संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : डेढ़ दर्जन बिखरी लाशें, शोक, श्रद्धांजलि, मदद, सरकार का जिम्मा पूरा!
21-May-2024 4:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  डेढ़ दर्जन बिखरी लाशें, शोक, श्रद्धांजलि, मदद,  सरकार का जिम्मा पूरा!

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में अभी कुछ ही दिन पहले केडिया के शराबखाने से काम करके लौटते कामगारों से भरी हुई एक बस रास्ते में मुरम खदान के गड्ढे में गिर गई थी, और उसमें 13 लोगों की मौत हो गई थी। इसके पहले इसी बरस इस प्रदेश में कहीं 5 तो कहीं 8 लोगों की सडक़-मौत होते ही रही है। लेकिन कल का कवर्धा का हादसा सबसे ही बुरा रहा जिसमें तेन्दूपत्ता तोडक़र लौट रहे बैगा आदिवासी मजदूरों को ढोकर ला रही गाड़ी खाई में गिर गई, और 19 लोग मारे गए। इनमें से 18 महिलाएं और नाबालिग लड़कियां हैं, और एक पुरूष है। ऐसा बताया जा रहा है कि छोटे आकार की एक मालवाहक गाड़ी 35-36 लोगों को ढोकर ला रही थी, और पहाड़ी ढलान पर ड्राइवर ब्रेक फेल हो जाने की बात कहते हुए कूद गया, और कुछ और लोग भी कूदकर जान बचाने में कामयाब रहे। लेकिन गाड़ी के साथ खाई में गिरे लोगों की बड़ी तकलीफदेह मौत हुई। इस बड़े पैमाने पर जब कोई हादसा होता है, तो जाहिर तौर पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री इन सभी की तरफ से शोक और श्रद्धांजलि संदेश जारी होते हैं, और राज्य सरकार की तरफ से मदद की घोषणा भी होती है। ये दोनों बातें भी कल हो गई हैं, और कई घायल अस्पताल में हैं जिनसे जाकर नेताओं के मिलने का सिलसिला चल रहा है। 

ऐसी हर बड़ी सडक़ दुर्घटना के बाद हम अपने थके-हारे मन से इस जगह पर लिखते हैं, और सत्ता के नाराज होने का खतरा उठाते हुए भी उसे उसकी जिम्मेदारी याद दिलाते हैं। कल पहले की तरह सरकार ने अपनी जिम्मेदारी शोक, श्रद्धांजलि, और मदद से पूरी कर ली है। लेकिन क्या इन तीनों चीजों से अगली एक भी सडक़-मौत थमने वाली है? क्या सरकार की जिम्मेदारी महज शोक, श्रद्धांजलि, और राहत जैसे किसी त्रिकोण से पूरी हो जाती है? क्या सडक़ों सहित पूरे प्रदेश में राज करने वाली सरकार कुछ घंटों के भीतर पूरी जिम्मेदारी से हाथ धोकर उन हाथों से बाकी काम करने में लग सकती है? कहने के लिए तो जिस संरक्षित बैगा आदिवासी समुदाय के जो लोग मारे गए हैं, उन्हें विशेष दर्जा प्राप्त कहा जाता है, और इनमें से कुछ जातियां तो राष्ट्रपति की गोद ली हुई बताई जाती हैं। लेकिन इस जाति की डेढ़ दर्जन महिला मजदूरों की इस मौत पर राष्ट्रपति की श्रद्धांजलि से अधिक कोई ड्यूटी बनती है? क्या राष्ट्रपति देश में अलग-अलग जगहों पर अपने बेकसूर दत्तक पुत्र-पुत्रियों की बेवक्त की मौतों पर कुछ और भी जानकारी हासिल करना चाहेंगी जिससे कि इन जातियों के लोगों, और देश के बाकी नागरिकों की थोक-मौतों का सिलसिला कुछ धीमा हो सके? और यही बात प्रधानमंत्री पर भी लागू होती है कि क्या उनकी श्रद्धांजलि से देश की यह हकीकत बदल जा रही है कि गरीब और मजदूर इस देश में भेड़-बकरियों, गाय-भैंसों, और बोरियों की तरह लादकर ले जाए जाते हैं? 

हिन्दुस्तान की दिक्कत यह हो गई है कि इतने बड़े हादसे के बाद भी सरकार की जिम्मेदारी बस शोक, श्रद्धांजलि, और मदद पर खत्म हो जा रही है। यह बात किसी पेड़ के पत्तों पर दवा छिडक़ने जैसी है जिसकी कि जड़ों में ही कोई बीमारी लगी हुई है। हिन्दुस्तान में ऐसे सडक़ हादसों के पीछे एक बुनियादी खामी चली आ रही है जिससे जूझे बिना अगली कोई मौत थमने वाली नहीं है। आज इस देश में गांव-गांव तक गरीब और मजदूर मालवाहक गाडिय़ों पर सफर करते हैं, और इतने सारे खड़े हुए हिलते-डुलते लोगों की वजह से गाड़ी का संतुलन भी बिगड़ता है, और गाडिय़ां अमूमन बदहाल तो रहती ही हैं। नतीजा यही होता है कि जिस तरह किसी दूसरे मालवाहक के पलटने पर बक्से या बोरियां बिखर जाते हैं, उसी तरह कल आदिवासी मजदूरों के बदन बिखर गए, और जिंदगियां खत्म हो गईं। जब तक मालवाहक गाडिय़ों पर थोक में गरीबों का ढोना बंद नहीं होगा, ऐसी मौतें कैसे बंद हो सकती हैं? कहने के लिए यह बहाना बड़ा लोकप्रिय है कि जंगल और गांव में मुसाफिर गाडिय़ां मिलेंगी कहां से? लेकिन जब वहां मालवाहक गाडिय़ां मिल सकती हैं, तो अगर नियमों को सख्ती से लागू कराया गया रहता तो अब तक मुसाफिर गाडिय़ां भी चलन में आ चुकी रहतीं। मालवाहक गाडिय़ां भी तो किसी वक्त चलन में आईं, और उसके बाद बैलगाडिय़ां घटीं। लेकिन जब तक भ्रष्ट सरकारी अमला इंसानी जिंदगियों के लिए संवेदनाशून्य बने रहेगा, जब तक इस अमले को भेड़-बकरियों और इंसानों में कोई फर्क नहीं लगेगा, तब तक गरीबों की मौतें होती रहेंगीं। कल होना तो यह चाहिए था कि शोक, श्रद्धांजलि, और मदद-राहत से परे भी राज्य सरकार यह घोषणा करती कि वह हर सडक़ हादसे का अध्ययन करके उस तजुर्बे का इस्तेमाल करके आगे ऐसी मौतों को घटाने की कोशिश करेगी। लेकिन सरकार ने अपनी रस्म राहत पर खत्म कर दी। सरकारी खजाने से राहत दे देना आसान है, पूरे प्रदेश में सडक़ों और गाडिय़ों की बदअमनी-अराजकता को सुधार पाना बड़ा मुश्किल है, और आज तो सरकारों का जो हाल दिखता है, उसमें वह नामुमकिन सरीखा है। 

अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से छत्तीसगढ़ का ट्रांसपोर्ट विभाग राजनीतिक उगाही और इंतजामों का अड्डा बना हुआ है। यह हाल देश के अधिक दूसरे शहरों का भी है, और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी बहुत बार सार्वजनिक मंचों से देश में आरटीओ के भ्रष्टाचार की बात कह चुके हैं। आज छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री ही ट्रांसपोर्ट विभाग के मंत्री हैं, और कल बिना अपनी गलती के जो 19 मेहनतकश मजदूर बेवक्त मारे गए हैं, वे भी तमाम आदिवासी हैं। इस हादसे के बाद सरकार की तरफ से जो हुआ है उससे बहुत अधिक होने की जरूरत है, और सरकार को राज्य की सडक़ों पर रोजाना होने वाली अनगिनत मौतों को टालने के लिए गैरसरकारी अध्ययन करवाना चाहिए। सरकार का अपना पूरा ढांचा इस बुरी तरह भ्रष्ट और बेअसर हो चुका है कि वह राजधानी रायपुर में भी म्युनिसिपल की बड़ी-बड़ी फौलादी मशीनों में कचरा और मलबा उठाने वाले फौलादी हिस्से पर मजदूर महिलाओं को ढोकर आते-जाते देखते रहता है। किसी चौराहे पर पुलिस को यह नहीं सूझता कि जेसीबी नाम से पहचानी जाने वाली ऐसी मशीनों पर मजदूरों को सामने बिठाकर दौड़ती फौलादी गाडिय़ों को रोके जिसमें कि किसी भी टक्कर में सबसे पहले इन महिलाओं के पैर कटेंगे। 

दरअसल सरकार और समाज का सारा इंतजाम तथाकथित वीआईपी तबके की सहूलियतों तक सीमित हो गया है। सरकारी गाडिय़ों के काफिले बिना जरूरत भी दौड़ते रहते हैं, और जिन इंसानों की सेवा करने के नाम पर संविधान की शपथ लेकर ये नेता सत्ता पर आते हैं, वे इंसान पलटी हुई गाडिय़ों से जानवरों की तरह कुचलकर मरते रहते हैं। इस मामले में किसी जनहित याचिका को लेकर हाईकोर्ट तक दौड़ लगाने का भी कोई फायदा हमें नहीं दिखता क्योंकि बड़े जज सरकार के छोटे-छोटे अमले को उनका रोज का काम तो सिखाने आ नहीं सकते। प्रदेश की जनता भी अजीब किस्म की मुर्दा है कि डेढ़ दर्जन से अधिक इन आदिवासी लाशों के अंतिम संस्कार के पहले ही सरकार ने हाथ धो लिए हैं, और जनता इन करकमलों से आज कहीं उद्घाटन करवानेे में भी लग गई होगी। जो समाज अपने सबसे भयानक हादसों से भी कोई सबक नहीं लेता है, वह अगले हादसे की तरफ तेज रफ्तार से बढ़ते रहता है। कुछ हफ्तों या महीनों के भीतर ऐसा कोई और हादसा होगा, और उस वक्त हम इस संपादकीय में से कुछ शब्द फेरबदल करके फिर इसे पूरे का पूरा छापने के लायक रहेंगे। जो देश-प्रदेश अपने इंसानों को बोरियों और मलबे की तरह मालवाहक पर नियमित रूप से, और लगातार ढोता है, उसे अपने को सभ्य कहलाने का कोई हक नहीं है। 

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