संपादकीय
‘छत्तीसगढ़’ अखबार के यूट्यूब चैनल ‘इंडिया-आजकल’ पर कल छत्तीसगढ़ के निजी स्कूलों के संचालक-एसोसिएशन के अध्यक्ष राजीव गुप्ता ने शिक्षा के अधिकार के तहत गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में मिलने वाले दाखिले के खिलाफ सामाजिक तनाव का जो जिक्र किया, वह स्तब्ध करने वाला था। अगर जिला अदालत के एक जज को यह मंजूर नहीं कि निजी स्कूल में उसके बच्चे के साथ उनकी काम वाली की बच्ची को भी दाखिला मिले, तो यह समाज में भेदभाव की एक गहरी और चौड़ी खाई बताता है। आमतौर पर लोग अपने मन की भेदभाव की भावनाओं को अपने तक सीमित रख लेते हैं, लेकिन जब लोग दूसरों के सामने खुलकर कहीं आरक्षण के खिलाफ, तो कहीं सरकारी योजनाओं में महिलाओं को मिलने वाली हिफाजत के खिलाफ बोलते हैं, तो लगता है कि 21वीं सदी में भी उनके भीतर पत्थरयुग की वह सोच जारी है जिसे लोकतंत्र छू भी नहीं गया था, क्योंकि लोकतंत्र उस वक्त आया ही नहीं था। इसी बातचीत में यह भी पता लगा कि छत्तीसगढ़ के कुछ नामी-गिरामी स्कूल फर्जी तरीके से अल्पसंख्यक स्कूल बन गए हैं ताकि उन्हें गरीब बच्चों को रियायती सरकारी फीस पर दाखिला न देना पड़े, और बिना नाम बताए उन्होंने एक ऐसी बड़ी स्कूल का जिक्र किया है जहां सरकारी योजना के तहत आरटीई में दाखिला पाने वाले गरीब बच्चों को अलग क्लास में बिठाकर अलग टीचर से पढ़वाया जाता है, और उनका यूनीफॉर्म भी अलग रखा जाता है। पैसेवालों के स्कूलों में इस तरह का भेदभाव बहुत हैरान तो नहीं करता, लेकिन कानून के खिलाफ जाकर वे ऐसा भेदभाव करेंगे, यह बात हैरान जरूर करती है। राजीव गुप्ता की कही ये बातें भी भयानक थी कि प्रदेश के कुछ सौ स्कूलों में से सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं जो कोचिंग सेंटरों की मदद करने के लिए छात्र-छात्राओं का झूठा दाखिला दिखाते हैं, और उन्हें फर्जी हाजिरी देकर इम्तिहान में बैठने का रास्ता जुटा देते हैं। एक तरफ तो निजी स्कूलों में इतने बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा चल रहा है, और सरकार में बैठे लोगों को इन पर कार्रवाई शायद इसलिए नहीं सुहाती है कि सत्तारूढ़ लोगों के बच्चे महंगी कोचिंग पाने के लायक रहते हैं, पाते हैं, और इसलिए उनके मां-बाप के हित में यह नहीं रहता कि कोचिंग की व्यवस्था खत्म हो, और कोचिंगवंचित गरीब बच्चे भी सत्ता के संपन्न बच्चों की बराबरी से मुकाबले में आ जाए।
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हिन्दुस्तान में महंगे कोचिंग सेंटरों का हाल यह है कि वे अपने खुद के डमी स्कूल चलाते हैं ताकि छात्र-छात्राओं को फर्जी हाजिरी दे सकें, और पूरे वक्त उन्हें कोचिंग सेंटरों में बिठा सकें। ऐसे ही दो डमी स्कूलों की मान्यता अभी छत्तीसगढ़ में सीबीएसई ने खत्म की है। इन पर निजी स्कूल संचालकों के एसोसिएशन के अध्यक्ष राजीव गुप्ता से कुछ सीधी बातें। लेकिन इसके अलावा शिक्षा के अधिकार का प्रदेश में क्या हाल है, यह जानना भी सनसनीखेज था, राजीव ने एक महंगे स्कूल और एक जज के बारे में जो बताया, वह चौंकाने वाला है! ‘छत्तीसगढ़’ अखबार के संपादक सुनील कुमार की राजीव गुप्ता से बातचीत।
आज ही छत्तीसगढ़ के अलग-अलग अखबारों में राज्य के स्कूलों का भयानक दर्जे का संगठित भ्रष्टाचार छपा है। एक प्रमुख अखबार ‘ दैनिक भास्कर’ की रिपोर्ट है कि प्रदेश के सरकारी स्कूलों में डेढ़ लाख डुप्लीकेट छात्रों का दाखिला दिखाया गया है, जिससे सरकार को हर बरस 730 करोड़ का चूना लगाया जा रहा है। अभी एक सरकारी वेबसाईट पर डेटा अपडेट होने पर यह फर्जीवाड़ा पकड़ाया है। इसके पीछे वजहें चाहे जो हों, लेकिन सरकारी विभागों में कहीं फर्जी राशन कार्ड रहते हैं, कहीं स्कूली बच्चों की गिनती ज्यादा बताकर यूनीफॉर्म, मिड-डे-मिल, साइकिल, और बाकी सहूलियतों का पैसा खा-पी लिया जाता है। प्रदेश के एक दूसरे प्रमुख अखबार ‘नवभारत’ में भी एक रिपोर्ट छपी है जिसमें बताया गया है कि निजी स्कूलों में आरटीई के तहत दाखिला पाने वाले गरीब बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ भी देते हैं, लेकिन स्कूल उनके न आने की जानकारी सरकार को नहीं देते, और उसकी फीस लेते रहते हैं। ये तमाम बातें निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों, इन दोनों में बड़े पैमाने पर चल रहे भ्रष्टाचार को बताती हैं।
इनके अलावा छत्तीसगढ़ की स्कूल शिक्षा में सरकारी स्कूलों का हाल बहुत खराब बताया जाता है, और वहां गरीब बच्चे दोपहर के भोजन के अलावा कम दिलचस्पी लेते हैं, और शिक्षकों को भी इससे सहूलियत रहती है कि बच्चे न आने या चले जाने के चक्कर में रहें, बहुत से जगहों पर शिक्षक नशे में स्कूल पहुंचते हैं, कुछ जगहों पर स्कूल में बैठकर नशा करते हैं, और छात्राओं से छेड़छाड़ के बहुत से मामले प्रदेश भर में जगह-जगह सामने आए हैं जिनमें कहीं हेडमास्टर, कहीं शिक्षक, कहीं हॉस्टल प्रभारी गिरफ्तार भी हुए हैं। यह बात राज्य बनने के समय से लगातार सामने आ रही है कि किस तरह स्कूलों की फर्नीचर खरीदी में 35 फीसदी से अधिक कमीशन का संगठित भ्रष्टाचार चलता है, और इससे कुछ ज्यादा ही कमीशन किताब खरीदी में लिया जाता है। जब भविष्य की बुनियाद को ही भ्रष्टाचार से जर्जर किया जा रहा है, तो अगली पीढ़ी किस तरह की तैयार होगी यह बात साफ है।
लोगों को याद होगा कि एक वक्त इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने यह फैसला दिया था कि तमाम नेता और बड़े अफसर अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं ताकि स्कूलों की हालत सुधर सके। यह बात आई-गई हो गई, एक विचार के रूप में यह बात ठीक थी, लेकिन कानूनी रूप से यह फैसला कमजोर था क्योंकि किसी समाजवादी व्यवस्था में ही ऐसा करना मुमकिन था, न कि भारत जैसे पूंजीवादी-लोकतंत्र में। इसलिए हाईकोर्ट जज की इस जायज सोच पर भी कोई अमल नहीं हो पाया। लेकिन देश को अपनी शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था के बारे में यह सोचना चाहिए कि निजी और सरकारी स्कूलों के बीच एक लंबे फासले की वजह से इनके बच्चों के बीच आगे चलकर कोई बराबरी नहीं रह जाती। देश में वैसे भी एक दूसरी बहस चल रही है कि पढ़ाई को कुचल डालने वाली कोचिंग इंडस्ट्री के आतंक को कैसे घटाया जाए। यह इतना कमाई का कारोबार है कि इसने स्कूल शिक्षा के नाम पर परले दर्जे की बेईमानी कायम कर रखी है, और बड़े दाखिला इम्तिहानों की तैयारी करने वाले बच्चों को स्कूल की पढ़ाई से एक किस्म से बरी कर दिया गया है। स्कूल की जिंदगी सिर्फ इम्तिहान के लिए नहीं रहती है, जैसी कि कोचिंग सेंटरों की रहती है। स्कूल की जिंदगी बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए, उनकी सामाजिक समझ विकसित करने के लिए, उनमें टीम भावना लाने के लिए ही रहती है। देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था ने इन सबको पूरी तरह से खत्म कर दिया है, और पढ़ाई के नाम पर कोचिंग को ही जरूरी साबित कर दिया है, जिसका खर्च देश का सबसे ऊपर का एक फीसदी तबका ही उठा पाता है। जब स्कूल शिक्षा से लेकर कोचिंग तक देश में गैरबराबरी इतना राज कर रही है, तो फिर गरीब बच्चों के लिए गुंजाइश ही कहां रह जाती है। और अब यह सिलसिला वापिस लौटते दिख भी नहीं रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)