संपादकीय
छत्तीसगढ़ में नई भाजपा सरकार ने नक्सल मोर्चे पर जो पहल की है, वह देखने लायक है। उपमुख्यमंत्री और प्रदेश के गृहमंत्री विजय शर्मा पहली बार विधायक और मंत्री बने हैं, और उन्होंने अपने शुरूआती इंटरव्यू से ही नक्सलियों से शांतिवार्ता का इरादा जाहिर किया था। बाद में वे लगातार कुछ और मौकों पर भी इस बात को दुहराते रहे, और यह भी कहते रहे कि नक्सली अगर वीडियो कॉल पर भी बात करना चाहते हैं, तो वे इसके लिए भी तैयार हैं। लेकिन इसके साथ-साथ बस्तर के नक्सल मोर्चे पर लगातार सुरक्षा बलों की कार्रवाई भी जारी है, और इस सरकार ने पिछले कुछ महीनों में ही सौ से अधिक नक्सली मारने में कामयाबी पाई है। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि इतनी मुठभेड़ों में सुरक्षा बलों को बहुत कम नुकसान पहुंचा है। यह बात जरूर है कि एक मुठभेड़ ऐसी हुई है जिसमें चार बेकसूर ग्रामीणों को मुठभेड़ के बीच गोलियां लगी और वे मारे गए, लेकिन पुलिस उन्हें नक्सली बता रही है। नक्सली अपने लोगों के मारे जाने पर खुलकर इस बात को मंजूर करते आए हैं कि मारे गए लोग उनके थे, लेकिन अभी 30 अप्रैल को हुई मुठभेड़ में मारे गए लोगों में चार को नक्सलियों ने अपना न होना बताया है, और अनगिनत मीडिया कैमरों के सामने इन चारों के परिवार ने भी यही बात कही है। अगर राज्य सरकार सचमुच ही नक्सल मोर्चे को शांत करना चाहती है, तो मुठभेड़ में नक्सलियों को खत्म करने के साथ-साथ उसे बेकसूर ग्रामीणों की मौत पर सच को मंजूर भी करना होगा, और इनके परिवारों को मुआवजा भी देना होगा। आज किसी बेकसूर आदिवासी को नक्सली करार दे देने से सरकार उनके परिवार को कोई भी मुआवजा देने से बच जाती है। ऐसी नौबत में लोगों का भरोसा सरकार पर नहीं रहेगा, और नक्सलियों से बातचीत में भी ऐसी मौतें एक रोड़ा रहेंगी।
आज इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत इसलिए लग रही है कि गृहमंत्री विजय शर्मा ने कहा है कि राज्य में नक्सल-पुनर्वास नीति फिर से बनाई जा रही है, और इसके लिए राज्य सरकार ने इंटरनेट पर तमाम लोगों से राय मांगी है कि पुनर्वास कैसा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि नक्सली भी अपने सुझाव दे सकते हैं कि वे किन शर्तों पर आत्मसमर्पण करके लोकतंत्र की मूलधारा में आना चाहेंगे। इसके कुछ दिन पहले राज्य सरकार ने यह भी कहा था कि नक्सली प्रदेश के जिस शहर में पुनर्वास चाहेंगे, उन्हें वहां मकान दिया जाएगा। यह बात देश में पहली बार ही हो रही है कि नक्सलियों से भी यह पूछा जा रहा है कि वे किस तरह का पुनर्वास चाहते हैं। नए गृहमंत्री का यह रूख पिछली कई सरकारों के रूख से बिल्कुल ही अलग है। राज्य ने अब तक चार मुख्यमंत्री देखे हैं, और किसी भी सरकार का रूख नक्सल पुनर्वास को लेकर, शांतिवार्ता को लेकर इतना सकारात्मक नहीं रहा है। अब यह एक अलग बात है कि यह सरकार अपनी इन घोषणाओं को लेकर सचमुच ही इतनी ईमानदार है, या इसके पीछे कोई राजनीति भी है। चूंकि मुख्यमंत्री और गृहमंत्री लगातार एक सरीखी बात कर रहे हैं, और नक्सल मोर्चे पर सुरक्षा बलों की अभूतपूर्व और ऐतिहासिक कामयाबी के बाद भी शांतिवार्ता की बात पर कायम हैं, इसलिए हम पहली नजर में इसे सरकार का ईमानदार रूख ही मान रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत की जमीन तैयार करने के लिए इन दोनों पक्षों से परे के लोग क्या कर सकते हैं? बस्तर का पिछले 25 बरस का इतिहास बताता है कि जब-जब वहां कोई अपहरण हुआ, या नक्सलियों और सरकार के बीच किसी भी तरह की अघोषित बातचीत की नौबत आई, ऐसे तमाम मौकों पर बस्तर में काम कर रहे पत्रकारों ने बड़ा योगदान दिया है। जब राज्य के एक आईएएस अफसर और नक्सल प्रभावित जिले सुकमा के कलेक्टर का अपहरण हुआ था, तब भी बातचीत का सिलसिला शुरू करवाने में और कलेक्टर की रिहाई में स्थानीय पत्रकार सक्रिय थे। राज्य में उस वक्त भाजपा की सरकार थी, और नक्सलियों और राज्य शासन दोनों की आम सहमति से कुछ अफसरों और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक कमेटी बनी थी जिसकी कई बैठकें हुई थीं, और बहुत से बेकसूर आदिवासियों को छुड़वाने, उनके मुकदमे खत्म करवाने की शर्त पर इस आईएएस की रिहाई हुई थी। उस कमेटी का इस्तेमाल इस रिहाई के साथ ही खत्म कर दिया गया था, जबकि बातचीत जिस हद तक पहुंच गई थी, उसे नक्सल आंदोलन खत्म करने के लिए शांतिवार्ता में तब्दील किया जा सकता था। पता नहीं क्यों मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और उनके अफसरों ने, केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार ने, किसी ने भी उस बातचीत को शांतिवार्ता तक ले जाने की जहमत नहीं उठाई, वरना आज जिस तरह विष्णु देव साय की सरकार, और इसके गृहमंत्री विजय शर्मा लगातार शांतिवार्ता और नक्सल-पुनर्वास की बात जिस तरह से कर रहे हैं, वैसी बात अगर उस समय हुई होती तो हो सकता है कि उसके बाद से अब तक की हजारों नक्सलियों, सुरक्षा कर्मचारियों, और ग्रामीणों की मौत टल सकती थी।
खैर, जब जागे, तभी सबेरा। राज्य सरकार को इसी सक्रियता और गंभीरता से नक्सलियों से बातचीत की पहल जारी रखना चाहिए। हमारा मानना है कि दोनों ही पक्षों को बातचीत के लिए किसी तरह की शर्त नहीं रखना चाहिए, वरना पहले कभी-कभी इस बुनियादी बात पर ही शांतिवार्ता की चर्चा खत्म हो गई कि पहले बस्तर से सुरक्षा बलों को हटाया जाए, या पहले नक्सली अपने हथियार डालें। अब यह जाहिर है कि ये दोनों ही पक्ष अपना-अपना एजेंडा लेकर काम कर रहे हैं, और यह सिलसिला जारी रह सकता है, लेकिन साथ-साथ बातचीत की पहल भी शुरू हो सकती है। इसके लिए ऐसी नामुमकिन या नामंजूर बातों को नहीं उठाना चाहिए जिससे कि बात न हो सके। गृहमंत्री विजय शर्मा का यह मानना ठीक है कि सिर्फ मुठभेड़ से नक्सल समस्या हल नहीं हो सकती, और वे बड़े मौलिक तरीकों से इसे सुलझाने में लगे हैं, जो कि अपने किस्म की पहली ऐसी कोशिश है। आज जिन लोगों की इन दोनों तबकों से किसी तरह की बात होती है, उन्हें भी अपने रिश्तों और असर का इस्तेमाल बातचीत शुरू करवाने में करना चाहिए। इसमें कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, या पत्रकार हो सकते हैं। यही असली लोकतंत्र है जिसमें सरकार बंदूकों की अपनी तमाम ताकत, और अपने अधिकारों के बावजूद किसी हथियारबंद आंदोलन को खत्म करवाने के लिए बातचीत का सिलसिला भी शुरू करना चाहती है। आज नक्सलियों को भी चाहिए कि अपनी लोकतांत्रिक मांगों को लेकर वे सरकार के साथ बैठें, और हिंसा का रास्ता छोडऩे के लिए बातचीत शुरू करें। आज यह बात अच्छी तरह स्थापित और साबित हो चुकी है कि भारत की केन्द्र और राज्य की सरकारों की मिलीजुली ताकत के सामने किसी हथियारबंद आंदोलन के कामयाब होने की कोई संभावना नहीं है। इस हकीकत को समझते हुए नक्सलियों को आदिवासियों के हित में तमाम किस्म की लोकतांत्रिक मांगें सामने रखना चाहिए, और उन्हें लोकतंत्र की मूलधारा में जिस हद तक भी राजनीतिक भूमिका मंजूर हो, उसे करना चाहिए। हथियारबंद आंदोलनों का अब भारत जैसे देश के भीतर कोई भविष्य नहीं है। यह मौका देश की तमाम लोकतांत्रिक ताकतों की मध्यस्थता का भी है कि वे छत्तीसगढ़ सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत के लिए जमीन तैयार करें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)