विचार/लेख
दिव्या आर्य
मणिपुर में क्या हुआ है?
मणिपुर की 33 लाख लोगों की आबादी में आधे से ज़्यादा मैतेई हैं। 43 प्रतिशत कुकी और नागा समुदाय से हैं।
मई में ताज़ा हिंसा तब भडक़ उठी जब कुकी समुदाय ने मैतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति चिह्नित किए जाने की मांग का विरोध किया। उन्हें डर है कि इससे मैतेई समुदाय कुकी इलाकों में ज़मीन खरीदकर और प्रभावशाली हो जाएगा।
राज्य सरकार और मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह (जो मैतेई हैं) कुकी चरमपंथी गुटों को समुदाय को भडक़ाने के लिए जिम्मेदार मानते हैं।
हिंसा में अब तक 200 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई है जिनमें ज्यादातर कुकी समुदाय से हैं। दोनों समुदायों के हजारों लोग विस्थापित हो गए हैं।
मैतेई औरतों ने भी कुकी मर्दों पर यौन हिंसा के आरोप लगाए हैं और एक एफआईआर भी दर्ज हुई, लेकिन ज़्यादातर मानती हैं कि वो ऐसे कृत्यों की चर्चा कर शर्मिंदा नहीं होना चाहतीं।
अब से छह महीने पहले मणिपुर में भडक़ी जातीय हिंसा के बीच भीड़ ने दो औरतों को निर्वस्त्र कर घुमाया और कथित तौर पर उनका सामूहिक बलात्कार किया। उस हमले का वीडियो वायरल होने के बाद वो औरतें पहली बार किसी पत्रकार के आमने-सामने बैठीं और अपनी आपबीती बाँटी।
चेतावनी-इस लेख में यौन हिंसा का वर्णन है।
सबसे पहले मुझे सिर्फ उनकी झुकी नजऱें दिखाई दीं। काले मास्क से ढका मुंह। माथे और सर पर लिपटी चुन्नी।
वायरल वीडियो से सामने आईं कुकी-जोमी समुदाय की ये दोनों औरतें, ग्लोरी और मर्सी, मानो अदृश्य हो जाना चाहती हों।
पर आवाज बुलंद है। आज पहली बार वो एक पत्रकार से मिलने को राजी हुई हैं, ताकि अपने दर्द और न्याय की लड़ाई के बारे में दुनिया को बता सकें।
सोशल मीडिया पर शेयर किया गया उनका वीडियो देखना मुश्किल है। करीब एक मिनट लंबे उस वीडियो में मैतेई मर्दों की भीड़ दो निर्वस्त्र औरतों को घेरे हुए है, उन्हें धक्का दे रही है, उनके निजी अंगों को जबरदस्ती छू रही है और खींच कर उन्हें खेत में ले जाती है जहां वो कहती हैं कि उनका सामूहिक बलात्कार किया गया।
उस हमले को याद कर ग्लोरी का गला भर आता है।
वो बोलीं, ‘मुझसे जानवरों जैसा बर्ताव किया गया। उस सदमे के साथ जीना पहले ही इतना मुश्किल था, फिर दो महीने बाद जब हमले का वीडियो वायरल हुआ, मेरे अंदर जि़ंदा रहने की चाह ही खत्म होने लगी।’
मर्सी ने कहा, ‘आप तो जानती हैं, भारतीय समाज कैसा है, ऐसे हादसे के बाद वो औरतों को किस नजऱ से देखता है। अब मैं अपने समुदाय के लोगों तक से आंख नहीं मिला पाती। मेरी इज़्जत चली गई है। अब मैं कभी पहले जैसी नहीं हो पाउंगी।’
वीडियो ने दोनों औरतों का दर्द चौगुना कर दिया लेकिन वो एक ऐसा सबूत भी बना जिसने सबका ध्यान मणिपुर में कई महीनों से जारी मैतेई और कुकी-जोमी समुदायों के बीच की जातीय हिंसा पर ला दिया।
शर्म और डर
वीडियो सामने आने के बाद खूब आलोचना हुई और प्रशासन-पुलिस की तरफ से कार्रवाई हुई। जिसके चलते कई कुकी औरतों ने यौन हिंसा की शिकायतें पुलिस में दर्ज करवाने की हिम्मत की।
लेकिन वीडियो पर दुनिया की नजर ने ग्लोरी और मर्सी को और सिमटने पर मजबूर कर दिया।
हमले से पहले ग्लोरी मैतेई और कुकी समुदाय के छात्रों के मिले-जुले कॉलेज में पढ़ती थी।
मर्सी के दिन अपने दोनों बच्चों की देख-रेख, उनके स्कूल का होमवर्क कराने और चर्च जाने में बीतते थे।
लेकिन हमले के बाद दोनों औरतों को गांव छोड़ भागना पड़ा और अब एक दूसरे शहर में छिपकर रह रही हैं।
शर्म और डर के साए में अब वो किसी शुभचिंतक के घर की चारदीवारी में सिमट कर रहती हैं।
मर्सी ना चर्च जाती हैं ना स्कूल। बच्चों को एक रिश्तेदार छोड़ती हैं और वापस लाती हैं।
वो कहती हैं, ‘मुझे रात में बमुश्किल नींद आती है और बहुत डरावने सपने आते हैं। मैं घर से बाहर नहीं निकल पाती। डर लगता है और लोगों से मिलने में शर्मिंदगी महसूस होती है।’
हादसे का सदमा ऐसा कि दोनों सहम गई हैं। काउंसलिंग ने मदद की है पर घृणा और गुस्सा भी घर कर गया है।
गुस्सा और घृणा
अब ग्लोरी मैतेई दोस्त या छात्र के साथ पढऩा तो दूर, उस समुदाय के किसी व्यक्ति का चेहरा तक नहीं देखना चाहती हैं।
वो कहती हैं, ‘मैं कभी अपने गांव वापस नहीं जाऊंगी। मैं वहां पली-बढ़ी, वो मेरा घर था, लेकिन वहां रहने का मतलब है पड़ोस के गांवों के मैतेई लोगों के साथ मेल-जोल, जो मुमकिन नहीं।’
मर्सी का भी यही मानना है। वो मेज पर गुस्से से हाथ रखते हुए कहती हैं, ‘मैं तो उनकी भाषा तक कभी नहीं सुनना चाहती।’
मर्सी और ग्लोरी का गांव मणिपुर में मई में भडक़ी जातीय हिंसा की चपेट में आनेवाले पहले गांवों में से था। उस दिन मची भगदड़ में भीड़ ने ग्लोरी के पिता और भाई को जान से मार दिया।
दबी आवाज़ में ग्लोरी बोलीं, ‘मैंने अपनी आंखों के सामने उनकी मौत होते देखी।’
ग्लोरी ने बताया कि उसे उनके शव खेत में छोड़ अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। अब वो वहां लौट भी नहीं सकती। हिंसा भडक़ने के बाद मैतेई और कुकी समुदाय एक दूसरे के इलाकों में कदम नहीं रख सकते।
मणिपुर दो भागों में बँट गया है और बीच में पुलिस, सेना और दोनों समुदाय के वॉलनटीयर्स के बनाए चेक-प्वॉइंट हैं।
ग्लोरी कहती हैं, ‘मुझे तो ये भी नहीं पता कि उनके शव किस मुर्दा घर में रखे गए हैं, ना मैं जा कर चेक कर सकती हूं। सरकार को खुद उन्हें हमें लौटा देना चाहिए।’
दर्द और ग्लानि
इलस्ट्रेशन - टूटा फोटो फ्रेम जिसमें ग्लोरी, उसके भाई और पिता की तस्वीर है
हमले के वक्त मर्सी के पति ने पड़ोस के मैतेई गांवों के मुखिया के साथ बैठक की थी जिसमें शांति बनाए रखने का फैसला लिया गया था। पर जैसे ही सब मुखिया निकले, भीड़ ने हमला कर दिया, घरों में आग लगा दी और स्थानीय चर्च भी जला दी।
वो बताते हैं, ‘मैंने स्थानीय पुलिस को फोन किया पर उन्होंने कहा कि उनके थाने पर हमला हो गया है तो वो यहां आकर मदद नहीं कर सकते। मैंने सडक़ पर खड़ी एक पुलिस वैन देखी, पर उसमें से भी कोई बाहर नहीं निकला।’
मर्सी के पति के मुताबिक जब गुस्साई भीड़ ने औरतों को निशाना बनाने का रुख किया तो वो अकेले पड़ गए, ‘मैं कुछ नहीं कर पाया, ये सोचकर दुख और ग्लानि होती है। ना अपनी पत्नी, ना गांववालों को बचा पाया। दिल दुखता है। कभी-कभी इतना परेशान हो जाता हूं कि मन करता है किसी की जान ले लूं।’
पुलिस सूत्रों ने बीबीसी को बताया है कि अब उन्होंने ऑफिसर इन चार्ज समेत पांच लोगों को सस्पेंड कर दिया है और उनकी जांच की जा रही है।
मर्सी के पति के मुताबिक हमले के दो सप्ताह बाद उन्होंने इसकी शिकायत पुलिस में कर दी थी लेकिन जब तक वीडियो सामने नहीं आया, कोई कार्रवाई नहीं की गई।
वीडियो के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर जातीय हिंसा पर अपना पहला बयान दिया। मणिपुर पुलिस ने सात लोगों को गिरफ्तार किया।
सुप्रीम कोर्ट ने जांच सीबीआई को सौंपी जिसने अब उन सात लोगों पर सामूहिक बलात्कार और हत्या का मुकदमा दर्ज किया है।
हौसला और उम्मीद
ग्लोरी, मर्सी और उनके पति बताते हैं कि वीडियो सामने आने के बाद उन्हें दुनियाभर से ढांढस बंधाने वाले संदेश आने लगे जिनसे बहुत हौसला मिला।
मर्सी के पति कहते हैं, ‘वीडियो के बिना कोई सच पर यकीन नहीं करता, हमारा दर्द नहीं समझता।’
मर्सी को अब भी डरावने सपने आते हैं और भविष्य के बारे में सोचने पर डर लगता है।
अपने बच्चों का हवाला देते हुए कहती हैं, ‘मेरे दिल पर बोझ रहता है कि अपने बच्चों को विरासत में देने के लिए अब कुछ नहीं बचा।’
अब वो परमेश्वर और प्रार्थना में सुकून तलाशती हैं। वहीं सुरक्षित महसूस होता है। मर्सी ने कहा, ‘मैं खुद को समझाती हूं कि परमेश्वर ने अगर मुझे ये सब सहने के लिए चुना तो वो ही मुझे इससे उबरने की शक्ति देंगे।’
हमले में उनका पूरा गांव तबाह हो गया, अब वो समुदाय की मदद से अपनी जिंदगी दोबारा खड़ी कर रहे हैं।
ग्लोरी बताती हैं कि दोनों समुदाय के लिए अलग प्रशासन ही एकमात्र उपाय है, ‘वही तरीका है सुरक्षित और शांतिपूर्वक तरीके से रहने का।’
ये विवादास्पद मांग कुकी समुदाय ने कई बार उठाई है और मैतेई समुदाय ने इसका विरोध किया है। दोनों के अपने तर्क हैं। राज्य के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह मैतेई हैं और मणिपुर के विभाजन के खिलाफ हैं।
भेदभाव और इंसाफ
इलस्ट्रेशन-ग्लोरी और मर्सी की आंखों के बीच में घास का पौधा
ग्लोरी और मर्सी को स्थानीय प्रशासन में यकीन नहीं है और उस पर कुकी समुदाय से भेदभाव करने का आरोप लगाती हैं।
ग्लोरी कहती हैं, ‘मणिपुर सरकार ने मेरे लिए कुछ नहीं किया। मुझे मुख्यमंत्री पर भरोसा नहीं है। उनके शासन में ही तो हमारे साथ ये सब हुआ।’
दोनों का आरोप है कि मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने अब तक जातीय हिंसा से प्रभावित कुकी-जोमी परिवारों से न बातचीत की है न मुलाकात।
विपक्षी पार्टियों ने बार-बार मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग की है पर राज्य सरकार ने भेदभाव के सभी आरोपों को बेबुनियाद बताया है।
इन आरोपों को जब हमने मुख्यमंत्री एन। बीरेन सिंह के सामने रखने की कोशिश की तो उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया पर हाल में इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वो मैतेई समुदाय के परिवारों को भी मिलने नहीं गए हैं, और, ‘मेरे दिल या मेरे काम में कोई पक्षपात नहीं है।’
वीडियो का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को हिंसा में मारे गए सभी लोगों की पहचान कर उनके शव उनके परिवारों को वापस करने का इंतजाम करने के लिए कहा है।
ग्लोरी ने अपनी उम्मीद इसी पर टिकाई हुई है। वो इंसाफ में यकीन रखती हैं।
भविष्य में वो एक अन्य कॉलेज में पढ़ाई दोबारा शुरू कर पुलिस या सेना में अफसर बनने का सपना पूरा करना चाहती हैं। ग्लोरी कहती हैं, ‘ये हमेशा से मेरा सपना था पर हमले के बाद मेरा यकीन और पक्का हो गया है कि मुझे बिना भेदभाव के सभी लोगों के लिए काम करना है।’
‘मुझे हर कीमत पर इंसाफ चाहिए। इसीलिए आज बोल रही हूं ताकि फिर किसी औरत के साथ वो ना हो जो मैंने सहा।’
मर्सी नजऱ उठाकर मुझे देख कहती हैं, ‘हम आदिवासी औरतें बहुत मजबूत हैं, हम हार नहीं मानेंगे।’
मैं चलने के लिए उठ खड़ी होती हूं तो कहती हैं कि वो एक संदेश देना चाहती हैं, ‘मैं सभी समुदायों की माताओं से कहना चाहती हूं कि अपने बच्चों को सिखाएं कि चाहे जो हो जाए, कभी भी औरतों की बेइज्जती ना करें।’ (बीबीसी)
(दोनों औरतों के नाम बदल दिए गए हैं।)
(इलस्ट्रेशन्स-जिल्ला दस्तमाल्ची) (bbc.com/hindi)
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव
राकेश कुमार मालवीय
हल्की बाई (उम्र 45 साल) मध्यप्रदेश के पन्ना जिले की ग्राम पंचायत मनौर की निवासी हैं। परिवार में पांच सदस्य हैं, तीन लडक़ी और एक लडक़ा। पति रामप्रसाद गोंड पत्थर खदानों में काम करते थे। 12 साल पहले उनकी मृत्यु हो गई।
बड़ा बेटा सेवा गोंड अब 25 साल का हो गया है। आसपास रोजगार नहीं मिलने से उसे पलायन करना पड़ता है। इस वक्त जम्मू—कश्मीर में है।
बेटी प्रीती की उम्र 18 साल, अंजू 16 साल और संजू 13 साल की है। किसी भी बच्चे का नाम स्कूल में दर्ज नहीं है। कृषि के लिए जमीन नहीं है। आसपास के जंगलों से महुआ और तेंदूपत्ता जरूर मिलता है, पर इससे साल भर की जरूरत पूरी नहीं होती। हर महीने 600 रुपए विधवा पेंशन से ही गुजारा चलता है। हर दो महीने में वह बैंक से एक हजार रुपए निकालकर तेल, मसाले, साबुन, निरमा और गेहूं 5 किलो गेहूं खरीदते हैं।
हल्की बताती हैं कि राशन दुकान से 4 सदस्यों का 16 किलो गेहूं, 4 किलो चावल,1 किलो नमक हर माह मिल जाता है, जिससे एक महीना निकल जाता है। उनका मनरेगा जॉब कार्ड तो बना है, लेकिन कभी रोजगार नहीं मिला, न ही वह काम मांगने गईं, क्योंकि जानकारी नहीं है।
हल्की कच्चे से मकान में रहती हैं, प्रधानमंत्री आवास स्वीकृत नहीं हुआ, जबकि गरीबी रेखा वाला बीपीएल कार्ड भी है। बच्चियां स्कूल नहीं जाती हैं, इसलिए मध्याह्न योजना का लाभ नहीं मिल रहा। गैस सिलेंडर भी नहीं मिला, इसलिए चूल्हे पर खाना पकाती हैं।
हल्की बाई का आयुष्मान कार्ड नहीं बन पाया है। उनकी किसी भी लडक़ी को लाड़ली लक्ष्मी योजना का लाभ भी नहीं मिल पाया है। हल्की बाई का परिवार अपने इकलौते बेटे की मजदूरी पर निर्भर है। यह स्थिति तब है, जब मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कल्याणकारी योजनाओं का जोरदार प्रचार हो रहा है और सत्ता पक्ष एवं विपक्षी दल नई़-नई योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश में सामाजिक कल्याण की कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन भाजपा सरकार लाडली बहना योजना का जमकर प्रचार कर रही है। इस योजना में हर माह 1250 रुपए परिवार की सभी शादीशुदा महिलाओं को दिए जाते हैं। भाजपा वादा कर रही है कि चुनाव जीतने के बाद इस राशि को 3,000 रुपए कर दिया जाएगा। योजना मार्च 2023 को शुरू हुई थी। हल्की बाई को इस योजना के बारे में पता है, लेकिन उनको लगता है कि उन्हें विधवा पेंशन मिल रही है, इसलिए उन्हें लाडली बहना का लाभ नहीं मिलेगा।
उधर, कांग्रेस ने महिलाओं को 1,500 रुपए प्रति माह नारी सम्मान निधि के रूप में देने का वादा किया है। महिलाओं को नगदी देने की योजना काफी पसंद आ रही है। भोपाल में घरों में काम करने वाली सीमा अहिरवार कहती हैं कि हमें लाडली बहना योजना का लाभ मिल रहा है, ऐसी योजनाएं चलते रहना चाहिए। उनके साथ दूसरी महिला ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि ऐसी रकम का बड़ा हिस्सा तो पति शराब पर कर देते हैं और उसे हम रोक नहीं सकते।
विधानसभा चुनाव में महंगाई का मुद्दा जोर पकड़ रहा है। ऐसे में जहां कांग्रेस ने गैस सिलेंडर की कीमत 500 रुपए करने की घोषणा की है, वहीं भाजपा अब 450 रुपए में सिलेंडर देने की बात कर रही है। राज्य में पेंशन योजनाएं जैसे वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन, विधवा पेंशन 600 रुपए जैसी योजना चल रही हैं। केंद्र की किसान सम्मान निधि योजना में 6,000 रुपए सालाना और कुछ किसानों को राज्य सरकार की ओर से चार हजार रुपए का अतिरिक्त भुगतान दिया जा रहा है। लाडली लक्ष्मी योजना में बालिकाओं को उम्र के अलग—अलग पड़ावों पर एक लाख रुपए की राशि दी जाती है।
इसके अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक गरीब परिवार को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज, गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार, उज्ज्जवला योजना में गैस कनेक्शन, स्वास्थ्य बीमा योजना में पांच लाख रुपए तक का मुफ्त इलाज, आयुष्मान योजना में पांच लाख तक का मुफ्त इलाज, मिड डे मील, आंगनवाड़ी मे गरम पका हुआ भोजन, उदिता योजना में किशोरी बालिकाओं को सेनेटरी पैड देने का प्रावधान है।
सामाजिक कल्याण की इतनी योजनाओं का चुनाव परिणाम पर असर दिखेगा या नहीं, यह तो 3 दिसंबर 2023 को ही पता चलेगा, लेकिन लोगों का कहना है कि अधिकतर योजनाओं का लाभ वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंच नहीं रहा है। नर्मदापुरम जिले के निवासी विपत भारती अपने गांव में मनरेगा में मेट का काम भी करते हैं। वह कहते हैं कि मनरेगा में मजदूरी इतनी कम है कि लोग इसमें काम ही नहीं करना चाहते हैं। यही वजह है कि लोग मजदूरी करने गांव से बाहर चले जाते हैं, जिसकारण आवश्यक दस्तावेजों का अभाव और समय-सीमा के कारण लोगों को योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता सीमा जैन बताती हैं कि जनकल्याणकारी योजनाएं वंचित समुदाय के मानव अधिकारों के लिए एक अहम कड़ी हैं। चुनाव में सरकार अपनी उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने के लिए जोर लगाती है और विपक्ष भी अपना विजन उसके जरिए सामने रखता है, लेकिन आज के वक्त में यह सिर्फ वोट पॉलिटिक्स तक सीमित हो गई है। अब मुद्दापरक राजनीति से ज्यादा जोर व्यक्तिपरक राजनीति पर है, इसलिए इन योजनाओं का बहुत असर जनता के मानस पर नहीं पडऩे वाला है।
वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता जावेद अनीस कहते हैं कि हमारे देश में चुनाव आते ही राजनीतिक पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादे करना शरू कर देती हैं। इसका विरोध करने वाले इसे ‘रेवड़ी कल्चर’ बताते हैं जो सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है, जबकि समर्थन करने वाले इसे 'कल्याणकारी योजनाएं' बताते हैं जो एक प्रकार से जरूरतमंदों की मदद है। इस देश में अभी में एक बड़ी आबादी है जिनके लिए कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत है इसलिए इसे ‘सरकारी खजाने पर बोझ’ मानकर टाला नहीं जा सकता है, लेकिन जिस प्रकार से ठीक चुनाव से पहले ही राजनीतिक पार्टियों की इनकी याद आती है उसे भी ठीक नहीं ठहराया नहीं जा सकता है। हालांकि वह मानते हैं कि जो योजनाएं वस्तु के रूप में या सेवाओं के रूप में सीधे दे जाती हैं वह जरुरतमंदों तक ज्यादा पहुंचती हैं।
कीर्ति दुबे
आरटीआई यानी सूचना का आधिकार, जिसके बारे में मेन-स्ट्रीम मीडिया में शायद ही बीते कई साल में बात हुई हो, आम जनता के जानकारी पाने के इस अधिकार पर एक नया संकट छाया हुआ है।
आरटीआई से जुड़ी सबसे जरूरी संस्था केंद्रीय सूचना आयोग बीते एक महीने से बिना मुख्य आयुक्त के काम कर रही थी। और आज ही यानी सोमवार को 11 बजे हीरालाल समरिया ने केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त पद की शपथ ली है।
तीन अक्टूबर, 2023 को जब केंद्रीय सूचना आयोग के प्रमुख आयुक्त यशोवर्धन सिंह राठौर इस पद से रिटायर हुए तब से ही ये पद खाली पड़ा था। इतना ही नहीं 6 नवंबर को केंद्रीय सूचना आयोग के चार अन्य आयुक्त रिटायर हो रहे हैं।
सूचना आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त और 10 सूचना आयुक्त होते हैं। यानी कुल 11 लोगों का स्टाफ़ होता है।
ये सूचना आयोग केंद्र में और राज्यों में होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे केंद्र में चुनाव आयोग और राज्यों के अपने चुनाव आयोग होते हैं।
एनजीओ सार्थक नागरिक संगठन ने सूचना आयोग पर एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें ये पता चला है कि देशभर में छह सूचना आयोगों में मुख्य सूचना आयुक्त के पद खाली पड़े हैं और चार राज्यों के सूचना आयोग लंबे समय से काम ही नहीं कर रहे हैं।
स्टाफ़ की कमी इतनी है केंद्र और राज्य के 27 सूचना आयोग में इस साल 30 जून तक 3।2 लाख शिकायतें सामने पड़ी हैं जिनकी सुनवाई ही नहीं हो सकी है।
भारत एक ऐसा देश है जहां दुनिया में सबसे ज़्यादा सूचना के अधिकार का इस्तेमाल होता है। आंकड़े बताते हैं कि हर साल 60 लाख आरटीआई डाली जाती हैं, ऐसे में जब इन आयोगों के पास स्टाफ़ ही नहीं होगा तो कैसे हमारे-आपकी ओर से मांगी गई जानकारी मिल पाएगी?
कई राज्यों में तो शिकायतों पर सुनवाई का औसत समय एक साल तक है। यानी अगर आपके सवाल का सरकार जवाब ना देना चाहे और आप उसके ख़िलाफ़ अपील करें तो आपको सालभर का इंतज़ार करना पड़ा सकता है।
आयुक्त पद के लिए 200 आवेदन पर नियुक्ति नहीं
लेकिन सीआईसी यानी केंद्रीय सूचना आयोग है क्या, और अगर ये ऐसे ही कमज़ोर होता रहा तो इसके आपके लिए क्या मायने होंगे?
आरटीआई कानून के अनुसार केंद्र में और राज्य में सूचना आयोग होते हैं। सूचना आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त होता है और इसके साथ-साथ 10 और आयुक्त होते हैं। यानी कुल 11 लोगों का स्टाफ़ होता है।
ये सूचना आयोग किसी आरटीआई याचिका दायर करने वाले की आखऱिी उम्मीद होते हैं। अगर कोई विभाग किसी आरटीआई का जवाब देने से इंकार कर दे तो आरटीआई दायर करने वाला शख़्स सूचना आयोग का दरवाज़ा खटखटाता है और सूचना आयोग इस शिकायत पर सुनवायी कर संबंधित विभाग को जानकारी देने या जानकारी ना देने की वाजिब वजह बताने को कहते हैं। इस पद पर किसी का ना होना आम लोगों के जानकारी पाने के अधिकार पर ख़तरा है।
ठीक इसी तरह राज्यों में भी सूचना आयोग होते हैं। लेकिन राज्यों के सूचना आयोगों की हालत भी खस्ता है।
झारखंड का सूचना आयोग बीते तीन साल से काम ही नहीं कर रहा, त्रिपुरा का सूचना आयोग 27 महीनों से ठप पड़ा है। मिज़ोरम का सूचना आयोग इस साल जून से बंद है। वजह यही कि यहां पर मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति ही नहीं हुई।
ये मामला सिफऱ् एक संस्था में खाली पदों के बारे में ही नहीं है लेकिन इससे कहीं ज़्यादा ये मामला लोकतांत्रिक पारदर्शिता का है। सीआईसी के पदों का खाली रहने का मतलब है सरकार की आम लोगों के प्रति जवाबदेही कम होती जाएगी। जो लोग सरकार की स्कीम पर सीधे तौर पर निर्भर हैं और ज़रूरत पडऩे पर अपनी परेशनियों का हल तलाशने के लिए आरटीआई डालेंगे उनके जवाब पाने की उम्मीद धूमिल होती जाएगी। साल 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के मुनिरका में सीआईसी मुख्यालय का उद्घाटन किया था। इस उद्घाटन के समय प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि लोकतंत्र में एक ‘मज़बूत नागरिक लोकतंत्र की जान होता है।’ आज सीआईसी का यही दफ़्तर अपनी आधी से भी कम क्षमता में काम कर रहा है।
सेवानिवृत्त कमांडर लोकेश बत्रा एक आरटीआई कार्यकर्ता हैं। उनकी आरटीआई के जवाब से ये पता चला कि बीते साल दिसंबर में ही केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्त पद के लिए 256 लोगों ने आवेदन किया था, लेकिन लगभग 10 महीने बाद भी सरकार ने इस पद के लिए किसी की नियुक्ति नहीं की। ये नियुक्तियां क्यों नहीं हुईं इसकी कोई वजह सामने नहीं आई।
अंजलि भारद्वाज एक जानी मानी आरटीआई कार्यकर्ता हैं। उनकी संस्था सतर्क नागरिक संगठन ने इस साल अक्टूबर में आरटीआई और सूचना आयोग के संकट पर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में ही सामने आया कि लाखों की संख्या में शिकायतें आयोगों के पास पड़ी हुई हैं और कई आयोग काम नहीं कर रहे हैं।
अंजलि भारद्वाज कहती हैं, ‘आरटीआई के बीते 18 साल के समय को देखें तो इस दौरान ऐसा कोई बड़ा घोटाला नहीं है जो आरटीआई के ज़रिए सामने ना आया हो। भारत सबसे ज्यादा आरटीआई कानून का इस्तेमाल करता है और हर साल जो 60 लाख आरटीआई डाली जाती हैं उसमें समाज का निचला तबका सबसे ज़्यादा आरटीआई डालता है।’
‘जो लोग पेंशन और अन्य सरकारी स्कीम पर निर्भर रहते हैं वो सबसे ज्यादा इस अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन बीते सात से आठ सालों में आरटीआई को कमज़ोर करने की लगातार कोशिशें की गई हैं। साल 2014 के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ कि केंद्र सरकार ने खुद सूचना आयुक्त का कार्यकाल ख़त्म होने पर नियुक्ति कर दी हो। हमेशा कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है। ’
‘सरकारें कभी नहीं चाहतीं कि आम लोग उनसे सवाल पूछें, मंत्रियों के बारे में जानकारी जानें इसलिए संस्था को कमज़ोर किया जा रहा है।’
सीआईसी के ख़ाली पद और लाखों पेंडिंग पड़ी शिकायतें
एक आरटीआई के जवाब में ये बात सामने आई की केंद्रीय सूचना आयोग में 11 लोगों का स्टाफ़ होना चाहिए लेकिन सात पद खाली हैं और ये आयोग चार लोगों के स्टाफ़ के साथ चल रहा है।
20 दिसंबर 2022 को केंद्र सरकार की ओर से सूचना आयुक्त पद के लिए नोटिफिकेशन जारी करके आवेदन मांगे गए थे। जनवरी 2023 तक आवेदन भेजने की तारीख भी रखी गई थी।
इसमें ये भी कहा गया था कि साल 2019 में आरटीआई एक्ट में हुए संशोधन के अनुसार सूचना आयुक्त की सैलरी और उनके कार्यकाल और पेंशन तय किए जाएंगे। हालांकि इसके बावजूद ये पद अब तक खाली ही पड़ा हुआ है।
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनिशिएटिव के निदेशक वेंकटेश नायक कहते हैं, ‘जो भी लोग सूचना आयुक्त बनते हैं या बनाए जाते हैं उन्हें चुनते हुए ये देखा जाना चाहिए कि उन्होंने पारदर्शिता को लेकर कितना काम किया है, या फिर वो इसके कितने समर्थक रहे हैं। लेकिन होता ये है कि सरकार के ‘यस बॉस’ लोगों को पद मिलते हैं। कई ऐसे राज्य हैं जहां सूचना आयुक्त का पद उन लोगों को दे दिया गया जो पहले सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े थे, उन्होंने पार्टी से इस्तीफ़ा दिया और आयुक्त बना दिए गए।’
वेंकटेश नायक पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त उदय माहुरकर के उस बयान का जि़क्र करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि दिल्ली के मस्जिदों के इमाम को सरकार की ओर से मिलने वाली तनख्वाह देश में ‘गलत मिसाल’ पेश कर रही है।
नायक कहते हैं कि किसी शख़्स का इस पर पर बने रहते हुए इस तरह का बयान देना किसी भी सूरत में सही नहीं है।
वो कहते हैं, ‘आरटीआई इकलौता ऐसा कानून है जहां सरकार को कानून का पालन करना है बाकि सभी कानून आम जनता के लिए बनाए जाते हैं। साल 2005 में ये कानून तो आ गया लेकिन इसे लेकर सरकारों में कभी भी कड़ायी से लागू करने की मंशा नहीं रही और 2014 के बाद से ये मंशा और भी कम होती गई है।’
केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति एक पैनल के सुझाव पर राष्ट्रपति करते हैं। पैनल में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और एक कैबिनेट मंत्री होते हैं। ठीक इसी तरह राज्यों के सूचना आयुक्त को राज्यपाल मुख्यमंत्री, कैबिनेट के मंत्री और विपक्ष के नेता की पैनल के सुझाव पर चुनता है।
दो हालिया संशोधन जिसने इस क़ानून को कमज़ोर किया
साल 2019 में जब नरेंद्र मोदी दूसरी बार सत्ता में आए तो उनकी सरकार ने आरटीआई एक्ट में सबसे अहम संशोधन किया। साल 2005 में आए आरटीआई क़ानून में आयुक्त और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल तय किया गया था और उन्हें मिलने वाली तनख्वाह मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के बराबर रखी गई थी।
राज्यों के सूचना आयुक्तों की तनख्वाह राज्य के चुनाव आयुक्तों जितनी थी। लेकिन 2019 में ये नियम बदल दिया गया और ये अधिकार सरकार के पास आ गया। यानी अब केंद्र और राज्य सरकार ये तय करती है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन कितना होगा और उन्हें कितनी पेंशन मिलेगी इसका फ़ैसला भी केंद्र और राज्य सरकार करती है।
इसके बाद साल 2023 में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल आया जिसके बाद आरटीआई के तहत किसी ऐसे व्यक्ति की जानकारी नहीं हासिल की जा सकती ‘जिसका सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध नहीं है।’ यानी अगर कोई किसी व्यक्ति विशेष की जानकारी चाहता है तो ये तब तक नहीं दिया जा सकता जब तक यह ‘देश हित’ का मामला ना सिद्ध हो।
अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि तीन स्तर पर आरटीआई क़ानून को कमज़ोर किया जा रहा है। पहला है संशोधन लाकर, दूसरा है देशभर में आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले करके और तीसरा है इससे जुड़ी संस्था को कमज़ोर करके। यानी सीआईसी को इस तरह कर दिया जाए कि वो लगभग ना के बराबर काम करने लगे, यहां आने वाले मामले सालों साल पड़े रहे।
आरटीआई कानून में ऐसी कोई समय अवधि तय नहीं है कि कितने वक्त में सूचना आयुक्तों को शिकायतों पर फैसला लेना होगा
इसलिए सालों साल ये शिकायतें पड़ी रहती हैं, और जब तक सीआईसी किसी शिकायत पर फ़ैसला नहीं लेता आरटीआई दायर करने वाला व्यक्ति कोर्ट के पास भी नहीं जा सकता। यानी कुल मिला कर सीआईसी की भूमिका सरकार से सूचना पाने के लिए बेहद अहम है।
अंजलि भारद्वाज और सेवानिवृत्त कमांडर लोकेश भारद्वाज ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में हो रही देरी के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है।
इस मामले की 30 अक्टूबर को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राज्य और केंद्र के सूचना आयोग में 31 मार्च 2024 तक कितने पद खाली होने वाले हैं उनकी रिपोर्ट तैयार की जाए और कितनी शिकायतें यहां पड़ी हुई हैं उसका ब्यौरा कोर्ट को दिया जाए। साथ ही राज्यों और केंद्र के आयोग में पदों को भरने के लिए ज़रूरी कदम उठाए जाए। (bbc.com/hindi/)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
महानगरों में प्रदूषण पर वैश्विक नजऱ रखने वाली एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संस्था के सर्वे में दिल्ली का प्रदूषण विश्व में नंबर एक पर पहुंच गया है। यह भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार और आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार, दोनों के माथे पर कलंक की तरह है। दिल्ली की कमान पूरी तरह अपने हाथ में लेने के लिए यह दोनों दल एक दूसरे के साथ कभी हाई कोर्ट और कभी सुप्रीम कोर्ट में लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन इस कलंक के लिए वे एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालेंगे।
दिल्ली के अलावा विश्व के सबसे ज्यादा प्रदूषित पांच महानगरों में भारत के कोलकाता और मुंबई के भी नाम हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि टॉप पांच में तीन हमारे शहर हैं। इसका अर्थ यह भी है कि प्रदूषण नियंत्रण के मानले में दिल्ली पर आधा आधा राज करने वाली भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी ही दोषी नहीं हैं बल्कि तृणमूल कांग्रेस पार्टी , शिंदे गुट की शिव सेना और अजित पवार समूह की एन सी पी जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी बराबर की दोषी हैं। यदि इस सर्वे में सौ दो सौ शहरों को शामिल किया जाता तो निश्चित रुप से इसमें बैंगलोर, चेन्नई और हैदराबाद आदि शहर भी आसानी से शामिल हो जाते क्योंकि प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण संरक्षण के मामले में कोई भी राजनीतिक दल जरा भी चिंतित दिखाई नहीं देता।
अगर दिल्ली की बात करें तो दिल्ली में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण निजी वाहनों की निरंतर बढ़ती भीड़ है जिसने दिल्ली की तमाम कॉलोनियों की सडक़ों को लगभग अतिक्रमित कर लिया है। केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को एक दूसरे को नीचा दिखाने से फुरसत मिले तो उन्हें साथ बैठकर इस जानलेवा समस्या से निजात पाने की कोशिश करनी चाहिए कि दिल्ली की सडक़ों पर डीजल और पेट्रोल से चलने वाले निजी वाहनों की भीड कैसे कम हो और उसकी जगह कैसे लोगों की पहली पसंद मेट्रो और सी एन जी से चलने वाली बसें बनें।
दिल्ली के आकाओं को कुछ कड़े फैसले भी लेने चाहिएं, मसलन पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी स्कूल कॉलेज केवल सी एन जी बसों के माध्यम से ही आएं। अभी दीपावली भी नजदीक है। यदि अभी यह हाल है तब दीपावली के बाद क्या स्थिति होगी यह कल्पना की जा सकती है। यदि दीपावली पर पटाखे नही जलाने की नसीहत दी जाए तो इस पर बहुत से लोगों की धार्मिक भावनाओं के भडक़ने का खतरा रहता है इसलिए वोट बैंक खिसकने के भय से सरकार ऐसे कदम उठाने का साहस नहीं कर पाती जबकि जनहित में इस तरह के निर्णय अत्यन्त आवश्यक हैं।
जिन कार्यों को सरकार आसानी से कर सकती हैं उनमें मेट्रो की ज्यादा फ्रिक्वेंसी बढ़ाकर और उसके किराए कम करने से काफी लोगों को मैट्रो में सफर करने के लिए आकर्षित जा सकता है।
सरकारी कॉलोनियों से फ्री सीएनजी चार्टर्ड बस सेवा चलाकर भी सरकारी और निजी वाहनों के चालन में काफी कमी आ सकती है। एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन से अधिक से अधिक शेयर्ड टैक्सी सुविधाएं शुरू की जा सकती हैं। सबसे ज्यादा आवश्यकता व्यापक जागरूकता अभियान चलाकर लोगों को यह समझाना जरूरी है कि दिनोदिन बढ़ता प्रदूषण विशेष रूप से घर के बुजुर्गों और बच्चों के स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह बेहद चिंता का विषय है कि केवल दिल्ली, कोलकाता और मुंबई आदि महानगर ही नहीं धीरे धीरे पूरा देश ही सर्वाधिक प्रदूषित देश होने की तरफ बढ रहा है।
डीजल पेट्रोल के वाहनों की बढ़ती संख्या के साथ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शुरु हुआ पराली जलाने का अभियान धीरे धीरे मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी तेजी से पैर पसार रहा है। देर सवेर इंदौर और भोपाल जैसे मध्यम वर्ग के शहर भी महानगरों की गति को प्राप्त होते दिखाई दे रहे हैं। समय रहते हुए राष्ट्रीय स्तर पर वृहद स्तर पर कारगर उपाय ही हमें प्रदूषण के दुष्प्रभाव से बचा सकते हैं ।
-नासिरुद्दीन
फल्म निर्देशक करण जौहर के शो ‘कॉफ़ी विद करण’ में अपने पति रणवीर सिंह के साथ शामिल हुईं दीपिका पादुकोण ने अपने दिल की वे बातें साझा कीं, जो अब तक सार्वजनिक नहीं की थी।
दरअसल एक स्त्री के तौर पर दीपिका ने वह सब कहा जो जो पितृसत्तात्मक मूल्यों के पैमाने पर खरा नहीं उतरता है। इसके बाद सोशल मीडिया पर हंगामा हो गया, दीपिका को भला-बुरा कहा जाने लगा। उनके चरित्र पर सवाल उठाए जाने लगे।
इस मामले से एक बार फिर साबित हो गया कि हमारे समाज के एक तबके के लिए लड़कियों का अपने दिमाग़ से सोचना और उसे कह देना, नाक़ाबिले बर्दाश्त होता है।
दीपिका ने इस शो में अपने और रणवीर के कऱीब आने के समय को याद किया। इसी दौरान उन्होंने बताया कि शुरुआत में वे इस रिश्ते के बारे में गंभीर नहीं थीं। प्रतिबद्ध नहीं थीं। उस वक्त उनकी मानसिक हालत ऐसी नहीं थी कि वे किसी रिश्ते के साथ प्रतिबद्ध हों।
दीपिका ने बताया कि तब वे भी अकेली थीं। रणवीर भी एक रिश्ते से बाहर आए थे। इसी दौर में रणवीर उनकी जिंदगी में आए। शुरुआत में उन्हें लेकर कोई कमिटमेंट नहीं थी। यानी वे एक-दूसरे के प्रति ही प्रतिबद्ध नहीं थे। वे किसी और के साथ भी दोस्ती कर सकते थे या ‘डेट’ पर जा सकते थे। हालाँकि, इसके बाद भी वे बार-बार एक दूसरे के पास ही लौट कर आते।
दीपिका बताती हैं कि वे कुछ लोगों से मिलीं भी। यानी ‘डेट’ पर भी गईं। हालाँकि, उनमें न तो दीपिका की दिलचस्पी जगी। न ही उनको लेकर वे उत्साहित थीं। न ही उस वक़्त वे प्रतिबद्ध ही थीं।
ट्रोल ने क्या कहा और क्या किया?
वे कहती हैं, ‘दरअसल दिमागी तौर पर मैं रणवीर के लिए प्रतिबद्ध थी।’ उन्होंने अंग्रेजी में एक बात कही। उसका शाब्दिक अर्थ यह निकलता है कि ‘भले ही मेरा शरीर किसी और पुरुष के साथ हो, लेकिन मेरी रूह हमेशा रणवीर के साथ थी।’
दीपिका का यह कहना कि वे ‘जब रणवीर के साथ दोस्ती शुरू कर रही थीं, उस वक्त उनके कई और लोगों से भी दोस्ती थी’, उनके लिए बवाले जान बन गया।
सोशल मीडिया पर उनका मजाक बनाया जाने लगा। उनके चरित्र पर उँगलियाँ उठाई जाने लगीं। उन्हें ‘अच्छी लडक़ी’ की श्रेणी से बाहर माना जाने लगा।
सोशल मीडिया पर ट्रोल की जमात में किसी ने कहा कि वे ढोंगी हैं। वे डिप्रेशन/अवसाद की बात कर अपने लिए सहानुभूति बटोरना चाहती हैं। जब उनकी इच्छा होती थी तो वे किसी और के साथ यौन संबंध बना लेती थीं। रणवीर उनके लिए महज़ एक विकल्प थे। वे अवसरवादी हैं। उनके पुराने इंटरव्यू निकाले जाने लगे। उनके पुराने रिश्तों की पड़ताल की जाने लगी। उनका किन-किन पुरुषों से रिश्ता रहा है, यह बताया जाने लगा। उन्हें अपमानजनक यौनिक शब्दों से नवाज़ा जाने लगा।
कहा गया कि वह शादी में प्रतिबद्ध नहीं हैं। शादी के रिश्ते के बाहर यौन संबंध की वकालत करने वाली हैं। ऐसे लोग किसी के प्रति ‘वफ़ादार’ नहीं होते। उनके लिए रिश्ता महज़ ‘मज़े’ के लिए है। ऐसे ही लोग व्यभिचार/ बेवफ़ाई को स्त्री सशक्तीकरण बताते हैं।
मज़ाक उड़ाते हुए उनके मीम बनाए गए। ऐसे भी मीम बनाए गए जिनमें दीपिका की लानत-मलामत तो थी ही, उनकी निजी जिंदगी पर भी टिप्पणियाँ थीं।
रिश्ते के बारे में बात करना ग़लत है?
सवाल है, रिश्तों के बनने-बिगडऩे के बीच जिंदगी के उतार-चढ़ाव के बारे में बात करना गलत कैसे हो सकता है। फिल्म के कलाकार बहुतों के लिए प्रेरणा होते हैं। वे उनकी बातें ध्यान से सुनते हैं।
आमतौर पर रिश्तों के टूटने-बिखरने से उपजे अवसाद पर बात करना अच्छा नहीं माना जाता। दीपिका अगर इस पर बात कर रही हैं तो यह बहुतों के लिए इससे उबरने की राह दिखाने जैसा है। दीपिका अवसाद पर खुलकर बोलती और काम करती रही हैं। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। हमारे समाज में रिश्ता/रिश्तों के बारे में बात करने का पैमाना लडक़े और लड़कियों के लिए अलग-अलग है। एक लडक़े के लिए अपने रिश्तों के बारे में बात करना, उसकी मर्दानगी से जोड़ कर देखा जाता है। उसे लोगों की आलोचना की कड़ी निगाहों से नहीं गुजरना पड़ता है। जो बातें दीपिका ने कही, अगर वही बातें रणवीर ने कही होती, तो क्या रणवीर को भी उसी तरह ट्रोल किया जाता? शायद नहीं किया जाता। शायद उस पर तवज्जो भी नहीं दी जाती। हम चाहें तो ऐसे उदाहरण तलाश सकते हैं।
डरी हुई पितृसत्ता की प्रतिक्रिया?
सवाल है, दीपिका ने जब शारीरिक रूप से किसी और के साथ होने की बात की तो उसका अर्थ क्या है?क्या शारीरिक रूप से साथ होने का मतलब महज सोना ही है? यह तो अंग्रेजी का मुहावरेदार इस्तेमाल भी हो सकता है।
मुमकिन यह भी है कि न हो और उसका मतलब वही हो, जो ट्रोल कह रहे हैं। तब भी बड़ा सवाल तो है कि स्त्री के शरीर पर अधिकार किसका होगा? स्त्री अपने शरीर का क्या करेगी, यह कौन तय करेगा? क्या यह तय सोशल मीडिया के मर्दाना ट्रोल करेंगे?
अगर एक लडक़ी तीन-चार लडक़ों में से अपने लिए सबसे बेहतर साथी की तलाश कर रही हो तो क्या यह ग़लत है? जब शादियाँ तय करके की जाती हैं तो क्या लडक़े कुंडली, खानदान, पैसा देखकर कई लड़कियों के बीच से एक लडक़ी का चयन नहीं करते?
यहाँ मसला महज चयन का नहीं है। मसला यौन शुचिता का है। मसला है, यौन रिश्ता। स्त्री की यौन आज़ादी हमेशा से मर्दाना समाज को डराती रही है। वह यह ख़्वाहिश पाले रहता है कि शरीर तो स्त्री का हो, लेकिन कब्जा या मिल्कियत उसकी यानी मर्द की हो।
इसीलिए जब लडक़ी या स्त्री कई पुरुषों से दोस्ती की बात करती है तो उसके कान खड़े हो जाते हैं और वह हवलदारी करने लगता है। कहीं इस चुनाव में लडक़ी ने यौन संबंध तो नहीं बनाए? यही खटका, पितृसत्ता को चुनौती देने लगता है और उसे परेशान करता है। वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाता।
स्त्री का यौन जीवन और पुरुष का यौन जीवन एक ही पैमाने पर नहीं तौला जाता है। स्त्री का सम्मान, इज़्ज़त, चरित्र, सब कुछ यौन जीवन में समेट दिया जाता है। दीपिका के साथ भी ऐसा ही हुआ। मर्दाना ट्रोल समाज असल में दीपिका की बात से डर गया। उसे एक अनजाना खौफ सताने लगा।
अगर लड़कियाँ अपने यौन अधिकार और आजादी का बेखौफ इस्तेमाल करने लगीं तो क्या होगा? कहीं उनके जीवन में आने वाली लड़कियों ने ऐसा किया तो क्या होगा? तो यह एक डरी हुई पितृसत्ता की प्रतिक्रिया भी है।
दीपिका और अनुष्का जैसे बॉलीवुड स्टार कहाँ लगा रहे हैं आजकल अपनी मोटी कमाई का पैसा
ट्रोल्स की मर्दानगी
एक और दिलचस्प बात ट्रोल की तरफ से हुई। जब दीपिका पादुकोण अपनी जिंदगी और रिश्तों के बारे में बात कर रही थीं तो उनके साथ उनके बगल में रणवीर बैठे थे। तो कइयों ने रणवीर के मन की बात भी पढ़ ली। उन्होंने बातचीत के वीडियो में रणवीर के चेहरे के उतरते हाव-भाव में बेचैनी, अटपटापन और नापसंदगी भी देख ली।
यही नहीं, ट्रोल के एक तबके ने तो यहाँ तक कहा कि चूँकि रणवीर यह सब सुन रहे हैं, इसलिए वे ‘जोरू का ग़ुलाम’ हैं। यानी एक पुरुष अपनी महिला साथी की पिछली दोस्ताना जिंदगी के बारे में सुनकर चुपचाप कैसे बैठा रहा? एक असली मर्द यह सब कैसे बर्दाश्त कर सकता है?
यह तो ‘मर्दानगी के मूल्यों और पैमाने’ के ख़िलाफ़ बात है। उसे तो अपनी महिला साथी को सबक सिखा देना चाहिए।
अगर कोई मर्द ऐसा नहीं करता और अपनी दोस्त को इतनी जगह देता है कि वह खुलकर अपनी बात कह सके, अपने पुरुष दोस्तों के बारे में या पिछली दोस्तियों के बारे में बात कर सके तो ट्रोल की नजर में वह असली मर्द नहीं बल्कि ‘जोरू का ग़ुलाम’ है।
अपने दिमाग का इस्तेमाल करतीं लड़कियाँ
इससे पता चलता है कि हमें बोलती हुई अपने दिमाग से बोलती हुई लडक़ी या स्त्री पसंद नहीं है। उसका बोलना मर्दाना समाज को अपमान लगता है।
दीपिका अक्सर अपने दिमाग़ से बात करती हैं। अपने मन का करती हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहती कि लोग क्या कहेंगे।
यहाँ यह याद दिलाना बेमानी नहीं होगा कि जब जेएनयू के विद्यार्थियों के आंदोलन में एक दिन दीपिका अपना खामोश समर्थन देने पहुँच गई थीं। उस वक्त भी उन्हें काफी ट्रोल किया गया था। इस बार अपने विचार जाहिर करने की वजह से ऐसा ही हुआ।
बेहतर होगा कि मर्द, स्त्रियों की जि़ंदगी में ताक-झाँक करने की आदत छोड़ें। उनकी बातें सुनने की आदत डालें। उन्हें महज एक शरीर और यौन शरीर समझना छोड़ दें। बस इतना करें। इससे कई चीज़ें दुरुस्त हो जाएँगी। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
चुनावों से ऐन पहले सरकारों द्वारा विभिन्न वर्गों के खातों में रकम जमा करने और मुफ्त की सुविधाओं की योजनाएं शुरु करने के खिलाफ भट्टूलाल जैन की याचिका पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश की बैंच ने केन्द्र सरकार, केंद्रीय निर्वाचन आयोग और मध्य प्रदेश एवम राजस्थान सरकार को नोटिस जारी किया है।
मध्यप्रदेश और राजस्थान में इसी साल नवम्बर में चुनाव हैं और अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं इसलिए केन्द्र और इन दो राज्यों की सरकार ने वोट लुभाने के लिए कई ऐसी योजनाएं शरू की हैं या उनकी घोषणा की है जिनमें कर दाताओं से उगाहे कर और कर्ज लेकर सरकार द्वारा विभिन्न वर्ग के लोगों को दनादन आर्थिक लाभ दिया जा रहा है। इस मुद्दे पर वैसे तो प्रधानमंत्री भी मुफ्त की रेवडिय़ां कहकर आप जैसे दलों की आलोचना करते हैं लेकिन मध्यप्रदेश में उनके दल की सरकार रेवडिय़ां बांटने के मामले में और भी ज्यादा आगे है। तमाम राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं लेकिन खुद भी वही सब कर रहे हैं। इधर कुछ वर्षों से यह रोग बढ़ता ही जा रहा है। मुफ्त की चीजों में नए नए आइटम जुड़ रहे हैं। फ्री राशन और फ्री बिजली एवं पानी के बाद शादी में सोना, नकद रुपए, फ्री वाईफाई, मोबाइल, लैपटॉप, साइकिल, स्कूटी, आदि से महिलाओं, विद्यार्थियों और अन्य वर्ग के लोगों को लुभाया जा रहा है। इधर मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने पत्रकारों के लिए भी कई घोषणाएं की हैं ताकि मीडिया से जुड़े लोगों को भी लालच से प्रभावित किया जा सके।चुनावी वर्ष में चुनाव के नोटिफिकेशन के पहले आचार संहिता नहीं होती। सत्ता लोलुप राजनीतिक दल बेरोकटोक इसी का लाभ उठाते हैं ताकि लालच में फंसकर लोग उन्हें ही सत्ता सौंपे।
चुनाव पूर्व रियाउतो में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों में कड़ी प्रतिस्पर्धा भी होती है। राजस्थान सरकार द्वारा गैस सिलेंडर सस्ता किए जाने पर केन्द्र सरकार ने भी पहली बार रसोई गैस की कीमत एक झटके में दौ सौ रुपए कम की है और काफी समय से अक्सर बढऩे वाले डीजल-पेट्रोल के दाम स्थिर रखे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सामने लंबित याचिका में यह आग्रह है कि सरकारों द्वारा करदाताओं के धन को वोटों के लिए लालच देकर खर्च करना बंद होना चाहिए।यह लोकतंत्र और स्वस्थ समाज निर्माण के लिए बहुत जरूरी है।सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार,केंद्रीय चुनाव आयोग एवम मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकार इस मुद्दे पर क्या राय जाहिर करते हैं इस पर भी सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय निर्भर करेगा। केंद्र सरकार और राजस्थान सरकारों के जवाब से क्रमश: भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी का मत भी मालूम चल जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को भी अपने विचार दाखिल करने की छूट देनी चाहिए।
करदाताओं के संगठनों को भी इस मुद्दे पर लंबित याचिका से जुडऩे की कोशिश करनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे देश में व्यापारियों के तो कई संगठन हैं लेकिन आयकर दाताओं और जी एस टी देने वाले का कोई मजबूत संगठन नहीं है। यही कारण है कि बड़ा वोट बैंक होने के बावजूद इस महत्त्वपूर्ण वर्ग की कोई सुनवाई नहीं होती। संवेदनशील मीडिया को देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस और इण्डिया गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों से भी इस मामले में उनकी राय मालूम करनी चाहिए। देश के तमाम प्रबुद्धजनों को भी सोशल मीडिया सहित हर उपलब्ध प्लेटफार्म पर ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए जिससे मुफ्त का लालच देकर सत्ता हासिल करने वाले राजनीतिक दलों को यह मालूम पड़े कि उनकी इस चाल को जनता पहचान रही है और इसके खिलाफ एक राष्ट्रीय जन आंदोलन खड़ा हो रहा है।
दीपाली अग्रवाल
बालों में स्कार्फ बांधे जा रही इस लडक़ी का नाम है छोटी बी, मैंने पूछा ऐसा नाम क्यों है तो बोली कि मां ने रखा था ये नाम। ये स्कूल जाती है, पहली क्लास में है और 20 तक गिनती जानती है। इन दिनों इसके स्कूल की छुट्टी है क्योंकि टीचर के पिता नहीं रहे।
ये मेरे पास पैसे मांगने आई थी, मैंने पास बैठने को कहा तो सहजता से बैठ भी गई और पैसे की बात भूल गई। इसकी मां मर चुकी हैं और पिता किसी और प्लेटफॉर्म पर पैसे मांगते हैं। पूछने पर कि ये दिन भर क्या करती है तो बोली कि पैसे ही मांगती है। यह जीवन भर पैसे नहीं मांगना चाहती, पर क्या करना चाहती है ये भी इसे नहीं पता। बात करते समय इसकी निगाहें कुछ ढूंढ रही थीं, पैसे या अपना भविष्य मैं नहीं बता सकती। किसी महिला की गोद में एक बच्चे को देख कर इसकी आंखें चमक उठीं। ये शायद अपनी मां को बहुत याद करती है, इसने कई बार उनका जिक्र किया।
ट्रेन की सीटी बजी तो इसे याद आया कि पैसे मांगने आई थी, यह वापस उसी धुन पर लौट आई। ट्रेन की सीटी सबके लिए एक जैसी नहीं होती, मुझे पहली बार उस ध्वनि में अलग-अलग संवेदनाएं सुनाई दीं। कितने यात्री, कितनी तरह की यात्राएं एक साथ कर रहे हैं। कोई बीमार से मिलने जाता है, कोई मृत के आखिरी दर्शन को, कोई घूमने जाता है तो कोई भाग रहा होता है स्मृतियों और अतीत से। इस बार यह हॉर्न सबसे क्रूर था। एक ट्रेन की सीटी ने एक छोटी बच्ची को उसके स्वप्न से जगा दिया और यथार्थ में ला दिया। वह पैसे नहीं मांगना चाहती की स्थिति से पैसे दे दो मुझे कुछ खाना है तक आ गई।
‘क्या तुम्हारे साथ एक तस्वीर ले लूं’ मैंने पूछा
उसने आंखों से हां कहा था, मुझे कुछ देर देखा और जाने क्या सोचकर ना में सिर हिला दिया। ठीक उस ट्रेन की सीटी की तरह जो कितनी बातों को ना कह देती है अचानक।
छोटी बी!
बड़ी आंखों वाली एक लडक़ी थी,
मुझे नवंबर की सुबह मथुरा से दिल्ली जाते समय मिली।
ऐसी कितनी ही छोटी होंगी
प्लेटफॉर्म पर पैसे मांगती
जो कुछ बड़ा करना चाहती होंगी
रेल की पटरी के साथ दौड़ते होंगे उनके स्वप्न
पर हर बार एक सीटी से
लौट आता होगा यथार्थ
यथार्थ कि,
कुछ लड़कियों के माथे पर
ना आंचल होता है ना परचम।
जुगल आर पुरोहित
पहाड़ी राज्य मिज़ोरम में नई सरकार चुनने के लिए कुछ दिनों में ही मतदान होने वाला है। जिन लोगों से मैं मिला और बात की वो लोग इसको लेकर उत्साहित हैं।
मिजोरम की राजधानी आइजोल में सर्दियों ने दस्तक दे दी है। यहां की सुबहें और शामें ठंडी होती जा रही हैं। दिन में भी गर्मी नहीं लगती हैं।
हालाँकि हैरान करने वाली बात यह है कि यहां रोड शो, दीवारों पर लगे उम्मीदवारों के पोस्टर, जोरदार चुनाव प्रचार, घर-घर जाकर प्रचार करने वाले नेता या सार्वजनिक स्थानों पर पार्टी के झंडे लगाने वाले कार्यकर्ताओं में से कोई भी यहां दिखाई नहीं दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि मिज़ोरम की 40 सदस्यीय विधानसभा का चुनाव कर्फ्यू के बीच हो रहा है।
तो आखिर कैसे चुनाव हो रहा है?
समाज और राजनीतिक दलों में समझौता
नागरिक समाज, चर्च के संगठनों और राजनीतिक दलों के बीच 2008 में पहली बार एक समझौता हुआ था। पांच पेज का यह समझौता यहां चुनाव संचालन का मार्गदर्शन करता है।
इस समझौते का मुख्य उद्देश्य धन और बाहुबल के प्रभाव को कम करके स्वच्छ चुनाव सुनिश्चित करना है। यह सुनिश्चित करने के लिए, राज्य चुनाव आयोग वास्तव में प्रक्रिया का संचालन करता है। लेकिन यहां का नागरिक समाज अधिकारियों के साथ मिलकर काम करता है।
आइए इसका एक उदाहरण देखते हैं। दी मिज़ोरम पीपुल फोरम (एमपीएफ) चुनाव क्षेत्रों में ‘साझा मंच’ कार्यक्रम आयोजित करता है, इसमें उम्मीदवार बारी-बारी से मतदाताओं के सामने अपनी बात रखते हैं।
इस दौरान कभी-कभार वोटरों को भी उनसे सवाल पूछने का मौका मिल जाता है। हम एक ऐसे ही कार्यक्रम में शामिल हुए।
ये कार्यक्रम आमतौर पर शाम को आयोजित किए जाते हैं, ताकि लोग अपना कामकाज निबटा कर इसमें शामिल हो सकें।
वर्दीधारी स्वयंसेवक नागरिकों को सीटें ढूंढने से लेकर उम्मीदवारों को उनके लिए आवंटित स्लॉट बताने तक में मदद करते हैं। व्यवस्था और पारदर्शिता लाने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाता है।
समझौते में यह भी तय किया गया है कि राजनीतिक दल बैठक स्थल और कार्यालयों में कितने बैनर और पोस्टर लगा सकते हैं।
एमपीएफ के महासचिव रेव लालरामलियाना पचुआउ से मैंने पूछा कि यदि कोई उम्मीदवार इस समझौते का उल्लंघन करता है या कोई नागरिक प्रलोभन स्वीकार करता है तो क्या होगा?
इस सवाल पर वो कहते हैं, ‘हम ऐसे उल्लंघनों का प्रचार करते हैं ताकि मतदाताओं को पता चले।’
एक पार्टी के एक उम्मीदवार ने हमें बताया, ‘एमपीएफ कभी-कभी परेशान करने वाला हो सकता है, लेकिन वे कारगर भी हैं।’
क्या है मिजोरम चुनाव का मुद्दा
राज्य के अधिकांश लोग ईसाई धर्म मानते हैं। पूरी आबादी 10 लाख से थोड़ी ज्यादा है। यहां की 94 फीसदी आबादी आदिवासी हैं। यह संख्या पूरे देश में सबसे अधिक है।
विश्लेषकों ने हमें बताया कि मिज़ोरम जिसकी सीमा बांग्लादेश, म्यांमार और अशांत भारतीय राज्य मणिपुर से लगती है, यहां चुनाव आमतौर पर स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते रहे हैं। लेकिन इस बार चीजें अलग हैं।
प्रोफेसर जांगखोंगम डोंगेल मिजोरम विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। उन्होंने मुझे समझाया, ‘जातीय मुद्दे जो राज्य के बाहर हमारी संबंधित जनजातियों को प्रभावित करते हैं, उनका भी प्रभाव पड़ेगा। मणिपुर में भाजपा की सरकार है और अल्पसंख्यक समुदाय के साथ जो किया गया है, वह मतदाताओं के दिमाग में होगा। इसलिए यह स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का मिश्रण है, जो परिणाम तय करेगा।’
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस साल मई से मणिपुर में हुए संघर्ष की वजह से करीब 12 हज़ार आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्ति (आईडीपी) मिजोरम आए हैं। वहीं म्यामार में 2021 में हुए तख्तापलट के बाद करीब 32 हजार शरणार्थी मिजोरम आए हैं।
सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर दरारें पहले ही सामने आ चुकी हैं।
मुख्यमंत्री ने बनाई प्रधानमंत्री से दूरी
मिज़ोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने बीबीसी के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने की संभावना से इनकार किया। प्रधानमंत्री मोदी की रैली मिजोरम में होने वाली थी, जो रद्द कर दी गई।
राजधानी आइजोल स्थित अपने आवास में उन्होंने मुझसे कहा, ‘मिजोरम के सभी लोग ईसाई हैं और जब वे देखते हैं कि मैती ने (मणिपुर में) सैकड़ों चर्चों को जलाकर क्या किया, ऐसे में भाजपा के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति मेरी पार्टी के लिए बहुत बड़ा नकारात्मक बिंदु है।’
जोरमथांगा ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि शरणार्थियों और आईडीपी के स्वागत की वजह से चुनाव में उनके लिए बहुत अच्छे परिणाम आएंगे।
अन्य दलों के प्रत्याशियों ने भी अपनी योजनाओं को बताने के साथ-साथ बीजेपी पर हमला बोला।
जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) एक स्थानीय संगठन है। यह जोरमथांगा की पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) को चुनौती दे रहा है। रविवार शाम पार्टी के प्रचार कार्यक्रम के बाद विधायक डॉ.वनलालथलाना ने हमसे कहा कि मणिपुर में जो हुआ, उसे देखते हुए भाजपा के साथ चुनाव के बाद गठबंधन का सवाल ही नहीं उठता है।
कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष और उम्मीदवार लालनुनमाविया चुआंगो ने राजधानी आइज़ोल में हमसे मुलाकात की।
उन्होंने कहा, ‘हमारी धार्मिक स्वतंत्रता और जातीय पहचान की सुरक्षा को भाजपा से ख़तरा है। एमएनएफ़ बीजेपी की सहयोगी पार्टी है और जेडपीएम बीजेपी के साथ मिलकर काम करने जा रही है। इसलिए मतदाताओं से हमारा कहना है कि ये दोनों पार्टियां ठीक नहीं हैं।’
मिजोरम में बीजेपी की उम्मीदें क्या-क्या हैं?
वहीं भाजपा को नहीं लगता कि मिजोरम में मणिपुर कोई मुद्दा हो सकता है।
हमारी मुलाकात केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू से हुई। वो मिजोरम में भाजपा के चुनाव प्रभारी भी हैं। वो आइजोल में डेरा डाले हुए हैं।
वो कहते हैं, ‘यहां हर कोई समझता है कि यह भाजपा ही है जो मणिपुर में जो कुछ हुआ है उसे सुलझाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस और अन्य लोग हमें स्थानीय लोगों की संस्कृति को ख़तरे में डालने वाली हिंदू पार्टी बता रहे हैं, जो कि झूठ है। इस प्रचार के कारण गांवों में कई लोग हमसे नहीं जुड़ रहे हैं। फिर भी हम अपनी सीटें अधिकतम करने की कोशिश कर रहे हैं। हम किसी क्षेत्रीय पार्टी से हाथ मिलाने के भी खिलाफ नहीं हैं।’
विधानसभा में बीजेपी का एक ही विधायक है, इस बार उसने उम्मीदवार भी कम ही उतारे हैं।
उत्तर-पूर्व भारत के सभी राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगियों की सरकारें हैं। इस चुनाव में इसका मुख्य वादा मोदी की अपील पर आधारित है।
कैसी है मिजोरम के स्कूलों और सडक़ों की हालत
आइज़ोल शहर के केंद्र से करीब 20 मिनट की ड्राइव कर हम लालनुनमावी और उनके पति जिमी लालराममाविया के घर पहुंचे। जिमी एक टैक्सी ड्राइवर हैं और लालनुनमावी एक गृहिणी हैं।
इस दंपति का सपना है कि वो अपने बच्चों को भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) जैसी विशिष्ट सरकारी सेवाओं में शामिल होते देखें।
जिमी ने कहा, ‘वो अपनी अच्छी देखभाल करने के अलावा समाज में भी योगदान देंगे।’ यह कहते हुए जिमी के चेहरे पर फीकी लेकिन गर्वीली मुस्कान थी।
लालनुनमावी ने मुझसे कहा, ‘यहां के सरकारी स्कूलों की हालत खराब है। निजी स्कूल अच्छे हैं। लेकिन अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना महंगा है। हम चाहते हैं कि सरकार अपना काम ठीक से करे ताकि हम अपने बच्चों को बेहतर खाना खिला सकें और उनकी अन्य ज़रूरतों का ख्याल रख सकें।’
अनियमित बिजली आपूर्ति और सडक़ों की खराब स्थिति उन्हें परेशान करने वाला एक और मुद्दा था। जिमी ने कहा, ‘एक टैक्सी ड्राइवर के रूप में, बाद वाला मुद्दा मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।’
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि साक्षरता दर के मामले में मिज़ोरम देश में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में से एक है। इसके अलावा सुव्यवस्थित यातायात प्रबंधन के कारण, मिज़ोरम में सडक़ दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की दर सबसे कम है।
क्या है युवाओं का मुद्दा
हम आइज़ोल के एक कैफे में पहली बार मतदाताओं के एक समूह से मिले।
25 साल के हदाशी एक गायक हैं और 26 साल के के। लालरेंपुई एक शोध छात्र हैं। दोनों इस बार पहली बार मतदान करेंगे।
मैंने के लालरेंपुई से पूछा कि उनके मन में क्या है। इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘हम कई उम्मीदवारों को देखकर उत्साहित हैं जो युवा पीढ़ी से हैं। जहां तक मुद्दों की बात है तो मुझे लगता है कि रोजगार के अवसरों की कमी एक बड़ा मुद्दा है।’
सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, मिज़ोरम में एक भी महिला विधायक नहीं है।
हदासी कहती हैं कि वे रूढि़वादी व्यवस्था के खिलाफ हैं। वो कहती हैं, ‘यहां हम एक कलाकार या फैशन डिजाइनर या चित्रकार बनना चाहते हैं, लेकिन ज्यादातर माता-पिता हमें सरकारी नौकरी करने के लिए मजबूर करेंगे। हमारे माता-पिता को हमारे सपनों को बर्बाद किए बिना हमारा मार्गदर्शन करने की जरूरत है।’
वो कहती हैं, ‘हम सभी बदलाव चाहते हैं, लेकिन यह तुरंत नहीं आ सकता। अगर यह धीरे-धीरे आता तो ठीक होता।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
इंफोसिस जैसी सफ़ल आई टी कंपनी के संस्थापक नारायण मूर्ति की सोसल मीडिया पर इस बात के लिए काफी आलोचना हो रही है कि उन्होने युवाओं को सप्ताह में सत्तर घंटे काम करने की सलाह दी है। काफी लोग उनके इस बयान को पूजीपतियों द्वारा कामगारों का खून चूसने की प्रवृत्ति तक कह रहे हैं। बहुत कम लोग उनके बयान के बचाव में भी आए हैं। दरअसल नारायण मूर्ति के इस बयान को सही परिपेक्ष्य में गहराई से देखने की जरुरत है। प्रमाणिक दस्तावेजों से पता चलता है कि हम भारतीय लोग प्राचीन समय में मेहनतकश समाज रहे हैं लेकिन कालांतर में ब्रिटिश गुलामी के दौरान हम हीन भावना से ग्रस्त कामचोर और कमजोर समाज बन गए थे। भारतीयों की इसी प्रवृति पर टॉलस्टाय ने गांधी को लिखा था कि तुम्हें यह चिंतन करना चाहिए कि भारतीय समाज ऐसा कैसे बन गया कि उसकी तीस करोड़ की बडी आबादी को दूसरे देश के बीस तीस हज़ार लोगों की सेना भी आसानी से गुलाम बना लेती है!
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर एक साल लगभग सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। उन्होंने महसूस किया कि विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में लोगों में भयंकर आलस और गंदगी के दो बड़े दुर्गुण हैं जो गांवों की बदहाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। इन दो दुर्गुणों की समाप्ति के लिए गांधी ने आज़ादी के आंदोलन के दौरान ग्राम विकास के रचनात्मक कार्यों की लम्बी श्रंखला शुरु की थी जिसे आज भी काफी संस्थाएं और व्यक्ति अपने अपने तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। गांधी युवाओं और महिलाओं के लिए हर हाथ को काम और परिश्रम की कमाई पर बहुत जोर देते थे और पंद्रह घंटे प्रतिदिन काम करके सबके लिए आदर्श उदाहरण स्थापित करते थे। यदि नारायण मूर्ति युवाओं से सप्ताह में सत्तर घंटे यानि दस घंटे प्रतिदिन काम कराना चाहते हैं तो गांधी की कर्मशीलता के सामने तो वह भी काफी कम लगता है। इस लिहाज से तो गांधी की नारायण मूर्ति से भी कड़ी आलोचना करनी चाहिए !
हमने बचपन में प्रगतिशील मेहनती किसानों और खेतिहर मजदूरों को खेतों में बारह घंटे प्रतिदिन से ज्यादा समय तक काम करते हुए देखा है। मुझे खुद भी लगभग बारह घंटे प्रतिदिन काम करने की आदत है। इस लिहाज से युवाओं के लिए दस घंटे प्रतिदिन काम बहुत ज्यादा नहीं लगता। हां इसमें यह संशोधन अवश्य किया जा सकता है कि बहुत ज्यादा शारीरिक और मानसिक मेहनत के कार्यों के लिए यह सीमा आठ घंटे प्रतिदिन के हिसाब से छप्पन घंटे प्रति सप्ताह की जा सकती है।किसी भी देश का भविष्य युवाओं की कार्यशक्ति पर निर्भर होता है। इस दृष्टि से हमारे युवाओं की औसत वैश्विक स्थिति उचित नहीं है। एक तरफ पंद्रह घंटे प्रतिदिन काम करने वाले चंद युवा हैं जो मल्टी नेशनल कंपनियों और अपने स्टार्ट अप में काम करते हैं और निरंतर प्रगति करते हुए अपने क्षेत्रों के शिखरों को छूते हैं लेकिन ऐसे युवाओं का प्रतिशत बहुत कम है। दूसरी तरफ युवाओं की बहुत बड़ी फौज दिन भर हाथ में मोबाइल थामे आवारागर्दी करती हुई दिखाई देती है।
कामचोरी की समस्या हमारे देश की बडी समस्या बनती जा रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि एक तरफ पढ़े लिखे करोड़ों लोग सफेद कॉलर नौकरी के लिए बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ़ पसीना बहाने वाले खेती, किसानी और बागवानी आदि के कार्यों के लिए लोग उपलब्ध नहीं हो रहे। फ्री राशन व्यवस्था ने युवाओं की कामचोरी की आदत को खूब बढ़ावा दिया है। कावड़ उठाने और डी जे पर धार्मिक आयोजनों के जुलूस में नाच गाने के लिए युवाओं में खूब उत्साह दिखाई देता है लेकिन मेहनत मशक्कत के कामों में उनकी बेहद अरुचि है। यह हालात किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए घातक हैं। हमे नारायण मूर्ति के बयान को इस परिपेक्ष्य में भी देखने की जरुरत है।
अपूर्व झा
सोशल मीडिया के एक पोस्ट पर नजर पड़ी। जिसमें रील्स बनाने वाली किसी लडक़ी के शादी का विज्ञापन था। जिसमें लडक़ी की तरफ से मांग थी कि लडक़े का चेहरा फोटोजेनिक होना चाहिए। वो लडक़ी के साथ रील्स बना सके। लडक़े का संयुक्त परिवार ना हो। लडक़े को वीडियो एडिटिंग आनी चाहिए। और कुछ फिल्म या वेब सीरीज का भी जिक्र किया गया था। जिससे समझा जा सके कि लडक़ी को किस तरह का लाइफ पार्टनर चाहिए। इससे सम्बंधित और भी कुछ मांग थी। मुझे ठीक से याद नहीं।
कुछ लोग उस विज्ञापन को सोशल मीडिया पर पोस्ट कर लडक़ी का माखौल उड़ा रहे हंै। और नीचे कमेंट सेक्शन में भी लोग चटकारे लेकर तरह-तरह के कमेंट लिख रहे हैं। जबकि मेरा मानना है कि लडक़ी ने बहुत अच्छा किया कि शादी से पहले ही अपनी सारी प्राथमिकता बता दी। आपको पसंद है तो ठीक, वरना आप अपने रास्ते और लडक़ी अपने रास्ते। मैंने निजी जिंदगी में कई ऐसी शादियां देखी है जिसमें लडक़ी और लडक़े दोनों का जीवन नरक से भी बदतर बना हुआ है। मैं इसकी सबसे बड़ी वजह झूठ के बुनियाद पर हुई, शादी को मानता हूँ। अरे, मेरा लडक़ा कुछ भी खाता-पीता नही है। सुपारी तक नहीं खाता। पचास हजार सैलेरी है। शादी के बाद पता चलता है कि लडक़ा ठीक से बात तक नहीं कर पाता क्योंकि चौबीस घंटे पुडिय़ा मुंह में ठुसे रहता है। शाम होते ही शराब की तलब जग जाती है। पन्द्रह हजार की सैलरी को पचास हजार बता दिया गया था। लडक़ा या लडक़ी पहले से किसी दूसरी महिला या पुरूष से रिलेशनशिप में है। अक्सर ऐसी बातें छुपा ली जाती हैं। आप पार्टी लवर हैं। आपको देर रात तक मौज-मस्ती करना पसंद है। आपको ऐसा लाइफ पार्टनर मिल गया या मिल गई जो शाम सात बजे के बाद घर से बाहर ही नहीं निकलता या निकलती है। आप ओपेन माइंडेड हैं। आपका पति या पत्नी इस वजह से आप सदैव शक करती या करता है।
ऐसे कई कारण है। जिन्हें अरेंज मैरेज में अक्सर बड़े बुजुर्ग छुपा लेते हैं। कई बार तो लव मैरिज में भी लडक़े या लडक़ी कई बातें नहीं बताते। जिसका बाद में पता चलने पर पति-पत्नी में कलह शुरू हो जाती है। चूंकि हमारा समाज पुरुष प्रधान है। इसलिए पहले महिलाओं को ही मन मारना पड़ता था। वो ही अरजेस्ट करती थीं। वक्त बदला, अब महिलाएं भी पुरुषों के बराबर आकर खड़ी हो रही हैं। वो भी अपनी पसंद या नापसंद जाहिर कर रही हैं। इससे आपको क्या दिक्कत है? उसने अपनी पसंद बता दी। आपको पसंद है तो ठीक, वरना आप अपने रास्ते, वो अपने रास्ते।
मैंने गाय बताकर बिहाई गई लड़कियों द्वारा नाक से नीचे एक बीता भर घूंघट लेकर सास-ससुर को ऐसी-ऐसी गालियां, यहाँ तक कि मारते भी देखा है। वहीं ऐसे पुरूष भी देखे हैं जिनके बारे में शादी से पहले बताया गया कि वो हीरा है हीरा और लडक़े ने सारे अवगुणों पर पीएचडी कर रखी है। इससे अच्छी ये लडक़ी है। जिसने पहले से अपनी प्राथमिकता बता दी है। आपको पसंद है तो आगे बढि़ए। वरना कोई जोर जबर्दस्ती तो है नहीं।
इसराइल और फिलीस्तीनियों के बीच संघर्ष को लेकर दशकों से अंतरराष्ट्रीय समुदाय बँटा हुआ है लेकिन पिछले महीने सात अक्टूबर को इसराइल के भीतर हमास के हमले के बाद विभाजन की यह लकीर पहले से कहीं ज़्यादा मोटी और स्पष्ट हो गई है।
हमास के हमले के तुरंत बाद कुछ देशों ने हमास की निंदा करते हुए इसराइल का समर्थन किया तो कुछ देश हमास के समर्थन में जा खड़े हुए।
कुछ देशों ने स्थायी शांति स्थापित करने के लिए नई कोशिशें करने की अपील की, तो कुछ ने इसराइल को इस युद्ध का दोष दिया। लेकिन अब पश्चिम के देश इसराइल के पीछे और अरब के देश हमास के पीछे लामबंद होते हुए दिखाई दे रहे हैं।
इसराइल के साथ राजनयिक संबंध कायम करते हुए, जिन अरब के देशों ने अपने राजदूत वहाँ भेजे थे, वहाँ भी असहजता बढ़ रही है। दुनिया के कई देशों ने इसराइल से अपने राजदूत वापस बुला लिए हैं।
ईरान ने तो सभी इस्लामिक देशों से इसराइल से ट्रेड खत्म करने की अपील की है। दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश इसराइल के साथ खड़े हैं और इस युद्ध में उसकी मदद कर रहे हैं।
युद्ध शुरू हुए 27 दिन हो गए हैं। हमास शासित स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक गाजा में मरने वालों की संख्या 8700 से ज्यादा हो गई है, वहीं इसराइल के करीब 1400 लोग मारे गए हैं।
युद्ध कब खत्म होगा? हमास ने जिन लोगों को बंधक बनाया है, वे कब रिहा होंगे? गाजा में रहने वाले लोगों की जिंदगी कब पटरी पर लौटेगी, इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।
बात सबसे पहले उन देशों की जो इसराइल के साथ खड़े हैं। 26 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा में ‘गजा में नागरिकों की सुरक्षा, कानूनी और मानवीय कदमों को जारी रखने' के समर्थन में युद्धविराम का प्रस्ताव लाया गया था।
इस प्रस्ताव के पक्ष में 120 वोट पड़े, जबकि अमेरिका समेत 14 पश्चिमी देशों ने इसके खिलाफ मतदान किया, वहीं भारत समेत 45 ऐसे देश थे, जो वोटिंग से बाहर रहे।
अमेरिका
साल 1948 में इसराइल को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक अमेरिका था। हमास के हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन इसराइल पहुंचे थे और उन्होंने कहा था कि वे ‘इसराइल के साथ खड़े हैं’।
इसराइल को अमेरिका, मध्य-पूर्व में एक महत्वपूर्ण सहयोगी की तरह देखता है। डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन, दोनों ही पार्टी के राष्ट्रपतियों के कार्यकाल के दौरान इसराइली इलाक़े को महफूज रखने की कोशिश, अमेरिकी विदेश नीति का हिस्सा रही है।
साल 2020 में अमेरिका ने इसराइल की 3।8 अरब डॉलर की मदद की थी, इसके पहले साल 2016 में 2017 से 2028 तक लागू होने वाले 38 अरब डॉलर के एग्रीमेंट पर अमेरिका ने दस्तखत किए थे।
अमेरिका न सिर्फ यहूदियों को अपने यहाँ बसाता है, बल्कि इसराइल की सेना को दुनिया की सबसे उन्नत सेना बनाने में भी करोड़ों डॉलर खर्च करता है।
फ्रांस
यूरोप में फ्रांस एक ऐसा मुल्क है, जहां बड़ी संख्या में यहूदी और मुसलमान समुदाय के लोग रहते हैं। यहां करीब पांच लाख यहूदी बसते हैं, जो यूरोप के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा हैं।
वहीं एक आंकलन के मुताबिक, मुसलमानों की आबादी करीब 50 लाख है। यह भी यूरोप के दूसरे किसी देश के मुकाबले सबसे अधिक हैं।
हमास के हमले के बाद न सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति बल्कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी इसराइल पहुंचे थे।
उन्होंने कहा था कि अगर इस युद्ध में हमास की जीत हुई तो यूरोप खतरे में पड़ जाएगा। मैक्रों ने कहा कि यह लड़ाई सिर्फ इसराइल की नहीं है, बल्कि यह लड़ाई पूरे यूरोप, अमेरिका और मध्य पूर्व के भविष्य की लड़ाई है।
मैक्रों ने फिलीस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास को ‘एक आतंकी संगठन’ बताया और कहा कि ‘ये संगठन इसराइल के लोगों की मौत चाहता है।’
इसराइल पर हमसे के हमले में 10 से ज्यादा फ्रांस के नागरिक मारे जा चुके हैं और दर्जन भर से ज्यादा अब भी लापता हैं।
फ्रांस की सरकार ने देश में फ़लस्तीनियों के समर्थन में विरोध प्रदर्शनों पर भी रोक लगा दी है। गृहमंत्री जेराल्ड डर्माविन ने चेतावनी दी है कि फ्रांस में रहने वाले विदेशी नागरिक अगर नियमों का पालन नहीं करेंगे तो उन्हें वापस उनके देश भेज दिया जाएगा।
इस सबके बावजूद यूएन में गाजा को लेकर हुई वोटिंग में फ्रांस ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था और कहा था किसी भी हाल में नागरिकों की हत्या को उचित नहीं ठहराया जा सकता। फ्रांस ने यूएन में संघर्ष विराम की वकालत करते हुए बंधकों को छोडऩे की अपील की है। इसके अलावा जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड ने हमास की आलोचना करते हुए इसराइल का साथ दिया है।
ईरान
1948 में संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव से अस्तित्व में आने के बाद से इसराइल ने अपने पड़ोसी अरब देशों के साथ कई युद्ध लड़े हैं।
मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के दो दर्जन से ज्यादा देश ऐसे हैं जिनका इसराइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं हैं। इन देशों में सबसे अहम नाम ईरान का है।
ईरान, इसराइल के अस्तित्व से ही इनकार करता है। उसका कहना है कि इसराइल फिलीस्तीनियों की ज़मीन पर अवैध कब्जा कर रहा है।
ईरान और इसराइल की सीमाएं तो एक दूसरे नहीं लगती हैं, लेकिन इसराइल के पड़ोसी देशों जैसे लेबनान, सीरिया और फिलीस्तीन में ईरान का प्रभाव साफ दिखाई देता है।
जानकार मानते हैं कि भले ही इस हमले के पीछ सीधे तौर पर ईरान का हाथ न हो लेकिन हमास के लड़ाकों की ट्रेनिंग, उन्हें हथियार देने और हमले से पहले समर्थन देने में ईरान की अहम भूमिका है।
इस जंग में ईरान, खुलकर हमास का समर्थन कर रहा है और बार-बार इसराइल को कड़े परिणाम भुगतने की चेतावनी दे रहा है।
ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खामेनेई का कहना है कि अगर इसराइल के हमले जारी रहे तो मुसलमानों को कोई नहीं रोक पाएगा।
ताजा बयान में उन्होंने सभी मुस्लिम देशों से इसराइल के खिलाफ लामबंद होने के लिए कहा है।
उन्होंने कहा है, ‘गाजा पर हमले बंद होने चाहिए। जो मुस्लिम देश इसराइल को तेल और खाने-पीने का सामान भेज रहे हैं, वह तुरंत बंद होना चाहिए। मुस्लिम देशों को इसराइल के साथ आर्थिक सहयोग करने की जरूरत नहीं है।’
जॉर्डन
अरब मुल्क जॉर्डन की सीमा वेस्ट बैंक से मिलती है और यहां फिलीस्तीनी शरणार्थियों की बड़ी संख्या रहती है।
इसराइल जब बना तो इस क्षेत्र की एक बड़ी आबादी भागकर जॉर्डन आ गई थी। इस युद्ध में जॉर्डन फिलीस्तीनियों के साथ खड़ा है और वह द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की बात करता है।
गाजा में मानवीय कदमों के लिए संघर्ष विराम को लेकर यूएन में प्रस्ताव को लाने का काम भी जॉर्डन ने ही किया था।
युद्ध शुरू होने के बाद जॉर्डन ने अपने राजदूत को इसराइल से वापस बुला लिया है, वहीं जॉर्डन में इसराइल के राजदूत दो हफ्ते पहले विरोध के चलते तेल अवीव चले गए थे।
जॉर्डन के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री अयमन साफादी ने कहा, ‘हमने तेल अवीव से अपने राजदूत को बुला लिया है और बता दिया है कि हम राजदूत को दोबारा नहीं भेजेंगे। गाजा पर जो युद्ध छेड़ा गया है, जिसमें हजारों फिलीस्तीनी नागरिकों की जान गई है, इससे मानवीय संकट पैदा हो गया है और ये पीढिय़ों तक लोगों को परेशान करेगा।’
जॉर्डन के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि राजदूत की तेल अवीव वापसी तभी होगी, जब इसराइल गाजा पर अपने युद्ध को रोक दे और जो मानवीय संकट पैदा हुआ है, उसे खत्म करे।
जॉर्डन के उप प्रधानमंत्री ने कहा, ‘ये कदम जॉर्डन के रुख को बताने और गाजा पर इसराइल के हमले की निंदा करने के लिए उठाया गया है।’ इस पर ध्यान दिलाते हुए जॉर्डन सरकार ने कहा कि राजदूत वापस बुलाने का फैसला इसलिए भी किया गया है क्योंकि युद्ध शुरू होने के बाद इसराइल फिलीस्तीनियों के पास खाना, दवाएं और तेल तक नहीं पहुंचने दे रहा है।
तुर्की
तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं। तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था।
तुर्की और इसराइल के बीच रिश्ते में 2002 के बाद से उतार-चढ़ाव रहे हैं। फ़लस्तीन मुद्दे को लेकर तुर्की हमेशा इसराइल पर हमलावर रहा है।
2018 में गाजा में फिलीस्तीनी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ इसराइल की हिंसक कार्रवाइयों के विरोध में तुर्की ने अपने राजदूत को तेल अवीव से वापस बुला लिया था।
अगस्त 2022 में तुर्की और इसराइल ने चार साल के गतिरोध के बाद एक-दूसरे के साथ राजनयिक रिश्ते बहाल किए थे।
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने शनिवार, 28 अक्टूबर को इस्तांबुल में हुई फलस्तीन समर्थन रैली को संबोधित किया।
उन्होंने इस रैली में हमास को लिबरेशन ग्रुप और इसराइल को युद्ध अपराधी बताया।
अर्दोआन ने कहा कि हमास एक आतंकवादी संगठन नहीं है, बल्कि यह एक लिबरेशन ग्रुप है, जो अपनी भूमि और लोगों की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहा है।
गज़़ा में इसराइली सेना का किन चुनौतियों से होगा मुक़ाबला
सऊदी अरब
कुछ वक्त पहले ही सऊदी अरब और इसराइल के बीच संबंधों को बेहतर करने की दिशा में कदम उठाने शुरू किए गए थे।
लेकिन इसराइल-हमास संघर्ष ने इस पूरी कवायद को पटरी से उतार दिया है। दुनियाभर के मुसलमानों और अरबी लोगों के लिए फिलीस्तीन बेहद महत्वपूर्ण है।
सऊदी नेतृत्व को इसका अहसास है कि अगर उसने फिलीस्तीनियों के संघर्ष से मुँह मोड़ा तो असर इलाके में और वैश्विक स्तर पर उसकी छवि पर पड़ेगा। अगर सऊदी अरब ने इसराइल के साथ समझौता किया तो इससे उसकी धार्मिक वैधता को गंभीर हानि पहुँच सकती है।
सऊदी अरब की मुश्किल ये है कि ऐसे वक्त में इसराइल से हाथ मिलाना, अपने खिलाफ ईरान के हाथों में हथियार दे देने जैसा होगा।
युद्ध शुरू होने के बाद सऊदी अरब ने बयान जारी कर कहा था, ‘सऊदी अरब फिलीस्तीनी लोगों के वैध अधिकार हासिल करने, सम्मानजनक जीवन जीने की कोशिश और उनकी उम्मीदों को पूरा करने और न्यायपूर्ण और स्थायी शांति की कोशिश में उसके साथ खड़ा रहेगा।’
कतर
कतर के विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा है, ‘कतर एक बार फिर सभी पक्षों से संघर्ष को आगे न बढ़ाने की अपील करता है। दोनों पक्ष पूरी तरह हिंसा छोड़ दें ताकि ये इलाके और बड़ी हिंसा के दुश्चक्र में न फंस जाए।’
कतर का इसराइल के साथ कोई औपचारिक संबंध नहीं है। बावजूद इसके कतर मध्यस्थता के मामले में केंद्रीय भूमिका में आ गया है।
अब कतर की मदद से हमास के कब्जे से बंधकों को छुड़वाने की कोशिशें की जा रही हैं। बंधकों को छुड़ाने के मुद्दे पर कतर के अधिकारी इसराइल के मध्यस्थों के साथ फोन पर बात कर रहे हैं।
हमास ने हाल ही में चार बंधकों को रिहा किया था, जिसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कतर को धन्यवाद दिया था।
कतर की राजधानी दोहा में 2012 से ही हमास के राजनीतिक विंग का कार्यालय मौजूद है।
जानकारों का मानना है कि कतर के कई अधिकारी गाजा गए हैं और हमास के वरिष्ठ नेताओं से उनकी अच्छी जान पहचान है।
लेकिन कतर और इसराइल के बीच बैक चैनल बातचीत का रास्ता खुला हुआ है और बंधकों को छुड़ाने के मुददे पर कतर के अधिकारी इसराइल के मध्यस्थों के साथ फोन पर बात कर रहे हैं।
क़तर की राजधानी दोहा में 2012 से ही हमास के राजनीतिक विंग का कार्यालय मौजूद है।
बोलीविया
लातिन अमेरिकी देश बोलीविया ने गाजा में इसराइल के सैन्य अभियान के मद्देनजर उससे राजनयिक संबंध तोडऩे की घोषणा की है।
उप विदेश मंत्री फ्रेडी ममानी ने इसराइल के क़दम को ‘आक्रामक और असंगत’ करार दिया है।
बोलीविया लातिन अमेरिका का पहला देश है, जिसने इस संघर्ष की वजह से इसराइल से संबंध खत्म करने की घोषणा की है। इस देश ने संघर्ष विराम की अपील की थी और कहा था कि वो गाजा में मानवीय सहायता भेजेंगे।
बोलीविया पहले भी गज़़ा पट्टी को लेकर इसराइल से संबंध तोड़ चुका है। करीब एक दशक तक इसराइल से संबंध तोडऩे के बाद 2019 में ही दोनों के बीच राजनयिक संबंध बहाल हुए थे।
कोलंबिया
कोलंबिया ने इसराइल से अपने राजदूत को वापस बुलाने का घोषणा की है।
राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो का कहना है कि हमास के खिलाफ युद्ध में इसराइल, गाजा में फलस्तीनियों का ‘जनसंहार’ कर रहा है और ऐसी स्थिति में उनका देश इसराइल के साथ नहीं रह सकता।
उन्होंने कहा कि यह जनसंहार मानवता के खिलाफ अपराध है।
चिली
चिली ने भी अपने राजदूत को इसराइल से वापस बुलाने का फैसला किया है।
चिली के राष्ट्रपति ग्रेबियल बोरिक का कहना है कि इसराइल के हमले में निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं। वहीं चिली के रुख पर इसराइल ने आपत्ति जताते हुए कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि चिली ईरान की तरफ झुककर हमास के ‘आतंकवाद’ का समर्थन नहीं करेगा।
पाकिस्तान
इस युद्ध में पाकिस्तान, फलीस्तीन का समर्थन करते हुए दिखाई दे रहा है। पाकिस्तान ने इसराइल पर हमास के हमले का विरोध भी नहीं किया था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा है, ‘पाकिस्तान फिलीस्तीन के समर्थन में खड़ा है और इसराइल की कब्जा करने वाली सेना की हिंसा और अत्याचार को खत्म करने की अपील करता है।’’
वह भी दो देशों के सिद्धांत की वकालत करता आ रहा है। पाकिस्तान का कहना है कि इसी से मध्य-पूर्व में शांति आ सकती है और फिलीस्तीन की समस्या का अंतरराष्ट्रीय कानून के हिसाब से वाजिब और व्यापक समाधान ही यहाँ स्थाई शांति बहाल कर सकता है।
भारत
इसराइल पर हमास के हमले को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवादी हमला बताया है और कहा कि वो इस मुश्किल वक्त में इसराइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं।
भारत भी कई देशों की तरह दो राष्ट्र समाधान की बात करता है। दो राष्ट्र समाधान के तहत फिलीस्तीन को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने की बात है। इस देश को वेस्ट बैंक में 1967 के पहले की संघर्ष विराम लाइन, गाजा पट्टी और पूर्वी यरुशलम में बनाने की बात कही गई है।
लेकिन 26 अक्टूबर को जब यूएन में गाजा को लेकर वोटिंग हुई, तो भारत ने प्रस्ताव से दूरी बना ली। कहा जा रहा है कि भारत का रुख पश्चिमी देशों की लाइन पर है।
चीन
चीन ने यूएन महासभा में फ़लस्तीनियों के पक्ष में वोट किया था। चीन टू-स्टेट समाधान की बात कर रहा है। यानी उसका कहना है कि इस संकट का समाधान तभी हो सकता है, जब फ़लस्तीन एक स्वतंत्र और संप्रभु देश बन जाएगा।
हमास का समर्थन करने वाले ईरान के साथ चीन के करीबी रिश्ते हैं। जानकारों का मानना है कि ईरान के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल कर चीन मध्यस्थता की भूमिका भी निभा सकता है।
लेकिन चीन को इस युद्ध में संतुलन बनाने में दिक्कत का सामना करना पड़ा रहा है। इसकी वजह है कि लंबे समय से चीन में फलस्तीनी मुद्दे को लेकर सहानुभूति रही है।
एक समय था जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माओत्से तुंग ने फिलीस्तीनियों के लिए हथियार भेजे थे।
बाद में चीन ने अपनी आर्थिक नीतियां बदलीं और इसराइल के साथ रिश्तों को सामान्य किया, लेकिन चीन ने साफ कर दिया है कि वह फिलीस्तीनियों का समर्थन करता रहेगा।
हाल के दिनों में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और दूसरे अधिकारियों ने आजाद फिलीस्तीनी देश की जरूरत पर जोर दिया है। (bbc.com/hindi)
वंदना
1992 में जब टीवी से आए एक नए-नवेले हीरो शाहरुख खान की फि़ल्म ‘दीवाना’ आई, तो लगा एक होनहार सितारे ने दिलों पर दस्तक दी है। बेपरवाह, तेवर से बाग़ी राजा (शाहरुख) ने ‘दीवाना’ में ही एंट्री नहीं ली थी बल्कि सीधे लोगों के दिलों में एंट्री ले ली थी।
लेकिन उस हीरो ने सही मायनों में बॉक्स ऑफि़स पर तहलका मचाया 1993 में जब शाहरुख़ की ‘बाजीगर’ और ‘डर’ एक-के-बाद एक रिलीज हुई।
आज भले शाहरुख़ को किंग ऑफ़ रोमांस कहा जाता है लेकिन कामयाबी की पहली सीढिय़ाँ शाहरुख़ ने रोमांस के जरिए नहीं, बल्कि एंटी-हीरो बनकर चढ़ी हैं।
एंटी-हीरो के रूप में 1993 में शुरु हुआ ‘बाज़ीगर’ का ये काफि़ला अब 2023 में ‘जवान’ तक पहुँच चुका है। यानी तीस साल के फ़ासले पर दो कि़स्म के एंटी-हीरो का सफर शाहरुख़ ने तय किया है।
ग्लोबल रोमांटिक हीरो
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार नम्रता जोशी कहती हैं, ‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ में शाहरुख का एंटी-हीरो वाला इमोशन एक लडक़ी के प्रति उनके प्रेम से प्रेरित था। लेकिन बाद में उन्होंने इस नेगेटिव इमेज को छोड़ते हुए कूल, ग्लोबल, शहरी रोमाटिंक हीरो का चेहरा अपना लिया।’
‘पिछले कुछ सालों में उन्होंने जब ख़ुद को री-इन्वेंट करने की कोशिश की तो उनकी फि़ल्में चलना बंद हो गईं। 2023 में हम कह सकते हैं कि ‘पठान’ और ‘जवान’ के जरिए वो ख़ुद को नए सिरे से ढाल पाए हैं। हिंदी सिनेमा के लिए ये बात नई है कि जिन हालत में हम रह रहे हैं, वहाँ शाहरुख जवान जैसी फिल्म में सत्ता को खुली चुनौती देते हैं।’
‘इस तरह का सत्ता विरोधी रुख अपनाना काबिले-गौर है। ‘बाजीगर’ में एक प्रेमिका के लिए एंटी-हीरो बनना उसके बाद ‘जवान’ में पूरी सत्ता और तंत्र के खिलाफ एंटी हीरो बनना, इन दोनों में बुनियादी फर्क है, और यही शाहरुख़ के सफर को दिखाता है।’
अब्बास-मस्तान की फि़ल्म ‘बाज़ीगर’ 30 साल पहले 13 नंवबर 1993 को आई थी। शायद किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि एक नया हीरो जिसने चंद सीरियल और एक-दो फि़ल्में ही की हैं, वो एक ऐसे क़ातिल का रोल करेगा जो बिना किसी ख़ास ग्लानि के क़त्ल-पर-क़त्ल करता है और उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती।
फि़ल्म ‘बाज़ीगर’ की शुरुआत में शाहरुख़ और शिल्पा शेट्टी के बीच दो रोमांटिक गाने आते हैं। फिर दोनों कोर्ट मैरिज करने जाते हैं और अचानक शाहरुख़ शिल्पा शेट्टी को बहुत ही बेरहमी से एक ऊँची इमारत से नीचे फ़ेंक देते हैं जिसे अंग्रेज़ी में कोल्ड ब्लडेड मर्डर कहते हैं।
रोमांस के बीच ये सीन इतने झटके से आता है कि फि़ल्म देख रहे दर्शक लभभग भौंचक्के से रह गए थे। उस वक्त के लिए ये काफ़ी शॉकिंग और लीक से हटकर था। उस दौर में सलमान ख़ान जहाँ ‘मैंने प्यार किया’ में प्यार के लिए हर इम्तहान से गुजर जाते हैं और आमिर जहाँ ‘कय़ामत से कय़ामत’ तक में प्यार के लिए मर मिटते हैं, वहाँ अजय शर्मा उफऱ् विकी मल्होत्रा (शाहरुख़) ने बाज़ीगर के रोल से बॉलीवुड हीरो की छवि तोडक़र रख दी थी।
स्टीरियोटाइप तोडऩे की कोशिश
फि़ल्म इतिहासकार अमृत गंगर कहते हैं, ‘यूँ तो शाहरुख़ ने लीक से हटकर मणि कौल की फि़ल्म ‘अहमक’ से शुरुआत की थी और उन्होंने ‘माया मेम साहब’ जैसी फि़ल्म भी की। ‘सर्कस’ जैसा सीरियल किया। ‘बाज़ीगर’ बहुत बड़ी कॉमर्शियल हिट हुई और एंटी-हीरो वाले रोल में उन्हें स्थापित किया।’
‘मैं इसे शाहरुख़ खान की एक्टिंग काबिलियत की तौर पर देखता हूँ, ये उनकी रेंज को दिखाता है। साथ ही, ये बॉलीवुड कास्टिंग में दिखने वाले स्टीरियोटाइप को तोडऩे की शाहरुख़ की काबिलियत को भी दर्शाता है। ‘डर’ में भी यश चोपड़ा ने उन्हें नेटेगिव रोल दिया जो हीरो के लिए तब टैबू माना जाता था।’
‘बाज़ीगर’ का किरदार इतना डार्क था कि कई बड़े हीरो ने इस रोल को करने से मना कर दिया था। इंडस्ड्री में नए होने के बावजूद शाहरुख़ वो हीरो थे जिन्होंने ये दांव खेलने की हिम्मत दिखाई।
‘बाज़ीगर’ के कऱीब एक महीने बाद 24 दिसंबर 1993 को आई यश चोपड़ा की ‘डर’ जिसमें शाहरुख़ ख़ान एक ऐसे लडक़े के किरदार में थे जो मानसिक रूप से अस्थिर है, उसका एकतरफ़ा प्यार उसे जुनून की उस हद तक ले जाता है जहाँ वो अपने लिए और जिससे वो प्यार करता है उसके लिए भी ख़तरा बन जाता है। आज के शब्दों मे कहें तो ‘डर’ का राहुल एक स्टॉकर था।
‘डर’ में जो रोल शाहरुख़ ने किया वो यश चोपड़ा ने पहले ऋषि कपूर को दिया था। अपनी आत्मकथा ‘खुल्लम खुल्ला’ में ऋषि कपूर लिखते हैं, जब यश चोपड़ा ने मुझे रोल दिया तो मैंने उनसे कहा कि मैं विलेन के रोल के साथ न्याय नहीं कर सकता।
मैंने अभी आपके साथ चांदनी की है (जो रोमांटिक फि़ल्म थी)। मैंने फि़ल्म ‘खोज’ में नेगेटिव रोल किया था और वो फ्लॉप हुई। आप शाहरुख़ को ले सकते हैं, मैंने उसके साथ काम किया है और वो काबिल और स्मार्ट लडक़ा है। फिर वो फिल्म आमिर ख़ान और अजय देवगन के पास चली गई। दोनों ने नहीं की, आखऱिकर शाहरुख़ ने वो रोल किया।’
‘बाज़ीगर’ का विकी हो या ‘डर’ का राहुल, दोनों ही किरदारों में शाहरुख़ जो काम करते हैं, उससे सामान्य रूप से आपमें एक तरह की घृणा का भाव पैदा होना चाहिए लेकिन दोनों फि़ल्मों की यही विरोधाभासी बात थी उसमें दर्शक फि़ल्म के हीरो (सनी देओल) या दूसरे किरदारों के पाले में नहीं, बल्कि शाहरुख़ की साइड में नजऱ आते हैं।
इसका क्रेडिट आप स्क्रीनप्ले लेखक या निर्देशक को दे सकते हैं लेकिन लोगों ने तो पर्दे पर दिखने वाले शाहरुख़ को ही याद रखा।
बदलाव का दशक
अमृत गंगर कहते हैं, ‘1990 का दशक बदलाव का दशक था और लोग शाहरुख़ की पर्सनेलिटी से ख़ुद को जोड़ पा रहे थे। शाहरुख़ के ये नेगेटिव रोल प्रेम और इरोटिका के इमोशन में मिले हुए थे।’
‘इन भूमिकाओं में एक तरह का पागलपन था, कुछ ऐसा जिसकी युवाओं को तलाश थी। मसलन, ‘डर’ में एक ऐसे इमोशन को दिखाया गया था जो हिंदी फि़ल्मों में देखने को नहीं मिलता था। स्क्रीन पर शाहरुख़ का वो बॉयइश चार्म एक तरह का रहस्य बन गया था।’
याद कीजिए ‘डर’ का वो सीन जब गुमसुम-सा रहने वाला राहुल (शाहरुख़) फोन पर अपनी माँ से बातें करता है जो कब की गुजऱ चुकी है, छुरी से अपने सीने पर किरण लिखवाता है, या फिर वो सीन जब जूही चावला का मंगेतर सनी देओल बहरुपिए बने शाहरुख़ को देख लेता है और शाहरुख़ के पीछे भागता है। लभगभ तीन मिनट का वो चेज़ जब चलता है तो ये जानते हुए भी शाहरुख़ का किरादर ग़लत है, बहुत सारे दर्शक उन्हीं की साइड होते हैं।
हालाँकि इस किरदार को टॉक्सिक कहकर कई लोगों ने फि़ल्म की आलोचना भी की लेकिन डर हो या बाज़ीगर दोनों में शाहरुख़ ने एंटी हीरो का किरदार कर अपने लिए एक इबारत तैयार की , ख़ास तौर तब जबकि एक के बाद सब हीरो इन भूमिकाओं को मना कर चुके थे।
शाहरुख़ ख़ान बने किंग ख़ान
‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे’, ‘दिल तो पागल है’, ‘कुछ कुछ होता है’ ये सारी फि़ल्में तो बाद में आई और शाहरुख़ को किंग ख़ान बनाया। लेकिन किंग ख़ान बनने की राह में एंटी हीरो वाले शाहरुख़ के किरदारों ने ही शाहरुख़ ख़ान के लिए सफलता की ज़मीन तैयार की। और लोगों को एक ऐसे एक्टर से भी रूबरू करवाया जो रिस्क लेने का माद्दा रखता था। फिर वो ‘अंजाम’ हो, ‘माया मेमसाब’ हो या फिर ‘ओ डार्लिंग ये है इंडिया’ हो।
ऐसा नहीं था सुपरस्टारडम की इस राह में सिफऱ् फूल ही फूल थे, शुरु में कुछ फि़ल्में फ्लॉप भी हुईं, फि़ल्मों में सुपरस्टार की छवि से हटकर किदरारों में न ढलने के लिए कई लोगों ने आलोचना भी की, इस बीच बॉक्स ऑफि़स पर सारे रिकॉर्ड भी तोड़े, फिर हीरो से ज़ीरो भी बने जब लोगों ने कहा कि शाहरुख़ के दिन अब ख़त्म हुए। कई सालों तक शाहरुख़ सिनेमा के पर्दें पर दिखे ही नहीं, पर टीवी पर विमल इयालची का विज्ञापन करते हुए ज़रूर नजऱ आए। इस बीच उनके बयानों पर राजनीतिक बवाल भी हुआ, उनके बेटे को जेल भी हुई। पर शाहरुख़ एकदम खामोश रहे।
2023 में शाहरुख़ ने 'पठान' और फिर 'जवान' से अपनी शैली में जबाव दिया। ये कहते हुए अपने डायलॉग से ख़ामोशी तोड़ी कि 'बेटे को हाथ लगाने से पहले बाप से बात कर'। जवान के इस डायलॉग का सबने अपना-अपना राजनीतिक और सामाजिक मतलब निकाला।
‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ की तरह ‘जवान’ का आज़ाद राठौर भी एक किस्म का एंटी-हीरो ही है पर वो 90 के एंटी-हीरो से अलग है। आज़ाद राठौर समाज में फैले भ्रष्टाचार को एक विजीलांटे ग्रुप के ज़रिए चुनौती देता है, वो क़ानून हाथ में लेता है, शासन के नियम-कायदे उसके लिए मायने नहीं रखते। लेकिन ये एंटी-हीरो ‘बाज़ीगर’ के विकी या डर के राहुल की तरह लोगों की जान लेता नहीं बल्कि लोगों की जान बचाता है।
हालांकि नम्रता जोशी की अपनी शिकायत की भी है, ‘जवान सफल रही है लेकिन मुझे नहीं लगता कि बतौर फि़ल्म ये मेरे लिए काम करती है। ये पुरुष प्रधान फि़ल्म है जहाँ शाहरुख़ कोशिश ज़रूर करते हैं कि महिलाओं को भी जगह मिले। इसकी बजाए मैं शाहरुख़ को ‘चक दे इंडिया’ जैसी फि़ल्म में ज़्यादा पसंद करूँगी जहाँ महिलाओं की टीम को जीत तक ले जाते हैं। जवान में जेंडर समानता को दिखाने की कोशिश की गई है पर मुझे नहीं लगता ये कारगर रही।’
‘बाज़ीगर’ की मेकिंग
बात बाज़ीगर से शुरू हुई थी तो वहीं पर ख़त्म करते हैं। फि़ल्म की शूटिंग दिसंबर 1992 में शुरू हुई थी लेकिन उसके बाद बॉम्बे दंगों की आग में झुलस गया और कई महीनों के बाद इसकी शूटिंग दोबारा शुरु हो पाई। फि़ल्म के लिए श्रीदेवी, माधुरी से लेकर कई अभिनेत्रियों से बात हुई। लेकिन श्रीदेवी दोनों बहनों यानी काजोल और शिल्पा का रोल करना चाहती थीं, लेकिन निर्देशकों को लगा कि शाहरुख़ के हाथों श्रीदेवी जैसी बड़ी हीरोइन का क़त्ल शायद दर्शकों को रास न आए।
फि़ल्म में दलीप ताहिल ने मदन चोपड़ा का रोल किया था जिससे बदला लेने के लिए शाहरुख़ ख़ान अजय से विकी यानी बाज़ीगर बनते हैं। हाल में ‘द अनट्रिडगर्ड’ नाम के एक पॉडकास्ट में दलीप ताहिल ने कहा था, ‘मैं लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर था। एक लडक़ी मेरे पास आई और बोली कि आपने ‘बाज़ीगर’ में शाहरुख़ खान को इतना क्यों पीटा। आखिर क्यों। वो लडक़ी शाहरुख़-मय हो चुकी थी।’
‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ के क़ातिल वाले और एंटी-हीरो किरदार को भी कुछ हद तक मानवीय बना पाना ही शाहरुख़ का हासिल था। इस बीच शाहरुख़ राज बनकर भी आए, इंडिया टीम के कोच कबीर ख़ान भी बने, ‘स्वदेश’ लौटने वाले मोहन भी, ‘पहेली’ में गाँव के किशनलाल भी, ‘यस बॉस’ में चांद तारे तोड़ कर लाने की हसरत रखने वाले राहुल भी थे , 'हे राम' के अमजद अली ख़ान भी और ज़ीरो के बऊआ सिंह भी।
असल जि़ंदगी और पर्दे की जि़ंदगी के बीच इन्हीं किरदारों में किसी ने शाहरुख़ में अपना हीरो ढूँढा है, किसी ने विलेन और किसी ने एंटी-हीरो। (bbc.com/hindi)
डॉ. संजय शुक्ला
आमतौर पर ‘विंटर सीजन’ यानि सर्दियों के मौसम को ‘हेल्दी सीजन’ कहा जाता है लेकिन दिल्ली-एनसीआर सहित देश के विभिन्न शहरों में यह मौसम लोगों के सेहत के लिए मुसीबत लेकर आता है। दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण एक बार फिर से कहर बरपाने लगा है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित दूसरे राजधानी दिल्ली के लिए यह प्रदूषण कोई नई बात नहीं है अपितु अमूमन हर साल अक्टूबर से लेकर पूरे सर्दियों के मौसम में दिल्लीवासी इस कहर का सामना करते हैं। इस दौरान दिल्ली-एनसीआर का इलाका धूल भरी आंधी यानि स्मॉग से लिपटी रहती है तथा यह महानगर ‘गैस चैंबर’ के रूप में तब्दील हो जाता है। दिल्ली सरकार अमूमन हर साल ‘हेल्थ इमरजेंसी’ लगानी पड़ती है तथा ट्रैफिक पर दबाव कम करने के लिए ऑड-इवन व्यवस्था लागू करती है।
सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च ‘सफर-इंडिया’ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में बीते रविवार को वायु गुणवत्ता सूचकांक यानि एक्यूआई 325 तथा नोयडा में 361 दर्ज किया गया। देश में सबसे अधिक एक्यूआ?ई हरियाणा के कैथल में 380 दर्ज किया गया। मानकों के मुताबिक 0-50 अच्छा, 51-100 संतोषजनक, 101-200 मध्यम, 201-300 खराब, 301-400 बहुत खराब और 401 से 500 एक्यूआई को गंभीर श्रेणी में माना जाता है। बहरहाल सिर्फ भारत की राजधानी दिल्ली की हवा ही दमघोंटू नहीं है बल्कि दिल्ली से सटे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश सहित देश के अनेक बड़े शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर खराब से बहुत खराब स्तर पर है।
बहरहाल सरकार के मुताबिक प्रदूषण की मुख्य वजह दिल्ली से सटे राज्यों के किसानों द्वारा पराली जलाने को बताती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस दलील पर नाइत्तेफाकी जाहिर करते हुए वायु प्रदूषण के लिए परिवहन, उद्योगों और यातायात व्यवस्था को भी अहम वजह बताते हुए इसे नौकरशाही की विफलता करार देती है। कुछ सालों पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासन को कड़ी फटकार लगाते हुए यह टिप्पणी की थी कि दिल्ली ‘नरक से भी बदतर’ हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के फटकार के बावजूद दिल्ली के हवा में कोई आशातीत बदलाव दिखाई नहीं देता लेकिन इसके लिए अकेले सरकार या प्रशासनिक नुमाइंदों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा क्योंकि इसके लिए आम जनता भी जवाबदेह है। बिलाशक दिल्ली सहित उत्तर भारतीय राज्यों में भयावह प्रदूषण के लिए पराली जलाने की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसके अलावा उद्योग व वाहनों के धुआं उत्सर्जन और सडक़ों तथा निर्माण स्थलों से उडऩे वाला धूल भी जवाबदेह है। भूविज्ञान मंत्रालय के रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण में सर्वाधिक 41 फीसदी भागीदारी वाहनों की होती है, निर्माण गतिविधियों से उडऩे वाले धूल के कारण 21.5 फीसदी और उद्योगों की वजह से 18 फीसदी प्रदूषण होता है। इसके अलावा पटाखे और पराली भी जीवनदायिनी हवा को दूषित करते हैं।
बहरहाल भारत जैसे विकासशील और गरीब देश में वायु प्रदूषण बहुत ही गंभीर चुनौती है जिसका असर अर्थव्यवस्था और जनस्वास्थ्य पर पड़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘डब्ल्यूएचओ’द्वारा दुनिया के 1650 शहरों वायु प्रदूषण पर में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक भारत की राजधानी दिल्ली में हवा की गुणवत्ता अन्य शहरों की तुलना में बहुत खराब है। स्विट्जरलैंड की संस्था आईक्यू एयर की ‘वल्र्ड एयर क्वालिटी-2022’ रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में भारत 8 वां सर्वाधिक प्रदूषित देश है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 20 शहरों में 19 एशिया के हैं जिसमें 14 भारतीय शहर हैं। रिपोर्ट के अनुसार बीते साल 2022 में भारत का सबसे ज्यादा प्रदूषित महानगर दिल्ली तथा शहर राजस्थान का भिवाड़ी रहा। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित राजधानियों में न?ई दिल्ली दूसरे पायदान पर रहा। आंकड़ों को देखें तो देश के 60 फीसदी शहरों में प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएच?ओ के मानक से सात गुना ज्यादा है।
बहरहाल हालिया रिपोर्ट यह बताता है कि प्रदूषण को लेकर भारत तनिक भी गंभीर नहीं है बल्कि इस विकराल समस्या पर हम सिर्फ जुबानी जमा खर्च ही कर रहे हैं। यदि हम अब भी नहीं चेते तो आने वाले समय में इसकी कीमत देश और आम लोगों चुकानी ही पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि देश में प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी कानून और अमला नहीं है लेकिन इच्छाशक्ति के आभाव के कारण ये सभी महज किताबों में कैद हैं। देश में हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित सभाकक्षों में पर्यावरण संरक्षण के लिए शाब्दिक जुगाली होती है रैलियां और कार्यक्रम आयोजित होते हैं लेकिन नतीजा शून्य ही निकल रहा है।
विचारणीय यह भी कि भारत में बढ़ता प्रदूषण जहां जनस्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रही वहीं विरोधाभास यह कि देश के अब तक के राजनीतिक इतिहास में पर्यावरण प्रदूषण कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बना और न ही इस मसले पर संसद में कभी गंभीर बहस हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण पूरी दुनिया में हर साल तकरीबन 70 लाख असामयिक मौतें होती हैं,जिसमें अकेले भारत में 20 लाख लोगों की मौत होती है। एक अन्य शोध के मुताबिक भारत में प्रदूषण के कारण लोगों की जिंदगी पांच साल कम हो रही है। प्रदूषण के कहर से लाखों लोग फेफड़ों और दिल के गंभीर बीमारियों का शिकार भी होते हैं। आलम यह कि देश के सैकड़ों शहरों की वायु गुणवत्ता बेहद खराब श्रेणी में हैं फलस्वरूप बच्चों और बुजुर्गों में श्वसन तंत्र से संबंधित रोगों में लगातार इजाफा हो रहा है। देश में जहाँ वायु और जल प्रदूषण सबसे ज्यादा है वहीं नदियां मानव सभ्यता की गंदगी ढोते-ढोते दम तोड़ रहीं हैं। गौरतलब है कि प्रदूषण का सीधा संबंध ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से है जिस पर दुनिया भर की सरकारें और पर्यावरण कार्यकर्ता चिंतित हैं।बीते एक दशक की बात करें तो भारत में जलवायु परिवर्तन की आहट प्राकृतिक आपदाओं और बढ़ते तापमान के रूप में सुनाई पड़ रही है। देश के कई हिस्सों में बेमौसम बारिश, अम्लीय वर्षा, बाढ़,सूखा, भूस्खलन, भूकंप तथा ग्लेशियर पिघलने की घटनाएं लगातार बढ़ रही है जिसमें भारी जानमाल का नुकसान हो रहा है इसके पृष्ठभूमि में प्रदूषण ही है।
प्रदूषण के कहर से छत्तीसगढ़ राज्य भी अछूता नहीं है। राज्य में दुर्ग, भिलाई, रायपुर, कोरबा, बिलासपुर , बलौदाबाजार-भाटापारा और रायगढ़ सहित अनेक औद्योगिक शहर हैं जहां उद्योगों से निकलने वाले धुंआ और फ्लाई एश (सफेद राख) पर्यावरण के साथ जनजीवन पर काफी बुरा असर डाल रहा है।इन जिलों में संचालित कोयला आधारित विद्युत संयंत्र, लौह उद्योग, सीमेंट फैक्ट्रियों के कारण वायु प्रदूषण में लगातार इजाफा हो रहा है वहीं शहरों में जारी विभिन्न विकास और निर्माण कार्यों के कारण भी धूलजनित प्रदूषण ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। उद्योगों और निर्माण कार्यों से निकलने वाले धुंआ और धूल हवा को प्रदूषित कर रहे हैं जो जनस्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक है। गौरतलब है कि सुबह की सैर करने वालों के श्वसनतंत्र और त्वचा पर इस धुंआ और धूल का विपरीत प्रभाव पड़ रहा है वहीं घरों के छतों,फर्श और पेड़-पौधों की पत्तियों पर कालिख की परत परेशानी का सबब बन रहा है।छत्तीसगढ़ भी अब पराली जनित प्रदूषण से अछूता नहीं है राज्य के विभिन्न के किसान अगली फसल के लिए खेतों में ही पराली जलाने लगे हैं लिहाजा इस दिशा में सरकार और प्रशासन को सचेत होने की दरकार है। अलबत्ता वायु प्रदूषण सिर्फ आम जनजीवन को ही प्रभावित नहीं कर रहा है बल्कि यह पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं सहित परिस्थिकीय तंत्र पर भी बुरा असर डाल रहा है।
बहरहाल देश की सरकारें और आम जनता पर्यावरण प्रदूषण और पर्यावरण कानूनों के प्रति कितना गंभीर है? इसका अंदाजा सिंगल यूज प्लास्टिक के निर्माण, विक्रय और उपयोग संबंधी प्रतिबंधात्मक कानून से पता चलता है। गौरतलब है कि भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने 1 जुलाई 2022 से देश में एक बार उपयोग लायक‘सिंगल यूज प्लास्टिक’ के आयात, निर्माण, भंडारण, विक्रय और उपयोग को प्रतिबंधित करने की अधिसूचना जारी की थी। इस प्रतिबंध को लागू करने और लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार, प्रशासन और नागरिक संगठनों ने बढ़ चढक़र अभियान चलाया लेकिन हकीकत में इन चीजों का निर्माण, बिक्री और उपयोग धड़ल्ले से जारी है। आज से सात दशक पहले जो प्लास्टिक मानव सभ्यता के लिए सुविधा के लिहाज से आम जीवन का अहम हिस्सा बन गया था वह आविष्कार अब प्रकृति और मनुष्य के लिए अभिशाप बनने लगा है। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर प्लास्टिक के दुष्प्रभाव के दृष्टिगत दुनिया के लगभग दो दर्जन से ज्यादा विकसित और विकासशील देशों ने सिंगल यूज प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को बंद कर दिया है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा अब सामने आने लगा है जंगलों, पहाड़ों, नदियों और धरती के साथ हवा भी अब इसके बोझ से हांफने लगे हैं वहीं मनुष्य और मवेशियों के सेहत पर भी इसका दुष्प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। दरअसल सिंगल यूज प्लास्टिक नॉन -बायोडिग्रेडेबल होते हैं जो सैकड़ों सालों तक नष्ट नहीं होते बल्कि इनके जमीन में दबे रहने के कारण भूमिगत जल स्त्रोत भी प्रदूषित होता है। इसके अलावा कचरों के साथ प्लास्टिक के जलने से कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और डाई-ऑक्सीन जैसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है जो मनुष्य के श्वसन और तंत्रिका तंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाता है साथ ही यह गर्भवती माता और गर्भस्थ शिशु के लिए भी घातक होता है।
विचारणीय है कि साल दर साल बढ़ते जानलेवा वायु प्रदूषण का असर भारत जैसे गरीब देशों के लोगों के सेहत के साथ-साथ घरेलू बजट और आजीविका पर भी पडऩा अवश्यंभावी है। गौरतलब है कि कोविड से संक्रमित रहे अनेकों लोग आज भी फेफड़ों से संबंधित दिक्कतों से जूझ रहे हैं ऐसे में सर्दियों के मौसम में वायु प्रदूषण का कहर उनके लिए घातक साबित हो रहा है। लिहाजा सरकार की जवाबदेही है कि वह कोयला आधारित पावर प्लांट, लौह एवं सीमेंट उद्योगों के प्रदूषण को रोकने पर्याप्त कदम उठाए। स्थानीय प्रशासन की जवाबदेही है कि अधोभूत संरचना विकास के दौरान सडक़ अथवा नालियों की खुदाई के दौरान धूल जनित प्रदूषण को रोकने के लिए पानी का नियमित छिडक़ाव करें। इसके अलावा परंपरागत ऊर्जा संसाधनों के उपयोग को सीमित करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों और बॉयोगैस के प्रचलन को प्रोत्साहित करना होगा वहीं अपरंपरागत ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना होगा। आम नागरिकों की भी जवाबदेही है कि वे पर्यावरण संरक्षण के लिए लागू प्रतिबंधों और कानूनों के प्रति स्व-अनुशासित और जागरूक हों। नागरिकों से अपेक्षा है कि वे पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का अधिकाधिक उपयोग करें तथा अपने वाहनों का नियमित प्रदूषण जांच करवाएं। बिलाशक दीपावली में पटाखे तो चलेंगे ही लेकिन कोशिश यह होनी चाहिए कि इस दौरान ग्रीन पटाखों का ही इस्तेमाल हो ताकि त्योहार सेहत का दुश्मन न बने।घरों में कोयले की सिगडिय़ों और चूल्हों के इस्तेमाल को बंद करें वहीं किसानों से भी अपेक्षा है कि वे खेतों में पराली को जलाने की अपेक्षा इसकी मशीन के द्वारा कटाई करवाएं क्योंकि अब पराली का उपयोग औद्योगिक इंधन के अलावा अन्य चीजों के निर्माण में होने लगा है जो किसानों के लिए आय का एक जरिया भी बन सकता है। इन उपायों से ही देश में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाया जा सकता है।
- कनुप्रिया
आज के दिन महज करवाचौथ ही नही स्त्रीवादियों को भी गरियाने का प्रचलन है।
क्यों गरियाया जाता है स्त्रीवादियों को? कि वो दूसरी स्त्रियों को त्योहारों के बहाने नीचा दिखाती हैं? Superiority complex से भरी हैं? पुरुष द्वेष की मारी हैं? अगर ऐसा है तो वो स्त्रीवादी हैं ही नहीं, अगर कोई स्त्री अपने अधिकार, सम्मान और उससे बढक़र अपने अस्तित्व के महत्व को समझ लेती हैं और उनके लिए खड़ी होती है तो वो महज विद्रोही है, साहसी है, मगर यदि वो सभी स्त्रियों के अधिकारों, सम्मान और अस्तित्व के महत्व को समझ लेती है बिना जाति और धर्म की बाधा के तो वो स्त्रीवादी हो सकती है। इससे बढक़र यदि वो स्त्रियों के ही नही है बाकी कमजोर तबकों के अधिकारों और सम्मान के महत्व को भी समझ लेती है तो मुझे लगता है कि वो स्त्रीवादी है, नही तो वो स्त्रीवाद अधूरा है।
ऐसा ही दलित वादियों या अल्पसंख्यक वादियों के लिए भी है, अगर बाकी कमजोर तबकों के संघर्ष को आप नही समझ सकते तो फिर ये पावर स्ट्रगल है, आपका वाद अधूरा है।
ऐसे व्रतों का विरोध करने का ख़तरा आखिऱ क्यों उठाया जाए, नही ये किसी को नीचा दिखाने के लिये है ही नहीं। यह बस इस बात को underline करना है कि इन व्रतों का रिश्ते से कोई लेना देना नही है, ये बस पितृसत्तावादी ब्राह्मणों का बनाया धार्मिक अनुष्ठान है जैसे कि कई अन्य व्रत त्योहार।
जिन्हें व्रत त्योहारों में रस हो वो इसे करें मगर किन्ही दो लोगों के रिश्ते में प्रेम, परस्पर सम्मान, भरोसा और ईमानदारी ऐसे व्रतों की मोहताज नही है, अगर ये सब दो लोगों के बीच है तो कोई फर्क नही पड़ता कि आप इस अनुष्ठान को करें न करें और अगर ये दो लोगों के बीच नही है तो भी फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे करें न करें। कुल मिलाकर दो लोगों के बीच के रिश्ते की मजबूती का इन अनुष्ठानों से लेना देना नहीं है।
इसलिये विरोध इन अनुष्ठानों का भर नही है, इनको प्रेम और रिश्ते से जोड़ देने का है, उस दबाव का है जो कहता है कि ये धार्मिक अनुष्ठान ही आपके रिश्ते को, उसकी गठन और मजबूती को परिभाषित करते हैं। बस इतना ही।
आज के दिन व्रत कर रही भूखी बैठी महिलाओं को सब्र, हौसला और ख़ुशी मिले, और वो प्रेम भी जिसकी वो कामना करती हैं। व्रत आपके शरीर को स्वस्थ करें और आपकी उम्र बढ़ाएँ।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश चुनाव में गृह मंत्री के अनुचित आचरण के दो उदाहरण ही काफी हैं। उनका बयान आया है कि जो अधिकारी कमल का ध्यान नहीं रखेंगे उन्हें छोडऩा नहीं, उनकी शिकायत चुनाव आयोग से जरूर करना। क्या अधिकारियों का कार्य कमल का ध्यान रखकर अन्य दलों को नुक्सान पहुंचाना है या निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराना है? यदि यह बयान संगठन के किसी पदाधिकारी की तरफ से आता तो इसकी उतनी गंभीरता नहीं होती लेकिन देश के गृहमंत्री की तरफ से आए ऐसे बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया जरूरी है क्योंकि राज्यों की दो सबसे प्रमुख सेवाओं आई ए एस और आई पी एस के अधिकारियों की कमान गृह मंत्रालय के हाथ में ही होती है।
वैसे भी गृह मंत्री अमित शाह के केन्द्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी में प्रभाव को सब जानते हैं। यह आए दिन देखा जाता है कि उन्होने मध्य प्रदेश के चुनावी दौरे भाजपा अध्यक्ष से कहीं ज्यादा किए हैं और उनकी भूमिका टिकट वितरण से लेकर अन्य तैयारियों और निर्णयों में सबसे ऊपर है। ऐसे में उनके इस बयान से नौकरशाही पर अतिरिक्त दबाव बनना अवश्यंभावी है। देखना यह है कि केन्द्रीय चुनाव आयोग इस मुद्दे को कितनी गंभीरता से लेता है। चुनाव आयोग का निर्णय जब भी और जो भी आएगा वह अपनी जगह है लेकिन गृह मंत्री के रुप में अमित शाह ने इस तरह का बयान देकर इस महत्त्वपूर्ण पद की गरिमा गिराई है।
गृह मंत्री का दूसरा बयान बेहद हास्यास्पद और सफेद झूठ है। मध्य प्रदेश की सडक़ों के बारे में उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की सरकार, जिसे वे बंटाधार की सरकार कहते हैं, के दौरान मध्य प्रदेश की सडक़ें खस्ताहाल थी जो भाजपा सरकार के दौरान बहुत अच्छी हो गई। उनका यह बयान सरासर झूठ है जो देश के गृह मंत्री को शोभा नहीं देता। मध्य प्रदेश की सडक़ों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। भोपाल के पास भोजपुर के प्रसिद्ध मंदिर जाने वाली रोड की स्थिति साल भर से बेहद खराब है। यही हाल प्रदेश की अन्य सडक़ों का है। नरसिंहपुर जिले की खस्ताहाल सडक़ों के निर्माण और मरम्मत के लिए ग्रामीण कई दिन से सडक़ सत्याग्रह कर रहे हैं। बेतवा यात्रा के दौरान हमने देखा कि भोपाल के सबसे करीब जिले रायसेन की ग्रामीण सडक़ों की हालत इतनी खराब है कि काफी दूर तक सडक़ की जगह गड्ढे ही गड्ढे हैं। इस परिपेक्ष्य में गृह मंत्री का बयान कोरा झूठ है।
देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल भी उसी गुजरात से थे जहां से वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह आते हैं। कल सरदार पटेल की जयंती पर प्रधानमंत्री भी गुजरात में बनी उनकी प्रतिमा स्टेचू ऑफ यूनिटी पर गए थे। सरदार पटेल भले ही आजीवन कांग्रेस में रहे लेकिन भारतीय जनता पार्टी भी उन्हें अपना महानायक मानती है क्योंकि उनकी लौहपुरुष छवि के कारण ही भारत इतना बड़ा है।अंग्रेजों द्वारा राजाओं की रियासतों को आजाद करने से खंड खंड हुए भारत को एकता की माला में पिरोने का अत्यन्त साहसी कार्य करने का सर्वाधिक श्रेय सरदार पटेल के कुशल नेतृत्व को ही जाता है। सरदार पटेल अपने अल्प काल में ही गृह मंत्री की ऐसी छवि छोडक़र गए हैं जिसे छूना उनके बाद संभव नहीं हुआ उल्टे कुछ ग्रह मंत्रियों ने इस महत्वपूर्ण पद की गरिमा को काफी कम किया है।
मुंबई हमले के दौरान तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल को भाजपा ने इसलिए त्यागपत्र के लिए मजबूर किया था क्योंकि उस दिन उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए कपड़े बदले थे। वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह पर भी गृह मंत्री की गरिमा गिराने के लगातार आरोप लग रहे हैं। मणिपुर की हिंसा कई महीने लंबी हो गई, उधर महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन हिंसक हो गया लेकिन गृहमंत्री की सबसे बड़ी चिंता येन केन प्रकारेण मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने पर है। ऐसा लगता है कि जिस तरह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पिछ्ले नौ साल से लगातार चुनावी मोड़ में हैं वैसे ही गृह मंत्री भी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मोड़ में हैं। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए उचित नहीं है।
-राघवेंद्र राव
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायधीशों की एक संविधान पीठ इलेक्टोरल बॉन्ड या चुनावी बॉन्ड योजना की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है।
ये मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से ज्यादा वक्त से लंबित है और इस पर सभी निगाहें इसलिए भी टिकी हैं क्योंकि इस मामले का नतीजा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर बड़ा असर डाल सकता है।
इस मामले पर सुनवाई शुरू होने से एक दिन पहले 30 अक्टूबर को भारत के अटॉर्नी जनरल आर। वेंकटरमणी ने इस योजना का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ये योजना राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में ‘साफ धन’ के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है।
साथ ही अटॉर्नी जनरल ने शीर्ष अदालत के सामने तर्क दिया कि नागरिकों को उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना कुछ भी और सब कुछ जानने का सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है।
इस बात का सन्दर्भ उस तर्क से जुड़ा हुआ है, जिसके तहत ये मांग की जा रही है कि राजनीतिक पार्टियों को ये जानकारी सार्वजानिक करनी चाहिए कि उन्हें कितना धन चंदे के रूप में किससे मिला है। क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड्स, जिन्हें लेकर इतनी बहस चल रही है, आइए समझते हैं।
गुमनाम वचन पत्र
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकता है।
भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को कानूनन लागू कर दिया था।
इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता है। इन्हें ऐसा कोई भी दाता खरीद सकता है, जिसके पास एक ऐसा बैंक खाता है, जिसकी केवाईसी की जानकारियां उपलब्ध हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है।
योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं।
चुनावी बॉन्ड्स की अवधि केवल 15 दिनों की होती है, जिसके दौरान इसका इस्तेमाल सिर्फ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है।
केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा दिया जा सकता है, जिन्होंने लोकसभा या विधान सभा के लिए पिछले आम चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो।
योजना के तहत चुनावी बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में 10 दिनों की अवधि के लिए खरीद के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं। इन्हें लोकसभा चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी किया जा सकता है।
क्या हैं चिंताएं?
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा। लेकिन पिछले कुछ सालों में ये सवाल बार-बार उठा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है।
एक आलोचना यह भी है कि यह योजना बड़े कॉर्पोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी।
इस योजना को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की गई हैं। पहली याचिका साल 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और गैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी और दूसरी याचिका साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) ने दायर की थी।
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि इस योजना की वजह से भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा असीमित राजनीतिक दान और राजनीतिक दलों के गुमनाम फंडिंग के फ्लडगेट्स या ‘बाढ़ के द्वार’ खुल जाते हैं, जिससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बना दिया जाता है।
याचिकाओं में ये भी कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की गुमनामी एक नागरिक के ‘जानने के अधिकार’ का उल्लंघन करती है, उस अधिकार का जिसे सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू माना है।
सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाई गई एक चिंता यह है कि एफसीआरए में संशोधन किया गया है ताकि भारत में सहायक कंपनियों के साथ विदेशी कंपनियों को भारतीय राजनीतिक दलों को फंड देने की अनुमति दी जा सके। इस वजह से अपने एजेंडा रखने वाले अंतरराष्ट्रीय लॉबिस्टों को भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में दखल देने का मौका मिलता है।
याचिकर्ताओं ने कंपनी अधिनियम, 2013 में किए गए उन संशोधनों पर भी आपत्तियां उठाई हैं जो कंपनियों को अपने वार्षिक लाभ और हानि खातों में राजनीतिक योगदान का विवरण देने से छूट देते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बढ़ेगी और राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने को बढ़ावा मिलेगा।
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को बजट में डाल दिया गया था और चूंकि बजट एक मनी बिल होता है तो राज्यसभा उसमें कोई फेरबदल नहीं कर सकती।
ये बात भी बार-बार उठाई गई है कि चूंकि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं था तो इस विषय को मनी बिल में डाल दिया ताकि उसे आसानी से पारित करवाया जा सके। तो क्या इलेक्टोरल बॉन्ड को मनी बिल के तहत पारित किया जा सकता था?
इस कानूनी सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ फि़लहाल विचार नहीं करेगी क्योंकि कब किसी विधेयक को धन विधेयक नामित किया जा सकता है, इस बात पर सात न्यायधीशों की संविधान पीठ पहले से ही विचार कर रही है।
किसे कितना फायदा?
चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉण्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपये मिले।
इस 9,188 करोड़ रुपये में से अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी लगभग 5272 करोड़ रुपये थी। यानी कुल इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दिए गए चंदे का करीब 58 फीसदी बीजेपी को मिला।
इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड से करीब 952 करोड़ रुपये मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपये मिले।
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिलने वाले चंदे में 743 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि में राष्ट्रीय पार्टियों को मिलने वाला कॉर्पोरेट चंदा केवल 48 फीसदी बढ़ा।
एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 (जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था) में सबसे ज़्यादा 3,439 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये आया। इसी तरह वर्ष 2021-22 में (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए) राजनीतिक पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये करीब 2,664 करोड़ रुपये का चंदा मिला।
चुनाव आयोग और आरबीआई की राय
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर एक हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता को खत्म कर देंगे और इनका इस्तेमाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के लिए विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियों को आमंत्रण देने जैसा होगा।
चुनाव आयोग ने ये भी कहा था कि कई प्रमुख कानूनों में किए गए संशोधनों की वजह से ऐसी शेल कंपनियों के खुल जाने की संभावना बढ़ जाएगी, जिन्हें सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के इकलौते मकसद से बनाया जाएगा।
एडीआर की याचिका के मुताबिक़, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बार-बार चेतावनी दी थी कि इलेक्टोरल बॉण्ड का इस्तेमाल काले धन के प्रसार, मनी लॉन्ड्रिंग, और सीमा-पार जालसाजी को बढ़ाने के लिए हो सकता है।
इलेक्टोरल बॉन्ड को एक ‘अपारदर्शी वित्तीय उपकरण’ कहते हुए आरबीआई ने कहा था कि चूंकि ये बॉन्ड मुद्रा की तरह कई बार हाथ बदलते हैं, इसलिए उनकी गुमनामी का फायदा मनी-लॉन्ड्रिंग के लिए किया जा सकता है।
क्या कहती है सरकार
सरकार का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं।
सरकार के मुताबिक़, ये योजना पारदर्शी है और इसके ज़रिये काले धन की अदला-बदली नहीं होती।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कई मौकों पर बताया है कि धन प्राप्त करने का तरीका बिल्कुल पारदर्शी है और इसके जरिये किसी भी काले या बेहिसाब धन को हासिल करना संभव नहीं है।
यह कहते हुए कि यह योजना ‘स्वच्छ धन के योगदान’ और ‘टैक्स दायित्वों के पालन’ को बढ़ावा देती है, अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा है कि इस मसले को सार्वजनिक और संसदीय बहस के दायरे में छोड़ दिया जाना चाहिए। (bbc.com/hindi)
सिद्धार्थ ताबिश
सत्रहवीं और अ_ारवीं शताब्दी के विक्टोरियन इतिहास पर बनी कोई भी फिल्म या वेब सीरीज़ जब मैं देखता हूँ तो मुझे उफन सी लगने लगती है उनके कपड़ों को देखकर मर्द और औरत इतना ज्यादा कपड़े पहनते हैं उसमें कि देखकर लगता है कि ये एक सेकंड भी कभी रिलैक्स न रह पाते रहे होंगे.. वो कपड़े नहीं टॉर्चर थे फिर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने जैसे ‘ओवरकुक्ड’ खाना पहचानना सीखा वैसे ही ओवर ‘क्लोथिंग’ भी पहचान गए वो और फिर उन्होंने कपडे ऐसे चुने जो उन्हें ‘रिलैक्स’ कर सकें। उन्होंने टी शर्ट बनाईं, बारमुडा बनाये, और कोशिश ये की कि कम से कम कपड़ा पहनें अब वो, क्यूंकि टाइट कपडा पहनने और ज्यादा कपड़ा पहनने के शरीर पर बहुत ही ‘खराब’ प्रभाव पड़ते हैं
जितने ज्यादा घंटे कुर्सी पर बैठकर काम करना होता है पश्चिम के लोगों को वो उतने ही ढीले और आरामदेह कपड़े पहनते हैं। जापान और अन्य देशों के लोग भी ऐसे ही हैं।
ढीले-ढाले और आरामदेह कपड़े पहनने वाले यहाँ वाले पेंट, शर्ट, बेल्ट और पॉइंटेड जूते पहन कर कंप्यूटर पर 9 घंटे काम करते हैं। समुद्र तट पर भी आपको पेंट और शर्ट पहने मिल जायेंगे ये लोग।
हम भारतीयों ने अंग्रेजों से कपड़ों की नकल तो कर ली मगर फिर वो कपड़ों को लेकर अपग्रेड नहीं हुए। हम किसी भी नकल के बाद अपग्रेड नहीं हुए। वो लोग पेंट और शर्त से आगे बढ़ गए और यहाँ का युवा सड़ी गर्मी में भी आपको पेंट, फुल शर्ट, उस पर बेल्ट, चमड़े का जूता पहने मिलेगा.. दिन रात जो बाइक पर पर घूम घूम कर खाना डिलीवर करते हैं वो भी यही ड्रेस पहने मिलेंगे जबकि अब कहीं भी ये सब अनिवार्य नहीं है मगर फिर भी भारतीय 45 डिग्री की गर्मी में फुल शर्ट, पैंट, बेल्ट और चमड़े के जूते को फॉर्मल कपड़ा बोलकर उसे ऑफिस वियर कहते हैं और वही पहनते हैं। ये टी शैर्ट पहन कर शर्माते हैं और उसे घर में पहना जाने वाला कपड़ा बोलते हैं। जबकि बड़े से बड़े लोग चाहे मार्क जुकरबर्ग हों या एलोन मस्क, सब टी-शर्ट ही पहने मिलेंगे आपको ज़्यादातर
ये बड़ी छोटी-छोटी चीजें हैं जिन्हें अगर आप ‘अपग्रेड’ करते रहेंगे तो आपका मानसिक स्तर भी अपग्रेड होता रहेगा। सोचिये थोड़ा कि जब आप 70 साल की उम्र तक शर्ट और पेंट ही नहीं छोड़ पा रहे हैं उसे ही ‘मान्य और सभ्य’ कपड़ा समझते हैं तो कैसे आप धर्म, दर्शन, समाज और संस्कृति को अपग्रेड करेंगे या उनके अपग्रेड विचारों को अपनाएंगे?
अमिता नीरव
आपमें से कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने न्याय और समानता जैसे मूल्यों के लिए अपने-अपने प्रिविलेजेस का त्याग किया है? या आप कितने ऐसे लोगों को या लोगों के बारे में जानते हैं जिन्होंने उदात्त मानवीय मूल्यों के लिए अपने विशेषाधिकारों का परित्याग किया है? इतिहास में इस तरह के लोग गिने जाने लायक संख्या में होंगे। ऐसे में ये उम्मीद कि समानता या न्याय के लिए कोई अपने प्रिविलेजेस त्यागेगा कितनी व्यावहारिक लगती है?
हम सब एक खास सेट ऑफ वैल्यूज और माइंडसेट में बड़े होते हैं। हम कितने ही सह्दय क्यों न हों, मानवीय मूल्यों की परतों को समझने में हमेशा सक्षम नहीं हो पाते हैं। कुछ हमारी अपनी सुविधाएँ हुआ करती हैं, कुछ कंडिशनिंग। ऐसे में यह सोचना कि प्रिविलेज्ड लोग समानता के मूल्य के लिए अपना प्रिविलेज छोड़ेंगे कितनी बड़ी उम्मीद है भई। पुरुष होने की हैसियत में ही कितने प्रिविलेज मिले हैं, पति होने की हैसियत तो इजाफा ही करती है।
पति जितने महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठा पुरुष आसानी से अपने पूजे जाने के प्रति असहज हो जाएगा? यदि स्त्री इस समाज में कंडिशंड हैं तो पुरुष भी है। अपने इर्दगिर्द ही पुरुषों को इस बात पर आहत होते देखा है कि उनकी पत्नियाँ उनकी लंबी उम्र के लिए किए जाने वाले व्रत नहीं करना चाहती हैं। जिस तरह से स्त्रियों पर पीयर प्रेशर होता है, उसी तरह पुरुषों के लिए भी यह ईगो का प्रश्न हुआ करता है।
ऐसे में हम ये कहें कि पुरुष इस सिलसिले में पहल करे कितनी इनोसेंट ख्वाहिश है न हमारी...
बकौल दुष्यंत-उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें।
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए।
जय शुक्ल
‘मैं मुसलमानों का सच्चा दोस्त हूं लेकिन मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है। मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने में विश्वास रखता हूं। मैं उन्हें स्पष्ट करना चाहता हूं कि ऐसी स्थिति में भारतीय संघ के प्रति देशभक्ति की घोषणा मात्र से उन्हें मदद नहीं मिलेगी। उनकी घोषणा का व्यावहारिक प्रमाण भी उन्हें प्रस्तुत करना चाहिए।’
‘मैं भारतीय मुसलमानों से एक सवाल पूछना चाहता हूं कि हाल ही में संपन्न अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन में उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की आक्रामकता की निंदा क्यों नहीं की? यह लोगों के मन में संदेह पैदा करता है। अब आपको एक साथ तैरना होगा या एक साथ डूबना होगा। एक ही नाव में, आप दो घोड़ों की सवारी नहीं कर सकते।’
‘जो लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं उन्हें वहां जाना चाहिए और शांति से रहना चाहिए, लेकिन यहां के लोगों को भी शांति से रहना चाहिए और प्रगति के काम में योगदान देना चाहिए।’
ये सरदार वल्लभभाई पटेल के एक भाषण के कुछ अंश हैं जो उन्होंने छह जनवरी, 1948 को लखनऊ में दिया था।
महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक 'पटेल, ए लाइफ़' में लिखते हैं, ‘लखनऊ एक ऐसा शहर था जहां कई लोग थे जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण की वकालत की थी। शहर में वैसे मुसलमान भी थे जो कोई फ़ैसला नहीं ले सके थे और कट्टर हिंदुओं का भी घर था। सरदार ने यहां पहले समूह को व्यंग्यात्मक ढंग से, दूसरे समूह को कठोर शब्दों में और तीसरे समूह को स्पष्ट रूप से समझाया था।’
नवम्बर, 1946 के चौथे सप्ताह में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मेरठ में हुआ। राजमोहन गाधी अपनी पुस्तक ‘पटेल, ए लाइफ’ में लिखते हैं, ‘इस सम्मेलन में सरदार ने पाकिस्तान की मांग करने वालों से कहा कि तुम जो भी करो, शांति और प्रेम के साथ करो और तुम सफल हो जाओगे, लेकिन तलवार का जवाब तलवार से दिया जाएगा।’
महात्मा गांधी की चि_ी
नोआखाली और बिहार हिंसा की वारदात के एक महीने से भी कम समय के बाद में पटेल द्वारा दिए गए ये भाषण के कुछ अंश नेहरू को पसंद नहीं आए। गांधी जी उस समय नोआखाली में थे और नेहरू तथा आचार्य कृपलानी उनसे मिलने गये।
उस समय ‘तलवार का जवाब तलवार’ से देने की बात पर सरदार का मेरठ में दिया गया भाषण चर्चा में था। गांधीजी ने 30 दिसंबर 1946 को सरदार को एक पत्र लिखा, जो नेहरू के साथ उनको भेजा।
राजमोहन गांधी सरदार की बेटी मणिबहन पटेल की डायरी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि गांधीजी के पत्र के कारण वह पूरे दिन दुखी रहे थे। गांधीजी ने अपने पत्र में लिखा था, ‘आपके विरुद्ध कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं। यदि आप तलवार का बदला तलवार से देने वाला न्याय सिखाते हैं, और यदि यह सत्य है, तो यह हानिकारक है।’
पत्र मिलने के पांच दिन बाद यानी सात जनवरी को सरदार पटेल ने गांधीजी को जवाबी पत्र लिखा। सरदार ने लिखा, ‘सच बोलना मेरी आदत है। मेरे लंबे वाक्य को छोटा करके ‘तलवार का जवाब तलवार से’ देने के संदर्भ को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है।’
हालांकि कई बार ऐसा हुआ जब सरदार ने मुसलमानों की वफ़ादारी पर सवाल उठाए। 5 जनवरी, 1948 को कलकत्ता में अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘मुसलमान कहते हैं कि उनकी निष्ठा पर सवाल क्यों उठाया जाता है। मैं कहता हूं कि आप अपनी अंतरात्मा से क्यों नहीं पूछते?’
सरदार पटेल के ये भाषण प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘भारत की एकता का निर्माण’ में शामिल हैं।
1978 में संसद में कांग्रेस विधानमंडल के उपनेता रहे रफ़ीक़ जक़ारिया ने अपनी किताब ‘सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान’ में लिखा है, ‘देश के विभाजन के दौरान हिंदू शरणार्थियों की हालत देखकर सरदार के मन में हिंदू समर्थक रवैया भले देखा जा सकता है। लेकिन उनमें भारतीय मुसलमानों के साथ अन्याय करने की कोई प्रवृत्ति देखी नहीं जा सकती थी।’
नेहरू की नाराजगी
सरदार के भाषणों को लेकर उनके नेहरू से भी मतभेद थे। नेहरू कैंप में माना जाता था कि सांप्रदायिक सद्भावना के मामले में सरदार मुसलमानों के प्रति उदार नहीं थे।
जानकारों का कहना है कि सरदार के बयान को घटना, समय, स्थान, व्यक्ति और संदर्भ से नहीं जोड़ा जाना चाहिए और न ही उनके किसी वाक्य को मुस्लिम विरोधी करार दिया जाना चाहिए।
इतिहासकार और शोधकर्ता रिज़वान कादरी ने बीबीसी गुजराती से कहा, ''वे बिना सोचे-समझे नहीं बोलते थे। संदर्भों में देखें तो, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जिस धर्म ने देश को विभाजित किया, उसके अनुयायी देश के प्रति वफ़ादार रहेंगे।’
कई बार उनके द्वारा किये गये व्यंग्य या कटाक्ष भी विवादों का कारण बने।
जकारिया लिखते हैं, ‘सरदार ने एक बार कहा था कि भारत में केवल एक ही ‘राष्ट्रवादी मुस्लिम’ है और वह ‘नेहरू’ हैं। यह बात इतनी फैल गई कि गांधीजी को सरदार से कहना पड़ा कि ‘वह अपनी हाजिऱ जवाबी को अपने विवेक पर हावी न होने दें।’
ऑपरेशन पोलो को लेकर आलोचना
हैदराबाद में स्थिति नियंत्रण में आने के बाद, सरदार ने वहां मुसलमानों को आश्वासन दिया गया कि जब तक वे भारत के प्रति वफ़ादार रहेंगे, उन्हें डरने की कोई बात नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने स्तंभकार रहे ए।जी नूरानी ने लिखा है कि हैदराबाद में सेना के इस्तेमाल की कोई ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द डिस्ट्रक्शन ऑफ़ हैदराबाद’ में लिखा, ‘सरदार के फ़ैसले के कारण हैदराबाद में मुसलमान मारे गए थे।’ उन्होंने इसके लिए सुंदरलाल कमेटी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया है।
नूरानी लिखते हैं कि कन्हैया मुंशी कांग्रेस पार्टी में ‘राष्टप्तीय स्वयंसेवक संघ के एजेंट’ थे। उल्लेखनीय है कि सरदार ने मुंशी को हैदराबाद में भारत सरकार का प्रतिनिधि बनाकर भेजा था और वह सरदार के खास व्यक्ति माने जाते थे।
सरदार उस समय हैदराबाद को भारत का कैंसर मानते थे क्योंकि निज़ाम हैदराबाद को स्वतंत्र रखना चाहते थे। सरदार ने ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद में सैन्य अभियान चलाया। नेहरू और राजाजी ने सैन्य कार्रवाई का विरोध किया, लेकिन सरदार अड़े रहे।
रफीक जकरिया लिखते हैं, ‘सरदार 7 अक्टूबर 1950 को हैदराबाद गए। उन्हें बताया गया कि लायक अली पुलिस से बचते हुए विमान से पाकिस्तान जा चुके हैं। यह ख़बर सुनकर हैदराबाद के मुसलमानों ने खुशी मनाई। लायक अली निज़ाम के अंतिम प्रधानमंत्री थे। इस संदर्भ में सरदार ने मुसलमानों से नाराजग़ी व्यक्त करते हुए कहा कि मुझे संदेह है कि मुसलमान अपना भविष्य भारत से नहीं जोड़ रहे हैं।’
जब सरदार बोले-मुस्लिम लीग ने दंगों से सबक सीखा
जब जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 को पाकिस्तान की मांग पर सीधी कार्रवाई करने का दिन घोषित किया, तो इसका बंगाल में भीषण असर देखने को मिला।
राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘राजाजी, ए लाइफ’ में लिखते हैं, ‘बंगाल सरकार के प्रमुख एच.एस. सुहारावर्दी ने इस दिन छुट्टी की घोषणा की थी। उस दिन हत्या, बलात्कार, लूटपाट की होली खेली गई थी। पुलिस मूकदर्शक बनी रही। पहले दो दिनों तक हिंदुओं को पीटा गया। लेकिन फिर जवाबी हमला किया गया। पांच दिनों तक चले इस जानलेवा खेल में 5,000 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई और 15,000 लोग घायल हो गए।’
‘सरदार पटेल ने 21 अगस्त, 1946 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को लिखे एक पत्र में कहा कि लीग ने सबक सीख लिया है, क्योंकि मैंने सुना है कि इसमें अधिक मुसलमान हताहत हुए हैं।’
नोआखाली के बाद बिहार में भी हिंसा हुई। तत्कालीन अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में नेहरू ने बंगाल और बिहार की निष्पक्ष जाँच के आदेश दिए थे। इसी बीच मुस्लिम लीग के एक सदस्य ने गांधी जी को लिखा कि बिहार में जांच में देरी के लिए सरदार पटेल जिम्मेदार हैं।
पहले गांधी जी ने सरदार को पत्र लिखा कि ऐसा लग रहा है कि आप जांच आयोग के खिलाफ हैं और बाद में पांच फरवरी, 1947 को दूसरा पत्र लिख कर कहा, ‘अगर आप जांच आयोग नहीं बिठाएंगे तो स्थिति भयावह हो जाएगी।’
सरदार ने गांधी जी को उत्तर दिया। 17 फरवरी को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, ‘किसने कहा कि मैं जांच आयोग के गठन में बाधा डाल रहा हूं। जांच रोकने में राज्यपाल का हाथ है और वायसराय भी ऐसा नहीं चाहते। वायसराय की सिफ़ारिश पर कलकत्ता में जांच चल रही है। लेकिन रिपोर्ट 12 महीने बाद आएगी। इतनी देर बाद जांच का क्या मतलब? यह अनावश्यक खर्च होगा, इससे कोई फायदा नहीं होगा।’
मौलाना आज़ाद के आरोप
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। पश्चिमी पंजाब और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांतों में सांप्रदायिक दंगे भडक़ उठे। पश्चिमी पंजाब के लाहौर, सियालकोट, गुजरांवाला और शेखपारा में भयानक जनसंहार हुए। इसका असर अमृतसर पर भी पड़ा। यह आग कलकत्ता में भी फैल गई।
गांधीजी ने कलकत्ता में शांति के प्रयास के लिए उपवास किया और जब वहां शांति स्थापित हुई तो दिल्ली में दंगे भडक़ उठे। यहां पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को शरण दी जानी थी। 5 सितंबर, 1948 तक लगभग दो लाख हिंदू या सिख शरणार्थी दिल्ली आ चुके थे।
दिल्ली में मुसलमानों को निशाना बनाया गया।
मौलाना अबुल कलाम आजाद अपनी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम में लिखते हैं, ‘दिल्ली में सिखों की एक दंगाई भीड़ ने मुसलमानों पर हमले शुरू कर दिए। मुझे आश्चर्य हुआ कि अगर पश्चिमी पंजाब में हिंदुओं और सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए वहां के मुसलमान जिम्मेदार थे, तो दिल्ली में निर्दोष मुसलमानों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?’
‘पीडि़तों की संख्या इतनी अधिक थी कि पुराने किले में उनके लिए एक राहत शिविर स्थापित करना पड़ा। गांधीजी मुझसे, सरदार पटेल और नेहरू से मामले पर विवरण देने के लिए कहते थे। सरदार का दृष्टिकोण अलग था। हम दोनों के बीच मतभेद बढ़े। एक तरफ मैं और जवाहरलाल थे। जबकि दूसरी तरफ सरदार थे। प्रशासन में दो गुट हो गए। लोग सरदार की ओर देखते थे क्योंकि वह देश के गृह मंत्री थे। उन्होंने ऐसा काम किया कि बहुसंख्यक गुट उनसे खुश था। अल्पसंख्यक गुट मुझसे और जवाहरलाल से उम्मीद कर रहा था।’
मौलाना ने सरदार पर आरोप लगाया कि दिल्ली प्रशासन, जो सीधे सरदार पटेल के विभाग के तहत काम करता है, हिंसा पर अंकुश लगाने में विफल रहा है।
मौलाना लिखते हैं कि 'जब दिल्ली में मुसलमान कुत्ते-बिल्लियों की तरह मर रहे थे, तब मैं, जवाहर और सरदार गांधीजी के साथ बैठे थे। जब जवाहरलाल ने दिल्ली में हिंसा को रोकने के लिए प्रशासन के काम करने के तरीके पर नाराजगी व्यक्त की, तो सरदार ने उनसे कहा कि मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं है। सरकार मुसलमानों की जान-माल बचाने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन और कुछ नहीं किया जा सकता।’
मौलाना लिखते हैं कि, ‘सरदार के जवाब से जवाहरलाल को सबसे ज्यादा झटका लगा। उन्होंने गांधी जी से कहा कि यदि सरदार पटेल के ऐसे विचार हैं तो मुझे उसमें कुछ कहना नहीं है।’
मौलाना ने लिखा, ‘गांधी ने यह भी कहा था कि दिल्ली में मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है और सरदार का गृह विभाग इसे नियंत्रित करने में विफल रहा है। 12 जनवरी, 1948 को गांधी ने हिंसा को रोकने के लिए उपवास का हथियार उठाने का फ़ैसला किया। सरदार ने गांधीजी को उपवास करने से रोकने की बहुत कोशिश की।’
‘सरदार को अगली सुबह बॉम्बे और काठियावाड़ के लिए निकलना था। वह गांधीजी से कहने लगे कि वह बिना किसी कारण के उपवास कर रहे हैं। गांधीजी ने उत्तर दिया कि, ‘मैं चीन में नहीं रह रहा हूं, मैं दिल्ली में हूं। मेरी आंखें और कान अभी भी काम कर रहे हैं। यदि आप कह रहे हैं कि मुसलमानों की शिकायतें बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हैं, न तुम मुझे समझते हो, न मैं तुम्हें समझता हूं।’’
सरदार अपनी यात्रा पर निकल पड़े। वहीं दिल्ली में गांधीजी का अनशन तुड़वाने की कोशिशें शुरू हो गईं। शांति प्रयासों से संतुष्ट होकर गांधीजी ने 18 जनवरी को मौलाना से मौसम्बी का जूस पीकर अपना उपवास तोड़ा। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि मुसलमानों के नष्ट किये गये धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण कराया जाये।
मौलाना के मुताबिक, ‘गांधी जी के इस रवैये से न केवल सरदार नाराज थे, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के कार्यकर्ता भी नाराज़ थे।’
हालांकि राजमोहन गांधी ने इसके उलट लिखा है कि जब गांधीजी ने अपना उपवास तोड़ा, तो सरदार ने उनका आभार व्यक्त करते हुए बम्बई से एक तार भेजा।
वरिष्ठ विश्लेषक और सरदार पटेल पर किताब लिख चुके उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘मौलाना ने कई आरोप लगाए लेकिन सरदार उनके लिए जि़म्मेदार नहीं थे। उस समय ऐसी स्थिति थी। 1946-50 की अवधि को हाल की परिस्थिति से तुलना करते सरदार को मुस्लिम विरोधी या सांप्रदायिकतावादी नहीं कहा जा सकता है।’
जब सरदार ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा रोकी
पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों को पंजाब से होकर जाना पड़ता था। वहां मुस्लिम विरोधी माहौल चरम पर था।
पाकिस्तान के तत्कालीन मंत्री गजनफर अली ख़ान ने सरदार पटेल को एक टेलीग्राम भेजा कि पाकिस्तान आने वाले लोगों का राजपुरा और लुधियाना के बीच पटियाला और बठिंडा के पास नरसंहार किया जा रहा है।
26 अगस्त, 1947 को सरदार ने पटियाला के महाराजा को टेलीग्राम कर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने और विश्वास का माहौल बनाने का अनुरोध किया। दंगे न रुकने पर सरदार 30 सितम्बर को खुद अमृतसर पहुँचे और वहाँ एक बैठक की।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘उन्होंने सभा में कहा आज स्थिति यह हो गई है कि लाहौर में कोई हिंदू या सिख अकेला नहीं चल सकता, कोई मुसलमान नहीं रह सकता अमृतसर में।।।इस हालत ने दुनिया में हमारा नाम खराब कर दिया है।’
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘सरदार के इन व्यक्तिगत प्रयासों के कारण उसके बाद पाकिस्तान जाने वाली एक भी ट्रेन पर हमला नहीं किया गया।’
जब जिन्ना ने सरदार पर निशाना साधा
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने स्तंभकार ए। जी नूरानी ने एक बार द हिंदू में लेख लिखा था।
इस लेख में उन्होंने लिखा था, ‘नवंबर 1945 में, एक शीर्ष कांग्रेस नेता ने बॉम्बे के मरीन ड्राइव के पास चोपाटी बीच पर एक स्विमिंग पूल का उद्घाटन किया। इस स्विमिंग पूल का नाम प्राणसुखलाल मफतलाल हिंदू स्विमिंग पूल था। इस स्विमिंग पूल के दरवाजे मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए बंद कर दिए गए थे। यह नेता कौन था? इस पूल का उद्घाटन करने वाले व्यक्ति का नाम था-वल्लभभाई पटेल। पूल के बाहर एक पट्टिका पर इस साहसिक कार्य के लिए उनकी प्रशंसा करते हुए देखा जा सकता है।’
पहले तो इसका किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने 18 नवंबर, 1945 को दिल्ली से एआईसीसी सत्र में पटेल द्वारा दिए गए भाषण का जवाब देते हुए कहा, ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई और भारत एक है जैसे नारे सरदार पटेल के मुख में शोभा नहीं देते। क्या पटेल ने बंबई में केवल हिंदू स्विमिंग पूल का उद्घाटन नहीं किया था? जिसका कुछ युवकों ने विरोध किया। स्विमिंग पूल के साथ-साथ मुसलमान इतने भाग्यशाली नहीं थे कि समुद्र के पानी का उपयोग कर सकें।’
इसके लिए नूरानी ने वहीद अहमद की किताब द नेशन्स वॉइस का हवाला दिया। उन्होंने यह भी लिखा, ‘उस समय न तो नेहरू और न ही राजाजी ने उन्हें रोकने की कोशिश की।’
उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘अगर कोई सरदार को मुस्लिम विरोधी बताकर उनका राजनीतिकरण करता है, तो वह सरदार का अपमान कर रहा है।’
नूरानी लिखते हैं कि सरदार अपने विरोधियों से निपटने में बहुत सख्त थे, उनके पास छुपे हुए आरएसएस कनेक्शन थे।
नूरानी लिखते हैं, ‘22 अक्टूबर, 1946 को भारत के वायसराय लॉर्ड वेवेल ने ब्रिटेन के राजा को लिखी एक रिपोर्ट में लिखा था कि पटेल स्पष्ट रूप से एक सांप्रदायिक हैं।’
इन सभी आरोपों के बीच सरदार एक को संप्रभु भारत के निर्माता के रूप में जाना जाता है। जक़ारिया लिखते हैं, ‘देशभर में फैली 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में एकीकरण वास्तव में एक बहुत बड़ा काम था। यह चमत्कार करके सरदार ने अपने लिए भारत के बिस्मार्क की उपाधि अर्जित की। इसमें कश्मीर शामिल नहीं था। उसकी जि़म्मेदारी सरदार के हाथ में नहीं थी। आज भी कश्मीर हमारी राजनीति के लिए एक समस्या के तौर पर देखा जाता है।’
सरदार स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए बनाए गए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को जारी रखने या पुनर्गठन के विरोध में थे।
सरदार ने संविधान सभा में अनुसूचित जाति को छोडक़र सभी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने का समर्थन किया।
संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और जनजाति को छोडक़र अन्य सभी अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने का निर्णय लिया।
आरएसएस के प्रति नरमी दिखाने का आरोप
नेहरू को यह भी शिकायत थी कि दिल्ली हिंसा में आरएसएस कार्यकर्ता शामिल थे, फिर भी पुलिस ने उनके खिलाफ और दंगा करने वाले सिख गिरोहों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। हालाँकि, बाद में नेहरू ने स्वीकार किया कि पुलिस ने धीरे-धीरे उनके खिलाफ कार्रवाई की थी।
20 जनवरी को गांधी जी की प्रार्थना सभा में जोरदार विस्फोट हुआ। गांधी जी बच गये। उसी दिन पश्चिम पंजाब के मदनलाल पाहवा नामक एक व्यक्ति ने बम फेंका। मदनलाल तो पकड़ लिया गया लेकिन बाकी लोग भाग निकले। पुलिस को मदनलाल से जानकारी मिली कि गांधीजी की हत्या की साजिश रची जा रही है।
सरदार ने गांधीजी को सुरक्षा देने की बात की लेकिन गांधीजी ने इसका विरोध किया। 30 जनवरी को सरदार मणिबहन के साथ गांधीजी से मिलने पहुंचे। नेहरू और सरदार के बीच मतभेदों पर चर्चा हुई। गांधीजी ने सरदार से कहा कि वे इस विषय पर नेहरू से भी बात करेंगे। उनका मानना था कि वर्तमान परिस्थितियों में दोनों के बीच मतभेद देश हित में नहीं है।
तीन मिनट में मणिबहन और सरदार अपने घर पहुँच गये। वहां पता चला कि किसी ने बापू को गोली मार दी है।
गांधी जी की हत्या के बाद सरदार पर आरोप लगने लगे। तीन फरवरी को स्टेट्समैन के एक स्तंभकार ने लिखा कि महात्मा गांधी को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहने के लिए सरदार को गृह मंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने भी सरदार की आलोचना की और कहा कि जिस विभाग को चलाना तीस साल के युवा के लिए भी मुश्किल हो, उसे 74 साल का आदमी कैसे चला सकता है?
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘सरदार ने अपना इस्तीफा लिखा लेकिन भेजा नहीं। नेहरू ने सरदार को एक भावनात्मक पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि हमारे बीच मतभेदों को नमक और मिर्च लगाकर पेश किया जा रहा है। इस बुरे खेल को रोकना ज़रूरी है। बापू की मौत के बाद जो आपातकाल पैदा हुआ है इसका मुकाबला करने के लिए हमें मित्र या सहयोगी के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए।’
सरदार ने भी उत्साहपूर्वक अपना उत्तर दिया। सरदार ने लिखा, ‘बापू की भी राय थी कि हम परस्पर जुड़े हुए हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आपके नेतृत्व में मैं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हूं।’
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस और हिंदू महासभा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालांकि, सरदार और नेहरू के उनके बारे में अलग-अलग विचार थे। नेहरू आरएसएस और हिंदू महासभा को फासीवादी मानते थे जबकि सरदार उन्हें देशभक्त मानते थे। नेहरू का मानना था कि बापू की हत्या एक बड़ी साजिश का हिस्सा थी। इसके लिए अभियान आरएसएस ने चलाया था। हालांकि, सरदार इससे सहमत नहीं थे।’
7 जुलाई 1948 को सरदार ने प्रान्तों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। इससे पहले हिंदू महासभा के नेता और नेहरू सरकार में मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पत्र लिखकर कुछ मामलों पर विचार करने को कहा था।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लिखा, ‘गांधीजी की हत्या में एक छोटा समूह शामिल था। जिनके ख़िलाफ़ साजिश में शामिल होने का कोई सबूत नहीं है, उन्हें तुरंत रिहा किया जाना चाहिए। इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इस मामले में आरएसएस का कोई हाथ है।’
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शिकायत की कि हर मोर्चे पर हिंदुओं को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है लेकिन मुसलमानों की ऐसी (संदिग्ध) गतिविधियों के ख़िलाफ़ कोई भी कुछ करने की स्थिति में नहीं है।
मुख्यमंत्रियों की बैठक समाप्त होने के बाद सरदार ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखा, ‘आरएसएस और हिंदू महासभा के ख़िलाफ़ मामला अदालत में विचाराधीन है। आरएसएस की गतिविधियां सरकार के खिलाफ खतरनाक थीं। सुरक्षा अधिनियम के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को छह महीने से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता।’
लखनऊ में दिए एक भाषण में
सरदार ने लखनऊ में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कांग्रेस में शामिल होने की अपील की थी और उन्होंने यह भी कहा था कि वे अकेले हिंदुओं के ठेकेदार नहीं हैं।
उन्होंने कहा, ‘कुछ सत्ता पर काबिज कांग्रेसी सोचते हैं कि वे अपनी ताक़त के बल पर आरएसएस को कुचल सकते हैं। आप किसी संगठन को सत्ता के जोर के बल पर नहीं कुचल सकते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग चोर और लुटेरे नहीं हैं। वे देशभक्त हैं। वे अपने देश से प्यार करते हैं लेकिन उनके विचार गुमराह हैं।’
लेखक हिम्मतभाई पटेल अपनी पुस्तक चक्रवर्ती संन्यासी सरदार पटेल में लिखते हैं कि सरदार का यह भाषण रेडियो पर भी प्रसारित किया गया था। आरएसएस ने इसका फायदा उठाया और इसे सर्वत्र प्रचारित किया।
बीबीसी गुजराती से बातचीत में उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘सरदार ने आरएसएस और हिंदू महासभा को कांग्रेस में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, इसका मतलब यह नहीं था कि उनका उनके प्रति अधिक स्नेह था। वह चाहते थे कि भारत अब आज़ाद है और सभी को इसका समर्थन करना चाहिए। सब मिलकर इसे आगे बढ़ायें। अगर आम्बेडकर सरकार में हैं, श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं तो उनके अनुसार संघ को साथ लेने में कोई दिक्कत नहीं थी।’
क्या चाहते थे पटेल?
मौलाना आज़ाद लिखते हैं कि सरदार का दिमाग किस दिशा में काम कर रहा था, इसका एक और उदाहरण देखिए। ‘सरदार को लगा कि मुसलमानों पर हमलों के पीछे कारण और तर्क देना ज़रूरी है।’
वह लिखते हैं, ‘सरदार ने दिल्ली में एक मुस्लिम घर में पाए गए हथियारों की एक प्रदर्शनी आयोजित की थी। उनका सिद्धांत था कि मुसलमानों ने हिंदुओं और सिखों पर हमला करने के लिए हथियार एकत्र किए थे। अगर हिंदुओं और सिखों ने विरोध नहीं किया होता, तो मुसलमानों ने उन्हें नष्ट कर दिया होता।’
‘कैबिनेट बैठक के दौरान इन हथियारों का प्रदर्शन किया गया। लॉर्ड माउंटबेटन ने कुछ चाकू उठाए और कहा, मेरे लिए यह पचाना मुश्किल है कि कोई इन हथियारों से पूरी दिल्ली पर कब्जा कर सकता है।’
हालाँकि, ऐसे आरोपों के विपरीत, सरदार को मुसलमानों की भी चिंता थी। राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘जब राजपूत और सिख सैनिकों ने मुसलमानों की रक्षा करने के बजाय उन पर हमला किया, तो दिल्ली में सरदार ने सिख और राजपूत रेजिमेंट के स्थान पर मद्रास रेजिमेंट को तैनात कर दिया।’
‘वह दक्षिण दिल्ली में निज़ामुद्दीन दरगाह के बारे में चिंतित हो गए। कुछ डरे हुए मुसलमानों ने दरगाह में शरण ली। सरदार दरगाह के दौरे पर गए। वहां गए और प्रभारी अधिकारी को उनकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने का निर्देश दिया।’
उर्विश कोठारी कहते हैं, ‘सरदार पर उस दौरान बहुत सारी जिम्मेदारियां थीं। उनमें हिन्दू-मुस्लिम एकता से अधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक दृष्टिकोण था। उनके मन में मुसलमानों के प्रति अलगाव की भावना थी लेकिन वे मुसलमानों को ख़त्म करने की विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे।’ (bbc.com/hindi)
रेहान अहमद
उत्तर प्रदेश के अमरोहा के लोकल टूर्नामेंट में तौसीफ अली नाम के एक तेज गेंदबाज का बोलबाला था। तौसीफ तेज गेंदबाजी का शौक और हुनर दोनो रखते थे। लोग बाग सलाह भी देते कि क्लब में जाओ, ट्रेनिंग करो डोमेस्टिक में जा सकते हो। पर तौसीफ अली किसान परिवार से थे, डोमेस्टिक या नेशनल के लायक तैयारी के लिए न पैसे थे, ना ही उम्र बची थी। एक समय आया जब तौसीफ अली ने स्वीकार कर लिया कि शायद ये खेती किसानी ही उनका मुकद्दर है, प्रोफेशनल क्रिकेट के लिए देर हो चुकी है। तौसीफ अली भारतीय टीम के फास्ट बॉलर का सपना दिल में दफन करके अपनी आम जिंदगी में लौट आए। शादी हुई, खेती किसानी से परिवार पाला। पांच बेटे हुए, और सबके अंदर क्रिकेट को लेकर दीवानगी। तौसीफ अली को मालूम था कि उनसे कहा कहा गलती हुई थी, क्या क्या नहीं हुआ जिसकी वजह से उन्हें अपने सपने मारने पड़े। वो अपने बच्चो के साथ ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहते थे। पंद्रह साल तक अपने बेटे को गेंदबाज बनने के लिए खुद ट्रेन करते रहे, अपने तजरबे अपनी गलतियों का निचोड़ उन्होंने अपने बेटे की राह में रख दिए। बेटे को बस चलना था और वो हासिल करना था जिसे हासिल करने की जद्दोजहद का मौका भी उसके अब्बू को हासिल नहीं हुआ था।
पंद्रह साल की उम्र तक बेटे को ट्रेन करने के बाद तौसीफ अली अपनी सारी जमा पूंजी इक_ा करके अपने बेटे को लेकर मुरादाबाद की एक क्रिकेट एकेडमी में कोच बदरुद्दीन के पास लेकर गए। कोच के सामने बेटे ने गेंद फेंकना शुरू किया तो बदरुद्दीन ने तुरंत उसे अपना शागिर्द कुबूल कर लिया। वो लडक़ा इस कदर मेहनती था कि उसने एक दिन भी ट्रेनिंग का नागा नही किया,मुरादाबाद में ट्रेनिंग के दौरान अगर कोई मैच खत्म होता तो वो लडक़ा पुरानी इस्तेमाल हुई गेंद मांगने खड़ा हो जाता, वजह पूछी गई तो बताया कि इन पुरानी गेंदों से मैं रिवर्स स्विंग की प्रैक्टिस करूंगा। बदरुद्दीन को पूरा यकीन था कि इस लडक़े को अंडर 19 के ट्रायल में तो सिलेक्टर उठा ही लेंगे। इसी उम्मीद के साथ शमी ने ट्रायल दिया, सोच बदरुद्दीन के मुताबिक सिलेक्टर के पक्षपातपूर्ण रवैए के कारण शमी को मौका नहीं दिया गया। बदरुद्दीन से कहा गया कि अगले साल आइए इसे लेकर, लडक़े में जान है, कब तक दूर रखेंगे सिलेक्टर इसे इंडियन कैप से। बदरुद्दीन दूरदर्शी आदमी थे, बोले इस लडक़े का एक साल और दाव पर नहीं लगाना है, उन्होंने लडक़े के पिता तौसीफ अली से बात की और कहा कि इसे आप कलकत्ता भेजिए। वहां क्लब खेलेगा तो आज नहीं कल स्टेट टीम में आ ही जायेगा। तौसीफ अली के पास ये जुआ खेलने की सिर्फ एक वजह थी अपने बेटे की काबिलियत और जुनून पर उनका भरोसा।
कलकत्ता आकर उस लडक़े ने एक क्लब ज्वाइन कर लिया,पर स्टेट और नेशनल टीम का रास्ता दूर भी था और मुश्किल भी। जुनून के भरोसे वो बंगाल तो पहुंच गया, पर जुनून न तो पेट भरता है न सर पर छत रखता है।पर दुनिया में ऐसे लोगो की कमी नहीं जो जुनून और काबिलियत ही ढूढते है लोगों में,ऐसे ही एक शख्स थे देवव्रत दास, जो की उस वक्त बंगाल क्रिकेट के असिस्टेंट सेक्रेटरी की हैसियत पर थे। वो उस लडक़े की काबिलियत से इतने इंप्रेस हुए कि कलकत्ता में बेघर उस लडक़े को अपने साथ रहने के लिए रख लिया। फिर उन्होंने बंगाल के एक चयनकर्ता बनर्जी को उस लडक़े की प्रतिभा पर नजर रखने को कहा।बनर्जी ने लडक़े को गेंद फेंकते देखा और उसे बंगाल की अंडर 22 की टीम में सिलेक्ट कर लिया। देवदत्त दास से जब उस लडक़े पर ऐसी मेहरबानी की वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा कि ‘इस लडक़े को रूपया पैसा नहीं चाहिए,इसे बस एक चीज नजर आती है वो है पिच के आखिर में गड़े हुए तीन स्टंप। स्टंप से गेंद की टकराने की आवाज उस लडक़े को इतनी पसंद है कि उसके ज्यादातर विकेट बोल्ड आउट ही है।’
वहा से निकलकर उस लडक़े ने मोहन बागान क्लब ज्वाइन किया, वहा ईडन गार्डन के नेट्स में उसने सौरव गांगुली को गेंदबाजी की। सौरव के साथ भी वही हुआ, जो अब तक हर उस इंसान के साथ हो रहा था जो उस लडक़े को गेंद फेंकते हुए देख रहा था। गांगुली इंप्रेस हुए और फिर उनकी रिकमेंडेशन पर शमी को बंगाल की 2010–11 की रणजी टीम में चुन लिया गया। कुछ साल की मेहनत और जद्दोजहद के बाद 6 जनवरी 2013 के दिन पाकिस्तान के खिलाफ इस लडक़े को इंडियन टीम की डेब्यू कैप दी गई। जिसे पहनने के बाद आज तक वो लडक़ा उस टोपी नंबर 195 का रुतबा दिन ब दिन बढ़ाए जा रहा है। हजारों दर्शकों के बीच में, वो लडक़ा पूरे दम के साथ जब दौडऩा शुरू करता था तो उसके अंदर एक ही लालच रहता, किसी तरह गेंद स्टंप को लगे और वो टक का साउंड आए जिसे सुनकर ही इतने साल वो सांस लेता रहा है। जिंदगी की तमाम उतार चढ़ाव, मुश्किलों परेशानियों के बावजूद आज भी, अमरोहा के तेज गेंदबाज तौसीफ अली का बेटा मोहम्मद शमी, जर्सी नंबर 11 पहन कर जब रनअप पर दौडऩा शुरू करता है, तो उसके पीछे पीछे उसके अब्बू का सपना, कोच बदरुद्दीन की लगन, देवदत्त दास की इंसानियत सब कुछ साथ साथ चलता है दौड़ता है।
1992 में आईसीसी क्रिकेट वल्र्ड जीतने वाला पाकिस्तान 2023 के वल्र्ड कप में बाहर होने के खतरे से जूझ रहा है।
क्रिकेट वल्र्ड कप 2023 में पाकिस्तान की लगातार चौथी हार के बाद उसके इस टूर्नामेंट से बाहर होने का खतरा बढ़ गया है।
अब पाकिस्तान को न केवल अपने सारे मैचे जीतने होंगे, बल्कि दूसरी टीमों के नतीजे पर भी निर्भर रहना होगा। खास करके जो मैच ऑस्ट्रेलिया से जुड़े हैं, उन पर पाकिस्तान का भविष्य ज़्यादा टिका है।
पाकिस्तान चाहेगा कि ऑस्ट्रेलिया को बांग्लादेश या अफगानिस्तान से झटका लगे।
इस वल्र्ड कप में पाकिस्तान ने अब तक छह मैच खेले हैं और केवल दो में जीत मिली है। अंक तालिका में पाकिस्तान के केवल चार प्वाइंट्स हैं। पाकिस्तान को अभी बांग्लादेश, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड से मैच खेलने हैं।
पाकिस्तान अगर तीनों मैच जीत भी जाता है तो इस बात का इंतजार करना होगा कि बाक़ी टीमों के नतीजे उसके पक्ष में हैं या नहीं।
पाकिस्तान को न केवल तीनों मैच जीतने होंगे, बल्कि बड़े अंतर से जीतने होंगे ताकि नेट रन रेट में सुधार हो सके।
ऑस्ट्रेलिया ने न्यूज़ीलैंड को हरा दिया है और इससे पाकिस्तान की राह और मुश्किल हो गई है। अब ऑस्ट्रेलिया के तीन मैच और बचे हैं।
ऑस्ट्रेलिया को अभी बांग्लादेश, अफगानिस्तान और इंग्लैंड से मैच खेलने हैं।
बांग्लादेश और अफग़़ानिस्तान से ऑस्ट्रेलिया शायद ही मैच हारे। इंग्लैंड भी इस वल्र्ड कप में लगातार मैच हार रहा है।
ऐसे में ये उम्मीद करना कि ऑस्ट्रेलिया हार जाएगा, बहुत उम्मीद नहीं जगाता है।
अब केवल अपनी जीत ही काफी नहीं
पाकिस्तान ने अपने दो शुरुआती मैच नीदरलैंड्स और श्रीलंका से जीते थे। इन दो जीत के बाद इंडिया से हार मिली और उसके बाद से पाकिस्तान को सभी तीन मैचों में हार मिली है।
यहाँ तक कि पाकिस्तान को अफगानिस्तान से भी हार का सामना करना पड़ा।
चार लगातार हार के बाद पाकिस्तान का नेट रन रेट गिरकर माइनस 0.378 हो गया है।
लेकिन पाकिस्तान अभी टॉप फोर से बाहर पाँच मैचों के दम पर है और उसे अभी तीन मैच और खेलने हैं।
ग्रुप मैच में इंडिया, न्यूजीलैंड और साउथ अफ्रीका पहले ही सेमीफाइनल की ओर जगह लगभग पक्की कर चुके हैं।
चौथे नंबर पर अभी ऑस्ट्रेलिया है और पाकिस्तान को यही जगह लेनी है। अभी पाँचवें नंबर पर श्रीलंका है लेकिन वो भी लगातार मैच हार रहा है। पाकिस्तान और श्रीलंका दोनों के चार-चार अंक हैं।
पाकिस्तान अगर बाक़ी बचे सभी तीन मैच जीत जाता है तो उसके हिस्से में कुल पाँच जीत होगी और 10 अंक होंगे। लेकिन तब भी पाकिस्तान के लिए सेमीफाइनल की राह मुश्किल है।
इस स्थिति में पाकिस्तान चाहेगा कि ऑस्ट्रेलिया अपने बाकी बचे तीन मैच में से कम से दो मैच हारे।
अगर ऐसा होता है तो फिर मामला नेट रन रेट पर जाएगा। अगर ऑस्ट्रेलिया तीनों मैच हार जाता है तो पाकिस्तान चौथे नंबर पर आ जाएगा। हालांकि यह असंभव सा लगता है।
अगर पाकिस्तान कुल तीन बचे मैच में केवल दो मैच जीतता है तो उसके हिस्से में कुल चार जीत आएगी और आठ अंक होंगे।
ऐसी स्थिति में पाकिस्तान वर्ल्ड कप से लगभग बाहर हो जाएगा लेकिन प्वाइंट्स टेबल की जटिलता की स्थिति में थोड़ी संभावना बची रहेगी। अगर पाकिस्तान केवल एक मैच ही जीत पाता है तो वह वल्र्ड कप से बाहर हो जाएगा।
ये चार स्थितियाँ
अगर न्यूजीलैंड बाकी के सभी तीन मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता है तो प्वाइंट्स टेबल में पाकिस्तान के दस अंक हो जाएंगे और न्यूजीलैंड के आठ अंक रहेंगे।
ऐसी स्थिति में इंडिया, साउथ अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान शीर्ष की चार टीमें होंगी। शीर्ष की चार टीमें ही सेमीफाइनल में जाएँगी।
अगर न्यूजीलैंड तीन में से दो मैच हार जाता है और एक में ही जीत मिलती है तो उसके कुल 10 अंक होंगे।
दूसरी तरफ पाकिस्तान भी अगर तीनों मैच जीत जाता है तो उसके भी 10 अंक हो जाएँगे। इस हालत में नेट रन रेट निर्णायक साबित होगा।
अगर ऑस्ट्रेलिया बाकी के सभी मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता है तब भी ऑस्ट्रेलिया के 8 अंक होंगे और पाकिस्तान के 10। ऐसे में इंडिया, साउथ अफ्रीका, न्यूज़ीलैंड और पाकिस्तान सेमीफ़ाइनल में पहुँच जाएँगे।
अगर ऑस्ट्रेलिया एक मैच ही जीत पाता है और दो हार जाता और पाकिस्तान तीनों मैच जीत लेता है तो दोनों टीमों के अंक बराबर यानी 10-10 हो जाएँगे। ऐसे में फैसला नेट रन रेट पर होगा।
अगर दक्षिण अफ्रीका बाकी के तीन मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता है तो दोनों के 10-10 अंक हो जाएँगे।
ऐसे में यहां भी फैसला नेट रन रेट पर होगा और इसमें पाकिस्तान पीछे छूट जाएगा।
अगर भारत बाकी के सभी तीन मैच हार जाता है और पाकिस्तान सभी तीन मैच जीत जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि भारत पहले ही 12 अंक हासिल कर चुका है।
पाकिस्तान तीन मैच जीतकर भी 10 अंक ही हासिल कर सकता है।
अगर श्रीलंका अपने चार में से तीन मैच जीत जाता है और पाकिस्तान भी अपने सभी तीन मैच जीत जाता है तो दोनों के 10-10 अंक हो जाएंगे। ऐसे में नेट रन रेट ही निर्णायक साबित होगा।
पाकिस्तान चाहता है कि श्रीलंका न्यूज़ीलैंड को हरा दे और इंडिया, बांग्लादेश या अफग़़ानिस्तान से हार जाए।
पाकिस्तान का भविष्य अब केवल अपनी जीत पर नहीं बल्कि दूसरों की हार और जीत पर ज़्यादा निर्भर है। (bbc.com/hindi)
-सिद्धार्थ ताबिश
असल में अगर आप देखेंगे तो पायेंगे कि ‘मोह और माया’ रहित जीवन सिर्फ पश्चिम के लोग जीते हैं। उनका सारा जीवन उधार और क्रेडिट कार्ड में चलता है। धन संचय न के बराबर। सोना और चांदी तो बिल्कुल न के बराबर खरीदते हैं क्यूंकि उन्हें मुसीबत के दिनों की फिक्र नहीं होती है.. और रिश्तों का ये मामला होता है कि लडक़ों को अपने माता पिता से मिले भी चालीसों साल हो जाते हैं कभी-कभी बाकी रिश्तेदारी छोड़ ही दीजिये। अंकल, आंटी, कजिन के सिवा उनके शब्दकोष में और रिश्तेदारी के नाम ही नहीं होते हैं। शादी के बाद वो कभी भी माँ और पिता के पास नहीं रहते हैं। अपने 2 साल के बच्चे को भी अलग कमरे में सुलाते हैं.. दुनिया में कहीं भी जा कर एकदम अकेले बस जाते हैं। ठीक से सिर्फ एक त्यौहार क्रिसमस मनाते हैं बस.. मोह और माया से मुक्त होना उनके बचपन की ट्रेनिंग होती है। खतरों से खेलना और जग कर जीना उनके रोजमर्रा का जीवन होता है। इसलिए ज़्यादातर ‘जग’ कर और मोह माया से मुक्त होकर ही मरते हैं।
और भारतीय अपना जीवन उम्र भर सोना खरीदने, प्रॉपर्टी खरीदने, अपनी दस पुश्तों तक के लिए धन संचय करने, बेटा बेटी समेत दो दर्जन रिश्तेदारों को अपने आसपास रखने, कम से कम 50 तरह के रिश्तों के नाम, फुफेरी मौसी, चचेरी बुआ, लुटेरी ताई इत्यादि, इनका 35 साल का बेटा बहु को लेकर अलग जा कर रहने लगे तो कोई जतन नहीं छोड़ते हैं उसे अपने पास घसीटने में, सिर्फ परिवार और अपने परिवार को सीने से लगाने, सारी उम्र अपना और पराया करने, अम्मा बेटे के लिए मरी जाती है बेटा माँ के लिए भले दोनों 70 साल के हो गए हों, दुनिया में कहीं भी अकेले नहीं बस पाते हैं, सारा परिवार हर जगह ले जाते हैं, अकेलापन इनका सबसे बड़ा डर होता है। मरते दम तक अकेला रहने से डरते हैं.. साल में 300 त्यौहार मनाते हैं.. खतरे और जोखिम से कोसो दूर रहते हैं.. जाति और धर्म को अपना जीवन मानते हैं और जो कुछ भी भौतिक है बस उसी में जीवन बिताने में इनका सारा जीवन निकल जाता है फिर ये बेहोशी में मर जाते हैं और बाद में इनको मोक्ष दिलाने के लिए कव्वे को खाना खिला दिया जाता है जिस से इन्हें मोक्ष मिल जाता है।
भारतीय सिर्फ आध्यात्म के नाम पर गाल बजाते हैं और लोगों को उल्लू बनाते हैं। भारतीयों से बड़ा भौतिकवादी संसार में कोई दूसरा नहीं होता है।
-अर्पित द्विवेदी
मैं यूरोप ट्रिप पर था। ट्रेन से यात्रा कर रहा था। ट्रेन लगभग खाली सी थी। मैंने एक चीज नोटिस की, ट्रेन में जो भी यात्री चढ़ता वह किसी यात्री के पास बैठने के बजाय कोई एकांत जगह ही तलाशता। वहीं कोई किताब खोलकर पढऩे लगता या अपने मोबाइल या लैपटॉप में लग जाता।
यही परिस्थिति अगर भारत में होती तो अधिकांश लोग ऐसी जगह चुनते जहाँ उन्हें कोई बतियाने को मिल जाये। आप किसी भी सार्वजनिक परिवहन से यात्रा कीजिए या किसी समारोह में जाइये कुछ ही देर में आपके आस पास के अनजान लोग आपसे बतियाने लगेंगे। थोड़ी ही देर में वो आपके व्यक्तित्व जीवन के बारे में पूछने लगेंगे। आप जरूरत भर की बात करेंगे तो आपसे कहेंगे कि आप बहुत कम बोलते हैं। क्या आप ऐसे ही चुप चुप रहते हैं या कोई समस्या है?
इनको लगता है कि जो इनकी तरह बात नहीं कर रहा वह असामान्य है। उसे कोई मानसिक समस्या है। शायद अवसाद से पीडि़त है। या बहुत घमंडी है।
पर्सनल स्पेस क्या होता है, उसका क्या महत्व है और किसी के पर्सनल स्पेस का कैसे सम्मान किया जाए ये हमें नहीं आता। हम तो पूरे अधिकार के साथ धड़धड़ाते हुए किसी के भी पर्सनल स्पेस में घुस जाते हैं।
आप देखिए यहां लोग किसी को कभी भी बिना सोचे फोन मिला देते हैं। अगर वह न उठाए तो बुरा मान जाते हैं। जबकि कायदा यह कहता है कि अगर कोई इमरजेंसी नहीं है तो एक बार मैसेज पर पूछ लें कि यह काम है अथवा आपसे बात करने का मन था, आपसे किस समय बात हो सकती है।
मुझे लगता है यहां अधिकांश लोगों को अपने साथ कैसे जिया जाए ये आता ही नहीं है। अगर इन्हें कुछ समय अकेले रहना पड़े, कोई बात करने को न मिले तो ये बेचैन हो जाते हैं। इन्हें कोई न कोई चाहिए खोपड़ी चाटने को।
असल में यहां लोगों की जिंदगियों में कोई रचनात्मकता नहीं है। अधिकांश एक ढर्रे पर चले जा रहे हैं। उन्हें लगता है यही जीवन है। सुख साधन जमा करके, शानो-शौकत का दिखावा करके खुद को बेहतर दिखाने ही अंतहीन दौड़ में दौड़ते रहना ही इनके लिए जीवन का उद्देश्य है।
जिन समाजों में रचनात्मकता होती है वो खुद के साथ ज्यादा समय बिताते हैं। दूसरों से बतियाने में ही नहीं बल्कि अपने विचारों में भी आनंदित रहते हैं। और इसीलिए वो पर्सनल स्पेस को महत्व देते हैं। क्योंकि ये किसी के आनंद में दखल देने जैसा है।
-इमरान कुरैशी
भारत के पूर्वोत्तर राज्य नगालैंड के एक शख़्स दक्षिण भारत के केरल में स्वास्थ्य सुविधाओं के ब्रांड एम्बेसडर बन गए हैं। ये शख़्स हैं डॉ. विसाज़ो कीची, जिनका मलयालम में बनाया गया वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है।
विभिन्न उत्पादों के ब्रांड एम्बेसडरों के लिए ये कोई अनोखी बात नहीं है कि वो अपने वीडियो को कई स्थानीय भाषाओं में डब करते हैं। लेकिन नगालैंड की राजधानी कोहिमा के रहने वाले 29 साल के डॉ. विसाज़ो कीची का मामला कुछ अलग है। वे धाराप्रवाह मलयालम बोलते हैं। हालांकि वो यह भी मानते हैं कि ये बहुत कठिन भाषा है।
कीची ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘अगर आप डॉक्टर हैं तो ये मजबूरी हो जाती है क्योंकि आपको अपने मरीजों से बात करने के लिए भाषा सीखनी पड़ती है।’
जब अगस्त 2013 में डॉ. कीची कोझिकोड पहुंचे तो सरकारी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स में एडमिशन लेने वाले वो पूर्वोत्तर के पहले व्यक्ति थे। इसके दो साल बाद ही पूर्वोत्तर से लोगों का वहां आना शुरू हुआ। कई लोगों के लिए ये ‘दूसरा घर’ बन गया है।
केरल में प्रवासी मजदूर
केरल के बारे में उनकी हिचक तब गायब हो गई जब उनके अध्यापक और सहपाठी बहुत मददगार साबित हुए, जैसा कि कोहिमा में उनके मलयाली पड़ोसी ने उन्हें आश्वस्त किया था।
डॉ. कीची ने कोझिकोड में अपना एमबीबीएस कोर्स पूरा किया और तिरुवनंतपुरम मेडिकल कॉलेज अस्पताल में सर्जरी की पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री में दाखिला लिया। उनके लिए केरल शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में मॉडल राज्य है।
वे कहते हैं, ‘अगर किसी के पास पैसा नहीं है तो वो भी अस्पताल में बेधडक़ जा सकता है और राज्य कि विभिन्न योजनाओं के तहत अपना इलाज करा सकता है।’
लेकिन जो बात डॉ। कीची को ब्रांड एम्बेसडर बनाती है, वो है केरल का ख़ुद को एक ऐसे राज्य के रूप में दिखाने का दृढ़ संकल्प जहां ‘किसी भी भारतीय के पढऩे, काम करने और रहने का स्वागत है।’
जैसा कि एक अधिकारी ने कहा, यह राज्य बार-बार साबित करना चाहता है कि यह ‘ईश्वर का अपना देश है’, जो कि राज्य की लोकप्रिय टैगलाइन भी है।
‘सभी का स्वागत’
एक्सपर्ट केरल सरकार के इस नीतिगत फैसले के पीछे कई कारण बताते हैं।
मुख्यमंत्री पिनराई विजयन प्रवासी मज़दूरों को मेहमान वर्कर बताते हैं। सभी के स्वागत वाला बोर्ड लगाना राज्य की मजबूरी है ताकि राज्य से बाहर जाने वाली मलयाली मजदूरों की आबादी के साथ यहां आने वाले प्रवासी मजदूरों का संतुलन बिठाया जा सके।
केरल से लोग, खासतौर पर 20 से 40 साल की उम्र वाले, दूसरे देशों में रोजग़ार के लिए जाते हैं और वहां से वो पेट्रोडॉलर या अन्य विदेशी मुद्राएं भेजते हैं जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था चलती है और यह सालाना एक लाख 10 हजार करोड़ रुपये की राशि है।
केरल में उनके परिवारों को घर बनाने, बिजली के काम करने, बढ़ई, खेत और औद्योगिक मजदूर आदि के रूप में मानव संसाधन की जरूरत है।
1980 के दशक से 2000 की शुरुआत तक केरल में तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र से प्रवासी मजदूर आते थे। बीते दो दशक से यहां बंगाल, असम, बिहार, पूर्वोत्तर और उत्तरी राज्यों के लोग आने लगे हैं।
सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इन्क्लूसिव डेवलपमेंट के डायरेक्टर बेनॉय पीटर ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘दिहाड़ी मज़दूरों में 40 प्रतिशत बंगाल से और 20 प्रतिशत असम से आते हैं जबकि बाकी ओडिशा और अन्य पूर्वोत्तर के राज्यों जैसे त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड, मेघालय आदि से आते हैं।’
हैदराबाद यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एसोसिएट प्रोफेसर जजाति के पारिदा बताते हैं कि क्यों अन्य राज्यों से कुशल और अकुशल मजदूर केरल आ रहे हैं।
वे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जो लोग कृषि में रोजगार खो रहे हैं, वे ही प्रवास कर रहे हैं।’
‘वे केरल में मजदूरी को लेकर भी आकर्षित हो रहे हैं। अगर ओडिशा की बात करें तो वहां के मुकाबले केरल में करीब-करीब चार से पांच गुना मजदूरी है।’
अन्य राज्यों से अधिक मजदूरी
पारिदा ने कहा, ‘अगर ओडिशा में 200 रुपये दिहाड़ी है तो केरल में 800 रुपये है। बड़े पैमाने पर मजदूरों के यहां आने की प्रमुख वजह यही अंतर है। केरल की अर्थव्यस्था में उनका बड़ा योगदान है। उनके बिना, केरल की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।’
पारिदा ने केरल प्लानिंग बोर्ड के सदस्य डॉ. रवि रमन के साथ मिलकर 2021 में एक अध्ययन ‘ऑन माइग्रेशन, इनफॉर्मल एम्प्लायमेंट एंड अरबनाइजेशन इन केरला’ का सह लेखन किया।
पारिदा ने कहा कि अध्ययन दिखाता है, ‘बहुत कम जगहें हैं जहां औसत आमदनी थोड़ी बहुत कम थी। कुछ जगहें ऐसी थीं जहां स्थानीय लोगों का बर्ताव प्रवासी मज़दूरों के साथ अच्छा नहीं था लेकिन कुल मिलाकर संबंध अच्छे थे। चंद जगहों पर स्थानीय लोगों को प्रवासी मज़दूर स्थानीय मजदूरों के मुक़ाबले अधिक बेहतर लगे। प्रवासी मज़दूर 30 मिनट ज़्यादा काम करते थे जबकि स्थानीय मज़दूर इनकार कर देते थे।’
पीटर ने कहा कि 2017-18 में केरल में 31 लाख प्रवासी मज़दूर थे। 17.5 लाख प्रवासी मजदूर निर्माण में, 6.3 उद्योग में, 3 लाख खेती और उससे जुड़ी सेवाओं में, 1.7 लाख सेवा क्षेत्र में, एक लाख रिटेल या होलसेल व्यापार में और 1.6 लाख अन्य नौकरियों में थे।
अध्ययन के मुताबिक, ‘औसतन भुगतान की सूचनाओं के आधार पर अनुमान है कि केरल से हर साल 7.5 अरब रुपये अन्य राज्यों को जाता है।’
लेकिन पीटर केरल सरकार के ताजा प्रस्ताव से असहमति जताते हैं, ‘ऐसी खबरें हैं कि पुलिस प्रवासी मजदूरों से उनके राज्य से क्लीयरेंस सर्टिफिकेट चाहती है। ये सिर्फ इसलिए कि बमुश्किल एक या दो प्रतिशत लोग अपराध में संलिप्त होते हैं। केरल को ये नहीं करना चाहिए। उसे दुनिया को दिखाना चाहिए कि बाकी जगहों पर मलयालियों के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए।’
प्रवासी स्टूडेंट
जब बीती तीन मई को मणिपुर में हिंसा शुरू हुई तब भी केरल सरकार ने ‘सबका स्वागत’ वाली नीति को जारी रखा।
एंथ्रोपोलॉजी (मानव शास्त्र) के 25 साल की पीएचडी स्डूडेंट किमशी लहैनीकिम ने मणिपुर की राजधानी इम्फ़ाल में ‘भयावह अनुभव’ के बाद एक महीने पहले ही कन्नूर विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘जब हिंसा शुरू हुई उस समय मैं एक किराए के कमरे में रहती थी जबकि मेरे माता पिता चुराचांदपुर में थे। हमने ऐसे नारे सुने कि सभी कुकी को मार डालो। चार मई को हम डीजीपी के घर पहुंच गए। हम 300 लोग थे और इसके बावजूद हम पर दिनदहाड़े हमला हुआ। शाम को जब डीजीपी लौटे, हम सभी को मणिपुर राइफल्स कैंप में भेज दिया गया।’
किमशी ने बताया, ‘बहुत सारे लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों को विदाई देना शुरू कर दिया क्योंकि हमें यकीन नहीं था कि हम भीड़ के हाथों बच पाएंगे।’
किमशी और उनके दूसरे साथी किसी तरह 9 मई को इम्फाल से निकलने में कामयाब होकर दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने नौकरी तलाश करनी शुरू कर दी।
उन्होंने बताया, ‘मुझे एक कॉल सेंटर में नौकरी भी मिल गई। कुकी स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन की अपील पर केरल पहला राज्य था जिसका जवाब आया। बिना दोबारा सोचे मैं अपना अध्ययन पूरा करने कन्नूर चली आई। मैंने कभी सुना था कि मेरे हाईस्कूल के कुछ टीचर यहीं के थे।’
किमशी और 34 अन्य छात्रों को उनके मोबाइल पर मौजूद दस्तावेजों के आधार पर एडमिशन दे दिया गया, ‘फीस अदा करने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे।’
किमशी को जो सबसे अच्छी बात लगी कि यहां के लोग ‘बहुत सरल और मेहमानवाज़ हैं। और हम यहां सुरक्षित महसूस करते हैं। केरल सरकार और विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों ने जो हमें मौके मुहैया कराए हम उसके बहुत आभारी हैं। यहां के लोगों ने जो प्यार बरसाया, उसके लिए हम उनका शुक्रगुजार हैं।’
राज्य में 81 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों के बच्चों को शिक्षा मिलती है। हाल के महीनों में पायल कुमारी ने प्रवासी समुदाय का नाम ऊंचा किया जब उन्होंने कुछ महीने पहले डिग्री परीक्षा में पहला रैंक हासिल किया। अर्नाकुलम में एक पेंट शॉप में सेल्समैन का काम करने वाले की बेटी पायल का जन्म बिहार में हुआ और पालन पोषण केरल में हुआ क्योंकि उनके पिता यहीं बस गए थे।
पायल ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘जब पत्रकारों ने मेरा साक्षात्कार लिया तो वो ये देख कर हैरान हुए और खुश हुए कि मैं मलयालम बोल लेती हूं। एक बार आपको मलयालम आ गई तो आप यहां स्वीकार लिए जाते हैं।’
पायल का भाई एक एनजीओ में फ़ाइनेंस अधिकारी है और उनकी बहन पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई कर रही है। पायल इस समय सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं।
डॉ.कीची ने कहा, ‘मैं हमेशा कहता हूं कि केरल को अनुभव करने के लिए आपको यहां की संस्कृति और भाषा सीखनी पड़ेगी।’ अगले महीने भारतीय रेलवे में नौकरी जॉइन करने के लिए वो वडोदरा, गुजरात जा रहे हैं। (bbc.com/hindi)
अपूर्व गर्ग
रविश कुमार ने सवाल उठाया कुत्ते हिंसक क्यों हो रहे? उन्होंने कुत्तों के हमला करने की पेपर कतरनें भी पोस्ट की।
पहली बात क्या कुत्ते इंसान से ज़्यादा हिंसक हुए ?
दूसरी बात, आज की दुनिया में घर से बाहर पैर रखते ही मौजूदा वातावरण में हमारा दिल-दिमाग, तेवर कैसे बदल जाते हैं। बीपी बढऩे के प्रकरण बताते हैं इंसान कितना परेशान, तनाव में और घुटन में जी रहा है।
शहर में आम आदमी के खुल कर सांस लेने की जगह नहीं बची।
बगीचे प्लाट बन गए, खेल के मैदान काम्प्लेक्स, व्यावसायिक मैदान बन चुके । बच्चे खेल नहीं सकते, बुजुर्ग आजादी से घूम नहीं सकते।
जरूरत से ज्यादा औद्योगिकीकरण ने धूल, धूप और हवा में जहर घोल दिया। बाकी जो बचा वो डीजे, तेज हॉर्न जैसे ध्वनि प्रदूषण ने पूरा कर दिया ।
सुनिए , ये दुनिया पागलखाना बन चुकी है । आज की भाषा न हिंदी है न उर्दू न इंग्लिश। आज सिफऱ् एक भाषा में बात लोग समझते हैं , वो है , पूँजी की भाषा। लालच, लूट, हवस, मुनाफे की।
शोषण कर सकते हैं तो आप इस दुनिया में फिट हैं वरना ये दुनिया जेल से भी बदतर हो चुकी।
इस दुनिया ने चैन, अमन, आराम,प्यार, मोहब्बत, दोस्ती-यारी, मुस्कराहट, ठहाके, स्वास्थ्य सब छीन लिया।
न तालाब छोड़े न पेड़, न समुद्र को बख़्शा न नदियों पर रहम किया, पहाड़ों को तो मटियामेट कर अपनी कब्र ही खोद डाली!
मैं आपको पर्यावरण, प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, ध्वनि के आतंवाद पर कोई निबंध नहीं पढ़ाना चाहता।
मैं तो सिर्फ ये बता रहा हूँ कि दुनिया का पागलपन चरम पर पहुँच चुका जहाँ इंसान भयानक हिंसक हो चुका और ठीक ऐसे दौर में ऐसे वातावरण में ऐसे पागलों के बीच रहते हुए अगर कुत्ते हिंसक न होंगे तो क्या अहिंसा का आंदोलन करेंगे ?
इंसानों के लिए ही नहीं मयस्सर खाना-पानी-छाया-मैदान तो कुत्ते जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
परेशान इंसान आत्महत्या कर सकता है पर कुत्ते हिम्मत नहीं हारते वो आवाज उठाते हैं ,भौकते हैं और बेहद -बेहद विपरीत परिस्थितियों में होने के बाद काटते हैं ।
उनकी हिंसा को उनका प्रतिरोध समझिये और समीक्षा कुत्तों की नहीं सर्जरी इंसानों के बनाए इस पागलखाने की करिये।
कुत्ते तो बुनियादी तौर पर परिवार के सदस्य होते हैं।
वो इंसानों से ज़्यादा प्यार करते हैं।
उनके दिल में नफरत की एक बूँद नहीं सिर्फ मोहब्बत होती है । उनसे मोहब्बत चाहिए तो खुद को बदलिये और इस दुनिया को बदलिए ।