संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बच्चों में जुर्म और आत्मघाती हिंसा घटाने का क्या तरीका?
25-May-2024 7:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बच्चों में जुर्म और आत्मघाती हिंसा घटाने का क्या तरीका?

इन दिनों नाबालिगों के बीच दूसरों के साथ हिंसा, और आत्मघाती हिंसा, इन दोनों ही मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। जुर्म करने के मामले में बहुत से नाबालिग बच्चे या किशोर बड़ी रफ्तार से आगे बढ़े हैं, और भारतीय समाज है कि इस रूख को अनदेखा कर रहा है। अब कल की ही घटना है, छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक गांव में रहने वाले 11 बरस के बच्चे ने नाना-नानी के घर से 21 सौ रूपए निकाल लिए थे, इस पर उसे डांटा गया, और उसने गांव की ही स्कूल में जाकर फांसी लगा ली। ऐसा कई मामलों में हुआ है, कहीं भाई-बहन का मोबाइल फोन को लेकर झगड़ा हुआ, और किसी एक ने फांसी लगा ली, या दूसरे का कत्ल कर दिया। कुछ ऐसे मामले पिछले महीनों में सामने आए हैं जिसमें घर के भीतर ही बच्चों ने कोई पोर्न फिल्म देखकर परिवार की ही लडक़ी से बलात्कार किया। पसंद का मोबाइल फोन न मिलने पर खुदकुशी करने वाले कुछ बच्चे भी दर्ज हुए हैं। अब इन मामलों में, परिवार, समाज, और सरकार क्या कर सकते हैं? या तो आज की तरह इसे अनदेखा कर सकते हैं, और इसे पुलिस, अदालत, जेल, या सुधारगृह का मामला मानकर भूल सकते हैं, या फिर आगे ऐसी वारदातों में कमी आए, उसके लिए भी कुछ कर सकते हैं। 

दुनिया में वही देश सभ्य और विकसित माने जा सकते हैं जो अपने बच्चों की फिक्र करते हैं। और जब बच्चे आत्मघाती हो रहे हैं, तो यह जाहिर है कि उनके भीतर तनाव, निराशा, कुंठा का स्तर बहुत बढ़ गया है। छोटे-छोटे बच्चे अगर अपनी किसी गलती, या गलत काम पर जरा सी डांट भी सुनने को तैयार नहीं हैं, तो यह उनके भीतर सहनशीलता की कमी है। हो सकता है कि परिवार के बुजुर्ग लोगों का बोलने का लहजा किसी मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं के पैमानों पर ठीक न बैठे, लेकिन सदियों से भारतीय समाज जिस तरह की व्यवस्था पर चलते आ रहा है, उसमें अभी एक-दो दशक पहले तक बच्चों के तनाव का यह हाल नहीं था। अब तो एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब हत्या या आत्महत्या की खबरों में नाबालिगों का जिक्र न हो। और इस ताजा मामले में तो तीसरी कक्षा के बच्चे ने घर की ही डांट से खुदकुशी कर ली, तो फिर परिवार क्या बच्चों के पैसे चुराने पर भी उन्हें नहीं डांटेंगे? पिछली कई घटनाओं में बच्चों ने इम्तिहान के बीच भी मोबाइल पर खेल खेलने से रोकने पर खुदकुशी करना तय कर लिया, अब भला कौन से ऐसे मां-बाप होंगे जो कि इम्तिहान के दौरान भी बच्चों को पढऩे के लिए न बोलें? 

हम पहले भी इस तरह की आत्मघाती, या दूसरों के खिलाफ नाबालिग हिंसा के मामलों में, या परिवार के भीतर-भीतर दूसरे लोगों के भी एक-दूसरे को मार डालने के मामलों में यह कहते आए हैं कि भारत में अधिक मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं की जरूरत है। यहां पर दरअसल धार्मिक आस्था, और अंधविश्वास की वजह से मनोविज्ञान को कोई महत्व दिया नहीं जाता। लोग ताबीज को अधिक असरदार मानते हैं, झाड़-फूंक के वीडियो दिखते हैं, और कई किस्म के बाबा देश के अलग-अलग इलाकों में मनोरोगियों के साथ तरह-तरह की नाटकीय हरकतें करते हुए उन पर से भूत-प्रेत हटाने का पाखंड करते दिखते हैं। जब देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा ताबीज और झाड़-फूंक से या किसी बाबा के हाथों पिटकर ठीक होने को तैयार बैठा है, तो सरकार को भी मनोचिकित्सकों और परामर्शदाताओं की जरूरत नहीं लगती है। आज देश के शहरी इलाकों में जहां पर ये विशेषज्ञ मौजूद भी हैं, वहां भी लोग धड़ल्ले से पाखंडियों के पास जाते हैं, और अंधविश्वास से आस्था-चिकित्सा पाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के ऐसे देशों के लिए आस्था-चिकित्सा को मान्यता दी है जहां पर डॉक्टरी सहूलियत हासिल नहीं है, लेकिन अपने आपको विकसित देश करार देने वाला हिन्दुस्तान भी आज 21वीं सदी में जादू-टोने और तांत्रिकों के सहारे मनोरोगियों का इलाज करते हुए शर्मिंदगी महसूस नहीं करता है। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बहुत बार यह लिख चुके हैं कि देश में मनोवैज्ञानिक पढ़ाई के माध्यम से परामर्शदाता तैयार करने का काम करना चाहिए, और इसके लिए विश्वविद्यालयों में बड़े पैमाने पर कोर्स चलाने चाहिए, और जिस तरह स्कूली शिक्षकों के लिए बीएड जैसे कोर्स अनिवार्य किए गए हैं, उसी तरह उनके लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श का कोर्स भी जरूरी करना चाहिए, और धीरे-धीरे सरकार हर स्कूल में ऐसे कम से कम एक-दो शिक्षक नियुक्त कर सकती है जिससे हिंसा के स्तर से नीचे की परेशानी वाले बच्चों को भी मदद मिल सके। जिन बच्चों का बचपन मानसिक जख्मों से गुजरा रहता है, वे बड़े होने पर भी मानसिक समस्याओं के शिकार रहते हैं। इसलिए अगर उन्हें बचपन में ही परेशानियों से मुक्ति मिल सके, तो उनका बचपन भी अधिक स्वस्थ रहेगा, और बड़े होने पर भी वे बेहतर दिल-दिमाग वाले होंगे। लेकिन पता नहीं क्यों सरकारों को मनोवैज्ञानिक परामर्श का महत्व नहीं आता, और न ही उसकी जरूरत लगती है। परामर्श की पढ़ाई को एक अतिरिक्त योग्यता मानकर ऐसे शिक्षकों को कोई अतिरिक्त भत्ता भी दिया जा सकता है, और स्कूली बच्चों के साथ-साथ उनके मां-बाप की उलझनें भी सुलझाई जा सकती हैं, क्योंकि परिवारों के तनाव सुलझे बिना बच्चों को पूरी तरह तनावमुक्त नहीं किया जा सकता। 

अभी तो समाज के अधिकतर बच्चों को हासिल सरकारी स्कूलों में बुनियादी पढ़ाई का भी हाल बहुत खराब है, खेलकूद की गुंजाइश नहीं सरीखी है, ऐसे में परामर्श की सुविधा की हमारी सलाह हो सकता है कि हकीकत से वाकिफ लोगों को एक बकवास लगे। लेकिन हमारा मानना है कि मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं को अलग से नियुक्त न भी करके अगर शिक्षकों में से ही लोगों को एक या दो साल के कोर्स करवाए जाएं, तो भी बिना किसी लंबे-चौड़े खर्च के बच्चों की मदद हो सकती है, और आम हिन्दुस्तानियों के लिए स्कूलों में ऐसी मदद मिलना ही उनकी जरूरत पूरी कर सकता है। जिस रफ्तार से बच्चों में जुर्म बढ़ रहे हैं, हिंसा और सेक्स में बढ़ोत्तरी हो रही है, उन सबको एक-एक घटना मानकर उस पर पुलिस कार्रवाई से बीमार समाज का कोई भी इलाज नहीं हो रहा, इसे एक बड़ी समस्या मानने के बाद ही उसके समाधान का सफर शुरू हो सकेगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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