विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें यह मांग की गई थी कि केंद्र सरकार उसे पिछड़ी जातियों के आंकड़े उपलब्ध कराए ताकि वह अपने स्थानीय चुनावों में महाराष्ट्र के पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दे सके। केंद्र सरकार ने 2011 में जो व्यापक जन-गणना करवाई थी, उसमें नागरिकों की समााजिक-आर्थिक स्थिति पर भी आंकड़े इक_े किए गए थे। न्यायाधीशों ने उस याचिका को रद्द कर दिया और कहा कि खुद केंद्र सरकार ने उन आंकड़ों को इसीलिए प्रकाशित नहीं किया, क्योंकि 'वे प्रामाणिक और विश्वसनीय नहींÓ थे।
10 साल पहले की गई जातीय जनगणना से पता चला कि भारत में कुल 46 लाख अलग अलग जातियां हैं। उनमें कौन अगड़ी है और कौन पिछड़ी, यह तय करना आसान नहीं है, क्योंकि एक प्रांत में जिन्हें अगड़ी माना जाता है, दूसरे प्रांत में उन्हें ही पिछड़ी माना जाता है। एक ही गौत्र कई अगड़ी और पिछड़ी जातियों में एक साथ पाया जाता है। कई तथाकथित अगड़ी जाति के लोग बेहद गरीब होते हैं और पिछड़ी जातियों के कई लोग काफी अमीर होते हैं।
जब अंग्रेजों ने भारत में जन जातीय जनगणना शुरु की थी तो उनका इरादा भारत की एकता को जातीय क्यारियों में बांटने का था ताकि 1857 के स्वातंत्र्य-संग्राम में उभरी राष्ट्रीय चेतना भंग हो जाए। लेकिन अंग्रेज शासकों की इस प्रवृत्ति के विरोध में गांधीजी के नेतृत्व में जातीय जनगणना का इतना तीव्र विरोध हुआ कि 1931 से इसे बंद कर दिया गया लेकिन हमारे ज्यादातर नीतिविहीन राजनीतिक दलों ने अपनी जीत का आधार जाति को बना लिया। इसीलिए उनके जोर देने पर कांग्रेस सरकार ने जातीय जनगणना फिर से शुरु कर दी लेकिन इस जनगणना का विरोध करने के लिए जब मैंने 'मेरी जाति हिंदुस्तानीÓ आंदोलन शुरु किया तो लगभग सभी दलों ने उसका समर्थन किया।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल पर वह जातीय जनगणना बीच में ही रुकवा दी गई। उसके आंकड़े न तो कांग्रेस सरकार ने प्रकट किए और न ही भाजपा सरकार ने। यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान सरकारी वकील ने जातीय जनगणना को अवैज्ञानिक और अशुद्ध बताया है। उसने यह भी कहा है कि महाराष्ट्र सरकार ने किसी व्यवस्थित जानकारी के बिना ही 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों को दे दिया, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो रोक लगाई है, वह ठीक है।
इस वक्त बिहार, उत्तरप्रदेश और दक्षिण के भी कुछ नेता जातीय गणना की मांग पर डटे हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल वैचारिक और व्यावहारिक दृष्टि से लगभग दीवालिया हो चुके हैं। इसीलिए वे जाति और मजहब के नाम पर थोक वोट कबाडऩे के लिए मजबूर हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की अपंगता का सूचक है। देश के गरीब और कमजोर लोगों को जातीय आधार पर नौकरियों में नहीं बल्कि शिक्षा और चिकित्सा में जरुरत के आधार पर आरक्षण अवश्य दिया जाना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुशीला सिंह
भारत की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश में अब विधानसभा चुनाव चंद महीने ही दूर हैं। यहां समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव विजययात्रा रथ निकाल रहे हैं तो कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी लगातार एक के बाद एक रैलियां कर रही हैं। वे महिलाओं को 40 प्रतिशत टिकट देने और इंटर पास होने वाली लड़कियों को स्मार्टफोन और स्कूटी देने का एलान भी कर चुकी हैं। यानी युवा और महिलाओं को साधने में उनका खासा जोर दिखाई दे रहा है।
चुनाव प्रचार में बीजेपी भी पीछे नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दो महीनों में छह बार पूर्वांचल का दौरा कर चुके हैं। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी आए दिन प्रदेश में रैलियां कर रहे हैं। लेकिन एक चेहरा है जो यूपी के चुनावी मैदान से नदारद दिखता है और वो है बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायवती का।
कहां हैं मायावती?
साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में मायावती ने 19 सीटें जीतकर तीसरा स्थान हासिल किया था। ऐसे में उनके चुनावी मैदान से गायब होने को लेकर चर्चाएं तेज हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैरानी जता रहे हैं कि चार बार राज्य की मुख्यमंत्री रहीं मायावती आखिर इस बार चुनाव में सक्रिय क्यों नहीं दिख रही हैं? वो भी ऐसे समय में जब उनके कई विधायक छिटक चुके हैं और उनके पास इक्के-दुक्के विधायक ही रह गए हैं।
उत्तरप्रदेश की राजनीति पर पैनी नजऱ रखने वाले जानकार मायावती की अगामी चुनाव में राजनीतिक निष्क्रियता को उन पर चल रहे आय से अधिक संपति मामले से जोडक़र देखते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी मानते हैं कि ये हैरान करने वाली बात है कि मायावती कहीं दिख क्यों नहीं रही हैं। उनके अनुसार, ‘संभवत: ये कहा जा रहा है कि उनपर और उनके परिवार के सदस्यों पर आय से अधिक संपति के मामलों के कारण वे दबाव में हैं। नतीजन उन्होंने बयान दिया था कि विधानसभा या राज्यसभा के चुनाव में मुझे अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं बीजेपी की मदद कर दूंगी।’
जातिगत वोटबैंक
बीबीसी से बातचीत में रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि राम मंदिर आंदोलन से ही बीजेपी और संघ की ये रणनीति रही है कि वो दलित वोटरों को अपने खेमे में लाए और ऐसा हुआ भी है। ऐसे में अगर मायावती इस दबाव से निष्क्रिय होती हैं इससे उन्हें मदद ही मिलेगी।
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान भी रामदत्त त्रिपाठी की बात से सहमत दिखते हैं। वो कहते हैं कि उन पर सीबीआई और ईडी की जो तलवार लटकी है उसी के डर से उन्होंने चुनाव से दूरी बनाए रखने का फैसला किया है।
साथ ही वे कहते हैं कि मायावती का जातिगत आधार वाला निश्चित वोटबैंक है जो उन्हें मिलता ही है। लेकिन वे इस लड़ाई में अब कहीं दिखाई नहीं देती। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन इस बात से सहमत नहीं दिखतीं।
बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं कि मायावती की कार्यशैली देखें तो वे हमेशा से चुनाव से ठीक पहले ही रैलियां करना शुरू करती हैं। हालांकि पिछले चुनावों से तुलना की जाए तो वो इस बार में थोड़ी सुस्त नजर आ रही हैं।
वो कहती हैं, ‘मायावती अपने काडर को लामबंद करती हैं। मायावती बूथ लेवल पर तैयारी करवाती हैं और ये देखती हैं कि वो किन विधानसभा सीटों पर फोकस कर रहे हैं।’ साथ ही भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सुनीता एरॉन कहती हैं कि ये बड़ा मुद्दा हो सकता है लेकिन जनता का मुद्दा नहीं है।
वो कहती हैं, ‘ये चर्चा चल रही है कि बीजेपी एक हैंडल की तरह इस मुद्दे का उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रही है। ऐसी चर्चाएं तो नेताओं के ख़िलाफ़ चलती रहती हैं लेकिन चुनाव के समय तो नेता मैदान में आते ही हैं।’
नेताओं ने छोड़ा मायावती का साथ
माना जाता है कि इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा और सुखदेव राजभर के बहुजन समाज पार्टी छोडऩे की मुख्य वजह मायावती की राजनीतिक निष्क्रियता ही रही।
सुखदेव राजभर बसपा के विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके थे। उनका हाल ही में निधन हुआ है। सुखदेव भी अपने बेटे को अखिलेश यादव की पार्टी से जोड़ गए थे वहीं हाल ही में हरीशंकर तिवारी भी अपने बेटों और भांजे को सपा की साइकिल पर सवार कर चुके हैं। ऐसे में पूर्वांचल की राजनीति में ओबीसी और ब्राह्मण इन दो बड़े चेहरों का निकलना भी मायावती के लिए एक बड़े झटके के तौर पर ही माना जा रहा है। वहीं ब्राह्मणों से जोडऩे के लिए मायावती ने पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्र को जिम्मेदारी दी हुई है। इस बीच उनकी पत्नी कल्पना मिश्र का भी ब्राह्मण समाज की महिलाओं को संबोधित करते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर डाला गया था।
पार्टी में यंग ब्रिगेड माने जाने वाले आकाश आनंद और कपिल मिश्र पार्टी को युवाओं से जोडऩे का काम कर रहे हैं और सोशल मीडिया पर रणनीति बना रहे हैं। हालांकि राजनीति विश्लेषक मानते हैं कि हर पार्टी के पास आईटी सेल और सोशल मीडिया है और अगर तुलना की जाए तो बीजेपी और सपा की टीम इस मामले में बसपा से बेहतर और आगे हैं।
मायावती का ग्राफ गिरा
शरत प्रधान कहते हैं, ‘मायावती मुख्य लड़ाई में कहीं दिखाई नहीं देती। वे केवल अपने कुछ लोगों को भेजकर ब्राह्मण सम्मेलन करा देती हैं, प्रेस नोट जारी करवाती हैं या ट्वीट कर देती हैं, ऐसे में उनका जो वोटर उनके साथ जुड़ता था वो इस सीमित कोशिश से कैसे जुड़ेगा?ज्ज्
मायावती साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रही थीं। वो जब सत्ता में आती हैं उनका ग्राफ बढ़ता है और हटती है तो वो गिर जाता है। आंकड़े बताते हैं कि साल 2007 के बाद से साल 2012 और 2017 में उनका जनाधार गिरा है।
हालांकि साल 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए उन्होंने ब्राह्मणों को जोडऩे की कोशिश की और दलित-ब्राह्मण एकता के नाम पर सम्मेलन भी करवाए गए। इसका असर दिखाई दिया लेकिन विश्लेषक ये भी मानते हैं कि उस दौरान मुलायम सिंह यादव के विरोध में भी बयार बह रही थी। क्योंकि उस दौरान क़ानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं थी जिसका फायदा मायावती को मिल पाया था।
राज्य में तकरीबन 22 फ़ीसद दलित आबादी है और मायावती इस बार आरक्षित सीटों पर अपनी रणनीति केंद्रित करती दिख रही हैं। लेकिन इस पर रामदत्त त्रिपाठी तर्क देते हुए आरक्षित सीटों का गणित समझाते हैं।
वो कहते हैं, ‘आरक्षित सीटों पर दलित वोट बंट जाते हैं क्योंकि हर पार्टी का उम्मीवार ही दलित या पिछड़ी जाति से होता है। ऐसी सीटें वही पार्टी जीतती है जिसके साथ बाकी समुदाय भी जुड़े हुए हों। और फिलहाल इस कोशिश में मायावती सफल होती नहीं दिख रही हैं।’
सुनीता एरॉन मानती हैं कि इस बार प्रदेश में बीजेपी काफ़ी मजबूत स्थिति में दिख रही है।
वो बताती है कि हालांकि बीजेपी के सामने एंटी-इनकमबेंसी और अन्य मुद्दे जैसे मुख्यमंत्री से नाराजग़ी, कृषि कानूनों या गन्ना किसानों को उचित दाम ना मिलना आदि उनके विरोध में काम कर सकते हैं लेकिन वो बूथ से लेकर विधानसभा क्षेत्रों में काम कर रही है। उनका संगठनात्मक ढ़ांचा बड़ा है।
उनके अनुसार जो मजबूत है वो इतनी मेहनत कर रहा है तो जिनकी कम सीटें हैं उन्हें और ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत है। वहीं अखिलेश ने भी देर से शुरुआत की है लेकिन उनकी रैली में भीड़ और उत्साह दिखता है। प्रियंका गांधी भी मैदान में मायावती से ज़्यादा ही दिख रही हैं। ऐसे में ये चुनाव सभी पार्टियों के लिए काफी मुश्किल है। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि वो जल्दी अपनी मुहीम शुरू करेंगी लेकिन इसके विपरित ये देखा जा रहा है कि वे पंजाब की राजनीति पर फोकस कर रही हैं।
वहीं विश्लेषक ये भी मानते हैं कि मायावती कहीं न कहीं ्रढ्ढरूढ्ढरू के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की तरह भूमिका निभा कर बीजेपी को फायदा और सपा को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन उनकी आगे की रणनीति चुनाव के नतीजों के बाद ही पता चल पाएगी। (bbc.com/hindi)
जुगनू शारदेय को याद करने के लिए सैंतालीस साल पहले के ‘बिहार छात्र आंदोलन’ (1974 )के दौरान पटना में बिताए गए दिनों और महीनों में वापस लौटना कोई आसान काम नहीं था। जुगनू के बहाने और भी कई लोगों और घटनाओं का भी स्मरण करना जरूरी हो गया था। आंदोलन के प्रारंभिक दिनों में ‘सर्वोदय साप्ताहिक’ के लिए दिल्ली से रिपोर्टिंग करने के लिए प्रभाष जोशी जी ने कुछ ही दिनों के लिए पटना भेजा था पर जे पी ने लगभग पूरे साल के लिए वहाँ रोक लिया। पटना में रहते हुए काम करने के लिए जुगनू से मिलना और दोस्ती करना जरूरी था। उसी दौरान डॉ.लोहिया के सहयोगी रहे प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार ओमप्रकाश दीपक जी से भी वहाँ मुलाकात और मित्रता हो गई।
जुगनू का पहला आलेख दीपक जी द्वारा सम्पादित समाजवादी पार्टी की पत्रिका ‘जन’ में ही 1968 में प्रकाशित हुआ था। दीपक जी ‘दिनमान’ के लिए पटना से आंदोलन पर लिख रहे थे। अत: दोनों के बीच पहले से ही काफ़ी आत्मीय सम्बंध थे। बाद में मैं भी दोनों के साथ जुड़ गया। पटना में हम तीनों का एक छोटा सा समूह बन गया था। जे पी के कदम कुआँ स्थित निवास के नज़दीक तब दूसरी मंजि़ल पर स्थित एक रेस्तराँ हमारी नियमित बैठकों का अड्डा था। दीपक जी बाद में नहीं रहे पर जुगनू से मिलना-जुलना या फ़ोन पर बातचीत करना हाल के कुछ सालों तक बना रहा।
जुगनू बिहार की राजनीति और वहाँ की पत्रकारिता के ज्ञानकोश थे। पटना में रहते हुए अपनी किताब ‘बिहार आंदोलन; एक सिंहावलोकन’ के लेखन के दौरान तथ्यों की पुष्टि के लिए उनसे भी मदद लेना पड़ी थी। बिहार छोडऩे के बाद मैं देश में कई स्थानों पर रहा पर जुगनू से सम्पर्क बराबर बना रहा। दिल्ली, भोपाल, इंदौर आदि स्थानों पर तो वे मिलने के लिए भी आते रहे। मेरे आग्रह पर लिखते भी रहे।
सत्तर के दशक के बिहार की राजनीति और पत्रकारिता आज के जमाने से बिलकुल अलग थी। ‘इंडियन नेशन’ और ‘सर्च लाइट’ अंग्रेजी के तथा ‘आर्यावर्त’ और ‘प्रदीप’ हिंदी के समाचार पत्र हुआ करते थे। आज के जमाने में कल्पना करना भी कठिन होगा कि लालू यादव, सुशील मोदी, रामबिलास पासवान, शिवानंद तिवारी आदि तब एक साथ मिलकर काम करते थे। बाबा नागार्जुन और रेणु जी भी आंदोलन के साथ नजदीक से जुड़े हुए थे। जुगनू एक ऐसी खिडक़ी थे जिसके जरिए बिहार को समग्र रूप से बिना किसी लाग-लपेट के देखा और समझा जा सकता था। वे एक ऐसा बिहार थे जो देश भर में घूमता रहता था।बिहार के पत्रकार जगत में उनके मित्रों की संख्या कम थी पर देश के बाकी हिस्सों में अपार थी।
जुगनू ने जीवन जीने की जिस शैली को अपने साथ जोड़ लिया था वे उससे अपने को अंत तक मुक्त नहीं कर पाए। इस दिशा में उन्होंने शायद संकल्पपूर्वक कोशिश भी नहीं की। मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज करवाते रहने के बाद भी नहीं। वे जीवन भर अभावों में जीते रहे पर ईमानदारी नहीं छोड़ी। वैचारिक मतभेदों के चलते मित्रों के साथ उनके झगड़े होते रहे पर उन्होंने समझौते नहीं किए। अपने शारीरिक कष्टों और अभावों का अपनी सीमित शक्ति के साथ मुकाबला करते रहे पर किसी से कोई माँग नहीं की। अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के वृद्धाश्रम में रहते हुए जिन परिस्थितियों में उनका निधन हुआ उनसे उनके कष्टों की पराकाष्ठा की कल्पना की जा सकती है। विनम्र श्रद्धांजलि के साथ दु:ख की इस घड़ी में अभी इतना ही।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली उच्च न्यायालय के दो जजों विपिन सांघी और जसमीतसिंह ने खाने-पीने की चीजों के बारे में एक ऐसा फैसला दिया है, जिसका स्वागत सभी धर्मों के लोग करेंगे। उन्होंने कहा है कि खाने-पीने की जितनी चीजें बाजारों में बेची जाती हैं, उनके पूड़ों (पेकेट) पर लिखा होना चाहिए कि उन चीजों को बनाने में कौन-कौनसी शाकाहारी और मांसाहारी चीजों, मसालों या तरल पदार्थों का इस्तेमाल किया गया है ताकि लोग अपने मजहब और रीति-रिवाज का उल्लंघन किए बिना उनका उपभोग कर सकें। अभी तो पता ही नहीं चलता है कि कौनसा नमकीन तेल में तला गया है और कौनसा चर्बी में तला गया है? फिर सवाल यह भी है कि वह चर्बी किसकी है? गाय की या सूअर की?
इसी तरह से कई चीनी नूडल्स और आलू की पपडिय़ां मांस और मछली से भी तैयार की जाती हैं। कुछ मसालों और चटनियों में भी तरह-तरह के पदार्थ मिला दिए जाते हैं, जिनका पता चलाना आसान नहीं होता है। खाद्य-पदार्थों में ऐसी चीजों की मात्रा चाहे कितनी ही कम हो, वह है, बहुत ही आपत्तिजनक! किसी भी व्यक्ति को धोखे में रखकर कोई चीज़ क्यों खिलाई जाए? इसीलिए अदालत ने निर्देश दिया है कि पेकेटों पर सिर्फ उन चीजों का नाम ही न लिखा जाए बल्कि यह भी स्पष्ट किया जाए कि वह शाकाहार है या मांसाहार है।
पिछले हफ्ते गुजरात उच्च न्यायालय ने भी अपने एक फैसले में यह स्पष्ट किया था कि आप किसी भी व्यक्ति के खाने-पीने पर अपनी पसंद थोप नहीं सकते। एक याचिका में मांग की गई थी कि गुजरात में मांस के क्रय-विक्रय पर प्रतिबंध लगाया जाए। यह तो ठीक है कि जो व्यक्ति जैसा भी खाना खाना चाहे, उसे वैसी छूट होनी चाहिए, क्योंकि प्राय: हर व्यक्ति अपने घर की परंपरा के मुताबिक शाकाहारी या मांसाहारी होता है। उनके गुण-दोष पर विचार करने की क्षमता या योग्यता किसी को बचपन में कैसे हो सकती है? इसीलिए मांसाहारियों की निंदा करना अनुचित है।
लगभग सभी धर्मों में आपको मांसाहारी लोग मिल जाएंगे लेकिन किसी धर्मग्रंथ— वेद, बाइबिल, कुरान, गुरुग्रंथसाहब में क्या यह लिखा हुआ है कि जो मांस नहीं खाएगा, वह घटिया हिंदू या घटिया यहूदी और ईसाई या घटिया मुसलमान या घटिया सिख माना जाएगा? मांसाहार मुनष्यों के लिए फायदेमंद नहीं है, यह निष्कर्ष दुनिया के कई स्वास्थ्य-वैज्ञानिक स्थापित कर चुके हैं।
कोरोना महामारी में संक्रमण से बचने के लिए करोड़ों लोगों ने मांसाहार छोड़ दिया है। मानवता के लिए मांसाहार बहुत घाटे का सौदा है, यह तथ्य कई पर्यावरणविद और अर्थशास्त्रियों ने सप्रमाण सिद्ध किया है। दुनिया में भारत अकेला देश है, जहां करोड़ों परिवारों ने कभी मांस, मछली और अंडे का सेवन नहीं किया लेकिन उनका स्वास्थ्य, शक्ति और सौंदर्य किसी से कम नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब से लगभग 60 साल पहले जब मैं प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक पियरे जोजफ प्रोधों को पढ़ रहा था तो उनके एक वाक्य ने मुझे चौंका दिया था। वह वाक्य था- 'सारी संपत्ति चोरी का माल होती है।Ó दूसरे शब्दों में सभी धनवान चोर-डकैत हैं। यह कैसे हो सकता है, ऐसा मैं सोचता था लेकिन अब जबकि दुनिया में मैं गरीबी और अमीर की खाई देखता हूं तो मुझे लगता है कि उस फ्रांसीसी अराजकतावादी विचारक की बात में कुछ न कुछ सच्चाई जरुर है। कार्ल मार्क्स के 'दास केपिटलÓ और विशेष तौर से 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टोÓ को पढ़ते हुए मैंने आखिर में यह वाक्य भी देखा कि ''मजदूरों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, सिर्फ उनकी जंजीरों के अलावा। अब इन दोनों वाक्यों का पूरा अर्थ समझ में तब आने लगता है, जब हम दुनिया के अमीर और गरीब देशों और लोगों के बारे में गंभीरता से सोचने लगते हैं।
अमीर, अमीर क्यों हैं और गरीब, गरीब क्यों है, इस प्रश्न का जवाब हम ढूंढने चलें तो मालूम पड़ेगा कि अमीर, अमीर इसलिए नहीं है कि वह बहुत तीव्र बुद्धि का है या वह अत्यधिक परिश्रमी है या उस पर भाग्य का छींका टूट पड़ा है। उसकी अमीरी का रहस्य उस चालाकी में छिपा होता है, जिसके दम पर मु_ीभर लोग उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लेते हैं और मेहनतकश लोगों को इतनी मजदूरी दे देते हैं ताकि वे किसी तरह जिंदा रह सकें। यों तो हर व्यक्ति इस संसार में खाली हाथ आता है लेकिन क्या वजह है कि एक व्यक्ति का हाथ हीरे-मोतियों से भरा रहता है और दूसरे के हाथ ईंट-पत्थर ही धोते रहते हैं ?
हमारी समाज-व्यवस्था और कानून वगैरह इस तरह बने रहते हैं कि वे इस गैर-बराबरी को कोई अनैतिक या अनुचित भी नहीं मानता। इस समय दुनिया में जितनी भी कुल संपत्ति है, उसका सिर्फ 2 प्रतिशत हिस्सा 50 प्रतिशत लोगों के पास है जबकि 10 प्रतिशत अमीरों के पास 76 प्रतिशत हिस्सा है। यदि दुनिया की कुल आय सब लोगों को बराबर-बराबर बांट दी जाए तो हर आदमी लखपति बन जाएगा। उसके पास 62 लाख 46 हजार रुपए की संपत्ति होगी। हर आदमी को लगभग सवा लाख रु. महिने की आय हो जाएगी लेकिन असलियत क्या है? भारत में 50 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनकी आय सिर्फ साढ़े चार हजार रु. महिना है याने डेढ़ सौ रु. रोज। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनकी आय 100 रु. रोज भी नहीं है। उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान भी ठीक से उपलब्ध नहीं हैं। शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन तो दूर की बात है। इन्हीं लोगों की मेहनत के दम पर अनाज पैदा होता है, कारखाने चलते हैं और मध्यम व उच्च वर्ग के लोग ठाठ करते हैं। अमीरी और गरीबी की यह खाई बहुत गहरी है। यदि दोनों की आमदनी और खर्च का अनुपात एक और दस का हो जाए तो खुशहाली चारों तरफ फैल सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
दलील में दम है। परदेशी भारत में धर्म और समाजसेवा के नाम पर चंदा नहीं दे सकते। दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में न दखल दे सकते हैं और न उनकी दखलंदाजी सहन की जाएगी। चीन का नाम लेकर विरोध करने में कूटनीति आड़े आती हो, भारत के किसी नेता का चीन जाना सहन नहीं होगा। चीन धर्म नहीं मानता। रोम का पोप का अमन चैन पर विश्व में राज्य स्तर के नेता को आमंत्रित करना सहन नहीं होगा। हद हो गई। भगवान की बराबरी का प्रचार पाने वाले नेताओं की अनदेखी कर समधर्मी पड़ोसी देश महिला को मार्गदर्शन करने बुलाए। चीन के आठ दिन का दौरा और रोम का सम्मान पुरानी बात है। भारत सरकार ने ममता बनर्जी को नेपाल जाने की अनुमति नहीं दी। कारण? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को नेपाली कांग्रेस ने आमंत्रित किया। विदेश सचिव और चीन में राजदूत रहे जयशंकर का निर्णय है। महामारी से अधिक खतरा इन दिनों ममता बनर्जी से है।
तुझे सलाम
संसद के दोनों सदनों ने देश के पहले रक्षा मामलों के मुखिया को श्रद्धांजलि दी। जनरल विपिन रावत के साथ ही दर्जन भर अन्य फौजी भी हुतात्मा हुए। देश सदमे में था। राज्यसभा में मांग उठी कि सरकार के साथ ही नेता प्रतिपक्ष मल्लकार्जुन खरगे को भी श्रद्धांजलि देने का अवसर दिया जाए। मांग नहीं मानी गई तो नई पार्टी की तरफ से राज्यसभा में पहुंची सुष्मिता देव भडक़ गईं। उन्होंने कहा-श्रद्धांजलि देना तक सिर्फ सरकार ने अपना हम मान लिया। कई बार संसद में पहुंचे नेताओं ने संयम से काम लिया। दर्जन भर सांसदों के निलंबन के कारण कई दिनों से महात्मा गांधी के पुतले के सामने दर्जन भर दल धरना दे रहे हैं। देश के सबसे बड़े बड़े फौजी अफसर की दुर्घटना में मौत के कारण वह भी टाल दिया गया। संसद में बोलने का समय न मिलने के बाद उन्होंने दूसरा तरीका निकाला। गांधी जी के पुतले के आसपास के गमलों में छोटी तख्तियां खोंस दीं। उनमें लिखा था- जनरल रावत और शहीद जवानों को सलाम।
ढाई आखर
पढ़े लिखे लोगों की लड़ाई में गोलियां बारूदी होती हैं, पर बारूद की नहीं। कहते हैं न, मूरख मारे टेंड़पा लाठी फूट खुपडिय़ा कपाल जाए। ज्ञानी मारे ज्ञान से रोम रोम भिद जाए। कई पार्टियों का अनुभव लेने के बाद केरल के राज्यपाल बने आरिफ मोहम्मद खान ने यही किया। केरल के विश्वविद्यालयों में वाम विचार के लोगों को महत्व देने पर उनसे अधिक उनको स्थापित करने वाले वर्ग को आपत्ति थी। लाट साहब ने लठ उठाया। रोकने का प्रयास किया। मुख्यमंत्री से इस बात पर ठन गई। केरल कोई महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तो नहीं है, जहां राज्यपाल अपनी मर्जी से कुलपति नियुक्त करे। पेशे से वकील आरिफ साहब ने जवानी में राजनीति के दांव डॉ. राम मनोहर लोहिया से सीखे थे। गांधी और लोहिया का राम राज्य अब नए निजाम की राम भक्ति में बदल चुका है। इस काकटेल के प्रभाव में मुख्यमंत्री को पत्र लिखा। खत का मजमून है-हे पिनयारी विजयन नाम के मुख्यमंत्री। यदि मेरी बात पर गौर नहीं करना चाहते तो मेरी जगह तुम ही कुलाधिपति बन कर फैसला करो। संसदीय इतिहास में किसी राज्यपाल का मुख्यमंत्री के नाम पहला खास प्रेमपत्र चर्चित होगा ही।
जनम जनम के फेरे
हरियाना के खाप समुदाय को कोसने वाले समता और समाजवाद को बेनकाब होते हुए देख रहे हैं। जाति और परिवारवाद के साथ समाजवाद को एक पंगत में बिठाने वाले लालू प्रसाद के छोटे बेटे तेजस्वी ने दूसरे धर्म की लडक़ी के साथ फेरे लिए। मां-बाप-भाई को परेशानी नहीं है। जीजा से कुपित दूल्हे का मामा कुरता फाड़ रहा है। साधु मामा ने जीजा की बदौलत सांसदी से लेकर कोठियों तक बहुत कमाई की है। अब उन्हें जाति का सम्मान याद आया। न भांजे को आर्शीवाद देने गए और न चुप रहे। राजनीति में लाने और खुराफात करने के बाद लतिया कर धकियाने वाले जीजा और भांजे को गरिया रहे हैं। नाम साधु है परंतु धमका रहे हैं-सावधान। सबकी करतूत जानता हूं। भांडा फोड़ दूंगा। विदेशी बहू के नाम पर सोनिया और फेरे लेने के बाद पत्नी को भूलने वाले नरिन्दर भाई भी इस नए तमाशे से हैरान हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पड़ौसी देशों के बारे में इधर भारत ने काफी अच्छी पहल शुरु की हैं। अगस्त माह में अफगानिस्तान के बारे में हमारी नीति यह थी कि ‘लेटो रहो और देखते रहो’ लेकिन मुझे खुशी है कि अब भारत न केवल 50 हजार टन गेहूं काबुल भेज रहा है बल्कि डेढ़ टन दवाइयां भी भिजवा रहा है। यह सारा सामान 500 से ज्यादा ट्रकों में लदकर काबुल पहुंचेगा। सबसे ज्यादा अच्छा यह हुआ कि इन सारे ट्रकों को पाकिस्तान होकर जाने का रास्ता मिल गया है। इमरान सरकार ने यह बड़ी समझदारी का फैसला किया है। Good initiative foreign policy
पुलवामा हमले के बाद जो रास्ता बंद किया गया था, वह अब कम से कम अफगान भाई-बहनों की मदद के लिए खोल दिया गया है। क्या मालूम यही शुरुआत बन जाए दोनों मुल्कों में रिश्ते ठीक-ठाक करने की! हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल ने अफगानिस्तान-संकट पर पड़ौसी देशों के सुरक्षा सलाहकारों से जो संवाद दिल्ली में कायम किया था, वह भी सराहनीय पहल थी। उसका चीन और उसके इस्पाती दोस्त पाकिस्तान ने बहिष्कार जरुर किया लेकिन उसमें आमंत्रित मध्य एशिया के पांचों मुस्लिम गणतंत्रों के सुरक्षा सलाहकार के आगमन ने हमारी विदेश नीति का एक नया आयाम खोल दिया है।
अब विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर ने आगे बढ़कर इन पॉचों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक भी अगले हफ़्ते बुलाई हैI मैं पिछले कई वर्षों से कहता रहा हूं कि मध्य एशिया के ये पांचों पूर्व-सोवियत गणतंत्र सदियों तक आर्यावर्त्त के अभिन्न अंग रहे हैं। इनके साथ घनिष्टता बढ़ाना इन विकासमान राष्ट्रों के लिए लाभदायक है ही, भारत के लिए इनकी असीम संपदा का दोहन भारतीयों के लिए करोड़ों नए रोजगार पैदा करेगा और दक्षिण व मध्य एशिया के देशों में मैत्री की नई चेतना का भी संचार करेगा। इन सारे देशों में पिछले 50 वर्षों में मुझे कई बार रहने का और इनके शीर्ष नेताओं से संवाद करने का अवसर मिला है।
यद्यपि इन देशों में कई दशक तक सोवियत-शासन रहा है लेकिन इनमें भारत के प्रति अदम्य आकर्षण है। ताजिकिस्तान ने भारत को महत्वपूर्ण सैन्य-सुविधा भी दे रखी थी। कजाकिस्तान और उजबेकिस्तान के राष्ट्रपति भारत-यात्रा भी कर चुके हैं। अब कोशिश यह है कि इन पांचों गणतंत्रों के राष्ट्रपतियों को 26 जनवरी के अवसर पर भारत आमंत्रित किया जाए। इस तरह का निमंत्रण देने का प्रस्ताव मैंने नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में एक सभा में उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले भी दिया था। अब क्योंकि पिछले पांच-छह साल से दक्षेस (सार्क) ठप्प हो गया है, मैंने जन-दक्षेस (पीपल्स सार्क) नामक संस्था का हाल ही में गठन किया है, जिसमें म्यांमार, ईरान और मोरिशस के साथ-साथ मध्य एशिया के पांचों गणतंत्रों को भी शामिल किया गया है।
यदि 16 देशों का यह संगठन यूरोपीय संघ की तरह कोई साझा बाजार, साझी संसद, साझा महासंघ बनवा सके तो अगले दस साल में भारत समेत ये सारे राष्ट्र यूरोप से भी आगे निकल सकते हैं। इन राष्ट्रों में गैस, तेल, यूरेनियम, सोने, चांदी, लोहे और तांबे आदि धातुओं के असीम भंडार अनछुए पड़े हुए हैं। इन्हें अपने आप को संपन्न बनाने के लिए यूरोपीय राष्ट्रों की तरह अन्य राष्ट्रों का खून चूसने की जरुरत नहीं है। इन्हें सिर्फ भारत का सहयोग और मार्गदर्शन चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शशांक ह्यूमनिस्ट
मैं (नूपुर) काम के लिए 2015 में बॉम्बे आई थी, सपनों के शहर का अनुभव करने के लिए उत्साहित थी। लेकिन भीड़भाड़ और महंगे किराये ने मुझे डरा दिया। इसलिए जब भी मैं अभिभूत महसूस करती, मैं समुद्र तट पर जाती इसने मुझे शांत किया। लेकिन वहां इतनी गंदगी थी। जब मैंने इसके बारे में अपने एक दोस्त से कहा, तो उसने मुझे अफरोज शाह द्वारा आयोजित समुद्र तट की सफाई के बारे में बताया और कहा, इसके बारे में कुछ करो!
इसलिए, शनिवार को, मैं वर्सोवा बीच पर गई, सुबह 7 बजे हमने सफाई शुरू की, लेकिन सुबह 9 बजे तक मैं थक चुकी थी! प्रत्येक वस्तु रेत में इतनी गहराई से डूबी हुई थी कि हमें सचमुच उसकी खुदाई करनी पड़ी। लेकिन मैं वहां कुछ सबसे अद्भुत लोगों से मिली और पहली बार मुझे किसी शहर से जुड़ाव महसूस हुआ।
तब से, मैं हर शनिवार को सुबह 7 बजे वहाँ सफाई कर रही होती और जितनी गंदगी मैंने उठाई है, सैनिटरी नैपकिन से लेकर कंडोम तक मैं आपको बता नहीं सकती और अगर जब कोई मल में कदम रखता है, तो हम कहते हैं, यहाँ केक काटा गया है!
लोग अक्सर पूछते थे, क्या बात है, यह फिर से गंदा हो जाएगा? लेकिन जब कोई साफ जगह देखता है, तो वह कूड़ा डालने से पहले दो बार सोचता है। हमने जागरूकता बढ़ाने के लिए संवेदीकरण अभियान भी चलाया है। और उन ड्राइवों में से एक के दौरान मैं अश्विन से मिली -वह मर्चेंट नेवी में थे।
जब भी वह आसपास होता, तो ड्राइव भी मजेदार हो जाती थी, इसलिए उसके ड्यूटी पर जाने के बाद, हम संपर्क में रहे। बातचीत धीरे-धीरे सफाई से ‘हम’ की ओर जाने लगी। समुद्री लुटेरों के बारे में उनकी कहानियाँ सबसे अच्छी थीं! इसलिए, जब वह वापस आया, तो हमें पता था कि यह दोस्ती से बढक़र है। दरअसल, हमारी ‘फस्र्ट डेट’ भी क्लीन अप ड्राइव के बाद थी। इससे पहले कि हम यह जानते, हम डेटिंग कर रहे थे!
हमारे दोस्त हंसते थे और कहते थे, देखो गंदगी ने आपको काम दे दिया और वे सही थे क्योंकि छुट्टियों में भी हम जाते थे, हम जब भी और जब भी कर सकते थे कचरा उठा लेते थे! इन यात्राओं में से एक के दौरान, अश्विन ने शादी का प्रस्ताव किया था और जिस क्षण से मैंने ‘हां’ कहा, मुझे पता था कि हमारी 0-बेकार शादी होगी! लेकिन कोई स्थाई वेडिंग प्लानर नहीं थे, इसलिए हमने अपनी शादी की योजना बनाई। प्रति अतिथि 1 पेड़ लगाने से लेकर प्लास्टिक की बोतलें न रखने तक, हमने सुनिश्चित किया कि कोई अपव्यय न हो। बचा हुआ खाना भी रेलवे स्टेशन पर बांट दिया गया, लेकिन मुख्य आकर्षण था अश्विन की बारात का, इलेक्ट्रिक कार में प्रवेश करना और मेरी शादी का लहंगा जिसमें कढ़ाई थी, जिस पर लिखा था #savetheplanet।
इसके तुरंत बाद, कई जोड़ों ने अपनी स्थाई शादियों के लिए हमसे संपर्क किया। तभी अश्विन और मैंने ग्रीनमायना की शुरुआत की, जो एक स्थायी वेडिंग प्लानिंग कंपनी है! स्थिरता अब हम जो कुछ भी करते हैं उसका एक हिस्सा है।
बात यह है कि लोग आमतौर पर यह मानते हैं कि, मेरे करने से क्या होगा? बिल्कुल होगा! तो आप कोशिश करो? हर छोटा प्रयास मायने रखता है।
उदाहरण के लिए मुझे लें, मैंने पहले कभी परवाह नहीं की, लेकिन सब कुछ बदलने के लिए 1 समुद्र तट को साफ करना पड़ा और अब, दस्ताने मेरी यात्रा की अनिवार्यता का एक हिस्सा हैं। और जब भी लोग पूछते हैं, आप क्या करते हैं?, मैं जवाब देती हूं, मैं पेशे से बाजार शोधकर्ता हूं, लेकिन जुनून से कूड़ा बीनने वाली!
तो आज से अपने द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी को रोकने का प्रयास करें डस्टबिन का उपयोग करें, एक टॉफी के रैपर को भी डस्टबिन में वेस्ट करने का प्रयास करें और दूसरों को भी जागरूक करें ऐसा करने के लिए, करके देखिये अच्छा लगेगा! (Humans of bombay)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने विश्व लोकतंत्र सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में दुनिया के लगभग 100 देशों ने भाग लिया लेकिन इसमें रुस, चीन, तुर्की, पाकिस्तान और म्यांमार जैसे कई देश गैर-हाजिर थे। कुछ को अमेरिका ने निमंत्रित ही नहीं किया और पाकिस्तान उसमें जान-बूझकर शामिल नहीं हुआ, क्योंकि उसका जिगरी दोस्त चीन उसके बाहर था। लोकतंत्र पर कोई भी छोटा या बड़ा सम्मेलन हो, वह स्वागत योग्य है लेकिन हम यह जानना चाहेंगे कि उसमें कौन-कौन से मुद्दे उठाए गए, उनके क्या-क्या समाधान सुझाए गए और उन्हें लागू करने का संकल्प किन-किन राष्ट्रों ने प्रकट किया।
यदि इस पैमाने पर इस महासम्मेलन को नापें तो निराशा ही हाथ लगेगी, खास तौर से अमेरिका के संदर्भ में! पहला सवाल तो यही होगा कि बाइडन ने यह सम्मेलन क्यों आयोजित किया? उनके पहले तो किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को इतनी अच्छी बात क्यों नहीं सूझी? इसका कारण साफ है। बाइडन से राष्ट्रपति के चुनाव में हारने वाले डोनाल्ड ट्रंप अभी तक यही प्रचार कर रहे हैं कि बाइडन की जीत ही अमेरिका लोकतंत्र की हत्या थी। उनका कहना है कि राष्ट्रपति का चुनाव भयंकर धांधली के अलावा कुछ नहीं था। इस मुद्दे को लेकर वाशिंगटन में अपूर्व तोड़-फोड़ भी हुई थी।
इस प्रचार की काट बाइडन के लिए जरुरी थी। लोकतंत्र का झंडा उठाने का दूसरा बड़ा कारण चीन और रुस को धकियाना था। दोनों राष्ट्रों से अमेरिका की काफी तनातनी चल रही है। उक्रेन को लेकर रूस से और प्रशांत महासागर, ताइवान आदि को लेकर चीन से! इन दोनों पूर्व-कम्युनिस्ट राष्ट्रों को लोकतंत्र का दुश्मन बताकर अमेरिका अपने नए शीतयुद्ध को बल प्रदान करना चाहता है। यह तो ठीक है कि रुस और चीन जैसे दर्जनों राष्ट्रों में पश्चिमी शैली का लोकतंत्र नहीं है लेकिन मूल प्रश्न यह है कि भारत, अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों में क्या सच्चा लोकतंत्र है?
बाइडन ने अपने भाषण में चुनावों की शुद्धता, तानाशाही शासनों के विरोध, स्वतंत्र खबरपालिका और मानव अधिकारों की रक्षा पर जोर दिया और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्रिप्टो करेंसी और इंटरनेट पर चलने वाली अराजकता को रेखांकित किया। यहां सवाल यही है कि क्या इन सतही मानदंडों पर भी भारत और अमेरिका के लोकतंत्र खरे उतरते हैं? एक दुनिया का सबसे बड़ा और दूसरा दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र है। क्या हमारे लोकतांत्रिक देशों में हर देशवासी को जीवन जीने की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध हैं? क्या यह सत्य नहीं है कि हमारे दोनों देशों में करोड़पतियों और कौड़ीपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है?
जातिभेद और रंगभेद के कारण हमारे लोकतंत्र क्या थोकतंत्र में नहीं बदल गए है? क्या हमारे देशों में लोकशाही की बजाय नेताशाही और नौकरशाही का बोलबाला नहीं है? जो लोग अपने आप को जनता का सेवक और प्रधानसेवक कहते हैं, क्या उनमें सेवाभाव कभी दिखाई पड़ता है? जिस दिन हमारे नौकरशाहों और नेताशाहों में सेवा-भाव दिखाई पड़ जाएगा, उसी दिन भारत सच्चा लोकतंत्र बन जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सरोज सिंह
एक साल से दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर तीन विवादित कृषि कानूनों के विरोध में बैठे किसानों ने फि़लहाल अपना आंदोलन स्थगित करने का एलान किया है।
केंद्र सरकार ने उनकी पाँच माँगों पर उन्हें लिखित आश्वासन दिया है।
संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि अगले साल जनवरी से हर महीने सरकार के किए वादों और उस दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा की जाएगी।
किसान नेता योगेंद्र यादव ने संयुक्त किसान मोर्चा के फ़ैसले को मीडिया से साझा करते हुए कहा, ‘किसान ने अपना खोया हुआ आत्मसम्मान हासिल किया है, किसानों ने एकता बनाई है, किसानों ने अपनी राजनैतिक ताक़त का अहसास किया है।’
किसान नेता बलबीर राजेवाल ने कहा, ‘अहंकारी सरकार को झुकाकर जा रहे हैं। लेकिन यह मोर्चे का अंत नहीं है। हमने इसे स्थगित किया है। 15 जनवरी को फिर संयुक्त किसान मोर्चा की मीटिंग होगी, जिसमें आंदोलन की समीक्षा करेंगे।’
दोनों बयानों से साफ जाहिर होता है कि किसान नेताओं को अहसास है कि इस आंदोलन ने सरकार को किसानों के आगे झुकने पर मजबूर कर दिया। यही उनके आंदोलन का हासिल है।
हालाँकि किसान नेताओं का दावा ये भी है कि इस आंदोलन में उन्होंने 700 किसान खोए हैं।
लेकिन इस बीच सबसे पड़ा सवाल है कि जिस कानून को केंद्र की बीजेपी सरकार अब तक किसानों के हित में बता रही थी, उसे वापस तो ले ही लिया, किसानों की बाकी पाँच माँगों पर भी समझौता कर लिया। तो फिर इस एक साल में बीजेपी को हासिल क्या हुआ?
बीजेपी ने क्या पाया है?
कृषि कानून वापस ना लेने के पीछे पहले बीजेपी की तरफ से कई तरह की दलीलें पेश की जाती रही हैं।
अलग अलग मंचों से बीजेपी के नेताओं ने कभी इन क़ानूनों को किसानों की आय दोगुनी करने से जोड़ा, तो कभी इसके विरोध को विपक्ष का राजनीतिक विरोध कऱार दिया तो कभी इसे केवल पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का आंदोलन बताया।
लेकिन जिस अंदाज में कानून वापस लिए गए, उसके बाद पंजाब में बीजेपी नेता काफी खुश नजर आ रहे हैं।
बीबीसी हिंदी से बात करते हुए पंजाब बीजेपी के प्रवक्ता सुभाष शर्मा ने कहा, ‘जिस तरह से किसान आंदोलन का अंत हुआ है, वो अपने आप में सुखद है। इसके पहले के किसान आंदोलनों का अंत गोलियों से या किसानों को जेल में भर कर खत्म किया गया है।’
‘हमारी सरकार ने किसानों की माँगे मान कर इस आंदोलन को ख़त्म किया। ऐसा पहली बार हुआ है। इस आंदोलन में खोने-पाने जैसा कुछ नहीं था। जो किया था वो किसानों का हित सोच कर किया था और आगे भी उनके हित में काम करेंगे।’
सुभाष शर्मा कहते हैं, ‘किसानों में पहले हमें लेकर थोड़ी नाराजगी थी, कड़वाहट थी। लेकिन जिस अंदाज़ में प्रधानमंत्री ने बिल को वापस लिया, उससे वो दूर हो गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) जो किसानों की बड़ी पुरानी माँग थी, उसको सुलझाने की दिशा में सरकार आगे बढ़ रही है, इससे किसानों का गुस्सा तो ख़त्म हो ही गया है। अब किसानों को जल्द ही बात समझ में आएगी कि बीजेपी ही इकलौती पार्टी है, जो उनका हित चाहती है। बीजेपी को आने वाले चुनाव में फायदा ही होगा।’
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस सुभाष शर्मा के तर्क से सहमत नजर नहीं आतीं।
वो कहती हैं, बीजेपी के इस तर्क को कम से कम किसान तो स्वीकार नहीं करते। आंदोलन की एक बात जो बीजेपी के लिए अच्छी साबित हुई है- वो है पार्टी को अपनी सीमाओं का अंदाजा अब लग गया हो।
अपनी बात को विस्तार देते हुए अदिति कहती हैं, ‘फर्ज कीजिए आप बाजार में अपना घर बेचने जाते हैं और आपको नहीं मालूम की घर की असल कीमत क्या है। ऐसे में अगर आप जल्द में घर बेचते हैं और बाद में पता चलता है कि असल कीमत तो कुछ और ज़्यादा थी। तो आपको लगता है, मेरा तो नुकसान हो गया। लेकिन इस पूरी कवायद में एक बात जो अच्छी हुई वो ये कि घर की असली कीमत आपको पता चल गई। बीजेपी के साथ भी इस आंदोलन में कुछ ऐसा ही हुआ है।’
आंदोलन से बीजेपी अब अपनी सीमाओं का ज्ञान हो गया है। जब किसी को अपनी सीमाओं का अंदाजा हो जाता है, तभी पता चलता है कि आगे क्या संशोधनों की ज़रूरत है।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार पूर्णिमा जोशी कहती हैं, ‘बीजेपी ने आंदोलन से क्या कुछ पाया है, उसे इस संदर्भ में देखना चाहिए कि उनके पास खोने को क्या कुछ था।’
किसानों के अंदर खेती को लेकर बहुत गुस्सा है। कृषि कानून तो केवल एक मुद्दा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्या आज भी जस की तस है।
25 रुपए गन्ने के समर्थन मूल्य में बढ़ाने से उनको कुछ फायदा नहीं हो रहा। उनका इनपुट कॉस्ट तो उसके मुकाबले काफी बढ़ गया है। आगरा से सफैई बेल्ट की तरफ जाएं तो वहाँ आलू के किसान रो रहे हैं।
खाद की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं। 1200 रुपए कट्टा बिकने वाली खाद की बोरी उन्होंने 1700-1800 रुपए में खऱीदी है। ये सब बातें एक साथ मिल कर आंदोलन की ज़मीन तैयार कर रही थीं। किसान आंदोलन जितना लंबा चलता उतना ज़्यादा बीजेपी को नुक़सान होता। आंदोलन एक साल में खत्म होने से बीजेपी जितना खो सकती थी, उसमें से थोड़ा बचा लिया।
पाने के नाम पर बीजेपी ने एक साल में यही पाया है।
बीजेपी को नुकसान
नुकसान की बात करें तो इसे दो श्रेणी में बाँटा जा सकता है। आर्थिक नुकसान और राजनीतिक नुकसान।
आर्थिक नुकसान के कुछ आँकड़े तो सरकार ने संसद में ख़ुद ही पेश किए हैं।
विवादित कृषि कानून कितने अच्छे हैं- जनता के बीच इसके प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार ने 7 करोड़ 25 लाख रुपए इस साल फरवरी तक खर्च किए थे। इसके अलावा कृषि मंत्रालय के किसान वेलफेयर विभाग ने भी 67 लाख रुपए तीन प्रमोशनल वीडियो और दो एडुकेशनल वीडियो बनाने में खर्च किए हैं। यानी लगभग 8 करोड़ रुपए नए कृषि कानून के प्रचार प्रसार में केंद्र सरकार खर्च कर चुकी है।
इसके अलावा कई जगहों पर किसानों टोल प्लाज़ा पर धरने पर महीनों बैठे रहे। केंद्र सरकार में सडक़ परिवहन मंत्री ने बजट सत्र के दौरान लोकसभा को बताया कि किसान आंदोलन की वजह से कई टोल प्लाजा पर शुल्क जमा नहीं हो पा रहा है। इससे रोजाना 1.8 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। 11 फरवरी तक तकरीबन 150 करोड़ का नुकसान तो सिर्फ टोल प्लाजा से हो चुका था।
इसी तरह से कई इलाकों में किसानों ने अलग-अलग समय पर रेल यातायात को भी बाधित किया था। पिछले साल के अंत तक किसानों आंदोलन की वजह से रेल मंत्रालय को 2400 करोड़ का नुकसान हो चुका था।
इसके अलावा कृषि क्षेत्र से जुड़े जानकार बताते हैं कि किसानों को नए कानून पर मनाने के लिए केंद्र सरकार ने इस साल जरूरत से ज्यादा गेहूं चावल भी खरीदा, जिसकी जरूरत नहीं थी। इसे भी कुछ जानकार केंद्र सरकार के खजाने को हुआ नुकसान ही मानते हैं।
लेकिन आर्थिक नुकसान से ज्यादा राजनीतिक रूप से बीजेपी ने जो एक साल में खोया है, उसकी चर्चा ज़्यादा हो रही है।
इस एक साल में नए कृषि कानून के विरोध में एनडीए के सबसे पुराने दोस्त अकाली दल ने उनका साथ छोड़ दिया। अब तक दोनों पार्टियाँ साथ में ही पंजाब में चुनाव लड़ा करती थीं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पंजाब जैसे राज्य में बीजेपी की पकड़ इस कानून की वजह से और ढीली पड़ गई।
वरिष्ठ पत्रकार अदिति कहती हैं, ‘बीजेपी ने जो बड़ी चीज खोई है वो है किसानों के बीच अपनी साख और विश्वास। अब किसानों को लग रहा है कि जब कानून वापस लेना ही था तो एक साल तक उनके साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया गया। उनके लोगों की जानें गई। फसलों का नुकसान हुआ। घर परिवार से दूर रहे।’
अदिति कहतीं है कि कानून को जिस तरीके से वापस लिया गया, उससे मोदी की ‘उदार छवि’को भी नुकसान पहुँचा है। वो तर्क देती हैं कि सरकार ने कानून वापस तो लिए लेकिन एमएसपी की गारंटी नहीं दी।
अब आगे एमएसपी के साथ-साथ रोजमर्रा से जुड़े दूसरे मुद्दों पर भी लोग सामने आएंगे जैसे महँगाई, खाने के तेल के दाम और पेट्रोल के बढ़ती कीमतें। फिर एक अलग राजनीतिक माहौल बीजेपी के लिए बनेगा। जो स्थिति को आगे और खऱाब कर सकता है।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार पूर्णिमा जोशी कहती हैं, ‘जिस अंदाज़ में ये बिल लाए गए और संसद में पास कराए गए और एक साल तक इस पर सरकार अड़ी रही- ये बीजेपी की और प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल है।’
‘ये बताता है कि ना तो बीजेपी ने परिस्थिति का आकलन ठीक से किया, ना तो इन्हें किसानों की ताक़त का पता था। एक साल के बाद इस वजह से उन्हें किसानों के सामने पूरा सरेंडर करना पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी के ‘मज़बूत इरादे’ वाली छवि को इससे काफी नुकसान पहुँचा है।’
कुछ जानकार पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी की हार और हाल ही में हुए उपचुनावों में बीजेपी के कुछ राज्यों में खऱाब प्रदर्शन को भी किसान आंदोलन से हुआ नुकसान ही करार देते हैं।
लेकिन असल परीक्षा तो अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव हैं, जिससे पता चलेगा कि क्या वाकई बीजेपी इन चुनावों में अनुमानित ‘डैमेज कंट्रोल’ कर पाई? (bbc.com/hindi)
-डॉ. लखन चौधरी
बारदाना संकट के बाद धान खरीदी को लेकर राज्य में एक बार फिर विवाद, नाराजगी एवं आरोप-प्रत्यारोप का दौर आरंभ हो गया है। सत्तापक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर जमकर आरोप लगा रहे हैं। दोनों राजनीतिक दल अपनी पार्टियों को किसान हितैशी बताने में लगे हैं। इस बीच बड़ा सवाल यह उठता है कि मण्डी शुल्क वृद्धि और धान खरीदी को लेकर हो रही गहमा-गहमी एवं राजनीति के बीच किसानों को हो रही नुकसान की भरपाई कौन करेगा? प्रति च्ंिटल 200-300 रूपये की हो रही नुकसान की भरपाई कैसी होगी?
बड़ा सवाल यह भी उठता है कि इस विवाद या समस्या के लिए जिम्मेदार कौन है? पहली नजर में विवाद एवं समस्या के लिए सरकार जिम्मेदार है, जिसने बगैर सोचे समझे मण्डी शुल्क में एक रूपये एवं किसान कल्याण के नाम पर दो रूपये यानि कुल तीन रूपये का मण्डी शुल्क बढ़ा दिया। मण्डी शुल्क पहले दो रूपये लगता था, जिसे किसान देता था। अब सरकार ने अपने घोषणा पत्र में किये गये वादे के मुताबिक किसानों से मण्डी शुल्क समाप्त करते हुए इसे धान खरीदी करने व्यापारियों पर लाद दिया। इतना ही नहीं, इस शुल्क में तीन रूपये की और बढ़ोतरी कर दी। यानि अब पूरे पांच रूपये का मण्डी शुल्क व्यापारी या धान खरीदार को देना पड़ रहा है। विवाद एवं समस्या की यही जड़ है।
चूंकि मण्डी शुल्क की इस बढ़ी हुए राशि को धान खरीदी करने वाले व्यापारी को देना है, देना पड़ रहा है। इसलिए व्यापारियों एवं राईस मिल मालिकों ने मण्डी में होने वाली धान खरीदी का रेट गिरा दिया है। पांच रूपये की मण्डी शुल्क वृद्धि का विरोध और धान की खरीदी कीमत में 200 से 300 रूपये की कमी या गिरावट। दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि इसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। साफ है कि सरकार की मण्डी शुल्क वृद्धि का विरोध करने के लिए राज्य के व्यापारी मंडियों में धान की खरीदी नहीं कर रहे हैं, और औने-पौने दाम पर बोलियां लगा रहे हैं या लग रही हैं। इससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।
इन दिनों राज्य में नगरीय निकायों के चुनाव प्रचार का दौर चल रहा है, लिहाजा धान खरीदी और मण्डी शुल्क वृद्धि के मसले को लेकर जमकर राजनीति जारी है। इस राजनीति में नुकसान किसानों को हो रहा है। लगातार बदलते मौसम के कारण किसान धान को रख भी नहीं सकते या इसे सुरक्षित रखने के लिए किसानों के पास जगह भी नहीं है। यानी धान को बेचना किसानों की मजबूरी भी है। यही वजह है कि किसानों को नुकसान उठाकर भी धान बेचना पड़ रहा है।
इस मसले का दुर्भाग्यपूर्णं पहलू यह है कि देश में आजादी के सात दशक बाद भी कृषि उत्पादों का एमआरपी यानि न्यूनतम बाजार मूल्य या न्यूनतम खरीदी-बिक्री मूल्य नहीं है। कृषि कानूनों की वापसी के बावजूद किसान आन्दोलन खत्म हो गया है। सरकार ने एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए गारंटी देने वाली कानून बनाने का आश्वासन तो दिया है, लेकिन इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। छत्तीसगढ़ के मण्डियों में किसानों के साथ हो रहा अन्याय न केवल किसान आदोलन की सार्थकता सिद्ध करता है, अपितु किसानों के साथ सदियों से हो रहे या किये जा रहे अन्याय की पुष्टि भी करता है कि जब तक सरकार इसके लिए कठोर कानूनी प्रावधान नहीं करती है, तब तक किसानों का अन्याय एवं शोषण जारी रहेगा।
दरअसल में एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी इसलिये जरुरी है क्योंकि मंडियों में किसानों को उपज का सही मूल्य नहीं मिलता है, और बगैर कानूनी गारंटी के कभी भी उत्पादों का उचित दाम किसानों को नहीं मिलेगा। देखना है कि सरकार इसके लिए कितनी तत्पर या संकल्पित है, और कब तक इसके लिए कानून लाती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लगभग साल भर से चल रहा किसान आंदोलन अब स्थगित हो गया हैं, इस पर किसान तो खुश हैं ही, सरकार उनसे भी ज्यादा खुश है। सरकार को यह भनक लग गई थी कि यदि यह आंदोलन इसी तरह चलता रहा तो उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों में भाजपा को भारी धक्का लग सकता है। यदि उत्तर भारत के इन प्रांतीय चुनावों में भाजपा मात खा जाए तो सबको पता है कि दिल्ली में उसकी गद्दी भी हिल सकती है। भाजपा का यह भय स्वाभाविक था लेकिन हम यह भी न भूलें कि इस किसान आंदोलन को आम जनता का समर्थन नहीं के बराबर था।
वास्तव में यह आंदोलन उक्त तीन-चार प्रदेशों के मालदार किसानों का था, जो गेहूं और चावल की सरकारी खरीद पर मालदार बने बैठे हैं। इन किसानों को छोटे और गरीब किसानों के समर्थन या सहानुभूति का मिलना स्वाभाविक था लेकिन यह मानना पड़ेगा कि किसान नेताओं ने इस आंदोलन को अहिंसक बनाए रखा और इतने लंबे समय तक चलाए रखा। नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। यह वास्तव में भारतीय लोकतंत्र की विजय है।
इस आंदोलन के खत्म होने से दिल्ली, हरियाणा और पंजाब की जनता को भी बड़ी राहत मिल रही है। इन प्रदेशों के सीमांत पर डटे तंबुओं ने कई प्रमुख रास्ते रोक दिए थे। सरकार ने किसानों की मांगों को मोटे तौर पर स्वीकार कर ही लिया है। उसने तीनों कानून वापस ले लिए हैं। मृत किसानों को मुआवजा देना, पराली जलाने पर आपत्ति नहीं करना, बिजली की कीमत पर पुनर्विचार करना, उन पर लगे मुकदमे वापस करना आदि मांगें भी सरकार ने मान ली हैं।
सबसे कठिन मुद्दा है— सरकारी समर्थन मूल्य का। इस पर सरकार ने कमेटी बना दी है, जिसमें किसानों का भी समुचित प्रतिनिधित्व रहेगा। यह बहुत ही उलझा हुआ मुद्दा है। अभी तो सरकार बढ़ी हुई कीमतों पर गेहूं और चावल खरीदने का वादा कर रही है लेकिन लाखों टन अनाज सरकारी भंडारों में सड़ता रहता है और करदाताओं के अरबों रु. हर साल बर्बाद होते हैं। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर मालदार किसानों से दो-टूक बात की जानी चाहिए। ताकि उनका नुकसान न हो और सरकार के अरबों रु. भी बर्बाद न हों।
सरकार को सबसे ज्यादा उन 80-90 प्रतिशत किसानों की हालत बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए, जो अपनी खेती के दम पर किसी तरह जिंदा रहते हैं। यह तभी हो सकता है, जबकि सरकार इन किसानों के साथ सीधे संवाद का कोई नया रास्ता निकाले। यह सवाद निर्भीक और किसान-हितकारी तभी हो सकता है, जबकि सरकार के सिर पर प्रांतीय चुनावों के बादल न मंडरा रहे हों। विपक्ष की मजबूरी है कि चुनाव की वेला में हर मुद्दे पर वह सरकार के विरोध को जमकर उकसाए लेकिन विपक्षियों से भी आशा की जाती है कि वे अपनी तात्कालिक लाभ-हानि से अलग हटकर देश के 80-90 प्रतिशत किसानों के हित की बात सोचेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसी भी देश की संसद उसके लोकतंत्र का हृदय होती है। हमारी संसद की हृदय गति का क्या हाल है? यदि लोकसभा और राज्यसभा में सदस्यों की उपस्थिति को देखें तो हमारे लोकतंत्र का हृदय आधे से भी कम पर काम कर रहा है। अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सांसदों को काफी खरी-खरी सुनाई थी। उन्होंने सदन में उनकी गैर-हाजिरी पर अपनी नाराजी दो-टूक शब्दों में जाहिर की थी। उन्होंने यह बिल्कुल सही कहा कि यदि आप सदन में हाजिर रहने से कतराएंगे तो यह भी हो सकता है कि आपका इसमें आना ही बंद हो जाए। इस सख्त बयान के बावजूद कल लोकसभा में भाजपा के कितने सदस्य उपस्थित थे? ग्यारह बजे सदन का सत्र शुरु होता है।
उस समय भाजपा के सिर्फ 58 सदस्य और नौ मंत्री उपस्थित थे जबकि भाजपा के कुल सदस्यों की संख्या 301 है और मंत्रियों की संख्या 78 है। 543 सदस्यों के इस सदन में दोपहर तक भाजपा के 83 और विपक्ष के 81 सदस्य थे। यह तो हाल है, उस सदन का, जो संप्रभु कहा जाता है याने उसे सर्वशक्तिमान माना जाता है। उसकी शक्ति इतनी ज्यादा है कि वह किसी भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सर्वोच्च न्यायाधीश को चुटकी बजाते ही हटा सकता है। कोई भी कानून उसकी सहमति के बिना बन नहीं सकता लेकिन कानून बनानेवाले जनता के प्रतिनिधि ही उसकी कीमत नहीं करते तो फिर जो भी सरकार हो, उसे वे मनमानी करने के लिए छुट्टा छोड़ देते हैं। अर्थात सरकार और संसद की लगाम नौकरशाहों के हाथों में चली जाती है, क्योंकि मंत्री लोग तो सांसदों से भी ज्यादा वोट और नोट के धंधे में फंसे रहते हैं। इसी वजह से कई उल्टे-सीधे कानून बन जाते हैं, जिन्हें या तो वापस लेना पड़ता है या उनमें संशोधन करने पड़ते हैं।
ब्रिटेन में लोकसभा को निम्न सदन और राज्यसभा को उच्च सदन कहा जाता है लेकिन हमारी राज्यसभा में आजकल जैसी नौटंकी चल रही है, वह 'निम्नÓ शब्द को भी मात कर रही है। जिन 12 विपक्षी सदस्यों को राज्यसभा से निलंबित किया गया है, उन्होंने पिछले सत्र में कागज फाड़े थे, फाइलें छीनी थीं, माइक तोड़ दिए थे, मेजों पर चढ़कर हल्ला मचाया था और मार्शलों के साथ मार-पीट भी कर डाली थी। अब भी प्रमुख विपक्षी दल राज्यसभा का बहिष्कार कर रहे हैं। उन्हें अध्यक्ष वैंकय्या नायडू ने काफी ठीक सलाह दी है। उन्होंने कहा है कि निलंबन का फैसला उन्होंने नहीं किया है बल्कि राज्यसभा ने प्रस्ताव पारित करके किया है। इसीलिए बेहतर होगा कि सदन के नेता और विपक्ष के सांसद आपस में बात करके सारे मामले को हल करें। इस समय राज्यसभा में जो भी विधेयक पारित हो रहे हैं, वे बिना विपक्ष के ही पारित हो रहे हैं। जो सदस्य निलंबित किए गए हैं, वे तो अपनी करनी भुगत ही रहे हैं लेकिन जो निलंबित नहीं किए गए हैं, उन्होंने स्वयं को निलंबित कर रखा है। क्या ही अच्छा हो कि हमारी संसद के दोनों सदन अपने काम ठीक से करें ताकि भारतीय लोकतंत्र स्वस्थ और सबल बना रहे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रजनीश कुमार
देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत की आठ दिसंबर को तमिलनाडु के कुन्नूर में वायु सेना के एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मौत हो गई। जनरल रावत की मौत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा, ‘जनरल बिपिन रावत एक शानदार सैनिक थे। सच्चे देशभक्त, जिन्होंने सेना के आधुनिकीकरण में अहम भूमिका निभाई। सामरिक और रणनीतिक मामलों में उनकी दृष्टिकोण अतुलनीय था। उनके नहीं रहने से मैं बहुत दुखी हूँ। भारत उनके योगदान को कभी नहीं भूलेगा।’
31 दिसंबर, 2016 को जब जनरल बिपिन रावत को थल सेना की कमान सौंपी गई तभी पता चल गया था कि प्रधानमंत्री मोदी उन पर बहुत भरोसा करते हैं।
जरनल रावत का थल सेना प्रमुख बनना कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं थी। उन्हें सेना की कमान उनके दो सीनियर अधिकारियों की वरिष्ठता की उपेक्षा कर दी गई थी।
अगर पारंपरिक प्रक्रिया से सेना प्रमुख बनाया जाता तो वरिष्ठता के आधार पर तब ईस्टर्न कमांड के प्रमुख जनरल प्रवीण बख्शी और दक्षिणी कमांड के प्रमुख पी मोहम्मदाली हारिज की बारी थी।
जनरल रावत के लिए वरिष्ठता की उपेक्षा
लेकिन मोदी सरकार ने वरिष्ठता की जगह इन दोनों के जूनियर जनरल रावत को पसंद किया। तब कई विशेषज्ञों ने कहा था कि जनरल रावत भारत की सुरक्षा से जुड़ी वर्तमान चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं। तब भारत के सामने तीन बड़ी चुनौतियां थीं, सीमा पार से आतंवाद पर लगाम लगाना, पश्चिमी छोर से छद्म युद्ध को रोकना और पूर्वोत्तर भारत में उग्रवादियों पर लगाम लगाना।
तब जनरल रावत के बारे में कहा गया था कि पिछले तीन दशकों से टकराव वाले क्षेत्र में सेना के सफल ऑपरेशन चलाने का उनके पास सबसे उम्दा अनुभव है।
जनरल रावत के पास उग्रवाद और लाइन ऑफ कंट्रोल की चुनौतियों से निपटने का भी एक दशक का अनुभव था। पूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद को काबू में करने और म्यांमार में विद्रोहियों के कैंपों को खत्म कराने में भी जनरल रावत की अहम भूमिका मानी जाती है। 1986 में जब चीन के साथ तनाव बढ़ा था, तब जनरल रावत सरहद पर एक बटालियन के कर्नल कमांडिंग थे।
बताया जाता है कि जनरल रावत के करियर के इस अनुभव से पीएम मोदी प्रभावित थे और उन्हें सेना की कमान सौंपने में वरिष्ठता की परवाह नहीं की। हालाँकि भारतीय सेना का प्रमुख बनाने में वरिष्ठता की उपेक्षा करने वाले नरेंद्र मोदी कोई पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं।
उनसे पहले 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की वरिष्ठता की परवाह किए बिना उनके जूनियर लेफ्टिनेंट जनरल एएस वैद्य को सेना की कमान सौंपी थी। इंदिरा गांधी के इस फैसले के विरोध में जनरल एसके सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया था।
इंदिरा गांधी ने 1972 में भी ऐसा ही किया था। तब उन्होंने बहुत ही लोकप्रिय लेफ्टिनेंट जनरल एस भगत को वरिष्ठता की उपेक्षा करते हुए उनके जूनियर लेफ्टिनेंट जनरल जीजी बेवूर को सेना की कमान सौंप दी थी।
लाल किले से सीडीएस की घोषणा
15 अगस्त, 2019 को स्वतंत्रता दिवस की 73वीं वर्षगांठ पर लाल किले से दिए गए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्मी, नेवी और एयरफोर्स के बीच अच्छे समन्वय के लिए चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ पद बनाने की घोषणा की थी।
तब पीएम मोदी ने कहा था, ‘समय रहते रिफॉर्म की ज़रूरत है। सैन्य व्यवस्था में सुधार के लिए कई रिपोर्ट आई। हमारी तीनों सेना के बीच समन्वय तो है लेकिन आज जैसे दुनिया बदल रही है, आज जिस प्रकार से तकनीक आधारित व्यवस्था बन रही है, वैसे में भारत को भी टुकड़ों में नहीं सोचना होगा। तीनों सेनाओं को एक साथ आना होगा। विश्व में बदलते हुए युद्ध के स्वरूप और सुरक्षा के अनुरूप हमारी सेना हो। आज हमने निर्णय किया है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की व्यवस्था करेंगे और सीडीएस तीनों सेनाओं के बीच समन्वय स्थापित करेगा।’
पीएम मोदी ने इस जिम्मेदारी के लिए भी जनरल रावत को ही चुना। भारत में पहली बार चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ पद की व्यवस्था की गई और वो मिली जनरल बिपिन रावत को।
रावत 31 दिसंबर, 2019 को सेना प्रमुख से रिटायर हुए और उन्हें सीडीएस की जिम्मेदारी मिल गई। जनरल रावत जब सेना प्रमुख बने तो कुछ ही महीनों में चीन के साथ डोकलाम में तनातनी की स्थिति पैदा हो गई। डोकलाम भूटान में है और वहां चीन सैन्य ठिकाने बना रहा था। भारत ने वहाँ अपने सैनिकों की तैनाती कर दी और कहा गया कि यह सेना प्रमुख जनरल रावत की आक्रामक सैन्य नीति का हिस्सा है।
ढाई मोर्चों से तैयारी
जनरल रावत ने डोकलाम संकट के दौरान ही कहा था कि भारत ढाई मोर्चों से युद्ध के लिए तैयार है। यहाँ ढाई मोर्चे से मतलब चीन, पाकिस्तान और भारत के भीतर विद्रोही समूहों से है। जनरल रावत के इस बयान पर चीन की ओर से कड़ी आपत्ति भी आई थी।
लेकिन जनरल रावत के बयान में कई बार विरोधाभास भी होते थे। कई रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि अगर आपकी तैयारी है भी तो दो मोर्चों से चुनौती का सामना करना आसान नहीं होता इसलिए कूटनीति का सहारा लेना होता है। दुनिया के इतिहास में जब भी किसी देश ने दो मोर्चों से लड़ाई की है तो उसके लिए दिक्कतें बढ़ी हैं और आसान नहीं रहा है।
पीएम मोदी जनरल रावत पर इतना भरोसा क्यों करते थे? ये पूछे जाने पर रक्षा विश्लेषक राहुल बेदी कहते हैं, बिपिन रावत को सीडीएस की जिम्मेदारी तब सौंपी गई जब इस पद पर जाने के लिए कोई नियम नहीं था। ऐसे में जनरल रावत को यह पद सौंपना अहम भी था और आसान भी। जनरल रावत को सैन्य सुधार, डिफेंस इकॉनोमी और तीनों सेना में समन्वय के लिए सीडीएस बनाया गया था। अभी उनका एक साल का कार्यकाल और बचा था।
‘पीएम मोदी के भरोसा करने की एक बड़ी वजह वैचारिक कऱीबी भी हो सकती है। जनरल रावत लगातार राजनीतिक बयान देते थे और उन बयानों में जो सोच होती वो बीजेपी के करीब दिखती थी। इसके अलावा जनरल रावत देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के भी करीबी थे। अजित डोभाल को पीएम मोदी भी काफी तवज्जो देते हैं।’
2016 में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक में भी जनरल रावत की अहम भूमिका मानी जाती है। भारत के जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने जनरल रावत की मौत पर ट्वीट कर कहा है, ‘पिछले 20 महीनों से हिमालयन फ्रंट पर चीन की आक्रामकता के कारण युद्ध जैसी स्थिति है, ऐसे वक्त में जनरल रावत की मौत बहुत ही दुखद है। जनरल रावत स्पष्ट और सीधा बोलते थे। जब सरकार की ओर से चीन का नाम तक लेने में परहेज किया जा रहा है, तब जनरल रावत चीन का नाम लेकर बोलते थे।’
जनरल रावत के विवादित बयान
जनरल बिपिन रावत ने 26 दिसंबर, 2019 को कहा था, ‘नेता वो होते हैं जो सही दिशा में लोगों का नेतृत्व करते हैं। बड़ी संख्या में यूनिवर्सिटी और कॉलेज के स्टूडेंट जिस तरह से विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं उससे शहरों में हिंसा और आगजनी बढ़ रही है। नेतृत्व ऐसा नहीं होना चाहिए।’
जनरल रावत के इस बयान पर विपक्षी पार्टियों की तरफ से तीखी प्रतिक्रिया आई थी। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा था, ‘जनरल रावत के इस बयान से स्पष्ट हो जाता है कि मोदी सरकार के दौरान स्थिति में कितनी गिरावट आ गई है कि सेना के शीर्ष पद पर बैठा व्यक्ति अपनी संस्थागत भूमिका की सीमाओं को लांघ रहा है।’
‘ऐसी स्थिति में यह सवाल उठना लाजिमी है कि कहीं हम सेना का राजनीतीकरण कर पाकिस्तान के रास्ते पर तो नहीं जा रहे? लोकतांत्रिक आंदोलन के बारे में इससे पहले सेना के किसी शीर्ष अधिकारी के ऐसे बयान का उदाहरण आजाद भारत के इतिहास में नहीं मिलता है।’
येचुरी ने सेना प्रमुख से उनके बयान से लिए देश से माफी मांगने को कहा था। साथ ही सीपीएम ने सरकार से भी मामले में संज्ञान लेते हुए जनरल की निंदा करने की मांग की थी।
जनरल रावत के इस बयान पर एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था, ‘अपने पद की सीमाओं की जानना ही नेतृत्व है। नागरिकों की सर्वोच्चता और जिस संस्था के आप प्रमुख हैं, उसकी अखंडता को संरक्षित करने के बारे में है।’
राहुल बेदी कहते हैं कि जनरल रावत के बयान तभी थमे होंगे जब सरकार की तरफ से उन्हें ऐसा बंद करने के लिए कहा होगा।
जनरल रावत चीन के लेकर भी खुलकर बोलते थे। हाल ही में जनरल रावत ने कहा था कि भारत के लिए पाकिस्तान नहीं चीन खतरा है।
कई बार सरकार को जनरल रावत के बयान के कारण राजनयिक रिश्तों में असहजता का भी सामना करना पड़ा है। अभी चीन ने पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अप्रैल 2020 से पहले की यथास्थिति को बदल दिया है और ये जनरल रावत के सीडीएस रहते हुए हुआ। कई ऐसी चीजें हैं, जो अगले सीडीएस के लिए बड़ी चुनौती होगी।
जनरल रावत इसराइल से सैन्य संबंधों को बढ़ाने के भी पक्षधर रहे थे। उनकी मौत पर इसराइल के शीर्ष नेतृत्व से दुख जताते हुई कई प्रतिक्रिया आई। प्रधानमंत्री नेफ्टाली बेनेट से लेकर वहां के पूर्व प्रधानमंत्री तक ने दुख जताया है।
इसराइल के रिटायर्ड आर्मी जनरल बेनी गेंट्ज ने ट्वीट कर कहा है, ‘जनरल रावत इसराइल डिफेंस फोर्स के सच्चे पार्टनर थे। दोनों देशों में सुरक्षा सहयोग बढ़ाने में जनरल रावत की अहम भूमिका थी। वो जल्द ही इसराइल आने वाले थे।’
मोदी सरकार भी इसराइल को लेकर पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में काफी अलग रही है। प्रधानमंत्री के रूप में इसराइल जाने वाले नरेंद्र पहले शख्स हैं। इससे पहले के प्रधानमंत्री इसराइल जाने से बचते रहे थे। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हरियाणा की एक युवती ने दहेज के विरुद्ध ऐसा जबर्दस्त कदम उठाया है कि उसका अनुकरण पूरे भारत में होना चाहिए। भारत सरकार ने दहेज निषेध कानून बना रखा है लेकिन भारत में इसका पालन इसके उल्लंघन से ही होता है। बहुत कम विवाह देश में ऐसे होते हैं, जिनमें दहेज का लेन-देन न होता हो। जहां स्वेच्छा से दहेज दिया जाता है, वहां भी लड़की वालों पर तरह-तरह के मानसिक, सामाजिक और जातीय दबाव होते हैं। कई बार फेरों के पहले ही विवाह टूट जाता है, आई हुई बारात खाली लौट जाती है और विवाह-स्थल पर ही घरातियों व बरातियों में दंगल हो जाता है।
शादी के बाद तो बहुओं को जिंदगी भर तंग किया जाता है। उनके मां-बाप को कोसा जाता है और बहुएं तंग आकर आत्महत्या कर लेती हैं। दहेज मांगने वालों को 3 से 5 साल की सजा का प्रावधान कानून में है लेकिन भारत में कानून की हालत खुद बड़ी खस्ता है। पहली बात तो यही कि लड़की वालों की हिम्मत ही नहीं होती कि वे कानून का सहारा लें। यदि वे अदालत में जाएं तो पहले उनके पास वकीलों की फीस भरने के लिए पैसे होने चाहिए और दूसरा खतरा उनकी बेटी को ससुराल से धकियाए जाने का होता है।
अदालत में कोई चला भी जाए तो उसे इंसाफ मिलने में बरसों लग जाते हैं। लेकिन हरियाणा के आकोदा गांव की एक युवती ने अत्यंत साहसिक कदम उठाकर दहेज के इस अधमरे कानून में जान फूंक दी है। इस लड़की की शादी 22 नवंबर को होनी थी। दूल्हे ने दहेज में 14 लाख रु. की कार मांगी। कार नहीं मिलने पर वह 22 नवंबर को बारात लेकर आकोदा नहीं पहुंचा। उस लड़की ने उस भावी पति के खिलाफ पुलिस में रपट लिखवाई और दंड संहिता की धारा 498ए के तहत उसे गिरफ्तार करवा दिया। मुझे खुशी तब होती, जबकि उसके परिवार के कुछ बुजुर्ग सदस्यों को भी जेल की हवा खिलवाई जाती, क्योंकि उनकी सहमति के बिना दहेज में कार की मांग क्यों होती?
अब उस बहादुर लड़की के लिए रिश्तों की भरमार हो गई है। इससे भी पता चलता है कि भारत में आदर्श आचरण करने वालों की कमी नहीं है। असली दिक्कत तो लालच ही है। लालच में फंसे होने के कारण ही हमारे नेता और अफसर रिश्वत खाते हैं, डाक्टर और वकील ठगी करते हैं, व्यापारी मिलावट करते हैं और किसी का कुछ बस नहीं चलता है तो लोग दहेज के बहाने अपने बेटे-बेटियों का भी सौदा कर डालते हैं। कई लोग अपनी सुंदर, सुशिक्षित और सुशील बेटियों को अयोग्य पैसे वालों के यहां अटका देते हैं। वे जीवन भर अपने भाग्य को कोसती रहती हैं।
इस बीमारी का इलाज सिर्फ कानून से नहीं हो सकता है। इसके लिए भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की सख्त जरुरत है। मैंने लगभग 60 साल पहले इंदौर में ऐसा आंदोलन शुरु किया था। जिन सैकड़ों लड़कों ने मेरे साथ दहेज नहीं लेने की प्रतिज्ञा की थी, उनकी दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी आज तक उस संकल्प को निभा रही हैं। यदि भारत के साधु-संत, मौलाना, पंडित-पादरी लोग यह बीड़ा उठा लें और आर्यसमाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सर्वोदय मंडल, साधु समाज, इमाम संघ, शिरोमणि सभा आदि संगठन इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लें तो दहेज की समस्या पर काबू पा लेना कठिन नहीं होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मनोरमा सिंह
विनोद दुआ की मौत पर शोक मैंने भी जताया, वो मानवीयता है, और बतौर पत्रकार उनके योगदान को नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन ये भी नजऱअंदाज नहीं किया जा सकता है कि विनोद दुआ पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया गया था। और उन्होंने ‘द वायर’ में एंटी सेक्सुअल हैरेसमेंट कमेटी की प्रक्रिया का पालन नहीं किया था। कल से अपनी टाइम लाइन पर अलग-अलग पोस्ट्स में उषा अरवामुधन सक्सेना, निष्ठा जैन की पोस्ट का जिक्र पढ़ा और मुझे भी उन पर निष्ठा जैन द्वारा लगाए गए #मीटू आरोपों का स्मरण हुआ, और उस दौरान अपनी लिखी एक पोस्ट का भी ध्यान आया जो तब उनके और उनके नेतृत्व में काम रहे लोगों के निहायत गैर पेशेवर व्यवहार से जुड़ा था। बेशक हम एक साथ #मीटू के तहत अपने उत्पीडऩ की कहानियों को सार्वजानिक कहने वाली लड़कियों का समर्थन और #मीटू पर हंसने वाले का ये गुनाह नजरअंदाज नहीं कर सकते। उनकी पत्रकारिता का सम्मान होते हुए भी, मोदी सरकार या सत्ता विरोध की पत्रकारिता को स्त्रियों के शोषण, उत्पीडऩ और उनकी उत्पीडऩ की कहानियों का मखौल उड़ाने या ख़ारिज करने की छूट नहीं दी जा सकती, कभी भी नहीं !
मैं साथ में अपनी पुरानी पोस्ट भी शेयर कर रही हूँ।
पुरानी पोस्ट
14 अक्टूबर, 2018
मीटू कहानी से इतर बतौर संपादक कैंडिडेट को इंटरव्यू पर बुलाने का तरीका इनके छोटे से मीडिया हाउस का कितना अनप्रोफेशनल रहा है ये मेरा भी अनुभव रहा है, बात उन दिनों की है जब कोई सरिता जोशी और टीवी एंकर संदीप चौधरी इनकी टीम का हिस्सा थे संभवत: साल 2001-02 की बात है, सरिता जोशी नौकरी चाहने वाले उम्मीदवारों के फोन रिसीव करती थीं और फोन पर उन्हीं को फॉलो करना होता था, रिज़्यूमे मेल करने के बाद एक दिन मेरी विनोद दुआ से बात हुई , शायद तब वो राष्ट्रीय सहारा के लिए कार्यक्रम करते थे, उन्होंने कहा ठीक है आप रिज़्यूमे लेकर आ जाइये, वेन्यू नोएडा का कोई शिप्रा होटल था, मैंने अजय को मुझे वहां छोड़ देने का रिक्वेस्ट किया वो आ गया, हम दोनों गए रिसेप्शन पर पूछा तो संदीप चौधरी के रूम में जाने को कहा गया, माथा ठनका ये क्या है रिसेप्शन या लॉबी के बज़ाय रूम में? मेरी और अजय की वहीं थोड़ी बहस हुई वो हमेशा से इस तरह के गैर पेशेवराना तौर तरीकों को गंभीरता से लेता रहा है, खैर हम दोनों गए, संदीप चौधरी अपने कमरे में बेड पर ही बैठे थे, हमें बैठने का इशारा किया, हमारे चेहरे की ओर देखने और अजय मेरे दोस्त का तब वो माइक्रोमैक्स में काम करता था, परिचय जानने के बाद झेंपे थोड़ा, मैंने बताया मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है, मुझे नहीं मालूम उन्हें उम्मीदवार के बारे में कितना पता था, मैंने फाइल से रिज़्यूमे का हार्ड कॉपी निकाल कर दिया, उसने सरसरी तौर पर देखा, ना तो इंटरव्यू लेने की उसकी तैयारी थी ना ही वो उस फ्रेम ऑफ माइंड में दिखा, और मेरा मन ये देखकर ही खराब हो चुका था, मैंने भी उसे रिज़्यूमे थमाया और निकल आयी वहां से दो लोगों के वक्त की बरबादी केवल रिज़्यूमे देने के लिए वो भी जिसे कई बार पहले मेल कर चुकी थीं। हद है!! खैर, इसके बाद मैंने कभी दोबारा उनके मीडिया हाउस को कॉल नहीं किया, ये अनुभव हैं जिसके आधार पर मैं बार-बार रूल बुक से चलने की बात करती हूँ, ज्यादातर मीडिया हाउस का एटीट्यूड रहा है उम्मीदवार के समय की कोई कीमत नहीं होती !
-ध्रुव गुप्त
हमारे बिहार को ऐसे ही देश का सिरमौर और हम बिहारियों को अलबेला कहा जाता है। अभी देश के टीकाकरण अभियान में भी बिहार ने झंडे गाड़े है। बिहारी टीके की प्रामाणिकता इतनी विश्वसनीय और खुशबू इतनी तेज है कि दुनिया भर के लोग इधर खिंचे चले आ रहे हैं। खबरों के मुताबिक कुछ ही दिनों पहले दिल्ली छोडक़र देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और गृहमंत्री अमित शाह बिहार के अरवल जिले के करपी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आए और वैक्सीन का डोज लेकर चुपचाप निकल गए।
इस सूची में अमेरिका से भागकर करपी पहुंची अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का नाम भी शामिल है। इतना ही नहीं गया जिले के स्वास्थ्य केंद्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी महाराज और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के भी वैक्सीन लेने की सूचना दर्ज है। इन विस्फोटक खुलासों के बाद हम बिहारियों का माथा गर्व से ऊंचा हुआ है। यह हमारे बिहार के टीके की गुणवत्ता और लोकप्रियता ही है कि यहां अबतक सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं। फिलहाल इन दोनों स्वास्थ्य केंद्रों के डॉक्टरों और कर्मचारियों के खिलाफ इस आरोप में कार्रवाई की जा रही है कि इतने गणमान्य लोगों के केंद्रों पर आने की सूचना जिले के बड़े अधिकारियों और प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री को क्यों नहीं दी गई। उनकी लापरवाही से बिहार की अतिथि सत्कार की गौरवशाली परंपरा को बट्टा लगा है।
आप गैरबिहारी लोग हैरान न हों। थोड़ा और इंतजार करिए। बाइडेन, पुतिन और जिनपिंग के भी बिहार में टीकाकरण की खबरें आ सकती हैं। सूत्रों की मानें तो पाक प्रधानमंत्री इमरान और जनरल बाजवा ने यहां के स्वास्थ्य केंद्रों की रेकी करवाई है ताकि गुप्त तरीके से घुसकर वे भी बिहारी वैक्सीन का लाभ ले सकें!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
म्यामांर की विश्व प्रसिद्ध नेता आंग सान सू ची की चार साल की सजा सुना दी गई है। फौजी सरकार ने उन पर बड़ी उदारता दिखाते हुए उसे चार की बजाय दो साल की कर दी है। सच्चाई तो यह है कि उन पर इतने सारे मुकदमे चल रहे हैं कि यदि उनमें उन्हें बहुत कम-कम सजा भी हुई तो वह 100 साल की भी हो सकती है। उन पर तरह-तरह के आरोप हैं। जब उनकी पार्टी, 'नेशनल लीग फार डेमोक्रेसीÓ की सरकार थी, तब उन पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाया गया था।
म्यांमार के फौजियों ने जनता द्वारा चुनी हुई उनकी सरकार का इस साल फरवरी में तख्ता-पलट कर दिया था। उसके पहले 15 साल तक उन्हें नजरबंद करके रखा गया था। नवंबर 2010 में म्यांमार में चुनाव हुए थे, उनमें सू ची की पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला था। फौज ने सू ची पर चुनावी भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और सत्ता अपने हाथ में ले ली। फौज के इस अत्याचार के विरूद्ध पूरे देश में जबर्दस्त जुलूस निकाले गए, हड़तालें हुई और धरने दिए गए। फौज ने सभी मंत्रियों और हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया।
लगभग 1300 लोगों को मौत के घाट उतार दिया और समस्त राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया। फौज ने लगभग 10 लाख रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार से भाग जाने पर मजबूर कर दिया। वे लोग भागकर बांग्लादेश और भारत आ गए। म्यांमारी फौज के इस तानाशाही और अत्याचारी रवैया सारी दुनिया चुप्पी खींचे बैठी हुई है। संयुक्तराष्ट्र संघ में यह मामला उठा जरुर लेकिन मानव अधिकारों के सरासर उल्लंघन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। यह ठीक है कि सैनिक शासन के राजदूत को संयुक्तराष्ट्र में मान्यता नहीं मिल रही है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?
यदि म्यांमार (बर्मा) को संयुक्तराष्ट्र की सदस्यता से वंचित कर दिया जाता और उस पर कुछ अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबंध थोप दिए जाते तो फौजी शासन को कुछ अक्ल आ सकती थी। आश्चर्य की बात है कि अपने आप को महाशक्ति और लोकतंत्र का रक्षक कहनेवाले राष्ट्र भी इस फौजी अत्याचार के खिलाफ सिर्फ जबानी जमा-खर्च कर रहे हैं। अमेरिका शीघ्र ही दुनिया के लोकतांत्रिक देशों का सम्मेलन करनेवाला है और अपने सामने हो रही लोकतंत्र की इस हत्या पर उसने चुप्पी खींच रखी है।
म्यांमार भारत का निकट पड़ौसी है और कुछ दशक पहले तक वह भारत का हिस्सा ही था लेकिन भारत की प्रतिकिया भी एकदम नगण्य है। जैसी अफगानिस्तान के मामले में भारत बगलें झांकता रहा, वैसे ही म्यांमार के सवाल पर वह दिग्भ्रमित है। उसमें इतना दम भी नहीं है कि वह जबानी जमा-खर्च भी कर सके। चीन से तो कुछ आशा करना ही व्यर्थ है, क्योंकि उसके लिए लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं है और फौजी शासन के साथ उसकी पहले से ही लंबी सांठ-गांठ चली आ रही है। म्यांमार की जनता अपनी फौज से अपने भरोसे लडऩे के लिए विवश है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव होगा ?
-डॉ तपेश चन्द्र गुप्ता
क्रिप्टोकरेंसी / डिजिटल करेंसी क्या है ?
Cryptocurrency दो शब्दों से मिलकर बना शब्द है. Crypto + Currency
Crypto शब्द लैटिन भाषा का है जो cryptography से बना है और जिसका मतलब होता है, छुपा हुआ/हुई अर्थात गुप्त. Currency शब्द भी लैटिन के currentia से बना है, जिसका प्रयोग मुद्रा के लिए किया है. इस प्रकार हम कह सकते है कि क्रिप्टोकरेंसी का अर्थ छुपा हुआ या गुप्त मुद्रा.
क्रिप्टोकरेंसी वर्तमान में बहुचर्चित आर्थिक विषय है। विश्वस्तरीय लोकप्रियता के साथ-साथ भारत में भी इसमें निवेश करने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। यदपि इस अनियमित बाजार में आर्थिक जोखिम को ध्यान में रखते हुए आम जनों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार और रिजर्व बैंक ने निजी क्षेत्र के डिजिटल करेंसी पर प्रतिबन्ध लगाने की मानसिकता तैयार कर ली है और संभवत: चालू शीतकालीन सत्र में इससे संबंधित बिल पेश हो। ज्यादातर लोगों में यह जिज्ञाषा है कि आखिर ये क्रिप्टो करेंसी है क्या और यह किसे काम करती है ?
डिजिटल करेंसी क्या होती है ?
वस्तुत: यह क्रिप्टो करेंसी आर्थिक व वित्तीय लेन-देन का एक माध्यम है। जो कि किसी भी देश की प्रमाणित मुद्रा जैसे भारतीय में रुपये और अमेरिकी में डॉलर के समान, अंतर बस इतना है कि यह एक आभाषी मुद्रा है जिसे न तो देखा जा सकता और ना ही छूआ जा सकता इसे सिर्फ गणनात्मक रूप में महसूस किया जा सकता है। इसलिए इसे डिजिटल करेंसी भी कहते हैं। इस डिजिटल करेंसी का पूरा सौदा या लेनदेन ऑनलाइन माध्यम से ही संचालित होता है। सामान्यत: जब दो देशों के बीच सौदा या व्यापार होता है तो वहां पर उस देश की मुद्रा और केंद्रीय बैंक मध्यस्त होते हैं किन्तु डिजिटल करेंसी के मामले पर कोई भी मध्यस्थ नहीं होता और इसे एक नेटवर्क द्वारा ऑनलाइन संचालित किया जाता है। यह मुद्रा किसी के जेब या लाकर में नहीं राखी जा सकती बल्कि यह पूर्णत: ऑनलाइन रहती है जो डिजिटल हस्ताक्षर से संचालित होती है.
अनियंत्रित कारोबार के चलते डिजिटल करेंसी के माध्यम से संचालित बाज़ार को अनियमित बाजार के रूप में देखा जाता है, जो कि किसी को भी अचानक धनवान / अमीर बना सकता है और एक झटके में उसे कंगाल / गरीब बना सकता है। फिर भी लोक सट्टा बाज़ार में जोखिम लेने को तैयार है और स्वेच्छा या आज़ादी का सौदा करने को तैयार है, इस लिए डिजिटल करेंसी का बाज़ार लोकप्रिय होता जा रहा है।
सबसे लोकप्रिय डिजिटल करेंसी बिटक्वाइन है जो कि दुनिया की सबसे ज्यादा मूल्यवान और लोकप्रिय डिजिटल करेंसी है। बिटक्वाइन डिजिटल करेंसी का क्रिप्टो बाजार में 78% कब्जा है फिर भी प्रतिस्पर्धा में बाजार हजारों की संख्या में डिजिटल मुद्राएं चलन में आ गईं। लोकप्रिय डिजिटल करेंसी बिटक्वाइन के बाद दूसरे क्रम पर लोकप्रिय क्रिप्टो करेंसी इथेरियम है । वैसे डिजिटल करेंसीका कारोबार लगभग दुनिया के अधिकाँश देशों में पहुँच चुका है। अन्य डिजिटल करेंसी में पोल्काडॉट, टेथर, लाइटक्वाइन, डॉजक्वाइन समेत अन्य हजारों की संख्या में डिजिटल करेंसी प्रचालन में हैं।
डिजिटल करेंसी कंप्यूटर प्रणाली से संचालन
डिजिटल करेंसी {आसान भाषी मुद्रा} / क्रिप्टो करेंसी एक प्रकार की व्यापारिक मुद्रा प्रणाली है, जो एक निजी कंप्यूटर सूत्र से जुड़ी हुई है और कंप्यूटर एल्गोरिदम पर कार्य करती है। इस डिजिटल करेंसी पर किसी भी देश या सरकार का कोई भी नियंत्रण नहीं है। फिर भी कुछ देश इसे मान्यता प्रदान कर रहे हैं।
ब्लॉकचेन पद्धति का प्रयोग
डिजिटल करेंसी एक कंप्यूटर नेटवर्क के जरिए नियंत्रित किया जाता है। जिसमें हर एक व्यापारिक सौदे को डिजिटल हस्ताक्षर के माद्यम से प्रमाणित किया जाता है। इन सौदों की जानकारी का संग्रहण {रिकोर्ड} ओर नियंत्रण क्रिप्टोग्राफी के माध्यम से किया जाता है। इसमें सभी कारोबार कंप्यूटर नेटवर्क के माध्यम से चलता है। डिजिटल करेंसी के माद्यम से किये गए प्रत्येक सौदे के लिए जिस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है उसे ब्लॉकचेन कहते हैं। जो कि डिजिटल करेंसी इनक्रिप्टेड (कोडेड) होती हैं। डिजिटल करेंसी के माद्यम से कोई सौदा होता है तो उसकी प्रविष्टि ब्लॉकचेन में हो जाती है, इस प्रकार एक ब्लॉक बन जाता है या यूँ कहें कि ब्लॉक बन जाता है।
डिजिटल करेंसी कैसे खरीदा जाए ?
लोकप्रियता के इस दौर में यह बात काफी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम डिजिटल करेंसी / क्रिप्टो करेंसी कैसे प्राप्त या क्रय करें ? डिजिटल करेंसी खरीदने के लिए सर्वाधिक सुरक्षित माध्यम “क्रिप्टो एक्सचेंज” है। क्रिप्टो ट्रेडिंग और विनियोजन हेतु प्रत्येक क्रेता को सम्बंधित एक्सचेंज की साइट पर साइनअप करने के बाद अपनी KYC की प्रक्रिया करते हुए निर्देशित वॉलेट पर मांगी गई राशि देना होता हैं एक्सचेंज पर पंजीकरण पूर्ण होने के बाद डिजिटल करेंसी क्रय किया जा सकता है। विश्व में अनेक क्रिप्टो करेंसी एक्सचेंज काम कर रहे हैं। भारत में अनेक एक्सचेंज संचालित है जो 24 घंटे खुला रहता है। जहां से अंतरराष्ट्रीय डिजिटल मुद्राएं खरीदी व बेचा जा सकता हैं। भारत सरकार द्वारा इसे प्रतिबंधित किये जाने की बात कही गई है अत: इससे ज्यादा या विस्तृत जानकारी नही दे पाऊँगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
1. डिजिटल करेंसी / क्रिप्टो करेंसी किसी भी सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने के कारण अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ने का भय अत: रोका जाए.
2. हर राष्ट्र को अपने देश की मुद्रा स्फीति दर व आर्थिक नियंत्रण का अधिकार है वः खंडित हो रहा है और नई आर्थिक परेशानी व कठनाई को जन्म दे रहा है .
3. आर्थिक विकास दर की गणना या प्रति व्यक्ति आय, कुलसकल घरेलु आय / उत्पादन की गणना की समस्या होने से आर्थिक विकास दर की गणना की समस्या जन्म लेगी.
4. कर गणना – संकलन – अपवंचन की समस्या प्रत्येक देश के लिए जन्म लेगी.
5. गुप्त धन में वृद्धि होगी जिसे हर देश समाप्त करना चाहता है.
6. विदेशी व्यापार नियंत्रण समाप्त हो जाएगा, अर्थ व्यवस्था चौपट हो जायेगी.
7. ऋण और जमा पर ब्याज दर की गणना / निर्धारण की समस्या
8. आम जनता में आर्थिक ज्ञान का आभाव के कारण विपरीत प्रभाव होगा और समाज में आर्थिक विषमता / असंतुलन जन्म लेगी.
9. आर्थिक अपराध में वृद्धि, छलकपट या अनियमितता की दशा में नियंत्रण व समाधान की समस्या
10. राजस्व वसूली और योजना संचालन की समस्या भी होगी.
11. भारतीय केन्द्रीय बैंक रिजर्व बैंक की भूमिका चुनौतीपूर्ण होगी या शून्य कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
12. आर्थिक अनियमितता के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा भी खतरे पर पड़ सकती है.
13. एक प्रकार का यह सट्टा बाज़ार है, जो एक तरफ़ा स्वीकार नही किया जा सकता.
14. आर्थिक अनिश्चितता दौर शुरू हो जाएगा.
15. भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत संचालित है जो पूंजीवादी में परिवर्तित हो जाएगा जिसका समाज पर विपरीत प्रभाव होगा.
डिजिटल करेंसी / क्रिप्टो करेंसी के प्रभाव का अध्ययन करते वक्त हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यूरोप देशों ने अपनी मुद्रा को एकीकृत कर यूरो स्वीकार कर लिया है, ऐसी दशा में उन देशों के लिए अपनी-अपनी संप्रभुता बचाए रखने के लिए कुछ भी शेष नहीं है पर एशियाई देशों के लिए यह बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण होगा. वैसे भी एशियाई देश आर्थिक व शैक्षणिक रूप से समृद्धशाली नहीं है तब यह आर्थिक परिवर्तन हर देश की व्यवस्था को ध्वस्त / चौपट कर देगा. आफ्रिकन देश जो दूसरों पर आश्रित है उन पर तो कोई प्रभाव नहीं होगा, किन्तु अन्य देश जो विकाशील है वे आर्थिक परिवर्तन से अपना अस्तित्व भी खो सकते है. यह के बेहद जटिल और गंभीर समस्या है. मुझे तो बेहद आश्चर्य है कि इस बड़े आर्थिक परिवर्तन पर विश्व बैंक अनभिज्ञ की तरह क्यों खामोश है ? यदि विश्व बैंक कुछ कदम नहीं उठा रही है तो भारत सरकार को चाहिए कि इस डिजिटल करेंसी / क्रिप्टो करेंसी गुप्त मुद्रा के प्रचालन के सन्दर्भ में विश्व बैंक को हस्तक्षेप करने हेतु कार्यवाही करे, यह समस्या सिर्फ भारत की ही नहीं पूरे विश्व के देशों के संप्रभुता का प्रश्न है .
(प्राध्यापक (वाणिज्य) शासकीय जे.योगानंदम छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
'तहरीके-लबायक पाकिस्तान' नामक इस्लामी संगठन ने इस्लाम और पाकिस्तान, दोनों की छवि तार-तार कर दी है। पिछले हफ्ते उसके उकसाने के कारण सियालकोट के एक कारखाने में मेनेजर का वर्षों से काम कर रहे श्रीलंका के प्रियंत दिव्यवदन नामक व्यक्ति की नृशंस हत्या कर दी गई। दिव्यवदन के बदन का, उसकी हड्डियों का चूरा-चूरा कर दिया गया और उसके शव को फूंक दिया गया।
इस कुकृत्य की निंदा पाकिस्तान के लगभग सारे नेता और अखबार कर रहे हैं और सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया है। उसी कारखाने के दूसरे मेनेजर मलिक अदनान ने प्रियंत को बचाने की भरसक कोशिश की लेकिन भीड़ ने प्रियंत की हत्या कर ही डाली। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने मलिक अदनान की तहे-दिल से तारीफ की और उन्हें 'तमगा-ए-शुजातÓ देने की घोषणा भी की है।
'तहरीक' ने प्रियंत पर यह आरोप लगाया कि उसने तौहीन-अल्लाह की है। काफिराना हरकत की है। इसीलिए उसे उन्होंने सजा-ए-मौत दी है। प्रियंत ने तहरीके-लबायक के एक पोस्टर को अपने कारखाने की दीवार से इसलिए हटवा दिया था कि उस पर पुताई होनी थी। हमलावरों का कहना है कि उस पोस्टर पर कुरान की आयत छपी हुई थी। इन हमलावरों से कोई पूछे कि उस श्रीलंकाई बौद्ध व्यक्ति को क्या पता रहा होगा कि उस पोस्टर पर अरबी भाषा में क्या लिखा होगा? मान लें कि उसे पता भी हो तो भी कोई पोस्टर या कोई ग्रंथ या कोई मंदिर या मस्जिद वास्तव में क्या है? ये तो बेजान चीजें हैं। आप इनके बहाने किसी की हत्या करते हैं तो उसका अर्थ क्या हुआ?
क्या यह नहीं कि आप बुतपरस्त हैं, मूर्तिपूजक हैं, जड़पूजक हैं? क्या इस्लाम बुतपरस्ती की इजाजत देता है? क्या अल्लाह या ईश्वर या गॉड या जिहोवा इतना छुई-मुई है कि किसी के पोस्टर फाड़ देने, निंदा या आलोचना करने, किसी धर्मग्रंथ को उठाकर पटक देने से वह नाराज़ हो जाता है? ईश्वर या अल्लाह को तो किसने देखा है लेकिन इंसान अपनी नाराजी को ईश्वरीय नाराजी का रुप दे देता है। यह उसके अपने अहंकार और दीमागी जड़ता का प्रमाण है। इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाना उचित है।
पाकिस्तान का यह दुर्भाग्य है कि उसके संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की चेतावनी पर उसके उग्रवादी लोग बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते। जिन्ना पाकिस्तान को एक सहनशील राष्ट्र बनाना चाहते थे लेकिन पाकिस्तान दुनिया का सबसे असहिष्णु इस्लामी राष्ट्र बन गया है। कभी वहां मंदिरों, कभी गुरुद्वारों और कभी गिरजाघरों पर हमलों की खबरें आती रहती हैं। कभी कादियानियों पर हमले होते हैं।
2011 में लाहौर में राज्यपाल सलमान तासीर की हत्या इसलिए कर दी गई थी कि उन्होंने आसिया बीबी नामक एक महिला का समर्थन कर दिया था। आसिया बीबी पर तौहीन-ए-अल्लाह का मुकदमा चल रहा था। सलमान तासीर अच्छे खासे पढ़े-लिखे मुसलमान थे। वे मेरे मित्र थे। उनकी हत्या पर गजब का हंगामा हुआ लेकिन यह सिलसिला अभी भी ज्यों का त्यों जारी है। इस सिलसिले को रोकने के लिए इमरान सरकार की सी सख्ती तो चाहिए ही लेकिन उससे भी ज्यादा जिम्मेदारी मजहबी मौलानाओं की है। ईश्वर और अल्लाह को अपनी तारीफ या तौहीन से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उसके कारण पाकिस्तान की तौहीन क्यों हो?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. अमिता नीरव
बात ज्यादा पुरानी है। हमारे प्रदेश में तब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। प्रदेश भयानक बिजली संकट से जूझ रहा था। याद आता है कि शहर में भी गर्मियों की रातों में दो-दो घंटे बिजली कटौती हुआ करती थी। चुनाव आने ही वाले थे, ऐसे ही किसी मौके पर किसी के सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा था कि कौन कहता है कि चुनाव काम से जीते जाते हैं, चुनाव तो मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। इस बयान ने अचंभित कर दिया था। गुस्सा भी बहुत आया था। उस साल चुनाव में वोट ही नहीं किया था। कांग्रेस भी चुनाव हार गई थी।
पत्रकारिता शुरू करने के कुछ ही सालों बाद हमारे अखबार में यह चर्चा शुरू हो गई थी कि अखबार के संपादक की जगह मैनेजर की नियुक्ति की जानी चाहिए। आखिर तो संपादक की जरूरत ही क्या है? हर विभाग में संपादक हैं ही, वे अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाते ही हैं ऐसे में अखबार के संपादक की जरूरत ही क्या है! उन्हीं दिनों जाना था कि बड़े-बड़े अंग्रेजी अखबारों में अब संपादकों की जगह मैनेजर्स ले चुके हैं। उन्हीं दिनों अलग तरह से लेख लिखा था जो सन्डे सप्लीमेंट की कवर स्टोरी के रूप में छपा था।
लेख का शीर्षक था ‘जरूरत वैज्ञानिकों की हैं, हम पैदा कर रहे हैं मैनेजर्स...’। धीरे-धीरे संपादक विहीन खबरों की दुनिया का पतन होना शुरू हो गया था। जहाँ कहीं संपादकों की जरूरत को स्वीकार किया गया, वहाँ भी संपादक को अंततः मैनेजर की भूमिका तक ही महदूद कर दिया गया। अखबारों की दुनिया में पत्रकारिता मैनेजमेंट का रूप लेती चली गई और संपादक, बाजार, राजनीति, खबर, नफा-नुकसान को मैनेज करने के लिए मैनेजर होने लगे। यहीं से पत्रकारिता के लुप्त होने की भूमिका बनने लगी।
2014 के आम चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के बाद हर जगह प्रशांत किशोर का नाम पढ़ने और सुनने के बाद जाना कि अब लोकतंत्र में एक नए उद्योग की शुरुआत हो गई है। इलेक्शन मैनेजमेंट... ऐसा नहीं है कि इससे पहले यह विधा नहीं थी। हर काम जिसमें कई लोग लगे होते हैं उसका मैनेजमेंट तो किया ही जाता है। जब घर के चार लोगों के बीच भी मैनेजमेंट की दरकार होती है तो चुनाव में क्यों नहीं होगी? लेकिन इलेक्शन मैनेजमेंट चुनाव जितवा सकता है इस तथ्य औऱ सत्य ने जैसे बुरी तरह से हिला दिया था।
आज सोचती हूँ तो पाती हूँ अण्णा आंदोलन, देश के औद्योगिक घरानों का नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन, कांग्रेस के खिलाफ लगातार भ्रष्टाचार के आरोप, तमाम घोटालों का उन्हीं दिनों भंडाफोड़ होना, विनोद राय के आरोप औऱ बाद में प्रशांत किशोर... ये सब कुछ एक ही जंजीर की कड़ियाँ हैं। दरअसल हम जिसे मैनेजमेंट समझते हैं मैनेजमेंट उससे कहीं ज्यादा औऱ विस्तृत विधा है।
पत्रकारिता करने के दौरान कभी-कभी फिल्म के पेज की जिम्मेदारी भी उठाई है। कई बार फिल्म के सप्लीमेंट के लिए लिखा भी है तब जाना कि दरअसल इमेज मेकिंग भी एक करियर ऑप्शन हैं। तब तो लगता था कि यह सिर्फ ग्लैमर इंडस्ट्री का ही सच है। जिन दिनों सलमान खान जेल में थे, उन दिनों एकाएक कई लोग उनके बीईंग ह्यूमन और लोगों को मदद करने के उनके जज्बे पर लिख रहे थे। क्या वो सब इत्तफाक था? नहीं वो सब इमेज मेकिंग का हिस्सा था। पब्लिक सेंटीमेंट को मैनेज करने की ट्रिक थी।
2008 के मुंबई हमले में पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब के बारे में सरकार के वकील उज्जवल निकम ने प्रेस को बताया था कि कसाब ने जेल में बिरयानी की माँग की है। एकाएक देश का पब्लिक सेंटिमेंट उसके खिलाफ हो गया। 2015 में जब कसाब को फाँसी हुए तीन साल हो चुके थे, उज्जवल निकम ने एक इंटरव्यू में कहा कि कसाब ने न तो कभी जेल में बिरयानी की माँग की औऱ न ही उसे बिरयानी दी गई। ये हमने पब्लिक सेंटीमेंट को उसके खिलाफ करने के लिए फेब्रिकेट किया था।
अभी देखिए बीजेपी ने देश के सामने राहुल गाँधी को पप्पू सिद्ध कर दिया है। अच्छे खासे पढ़े लिखे, समझदार लोगों को राहुल को पप्पू कहते सुनती हूँ। यह सब भी उसी इलेक्शन मैनेजमेंट का हिस्सा है। प्रधानमंत्री नवरात्रि में उपवास करते हैं, कब अपनी माँ से मिलने जाते हैं, कब माँ को प्रधानमंत्री निवास में बुलाया जाता है। अलग-अलग भाव-भंगिमा में प्रधानमंत्री के फोटो थोड़े-थोड़े अंतराल पर रिलीज करना। ये सब कुछ मैनेजमेंट ही है।
इन दिनों फिर से पीके की चर्चा है। सोचती हूँ कौन है पीके... प्रशांत किशोर। कौन हैं और ये इलेक्शन मैनेज करते-करते राजनीति में घुसपैठ क्यों करने लगे हैं? 2014 के चुनावों की सफलता में आंशिक योगदान के अतिरिक्त इनकी और क्या योग्यता है? एक औऱ डरावनी बात यह है कि जिस तरह से पिछले दस सालों से भारतीय लोकतंत्र में मैनेजमेंट का दौर चल रहा है, उससे लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जो थोड़ा बहुत दम बचा है वह भी निकल ही जाना है।
बाजार ने लोकतंत्र को भी अपना औजार बना लिया है। हम इमेज मेकिंग, इवेंट मैनेजमेंट और पॉलिटिकल मैनेजमेंट के नए दौर में कदम रख चुके हैं। यदि आँख-कान को खुला और दिमाग को सतर्क नहीं रखा तो आप भी इसी बाजार का हिस्सा होने जा रहे हैं। फिर ऐसा वक्त भी आ सकता है कि बाजार आपको अपने खिलाफ भी इस्तेमाल कर लें। आप तब समझेंगे, जब आप खुद को ही ठग चुके होंगे।
यकीन कीजिए मैनेजमेंट ठगी का नया रूप है।
-कविता कृष्णन
जिनके लेखन, कविता, पत्रकारिता, राजनीतिक आदर्श आदि का हम आदर करते हैं, उनके खिलाफ यौन उत्पीडऩ, यौन हिंसा आदि के आरोपों पर हमारा रिस्पॉन्स कैसा होना चाहिए? मेरा मानना है कि यह संभव और उचित है कि किसी के काम का आदर करते हुए उनको हम यौन उत्पीडऩ आदि के लिए जवाबदेह रखने में सफल हो सकते हैं।
पाब्लो नेरुदा ने अपने आत्मकथा में श्री लंका में उनके कमरे से मल ढोने वाली महिला के साथ बलात्कार का खुद विवरण किया। फि़ल्मकार ङ्खशशस्र4 ्रद्यद्यद्गठ्ठ ने अपनी ही 7 वर्षीय बेटी पर यौन हिंसा किया और क्रशद्वड्डठ्ठ क्कशद्यड्डठ्ठह्यद्मद्ब ने 13 वर्षीय बच्ची का बलात्कार किया। कवि नागार्जुन पर पिछले वर्ष आरोप लगा कि उन्होंने एक छोटी बच्ची पर यौन हिंसा किया। क्या हम यौन हिंसा पर चुप मार लें या उसे झूठा बता दें महज इसलिए कि यह हमारे चहेते व्यक्ति के प्रति हमारे प्रेम और आदर के लिए असुविधाजनक है? ऐसा करके हम कह रहे हैं कि यौन हिंसा झेलने वालों का जीवन, हमारे चहेते व्यक्ति की शोहरत से कम मूल्य रखता है।
ताजा उदाहरण पत्रकार विनोद दुआ का है। हिंदी पत्रकारिता जिस समय गोदी मीडिया संकट से गुजर रहा है उसी समय दुआ ने निस्संदेह उसकी लाज रखी। पर प्तरूद्गञ्जशश के आरोपों के मामले में दुआ पत्रकारिता और पर्सनल दोनों मामलों में जो मानक हैं उन पर खरे नहीं उतरे। उनके लिए लिखे जाने वाले दर्जनों ओबिचूएरी में इस मामले पर चुप्पी, महिलाओं के अस्तित्व और इंसानियत को खारिज करता है।
दुआ पर आरोप लगाने वाली महिला क्या चाहती थी? शायद सिर्फ इतना कि वे कई वर्षों पहले के उनके किए के लिए वे माफी माँगें, स्वीकार करें कि उन्होंने किसी युवा महिला के साथ अन्याय किया।
पर ऐसा करने के बजाय दुआ ने महिला पर झूठ बोलने का आरोप लगाया। एंकर होने के प्लेटफार्म का दुरुपयोग किया और द वायर द्वारा बनाए गए जाँच कमेटी के सामने पेश ही नहीं हुए। उस महिला के बयान कहीं से भी कमजोर नहीं था- वे खुद सेक्युलर है और उनके पास दुआ पर गलत आरोप लगने के लिए कोई मकसद नहीं है।
ये ‘कैन्सल कल्चर’ नहीं है। विनोद दुआ के काम को खारिज करने को नहीं कहा जा रहा है। पर उनका व्यक्तिगत असेस्मेंट करते हुए इस यौन उत्पीडऩ वाले पक्ष को और उसके साथ उस महिला और सभी महिलाओं के मूल्य को सिरे से कैन्सल (खारिज) मत करिए।
-रवीश कुमार
विनोद दुआ का बिना देखे गुजऱ जाना भी याद है और देख कर तृप्त कर देना भी याद रहेगा।
जब आप बहुत नए होते हैं तो किसी बहुत पुराने को बहुत उम्मीद और घबराहट से देखते हैं। उसके देख लिए जाने के लिए तरसते हैं और उससे नजरें चुराकर देखते रहते हैं। उसके जैसा होने या उससे अच्छा होने का जुनून पाल लेते हैं। वो तो नहीं हो पाते लेकिन उसी की तरह का कुछ और हो जाते हैं। विनोद दुआ को हमने इन्हीं सब उम्मीदों और निराशाओं की अदला-बदली के साथ देखा। बहुत लंबा साथ रहा। व्यक्तिगत तो नहीं, पेशेवर ज़्यादा रहा। पेशेवर संबंधों की स्मृतियां व्यक्तिगत संबंधों से बहुत अलग होती हैं। हमेशा उन्हें नजऱ उठा कर सीधे चलते देखा। मैं हैरान होता था कि कोई हमेशा ऐसे कैसे चल सकता है। बहुत आसानी से नजर नहीं मोड़ते थे। चलते थे तो सीधा चलते थे। ऐसे में बहुत कम संभावना थी कि उनकी नजऱ आपकी तरफ़ मुड़ जाए। एक ही रास्ता बचता था कि आप उनके सामने आ जाएं लेकिन बिना कुछ किए उनके सामने आना आसान नहीं था। महफिलबाज थे लेकिन दफ्तर से चेले बनाकर महफि़लें नहीं सजाते थे। उनके अपने दोस्त यार थे जिनके साथ महफि़लें सजाते थे। हर समय कुछ गुनगुनाते हुए उनका आना राहत देता था। वर्ना ऐसी ठसक वाला व्यक्ति बहुतों की हालत खराब कर सकता है। विनोद का गुनगुनाना उनके आस-पास विनोद का वातावरण बना देता था। आप सहज़ हो जाते थे। कुछ लापरवाहियां और बेपरवाहियां थीं मगर वो उनके जीने के अंदाज का हिस्सा था और कई बार इसकी वजह से उन सीमाओं को भी लांघ जाते थे जिसे खुद अपने और सबके लिए बनाया था। उन्हें अच्छा लगता था कि कोई उनसे ठसक से मिल रहा है। उन्हें किसी में लिजलिजापन पसंद नहीं आता था।
काम करने की जगह पर उनकी मौजूदगी सबको बराबर होने का मौका देती थी। लोग आसानी से उन्हें टोक आते थे और कई बार उनकी गलतियों पर हाथ रख देते थे। लेकिन जब वे किसी की गलती पर हाथ रख देते तो हालत खराब हो जाती। विनोद के पास जानकारियों का खजाना था। उनकी स्मृति गजब की थी। किसी शायर का पूरा शेर, तुलसी की चौपाई और कबीर के दोहे यूं जुबान पर आ जाया करते थे। यकीन करना मुश्किल हो जाता था कि उन्हें इतना सब कुछ याद कैसे हो सकता है। इससे अंदाजा होता था कि पब्लिक के बीच आने के पहले के विनोद दुआ हम सभी से अनजान किसी कमरे में अपनी तैयारियों में बहुत व्यस्त रहते होंगे। साहित्य और शास्त्रीय संगीत की जानकारी पर कोई चलते फिरते इतना अधिकार नहीं रख सकता था। यही कहना चाहता हूं कि हम सबने विनोद दुआ को काम करने की जगह पर तो देखा लेकिन वहां आने से पहले विनोद दुआ ख़ुद को विनोद दुआ कैसे बनाते थे, नहीं देखा।
गणेश जी के दीवाने थे। उनके घर में गणेश की अनगिनत आकृतियां थीं। मूर्तियां थीं। शायद गणेश से उन्होंने परिक्रमा उधार ली और भारत की खूब परिक्रमा की। हर दिशा में कई बार गए। कई तरह के फार्मेट के कार्यक्रम के लिए गए। कैमरे के सामने उनकी उपस्थिति अपने आप में एक नई भाषा बनाती थी। उनकी भाषा में एक खास किस्म की दृश्यता थी। किसी बेहतरीन नक्शानवीस की तरह ख़ाका खींच देते थे। बहुत मुश्किल है इतने लंबे जीवन में आप केवल शतकीय पारी ही खेलते रह जाएं। बहुत सी पारियां शून्य की भी रहीं और रन बनने से पहले ही आउट होकर पवेलियन लौट आने के भी किस्से हैं। विनोद के हाथ से बल्ला छूटा भी है और विनोद ने ऐसी गेंद पर रन बनाए हैं जिस पर सटीक नजर उन्हीं की पड़ सकती थी। उन्हें विनोद कहलाना पसंद था।
काफी लंबा साथ रहा है। उन्होंने कभी हाथ पकड़ा तो कभी केवल रास्ता दिखाया। गुडग़ांव में मजदूरों पर पुलिस ने लाठी चार्ज की थी। उसका लाइव कवरेज कर रहा था। शाम को दफ्तर लौटा तो सीढि़ओं पर मिल गए। मुझे रोक लिया, कहने लगे कि एकदम वल्र्ड क्लास टेलिविजन था। ऐसा दुनिया के टेलिविजन में भी नहीं होता होगा जो तुमने किया। उस वक्त हमें नहीं पता था और आज भी नहीं पता कि वल्र्ड क्लास क्या होता है, पर विनोद ने इस तरह जोर दिया कि अपने काम के प्रति विश्वास बढ़ गया। कई मौके आए जब उन्होंने उदारता के साथ फोन कर कहा कि ये वल्र्ड क्लास है। मैं सोचता रहा कि विनोद दुआ के लिए वल्र्ड क्लास क्या है। मैं कभी पूछ नहीं सका क्योंकि सिर्फ इतना भर कह देने से लाजवंती की तरह खुशी के मारे सिमट जाता था। उनकी तारीफों का मेरे पास पूरा हिसाब नहीं है मगर उन तारीफों ने मुझे बेहिसाब खुशियां दी हैं। हौसला दिया है।
आजादी के पचास साल हो रहे थे। मैं नहीं चाहता था कि शो बन जाने से पहले कोई मेरी स्क्रिप्ट देखे। मैंने यह बात विनोद से कह दी। विनोद ने कहा कि कुछ शरारत कर रहे होगे। मैंने कहा नहीं सर। कुछ लिखने और बनाने से पहले क्या किसी को दिखाना। तो उन्होंने कहा कोई नहीं, कह देना कि विनोद दुआ ने देख लिया है और क्लियर कर लिया है। विनोद दुआ ने जब पेश किया तो उस कार्यक्रम में उन पर भी टिप्पणी थी। उन्होंने सोचा नहीं होगा कि जिस विनोद दुआ के दम पर इसने कार्यक्रम बनाया है उसमें विनोद दुआ पर भी टिप्पणी होगी। अचानक आई उस टिप्पणी से विनोद दुआ जैसा सधा हुआ बल्लेबाज सकपका गया लेकिन उन्होंने बुरा नहीं माना। पूरे कार्यक्रम में हर हिस्से के बाद वे तारीफ ही करते रहे कि ये सिर्फ रवीश कर सकता है। मैं दूसरे छोर पर एक नए पेशेवर की तरह सकुचाया खड़ा रहता था। हर दिन अपना आत्मविश्वास खोता रहता था और हर दिन पाता रहता था। उनके प्रति सम्मान इसलिए था कि वे माध्यम का हुनर रखते थे। वे माध्यम के हिसाब से मेरी तारीफ करते थे। मेरे अंदर माध्यम के प्रति मोहब्बत भर देते थे। उनसे इतना मिला, वो काफी था।
इसके बाद भी हम व्यक्तिगत रूप से करीब नहीं थे लेकिन मेरी यादों में वे किसी करीबी से कम नहीं हैं। उनका बिना देखे गुजऱ जाना भी याद है और देख कर तृप्त कर देना भी याद रहेगा। उनसे खूब दाद मिली और और कभी दाद नहीं भी मिली। एक अच्छा उस्ताद यही करता है। अपना हक अदाकर हिस्सा नहीं मांगता है। वो किसी और रास्ते चला जाता है और हम किसी और रास्ते चले गए। जिसने जो दिया उसके प्रति हमेशा शुक्रगुजार होना चाहिए। विनोद दुआ का दिया हुआ आत्मविश्वास आगे की यात्राओं में बहुत काम आया। जिससे आप ड्राइविंग सीखते हैं, हर मोड़ पर उसे याद नहीं करते हैं लेकिन सफर में किसी मोड़ पर उसकी कुछ बातें याद आ जाती हैं। आपकी रफ्तार बदल जाती है। सफर का अंदाज बदल जाता है। विनोद दुआ, दुआ साहब, विनोद, आप जिंदगी के बदलते गियर के साथ याद आते रहेंगे।
-कनक तिवारी
किसी मजहब का मतावलंबी होना व्यक्तिगत अधिकार है अथवा उसी मजहब का सम्बन्धित व्यक्ति पर अधिकार? संविधान के अनुसार व्यक्ति धर्म संबंधी अबाध स्वतंत्रता रखता है। किसी मजहब में शामिल होकर प्रचार का अधिकार भी उसे है। संविधान की आयतों में उल्लेख नहीं है कि मजहब के बहुमत के अनुयायी उसी मजहब के व्यक्ति को अनुशासन में रहने का फतवा जारी कर सकते हैं। फतवे जारी हैं। हुक्म नहीं मानने वालों के सर तोड़े भी जा रहे हैं।
हिन्दू धर्म में जाति समस्या को धर्म की आंतरिकता बना दिया गया। जाति प्रथा का जहर दलितों में वर्षों से घुलता रहा है। विवेकानंद और गांधी के अनोखे और पुरअसर तर्क थे कि जाति और वर्णाश्रम व्यवस्था के कुछ सकारात्मक पक्ष भी हैं। अंबेडकर ने इस हाइपोथीसिस को कतई मंजूर नहीं किया। उन्होंने जाति प्रथा की सड़ी गली रूढ़ि के खिलाफ जेहाद का बिगुल फूंका। अंबेडकर आधुनिक नीति-संहिता का विधायन रचने के प्रखर आग्रही बने रहे। उस नवोन्मेष के जरिए दलित समूह में रियायतें मांगने के बदले संपूर्ण अधिकारों के लिए संघर्ष करने की वर्ग चेतना पैदा करते रहे। बौद्ध धर्म में उनका प्रवेश धर्म आधारित आदेशों के तहत रहकर दलित वर्ग की सामाजिक स्थिति को सुधारना भर नहीं था। बौद्ध धर्म की बहुप्रचारित अवधारणाओं स्वतंत्रता, समता और सामाजिक बंधुत्व का मनोवैज्ञानिक माहौल मुहैया कराकर दलितों को एक नया जीवनशास्त्र देने का प्रयत्न भी था।
बहुत सावधानी चुस्ती और चालाकी के साथ देश के कई राजनीतिक नेताओं ने वितंडावाद रचा है। उसके परिणामस्वरूप राजसत्ता सदैव उच्च वर्गों के हाथ ही रही। भारत में धर्म प्रमुख सामाजिक ताकत, जरूरत और उपस्थिति है। धर्म का झुनझुना बजाकर लोगों को गाफिल किया जा सकता है। उसका शख बजाकर घबराहट पैदा की जा सकती है। धर्म है कि राजनीति का खिलौना बना हुआ है। कुछ हिन्दू मान्यताओं का फतवा दिया जाता है। उनमें यह सोच कहां था कि भारत कभी एक राष्ट्र-राज्य या संवैधानिक सार्वभौम देश के रूप में निर्मित किया जा सकेगा? प्राचीन हिन्दू सोच में विदेशी राज्य पद्धतियों का विवेचन कहां है? उन असंगत धर्मादेशों को किस तरह हिन्दू या अन्य मतावलंबियों पर क्यों लागू किया जाए?
दलित उत्थान की नयी सामाजिक वैचारिकी को राष्ट्रीय स्तर पर षुरू करने का श्रेय मुख्यतः डा0 अम्बेडकर को है। अपने अंतिम वर्षों में हिन्दू धर्म की रूढ़ियों से त्रस्त होकर डाॅ. अंबेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उससे एक समतामूलक समाज भूमि पर खड़ा होने का पहला मौका तो दलित वर्ग को मिल सका। ऐसा नहीं है कि अंबेडकर ने समाज के लिए धर्म की आवश्यकता प्रतिपादित नहीं की। लेकिन अपने अनुयायियों से उन्होंने कुछ विशिष्ट मानकों पर धर्म की गत्यात्मकता को जांचने का आग्रह किया। उनके अनुसार सामाजिक नीतिशास्त्र, विवेकशीलता, शांतिमय सहअस्तित्व और अंधविश्वास पर अनास्था एक नए समाज धर्म के अवयव हो सकते हैं। अंबेडकर ने कहा कि ऐसे तत्व हिन्दू धर्म में दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वह जाति प्रथा की गिरफ्त में है। उनके तर्क में बुद्ध की शिक्षाओं के अतिरिक्त पश्चिम के ज्ञानशास्त्र से उपजा नवउदारवाद भी था।
ईसाई धर्म में अंतरित होने से आदिवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, आधुनिकता और सामाजिकता की स्थितियों में बेहतर संभावनाएं नजर आती रही हैं। ईसाई मिशनरियों का केवल इतना सोचना नकारात्मक समाजशास्त्रीय परिकल्पना है। मनुष्य में पशुत्व तो है लेकिन मनुष्य केवल पशु ही नहीं है। भौतिक सुविधाओं के कारण धर्म परिवर्तन करना गहरी सामाजिक भूल है और अभिशाप भी। ईसाइयत के मूल्यों में समानता और बंधुत्व की समाजशास्त्र सम्मत परिकल्पनाएं, व्यवस्थाएं और व्यवहारगत स्थितियां हैं। उनका समानांतर हिन्दू व्यवस्थाओं में नहीं है। दलित आदिवासी को सामाजिक धार्मिक और निजी आयोजनों में साथ बैठने, भोजन करने और बराबरी के आधार पर सम्मान पाने के अवसर देने की परंपरा हिन्दू धर्म में कहां है? संघ परिवार इस बात की कभी ताईद नहीं करेगा कि वह अपने निजी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में दलितों और आदिवासियों की सम्मानजनक बराबरी की भागीदारी प्रत्यक्ष कर दिखा दे। जातीय व्यवस्था के चलते वैवाहिक अवरोधों, शिक्षा के अवसरों, चिकित्सा सुविधाओं और अन्य सामाजिक स्थितियों में लगातार वही ढाक के तीन पात हैं।
अंबेडकर ने राजनीति में धर्म के प्रयोग के कारण पाकिस्तान बनने और सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका को आंखों से देखा था और गांधी की हत्या को भी। अंबेडकर वाकिफ थे कि संप्रदायवाद धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सहिष्णुता को कतई बर्दाश्त नहीं करता। जबकि ये दोनों तत्व आधुनिक राष्ट्र राज्य की परिकल्पना के आधार स्तंभ हैं। इन्हें अंततः संविधान के जीवंत उद्देश्यों के रूप में शामिल किया गया। उन्होंने यह भी देखा कि धर्म सामाजिक नीतिशास्त्र के रूप में आधुनिक मूल्यों की हेठी करता है। दलित और स्त्रियां मिलाकर देश की आधी से ज्यादा आबादी हैं। इन दोनों वर्गों को मोटे तौर पर लगातार घरेलू और सामाजिक स्तर पर जाति प्रथा के सहित या रहित शोषित किया जाता रहा है। स्वतंत्र और संविधानसम्मत भारत में पीड़ित वर्गों को सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर समुन्नत होने का कम ही अवसर मिलने की संभावना अंबेडकर ने देखी थी, जब सामाजिक दुराग्रहों का उनके जीवन से लोप कर दिया जाए। यह मिथकीय विचार या यूटोपिया बनकर नहीं रह जाए। इसलिए अंबेडकर उन्हें अनंत यात्रा के पथिक के रूप में ऐसे पड़ाव पर खड़ा कर देना चाहते थे जो कम से कम उस राह का प्रस्थान बिन्दु तो हो। ऐसा करना जातिग्रस्त हिन्दू समाज की व्यवस्थाओं के तहत संभव नहीं था। एक नई संविधानिक व्यवस्था के मानक सिद्धान्तों की स्वप्नषीलता को साकार करने में बौद्ध धर्म की तात्विक घोषणाओं की वृहत्तर भूमिका से अंबेडकर ने तत्कालीन राजनीति को इसीलिए सम्पृक्त किया था। एक अनीष्वरवादी आध्यात्मिक दर्शन ही अम्बेडकर के अनुसार संविधान का पाथेय हो सकता है। उनका यह उत्तर-आधुनिक सोच अब तक बहस के केन्द्र में नहीं आया है।
-अशोक मिश्रा
विनोद दुआ का निधन उत्कृष्ट, सटीक और गम्भीर पत्रकारिता के एक बड़े स्तम्भ का निधन है।
विनोद से मेरा परिचय 79 में हुआ। ज़रिया बने सुप्रसिद्ध अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना।विनोद वीरेंद्र के दोस्त थे। हमारा एन.एस.डी. में एडमिशन हुआ था। विनोद वीरू से मिलने अपनी लम्ब्रेटा स्कूटर से मंडी हाउस आते। हम मिलते चाय पीते और गपियाते थे। यह अक्सर होने लगा। विनोद विनोदी थे। मुझे भी वही लोग अच्छे लगते हैं जिनका सेंस ऑफ ह्यूमर अच्छा हो। उनकी राजनीतिक समझ तभी से जनहित में रूप लेने लगी थी।
फिर वो मेरे नाटक भी देखने आते और हम उसपर चर्चा करते।
मैं मुम्बई चला आया। मोबाइल का युग नहीं था सो बातचीत का सिलसिला टूट गया।
मैंने सुप्रसिद्ध निर्देशक सईद मिजऱ्ा के लिए नसीम नामकी फि़ल्म लिखी। पहला ड्राफ्ट लिखने के बाद सईद को सुनाने उनके घर गया तो सुखद आश्चर्य हुआ कि विनोद भी उनसे मिलने आये थे। सईद ने उन्हें भी सुनने के लिए बिठा लिया। स्क्रिप्ट पाठ समाप्त हुआ। फि़ल्म के राजनैतिक एंगल पर विनोद की टिप्पणियां कमाल की थीं। मसलन ‘अल्पसंख्यकों के डर पर लाल मिर्ची नहीं छिडक़नी चाहिए।’
‘इस दौर में हर सेंसबिल इंसान अल्पसंख्यक है।’... और भी बहुत कुछ।
फिर विनोद की पत्नी का निधन हुआ। मैंने बात करने की कोशिश की मगर वो ख़ुद करोना की चपेट में थे।
मुझे यक़ीन था वो स्वस्थ हो जाएंगे।
लेकिन मेरे यक़ीन से क्या होता है।
उफ़ विनोद का न रहना बड़ी क्षति है।
एक आदमी अकेला नहीं जीता-मरता, उसके साथ उसके चाहने वाले भी थोड़ा थोड़ा जीते-मरते हैं। दुआ तो बहुत मांगी थी लेकिन ये सच है कि विनोद हमें छोड़ गए।
अबकि बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल कि़ताबों में मिलें।