विचार / लेख
-सरोज सिंह
एक साल से दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर तीन विवादित कृषि कानूनों के विरोध में बैठे किसानों ने फि़लहाल अपना आंदोलन स्थगित करने का एलान किया है।
केंद्र सरकार ने उनकी पाँच माँगों पर उन्हें लिखित आश्वासन दिया है।
संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि अगले साल जनवरी से हर महीने सरकार के किए वादों और उस दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा की जाएगी।
किसान नेता योगेंद्र यादव ने संयुक्त किसान मोर्चा के फ़ैसले को मीडिया से साझा करते हुए कहा, ‘किसान ने अपना खोया हुआ आत्मसम्मान हासिल किया है, किसानों ने एकता बनाई है, किसानों ने अपनी राजनैतिक ताक़त का अहसास किया है।’
किसान नेता बलबीर राजेवाल ने कहा, ‘अहंकारी सरकार को झुकाकर जा रहे हैं। लेकिन यह मोर्चे का अंत नहीं है। हमने इसे स्थगित किया है। 15 जनवरी को फिर संयुक्त किसान मोर्चा की मीटिंग होगी, जिसमें आंदोलन की समीक्षा करेंगे।’
दोनों बयानों से साफ जाहिर होता है कि किसान नेताओं को अहसास है कि इस आंदोलन ने सरकार को किसानों के आगे झुकने पर मजबूर कर दिया। यही उनके आंदोलन का हासिल है।
हालाँकि किसान नेताओं का दावा ये भी है कि इस आंदोलन में उन्होंने 700 किसान खोए हैं।
लेकिन इस बीच सबसे पड़ा सवाल है कि जिस कानून को केंद्र की बीजेपी सरकार अब तक किसानों के हित में बता रही थी, उसे वापस तो ले ही लिया, किसानों की बाकी पाँच माँगों पर भी समझौता कर लिया। तो फिर इस एक साल में बीजेपी को हासिल क्या हुआ?
बीजेपी ने क्या पाया है?
कृषि कानून वापस ना लेने के पीछे पहले बीजेपी की तरफ से कई तरह की दलीलें पेश की जाती रही हैं।
अलग अलग मंचों से बीजेपी के नेताओं ने कभी इन क़ानूनों को किसानों की आय दोगुनी करने से जोड़ा, तो कभी इसके विरोध को विपक्ष का राजनीतिक विरोध कऱार दिया तो कभी इसे केवल पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का आंदोलन बताया।
लेकिन जिस अंदाज में कानून वापस लिए गए, उसके बाद पंजाब में बीजेपी नेता काफी खुश नजर आ रहे हैं।
बीबीसी हिंदी से बात करते हुए पंजाब बीजेपी के प्रवक्ता सुभाष शर्मा ने कहा, ‘जिस तरह से किसान आंदोलन का अंत हुआ है, वो अपने आप में सुखद है। इसके पहले के किसान आंदोलनों का अंत गोलियों से या किसानों को जेल में भर कर खत्म किया गया है।’
‘हमारी सरकार ने किसानों की माँगे मान कर इस आंदोलन को ख़त्म किया। ऐसा पहली बार हुआ है। इस आंदोलन में खोने-पाने जैसा कुछ नहीं था। जो किया था वो किसानों का हित सोच कर किया था और आगे भी उनके हित में काम करेंगे।’
सुभाष शर्मा कहते हैं, ‘किसानों में पहले हमें लेकर थोड़ी नाराजगी थी, कड़वाहट थी। लेकिन जिस अंदाज़ में प्रधानमंत्री ने बिल को वापस लिया, उससे वो दूर हो गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) जो किसानों की बड़ी पुरानी माँग थी, उसको सुलझाने की दिशा में सरकार आगे बढ़ रही है, इससे किसानों का गुस्सा तो ख़त्म हो ही गया है। अब किसानों को जल्द ही बात समझ में आएगी कि बीजेपी ही इकलौती पार्टी है, जो उनका हित चाहती है। बीजेपी को आने वाले चुनाव में फायदा ही होगा।’
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस सुभाष शर्मा के तर्क से सहमत नजर नहीं आतीं।
वो कहती हैं, बीजेपी के इस तर्क को कम से कम किसान तो स्वीकार नहीं करते। आंदोलन की एक बात जो बीजेपी के लिए अच्छी साबित हुई है- वो है पार्टी को अपनी सीमाओं का अंदाजा अब लग गया हो।
अपनी बात को विस्तार देते हुए अदिति कहती हैं, ‘फर्ज कीजिए आप बाजार में अपना घर बेचने जाते हैं और आपको नहीं मालूम की घर की असल कीमत क्या है। ऐसे में अगर आप जल्द में घर बेचते हैं और बाद में पता चलता है कि असल कीमत तो कुछ और ज़्यादा थी। तो आपको लगता है, मेरा तो नुकसान हो गया। लेकिन इस पूरी कवायद में एक बात जो अच्छी हुई वो ये कि घर की असली कीमत आपको पता चल गई। बीजेपी के साथ भी इस आंदोलन में कुछ ऐसा ही हुआ है।’
आंदोलन से बीजेपी अब अपनी सीमाओं का ज्ञान हो गया है। जब किसी को अपनी सीमाओं का अंदाजा हो जाता है, तभी पता चलता है कि आगे क्या संशोधनों की ज़रूरत है।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार पूर्णिमा जोशी कहती हैं, ‘बीजेपी ने आंदोलन से क्या कुछ पाया है, उसे इस संदर्भ में देखना चाहिए कि उनके पास खोने को क्या कुछ था।’
किसानों के अंदर खेती को लेकर बहुत गुस्सा है। कृषि कानून तो केवल एक मुद्दा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्या आज भी जस की तस है।
25 रुपए गन्ने के समर्थन मूल्य में बढ़ाने से उनको कुछ फायदा नहीं हो रहा। उनका इनपुट कॉस्ट तो उसके मुकाबले काफी बढ़ गया है। आगरा से सफैई बेल्ट की तरफ जाएं तो वहाँ आलू के किसान रो रहे हैं।
खाद की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं। 1200 रुपए कट्टा बिकने वाली खाद की बोरी उन्होंने 1700-1800 रुपए में खऱीदी है। ये सब बातें एक साथ मिल कर आंदोलन की ज़मीन तैयार कर रही थीं। किसान आंदोलन जितना लंबा चलता उतना ज़्यादा बीजेपी को नुक़सान होता। आंदोलन एक साल में खत्म होने से बीजेपी जितना खो सकती थी, उसमें से थोड़ा बचा लिया।
पाने के नाम पर बीजेपी ने एक साल में यही पाया है।
बीजेपी को नुकसान
नुकसान की बात करें तो इसे दो श्रेणी में बाँटा जा सकता है। आर्थिक नुकसान और राजनीतिक नुकसान।
आर्थिक नुकसान के कुछ आँकड़े तो सरकार ने संसद में ख़ुद ही पेश किए हैं।
विवादित कृषि कानून कितने अच्छे हैं- जनता के बीच इसके प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार ने 7 करोड़ 25 लाख रुपए इस साल फरवरी तक खर्च किए थे। इसके अलावा कृषि मंत्रालय के किसान वेलफेयर विभाग ने भी 67 लाख रुपए तीन प्रमोशनल वीडियो और दो एडुकेशनल वीडियो बनाने में खर्च किए हैं। यानी लगभग 8 करोड़ रुपए नए कृषि कानून के प्रचार प्रसार में केंद्र सरकार खर्च कर चुकी है।
इसके अलावा कई जगहों पर किसानों टोल प्लाज़ा पर धरने पर महीनों बैठे रहे। केंद्र सरकार में सडक़ परिवहन मंत्री ने बजट सत्र के दौरान लोकसभा को बताया कि किसान आंदोलन की वजह से कई टोल प्लाजा पर शुल्क जमा नहीं हो पा रहा है। इससे रोजाना 1.8 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। 11 फरवरी तक तकरीबन 150 करोड़ का नुकसान तो सिर्फ टोल प्लाजा से हो चुका था।
इसी तरह से कई इलाकों में किसानों ने अलग-अलग समय पर रेल यातायात को भी बाधित किया था। पिछले साल के अंत तक किसानों आंदोलन की वजह से रेल मंत्रालय को 2400 करोड़ का नुकसान हो चुका था।
इसके अलावा कृषि क्षेत्र से जुड़े जानकार बताते हैं कि किसानों को नए कानून पर मनाने के लिए केंद्र सरकार ने इस साल जरूरत से ज्यादा गेहूं चावल भी खरीदा, जिसकी जरूरत नहीं थी। इसे भी कुछ जानकार केंद्र सरकार के खजाने को हुआ नुकसान ही मानते हैं।
लेकिन आर्थिक नुकसान से ज्यादा राजनीतिक रूप से बीजेपी ने जो एक साल में खोया है, उसकी चर्चा ज़्यादा हो रही है।
इस एक साल में नए कृषि कानून के विरोध में एनडीए के सबसे पुराने दोस्त अकाली दल ने उनका साथ छोड़ दिया। अब तक दोनों पार्टियाँ साथ में ही पंजाब में चुनाव लड़ा करती थीं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पंजाब जैसे राज्य में बीजेपी की पकड़ इस कानून की वजह से और ढीली पड़ गई।
वरिष्ठ पत्रकार अदिति कहती हैं, ‘बीजेपी ने जो बड़ी चीज खोई है वो है किसानों के बीच अपनी साख और विश्वास। अब किसानों को लग रहा है कि जब कानून वापस लेना ही था तो एक साल तक उनके साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया गया। उनके लोगों की जानें गई। फसलों का नुकसान हुआ। घर परिवार से दूर रहे।’
अदिति कहतीं है कि कानून को जिस तरीके से वापस लिया गया, उससे मोदी की ‘उदार छवि’को भी नुकसान पहुँचा है। वो तर्क देती हैं कि सरकार ने कानून वापस तो लिए लेकिन एमएसपी की गारंटी नहीं दी।
अब आगे एमएसपी के साथ-साथ रोजमर्रा से जुड़े दूसरे मुद्दों पर भी लोग सामने आएंगे जैसे महँगाई, खाने के तेल के दाम और पेट्रोल के बढ़ती कीमतें। फिर एक अलग राजनीतिक माहौल बीजेपी के लिए बनेगा। जो स्थिति को आगे और खऱाब कर सकता है।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार पूर्णिमा जोशी कहती हैं, ‘जिस अंदाज़ में ये बिल लाए गए और संसद में पास कराए गए और एक साल तक इस पर सरकार अड़ी रही- ये बीजेपी की और प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल है।’
‘ये बताता है कि ना तो बीजेपी ने परिस्थिति का आकलन ठीक से किया, ना तो इन्हें किसानों की ताक़त का पता था। एक साल के बाद इस वजह से उन्हें किसानों के सामने पूरा सरेंडर करना पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी के ‘मज़बूत इरादे’ वाली छवि को इससे काफी नुकसान पहुँचा है।’
कुछ जानकार पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी की हार और हाल ही में हुए उपचुनावों में बीजेपी के कुछ राज्यों में खऱाब प्रदर्शन को भी किसान आंदोलन से हुआ नुकसान ही करार देते हैं।
लेकिन असल परीक्षा तो अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव हैं, जिससे पता चलेगा कि क्या वाकई बीजेपी इन चुनावों में अनुमानित ‘डैमेज कंट्रोल’ कर पाई? (bbc.com/hindi)