। कोई पार्टी ऑफिस तो नहीं न? उतार दीजिए।’
बुरा सा मुंह बना कर झंडा उतार कर वह अगले घर चला गया। थोड़ी देर बाद एक और आदमी आ कर किसी दूसरी पार्टी का झंडा गेट में लगा रहा था। मैंने कहा-‘भैया, अभी कुछ देर पहले एक को भगाया। अब आप भी वही कर रहे है?’
‘अरे दीदी, लगाने दीजिए। एक झंडा लगाने का पांच रुपया मिलता है। हम भी इलेक्शन के बहाने थोड़ा बहुत कमा लेते है। आपको अगर किसी और पार्टी का झंडा चाहिए तो कल ले आयेंगे। हम को तो बस कमाना है।’ उस की बात सुन कर मैंने कहा- ‘भैया, बस यही एक समझौता हम नहीं कर सकते है। तिरंगा छोड़ कर कोई भी झंडा घर में लगाना हमे मंजूर नहीं।’ बड़बड़ाते हुए वह भी आगे बढ़ गया। मैं यही सोच रही थी कि कोई शरीफ लेकिन मामूली इंसान इस रबड़ी बटाई प्रतियोगिता में कैसे टिक पाएगा! ऊपर से तुर्रा ये है कि रबड़ी बाटने के लिए कहां कहां से पैसे मिलते हैं ये भी पूछना मना है!
आज अचानक चमचों के एक झुंड घर के सामने से हल्ला मचा कर जा रहे थे।
‘हमारे भैया के साथ ऐसा किया तो हम भी नहीं छोड़ेंगे’। ऐसा ही कुछ सुनाई दे रहा था। चलो, इलेक्शन का मौसम अब गुले गुलजार है। पूरी तरह शबाब पर है।
सत सिंह
हरियाणा के जींद जि़ले के एक सरकारी स्कूल में माहौल तनाव भरा है और छात्राओं के चेहरे सहमे दिख रहे हैं।
करीब दो माह पहले जि़ले के एक गांव के सरकारी स्कूल में करीब 60 स्कूली छात्राओं के साथ यौन उत्पीडऩ का मामला सामने आया था।
इस संबंध में प्रधानमंत्री, महिला आयोग समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों को पत्र लिखा गया था।
स्कूल के प्रिसिंपल पर ही छात्राओं के साथ यौन शोषण का आरोप है।
इस मामले में कार्रवाई करते हुए पिछले हफ्ते प्रिंसिपल को गिरफ्तार कर लिया गया है और पूछताछ जारी है। लेकिन लड़कियों में अब भी डर का माहौल है।
स्कूल का माहौल क्या है?
सुबह के करीब 11 बजे हैं और जींद मुख्यालय से बाल कल्याण समिति के चार सदस्य बच्चों को पोक्सो एक्ट और चाइल्ड हेल्पलाइन नंबर के बारे में बताने आए हैं।
जिस स्कूल में यह घटना हुई वह लड़कियों का स्कूल है, जहां गांव-कस्बों से लड़कियां पढऩे आती हैं।
इस स्कूल में शिक्षक और गैर-शिक्षक कर्मचारियों की संख्या 40 है, जिनमें से लगभग आधी महिला शिक्षक हैं और महिला छात्रों की संख्या 1200 से अधिक बताई जाती है।
फिलहाल स्कूल का माहौल ऐसा है कि छात्राओं को किसी से बात करने की इजाज़त नहीं है।
जैसे ही शिक्षकों की नजऱ बाहर से आ रहे लोगों पर पड़ी तो वे छात्राओं को आगे नहीं आने का इशारा करते नजर आए।
पूरे स्कूल में सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं, एक कैमरा प्रिंसिपल के रूम में भी लगाया गया है और एक मॉनिटरिंग पैनल भी प्रिंसिपल रूम में लगाया गया है।
सवाल यह भी उठ रहा है कि अभियुक्त प्रिंसिपल बिना ट्रांसफर हुए पिछले छह साल से एक ही स्कूल में कैसे तैनात थे, जबकि बाकी स्टाफ का इस दौरान कई बार ट्रांसफर हो चुका है।
लोग ये भी आरोप लगा रहे हैं कि अभियुक्त एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखता है इस वजह से उस पर कोई कार्रवाई अब तक नहीं की गई थी।
आरोप है कि प्रिसिंपल की कथित हरकतों की वजह से कई लड़कियों ने स्कूल भी छोड़ दिया।
प्रधानमंत्री सहित कई लोगों को एक गुमनाम पत्र
31 अगस्त को देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश, केंद्रीय महिला आयोग, हरियाणा महिला आयोग और हरियाणा के शिक्षा मंत्री को पांच पन्नों का एक गुमनाम पत्र भेजा गया था।
इसमें छात्राओं ने शिकायत की थी कि उन्हें यौन उत्पीडऩ का सामना करना पड़ रहा है।
पत्र में कहा गया है कि स्कूल के प्रिंसिपल छात्राओं को काले शीशे वाले केबिन में बुलाते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं।
पत्र में आपत्तिजनक तरीके से छूने का भी जिक्र है और दावा किया गया है कि ऐसा करते समय प्रिंसिपल ने छात्राओं को धमकी दी कि अगर उन्होंने किसी को बताया तो उन्हें प्रैक्टिकल और परीक्षा में फेल कर दिया जाएगा।
काले शीशे वाला केबिन
पत्र में लिखा है कि काले शीशे वाले इस केबिन में बाहर से कुछ भी दिखाई नहीं देता, जबकि अंदर से बाहर का दृश्य दिखाई देता है।
पत्र में छात्राओं के ही हवाले से कहा गया था कि अधिकारी स्कूल के बाहर आकर छात्राओं से बात करेंगे तो वे उन्हें प्रिंसिपल की सारी हरकतें बता देंगी।
पत्र में एक महिला शिक्षक का भी जिक्र है, जिसका तबादला कर दिया गया है।
पत्र में आरोप लगाया गया है कि वो प्रिंसिपल के निर्देश पर छात्राओं को काले शीशे वाले केबिन में भेजती थी।
हालांकि इस घटना के सामने आने के बाद काले शीशे वाले केबिन को हटा दिया गया है।
प्रिंसिपल गिरफ्तार, लगीं धाराएं
पत्र मिलने के बाद 14 सितंबर को महिला आयोग ने हरियाणा पुलिस को इस संबंध में कार्रवाई करने को कहा।
आरोप है कि पुलिस ने मामले में देरी की और एक महीने बाद जाकर प्रिंसिपल के खिलाफ मामला दर्ज किया गया।
इस मामले में पिछले हफ्ते ही प्रिंसिपल को गिरफ्तार किया गया है।
जींद पुलिस ने बताया कि प्रिंसिपल के खिलाफ धारा 354 (यौन उत्पीडऩ), 341, 342 आईपीसी और पॉक्सो एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया है।
स्कूल स्टाफ ने क्या कहा?
बीबीसी से बात करते हुए स्कूल के एक पुरुष शिक्षक ने कहा कि आरोप प्रिंसिपल पर है लेकिन हैरानी की बात यह है कि अगर इतनी बड़ी संख्या में छात्राओं के साथ कुछ गलत हो रहा था तो स्टाफ सदस्यों को भी इसकी जानकारी होनी चाहिए थी।
शिक्षक ने दावा किया कि उन्हें मामले की जानकारी तब हुई जब शिक्षा विभाग की टीम जांच करने स्कूल पहुंची।
उन्होंने कहा, ‘हमारे यहां तीन सदस्यीय यौन उत्पीडऩ विरोधी समिति भी है, लेकिन उन्हें भी कुछ नहीं बताया गया। पत्र सीधे उच्च अधिकारियों को भेजा गया था।’
‘हालांकि इसकी प्रामाणिकता जांच का विषय है, लेकिन किसी भी छात्र और अभिभावक ने स्कूल स्टाफ से बात नहीं की है। घटना के बाद से सभी शिक्षक सदमे में हैं कि इतनी बड़ी घटना हो गई और उन्हें पता भी नहीं चला।’
बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि स्कूल का ज्यादातर स्टाफ पिछले साल ट्रांसफर होकर आया था और उस समय स्कूल में पहले से ही काले शीशे वाला केबिन बना हुआ था, जिसके कारण उन्हें इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगा और न ही इस संबंध में किसी ने विरोध जताया।
अध्यापक ने बताया कि इस विद्यालय का दसवीं और बारहवीं कक्षा का परिणाम बहुत अच्छा रहा है और बीस, तीस छात्राएं भी मेरिट में आती हैं।
‘पीडि़त बच्चियां काफी डरी हुई हैं’
बाल कल्याण टीम के साथ पहुंची जींद की जिला बाल संरक्षण अधिकारी सुजाता ने बताया कि पीडि़त और अन्य छात्राएं सदमे में हैं।
उन्होंने कहा कि लड़कियां अभी खुलकर बात करने में झिझक महसूस कर रही हैं और उनके माता-पिता भी फिलहाल बात नहीं कर रहे हैं।
सुजाता के मुताबिक, उनसे बात करने और उन्हें समझाने की कोशिश की जा रही है ताकि वे सहज हो सकें और फिलहाल पीडि़त लड़कियों की संख्या साठ से भी ज्यादा हो सकती है।
बाल कल्याण समिति की काउंसलर ममता शर्मा का कहना है कि छात्राएं काफी डरी हुई हैं और उनके मन में कहने को बहुत कुछ है लेकिन माहौल उनके खिलाफ हो गया है।
ममता शर्मा का कहना है कि इस घटना का लड़कियों के मन पर गहरा असर पड़ा है और भविष्य में कुछ नई बातें भी सामने आ सकती हैं।
पुलिस ने अभियुक्त का मोबाइल फोन और अन्य सिम कार्ड भी जब्त कर लिया है।
जांच जारी : उपायुक्त जींद
जींद के डिप्टी कमिश्नर मोहम्मद ए राजा ने कहा है कि उन्हें भी व्हाट्सएप पर पत्र मिला है और उन्होंने इस पर कार्रवाई की है।
इसके अलावा पुलिस की अपनी जांच भी जारी है, जिसमें प्रिंसिपल के खिलाफ मामला दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर लिया गया है।
इसके अलावा निदेशक स्कूल शिक्षा, पंचकुला भी अपनी जांच कर रहे हैं और हरियाणा सरकार भी कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के तहत जांच कर रही है।
उन्होंने कहा कि महिला आयोग की जांच भी अलग तरीके से आगे बढ़ रही है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
संविधान के दो महत्त्वपूर्ण पायों विधायिका और कार्यपालिका की सडऩ इतनी बढ गई है कि आए दिन सर्वोच्च न्यायालय को उसे दुरुस्त करने के लिए कई कई याचिकाओं पर लंबी सुनवाई और तीखी टिप्पणी करनी पड़ रही हैं। जनता के लिए समर्पित हमारे लोकतांत्रिक संविधान के निर्माताओं ने ऐसी उम्मीद नहीं की होगी कि सर्व शक्ति संपन्न विधायिका और तमाम अधिकार प्राप्त कार्यपालिका के उच्च पदस्थ अपनी कार्यशैली का इतना ह्रास करेंगे कि सर्वोच्च न्यायालय को गवर्नरों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पुलिस प्रशासन और जांच एजेंसियों की हीलाहवाली, अकर्मण्यता और गंभीर अनियमितताओं की शिकायतों और जनहित याचिकाओं पर आए दिन कड़ी टिप्पणियां करनी पड़ेंगी। जिस तरह से आजकल राज्यों द्वारा केंद्र सरकार के प्रतिनिधि गवर्नरों, लेफ्टिनेंट गवर्नरों और केंद्रीय जांच एजेंसियों के खिलाफ राज्य सरकारों और प्रबुद्ध जनों एवम समाजसेवी संस्थाओं की हजारों याचिकाएं और जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट पहुंच रही हैं उससे सुप्रीम कोर्ट का काफी समय इन्हीं मुद्दों पर जाया हो रहा है।
जिस तरह से लोकतांत्रिक संस्थाओं में लगातार गिरावट हो रही है और सत्ता पक्ष और विपक्ष में सत्ता हासिल करने के लिए हद दर्जे की अनैतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है उसके दुष्परिणाम स्वरूप नौकरशाही को भी कुछ भयवश और कुछ स्वार्थवश, कहीं आकाओं को खुश करने के अति उत्साह में और कहीं मन मसोसकर राजनीतिक गिरावट में शामिल होना पड़ रहा है। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक सिद्धांत और संविधान महज किताबों तक सिमट कर रह गए हैं।
निष्पक्षता के साथ जनहित के कार्य करने के बजाय किसी खास वर्ग, समूह या संस्थाओं के हित या अनहित में काम करने से विगत कुछ वर्षों में कार्यपालिका की स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है। यदि गर्वनर और लेफ्टिनेंट गवर्नर की ही बात करें तो दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना , महाराष्ट्र और तमिलनाडु आदि राज्य सरकारों ने अपनें राज्यपालों पर गम्भीर आरोप लगाते हुए चुनी हुई राज्य सरकारों के कार्यों में बाधा उत्पन्न करने के आरोप लगाए हैं। इस तरह के आरोप उन्हीं राज्यपालो के खिलाफ लगते हैं जहां केन्द्र सरकार के विरोधी दलों की सरकार हैं। महाराष्ट्र में सत्ता परिर्वतन के समय तत्कालीन गर्वनर की कार्यशैली पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिकूल टिप्पणी की थी।
यदि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तिपाए का तीसरा पाया न्यायपालिका भी ऐसा ही हो जाए तब हमारे लोकतंत्र की रक्षा ईश्वर भी नहीं कर पाएगा। यदि सुप्रीम कोर्ट भी विधायिका और कार्यपालिका की तरह ऐसी ही हीलाहवाली करने वाला या पक्षपाती हो जाए तो क्या होगा ! इधर केंद्र सरकार ने न्यायपालिका के कार्य में भी हस्पक्षेप करने और न्यायधीशों की नियुक्तियों में हीलाहवाली की नाकाम कोशिशें की थी। यदि नौकरशाही की तरह न्यायपालिका पर भी सरकारी हस्तक्षेप होगा तो सरकार की मनमानी पर कोई नियंत्रण ही नहीं रहेगा, इसीलिए हर हाल में सरकारों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह नियंत्रित करने की कोशिश का कड़ा विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि इससे आम जनता का यह ब्रह्मास्त्र भी भोंथरा हो जाएगा।
भले ही सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले बड़े वकीलों की महंगी फीस और देश के सुदूर कोनों से दिल्ली की दूरी के कारण हर व्यक्ति की पहुंच सुप्रीम कोर्ट में संभव नहीं है फिर भी राष्ट्र और जनहित के महत्त्वपूर्ण मामलो में सर्वोच्च न्यायालय की दखल विधायिका और कार्यपालिका की लचरता पर नियंत्रण के लिए बहुत जरूरी है। दिल्ली के प्रदूषण से लेकर केंद्रीय जांच एजेंसियों की विपक्षी नेताओं पर कार्यवाही, दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारों की लड़ाई और राज्यपालों की भूमिका आदि तमाम ऐसे मामले हैं जिन्हें विधायिका और कार्यपालिका को सुलझाना था लेकिन इन सबमें भी सर्वोच्च न्यायालय को निर्देश देने पड़ रहे हैं। आखिर एक अकेला सर्वोच्च न्यायालय भी क्या क्या देख सकता है !
ध्रुव गुप्त
धनतेरस पांच-दिवसीय प्रकाश-पर्व का पहला दिन है। यह पर्व उस पौराणिक घटना की स्मृति है जब समुद्र मंथन के देवों और असुरों के संयुक्त अभियान में अमृत घट अर्थात जीवनदायिनी औषधियों के साथ आयुर्वेद के आदि चिकित्सक धन्वंतरि की खोज हुई थी। धन्वंतरि को देवों ने अपना चिकित्सक बनाया था।
हजारों वर्षों से इस दिन को आयुर्वेद को समर्पित धन्वंतरि त्रयोदशी, धन्वन्तरि जयंती या धनतेरस के रूप में मनाया जाता रहा है। पुराणकारों का विश्वास था कि इस दिन संध्या समय धन्वंतरि को याद कर यम को दीपदान करने से आरोग्य और अकाल मृत्यु से सुरक्षा मिलती है। मध्ययुग में इसके साथ यह विश्वास जुड़ा कि इस दिन घर के बर्तन खरीदने से धन-धान्य की वृद्धि होती है। पिछली एक सदी में यह पर्व कई विकृतियों का शिकार हुआ है। धनतेरस का आज जो स्वरुप है वह बाजार की आक्रामक नीतियों और उपभोक्तावाद की देन है। हमारी धनलिप्सा ने एक महान चिकित्सक को धन का देवता बनाकर रख दिया है।
बाजार हमें बताता है कि आज के दिन सोने-चांदी, गाडिय़ां और विलासिता के सामान खरीदने अथवा सट्टेबाजी करने से धन तेरह गुना बढ़ जाता है। यह तो पता नहीं कि इन उपायों से कितने लोगों के धन में वृद्धि हुई, लेकिन बाजार की आपाधापी देखकर यह विश्वास जरूर हो जाता है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना उपभोक्तावाद की भेंट चढ़ चुकी है। हाल के वर्षों में धनतेरस के साथ एक और अंधविश्वास भी जुड़ गया है। पौराणिक मान्यता है कि देवी लक्ष्मी के वाहन उल्लू का दर्शन हो जाय तो घर में लक्ष्मी का आमद होता हैं। यह संभवत: हमारे पूर्वजों द्वारा पर्यावरण संतुलन में उल्लुओं की भूमिका का स्वीकार था। इधर हाल में कुछ पाखंडी तांत्रिकों ने यह स्थापना दी कि उल्लुओं के दर्शन से नहीं बल्कि उनकी बलि से तांत्रिक सिद्धियां और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। अब धनतेरस की रात हजारों उल्लुओं की बलि दी जाने लगी है जिसके कारण बुद्धिमान पक्षियों की इस दुर्लभ प्रजाति के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
धनतेरस का संदेश यह है कि हम अपनी प्रकृति की ओर लौटें। दीर्घकालिक, हानिरहित आरोग्य के लिए यथासंभव प्रकृति पर आधारित चिकित्सा पद्धति को अपनाएं और स्वस्थ रहें।
आप सबको धन्वंतरि जयंती की शुभकामनाएं!
सलमान रावी
मध्य प्रदेश में सीहोर जिले का सलकनपुर। ये बुधनी विधानसभा क्षेत्र में आता है, जहाँ विंध्यवासिनी बीजासन देवी सिद्धपीठ और मंदिर है।
मंदिर, पहाड़ी के ऊपर है। नीचे एक हेलिपैड बना हुआ है, जहाँ पुलिस और सरकारी अमला तैनात है।
तभी खामोशी को चीरता हुआ हेलिकॉप्टर धूल उड़ाते हुए पहुँचा।
इस हेलिकॉप्टर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी पत्नी और दोनों बेटों के साथ उतरे।
उन्होंने अपने जूते उतारे और हाथ जोडक़र वहीं से विंध्यवासिनी बीजासन देवी को प्रणाम किया।
ये उनकी ‘कुल देवी’ का मंदिर है। आज का दिन चौहान के लिए ख़ास है, क्योंकि आज वो बुधनी में अपना ‘रोड शो’ करने जा रहे हैं।
बुधनी उनकी जन्मभूमि भी है और कर्मभूमि भी।
यहीं पास में रेहटी तहसील है, जहाँ पर उनके दो रथ पहले से ही तैयार खड़े हैं। परिवार सहित रथ पर सवार होकर वो बुधनी के लिए निकल पड़े।
रास्ते में जगह-जगह स्वागत द्वार हैं और साथ ही लोगों का हुजूम भी है।
शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश के सबसे लंबे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री हैं।
वर्ष 2005 से वो चार बार राज्य के सियासी सिंहासन पर विराजमान हुए।
इस दौरान वर्ष 2018 में उन्हें बहुमत हासिल नहीं हुआ और कांग्रेस के कमलनाथ ने कमान संभाली। लेकिन दो सालों के बाद यानी 2020 में वो फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।
बुधनी उनका विधानसभा क्षेत्र है, जहाँ से उन्होंने अपना पहला विधानसभा का चुनाव जीता था। वो विदिशा से पाँच बार सांसद भी रहे। लेकिन 2006 से वो फिर बुधनी से लगातार विधानसभा का चुनाव जीत रहे हैं।
आजकल बुधनी विधानसभा क्षेत्र में चुनाव का प्रचार अपने पूरे शबाब पर है।
इस बार मुक़ाबला रोचक
लेकिन इस बार का चुनाव बड़ा रोचक है, क्योंकि इस बार भारतीय जनता पार्टी ने शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाया है। जबकि, वो मध्य प्रदेश के सबसे लंबे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री हैं।
रथ में जब उनके इंटरव्यू के लिए मुझे बुलाया गया, तो रात के आठ बज चुके थे।
नसरुल्लाह गंज पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज चुके थे। पूरा दिन, हर पचास मीटर पर स्वागत कर रहे लोगों की भीड़ के बीच जाना और उन्हें संबोधित करते रहने के बावजूद शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर कोई थकान नहीं दिख रही थी।
उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें रोड शो ख़त्म कर रात को एक बजे तक इंदौर भी पहुँचना हैं, जहाँ उनकी बैठक गृह मंत्री अमित शाह के साथ होने वाली है।
अमित शाह की बात आई, तो मुझे भोपाल में अमित शाह के संवाददाता सम्मलेन की याद आ गई, जब उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था कि अगर भारतीय जनता पार्टी जीत जाती है, तो मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा ये संगठन तय करेगा।
यानी उन्होंने स्पष्ट संदेश दे दिया था कि शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को आगे कर इस बार का विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ रही है उनकी पार्टी।
यही सवाल मैंने शिवराज सिंह चौहान से किया, तो उन्होंने कहा,‘देखिए हम एक बड़े मिशन का अंग हैं। और, वो मिशन है वैभवशाली, गौरवशाली, संपन्न, समृद्ध भारत के निर्माण का। उस मिशन का एक अंग होने के नाते, हम क्या काम करेंगे ये हमारा दल, हमारी विचारधारा तय करती है। इस लिए कौन कहाँ रहेगा हमको इसकी चिंता कभी नहीं रहती है। हमारे मन में भी ये बात नहीं आती है। केवल एक ही बात हम सोचते है हम कैसे और बेहतर ढंग से काम करें।’
उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि रथ के ब्रेक लग गए और लोगों का एक बड़ा हुजूम उनके स्वागत के लिए सामने खड़ा था।
मेरी ओर मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा, ‘देखो मेरी जनता आ गई है। सामने जनसैलाब है। मुझे थोड़ा लोगों के बीच जाना पड़ेगा।’
वो थोड़ी देर के लिए रथ से उतर कर चले गए, लेकिन मेरे दिमाग में ये सवाल बार बार घूमता रहा कि आखिर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह जैसे नेता को भारतीय जनता पार्टी किनारे क्यों कर रही है?
शिवराज की लोकप्रियता बनाम लाडली बहना योजना
जानकार मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी समय-समय पर नेतृत्व का परिवर्तन करती रहती है।
वो कहते हैं कि इसके लिए शिवराज सिंह चौहान को भी मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए।
पाँच दशकों से भी ज़्यादा से मध्य प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि शिवराज सिंह की प्रदेश में अपनी एक अलग पकड़ है। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी का कैडर भी काम करता है।’
वो कहते हैं, ‘आपको याद होगा उमा भारती का चेहरा अपने समय में सबसे बड़ा चेहरा था। लेकिन इसके बावजूद जब भारतीय जनता पार्टी ने निर्णय लिया और शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाया, तो पूरा का पूरा कैडर उनके साथ आया। अब भी अगर पार्टी कुछ ऐसा ही निर्णय लेती है, तो ऐसा ही होगा।’
उन्होंने महाराष्ट में देवेंद्र फडणवीस, हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर और उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी का उदाहरण भी दिया।
जानकार ये भी मानते हैं कि शिवराज सिंह की लोकप्रियता उनके द्वारा शुरू की गई कई योजनाओं की वजह से है। ख़ास तौर पर महिलाओं के लिए।
मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज सिंह चौहान ने महिलाओं को केंद्रित करते हुए कई योजनाएं शुरू कीं। जैसे लाडली लक्ष्मी और लाडली बहना योजना।
जानकार कहते हैं कि इन योजनाओं ने ज़मीनी स्तर पर अपना असर ज़रूर छोड़ा है और इससे शिवराज सिंह चौहान की महिलाओं के बीच लोकप्रियता और भी बढ़ी है।
लाडली लक्ष्मी योजना और पहले से चल रही थी। लेकिन चुनावों से चार महीने पहले लाडली बहना योजना को लागू किया गया, जिसकी वजह से शिवराज सिंह चौहान पर विपक्ष ने निशाना साधना शुरू कर दिया है।
कांग्रेस के प्रवक्ता केके मिश्रा ने सवाल उठाते हुए कहा, ‘18 महीनों से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री हैं। 15 महीनों को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश में भाजपा की ही सरकार चली आ रही है। लाडली बहनों की याद उन्हें चुनाव के समय ही क्यों आई?’
लाडली बहना योजना का कितना असर?
लाडली बहना योजना ज़मीन पर कितनी कारगर साबित हुई, इसकी समीक्षा अभी शुरू नहीं हुई है।
रेहटी तहसील की मुस्लिम बस्ती में हमारी मुलाक़ात सकीना बी से हुई। वो पसमांदा समाज से आती हैं। जिस घर में अभी वो रह रही हैं, वो आवास योजना के तहत बना हुआ पक्का मकान है।
पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘सब तो सुविधा दी है मामा ने। घर मकान दिया है रहने के लिए। नहीं तो हमारी व्यवस्था ही नहीं थी कि हम मकान बना सकते। लाडली बहना का पैसा दिया है और लाडली लक्ष्मी योजना से हमारी बच्चियों को पढाई लिखाई का बहुत सहारा मिला। नल की सुविधा भी दी। मुफ्त में अनाज भी दे रहे हैं। मामा सब कुछ तो कर रहे हैं हमारे लिए।’
हमारी बातें दूर खड़ी होकर सुन रहीं सज्जो बी अचानक बोल पड़ीं,‘शिवराज सिंह चौहान हमारे भाई हैं, हमारे बच्चों के मामा हैं।’
दशकों तक इस इलाक़े में काम करते रहने की वजह से शिवराज सिंह चौहान के व्यक्तिगत रिश्ते भी बहुत मज़बूत हैं।
मोहम्मद सलीम भी इसी इलाके में रहते हैं। वो गर्व से कहते हैं, ‘वो सब बच्चों के मामा हैं। लेकिन हमारे अंकल हैं। चाचा हैं वो हमारे क्योंकि वो हमारे वालिद साहब के दोस्त हैं।’
शिवराज सिंह चौहान अपनी शुरू की गई योजनाओं को लेकर बहुत गंभीर रहते हैं और ख़ुद ही उनकी निगरानी भी करते हैं।
अपने चुनावी रथ में बीबीसी से बात करते हुए वो दावा करते हैं कि ये योजनाएँ ‘गेम चेंजर’ इसलिए हैं, क्योंकि इनसे ‘महिलाओं के जीवन में बड़ा परिवर्तन’ आया है।
वो बताते हैं, ‘ये बहनों का सम्मान है। उनके जीवन को बदलने का एक अभियान है। ये भी है कि बहनों को लगा कि हमारे भाई ने हमारे लिए कुछ किया है। तो बहनें एकजुट होकर, आप देख रहे हैं, साथ खड़ी हैं। पैसे भी दे रही हैं चुनाव लडऩे के लिए, प्रचार के लिए भी निकल रहीं हैं। ये महिलाएँ ऐसे पहले कभी नहीं निकलती। ’
‘पाँव-पाँव वाले भैया’ का नाम कैसे पड़ा
बातों बातों में शिवराज सिंह चौहान बुधनी में बिताए अपने बचपन और अपने दोस्तों की बातें भी करते हैं। उन्हें वो दौर याद है और उनके दोस्तों को भी।
उनके पुराने दोस्तों में से एक मान सिंह पवार सीहोर में रहते हैं।
वो उस दौर को याद करते हैं जब सभी दोस्त एक साथ मिलकर काम किया करते थे। खाना भी पकाया करते थे।
बुधनी विधानसभा के शाहगंज में हमारी मुलाक़ात उनके पुराने साथी चंद्र प्रकाश पाण्डेय से हुई। वो प्रचार में जुटे हुए थे।
उन्होंने बताया, ‘शिवराज जी ने बुधनी में बचपन से ही काफ़ी संघर्ष किया है। यहाँ आंदोलन भी किए। बुधनी विधानसभा हो या पूरा संसदीय क्षेत्र, पूरा इलाका उन्होंने पैदल ही नाप दिया। पैदल यात्राएँ कीं। शुरू के बुधनी विधानसभा में तो 90 प्रतिशत लोगों को तो वो व्यक्तिगत रूप से जानते हैं।’
शिवराज सिंह बताते हैं कि बुधनी और सीहोर कभी कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करता था। राजनीति के अपने शुरुआती दिनों में उन्हें भाजपा के संगठन की नीव रखने और फिर उसके विस्तार के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी थी। इसकी वजह से उनका नाम ‘पाँव पाँव वाले भैया भी पड़ गया था।
वो कहते हैं, ‘ये इलाक़ा पहले कभी कांग्रेस का मजबूत गढ़ हुआ करता था। मैंने यहाँ शुरुआती दिनों से ही काम करना शुरू कर दिया था। लोगों में जागृति लाने का प्रयास किया। पैदल पैदल गाँव-गाँव घूमा। इसलिए मुझे लोग पाँव पाँव वाले भैया कहते हैं...’
ऐसा नहीं है कि उन्होंने समाज के किसी एक वर्ग के लिए काम किया। बुधनी के रहने वाले हर वर्ग के लोगों के बीच शिवराज सिंह चौहान एक अलग स्थान रखते हैं।
सरफराज लेथ मशीन का कारखाना चलाते हैं। रोड शो के दौरान वो मुख्यमंत्री का स्वागत बड़े जोश से कर रहे थे।
हमने पूछा तो वो बोले, ‘हमारा ये रिश्ता है कि वो हमारे मामा हैं। और हम उनको तहे दिल से चाहते हैं। उनके अलावा वोट किसी और को नहीं देते हैं। मामा के अलावा वोट किसी को नहीं देते हैं। हमारा ये लक्ष्य है कि वापस मामा ही बैठें (मुख्यमंत्री की कुर्सी पर)।’
‘पाँव पाँव वाले भैया’ से लेकर ‘मामा’ तक के उनके सफर के बीच कई दशक बीत गए।
टीवी कलाकार से मुकाबला
स्थानीय कार्यकर्ताओं में भी खासा जोश है जो रोड शो में सुबह से लगे हुए हैं।
आगे-आगे उनकी गाडिय़ाँ चल रही हैं। वो नारे लगा रहे हैं। इनमे से एक हैं बीजेपी कार्यकर्ता अभिषेक भार्गव, जो बताते हैं कि बुधनी विधानसभा में संघर्ष ‘एकतरफा’ है।
अभिषेक कहते हैं कि हमेशा की तरह शिवराज सिंह चौहान नामांकन भर कर प्रदेश के दूसरे इलाकों में प्रचार करने चले जाते हैं और बुधनी में प्रचार की कमान कार्यकर्ताओं के हाथों में ही रहती है।
लेकिन इस बार कांग्रेस पार्टी ने बुधनी सीट से शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ टीवी के एक कलाकार पंडित विक्रम मस्ताल शर्मा को उतारा है जिन्होंने हाल ही में रामायण पर आधारित एक सीरियल में हनुमान का किरदार निभाया है।
शर्मा बुधनी विधानसभा के ही रहने वाले हैं, लेकिन राजनीति में उनका ये पहला क़दम है।
शिवराज सिंह चौहान के रोड शो के फ़ौरन बाद हम पंडित विक्रम मस्ताल शर्मा से मिलने उनके सलकनपुर आवास पर पहुँचे।
मुख्यमंत्री के रोड शो में उमड़े जनसैलाब के बारे में पूछे जाने पर वो कहते हैं, ‘उनको (शिवराज सिंह चौहान को) बार-बार जन आशीर्वाद यात्राएँ निकालनी पड़ रही हैं। आपको बार-बार हर पाँच-दस किलोमीटर पर सभाएँ करनी पड़ रही हैं।’
वो कहते हैं, ‘पहले ऐसा तो नहीं होता था जो अभी पिछले 5-6 महीनों से हो रहा है। शिवराज सिंह चौहान कहते थे कि वो प्रचार के लिए बुधनी आएँगे ही नहीं। शिवराज जी कहते थे कि मेरी जनता चुनाव जिताएगी।’
शर्मा का दावा है कि ‘सत्ता विरोधी’ लहर की वजह से मुख्यमंत्री की परेशानी बढ़ गई है और कांग्रेस उन्हें बुधनी सीट पर कड़ी टक्कर दे रही है।
वो शिवराज सिंह चौहान द्वारा महिलाओं के लिए शुरू की गई योजनाओं को ‘पब्लिसिटी स्टंट’ बताते हैं और आगे कहते हैं, ‘आप देखिए लाडली बहना चार महीनों (चुनाव से चार महीने पहले) पहले क्यों याद आई। माननीय प्रधान मंत्री यहाँ (मध्यप्रदेश) आते हैं बड़ी सभाएँ करते हैं। उन सभाओं में वो माननीय शिवराज जी का नाम तक नहीं लेते हैं। किसी योजना का नाम नहीं लेते हैं। मोदी जी क्या कहते हैं? कहते हैं मध्य प्रदेश के मन में है मोदी। तो शिवराज सिंह चौहान जी कहाँ हैं ?’
उनके साथ मौजूद कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ता, संतोष वर्मा भी दावा करते हैं कि इस बार बुधनी सीट पर मुक़ाबला कड़ा है।
वैसे तो शिवराज सिंह चौहान के सामने कई चुनौतियाँ हैं। जानकारों को लगता है कि उनमें से सबसे बड़ी चुनौती का जो उन्हें सामना करना पड़ रहा है, वो है संगठन में चल रही अंतर्कलह।
लेकिन शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि हर संगठन में ऐसा होता रहता है।
बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, ‘ये स्वाभाविक रूप से होता रहता है कुछ मात्रा में। लेकिन भाजपा के कार्यकर्ता सिद्धांत और मूल्यों के लिए काम करते हैं। छोटी मोटी घटनाएँ या मामले सामने आते रहते हैं। ये सब कुछ निजी स्वार्थों की वजह से होता है। लेकिन बड़े तौर पर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता एक बड़े मिशन के लिए काम करते हैं। इसलिए ये अंतर्कलह बहुत लंबी नहीं चलती।’
पार्टी का रुख देखते हुए ये चुनाव भी शिवराज सिंह चौहान के लिए खास है। ऐसा इसलिए क्योंकि नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों के बीच भी वो मध्य प्रदेश में पार्टी के एक मात्र ‘मास लीडर’ हैं।
यानी ऐसे नेता जिनकी पूरे राज्य में आम लोगों के बीच पकड़ है। इस लिए विधासभा के चुनावों के परिणामों पर उनका राजनीतिक भविष्य भी निर्भर करने वाला है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
अंग्रेजों ने हम भारतीयों के साथ हिंदू मुस्लिम कार्ड खेलकर बंगाल विभाजन से लेकर भारत के विभाजन तक का बड़ा नुकसान किया था। वह तो गनीमत रही कि उस दौर में महात्मा गांधी और मौलाना आजाद जैसे नेता थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माध्यम से धार्मिक नफरत के जहर को कम करने की जी जान से कोशिश की वरना धार्मिक उन्माद में हुए नर संहार और दुर्दांत ज्यादतियों का दायरा न जाने और कितना घृणित होता। अंग्रेज दलित कार्ड खेलकर हिंदुओं को भी बांटना चाहते थे लेकिन महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर की सूझबूझ से पूना समझौते ने उसे विफल कर दिया था। वर्तमान दौर के सत्ता लोलूप नेता जाति का कार्ड खेलकर जब तब समाज में जातिगत भावना भडक़ाने की कोशिश करते रहते हैं ताकि जातिगत समीकरण के आधार पर सत्ता हासिल कर सकें।
जातिगत अहंकार और भेदभाव ने भारतीय सनातन समाज का कालांतर में वैसे ही खूब नुकसान किया है। स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डॉक्टर अंबेडकर, डॉ राम मनोहर लोहिया आदि विभूतियों ने अपनी अपनी तरह से सनातन धर्म और संस्कृति की एकता और जातिगत अहंकार और भेदभाव को काफी हद तक कम कर सामाजिक सौहार्द के लिए काफी प्रयास किए हैं लेकिन सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने वाले नेता जातियों के बीच की खाई को और चौड़ा एवं और गहरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। ट्विटर आदि सोसल नेटवर्किंग प्लेटफार्म पर बिहार से शुरु हुई जातिगत जनगणना पर जिस तरह की प्रतिक्रिया आ रही हैं उनसे लगता है कि जाति की राजनीति करने वाले नेता जातिगत बंटवारे को स्थाई और ज्यादा गहरा करके ही दम लेंगे।बिहार का ही उदाहरण लें तो जातिगत जनगणना का समर्थन करने वाले सत्ताधारी दलों के लिए भी जातिगत आंकड़े परेशानी का सबब बन रहे हैं। ऐसी मांग उठ रही है कि मुस्लिम यादव से ज्यादा हैं, इसलिए लालू प्रसाद यादव और उनके कुनबे राबड़ी देवी, तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव की जगह मुस्लिम नेता को मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। ब्राह्मण मात्र चार प्रतिशत हैं इसलिए वे अल्पसंख्यक घोषित होने की दावेदारी कर रहे हैं। भविष्य में इसी तरह की मांग अन्य जातियों से आएंगी। मणिपुर की हिंसा से हमने कोई सबक नहीं लिया। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन से हमने कोई सबक नहीं लिया। मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में हाशिए पर पहुंची उमा भारती ने पिछड़ी जातियों की राजनीति की हुंकार भर अपनी पार्टी को भी कटघरे मे खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि वर्तमान हालात में पिछड़ी जातियों के आरक्षण को कोई माई का लाल नहीं रोक सकता और महिलाओं के आरक्षण में भी पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए बगैर यह बिल महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं कर सकता।
पिछड़ी जातियों का कुल वोट प्रतिशत एक वर्ग के रुप में सबसे ज्यादा है इसलिए वह राजनीति के लिए नई गोट बन गया है। हालाकि अनुसूचित जातियों और जन जातियों की उपजातियों की आपसी विषमताओं की तरह पिछड़ी जातियों में भी एकरसता का नितांत अभाव है। जिस तरह जनजातियों में मीणा और कोरकू, सहरिया और बैगा आदि जनजातियों के हालात में धरती आसमान का अंतर है उसी तरह यादव और अन्य पिछड़ी जातियों में भी वैसा ही अंतर है। आगे चलकर पिछड़ी जातियों में भी नई नई खाई पैदा करने की कोशिश की जाएंगी।1931 में ब्रिटिश शासन में जातिगत जनगणना हुई थी। आज़ादी के बाद आरक्षण के सबसे प्रबल समर्थक डॉ अम्बेडकर ने भी केवल दस साल के लिए आरक्षण की वकालत की थी जिसे अधिकतम बीस साल किया जा सकता है। आज़ादी के बाद के नेताओं को जातिगत आरक्षण एक ऐसी मुर्गी दिखाई देने लगी जो चुनाव के समय सत्ता के अंडे देती है। इसे पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पाला, फिर अर्जुन सिंह ने और अब नीतीश कुमार और लालू यादव के परिवार के साथ नेहरू के वंशज राहुल गांधी भी पाल रहे हैं।
घनाराम साहू
बिहार की जनता में शेष भारत की तुलना में राजनीतिक परिपक्वता अधिक है क्योंकि महात्मा गांधी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, बाबू जयप्रकाश नारायण प्रभृति विभूतियों ने अनेक सफल प्रयोग किए हैं । कहा जाता है कि बिहार भगवान महावीर और गौतम बुद्ध का कर्म क्षेत्र रहा है इसलिए बिहारियों को तर्कशीलता विरासत में मिली है ।
मेरा मन नहीं मानता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश बाबू की जुबान फिसली है । वे जानबूझकर बड़ी राजनीति के अंतर्गत कुछ बोल गए हैं। नीतीश बाबू के इस वक्तव्य ने उन्हें फिलहाल सर्वाधिक चर्चित बना दिया है। वे स्वयं क्षमा मांग रहे हैं और उनके विरोधी तूफान खड़ा कर रहे हैं लेकिन उनके समर्थक उतनी ही ताकत से बचाव में खड़े दिख रहे हैं। तथ्य तो यह भी है कि बदनाम में भी नाम जुड़ा होता है और नीतीश बाबू इस वक्तव्य से सभी शिक्षितों के घर तक प्रवेश कर गए हैं।
नीतीश बाबू की जाति जनगणना (हेड काउंट) ने भारतीय राजनीति का दिशा परिवर्तन कर दिया है । कुछ दिनों पूर्व तक जाति जनगणना के कारण जो समाज में विघटन देख रहे थे उनके स्वर भी अब ‘डिफेंसिव मोड’ में आ गए हैं। आसन्न विधानसभा का चुनाव परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव में ओबीसी और किसान बड़ा मुद्दा होगा। मेरा मानना है कि समाज को एससी, एसटी, माइनॉरिटी में तथा अभी-अभी ओबीसी और ईडब्ल्यूएस में बांटने से समाज में बिखराव प्रभावी नहीं रहा तो इनकी अलग-अलग गिनती कर लेने से समग्र समाज को कुछ खास फरक नहीं पडऩे वाला है लेकिन हां! राजनीतिक दलों की आंतरिक संरचना में बड़ा बदलाव अवश्य आएगा और रामकथा के धोबी की तरह मूक-बधिर बना दिए गए लोग व्यवस्था पर सवाल दागने लगेंगे।
कुछ विदेशी यात्रियों ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जब भारत के दो राजा आपस में युद्ध करते रहते हैं तब भारत का किसान अपने खेतों में हल चलाते दिखते हैं। महाकवि तुलसीदास जी ने भी मानस में लिखा है ‘कोई नृप होई हमें का हानि’ , मेरा मानना है कि ये दोनों कथन अर्धसत्य हैं। हमारी व्यवस्था ही ऐसी है कि जो राज दरबारी नहीं हैं उनके कथन का कुछ अपवादों को छोडक़र महत्व नहीं रहा है इसलिए आम आदमी आंख, कान खुली रखता है और जुबान बंद।
दिव्या आर्य
मणिपुर में क्या हुआ है?
मणिपुर की 33 लाख लोगों की आबादी में आधे से ज़्यादा मैतेई हैं। 43 प्रतिशत कुकी और नागा समुदाय से हैं।
मई में ताज़ा हिंसा तब भडक़ उठी जब कुकी समुदाय ने मैतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति चिह्नित किए जाने की मांग का विरोध किया। उन्हें डर है कि इससे मैतेई समुदाय कुकी इलाकों में ज़मीन खरीदकर और प्रभावशाली हो जाएगा।
राज्य सरकार और मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह (जो मैतेई हैं) कुकी चरमपंथी गुटों को समुदाय को भडक़ाने के लिए जिम्मेदार मानते हैं।
हिंसा में अब तक 200 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई है जिनमें ज्यादातर कुकी समुदाय से हैं। दोनों समुदायों के हजारों लोग विस्थापित हो गए हैं।
मैतेई औरतों ने भी कुकी मर्दों पर यौन हिंसा के आरोप लगाए हैं और एक एफआईआर भी दर्ज हुई, लेकिन ज़्यादातर मानती हैं कि वो ऐसे कृत्यों की चर्चा कर शर्मिंदा नहीं होना चाहतीं।
अब से छह महीने पहले मणिपुर में भडक़ी जातीय हिंसा के बीच भीड़ ने दो औरतों को निर्वस्त्र कर घुमाया और कथित तौर पर उनका सामूहिक बलात्कार किया। उस हमले का वीडियो वायरल होने के बाद वो औरतें पहली बार किसी पत्रकार के आमने-सामने बैठीं और अपनी आपबीती बाँटी।
चेतावनी-इस लेख में यौन हिंसा का वर्णन है।
सबसे पहले मुझे सिर्फ उनकी झुकी नजऱें दिखाई दीं। काले मास्क से ढका मुंह। माथे और सर पर लिपटी चुन्नी।
वायरल वीडियो से सामने आईं कुकी-जोमी समुदाय की ये दोनों औरतें, ग्लोरी और मर्सी, मानो अदृश्य हो जाना चाहती हों।
पर आवाज बुलंद है। आज पहली बार वो एक पत्रकार से मिलने को राजी हुई हैं, ताकि अपने दर्द और न्याय की लड़ाई के बारे में दुनिया को बता सकें।
सोशल मीडिया पर शेयर किया गया उनका वीडियो देखना मुश्किल है। करीब एक मिनट लंबे उस वीडियो में मैतेई मर्दों की भीड़ दो निर्वस्त्र औरतों को घेरे हुए है, उन्हें धक्का दे रही है, उनके निजी अंगों को जबरदस्ती छू रही है और खींच कर उन्हें खेत में ले जाती है जहां वो कहती हैं कि उनका सामूहिक बलात्कार किया गया।
उस हमले को याद कर ग्लोरी का गला भर आता है।
वो बोलीं, ‘मुझसे जानवरों जैसा बर्ताव किया गया। उस सदमे के साथ जीना पहले ही इतना मुश्किल था, फिर दो महीने बाद जब हमले का वीडियो वायरल हुआ, मेरे अंदर जि़ंदा रहने की चाह ही खत्म होने लगी।’
मर्सी ने कहा, ‘आप तो जानती हैं, भारतीय समाज कैसा है, ऐसे हादसे के बाद वो औरतों को किस नजऱ से देखता है। अब मैं अपने समुदाय के लोगों तक से आंख नहीं मिला पाती। मेरी इज़्जत चली गई है। अब मैं कभी पहले जैसी नहीं हो पाउंगी।’
वीडियो ने दोनों औरतों का दर्द चौगुना कर दिया लेकिन वो एक ऐसा सबूत भी बना जिसने सबका ध्यान मणिपुर में कई महीनों से जारी मैतेई और कुकी-जोमी समुदायों के बीच की जातीय हिंसा पर ला दिया।
शर्म और डर
वीडियो सामने आने के बाद खूब आलोचना हुई और प्रशासन-पुलिस की तरफ से कार्रवाई हुई। जिसके चलते कई कुकी औरतों ने यौन हिंसा की शिकायतें पुलिस में दर्ज करवाने की हिम्मत की।
लेकिन वीडियो पर दुनिया की नजर ने ग्लोरी और मर्सी को और सिमटने पर मजबूर कर दिया।
हमले से पहले ग्लोरी मैतेई और कुकी समुदाय के छात्रों के मिले-जुले कॉलेज में पढ़ती थी।
मर्सी के दिन अपने दोनों बच्चों की देख-रेख, उनके स्कूल का होमवर्क कराने और चर्च जाने में बीतते थे।
लेकिन हमले के बाद दोनों औरतों को गांव छोड़ भागना पड़ा और अब एक दूसरे शहर में छिपकर रह रही हैं।
शर्म और डर के साए में अब वो किसी शुभचिंतक के घर की चारदीवारी में सिमट कर रहती हैं।
मर्सी ना चर्च जाती हैं ना स्कूल। बच्चों को एक रिश्तेदार छोड़ती हैं और वापस लाती हैं।
वो कहती हैं, ‘मुझे रात में बमुश्किल नींद आती है और बहुत डरावने सपने आते हैं। मैं घर से बाहर नहीं निकल पाती। डर लगता है और लोगों से मिलने में शर्मिंदगी महसूस होती है।’
हादसे का सदमा ऐसा कि दोनों सहम गई हैं। काउंसलिंग ने मदद की है पर घृणा और गुस्सा भी घर कर गया है।
गुस्सा और घृणा
अब ग्लोरी मैतेई दोस्त या छात्र के साथ पढऩा तो दूर, उस समुदाय के किसी व्यक्ति का चेहरा तक नहीं देखना चाहती हैं।
वो कहती हैं, ‘मैं कभी अपने गांव वापस नहीं जाऊंगी। मैं वहां पली-बढ़ी, वो मेरा घर था, लेकिन वहां रहने का मतलब है पड़ोस के गांवों के मैतेई लोगों के साथ मेल-जोल, जो मुमकिन नहीं।’
मर्सी का भी यही मानना है। वो मेज पर गुस्से से हाथ रखते हुए कहती हैं, ‘मैं तो उनकी भाषा तक कभी नहीं सुनना चाहती।’
मर्सी और ग्लोरी का गांव मणिपुर में मई में भडक़ी जातीय हिंसा की चपेट में आनेवाले पहले गांवों में से था। उस दिन मची भगदड़ में भीड़ ने ग्लोरी के पिता और भाई को जान से मार दिया।
दबी आवाज़ में ग्लोरी बोलीं, ‘मैंने अपनी आंखों के सामने उनकी मौत होते देखी।’
ग्लोरी ने बताया कि उसे उनके शव खेत में छोड़ अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। अब वो वहां लौट भी नहीं सकती। हिंसा भडक़ने के बाद मैतेई और कुकी समुदाय एक दूसरे के इलाकों में कदम नहीं रख सकते।
मणिपुर दो भागों में बँट गया है और बीच में पुलिस, सेना और दोनों समुदाय के वॉलनटीयर्स के बनाए चेक-प्वॉइंट हैं।
ग्लोरी कहती हैं, ‘मुझे तो ये भी नहीं पता कि उनके शव किस मुर्दा घर में रखे गए हैं, ना मैं जा कर चेक कर सकती हूं। सरकार को खुद उन्हें हमें लौटा देना चाहिए।’
दर्द और ग्लानि
इलस्ट्रेशन - टूटा फोटो फ्रेम जिसमें ग्लोरी, उसके भाई और पिता की तस्वीर है
हमले के वक्त मर्सी के पति ने पड़ोस के मैतेई गांवों के मुखिया के साथ बैठक की थी जिसमें शांति बनाए रखने का फैसला लिया गया था। पर जैसे ही सब मुखिया निकले, भीड़ ने हमला कर दिया, घरों में आग लगा दी और स्थानीय चर्च भी जला दी।
वो बताते हैं, ‘मैंने स्थानीय पुलिस को फोन किया पर उन्होंने कहा कि उनके थाने पर हमला हो गया है तो वो यहां आकर मदद नहीं कर सकते। मैंने सडक़ पर खड़ी एक पुलिस वैन देखी, पर उसमें से भी कोई बाहर नहीं निकला।’
मर्सी के पति के मुताबिक जब गुस्साई भीड़ ने औरतों को निशाना बनाने का रुख किया तो वो अकेले पड़ गए, ‘मैं कुछ नहीं कर पाया, ये सोचकर दुख और ग्लानि होती है। ना अपनी पत्नी, ना गांववालों को बचा पाया। दिल दुखता है। कभी-कभी इतना परेशान हो जाता हूं कि मन करता है किसी की जान ले लूं।’
पुलिस सूत्रों ने बीबीसी को बताया है कि अब उन्होंने ऑफिसर इन चार्ज समेत पांच लोगों को सस्पेंड कर दिया है और उनकी जांच की जा रही है।
मर्सी के पति के मुताबिक हमले के दो सप्ताह बाद उन्होंने इसकी शिकायत पुलिस में कर दी थी लेकिन जब तक वीडियो सामने नहीं आया, कोई कार्रवाई नहीं की गई।
वीडियो के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर जातीय हिंसा पर अपना पहला बयान दिया। मणिपुर पुलिस ने सात लोगों को गिरफ्तार किया।
सुप्रीम कोर्ट ने जांच सीबीआई को सौंपी जिसने अब उन सात लोगों पर सामूहिक बलात्कार और हत्या का मुकदमा दर्ज किया है।
हौसला और उम्मीद
ग्लोरी, मर्सी और उनके पति बताते हैं कि वीडियो सामने आने के बाद उन्हें दुनियाभर से ढांढस बंधाने वाले संदेश आने लगे जिनसे बहुत हौसला मिला।
मर्सी के पति कहते हैं, ‘वीडियो के बिना कोई सच पर यकीन नहीं करता, हमारा दर्द नहीं समझता।’
मर्सी को अब भी डरावने सपने आते हैं और भविष्य के बारे में सोचने पर डर लगता है।
अपने बच्चों का हवाला देते हुए कहती हैं, ‘मेरे दिल पर बोझ रहता है कि अपने बच्चों को विरासत में देने के लिए अब कुछ नहीं बचा।’
अब वो परमेश्वर और प्रार्थना में सुकून तलाशती हैं। वहीं सुरक्षित महसूस होता है। मर्सी ने कहा, ‘मैं खुद को समझाती हूं कि परमेश्वर ने अगर मुझे ये सब सहने के लिए चुना तो वो ही मुझे इससे उबरने की शक्ति देंगे।’
हमले में उनका पूरा गांव तबाह हो गया, अब वो समुदाय की मदद से अपनी जिंदगी दोबारा खड़ी कर रहे हैं।
ग्लोरी बताती हैं कि दोनों समुदाय के लिए अलग प्रशासन ही एकमात्र उपाय है, ‘वही तरीका है सुरक्षित और शांतिपूर्वक तरीके से रहने का।’
ये विवादास्पद मांग कुकी समुदाय ने कई बार उठाई है और मैतेई समुदाय ने इसका विरोध किया है। दोनों के अपने तर्क हैं। राज्य के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह मैतेई हैं और मणिपुर के विभाजन के खिलाफ हैं।
भेदभाव और इंसाफ
इलस्ट्रेशन-ग्लोरी और मर्सी की आंखों के बीच में घास का पौधा
ग्लोरी और मर्सी को स्थानीय प्रशासन में यकीन नहीं है और उस पर कुकी समुदाय से भेदभाव करने का आरोप लगाती हैं।
ग्लोरी कहती हैं, ‘मणिपुर सरकार ने मेरे लिए कुछ नहीं किया। मुझे मुख्यमंत्री पर भरोसा नहीं है। उनके शासन में ही तो हमारे साथ ये सब हुआ।’
दोनों का आरोप है कि मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने अब तक जातीय हिंसा से प्रभावित कुकी-जोमी परिवारों से न बातचीत की है न मुलाकात।
विपक्षी पार्टियों ने बार-बार मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग की है पर राज्य सरकार ने भेदभाव के सभी आरोपों को बेबुनियाद बताया है।
इन आरोपों को जब हमने मुख्यमंत्री एन। बीरेन सिंह के सामने रखने की कोशिश की तो उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया पर हाल में इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वो मैतेई समुदाय के परिवारों को भी मिलने नहीं गए हैं, और, ‘मेरे दिल या मेरे काम में कोई पक्षपात नहीं है।’
वीडियो का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को हिंसा में मारे गए सभी लोगों की पहचान कर उनके शव उनके परिवारों को वापस करने का इंतजाम करने के लिए कहा है।
ग्लोरी ने अपनी उम्मीद इसी पर टिकाई हुई है। वो इंसाफ में यकीन रखती हैं।
भविष्य में वो एक अन्य कॉलेज में पढ़ाई दोबारा शुरू कर पुलिस या सेना में अफसर बनने का सपना पूरा करना चाहती हैं। ग्लोरी कहती हैं, ‘ये हमेशा से मेरा सपना था पर हमले के बाद मेरा यकीन और पक्का हो गया है कि मुझे बिना भेदभाव के सभी लोगों के लिए काम करना है।’
‘मुझे हर कीमत पर इंसाफ चाहिए। इसीलिए आज बोल रही हूं ताकि फिर किसी औरत के साथ वो ना हो जो मैंने सहा।’
मर्सी नजऱ उठाकर मुझे देख कहती हैं, ‘हम आदिवासी औरतें बहुत मजबूत हैं, हम हार नहीं मानेंगे।’
मैं चलने के लिए उठ खड़ी होती हूं तो कहती हैं कि वो एक संदेश देना चाहती हैं, ‘मैं सभी समुदायों की माताओं से कहना चाहती हूं कि अपने बच्चों को सिखाएं कि चाहे जो हो जाए, कभी भी औरतों की बेइज्जती ना करें।’ (बीबीसी)
(दोनों औरतों के नाम बदल दिए गए हैं।)
(इलस्ट्रेशन्स-जिल्ला दस्तमाल्ची) (bbc.com/hindi)
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव
राकेश कुमार मालवीय
हल्की बाई (उम्र 45 साल) मध्यप्रदेश के पन्ना जिले की ग्राम पंचायत मनौर की निवासी हैं। परिवार में पांच सदस्य हैं, तीन लडक़ी और एक लडक़ा। पति रामप्रसाद गोंड पत्थर खदानों में काम करते थे। 12 साल पहले उनकी मृत्यु हो गई।
बड़ा बेटा सेवा गोंड अब 25 साल का हो गया है। आसपास रोजगार नहीं मिलने से उसे पलायन करना पड़ता है। इस वक्त जम्मू—कश्मीर में है।
बेटी प्रीती की उम्र 18 साल, अंजू 16 साल और संजू 13 साल की है। किसी भी बच्चे का नाम स्कूल में दर्ज नहीं है। कृषि के लिए जमीन नहीं है। आसपास के जंगलों से महुआ और तेंदूपत्ता जरूर मिलता है, पर इससे साल भर की जरूरत पूरी नहीं होती। हर महीने 600 रुपए विधवा पेंशन से ही गुजारा चलता है। हर दो महीने में वह बैंक से एक हजार रुपए निकालकर तेल, मसाले, साबुन, निरमा और गेहूं 5 किलो गेहूं खरीदते हैं।
हल्की बताती हैं कि राशन दुकान से 4 सदस्यों का 16 किलो गेहूं, 4 किलो चावल,1 किलो नमक हर माह मिल जाता है, जिससे एक महीना निकल जाता है। उनका मनरेगा जॉब कार्ड तो बना है, लेकिन कभी रोजगार नहीं मिला, न ही वह काम मांगने गईं, क्योंकि जानकारी नहीं है।
हल्की कच्चे से मकान में रहती हैं, प्रधानमंत्री आवास स्वीकृत नहीं हुआ, जबकि गरीबी रेखा वाला बीपीएल कार्ड भी है। बच्चियां स्कूल नहीं जाती हैं, इसलिए मध्याह्न योजना का लाभ नहीं मिल रहा। गैस सिलेंडर भी नहीं मिला, इसलिए चूल्हे पर खाना पकाती हैं।
हल्की बाई का आयुष्मान कार्ड नहीं बन पाया है। उनकी किसी भी लडक़ी को लाड़ली लक्ष्मी योजना का लाभ भी नहीं मिल पाया है। हल्की बाई का परिवार अपने इकलौते बेटे की मजदूरी पर निर्भर है। यह स्थिति तब है, जब मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कल्याणकारी योजनाओं का जोरदार प्रचार हो रहा है और सत्ता पक्ष एवं विपक्षी दल नई़-नई योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश में सामाजिक कल्याण की कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन भाजपा सरकार लाडली बहना योजना का जमकर प्रचार कर रही है। इस योजना में हर माह 1250 रुपए परिवार की सभी शादीशुदा महिलाओं को दिए जाते हैं। भाजपा वादा कर रही है कि चुनाव जीतने के बाद इस राशि को 3,000 रुपए कर दिया जाएगा। योजना मार्च 2023 को शुरू हुई थी। हल्की बाई को इस योजना के बारे में पता है, लेकिन उनको लगता है कि उन्हें विधवा पेंशन मिल रही है, इसलिए उन्हें लाडली बहना का लाभ नहीं मिलेगा।
उधर, कांग्रेस ने महिलाओं को 1,500 रुपए प्रति माह नारी सम्मान निधि के रूप में देने का वादा किया है। महिलाओं को नगदी देने की योजना काफी पसंद आ रही है। भोपाल में घरों में काम करने वाली सीमा अहिरवार कहती हैं कि हमें लाडली बहना योजना का लाभ मिल रहा है, ऐसी योजनाएं चलते रहना चाहिए। उनके साथ दूसरी महिला ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि ऐसी रकम का बड़ा हिस्सा तो पति शराब पर कर देते हैं और उसे हम रोक नहीं सकते।
विधानसभा चुनाव में महंगाई का मुद्दा जोर पकड़ रहा है। ऐसे में जहां कांग्रेस ने गैस सिलेंडर की कीमत 500 रुपए करने की घोषणा की है, वहीं भाजपा अब 450 रुपए में सिलेंडर देने की बात कर रही है। राज्य में पेंशन योजनाएं जैसे वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन, विधवा पेंशन 600 रुपए जैसी योजना चल रही हैं। केंद्र की किसान सम्मान निधि योजना में 6,000 रुपए सालाना और कुछ किसानों को राज्य सरकार की ओर से चार हजार रुपए का अतिरिक्त भुगतान दिया जा रहा है। लाडली लक्ष्मी योजना में बालिकाओं को उम्र के अलग—अलग पड़ावों पर एक लाख रुपए की राशि दी जाती है।
इसके अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक गरीब परिवार को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज, गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार, उज्ज्जवला योजना में गैस कनेक्शन, स्वास्थ्य बीमा योजना में पांच लाख रुपए तक का मुफ्त इलाज, आयुष्मान योजना में पांच लाख तक का मुफ्त इलाज, मिड डे मील, आंगनवाड़ी मे गरम पका हुआ भोजन, उदिता योजना में किशोरी बालिकाओं को सेनेटरी पैड देने का प्रावधान है।
सामाजिक कल्याण की इतनी योजनाओं का चुनाव परिणाम पर असर दिखेगा या नहीं, यह तो 3 दिसंबर 2023 को ही पता चलेगा, लेकिन लोगों का कहना है कि अधिकतर योजनाओं का लाभ वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंच नहीं रहा है। नर्मदापुरम जिले के निवासी विपत भारती अपने गांव में मनरेगा में मेट का काम भी करते हैं। वह कहते हैं कि मनरेगा में मजदूरी इतनी कम है कि लोग इसमें काम ही नहीं करना चाहते हैं। यही वजह है कि लोग मजदूरी करने गांव से बाहर चले जाते हैं, जिसकारण आवश्यक दस्तावेजों का अभाव और समय-सीमा के कारण लोगों को योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता सीमा जैन बताती हैं कि जनकल्याणकारी योजनाएं वंचित समुदाय के मानव अधिकारों के लिए एक अहम कड़ी हैं। चुनाव में सरकार अपनी उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने के लिए जोर लगाती है और विपक्ष भी अपना विजन उसके जरिए सामने रखता है, लेकिन आज के वक्त में यह सिर्फ वोट पॉलिटिक्स तक सीमित हो गई है। अब मुद्दापरक राजनीति से ज्यादा जोर व्यक्तिपरक राजनीति पर है, इसलिए इन योजनाओं का बहुत असर जनता के मानस पर नहीं पडऩे वाला है।
वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता जावेद अनीस कहते हैं कि हमारे देश में चुनाव आते ही राजनीतिक पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादे करना शरू कर देती हैं। इसका विरोध करने वाले इसे ‘रेवड़ी कल्चर’ बताते हैं जो सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है, जबकि समर्थन करने वाले इसे 'कल्याणकारी योजनाएं' बताते हैं जो एक प्रकार से जरूरतमंदों की मदद है। इस देश में अभी में एक बड़ी आबादी है जिनके लिए कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत है इसलिए इसे ‘सरकारी खजाने पर बोझ’ मानकर टाला नहीं जा सकता है, लेकिन जिस प्रकार से ठीक चुनाव से पहले ही राजनीतिक पार्टियों की इनकी याद आती है उसे भी ठीक नहीं ठहराया नहीं जा सकता है। हालांकि वह मानते हैं कि जो योजनाएं वस्तु के रूप में या सेवाओं के रूप में सीधे दे जाती हैं वह जरुरतमंदों तक ज्यादा पहुंचती हैं।
कीर्ति दुबे
आरटीआई यानी सूचना का आधिकार, जिसके बारे में मेन-स्ट्रीम मीडिया में शायद ही बीते कई साल में बात हुई हो, आम जनता के जानकारी पाने के इस अधिकार पर एक नया संकट छाया हुआ है।
आरटीआई से जुड़ी सबसे जरूरी संस्था केंद्रीय सूचना आयोग बीते एक महीने से बिना मुख्य आयुक्त के काम कर रही थी। और आज ही यानी सोमवार को 11 बजे हीरालाल समरिया ने केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त पद की शपथ ली है।
तीन अक्टूबर, 2023 को जब केंद्रीय सूचना आयोग के प्रमुख आयुक्त यशोवर्धन सिंह राठौर इस पद से रिटायर हुए तब से ही ये पद खाली पड़ा था। इतना ही नहीं 6 नवंबर को केंद्रीय सूचना आयोग के चार अन्य आयुक्त रिटायर हो रहे हैं।
सूचना आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त और 10 सूचना आयुक्त होते हैं। यानी कुल 11 लोगों का स्टाफ़ होता है।
ये सूचना आयोग केंद्र में और राज्यों में होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे केंद्र में चुनाव आयोग और राज्यों के अपने चुनाव आयोग होते हैं।
एनजीओ सार्थक नागरिक संगठन ने सूचना आयोग पर एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें ये पता चला है कि देशभर में छह सूचना आयोगों में मुख्य सूचना आयुक्त के पद खाली पड़े हैं और चार राज्यों के सूचना आयोग लंबे समय से काम ही नहीं कर रहे हैं।
स्टाफ़ की कमी इतनी है केंद्र और राज्य के 27 सूचना आयोग में इस साल 30 जून तक 3।2 लाख शिकायतें सामने पड़ी हैं जिनकी सुनवाई ही नहीं हो सकी है।
भारत एक ऐसा देश है जहां दुनिया में सबसे ज़्यादा सूचना के अधिकार का इस्तेमाल होता है। आंकड़े बताते हैं कि हर साल 60 लाख आरटीआई डाली जाती हैं, ऐसे में जब इन आयोगों के पास स्टाफ़ ही नहीं होगा तो कैसे हमारे-आपकी ओर से मांगी गई जानकारी मिल पाएगी?
कई राज्यों में तो शिकायतों पर सुनवाई का औसत समय एक साल तक है। यानी अगर आपके सवाल का सरकार जवाब ना देना चाहे और आप उसके ख़िलाफ़ अपील करें तो आपको सालभर का इंतज़ार करना पड़ा सकता है।
आयुक्त पद के लिए 200 आवेदन पर नियुक्ति नहीं
लेकिन सीआईसी यानी केंद्रीय सूचना आयोग है क्या, और अगर ये ऐसे ही कमज़ोर होता रहा तो इसके आपके लिए क्या मायने होंगे?
आरटीआई कानून के अनुसार केंद्र में और राज्य में सूचना आयोग होते हैं। सूचना आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त होता है और इसके साथ-साथ 10 और आयुक्त होते हैं। यानी कुल 11 लोगों का स्टाफ़ होता है।
ये सूचना आयोग किसी आरटीआई याचिका दायर करने वाले की आखऱिी उम्मीद होते हैं। अगर कोई विभाग किसी आरटीआई का जवाब देने से इंकार कर दे तो आरटीआई दायर करने वाला शख़्स सूचना आयोग का दरवाज़ा खटखटाता है और सूचना आयोग इस शिकायत पर सुनवायी कर संबंधित विभाग को जानकारी देने या जानकारी ना देने की वाजिब वजह बताने को कहते हैं। इस पद पर किसी का ना होना आम लोगों के जानकारी पाने के अधिकार पर ख़तरा है।
ठीक इसी तरह राज्यों में भी सूचना आयोग होते हैं। लेकिन राज्यों के सूचना आयोगों की हालत भी खस्ता है।
झारखंड का सूचना आयोग बीते तीन साल से काम ही नहीं कर रहा, त्रिपुरा का सूचना आयोग 27 महीनों से ठप पड़ा है। मिज़ोरम का सूचना आयोग इस साल जून से बंद है। वजह यही कि यहां पर मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति ही नहीं हुई।
ये मामला सिफऱ् एक संस्था में खाली पदों के बारे में ही नहीं है लेकिन इससे कहीं ज़्यादा ये मामला लोकतांत्रिक पारदर्शिता का है। सीआईसी के पदों का खाली रहने का मतलब है सरकार की आम लोगों के प्रति जवाबदेही कम होती जाएगी। जो लोग सरकार की स्कीम पर सीधे तौर पर निर्भर हैं और ज़रूरत पडऩे पर अपनी परेशनियों का हल तलाशने के लिए आरटीआई डालेंगे उनके जवाब पाने की उम्मीद धूमिल होती जाएगी। साल 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के मुनिरका में सीआईसी मुख्यालय का उद्घाटन किया था। इस उद्घाटन के समय प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि लोकतंत्र में एक ‘मज़बूत नागरिक लोकतंत्र की जान होता है।’ आज सीआईसी का यही दफ़्तर अपनी आधी से भी कम क्षमता में काम कर रहा है।
सेवानिवृत्त कमांडर लोकेश बत्रा एक आरटीआई कार्यकर्ता हैं। उनकी आरटीआई के जवाब से ये पता चला कि बीते साल दिसंबर में ही केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्त पद के लिए 256 लोगों ने आवेदन किया था, लेकिन लगभग 10 महीने बाद भी सरकार ने इस पद के लिए किसी की नियुक्ति नहीं की। ये नियुक्तियां क्यों नहीं हुईं इसकी कोई वजह सामने नहीं आई।
अंजलि भारद्वाज एक जानी मानी आरटीआई कार्यकर्ता हैं। उनकी संस्था सतर्क नागरिक संगठन ने इस साल अक्टूबर में आरटीआई और सूचना आयोग के संकट पर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में ही सामने आया कि लाखों की संख्या में शिकायतें आयोगों के पास पड़ी हुई हैं और कई आयोग काम नहीं कर रहे हैं।
अंजलि भारद्वाज कहती हैं, ‘आरटीआई के बीते 18 साल के समय को देखें तो इस दौरान ऐसा कोई बड़ा घोटाला नहीं है जो आरटीआई के ज़रिए सामने ना आया हो। भारत सबसे ज्यादा आरटीआई कानून का इस्तेमाल करता है और हर साल जो 60 लाख आरटीआई डाली जाती हैं उसमें समाज का निचला तबका सबसे ज़्यादा आरटीआई डालता है।’
‘जो लोग पेंशन और अन्य सरकारी स्कीम पर निर्भर रहते हैं वो सबसे ज्यादा इस अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन बीते सात से आठ सालों में आरटीआई को कमज़ोर करने की लगातार कोशिशें की गई हैं। साल 2014 के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ कि केंद्र सरकार ने खुद सूचना आयुक्त का कार्यकाल ख़त्म होने पर नियुक्ति कर दी हो। हमेशा कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है। ’
‘सरकारें कभी नहीं चाहतीं कि आम लोग उनसे सवाल पूछें, मंत्रियों के बारे में जानकारी जानें इसलिए संस्था को कमज़ोर किया जा रहा है।’
सीआईसी के ख़ाली पद और लाखों पेंडिंग पड़ी शिकायतें
एक आरटीआई के जवाब में ये बात सामने आई की केंद्रीय सूचना आयोग में 11 लोगों का स्टाफ़ होना चाहिए लेकिन सात पद खाली हैं और ये आयोग चार लोगों के स्टाफ़ के साथ चल रहा है।
20 दिसंबर 2022 को केंद्र सरकार की ओर से सूचना आयुक्त पद के लिए नोटिफिकेशन जारी करके आवेदन मांगे गए थे। जनवरी 2023 तक आवेदन भेजने की तारीख भी रखी गई थी।
इसमें ये भी कहा गया था कि साल 2019 में आरटीआई एक्ट में हुए संशोधन के अनुसार सूचना आयुक्त की सैलरी और उनके कार्यकाल और पेंशन तय किए जाएंगे। हालांकि इसके बावजूद ये पद अब तक खाली ही पड़ा हुआ है।
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनिशिएटिव के निदेशक वेंकटेश नायक कहते हैं, ‘जो भी लोग सूचना आयुक्त बनते हैं या बनाए जाते हैं उन्हें चुनते हुए ये देखा जाना चाहिए कि उन्होंने पारदर्शिता को लेकर कितना काम किया है, या फिर वो इसके कितने समर्थक रहे हैं। लेकिन होता ये है कि सरकार के ‘यस बॉस’ लोगों को पद मिलते हैं। कई ऐसे राज्य हैं जहां सूचना आयुक्त का पद उन लोगों को दे दिया गया जो पहले सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े थे, उन्होंने पार्टी से इस्तीफ़ा दिया और आयुक्त बना दिए गए।’
वेंकटेश नायक पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त उदय माहुरकर के उस बयान का जि़क्र करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि दिल्ली के मस्जिदों के इमाम को सरकार की ओर से मिलने वाली तनख्वाह देश में ‘गलत मिसाल’ पेश कर रही है।
नायक कहते हैं कि किसी शख़्स का इस पर पर बने रहते हुए इस तरह का बयान देना किसी भी सूरत में सही नहीं है।
वो कहते हैं, ‘आरटीआई इकलौता ऐसा कानून है जहां सरकार को कानून का पालन करना है बाकि सभी कानून आम जनता के लिए बनाए जाते हैं। साल 2005 में ये कानून तो आ गया लेकिन इसे लेकर सरकारों में कभी भी कड़ायी से लागू करने की मंशा नहीं रही और 2014 के बाद से ये मंशा और भी कम होती गई है।’
केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति एक पैनल के सुझाव पर राष्ट्रपति करते हैं। पैनल में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और एक कैबिनेट मंत्री होते हैं। ठीक इसी तरह राज्यों के सूचना आयुक्त को राज्यपाल मुख्यमंत्री, कैबिनेट के मंत्री और विपक्ष के नेता की पैनल के सुझाव पर चुनता है।
दो हालिया संशोधन जिसने इस क़ानून को कमज़ोर किया
साल 2019 में जब नरेंद्र मोदी दूसरी बार सत्ता में आए तो उनकी सरकार ने आरटीआई एक्ट में सबसे अहम संशोधन किया। साल 2005 में आए आरटीआई क़ानून में आयुक्त और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल तय किया गया था और उन्हें मिलने वाली तनख्वाह मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के बराबर रखी गई थी।
राज्यों के सूचना आयुक्तों की तनख्वाह राज्य के चुनाव आयुक्तों जितनी थी। लेकिन 2019 में ये नियम बदल दिया गया और ये अधिकार सरकार के पास आ गया। यानी अब केंद्र और राज्य सरकार ये तय करती है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन कितना होगा और उन्हें कितनी पेंशन मिलेगी इसका फ़ैसला भी केंद्र और राज्य सरकार करती है।
इसके बाद साल 2023 में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल आया जिसके बाद आरटीआई के तहत किसी ऐसे व्यक्ति की जानकारी नहीं हासिल की जा सकती ‘जिसका सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध नहीं है।’ यानी अगर कोई किसी व्यक्ति विशेष की जानकारी चाहता है तो ये तब तक नहीं दिया जा सकता जब तक यह ‘देश हित’ का मामला ना सिद्ध हो।
अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि तीन स्तर पर आरटीआई क़ानून को कमज़ोर किया जा रहा है। पहला है संशोधन लाकर, दूसरा है देशभर में आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले करके और तीसरा है इससे जुड़ी संस्था को कमज़ोर करके। यानी सीआईसी को इस तरह कर दिया जाए कि वो लगभग ना के बराबर काम करने लगे, यहां आने वाले मामले सालों साल पड़े रहे।
आरटीआई कानून में ऐसी कोई समय अवधि तय नहीं है कि कितने वक्त में सूचना आयुक्तों को शिकायतों पर फैसला लेना होगा
इसलिए सालों साल ये शिकायतें पड़ी रहती हैं, और जब तक सीआईसी किसी शिकायत पर फ़ैसला नहीं लेता आरटीआई दायर करने वाला व्यक्ति कोर्ट के पास भी नहीं जा सकता। यानी कुल मिला कर सीआईसी की भूमिका सरकार से सूचना पाने के लिए बेहद अहम है।
अंजलि भारद्वाज और सेवानिवृत्त कमांडर लोकेश भारद्वाज ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में हो रही देरी के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है।
इस मामले की 30 अक्टूबर को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राज्य और केंद्र के सूचना आयोग में 31 मार्च 2024 तक कितने पद खाली होने वाले हैं उनकी रिपोर्ट तैयार की जाए और कितनी शिकायतें यहां पड़ी हुई हैं उसका ब्यौरा कोर्ट को दिया जाए। साथ ही राज्यों और केंद्र के आयोग में पदों को भरने के लिए ज़रूरी कदम उठाए जाए। (bbc.com/hindi/)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
महानगरों में प्रदूषण पर वैश्विक नजऱ रखने वाली एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संस्था के सर्वे में दिल्ली का प्रदूषण विश्व में नंबर एक पर पहुंच गया है। यह भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार और आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार, दोनों के माथे पर कलंक की तरह है। दिल्ली की कमान पूरी तरह अपने हाथ में लेने के लिए यह दोनों दल एक दूसरे के साथ कभी हाई कोर्ट और कभी सुप्रीम कोर्ट में लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन इस कलंक के लिए वे एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालेंगे।
दिल्ली के अलावा विश्व के सबसे ज्यादा प्रदूषित पांच महानगरों में भारत के कोलकाता और मुंबई के भी नाम हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि टॉप पांच में तीन हमारे शहर हैं। इसका अर्थ यह भी है कि प्रदूषण नियंत्रण के मानले में दिल्ली पर आधा आधा राज करने वाली भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी ही दोषी नहीं हैं बल्कि तृणमूल कांग्रेस पार्टी , शिंदे गुट की शिव सेना और अजित पवार समूह की एन सी पी जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी बराबर की दोषी हैं। यदि इस सर्वे में सौ दो सौ शहरों को शामिल किया जाता तो निश्चित रुप से इसमें बैंगलोर, चेन्नई और हैदराबाद आदि शहर भी आसानी से शामिल हो जाते क्योंकि प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण संरक्षण के मामले में कोई भी राजनीतिक दल जरा भी चिंतित दिखाई नहीं देता।
अगर दिल्ली की बात करें तो दिल्ली में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण निजी वाहनों की निरंतर बढ़ती भीड़ है जिसने दिल्ली की तमाम कॉलोनियों की सडक़ों को लगभग अतिक्रमित कर लिया है। केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को एक दूसरे को नीचा दिखाने से फुरसत मिले तो उन्हें साथ बैठकर इस जानलेवा समस्या से निजात पाने की कोशिश करनी चाहिए कि दिल्ली की सडक़ों पर डीजल और पेट्रोल से चलने वाले निजी वाहनों की भीड कैसे कम हो और उसकी जगह कैसे लोगों की पहली पसंद मेट्रो और सी एन जी से चलने वाली बसें बनें।
दिल्ली के आकाओं को कुछ कड़े फैसले भी लेने चाहिएं, मसलन पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी स्कूल कॉलेज केवल सी एन जी बसों के माध्यम से ही आएं। अभी दीपावली भी नजदीक है। यदि अभी यह हाल है तब दीपावली के बाद क्या स्थिति होगी यह कल्पना की जा सकती है। यदि दीपावली पर पटाखे नही जलाने की नसीहत दी जाए तो इस पर बहुत से लोगों की धार्मिक भावनाओं के भडक़ने का खतरा रहता है इसलिए वोट बैंक खिसकने के भय से सरकार ऐसे कदम उठाने का साहस नहीं कर पाती जबकि जनहित में इस तरह के निर्णय अत्यन्त आवश्यक हैं।
जिन कार्यों को सरकार आसानी से कर सकती हैं उनमें मेट्रो की ज्यादा फ्रिक्वेंसी बढ़ाकर और उसके किराए कम करने से काफी लोगों को मैट्रो में सफर करने के लिए आकर्षित जा सकता है।
सरकारी कॉलोनियों से फ्री सीएनजी चार्टर्ड बस सेवा चलाकर भी सरकारी और निजी वाहनों के चालन में काफी कमी आ सकती है। एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन से अधिक से अधिक शेयर्ड टैक्सी सुविधाएं शुरू की जा सकती हैं। सबसे ज्यादा आवश्यकता व्यापक जागरूकता अभियान चलाकर लोगों को यह समझाना जरूरी है कि दिनोदिन बढ़ता प्रदूषण विशेष रूप से घर के बुजुर्गों और बच्चों के स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह बेहद चिंता का विषय है कि केवल दिल्ली, कोलकाता और मुंबई आदि महानगर ही नहीं धीरे धीरे पूरा देश ही सर्वाधिक प्रदूषित देश होने की तरफ बढ रहा है।
डीजल पेट्रोल के वाहनों की बढ़ती संख्या के साथ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शुरु हुआ पराली जलाने का अभियान धीरे धीरे मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी तेजी से पैर पसार रहा है। देर सवेर इंदौर और भोपाल जैसे मध्यम वर्ग के शहर भी महानगरों की गति को प्राप्त होते दिखाई दे रहे हैं। समय रहते हुए राष्ट्रीय स्तर पर वृहद स्तर पर कारगर उपाय ही हमें प्रदूषण के दुष्प्रभाव से बचा सकते हैं ।
-नासिरुद्दीन
फल्म निर्देशक करण जौहर के शो ‘कॉफ़ी विद करण’ में अपने पति रणवीर सिंह के साथ शामिल हुईं दीपिका पादुकोण ने अपने दिल की वे बातें साझा कीं, जो अब तक सार्वजनिक नहीं की थी।
दरअसल एक स्त्री के तौर पर दीपिका ने वह सब कहा जो जो पितृसत्तात्मक मूल्यों के पैमाने पर खरा नहीं उतरता है। इसके बाद सोशल मीडिया पर हंगामा हो गया, दीपिका को भला-बुरा कहा जाने लगा। उनके चरित्र पर सवाल उठाए जाने लगे।
इस मामले से एक बार फिर साबित हो गया कि हमारे समाज के एक तबके के लिए लड़कियों का अपने दिमाग़ से सोचना और उसे कह देना, नाक़ाबिले बर्दाश्त होता है।
दीपिका ने इस शो में अपने और रणवीर के कऱीब आने के समय को याद किया। इसी दौरान उन्होंने बताया कि शुरुआत में वे इस रिश्ते के बारे में गंभीर नहीं थीं। प्रतिबद्ध नहीं थीं। उस वक्त उनकी मानसिक हालत ऐसी नहीं थी कि वे किसी रिश्ते के साथ प्रतिबद्ध हों।
दीपिका ने बताया कि तब वे भी अकेली थीं। रणवीर भी एक रिश्ते से बाहर आए थे। इसी दौर में रणवीर उनकी जिंदगी में आए। शुरुआत में उन्हें लेकर कोई कमिटमेंट नहीं थी। यानी वे एक-दूसरे के प्रति ही प्रतिबद्ध नहीं थे। वे किसी और के साथ भी दोस्ती कर सकते थे या ‘डेट’ पर जा सकते थे। हालाँकि, इसके बाद भी वे बार-बार एक दूसरे के पास ही लौट कर आते।
दीपिका बताती हैं कि वे कुछ लोगों से मिलीं भी। यानी ‘डेट’ पर भी गईं। हालाँकि, उनमें न तो दीपिका की दिलचस्पी जगी। न ही उनको लेकर वे उत्साहित थीं। न ही उस वक़्त वे प्रतिबद्ध ही थीं।
ट्रोल ने क्या कहा और क्या किया?
वे कहती हैं, ‘दरअसल दिमागी तौर पर मैं रणवीर के लिए प्रतिबद्ध थी।’ उन्होंने अंग्रेजी में एक बात कही। उसका शाब्दिक अर्थ यह निकलता है कि ‘भले ही मेरा शरीर किसी और पुरुष के साथ हो, लेकिन मेरी रूह हमेशा रणवीर के साथ थी।’
दीपिका का यह कहना कि वे ‘जब रणवीर के साथ दोस्ती शुरू कर रही थीं, उस वक्त उनके कई और लोगों से भी दोस्ती थी’, उनके लिए बवाले जान बन गया।
सोशल मीडिया पर उनका मजाक बनाया जाने लगा। उनके चरित्र पर उँगलियाँ उठाई जाने लगीं। उन्हें ‘अच्छी लडक़ी’ की श्रेणी से बाहर माना जाने लगा।
सोशल मीडिया पर ट्रोल की जमात में किसी ने कहा कि वे ढोंगी हैं। वे डिप्रेशन/अवसाद की बात कर अपने लिए सहानुभूति बटोरना चाहती हैं। जब उनकी इच्छा होती थी तो वे किसी और के साथ यौन संबंध बना लेती थीं। रणवीर उनके लिए महज़ एक विकल्प थे। वे अवसरवादी हैं। उनके पुराने इंटरव्यू निकाले जाने लगे। उनके पुराने रिश्तों की पड़ताल की जाने लगी। उनका किन-किन पुरुषों से रिश्ता रहा है, यह बताया जाने लगा। उन्हें अपमानजनक यौनिक शब्दों से नवाज़ा जाने लगा।
कहा गया कि वह शादी में प्रतिबद्ध नहीं हैं। शादी के रिश्ते के बाहर यौन संबंध की वकालत करने वाली हैं। ऐसे लोग किसी के प्रति ‘वफ़ादार’ नहीं होते। उनके लिए रिश्ता महज़ ‘मज़े’ के लिए है। ऐसे ही लोग व्यभिचार/ बेवफ़ाई को स्त्री सशक्तीकरण बताते हैं।
मज़ाक उड़ाते हुए उनके मीम बनाए गए। ऐसे भी मीम बनाए गए जिनमें दीपिका की लानत-मलामत तो थी ही, उनकी निजी जिंदगी पर भी टिप्पणियाँ थीं।
रिश्ते के बारे में बात करना ग़लत है?
सवाल है, रिश्तों के बनने-बिगडऩे के बीच जिंदगी के उतार-चढ़ाव के बारे में बात करना गलत कैसे हो सकता है। फिल्म के कलाकार बहुतों के लिए प्रेरणा होते हैं। वे उनकी बातें ध्यान से सुनते हैं।
आमतौर पर रिश्तों के टूटने-बिखरने से उपजे अवसाद पर बात करना अच्छा नहीं माना जाता। दीपिका अगर इस पर बात कर रही हैं तो यह बहुतों के लिए इससे उबरने की राह दिखाने जैसा है। दीपिका अवसाद पर खुलकर बोलती और काम करती रही हैं। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। हमारे समाज में रिश्ता/रिश्तों के बारे में बात करने का पैमाना लडक़े और लड़कियों के लिए अलग-अलग है। एक लडक़े के लिए अपने रिश्तों के बारे में बात करना, उसकी मर्दानगी से जोड़ कर देखा जाता है। उसे लोगों की आलोचना की कड़ी निगाहों से नहीं गुजरना पड़ता है। जो बातें दीपिका ने कही, अगर वही बातें रणवीर ने कही होती, तो क्या रणवीर को भी उसी तरह ट्रोल किया जाता? शायद नहीं किया जाता। शायद उस पर तवज्जो भी नहीं दी जाती। हम चाहें तो ऐसे उदाहरण तलाश सकते हैं।
डरी हुई पितृसत्ता की प्रतिक्रिया?
सवाल है, दीपिका ने जब शारीरिक रूप से किसी और के साथ होने की बात की तो उसका अर्थ क्या है?क्या शारीरिक रूप से साथ होने का मतलब महज सोना ही है? यह तो अंग्रेजी का मुहावरेदार इस्तेमाल भी हो सकता है।
मुमकिन यह भी है कि न हो और उसका मतलब वही हो, जो ट्रोल कह रहे हैं। तब भी बड़ा सवाल तो है कि स्त्री के शरीर पर अधिकार किसका होगा? स्त्री अपने शरीर का क्या करेगी, यह कौन तय करेगा? क्या यह तय सोशल मीडिया के मर्दाना ट्रोल करेंगे?
अगर एक लडक़ी तीन-चार लडक़ों में से अपने लिए सबसे बेहतर साथी की तलाश कर रही हो तो क्या यह ग़लत है? जब शादियाँ तय करके की जाती हैं तो क्या लडक़े कुंडली, खानदान, पैसा देखकर कई लड़कियों के बीच से एक लडक़ी का चयन नहीं करते?
यहाँ मसला महज चयन का नहीं है। मसला यौन शुचिता का है। मसला है, यौन रिश्ता। स्त्री की यौन आज़ादी हमेशा से मर्दाना समाज को डराती रही है। वह यह ख़्वाहिश पाले रहता है कि शरीर तो स्त्री का हो, लेकिन कब्जा या मिल्कियत उसकी यानी मर्द की हो।
इसीलिए जब लडक़ी या स्त्री कई पुरुषों से दोस्ती की बात करती है तो उसके कान खड़े हो जाते हैं और वह हवलदारी करने लगता है। कहीं इस चुनाव में लडक़ी ने यौन संबंध तो नहीं बनाए? यही खटका, पितृसत्ता को चुनौती देने लगता है और उसे परेशान करता है। वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाता।
स्त्री का यौन जीवन और पुरुष का यौन जीवन एक ही पैमाने पर नहीं तौला जाता है। स्त्री का सम्मान, इज़्ज़त, चरित्र, सब कुछ यौन जीवन में समेट दिया जाता है। दीपिका के साथ भी ऐसा ही हुआ। मर्दाना ट्रोल समाज असल में दीपिका की बात से डर गया। उसे एक अनजाना खौफ सताने लगा।
अगर लड़कियाँ अपने यौन अधिकार और आजादी का बेखौफ इस्तेमाल करने लगीं तो क्या होगा? कहीं उनके जीवन में आने वाली लड़कियों ने ऐसा किया तो क्या होगा? तो यह एक डरी हुई पितृसत्ता की प्रतिक्रिया भी है।
दीपिका और अनुष्का जैसे बॉलीवुड स्टार कहाँ लगा रहे हैं आजकल अपनी मोटी कमाई का पैसा
ट्रोल्स की मर्दानगी
एक और दिलचस्प बात ट्रोल की तरफ से हुई। जब दीपिका पादुकोण अपनी जिंदगी और रिश्तों के बारे में बात कर रही थीं तो उनके साथ उनके बगल में रणवीर बैठे थे। तो कइयों ने रणवीर के मन की बात भी पढ़ ली। उन्होंने बातचीत के वीडियो में रणवीर के चेहरे के उतरते हाव-भाव में बेचैनी, अटपटापन और नापसंदगी भी देख ली।
यही नहीं, ट्रोल के एक तबके ने तो यहाँ तक कहा कि चूँकि रणवीर यह सब सुन रहे हैं, इसलिए वे ‘जोरू का ग़ुलाम’ हैं। यानी एक पुरुष अपनी महिला साथी की पिछली दोस्ताना जिंदगी के बारे में सुनकर चुपचाप कैसे बैठा रहा? एक असली मर्द यह सब कैसे बर्दाश्त कर सकता है?
यह तो ‘मर्दानगी के मूल्यों और पैमाने’ के ख़िलाफ़ बात है। उसे तो अपनी महिला साथी को सबक सिखा देना चाहिए।
अगर कोई मर्द ऐसा नहीं करता और अपनी दोस्त को इतनी जगह देता है कि वह खुलकर अपनी बात कह सके, अपने पुरुष दोस्तों के बारे में या पिछली दोस्तियों के बारे में बात कर सके तो ट्रोल की नजर में वह असली मर्द नहीं बल्कि ‘जोरू का ग़ुलाम’ है।
अपने दिमाग का इस्तेमाल करतीं लड़कियाँ
इससे पता चलता है कि हमें बोलती हुई अपने दिमाग से बोलती हुई लडक़ी या स्त्री पसंद नहीं है। उसका बोलना मर्दाना समाज को अपमान लगता है।
दीपिका अक्सर अपने दिमाग़ से बात करती हैं। अपने मन का करती हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहती कि लोग क्या कहेंगे।
यहाँ यह याद दिलाना बेमानी नहीं होगा कि जब जेएनयू के विद्यार्थियों के आंदोलन में एक दिन दीपिका अपना खामोश समर्थन देने पहुँच गई थीं। उस वक्त भी उन्हें काफी ट्रोल किया गया था। इस बार अपने विचार जाहिर करने की वजह से ऐसा ही हुआ।
बेहतर होगा कि मर्द, स्त्रियों की जि़ंदगी में ताक-झाँक करने की आदत छोड़ें। उनकी बातें सुनने की आदत डालें। उन्हें महज एक शरीर और यौन शरीर समझना छोड़ दें। बस इतना करें। इससे कई चीज़ें दुरुस्त हो जाएँगी। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
चुनावों से ऐन पहले सरकारों द्वारा विभिन्न वर्गों के खातों में रकम जमा करने और मुफ्त की सुविधाओं की योजनाएं शुरु करने के खिलाफ भट्टूलाल जैन की याचिका पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश की बैंच ने केन्द्र सरकार, केंद्रीय निर्वाचन आयोग और मध्य प्रदेश एवम राजस्थान सरकार को नोटिस जारी किया है।
मध्यप्रदेश और राजस्थान में इसी साल नवम्बर में चुनाव हैं और अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं इसलिए केन्द्र और इन दो राज्यों की सरकार ने वोट लुभाने के लिए कई ऐसी योजनाएं शरू की हैं या उनकी घोषणा की है जिनमें कर दाताओं से उगाहे कर और कर्ज लेकर सरकार द्वारा विभिन्न वर्ग के लोगों को दनादन आर्थिक लाभ दिया जा रहा है। इस मुद्दे पर वैसे तो प्रधानमंत्री भी मुफ्त की रेवडिय़ां कहकर आप जैसे दलों की आलोचना करते हैं लेकिन मध्यप्रदेश में उनके दल की सरकार रेवडिय़ां बांटने के मामले में और भी ज्यादा आगे है। तमाम राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं लेकिन खुद भी वही सब कर रहे हैं। इधर कुछ वर्षों से यह रोग बढ़ता ही जा रहा है। मुफ्त की चीजों में नए नए आइटम जुड़ रहे हैं। फ्री राशन और फ्री बिजली एवं पानी के बाद शादी में सोना, नकद रुपए, फ्री वाईफाई, मोबाइल, लैपटॉप, साइकिल, स्कूटी, आदि से महिलाओं, विद्यार्थियों और अन्य वर्ग के लोगों को लुभाया जा रहा है। इधर मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने पत्रकारों के लिए भी कई घोषणाएं की हैं ताकि मीडिया से जुड़े लोगों को भी लालच से प्रभावित किया जा सके।चुनावी वर्ष में चुनाव के नोटिफिकेशन के पहले आचार संहिता नहीं होती। सत्ता लोलुप राजनीतिक दल बेरोकटोक इसी का लाभ उठाते हैं ताकि लालच में फंसकर लोग उन्हें ही सत्ता सौंपे।
चुनाव पूर्व रियाउतो में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों में कड़ी प्रतिस्पर्धा भी होती है। राजस्थान सरकार द्वारा गैस सिलेंडर सस्ता किए जाने पर केन्द्र सरकार ने भी पहली बार रसोई गैस की कीमत एक झटके में दौ सौ रुपए कम की है और काफी समय से अक्सर बढऩे वाले डीजल-पेट्रोल के दाम स्थिर रखे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सामने लंबित याचिका में यह आग्रह है कि सरकारों द्वारा करदाताओं के धन को वोटों के लिए लालच देकर खर्च करना बंद होना चाहिए।यह लोकतंत्र और स्वस्थ समाज निर्माण के लिए बहुत जरूरी है।सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार,केंद्रीय चुनाव आयोग एवम मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकार इस मुद्दे पर क्या राय जाहिर करते हैं इस पर भी सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय निर्भर करेगा। केंद्र सरकार और राजस्थान सरकारों के जवाब से क्रमश: भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी का मत भी मालूम चल जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को भी अपने विचार दाखिल करने की छूट देनी चाहिए।
करदाताओं के संगठनों को भी इस मुद्दे पर लंबित याचिका से जुडऩे की कोशिश करनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे देश में व्यापारियों के तो कई संगठन हैं लेकिन आयकर दाताओं और जी एस टी देने वाले का कोई मजबूत संगठन नहीं है। यही कारण है कि बड़ा वोट बैंक होने के बावजूद इस महत्त्वपूर्ण वर्ग की कोई सुनवाई नहीं होती। संवेदनशील मीडिया को देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस और इण्डिया गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों से भी इस मामले में उनकी राय मालूम करनी चाहिए। देश के तमाम प्रबुद्धजनों को भी सोशल मीडिया सहित हर उपलब्ध प्लेटफार्म पर ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए जिससे मुफ्त का लालच देकर सत्ता हासिल करने वाले राजनीतिक दलों को यह मालूम पड़े कि उनकी इस चाल को जनता पहचान रही है और इसके खिलाफ एक राष्ट्रीय जन आंदोलन खड़ा हो रहा है।
दीपाली अग्रवाल
बालों में स्कार्फ बांधे जा रही इस लडक़ी का नाम है छोटी बी, मैंने पूछा ऐसा नाम क्यों है तो बोली कि मां ने रखा था ये नाम। ये स्कूल जाती है, पहली क्लास में है और 20 तक गिनती जानती है। इन दिनों इसके स्कूल की छुट्टी है क्योंकि टीचर के पिता नहीं रहे।
ये मेरे पास पैसे मांगने आई थी, मैंने पास बैठने को कहा तो सहजता से बैठ भी गई और पैसे की बात भूल गई। इसकी मां मर चुकी हैं और पिता किसी और प्लेटफॉर्म पर पैसे मांगते हैं। पूछने पर कि ये दिन भर क्या करती है तो बोली कि पैसे ही मांगती है। यह जीवन भर पैसे नहीं मांगना चाहती, पर क्या करना चाहती है ये भी इसे नहीं पता। बात करते समय इसकी निगाहें कुछ ढूंढ रही थीं, पैसे या अपना भविष्य मैं नहीं बता सकती। किसी महिला की गोद में एक बच्चे को देख कर इसकी आंखें चमक उठीं। ये शायद अपनी मां को बहुत याद करती है, इसने कई बार उनका जिक्र किया।
ट्रेन की सीटी बजी तो इसे याद आया कि पैसे मांगने आई थी, यह वापस उसी धुन पर लौट आई। ट्रेन की सीटी सबके लिए एक जैसी नहीं होती, मुझे पहली बार उस ध्वनि में अलग-अलग संवेदनाएं सुनाई दीं। कितने यात्री, कितनी तरह की यात्राएं एक साथ कर रहे हैं। कोई बीमार से मिलने जाता है, कोई मृत के आखिरी दर्शन को, कोई घूमने जाता है तो कोई भाग रहा होता है स्मृतियों और अतीत से। इस बार यह हॉर्न सबसे क्रूर था। एक ट्रेन की सीटी ने एक छोटी बच्ची को उसके स्वप्न से जगा दिया और यथार्थ में ला दिया। वह पैसे नहीं मांगना चाहती की स्थिति से पैसे दे दो मुझे कुछ खाना है तक आ गई।
‘क्या तुम्हारे साथ एक तस्वीर ले लूं’ मैंने पूछा
उसने आंखों से हां कहा था, मुझे कुछ देर देखा और जाने क्या सोचकर ना में सिर हिला दिया। ठीक उस ट्रेन की सीटी की तरह जो कितनी बातों को ना कह देती है अचानक।
छोटी बी!
बड़ी आंखों वाली एक लडक़ी थी,
मुझे नवंबर की सुबह मथुरा से दिल्ली जाते समय मिली।
ऐसी कितनी ही छोटी होंगी
प्लेटफॉर्म पर पैसे मांगती
जो कुछ बड़ा करना चाहती होंगी
रेल की पटरी के साथ दौड़ते होंगे उनके स्वप्न
पर हर बार एक सीटी से
लौट आता होगा यथार्थ
यथार्थ कि,
कुछ लड़कियों के माथे पर
ना आंचल होता है ना परचम।
जुगल आर पुरोहित
पहाड़ी राज्य मिज़ोरम में नई सरकार चुनने के लिए कुछ दिनों में ही मतदान होने वाला है। जिन लोगों से मैं मिला और बात की वो लोग इसको लेकर उत्साहित हैं।
मिजोरम की राजधानी आइजोल में सर्दियों ने दस्तक दे दी है। यहां की सुबहें और शामें ठंडी होती जा रही हैं। दिन में भी गर्मी नहीं लगती हैं।
हालाँकि हैरान करने वाली बात यह है कि यहां रोड शो, दीवारों पर लगे उम्मीदवारों के पोस्टर, जोरदार चुनाव प्रचार, घर-घर जाकर प्रचार करने वाले नेता या सार्वजनिक स्थानों पर पार्टी के झंडे लगाने वाले कार्यकर्ताओं में से कोई भी यहां दिखाई नहीं दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि मिज़ोरम की 40 सदस्यीय विधानसभा का चुनाव कर्फ्यू के बीच हो रहा है।
तो आखिर कैसे चुनाव हो रहा है?
समाज और राजनीतिक दलों में समझौता
नागरिक समाज, चर्च के संगठनों और राजनीतिक दलों के बीच 2008 में पहली बार एक समझौता हुआ था। पांच पेज का यह समझौता यहां चुनाव संचालन का मार्गदर्शन करता है।
इस समझौते का मुख्य उद्देश्य धन और बाहुबल के प्रभाव को कम करके स्वच्छ चुनाव सुनिश्चित करना है। यह सुनिश्चित करने के लिए, राज्य चुनाव आयोग वास्तव में प्रक्रिया का संचालन करता है। लेकिन यहां का नागरिक समाज अधिकारियों के साथ मिलकर काम करता है।
आइए इसका एक उदाहरण देखते हैं। दी मिज़ोरम पीपुल फोरम (एमपीएफ) चुनाव क्षेत्रों में ‘साझा मंच’ कार्यक्रम आयोजित करता है, इसमें उम्मीदवार बारी-बारी से मतदाताओं के सामने अपनी बात रखते हैं।
इस दौरान कभी-कभार वोटरों को भी उनसे सवाल पूछने का मौका मिल जाता है। हम एक ऐसे ही कार्यक्रम में शामिल हुए।
ये कार्यक्रम आमतौर पर शाम को आयोजित किए जाते हैं, ताकि लोग अपना कामकाज निबटा कर इसमें शामिल हो सकें।
वर्दीधारी स्वयंसेवक नागरिकों को सीटें ढूंढने से लेकर उम्मीदवारों को उनके लिए आवंटित स्लॉट बताने तक में मदद करते हैं। व्यवस्था और पारदर्शिता लाने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाता है।
समझौते में यह भी तय किया गया है कि राजनीतिक दल बैठक स्थल और कार्यालयों में कितने बैनर और पोस्टर लगा सकते हैं।
एमपीएफ के महासचिव रेव लालरामलियाना पचुआउ से मैंने पूछा कि यदि कोई उम्मीदवार इस समझौते का उल्लंघन करता है या कोई नागरिक प्रलोभन स्वीकार करता है तो क्या होगा?
इस सवाल पर वो कहते हैं, ‘हम ऐसे उल्लंघनों का प्रचार करते हैं ताकि मतदाताओं को पता चले।’
एक पार्टी के एक उम्मीदवार ने हमें बताया, ‘एमपीएफ कभी-कभी परेशान करने वाला हो सकता है, लेकिन वे कारगर भी हैं।’
क्या है मिजोरम चुनाव का मुद्दा
राज्य के अधिकांश लोग ईसाई धर्म मानते हैं। पूरी आबादी 10 लाख से थोड़ी ज्यादा है। यहां की 94 फीसदी आबादी आदिवासी हैं। यह संख्या पूरे देश में सबसे अधिक है।
विश्लेषकों ने हमें बताया कि मिज़ोरम जिसकी सीमा बांग्लादेश, म्यांमार और अशांत भारतीय राज्य मणिपुर से लगती है, यहां चुनाव आमतौर पर स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते रहे हैं। लेकिन इस बार चीजें अलग हैं।
प्रोफेसर जांगखोंगम डोंगेल मिजोरम विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। उन्होंने मुझे समझाया, ‘जातीय मुद्दे जो राज्य के बाहर हमारी संबंधित जनजातियों को प्रभावित करते हैं, उनका भी प्रभाव पड़ेगा। मणिपुर में भाजपा की सरकार है और अल्पसंख्यक समुदाय के साथ जो किया गया है, वह मतदाताओं के दिमाग में होगा। इसलिए यह स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का मिश्रण है, जो परिणाम तय करेगा।’
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस साल मई से मणिपुर में हुए संघर्ष की वजह से करीब 12 हज़ार आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्ति (आईडीपी) मिजोरम आए हैं। वहीं म्यामार में 2021 में हुए तख्तापलट के बाद करीब 32 हजार शरणार्थी मिजोरम आए हैं।
सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर दरारें पहले ही सामने आ चुकी हैं।
मुख्यमंत्री ने बनाई प्रधानमंत्री से दूरी
मिज़ोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने बीबीसी के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने की संभावना से इनकार किया। प्रधानमंत्री मोदी की रैली मिजोरम में होने वाली थी, जो रद्द कर दी गई।
राजधानी आइजोल स्थित अपने आवास में उन्होंने मुझसे कहा, ‘मिजोरम के सभी लोग ईसाई हैं और जब वे देखते हैं कि मैती ने (मणिपुर में) सैकड़ों चर्चों को जलाकर क्या किया, ऐसे में भाजपा के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति मेरी पार्टी के लिए बहुत बड़ा नकारात्मक बिंदु है।’
जोरमथांगा ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि शरणार्थियों और आईडीपी के स्वागत की वजह से चुनाव में उनके लिए बहुत अच्छे परिणाम आएंगे।
अन्य दलों के प्रत्याशियों ने भी अपनी योजनाओं को बताने के साथ-साथ बीजेपी पर हमला बोला।
जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) एक स्थानीय संगठन है। यह जोरमथांगा की पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) को चुनौती दे रहा है। रविवार शाम पार्टी के प्रचार कार्यक्रम के बाद विधायक डॉ.वनलालथलाना ने हमसे कहा कि मणिपुर में जो हुआ, उसे देखते हुए भाजपा के साथ चुनाव के बाद गठबंधन का सवाल ही नहीं उठता है।
कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष और उम्मीदवार लालनुनमाविया चुआंगो ने राजधानी आइज़ोल में हमसे मुलाकात की।
उन्होंने कहा, ‘हमारी धार्मिक स्वतंत्रता और जातीय पहचान की सुरक्षा को भाजपा से ख़तरा है। एमएनएफ़ बीजेपी की सहयोगी पार्टी है और जेडपीएम बीजेपी के साथ मिलकर काम करने जा रही है। इसलिए मतदाताओं से हमारा कहना है कि ये दोनों पार्टियां ठीक नहीं हैं।’
मिजोरम में बीजेपी की उम्मीदें क्या-क्या हैं?
वहीं भाजपा को नहीं लगता कि मिजोरम में मणिपुर कोई मुद्दा हो सकता है।
हमारी मुलाकात केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू से हुई। वो मिजोरम में भाजपा के चुनाव प्रभारी भी हैं। वो आइजोल में डेरा डाले हुए हैं।
वो कहते हैं, ‘यहां हर कोई समझता है कि यह भाजपा ही है जो मणिपुर में जो कुछ हुआ है उसे सुलझाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस और अन्य लोग हमें स्थानीय लोगों की संस्कृति को ख़तरे में डालने वाली हिंदू पार्टी बता रहे हैं, जो कि झूठ है। इस प्रचार के कारण गांवों में कई लोग हमसे नहीं जुड़ रहे हैं। फिर भी हम अपनी सीटें अधिकतम करने की कोशिश कर रहे हैं। हम किसी क्षेत्रीय पार्टी से हाथ मिलाने के भी खिलाफ नहीं हैं।’
विधानसभा में बीजेपी का एक ही विधायक है, इस बार उसने उम्मीदवार भी कम ही उतारे हैं।
उत्तर-पूर्व भारत के सभी राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगियों की सरकारें हैं। इस चुनाव में इसका मुख्य वादा मोदी की अपील पर आधारित है।
कैसी है मिजोरम के स्कूलों और सडक़ों की हालत
आइज़ोल शहर के केंद्र से करीब 20 मिनट की ड्राइव कर हम लालनुनमावी और उनके पति जिमी लालराममाविया के घर पहुंचे। जिमी एक टैक्सी ड्राइवर हैं और लालनुनमावी एक गृहिणी हैं।
इस दंपति का सपना है कि वो अपने बच्चों को भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) जैसी विशिष्ट सरकारी सेवाओं में शामिल होते देखें।
जिमी ने कहा, ‘वो अपनी अच्छी देखभाल करने के अलावा समाज में भी योगदान देंगे।’ यह कहते हुए जिमी के चेहरे पर फीकी लेकिन गर्वीली मुस्कान थी।
लालनुनमावी ने मुझसे कहा, ‘यहां के सरकारी स्कूलों की हालत खराब है। निजी स्कूल अच्छे हैं। लेकिन अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना महंगा है। हम चाहते हैं कि सरकार अपना काम ठीक से करे ताकि हम अपने बच्चों को बेहतर खाना खिला सकें और उनकी अन्य ज़रूरतों का ख्याल रख सकें।’
अनियमित बिजली आपूर्ति और सडक़ों की खराब स्थिति उन्हें परेशान करने वाला एक और मुद्दा था। जिमी ने कहा, ‘एक टैक्सी ड्राइवर के रूप में, बाद वाला मुद्दा मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।’
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि साक्षरता दर के मामले में मिज़ोरम देश में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में से एक है। इसके अलावा सुव्यवस्थित यातायात प्रबंधन के कारण, मिज़ोरम में सडक़ दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की दर सबसे कम है।
क्या है युवाओं का मुद्दा
हम आइज़ोल के एक कैफे में पहली बार मतदाताओं के एक समूह से मिले।
25 साल के हदाशी एक गायक हैं और 26 साल के के। लालरेंपुई एक शोध छात्र हैं। दोनों इस बार पहली बार मतदान करेंगे।
मैंने के लालरेंपुई से पूछा कि उनके मन में क्या है। इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘हम कई उम्मीदवारों को देखकर उत्साहित हैं जो युवा पीढ़ी से हैं। जहां तक मुद्दों की बात है तो मुझे लगता है कि रोजगार के अवसरों की कमी एक बड़ा मुद्दा है।’
सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, मिज़ोरम में एक भी महिला विधायक नहीं है।
हदासी कहती हैं कि वे रूढि़वादी व्यवस्था के खिलाफ हैं। वो कहती हैं, ‘यहां हम एक कलाकार या फैशन डिजाइनर या चित्रकार बनना चाहते हैं, लेकिन ज्यादातर माता-पिता हमें सरकारी नौकरी करने के लिए मजबूर करेंगे। हमारे माता-पिता को हमारे सपनों को बर्बाद किए बिना हमारा मार्गदर्शन करने की जरूरत है।’
वो कहती हैं, ‘हम सभी बदलाव चाहते हैं, लेकिन यह तुरंत नहीं आ सकता। अगर यह धीरे-धीरे आता तो ठीक होता।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
इंफोसिस जैसी सफ़ल आई टी कंपनी के संस्थापक नारायण मूर्ति की सोसल मीडिया पर इस बात के लिए काफी आलोचना हो रही है कि उन्होने युवाओं को सप्ताह में सत्तर घंटे काम करने की सलाह दी है। काफी लोग उनके इस बयान को पूजीपतियों द्वारा कामगारों का खून चूसने की प्रवृत्ति तक कह रहे हैं। बहुत कम लोग उनके बयान के बचाव में भी आए हैं। दरअसल नारायण मूर्ति के इस बयान को सही परिपेक्ष्य में गहराई से देखने की जरुरत है। प्रमाणिक दस्तावेजों से पता चलता है कि हम भारतीय लोग प्राचीन समय में मेहनतकश समाज रहे हैं लेकिन कालांतर में ब्रिटिश गुलामी के दौरान हम हीन भावना से ग्रस्त कामचोर और कमजोर समाज बन गए थे। भारतीयों की इसी प्रवृति पर टॉलस्टाय ने गांधी को लिखा था कि तुम्हें यह चिंतन करना चाहिए कि भारतीय समाज ऐसा कैसे बन गया कि उसकी तीस करोड़ की बडी आबादी को दूसरे देश के बीस तीस हज़ार लोगों की सेना भी आसानी से गुलाम बना लेती है!
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर एक साल लगभग सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। उन्होंने महसूस किया कि विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में लोगों में भयंकर आलस और गंदगी के दो बड़े दुर्गुण हैं जो गांवों की बदहाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। इन दो दुर्गुणों की समाप्ति के लिए गांधी ने आज़ादी के आंदोलन के दौरान ग्राम विकास के रचनात्मक कार्यों की लम्बी श्रंखला शुरु की थी जिसे आज भी काफी संस्थाएं और व्यक्ति अपने अपने तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। गांधी युवाओं और महिलाओं के लिए हर हाथ को काम और परिश्रम की कमाई पर बहुत जोर देते थे और पंद्रह घंटे प्रतिदिन काम करके सबके लिए आदर्श उदाहरण स्थापित करते थे। यदि नारायण मूर्ति युवाओं से सप्ताह में सत्तर घंटे यानि दस घंटे प्रतिदिन काम कराना चाहते हैं तो गांधी की कर्मशीलता के सामने तो वह भी काफी कम लगता है। इस लिहाज से तो गांधी की नारायण मूर्ति से भी कड़ी आलोचना करनी चाहिए !
हमने बचपन में प्रगतिशील मेहनती किसानों और खेतिहर मजदूरों को खेतों में बारह घंटे प्रतिदिन से ज्यादा समय तक काम करते हुए देखा है। मुझे खुद भी लगभग बारह घंटे प्रतिदिन काम करने की आदत है। इस लिहाज से युवाओं के लिए दस घंटे प्रतिदिन काम बहुत ज्यादा नहीं लगता। हां इसमें यह संशोधन अवश्य किया जा सकता है कि बहुत ज्यादा शारीरिक और मानसिक मेहनत के कार्यों के लिए यह सीमा आठ घंटे प्रतिदिन के हिसाब से छप्पन घंटे प्रति सप्ताह की जा सकती है।किसी भी देश का भविष्य युवाओं की कार्यशक्ति पर निर्भर होता है। इस दृष्टि से हमारे युवाओं की औसत वैश्विक स्थिति उचित नहीं है। एक तरफ पंद्रह घंटे प्रतिदिन काम करने वाले चंद युवा हैं जो मल्टी नेशनल कंपनियों और अपने स्टार्ट अप में काम करते हैं और निरंतर प्रगति करते हुए अपने क्षेत्रों के शिखरों को छूते हैं लेकिन ऐसे युवाओं का प्रतिशत बहुत कम है। दूसरी तरफ युवाओं की बहुत बड़ी फौज दिन भर हाथ में मोबाइल थामे आवारागर्दी करती हुई दिखाई देती है।
कामचोरी की समस्या हमारे देश की बडी समस्या बनती जा रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि एक तरफ पढ़े लिखे करोड़ों लोग सफेद कॉलर नौकरी के लिए बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ़ पसीना बहाने वाले खेती, किसानी और बागवानी आदि के कार्यों के लिए लोग उपलब्ध नहीं हो रहे। फ्री राशन व्यवस्था ने युवाओं की कामचोरी की आदत को खूब बढ़ावा दिया है। कावड़ उठाने और डी जे पर धार्मिक आयोजनों के जुलूस में नाच गाने के लिए युवाओं में खूब उत्साह दिखाई देता है लेकिन मेहनत मशक्कत के कामों में उनकी बेहद अरुचि है। यह हालात किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए घातक हैं। हमे नारायण मूर्ति के बयान को इस परिपेक्ष्य में भी देखने की जरुरत है।