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अण्णा, विनोद राय, प्रशांत किशोर, सब एक ही जंजीर की कड़ियाँ
07-Dec-2021 8:58 AM
अण्णा, विनोद राय, प्रशांत किशोर, सब एक ही जंजीर की कड़ियाँ

-डॉ. अमिता नीरव

बात ज्यादा पुरानी है। हमारे प्रदेश में तब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। प्रदेश भयानक बिजली संकट से जूझ रहा था। याद आता है कि शहर में भी गर्मियों की रातों में दो-दो घंटे बिजली कटौती हुआ करती थी। चुनाव आने ही वाले थे, ऐसे ही किसी मौके पर किसी के सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा था कि कौन कहता है कि चुनाव काम से जीते जाते हैं, चुनाव तो मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। इस बयान ने अचंभित कर दिया था। गुस्सा भी बहुत आया था। उस साल चुनाव में वोट ही नहीं किया था। कांग्रेस भी चुनाव हार गई थी। 

पत्रकारिता शुरू करने के कुछ ही सालों बाद हमारे अखबार में यह चर्चा शुरू हो गई थी कि अखबार के संपादक की जगह मैनेजर की नियुक्ति की जानी चाहिए। आखिर तो संपादक की जरूरत ही क्या है? हर विभाग में संपादक हैं ही, वे अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाते ही हैं ऐसे में अखबार के संपादक की जरूरत ही क्या है! उन्हीं दिनों जाना था कि बड़े-बड़े अंग्रेजी अखबारों में अब संपादकों की जगह मैनेजर्स ले चुके हैं। उन्हीं दिनों अलग तरह से लेख लिखा था जो सन्डे सप्लीमेंट की कवर स्टोरी के रूप में छपा था। 

लेख का शीर्षक था ‘जरूरत वैज्ञानिकों की हैं, हम पैदा कर रहे हैं मैनेजर्स...’। धीरे-धीरे संपादक विहीन खबरों की दुनिया का पतन होना शुरू हो गया था। जहाँ कहीं संपादकों की जरूरत को स्वीकार किया गया, वहाँ भी संपादक को अंततः मैनेजर की भूमिका तक ही महदूद कर दिया गया। अखबारों की दुनिया में पत्रकारिता मैनेजमेंट का रूप लेती चली गई और संपादक, बाजार, राजनीति, खबर, नफा-नुकसान को मैनेज करने के लिए मैनेजर होने लगे। यहीं से पत्रकारिता के लुप्त होने की भूमिका बनने लगी। 

2014 के आम चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के बाद हर जगह प्रशांत किशोर का नाम पढ़ने और सुनने के बाद जाना कि अब लोकतंत्र में एक नए उद्योग की शुरुआत हो गई है। इलेक्शन मैनेजमेंट... ऐसा नहीं है कि इससे पहले यह विधा नहीं थी। हर काम जिसमें कई लोग लगे होते हैं उसका मैनेजमेंट तो किया ही जाता है। जब घर के चार लोगों के बीच भी मैनेजमेंट की दरकार होती है तो चुनाव में क्यों नहीं होगी? लेकिन इलेक्शन मैनेजमेंट चुनाव जितवा सकता है इस तथ्य औऱ सत्य ने जैसे बुरी तरह से हिला दिया था। 

आज सोचती हूँ तो पाती हूँ अण्णा आंदोलन, देश के औद्योगिक घरानों का नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन, कांग्रेस के खिलाफ लगातार भ्रष्टाचार के आरोप, तमाम घोटालों का उन्हीं दिनों भंडाफोड़ होना, विनोद राय के आरोप औऱ बाद में प्रशांत किशोर... ये सब कुछ एक ही जंजीर की कड़ियाँ हैं। दरअसल हम जिसे मैनेजमेंट समझते हैं मैनेजमेंट उससे कहीं ज्यादा औऱ विस्तृत विधा है। 

पत्रकारिता करने के दौरान कभी-कभी फिल्म के पेज की जिम्मेदारी भी उठाई है। कई बार फिल्म के सप्लीमेंट के लिए लिखा भी है तब जाना कि दरअसल इमेज मेकिंग भी एक करियर ऑप्शन हैं। तब तो लगता था कि यह सिर्फ ग्लैमर इंडस्ट्री का ही सच है। जिन दिनों सलमान खान जेल में थे, उन दिनों एकाएक कई लोग उनके बीईंग ह्यूमन और लोगों को मदद करने के उनके जज्बे पर लिख रहे थे। क्या वो सब इत्तफाक था? नहीं वो सब इमेज मेकिंग का हिस्सा था। पब्लिक सेंटीमेंट को मैनेज करने की ट्रिक थी। 

2008 के मुंबई हमले में पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब के बारे में सरकार के वकील उज्जवल निकम ने प्रेस को बताया था कि कसाब ने जेल में बिरयानी की माँग की है। एकाएक देश का पब्लिक सेंटिमेंट उसके खिलाफ हो गया। 2015 में जब कसाब को फाँसी हुए तीन साल हो चुके थे, उज्जवल निकम ने एक इंटरव्यू में कहा कि कसाब ने न तो कभी जेल में बिरयानी की माँग की औऱ न ही उसे बिरयानी दी गई। ये हमने पब्लिक सेंटीमेंट को उसके खिलाफ करने के लिए फेब्रिकेट किया था। 

अभी देखिए बीजेपी ने देश के सामने राहुल गाँधी को पप्पू सिद्ध कर दिया है। अच्छे खासे पढ़े लिखे, समझदार लोगों को राहुल को पप्पू कहते सुनती हूँ। यह सब भी उसी इलेक्शन मैनेजमेंट का हिस्सा है। प्रधानमंत्री नवरात्रि में उपवास करते हैं, कब अपनी माँ से मिलने जाते हैं, कब माँ को प्रधानमंत्री निवास में बुलाया जाता है। अलग-अलग भाव-भंगिमा में प्रधानमंत्री के फोटो थोड़े-थोड़े अंतराल पर रिलीज करना। ये सब कुछ मैनेजमेंट ही है। 

इन दिनों फिर से पीके की चर्चा है। सोचती हूँ कौन है पीके... प्रशांत किशोर। कौन हैं और ये इलेक्शन मैनेज करते-करते राजनीति में घुसपैठ क्यों करने लगे हैं? 2014 के चुनावों की सफलता में आंशिक योगदान के अतिरिक्त इनकी और क्या योग्यता है? एक औऱ डरावनी बात यह है कि जिस तरह से पिछले दस सालों से भारतीय लोकतंत्र में मैनेजमेंट का दौर चल रहा है, उससे लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जो थोड़ा बहुत दम बचा है वह भी निकल ही जाना है। 

बाजार ने लोकतंत्र को भी अपना औजार बना लिया है। हम इमेज मेकिंग, इवेंट मैनेजमेंट और पॉलिटिकल मैनेजमेंट के नए दौर में कदम रख चुके हैं। यदि आँख-कान को खुला और दिमाग को सतर्क नहीं रखा तो आप भी इसी बाजार का हिस्सा होने जा रहे हैं। फिर ऐसा वक्त भी आ सकता है कि बाजार आपको अपने खिलाफ भी इस्तेमाल कर लें। आप तब समझेंगे, जब आप खुद को ही ठग चुके होंगे।

यकीन कीजिए मैनेजमेंट ठगी का नया रूप है।

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