सूरजपुर
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
प्रतापपुर,12 जनवरी। प्राचीन लोक वाद्यों पर खोजकर्ता राज्यपाल पुरस्कृत व्याख्याता अजय कुमार चतुर्वेदी ने बताया कि वर्तमान परिवेश में अमूर्त धरोहरों की ओर ज्यादा ध्यान न देने के कारण धीरे-धीरे हमारी लोक संस्कृति, लोक परंपराएं नष्ट होती जा रही हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर और सरगुजा आदिवासी बहुल अंचल में पहले लोक वाद्यों की बहुलता थी। संरक्षण के अभाव में लोक वाद्य विलुप्त होते जा रहे हैं। मूर्त धरोहर लोक वाद्यों को संरक्षित कर ही अमूर्त संस्कृति को बचाया जा सकता है।
आगे बताया कि सरगुजा के लोक-वाद्यों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है कि इसका प्राचीन नाम ‘‘सुरगुंजा’’ इन वाद्यों और सुरीली आवाज़ों की ही देन है। सरगुजा अंचल में पहले लोक वाद्यों की आवाज से देवी-देवता, मनुष्य और जंगली जानवरों को रिझाया जाता था। झुनका बाजे(शिकारी बाजा) की आवाज से शेर भी रिझ कर दौड़ा चला आता था और घूमरा बाजे की आवाज से दूर भागता था। शेर को रिझाने वाला लोक वाद्य झुनका बाजे प्राचीन काल में सामन्तों और राजाओं का राज्य था। तब राजा शिकार करने के बेहद शौकीन होते थे। वे ग्रामीणों के साथ विभिन्न बाजों से लैस होकर जंगल की ओर शिकार पर जाया करते थे।
माना जाता है -इसी समय शिकारी बाजे का आविष्कार हुआ। इस बाजे में शेर जैसे जंगली जानवरों को ललचाने की क्षमता होती थी। इस बाजे की आवाज़ सुनकर शेर, चीता जैसे जानवर रिझकर कऱीब आ जाया करते थे। लोहे के बड़े रींग में छोटे-छोटे छल्ले लगाकर शिकारी बाजा बनाया जाता है। शिकारी बाजा के साथ ग्रामीण जंगलों में हाका करने जाते थे। हांका करते समय वे अक्सर झुमका खेलते थे। इसीलिए इस बाजे को झुनका बाजा भी कहते हैं।
शेर जैसे जंगली जानवरों को भगाने वाला ताल वाद्य है घुमरा। यह केंवट जाति का पारम्परिक लोक-वाद्य है। यह वाद्य-यंत्र जीवन-संघर्ष का साथी बनकर अस्तित्व में आया। ऐसा कहा जा सकता है कि जीवन-संघर्ष ने वाद्य-यंत्रों को जन्म दिया और वाद्य-यंत्रों ने संघर्ष में साथी का रोल अदा किया। केंवट जाति के लोग नदी-नालों में पानी कम होने पर फल-सब्ज़ी की खेती करते थे। जंगली जानवर खेती स्थल तक आ जाते थे, तब उन्हें भगाने के लिए ग्रामवासियों ने घुमरा नामक वाद्य का आविष्कार किया। घुमरा बाजे से बाघ के गरजने जैसी आवाज़ निकलती है। पहले इसे बजाकर शेर जैसे जंगली जानवरों को भगाया जाता था। यह दुर्लभ वाद्य घड़ा, चमड़ा और मोर पंख के डंठल से बनता है। सरगुजा अंचल में इसका उपयोग प्राचीन काल में खूब होता था।
चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल से 70 लोक वाद्यों को खोजा
सरगुजा अंचल से विलुप्त होते प्राचीन लोक वाद्यों पर खोजकर्ता राज्यपाल पुरस्कृत व्याख्याता अजय कुमार चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल से लगभग अभी तक 70 लोक वाद्यों की खोज कर उनकी आवाजों को पुनर्जीवित किया है, और उन्हें जिनके घर में मिला वही सुरक्षित करा दिया है। इनके वाद्य यंत्रोंं पर आधारित 14 कडिय़ों में आकाशवाणी धारावाहिक रूपक भी प्रसारित हो चुका है।
उन्होंने लोक वाद्यों के माध्यम से सरगुजा अंचल की पुरानी लोक संस्कृति को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रस्तुत कर अंचल को गौरवान्वित किया है। आज सरगुजा की लोक संस्कृति को बचाने के लिए इस बात की नितांत आवश्यकता है कि एक ऐसा संग्रहालय विकसित किया जाए जिसमें सरगुजा अंचल के विलुप्त होते लोक संस्कृति की निशानियों को संजो कर रखी जा सके।
आज इन लोक वाद्यों की आवाज मानों रूंधे हुए स्वर में यही कह रही है कि हमें सुरक्षा और पुनर्जीवन चाहिए। क्योंकि हम कोई और नहीं, सरगुजा अंचल के वही पारंपरिक वाद्य हैं, जिनकी पहचान आज भी अंचल के नाम के साथ जुड़ी है। सुरों से गुंजित होने वाला हमारा सरगुजा।